मेरे बारे में

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (2)

  द्वितीय पाठ
{प्रकाशकीय:  १८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।}
इस योग का नाम अष्टांग योग ‘eightfold Yoga’ है, क्योंकि इसको प्रधानतः आठ भागों में विभक्त किया गया है। वे हैं -” यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान और समाधी! " 
प्रथम- यम। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभ्यास है और मनुष्य का सारा जीवन इसके द्वारा शासित होना चाहिये। इसके पाँच विभाग हैं -सत्य,अहिंसा,ब्रह्मचर्य,आस्तेय और अपरिग्रह।
१. सत्य - मन,कर्म और वचन की पूर्ण सत्यता।
२. अहिंसा -मन,कर्म, वचन से किसी की हिंसा न करना।
३. ब्रह्मचर्य - मन,कर्म, और वचन की पवित्रता।
४. आस्तेय - चोरी का आभाव, मन,कर्म,वचन से लोभ न करना, बिना पूछे दूसरे की वस्तु न लेना।
५. अपरिग्रह - किसी से कोई उपहार लेने की इच्छा भी नहीं रखना। (Non-receiving of gifts.)  
द्वितीय- नियम। इसके भी पाँच विभाग हैं-शौच,संतोष,तपः,स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधानम्।
१. शौच- अंतर और बाहर की शुद्धता, नित्य स्नान-शरीर मन को सवच्छ रखना।
२. संतोष - जो भी मिल जाय उतने में संतुष्ट रहना, परिमित आहार।
३. तपः - कुछ शारीरक-कष्ट सहने के लिये तैयार रहना।
४. स्वाध्याय - नित्य सद्ग्रन्थों का पाठ करना या स्वामीजी को पढ़ना।
५. ईश्वर-प्रणिधान - इस सृष्टि को बनाने वाला कोई है या नहीं, इसके अनुसन्धान में लगे रहना।
तृतीय- आसन। मेरुदण्ड के उपर जोर न देकर कमर,गरदन और सिर सीधा रखना। 
चतुर्थ- प्राणायाम। प्राणवायु अथवा जीवन-शक्ति को वशीभूत करने के लिये श्वास-प्रश्वास का संयम।
पंचम- प्रत्याहार। मन को अन्तर्मुख करना तथा उसे बहिर्मुख होकर इन्द्रिय-विषयों में जाने से खींचकर भीतर लाना और जड़-तत्व (शरीर-मन-बुद्धि आदि चेतन द्रष्टा या आत्मा से कैसे भिन्न हैं?) को समझने के लिये उसे मन में घुमाना, अर्थात उस पर बार बार विचार करना।   
षष्ठ- धारणा। शरीर के भीतर किसी एक स्थान पर- (ह्रदय में) ध्यान केन्द्रित करना।
सप्तम- ध्यान।
अष्टम- समाधी: ज्ञानालोक, हमारी समस्त साधना का लक्ष्य ! हमें यम-नियम का अभ्यास जीवन पर्यन्त करना चाहिये। जहाँ तक दूसरे अभ्यासों का संबन्ध है, हम ठीक वैसा ही करते हैं, जैसा कि जोंक बिना दूसरे तिनके को दृढ़तापूर्वक पकड़े पहलेवाले को नहीं छोड़ती है। दूसरे शब्दों में हमें अपने पहले कदम को भली-भाँति समझकर अभ्यास कर लेना है और तब दूसरा उठाना है। 
इस पाठ का विषय प्राणायाम अर्थात प्राण का नियमन है। राजयोग में 'प्राणवायु' चित्त-भूमि (psychic plane) में प्रविष्ट होकर हमें आध्यात्मिक राज्य में ले जाती है। यह समस्त देहयंत्र की मुख्य फ्लाइवील है। प्राण प्रथम फेफड़ा (lungs या फुफ्फुस) पर क्रिया करता है, फेफड़ा ह्रदय को प्रभावित करते हैं, ह्रदय रक्त-प्रवाह को और वह क्रमानुसार मस्तिष्क तथा तथा मस्तिष्क मन पर क्रिया करता है। जिस प्रकार इच्छा बाह्य संवेदन उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बाह्य संवेदन इच्छा-शक्ति (will ) या संकल्प शक्ति को जाग्रत कर देता है।
अभी हमारी संकल्प-शक्ति दुर्बल है, हम जड़-पदार्थों (शरीर-मन-इन्द्रिय) के इतने बंधन में हैं, कि हम अपनी ‘संकल्प-शक्ति के महा-तेज’ से परिचित नहीं हैं। हमारी अधिकांश क्रियायें बाहर से भीतर की ओर होती हैं। बाह्य प्रकृति हमारे आन्तरिक साम्य को नष्ट कर देती है, किन्तु जैसा कि हमें चाहिये, हम उसके साम्य को नष्ट नहीं कर पाते। किन्तु यह सब भूल है, वास्तव में प्रबलतर शक्ति तो भीतर की शक्ति है। वे ही महान संत और आचार्य (या नेता) हैं, जिन्होंने अपने भीतर के मनोराज्य को जीता है। और इसी कारण उनकी वाणी में इतनी शक्ति (ओजस्वीता) होती है।
एक ऊँची मीनार पर बंदी किये गये एक मंत्री की कहानी है (१/५४-५५)। वह अपनी पत्नी के प्रयत्न से मुक्त हुआ। पत्नी एक लंबी रस्सी, सुतली, पतले से धागे का और रेशम के धागे का बंडल, एक भौंरा (beetle), और मधु लायी थी। 
यह रूपक इस बात को स्पष्ट करता है कि किस प्रकार हम रेशमी धागे की भाँति प्रथम प्राणवायु का नियमन करके अन्त में एकाग्रता रूपी रस्सी को पकड़ सकेंगे, जो हमें देहरूपी कारागार से निकल देगी और हम मुक्ति प्राप्त करेंगे। मुक्ति प्राप्त कर लेने पर उसके हेतु प्रयुक्त साधनों का हम परित्याग कर सकते हैं। 
प्राणायाम के तीन अंग हैं :१. पूरक-श्वास लेना। २. कुम्भक- श्वास रोकना। ३. रेचक -श्वास छोड़ना।
मस्तिष्क में से होकर मेरुदण्ड के दोनों ओर बहनेवाले दो शक्ति-प्रवाह हैं, जो मूलाधार में एक दूसरे का 
अतिक्रमण करके मस्तिष्क में लौट आते हैं। इन दोनों में से एक का नाम ‘सूर्य’ (पिंगला) है, जो मस्तिष्क के बायें गोलार्ध से प्रारंभ होकर मेरुदण्ड के दक्षिण पार्श्व में मस्तिष्क के आधार (सहस्रार) पर एक दूसरे को लांघकर पुनः मूलाधार पर अंग्रेजी के आठ ‘8’ अंक के अर्ध भाग के आकार के समान एक दूसरे का फिर अतिक्रमण करती हैं।
दूसरे शक्ति-प्रवाह का नाम ‘चन्द्र’ (इड़ा) जिसकी क्रिया उपयुक्त क्रम के ठीक विपरीत है और जो इस आठ ‘8’ अंक को पूर्ण बनती है। हाँ, इसका निम्न भाग उपरी भाग से कहीं अधिक लम्बा है। ये शक्ति-प्रवाह दिन-रात गतिशील रहते हैं, और विभिन्न केन्द्रों में, जिन्हें हम ‘चक्र’ (स्नायुजाल plexuses) कहते हैं, बड़ी बड़ी जीवनी शक्तियों का संचय किया करते हैं। पर शायद ही हमें उनका ज्ञान हो। एकाग्रता द्वारा हम उनका अनुभव कर सकते हैं और शरीर के विभिन्न अंगों में उनका पता लगा सकते हैं। इस श्वास-क्रिया के साथ, ‘सूर्य’ और ‘चन्द्र’ का शक्ति प्रवाह घनिष्ट रूप से संबद्ध है, और इसके नियमन द्वारा हम शरीर पर नियंत्रण प्राप्त कर लेते हैं।
कठोपनिषद (१/३/३-५) में शरीर को रथ, मन को लगाम, इंद्रियों को घोड़े, विषय को पथ और बुद्धि को सारथी कहा गया है। इस रथ में बैठी हुई आत्मा रथी है। यदि रथी समझदार नहीं है और सारथी से घोड़ों को नियंत्रित नहीं करा सकता तो, वह कभी भी अपने ध्येय तक नहीं पहुँच सकता। अपितु, दुष्ट अश्वों के समान इन्द्रियाँ उसे जहाँ चाहेंगी, खिंच ले जायेंगी। यहाँ तक कि उसकी जान भी ले सकती है।

ये दो शक्ति-प्रवाह सारथी (मन) के हाथों में रोकथाम के हेतु लगाम हैं; और अश्वों (इंद्रियों) को अपने वश में करने के लिये उसे इनके उपर नियंत्रण करना आवश्यक है। हमें नीतिपरायण होने की शक्ति प्राप्त करनी ही होगी। जब तक हम उसे प्राप्त नहीं कर लेते, हम अपने कर्मों को नियंत्रित नहीं कर सकते। नीतिशिक्षाओं (यम-नियम) को कार्यरूप में परिणत करने की शक्ति हमें केवल योग से ही प्राप्त हो सकती है। नैतिक मनुष्य होना योग का उद्देश्य है। जगत के सभी बड़े बड़े आचार्य (मानव-जाति के नेता) योगी थे और उन्होंने प्रत्येक शक्ति-प्रवाह को वश में कर रखा था। योगी इन दोनों प्रवाहों को मेरुदण्ड के तले में संयत करके उनको मेरुदण्ड के भीतर के केन्द्र से होकर परिचालित करते हैं। तब ये प्रवाह ज्ञान के प्रवाह बन जाते हैं। यह स्थिति केवल, योगी की ही होती है। 
प्राणायाम की द्वितीय शिक्षा : प्राणायाम की एक ही पद्धति सभी के लिये नहीं है। प्राणायाम का लयपूर्ण क्रमबद्धता (Rhythmic Regularity) के साथ होना आवश्यक है, और इसकी सबसे सहज विधि ‘easiest way is by counting’ है गणना। चूँकि यह (गणना या जप) पूर्णरूपेण यंत्रवत हो जाती है, हम इसके बजाय एक निश्चित संख्या में पवित्र मंत्र ‘ॐ’ का जप करते हैं।(गुरु के निर्देशानुसार सावधानी नहीं रखने से दिमाग बिगड़ भी सकता है। इसीलिये सद्गुरु के निर्देशानुसार १०८ की माला में नाम-जप करना, प्राणायाम की सबसे सरल पद्धति है,)
प्राणायाम की क्रिया इस प्रकार है : दायें नथुने को अंगूठे से दबाकर चार बार ‘ॐ’ का जप करके धीरे धीरे बायें नथुने से श्वास लो।
तत-पश्चात्, बायें नथुने पर तर्जनी रखकर दोनों नथुनों को कसकर बन्द कर दो और ‘ॐ’ का मन ही मन आठ बार जप करते हुए श्वास को भीतर रोके रहो। पश्चात, अंगूठे को दाहिने नथुने से हटाकर चार बार ‘ॐ’ का जप करते हुए उसके द्वारा श्वास को बाहर निकालो।
जब श्वास बाहर हो जाये, तब फेफड़े या फुफ्फुस से समस्त वायु निकालने ने के लिये पेट को दृढ़तापूर्वक संकुचित करो। फिर बाएं नथुने को बंद करके चार बार ‘ॐ’ का जप करते हुए दाहिने नथुने से श्वास भीतर ले आओ। इसके बाद दाहिने नथुने को अँगूठे से बंद करो और आठ बार ‘ॐ’ का जप करते हुए श्वास को श्वास को भीतर रोको। फिर बाएं नथुने को खोलकर चार बार ‘ॐ’ का जप करते हुए पहले की भाँति पेट को संकुचित करके धीरे धीरे श्वास को बाहर निकालो। इस सारी क्रिया को प्रत्येक बैठक में दो बार दुहराओ अर्थात प्रत्येक नथुने के लिये दो के हिसाब से चार प्राणायाम करो। प्राणायाम के लिए बैठने के पूर्व सारी क्रिया प्रार्थना से प्रारंभ करना अच्छा होगा। एक सप्ताह तक इस अभ्यास को करने की आवश्यकता है।
फिर धीरे धीरे श्वास-प्रश्वास की अवधि को बढ़ाओ, किन्तु अनुपात वही रहना चाहिये। अर्थात तुम यदि श्वास भीतर ले जाते समय छः बार 'ॐ' का जप करते हो, तो उतना ही श्वास बाहर निकलते समय भी करो, और कुम्भक के समय बारह बार करो। इन अभ्यासों के द्वारा हम और अधिक पवित्र, निर्मल और आध्यात्मिक होते जायेंगे। किसी कुमार्ग में जाने (??) से अथवा कोई सिद्धि (??) की चाह से बचे रहो।
प्रेम ही एक ऐसी शक्ति है, जो चिरकाल तक हमारे साथ रहती है और बढ़ती जाती है। राजयोग के द्वारा ईश्वर को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से सबल होना आवश्यक है। अपना प्रत्येक कदम इन बातों को ध्यान में रखकर ही बढ़ाओ।
लाखों में कोई बिरला ही कह सकता है, “ मैं इस संसार के परे जाकर ईश्वर का साक्षात्कार करूँगा।” शायद ही कोई 'सत्य' के सामने खड़ा हो सके! (??) किन्तु अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये हमें मरने (??) के लिये भी तैयार रहना पड़ेगा।
==============



" राजयोग पर छः पाठ " -स्वामी विवेकानन्द (1)

" राजयोग पर छः पाठ  "

(१)
प्रकाशकीय: 
१८९५ में श्रीमती सारा सी. बुल के निवास-स्थान पर, अमेरिका में  उनके अमेरिकी शिष्यों के लिये आयोजित एक ‘चरित्र-निर्माण कारी प्रशिक्षण शिविर‘ में स्वामी विवेकानन्द  द्वारा दिए गए वर्ग-वार्ता के नोटों पर यह रचना आधारित है।    
जिन्हें स्वयं श्रीमती बुल ने लिपिबद्ध कर लिया था और बहुत संभाल कर रखा था। इन भाषणों को बाद में, सन् १९१३  में अन्य भक्तों एवं श्रद्धालु व्यक्तियों के बीच निजी वितरण के लिये एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।
Sara Bull
स्वामी विवेकानन्द की 'अमेरिकी माता' : श्रीमती सारा सी. बुल (१८५०-१९११) जिन्हें भी संत सारा (‘Sara Chapman Bul या Saint Sara) के रूप में भी जाना जाता है। इनके बचपन का नाम ‘सारा चैप्मन थोर्प’ था। उनके पिता ऑनरेबल जोसफ जी. थॉर्प, एक धनाढ्य काष्ठ-व्यापारी-लंबरमैन—ही नहीं, अपने नगर ‘मेडिसन’ के स्टेट सेनेटर भी थे। उस समय उनका भवन, राजसी प्रासाद माना जाता था—‘मेडिसन’ का सर्वश्रेष्ठ भवन। ‘यैंकी हिल’ का यह विशाल भवन नगर के सामाजिक जीवन का सर्वस्वीकृत केंद्र था। वहाँ साहित्य, नाट्य, संगीत, दर्शन, अध्यात्म तथा ऐसे क्षेत्रों से संबंधित होने वाले सम्मेलनों तथा विराट भोजों के निमंत्रणों की, नगर में बड़ी माँग थी। इनका विवाह नार्वे के एक विधुर प्रसिद्द वायलिन वादक ‘श्री ओले बुल’ से हुआ था।
स्वामी विवेकानन्द से सारा की पहली मुलाकात १८९४ के वसंत में हुई थी। वे उनके आचरण और चरित्र को देखकर बहुत प्रभावित हुई थीं। तथा स्वामीजी के ज्ञान की गहराई को उन्होंने देखते ही पहचान लिया था, क्योकि वह स्वयं भी अत्यन्त आध्यात्मिक महिला थीं। सारा, विवेकानन्द की मासूमियत और दुनियावी तौर-तरीकों की कमी को देखकर अतिप्रभावित हुई थीं, जो उनके दिवंगत पति के तौर-तरीके से काफी मिलता-जुलता था। कुछ ही दिनों बाद विवेकानंद उनके भारतीय "पुत्र" और ‘गुरु’ बन गये थे। विवेकानंद भी  सारा बुल को अपनी ‘अमेरिकी माँ’ समझते थे और उन्हें ‘धीरा-माता’ (प्रशान्त मां calm mother) कहकर बुलाते थे।  
सारा से मिलने के पहले स्वामीजी जब अपने व्याख्यानों में भारत को एक उन्नत राष्ट्र के रूप निर्मित करने की योजनाओं का उल्लेख करते थे, तो वहाँ के लोग उसमें सहयोग करने के लिये धन देना चाहते थे। किन्तु उन्हें रखने के लिये उनके पास कोई पर्स (बटुआ) नहीं था। इसलिये वे उन पैसों को एक एक रूमाल में बांध लेते थे, और एक छोटे लड़के की तरह बड़े गर्व के साथ, उन्हें रखने के लिये, अपनी अमेरिकी माता और होस्टिस की गोद में डाल देते थे। १८९५ की गर्मियों में, उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को अपने घर पर मेहमान होने के लिये आमंत्रित किया, तथा अपने एक अन्य मित्र प्रोफेसर विलियम जेम्स को भी विवेकानन्द से मिलने के लिये आमंत्रित किया। संत सारा का देहान्त 1911 में हुआ, लेकिन मृत्यु के पहले ही, उन्होंने लगभग यूएस $ 500,000 मूल्य की अपनी समस्त सम्पत्ति ‘वेदांत सोसाइटी’ के लिए समर्पित कर दिया था।
स्वामी विवेकानन्द सिस्टर क्रिस्टीन को लिखे पत्र में कहते हैं, ” …मैं चाहता हूँ कि तुम श्रीमती बुल को जानो, अगर कभी कोई सन्त हुई हों, तो वे एक सन्त हैं, बिल्कुल सच्ची सन्त है! फिर एक दूसरे पत्र में, जब क्रिस्टीन श्रीमती सारा बुल के साथ उनके निवास पर थीं, उनको लिखा था," वे एक महान, अत्यन्त महान महिला हैं, जिनका दर्शन करना भी एक तीर्थ करने जैसा है।” 
स्वामी विवेकानन्द की जीवनकथा पर आधारित उपन्यास ‘ तोड़ो, कारा तोड़ो ‘ के लेखक श्री नरेन्द्र कोहली ने अपनी पुस्तक में ‘संत सारा’ के विषय में लिखते हैं- “ सत्रह वर्षों की सारा थॉर्प, …. संगीत से प्रेम करती थी। संगीत सुनते ही जाने उसे क्या हो जाता था। वह उसकी लहरियों पर बैठ किसी आलौकिक संसार में जा पहुँचती थी। अपनी माँ के साथ ओली बुल के कंसर्ट में आई थी। सत्तावन वर्ष के ओली बुल नार्वे के प्रसिद्ध वायलनवादक थे। .… वह युवाओं से अनभिज्ञ नहीं, असंतुष्ट थी। उनका लालसामय संसार उसे कभी भी आकर्षक नहीं लगा था। उस कंसर्ट के तीन वर्षों के पाश्चात् ऐसे ही एक समारोह में, बीस वर्षीय सेरा की भेंट, साठ वर्षीय विधुर ओली बुल से हुई। सारा के पिता इस विवाह के विरुद्ध थे, इसलिये सारा और ओले ने,जून १८७० में चुपके से शादी कर ली थी। सारा की बेटी ‘ ओलिया ‘ का जन्म मार्च १८७१ में हुआ था।www.vivekananda.net is published and edited by Frank Parlato Jr. --Ed.) 
=======

प्रस्तावना  

Vivekananda as shiva
संसार के अन्य विज्ञानों की भाँति राजयोग भी एक विज्ञान है। यह विज्ञान मन का विश्लेषण तथा इन्द्रियातीत जगत (super-sensuous world) के तथ्यों का संकलन करता है, और इस प्रकार अध्यात्मिक जगत का निर्माता है।  संसार के सभी महान उपदेष्टाओं ने कहा है, “हमने देखा और जाना है। ” ईसा, पॉल और पीटर सभी ने जिन सत्यों की शिक्षा दी, उनका प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने का दावा किया है। यह प्रत्यक्ष-अनुभव (perception) योग के द्वारा ही प्राप्त होता है।  
हमारे अस्तित्व की सीमा केवल चेतना  अथवा स्मृति ही नहीं हो सकती। इससे भिन्न एक तुरीय या अतिचेतन भूमिका (super-conscious) भी है। इस अवस्था में और सुषुप्ति दोनों अवस्थाओं में इन्द्रियबोध नहीं प्राप्त होता। किन्तु इन दोनों के बीच ज्ञान और अज्ञान जैसा आकाश-पाताल का भेद है। जिस राजयोग पर हम चर्चा करने जा रहे हैं, वह ठीक विज्ञान के समान ही तर्कसंगत है।
मन की एकाग्रता ही समस्त ज्ञान का उद्भव स्थान है।
योग हमें जड़-वस्तुओं (इन्द्रिय-मन आदि) को अपना दास बनाने की शिक्षा देता है, और उसको हमारा दास होना ही चाहिये। (Yoga means "yoke", "to join",) योग का अर्थ है, जोड़ना -अर्थात जीवात्मा को परमात्मा के साथ जोड़ना, मिलाना। 
मन चेतना में और उसके अधीन कार्य करता है। हमलोग जिसे चेतना कहते हैं, वह हमारे नाम-रूपों (स्वभाव Nature) की अनन्त श्रृंखला की एक कड़ी मात्र है। (This "I" of ours covers just a little consciousness and a vast amount of unconsciousness, while over it, and mostly unknown to it, is the super-conscious plane.) हमारा यह ‘अहं’ चेतना का एक छोटा सा अंश, और अचेतनता का अति बृहत परिणाम है, जब कि उसके  परे, और उसके (अहं के) लिये अब तक लगभग अज्ञात अतिचेतन की भूमिका है।
श्रद्धाभाव से योगाभ्यास करने पर, मन हमारे सामने अपनी परतों को एक के बाद कर के खोलता जाता है, और प्रत्येक परत हमारे लिए नए तथ्यों को प्रकट करता है। हम अपने सम्मुख नये जगतों की सृष्टि होती सी देखते हैं, नयी शक्तियाँ हमारे हाथों में जाती हैं, किन्तु हमें मार्ग में ही नहीं रुक जाना चाहिये; और जब हमारे सामने हीरों की खान पड़ी हो, तो काँच दानों से हमें चौंधिया नहीं जाना चाहिये।
केवल ईश्वर ही हमारा लक्ष्य है। उनकी प्राप्ति न हो पाना ही हमारी मृत्यु है। 
सफलताकांक्षी साधक के लिये तीन बातों की आवश्यकता है।
पहली है ऐहिक और पारलौकिक इन्द्रिय भोग-वासना (काम) का त्याग और केवल भगवान और सत्य (राम) को लक्ष्य बनाना। यह मनुष्य शरीर हमें सत्य की उपलब्धि के लिये मिला है, भोग के लिए नहीं। भोग पशुओं के लिये छोड़ दो, जिनको हमारी अपेक्षा उसमें कहीं अधिक आनन्द मिलता है। मनुष्य एक विवेक-शील प्राणी है, इसीलिये अतीन्द्रिय ज्ञान के द्वारा मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेने तक उसे संघर्ष करते ही रहना चाहिये ! उसे फ़िजूल की बातचीत में अपनी शक्ति नष्ट नहीं करनी चाहिये। सामान्य समाज तथा आमलोगों की राय में पूजा का अर्थ मूर्ति (सगुण-साकार की) पूजा ही है। किन्तु आत्मा का लिंग, देश, स्थान या काल नहीं होता।
दूसरी है सत्य और भगवतप्राप्ति की तीव्र व्याकुलता। जल में डूबता मनुष्य जैसे वायु के लिये व्याकुल होता है, वैसे ही व्याकुल हो जाओ। केवल ईश्वर को ही चाहो, और किसी भी चीज में मन को उलझने मत दो, जो मिथ्या आभासी वस्तुयें हैं, उससे धोखा न खाओ। सबसे विमुख होकर केवल ईश्वर की खोज करो। 
तीसरी प्रमुख बात है- छः अभ्यास :
१. मन को बहिर्मुख न होने देना। २. इन्द्रिय-निग्रह ३. मन को अन्तर्मुख बनाना। ४. जो भी दुःख आये बिना बड़बड़ाये सब कुछ सह लेना या पूर्ण तितिक्षा। ५. मन को एक भाव (ब्रह्मचर्य) में स्थिर रखना। ध्येय (ब्रह्म रामकृष्ण) को सम्मुख रखो और निरन्तर उन्हीका चिन्तन करो। अपने को  अलग न होने दो। समय की गणना न करो।
६. अपने यथार्थ स्वरुप का सतत चिन्तन करते रहो। अंधविश्वास का परित्याग कर दो। स्वयं को मरणशील शरीर मानने के विश्वास से अपने को सम्मोहित न करो। जब तक तुम ईश्वर के साथ एकात्मकता की अनुभूति (वास्तविक अनुभूति) न कर लो, तब तक रात-दिन अपने आपसे से कहते रहो कि तुम यथार्थतः क्या हो? {‘ I am He’...‘ I am He’.}
इन साधनाओं के बिना कोई भी फल प्राप्त नहीं हो सकता।
हम ब्रह्म की धारणा कर सकते हैं, पर उसे भाषा के द्वारा व्यक्त करना असम्भव है. जैसे ही हम उसे अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, वैसे ही हम उसे सीमित बना डालते हैं और वह ब्रह्म नहीं रह जाता।
हमें इन्द्रिय-जगत की सीमाओं से परे जाना है और बुद्धि से भी अतीत होना है। ऐसा करने की शक्ति हममें है।
[ एक सप्ताह तक प्राणायाम के प्रथम पाठ का अभ्यास करने के पश्चात शिष्य को चाहिये कि वह गुरु को अपना अनुभव बताये।]

प्रथम पाठ-'3P'

इस पाठ का उद्देश्य है-व्यक्तित्व का विकास। प्रत्येक व्यक्तित्व का विकास आवश्यक है। सभी एक केन्द्र में मिल जायेंगे। ‘ कल्पना प्रेरणा और समस्त विचार का आधार है। सभी पैगम्बर, कवि और अन्वेषक महती कल्पना-शक्ति सम्पन्न थे। प्रकृति की व्याख्या हमारे भीतर है; पत्थर बाहर गिरता है, लेकिन गुरुत्वाकर्षण का नियम हमारे भीतर है, बाहर नहीं। जो अति आहार करते हैं, जो उपवास करते हैं, जो अत्यधिक सोते हैं, वे योगी नहीं हो सकते। अज्ञान, चंचलता, ईर्ष्या, आलस्य और अतिशय आसक्ति योग सिद्धि के महान शत्रु हैं। योगी के लिए तीन बड़ी आवश्यकताएं हैं-'3P':
प्रथम- पवित्रता (Purity) : शारीरिक और मानसिक पवित्रता, प्रत्येक प्रकार के मलीनता तथा मन को पतन की ओर ढकेलने वाली सभी बातों का परित्याग आवश्यक है।
द्वितीय --धैर्य (Patience) : प्रारंभ में आश्चर्यजनक दृश्य प्रकट होंगे, पर बाद में वे सब अन्तर्हित हो जायेंगे। यह सबसे कठिन समय है। पर दृढ रहो, यदि धैर्य रखोगे तो अंत में सिद्धि सुनिश्चित है।
तृतीय- अध्यवसाय (Perseverance) : सुख-दुःख, स्वास्थ्य-अस्वास्थ्य सभी दशाओं में साधना में एक दिन भी नागा न करो।
साधना का सर्वोत्तम समय दिन और रात की संधि का समय है। यह हमारे शरीर की हलचल के शान्त रहने का समय है; दो अवस्थाओं के मध्य का शून्य-स्थल है। यदि इस समय न हो सके, तो उठने के बाद और सोने के पूर्व अभ्यास करो। नित्य स्नान -शरीर को अधिक से अधिक स्वच्छ रखना आवश्यक है।  
स्नान के पश्चात बैठ जाओ। आसन दृढ रखो अर्थात ऐसी भावना करो कि तुम चट्टान की भाँति दृढ हो, कि तुम्हें कुछ भी विचलित करने में समर्थ नहीं है। कंधे, सिर और कमर एक सीध में रखो, पर मेरुदण्ड के उपर जोर न डालो, सारी क्रियाएं इसीके सहारे होती हैं, अतः इसको क्षति पहुँचाने वाला कोई कार्य नहीं होना चाहिये। 
अब अपने पैर की अँगुलियों से प्रारंभ करके अपने शरीर के प्रत्येक अंग की स्थिरता की भावना करो। अपने उस अंग को मानसिक आँखों से देखो (योग-निद्रा?), और यदि चाहो तो प्रत्येक का स्पर्श भी करो। प्रत्येक को पूर्ण अर्थात उसमें कोई विकार नहीं है, सोचते हुए धीरे धीरे उपर चल कर सिर तक जाओ। तब समस्त शरीर के पूर्ण होने के भाव का चिन्तन करो, यह सोचते हुए कि मुझे साथ का साक्षात्कार के लिये ही भगवान ने मुझे इसे एक साधन के रूप में दिया है। यह वह नौका है, जिस पर सवार होकर हमें भवसागर पार करके अनन्त सत्य के तट पर पहुँचना है।  
इस क्रिया के पश्चात अपनी नासिका के दोनों छिद्रों से एक दीर्घ श्वास लो फिर उसे बाहर छोड़ दो।  इसके पश्चात् जितनी देर तक सरलता पूर्वक बिना श्वास लिए रुक सको, रहो। इस प्रकार के चार प्राणायाम करो। और फिर स्वाभाविक रूप से श्वास लो और भगवान से ज्ञान के प्रकाश के लिए प्रार्थना करो। "I meditate on the glory of that being who created this universe; may he illuminate my mind." ‘ मैं उस सत्ता की महिमा का चिंतन करता हूँ, जिसने विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की है, वह मेरे मन को प्रबुद्ध करे।”-(गायत्री-मंत्र) बैठो और दस-पन्द्रह मिनट इस भाव का ध्यान करो।  
अपनी अनुभूतियों को अपने गुरु के अतिरिक्त और किसी को न बताओ !
यथासम्भव कम से कम बात करो।   
अपना चिन्तन इष्टदेव के सदगुणों पर एकाग्र करो; हम जैसा सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। पवित्र चिन्तन हमें अपनी समस्त मलिनताओं को भस्म करने में सहायता देता है। जो योगी नहीं है, वह अपने मन का गुलाम है ! मुक्ति-लाभ हेतु एक एक करके सभी बन्धन काटने होंगे। 
इस जगत से परे जो सत्य है, उसको प्रत्येक मनुष्य जान सकता है। यदि ईश्वर की सत्ता सत्य है, तो अवश्य ही हमें उसको एक तथ्य के रूप में अनुभव करना चाहिये और यदि आत्मा जैसी कोई सत्ता है, तो हमें उसे देखने और अनुभव करने में समर्थ होना चाहिये।
यदि आत्मा (निर्लिंग और अशरीरी) है, तो उसका साक्षात्कार करने के लिये हमें भी कुछ ऐसा बनना पड़ेगा जो शरीर नहीं है।
योगी इंद्रियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित करते हैं; ज्ञानेन्द्रियाँ (organs of sense) और कर्मेन्द्रियाँ (organs of motion) अथवा ज्ञान एवं कर्म 
अंतरिन्द्रिय या मन के चार पहलु हैं : प्रथम- मनस अर्थात मनन अथवा चिन्तन-शक्ति। इसको संयत न करने पर प्रायः इसकी समस्त शक्ति नष्ट हो जाती है। उचित पद्धति से संयम किये जाने पर यह अद्भुत शक्ति बन जाती है। द्वितीय-बुद्धि अर्थात इच्छा-शक्ति या बोध-शक्ति। तृतीय -अहंकार अर्थात आत्मचेतन अहं-बुद्धि (self-conscious egotism)। चतुर्थ- चित्त अर्थात वह तत्व, जिसके आधार और माध्यम से समस्त शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं, मानो यह मन का धरातल है अथवा वह समुद्र है, जिसमें समस्त क्रिया-शक्तियाँ तरंगों का रूप धारण किये हुए हैं।  
योग वह विज्ञान है, जिसके द्वारा हम चित्त को अनेक क्रिया-शक्तियों का रूप धारण करने अथवा उनमें रूपान्तरित होने से रोकते हैं। सरोवर में जिस प्रकार चंद्रमा का प्रतिबिम्ब तरंगों के कारण असपष्ट अथवा विच्छिन्न हो जाता है, उसी प्रकार हमारे चित्त-सरोवर के तरंगायित रहने के कारण, आत्मा अर्थात सत्स्वरूप का प्रतिबिम्ब भी विच्छिन्न हो जाता है। केवल जब सरोवर दर्पण की भाँति तरंग-शून्य होकर शान्त हो जाता है, तभी चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब दिखायी पड़ता है। उसी प्रकार जब चित्त अर्थात मन-वस्तु या "mind-stuff"- संयम के द्वारा सम्पूर्ण रूप से शांत हो जाता है, तभी स्वरुप का साक्षात्कार होता है। 
यद्दपि चित्त भी सूक्ष्मतर जड़ पदार्थ ही है, किन्तु वह शरीर नहीं है। वह शरीर के द्वारा चिरकाल तक आबद्ध नहीं रहता। यह इस बात से सिद्ध होता है, कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति कभी न कभी देहभाव से परे होने का अनुभव अवश्य करते हैं। अपनी इन्द्रियों को वशीभूत करके हम इच्छानुसार इस बात (जब चाहें तब देह से परे होने का) का अभ्यास कर सकते हैं।         
यदि हम ऐसा करने में पूर्ण समर्थ हो जाएँ, तो समस्त विश्व हमारे वश में हो जाये, क्योंकि जो कुछ हम इन पाँचों इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव करते हैं, उसी को जगत समझते हैं; क्योंकि यह जगत पंच-इन्द्रिय ग्राह्य है। इन्द्रिय-विषयों में मन को जाने से रोक लेना, या इन्द्रिय-विषयों से अबद्धता (freedom) उच्च जीवन की कसौटी है। अध्यात्मिक जीवन उस समय प्रारम्भ होता है, जिस समय तुम अपने को इन्द्रियों के बन्धन से मुक्त कर लेते हो। जो इन्द्रियों के द्वारा शासित हो रहे हैं, वही संसारी (worldly) हैं, वही गुलाम हैं (अपने मन के दास या slave हैं)। 
“ If we could entirely stop our mind-stuff from breaking into waves, it would put an end to our bodies” यदि हम अपने चित्त या “मन-वस्तु” को तरंगों का रूप धारण करने से, रोकने में पूर्ण समर्थ हो जायें (अर्थात चित्त को मन ही नहीं बनने दें, क्या है?क्या है? ही नहीं करने दें) तो हमारे शरीरों (स्थूल-सूक्ष्म और कारण को ‘मैं’ मानने के भ्रम का) का नाश हो जाता है। “ we have worked so hard to manufacture these bodies” इन शरीरों (पंच-कोष को) को तैयार करने में करोड़ों वर्षों से हमें इतना कड़ा परिश्रम करना पड़ा है, कि उसी संघर्ष में व्यस्त रहते रहते हम इस बात को बिल्कुल ही भूल चुके हैं, कि शरीर को तैयार करने के पीछे मेरा मूल उद्देश्य, तो पूर्णता-प्राप्ति था !! (अबद्धता प्राप्त करना, या जीवन-मुक्ति का आनन्द लेना)
हम सोचने लगे हैं, कि हमारी समस्त चेष्टाओं का लक्ष्य इस देह की तैयारी ‘body-making' है; या  क्रमशः उच्चतर शरीर प्राप्त करते रहना ही हमारे समस्त संघर्षों का लक्ष्य है। यही माया है। हमें इस भ्रम (देहाध्यास या Universal Error) को मिटाना होगा, और अपने मूल उद्देश्य; (ईश्वर-प्राप्ति) की ओर जाकर इस बात का अनुभव करना होगा कि- ‘we are not the body, it is our servant.’ हम शरीर नहीं हैं, यह तो हमारा दास है ! 
मन को अलग करके उसे देह से पृथक देखना सीखो। (‘ घट द्रष्टा घटात भिन्नः’ किन्तु) - ‘ We endow the body with sensation and life and then think it is alive and real.’ हम देह के उपर संवेदना और प्राण को आरोपित करते हैं और फिर सोचते हैं कि वह चेतन और सत्य है। हम इतने दीर्घकाल से यह खोल पहने हुए हैं, कि हम और देह एक नहीं है- इस सच्चाई को ही भूल जाते हैं ! योग हमें देह को इच्छानुसार अलग करने तथा उसे अपना दास, अपने साधन, न कि स्वामी, के रूप में देखने में सहायता करता है। योगाभ्यास का प्रथम प्रमुख लक्ष्य मानसिक शक्तियों का नियंत्रण करना है। दूसरा, उन्हें पूर्ण पूर्ण शक्ति के साथ किसी एक ही विषय पर केन्द्रित करना है।
यदि तुम बहुत बात करते हो, तो तुम योगी नहीं हो सकते।

-=====================-