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Wednesday, January 30, 2013

"भारतीय संस्कृति और सनातन विचारधारा" (ভারতীয় সংস্কৃতি ও সনাতন ভাবধারা) [ $$@$$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [69] (10.विश्वमानव के कल्याण में),

                                                        ।। एक ।।
इन दिनों हमलोगों के देश में जो शिक्षा व्यवस्था प्रचलित है,उसमें "भारतीय संस्कृति के सनातन सिद्धान्त" या सर्वकालिक सिद्धान्त जैसा महत्वपूर्ण विषय भी हमारे विद्यार्थियों के लिये बिल्कुल एक अपरिचित विषय बन कर रह गया है। वर्षों पहले शिक्षा के उपर बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " कोमल मति बालक पाठशाला में भर्ती होता है और सबसे पहली बात जो उसे सिखाई जाती है, वह यह कि तुम्हारा बाप मूर्ख है। दूसरी बात जो वह सीखता है, वह यह है कि तुम्हारा दादा पागल है, और हमारे जितने वेद,उपनिषद-टुपनिषद आदि हैं, उनमें झूठी और कपोल-कल्पित बातें भरी हुई हैं। इस प्रकार की नकारात्मक शिक्षा पाकर कुछ ही दिनों में वह विद्यार्थी निषेधों की गठरी बन जाता है- उसमें न जान रहती है,न रीढ़। "
उसके मन में यह बात घर कर जाती है, कि हमलोगों के पास जो कुछ था, जो है-सब बेकार है, हम भारतीय लोग अक्षम हैं,अयोग्य हैं; और विदेशियों के पास जो कुछ है सब अच्छा है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द भारतीय संस्कृति और प्राचीन सिद्धांतों 'Indian culture and ancient principles' के प्रचार-प्रसार पर विशेष जोर देते थे। इसके बावजूद वे कभी कभी ऐसी बातें भी कह देते थे, जिसे सुनकर दंग रह जाना पड़ता है। एक स्थान पर कहते हैं, " अपनी इस पीछे मुड़कर देखने वाली दृष्टि (Regressive vision) को थोड़ी देर के रोक कर सामने की ओर अपने नजरें उठाकर देखो।"
 हमलोग भी आजकल जब किसी विषय पर वार्तालाप करते है, तो चर्चा करते समय अक्सर कह देते हैं कि भुतकाल की ओर देखने से क्या मिलेगा? नये भविष्य की ओर देखो। स्वामीजी की उपरोक्त बातें भी -" छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी, नये दौर में लिखेंगे हम मिलकर नई कहानी -हम हिन्दुसतानी!" से बहुत मिलतीजुलती प्रतीत होती हैं। किन्तु क्या इसका यह अर्थ निकाला जाय कि क्या स्वामीजी ने हमें प्राचीन किन्तु अत्यन्त उत्कृष्ट विरासत की ओर देखने से भी मना कर दिया था ? नहीं, उन्होंने कभी वैसा नहीं कहा था। बल्कि उनका यह परामर्श है कि विकास या प्रगति की ओर कदम बढ़ाने 'progressive ' बनने से पहले अपने गौरवशाली अतीत को भी एक बार देख लो, फिर आगे बढ़ो ! स्वामीजी दकियानूसी तो बिल्कुल ही नहीं थे, वे भी प्रगति करने में ही विश्वास करते थे।
किन्तु इस बात को बहुत सरल तर्क देकर समझाने की चेष्टा बार बार करते थे कि हमारा 'विकास' जिसे हम कई बार 'प्रगति' कह देते हैं, वह तभी संभव है, जब हम कदम को आगे बढ़ाने के पहले अपने गौरवशाली अतीत को स्वीकार करें। क्योंकि एक अवस्था से अन्य किसी दूसरी अवस्था में पहुंचे बिना प्रगति का कोई अर्थ नहीं होता। हम कहाँ थे,और कहाँ पहुंच गये हैं ? इस बात पर गहराई से चिन्तन किये बिना,यदि हमलोग यह दावा करने लगें, कि हम तो बड़े प्रगतिशील विचार रखते हैं, इसीलिये बहुत विकास कर लिये हैं, बहुत आगे पहुँच गए ? किन्तु,जिसे हमलोग विकास या प्रगति समझ रहे हैं,उसको देखने से ऐसा प्रतीत नहीं होता। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इसको गति भी नहीं कहा जा सकता है। हमलोग किस एक स्थान में थे, वहाँ से अन्य किसी उन्नत या विकसित अवस्था की ओर जा रहे हों, तब उस गति को हम प्रगति कह सकते हैं। (किन्तु जिसको advance होना समझकर, जिस गति से जा रहे हैं, अगर उससे हमारी उन्नति नहीं होकर पतन होता हो, तो उस प्रगति को दुर्गति कहना ही ठीक होगा।)
 जो लोग यह तर्क देते हैं कि पहले कुछ था ही नहीं, वे शायद यह नहीं जानते कि शून्य से कुछ भी उत्पन्न नहीं होता है। किन्तु जो है, जिस किसी वस्तु का अस्तित्व पहले से है, उसी से कुछ उत्पन्न होता है। उसका रूपांतरण हो जाता है, या उसमें परिवर्तन हो जाता है। और जिस वस्तु में यह परिवर्तन घटित हुआ है, यदि उसको पूर्वावस्था से विकास या उन्नति की ओर ले जाता हो, तभी उसको हम तरक्की (advancement), उत्कर्ष या प्रगति कह सकते है। यदि व्यक्ति, यदि पशु-मानव से मनुष्य में रूपांतरित ही नहीं हुआ तो उसको हम प्रगति कैसे कह सकते हैं ?   
  (सूरज को धरती तरसे, धरती को चंद्रमा/ पानी में सीप जैसे प्यासी हर आत्मा/स्वाति नक्षत्र की बूँद छूपी किस बादल में?  कोई जाने ना/क्या होगा कौन से पल में कोई जाने ना)
                                                        ।। दो ।।

विश्व की प्रत्येक राष्ट्र,समाज या गोष्ठी के उत्कृष्ट जीवन की समग्रता की अपनी एक विशिष्ट आभा, चमक- दमक या दीप्ती होती है, जिसके द्वारा उसकी विशिष्टता को जीवन के जिस किसी भी क्षेत्र में अभिव्यक्त होते देखकर अथवा अपनी अनुभूति के माध्यम से पहचाना जा सकता है। इसको ही उस राष्ट्र या समुदाय की संस्कृति समझा जाता है। और उस विशिष्ट संस्कृति की छाप सबों के भीतर, इतनी प्रगाढ़ रूप से रह जाती है कि उसके समस्त सांसारिक पदार्थों के संग्रह, जीवन मूल्य,आस्था  चिन्तनधारा, संवेदनशीलता, धारणा, सामाजिक प्रथा, प्रतीक, धर्म, दर्शन, साहित्य, कला-जीवन के प्रयेक क्षेत्र में उसकी उत्कृष्ट छाप विभिन्न रूपों में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे चलती जाती है।
जिस प्रकार विभिन्न फूलों को एक धागे में पिरो कर माला बना लिया जाता है, या जिस प्रकार विभिन्न रंगों की मोतियों को एक धागे में पिरोकर मोतियों की माला बना ली जाती है, उसीप्रकार इस संस्कृति के अंतर्गत विभिन्न वस्तुओं को एक सूत्र में पिरो देने से वह एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में प्रकाशित होती है। अर्थात प्रत्येक संस्कृति की ऐसी एक विशिष्टता होती है, जो उसके समस्त अभिव्यक्तियों से पहचानी जा सकती है।
हमलोगों के देश की संस्कृति अत्यन्त प्राचीन है।यह कितनी पुरानी है, इसके उपर विद्वानों में बहुत मतभेद है। किन्तु जितना समय बीतता जाता है, इसकी प्राचीनता और अधिक होगी, इस मत को अब स्वीकार किया जा रहा है। पहले इसको 2000 वर्ष पुरानी या 3000 वर्ष पुरानी संस्कृति कहते थे। आकल के अधिकांश विद्वान् भारतीय संस्कृति को कम से कम 5000 वर्ष पुरानी तो स्वीकार करने ही लगे हैं। फिर कोई कोई तो इसको 8000 से 15000 वर्ष तक पुरानी संस्कृति भी स्वीकार करते है।
हमलोगों के देश के प्राचीन इतिहास-लेखन की परम्परा में 'राज-राजेश्वरों' के राज्य-काल के आदि-अन्त को गणना करके लिखने पर बहुत जोर नहीं दिया जाता था। क्योंकि हमारी संस्कृति में मनुष्य के जन्म-मृत्यु को कभी बहुत महत्वपूर्ण नहीं माना गया है। देश-काल,पात्र-अपात्र और जन्म-मृत्यु का अतिक्रमण करके, अमृततत्व के आस्वादन को ही हमारे इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।  इसीलिये काल और कार्य-कारण से बंधी लौकिक घटनाओं के काल-खण्डों का खुलासा करने की कोई चेष्टा नहीं हुई है। जो मन किसी वस्तु को बहार से विश्लेषण करके समझना चाहता है, उसमें बाह्य-वस्तु को ही प्रधानता दी जाती है। और उसीके परिपेक्ष्य में वैसे लोगों के मन में ऐतिहासिक घटनाओं के काल-खण्ड हरेक पल की गणना को पकड़ने का आग्रह होता है।
 किन्तु जिसकी दृष्टि में सिद्धान्त अधिक मूल्यवान होते हैं, उसकी दृष्टि में इतिहास की गति,भी प्रकाश के नवआविष्कृत गणना की गति  चलता है। बुद्धि के  उज्ज्वल प्रकाश में विद्दयुत जैसी कौंधती हुई व्युत्पन्न प्रत्यय (Derived suffix) ही उसका आश्रय होता है। प्राच्य बुद्धि की ज्योति पाश्चात्य बुद्धि के जैसी निरंतर तरंगायित नहीं रहती है। वह तो दीपावली की नारंगी रौशनी में नहाये झिलमिलाती ज्योति-कलश के द्वारा अंधकार के परे अनन्त आलोक की ओर इशारा करती है।
आज सम्पूर्ण विश्व के प्रबुद्ध लोग यह स्वीकार करते हैं, कि मनुष्य जाति का सबसे प्राचीन साहित्य वेद है, तथा उसीमें हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति की प्राचीनतम सूचना प्राप्त हो सकती है। वह वेद भी किन्तु कर्म प्रधान ही था। उसमें विभिन्न प्रकार के कर्म, अनेकों क्रियाएं, योग-याग्य की बातें थीं। वैदिक युग के मनुष्यों का भौतिक-जीवन, लौकिक जीवन, या सांसारिक जीवन भी उस समय सुख-सुविधा से भरपूर था। उस समय के  सामाजिक रीती रिवाजों का जो उल्लेख मिलता है, उससे ज्ञात होता है कि उनकी लौकिक उन्नति उस समय अपने उन्नति के शिखर पर थी। उतने प्राचीन काल में भी भारतवर्ष में एक प्रकार  का गणतंत्र स्थापित हुआ था। उस समय कृषि पर्याप्त उन्नत थी। कुछ उद्द्योग भी थे, ज्ञान के बहुत से क्षेत्रों में पर्याप्त उन्नति हुई थी। जैसे ज्योतिष विद्या, भेषज-विद्या,चिकित्सा विज्ञान, शल्य विद्या आदि विशेष विद्ययों में उन्नति हुई थी। यहाँ तक कि जहाज का निर्माण भी होता था। सांसारिक दृष्टि या लौकिक दृष्टि से मनुष्य पर्याप्त उन्नत था, इस बात का उल्लेख वैदिक युग के इतिहास, साहित्य ही नहीं वेदों के भीतर ही उसका काफी प्रमाण मिल जाता है।
किन्तु जब मनुष्य धीरे धीरे अपनी आवश्यकताओं को मिटाने लायक लौकिक सुख की सामग्रियों को पर्याप्त मात्र में संग्रह कर लेता है, उस समय उसके मन में तत्व को जानने की जिज्ञाषा का उदय होता है। जीवन-धारण की प्रवृत्ति-'आहार,निद्रा,भय, मैथुन' के विषय में ही सदैव विचार करते रहना अब उसे अच्छा नहीं लगता है। तब वह समस्त भौतिक जगत, और जीवन के सूक्ष्म स्तरों के भीतर भी प्रविष्ट होने की चेष्टा करता है। इसी प्रकार का चिन्तन उपनिषद युग में दिखाई दिया था।
                                                           ।। तीन ।।
हमारे दो जगत हैं, बाह्य-जगत और अंतर्जगत ! प्रत्येक समाज की दृष्टि किसी न किसी युग में केवल बाह्य जगत के उपर ही  केन्द्रित होती है, किन्तु युग-परिवर्तन के बाद उसकी दृष्टि पुनः एक बार भीतर की जगत पर केन्द्रित हो ही जाती है।
 जिस काल-खण्ड में दृष्टि भीतर की ओर, अर्थात अंतर्जगत की ओर  अधिक केन्द्रित रहती है, उसी समय सच्चा दर्शन, वास्तविक  सत्ता क्या है- ये सब प्रश्न मनुष्य के मन में उठते हैं। जिस भौतिक जगत को हम अपने सामने देख रहे हैं, जिन विभिन्न रंग-रूप के मनुष्यों को देख रहे हैं, इसकी वास्तविक सत्ता क्या है? इस सत्य को जानने की जिज्ञाषा और अनुसन्धान करने की बात मनुष्य के मन में उठती है। इस दृष्टिगोचर परिवर्तनशील जगत के पीछे, क्या कोई अपरिवर्तनीय सत्ता भी है ? यदि है, तो उस अपरिवर्तनशील 'सत्य' के साथ, हम जिस परिवर्तनशील मनुष्य को अपने सामने देख रहे हैं, उसका क्या सम्बन्ध है?  या उसके साथ इस जगत का क्या सम्बन्ध है ?
 इन समस्त प्रश्नों की विवेचना करना दर्शन शास्त्र के विषय हैं। जिस प्रकार विज्ञान बाह्य जगत की वस्तुओं को देखता है, उसी प्रकार दर्शन या तत्व-विद्या सूक्ष्म अतीन्द्रिय तत्व, वस्तु-स्त्ता, आंतरिक जगत के तत्वों की खोज करता है। जीवित बचे रहने की स्वाभाविक ललक के साथ बाह्य जगत का ज्ञान और पदार्थों का संग्रह, करके भोग और सुख प्राप्त करने की चेष्टा करके भी जब मनुष्य यह जान लेता है कि कोई भी पदार्थ चिर अस्थायी नहीं होता, और अनिवार्य मृत्यु का एक प्रच्छन्न भय जब मनुष्य के मन को भोग के आनन्द में डूबने नहीं देता, तथा  अवश्यमभावी मृत्यु की आशंका जब हर क्षण खड़ी दिखाई देने लगती  है। तब एक असीम सुख की आकांक्षा उसके मन में एक अनास्वादित अमरत्व की पूर्ण छवि की रचना करता है, और अपनी कल्पना की तुलिका से वह एक पूर्ण निर्दोष सुन्दर स्वर्ग राज्य का निर्माण कर,उसे ही प्राप्त करना  चाहता है।
 वह कल्पना करता है कि स्वर्ग में उसका सुख भोग दीर्घ दिनों तक या लम्बे समय तक चलेगा। और योग-याग्य इत्यादि पूण्य कर्मों के बल पर वह उस स्वर्ग का भोग कर सकेगा। उस स्वर्ग में यहाँ मिलने वाले समस्त सुख और भरपूर भोगने को मिलेंगे। हमलोग इस जगत में रहते समय जितने लौकिक सुख प्राप्त करते हैं, वे सभी सुख दुःख-रहित होंगे, और अधिक मात्र में सुंदर होगा, जिसको हमलोग बहुत लम्बे समय तक भोग कर सकेंगे, इस प्रकार के  स्वर्ग की कल्पना हमारे सामने आती है।
                                                           ।। चार।।           
किन्तु इसके बाद में जब यह दर्शन, अर्थात यथार्थ सत्ता का अनुसन्धान और आगे बढ़ा, तो उनहोंने अंतर्जगत की ओर पहले से अधिक ध्यान देना शुरू किया। उनलोगों को लगा, ' नहीं,यह ठीक नहीं है।' मनुष्य के मनोजगत को हर स्तर पर विश्लेष्ण करके देखने की चेष्टा होने लगी। और एक ऋषि ने सत्य का अविष्कार करने के बाद घोषणा किया- कि मनुष्य की वास्तविक सत्ता तो स्वभावतः अमर है !  उसको स्वर्ग या वैसे कोई जगह में जाकर कुछ आपात अमरत्व भोगने की चेष्टा करने की आवश्यकता नहीं है। प्रथम युग की कर्म प्रधानता और और उसके बाद वाले युग का चिन्तन (ज्ञान)  -ये दोनों बारी बारी से मानव मन में प्रधानता ग्रहण करते हैं।
इतना ही नहीं स्वर्ग के साधन रूप कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आते हैं -क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति ।(गीता9/21) 
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं।
इससे बड़ी क्षति क्या होगी ? यदि असुरों को परास्त करके देवताओं  ने समुद्र-मंथन से निकला अमृत पी भी लिया,तो उनका यह देव-तन भी किस काम का हुआ ? जिसमें संचित पुण्य भी समाप्त हो जाय ? यह ज्ञान मनुष्यों की स्वर्ग जाने की आकांक्षा और सम्भावना को कम करने लगी। तब उन लोगों ने अपनी दृष्टि को अन्तर्जगत की ओर मोड़ लिया। इस प्रकार होते होते महाभारत-काल में पहुँचने के बाद, प्रसिद्द ग्रन्थ 'गीता' के माध्यम से इन दोनों के बीच हमलोग कर्म और ज्ञान में एक प्रकार का समन्वय स्थापित करने की चेष्टा देखते हैं। सर्वप्रथम मनुष्य इस लौकिक जगत में अभ्युदय पाने की चेष्टा, तत्पश्चाद अपने भीतर के अन्तर्जगत को भेद कर उसका रहस्य उद्घाटित करने का एक प्रयत्न - इन दोनों के बीच समन्वय की धुन सुनी जा सकती है। गीता में मनुष्य की 'क्रिया-शक्ति' और 'विचार-शक्ति'   इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करने की चेष्टा हुई है। 
सामान्यतः हमलोगों की सनातन विचारधारा या सिद्धांतों का मूल सूत्र यही है, जिसने हमारी संस्कृति को हर प्रकार से प्रभावित किया है। इसीलिये हमारी संस्कृति का जितनी भी बाह्य-अभिव्यक्ति (Exponents) कला-विद्या, जीवन मूल्य, दर्शन, या लौकिक सुख की जिन भोग-सामग्रियों का निर्माण करते हैं, मूर्ति, स्थापात्य -आदि के भीतर हमलोग इन दोनों बातों की छाप हम लोग देख सकते हैं। हमारी संस्कृति के प्रधान राग को जिस बात ने बचाए रखा है, वह उपनिषदों का ज्ञान। उपनिषदों का यह ज्ञान अनेको तरीकों से, अनेको धाराओं में से प्रवाहित हुई है।
 पहले जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के याग-यज्ञ इत्यादि कर्मकाण्ड हुआ करते थे, उसमें इहलोक और परलोक के भोगों को ही एकमात्र उद्देश्य माना जाता था।उसके बाद आया दर्शन का युग, उपनिषद के इस युग में मनुष्य के आन्तरिक जगत के रहस्य को उद्घाटित करने की चेष्टा की गयी। इन कार्यों के माध्यम से हम देखते हैं, कि इनके बीच समन्वय का स्वर भी सुन सकते हैं, यहाँ यह आविष्कृत हुआ कि जो कुछ दिख रहा है, उन सब के भीतर सत्ता (entity) या अस्तित्व एक ही है। इसी आधार पर अपने अंतर्जगत में  हम सम्पूर्ण जगत के साथ एकात्मता और समन्वय स्थापित करने का सूत्र अन्वेषित कर लेते हैं।
 मूल वस्तु जिसको हमलोग यहाँ 'सत्ता' अस्तित्व (entity) कह रहे हैं, वही अस्तित्व या 'सत्ता' सब कुछ के भीतर-कण कण में, जड़-चेतन में सर्वत्र ओतप्रोत होकर स्थित है। इस दृष्टि-गोचर जगत में जो कुछ भी देख रहे हैं, धरती के सीने पर जितने भी वनस्पति या अन्य प्राणी (जीव) देख रहे हैं, उसके भीतर एक विशेष प्राणी के रूप में मनुष्य को भी देखते हैं- किन्तु इन सब के भीतर सत्ता (subsistence) सत्यता या अस्तित्व एक ही है। हमारी भारतीय संस्कृति का विशिष्ट आविष्कार, हमारी चिन्तन शक्ति (एकाग्रता की शक्ति ) का सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट अविष्कार यही-'अनेकता में एकता ' है !
                                                      $@$।। पाँच ।।
किन्तु इसके बाद हमलोगों के उपर विदेशी शिक्षा का प्रभाव पड़ने लगा। इस समय ऐसी चेष्टा की गयी की हमलोगों की उपनिषदों की " अनेकता में एकता " के सूत्र का अनुसन्धान करने वाली जो शिक्षा-पद्धति थी, वह  पूर्णतया ध्वस्त हो जाये। विदेशी शासकों ने दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया - कहा गया तुम्हारे रामयण,
महाभारत में केवल झूठी कहानियाँ है, भारत के वेद,उपनिषद-टुपनिषद में ज्ञान की कोई बात नहीं है। वे सब गड़ेरिया के गीत हैं ! तुमलोग पाश्चात्य जगत के ज्ञान-विज्ञान और साहित्य इत्यादि कला-विद्या द्वारा प्रभावित हो जाओ। इसके लिए कूचक्र होने लगा। क्योंकि पाश्चात्य जगत की सभ्यता का भी बार बार उत्थान-पतन होता रहा है। एक समय में बेबिलोन-मिस्र की सभ्यता भी समाज में शिखर तक उठी थी,किन्तु बाद में उसका ऐसा पतन हुआ कि उसका नामो-निशान भी मिट गया।
[ प्राचीन मिस्रवासियों की आत्मसम्बन्धी धारणा द्वित्वमूलक थी। उनका विश्वास था कि प्रत्येक मानव-शरीर के भीतर एक और जीव रहता है जो शरीर के ही समरूप होता है और मनुष्य के मर जाने पर भी उसका यह प्रतिरूप शरीर जीवित रहता है। किन्तु यह प्रतिरूप शरीर तभी तक जीवित रहता है, जब तक मृत शरीर सुरक्षित रहता है। इसी कारण से हम मिस्रवासियों में मृत शरीर सुरक्षित रखने की प्रथा पाते हैं और इसी के लिए उन्होंने विशाल पिरामिडों का निर्माण किया, मृत शरीर को सुरक्षित ढंग से रखा जा सके। बेबिलोन के प्राचीन निवासियों में भी प्रतिरूप शरीर की ऐसी धारणा देखने को मिलती है, यद्यपि वे कुछ अंश में इससे भिन्न हैं। वे मानते हैं कि प्रतिरूप शरीर में स्नेह का भाव नहीं रह जाता। उसकी प्रेतात्मा भोजन और पेय तथा अन्य सहायताओं के लिए जीवित लोगों को आतंकित करती है। अपने बच्चों तथा पत्नी तक के लिए उसमें कोई प्रेम नहीं रहता। प्राचीन बेबिलोन संस्कृति में नारीजाति को बुरी तरह अपमानित किया गया था। उन्हें समस्त मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था। अरब में इस्लाम के प्रकाशोदय से पूर्व स्त्रियों को अत्यंत हेय और तिरस्कृत समझा जाता था।]
पुनः बीच बीच में वहाँ की संस्कृति को फिर से उठाने की चेष्टा भी हुई है,किन्तु मनुष्य समाज पर उसका कुछ खास असर नहीं पड़ा है। उसी प्रकार इतालवी पुनर्जागरण  के समय उस पारम्परिक शिक्षा और 
संस्कृति को पुरुज्जिवित करने की चेष्टा हुई थी। [The Italian Renaissance या रिनैंसा- संस्कृतिक आन्दोलन को कहते हैं। यह आन्दोलन इटली से आरम्भ होकर पूरे योरप में फैल गया। इस आन्दोलन का समय चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक माना जाता है। चौदहवीं सदी में सत्रहवी सदी तक का दौर मध्‍ययुग कहलाता है। तकरीबन उसी दौरान "मानवतावाद" 'ह्यूमनिज्म' - शब्द मानव मात्र के आसपास (संस्थागत धर्म के खिलाफ) एक दर्शन के रूप में केंद्रित हुआ। पुनर्जागरण का मानवतावाद  मध्य युग के अंत और आधुनिक युग की शुरुआत में यूरोप में एक बौद्धिक आंदोलन था। एक ऐसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा जो नैतिकता और निर्णय लेने की क्षमता के एक आधार के रूप में विशेष रूप से अलौकिक और धार्मिक हठधर्मिता को अस्वीकार करते हुए हित, नैतिकता और न्याय का पक्ष लेता है। यह आंदोलन पारंपरिक शिक्षा को पुनर्जीवित करने के लिए इतालवी पुनर्जागरण के दौरान खूब फला-फूला था, जिसमें इसके इस्तेमाल को कई देशों, विशेषकर इटली में इतिहासकारों के बीच व्यापक स्वीकृति मिली थी।  फ्युअरबाख ने लिखा था 'होमो होमिनी ड्यूस एस्ट'-अर्थात "ईश्वर स्वयं मनुष्य (के सिवाए) कुछ नहीं है।" या "मनुष्य ही, मनुष्य के लिए एक ईश्वर है" या लेकिन नास्तिक या अज्ञेयवाद होना किसी को मानवता-वादी नहीं बनाता है.  इन शब्दों के कई उपयोगों के बीच लगातार एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। फिर भी तर्क और धर्म के बीच एक महत्त्वपूर्ण दरार के विकसित होने साथ पुनर्जागरण के समय में ही आधुनिक धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद का विकास हुआ था। जिसका इस्तेमाल जर्मनी में तथाकथित लेफ्ट- हेजेलियंस, अर्नोल्ड रयूज और कार्ल मार्क्स द्वारा भी किया जा रहा था जो दमनकारी जर्मन सरकार में चर्च की नजदीकी भागीदारी के आलोचक थे।मानवतावाद या ह्यूमेनिज्म एक ऐतिहासिक आंदोलन है, और विशेष रूप से इतालवी पुनर्जागरण के साथ जुड़ा हुआ है।] 
किन्तु इस सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में - मनुष्य के अंतर्जगत में प्रविष्ट होने की जो चेष्टा कभी कभी हुई भी तो वह अंतिम परिणाम तक पहुँच नहीं सकी। और यह पुनर्जागरण भी मनुष्य को भोगवाद, भौतिक-वाद की दिशा में ले गयी। जिसका परिणाम हुआ- स्वार्थपरता, प्रतियोगिता, अत्याचार, संघर्ष, जिसके कारण मनुष्य का जीवन शान्तिहीन, अनैतिक, और आदर्शहीन हो गया। ब्रिटिश शासन के समय भारतवर्ष में जो नई शिक्षा-व्यवस्था प्रचलित की गयी, उसमें पाश्चात्य सभ्यता के इसी पुनर्जागरण की लहर को लाने की कोशिश की गयी थी। उस लहर में तत्कालीन शिक्षित समाज बह गया, और उसकी हर बात को बहुत अच्छा कहकर स्वागत किये और बहुतों ने उसे ग्रहण भी कर लिया, और हमलोगों के बीच उसी पाश्चात्य संस्कृति को बहुत महान संस्कृति कहकर प्रचारित करने लगे। 
किन्तु भारतवर्ष में उसकी एक प्रतिक्रिया भी हुई, और धीरे धीरे उसके विरुद्ध एक आन्दोलन शुरू हो गया।[अंग्रेजी शिक्षा का प्रवेश और ईसाई मिशनरियों के कार्य, ये दो घटनाएँ उस पृष्ठभूमि के निर्माण में विशेष सहायक बनीं। अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से शिक्षित भारतीयों में ईसाई मिशनरियों ने अनेकानेक लोगों, विशेषतया हिंदुओं, का धर्मपरिवर्तन कर उन्हें ईसाई बना लिया, इससे भी लोगों की आँखें खुल गईं। आचार्य केशवचन्द सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, द्वारा प्रार्थना-समाज की स्थापना बंबई में 31 मार्च, 1867 को हुई। प्रार्थना समाज के मंच से रानाडे ने महाराष्ट्र में अंधविश्वास और हानिकार रूढ़ियों का विरोध किया। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे।]  भारतवर्ष में राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म-समाज, उत्तर-पश्चिम भारत में प्रार्थना-समाज आदि कई प्रयासों और सामाजिक आंदोलनों द्वारा इस बाहरी विचारधारा को धक्का पहुँचाने की चेष्टा होने लगी। किन्तु उस धक्का देने के तरीके में एक त्रुटी  थी। एक ओर 'पुरातन का अन्ध पुनःआरोपण' अर्थात पुरातन के नाम पर अन्धे होकर कुसंस्कारों को भी पुनः स्थापित करने की चेष्टा तो दूसरी ओर हीनभावना से ग्रस्त नया शिक्षित वर्ग था जो हर प्रत्येक दुर्गति के लिये धर्म को ही जिम्मेदार मानते थे। हमलोग पशचत्य जगत के सामने अपने प्राचीन काल की बहुमूल्य संपदा को, अपनी अमूल्य धरोहरों को बड़े संकोच के साथ डर डर कर दिखने लगे, कि पता नहीं वे कहीं हमारी हँसी तो नहीं उड़ायेंगे ? हम कहीं उपहास के पात्र तो नहीं हो जायेंगे ? इसीलिये अपने उपनिषद काल के सिद्धान्तों में थोड़ा बदलाव करके, नवशिक्षित समाज के लिये ग्रहण करने योग्य बनाकर उस सनातन विचारधारा में कुछ मिला-जुला कर फैशन के अनुसार वितरण करने योग्य बनाकर,धडकते दिल से भारत के प्रबुद्ध समाज के सामने रखने की चेष्टा करने लगे। 
ऐसे ही सामाजिक परिवेश में श्रीरामकृष्ण देव और स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव हुआ। - यह जो किसी प्रकार अपने आभाव को छुपाकर, मूर्तिपूजा की भर्त्सना करने वालों को ही अपने से अधिक महान समझकर, उनके सामने हमारे महान पूर्वजों, ऋषि-मुनियों से जो हमें विरासत में प्राप्त हुआ है,अपने पास जो बहुमूल्य धरोहर (वेदान्त) - है,  वह मानो कुछ भी न हो, ऐसा डर डर कर दिखाने का जो मनोभाव था -उनलोगों ने इस हीन भावना का पूरी तरह से उन्मूलन कर दिया। 
उनलोगों ने हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति और दर्शन के भीतर, तथा हमारे धर्म के भीतर जो शाश्वत और महान जीवनमूल्य थे,उन्हें अपने जीवन में रूपांतरित करके, उसको अपने जीवन में प्रतिबिंबित करके, लोगों के सामने एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। श्रीरामकृष्ण ने लोगों को यह दिखला दिया, कि अपने को मूर्ति-पूजक समझ कर स्वयं को हीन भावना से ग्रस्त एक निकृष्ट व्यक्ति समझने की मानसिकता की कोई आवश्यकता नहीं है। प्राचीन युग से चली आ रही जिस मूर्ति-पूजा आदि प्रथा को, तुम लोगों ने इसीलिये त्याग दिया है, कि पता नहीं मन्दिर जाते या मूर्ति पूजा करते देखकर विदेशी लोग मुझसे कहीं घृणा तो नहीं करने लगेंगे ? और बहुत से लोग तो उन बहुमूल्य धरोहरों को स्पर्श तक करने में डरते थे, कुछ अंग्रेजी में नव-शिक्षित लोग तो मूर्ति पूजा को इतनी उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे, कि बहुतों ने अपने धर्म को ही त्याग कर ईसाई धर्म अपनाना शुरू कर दिया था। 
 इसी कठिन समय में श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द आविर्भूत होते हैं, और हमारी आँखों को खोलते हुए कहते हैं- देखो हमारी पुरातन संस्कृति के भीतर, उन सनातन सिद्धांतों के भीतर,उन जीवनमूल्यों के भीतर जो महान भाव छिपे हुए हैं, वैसे महान विचार, तो जिसे तुम पाश्चात्य जगत का पुनर्जागरण, 'रिनैंसा' जैसे नामों से महिमामंडित करने की चेष्टा कर रहे हो, उसके भीतर भी नहीं है, वैसे बहुमूल्य तत्व पाश्चत्य जगत की विचारधारा के भीतर तो है ही नहीं, पुरे विश्व में किसी के पास नहीं है।
 " एक ओर जड़ विज्ञान प्रचुर धन-सम्पत्ति, प्रभुत्व बल संचय और उत्कट इन्द्रिय-सुख विदेशी साहित्य में कोलाहल मचा रहे हैं, दुसरो ओर इस कोलाहल को फाड़ता हुआ, क्षीण परन्तु मर्मभेदी स्वर से युक्त पुर्वीय देवताओं का आर्तनाद सुनायी पड़ता है। एक समय हमारे सामने ये दृश्य नजर आते हैं- सुन्दर, बढ़िया तथा ठीक ढंग से सजाया हुआ भोजन, उम्दा पेय, बहुमूल्य पोशाक, ऊँचे ऊँचे, बड़े बड़े महल, तथा नये नये ढंग की गाड़ियाँ-सवारियाँ आदि, नये नये अदब-कायदे तथा नये नये फैशन, जिनके अनुसार सज-धजकर हमारे सामने आजकल की विदुषी नारी काफी निर्लज्जतापूर्ण स्वतंत्रता से घूमती फिरती हैं। ये सब सामग्रियाँ न जाने कितनी नयी नयी इच्छाएँ तथा वासनाएं उत्पन्न करती हैं।

 परन्तु फिर यह दृश्य बदलकर इसके स्थान में एक दूसरा गंभीर दृश्य आ जाता है, और वह है सीता, सावित्री,व्रत-उपवास, तपोवन, जटाजूट, वल्कल तथा गैरिक वस्त्र, कौपीन, समाधि एवं आत्मोपलब्धि की सतत चेष्टा। एक और पाश्चात्य समाज की स्वार्थपर स्वाधीनता है, और दूसरी और आर्यों का कठोर आत्म-बलिदान। इस विषम संघर्ष से समाज डगमगा उठेगा, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? पाश्चात्य जगत का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वच्छन्दता (या स्वाधीनता ) है, भाषा अर्थकरी विद्या है और उपाय राजनीती है। भारत का मुख्य उद्देश्य- 'मुक्ति' है, भाषा 'वेद' है, और उपाय 'त्याग' है। " (वर्तमान भारत 9/225)
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[ इंग्‍लैंड के विश्‍व विख्‍यात दार्शनिक, लेखक बर्ट्रेंड रसेल ने अपरिसीम श्रम करके विचार के विकास की कहानी लिखी है। यह कहानी उसके एक महाकाव्‍य पुस्‍तक में उंडेली है। जिसका नाम है: " दि हिस्‍ट्री ऑफ वेस्‍टर्न फिलॉसॉफी’’ पाश्‍चात्‍य दर्शन का इतिहास अर्थात मनुष्‍य के विचारों का इतिहास। 
इस पुस्‍तक का नाम सुनकर यदि कोई यह सोचे कि यह तो पश्‍चिम के मनुष्‍य के काम की चीज है, हमारा उससे क्‍या लेना देना, तो यह गलत सोच रहा है। मनुष्‍य पश्‍चिम का हो या पूरब का, आज इक्कीसवी सदी की दहलीज पर पूरब-पश्‍चिम एक हो गए है। और हम सभी पश्‍चिम से प्रभावित है। अपने को आधुनिक शिक्षित मनुष्य समझकर गर्व करने वाले हम सब, तथाकथित बुद्धिजीवी लोग अरस्‍तू के ही वंशज है। हमारा तर्क, हमारी सोच, हमारी बुद्धि अरस्तू की तर्क सरणी से बनी है। 
अरस्‍तू ने तर्क का जो ढांचा दिया है वह मनुष्‍य के मस्‍तिष्‍क में इतना गहरा खुद गया है कि आधुनिक मनुष्‍य उससे अन्‍यथा सोच भी नहीं सकता। पुस्‍तक का प्रारंभ होता है ग्रीक सभ्‍यता के उदय से। समय है600 ईसा पूर्व। रसेल ने दर्शन के इतिहास को तीन मोटे हिस्‍से में बांटा है: प्राचीन दर्शन, ईसाइयत के उदय के बाद के बाद पैदा हुआ धार्मिक दर्शन और विज्ञान युग के प्रारंभ के पश्‍चात जन्‍मा आधुनिक दर्शन। प्राचीन दर्शन ईसा पूर्व समय का है जिसमें ग्रीक दार्शनिकों का योगदान है। पाइथागोरस, हेराक्‍लाइटस, इनक्‍सा, गोरस और अन्‍य दार्शनिक जिनकी ख्‍याति इनमें कम है। वह समय था जब चीजें संयुक्‍त थीं, जीवन बंटा हुआ नहीं था।
सुकरात, प्लेटों और अरस्तू–यह त्रिमूर्ति पूरे पाश्चात्य दर्शन शास्‍त्र की आधारशिला है। अपनी विचार यात्रा में रसेल उन्‍हें असाधारण महत्‍व देता है। एक पूरा विभाग उसने इन तीन दार्शनिकों को समर्पित किया है।
सुकरात 
(Socrates 469-399 ई. पू.) रहस्‍यदर्शी (ऋषि ) था, उसे दार्शनिक कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन पश्‍चिम में बुद्धों (ऋषियों-गुरु-शिष्य परम्परा) की कोई परंपरा नहीं है। इसलिए इतिहासकार या उसके स्‍वयं के शिष्‍य भी उसे समझ नहीं पाये। वे उसे एक विचित्र, बेबूझ व्‍यक्‍ति मानते थे। सुख-दूःख या सर्दी-गर्मी उसके लिए सब एक बराबर था। उसे बार-बार घंटो ट्राँस में खो जाने की आदत थी। (स्वामीजी पहली बार इस ट्राँस के बारे में अपने कॉलेज के शिक्षक प्रोफेसर हेस्टि से सुना था इसीलिये श्रीरामकृष्ण मिलने दक्षिणेश्वर गये थे, कि उनको भी ट्राँस होता था। यदि स्वामी विवेकानन्द नहीं आते तो हमलोग भी ठाकुर को काली से बात करने वाला एक मूर्ख ब्राह्मण ही समझते]
यूनान का विख्यात दार्शनिक सुकरात कहता था-ज्ञान और सच्चरित्रता एक ही वस्तु हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शुभ या भद्र दो चरम सीमाओं में मध्यवर्ती स्थिति है। घृष्टता और कायरता दोनों अवगुण हैं; इनके मध्य में साहस है जो सदाचार है। शिष्टाचार उद्दंडता और दासभाव के बीच की अवस्था है।
 लोग कहते थे उसकी आत्‍मा ने शरीर पर विजय पा ली है। उसकी एक ही बुरी आदत थी: लोगों के साथ संवाद करना। और संवाद के द्वारा सत्‍य को उघाड़ना। एथेन्‍स के सारे नेता उस की हरकत से परेशान थे। वे उसके बोलने को रोक नहीं सके तो आखिर उसकी आवाज को ही बंद करवा दिया। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया। तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा-भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए है जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना?  हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर ओढ़ा देना। "
  दर्शन का प्रवाह भी दो भागों में बंट गया है: सुकरात के पूर्व और सुकरात के बाद। सुकरात, प्लेटों और अरस्‍तू ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में हुए। रेडियो रूस " में 26.05.2012 को छपा है, 'सुकरात मरणोपरांत दोषमुक्त करार ' शुक्रवार को एथेंस में प्राचीन दार्शनिक सुकरात पर मुकदमा दोहराया गया। लगभग 2500 वर्षों के बाद सुकरात को मौत की सज़ा बरी कर दिया गया। ब्रिटेन, फ्रांस, अमरीका, स्विट्जरलैंड और यूनान से दस प्रख्यात न्यायविदों ने सुकरात पर इस मुकदमे की सुनवाई की। थिएटरनुमा इस अदालत में 866 दर्शक भी उपस्थित थे।

सुकरात पर 399 ई.पू. में यह आरोप लगाया गया था कि वे मान्यता प्राप्त देवताओं का सम्मान नहीं करते थे और अपने उपदेश सुनाकर युवा लोगों की बुद्धि भ्रष्ट करते थे।सुकरात उन पर लगे जुर्माने का भुगतान करके इस गंभीर सज़ा से बचा सकते थे लेकिन इसके बजाय उन्होंने मांग की थी कि राज्य के लिए अपनी सेवाओं के बदले में वह पेंशन पाने के हकदार हैं। उसके बाद 500 अथीनियान नागरिकों ने प्रतिवादी को मौत की सज़ा सुना दी। सुकरात को जेल में ही ज़हर पिलाया गया था। 
 एक बार एक विद्वान यूनान के दार्शनिक अरस्तू से मिलने गए। उन्होंने अरस्तू से पूछा, 'मैं आपके गुरु से मिलना चाहता हूं।' अरस्तू ने कहा, 'आप हमारे गुरु से मिल नहीं सकते।' विद्वान ने कहा, 'क्या अब वह इस दुनिया में नहीं हैं?' अरस्तू ने कहा, 'मेरे गुरु कभी मर नहीं सकते।' विद्वान को अरस्तू की पहेली समझ में नहीं आ रही थी। उन्होंने कहा, 'आपकी बात मैं समझ नहीं पा रहा हूं।' अरस्तू ने मुस्करा कर कहा, 'दुनिया के सभी मूर्ख हमारे गुरु हैं और दुनिया में मूर्ख कभी मरते नहीं।' विद्वान अरस्तू की बात सुन कर हतप्रभ रह गए। उन्होंने मन ही मन सोचा कि अरस्तू जरूर पागल हो गए हैं। भला इतने महान व्यक्ति का गुरु कोई मूर्ख कैसे हो सकता है। फिर भी उन्होंने साहस करके कहा, 'लोग ज्ञान की खोज में गुरुकुल से लेकर विद्वानों और गुरुओं तक की शरण में जाते हैं। मूर्ख की शरण में जाते हुए मैंने किसी को नहीं देखा।' अरस्तू ने कहा, 'आप इसे नहीं समझेंगे। दरअसल मैं हर समय यह मनन करता हूं कि किसी व्यक्ति को उसके किस अवगुण के कारण मूर्ख समझा जाता है। मैं आत्मनिरीक्षण करता हूं कि कहीं यह अवगुण मेरे अंदर तो नहीं है? यदि मेरे भीतर है तो उसे दूर करने की कोशिश करता हूं। यदि दुनिया में मूर्ख नहीं होते तो मैं आज कुछ भी नहीं होता। अब आप ही बताइए कि मेरा गुरु कौन हुआ- मूर्ख या विद्वान ? विद्वान हमें क्या सिखाएगा। वह तो खुद ही विद्वता के अहंकार से दबा होता है।'अरस्तू की यह बात सुनकर विद्वान का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह बोले, 'मैं तो आप से कुछ सीखने के लिए इतनी दूर से आया था, लेकिन जितनी उम्मीद लेकर आया था, उससे कहीं ज्यादा सीख लेकर जा रहा हूं।' अरस्तू ने कहा, 'सीखने की कोई सीमा नहीं होती, कोई उम्र नहीं होती और न ही किसी गुरु की जरूरत पड़ती है। (ठाकुर ने कहा था- जावत बाँची तावत सीखी।) किन्तु इसके लिए विवेक-प्रयोग या आत्मचिंतन और आत्मप्रेरणा की आवश्यकता पड़ती है।
'विश्वविजित होने का स्वप्न देखने वाले सिकन्दर का गुरु अरस्तू ही था। पश्चिम में प्रायोगिक विज्ञान का प्रारंभ साधारणत गैलीलियो से माना जाता है। उसके पूर्व कोपरनिकस ने यह वैज्ञानिक मान्यता स्थापित की थी कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी उसके आसपास चक्कर लगाती है। परंतु उस समय साधारण समाज की धारणा, मानसिकता कैसी थी, इसका विश्लेषण करते हैं तो ध्यान में आता है कि उस समय जीवन के किसी भी प्रश्न के उत्तर के संदर्भ में अरस्तू प्रमाण था। कोई भी प्रश्न, कोई भी समस्या खड़ी हुई तो इस संदर्भ में अरस्तू ने क्या कहा, यह खोजने की एक सामान्य प्रवृत्ति थी। इस बारे में एक मनोरंजक कथानक प्रचलित है। एक बार लंदन में किसी हाल में बैठकर कुछ-विद्वान परस्पर विचार-विमर्श कर रहे थे। विचार-विमर्श का विषय था, घोड़े के मुंह में कितने दांत होते हैं? अलग-अलग विद्वान अलग-अलग संख्या बता रहे थे। परिणामस्वरूप निर्णय नहीं हो पा रहा था। एक युवक पास में बैठा इनका वार्तालाप उत्सुकता से सुन रहा था। इतने में एक विद्वान बोला- अंतिम निर्णय के लिए देखा जाये कि घोड़े के दांत के विषय में अरस्तू ने क्या कहा है? अत: एक विद्वान पास के पुस्तकालय में अरस्तू की पुस्तक खोजने गया। इस बीच यह चर्चा सुनने वाला युवक उठा और उस हाल से बाहर चला गया। वह बाहर चला गया है इस ओर किसी का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। परन्तु कुछ समय बाद लौटकर जब वह वापस हाल में आया तो हठात्‌ सब उसकी ओर देखने लगे, क्योंकि वापस आते समय उसके साथ एक जीवित घोड़ा था। उस घोड़े को सामने खड़ा कर उसने विद्वानों से कहा कि अरस्तू को क्यों परेशान करते हो, यह घोड़ा खड़ा है, इसके दांत गिनकर निर्णय कर लो। (परिवर्तनशील समाज के लिए शाश्वत मूल्य, स्वामी रंगनाथानंद, पृष्ठ १९४) इसके बाद धीरेधीरे ग्रीक संस्‍कृति की खिलावट कम होती चली गई। और रोम में एक नया उत्‍थान शुरू हुआ।
रोम शीध्र ही एक नये धर्म को केंद्र बनने वाला था। जेरूसलेम में ईसा मसीह की सूली के बाद पश्‍चिम में बड़े जोर से ईसाइयत का उदय हुआ। लगभग तेरह शताब्‍दियों तक चर्च का साम्राज्‍य और हुकूमत छायी रही। दर्शन अब धार्मिक दर्शन बन गया। उसके विचार नहीं, विश्‍वास प्रधान बन गया। पोप लगभग ईश्‍वर का विकल्‍प बन गया। चौदहवीं सदी तक यह सिलसिला चलता रहा। चौदहवीं सदी में सत्रहवी सदी तक का दौर मध्‍ययुग कहलाता है।
The Italian Renaissance या रिनैंसा- संस्कृतिक आन्दोलन को कहते हैं। यह आन्दोलन इटली से आरम्भ होकर पूरे योरप में फैल गया। इस आन्दोलन का समय चौदहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक माना जाता है। पुनर्जागरण का मानवतावाद मध्य युग के अंत और आधुनिक युग की शुरुआत में यूरोप में एक बौद्धिक आंदोलन था.मानवतावाद एक ऐतिहासिक आंदोलन है, और विशेष रूप से इतालवी पुनर्जागरण के साथ जुड़ा हुआ है।
 1856 में महान जर्मन इतिहासकार और भाषाविद जॉर्ज वोइट ने ह्यूमनिज्म  का इस्तेमाल पुनर्जागरण संबंधी मानवतावाद की व्याख्या के लिए किया था। तकरीबन उसी दौरान "मानवतावाद (ह्यूमनिज्म)" शब्द मानव मात्र के आसपास (संस्थागत धर्म के खिलाफ) एक दर्शन के रूप में केंद्रित हुआ। जिसका इस्तेमाल जर्मनी में तथाकथित लेफ्ट- हेजेलियंस, अर्नोल्ड रयूज और कार्ल मार्क्स द्वारा भी किया जा रहा था जो दमनकारी जर्मन सरकार में चर्च की नजदीकी भागीदारी के आलोचक थे।
इन शब्दों के कई उपयोगों के बीच लगातार एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। फिर भी तर्क और धर्म के बीच एक महत्त्वपूर्ण दरार के विकसित होने साथ पुनर्जागरण के समय में ही आधुनिक धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद का विकास हुआ था।
 ऐसा तब हुआ जब चर्च के आत्मसंतुष्ट प्रभुत्व की दो महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कलई खुल गयी। विज्ञान में गेलीलियो द्वारा कॉपरनिकस की क्रांति को मिले समर्थन ने अरस्तु के सिद्धांतों को झूठा साबित करते हुए उनके प्रति चर्च की निष्ठा को चोट पहुंचाई. धर्मशास्त्र में डच विद्वान एरास्मस ने अपने नए यूनानी मूल ग्रन्थ में यह दिखाया कि रोमन केथोलिक का जेरोम की वलगेट (बाइबिल का लैटिन संस्करण) को समर्थन ज्यादातर त्रुटिपूर्ण था।
 इस तरह अनुभवसिद्ध अवलोकन और ब्रह्मांड भौतिक के प्रयोग पर आधारित प्राकृतिक दर्शन के मार्ग को अपनाने का मंच तैयार हो गया जिसने पुनर्जागरण के बाद आने वाले वैज्ञानिक अन्वेषण के युग के उदय को संभव बनाया.
एक धर्मनिरपेक्ष विचारधारा जो नैतिकता और निर्णय लेने की क्षमता के एक आधार के रूप में विशेष रूप से अलौकिक और धार्मिक हठधर्मिता को अस्वीकार करते हुए हित, नैतिकता और न्याय का पक्ष लेता है। यह आंदोलन पारंपरिक शिक्षा को पुनर्जीवित करने के लिए इतालवी पुनर्जागरण के दौरान खूब फला-फूला था, जिसमें इसके इस्तेमाल को कई देशों, विशेषकर इटली में इतिहासकारों के बीच व्यापक स्वीकृति मिली थी फ्युअरबाख ने लिखा था 'होमो होमिनी ड्यूस एस्ट'-अर्थात 
"ईश्वर स्वयं मनुष्य (के सिवाए) कुछ नहीं है।" या "मनुष्य, मनुष्य के लिए एक ईश्वर है" या लेकिन नास्तिक या अज्ञेयवाद होना किसी को मानवता-वादी नहीं बनाता है.
मानवतावाद शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रवाह के रूप में 19वीं सदी में अमेरिकी स्कूल प्रणालियों पर हावी होने लगा. इसका मानना यह था कि मानव बुद्धि का विकास करने वाले अध्ययन वे हैं जो मनुष्यों को "सबसे अधिक सही मायने में मनुष्य" बनाते हैं। मध्‍ययुग में, जो "रेनेसां’’ सांस्‍कृतिक पुनर्जागरण के नाम से प्रसिद्ध है, उसके द्वारा विचार का अर्थात मानव मन का अधिक विकास नहीं हुआ। लोग साम्राज्‍यवाद में उलझे रहे। पास-पड़ोस के देशों पर आक्रमण, युद्ध, कुटिल राजनीति, नैतिक पतन….यही कहानी है यूरोप की। राजनीति ने मनुष्‍य के जीवन को इस कदर ग्रस लिया कि दर्शन भी दर्शन भी राजनैतिक बन गया। पूरी हवा, परिवेश, मानसिकता कुछ ऐसी थी कि उसने एक बहुत अर्थपूर्ण है कि कोई युग कैसे किसी महान शक्‍ति को जन्‍म देता है। और वह शक्‍ति नये युग का निमार्ण करती है।
 मैक्‍यावेली बेबाक और स्‍पष्‍ट वक्‍ता था। राजनीति और समाज में फैले हुए पाखंड और बेईमानी के लिए उसकी सीधे नुकीले वक्तव्य झेलना बर्दाश्त के बाहर था। जैसे, उसका प्रसिद्ध वाक्‍य: Power corrupts and absolute power corrupts absolutely , " सत्‍ता भ्रष्‍ट करती है; और एकाधिकार शक्ति पूरी तरह से भ्रष्‍ट करती है।"  सत्ताधीशों को इसे सुनकर चोट लगती थी। मैक्‍यावेली में इतनी ईमानदारी और स्‍पष्‍टता थी कि वह कहता था, राजा सौ प्रतिशत स्‍वर्ण हो तो नष्‍ट हो जायेगा। उसे लोमड़ी की तरह चालाक और शेर की तरह दबंग होना चाहिए। वह अशुभ का उपयोग करे लेकिन शुभ के लिए।
सत्रहवी सदी में चार वैज्ञानिक हुए जिन्‍होंने विज्ञान युग की नींव रखी: कोपरनिसक, केपलर, गैलीलियो, और न्‍यूटन। इन वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला में जो खोजें की उसने मनुष्‍य को एकदम यर्थाथ के धरातल पर खड़ा कर दिया।जिन्‍होंने आधुनिक विज्ञान की नींव रखी उन वैज्ञानिकों के पास दो असाधारण गुण थे: अपरिसीम धीरज के साथ निरीक्षण करना और अपने निष्‍कर्षों को बहुत साहस के साथ प्रस्‍तुत करना। क्‍योंकि उनके निष्‍कर्ष पूरा धर्म, बाइबल, स्‍थापित विश्‍वासों के विपरीत होते थे। अब तक पृथ्‍वी ब्रह्मांड का केंद्र थी और गैलीलियो ने देखा दिया कि बेचारी छोटी सी पृथ्‍वी बहुत बड़े सूरज के चक्‍कर लगा रही है। विज्ञान की खोजें सेमेटिक धार्मिक अहंकार पर बहुत बड़ी चोटें थी।वैज्ञानिक वातावरण ने एक नये किस्‍म के दर्शन को जन्‍म दिया: वैज्ञानिक दर्शन। मनुष्‍य की पूरी मानसिकता ही बदल रही थी। 

आधुनिक वैज्ञानिक दर्शन का जनक है डे कार्ट। उसमे मस्‍तिष्‍क को दो चीजों ने संस्‍कारित किया था: आधुनिक विज्ञान और खगोल विज्ञान। अरस्‍तू के बाद यह पहला बुलंद दार्शनिक था जिसके विचारों में ताजगी थी और अपने पहले जो विचारक हुए उन्‍हें बनाये हुए महलों को धराशायी करने का साहस था। डे कार्ट के दर्शन में संदेह सबसे बड़ी विधि थी। वह हर चीज पर संदेह करता चला जाता, यहां तक कि स्‍वयं पर भी। फिर भी अंतत: कुछ ऐसा बचता है। जिस पर संदेह नहीं किया जाता।(यह उक्ति 'नेति नेति' की प्रतिध्वनी लगती है।) डे कार्ट का प्रसिद्ध वाक्‍य है: think therefore I am, मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं। डे कार्ट के बाद फिर एक बार दर्शन का अभ्‍युत्‍थान हुआ और दार्शनिकों की लंबी शृंखला चली। स्पिन झा, फ्रांसिस, बेकन, लॉक, ह्मूम, बर्कले, हीगल, कांट….इत्‍यादि। इसे हम बुद्धिवादी दर्शन कह सकते है। ये दार्शनिक कोई क्रांतिकारी किस्‍म के नहीं थे। इनका मिज़ाज सामाजिक था और ये खूद एक प्रतिष्ठित संभ्रांत जीवन जीते थे। उनका दर्शन व्‍यक्‍तिनिष्‍ठ, सब्‍जेक्‍टिविज्‍म़ की और उन्मुख था।
उन्‍नीसवीं शताब्दी में दर्शन का एक शिखर पैदा हुआ जर्मनी में—इमेन्युएल कांट कहता था। चाहे बच्‍चा हो या बड़ा आदमी, वह किसी और की मर्जी से या दूसरे के इशारों पर चले, यह सबसे भयंकर बात है। बाहर जो संसार दिखाई देता है वह वैसा नहीं है जैसा हम उसे देखते है। हर व्‍यक्‍ति अपनी-अपनी मानसिक क्षमता के अनुसार बाह्य जगत की व्‍याख्‍या करता है। यहां से ईश्‍वर का आस्‍तित्‍व डांवाडोल हो जाता है। और अंतत: उन्‍नीसवीं सदी के उत्‍तरार्ध में पैदा हुआ नीत्से घोषित करता है: गॉड इज़ डेड, ईश्‍वर मर चूका है। ईश्‍वर के साथ ही नीत्से ईसाइयत पर भी कठोर प्रहार करता है। उसे मनुष्‍य की जड़ों में बसी हुई नैसर्गिक अकृत्रिम, अनिर्बंध जंगल( वाइल्ड) प्रवृतियां अधिक यर्थाथ लगती है। बजाएं पालतू नैतिकता के।विलियम जेम्‍स अमरीकन दर्शन का नेता माना जाता है। उसने पहली बार अपने दर्शन में मन के पार की चित दशा के लिए ‘’चेतना’’ कांशसनेस शब्‍द का प्रयोग किया है। ‘’कांशसनेस’’ चेतना शब्‍द का प्रयोग किया है। अब तक पूरा दर्शन ‘’विषय और विषयों’’ के द्वंद्व पर खड़ा था। विलियम जेम्‍स इस आधार को ही इनकार करता है। वह कहता है, ‘’सृष्‍टि का मूल स्‍त्रोत एक कोई तत्‍व है जिसे हम ‘’विशुद्ध अनुभव’’ कह सकते है। उससे ही विचार और जानने की प्रक्रिया पैदा होती है।
 वैज्ञानिकों के सारे आत्‍मविश्‍वासपूर्ण उत्‍तर अब उतने बलवान नहीं प्रतीत होते जितने अतीत में होते थे। जैसे, क्‍या यह विश्‍व मन और पदार्थ में बंटा हुआ है? यदि ऐसा है तो फिर मन क्‍या है और पदार्थ क्‍या है? क्‍या मन पदार्थ के अधीन है या उसकी अपनी स्‍वतंत्र शक्‍ति है? क्‍या इस विश्‍व में कोई में कोई एकात्‍मता या इसका कोई उदेश्‍य है? क्‍या यह किसी लक्ष्‍य की दिशा में विकसित हो रहा है?
क्‍या मनुष्‍य वही है जो किसी खगोल शास्‍त्री को प्रतीत होता है—अशुद्ध कार्बन और जल का छोटा सा गोला जो कमजोर ती तरह एक गैर-महत्‍वपूर्ण ग्रह पर रेंग रहा है? क्‍या वास्‍तव में प्रकृति के कोई नियम है? या हम व्‍यवस्‍था के प्रति अपने जन्‍मजात प्रेम की वजह से उनमें विश्‍वास करते है? क्‍या जीने के दो ढंग है—उदात्‍त और निकृष्‍ट या कि जीने के सारे ढंग व्‍यर्थ? क्‍या प्रज्ञा नाम की कोई अंतिम वस्‍तु है या कि वह मूढ़ता का ही अंतिम परिष्‍कार है?इनमें से एक भी प्रश्‍न का उत्‍तर प्रयोगशाला में नहीं मिल सकता। 
इसका जवाब या तो इतिहासविद् की तरह दिया जा सकता है या ब्रह्मांड में हमारे अकेलेपन के भय का सामना करने वाले एक व्‍यक्‍ति की तरह दिया जा सकता है। किसी युग को या राष्‍ट्र को समझने के लिए उसके दर्शन को समझना चाहिए। ( आधुनिक काल भारतवर्ष के एकमात्र दार्शनिक नवनीदा कहते हैं, व्यासदेव -शंकारचार्य -श्रीरामकृष्ण -माँ सारदा -स्वामी विवेकानन्द तक इतिहास ही भारतीय दर्शन का इतिहास है। और उसके दर्शन को समझने के लिए हमें किसी मात्रा में दार्शनिक होना चाहिए।)  धर्म विज्ञानों (वेदान्त) ने उत्‍तर देने का दावा क्या है, कुछ ज्‍यादा ही निर्णायक ढंग से। लेकिन उनके इस निर्णायक ढंग की वजह से ही आधुनिक मस्‍तिष्‍क उन्‍हें संदेह से देखता है। क्योंकि वह मनः संयोग सीखने की प्राथमिक मांग अपेक्षित 'यम-नीयम' को अपने जीवन में उतारना नहीं चाहता, 'त्याग' को जीवन में धारण किये बिना सत्य को देखना असम्भव है। 
इन प्रश्‍नों का अध्‍यन करना दर्शन का काम है। भारत को अभी तक कोई बर्ट्रेंड रसेल नहीं मिला जो भारतीय दर्शन के और उसके इतिहास के संबंध में लिखे ? उत्‍तर भले ही दे कि नहीं। फिर आप पूछेंगे कि इन अनुत्‍तरित प्रश्‍नों को हल करने में वक्‍त क्‍यों बरबाद करना?  इतिहास तो बहुत से हैं, लेकिन वे इतिहासविदों ने लिखें है, दार्शनिकों ने नहीं। पश्‍चिम सौभाग्‍यशाली है, कि उसे बर्ट्रेंड रसेल जैसा क्रांतिकारी विचारक मिला। उसने बहुत खूबसूरत वर्णन लिखा है—अरस्‍तू से लेकर स्‍वयं तक के पश्‍चिमी विचार का विकास।
  
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                                                           ।। छः।।

किन्तु उस समय तक पाश्चत्य जगत विज्ञान के क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ चूका था। इसीलिये विवेकानन्द दोनों के बीच एक समन्वय स्थापित करने की चेष्टा करने लगे। गीता के समय जिस प्रकार ज्ञान और कर्म के बीच एक समन्वय स्थापित हुआ था, उसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द पुनः एकबार समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करना चाहे। उन्होंने कहा हमें पाश्चात्य विज्ञान को ग्रहण करना होगा, किन्तु इसे अपनी प्राचीन सनातन विचारधारा, या अपनी संस्कृति की तिलांजली देकर नहीं लेना होगा।
क्योंकि यदि हमने अपने सनातन सिद्धांतों को त्याग दिया तो, हमलोग सबकुछ ही खो देंगे। तथा इस सम्पदा को हमलोग ही खो देंगे, वैसा नहीं है, सम्पूर्ण जगत भी एक जीवनमूल्यों के एक महान खजाने से वंचित हो जायेगा। स्वामीजी सावधान वाणी सुनाते हैं," यदि किसी आदमी के मर्मस्थान में कोई आघात न लगे, अर्थात यदि उसका मर्मस्थान सुरक्षित है, तो उसके मृत्यु की कोई आशंका नहीं हो सकती।  अतः भलीभांति स्मरण रखो, यदि तुम धर्म को छोड़ कर पाश्चात्य भौतिक सभ्यता के पीछे दौड़ोगे, तो तीन पीढ़ियों में ही तुम्हारा अस्तित्व-लोप निश्चित है।"5/49
" क्या भारत मर जायेगा ? तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जायेगा, सारे सदाचारपूर्ण आदर्श जीवन का विनाश हो जायेगा, धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जायगी, सारी भावुकता (ध्येयवाद, राष्ट्रवाद ?) का भी लोप हो जायेगा। और उसके स्थान में कामरूपी देव और विलासितारुपी देवी राज्य करेगी। धन उनका पुरोहित होगा। प्रतारणा, पाशविक बल और प्रतिद्वंद्विता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होंगी, और मानव-आत्मा उनकी बलिसामग्री हो जायगी। ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती। (9/377)"
हमारे पूर्वजों ने सम्पूर्ण जगत में वितरण करने के लिये ज्ञान का एक भंडार हमारे पास धरोहर के रूप में रख छोड़ा है। और जगत के अन्य सामग्रियों का अनुसन्धान करते करते उनलोगों ने जो नये विज्ञान और टेक्नोलोजी या शिल्प विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति की है, वह आज हमारे देश में नहीं है। हालाँकि प्राचीन काल में हमारे देश में भी विज्ञान और टेक्नोलोजी उपलब्ध थी, और बहुत उन्नत अवस्था में थी। किन्तु कालांतर में विविध कारणों से हम उसका प्रयोग जारी नहीं रख सके और हमने उसे खो दिया है।
इसीलिये पाश्चात्य देशों से लौकिक उन्नति के लिये उनके नये नये विज्ञान और टेक्नोलोजी के आविष्कारों का लाभ उठा होगा, उन्हें ग्रहण करना होगा। किन्तु हमलोग यदि अपनी प्राचीन संस्कृति को, प्राचीन विरासत को, सनातन चिन्ताधारा को समूल उखाड़ फेंकने की कोशिश करेंगे, उनको यदि हमलोग ग्रहण-योग्य नहीं है, समझकर उनकी उपेक्षा कर देंगे, तो आज की  विज्ञान और तकनीकी शिक्षा भी हमलोगों को मुक्ति का मार्ग नहीं दिखला सकती है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था," कोई भोग और ऐहिक सुख को ही परम पुरुषार्थ मानकर भारतवर्ष में उनका प्रचार करना चाहे,यदि कोई जड़-जगत को ही भारतवासियों का ईश्वर कहने की धृष्टता करे,तो वह मिथ्यावादी है। इस पवित्र भारत भूमि में उसके लिये जगह नहीं है, भारतवासी कभी उसकी बात नहीं सुनेंगे। पाश्चात्य सभ्यता में चाहे कितनी ही चमक-दमक क्यों न हो, मैं इस सभा के बीच खड़ा होकर उनसे साफ साफ कह देता हूँ कि यह सब मिथ्या है-भ्रान्ति मात्र है। एकमात्र ईश्वर ही सत्य है, एकमात्र आत्मा ही सत्य है और एकमात्र धर्म ही सत्य है। इसी सत्य को पकड़े रहो।"5/46
स्वामी विवेकानन्द ने  पाश्चात्य देशों में जाकर साहसपूर्वक घोषणा किये थे, " तुमलोग जिस रस्ते से जा रहे हो, इसी प्रकार भोगवादी चिन्तन के अनुसार चलते रहोगे, तथा उस आध्यात्मिकता को ग्रहण नहीं करोगे, जो हमारे भारतवर्ष की संस्कृति है, सनातन जीवनमूल्य हैं, सनातन चिन्ताधारा है, भारतीय विरासत है, तो आगामी 50 वर्षों के भीतर ही तुमने जिस सभ्यता की ईमारत खड़ी की है, वह टूट कर गिर पड़ेगी। तथा बाद में यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई थी। 50 वर्ष के भीतर ही उन्हें दो-दो बार विश्वयुद्ध लड़ना पड़ा। जिसके कारण पाश्चात्य संस्कृति का सबकुछ टूट कर बिखर गया। उनके बड़े बड़े विचारक और मनीषी लोग यह स्वीकार करते हैं, कि सचमुच उनकी सभ्यता की संरचना या ढांचा ही ध्वस्त हो गया है,- भोगवादी मनुष्य कहाँ  जाकर रुकेगा, यह कहा नहीं जा सकता है। 

                                                          ।। सात ।।  
विश्व का प्राचीनतम साहित्य- वह वेद है, 
जिसे  सबसे प्राचीन धर्म और दर्शन के रूप में शास्त्रों में लिपिबद्ध किया गया है। वेद ही मनुष्यों के सामाजिक जीवन और चिन्तन-धारा की छवि का वहन करते हैं, जो गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार श्रुतियों के माध्यम से ही चलता आ रहा था।  महर्षि वेदव्यास ने वेद-मन्त्रों को संहित या वर्गीकृत किया था। इसलिये उसका नाम वेद-संहिता दिया गया है।
हमलोगों ने वेद के दो भागों को पहले ही देखा है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड। वैदिक मन्त्रों को वर्गीकृत करते समय ही व्यासदेव ने वेद को चार भागों में विभक्त कर दिया -ऋक, साम, यजु: और अथर्व। चूँकि वेद को विभक्त किये थे, इसीलिये व्यासदेव को वेद-व्यास कहा जाता है। और वेदों को -गद्द्य, पद्द्य और गीत के आधार पर भी बाँटा गया है। इसीलिए वेद का एक नाम त्रयी भी है। 
ज्ञान वाला अंश वेद के अंतिम भाग में दिया गया है, इसीलिये उसको वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषद बहुत सारे हुए हैं एक उपनिषद में उनकी संख्या 108 बताई गयी है। इनमें से 10 उपनिषद मुख्य माने गये है। इन उपनिषदों में या वेदान्त में जो विचार या दर्शन हैं, उसको साधारण तौर से वेदान्त-दर्शन कहा जाता है।
 ऋषियों ने जिस सत्य का अविष्कार किया था या उपलब्धी की थी, उन्हीं सत्यों को उपनिषदों में वेदान्त में घोषित क्या गया है। कृष्ण-यजुर्वेदीय कैवल्य-उपनिषद के प्रारंभ में ही देखा जा सकता है कि ऋगवेदाचार्य आश्वलायन गुरु ब्रह्मा जी के पास जाकर ब्रह्मा जी से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति कराने का अनुरोध करते हैं।
 वे  इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं कि वह ज्ञान क्या है जो विद्वानों में भी पूजित है  जिसके प्रभाव से समस्त पापों का नाश होता है, जो संसार के रहस्य को समझने में सहायक हो तथा जिससे हमारा उद्धार हो जाता हो ? आश्वलायन द्वारा ब्रह्मा जी के सम्मुख जिज्ञासा प्रकट करने पर, पिता ब्रह्मा  'कैवल्य पद-प्राप्ति' के मर्म को समझाते हुए कहते हैं- 

तस्मै स होवाच पितामहश्च श्रद्धाभक्तिध्यानयोगादवैहि ।
न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ॥२॥
 उन्होंने समझाया कि यह ब्रह्म ज्ञान एक अमूल्य निधि है, इस 'ब्रह्माविद्या' की प्राप्ति श्रद्धा,भक्ति और ध्यानयोग के द्वारा ही हो सकती है। अमृत्तत्व की प्राप्ति श्रुति-स्मृति में निर्धारत कर्म अनुष्ठान, धन-धान्य या पुत्र-पौत्र आदि वंशविस्तार के द्वारा असम्भव है। " न धन से, न सन्तान से, वरन केवल त्याग से ही अमरत्व प्राप्त हो सकता है।" (कैवल्य:2 इसमें स्वयं को ब्राह्मी चेतना से अभिन्न अनुभव करने की बात कही गयी है, अर्थात सबको स्वयं में और स्वयं को सब में अनुभव करते हुए त्रिदेवों, चराचर सृष्टि के पंचभूतों आदि में अभेद की स्थिति का वर्णन किया गया है।)
प्राचीन काल में भारत मे एक राजा रहते थे, उनका नाम ययाति था। ऋग्वेद (प्रथम और दसम मण्डल) में भी उनके नाम का उल्लेख है। महाभारत और भागवत में भी व्यासदेव ने उसकी कहानी लिखी है। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री शर्मिष्ठा की शिकायत पर ययाति को शाप दे डाला कि वृद्धावस्था उन्हें समय से पूर्व ही शीघ्र आ घेरेगी। शाप के फलस्वरूप ययाति देह से जल्दी ही बूढ़े हो गये, किंतु उनकी दैहिक भोगेच्छाएं-कामनाएं समाप्त नहीं हो सकीं थीं । उन्होंने ऋषि शुक्राचार्य से क्षमा-याचना की तो उन्हें यह वरदान मिला कि वे अपने बुढ़ापे की किसी युवक की जवानी से अदला-बदली कर सकेंगे । भला कौन वृद्धावस्था स्वीकारने के लिए राजी होता ? राजा ययाति ने सबसे पहले अपने ही पांच पुत्रों के समक्ष अपनी चाहत की बात रखी । राजकुमार पुरु को छोड़कर शेष सब ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया । पुरु उनका बुढ़ापा और राज्य स्वीकार कर लिया और ययाति ने पुत्र का यौवन प्राप्त कर एक हजार वर्षों तक दैहिक सुखों का भोग किया।अंत में उन्हें यह अनुभव हुआ कि दैहिक भोग-सुख से उन्हें कभी भी तृप्ति नहीं हो सकती, केवल तृष्णा को त्याग देने यानी लालसाओं से स्वयं को मुक्त करने के माध्यम, से ही आनन्द संभव है । राजा ययाति का उक्त अनुभव इस श्लोक में व्यक्त हैः

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
 हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एव अभिवर्तते ।।
यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत् ।।
- अर्थात् आग मे घी डालने से आग और भड़क उठती है, उसी प्रकार कामनाओं का उपभोग करने से क्रमशः और भी बढती जाती है, घटती नहीं है। इस पृथिवी पर जो भी धान-जौ (अन्न), स्वर्ण, पशुधन एवं स्त्रियां हैं वे सब एक मनुष्य को मिलें तो भी पर्याप्त नहीं होंगे । इस तथ्य को जानते हुए व्यक्ति को चाहिए कि तृष्णा का परित्याग करे । सनातन चिन्तनधारा का मुख्य स्वर यही है कि - भोग में किसी को भी सुख-शान्ति नहीं मिल सकती है, त्याग या इच्छाओं पर नियंत्रण ही विवेकशील व्यक्ति के लिए एकमात्र अनुकरणीय मार्ग है ।
व्यासदेव ने ही उपनिषद और वेदान्त के चिन्तन धारा को तर्क के आधार पर सुसमन्वित करके एक सूत्र-ग्रन्थ की रचना की थी। इसको वेदान्त सूत्र, ब्रह्मसूत्र, व्याससूत्र या शारीरकसूत्र भी कहते हैं। आचार्य शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क, आदि आचार्यों ने  मुख्य उपनिषदों तथा इस वेदान्तसूत्र पर भाष्य लिखा था। इन समस्त भाष्यों के अनुसार ही वेदान्त के विभिन्न दृष्टिकोण निर्मित हुए हैं। वेदान्तसूत्र के प्रथमसूत्र को हममें से कई लोगों ने सुना होगा- 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।' ब्रसू-१,१.१ 'अथ ' - अन्तराल में (interval) में; जिन्दगी में बहुत कुछ तो भोग कर देख लिया - इसके बाद क्या है ? 
हजार वर्षों तक कामनाओं को भोगने से ययाति को यही शिक्षा मिली थी, ययाति के अतिरिक्त अन्य जिन लोगों ने भी अपनी अन्तर्निहित सत्ता का अनुसन्धान किया है, उन सबों ने यही कहा है। इस सूत्र में क्या कहा जा रहा है ? इसकी व्याख्या में विशाल ग्रन्थ लिखे गये हैं। मनुष्य ने इस जगत-टगत को देख लिया, जगत के सुख, इहलोक के सुख, परलोक के सुख, विभिन्न प्रकार के सुख को भोग लिया। कोई ऐसी गली नहीं है, जिसका सुख मनुष्य को पता न हो? यह सब करके भी कहीं कुछ सुराग (clue) नहीं मिला कि आखिर इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? 'End of a Thread' नहीं मिला ! इस सब का अन्त कहाँ है, उसको पकड़ नहीं सके ! 

इसीलिये अब तो इसको ही जान लेना आवश्यक है, इसी अर्थ में कहा गया है- ' अतः ' अब, इसके बाद। अब तक के जीवन में घटित समस्त घटनाएँ तो याददाश्त के खोए पलों में घटित हुई व्यर्थ की कल्पना प्रतीत हो रही हैं, इसीलिये अब यह आवश्यक हो गया है कि 'ब्रह्मजिज्ञासा'  की जाये। 
जो सबसे बड़े (बृहद-भूमा) हैं, उसकी जिज्ञसा (उस ब्रह्म का अनुसन्धान ) की जाय। मनुष्य ने सर्वत्र छोटी छोटी वस्तुओं में सुख को खोज कर देख लिया है, सीमा के भीतर या ससीम में सर्वत्र खोज कर देख लिया। जो व्यक्त जगत (या बाह्य) जगत है- मनुष्य ने उसके भीतर सर्वत्र युगों युगों से आनन्द को, सत्य का अनुसन्धान किया है। इस जगत में मिटटी कैसे बनी, मनुष्य कैसे बना, गाछ-वृक्ष कैसे बने, सब कुछ अनुसन्धान मनुष्य ने कर लिया है। किन्तु दृष्टिगोचर जगत की सीमा के भीतर अनुसन्धान कर कर के भी धागे का अंतिम छोर नहीं मिला ! 

इसीलिये 'अथ'- इतना हो जाने के बाद भी आज जिस बात की आवश्यकता है, वह अनन्त का अनुसन्धान, या 'ब्रह्मजिज्ञासा' है। अर्थात अब भूमानन्द को अर्थात ब्रह्म को जानने की इच्छा ही करनी चाहिये। ब्रह्म का अर्थ होता है बृहत। महात्मा सनत्कुमार ने नारद को  (छान्दोग्य उपनिषद् 7|23|1) में ठीक ही बताया था -   

यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति 
भूमैव सुखं भूमा त्वेव विजिज्ञासितव्य इति 
भूमानं भगवो विजिज्ञास इति |

 जो भूमा या सबसे बड़ा है, वही सुख है, थोड़े में तो सुख है ही नहीं, इसीलिये वृहत को जानने की इच्छा करनी होगी। उस ब्रह्म को जानने की इच्छा करो- यस्मिन (कस्मिन्नु भगवो) विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥ मुण्डकोपनिषत् ॥३ ॥ जिसको जान लेने से सबकुछ को जान लिया जाता है।ऋषि कहते हैं जितने भी प्रत्यक्ष है, वह सब अनृत है, जो परोक्ष है, वही सत्य है । यह देह जो दृश्यवान् है, वह नाशवान् है । इसमें रहने वाला आत्मा ही परम सत्य है । यह जो छोटी छोटी चीजें देख रहे हो-यह सबकुछ सीमित अभिव्यक्तियाँ हैं। किस वस्तु की सीमित अभिव्यक्ति हो रही है ? इसका सूत्र कहाँ है ? इन सबका बीज क्या है ? इसका प्रारम्भ कहाँ है ? इस सनातन जगत या ब्रह्मवृक्ष का मूल या जड़ किधर है ? इस वृक्ष का मूल बीज क्या है, और कहाँ है,उपर है या नीचे ? जो मूल है, जो सब कुछ को धारण किये हुए है, उसको जानने की चेष्टा करो, उसकी जिज्ञासा करो, उसका अनुसन्धान करो। जिज्ञासा का अर्थ होता है, स्वयं अनुसन्धान करके देखो।
'अथ अतः ' - यह कहकर व्यासदेव ने ब्रह्मसूत्र का प्रारंभ किया है, तथा हमारे उपनिषदों में जो आविष्कृत सत्य हैं, उन सत्य-सिद्धांतों को युक्ति-तर्क के आधार पर, सूत्र-बद्ध करके ग्रन्थ के रूप में सजा दिया है। 

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 [ भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
      क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ ८ ॥
न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति ॥ १० ॥
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो
न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-
स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ ३ ॥
यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं
मनः सह प्राणैश्च सर्वैः ।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो

विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥ ५ ॥]
[कृष्ण यजुर्वेदीय इस उपनिषद में महर्षि आश्वलायन द्वारा ब्रह्मा जी के सम्मुख जिज्ञासा प्रकट करने पर 'कैवल्य पद-प्राप्ति' के मर्म को समझाया गया है। इस 'ब्रह्माविद्या' की प्राप्ति कर्म, धन-धान्य या सन्तान के द्वारा असम्भव है। इसे श्रद्धा, भक्ति, ध्यान और योग के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इसमें स्वयं को ब्राह्मी चेतना से अभिन्न अनुभव करने की बात कही गयी है, अर्थात सबको स्वयं में और स्वयं को सब में अनुभव करते हुए त्रिदेवों, चराचर सृष्टि के पंचभूतों आदि में अभेद की स्थिति का वर्णन किया गया है। इसमें छब्बीस मन्त्र हैं।
कैवल्योपनिषद में "परम तत्व" को उल्लेखित किया गया है, इस उपनिषद में एकत्व की खोज का उपाय  बताया गया है तथा किस प्रकार उसको प्राप्त किया जा सकता है इन सब बातों का विशद वर्णन मिलता है.इसमें जीवन के चार आश्रमों का उल्लेख किया गया है. जिसके अंतर्गत प्रथम क्रम में ब्रह्मचारी रह कर अध्ययन करना शिक्षा प्राप्त करना. द्वितीय स्थान में गृहस्थाश्रम जिसमें अपने संपूर्ण ग्रहस्थ संबंधी कार्यों को ज़िम्मेदारी से निभाना होता है. तीसरे स्थान में वानप्रस्थाश्रम आता है जिसमें ग्रहस्थ के सभी दायित्वों को पूर्ण करने के उपरांत वन के एकांत में रहकर चिंतन-मनन करना है। इसके पश्चात संन्यास का चरण जिसमें सांसारिक जीवन का पूर्ण त्याग करना होता है. और यही अंतिम आश्रम जो कैवल्य मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है.
वही परमात्मा भूत, भविष्य वर्तमान है वो सनातन है और इसी को अपना कर साधक ब्रह्मज्ञान को पाने में सक्षम हो पाता है. मृत्यु पर विजय पा लेता है तथा इसके अतिरिक्त मुक्ति प्राप्ति का कोई अन्य मार्ग दिखाई नहीं देता. सभी की आत्मा में वह विराजमान है और सभी उसी में समाए हैं जैसे की अपनी आत्मा को दूसरों में देखना तथा दूसरों की शुद्ध आत्मा को अपनी आत्मा होने की अनुभूति ही परब्रह्म को प्राप्त करवाता है.
योगी मनुष्य साधना अग्नि की लपटों में अपने समस्त बन्धनों को जला देते हैं जिसमें इस अग्नि रूप का निचला भाग 'अहं' का तथा ऊपरी भाग ' ॐ ' है. मनुष्य स्वयं को गलत संगत में फँसा कर कर्म काडों में लिप्त रहता है वह क्षणिक सुखों को ही सब कुछ मान लेता है और संसार के काल चक्र से बंधा रहता है वह काम भोग वासना, सुरा-पान जैसे कर्मों में लग जाता है.और जब मनुष्य को यह ज्ञान हो जाता है की संपूर्ण सृष्टि उसी से प्रकाशमान हैं वही ब्रह्म है तब वह परम ज्ञान की प्राप्ति करता है समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है.
मुझमें ही सब व्याप्त है मैं ही चैतन्य, साक्षी सदाशिव हूँ. समस्त लोकों का भोगी भी मै हूँ इनका भोग्य व भोग मैं हूँ सब मुझ से ही पैदा हुए हैं और मुझ में ही मिल जाएंगे मैं ब्रह्म हूँ, मैं अणु से भी सूक्ष्म हूँ, बडे से भी बडा़ मैं ही हूँ मैं ही प्राचीन पुरातन हूँ मैं पूरूष तथा सुनहरा रंग हूँ सोने सी आभा हूँ मैं ही सदाशिव हूँ. मैं हाथ व पांव बिना हूँ परंतु शक्तिशाली हूँ, बिना आँख के देख सकता हूँ बिना कान के सुनने में सक्षम हूँ मैं निराकार, निर्गुण, अज्ञात तथा शुद्ध चैतन्य हूँ.
कैवल्योपनिषद में कैवल्य अर्थात ब्रह्म की प्राप्ति या जीवन का अंतिम सत्य प्राप्त करने के बारे में कई बातों का उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार ब्रह्म ही सृष्टिकर्ता है उसे जानकर संपूर्ण सृष्टि आनंद प्राप्त करते है. वह अनादि, अनन्त ब्रह्मानन्द है. योगी जब आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तो वह उस अनुभूति को महसूस करने लगता है. जीव जब अपनी आत्मा को सभी प्राणियों के समान देखता है और सभी में अपनी आत्मा को पाता है तो वह कैवल्य की प्राप्ति कर सकता है.
ब्रह्मा जी के कथन अनुसार इस परम ज्ञान को पाने के लिए भक्ति व आस्था की आवश्यकता है संन्यास एवं साधना के द्वारा ही इस पद की प्राप्ति संभव है. ब्रह्म का साक्षात्कार कर साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त करता है तथा सभी में आत्म-दर्शन का अनुभव करेगा वह स्वयं को ब्रह्म मानने लगेगा- इस स्थिति की प्राप्ति ही कैवल्य है  कैवल्य ही आत्मा से साक्षात्कार है। त्याग को अपना कर ही हम इस की महान अनुभूति को ग्रहण कर सकते हैं.
जो रहस्य हृदय की गुफा में छिपा दिव्य स्वरूप में चमकता रहता है जिसे और जानने के लिए निरंतर प्रयास रत रहना होता है, तभी हम अमरत्व को प्राप्त करने की अभिलाषा कर सकते हैं.]
[इस ग्रन्थ के उपर स्वामी विवेकानन्दजी ने संस्कृत में बहुत सुन्दर भाष्य लिखा है, 3जुलाई 1897 को अपने शिष्य शरत चन्द्र चक्रवर्ती को लिखे एक पत्र में इस भाष्य को इस प्रकार लिखते हैं-
Almora,
3rd July, 1897.
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय। यस्य वीर्येण कृतिनो वयं च भुवनानि च। रामकृष्णं सदा वन्दे शर्वं स्वतन्त्रमीश्वरम्॥
"प्रभवति भगवान् विधि" रित्यागमिनः अप्रयोगनिपुणाः प्रयोगनिपुणाश्च पौरुषं बहुमन्यमानाः। तयोः पौरुषेयापौरुषेयप्रतीकारबलयोः विवेकाग्रहनिबन्धनः कलह इति मत्वा यतस्वायुष्मन् शरच्चन्द्र आक्रमितुम् ज्ञानगिरिगुरोर्गरिष्ठं शिखरम्।
यदुक्तं "तत्त्वनिकषग्रावा विपदिति" उच्येन तदापि शतशः "तत्त्वमसि" तत्त्वाधिकारे। इदमेव तन्निदानं वैराग्यरुजः। धन्यं कस्यापि जीवनं तल्लक्षणाक्रान्तस्य। अरोचिष्णु अपि निर्दिशामि पदं प्रचीनं—"कालः कश्चित् प्रतीक्ष्यताम्" इति। समारूढक्षेपणीक्षेपणश्रमः विश्राम्यतां तन्निर्भरः। पूर्वाहितो वेगः पारंनेष्यति नावम्। तदेवोक्तं—"तत् स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति," "न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः" इत्यत्र त्यागेन वैराग्यमेव लक्ष्यते। तद्वैराग्यं वस्तुशून्यं वस्तुभूतं वा। प्रथमं यदी, न तत्र यतेत कोऽपि कीटभक्षितमस्तिष्केन विना; यद्यपरं, तदेदम् आपतति—त्यागः मनसः संकोचनम् अन्यस्मात् वस्तुनः, पिण्डीकसणं च ईश्वरे वा आत्मनि। सर्वेश्वरस्तु व्यक्तिविशेषो भवितुं नार्हति, समष्टिरित्येव ग्रहणीयम्। आत्मेति वैराग्यवतो जीवात्मा इति नापद्यते, परन्तु सर्वगः सर्वान्तर्यामी सर्वस्यात्मरूपेणावस्थितः सर्वेश्वर एव लक्ष्यीकृतः। स तु समष्टिरूपेण सर्वेषां प्रत्यक्षः। एवं सति जीवेश्वरयोः स्वरूपतः अमेदभावात् तयोः सेवाप्रेमरूपकर्मणोरभेदः। अयमेव विशेषः—जीवे जीवबुद्धया या सेवा समर्पिता सा दया, न प्रेम, यदात्मबुद्धया जीवः सेव्यते, तत् प्रेम। आत्मनो हि प्रेमास्पदत्वंश्रुतिस्मृतिप्रत्यक्षप्रसिद्धत्वात्। तत् युक्तमेव यदवादीत् भगवान् चैतन्यः — प्रेम ईश्वरे, दया जीवे इति। द्वैतवादित्वात् तत्र भगवतः सिद्धान्तः जीवेश्वरयोर्भेदविज्ञापकः समीचीनः। अस्माकं तु अद्वैतपराणां जीवबुद्धिर्बन्धनाय इति। तदस्माकं प्रेम एव शरणं, न दया। जीवे प्रयुक्तः दयाशब्दोऽपि सहसिकजल्पित इति मन्यामहे। वयं न दयामहे, अपि तु सेवामहे; नानुकम्पानुभूतिरस्माकम्, अपि तु प्रेमानुभवः स्वानुभवः सर्वस्मिन्।
सैव सर्ववैषम्यसाम्यकरी भवव्याधिनीरूजकरी प्रपञ्चावश्यम्भाव्यत्रितापहरणकरी सर्ववस्तुस्षरूपप्रकाशकरी मायाध्वान्तविध्वंसकरी आब्रह्मस्तभ्बपर्यन्तस्वात्मरूपप्रकटनकरी प्रेमानुभूतिर्वैराग्यरूपा भवतु ते शर्मणे शर्मन्।
इत्यनुदिवसं प्रार्थयति त्वयि धृतचिरप्रेमबन्धः
विवेकानन्दः।
(हिन्दी अनुवाद )
ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय।
" जिनकी शक्ति से हम सब (ठाकुर के दास) लोग तथा समस्त जगत कृतार्थ हैं, उन शिव-स्वरुप, स्वतंत्र, ईश्वर श्री रामकृष्ण की मैं चरण वन्दना करता हूँ।"
आयुष्मान शरच्चन्द्र,
शास्त्रों के वे रचनाकार जो कर्म करने में रूचि नहीं रखते, कहते हैं कि सर्व-शक्तिमान भावी प्रबल है; परन्तु दूसरे लोग जो 'कर्म को ही पूजा' समझते हैं, कहते हैं कि मनुष्य की इच्छा-शक्ति श्रेष्ठतर है। जो मानवी इच्छा-शक्ति को दुःख हरनेवाला समझते हैं, और जो भाग्य का भरोसा करते हैं, इन दोनों पक्षों में मतभेद का कारण अविवेक ही है। तुम ज्ञान की उच्चतम अवस्था (कैवल्य) में स्थित रहने का प्रयत्न करो।
यह कहा गया है कि -" विपत्ति सच्चे ज्ञान की कसौटी है ", और यही बात 'तत्वमसि' (तू वह है - का अनुभव किसी व्यक्ति को हुआ है या नहीं इसकी कसौटी ) सच्चाई के बारे में हजार गुना अधिक कही जा सकती है। यह वैराग्य की बीमारी का सच्चा निदान है। धन्य हैं वे, जिनमें यह (वैराग्य की बीमारी का 'तू वह है ') लक्ष्ण - पाया जाता है। ( "Thou art That." This truly diagnoses the Vairâgya (dispassion) disease. Blessed is the life of one who has developed this symptom.) हालाँकि यह तुम्हें बुरा लगता है, फिर भी मैं यह कहावत दुहराता हूँ, " कुछ देर प्रतीक्षा करो। तुम नाव खेते खेते थक गये हो, अब डाँड़ पर आराम करो। "गति के आवेग से नाव उस पार पहुँच जायेगी। गीता में भी कहा गया है- 

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । 
            तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ।।4/38।।
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को शुद्ध अन्तःकरण वाला साधक (" जो कुछ है सो तू ही है !" या सब में 'तू वह है ' देख कर कितने ही काल तक " शिव ज्ञान से जीव सेवा " रूपी कर्मयोग का अनुष्ठान करके अपने अन्तःकरण को शुद्ध कर लेता है और ) समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा स्वयं अपनी आत्मा में यथासमय अनुभव करता है। ( धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होए     माली सींचे सौ घड़ा, ऋतू आये फल होए ॥  अर्थ: अगर माली पौधे को रोज सौ घड़ों से सींचे तो भी पौधा एक दिन में पेड़ नहीं हो जाएगा जीवन में सब कुछ (परम ज्ञान भी ) अपने समय पर मिलता है। आसक्त होकर जल्दीबाजी में कर्म करने से अन्तःकरण शुद्ध नहीं होगा, और उस  परम ज्ञान- "जो कुछ है सो तू ही है ! तत्वमसि !" का अनुभव नहीं होगा।)
और उपनिषद में कहा गया है-न कर्मणा न प्रजया धनेन त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः ॥" न धन से, न सन्तान से, वरन केवल त्याग से ही अमरत्व प्राप्त हो सकता है।" (कैवल्य:2) (यहाँ 'त्याग' शब्द, जिसे ठाकुर 'तागी-तागी ' कहते थे की महिमा का वर्णन करते हुए स्वामीजी कहते हैं-) अगर माली पौधे को रोज सौ घड़ों से सींचे तो भी पौधा एक दिन में पेड़ नहीं हो जाएगा जीवन में सब कुछ अपने समय पर मिलता है जल्दबाजी से कभी कुछ नहीं हो पायेगा। धीरे धीरे रे मना , धीरे सब कुछ होए माली सींचे सौ घड़ा , ऋतू आये फल होए अर्थ: अगर माली पौधे को रोज सौ घड़ों से सींचे तो भी पौधा एक दिन में पेड़ नहीं हो जाएगा जीवन में सब कुछ अपने समय पर मिलता है जल्दबाजी से कभी कुछ नहीं हो पायेगा
" यहाँ 'त्याग' शब्द से वैराग्य का संकेत किया गया है। यह दो प्रकार का हो सकता है-उद्देश्यपूर्ण और उद्देश्यहीन। दूसरे प्रकार का वैराग्य या उद्देश्यहीन वैराग्य तो वही पाना चाहेगा जिसका दिमाग सड़ चूका हो। परन्तु यदि पहले से अभिप्राय हो तो उस वैराग्य का अर्थ होता है, मन को अन्य वस्तुओं से हटाकर भगवान या आत्मा में लीन कर लेना।  सबका स्वामी परमात्मा कोई व्यक्ति-विशेष नहीं हो सकता, वह तो समष्टि रूप ही होगा। वैराग्यवान मनुष्य आत्मा शब्द का अर्थ व्यक्तिगत 'मैं' (या अहं ) न समझकर, उसे ॐ या सर्वव्यापी ईश्वर समझता है, जो सबके अंतर्नियामक होकर सब के हृदय में वास कर रहा है। वे समष्टि जगत के रूप में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो सकते हैं। इस प्रकार जब जीव और ईश्वर स्वरूपतः अभिन्न हैं, तब जीवों की सेवा और ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ एक ही है।
यहाँ एक विशेषता है,जब जीव को जीव समझकर सेवा की जाती है,तब वह दया है,प्रेम नहीं; परन्तु जब उसे आत्मा समझकर सेवा की जाती है, तब वह प्रेम कहलाता है। आत्मा ही प्रेम का एकमात्र पात्र है,यह श्रुति,स्मृति और अपरोक्षानुभूति से जाना जा सकता है। भगवान चैतन्य महाप्रभु ने इसलिए यह ठीक ही कहा था-"ईश्वर से प्रेम और जीवों पर दया।" वे द्वैतवादी थे, इसलिए जीव और ईश्वर में भेद करने का उनका निर्णय उनके अनुरूप ही था।
परन्तु हम अद्वैतवादी हैं। हमारे लिये जीव को ईश्वर से पृथक समझना ही बंधन का कारण है। इसलिए हमारे ज्ञान की अभिव्यक्ति प्रेम के द्वारा होनी चाहिये, न कि दया से। हमारा धर्म करुणा करना नहीं,सेवा करना है। मुझे तो जीवों के प्रति 'दया' शब्द का प्रयोग विवेकरहित और व्यर्थ जान पड़ता है। दया की भावना हमारे योग्य नहीं, हममें प्रेम एवं समष्टि के साथ एकत्व या सब में स्वयं को देखने की भावना होनी चाहिये।
जिस वैराग्य का भाव प्रेम में अभिव्यक्त होता है, जो प्रेमपूर्ण वैराग्य समस्त प्रकार की भिन्नता को एक कर देता है, जो संसार-रूपी रोग को दूर कर देता है। जो इस नश्वर संसार के त्रय-तापों को  नष्ट कर देता है, जो सब चीजों के यथार्थ रूप को प्रकट करता है,जो (प्रेम) माया के अंधकार को भी विनष्ट करता है, और-
आब्रह्मस्तभ्बपर्यन्तस्वात्मरूपप्रकटनकरी प्रेमानुभूतिर्वैराग्यरूपा भवतु ते शर्मणे शर्मन्।  घास के तिनके से लेकर ब्रह्मा तक सब चीजों में आत्मा का स्वरूप दिखाता है, वह वैराग्य, हे शर्मन,अपने कल्याण के लिये तुम्हें प्राप्त हो। मेरी यह निरंतर प्रार्थना है।"6/340]
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                                                     ।। आठ।।
इसके बाद कुछ समय तक इन्हीं सिद्धांतों (वेद के चार महावाक्यों) के ऊपर अत्यधिक चर्चा होने लगी, कुछ लोग सत्य को जानने की आचार्यों द्वारा निर्धारित पद्धति-एकाग्रता; का अभ्यास करने लगे। चलते चलते, जो विवेचना पहले हो रही थी, हमलोगों ने पाया कि 
 वाह्य जगत की समस्त बातों का अनुसन्धान करने वाला 'मैं-पन', जिज्ञासा करने वाला 'ज्ञाता' ही अन्तर्जगत में खो जाता है ! उस समय पुनः व्यासदेव ही आते हैं, और उस संहिता को, वेद को संहत करके, अर्थात एकीकृत करने के बाद चतुर्वेद के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं। 
उन्होंने उसके भीतर जो ज्ञानकाण्ड था, वेदान्त या उपनिषद के अंश थे, उसके भीतर वेदान्त के तत्वों को युक्ति-तर्क के आधार पर सजा देते हैं, पंक्तिबद्ध कर देते हैं। यह सब करने के बाद उन्होंने देखा कि यह सब तो केवल तत्व की बातें हैं, इन तत्वों को जीवन में उतारने वाले लोग कहाँ हैं ? इस ज्ञान का प्रयोग तो मनुष्य नहीं कर रहा है। विवेकज ज्ञान का व्यवहार कहाँ हो रहा है ? वेदों में जिन सिद्धांतों को व्यवहार में उतारने का आदेश दिया गया है, उसके द्वारा अनुप्रेरित होकर जो लोग अपने आचरण में उन्हें नहीं उतारते हैं, उसको समस्त वेद , समस्त शास्त्र भी पवित्र नहीं बना सकते।'सदाचार-महिमा' या चरित्र-निर्माण के महत्व पर प्रकाश डालते हुए हमारे धर्मशास्त्रों 
(वासिष्ठस्मृति ६/३; देवीभागवत ११/२/१ ) में कहा गया है --
अचारहीनं न पुनन्ति  वेदा  यद्यप्यधीताः  सह  षड्  भिरङ्गेः ।
 छन्दांस्येनं मृत्युकाले त्यजन्ति नीडं शकुन्ता इव जातपक्षाः ॥
 'शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द, व्याकरण और ज्योतिष--- इन छः अंगों सहित अध्ययन किये हुए वेद भी आचारहीन मनुष्यको पवित्र (पुण्यवान) नहीं करते । मृत्युकाल में आचारहीन मनुष्यको वेद वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे पंख उगने पर पक्षी अपने घोंसलेको ।'
इसीलिये व्यासदेव ने देखा कि हमारे वेदों में अनेकों ऋषियों की अपनी अनुभूति द्वारा उद्घाटित सत्य हैं-जिन्हें सुनकर मनुष्य सचमुच आनंदित हो उठता है। वेद के अन्त में या वेदान्त में अनेकों ज्ञान और सत्य की बातें तो हैं,  किन्तु उनमें निहित तत्वों को, मनुष्य बिना किसी योग्य शिक्षक के जीवन को देखे, अपनी युक्ति के आधार पर समझने में असमर्थ हो रहे हैं। साधारण गृही मनुष्य  उपनिषद या वेदान्त की कुछ कुछ सिद्धांतों के रहस्य को वे समझ नहीं पा रहे हैं।
 जैसे कहीं कहीं ब्रह्म के बारे में कहा जा रहा है-" आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः । वह ब्रह्म बैठा हुआ ही (आसीनो) दूर पहुँच जाता है (दूरम व्रजति); सोता हुआ भी (शयानो) सब ओर चलता रहता है (याति सर्वतः)।(कठोपनिषद .1/2/21)  अपाणिपादो जवनो ग्रहीता। - वह ब्रह्म हाथ-पैरों से रहित होकर भी (अपाणिपादो) समस्त वस्तुओं को ग्रहण करने वाला(ग्रहिता) है; और वेगपूर्वक सर्वत्र गमन करने वाला (जवनो) है। पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। आँखों के बिना ही (अचक्षुः) वह (पश्यति) सबकुछ देखता है। और कानों के बिना ही (अकर्णः) सबकुछ सुनता है(श्रुणोति)। अणोरणीयान् महतो महीया- नात्मा गुहायां 
निहितोऽस्य जन्तोः। वह अणु से भी छोटा है, अर्थात सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, फिर (महतः महीयान) बड़े से भी बहुत बड़ा है। और (अस्य जन्तोः) इस जन्तु  की हृदय रूपी गुफा में छिपा हुआ है जो (मैं मैं करने वाले बकरे जैसा ) मनुष्य जैसा दिख रहा है। (श्वेताश्वतरोपनिषत्3/19-20)) 
इस प्रकार के ब्रह्म जो एक ही समय में परस्पर विरुद्ध धर्मों के आश्रय है, एक ही समय में उनमें जो विरुद्ध धर्मों की लीला होती है; इस बात को कुछ मुंडित-मस्तक लोग भी नहीं समझ पा रहे थे। वे वाह्य जगत को-'
पानी की बून्द में बन्द हवा' - पानी का बुलबुला तो बता रहे थे। इसी बहाने न यम-नियम का पालन कर रहे थे, न अन्य कोई कर्म ही कर रहे थे। इस समय कर्म करने की आवश्यकता थी। इसीलिये व्यासदेव ने महाभारत के भीतर गीता के कर्म को स्थापित किया। बिना कर्म किये चित्त शुद्धि नहीं होती है, माथा और बुद्धि को स्वच्छ करने के लिये, गीता में कर्मयोग को समझाया गया है। हमारे वेदों में जो ज्ञान था, उस वेदान्त के दर्शन को तर्क के आधार पर वाह्यजगत में या समाज में किस प्रकार व्यवहार में लाया जा सकता है, इसे गीता में बताया गया है। इसीलिये के लिये गीता को सारे उपनिषदों का सार कहा गया है-
यदि ‘सम्पूर्ण उपनिषद गौ के समान हैं'-तो उनका दूध दुहना होगा। अर्थात गीता के सार को बाहर निकलना होगा। कृष्ण, जिन्होंने गीता कहा था, वे मानो एक ग्वाला हैं, जिन्होंने उन उपनिषदों का दोहन किया था। एवं 'सुधीर्भोक्ता'- सुधी, जिनकी धी शान्त है, जो धी-सम्पन्न मनुष्य हैं, जो लोग समझने की क्षमता रखते हैं, वे भोक्ता हैं, अर्थात उत्तम बुद्धिवाले पुरुष ही उसके पीनेवाले हैं|एवं 'दुग्धं गीतामृतं महत्' महत्त्वपूर्ण गीता का उपदेशामृत ही दूध है, जिसे समस्त उपनिषदों का दोहन करके दूध अर्थात उनका सार ले लिया गया है। बुद्धिमान लोग उसको पीने वाले हैं। वे इस दूध को पीकर यथार्थ पोषण प्राप्त करेंगे। जो लोग अभी दुर्बल हो गये हैं, जो निष्क्रिय हो गये हैं, तमोगुण की अधिकता में पड़ कर लगभग जड़ के समान हो गये हैं,उनकी जीवनी शक्ति कमजोर हो गयी है, वे लोग नपुंसकता को प्राप्त हो गये है। इस दूध को पीकर वे जाग्रत हो उठेंगे, कर्म के प्रति उनमें उत्साह उत्पन्न हो जायेगा।  स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि गीता के सार को तुमलोग इस श्लोक में प्राप्त का सकते हो-
क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
 क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप ।।2/3।।

 हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है।  हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ।।

इस प्रकार गीता सभी मनुष्यों के अवसाद को झाड़ कर दूर कर देने वाली महाऔषधि है जिसे उपनिषदों से दोहन करके उसके सार को इस गीता में रख दिया गया है। और उन महान उपनिषदों का स्थान कहाँ हैं? 
" तिलेषु तैलवद्वेदे वेदान्तः सुप्रतिष्ठितः ॥ ९॥" (मुक्तिक उपनिषद्)
जिस प्रकार तिल में तेल भरा होता है, उसी प्रकार उपनिषद या वेदान्त वेद में प्रतिष्ठित है। इसीलिये हमलोग अपनी उस प्राचीन संस्कृति को जो वेद पर सू-प्रतिष्ठित है, अस्वीकार नहीं कर सकते हैं। वेद केवल हिन्दुओं का नहीं है। उपनिषद केवल हिन्दुओं का नहीं है। गीता केवल हिन्दुओं का नहीं है। रामकृष्ण-विवेकननन्द चिन्तनधारा केवल हिन्दुओं के लिये नहीं है-ये सब सम्पूर्ण मानव जाति की अमुल्य संपदा है, मार्गदर्शक हैं
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[हिन्दूओं में जाती प्रथा का प्रचलन  प्राचीन काल से हीं चला आ रहा है | यह प्रथा प्राचीन काल में ऋषियों मुनियों के द्वारा प्रारंभ की गयी थी। प्रश्न उठता है कि  ऋषियों मुनियों के द्वारा चलायी गयी यह परम्परा कैसे गलत हो सकती है ?  ऋषि मुनि तो उन्नत किस्म के सिद्ध पहुचे हुए प्रखर बुद्धिमान और उस युग के वैज्ञानिक आविष्कारक भी थे ।प्राचीन काल में सिद्ध तपस्वियों द्वारा इस प्रथा की नीवं डाली गयी | वैदिक काल में हिंदू धर्म में तीन वर्ण थें। इन वर्णों की व्यवस्था इनके कर्मो के अनुसार की गयी।  ऋग्वैदिक काल में इनका वर्णन कुछ इस प्रकार है: -१. ब्रह्मा – जो ब्रह्म की या ईश्वर की उपासना करे तथा जो यज्ञों का संपादन करे। २.  क्षत्र – आर्यों के भारत आगमन के पश्चात अनार्यों से युद्ध हुआ ,फलस्वरूप आर्यों ने अपने कबीले से शक्तिशाली लोगों को रक्षा हेतु चुना जिन्हें क्षत्र कहा गया अर्थात जो क्षत यानि हानि से रक्षा करे वह क्षत्र । ३.विश: - इन दोनों के आलावा शेष सारे लोग विश: कहलाये |
कुछ  इतिहास कारों के अनुसार आर्य तथा अनार्य दोनों वर्गों के बिच जो श्रमिक वर्ग उभर कर आयी उन्हें शूद्र की संज्ञा दे दी गयी। मतलब साफ़ है गरीब तथा कमजोर वर्ग उपेक्षा का शिकार बन गयी। कालान्तर में शूद्रों की स्थिति दयनीय होती चली गयी। जाती प्रथा का आधार जन्म अर्थात वंशानुगत होता चला गया नाना प्रकार की कुरीतियाँ इस धर्म में समाती चली गयी। इसके पूर्व कर्म हीं जाती का आधार बनता था वंशानुगत नहीं। 

क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात् तथैव च॥ (मनुस्मृति) 
आचारण बदलने से शूद्र ब्राह्मण हो सकता है और ब्राह्मण शूद्र । यही बात क्षत्रिय तथा वैश्य पर भी लागू होती है। आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः । (वशिष्ठ स्मृति) आचरण हीन को वेद भी पवित्र नहीं करते |
जातिरिति च । न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः ।
          न जातिरात्मनो जार्तिव्यवहार प्रकल्पिता॥ 
(निरावलम्बोपनिषद्)
जाति चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती, आत्मा की नहीं होती । वह तो मात्र लोक-व्यवस्था सुचारू ढंग से चलाने के लिये कल्पित कर ली गई है । अतः जाती या धर्म के आधार पर भेदभाव कहीं उचित नहीं ठहरता।
बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862) भारत के आखिरी शहंशाह थे। उन्होंने १८५७ का प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्यु हुई। 1857 में जब हिंदुस्तान की आजादी की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उनके नेतृत्व में अंग्रेजों की ईट से ईट बजा दी।
शुरुआती परिणाम हिंदुस्तानी योद्धाओं के पक्ष में रहे, लेकिन बाद में अंग्रेजों ने छल-कपट करके हिन्दुओं और मुसलमानों में दंगे करवा दिये और - "बाँटो और  राज करो"  के चलते प्रथम स्वाधीनता संग्राम का रुख बदल गया और अंग्रेज बगावत को दबाने में कामयाब हो गए। आजादी के लिए हुई बगावत को पूरी तरह खत्म करने के मकसद से अंग्रेजों ने अंतिम मुगल बादशाह को देश से निर्वासित कर रंगून भेज दिया। उनकी अंतिम इच्छा थी कि वह अपने जीवन की अंतिम सांस हिंदुस्तान में ही लें और वहीं उन्हें दफनाया जाए लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।मुल्क से अंग्रेजों को भगाने का सपना लिए सात नवंबर 1862 को 87 साल की उम्र में उनका निधन हो गया। वहाँ उन्होंने लिखा था-कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥
 उन्हें रंगून में श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफनाया गया। उनके दफन स्थल को अब बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से जाना जाता है। लोगों के दिल में उनके लिए कितना सम्मान था उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में जहां कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है। बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह जफर पार्क कर दिया गया है।उनके द्वारा उर्दू में लिखी गई पंक्तियां भी काफी मशहूर हैं-हिंदिओं में बू रहेगी जब तलक ईमान की। तख्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।।"
किन्तु भारत तब भी एक राष्ट्र था, उनके नेतृत्व में हिन्दू-मुसलमान दोनों ने मिलकर अंग्रेजों को इस देश से भागने का पहला स्वाधीनता संग्राम  लड़ा था। किन्तु ' अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो ' की पॉलिटिक्स के चक्कर में पड़ कर हमारा समाज बँट गया। हम आदमी से इन्सान बनने की बात को भूल गये। हिन्दू-मुसलमान या बैकवर्ड -फॉरवर्ड होने के पहले हम एक मनुष्य हैं। इसीलिये हिन्दू-मुसलमान बनने के पहले हमें मनुष्य बनना चाहिये। ग़ालिब ने कहा था-" बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना,आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना "
लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद आज भी ' जस्टिस काटजू ' (प्रेस काउंसिल के चेयरमैन जस्टिस मार्कंडेय काटजू )  जैसे लोग वोट बैंक की राजनीती करने के लिये 'सामाजिक-न्याय ' के नाम पर इस राष्ट्रिय एकता को खण्डित कर रहे हैं। गुजरात में 2002 में जो दंगा हुआ था उसमें केवल मुसलमान ही नहीं मरे थे हिन्दू भी मरे थे, कहीं भी दंगा होता है उसमें 'इन्सान' मरता है, हिन्दू-मुसलमान नहीं मरते 'मनुष्य' मरता है, या बैकवर्ड-फॉरवर्ड में घृणा फ़ैलाने से भी मनुष्य ही मरता है।  हम सभी भारत वासियों को अपनी 'राष्ट्रीय एकता' की रक्षा करने के लिये जस्टिस काटजू जैसे 'क्षद्म-धर्मनिरपेक्षों' और 'क्षद्म- सामाजिकन्याय ' की बात करने वालों को पहचान कर उन्हें अलग-थलग करने का प्रयास करना चाहिये। हिन्दू-मुसलमान दोनों को, प्रत्येक भारतीय को इस कुरीति को दूर कर के, राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने के लिये कृतसंकल्पित होना चाहिए। आजादी के बाद भी जस्टिस काटजू जैसे लोगों की लफ्फाजी का परिणाम आज पूरा देश और समाज भोग रहा है। कहीं जात के आधार पर वोट की  मांग ,कहीं धार्मिक दुश्मनी के कारण मार काट ! हाय रे हाय ! विश्व गुरु रहने वाला देश-भारत ! कह कर रोते रहने से नहीं होगा अब फिर से एकबार भारत के समस्त वतनपरस्त हिन्दू-मुसलमानों को मिलजुल कर भारत माता को फिर से उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठना होगा। 

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                                                            ।। नौ ।।
  हमलोगों के ऋग्वेद का एक मंत्र है- " कृण्वन्तो विश्वमार्यम। "अर्थात्‌-समस्त विश्व को आर्य बनाओ ! (आर्य बनाने का अर्थ विश्व का धर्मान्तरण कर देना नहीं है।‘आर्य‘ कोई जाति नहीं थी। ‘आर्य‘ और ‘द्रविड़‘ नाम से जातियों की कल्पना महज एक मिथक है।) ‘आर्य‘ का अर्थ है- श्रेष्ठ, आदरणीय, योग्य, प्रबुद्ध या सभ्य विश्व-नागरिक। आओ हमलोग हम सज्जन, श्रेष्ठ मनुष्यों की संख्या में वृद्धि का प्रयास करें और वेदों का सन्देश सुनाकर, सम्पूर्ण विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलें। इस प्रकार विश्व के मनुष्यों का कल्याण करें।
स्वामी विवेकानन्द ने सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा का उल्लेख करते हुए कहा था, " सबों को संस्कृति दो। केवल पेट भर खाना देने से, या केवल ज्ञान देने से ही नहीं होगा, जनसाधारण को संस्कृति भी देनी होगी। क्योंकि केवल संस्कृति ही विदेशी आघात को रोक देने की ताकत रखती है। संस्कृति ही विदेशी आघात का प्रतिरोध कर सकती है।"
हमलोग- अब जंगली जानवरों जैसे नंग-धड़ंग नहीं रहते हैं,वन से बाहर निकल चुके हैं,सभी-शिष्ट मनुष्य बन गये हैं। मौसम के अनुसार कपड़े पहनते है, सामर्थ्य के अनुसार झोपड़े या भवन के अन्दर रहते हैं, ठंढ के मौसम में हीटर जलते हैं, या अलाव जला कर तापते हैं,गर्मी के दिन में पंखे की हवा खाते हैं, या वातानुकुल-यंत्र लगाते है। किन्तु यही सबकुछ नहीं है। सभ्यता आती है, फिर मिट जाती है; किन्तु संस्कृति कभी नहीं मिट सकती है।
 भारतवर्ष की संस्कृति कितनी महान है! यह कोई गड़ेड़ीये का गीत नहीं है। ऐसा ज्ञान विश्व में कहीं नहीं है।भारतवर्ष की जो सांस्कृतिक विरासत वेद के उपर सुप्रतिष्ठित है, विश्व के कल्याण के लिये, विश्व के मनुष्यों के क्रम-विकास के लिये, विश्व को भारतवर्ष की संस्कृति की आवश्यकता है।एकमात्र भारतवर्ष की जो वैदिकसंस्कृति है,वही विश्व का मार्गदर्शन करेगी।
वेद से वेदान्त हुआ,वेदान्त या उपनिषद से वेदान्त-सूत्र बनाया गया, और वेदान्त-सूत्र के बाद गीता का ज्ञान मिला। गीता के बाद मनुष्य के चिन्तन और कर्म की शक्ति के क्षेत्र में जो थोड़ी सुस्ती आ गयी थी; उसे रामकृष्ण-विवेकानन्द ने आकर फिर से जाग्रत कर दिया है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप ।।4/2।। 
हे परंतप इस तरह गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परासे प्राप्त इस योग को राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया। काल का प्रभाव ही ऐसा है, कि कोई भी महान वस्तु, या मूल्यवान वस्तु समय की गति के साथ कुछ दुर्बल हो जाती है, उसकी कार्यकारिता थोड़ी कम हो ही जाती है। इसके कारण के बारे में आचार्य शंकर कहते हैं-"दुर्बलान्
 अजितेन्द्रियान् प्राप्य "- अर्थात हमलोग इन्द्रीय विषयों के वश में होकर दुर्बल हो गये हैं। इसीलिये हम जैसे लोगों के हाथों में पड़ कर यह ' शक्तियोग ' या हमारा 'योग-बल ' हमसे खो गया है। इसलिये इस योगबल को जाग्रत करा देने के लिये बीच बीच में ठाकुर-माँ-स्वामीजी को आना पड़ता है।

                                                      ।। दस।।
हमारे देश की यह सनातन चिन्ताधारा- वेदान्त -परम्परा; जिसकी उत्पति वेदों से हुई है, उसके बाद उपनिषद या वेदान्त-सूत्र, फिर गीता इत्यादि के माध्यम से होती हुई, आज तक प्रवाहित होती आ रही है, और जब कभी इसमें अवनती का भाव दिखाई देता है, ठीक उसी समय कोई न कोई महापुरुष या विचार-आन्दोलन आविर्भूत होकर पुनः उस योगबल को जाग्रत करा देता है। हम कहीं अपने सनातन भावधारा को भूल नहीं जाएँ, इसिलिये अभी के युग के अनुसार जो बातें उपयोगी हों उस योग में सम्मिलित करके हमारे युग में श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द ने जगत के सामने प्रस्तुत किया है। 
हमारी संस्कृति का मूल भाव है- 'वैश्विक एकत्व!' 
वेदों में प्रार्थना की गयी है- 'मित्रास्य चक्षुषा समीक्षामहे  (यजु.  36/18)' दृढ़ता के देव ! आप मुझे इतनी दृढ़ता दीजिये कि मैं सम्पूर्ण विश्व को मित्र की दृष्टि से देख सकूँ। सब व्यक्ति मुझे मित्र की दृष्टि से देखें। मैं भी सभी व्यक्तियों को मित्र की दृष्टि से देखूं। सभी परस्पर मित्र की दृष्टि से देखा करें।और मित्रता का भाव रखने के लिए परस्पर प्रेम अनिवार्य शर्त है। जो दुर्बल होता है, वही दूसरे को शत्रु के रूप में देखता है, सबल नहीं। 'ईशावास्यमिदं सर्वम्' यजु.  (40/1) अर्थात यह सारा संसार ईश्वर से आच्छादित है, ढका हुआ है, ईश्वर इसमें ओत-प्रोत है। हमें चाहिए कि हम द्वेष, घृणा, ईष्र्या, जलन, शत्रुता एवं दूसरों को अपमानित करने के भावों को अपने मन से निकाल दें और सभी में ईश्वर के दर्शन करते हुए सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करके सबकी सेवा, आदर एवं  मान-सम्मान करें । वैसे प्रेम व्यवहार में एक जबरदस्त चुंबकीय आकर्षण है, जादू है।  इससे हम पूरे विश्व को जीत सकते हैं। प्रेम से हम शत्रु को भी अपना मित्र बना सकते हैं। प्रेम की भावना का प्रारम्भ घर से करें। माता-पिता, भाई-बहन, बन्धु-बान्ध्व सभी रिश्तों को प्रेम भाव से सिंचित कर मजबूत बनायें फिर इस इकाई को दृढ़ करते हुए पड़ोसी समाज देश और राष्ट्र से प्रेम करें और इसकी परिधि को बढ़ाते हुए संसार के प्राणी मात्र से प्रेम करें और इस प्रेम की पराकाष्ठा इस संसार के रचयिता नियामक ईश्वर से सम्पूर्ण समर्पण भाव से प्रेम करें । हम किस प्रकार से प्रेम करें? तो अथर्ववेद में उसका समाधन प्रस्तुत करते हुए संदेश दिया अन्यो अन्यमभि हर्यम वत्सं जातमिवाहन्या । (अ.  30/1) 
अर्थात एक- दूसरे के साथ ऐसा प्रेम करें जैसे गाय अपने नवजात बछड़े के साथ करती है।) ऐसी शक्ति कि हम सम्पूर्ण विश्व को मित्र की दृष्टि से देख सकें, ऐसा योग-बल हमें केवल भारतीय सनातन चिन्ताधारा से ही प्राप्त हो सकता है। समस्त वेदान्त का जो सारतत्व है - " सर्वसत्त्वसुखो हितः"   वह हमें यही सिखाती है-सभी जीवों का सुख विधान करने और हितसाधन करने से ही घट घट में व्याप्त अद्वय सत्ता की अनुभूति होती है।[अदार सृद भवतु सोमा स्मिन्यज्ञे मसतो मृअतान:। मा नो विददभिमा मो अशस्तिमां नो विदद् वृजिना द्वेष्या या।। अथर्व १-२०-१”हे सोमदेव! हम सब आपस में निरन्तर परस्पर के बीच फूट हटाने वाले कार्य करते रहें। हे मरूतो ! इस यज्ञ में हमें सुखी करो। पराभव या पराजय हमारे पास न आवे। कलंक हमारे पास न आवे और जो द्वेष भाव बढ़ाने वाले कुटिल कृत्य है, वे भी हमारे पास न आयें।” यहाँ दृष्टव्य है कि फ़ूट पड़ने के बीज हमारे भीतर पड़ते रहते हैं, किन्तु उऩ्हें हमेशा हटाते रहना ही हमारा धर्म है।]
वेदान्त तत्व को नीरस कहे जाने पर श्रीरामकृष्ण हँस पड़े थे। 'कहते क्या हो, वे तो रसस्वरूप हैं!' जिनके जीवन में 'भारतीय संस्कृति और सनातन भावधारा'-पूर्णता को प्राप्त हुई थी, ठाकुर-माँ-स्वामीजी का जीवन ही उसका प्रमाण है। किसी प्राचीन कवि ने कहा है- " वेदान्ती हतसत्क्रियः किमपरं हास्यास्पदं भूतले।"
कोई यह कहे कि वेदान्ती कभी कल्याण-कर्मों से विमुख भी हो सकता है, तो उससे बड़ी हास्यास्पद बात इस जगत में क्या हो सकती है ? इस सनातन भावधारा की मूल रहस्य को सबसे प्राचीन उपनिषद के नाम से परिचित ' ईशावास्य उपनिषद् ' में कहा गया है- ईशावास्यं इदं सर्वं यत् किञ्च जगत्यां जगत।
यह सम्पूर्ण जगत ही उनका आवासस्थल है, या उनके द्वारा आच्छादित या अनुस्यूत है।यह समस्त जीव ही ब्रह्म हैं। कोई किसी के लिये पराया नहीं है। श्रीरामकृष्ण के अनुसार बहुत को जानने का नाम ही अज्ञान है, और एक को जानने का नाम ज्ञान है। गीता 
18/20॥ में श्रीकृष्ण कहते हैं- 
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । 
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ॥
जिस ज्ञान (विवेकज -ज्ञान)  के द्वारा साधक सम्पूर्ण विभक्त प्राणियोंमें विभागरहित एक अविनाशी भाव (सत्ता) को देखता है? उस ज्ञानको तुम सात्त्विक समझो।
व्यासदेव ने भागवत में भगवान कपिल के मुख से कहलवाया है- मनसैतानि भुतानि प्रणमेदबहु मानयन ।   ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥भागवत ३/२९/ ३४॥ - मन ही मन समस्त जीवों को बहुत आदर-मान देते हुए प्रणाम करो, क्योंकि ईश्वर ही कलारूप में सभी के भीतर प्रविष्ट होकर बैठे हैं। इस दृष्टि,इस भावधारा को अपने अभ्यास में सुप्रतिष्ठित किये बिना, कोई व्यक्ति लोक-कल्याण का कार्य कर ही नहीं सकता है। भारतीय संस्कृति की सनातन भावधारा वहाँ प्रकट हुई है,जहाँ गीता (12/4) में श्रीकृष्ण कहते हैं- 
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः । 
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
-जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में करके अचिन्त्य, सब जगह परिपूर्ण, अनिर्देश्य, कूटस्थ, अचल, ध्रुव, अक्षर और अव्यक्त, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्दघन ब्रह्म की उपासना करते हैं. वे प्राणिमात्र के हित में रत और सब जगह सम-बुद्धि वाले मनुष्य मुझे ही प्राप्त होते हैं। अर्थात वैसे लोग ही ईश्वर लाभ करते है।
इन सब का सारांश श्रीरामकृष्ण वचनामृत में इस प्रकार मिलता है- " मूर्ति में उनकी पूजा हो सकती है, और रक्त-मांस के शरीरधारी मनुष्य में उनकी पूजा नहीं हो सकती है ? " स्वामीजी की सरल भाषा में इस प्रकार है-"करो उसकी उपासना, जो एकमात्र प्रत्यक्ष देवता है।" श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द ने ही वेदान्त को व्यावहारिक जीवन के लिये उपयोगी बना दिया और  "जंगल का वेदान्त " हमारे घर-द्वार तक आ पहुंचा। हमलोगों की सनातन भावधारा (वेदान्त -परम्परा) को कर्म-उन्मुख बनकर इस, नये समन्वय (BE AND MAKE) ने भारतीय संस्कृति के नवजागरण का एक नया मार्ग खोल दिया है।
श्रीरामकृष्ण का आविर्भाव और स्वामी विवेकानन्द के मानवजाति के प्रति आह्वान से भारतीत संस्कृति की सनातन भावधारा का स्रोत फिर से सचेतन होकर मानवजीवन को सार्थक करके, राष्ट्रिय जीवन तथा विश्वकल्याण के लिये मानव-समाज में प्रवाहित होने लगी है। स्वामीजी कहते हैं, " शास्त्रों के महान सत्यों की उपेक्षा करके, केवल उसके बाहरी आवरण को लेकर ही मारामारी चल रही है। नियम-निष्ठा केवल मनुष्य के भीतर की महाशक्ति के स्फुरण का उपाय मात्र है। 

श्रीरामकृष्ण कहते थे, " पञ्चांग में लिखा होता है, 'इस वर्ष 20 इंच जल बरसेगा ' परन्तु पत्रा को निचोड़ने से एक बून्द जल भी नहीं निकलता। उद्देश्य को भूलकर केवल उपाय लेकर लड़ने से क्या होगा ? जिस देश में भी जाता हूँ, देखता हूँ, उपाय लेकर ही लट्ठबाजी चल रही है; उद्देश्य की ओर लोगों की दृष्टि नहीं है। श्रीरामकृष्ण यही दिखने के लिये आये थे कि अनुभूति ही सार वस्तु है। त्याग को ही उन्नति की कसौटी जानना। शास्त्र तो बहुत पढ़ा; बोल तो उससे क्या हुआ ? ..आत्मा ही जीव का वास्तविक स्वरूप है। अपना स्वरूप क्या कोई छोड़ सकता है ? अपनी छाया के साथ तू हजार वर्ष लड़कर भी क्या उसको भगा सकता है ? वह तेरे साथ रहेगीही।6/178-187)
 'नाम-यश की आकांक्षा ही उच्च अंतःकरण की अन्तिम दुर्बलता है।' " अपने स्त्री-पुत्रों को अपना जानकर जिस प्रकार तू उनके सभी प्रकार के मंगल की कामना करता है, उसी प्रकार प्रत्येक जिव के प्रति जब तेरा वैसा ही आकर्षण होगा, तब समझूंगा,तेरे भीतर ब्रह्म जाग्रत हो रहा है। ...जो व्यक्ति सोचता है कि मैं आब्रह्म समस्त जगत को अपने साथ लेकर एक ही साथ मुक्त होऊंगा, उसकी महाप्राणता का एक बार चिन्तन तो कर !  इसीलिए तुमसे कहता हूँ, काम में लग जाओ ! केवल कुछ वेद-वेदान्त को रट लेने से क्या होगा ? " 6/200
युग परम्परा में वे सभी महान सत्य विकृत रूप धारण करके क्रमशः रीती-रिवाज - नमस्ते या गोड़ लाग़ी, पड़ाम पड़ाम ! में परिणत हो गये हैं। और बुद्धि-विचार हीन साधारण जीव इन सबको लेकर उसी समय विवाद करके मर रहा है। और सार को खो दिया है। इसीलिये इतना लट्ठम लट्ठा चल रहा है।
" पहले जैसी यथार्थ श्रद्धा लानी होगी। व्यर्थ की बातों को जड़ से निकाल डालना होगा। सभी मतों में, सभी पंथों में देश-कालातीत सत्य अवश्य पाये जाते हैं; परन्तु उन सब पर मैल जम गयी है। उन्हें साफ करके यथार्थ तत्वों को लोगों के सामने रखना होगा।" (6/137)
" मेरी अब एकमात्र इच्छा यही है कि देश को जगा डालूँ -मानो महावीर अपनी शक्तिमत्ता से विश्वास खोकर सो रहे हैं-बेखबर होकर सोये पड़े हैं, कोई स्पंदन नहीं-कोई शब्द नहीं है। सनातन धर्म के भाव में इसे किसी प्रकार जगा सकने से समझूंगा कि श्रीरामकृष्ण तथा हमलोग का आना सार्थक हुआ। केवल यही इच्छा है, मुक्ति-टुक्ति तुच्छ लग रही है।"6/160)
"इस सर्वमतग्रासिनी,सर्वमतसामंजस ब्रह्मविद्या का स्वयं अनुभव कर-और जगत में प्रचार कर, उससे अपना कल्याण होगा, जीव का भी कल्याण होगा। ...असल बात यही है कि ब्रह्मज्ञ बनना ही चरम लक्ष्य है-परम पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्य तो हर समय ब्रह्म में स्थित नहीं रह सकता? व्यूत्थान के समय कुछ लेकर तो रहना होगा ? उस समय ऐसा कर्म करना चाहिये, जिससे लोगों का कल्याण हो। इसीलिये तुम लोग से कहता हूँ अभेद्बुद्धि से जीव की सेवा करो। परन्तु भैया, कर्म के ऐसे दांव-घात हैं कि बड़े बड़े साधू भी इसमें आबद्ध हो जाते हैं। "(6/167)
" जिन्हें आत्मज्ञान नहीं होता वे आत्मघाती हैं। रूप-रस आदि की फँसी लगकर उनके प्राण निकल जाते हैं। तू भी तो मनुष्य है -चार  दिनों की चांदनी के तुच्छ भोगों की उपेक्षा नहीं कर सकता ? जायस्व म्रियस्व के दल में जायेगा ? 'श्रेय' को ग्रहण कर-'प्रेय' का त्याग कर ! भीतर की आत्मा को जगा और बोल-मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है ! बोल- मैं वही आत्मा हूँ, जिसमें मेरा क्षुद्र 'अहं'- भाव डूब गया है ! इसी तरह 'विवेक-प्रयोग' करके सिद्ध बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे, उतने दिन दूसरों को यह महावीर्यप्रद अभय वाणी चाण्डाल आदि सभी को सुना- तत्वमसि ! उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत !  सु
नाते सुनाते तेरी बुद्धि भी निर्मल हो जाएगी।"(6/169-180)

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Saturday, January 26, 2013

"भारत की सांस्कृतिक विरासत " (ভারতের সাংস্কৃতিক ঐতিহ্য) कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। " [$@$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [68] (10. विश्व मानव के कल्याण का मार्ग),

"भारत की सांस्कृतिक विरासत "

 (उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !)

।। एक ।।
'भारत' 'संस्कृति' और 'विरासत' ये तीनो शब्द हम भारतियों को बड़े कर्णप्रिय - हृदय पर अमिट छाप छोड़ने वाले बहुत गम्भीर, मधुर और गौरवशाली शब्द प्रतीत होते हैं। हमलोगों के विष्णु पुराण में ' भारत ' शब्द की व्याख्या, संक्षेप में किन्तु बड़े ही सुन्दर शब्दों में इस प्रकार की गयी है- 
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। 
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥
यहां एक भू-भाग, एक देश की बात हो रही है। यह वह भूमि है, जिसकी पूजा हमारे सन्त महात्माओं ने मातृभूमि, धर्मभूमि, कर्मभूमि एवं पुण्यभूमि के रूप में की है, और यही वास्तव में देवभूमि और मोक्षभूमि है। फिर बात हो रही है उस देश में रहने वाले लोगों की। विष्णु पुराण कहता है कि वह भू-भाग जिसके उत्तर में  हिमालय है और जिसके दक्षिण मे समुद्र है; उसके मध्य में  स्थित पूण्य भूमि का नाम भारत है तथा उस देश की संतानें भारती के नाम से जानी जाती हैं।
यहाँ विरासत के आगे एक विशेषण लगाया गया है- 'सांस्कृतिक ' !
 हाल के दिनों में हमलोग इन शब्दों के साथ विशेष रूप से परिचित हो रहे हैं। किन्तु इन शब्दों के विषय में शायद हम सभी लोगों की धारणा बहुत स्पष्ट नहीं है। इसीलिये ' संस्कृति ' शब्द का प्रयोग हमलोग जहाँ-तहाँ कर देते हैं। आज हम नाच, गाना, चलचित्र तथा नाटकों को ही संस्कृति मानने लगे हैं। इस प्रकार के 'सांस्कृतिक कार्यक्रम' अपने देश में विभिन्न अवसरों पर सभी जगह चलते हुए देखते हैं।
 'सांस्कृतिक' शब्द एक विशेषण है जो 'संस्कृति' शब्द से बना है। किन्तु किसी भी संस्कृत शब्दकोश में 'संस्कृति ' शब्द कहीं ढूंढने से भी नहीं मिलता है। यहाँ तक कि ' शब्दकल्पद्रूम ' में भी यह शब्द नहीं है। (सन् १८८६-९४ के बीच बंगाल के राधाकान्त देब ने "शब्द-कल्पद्रुम:" नाम से संस्कृत का शब्दकोश बनाया जो पाँच खण्डों में थी।) तो क्या, हमारे देश में संस्कृति थी ही नहीं ? यदि नहीं थी, तो विरासत शब्द कहाँ से आया ?
इसके लिये अक्सर उत्तराधिकार या धरोहर जैसे शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। किन्तु हमलोग इस बात पर विचार नहीं करते कि- 'संस्कृति' का वास्तविक अर्थ क्या है?  ' इतिहास ' शब्द का संधिविच्छेद करने से देखते हैं- " इति ह आस " - जिसका अर्थ हुआ - इस प्रकार से था। जो उस रूप में था, और अभी हमारे सामने आ गया है, उसी को हमलोग विरासत कहते हैं। अंग्रेजी में इसीको कहते हैं- मैंने इसको Inherit किया है, या Heritage के रूप में, उत्तराधिकार के रूप में अपने पूर्वजों से प्राप्त किया है।
'संस्कृति' शब्द संस्कृत शब्दकोश में नहीं रहने से भी हमारे देश के एक अति मूल्यवान शास्त्र में संस्कृति  शब्द है, जिसका नाम है- ऐतरेय ब्राह्मण। हम जानते हैं कि वैदिक साहित्य के कई भागों में विभक्त था- जिसके तीन प्रमुख अंग थे - संहिता, ब्राह्मण, और उपनिषद या वेदान्त। ब्राह्मण ग्रन्थों से साधारणत: तात्पर्य यह है, जो ग्रन्थ वैदिक मंत्रों की व्याख्या करे, उनके अभिप्राय को स्पष्ट करे यानी कि विधि व अनुष्ठान को प्रस्तुत करे।
किन्तु आज हमलोग ऐसा समझते हैं कि ' वेद ' केवल किसी विशेष देश के विशिष्ट धर्म के लोगों  की साहित्यिक विरासत हैं।  किन्तु हम इस बात को नहीं जानते कि रूस की राजधानी मास्को में विगत २५  वर्षों से (यह निबन्ध १९८६ में लिखा गया था ) लगातार वहाँ के तरुणों और बालकों के लिए ' राम-लीला ' का मंचन होता आ रहा है। जिस विद्वान् ने रुसी भाषा में रामायण को 'राम-लीला ' के रूप में नाटक लिखा है, और वहां के लोगों को इसका परिचय करवा रहे हैं, उन्होंने हाल में ही आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन में साक्षात्कार देते हुए कहा था- "रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थ केवल भारत की साहित्यिक संपदा नहीं है, बल्कि सम्पूर्ण विश्व की धरोहर है, और सम्पूर्ण मानव जाति इसका लाभ उठा सकती है। "  फिर किसी प्रश्न का उत्तर देते हुए कहे थे, " यदि हम अपने देश के बालकों और तरुणों को रामायण और महाभारत की शिक्षा नहीं  देंगे, तो वे लोग मनुष्य कैसे बनेंगे ? सत्य के प्रति उनमें प्रेम कैसे आएगा, वे गम्भीर  चिन्तन करना कैसे सीखेंगे, सभ्य कैसे बन सकेंगे और सभी मनुष्यों से प्रेम करना कैसे सीखेंगे ? 

[देश केवल उस भू-खण्ड की सीमा रेखा के अंतर्गत आने वाली भूमि को ही नहीं कहते है, देश बनता है वहाँ रहने वाले मनुष्यों से। राष्ट्र का तात्पर्य उस देश की सन्तानों से है, जो उस भूखण्ड पर जन्म लेने के कारण उस देश को अपनी माता समझते हैं। विष्णु पुराण कहता है कि भारत की संतानों को " भारती " के नाम से जाना जाता है। तथा इस देश के मनुष्यों से बने समाज को 'भारतीय-समाज' कहा जाता है।
 किसी देश में रहने वाले लोगों की विशेषता को उस समाज की संस्कृति कहते हैं। इस भूखण्ड में रहने वाले लोगों  की विशेषता यह है, कि यहाँ के निवासीयों की दृष्टि इतनी उदार होती है कि 'भारतीय' लोग  सम्पूर्ण पृथ्वी को ही अपनी माता के समान समझते हैं। अथर्ववेद में मनुष्यों को धारण करने वाली सम्पूर्ण पृथ्वी को ही माता कहा गया है- 
''माता पृथिवी, पुत्रोऽहं पृथिव्या:''। महाकवि कालिदास ने कहा है :-
अत्युत्तारस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:॥
कुछ लोग, बौध्दिक तर्क देकर कहते हैं कि यह देश एक अचेतन, फैला हुआ जड़ भूखण्ड मात्र है; उसको हमें अपनी माता समझकर उसकी वन्दना क्यों करनी चाहिये ? मनुष्य शरीर भी भौतिक या जड़ ही तो है। अपनी माता का शरीर भी उतना ही भौतिक है, जितना किसी अन्य स्त्री का, तब क्यों किसी व्यक्ति ने अपनी माँ को अन्य स्त्रियों से भिन्न समझना चाहिए ? उसके लिए भक्ति क्यों होनी चाहिए?] 
किन्तु, यह रामायण, महाभारत या विभिन्न  देशों के जितने भी कल्याणकारी वचनों के विविध-संग्रह हैं, उन सब का आधार भारत का सबसे प्राचीन और पुरातन वैदिक साहित्य ही है। किन्तु वेद केवल भारत की संपदा  ही नहीं है, उपरोक्त घटना इसी तथ्य को प्रमाणित करती है। वेद संसार के सभी मनुष्यों की सनातन संपदा है। इसके भीतर संसार के सभी मनुष्यों के कल्याण का सन्देश समाहित है, तथा यह वेद ही समस्त साहित्य की जनक और समस्त ज्ञान का आधार है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " ये वेद ही हमारे एकमात्र प्रमाण हैं,और इन पर सबका अधिकार है "5/345 

यह सन्देश स्वयं वेदों में ही दिया गया है। यजुर्वेद२६.२ में अद्भुत सुंदर ढंग से कहा गया है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।
 ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय॥
...हे मनुष्यों! इस वेद में जो उपदेश दिए गये हैं, वे कल्याण वचन है, इसमें समस्त मनुष्यों का कल्याण निहित है। इन कल्याण वचनों को सब के पास ले जाओ, मुक्त-हस्त से उनको वितरण कर दो। जैसे मैं, सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलाते रहो।
फिर किन किन मनुष्यों को इसे देना है, उसका भी उल्लेख कर देते हैं-जैसे मैं इस परमात्मा की वाणी का उपदेश ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ। और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया या विदेशी समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ। इसीलिये इसे ब्राह्मण को दो, क्षत्रिय को दो, वैश्य को दो, शूद्रों तक भी वेदों के उपदेश को ले जाओ। इसीलिये जो पण्डित (पुरोहित) यह कहते हैं कि वेद के उपर शुद्र का अधिकार नहीं है, ? तब सोचना पड़ता है कि वैसा कहने वाले ब्राह्मणों की बुद्धि 'वेदोज्ज्व्ल- बुद्धि ' है या नहीं ?
(कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों का अंग्रेजी में अनुवाद करते समय हर संभव प्रयास किया था की किसी भी प्रकार से वेदों को इतना भ्रामक सिद्ध कर दे की हिन्दू समाज का वेदों से विश्वास ही उठ जाये और ईसाई मत के प्रचार प्रसार में अध्यात्मिक रूप से कोई कठिनाई नहीं आये। इसी शाजिस की तहद वेदों को जातिवाद का पोषक घोषित कर दिया गया, ताकि बड़ी संख्या में हिन्दू समाज के अभिन्न अंग जिन्हें दलित समझा जाता हैं को आसानी से ईसाई मत में शामिल कर सके।
प्राचीन काल में हम ऐसा मानते थे कि 'जन्मना जायते शूद्रः' -अर्थात जन्म से हर कोई गुण रहित होता है, अर्थात शुद्र होता है।और शिक्षा प्राप्ति के पश्चात गुण,कर्म और स्वाभाव के आधार पर वर्ण का निश्चय होता था.ऐसा समाज में हर व्यक्ति अपनी अपनी क्षमता के अनुसार समाज के उत्थान में अपना अपना योगदान कर सके इसलिए किया गया था. मध्य काल में यह व्यस्था जाती व्यस्था में परिवर्तित हो गयी.
 एक ब्राह्मण का बालक दुराचारी, कामी, व्यसनी, मांसाहारी और अनपढ़ होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा जबकि एक शुद्र का बालक चरित्रवान,शाकाहारी,उच्च शिक्षित होते हुए भी शुद्र कहलाने लगा. इस जातिवाद से देश की बड़ी हानी हुई और हो रही हैं. 

पुरुष सूक्त जातिवाद का नहीं अपितु वर्ण व्यस्था के आधारभूत मंत्र हैं जिसमे “ब्राह्मणोस्य मुखमासीत” ऋग्वेद १०.९० में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र को शरीर के मुख, भुजा, मध्य भाग और पैरों से उपमा दी गयी हैं। 
जब कोई व्यक्ति समाज में ज्ञान के सन्देश को प्रचार प्रसार करने में योगदान दे तो वो ब्राह्मण अर्थात समाज का शीश हैं, यदि कोई व्यक्ति समाज की रक्षा अथवा नेतृत्व करे तो वो क्षत्रिय अर्थात समाज की भुजाये हैं, यदि कोई व्यक्ति देश को व्यापार, धन आदि से समृद्ध करे तो वो वैश्य अर्थात समाज की जंघा हैं और यदि कोई व्यक्ति गुणों से रहित हैं अर्थात शुद्र हैं तो वो इन तीनों वर्णों को अपने अपने कार्य करने में सहायता करे अर्थात इन तीनों की नींव बने,मजबूत आधार बने.  इस उपमा से यह सिद्ध होता हैं की जिस प्रकार शरीर के यह चारों अंग मिलकर एक शरीर बनाते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि चारों वर्ण मिलकर एक समाज बनाते हैं. जिस प्रकार शरीर के ये चारों अंग एक दुसरे के सुख-दुःख कप अपना सुख-दुःख अनुभव करते हैं, उसी प्रकार समाज के ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के लोगों को एक दुसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना चाहिए। यदि पैर में कांटा लग जाये तो मुख से दर्द की ध्वनि निकलती हैं और हाथ सहायता के लिए पहुँचते हैं उसी प्रकार समाज में जब शुद्र को कोई कठिनाई पहुँचती हैं तो ब्राह्मण भी और क्षत्रिय भी उसकी सहायता के लिए आगे आये।  सब वर्णों में परस्पर पूर्ण सहानुभूति, सहयोग और प्रेम प्रीति का बर्ताव होना चाहिए. इस सूक्त में शूद्रों के प्रति कहीं भी भेद भाव की बात नहीं कहीं गयी हैं।"]
क्योंकि वेदोज्ज्वल बुद्धि को 'पण्ड्य ' कहा जाता है। यह 'पण्ड्य' जिसमें रहती है, उसको पण्डित कहा जाता है। वेदों पर शास्त्रार्थ करने से जिन लोगों की बुद्धि ' उज्ज्वल ' हो जाती है, उनको ही 'पण्डित' कहा जाता है। 
वेदों के कल्याण वचनों को केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र तक ले जाने की बात कहकर ही समाप्त नहीं होता है, वहाँ यह भी कहा गया है कि - इस वेद की वाणी को देश के लोगों को सुनाओ और विदेश के लोगों को भी सुनाओ।  
स्वामीजी कहते हैं, "हमारे देश में जो कुछ है, वह वेदान्त धर्म ही है। उक्त प्रकार से हम लोग वेदान्त धर्म का गूढ़ रहस्य पाश्चात्य जगत में प्रचार करके उन महा शक्तिशाली राष्ट्रों की श्रद्धा और सहानुभूति प्राप्त करेंगे और आध्यात्मिक विषय में सर्वदा उनके गुरुस्थानीय बने रहेंगे। दूसरी ओर अन्यान्य ऐहिक विषयों में वे हमारे गुरु बने रहेंगे। जिस दिन भारतवासी धर्म शिक्षा के लिये पाश्चात्यों के कदमों पर चलेंगे उसी दिन इस अधःपतित राष्ट्र की राष्ट्रीयता सदा के लिये नष्ट हो जाएगी।...मेरा विश्वास है कि वेदान्त-धर्म की चर्चा और वेदान्त का सर्वत्र प्रचार होने से हमारा तथा उनका -दोनों का ही विशेष लाभ होगा। इसके सामने राजनितिक चर्चा मेरी समझ से निम्न स्तर का उपाय है। अपने इस विश्वास को कार्य में परिणत करने के लिये मैं अपने प्राण तक दे दूंगा। 6/9
स्वामी विवेकानन्द  ने कहा था - " ब्राह्मणों से भी मैं कहना चाहता हूँ कि तुम्हारा जन्मगत तथा वंशगत अभिमान मिथ्या है,उसे छोड़ दो। और सभी के लिये ज्ञान का द्वार खोल दो और पददलित जनता को उनका उचित एवं प्रकृत अधिकार दे दो।"5/348 

।। दो ।।

वेदों में कहा गया है- " कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। " विश्व के सभी मनुष्यों को आर्य बनाओ ! आर्य बन जाने को ही सूसंस्कृत बनना कहते हैं। सूसंस्कृत हो जाने का अर्थ है, उन्नत होना,परिष्कृत (Refined) होना,चेहरे की कांति और तेजस्विता Effulgence से युक्त होना, आभा-मण्डल की दमक प्राप्त करना, विकसित हो उठाना, प्रकाशित होना,अन्तर्निहित दिव्यता का प्रकटित हो उठाना।
 हमलोग जब किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत कहते हैं, तो उससे हमलोगों का यही तात्पर्य होता है। वर्तमान समय में हमलोग किसी को सुसंस्कृत व्यक्ति कहने के लिये 'सभ्य' शब्द का प्रयोग भी करते हैं। किन्तु संस्कृत में सुसंस्कृत का अर्थ होता है, पण्डित या विद्वान्। इसलिये किसी व्यक्ति को सुसंस्कृत cultured कहने के लिये हम लोग जो सभ्य कह देते हैं,वह ठीक नहीं है। 
किन्तु आजकल इसी रूप में इसका प्रयोग होने लगा है। हमलोग जिस सांस्कृतिक धरोहर या Heritage की बात कर रहे हैं, उस संस्कृति को हम कहाँ से प्राप्त कर सकते हैं ? सूक्ष्मता पूर्वक विचार नहीं करने से हमलोग अक्सर सभ्यता के साथ संस्कृति को भी मिला देते हैं। हिन्दी  में 'सभ्यता' भी एक मूक या अवर्णित (unspoken) शब्द है। सभ्यता कहने से हमलोग जो समझाना चाहते हैं, उसको अंग्रेजी में civilized, सभ्य,शिष्ट या शिक्षित के अर्थ में प्रयोग किया जाता है। हमलोग सभ्यता के लिये हिन्दी में Civilization का प्रयोग करते हैं।
हमलोगों के देश में जो व्यवहार प्रचलित है, उसके पीछे की धारणा को अभिव्यक्त करने के लिये कुछ विशेष विशेष शब्द बनाये गये थे। किन्तु पाश्चात्य ज्ञान के आलोक ने जब हमारे देश को मोहित कर लिया,तो हमलोगों के देश के चिन्तन का स्वरूप भी धीरे धीरे इतना परिवर्तित हो गया कि उन्हीं की विचारों के सांचे में हम अपने दृष्टिकोण को रखकर परिक्षण करने को सदा बेचैन रहने लगे। और इसी परिपेक्ष्य में Civilization शब्द का हिंदी अनुवाद हुआ-सभ्यता, एवं cultured व्यक्ति को सुसंस्कृत कहने के बदले हिन्दी में सभ्य शब्द का व्यव्हार भी होने लगा है। 
तो क्या या हमें यह मान लेना चाहिये कि अंग्रेजों के आने से पहले हमारे देश की अपनी कोई सभ्यता और संस्कृति थी ही नहीं ? अवश्य थी, किन्तु संस्कृति के विषय में हमलोगों की धारणा, तत्संबंधी  पाशचात्य धारणा से बिल्कुल स्वतंत्र थी, जो पाश्चात्य अवधारणा से बिलकुल मेल नहीं खाती थी। किन्तु आज हमलोगों ने अपनी सभ्यता और संस्कृति की अवधारणा को पाश्चात्य के रंग में रंग कर सब कुछ को  एकाकार बना लिये है।
आज के दिन सभ्यता या  Civilization कहने जो समझ में आता है, उसमें अधिक जोर भौतिक पदार्थों का बड़े पैमाने पर उत्पादन, और भोग्य सामग्रियों में सौन्दर्य तथा कलात्मकता को देखने की प्रवृत्ति पर दिया जाता है। स्वामीजी कहते हैं- "यूनानी पूर्णतया इसी लोक में जीता है। वह स्वप्न देखना नहीं चाहता।उसका काव्य भी व्यावहारिक है। यूनानी सौन्दर्य से प्रेम करता है,परन्तु वह सौन्दर्य बाह्य प्रकृति का-पर्वतों,शुभ्र हिमराशी तथा पुष्पों का है। रूप तथा आकार का है; मानवीय मुख और प्रायः उसके अंगों का है।आज के यूरोप की वाणी यूनान की वाणी की एक प्रतिध्वनि मात्र है।"7/219
पाश्चात्य देशों में शरीर को सुख पहुँचाने वाले सामग्रियों के उत्पादन और संग्रह को,या भोग सामग्रियों के विविध आविष्कारों को ही सभ्यता (Civilization) का मुख्य अंग माना जाता है। और उसी भ्रम में पडकर हमलोग भी अक्सर अंगेजी में जिसको culture कहते हैं, उसी को सभ्य या सुसंस्कृत कहकर उल्लेख करने लगते हैं। किन्तु वैसा करना बिल्कुल उचित नहीं है।

।। तीन।।

'Civilization' और 'Culture' - या सभ्यता और संस्कृति दो बिल्कुल अलग अलग वस्तु है। प्राचीन युग का मनुष्य जो शायद उस समय वस्त्र का उपयोग करना भी नहीं जानता था, घर बनाकर रहना नहीं जानता था,अग्नि का उपयोग करना नहीं जानता था,जंगलो-गुफाओं में रहता था। फिर शायद धीरे धीरे उसने जानवरों के खाल का उपयोग करना सीखा होगा, कन्द-मूल खाकर पेट भरते होंगे, या हो सकता है मछली मारने या जंगली पशुओं का शिकार करना सीखा होगा, पत्थर और धीरे धीरे अनेक धातुओं का उपयोग करना सीख लिया होगा, और इस प्रकार क्रमशः सभ्यता विकसित हुई होगी।आम तौर से भारतीय लोग सभ्यता कहने का अर्थ बस इतना ही समझते हैं।
फिर उसी मनुष्य ने धीरे धीरे जब अपने शरीर को सुन्दर वस्त्रों से ढकना सीख लिया, छोटे-बड़े अनेक प्रकार के भवन-निर्माण करना सीख लिया, जब उनके कंठस्वर ने भाषा का रूप ग्रहण कर लिया और जब मनुष्य अपने मन के भावों को सुंदर भाषा में अभिव्यक्त करने लगा, जब लड़ना-झगड़ना छोड़ कर मनुष्य परस्पर के बीच सुंदर रूप से विचारों का आदान प्रदान करना सीख गया होगा, तब हमलोगों ने कहा कि अब मनुष्य सभ्य हो गया है। 
इसके साथ ही साथ उसने प्रकृति के विभिन्न उपादानों में विभिन्न प्रकार से परिवर्तन लाकर, उन नवीन आविष्कारों का उपयोग करके अपने जीवन की अपूर्ण इच्छाओं पूर्ण करने में समर्थ हो गया। जब उसके आद्योगिक उत्पादन और क्रयशक्ति में वृद्धि होने लगी तो इसी को हमने सभ्यता की प्रगति कहा। किन्तु इन समस्त प्रगतियों का सम्बन्ध शरीर को सुख और आराम पहुँचाना है। यह उन्नति लौकिक तो है ही, साथ ही यह केवल वस्तु उन्मुख या शरीर-केन्द्रिक विकास भी है। विभिन्न आविष्कारों द्वारा शरीर को सुख पहुँचाने, अनेक प्रकार के भय से शरीर और जीवन की रक्षा करने, तथा विविध भोग सामग्रियों का उत्पादन और संग्रह इत्यादि के आधार पर दिखने वाले विकास को ही हमलोग सभ्यता या  'Civilization' समझते हैं।
इस प्रकार मनुष्य जब अपने भोग के लिये सभी प्रकार के लौकिक भोग-सुख पहुँचाने वाले उत्पादों का संग्रह करके अपने को सुखी समझने लगा, तो उसे कुछ आवकाश के क्षण भी प्राप्त हुए, वह फुर्सत के क्षणों में बैठकर-सोचने लगा क्या मैं अब हर प्रकार से सुखी नहीं हो गया हूँ ?
[स्वामीजी कहते हैं, " आज,जब कि भौतिवाद अपनी शक्ति और कीर्ति के शिखर पर है, और मनुष्य जड़ वस्तुओं पर अधिकाधिक अवलम्बित रहने से अपनी दैवी प्रकृति को भूल कर केवल धनोपार्जन का यंत्र मात्र बनता जा रहा है,समायोजन की बड़ी आवश्यकता है। पाश्चात्य देश समझते हैं,कि उन्नति एवं सभ्यता का अर्थ भौतिक शक्ति प्राप्त करना ही है। वहीँ प्राच्य यह सोचता है कि किसी मनुष्य के पास यदि संसार की सारी सम्पत्ति है,परन्तु अध्यात्मिक शक्ति नहीं, तो वह सब किस काम का ? ये दोनों ही भाव महत्वपूर्ण तथा गौरवशाली हैं। वर्तमान सामंजस्य इन दोनों आदर्शों का समन्वय तथा मिश्रण स्वरूप होगा। पाश्चात्य के निकट इन्द्रियग्राह्य जगत जितना सत्य है, उतना ही प्राच्य के लिये अध्यात्मिक जगत है।"6/226]  
अब उसने अपने अंतर्जगत में, अपने मन की ओर भी देखना शुरू किया। जब उसने अपने मन के भीतर झाँका तो समझ में आया कि बाहर से देखने में वह जितना भी सुसभ्य क्यों न लगता हो, उसके मन पर तो सभ्यता की कोई छाप पड़ी ही नहीं है? उसे यह महसूस हुआ, कि अरे अपने मन को तो मैंने परिष्कृत किया ही नहीं है ? मेरा मन तो अभी तक शुद्ध और पवित्र नहीं हुआ है।
 तब वह अपनी रचनाओं में,अपने शिल्प-निर्माण में सम्पूर्ण कलात्मकता और सौन्दर्य डालने की चेष्टा करके हर प्रकार से मन को आलोकित करने का प्रयत्न करने लगा।मन पर शुभ-संस्कार डालना, उसको परिष्कृत करना, उसको एकाग्र,उन्नत और आलोकित करना ही संस्कृति का प्रधान कार्य-क्षेत्र है। इस प्रकार हम समझ सकते है कि 'Civilization' या सभ्यता  किसी भी देश का बाह्य कलेवर होता है और 'Culture' या संस्कृति उस देश की अन्तरात्मा होती है। क्योंकि सभ्यता बाहरी और संस्कृति आंतरिक वस्तु है। हमारे देश में प्राचीन काल से ही संस्कृति और सभ्यता को लेकर ऐसी धारणा थी।
अभी हाल ही में पाश्चात्य जगत के एक प्रसिद्द मनोविश्लेषणवादी ने इस भारतीय संस्कृति के सार सन्देश को बड़ी सुंदर भाषा में विश्व के लोगों की दृष्टि को खींचने की चेष्टा की है। वे कहते हैं- " संस्कृति या Culture तो प्रकृति द्वारा सृष्ट जगत से बाहर की वस्तु है; क्योंकि प्रकृति मनुष्य को अपने बन्धनों में बांधकर ही रखना चाहती है।" उनकी यह उक्ति बिलकुल स्वामीजी के विचारों की प्रतिध्वनी लगती है।
(स्वामीजी ने भी ठीक ऐसी ही बात कही थी," मशीनों ने मनुष्य जाति को कभी सुखी नहीं बनाया और न बना सकेंगी।सुख मशीनों में नहीं,यह सदा मन में ही है। केवल वही मनुष्य सुखी हो सकता है,जो अपने मन का स्वामी है-दूसरा नहीं।यदि तुमने विश्व के प्रत्येक परमाणु को वश में कर भी लिया तो क्या हुआ ? इससे तो तुम सुखी नहीं हो सकते। तुम सुखी तभी हो सकते हो, जब तुम स्वयं को जित लो,अपने मन को जीत लो! यह सत्य है कि मनुष्य का जन्म प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिये ही हुआ है।
 परन्तु प्रकृति शब्द से पाश्चात्य जाति केवल भौतिक अथवा बाह्य प्रकृति ही समझती है। पहाडों,समुद्रों,नदियों एवं विभिन्न प्रकार की अनन्त शक्तियों द्वारा समन्वित यह बाह्य अत्यंत महान है, परन्तु फिर भी मनुष्य की अन्तः प्रकृति इससे भी महत्तर है।जिस तरह पाश्चात्य जाति ने बहिर्जगत की गवेषणा में श्रेष्ठत्व लाभ किया है, उसी तरह प्राच्य जाति ने अंतर्जगत की गवेषणा में।")7/236
 " लोग कहते हैं, मनुष्य को प्रकृति का अनुसरण करना चाहिये, प्रकृति के विरुद्ध चलना ठीक नहीं है, आदि आदि किन्तु मैं इसका अर्थ नहीं समझता। क्योंकि मनुष्य को केवल तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जबतक वह प्रकृति के उपर वश करने की चेष्टा करता है।"
 जिन पाश्चात्य मनोविश्लेषणवादी कार्ल गुस्ताफ जुंग  के  विचारों ने योरोप में धूम मचा दी थी; वे भी ठीक यही बात कह रहे हैं, ' जब कोई व्यक्ति इस प्रकृति की सीमा के परे जितना उपर उठता है, जितना परिष्कृत होता है, हमलोग उसको उतना ही सुसंस्कृत या Cultured मनुष्य कह सकते हैं।' जिसके अभ्यास के द्वारा हमलोगों के मन के भीतर ग्रहण क्षमता और संवेदनशीलता में वृद्धि होती हो,हमारा मन निर्मल और परिष्कृत हो सकता हो, उस को ही संस्कृति का मूल उपादान समझना चाहिये ।
 प्राचीन नन्दनतत्व उपदेश ? में कहा गया है,' मन मानो एक दर्पण है जिसमें यह सुन्दर विविधताओं से भरा जगत प्रतिबिंबित होता है। तथा साहित्य, कला इत्यादि के अभ्यास द्वारा हमलोगों का यह ' मनो-मुकुर' इतना परिशुद्ध हो जाता है कि उसमें थोड़ी भी चपलता, थोड़ा भी रूप-रंग का भेद तत्काल उसके द्वारा पकड़ लिया जाता है। मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने से मन सूक्ष्म वस्तुओं की अनुभूति करने में समर्थ हो जाता है। और ऐसा उन्नत या अधिक परिष्कृत, संवेदनशील, अनभूति-सम्पन्न मन को ही सुसंस्कृत मन कहा जाता है।
 (वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इन्द्रियों को जीत लेना मोक्ष का कारण है,अन्य किसी क्रम तथा उपाय से संसारसमुद्र नहीं तरा जाता । जगत् का अत्यन्त अभाव चिन्तना और स्वरूप आत्मा का अभ्यास करना यही परम औषध है । जैसे समुद्र में तरंग, आकाश में दूसरा चन्द्रमा, और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल फुरता है, तैसे ही चित्त में जगत् फुरता है । जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है । जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत् । सम्पूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगत्‌रूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं । जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है । ‘‘हम ऐसा जीवन जिये जो ईश्‍वर को प्रसन्‍न करने वाला और ग्रहण योग्‍य हो रोमियों 8:5-8 में लिखा है ‘‘क्‍योंकि शारीरिक व्‍यक्ति(जो लोग स्वयं को केवल एक शरीर 'M /F' समझते हैं) शरीर की बातों पर मन लगाते हैं। शरीर पर मन लगाना तो मृत्‍यु है परन्‍तु आत्‍मा पर मन लगाना जीवन और शांति है। क्‍योंकि शारीरिक मन हमेशा शारीरिक भोगों के पीछे दौड़ता रहता है, इन्द्रिय विषयों में लगा रहता है,तो परमेश्‍वर से शत्रुता करता है वह  न तो परमेश्‍वर की व्‍यवस्‍था के आधीन है और न ही हो सकता है,इसीलिये जो शारीरिक हैं वे परमेश्‍वर को प्रसन्‍न नहीं कर सकते।’’
[5 Those who live according to the flesh have their minds set on what the flesh desires; but those who live in accordance with the Spirit have their minds set on what the Spirit desires. 6 The mind governed by the flesh is death, but the mind governed by the Spirit is life and peace. 7 The mind governed by the flesh is hostile to God; it does not submit to God’s law, nor can it do so.  8 Those who are in the realm of the flesh cannot please God.]

।। चार ।।

प्राचीन शास्त्रों पर जो चर्चा हो रही थी, उसी में से एक ऐतरेय ब्राह्मण में नैतिक मूल्यों और उदात्त आचार-व्यवहार के सिद्धान्तों पर विशेष बल दिया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में शिल्प-कला के बारे में भी बहुत सुन्दर ढंग से कहा गया है- 

                 आत्मसंस्कृतिर्वाव  शिल्पानि छन्दोमयं  या  ऐतेर्यजमान आत्मानं संस्कुरुते  ।' 

- शिल्पी जो कुछ भी रचना करते हैं, वे उसको ईश्वर की बनाई सृष्टि का अनुकरण के अनुसार करते हैं। कहते हैं यह सुन्दर मनोरम जगत ईश्वर के द्वारा रचित एक कविता मात्र है।
  मनुष्य को शिल्प-कला के अभ्यास की आवश्यकता क्या है ? क्योंकि सामाजिक दृष्टि से मनुष्य के जीवन में केवल बाह्य संघर्ष नहीं, आभ्यन्तर संघर्ष भी चलता रहता है । और किसी भी शिल्प-कला का अभ्यास करने से व्यक्ति सृष्टि के नाम-रूप के ऊपरी आवरण को हटाकर, उसके अंतस्तल में पहुँचने की योग्यता प्राप्त कर लेता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण मनुष्य को लक्ष्य-भ्रष्ट करके अधोगति की ओर खींच लेते हैं। साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान, वाणिज्य आदि हर विधा में देश की प्रगति जरूरी है । देश का बाह्य कलेवर होता है सभ्यता और अन्तरात्मा है संस्कृति । कला, साहित्य एवं संगीत का आदर सामाजिक जीवन को ऊँचे स्तर पर पहुँचाता है । केवल बाह्य शरीर की स्वच्छता नहीं, आत्मा की भी परिष्कृति और निर्मलता चाहिये। 
जॉन मिल्टन [John Milton (1608–1674)] अपनी एक कविता में कहते हैं-' These are Thy glorious works, Thyself how wondrous then !' 
 "दीज आर दाई ग्लोरियस वर्क्स, दाइसेल्फ हाउ वंडरस देन !" ) हे ईश्वर ! तुम्हारी यह सृष्टि, सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड कितना सुन्दर है ! इसके सौन्दर्य को देखकर मैं बिल्कुल मुग्ध हूँ, और तुम जो इसके शिल्पी हो, मैं कल्पना भी नहीं कर सकता कि तुम कितने सुन्दर होगे !
 यह बिलकुल अपने देश की उक्ति लगती है। अग्नि-पुराण में कहा गया है कि एकमात्र शिल्पि ईश्वर हैं-
अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः। 
यथास्मै रोचते विश्वं तथा वै परिवर्तते॥ 

कविता रूपी असीम जगत  एकमात्र कवि प्रजापति ब्रह्मा हैं, वे ही प्राणि-जगत् में मधुरादि षड़्‍ रसों के स्रष्टा हैं। वे जब और जिस रूप में चाहें अपनी रुचि के अनुसार लेखनी-चालना करके वे विश्व में परिवर्त्तन ला सकते हैं। 
परन्तु काव्य-जगत् में शृंगारादि नव रसों के स्रष्टा कवि होते हैं। ऐसी प्रतिभा कवि के पास भी होती है। इसीलिये कवि की तुलना प्रजापति ब्रह्मा से की जाती है। कवि काव्य के माध्यम से नये लोक का निर्माण करता है। कहा गया है कि कवि भावना और कल्पना-लोक का जादूगर है। कवि भावनाओं-कल्पनाओं के जगत का चितेरा है। उसकी कल्पना गगन में उन्मुक्त विचरा करती है। भावुकता, कल्पनशीलता और संवेदनशीलता मनुष्य को कवि बनाती है। काव्य-जगत् का सर्जक है क्रान्तदर्शी कवि- ‘कवयः क्रान्तिदर्शिनः’।
ऋग्वेद में सूर्य का वर्णन स्वर्ण-रथारोही के रूप में हुआ है--'हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन।'अर्थात- " स्वर्ण-रथ पर आ रहा 'रवि '; भुवन सारे देखता !"
यह बात ऐतरेय ब्राह्मण में भी कहा गया है, कि शिल्पी जो कुछ भी रचना करते हैं, वे उसको ईश्वर की बनाई सृष्टि का अनुकरण के अनुसार करते हैं। कहते हैं यह सुन्दर मनोरम जगत ईश्वर के द्वारा रचित एक कविता मात्र है। इस जगत में तुम जिस किसी 'रूप' को भी देख रहे हो, वह उसी ईश्वर के द्वारा रची हुई एक 'कविता' है ! और हमलोगों के द्वारा बनाई गयी कोई भी वस्तु-शिल्प या रचना ईश्वर की रचना की अनुकृति मात्र है। उन्होंने जो कुछ बनाया है, उसी का अनुकरण करके हमने कितने ही वाद्य-यंत्रों की रचना की, कला-काव्य रचते हैं, एवं इसी प्रकार शिल्प-कला का अभ्यास करने से हमलोगों का मन परिष्कृत, विनीत, शिष्ट, बन कर संस्कारवान या सुसंस्कृत हो उठता है।

[ शुन:शेप से सम्बद्ध आख्यान के प्रसंग में कर्मनिष्ठ जीवन और पुरुषार्थ-साधना का महत्त्व बड़े ही काव्यात्मक ढंग से बतलाया गया है। कहा गया है कि बिना थके हुए श्री नहीं मिलती; जो आगे बढ़ता रहता है, उसके पैर पुष्पयुक्त होते हैं, उसकी आत्मा फल को उगाती और काटती है। चलते रहने  के श्रम से उसकी समस्त पापराशि नष्ट हो जाती है।

 कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥

 बैठे-ठाले व्यक्ति का भाग भी बैठ जाता है, सोते हुए का सो जाता है और चलते हुए का चलता रहता है। कलि युग का अर्थ है मनुष्य की सुप्तावस्था, जब वह जंभाई लेता है तब द्वापर की स्थिति में होता है, खड़े होने पर त्रेता और कर्मरत होने पर सत युग की अवस्था में आ जाता है। आगे बढ़ते रहने से ही मनुष्य अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करता है। सूर्य के श्रम को देखो, जो चलते हुए कभी आलस्य नहीं करता।
[जीवन-गठन के क्लास में दादा चार प्रकार के मनुष्यों का वर्गीकरण करते हुए Poet King भर्तृहरि का एक श्लोक अक्सर कहते थे - 

एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज ये,
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।

तेऽमी मानवराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये,
ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥

(नीतिशतकम् – 75)

कवि कहता है कि वह तीन प्रकार के लोगों का वर्गीकरण (classification) सरलता से कर लेता है । एक तो वे ‘सत्पुरुष’ हैं जो दूसरों के हित के लिए स्वार्थ का ही त्याग कर जाते हैं। ऐसे सत्पुरुष (या देवमानव 100% Selfless men, स्वार्थरहित मनुष्य ) वास्तव में बिरले ही होते हैं ।

दूसरे वर्ग में ‘साधरण मनुष्य ’ (common men) आते हैं, जो इस बात का ध्यान रखते हैं कि अपनी स्वार्थसिद्धि से दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है । अर्थात् वे स्वार्थ तथा परार्थ के  बीच (50 -50) तालमेल बिठाकर चलते हैं । अधिसंख्य मनुष्य इसी प्रकार के होते हैं ।
तीसरे वैसे घोरस्वार्थी मनुष्य (100 % Selfish) होते हैं जो इस बात की परवाह नहीं करते हैं कि क्या उनकी स्वार्थपूर्ति अन्य लोगों के हित की कीमत पर तो नहीं हो रही है । यानी दूसरे का नुकसान हो भी रहा हो तो कोई बात नहीं अपना तो फायदा है । ऐसे लोगों की संख्या कम ही रहती है पर वे समाज में होते अवश्य हैं । और आज के भोगयुग में इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है । कवि इनको ‘मानुषराक्षस’ (पशुमानव या demons in human form) की संज्ञा देता है ।

 और अंत में कवि कहता है कि वह उन लोगों को किस नाम से पुकारे जिनकी प्रवृत्ति ही परहित के विरुद्ध कार्य करने की रहती है ? भले ही इससे उनका कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो, लेकिन दूसरों का नुकसान करने, उन्हें सताने से ही उन्हें आनन्द मिलता है । दुर्भाग्य से समाज कुछ ऐसे लोगों भी मिल जाते हैं ।
[ भर्तृहरि एक राजा थे और साथ में एक कवि भी । यह भी कहा जाता है कि कतिपय अनुभवों के पश्चात् उनके मन में वैराग्यभाव जाग गया और उन्होंने राजपाठ अपने छोटे भाई ( विक्रमादित्य) को सोंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया था । ]

।। पाँच।।

किन्तु आज हमारी यह संस्कृति ऐसे संक्रमण काल से गुजर रही है, जहाँ हमारे सामने अंधकार की एक लम्बी छाया सी खड़ी दिखाई देती है। हमलोग देश-विदेश के समस्त समाचार को निश्चित रूप से जानते हैं। हाल के दिनों में हमलोगों के देश में प्रचलित प्रत्येक चिन्तन और व्यवहार को, पाश्चात्य विचार-धारा की नकल के अनुरूप बनाने को आधुनिक होना या प्रगतिशील होना समझा जाने लगा है। एक नये प्रकार की चिन्तन शैली या दृष्टिकोण के अनुसार नीति-निर्धारण की बात चल रही है। हमलोगों की लोकसभा में भी इस पर चर्चा हुई कि हमलोगों को अपनी संस्कृति को एक नये रूप में ढालने की जरूरत है। उस बहस के समय कई हास्यास्पद बातें भी आ गयी थी।
तथाकथित विद्वान् लोग यह बात चारो ओर कहते फिर रहे हैं कि अब हमें भी नई संस्कृति का निर्माण करना चाहिये, नये मूल्य बोध का निर्माण करना चाहिये। किन्तु जब मनुष्य केवल ईश्‍वर द्वारा रचित सृष्टि का ही अनुकरण करके ही अपने जीवन और शिल्प-कलाओं को सुरुचिपूर्ण बना सकता है। तो विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या मूल्यबोध और मनुष्य-जीवन के मानदंड को भी नये सीरे से निर्धारित किया जा सकता है ? क्या नई संस्कृति का निर्माण भी किया जा सकता है ?
[ईश्‍वर की सृष्टि का ही अनुकरण करते हुए मनुष्‍य ने अपनी रचना शुरू की। नटराज की मूर्ति को इस बार जब देखें तो जरा गौर करें, उनके ऊपर वाले दाहिने हाथ में डमरू है। महाकाल के डमरू के ताल पर ही कला थिरकती है। डमरू सृष्टि के उद्भव का प्रतीक है। कहते हैं, सृष्टि का उद्भव विष्फोट से, शब्द से हुआ। नटराज ने एक बार नाच के अंत में चैदह बार डमरू बजाया। इसी से चौदह शिव-सूत्रों का जन्म हुआ। यही वस्तुतः उनके शब्द रूप का पूर्ण विस्तार है। इन चैदह सूत्रों के आधार पर ही पाणिनी ने व्याकरण की रचना की।]
प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सूक्ष्म मन है, उस मन के उपर यदि किसी सूक्ष्म कलम से एक अत्यंत सुन्दर चित्र की रचना कर सकें, तभी हम अपने को संस्कृति के अधिकारी कह सकते हैं। किन्तु संस्कृति के उपर अपने देश में और विदेशों में जितनी चर्चाएँ हो रही हैं, उसमें देख सकते हैं कि जिसको आज हमलोग संस्कृति कह रहे हैं, वह तो बिलकुल सार रहित बाहरी खोल मात्र है, या 'A Shell without a Content' है ! इसीलिये आज हमें अपने सामने इतना घना अँधेरा दिख रहा है। आज के युवाओं के समक्ष न तो कोई ऐसा आदर्श है, और न कोई ऐसी संस्कृति जो पुरे देश को एकता के सूत्र में पिरो सके।

।। छः।।

भारतवर्ष की उन्नति के विषय पर बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने बार बार इस बात को दुहराया है कि भारत की दुर्दशा को दूर करने का एक मात्र उपाय है-शिक्षा ! और यदि वह शिक्षा केवल विद्वत समाज या धनवानों तक ही सीमित रहे तो, सम्पूर्ण देश की उन्नति कभी संभव नहीं है। देश की  अधिकांश सामान्य प्रजा को जब तक समान रूप से शिक्षा प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध नहीं कराया जायेगा, तब तक देश के उन्नत राष्ट्र बन जाने की कोई सम्भावना नहीं है।
किन्तु स्वामीजी ने इस बात से भी सतर्क रहने को कहा था कि यदि उनको शिक्षा के साथ साथ 'संस्कृति ' देने की व्यवस्था न की गयी तो शिक्षा कई क्षेत्रों में मानव को दानव में भी रूपांतरित कर सकती है। यदि पढ़े-लिखे लोगों में संस्कार नहीं हो, यदि संस्कृति नहीं हो, वे यदि डिग्री पाने के साथ ही साथ परिष्कृत बुद्धि के अधिकारी नहीं हों, यदि वे अपने चंचल मन को शान्त रखने की तकनीक नहीं जानते हों, यदि बुद्धि ज्ञान की ज्योति से उद्भाषित नहीं हो, तो वैसी तथाकथित शिक्षा हमलोगों में दुर्बुद्धि को उत्पन्न कर देगी,और मानव, दानव में परिणत हो जायेगा।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे,' साधारण जनता को शिक्षा के साथ संस्कृति भी दो।' क्योंकि देश की विरासत को, या समाज को विदेशी प्रभाव से बचने में केवल संस्कृति ही रक्षा कर सकती है। उनकी चेतावनी पर क्या हमलोग अब भी ध्यान नहीं देंगे ? हमलोग अपने देश में जिस आधुनिक संस्कृति का निर्माण करना चाहते हैं, उसे भी जीवन के अन्य क्षेत्रों के समान पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण के द्वारा ही करना चाहते हैं। किन्तु आमतौर से पाश्चात्य जगत का समग्र चिन्तन केवल मनुष्य के देह को सुख-भोग पहुँचाने, या समृद्धि की चकाचौंध में डूबो देने पर केन्द्रित रहती है। यदि हमलोग केवल पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करते रहें तो हमलोग अपनी सांस्कृतिक विरासत को खो देंगे।
[स्वामीजी कहते हैं, " श्रीरामकृष्ण का जीवन-चरित्र वर्णन करने के पूर्व मैं यह बतलाने का यत्न करूँगा कि भारत का रहस्य क्या है, तथा 'भारत ' कहने से हम क्या समझते हैं ? ऐसे व्यक्ति, जिनकी आँखे नश्वर वस्तुओं की उपरी तड़क-भड़क से चौंधिया गयी हैं, जिनका सारा जीवन खाने-पीने तथा चैन करने के निमित्त ही समर्पित हो चूका है,जिनकी सम्पत्ति का आदर्श केवल भूखण्ड और सुवर्ण ही है, जिनके सुख का आदर्श केवल इन्द्रियजन्य सुख ही है, जिनका ईश्वर केवल धन ही है, जिनके जीवन का ध्येय ऐश एवं आराम करना तथा मर जाना ही है, जिनकी बुद्धि दूरदर्शी नहीं है,जो इन्द्रियभोग्य विषयों के बीच में हमेशा पड़े रहते हैं, तथा जो इनसे उच्चतर बातें सोच ही नहीं सकते हैं,वे पाश्चत्य मनोवृत्ति वाले लोग यदि आज  छोटे छोटे ग्रामों में जाएँ तो उन्हें वहां क्या दिखाई देगा ? -प्रत्येक स्थान पर निर्धनता,जघन्यता, अन्धविश्वास,अज्ञान एवं विभत्सता। इसका कारण क्या है ? कारण यह है कि उनकी समझ में सभ्यता का अर्थ है, बाहरी वेश-भूषा,शिक्षण तथा सामाजिक शिष्टाचार। 

किन्तु यह राष्ट्र लुट जाने पर तथा 'जंगली-हिन्दू ' कहे जाने पर भी संतुष्ट है। इसके बदले वह मानव प्रकृति के गुह्य रहस्य को संसार के सम्मुख स्पष्ट रूप से प्रकट करना चाहती है जो मनुष्य के असली स्वरुप को छिपाये है।वह जानती है कि यह सब स्वप्न है-इस जड़ शरीर-मन के पीछे मनुष्य का यथार्थ ब्रह्मस्वरूप विद्यमान है, जिसे 'न आग जला सकती है, और न जल ही गीला कर सकता है, जिसे न तो कोई 'पाप' पतित कर सकता है, न 'काम' कलंकित कर सकता है।' जिसे वायु नहीं सुखा  सकती, और न जिसे काल अपने गाल में ही डाल सकता है।
इसीमें उनका शूरत्व है कि वे मृत्यु का स्वागत एक भाई के समान करते हैं, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि मृत्यु वास्तव में उनके लिये नहीं है। इस विश्वास या ज्ञान में ही वह शक्ति है,जिसने इन्हें सैकड़ो वर्षों के विदेशी आक्रमण तथा अत्याचारों में भी अटल रखा है। वह राष्ट्र आज भी है, जहाँ उस राष्ट्र के घोर विपत्ति के दिनों में भी आत्मज्ञानी महा पुरुषों का अवतार लेना कभी बंद नहीं हुआ।"] 7/237-8  
हमलोग आजकल अपनी वेश-भूषा में, बातचीत के लहजे में, आचार-व्यवहार में पारिवारिक सम्बन्धों को निभाने में, बहुत बेशर्मी के साथ पाश्चात्य संस्कृति का अनुकरण करने लगे हैं। (चरण-स्पर्श को घुटना-छूने जे तरीके में बदल देना, माँ -पिताजी को 'मम्मी-पापा' कहना, उनके लिये 'ओल्ड एज होम' आदि बनवाना चाचा,फूफा,मौसा -चाची, बुआ,मौसी के लिये 'अंकल-आंटी'  कहना, आदि ) हमलोग शुद्ध हिन्दी तो नहीं बोल पाते किन्तु अंग्रेजी बोलने और अंग्रेजी ढंग से 'Birth Day' गीत गाने सीखने के स्कूल खोलते हैं। हमारे पास शब्दों की गरीबी इतनी है कि हमलोग थोड़ी देर के लिए भी भारत के किसी भी भाषा में भाषण नहीं कर सकते हैं, चेष्टा करने से भी विदेशी  भाषा के शब्द बीच में आ ही जाते हैं। किन्तु इस प्रकार हम किसी नई ' भारतीय-संस्कृति ' का निर्माण नहीं कर सकते। यदि हमलोग शिक्षा प्रचार के साथ साथ संस्कृति प्राप्त करने की अनिवार्यता को थोडा भी समझते हैं, तो हमें यह समझना पड़ेगा कि हमलोग किस बुनियाद के उपर अपनी संस्कृति का निर्माण कर सकते हैं ? इसका गहराई से चिन्तन करने पर हम देखेंगे कि इसके लिये पाश्चात्य जगत की ओर न देखकर हमें अपने गौरवशाली अतीत की ओर ही निहारना पड़ेगा।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, "अपनी दृष्टि को प्राचीन भारत के महिमामय अतीत पर केन्द्रित करके देखो, तुमको कितनी गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत प्राप्त है, तुम कितने गौरवशाली अतीत के अधिकारी हो, तुम्हारे पूर्वजों ने कितना बड़े ज्ञान का भण्डार तुम्हारे लिये रख छोड़ा है ! पहले उसको समझने की चेष्टा करो !"

।। सात।। 

वेदों के काव्यात्मक छन्दों के उपर चर्चा हो रही थी, किन्तु उन्हीं वेदों में हमलोगों की संस्कृति, समस्त सांसारिक और लौकिक उन्नति या हम लोगों के सर्वंगीण विकास की परिपूर्ण सम्भावना के बीज नीहित हैं। पाश्चात्य देशों में आज जो कुछ चल रहा है, क्या हमलोग उसी अनुकरण करते रहेंगे ?  या बाह्य जगत के भीतर जो वस्तु (अस्तित्व) है, जिसकी शक्ति वाह्य जगत में क्रीड़ा कर रही है,उसका अनुसन्धान करके उसको जान लेंगे, उसको वशीभूत करेंगे ? या उसकी सहायता से भोग्य वस्तुओं का निर्माण करके इस शरीर और इसके भीतर स्थित मन को नियंत्रण में नहीं लाकर, प्रकृति की गुलामी और इन्द्रियों की गुलामी करते रहेंगे, और मन की गुलामी में जीवन को व्यर्थ करेंगे ? यदि ऐसा ही करते रहेंगे, तो हमें जो इतना देव-दुर्लभ मनुष्य शरीर मिला है, उस 'मनुष्य' की ही उपेक्षा नहीं करेंगे ?
इस सम्बन्ध में  स्वामीजी एक छोटी सी कहानी कहते थे, यह कहानी हमारे देश के शास्त्रों में दी गयी है, भागवत में इसको बड़े सुन्दर ढंग से कहा गया है। किन्तु उस समय वे पाश्चात्य देश में भाषण दे रहे थे, इसीलिये उनके देश के पुराणों का उल्लेख भी किये थे। ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म के पुराणों में भी इस कहानी का वर्णन किया गया है। भागवत में यह कहानी है किन्तु दुसरे ढंग से कही गयी है। 

जब ईश्वर ने सम्पूर्ण जगत की रचना कर ली तो उसे देखकर उन्हें संतोष नहीं हुआ, सबसे अन्त में जब उन्होंने मनुष्य को बनाया, ईश्वर अपनी इस अद्भुत रचना को देखकर मुग्ध रह गये ! कोई कवि या शायर भी जब एक सुन्दर कविता लिखता है, तो उसे बार बार पढ़ता है, दुसरे लोगों को सुना कर दाद लेना चाहता है। कोई कलाकार जब बहुत सुंदर चित्र या मूर्ति गढ़ता है, तो उसे इतना देखने इतना मुग्ध हो जाते हैं कि उनको समय का भी होश नहीं रहता, वे खाना-पीना  भूल जाते हैं, नीन्द भूल जाते हैं। शायद वह सबसे पहला कवि, सबसे प्राचीन शिल्पी- प्रजापति भी अपनी इस अद्भुत रचना 'मनुष्य' - को देखकर मोहित होगये थे,उनहोंने समस्त देवदूतों को बुलवाया। तुमलोग आकर देखो,मेरी यह नई रचना कितनी अनिन्द्य है, इसमें कहीं से एक भी कमी या दोष नहीं है। केवल देखो ही नहीं इसका अभिवादन भी करो ! सभी देवदूतों ने ईश्वर के आदेश का पालन करते हुए इस मनुष्य को प्रणाम किया। उसके सामने अपने सिर को झुकाया। केवल एक ने अपना सिर नहीं झुकाया, और मनुष्य को प्रणाम करने से इंकार कर दिया। वहां के पुराण में उसका नाम 'इबलिस' था। स्वमी विवेकानन्द ने कहानी में कहा कि मनुष्य को प्रणाम नहीं करने के कारण ही इस्लामी पुराण और ईसाई पुराण दोनों में इबलिस को शयतान कहा गया है। जगत में एक मात्र शयतान वही व्यक्ति है, जो मनुष्य के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है।
यदि हम अपने को सुसंस्कृत कहते हों, अपने को संस्कारवान मनुष्य समझते हों, तो यह समझ लेना होगा कि हमारे सुसंस्कृत होने का परिचय केवल यही होगा, कि क्या हम मनुष्य मात्र से प्रेम करते हैं ? क्या हम मनुष्य मात्र का अभिवादन कर सकते हैं ? क्या हम मनुष्य के सामने अपने सिर को झुका सकते हैं? यही मनुष्य जब दुखी या अवसादग्रस्त हो जाता है, जब रोग-शोक के कारण उसकी आँखों से अश्रु झरने लगते हैं, तब क्या हमलोग उसके साथ खड़े हो सकते हैं ? उस समय क्या उसके प्रति सहानुभूतिशील हो सकते हो ? तभी हम अपने को सुसंस्कृत कह सकते हैं। पाश्चात्य संस्कृति का जो दंभ और गर्व है, वह इस समझ के समक्ष कहाँ खड़ी हो सकती है ? उनके किस आचरण का अनुकरण हम करने जा रहे  हैं ? किस नई संस्कृति की परिकल्पना हमारे मन में है ? आजकल हमारे देश में एक नये प्रकार का दम्भ दिखाई दे रहा है-अब हम लोग यह दावा करने लगे हैं कि सबकुछ नया बना देंगे।
नवनिर्माण करना अच्छी बात है, किन्तु पुरानी बुनियाद पर निर्माण नहीं करने से, कोई नई वस्तु खड़ी नहीं रह सकती है। ... कुछ नया कर दिखाने का जिस प्रकार उन्मादी विचार सिर उठाने लगा है,उसे देखकर बंगाल के देशभक्त कवी द्विजेन्द्रलाल राय (१८६३-१९१३ ) की एक प्रसिद्द व्यंग्यात्मक कविता है- 'नोतून किछु करो, एकटा नोतुन किछू करो ' का स्मरण हो आता है। 

हिन्दुधर्म प्रचार करते अमेरिकाय छोटो;
नोतुन किछु करो, एकटा नोतुन किछु करो,
आर किछु न पारो, स्त्रीदेर धरे मारो; किंवा तादेर माथाय तुलो।  
  হিন্দুধর্ম্ম প্রচার কর্ত্তে আমেরিকায় ছোটো ; 
নতুন কিছু করো, . একটা নতুন কিছু করো। .
                                    আর কিছু না পারো, . স্ত্রীদের ধ'রে মারো ;
                                              কিম্বা তাদের মাথায় তুলে .

[In one of his satirical songs he wrote,…’ which means that you will have to do something new. In the last line he wrote, If you can’t find anything new to perform, do anything.His famous and lovely song 'Dhano Dhanyo Pushpo Bhora...' during the freedom movement can be easily compared to 'Saare Jahan Se Achchha]

।। आठ।।

यदि हमलोग अपनी संस्कृति का पुनर्निर्माण करना चाहते हों, तो हमें अपने मन को सुसंस्कृत बनाना होगा। इसीलिये विख्यात  मनोविश्लेषण-वादी कार्ल गुस्ताफ जुंग को भी कहना पड़ा था कि संस्कृति बाह्य जगत की वस्तु नहीं है। लेकिन हमलोग किसी नाच को, गाने को, वास्तु-शिल्प या चित्र आदि को देखकर संस्कृति कह देते हैं। किन्तु इन सबको संस्कृति नहीं कहा जाता है। फ़िल्मी नाच-गानों  को हम भला सांस्कृतिक कार्क्रम कैसे कह सकते हैं ?
जिसका मन सुसंस्कृत हो चूका है, वह संस्कृत मन यदि कुछ रचना करता है, तो उसके संस्कृति की छाप उस रचना में अनजाने ही पड़ जाती है। किसी कवि,चित्रकार या शिल्पकार की रचना को देखकर हमलोग जो मोहित हो जाते हैं, उसका कारण है उसके रचयिता या स्रष्टा के मन का संस्कार। रचनाकार का मन जितना सुसंस्कृत हुआ है, उसकी रचना में उसके संस्कृति की छाप उतनी दिखाई देती है।
इसीलिये हमलोग किसी मूर्तिकला, किसी स्थापत्यकला, किसी चित्र, संगीत, कविता, किसी गद्य साहित्य, या किसी व्यक्ति के सम्भाष्ण को सुन कर मोहित हो जाते हैं। किन्तु वास्तव में वे सब मोहित करने वाली वस्तुएं नहीं हैं, उसका कारण अन्यत्र है, वह उस रचना के रचयिता का मन ही उसका कारण है। संस्कारों की छाप मनुष्य के मन पर पडती है। यदि वह संस्कार हमलोगों के मन पर पड़े तभी हमलोगों की शिक्षा प्रभावी हो सकेगी।
आजकल हमलोग कहते हैं, कि शिक्षा का बहुत विस्तार हो रहा है, प्रतिदिन नये नये स्कूल कॉलेज खुल रहे हैं। भारत के जनसाधारण के कल्याण पर केन्द्रीय सरकार जितना खर्च करती है उसका मात्र 6 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च करके समझती है, इतने से ही देश में शिक्षा का बाढ़ आ जायेगा। अभी जब इस राशी को लेकर हो हल्ला मचने लगा,तो शायद यह छः के बदले दस हो जायेगा, या बारह -पन्द्रह प्रतिशत हो जायेगा। किन्तु इस शिक्षा के उपर हमलोग चाहे जितना भी खर्च क्यों न करें, यह रोजी-रोटी कमाने वाली (अर्थकरी विद्या ) शिक्षा मनुष्य के मन को संस्कृत नहीं कर सकती है। सुसंस्कृत बनने के लिये हमलोगों को अपने मन को परिष्कृत करना पड़ेगा। 
मन को परिष्कृत करने के लिये हमारे वेद, ऐतरेय ब्राह्मण , उपनिषद, रामायण, महाभारत, गीता आदि प्राचीन शास्त्रों में जो सुन्दर कल्पना है, उस सौन्दर्य के साथ परिचय नहीं होने से हम अपने जीवन को कभी सुन्दर रूप में गठित नहीं कर सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने श्रीरामकृष्ण से इसी संस्कृति की शिक्षा को प्राप्त किया था। श्रीरामकृष्ण ने मनुष्य को क्या आशीर्वाद दिया था ? वे कहते थे-" तुमलोगों को चैतन्य हो !" अर्थात मनुष्य को यथार्थ ज्ञान हो, उनकी चेतना जाग्रत हो जाये, जिससे उनका मन सुसंस्कृत हो जाये, ताकि वे कल्याण के पथ पर अग्रसर हो सकें, -यही आशीर्वाद उन्होंने दिया था।

।। नौ ।।

हमारे दो जगत हैं - भीतरी जगत एवं बाहृय जगत। इसीलिये हमलोगों का मन भी दोनों दिशाओं में जा सकता है। पतंजली योगसूत्र के भाष्य में व्यासदेव ने बहुत सुन्दर ढंग से कहा है- " चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय वहति पापय च ।" 
महर्षि वेदव्यास ने वेदों की संहिता की थी, उनहोंने उपनिषदों के सार को संकलित करके ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, महाभारत के इतिहास की रचना की थी, 18 पुराणों की रचना की थी, किन्तु उन्होंने किसी एकमात्र शास्त्र पर भाष्य लिखा था, तो वह है -पतंजली का योगसूत्र। पतंजली योग सूत्र में योग को इस प्रकार परिभाषित किया गया है- " योगः चित्तवृत्तिनिरोधः।" - चित्त-वृत्तियों के निरोध को योग (समाधि) कहते हैं।  लेकिन चित्त-वृत्तियों के निरोध का उपाय क्या है ? 
'अथासां निरोधे क उपाय इति । ' 
अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ 

व्यासभाष्यम् 

चित्तनदी नामोभयतो वाहिनी वहति कल्याणय  वहति पापय च । या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा । संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा । तत्र 
वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते , विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत इत्युभयाघीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः ॥१२॥   

यही है मन को सुसंस्कृत करने का उपाय। सुसंस्कृत बनने के लिये मन को अन्तर्जगत से जोड़ने का तरीका या 'योग' सीखना आवश्यक है। जो चित्त, जो मन हमेशा चंचल, विक्षुब्ध बना रहता है, यह चाहिए, वह चाहिये, यह लूँगा-वह लूँगा के लालच में पड़ा रहता है, उस मन को कभी सुसंस्कृत नहीं बनाया जा सकता है।
चंचल मन को यदि थोड़ा शान्त किया जा सकेगा, तभी उसमें प्रकृति का समस्त सौन्दर्य प्रतिबिंबित हो सकेगा। अपने अन्तर्जगत से जुड़ा हुआ चित्त,या " योगसमाहित चित्त ही संस्कृति का आधार है।" उपरोक्त सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, चित्त-नदी के प्रवाह के मानो दो भाग हैं, उसकी एक धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है, दूसरी धारा पाप की दिशा में प्रवाहित होती है। कौन सी धारा कल्याण की दिशा में प्रवाहित होती है ? किस प्रवाह को हम कल्याणकारी कहेंगे ?  
या तु कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा कल्याणवहा ।
- व्यासदेव कहते हैं, जो हमें 'कैवल्य-प्राप्ति' (विभिन्नता में एकत्व की अनुभूति करने) की दिशा में ले जाएगी,  और जो धारा ' विवेक-विषय-निम्ना ' होगी। जिस मन की चिन्तन धारा, या चित्त का प्रवाह विवेक की तली के उपर से बहेगी वही कल्याणवहा धारा है। किन्तु अभी हमारा चित्त नाम-रूपात्मक बाह्य-जगत को देखकर अनेकों आकांक्षाओं के तीव्र प्रलोभनों से बहुत चंचल हो उठता है, हम लोगों को रातदिन दौड़ाता रहता है, कभी चैन से बैठने नहीं देता, वैसा चित्त कभी सुसंस्कृत नहीं बन सकता। क्योंकि कामना वासना से निरंतर तरंगायित रहने वाले चित्त या मानस-पटल पर  अन्तर्निहित दिव्यता की छाप पड़ ही नहीं पाती है। किन्तु मन तो गतिशील रहेगा ही, क्योंकि उसका धर्म भी जल की तरह प्रवाहमान रहना है। क्योंकि  चित्त का धर्म ही वैसा है, चित्त चीज ही वैसी है, उसका स्वरुप ही पारे के जैसा है। तब, उस मन के प्रवाह को कल्याणवहा कैसे किया जाये ? यदि उसके प्रवाह की धारा की तली या फर्श विवेक की बनी हुई हो, तो उस चिन्तन प्रवाह को हम कैवल्य के पथ में अपने स्वरुप को जानने के दिशा में ले जा सकते हैं।
संसारप्राग्भाराऽविवेकविषयनिम्ना पापवहा। यदि हम उसका विपरीत करें, अर्थात अविवेक के उपर से यदि चिन्तन धारा को बहने दिया जाये तो वह धारा कैवल्य की और न जाकर संसार की ओर बहने लगेगी, जो हमारे बंधन का कारण होगा, उसी ओर ले जाएगी। चित्त की इसी धारा का नाम है- पापवहा धारा । तो फिर हमें क्या करना होगा ? तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते --पतंजली सूत्र के भाष्य में व्यासदेव कहते हैं, हमलोग आसक्ति के त्याग का मनोभाव बनाकर, या वैराज्ञ का फाटक लगाकर पापवहा चिन्तन प्रवाह को रुद्ध कर देना होगा, और विवेकदर्शन का अभ्यास या विवेक-प्रयोग द्वारा कल्याणवहा स्रोत को उद्घाटित करना होगा। जिस प्रकार डैम का फाटक गिरा कर, नदी की धारा को रोक दिया जाता है, उसी प्रकार पाप की चिन्तन धारा को भी वैराज्ञ के मनोभावरूपी फाटक से बन्द कर दो। 
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत्र उद्धाट्यत
और जो स्वतः कल्याण की दिशा में बहने वाली चिन्तन धारा है, उसको विवेक के अभ्यास द्वारा खोल दो, चित्त की चिन्तन धारा को विवेक की तली से ही प्रवाहित होने दो। जिस व्यक्ति का चित्त इस प्रकार कल्याण मुखी हो जाता है, उसी मनुष्य को सुसंस्कृत मनुष्य कहा जा सकता है।

।। दस ।।

हमलोग विचार करने से यह समझ सकते हैं, कि भोग में सुख नहीं है, त्याग में ही सच्चा सुख है। भोगों के द्वारा हमलोग कभी संस्कृति नहीं प्राप्त कर सकते, केवल त्याग के द्वारा ही संस्कृति प्राप्त होती है। 'भर्तृहरेः वैराग्यशतकम्' में कहा गया है 
'सर्वं वस्तु भयान्वितं' संसार के समस्त वस्तुओं में भय भरा है, जिसको भी मैं अपना कह रहा हूँ, वह चला जायेगा, रहेगा नहीं, या आगे चलकर संकट में डाल देगा।  

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयम्
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्॥३१॥

संसार के समस्त वस्तुओं में भय भरा है, जिसको भी मैं अपना कह रहा हूँ, वह चला जायेगा, रहेगा नहीं, या आगे चलकर संकट में डाल देगा। इसीलिये यदि केवल वैराग्य या आसक्ति त्याग के भाव को हमलोग पकड़े रहें, तभी हमलोग वास्तव में निर्भय हो सकते हैं। और हमारी वास्तविक सत्ता प्रकट हो सकती है।
हमारे शास्त्रों ने हमेशा से हमें यही शिक्षा दी है। ऋग्वेद में में भी ययाति की कहानी दी गयी है। राजा ययाति की कहानी विभिन्न पुराणों में है, भागवत में है,महाभारत में भी है। बहुत प्राचीन काल में ययाति नामक एक राजा इस देश में रहा करते थे। उसकी कहानी हम सभी लोग जानते हैं। जिस पाश्चात्य भोगवादी, जड़वादी विचार धारा के पीछे हमलोग दौड़ रहे हैं, दौड़ की इस प्रतिस्पर्धा ने आज बहुत विकराल रूप धारण कर चूका है। किन्तु फिर भी हमलोग बिना सोचे समझे दौड़े चले जा रहे हैं, प्राचीन युग में राजा ययाति भी उसी मार्ग में जाना चाहते थे।
सारा जीवन भोग करने के बाद भी, उनको तृप्ति नहीं मिली थी, वे और भी भोग करना चाहते थे। किन्तु किसी दुष्कर्म के दण्ड स्वरूप वे बुढ़ापा से ग्रस्त हो गये थे, तब अपने पुत्र से उन्होंने जवानी की भिक्षा मांग ली। अपना बुढ़ापा अपने छोटे पुत्र को देकर उसे राज्य सिंहासन पर बैठा दिये और स्वयं अपने पुत्र की जवानी लेकर हजार वर्षों तक इस जगत का भोग किये थे। किन्तु हजार वर्षों का भोग भी उसको तृप्त नहीं कर सका, तब वे अन्त में समझ सके -'आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया '- तुम्हारी माया से मैं इतना मोहित हो गया कि अपने स्वरुप को भी नहीं जान सका ? 

मनुष्य स्वयं बुड्ढा हो जाता है, किंतु उसकी भोगलिप्सा जवान बनी रहती है । जगत में जितनी भी खाद्य-द्रव्य, सोना-चाँदी आदि भोग की वस्तुएं हैं, वह सब मिलकर भी किसी एक व्यक्ति के लिये पर्याप्त नहीं लगती है। केवल त्याग से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। भोगों में लिप्त रहने से हम कभी परम आनन्द, संस्कृति या कल्याण की ओर अग्रसर नहीं  हो सकते हैं, इसीलिये हमें त्याग को ही ग्रहण करना पड़ेगा।
श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव- वेद-ब्राह्मण, उपनिषद, वेदान्त, शंकर भाष्य, व्यास-सूत्र, रामायण-महाभारत,या  अठारह-पुराण आदि शास्त्रों का उल्लेख नहीं किया करते थे। किन्तु इन सब का जो सार है-गीता,उसके तत्व को अपने शिष्यों से बहुत कम शब्दों में व्यक्त करते हुए कहते हैं, " यदि कोई व्यक्ति दस बार गीता-गीता शब्द का उच्चारण करेगा तो क्या सुनाई देगा ?  'गीता' को कई बार दुहराने से मुख से 'तागी तागी' निकलता है; अर्थात त्यागी बनो ! यही गीता की मूल शिक्षा है !"
कहते थे - 'गीता-गीता-गीता अर्थात 'तागी- तागी-तागी ! " शायद मूर्ख ब्राह्मण थे न ? इसीलिये किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने पकड़ लिया, त्याग का 'य' कहाँ गया? किन्तु उस समय वहाँ एक संस्कृत के पंडित भी थे, उन्होंने व्याकरण की पुस्तक खोल कर दिखला दिया कि त्यागी का जो अर्थ निकलता है, तागी कहने का भी वही अर्थ होता है। अर्थात त्याग ही हमलोगों के जीवन के विकास का, हमारे जीवन की स्थिति की, हमारे जीवन के अमृत की, हमारा अनंतत्व जिस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, उसे प्राप्त करने में समर्थ बनाता है। हमारा शरीर इत्यादि सबकुछ नष्ट होने वाला है, सामयिक और क्षणभंगुर है, इस समस्या का समाधान भी त्याग से ही सत्य के साथ साक्षात्कार हो सकता है। यही हमारी बुद्धि, हमारी मनीषा को प्रकाशित करती है। भागवत में कहा गया है, जो व्यक्ति असत्य में से सत्य का, इस मरणशील जगत में से भी अमृत को खोज सकता है, वही सच्चा मनीषी है, वही बुद्धिमान है। 


।। ग्यारह ।।    

हमलोग अपने देश के प्राचीन शास्त्रों से यदि अपनी संस्कृति के मूल आधार- 'त्याग' की शिक्षा नहीं ग्रहण कर सके, तो हमलोग भारत की सांस्कृतिक विरासत से बहुत दूर चले जायेंगे। तथा हमलोग यदि संस्कृतिहीन हो जाएँ, असंस्कृत होकर अनेकों वस्तुओं को संग्रह कर लें, तो केवल वह सारा संग्रह ही नष्ट नहीं होगा, हमारी मृत्यु के साथ ही साथ धीरे धीरे हमारा जितना गौरव है, वह सब भी लुप्त हो जायेगा।
 
 श्रीरामकृष्ण देव हमें इस संकट से उबरने के लिये एक अद्भुत शिल्पी होकर आये थे। वे बचपन से ही बहुत सुन्दर मूर्तियाँ गढ़ते थे, उन्होंने दक्षिणेश्वर में बैठकर मूर्तियाँ गढ़ी थी, चित्र बनाये थे, कितना अद्भुत संगीत सुनाते थे।
उन्होंने अपने जीवन से दिखलाया था, कि कोई व्यक्ति शिल्पकार कैसे बन सकता है? किस प्रकार एक जीवंत मूर्ति को गढा  जा सकता है। सबसे महान मूर्तिकार वही है, जो अपने जीवन को सुंदर रूप में गढ़ सकता हो। और अद्भुत सुन्दर फूल जिस प्रकार अपने सुगंध से सभी लोगों को आनन्द पहुँचाकर झड़ जाता है, उसी प्रकार अपने जीवन को सबों के लिए कैसे न्योछावर किया जा सकता है, उसकी शिक्षा उन्होंने अपने जीवन से दी थी।
आज के युग में हमारी भारतीय संस्कृति यथार्थ में क्या है, इसे समझने के लिये श्रीरामकृष्ण का जीवन, माँ सारदा का जीवन, स्वामीजी के जीवन के उपर विवेचना, विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। तथा स्वयं को संस्कृतिवान, संस्कारी मनुष्य के रूप में गढ़ लेने की आवश्यकता है। ऐसा नहीं करके बाहरी रूप को चाहे जितना भी चमका कर अपने को सुसभ्य कह कर गर्व क्यों न करें, हमारे भीतर का असंस्कृत मन प्रकाशित होकर हमलोगों को पशु के रूप में परिणत कर देगा। इस दुर्भाग्य से हमलोग बच जाएँ। इसीलिये भारत की यथार्थ सांस्कृतिक विरासत से स्वयं परिचित होने और दूसरों को परिचित कराने की योग्यता अर्जित करना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी सच्चे संस्कृतिवान व्यक्ति के द्वारा ही मनुष्यता का यथार्थ कल्याण हो सकता है। क्योंकि असंस्कृत मनुष्य (घोर स्वार्थी पशुमानव ) ही अकल्याण का कारण होता है।   
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(संस्कृति यानी उस समाज के जीवनमूल्य, संस्कृति यानी उस समाज के अच्छे और बुरे नापने के मापदण्ड। हमारे पूर्वजों ने कहा है ''हमारा समाज ही हमारा ईश्वर है। ''जनता जनार्दन'' है।  जनता में जनार्दन देखने की यह अतिश्रेष्ठ दृष्टि ही हमारी भारतीय संस्कृति का हृदय है। ईश्वर की सेवा यानी समाज की सेवा।ठाकुर कहते थे, " शिव ज्ञान जीव सेवा " ईश्वर की पूजा यानी जनता जनार्दन की पूजा।  इस भाव को यदि हमने हृदयंगम किया तो फिर मनुष्य अपने अधिकारों की बात नहीं करेगा। अपने कर्तव्यों का ध्यान रखेगा।'अनेकता में एकता' का हमारा वैशिष्टय हमारे सामाजिक जीवन के भौतिक एवं आधयात्मिक सभी क्षेत्रों में व्यक्त हुआ है।)

[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब कि पाश्चात्यों का प्रभाव भारत पर पड़ने लगा और जब विजयी पाश्चात्य अपने हाथों में तलवार लेकर यहाँ के ऋषि पुत्रों को यह प्रमाणित करने आये कि वे केवल जंगली है, साँप नचाने वालों का देश है, उनका धर्म केवल काल्पनिक है, क्योंकि किसी ने इसकी स्थापना नहीं की है। तब तो विश्वविद्यालय के तरुण छात्रों में संदेह होने लगा कि -क्या उन्हें अपने पुराने ग्रंथों को फाड़ डालना चाहिए, प्राचीन तत्व ज्ञान को डालना चाहिए, अपने धर्मगुरुओं को मारकर भगा देना चाहिए तथा क्या अपने मन्दिरों को ढा देना चाहिय ? क्या हमारी प्राचीन धर्म-पद्धति केवल कुसंस्कार एवं निर्जीव-प्रतिमा पूजन तक ही सीमित है ?
 यहाँ के बुद्धिजीवीयों के लिये, कुसंस्कार को एक ओर हटाने तथा सत्य का अनुसन्धान करने की अपेक्षा बस यही एक महावाक्य सत्य की कसौटी हो गया-"इस सम्बन्ध में पाश्चात्य की क्या राय है ? धर्मगुरुओं को भगा देना चाहिये, वेदों को जल देना चाहिये,क्योंकि पाश्चात्यों ने ऐसा ही कहा है।इस प्रकार के खलबली के भावों से भारत में एक ऐसी लहर उठी, जिसे हम तथाकथित 'सुधार-आन्दोलन' के नाम से जानते हैं।
 यह सुधार आन्दोलन भारत में उस समय प्रारंभ हुआ, जब ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो भौतिकवाद की तरंग, जिसने भारत पर आक्रमण किया था, इस देश के प्राचीन आर्य ऋषियों की संस्कृति एवं शिक्षा को बहा देगी। परन्तु यह राष्ट्र इसके पहले भी क्रांति की ऐसी हजारों तरंगों की चोट सह चूका था; और यह तरंग तो अतीत के उस तरंग की अपेक्षा हलकी ही थी, जब तलवारें चमकी थीं, और 'अल्लाहो अकबर ' के नारे से भारत का आकाश गूँज उठा था।
 परन्तु धीरे धीरे ये लहरें शांत हो गयीं और राष्ट्रिय आदर्श पूर्ववत बने रहे। भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता। यह अमर है, और उस समय तक टिका रहेगा, जब तक इसका धर्म-भाव अक्षुण बना रहेगा। जब तक हम लोग अपनी वंश-परम्परा को किसी अरण्यनिवासी वल्कलधारी,जंगल के फल-मूल खाने वाले तथा ईश्वर का साक्षात् करने वाले किसी ऋषि से स्थापित करने की चेष्टा करते रहेंगे। जब तक अपनी इस पवित्र संस्कृति के उपर हमारी इतनी गहरी श्रद्धा रहेगी, तब तक भारत का विनाश नहीं है।  ऐसे संकट के समय में जब भारतवर्ष में बहुत से नये सुधारों की चेष्टा हो रही थी, उन्हीं दिनों, 18 फरवरी,सन 1836 को .........."] 

 स्वामी विवेकानन्द ने अपने पाश्चात्य भ्रमण के दौरान यह समझ लिया था कि -"धीरे धीरे पश्चात्यवासी यह अनुभव कर रहे हैं कि उन्हें राष्ट्र के रूप में बने रहने के लिये आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, चाव से इसकी बाट जोह रहे हैं। किन्तु इसकी पूर्ति कहाँ से होगी ? वे आदमी (नवयुग के अग्रदूत- महामण्डल के नेता) कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियों का उपदेश जगत के सब देशों में पहुँचाने के लिये तैयार हों ? कहाँ हैं वे लोग,जो इसलिये सब कुछ छोड़ने को तैयार हों कि ये कल्याणकार उपदेश संसार के कोने कोने तक फ़ैल जायें ? सत्य के प्रचार हेतु ऐसे ही वीरहृदय लोगों की आवश्यकता है।वेदांत के महासत्यों को फ़ैलाने के लीये ऐसे वीर कर्मियों को बाहर जाना चाहिये।" 5/171
"उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो ! जैसा कि इसी देश में पहले पहल प्रचार किया गया था-घृणा घृणा को नहीं जीत सकती,प्रेम ही घृणा पर विजय प्राप्त करेगा। भौतिकवाद तथा उससे उत्पन्न क्लेश भौतिकवाद से कभी दूर नहीं हो सकते। जब एक सेना दूसरी सेना पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करती है, तो वह मानवजाति को पशु बना देती है और इस प्रकार वह पशुओं की संख्या बढ़ा देती है।आध्यात्मिकता पाश्चात्य देशों पर अवश्य ही विजय प्राप्त करेगी।"5/170
"साथ ही हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि अध्यात्मिक विचारों की विश्व-विजय से मेरा मतलब अपने जीवनदायी सनातन सिद्धांतों के प्रचार से है, न कि उन सैकड़ों अंधविश्वासों से, जिन्हें हम सदियों से अपने सीने से लगाते आये हैं। इनको तो इस भारत-भूमि से भी उखाड़ कर दूर फेंक देना चाहिये, ताकि वे सदा के लिये नष्ट हो जाएँ।"5/171  

[भारतवर्ष को एक महनीय महान् देश के रूप में सुप्रतिष्ठित करने के लिये विश्व-नीड़ में मानवता का सौरभ वितरण करना हमारे जीवन का ध्येय बने । युवाओं को महामण्डल की पुस्तिका " नेतृत्व का अर्थ एवं गुण ' का प्रशिक्षण देकर,नवयुग के अग्रदूत, नव जीवन के गायक और नये विप्लव के नेताओं का निर्माण करने से ही स्वामीजी के सपनों को साकार किया जा सकता है। और भारतीय संस्कृति में रचे-बसे ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’- की भावना को साकार किया जा सकता है । महामण्डल द्वारा दिए जाने वाले नेतृत्व-प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षण प्राप्त करके विश्वबन्धुता, मैत्री, प्रेम और शान्ति की पावन धारा से अपने हृदय को रसाप्लुत करने में समर्थ युवाओं (युवा-पैगम्बरों ) का दल ही  भारत और सम्पूर्ण विश्व को  एवं आनन्दमय बना सकते हैं। पैगम्बर बनने के लिये मन, वचन और कर्म का त्रिवेणी-संगम आवश्यक है । यही धर्म है, और महाभारत ग्रन्थ का सार-मर्म है - 'यतो धर्मस्ततो जयः' , जहाँ धर्म है, वहाँ है विजय ।  केवल वाक्य-वीर न होकर धर्म-वीर एवं कर्म-वीर के रूप में अपने को प्रतिपादन करने से मनुष्य-जन्म की सार्थकता बनी रहेगी ।
 वर्त्तमान के कम्प्युटर-युग में सारा विश्व एक परिवार-सा बन गया है। इन्टरनेट के माध्यम से भी स्वामीजी के विचारों को भारत के युवाओं तक पहुँचाने के उद्देश्य से ही-बंगला में लिखे महामंडल आन्दोलन के मूल ग्रन्थ 'स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' का हिन्दी अनुवाद झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा ब्लॉग के रूप में प्रस्तु किया जा रहा है। ]
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