महाकाल सब का ग्रास करने के लिये दौड़ रहा है
विषयासक्ति रहे तो सन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता-जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना|" वीरेश्वरदा
" रागश्रुति-लयज्ञानं यस्मिन भावाश्रेये स्थितम |
नादब्रह्म मतं यस्य तस्मै श्रीगुरुवे नमः ||"
--जिस मनुष्य का मत यह है कि ' ॐ शब्द ' ही ब्रह्म ( प्रथम) है; उन सदगुरु को मेरा नमस्कार है ! इस (स्व-रचित) प्रणाम-मन्त्र को एक दिन उनको (वीरेश्वरदा को) भी सुना दिया, फिर तो उनके आनन्द के ठिकाना न था- वे बहुत खुश हुए!
--जिस मनुष्य का मत यह है कि ' ॐ शब्द ' ही ब्रह्म ( प्रथम) है; उन सदगुरु को मेरा नमस्कार है ! इस (स्व-रचित) प्रणाम-मन्त्र को एक दिन उनको (वीरेश्वरदा को) भी सुना दिया, फिर तो उनके आनन्द के ठिकाना न था- वे बहुत खुश हुए!
नाद (शब्द य़ा ॐ ) ही तो ब्रह्म हैं !ब्रह्म तो अनन्त हैं, वे निश्चल हैं, उनका तो कोई ओर-छोर (आदि-अन्त) नहीं है| किन्तु जब वे कम्पायमान (य़ा स्पन्दित vibrate) होते हैं, उसी समय सृष्टि
(Creation 'or better to say 'Projection ') अस्तित्व में आ जाती है!' नादब्रह्म ' " अर्थात नाद है प्रथम " { प्रथम य़ा एक ही है- अद्वैत !} उसी (शब्द ॐ य़ा नादब्रह्म) से प्रक्षेपित (निर्गत) होकर सृष्टि का प्रारम्भ हुआ, और यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आ गया है !!
आज का विज्ञान भी इसी बात को अन्य प्रकार से कहता है कि इस जगत में सबकुछ " एक " (महा-विस्फोट अथवा Big -Bang ) से आया है !! धीरे धीरे जगत में प्राणी (य़ा जीव - जिसमे जीवन स्पन्दित होता य़ा धड़कता है) का आविर्भाव हुआ |
वह प्राणी बिल्कुल सूक्ष्म, ' कीटानुकीट ' छोटा सा कीट य़ा जीव-कोष (जीवाणु जो बढ़कर एक नया प्राणी (SPORE ) हो जाता है- से आरम्भ करके कितने बड़े बड़े प्राणी ( डायनासोर आदि)की सृष्टि हो गयी वे सभी प्राणी समय के प्रवाह में {जीवों का क्रम- FOOD -CHAIN : जिसमें एक दूसरे को खाता है }लुप्त होते चले गये, पहले बहुत वृहद् आकार के मानो कोई छोटा सा पहाड़ हो, इतने विशाल-विशाल आदि, जीव हुआ करते थे. किन्तु इन सभी जीवों में ' मनुष्य ' नामक प्राणी एक विचित्र जीव है !!
श्रीमद भागवत (के " एकादश- स्कंध ") में बड़े ही सुन्दर ढंग से कहा गया है कि, मनुष्य क्यों एक विचित्र (सर्वश्रेष्ठ) प्राणी है, एवं स्वामीजी की रचनाओं (विवेकानन्द साहित्य खंड १: पृष्ठ ५३ ) में भी हमलोग देख सकते हैं. ईसाईधर्म के ग्रन्थ (बाइबिल) में भी, सृष्टि की रचना का उल्लेख है:तो इस प्रकार भगवान ने नाना प्रकार की सृष्टि रचना की. किन्तु कोई मनुष्य जब किसी वस्तु की रचना करता है, तो उस रचना को देखने से उसको एक प्रकार का आनन्द भी प्राप्त होता है ! स्वयं किसी वस्तु का निर्माण करने से आनन्द होता है ! जैसे किसी कथाकार को एक अच्छी कहानी लिखने से,किसी को अच्छा निबन्ध लिखने से,किसी को एक सुन्दर कविता लिखने से,किसी को अपने द्वारा बनाय गये सुन्दर चित्र को देखने से ...से आरम्भ करके जो कुछ भी मनुष्य रचता है (सुन्दर-ढंग से बनाता है) उसमे उसको उस रचना करने का सुख य़ा आनन्द तो प्राप्त होता है| एक प्रकार के संतुष्टि का भाव मन में अवश्य आता है. किन्तु भगवान को समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड रच देने के बाद भी आनन्द नहीं आ रहा था| तब उन्होंने मनुष्य की रचना की, और अपनी इस कीर्ति को देख कर स्वयम अवाक् रह गये|
भागवत में यह प्रसंग आता है--
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्त्या |
वृक्षान-सरीसृप-पशुन-खग- दंश- मत्स्यान ||
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय |
ब्रह्मावलोकधिष्णम मुदमाप देवः ||
(भागवत : ११:९:२८)
देव (सृष्टा य़ा परमहंस देव) ने पूर्व-काल में अपनी आत्मशक्ति के द्वारा भाँती-भाँति के स्थावर,जंगम सभी प्रकार के जीवों; यथा गाँछ-वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, डंक मारने वाले, मत्स्य आदि जलचर जीवों की सृष्टि करके भी तृप्त नहीं हो सके, तब उन्होंने 'मनुष्य' की रचना की - जो मनुष्य ब्रह्म (प्रथम) को, अपने बनाने वाले को भी जान सकता है| जब (परमहंस) देव ने यह देखा कि मनुष्य तो ब्रह्म-ज्ञान तक प्राप्त कर सकता है, तब उनको अपनी इस अदभुत रचना को देख कर महा आनन्द हुआ|
भगवान (ठाकुर) ने मनुष्य की रचना कर के कहा - " समस्त देवदूतदेर डेके आनो ! "" -- समस्त देवदूतों (messengers of God य़ा फरिस्तों) को बुलाकर ले आओ ! "
भगवान (ठाकुर) ने मनुष्य की रचना कर के कहा - " समस्त देवदूतदेर डेके आनो ! "" -- समस्त देवदूतों (messengers of God य़ा फरिस्तों) को बुलाकर ले आओ ! "
सभी देवदूतगण (य़ा मानवजाति के सच्चे ' नेता ' गण) जब आये, तो आनन्द से पुलकित होकर भगवान बोले - देखो, देखो, मेरी इस रचना को देखो, इस बार मैंने कैसी अदभुत रचना की है- जरा इसको तो देखो! उनलोगों ने अवाक् होकर देखा | भगवान ने देवदूतों को आदेश दिया-
" इस मनुष्य को तूम सभी लोग प्रणाम करो !
यही मेरी श्रेष्ठ रचना है, यह मनुष्य ही
सबों के लिये प्रणम्य है; तुमलोग इसे प्रणाम करो !"
सभी फरिस्तों ने तो प्रणाम किया, पर एक फरिस्ते ने प्रणाम नहीं किया| जिस देवदूत ने मनुष्य को प्रणाम नहीं किया- उसका नाम हुआ शैतान! जो ' मनुष्य '- मनुष्य के सामने अपने सिर को नहीं झुकाता है, वही है शैतान !
हमलोग ' श्रीरामकृष्ण परमहंस देव ' के जीवन में क्या देखते हैं ? हमलोगों ने देखा है कि वे सभी के सामने अपने सिर को झुका रहे हैं. बलराम बसु के घर पर गिरीश चन्द्र घोष को उनका प्रथम दर्शन हुआ था. उस दिन बलराम बसु के घर पर श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव आये हुए थे. उनके घर के बिल्कुल निकट में ही गिरीश चन्द्र घोष का मकान भी था. उनके साथ और एक विशिष्ठ व्यक्ति थे, जो पत्रकार थे. वे गिरीश घोष के बड़े करीबी मित्र थे. वे आकार गिरीश घोष को कहते हैं-
" वहाँ एक ' परमहंस ' आये हैं, आप भी देखने जायेंगे क्या ? "
परमहंस कहने के बाद कुछ लोग 'परमहंस' की नकल किस प्रकार किया करते हैं- यह बात ठाकुर भी जानते थे| बगुला के आकार जैसा अपने हाथ को ऊँचा करके कहते थे "परमहंस", और पीछे से अपने मुँह को बगुला के जैसा बना कर दिखाते थे.यह बात को ' ठाकुर देव 'जानते थे - इस बात पर हँसा करते थे, तथा उसका आनन्द उठाते थे.
जो हो, वह सज्जन मित्र अपने साथ गिरीश घोष को भी ले गये और सीढियों पर चढ़ कर बरामदे में पहुँचे. देखते हैं किनारे एक कमरा है, उसी कमरे में एक व्यक्ति बैठे हैं. कमरे के अन्दर नहीं गये हैं, खिड़की से ही झांक कर देख रहे हैं. बहुत से लोग उस कमरे के भीतर प्रवेश कर रहे हैं, एवं उनको प्रणाम कर रहे हैं. किन्तु किसी व्यक्ति के प्रणाम करने के पूर्व ही, जमीन पर सिर रख कर वे ही उसको प्रणाम कर दे रहे हैं. अच्छे-बुरे में भेद किये बिना सभी मनुष्य को प्रणाम कर रहे हैं.
सतोगुणी व्यक्ति बाहरी रूप से वैसा न कर, यदि मन ही मन समस्त मनुष्य को प्रणम्य बोध करे | (साधु और पापी में अन्तर देखे बिना) मानवमात्र को प्रणम्य बोध करते हुए, उसके समक्ष कम से कम मानसिक रूप से भी अपने सिर को झुकाने के लिये सदैव तत्पर रहता हो - तब ऐसे किसी मनुष्य को देख कर समझ लेना होगा कि वे साधारण मनुष्य नहीं हैं !
गिरीश चन्द्र के मित्र ने उनसे कहा- " परमहंस- को तो देख लिया न ? अब यहाँ से निकल लो !"
किन्तु उसके बाद से तो गिरीश घोष के मन में उत्ताल तरंगे उठने लगीं ; कौन है यह अदभुत ' मनुष्य '? जो सभी मनुष्य को (नीच से नीच को भी) अवनत हो कर, (उसके चरणों में गिर कर) प्रणाम करने में समर्थ हुआ है?
{इसीलिये गाना के गुरु के प्रणाम मन्त्र में कहा गया है -
Music maestro of the Mahamandal,
" बीरेश्वर चक्रबर्ती "
"नादब्रह्म मतं यस्य तस्मै श्रीगुरुवे नमः ||" }
इसी लिये तो, जब वृक्ष, लता, जल इत्यादि बनालिये, समुद्र इत्यादि बना लिये- तब भी उनको अपनी रचना में वह आनन्द नहीं मिला, तब -
" .... पुरुषं विधाय..ब्रह्मावलोकधिष्णम..."
ब्रह्म की ही प्रतिमूर्ति स्वरुप - 'मनुष्य' की रचना करके, जो मनुष्य ब्रह्म को भी जान सकता है-- ऐसे अदभुत-मनुष्य का निर्माण करके, " मुदमापदेवः " - तब सृष्टा को महा आनन्द हुआ !
{२ जून १८८३ को श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर से कलकत्ता आ रहे हैं. ...श्रीरामकृष्ण गाड़ी में आते आते राखाल, मास्टर आदि भक्तों से कह रहे हैं,..." देखो, उन पर प्रेम हो जाने पर पाप आदि सब भाग जाते हैं,
जैसे धूप से मैदान के तालाब का जल सुख जाता है....विषय की वासना तथा कामिनी-कांचन पर मोह रखने से कुछ नहीं होता. यदि विषयासक्ति रहे तो सन्यास लेने पर भी कुछ नहीं होता-जैसे थूक को फेंककर फिर चाट लेना|"
थोड़ी देर बाद गाड़ी में श्रीरामकृष्ण फिर कह रहे हैं, " ब्रह्मसमाजी लोग साकार को नहीं मानते| (हँसकर) नरेन्द्र कहता है, ' पुत्तलिका !' (गुड्डा-गुड्डी बनाकर उसकी पूजा करने वाले मूर्ति-पूजक) फिर कहता है, ' वे अभी तक कालीमंदिर जाते हैं|'
श्रीरामकृष्ण बलराम के घर आये हैं, वे एकाएक भावाविष्ट हो गये हैं| सम्भव है देख रहे हैं,ईश्वर ही जीव तथा जगत बने हुए हैं, ईश्वर ही मनुष्य बनकर घूम रहे हैं| जगन्माता से कह रहे हैं, " माँ, यह क्या दिखा रही हो ? रुक जाओ; यह सब क्या दिखा रही हो ? राखाल आदि के द्वारा क्या दिखा रही हो, माँ ! रूप आदि सब उड़ गया| अच्छा माँ, मनुष्य तो केवल ऊपर का ढाँचा ही है न ? चैतन्य (उसमे नाद य़ा vibration) तो तुम्हारा ही है! "(श्रीरामकृष्ण वचनामृत (प्रथम भाग) : पृष्ठ:२०६ )}
ये जो ब्रह्म हैं, जिनसे वह नाद (ॐ vibration) उथित हुआ था, और जिसके कारण ही प्रत्येक वस्तु ने अपनी चंचलता (य़ा चैतन्य) को प्राप्त किया है, समस्त सृष्टि बनी है, उस (नाद-ब्रह्म य़ा) ' प्रथम नाद ' से ही समस्त सृष्टि (जीव-जन्तु, पशु-पक्षी, उद्भिज) निकली है ! ! - उस ' प्रथम-वस्तु ' (ब्रह्म) को कौन समझ सकता है ? - एकमात्र ' मनुष्य ' ही समझ सकता है, मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी यही है !
मनुष्य जीवन का श्रेष्ठ उद्देश्य (Chief Aim of Life) क्या है ? (मननशील) मनुष्य के मन में यह विचार अवश्य उठता है कि, मैं जहाँ से आया हूँ- उस उद्गम य़ा श्रोत को पहले जान लेना होगा! (जब सारे शास्त्र और गुरु कहते हैं कि नादब्रह्म य़ा) ब्रह्म से ही मैं भी आया हूँ, तो मुझे उस ब्रह्म (नाद, ॐ य़ा सत्य) को अवश्य ही जान लेना होगा|
कुछ उपनिषदों में प्राचीन ऋषियों द्वारा उदघाटित य़ा आविष्कृत सत्यों को " महावाक्य " कहा जाता है! महावाक्य के अन्तर्गत अनेक वाक्य कहे गये हैं| उन में से मात्र कुछ वाक्यों को लेकर, आचार्य शंकर ने (कुल ११) उपनिषदों पर भाष्य की रचना की है. महर्षि व्यासदेव ने ब्रह्मसूत्र की रचना की थी, एवं उसके ऊपर भाष्य लिखा था आचार्य-शंकर ने| उनमे अनेकों सूत्र दिये गये हैं, किन्तु उसमे कहे गये तीन सूत्रों को सदा के लिये अपने मन में बैठा लेने की आवश्यकता है| वे तीन (प्रमुख) महावाक्य हैं-
" तत्वमसि "
- 'तत ' वह ब्रह्म तत, ' त्वम असि '; अर्थात वह ब्रह्म तूम ही हो !
" अहं ब्रह्मास्मि "
- अर्थात मैं (पाका-आमि) ही ब्रह्म हूँ !
" सर्वं खल्विदं ब्रह्म "
- यह सब कुछ ब्रह्म ही हैं !
इसी जीवन में इन तीनों सत्यों को स्वयं आविष्कृत कर लेना, य़ा (पहले सुन कर फिर अपने अनुभव से ) जान लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है| जिस उद्गम-श्रोत (य़ा उर्ध्व-मूल) से आया हूँ, उसी मूल में लौट जाना ही मेरे जीवन का परम-लक्ष्य य़ा श्रेष्ठ-उद्देश्य है! जिसको अपने इसी जीवन में इस सत्य की अनुभूति नहीं हुई - फिर उसका और क्या हुआ ? (यह दुर्लभ मनुष्य जीवन तो व्यर्थ में ही बीत गया)
यहाँ आया, खाया-पिया और नाना प्रकार के विषयों का भोग किया, सारे जीवन भर भोगों में डूबा रहा, फिर एकदिन -भोगों के बीच ही मर गया ! किन्तु भोगों के बीच ही मर जाने के समय तो कुछ बोध नहीं होगा। और अभी- यहाँ संसार में (जीवित ) रहते समय हमलोग क्या कर रहे हैं ? स्कूल में पढ़ते समय अपने पण्डित-महाशय (संस्कृत शिक्षक) से एक बहुत ही सुन्दर ' वैराग्यसूक्ति ' इसी सम्बन्ध में हमलोगों ने सुना था -
भेको धावति तं च धावति फणी सर्पं शिखी धावति
व्याघ्रो धावति केकिनं विधिवशाद् व्याधोऽपि तं धावति ।
स्वस्वाहारविहारसाधनविधौ सर्वे जना व्याकुलाः
कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते ॥४५॥
व्याघ्रो धावति केकिनं विधिवशाद् व्याधोऽपि तं धावति ।
स्वस्वाहारविहारसाधनविधौ सर्वे जना व्याकुलाः
कालस्तिष्ठति पृष्ठतः कचधरः केनापि नो दृश्यते ॥४५॥
- एक बेंग दौड़ा जा रहा है. साप का खाद्य पदार्थ बेंग है, साप बेंग के पीछे से धोखा देकर उसको खा डालने के लिये दौड़ रहा है. मयूर साप को खाता है, साप के पीछे मयूर दौड़ता है. मयूर के पीछे बाघ, बाघ के पीछे शिकारी दौड़ता है. सभी अपने अपने आहार के पीछे दौड़े चले जाते हैं|और सबों के पीछे महाकाल सब का ग्रास करने के लिये दौड़ रहा है, पर उसकी ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता !
[ जरासन्ध का पहला आक्रमण बालों पर होता है, पर डाई करके हरा देते हैं। फिर डेन्टिस्ट से दांत ठीक करा लेते हैं। घुटनों पर होता है। आँखों पर होता है। ४ बार जरा संध को हमलोग हरा लेते हैं, ६० में रिटायर हो जाने के बाद भी हमलोग अपने को बूढ़ा नहीं समझते हैं। कुछ न कुछ उपार्जन के कार्य में या नयी नौकरी खोज लेते हैं। बूढ़ा तो हमलोग मरने के बाद होते हैं। मरने के पहले कोई बूढ़ा होने को तैयार नहीं होता। श्रीकृष्ण ने जरासंध को १७ बार हर दिया था। मथुरा हमारा शरीर है, मथुरा को एक दिन सब को छोड़ना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने मथुरा छोड़ने के पहले ही द्वारका का निर्माण कर लिया था। उसी प्रकार ६० के बाद ह्रदय को द्वारिका पहले बना लो, मथुरा छोड़ कर सीधा बैकुंठ धाम में रहने का प्रबन्ध कर लो।
यदुवंशियों के पतन का समय आ गया था। धन बहुत आ जाता है, तो धर्म कम करते हैं, अपराध ज्यादा करते हैं। धन यौवन का मद -कपूर की तरह उड़ जायेगा। नारायण गोपाल भज क्यों चाटे जगधूल? धन का सदुपयोग करो, युवावस्था में सेवा करो, ताकत ज्यादा है तो ब्राह्मणों का अपमान मत करो। नृग राजा को गिरगिट योनि क्यों मिला ? सूर्यवंश में जन्म लिया था, दान तीन है। सतो गुणि दान करने वाला बदले में कुछ चाहता नहीं है। दान देने का अहंकार ही पतन का कारण है। देन हार कोई और है, पर अहंकारी अपने को दानी समझता है। गलती से दूसरे की गाय दान कर दिया। नृग को गिरगिट बना दिया। पर भूख से अधिक मत खाओ, एक रोटी ज्यादा खा लोगे तो कोई दूसरा भूखा रहेगा। मातायें अन्न बचाने के बहाने ज्यादा खा लेती है।
प्रथम पत्नी रुक्मिणी का हरण करके द्वारका में लायें हैं, आपने कृष्ण-काले को क्यों पसंद किया ? शिशुपाल से तुम्हारी सगाई हो गयी है, फिर करा दूँ ?वो मजाक को नहीं समझने से बेहोश हो गयी। दाम्पत्य जीवन का लाभ है कि वे हर समय प्रसन्न रहें।
भगवान को भी कलंक लगा था। ग्रह का प्रभाव था ? जामवन्त का गुफा (गुजरात) से युद्ध करना पड़ा। जामवंती के साथ दूसरा विवाह , तीसरा विवाह सत्यभामा से हुआ। १६००० स्त्रियों को स्वीकार किया। सत्यभामा के साथ अमरावती गए, कल्प वृक्ष को द्वारका ले आये। ]
[ जरासन्ध का पहला आक्रमण बालों पर होता है, पर डाई करके हरा देते हैं। फिर डेन्टिस्ट से दांत ठीक करा लेते हैं। घुटनों पर होता है। आँखों पर होता है। ४ बार जरा संध को हमलोग हरा लेते हैं, ६० में रिटायर हो जाने के बाद भी हमलोग अपने को बूढ़ा नहीं समझते हैं। कुछ न कुछ उपार्जन के कार्य में या नयी नौकरी खोज लेते हैं। बूढ़ा तो हमलोग मरने के बाद होते हैं। मरने के पहले कोई बूढ़ा होने को तैयार नहीं होता। श्रीकृष्ण ने जरासंध को १७ बार हर दिया था। मथुरा हमारा शरीर है, मथुरा को एक दिन सब को छोड़ना पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने मथुरा छोड़ने के पहले ही द्वारका का निर्माण कर लिया था। उसी प्रकार ६० के बाद ह्रदय को द्वारिका पहले बना लो, मथुरा छोड़ कर सीधा बैकुंठ धाम में रहने का प्रबन्ध कर लो।
यदुवंशियों के पतन का समय आ गया था। धन बहुत आ जाता है, तो धर्म कम करते हैं, अपराध ज्यादा करते हैं। धन यौवन का मद -कपूर की तरह उड़ जायेगा। नारायण गोपाल भज क्यों चाटे जगधूल? धन का सदुपयोग करो, युवावस्था में सेवा करो, ताकत ज्यादा है तो ब्राह्मणों का अपमान मत करो। नृग राजा को गिरगिट योनि क्यों मिला ? सूर्यवंश में जन्म लिया था, दान तीन है। सतो गुणि दान करने वाला बदले में कुछ चाहता नहीं है। दान देने का अहंकार ही पतन का कारण है। देन हार कोई और है, पर अहंकारी अपने को दानी समझता है। गलती से दूसरे की गाय दान कर दिया। नृग को गिरगिट बना दिया। पर भूख से अधिक मत खाओ, एक रोटी ज्यादा खा लोगे तो कोई दूसरा भूखा रहेगा। मातायें अन्न बचाने के बहाने ज्यादा खा लेती है।
प्रथम पत्नी रुक्मिणी का हरण करके द्वारका में लायें हैं, आपने कृष्ण-काले को क्यों पसंद किया ? शिशुपाल से तुम्हारी सगाई हो गयी है, फिर करा दूँ ?वो मजाक को नहीं समझने से बेहोश हो गयी। दाम्पत्य जीवन का लाभ है कि वे हर समय प्रसन्न रहें।
भगवान को भी कलंक लगा था। ग्रह का प्रभाव था ? जामवन्त का गुफा (गुजरात) से युद्ध करना पड़ा। जामवंती के साथ दूसरा विवाह , तीसरा विवाह सत्यभामा से हुआ। १६००० स्त्रियों को स्वीकार किया। सत्यभामा के साथ अमरावती गए, कल्प वृक्ष को द्वारका ले आये। ]