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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी संवाद पत्रिका - "विवेक अंजन"

'विवेक अंजन' 
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी संवाद पत्रिका 'विवेक अंजन' के प्रकाशन की पृष्ठभूमि के सन्दर्भ में प्रकाशक का मंतव्य :  
विवेक से मिलने वाला अंजन क्या है ? इस अंजन को लगाकर देखने क्या होगा ? - श्रुतियों के द्वारा गान किया गया कि "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" अर्थात् परमात्मा तो सर्वकाल में मात्र एक और अद्वितीय है और सर्वत्र उसी को उपास्य माना गया है । पूर्ण ब्रह्म सच्चिदानन्द तो एक ही हैं , किन्तु हम लोगों ने अलग-अलग अनेक परमात्मा की कल्पना कर ली है । सबके अपने-अपने पंथ और ग्रन्थ हैं तथा सभी अपने ही ग्रन्थ को धर्मशास्त्र मानते हैं। विवेक-अंजन से दृष्टि रूपान्तरित हो जाती है । 
" देख-देख के ऐसा देख, मिट जाए सब, रह जाए एक ! " 
जो मिटने वाला है माया है और असत्य है सदा रहने वाला ब्रह्म है जो सत्य है। इसलिए कहा गया है कि ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या। माया के मिटने के बाद सर्वत्र निर्गुण निराकार ब्रह्म ही शेष रहता है।  सिख गुरु श्री नानक जी ने कहा है- "नानक एको सुमरिए" अर्थात् उस एक परब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । इसी प्रकार मुस्लिम ग्रन्थों में कहा गया है- "कुलहू अल्ला अहद" अर्थात् खुदा एक है । बाइबल में कहा गया है - परमात्मा एक ही है, कोई दूसरा नहीं।  (मार्क १३/३२) ।
अपरोक्षानुभूति:११६  में आचार्य शंकर कहते हैं, जो दृष्टि (ध्यान करते समय) केवल नासाग्र के ऊपर ही टिकी रहती हो, उसे सर्वोत्कृष्ट-दृष्टि नहीं समझना चाहिये। यह अविनाशी ब्रह्म आगे पीछे, दाहिने बांये और ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त है । यह ब्रह्म ही सम्पूर्ण विश्व है । सबमें श्रेष्ठतम केवल यह विश्व ब्रह्म ही है । दृष्टि को ज्ञानमय करके संसार को ब्रह्ममय देखे यही दृष्टि अति उत्तम है,



  दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत |
     सा दृष्टिः परमोदारा न नासाग्रावलोकिनी ||

अपनी 'साधारण-दृष्टि ' (Ordinary Vision ) को ' ज्ञानमयीं-दृष्टि ' (Vision of Knowledge) में रूपान्तरित करने में 'विवेक-अंजन ' आपकी सहायक बन सके इसी उद्देश्य से इसका प्रकाशन किया जा रहा है। स्वामी विवेकानन्द चाहते थे, भावी भारत इस जगत को स्वयं में ही ब्रह्मस्वरूप देखने में समर्थ बने । यही सबसे उत्कृष्ट दृष्टि है, इस दृष्टि के आगे ऊँच-नीच या महान-क्षुद्र का कोई भेद नहीं रह जाता क्योंकि 'विवेक-अंजन' के प्रभाव से अब सबकुछ सर्वव्यापक ब्रह्म में ही विलीन हो चुका होता है.यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है। यह सम्पूर्ण जगत ही ब्रह्म है । आत्मा के अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं । यह आत्मज्ञानी विवेकी पुरुष को ही दिखता है ।
ईश्वरः सर्वभूतानाम हृदये तिष्ठति अर्जुनः ईश्वर सभी प्राणियों के चित्त में सदा रहता है। कबीर कहते हैं, तेरा साईं तुझ में जाग सके तो जाग। यदि अपना कल्याण चाहते हो तो विवाद से दूर हो जाओ. दूसरे के गुरु का आदर करो, दूसरे के पंथ का आदर करो, दूसरे के धर्म का आदर करो. यदि आदर नहीं कर सकते हो तो निरादर मत करो. उनके विषय में जानकारी प्राप्त करो. कोई संदेह है तो सम्मनित तरीके से पूछो. तर्क वितर्क विद्वानों के लिए छोड़ दो क्योकि विद्वान की सद्गति कठिन है. ज्ञान के अहंकारी घोर अंध लोकों को प्राप्त होते हैं.
ऐसे भव-रोग या देहाध्यास को मिटा देने की अचूक-औषधि सर्व-अंतर्यामी सद्गुरु विवेकानन्द की चरण-रज स्वरुप विवेक-अंजन का प्रथम अंक आपके हाथों में है ! 
सभी जानते हैं  कि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की अंग्रेजी और बंगला भाषा में प्रकाशित होने वाली मासिक संवाद पत्रिका (Bulletin) " Vivek Jivan " के नाम से प्रकाशित होती है|इस पत्रिका को महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय द्वारा पश्चिम बंगाल के खड़दह स्थित, महामण्डल के पंजीकृत कार्यालय :
' भुवन-भवन '
पो०- बलराम धर्म सोपान 
खड़दह, उत्तर २४ परगना 
पश्चिम बंगाल,भारत-७००११६ 
से सम्पादित एवं प्रकाशित किया जाता है| इसका मुद्रण विवेकानन्द मुद्रणालय, चकदह (नदिया) से होता है|श्री अरुणाभ सेनगुप्ता इस पत्रिका के ' उपसम्पादक ' हैं| 
महामण्डल की द्विभाषी (अंग्रेजी और बंगला) संवाद पत्रिका - ' Vivek Jivan ' ने अपना ' प्रथम-आत्मप्रकाश '; महामण्डल की स्थापना के २ वर्ष बाद सन १९६९ में किया था! इस पत्रिका ने इस वर्ष से अपने निर्बाध प्रकाशन के ४१ वें वर्ष में कदम रखा है|

आज से लगभग ४३ वर्ष पूर्व, १९६७ में स्वामी विवेकानन्द के ' मनुष्य निर्माणकारी एवं चरित्र निर्माणकारी शिक्षा- Be and Make ' को भारत के गाँव -गाँव तक प्रसारित कर देने के उद्देश्य से " अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल " को आविर्भूत होना पड़ा था | 
और इसके दो ही वर्ष बाद,सन १९६९ में  उसके इसी कार्य में सहयोग देने के लिये- जब इसकी " द्विभाषी संवाद पत्रिका " (Bulletin या मुखपत्र ) के रूप में " vivek Jivan " ने अपना आत्मप्रकाश किया, तब देश एक संकटपूर्ण दौर से गुजर रहा था|
स्वाधीनता प्राप्ति के २० वें वर्ष (१९६७ ) में ही महामण्डल को आविर्भूत होना ही पड़ा था ! क्योंकि स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व देशवासिओं के मन में ऐसी धारणा थी कि वर्तमान में सम्पूर्ण देश को दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा आदि जिन समस्याओं से जूझना पड़ रहा है, उन सारी समस्याओं का मूल कारण केवल (अंग्रेजों की) पराधीनता ही है ! जैसे ही देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त होकर राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेगा, वैसे ही यहाँ की सारी समस्याएं समाप्त हो जाएँगी और देश में समृद्धि का ज्वार आ जायेगा!
परन्तु स्वाधीनता प्राप्ति के बाद एक एक करते हुए २० वर्ष बीत गये 
किन्तु इन समस्याओं में थोड़ी भी कमी नहीं हो रही थी, दरिद्रता, अशिक्षा, अनाहार, बेरोजगारी आदि समस्याएं वैसे ही मुँह बाये खड़ी थीं, भूख से मौतें अब भी हो रही थीं, देश समृद्ध बन जाने के बजाये हर क्षेत्र में पिछड़ता ही जा रहा था| इसे देख कर देशवासी एवं खास तौर पर पढ़ा-लिखा युवा वर्ग -" स्वप्नभंग की वेदना " से विक्षुब्ध हो उठा !
उन्हें इन प्रश्नों का उत्तर कहीं से नहीं मिल रहा था कि राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन होते हुए भी हमलोग अपने राष्ट्र की मूल समस्याओं का समाधान अभी तक क्यों नहीं कर पाये हैं ? अब भी देश के गाँव गाँव तक सड़क, बिजली, पानी, चिकित्सा, शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाएँ क्यों नहीं पहुँचाई जा सकी है ? 
इतना धन व्यय करने के बाद भी सारी पंचवर्षीय योजनायें लक्ष्य को क्यों नहीं प्राप्त कर पाती हैं ? जब अंग्रेज चले गये गये हैं तो फिर आज स्वतन्त्रता के इस शुभ्र प्रकाश में भी देशवासी स्वयं को छला हुआ सा -क्यों अनुभव कर रहे हैं ? विलम्ब से ही सही पर अभी किस उपाय से हमलोग अपने देश और देशवासियों का यथार्थ कल्याण कर सकते हैं? 

यही प्रश्न सभी ' युवा देशप्रेमियों ' के मन को मथ रहे थे ! किन्तु कुछ स्वार्थान्ध राजनीतिज्ञों ने युवाओं के इस विक्षोभ को सत्ता के सिंहासन तक पहुँचने का सुनहरा अवसर समझा, और उन्हें इन प्रश्नों का सही उत्तर न देकर, उन्हें इनके कारणों को युक्ति-तर्क द्वारा न समझा कर, उनका यथार्थ मार्गदर्शन न करके - उनके मन में नेतिवाचक और ध्वंसात्मक विचारों को भर कर उन्हें और अधिक अशांत एवं उन्मादी बनाने का प्रयास करने लगे! जब वे लोग युवा समुदाय को ध्वंसात्मक और सर्वनाशी आन्दोलन में झोंक कर देश को और भी पतन की गर्त में धकेल देने का षड़यंत्र रचने लगे थे- उस समय देश के ऊपर घोर संकट के काले बादल छा गये थे! 
उस समय युवाओं को यह समझा देना अत्यन्त आवश्यक हो गया था कि - " आखिर क्यों राजनैतिक स्वाधीनता भी देशवासियों का यथार्थ कल्याण करने में विफल सिद्ध हो गयी है ? " सवाधीनता प्राप्ति के २० वर्ष बाद भी, देश से अनाहार, दरिद्रता, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं को समाप्त करके इसे समृद्धि प्राप्त करने कि दिशा में क्यों नहीं अग्रसर करा सके? विलम्ब से ही सही, पर अभी किस उपाय के द्वारा- इतने वर्षों की विफलता को दूर करके एक बार पुनः देश को विकास और प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराया जा सकता है?


इन प्रश्नों का सही उत्तर देकर, समस्त देशप्रेमी युवाओं को सही दिशानिर्देश देना -उतना कठिन कार्य भी नहीं था ! क्योंकि स्वाधीनता प्राप्त करने के ठीक ५० वर्ष पूर्व ही ' परम देशभक्त युग नायक ' - स्वामी विवेकानन्द ने राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीनता प्राप्त करने की प्रयोजनीयता को स्वीकार करते हुए भी यह बात स्पष्ट रूप से समझा दिया था कि - ' यथार्थ मनुष्यों (चरित्रवान मनुष्यों) का निर्माण किये बिना केवल राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त करने मात्र से ही देश की मूल समस्याओं का समाधान कर पाना कभी संभव न होसकेगा|' 


स्वामी विवेकानन्द ने अपनी ऋषि दृष्टि से यह देख लिया था कि पहले सत,निःस्वार्थी, चरित्रवान देशप्रेमी मनुष्यों का निर्माण किये बिना, देश की सत्ता यदि असत, स्वार्थी, भ्रष्ट अमानुषों के हाथों में सौंप दी जाएगी तो वे लोग सत्ता का दुरुपयोग करते हुए केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने में ही रत रहेंगे!जब वे कभी भी सत्ता की शक्ति का उपयोग राष्ट्र की साधारण जनता के कल्याण में करेंगे ही नहीं, तब वैसी स्वाधीनता देश और देशवासियों का यथार्थ कल्याण साधन करने में व्यर्थ ही सिद्ध होगी|


इसीलिये उन्होंने देशवासियों को परामर्श देते हुए कहा था- " अतएव पहले मनुष्य का निर्माण करो ! ब देश में ऐसे मनुष्य तैयार हो जायेंगे जो अपना सबकुछ देश के लिये होम कर देने को तैयार हों, जिनकी अस्थियाँ तक निष्ठा के द्वारा गठित हों, जब ऐसे मनुष्य जाग उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा!
भारत तभी जागेगा जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ो स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं का त्याग कर मनसा-वाचा -कर्मणा उन करोड़ो भारतवासियों के कल्याण के लिये प्राण-पण से प्रयास करेंगे, जो दिनोदिन- भूख, गरीबी तथा अशिक्षा के दलदल में डूबते जा रहे हैं| " 
तभी तो स्वामी विवेकानन्द ने ' यथार्थ-मनुष्य गढ़ने ' को ही अपना जीवन-व्रत घोषित करते हुए " भारत-पुनर्निमाण का अभ्रांत सूत्र " देते हुए कहा था- Be and Make !" स्वयं मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ!" - क्योंकि उन्होंने बिल्कुल स्पष्ट रूप से यह समझ लिया था कि असत (भ्रष्ट), स्वार्थी, देशद्रोही पशुतुल्य मनुष्यों का नेतृत्व देश का पुनर्निर्माण नहीं कर सकता|इसलिए देश की दुरावस्था के लिये केवल दूसरों को जिम्मेदार ठहराने, या शासक वर्ग के विरुद्ध विक्षोभ प्रदर्शन के लिये, रेल,बस,आदि सरकारी संपत्तियों को जला कर खाक कर देने से - देश की दुरावस्था का अवसान कभी संभव न होगा|

स्वामीजी के अनुसार राष्ट्र कल्याण की पहली शर्त है- " स्वयं मोहनिद्रा से जागकर यथार्थ मनुष्य बनना तथा भारत के अन्य समस्त देशप्रेमी युवाओं को संगठित कर, उन्हें भी मोहनिद्रा से जगाकर यथार्थ मनुष्य बनजाने में सहायता करना !"
इसलिए उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " " Arise, awake ! and stop not till the goal is reached !" अर्थात " उठो, जागो ! और लक्ष्य की प्राप्ति होने तक विश्राम न लो !"
वास्तव में यह एक ऐतिहासिक अनिवार्यता थी, समय की पुकार थी कि समस्त देशवासियों विशेष तौर पर युवा वर्ग के सामने स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित करकर, उनके सांचे में आदर्श मनुष्य बनने और बनाने वाली ' मनुष्यनिर्माण कारी पद्धति - Be and Make !' को चरित्रनिर्माण कारी आन्दोलन(सत्संग) का रूप देकर देश के गाँव -गाँव तक पंहुचा देने की| और समय की इसी मांग को पूर्ण करने के लिये -महामण्डल प्रतिष्ठित होने के २ वर्षों बाद इसकी ' द्विभाषी संवाद पत्रिका 'के रूप में ' Vivek Jivan ' को आविर्भूत होना पड़ा था|

इसी पत्रिका के माध्यम से ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' विगत ४१ वर्षों से भारत के १२ प्रान्तों में लगभग २५० केन्द्रों में ' Study-circle ' (सत्संग रूपी पाठचक्र) में समस्त देशवासियों विशेष कर युवा वर्ग को यही सन्देश देता आ रहा है कि- 
महामण्डल का उद्देश्य है - ' भारत का कल्याण !'
 आदर्श (Role Model) हैं- ' स्वामी विवेकानन्द !'
भारत के कल्याण का उपाय है - ' चरित्र निर्माण !'
भारत पुनर्निर्माण के निर्देशित मार्ग है- ' Be and Make !' 
- ' बनो और बनाओ ' 
अपने जन्म के समय से ही, यह ' द्विभाषी संवाद पत्रिका ' - " Vivek Jivan " (अंग्रेजी और बंगला समझने वाले) के पाठकों के बीच स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित - ' मनुष्य निर्माणकारी एवं चरित्र निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार करता चला आ रहा है! इन चार दशकों के लम्बे अन्तराल में हमारे द्वारा किये गये कार्यों का समाज पर और विशेष तौर से युवा समुदाय के मन पर कितना प्रभाव पड़ा है, इस बात की समीक्षा - इस विराट देश की विपुल जनशंख्या के परिपेक्ष में कर पाना उतना सरल नहीं है| 
फिरभी एक बात तो पूरे निश्चय के साथ कही जा सकती है, जिसे कोई भी सज्जन अस्वीकार नहीं कर सकते कि, आज से ४० वर्षों पूर्व हमारे देश के युवा स्वामी विवेकानन्द को श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे, हो सकता है स्वामीजी के विचार उनको उद्दीप्त भी कर देते हों, किन्तु उस समय बहुत कम लोग ही ऐसे थे जो स्वामी विवेकानन्द को देशप्रेमी युवाओं के आदर्श के रूप में स्थापित कराकर उनके मार्गदर्शन या नेतृत्व में चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करके महान और समृद्ध भारत के पुनर्निर्माण को संभव मानते थे|
अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी यही समझा करते थे कि स्वामी विवेकानन्द तो मूलतः एक हिन्दू सन्यासी ही थे, वे भला देश के पुनर्निर्माण का क्या उपाय दे सकते हैं ? स्वामीजी के ऊपर श्रद्धा रखते हुए भी यही सोचा करते थे कि दरिद्रता, अशिक्षा, अनाहार की समस्या को जड़ से समाप्त कर सामाजिक परिवर्तन तथा आर्थिक उन्नति के लिये किसी न किसी- ' विशिष्ट तरह की राजनैतिक विचार-धारा ' (वामपंथ या दक्षिण पंथ) को तो स्वीकार करना ही पड़ेगा| यहाँ तक कि जो लोग अपने को स्वामीजी का अनुगामी समझते थे, वे भी उन्हें एक ' हिन्दू पुनरुत्थानवादी 'या ' आद्यात्मिक राष्ट्रवादी ' के रूप में ही देखा करते थे| महामण्डल के प्रतिष्ठित से पूर्व अधिकांश लोगों के लिये स्वामीजी  के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने का अर्थ केवल रोमांचित करदेने वाले विद्युत-स्पर्श के झटके महसूस करने जैसा था|
स्वामी विवेकानन्द में श्रद्धा रखने वाले बहुत थोड़े से अनुरागी ही यह समझ सकने में समर्थ थे कि - " भारत तथा सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिये ' मनुष्य बनना और मनुष्य बनाना ' ही स्वामीजी की समस्त शिक्षाओं का सार है !" तथा उनके मार्गदर्शन में - " Be and Make " अनुरूप यथार्थ मनुष्यों (जिसको अपनी ' गरिमा ' का होश हो !) का निर्माण करने से ही देश की समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है|
वे कहते हैं -" तुम ईश्वर को खोजने कहाँ जाओगे- ये सब गरीब, दुखी, दुर्बल लोग क्या ईश्वर नहीं हैं ? पहले इन्हीं की पूजा क्यों नहीं करते ? गंगा-तट पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो ? प्रेम की असाध्य-साधिनी शक्ति पर विश्वास करो ! क्या तुम्हारे पास प्रेम (अर्थात देशभक्ति) है ? तबतो तुम सर्व शक्तिमान हो ! क्या तुम पुर्णतः निःस्वार्थ हो ? यदि हो, तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है?  "चरित्र "की ही सर्वत्र विजय होती है ! "
उनके इन्ही महान शिक्षाओं के आलोक में विगत ४१ वर्षों से " Vivek Jivan "  के माध्यम से इस चरित्र निर्माण आन्दोलन- " Be and Make " को चलाये रखने के बाद हमलोग प्रबुद्ध देशवासियों में, विशेष कर देशप्रेमी युवाओं में एक विशिष्ठ परिवर्तन देख पा रहे हैं| आज भारत के अधिकांश प्रबुद्ध लोग स्वामीजी के इस महावाक्य- ' बनो और बनाओ ' की सत्यता को आसानी से समझने और विश्वास करने लगे हैं कि- " यथार्थ मनुष्यों (ठाकुर के शब्दों में -' मान-हुशों ') का निर्माण किये बिना जगत का सारा धन उड़ेल देने से भी पूरे देश के उन्नयन की बात तो क्या, एक गाँव को भी उन्नत कर पाना संभव नहीं है|" 

ट्रकों के पीछे - ' मेरा भारत महान ' लिख देने से ही देश को महान नहीं बनाया जा सकता है| परिवार,समाज या देश की मूल इकाई - " मनुष्य " ही है, अतः कोई भी परिवार,समाज या देश तभी महान हो सकता है जब उसके मनुष्य महान चरित्र वाले हों! किसी भी समाज के मूल में मनुष्य ही है, इसीलिये मनुष्य निर्माण करने का कार्य ही मौलिक कार्य है !  


हमलोग ' सम्पूर्ण क्रांति ' या सामाजिक क्रांति का नारा लगते हुए देश के कल्याण के लिये चाहे जिस नाम से और जितनी भी योजनायें क्यों न बना लें, किन्तु यदि उन योजनाओं को बनाने वाले एवं उन्हें धरातल पर रूपायित करने वाले नेता, प्रशासनिक पदाधिकारी, कर्मचारी एवं व्यापारी यदि यथार्थ ' मनुष्य ' नहीं हों तो सारी योजनायें अन्ततोगत्वा व्यर्थ ही सिद्ध होंगी | 
आज के अधिकांश चिन्तनशील व्यक्ति इस विषय में स्वामीजी के साथ पूरी तरह से सहमत हैं कि देश की दुरावस्था का मूल कारण यथार्थ मनुष्यों का आभाव ही है ! अतः आज के प्रबुद्ध युवा स्वामीजी के प्रति केवल श्रद्धा-भजन व्यक्त करके संतुष्ट नहीं होते, वे स्वामीजी की शिक्षाओं का मन्थन बड़ी गंभीरता के साथ कर रहे हैं|
भारत के बहुत से प्रान्तों के युवा ' बनो और बनाओ ' या " Be and Make " के प्रयोग्य यथार्थ  को उपलब्ध करके ' विवेकी मनुष्य ' बन रहे हैं! महामण्डल स्थापित होने के ४३ वर्ष बाद देशवासियों की विचारधारा में यह जो परिवर्तन दिखाई दे रहा है, इसके पीछे किन्तु रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान महामण्डल तथा उसके द्विभाषी मुखपत्र " Vivek Jivan " की एक भूमिका भी निश्चित रूप से है, ऐसा हमारा विश्वास है|

क्योंकि " Vivek Jivan " का एक भी सम्पादकीय युवाओं की आँखों को खोल देने (उनमे नित्य-अनित्य का विवेक जाग्रत कराकर उन्हें मोहनिद्रा से जगा देने) के लिये पर्याप्त है ! किन्तु उपरोक्त पत्रिका केवल अंग्रेजी और बंगला भाषा में ही प्रकाशित होती थी, जिसके कारण हिन्दीभाषी पाठकवृन्द इसका लाभ लेने से वंचित रह जाते थे| अतः स्वामी विवेकानन्द द्वारा संकल्पित एवं महामण्डल द्वारा प्रचारित इस- " चरित्र निर्माणकारी आन्दोलन " को सम्पूर्ण भारत के गाँव-गाँव तक फैला देने के लिये " Vivek Jivan " में प्रकाशित अंग्रेजी और बंगला भाषा के लेखों को हिन्दी में अनुवाद करके इन्हें " हिन्दी-भाषा " या " भारत की मातृभाषा " में प्रकाशित करना भी अनिवार्य हो गया था!
चूँकि स्वामी विवेकानन्द तथा उनके गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस का जन्म बंगाल प्रान्त में हुआ था इसीलिये उनके अधिकांश उपदेश अंग्रेजी एवं बंगला भाषा में ही प्रकाशित हुए हैं| अतः अंग्रेजी और बंगला भाषा में प्रकाशित ' विवेकानन्द साहित्य ' रूपी क्षीर सागर का मंथन कर उसमे से स्वामी विवेकानन्द के समस्त उपदेशों का सार - " Be and Make !" एवं उन्ही के द्वारा प्रदत्त मनुष्य निर्माण की व्यावहारिक शिक्षा पद्धति - " 3H निर्माण " सूत्र रूपी ' नवनीत ' या माखन को ढूंढ़ निकालने के लिये महामण्डल की  द्विभाषी संवाद पत्रिका " Vivek Jivan " को खड़दह के " भुवन भवन " में आविर्भूत होना ही पड़ा! 
"3H निर्माण " से तात्पर्य है- " Hand, Head and  Heart  " अर्थात  ' शरीर, मन और ह्रदय ' को सुसमन्वित रूप से विकसित होने का प्रशिक्षण देकर - यथार्थ मनुष्य का निर्माण ! युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से महामण्डल चरित्र निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार १९६७ से ही करता चला आ रहा है|
किन्तु वर्ष १९८५ तक भी हिन्दी भाषी प्रदेशों (तब के अविभाजित बिहार) में स्वामी विकानन्द प्रदत्त राष्ट्र पुनर्निर्माण सूत्र - " Be and Make " या स्वामी विवेकानन्द प्रदत्त मनुष्य निर्माणकारी प्रशिक्षण पद्धति - " 3H निर्माण " के विषय में बहुत काम लोग ही जानते थे| अतः महामण्डल द्वारा प्रकाशित मन, ह्रदय तथा शरीर को सुसमन्वित ढंग से विकसित कराकर तरुणों के जीवन को गठित करने वाली पुस्तिकाओं  (Mahamandal Booklets ) एवं युवाओं में ' श्रद्धा और विवेक ' जाग्रत करा देने में समर्थ उसकी संवाद पत्रिका " Vivek Jivan " के अंग्रेजी एवं बंगला में लिखी हुई रचनाओं को ठीक से समझ कर उन्हें हिन्दी में अनुवादित करने में सक्षम एवं स्वामी विवेकानन्द में अनुराग रखने वाले किसी हिन्दी भाषी व्यक्ति के लिये बंगला भाषा को सीखना भी अनिवार्य हो गया था| 


( स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- हो सकता है कि मुझे अपने इस शरीर को किसी जीर्ण वस्त्र कि तरह त्याग देना पड़े किन्तु मैं सम्पूर्ण मानव जाती को तब तक अनुप्रेरित करता रहूँगा जब तक वह यह नहीं जान लेता कि " He is one with God " ) शायद इसी कारण वश १४ जनवरी १९८५ को तत्कालीन हजारीबाग जिले के ' झुमरी तिलैया ' शहर में " विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर " भी आविर्भूत हो गया! 
 ' झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' के तत्कालीन सचिव विजय कुमार सिंह को रांची रामकृष्ण मिशन में कार्यरत, महामण्डल के एक वरिष्ठ भ्राता- श्री प्रमोद रंजन दास (प्रमोद दा)  ने , १९८७ में आयोजित होने वाले ' बेलघड़िया वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर ' में भाग लेने के लिये अनुप्रेरित किया! 
उस युवा प्रशिक्षण शिविर में अपने साथ-साथ सैंकड़ो युवओं के ऊपर " Be and Make " तथा " 3H निर्माण " सूत्र पर आधारित ६ दिवसीय प्रशिक्षण शिविर के प्रभाव को देख कर आवाक रह गया! और वर्ष १९८८ में महामण्डल का ३दिवसिय ' प्रथम बिहार राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर ' झुमरीतिलैया में आयोजित होने के बाद ' विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर ' का विलय " झुमरी तिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल " में हो गया|
किन्तु उस समय तक ' विवेक अंजन ' के सम्पादक को बंगला भाषा एवं लिपि की कोई जानकारी नहीं थी, इसीलिये वह महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका " Vivek Jivan " में छपे केवल अंग्रेजी लेखों को ही पढ़ पाता था| जब वह अपने बंगला भाषी मित्रों से उनका हिन्दी अनुवाद करके सुनाने को कहता तो वे उसको ठीक-ठीक समझा नहीं पाते थे क्योंकि वे स्वयं स्वामी विवेकानन्द से अनुप्राणित नहीं थे तथा उनमे से किसी ने महामण्डल के किसी शिविर में भाग भी नहीं लिया था|
तब उसे बहुत प्रयास करके स्वयं बंगला लिपि को पढना-लिखना सीखना ही पड़ा एवं स्वामी विवेकानन्द के प्रेम में पड़ कर बहुत अल्प समय में ही वह अंग्रेजी-बंगला में छपे लेखों का हिन्दी में अनुवाद करना शुरू कर दिया|इसप्रकार महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी संवाद पत्रिका 'विवेक जीवन ' ने भी जून २००६ में अपना आत्मप्रकाश कर दिया |
किन्तु रियायती डाक दर की सुविधा का लाभ लेने के लिये पत्रिका के शीर्षक को भारत सरकार के ' Registrar of Newspapers for India ' के यहाँ सत्यापित होना तथा पंजीकृत करवाना अनिवार्य होता है|
जब महामण्डल ने हिन्दी में भी प्रस्तावित शीर्षक ' विवेक जीवन ' के नाम से ही सत्यापित करने का आवेदन दिया तो वहाँ से पत्र आया कि प्रस्तावित मुखपत्र का शीर्षक किसी अन्य भाषा में पंजीकृत शीर्षक नही हो सकता है अतः सत्यापन हेतु दो अन्य शीर्षकों को प्रस्तावित करने का निर्देश प्राप्त हुआ| महामण्डल ने निम्नलिखित शीर्षक प्रस्तावित किये थे :
  1. विवेक अंजन 
  2. विवेक दर्शन    
इनमे से ' विवेक अंजन ' शीर्षक को ' भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय ' से ५ मार्च २०१० को  सत्यापित किया गया है|इसी लिये अब से " विवेक अंजन " के नाम से निम्न रूप में प्रकाशित होगी : 
 अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की त्रैमासिक ' हिन्दी संवाद पत्रिका '
विवेक अंजन 
 
Be and Make 
" मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो "
वर्ष-१, अंक-१ 
माह:अप्रैल-जून -२०१० 
सम्पादक
विजय कुमार सिंह  
उपसंपादक 
रामचंद्र मिश्रा 
कार्यालय सहायक  
अजय कुमार पाण्डेय
सम्पादकीय कार्यालय 
तारा निकेतन 
बिशुनपुर रोड 
पोस्ट: झुमरीतिलैया 
जिला : कोडरमा 
झारखण्ड, पिन : ८२५४०९ 
ई-मेल: singhbijay50@gmail.com 
मो- o99o5129104 
आशा है, यह पत्रिका स्वामी विवेकानन्द के निर्देशानुसार ' मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ ' आन्दोलन को भारतवर्ष के कोने-कोने तक पहुँचा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी !
विजय कुमार सिंह 
सम्पादक एवं प्रकाशक 
विवेक अंजन
महामण्डल की त्रैमासिक हिन्दी संवाद पत्रिका 
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(महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका " Vivek Jivan " के Annual Number-2001  अंक के  बंगला भाषा में प्रकाशित सम्पादकीय पर आधारित ) 
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बुधवार, 7 अप्रैल 2010

'खड़दा में शैव-शाक्त-तंत्र एवं वैष्णव भाव का सम्मिलन' "जीवन नदी के हर मोड़ पर [12] "

(पृष्ठ -26, बंगलापेज- 20 ) 
          कई उज्ज्वल चरित्र शिक्षकों के सानिध्य और साहचर्य में रहने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है। उनकी वाणी का माधुर्य और छात्रों के प्रति उनका प्रेम अतुलनीय था। उनका स्नेह अनायास ही छात्रों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता था। हमारे स्कूल में जो संस्कृत के 'पण्डित मोशाय' थे वे तो कई श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न थे। जब उनकी तुलना मैं आज के शिक्षकों से करता हूँ तो लगता है कि शिक्षा का स्तर कितना नीचे चला गया है।  
      जब हेडमास्टर मोशाय के रिटायरमेन्ट का उम्र हुआ, (उस समय रिटायर होने की उम्र-सीमा कितनी थी-यह मुझे ठीक से पता नहीं) उस समय विभागीय प्रशासन का सारा कार्य स्कूल में ही होता था। ये सब 'Education Board' आदि कुछ भी न था। उस समय सारे स्कूल कलकाता यूनिवर्सिटी के अनर्तगत ही आते थे। बहरहाल, स्कूल से ही यूनिवर्सिटी को पत्र भेजा गया कि, हेड मास्टर मोशाय के रिटायर करने कि आयु हो चुकी है। वहाँ से जवाब आया कि, जितने दिन उनमे कर्म करने क्षमता है, उतने दिनों तक वे अपने पद पर बने रहें- There should not be any replacement . उस समय तो आज की तरह (ले-देकर ट्रांसफर- पोस्टिंग) नहीं होता था।  इसीलिये सब कुछ पूर्ववत चलता रहा।  
      बंगाल पर कभी ' पाल-वंश ' के राजाओं का शासन था उनमें एक राजा हुए हैं ' रामपाल'।   उन्होंने 52 वर्षों तक बंगाल पर शासन किया था। इधर पितामह ने भी ५२ वर्षों तक शासन किया था। पितामह ने भी 52 वर्षों के पश्चात ही रिटायरमेन्ट स्वीकार किया था। मेरे ही स्कूल के जिन पूर्ववर्ती छात्रों से मुझे स्कॉटिश चर्च कॉलेज में पढ़ने का अवसर मिला, उनमें से एक गणित पढ़ाते थे। फिर वे अमेरिका चले गए , उसके बाद उनकी कुछ खबर नहीं मिली।  बहुत दिनों बाद पता चला कि वे हिमालय पर चले गये थे तथा ऋषिकेश से भी अधिक ऊँचे स्थान पर रहने वाले किसी संन्यासी से वेदान्त की शिक्षा पायी थी। 
       कुछ विशेष कारण से अपने स्कूल के एक पूर्व छात्र- प्रभाष चट्टोपाध्याय की याद आ रही है। उसके जीवन का पथ पुराने ढर्रे का अनुसरण करने वाला नहीं था ! उनके माता-पिता दोनों स्वामी विरजानन्द महाराज के कृपाप्राप्त शिष्य थे, और बड़े चाचा संसार को त्याग कर सन्यासी हो गये थे। प्रभाष ने बी०ए० उत्तीर्ण करने के पश्चात् एम०ए० में एडमिशन लिया ,किन्तु आगे अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सके। परिवार की आर्थिक सहायता करने के लिये चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी की प्राथमिक परीक्षा पास कर खड़गपुर IIT में Accounts Officer के पद पर नियुक्त हो गये। वे 
प्रायः अपने घर में या दक्षिणेश्वर में गंभीर ध्यान में मग्न रहते थे। माँ के ही अनुरोध पर वे घर में ठीके हुए थे, किन्तु उनके देहत्याग के बाद वे परिवार त्याग कर संन्यासी हो गए थे। ऋषिकेश के कैलाश-आश्रम में उन्होंने हरिहर तीर्थ का शिष्यत्व ग्रहण किया था और कई वर्षों तक कठोर तपस्या में डूबे रहे थे। बाद में गिरी महाराज के ' वेदान्त रत्नाकर '{Vedanta Ratnakar (An Old and Rare Book) लेखक: स्वामी विष्णु देवानन्द गिरी (Swami Vishnu Devanand Giri)। प्रकाशक: श्री कैलाश आश्रम, ऋषिकेश।) नामक संस्कृत ग्रन्थ का उन्होंने बंगला में अनुवाद किया था तथा अद्वैत वेदान्त के सम्बन्ध में अपना एक सिद्धान्त भी प्रतिपादित किया था। 
      उसी तरह अपने एक विद्यालयी सहपाठी (School friend)- विरंचि चक्रवर्ती का भी स्मरण आ रहा है, वह भी गृहत्याग कर संन्यासी हो गया था। बाद में उसका कोई समाचार न मिल सका। कितने लोगों के विषय में बताऊँ ? 
        हेडमास्टर मोशाय अर्थात पितामह जहाँ एक ओर आन्दुल स्कूल में अध्यापन कर रहे थे वहीँ व्यक्तिगत जीवन में वे एक (शाक्त-वीरभाव के) साधक भी थे। खड़दह में हमारा परिवार, कन्नौज से बंगाल  आये हुये उन्ही पंच (कन्नौजिया) ब्राह्मणों के वंशज हैं जो बहुत दिन पहले यहाँ आकर बस गये थे।  उन पंच ब्राह्मणों में से जिनका नाम श्रीहर्ष था, हम उन्ही के वंशज हैं। बंगाल में जो कृतिवास रामायण प्रसिद्ध है, उसके रचयिता को लोग कृतिवास ओझा के नाम से जानते हैं, किन्तु उनका वास्तविक नाम कृतिवास मुखोपाध्याय था तथा 'ओझा' उनकी उपाधि थी।  श्रीहर्ष की  सातवीं पीढ़ी में उनका जन्मे हुआ था, वे हमारे ही पूर्वज थे। हमारे वंश में एक अन्य प्रसिद्द विद्वान् हुए थे - पण्डित मेधातिथि। (जिन्होंने मनुस्मृति पर भाष्य लिखा था।) श्यामा संगीत के प्रसिद्ध रचनाकार रामप्रसाद भी श्रीहर्ष के ही वंश में नवमी पीढ़ी में जन्मे थे। इसी वंश में मुझसे १८ पीढ़ी पूर्व हुए थे कामदेव पण्डित
         इतिहास है कि जब श्री चैतन्य देव ने पूरी में नित्यानन्द प्रभु को आदेश दिया कि तुम विवाह कर लो तथा गृहस्थ बन कर हरिनाम का प्रचार करो, तब उन्होंने वसू (वसुधा) और जहान्वी नामक दो स्त्रियों से विवाह कर लिया और हावड़ा के निकट ही एक गाँवमें निवास करने लगे।          इधर , कामदेव पण्डित के मन में विचार आया कि श्री चैतन्य देव ने खड़दह से होते हुए गंगा के जल मार्ग से पानीहाटी में जाकर महोत्सव किया था। (जिस महोत्स्व में भाग लेने परवर्तीकाल में  श्रीरामकृष्ण देव भी गये थे।)  इसलिए खड़दह में  यदि गंगा के निकट नित्यानन्द प्रभु भी निवास करें तो बहुत अच्छा होगा।  ऐसा विचार कर उन्होंने इस बात की चर्चा गाँव के दो-चार वरिष्ठ लोगों से की। सबों ने इस प्रस्ताव पर अपनी सहमती दे दी तथा यह कहा कि यह तो अत्यन्त ही पवित्र प्रस्ताव है। 
       फिर उनमें से ही कुछ लोग हावड़ा के उस ग्राम में गये जहाँ वे रह रहे थे। तथा अनुरोध किया- ' देखिये, चैतन्य महाप्रभु गंगा से होते हुए जिस पानीहाटी ग्राम गये थे, वह तो खड़दह के निकट ही है, इसलिए आप यदि खड़दह में ही रहें तो बहुत अच्छा होगा।आपके रहने की सारी व्यवस्था हम कर देंगे। इस प्रकार से खड़दह में वैष्णव भाव का आविर्भाव हुआ। एक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ में यह पूरी कहानी थी- ' कामदेवः कामजयी ', वह किताब नष्ट हो गयी है। पण्डित  उपेन्द्र मोहन गोस्वामी 'न्यायरत्न' ने अपने संस्कृत ग्रन्थ 'नित्य-रूप- संस्थापनम' (Establishing God's Eternal Form) में इसके ग्रंथकार का परिचय देते हुये लिखा है- " नित्यानन्दमहत्माभिः प्रभुवरेयोहध्यासितः खड़दहो यत्रासीत स्वमेव कामजयी श्रीकामदेवाभीधः।  "   
     रवीन्द्रनाथ माईती लिखित ' चैतन्य परिकर ' नामक ग्रन्थ में भी लिखा है कि- " खड़दह निवासी कामदेव पण्डित ही नित्यानन्द को खड़दह ले गये थे, एवं बाद में उनके ही वंशज कामेश्वर मुखोपाध्याय के साथ नित्यानन्द की परपौत्री त्रिपुर सुंदरी का शुभ परिणय घटित हुआ था। "(पृष्ठ 100)। 
(Pandit Upendra Mohan Goswami Nyayaratna , a well-known descendant of Prabhu Nityananda, has given to the public a new work, entitled the Nitya-rupa-samsthapanam. The object of the book is to prove the eternal spiritual form of the Deity.- A Review of Nitya-rupa-sangsthapanam – A Sanscrit Work)
   पूर्व में खड़दह में शिव के प्राचीन 26 मन्दिर थे वे आज भी हैं। आस-पास में किसी अन्य स्थान में भी इतने शिव मन्दिर हैं , इसकी जानकारी मुझे नहीं है। पुराने जमाने में ' शाक्त ' लोग ही खड़दह में अधिक थे, एवं यहाँ ' तंत्र ' का यथेष्ट प्रभाव भी था। अनेक प्रसिद्ध तंत्रों में से एक प्रसिद्ध तंत्र है- प्राणतोषिनी- तंत्र। इस तंत्र-मत के संस्थापक खड़दह के प्राणकृष्ण विश्वास और भाटपाड़ा के रामतोषण भट्टाचार्य थे। इन दोनों ने मिल कर इस तंत्र मत की रचना की थी, इसीलिये इसका नाम " प्राणतोषिनी- तंत्र " हुआ था। इसीलिये खड़दा में पहले से ही शैव भाव, शक्ति भाव और तान्त्रिक भाव का ही यथेस्ट प्रभाव था। किन्तु नित्यानन्द के खड़दह में आने के बाद वहाँ पर वैष्णव भाव भी सम्मिलित हो गया। इन सब के सम्बन्ध पितामह से कितनी ही कहानियाँ मैंने सुनी हैं| 

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KHARDAH 
Khardah is five railway stations away from Sealdah. Along with Belgharia and Agarpara, this township falls in what used to be the industrial belt of Bengal.
The thousands of workers who had migrated here about a century ago from Bihar and Orissa form a large part of the populace and give it a distinctive colour. Close by, what used to be known as the coolie lines are several paras where caste Hindus live.
The Vaishnavite cult has left its mark on Khardah. Nityananda Prabhu, a disciple of Sri Krishna Chaitanya, had settled in a thatched hut here. It is now a humble brick structure known as Kunjabati. His son Bir Bhadra Goswami had started the worship of Shyamsundar that subsequently became the presiding deity of Khardah.
It is said that about 250 years ago, a woman named Pateswari Ma Goswami had raised the famous Shyamsundar temple, that dominates Raskhola, after her husband, who had been imprisoned by Nawab Alibardi Khan, was released.
The temple compound has a large kitchen and natmancha, and close to the Hooghly banks are the ratha-shaped Rasmancha and Dolmancha.The sanctity of the Dolmancha has been violated by blocking the archway. Recent attempts at decorating the main temple with white panels depicting Krishnalila are quite appalling. Adjacent to the Shyamsundar temple is a smaller one dedicated to Madanmohan. Khardah is famous for its Ras and Dol celebrations.
A short walk from Shyamsundar leads to another fascinating complex of 26 dochala Shiva temples. These are mostly dilapidated but are being restored by the Archaeological Survey of India. They were constructed in the early 19th century by Ramhari Biswas and his son Prankrishna, whose ambition it was to establish a Ratnabedi like the one in Puri with one lakh Shiva lingas. He managed to gather about 80,000 before his death. The ornamented door frames of the 26 temples are from the Gaur ruins. The navaratna Mahaprabhu temple with nine spires is on the way to the temple complex. 
Nityananda (Bangla: শ্রী নিত্যানন্দ) (b 1474 CE), a Vaishnava saint, is famous as a primary religious figure within the Gaudiya Vaishnava tradition of Bengal.Chaitanya Mahaprabhu's friend & disciple.
They are often mentioned together as Gaura-Nitai (Gaura, "golden one", referring to Chaitanya, Nitai being a shortened form of Nityananda) or Nimai-Nitai (Nimai being another name of Chaitanya). Followers often refer to Nityananda as 'Sri Nityananda', 'Prabhu Nityananda' or 'Nityananda Rama'.
According to Gaudiya-Vaishnava tradition Nityananda is an incarnation of Balarama, with Chaitanya Mahaprabhu being his eternal brother and friend, Krishna. He is considered the 'most merciful' incarnation of the Supreme Personality of Godhead.
  Principal Sobriquets (उपाधि -तखल्लुस) of Nityananda : 
Nityananda (नित्यानन्द) -- He Who embodies eternal bliss, Avadhutendu (अवधूतेन्दु) -- The Moon of divine madmen ,Vasudha-prana-vallabha (वसुधा प्राण बल्ल्भ)-- The beloved of the life-breath of Vasudha, Jahnavi-jivita-pati (जहान्वी जीविता पति) -- The eternal divine husband of Shrimati Jahnavi-devi and the maintainer and sustainer of Her life and soul, Krsna-prema-prada (कृष्ण-प्रेम -प्रदा) -- He Who bestows ecstatic love for Krsna, Prabhu (प्रभु) The Lord and Master of the devotees,  Padmavati-suta (पद्मावती पुत्र) -- The dear son of Padmavati, Sriman (श्रीमान) -- He of spendrous transcendental majesty, Saci-nandana-purvaja (सचि नन्दन पूर्वज) -- The older brother of mother Saci's son,  Bhavonmatta (भावोत्तम) -- He Who is maddened in overwhelming ecstatic emotions, Jagat-trata (जगत त्राता)  -- The savior of the universe,  Rakta-gaura-kalevara (रक्त गौर कलेवरा) - He Whose complexion is golden tinged with red, from the writings of Sarvabhauma Bhattacharya.

Life of Nityananda prabhu :-
Nityananda Prabhu met Caitanya Mahaprabhu in 1506, when He was 32 years old and the Lord 20 years. It is said that when Nityananda Prabhu reached the land of Nadia, He hid in the house of Nandanacarya, to heighten the ecstasy of meeting through separation.
Caitanya Mahaprabhu aware of the arrival of His eternal associate dispatched Haridas Thakur and Srivas Pandit to search out Nitai, but they failed. Finally unable to bear the separation any longer, Caitanya Mahaprabhu Himself went directly to Nityananda Prabhu and the ecstasy of the meeting was so transcendental that every one witnessing it were awed by the sublime experience. A temple called Sri Gaura-Nityananda commemorates this meeting place in Nadia. 


Sri Chaitanya and Nityananda, is shown performing a 'kirtan'( devotional song ) in the streets of Nabadwip, Bengal.
Nityananda Prabhu was born to a religious Bandyaghati Brahmin, Mukunda Pandit (also known as Hadai Pandit) and Padmavati in Ekachakra (a small village in Birbhum district of present West Bengal) around the year 1474.
His devotion and great talent for singing Vaishnava hymns (bhajan) were apparent from a very early age. He became well known in his youth for his dramatic re-enactments of Lord Rama's pastimes, wherein he would generally play the part of Lakshman, Rama's younger brother along with the other boys of Ekachakra.
At the age of thirteen, Nityananda left home with a travelling renunciate (sannyasi) known as Lakshmipati Tirtha. Nityananda's father, Hadai Pandit, had offered the travelling sannyasi anything he wished as a gift. To this Lakshmipati Tirtha replied that he was in need of someone to assist him in his travels to the holy places (he was about to begin a pilgrimage) and that Nityananda would be perfect for the job.
As he had given his word Hadai Pandit reluctantly agreed and Nityananda joined him in his travels. This started Nityananda's long physical and spiritual journey through India which would get him in contact with important Gurus of the Vaishnava tradition. Apart from Lakshmipati Tirtha, who at some point initiated him, he was also associated with Lakshmipati Tirtha's famous other disciples: Madhavendra Puri, Advaita Acharya, and Ishvara Puri, the spiritual master of Chaitanya Mahaprabhu.

 The Jagai-Madhai : The episode of Jagai-Madhai is arguably the most well known of tales related to Chaitanya and Nityananda. There are a few versions of the story, but the basics outline of the traditional tale is as follows:

Once while chanting the name of Krishna in the streets, Nityananda was attacked by Jagai and Madhai, two irreverent drunk brothers. Madhai threw an earthen pot which cut his forehead.

At this point Nityananda is said to have uttered the now famous sentence, -- 
" मेरेचिस कलशिर काना , ताई बोले कि प्रेम देबोना ?" 

"Merechhish kolshir kana, tai bole ki prem debona" 

 (Shall I stop giving you love because you have hit me with an earthen pot?).
Chaitanya heard of the episode, flew to a rage, and wanted to kill the brothers with his divine Chakra. Nityananda begged him to pardon them and they became Chaitanya's disciples, converted by Nityananda's compassion.  
Marriage and the descendants : 
When Nityananda Prabhu returned to Bengal at the request of Caitanya Mahaprabhu, His decided to abandon His avadhuta status and become a grahastha (householder).
Balaram’s wives Varuni and Revati (वारुणी और रेवती) became Vasudha (वसुधा) and Jahnavi (जहान्वी), the two wives of Nityananda Prabhu, in Chaitanya-lila. Both of them were the daughters of Surya Das, who was as effulgent as the sun. He was Kakudman, the father of Revati, in his previous birth.
Virabhadra Goswami was inundated with Jahnava Mata’s mercy, becoming her direct initiated disciple. Nityananda Das writes in his Prema-vilasa that when Virabhadra saw Jahnava in a four-armed form that his mind was changed and he decided to accept her as his diksha guru. 
After some time, Shri Vasudha devi gave birth to a daughter named Ganga and a son named Virachandra. Shri Jahnavadevi, on the other hand, had no children.
Nityananda Prabhu had a son (Virchandara) and a daughter (Gangadevi) from Vasudha. Soon after Vasudha passed away and Jahanva devi looked after the children.
She later initiated Virchandra, and also became an instructing spiritual master to the likes of Shyamananda Pandit, Shrivasa Pandit and Narottama dasa Thakur. Jahnava devi is revered as a Vaishnavi and she established the pre-eminent positon of women in the Vaishanava tradition.   
  Lord Nityananda wound up His earthly pastimes, by merging into the deity of Krishna, known as Bankim Ray, not far from Ekacakra.
Vaishanava acaryas emphatically state that people who try to understand Caitanya Mahaprabhu without getting the mercy of Nityananda Prabhu will never succeed.
and one must pray very sincerely to Lord Nityananda Prabhu as the adi-guru (original spiritual master) to be delivered to the Lotus feet of Sri Caitanya Mahaprabhu. 
The presence of Nityananada Prabhu is always felt in the presence of one's own guru, for the guru is considered to be the living manifestation of Nityananda Prabhu's love and mercy, and his sakti (power) is what gives the disciple the ability to perform devotional service and experience spiritual bliss.      
गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय : Gaudiya Vaishnavism (also known as Chaitanya Vaishnavism) is a Vaishnava Chaitanya Mahaprabhu (1486-1534) in India in the 16th century.
"Gaudiya" refers to Gauḍadeśa (presentday Bengal/Bangladesh) with Vaishnavism meaning the worship of Vishnu
Its philosophical basis is primarily that of the Bhagavad Gita and Bhagavata Purana, as well as other Puranic scriptures and Upanishads such as the Isha Upanishad, Gopala Tapani Upanishad, and Kali Santarana Upanishad.

The focus of Gaudiya Vaishnavism is the devotional worship (bhakti) of RadhaKrishna, and their many divine incarnations as the supreme forms of God, svayam bhagavan. Most popularly this worship takes the form of singing Radha and Krishna's holy names, such as 'Hare', 'Krishna' and 'Rama', (most commonly in the form of the Hare Krishna mantra) which is known as kirtan.
Philosophical concepts : 
Living beings : According to Gaudiya Vaishnava philosophy, consciousness is not a product of matter, and is instead a symptom of the soul. All living beings (jivas), are distinct from their current body - 

the nature of the soul being eternal, immutable and indestructible without any particular beginning or end. Souls which are captivated by the illusory nature of the world (Maya) are repeatedly reborn amongst the various species of life on this planet and on other worlds in accordance to the laws of karma and individual desire. This is consistent with the concept of samsara found throughout Hindu belief.

Release from the process of samsara (known as moksha) is believed to be achieveable through a variety of yoga processes. However, within Gaudiya Vaishnavism it is bhakti in its puremost state (or pure love of God) which is given as the ultimate aim, rather than liberation from the cycle of rebirth.

 Supreme Person (God)
Gaudiya Vaishnavas believe that God has many forms and names, but that the name Krishna is the 'fullest' description because it means "He who is all-attractive", covering all of God's aspects such as being all-powerful, supremely merciful and all-loving.
God is worshipped as the eternal, all-knowing, omnipresent, all-powerful and all-attractive Supreme Person. Names of God from other religious traditions such as Allah and Jehovah are also accepted as bonafide titles of the same supreme person..
One of the defining aspects of Gaudiya Vaishnavism is that Krishna is worshipped specifically as the source of all incarnations of God. This is based on quotations from the Bhagavata Purana such as krsnas tu bhagavan svayam, translated as "Krishna is the original Personality of Godhead" and from the Bhagavad Gita wherein Arjuna, when speaking to Krishna, states:
"You are the Supreme Personality of Godhead, the ultimate abode, the purest, the Absolute Truth. You are the eternal, transcendental, original person, the unborn, the greatest. All the great sages such as Narada, Asita, Devala and Vyasa confirm this truth about You, and now You Yourself are declaring it to me."
Krishna is described elsewhere as the "seed-giving father of all living beings" and is worshipped within the Gaudiya tradition literally, as such - Krishna being the "sustaining energy of the universe"
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