About Me

My photo
Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.
Showing posts with label यह समझ में नहीं आता।. Show all posts
Showing posts with label यह समझ में नहीं आता।. Show all posts

Friday, June 22, 2012

" नारद का माया दर्शन " कहानियों में वेदान्त [17]

स्वप्न जैसी कल्पित घटनायें वास्तविक कैसे प्रतीत होती हैं ?
एक दिन नारद ने श्रीकृष्ण को पकड़ लिया कि उनको माया का स्वरुप दिखाना ही होगा। नारद के मन में यह जानने की इच्छा जाग्रत हुई, कि स्वप्न में देखी गयी वस्तुओं जैसी कल्पित घटनायें,  देश और काल (Time and Space) आदि वास्तविक कैसे प्रतीत होती हैं ? फिर सत्य ज्ञान होने के बाद वह सबकुछ शून्य में कैसे लीन हो जाते हैं ? श्रीकृष्ण भी नारद की ज़िद को टाल नहीं सके। बोले, " ठीक है, दिखा दूँगा।" 
दो-चार दिन के बाद श्रीकृष्ण नारद को साथ में लेकर भ्रमण करने निकले। एक के बाद एक शहर-गाँव छोड़ते हुए, एक मरुभूमि में पहुंचे। 
वहाँ चारों ओर बस बालू ही बालू था। जहाँ तक दृष्टि जाती थी, जिस ओर भी दृष्टि जाती थी, बालू के सिवा और कुछ भी दिखाई नहीं देता था। कहीं कहीं दो-चार जलकूप के चारों ओर कुछ गिने-चुने पौधे वनस्पति आदि की झाड़ियाँ उग आई थीं। वहाँ थोड़े बहुत अलग अलग घर बना कर कुछ लोग भी बस गये थे।
नारद को साथ में लिए श्रीकृष्ण चलते जा रहे थे। दिन चढ़ता जा रहा था। सूर्य की गर्मी से पैरों के नीचे का बालू गर्म हो गया था, हवा में आग की गर्मी थी। श्रीकृष्ण चलते चलते थक गये थे। उनको कस कर प्यास भी लगी, उनहोंने नारद से कहा, ' थोड़ा पानी पिला सकते हो ?'
 नारद ने व्याकुल होकर चारों ओर नजरें दौड़ाई। हाँ, वहाँ थोड़ी ही दूरी पर एक गाँव दिख रहा था। रास्ता अधिक लम्बा भी नहीं है, भागते हुए जल लेकर आ सकता हूँ। नारद ने कमण्डल हाथ में उठाया और जितना तेज गति से चल सकते थे, गाँव की ओर चल पड़े।  श्रीकृष्ण थके-हारे और प्यासे हैं, तथा बड़ी आशा और उत्सुकता से उनके लौटने की राह देख रहे हैं; - यह बात याद आते ही उनका हृदय तड़प उठा था। व्यथित और तीव्र आग्रह लेकर वे जी-जान लगा कर भागे जा रहे थे। कितने कम से कम समय में वे जल लेकर लौट सकते हैं, उनका सम्पूर्ण मन केवल इसी विचार में लगा हुआ था।
[ अहो नारद धन्योऽसिविरक्तानांशिरोमणि:।


सदा श्रीकृष्णदा-सानामग्रणीर्योगभास्कर:॥
(श्रीमद्भागवत माहात्म्य)



सनकादिमुनीश्वरोंद्वारा वर्णित विरक्त शिरोमणि, श्रीकृष्णदासोंमें अग्रगण्य व भक्तियोगके भास्कर देवर्षिनारद, सृष्टिकर्ता साक्षात् ब्रह्माजीके मानस पुत्र हैं।
रम्भाअप्सरा का नृत्य देख सम्मोहित होने के कारण क्रुद्ध ब्रह्माजीने उन्हें शूद्र-योनि प्राप्त होने का शाप दिया, जिससे गोपराजद्रुमिलकी पत्‍‌नी कलावतीके गर्भ से उत्पन्न हो दासी-पुत्र कहलाए। तदनन्तर वैष्णवों की जूठन (सीथ प्रसादी) के पुण्य प्रभाव से ब्रह्मा के पुत्र हुए और नर-नारायण से प्राप्त ज्ञान (नार) का दाता होने के कारण नारद कहलाए- ' नारं ददातीतिनारद:' 
भगवान् द्वारा वैकुण्ठ अथवा योगियों के हृदय में न रहकर मात्र भक्तों के कीर्तन-स्थल पर निवास करने की बात 
नाहं वसामिवैकुण्ठेयोगिनांहृदयेन वै।
मद्भक्तायत्र गायन्तितत्र तिष्ठामिनारद॥
सुनकर प्रभु के गुणगान की ओर प्रवृत्त हुए।वे जन्म-मृत्यु से रहित नित्यरूपधारीहैं, जिनका निज इच्छा से आविर्भाव अथवा तिरोभाव संभव है। वे भगवत्प्रेमीपरिव्राजक हैं, जिनका समस्त लोकों में स्वच्छन्द विचरण है। भगवान् के विशेष कृपापात्र व लीला-सहचर हैं।
 वे तत्त्‍‌वज्ञ, नीतिज्ञ, शास्त्रज्ञ, दिव्यस्मृतिवान्,त्रिकालज्ञ ज्योतिषी, वैद्यक-शास्त्र व व्याकरण पण्डित, अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रतधारी,प्राणियों को भगवद्भक्तिकी ओर उन्मुख करने वाले, कल्याणार्थ विवाद भी उत्पन्न कराने वाले परम हितैषी हैंदेवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है।]
गाँव में पहुँचने पर जो पहला घर मिला, उसके दरवाजे पर पहुँच कर नारद ने दरवाजा खटखटाया। एक परमसुन्दरी युवती ने आकर दरवाजा खोला। उसको देखते ही नारद सबकुछ भूल गये। एकटक होकर उसका रूप देखने लगे। थोड़ी देर तक खड़े रहने के बाद, उस युवती के साथ बातचीत करने लगे। बहुत देर तक दोनों में बातचीत होता रहा। कितने ही प्रकार की बातें हुईं। श्रीकृष्ण प्यासे हैं और व्यग्रता से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, यह बात नारद को एक क्षण के लिए भी याद नहीं आया।
 उस दिन वे श्रीकृष्ण के पास लौटे ही नहीं। दुसरे दिन पुनः उस युवती से मिलने जा पहुँचे। फिर से दोनों में बातचीत होने लगी। अन्त में उस युवती की सम्मति लेकर, उसके पिता को विवाह करने का प्रस्ताव दिया। पिता स्वीकृति दे दिए, उस युवती के साथ नारद का विवाह हो गया।
उस लड़की के पिता के पास धन-सम्पत्ति की कोई कमी नहीं थी। प्रचूर रुपया-पैसा था, जगह-जमीन, गाय-बैल, तालाब, बगीचा यह सब तो था ही, बड़ा सुन्दर दुतल्ला मकान भी था। इसीलिये जिसको बड़े आनन्द से जीवन बिताना जिसको कहते हैं, नारद वही करने लगे। कुछ दिनों के बाद उस लड़की के पिता का देहान्त हो गया। ससुर के मरने के बाद, उनकी सम्पत्ति के मालिक भी नारद ही हो गये। 
इसी प्रकार हँसते-खेलते बारह वर्ष बीत गये। नारद के कई लडके-लड़कियाँ भी हुईं। उसके बाद एक दिन बहुत बड़ा संकट आ गया। आकाश में घने काले मेघ छ गये थे। आकाश फाड़ कर,बिना रुके श्रावण की घनघोर वर्षा रात-दिन होने लगी। आँधी-तूफान तो पहले से ही बह रहा था,जैसे जैसे समय बीत रहा था, उसका वेग और भी बढ़ता जा रहा था। अन्त में वर्षा के जल से नदी में इतना उफान आ गया कि नदी उसको अपने सीने में दबा कर रख न सकी, और नदी के दोनों किनारों को तोड़ता हुआ बाढ़ का पानी तेजी से चारों ओर फैलने लगा। खेत-खलिहान डूब गये, गाँव के भीतर भी पानी घुसने लगा। बाढ़ के पानी में उस गाँव के नर-नारी, गाय-बैल, बकरियां, पेड़-पौधे सब कुछ डूबने लगे।
नारद के घर में भी बाढ़ का पानी उपर तक चढ़ चुका था।भारी चिन्ता में उनलोगों के दिन बीत रहे थे।           पानी इतना उपर तक चढ़ गया था, कि अब और अधिक देर तक घर में रहना सुरक्षित नहीं था। तब नारद बीबी-बच्चों के साथ घर से बाहर निकलने पर मजबूर हो गये। अपनी पत्नी को एक हाथ से पकड़े, एक लड़के को अपने कँधों पर बैठा लिया, दो अन्य को अपने दूसरे हाथ में दबा लिए। फिर बहुत हड़बड़ी में किसी सुरक्षित स्थान की खोज में निकल पड़े।
कोई भी स्थान उतना सुरक्षित नहीं रह गया था। कहाँ जाएँ ? जहाँ तक नजर जाती थी, केवल पानी ही पानी नजर आता था। बाढ़ का मटमैला पानी मानों मनुष्य की शक्ति की अवहेलना करके, जल-थल को एक बनता हुआ अट्टहास करता, लहरों पर हरहराता हुआ आगे बढ़ता ही जा रहा था। तेज बहाव के सामने अधिक देर तक टिके रहना संभव नहीं था। काँधे पर बैठा लड़का पानी में गिर कर बह गया। उसको पकड़ने जाते कि हाथ में दबा एक और लड़का डूब गया। पैरों के नीचे कहीं जमीन मिल नहीं रही थी, नारद भी डूबने लगे। हाथ में दबा दूसरा लड़का कब उनके हाथ से छूट गया, इसका उनको पता भी नहीं चला। अचानक सतर्क हुए तो दोनों हाथों से पत्नी को कसकर पकड़ लिया और डूबने-उतराने लगे। अब उनके पास अपना कहने के लिये केवल पत्नी ही बची थी। कहीं वह भी हाथों से छूट न जाय !
किन्तु नारद उसको भी पकड़े न रख सके। डूबते-उतराते बीच नदी की धार में जा गिरे। इतने देर तक परिश्रम करने के कारण शरीर बिल्कुल थक चुका था। हाथ स्वतः बेजान हो गये। पत्नी भी डूब गयी। अब तो दुःख की कोई सीमा न थी। चिन्ता करते करते मन भी थक चूका था। एक घोर निराशा का भाव लेकर पानी के बहाव में बहते बहते नदी के दूसरे किनारे पर स्थित किसी ऊँचे पथरीले चट्टान से जा टकराए। अभी वहाँ तक पानी नहीं पहुंचा था।
ठिकाना पा जाने से शरीर और मन में शक्ति आ गयी। नारद उसी चट्टान पर चढ़ कर बैठ गये। बैठते ही उनके मन में अपने दुर्भाग्य की स्मृतियाँ बड़ी तेजी से जाग उठीं। हाय, मेरा सबकुछ चला गया, माल-असबाब, घर, परिजन अब कुछ भी नहीं बाकी रह गया ! अपने दुर्भाग्य की बातों और अपनी असहाय अवस्था के बारे में सोचते सोचते नारद शोक में डूब कर पागलों की तरह विलाप करने लगे।
इसी समय उनको अपने पीछे से अति कोमल, अति मधुर कुछ संबोधन सुनाई दिये, मानों किसीने कानों में रस उड़ेल दिया हो। पीछे मुड़कर देखे तो श्रीकृष्ण उनसे पूछ रहे थे, " क्यों नारद, पानी ले आये ? आधा घन्टा  हो गया पानी लाने गये थे, क्या हुआ ? "
" आधा घन्टा ? " - नारद चिल्ला उठे ! क्या केवल आधे घन्टे में बारह वर्षों तक घटित इतनी विचित्र घटनाओं की अनुभूतियाँ उनके मन के भीतर खेल गयीं थीं ? तब नारद के समझ में आ गया कि माया क्या चीज है ! नारद ने कहा- " प्रभु, माया का अनुभव हो गया। अब लौट चलिए। "
[ श्रीरामकृष्ण देव कहा करते थे, " स्त्रियों की देह में हाथ लग जाता है तो ऐंठ जाता है, वहाँ पीड़ा होने लगती है। यदि आत्मीयता के विचार से किसी के पास जाकर बातचीत करने लगता हूँ तो बीच में एक न जाने किस तरह का पर्दा-सा पड़ा रहता है; उसके उस तरफ जाया नहीं जाता।"
 " स्त्री लेकर माया का संसार करने से मनुष्य ईश्वर ( आत्मज्ञान ) को भूल जाता है। जो संसार की माँ हैं, उन्हीं ने इस माया का रूप -स्त्री का रूप धारण किया है। इसका यथार्थ हो जाने पर फिर माया के संसार पर जी नहीं लगता। सब स्त्रियों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है। ईश्वर के दर्शन (आत्मज्ञान ) हुए बिना स्त्री क्या वस्तु है, यह समझ में नहीं आता।" -ॐ तत सत ] 
हमलोगों को अपने जीवन में जो कुछ भी घटनायें घटित होती दिखाई देती हैं, जितने भी प्रकार के सुख-दुःख का अनुभव हुआ करता है; देश-काल की सीमा में चलता-फिरता जीव-जगत के समस्त दृश्य माया के ही प्रभाव से हमलोगों के मन में अपने आप को प्रस्तुत कर रहे हैं।
जब माया का यह घूंघट हट जाता है, तब यह स्पष्ट बोध होता है कि साधारण अवस्था में हमलोग जिन घटनाओं (या मिथ्या नाम-रूप को) यथार्थ सत्य के रूप में देखते या विचार करते हैं, वे सब हमारे ही मन की कल्पनाओं के सिवा और कुछ भी नहीं है।
उस समय यह जगत-प्रपंच, सबकुछ उड़ जाता है। ठीक उसी प्रकार कल रात्रि में जो स्वप्न हमलोगों ने देखा था, अभी उसका नामो-निशान तक शेष नहीं है।