No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context.
"If you like something, leave a comment!"
--Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
" अद्वैत ही रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ की मूल विचारधारा है !"
" This Advaita was never allowed to come to the people. At first some monks got hold of it and took it to the forests, and so it came to be called the "Forest Philosophy". By the mercy of the Lord, the Buddha came and preached it to the masses, and the whole nation became Buddhists. Long after that, when atheists and agnostics had destroyed the nation again, it was found out that Advaita was the only way to save India from materialism. Thus has Advaita twice saved India from materialism ! " -Swami Vivekananda : (The Absolute and Manifestation/ Volume-2/Jnana-Yoga/page -138)
"अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य (जंगलों) में उसकी साधना करते थे , इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' ("Forest Philosophy") भी हो गया। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्धदेव ने आकर जब सर्वसाधारण के बीच इसका प्रचार किया , तब सारा देश बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। फिर बहुत समय बाद नास्तिकों (atheists-ईश्वर को न मानने वाले)और अज्ञेयवादियों (agnostics)ने जब सारे देश को ध्वंश करने की चेष्टा की, तब उस भौतिकवाद से भारत की रक्षा करने में पुनः एक बार अद्वैतवाद ही एकमात्र उपाय सिद्ध हुआ। इस प्रकार अद्वैत ने दो बारभौतिवाद से भारत की रक्षाकी है।" - स्वामी विवेकानन्द ('ब्रह्म एवं जगत' : वि ० सा० /खंड-२./पृष्ठ- ९३)
वर्तमान युग के सर्वश्रेष्ठ अद्वैताचार्य-स्वामी विवेकानन्द !
(Swami Vivekananda--The Greatest Teacher of Advaita Vedanta.)
- वक्ता स्वामी शुद्धिदानन्द
स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा 13 अप्रैल 2021 को रामकृष्ण मिशन इंस्टीट्यूट ऑफ कल्चर, गोलपार्क, कोलकाता में दिया गया भाषण।
1. अद्वैत वेदान्त की उपयोगिता -(Usefulness of Advaita Vedanta)
Swami Vivekananda--The Greatest Teacher of Advaita Vedanta, by Swami Shuddhidananda .
ॐ नमः श्रीयतिराजाय विवेकानन्द सूरये ।
सच्चित्सुखस्वरूपाय स्वामिने तापहारिणे ॥
(निवृत्ति मार्ग के 'तपस्वियों के राजा, स्वामी विवेकानन्द को नमस्कार, जो सच्चिदानन्द स्वरूप हैं और कष्टों का हरण करने वाले हैं'।)
" हरि ॐ तत्सत् ,हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् !"
परमपूज्य स्वामी सुपर्णानन्द जी महाराज जी को मेरा विनम्र प्रणाम, उपस्थित सभी प्रिय भक्तों को सप्रेम अभिवादन। आज मुझे 'अद्वैत वेदांत के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक- स्वामी विवेकानन्द!' के विषय पर बोलने के लिए कहा गया है, लेकन इस विषय पर आने से पहले मैं आज के युग में-अद्वैत वेदान्त की उपयोगिता क्या है ?" इस विषय पर कुछ कहना चाहूँगा। उसके बाद मैं आज के विषय - "वर्तमान युग के महान अद्वैताचार्य स्वामी विवेकानन्द " के विषय पर लौटूँगा।
आप सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने 1899 में अद्वैत आश्रम की शुरुआत की थी। उस अवसर पर उन्होंने अद्वैत आश्रम का prospectus लिखा था। उस prospectus (परिचय पत्रिका) में उन्होंने बड़े सुन्दर शब्दों में अद्वैत वेदान्त की उपयोगिता से हमारा परिचय कराते हुए लिखा था -"Dependence is misery and Independence is happiness. And the Advaita is the only system which gives unto every man complete possession of himself or herself,and takes off all dependence and makes him brave to suffer, brave to act, and in the long run to attain Absolute Freedom." (Volume 5, Writings: Prose and Poems/ The Advaita Ashrama Himalayas./The Ramakrishna Home of Service, Varanasi: An appeal.)]
अर्थात परनिर्भरता (Apparent I- M/F पहचान-देहनिर्भरता-परवशता) ही समस्त दुःखों का कारण है, तथा आत्मनिर्भरता (Real I -आत्मज्ञान, विवेकज-ज्ञान, ईश्वरलाभ, आत्मवशता) ही समस्त सुखों का मूल है। और अद्वैत ही एकमात्र उपाय (system) है, जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्णत्वं की उपलब्धिकराकर, प्रत्येक मनुष्य को अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ बना देता है। और इस प्रकार हमें दुःख-कष्ट सहने में वीर, जीवन के उतार -चढ़ाव का सामना करने में वीर, और अन्ततः परम मुक्ति-लाभ या मोक्ष प्रदान करा देता है।" (वी०सा०/खंड- ९/पृष्ठ- ३१८) (3:45)
और इस प्रकार हम देख सकते हैं कि सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाना (Apparent 'I' पर निर्भरता से, M/F देहाध्यास से मुक्त 'मनुष्य' बन जाना) - 'मुक्ति', 'मुक्ति', 'मुक्ति'-'मोक्ष'ही (Real 'I', पूर्णत्वं, पूर्ण नैतिकता,100 % निःस्वार्थपरता, आत्मज्ञान ही)अद्वैत वेदान्त 'आत्मा' का गीत है, परम-पुरुषार्थ है और यही हिन्दू वैदिक सनातन धर्म का मूल विषय है!
This attainment of absolute freedom, is the very song of Vedanta (Advaita :Atman) -Mukti, Mukti, Mukti, Moksha - This is the only one theme of the Hindu Vedic Sanatan Dharma !
इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि स्वामी विवेकानन्द अद्वैत आश्रम, मायावती के prospectus में हिन्दू वैदिक सनातन धर्म' के शास्त्रों (मनु-स्मृति) से संस्कृत में लिखित एक उपदेश-'सर्वम् परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशम् सुखम्।'को अंग्रेजी में अनुवाद करके लिख रहे हैं -
"Dependence is misery and Independence is happiness."
-अर्थात परवशता या 'Apparent I' पर (मिथ्या नामरूप M/F अनात्म पहचान पर) निर्भर रहना ही समस्त दुःखों का कारण है तथा आत्म-निर्भरता या 'Real I' पर निर्भर रहना या आत्मावशता ही समस्त सुखों का रहस्य है।' और कह रहे हैं कि -' And Aavita is the only system which makes us completely Independent .' अद्वैत ही एकमात्र उपाय (system) है-(आत्मज्ञान, ईश्वरलाभ या Self enlightenment, या Self-awareness) ही एकमात्र उपाय (system) है जो हमलोग को हर प्रकार के मिथ्या बन्धनों से (स्वकल्पित नाम-रूप तादात्म्य से) पूर्णतया मुक्त कर देता है। और इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द 'अद्वैत वेदान्त की सार्वभौमिक उपयोगिता ' को सम्पूर्ण मानवजाति के समक्ष रख रहे हैं। (4:45)
2. हिन्दू वैदिक सनातन धर्म या अद्वैत वेदान्त का सारांश : (The essence of Hindu Vedic Sanatana Dharma or Advaita Vedanta.)
यदि हमलोग वैदिक सनातन धर्म के समस्त शास्त्रों, उपनिषदों आदि ग्रंथों को देखें और उनकी शिक्षाओं का सार निकालें, तो आप पायेंगे कि इसमें सभी प्रकार की शिक्षा दी गयी है। वहाँ आपको स्थूलतम मूर्त विषयों से लेकर आध्यात्मिक अमूर्तता ( spiritual abstraction) की सर्वोच्च ऊँचाइयों पर होने वाली विभिन्न प्रकार की अनुभूतियों में आधारित ऐसे संक्षिप्त महावाक्य आपको मिल जायेंगे , जिनमें आप सम्पूर्ण वैदिक सनातन धर्म की शिक्षाओं के सार को आप देख सकते हैं। यदि हमें सम्पूर्ण वैदिक वांग्मय की अखण्ड ज्ञान राशि के निचोड़ को अत्यंत संक्षिप्त रूप में (nutshell) कहना हो, तो हमलोग महान तत्त्ववेता, अद्वेत सूत्रके प्रणेता आदि गुरु शंकराचार्यजी के निम्न श्लोक को उद्धृत कर सकते हैं -
श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः ।
ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या- जीवो ब्रह्मैव नापरः ॥
अर्थात् जो अनेक ग्रंथों में लिखा है, उसे मैं आधे श्लोक में यहां कह रहा हूं। ब्रह्म सत्य है - ब्रह्म सत्यं यह बताता है कि ब्रह्म ही 'सतयम' है , परम सत्य और अपरिवर्तनशील सत्य है। जगन्मिथ्या-कहने का मतलब है कि अपनी इन्द्रियों के द्वारा जिस रूप में जगत को हम अनुभव कर रहे हैं , तथा अपने-आप में इसे हम जैसा समझते हैं वह जगत मिथ्या है। (6:32)
And what is the Actual position ? और वस्तु-स्थिति क्या है , सच्चाई क्या है ? यह जीव यानि 'आप' और 'मैं',हम स्त्री हों या पुरुष ,हम 'सभी मनुष्यों' की वास्तविक पहचान क्या है ?हमलोग ब्रह्म से अलग या ब्रह्म (आत्मा, ईश्वर) से भिन्न और कुछ भी नहीं हैं!जीव ब्रह्मैव न अपरः ! अर्थात 'जगत ब्रह्मैव न अपरः !' लेकिन जब तक हम अज्ञान की अवस्था में हैं (अविद्या,M/F स्मिता,राग-द्वेष, अभिनिवेश -पंचक्लेश की अवस्था में हैं) और जिस जगत का अनुभव हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से कर रहे हैं, तब तक हम कहते हैं कि यह जगत है!But actually'-When the knowledge dawns ! 'किन्तु-जब आत्मज्ञान (आत्मानुभूति या विवेकज-ज्ञान) होता है, तब (समाधि से शरीर में दुबारा लौटने पर ?) यह दिखाई पड़ता है कि जो कुछ दिख रहा है - सब ब्रह्म ही है ! लेकिन हाँ, यह अनुभूति उसी व्यक्ति को होती है, जिसे ऐसा आत्म-साक्षात्कार होता है, तब उसे यह जीव,जगत और ईश्वर (आत्मा,ब्रह्म, भगवान) में एकत्व- बोध की अनुभूति होती है। (7:14 )
3. सत्यम (truth) क्या है , मिथ्या (illusion-भ्रम) क्या है,और यह जगत (3H) सत्य और मिथ्या का मिश्रण कैसे है ?
आदिगुरु शंकराचार्यजी के उपरोक्त महावाक्य (profound statement) से हमे दो बातें समझनी हैं - सत्यम (truth) क्या है , मिथ्या (illusion-भ्रम) क्या है ? और यह जगत (3H) सत्य और मिथ्या का मिश्रण कैसे है ? What is truth? What is illusion? And how is this world a mixture of truth and illusion? [And how this world (3H) is a mixture of truth (आत्मा,ब्रह्म) and illusion (परमेश शक्ति -माया,मोह,आभास या विवर्त)]
अतएव शंकराचार्य जी के महान वक्तव्य से हमें दो बातें समझनी हैं, इस दृश्यमान जगत में सत्यम क्या है, और मिथ्या (माया) क्या है ? सत्यम की परिभाषा क्या है ? हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि 'सत्य' (the essence of truth : सत्य का सार -आत्मा, परब्रह्म) वह वस्तु है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। सत्य वस्तु वह है जिसे तीनों काल -'भूत' , 'वर्तमान' या 'भविष्य' में किसी को 'sublet' या उधार नहीं दिया जा सकता, तथा जिसका कोई प्रतिरोध भी (deny) नहीं कर सकता। सत्य त्रिकालाबाधित (timeless) है।त्रिकाल-अबाधित क्या है? जिस वस्तु का बाध (प्रतिरोध-बाधा -रुकावट) मानवानुभूति के तीनों कालों में- भूतकाल, वर्तमान और भविष्य में नहीं किया जा सकता हो ! तो सत्य त्रिकालाबाधित है। अर्थात सत्य (अर्थात आत्मा, ब्रह्म, ईश्वर,भगवान -जिस नाम से पुकारो) वह वस्तु है , जो मानवानुभूति के तीनों कालों में- भूतकाल, वर्तमान और भविष्य, ('Past', 'Present' or 'Future') में सदैव अपरिवर्तनीय, शाश्वत और अविचल रहती है। जिसे किसी को किराये पर (sublet) नहीं दिया जा सकता, तथा जिसका कोई प्रतिरोध भी नहीं कर सकता।
[That which cannot be contradicted (resisted, obstructed, or hindered) in all three periods of human experience—past, present, and future! 'त्रिकाल अबाधित' "timeless या कालातीत "विशेषण का प्रयोग उन चीजों के लिए होता है जो समय के साथ कभी नहीं बदलते। उदाहरण के लिए - जैसे गणितीय-भौतिक नियम (जैसे न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण का नियम-लेकिन ये अवलोकन और प्रयोग पर आधारित हैं, इसलिए बदलते रहते हैं। ) अथवा सत्य का सार (आत्मा, ईश्वर, भगवान या परब्रह्म,अल्ला जिस नाम से पुकारो) जैसी चीजों के लिए प्रयोग होता है जो समय के साथ कभी नहीं बदलते। 'सत श्री अकाल' का अर्थ इस प्रकार है- सत यानी सत्य, श्री अकाल का अर्थ है 'समय से रहित' या कालातीत यानी आत्मा इसलिए इस वाक्यांश का अनुवाद मोटे तौर पर इस प्रकार किया जा सकता है, जगत (3H) में " आत्मा (ईश्वर ,ब्रह्म या भगवान) ही अन्तिम सत्य है"। The adjective "timeless" (कालातीत, माँ काली, अकाल पुरुख) is used for things that never change over time. For example, it is used for things like mathematical and physical laws (such as the law of gravity)or the essence of truth (the soul, God, the Supreme Being, Allah, or whatever name you call it) – things that remain constant throughout time.]
अब यदि आप केवल यह प्रश्न करें कि अपने दैनंदिन जीवन में क्या हमने कभी ऐसी वस्तु को देखा है , जो इस अपरिवर्तनीय , शाश्वत या अविचल श्रेणी (category) में रखी जा सकती हो ? हम में से क्या किसी ने भी कभी ऐसी वस्तु की अनुभूति की है, जो कभी परिवर्तित नहीं होती हो? जिसे नकारा नहीं जा सकता हो ? which does not get denied , cancelled ? अभीतक हमने कभी ऐसी वस्तु की अनुभूति नहीं की है। बल्कि हम लोगों को जिस दृश्यमान जगत की अनुभूति हो रही है , वह तो -'प्रतिक्षणं अन्यथा स्वभाव' है। यहाँ हम जिस किसी वस्तु या व्यक्ति को देख रहे हैं - वह हर क्षण परिवर्तनशील और नश्वर है। हमें यहाँ किसी भी अपरिवर्तनीय वस्तु का अनुभव नहीं हो रहा है। हमारे अनुभव में तो यही आ रहा है कि , हर चीज समय के प्रवाह में बहती हुई नदी जैसी बहती चली जा रही है, stream of flux कहा जाता है -'किसी एक ही नदी में आप दुबारा डुबकी नहीं लगा सकते। अतएव अस्तित्व के अपरिवर्तनीय पहलू को सत्य कहते हैं, जिसे किसी भी काल में नकारा नहीं जा सकता , जिसे किसी को उधार नहीं दिया जा सकता। यह असम्भव है।
तो ऐसी अवस्था में हमें जिस जगत की प्रतीति हो रही है , जिसके लिए मिथ्या शब्द का प्रयोग प्रयोग किया जा रहा है। तो इस मिथ्या (illusion-माया) शब्द से हम क्या समझते हैं ? इसे मिथ्या कहने का अर्थ यह हुआ कि यह जगत क्या असत्य (Unreal) है ? नहीं मिथ्या का तात्पर्य " असत्य" नहीं है। हम इस जगत को असत्य नहीं कह सकते - क्योंकि हमें इसका अनुभव हो रहा है। इसलिए जगत असत्य नहीं है। तो ऐसा कहने से कि जगत असत्य (Unreal) नहीं है , क्या जगत सत्य (Real) (त्रिकालाबाधित) हो गया ? नहीं , यह जगत सत्य भी नहीं है, लेकिन यह असत्य भी नहीं है। तो यह जगत क्या है ? यह जगत सत्य और असत्य (अनृत) का मिश्रण है- this world is Mixture of truth and falsity - 'सत्यानृतं' है - यह सत्य और मिथ्या का मिश्रण है। इसीलिए शास्त्रों में इसको 'मिथ्या' (माया-परिणाम नहीं विवर्त) कहा गया है। (10:32 )
4. 'ब्रह्म एवं जगत' का समीकरण['The Absolute and Manifestation' का equation-ठाकुर की भाषा में 'बेल का खोपड़ा, गुदा और बीज' के वजन का समीकरण। [The Absolute and Manifestation (equation)Volume-2/Jnana-Yoga/page -138) या 'सत्यम और मिथ्या' का समीकरण : वि ० सा० /खंड-२./पृष्ठ- ९३)]
What is this world? तो - यह जगत क्या है ?यह यह जगत किसी ऐसी चीज़ की अनुभूति है, जो यद्यपि पूरी तरह से विद्यमान नहीं है; तथापि इसका 'Relative existence' या सापेक्षिक अस्तित्व है ! ('It is an experience of something, which does not exist absolutely, and yet there is a relative existence to it!') हम ऐसा नहीं कह सकते की जगत है ही नहीं ; लेकिन यह भी नहीं कह सकते कि यह पूरी तरह से अपने सत्य रूप में विद्यमान है। यह जगत 'अस्ति' (श्रद्धा) और 'नास्ति' के बीच दिखने वाला अस्तित्व है।(It cannot be denied, and at the same time it doesn't become absolutely true !'This is in-between existence')-यह जगत प्रकाश (विद्या) और अंधकार (अविद्या) का खेल है। This world is a play of light and darkness . यह जगत सत्य असत्य के बीच की प्रतीति है। It exists and yet it does not absolutely exists! यह जगत विद्यमान है भी, और विद्यमान नहीं भी है। " This is the status of all the experiences which we usually have in all the three states of waking, dream and sleep ." - अर्थात अपने देह, मन और इन्द्रियों की सहायता से, मानवानुभूति की तीनों अवस्थाओं ,'जाग्रत, स्वप्न और निद्रा'-में, आत्मा (ईश्वर या ब्रह्म 3rd-H) की उपस्थिति के कारण, आमतौर पर जितने भी अनुभव हमलोगों को हो रहे हैं, उन सभी अनुभवों (अनुभूतियों) की वस्तु-स्थति तो यही है!इसीको शंकराचार्य जी (या उपनिषदों के ऋषि) मिथ्या कहते हैं। (11: 23)
हमें "ब्रह्म और जगत" (The Absolute and Manifestation) के इस अद्वैत समीकरण ( E=MC2) को या 3H की वास्तविकता (वस्तु-स्थिति) को समझने की चेष्टा करनी चाहिए । हमें ब्रह्म और जगतमें अद्वैत के समीकरण को समझने की चेष्टा क्यों करनी चाहिए ? क्योंकि अद्वैत के महत्व (Importance) को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी ने कहा है - "The Advaita is the only system which gives complete possession of ones own Self; which makes every man , every woman completely independent, brave to face the ups and downs of life !" -अर्थात अद्वैत ही एकमात्र ऐसी प्रणाली है जो व्यक्ति को अपने स्वयं के स्वरूप (आत्मस्वरूप -Real I-पूर्ण नैतिकता , 100 % निःस्वार्थ-परता) पर पूर्ण अधिकार प्रदान करती है; और प्रत्येक स्त्री, प्रत्येक पुरुष को अपने पैरों पर खड़ा होकर जीवन जीवन के उतार-चढ़ाव का सामना करने के लिए वीर बना देती है!" (When we understand this great Truth - the Unchanging dimensions of human personality) जब हम प्रत्येक मनुष्य के (M/F) के अपरिवर्तनीय पहलू(Real I के सच्चिदानन्द स्वरुप) को अपने अनुभव से जान लेते हैं, तो यह आत्म-ज्ञान हमें कष्ट सहने में वीर, बना देता , कर्म करने में वीर बना देता है , और अन्ततः परम मुक्ति-लाभ या मोक्ष की अवस्था में प्रतिष्ठित करा देता है।" (वी०सा०/खंड- ९/पृष्ठ- ३१८) (12:00)
5. "जीव ब्रह्मैव न अपरः' -'जगत ब्रह्मैव न अपरः' ! मृगमरीचिका तथा रज्जु और सर्प के उदाहरण द्वारा 'ब्रह्म और जगत' (The Absolute and Manifestation) के अद्वैत (equation-समीकरण) को समझना।
इस'ब्रह्म और जगत ' (The Absolute and Manifestation) या'सत्यम और मिथ्या'के बीच के (अद्वैत) समीकरणको समझाने के लिए स्वामी विवेकानन्द एक बहुत सुंदर उदाहरण देते हैं। वे एक बार राजपूताना के रेगिस्तानों में पैदल भ्रमण कर रहे थे। हमलोग जानते हैं कि 1886 में श्रीरामकृष्ण का शरीर त्याग हो जाने के बाद स्वामीजी ने काश्मीर से कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत की यात्रा की थी। भारत-भ्रमण करते हुए वे राजपूताना पहुँच गए जिसे अभी राजस्थान कहा जाता है। राजपूताना के रेगिस्तानों में तेज धूप में भी वे भ्रमण कर रहे थे , कहीं पीने को पानी नहीं था। और उन्हें जोरों की प्यास लगी हुई थी। इस घटना का उल्लेख उन्होंने अमेरिका में ज्ञानयोग पर दिए अपने एक भाषण में किया था। जब वे रेगिस्तान में पैदल भ्रमण कर रहे थे , और बहुत तीव्र प्यास लगी हुई थी। अचानक उनको थोड़ी दूरी पर एक झील दिखाई दी। झील को देखकर उनकी प्रतिक्रिया हुई कि वहाँ चल कर प्यास बुझा ली जाये। जिस झील को स्वामी जी देख रहे थे , सच अनुभव कर रहे थे -वह नहीं होगा ऐसा बिन्दु भर संदेह उन्हें नहीं हो रहा था।
लेकिन जैसे ही उन्होंने उस झील की तरफ बढ़ना शुरू किया - उन्हें लगा कि जितना ही वे झील की ओर आगे बढ़ते जाते थे , झील उतना ही दूर होता जा रहा है। अचानक स्वामी विवेकानन्द के मन में यह ज्ञान जगा,ये विचार कौंधा कि यह झील नहीं है , यह तो मृगमरीचिका है।जैसे ही उनके मन में ज्ञान का उदय हुआ, उन्होंने उस और चलना बंद कर दिया। वे समझ गए कि वहाँ कोई झील नहीं है- वहाँ जिस झील की प्रतीति हो रही थी, इसीको मृगतृष्णा कहा जाता है।लेकिन जिस समय उनको झील उनको एक दम वास्तविक दिख रहा था - क्या उस समय भी वहाँ जल का एक बून्द था ? वहाँ रेगिस्तान के बालू के सिवा, कहीं कोई झील अस्तित्व में नहीं था।
जब कोई वस्तु वहाँ न होते हुए भी सत्य जैसी प्रतीत होती हो, उसी को मिथ्या (माया-भ्रम) कहते हैं। जबकि वह प्रतीति सत्य नहीं है-पर फिरभी दिखाई देती है। यही मिथ्यात्व है । पुनः कहता हूँ मिथ्या शब्द से यहां प्रतीति में होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है, किन्तु वह वास्तव में वहाँ नहीं होती। इसी को अस्तित्व का मिथ्या पहलू कहते हैं। जिस समय स्वामीजी को पानी दिखाई पड़ रहा था, उस समय भी वहाँ बालू ही बालू था जल की एक बूँद भी नहीं थी। अब हमलोगों को जिस प्रकार और जिस समय'जीव और जगत' 'ईश्वर' (आत्मा या ब्रह्म) से भिन्न दिखाई पड़ रहा होता है, उस अवस्था की और संकेत करते हुए स्वामी जी उसी भाषण में आगे कहते हैं -जिस समय जीव और जगत, जीव-जगत , जगत, जगत, में होने वाली घटनायें सत्य जैसी प्रतीत हो रही होती हैं ,उस समय भी स्वामीजी कहते हैं - वह जीव और जगत कुछ नहीं ब्रह्म ही हैं! वहाँ ब्रह्म से अलग और कुछ नहीं होता है ; किन्तु हम अभी उसे समझ नहीं पा रहे हैं।जीव ब्रह्मैव न अपरः' -'जगत ब्रह्मैव न अपरः' ! जगत और जीव ईश्वर (ब्रह्म या आत्मा) से अलग नहीं है। वहाँ केवल एकमेवाद्वितीय सत्ता है - दो नहीं हैं। और यही वैदिक सनातन धर्म का मूल सिद्धांत (Crux)है। ईश्वर और जीव -जगत दो अलग -अलग सत्य नहीं हैं।एक ही सत्य (ईश्वर, आत्मा, भगवान या ब्रह्म) है जो 'अनेक' के रूप में भास रहा है, और जिसका हमलोग अनुभव कर रहे हैं। विविधता के भीतर एकत्व है। लेकिन हमें विविधता नजर आ रही है। यही हमारे शास्त्रों का निष्कर्ष है जिसे समझाने के शंकराचार्य जी रज्जु-सर्प का उदाहरण देते हैं। बहुत से लोग इस रज्जु-सर्प उदाहरण का मजाक उड़ाते हैं। किन्तु सच्चाई यही है -जिसका अनुभव हमलोग अभी प्रति दिन कर रहे हैं। अँधेरे में रस्सी जब साँप के जैसा प्रतीत होता है। हम उसको सच्चा साँप ही समझ रहे होते हैं, तब हम भय से ग्रस्त हो जाते हैं। और प्रकार नकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं। किन्तु जैसे ही उस पर टॉर्च का प्रकाश पड़ता है , आप देखते हैं कि यह साँप नहीं रस्सी है। इसलिए जिस समय हम सचमुच में साँप का अनुभव कर रहे होते हैं , उस समय भी वास्तव में वहाँ सिर्फ और सिर्फ रस्सी ही थी। अंधकार (अज्ञान) के समय भी हम केवल एक रस्सी का ही अनुभव कर रहे थे, लेकिन अपनी नासमझी में हम उसे साँप समझ लेते हैं।
उसी प्रकार हमारे अपने जीवन में, मानव-अनुभूति की तीनों अवस्थाओं में -जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थामें, प्रत्येक मनुष्य को जो कुछ भी अनुभव हो रहा है , वह सब जीव-जगत का मिथ्या पहलू है। किन्तु सत्य क्या है ? सत्य यही है कि सब कुछ ब्रह्म है और केवल ब्रह्म ही है। ब्रह्म के सिवा अन्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। श्री शंकराचार्य जी गीता-भाष्य में कहते हैं -(तस्मात् ब्रह्मैव इदं सर्वम इति अभिजानतः विदुषः कर्माभावः।4/24 के भाष्य) अद्वैत वेदांत # हमें वहाँ ले जाता है जहाँ- 'ब्रह्मैव इदं सर्वं'! 'सब कुछ पूर्ण है ब्रह्म है। 'आत्मैव इदं सर्वं !' - जो कुछ दीखता है, वह आत्मा ही है, और स्वामीजी कहते हैं -प्रत्येक आत्मा 'पूर्णत्वं' (complete) है, उस अंतर्निहित पूर्णत्वं (दिव्यता) को अपने जीवन में व्यक्त करना है। इसलिए वेदान्त हमें वहाँ ले जाता है, जहाँ पहुँचकर स्वामीजी कहते हैं -Every soul is Purna ! Complete!प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्महै !(18:52)
6. अद्वैतिक दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) से जगत को देखने का पहला परिणाम -सारे भय समाप्त हो जाते हैं !
जब यह अद्वैतिक दृष्टि हमारे अंदर जाग्रत हो जाती है तो हमारी अन्तर्निहित'पूर्णत्वं'का भाव (दिव्यता, pure morality अर्थात शुद्ध नैतिकता - 100 % निःस्वार्थपरता का भाव!एकाक्षर मंत्र -माँ के हृदय का भाव।) जाग्रत हो जाता है। हमारी 'अपूर्णत्वं' का भाव (पशुता का भाव, M/F भेद-बुद्धि) समाप्त हो जाती है।और ह्रदय आनन्द से भर जाता है , सारी अशांति दूर हो जाती है। इसका पहला फल यह होता है कि हमारे हर प्रकार के भय का नाश हो जाता है। स्वामी जी कहते हैं अद्वैतिक दृष्टि प्राप्त होने का पहला परिणाम यह होता है कि यह हमें सभी प्रकार के भय से पूर्णतः मुक्त कर देती है, हमारी असुरक्षा की भावना समाप्त हो जाती है। इसलिए स्वामीजी कहते हैं -"Advaita is the only system which gives unto man complete possession of himself or herself and takes him or her towards the attainment of absolute freedom ! Freedom from fear, freedom from bondage, freedom from slavery. Now and here , not in some future point of time. This is the greatest achievement , that only human beings can have ! It is the main purpose of Human Life ! " (20:06)
-अर्थात " अद्वैत ही एकमात्र प्रणाली (system) है, जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक मनुष्य को अपनी पूर्ण उपलब्धि ( Real I) कराकर- उसे अपने पैरों पर खड़े होने में समर्थ बना देता है। तथा उसे हर प्रकार के भय से मुक्ति, स्वकल्पित बन्धनों से मुक्ति, मन और इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त कराता हुआ उसे इसी जन्म में, किसी सुदूर भविष्य में या अगले जन्म में नहीं, अभी और यहीं - परम मुक्ति-लाभ या 'मोक्ष' प्रदान करा देता है। और यही वह अवस्था है, जिसे केवल मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है और यही मनुष्य जीवन का परम पुरुषार्थ भी है!
श्रीरामकृष्ण भी 'ब्रह्म और जगत' के इसी अद्वैत(Equation समीकरण : 'ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या') को अपनी सरल बंगला भाषा में कहते हैं --" ईश्वर-ई वस्तु, आर सब अवस्तु !"(God alone is real and all else unreal.)'ब्रह्म ही वस्तु है, और सब अवस्तु है।' श्रीरामकृष्ण वचनामृत के प्रत्येक तीसरे पृष्ठ पर आप पायेंगे -'भगवान ही एक मात्र वस्तु,और सब अवस्तु। 'ब्रह्म ही वस्तु है, और सब अवस्तु है। जिस समय हमलोग जगत के किसी 'अवस्तु' की अनुभूति कर रहे होते हैं, उस समय भी वे 'भगवान' ही हैं, हम उन्हें गलत समझ रहे हैं।इसलिए जो कुछ अस्तित्व में है , वह एकमेवा-द्वितीय परम् सत्य ही है , उन्हें हमब्रह्म कहें (आत्मा , भगवान या एकाक्षर मंत्र माँ कहें ?) या अन्य किसी भी नाम से पुकारें उससे फर्क नहीं पड़ेगा। (क्योंकि हाथी- नारायण , महावत नारायण, बाघ नारायण का विवेकजाग्रत रखते हुए कर्म करने में ही हमारा अधिकार है -फल प्राप्ति में नहीं।)(20:56)
7. स्वामी विवेकानन्द से पहले नरेन्द्र का अपना जीवन द्वैत , विशिष्टाद्वैत से होकर अद्वैत दृष्टि के जागृत होने का अनुपम उदाहरण !
स्वामी विवेकानन्द बनने से पहले युवा नरेन्द्र का अपने जीवन में 'द्वैत- विशिष्टाद्वैत से होकर अद्वैत' में पहुँचने के क्रमविकास का उदाहरण है।आज हम लोग स्वामी विवेकानन्द कोआधुनिक युग के 'सर्वश्रेष्ठ अद्वैताचार्य ' के रूप में जानते हैं। किन्तु स्वामी विवेकानन्द जिस समय नरेन्द्रनाथ थे, उस समय वे स्वयं अद्वैत विचारधारा के घोर विरोधी थे। और स्वामी विवेकानन्द बनने से पहले -नरेन्द्रनाथ को अपने महान अद्वैती परमहंस गुरु श्रीराम-कृष्ण के निर्देशन में बहुत गहन प्रशिक्षण (intense training) से होकर गुजरना पड़ा था। नरेन्द्रनाथ का अपना जीवन ही द्वैत -विशिष्टाद्वैत (पुरुषोत्तम तत्व) से होकर अद्वैत में पहुँचनेका बहुत सुन्दर उदाहरण है। 'द्वैत- विशिष्टाद्वैत से होकर अद्वैत' में पहुँचने कीहिन्दू वैदिक सनातन गुरु-शिष्य परम्परा का स्वर्णिम उदाहरण है - "श्रीरामकृष्ण- नरेन्द्रनाथ अद्वैत शिक्षक (लीडरशिप) -गहन प्रशिक्षण परम्परा !"
(i)'अष्टावक्र गीता' पर एक घटना देखिये। जब कभी भी नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आते थे , श्री रामकृष्ण नरेन्द्र को शंकराचार्य जी के अद्वैत सिद्धान्तों का उपदेश-देते थे। [यथा -दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद् ब्रह्ममयं जगत्।देहबुद्धया तु दासोऽहं जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥ ]
["तुम्हारे पास तीन चीजें '3H' हैं- 1. शरीर, 2. मन 3. आत्मा! आत्मा (ईश्वर, भगवान या ब्रह्म) इन्द्रियातीत है। मन (मिथ्या अहं) जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर की है। तुम वही (अजर-अमर-अविनाशी) आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते हो की तुम (नश्वर) शरीर हो। जब मनुष्य कहता है- 'मैं यहाँ हूँ', तो उस समय वह शरीर की बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है , जब तुम उच्चतम भूमिका में होते हो, तब तुम यह नहीं कहते - " मैं यहाँ हूँ ! (अभी मजा चखाता हूँ!)" किन्तु जब कोई तुम्हें गाली देता है, या तुम्हारा अपमान करता है, और तुम भीतर से क्रोधित नहीं हो जाते, तब तुम आत्मा हो। "(खंड 10. पृष्ठ 40) '"युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द का मार्गदर्शन " (যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ) [ SVHS- 3.4 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज/विवेक-जीवन ब्लॉग - September 12, 2012]*
अद्वैत दृष्टि (दर्शन) के अनुसार जीव, जगत और ईश्वर (3H) में कोई भेद नहीं है। The Advaita states that there is no difference between the individual soul, the world, and God.लेकिन नरेन्द्र इस अद्वैत समीकरण या विचारधारा को कि - 'जीव, जगत और ईश्वर' में अभेद हैको सुनना भी नहीं चाहते थे। वे इस विचार के ही बिल्कुल विरोधी थे कि -'सब कुछ ब्रह्म है!' (He was dead against of this idea that - Everything is Brahman !यद्यपि नरेन्द्रनाथ इस 'ब्रह्म और जगत' के अद्वैत समीकरण (The Absolute and Manifestation- equation)को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे। फिर भी श्री रामकृष्ण किसी न किसी उपाय से नरेंद्र के कानों तक इस अद्वैत विचारधारा को पहुंचा देना चाहते थे कि-'जीव, जगत और ईश्वर' में अभेद है।'अष्टावक्र गीता' शुद्ध अद्वैतवादी दर्शन है, उस ग्रंथ में 'एकमेवाद्वितीय परम सत्य' का बहुत सुंदर वर्णन मिलता है। इसलिए श्री रामकृष्ण अपने प्रिय शिष्य नरेन्द्र को अद्वैतिक विचारधारा के ग्रंथ 'अष्टावक्र गीता' कोपढ़ने के लिए बार -बार प्रेरित करते रहते थे। लेकिन जब उन्होंने नरेंद्र को अष्टावक्र गीता पढ़ने के लिए दिया , तो वे उसको पढ़ने से ही इंकार कर दिए। उन्होंने कहा मैं इस विचारधारा में बिल्कुल विश्वास नहीं करता। श्रीरामकृष्ण ने कहा ठीक है तुम उस पर विश्वास मत करना, परन्तु मेरे लिए इसकोपहले पढ़कर तो देखो। नरेंद्र जितना भी इंकार करते थे , श्रीरामकृष्ण उनको पढ़ने के लिए अनुप्रेरित करते रहते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्री रामकृष्ण नरेंद्र को सदैव अष्टावक्र गीता पढ़ने की प्रेरणा देते थे, लेकिन नरेंद्र उसमें वर्णित अद्वैत उपदेशों को पढ़ना ही नहीं चाहते थे। (23:24)
(ii) दूसरी घटना नरेन्द्रनाथ तथा उनके मित्र हाजरा महाशय के बीच। इसके बाद एक घटना होती है -जिसमें नरेंद्र और हाजरा महाशय , जो नरेन्द्र के मित्र थे, वे लोग दक्षिणेश्वर में एक साथ खड़े होकर पस्पर बातचीत कर रहे थे -और श्रीरामकृष्ण पीछे से सब सुन रहे थे। उस समय नरेंद्र अद्वैत के इस सिद्धांत को कि - प्रत्येक वस्तु ब्रह्म (भगवान) ही है, का मजाक उड़ाते हुए हाजरा से बोले, देखते हो , इस सिद्धान्त को मान लिया जाय तब तो - लोटा भी ब्रह्म और थाली भी ब्रह्म है !इस तरह की पुस्तकें लिखने वाले व्यक्ति अवश्य उन्मादी होते होंगे। अद्वैत के सिद्धान्त'ब्रह्म और जगत' के अद्वैत समीकरण (E=Mc2) को यदि सत्य मान लें तो, क्या कहना होगा कि - 'लोटा ब्रह्म थाली ब्रह्म' ?? वे दोनों इसका मजाक उड़ा रहे थे- किसी बात पर जोर से हँसने लगे, और श्रीरामकृष्ण पीछे से यह सब सुन रहे थे। और श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न अवस्था (ecstatic state-हर्षोन्मत्त अवस्था) में नरेंद्र के पास धीरे से पहुँचे और उसको छू दिए। श्रीरामकृष्ण के छूते ही -बाह्यजगत (नाम-रूप ) के प्रति नरेन्द्र की जागरूकता (awareness) या चेतना लुप्त हो गयीऔर उनका मन 'अद्वैत के राज्य' (realm of non-duality) में पहुँच कर उसका अनुभव करने लगी। श्रीरामकृष्ण के छूते ही नरेन्द्र के लिए जगत की हर चीज बदल गयी। और तब उनको क्या अनुभव हुआ ? उपनिषदों में जो कुछ भी लिखा है , अद्वैत वेदांत के महान आचार्यों ने जो कुछ भी कहा है- ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या- जीवो ब्रह्मैव नापरः'नरेन्द्रनाथ उन सभी महावाक्यों के सत्य होने का साक्षात् अनुभव कर रहे थे-' He was seeing only one existence everywhere!' हर जगह उनको मात्र चैतन्य का ही अनुभव हो रहा था, और नरेंद्र ने बाद में बताया कि वह अनुभूति उनको कई दिनों तक बनी रही। (25:49)
उन्होंने उस समय के अनुभव के विषय में उन्होंने कहा है कि सड़क पर सामने से आती हुई गाड़ी को देख कर भी मैं किनारे नहीं हटता था। क्योंकि उस समय मुझे अपने में और उस गाड़ी में कोई भेद का अनुभव ही नहीं हो रहा था। उस अवस्था का वर्णन करते हुए वे कहते हैं , 'मैं उस समय हेदुआ तालाब के किनारे लगेरेलिंग से अपना सिर टकरा कर देखता था कि, "Is it absolutely Real?Just look at the statement, जरा उनके वक्तव्य पर गौर कीजिये, 'क्या यह अबाध रूप से सत्य है?' सत्य और मिथ्या की परिभाषा क्या है ? सत्य त्रिकाल अबाधित होता है, और मिथ्या (illusion) की परिभाषा क्या है ? 'Mithya is that experience of something which does not absolutely exist and yet which is experienced! 'मिथ्या' किसी ऐसी चीज के अनुभव को कहते हैं, जो वास्तव में मौजूद (exist-विद्यमान) नहीं है, लकिन फिर भी जिसका अनुभव एक दम सत्य के जैसा होता है!जो वस्तु वहाँ नहीं है - लेकिन वास्तविक जैसी लग रही है, जैसे रज्जु-सर्प या मृगमरीचिका का पानी। तो नरेंद्र अपने सिर को रेलिंग से सिर टकरा कर देखते हैं -कि क्या यह सत्य है, या मिथ्या है ? उनकी माताजी ने टेबल पर भोजन दिया तो , वे उसे खाने में सक्षम नहीं हो सके, क्यों कि भोजन खाने वाला , भोजन और भोजन देने वाला , में उनकी भेदबुद्धि ही चली गयी थी।
अद्वैत दृष्टि जागृत होने की पहचान : अद्वैत वेदान्त को समझने में सबसे बड़ी पहचान यही है किभेद-बुद्धि चली जाती है,और अभेद दृष्टि चली आती है। अर्थात यह विश्वास दृढ़ हो जाता है कि, इन्द्रियों से हमें जिस किसी वस्तु का अनुभव हो रहा है वह सब अभेद-तत्व (शुद्ध-चैतन्य, सच्चिदानन्द ब्रह्म) है कोई भेद नहीं है। यह पहला अवसर था जब नरेन्द्रनाथ को अपने महान अद्वैतिक गुरु श्रीरामकृष्ण देव के अनुग्रह से उस परम् सत्य की अनुभूतिहुई। और इसी अवस्था का अनुभव नरेंद्र को, कई दिनों तक होता रहा। (27:02)
(iii) तीसरी घटना : नरेंद्र की निर्विकल्प समाधि :
एक दूसरी घटना, 1885 ई. के मध्य भाग में काशीपुर में घटित प्रसिद्द घटनाजिसके बारे में हम सभी जानते हैं कि, श्रीरामकृष्ण देव के गले में दर्द की शुरुआत हुई थी, उसकी पहचान कैंसर के रूप में हुई। उन्हें पहले श्यामपुकुर ले जाया गया, फिर वहाँ से काशीपुर लाया गया। काशीपुर में नरेन्द्रनाथ निर्विकल्प समाधि के अनुभव करवाने के लिए तंग कर रहे थे। बार बार उनको निर्विकल्पसमाधि का अनुभव करवा देने के लिए परेशान (pester)कर रहे थे। श्री रामकृष्ण उनको धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने का उपदेश दे रहे थी उचित समय पर होगा , थोड़ा धैर्य रखो। एक दिन ऐसा हुआ कि जब नरेन्द्र ध्यान कर रहे थे अचानक उनका मननाम और रूप की दुनिया से परे की दुनिया में उड़ान भरने लगा -His mind soar into the realm beyond the realm of names and form! और अंततोगत्वा निर्विकल्प अवस्था में प्रतिष्ठित हो गया। और उनको उस ब्रह्म के साथ एकत्व की अनुभूति हुई , जिसके विषय में हमलोग अभी बातचीत कर रहे हैं।
और नरेन्द्र की वह अवस्था काफी देर तक बनी रही। उस निर्विकल्प समाधि की अवस्था में आमतौर से मनुष्य का शरीर बिल्कुल मृत शरीर के जैसा निस्पन्द # हो जाता है। [# स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में 'नरेंद्र की निस्पन्द अवस्था का वर्णनविवेकानन्द साहित्य - वार्ता एवं संलाप - खंड-६/ पेज -९९-१००/में इस प्रकार है - स्वामीजी -" उस दिन संध्या के समय ध्यान करते करते अपने शरीर को खोजा तो नहीं पाया। ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर बिल्कुल है ही नहीं। चंद्र,सूर्य, देश-काल - आकाश सब मानो एकाकार होकर कहीं लय हो गए हैं। देहादि बुद्धि का प्रायः अभाव हो गया था और 'मैं' भी बस लय सा ही हो रहा था ! परन्तु मुझमें कुछ 'अहं' 'अहंकर्ता -भाव ' था , इसीलिए उस समाधि अवस्था से लौट आया था। इस समाधिकाल में ही 'मैं' और 'ब्रह्म' में भेद नहीं रहता , सब एक हो जाता है; मानो महामुद्र है - जल ही जल और कुछ नहीं। भाव और भाषा का अन्त हो जाता है। अवांगमन-सगोचरं' की उपलब्धि इसी समय होती है। नहीं तो साधक जबतक 'मैं ब्रह्म हूँ ' ऐसा विचार करता रहता है, तब भी 'मैं' और 'ब्रह्म' ये दो पदार्थ पृथक रहते हैं -अर्थात द्वैतबोध बना रहता है। .. उसी 'अद्वैत' अवस्था को फिर प्राप्त करने की मैंने बारम्बार चेष्टा की, परन्तु पा न सका। श्री गुरुदेव को सूचित करने पर वे कहने लगे , " उस अवस्था में दिन-रात रहने से माँ भगवती का कार्य तुमसे पूरा न हो सकेगा। इसलिए उस अवस्था को फिर प्राप्त न कर सकोगे ; कार्य का अन्त होने पर वह अवस्था फिर आ जायेगी। " शिष्य - तो क्या निर्विकल्प समाधि प्राप्त होने पर , कोई फिर अहं ज्ञान का आश्रय लेकर द्वैतभाव के राज्य में -इस संसार में - नहीं लौट सकता ? स्वामीजी - श्री रामकृष्ण कहा करते थे किएकमात्र -ईश्वरकोटि -अवतारी पुरुष ही जीव की मंगल कामना कर ऐसी समाधि से लौट सकते हैं।साधारण जीवों का फिर व्युत्थान नहीं होता।]
उनके अन्य सभी शिष्य और निकटस्थ मित्र नरेंद्र के उस अवस्था में पाकर बहुत चिंतित हो गए। उनके शरीर में जीवन का कोई चिन्ह भी नहीं था। -Absolutely no sign of life ! वे सभी दौड़कर श्रीरामकृष्ण को नरेन्द्र की अवस्था को सूचना देने गए। देखिये ठाकुर नरेन्द्र को कुछ हो गया है। श्री रामकृष्ण समझ गए कि क्या हुआ होगा ? उन्होंने कहा नरेंद्र को थोड़ी देर उसी अवस्था में रहने दो। वह मुझे निर्विकल्प समाधि की अनुभूति करवा देने के लिए बहुत दिनों से परेशान कर रहा था। अब उस प्राप्त हुआ है , तो उसे कुछ समय उस अवस्था में रहने दो। जब नरेंद्र उस अवस्था से वापस शरीर -बोध में जब वापस लौटे , तब नरेंद्र ने जिस चीज के लिए ठाकुर से अनुरोध किया, उसे जानना बड़ा दिलचस्प है, और उससे बहुत सुंदर शिक्षा भी ग्रहण की जा सकती है।नरेंद्र समाधि की अवस्था से वापस लौटने पर श्रीरामकृष्ण नरेंद्र से पूछते हैं , नरेन अब तू क्या चाहता है ?नरेंद्र उत्तर देते हैं - "ठाकुर ! मैं सदैव उसी निर्विकल्प समाधि की अवस्था में ही रहना चाहता हूँ , जहाँ एकमेवाद्वितीय वस्तु के सिवा इस भेदभाव या नाम-रूपात्मक (differentiation) पृथकता का (where this differentiation is not at all experienced !) कोई अनुभव नहीं होता है। और उस अवस्था से नीचे उतरना मैं तभी चाहुँगा जब मुझे भूख या प्यास लगेगी तो थोड़ा कुछ खा-पीकर मैं फिर उसी निर्विकल्प समाधि की अवस्था में लौट जाऊँगा।"(30:28)
(iv.) निर्विकल्प समाधि से व्युत्थान के बाद अद्वैत लीडरशिप गहन प्रशिक्षण की श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्रनाथ (नेता) गुरु-शिष्य परम्परा:
श्रीरामकृष्ण देव की जगह कोई भी दूसरा गुरु होते तो , वे अपने शिष्य की इस अनुभूति से बहुत खुश हो गए होते। किन्तु यहाँ श्रीरामकृष्ण के भीतर एक ऐसे अद्वितीय शिक्षक (unique teacher-अनुपम शिक्षक,अवतार-वरिष्ठ) विद्यमान थे जिन्होंने नरेंद्र को धिक्कारते हुए या 'reprimand' करते हुए कहा- " छी , छी नरेन् , तू यह क्या कह रहा है ? मैंने तो सोंचा था कि तूँ एक विशाल बरगद के वृक्ष की तरह बनेगा , जिसकी छाया के नीचे (millions of people) लाखों लोग आकर विश्राम लेंगे और मन की शान्ति प्राप्त करेंगे। पर तूँ भी इस छोटी सी चीज के लिए, स्वार्थी मनुष्यों के जैसा केवल अपने को ही आनन्द में मग्न रखने के लिए, अपनी आँखों को मूँदकर स्वयं को सदैव निर्विकल्प समाधि में ही डुबाये रखना चाहता है?
तब वह 'कौन' है या वह 'क्या' है जिसे तुम इस समय अपनी खुली आँखों से देख रहे हो? "Then What is that which you are experiencing with your open eyes ?" क्या तुम्हें ऐसा लगता है कि अपनी खुली आँखों से इस समय जो कुछ तुम देख रहे हो- 'मुझको', 'अपने को' या अन्य जीव और जगत को देख रहे हो, वह सब कुछ क्या आत्मा (ईश्वर , भगवान या ब्रह्म) से कोई भिन्न वस्तु है ? (Do you think that This 'Jiva' and Jagat is anything different ?) तुम अपनी आँखों को मूँदकर जिस ब्रह्म का अनुभव करते हो,आँखों को खोलकर भी अपने सामने तुम जो कुछ अन्य वस्तु (जीव और जगत) देख रहे हो, वह भी ब्रह्म (आत्मा, ईश्वर या भगवान) के अलावा और कुछ नहीं है!क्या 'ब्रह्म' (परमात्मा) और उनकी 'शक्ति' ('माया' नामक परमेश शक्ति) मेंकोई भेद है? क्या जीव,जगत और ईश्वर (आत्मा, भगवान या ब्रह्म) में कोई अन्तर है?
इसी अनुभूति को अद्वैत कहते हैं, जहाँ अद्वैत #का अर्थ है - 'अभेद दृष्टि'! ज्ञानमयी दृष्टि -जगत को ब्रह्ममय देखने वाली दृष्टि। अद्वैत-दृष्टि के प्राप्त होने पर 'जीव,जगत और ईश्वर' (आत्मा , भगवान या ब्रह्म) ' में कोई पृथकता नहीं रह जाती है। [This is the Advaita, Where Advaita means Non-differentiation (गैर-पृथक्करण)!(31: 31)
[अद्वैत #Non-differentiation (गैर-पृथक्करण)! अपूर्णत्वं या आदम-हव्वा M/F देखने वाली पशु-दृष्टि की समाप्ति। प्रवृत्ति या विवाह-करने की आवश्यकता ही अभेद-दृष्टि प्राप्त करने के लिए और निवृत्ति में प्रतिष्ठित होकर इसी जन्म में जीवनमुक्ति का आनन्द लेने के लिए है ; भविष्य के किसी अगले जन्म में नहीं ! क्योंकि प्रत्येक आत्मा अव्यय है, इसलिए जीव (ने अहंकर्ता भाव से कुछ किया ही नहीं, तो उसका फल कैसा ? केवल याद रखो चिपकना मना है !) इसलिए प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म (पूर्णत्वं) है !ॐपूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते। " ब्रह्म और जगत" या "The Absolute and Manifestation" का वेदान्ती समीकरण (Equation) है 'पूर्णत्वं' - पूर्णत्वं = पूर्णत्वं/E=Mc2/पुरुषोत्तम (The Absolute-पूर्णत्वं ) का 'Manifestation ' स्वरुप - -प्रकाश अंश नहीं है, स्वयं परमात्मा (आत्मा ,ब्रह्म या ईश्वर) है !] (31: 31)
यही नरेन्द्रनाथ को उनके गुरु द्वारा सिखाई गयी यह एक बहुत बड़ी शिक्षा थी, जो भविष्य में इस अभेद-दृष्टि या अद्वैत दर्शन के महानतम आचार्यों में से एक -'अद्वैताचार्य स्वामी विवेकानन्द' बनने वाले थे![यही वह अद्वैत दर्शन (विवेकानन्द दर्शनम # है -विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।) जहां पहुँचने पर भेद-दृष्टि पूरी तरह समाप्त हो जाती है। चाहे आंखें बंद हों या खुली हों, जो कुछ भी दिख रहा हो -वह सब बस एक ही ब्रह्म (आत्मा ,ईश्वर या भगवान) है! इस प्रकार हम यह देख सकते हैं , कि एक एक बहुत बड़ी सीख थी जो श्री रामकृष्ण ने उस दिन नरेंद्र को दी थी। तथाउस अद्वैत (शिक्षा/धर्म- पूर्ण नैतिकता, 100 % निःस्वार्थपरता तेन त्यक्तेन )का प्रचार-प्रसारनरेन्दनाथ को आने वाले वर्षों में पूरी दुनिया में करना होगा (ताकि वैश्विक शांति स्थापित हो सके?) ।
[" But you are asking for this petty thing to remain immersed in Nirvikalpa Samadhi with the closed eyes ?Then What is that which you are experiencing with your open eyes ?Do you think that this jiva and Jagat is anything different ?Do you think that what you see with your open eyes (the living beings and the world) is something different from the soul (God, the Supreme Being, or Brahman)? "you close your eyes it is Brahman , you open your eyes it is nothing but Brahman ! Is there any differentiation! " This is the Advaita , where Advaita means non differentiation ! This was a great lesson taught to Narendranath who in the future was to become one of the great spokesperson of this philosophy of this Abheda Drishti ! Where the Bheda-drishti completely vanishes, weather it is with eyes closed , or with the eyes opened it is all just One Brahman ! So that was a great lesson which SriRamakrishna taught to Naren on that day. And which Swami Vivekananda would preach all over the world in the years to come.] (32:14)
(v.) अद्वैत दृष्टि जाग्रत होने का पाँचवाँ उदाहरण : वैष्णव धर्म के तीन मूल सिद्धान्त ' नामे रूचि, जीवे दया और वैष्णव सेवा।' (The three basic tenets of Vaishnavism) -
भेद दृष्टि दूर होने के बाद अद्वैत दृष्टि से जगत को देखने का प्रशिक्षण: श्रीरामकृष्ण के जीवन की एक दूसरी प्रसिद्द घटना भी उल्लेखनीय है। एक दिन श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर में कुछ भक्तों के साथ वैष्ण-धर्म बारे में बातचीत कर रहे थे, तथा ईश्वर सम्बन्धी अन्य आध्यात्मिक अनुभूतियों पर अपनी सरल बंगला भाषा में चर्चा कर रहे थे।
तो 'The basic tenets of Vaishnavism ' वैष्णव धर्म' के तीन मूल सिद्धान्तों-'नामे रूचि, जीवे दया और वैष्णव सेवा' की व्याख्या करते हुए बोले - वैष्णव धर्म के पहले सिद्धान्त-नामे रूचि,-का सरल अर्थ होता है - भगवान (आत्मा, ईश्वर) का नाम जपने के प्रति वह रूचि, वैसा अतिशय प्रेम, वह अतिशय आनन्द जिसका अनुभव कोई भक्त ईश्वर का (अपने इष्टदेव का) नाम जपते समय करता है।वैष्णव मत का दूसरा सिद्धान्त है - जीवे दया।और तीसरा सिद्धान्त है - वैष्णव सेवा। अर्थात सभी भक्तों की सेवा।
फिर 'जीवे दया' की व्याख्या करते समय बोले -अर्थात प्रत्येक जीव (मनुष्य) के प्रति दया दिखाने का भाव !'पर बोलते हुए श्रीरामकृष्ण जब इन शब्दों को उच्चारित कर रहे थे; उसी समय बोलते -बोलते अपनी उसी 'अद्भुत समाधि शक्ति' में लीन हो गये। जब उनकी चेतना लौटी तब उन्होंने कहा - " जीवे दया ? जीवे दया ? दूसरों पर दया दिखाना, दूसरों पर दयादिखाना? जब कण-कण में शिव ही व्याप्त हैं, जब हर जगह ब्रह्म हैं (जब प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !) तो दूसरों पर (अर्थात अव्यक्त शिव, ईश्वर, आत्मा या ब्रह्म पर) दया दिखाने वाले भला हम कौन हैं ? 'मैं दूसरों पर दया दिखाऊँगा' - मुख से ऐसी बात निकालना भी कितनी बड़ी 'अहंकर्ता' (परवशता) या घमण्ड दिखाना है।
['To show compassion , To show compassion? It is Shiva everywhere , It is brahman everywhere ; and we are to show compassion to others ? take pity on others? How arrogant to speak like this ?]
-दूसरों पर दया दिखाने का साहस करने वाले - भला हम क्षुद्र जीव, होते कौन हैं ? जो खुद कीड़े-मकोड़े जैसे हैं ? हम भला दूसरों पर दया दिखाने की बात सोंच भी कैसे सकते हैं ? नहीं , नहीं। (जबकि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता , तो अपने मुख से 'जीवे दया' का शब्द निकालना भी किंतने बड़े घमण्ड या 'अहंकर्ता -भाव' (मिथ्या-अहं) का द्योतक है ?) तो हमें क्या करना चाहिए ? हम केवल इतना कर सकते हैं - इतने नाम-रूपों में दृष्टिगोचर ब्रह्म की शिव ज्ञान से सेवा करनी चाहिए। (अर्थात हमें अपने मन में 'अहंकर्ता' नहीं- ' तस्य दासा दासो अहं ' का भाव रखते हुए "शिव ज्ञान से जीवों की सेवा" करनी चाहिए।) और नरेन्द्रनाथ के लिए श्रीरामकृष्ण के मुख से निकली यह एक बहुत बड़ी शिक्षा थी।और उस चर्चा के दौरान नरेन्द्र भी वहाँ उपस्थित थे और इस उपदेश को सुन रहे थे । बाद में उन्होंने अपने साथियों से कहा था - आज मैंने सर्वश्रेष्ठ उपदेश greatest Teaching को ग्रहण किया है ! और जब उचित समय आयेगा, जब समय इसके अनुकूल होगा मैं सम्पूर्ण विश्व के समक्ष इस महान उपदेश का उद्घोष करूँगा ! (When the time is propitious I will declare His great teaching to the entire world !) (35:09)
श्रीरामकृष्ण का अद्वैतिक मंत्र - 'दया नहीं , शिवज्ञान से जीव सेवा'
यह- 'दया नहीं , शिवज्ञान से जीव सेवा' ही वह सर्वश्रेष्ठ अद्वैतिक मंत्र है जिसे भगवान श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ के माध्यम से सम्पूर्ण मानवजाति को प्रदान किया है। (Do Not seek it , See it! Change your Drishti ! Bring that Brahma Drishti , Shastra Drishti )यह महान उपदेश अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्त पर आधारित है। जो कहता है कि प्रत्येक मनुष्य में दिव्यता (Divinity-Oneness of Existence -ब्रह्म) अन्तर्निहित है। (यद्यपि अभी अव्यक्त अवस्था में है ?) तथापि प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, तोइस अव्यक्त ब्रह्म की पूजा करने हम कहाँ जायेंगे ? क्या हम इस अव्यक्त ब्रह्म (Divinity) की पूजा करने मन्दिरों में जायेंगे ? यह मानवशरीर ही सबसे बड़ा मन्दिर है। यह जीव जगत भी ब्रह्म ही है , इसको खुली आँखों से देखो। उस ब्रह्मदृष्टि , शास्त्र दृष्टी , ज्ञानमयी दृष्टि को अर्जित करो और जगत को ब्रह्ममय देखो ! सत्य की खोज मत करो-अपनी दृष्टि को बदलो और खुली आँखों से भगवान का दर्शन करो।- इस खुली आँखों की अद्वैतदृष्टि से जगत को देखो और, और भगवान समझकर इसकी यथायोग्य पूजा करो।
अद्वैत दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) अर्जित करो और खुली आँखों से प्रत्येक मनुष्य के ह्रदय विद्यमान शिव (आत्मा, सत्य, ईश्वर या भगवान) को देखते हुए उसकी यथायोग्य पूजा करो!लुच्चा (Wicked -पाखण्डी) नारायण, अच्छा (good) नारायण, धनी नारायण, दरिद्र नारायण , इतने सारे नाम-रूपों में एक भगवान ही हैं, ब्रह्म ही इतने सारे रूपों में घूम रहे हैं। ऐसी अनुभूति में प्रतिष्ठित हो जाना ही आध्यात्मिक अनुभव की पराकाष्ठा (acme) है! और यही जीवनमुक्ति (मोक्ष) की अवस्था है, जिसमें प्रतिष्ठित होने की अभिलाषा प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। आध्यात्मिक क्रांति और आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग भी यही है! तो यही उस दिन की महान शिक्षा (शीक्षा) थी, जिसे नरेन्द्रनाथ ने ग्रहण कर लिया था।
[God the Wicked , God the good , God the rich , God the Poor , God in so many name and forms ! (हाथी-महावत- विवेकी) Brahman in so many forms! This is the acme of Spiritual Experience ! Or this is what every human being can aspire for?](36:24)
8. अद्वैत ही 'रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' की मूल विचारधारा है !
और हमलोग ऐसा नहीं मानते कि हमारे जुड़वाँ संस्थान 'रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने की थी। क्योकि जिस 'गृही-संन्यासी भगवान श्रीरामकृष्ण' के अनुग्रह से1 मई, 1897 को स्वामी विवेकानन्द नेभविष्य के निवृत्ति मार्ग अधिकारी पुरुषों के लिएजिस -'रामकृष्ण मठ तथा रामकृष्ण मिशन'की संस्थापना की थी उसके वास्तविक संस्थापक स्वयं श्रीरामकृष्ण ही थे। और स्वामी विवेकानन्द तो उस कार्य को पूरा करने वाले - एक निमित्त मात्र थे। क्योंकि आधुनिक युग के पुरुषोत्तम श्रीरामकृष्ण परमहंस ने स्वयं कहा है कि वे निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में से एक 'नारायण-ऋषि (नरेन्द्रनाथ ) को अपने साथ लेकर धराधाम पर अवतरित हुए थे।
इसलिए स्वामी विवेकानन्द इन दोनों संस्थानों'रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' के 'Ideology' या मूल विचारधारा को संस्कृत में निर्दिष्ट करते हुए जुड़वाँ आदर्श-वाक्य (Twin motto)को अद्वैत में आधारित करते हुए निर्धारित किया -"आत्मनो मोक्षार्थम्, जगत् हिताय च !"अर्थात-'For the sake of One's own liberation'"आत्मनो मोक्षार्थम्। और 'जगत् हिताय च' -'And for welfare of the world !' यानि'जगत का कल्याण के साथ ही साथ अपनी मुक्ति !'
अर्थात-'For the sake of One's own liberation'"आत्मनो मोक्षार्थम्। इसीलिए अद्वैत आश्रम, मायावती के Prospectus में स्वामी विवेकानन्द ने लिखा था - "Dependence is misery and Independence is happiness. It is Advaita and Advaita alone which gives complete possessionof every man and women and makes him or her brave to suffer, brave to act , brave to face the ups and downs of life , and ultimately to attain absolute freedom-Moksha!"
"परनिर्भरता (अनात्म वस्तुओं पर निर्भरता -परवशता) दुःख है, और आत्मनिर्भरता (आत्मवशता) सभी सुखों का मूल है। और यह अद्वैत और सिर्फ अद्वैत ही वह उपाय (system-शिक्षापद्धति) है, जो हर पुरुष, हर महिला को उसके सत्य-स्वरूप की उपलब्धि करा देता है, उसे आत्मनिर्भर बना देता है और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है। और इस प्रकार हमें दुःख-कष्ट सहने में , कर्म करने में और जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव का सामना करने में -'वीर' बना देता है और अन्ततः परम मुक्ति - मोक्ष लाभ करा देता है। " (खंड ९/३१८)
तो इस प्रकार हम देख सकते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने 'रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' को जो जुड़वाँ आदर्श-वाक्य (Twin motto) के रूप जो महान विचारधारा (Ideology या सिद्धान्त) दिया था , वह है -"आत्मनो मोक्षार्थम् -'For the sake of One's own spiritual liberation (moksha) combined with- 'जगत् हिताय च'! जगत का कल्याण-क्यों? दूसरों कल्याण करने के लिए हम पूर्ण नैतिक या ईमानदार क्यों बनना चाहिए ? Because it is the same reality ! it is the same reality , it is the only one reality!' क्योंकि यह जगत भी वही 'सत्यम' (आत्मा, ईश्वर या ब्रह्म) है, जो आँखों को मूंदने से दिखाई देता है। आप आँखों को मूँद कर आप जिस ब्रह्म को देख रहे होते हैं, आँखों को खोलने पर भी वही ब्रह्म दीखता है ! (यह M/F अभेद दृष्टि, या नारी-जाति के प्रति मातृदृष्टि अद्वैत के महान सिद्धान्त पर ही आधारित है।) और यही वह महान अद्वैतवादी सिद्धान्त है , जिसको परखकर देखा जा सकता है , जिसकी अनुभूति प्रत्येक मनुष्य कर सकता है। (38:04)
['रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन' श्री रामकृष्ण परमहंस के अद्वैतिक विचारों और शिक्षाओं से प्रेरित होकर स्वामी विवेकानन्द द्वारा1 मई, 1897 को स्थापित एक परोपकारीअद्वैतवादी वैश्विक संगठन है, जिसका मुख्यालय बेलूर मठ (पश्चिम बंगाल) में है। और इसका जुड़वाँ आदर्शवाक्य- 'आत्मनो मोक्षार्थं जगद्हिताय च' (अपने मोक्ष और जगत के कल्याण के लिए) भी अद्वैत की ही मूल विचारधारा में आधारित है। इसीलिए यह संगठन सम्प्रदाय और जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करता। अतएव श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द सनातनअद्वैत गुरु-शिष्य परम्परा में किसी भी सम्प्रदाय और जाति का मनुष्य यहाँ 'शिवज्ञान से जीव सेवा' करने के मंत्र को ग्रहण कर-शिक्षा, स्वास्थ्य और राहत कार्यों(Education, health and relief work) के माध्यम से'अपनी मुक्ति और जगत के कल्याण ' के सिद्धांत को कार्य में रूपायित करके देख सकता है
9.अद्वैत ही 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' (ABVYM) तथा 'सारदा नारी संगठन ' (SNS) की मूल विचारधारा है।
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय कहते थे - 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' की स्थापना किसी व्यक्ति ने नहीं की है , बल्कि यह संगठन श्रीरामकृष्ण की इच्छा, माँ श्री सारदा देवी के आशीर्वाद और स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से यह संगठन भारत के- विशेष रूप से गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्गी विवाहित) स्त्री- पुरुषों को समर्पित है। अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' एवं गृहस्थ (विवाहिता) स्त्रियों के लिए गठित ' अखिल भारत सारदा नारी संगठन' दोनों संगठनों के जुड़वाँ आदर्शवाक्य- "Be and Make" भी स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्धारित है , जो अद्वैत में हीआधारित है। जिसमें स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक प्रत्येक गृहस्थ स्त्री और पुरुष का आह्वान करते हुए कहते हैं - 'तुम दूसरों को 'मनुष्य' (प्रबुद्ध या विवेकी) बनने में सहायता करने के साथ-साथ पहले स्वयं 'मनुष्य' (प्रबुद्ध या विवेकी) बनो ! " बनो और बनाओ " यही हमारा मूलमंत्र रहे।
यदि आप इस अद्वैत दृष्टकोण को सामने रखते हुए विवेकानन्द साहित्य के 10 खण्डों को पढ़ेंगे, तो आप पाएंगे कि - स्वामी जी ने पाश्चात्य जगत में जितने भी उपदेश दिए हैं ,शिक्षायें दी हैं, या शिकागो धर्म महासभा में 11 सितंबर 1893 वाले महान युगांतरकारी भाषण सहित जितने सर्वश्रेष्ठ भाषण दिए हैं -उनके समस्त उपदेश या व्याख्यान सिर्फ और सिर्फ अद्वैत सिद्धान्तों में ही आधारित हैं। इसलिए हम कह सकते हैं किस्वामी विवेकानन्द आधुनिक युग में अद्वैत वेदांत के सर्वश्रेष्ठ आचार्य हैं। (38:35)
10. अद्वैत आश्रम, मायावती के स्थापना की पृष्ठभूमि
आज यदि सम्पूर्ण मानवता को, पूरी मानवजाति को विनाश की ओर बढ़ने से रोका जा सकता है , या सम्पूर्ण विश्व को महा -विनाश से बचाया जा सकता है ,तो वह सिर्फ और सिर्फ श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द अद्वैत शिक्षा (अर्थात स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा) के प्रचार-प्रसार से ही सम्भव है।
स्वामी विवेकानन्द जब 1896 या 1985 में इंग्लैण्ड गए थे तब उन्होंने वहाँ एक महान उद्घोषणा करते हुए कहा था - " अमेरिका में तो मैंने अभी अपने कार्य का प्रारम्भ मात्र ही किया है, अभी तक मैंने वहाँ के जनसमुद्र में केवल एक दो तरंगों को ही उठाया है, लेकिन बाद में वहाँ We have to raise a tidal wave - एक विशाल ज्वार उठाना होगा। ( In America I have just started my work, I have just raised one or two waves, We have to raise a tidal wave.) समाज को पूरी तरह बदलना होगा, और दुनिया को एक नई सभ्यता देने होगी। (- 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः' वाली सभ्यता देनी होगी!)'The society has to be turned upside down , and the world has to be given a new civilization !' { अर्थात सम्पूर्ण मानवजाति को नई सभ्यता देने के लिए भारत को अद्वैतवादी दृष्टि जागृत करके, केवल भोगवादी दृष्टि न रखते हुए तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः ' अर्थात-त्याग पूर्वक भोग करने की उपनिषदों वाली 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ' का प्रचार -प्रसार करना होगा।} सोंच कर देखिये 1895 में (32 वर्ष की आयु में ?) 'A penniless sanyasi' एक अकिंचन दरिद्र संन्यासीसम्पूर्ण मानवजाति को नई सभ्यता देने की बात कर रहा है ! केवल स्वामी विवेकानन्द ही ऐसा बोल सकते हैं। क्योंकि यह विवेकानन्द 'अवतार' (Advent) हुआ ही इसी लिए हुआ था ! तथा (अवतार-वरिष्ठ) पुरुषोत्तम श्री रामकृष्ण का आगमन भी उसी के लिए- मानवजाति को एक नई सभ्यता देने के लिए हुआ था! (40:02)
स्वामी जी नेसम्पूर्ण मानवजाति को जिस नई सभ्यता देने की कल्पना की थी या स्वप्न देखा था वह सिर्फ अद्वैत वेदान्त के सिद्धान्तों में ही आधारित है। The philosophy of absolute Independence and spiritual freedom ! पूर्ण आत्मवशता और आध्यात्मिक मुक्ति का दर्शन! हर प्रकार के भय से मुक्ति, संकीर्णता से मुक्ति , हर तरह की दासता और बंधन से मुक्ति। 2H की गुलामी शरीर की गुलामी , मन की गुलामी, इस संसार के कामिनी -कांचन -कीर्ति में आसक्ति की गुलामी से मुक्ति। तभी हो सकती है जब प्रत्येक पुरुष, प्रत्येक स्त्री अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा -यह जानकर कि हमलोगों के द्वारा जो कुछ भी अनुभव किया जा रहा है , उन सब अनुभवों का आधार उस एक आत्मा या एक ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है! स्वामी विवेकानन्द यहीवह अंतिम लक्ष्य है, जिस दिशा में -स्वामी जी चाहते थे कि चाहे गृहस्थ हो या संन्यासिनी प्रत्येक पुरुष और प्रत्येक महिला आगे बढ़े। और मुक्त हो जाये, मोक्ष को प्राप्त कर ले। मुक्ति -मुक्ति -मुक्ति, मुक्त हो जाओ ! यही आत्मा की पुकार है , और यही वेदान्त का संगीत है, This is the Central rhythm of the Vedic scriptures ! और वैदिक ग्रंथों की यही केंद्रीय धुन है।
[Freedom from fear, Freedom from narrowness, Freedom from all kinds of slavery and bondage . slavery to the body , slavery to the mind , slavery to all these things of this world . Every man every woman standing on one's own self , knowing that the self is the basis of everything that we are experiencing and everything that being experienced is nothing but that one self -Brahman. This is the ultimate direction in which swami ji expected everyman and woman to move . become free !become free ! become free ! (41:04)
पाश्चात्य देशों की यात्रा समाप्त करके भारत वापस लौटने से पहले , स्वामी विवेकानन्द अपने अंग्रेज शिष्यों के साथ यूरोप की यात्रा पर गए थे। यूरोप में जब वेस्विट्ज़रलैंड की यात्रा में आल्प्स पर्वत की हिमाच्छादित पर्वतों को निहार रहे थे। स्वामीजी ने अपने शिष्यों से कहा , मेरी यह अभिलाषा है ! एक महान ऋषि अपनी अभिलाषा व्यक्त कर रहे हैं ? तब उस अभिलाषा को पूर्ण होना ही था। उनकी अभिलाषा क्या थी ? उन्होंने बताया मैं यह चाहता हूँ कि हमलोगों का एक आश्रम हिमालय पर्वत श्रेणी की तलहटी में भी होना चाहिए ! खुली आँखों वाला यह स्वप्न उन्होंने स्विट्ज़रलैंड के आल्प्स पर्वत को देखते हुए देखा था। तथा उनकी इच्छा थी की एक आश्रम हिमालय पर भी होना चाहिए। और वह आश्रम सिर्फ और सिर्फ अद्वैत के लिए ही समर्पित होना चाहिए। वहाँ द्वैतवादी विचारों का लेशमात्र भी प्रवेश और पालन नहीं होगा।
यह स्वामी विवेकानन्द की बहुत बड़ी दूरदर्शिता थी , और उनके अंग्रेज शिष्य कैप्टन श्री सेवियर और श्रीमती सेवियर जो स्वामीजी के साथ भारत चले आये थे, उन लोगों ने चार वर्ष के भीतर मार्च 1899 ई. में मायावती में बहुत सफलता पूर्वक अद्वैत आश्रम प्रारम्भ कर दिया। और 1901 में स्वामीजी वहाँ आये थे, और 15 दिनों तक यहाँ रहे थे। आज यह स्थान एक महान तीर्थ क्षेत्र बन गया है। मुझे इस तीर्थ क्षेत्र न कहकर और कुछ नाम देना चाहिए , क्योंकि आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ अद्वैताचार्य इस आश्रम में 15 दिनों तक ठहरे थे।
उस समय वहाँ एक रोचक घटना घटित हुई थी, आप सभी उस बात से परिचित होंगे। फिर भी उसपर चर्चा करना हम सबके लिए बड़ा आनंद दायक होगा। क्योंकि ऐसा करके हमलोगों को यह समझ में आ जायेगा कि श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द इस धरती पर अवतरित क्यों हुए थे ? श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की मूल विचारधारा (ideology) क्या थी ? हम लोग हर जगह उनके मंदिर, आरती , पूजा आदि होते देखते हैं - यह सब ठीक है , होना भी चाहिए। अपने अपने दृष्टिकोण से यह सब सत्य है। किन्तु रामकृष्ण मिशन और रामकृष्ण मठ में जिन पूजा-अनुष्ठान इत्यादि को होते हुए हुए देखते हैं , या हिन्दू सनातन धर्म में जितने मंदिर, अनुष्ठान , पूजा , यज्ञ, प्रार्थना , तीर्थ यात्रा, आदि होते हुए देखते हैं -उन सबका मूल बिन्दु (Crux), उनकी शिक्षाओं का सार (The core) क्या है ? यह सिर्फ और सिर्फ अद्वैत है। बाकि सब मंदिर ,पूजा पाठ इत्यादि उस महान लक्ष्य तक पहुँचने सोपान (stepping stones-प्रारंभिक प्रयास हैं , धर्म के किंडरगार्टन-बालविहार हैं !)
इसलिए स्वामी जी की यह बहुत तीव्र अभिलाषा थी कि एक केंद्र ऐसा होना चाहिए जहाँ सिर्फ अद्वैत और अद्वैत का ही अभ्यास किया जायेगा। और स्वामीजी जब 15 दिनों तक यहाँ ठहरे थे -एक दिन ऐसा हुआ कि स्वामीजी ने मायावती आश्रम परिसर में एक संन्यासी को देखा जिसने अपने कमरे में श्रीरामकृष्ण की एक छवि रख कर एक छोटा सा मंदिर (shrine) बना रखा था। और श्रीरामकृष्ण की छवि पर फूल , धुप , अगरबत्ती आदि से अनुष्ठानिक विधि में जैसा होता है - वैसा पूजा कर रहा था। यह देख कर स्वामी विवेकानन्द अत्याधिक अप्रसन्न हुए। उन्होंने खुले तौर से अपनी अप्रसन्नता को व्यक्त करते हुए कहा , यह अद्वैत आश्रम है। यहाँ अनुष्ठानिक पूजा नहीं की जा सकती है। स्वामी विवेकानन्द अद्वैत आश्रम के Prospectus में इन सभी बातों को का उल्लेख किया था , कि यह आश्रम सिर्फ और सिर्फ अद्वैत के लिए समर्पित है, इसके आलावा अन्य कोई साधना यहां वर्जित है।
उन संन्यासी ने वहाँ से अपने छोटे से मंदिर को तो नहीं हटाया , और सोचा की मुझे इसके बारे में श्रीश्री माँ सारदा देवी से पूछना चाहिए। उसने सोंचा की कि माँ श्री सारदा देवी उनको निश्चित रूप से समर्थन देंगी। वे भला श्रीरामकृष्ण की पूजा करने से किसी को कैसे मना करेंगी ? ऐसी आशा रखते हुए उस साधु ने माँ श्री सारदादेवी को एक पत्र लिख दिया। कि नरेंद्र इस छोटे से मंदिर को भी हटा देने का आदेश दे रहे हैं। और माँ ने उस पत्र के उत्तर में क्या लिखा ? जिस माँ श्रीश्रीसारदा देवी के ह्रदय की विशालता का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता, उसी माँ सारदादेवी ने उत्तर में लिखा - 'नरेन्द्र जो कह रहा है, वही ठीक है ! और दूसरी बात श्रीरामकृष्ण स्वयं अद्वैत हैं ! तथा हम सभी श्रीरामकृष्ण देव के शिष्य हैं, इसलिए हम सभी, और तुम सभी लोग भी अद्वैतवादी हो ! " श्रीश्री माँ के द्वारा ऐसा आदेश मिलने के बाद यह विवाद फिर सदा-सदा लिए समाप्त हो गया, कि श्रीरामकृष्णदेव की मुख्य विचारधारा (Core Ideology) क्या थी?(46:26)
11.आदिगुरु शंकराचार्यजी तो स्थापित चार मठोंस्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित 'अद्वैत आश्रम, मायावती' की विशेषता :
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन की मूल विचारधारा अद्वैत है! और उस विचारधारा में, स्वामी विवेकानंद आधुनिक समय के अद्वितीय शिक्षक थे, जिन्होंने विशेष रूप से अद्वैत वेदांत प्रशिक्षण में अभ्यास के लिए समर्पित एक आश्रम शुरू किया।
(The basic Ideology of Ramakrishna math and Ramakrishna is Advaita! and in that ideology, Swami Vivekananda was the unique teacher of the modern times, who started an Ashram exclusively dedicated to the practice of Advaita Vedanta. )
आनन्द की बात यह है कि जब और जहाँ कहीं भी अद्वैत वेदांत के विषय पर चर्चा होती है, तो वहाँ भगवान भाष्यकार श्री शंकराचार्य जी हिमालय की तरह खड़े नजर आते हैं।किन्तु उन श्री शंकराचार्य जी जैसे महान अद्वैतवादी आचार्य ने भी अलग से, सिर्फ और सिर्फ अद्वैत वेदान्त को समर्पित किसी मठ या (monastery- वानप्रस्थाश्रम) की स्थापना नहीं की। श्री शंकराचार्य ने जितने भी मठ और आश्रम स्थापित किए हैं, उन सभी मठों में हमें 'माँ शारदा' शारदाम्बा (दिव्य माँ) की पूजा देखने को मिलती है। (All the monasteries and Mutts which Sri Shankaracharya has established in all those mutts we find the worship of'Maa Sharda ' Sharadamba, Divine Mother!sringeri sharada peetham)
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द हमारी उसी महान अद्वैतवादी गुरु-शिष्य शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा की श्रेणी (league)से सम्बन्धित हैं, जिसमें समस्त गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के उद्गम-स्थान उपनिषदों से शुरू करके, पुनः भगवद गीता तक वापस आते हुए , राजा परीक्षित के गुरु शुकदेव , महान गुरु गौड़पादाचार्य, महान गुरु गोविन्दपादाचार्य,श्री शंकराचार्य और हमारे आधुनिक युग के जगतगुरु श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द !
(Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda- they belong to that league of great Advaitins, which we have in our great tradition. Going back to the source of Upanishads, coming down to Bhagavad Gita , coming down to you may say the Sukadeva, the great Gaudapadacharya , the great Govinda Padacharya, Sri Shankaracharya and in our mordern times Sri Ramakrishna and Swami Vivekananda .)
आप देखेंगे हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति , हमारी हिन्दू वैदिक सनातन अद्वैत परम्परा जो आज तक इसीलिए जारी है, क्योंकिजैसा कि मैंने पहले कहा, यह अद्वैत और सिर्फ़ अद्वैत ही वह विचारधारा है जो मानवजाति को उन सभी बीमारियों से मुक्ति दिलाने में वास्तव में सहायता कर सकती है जिनसे आज वह पीड़ित है। (48:21)
पूरी मानवता , सम्पूर्ण मानवजातिआज भीकट्टरता (fanaticism) की बीमारी , हठधर्मिता (dogmatism) का रोग, बैरभाव (hatred) और क्रूर हिंसा(violence) जैसी पुरानी बिमारियों से पीड़ित है। ऐसा क्यों है? क्योंकि हम उस एकमेवाद्वितीय एकत्व (Oneness) को भूल गए हैं, जो हम सभी का सत्य स्वरुप है, जिसमें कोई भेद नहीं है! यह अद्वैत का सिद्धान्त ही एकमात्र ऐसा सिद्धान्त है , जो समस्त मानवजाति को एक परिवार (One Human Family) बना देती है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। ]
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(महोपनिषद्,अध्याय 4, श्लोक 71)
अर्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
इसलिए एक बार फिर मैंने जहाँ से भाषण शुरू किया था , वहाँ जाना चाहूँगा। स्वामी विवेकानन्द ने अद्वैत आश्रम, मायावती के prospectus में लिखा था - "All dependence is misery and Independence is happiness. "- सर्वम् परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशम् सुखम्। -
अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना ही समस्त दुःखों का कारण है तथा आत्मा के वश में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है। जब हम 'आत्मवशम्' यानि आत्मवश या Independent-आत्मनिर्भर (देहाध्यास या नाम-रूप से मुक्त) हो जाते हैं, केवल तभी हम यह समझ सकते हैं कि सुखम्- आनन्द (Happiness-परमानन्द -सच्चिदानन्द) वास्तव में क्या 'वस्तु' है !!
और अद्वैत ही एकमात्र ऐसी प्रणाली (system) है जो स्त्री हो या पुरुष- प्रत्येक मनुष्य को उसके सत्य-स्वरूप (Real I, आत्मा , ईश्वर या ब्रह्म) में प्रतिष्ठित रखते हुए , उसे दुःख सहने करने , काम करने और जीवन में आने वाले उतार -चढ़ाव का सामना करने में साहसी (brave-निडर, अभिः) बना देता है, और अन्ततोगत्वा उसे सभी प्रकार के मिथ्या बन्धनों (तादात्म्य) से मुक्ति, आत्मानुभूति या मोक्ष की दिशा में ले जाता है!अद्वैत ही एकमात्र ऐसी प्रणाली है मोक्ष या एकत्व (absolute freedom) की अनुभूति प्रदान कर सकती है।
And the Advaita is the only system which gives unto every man complete possession of himself or herself, and makes him or her, brave to suffer, brave to act, brave to face the ups and downs of life, and ultimately walk towards the great experience of absolute freedom ! This Advaita and Advaita alone can do this Absolute freedom ! तथा स्वामी विवेकानन्द आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ अद्वैताचार्य थे हैं तथा उन्हें अद्वैताचार्य बनने के लिए उनके महान गुरु परमहंस श्रीरामकृष्ण (पुरुषोत्तम) द्वारा प्रशिक्षित किया गया था। -बहुत -बहुत धन्यवाद ! (50:11)]
'प्रबुद्ध भारत अभियान'
(An appeal to every devotee of Swami Vivekananda)
स्वामी विवेकानंद के प्रत्येक भक्त से एक अनुरोध
(50:24)
[ प्रिय भक्तवृन्द ,
हमें यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि 'प्रबुद्ध भारत' ('Awakened India !' अर्थात अपने आत्म-स्वरूप में जागृत भारत।) अपने प्रकाशन के 125 वें वर्ष में प्रवेश कर चुकी है। आप सभी जानते हैं कि प्रबुद्ध भारत रामकृष्ण ऑर्डर (अर्थात रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन) द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित मासिक पत्रिका है। इसका प्रकाशन अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा किया जाता है , जिसकी स्थापना स्वयं स्वामी विवेकानंद ने 1896 में की थी।
यह भारत का विगत 125 वर्षों से निरंतर प्रकाशित होते रहने वाला आध्यात्मिक और सांस्कृतिक प्रकाशन है, जिसमें संन्यासियों , विद्वानों तथा लेखकों द्वारा अद्वैत वेदांत, दर्शन, धर्म, संस्कृति और सामाजिक सौहार्द विकसित करने पर जोर दिया जाता है। अद्वैत आश्रम द्वारा प्रकाशित, इस मासिक पत्रिका का उद्देश्य आध्यात्मिक दृष्टि और अद्वैत संस्कृति को फैलाना है, जिसमें सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण हेतु अन्य पुस्तकों से ज्ञानवर्धक निबंध और समीक्षा सम्मिलित किये जाते हैं।
Swami ji started this magazine to bring out the universal, scientific , spiritual wisdom hidden in the Vedas, and in order to make this spiritual wisdom popular not only in India but all over the world .And Swami Vivekananda very strongly believed that it is in and through this spreading of the spiritual wisdom that India can be awakened and the entire world can be awakened .And Prabuddha Bharat the last 125 years has been silently doing this work in a commendable fashion .The spiritual articles published in Prabuddha Bharata has impacted the thinking class of people all over the world and it has resulted in a silent awakening, But we have yet a very long way to go .We need to promote this journey, we need to get more subscribers , and in order to promote this journal initiated this Prabuddha Bharata Campaign-a program which is essentially meant for promoting this journal . Now what is this Prabuddha Bharata Campaign ?
स्वामी विवेकानन्द ने इस 'प्रबुद्ध भारत' पत्रिका का प्रकाशन शुरू क्यों किया था ? स्वामी जी ने इस अंग्रेजी मासिक पत्रिका का प्रकाशन वेदों -उपनिषदों में छिपे हुए सार्वभौमिक, वैज्ञानिक, आध्यात्मिक ज्ञान राशि को न केवल भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व के सामने लाने और उसे लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से किया था। और स्वामी विवेकानन्द को यह दृढ़ विश्वास था कि केवल आध्यात्मिक ज्ञान (अद्वैत वेदान्त, आत्मश्रद्धा या आत्मज्ञान) के प्रचार-प्रसार से ही मोहनिद्रा में लीन भारत को तथा सम्पूर्ण विश्व को जाग्रत किया जा सकता है। तथा 'प्रबुद्ध भारत' इसी कार्य को विगत 125 वर्षों से चुपचाप और प्रशंसनीय तरीके से करता चला आ रहा है।प्रबुद्ध भारत में प्रकाशित आध्यात्मिक रचनाओं और निबन्धों ने विश्व में हर जगह के चिन्तनशील विचारकों को प्रभावित किया है, और इससे मानव-समाज में एक निःशब्द जागृति (silent awakening) आई है , लेकिन अभी हमें बहुत लंबा रास्ता तय करना है। हमें इस पत्रिका और लोकप्रिय बनाने और उसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए और अधिक ग्राहक (subscribers) चाहिए। और इस पत्रिका को विशेष रूप से प्रोत्साहित करने के लिए हमने प्रबुद्ध भारत अभियान' (Prabuddha Bharata Campaign) नामक एक एक विशेष समरनीति बनाई है। अब यह प्रबुद्ध भारत अभियान है क्या चीज? (52:20)
Prabuddha Bharat Campaign :
In and through this campaign all that you need to do is , Bring five new subscribers for Prabuddha Bharata, that will be an act of great contribution from your side an act of great Punya, a very meritorious act. in and through which you will be helping Prabuddha Bharat grow and also helping fulfilling Swami Vivekananda's vision of spreading the spiritual message all over the world , and also in India .So we honestly appeal every follower , every devotee, every admirer of Swami Vivekananda to come forward and participate in this Prabuddha Bharat campaign and bring 5 new subscribers for the Prabuddha Bharata grow. Thank you !
इस अभियान में आपको (श्रीरामकृष्ण- स्वामी विवेकानंद वेदान्त भावधारा के सभी अनुयायिओं को) केवल इतना सहयोग करना है कि अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा प्रकाशित 'प्रबुद्ध भारत' मासिक अंग्रेजी पत्रिका के लिए पाँच नए ग्राहक बनायें। ऐसा करना 'प्रबुद्ध भारत अभियान' द्वारा 'Be and Make' (मनुष्य बनो और बनाओ) आन्दोलन का प्रचार -प्रसार करने में आपकी तरफ से एक बहुत बड़ा योगदान होगा, एक बहुत बड़ा पुण्य का काम होगा, एक बहुत ही मानव-कल्याणकारी काम होगा। जिसके माध्यम से आप " प्रबुद्ध भारत " को आगे बढ़ने में सहायता करे सकेंग और साथ ही स्वामी विवेकानंद के दुनिया भर में और भारत में अद्वैत वेदांत के विचारधारा फैलाने के स्वप्न को साकार करने में भी सहायता कर सकेंगे। अतएव , हम स्वामी विवेकानन्द के प्रत्येक अनुयायी, प्रत्येक भक्त , प्रत्येक प्रेमी से ईमानदारी से आग्रह करते हैं कि वे आगे आएं और इस प्रबुद्ध भारत अभियान में हिस्सा लें और प्रबुद्ध भारत को आगे बढ़ाने के लिए 5 नए ग्राहक बनायें । बहुत -बहुत धन्यवाद! (53:26)
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[चरित्र के गुण 15 : आत्मनिर्भरता (Self-reliance) :
मनुष्य का जीवन-गठन या चरित्र-निर्माण हो जाने पर वह स्व-निर्भर हो जाता है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे - " यथार्थ शिक्षा (शीक्षा-वल्ली) प्राप्त करने से मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जाता है। " यहाँ पैरों पर खड़ा होने का क्या अर्थ है ? क्या केवल इतना ही कि पैरों के ऊपर अपने शरीर का पूरा भार डालकर खड़े हो जाना ? नहीं, इसका अर्थ है, नित्य-अनित्य विवेक की सहायता से जीवन लक्ष्य (सत्यं-आत्मा या ईश्वर लाभ या आत्मज्ञान) निर्धारित कर (जगत मिथ्या से मुँह मोड़कर)उसी दिशा (सत्यम दिशा-जीव ब्रह्मवै इदं सर्वं) में अग्रसर रहने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना, जीवन को सार्थक बनाने की क्षमता प्राप्त कर लेना।
मनुष्य जैसे-जैसे आत्मनिर्भर होता चला है, उसके दुःख-भोग की संभावना भी उतनी ही कम होती जाती है। हम जितना अधिक दूसरों पर निर्भर रहेंगे, अपेक्षाएँ पूरी न होने पर दुःख पाने की संभावना भी उतनी ही बनी रहेगी। मनु महाराज ने बड़े ही सुंदर ढंग से सुख और दुःख का लक्षण बताया है -
सर्वम्परवशं दुःखं सर्वम् आत्मवशम् सुखम्।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
-अर्थात परवश या दूसरों पर निर्भर रहना (आदम- हव्वा नाम- रूप पर निर्भर रहना) ही समस्त दुःखों का कारण है तथा आत्मवश (आत्मा के वश)में रहना या आत्म-निर्भरता ही समस्त सुखों का मूल है।संक्षेप में, सुख और दुःख के लक्षण भी यही हैं।
जिस व्यक्ति में स्पष्ट धारणा#, दृढ़ संकल्प आदि सद्गुण हों उसको कभी भी परवश नहीं रहना पड़ता। इसलिए उसके दुःखी होने के बजाय सुखी होने की आशा अधिक रहती है। क्योंकि यही सब गुण उसको आत्मनिर्भरता के गुण से भी अलंकृत कर देते हैं। ]
[#नित्य-अनित्य विवेकज> स्पष्टधारणा।] जिस व्यक्ति में मनुष्य जीवन का उद्देश्य और तदप्राप्ति उपाय नित्य-अनित्य विवेकज स्पष्टधारणा जन्य 'ब्रह्म और जगत' का समीकरण, सत्य और मिथ्या, जादू और जादूगर की पृथकता में बुद्धि की स्पष्ट धारणा याअद्वैत दृष्टि जब जाग्रत हो जाती है, तो उसकी भेद-दृष्टि चली जाती है।लेकिन इसभेद-दृष्टि चले जाने का अर्थ क्या है? क्या ब्रह्मज्ञानी को अपने'गुरुदेव' और 'इष्टदेव' को पहचानने की बुद्धि तथा - हाथी और गधा को पहचानने की बुद्धि भी नष्ट हो जाती है ?(अर्थात मनुष्य-पशु को ढोंगी-साधु और सच्चा-साधु, हाथी -महावत को अलग करके पहचानने की विवेक सम्पन्न बुद्धि भी नष्ट हो जाती है ?) बिल्कुल नहीं। बल्कि स्पष्ट-धारणा जन्य अद्वैत दृष्टि जाग्रत हो होते ही उस व्यक्ति में -आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, सामान्य बुद्धि, अविचलता, धैर्य, आत्मसंयम, सहनशीलता, उद्यम, अध्यवसाय, दृढ़ संकल्प, अनुशासन, सत्य निष्ठा, साहस, निःस्वार्थपरता, ईमानदारी, शिष्टाचार, स्वच्छता, समयनिष्ठा, उपयोग बुद्धि, सेवापरायणता, सहानुभूति, विश्वसनीयता' आदि चरित्र के 24 गुण अभिव्यक्त होने लगते हैं !