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Tuesday, March 25, 2025

⚜️🔱नरेन्द्र की श्रेष्ठता ⚜️🔱" श्री रामकृष्ण वचनामृत *श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द)**(अमरीका और यूरोप में विवेकानन्द) 1.धन्य है वह गुरुभक्ति ! 2.⚜️🔱 ☀नरेन्द्र द्वारा श्रीरामकृष्ण का प्रचारकार्य☀"बड़े बाबू के साथ परिचय आवश्यक है! 3.⚜️🔱 श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र और सर्वधर्मसमन्वय 4 .⚜️🔱 श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र, कर्मयोग और स्वदेश-प्रेम 5. ⚜️🔱 ईश्वर साकार हैं या निराकार ? 6.⚜️🔱 श्रीरामकृष्ण और पापवाद 7.⚜️🔱 कामिनीकांचन-त्याग - संन्यास 8. ⚜️🔱 कर्मयोग और दरिद्रनारायण-सेवा -9.⚜️🔱 स्त्रियों को लेकर साधना (वामाचार) के सम्बन्ध में श्रीरामकृष्ण और स्वामीजी के उपदेश ⚜️🔱10.⚜️🔱 श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द व अवतारवाद

 श्री रामकृष्ण वचनामृत :

(ख) 

परिच्छेद १

*श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द)*

(अमरीका और यूरोप में विवेकानन्द)

Vivekananda in America and in Europe 

(१)

 ⚜️🔱नरेन्द्र की श्रेष्ठता ⚜️🔱

Great qualities of Narendra – ‘a prince among men’ 

आज रथयात्रा का दूसरा दिन है, १८८५ ई., आषाढ़ संक्रान्ति । भगवान श्रीरामकृष्ण प्रातःकाल बलराम के घर में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । नरेन्द्र की महानता बतला रहे हैं

It is the day following the Rathayatra, 1885, Sankranti of the month of Ashada. This morning Bhagavan Sri Ramakrishna is sitting with the devotees in Balaram’s house talking about Narendra’s (Swami Vivekananda’s) great qualities. 

"नरेन्द्र आध्यात्मिकता में बहुत ऊँचा है, निराकार का घर है, उसमें पुरुष की सत्ता है । इतने भक्त आ रहे हैं, पर उनमें उसकी तरह एक भी नहीं ।

“Narendra belongs to a very high plane – the realm of the Absolute. He has a manly nature. Many devotees come here, but none can equal him. 

"कभी कभी मैं बैठा-बैठा हिसाब करता हूँ तो देखता हूँ कि पद्मों में कोई दशदल है तो कोई षोड़शदल और कोई शतदल, परन्तु नरेन्द्र सहस्रदल है ।

“Now and then I sit down and consider the devotees. They are like lotuses: some with ten petals, others with sixteen petals and some others with a hundred petals. But among lotuses Narendra is a thousand-petalled lotus. 

"अन्य लोग घड़ा, लोटा ये सब हो सकते हैं, परन्तु नरेन्द्र एक बड़ा मटका है ।

“The others may be a brass pot or a jug – but Narendra is a barrel. 

"तालाबों की तुलना में नरेन्द्र सरोवर है ।

“Compared to ponds and tanks, Narendra is a big lake like the Haldarpukur. 

"मछलियों में नरेन्द्र लाल आँखवाला रोहित मछली है, बाकी सब छोटी-मोटी मछलियाँ हैं ।

“Among fish, he is a big red-eyed carp. Others are different kinds of small fish – minnows and other small fish.1 

"वह बड़ा पात्र है - उसमें अनके चीजें समा जाती है । वह बड़ा सूराखवाला बाँस है ।

“He is a very large container – he can hold many things. He is a bamboo with a big space inside. 

"नरेन्द्र किसी के वशीभूत नहीं है । वह आसक्ति, इन्द्रियसुख के वश में नहीं है । वह नर कबूतर है । नर कबूतर की चोंच पकड़ने पर वह चोंच को खींचकर छुड़ा लेता है । पर स्त्री कबूतर चुप होकर बैठी रहती है।"

“Narendra is not under the control of anything. He is above attachment and sense enjoyments. He is a male pigeon. If you hold a male pigeon’s beak, it will pull it back – a female pigeon doesn’t resist.” 

पहले ईश्वर को पहचानो - जब तुम्हें आज्ञा मिले तो तुम उपदेश दे सकते हो

First realize God – 

when you receive  the commandment

 you may preach ! 

तीन वर्ष पहले (१८८२ ई. में) नरेन्द्र अपने एक ब्राह्म मित्र के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये थे । रात को वे वहीं रहे थे । सबेरा होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, "जाओ, पंचवटी में ध्यान करो ।" थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जाकर देखा था, वे मित्रों के साथ पंचवटी के नीचे ध्यान कर रहे हैं । ध्यान के बाद श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था, "देखो, ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है

Three years ago, in 1882, Narendra came to visit Sri Ramakrishna at Dakshineswar with a couple of Brahmo friends. He stayed there for the night. At dawn, Thakur said, “Go and meditate in the Panchavati.” A short time later, Thakur went there and saw that Narendra was meditating with his friends at the foot of the Panchavati. When the meditation was over, Thakur said to him, “Look, the aim of life is to realize God. You should meditate and think on Him privately in a solitary spot and with a yearning heart. And you should pray and weep, saying, ‘Lord, reveal Thyself to me!’” 

व्याकुल होकर एकान्त में गुप्त रूप से उनका ध्यान-चिन्तन करना चाहिए और रो-रोकर प्रार्थना करनी चाहिए, 'प्रभो, मुझे दर्शन दो ।' " ब्राह्म-समाज तथा दूसरे धर्मवालों के लोकहितकर कर्म तथा स्त्री-शिक्षा, स्कूलों की स्थापना एवं भाषण आदि के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, "पहले ईश्वर का दर्शन करो । निराकार साकार दोनों का ही दर्शन । जो वाणी-मन से परे हैं, वे ही भक्त के लिए देहधारण करके दर्शन देते हैं और बात करते हैं । दर्शन के बाद, उनका निर्देश लेकर लोकहितकर कार्य करने चाहिए ।  एक गाने में है - 'मन्दिर में देवता की स्थापना तो हुई नहीं, और पोदो(बुद्ध) केवल शंख बजा रहा है, मानो आरती हो रही हो । इसलिए कोई कोई उसे धिक्कारते हुए कह रहे हैं - अरे पोदो, तेरे मन्दिर में माधव तो है नहीं और तूने खाली शंख बजा-बजाकर इतना ढोंग रच रखा है ! उसमें तो ग्यारह चमगीदड़ रातदिन निवास करते हैं ।'

About the welfare work of the Brahmo Samaj and other religious sects – like the education of women, establishing schools and lecturing – hesaid, “First realize God, both the formless God and God with form. He who is beyond speech and mind assumes a form for the sake of devotees – appears and talks to them. After attaining His vision and getting His commandment, then one should take to humanitarian work. It is said in a song: No deity has been installed in the temple, yet Podo blows a conchshell as if arati is being performed. So somebody scolds him, saying: 

"यदि हृदयरूपी मन्दिर में माधव की स्थापना करना चाहते हो, यदि भगवान को प्राप्त करना चाहते हो तो केवल भों-भों करके शंख बजाने से क्या होगा ? पहले चित्त को शुद्ध करो । मन (अहं) शुद्ध होने पर (दासोऽहं -होनेपर) भगवान पवित्र आसन पर आकर बैठेंगे । चमगीदड़ की विष्ठा रहने पर माधव को लाया नहीं जा सकता। ग्यारह चमगीदड़ अर्थात् ग्यारह इन्द्रियाँ

O Podo, Madhava has not been installed in your temple. You have unnecessarily created confusion by blowing the conch. Eleven bats live here day and night.  “If you wish to install Madhava in the temple of your heart, if you wish to realize God, what is the use of only blowing the conch shell? Purify your heart first. When the heart is purified [कच्चा मैं-(अहं) के पक्का मैं (दासोऽहं  बन जाने के बाद), the Lord will come and sit upon the pure seat. When there are bat droppings, Madhava cannot be brought here. The eleven bats are the eleven sense organs. 

"पहले डुबकी लगाओ । डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम । पहले माधव की स्थापना करो, उसके बाद चाहो तो व्याख्यान देना ।

“First dive deep. Dive and pick up the jewels. Other work will come later. First install Madhava. Then if you feel like it, you can deliver lectures.

"कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता । साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे 'लेक्चर' देने !

“Nobody likes to dive. No one practices spiritual disciplines – devotion is missing, discrimination and non-attachment are absent. After learning a few words, people start lecturing. 

लोगों को सिखाना कठिन काम है । भगवान के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश -प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है "

“It’s difficult to teach people. If someone receives His command after realizing God, only then can he instruct.” 

*धन्य है वह गुरुभक्ति* 

१८८४ ई. की रथयात्रा के दिन कलकत्ते में श्रीरामकृष्णदेव के साथ पण्डित शशधर का साक्षात्कार हुआ । नरेन्द्र वहाँ पर उपस्थित थे । श्रीरामकृष्ण ने पण्डितजी से कहा, "तुम जनता के कल्याण के लिए भाषण दे रहे हो, सो भली बात है । परन्तु भाई, भगवान के निर्देश के बिना लोकशिक्षा नहीं होती । होगा यह कि लोग दो दिन तुम्हारा भाषण सुनेंगे, उसके बाद भूल जायेंगे

हलदारपुकुर के किनारे पर लोग शौच को जाते थे । लोग गाली-गलौज करते थे, परन्तु कुछ परिणाम न हुआ । अन्त में सरकार ने जब एक नोटिस लगा दिया, तब कहीं लोगों का वहाँ पर शौच जाना बन्द हुआ । इसी प्रकार ईश्वर का आदेश पाये बिना लोक-शिक्षा नहीं होती ।"

इसलिए नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार (में आसक्ति) छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी । उसके बाद उन्हीं की शक्ति से शक्तिशाली बनकर, इस लोकशिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था । 

काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई.) श्रीरामकृष्ण रुग्ण थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, "नरेन्द्र शिक्षा देगा ।"

स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका से मद्रास-निवासियों को जो पत्र लिखा था, उनमें उन्होंने लिखा था कि वे श्रीरामकृष्ण के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता समग्र जगत् को सुना रहे हैं

"... जिनका सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उनके अत्यन्त तुच्छ और अयोग्य सेवक को मिला है, उनके प्रति आपका आदरभाव सचमुच अपूर्व है । यह आपकी जन्मजात धार्मिक प्रवृत्ति है, जिसके कारण आप उनमें और उनके सन्देश में आध्यात्मिकता के उस प्रबल तरंग की प्रथम हलचल का अनुभव कर रहे हैं, जो निकट भविष्य में सारे भारतवर्ष पर अपनी सम्पूर्ण अबाध्य शक्ति के साथ अवश्यमेव आघात करेगा ।..."

- 'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्धृत

मद्रास में दिये गये तीसरे व्याख्यान में उन्होंने कहा था, -

      "... इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का (श्रीरामकृष्ण का) वाक्य है; पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिए हितकारी न हो तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिए पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ ।"

- 'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत

     कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि 'श्रीरामकृष्णदेव की शक्ति आज पृथ्वी भर में व्याप्त है । हे भारतवासियों, तुम लोग उनका चिन्तन करो, तभी सब विषयों में उन्नति करोगे ।' उन्होंने कहा –

       "... यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम से सभी को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिए श्रीरामकृष्णदेव का प्रचार हम, तुम या चाहे जो कोई करे, इससे कुछ होना जाना नहीं, तुम्हारे सामने में इस महान् आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, लो, अब विचार का भार तुम पर है । इस महान् आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपनी जाति के कल्याण के लिए अभी कर डालना चाहिए । ..."

"... उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार घेर लिया है ...। मुझे देखकर उनका विचार न करना । मैं एक बहुत ही क्षुद्र यन्त्र मात्र हूँ । उनके चरित का विचार मुझे देखकर न करना । वे इतने बड़े थे कि मैं, या उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जीवनों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा । ..."

-'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत

गुरुदेव की बात कहते कहते स्वामी विवेकानन्द एकदम पागल-से हो जाया करते थे । धन्य है वह गुरुभक्ति !

(२)

नरेन्द्र द्वारा श्रीरामकृष्ण का प्रचारकार्य☀

श्रीरामकृष्णदेव के उस सार्वभौमिक सनातन हिन्दू धर्म का स्वामीजी ने किस प्रकार प्रचार करने की चेष्टा की थी, उसकी यहाँ पर हम थोड़ीसी चर्चा करेंगे ।

*ईश्वर-दर्शन*

     श्रीरामकृष्ण की पहली बात यह है कि ईश्वर का दर्शन करना होगा । कुछ मन्त्र या श्लोकों को कण्ठस्थ कर लेने का ही नाम धर्म नहीं है । भक्त यदि व्याकुल होकर उन्हें पुकारे, तभी ईश्वरदर्शन होता है । चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में । उनके एक दिन के वार्तालाप की हमें याद आ रही है । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में वार्तालाप हो रहा था । रविवार, २६ अक्टूबर १८८४ ई.।

      श्रीरामकृष्णदेव काशीपुर के महिमाचरण चक्रवर्ती तथा अन्य भक्तों से कह रहे थे - "शास्त्र कितने पढ़ोगे ? केवल विचार करने से क्या होगा ? पहले उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करो । पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे ? जब तक बाजार में नहीं पहुँचते तब तक दूर से केवल हो-हो शब्द सुनायी देता है ।बाजार के पास पहुँचने पर कुछ दूसरा शब्द सुनायी पड़ेगा, और अन्त में बाजार के भीतर पहुँचकर साफ साफ देख सकोगे, सुन सकोगे 'आलू लो, पैसा दो ।'

     "खाली पुस्तकें पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता । पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अंतर है । ईश्वर-दर्शन के बाद शास्त्र, विज्ञान आदि सब कूड़ा-कर्कट जैसे लगते हैं ।

      "बड़े बाबू के साथ परिचय आवश्यक है । उनके कितने मकान, कितने बगीचे, कितने कम्पनी के कागज हैं - यह सब पहले से ही जानने के लिए इतने व्यग्र क्यों हो ? चाहे धक्का खाकर या दीवाल फाँदकर ही सही, किसी न किसी तरह बड़े मालिक के साथ एक बार परिचय तो कर लो, तब यदि इच्छा होगी, तो वे ही कह देंगे कि उनके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी के कितने कागज हैं । मालिक के साथ परिचय होने पर फिर नौकर-चाकर, द्वारपाल सभी लोग सलाम करेंगे ।"(सभी हँसे)

एक भक्त - बड़े मालिक के साथ परिचय कैसे होता है ?

श्रीरामकृष्ण - उसके लिए कर्म चाहिए - साधना चाहिए । 'ईश्वर हैं' इतना कहकर बैठे रहने से काम न चलेगा । उनके पास जाना होगा । निर्जन में उन्हें पुकारो, यह कहकर प्रार्थना करो, 'हे प्रभो! दर्शन दो ।' व्याकुल होकर रोओ । कामिनी-कांचन के लिए जब पागल होकर घूम सकते हो तो उनके लिए भी जरा पागल बनो । लोगों को कहने दो कि अमुक- (फलवना तो) ईश्वर के लिए पागल हो गया । कुछ दिन सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो । केवल 'वे हैं' यह कहकर बैठे रहने से क्या होगा ? हालदारपुकुर में बड़ी-बड़ी मछलियाँ हैं । तालाब के किनारे पर केवल बैठे रहने से ही क्या मिल सकती हैं ? खुराक डालो । धीरे धीरे गहरे जल से मछलियाँ आयेंगी और जल हिलेगा । उस समय आनन्द आयगा । सम्भव है, मछली का कुछ अंश एक बार दिखायी भी दे और मछली को छलाँग मारते हुए भी देखो। जब उसको प्रत्यक्ष देखा तो और भी आनन्द !

ठीक यही बात स्वामीजी ने शिकागो-धर्मसभा के सम्मुख कही है (अर्थात् धर्म का उद्देश्य है ईश्वर को प्राप्त करना, उनका दर्शन करना) –

"हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में समय बिताना नहीं चाहता ।... वह ईश्वर का साक्षात्कार कर लेना चाहता है; कारण, ईश्वर के केवल प्रत्यक्ष दर्शन से ही समस्त शंकाएँ दूर हो सकती है ।अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देते हैं कि 'मैंने आत्मा का दर्शन किया है, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है ।' .... हिन्दुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य केवल एक ही है और वह है सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, देवता बन जाना, ईश्वर के निकट पहुँचकर उनका दर्शन करना । और इस प्रकार ईश्वरसान्निध्य को प्राप्त कर उनका दर्शन कर लेना, उन्हीं 'स्वर्गस्थ पिता' के समान पूर्ण हो जाना - यही असल में हिन्दू धर्म है ।"

 -('हिन्दू धर्म पर निबंध' से उद्धृत।) 

      अमरीका के अनेक स्थानों में स्वामीजी ने भाषण दिया और सभी स्थानों में उन्होंने यही एक बात कही । हार्टफोर्ड (Hartford) नामक स्थान में उन्होंने कहा था –

       "... जो दूसरी बात मैं तुम्हे बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों या मतवादों में नहीं है । ... सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है - आत्मा में परमात्मा की अनुभूति । यही एक सार्वभौमिक धर्म है । समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना । परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केन्द्रीय भाव है । सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती है, और यह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार - इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन उड़ते छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे वर्तमान किसी सत्ता की अनुभूति । समस्त ग्रन्थों और धर्ममतों के अतीत, इस जगत् की असारता से परे वह [अविनाशी सच्चिदानन्द]  विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष-अनुभूति होती है । कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रन्थों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बप्तिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर दर्शन (या आत्मसाक्षात्कार) न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूँगा । .."

[विवेकानन्द साहित्य खण्ड, खंड- २, "आत्मा, ईश्वर और धर्म।" पृष्ठ-234 )   "मानवमात्र के लिए स्नेह और आशीर्वाद (दया) ही सच्ची धार्मिकता की पहचान है। मेरा मतलब उस भावुकता-पूर्ण कथन से नहीं है है कि  -'सभी मनुष्य भाई भाई हैं'- बल्कि मनुष्य मात्र में अंतर्निहित दिव्यता की एकत्वानुभूति (Inherent Divinity of Oneness) की अनिवार्यता से है। मैं समझता हूँ कि जब तक कोई सम्प्रदाय किसी दूसरे को अस्वीकार नहीं करते सभी मत एवं सम्प्रदाय मेरे अपने हैं, और सभी भव्य हैं। वे सभी मनुष्य को सच्चे धर्म की ओर उन्मुख करने में सहायक होते हैं। " [The end of all religions is the realization of God in the soul. That is the one universal religion. If there is one universal truth in all religions, I place it here — in realizing God;  something behind this world of sense, this world of eternal eating and drinking and talking nonsense, this world of false shadows and selfishness. There is that beyond all books, beyond all creeds, beyond the vanities of this world and it is the realization of God within yourself.......... Love and charity for the whole human race, that is the test of true religiousness. I do not mean the sentimental statement that all men are brothers, but that one must feel the oneness of human life. So far as they are not exclusive, I see that the sects and creeds are all mine; they are all grand. They are all helping men towards the real religion. (Soul, God And Religion' Vol: 1)  

स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है –

          " .... सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आत्मदर्शन किया था, अपने अमरत्व (eternity) का सभी को ज्ञान हुआ था, सबने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं । भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है, वह यह है कि " इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं। जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे,  बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा ।" (...The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternityand what they saw they preached.)

मैं इस बात को पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ । यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि-कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी । समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम हैएक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है । ..." (राजयोग , अवतरणिका-३६-३७)

[The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternity, and what they saw they preached. Only there is this difference that by most of these religions especially in modern times, a peculiar claim is made, namely, that these experiences are impossible at the present day; they were only possible with a few men, who were the first founders of the religions that subsequently bore their names. At the present time these experiences have become obsolete, and, therefore, we have now to take religion on belief. This I entirely deny. If there has been one experience in this world in any particular branch of knowledge, it absolutely follows that that experience has been possible millions of times before, and will be repeated eternally. Uniformity is the rigorous law of nature; what once happened can happen always.( Volume 1, Raja-Yoga, Introductory.

     स्वामीजी ने न्यूयार्क में ९ जनवरी १८९६ ई. को 'सार्वभौमिक धर्म का आदर्श' (The ideal of universal religion) नामक विषय पर एक भाषण दिया था - अर्थात्‌ जिस धर्म में ज्ञानी, भक्त, योगी या कर्मी सभी सम्मिलित हो सकते हैं। भाषण समाप्त करते समय उन्होंने कहा कि ईश्वर का दर्शन ही सब धर्मो का उद्देश्य है, - ज्ञान, कर्म, भक्ति ये सब विभिन्न पथ तथा उपाय हैं, परन्तु गन्तव्य स्थान एक ही है और वह है ईश्वर का सक्षात्कार। स्वामीजी ने कहा -

    "....इन सब विभिन्न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके सम्बन्ध मे जल्पना-कल्पना करने से कुछ न होगा। 'श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:।' पहले उनके सम्बन्ध मे सुनना पड़ेगा - फिर श्रुत विषयो पर चिन्ता करनी होगी ...। इसके बाद उनका ध्यान और उपलब्धि करनी पडेगी - जब तक कि हमारा समस्त जीवन तदभाव भावित न हो उठे। तब धर्म हमारे लिए केवल कतिपय धारणा, मतवादसमष्टि अथवा कल्पना रूप ही नही रहेगा। भ्रमात्मक ख्याल से आज हम अनेक मूर्खताओ को सत्य समझकर ग्रहण करके कल ही शायद सम्पूर्ण मत परिवर्तन कर सकते है, पर यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नही होता। धर्म अनुभूति की वस्तु है - वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्ति-मूलक कल्पना मात्र नही है - चाहे वह जितना ही सुन्दर हो; वह केवल सुनने या मान लेने की चीज नही है। आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार करना - यही धर्म है।.....' 

- 'धर्मरहस्य' से उद्धृत

      मद्रासियों के पास उन्होने जो पत्र लिखा था, उसमें भी वही बात थी, - हिन्दू धर्म की विशेषता है ईश्वर-दर्शन, - वेद का मुख्य उद्देश्य है ईश्वर दर्शन - “..... , हिन्दू धर्म मे एक भाव संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द-समूह को नि:शेष कर डाला है। वह भाव यह है कि मनुष्य को इसी जीवन मे ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी ...। इस प्रकार, द्वैतवादियों के मतानुसार ब्रह्म की उपलब्धि करना, ईश्वर का साक्षा-त्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म हो जाना '- यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है ...'' 

_ 'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्धृत।  

    स्वामीजी ने २९ अक्टूबर, सन्‌ १९९६ में लन्दन मे भाषण दिया था, विषय था- 'ईश्वर-दर्शन' (Realization)। इस भाषण में उन्होंने  कठोपनिषद्‌ का उल्लेख कर नचिकेता की कथा सुनायी थी। नचिकेता ईश्वर का दर्शन करना चाहते थे। धर्मराज यम ने कहा, “भाई, यदि ईश्वर को जानना चाहते हो, देखना चाहते हो, तो भोगासक्ति को त्यागना होगा। भोग रहते योग नहीं होता, अवस्तु से प्रेम करने पर वस्तु की प्राप्ति नहीं होती।”स्वामीजी ने कहा था -

      “ .. हम सभी नास्तिक हैं , परन्तु जो व्यक्ति उसे स्पष्ट स्वीकार करता है, उससे हम विवाद करने को प्रस्तुत होते हैं। हम लोग सभी अन्धकार मे पड़े हुए हैं । धर्म हम लोगो के समीप मानो कुछ नही है, केवल विचारलब्ध कुछ मतों का अनुमोदन मात्र है, केवल मुँह की बात है - अमुक व्यक्ति खूब अच्छी तरह से बोल सकता है, अमुक व्यक्ति नही बोल सकता ...। आत्मा की जब यह प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म आरम्भ होगा। उसी समय तुम धार्मिक होगे ...। उसी समय प्रकृत विश्वास का - आस्तिकता का - उदय होगा। ..... ”

 - 'ज्ञानयोग' से उद्धृत 

(३)

श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र और सर्वधर्मसमन्वय

    नरेन्द्र तथा अन्य बुद्धिमान युवकगण श्रीरामकृष्णदेव की सभी धर्मों पर श्रद्धा और प्रेम को देख बड़े प्रसन्न तथा आश्चर्यचकित हुए थे। 'सभी धर्मो में सत्य हैं' - यह बात श्रीरामकृष्णदेव मुक्त कण्ठ से कहते थे, और वे यह भी कहा करते थे कि सभी धर्म सत्य हैं - अर्थात्‌ प्रत्येक धर्म के द्वारा ईश्वर के निकट पहुँचा जा सकता है। एक दिन २७ अक्टूबर १८८२ ई. को कार्तिकी पूर्णिमा की कोजागरी लक्ष्मीपूजा के दिन केशवचन्द्र सेन स्टीमर लेकर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण को देखने गये थे और उन्हें स्टीमर में लेकर कलकत्ता लौटे थे। रास्ते में स्टीमर पर अनेक विषयों पर चर्चा हुई थी। ठीक ये ही बातें १३ अगस्त को (अर्थात्‌ कुछ मास पूर्व) भी हुईं थीं। सर्वधर्मसमन्वय की ये बातें हम अपनी डायरी से उद्धृत करते हैं। -

       १३ अगस्त १८८२। आज श्री केदारनाथ चटर्जी ने दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में महोत्सव किया है। उत्सव के बाद, दिन के ३-४ बजे के समय दक्षिणवाले दालान में वे श्रीरामकृष्ण के साथ वार्तालाप कर रहे हैं।

    श्रीरामकृष्ण - (भक्तों के प्रति) -- जितने मत उतने पथ। सभी धर्म सत्य हैं - जिस प्रकार कालीघाट में अनेक पथों से जाया जाता है। धर्म ही ईश्वर नहीं है। भिन्न भिन्न धर्मो का सहारा लेकर ईश्वर के पास जाया जाता है। 

       “नदियाँ भिन्न भिन्न दिशाओं से आती हैं, परन्तु सभी समुद्र में जा गिरती हैं। वहाँ पर सभी एक हैं।

       “छत पर अनेक उपायों से जाया जा सकता है। पक्की सीढ़ी, लकड़ी की सीढ़ी, टेढ़ी सीढ़ी और केवल एक रस्सी के सहारे भी जाया जा सकता है। परन्तु जाते समय एक ही उपाय का सहारा लेकर जाना पड़ता है - दो-तीन अलग अलग सीढ़ियों पर पैर रखने से ऊपर नहीं जा सकते। लेकिन छत पर पहुँच जाने के बाद भी सभी प्रकार की सीढ़ियों के सहारे उतर-चढ़ सकते हैं।

       “इसीलिए पहले एक धर्म का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर की प्राप्ति होने पर वही व्यक्ति सभी धर्म-पथों से आना-जाना कर सकता है। जब हिन्दुओं के बीच में रहता है तब लोग उसे हिन्दू मानते हैं ; जब मुसलमानों के साथ रहता है तो लोग मुसलमान मानते हैं और फिर जब ईसाइयों के साथ रहता है, तो सभी लोग समझते हैं कि शायद वे ईसाई हैं।

 “इसीलिए पहले एक धर्म का सहारा लेना पड़ता है। ईश्वर की प्राप्ति होने पर वही व्यक्ति सभी धर्म-पथों से आना-जाना कर सकता है। जब हिन्दुओं के बीच में रहता है तब लोग उसे हिन्दू मानते है; जब मुसलमानों के साथ रहता है तो लोग मुसलमान मानते है और फिर जब ईसाइयों के साथ रहता है, तो सभी लोग समझते हैं कि शायद वे ईसाई हैं।

     “सभी धर्मों के लोग एक ही को पुकार रहे हैं। कोई कहता है ईश्वर, कोई राम, कोई हरि, कोई अल्लाह, कोई ब्रह्म - नाम अलग अलग हैं, परन्तु वस्तु एक ही है।

 “एक तालाब में चार घाट हैं। एक घाट में हिन्दू जल पी रहे हैं, वे कह रहे है 'जल'; दूसरे घाट मे मुसलमान कह रहे है 'पानी', तीसरे घाट मे ईसाई, कह रहे है, 'वाटर' (Water), चौथे घाट मे कुछ आदमी कह रहे है 'अकुआ' (Aqua)। (सभी हँसे) वस्तु एक ही है - जल, पर नाम अलग अलग हैं। अतएव झगड़ा करने का क्या काम? सभी एक ईश्वर को पुकार रहे हैं और सभी उन्ही के पास जायेंगे।”

       एक भक्त (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - यदि दूसरे धर्म मे गलत बातें हों तो?

श्रीरामकृष्ण - गलत बाते भला किस धर्म मे नहीं  हैं? सभी कहते हैं, 'मेरी घड़ी सही चल रही है', परन्तु कोई भी घड़ी बिलकुल सही नही चलती। सभी घड़ियों को बीच बीच मे सूर्य के साथ मिलाना पड़ता है।

    “गलत बातें किस धर्म मे नहीं हैं? और यदि गलत बातें रहीं भी, परन्तु यदि आन्तरिकता हो, यदि व्याकुल होकर उन्हे पुकारो तो वे अवश्य ही सुनेंगे।

  “मान लो, एक बाप के कई लड़के हैं  - कोई छोटे, कोई बड़े। सब उन्हे 'पिताजी' कहकर पुकार नहीं सकते। कोई कहता है, 'पिताजी', कोई छोटा बच्चा सिर्फ 'पि! और कोई केवल “ता” ही कहता है। जो बच्चे 'पिताजी” नही कह सकते क्‍या पिता उन पर नाराज होगा? (सभी हँसे) नहीं, पिता सभी को एक-जैसा प्यार करेगा। 

    “लोग समझते हैं, 'मेरा ही धर्म ठीक है, ईश्वर क्या चीज है, मैने ही समझा है, दूसरे लोग नही समझ सके। मै ही उन्हे ठीक पुकार रहा हूँ, दूसरे लोग ठीक पुकार नही सकते। अत ईश्वर मुझ पर ही कृपा करते है, उन पर न ही करते।' ये सब लोग नही जानते कि ईश्वर सभी के पिता-माता हैं, आन्तरिक प्रेम होने पर वे सभी पर कृपा करते हैं। "  

       प्रेम का धर्म कितना अद्भुत है! यह बात तो उन्होने बार बार कही, परन्तु कितने लोग समझ सके ? श्री केशव सेन थोड़ा सा पमझ सके थे। और स्वामी विवेकानन्द ने तो दुनिया के सामने इसी प्रेम-धर्म का प्रचार अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर किया है। श्रीरामकृष्णदेव ने तआस्सुबी बुद्धि रखने का बार बार निषेध किया था। 'मेरा धर्म सत्य है और तुम्हारा धर्म झूठा' इसी का नाम है तआस्सुबी बुद्धि (कट्टरपन-fanaticism, धर्मान्धता -Bigotry) - यह बड़े अनर्थ की जड़ है। स्वामीजी ने इसी अनर्थ की बात शिकागो-धर्मसभा के सामने कही थी। उन्होने कहा - ईसाई, मुसलमान आदि अनेकों ने धर्म के नाम पर मार-काट मचायी है।

       “......  साम्प्रदायिकता, संकीर्णता और इनसे उत्पन्न भयंकर धर्मविषयक उन्मत्तता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुके हैं । इनके घोर अत्याचार से पृथ्वी भर गयी है;  इन्होंने अनेक बार मानव-रक्त से धरणी को सींचा, सभ्यता नष्ट कर डाली तथा समस्त जातियों को हताश कर डाला..." --'शिकागो वक्तृता ' से उद्धृत। #

[# ठीक यही बात धार्मिक मुद्दों पर गैर-सांप्रदायिक व्याख्यानों की एक वार्षिक श्रृंखला मैक्स मुलर के हिबर्ट लेक्चर्स (Max Muller's Hibbert Lectures ) में  है। इस व्याख्यान में मैक्समूलर ने भी इसी बात को उपमा देकर समझाया है कि जो लोग देव-देवियों  की पूजा करते हैं, उनसे घृणा करना ठीक नहीं। ]

स्वामीजी ने एक दूसरे भाषण में विज्ञान-शास्त्र से प्रमाण देकर समझाने की चेष्टा की कि सभी धर्म सत्य हैं -

        “..... यदि कोई महाशय यह आशा करें कि यह एकता इन धर्मो मे से किसी एक की विजय और बाकी अन्य सब के नाश से स्थापित होगी, तो उनसे मै कहता हूँ कि 'भाई, तुम्हारी यह आशा असम्भव है।' क्या में चाहता हूँ कि ईसाई लोग हिन्दू हो जायें? - कदापि नही, ईश्वर ऐसा न करे! क्या मेरी यह इच्छा है कि हिन्दू या बौद्ध लोग ईसाई हो जायें? ईश्वर इस इच्छा से बचावे ! बीज भूमि मे बो दिया गया है और मिट्टी, वायु तथा जल उसके चारो ओर रख दिये गये हैं। तो क्या वह बीज मिट्टी हो जाता है अथवा वायु या जल बन जाता है? नहीं, वह तो वृक्ष ही होता है। वह अपने नियम से ही बढता हैं और वायु, जल तथा मिट्टी को आत्मसात कर, इन उपादानों  से शाखा-प्रशाखाओं  की वृद्धि कर एक विशाल वृक्ष हो जाता है। 

       “यही अवस्था धर्म के सम्बन्ध में भी है। न तो ईसाई को हिन्दू या बौद्ध होना पड़ेगा, और न हिन्दू अथवा बौद्ध को ईसाई ही। पर हाँ , प्रत्येक मत के लिए यह आवश्यक है कि वह अन्य मतो को आत्मसात्‌ करके पुष्टि लाभ करे, ओर साथ ही अपने वेशिष्ट्य की रक्षा करता हुआ अपनी प्रकृति के अनुसार वृद्धि को प्राप्त हो। .... ”

- 'शिकागो वक्‍तृता' से उद्धृत

     अमरीका में स्वामीजी ने ब्रूक्लीन एथिकल सोसाइटी  (Brooklyn Ethical Society)  के सामने हिन्दू धर्म के सम्बन्ध मे एक भाषण दिया था। प्रोफेसर डॉ. लीवि जेन्स ( Dr. Lewis Janes) ने सभापति का आसन ग्रहण किया था। वहाँ पर भी वही बात थी, - सर्वधर्मसमन्वय की। स्वामीजी ने कहा,

“..... सत्य सदा सार्वभौमिक रहा है। यदि केवल मेरे ही हाथ मे छ: उँगलियां हो और तुम सब के हाथ मे पाँच, तो तुम यह न सोचोगे कि मेरा हाथ प्रकृति का सच्चा अभिप्राय है, प्रत्युत यह समझोगे कि वह अस्वाभाविक और एक रोगविशेष है। उसी प्रकार धर्म के सम्बन्ध मे भी है। यदि केवल एक ही धर्म सत्य होवे और बाकी सब असत्य, तो तुम्हे यह कहने का अधिकार है कि वह एक धर्म कोई रोगविशेष है, यदि एक धर्म सत्य है तो अन्य सभी धर्म सत्य होगे ही। अतएव हिन्दू धर्म तुम्हारा उतना ही है जितना कि मेरा।...”

स्वामीजी ने शिकागो-धर्ममहासभा के सम्मुख जिस दिन पहले-पहल भाषण दिया, उस भाषण को सुनकर लगभग छ: हजार व्यक्तियों ने मुग्ध होकर अपना-अपना आसन छोड़कर मुक्त कण्ठ से उनकी अभ्यर्थना की थी। उस भाषण मे भी इसी समन्वय का सन्देश था। स्वामीजी ने कहा था - 

        “ ..... मुझको ऐसे धर्म का अवलम्बी होने का गौरव है, जिसने संसार को न केवल 'सहिष्णुता' की शिक्षा दी, बल्कि 'सब धर्मो को मानने' का पाठ भी सिखाया। हम केवल 'सब के प्रति सहिष्णुता' मे ही विश्वास नही करते, वरन्‌ यह भी दृढ़ विश्वास करते है कि सब धर्म सत्य हैं। मै अभिमानपूर्वक आप लोगो से निवेदन करता हूँ कि मै ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में अंग्रेजी 'Meyo Exclusion' ("बार-बार आज्ञा का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति"  या "परेशान करने वाले व्यक्ति' का वहिष्करण ???) का कोई पर्यायवाची शब्द है ही नहीं।...... ”

- “शिकागो वक्तृता” से उद्धृत 


 (४)

श्रीरामकृष्ण, नरेन्द्र, कर्मयोग और स्वदेश-प्रेम

       श्रीरामकृष्णदेव सदैव कहा करते थे, 'मै और मेरा, यही अज्ञान है, 'तुम और तुम्हारा” यही ज्ञान है। एक दिन सुरेश मित्र के बगीचे मे महोत्सव हो रहा था। रविवार, १५ जुन, १८८४ ई.। श्रीरामकृष्णदेव तथा अनेक भक्त उपस्थित थे। ब्राह्मसमाज के कुछ भक्त भी आये थे। श्रीरामकृष्णदेव ने प्रताप मजूमदार तथा अन्य भक्तों से कहा, “देखो, 'मै और मेरा' - इसी का नाम अज्ञान है। 'काली-मन्दिर का निर्माण रासमणि ने किया हैं' - यही बात सब लोग कहते है। कोई नही कहता कि ईश्वर ने किया है। 'अमुक' व्यक्ति ब्राह्मसमाज (VGM) बना गये है! - यही लोग कहते है। यह कोई नही कहता कि ईश्वर की इच्छा से यह हुआ है। ' मैने किया है'  इसी का नाम अज्ञान है। 'हे ईश्वर मेरा कुछ भी नही है, यह मन्दिर मेरा नही है, यह कालीमन्दिर मेरा नहीं, समाज मेरा नहीं, सभी चीजे तुम्हारी हैं, स्त्री, पुत्र, परिवार - कुछ भी मेरा नहीं है, सब तुम्हारी चीजें हैं”, - ये सब ज्ञानी की बाते है। 

      “ 'मेरी  चीज, मेरी चीज' कहकर उन सब चीजो से प्यार करने का नाम है 'माया'। सभी को प्यार करने का नाम है 'दया'। मै केवल ब्राह्मसमाज के लोगो को प्यार करता हूँ, इसका नाम है माया। केवल अपने देश के लोगो को प्यार करता हूँ, इसका नाम है माया। सभी देश के लोगो को प्यार करना, सभी धर्म के लोगो को प्यार करना - यह दया से होता है, भक्ति से होता है। माया से मनुष्य बद्ध हो जाता है, भगवान से विमुख हो जाता है। दया से ईश्वर-प्राप्ति होती है। शुकदेव, नारद - इन सब ने दया रखी थी।” 

      श्रीरामकृष्णदेव का कथन है - केवल स्वदेश के लोगों को प्यार करना - इसका नाम माया है। सभी देशों के लोगों से, सभी धर्म के लोगों से प्रेम रखना, यह हृदय में दया होने से होता है, भक्ति से होता है।' तो फिर स्वामी विवेकानन्द स्वदेश के लिए उतने व्यस्त (व्याकुल) क्यों हुए थे?

        स्वामीजी ने शिकागो-धर्ममहासभा में एक दिन कहा था, “... भारत में धर्म का अभाव नहीं है - वहाँ तो वैसे ही आवश्यकता से अधिक धर्म है, पर हाँ, हिन्दुस्थान के लाखों अकालपीड़ित लोग सूखे गले से “अन्न-अन्न, रोटी-रोटी” चिल्ला रहे हैं। ... मैं अपने निर्धन स्वदेश निवासियों के लिए यहाँ पर धन की भिक्षा माँगने आया था, परन्तु आकर देखा बड़ा ही कठिन काम है, - ईसाइयों से उन लोगों के लिए, जो ईसाई नहीं हैं, धन एकत्रित करना टेढ़ी खीर है।”

- 'शिकागो वक्तृता' से उद्धृत

स्वामीजी की प्रधान शिष्या भगिनी निवेदिता (Miss Margaret Noble) कहती हैं कि स्वामीजी जिस समय शिकागो नगर में निवास करते थे, उस समय किसी भारतीय के साथ साक्षात्कार होने पर, वह चाहे किसी भी जाति का क्यों न हो - हिन्दू, मुसलमान या पारसी, - उसका बहुत आदर-सत्कार करते थे। वे स्वयं किसी सज्जन के घर पर अतिथि के रूप में निवास करते थे। वहीं पर अपने देश के लोगों को ले जाते थे। गृहस्वामी भी उन लोगों का काफी आदर-सत्कार करते थे और वे भलीभाँति जानते थे कि उन लोगो का आदर-सम्मान न करने पर स्वामीजी अवश्य ही उनका घर छोड़कर किसी दूसरी जगह चले जायेंगे।

   अपने देश के लोगों की निर्धनता और उनका दुःख-निवारण, उनकी सत्-शिक्षा तथा उनके धर्मपरायण होने के सम्बन्ध में स्वामीजी सदैव विचारशील रहते थे।  परन्तु वे अपने देशवासियों के लिए जिस प्रकार दु:ख का अनुभव करते थे, आफ्रिकानिवासी निग्रो के लिए भी उसी प्रकार दुःखी रहते थे। भगिनी निवेदिता ने कहा है कि स्वामीजी जिस समय दक्षिणी संयुक्त राष्ट्रों में भ्रमण कर रहे थे, उस समय किसी किसी ने उन्हें आफ्रिकानिवासी (Coloured man ) समझकर घर से लौटा दिया था; परन्तु जब उन्होने सुना कि वे आफ्रिकानिवासी नहीं हैं, वे हिन्दू संन्यासी प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्द हैं, तब उन्होंने परम आदर के साथ उन्हें ले जाकर उनकी सेवा की। उन्होंने कहा, “स्वामी, जब हमने आपसे पूछा, 'क्या आप आफ्रिकानिवासी हैं ?” उस समय आप कुछ भी न कहकर चले क्‍यों गये थे?”

     स्वामीजी बोले, “क्यों, आफ्रिकानिवासी निग्रो क्या मेरे भाई नहीं है ?” निग्रो तथा स्वदेश-वासियों की सेवा एक जैसी होनी चाहिए और चूँकि स्वदेशवासियों के बीच हमें रहना है इसलिए उनकी सेवा पहले। इसी-का नाम अनासक्त सेवा है। इसी का नाम कर्मयोग है। सभी लोग कर्म करते हैं, परन्तु कर्मयोग है बड़ा कठिन। सब छोड़कर बहुत दिनों तक एकान्त में ईश्वर का ध्यान-चिन्तन किये बिना स्वदेश का ऐसा उपकार नहीं किया जा सकता। 'मेरा देश' कहकर नहीं, क्योंकि तब तो माया में फँसना हुआ; पर “ये लोग तुम्हारे (ईश्वर के) हैं' इसलिए इनकी सेवा करूँगा। तुम्हारा निर्देश है, इसीलिए देश की सेवा करूँगा; तुम्हारा ही यह काम है - मै तुम्हारा दास हूँ इसीलिए इस व्रत का पालन कर रहा हूँ, सफलता मिले या असफलता हो, यह तुम जानो; यह सब मेरे नाम के लिए नही, इससे तुम्हारी ही महिमा प्रकट होगी - इसीलिए। 

      वास्तविक स्वदेश-प्रेम (Ideal patriotism) इसे ही कहते हैं,- इसीलिए लोकशिक्षा के उद्देश्य से स्वामीजी ने इतने कठिन व्रत का अवलम्बन किया था। जिनके घरबार और परिवार हैं, कभी ईश्वर के लिए जो व्याकुल नही हुए, जो 'त्याग'  शब्द को सुनकर मुस्कराते है, जिनका मन सदा कामिनी-कांचन और ऐहिक मान-सन्मान की ओर लगा रहता है, जो लोग 'ईश्वरदर्शन ही जीवन का उद्देश्य है' इस बात को सुनकर विस्मित हो उठते है, वे स्वदेश-प्रेम के इस महान्‌ आदर्श को क्या जाने ? स्वामीजी स्वदेश के लिए आँसू बहाते थे अवश्य, परन्तु साथ ही यह भी भूलते न थे कि इस अनित्य संसार में ईश्वर ही वस्तु है, शेष सभी अवस्तु। स्वामीजी विलायत से लौटने के बाद हिमालय के दर्शन के लिए अलमोड़ा पधारे थे। अलमोड़ा निवासी उन्हें साक्षात्‌ नारायण मानकर उनकी पूजा करने लगे। स्वामीजी नगाधिराज देवतात्मा हिमालय पर्वत के अत्युच्च श्रृंगों को देखकर भावमग्न हो गये। उन्होंने कहा, - 

       “....मेरी अब यही इच्छा हैं कि में अपने जीवन के शेष दिन इसी गिरिराज में कहीं पर व्यतीत कर दूँ, जहाँ अनेकों ऋषि रह चुकें हैं, जहाँ दर्शनशास्त्र का जन्म हुआ था ...। यहाँ आते समय जैसे जैसे गिरिराज की एक चोटी के बाद दूसरी चोटी मेरी दृष्टि के सामने आती गयी वैसे वैसे मेरी कार्य करने की समस्त इच्छाएँ तथा भाव, जो मेरे मस्तिष्क में वर्षों से भरे हुए थे, धीरे धीरे शान्त-से होने लगे ... और मेरा मन एकदम उसी अनन्त भाव की ओर खिंच गया जिसकी शिक्षा हमे गिरिराज हिमालय सदैव से देते रहे हैं, जो इस स्थान की वायु तक में भरा हुआ है तथा जिसका निनाद मैं आज भी यहाँ के कलकल बहनेवाले झरनों में सुनता हूँ, और वह भाव है - त्याग। 

 “ सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्‌।' 

       “अर्थात्‌ इस संसार में प्रत्येक वस्तु में भय भरा है, यह भय केवल वैराग्य से ही दूर हो सकता है, इसी से मनुष्य निर्भय हो सकता है। ...

       “भविष्य में शक्तिशाली आत्माएँ इस गिरिराज की ओर आकर्षित होकर चली आयेंगी। यह उस समय होगा जब कि भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के आपस के झगड़े नष्ट हो जायेंगे, जब रूढ़ियो के सम्बन्ध का वैमनस्य नष्ट हो जायगा, जब हमारे और तुम्हारे धर्म सम्बन्धी झगड़े बिलकुल दूर हो जायेगे तथा जब मनुष्यमात्र यह समझ लेगा कि केवल एक ही चिन्तन, धर्म है और वह है स्वयं में परमेश्वर की अनुभूति, और शेष जो कुछ है वह सब व्यर्थ है। यह जानकर कि यह संसार एक धोखे की टट्टी है, यहाँ सब कुछ मिथ्या है और यदि कुछ सत्य है तो वह है ईश्वर की उपासना - केवल ईश्वर की उपासना - तीव्र विरागी यहाँ आयेंगे।...”

-'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत  

      श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे, 'अद्वैत ज्ञान को आँचल में बाँधकर जो इच्छा हो, करो।' स्वामी विवेकानन्द अद्वैत ज्ञान को आँचल में बाँधकर कर्म-क्षेत्र में उतर पड़े थे। संन्यासी को फिर घर, धन, परिवार, आत्मीय, स्वजन, स्वदेश, विदेश से क्या प्रयोजन ? याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा था,ईश्वर को न जाननें पर इन सब धन-विद्याओं से क्या होगा? हे मैत्रेयी, पहले उन्हें जानो, बाद में दूसरी बात।' स्वामीजी ने दुनिया को यही सिखाया। उन्होंने कहा, हे पृथ्वी भर के निवासियों! पहले विषय का त्याग कर निर्जन में भगवान की आराधना करो, उसके बाद जो चाहो, करो, किसी में दोष नहीं। चाहे स्वदेश की सेवा करो या परिवार का पालन करो, किसी से दोष न होगा; क्योंकि तुम उस समय समझोगे कि सर्वभूतों में वे ही विद्यमान हैं, उनको छोड़ और कुछ भी नहीं है - परिवार, स्वदेश उनसे अलग नहीं हैं। भगवान के साक्षात्कार करने के बाद देखोगे, वे ही सर्वत्र विद्यमान हैं। वशिष्ठ ने श्रीरामचन्द्रजी से कहा था, 'राम, तुम संसार को छोड़ना चाहते हो, आओ, मेरे साथ विचार करो; यदि ईश्वर इस संसार से अलग हों तो इसे त्याग देना।'' श्रीरामचन्द्र ने आत्मा का साक्षात्कार किया था (कि स्वयं अवतार थे ?); इसीलिए चुप रह गये। श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे, 'छुरे को चलाना सीखकर हाथ में छुरा  लो।' स्वामी विवेकानन्द ने दिखा दिया कि वास्तविक कर्मयोगी किसे कहते हैं। स्वामीजी जानते थे कि देश के दु:खियों की धन द्वारा सहायता करने से बढ़कर अनेक अन्य महान्‌ कार्य हैं। ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करा देना मुख्य कार्य है। उसके बाद विद्यादान, उसके बाद जीवनदान, उसके बाद अन्नवस्त्र-दानसंसार दुःखपूर्ण है। इस दु:ख को तुम कितने दिनों के लिए मिटाओगे? श्रीरामकृष्णदेव  ने कृष्णदास पाल # से पूछा था, “अच्छा, जीवन का उद्देश्य क्या है? 

     कृष्णदास ने कहा था, 'मेरी राय में दुनिया का उपकार करना, जगत्‌ के दु:ख को दूर करना।'  श्रीरामकृष्ण खेद के साथ बोले थे, “तुम्हारी ऐसी विधवा-पुत्र* जैसी बुद्धि क्यों? [विधवा-पुत्र जैसी बुद्धि अर्थात्‌ हीन बुद्धि; क्योंकि ऐसे लड़के अनेक प्रकार के नीच उपाय से मनुष्य बनते है; दूसरों की खुशामद आदि करके- जगत्‌ के दु:खों का नाश तुम करोगे? क्या जगत्‌ इतना-सा ही है? बरसात में गंगाजी में केंकड़े होते हैं, जानते हो ? इसी प्रकार असंख्य जगत्‌ हैं। इस विश्वजगत्‌ के जो अधिपति हैं, वे सभी की खबर ले रहे हैं। उन्हें पहले जानना - यही जीवन का उद्देश्य है। उसके बाद चाहे जो करना। " स्वामीजी ने भी एक स्थान में कहा है -

      “... केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा है जो हमारे दुःखों को सदा के लिए नष्ट कर सकता है; अन्य किसी प्रकार के ज्ञान से तो हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अल्प समय के लिए ही होती है। ... जो मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान देता है, वही मानव समाज का सब से बड़ा हितैषी है। ... आध्यात्मिक सहायता के बाद मानसिक सहायता का स्थान आता है। ज्ञान का दान देना, भोजन तथा वस्त्र के दान से कहीं श्रेष्ठ है। इसके बाद है जीवन-दान और चौथा है अन्न-दान। ...”

- 'कर्मयोग' से उद्धृत 

     ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है, और इस देश की यही एक विशेषता है। पहले यह और उसके बाद दूसरी बातें। पहले से ही राजनीति की बातें करने से न चलेगा, पहले एकचित्त होकर भगवान का ध्यान-चिन्तन करो, हृदय के बीच में उनके अनुपम रूप का दर्शन करो। उन्हें प्राप्त करने के बाद तब स्वदेश का कल्याण कर सकोगे; क्योंकि उस समय तुम्हारा मन अनासक्त होगा। 'मेरा देश' कहकर सेवा नहीं - 'सर्वभूतों में ईश्वर हैं' यह कहकर उनकी सेवा कर सकोगे। उस समय स्वदेश-विदेश की भेद-बुद्धि नहीं रहेगी। उस समय ठीक समझा जा सकेगा कि जीव का कल्याण किससे होता है। श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे, “जो लोग दाँव खेलते हैं, वे खेल की चाल ठीक ठीक समझ नहीं सकते। जो लोग खेल से अलग रहकर पास बैठे-बैठे खेल देखते रहते हैं, वे (जो जीवनमुक्त हो चुके हैं ?) दूर से अच्छी चाल दे सकते हैं।” कारण देखनेवाला (साक्षी पुरुष-पर्दा) खेल में आसक्त नहीं है। एकान्त में बहुत दिनों तक साधना करके राग-द्वेष से मुक्त उदासीन अनासक्त जीवन्मुक्त महापुरुष ने जो कुछ उपलब्धि की है उसके सामने उन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता -

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।

यस्मिन्‌ स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥ - गीता। 


हिन्दुओं की राजनीति, समाजनीति, ये सभी धर्मशास्त्र हैं। मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर आदि महापुरुष इन सब धर्मशास्त्रों के प्रणेता हैं। उन्हें किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं थी। फिर भी, भगवान का निर्देश पाकर, गृहस्थों के लिए, उन्होंने शास्त्रों की रचना की है। वे उदासीन रहकर दाँव-खेल की चाल बता दे रहे हैं, इसीलिए देश-काल-पात्र की दृष्टि से उनकी बातों में एक भी भूल होने की सम्भावना नहीं है। 

    स्वामी विवेकानन्द भी कर्मयोगी हैं। उन्होंने अनासक्त होकर परोपकार-व्रत रूपी, जीव-सेवारूपी कर्म किये हैं; इसीलिए कर्मियों के सम्बन्ध में उनका इतना मूल्य है। उन्होंने अनासक्त होकर इस देश का कल्याण किया है, जिस प्रकार प्राचीनकाल के महापुरुषगण जीव के मंगल के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे हैं। इस निष्काम धर्म के पालन के लिए हम भी उनके चरण-चिन्हों का अनुसरण कर सकें तो कितना अच्छा हो! परन्तु यह बात है बहुत कठिन। पहले भगवान को प्राप्त करना होगा। इसके लिए स्वामी विवेकानन्दजी की तरह त्याग और तपस्या करनी होगी। तब यह अधिकार प्राप्त हो सकता है। 

        धन्य हो तुम त्यागी वीर महापुरुष! तुमने वास्तव में गुरुदेव के चरण-चिह्नों का अनुसरण किया है। गुरुदेव का महामन्त्र - 'पहले ईश्वर-प्राप्ति, उसके बाद दूसरी बात' -तुम्हीं ने साधित किया है। तुम्हीं ने समझा था, ईश्वर छोड़ने पर यह संसार यथार्थ में स्वप्न की तरह है, गोरख-धन्धा है। ('1' के बिना कितना भी '0' कोई मूल्य नहीं।) इसीलिए सब कुछ छोड़कर तुमने पहले ईश्वर-प्राप्ति की साधना की थी। जब तुमने देखा, सर्व वस्तुओं के प्राण वे ही हैं, जब तुमने देखा उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, तब फिर इस संसार में तुमने मन लगाया। तब हे महा-योगिन ! सर्वभूतों में स्थित उसी हरि की सेवा के लिए तुम फिर कर्मक्षेत्र मे उतर आये। उस समय सभी तुम्हारे गम्भीर असीम प्रेम के अधिकारी बने - हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, विदेशी, स्वदेशवासी, धनी, निर्धन, नर, नारी सभी को तुमने प्रेमालिंगन-दान किया है। तुमने नारद, जनक आदि की तरह लोक-शिक्षा के लिए कर्म किया है। 

(५)

ईश्वर साकार हैं या निराकार

       एक दिन स्वर्गीय केशवचन्द्र सेन शिष्यों को साथ लेकर दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में श्रीरामकृष्णदेव का दर्शन करने गये। केशव के साथ निराकार के सम्बन्ध में अनेक बातें होती थीं। श्रीरामकृष्णदेव उनसे कहा करते थे, “में प्रतिमा में मिट्टी या पत्थर की काली नहीं देखता, मैं तो उसमें चिन्मयी काली देखता हूँ। जो ब्रह्म हैं, वे ही काली हैं। वे जिस समय क्रियारहित हैं, उस समय ब्रह्म; जब सृष्टि-स्थिति-प्रलय करती हैं, उस समय काली, अर्थात्‌ जो काल के साथ रमण करती हैं। काल अर्थात्‌ ब्रह्म।'” उन दोनों में एक दिन निम्नलिखित वार्तालाप हो रहा था :-

श्रीरामकृष्ण - (केशव के प्रति) - किस प्रकार, जानते हो! मानो सच्चिदानन्दरूपी समुद्र है, कहीं किनारा नहीं है। भक्तिरूपी हिम के कारण इस समुद्र में स्थान-स्थान पर जल बरफ के आकार में जम जाता है। अर्थात्‌ भक्त के पास वे प्रत्यक्ष होकर कभी कभी साकार रूप में दर्शन देते हैं। फिर ब्रह्मज्ञानरूपी सूर्य के उदय होने पर वह बरफ गल जाती है - अर्थात्‌ ब्रह्म सत्य जगत्‌ मिथ्या' इस विचार के बाद समाधि होने पर रूप आदि सब अदृश्य हो जाते हैं। उस समय वे क्या हैं, मुख से कहा नहीं जा सकता - मन, बुद्धि, अहं के द्वारा उन्हें पकड़ा नहीं जा सकता

     “जो व्यक्ति एक सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) को जानता है, वह दूसरे (इन्द्रियग्राह्य सत्य मिथ्या?) को भी जान सकता है। जो निराकार को जान सकता है, वह साकार को भी जान सकता है। जब तुम उस मुहल्ले में गये ही नहीं तो कहाँ श्यामपुकुर है, और कहाँ तेलीपाड़ा, कैसे जानोगे? 

    ”श्रीरामकृष्णदेव यह भी समझा रहे हैं कि सभी निराकार के अधिकारी नहीं हैं, इसीलिए साकार पूजा की विशेष आवश्यकता है। 

     उन्होंने कहा, - “एक माँ के पाँच लड़के हैं। माँ ने कई प्रकार की तरकारियाँ बनायी हैं, जिसके पेट में जो सहन होता हो।”  

    इस देश में साकार पूजा होती है। ईसाई मिशनरीगण अमरीका व यूरोप में इस देश के निवासियों को असभ्य जाति कहकर वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि भारतीयगण मूर्ति की पूजा करते हैं, और उनकी बड़ी दयनीय स्थिति है। 

    स्वामी विवेकानन्द ने इस साकार पूजा का अर्थ अमरीका में पहले-पहल समझाया। उन्होंने कहा कि भारतवर्ष में मूर्ति! की पूजा नहीं होती। - “... मैं पहले ही तुम्हें बता देना चाहता हूँ कि भारतवर्ष में अनेकेश्वरवाद नहीं है। प्रत्येक मन्दिर में यदि कोई खड़ा होकर सुने, तो वह यही पाएगा कि भक्तगण सर्वव्यापित्व से लेकर ईश्वर के सभी गुणों का आरोप उन मूर्तियों में करते हैं।...''

- 'हिन्दू धर्म' से उद्धृत

      स्वामीजी मनोविज्ञान (Psychology) की सहायता से समझाने लगे कि ईश्वर का चिन्तन करने में साकार चिन्तन (अवतार वरिष्ठ का ?) को छोड़ अन्य कुछ भी नहीं आ सकता। उन्होंने कहा -
       “.. ईश्वर यदि सर्वव्यापी है तो फिर ईसाई लोग गिरजाघर में क्यो उसकी आराधना के लिए जाते हैं? क्यों वे क्रास को इतना पवित्र मानते हैं? प्रार्थना के समय आकाश की ओर मुँह क्यों करते हैं? कैथलिक ईसाइयों के गिरजाघरों में इतनी बहुतसी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं? और प्रोटेस्टेन्ट ईसाइयों के हृदय में प्रार्थना के समय इतनी बहुतसी भावमयी मूर्तियाँ क्यों रहा करती हैं? मेरे भाइयों! मन में किसी मूर्ति के बिना आये कुछ सोच सकना उतना ही असम्भव है, जितना कि श्वास लिए बिना जीवित रहना। ...सच पूछिये तो दुनिया के प्राय: सभी मनुष्य सर्वव्यापित्व का क्या अर्थ समझते हैं ? - कुछ नहीं! ... क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है ? अगर नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं, उस समय विस्तृत आकाश या विशाल भूमिखण्ड की कल्पना हम अपने मन में लाते हैं। इससे अधिक और कुछ नहीं।...” 
- 'हिन्दू धर्म' से उद्धृत
      स्वामीजी ने और भी कहा, “अधिकारियों की भिन्नता के अनुसार साकार पूजा और निराकार पूजा होती है। साकार पूजा कुसंस्कार नहीं है - मिथ्या नहीं है, वह एक निम्न श्रेणी का सत्य है।'' - 
     “.. अगर कोई मनुष्य अपने ब्रह्मभाव को मूर्ति के सहारे अधिक सरलता से अनुभव कर सकता है, तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा? और जब वह उस अवस्था से परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिए मूर्तिपूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य असत्य से सत्य की ओर नही जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर अग्रसर हो रहा है।...”
- 'हिन्दू धर्म' से उद्धृत

स्वामीजी ने कहा, सभी के लिए एक नियम नहीं हो सकत॥ ईश्वर एक हैं, परन्तु वे भक्तों के पास अनेक रूपों में प्रकट हो रहे है। हिन्दू इस बात को समझते हैं। 
   - “ .... विभिन्नता में एकता यही प्रकृति की रचना है और हिन्दुओं ने इसे भलीभाँति पहचाना है। अन्य धर्मों में कुछ निर्दिष्ट मतवाद विधिबद्ध कर दिये गये हैं और सारे समाज को उन्हें मानना अनिवार्य कर दिया जाता है। वे तो समाज के सामने केवल एक ही नाप की कमीज रख देते हैं, जो राम, श्याम, हरि सब के शरीर में जबरदस्ती ठीक होनी चाहिए। और यदि वह कमीज राम या श्याम के शरीर में ठीक नहीं बैठती, तो उसे नंगे बदन - बिना कमीज के ही रहना होगा। हिन्दुओं ने यह जान लिया है कि निरपेक्ष ब्रह्म- तत्त्व की उपलब्धि, धारणा या प्रकाश केवल सापेक्ष के सहारे से ही हो सकता है। .... '
- 'हिन्दू धर्म' से उद्धृत

(६)

श्रीरामकृष्ण और पापवाद

    स्वामीजी के गुरुदेव भगवान श्रीरामकृष्ण कहा करते थे,“ ईश्वर का नाम लेने से तथा आन्तरि-कताके साथ उनका चिन्तन करने से पाप भाग जाता है - जिस प्रकार रूई का पहाड़ आग लगते ही क्षण भर में जल जाता है, अथवा वृक्ष पर बैठे हुए पक्षी ताली बजाते ही उड़ जाते हैं।” एक दिन केशवबाबु के साथ वार्तालाप हो रहा था - 
     श्रीरामकृष्ण - (केशव के प्रति) - मन से ही बद्ध और मन से ही मुक्त है। मैं मुक्त-पुरुष हूँ,- संसार में रहूँ या जंगल में - मुझे कैसा बन्धन? मैं ईश्वर की सन्तान हूँ, राजाधिराज का पुत्र हूँ, मुझे भला कौन बाँधकर रखेगा ? यदि साँप काटे, तो “विष नहीं है, विष नहीं है” ऐसा जोर देकर कहने से विष उतर जाता है। उसी प्रकार 'मैं बद्ध नहीं हूँ, 'मैं बद्ध नहीं हूँ,' “मैं मुक्त हूँ” इस बात को जोर देकर कहते कहते वैसा ही बन जाता है - मुक्त ही हो जाता है। 
     “किसी ने ईसाइयों की एक पुस्तक(Bible) दी थी। मैंने उसे पढ़कर सुनाने के लिए कहा, उसमें केवल “पाप” और “पाप' था! “तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल 'पाप' और 'पाप' है! जो बार बार कहता है 'मैं बद्ध हूँ में बद्ध हूँ” वह अन्त मे बद्ध ही हो जाता है। जो दिन-रात 'मैं पापी हूँ' 'मैं पापी हूँ' ऐसा कहता रहता है वह वैसा ही बन जाता है! 
      “ईश्वर के नाम पर ऐसा विश्वास होना चाहिए - 'क्या! मैंने ईश्वर का नाम लिया, अब भी मेरा पाप रहेगा? मेरा अब बन्धन क्या है, पाप क्या है?” कृष्णकिशोर परम हिन्दू सदाचारी ब्राह्मण है। वह वृन्दावन गया था। एक दिन घूमते-घूमते उसे प्यास लगी। एक कुएँ के पास जाकर देखा - एक आदमी खड़ा है। उससे कहा, “अरे, तू मुझे एक लोटा जल दे सकेगा ? तेरी क्या जात है ?' उसने कहा, 'पण्डितजी, मैं नीच जाति का हूँ - मोची हूँ!” कृष्णकिशोर ने कहा, 'तू 'शिव' कह और जल खींच दे।' 
      “भगवान का नाम लेने से देह-मन शुद्ध हो जाते है। केवल 'पाप' और 'नरक' की ये सब बातें क्‍यों? एक बार कहो कि मैंने जो कुछ अनुचित काम किया है वह अब और नहीं करूँगा। साथ ही ईश्वर के नाम पर विश्वास करो।” स्वामीजी ने भी ईसाइयों के इस पापवाद के सम्बन्ध में कहा है, “पापी क्यों ? तुम लोग अमृत के अधिकारी हो (Sons of Immortal Bliss)! तुम्हारे धर्माचार्य जो दिनरात नरकाग्नि की बातें बताया करते है, उसे मत सुनो!” -

     “ ..... तो तुम तो ईश्वर की सन्तान हो, अमर आनन्द के अधिकारी हो, पवित्र और पूर्ण आत्मा हो। तुम इस मर्त्यभूमि पर देवता हो, तुम पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही महा पाप है। विशुद्ध मानव आत्मा को तो यह मिथ्या कलंक लगाना है। उठो! आओ! ऐ सिंहो! तुम भेड़ हो इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो। तुम तो जरा-मरण-रहित एवं नित्यानन्दस्वरूप आत्मा हो। तुम जड़ पदार्थ नही हो। तुम शरीर नहीं हो। जड़ पदार्थ तो तुम्हारा गुलाम है, तुम उसके गुलाम नही।....”
- 'हिन्दू धर्म' से उद्धृत
   
      अमरीका मे हार्टफोर्ड नामक स्थान पर स्वामीजी भाषण देने के लिए आमन्त्रित हुए थे। यहाँ के अमरीकन कॉनसल (Consul) पैटर्सन उस समय वहाँ पर उपस्थित थे तथासभापति थे। स्वामीजी ने ईसाइयों के पापवाद के सम्बन्ध में कहा था -
     “ .. वह क्‍या लोगों को घुटने टेककर यह चिल्लाने की सलाह दे कि 'ओह, हम कितने पापी हैं!” नहीं, प्रत्युत आओ, हम उन्हें उनके दैवी स्वरूप का ख्याल करा दें। ...यदि कमरा अँधेरा हो तो क्या तुम अपनी छाती पीटते हुए यह चिल्लाते जाते हो कि 'कमरा अँधेरा है!' 'कमरा अँधेरा है!' नहीं, उजाला करने का एक मात्र उपाय है रोशनी जलाना, और तब अँधेरा भाग जाता है। उसी प्रकार आत्मज्योति के दर्शन का एकमात्र उपाय है अन्दर में आध्यात्मिक ज्योति जलाना, और तब पाप और अपवित्रता -रूपी अन्धकार दूर भाग जायगा। अपने उच्चतर (वास्तविक) स्वरूप का चिन्तन करो, क्षुद्र (प्रातिभासिक) स्वरूप का नहीं। फिर स्वामीजी ने एक कहानी सुनायी, जो उन्होंने श्रीरामकृष्णदेव से सुनी थी - 
     “एक बाधिनी ने बकरों के एक झुण्ड पर आक्रमण किया। वह पूर्ण गर्भवती थी, इसलिए कूदते समय उसे बच्चा पेदा हो गया। बाधिनी वहीं मर गयी। बच्चा बकरों के साथ पलने लगा और उनके साथ घास खाने लगा तथा 'में' 'में' भी कहने लगा। कुछ दिनों बाद वह बच्चा बड़ा हुआ। एक दिन उस बकरों के झुण्ड पर एक बाघ ने आक्रमण किया। वह बाघ यह देखकर हैरान रह गया कि एक बाघ घास खा रहा है तथा 'में' 'में' कर रहा है और उसे देखकर बकरों की तरह भाग रहा है। तब वह उसे पकड़कर जल के पास ले गया और कहा, 'देख, तू भी बाघ है, तू घास क्‍यों खा रहा है और 'मे' 'में' क्यों कर रहा है ? - देख, मैं केसा माँस खाता हूँ। ले तू भी खा। और जल में देख, तेरा चेहरा भी कैसा बिलकुल मेरे ही जैसा है!” उस छोटे बाघ ने वह सब देखा, माँस का आस्वादन किया और अपना असली रूप पहचान गया। 
(यह कहानी सांख्यदर्शन के आख्यायिका-प्रकरण में है। "आख्यायिका" (fable) की विशेषता इस बात में पाई जाती है कि वह स्वयं किसी अपने पात्र द्वारा ही कही गई होती है जिस कारण उसकी बहुत सी बातें आत्मोद्धारपरक बन जाती हैं।)

(७)

कामिनीकांचन-त्याग - संन्यास 

एक दिन श्रीरामकृष्ण और विजयकृष्ण गोस्वामी दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में वार्तालाप कर रहे थे।
श्रीरामकृष्ण - (विजय के प्रति) - कामिनी-कांचन का त्याग किये बिना लोकशिक्षा नहीं दी जा सकती। देखो न, यही न कर सकने के कारण केशव सेन का अन्त में क्या हुआ! तुम स्वयं ऐश्वर्य में, कामिनी-कांचन के भीतर रहकर यदि कहो 'संसार अनित्य है, ईश्वर ही नित्य है', तो कौन तुम्हारी बात सुनेगा ? तुम अपने पास तो गुड़ का घड़ा रखे हुए हो, और दूसरों से कह रहे हो - 'गुड़ न खाना!' इसीलिए सोच समझकर चैतन्यदेव ने संसार छोड़ा था। नहीं तो जीव का उद्धार नहीं होता।
विजय - जी हाँ, चैतन्यदेव ने कहा था, “कफ हटाने के लिए पिप्पल-खण्ड + तैयार किया, परन्तु परिणाम उल्टा हुआ, कफ बढ़ गया।' नवद्वीप के अनेक लोग हंसी उड़ाने लगे और कहने लगे, 'निमाई पण्डित मजे में है जी, सुन्दर स्त्री, मान-सन्मान, धन की भी कमी नहीं है, बड़े मजे में है।' (+ पिप्पल-खण्ड का मतलब है नवद्वीप में हरिनाम का प्रचार।)

       श्रीरामकृष्ण - केशव यदि त्यागी होता, तो अनेक काम होते। बकरे के बदन पर घाव रहने से वह देव-सेवा के काम में नहीं आता, उसकी बलि नहीं दी जाती। त्यागी हुए बिना व्यक्ति लोक-शिक्षा का अधिकारी नहीं बनता। गृहस्थ होने पर कितने लोग उसकी बात सुनेंगे ?
     स्वामी विवेकानन्द कामिनी-कांचनत्यागी हैं, इसीलिए उनका ईश्वर के विषय में लोक-शिक्षा देने का अधिकार है। विवेकानन्दजी वेदान्त तथा अंग्रेजी भाषा व दर्शन आदि के अग्रगण्य पण्डित हैं; वे असाधारण भाषणपटु हैं; क्या उनका माहात्म्य इतना ही है ? इसका उत्तर श्रीरामकृष्ण ने दिया था। दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में भक्तों को सम्बोधित कर श्रीरामकृष्णदेव ने १८८२ ई. में स्वामी विवेकानन्द के सम्बन्ध में कहा था -
        “इस लड़के को देख रहे हो, यहाँ पर एक तरह का है। उत्पाती लड़के जब बाप के पास बैठते हैं तो मानो भीगी बिल्ली बन जाते हैं। फिर चाँदनी में जब खेलते हैं, उस समय उनका रूप दूसरा ही होता है। ये लोग नित्यसिद्ध के स्तर के हैं। ये लोग कभी संसार में आबद्ध नहीं होते। थोड़ी उम्र में ही इन्हें चैतन्य होता है और भगवान की ओर चले जाते हैं। ये लोग लोक-शिक्षा के लिए संसार मे आते हैं, इन्हें संसार की कोई भी चीज अच्छी नहीं लगती - ये कभी भी कामिनी-कांचन में आसक्त नहीं होते।
       “वेद में 'होमा' पक्षी का उल्लेख है। आकाश मे खूब ऊँचाई पर वह चिड़िया रहती है। वहीं आकाश में ही वह अण्डा देती है। अण्डा देते हो अण्डा नीचे गिरने लगता है। अण्डा गिरते गिरते फूट जाता है। तब बच्चा गिरने लगता है। गिरते गिरते उसकी आँखे खुल जाती हैं और पंख निकल आते हैं। आँखें खुलते ही वह देखता है कि वह गिर रहा है और जमीन पर गिरते ही उसकी देह चकनाचूर हो जायगी। तब वह पक्षी अपनी माँ की ओर देखता है, और ऊपर की ओर उड़ान लेता है और ऊपर उठ जाता है।' 
     विवेकानन्द वही 'होमा पक्षी' हैं - उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है उड़कर माँ के पास ऊपर उठ जाना - देह के जमीन से टकराने के पहले ही अर्थात्‌ संसार से सम्बन्ध होने से पहले ही, ईश्वरलाभ के पथ पर अग्रसर हो जाना।
     श्रीरामकृष्ण ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से कहा था, - “पाण्डित्य! केवल पाण्डित्य से ही क्या होगा? गिद्ध भी काफी ऊँचा उड़ता है, परन्तु उसकी दृष्टि रहती है जमीन पर मुर्दों की ओर - कहाँ सड़ा मुर्दा पड़ा है। पण्डित अनेक श्लोक झाड़ सकते हैं, परन्तु मन कहाँ है? यदि ईश्वर के चरणकमलों में हो, तो मैं उसे सम्मान देता हूँ, यदि कामिनी- कांचन की ओर हो, तो वह मुझे कूड़ा-कर्कट जैसा लगता है।" 
      स्वामी विवेकानन्द केवल पण्डित ही नहीं, वे साधु महापुरुष थे। केवल पाण्डित्य के लिए ही अंग्रेजों तथा अमरीकानिवासियों ने भृत्यों की तरह उनकी सेवा नहीं की थी। उन्होंने जान लिया था कि ये एक दूसरे ही प्रकार के व्यक्ति हैं। अन्य सब लोग सम्मान, धन, इन्द्रियसुख, पण्डिताई आदि लेकर रहते हैं पर इनका लक्ष्य है ईश्वरप्राप्ति। 
       'संन्यासी के गीत' में स्वामीजी ने कहा है कि संन्यासी कामिनी-कांचन का त्याग करेगा-

 “.... करते निवास जिस उर में मद, काम लोभ औ' मत्सर,
उसमें न कभी हो सकता आलोकित सत्य-प्रभाकर;

'भार्यत्व' कामिनी में जो देखा करता 'कामुक' बन,
वह 'पूर्ण' नहीं  हो सकता, उसका न छूटता बन्धन;

लोलुपता है जिस नर की स्वल्पातिस्वल्प भी धन में,
वह मुक्त नहीं हो सकता, रहता अपार बन्धन में; 

जंजीर क्रोध की जिसको रखती है सदा जकड़कर,
वह पार नही कर सकता दुस्तर माया का सागर।

इन सभी वासनाओं का अतएव त्याग तुम कर दो, 

सानन्द वायुमण्डल को बस एक गूँज से भर दो -

“ॐ तत्‌ सत्‌ ॐ ! ..'

- 'कवितावली' से उद्ध॒त

Truth never comes where lust and fame and greed
Of gain reside. No man who thinks of woman
As his wife can ever perfect be;
Nor he who owns the least of things, nor he
Whom anger chains, can ever pass thro' Maya's gates.
So, give these up, Sannyâsin bold! Say —

             "Om Tat Sat, Om!" (Vol: 4-394)

सत्य (इन्द्रियातीत) न आता पास, जहाँ यश-लोभ-काम का वास,
पूर्ण नहीं वह, स्त्री में जिसको होती पत्नी भास ,
अथवा वह जो किंचित भी संचित रखता निज पास !
वह भी पार नहीं कर पाता है माया का द्वार 
क्रोधग्रस्त जो , अतः छोड़कर निखिल वासना-भार 
गाओ धीर-वीर संन्यासी, गूँजे मंत्रोच्चार,

“ॐ तत्‌ सत्‌ ॐ ! ..  

हार उसे पहनावे कोई, करे कि पाद-प्रहार,
मौन रहो, क्या रहा कहो निन्दा या स्तुति अभिषेक ?

स्तावक , स्तुत्य, निन्द्य औ' निन्दक जब कि सभी हैं एक !
अतः रहो तुम शांत, वीर संन्यासी, तजो न टेक ,

“ॐ तत्‌ सत्‌ ॐ ! .. 
(खण्ड :10-175)  

Heed then no more how body lives or goes,
Its task is done. Let Karma float it down;
Let one put garlands on, another kick
This frame; say naught. No praise or blame can be
Where praiser praised, and blamer blamed are one.
Thus be thou calm, Sannyâsin bold! Say —

                                           "Om Tat Sat, Om!"

      अमरीका में उन्हें प्रलोभन कम नहीं मिला था। इधर विश्वव्यापी यश, उस पर सदा ही परम सुन्दरी उच्चवंशीय सुशिक्षित महिलाएँ उनसे वार्तालाप तथा उनकी सेवा-टहल किया करती थी। स्वामीजी मे इतनी मोहिनी शक्ति थी कि उनमें से कई उनसे विवाह करना चाहती थीं। एक अत्यन्त धनी व्यक्ति की लड़की ने तो एक दिन आकर उनसे यहाँ तक कह दिया, “स्वामी! मेरा सब कुछ एवं स्वयं को भी मै आपको सौंपती हूँ।” स्वामीजी ने उसके उत्तर मे कहा, 'भद्रे, मै संन्यासी हूँ, मुझे विवाह नही करना है। सभी स्त्रियाँ मेरी माँ जैसी है
     धन्य हो वीर! तुम ही गुरुदेव के योग्य शिष्य हो! तुम्हारी देह में वास्तव मे पृथ्वी की मिट्टी नहीं लगी है, तुम्हारी देह मे कामिनी-कांचन का दाग तक नहीं लगा है। तुम प्रलोभन के देश से दूर न भागकर, उसी में रहकर, श्री की नगरी मे रहकर ईश्वर के पथ मे अग्रसर हुए हो! तुमने साधारण जीव की तरह दिन बिताना नही चाहा। तुम देवभाव का जीता-जागता उदाहरण छोड़कर इस मर्त्यलोक को छोड़ गये हो! 

(८)

कर्मयोग और दरिद्रनारायण-सेवा

     श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे, कर्म सभी को करना पड़ता है। ज्ञान, भक्ति और कर्म
- ये तीन ईश्वर के पास पहुँचने के पथ है। गीता में है, साधु-गृहस्थ पहले-पहल चित्तशुद्धि के लिए गुरु के उपदेशानुसार अनासक्त होकर कर्म करे'मैं करनेवाला हूँ' यह अज्ञान है,'धन-जन, काम-काज मेरे हैं' - यह भी अज्ञान है। गीता में है, अपने को अकर्ता मानकर, ईश्वर को फल सौंपकर काम करना चाहिए। गीता में यह भी है कि सिद्धि प्राप्त करने के बाद भी प्रत्यादिष्ट होकर कोई कोई, जैसे जनक आदि, कर्म करते हैं। गीता में जो कर्मयोग है, वह यही है। श्रीरामकृष्णदेव भी यही कहते थे।
        इसीलिए कर्मयोग बहुत कठिन है। बहुत दिन निर्जन में ईश्वर की साधना किये बिना, अनासक्त होकर कर्म नहीं किया जा सकता। साधना की अवस्था में श्रीगुरु के उपदेश की सदा ही आवश्यकता है। उस समय कच्ची स्थिति रहती है इसलिए किस ओर से आसक्ति आ पड़ेगी, जाना नहीं जाता। मन में सोच रहा हूँ, 'मैं अनासक्त होकर, ईश्वर को फल समर्पण कर, जीवसेवा, दान आदि कर्म कर रहा हूँ।” परन्तु वास्तव में, सम्भव है, में यश के लिए ही यह सब कर रहा हूँ, और खुद नहीं समझ पा रहा हूँ। जो आदमी गृहस्थ है, जिसके घर, परिवार, आत्मीय, स्वजन और अपना कहने की चीजें हैं, उसे देखकर निष्काम कर्म, अनासक्ति और दूसरे के लिए स्वार्थ का त्याग, ये सब बातें सीखना बहुत कठिन है।
       परन्तु सर्वत्यागी, कामिनी-कांचन-त्यागी सिद्ध महापुरुष यदि निष्काम कर्म करके दिखायें तो लोग आसानी से उसे समझ सकते हैं और उनके चरण-चिन्हों का अनुसरण कर सकते हैं।
      स्वामी विवेकानन्द कामिनी-कांचन त्यागी थे। उन्होंने एकान्त में श्रीगुरु के उपदेश से बहुत दिनों तक साधना करके सिद्धि प्राप्त की थी। वे वास्तव में कर्मयोग के अधिकारी थे। वे संन्यासी थे; वे चाहते तो ऋषियों की तरह अथवा अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्णदेव की तरह केवल ज्ञान-भक्ति लेकर रह सकते थे। परन्तु उनका जीवन केवल त्याग का उदाहरण दिखाने के लिए नहीं हुआ था। सांसारिक लोग जिन सब वस्तुओं को ग्रहण करते हैं, उनसे अनासक्त होकर किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, यह भी नारद, शुकदेव तथा जनक , आदि की तरह स्वामीजी लोकसंग्रह के लिए दिखा गये हैं। वे धन-सम्पत्ति आदि को काकविष्ठा की तरह समझते अवश्य थे और स्वयं उनका उपयोग नहीं करते थे, परन्तु फिर भी जीवसेवा के लिए उनका किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए इसके बारे में उपदेश देकर वे स्वयं भी करके दिखा गये है। उन्होंने विलायत व अमरीका के मित्रों से जो धन एकत्रित किया था, वह सारा धन जीवों के कल्याण के लिए व्यय किया। उन्होंने स्थान स्थान पर - जैसे कलकत्ते के पास बेलुड़ में, अलमोड़ा के पास मायावती में, काशीधाम में तथा मद्रास आदि स्थानों में - मठों की स्थापना की। अनेक स्थानों मे - दिनाजपुर, वैद्यनाथ, किशनगढ़, दक्षिणेश्वर आदि स्थानों में - दुर्भिक्ष-पीड़ितों की सेवा की। दुर्भिक्ष के समय अनाथाश्रम बनाकर मातृ-पितृहीन अनाथ बालक-बालिकाओं की रक्षा की। राजपुताना के अन्तर्गत किशनगढ़ नामक स्थान में अनाथाश्रम की स्थापना की। मुर्शिदाबाद  के निकट (भीवदा) सारगाछी गाँव में तो अभी तक उसी समय का अनाथश्रम चल रहा है। हरिद्वार के निकट कनखल में रोगपीड़ित साधुओं के लिए स्वामीजी ने सेवाश्रम को स्थापना की।  प्लेग के समय रोगियो की विपुल धन व्यय करके सेवा करायी। वे दीन, दुःखी तथा असहायों  के लिए अकेले बैठकर रोते थे और मित्रों से कहते थे, “हाय! इन लोगों को इतना कष्ट है कि इन्हें ईश्वर-चिन्तन का अवसर तक नहीं है!” 
      गुरु से उपदिष्ट कर्मों और नित्य-कर्मो को छोड़, दूसरे कर्म तो बन्धन के कारण हैं। वे संन्यासी थे, उन्हें कर्म की क्या आवश्यकता ?

 “... अपने अपने कर्मों का फल-भोग जगत्‌ मे निश्चित '
कहते है सब, "कारण पर है सभी कार्य अवलम्बित;
 फल अशुभ, अशुभ कर्मों के; शुभ कर्मो के है शुभ फल,
किसकी सामर्थ्य बदल दे, यह नियम अटल औ'” अविचल? 
इस मृत्युलोक में जो भी करता है- तनु को धारण,
बन्धन उसके अंगों का होता नैसर्गिक भूषण।”
यह सच है, किन्तु परे 'जो' गुण नाम-रूप से रहता, 
वह नित्य मुक्त आत्मा है, स्वच्छन्द सदैव विचरता।
“तत्‌ त्वमसि” - वही तो तुम हो, यह ज्ञान करो हृदयांकित
फिर क्या चिन्ता संन्यासी, सानन्द करो उद्घोषित -

“ॐ तत्‌ सत्‌ ॐ ! .. 

८ - 'कवितावली” से उद्धृत


"Who sows must reap," they say, "and cause must bring
The sure effect; good, good; bad, bad; and none
Escape the law. But whoso wears a form
Must wear the chain." Too true; but far beyond
Both name and form is Âtman, ever free.
Know 'तत्‌ त्वमसि'-thou art That', Sannyâsin bold! Say —
                                             "Om Tat Sat, Om!"
(Vol :4-393)

' बोओगे पाओगे,' निश्चित कारण-कार्य-विधान !
कहते, 'शुभ का शुभ औ' अशुभ अशुभ का फल,' श्रीमान
दुर्निवार यह नियम, जीव के नाम-रूप परिधान 
बंधन हैं , सच है, पर दोनों नाम-रूप के पार 
नित्य मुक्त आत्मा करती है बंधनहीन विहार ! 
“तत्‌ त्वमसि”-तुम वह आत्मा हो संन्यासी, बोलो वीर उदार ,
“ॐ तत्‌ सत्‌ ॐ ! .. 
       (खण्ड :10-173)  

       केवल लोक-शिक्षा के लिए ईश्वर ने उनसे ये सब कर्म करा लिये। अब साधु या संसारी सभी सीखेंगे कि यदि वे भी कुछ दिन एकान्त में (छः दिवसीय शिविर में) गुरु के उपदेशानुसार साधना करके ईश्वर की भक्त प्राप्त करे, तो वे भी स्वामीजी की तरह निष्काम कर्म कर सकेंगे; सचमुच में अनासक्त होकर दानादि सत्कर्म कर सकेंगे। स्वामीजी के गुरुदेव श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, “हाथ में तेल मलकर कटहल काटने से हाथ न चिपकेगा।” अर्थात्‌ एकान्त में साधना के बाद भक्ति प्राप्त करके, ईश्वर का निर्देश पाकर लोकशिक्षा के लिए यदि संसार के काम में हाथ डाला जाय, तो ईश्वर की कृपा से यथार्थ में निर्लिप्त भाव से काम किया जा सकता है। स्वामी विवेकानन्द के जीवन को ध्यानपूर्वक देखने से 'एकान्त में साधना' तथा 'लोक-शिक्षा के लिए कर्म” किसे कहते हैं इसका पता लगा सकता है। स्वामी विवेकानन्द के ये सब कर्म लोक-शिक्षा के लिए थे।
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन् कर्तुमर्हसि।।3.20।।

।।3.20।। राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्म के द्वारा ही परमसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रह को देखते हुए भी तू (निष्कामभाव से) कर्म करने के योग्य है।
“ वह गीतोक्त कर्मयोग बहुत ही कठिन है। जनक आदि ने कर्म के द्वारा सिद्धि प्राप्त की थी। श्रीरामकृष्णदेव कहा करते थे कि जनक ने अपने सांसारिक जीवन के पूर्व, जंगल में एकान्त में बैठकर बहुत कठोर तपस्या की थी। इसलिए साधुगण ज्ञान और भक्ति का पथ अवलम्बन करके, संसार का कोलाहल छोड़कर एकान्त में ईश्वर-साधन करते हैं। स्वामी विवेकानन्द की तरह उत्तम अधिकारी वीर-पुरुष इस कर्मयोग के अधिकारी हैं। वे भगवान को अनुभव करते है, और साथ ही लोकशिक्षा के लिए, ईश्वर का आदेश पाकर संसार में कर्म करते हैं। इस प्रकार के महापुरुष संसार में कितने हैं? ईश्वर के प्रेम में मतवाले, कामिनी-कांचन का दाग एक भी न लगा हो, परन्तु जीवसेवा के लिए व्यस्त होकर घूम रहे है, ऐसे आचार्य कितने देखने में आते हैं? स्वामीजी ने लन्दन में १० नवम्बर १८९६ को वेदान्त के कर्मयोग की व्याख्या करते हुए गीता का विवरण देते हुए कहा था -
'.... और यह आश्चर्य की बात है कि इस उपदेश का केन्द्र है संग्राम-स्थल। यही श्रीकृष्ण अर्जुन को इस दर्शन का उपदेश दे रहे है और गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर यही मत उज्ज्वल रूप से प्रकाशित है - तीव्र कर्मण्यता, किन्तु उसी के बीच अनन्त शान्तभाव। इसी तत्त्व को कर्मरहस्य कहा गया है और इस अवस्था को पाना ही वेदान्त का लक्ष्य है। 
- 'व्यावहारिक जीवन में वेदान्त' से उद्धृत 

   भाषण में स्वामीजी ने कर्म के बीच शान्त भाव की बात कही है। स्वामीजी रागद्वेष से मुक्त होकर कर्म कर सकते थे, यह केवल उनकी तपस्या के गुण तथा उनकी ईश्वरानुभूति के बल पर ही सम्भव था। सिद्धपुरुष अथवा श्रीकृष्ण की तरह अवतारीपुरुष हुए बिना यह स्थिरता तथा शान्ति प्राप्त नही होती। 
(९)
स्त्रियों को लेकर साधना (वामाचार) के सम्बन्ध में
श्रीरामकृष्ण और स्वामीजी के उपदेश

      स्वामी विवेकानन्द एक दिन दक्षिणेश्वर मन्दिर में श्रीरामकृष्णदेव का दर्शन करने गये थे। भवनाथ व बाबूराम आदि उपस्थित थे। २९ सितम्बर १८८४घोषपाड़ा तथा पंचनामी के सम्बन्ध में नरेन्द्र ने बात चलायी और पूछा, “स्त्रियों को लेकर वे लोग कैसी साधना करते हैं?''
      श्रीरामकृष्णदेव मे कहा, “ ये सब बातें तुझे सुननी न चाहिए। घोषपाड़ा, पंचनामी और भैरव-भैरवी ये लोग ठीक-ठीक साधना नहीं कर सकते, पतन होता है। ये सब पथ मैले हैं, अच्छे पथ नहीं हैं। शुद्ध पथ पर चलना ही ठीक है। वाराणसी मे एक व्यक्ति मुझे भैरवी-चक्र में ले गया था। एक-एक भैरव, और एक- एक भैरवी। वे मुझे शराब पीने के लिए कहने लगे। मैंने कहा, 'माँ , मैं शराब छू नहीं सकता।' वे सब शराब पीने लगे। मैंने सोचा, अब शायद जप-ध्यान करेंगे। लेकिन  नहीं, मदिरा पीकर नाचना शुरू कर दिया।” 
        नरेन्द्र से उन्होंने फिर कहा, “बात यह है, मेरा भाव है मातृ-भाव - सन्तानभावमातृभाव अत्यन्त विशुद्ध भाव है, इसमें कोई डर नहीं है। स्त्री-भाव, वीरभाव बहुत कठिन है, ठीक-ठीक रखा नहीं जा सकता, पतन होता है। तुम लोग अपने लोग हो, तुम लोगों से कहता हूँ - मैंने अन्त में यही समझा है - वे पूर्ण हैं, मैं उनका अंश हूँ। वे प्रभु है, मैं उनका दास हूँ। फिर कभी कभी सोचता हूँ, वह ही मैं, मैं ही वह। और भक्ति ही सार है।'' 
      एक दूसरे दिन (९ सितम्बर १८८३ ई.) दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं, “मेरा है सन्तान-भाव। अचलानन्द बीच-बीच में यहाँ पर आकर ठहरता था, खूब मदिरा पीता था। स्त्री लेकर साधन को मैं अच्छा नही कहता था, इसलिए उसने मुझसे कहा था, ' भला तुम वीर-भाव का साधन क्यों नहीं मानोगे ? तन्त्र मे जो है। - शिवजी का लिखा नहीं मानोगे? उन्होंने (शिवजी ने) सन्तान-भाव कहा है, फिर वीरभाव भी बताया है।' 
    “मैंने कहा, 'कौन जाने भाई, मुझे वह सब अच्छा नहीं लगता - मेरा सन्तान-भाव ही रहने दो।' 
      “उस देश में भगी तेली को इस दल में देखा था - वही औरत लेकर साधन। फिर एक पुरुष के हुए बिना औरत का साधन-भजन न होगा। उस पुरुष को कहते हैं “रागकृष्ण'। तीन बार पूछता है, “कृष्ण तूने पा लिया?” वह औरत भी तीन बार कहती है, “मैंने कृष्ण पा लिया।
       एक दूसरे दिन २३ मार्च १८८४ ई. को श्रीरामकृष्ण राखाल, राम आदि भक्तों से कह रहे है - “वैष्णवचरण का वामाचारी मत था। मैं जब उधर श्यामबाजार में गया था तो उनसे कहा, 'मेरा मत ऐसा नहीं है।' मेरा मातृभाव है। देखा कि लम्बी लम्बी बातें बनाता है और फिर साथ ही व्यभिचार भी करता है। वे लोग देवपूजा, मूर्तिपूजा, पसन्द नहीं करते। जीवित मनुष्य चाहते हैं। उनमे से कई राधातन्त्र का मत मानते हैं; पृथ्वीतत्त्व, अग्नितत्त्व, जलतत्त्व, वायुतत्त्व, आकाशतत्त्व - विष्ठा, मूत्र, रज, वीर्य, ये ही सब तत्त्व, यह साधन बहुत मैला साधन है; जैसे पैखाने के रास्ते से मकान में प्रवेश करना।”
      ”श्रीरामकृष्ण के उपदेशानुसार स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचार की खूब निन्दा की है। उन्होंने कहा है, “भारतवर्ष के प्राय: सभी स्थानों में विशेष रूप से बंगाल प्रान्त में, गुप्त रूप से अनेक व्यक्ति ऐसी साधना करते हैं। वे वामाचार तन्त्र का प्रमाण दिखाते हैं। उन सब तनत्रों का त्याग कर लड़कों को उपनिषद्‌, गीता आदि शास्त्र पढ़ने को देना चाहिए।
       स्वामी विवेकानन्द ने विलायत से लौटने के बाद शोभाबाजार के स्व. राधाकान्त देव के देव-मन्दिर में वेदान्त के सम्बन्ध में एक सारगर्भित भाषण दिया था, उसमें औरतों को लेकर साधना करनें की निन्दा करके निम्नलिखित बातें कही थीं
         “ ..... यह घृण्य वामाचार छोड़ो, जो देश का नाश कर रहा है। तुमने भारत के अन्यान्य भाग नहीं देखे। जब मैं देखता हूँ कि हमारे समाज में कितना वामाचार फैला हुआ है, तब उन्नति का इसे बड़ा गर्व रहने पर भी मेरी नजरों में यह अत्यन्त गिरा हुआ मालूमहोता है। इन वामाचार सम्प्रदायों ने मधुमक्खियों की तरह हमारे बंगाल के समाज को छा लिया है। वे ही, जो दिन को गरजते हुए आचार के सम्बन्ध में प्रचार करते हैं, रात को घोर पैशाचिक कृत्य करने से बाज नहीं आते, और अति भयानक ग्रन्थसमूह उनके कर्म के समर्थक है। इन्हीं शास्त्रों की आज्ञा मानकर वे उन घोर दुष्कर्मो में हाथ देते हैं। तुम बंगालियों को यह विदित है। बंगालियों के शास्त्र वामाचार-तन्त्र है। ये ग्रन्थ ढेरों प्रकाशित होते हैं, जिन्हें लेकर तुम अपनी सन्तानों के मन को विषाक्त करते हो, किन्तु उन्हें श्रुतियों की शिक्षा नहीं देतेऐ कलकत्तावासियों, क्या तुम्हें लज्जा नहीं आती कि अनुवादसहित वामाचार-तन्त्रों का यह बीभत्स संग्रह तुम्हारे बालकों और बालिकाओं के हाथ रखा जाय, उनका चित्त विषविवह्ल  हो और वे जन्म से यही धारणा लेकर पलें कि हिन्दुओं के शास्त्र ये वामाचार ग्रन्थ है ? यदि तुम लज्जित हो तो अपने बच्चों से उन्हे अलग करो, और उन्हें यथार्थ शास्त्र - वेद, गीता, उपनिषद्‌ - पढ़ने दो। ...”
- 'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत 
     काशीपुर बगीचे मे श्रीरामकृष्ण जब (१८८६ ई.) बीमार थे, तो एक दिन नरेन्द्र को बुलाकर बोले, “भैया, यहाँ पर कोई शराब न पीयेधर्म के नाम पर मदिरा पीना ठीक नही; मैंने देखा है, जहाँ ऐसा किया गया है, वहाँ भला नही हुआ।'  

(१०)

श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द व अवतारवाद
        
       दक्षिणेश्वर मन्दिर में भगवान श्रीरामकृष्ण बलराम आदि भक्तों के साथ बैठे हैं। १८८५ ई., ७ मार्च, दिन के ३-४ बजे का समय होगा।
          भक्तगण श्रीरामकृष्ण की चरणसेवा कर रहे हैं, - श्रीरामकृष्ण थोड़ा हँसकर भक्तों से कह रहे हैं - “इसका (अर्थात्‌ चरणसेवा का) विशेष तात्पर्य है।'' फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर कह रहे हैं, “इसके भीतर यदि कुछ है, (चरणसेवा करने पर) अज्ञान-अविद्या एकदम दूर हो जायगी।" 
       एकाएक श्रीरामकृष्ण गम्भीर हुए, मानो कुछ गुप्त बात कहेंगे। भक्तों से कह रहे हैं, “यहाँ पर बाहर का कोई नहीं है। तुम लोगों से एक गुप्त बात कहता हूँ। उस दिन देखा, मेरे भीतर से सच्चिदानन्द बाहर आकर प्रकट होकर बोले, "मैं ही युग-युग में अवतार लेता हूँ।' देखा, पूर्ण आविर्भाव, सत्त्वगुण का ऐश्वर्य है।”
          भक्तगण ये सब बाते विस्मित होकर सुन रहे है; कोई कोई गीता में कहे हुए भगवान श्रीकृष्ण के महावाक्य की याद करा रहे हैं -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ 4.7॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ 4.8 ॥

       दूसरे एक दिन, १ सितम्बर १८८५, जन्माष्टमी के दिन नरेन्द्र आदि भक्त आये हैं। श्री गिरीश घोष दो-एक मित्रों को साथ लेकर गाड़ी करके दक्षिणेश्वर में उपस्थित हुए। वे रोते रोते आ रहे हैं। श्रीरामकृष्ण स्नेह के साथ उनकी देह थपथपाने लगे।
     गिरीश सिर उठाकर हाथ जोड़कर कह रहे हैं, “आप ही पूर्ण ब्रह्म हैं। यदि ऐसा न हो तो सभी झूठा है। बड़ा खेद रहा कि आपकी सेवा न कर सका। वरदान दीजिये न भगवन्‌, कि एक वर्ष आपकी सेवा-टहल करूँ।” बार बार उन्हे ईश्वर कहकर स्तुति करने से श्रीरामकृष्ण कह रहे है, “ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए। भक्तवत्‌ न च कृष्णवत्‌; तुम जो कुछ सोचते हो, सोच सकते हो। अपने गुरु भगवान तो हैं , तो भी ऐसी बात कहने से अपराध होता है।'
         गिरीश फिर श्रीरामकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं, “ भगवन्‌, मुझे पवित्रता दो, जिससे
कभी रत्तीभर भी पाप-चिन्तन न हो।”
    श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - “तुम तो पवित्र हो, - तुम्हारी विश्वास-भक्ति जो है।'' 

    १ मार्च १८८५ ई. होली के दिन नरेन्द्र आदि भक्तगण आये हैं। उस दिन श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को संन्यास का उपदेश दे रहे हैं और कह रहे है, 'भेया, कामिनी- कांचन न छोड़ने से नही होगा। ईश्वर ही एकमात्र सत्य है और सब अनित्य।” कहते कहते वे भावपूर्ण हो उठे। वही दयापूर्ण स्नेह दृष्टि। भाव में उन्मत्त होकर गाना गाने लगे -
संगीत - (भावार्थ) - “बात करने में डरता हूँ”, आदि।
मानो श्रीरामकृष्ण को भय है कि कहीं नरेन्द्र किसी दूसरे का न हो जाय, कही ऐसा न हो कि मेरा न रहे - भय है, कहीं नरेन्द्र घर-गृहस्थी का न बन जाय। 'हम जो मन्त्र जानते है, वही तुम्हें दिया', अर्थात्‌ जीवन का सर्वश्रेष्ठ आदर्श - सब कुछ त्यागकर ईश्वर के शरणागत बन जाना - यह मन्त्र तुझे दिया। नरेन्द्र आँसुभरी आँखों से देख रहे है। 
     श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र से कह रहे है, “क्या गिरीश घोष ने जो कुछ कहा, वह तेरे साथ मिलता है?
    नरेन्द्र - मेंने कुछ नहीं कहा, उन्होंने ही कहा कि उनका विश्वास है कि आप अवतार है। मैंने और कुछ भी नहीं कहा। 
      श्रीरामकृष्ण - परन्तु उसमें कैसा गम्भीर विश्वास है! देखा? 
      कुछ दिनों के बाद अवतार के विषय मे नरेन्द्र के साथ श्रीरामकृष्ण का वार्तालाप हुआ। श्रीरामकृष्ण कह रहे है, - “अच्छा, कोई-कोई जो मुझे ईश्वर का अवतार कहतेहैं - तू क्या समझता हे?” 
    नरेन्द्र ने कहा, “दूसरों की राय सुनकर मैं कुछ भी नही कहूँगा, मै स्वयं जब समझूँगा तब मेरा विश्वास होगा, तभी कहूँगा।” 
     काशीपुर बगीचे मे श्रीरामकृष्ण जिस समय केन्सर रोग की यन्त्रणा से बेचेन हो रहे हैं, भात का तरल माड़ तक गले के नीचे नही उतर रहा है, उस समय एक दिन नरेन्द्र भ्रीरामकृष्ण के पास बैठकर सोच रहे है, 'इस यन्त्रणा मे यदि कहे कि मैं ईश्वर का अवतार हूँ तो विश्वास होगा।” उसी समय श्रीरामकृष्ण कहने लगे, “जो राम, जो कृष्ण, इस समय वे ही रामकृष्ण के रूप मे भक्तो के लिए अवतीर्ण हुए है।” नरेन्द्र यह बात सुनकर दंग रह गये। श्रीरामकृष्ण के स्वधाम मे सिधार जाने के बाद नरेन्द्र ने संन्यासी होकर बहुत साधन-भजन तथा तपस्या की। उस समय उनके हृदय में अवतार के सम्बन्ध मे श्रीरामकष्ण के सभी महावाक्य मानो ओर भी स्पष्ट हो उठे। वे स्वदेश और विदेशों में इस तत्त्व को ओर भी स्पष्ट रूप से समझाने लगे। 
     स्वामीजी जब अमरीका में थे, उस समय नारदीय भक्तिसूत्र आदि ग्रन्थों के अवलम्बन से उन्होंने भक्तियोग नामक ग्रन्थ अंग्रेजी में लिखा। उसमें भी वे कह रहे है कि अवतारगण छूकर लोगो मे चैतन्य उत्पन्न करते हैं जो लोग दुराचारी है, वे भी उनके स्पर्श से सदाचारी बन जाते है। 
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।

।।9.30।।- अपि चेत्‌ सुदुराचारः भजते मामनन्यभाक्‌, साधुरेव स मन्तव्य: सम्यक्‌ व्यवसितो हि सः। ' यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।।
 ईश्वर ही अवतार के रूप मे हमारे पास आते है। यदि हम ईश्वर-दर्शन करना चाहे तो अवतारी पुरुषों  (गुरुदेव-नवनीदा) में ही उनका दर्शन करना होगा। उनका पूजन किये बिना हम रह नहीं सकते
      "..... साधारण गुरुओं से श्रेष्ठ एक और श्रेणी के गुरु होते है, जो इस संसार मे ईश्वर के अवतार (वरिष्ठ ?) होते हैं केवल स्पर्श से ही वे आध्यात्मिकता प्रदान कर सकते हैं, यहाँ तक कि इच्छा मात्र से ही। उनकी इच्छा से महान्‌ दुराचारी तथा पतित व्यक्ति भी क्षण भर मे ही साधु हो जाता हैवे गुरुओं के भी गुरु है तथा मनुष्य रूप मे भगवान के अवतार है। उनके माध्यम बिना हम ईश्वर-दर्शन नहीं कर सकते। उनकी उपासना किये बिना हम रह ही नही सकते और वास्तव मे केवल वे ही ऐसे है जिनकी हमे उपासना करनी चाहिए। ... जब तक हमारा यह मनुष्यशरीर है तब तक हमें ईश्वर की उपासना मनुष्य के रूप में और मनुष्य के सदृश ही करनी पड़ती है। तुम चाहे जितनी बाते करो, चाहे जितना यत्न करो, परन्तु भगवान को मनुष्य-रूप के अतिरिक्त तुम किसी अन्य रूप मे सोच ही नही सकते। ईश्वर तथा संसार की सारी वस्तुओं पर चाहे तुम सुन्दर तर्कयुक्त भाषण दे सकते हो, चाहे बड़े युक्तिवादी बन सकते हो और मन को समझा सकते हो कि इन सारे ईश्वरावतारों की कथा भ्रमात्मक है। पर थोड़ी देर के लिएं सहज बुद्धि से सोचो। हमें इस विचित्र विचार-बुद्धि से क्‍या प्राप्त होता है? - शून्य, कुछ नही, केवल शब्दाडम्बर। भविष्य मे जब कभी तुम किसी मनुष्य को अवतार-पूजा के विरुद्ध एक बड़ा तर्कपूर्ण भाषण देते हुए सुनो तो उससे यह प्रश्न करो कि उसकी ईश्वरसम्बधी धारणा क्या है।सर्वशक्तिशाली, सर्वव्यापी तथा इस प्रकार के अन्य शब्दों का अर्थ वह केवल अक्षरों के जानने की अपेक्षा और क्या समझता है? वास्तव मे वह कुछ नही समझता। वह उनका कोई ऐसा अर्थ नही लगा सकता जो उसकी स्वयं की मानवी प्रकृति से प्रभावित न हो। इस सम्बन्ध मे वह बिलकुल उसी सामान्य मनुष्य के सदृश है, जिसने एक पुस्तक भी नही पढ़ी।''
- 'भक्तियोग' से उद्धृत 
     स्वामीजी १८९९ ईसवी मे दूसरी बार अमरीका गये थे। उस समय १९०० ईसवी में उन्होने कैलिफोर्निया (California) प्रान्त मे लास इंजिलस (Los Angeles) नामक नगर मे 'ईशदूत ईसा” (Christ the Messenger) विषय पर एक भाषण दिया था। इस भाषण मे उन्होने फिर से अवतार-तत्त्व को भलीभाँति समझाने की चेष्टा की थी। स्वामीजी ने कहा -
     “ इसी महापुरुष (ईसा मसीह) ने कहा है, 'किसी भी व्यक्ति ने ईश्वर-पुत्र के माध्यम बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है!' और यह कथन अक्षरशः सत्य है। ईश्वर-तनय के अतिरिक्त हम ईश्वर को और कहाँ देखेंगे ? यह सच है कि मुझमें और तुममें, हममें से निर्धन से भी निर्धन और हीन से भी हीन व्यक्ति में भी परमेश्वर विद्यमान हैं, उनका प्रतिबिम्ब मौजूद है। प्रकाश की गति सर्वत्र है, उसका स्पन्दन सर्वव्यापी है, किन्तु हमे उसे देखने के लिए दीप जलाने की आवश्यकता होती है। जगत्‌ का सर्वव्यापी ईश भी तब तक दृष्टिगोचर नही होता, जब तक ये महान्‌ शक्तिशाली दीपक, ये ईशदूत, ये उसके सन्देशवाहक और अवतार, ये नर-नारायण उसे अपने मे प्रतिबिम्बित नही करते।  ..... ईश्वर के इन सब महान्‌ ज्ञानज्योतिसमम्पन्न अग्रदूतों  में से आप किसी एक की ही जीवन-कथा लीजिये और ईश्वर की जो उच्चतम भावना आपने हृदय मे धारण की है, उससे चरित्र की तुलना कीजिये। आपको प्रतीत होगा कि इन जीवित और जाज्वल्यमान आदर्श महापुरुषों के चरित्र की अपेक्षा आपकी भावनाओं का ईश्वर अनेकांश मे हीन है, ईश्वर के अवतार का चरित्र आपके कल्पित ईश्वर की अपेक्षा कही अधिक उच्च है। आदर्श के विग्रह-स्वरूप इन महापुरुषों ने ईश्वर की साक्षात्‌ उपलब्धि कर, अपने महान्‌ जीवन का जो आदर्श, जो दृष्टान्त हमारे सम्मुख रखा है, ईश्वरत्व की उससे उच्च भावना धारण करना असम्भव है। इसलिए यदि कोई "इनकी ईश्वर के समान अर्चना करने लगे, तो इसमे क्या अनौचित्य है ? इन नरनारायणो के चरणाम्बुजों मे लुण्ठित हो यदि कोई उनकी भूमि पर अवतीर्ण ईश्वर के समान पूजा करने लगे तो क्या पाप है? यदि उनका जीवन हमारे ईश्वरत्व के उच्चतम आदर्श से भी उच्च है तो उनकी पूजा करने मे क्या दोष? दोष की बात तो दूर रही, ईश्वरोपासना की केवल यही एक विधि सम्भव है।...'
- 'महापुरुषों की जीवनगाथाएँ” से उद्धृत

अवतार के लक्षण। ईसा मसीह 

       अवतार-पुरुष क्या कहने के लिए आते हैं ? श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र से कहा था, “भैया, कामिनी-कांचन का त्याग किये बिना न होगा। ईश्वर ही वस्तु है, बाकी सभी अव्स्तु हैं।” स्वामीजी ने भी अमरीकनों से कहा - 
      “... हम अपने आलोच्य महापुरुष, जीवन के इस दिव्य-संदेशवाहक (ईसा) के जीवन का मूलमन्त्र यही पाते है कि यह जीवन कुछ नहीं है, इससे भी उच्च कुछ और है! ...। उन्हें इस नश्वर जगत्‌ व उसके क्षणभंगुर ऐश्वर्य मे विश्वास नहीं था। ... ईसा स्वयं त्यागी व वैराग्यवान्‌ थे, इसलिए उनकी शिक्षा भी यही है कि वैराग्य-या त्याग ही मुक्ति का एकमेव मार्ग है, इसके अतिरिक्त मुक्ति का और कोई पथ नहीं है। यदि हममें इस मार्ग पर अग्रसर होने की क्षमता नहीं है, तो हमें मुख मे तृण धारण कर विनीत भाव से अपनी यह दुर्बलता स्वीकार कर लेनी चाहिए कि हममें अब भी 'मैं' और 'मेरे' के प्रति ममत्व है, हममें (अब भी ?) धन और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति है। हमें धिक्कार है कि हम यह सब स्वीकार न कर, मानवता के उन महान्‌ आचार्य का अन्य रूप से वर्णन कर उन्हें निम्न स्तर पर खींच लाने की चेष्टा करते है। उन्हे पारिवारिक बन्धन नहीं जकड़ सके। क्या आप सोचते है कि ईसा के मन में कोई सांसारिक भाव था? कया आप सोचते हैं कि यह ज्ञानज्योतिस्वरूप अमानवी मानव, यह प्रत्यक्ष ईश्वर पृथ्वी पर पशुओं का समधर्मी बनने के लिए अवतीर्ण हुआ? किन्तु फिर भी लोग उनके उपदेशों का अपनी इच्छानुसार अर्थ लगाकर प्रचार करते हैं। उन्हें देह-ज्ञान नहीं था, उनमें स्त्री-पुरुष भेदबुद्धि नही थी - वे अपने को लिंगोपाधिरहित आत्मास्वरूप जानते थे। वे जानते थे कि वे शुद्ध आत्मास्वरूप हैं - देह में अवस्थित हो मानवजाति के कल्याण के लिए देह का परिचालन मात्र कर रहे हैं। देह के साथ उनका केवल इतना ही सम्पर्क था। आत्मा लिंगविहीन है। विदेह आत्मा का देह व पाशवभाव से कोई सम्बन्ध नहीं होता। अवश्यमेव त्याग व वैराग्य का यह आदर्श साधारण जनों की पहुँच के बाहर हैकोई हर्ज नही, हमें अपना आदर्श विस्मृत नहीं कर देना चाहिए - उनकी प्राप्ति'के लिए सतत यत्नशील रहना चाहिए। हमें यह स्वीकार कर लेना -हिए कि त्याग हमारे जीवन का आदर्श है, किन्तु अभी तक हम उस तक पहुँचने में असमर्थ हैं।...'
-'महापुरुषों की जीवनगाथाएँ' से उद्धृत 

       फिर अमरिकनो से कह रहे है - “... अपनी महान्‌ वाणी से ईसा ने जगत में घोषणा की, “दुनिया के लोगों, इस बात को भलीभाँति जान लो कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे अभ्यन्तर में  अवस्थित है।' - 'मैं और मेरे पिता अभिन्न है।' साहस कर खड़े हो जाओ और घोषणा करो -"मै केवल ईश्वर-तनय ही नहीं हूँ, पर अपने हृदय मे मुझे यह भी प्रतीति हो रही है कि मैं और मेरे पिता एक और अभिन्न हैं।" नाजरथवासी ईसा मसीह ने यही कहा।...“ .. इसलिए हमें  केवल नाजरथवासी ईसा में ही ईश्वर का दर्शन न कर विश्व के उन सभी महान्‌ आचार्यों व पैगम्बरों में भी उसका दर्शन करना चाहिए, जो ईसा के पहले जन्म ले चुके थे, जो ईसा के पश्चात्‌ आविर्भुत हुए हैं और जो भविष्य में अवतार ग्रहण करेंगे। हमारा सम्मान और हमारी पूजा सीमाबद्ध न हो। ये सब महापुरुष उसी एक अनन्त ईश्वर की विभिन्न अभिव्यक्ति हैं वे सब शुद्ध और स्वार्थगन्ध-शून्य हैं, सभी ने इस दुर्बल मानवजाति के उद्धार के लिए प्राणपण से प्रयत्न किया है, इसी के लिए अपना जीवन निछावर कर दिया है। वे हमारे और हमारी आनेवाली सन्तान के सब पापों को ग्रहण कर उनका प्रायश्चित्त कर गये है।...”
- 'महापुरुषों की जीवनगाथाएँ ' से उद्धृत

    स्वामीजी वेदान्त की चर्चा करने के लिए कहा करते थे, परन्तु साथ ही उस चर्चा में जो विपत्ति है, वह भी बता देते थे। श्रीरामकृष्ण जिस दिन ठनठनिया में श्री शशधर पण्डित के साथ वार्तालाप कर रहे थे, उस दिन नरेन्द्र आदि अनेक भक्त वहाँ पर उपस्थित थे, १८८४ ईसवी।

ज्ञानयोग व स्वामी विवेकानन्द

     श्रीरामकृष्ण ने कहा है, 'इस युग में ज्ञानयोग बहुत कठिन है। जीव का एक तो अन्न में प्राण है, उस पर आयु कम है। फिर देह-बुद्धि किसी भी तरह नही जाती। इधर देहबुद्धि न जाने से ब्रह्मज्ञान नहीं होता। ज्ञानी कहते हैं, 'मैं वही ब्रह्म हूँ।' मैं शरीर नही हूँ, मैं भूख-प्यास, रोग-शोक, जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख इन सभी से परे हूँ। यदि रोग-शोक, सुख-दुःख इन सब का बोध रहे तो तुम ज्ञानी क्योंकर होगे? इधर काँटे से हाथ चुभ रहा है, खून की धारा बह रही है, बहुत दर्द हो रहा है, परन्तु कहता है, "कहाँ, हाथ तो नही कटा! मेरा क्या हुआ? '
       “इसलिए इस युग के लिए भक्तियोग है। इसके द्वारा दूसरे पथों की तुलना मे आसानी से ईश्वर के पास जाया जाता है। ज्ञानयोग या कर्मयोग तथा दूसरे पथो से भी ईश्वर के पास जाया जा सकता है, परन्तु थे सब कठिन पथ है।” 
     श्रीरामकृष्ण ने और भी कहा है, “कर्मियो का जितना कर्म बाकी है, उतना निष्काम भावना से करें। निष्काम कर्म द्वारा चित्तशुद्धि होनें पर भक्ति आयेगी। भक्ति द्वारा भगवान की प्राप्ति होती है।'' 
       स्वामीजी ने भी कहा, “देह-बुद्धि रहते 'सोऽहम्' नहीं होता - अर्थात्‌ सभी वासनाएँ मिट जाने पर, सर्वत्याग होने पर तब कहीं समाधि होती है। समाधि होने पर तब ब्रह्मज्ञान होता हैभक्तियोग सरल व मधुर (natural and sweet) है।” 
     “ .. ज्ञानयोग अवश्य ही अति श्रेष्ठ मार्ग है। उच्च तत्त्वज्ञान इसका प्राण है, और आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रत्येक मनुष्य यह सोचता है कि वह ज्ञानयोग के आदर्शानुसार चलने में समर्थ है। परन्तु वास्तव मे ज्ञानयोग-साधना बड़ी कठिन है। ज्ञानयोग के पथ पर चलने में हमारे गड्ढे में गिर जाने की बड़ी आशंका रहती है। कहा जा सकता है कि इस संसार मे दो प्रकार के मनुष्य होते हैं। एक तो आसुरी प्रकृतिवाले जिनकी दृष्टि में अपने शरीर का पालन-पोषण ही सर्वस्व है और दूसरे दैवी प्रकतिवाले, जिनकी यह धारणा रहती है कि यह मानव-शरीर किसी एक विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए केवल एक साधन तथा आत्मोन्नति के लिए एक यन्त्रविशेष हैशैतान भी अपनी कार्यसिद्धि के लिए झट से शास्त्रों को उद्धृत कर देता है, और इस प्रकार प्रतीत होता है कि बुरे मनुष्य के कृत्यों के लिए भी शास्त्र उसी प्रकार साक्षी हैं जैसे कि एक सत्पुरुष के शुभ कार्य के लिए। ज्ञानयोग मे यही एक बड़े डर की बात है। परन्तु भक्तियोग स्वाभाविक तथा मधुर (natural and sweet) हैभक्त उतनी ऊँची उड़ान नही उड़ता जितनी कि एक ज्ञानयोगी, और इसीलिए उसके उतने बड़े खड्ढों मे गिरने की आशंका भी नहीं रहती।..."

क्या श्रीरामकृष्ण अवतार हैं ? स्वामीजी का विश्वास

    भारत के महापुरुषों  (The Sages of India) के सम्बन्ध मे स्वामीजी ने जो भाषण दिया था, उसमें अवतार-पुरुषों की अनेक बातें कही हैं। श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण, बुद्धदेव, रामानुज, शंकराचार्य, चैतन्यदेव आदि सभी की बातें कहीं। भगवान श्रीकृष्ण क इस कथन का उद्धरण देकर समझाने लगे, 'जब धर्म की ग्लानि होकर अधर्म का अभ्युत्थान होता है, तो साधुओं के परित्राण के लिए, पापाचार को विनष्ट करने के लिए मैं युग युग में अवतीर्ण होता हूँ।' 
    उन्होने फिर कहा, 'गीता में श्रीकृष्ण ने धर्मसमन्वय किया है', - 
     “... हम गीता में भिन्न भिन्न सम्प्रदायों के विरोध के कोलाहल की दूर से आती हुई आवाज सुन पाते हैं, और देखते हैं कि समन्वय के वे अदभुत प्रचारक भगवान श्रीकृष्ण बीच में पड़कर विरोध को हटा रहे है। ...”
- 'भारतीय व्याख्यान' से उद्धृत “

      " श्रीकृष्ण ने फिर कहा है, - स्त्री, वैश्य, शूद्र सभी परम गती को प्राप्त करेगे,  ब्राह्मण क्षत्रियों की तो बात ही क्या है! 
[सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।6.29।।
(सर्व-भूत-स्थम्- आत्मानम्-सर्व-भूतानि- च– आत्मनि। ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र-मदर्शनः।)
BG 6.29: सच्चा योगी अपनी चेतना को भगवान के साथ एकीकृत कर समान दृष्टि से सभी जीवों में भगवान और भगवान को सभी जीवों में देखता है।--सब जगह अपने स्वरूप को देखने वाला और ध्यानयोग से युक्त अन्तःकरण वाला और सर्वत्र समदर्शी योगी अपने स्वरूप (भगवान) को सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित देखता है और सम्पूर्ण प्राणियों को अपने स्वरूप (भगवान) में देखता है।] 
      “बुद्धदेव दरिद्र के देव है। सर्वभूतस्थमात्मानम्‌ - भगवान सर्वभूतो मे हैं ! -यह उन्होंने प्रत्यक्ष दिखा दिया। बुद्धदेव के शिष्यगण आत्मा, जीवात्मा आदि नहीं मानते हैं  - इसीलिए शंकराचार्य ने फिर से वैदिक धर्म का उपदेश दिया। वे वेदान्त का अद्वैत मत, रामानुज का विशिष्टाद्वैत मत समझाने लगे। उसके बाद चैतन्यदेव प्रेममक्ति सिखाने के लिए अवतीर्ण हुए। शंकर और रामानुज ने जाति का विचार किया था, परन्तु चैतन्यदेव ने ऐसा न किया। चैतन्यदेव ने कहा, “भक्त की फिर जाति क्या?” 
        अब स्वामीजी श्रीरामकृष्णदेव की बात कह रहे है, -
    “.... एक (शंकराचार्य) का था अद्भुत मस्तिष्क, और दूसरे (चैतन्य) का था विशाल हृदय। अब एक ऐसे अद्भुत पुरुष के जन्म लेने का समय आ गया था, जिनमें ऐसा ही हृदय और मस्तिष्क दोनो एक साथ विराजमान हों, जो शंकर के अद्भुत मस्तिष्क एवं चैतन्य के अद्भुत. विशाल, अनन्त हृदय के एक ही साथ अधिकारी हो, जो देखे कि सब सम्प्रदाय एक ही आत्मा, एक ही ईश्वर की शक्ति से चालित हो रहे हैं और प्रत्येक प्राणी में वही ईश्वर विद्यमान है, जिनका हृदय भारत में अथवा भारत के बाहर दरिद्र, दुर्बल, पतित सब के लिए पानीपानी हो जाय, लेकिन साथ ही जिनकी विशाल बुद्धि ऐसे महान्‌ तत्त्वों को पेदा करे, जिनसे भारत में अथवा भारत के बाहर सब विरोधी सम्प्रदायों मे समन्वय साधित हो;  और इस अद्भुत समन्वय द्वारा एक ऐसे सार्वभौमिक धर्म को प्रकट करे, जिससे हृदय और मस्तिष्क दोनो की बराबर उन्नति होती रहे। एक ऐसे ही पुरुष ने जन्म ग्रहण किया और मैने वर्षो तक उनके चरण तले बैठकर शिक्षा-लाभ का सौभाग्य प्राप्त किया। ऐसे एक पुरुष के जन्म लेने का समय आ गया था, इसकी आवश्यकता पड़ी थी, ओर वे आविर्भूत हुए। सब से अधिक आश्चर्य की बात यह थी कि उनका समग्र जीवन एक ऐसे शहर के पास व्यतीत हुआ जो पाश्चात्य भावों से उन्मत्त हो रहा था, भारत के सब शहरों की अपेक्षा जो विदेशी भावों से अधिक भरा हुआ था। उनमें पोथियों की विद्या कुछ भी न थी, ऐसे महाप्रतिभा-सम्पन्न होते हुए भी वे अपना नाम तक नहीं लिख सकते थे, किन्तु हमारे विश्वविद्यालय के बड़े बड़े उपाधिधारियों ने उन्हें देखकर एक महाप्रतिभाशाली व्यक्ति मान लिया था। वे एक अदभुत महापुरुष थे। यह तो एक बड़ी लम्बी कहानी है, आज रात को आपके निकट उनके विषय में कुछ भी कहने का समय नहीं है। इसलिए मुझे भारतीय सब महापुरुषों के पूर्णप्रकाश-स्वरूप युगाचार्य भगवान श्रीरामकृष्ण का उल्लेख भर करके आज समाप्त करना होगा। उनके उपदेश आजकल हमारे लिए विशेष कल्याणकारी हैं। उनके भीतर जो ऐश्वरिक शक्ति थी, उस पर विशेष ध्यान दीजिये। वे एक दरिद्र ब्राह्मण के लड़के थे। उनका जन्म बंगाल के सुदूर, अज्ञात, अपरिचित किसी एक गाँव मे हुआ था। आज यूरोप, अमरीका के सहस्रों व्यक्ति वास्तव मे उनकी पूजा कर रहे हैं, भविष्य में और सहस्रों मनुष्य उनकी पूजा करेगे। ईश्वर की लीला कौन समझ सकता है ! हे भाइयों, आप यदि इसमें विधाता का हाथ नही देखते तो आप अन्धे हैं, सचमुच जन्मान्ध है। यदि समय मिला, यदि आप लोगो से आलोचना करने का और कभी अवकाश मिला तो आपसे इनके सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक कहूँगा; इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर मे एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का वाक्य है; पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे है जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिए हितकारी न हों, तो वे सब मेरे ही वाक्य है, उनके लिए पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ।''
- 'भारतीय व्याख्यान' से उद्धृत 
        स्वामीजी ने और भी कहा है, -
        “..... फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है, एक बार फिर भारत से वही शक्तिप्रवाह नि:सृत हो रहा है, जो शीघ्र ही समस्त जगत्‌ को प्लावित कर देगा। एक वाणी मुखरित हुई है, जिसकी प्रतिध्वनि चारों ओर व्याप्त हो रही है एवं जो प्रतिदिन अधिकाधिक शक्ति संग्रह कर रही है, और यह वाणी इसके पहले की सभी वाणियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली है, क्योंकि यह अपने पूर्ववर्ती उन सभी वाणियों का समष्टिस्वरूप है। जो वाणी एक समय कलकल-निनादिनी सरस्वती के तीर पर ऋषियों के अन्तस्तल में प्रस्फुटित हुई थी, जिस वाणी ने रजतशुभ्रहिमाच्छादित गिरिराज हिमालय के शिखर- शिखर पर प्रतिध्वनित हो कृष्ण, बुद्ध और चैतन्यदेव में से होते हुए समतल प्रदेशों में अवरोहण कर समस्त देश को प्लावित कर दिया था, वही वाणी एक बार पुन: मुखरित हुई है। एक बार फिर से द्वार खुल गये हैं। आइये, हम सब आलोक-राज्य में प्रवेश करें - द्वार एक बार पुन: उन्मुक्त हो गये हैं। ...” 
 - 'हमारा भारत' से उद्धृत

        इसी प्रकार स्वामी विवेकानन्द ने भारतवर्ष के अनेक स्थानों में अवतार-पुरुष श्रीरामकृष्ण के आगमन की वार्ता घोषित की जहाँ जहाँ मठ स्थापित हुए हैं, वहाँ उनकी प्रतिदिन सेवा-पूजा आदि हो रही है। आरती के समय सभी स्थानों में स्वामीजी द्वारा रचित स्तव वाद्य तथा स्वर-संयोग के साथ गाया जाता है। इस स्तव में स्वामीजी ने भगवान्‌ श्रीरामकृष्ण को सगुण निर्गुण निरंजन जगदीश्वर कहकर सम्बोधित किया है - और कहा है, "हे भवसागर के पार उतारनेवाले! तुम नररूप धारण करके हमारे भवबन्धन को छिन्न करने के लिए योग के सहायक बनकर आये हो। तुम्हारी कृपा से मेरी समाधि हो रही है। तुमने कामिनी-कांचन छुड़वाया है। हे भक्तों को शरणदेनेवाले, अपने चरण-कमलों में मुझे प्रेम दोतुम्हरे चरणकमल मेरी परम सम्पद्‌ हैं। उसे प्राप्त करने पर भवसागर गोष्पद जैसा लगता है।
 
स्वामीजी-रचित श्रीरामकृष्ण-आरती।

(मिश्र-चौताल)

खण्डन भव-बन्धन, जग-वन्दन, वन्दि तोमाय।
निरंजन, नररूपधर, निर्गुण, गुणमय॥
मोचन-अघदूषण, जगभूषण, चिद्घनकाय।
ज्ञानांजन-विमल-नयन, वीक्षणे मोह जाय॥
भास्वर भाव-सागर, चिर-उन्मद प्रेम-पाथार।
भक्तार्जन-युगलचरण, तारण भव-पार॥
जृम्भित -युग-ईश्वर, जगदीश्वर, योगसहाय।
निरोधन, समाहित मन, निरखि तव कृपाय॥
भंजन-दु:खगंजन, करुणाघन, कर्म-कठोर।
प्राणार्पण-जगत-तारण, कृन्तन-कलिडोर।॥
वंचन-कामकांचन, अतिनिन्दित-इन्द्रिय-राग।
त्यागीश्वर, हे नरवर, देह पदे अनुराग॥
निर्भय, गतसंशय, दृढ़निश्चयमानसवान|
निष्कारण-भकत-शरण त्यजि ,जातिकुलमान।।
सम्पद तव श्रीपद, भव गोष्पद-वारि यथाय। 
प्रेमापण, समदर्शन, जगजन-दुख जाय॥

⚜️🔱महावाक्य : 'जो राम, जो कृष्ण, इस समय वही रामकृष्ण' ⚜️🔱

     काशीपुर बगीचे में स्वामीजी ने यह महावाक्य भगवान श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से सुना था। इस महावाक्य का स्मरण कर स्वामीजी ने विलायत से कलकत्ते मे लौटने के बाद बेलुड़ मठ में एक स्तोत्र की रचना की थी। स्तोत्र में उन्होने कहा है - जो आचण्डाल दीनदरिद्रों के मित्र, जानकीवल्लभ, ज्ञान-भक्ति के अवतार श्रीरामचन्द्र हुए, जिन्होंने फिर श्रीकृष्ण के रूप में कुरुक्षेत्र में गीतारूपी गम्भीर मधुर सिंहनाद किया था, वे ही इस समय विख्यात पुरुष श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए हैं

ॐ नमो भगवते रामकृष्णाय 

(१)

आचण्डालाप्रतिहतरयो यस्त्य प्रेमप्रवाह:
लोकातीतोSप्यहह न जहौ लोककल्याणमार्गम्‌| 

त्रैलोक्येSप्यप्रतिममहिमा जानकीप्राणबन्ध:
भकत्या ज्ञानं वृतवरवपु: सीतया यो हि राम:॥

(२) 

स्तब्धीकृत्य प्रनयकलितम्वाहवोत्थं महान्तम्‌
हित्वा रात्रि प्रकृतिसहजामन्धतामिस्रमिश्राम्‌।
गीत॑ शान्तं मधुरमपि य: सिहनादं जगर्ज।
सोSयं जात: प्रथितपुरुषो रामकृष्णस्त्विदानीम्‌॥ 

     और एक स्तोत्र बेलुड़ मठ में तथा वाराणसी, मद्रास, ढाका आदि सभी मठों में आरती के समय गाया जाता है। इस स्तोत्र मे स्वामीजी कह रहे है - ' हे दीनबन्धो, तुम सगुण हो, फिर त्रिगुणों के परे हो, रातदिन तुम्हारे चरणकमलों की आराधना नहीं कर रहा हूँ इसीलिए मै तुम्हारी शरण में आया हूँ। मैं मुख से आराधना कर रहा हूँ, ज्ञान का अनुशीलन कर रहा हूँ, परन्तु कुछ भी धारणा करने मे असमर्थ हूँ इसीलिए तुम्हारी शरण मे आया हूँ तुम्हारे चरण-कमलों  का चिन्तन करने से मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है, इसीलिए मै तुम्हारी शरण मे आया हूँ। हे दीनबन्धो, तुम ही जगत्‌ की एकमात्र प्राप्त करने योग्य वस्तु हो, मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। 'त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो!” ”
ॐ ह्रीं ऋतं त्वमचलो गुणजित्‌ गुणेड्य:

नक्तन्दिवं सकरुणं तव पादपद्मम्‌|

मोहंकषं बहुकृतं न भजे यतोSहम्‌'

             तस्मात्त्वमेव शरणं मम दनबन्धो॥ १॥

भक्तिर्भगश्च भजन भवभेदकारि

गच्छन्त्यलं सुविपुलं गमनाय तत्त्वम्‌|

वक्रोद्धृतन्तु हदि मे न च भाति किंचित्‌

                   तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥२॥

तेजस्तरन्ति तरसा त्वयि तृप्तृष्णा:

रागे कृते ऋतपथे त्वयि रामकृष्णे।

मर्त्यामृतं तव पदं मरणोरमिनाशम्‌

                     तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो॥ ३॥

कृत्यं करोति कलुषं कुहकान्तकारि

ष्णान्तं शिवं सुविमलं तव नाम नाथ। 

यस्मादहं त्वशरणो जगदेकगम्य
            
                        तस्मात्त्वमेव शरणं मम दीनबन्धो।।४॥
       
      स्वामीजी ने आरती के बाद श्रीरामकृष्ण-प्रणाम सिखाया है। उसमें श्रीरामकृष्णदेव को अवतारों में श्रेष्ठ कहा गया है।

“ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे।

अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नम:॥” 

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[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-परिच्छेद 122] 

“लक्ष्मण ने कहा था, ‘हे राम, वशिष्ठदेव जैसे पुरुष को भी पुत्रों का शोक हो रहा है ।’ राम ने कहा, ‘भाई, जिसमें ज्ञान है उसमें अज्ञान भी है । जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । इसलिए ज्ञान और अज्ञान से परे हो जाओ ।’ ईश्वर को विशेष रूप से जान लेने पर यह अवस्था प्राप्त हो जाती है । इसे ही विज्ञान कहते हैं। 

“पैर में काँटा चुभ जाने से, उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आना पड़ता है । निकालने के बाद फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । ज्ञानरूपी काँटे से अज्ञानरूपी काँटा निकालकर, ज्ञान और अज्ञानरूपी दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं ।

डाक्टर - और एक बात कहूँगा, आप फिर मुझसे ऐसा क्यों कहते हैं- कि रोग अच्छा कर दो ?

श्रीरामकृष्ण - जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है । सोचो, एक महासमुद्र है, ऊपर-नीचे जल से पूर्ण है । उसके भीतर एक घट है । घट के भीतर बाहर पानी है; परन्तु उसे बिना फोड़े यथार्थ में एकाकार नहीं होता । उन्हीं ने इस ‘मैं’ – घट को रख छोड़ा है 

डाक्टर - तो यह ‘मैं’ जो आप कह रहे हैं, यह सब क्या है ? इसका भी तो अर्थ कहना होगा । क्या वे (ईश्वर) हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं ?

[जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है ।] 

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - इस ‘मैं’ को उन्हीं ने रख छोड़ा है । उनकी क्रीड़ा – उनकी लीला !

एक राजा के चार लड़के थे । सब थे तो राजा के लड़के, परन्तु उन्हीं में कोई मन्त्री, कोई कोतवाल, इसी तरह बन-बनकर खेल रहे थे । राजकुमार होकर कोतवाल (शिक्षक) का खेल!  

(डाक्टर से) “सुनो, यदि तुम्हें आत्म-साक्षात्कार हो जाय तो यह सब तुम मानने लग जाओगे । उनके दर्शन से सब संशय दूर हो जाते हैं 

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श्री रामकृष्ण परमहंस कुछ उपदेश - 

1. अहंकार के बारे में रामकृष्ण परमहंस के विचार थे कि अहंकार ही असल रूप में माया है। अतः मनुष्य को इसका त्याग कर देना चाहिए। अहंकार को त्याग कर के ही मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है

2. श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार जो व्यक्ति नित्य, परम तत्व को प्राप्त करके लीला, या  सापेक्षिक जगत  में निवास कर सकता है, तथा लीला से पुनः नित्य की ओर चढ़ सकता है, वही परिपक्व ज्ञान और भक्ति रखता है। नारद जैसे ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान के प्रति प्रेम का अनुभव किया। इसे विज्ञान कहते हैं। 

[ श्रीरामकृष्ण (मणि से): "अष्टावक्र संहिता में आत्मज्ञान की चर्चा की गई है। अद्वैतवादी कहते हैं, 'सोहम्' अर्थात् 'मैं परमात्मा हूँ।' यह वेदान्त के संन्यासियों का दृष्टिकोण है। लेकिन गृहस्थों के लिए यह उचित दृष्टिकोण नहीं है। ......जो स्वयं को स्त्री-पुरुष समझकर ही सब व्यवहार करने के प्रति सचेत रहते हैं। ऐसा होने पर, वे कैसे घोषणा कर सकते हैं कि, 'मैं वह हूँ, वह निष्क्रिय हूँ?'

 कृष्णकिशोर ज्ञानियों की तरह कहा करता था कि मैं ‘ख’ अर्थात् आकाशवत् हूँ । वह परम भक्त था; उसके मुँह से यह बात भले ही शोभा दे, पर सब के मुँह में यह शोभा नहीं देती। क्योंकि दादा ने मुझे बताया था - नारद का माया दर्शन - पानी ले आया नारद ? तब नारद ने नारायण भगवान विष्णु के प्रति प्रेम का अनुभव किया। 

MASTER (to M.): "Self-Knowledge is discussed in the Ashtavakra Samhita. The non-dualists say, 'Soham', that is, 'I am the Supreme Self.' This is the view of the sannyasis of the Vedantic school. But this is not the right attitude for householders, who are conscious of doing everything themselves. According to the non-dualists the Self is unattached. Good and bad, virtue and vice, and the other pairs of opposites, cannot in any way injure the Self, though they undoubtedly afflict those who have identified themselves with their bodies. 

Smoke soils the wall, certainly, but it cannot in any way affect akasa, space. Following the Vedantists of this class, Krishnakishore used to say, 'I am Kha', meaning akasa. Being a great devotee, he could say that with some justification; but it is not becoming for others to do so.

पर  ‘मैं मुक्त हूँ’ यह अभिमान बड़ा अच्छा है । ‘मैं मुक्त हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला मुक्त हो जाता है। और ‘मैं बद्ध हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला बद्ध ही रह जाता है । जो केवल यह कहता है कि ‘मैं पापी हूँ’ वही सचमुच गिरता है । केवल यही कहते रहना चाहिए – ‘मैंने उनका नाम लिया है, अब मेरे पाप कहाँ ? मेरा बन्धन कैसा ?’

 श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार यह समस्त संसार माया के रूप में है। इस माया के प्रभाव के कारण ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। अतः मनुष्य को ईश्वर का चिंतन (आत्मचिंतन)  करने से माया समझ में आती है, तभी वह अपने लिए मोक्ष का मार्ग बनाने में सफल होता है।

$$$$[(19 अगस्त, 1883) परिच्छेद ~ 49, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

"But to feel that one is a free soul is very good. By constantly repeating, 'I am free, I am free', a man verily becomes free. On the other hand, by constantly repeating, 'I am bound, I am bound', he certainly becomes bound to worldliness. The fool who says only, 'I am a sinner, I am a sinner', verily drowns himself in worldliness. One should rather say: 'I have chanted the name of God. How can I be a sinner? How can I be bound?'

(श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार लकड़ी में अग्नि विद्यमान है यह जानना ज्ञान है, लेकिन उस पर चावल पकाना विज्ञान है। यह जागरूकता और दृढ़ विश्वास कि लकड़ी में आग मौजूद है, ज्ञान है। लेकिन उस आग पर चावल पकाना, चावल खाना और उससे पोषण प्राप्त करना विज्ञान है।) 

यह बोध कि ईश्वर (आत्मा) ही स्वयं ब्रह्मांड और सभी जीवित प्राणी बन गए हैं, विज्ञान है।  अपने आंतरिक अनुभव से यह जानना कि ईश्वर (आत्मा ह्रदय में) मौजूद है, ज्ञान है। लेकिन उससे बात करना, उसे बच्चे के रूप में, दोस्त के रूप में, गुरु के रूप में, प्रिय के रूप में आनंद लेना विज्ञान है। 

3 . श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार ज्ञानी कहते हैं, ‘यह संसार धोखे की टट्टी (नाम-रूप भ्रम का ढाँचा) है।’ लेकिन जो ज्ञान और अज्ञान दोनों से परे है, वह इसे ‘आनंद की कुटिया ’ कहता है। वह देखता है कि यह भगवान ही हैं जो ब्रह्मांड, सभी जीवित प्राणी और चौबीस ब्रह्मांडीय सिद्धांत बन गए हैं।केवल वही व्यक्ति जो नित्य को प्राप्त होकर लीला में निवास कर सकता है, परिपक्व ज्ञान और भक्ति रखता है।

4. यह भगवान (नारायण) ही हैं जो इस विश्वरंगमंच पर स्वयं (M/F की) अलग-अलग भूमिकाएं निभा रहे हैं।  

 गिरीश: श्री रामकृष्ण परमहंस से पूछते हैं कि - चैतन्य लीला नाटक में आपको यह अभिनय कैसा लगा?

श्रीरामकृष्ण : मैंने देखा कि भगवान ही विश्व-रंगमंच पर अलग-अलग अभिनय कर रहे हैं , स्त्री-पुरुष (M/F) की भूमिकाएँ निभा रहे थे। महिला पात्र की अभिनय करने वाली नटी मुझे साक्षात् माँ आनंदमयी की अवतार लगी और गोलोक के ग्वालबाल स्वयं नारायण के अवतार। भगवान ही थे जो ये सब बन गए थे।

​*मनुष्य को जीवन में त्याग की भावना रख कर जीवन यापन करना चाहिए। रामकृष्ण परमहंस का यहां कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं है। व्यक्ति को यह चीज पहले से स्वीकार कर लेनी चाहिए, अन्यथा उसे अपनी चीजें खोने की सदैव चिंता सताती रहेगी।

 *श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार  मन (अहंकार)  ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है!  इसलिए मन को नियंत्रित कर अपना मार्ग सुगम बनाना चाहिए।

श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार हर व्यक्ति दिखने में अलग और स्वाभाव से भी अलग होता है। कोई दिखने में गोरा है, कोई काला है, कोई सीधा है, तो कोई क्रूर है परंतु सभी में इश्वर तत्व (आत्मा) विद्यमान है। अतः सभी में ईश्वर की छवि देखना चाहिए। लेकिन दुष्ट -कपटी से सावधान-सतर्क भी रहना चाहिए। हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है। 

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श्री रामकृष्ण के मानस पुत्र स्वामी ब्रह्मानन्द जी महाराज के उपदेश : 

1.ईश्वर के रहस्य को कौन समझ सकता है? वह अनंत और निराकार है, तथापि वह साकार भी है। वह स्वयं को मनुष्य के रूप में अवतरित करता है। वास्तव में, ईश्वर मनुष्य को अपने पास लाने के लिए जिन छलों के मार्गों को से होकर जाता है, उसे समझना मन की शक्ति से परे है। कभी मार्ग सुगम होता है, कभी काँटों भरा होता है, और कभी दुर्गम पर्वत के समान होता है, लेकिन फिर भी यदि वह केवल उसकी शरण ले,[यानि स्वयं को उनका (त्रिदेवों) का दास समझे !] तो वह मनुष्य को सुरक्षित रूप से अपने पास ले जाता है,। 

Who can fathom the mystery of God? He is infinite and formless, and yet he is also with form. He incarnates himself as man. Verily, it is beyond the power of the mind to understand the devious ways through which God leads man to himself. Sometimes the path is smooth, sometimes it is thorny, and sometimes it is like an impassable mountain, but still He leads man safely to himself, if he will only take refuge in Him.

[वह (ईश्वर) अनंत तथा निराकार है, तथापि वह साकार भी है। वह (ईश्वर-आत्मा या ब्रह्म?) स्वयं को मनुष्य (M/F) के रूप में अवतरित करता है।  

'Verily, it is beyond the power of the mind to understand the devious ways through which God leads man to himself.' 

'वास्तव में, मनुष्य को अपने पास लाने के लिए ईश्वर (माँ के समान) जिस चतुराई पूर्ण मार्गों से अपनी ओर खींचने के लिए आकर्षित करता है, उसे समझना मानव-मन की शक्ति से परे है। [अहं नहीं आत्मा (Oneness -एकत्व -अभेद-दृष्टि) के द्वारा जैसे माँ तारा बच्चे को बहला -फुसलाकर भरपेट खाना खिला देती हैं। ये कौर तोता का , ये कौर मैना का ?] 

2. साक्षात्कार का सबसे सरल तरीका है ईश्वर को निरंतर स्मरण करना।  जैसे कोई व्यक्ति अपने मित्र का स्वागत करता है, तथा भोजन, पेय तथा वार्तालाप से उसका सत्कार करता है, वैसे ही आपको भी अपने विचारों में ईश्वर का सत्कार करना चाहिए

[जीव ही शिव है- लेकिन हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है।]

The easiest method of realization is to remember God constantly. Even as a man welcomes his friend, and entertains him with food, drink, and conversation, so must you entertain God in your thoughts.

3.उससे खुलकर बातचीत करें। उसे अपना ही समझें, और आपको उसमें शांति मिलेगी।

Converse freely with him. Know him as your very own, and you will find peace in him.

4.यह माया ही है जो मन और इंद्रियों को ईश्वर का अनुभव करने की इच्छा से रोकती है, लेकिन जो व्यक्ति ईश्वर को जान लेता है, वह माया के सभी आकर्षणों से ऊपर उठ जाता है

It is maya, which prevents the mind and senses from desiring to experience God, but a man who has realized Him has risen above all the charms and attractions of maya.

5. माया अपने रहस्यों को केवल उसी के सामने प्रकट करती है जो माया से परे चला गया है।

Maya reveals her mysteries only to him who has gone beyond maya.

6. माया की जंजीरों में जकड़े होने के कारण, मनुष्य को यह एहसास नहीं होता कि जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते हुए उसका दुख कितना बड़ा है।

Being chained to maya, man does not realize how great is his suffering as he whirls around on the wheel of birth and death.

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