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Tuesday, March 25, 2025

⚜️🔱नरेन्द्र की श्रेष्ठता ⚜️🔱" श्री रामकृष्ण वचनामृत :*ख. परिच्छेद १**श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द)**(अमरीका और यूरोप में विवेकानन्द)*

 श्री रामकृष्ण वचनामृत :*ख. परिच्छेद १*

*श्रीरामकृष्ण तथा नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द)*

(अमरीका और यूरोप में विवेकानन्द)

Vivekananda in America and in Europe 

(१)

 ⚜️🔱नरेन्द्र की श्रेष्ठता ⚜️🔱

Great qualities of Narendra – ‘a prince among men’ 

आज रथयात्रा का दूसरा दिन है, १८८५ ई., आषाढ़ संक्रान्ति । भगवान श्रीरामकृष्ण प्रातःकाल बलराम के घर में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । नरेन्द्र की महानता बतला रहे हैं

It is the day following the Rathayatra, 1885, Sankranti of the month of Ashada. This morning Bhagavan Sri Ramakrishna is sitting with the devotees in Balaram’s house talking about Narendra’s (Swami Vivekananda’s) great qualities. 

"नरेन्द्र आध्यात्मिकता में बहुत ऊँचा है, निराकार का घर है, उसमें पुरुष की सत्ता है । इतने भक्त आ रहे हैं, पर उनमें उसकी तरह एक भी नहीं ।

“Narendra belongs to a very high plane – the realm of the Absolute. He has a manly nature. Many devotees come here, but none can equal him. 

"कभी कभी मैं बैठा-बैठा हिसाब करता हूँ तो देखता हूँ कि पद्मों में कोई दशदल है तो कोई षोड़शदल और कोई शतदल, परन्तु नरेन्द्र सहस्रदल है ।

“Now and then I sit down and consider the devotees. They are like lotuses: some with ten petals, others with sixteen petals and some others with a hundred petals. But among lotuses Narendra is a thousand-petalled lotus. 

"अन्य लोग घड़ा, लोटा ये सब हो सकते हैं, परन्तु नरेन्द्र एक बड़ा मटका है ।

“The others may be a brass pot or a jug – but Narendra is a barrel. 

"तालाबों की तुलना में नरेन्द्र सरोवर है ।

“Compared to ponds and tanks, Narendra is a big lake like the Haldarpukur. 

"मछलियों में नरेन्द्र लाल आँखवाला रोहित मछली है, बाकी सब छोटी-मोटी मछलियाँ हैं ।

“Among fish, he is a big red-eyed carp. Others are different kinds of small fish – minnows and other small fish.1 

"वह बड़ा पात्र है - उसमें अनके चीजें समा जाती है । वह बड़ा सूराखवाला बाँस है ।

“He is a very large container – he can hold many things. He is a bamboo with a big space inside. 

"नरेन्द्र किसी के वशीभूत नहीं है । वह आसक्ति, इन्द्रियसुख के वश में नहीं है । वह नर कबूतर है । नर कबूतर की चोंच पकड़ने पर वह चोंच को खींचकर छुड़ा लेता है । पर स्त्री कबूतर चुप होकर बैठी रहती है।"

“Narendra is not under the control of anything. He is above attachment and sense enjoyments. He is a male pigeon. If you hold a male pigeon’s beak, it will pull it back – a female pigeon doesn’t resist.” 

पहले ईश्वर को पहचानो - जब तुम्हें आज्ञा मिले तो तुम उपदेश दे सकते हो

First realize God – 

when you receive  the commandment

 you may preach ! 

तीन वर्ष पहले (१८८२ ई. में) नरेन्द्र अपने एक ब्राह्म मित्र के साथ दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने आये थे । रात को वे वहीं रहे थे । सबेरा होने पर श्रीरामकृष्ण ने कहा था, "जाओ, पंचवटी में ध्यान करो ।" थोड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण ने जाकर देखा था, वे मित्रों के साथ पंचवटी के नीचे ध्यान कर रहे हैं । ध्यान के बाद श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा था, "देखो, ईश्वर का दर्शन ही जीवन का उद्देश्य है

Three years ago, in 1882, Narendra came to visit Sri Ramakrishna at Dakshineswar with a couple of Brahmo friends. He stayed there for the night. At dawn, Thakur said, “Go and meditate in the Panchavati.” A short time later, Thakur went there and saw that Narendra was meditating with his friends at the foot of the Panchavati. When the meditation was over, Thakur said to him, “Look, the aim of life is to realize God. You should meditate and think on Him privately in a solitary spot and with a yearning heart. And you should pray and weep, saying, ‘Lord, reveal Thyself to me!’” 

व्याकुल होकर एकान्त में गुप्त रूप से उनका ध्यान-चिन्तन करना चाहिए और रो-रोकर प्रार्थना करनी चाहिए, 'प्रभो, मुझे दर्शन दो ।' " ब्राह्म-समाज तथा दूसरे धर्मवालों के लोकहितकर कर्म तथा स्त्री-शिक्षा, स्कूलों की स्थापना एवं भाषण आदि के सम्बन्ध में उन्होंने कहा था, "पहले ईश्वर का दर्शन करो । निराकार साकार दोनों का ही दर्शन । जो वाणी-मन से परे हैं, वे ही भक्त के लिए देहधारण करके दर्शन देते हैं और बात करते हैं । दर्शन के बाद, उनका निर्देश लेकर लोकहितकर कार्य करने चाहिए ।  एक गाने में है - 'मन्दिर में देवता की स्थापना तो हुई नहीं, और पोदो(बुद्ध) केवल शंख बजा रहा है, मानो आरती हो रही हो । इसलिए कोई कोई उसे धिक्कारते हुए कह रहे हैं - अरे पोदो, तेरे मन्दिर में माधव तो है नहीं और तूने खाली शंख बजा-बजाकर इतना ढोंग रच रखा है ! उसमें तो ग्यारह चमगीदड़ रातदिन निवास करते हैं ।'

About the welfare work of the Brahmo Samaj and other religious sects – like the education of women, establishing schools and lecturing – hesaid, “First realize God, both the formless God and God with form. He who is beyond speech and mind assumes a form for the sake of devotees – appears and talks to them. After attaining His vision and getting His commandment, then one should take to humanitarian work. It is said in a song: No deity has been installed in the temple, yet Podo blows a conchshell as if arati is being performed. So somebody scolds him, saying: 

"यदि हृदयरूपी मन्दिर में माधव की स्थापना करना चाहते हो, यदि भगवान को प्राप्त करना चाहते हो तो केवल भों-भों करके शंख बजाने से क्या होगा ? पहले चित्त को शुद्ध करो । मन (अहं) शुद्ध होने पर (दासोऽहं -होनेपर) भगवान पवित्र आसन पर आकर बैठेंगे । चमगीदड़ की विष्ठा रहने पर माधव को लाया नहीं जा सकता। ग्यारह चमगीदड़ अर्थात् ग्यारह इन्द्रियाँ

O Podo, Madhava has not been installed in your temple. You have unnecessarily created confusion by blowing the conch. Eleven bats live here day and night.  “If you wish to install Madhava in the temple of your heart, if you wish to realize God, what is the use of only blowing the conch shell? Purify your heart first. When the heart is purified [कच्चा मैं-(अहं) के पक्का मैं (दासोऽहं  बन जाने के बाद), the Lord will come and sit upon the pure seat. When there are bat droppings, Madhava cannot be brought here. The eleven bats are the eleven sense organs. 

"पहले डुबकी लगाओ । डूबकर रत्न उठाओ, उसके बाद दूसरा काम । पहले माधव की स्थापना करो, उसके बाद चाहो तो व्याख्यान देना ।

“First dive deep. Dive and pick up the jewels. Other work will come later. First install Madhava. Then if you feel like it, you can deliver lectures.

"कोई डुबकी लगाना नहीं चाहता । साधन नहीं, भजन नहीं, विवेक-वैराग्य नहीं, दो-चार बातें सीख लीं, बस लगे 'लेक्चर' देने !

“Nobody likes to dive. No one practices spiritual disciplines – devotion is missing, discrimination and non-attachment are absent. After learning a few words, people start lecturing. 

लोगों को सिखाना कठिन काम है । भगवान के दर्शन के बाद यदि किसी को उनका आदेश -प्राप्त हो, तो वह लोक-शिक्षा दे सकता है "

[विवेकदर्शन या माँ शारदा के उपदेश - तन्नो हंसः प्रचोदयात् लेकर लोकहितकर कार्य करने चाहिए ।] 

“It’s difficult to teach people. If someone receives His command after realizing God, only then can he instruct.” 

*धन्य है वह गुरुभक्ति* 

१८८४ ई. की रथयात्रा के दिन कलकत्ते में श्रीरामकृष्णदेव के साथ पण्डित शशधर का साक्षात्कार हुआ । नरेन्द्र वहाँ पर उपस्थित थे । श्रीरामकृष्ण ने पण्डितजी से कहा, "तुम जनता के कल्याण के लिए भाषण दे रहे हो, सो भली बात है । परन्तु भाई, भगवान के निर्देश के बिना लोकशिक्षा नहीं होती । होगा यह कि लोग दो दिन तुम्हारा भाषण सुनेंगे, उसके बाद भूल जायेंगे

हलदारपुकुर के किनारे पर लोग शौच को जाते थे । लोग गाली-गलौज करते थे, परन्तु कुछ परिणाम न हुआ । अन्त में सरकार ने जब एक नोटिस लगा दिया, तब कहीं लोगों का वहाँ पर शौच जाना बन्द हुआ । इसी प्रकार ईश्वर का आदेश पाये बिना लोक-शिक्षा नहीं होती ।"

[नवनीदा ने जमशेदपुर कैम्प में कहा था -তুমি কি একটা জানোয়ার? আমি চাই তুমি একজন জনগণের শিক্ষক হও! Are you a beast ?  मने करबी तुमि एक जन शिक्षक ! क्या तुम '100% स्वार्थी 'पशु'  हो? 

इसलिए नरेन्द्र ने गुरुदेव की बात को मानकर संसार (में आसक्ति) छोड़ दिया था और एकान्त में गुप्त रूप से बहुत तपस्या की थी । उसके बाद उन्हीं की शक्ति से शक्तिशाली बनकर, इस लोकशिक्षा के व्रत को ग्रहण कर उन्होंने कठिन प्रचार कार्य प्रारम्भ किया था । 

काशीपुर में जिस समय (१८८६ ई.) श्रीरामकृष्ण रुग्ण थे, उस समय उन्होंने एक कागज पर लिखा था, "नरेन्द्र शिक्षा देगा ।"

स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका से मद्रास-निवासियों को जो पत्र लिखा था, उनमें उन्होंने लिखा था कि वे श्रीरामकृष्ण के दास हैं, उन्हीं के दूत बनकर वे उनकी मंगल-वार्ता (ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ - Be and Make !) समग्र जगत् को सुना रहे हैं

"... जिनका सन्देश, भारत तथा समस्त संसार को पहुँचाने का सम्मान मुझ जैसे उनके अत्यन्त तुच्छ और अयोग्य सेवक को मिला है, उनके प्रति आपका आदरभाव सचमुच अपूर्व है । यह आपकी जन्मजात धार्मिक प्रवृत्ति है, जिसके कारण आप उनमें और उनके सन्देश में आध्यात्मिकता के उस प्रबल तरंग की प्रथम हलचल का अनुभव कर रहे हैं, जो निकट भविष्य में सारे भारतवर्ष पर अपनी सम्पूर्ण अबाध्य शक्ति के साथ अवश्यमेव आघात करेगा ।..."

- 'हिन्दू धर्म के पक्ष में' से उद्धृत

मद्रास में दिये गये तीसरे व्याख्यान में उन्होंने कहा था, -

"... इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि यदि मैंने जीवन भर में एक भी सत्य वाक्य कहा है तो वह उन्हीं का (श्रीरामकृष्ण का) वाक्य है; पर यदि मैंने ऐसे वाक्य कहे हैं जो असत्य, भ्रमपूर्ण अथवा मानवजाति के लिए हितकारी न हो तो वे सब मेरे ही वाक्य हैं, उनके लिए पूरा उत्तरदायी मैं ही हूँ ।"

- 'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत

कलकत्ते में स्वर्गीय राधाकान्त देव के मकान पर जब उनकी अभ्यर्थना हुई, उस समय भी उन्होंने कहा था कि 'श्रीरामकृष्णदेव की शक्ति आज पृथ्वी भर में व्याप्त है । हे भारतवासियों, तुम लोग उनका चिन्तन करो, तभी सब विषयों में उन्नति करोगे ।' उन्होंने कहा –

"... यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चयपूर्वक कहूँगा, इस नाम से (श्रीरामकृष्णदेव से) सभी को प्रेमोन्मत्त हो जाना चाहिए श्रीरामकृष्णदेव का प्रचार हम, तुम या चाहे जो कोई करे, इससे कुछ होना जाना नहीं, तुम्हारे सामने में इस महान् आदर्श-पुरुष को रखता हूँ, लो, अब विचार का भार तुम पर है । इस महान् आदर्श-पुरुष को लेकर क्या करोगे, इसका निश्चय तुम्हें अपनी जाति के कल्याण के लिए अभी कर डालना चाहिए । ..."

"... उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार घेर लिया है ...। मुझे देखकर उनका विचार न करना । मैं एक बहुत ही क्षुद्र यन्त्र मात्र हूँ । उनके चरित का विचार मुझे देखकर न करना । वे इतने बड़े थे कि मैं, या उनके शिष्यों में से कोई दूसरा, सैकड़ों जीवनों तक चेष्टा करते रहने पर भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के बराबर भी न हो सकेगा । ..."

-'भारत में विवेकानन्द' से उद्धृत

गुरुदेव की बात कहते कहते स्वामी विवेकानन्द एकदम पागल-से हो जाया करते थे । धन्य है वह गुरुभक्ति !

(२)

नरेन्द्र द्वारा श्रीरामकृष्ण का प्रचारकार्य☀

श्रीरामकृष्णदेव के उस सार्वभौमिक सनातन हिन्दू धर्म का स्वामीजी ने किस प्रकार प्रचार करने की चेष्टा की थी, उसकी यहाँ पर हम थोड़ीसी चर्चा करेंगे ।

*ईश्वर-दर्शन*

श्रीरामकृष्ण की पहली बात यह है कि ईश्वर का दर्शन करना होगा । कुछ मन्त्र या श्लोकों को कण्ठस्थ कर लेने का ही नाम धर्म नहीं है । भक्त यदि व्याकुल होकर उन्हें पुकारे, तभी ईश्वरदर्शन होता है । चाहे इस जन्म में हो या अगले जन्म में । उनके एक दिन के वार्तालाप की हमें याद आ रही है । दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में वार्तालाप हो रहा था । रविवार, २६ अक्टूबर १८८४ ई.।

श्रीरामकृष्णदेव काशीपुर के महिमाचरण चक्रवर्ती तथा अन्य भक्तों से कह रहे थे - "शास्त्र कितने पढ़ोगे ? केवल विचार करने से क्या होगा ? पहले उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा करो । पुस्तकें पढ़कर क्या जानोगे ? जब तक बाजार में नहीं पहुँचते तब तक दूर से केवल हो-हो शब्द सुनायी देता है ।बाजार के पास पहुँचने पर कुछ दूसरा शब्द सुनायी पड़ेगा, और अन्त में बाजार के भीतर पहुँचकर साफ साफ देख सकोगे, सुन सकोगे 'आलू लो, पैसा दो ।'

"खाली पुस्तकें पढ़कर ठीक अनुभव नहीं होता । पढ़ने तथा अनुभव करने में बहुत अंतर है । ईश्वर-दर्शन के बाद शास्त्र, विज्ञान आदि सब कूड़ा-कर्कट जैसे लगते हैं ।

"बड़े बाबू के साथ परिचय आवश्यक है । उनके कितने मकान, कितने बगीचे, कितने कम्पनी के कागज हैं - यह सब पहले से ही जानने के लिए इतने व्यग्र क्यों हो ? चाहे धक्का खाकर या दीवाल फाँदकर ही सही, किसी न किसी तरह बड़े मालिक के साथ एक बार परिचय तो कर लो, तब यदि इच्छा होगी, तो वे ही कह देंगे कि उनके कितने मकान हैं, कितने बगीचे हैं, कम्पनी के कितने कागज हैं । मालिक के साथ परिचय होने पर फिर नौकर-चाकर, द्वारपाल सभी लोग सलाम करेंगे ।"(सभी हँसे)

एक भक्त - बड़े मालिक के साथ परिचय कैसे होता है ?

श्रीरामकृष्ण - उसके लिए कर्म चाहिए - साधना चाहिए । 'ईश्वर हैं' इतना कहकर बैठे रहने से काम न चलेगा । उनके पास जाना होगा । निर्जन में उन्हें पुकारो, यह कहकर प्रार्थना करो, 'हे प्रभो! दर्शन दो ।' व्याकुल होकर रोओ । कामिनी-कांचन के लिए जब पागल होकर घूम सकते हो तो उनके लिए भी जरा पागल बनो । लोगों को कहने दो कि अमुक- (फलवना तो) ईश्वर के लिए पागल हो गया । कुछ दिन सब कुछ छोड़कर उन्हें अकेले में पुकारो । केवल 'वे हैं' यह कहकर बैठे रहने से क्या होगा ? हालदारपुकुर में बड़ी-बड़ी मछलियाँ हैं । तालाब के किनारे पर केवल बैठे रहने से ही क्या मिल सकती हैं ? खुराक डालो । धीरे धीरे गहरे जल से मछलियाँ आयेंगी और जल हिलेगा । उस समय आनन्द आयगा । सम्भव है, मछली का कुछ अंश एक बार दिखायी भी दे और मछली को छलाँग मारते हुए भी देखो। जब उसको प्रत्यक्ष देखा तो और भी आनन्द !

ठीक यही बात स्वामीजी ने शिकागो-धर्मसभा के सम्मुख कही है (अर्थात् धर्म का उद्देश्य है ईश्वर को प्राप्त करना, उनका दर्शन करना) –

"हिन्दू शब्दों और सिद्धान्तों के जाल में समय बिताना नहीं चाहता ।... वह ईश्वर का साक्षात्कार कर लेना चाहता है; कारण, ईश्वर के केवल प्रत्यक्ष दर्शन से ही समस्त शंकाएँ दूर हो सकती है ।अतः हिन्दू ऋषि आत्मा के विषय में, ईश्वर के विषय में यही सर्वोत्तम प्रमाण देते हैं कि 'मैंने आत्मा का दर्शन किया है, मैंने ईश्वर का दर्शन किया है ।' .... हिन्दुओं की सारी साधना-प्रणाली का लक्ष्य केवल एक ही है और वह है सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, देवता बन जाना, ईश्वर के निकट पहुँचकर उनका दर्शन करना । और इस प्रकार ईश्वरसान्निध्य को प्राप्त कर उनका दर्शन कर लेना, उन्हीं 'स्वर्गस्थ पिता' के समान पूर्ण हो जाना - यही असल में हिन्दू धर्म है ।"

 -('हिन्दू धर्म पर निबंध' से उद्धृत।) 

अमरीका के अनेक स्थानों में स्वामीजी ने भाषण दिया और सभी स्थानों में उन्होंने यही एक बात कही । हार्टफोर्ड (Hartford) नामक स्थान में उन्होंने कहा था – "... जो दूसरी बात मैं तुम्हे बतलाना चाहता हूँ, वह यह है कि धर्म केवल सिद्धान्तों या मतवादों में नहीं है । ... सभी धर्मों का चरम लक्ष्य है - आत्मा में परमात्मा की अनुभूति । यही एक सार्वभौमिक धर्म है । समस्त धर्मों में यदि कोई सार्वभौमिक सत्य है तो वह है ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना ।"

"परमात्मा और उनकी प्राप्ति के साधनों के सम्बन्ध में विभिन्न धर्मों की धारणाएँ भिन्न भिन्न भले ही हों, पर उन सब में वही एक केन्द्रीय भाव है । सहस्र विभिन्न त्रिज्याएँ भले ही हों, पर वे सब एक ही केन्द्र में मिलती है, और यह केन्द्र है ईश्वर का साक्षात्कार - इस इन्द्रियग्राह्य जगत् के पीछे, इस निरन्तर खाने-पीने और थोथी बकवास के पीछे, इन उड़ते छायास्वप्नों और स्वार्थ से भरे इस संसार के पीछे वर्तमान किसी [अपरिवर्तनीय ,अविनाशी, सच्चिदानन्द] सत्ता की अनुभूति ।"

समस्त ग्रन्थों और धर्ममतों के अतीत, इस जगत् की असारता से परे वह [अविनाशी सच्चिदानन्द]  विद्यमान है, जिसकी अपने भीतर ईश्वर के रूप में प्रत्यक्ष-अनुभूति होती है । कोई व्यक्ति संसार के समस्त गिर्जाघरों में आस्था भले ही रखता हो, अपने सिर में समस्त धर्मग्रन्थों का बोझा लिये भले ही घूमता हो, इस पृथ्वी की समस्त नदियों में उसने भले ही बप्तिस्मा लिया हो, फिर भी यदि उसे ईश्वर दर्शन (या आत्मसाक्षात्कार) न हुआ हो तो मैं उसे घोर नास्तिक ही मानूँगा । .."विवेकानन्द साहित्य खण्ड, खंड- २, "आत्मा, ईश्वर और धर्म।" पृष्ठ-234 )    

[मानवमात्र के लिए स्नेह और आशीर्वाद (दया) ही सच्ची धार्मिकता की पहचान है। मेरा मतलब उस भावुकता-पूर्ण कथन (गंगा-जमुनी तहजीब) से नहीं है है कि  -'सभी मनुष्य भाई भाई हैं'- बल्कि मनुष्य मात्र में अंतर्निहित दिव्यता की एकत्वानुभूति (Inherent Divinity of Oneness) की अनिवार्यता से है। मैं समझता हूँ कि जब तक कोई सम्प्रदाय किसी दूसरे को अस्वीकार नहीं करते (काफ़िर नहीं कहते) सभी मत एवं सम्प्रदाय मेरे अपने हैं, और सभी भव्य हैं। वे सभी मनुष्य को सच्चे धर्म की ओर उन्मुख करने में सहायक होते हैं। " 

[The end of all religions is the realization of God in the soul. That is the one universal religion. If there is one universal truth in all religions, I place it here — in realizing God;  something behind this world of sense, this world of eternal eating and drinking and talking nonsense, this world of false shadows and selfishness. There is that beyond all books, beyond all creeds, beyond the vanities of this world and it is the realization of God within yourself.......... Love and charity for the whole human race, that is the test of true religiousness. I do not mean the sentimental statement that all men are brothers, but that one must feel the oneness of human life. So far as they are not exclusive, I see that the sects and creeds are all mine; they are all grand. They are all helping men towards the real religion. (Soul, God And Religion' Vol: 1)  

स्वामीजी ने अपने राजयोग नामक ग्रन्थ में लिखा है –

"...The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternity, and what they saw they preached.....  सभी धर्माचार्यों ने ईश्वर को देखा था । उन सभी ने आत्मदर्शन किया था, अपने अमरत्व (eternity) का सभी को ज्ञान हुआ था, सबने अपनी भविष्य अवस्था देखी थी, और जो कुछ उन्होंने देखा था, उसी का वे प्रचार कर गये हैं । भेद इतना ही है कि प्रायः सभी धर्मों में, विशेषतः आजकल के, एक अद्भुत दावा हमारे सामने उपस्थित होता है, वह यह है कि " इस समय ये अनुभूतियाँ असम्भव हैं। जो धर्म के प्रथम संस्थापक थे,  बाद में जिनके नाम से उस धर्म का प्रवर्तन और प्रचलन हुआ, ऐसे केवल थोड़े व्यक्तियों के लिए ही ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव सम्भव हुआ था। अब ऐसे अनुभव के लिए कोई रास्ता नहीं रहा, फलतः अब धर्म पर केवल विश्वास भर कर लेना होगा ।" 

मैं इस बात को पूरी शक्ति से अस्वीकृत करता हूँ । यदि संसार में किसी प्रकार के विज्ञान के किसी विषय की किसी ने कभी प्रत्यक्ष उपलब्धि की है, तो इससे इस सार्वभौमिक सिद्धान्त पर पहुँचा जा सकता है कि पहले भी कोटि-कोटि बार उसकी उपलब्धि की सम्भावना थी, और भविष्य में भी अनन्त काल तक उसकी उपलब्धि की सम्भावना बनी रहेगी । समवर्तन ही प्रकृति का बली नियम हैएक बार जो घटित हुआ है, वह फिर घटित हो सकता है । ..." (राजयोग , अवतरणिका-३६-३७)

[The teachers all saw God; they all saw their own souls, they saw their future, they saw their eternity, and what they saw they preached. Only there is this difference that by most of these religions especially in modern times, a peculiar claim is made, namely, that these experiences are impossible at the present day; they were only possible with a few men, who were the first founders of the religions that subsequently bore their names. At the present time these experiences have become obsolete, and, therefore, we have now to take religion on belief. This I entirely deny. If there has been one experience in this world in any particular branch of knowledge, it absolutely follows that that experience has been possible millions of times before, and will be repeated eternally. Uniformity is the rigorous law of nature; what once happened can happen always.( Volume 1, Raja-Yoga, Introductory.

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[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-परिच्छेद 122] 

“लक्ष्मण ने कहा था, ‘हे राम, वशिष्ठदेव जैसे पुरुष को भी पुत्रों का शोक हो रहा है ।’ राम ने कहा, ‘भाई, जिसमें ज्ञान है उसमें अज्ञान भी है । जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । इसलिए ज्ञान और अज्ञान से परे हो जाओ ।’ ईश्वर को विशेष रूप से जान लेने पर यह अवस्था प्राप्त हो जाती है । इसे ही विज्ञान कहते हैं। 

“पैर में काँटा चुभ जाने से, उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आना पड़ता है । निकालने के बाद फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । ज्ञानरूपी काँटे से अज्ञानरूपी काँटा निकालकर, ज्ञान और अज्ञानरूपी दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं ।

"Lakshmana said, 'O Rama, even a sage like Vasishthadeva was overcome with grief on account of the death of his sons!' 'Brother,' replied Rama, 'whoever has knowledge has ignorance also. Whoever is conscious of light is also conscious of darkness. Therefore go beyond knowledge and ignorance.' One attains that state through an intimate knowledge of God. This knowledge is called vijnana.

"When a thorn enters the sole of your foot you have to get another thorn. You then remove the first thorn with the help of the second. Afterward, you throw away both. Likewise, after removing the thorn of ignorance with the help of the thorn of knowledge, you should throw away the thorns of both knowledge and ignorance.

डाक्टर - और एक बात कहूँगा, आप फिर मुझसे ऐसा क्यों कहते हैं- कि रोग अच्छा कर दो ?

DOCTOR: "Let me ask you something. Why do you ask me to cure your illness?"

श्रीरामकृष्ण - जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है । सोचो, एक महासमुद्र है, ऊपर-नीचे जल से पूर्ण है । उसके भीतर एक घट है । घट के भीतर बाहर पानी है; परन्तु उसे बिना फोड़े यथार्थ में एकाकार नहीं होता । उन्हीं ने इस ‘मैं’ – घट को रख छोड़ा है 

MASTER: "I talk that way as long as I am conscious of the 'jar' of the 'ego'. Think of a vast ocean filled with water on all sides. A jar is immersed in it. There is water both inside and outside the jar; but the water does not become one unless the jar is broken. It is God who has kept this 'jar' of the 'ego' in me."

डाक्टर - तो यह ‘मैं’ जो आप कह रहे हैं, यह सब क्या है ? इसका भी तो अर्थ कहना होगा । क्या वे (ईश्वर) हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं ?

DOCTOR: "What is the meaning of 'ego' and all that you are talking about? You must explain it to me. Do you mean to say that God is playing tricks on us?"

[जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है ।] 

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - इस ‘मैं’ को उन्हीं ने रख छोड़ा है । उनकी क्रीड़ा – उनकी लीला !

MASTER (smiling): "It is God who has kept this 'ego' in us. All this is His play, His Lila. 

एक राजा के चार लड़के थे । सब थे तो राजा के लड़के, परन्तु उन्हीं में कोई मन्त्री, कोई कोतवाल, इसी तरह बन-बनकर खेल रहे थे । राजकुमार होकर कोतवाल (शिक्षक) का खेल! (दादा ने लिखा था -तुम राजा का पुत्र हो , तो क्या मैं राजा नहीं हूँ ? राजपुत्र होकर कोतवाल (शिक्षक) का खेल !

A king has four sons. They are all princes; but when they play, one becomes a minister, another a police officer, and so on. Though a prince, he plays as a police officer.

(डाक्टर से) “सुनो, यदि तुम्हें आत्म-साक्षात्कार हो जाय तो यह सब तुम मानने लग जाओगे । उनके दर्शन से सब संशय दूर हो जाते हैं 

(To the doctor) "Listen. If you realize Atman you will see the truth of all I have said. All doubts disappear after the vision of God."

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श्री रामकृष्ण परमहंस कुछ उपदेश - 

1. अहंकार के बारे में रामकृष्ण परमहंस के विचार थे कि अहंकार ही असल रूप में माया है। अतः मनुष्य को इसका त्याग कर देना चाहिए। अहंकार को त्याग कर के ही मनुष्य अपने लक्ष्य तक पहुंच सकता है

2. श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार जो व्यक्ति नित्य, परम तत्व को प्राप्त करके लीला, या  सापेक्षिक जगत  में निवास कर सकता है, तथा लीला से पुनः नित्य की ओर चढ़ सकता है, वही परिपक्व ज्ञान और भक्ति रखता है। नारद जैसे ऋषियों ने ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के बाद भगवान के प्रति प्रेम का अनुभव किया। इसे विज्ञान कहते हैं। 

[ श्रीरामकृष्ण (मणि से): "अष्टावक्र संहिता में आत्मज्ञान की चर्चा की गई है। अद्वैतवादी कहते हैं, 'सोहम्' अर्थात् 'मैं (निष्क्रिय-ब्रह या मायापति ?) परमात्मा हूँ।' यह वेदान्त के संन्यासियों का दृष्टिकोण है। लेकिन गृहस्थों के लिए यह उचित दृष्टिकोण नहीं है। ......जो स्वयं को स्त्री-पुरुष समझकर ही सब व्यवहार करने के प्रति सचेत रहते हैं। ऐसा होने पर, वे कैसे घोषणा कर सकते हैं कि, 'मैं वह हूँ, वह निष्क्रिय हूँ?'

 कृष्णकिशोर ज्ञानियों की तरह कहा करता था कि मैं ‘ख’ अर्थात् आकाशवत् हूँ । वह परम भक्त था; उसके मुँह से यह बात भले ही शोभा दे, पर सब के मुँह में यह शोभा नहीं देती। क्योंकि दादा ने मुझे बताया था - नारद का माया दर्शन - पानी ले आया नारद ? तब नारद ने नारायण भगवान विष्णु के प्रति प्रेम का अनुभव किया। 

MASTER (to M.): "Self-Knowledge is discussed in the Ashtavakra Samhita. The non-dualists say, 'Soham', that is, 'I am the Supreme Self.' This is the view of the sannyasis of the Vedantic school. But this is not the right attitude for householders, who are conscious of doing everything themselves. According to the non-dualists the Self is unattached. Good and bad, virtue and vice, and the other pairs of opposites, cannot in any way injure the Self, though they undoubtedly afflict those who have identified themselves with their bodies. 

Smoke soils the wall, certainly, but it cannot in any way affect akasa, space. Following the Vedantists of this class, Krishnakishore used to say, 'I am Kha', meaning akasa. Being a great devotee, he could say that with some justification; but it is not becoming for others to do so.

पर  ‘मैं मुक्त हूँ’ यह अभिमान बड़ा अच्छा है । ‘मैं मुक्त हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला मुक्त हो जाता है। और ‘मैं बद्ध हूँ’ कहते रहने से कहनेवाला बद्ध ही रह जाता है । जो केवल यह कहता है कि ‘मैं पापी हूँ’ वही सचमुच गिरता है । केवल यही कहते रहना चाहिए – ‘मैंने उनका नाम लिया है, अब मेरे पाप कहाँ ? मेरा बन्धन कैसा ?’

 श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार यह समस्त संसार माया के रूप में है। इस माया के प्रभाव के कारण ही मनुष्य जन्म-मरण के चक्र में फंसा रहता है। अतः मनुष्य को ईश्वर का चिंतन (आत्मचिंतन)  करने से माया समझ में आती है, तभी वह अपने लिए मोक्ष का मार्ग बनाने में सफल होता है।

$$$$[(19 अगस्त, 1883) परिच्छेद ~ 49, श्रीरामकृष्ण वचनामृत]

"But to feel that one is a free soul is very good. By constantly repeating, 'I am free, I am free', a man verily becomes free. On the other hand, by constantly repeating, 'I am bound, I am bound', he certainly becomes bound to worldliness. The fool who says only, 'I am a sinner, I am a sinner', verily drowns himself in worldliness. One should rather say: 'I have chanted the name of God. How can I be a sinner? How can I be bound?'

(श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार लकड़ी में अग्नि विद्यमान है यह जानना ज्ञान है, लेकिन उस पर चावल पकाना विज्ञान है। यह जागरूकता और दृढ़ विश्वास कि लकड़ी में आग मौजूद है, ज्ञान है। लेकिन उस आग पर चावल पकाना, चावल खाना और उससे पोषण प्राप्त करना विज्ञान है।) 

यह बोध कि ईश्वर (आत्मा) ही स्वयं ब्रह्मांड और सभी जीवित प्राणी बन गए हैं, विज्ञान है।  अपने आंतरिक अनुभव से यह जानना कि ईश्वर (आत्मा ह्रदय में) मौजूद है, ज्ञान है। लेकिन उससे बात करना, उसे बच्चे के रूप में, दोस्त के रूप में, गुरु के रूप में, प्रिय के रूप में आनंद लेना विज्ञान है। 

3 . श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार ज्ञानी कहते हैं, ‘यह संसार धोखे की टट्टी (नाम-रूप भ्रम का ढाँचा) है।’ लेकिन जो ज्ञान और अज्ञान दोनों से परे है, वह इसे ‘आनंद की कुटिया ’ कहता है। वह देखता है कि यह भगवान ही हैं जो ब्रह्मांड, सभी जीवित प्राणी और चौबीस ब्रह्मांडीय सिद्धांत बन गए हैं।केवल वही व्यक्ति जो नित्य को प्राप्त होकर लीला में निवास कर सकता है, परिपक्व ज्ञान और भक्ति रखता है।

4. यह भगवान (नारायण) ही हैं जो इस विश्वरंगमंच पर स्वयं (M/F की) अलग-अलग भूमिकाएं निभा रहे हैं।  

 गिरीश: श्री रामकृष्ण परमहंस से पूछते हैं कि - चैतन्य लीला नाटक में आपको यह अभिनय कैसा लगा?

श्रीरामकृष्ण : मैंने देखा कि भगवान ही विश्व-रंगमंच पर अलग-अलग अभिनय कर रहे हैं , स्त्री-पुरुष (M/F) की भूमिकाएँ निभा रहे थे। महिला पात्र की अभिनय करने वाली नटी मुझे साक्षात् माँ आनंदमयी की अवतार लगी और गोलोक के ग्वालबाल स्वयं नारायण के अवतार। भगवान ही थे जो ये सब बन गए थे।

​*मनुष्य को जीवन में त्याग की भावना रख कर जीवन यापन करना चाहिए। रामकृष्ण परमहंस का यहां कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं है। व्यक्ति को यह चीज पहले से स्वीकार कर लेनी चाहिए, अन्यथा उसे अपनी चीजें खोने की सदैव चिंता सताती रहेगी।

 *श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार  मन (अहंकार)  ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है!  इसलिए मन को नियंत्रित कर अपना मार्ग सुगम बनाना चाहिए।

श्री रामकृष्ण परमहंस के अनुसार हर व्यक्ति दिखने में अलग और स्वाभाव से भी अलग होता है। कोई दिखने में गोरा है, कोई काला है, कोई सीधा है, तो कोई क्रूर है परंतु सभी में इश्वर तत्व (आत्मा) विद्यमान है। अतः सभी में ईश्वर की छवि देखना चाहिए। लेकिन दुष्ट -कपटी से सावधान-सतर्क भी रहना चाहिए। हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है। 

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श्री रामकृष्ण के मानस पुत्र स्वामी ब्रह्मानन्द जी महाराज के उपदेश : 

1.ईश्वर के रहस्य को कौन समझ सकता है? वह अनंत और निराकार है, तथापि वह साकार भी है। वह स्वयं को मनुष्य के रूप में अवतरित करता है। वास्तव में, ईश्वर मनुष्य को अपने पास लाने के लिए जिन छलों के मार्गों को से होकर जाता है, उसे समझना मन की शक्ति से परे है। कभी मार्ग सुगम होता है, कभी काँटों भरा होता है, और कभी दुर्गम पर्वत के समान होता है, लेकिन फिर भी यदि वह केवल उसकी शरण ले,[यानि स्वयं को उनका (त्रिदेवों) का दास समझे !] तो वह मनुष्य को सुरक्षित रूप से अपने पास ले जाता है,। 

Who can fathom the mystery of God? He is infinite and formless, and yet he is also with form. He incarnates himself as man. Verily, it is beyond the power of the mind to understand the devious ways through which God leads man to himself. Sometimes the path is smooth, sometimes it is thorny, and sometimes it is like an impassable mountain, but still He leads man safely to himself, if he will only take refuge in Him.

[वह (ईश्वर) अनंत तथा निराकार है, तथापि वह साकार भी है। वह (ईश्वर-आत्मा या ब्रह्म?) स्वयं को मनुष्य (M/F) के रूप में अवतरित करता है।  Verily, it is beyond the power of the mind to understand the devious ways through which God leads man to himselfवास्तव में, मनुष्य को अपने पास लाने के लिए ईश्वर (ठाकुरदेव) माँ के समान जिस चतुराई पूर्ण मार्गों से अपनी ओर खींचने के लिए आकर्षित करता है, उसे समझना मानव-मन   की शक्ति से परे है। [अहं नहीं आत्मा (Oneness -एकत्व -अभेद-दृष्टि) के द्वारा जैसे माँ तारा बच्चे को बहला -फुसलाकर भरपेट खाना खिला देती हैं। ये कौर तोता का , ये कौर मैना का ?] 

2. साक्षात्कार का सबसे सरल तरीका है ईश्वर को निरंतर स्मरण करना।  जैसे कोई व्यक्ति अपने मित्र का स्वागत करता है, तथा भोजन, पेय तथा वार्तालाप से उसका सत्कार करता है, वैसे ही आपको भी अपने विचारों में ईश्वर का सत्कार करना चाहिए

[जीव ही शिव है- लेकिन हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है।]

The easiest method of realization is to remember God constantly. Even as a man welcomes his friend, and entertains him with food, drink, and conversation, so must you entertain God in your thoughts.

3.उससे खुलकर बातचीत करें। उसे अपना ही समझें, और आपको उसमें शांति मिलेगी।

Converse freely with him. Know him as your very own, and you will find peace in him.

4.यह माया ही है जो मन और इंद्रियों को ईश्वर का अनुभव करने की इच्छा से रोकती है, लेकिन जो व्यक्ति ईश्वर को जान लेता है, वह माया के सभी आकर्षणों से ऊपर उठ जाता है

It is maya, which prevents the mind and senses from desiring to experience God, but a man who has realized Him has risen above all the charms and attractions of maya.

5. माया अपने रहस्यों को केवल उसी के सामने प्रकट करती है जो माया से परे चला गया है।

Maya reveals her mysteries only to him who has gone beyond maya.

6. माया की जंजीरों में जकड़े होने के कारण, मनुष्य को यह एहसास नहीं होता कि जन्म और मृत्यु के चक्र में घूमते हुए उसका दुख कितना बड़ा है।

Being chained to maya, man does not realize how great is his suffering as he whirls around on the wheel of birth and death.

[https://www.facebook.com/RamanaHridayam/photos/a.395769473865877/1790834961025981/?type=3

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[https://kathamrit.wordpress.com/wp-content/uploads/2015/03/kathamrita-english-5.pdf]

[Tanno 'hamsah' prachodayat=: “May the Paramatman, Supreme Self [symbolized by] the Swan (hamsa), awaken our [higher] understanding.”  )

[='Soham' -is not the right attitude for householders !]

गृहस्थ के लिए स्वामी जी का प्रेरणा वाक्य-'Be and Make'

( 'तन्नो हंस: प्रचोदयात्')

भगवान श्री रामकृष्ण देव की इच्छा , ज्ञानदायिनी माँ श्री सारदा देवी का आशीर्वाद,  एवं स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा -से महामण्डल को 1967 में आविर्भूत होना पड़ा है !

तन्नो हंस: प्रचोदयात्- “May the Paramatman, Supreme Self [symbolized by] the Swan (hamsa), awaken our [higher] understanding.” - Swami Vivekananda .

तन्नो हंस: प्रचोदयात्-(Tanno hamsah prachodayat): “परमात्मा, हमारा यथार्थ स्वरुप  [हंस के चित्र द्वारा इंगित], हमारी [उच्चतर] समझ (विवेक-प्रयोग शक्ति) को जागृत करें।”

" चित्र में हंस परमात्मा (अवतार वरिष्ठ-नेता) का प्रतीक है। जबकि चित्र में लहराता हुआ जल कर्म का, कमल भक्ति का और उगता हुआ सूर्य ज्ञान का प्रतीक हैं। घेरे हुए सर्प योग और जागृत कुंडलिनी शक्ति का सूचक है। इस प्रतीक चिन्ह का भाव यह है कि कर्म, ज्ञान, भक्ति और योग के मिलन से परमात्मा  का दर्शन प्राप्त होता है।" 

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Home > Gospel of Sri Ramakrishna > Sadhana > Jnana and Vijnana

1. Knowing fire exists in wood is Jnana but to cook rice on that is Vijnana . 

Sri Ramakrishna Paramahamsa - The awareness and conviction that fire exists in wood is Jnana, Knowledge. But to cook rice on that fire, eat the rice, and get nourishment from it is Vijnana. To know by one's inner experience that God exists is Jnana. But to talk to Him, to enjoy Him as Child, as Friend, as Master, as Beloved, is Vijnana. The realization that God alone has become the universe and all living beings is Vijnana.

2. Jnani says the world is a framework of illusion but Vijnani describes it as a mansion of mirth

Sri Ramakrishna Paramahamsa- The Jnani says, 'This world is a framework of illusion.' But he who is beyond both knowledge and ignorance describes it as a 'mansion of mirth'. He sees that it is God Himself who has become the universe, all living beings, and the twenty-four cosmic principles.

3. He alone who after reaching the Nitya can dwell in the Lila has ripe knowledge and devotion. 

Sri Ramakrishna Paramahansa-  alone who, after reaching the Nitya, the Absolute, can dwell in the Lila, the Relative, and again climb from the Lila to the Nitya, has ripe knowledge and devotion. Sages like Narada cherished love of God after attaining the Knowledge of Brahman. This is called Vijnana. 

4. It is God Himself who is playing the different parts .

Girish: How did you like the performance?

Sri Ramakrishna Paramahamsa : I found that it was God Himself who was acting the different parts. Those who played the female parts seemed to me the direct embodiments of the Blissful Mother, and the cowherd boys of Goloka the embodiments of Narayana Himself. It was God alone who had become all these.

[https://greenmesg.org/gospel_of_sri_ramakrishna/sadhana/jnana_and_vijnana.php] 


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