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शुक्रवार, 22 नवंबर 2024

🔱🕊 🏹 🙋 ' विवेकानन्द दर्शनम् का सारांश ' (9-12) [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा 26 संस्कृत श्लोकों में रचित और स्वामी विवेकानन्द के कोटेशन द्वारा अंग्रजी में दी हुई व्याख्या का झुमरीतिलैया महामण्डल द्वारा हिन्दी में अनुवाद की हुई महामण्डल पुस्तिका। ]

 श्लोक -९

कर्म-विधान क्या है ?

आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम् : 

  त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥ ९।। 

With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you.

(गुरुदेव, माँ सारदा देवी की कृपा से) तुम्हारा मन तो प्रबल इच्छासम्पन्न है, आत्मनिरीक्षण के अभ्यास में आलस्य मत करो , किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते।

प्रसंग : वनवास के दौरान राम,लक्ष्मण और सीता को कष्ट में देख कर जब निषादराज माता कैकई और मंथरा को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मणजी निषादराज रजसे गुह से कहते हैं ‒ 

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।

अहं करोमीति वृथाभिमानः

स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

                         (अध्यात्मरामायण )

अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। कोई दूसरा (हमें सुख और दुःख) देने वाला है - ऐसा समझना कुबुद्धि - मंदबुद्धि और अल्प-ज्ञान का सूचक है। 'मैं ही सब का कर्ता हूँ ' यह मानना भी मिथ्याभिमान है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)

यही बात तुलसीकृत रामायण में भी कही गई है‒

                काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।

                निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

                           (राम चरित मानस - अयोध्या काण्ड)

तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में तब लक्ष्मणजी निषादराजत गुहसे कहते हैं, सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। हे भाई - सब अपने अपने कर्मों के अनुसार ही सुख- दुःख भोगते हैं।

हम अक़्सर अपनी किसी बात - किसी घटना या अपने किसी काम के परिणाम की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते। ख़ास तौर पर अपने दुःख और कष्टों के लिए किसी और को जिम्मेवार और दोषी ठहरा कर हमें कुछ राहत और सांत्वना सी महसूस होती है। लेकिन अगर हम अपने भाग्य एवं परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेवार समझेंगे तो आगे के लिए हर काम को समझदारी से करने की कोशिश करेंगे। अगर हम ये अच्छी तरह से समझ लें कि हमारे कर्म (आदत-प्रवृत्ति-व्याभिचार -सदाचार) ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं तो हम हमेशा अच्छे कर्म ही करने की कोशिश करेंगे। वर्तमान के शुभ कर्मो के द्वारा पिछले कर्मों के दुष्परिणाम को भी बहुत हद तक बदला जा सकता है। इसीलिए धर्म ग्रन्थ और संत महात्मा हमें सत्संग, भक्ति, नम्रता, त्याग और सेवा भावना इत्यादि की प्रेरणा देते रहते हैं। लेकिन अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो कम-से -कम किसी का बुरा तो न करें।

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥

जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ~  'मा गृधः कस्यस्विद्धनम् '  अर्थात किसी का धन - किसी का हक़ छीनने की कभी कोशिश न करो और 'यह सब मेरा है' के भाव के साथ' पदार्थों का संग्रह न करो।

विषयवस्तु :  ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) में पतञ्जलि कहते हैं कि-जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। मन-वचन-काया से पहले किये हुए कर्मों के फल तीन रूपों -जन्म, आयु और भोग में प्राप्त होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल ! ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है!  प्रारब्ध भोग कर आज ही क्षय कर लो, शमी की लकड़ी से शनि ग्रह को भगाने की चेष्टा मत करो।

श्लोक -१०.

मनःसंयोग ही सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है !


 मन एव महच्छत्रुर्बन्धुरपि तदेव हि। 

मनोदासः प्रभुस्तस्य यदेकोSसि तथा भवेत्॥ १०।। 


1. Mind is a great enemy and may also be the best friend.

2. You may be a servant or the master of your mind.

3. If you are a servant, it will pose as an enemy; if you master it, it will become a trusted friend.

4. ' The mind uncontrolled and unguided will drag us down...,and guided will save us, free us.'


१. (अनियंत्रित) मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और यही मन जब वशीभूत हो जाता है- मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त भी बन सकता है।

२. तुम अपने के गुलाम हो सकते हो, और तुम यदि चाहो तो अपने मन के मालिक भी हो सकते हो।

३. यदि तुम अपने मन के दास बने रहोगे, तो यह तुम्हारे एक दुश्मन के रूप में तुमसे बहुत बुरा व्यव्हार करेगा। यदि तुम इसे वशीभूत कर लोगे तो यही मन तुम्हारा सबसे विश्वसनीय मित्र बन जायगा।

४. " अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा -हमें चींथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये, और मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिये।"

प्रसंग : 'मनःसंयोग' (दी साइन्स अव साइकालजी) या मनोविज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है।" (हिन्दी ४/११२)

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🔱🕊 श्लोक -११🔱🕊

 🏹 🙋श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी  🏹 🙋

(कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति और एक महान दैवी शक्ति श्रीरामकृष्ण !)  

जगति सति सत्ये तु न लाभश्चेत् किमु क्षतिः। 

प्रपञ्चस्यापि देहस्य प्रयोगे पुरुषार्थता ॥ ११।। 

1. What is the gain or loss by kicking up a row over the reality of this world ?

2. Objects of human life are attained by making the best use of human body and the visible world.

3. " Anyone and everyone cannot be an Âchârya (teacher of mankind); but many may become Mukta (liberated). ' The Acharya has to take a stand between the two states. He must have the knowledge that the world is true, or else why should he teach ? Again if he had not realized the world as a dream, then he is no better than an ordinary man, and what could he teach ?'

१. इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या?

[# प्रसंग : माँ श्री सारदा (तारा -जनकराजकिशोरी) जैसे डकैत अमजद की भी माँ है, और स्वामी सारदानन्द की भी माँ है ! (चिरंतनी 5 am-कोलकाता 22-11-2024)  जीवे प्रेम करे जेई जन, से सेवेच्छे ईश्वर ! परस्पर भावयन्तः, बहुजनहिताय -बहुजन सुखाये- इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (सिनेमा के पर्दे पर महाभारत या फिल्म शोले के जैसा स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या? 

२. इस मूर्खता को छोड़कर, देवदुर्लभ मानव शरीर एवं दृष्टिगोचर जगत का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !

[#जगत सत्य है या मिथ्या ? इसी मूर्खतापूर्ण प्रश्न को लेकर जीवन भर सिर खपाते रहने से लाभ क्या और हानी क्या? इस मूर्खता को छोड़कर, दृष्टिगोचर जगत और देवदुर्लभ मानव शरीर दोनों का सर्वोत्तम उपयोग करने से (प्रवृत्ति से निवृत्ति में स्थित हो जाने से) मनुष्य जीवन का उद्देश्य- (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !]

३. " हर कोई आचार्य (देव) या 'गुरु' नहीं हो सकता, (teacher of mankind-मानवजाति का मार्गदर्शक नेता नहीं हो सकता), किन्तु मुक्त बहुत से लोग हो सकते हैं। मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

 [# मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य देव को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा (=मंत्र-दीक्षा ?? श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय मंत्रदीक्षा भी देते थे, आसुतोष मुखोपाध्याय नहीं ले सके थे !!!) किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

निम्नलिखित पंक्तियों में सन्त रैदास जी भक्त और भगवान के बीच के संबंध का वर्णन करते हुए कहते हैं - 

प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती। 

प्रभु जी तुम मोती, हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा ॥

भाव स्पष्टीकरण : भगवान और भक्त के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए रैदास जी कहते हैं कि भगवान के बिना भक्त का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु जी यदि दीप हैं तो भक्त वर्तिका के समान है। दोनों मिलकर प्रकाश फैलाते हैं। प्रभु जी यदि मोती हैं तो भक्त धागा है, दोनों मिलकर सुंदर हार बन जाते हैं। दोनों का मिलन सोने पे सुहागे के समान है। दास्य भक्ति, शरणागत तत्व भी इसमें दर्शाया गया है। वे (रैदास) प्रभुजी को स्वामी मानते हैं और अपने को उनका दास या सेवक मानते हैं। विशेष : दास्य भक्ति की पराकाष्ठा इसमें है।

प्रसंग : 'भक्तियोग के आचार्य' (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) श्रीरामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी ! ३/२६१ :  ON BHAKTI-YOGA/Volume- 5-page -265/ 

संन्यासी और गृहस्थ

(खण्ड  ३ : १८५) 

The Sanyasin and the Householder

(5: 260-61)

" धनवानों का आदरसत्कार करना और आश्रय (support : भरण-पोषण) के लिये उनका मुँह जोहना यह हमारे देश के सभी संन्यासी सम्प्रदायों के लिये अभिशाप स्वरुप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना चाहिए और इससे बिल्कुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वैश्याओं के लिये ही उचित है, न कि संसार-त्यागी संन्यासी के लिये।  (जो प्रवृत्ति से होकर उसकी निस्सारता को समझकर निवृत्ति में स्थित आचार्य नहीं है, संसारी है -"How should a man immersed in Kâma-Kânchana (lust and greed) become a devotee of one whose central ideal is the renunciation of Kama-Kanchana? ")  

 कामिनी-कांचन (lust and greed) में डूबा व्यक्ति उस 'व्यक्ति' का भक्त कैसे हो सकता है, जिनके जीवन का मुख्य आदर्श कामिनी -कांचन का त्याग है ?   श्री रामकृष्ण तो रो रोकर जगन्माता से प्रार्थना किया करते थे , "माँ, मेरे पास बात करने के लिए एक तो ऐसा भेज दो, जिसमें काम -कांचन का लेश मात्र भी न हो। संसारी लोगों से बातचित करने में मेरा मुँह जलने लगता है। " वे यह भी कहते थे - " मुझे अपवित्र और विषयी लोगों का स्पर्श तक सहन नहीं होता। "  त्यागियों के बादशाह (That King of Sannyasins) यतिराज श्रीरामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार विषयी लोगों के द्वारा कभी नहीं हो सकता। ऐसे लोग (विषयों में 3'K' में घोर रूप से आसक्त भोगी गृहस्थ) कभी भी पूर्ण रूप में सच्चे नहीं हो सकते; क्योंकि उनके कार्यों में कुछ न कुछ स्वार्थ (तीनों ऐषणाओं में कोई एक ऐषणा) रहता ही है। "The latter can never be perfectly sincere; for he cannot but have some selfish motives to serve." 

   " यदि स्वयं भगवान (श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीरामकृष्ण ?) भी गृहस्थ (संसारी) के रूप में अवतीर्ण हों, तो मैं उसे भी सच्चा न समझूँ। जब कोई गृहस्थ (संसारी -कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति) किसी धार्मिक सम्प्रदाय के 'नेता-पद' [जेनरल -सेक्रेटरी] पर प्रतिष्ठित हो जाता है, तो वह आदर्श (ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये,  सत्चित् - सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिने।) की ओट में अपना ही स्वार्थ-साधन करने लगता है। और फल यह होता है कि वह सम्प्रदाय बिल्कुल सड़ जाता है। गृहस्थों के नेतृत्व में सभी धार्मिक आन्दोलनों का यही नसीब हुआ है। त्याग (और सेवा) के बिना धर्म खड़ा ही नहीं रह सकता। " (३/१८५)

[If Bhagavân (God) incarnates Himself as a householder, I can never believe Him to be sincere. When a householder takes the position of the leader of a religious sect, he begins to serve his own interests in the name of principle, hiding the former in the garb of the latter, and the result is the sect becomes rotten to the core. All religious movements headed by householders have shared the same fate. Without renunciation religion can never stand." (5:261)] 

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' विवेकानन्द - वचनामृत '

१२. 

🔱🕊 🏹 🙋 विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है "🔱🕊 🏹 🙋 

"The task before us"

देहोSयं वदति व्यासः परुषस्याखिलार्थदः।

लब्धव्यं प्राक् बलं देहे ततः परं मनोबलम्॥ (१२)  


1. This body, says Vyasa (Bhagavata, 9.9.28(24) fulfills all desires of man. 

2. But 'If there is no strength in body and mind the atman cannot be realized.    first you have to build the body-then only the mind be strong.'

3.  ' All power is within you , you can do anything and everything.'

१.  व्यासदेव जी श्रीमद्भागवत-महापुराण  ९.२८ में कहते हैं - 

    देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।

         तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥

राजन् ! यह मनुष्य शरीर ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये हे वीर ! इस शरीर को (दुर्बल बना लेना) नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है। 

२. "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य :--'दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने कोई भी, अपने ह्रदय में इस आत्मा की उपस्थिती का अनुभव नहीं कर सकता। पहले व्यायाम और पौष्टिक भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है।"(६.९३)

३.  आत्मश्रद्धा - आत्मविश्वास : 

'All power is within you, you can do anything and everything.' 

 " समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है, तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो। इस बात पर विश्वास करो, यह मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। आजकल हम में से अधिकांश जैसे अपने को अधपागल समझते हैं, तुम अपने को वैसा मत समझो। इतना ही नहीं, तुम किसी भी काम को बिना किसी के मार्गदर्शन के, अकेले ही करने में सक्षम हो । तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। कमर कस लो, और तुममें जो Inherent Divinity है, जो अंतर्निहित दिव्यता है, जो देवत्व छिपा हुआ है, उसे प्रकट करो !

हमारे शास्त्रों में बार बार कहा गया है कि बाह्य-इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा धर्म कभी प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया।  

हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे ! यदि तुम अपने को महापुरुष समझोगे तो कल ही तुम महापुरुष हो जाओगे। तुम्हें रोक सके-ज़माने में इतना दम नहीं ! और जितनी शीघ्रता से इस सिद्धान्त में श्रद्धा और विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा! " [ सन्दर्भ "The task before us"  -" विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है !"  'कोलम्बो से अल्मोड़ा तक- व्याख्यान' पुस्तक के कामट्रिप्लिकेन लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास में दिया गया भाषण। ५/१७८: ]  

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गुरुवार, 21 नवंबर 2024

🔱🕊 🏹 🙋 ' विवेकानन्द दर्शनम् का सारांश ' (1-8) [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा 26 संस्कृत श्लोकों में रचित और स्वामी विवेकानन्द के कोटेशन द्वारा अंग्रजी में दी हुई व्याख्या का झुमरीतिलैया महामण्डल द्वारा हिन्दी में अनुवाद की हुई महामण्डल पुस्तिका। ]


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |

वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||

नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |

सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||

सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||

सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर व्याख्या -

श्री रामकृष्ण वचनामृत : " मेरी माँ (जगन्माता भवतारिणी काली ) ने कह दिया है कि वही वेदान्त का ब्रह्म है। जीव के 'कच्चे मैं' (मिथ्या अहं) को पूरी तरह नष्ट कर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। माँ की इच्छा हुई तो तुम या तो विचारमार्ग से ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो , या फिर उसी ज्ञान को भक्तिमार्ग से भी प्राप्त कर सकते हो। 

भक्तिमार्ग ही सार है -ज्ञानभक्ति के लिए व्याकुल होकर निरंतर प्रार्थना करना , माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो कि यदि तुम हृदय से पुकारोगे तो माँ अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगी -तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर यदि तुम उसके निर्गुणनिराकर स्वरुप का दर्शन करना चाहते हो तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्तिरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधि में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो।  

पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है। तुम आँख मूँदकर स्वयं को समझते हुए बार बार का सकते हो कि 'कांटा नहीं है , कांटा नहीं है। ' पर ज्योंही तुम कांटे को हाथ लगते हो त्योंही वह तुम्हें चुभ जाता है , और तुम दर्द से उफ़ करके हाथ खींच लेते हो। तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , पुण्य नहीं , शोक नहीं दुःख नहीं ; क्षुधा नहीं, तृष्णा नहीं ; तुम जन्मरहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा  हो , परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है , ज्योंही मन संसार में काम-कांचन के आपात सुख के भुलावे पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है , त्यों ही मोह , यातना , दुःख आ खड़े होते हैं।  और वे तुम्हारे सारे विवेक-प्रयोग शक्ति को आच्छादित कर, स्वयं देहधारी समझने के बदले  देहध्यास  तुम्हें बेचैन कर देते हैं। 

इसलिए यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना , माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता , दुःख-कष्टों का अंत नहीं होता। सुना नहीं दुर्गासप्तशती में कहा है , 

"सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये *

  (दु.स.श. 1./53---58)

जब तक महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाताज्योंही महामाया की कृपा होती है , त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं ; और वह समस्त दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ नहीं होता। ऐसा कहते हैं कि अजवायन का एक दाना चावल के सौ दानों को पचा डालता है। पर जब पेट की बीमारी होती है तब सौ अजवायन के दाने भी एक चावल के दाने को हजम नहीं करा सकते। यह भी ऐसा ही जानना।  

ज्ञान-योगी निर्गुण , निराकार , निर्विशेष ब्रह्म को जानना चाहता है। परन्तु इस युग के लिए भक्तियोग ही सहज मार्ग है। भक्तिभाव से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए , उनके पूर्ण शरणागत होना चाहिए। भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं। साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुणसाकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं , भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं , और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। अगर कोई किसी तरह एक बार कलकत्ता आ पहुँचे तो उसे वहाँ के प्रसिद्द किले का मैदान , मानुमेंट , अजायबघर सभी कुछ दिख सकता है। अहंकार के आसन्न मृत्यु के क्षणों में भी परहित के लिए प्राणों को न्योछावर करने का साहस करते ही भावसमाधि में रूपदर्शन  (साक्षात् माँ सारदा देवी  के रूप दर्शन ? 1987 बेलघड़िया) और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरूप की अनुभूति (1992 -ऊँच, बनारस ??)] 

अद्वैत ज्ञान श्रेष्ठ है (वेदान्त का Oneness और Inherent Divinity की अनुभूति श्रेष्ठ है) परन्तु शुरू में ईश्वर की आराधना सेव्य -सेवक भाव से , उपास्य-उपासक भाव से  करनी चाहिए। यह सबसे सहज पथ है , इसी से आगे चलकर अद्वैत ज्ञान  सरलता से प्राप्त होता है। 

साधारणतया भक्त ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता। वह ईश्वर के साकार रूप के दर्शन करना चाहता हैं -जगज्जननी काली या श्रीकृष्ण, श्रीचैतन्य आदि अवतारों के रूप ही उसे अच्छे लगते हैं। वह नहीं चाहता कि समाधि मैं-पन (मिथ्या अहं) का पूर्ण नाश हो जाये। वह इतना मैं-पन (दासस्य दासोऽहं) बनाये रखना चाहता है , जिसके द्वारा वह भगवान के साकार रूप के दर्शन [शिवज्ञान से जीवसेवा 'Be and Make' आन्दोलन] का आनंद लूट सके। वह चीनी खाना चाहता है , स्वयं चीनी बनना नहीं चाहता। 

 शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि जगत जननी समझता है, अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह - चाहे अमजद डकैत हो या स्वामी सारदानन्द जी' उनके सभी भक्त सदैव निर्भय रहते  हैं; क्योंकि माँ श्री सारदा सभी की माँ हैं !  क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों का मायारूपी अन्धकार (पंचक्लेश) स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं ]

(संकलन साभार / स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

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महामण्डल पुस्तिका विवेकानन्द दर्शनम् (1-8) का सारांश

श्लोक -१.

यह जगत क्या है; और ऐसा  वैषम्य पूर्ण जगत रचना का उद्देश्य क्या है ?

नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् | 

एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते || (1) 

' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.

 " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"----और वह उद्येश्य क्या है ?

श्लोक -२.

 🏹मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है ! 🏹

 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |  

पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् || 

2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'

२.अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (100 % निःस्वार्थपरता अविरोध आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !

श्लोक :३

[Oneness of Existence and Inherent Divinity]

'मानव जाति के 'अस्तित्व की एकता और अंतर्निहित दिव्यता '

[का पता बता दो, जगत उसे सुनने को बाध्य है !) 

आदर्शस्य वर्णनञ्च् कियत् शब्दैः तु शक्यते-  

ब्रह्मत्वञ्च् मनुष्याणामाचारे तत् प्रकाशनम्॥ 3  

 " My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their Inherent Divinity, and how to make it manifest in every movement of life."

मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना ।

श्लोक-४.

 🏹भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो 🏹

 अन्नदानं वरं मन्ये विद्यादानं ततः परम् - 

 ज्ञानदानं सदा श्रेष्ठं ज्ञानेन हि विमुच्यते॥ ४।।  

 1.  'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.'

2. 'only knowledge can make you free.

१.  ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !'

अतएव - " भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जायेंगे।  आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual Knowledge) का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है।  इसके बाद है लौकिक ज्ञान (Secular Knowledgeका दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिये हमारी आँखें खोल देता है।  इसके बाद अत है जीवन-दान, और चौथा है अन्न दान।" (३:२६०)  

२. " कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (आत्मज्ञान) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।"

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श्लोक :५ 

🔱अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (दिव्यता) को अभिव्यक्त करो 🔱 

 ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये - 

समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥ ५।। 

'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable.

 कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।

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श्लोक :६

युवावस्था से ही धर्मशील, चरित्रवान मनुष्य बनो और व्यभिचार से बचो !  

ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना - 

युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥ ६।।  

1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)

2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.'

3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character.

१. वेदों में कहा गया है - " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः " अर्थात जो चरित्रबल के अतिशय उत्साह और साहस से सर्वस्मिन्काले (सदा) भरा रहे उसे देवतुल्य 'युवा' (यविष्ठ) कहते हैं! "

२. जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील (चरित्रवान-विवेकी) मनुष्य बनना चाहिये। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?

३.  युवाओं के लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। पूर्ण नीतिपरायण अर्थात 'कामिनी -कांचन' में अनासक्त तथा साहसी बनो, सद्गुण एवं धार्मिकता ही मनुष्य के चरित्र को अलंकृत करते हैं।  युवा अवस्था से ही धर्मपरायण होना चाहिए, व्यभिचार, चोरी, झूठ, नशा अदि से बचना चाहिए क्योंकि धर्मनिष्ठा सदाचार का आभूषण है।

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श्लोक:७

  (Para-Bhakti or Supreme Devotion:परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति) 

तुम नश्वर देह नहीं , मनुष्य-देहधारी अविनाशी आत्मा हो  !

जीवः शिव इति ज्ञानं नरो नारायणो ध्रुवम् -

 जीवसेवा परो धर्मः परोपकृतये वयम् ।। ७।।  

1. Every being is God (Shiva) --this is true knowledge; ' man is the greatest of all beings.'

2. ' There is no greater Dharma than this service of living beings.'

3.  ' Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.'

१. प्रत्येक जीव ईश्वर (शिव) है --यही सच्चा ज्ञान है; " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! "

२.  ' जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'

३. " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"

[प्रसंग -समष्टि की माँ ' डकैत, हत्यारा अमजद और स्वामी सारदानन्द - दोनों की माँ !! जगत-जननी माँ श्रीश्री सारदा देवी से प्रेम किये बिना हम किसी ईर्ष्यालु ,हत्यारे , व्यभिचारी भाई से प्रेम कैसे कर सकते हैं ? परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति " विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय" (४/५६) : (Universal Love and How It Leads to Self-Surrender): "How can we love the Vyashti  the particular, without first loving the Samashti, the universal (Mother)?" Volume 3 Page 81/ Para-Bhakti or Supreme Devotion/  ] 

समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से कैसे प्रेम कर सकते हैं ? भक्त उस एक सर्वव्यापी पुरुष (अवतार वरिष्ठ-माँ काली) की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिससे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के बाद दूसरे व्यक्ति (हत्यारा ,डकैत -साधु या शरीर M/F) से प्रेम करते चले जाओ , तो भी अनन्त समय तक संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम की समष्टि ईश्वर है, संसार के बद्ध, मुमुक्षु , मुक्त या नित्यमुक्त सारे जीवात्माओं की आदर्श-समष्टि ही ईश्वर है, तभी यह विश्वप्रेम सम्भव होता है। ईश्वर ही समष्टि है और यह दृष्टिगोचर जगत उसीका परिच्छिन्न भाव है - उसीकी अभिव्यक्ति है। यदि हम इस समष्टि को प्यार करें, तो इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत को प्यार करना और उसका कल्याण करना सहज हो जाता है। किन्तु, पहले भगवत्प्रेम के द्वारा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी-या उनके दासों के दास की भक्ति के द्वारा) हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी, अन्यथा संसार की भलाई करना कोई हँसी -खेल नहीं है। (महामण्डल का कर्मी बनना , विश्व का कल्याण करना - युवाओं को चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' Be and Make ' की शिक्षा देना कोई हँसीखेल नहीं है।) भक्त कहता है , " सब कुछ उसीका है, वह मेरा प्रियतम है, मैं उससे प्रेम करता हूँ। "इस प्रकार भक्त को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि सभी >उसीकी सन्तान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसके रूप हैं। तब फिर हम किसीको कैसे चोट पहुँचा सकते हैं? दूसरों को बिना प्यार किये हम कैसे रह सकते हैं ? (>>>अमजद डकैत और स्वामी सारदानन्द दोनों माँ तारा -श्री सारदा देवी की सन्तान हैं !) जब जीवात्मा  इस परम प्रेमानन्द को आत्मसात करने में सफल होती है (परमात्मा बुद्धिगम्य नहीं, आत्मगम्य हैं ! जानकर भी जीवित बच जाती है !???), तब वह ईश्वर को सर्वभूतों में देखने लगती है। इस प्रकार  [विवेक-दर्शन के अभ्यास से विवेक-स्रोत उद्घाटित होते ही] हमारा ह्रदय प्रेम का एक अनन्त श्रोत (Love -Dynamo) बन जाता है। तब मनुष्य मनुष्य के रूप में नहीं दीखता , वरन साक्षात् ईश्वर के रूप में ही दीख पड़ता है ; ऐसे प्रेमी की आँखों से बाघ का भी बाघ-रूप लुप्त हो जाता है और उसमें स्वयं भगवान प्रकाश-मान दिख पड़ता है। इस प्रकार भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिए उपास्य हो जाते हैं। — "Knowing that Hari, the Lord, is in every being, the wise have thus to manifest unswerving love towards all beings."

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी। 

कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥

'हरि को या नारायण को सब भूतों में अवस्थित देखकर ज्ञानी को सब प्राणियों के प्रति अव्यव्य-भिचारिणी भक्ति रखनी चाहिए। इस प्रगाढ़, सर्वग्राही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रों में इसीको अप्रातिकुल्य (Aprâtikulya.-अविरोध) कहा जाता है।   

जहाँ पहुँचकर गम और ख़ुशी का फर्क महसूस ही नहीं होता, तो वह शिकायत किस बात की करे ? शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे अनन्य प्रेमी के जीवन में जब कोई दुःख आता है, तो कहता है - " दुःख ! स्वागत है तुम्हारा।" यदि सर्प आये तो कहेगा," विराजो, सर्प!" यहाँ तक कि मृत्यु भी आये, तो वह अपने अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत करेगा। हम शेर से अपनी शरीर की रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें ? यह प्रेम-धर्म की वह चोटी है, सिर को चकरा देनेवाली ऐसी ऊँचाई है, जिस पर बहुत थोड़े से लोग ही चढ़ पाते हैं। हम अपने इस शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक भले ही बनाये रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others. धन्य हैं वे जो अपने जीवन को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं ! (४/५८) 

इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर नीच कार्य की अपेक्षा भारत कल्याण में ही अर्पित हो जाये। ' हम भले ही अपने जीवन को 76- 84-100 वर्ष तक खींच ले जायें, पर उसके बाद ? उसके बाद क्या होता है ? ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विघटित होना पड़ता है। ईसा, बुद्ध और मुहम्मद सभी दिवंगत हो गए। संसार के महापुरुष और आचार्यगण (नवनीदा के पितामह आचार्यदेव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय) आज इस धरती से उठ गए हैं। 

भक्त कहता है, इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े-टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है , हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए। और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाये। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हमारा/(दूसरों का ? यह काला या गोरा)यह शरीर ही हम हैं और जिस प्रकार से हो, इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। यह भयानक देहात्मबुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता जड़ है।  यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको कि तुम शरीर से बिल्कुल पृथक हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायेगा , जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। [तुम अविरोध में प्रतिष्ठित हो जाओगे। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता से अतीत हो जाओगे।- यही सच्ची शरणागति है - 'जो होने का है, हो। यही 'तेरी इच्छा पूर्ण हो ' का तात्पर्य है। ४/५९

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श्लोक :८

" श्रीरामकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था !

उत्तिष्ठत चरैवेति गुणान् तामसिकान् जहि । 

जातश्चेत्  प्रेहि संसारात् त्वक्त्वा चिह्नमनूत्तमम् ॥ ८ 

1.  ' Arise ! Awake ! and stop not till the goal is reached !'

2.  ' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities.

3.  ' As you have come into this world, leave some mark behind.'


१. ' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ।'

२. ' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।'

३. ' काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा।'

प्रसंग- [१. कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर:५: २०३/ २. ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र/३. (From the Diary of a disciple २३ / बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ]   

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