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Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.

Tuesday, December 3, 2024

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal , 56 'Th Annual All India Youth Training Camp , 2024 / Ujan Haripada High School , P.S.- Pingla/ Pashchim Medinipur

56'th वां वार्षिक अखिल भारत युवा प्रशिक्षण शिविर, 2024.

56'th Annual All India Youth Training Camp , 2024 

उजान हरिपद हाई स्कूल, 

(पी.एस.-पिंगला/पश्चिम मेदिनीपुर)

शिविरार्थियों के लिए कार्यक्रम 

(Programme For Campers)

प्रतिदिन - प्रातः 4.55 बजे से  10.30 बजे तक 

महामंडल गान के साथ ध्वजारोहण, मानसिक एकाग्रता, शारीरिक व्यायाम, परेड, खेल,महामंडल के आदर्श और उद्देश्य , भारतीय सांस्कृतिक विरासत, चरित्र निर्माण की विधियां, संगठन का प्रबंधन और नेतृत्व, समाज सेवा, राष्ट्रीय एकता, धार्मिक सद्भावना, आदि विषयों के साथ "स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण तथा चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (Man-making and Character-Building Education of Swami Vivekananda) पर चर्चा की जायेगी

खुला कार्यक्रम

बुधवार, 25 दिसंबर 2024

4:50 अपराह्न उद्घाटन, उद्घाटन गीत, स्वागत भाषण। 

उद्घाटन भाषण: श्रीमत स्वामी हितकामानन्द जी महाराज, सचिव, रामकृष्ण मिशन शिलांग। 

भाषण (संस्कृत) : श्री प्रभात कुमार मैती, टियरबेरिया विवेकानन्द युवा पाठ चक्र। 

भाषण (उड़िया): श्री प्रदीप कुमार साहू, गुआमल विवेकानन्द युवा महामंडल, ओडिशा।

भाषण (हिन्दी): श्री रितेश सिन्हा, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, झुमरीतिलैया शाखा। 

भाषण (बंगाली) : श्री रंजीत मिश्रा, लालट विवेकानन्द युवा महामंडल। 


गुरुवार, 26 दिसंबर 2024

सायं 6.30 से 7.30 बजे तक : ''वर्तमान समय में स्वामी विवेकानन्द की प्रासंगिकता"(बंगाली) वक्ता हैं -

श्री अमित कुमार दत्त, महासचिव

अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल। 

7.30 से 8.45 बजे तक : 'महामण्डल के कौमी तराने' (देशभक्ति मूलक संगीत। ) 

शुक्रवार 27 दिसंबर, 2024 :

शाम 6.30 से 7.30 बजे तक :  "स्वामी विवेकानन्द का जीवन एवं सन्देश" (हिन्दी)

श्री गजानंद पाठक,

 हज़ारीबाग़ विवेकानन्द युवा महामंडल

7.30 से 8.45 बजे तक : "भक्ति-संगीत के साथ देशभक्ति गीत'' - श्री पृथ्विश बिस्वास और श्री दीप्येंदु जाना। 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

सायं 6.30 से 7.30 बजे तक। : "भारतीय संस्कृति का सार" (अंग्रेजी- 'The Essence of Indian Culture')

वक्ता : श्रीमत स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज, 

अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम, मायावती। 

7.30 से 8.45 बजे तक : महामण्डल संगीत  - श्री पार्थ मिश्रा एवं अन्य।


रविवार, 29 दिसंबर 2024

10.30 से 12 बजे तक : रक्तदान

शाम 4.00 बजे - "महामण्डल के सिंह-शिशु दल (विवेक वाहिनी) द्वारा विविध कार्यक्रम। 

शाम 6.30 से 7.30 बजे तक : "जनसाधारण के विवेकानन्द " (बंगाली)।"

वक्ता : डॉ. समीर कुमार दासगुप्ता, 

(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के कार्यकारिणी समिति के माननीय सदस्य। )


सोमवार, 30 दिसंबर, 2024

विदाई सत्र : 

मुख्य अतिथि - श्रीमत् स्वामी बलभद्रानन्द जी महाराज, 

सहायक महासचिव, 

रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन, बेलूर मठ , हावड़ा। 

अतिथि वक्ता : श्री नरेंद्र नाथ मन्ना, 

प्रधानाध्यापक, उजान हरिपद हाई स्कूल

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नोट : प्रतिदिन सन्ध्या 6 बजे प्रार्थना होगी। 

पुस्तक- विक्रय केन्द्र , सह प्रदर्शनी

कैम्प साइट पर "श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द  वेदान्त साहित्य" तथा "स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा " के ऊपर अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा हिन्दी, बंगाली, गुजराती, उड़िया, तेलुगु, कन्नड़ आदि विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रकाशित महामण्डल की पुस्तिकायें भी बिक्रय के लिए उपलब्ध रहेंगी।   

शिविर प्रतिदिन शाम 4.00 बजे से रात 8.45 बजे तक साधारण जनता के लिए खुला रहेगा। 

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PROGRAMME FOR CAMPERS

4.55 a.m. to 10.30 p.m. Daily :

 Flag hoisting with Mahamandal Anthem, Mental Concentration, Physical Exercise , Parade, Games, and Discussion on the "Man-making and Character -building Education of Swami Vivekananda", Aims and Objects of The Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, Indian Cultural Heritage, Methods of Character Building, Management of Organization and Leadership, Social Service , National Integration, Harmony of Religion , etc.


OPEN PROGRAMME

Wednesday, 25th December, 2024 

4:50 P.M. Inauguration

Opening Song, Welcome Address

Inaugural Speech : Srimat Swami Hitakamananda ji Maharaj,

Secretary, Ramakrishna Mission Shillong. 

Speech (Sanskrit) : Sri Prabhat at Kumar Maity, 

Tearberia Vivekananda Yuva  Pathachakra

Speech (Odiya) : Sri Pradip Kumar Sahoo, 

Guamal Vivekananda Yuva Mahamandal, Odisha

Speech (Hindi) : Sri Ritesh Sinha, 

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, Jhumri Telaiya Branch.

Speech (Bengali) : Sri Ranjit Mishra, 

Lalat Vivekananda Yuva Mahamandal

Thursday, 26th December, 2024

6.30 to 7.30p.m. : 'Relevance of Swami Vivekananda Today' (Bengali)

Sri Amit Kumar Datta, 

General Secretary, 

Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, 

7.30 to 8.45 p.m. : Songs :

Friday 27th December, 2024 : 

6.30 to 7.30 p.m. : Life and Message of Swami Vivekananda (Hindi)

Sri Gajanand Pathak, 

Hazaribagh Vivekananda Yuva Mahamandal

7.30 to 8.45 p.m. : Devotional & Patriotic Songs - Sri Prithwish Biswas & Sri Dipyendu Jana

Saturday, 28th December, 2024

6.30 to 7.30p.m. : 'The Essence of Indian Culture' (English)

Srimat Swami Suddhidanandaji Maharaj, President, Advaita Ashrama, Mayavati

7.30 to 8.45 p.m. : Songs - Sri Partha Mishra & Others

Sunday, 29th December, 2024

10.30 to 12 noon : Blood Donation

4.00 p.m. - Childern's (Vivek Vahini) Programme

6.30 to 7.30 p.m. : Janaganer Vivekananda (Bengali)

Dr. Samir Kumar Dasgupta, 

Executive Committee Member, Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. 

Monday, 30th December, 2024

Farewell  Session :

 Chief Guest - Srimat Swami Balabhadranandaji Maharaj, 

Assistant General Secretary, Ramakrishna Math & Ramakrihna Mission, Belur Math, Howrah. 

Guest Speaker : Sri Narendra Nath Manna, 

Headmaster, Ujan Haripada High School

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N.B. -Evening Prayers will be held every day at 6:00 pm.

 Sri Ramakrishna-Vivekananda Vedanta literature and Booklets published by Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal in various Indian languages ​​like Hindi, Bengali, Gujarati, Oriya, Telugu, Kannada etc. on "Swami Vivekananda's Man-making and Character-Building Teachings" will also be available for sale at the camp site.

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Friday, November 22, 2024

🔱🕊 🏹 🙋 ' विवेकानन्द दर्शनम् का सारांश ' (9-12) [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा 26 संस्कृत श्लोकों में रचित और स्वामी विवेकानन्द के कोटेशन द्वारा अंग्रजी में दी हुई व्याख्या का झुमरीतिलैया महामण्डल द्वारा हिन्दी में अनुवाद की हुई महामण्डल पुस्तिका। ]

 श्लोक -९

कर्म-विधान क्या है ?

आलस्य रोदनं वापि भयं कर्मफलोद्भवम् : 

  त्वयीमानि न शोभन्ते जहि मनोबलैः॥ ९।। 

With the strength of your mind give up indolence and weeping or any fear from fate -- these do not behove you.

(गुरुदेव, माँ सारदा देवी की कृपा से) तुम्हारा मन तो प्रबल इच्छासम्पन्न है, आत्मनिरीक्षण के अभ्यास में आलस्य मत करो , किसी भी प्रारब्ध से मत डरो- ये सब तुझे शोभा नहीं देते।

प्रसंग : वनवास के दौरान राम,लक्ष्मण और सीता को कष्ट में देख कर जब निषादराज माता कैकई और मंथरा को दोषी ठहराते हैं। तब लक्ष्मणजी निषादराज रजसे गुह से कहते हैं ‒ 

सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता

परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।

अहं करोमीति वृथाभिमानः

स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥

                         (अध्यात्मरामायण )

अर्थात सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। कोई दूसरा (हमें सुख और दुःख) देने वाला है - ऐसा समझना कुबुद्धि - मंदबुद्धि और अल्प-ज्ञान का सूचक है। 'मैं ही सब का कर्ता हूँ ' यह मानना भी मिथ्याभिमान है । सभी लोग अपने अपने पूर्व कर्मों के सूत्र से बंधे हुए हैं । (निषादराज गृहक कैकेयी और मंथराको दोष देता है तब लक्षमण की उक्ति)

यही बात तुलसीकृत रामायण में भी कही गई है‒

                काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।

                निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥

                           (राम चरित मानस - अयोध्या काण्ड)

तुलसीकृत रामायण (मानस २/९२/२) में तब लक्ष्मणजी निषादराजत गुहसे कहते हैं, सुख और दुःख का दाता कोई और नहीं है। हे भाई - सब अपने अपने कर्मों के अनुसार ही सुख- दुःख भोगते हैं।

हम अक़्सर अपनी किसी बात - किसी घटना या अपने किसी काम के परिणाम की जिम्मेवारी नहीं लेना चाहते। ख़ास तौर पर अपने दुःख और कष्टों के लिए किसी और को जिम्मेवार और दोषी ठहरा कर हमें कुछ राहत और सांत्वना सी महसूस होती है। लेकिन अगर हम अपने भाग्य एवं परिस्थितियों के लिए स्वयं को जिम्मेवार समझेंगे तो आगे के लिए हर काम को समझदारी से करने की कोशिश करेंगे। अगर हम ये अच्छी तरह से समझ लें कि हमारे कर्म (आदत-प्रवृत्ति-व्याभिचार -सदाचार) ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं तो हम हमेशा अच्छे कर्म ही करने की कोशिश करेंगे। वर्तमान के शुभ कर्मो के द्वारा पिछले कर्मों के दुष्परिणाम को भी बहुत हद तक बदला जा सकता है। इसीलिए धर्म ग्रन्थ और संत महात्मा हमें सत्संग, भक्ति, नम्रता, त्याग और सेवा भावना इत्यादि की प्रेरणा देते रहते हैं। लेकिन अगर किसी का भला नहीं कर सकते तो कम-से -कम किसी का बुरा तो न करें।

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥

जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ~  'मा गृधः कस्यस्विद्धनम् '  अर्थात किसी का धन - किसी का हक़ छीनने की कभी कोशिश न करो और 'यह सब मेरा है' के भाव के साथ' पदार्थों का संग्रह न करो।

विषयवस्तु :  ‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) में पतञ्जलि कहते हैं कि-जिस प्रकार एक बछड़ा हजार गायों के बीच में अपनी माँ को पहचान लेता है, उसी प्रकार पूर्व में किया गया कर्म अपने कर्ता को ढूंढ लेता है। मन-वचन-काया से पहले किये हुए कर्मों के फल तीन रूपों -जन्म, आयु और भोग में प्राप्त होते हैं। जैसा कर्म वैसा फल ! ' Ignorance of Law is no excuse' अर्थात कानून की अनभिज्ञता कोई बहाना नहीं है। शरीर तो अविनाशी आत्मा का वस्त्र है!  प्रारब्ध भोग कर आज ही क्षय कर लो, शमी की लकड़ी से शनि ग्रह को भगाने की चेष्टा मत करो।

श्लोक -१०.

मनःसंयोग ही सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है !


 मन एव महच्छत्रुर्बन्धुरपि तदेव हि। 

मनोदासः प्रभुस्तस्य यदेकोSसि तथा भवेत्॥ १०।। 


1. Mind is a great enemy and may also be the best friend.

2. You may be a servant or the master of your mind.

3. If you are a servant, it will pose as an enemy; if you master it, it will become a trusted friend.

4. ' The mind uncontrolled and unguided will drag us down...,and guided will save us, free us.'


१. (अनियंत्रित) मन ही मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन है और यही मन जब वशीभूत हो जाता है- मनुष्य का सबसे अच्छा दोस्त भी बन सकता है।

२. तुम अपने के गुलाम हो सकते हो, और तुम यदि चाहो तो अपने मन के मालिक भी हो सकते हो।

३. यदि तुम अपने मन के दास बने रहोगे, तो यह तुम्हारे एक दुश्मन के रूप में तुमसे बहुत बुरा व्यव्हार करेगा। यदि तुम इसे वशीभूत कर लोगे तो यही मन तुम्हारा सबसे विश्वसनीय मित्र बन जायगा।

४. " अनियंत्रित और अनिर्दिष्ट मन हमें सदैव उत्तरोत्तर नीचे की ओर घसीटता रहेगा -हमें चींथ डालेगा, हमें मार डालेगा; और नियंत्रित तथा निर्दिष्ट मन हमारी रक्षा करेगा, हमें मुक्त करेगा। इसलिये वह अवश्य नियंत्रित होना चाहिये, और मनोविज्ञान सिखाता है कि इसे कैसे करना चाहिये।"

प्रसंग : 'मनःसंयोग' (दी साइन्स अव साइकालजी) या मनोविज्ञान एक सर्वश्रेष्ठ विज्ञान है।" (हिन्दी ४/११२)

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🔱🕊 श्लोक -११🔱🕊

 🏹 🙋श्रीरामकृष्ण परमहंस देव जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी  🏹 🙋

(कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति और एक महान दैवी शक्ति श्रीरामकृष्ण !)  

जगति सति सत्ये तु न लाभश्चेत् किमु क्षतिः। 

प्रपञ्चस्यापि देहस्य प्रयोगे पुरुषार्थता ॥ ११।। 

1. What is the gain or loss by kicking up a row over the reality of this world ?

2. Objects of human life are attained by making the best use of human body and the visible world.

3. " Anyone and everyone cannot be an Âchârya (teacher of mankind); but many may become Mukta (liberated). ' The Acharya has to take a stand between the two states. He must have the knowledge that the world is true, or else why should he teach ? Again if he had not realized the world as a dream, then he is no better than an ordinary man, and what could he teach ?'

१. इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या?

[# प्रसंग : माँ श्री सारदा (तारा -जनकराजकिशोरी) जैसे डकैत अमजद की भी माँ है, और स्वामी सारदानन्द की भी माँ है ! (चिरंतनी 5 am-कोलकाता 22-11-2024)  जीवे प्रेम करे जेई जन, से सेवेच्छे ईश्वर ! परस्पर भावयन्तः, बहुजनहिताय -बहुजन सुखाये- इस जगत के सच्चाइयों की जो लम्बी कतार (सिनेमा के पर्दे पर महाभारत या फिल्म शोले के जैसा स्वप्नवत) है, उसके ऊपर दुलत्ती मारते रहने (या असन्तोष प्रकट करते रहने) में लाभ क्या और हानी क्या? 

२. इस मूर्खता को छोड़कर, देवदुर्लभ मानव शरीर एवं दृष्टिगोचर जगत का सर्वोत्तम उपयोग करने से मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !

[#जगत सत्य है या मिथ्या ? इसी मूर्खतापूर्ण प्रश्न को लेकर जीवन भर सिर खपाते रहने से लाभ क्या और हानी क्या? इस मूर्खता को छोड़कर, दृष्टिगोचर जगत और देवदुर्लभ मानव शरीर दोनों का सर्वोत्तम उपयोग करने से (प्रवृत्ति से निवृत्ति में स्थित हो जाने से) मनुष्य जीवन का उद्देश्य- (लक्ष्य) सिद्ध हो जाता है !]

३. " हर कोई आचार्य (देव) या 'गुरु' नहीं हो सकता, (teacher of mankind-मानवजाति का मार्गदर्शक नेता नहीं हो सकता), किन्तु मुक्त बहुत से लोग हो सकते हैं। मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

 [# मुक्त पुरुषों को यह जगत स्वप्नवत जान पड़ता है, किन्तु आचार्य देव को मानो स्वप्न और जाग्रत, इन दोनों अवस्थाओं के बीच खड़ा होना पड़ता है। उसे यह ज्ञान रखना ही पड़ता है कि जगत सत्य है, अन्यथा वह शिक्षा (=मंत्र-दीक्षा ?? श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय मंत्रदीक्षा भी देते थे, आसुतोष मुखोपाध्याय नहीं ले सके थे !!!) किसे और क्यों  देगा ? फिर, यदि उसे यह अनुभूति न हुई हो कि जगत स्वप्नवत है, तो उसमें और एक साधारण आदमी में अन्तर ही क्या ? - और वह शिक्षा भी क्या दे सकेगा ?

निम्नलिखित पंक्तियों में सन्त रैदास जी भक्त और भगवान के बीच के संबंध का वर्णन करते हुए कहते हैं - 

प्रभु जी तुम दीपक, हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती। 

प्रभु जी तुम मोती, हम धागा, जैसे सोने मिलत सुहागा ॥

भाव स्पष्टीकरण : भगवान और भक्त के बीच के संबंध को स्पष्ट करते हुए रैदास जी कहते हैं कि भगवान के बिना भक्त का कोई अस्तित्व नहीं है। प्रभु जी यदि दीप हैं तो भक्त वर्तिका के समान है। दोनों मिलकर प्रकाश फैलाते हैं। प्रभु जी यदि मोती हैं तो भक्त धागा है, दोनों मिलकर सुंदर हार बन जाते हैं। दोनों का मिलन सोने पे सुहागे के समान है। दास्य भक्ति, शरणागत तत्व भी इसमें दर्शाया गया है। वे (रैदास) प्रभुजी को स्वामी मानते हैं और अपने को उनका दास या सेवक मानते हैं। विशेष : दास्य भक्ति की पराकाष्ठा इसमें है।

प्रसंग : 'भक्तियोग के आचार्य' (teacher of mankind- मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) श्रीरामकृष्ण जीवन्मुक्त भी थे और आचार्य भी ! ३/२६१ :  ON BHAKTI-YOGA/Volume- 5-page -265/ 

संन्यासी और गृहस्थ

(खण्ड  ३ : १८५) 

The Sanyasin and the Householder

(5: 260-61)

" धनवानों का आदरसत्कार करना और आश्रय (support : भरण-पोषण) के लिये उनका मुँह जोहना यह हमारे देश के सभी संन्यासी सम्प्रदायों के लिये अभिशाप स्वरुप रहा है। सच्चे संन्यासी को इस बात में बड़ा सावधान रहना चाहिए और इससे बिल्कुल बचकर रहना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार तो वैश्याओं के लिये ही उचित है, न कि संसार-त्यागी संन्यासी के लिये।  (जो प्रवृत्ति से होकर उसकी निस्सारता को समझकर निवृत्ति में स्थित आचार्य नहीं है, संसारी है -"How should a man immersed in Kâma-Kânchana (lust and greed) become a devotee of one whose central ideal is the renunciation of Kama-Kanchana? ")  

 कामिनी-कांचन (lust and greed) में डूबा व्यक्ति उस 'व्यक्ति' का भक्त कैसे हो सकता है, जिनके जीवन का मुख्य आदर्श कामिनी -कांचन का त्याग है ?   श्री रामकृष्ण तो रो रोकर जगन्माता से प्रार्थना किया करते थे , "माँ, मेरे पास बात करने के लिए एक तो ऐसा भेज दो, जिसमें काम -कांचन का लेश मात्र भी न हो। संसारी लोगों से बातचित करने में मेरा मुँह जलने लगता है। " वे यह भी कहते थे - " मुझे अपवित्र और विषयी लोगों का स्पर्श तक सहन नहीं होता। "  त्यागियों के बादशाह (That King of Sannyasins) यतिराज श्रीरामकृष्ण के उपदेशों का प्रचार विषयी लोगों के द्वारा कभी नहीं हो सकता। ऐसे लोग (विषयों में 3'K' में घोर रूप से आसक्त भोगी गृहस्थ) कभी भी पूर्ण रूप में सच्चे नहीं हो सकते; क्योंकि उनके कार्यों में कुछ न कुछ स्वार्थ (तीनों ऐषणाओं में कोई एक ऐषणा) रहता ही है। "The latter can never be perfectly sincere; for he cannot but have some selfish motives to serve." 

   " यदि स्वयं भगवान (श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्रीरामकृष्ण ?) भी गृहस्थ (संसारी) के रूप में अवतीर्ण हों, तो मैं उसे भी सच्चा न समझूँ। जब कोई गृहस्थ (संसारी -कामिनी-कांचन में डूबा व्यक्ति) किसी धार्मिक सम्प्रदाय के 'नेता-पद' [जेनरल -सेक्रेटरी] पर प्रतिष्ठित हो जाता है, तो वह आदर्श (ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये,  सत्चित् - सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिने।) की ओट में अपना ही स्वार्थ-साधन करने लगता है। और फल यह होता है कि वह सम्प्रदाय बिल्कुल सड़ जाता है। गृहस्थों के नेतृत्व में सभी धार्मिक आन्दोलनों का यही नसीब हुआ है। त्याग (और सेवा) के बिना धर्म खड़ा ही नहीं रह सकता। " (३/१८५)

[If Bhagavân (God) incarnates Himself as a householder, I can never believe Him to be sincere. When a householder takes the position of the leader of a religious sect, he begins to serve his own interests in the name of principle, hiding the former in the garb of the latter, and the result is the sect becomes rotten to the core. All religious movements headed by householders have shared the same fate. Without renunciation religion can never stand." (5:261)] 

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' विवेकानन्द - वचनामृत '

१२. 

🔱🕊 🏹 🙋 विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है "🔱🕊 🏹 🙋 

"The task before us"

देहोSयं वदति व्यासः परुषस्याखिलार्थदः।

लब्धव्यं प्राक् बलं देहे ततः परं मनोबलम्॥ (१२)  


1. This body, says Vyasa (Bhagavata, 9.9.28(24) fulfills all desires of man. 

2. But 'If there is no strength in body and mind the atman cannot be realized.    first you have to build the body-then only the mind be strong.'

3.  ' All power is within you , you can do anything and everything.'

१.  व्यासदेव जी श्रीमद्भागवत-महापुराण  ९.२८ में कहते हैं - 

    देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।

         तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥

राजन् ! यह मनुष्य शरीर ही मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष --चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये हे वीर ! इस शरीर को (दुर्बल बना लेना) नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है। 

२. "नायमात्मा बलहीनेन लभ्य :--'दुर्बल-कमजोर लोग आत्मा की अनुभूति नहीं कर सकते।' अर्थात शरीर और मन में दृढ़ता न रहने कोई भी, अपने ह्रदय में इस आत्मा की उपस्थिती का अनुभव नहीं कर सकता। पहले व्यायाम और पौष्टिक भोजन से शरीर को बलिष्ठ करना होगा, तभी तो मन का बल बढ़ेगा। मन तो शरीर का ही सूक्ष्म अंश है। मन और वाणी में तुम्हें महान ओजस्विता रखनी चाहिये। ' मैं हीन हूँ' , ' मैं दीन हूँ' ऐसा कहते कहते मनुष्य वैसा ही हो जाता है।"(६.९३)

३.  आत्मश्रद्धा - आत्मविश्वास : 

'All power is within you, you can do anything and everything.' 

 " समस्त शक्ति तुम्हारे भीतर है, तुम कुछ भी कर सकते हो और सब कुछ कर सकते हो। इस बात पर विश्वास करो, यह मत विश्वास करो कि तुम दुर्बल हो। आजकल हम में से अधिकांश जैसे अपने को अधपागल समझते हैं, तुम अपने को वैसा मत समझो। इतना ही नहीं, तुम किसी भी काम को बिना किसी के मार्गदर्शन के, अकेले ही करने में सक्षम हो । तत्काल निर्णय लेने की शक्ति (popover) तुम्हारे ही भीतर है। कमर कस लो, और तुममें जो Inherent Divinity है, जो अंतर्निहित दिव्यता है, जो देवत्व छिपा हुआ है, उसे प्रकट करो !

हमारे शास्त्रों में बार बार कहा गया है कि बाह्य-इन्द्रियों के ज्ञान के द्वारा धर्म कभी प्राप्त नहीं हो सकता। धर्म वही है, जो हमें उस अक्षर पुरुष का साक्षात्कार कराता है, और हर एक के लिये यही धर्म है। जिसने इस इन्द्रियातीत सत्ता का साक्षात्कार कर लिया, जिसने आत्मा का स्वरुप उपलब्ध कर लिया, जिसने भगवान को प्रत्यक्ष देखा -हर वस्तु में देखा, वही ऋषि (पैग़म्बर) हो गया।  

हमें भी इस ऋषित्व का लाभ करना होगा, मन्त्रद्रष्टा होना होगा, ईश्वर-साक्षात्कार करना होगा। प्राचीन भारत में सैकड़ों ऋषि थे, और अब हमारे बीच लाखों होंगे -निश्चय ही होंगे। इस बात पर तुममें से हर एक जितनी जल्दी विश्वास करेगा, भारत का और समग्र संसार का उतना ही अधिक कल्याण होगा। तुम जो कुछ विश्वास करोगे, तुम वही हो जाओगे ! यदि तुम अपने को महापुरुष समझोगे तो कल ही तुम महापुरुष हो जाओगे। तुम्हें रोक सके-ज़माने में इतना दम नहीं ! और जितनी शीघ्रता से इस सिद्धान्त में श्रद्धा और विश्वास कर सकोगे, उतना ही तुम्हारा कल्याण होगा! " [ सन्दर्भ "The task before us"  -" विधाता ने हमारे लिये जो कार्य सौंपा है !"  'कोलम्बो से अल्मोड़ा तक- व्याख्यान' पुस्तक के कामट्रिप्लिकेन लिटरेरी सोसाइटी, मद्रास में दिया गया भाषण। ५/१७८: ]  

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Thursday, November 21, 2024

🔱🕊 🏹 🙋 ' विवेकानन्द दर्शनम् का सारांश ' (1-8) [अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा 26 संस्कृत श्लोकों में रचित और स्वामी विवेकानन्द के कोटेशन द्वारा अंग्रजी में दी हुई व्याख्या का झुमरीतिलैया महामण्डल द्वारा हिन्दी में अनुवाद की हुई महामण्डल पुस्तिका। ]


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |

वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||

नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |

सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||

सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||

सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||

श्री रामकृष्ण के उपदेश "अमृतवाणी " के आधार पर व्याख्या -

श्री रामकृष्ण वचनामृत : " मेरी माँ (जगन्माता भवतारिणी काली ) ने कह दिया है कि वही वेदान्त का ब्रह्म है। जीव के 'कच्चे मैं' (मिथ्या अहं) को पूरी तरह नष्ट कर उसे ब्रह्मज्ञान देने की शक्ति उसी में है। माँ की इच्छा हुई तो तुम या तो विचारमार्ग से ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो , या फिर उसी ज्ञान को भक्तिमार्ग से भी प्राप्त कर सकते हो। 

भक्तिमार्ग ही सार है -ज्ञानभक्ति के लिए व्याकुल होकर निरंतर प्रार्थना करना , माँ के चरणों में आत्मनिवेदन करना। इस तरह पहले माँ की शरण आओ। मेरी बात पर विश्वास रखो कि यदि तुम हृदय से पुकारोगे तो माँ अवश्य तुम्हारी पुकार सुनेगी -तुम्हारी इच्छा पूरी करेगी। फिर यदि तुम उसके निर्गुणनिराकर स्वरुप का दर्शन करना चाहते हो तो उसी से प्रार्थना करो। सर्वशक्तिरूपिणी जगन्माता की कृपा से तुम समाधि में ब्रह्मज्ञान लाभ कर सकते हो।  

पंचभूतों के फन्दे में पड़कर ब्रह्म को भी रोना पड़ता है। तुम आँख मूँदकर स्वयं को समझते हुए बार बार का सकते हो कि 'कांटा नहीं है , कांटा नहीं है। ' पर ज्योंही तुम कांटे को हाथ लगते हो त्योंही वह तुम्हें चुभ जाता है , और तुम दर्द से उफ़ करके हाथ खींच लेते हो। तुम मन को कितना भी क्यों न समझाओ कि तुम्हारे जन्म नहीं , मृत्यु नहीं , पुण्य नहीं , शोक नहीं दुःख नहीं ; क्षुधा नहीं, तृष्णा नहीं ; तुम जन्मरहित , निर्विकार , सच्चिदानन्दस्वरूप आत्मा  हो , परन्तु ज्यों ही रोग होकर देह अस्वस्थ हो जाती है , ज्योंही मन संसार में काम-कांचन के आपात सुख के भुलावे पड़कर कोई कुकर्म कर बैठता है , त्यों ही मोह , यातना , दुःख आ खड़े होते हैं।  और वे तुम्हारे सारे विवेक-प्रयोग शक्ति को आच्छादित कर, स्वयं देहधारी समझने के बदले  देहध्यास  तुम्हें बेचैन कर देते हैं। 

इसलिए यह जान लो कि ईश्वर की कृपा हुए बिना , माया के द्वार छोड़े बिना किसी को आत्मज्ञान नहीं होता , दुःख-कष्टों का अंत नहीं होता। सुना नहीं दुर्गासप्तशती में कहा है , 

"सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये *

  (दु.स.श. 1./53---58)

जब तक महामाया पथ के विघ्नों को हटा न दे तब तक कुछ नहीं हो पाताज्योंही महामाया की कृपा होती है , त्योंही जीव को ईश्वरदर्शन होते हैं ; और वह समस्त दुःख-कष्टों के हाथ से छुटकारा पा जाता है। नहीं तो लाख विचार करो, कुछ नहीं होता। ऐसा कहते हैं कि अजवायन का एक दाना चावल के सौ दानों को पचा डालता है। पर जब पेट की बीमारी होती है तब सौ अजवायन के दाने भी एक चावल के दाने को हजम नहीं करा सकते। यह भी ऐसा ही जानना।  

ज्ञान-योगी निर्गुण , निराकार , निर्विशेष ब्रह्म को जानना चाहता है। परन्तु इस युग के लिए भक्तियोग ही सहज मार्ग है। भक्तिभाव से ईश्वर की प्रार्थना करनी चाहिए , उनके पूर्ण शरणागत होना चाहिए। भगवान भक्त की रक्षा करते हैं। और यदि भक्त चाहे तो भगवान उसे ब्रह्मज्ञान भी देते हैं। साधारणतः भक्त ईश्वर का सगुणसाकार रूप ही देखना चाहता है। परन्तु इच्छामय ईश्वर यदि चाहें तो भक्त को सब ऐश्वर्यों का अधिकारी बनाते हैं , भक्ति भी देते हैं और ज्ञान भी। उसे भावसमाधि में रूपदर्शन भी होते हैं , और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरुप के दर्शन भी। अगर कोई किसी तरह एक बार कलकत्ता आ पहुँचे तो उसे वहाँ के प्रसिद्द किले का मैदान , मानुमेंट , अजायबघर सभी कुछ दिख सकता है। अहंकार के आसन्न मृत्यु के क्षणों में भी परहित के लिए प्राणों को न्योछावर करने का साहस करते ही भावसमाधि में रूपदर्शन  (साक्षात् माँ सारदा देवी  के रूप दर्शन ? 1987 बेलघड़िया) और निर्विकल्प समाधि में निर्गुण स्वरूप की अनुभूति (1992 -ऊँच, बनारस ??)] 

अद्वैत ज्ञान श्रेष्ठ है (वेदान्त का Oneness और Inherent Divinity की अनुभूति श्रेष्ठ है) परन्तु शुरू में ईश्वर की आराधना सेव्य -सेवक भाव से , उपास्य-उपासक भाव से  करनी चाहिए। यह सबसे सहज पथ है , इसी से आगे चलकर अद्वैत ज्ञान  सरलता से प्राप्त होता है। 

साधारणतया भक्त ब्रह्मज्ञान नहीं चाहता। वह ईश्वर के साकार रूप के दर्शन करना चाहता हैं -जगज्जननी काली या श्रीकृष्ण, श्रीचैतन्य आदि अवतारों के रूप ही उसे अच्छे लगते हैं। वह नहीं चाहता कि समाधि मैं-पन (मिथ्या अहं) का पूर्ण नाश हो जाये। वह इतना मैं-पन (दासस्य दासोऽहं) बनाये रखना चाहता है , जिसके द्वारा वह भगवान के साकार रूप के दर्शन [शिवज्ञान से जीवसेवा 'Be and Make' आन्दोलन] का आनंद लूट सके। वह चीनी खाना चाहता है , स्वयं चीनी बनना नहीं चाहता। 

 शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि जगत जननी समझता है, अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह - चाहे अमजद डकैत हो या स्वामी सारदानन्द जी' उनके सभी भक्त सदैव निर्भय रहते  हैं; क्योंकि माँ श्री सारदा सभी की माँ हैं !  क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों का मायारूपी अन्धकार (पंचक्लेश) स्वत: ही नष्ट हो जाते हैं ]

(संकलन साभार / स्वामी राम'तत्वानन्द रचित- श्री रामकृष्ण दोहावली ) 

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महामण्डल पुस्तिका विवेकानन्द दर्शनम् (1-8) का सारांश

श्लोक -१.

यह जगत क्या है; और ऐसा  वैषम्य पूर्ण जगत रचना का उद्देश्य क्या है ?

नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् | 

एष वर्णमयो वर्गो भावमेकं प्रकाशते || (1) 

' After all, this world is a series of pictures. ' This colorful conglomeration expresses one idea only.

 " सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के द्वारा केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।"----और वह उद्येश्य क्या है ?

श्लोक -२.

 🏹मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहा है ! 🏹

 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |  

पश्यामः केवलं तद्धि नृनिर्माणं कथं भवेत् || 

2. Man is marching towards perfection. That is -- ' the great interest running through. We were all watching the making of men, and that alone.'

२.अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (100 % निःस्वार्थपरता अविरोध आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !

श्लोक :३

[Oneness of Existence and Inherent Divinity]

'मानव जाति के 'अस्तित्व की एकता और अंतर्निहित दिव्यता '

[का पता बता दो, जगत उसे सुनने को बाध्य है !) 

आदर्शस्य वर्णनञ्च् कियत् शब्दैः तु शक्यते-  

ब्रह्मत्वञ्च् मनुष्याणामाचारे तत् प्रकाशनम्॥ 3  

 " My ideal indeed can be put into a few words and that is: to preach unto mankind their Inherent Divinity, and how to make it manifest in every movement of life."

मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है- मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना ।

श्लोक-४.

 🏹भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो 🏹

 अन्नदानं वरं मन्ये विद्यादानं ततः परम् - 

 ज्ञानदानं सदा श्रेष्ठं ज्ञानेन हि विमुच्यते॥ ४।।  

 1.  'First of all, comes the gift of food; next is the gift of learning, and the highest of all is the gift of knowledge.'

2. 'only knowledge can make you free.

१.  ' पहले अन्नदान; उसके बाद विद्यादान और सर्वोपरि है ज्ञानदान !'

अतएव - " भारत को पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो, फिर अन्य विचार अपने आप ही आ जायेंगे।  आध्यात्मिकता और आध्यात्मिक ज्ञान (Spiritual Knowledge) का दान सर्वोत्तम दान है, क्योंकि यह हमें संसार के आवागमन से मुक्त कर देता है।  इसके बाद है लौकिक ज्ञान (Secular Knowledgeका दान, क्योंकि यह आध्यात्मिक ज्ञान के लिये हमारी आँखें खोल देता है।  इसके बाद अत है जीवन-दान, और चौथा है अन्न दान।" (३:२६०)  

२. " कोई भी कर्म तुम्हें मुक्ति नहीं दे सकता, केवल ज्ञान (आत्मज्ञान) के द्वारा ही मुक्ति हो सकती है।"

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श्लोक :५ 

🔱अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (दिव्यता) को अभिव्यक्त करो 🔱 

 ज्ञानभक्तिक्रियायोगैः राजयोगसमाश्रये - 

समं वै लभते ज्ञानमेकेनैवाधिकेन वा ॥ ५।। 

'By Work, or Worship, or Psychic control, or Philosophy - by one, or more, or all of these ' - the same knowledge is attainable.

 कर्म, उपासना, मनःसंयम, अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके गौण ब्योरे मात्र हैं।

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श्लोक :६

युवावस्था से ही धर्मशील, चरित्रवान मनुष्य बनो और व्यभिचार से बचो !  

ईश्वरो वै यविष्ठः स्यादिति श्रुतिविवेचना - 

युवानो धर्मशीलाः स्युधर्मः शीलस्य भूषणम् ॥ ६।।  

1. God is the most youthful --- so holds the Vedas (Rig Veda 1.26.2)

2. ' One should be devoted to religion even in one's youth.'

3. Youths should be righteous, ' be moral, be brave', and learn the right code of conduct ; virtue and righteousness beautify character.

१. वेदों में कहा गया है - " नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः " अर्थात जो चरित्रबल के अतिशय उत्साह और साहस से सर्वस्मिन्काले (सदा) भरा रहे उसे देवतुल्य 'युवा' (यविष्ठ) कहते हैं! "

२. जीवन की अनित्यता के कारण युवाकाल में ही धर्मशील (चरित्रवान-विवेकी) मनुष्य बनना चाहिये। कौन जानता है कब किसका शरीर छूट जायगा ?

३.  युवाओं के लिये नीतिपरायणता तथा साहस को छोड़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है। पूर्ण नीतिपरायण अर्थात 'कामिनी -कांचन' में अनासक्त तथा साहसी बनो, सद्गुण एवं धार्मिकता ही मनुष्य के चरित्र को अलंकृत करते हैं।  युवा अवस्था से ही धर्मपरायण होना चाहिए, व्यभिचार, चोरी, झूठ, नशा अदि से बचना चाहिए क्योंकि धर्मनिष्ठा सदाचार का आभूषण है।

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श्लोक:७

  (Para-Bhakti or Supreme Devotion:परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति) 

तुम नश्वर देह नहीं , मनुष्य-देहधारी अविनाशी आत्मा हो  !

जीवः शिव इति ज्ञानं नरो नारायणो ध्रुवम् -

 जीवसेवा परो धर्मः परोपकृतये वयम् ।। ७।।  

1. Every being is God (Shiva) --this is true knowledge; ' man is the greatest of all beings.'

2. ' There is no greater Dharma than this service of living beings.'

3.  ' Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others.'

१. प्रत्येक जीव ईश्वर (शिव) है --यही सच्चा ज्ञान है; " मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है ! "

२.  ' जीव-सेवा से बढ़कर और कोई दूसरा धर्म नहीं है।'

३. " धन्य हैं वे, जो अपने शरीर को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं।"

[प्रसंग -समष्टि की माँ ' डकैत, हत्यारा अमजद और स्वामी सारदानन्द - दोनों की माँ !! जगत-जननी माँ श्रीश्री सारदा देवी से प्रेम किये बिना हम किसी ईर्ष्यालु ,हत्यारे , व्यभिचारी भाई से प्रेम कैसे कर सकते हैं ? परा-भक्ति या सर्वोच्च भक्ति " विश्वप्रेम और उससे आत्मसमर्पण का उदय" (४/५६) : (Universal Love and How It Leads to Self-Surrender): "How can we love the Vyashti  the particular, without first loving the Samashti, the universal (Mother)?" Volume 3 Page 81/ Para-Bhakti or Supreme Devotion/  ] 

समष्टि से प्रेम किये बिना हम व्यष्टि से कैसे प्रेम कर सकते हैं ? भक्त उस एक सर्वव्यापी पुरुष (अवतार वरिष्ठ-माँ काली) की साक्षात् उपलब्धि कर लेना चाहता है, जिससे प्रेम करने से वह सारे विश्व से प्रेम कर सके। भक्त इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि यदि तुम केवल एक के बाद दूसरे व्यक्ति (हत्यारा ,डकैत -साधु या शरीर M/F) से प्रेम करते चले जाओ , तो भी अनन्त समय तक संसार को एक समष्टि के रूप में प्यार करने में समर्थ न हो सकोगे। पर अन्त में जब यह मूल सत्य ज्ञात हो जाता है कि समस्त प्रेम की समष्टि ईश्वर है, संसार के बद्ध, मुमुक्षु , मुक्त या नित्यमुक्त सारे जीवात्माओं की आदर्श-समष्टि ही ईश्वर है, तभी यह विश्वप्रेम सम्भव होता है। ईश्वर ही समष्टि है और यह दृष्टिगोचर जगत उसीका परिच्छिन्न भाव है - उसीकी अभिव्यक्ति है। यदि हम इस समष्टि को प्यार करें, तो इससे सभी को प्यार करना हो जाता है। तब जगत को प्यार करना और उसका कल्याण करना सहज हो जाता है। किन्तु, पहले भगवत्प्रेम के द्वारा (ठाकुर-माँ -स्वामीजी-या उनके दासों के दास की भक्ति के द्वारा) हमें यह शक्ति प्राप्त कर लेनी होगी, अन्यथा संसार की भलाई करना कोई हँसी -खेल नहीं है। (महामण्डल का कर्मी बनना , विश्व का कल्याण करना - युवाओं को चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने ' Be and Make ' की शिक्षा देना कोई हँसीखेल नहीं है।) भक्त कहता है , " सब कुछ उसीका है, वह मेरा प्रियतम है, मैं उससे प्रेम करता हूँ। "इस प्रकार भक्त को सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है, क्योंकि सभी >उसीकी सन्तान हैं, उसके अंगस्वरूप हैं, उसके रूप हैं। तब फिर हम किसीको कैसे चोट पहुँचा सकते हैं? दूसरों को बिना प्यार किये हम कैसे रह सकते हैं ? (>>>अमजद डकैत और स्वामी सारदानन्द दोनों माँ तारा -श्री सारदा देवी की सन्तान हैं !) जब जीवात्मा  इस परम प्रेमानन्द को आत्मसात करने में सफल होती है (परमात्मा बुद्धिगम्य नहीं, आत्मगम्य हैं ! जानकर भी जीवित बच जाती है !???), तब वह ईश्वर को सर्वभूतों में देखने लगती है। इस प्रकार  [विवेक-दर्शन के अभ्यास से विवेक-स्रोत उद्घाटित होते ही] हमारा ह्रदय प्रेम का एक अनन्त श्रोत (Love -Dynamo) बन जाता है। तब मनुष्य मनुष्य के रूप में नहीं दीखता , वरन साक्षात् ईश्वर के रूप में ही दीख पड़ता है ; ऐसे प्रेमी की आँखों से बाघ का भी बाघ-रूप लुप्त हो जाता है और उसमें स्वयं भगवान प्रकाश-मान दिख पड़ता है। इस प्रकार भक्ति की इस प्रगाढ़ अवस्था में सभी प्राणी हमारे लिए उपास्य हो जाते हैं। — "Knowing that Hari, the Lord, is in every being, the wise have thus to manifest unswerving love towards all beings."

एवं सर्वेषु भूतेषु भक्तिरव्यभिचारिणी। 

कर्तव्या पण्डितैर्ज्ञात्वा सर्वभूतमयं हरिम्॥

'हरि को या नारायण को सब भूतों में अवस्थित देखकर ज्ञानी को सब प्राणियों के प्रति अव्यव्य-भिचारिणी भक्ति रखनी चाहिए। इस प्रगाढ़, सर्वग्राही प्रेम के फलस्वरूप पूर्ण आत्मसमर्पण की अवस्था उपस्थित होती है। तब यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि संसार में भला-बुरा जो कुछ होता है, कुछ भी हमारे लिए अनिष्टकर नहीं। शास्त्रों में इसीको अप्रातिकुल्य (Aprâtikulya.-अविरोध) कहा जाता है।   

जहाँ पहुँचकर गम और ख़ुशी का फर्क महसूस ही नहीं होता, तो वह शिकायत किस बात की करे ? शास्त्रों ने इसी को 'अप्रातिकूल्य' कहा है। ऐसे अनन्य प्रेमी के जीवन में जब कोई दुःख आता है, तो कहता है - " दुःख ! स्वागत है तुम्हारा।" यदि सर्प आये तो कहेगा," विराजो, सर्प!" यहाँ तक कि मृत्यु भी आये, तो वह अपने अधरों पर मुस्कान लिये उसका स्वागत करेगा। हम शेर से अपनी शरीर की रक्षा क्यों करें ? हम उसे शेर को क्यों न दे दें ? यह प्रेम-धर्म की वह चोटी है, सिर को चकरा देनेवाली ऐसी ऊँचाई है, जिस पर बहुत थोड़े से लोग ही चढ़ पाते हैं। हम अपने इस शरीर को अल्प अथवा अधिक समय तक भले ही बनाये रख लें, पर उससे क्या ? हमारे शरीर का एक न एक दिन नाश होना तो अवश्यम्भावी है। उसका अस्तित्व चिरस्थायी नहीं है। Blessed are they whose bodies get destroyed in the service of others. धन्य हैं वे जो अपने जीवन को दूसरों की सेवा में न्योछावर कर देते हैं ! (४/५८) 

इस संसार में जब मृत्यु निश्चित है, तो श्रेष्ठ यही है कि यह शरीर नीच कार्य की अपेक्षा भारत कल्याण में ही अर्पित हो जाये। ' हम भले ही अपने जीवन को 76- 84-100 वर्ष तक खींच ले जायें, पर उसके बाद ? उसके बाद क्या होता है ? ऐसा समय अवश्य आता है, जब उसे विघटित होना पड़ता है। ईसा, बुद्ध और मुहम्मद सभी दिवंगत हो गए। संसार के महापुरुष और आचार्यगण (नवनीदा के पितामह आचार्यदेव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय) आज इस धरती से उठ गए हैं। 

भक्त कहता है, इस क्षणभंगुर संसार में, जहाँ प्रत्येक वस्तु टुकड़े-टुकड़े हो धूल में मिली जा रही है , हमें अपने समय का सदुपयोग कर लेना चाहिए। और वास्तव में जीवन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे सर्वभूतों की सेवा में न्योछावर कर दिया जाये। हमारा सबसे बड़ा भ्रम यह है कि हमारा/(दूसरों का ? यह काला या गोरा)यह शरीर ही हम हैं और जिस प्रकार से हो, इसकी रक्षा करनी होगी, इसे सुखी रखना होगा। यह भयानक देहात्मबुद्धि ही संसार में सब प्रकार की स्वार्थपरता जड़ है।  यदि तुम यह निश्चित रूप से जान सको कि तुम शरीर से बिल्कुल पृथक हो, तो फिर इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं रह जायेगा , जिसके साथ तुम्हारा विरोध हो सके। [तुम अविरोध में प्रतिष्ठित हो जाओगे। तब तुम सब प्रकार की स्वार्थपरता से अतीत हो जाओगे।- यही सच्ची शरणागति है - 'जो होने का है, हो। यही 'तेरी इच्छा पूर्ण हो ' का तात्पर्य है। ४/५९

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श्लोक :८

" श्रीरामकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन ही सर्वधर्म समन्वय का मूर्तमान स्वरुप था !

उत्तिष्ठत चरैवेति गुणान् तामसिकान् जहि । 

जातश्चेत्  प्रेहि संसारात् त्वक्त्वा चिह्नमनूत्तमम् ॥ ८ 

1.  ' Arise ! Awake ! and stop not till the goal is reached !'

2.  ' Onward ! Onward !' Give up all numbing qualities.

3.  ' As you have come into this world, leave some mark behind.'


१. ' उठो, जागो, जब तक वांछित लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर लेते, तब तक निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ।'

२. ' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! जड़वत कर देने वाली आदतों का परित्याग कर दो।'

३. ' काम में लग जा कितने दिनों का है यह जीवन ? संसार में जब आया है, तब एक स्मृति छोड़कर जा।'

प्रसंग- [१. कोलकाता-अभिनन्दन का उत्तर:५: २०३/ २. ग्रीष्मकाल, १८९४ में स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित पत्र/३. (From the Diary of a disciple २३ / बेलूड़ मठ निर्माण के समय वर्ष १८९८ ]   

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Friday, October 25, 2024

$🔱🕊 🏹 🙋परिच्छेद 139 ~ श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम* [( 22-23-24 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 🔱जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि जमे दही की तरह उत्कृष्ट कहलाती है ।🏹सब स्त्रियों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है । 🔱वीर वह है, जो स्त्री के साथ रहने पर भी उससे प्रसंग नहीं करता ।🕊 'हे ईश्वर ! मैं तुम्हारा दास हूँ' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है 🏹'मैं वही हूँ, सोऽहम्' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है । 🙋“जड़ की सत्ता को चेतन समझ लिया जाता है और चेतन की सत्ता को जड़ । इसीलिए शरीर में रोग होने पर मनुष्य कहता है, 'मैं बीमार हूँ ।' ”🔱🕊 🏹 🙋🔱🕊 🏹 🙋

परिच्छेद 139 ~

🙋श्रीरामकृष्ण का भक्तों के प्रति प्रेम🙋 

(१)

[(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

राखाल, शशि आदि भक्तों के संग में

काशीपुर के बगीचे में शाम को राखाल, शशि और मास्टर टहल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण बीमार हैं, बगीचे में चिकित्सा कराने के लिए आये हुए हैं । वे ऊपर के कमरे में हैं । भक्तगण उनकी सेवा कर रहे हैं । आज बृहस्पतिवार है, 22 अप्रैल, 1886।

मास्टर - वे तो तीनों गुणों से परे एक बालक हैं ।

शशि और राखाल - श्रीरामकृष्ण ने वैसा ही कहा है ।

राखाल - जैसे एक ऊँची मीनार । वहाँ बैठने पर सब समाचार मिलता रहता है, सब कुछ देख सकते हैं, परन्तु वहाँ कोई पहुँच नहीं सकता ।

मास्टर - उन्होंने कहा है, 'इस अवस्था में सदा ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ।' विषयरूपी रस के न रहने के कारण सूखी लकड़ी आग जल्दी पकड़ती है ।

शशि - बुद्धि में कितने भेद हैं, यह वे चारु को बतला रहे थे । जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि ठीक है । जिस बुद्धि से रुपया मिलता है, घर बनता है, डिप्टी मैजिस्ट्रेट या वकील होता है, वह बुद्धि नाममात्र की है । वह पतले दही की तरह है, जिसमें पानी का भाग अधिक है । उसमें सिर्फ चिउड़ा भीग सकता है । वह जमे दही की तरह अच्छा दही नहीं है । जिस बुद्धि से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही बुद्धि जमे दही की तरह उत्कृष्ट कहलाती है ।

मास्टर – अहा ! कैसी सुन्दर बात है !

शशि - काली तपस्वी ने श्रीरामकृष्ण से कहा था, “आनन्द से क्या होगा ? आनन्द तो भीलों के भी है । जंगली लोग भी 'हो हो' करके नाचते और गाते हैं ।"

राखाल - उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा, 'यह क्या ? ब्रह्मानन्द और विषयानन्द क्या एक हैं ? जीव विषयानन्द लेकर हैसम्पूर्ण विषयासक्ति के बिना गये ब्रह्मानन्द कभी मिल नहीं सकता । एक ओर रुपये और इन्द्रिय-सुख का आनन्द है और दूसरी ओर है ईश्वर-प्राप्ति का आनन्द । क्या ये दो कभी समान हो सकते हैं ? ऋषियों ने इस ब्रह्मानन्द का भोग किया था ।'

मास्टर - काली इस समय बुद्धदेव की चिन्ता करते हैं न; इसलिए आनन्द के उस पार की बातें कह रहे हैं ।

राखाल - श्रीरामकृष्ण के पास भी बुद्धदेव की बातचीत काली ने उठायी थी । श्रीरामकृष्णदेव ने कहा, 'बुद्धदेव अवतार-पुरुष हैं । उनके साथ किसी की क्या तुलना ? बड़े घर की बड़ी बातें ।' काली ने कहा था, 'ईश्वर की शक्ति ही तो सब कुछ है । उसी शक्ति से ईश्वर का आनन्द मिलता है, और उसी से विषय का भी ।'

मास्टर - फिर उन्होंने क्या कहा ?

राखाल - उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा  'ऐसा कैसे हो सकता है? -- सन्तानोत्पत्ति करने की शक्ति और ईश्वर-प्राप्ति की शक्ति दोनों क्या एक है ?’

बगीचे के दुमँजले कमरे में भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । शरीर अधिकाधिक अस्वस्थ होता जा रहा है । आज फिर डाक्टर महेन्द्र सरकार और डाक्टर राजेन्द्र दत्त देखने के लिए आये हैं । कमरे में राखाल, नरेन्द्र, शशि, मास्टर, सुरेन्द्र, भवनाथ तथा अन्य बहुतसे भक्त बैठे हैं ।

बगीचा पाकपाड़ा के बाबुओं का है । किराये से है, ६०-६५ रुपये देने पड़ते हैं । भक्तों में जो कम उम्र के हैं, वे बगीचे में ही रहते हैं । दिन-रात श्रीरामकृष्ण की सेवा वहीं किया करते हैं । गृही भक्त भी बीचबीच में आते हैं और उनकी सेवा किया करते हैं । वहीं रहकर श्रीरामकृष्ण की सेवा करने की इच्छा उन्हें भी है, परन्तु अपने-अपने कार्य में लगे रहने के कारण सदा वहाँ रहकर वे उनकी सेवा नहीं कर सकते । बगीचे का खर्च चलाने के लिए अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार वे आर्थिक सहायता देते हैं । अधिकांश खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं । उन्हीं के नाम से किराये पर बगीचे की लिखा-पढ़ी हुई है। एक रसोइया और दासी, ये दो नौकर भी सदा वहीं रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण तथा कामिनी-कांचन 

श्रीरामकृष्ण - (डाक्टर सरकार आदि से) - बड़ा खर्च हो रहा है ।

डाक्टर - (भक्तों की ओर इशारा करके) - ये सब लोग तैयार भी तो हैं । बगीचे का सम्पूर्ण खर्च देते हुए भी इन्हें कोई कष्ट नहीं है । (श्रीरामकृष्ण से) अब देखो, कांचन की आवश्यकता आ पड़ी।

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - बोल ना ?

श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को उत्तर देने की आज्ञा दे रहे हैं । नरेन्द्र चुप हैं । डाक्टर फिर बातचीत कर रहे हैं ।

डाक्टर - कांचन चाहिए । और फिर कामिनी भी चाहिए ।

राजेन्द्र डाक्टर - इनकी स्त्री इनके लिए खाना पका दिया करती हैं ।

डाक्टर सरकार - (श्रीरामकृष्ण से) – देखा ?

श्रीरामकृष्ण - ( जरा मुस्कराकर) - है लेकिन बड़ा झंझट ।

डाक्टर सरकार - झंझट न रहती, तो सब लोग परमहंस हो गये होते ।

श्रीरामकृष्ण - स्त्री छू जाती है, तो तबीयत अस्वस्थ हो जाती है ! और जिस जगह छू जाती है, वहाँ बड़ी देर तक सींगी मछली के काँटे के चुभ जाने के समान पीड़ा होती रहती है ।

डाक्टर - यह विश्वास तो होता है, परन्तु अपनी ओर से देखता हूँ तो कामिनी और कांचन के बिना काम ही नहीं चलता ।

श्रीरामकृष्ण - रुपया हाथ में लेता हूँ तो हाथ टेढ़ा हो जाता है - साँस रुक जाती है । रुपये से अगर कोई विद्या का संसार चला सके, ईश्वर और साधुओं की सेवा कर सके, तो समें दोष नहीं रह जाता ।

"स्त्री लेकर माया का संसार करने से मनुष्य ईश्वर को भूल जाता है । जो संसार की माँ हैं, उन्हीं ने इस माया का रूप - स्त्री का रूप धारण किया है इसका यथार्थ ज्ञान हो जाने पर फिर माया के संसार पर जी नहीं लगता । सब स्त्रियों पर मातृज्ञान के होने पर मनुष्य विद्या का संसार कर सकता है ईश्वर के दर्शन हुए बिना स्त्री क्या वस्तु है ; यह समझ में नहीं आता ।"

होमियोपैथिक दवा का सेवन करके श्रीरामकृष्ण कुछ दिनों से जरा अच्छे रहते हैं । राजेन्द्र - अच्छे होकर आपको स्वयं होमियोपैथिक डाक्टरी करनी चाहिए, नहीं तो फिर इस मानव-जीवन का क्या उपयोग होगा ? (सब हँसते हैं ।)

नरेन्द्र - जो मोची का काम करता है, वह कहता है कि इस संसार में चमड़े से बढ़कर और कोई चीज नहीं है ! (सब हँसे) कुछ देर बाद दोनों डाक्टर चले गये । 

(२)

  [(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

*श्रीरामकृष्ण की उच्च अवस्था*

श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । कामिनी के सम्बन्ध में अपनी अवस्था बतला रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - ये लोग कहते हैं, कामिनी और कांचन के बिना चल नहीं सकता । मेरी क्या अवस्था है, यह ये लोग नहीं जानते ।

"स्त्रियों की देह में हाथ लग जाता है तो ऐंठ जाता है, वहाँ पीड़ा होने लगती है । “यदि आत्मीयता के विचार से किसी के पास जाकर बातचीत करने लगता हूँ तो बीच में एक न जाने किस तरह का पर्दा-सा पड़ा रहता है; उसके उस तरफ जाया ही नहीं जाता

कमरे में अकेला बैठा हुआ हूँ, ऐसे समय अगर कोई स्त्री आये तो एकदम बालक की-सी अवस्था हो जाती है और उसे माता की दृष्टि से देखता हूँ ।"

मास्टर निर्वाक् होकर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए ये सब बातें सुन हैं | कुछ दूर भवनाथ के साथ नरेन्द्र बातचीत कर रहे हैं । भवनाथ ने विवाह किया है, अब नौकरी की खोज में हैं । काशीपुर के बगीचे में श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अधिक नहीं आ सकते । श्रीरामकृष्ण भवनाथ के लिए बड़ी चिन्ता किया करते हैं । कारण, भवनाथ संसार में फँस गये हैं । भवनाथ की उम्र २३-२४ वर्ष की होगी ।

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) - उसे खूब हिम्मत बँधाते रहना ।

नरेन्द्र और भवनाथ श्रीरामकृष्ण की ओर देखकर मुस्कराने लगे । श्रीरामकृष्ण इशारा करके फिर भवनाथ से कह रहे हैं - "खूब वीर बनो । घूँघट के भीतर अपनी स्त्री के आँसू देखकर अपने को भूल न जाना । ओह ! औरतें कितना रोती हैं ! - वे तो नाक छिनकने में भी रोती हैं!(नरेन्द्र, भवनाथ और मास्टर हँसते हैं ।)

"ईश्वर में मन को अटल भाव से स्थापित रखना । वीर वह है, जो स्त्री के साथ रहने पर भी उससे प्रसंग नहीं करता । स्त्री के साथ केवल ईश्वरीय बातें करते रहना ।"

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके भवनाथ से कह रहे हैं - “आज यहीं भोजन करना ।"

भवनाथ - जी, बहुत अच्छा । आप मेरी चिन्ता बिलकुल न कीजिये ।

सुरेन्द्र आकर बैठे । महीना वैशाख का है । भक्तगण सन्ध्या के बाद रोज श्रीरामकृष्ण को मालाएँ पहनाया करते हैं । सुरेन्द्र चुपचाप बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने प्रसन होकर उन्हें दो मालाएँ दीं । सुरेन्द्र ने प्रणाम करके मालाओं को पहले सिर पर धारण किया, फिर गले में डाल लिया

सब लोग चुपचाप बैठे हुए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । सुरेन्द्र उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गये । वे चलनेवाले हैं । जाते समय भवनाथ को बुलाकर उन्होंने कहा, 'खस की टट्टी लगा देना ।'

(३)

  [(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

*श्रीरामकृष्ण तथा हीरानन्द*

श्रीरामकृष्ण ऊपरवाले कमरे में बैठे हैं । सामने हीरानन्द, मास्टर तथा दो-एक भक्त और हैं । हीरानन्द के साथ दो-एक मित्र भी आये हैं । हीरानन्द सिन्ध में रहते हैं । कलकत्ते के कॉलेज में अध्ययन समाप्त करके देश चले गये थे, अब तक वहीं थे । श्रीरामकृष्ण की बीमारी का समाचार पाकर उन्हें देखने के लिए आये हैं । सिन्ध देश कलकत्ते से कोई बाईस सौ मील होगा । हीरानन्द को देखने के लिए श्रीरामकृष्ण भी उत्सुक रहते थे

[1883 में कलकत्ता में अपनी कॉलेज की शिक्षा पूरी करने के बाद, वे सिंध लौट आए थे और दो अख़बारों, सिंध टाइम्स और सिंध सुधार के संपादन का कार्यभार संभाला था। कलकत्ता में पढ़ाई के दौरान वे अक्सर केशव चंद्र सेन से मिलने जाते थे और उन्हें करीब से जानते थे।]

श्रीरामकृष्ण हीरानन्द की ओर उँगली उठाकर मास्टर को इशारा कर रहे हैं । मानो कह रहे हैं - 'यह बड़ा अच्छा लड़का है ।' 

श्रीरामकृष्ण - क्या तुमसे परिचय है ?

मास्टर - जी हाँ, है ।

श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द और मास्टर से) - तुम लोग जरा बातचीत करो, मैं सुनूँ ।

मास्टर को चुप रहते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्या नरेन्द्र है ? उसे बुला लाओ ।"

नरेन्द्र ऊपर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे ।

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र और हीरानन्द से) - तुम दोनों जरा बातचीत तो करो ।

हीरानन्द चुप हैं । बड़ी देर तक टाल-मटोल करके उन्होंने बातचीत करना आरम्भ किया ।

हीरानन्द - (नरेन्द्र से) - अच्छा, भक्त को दुःख क्यों मिलता है ?

हीरानन्द की बातें बड़ी ही मधुर हैं । जिन-जिन लोगों ने उनकी बातें सुनीं, उन सब को यह जान पड़ा कि इनका हृदय प्रेम से भरा है ।

नरेन्द्र - इस संसार का प्रबन्ध देखकर यह जान पड़ता है कि इसकी रचना किसी शैतान ने की है । मैं इससे अच्छे संसार की सृष्टि कर सकता था ।

हीरानन्द - दुःख के बिना क्या कभी सुख का अनुभव होता है ?

नरेन्द्र - मैं यह नहीं कहता कि संसार की सृष्टि किस उपादान से की जाय, किन्तु मेरा मतलब यह है कि संसार का अभी जो प्रबन्ध दीख पड़ रहा है, वह अच्छा नहीं ।

"परन्तु एक बात पर विश्वास करने पर सब निपटारा हो जायगा । - सब ईश्वर हैं, यह विश्वास किया जाय तो उलझन सुलझ जायेगी  ईश्वर ही सब कुछ कर रहे हैं ।"

हीरानन्द - यह कहना सहज है । 

नरेन्द्र मधुर स्वर से निर्वाणषट्क कह रहे हैं –



ॐ मनोबुद्ध्ययहंकारचित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥

न च प्राणसंज्ञो न वै पंचवायुर्न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः ।

न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायुश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥

न मे द्वेषरागौ न मे लोभमोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।

न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥

न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं न मन्त्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः ।

अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ताश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥

न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः । पिता नैव में नैव माता न जन्म ।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम् ।

न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेयश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥६॥

हीरानन्द – वाह !

श्रीरामकृष्ण ने हीरानन्द को इसका उत्तर देने के लिए कहा ।

हीरानन्द - एक कोने से घर को देखना जैसा है, वैसा ही घर के बीच में रहकर भी देखना है । 'हे ईश्वर ! मैं तुम्हारा दास हूँ' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है और 'मैं वही हूँ, सोऽहम्' - इससे भी ईश्वर का अनुभव होता है । एक द्वार से भी कमरे में जाया जाता है और अनेक द्वारों से भी जाया जाता है । सब लोग चुप हैं ।

 हीरानन्द ने नरेन्द्र से गाने के लिए अनुरोध किया । नरेन्द्र कौपीनपंचक गा रहे हैं –

वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः ।

अशोकमन्तः करणे चरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥१॥

मूलं तरोः केवलमाश्रयन्तः पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः ।

कन्यामिव श्रीमपि कुत्सयन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥२॥

स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः सुशान्तसर्वेन्द्रियवृत्तिमन्तः ।

अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥३॥

श्रीरामकृष्ण ने ज्योंही सुना - 'अहर्निशं ब्रह्मणि ये रमन्तः' कि धीरे धीरे कहने लगे - 'अहा !' और इशारा करके बतलाने लगे कि यही योगियों का लक्षण है ।

नरेन्द्र कौपीनपंचक समाप्त करने लगे –

देहादिभावं परिवर्तयन्तः स्वात्मानमात्मन्यवलोकयन्तः ।

नान्तं न मध्यं न बहिः स्मरन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥४॥

ब्रह्माक्षरं पावनमुच्चरन्तः ब्रह्माहमस्मीति विभावयन्तः ।

भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः कौपीनवन्तः खलु भाग्यवन्तः ॥५॥

नरेन्द्र फिर गा रहे हैं - “परिपूर्णमानन्दम् ।

अंगविहीनं स्मर जगन्निधानम् ।

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचम् ।

वागतीतं प्राणस्य प्राणं परं वरेण्यम् ।"

नरेन्द्र ने एक गाना और गाया । इस गाने में कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार की हैं ~

तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।

एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।

सबके मकां दिल का मकीं तू, कौन सा दिल है जिसमें नहीं तू ।

हरेक दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।

क्या मलायक क्या इन्सान, क्या हिन्दू क्या मुसलमान ।

जैसे चाहा तूने बनाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।

काबा में क्या, देवालय में क्या, तेरी परस्तिश होगी सब जाँ ।

आगे तेरे सिर सबने झुकाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।

अर्श से लेकर फर्श जमीं तक और जमीं से अर्श वरी तक ।

जहाँ मैं देखा तू ही नजर आया जो कुछ है सो तू ही है ।।

सोचा समझा देखा-भाला, तुम जैसा कोई न ढूंढ़ निकाला ।

अब ये समझ में ' जफर ' के आया, जो कुछ है सो तू ही है ।।

"हरएक के दिल में' यह सुनकर श्रीरामकृष्ण इशारा करके कह रहे हैं कि वे हरएक के हृदय में हैं, वे अन्तर्यामी हैं  ‘जहाँ देखा नजर तू ही आया’ यह सुनकर हीरानन्द नरेन्द्र से कह रहे हैं, “सब तू ही है, अब 'तुम तुम' हो रहा है । मैं नहीं, तुम ।

नरेन्द्र - तुम मुझे एक दो, मैं तुम्हें एक लाख दूँगा । (अर्थात्, एक के मिलने पर आगे शून्य रखकर एक लाख कर दूगा ।) तुम ही मैं, मैं ही तुम, मेरे सिवा और कोई नहीं है ।

यह कहकर नरेन्द्र अष्टावक्रसंहिता से कुछ श्लोकों की आवृत्ति करने लगे । सब लोग चुपचाप बैठे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से, नरेन्द्र की ओर संकेत करके) - मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।

(मास्टर से, हीरानन्द की ओर संकेत करके) "कितना शान्त है ! सँपेरे के पास विषधर साँप जैसे फन फैलाकर चुपचाप पड़ा हो !"

(४)

 [(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

🕊गुह्य कथा🕊

श्रीरामकृष्ण अर्न्तर्मुख हैं । पास ही हीरानन्द और मास्टर बैठे हैं । कमरे में सन्नाटा छाया हुआ है । श्रीरामकृष्ण की देह में घोर पीड़ा हो रही है । भक्तगण जब एक-एक बार देखते हैं, तब उनका हृदय विदीर्ण हो जाता है । परन्तु श्रीरामकृष्ण ने सब को दूसरी बातों में डालकर उधर से मन हटा रखा है । बैठे हुए हैं, श्रीमुख से प्रसन्नता टपक रही है

भक्तों ने फूल और माला लाकर समर्पण किया है। फूल लेकर कभी सिर पर चढ़ाते हैं, कभी हृदय से लगाते हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक फूल लेकर क्रीड़ा कर रहा हो । जब ईश्वरी भाव का आवेश होता है, तब श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं कि शरीर में महावायु ऊर्ध्वगामी हो रही है । महावायु के चढ़ने पर ईश्वरानुभव होता है । यह बात सदा वे कहा करते हैं । अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - वायु कब चढ़ गयी, मुझे मालूम भी नहीं हुआ । “इस समय बालकभाव है, इसीलिए फूल लेकर इस तरह किया करता हूँ । क्या देख रहा हूँ, जानते हो ? शरीर मानो बाँस की कमानियों का बनाया हुआ है और ऊपर से कपड़ा लपेट दिया गया है । वही मानो हिल रहा है । भीतर कोई है इसीलिए हिल रहा है ।”

“जैसे बिना बीज और गूदे का कद्दू । भीतर कामादि आसक्तियाँ नहीं हैं, सब साफ है । और –”श्रीरामकृष्ण को बातचीत करते हुए कष्ट हो रहा है । बहुत ही दुर्बल हो गये हैं । वे क्या कहने जा रहे हैं इसका अनुमान लगाकर मास्टर शीघ्र ही कह उठे - “और भीतर आप ईश्वर को देख रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - भीतर बाहर दोनों जगह देख रहा हूँ - अखण्ड सच्चिदानन्द । सच्चिदानन्द इस शरीर का आश्रय लेकर इसके भीतर भी हैं और बाहर भी । यही मैं देख रहा हूँ ।

मास्टर और हीरानन्द यह ब्रह्मदर्शन की बात सुन रहे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण उनकी ओर सस्नेह दृष्टि करके बातचीत करने लगे ।

 [(22 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

श्रीरामकृष्ण तथा योगावस्था। अखण्ड दर्शन। 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर और हीरानन्द से) - तुम लोग आत्मीय जान पड़ते हो । कोई दूसरे नहीं मालूम पड़ते । "

सब को देख रहा हूँ, एक-एक गिलाफ - के अन्दर रहकर सिर हिला रहे हैं ।“ 

" देख रहा हूँ, जब उनसे मन का संयोग हो जाता है तब कष्ट एक ओर पड़ा रहता है ।

"इस समय केवल यही देख रहा हूँ कि अखण्ड सच्चिदानन्द ही इस त्वचा से ढका हुआ है और इसी में एक ओर यह गले का घाव पड़ा रहता है ।"

श्रीरामकृष्ण चुप हो रहे । कुछ देर बाद फिर कहने लगे - “जड़ की सत्ता को चेतन समझ लिया जाता है और चेतन की सत्ता को जड़ । इसीलिए शरीर में रोग होने पर मनुष्य कहता है, 'मैं बीमार हूँ ।' ”

इस बात को समझाने के लिए हीरानन्द ने आग्रह किया । मास्टर कहने लगे - "गर्म पानी में हाथ के जल जाने पर लोग कहते हैं, पानी में हाथ जल गया; परन्तु बात ऐसी नहीं, वास्तव में ताप से ही हाथ जला है ।"

हीरानन्द - (श्रीरामकृष्ण से) - आप बतलाइये, भक्त को कष्ट क्यों होता है ?

श्रीरामकृष्ण - कष्ट तो देह का है ।

श्रीरामकृष्ण शायद कुछ और कहें इसलिए दोनों प्रतीक्षा कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण – समझे ?

मास्टर धीरे धीरे हीरानन्द से कुछ कह रहे हैं । मास्टर – लोक-शिक्षा के लिए । उदाहरण सामने है कि इतने कष्ट के भीतर भी मन का संयोग सोलहों आने ईश्वर से हो रहा है ।

हीरानन्द - हाँ, जैसे ईशू को सूली देना । परन्तु रहस्य की बात तो यह है कि इन्हें इतना कष्ट क्यों मिला ?

मास्टर - ये जैसा कहते हैं - माता की इच्छा । यहाँ उनकी ऐसी ही लीला हो रही है ।

ये दोनों आपस में धीरे धीरे बातचीत कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण इशारा करके हीरानन्द से पूछ रहे हैं । हीरानन्द इशारा समझ नहीं सके । इसलिए श्रीरामकृष्ण फिर इशारा करके पूछ रहे हैं, 'वह क्या कहता है ?'

हीरानन्द - ये कहते हैं कि आपकी बीमारी लोक-शिक्षा के लिए है ।

श्रीरामकृष्ण - यह बात अनुमान की ही तो है ।

(मास्टर और हीरानन्द से) "अवस्था बदल रही है । सोच रहा हूँ, सब के लिए न कहूँ कि चैतन्य हो। कलिकाल में पाप अधिक है, वह सब पाप आ जाता है ।"

मास्टर (हीरानन्द से) - समय को बिना देखे हुए ये ऐसी बात न कहेंगे । जिसके लिए चैतन्य होने का समय आया है, उसे ही कहेंगे ।

(५)

 [(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

प्रवृत्ति या निवृत्ति ? हीरानन्द के प्रति उपदेश।   

हीरानन्द श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेर रहे हैं । पास ही मास्टर बैठे हैं । लाटू तथा अन्य दो-एक भक्त कमरे में आते-जाते हैं । आज शुक्रवार, 23 अप्रैल, 1886 है। दिन के 12-1 बजे का समय होगा । हीरानन्द ने आज यहीं भोजन किया है । श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा थी कि हीरानन्द यहीं  रहें

हीरानन्द श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेरते हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं । वैसी ही मधुर बातें, मुख हास्य और प्रसन्नता से भरा हुआ, - जैसे बालक को समझा रहे हों । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, डाक्टर सदा ही उन्हें देख रहे हैं ।

हीरानन्द - आप इतना सोचते क्यों हैं ? डाक्टर पर विश्वास करके निश्चिन्त हो जाइये । आप बालक तो हैं ही ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - डाक्टर पर विश्वास कैसे होगा ? सरकार (डाक्टर) ने कहा है, बिमारी अच्छी न होगी ।

हीरानन्द - तो इतनी चिन्ता क्यों करते हैं ? जो कुछ होना है, होगा । 

मास्टर - (हीरानन्द से, एकान्त में) - ये अपने लिए कुछ नहीं सोच रहे हैं । इनकी शरीर-रक्षा भक्तों के लिए है 

गर्मी जोरों की हो रही है । और फिर दोपहर का समय । खस की टट्टी लगायी गयी है । हीरानन्द उठकर टट्टी ठीक कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देख रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - तो पाजामा भेज देना ।

हीरानन्द ने कहा है कि उसके देश (सिन्ध) का पाजामा पहनकर श्रीरामकृष्ण को आराम होगा । इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें पाजामा भेज देने की याद दिला रहे हैं ।

हीरानन्द का भोजन ठीक नहीं हुआ । चावल अच्छी तरह पके नहीं थे । श्रीरामकृष्ण को सुनकर बड़ा दुःख हुआ । बार बार उनसे जलपान करने के लिए कह रहे हैं । इतना कष्ट है कि बोल भी नहीं सकते, परन्तु फिर भी बार बार पूछ रहे हैं ।फिर लाटू से पूछ रहे हैं, 'क्या तुम लोगों को भी वही चावल दिया गया था ?'

श्रीरामकृष्ण कमर में कपड़ा नहीं सम्हाल सकते । प्रायः बालक की तरह दिगम्बर होकर ही रहते हैं । हीरानन्द के साथ दो ब्राह्म भक्त आये हुए हैं; इसीलिए एक-आध बार श्रीरामकृष्ण धोती को कमर की ओर खींच रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - धोती के खुल जाने पर क्या तुम लोग असभ्य कहते हो ?

हीरानन्द - आपको इससे क्या ? आप तो बालक हैं ।

श्रीरामकृष्ण (एक ब्राह्म भक्त प्रियनाथ की ओर उँगली उठाकर) - वे ऐसा कहते हैं । 

हीरानन्द अब बिदा होंगे । दो-एक रोज कलकत्ते में रहकर वे फिर सिन्ध देश जायेंगे । वे वहीं काम करते हैं । दो अखबारों के सम्पादक हैं । १८८४ ई. से लगातार चार साल तक उन्होंने सम्पादन कार्य किया था । उनके पत्रों के नाम थे - सिन्ध टाइम्स (Sindh Times) और सिन्ध-सुधार (Sindh Sudhar ) । हीरानन्द ने १८८३ ई. में बी. ए. की उपाधि प्राप्त की थी ।

श्रीरामकृष्ण - (हीरानन्द से) - वहाँ न जाओ तो ?

हीरानन्द (सहास्य) - वहाँ और कोई मेरा काम करनेवाला नहीं है । मुझे तो वहाँ नौकरी करनी पड़ती है ।

श्रीरामकृष्ण - क्या वेतन पाते हो ?

हीरानन्द - इन सब कामों में वेतन कम है ।

श्रीरामकृष्ण – कितना ?

हीरानन्द हँस रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - यहीं रहो न ।

हीरानन्द चुप हैं ।

श्रीरामकृष्ण - काम करके क्या होगा ?

हीरानन्द चुप हैं ।

थोड़ी देर और बातचीत करके हीरानन्द बिदा हुए ।

श्रीरामकृष्ण - कब आओगे ?

हीरानन्द - परसों सोमवार को देश जाऊँगा । सोमवार को सुबह आकर दर्शन करूँगा ।

(६)

 [(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

*मास्टर, नरेन्द्र आदि के संग में*

मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । हीरानन्द को गये अभी कुछ ही समय हुआ होगा ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बहुत अच्छा है, न ?

मास्टर - जी हाँ, स्वभाव बड़ा मधुर है ।

श्रीरामकृष्ण - उसने बतलाया २२ सौ मील - इतनी दूर से देखने आया है !

मास्टर - जी हाँ, बिना अधिक प्रेम के ऐसी बात नहीं होती ।

श्रीरामकृष्ण - मेरी बड़ी इच्छा है कि मुझे भी उस देश में कोई ले जाय ।

मास्टर - जाते हुए बड़ा कष्ट होगा, चार-पाँच दिन तक रेल पर बैठे रहना होगा ।

श्रीरामकृष्ण - तीन पास कर चुका है । (युनिवर्सिटी की तीन उपाधियाँ हैं ।)

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण कुछ शान्त हैं, विश्राम करेंगे । श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - खिड़की की झंझरियों को खोल दो और चटाई बिछा दो ।मास्टर पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है ।

श्रीरामकृष्ण - (जरा सोकर, मास्टर से) - क्या मेरी आँख लगी थी ?

मास्टर - जी हाँ, कुछ लगी थी ।

नरेन्द्र, शरद, और मास्टर नीचे हॉल (Hall) के पूर्व ओर बातचीत कर रहे हैं

नरेन्द्र - कितने आश्चर्य की बात है ! इतने साल तक पढ़ने पर भी विद्या नहीं होती ! फिर किस तरह लोग कहते हैं कि 'मैंने दोन-तीन दिन साधना की; अब क्या, अब ईश्वर मिलेंगे !' ईश्वर-प्राप्ति क्या इतनी सीधी है ? (शरद से) तुझे शान्ति मिली है, मास्टर महाशय को भी शान्ति मिली है, परन्तु मुझे अभी तक शान्ति नहीं मिली


(७)

 [(23 अप्रैल, 1886) -श्री रामकृष्ण वचनामृत-139] 

*केदार, सुरेन्द्र आदि भक्तों के संग में*

दिन का पिछला पहर है । ऊपरवाले हॉल में कई भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, शरद, शशि, लाटू, नित्यगोपाल, गिरीश, राम, मास्टर और सुरेश आदि अनेक भक्त बैठे हुए हैं । 

केदार आये । बहुत दिनों के बाद वे श्रीरामकृष्ण को देखने आये हैं । वे अपने ऑफिस के कार्य के सम्बन्ध में ढाके में थे । वहाँ से श्रीरामकृष्ण की बीमारी का हाल पाकर आये हैं

केदार ने कमरे में प्रवेश करके श्रीरामकृष्ण की पदधूलि पहले अपने सिर पर धारण की, फिर आनन्दपूर्वक उसे औरों को भी देने लगे । भक्तगण नतमस्तक होकर उसे ग्रहण कर रहे हैं । केदार शरद को भी देने के लिए बढ़े, परन्तु उन्होंने स्वयं श्रीरामकृष्ण की धूलि लेकर मस्तक पर धारण की । यह देखकर मास्टर हँसने लगे । उनकी ओर देखकर श्रीरामकृष्ण भी हँसे ।

भक्तगण चुपचाप बैठे हुए हैं । इधर श्रीरामकृष्ण के भावावेश के पूर्वलक्षण प्रकट हो रहे हैं । रह-रहकर साँस छोड़ते हुए मानो वे भाव को दबाने की चेष्टा कर रहे हैं । अन्त में गिरीष घोष के साथ तर्क करने के लिए केदार के प्रति इशारा करने लगे । गिरीश अपने कान ऐंठ कर कह रहे हैं, "महाराज, कान पकड़ा । पहले मैं नहीं जानता था कि आप कौन हैं । उस समय जो मैंने तर्क किया, वह और बात थी ।" (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र की और उँगली उठाकर इशारा करते हुए केदार से कह रहे हैं - "इसने सर्वस्व का त्याग कर दिया है । (भक्तों से) केदार ने नरेन्द्र से कहा था, 'अभी चाहे तर्क करो और विचार करो, परन्तु अन्त में ईश्वर का नाम लेकर धूलि में लोटना होगा ।' (नरेन्द्र से) केदार के पैरों को धूलि लो ।"

केदार - (नरेन्द्र से) - उनके पैरों की धूलि लो, इसी से हो जायगा । 

सुरेन्द्र भक्तों के पीछे बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने जरा मुस्कराकर उनकी ओर देखा । केदार से कह रहे हैं, “अहा ! कैसा स्वभाव है !” केदार श्रीरामकृष्ण का इशारा समझकर सुरेन्द्र की ओर बढ़कर बैठे ।

सुरेन्द्र जरा अभिमानी हैं । भक्तों में से कुछ लोग बगीचे के खर्च के लिए बाहर के भक्तों के पास से अर्थ-संग्रह करने गये थे । इस पर सुरेन्द्र को बड़ा दुःख है । बगीचे का अधिकतर खर्च सुरेन्द्र ही देते हैं ।

सुरेन्द्र - (केदार से) - इतने साधुओं के बीच मैं क्या बैठूँ ! और कोई कोई (नरेन्द्र) तो कुछ दिन हुए, संन्यासी बनकर बुद्ध-गया गये हुए थे, - बड़े बड़े साधुओं के दर्शन करने ।

श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र को शान्त कर रहे हैं । कह रहे हैं, "हाँ, वे अभी बच्चे हैं, अच्छी तरह समझ नहीं सकते ।"

सुरेन्द्र - (केदार से) - क्या गुरुदेव जानते नहीं, किसका क्या भाव है ? वे रुपये से नहीं, वे तो भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं ।

श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर सुरेन्द्र की बात का समर्थन कर रहे हैं । 'भाव लेकर सन्तुष्ट होते हैं' इस कथन को सुनकर केदार भी प्रसन्न हुए ।

भक्तों ने मिठाइयाँ लाकर श्रीरामकृष्ण के सामने रखीं । उनमें से एक छोटासा टुकड़ा ग्रहण करके श्रीरामकृष्ण ने सुरेन्द्र के हाथ में प्रसाद की थाली दी और कहा, 'दूसरे भक्तों को भी प्रसाद दे दो ।' सुरेन्द्र नीचे गये । प्रसाद नीचे ही दिया जायगा ।

श्रीरामकृष्ण (केदार से) - तुम समझा देना । जाओ बकझक करने की मनाही कर देना ।

मणि पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'क्या तुम नहीं खाओगे ?' उन्होंने प्रसाद पाने के लिए नीचे मणि को भी भेज दिया ।

सन्ध्या हो रही है । गिरीश और श्री 'म' (मास्टर) तालाब के किनारे टहल रहे हैं ।

गिरीश - क्यों जी, सुना है, तुमने श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ  लिखा है ?

[# श्री रामकृष्ण की मृत्यु के बाद एम. ने श्रीरामकृष्ण के साथ अपनी बातचीत के नोट्स पाँच खंडों में प्रकाशित किए। द गॉस्पेल ऑफ श्री रामकृष्ण (^The Gospel of Sri Ramakrishna) श्री रामकृष्ण का सुसमाचार) मूल बंगाली से इन पुस्तकों का अंग्रेजी अनुवाद है।]

श्री 'म' - किसने कहा आपसे ?

गिरीश - मैंने सुना है । क्या मुझे दोगे - पढ़ने के लिए ?

श्री 'म' - नहीं, जब तक मैं यह न समझ लूँ कि किसी को देना उचित है, मैं न दूँगा । वह मैंने अपने लिए लिखा है, किसी दूसरे के लिए नहीं ।

गिरीश - क्या बोलते हो ?

'श्री 'म' - जब मेरा देहान्त हो जायगा तब पाओगे । 

“श्रीरामकृष्ण - अहेतुक कृपासिन्धु”

सन्ध्या होने पर श्रीरामकृष्ण के कमरे में दीपक जलाये गये । ब्राह्मभक्त श्रीयुत अमृत बसु उन्हें देखने के लिए आये हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखने के लिए पहले ही से उत्सुक थे । मास्टर तथा दो चार भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के सामने केले के पत्ते में बेला और जुही की मालाएँ रखी हुई हैं । कमरे में सन्नाटा छाया है । एक महायोगी मानो चुपचाप योगयुक्त होकर बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण एक-एक बार मालाओं को उठा रहे हैं । जैसे गले में डालना चाहते हो ।

अमृत - (सस्नेह) - क्या मालाएँ पहना दूँ ?

मालाएँ पहन लेने पर श्रीरामकृष्ण अमृत से बड़ी देर तक बातचीत करते रहे । अमृत अब चलनेवाले हैं ।

श्रीरामकृष्ण - तुम फिर आना ।

अमृत - जी, आने की तो बड़ी इच्छा है । बड़ी दूर से आना पड़ता है, इसलिए हमेशा मैं नहीं आ सकता ।

श्रीरामकृष्ण - तुम आना, यहाँ से बग्घी का किराया ले लिया करना ।

अमृत के लिए श्रीरामकृष्ण का यह अकारण स्नेह देखकर भक्तगण आश्चर्यचकित हो गये ।

दूसरे दिन शनिवार हैं, २४ अप्रैल श्री 'म' अपनी स्त्री तथा सात साल के लड़के को लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आये हैं । एक साल हुआ, उनके एक आठ वर्ष के लड़के का देहान्त हो गया है । उनकी स्त्री तभी से पागल की तरह हो गयी है । इसीलिए श्रीरामकृष्ण कभी कभी उसे आने के लिए कहते हैं ।

रात को श्रीमाताजी ऊपरवाले कमरे में श्रीरामकृष्ण को भोजन कराने के लिए आयी । श्री 'म' की स्त्री उनके साथ साथ दीपक लेकर गयी ।

भोजन करते हुए श्रीरामकृष्ण उससे घर-गृहस्थी की बातें पूछने लगे । फिर उन्होंने कुछ दिन श्रीमाताजी के पास आकर रहने के लिए कहा, इसलिए कि इससे उसका शोक बहुत-कुछ घट जायगा । उसके एक छोटी लड़की थी । श्रीमाताजी उसे मानमयी कहकर पुकारती थीं । श्रीरामकृष्ण ने उसे भी ले आने के लिए कहा । 

श्रीरामकृष्ण के भोजन के पश्चात् श्री 'म' की स्त्री ने उस जगह को साफ कर दिया । श्रीरामकृष्ण के साथ कुछ देर तक बातचीत हो जाने के बाद श्रीमाताजी जब नीचे के कमरे में गयीं, तब श्री 'म' की स्त्री भी उन्हें प्रणाम करके नीचे चली आयी।

रात के नौ बजे का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हैं । गले में फूलों की माला पड़ी हुई है । श्री 'म' पंखा झल रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण गले से माला हाथ में लेकर अपने-आप कुछ कह रहे हैं । उसके पश्चात् प्रसन्न होकर उन्होंने श्री 'म' को वह माला दे दी ।

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