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मंगलवार, 25 अक्टूबर 2022

🔱 🙏परिच्छेद ~111, [( 6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ]🔱🙏🙏श्रीरामकृष्ण के भक्त जब तक 'मनुष्य' नहीं बन जाते वे उनके लिए व्याकुल रहते हैं !🙏🔱विद्वानों और साधु-संत (नेता) की शिक्षा में अन्तर होता हैं - साधुसंग,सत्संग🔱 🔱ठाकुर अपने ईश्वरकोटि शिष्य पूर्ण की कल्याण कामना से बीजमंत्र का जप करते हैं !!🔱 🔱 🙏 भूमि, धन और स्त्री के मोह का त्याग और ब्रह्मानंद🔱🙏👶अवतार को कौन पहचान सकता है?👶 🔱किशोरावस्था का वैराग्य एक आश्चर्य है 🔱 🔱वेश्या को मोक्ष कैसे मिलता है ?🔱🔱 🙏श्री गौरांग-कीर्तन 🔱 🙏🙏अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ [ISKCON-इस्कॉन🔱<<“उपाधि-नाश ">>🔱 🙏 साण्डिल्य भक्तिसूत्र : आत्मज्ञान हो जाने से मुक्ति नहीं-[सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् असक्तं सर्वभृत् च एव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ 🔱 🙏🔱 🙏नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) मरे को नहीं मारता 🔱 🙏 🔱🙏'सरल -ईश्वर' को सरल हुए बिना पहचाना नहीं जा सकता 🔱🙏[सहज मानुष ना होले 'सहज' के ना जाय चेना।

 परिच्छेद -111.

*कलकत्ते में श्रीरामकृष्ण*

 [बलराम के घर में भक्तों के साथ ]

(१)

 [(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

 🙏श्रीरामकृष्ण के भक्त जब तक 'मनुष्य' नहीं बन जाते वे उनके लिए व्याकुल रहते हैं !🙏

दिन के तीन बज चुके हैं । चैत का महीना, धूप कड़ाके की पड़ रही है । श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों के साथ बलराम के बैठकखाने में बैठे हुए मास्टर से वार्तालाप कर रहे हैं । आज 6 अप्रैल 1885,सोमवार है । श्रीरामकृष्ण कलकते में भक्तों के यहाँ आये हुए हैं । वहाँ वे अपने सांगोपांगों को देखेंगे और नीमू गोस्वामी की गली में देवेन्द्र के यहाँ जायेंगे ।

বেলা তিনটা অনেকক্ষণ বাজিয়াছে। চৈত্র মাস, প্রচণ্ড রৌদ্র। শ্রীরামকৃষ্ণ দুই-একটি ভক্তসঙ্গে বলরামের বৈঠকখানায় বসিয়া আছেন। মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন।

Sri Ramakrishna sat in the drawing-room of Balaram's house talking to M. It was a very hot day and long past three o'clock. He had come to Calcutta to see some of his young disciples and also to visit Devendra's house.

श्रीरामकृष्ण ईश्वर के प्रेम में दिनरात मतवाले रहते हैं । सदा ही भावावेश या समाधि होती रहती है। बाहरी संसार में मन बिलकुल नहीं है । केवल अन्तरंग भक्त जब तक स्वयं को पहचान न सकें, तब तक उनके लिए श्रीरामकृष्ण को व्याकुल ही समझिये, - जैसे माता-पिता अक्षम बालक के लिए व्याकुल रहते हैं और उसे मनुष्य (आदमी ?) बनाने के लिए सदैव ही चिन्तित रहा करते हैं, या जैसे चिड़िया अपने बच्चों का पालनपोषण करने के लिए व्याकुल रहती है ।

ঠাকুর ঈশ্বরপ্রেমে দিবানিশি মাতোয়ারা হইয়া আছেন। অনুক্ষণ ভাবাবিষ্ট বা সমাধিস্থ। বহির্জগতে মন আদৌ নাই। কেবল অন্তরঙ্গেরা যতদিন না আপনাদের জানিতে পারেন, ততদিন তাহাদের জন্য ব্যাকুল, — বাপ-মা যেমন অক্ষম ছেলেদের জন্য ব্যাকুল, আর ভাবেন কেমন করে এরা মানুষ হবে। অথবা পাখি যেমন শাবকদের লালন-পালন করিবার জন্য ব্যাকুল।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैंने कह दिया था कि तीन बजे आऊँगा, इसीलिए आना पड़ा । परन्तु धूप बड़ी तेज है ।

MASTER (to M.): "I gave my word that I would be here at three o'clock; so I have come. But it is very hot."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — বলে ফেলেছি, তিনটের সময় যাব, তাই আসছি। কিন্তু ভারী ধুপ।

मास्टर - जी हाँ, आपको तो बड़ा कष्ट हुआ होगा ।

M: "Yes, sir, you must have suffered very much."

মাস্টার — আজ্ঞে হাঁ, আপনার বড় কষ্ট হয়েছে।

भक्तगण श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं ।

The devotees were fanning Sri Ramakrishna.

ভক্তেরা ঠাকুরকে হাওয়া করিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - छोटे नरेन्द्र और बाबूराम के लिए मैं आया । पूर्ण को तुम क्यों नहीं लेते आये ?

MASTER: "I have come here for Baburam and the younger Naren. Why haven't you brought Purna?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছোট নরেনের জন্য আর বাবুরামের জন্য এলাম। পূর্ণকে কেন আনলে না?

मास्टर - सभा में वह नहीं आना चाहता । उसे भय होता है, आप पाँच आदमियों के बीच तारीफ करते हैं, कहीं उसके घरवालों को न मालूम हो जाय ।

M: "He doesn't like to come to a gathering of people. He is afraid you might praise him before others and his relatives might then hear about it."

মাস্টার — সভায় আসতে চায় না, তার ভয় হয়, আপনি পাঁচজনের সাক্ষাতে সুখ্যাতি করেন, পাছে বাড়িতে জানতে পারে।

 🔱[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

🔱विद्वानों और साधु-संत (नेता) की शिक्षा में अन्तर होता हैं - साधुसंग,सत्संग🔱  

[পণ্ডিতদের ও সাধুদের শিক্ষা ভিন্ন – সাধুসঙ্গ ]

[Teachings of scholars and saints are different – Sadhusanga]

श्रीरामकृष्ण - हाँ, यह तो ठीक है; अगर मैं कह भी डालता तो अब न कहूँगा । अच्छा, पूर्ण को तुम धर्म की शिक्षा दे रहे हो, यह बड़ा अच्छा है ।

MASTER: "Yes, that's true. I won't do it in the future. Well, I understand that you are giving Purna religious instruction. That is fine."

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, তা বটে। যদি বলে ফেলি তো আর বলব না। আচ্ছা, পূর্ণকে তুমি ধর্মশিক্ষা দিচ্ছ, এ তো বেশ।

मास्टर - विद्यासागर की पुस्तक में भी तो यही बात है कि ईश्वर को हृदय और मन से प्यार करो इसकी शिक्षा (ज्ञान-भक्ति की शिक्षा) देने से लड़कों के अभिभावक अगर नाराज हों तो किया क्या जाय ?

M: "As a matter of fact, the same thing is written in one of the text-books of the school. It says: `With all thy soul love God above; And as thyself thy neighbour love.' If their guardians are displeased with such teachings, it can't be helped."

মাস্টার — তা ছাড়া বিদ্যাসাগর মহাশয়ের বইয়েতে Selection-এ ওই কথাই১ আছে, ঈশ্বরকে দেহ-মন-প্রাণ দিয়ে ভালবাসবে। এ-কথা শেখালে কর্তারা যদি রাগ করেন তো কি করা যায়?

श्रीरामकृष्ण - इनकी पुस्तकों में बातें तो बहुत हैं, परन्तु जिन लोगों ने पुस्तकें लिखी हैं, वे खुद धारणा नहीं कर सके । साधु-संग करने पर धारणा होती है । यथार्थ त्यागी साधु अगर उपदेश देता है तो लोगों पर उसका असर अधिक पड़ता है । केवल पण्डितों की लिखी पुस्तकें पढ़कर या उनके उपदेश सुनकर उतनी धारणा नहीं होती । जिसके पास ही गुड़ के घड़े रखे हों, वह अगर रोगी को उपदेश दे कि गुड़ न खाना तो रोगी उसकी बात उतनी नहीं मानता ।

MASTER: "No doubt many things like that are written in those books; but the authors themselves do not assimilate what they write. This power of assimilation comes from associating with holy men. People listen to instruction only when it is given by a sadhu who has truly renounced the world; they are not much impressed by the writings or the words of a mere scholar. Suppose a physician has a big jar of molasses by his side, and he asks his patients not to eat molasses; the patients won't pay much attention to his advice.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওদের বইয়েতে অনেক কথা আছে বটে, কিন্তু যারা বই লিখেছে, তারা ধারণা করতে পারে না। সাধুসঙ্গ হলে তবে ধারণা হয়। ঠিক ঠিক ত্যাগী সাধু যদি উপদেশ দেয়, তবেই লোকে সে কথা শুনে। শুধু পণ্ডিত যদি বই লিখে বা মুখে উপদেশ দেয়, সে কথা তত ধারণা হয় না। যার কাছে গুড়ের নাগরি আছে, সে যদি রোগীকে বলে, গুড় খেয়ো না, রোগী তার কথা তত শুনে না।

अच्छा, पूर्ण की अवस्था कैसी देख रहे हो ? क्या उसे भावावेश होता है ?

"Well, how do you find Purna? Does he go into ecstatic moods?"

“আচ্ছা, পূর্ণের অবস্থা কিরকম দেখছো? ভাব-টাব কি হয়?”

मास्टर - भाव की अवस्था बाहर से तो मुझे विशेष नहीं दीख पड़ती । एक दिन आपकी वह बात मैंने उससे कही थी ।

M: "No, I haven't noticed in him any outer sign of such emotion. One day I told him those words of yours."

মাস্টার — কই ভাবের অবস্থা বাহিরে সেরকম দেখতে পাই না। একদিন আপনার সেই কথাটি তাকে বলেছিলাম।

श्रीरामकृष्ण - कौनसी बात ?

MASTER: "What words?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কথাটি?

मास्टर - आपने कहा था - छोटा आधार भावावेश को सम्हाल नहीं सकता, आधार अगर बड़ा हुआ तो उसके भीतर तो भाव खूब होता है, परन्तु बाहर उसके लक्षण प्रकट नहीं होने पाते । जैसा आपने कहा था, - बड़े तालाब में हाथी के उतर जाने पर कुछ भी समझ में नहीं आता, परन्तु वह अगर किसी गड़ही में उतर जाय तो उथल-पुथल मचा देता है, पानी की हिलोरें तट पर पछाड़ खा-खाकर गिरने लगती हैं ।

M: "You told us that if a man is a 'small receptacle' he cannot control spiritual emotion; but if he is a 'large receptacle' he experiences intense emotion without showing it outwardly. You said that a big lake does not become disturbed when an elephant enters it; but when the elephant enters a pool, one sees tremendous confusion and the water splashes on the banks."

মাস্টার — সেই যে আপনি বলেছিলেন! — সামান্য আধার হলে ভাব সম্বরণ করতে পারে না। বড় আধার হলে ভিতরে খুব ভাব হয় কিন্তু বাহিরে প্রকাশ থাকে না। যেমন বলেছিলেন, সায়ের দীঘিতে হাতি নামলে টের পাওয়া যায় না, কিন্তু ডোবাতে নামলে তোলপাড় হয়ে যায়, আর পাড়ের উপর জল উপছে পড়ে!

Purna पूर्ण चन्द्र घोष [Sri Purnachandra Ghosh] (1871 - 1913) — Born in Simulia, Calcutta. First meeting with Tagore in March 1885 AD. Sri Sri Thakur identified him as Ishwarkoti among household devotees. As a student, he came in contact with Dakshineswar Thakur at a very young age on the advice of Master Mahashay. Father Roy Bahadur Dinnath Ghosh — High-ranking royal servant. Thakur told Purna to come to Thakur whenever it is convenient for him. Sri Sri Thakur said Purna Chandra was 'born in the portion of Vishnu' and his arrival fulfilled the influx of devotees of that class. Although he was engaged in government work outside, he was engrossed in the thoughts and thoughts of Sri Sri Thakur. He had deep affection for Swamiji. When Madam Kalve, Swamiji's devotee, came to Calcutta, she welcomed him as the secretary of the Vivekananda Society on behalf of the society. He died at the age of 42 years.]

श्रीरामकृष्ण - बाहर उसका भावावेश नहीं दिखेगा, उसका स्वभाव कुछ दूसरा ही है, और और लक्षण तो सब अच्छे हैं न ?

MASTER: "Purna will not show his emotion outwardly; he hasn't that kind of temperament. His other signs are good. What do you say?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — বাহিরে ভাব তার তো হবে না। তার আকর আলাদা! আর আর সব লক্ষণ ভাল। কি বলো?

मास्टर - आँखें खूब उज्ज्वल तथा विशाल हैं ।

M: "His eyes are very bright and prominent."

মাস্টার — চোখ দুটি বেশ উজ্জ্বল — যেন ঠেলে বেরিয়ে আসছে।

श्रीरामकृष्ण - केवल आँखों के उज्ज्वल होने ही से नहीं हो जाता । ईश्वरभाववाली आँखें और होती हैं । अच्छा क्या तुमने उससे पूछा था - उसके बाद* उसे कैसा लगा ? (*श्रीरामकृष्ण से साक्षात् होने के बाद)

MASTER: "Mere bright eyes are not enough. The eyes of a godly person are different. Did you ask him what he felt after meeting me?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — চোখ দুটো শুধু উজ্জ্বল হলে হয় না। তবে ঈশ্বরীয় চোখ আলাদা। আচ্ছা, তাকে জিজ্ঞাসা করেছিলে, তারপর (ঠাকুরের সহিত দেখার পর) কিরকম হয়েছে?

मास्टर - जी हाँ, बातें हुई थीं । वह चार-पाँच दिन से कह रहा है, ईश्वर की चिन्ता करने पर, उनका नाम लेने पर, आँखों में आँसू आ जाते हैं, रोमांच हो जाता है ।

M: "Yes, sir, we talked about that. He has been telling me for the last four or five days that whenever he thinks of God or repeats His name, tears flow from his eyes and the hair on his body stands on end — such is his joy."

মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, কথা হয়েছিল। সে চার-পাঁচদিন ধরে বলছে, ঈশ্বর চিন্তা করতে গেলে, আর তাঁর নাম করতে গেলে চোখ দিয়ে জল, রোমাঞ্চ এই সব হয়।

श्रीरामकृष्ण - तो फिर और क्या चाहिए ?

MASTER: "Indeed! That's all he needs."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে আর কি!

श्रीरामकृष्ण और मास्टर चुप हैं । कुछ देर बाद मास्टर बोले - “वह खड़ा है -श्रीरामकृष्ण - कौन ?

The Master and M. were silent a few moments. Then M. said, "He is waiting —"MASTER: "Who?"

ঠাকুর ও মাস্টার চুপ করিয়া আছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে মাস্টার কথা কহিতেছেন। বলিতেছেন, সে দাঁড়িয়ে আছে —শ্রীরামকৃষ্ণ — কে?

मास्टर – पूर्ण । जान पड़ता है, अपने घर के दरवाजे के पास खड़ा है, हममें से कोई जाय तो वह दौड़कर हम लोगों को प्रणाम कर ले । श्रीरामकृष्ण – आहा ! –

M: "Purna. Perhaps he has been standing at the door of his house. When any of us passes that way he will come running and salute us." MASTER: "Ah! Ah!"

মাস্টার — পূর্ণ, — তার বাড়ির দরজার কাছে বোধ হয় দাঁড়িয়ে আছে। আমরা কেউ গেলে দৌড়ে আসবে, এসে আমাদের নমস্কার করে যাবে।শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! আহা!

श्रीरामकृष्ण तकिये के सहारे विश्राम कर रहे हैं । मास्टर के साथ एक बारह साल का लड़का आया हुआ है । मास्टर के स्कूल में पढ़ता है, नाम है क्षीरोद । मास्टर कहते हैं, "यह बड़ा अच्छा लड़का है, ईश्वर के नाम से इसे बड़ा आनन्द होता है ।" श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - आँखें तो हिरण जैसी हैं ।

Sri Ramakrishna was resting, reclining against a bolster. M. had brought with him a twelve-year-old boy who was a student in his school. His name was Kshirode.M: "He is a nice boy. He finds great joy in spiritual talk." MASTER (smiling): "He has eyes like a deer's."

ঠাকুর তাকিয়ায় হেলান দিয়া বিশ্রাম করিতেছেন। মাস্টারের সঙ্গে একটি দ্বাদশবর্ষীয় বালক আসিয়াছে, মাস্টারের স্কুলে পড়ে, নাম ক্ষীরোদ। মাস্টার বলিতেছেন, এই ছেলেটি বেশ! ঈশ্বরের কথায় খুব আনন্দ। শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — চোখ দুটি যেন হরিণের মতো।

[Kshirod (Kshirodchandra Mitra) — Boy devotee of Sri Ramakrishna. A student of the Mahendranath Gupta (मास्टर महाशय) . A classmate of Swami Subodhananda, श्री रामकृष्ण की त्यागी संतानों में से एक। thakur had a very high opinion of Kshirod and was very fond of him. He also instructed the master to take care of क्षीरोद . Kshirod has always been a particularly ardent devotee of ठाकुर. Even when ठाकुर stayed in Kashipur during his illness, Kshirod used to visit ठाकुर regularly.]

लड़के ने श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ रखकर भूमिष्ठ हो प्रणाम किया और बड़े भक्ति-भाव से श्रीरामकृष्ण की पद-सेवा करने लगा । श्रीरामकृष्ण भक्तों के सम्बन्ध में वार्तालाप करने लगे ।

The boy saluted Sri Ramakrishna, touching his feet. Then he gently stroked the Master's feet.

ছেলেটি ঠাকুরের পায়ে হাত দিয়া ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিল ও অতি ভক্তিভাবে ঠাকুরের পদসেবা করিতে লাগিল। ঠাকুর ভক্তদের কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - राखाल घर में है । उसका भी शरीर अच्छा नहीं है, उसके फोड़ा हुआ है । मैंने सुना है, उसे एक लड़का होगा

MASTER (to M.): "Rakhal is staying at home now; he has an abscess and is not well. I understand that his wife expects a baby."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারকে) রাখাল বাড়িতে আছে। তারও শরীর ভাল নয়, ফোঁড়া হয়েছে। একটি ছেলে বুঝি তার হবে শুনলাম।

पल्टू और विनोद सामने बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण (पल्टू से, सहास्य) - तूने अपने बाप से क्या कहा ? (मास्टर से) सुना, इसने यहाँ आने की बात पर अपने बाप को भी जवाब दे दिया। (पल्टू से) क्यों रे, क्या कहा ?

Paltu and Binode were seated in front of Sri Ramakrishna. MASTER (to Paltu, smiling): "What did you say to your father? (To M.) He answered back when his father told him not to come here. (To Paltu) What did you say?"

পল্টু ও বিনোদ সম্মুখে বসিয়া আছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (পল্টুর প্রতি সহাস্যে) — তুই তোর বাবাকে কি বললি? (মাস্টারের প্রতি) — ওর বাবাকে ও নাকি জবাব করেছে, এখানে আসবার কথায়। (পল্টুর প্রতি) — তুই কি বললি?

[Paltu (प्रमथनाथ कार Pramathnath Kar) — Son of Roy Bahadur Hemchandra Kar, Deputy Magistrate of Kambuliatola. Famous as an attorney. As a student of Master Mahashay, he came in contact with Thakur at an early age and became his devotee. Thakur said "You too will Realize the Truth. But it will be a little late.” Later in life he was involved in many charitable organizations and devoted himself to the service of the poor. He passed away in Calcutta in 1937.]

पल्टू – मैंने कहा, हाँ, मैं उनके पास जाया करता हूँ, तो यह कौनसा बुरा काम है ? (श्रीरामकृष्ण और मास्टर हँसे ।) अगर जरूरत होगी तो और भी इसी तरह की सुनाऊँगा ।

PALTU: "I said to him: 'Yes, I go to him. Is that wrong?' (The Master and M. laugh.) I shall say more if necessary."

পল্টু — বললুম, হাঁ আমি তাঁর কাছে যাই, এ কি অন্যায়? (ঠাকুর ও মাস্টারের হাস্য) যদি দরকার হয় আরো বেশি বলব।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य, मास्टर से) - नहीं, क्यों जी, इतनी भी कहीं बढ़ा-चढ़ी होती है ?

MASTER (to M., smiling): "No, no! Should he go so far?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে, মাস্টারের প্রতি) — না, কিগো অতদূর!

मास्टर - जी नहीं, इतनी बढ़ा-चढ़ी अच्छी नहीं । (श्रीरामकृष्ण हँसते हैं)

M: "No, sir, he should not go too far." (Sri Ramakrishna laughs.)

মাস্টার — আজ্ঞা না, অতদূর ভাল নয়! (ঠাকুরের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण (विनोद से) - तू कैसा है ? वहाँ, दक्षिणेश्वर, तू नहीं गया ?

MASTER (to Binod): "How are you? Why haven't you come to Dakshineswar?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (বিনোদের প্রতি) — তুই কেমন আছিস? সেখানে গেলি না?

विनोद - जी, जा रहा था, फिर डर के मारे नहीं गया । शरीर भी कुछ अस्वस्थ है ।

BINOD: "I almost came, but then I was afraid of falling ill again. I have been ill and am not doing well."

বিনোদ — আজ্ঞা, যাচ্ছিলাম — আবার ভয়ে গেলাম না! একটু অসুখ করেছে, শরীর ভাল নয়।

श्रीरामकृष्ण - वहाँ चल तो सही, वहाँ की हवा अच्छी है, चंगा हो जायेगा ।

MASTER: "Come to Dakshineswar with me. The air is very good there. You will recover."

শ্রীরামকৃষ্ণ — চ না সেইখানে, বেশ হাওয়া, সেরে যাবি।

[Vinod (विनोद सोम) Vinodvihari Som) — student of Mahendranath Gupta. He was known as पद्मविनोद 'Padmavinod' to his friends. In 1884 AD, he visited Sri Ramakrishnadeva as a student. Later, he acted in Girishchandra Ghosh's plays and became an alcoholic in कुसंग में पड़कर शराबी हो गया।  SangdoshOne day, on his way back from the theatre, in front of  श्री श्री मायेर बाड़ी (Mother's house) at night, he sang a song for Sri Sri Ma and received her darshan. (माँ सारदा की स्तुति की थी और उनका दर्शन प्राप्त किया था (बेलघड़िया ? !!)  Shortly thereafter, he fell ill and was hospitalized and passed away. Before his death, he expressed his desire to hear a lesson (पाठ) from Sri Ramakrishna Vachnamrit. His last wish was fulfilled and he breathed his last chanting the name of Sri Ramakrishna.] 

छोटे नरेन्द्र आये । श्रीरामकृष्ण मुँह धोने के लिए जा रहे थे । छोटे नरेन्द्र अँगौछा लेकर श्रीरामकृष्ण को पानी देने के लिए गये । साथ में मास्टर भी हैं । छोटे नरेन्द्र पश्चिमवाले बरामदे के उत्तर कोने में श्रीरामकृष्ण के हाथपैर धो रहे हैं, पास ही मास्टर भी खड़े हैं ।

The younger Naren entered the room. Sri Ramakrishna was going out to wash his hands and face. The younger Naren followed him with a towel; he wanted to pour water for the Master. M. was with them.

ছোট নরেন আসিয়াছেন। ঠাকুর মুখ ধুইতে যাইতেছেন। ছোট নরেন গামছা লইয়া ঠাকুরকে জল দিতে গেলেন। মাস্টারও সঙ্গে সঙ্গে আছেন।

श्रीरामकृष्ण - बड़ी कड़ी धूप है । मास्टर - जी हाँ ।

MASTER: "It's very hot today." M: "Yes, sir."

श्रीरामकृष्ण - तुम किस तरह वहाँ रहते हो ! ऊपरवाले कमरे में गरमी नहीं होती ?मास्टर - जी हाँ, बड़ी गरमी होती है ।

MASTER: "How do you live in that small room of yours? Doesn't it get very hot on the upper floor?"M: "Yes, sir, it gets very hot."

ছোট নরেন পশ্চিমের বরান্দার উত্তর কোণে ঠাকুরের পা ধুইয়া দিতেছেন, কাছে মাস্টার দাঁড়াইয়া আছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ — ভারী ধুপ। মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ।

श्रीरामकृष्ण - एक तो तुम्हारी स्त्री को मस्तिष्क की बीमारी है - उसे ठण्डे में रखा करो । मास्टर - जी हाँ, उसे नीचे के कमरे में सोने के लिए कह दिया है । श्रीरामकृष्ण बैठकखाने में फिर आकर बैठे । मास्टर से पूछ रहे हैं – “तुम इस रविवार को क्यों नहीं गये ?"

MASTER: "Besides, your wife has been suffering from brain trouble. You should keep her in a cool room." M: "Yes, sir. I have asked her to sleep downstairs." Sri Ramakrishna returned to the drawing-room and took his seat.MASTER (to M.): "Why didn't you come to Dakshineswar last Sunday?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — তাতে পরিবারের মাথার অসুখ, ঠাণ্ডায় রাখবে।মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ। বলে দিয়েছি, নিচের ঘরে শুতে।ঠাকুর বৈঠকখানা ঘরে আবার আসিয়া বসিয়াছেন ও মাস্টারকে বলিতেছেন, তুমি এ রবিবারেও যাও নাই কেন?

मास्टर – जी, घर में भी तो कोई नहीं है । तिस पर (स्त्री को) मस्तिष्क की बीमारी है । देखनेवाला कोई नहीं था ।

M: "Sir, there was no one else at home. My wife was not well and no one was there to look after her."

মাস্টার — আজ্ঞা, বাড়িতে তো আর কেউ নাই। তাতে আবার (পরিবারের মাথার) ব্যারাম। কেউ দেখবার নাই।

श्रीरामकृष्ण गाड़ी पर नीमू गोस्वामी की गली से होकर देवेन्द्र के यहाँ जा रहे हैं । साथ में छोटे नरेन्द्र, मास्टर और भी दो एक भक्त है । श्रीरामकृष्ण पूर्ण की बात कर रहे हैं । पूर्ण के लिए वे व्याकुल हैं ।

Sri Ramakrishna was on his way in a carriage to Devendra's house in Nimu Goswami's Lane. The younger Naren, M., and one or two other devotees were with him. The Master felt great yearning for Purna. He began to talk of the young disciple.

ঠাকুর গাড়ি করিয়া নিমু গোস্বামীর গলিতে দেবেন্দ্রের বাড়িতে যাইতেছেন। সঙ্গে ছোট নরেন, মাস্টার, আরও দুই-একটি ভক্ত। পূর্ণর কথা কহিতেছেন। পূর্ণর জন্য ব্যাকুল হইয়া আছেন।

[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

 🔱ठाकुर अपने ईश्वरकोटि शिष्य पूर्ण की कल्याण कामना से बीजमंत्र का जप करते हैं !!🔱 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - बहुत बड़ा आधार है । नहीं तो अपने लिए जप कैसे करा लेता ! उसे तो ये सब बातें मालूम हैं ही नहीं ।

MASTER (to M.): "A great soul! Or how could he make me do japa for his welfare? But Purna doesn't know anything about it."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — খুব আধার! তা না হলে ওর জন্য জপ করিয়ে নিলে! ও তো এ-সব কথা জানে না।

मास्टर और भक्तगण आश्चर्यभाव से सुन रहे हैं, श्रीरामकृष्ण ने पूर्ण के लिए बीजमन्त्र का जप किया ।

M. and the other devotees were amazed at these words.

মাস্টার ও ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া শুনিতেছেন যে, ঠাকুর পূর্ণর জন্য বীজমন্ত্র জপ করিয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण - आज उसे ले आते, लाये क्यों नहीं ?

MASTER: "It would have been nice if you had brought him here with you today. Why didn't you?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আজ তাকে আনলেই হত। আনলে না কেন?

छोटे नरेन्द्र को हँसते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण भी हँस रहे हैं और भक्तगण भी हँस रहे हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्दपूर्वक छोटे नरेन्द्र की ओर संकेत करके मास्टर से कह रहे हैं - देखो देखो, किस तरह हँस रहा है, जैसे कुछ भी नहीं जानता । परन्तु उसके मन के भीतर जमीन, जोरू, रुपया कुछ नहीं है । तीनों में से एक भी उसके मन में नहीं है । मन से कामिनी और कांचन के बिलकुल गये बिना कभी ईश्वरलाभ नहीं होता ।

Seeing the younger Naren laugh, the Master and the other devotees laughed too. The Master said to M., laughing and pointing to Naren: "Look at him! Look! How naive he looks when he laughs, as if he knew nothing. He never thinks of these three things: land, wife, and money. God cannot be realized unless the mind is totally free from 'woman and gold'."

ছোট নরেনের হাসি দেখিয়া ঠাকুর ও ভক্তেরা সকলে হাসিতেছেন। ঠাকুর আনন্দে তাঁহাকে দেখাইয়া মাস্টারকে বলিতেছেন — দ্যাখো দ্যাখো, ন্যাকা ন্যাকা হাসে। যেন কিছু যানে না। কিন্তু মনের ভিতর কিছুই নাই, — তিনটেই মনে নাই — জমীন, জরু, রূপেয়া। কামিনী-কাঞ্চন মন থেকে একেবারে না গেলে ভগবানলাভ হয় না।

श्रीरामकृष्ण देवेन्द्र के यहाँ जा रहे हैं । दक्षिणेश्वर में देवेन्द्र से एक दिन आप कह रहे थे, 'इच्छा होती है एक दिन तुम्हारे यहाँ जाऊँ ।' देवेन्द्र ने कहा था, 'मैं आपसे यह कहने के लिए आया था, इसी रविवार को जाना होगा ।' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'परन्तु तुम्हारी आमदनी कम है, अधिक आदमियों को न्योता न देना; और गाड़ी का किराया भी बहुत अधिक है ।' देवेन्द्र ने कहा था, 'आमदनी कम है तो क्या हुआ ? ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् (ऋण करके भी घी पीना चाहिए) ।’ श्रीरामकृष्ण यह सुनकर हँसने लगे । हँसी रुकती ही न थी ।

The carriage proceeded to Devendra's house. Once Sri Ramakrishna had said to Devendra at Dakshineswar, "I have been thinking of visiting your house one day." Devendra had replied: "The same idea came to my mind today, and I have come here to ask that favour of you. You must grace my house this Sunday." "But", the Master had said, "you have a small income. Don't invite many people. The carriage hire will also run to a big amount." Devendra had answered, laughing: "What if my income is small? 'One can run into debt to eat butter!'" At these words Sri Ramakrishna had laughed a long time.

ঠাকুর দেবেন্দ্রের বাড়িতে যাইতেছেন। দক্ষিণেশ্বরে দেবেন্দ্রকে একদিন বলিতেছিলেন, একদিন মনে করেছি, তোমার বাড়িতে যাব। দেবেন্দ্র বলিয়াছিলেন, আমিও তাই বলবার জন্য আজ এসেছি, এই রবিবারে যেতে হবে। ঠাকুর বলিলেন, কিন্তু তোমার আয় কম, বেশি লোক বলো না। আর গাড়ি ভাড়া বড় বেশি! দেবেন্দ্র হাসিয়া বলিয়াছিলেন, তা আয় কম হলেই বা, ‘ঋণং কৃত্বা ঘৃতং পিবেৎ’ (ধার করে ঘৃত খাবে, ঘি খাওয়া চাই)। ঠাকুর এই কথা শুনিয়া হাসিতে লাগিলেন, হাসি আর থামে না।

कुछ देर बाद घर पहुँचकर श्रीरामकृष्ण ने कहा - “देवेन्द्र, मेरे लिए भोजन बहुत थोड़ा बनवाना - मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है ।

Soon the carriage reached Devendra's house. Sri Ramakrishna said to him: "Devendra, don't make elaborate arrangements for my meal. Something very simple will do. I am not very well today."

কিয়ৎ পরে বাড়িতে পৌঁছিয়া বলিতেছেন, দেবেন্দ্র আমার জন্য খাবার কিছু করো না, অমনি সামান্য, — শরীর তত ভাল নয়।

(२)

*देवेन्द्र के घर में भक्तों के साथ*

श्रीरामकृष्ण देवेन्द्र के बैठकखाने में भक्तमण्डली में बैठे हुए हैं । बैठकखाना एकमँजले पर है । सन्ध्या हो गयी । कमरे में दिया जल रहा है । छोटे नरेन्द्र, राम, मास्टर, गिरीश, देवेन्द्र, अक्षय, उपेन्द्र इत्यादि बहुत से भक्त पास बैठे हुए हैं ।

[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

🔱 🙏 भूमि, धन और स्त्री के मोह का त्याग और ब्रह्मानंद🔱🙏

[Renunciation of the attachment of land, wealth and woman and Brahmanand]

श्रीरामकृष्ण एक बालक-भक्त को देखकर आनन्द में मग्न हो रहे हैं । उसी के सम्बन्ध में भक्तों से कह रहे हैं "इसमें जमीन, रुपया, स्त्री तीनों में से एक भी नहीं है जिससे यह इस संसार में बँध जाय । इन तीनों में से एक पर भी मन को रखने से परमात्मा पर मन नहीं जाता, मन का योग नहीं होता । इसने कुछ देखा भी था ! (भक्त से) क्यों रे, बता तो, क्या देखा था तूने ?"

শ্রীরামকৃষ্ণ দেবেন্দ্রের বাড়ির বৈঠকখানায় ভক্তের মজলিশ করিয়া বসিয়া আছেন। বৈঠকখানার ঘরটি এক তলায়। সন্ধ্যা হইয়া গিয়াছে। ঘরে আলো জ্বলিতেছে। ছোট নরেন, রাম, মাস্টার, গিরিশ, দেবেন্দ্র, অক্ষয়, উপেন্দ্র, ইত্যাদি অনেক ভক্তেরা কাছে বসিয়া আছেন। ঠাকুর একটি ছোকরা ভক্তকে দেখিতেছেন ও আনন্দে ভাসিতেছেন। তাহাকে উদ্দেশ করিয়া ভক্তদের বলিতেছেন, ‘তিনটে এর একেবারেই নাই! যাতে সংসারে বদ্ধ করে। জমি, টাকা আর স্ত্রী। ওই তিনটি জিনিসের উপর মন রাখতে গেলে ভগবানের উপর মনের যোগ হয় না। এ কি আবার দেখেছিল?’ (ভক্তটির প্রতি) বলত রে, কি দেখেছিলি?

Sri Ramakrishna seated himself in the drawing-room on the ground floor of Devendra's house. The devotees sat around him. It was evening. The room was well lighted. The younger Naren, Ram, M., Girish, Devendra, Akshay, Upendra, and some other devotees were present. As the Master cast his glance on a young devotee, his face beamed with joy. Pointing to the devotee, Sri Ramakrishna said to the others: "He is totally free from attachment to land, wife, and money, the three things that entangle one in worldliness. The mind that dwells on these three cannot be fixed on God. He saw a vision, too. (To the devotee) Tell us, what did you see?"

भक्त (हँसकर) - मैनें देखा, विष्ठा के कुछ ढेर पड़े हुए हैं । कोई कोई उसके ऊपर बैठे हुए हैं, कोई उससे कुछ दूर पर ।

[👶मैंने देखा-`भूमि, धन और स्त्री' इन तीनों में से किसी एक या सभी के मोह में कोई गोबर के ढेर पर बैठा है, कोई उससे दूर होकर बैठा है। ] 

ভক্ত (সহাস্যে) — দেখলাম, কতকগুলো গুয়ের ভাঁড়, — কেউ ভাঁড়ের উপর বসে আছে, কেউ কিছু তফাতে বসে আছে।

DEVOTEE (laughing): "I saw a heap of dung. Some were seated on it, and some sat at a distance."

श्रीरामकृष्ण - इसने देखा, संसारी मनुष्यों की यही दशा है, जो ईश्वर को भूले हुए हैं; इसीलिए इसके मन से सब छूटा जा रहा है । कामिनी और कांचन से मन अगर हट जाय तो फिर चिन्ता ही क्या है ?

"उः ! कितने आश्चर्य की बात है ! मेरा तो यह भाव बहुत कुछ जप और ध्यान करने पर दूर हुआ था । एकदम इतनी जल्दी इसका यह भाव दूर कैसे हो गया ! काम का नाश हो जाना क्या कुछ साधारण बात है ! छः महीने के बाद मेरी छाती में कुछ ऐसा होने लगा था कि पेड़ के नीचे पड़ा हुआ मैं रो-रोकर माँ से कहने लगा था - 'माँ, अगर कुछ बुरा हुआ तो मैं गले में छुरी मार लूँगा ।'

[MASTER: "It was a vision of the plight of the worldly people who are forgetful of God. It shows that all these desires are disappearing from his mind. Need one worry about anything if one's mind is detached from 'woman and gold'? How strange! Only after much meditation and japa could I get rid of these desires; and how quickly he could banish them from his mind! Is it an easy matter to get rid of lust? I myself felt a queer sensation in my heart six months after I had begun my spiritual practice. Then I threw myself on the ground under a tree and wept bitterly. I said to the Divine Mother, 'Mother, if it comes to that, I shall certainly cut my throat with a knife!'

শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারী লোক যারা ঈশ্বরকে ভুলে আছে, তাদের ওই দশা এ দেখেছে, তাই মন থেকে এর সব ত্যাগ হয়ে যাচ্ছে। কামিনী-কাঞ্চনের উপর থেকে যদি মন চলে যায়, আর ভাবনা কি! “উঃ! কি আশ্চর্য! আমার তো কত জপ-ধ্যান করে তবে গিয়েছিল। এর একেবারে এত শীঘ্র কেমন করে মন থেকে ত্যাগ হলো! কাম চলে যাওয়া কি সহজ ব্যাপার! আমারই ছয়মাস পরে বুক কি করে এসেছিল! তখন গাছতলায় পড়ে কাঁদতে লাগলাম! বললাম, মা! যদি তা হয়, তাহলে গলায় ছুরি দিব!

(भक्तों से) - "कामिनी और कांचन ये दोनों अगर मन से दूर हो गये फिर बाकी ही क्या रहा ? तब तो बस ब्रह्मानन्द ही है ।"

(To the devotees) "If the mind is free from 'woman and gold', then what else can obstruct a man? He enjoys then only the Bliss of Brahman."

(ভক্তদের প্রতি) — “কামিনী-কাঞ্চন যদি মন থেকে গেল, তবে আর বাকী কি রইল? তখন কেবল ব্রহ্মানন্দ।”

शशी (बाद में स्वामी रामकृष्णानन्द) उस समय पहले ही पहल श्रीरामकृष्ण के पास आने-जाने लगे थे । वे उस समय विद्यासागर कालेज में बी. ए. के प्रथम वर्ष में थे । श्रीरामकृष्ण अब उनकी बात कर रहे हैं ।

Sashi3 had recently been visiting Sri Ramakrishna. He was studying at the Vidyasagar College for his Bachelor's degree. The Master began to talk about him.

শশী তখন সবে ঠাকুরের কাছে যাওয়া-আসা করিতেছেন। তিনি তখন বিদ্যাসাগরের কলেজে বি. এ. প্রথম বৎসর পড়েন। ঠাকুর এইবার তাঁহার কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - वह जो लड़का आया करता है, कुछ दिन के लिए, देखता हूँ, रुपये की ओर उसका मन कभी कभी चला जाया करेगा; परन्तु कुछ लोगों का मन, देखता हूँ, उधर बिलकुल नहीं जायेगा । कुछ लड़के विवाह करेंगे ही नहीं । 

MASTER (to the devotees): "That boy will think of money for some time. But there are some who will never do so. Some of the youngsters will not marry."

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — সেই যে ছেলেটি যায়, কিছুদিন তার টাকায় মন এক-একবার উঠবে দেখেছি। কিন্তু কয়েটির দেখেছি আদৌ উঠবে না। কয়েকটি ছোকরা বিয়ে করবে না।

भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं । ভক্তেরা নিঃশব্দে শুনিতেছেন। The devotees listened silently to the Master.

[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ] 

👶अवतार को कौन पहचान सकता है?👶 

[অবতারকে কে চিনতে পারে? ]

[ नवनीदा अवतार हैं ! बैंगन-भंटा (eggplant) बेचने वाले कैसे पहचान सकते हैं?]

श्रीरामकृष्ण (भक्तों से) - मन से कामिनी और कांचन के गये बिना 'अवतार' को पहचानना मुश्किल है । किसी बैंगन-भंटा (eggplant) बेचने वाले से हीरे का मोल पूछा गया था । उसने कहा; ‘मैं इसके बदले में नौ सेर बैंगन-भंटा दे सकूँगा । इससे अधिक एक भी नहीं ।' (सब हँसते हैं, छोटे नरेन्द्र जोर से हँसते हैं ।)

MASTER: "It is hard to recognize an Incarnation of God unless the mind is totally free from 'woman and gold'. A man asked a seller of egg-plants the value of a diamond. He said, 'I can give nine seers of egg-plants in exchange, and not one more.'" (See)

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — মন থেকে কামিনী-কাঞ্চন সব না গেলে অবতারকে চিনতে পারা কঠিন। বেগুনওলাকে হীরার দাম জিজ্ঞাসা করেছিল, সে বললে, আমি এর বদলে নয় সের বেগুন দিতে পারি, এর একটাও বেশি দিতে পারি না। (সকলের হাস্য ও ছোট নরেনের উচ্চহাস্য)

श्रीरामकृष्ण ने देखा, छोटे नरेन्द्र बात का मर्म बहुत जल्द समझ गये ।

At these words all the devotees laughed. The younger Naren laughed very loudly. Sri Ramakrishna noticed that he had quickly understood the implication of these words.

ঠাকুর দেখিলেন, ছোট নরেন কথার মর্ম ফস করিয়া বুঝিয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण - इसकी बुद्धि कितनी सूक्ष्म है ! नागा इसी तरह बहुत जल्द समझ जाता था - गीता, भागवत में जहाँ जो कुछ है, वह समझ लेता था ।

MASTER: "What a subtle mind he has! Nangta also could understand things that way, in a flash — the meaning of the Gita, the Bhagavata, and other scriptures.

শ্রীরামকৃষ্ণ — এর কি সূক্ষ্মবুদ্ধি! ন্যাংটা এইরকম ফস্‌ করে বুঝে নিত — গীতা, ভাগবত, যেখানে যা, সে বুঝে নিত।

[(6 अप्रैल 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111] 

🔱किशोरावस्था का वैराग्य एक आश्चर्य है 🔱

[কৌমারবৈরাগ্য আশ্চর্য — বেশ্যার উদ্ধার কিরূপে হয় ]

“बचपन से ही कामिनी और कांचन का त्याग, यह बड़े आश्चर्य की बात है । परन्तु ऐसा बहुत कम आदमियों में होता है । नहीं तो पत्थर का मारा आम, जैसे न ठाकुरजी की सेवा में आता है, न कोई मनुष्य ही खाने की हिम्मत करता है ।

"Renunciation of 'woman and gold' from boyhood! Amazing indeed! It falls to the lot of a very few. A person without such renunciation is like a mango struck by a hail-stone. The fruit cannot be offered to the Deity, and even a man hesitates to eat it.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ছেলেবেলা থেকে কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ, এটি খুব আশচর্য। খুব কম লোকের হয়! তা না হলে যেমন শিল-খেকো আম — ঠাকুরের সেবায় লাগে না — নিজে খেতে ভয় হয়।

[(6 अप्रैल 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111] 

 🔱वेश्या को मोक्ष कैसे मिलता है ?🔱

“पहले निर्विचार पाप करके फिर बुढ़ापे में ईश्वर का नाम लेना, यह बुराई की अपेक्षा अच्छा है ।

[गुरु-शिष्य परम्परा में विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण (मनःसंयोग) नहीं लेने के कारण जवानी में अनेक भूलें हो जाया करतीं हैं, फिर कुछ लोग बाद में मृत्यु भय से बुढ़ापे में ईश्वर का नाम लेते हैं; ऐसा करना भी बिना विवेक-विचार किये शास्त्र-निषिद्ध कर्म करते जाने की अपेक्षा अच्छा है।] 

"There are people who during their youth committed many sins, but in old age chant the name of God. Well, that is better than nothing.

“আগে অনেক পাপ করেছে, তারপর বুড়ো বয়সে হরিনাম করছে এ মন্দের ভাল।

"अमुक मल्लिक की माँ बहुत बड़े घर की लड़की है । वेश्याओं की बात पर उसने पूछा, “उनका क्या किसी तरह उद्धार न होगा ?' स्वयं पहले उसने बहुत तरह के काम किये थे - इसीलिए उसने पूछा । मैंने कहा, 'हाँ, होगा अगर आन्तरिक प्रेरणा से व्याकुल होकर वे रोवें और कहें, ऐसा काम अब मैं न करूँगी । केवल हरिनाम करने से क्या ? हृदय से व्याकुल होकर रोना चाहिए ।' ”

"The mother of a certain Mallick, who belonged to a very noble family, asked me if prostitutes would ever be saved. She herself had led that kind of life; that is why she asked the question. I said: 'Yes, they too will be saved, if only they cry to God with a yearning heart and promise not to repeat their sins.' What will the mere chanting of Hari's name accomplish? One must weep sincerely."

“অমুক মল্লিকের মা, খুব বড় মানুষের ঘরের মেয়ে! বেশ্যাদের কথায় জিজ্ঞাসা করলে, ওদের কি কোন মতে উদ্ধার হবে না? নিজে আগে আগে অনেকরকম করেছে কি না! তাই জিজ্ঞাসা করলে। আমি বললুম, হাঁ, হবে — যদি আন্তরিক ব্যাকুল হয়ে কাঁদে, আর বলে আর করবো না। শুধু হরিনাম করলে কি হবে, আন্তরিক কাঁদতে হবে!”

(३)

*कीर्तनानन्द में श्रीरामकृष्ण*

अब ढोल-करताल लेकर कीर्तनिया संकीर्तन कर रहा है –

कि देखिलाम रे, केशव भारतीर कुटिरे ,  

अपरूप ज्योतिः श्री गौरांग मूर्ति,

दूनयने प्रेम बहे शतधारे।  

गौर मतमातङ्गेर प्राय, प्रेमावेशे नाचे गाय,    

कभू धराते लूठाय, नयनजले भासे रे ,  

काँदे आर बोले हरि, स्वर्ग -मर्त्य भेद कोरि, सिंहरवे रे,      

आबार दन्ते तृण लोय कृताञ्जलिः होय ,

दास्य मुक्ति याचने द्वारे द्वारे।। 

किबा मुड़ाये चाँदेर केश , धरेछेन योगीर वेश ,

देखे भक्ति प्रेमावेश , प्राण केन्दे उठे रे। 

जीबेर दुःखे कातर होय, ऐलेन सरस्व त्यजिये,   

प्रेम बिलाते रे , 

प्रेमदासेर बांछा मने , श्रीचैतन्य चरनेर,

दास होय बेड़ाई द्वारे द्वारे।।   

(भावार्थ) "मैंने यह क्या देखा ! केशव भारती की कुटी में, एक अपूर्व ज्योति - श्रीगौरांग की मूर्ति मैंने देखी ! उनके दोनों नेत्रों से शत शत धाराओं में प्रेम बह रहा है ।...(गौर तो ईश्वर प्रेम में लगभग उन्मत्त होकर नाचते और गाते हैं, कभी तो आँखों में अश्रु भरकर भूमि पर लोटते हैं, रोते हुए भी सिंहनाद करके जब हरि नाम करते हैं पृथ्वीलोक -स्वर्गलोक का एक कर देते हैं। घुंघराले बालों को मुड़ाकर योगी का वेश धारण किया है, उनकी भक्ति और प्रेमावेश को देखकर प्राण रोते हैं, जीवों के दुःख से कातर होकर , अपना सर्वस्व त्याग कर प्रेम में लीन हैं। प्रेमदास की यही मनोकामना है कि श्रीचैतन्य के श्रीचरणों का दास बनकर द्वार-द्वार जाएँ और इस भक्ति का प्रचार करें। ) 

এইবার খোল-করতাল লইয়া সংকীর্তন হইতেছে। কীর্তনিয়া গাহিতেছেন:

কি দেখিলাম রে, কেশব ভারতীর কুটিরে,

অপরূপ জ্যোতিঃ, শ্রীগৌরাঙ্গ মূরতি,

দুনয়নে প্রেম বহে শতধারে।

গৌর মত্তমাতঙ্গের প্রায়, প্রেমাবেশে নাচে গায়,

কভু ধরাতে লুঠায়, নয়নজলে ভাসে রে,

কাঁদে আর বলে হরি, স্বর্গ-মর্ত্য ভেদ করি, সিংহরবে রে,

আবার দন্তে তৃণ লয়ে কৃতাঞ্জলি হয়ে,

দাস্য মুক্তি যাচেন দ্বারে দ্বারে ৷৷

কিবা মুড়ায়ে চাঁচর কেশ, ধরেছেন যোগীর বেশ,

দেখে ভক্তি প্রেমাবেশ, প্রাণ কেঁদে উঠে রে।

জীবের দুঃখে কাতর হয়ে, এলেন সর্বস্ব ত্যজিয়ে,

        প্রেম বিলাতে রে,

প্রেমদাসের বাঞ্ছা মনে, শ্রীচৈতন্যচরণে,

দাস হয়ে বেড়াই দ্বারে দ্বারে ৷৷

The kirtan began to the accompaniment of drums and cymbals. The singer was a professional. He sang about Sri Gauranga's *^ initiation as a monk by Keshab Bharati: " Oh, what a vision I have beheld in Keshab Bharati's hut! Gora, in all his matchless grace, Shedding tears in a thousand streams! . . .

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🔱 🙏श्री गौरांग-कीर्तन🔱 🙏 

चैतन्य महाप्रभु [1486-1534] की संक्षिप्त जीवनी : श्रीगौरांग या चैतन्य महाप्रभु का जन्म 18 फरवरी 1486 ईस्वी में आधुनिक पश्चिम बंगाल के नादिया नामक स्थान पर हुआ था।  बंगाल में उनके जन्म स्थान को अव मायापुर के नाम से जाना जाता है। चैतन्य प्रभु के माता का नाम सचि देवी और पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र था।  चैतन्य चरितामृत के अनुसार उनका जन्म सिंह लग्न में फाल्गुन मास के पूर्णिमा के दिन हुआ था। भगवान श्री कृष्ण को राधा जी ने एक बार कहा था। आप एक बार राधा बनकर देखो तब हमारी विरह वेदना तुम्हें समझ आएगी।तब भगवान श्री कृष्ण ने राधा को बचन दिया था की ठीक हैं, कलयुग में हम जन्म लेंगे। उस बक्त शरीर तो कृष्ण का होगा लेकिन मन राधा की होगी। मात्र 16 वर्ष की उम्र में Sri Chaitanya Mahaprabhu का विवाह वल्लभाचार्य की कन्या लक्ष्मीप्रिया के साथ सम्पन हुआ। कहते हैं की उनकी पत्नी लक्ष्मीप्रिया की सर्पदंश से मृत्यु हो गई।अपनी माता के आग्रह पर उनका दूसरा विवाह सनातन मिश्र की कन्या विष्णुप्रिया के साथ हुआ। 

       चैतन्य महाप्रभु (Chaitanya Mahaprabhu) के बचपन का नाम 'निमाई' था। अपने पिता के मृत्यु के बाद उनके पिंड दान के लिए बिहार के गया जी आये। उन्होंने बिहार के गया में ईश्वरपुरी को अपना प्रथम गुरु बनाया तथा उनसे दीक्षा प्राप्त की।  गुरु ईश्वरपुरी से प्रेरणा स्वरूप ही उनके अंदर श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भावना प्रकट हुई। निमाई पण्डित को मन्त्र-दीक्षा देकर श्रीईश्वरपुरी किधर और कहाँ चले गये, इसका अन्त तक किसी को पता नहीं चला। उन्होंने सोचा होगा, जगत-पूज्य प्रेमावतार लोक-शिक्षा के निमित्त गुरु मानकर हमें प्रणाम करेंगे, यह हमारे लिये अहसनीय होगा, इसलिये अब इस संसार में प्रकट रूप से नहीं रहना चाहिये। इसीलिये वे उसी समय अन्तर्धान हो गये।  चौबीस वर्ष की अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ने गृहस्थाश्रम का त्याग करके  केशव भारती से सन्यास की दीक्षा ग्रहण की। सन 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए।

      चैतन्य महाप्रभु वैष्णव संप्रदाय से जुड़े थे। लेकिन उनके दृष्टि में सभी धर्म बराबर हैं वे सभी धर्मों का आदर करते थे। उन्होंने ऊंच-नीच और जाती पाती का भेद भाव कीये बिना एकता और सद्भावना पर जोर दिया।  चैतन्य महाप्रभु के सिद्धान्त हैं -" हरि-नाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा।"  श्री महाप्रभु चैतन्य के जीवन का मात्र लक्ष्य लोगों में श्री कृष्ण भक्ति और संकीर्तन का प्रसार-प्रचार करना था।  उन्होंने हरिनाम संकीर्तन के द्वारा कृष्ण की भक्ति के प्रचार के लिए अद्वैताचार्य, नित्यानंद प्रभु, रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को लगाया। जिन्होंने समस्त भारत के सुदूर गाँव तक इसका प्रचार किया। तत्पश्चात चैतन्य महाप्रभु ओडिसा चले गये। जहॉं कहते हैं की लगातार 12 वर्षों तक उन्होंने भगवान जगन्नाथ की भक्ति और आराधना की। चैतन्य प्रभु का अंतिम समय वृंदावन में बीता। चैतन्य प्रभु सन 1515 ईस्वी में वृंदावन आए और यहॉं कुछ वर्षों तक कृष्ण भक्ति में बिताया। कहते हैं की 14 जून 1534 ईस्वी में जगन्नाथपुरी में रथ यात्रा के दिन उन्होंने अपने शरीर को त्याग दिया। 

🙏अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ [ISKCON-इस्कॉन🙏 (International Society for Krishna Consciousness.] को "हरे कृष्ण आन्दोलन" (Hare Krishna Movement) के नाम से भी जाना जाता है। 1966 में न्यू यॉर्क सिटी में कृष्ण भक्ति में लीन इस अंतरराष्ट्रीय सोसायटी की स्थापना भक्तिवेदान्त स्वामी श्री ल प्रभुपाद ने किया था।  उन्होंने चैतन्य महाप्रभु के  कृष्ण के प्रति भक्ति धारा और वैष्णव मत का सुदूर पश्चिमी देशों तक प्रसार किया।  इस्कॉन के अनुयायी विश्व में श्रीमद्भगवत गीता एवं हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का प्रचार-प्रसार करते हैं। भारत से बाहर विदेशों में हजारों महिलाओं को साड़ी पहने चंदन की बिंदी लगाए व पुरुषों को धोती कुर्ता और गले में तुलसी की माला पहने देखा जा सकता है। लाखों विदेशियों ने Nonveg तो क्या चाय, कॉफी, प्याज, लहसुन जैसे तामसी पदार्थों का सेवन छोड़कर शाकाहार शुरू कर दिया है। वे लगातार ‘हरे राम-हरे कृष्ण’ का कीर्तन भी करते रहते हैं। गुरू- भक्ति सिद्धांत सरस्वती गोस्वामी ने प्रभुपाद महाराज से कहा तुम युवा हो, तेजस्वी हो, कृष्ण भक्ति का विदेश में प्रचार-प्रसार करो। आदेश का पालन करने के लिए उन्होंने 59  वर्ष की आयु में संन्यास ले लिया और गुरु आज्ञा पूर्ण करने का प्रयास करने लगे। अपने साधारण नियम और सभी जाति-धर्म के प्रति समभाव के चलते इस मंदिर के अनुयायीयों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। हर वह व्यक्ति जो कृष्ण में लीन होना चाहता है, उनका यह मंदिर स्वागत करता है। इस समय देश-विदेश में इस्कॉन समूह के अनेक मंदिर और विद्यालय है। उनके जन्म स्थल बंगाल के मायापुर में एक विशाल और भव्य मंदिर का निर्माण किया गया है। 

[https://radhekrishnaworld.com/category/chaitnya-charitra/][https://radhekrishnaworld.com/category/chaitnya-charitra/][https://hindutv.wordpress.com/tag/]

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अब कीर्तनिया श्रीकृष्ण के विरह की मारी गोपियों का वर्णन कर रहा है । व्रज की गोपियाँ माधवी कुंजों में श्रीकृष्ण को खोज रही है--

अरी माधवी (वसंत में खिलने वाली लता) ! 

मेरे माधव (श्री कृष्ण का एक नाम) को दे ! (दे दे दे , माधव दे !)  

मेरे माधव को मुझे लौटा दे, और मुझे मुफ्त में अपनी दासी बना ले।  

मछली का जीवन जैसे जल है , मेरे जीवन आधार वैसे माधव हैं।   

अरी माधवी ! (मुझे अबला सरला देखकर)  तुमने ही

 मेरे माधव को अपने कुञ्ज में छिपा लिया है।  

माधवी, अरी माधवी , माधव के बिना, माधव का दर्शन न हो 

तो मैं जीवित कैसे रहूं !  अब मैं बचूंगी नहीं, नहीं बचूंगी।

 (दे दे दे , माधव दे !........ )  

"री माधवी ! मेरे माधव को मुझे लौटा दे ! मेरे माधव को मुझे देकर, बिना दामों ही तू मुझे खरीद ले । जल जिस तरह मछलियों का जीवन है, उसी तरह माधव भी मेरे जीवन हैं । ....” श्रीरामकृष्ण को गाना सुनते सुनते भावावेश हो रहा है ।

ঠাকুর গান শুনিতে শুনিতে ভাবাবিষ্ট হইয়াছেন। কীর্তনীয়া শ্রীকৃষ্ণবিরহবিধুরা ব্রজগোপীর অবস্থা বর্ণনা করিতেছেন।

ব্রজগোপী মাধবীকুঞ্জে মাধবের অন্বেষণ করিতেছেন —

রে মাধবী! আমার মাধব দে!

(দে দে দে, মাধব দে!)

আমার মাধব আমায় দে, দিয়ে বিনামূল্যে কিনে নে।

মীনের জীবন, জীবন যেমন, আমার জীবন মাধব তেমন।

(তুই লুকাইয়ে রেখেছিস, ও মাধবী!)

(অবলা সরলা পেয়ে!) (আমি বাঁচি না, বাঁচি না)

(মাধবী, ও মাধবী, মাধব বিনে) (মাধব অদর্শনে)।

Sri Ramakrishna went into ecstasy when he heard the song. The musician sang again, describing the suffering of a milkmaid of Vrindavan at her separation from Sri Krishna. She was seeking her Krishna in the madhavi (A spring creeper with fragrant flowers) bower: " O madhavi, give me back my Sweet One! Give me, give me back my Sweet One! Give Him back, for He Is mine, And make me your slave for ever. He is my life, as water is to the fish; O madhavi, you have hidden Him in your bosom! I am a simple, guileless girl, And you have stolen my Beloved. O madhavi, I die for my Sweet One; I cannot hear to live without Him. Without my Madhava (A name of Krishna.) I shall die; Oh, give Him, give Him back to me!

श्रीरामकृष्ण बीच में तत्काल जोड़ रहे हैं - “मथुरा कितनी दूर है - जहाँ मेरा प्राणवल्लभ है ?"

[बीच बीच में ताल दे रहे हैं - 'मथुरा' रूपी मेरा ह्रदय कितनी दूर है (देश-काल से परे) ? जहाँ मेरे प्राणों के आधार (आत्मा के परमप्रिय) श्री कृष्ण रहते हैं ?/ 'अयोध्या' रूपी मेरा ह्रदय कितनी दूर है ? जहाँ मेरे प्राणों के आधार (आत्मा की शक्ति काअवतार) श्री राम रहते हैं ?/ 'कामारपुकुर' रूपी मेरा ह्रदय कितनी दूर है ? जहाँ मेरे प्राणों के आधार (मेरी आत्मा के महबूब  परमप्रिय, Beloved) श्री रामकृष्ण रहते हैं ?]

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মাঝে মাঝে আখর দিতেছেন, —(সে মথুরা কতদূর! যেখানে আমার প্রাণবল্লভ!)

Now and then Sri Ramakrishna sang with the musicians, improvising lines: 'How far from here is Mathura, Where dwells the Beloved of my soul?

श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हैं, देह निश्चल हो रही है । बड़ी देर से स्थिर हैं ।

ঠাকুর সমাধিস্থ! স্পন্দহীন দেহ! অনেকক্ষণ স্থির রহিয়াছেন।

Sri Ramakrishna went into samadhi. His body was motionless. He remained in that state a long time.

कुछ देर बाद उनकी प्राकृत अवस्था हुई । परन्तु भावावेश अब भी है । इसी अवस्था में भक्तों की बात कह रहे हैं । बीच-बीच में माता से बातचीत भी कर रहे हैं ।

ঠাকুর কিঞ্চিৎ প্রকৃতিস্থ; কিন্তু এখনও ভাবাবিষ্ট। এই অবস্থায় ভক্তদের কথা বলিতেছেন। মাঝে মাঝে মার সঙ্গে কথা কহিতেছেন।

Gradually he came down to the consciousness of the outer world. Still in a spiritual mood, he began to talk, sometimes addressing the devotees, sometimes the Divine Mother.

श्रीरामकृष्ण (भावस्थ) - माँ, उसे अपनी ओर खींच लो, मैं अब अधिक उसकी चिन्ता नहीं कर सकता । (मास्टर से) मेरा मन तुम्हारे सम्बन्धी * की ओर कुछ खिंचा हुआ है ।

[सम्बन्धी * द्विज ([Dwij Sen) श्री रामकृष्ण वचनामृत के लेखक 'श्री म' के साला (सम्बन्धी)  थे। श्री श्री ठाकुर से उनकी पहली मुलाकात 1884 ई. में हुई थी। द्विज के पिता को उनके दक्षिणेश्वर में ठाकुर से मिलनेजुलने पर घोर आपत्ति थी। उनके पिता जब ठाकुर देव के पास उनकी शिकायत करने आये तब ठाकुर ने उन्हें मीठी जुबान में समझाया कि आध्यात्मिक पुत्र होना तो पिता के पुण्यकर्मों की निशानी है। ठाकुर ने उसकी प्रसंशा करते हुए कहा कि 'इस लड़के में यहाँ के प्रति जो समर्पण और भक्ति है वे उसके पूर्वजन्म के अच्छे संस्कारों के कारण है। ठाकुर ने द्विज की आध्यात्मिक प्रगति होने उल्लेख मास्टर महाशय से भी किया था। ]

শ্রীরামকৃষ্ণ (ভাবস্থ) — মা! তাকে টেনে নিও, আমি আর ভাবতে পারি না! (মাস্টারের প্রতি) তোমার সম্বন্ধী — তার দিকে একটু মন আছে।

MASTER: "Mother, please attract him to Thee. I can't worry about him any more. (To M.) My mind is inclined a little to your brother-in-law.

[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ]

  🙏🙏अन्तःकरण (अहं) की उपाधि का नाश 🙏 🙏

(गिरीश के प्रति) – “तुम गाली-गलौज बहुत करते हो, खैर, यह सब निकल जाना ही अच्छा है । किसी किसी को रक्तदोष का रोग भी होता है । उसका दूषित रक्त जितना ही बाहर निकल जाय, उतना ही अच्छा है । “उपाधि-नाश ">> के समय में ही शब्द होता है । काठ जलते समय चटाचट शब्द होता है । सब जल जाने पर फिर शब्द नहीं होता ।

(গিরিশের প্রতি) — “তুমি গালাগাল, খারাপ কথা, অনেক বল; তা হউক ওসব বেরিয়ে যাওয়াই ভাল। বদরক্ত রোগ কারু কারুর আছে। যত বেরিয়ে যায় ততই ভাল। “উপাধি নাশের সময়ই শব্দ হয়। কাঠ পোড়াবার সময় চড়চড় শব্দ করে। সব পুড়ে গেলে আর শব্দ থাকে না।

(To Girish) "You utter many abusive and vulgar words; but that doesn't matter. It is better for these things to come out. There are some people who fall ill on account of blood-poisoning; the more the poisoned blood finds an outlet, the better it is for them. At the time when the upadhi of a man is being destroyed, it makes a loud noise, as it were. Wood crackles when it burns; there is no more noise when the burning is over.

(गिरीश के प्रति) – “तुम दिन पर दिन शुद्ध होओगे । दिन-दिन तुम्हारी खूब उन्नति होगी । लोगों को देखकर आश्चर्य होगा । मैं अधिक न आ सकूँगा, पर इससे क्या, तुम्हारी ऐसे ही बन जायेगी ।"

“তুমি দিন দিন শুদ্ধ হবে। তোমার দিন দিন খুব উন্নতি হবে। লোকে দেখে অবাক্‌ হবে। আমি বেশি আসতে পারবো না, — তা হউক, তোমার এমনিই হবে।”

"You will be purer day by day. You will improve very much day by day. People will marvel at you. "I may not come many more times; but that doesn't matter. You will succeed by yourself."

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🔱“उपाधि-नाश "🔱

🔱 🙏 साण्डिल्य भक्तिसूत्र : आत्मज्ञान हो जाने से मुक्ति नहीं🔱 🙏

" गुण स्फटिक को जो अहै वही दोष को हेत। 

तैसे स्वाश्रय आत्मा निर्मल भी मल लेत।। 

जीवों का ब्रह्मभावपन्न होना ही मुक्ति है। जीव ब्रह्म से अत्यंत अभिन्न है। उनका आवागमन स्वाभाविक नहीं है; किंतु जावाकुसुम के सानिध्य से स्फटिकमणि की लालीमा के समान अंतः करण (अहं) की उपाधि से ही होता है। किंतु केवल औपाधिक होने के कारण ही वह ज्ञान से नहीं मिटाया जा सकता, उसकी निवृत्ति तो उपाधि (M/Fआकृति को मैं समझना) और उपाधेय इन दोनों में से किसी एक की निवृत्ति से या संबंध टूट जाने से ही हो सकती है। चाहे जितना ऊँचा ज्ञान हो किंतु जैसे स्फटिक-मणि और जावाकुसुम का सानिध्य रहते लालीमा की निवृत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही जब तक अंतःकरण (अहं) है, तब तक न तो उपाधि और उपाधेय का संबंध छुड़ाया जा सकता है। और न आवागमन से ही जीव को बचाया जा सकता है। अतः उपाधि के नाश से ही भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, आत्मज्ञान से नहीं। और उपाधि नाश के लिए भगवत भक्ति से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। भक्ति क्या है, इसे बताते हुए वे अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं- 'सा परानुरक्तिरीश्वरे' भगवान में परम अनुराग ही भक्ति है अर्थात भगवान के साथ अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है।  (शांडिल्य सूत्र) इस अनुराग से ही जीव भगवन्मय हो जाता है, उसका अंत:करण (मिथ्या अहं) अंत:करण रूप में पृथक न रहकर भगवान में समा जाता है यही मुक्ति है। (अर्थात अवतार वरिष्ठ CINC को पहचानकर उनके साथ या माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में रूपांतरित हो जाता है यही मुक्ति है।) 

साभार https://www.bhaktigyans.com/shandilya-rishi-ki-katha]

गीता (13.15) में ब्रह्मभावोपलब्धि के लिए यही उपाय भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है। 

सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।

असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।

[सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् असक्तं सर्वभृत् च एव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥ 

---वे (परमात्मा-भगवान श्रीराकृष्ण देव) समस्त इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के  गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाले हैं, आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सबके भरण-पोषण करने वाले और गुणों के भोक्ता हैं ।  

{ 🔱[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ] 🔱 सृष्टि -प्रलय प्रक्रिया : अनुलोम (involution-enfolding) और विलोम (evolution-unfolding) की प्रक्रिया 🔱 “सब तत्त्व अन्त में आकाश-तत्त्व में लीन हो जाते हैं । सृष्टि के समय आकाश-तत्त्व से महत्-तत्त्व, महत्-तत्त्व से अहंकार, ये सब (world-system) क्रमशः तैयार हुए हैं । अनुलोम और विलोम । भक्त इन सब को मानते हैं । भक्त अखण्ड सच्चिदानन्द को भी मानते हैं और जीव-जगत् को भी।

"All elements finally merge in akasa. Again, at the time of creation, akasa evolves into mahat and mahat into ahamkara. In this way the whole world-system is evolved. It is the process of involution and evolution. A devotee of God accepts everything. He accepts the universe and its created beings as well as the indivisible Satchidananda.

🔆 'योगी और माँ काली के अवतार वरिष्ठ का भक्त' ~ के बीच अंतर  🔆  

“परन्तु योगी का मार्ग अलग है । वह परमात्मा (Supreme Soul-अखण्ड सच्चिदानन्द) में पहुँचकर फिर वहाँ से नहीं लौटता ! उसी परमात्मा से युक्त हो जाता है ।  “थोड़े के भीतर जो ईश्वर को देखता है, उसे खण्ड ज्ञानी- 'partial knower'  कहते हैं ।  वह सोचता है, उसके परे और उनकी सत्ता नहीं है ।  लेकिन माँ काली के (अवतार वरिष्ठ के) भक्त का मार्ग अलग है !! मां का भक्त (नेता-CINC) मन की सीमा के पार, अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँचकर फिर वापस उतर आता है!! 

 "But the yogi's path is different. He does not come back after reaching the Paramatman, the Supreme Soul. He becomes united with It.  "The 'partial knower' limits God to one object only. He thinks that God cannot exist in anything beyond that.  But the path of a devotee of Maa Kali is different!! The devotee of Mother (Leader-CINC-Navanida) reaches beyond the limit of mind, reaches Akhand Sachchidananda and comes back again!!]

Swami Vivekananda

[नरेन्द्रनाथ के पास न तो धर्म संसद में जाने के लिए परिचय पत्र था और ना ही वे मान्यता प्राप्त वक्ता थे। एक अमेरिकन भक्त प्रो. राइट ने वहां का सारा प्रबन्ध करवाया। लेकिन जब वे शिकागो पंहुचे तो सारे कागजात कहीं खो गए। शिकागो तो पहुंच गए लेकिन उन्हें ये नहीं मालूम था कि उन्हें जाना कहां है। दो दिन तक इधर उधर भटकते रहे;....श्रीमती हेल से मुलाकात हुई। उन्होंने विवेकानंद (Swami Vivekananda) की मदद की। उनकी मदद से विवेकानंद धर्म संसद में पंहुचने में कामयाब हुए। धर्म संसद में उनका हिन्दू धर्म पर दिया व्याख्यान अमर हो गया। पूरे विश्व में हिन्दू धर्म की पहचान बनी। श्रोता उनकी वाणी सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए।] 

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[(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ]

🔱 🙏नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) मरे को नहीं मारता 🔱 🙏 

श्रीरामकृष्ण का भाव और भी गहरा होने लगा । फिर माता के साथ बातचीत कर रहे हैं, "माँ, जो खुद अच्छा है, उसे अच्छा करना कौनसी बड़ी बात है ? माँ, मरे को मारकर क्या होगा ? जो पैर जमाये खड़ा है, उसे अगर मार सको तो तुम्हारी महिमा है ।”

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ভাব আবার ঘনীভূত হইতেছে। আবার মার সঙ্গে কথা কহিতেছেন, “মা! যে ভাল আছে তাকে ভাল করতে যাওয়া কি বাহাদুরি? মা! মরাকে মেরে কি হবে? যে খাড়া হয়ে রয়েছে তাকে মারলে তবে তো তোমার মহিমা!”

The Master's spiritual mood became very intense. Again he talked to the Divine Mother. MASTER: "Mother, what credit is there in making a man good who is already good? O Mother, what wilt Thou accomplish by killing one who is already dead? Only if Thou canst kill a person who is still standing erect wilt Thou show Thy glory."

श्रीरामकृष्ण कुछ स्थिर होकर कुछ उँचे स्वर में कह रहे हैं, "मैं दक्षिणेश्वर से आ रहा हूँ, माँ, मैं अब जाता हूँ ।" मानो एक छोटा लड़का दूर से माता की आवाज सुनकर जवाब दे रहा है । श्रीरामकृष्ण की देह फिर निःस्पन्द हो गयी, समाधिमग्न होकर बैठे हुए हैं । भक्तगण अनिमेष लोचनों से चुपचाप देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण भावावेश में फिर कह रहे हैं - "मैं अब पूड़ी न खाऊँगा ।” यह सुनकर पड़ोस के दो-एक (वैष्णव) गोस्वामी आये थे, वे चले गये ।

ঠাকুর কিঞ্চিৎ স্থির হইয়া হঠাৎ একটু উচ্চৈঃস্বরে বলিতেছেন — “আমি দক্ষিণেশ্বর থেকে এসেছি। যাচ্ছি গো মা!” যেন একটি ছোট ছেলে দূর হইতে মার ডাক শুনিয়া উত্তর দিতেছে! ঠাকুর আবার নিস্পন্দ দেহ, সমাধিস্থ বসিয়া আছেন। ভক্তেরা অনিমেষলোচনে নিঃশব্দে দেখিতেছেন। ঠাকুর ভাবে আবার বলছেন, “আমি লুচি আর খাব না।”পাড়া হইতে দুই-একটি গোস্বামী আসিয়াছিলেন — তাঁহারা উঠিয়া গেলেন।

Sri Ramakrishna remained silent a few moments. Suddenly he said in a slightly raised voice: "I have come from Dakshineswar. I am going, Mother!" It was as if a child had heard the call of its mother from a distance and was responding to it. He again became motionless, absorbed in samadhi. The devotees looked at him with unwinking eyes. Still in an ecstatic mood he said, "I shall not eat any more luchi." At this point a few Vaishnava priests, who had come from the neighbourhood, left the place.

(४)

*भक्तों के संग में*

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ आनन्दपूर्वक वार्तालाप कर रहे हैं । चैत का महीना, गरमी जोरों की पड़ रही है । देवेन्द्र कुल्फीबरफ बनवाकर श्रीरामकृष्ण और भक्तों को दे रहे हैं । भक्तों को कुल्फी खाकर प्रसन्नता हो रही है । मणि धीरे धीरे कह रहे हैं - 'Encore ! Encore !’ (अर्थात् कुल्फी एक बार और-एकबार और !) । सब लोग हँस रहे हैं । कुल्फी देखकर श्रीरामकृष्ण को बिलकुल बच्चे की तरह आनन्द हो रहा है ।

ঠাকুর ভক্তসঙ্গে আনন্দে কথাবার্তা কহিতেছেন। চৈত্র মাস, বড় গরম! দেবেন্দ্র কুলপি বরফ তৈয়ার করিয়াছেন। ঠাকুরকে ও ভক্তেদর খাওয়াইতেছেন। ভক্তরাও কুলপি খাইয়া আনন্দ করিতেছেন। মণি আস্তে আস্তে বলছেন, ‘এন্‌কোর! এন্‌কোর!’ (অর্থাৎ আরও কুলপি দাও) ও সকলে হাসিতেছেন। কুলপি দেখিয়া ঠাকুরের ঠিক বালকের ন্যায় আনন্দ হইতেছে।

Sri Ramakrishna began to talk with his devotees in a very joyous spirit. It was the month of April and the day was very sultry. Devendra had made ice-cream. He offered it to the Master and the devotees. M. said in a low voice, "Encore! Encore!" The devotees laughed. At the sight of the ice-cream Sri Ramakrishna was happy as a child.

श्रीरामकृष्ण - कीर्तन तो बड़ा अच्छा हुआ । गोपियों की दशा का वर्णन अच्छा किया, - 'री माधवी! मेरे माधव को दे ।' यह गोपियों के प्रेमोन्माद की अवस्था है । कितना आश्चर्य है ! कृष्ण के लिए सब पागल हो रही थीं ।

শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ কীর্তন হল! গোপীদের অবস্থা বেশ বললে — ‘রে মাধবী, আমার মাধব দে।’ গোপীদের প্রেমোন্মাদের অবস্থা। কি আশ্চর্য! কৃষ্ণের জন্য পাগল!

MASTER: "The kirtan was very nice. The song described beautifully the gopis' state of mind: 'O madhavi, give me back my Sweet One!' The milk-maids of Vrindavan were drunk with ecstatic love for Krishna. How wonderful! Mad for Krishna!"

एक भक्त एक दूसरे की ओर इशारा करके कह रहे हैं, “इनका सखीभाव है – गोपीभाव ।” राम ने कहा, “इनके भीतर दोनों भाव हैं । मधुरभाव भी है और ज्ञान का कठोर भाव भी है ।"

একজন ভক্ত আর একজনকে দেখাইয়া বলিতেছেন — এঁর সখীভাব — গোপীভাব। রাম বলিতেছেন — এঁর ভিতর দুইই আছে। মধুরভাব আবার জ্ঞানের কঠোর ভাবও আছে।

A devotee, pointing to another devotee, said, "He has the attitude of the gopis."RAM: "No, he has both — the attitude of tender love and the attitude of austere knowledge."

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी , क्या बातें चल रहीं हैं ?

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি গা?MASTER: "What is it you are talking about?"

श्रीरामकृष्ण अब सुरेन्द्र की बातचीत करने लगे ।

Sri Ramakrishna inquired about Surendra.

ঠাকুর এইবার সুরেন্দ্রের কথা কহিতেছেন।

राम - मैंने खबर भेजी थी, परन्तु नहीं आया, न जाने क्यों ?

RAM: "I sent him word, but he hasn't come."

রাম — আমি খবর দিছলাম, কই এলো না।

श्रीरामकृष्ण - काम से लौटने पर थक जाता है ।

MASTER: "He gets very tired from his heavy office-work."

শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্ম থেকে এসে আর পারে না।

एक भक्त - रामबाबू आपकी बात लिख रहे हैं ।

A DEVOTEE: "Ram Babu has been writing about you."

একজন ভক্ত — রামবাবু আপনার কথা লিখছেন।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - क्या लिखा है ?

MASTER (smiling): "What is he writing?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — কি লিখেছে?

भक्त - 'परमहंस की भक्ति' विषय पर उन्होंने लिखा है ।

DEVOTEE: "He is writing an article on 'The Bhakti of the Paramahamsa'."

ভক্ত — পরমহংসের ভক্তি — এই বলে একটি বিষয় লিখছেন — ।

श्रीरामकृष्ण - तो फिर क्या, राम की खूब प्रसिद्धि होगी ।

MASTER: "Good! That will make Ram famous."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে আর কি, রামের খুব নাম হবে।

गिरीश (सहास्य) - इसलिए कि वह आपका चेला है ?

GIRISH (smiling): "He says he is your disciple."

গিরিশ (সহাস্যে) — সে আপনার চেলা বলে।

श्रीरामकृष्ण - `मेरे चेला-वेला कोई नहीं, मैं तो राम का दासानुदास हूँ ।'

MASTER: "I have no disciple. I am the servant of the servant of Rama."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার চেলা-টেলা নাই। আমি রামের দাসানুদাস।

पड़ोस के कोई कोई आये थे, परन्तु उन्हें देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता नहीं हुए । श्रीरामकृष्ण ने एक बार कहा, "यह कैसा मुहल्ला है ? यहाँ देखता हूँ, कोई नहीं है ।

Some people of the neighbourhood had dropped in; but they did not please the Master. He said: "What sort of place is this? I don't find a single pious soul here."

পাড়ার লোকেরা কেহ কেহ আসিয়াছিলেন। কিন্তু তাহাদের দেখিয়া ঠাকুরের আনন্দ হয় নাই। ঠাকুর একবার বলিলেন, “এ কি পাড়া! আখানে দেখছি কেউ নাই।”

 [(  6 अप्रैल 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-111 ]

🔱🙏'सरल -ईश्वर' को सरल हुए बिना पहचाना नहीं जा सकता 🔱🙏

[सहज मानुष ना होले 'सहज' के ना जाय चेना। 

"সহজ মানুষ না হলে সজকে না যায় চেনা।]

 ['Simple-God' cannot be recognized without being simple.]    

देवेन्द्र अब श्रीरामकृष्ण को कमरे के अन्दर लिये जा रहे हैं । वहाँ श्रीरामकृष्ण के जलपान का बन्दोबस्त किया गया है । श्रीरामकृष्ण भीतर गये । श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक घर के भीतर से वापस आये और बैठकखाने में फिर बैठे । भक्तगण पास बैठे हुए हैं । उपेन्द्र * और अक्षय * श्रीरामकृष्ण की दोनों ओर बैठे हुए उनकी चरणसेवा कर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण देवेन्द्र के यहाँ की औरतों की बातें कह रहे हैं –"औरतें बड़ी अच्छी (सरल) हैं, देहात की हैं न ? बड़ी भक्ति है ।"

[उपेन्द्र*[Upen — Upendranath Mukhopadhyay (1868 - 1919)] -उपेंद्रनाथ 'साप्ताहिक वसुमती' और 'दैनिक वसुमती' के संस्थापक थे। 'वसुमती साहित्य मंदिर' की स्थापना के बाद कोलकाता के प्रसिद्ध प्रकाशक बने थे। अक्षय * अक्षय कुमार सेन [Akshay Kumar Sen (1858 - 1923)] — ^बाद में इन्होंने बंगाली भाषा में कविता के छन्दों में "श्रीश्री रामकृष्ण पूँथी" नामक श्री रामकृष्ण की जीवनी की रचना की थी।] 

Devendra took Sri Ramakrishna into the inner apartments and offered him refreshments. Afterwards the Master returned to the drawing-room with a happy face and took his seat. The devotees sat around him. Upendra4 and Akshay5 sat on either side of him and stroked his feet. The Master spoke highly of the women of Devendra's family, saying: "They are very nice. They come from the country; so they are very pious."

দেবেন্দ্র এইবার ঠাকুরকে বাড়ির ভিতর লইয়া যাইতেছেন। সেখানে ঠাকুরকে জল খাওয়াইবার হইয়াছে। ঠাকুর ভিতরে গেলেন। ঠাকুর সহাস্যবদনে বাড়ির ভিতর হইতে ফিরিয়া আসিলেন ও আবার বৈঠকখানায় উপবিষ্ট হইলেন। ভক্তেরা কাছে বসিয়া আছেন। উপেন্দ্র১ ও অক্ষয়২ ঠাকুরের দুই পার্শ্বে বসিয়া পদসেবা করিতেছেন। ঠাকুর দেবেন্দ্রের বাড়ির মেয়েদের কথা বলিতেছেন — “বেশ মেয়েরা, পাড়াগেঁয়ে মেয়ে কি না। খুব ভক্তি!”

फिर वे अपने आप में मस्त होकर गाने लगे । 

`सहज मानुष ना होले सहज के ना जाय चेना।' 

(भावार्थ) - "आदमी जब तक सहज (सीधा) नहीं हो जाता तब तक सहज वह (अवतार वरिष्ठ) को पहचान नहीं सकता ।"

গান - সহজ মানুষ না হলে সজকে না যায় চেনা।

Unless a man is simple, he cannot recognize God, the Simple One. . . .


दरवेश  दॉँड़ारे , साधेर करया किस्तीधारी।  

दॉँड़ारे , ओ तोर भाव (रूप) नेहारी।। 

(भावार्थ) - “ओ दरवेश ! तुम अपने हाथ में कमण्डल लेकर उधर खड़े हो जाओ , और मुझे अपना तेजोमय दीप्त चेहरा देखने दो !  

Again he sang: Stay your steps, O wandering monk! Stand there with begging-bowl in hand, And let me behold your radiant face. . . .

গান - দরবেশ দাঁড়ারে, সাধের করওয়া কিস্তিধারী। দাঁড়ারে, ও তোর ভাব (রূপ) নেহারি ৷৷

गान:  -ऐसेचेन एक भावेर फकीर। 

(ओ से) हिन्दूर ठाकुर , मुसलमानेर पीर।।   

(भावार्थ) - "एक ऐसे भाव का फकीर आया है जो हिन्दुओं का ठाकुरदेव और मुसलमानों का पीर है।"

গান - এসেছেন এক ভাবের ফকির। (ও সে) হিঁদুর ঠাকুর, মুসলমানর পীর ৷৷

Once more:A mendicant has come to us, ever absorbed in divine moods;Holy alike is he to Hindu and Mussalman. . . .

वे भला किस भाव से गा रहे हैं ? क्या अपनी अवस्था का स्मरण होकर उन्हें उल्लास हो रहा है ? क्या इसीलिए वे ये गाना गा रहे हैं ? 

ঠাকুর আত্মারাম? নিজের আনন্দে গান গাহিতেছেন! কি ভাবে গান গাহিতেছেন? নিজের অবস্থা স্মরণ করিয়া তাঁহার কি ভাবোল্লাস হইল? তাই কি গান কয়টি গাহিতেছেন?

गिरीश प्रणाम करके बिदा हो गये । श्रीरामकृष्ण ने भी गिरीश को नमस्कार किया ।देवेन्द्र आदि भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को गाड़ी पर चढ़ा दिया । देवेन्द्र ने बैठकखाने के दक्षिण ओर आँगन में आकर देखा, उनके मुहल्ले का एक आदमी उस समय भी तख्त पर पड़ा सो रहा था । उन्होंने उसे जगाया । आँखें मलते हुए उठकर उसने पूछा - "क्या श्रीरामकृष्णदेव आये ?" सब लोग ठहाका मारकर हँसने लगे । यह आदमी श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए उनसे पहले आया था । गरमी लगने के कारण, आँगन में तख्त पर चटाई बिछाकर आराम से सो गया था ।

Girish saluted the Master and took his leave. Devendra and the other devotees took the Master to his carriage. Seeing that one of his neighbours was sound asleep on a bench in the courtyard, Devendra woke him up. The neighbour rubbed his eyes and said, "Has the Paramahamsa come?" All burst into laughter. The man had come a long time before Sri Ramakrishna's arrival, and because of the heat had spread a mat on the bench, lain down, and gone sound asleep.

দেবেন্দ্র বৈঠকখানার দক্ষিণ উঠানে আসিয়া দেখেন যে, তক্তপোশের উপর তাঁহার পাড়ার একটি লোক এখনও নিদ্রিত রহিয়াছেন। তিনি বলিলেন, “উঠ, উঠ”। লোকটি চক্ষু মুছিতে মুছিতে উঠে বলছেন, “পরমহংসদেব কি এসেছেন?” সকলে হো-হো করিয়া হাসিতে লাগিলেন। লোকটি ঠাকুরের আসিবার আগে আসিয়াছিলেন, ঠাকুরকে দেখিবার জন্য। গরম বোধ হওয়াতে উঠানের তক্তপোশে মাদুর পাতিয়া নিদ্রাভিভূত হইঢাছেন।

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जा रहे हैं । गाड़ी पर मास्टर से आनन्दपूर्वक कह रहे हैं, "मैंने खूब कुल्फी खायी । तुम जब दक्षिणेश्वर आना तो चार-पाँच कुल्फियाँ लेते आना ।” श्रीरामकृष्ण मास्टर से फिर कह रहे हैं, "इस समय इन्हीं कुछ बालकों की ओर मन खिंचता है, - छोटे नरेन्द्र, पूर्ण और तुम्हारे सम्बन्धी की ओर ।"

 ঠাকুর দক্ষিণেশ্বরে যাইতেছেন। গাড়িতে মাস্টারকে আনন্দে বলিতেছেন — “খুব কুলপি খেয়েছি! তুমি (আমার জন্য) নিয়ে যেও গোটা চার-পাঁচ।” ঠাকুর আবার বলছেন, “এখন এই কটি ছোকরার উপর মন টানছে, — ছোট নরেন, পূর্ণ আর তোমার সম্বন্ধী।”

Sri Ramakrishna's carriage proceeded to Dakshineswar. He said to M. happily, "I have eaten a good deal of ice-cream; bring four or five cones for me when you come to Dakshineswar." Continuing, he said, "Now my mind is drawn to these few youngsters: the younger Naren, Purna, and your brother-in-law."

मास्टर - द्विज की ओर ?

M: "Do you mean Dwija?"

মাস্টার — দ্বিজ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं, द्विज तो है ही, उससे बड़ा जो है उसकी ओर ।

MASTER: "No, he is all right; I mean his elder brother."

শ্রীরামকৃষ্ণ — না, দ্বিজ তো আছে। তার বড়টির উপর মন যাচ্ছে।

मास्टर - अच्छा ।

श्रीरामकृष्ण आनन्द से गाड़ी पर जा रहे हैं ।

The carriage rolled on to the Kali temple at Dakshineswar.

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