*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}* साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ।
*परिच्छेद १३*
*केशवचन्द्र सेन के साथ श्रीरामकृष्ण का नौका विहार, आनन्द और वार्तालाप*
[ देव-देवियों की पूजा को पौत्तलिकता (गुड़ियों का खेल)
कहने वाले केशवचन्द्र सेन तथा श्री रामकृष्ण की समाधि। ]
(१)
*समाधि में*
आज शरत्-पूर्णिमा है । लक्ष्मीजी की पूजा है । शुक्रवार, 27 अक्टूबर 1882 । (IT WAS FRIDAY, the day of the Lakshmi Puja. Keshab Chandra Sen had arranged a boat trip on the Ganges for Sri Ramakrishna.)
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर के उसी पूर्व-परिचित कमरे में बैठे हैं । विजय गोस्वामी और हरलाल से बातचीत कर रहे हैं । एक आदमी ने आकर कहा, ‘केशव सेन जहाज पर चढ़कर घाट पर आए हैं ।’ केशव के शिष्यों ने प्रणाम करके कहा, ‘महाराज, जहाज आया है । आपको चलना होगा; चलिए, जरा घूम आइएगा । केशवबाबू जहाज में हैं, हमें भेजा है ।’
शाम के चार बज गए हैं । श्रीरामकृष्ण नाव पर होते हुए जहाज पर चढ़ रहे हैं । साथ विजय हैं । नाव पर चढ़ते ही बाह्यज्ञानरहित समाधिमग्न हो गए ।
{A small boat was to carry the Master to the steamer. No sooner did he get into the boat than he lost outer consciousness in samadhi. Vijay was with him.
मास्टर जहाज में खड़े खड़े यह समाधिचित्र देख रहे हैं । वे दिन के तीन बजे केशव के साथ जहाज पर चढ़कर कलकत्ते से आए हैं । बड़ी इच्छा है, श्रीरामकृष्ण और केशव का मिलन, उनका आनन्द देखेंगे और उनकी बातें सुनेंगे । केशव ने अपने साधुचरित्र और वक्तृता के बल से मास्टर जैसे अनेक वंगीय युवकों का मन हर लिया है । अनेकों ने उन्हें अपना परम आत्मीय जानकर अपने हृदय का प्रेम समर्पित कर दिया है । केशव अंग्रेजी जानते हैं, अंग्रेजी दर्शन और साहित्य जानते है, फिर बहुत बार देव-देवियों की पूजा को पौत्तलिकता (गुड़ियों का खेल) भी कहते हैं ।
इस प्रकार के व्यक्ति होकर भी श्रीरामकृष्ण को भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं । और बीच बीच में दर्शन करने आते हैं, यह बात अवश्य विस्मयजनक है । उनके मन का मेल कहाँ और किस प्रकार हुआ ?, यह रहस्य-भेद करने के लिए मास्टर आदि अनेकों को कौतूहल हुआ है।
श्रीरामकृष्ण निराकारवादी तो हैं, किन्तु साकारवादी भी हैं । ब्रह्म का चिन्तन करते हैं, और फिर देव-देवियों के सामने पुष्प-चन्दन से पूजा और प्रेम से मतवाले होकर नृत्यगीत भी करते हैं । खाट और बिछौने पर बैठते हैं, लाल धारीदार धोती, कुर्ता, मोजा, जूता पहनते है; परन्तु संसार से स्वतन्त्र हैं । सारे भाव संन्यासियों के से हैं, इसीलिए लोग परमहंस कहते हैं । इधर केशव निराकारवादी है; स्त्री-पुत्रवाले गृही हैं; अंग्रेजी में व्याख्यान देते हैं; अखबार लिखते हैं; विषयकर्मों की देखरेख भी करते हैं ।
केशव आदि ब्राह्मभक्त जहाज पर से मन्दिर की शोभा देख रहे हैं । जहाज के पूर्व ओर पास ही बँधा घाट और मन्दिर का चाँदनीमण्डप है । बायीं ओर-चाँदनीमण्डप के उत्तर, बारह शिवमन्दिर में से छः मन्दिर हैं; दक्षिण की ओर भी छः मन्दिर हैं । शरद् के नील आकाश की पृष्ठभूमि पर भावतारिणी के मन्दिर का कलश तथा उत्तर की ओर पंचवटी और देवदार वृक्षों के शिरामणि दीखते हैं । एक नौबतखाना बकुलतला के पास है और कालीमन्दिर के दक्षिण प्रान्त में एक ओर नौबतखाना है । दोनों नौबतखानों के बीच में बगीचे का रास्ता है जिसके दोनों ओर कतार के कतार फूलों के पेड़ लगे हैं ।
शरत्-काल के आकाश की कालिमा श्रीगंगा के वक्ष पर पड़कर अपूर्व शोभा दे रही है । बाहरी संसार में भी कोमल भाव है और ब्राह्मभक्तों के हृदय में भी कोमल भाव है । ऊपर सुन्दर नीला अनन्त आकाश है, सामने सुन्दर ठाकुरबाड़ी है, नीचे पवित्रसलिला गंगा हैं जिनके किनारे आर्यऋषियों ने परमात्मा का स्मरण-मनन किया है । फिर एक महापुरुष आये हैं, जो साक्षात् सनातन धर्म हैं ! इस प्रकार के दर्शन मनुष्यों को सर्वदा नहीं होते । ऐसे समाधिमग्न महापुरुष पर किसकी भक्ति नहीं होगी, ऐसा कौन कठोर मनुष्य है जो द्रवीभूत न होगा ?
(२)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि
संयाति नवानि देही॥
(गीता -2.22। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही देही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है। जैसे मनुष्य व्यावहारिक जीवन में भिन्नभिन्न अवसरों पर समयोचित वस्त्रों को धारण करता है वैसे ही जीवात्मा एक देह को त्यागकर अन्य प्रकार के अनुभव प्राप्त करने के लिये किसी अन्य देह को धारण करता है। कोई भी व्यक्ति रात्रिपरिधान (नाईट गाउन) पहने अपने कार्यालय नहीं जाता और न ही कार्यालय के वस्त्र पहनकर टेनिस खेलता है। वह अवसर और कार्य के अनुकूल वस्त्र पहनता है।
यही बात मृत्यु के विषय में भी है।इस दृष्टांत के द्वारा अर्जुन को यह बात निश्चय ही समझ में आ गयी होगी कि मृत्यु केवल उन्हीं को भयभीत करती है जिन्हें उसका ज्ञान नहीं होता है। परन्तु मृत्यु के रहस्य एवं संकेतार्थ को समझने वाले व्यक्ति को कोई पीड़ा या शोक नहीं होता। जैसे वस्त्र बदलने से शरीर को कोई कष्ट नहीं होता। इसी प्रकार विकास की दृष्टि से जीव का भी देह का त्याग होता है और वह नये अनुभवों की प्राप्ति के लिये उपयुक्त नवीन देह को धारण करता है। उसमें कोई कष्ट नहीं है। यह विकास और परिवर्तन जीव के लिये है न कि चैतन्य स्वरूप आत्मा के लिये। आत्मा सदा परिपूर्ण है उसे विकास की आवश्यकता नहीं।
यह दृष्टांत इतना सरल और बुद्धिग्राह्य है कि इसके द्वारा न केवल अर्जुन वरन् दीर्घ कालावधि के पश्चात भी गीता का कोई भी अध्येता या श्रोता देह त्याग के विषय को स्पष्ट रूप से समझ सकता है। अनुपयोगी वस्त्रों को बदलना किसी के लिये भी पीड़ा की बात नहीं होती। और विशेषकर जब पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करने हों तब तो कष्ट का कोई कारण ही नहीं होता। इसी प्रकार जब जीव यह पाता है कि उसका वर्तमान शरीर उसके लिये अब कोई प्रयोजन नहीं रखता तब वह उस जीर्ण शरीर का त्याग कर देता है।
शरीर के इस जीर्णत्व का निश्चय इसको धारण करने वाला ही कर सकता है। जैसे कोई धनी व्यक्ति कुछ वर्षों के बाद अपना वाहन बदलना चाहता है और हर बार उसे कोई न कोई क्रय करने वाला भी मिल जाता है। उस धनी व्यक्ति की दृष्टि से वह वाहन पुराना या अनुपयोगी हो चुका है। परन्तु ग्राहक की दृष्टि से वही वाहन नये के समान उपयोगी है। इसी प्रकार शरीर जीर्ण हुआ या नहीं इसका निश्चय उसको धारण करने वाला जीव ही कर सकता है। यह श्लोक पुनर्जन्म के सिद्धान्त को दृढ़ करता है। ]
*समाधि में। आत्मा अविनश्वर है। पवहारी बाबा*
[संसारी जीव घेरे के (Open Jail ) भीतर बन्द हैं]
नाव आकर जहाज से लगी । सभी श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए उत्सुक हो रहे हैं । अच्छी भीड़ है । श्रीरामकृष्ण को निर्विघ्न उतारने के लिए केशव आदि व्यग्र हो रहे हैं । बड़ी मुश्किल से उन्हें होश में लाकर कमरे के भीतर ले गए । अभी तक भावस्थ है, एक भक्त का सहारा लेकर चल रहे हैं । सिर्फ पैर हिल रहे हैं । केबिन-घर में आपने प्रवेश किया ।
केशव आदि भक्तों ने प्रणाम किया किन्तु आपको होश नहीं । कमरे के भीतर एक मेज और कुछ कुर्सियाँ हैं । एक कुर्सी पर श्रीरामकृष्ण बैठाए गए, एक पर केशव बैठे । विजय बैठे । दूसरे भक्त फर्श पर जहाँ जगह मिली वहीँ बैठ गए । अनेक मनुष्यों को जगह नहीं मिली । वे सब बाहर से झाँक-झाँककर देखने लगे । श्रीरामकृष्ण बैठे हुए फिर समाधिस्थ हो गए, -सम्पूर्ण बाह्यज्ञानशून्य । सभी एक नजर से देख रहे हैं ।
केशव ने देखा कि कमरे के भीतर बहुत आदमी हैं और श्रीरामकृष्ण को तकलीफ हो रही है । विजय केशव को छोड़कर साधारण ब्राह्मसमाज में चले गए हैं और उनकी कन्या के विवाह आदि के विरुद्ध उन्होंने कितनी वक्तृताएँ दी है; इसलिए विजय को देखकर केशव कुछ अप्रतिभ हो गए । वे आसन छोड़कर उठे, कमरे के झरोखे खोल देने के लिए ।
{As the air in the room was stuffy because of the crowd of people, Keshab opened the windows. He was embarrassed to meet Vijay, since they had differed on certain principles of the Brahmo Samaj and Vijay had separated himself from Keshab's organization, joining another society.
ब्राह्मसमाज टकटकी लगाए श्रीरामकृष्ण को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण की समाधि छूटी, परन्तु अभी तक भाव पूरी मात्रा में वर्तमान है । श्रीरामकृष्ण आप ही आप अस्फुट स्वरों में कहते हैं- ‘माँ, मुझे यहाँ क्यों लायी ? मैं क्या इन लोगों की घेरे के भीतर से रक्षा कर सकूँगा ?’
श्रीरामकृष्ण शायद देख रहे हैं कि *संसारी जीव घेरे के (Open Jail ) भीतर बन्द हैं*, बाहर नहीं आ सकते, बाहर का उजेला भी नहीं देख पाते, सब के हाथ-पैर सांसारिक कामों से बँधे हैं । केवल घर के भीतर की वस्तु उन्हें देखने को मिलती है । वे सोचते हैं कि जीवन का उद्देश्य केवल शरीर-सुख और विषय-कर्म – काम और कांचन – है । क्या इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘माँ, मुझे यहाँ क्यों लायी? मैं क्या इन लोगों की घेरे के भीतर से रक्षा कर सकूँगा ?’
[“মা, আমায় এখানে আনলি কেন? আমি কি এদের বেড়ার ভিতর থেকে রক্ষা করতে পারব?”
{The Brahmo devotees looked wistfully at the Master. Gradually he came back to sense consciousness; but the divine intoxication still lingered. He said to himself in a whisper: "Mother, why have You brought me here? They are hedged around and not free. Can I free them?" Did the Master find that the people assembled there were locked within the prison walls of the world? Did their helplessness make the Master address these words to the Divine Mother?
धीरे धीरे श्रीरामकृष्ण को बाह्यज्ञान हुआ । गाजीपुर के नीलमाधव बाबू और एक ब्राह्मभक्त ने पवहारी बाबा की बात चलायी ।
ब्राह्मभक्त-महाराज, इन लोगों ने पवहारी बाबा को देखा है । वे गाजीपुर में रहते हैं, आपकी तरह एक ओर हैं ।
श्रीरामकृष्ण अभी तक बातचीत नहीं कर पा रहे हैं, सुनकर सिर्फ मुस्कराए ।
ब्राह्मभक्त (श्रीरामकृष्ण से)- महाराज, पवहारी बाबा ने अपने कमरे में आपका फोटोग्राफ रखा है ।
श्रीरामकृष्ण जरा हँसकर अपनी देह की ओर उँगली दिखाकर बोले- “यह गिलाफ !”
{Sri Ramakrishna was gradually becoming conscious of the outside world. Nilmadhav of Ghazipur and a Brahmo devotee were talking about Pavhari Baba. Another Brahmo devotee said to the Master: "Sir, these gentlemen visited Pavhari Baba. He lives in Ghazipur. He is a holy man like yourself." The Master could hardly talk; he only smiled. The devotee continued, "Sir, Pavhari Baba keeps your photograph in his room." Pointing to his body the Master said with a smile, "Just a pillow-case."
(३)
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥
(गीता , 5.5) जो स्थान ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, उसी स्थान पर कर्मयोगी भी पहुँचते हैं। इसलिए जो पुरुष सांख्य और योग को (फलरूप से) एक ही देखता है, वही (वास्तव में) देखता है।।
सांख्ययोगियों के द्वारा जो तत्त्व (परमानन्द) प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही (परमानन्द) प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्ययोग और कर्मयोग को (फलरूप में) एक देखता है, वही ठीक देखता है। यः पश्यति स पश्यति- नेत्र इन्द्रिय के द्वारा किसी बाह्य वस्तु का दर्शन यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धांतानुसार आत्मा के स्वयं द्रष्टा होने से उसका दृश्यरूप में दर्शन कभी नहीं हो सकता। द्रष्टा के द्वारा द्रष्टा का ही यह अनुभव है। 'देखते हैं' इस शब्द का प्रयोग मात्र यह दर्शाने के लिए है कि इस आत्मतत्त्व का अनुभव उतना ही स्पष्ट और सन्देहरहित हो सकता है जितना कि बाह्य स्थूल पदार्थ का दर्शन। }
*देह नश्वर है; देही अविनाशी और भक्तों का हृदय भगवान् का बैठकघर *
‘तकिया और उसका गिलाफ ।’ देही और देह । क्या श्रीरामकृष्ण कहते हैं कि देह नश्वर है, नहीं रहेगी? देह के भीतर जो देही है वह अविनाशी है, अतएव देह का फोटोग्राफ लेकर क्या होगा? देह अनित्य वस्तु है, इसके आदर से क्या होगा? बल्कि जो भगवान् अन्तर्यामी हैं, मनुष्य के हृदय में विराजमान हैं, उन्हीं की पूजा करनी चाहिए ।
श्रीरामकृष्ण कुछ प्रकृतिस्थ हुए । वे कह रहे हैं- “परन्तु एक बात है । भक्तों का हृदय उनका निवासस्थान है । भक्तों के हृदय में वे विशेष रूप से रहते हैं । जैसे कोई जमींदार अपनी जमींदारी में सभी जगह रह सकता है, परन्तु वे अमुक बैठक में प्रायः रहते हैं, यही लोग कहा करते हैं । भक्तों का हृदय भगवान् का बैठकघर है ।”(सब लोग आनन्दित हुए)
{The Master continued: "But you should remember that the heart of the devotee is the abode of God. He dwells, no doubt, in all beings, but He especially manifests Himself in the heart of the devotee. A landlord may at one time or another visit all parts of his estate, but people say he is generally to be found in a particular drawing-room. The heart of the devotee is the drawing-room of God.}
* ईश्वर एक, नाम अनेक *
“जिन्हें भी ज्ञानी ब्रह्म कहते हैं, योगी उन्हीं को आत्मा कहते हैं और भक्त उन्हें भगवान् कहते हैं ।”
“एक ही ब्राह्मण है । जब पूजा करता है, तब उसका नाम पुजारी है, जब भोजन पकाता है, तब उसे रसोइया कहते हैं । जो ज्ञानी है, ज्ञानयोग जिसका अवलम्बन है, वह ‘नेति नेति’ विचार कहता है, -ब्रह्म ने यह है, न वह; न जीव है, न जगत् । विचार करते करते जब मन स्थिर होता है, मन का नाश होता है, समाधि होती है, तब ब्रह्मज्ञान होत है । ब्रह्मज्ञानी की सत्यधारणा है कि ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या नामरूप स्वप्नतुल्य है; ब्रह्म क्या है यह मुँह से नहीं कहा जा सकता; वे व्यक्ति (Personal God) हैं यह भी नहीं कहा जा सकता ।
{"He who is called Brahman by the jnanis is known as Atman by the yogis and as Bhagavan by the bhaktas. The same brahmin is called priest, when worshipping in the temple, and cook, when preparing a meal in the kitchen. The jnani, sticking to the path of knowledge, always reasons about the Reality, saying, 'Not this, not this'. Brahman is neither 'this' nor 'that'; It is neither the universe nor its living beings. Reasoning in this way, the mind becomes steady. Then it disappears and the aspirant goes into samadhi. This is the Knowledge of Brahman. It is the unwavering conviction of the jnani that Brahman alone is real and the world illusory. All these names and forms arc illusory, like a dream. What Brahman is cannot be described. One cannot even say that Brahman is a Person.
“জ্ঞানীরা যাকে ব্রহ্ম বলে, যোগীরা তাঁকেই আত্মা বলে, আর ভক্তেরা তাঁকেই ভগবান বলে।
“একই ব্রাহ্মণ। যখন পূজা করে, তার নাম পূজারী; যখন রাঁধে তখন রাঁধুনী বামুন। যে জ্ঞানী, জ্ঞানযোগ ধরে আছে, সে নেতি নেতি — এই বিচার করে। ব্রহ্ম এ নয়, ও নয়; জীব নয়, জগৎ নয়। বিচার করতে করতে যখন মন স্থির হয়, মনের লয় হয়, সমাধি হয়, তখন ব্রহ্মজ্ঞান। ব্রহ্মজ্ঞানীর ঠিক ধারণা ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা; নামরূপ এ-সব স্বপ্নবৎ; ব্রহ্ম কি যে, তা মুখে বলা যায় না; তিনি যে ব্যক্তি (Personal God) তাও বলবার জো নাই।
*ज्ञानी -भक्त चेतना के चारों अवस्थाओं को सत्य कहते हैं *
“ज्ञानी इसी प्रकार कहते हैं- जैसे वेदान्तवादी । परन्तु भक्तगण सभी अवस्थाओं को लेते हैं । वे जाग्रत् अवस्था को भी सत्य कहते हैं; जगत् को स्वप्नवत् नहीं कहते । भक्त कहते हैं, यह संसार भगवान् का ऐश्वर्य है; आकाश, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य, पर्वत, समुद्र, जीव-जन्तु आदि भगवान् की सृष्टि है, उन्हीं का ऐश्वर्य है । वे हृदय के भीतर हैं और बाहर भी । उत्तम भक्त कहता है, वे स्वयं ही ये चौबीस तत्त्व-जीवजगत्-बने हैं । भक्त की इच्छा चीनी खाने की है, चीनी होने की नहीं ।(सब हँसते हैं)
{"This is the opinion of the jnanis, the followers of Vedanta philosophy. But the bhaktas accept all the states of consciousness. They take the waking state to be real also. They don't think the world to be illusory, like a dream. They say that the universe is a manifestation of God's power and glory. God has created all these — sky, stars, moon, sun, mountains, ocean, men, animals. They constitute His glory. He is within us, in our hearts. Again, He is outside. The most advanced devotees say that He Himself has become all this — the twenty-four cosmic principles, the universe, and all living beings. The devotee of God wants to eat sugar, not to become sugar. (All laugh.)
[“জ্ঞানীরা ওইরূপ বলে — যেমন বেদান্তবাদীরা। ভক্তেরা কিন্তু সব অবস্থাই লয়। জাগ্রত অবস্থাও সত্য বলে — জগৎকে স্বপ্নবৎ বলে না। ভক্তেরা বলে, এই জগৎ ভগবানের ঐশ্বর্য। আকাশ, নক্ষত্র, চন্দ্র, সূর্য, পর্বত, সমুদ্র, জীবজন্তু — এ-সব ঈশ্বর করেছেন। তাঁরই ঐশ্বর্য। তিনি অন্তরে হৃদয়মধ্যে আবার বাহিরে। উত্তম ভক্ত বলে, তিনি নিজে এই চতুর্বিংশতি তত্ত্ব — জীবজগৎ হয়েছেন। ভক্তের সাধ যে চিনি খায়, চিনি হতে ভালবাসে না। (সকলের হাস্য)
“भक्त का भाव कैसा है, जानते हो? ‘हे भगवन्, तुम प्रभु हो, मैं तुम्हारा दास हूँ, ‘तुम माता हो, मैं तुम्हारी सन्तान हूँ; और यह भी कि ‘तुम मेरे या पिता माता हो’, ‘तुम पूर्ण हो, मैं तुम्हारा अंश हूँ’ । भक्त यह कहने की इच्छा नहीं करता कि मैं ब्रह्म हूँ ।
{"Do you know how a lover of God feels? His attitude is: 'O God, Thou art the Master, and I am Thy servant. Thou art the Mother, and I am Thy child.' Or again: 'Thou art my Father and Mother. Thou art the Whole, and I am a part.' He doesn't like to say, 'I am Brahman.'“ভক্তের ভাব কিরূপ জানো? হে ভগবান, তুমি প্রভু, আমি তোমার দাস’, ‘তুমি মা, আমি তোমার সন্তান’ , আবার ‘তুমি আমার পিতা বা মাতা’। ‘তুমি পূর্ণ, আমি তোমার অংশ।’ ভক্ত এমন কথা বলতে ইচ্ছা করে না যে ‘আমি ব্রহ্ম।”]
“योगी भी परमात्मा के दर्शन करने की चेष्टा करता है । उद्देश्य जीवात्मा और परमात्मा का योग है । योगी विषयों से मन को खींच लेता है और परमात्मा में मन लगाने की चेष्टा करता है । इसीलिए पहले-पहल निर्जन में स्थिर आसन साधकर अनन्य मन से ध्यान-चिन्तन करता है ।”
{"The yogi seeks to realize the Paramatman, the Supreme Soul. His ideal is the union of the embodied soul and the Supreme Soul. He withdraws his mind from sense-objects and tries to concentrate it on the Paramatman. Therefore, during the first stage of his spiritual discipline, he retires into solitude and with undivided attention practises meditation in a fixed posture.
“যোগীও পরমাত্মাকে সাক্ষাৎকার করতে চেষ্টা করে। উদ্দেশ্য — জীবাত্মা ও পরমাত্মার যোগ। যোগী বিষয় থেকে মন কুড়িয়ে লয় ও পরমাত্মাতে মন স্থির করতে চেষ্টা করে। তাই প্রথম অবস্থায় নির্জনে স্থির আসনে অনন্যমন হয়ে ধ্যানচিন্তা করে।}
“परन्तु वस्तु एक ही है । केवल नाम का भेद है । जो ब्रह्म है, वही आत्मा है, वही भगवान् है । ब्रह्मज्ञानियों के लिए ब्रह्म, योगियों के लिए परमात्मा और भक्तों के लिए भगवान् ।”
{"But the Reality is one and the same. The difference is only in name. He who is Brahman is verily Atman, and again. He is the Bhagavan. He is Brahman to the followers of the path of knowledge, Paramatman to the yogis, and Bhagavan to the lovers of God."
“কিন্তু একই বস্তু। নাম-ভেদমাত্র। যিনিই ব্রহ্ম, তিনিই আত্মা, তিনিই ভগবান। ব্রহ্মজ্ঞানীর ব্রহ্ম, যোগীর পরমাত্মা, ভক্তের ভগবান।”]
(४)
त्वमेव सूक्ष्मा त्वं स्थूला व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी ।
निराकारपि साकारा कस्त्वां वेदितुमर्हति ।
[महानिर्वाण तन्त्र, ४\१५ -हे माँ काली , आप ही सूक्ष्म और स्थूल दोनों हैं , व्यक्त जगत और अव्यक्त प्रकृति, निराकार और फिर साकार भी आप ही हैं। (व्यक्त जगत का अव्यक्त कारण सदसदात्मक प्रकृति कही जाती है।) आपको कौन समझ सकता है?.
You are both Subtle and Gross, Manifested and Veiled, Formless, yet with form. Who can understand You?. (Devi Stotra –4.15, Maha Nirvana Tantra) श्रीठाकुर (नवनीदा) का रूप आद्याशक्ति का ऐश्वर्य है। }
*वेद तथा तन्त्र का समन्वय । आद्याशक्ति का ऐश्वर्य*
इधर जहाज कलकत्ते की ओर जा रहा है, उधर कमरे के भीतर जो लोग श्रीरामकृष्ण के दर्शन कर रहे हैं और उनकी अमृतमयी वाणी सुन रहे हैं, उन्हें सुध नहीं कि जहाज चल रहा है या नहीं । भौंरा फूल पर बैठने पर फिर क्या भनभनाता है ?
धीरे धीरे जहाज दक्षिणेश्वर छोड़कर देवालयों के चित्ताकर्षक दृश्यों के बाहर हो गया । चलते हुए जहाज से मथा हुआ गंगाजल फेनमय तरंगों से भर गया और उससे आवाज होने लगी । परन्तु यह आवाज भक्तों के कानों तक नहीं पहुँची । वे तो मुग्ध होकर देखते हैं केवल हँसमुख, आनन्दमय, प्रेमरंजित नेत्रवाले एक अपूर्व प्रियदर्शन योगी को ! वे मुग्ध होकर देखते हैं सर्वत्यागी एक प्रेमी विरागी को, जो ईश्वर को छोड़ और कुछ नहीं जानते । रामकृष्ण वार्तालाप कर रहे हैं ।
{ The paddles of the boat churned the waters of the Ganges with a murmuring sound. But the devotees were indifferent to all this. Spellbound, they looked on a great yogi, his face lighted with a divine smile, his countenance radiating love, his eyes sparkling with joy — a man who had renounced all for God and who knew nothing but God. Unceasing words of wisdom flowed from his lips.
*बिना समाधि में लीन हुए शक्ति के क्षेत्र के से बाहर कोई नहीं जा सकता*
श्रीरामकृष्ण-वेदान्तवादी ब्रह्मज्ञानी कहते हैं, सृष्टि, स्थिति, प्रलय, जीव, जगत् यह सब शक्ति का खेल है। विचार करने पर यह सब स्वप्नवत् जान पड़ता है; ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु; शक्ति भी स्वप्नवत् अवस्तु है ।
{{MASTER: "The jnanis, who adhere to the non-dualistic philosophy of Vedanta, say that the acts of creation, preservation, and destruction, the universe itself and all its living beings, are the manifestations of Sakti, the Divine Power. (Known as maya in the Vedanta philosophy.) If you reason it out, you will realize that all these are as illusory as a dream. Brahman alone is the Reality, and all else is unreal. Even this very Sakti is unsubstantial, like a dream.
শ্রীরামকৃষ্ণ — বেদান্তবাদী ব্রহ্মজ্ঞানীরা বলে, সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয়, জীব, জগৎ — এ-সব শক্তির খেলা। বিচার করতে গেলে, এ-সব স্বপ্নবৎ; ব্রহ্মই বস্তু আর সব অবস্তু; শক্তিও স্বপ্নবৎ, অবস্তু।]
“परन्तु चाहे लाख विचार करो, बिना समाधि में लीन हुए शक्ति के इलाके के बाहर जाने की सामर्थ्य नहीं । मैं ध्यान कर रहा हूँ, मैं चिन्तन कर रहा हूँ, -यह सब शक्ति के इलाके के अन्दर है-शक्ति के ऐश्वर्य के भीतर है ।
{"But though you reason all your life, unless you are established in samadhi, you cannot go beyond the jurisdiction of Sakti. Even when you say, 'I am meditating', or 'I am contemplating', still you are moving in the realm of Sakti, within Its power.
“কিন্তু হাজার বিচার কর, সমাধিস্থ না হলে শক্তির এলাকা ছাড়িয়ে জাবার জো নাই। ‘আমি ধ্যান করছি’, ‘আমি চিন্তা করছি’ — এ-সব শক্তির এলাকার মধ্যে, শক্তির ঐশ্বর্যের মধ্যে।]
*माँ काली का बेटा (भक्त) जानता है कि नित्य और लीला दोनों सत्य हैं !*
“इसलिए ब्रह्म और शक्ति अभिन्न (identical) हैं । एक को मानो तो दूसरे को भी मानना पड़ता है । जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति । अग्नि को मानो तो दाहिका शक्ति को भी मानना पड़ेगा । बिना दाहिका शक्ति के अग्नि का विचार नहीं किया जा सकता, फिर अग्नि को छोड़कर दाहिका शक्ति का विचार नहीं किया जा सकता । सूर्य को अलग करके उसकी किरणों की कल्पना नहीं की जा सकती, न किरणों को छोड़कर कोई सूर्य को ही सोच सकता है ।
{"Thus Brahman and Sakti are identical. If you accept the one, you must accept the other. It is like fire and its power to burn. If you see the fire, you must recognize its power to burn also. You cannot think of fire without its power to burn, nor can you think of the power to burn without fire. You cannot conceive of the sun's rays without the sun, nor can you conceive of the sun without its rays.
“তাই ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ, এককে মানলেই আর-একটিকে মানতে হয়। যেমন অগ্নি আর তার দাহিকাশক্তি; — অগ্নি মানলেই দাহিকাশক্তি মানতে হয়, দাহিকাশক্তি ছাড়া অগ্নি ভাবা যায় না; আবার অগ্নিকে বাদ দিয়ে দাহিকাশক্তি ভাবা যায় না। সূর্যকে বাদ দিয়ে সূর্যের রশ্মি ভাবা যায় না; সূর্যের রশ্মিকে ছেড়ে সূর্যকে ভাবা যায় না।]
“दूध कैसा है? सफेदा दूध को छोड़कर दूध की धवलता नहीं सोची जा सकती और न बिना धवलता के दूध ही सोचा नहीं सकता है ।
“इसीलिए ब्रह्म को छोड़कर न शक्ति को कोई सोच सकता है और न शक्ति को छोड़ ब्रह्म को । उसी प्रकार नित्य (Absolute) को छोड़कर न लीला (Relative phenomenal world ) को कोई सोच सकता है और न लीला (Relative) को छोड़कर नित्य (Absolute) को ।
{"Thus one cannot think of Brahman without Sakti, or of Sakti without Brahman. One cannot think of the Absolute without the Relative, or of the Relative without the Absolute.
“তাই ব্রহ্মকে ছেড়ে শক্তিকে, শক্তিকে ছেড়ে ব্রহ্মকে ভাবা যায় না। নিত্যকে১ ছেড়ে লীলা, লীলাকে২ ছেড়ে নিত্য ভাবা যায় না!]
“आद्याशक्ति (The Primordial Energy ) लीलामयी (ever at play) हैं । वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती हैं । उन्हीं का नाम काली है । काली ही ब्रह्म हैं, ब्रह्म ही काली हैं । एक ही वस्तु है । वे निष्क्रिय हैं, सृष्टि-स्थिति-प्रलय का कोई काम नहीं करते, यह बात जब सोचता हूँ तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब वे ये सब काम करते हैं, तब उन्हें काली कहता हूँ- शक्ति कहता हूँ । एक ही व्यक्ति है, भेद सिर्फ नाम और नाम और रूप में है ।
{The Primordial Energy Power is ever at play. (This idea introduces the elements of spontaneity and freedom in the creation. E=Mc2, यह सिद्धान्त सृजन (नमरूपमय व्यक्त जगत) में सहजता और स्वतंत्रता के तत्व) She is creating, preserving, and destroying in play, as it were. This Power is called Kali. Kali is verily Brahman, and Brahman is verily Kali. It is one and the same Reality. When we think of It as inactive, that is to say, not engaged in the acts of creation, preservation, and destruction, then we call It Brahman. But when It engages in these activities, then we call It Kali or Sakti. The Reality is one and the same; the difference is in name and form.
“আদ্যাশক্তি লীলাময়ী; সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয় করছেন। তাঁরই নাম কালী। কালীই ব্রহ্ম, ব্রহ্মই কালী! একই বস্তু, যখন তিনি নিষ্ক্রিয় — সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় কোন কাজ করছেন না — এই কথা যখন ভাবি, তখন তাঁকে ব্রহ্ম বলে কই। যখন তিনি এই সব কার্য করেন, তখন তাঁকে কালী বলি, শক্তি বলি। একই ব্যক্তি নাম-রূপভেদ।]
“जिस प्रकार ‘जल’, ‘वाटर’ और पानी । एक तालाब में तीन-चार घाट हैं । एक घाट में हिन्दू पानी पीते हैं, वे जल कहते हैं२; औए एक घाट में मुसलमान पानी पीते हैं,- वे पानी कहते हैं; और एक घाट में अंग्रेज पानी पीते हैं, वे ‘वाटर’ कहते हैं । तीनों एक हैं, भेद केवल नामों में है । उन्हें कोई ‘अल्लाह’ कहता है, कोई ‘गाड’, कोई ‘ब्रह्म’ कहता है, कोई ‘काली’; कोई राम, हरि, ईसा दुर्गा आदि ।”
{"It is like water, called in different languages by different names, such as 'jal', pani', and so forth. There are three or four ghats on a lake. The Hindus, who drink water at one place, call it 'jal'. The Mussalmans at another place call it 'pani'. And the English at a third place call it 'water'. All three denote one and the same thing, the difference being in the name only. In the same way, some address the Reality as 'Allah', some as 'God', some as 'Brahman', some as 'Kali', and others by such names as 'Rama', 'Jesus', 'Durga', 'Hari'."
“যেমন ‘জল’ ‘ওয়াটার’ ‘পানি’। এক পুকুরে তিন-চার ঘাট; একঘাটে হিন্দুরা জল খায়, তারা বলে ‘জল’। একঘাটে মুসলমানেরা জল খায়, তারা বলে পানি’। আর-এক ঘাটে ইংরাজেরা জল খায়, তারা ‘ওয়াটার’। তিন-ই এক, কেবল নামে তফাত। তাঁকে কেউ বলছে ‘আল্লা’; কেউ ‘গড্’; কেউ বলছে ‘ব্রহ্ম’; কেউ ‘কালী’; কেউ বলছে রাম, হরি, যীশু, দুর্গা।”]
{आमतौर पर जल शब्द का प्रयोग द्रव अवस्था के लिए उपयोग में लाया जाता है, पर यह ठोस अवस्था (बर्फ) और गैसीय अवस्था (वाष्प-अदृश्य अवस्था) में भी पाया जाता है। कहते हैं ज्ञानी दुनिया है फ़ानी (समाप्त होने वाली--सत ,असत या मिथ्या ?) हाथ किसी के न आनी ! The Absolute and The relative phenomenal world, इन्द्रियातीत सत्य और सापेक्षिक रूप में प्रातिभासिक जगत। ]
केशव (सहास्य) -यह कहिये कि काली कितने भावों से लीला कर रही हैं ।
{KESHAB (with a smile): "Describe to us, sir, in how many ways Kali, the Divine Mother, sports in this world."}
*जब सृष्टि नहीं थी , तब माँ निराकारा महाकाली (Great Energy) ; काल के साथ अभेद थीं ! *
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वे नाना भावों से लीला कर रही हैं । वे ही महाकाली, नित्यकाली, शमशान-काली, रक्षाकाली और श्यामकाली है । महाकाली और नित्यकाली की बात तन्त्रों में हैं । जब सृष्टि हुई नहीं थी, सूर्य-चन्द्र, ग्रह-पृथ्वी आदि नहीं थे, -घोर अन्धकार था, तब केवल माँ निराकारा महाकाली (the Great Power) महाकाल (the Absolute) के साथ अभेद रूप से विराज रही थीं ।
তিনি নানাভাবে লীলা করছেন। তিনিই মহাকালী, নিত্যকালী, শ্মশানকালী, রক্ষাকালী, শ্যামাকালী। মহাকালী, নিত্যকালীর কথা তন্ত্রে আছে। যখন সৃষ্টি হয় নাই; চন্দ্র, সূর্য, গ্রহ, পৃথিবী ছিল না; নিবিড় আঁধার; তখন কেবল মা নিরাকারা মহাকালী — মহাকালের (the Absolute.) সঙ্গে বিরাজ করছিলেন।
{ "Oh, She plays in different ways. It is She alone who is known as Maha-Kali, Nitya-Kali, Smasana-Kali, Raksha-Kali, and Syama-Kali. Maha-Kali and Nitya-Kali are mentioned in the Tantra philosophy. When there were neither the creation, nor the sun, the moon, the planets, and the earth, and when darkness was enveloped in darkness, then the Mother, the Formless One, Maha-Kali, the Great Energy (Power), was one with Maha-Kala, the Absolute.}
“श्यामकाली का बहुत कुछ कोमल भाव है, -वराभयदायिनी हैं । गृहस्थों के घर उन्हीं की पूजा होती है। जब अकाल, महामारी, भूकम्प, अनावृष्टि, अतिवृष्टि, होती है, तब रक्षाकाली की पूजा की जाती है । शमशानकाली की संहारमूर्ति है, शव-शिवा-डाकिनी-योगिनियों के बीच, शमशान में रहती हैं । रुधिरधारा, गले में मुण्डमाला, कटि में नरहस्तों का कमरबन्द । जब संसार का नाश होता है, महाप्रलय होता है तब माँ सृष्टि के बीज इकट्ठे कर लेती हैं । घर की गृहिणी के पास जिस प्रकार एक हण्डी रहती है और उसमें तरह तरह की चीजें रखी रहती हैं ।’ (केशव तथा लोग हँसते हैं)
{"Syama-Kali has a somewhat tender aspect and is worshipped in the Hindu households. She is the Dispenser of boons and the Dispeller of fear. People worship Raksha-Kali, the Protectress, in times of epidemic, famine, earthquake, drought, and flood. Smasana-Kali is the embodiment of the power of destruction. She resides in the cremation ground, surrounded by corpses, jackals, and terrible female spirits. From Her mouth flows a stream of blood, from Her neck hangs a garland of human heads, and around Her waist is a girdle made of human hands."
After the destruction of the universe, at the end of a great cycle, the Divine Mother garners the seeds for the next creation: She is like the elderly mistress of the house, who has a hotchpotch-pot in which she keeps different articles for household use. (All laugh.)
“শ্যামাকালীর অনেকটা কোমল ভাব — বরাভয়দায়িনী। গৃহস্থবাড়িতে তাঁরই পূজা হয়। যখন মহামারী, দুর্ভিক্ষ, ভুমিকম্প, অনাবৃষ্টি, অতিবৃষ্টি হয় — রক্ষাকালীর পূজা করতে হয়। শ্মশানকালীর সংহারমূর্তি। শব, শিবা, ডাকিনী, যোগিনী corpses, jackals, and terrible female spirits.মধ্যে শ্মশানের উপর থাকেন। রুধিরদারা, গলায় মুণ্ডমালা, কটিতে নরহস্তের কোমরবন্ধ। যখন জগৎ নাশ হয়, মহাপ্রলয় হয়, তখন মা সৃষ্টির বীজ সকল কুড়িয়ে রাখেন। গিন্নীর কছে যেমন একটা ন্যাতা-ক্যাতার হাঁড়ি থাকে, আর সেই হাঁড়িতে গিন্নী পাঁচরকম জিনিস তুলে রাখে। (কেশবের ও সকলের হাস্য)
*ईश्वर संसार के आधार और आधेय दोनों हैं । *
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) -हाँ जी, गृहिणियों के पास इस तरह की हण्डी रहती है । उसमें वे समुद्रफेन, नील का डला, खीरे, कोहड़े आदि के बीज छोटी छोटी गठरियों में बाँधकर रख देती हैं और जरूरत पड़ने पर निकालती है । माँ ब्रह्ममयी (the Embodiment of Brahman) सृष्टिनाश के बाद इसी प्रकार सब बीज इकट्ठे कर लेती हैं । सृष्टि के बाद आद्याशक्ति संसार के भीतर ही रहती हैं । वे संसार प्रसव करती हैं; फिर संसार के भीतर रहती हैं । वेदों में ‘ऊर्णनाभ’ की बात है; मकड़ी और उसका जाला । मकड़ी अपने भीतर से जाला निकालती है और उसी के ऊपर रहती भी है । ईश्वर संसार के आधार और आधेय दोनों हैं ।
{In the same way, after the destruction of the universe, my Divine Mother, the Embodiment of Brahman, gathers together the seeds for the next creation. After the creation the Primal Power dwells in the universe itself. She brings forth this phenomenal world and then pervades it. In the Vedas creation is likened to the spider and its web. The spider brings the web out of itself and then remains in it. God is the container of the universe and also what is contained in it.
[(সহাস্যে) — “হ্যাঁ গো! গিন্নীদের ওইরকম একটা হাঁড়ি থাকে। ভিতরে সমুদ্রের ফেনা, নীল বড়ি, ছোট-ছোট পুঁটলি বাঁধা শশাবিচি, কুমড়াবিচি, লাউবিচি — এই সব রাখে, দরকার হলে বার করে। মা ব্রহ্মময়ী সৃষ্টি-নাশের পর ওইরকম সব বীজ কুড়িয়ে রাখেন। সৃষ্টির পর আদ্যাশক্তি জগতের ভিতরেই থাকেন! জগৎপ্রসব করেন, আবার জগতের মধ্যে থাকেন। বেদে আছে ‘ঊর্ণনাভির’ কথা; মাকড়সা আর তার জাল। মাকড়সা ভিতর থেকে জাল বার করে, আবার নিজে সেই জালের উপর থাকে। ঈশ্বর জগতের আধার আধেয় দুই।
*कालीब्रह्म-काली निर्गुणा और सगुणा*
“काली का रंग काला थोड़े ही है ! दूर है, इसी से काला जान पड़ता है; समझ लेने पर काला नहीं रहता।
“आकाश दूर से नीला दिखायी पड़ता है । पास जाकर देखो तो कोई रंग नहीं । समुद्र का पानी दूर से नीला जान पड़ता है, पास जाकर चुल्लू में लेकर देखो, कोई रंग नहीं ।”
{"Is Kali, my Divine Mother, of a black complexion? She appears black because She is viewed from a distance; but when intimately known She is no longer so. The sky appears blue at a distance; but look at it close by and you will find that it has no colour. The water of the ocean looks blue at a distance, but when you go near and take it in your hand, you find that it is colourless."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण प्रेम से मतवाले होकर गाने लगे -
মা কি আমার কালো রে ৷
কালোরূপ দিগম্বরী, হৃদ্পদ্ম করে আলো রে ৷৷
(श्यामा) माँ कि आमार कालो रे,
लोके बोले काली कालो, आमार मन तो बोले ना कालो रे ॥
कालोरूप दिगम्बरी , हृदयपद्म करे आलो रे ,
कखोनो श्वेत कोखोनो पीत कखोनो नील लोहित रे,
(आमि) आगे नाहि जानि केमोन जननी, भाबिये जनम गेलो रे॥
कखोनो पूरुष कखोनो प्रकृति कखोनो शून्यरूपा रे,
(मायेर) ए भाब भाबिये कमलाकांत सहजे पागल होलो रे॥
भाव यह है- “मेरी माँ क्या काली है? दिगम्बरी का काला रूप हृदयपद्म को प्रकाशपूर्ण करता है ।
( 27 अक्टूबर 1882)
(५)
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत् ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम् ॥
[(गीता 7.13) त्रिगुणों से उत्पन्न इन भावों (विकारों) से सम्पूर्ण जगत् (लोग) मोहित हुआ यह सब जगत् इन गुणोंसे अतीत अविनाशी-स्वरूप मुझे नहीं जानता। त्रिगुणों से उत्पन्न राग द्वेषादि विकारों के कारण मनुष्य अपने दिव्य स्वरूप को भूलकर उपाधियों के साथ तादात्म्य स्थापित करके केवल विषयोपभोग का ही जीवन जीते हैं। स्वाभाविक है कि इस आसक्ति के कारण स्वस्वरूप की ओर इनका ध्यान तक नहीं जाता। एक बार झुरमुट में प्रेत का आभास होने पर वह झुरमुट उससे आच्छादित हो जाता है। यह एक तथ्य है कि जब तक यह आभास बना रहता है तब तक झुरमुट का एक इञ्च भाग भी मोहित व्यक्ति को नहीं दिखाई देता। इसी प्रकार माया से उत्पन्न उपाधियों के साथ तादात्म्य के कारण आत्मा को मानो जीवभाव प्राप्त हो जाता है। यह जीव बाह्य जगत् में व्यस्त और आसक्त होकर अपने शुद्ध स्वरूप को पहचानने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्वयं में स्वयं के साथ स्वयं का चल रहा लुकाछिपी का यह खेल विचित्र एवं रहस्यमय है। ]
*माँ निराकारा महाकाली बंधन और मुक्ति दोनों देती हैं *
श्रीरामकृष्ण(केशव आदि से)- बन्धन और मुक्ति दोनों ही की कर्त्री वे हैं । उनकी माया से संसारी जीव काम-कांचन में बँधा है और फिर उनकी दया होते ही वह छूट जाता है । वे ‘भवबन्धन की फाँस काटनेवाली तारिणी’ हैं ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (কেশবাদির প্রতি) — বন্ধন আর মুক্তি — দুয়ের কর্তাই তিনি। তাঁর মায়াতে সংসারী জীব কামিনী-কাঞ্চনে বদ্ধ, আবার তাঁর দয়া হলেই মুক্ত। তিনি “ভববন্ধনের বন্ধনহারিণী তারিণী”।
{The Master continued: "Bondage and liberation are both of Her making. By Her maya worldly people become entangled in 'woman and gold', and again, through Her grace they attain their liberation. She is called the Saviour, and the Remover of the bondage that binds one to the world."
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गन्धर्वकण्ठ से भक्त रामप्रसाद का गीत गाने लगे -
শ্যামা মা উড়াচ্ছ ঘুড়ি (ভবসংসার বাজার মাঝে) ৷
(ওই যে) আশা-বায়ু ভরে উড়ে, বাঁধা তাহে মায়া দড়ি ৷৷
श्यामा मा उड़ाछो घुड़ि (भव संसार बाजार माझे)।
ओइ जे आशा- वायू भरे उड़े, बांधा ताहे माया दड़ी।।
काक गंडी मंडी गाँथा , पंजरादि नाना नाड़ी।
घुड़ि स्वगुणे निर्माण कोरा, कारिगरि बाड़ाबाड़ी।
विषये मेजेछे मांजा, कर्कशा होयेछे दड़ी।
घुड़ि लक्षेर दुटो -एकटा काटे, हेशे दाओ माँ हात- चापड़ी।।
प्रसाद बोले, दक्षिणा बातासे घुड़ि जाबे उड़ि।
भवसंसार समुद्रपारे पोड़बे गिये ताड़ाताड़ी।
जिसका आशय यह है :-
“श्यामा माँ, संसार-रूपी बाजार के बीच तू पतंग उड़ा रही है । यह आशा-वायु के सहारे उड़ती है । इसमें माया की डोर लगी हुई है । विषयों के माँझे से यह कर्री हो गयी है । लाखों में से दो ही एक(पतंगें) कटती हैं और तब तू हँसकर तालियाँ पीटती है ।......’
{^The allusion of this song is to the well-known kite-flying competitions in India. Several people fly their kites and try to cut one another's kite-strings. Whoever has his string cut loses his kite and quits the game.
“वे लीलामयी हैं (always playful and sportive)। यह संसार उनकी लीला है । वे इच्छामयी, आनन्दमयी हैं, लाख आदमियों में कहीं एक को मुक्त करती हैं ।”
[“তিনি লীলাময়ী! এ-সংসার তাঁর লীলা। তিনি ইচ্ছাময়ী, আনন্দময়ী। লক্ষের মধ্যে একজনকে মুক্তি দেন।”
"The Divine Mother is always playful and sportive. This universe is Her play. She is self-willed and must always have Her own way. She is full of bliss. She gives freedom to one out of a hundred thousand."]
ब्राह्मभक्त- महाराज, वे चाहें तो सभी को मुक्त कर सकती हैं, तो फिर क्यों हम लोगों को संसार में बाँध रखा है ?”
[ব্রাহ্মভক্ত — মহাশয়, তিনি তো মনে করলে সকলকে মুক্ত করতে পারেন। কেন তবে আমাদের সংসারে বদ্ধ করে রেখেছেন?
"But, sir, if She likes, She can give freedom to all. Why, then, has She kept us bound to the world?"]
*माँ निराकारा काली (महाकाली) ने ही 'मन' (Head) को चंचल रहने का इशारा किया है *
श्रीरामकृष्ण- उनकी इच्छा ! उनकी इच्छा कि वे यह सब लेकर खेल करें । छुई-छुऔअल खेलनेवाले सभी लड़के अगर ढाई को दौड़कर छू लें तो खेल ही बन्द हो जाय ! और यदि सभी छू लें तो ढाई नाराज भी होती है । खेल चलता है तो ढाई खुश रहती है । इसीलिए कहते हैं- लाखों में से दो ही एक कटते हैं और तब तू हँसकर तालियाँ पीटती है । (सब प्रसन्न होते हैं ।)
“उन्होंने मन को आँखों के इशारे कह दिया है- ‘जा, संसार में विचर ।’ मन का क्या कसूर है? वे यदि फिर कृपा करके मन को फेर दें तो विषय-बुद्धि से छुटकारा मिले; तब फिर उनके पादपद्मों में मन लगे।”
[ তাঁর ইচ্ছা। তাঁর ইচ্ছা যে, তিনি এইসব নিয়ে খেলা করেন। বুড়ীকে আগে থাকতে ছুঁলে দৌড়াদৌড়ি করতে হয় না। সকলেই যদি ছুঁয়ে ফেলে, খেলা কেমন করে হয়? সকলেই ছুঁয়ে ফেললে বুড়ি অসন্তুষ্ট হয়। খেলা চললে বুড়ীর আহ্লাদ। তাই “লক্ষের দুটো-একটা কাটে, হেসে দাও মা হাত-চাপড়ি।” (সকলের আনন্দ)
“তিনি মনকে আঁখি ঠেরে ইশারা করে বলে দিয়েছেন, ‘যা, এখন সংসার করগে যা।’ মনের কি দোষ? তিনি যদি আবার দয়া করে মনকে ফিরিয়া দেন, তাহলে বিষয়বুদ্ধির হাত থেকে মুক্তি হয়। তখন আবার তাঁর পাদপদ্মে মন হয়।”
{MASTER: "That is Her will. She wants to continue playing with Her created beings. In a game of hide-and-seek the running about soon stops if in the beginning all the players touch the 'granny'. If all touch her, then how can the game go on? That displeases her. Her pleasure is in continuing the game. Therefore the poet said:
{"It is as if the Divine Mother said to the human mind in confidence, with a sign from Her eye, 'Go and enjoy the world.' How can one blame the mind? The mind can disentangle itself from worldliness if, through Her grace, She makes it turn toward Herself. Only then does it become devoted to the Lotus Feet of the Divine Mother."
श्रीरामकृष्ण संसारियों के भाव में माँ के प्रति अभिमान करके गाने लगे-
আমি ওই খেদ খেদ করি ৷
তুমি মাতা থাকতে আমার জাগা ঘরে চুরি ৷৷
आमि ओई खेदे खेद करि।
तुमि माता थाकते आमार जागा घरे चुरि।।
मोने कोरि तोमार नाम कोरि, किन्तु समये पासोरि।
आमि बुझेछि जेनेछी, आश्रय पेयेछि, ए-सब तोमारी चातुरि।।
किछु दिले ना, पेले ना, निले ना, खेले ना, शे दोष कि आमारि।
जोदि दिते पेते, निते खेते, दिताम, खावाताम तोमारि।।
यश, अपयश, सुरस, कुरस सकल रस तोमारि।
(ओ गो) रस थेके रसभंग, केनो कोरो रसेश्वरी।।
प्रसाद बोले, मन दियेछो, मनेरि आँखी ठारि।
(ओ मा) तोमार सृष्टि दृष्टि- पोड़ा, मिष्टि बोले घुरि।।
(भावार्थ)-‘“मैं यह खेद करता हूँ कि तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते हुए भी, घर में चोरी हो ! मन में होता है कि तुम्हारा नाम लूँ, परन्तु समय टल जाता है । मैंने समझा है, जाना है और मुझे आशय भी मिला है कि यह सब तुम्हारी ही चातुरी है । तुमने न कुछ दिया, न पाया; न लिया, न खाया; यह क्या मेरा ही कसूर है? यदि देतीं तो पातीं, लेतीं और खातीं, मैं भी तुम्हारा ही तुम्हें देता और खिलाता । यश अपयश, सुरस कुरस, सभी रस तुम्हारे हैं । रसेश्वरी ! रस में रहकर यह रसभंग क्यों? ‘प्रसाद’ कहता है- तुम्हीं ने मन को पैदा करते समय इशारा कर दिया है । तुम्हारी यह सृष्टि किसी की कुदृष्टि से जल गयी हैं, पर हम उसे मीठी समझकर भटक रहे हैं ।’
“उन्हीं की माया से भूलकर मनुष्य संसारी हुआ है । ‘प्रसाद’ कहता है, तुम्हीं ने मन को पैदा करते समय इशारा कर दिया है ।”
[ “তাঁরই মায়াতে ভুলে মানুষ সংসারী হয়েছে। ‘প্রসাদ বলে মন দিয়েছে, মনেরি আঁখি ঠারি’।”
"Men are deluded through Her maya and have become attached to the world.]
*मनःसंयोग , कर्मयोग, संसार तथा निष्काम कर्म*
ब्राह्मभक्त- महाराज, बिना सब त्याग किए क्या ईश्वर नहीं मिलते ?
{BRAHMO DEVOTEE: "Sir, can't we realize God without complete renunciation?"
श्रीरामकृष्ण (सहास्य)- नहीं जी, तुम लोगों को सब कुछ क्यों त्याग करना होगा? तुम लोग तो बड़े अच्छे हो, इधर भी हो और उधर भी, आधा खाँड़ (molasses) और आधा शीरा (गुड़रस) ! (लोग हँसते हैं) बड़े आनन्द में हो । नक्स का खेल जानते हो? मैं ज्यादा काटकर जल गया हूँ । तुम लोग बड़े सयाने हो, कोई दस में हो, कोई छः में, कोई पाँच में । मैं ज्यादा नहीं काटा इसलिए मेरी तरह जल नहीं गए । खेल चल रहा है । यह तो अच्छा है । (सब हँसे)
{MASTER (with a laugh): "Of course you can! Why should you renounce everything? You are all right as you are, following the middle path — like molasses partly solid and partly liquid. Do you know the game of nax? ^(^In the Indian card-game of nax the object is to stay in the game by scoring under seventeen points. Anyone scoring seventeen points or more has to retire.) Having scored the maximum number of points, I am out of the game. I can't enjoy it. But you are very clever. Some of you have scored ten points, some six, and some five. You have scored just the right number; so you are not out of the game like me. The game can go on. Why, that's fine! (All laugh.)
“सच कहता हूँ, तुम लोग गृहस्थी में हो, इसमें कोई दोष नहीं । पर मन ईश्वर की ओर रखना चाहिए । नहीं तो न होगा । एक हाथ से काम करो और एक हाथ से ईश्वर को पकड़े रहो । काम खतम हो जाने पर दोनों हाथों से ईश्वर को पकड़ लेना ।”
{“সত্য বলছি, তোমরা সংসার করছ এতে দোষ নাই। তবে ঈশ্বরের দিকে মন রাখতে হবে। তা না হলে হবে না। একহাতে কর্ম কর, আর-একহাতে ঈশ্বরকে ধরে থাক। কর্ম শেষ হলে দুইহাতে ঈশ্বরকে ধরবে।
I tell you the truth: there is nothing wrong in your being in the world. But you must direct your mind toward God; otherwise you will not succeed. Do your duty with one hand and with the other hold to God. After the duty is over, you will hold to God with both hands.
“सब कुछ मन पर निर्भर है । मन ही से बद्ध (Hypnotized) है और मनही से मुक्त (De -Hypnotized) । मन पर जो रंग चढ़ाओगे उसी से वह रँग जायगा । जैसे रँगरेज के घर के कपड़े, लाल रंग से रँगो तो लाल; हरे से रँगो तो हरे; सब्ज से रँगो, सब्ज; जिस रंग से रँगो वही रंग चढ़ जायगा । देखो न, अगर कुछ अंग्रेजी पढ़ लो तो मुँह में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं-फुट्-फट् इट्-मिट् । (सब हँसे) और पैरों में बूट-जूता, सीटी बजाकर गाना-ये सब आ जाते हैं । और पण्डित संस्कृत पढ़े तो श्लोक आवृत्ति करने लगता है । मन को यदि कुसंग में रखो तो वैसी ही बातचीत, वैसी ही चिन्ता हो जाएगी । यदि भक्तों के साथ रखो तो ईश्वर चिन्तन, भगवतप्रसंग-ये सब होंगे ।”
“मन ही को लेकर सब कुछ है । एक ओर स्त्री है और एक ओर सन्तान । स्त्री को एक भाव से और सन्तान को दूसरे भाव से प्यार करता है, किन्तु है एक ही मन ।”
[“মন নিয়ে কথা। মনেতেই বদ্ধ, মনেতেই মুক্ত। মন যে-রঙে ছোপাবে সেই রঙে ছুপবে। যেমন ধোপাঘরের কাপড়। লালে ছোপাও লাল, নীলে ছোপাও নীল, সবুজ রঙে ছোপাও সবুজ। যে-রঙে ছোপাও সেই রঙেই ছুপবে। দেখ না, যদি একটু ইংরেজী পড়, তো অমনি মুখে ইংরেজী কথা এসে পড়ে। ফুট-ফাট, ইট-মিট্। (সকলের হাস্য) আবার পায়ে বুটজুতা, শিস দিয়ে গান করা; এই সব এসে জুটবে। আবার যদি পণ্ডিত সংস্কৃত পড়ে অমনি শোলোক ঝাড়বে। মনকে যদি কুসঙ্গে রাখ তো সেরকম কথাবার্তা, চিন্তা হয়ে যাবে। যদি ভক্তের সঙ্গে রাখ, ঈশ্বরচিন্তা, হরি কথা — এই সব হবে।
“মন নিয়েই সব। একপাশে পরিবার, একপাশে সন্তান। একজনকে একভাবে, সন্তানকে আর-একভাবে আদর করে। কিন্তু একই মন।”]
{"It is all a question of the mind. Bondage and liberation are of the mind alone. The mind will take the colour you dye it with. It is like white clothes just returned from the laundry. If you dip them in red dye, they will be red. If you dip them in blue or green, they will be blue or green. They will take only the colour you dip them in, whatever it may be. Haven't you noticed that, if you read a little English, you at once begin to utter English words: Foot fut it wit? (The Master was merely mimicking the sound of English.) Then you put on boots and whistle a tune, and so on. It all goes together. Or, if a scholar studies Sanskrit, he will at once rattle off Sanskrit verses. If you are in bad company, then you will talk and think like your companions. On the other hand, when you are in the company of devotees, you will think and talk only of God. "The mind is everything. A man has his wife on one side and his daughter on the other. He shows his affection to them in different ways. But his mind is one and the same.}
परिच्छेद~ 13, [( 27 अक्टूबर 1882) श्री रामकृष्ण वचनामृत
(६)
*धारणा हेतु राजा जनक (या युवा आदर्श विवेकानन्द) तुल्य मार्गदर्शक नेता का चयन*
सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
गीता- 18 /66) मामेकं शरणं ब्रज (मेरी ही शरण में आओ) मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति तब तक संभव नहीं होती है, जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने के लिए कोई श्रेष्ठ आलम्बन प्रदान नहीं करते हैं। अपने एकमेव अद्वितीय सच्चिदानन्द आत्मा [अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव] के ध्यान के द्वारा हम अनात्म उपाधियों से अपना तादात्म्य त्याग सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं --अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि (मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा)," तुम मेरी शरण में आओ " , मा शुच " तुम शोक मत करो।" मैं तुम्हें मोक्ष प्रदान करूंगा।मन और बुद्धि के अतीत हो जाने का अर्थ ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप श्रीरामकृष्ण-तत्व का साक्षात्कार करना है। ]
*आत्मसुझाओ - Autosuggestion -आत्ममूल्यांकन तालिका-नाममहात्मय *
श्रीरामकृष्ण (ब्राह्मभक्तों के प्रति) -मन ही में बन्धन है और मन ही में मुक्ति । मैं मुक्तपुरुष हूँ; चाहे संसार में रहूँ, चाहे अरण्य में, मुझे बन्धन कैसा? मैं ईश्वर की संतान हूँ; राजाधिराज का बेटा; मुझे भला कौन बाँध सकता है? साँप के काटने पर यदि दृढ़ता के साथ यह कहा जाय कि ‘विष नहीं है’ तो सचमुच विष उतर जाता है ! उसी प्रकार दृढ़ता के साथ यह कहते कहते कि ‘मैं बद्ध नहीं, मैं मुक्त हूँ’, वास्तव में वैसा ही हो जाता है । मनुष्य मुक्त ही हो जाता है ।
“किसी ने ईसाईयों की एक किताब दी थी; मैंने पढ़कर सुनाने के लिए कहा । उसमें केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही भरा था । (केशव के प्रति) तुम्हारे ब्राह्मसमाज में भी केवल ‘पाप’ ‘पाप’ ही सुनायी देता है । *जो व्यक्ति बार बार ‘मैं बद्ध हूँ’ मैं बद्ध हूँ’ कहता रहता है वह बद्ध ही हो जाता है, जो दिन-रात ‘मैं पापी हूँ’ मैं पापी हूँ’ यही रटता रहता है, वह सचमुच पापी ही बन जाता है ।*
{"Once someone gave me a book of the Christians. I asked him to read it to me. It talked about nothing but sin. (To Keshab) Sin is the only thing one hears of at your Brahmo Samaj, too. The wretch who constantly says, 'I am bound, I am bound' only succeeds in being bound. He who says day and night, 'I am a sinner, I am a sinner' verily becomes a sinner.
“ईश्वर के नाम पर इस प्रकार का ज्वलन्त विश्वास (burning faith in God) होना चाहिए-‘क्या ! मैंने उनका नाम लिया है, अब भी मुझमें पाप रह सकता है ! मुझमें भला पाप कैसा ! मुझे भलाबन्धन कैसा!’
{"One should have such burning faith in God that one can say: 'What? I have repeated 'the name of God, and can sin still cling to me? How can I be a sinner any more? How can I be in bondage any more?'
कृष्णकिशोर सनातनी हिन्दू था-सदाचारनिष्ठ ब्राह्मण ! एक बार वह वृन्दावन गया था । एक दिन घूमते घूमते उसे प्यास लगी । उसने एक कुएँ के पास जाकर देखा, एक आदमी खड़ा है । उसने उससे कहा, ‘क्यों रे तू मुझे एक लोटा पानी पिला सकता है? तू कौन जात है? वह बोला, ‘महाराज, मैं नीची जाति का हूँ- चामर हूँ ।’ कृष्णकिशोर ने कहा, ‘तू शिव शिव कह । ले, अब पानी खींच दे ।’
“भगवान् का नाम लेने से मनुष्य का शरीर, मन-सब कुछ शुद्ध हो जाता है ।
“केवल ‘पाप’ ‘नरक’ यही सब बातें क्यों? एक बार कहो कि जो कुछ अयोग्य काम किए हैं, उन्हें फिर नहीं करूँगा, और उनके नाम पर विश्वास रखो ।”
{"If a man repeats the name of God, his body, mind, and everything become pure. Why should one talk only about sin and hell, and such things? Say but once, 'O Lord, I have undoubtedly done wicked things, but I won't repeat them.' And have faith in His name."
*श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर नाममाहात्म्य गाने लगे-*
आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोली मा जदि मरी।
आखेरे ए -दीने ना तारो केमने जाना जाबे गो शंकरी।।
(भावार्थ)-“दुर्गा दुर्गा अगर जपूँ मैं जब मेरे निकलेंगे प्राण । देखूँ कैसे नहीं तारती, कैसे हो करुणा की खान ॥”
“मैंने, माँ के निकट केवल भक्ति माँगी थी । हाथ में फूल लेकर माँ के पादपद्मों में चढ़ाया था; कहा था, ‘माँ, यह लो तुम्हारा पाप, यह लो तुम्हारा पुण्य, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा ज्ञान, यह लो तुम्हारा अज्ञान, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारी शुचिता, यह लो तुम्हारी अशुचिता, मुझे शुद्ध भक्ति दो; यह लो तुम्हारा धर्म, यह लो तुम्हारा अधर्म, मुझे शुद्ध भक्ति दो ।’
(ब्राह्मभक्तों के प्रति)-“एक रामप्रसाद का गीत सुनो-
“আয় মন, বেড়াতে যাবি ৷
কালী-কল্পতরুমূলে রে (মন) চারি ফল কুড়ায়ে পাবি ৷৷
आय मन, बेड़ाते जाबी।
काली कल्पतरु मूले रे (मन) चारी फल कुड़ाये पाबी ll
प्रवृत्ति निवृत्ति जाया, (तार) निवृत्तीरे संगे लोबी।
ओ रे विवेक नामे तार बेटा, तत्व-कथा ताय सुधाबि।।
आय मन, बेड़ाते जाबी।
शुचि अशुचिरे लोये दिव्य घोरे कोबे शुबि।
जोखुन दुई सतिने पिरित होबे तोखुन श्यामा मा के देखते पाबी।
अहंकार अविद्या तोर, पितामाताय ताड़िये दिबि l
जोदि मोहगर्ते टेने लोय, धैर्य खूँटा धोरे रोबी ll
धर्माधर्म दुटो अजा, तुच्छखूंटाये बेन्धे खुबि।
जोदि ना माने निषेध, तबे ज्ञानखड्गे बलि दिबि।।
प्रथम भार्यार संतानेरे दूर होते बुझाईबि।
जोदि ना माने प्रबोध, ज्ञान-सिंधू माझे डूबाईबि।।
प्रसाद बोले, एमोन होले कालेर काछे जोबाब दिबि।
तबे बापु बाछा बापेर ठाकूर , मोनेर मतो मन होबि ll
(भावार्थ)-“चल मन घूमने चलें । कालीरूपी कल्पतरु के नीचे तुझे (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) चारों फल पड़े मिल जाएँगे । अपनी प्रवृत्ति और निवृत्ति इन दो पत्नियों में से तू केवल निवृत्ति को ही साथ ले । उसके विवेक नामक बेटे से तत्त्वज्ञान की बातें पूछना । शुचि अशुचि दोनों को साथ लेकर तू दिव्य गृह में कब सोएगा? जब इन दो सौतों में प्रीति स्थापित होगी तभी तू श्यामा माँ को पाएगा । अहंकार और अविद्या तेरे पिता और माता हैं- दोनों को भगा दे । यदि मोह तुझे पकड़कर खींचे तो तू धैर्यरूपी खूँटे को पकड़े रह । धर्म अधर्म इन दो बकरों को उपेक्षारूपी खूँटी से बाँधे रख । यदि वे नहीं मानें तो ज्ञानखड्ग के द्वारा उनका बलिदान कर देना । प्रवृत्ति नामक पहली पत्नी की सन्तानों को दूर ही से समझाना । यदि वे न मानें तो उन्हें ज्ञानसिन्धु में डुबो देना । रामप्रसाद कहता है, ऐसा करने पर तू यम को सही जवाब से सकेगा और तभी तू सच्चा मन होगा ।”
{Come, let us go for a walk, O mind, to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life. Of your two wives, Dispassion and Worldliness, Bring along Dispassion only, on your way to the Tree, And ask her son Discrimination about the Truth. When will you learn-to lie, O mind, in the abode of Blessedness, With Cleanliness and Defilement on either side of you? Only when you have found the way, To keep these wives contentedly under a single roof, Will you behold the matchless form of Mother Syama. Ego and Ignorance, your parents, instantly banish from your sight; And should Delusion seek to drag you to its hole, Manfully cling to the pillar of Patience. Tie to the post of Unconcern the goats of Vice and Virtue, Killing them with the sword of Knowledge if they rebel. With the children of Worldliness, your first wife, plead from a goodly distance, And, if they will not listen, drown them in Wisdom's sea. Says Ramprasad: If you do as I say, You can submit a good account, O mind, to the King of Death, And I shall be well pleased with you and call you my darling.}
*एकाग्रता का अभ्यास करने पर यह संसार आनन्द की हवेली है !*
गाना समाप्त कर श्रीरामकृष्ण बोले- “संसार में रहकर ईश्वरलाभ क्यों नहीं होगा? जनक राजा को हुआ था । रामप्रसाद ने कहा था, यह संसार ‘धोखे की जगह’ (framework of illusion-धोखे की टट्टी) है । परन्तु ईश्वर के चरणकमलों में भक्ति होने पर-
"एई संसारई मजार कुठि (mansion of mirth) , आमि खाई-दाई आर मजा लूटी।
जनक राजा महातेजा , तार किसेर छिलो त्रुटि।
से जे येदिक उदिक दूदिक् रेखे , खेयेछिलो दूधेर बाटी।"
‘यह संसार मौज की जगह है । मैं यहाँ खाता, पीता और मौज उड़ाता हूँ । जनक राजा महातेजस्वी था, उसकी किसी बात में कसर नहीं थी । उसने यह और वह-दोनों बाजू सम्हालकर दूध का प्याला पिया था।’(सब हँसने लगे)
["Why shouldn't one be able to realize God in this world? King Janaka had such realization. Ramprasad described the world as a mere 'framework of illusion'. But if one loves God's hallowed feet, then —This very world is a mansion of mirth;Here I can eat, here drink and make merry.Janaka's might was unsurpassed;What did he lack of the world or the Spirit?Holding to one as well as the other,He drank his milk from a brimming cup!
“সংসারে ঈশবরলাভ হবে না কেন? জনকের হয়েছিল। এ-সংসার ‘ধোঁকার টাটি’ প্রসাদ বলেছিল। তাঁর পাদপদ্মে ভক্তিলাভ করলে —এই সংসারই মজার কুটি, আমি খাই-দাই আর মজা লুটি।জনক রাজা মহাতেজা, তার কিসের ছিল ক্রটি।সে যে এদিক ওদিক দুদিক রেখে, খেয়েছিল দুধের বাটি।” (সকলের হাস্য)]
*मनःसंयोग के लिए उपाय वैराग्य तथा अभ्यास - एकान्तवास तथा विवेक*
“परन्तु कोई एकदम फट से जनक राजा नहीं बन जाता । जनक राजा ने निर्जन में बहुत तपस्या की थी। संसार में रहते हुए भी बीच बीच में एकान्तवास करना चाहिए । गृहस्थी से बाहर निकलकर एकान्त में अकेले रहकर अगर भगवान् के लिए तीन दिन ही रोया जाय तो वह भी अच्छा है । यहाँ तक कि यदि अवसर पाकर एक ही दिन निर्जन में रहकर भगवच्चिन्तन किया जाए तो वह भी अच्छा है । लोग स्त्री-पुत्रों के लिए रोकर लोटाभर आँसू बहाते हैं, ईश्वर के लिए भला कौन रोता है? बीच बीच में निर्जन में रहकर भगवत्प्राप्ति के लिए साधना करनी चाहिए । संसार के भीतर, विशेषकर कामकाज की झंझट में रहकर प्रथम अवस्था में मन को स्थिर करते समय (मनःसंयोग या विवेक-दर्शन का अभ्यास करते समय) अनेक बाधाएँ आती हैं । जैसे रास्ते के किनारे लगाया हुआ पेड़; जिस समय वह पौधे की स्थिति में रहता है, उस समय घेरा न लगाने पर गाय-बकरियाँ खा जाती हैं । प्रथम अवस्था में घेरा । किन्तु बाद में तना मजबूत होने पर घेरे की आवश्यकता नहीं रहती । फिर उसे हाथी बांधनेपर भी कुछ नहीं होता।”
. {"But one cannot be a King Janaka all of a sudden. Janaka at first practised much austerity in solitude. Even if one lives in the world, one must go into solitude now and then. It will be of great help to a man if he goes away from his family, lives alone, and weeps for God even for three days. Even if he thinks of God for one day in solitude, when he has the leisure, that too will do him good. People shed a whole jug of tears for wife and children. But who cries for the Lord? Now and then one must go into solitude (निर्जन में यानि महामण्डल शिविर) and practise spiritual discipline to realize God. Living in the world and entangled in many of its duties, the aspirant, during the first stage of spiritual life, finds many obstacles in the path of concentration. While the trees on the foot-path are young, they must be fenced around; otherwise they will be destroyed by cattle. The fence is necessary when the tree is young, but it can be taken away when the trunk is thick and strong. Then the tree won't be hurt even if an elephant is tied to it.
“কিন্তু ফস করে জনক রাজা হওয়া যায় না। জনক রাজা নির্জনে অনেক তপস্যা করেছিলেন। সংসারে থেকেও এক-একবার নির্জনে বাস করতে হয়। সংসারের বাহিরে একলা গিয়ে যদি ভগবানের জন্য তিনদিনও কাঁদা যায় সেও ভাল। এমনকি অবসর পেয়ে একদিনও নির্জনে তাঁর চিন্তা যদি করা যায়, সেও ভাল। লোক মাগছেলের জন্য একঘটি কাঁদে, ঈশ্বরের জন্যে কে কাঁদছে বল? নির্জনে থেকে মাঝে মাঝে ভগবানের জন্যে সাধন করতে হয়! সংসারের ভিতর কর্মের মধ্যে থেকে, প্রথমাবস্থায় মন স্থির করতে অনেক ব্যাঘাত হয়। ফুটপাতের গাছ; যখন চারা থাকে, বেড়া না দিলে ছাগল-গরুতে খেয়ে ফেলে। প্রথমাবস্থায় বেড়া, গুঁড়ি হলে আর বেড়ার দরকার থাকে না। গুঁড়িতে হাতি বেঁধে দিলেও কিছু হয় না।]
“रोग तो हुआ है सन्निपात का । पर जिस कमरे में सन्निपात का रोगी है, उसी कमरे में पानी का घड़ा और इमली का अचार रखा है । अगर रोगी को आराम पहुँचाना चाहते हो तो पहले उसे उस कमरे से हटाना होगा । संसारी जीव मानो सन्निपात का रोगी है; और विषय है पानी का घड़ा । विषयभोगतृष्णा मानो जलतृष्णा है । इमली, अचार की बात सिर्फ सोचते ही मुँह में पानी आ जाता है, वे चीजें पास नहीं लानी पड़तीं । ऐसी चीज रोगी के कमरे में ही रखी है । संसार में स्त्री-सहवास ऐसी ही चीज है । इसीलिए निर्जन में जाकर चिकित्सा कराना आवश्यक है ।”
. {"The disease of worldliness is like typhoid. And there are a huge jug of water and a jar of savoury pickles in the typhoid patient's room. If you want to cure him of his illness, you must remove him from that room. The worldly man is like the typhoid patient. The various objects of enjoyment are the huge jug of water, and the craving for their enjoyment is his thirst. The very thought of pickles makes the mouth water; you don't have to bring them near. And he is surrounded with them. The companionship of woman is the pickles. Hence treatment in solitude is necessary.}
“विवेक-वैराग्य प्राप्त करके संसार में प्रवेश करना चाहिए । संसारसमुद्र में काम-क्रोधादि मगर हैं । बदन में हलदी मलकर पानी में उतरने पर मगर का डर नहीं रहता । विवेक-वैराग्य ही हलदी है । सदसत्-विचार का नाम विवेक है । ईश्वर ही सत् हैं, नित्यवस्तु हैं बाकी सब असत् अनित्य, दो दिन के लिए है-यह बोध ही विवेक है । और ईश्वर के प्रति अनुराग चाहिए, प्रेम, आकर्षण चाहिए-जैसे गोपियों का कृष्ण के प्रति था ।
. {"One may enter the world after attaining discrimination (विवेक-प्रयोग) and dispassion (अनासक्ति) . In the ocean of the world there are six alligators: lust, anger, and so forth. But you need not fear the alligators if you smear your body with turmeric before you go into the water. Discrimination and dispassion are the turmeric. Discrimination is the knowledge of what is real and what is unreal. It is the realization that God alone is the real and eternal Substance and that all else is unreal, transitory, impermanent. And you must cultivate intense zeal for God. You must feel love for Him and be attracted to Him. The gopis of Vrindavan felt the attraction of Krishna. Let me sing you a song:
“রোগটি হচ্ছে বিকার। আবার যে-ঘরে বিকারের রোগী, সেই ঘরে জলের জালা আর আচার তেঁতুল। যদি বিকারের রোগী আরাম করতে চাও, ঘর থেকে ঠাঁই নাড়া করতে হবে। সংসারী জীব বিকারের রোগী; বিষয় — জলের জালা; বিষয়ভোগতৃষ্ণা — জলতৃষ্ণা। আচার তেঁতুল মনে করলেই মুখে জল সরে, কাছে আনতে হয় না; এরূপ জিনিসও ঘরে রয়েছে; যোষিৎসঙ্গ। তাই নির্জনে চিকিৎসা দরকার।
“বিবেক-বৈরাগ্য লাভ করে সংসার করতে হয়। সংসার-সমুদ্রে কামক্রোধাদি কুমির আছে। হলুদ গায়ে মেখে জলে নামলে কুমিরের ভয় থাকে না। বিবেক-বৈরাগ্য — হলুদ। সদসৎ বিচারের নাম বিবেক। ঈশ্বরই সৎ, নিত্যবস্তু। আর সব অসৎ, অনিত্য; দুদিনের জন্য। এইটি বোধ আর ঈশ্বরে অনুরাগ। তাঁর উপর টান — ভালবাসা। গোপীদের কৃষ্ণের উপর যেরূপ টান ছিল। একটা গান শোন:
एक गाना सुनो-
* उपाय - भगवान के लिए गोपियों जैसा स्नेह और आकर्षण *
बंशी बाजिलो ओइ बिपीने।
(आमार तो ना गेले नय) (श्याम पथे दाड़ाये आछे)
तोरा जाबी की ना जाबी बोल गो।
बंशी बाजिलो ओइ बिपीने।।
(आमार तो ना गेले नय) (श्याम पथे दाडाये आछे)
तोरा जाबी की ना जाबी बोल गो।।
तोदेर श्याम कथार कथा।
आमार श्याम अंतरेर ब्यथा (सई)
तोदेर बाजे बांशी, कानेर काछे।।
बांशी आमार बाजे हृदय माझे।।
श्यामेर बांशी बाजे, बेराओ राई ।
तोमार बिना कुंजेर शोभा नाई।।
(भावार्थ)- “विपिन में बंसी बज उठी । मुझे तो जाना ही होगा, श्याम मेरी राह देख रहा है । तुम लोग चलोगी या नहीं, बताओ । तुम लोगों के लिए श्याम एक नाम है, पर सखि, मेरे लिए श्याम हृदय की व्यथा है । बंसी तुन्हारे कान में बजती है, पर मेरे तो वह हृदय में बजती है । श्याम की बंसी बज रही है । हे राधे, अब चलो, तुम्हारे बिना कुंज में शोभा नहीं आती ।”
[Listen! The flute has sounded in yonder wood.There I must fly, for Krishna waits on the path.Tell me, friends, will you come along or no?To you my Krishna is merely an empty name;To me He is the anguish of my heart.You hear His flute-notes only with your ears,But, oh, I hear them in my deepest soul.I hear His flute calling: 'Radha, come out!Without you the grove is shorn of its loveliness.'
श्रीरामकृष्ण ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से यह गीत गाते गाते केशव आदि भक्तों से कहा, “राधाकृष्ण को मानो या न मानो, पर उनके इस आकर्षण को तो ग्रहण करो ! ईश्वर के लिए इस प्रकार की व्याकुलता हो, इसके लिए प्रयत्न करो । व्याकुलता के आते ही उन्हें प्राप्त किया जा सकता है ।”
ঠাকুর অশ্রুপূর্ণ নয়নে এই গান গাইতে গাইতে কেশবাদি ভক্তদের বললেন, “রাধাকৃষ্ণ মানো আর নাই মানো, এই টানটুকু নাও, ভগবানের জন্য কিসে এইরূপ ব্যাকুলতা হয়, চেষ্টা কর। ব্যাকুলতা থাকলেই তাঁকে লাভ করা যায়।”
{The Master sang the song with tears in his eyes, and said to Keshab and the other Brahmo devotees: "Whether you accept Radha and Krishna, or not, please do accept their attraction for each other. Try to create that same yearning in your heart for God. Yearning is all you need in order to realize Him."
(७)
[श्री केशव सेन के साथ नौका विहार - *विवेकप्रयोग > विवेकजज्ञान >सर्वभूतहिते रताः ]
संनियंयेन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
[(गीता, 12. 4) इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।
दृष्टि के समक्ष मन में विकार या विक्षेप उत्पन्न करने वाले विषयों या परिस्थितियों के होने पर भी जो पुरुष अपना सन्तुलन नहीं खोता है, वही समबुद्धि कहलाता है। जिस पुरुष ने अपनी विवेक-प्रयोग शक्ति का विकास किया है, वह बड़ी सरलता से सौन्दर्य के उस स्वर्णिम तार को देख और पहचान सकता है, जो इस जगत् की उन समस्त वस्तुओं को धारण किये हुए है।]
भाटा शुरू हो गया । जहाज कलकत्ते की ओर द्रुतगति से बढ़ रहा है । इसलिए पुल (Howrah Bridge) पार कर कम्पनी के बगीचे (Botanical Garden) की ओर और थोड़ी दूर तक ले जाने के लिए कप्तान को आदेश दिया गया । जहाज कितनी दूर आ पहुँचा है, इसकी अधिकांश लोगों को सुध नहीं है । वे मग्न होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं । समय कैसे चला जा रहा है, इसका होश नहीं है ।
[Gradually the ebb-tide set in. The steamboat was speeding toward Calcutta. It passed under the Howrah Bridge and came within sight of the Botanical Garden. The captain was asked to go a little farther down the river. The passengers were enchanted with the Master's words, and most of them had no idea of time or of how far they had come.
अब मुरमुरे और नारियल के टुकड़े बाँटे गए । सब ने थोड़ा थोड़ा लेकर खाना शुरू किया । आनन्द की हाट लगी है । केशव ने मुरमुरे आदि लाने की व्यवस्था की थी । ऐसे समय श्रीरामकृष्ण के ध्यान में आया कि विजय और केशव (kjn) दोनों ही संकुचित होकर बैठे हुए हैं । तब जिस प्रकार दो नादान बच्चों में झगड़ा हो जाने पर कोई बड़ा व्यक्ति समझौता करा देता है, उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण उन दोनों के बीच समझौता कराने लगे ।
[The Master noticed, however, that Keshab and Vijay rather shrank from each other, and he was anxious to reconcile them.]
‘सर्वभूतहिते रताः ।’ श्रीरामकृष्ण (केशव के प्रति)-अजी ! ये विजय आए हैं । तुम लोगों का झगड़ा-विवाद मणि शिव और राम की लड़ाई है । राम के गुरु शिव हैं । दोनों में युद्ध भी हुआ, फिर सन्धि भी हो गयी । पर शिव के भूतप्रेत और राम के बन्दर ऐसे थे कि उनका झगड़ना किचकिचाना रुकता ही न था । (सब जोर से हँस पड़े ।)
“अपने ही लोग हैं । ऐसा होता ही है । लव-कुश ने भी राम के साथ युद्ध किया था । फिर जानते हो न माँ और बेटी अलग से मंगलवार का व्रत रखती हैं, मानो माँ का मंगल और बेटी का मंगल अलग अलग है । परन्तु वास्तव में तो माँ के मंगल से बेटी का मंगल होता है और बेटी के मंगल से माँ का । इसी तरह तुममें से एक के एक समाज (पद) है, अब दूसरे को भी एक (पद) चाहिए । (सब हँसते हैं ।) पर यह सब (अहं को हटाने-मनुष्य बनने के लिए) जरुरी है ।
तुम कहोगे कि जहाँ भगवान् ने स्वयं लीला की, वहाँ जटिला-कुटिला की क्या जरूरत थी? पर जटिला-कुटिला के सिवा लीला पुष्ट नहीं हो पाती । बिना उनके रंग नहीं चढ़ता । (सब जोर से हँसते हैं ।)
.{MASTER (to Keshab): "Look here. There is Vijay. Your quarrel seems like the fight between Siva and Rama. Siva was Rama's guru. Though they fought with each other, yet they soon came to terms. But the grimaces of the ghosts, the followers of Siva, and the gibberish of the monkeys, the followers of Rama, would not come to an end! (Loud laughter.) Such quarrels take place even among one's own kith and kin. Didn't Rama fight with His own sons, Lava and Kusa? Again, you must have noticed how a mother and daughter, living together and having the same spiritual end in view, observe their religious fast separately on Tuesdays, each on her own account — as if the welfare of the mother were different from the welfare of the daughter. But what benefits the one benefits the other. In like manner, you have a religious society (सेक्रेटरी का पद) , and Vijay thinks he must have one too (सेक्रेटरी पद) . (Laughter.) But I think all these are necessary. While Sri Krishna, Himself God Incarnate, played with the gopis at Vrindavan, trouble-makers like Jatila and Kutila appeared on the scene. You may ask why. The answer is that the play does not develop without trouble-makers. (All laugh.) There is no fun without Jatila and Kutila. (Loud laughter.)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (কেশবের প্রতি) — ওগো! এই বিজয় এসেছেন। তোমাদের ঝগড়া-বিবাদ — যেন শিব ও রামের যুদ্ধ। (হাস্য) রামের গুরু শিব। যুদ্ধও হল, দুজনে ভাবও হল। কিন্তু শিবের ভূতপ্রেতগুলো আর রামের বানরগুলো ওদের ঝগড়া কিচকিচি আর মেটে না! (উচ্চহাস্য)
(८)
*गुरुगिरी और ब्राह्मसमाज । एक सच्चिदानन्द ही गुरु हैं ।*
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोस्त्यऽभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमभाव ।
[ गीता, ११/४३)-[आप ही इस चराचर संसार के पिता हैं, आप ही पूजनीय हैं और आप ही गुरुओं के महान् गुरु हैं। हे अनन्त प्रभावशाली भगवन् ! इस त्रिलोकी में आपके समान भी दूसरा कोई नहीं है, फिर अधिक तो हो ही कैसे सकता है। ]
सब लोग आनन्दित हैं । श्रीरामकृष्ण केशव से कहते हैं, “तुम स्वभाव परखकर शिष्य नहीं बनाते, इसीलिए आपस में इस तरह की फूट हुआ करती है ।”
“सभी मनुष्य दीखने में एक सरीखे हैं, पर हर एक का स्वभाव भिन्न है । किसी के भीतर सत्त्वगुण अधिक है, किसी के भीतर रजोगुण तो किसी के भीतर तमोगुण । गुझियाँ बाहर से एक–सी दिखायी देती हैं पर किसी के भीतर खोया, किसी के भीतर नारियल तो किसी के भीतर उड़द की डाल होती है । (सब हँसते हैं ।)
.{"All men look alike, to be sure, but they have different natures. Some have an excess of sattva, others an excess of rajas, and still others an excess of tamas. You must have noticed that the cakes known as puli all look alike. But their contents are very different. Some contain condensed milk, some coconut kernel, and others mere boiled kalai pulse. (All laugh.)
“মানুষগুলি দেখতে সব একরকম, কিন্তু ভিন্ন প্রকৃতি। কারু ভিতর সত্ত্বগুণ বেশি, কারু রজোগুণ বেশি, কারু তমোগুণ। পুলিগুলি দেখতে সব একরকম। কিন্তু কারু ভিতর ক্ষীরের পোর, কারু ভিতর নারিকেলের ছাঁই, কারু ভিতর কলায়ের পোর। (সকলের হাস্য)]
“मेरा भाव क्या है, जानते हो? मैं खाता, पीता और मजे में रहता हूँ, बाकी की सब माँ ही जाने । तीन बातों से मेरी देह में मानो काँटा चुभ जाता है- गुरु, कर्ता और बाबा ।”
["Do you know my attitude? As for myself, I eat, drink, and live happily. The rest the Divine Mother knows. Indeed, there are three words that prick my flesh: 'guru', 'master', and 'father'.
“गुरु एकमात्र सच्चिदानन्द ही है । वे ही सब को शिक्षा देंगे । मेरा सन्तानभाव है । वैसे मनुष्य-गुरु तो लाखों मिलते हैं । सभी गुरु बनना चाहता है । शिष्य कौन बनना चाहता है ?”
["There is only one Guru, and that is Satchidananda. He alone is the Teacher. My attitude toward God is that of a child toward its mother. One can get human gurus by the million. All want to be teachers. But who cares to be a disciple?
“গুরু এক সচ্চিদানন্দ। তিনিই শিক্ষা দিবেন। আমার সন্তানভাব। মানুষ গুরু মেলে লাখ লাখ। সকলেই গুরু হতে চায়। শিষ্য কে হতে চায়?]
“लोकशिक्षा देना बड़ा कठिन है । यदि ईश्वर का साक्षात्कार हो और वे आदेश दें, तो यह सम्भव हो सकता है । नारद, शुकदेव आदि को आदेश हुआ था, शंकराचार्य को आदेश हुआ था । आदेश न मिलने से तुम्हारी बात कौन सुनेगा? कलकत्ते के लोगों की हुल्लड़बाजी (खेला होबे ?) तो जानते ही हो ! जब तक नीचे लकड़ी जलती है तब दूध उफनकर ऊपर आता है । लकड़ी को खींच लेते ही सब कुछ शान्त हो जाता है । कलकत्ते के लोग हुल्लड़बाज हैं । अभी एक जगह कुआँ खोद रहे हैं- पानी चाहिए । वहाँ पत्थर निकलने लगे कि खोदना छोड़ दिया ! और एक जगह खोदना शुरू किया । वहाँ रेती निकलने लगी कि वह जगह भी छोड़ दी । फिर दूसरी जगह खोदने ही लगे । यही तो उनका हाल है ।”
["Don't you know how easily the people of Calcutta get excited? The milk in the kettle puffs up and boils as long as the fire burns underneath. Take away the fuel and all becomes quiet. The people of Calcutta love sensations. You may see them digging a well at a certain place. They say they want water. But if they strike a stone they give up that place; they begin at another place. And there, perchance, they find sand; they give up the second place too. Next they begin at a third. And so it goes. But it won't do if a man only imagines that he has God's command.
[“লোকশিক্ষা দেওয়া বড় কঠিন। যদি তিনি সাক্ষাৎকার হন আর আদেশ দেন, তাহলে হতে পারে। নারদ শুকদেবাদির আদেশ হয়েছিল। শঙ্করের আদেশ হয়েছিল। আদেশ না হলে কে তোমার কথা শুনবে? কলকাতার হুজুগ তো জানো! যতক্ষণ কাঠে জ্বাল, দুধ ফোঁস করে ফোলে। কাঠ টেনে নিলে কোথাও কিছু নাই। কলকাতার লোক হুজুগে। এই এখানটায় কুয়া খুঁড়ছে। — বলে জল চাই। সেখানে পাথর হল তো ছেড়ে দিলে! আবার এক জায়গায় খুঁড়তে আরম্ভ করলে। সেখানে বালি মিলে গেল; ছেড়ে দিলে! আর-এক জায়গায় খুঁড়তে আরম্ভ হল! এইরকম!]
‘परन्तु आदेश मिला है यह केवल मन में सोच लेने से नहीं चलता । ईश्वर सचमुच ही दर्शन देते हैं और बातचीत करते हैं । इसी अवस्था में आदेश [चपरास] प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार आदेशप्राप्त व्यक्ति (जीवनमुक्त शिक्षक या नवनीदा जैसे नेता C-IN-C) की बातों में कितना जोर होता है ! पर्वत भी टल जाता है । सिर्फ लेक्चर से क्या होगा? लोक कुछ दिन सुनेंगे, फिर भूल जाएँगे; उसके अनुसार नहीं चलेंगे ।’
{"God does reveal Himself to man and speak. Only then may one receive His command. How forceful are the words of such a teacher (CINC नवनीदा) ! They can move mountains. But mere lectures? People will listen to them for a few days and then forget them. They will never act upon mere words.
“আবার মনে-মনে আদেশ হলে হয় না। তিনি সত্য-সত্যই সাক্ষাৎকার হন, আর কথা কন। তখন আদেশ হতে পারে। সে-কথার জোর কত? পর্বত টলে যায়। শুধু লেকচার? দিন কতক লোকে শুনবে, তারপর ভুলে যাবে। কথা অনুসারে সে কাজ করবে না।”
*लोकशिक्षा देना हो तो चपरास चाहिए । *
“उस ओर हालदारपुकुर नाम का एक तालाब है । कुछ लोग उसके किनारे रोज सबेरे पाखाना फिरा करते थे । जो लोग सबेरे स्नानादि के लिए आते थे यह देखकर उनके नाम से खूब चिल्लाते, खूब कोसते । पर दूसरे दिन फिर वही हाल ! पाखाना फिरना बन्द नहीं होता था । तब लोगों ने कम्पनी को यह बात जतायी । कम्पनीवालों ने एक चपरासी को भेजा । जब उस चपरासी ने आकर एक कागज चिपका दिया- ‘यहाँ पाखाना न फिरे’- तब सब बन्द हो गया । (सब हँसते हैं)”
“लोकशिक्षा देना हो तो चपरास चाहिए । नहीं तो वह हास्यापद बात हो जाती है । खुद को ही नहीं मिली, दूसरों को देने चला है । एक अन्धा दूसरे अन्धे को राह बताते हुए ले चला है । (हास्य) इससे हित होने के बजाय विपरीत ही होता है । ईश्वरलाभ होने पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है, उसी समय किसे कौनसा रोग है यह समझ में आता है, योग्य उपदेश दिया जा सकता है ।”
.{"To teach others, one must have a badge of authority (C-IN-C) ; otherwise teaching becomes a mockery. A man who is himself ignorant starts out to teach others — like the blind leading the blind! Instead of doing good, such , teaching does harm. After the realization of God one obtains an inner vision. Only then can one diagnose a person's spiritual malady and give instruction.
“अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहं इति मन्यते” (गीता -3.27)
[सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किये जाते हैं, अहंकार से मोहित हुआ पुरुष, "मैं कर्ता हूँ" ऐसा मान लेता है। अनासक्त अथवा निष्काम कर्म - Be and Make ' ही महामण्डल का आदर्श है। यह कहना सरल परन्तु करना कठिन होता है। यहाँ भगवान् विवेक-प्रयोग की वह पद्धति बता रहें हैं जिसके द्वारा इस अनासक्ति को हम प्राप्त कर सकते हैं। जहाँ मन है वहाँ कर्म भी है। कर्म मन से ही उत्पन्न होते हैं और मन से ही शक्ति प्राप्तकर मन की सहायता से ही किये जाते हैं। परन्तु मन के साथ अविद्याजनित मिथ्या तादात्म्य के कारण मनुष्य स्वयं को ही कर्ता मानता है। कर्तृत्व की भावना होने पर फल की चिन्ता व्याकुलता एवं आसक्ति होना स्वाभाविक ही है। स्वप्न में अपने ही संस्कारों से एक जगत् उत्पन्न करके मनुष्य उसके साथ तादात्म्य स्थापित करता है उसे ही स्वप्नद्रष्टा कहते हैं। स्वप्न के दुख स्वप्नद्रष्टा के लिए होते हैं और किसी के लिए नहीं। स्वप्नजगत् के साथ तादात्म्य को त्यागने पर द्रष्टा के सब दुख समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार (पद की) वासना इच्छा कर्म अथवा फल स्वयं किसी भी प्रकार की आसक्ति को जन्म नहीं देते किन्तु जब हमारा तादात्म्य मन (मिथ्या व्यष्टि अहं) के साथ हो जाता है तो कर्तृत्व और आसक्ति दोनों की ही उत्पत्ति होती है। जिस क्षण इस विवेक का उदय होता है आसक्ति का अस्तित्व वहाँ नहीं रह पाता। जीवन शान्तिमय हो जाता है।]
“आदेश (चपरास) न मिलने पर ‘मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ इस प्रकार का अहंकार होता है । अहंकार होता है अज्ञान के कारण । अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ । ईश्वर ही कर्ता हैं, ईश्वर सब कुछ कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ-यह बोध हो जाने पर तो मनुष्य जीवन्मुक्त हो गया । ‘मैं कर्ता हूँ’ इस बोध के कारण ही इतना दुःख, इतनी अशान्ति पैदा होती है ।
{"Without the commission from God , a man becomes vain. He says to himself, 'I am teaching people.' This vanity comes from ignorance, for only an ignorant person feels that he is the doer. A man verily becomes liberated in life if he feels: 'God is the Doer. He alone is doing everything. I am doing nothing.' Man's sufferings and worries spring only from his persistent thought that he is the doer.}
“লোকশিক্ষা দেবে তার চাপরাস চাই। না হলে হাসির কথা হয়ে পড়ে। আপনারই হয় না, আবার অন্যলোক। কানা কানাকে পথ দেখিয়ে যাচ্ছে। (হাস্য) হিতে-বিপরীত। ভগবানলাভ হলে অর্ন্তদৃষ্টি হয়, কার কি রোগ বোঝা যায়। উপদেশ দেওয়া যায়।”
“আদেশ না থাকলে ‘আমি লোকশিক্ষা দিচ্ছি’ এই অহংকার হয়। অহংকার হয় অজ্ঞানে। অজ্ঞানে বোধ হয়, আমি কর্তা। ঈশ্বর কর্তা, ঈশ্বরই সব করছেন, আমি কিছু করছি না — এ-বোধ হলে তো সে জীবন্মুক্ত। ‘আমি কর্তা’, ‘আমি কর্তা’ — এই বোধ থেকেই যত দুঃখ, অশান্তি।”]
(९)
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥
*केशवादि ब्राह्मभक्तों को कर्मयोगसम्बन्धी उपदेश*
श्रीरामकृष्ण (केशवादि से) - तुम लोग ‘दुनिया का भला’ करने की बातें करते हो । क्या दुनिया इतनी छोटी है और तुम कौन हो दुनिया का भला करनेवाले? साधना के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार कर लो, उनका लाभ कर लो । वे यदि शक्ति दें तो सब का हित कर सकोगे, अन्यथा नहीं । .
{"You people speak of doing good to the world. Is the world such a small thing? And who are you, pray, to do good to the world? First realize God, see Him by means of spiritual discipline. If He imparts power, then you can do good to others; otherwise not."}
एक भक्त- जब तक ईश्वरलाभ न हो जाय तब तक क्या सब कर्म त्याग दें ?
श्रीरामकृष्ण- नहीं, कर्मों का त्याग क्यों करोगे ? ईश्वर का चिन्तन, उनका नामगुनगान, नित्यकर्म-यह सब करना पड़ेगा ।
{MASTER: "No. Why should you? You must engage in such activities as contemplation, singing His praises, and other daily devotions.3H विकास के 5 अभ्यास करना होगा। "
*ब्राह्मभक्त- संसार का कर्म? वैषयिक कर्म ?*
श्रीरामकृष्ण- हाँ, वह भी करो, संसारयात्रा के निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो उतना ही । परन्तु निर्जन में रो-रोकर ईश्वर से प्रार्थना करनी होगी, ताकि इन कर्मों को निष्काम भाव से किया जा सके । कहो, ‘हे ईश्वर, मेरे विषय-कर्म कम कर दो, क्योंकि प्रभो, मैं देख रहा हूँ कि ज्यादा कामकाज के आ पड़ने से मैं तुम्हें भूल जाता हूँ । सोचता हूँ कि मैं निष्काम कर्म कर रहा हूँ पर वह सकाम हो जाता है । ‘दान-धर्म’ आदि अधिक करने गए कि नाम कमाने की इच्छा आ जाती है ।’
{MASTER: "Yes, you can perform them too, but only as much as you need for your livelihood. At the same time, you must pray to God in solitude, with tears in your eyes, that you may be able to perform those duties in an unselfish manner. You should say to Him: 'O God, make my worldly duties fewer and fewer; otherwise, O Lord, I find that I forget Thee when I am involved in too many activities. I may think I am doing unselfish work, but it turns out to be selfish.' People who carry to excess the giving of alms, or the distributing of food among the poor, fall victims to the desire of acquiring name and fame.}
*पूर्वकथा-शम्भु मल्लिक के साथ दानादि कर्मकाण्ड-सम्बन्ध में वार्तालाप*
“शम्भु मल्लिक अस्पताल, दवाखाना, स्कूल, रास्ते, तालाब आदि बनवाने की बात कह रहा था । मैंने कहा, जो काम सामने आ पड़ा है, किए बिना नहीं चल सकता, उसी को निष्काम होकर करना चाहिए । जान-बूझकर ज्यादा कामों में उलझना ठीक नहीं-इससे ईश्वर का विस्मरण हो जाता है । कालीघाट में जाकर दान ही करने लग गए, काली के दर्शन हुए ही नहीं ! (हास्य) पहले किसी तरह धक्काधुक्की खाकर भी कालीदर्शन कर लेना चाहिए, उसके बाद चाहे जितना दान करो या न करो, इच्छा हो तो खूब करो । ईश्वरलाभ के लिए ही कर्म है । इसीलिए शम्भु को कहा, अगर ईश्वर के दर्शन हों तो क्या तुम उनसे कहोगे कि कुछ अस्पताल और दवाखाना बनवा दो? (हास्य) भक्त कभी इस प्रकार नहीं कहेगा । बल्कि वह तो कहेगा, ‘प्रभो, मुझे अपने पादपद्मों में आश्रय दो, सदा अपने साथ रखो, अपने चरणकमलों के प्रति शुद्ध भक्ति दो’ ।”
{"Sambhu Mallick once talked about establishing hospitals, dispensaries, and schools, making roads, digging public reservoirs, and so forth. I said to him: 'Don't go out of your way to look for such works. Undertake only those works that present themselves to you and are of pressing necessity — and those also in a spirit of detachment.' It is not good to become involved in many activities. That makes one forget God. Coming to the Kalighat temple, some, perhaps, spend their whole time in giving alms to the poor. They have no time to see the Mother in the inner shrine! (Laughter.) First of all manage somehow to see the image of the Divine Mother, even by pushing through the crowd. Then you may or may not give alms, as you wish. You may give to the poor to your heart's content, if you feel that way. Work is only a means to the realization of God. Therefore I said to Sambhu, 'Suppose God appears before you; then will you ask Him to build hospitals and dispensaries for you?' (Laughter.) A lover of God never says that. He will rather say: '0 Lord, give me a place at Thy Lotus Feet. Keep me always in Thy company. Give me sincere and pure love for Thee.'}
“कर्मयोग बड़ा कठिन है । शास्त्र में जिन कर्मों के बारे में कहा गया है, कलिकाल में उन्हें करना बड़ा कठिन है । लोग अन्न्गतप्राण हैं-जीवन अन्न पर ही निर्भर है । अधिक कर्म करना सम्भव नहीं । बुखार होने पर यदि वैद्यजी से चिकित्सा करवाने जायँ तो इधर रोगी ख़त्म हो जाता है । अधिक देरी सहन नहीं होती । आजकल डी. गुप्त का जमाना है । कलियुग में उपाय है भक्तियोग-भगवान् का नामगुणगान और प्रार्थना । भक्तियोग ही युगधर्म है । (ब्राह्मभक्तों के प्रति) तुम लोगों का मार्ग भी भक्तिमार्ग ही है, तुम लोग हरिनाम संकीर्तन करते हो, जगदम्बा का नामगुणगान करते हो, तुम धन्य हो ! तुम्हारा भाव बहुत अच्छा है । वेदान्तवादियों की तरह तुम लोग संसार को स्वप्नवत् नहीं मानते । तुम उस तरह के ब्रह्मज्ञानी नहीं हो, तुम भक्त हो । तुम ईश्वर को व्यक्ति(Person) मानते हो, यह भी अच्छा भाव है । तुम लोग भक्त हो । व्याकुल होकर ईश्वर को पुकारने से उनके दर्शन अवश्य पाओगे ।”
{"Karmayoga is very hard indeed. In the Kaliyuga it is extremely difficult to perform the rites enjoined in the scriptures. Nowadays man's life is centred on food alone. He cannot perform many scriptural rites. Suppose a man is laid up with fever. If you attempt a slow cure with the old-fashioned indigenous remedies, before long his life may be snuffed out. He can't stand much delay. Nowadays the drastic 'D. Gupta' (A patent fever medicine containing a strong dose of quinine.) mixture is appropriate. In the Kaliyuga the best way is bhaktiyoga, the path of devotion — singing the praises of the Lord, and prayer. The path of devotion alone is the religion for this age. (To the Brahmo devotees) Yours also is the path of devotion. Blessed you are indeed that you chant the name of Hari and sing the Divine Mother's glories. I like your attitude. You don't call the world a dream, like the non-dualists. You are not Brahmajnanis like them; you are bhaktas, lovers of God. That you speak of Him as a Person is also good. You are devotees. You will certainly realize Him if you call on Him with sincerity and earnestness."}
(१०)
*सुरेन्द्र के मकान पर नरेन्द्र आदि के साथ*
अब जहाज कोयलाघाट लौट आया । सब लोग उतरने की तैयारी करने लगे । कमरे से बाहर निकलते ही सब ने देखा, कोजागरी पौर्णिमा का पूर्णचन्द्र हँस रहा है, भागीरथी के जल पर मानो उसकी ज्योत्सना का लीलाविलास चल रहा है । श्रीरामकृष्ण के लिए गाड़ी मंगवायी गयी । कुछ देर बाद मास्टर और एक-दो भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण गाड़ी में बैठे । केशव के भतीजे नन्दलाल भी गाड़ी में बैठे, थोड़ी दूर तक साथ जाएँगे ।
जब सब जन गाड़ी में बैठ गए तब श्रीरामकृष्ण ने पूछा, “वे कहाँ हैं?” अर्थात् केशव कहाँ हैं? देखते ही देखते केशव आ खड़े हुए । चेहरे पर मुस्कान थी । आकर पूछा, “कौन कौन साथ जा रहे हैं?” गाड़ी में सब के बैठ जाने पर केशव ने भूमिष्ठ होकर श्रीरामकृष्ण की पदधुली ग्रहण की । श्रीरामकृष्ण ने भी स्नेहपूर्ण शब्दों में विदा ली ।
गाड़ी चलने लगी । यह अंग्रेजों का मुहल्ला है । सुन्दर राजमार्ग है । दोनों ओर सुन्दर सुन्दर इमारतें हैं । पूर्णचन्द्र उदित हुआ है; इमारतों मानो चन्द्र की विमल, शीतल किरणों में विश्राम कर रही हैं । दरवाजों पर गैसबत्तियाँ, कमरों के भीतर दीपमालाएँ जगमगा रही है । जगह जगह पर हार्मोनियम-पियानो के साथ अंग्रेज महिलाएँ गा रही है ।
श्रीरामकृष्ण आनन्द से मृदु हास्य करते हुए जा रहे हैं । एक जगह एकाएक बोल उठे, “मुझे प्यास लग रही है, क्या किया जाय?” नन्दलाल ने इण्डिया क्लब के पास गाड़ी रुकवायी और ऊपर जाकर काँच के गिलास में पानी ले आए । श्रीरामकृष्ण ने मुसकराते हुए पूछा, “गिलास धोया है न?” नन्दलाल के “हाँ” कहने पर श्रीरामकृष्ण ने उस गिलास का पानी पी लिया । आपका बालक जैसा स्वभाव है । गाड़ी के चलने लगते ही बाहर झाँककर आसपास के मनुष्य, गाड़ी-घोड़े, चाँदनी आदि देखने लगे । हर एक बात में आनन्दित हो रहे हैं ।
नन्दलाल कलुटोला में उतरे । श्रीरामकृष्ण की गाड़ी सिमुलिया स्ट्रीट में श्री सुरेश मित्र के मकान के सामने आ पहुँची । श्रीरामकृष्ण इन्हें सुरेन्द्र कहा करते थे । सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के परम भक्त हैं । परन्तु सुरेन्द्र घर में नहीं हैं । अपने नये बगीचे में गए हैं । घर के लोगों ने बैठने के लिए नीचे का कमरा खोल दिया । गाड़ी का किराया देना होगा । कौन देगा? अगर सुरेन्द्र होते तो वे ही देते । श्रीरामकृष्ण ने एक भक्त से कहा, “किराया घर की स्त्रियों से माँग लो न ! क्या वे नहीं जानतीं कि उनके पति वहाँ आया-जाया करते हैं?” (सब हँसते हैं ।)
[The members of the household opened a room on the ground floor for the Master and his party. The cab fare was to be paid. Surendra would have taken care of it had he been there. The Master said to a devotee: "Why don't you ask the ladies to pay the fare? They certainly know that their master visits us at Dakshineswar. I am not a stranger to them." (All laugh.)
नरेन्द्र उसी मुहल्ले में रहते हैं । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को बुला लाने कहा । घरवालों ने श्रीरामकृष्ण को दूसरे मँझले पर ले जाकर बैठाया । कमरे की फर्श पर बिछायत बिछी हुई है, उस पर दो-चार तकिये रखे हैं । दीवार पर सुरेन्द्र के द्वारा विशेष प्रयत्नपूर्वक बनवाया हुआ तैलचित्र है, जिसमें केशव को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध आदि सब धर्म तथा वैष्णवश्रीरामकृष्ण , शाक्त, शैव आदि सब सम्प्रदायों का समन्वय दिखला रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण प्रसन्न बैठकर मुस्कराते हुए बातचीत कर रहे हैं । इतने में नरेन्द्र आ पहुँचे । अब तो श्रीरामकृष्ण का आनन्द द्विगुणित हो उठा । आपने कहा, “आज केशव सेन के साथ जहाज में बैठकर घूमने गया था । विजय था, ये सब लोग थे ।” मास्टर को निर्देशित करते हुए कहा, “इनसे पूछो, विजय और केशव को मैंने कैसे माँ-बेटी का मंगलवार, जटिला-कुटिला के बिना लीला की पुष्टि नहीं होती-ये सब बातें कहीं । (मास्टर से) क्यों जी? ”
मास्टर- जी हाँ ।
रात हो गयी पर अब भी सुरेन्द्र नहीं लौटे । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जाएँगे, अब अधिक देर नहीं की जा सकती, रात के साढ़े दस बज गए है । राह में चन्द्रमा का प्रकाश छाया है । गाड़ी आयी । श्रीरामकृष्ण चढ़े । नरेन्द्र और मास्टर ने उन्हें प्रणाम किया और दोनों कलकत्ते में अपने अपने घर लौटे ।
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*^* प्रत्याहार -धारणा (विवेक-दर्शन) का अभ्यास करने के लिए- पहले से ही किसी योग्य आदर्श (पुरुषोत्तम-नरेन्द्र) का चयन ( निर्धारण) करना क्यों आवश्यक है ?
मन की अतिरिक्त चंचलता या मन की बहिर्मुखी प्रवृत्ति की विरति (abstinence-दिशापरिवर्तन, निम्नगामी मन को उर्ध्वगामी बनाना) तब तक संभव नहीं होती है, जब तक कि हम उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्ति को विकसित करने हेतु, (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास करने के लिए) पहले से ही किसी श्रेष्ठ आलम्बन का चयन प्रदान नहीं करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है - "सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यः मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।॥ गीता 18.66॥
।।गीता 18.66।। सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में प्रयुक्त धर्म शब्द की सरल और संक्षिप्त परिभाषा है- अस्तित्व का नियम (law of existence)। धर्म किसी वस्तु का वह गुण-विशेष है , जिसके रहने के कारण वस्तु का वस्तुत्व सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं ! वह गुण-विशेष ही उस वस्तु का धर्म कहलाता है। जैसे उष्णता अग्नि का धर्म हैं , आग में हाथ डालने से हाथ जलना ही चाहिए। आग कभी शीतल नहीं होती। जगत् की प्रत्येक वस्तु के दो धर्म होते हैं (1) मुख्य धर्म (स्वाभाविक) और (2) गौण धर्म (कृत्रिम या नैमित्तिक) गौण धर्मों के परिवर्तन अथवा अभाव में भी पदार्थ यथावत् बना रह सकता है। परन्तु अपने मुख्य (स्वाभाविक) धर्म का परित्याग करके क्षणमात्र भी वह नहीं रह सकता। अग्नि की ज्वाला का वर्ण या आकार अग्नि का गौण धर्म है, जबकि उष्णता इसका मुख्य धर्म है। किसी पदार्थ का मुख्य धर्म ही उसका धर्म होता है। इस दृष्टि से मनुष्य का मुख्य धर्म क्या है ? उसके शरीर ? उसकी त्वचा का वर्ण? वेश-भूषा ये सब मनुष्य के गौण धर्म ही है। वह परिवर्तनशील शरीर-मन उपाधियों के जन्म-मरण आदि धर्मों को अपने ही धर्म समझता है। परन्तु वस्तुत ये हमारे शुद्ध स्वरूप के धर्म नहीं हैं। वे गौण धर्म होने के कारण उनका परित्याग करने का यहाँ उपदेश दिया गया है। इनके परित्याग का अर्थ मिथ्या अहंकार का नाश ही है। इसलिए समस्त धर्मों का त्याग करने का अर्थ हुआ कि शरीर, मन की जड़ उपाधियों के साथ हमने जो आत्मभाव से तादात्म्य किया है अर्थात् उन्हें ही अपना स्वरूप समझा है, उस मिथ्या तादात्म्य का त्याग करना। आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण और आत्मदोषानुसन्धान ही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का गूढ़ अभिप्राय हैं। मनुष्य का मुख्य धर्म निःस्वार्थपरता है , घोर-स्वार्थी या 100 % स्वार्थी पशु होता है, और जो मनुष्य 100 % निःस्वार्थी बन जाता है वह देवता में रूपांतरित हो जाता है। ]
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