बंगाल में ‘मतुआ धर्म’ मानने वालों की संख्या १.२ करोड़ है जबकि देश भर में इनकी संख्या ४ करोड़ के लगभग है। मतुआ समुदाय के अंतर्गत मूल रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोग आते हैं जो राज्य के तकरीबन ८ जिलों में अच्छी खासी तादाद में हैं। इसमें प्रमुख रूप से हावड़ा, उत्तर और दक्षिण २४ परगना जिले, नाडिया, मालदा आदि जिले शामिल हैं। राज्य के ७४ विधानसभा क्षेत्रों में मतुआ समुदाय काफी निर्णायक भूमिका में हैं।
पहले मतुआ समुदाय कम्युनिस्ट दलों का वोट बैंक रहा है। लेकिन वर्ष २००८ के पंचायत चुनाव और वर्ष २००९ के लोकसभा चुनाव में वाम दलों से इस समुदाय का मोह भंग हो गया और इसने टीएमसी की ओर रुख किया है। टीएमसी की ममता बनर्जी अखिल भारतीय मतुआ महासभा २०१० की मुख्य संरक्षक भी बन गई। टीएमसी ने तो मतुआ समुदाय की प्रसिद्घ धार्मिक गुरू ९२ वर्षीय बिनापाणी देवी (बोड़ो-माँ ) के पुत्र मंजुलकृष्णा ठाकुर को चुनावी मैदान में भी उतार दिया। माना जा रहा है मतुआ समुदाय का रुझान टीएमसी के प्रति कुछ ज्यादा था । किन्तु पीएम मोदी के आने के बाद मतुआ समाज के बड़-दा और राज्य सरकार के मंत्री रहे मंजुल कृष्ण ठाकुर ने पार्टी छोड़ दी और भाजपा में शामिल हो गए। इस प्रकार मतुआ आंदोलन भी राजनितिक आंदोलन बनकर रह गया।
ऋग्वेद के अनुसार, "एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति", अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं। ईश्वर एक और केवल एक है। वो सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त भी है और विश्व के परे भी। उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्त्व है। वही परम सत्य, सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ है। वो कालातीत, नित्य और शाश्वत है। वही परम ज्ञान है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई फ़र्क नहीं है--और विष्णु (राम,कृष्ण,बुद्ध,ईसा,श्रीरामकृष्ण .....) ही ईश्वर हैं। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति "माया" से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। इस स्थिति में हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उसपर अपना कुप्रभाव नहीं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है।इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी में) अल्लाह, (फ़ारसी में) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेज़ी में) गॉड और यहूदी (इब्रानी में) याह्वेह कहते हैं। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान। वो ही जगत का सार है, जगत की आत्मा है। वो विश्व का आधार है। उसी से विश्व की उत्पत्ति होती है और विश्व नष्ट होने पर उसी में विलीन हो जाता है। जब माया (चित्त) के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखायी पड़ता है।
अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव 'ब्रह्म' को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म 'ईश्वर' हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश मे रहता है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उन पर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। हिन्दुओं में कोई एक पैगम्बर (योगप्रशिक्षक या योगेश्वर श्रीकृष्ण ) नहीं है। धर्म की रक्षा के लिए ईश्वर (योगेश्वर श्रीकृष्ण अक्रम मुक्ति sudden Liberation द्वारा) आदर्शकर्मी बनकर या योग-प्रशिक्षक बनकर बार-बार पैदा होते हैं. गीता ४/१३ में भगवन श्री कृष्ण ने और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है की की वर्णों की व्यवस्था जन्म के आधार पर नहीं कर्म के आधार पर होती है !
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥
अर्थात् –मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है। उस( सृष्टिरचना आदि) का कर्ता होनेपर भी मुझ अव्यय परमेश्वरको तू अकर्ता जान। कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।
[ ( ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन ) चारों वर्णोंका नाम चातुर्वर्ण्य है। सत्त्व रज तम इन तीनों गुणोंके विभागसे तथा कर्मोंके विभागसे यह चारों वर्ण मुझ ईश्वर द्वारा रचे हुए उत्पन्न किये हुए हैं। ब्राह्मण इस पुरुषका मुख हुआ इत्यादि श्रुतियोंसे यह प्रमाणित है। उनमें से सात्त्विक सत्त्वगुण-प्रधान ब्राह्मण के शम, दम,तप इत्यादि कर्म हैं। जिसमें सत्त्वगुण गौण है और रजोगुण प्रधान है उस क्षत्रिय के शूरवीरता तेज प्रभृति कर्म हैं। जिसमें तमोगुण गौण और रजोगुण प्रधान है ऐसे वैश्य के कृषि आदि कर्म हैं। तथा जिसमें रजोगुण गौण और तमोगुण प्रधान है उस शूद्र का केवल सेवा ही कर्म है। इस प्रकार गुण और कर्मोंके विभागसे चारों वर्ण मेरेद्वारा उत्पन्न किये गये हैं यह अभिप्राय है। ]
यदि चातुर्वर्ण्यकी रचना आदि कर्म के आप कर्ता हैं तब तो उसके फलसे भी आपका सम्बन्ध होता ही होगा इसलिये आप नित्य-मुक्त और नित्य-ईश्वर भी नहीं हो सकते ! इस पर कहा जाता है यद्यपि मायिक व्यवहारसे मैं उस कर्म का कर्ता हूँ तो भी वास्तवमें मुझे तू अकर्ता ही जान तथा इसीलिये मुझे अव्यय और असंसारी ही समझ।ऐसी यह चार वर्णोंकी अलगअलग व्यवस्था दूसरे लोकोंमें नहीं है इसलिये ( पूर्वश्लोकमें) मानुषे लोके यह विशेषण लगाया गया है।
'क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।' ४/१२ ।। 'क्षिप्रं हि मानुषे लोके'-- इस वाक्य में क्षिप्र विशेषण से भगवान् अन्य लोकों में भी कर्मफल की सिद्धि दिखलाते हैं। पर मनुष्यलोक में वर्णआश्रम आदि के कर्मों का अधिकार है यह विशेषता है। उन वर्णाश्रम आदि में अधिकार रखनेवालों के कर्मोंकी कर्मजनित फलसिद्धि शीघ्र होती है। मनुष्यलोकमें ही वर्णाश्रम आदिके कर्मोंका अधिकार है अन्य लोकोंमें नहीं,वर्णाश्रम आदि विभागसे युक्त हुए मनुष्य सब प्रकारसे मेरे मार्गके अनुसार बर्तते हैं।
जाति का अर्थ: है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण । जैसे विविध प्राणी हाथी, सिंह, खरगोश इत्यादि भिन्न-भिन्न जातियां हैं । अतः जाति ईश्वर प्रदत्त है जबकि वर्ण अपनी रूचि से अपनाया जाता है । इसी प्रकार संपूर्ण मानव समाज एक जाति है। सब मनुष्यों की एक जाति है, अर्थात मनुष्य – जाति ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी भी तरह भिन्न जातियां नहीं हो सकती हैं क्योंकि न तो उनमें परस्पर शारीरिक बनावट (इन्द्रियादी) का भेद है और न ही उनके जन्म स्त्रोत में भिन्नता पाई जाती है । सत्य यह है कि सभी मनुष्य एक ही जाति हैं ।
स्वामी विवेकानन्द (वेदान्त और विशेषाधिकार में) कहते हैं - ” आत्मा के प्रसंग में यह कहना निरर्थक है कि एक आत्मा अन्य की अपेक्षा श्रेष्ठ है। आत्मा के वर्णन में यह कहना निरर्थक है कि मनुष्य का आवरण, पशु अथवा पौधों के आवरण से श्रेष्ठ है; सारा विश्व एक है। आवरण (अंतःकरण या शुद्ध-बुद्धि या शरीर) में अन्तर के कारण पौधे में आत्मा की अभिव्यक्ति की रुकावटें बहुत बड़ी हैं, पशुओं में उनसे थोड़ी कम, और मनुष्यों में और भी कम हैं; किसी सुसंस्कृत और आध्यात्मिक मनुष्य में उनसे भी कम हैं, और पूर्ण मानव (कृष्ण-बुद्ध-ईसा) में उन रुकावटों का पूर्णतया लोप हो जाता है। मानव जीवन में बुद्धि की जागृति के कारण हम मानव जीवन का उद्देश्य समझ सकते हैं । मानव योनि सदैव के लिए जन्म–मृत्यु के जंजाल से मुक्त होने की योनि है।
आत्मा अजन्मा है और समय से बद्ध नहीं (नित्य है) इसलिए आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता । आत्मा अजर-अमर अविनाशी है। यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न तो मरता ही है तथा न ही यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन, पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता। किसी भी जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। जन्म-मरण के चक्र में आत्मा स्वयं निर्लिप्त रह्ते हुए अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्मफल के प्रभाव से मनुष्य कुलीन घर अथवा योनि में जन्म ले सकता है जबकि बुरे कर्म करने पर निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड्ता है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मनुष्य के कर्म, पाप और पुण्यमय फल देते हैं और सुकर्म के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मुम्किन है। आत्मा और पुनर्जन्म के प्रति यही धारणाएँ बौद्ध धर्म और सिख धर्म का भी आधार है। यह तो आत्मा द्वारा मनुष्य शरीर धारण किये जाने पर ही वर्ण चुनने का अवसर प्राप्त होता है। निरावलम्बोपनिषद् में कहा गया है -
न चर्मणो न रक्तस्य मांसस्य न चास्थिनः ।।
न जातिरात्मनो जातिव्यवहार प्रकल्पिता॥
अर्थात जाति
चमड़े की नहीं होती, रक्त, माँस की नहीं होती, हड्डियों की नहीं होती,
आत्मा की नहीं होती, वह तो मात्र लोक- व्यवस्था के लिये कल्पित कर ली गई ।
अतः किसी प्रकार के (वर्ण व्यवस्था में) भेदभाव के तत्वों की
गुंजाइश नहीं है । तथापि हमने अपनी सुविधा के लिए मनुष्य के प्रधान व्यवसाय
को वर्ण शब्द से सूचित किया है । बौद्धिक कार्यों में संलग्न व्यक्तियों
ने ब्राहमण वर्ण को अपनाया है । समाज में रक्षा कार्य व युद्धशास्त्र में
रूचि योग्यता रखने वाले क्षत्रिय वर्ण के हैं । व्यापार-वाणिज्य और
पशु-पालन आदि का कार्य करने वाले वैश्य तथा जिन्होंने इतर सहयोगात्मक
कार्यों का चयन किया है वे शूद्र वर्ण कहलाते हैं । ये मात्र आजीविका के
लिए अपनाये जाने वाले व्यवसायों को दर्शाते हैं, इनका जाति या जन्म से कोई
सम्बन्ध नहीं है ।
वर्ण-परिवर्तन : वैदिक समाज में श्रम एवं हाथ के हूनर का गौरव पूर्ण स्थान है
और प्रत्येक व्यक्ति अपनी रूचि से वर्ण चुनने का समान अवसर पाता है । किसी
भी किस्म के जन्म आधारित भेद मूलक तत्व वेदों में नहीं मिलते । अतः संस्कृत सीखकर कोई भी जाति-धर्म में जन्मा
मनुष्य क्रमशः ब्राह्मण बन सकता है। वर्ण-परिवर्तन के विषय में गुण-कर्मानुसार वर्ण व्यवस्था की सिद्धी करने वाला एक सुंदर श्लोक मनुस्मृति (अध्याय 10, श्लोक 65) में कहा गया है -
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम।
क्षत्रियाज्जातमेवं तु विध्याद्वैश्यात्त्थैव च ॥
अर्थात
' अर्थात श्रेष्ठ -अश्रेष्ठ कर्मो के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। जो ब्राह्मण ,क्षत्रिय वैश्य और शूद्र के गुणों वाला हो वह उसी वर्ण का हो जाता है। '
इस श्लोक से
स्पष्ट रूप से यह विदित होता है कि ब्राहमण की सन्तान अपने गुण कर्मों के
आधार पर शूद्र हो सकती है और शूद्र की सन्तान भी अगर ब्राह्मण बनने के
योग्य हो तो ब्राह्मण हो जाएगी। यही नहीं अगर कोई शूद्र स्वयं भी
ब्राह्मणत्व के योग्य हॊ तो वह ब्राहमण हो जाएगा। उसी तरह अगर कोई ब्राहमण
स्वयं भी शूद्र बन जाने के योग्य कर्म करेगा तो शूद्र हो जाएगा। और अगर
ब्राहमण का शूद्र बनना और शूद्र का ब्राहमण बनना सम्भव है तो फ़िर क्षत्रिय
अथवा वैश्य बनना क्यों असम्भव हो सकता है? ठीक ऐसा ही क्षत्रिय अथवा वैश्य
के घर पैदा हुई सन्तानों के बारे में समझा जाना चाहिए। वैदिक काल से ही कर्मानुसार वर्ण या जाति व्यवस्था होती थी जन्म से वर्ण नहीं हुआ करता था!
प्राचीन काल में जब बालक समिधा हाथ में लेकर पहली बार गुरुकुल जाता था तो कर्म से वर्ण का निर्धारण होता था यानि कि बालक के कर्म गुण स्वभाव को परख कर गुरुकुल में गुरु बालक का वर्ण निर्धारण करते थे , यदि ग्राही ज्ञानी बुद्धिमान है तो ब्राह्मण ..यदि निडर बलशाली है तो क्षत्रिय …आदि !
आर्य और दस्यु
: मनुष्य जाति के दो भेद अन्य प्रकार से भी किये हैं – आर्य और दस्यु
। वेदों में कहा है सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ ! तो क्या यह समझना चाहिये कि सम्पूर्ण विश्व को किसी खास सम्प्रदाय-हिन्दू, मुसलमान या ईसाई में धर्मान्तरित करने को कहा गया है ?
अंग्रजों ने भारत में फूट डालने के उद्देश्य से यह प्रचारित किया कि आर्य भारत में बाहर से आयी कोई जाति थी। किन्तु यह बिल्कुल गलत है-आर्य शब्द कोई जातिवाचक (नस्ल वाचक) शब्द नहीं है अपितु गुणवाचक शब्द है। उत्तम चरित्रवान मनुष्यों को ही 'श्रेष्ठ मनुष्य' या आर्य कहते हैं, और दुष्ट स्वभाव से दुश्चरित्र भ्रष्टचार में लिप्त डाकू आदि को
दस्यु कहते हैं । इन्हें ही देव और असुर भी कहते हैं अर्थात आर्यों को देव
तथा दस्युओं को असुर कहते हैं। दस्यु शब्द का अर्थ उत्तम कर्म हीन व्यक्ति (ऋग 7/5/6) अज्ञानी,
अव्रती (ऋग 10/22/8), मेघ (ऋग 1/59/6) आदि के लिए हुआ है न की किसी विशेष
जाति अथवा स्थान के लोगो के लिए हुआ है।
आर्य शब्द का अर्थ होता है “श्रेष्ठ” अथवा
बलवान, जिस किसी भी जाती-धर्म में जन्मा मनुष्य यदि आर्यत्व (चरित्रवान
मनुष्य बनने) को अपना जीवन लक्ष्य बना लेता है वे आर्य-वर्ण कहलाए; और जो
लोग आतंकवादी बनना या दस्यु कर्म को स्वीकार करते हैं वे दस्यु वर्ण कहलाते
हैं।
वर्ण का
अर्थ रंग भी होता है, कोई काले-गोरे या भूरे रंग का व्यक्ति भी, चरित्र-निर्माण कर के आर्य बन सकता है, और श्वेत रंग का व्यक्ति भी चरित्रवान-मनुष्य बनने के बाद ही आर्य बन सकता है । ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक चार वर्ण है और चारों आर्य है। जैसे गुलाब के फूलों का धर्म (property या गुण -स्वभाव) उसका विशिष्ट प्रकार का फ्रैगरेंस या खुशबु है, कोई उसके धर्म को छीन नहीं सकता। उसी प्रकार मनु स्मृति के अनुसार चारों वर्णों का धर्म एक ही है- वह है हिंसा न करना,
सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्र रहना एवं इन्द्रिय निग्रह करना। सभी लोग विद्वान् नहीं हो सकते,परन्तु धार्मिक होना - अर्थात चरित्रवान मनुष्य बनना सभी के लिये सम्भव है। जो
मनुष्य विद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रखते किन्तु वे धर्माचरण करना चाहते
हो तो विद्वानों के संग और अपनी आत्मा कि पवित्रता से धर्मात्मा अवश्य हो
सकते है।
किसी भी कारण-वश (सामाजिक या आर्थिक) अशिक्षित रहे मनुष्य शूद्र ही रहते हुए अन्य वर्णों
के
सहयोगात्मक कार्यों को अपनाकर समाज का हिस्सा बने रहते हैं । यदि ब्राह्मण
का पुत्र विद्या प्राप्ति में असफल रह जाए तो शूद्र बन जाता है । इसी तरह दस्यु का पुत्र भी चरित्रवान मनुष्य बनने की विद्या प्राप्ति के उपरांत ब्राह्मण, क्षत्रिय
या वैश्य वर्ण को प्राप्त कर सकता है । यह सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप
से गुणवत्ता पर आधारित है । ‘आपस्तम्बधर्मसूत्र’ (प्रश्न 2, पटल 5, खंड 11, सूक्त 10-11) में भी कहा
गया है - धर्माचरण से नीचे के वर्ण पूर्व-पूर्व वर्ण के अधिकार को प्राप्त
होते हैं और अधर्मआचरण करके पूर्व-पूर्व वर्ण नीचे के वर्णों के अधिकारों
को प्राप्त होते हैं । यह व्यवस्था समाज के संतुलन के लिए थी।
गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र इन दोनों के प्रणेता एक ही हैं। समस्त
ऋषियों ने भी समाज को चार वर्णों में विभाजित करना अनिवार्य बताया है। अन्य
धर्मों में भी इस प्रकार की वर्ण व्यवस्था की गयी थी। प्रत्येक व्यवस्था
गुणों और कर्मों के आधार पर थी।
[ जम्बूद्वीप (भारतीय उपमहाद्वीप) में रहने वाले मुसलमान
विश्व के अन्य कई देशों के मुसलमान की अपेक्षा अधिक सहनशील हैं और
टेरिरिस्ट नहीं बनते हैं क्योंकि वे भी इस वर्णाश्रम धर्म का पालन आंशिक या
पूर्ण रूप से करते हैं। यहाँ पहुँचकर मुसलमानों उच्च बिरादरियां-जिसे अशराफ़ श्रेणी कहते हैं, में —जैसे कि सय्यद, शेख़, मुग़ल, पठान और मल्लिक/मलिक आदि वर्गीकृत की गई हैं। अजलाफ़ श्रेणी
में मुसलमानों ने अपनी तथाकथित ‘शूद्र / शुद्दर’ तबके की या वैश्यकर्म
प्रधान जातियां वर्गीकृत की हैं जैसे – तेली, जुलाहे, राईन, धुनिये ,
रंगरेज इत्यादि शामिल की जा सकती हैं! 3. अरज़ाल श्रेणी में तथाकथित
रूप से “मुसलमानों के दलित” या “अतिशूद्र मुस्लिम जातियां” हैं जैसे कि
मेहतर, भंगी, हलालखोर, बक्खो, कसाई, इत्यादि!, सभी एक हो जाते हैं। और इसीको वे लोग गर्व से गंगा-जमुनी तहजीब (व्यावहारिक इस्लाम) या सुफिज्म कहते हैं ! ईसाइयों, जैनों और सिखों में भी जातियाँ हैं और उनमें भी उच्च, निम्न तथा शुद्ध अशुद्ध जातियों का भेद विद्यमान है। सर सैयद अहमद खां
अशराफ़ मुसलमानों के मसीहा थे, लेकिन पसमांदा मुसलमानों के लिए मनु थे,
क्योंकि उन्होंने पश्चिमी या अंग्रेजी तालीम (शिक्षा) को अशराफ तक महदूद रखने
को कहा था। 'व्यावहारिक इस्लाम'
या सुफिज्म को स्वीकार करने वाले मुसलमान सभी श्रेणी के मुसलमानों को एक
गुरु के शिष्य मानते हैं !]
जिस में सत्य, दान, द्रोह का भाव,
क्रूरता का अभाव, लज्जा, दया और तप यह सब सद्गुण देखे जाते हैं वह ब्राह्मण
है । [ ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न होना, संस्कार, वेद श्रवण, ब्राह्मण
पिता कि संतान होना, यह ब्राह्मणत्व के कारण नहीं है, बल्कि सदाचार से ही
ब्राह्मण बनता है। यदि चंडाल भी सदाचारी हो तो वह ब्राह्मण हो सकता है। वैदिक इतिहास में वर्ण परिवर्तन के अनेक प्रमाण उपस्थित हैं, जैसे - ऐतरेय ऋषि
दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और
उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की । ऋग्वेद को समझने के
लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है । सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए । क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया । विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त
किया। महर्षि वाल्मीकि जैसे अनेकों उदाहरण हैं शास्त्रों का अध्ययन करें तो। विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने
हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया । ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना ।
वेदों
में शूद्रों को आर्य बताया गया हैं इसलिए उन्हें अछूत समझने का प्रश्न ही
नहीं उठता हैं। वेदादि शास्त्रों के प्रमाण सिद्ध होता है कि ब्राह्मण
वर्ग से से लेकर शुद्र वर्ग आपस में एक साथ अन्न ग्रहण करने से परहेज नहीं
करते थे। वेदों में स्पष्ट रूप से एक साथ भोजन करने का आदेश है। श्री
रामचंद्र जी द्वारा भीलनी शबरी के आश्रम में जाकर उनके पाँव छूना एवं उनका
आतिथ्य स्वीकार करना, निषादराज से भेंट होने पर उनका आलिंगन करना।वैदिक काल
में शुद्र अछूत नहीं थे। कालांतर में कुछ अज्ञानी लोगो ने छुआछूत कि गलत
प्रथा आरम्भ कर दी जिससे जातिवाद जैसे विकृत मानसिकता को प्रोत्साहन
मिला। यदि
शूद्र को वेदादि पढने का अधिकार न होता तो वह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य
के अधिकार को कैसे प्राप्त हो सकता था ? वेदादि शास्त्रों के
पढने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने में सब मनुष्यों का अधिकार है, जो-जो पदार्थ
ईश्वर ने रचे हैं वे सबके उपकारार्थ हैं । स्त्रियों को भी वेदादि
शास्त्रों को पढने-सुनने का समान अधिकार है। यजुर्वेद 26/2 में लिखा है :
यथेमा वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्य: ।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च॥
अर्थात
वेदों को पढने का अधिकार सब मनुष्यों को है, और विद्वानों को पढ़ाने का भी
अधिकार है। ईश्वर आज्ञा देते हैं कि हे मनुष्य लोगों! जिस प्रकार मैं
(परमेश्वर) तुमको चारों वेदों का उपदेश देता हूँ उसी प्रकार तुम भी उनको
पढ़कर सब मनुष्यों को पढ़ाया और सुनाया करो, क्योंकि वह वेदरूपी वाणी सबका कल्याण करनेवाली है। वेदाधिकार जैसा ब्राह्मण के लिए है वैसा ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र-पुत्र, भृत्य और अतिशूद्र के लिए भी बराबर है । वर्ण-परिवर्तन
के सम्बन्ध में यह निश्चितरूप से जान लेना चाहिए कि २५ वें वर्ष में
वर्णों का अधिकार ठीक-ठाक होता है, क्योंकि २५ वर्ष की आयु प्राप्त होने तक
मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है, इसलिए उसी समय गुण-कर्मों कि ठीक-ठाक
परीक्षा करके वर्णाधिकार होना उचित है।
प्राचीन काल में यह सब संतुलित था तथा सामाजिक संगठन की दक्षता बढ़ाने के
काम आता था। पर कालान्तर में आर्थिक स्थिति बदलने तथा कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा ऊँच-नीच के भेदभाव के
कारण विभिन्न वर्णों के बीच दूरिया बढ़ीं हैं। जन्म के आधार पर सामाजिक वर्ग मिलने की वजह से आधुनिक काल में जाति प्रथा
का सामाजिक और राजनैतिक विरोध हुआ है। इक्कीसवीं सदी में भी जाति व्यवस्था कायम है नीच जाति वालों को आरक्षण के नाम पर उनकी नीचता उन्हें याद दिलाई जा रही है।
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर जैसे
लोगों ने भारतीय वर्ण व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की कोशिश की।
भारतीय स्वतंत्रता के समय डॉक्टर अंबेडकर का काम इस दिशा में बहुत
महत्वपूर्ण है। भारतीय संविधान में जाति के आधार पर अवसर में भेदभाव करने
पर रोक लगा दी
गई। पिछली कई सदियों से पिछड़ी रही कई जातियों के उत्थान के लिए आरक्षण
की व्यवस्था की गई। संविधान के अनुच्छेद 15(1) में निर्दिष्ट है कि, ‘राज्य, किसी नागरिक के
विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के
आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।’ यानी अनुच्छेद 15, भारत के प्रत्येक नागरिक
को समता के व्यवहार की गारंटी देता है। इसके बावजूद, अनुसूचित जाति,
अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़े वर्ग को ‘जाति’ के आधार पर ही आरक्षण
प्रदान किया गया । आरक्षण जहाँ पिछड़ी जातियोँ को अवसर दे रहा है वही वे उन्हे ये अहसास भी याद करवाता है कि वे उपेक्षित हैँ। स्वतन्त्र भारत के संविधान में पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने हेतु केवल
‘जाति’ को दो अनिवार्य शर्तों पर आधार बनाया गया – सामाजिक और शैक्षणिक
पिछड़ापन।
धारे धीरे पिछड़े वर्गों की स्थिति में तो सुधार आया पर तथाकथित उच्च वर्ग के लोगों को लगने लगा कि दलितों के आरक्षण के कारण उनके अवसर कम हो रहे हैं। इस समय तक जातिवाद भारतीय राजनीति तथा सामाजिक जीवन से जुड़ गया। अब भी कई राजनैतिक दल तथा नेता जातिवाद के कारण चुनाव जीतते हैं। आज आरक्षण को बढ़ाने की कवायद तथा उसका विरोध जारी है। यह कहा गया था कि १० सालों में धीरे धीरे आरक्षण हटा लिया
जाएगा, पर राजनैतिक तथा कार्यपालिक कारणों से ऐसा नहीं हो पाया। किन्तु भारत में आरक्षण के कारण भी विभिन्न वर्णों के बीच अलग सा रिश्ता बनता जा रहा है। दलितों को लेकर विभिन्न लोगों में मतभेद हैं। कुछ जातियां किसी एक राज्य
में पिछड़े वर्ग की श्रेणी में आती हैं तो दूसरे में नहीं इसके कारण आरक्षण
जैसे विषयों पर बहुत अन्यमनस्कता की स्थिति बनी हुई है। कई लोग दलितों की
परिभाषा को जाति के आधार पर न बनाकर आर्थिक स्थिति के आधार पर बनाने के
पक्ष में हैं। किन्तु वोट-बैंक की राजनीती करने वाले नेता आरक्षण-नीति पर चर्चा भी नहीं करना चाहते हैं। यह एकदिन वर्ग संघर्ष का आधार बन जायेगा और देशवासी आपस में ही लड़ने को
मजबूर होंगे. अतः इस विषय पर सभी पार्टियों को सोचना विचारना होगा. लोकसभा
में इसपर खुली बहस हो तथा संविधान में संशोधन करके इसे समाप्त करना ही उचित
कदम होगा.
धर्मसूत्रकारों ने
व्यक्ति के आचार एवं व्यवहार पर बहुत बल दिया है। आचार ही मानव का आधार
है; वही धर्म का तत्व है, इस बात को धर्मशास्त्रकार भली-भाँति जानते थे। मनुस्मृति में तो आचार पर यहाँ तक बल दिया गया है कि उसे ही 'परम धर्म' कह दिया गया है । वशिष्ठ स्मृति में कहा गया है - '
' आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः '
अर्थात आचारभ्रष्ट व्यक्ति को
वेद भी पवित्र नहीं कर सकता। हमें धर्म को अपने व्यवहार में उतारना चाहिए,
न कि केवल शब्दमात्र में। यद्यपि सदाचार का पालन अत्यन्त अपरिहार्य है।
तभी समाज स्थिर रह सकता है, किन्तु इसके साथ ही यह तथ्य भी स्मरणीय है कि "BE AND MAKE" या सदाचार का पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य है। सतत प्रयत्न करते रहने पर भी आचरण-भ्रष्टता सम्भव
है तथा कुछ व्यक्ति जानबूझकर भी समाज-विरोधी तथा शास्त्र-विरोधी आचरण कर
देते हैं। धर्मसूत्रकार इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे। वे यह भी जानते
थे कि ऐसे व्यक्ति को दुराचरण अथवा उसके अपराध का दण्ड तो मिलना ही चाहिए,
किन्तु यदि वह मन से अपने पापकर्म पर पाश्चाताप करता है तो पुन: उसे
श्रेष्ठ (ब्राह्मण ) बनने का अवसर प्रदान करना चाहिए न कि सदैव के लिए ही
उसके जीवन को अन्धकारमय बना देना चाहिए। धर्मसूत्रों की दृष्टि में अपराधी
व्यक्ति घृणा का पात्र नहीं हैं, बल्कि वह स्नेह एवं सहानुभूति का पात्र
है।
किया
हुआ कोई भी शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होता, अपितु अच्छे-बुरे किसी न किसी फल
को अवश्य ही उत्पन्न करता है। उन कर्मों का फल चाहे इसी जन्म में मिल जाए,
चाहे अगले जन्म में, किन्तु वह मिलेगा अवश्य। इसलिए वर्तमान तथा भावी
दोनों ही जन्म शुद्ध हो सकें, यही धर्मसूत्रकारों का यत्न है। आचारशास्त्र के मूल में कर्मसिद्धान्त ही है।
आज
समाज में पूर्वापेक्षया अनेक परिवर्तन हो चुके हैं। यथा-आज राजनीतिक
प्रणाली एवं न्याय-व्यवस्था बदल चुकी है। शिक्षा का स्वरूप तथा संस्थाएँ भी
वे नहीं हैं, जो प्राचीनयुग में थीं। वर्णव्यवस्था का स्थान जन्मगत जाति-प्रथा ने ले लिया है। सामाजिक
तथा नैतिक मूल्य भी पूर्वापेक्षया परिवर्तित हुए हैं। दायाद तथा
सम्पत्ति-विभाजन आदि के लिए भी आज राजनीतिक क़ानून ही सर्वमान्य हैं,
इत्यादि।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " वर्ण-व्यवस्था तभी हटेगी, जब
लोगों को उनका खोया हुआ सामाजिक व्यक्तित्व (आत्मश्रद्धा ) पुनः प्राप्त
हो जायेगा." (२/३११) "जीवन में मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि एक
ऐसे चक्र का प्रवर्तन कर दूँ, जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सबके
द्वारों तक पहुँचा दे और फिर स्त्री-पुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं कर
लें...याद रखो कि राष्ट्र झोपड़ी में बसा हुआ है; परन्तु शोक ! उन लोगों के
लिये कभी किसीने कुछ किया नहीं...क्या तुम साधारण जनता की उन्नति कर सकते
हो ? क्या उनका खोया हुआ व्यक्तित्व, बिना उनकी स्वाभाविक अध्यात्मिक वृत्ति को नष्ट किये,
उन्हें वापस दिला सकते हो ? क्या समता, स्वतंत्रता, कार्य-कौशल, पौरुष में
तुम पाश्चात्यों के भी गुरु बन सकते हो? क्या तुम उसीके साथ-साथ...
आध्यात्म-साधनाओं में एक कट्टर सनातनी हिन्दू भी हो सकते हो ? यह काम करना
है और हम इसे करेंगे ही. " (२/३२१)"
हम देख चुके हैं कि वेदों से लेकर विवेकानन्द तक भारतीय संस्कृति में समान रूप से 'विद्या' के साथ साथ 'श्रम या पुरुषार्थ' ('Labour or Venture' उद्यम-हिम्मत या जोखिम उठाने का साहस) का स्थान भी अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। चार पुरुषार्थों में मुक्ति, रिहाई या मोक्ष को अंतिम पुरुषार्थ माना गया
है- धर्म, अर्थ काम और मोक्ष ! मनुष्य
एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर ही उसे अपने आचार-व्यवहार, नैतिकता
आदि का पालन करना होता है। समाज की दृष्टि से अपने आप को नियन्त्रित करना
होता है। उच्छृङ्-खलता-नियम-रहितता या अनैतिकता के रहते समाज चल नहीं सकता। कोई भी व्यक्ति या समाज परस्पर सहयोग एवं
सहायता के बिना न मनुष्योचित जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही जीवन में
उन्नति कर सकता है। इसीलिये हमारे शास्त्रों में मनुष्य जीवन को चार भागों
में बाँट कर क्रम-विकसित मनुष्य बनने का विधान किया गया है। क्योंकि ‘The
Law of Growth is gradual’: मनुष्य जीवन के प्रस्फुटन का नियम (विकासवाद का
नियम)-- क्रम-विकास या क्रम-मुक्ति है, अक्रम-मुक्ति ‘ Sudden-Liberation’
नियम नहीं है। (किन्तु ठाकुर चाहें तो नियम को बदल भी सकते हैं, इसीलिये
अक्रम-मुक्ति Sudden-Liberation किसी किसी श्रीरमण महर्षि जैसे कुछ लोगों
के लिये अपवाद भी हो सकता है)।
[और जिस व्यक्ति में रजोगुण पर्याप्त मात्रा में होगा वही सत्य को जानने के लिये जोखिम उठाने का साहस दिखा सकता है, वही श्रम, उद्यम या पुरुषार्थ करने के लिए कमर कस कर खड़ा हो सकता है। इसलिये जो दलित होने के कारण गरीब हो, और राहड़ का दाल नहीं खरीद सकता हो, तो मांस-खाकर भी भोजन में प्रोटीन शामिल कर सकता है। ]
विकासवाद के नियम की
व्याख्या करते हुए कहा गया है कि कि शरीर के मरने के बाद भी जीवात्मा रहती
है, और जब तक अपने यथार्थ स्वरुप को नहीं जान लेती तब तक उसका देहान्तर
(या पुनर्जन्म) होता रहता है ! सबसे प्रथम व्यक्ति की आत्मा एक अमीबा
(एक-कोशकीय जीव) के रूप में अपनी जीवन-यात्रा शुरू करती है; और चौरासी लाख
योनि के दौर से गुजर जाने के बाद, उसे एक मानव-शरीर रूपी 'मोक्ष का द्वार'
के निर्माण करने की क्षमता प्राप्त होती है। और तब कोई मनुष्य पूर्णता या
पाशविक संस्कारों से मुक्ति प्राप्त करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के
लिये उद्दम करना प्रारंभ करता है। यदि हम क्रम-विकसित मनुष्य से पूर्णत्व-
प्राप्त मनुष्य या यथार्थ मनुष्य बनना चाहते हों, तो सदाचार (rectitude) ही
हमारा लक्ष्य होना चाहिये। जब हमलोग मानव-जीवन को स्वस्थ बनाने वाले
सिद्धान्तों या नियमों का उल्लंघन करते है, तो स्वयं को हम मुसीबत में फँसा
लेते हैं।
बीज पहले क्या था ?
वह उस वृक्ष-रूप में ही था ! भविष्य में होने वाले वृक्ष की सभी
संभावनायें उस बीजाणु में विद्यमान हैं। इसी सम्भावना को हमारे ऋषियों ने ‘ क्रम-संकोच ‘ (Involution) कहा
है। इस प्रकार हम देखते है कि प्रत्येक इवोल्यूशन (क्रम-विकास) के पहले इनवोल्युशन (क्रम-संकोच) का
होना अनिवार्य है। क्रमविकास कभी शून्य से नहीं होता। तब फिर वह हुआ कहाँ
से ? पूर्वगामी क्रमसंकोच से। बालक क्या है ? एक क्रमसंकुचित या अव्यक्त
व्यस्क-मानव है, और मनुष्य क्रमविकसित बालक है। क्रमसंकुचित वृक्ष ही बीज
है और क्रमविकसित बीज ही वृक्ष बन जाता है।
‘फ्रॉम द लोवेस्ट 'प्रोटोप्लाज्म' (वनस्पति तथा प्राणियों के जीवन का आधार तत्व) टू द मोस्ट परफेक्ट ह्यूमन बीइंग '---- देयर इज रियली बट वन लाइफ ! ’ निम्नतम
प्रोटोप्लाज्म (जीवद्रव्य) से
लेकर पूर्णतम-विकसित मानव (कृष्ण-ईसा-बुद्ध-नवनिदा) पर्यन्त वस्तुतः एक ही जीवन
है।‘ जिस
प्रकार एक ही जीवन में हम शैशव, यौवन, वार्धक्य आदि विविध अवस्थायें देखते
हैं, उसी प्रकार प्रोटोप्लाज्म (जीविसार) से लेकर पूर्णतम मानव (बुद्ध-नवनिदा) पर्यन्त एक ही
अविच्छिन्न जीवन, एक ही श्रृंखला है। ‘ दिस इज इ ईवोलूशन, बट वी हैव सीन दैट ईच ईवोलूशन प्रीसपोजेज ऐन इन्वोलुशन.’ इसीको क्रमविकास
कहते हैं, और यह हम पहले ही देख चुके हैं कि प्रत्येक क्रम-विकास के पूर्व एक क्रम-संकोच रहता है। यह समग्र
जीवन, जो क्रमशः व्यक्त होता है, अपने को जीविसार से लेकर पूर्णतम मानव
अथवा धरती पर अवतीर्ण ईश्वरावतार (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) के रूप में,
क्रमविकसित होता है, एक श्रृंखला या श्रेणी है, और यह सम्पूर्ण अभिव्यक्ति
उसी प्रोटोप्लाज्म (जीविसार) में संकुचित रही होगी। यह समस्त जीवन, धरती पर अवतीर्ण यह
ईश्वर (ठाकुर देव की बुद्धि) तक उसी ‘प्रोटोप्लाज्म ‘ (जीवद्रव्य) में निहित
थे, बस, धीरे धीरे -- बहुत धीरे क्रमशः उस सबकी अभिव्यक्ति मात्र हुई है। इट इज दिस 'वन मास ऑफ़ इन्टेलिजेन्स' व्हिच फ्रॉम द प्रोटोप्लाज्म टू द मोस्ट परफेक्ट मैन, इज स्लोली ऐंड स्लोली अन्कोएलिंग इटसेल्फ ‘। बुद्धि
की यह एक राशी ही प्रोटोप्लाज्म (जीविसार) से पूर्णतम मनुष्य ( जीवन-मुक्त Liberated Soul नवनिदा)
तक अपने को क्रमशः व्यक्त कर रही है, या खोल रही है। ” (२/१२४)
डार्विन का मत है
कि साँप के बहुत दिनों तक एक स्थान में बैठे रहने के कारण उसकी पीठ कड़ी हो
गयी, और कालक्रम में साँप ही कछुआ बन गया। डार्विन-मत के क्रम-विकास का
कारण क्या है? पाश्चात्यों की राय में - 'द लॉज़ ऑफ़ स्ट्रगल फॉर इग्ज़िस्टन्स'-- 'अस्तित्व को बचाये रखने के लिये
संघर्ष का नियम', "सर्वाइवल ऑफ़ थे फिटेस्ट" -----अथवा "बलिष्ठ की अतिजीविता का सिद्धान्त" और " नेचुरल सलेक्शन या प्राकृतिक वरण " -आदि
जिन सब नियमों को क्रम-विकास का कारण माना गया है। ईश्वर बन जाने तक पुनर्जन्म-ग्रहण से
(निश्चल तत्वे जीवन-मुक्तिः) मुक्ति कैसे संभव है ? पशु-जगत (ऐनमल किंगडम) में
तो हम वास्तव में जीवित रहने के लिये संघर्ष, सबसे अधिक बलिष्ठ का अतिजीवन
आदि नियम स्पष्ट रूप से देखते हैं। परन्तु मनुष्य-जगत में,
जहाँ श्रेय-प्रेय का निर्णय या विवेक-प्रयोग क्षमता का विकास हुआ है, वहाँ
हम उक्त नियम के विपरीत ही देखते हैं। पशु-जगत में स्थूल देह के संरक्षण
के लिये जो संघर्ष होते देखे जाते हैं, वे ही मानव-जीवन (ह्यूमन प्लेन ऑफ़ इग्ज़िस्टेन्स) में मन पर प्रभुता स्थापित करने के लिये अथवा सत्त्ववृत्ति
सम्पन्न बनने के लिये होते हैं।
इसीलिये 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' नामक महामण्डल पुस्तक में महामण्डल के संस्थापक पूज्य नवनिहरन मुखोपाध्य लिखते हैं - " महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद,सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह" (Emblem) निर्धारित किया गया. उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के दोनों ओर दो वाक्य लिखे हुए है- " Be and Make " अर्थात " बनो और बनाओ " - यह आह्वान उपनिषदों में कहे गये " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है. (स्वामीजी के द्वारा कही गयी यह वाणी एक मन्त्र के सदृश्य है, दादा कहते हैं- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे मोक्ष तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है - " स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! " इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर लिखा है- " चरैवेति चरैवेति !" अर्थात "चलते रहो - चलते रहो !" महामण्डल का यह ध्येय वाक्य वैदिक साहित्य के सुप्रसिद्ध संचरण गीत "चरैवेति-चरैवेति।" ऐतरेय ब्राह्मण (७.१५) से लिया गया है; इस वैदिक गीत में जीवन एवं समाज के विकास के केन्द्र में मनुष्य के श्रम या पुरुषार्थ के महत्व को उजागर किया गया है। यहाँ इस मंत्र के द्रष्टा : (ऋषि कवि महीदास ऐतरेय ) कहते हैं -
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
"जो
मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य
का भाग्य भी सोया रहता है, जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है,
उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे चलना शुरू कर देता है , उसका भाग्य
भी आगे आगे चलने लगता है,इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! "चलते
रहो-चलते रहो!" वेदों में गाया हुआ संचरण गीत इस प्रकार है -
१-ॐ नाना श्रान्ताय श्रीरस्ति, इति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जन, इन्द्र इच्चरतः सखा । चरैवेति चरैवेति॥
२- पुष्पिण्यौ चरतो जंघे, भूष्णुरात्मा फलग्रहिः ।
शेरेऽस्य सवेर् पाप्मानः श्रमेण प्रपथे हताः । चरैवेति चरैवेति॥
३- आस्ते भग आसीनस्य, ऊध्वर्स्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य, चराति चरतो भगः । चरैवेति चरैवेति॥
४- कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
५- चरन् वै मधु विन्दति, चरन् स्वादुमुदुम्बरम् ।
सूयर्स्य पश्य श्रेमाणं, यो न तन्द्रयते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
प. छविनाथ मिश्र ने इस रचना का सुन्दर हिन्दी अनुवाद किया है, जो इस प्रकार है -
"चलते रहो - चलते रहो"
१. सुनो रोहित --सुना हमने, अथक श्रम ही श्रीमुखी
कर्मरत यदि हों नहीं तो श्रेष्ठ जन भी सब दुखी
नित्य जो गतिशील है बस इन्द्रता तो है उसीकी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
२.फूल उनकी पिण्डलियाँ हैं जो हमेशा चला करते
वर्धमाना चेतना की टहनियों पर फला करते
सुप्त रहते हैं सभी अपकर्म भी उसके सखे हे !
किन्तु श्रम से पंथ पर ही नष्ट होते नित दिखे वे
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
३.बैठने वाले पथिक का भाग्य बैठा अड़ा होता
और उठने की क्रिया में वही ऊँचे खड़ा होता
जो यहाँ सोया रहा वह हाथ मलता ही रहा है
भाग्य उसका ही चला है जो सदा चलता रहा है
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
४. जो रहे सदा सोता हुआ - सा, वहाँ कलियुग हुआ करता
नींद टूटी, जागरण हो जहाँ, वहाँ द्वापर हुआ करता
और उठ-खड़ा हुआ मनुष्य ही, त्रेता -सा स्वयम्भर
जो चल-पड़ा हो पथ पर, सत्ययुग होता है निरन्तर
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
५.कर्मरत गतिशील जो - मधुपान करता है सुनिश्चित
कर्मशीला अस्मिता को ही सदा मिलता फलामृत
देख लो तुम सूर्य की श्रमशीलता यह सृजनधर्मी
जो न पल भर श्रम-विमुख है, श्रम-मुखी शाश्वत सुकर्मी
इसलिए चलते रहो - चलते रहो …
वे 'हमारी वर्तमान समस्या' नामक निबंध ( १०/ १३५) में कहते हैं - " अबकी बार केन्द्र है भारत ! राख से ढकी हुई अग्नि के समान इन आधुनिक भारत-वासियों में भी छिपी हुई पैतृक शक्ति
विद्यमान है। यथा समय महाशक्ति की कृपा से उसका पुनःस्फुरण होगा।
प्रस्फुरित होकर क्या होगा ? क्या पुनः वैदिक यज्ञधूम से भारत का आकाश
मेघावृत होगा, अथवा पशुरक्त से रन्तिदेव की कीर्ति का पुनरुद्दीपन [iii] होगा ? गोमेध, अश्वमेध, देवर के द्वारा सन्तानोपत्ति
आदि प्राचीन प्रथायें पुनः प्रचलित होंगी; अथवा बौद्ध काल की भाँति फिर
समग्र भारत संन्यासियों की भरमार से एक विस्तृत मठ में परिणत होगा ? मनु का
शासन क्या पुनः उसी प्रभाव से प्रतिष्ठित होगा अथवा देश-भेद के अनुसार
भक्ष्य-अभक्ष्य विचार का ही आधुनिक काल के समान सर्वतोमुखी प्रभुत्व
रहेगा?
क्या जाती-भेद गुणानुसार (गुणगत) होगा अथवा सदा के लिये वह जन्म के अनुसार (जन्मगत ) ही रहेगा ? जाति-भेद के अनुसार भोजन-सम्बन्ध में छुआछूत का विचार
बंग देश के समान रहेगा अथवा मद्रास आदि प्रान्तों के समान महान कठोर रूप
धारण करेगा ? या पंजाब आदि प्रदेशों के समान यह एकदम ही दूर हो जायेगा? भिन्न
भिन्न वर्णों का विवाह मनु द्वारा बतलाये हुए अनुलोम क्रम से--जैसा नेपाल
आदि देशों में आज भी प्रचलित है --पुनः सारे देश में प्रचलित होगा अथवा बंग
आदि देशों के समान एक वर्ण के अवान्तर भेदों में ही सीमित रहेगा ?[(अ) वर्ण अनुलोम क्रम :- पुरुष द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण अनुलोम संतान कहलाती है । (ब) वर्ण विलोम क्रम :- कन्या द्वारा अपने वर्ण से नीचे के वर्ण मे विवाह करने से जन्म लेने वाली सन्तान वर्ण विलोम संतान कहलाती है । … तब
क्या होगा ?.... यह सत्य है कि आध्यात्म -विद्या की तुलना में और सब तो
'अविद्या' है, किन्तु इस संसार में कितने मनुष्य सत्त्व गुण प्राप्त करते
हैं? इस भारत में कितने मनुष्य ऐसे हैं ? कितने मनुष्यों में ऐसा
महावीरत्व है, जो ममता को छोड़कर सर्वत्यागी हो सकें ? वह दूरदृष्टि कितने
मनुष्यों के भाग्य में है, जिससे सब पार्थिव सुख तुच्छ विवादित होते हैं ! वह विशाल ह्रदय कहाँ है, जो भगवान के सौन्दर्य और महिमा के चिन्तन में अपने शरीर को भी भूल जाता है ? क्या मुट्ठी भर मनुष्यों की मुक्ति के लिये करोड़ों नर-नारियों को सामाजिक और आध्यात्मिक चक्र के नीचे क्या पीस जाना होगा ? ....
हममें जो परमहंस-पद प्राप्त करने योग्य नहीं है, या जो भविष्य में योग्य
होना चाहते हैं, उनके लिये रजोगुण की प्राप्ति ही परम कल्याणप्रद है। बिना
रजोगुण के क्या कोई सत्त्व गुण प्राप्त कर सकता है? बिना वैराग्य के त्याग कहाँ से आयेगा ? (१०/ १३४-१३६)
“ मानव का सर्वश्रेष्ठ पूर्ण विकास (पाशविक संस्कारों से
मुक्ति) एकमात्र त्याग के द्वारा ही सम्पन्न होता है। जो मनुष्य दूसरों के
लिये अपने स्वार्थों जितना अधिक त्याग कर सकता, मनुष्यों में वह उतना ही
श्रेष्ठ माना जाता है। जबकि पशुओं में जो जितना अधिक ध्वंश कर सकता है,
उसे उतना ही अधिक बलवान समझा जाता है।मनुष्य का संघर्ष है मन में। जो
मनुष्य मन को जितना अधिक अपने वश में करता जाता है, वह उसी अनुपात में
महान बनता जाता है । जब मन की समस्त वृत्तियाँ सम्पूर्ण रूप से शान्त
(निश्चल) हो जाती हैं, आत्मा स्वयं को अभिव्यक्त करने लगती है।”
" कुछ
लोगों का मत है कि यदि मानव मानव के साथ लड़ाई न ठाने, तो उसकी प्रगति ही न
होगी। मैं भी पहले ऐसा सोचा करता था; पर अब मुझे दिख पड़ रहा है कि
प्रत्येक युद्ध ने मानव-उन्नति को आगे ठेलने के बदले पचास वर्ष पीछे फेंक
दिया है।.…… अमेरिका में ऐसे कई भौतिक वैज्ञानिक हैं जो कहते हैं कि '
अपराधियों (ईसिस जैसे टैरिरिस्टों) को नेस्त-नाबूद कर देना चाहिये, और केवल
यही एक मात्र उपाय है, जिससे समाज से अपराध (भ्रष्टाचार आदि ) मिटाया जा
सकता है। किन्तु युद्ध में जहाँ किसी देश या व्यक्ति की जीत होती है, वहाँ
सहस्रों का नाश भी हो जाता है। अतएव यह भी एक बुराई ही है। जिससे केवल एक
को सहायता मिले और अधिकांश बाधा पहुँचे वह कभी अच्छा नहीं हो सकता।
पतंजलि कहते हैं ये युद्ध और संघर्ष केवल हमारे अज्ञान के कारण, हमारी
अधीरता और असहिष्णुता के कारण घटित होती हैं, हममें इतना धैर्य नहीं है कि
अपना मार्ग धीरता से तैयार करें। उदाहरणार्थ सिनेमाहॉल में जब आग लग जाती
है, तो थोड़े से ही लोग बाहर निकल पाते हैं, बाकी सब जल्दी निकलने की
धक्का-मुक्की में एक दूसरे को कुचल डालते हैं। यदि सब लोग धीरे धीरे निकले
होते, तो एक को भी चोट न लगती। यही हाल जीवन में भी है। द्वार हमारे लिये
खुले पड़े हैं, और हम सब बिना किसी प्रतियोगिता या संघर्ष के, बाहर निकल
सकते हैं, किन्तु हम बड़े जल्दबाज हैं- हममें धीरज बिल्कुल ही नहीं है। शक्ति की उच्चतम अभिव्यक्ति है अपने को प्रशान्त रखना और स्वयं अपने पैरों पर खड़े होना। (४/ २२०-२१ )
हमारी शिक्षा और प्रगति का उद्देश्य
केवल मार्ग की बाधाओं को हटाना है।
इनके हट जाने पर मूल ब्रह्मभाव स्वयं ही प्रकाशित हो जायेगा। यह मान लेने
पर फिर जीवन-संग्राम का कोई अर्थ नहीं रह जाता। .... ये प्रतियोगितायें,
संघर्ष और बुराइयाँ (आतंकवाद और उग्रवाद ) यदि न भी रहें, तो भी मनुष्य
विकसित होते होते एक दिन ब्रह्मरूप हो जायेगा; क्योंकि बाहर आकर अपने आपको
अभिव्यक्त करना ब्रह्म का स्वभाव ही है।
हममें
से प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब समस्त विश्व
जाग्रत अवस्था में देखा जा रहा स्वप्न मात्र प्रतीत होगा। तब हमें पता लगेगा कि अपने परिवेश की अपेक्षा हम (आत्मा) अनन्त गुना श्रेष्ठ हैं! समस्त ज्ञान और सभी शक्तियाँ हमारे भीतर ही हैं, बाहर नहीं। जिन्हें हम सिद्धियाँ, प्रकृति के रहस्य और शक्ति कहते हैं, वे सब भीतर विद्यमान हैं। प्रकृति में कोई ज्ञान नहीं है, मानव
की आत्मा से समस्त ज्ञान उद्भूत होता है। मनुष्य ज्ञान व्यक्त करता है,
अपने भीतर वह उसका आविष्कार करता है, जो पहले से, शाश्वत काल से ही
विद्यमान है। प्रत्येक व्यक्ति में एक समान ही सामर्थ्य है--एक में उसकी
अभिव्यक्त अधिक है, दूसरे में कम। फिर विशेषाधिकार का दावा कहाँ ? मनुष्य
किस मुख से अपने लिये विशेषाधिकार पाने का दावा कर सकता है? ईश्वर का कोई
विशेष संदेशवाहक नहीं, न कभी था, और न आगे वैसा दावा कोई कर सकता है।
छोटे-बड़े सभी जीव ईश्वर की समान रूप से अभिव्यक्तियाँ हैं, अन्तर केवल
अभिव्यक्तियों के परिमाण में है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" आर्यों के हे पावन देश ! तू कभी पतित नहीं हुआ। राजदण्ड टूटते
रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कंदुक एक हाथ से दूसरे हाथ में
उछलता रहा है, पर भारत में राजदरबारों और राजाओं का (लालबत्ती गाड़ियों की चाटुकारिता करने वालों का ) प्रभाव सर्वदा थोड़े से
लोगों को ही छू सका है उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य
जीवनधारा का अनुगमन करने के लिए मुक्त रही है, और राष्ट्रिय जीवनधारा कभी
मन्द और अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल और प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती
रही है। उन बीसों ज्योतिर्मय शताब्दियों की अटूट शृंखला के सम्मुख मैं तो
विस्मयाकुल -खड़ा हूँ; जिनके बीच यहाँ-वहां एकाध धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी
को और भी अधिक ज्योतिर्मय बना देती है।"
मेरी यह जन्मभूमि अपने यशोपुरित लक्ष्य- " पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने " की सिद्धि के
लिये अपने सहज महिमामय पदक्षेप के साथ निरंतर प्रगतिशील है। हाँ, मेरे
बन्धुओं , यही गौरवमय भाग्य हमारे देश का है ! क्योंकि हमने उपनिषद-युगीन
सुदूर अतीत में , हमने इस संसार को चुनौती दी थी - " न प्रजया न धनेन त्यागेनैके अमृतत्वं आनशुः। " --न
तो संतति द्वारा और न सम्पत्ति द्वारा, वरन केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व
की उपलब्धि होती है। एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्वीकार किया।
.... संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया।
वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं -पुरानी जातियां तो शक्ति और स्वर्ण
की लोलुपता से उद्भूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पीस-मिट गयी, और नयी
जातियां गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का हल करने के लिए
अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी युद्ध की ? सहिष्णुता (टॉलरेन्स) की विजय होगी या
असहिष्णुता (इनटॉलरेन्स) की ? शुभ की विजय होगी अशुभ की ? शरीर की विजय होगी या बुद्धि
की ? सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की ? हमने तो युगों पहले इस प्रश्न का अपना हल ढूँढ लिया था, और हमारा समाधान है - असंसारिकता, त्याग (और सेवा) ! " त्याग (और सेवा) " ही
भारत के राष्ट्रिय आदर्श हैं -भारतीय जीवन-रचना का यही प्रतिपाद्य विषय
है, उसके अस्तित्व का यही मेरुदण्ड है, उसके जीवन की यही आधारशिला है, उसके
अस्तित्व का एकमात्र हेतु है -मानवजाति का आध्यात्मीकरण ! अपने इस लम्बे
जीवन -प्रवाह में ( जीवन नदी के हर मोड़ पर ) भारत अपने इस मार्ग से कभी कभी
भी विचलित नहीं हुआ , चाहे ततारों का शासन रहा हो चाहे तुर्कों का, चाहे
मुगलों ने राज्य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने! (विश्व को भारत का सन्देश -
९/२९९)
'आध्यात्मिक साम्यवाद'
२२.प्रश्न : मेरे मन में मनुष्य की आत्मा या परमात्मा के सम्बन्ध में एक
धुंधली सी धारणा है; मैं इसके सम्बन्ध में कुछ सुनना चाहता हूँ. पुराणों के अनुसार आत्मा और
परमात्मा क्या है ?
उत्तर : जिस ग्रन्थ में
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन कथाओं को बताते हुये जीव आत्मा को मुक्ति
मार्ग में पहुँचाने वाले विचार लिखे हैं वह इतिहास ही पुराण है। अन्तरात्मा या आत्मा तथा परमात्मा वस्तुतः
(de facto) एक ही हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं है। आत्मा दो प्रकार की
नहीं होती, वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त अन्य और कुछ है ही नहीं। आत्मा
कहने का तात्पर्य ही ब्रह्म होता है, आत्मा का अर्थ ही है परमात्मा। जब
तक हमलोग ऐसी कल्पना करते हैं, या इस भ्रम में रहते हैं, या कि वे किसी जीव के
भीतर हैं, तब उनको जीवात्मा या आत्मा कह देते हैं। और जब ऐसा जान लेते हैं
कि वे सर्वव्यापी होने पर भी, सभी कुछ का अतिक्रमण कर के, सबकुछ के परे भी
वे ही अवस्थित हैं; जब इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं, तब उनको ही
परमात्मा (परम+आत्मा) कहते हैं।
हमलोगों के भीतर जो आत्मा अवस्थित
हैं, उनके बारे में ठीक ठीक धारणा करना बहुत कठिन है। वे
सुनने में बड़े अच्छे लगते हैं, इसी कारण उनको बोल कर नहीं समझाया जा सकता
है. मन के भीतर उनकी धारणा - क्यों नहीं की जा सकती ? इस बात को उनके उपर
बहुत परिचर्चा (शास्त्रार्थ) करके तर्कसंगत विचार करने पर ही समझा जा सकता
है। इसका कारण यह है कि
किसी भी वस्तु की धारणा हमलोग मन के द्वारा ही करते हैं। किन्तु आत्मा
मन-बुद्धि के अगोचर हैं, वे मन-बुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित हैं.
क्योंकि वे रोम-रोम में व्याप्त हैं, सबकुछ में अनुस्यूत हैं, सदा साथ
रहने वाले हैं,अविभाज्य हैं, इसीलिए शब्दावली के आभाव में हमलोग कह देते
हैं, कि आत्मा सर्वगत हैं, वे सर्वव्यापी हैं. किन्तु वास्तव में उनके
अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी देख रहा हूँ, जो कुछ भी है,
सब कुछ वे ही बने हैं, सभी कुछ ब्रह्ममय है ! इसीलिए वे सर्वव्यापी नहीं हो
सकते हैं। यदि सभी कुछ वे ही हों, तो फिर वे किसी एक जगह (अपने से भिन्न
पदार्थ में ) में जायेंगे कैसे ? यदि उनके अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नहीं,
तो फिर वे सबों के भीतर प्रविष्ट कैसे होंगे ? यह सब बातें हमलोग अपने मन
को समझाने के लिए कह देते हैं. अर्थात जो अस्तित्व हैं, जिनके अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं है, वे ही आत्मा हैं, वे ही परमात्मा हैं.
किन्तु उनको बुद्धि के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता है, वे तो अनुभव करने की वस्तु हैं ! हमलोगों
का
' मैं-पन ' या मिथ्या अहंकार उन्हें कभी नहीं जान सकता, बस जो आत्मा हैं,
वे ही स्वयं को या परमात्मा को जान सकते हैं। केवल वह ' आत्मा ' ही यह जान
पाते हैं, कि ' वे ' क्या हैं ! अतः आइये हमलोग प्रथम वेद सिद्धान्त से परमात्मा का विचार करें । मुण्ड. उप. २/२/११ के मंत्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं -विश्व ही सनातन सत्य है।
ऊँ ब्रह्मैवेदममृतम् पुरुस्तात ब्रह्म, पश्चात ब्रह्म दक्षिणतश्चोत्रेण ।
अधःश्चोर्ध्व च प्रस्रतं, ब्रह्मैवेर्दं विश्वं इदं वरिष्ठम ।।
यह अविनाशी ब्रह्म आगे पीछे, दाहिने बांये और ऊपर नीचे सर्वत्र व्याप्त है । यह ब्रह्म ही सम्पूर्ण विश्व है । सबमें श्रेष्ठतम केवल यह विश्व ब्रह्म ही है । विवेक चूड़ामणि- २२९ में आचार्य शंकर ने कहा है -
यदिदं सकलं विश्वं नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् ।
तत् सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्ता शेष भावना दोषम् ।।
अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व जो अज्ञान से नाना प्रकार का (नाम-रूप वाला ) प्रतीत हो रहा है, समस्त भावनाओं के दोष से रहित (अर्थात्) निर्विकल्प ब्रह्म ही है ।
तुरीय का
अर्थ संस्कृत में "तीन से परे" से है, अद्वैत वेदान्त के अनुसार उस अवस्था में
जीवात्मा अपने वास्तविक रूप को पहचानता है, वह समाधि की अवस्था तुरीय समाधि
की अवस्था है। जब बूँद वापिस सागर में मिल जाती है उसे समाधि का सबसे
उंचा स्तर कहते हैं। क्यूंकि यह अवस्था परमात्मा के ज्ञान और आनन्द का
अनुभव करवाती है इसलिए योगियों का तुरीय अवस्था में जाना कहा जाता है, और
परमात्मा भी तुरीय अवस्था में ही जानने का विषय है।
१. जीव
जागृत होता है। २. जीव स्वप्न अवस्था में जाता है। ३. जीव सुषुप्ती की
अवस्था में जाता है। ये तीनो अवस्थाएं तो सभी आम मनुष्यों को भी अनुभव हो
जाती हैं, लेकिन तुरीय अवस्था योग की ऐसी परम अवस्था है जिसमे जो जागृत जो
जागृत, स्वप्न और सुषुप्ती यानी की इन तीनो अवस्थाओं से परे है। यह समाधी
की वह अवस्था है जिसको केवल सिद्ध योगी ही अनुभव कर पाते हैं। इसी अवस्था का वर्णन करते हुए स्वामी
विवेकानन्द,समाधि के उपर रचित एक कविता में कहते हैं -
" प्रलय या गहरी समाधि "
सूर्य भी नहीं है, ज्योतिर्मय सुंदर शशांक भी नहीं,
प्रतिबिम्ब-सा व्योम में यह विश्व नजर आता है।
मनो-आकाश अस्फुट..., भासमान विश्व-ब्रह्माण्ड वहाँ
अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है।
धीरे धीरे प्रतिबिम्बों का समूह प्रलय में समाया जब
निज ' नाम-रूप ' के अहंकार की धारा उसी में लीन हो जाती है ।
रुद्ध हो गयी वह धारा, शून्य में लीन हो गया शून्य,
'अवांग-मन-सगोचरम ' को वह जाने जो ज्ञाता है !
इस कविता की अन्तीम पंक्ति बंगला में इस प्रकार है- ' বোঝে প্রাণ বোঝে যার । '
या
' बोझे प्राण बोझे जार ।' -अर्थात उनको प्राण ही समझ पाता है, ' मैं '
उनको जान गया हूँ, ऐसा मुख से कहने वाला अहं तो उस प्रलय (निर्विकल्प
समाधि) में ही लीन हो गया था, अब कौन कह सकता है? श्रीरामकृष्ण इसी बात को
इस प्रकार कहते हैं- ' एकमात्र ब्रह्म ही अनुच्छिष्ट हैं, उनको कोई मुख से
नहीं कह सकता है, सारे शब्द (नाम ), सारे शास्त्र जूठे हो गये हैं, किन्तु
ब्रह्म अभी तक जूठा नहीं हुआ ।'
क्योंकि वे इस भौतिक जगत में दिखाई
देने वाले किसी लौकिक पदार्थ के जैसा कोई वस्तु या भौतिक-पदार्थ नहीं हैं;
इसीलिए उनको वाणी के द्वारा व्यक्त व्यक्त नहीं किया जा सकता, कोई हजार
मुखों से भी उनका वर्णन नहीं कर सकता.
हमलोग अपनी पञ्च इन्द्रियों के
माध्यम से केवल भौतिक पदार्थों की ही धारणा कर सकते हैं. जैसे इस वस्तु का
इतना भार या इतना वजन होगा, इसका आकर ऐसा है, इसका यह रूप है, इसमें ऐसे
गुण हैं, इसके साथ अन्य वस्तु का सम्पर्क हो सकता है इत्यादि बातों को ही
हम अपने मन के द्वारा धारणा के सकते हैं. मनुष्य अपने मन में जितनी
बड़ी से बड़ी या सबसे वृहत वस्तु की धारणा कर सकता है, वे उन सबसे भी वृहत
हैं, इसीलिए मन से विचार करके उनके बारे में धारणा बना पाना संभव नहीं है.
फिर भी हताश होने की जरूरत नहीं है, कोई व्यक्ति यदि इसी प्रकार उनके बारे
में सुनता रहे, या इसी विषय पर बार बार परिचर्चा करता रहे, तथा (चारो
महावाक्य पर ) गहराई से मनन करता रहे, तो वैसा करते-करते उनके बारे में
थोड़ी धारणा अवश्य हो सकती है.
इसके लिए, बीच बीच में (निर्जन में-
अर्थात युवा प्रशिक्षण शिविर में जाकर) आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए-" यह ठीक है कि ब्रह्म
क्या हैं, उनके बारे में मैं नहीं जानता. किन्तु ऐसी बात भी नहीं है, कि
उनके बारे में मैं बिल्कुल कुछ भी नहीं जानता. मैं यह दावा तो नहीं कर
सकता, कि मैंने ब्रह्म को पूर्ण रूप से जान लिया है, किन्तु यह भी नहीं कह
सकता कि मैं ब्रह्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ." इस प्रकार का
चिन्तन-मनन, करते रहना आवश्यक है.
यही बात प्रत्येक उपनिषद में कही
गयी है. " ब्रह्म सर्वव्यापी हैं, वे सर्वदा निश्चल होते हुए भी, सर्वदा
द्रूत गति से गमन करते हैं. वे यहीं हैं, वे दूर से दूर भी हैं. वे कान
नहीं रहने से भी सुन सकते हैं, आँखें नहीं रहने से भी देख सकते हैं, वे जीभ
के बिना होने पर भी, समस्त बातें, समस्त शब्द उन्हीं से निर्गत होते हैं,
समस्त इच्छाएँ वहीँ से आ रही हैं, वे समस्त सृष्टि का मूल हैं. वे कानों के
भी कान हैं, मन के भी मन हैं. सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में विलीन हो जाएगी.
वे मेरे भीतर भी हैं, और मेरे बाहर भी हैं. जो कुछ भी विश्व-ब्रह्माण्ड
मैं देख रहा हूँ, सबके भीतर वे ही अवस्थित हैं. वे प्रत्येक जीवों में हैं,
प्रत्येक प्राणी के भीतर में हैं, प्रत्येक मनुष्य में वही हैं. ऐसा कुछ
भी नहीं है, जो वे नहीं हैं."
यदि कोई पूर्ण श्रद्धा के साथ इसी बात
पर मन ही मन विचार करता रहे, तो उसका क्या होगा ? उसका हृदय तथा उसकी
दृष्टि क्रमशः विस्तृत होती रहेगी. अब वह उनके संबन्ध में क्या सोचेगा ?
यही-कि वे सच्चिदानन्द स्वरूप हैं, वे सत-चित-आनन्दमय हैं. शंकराचार्य ने
(अपरोक्ष अ. 116) में कहा है-
दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।
सा दृष्टि परमोदारा न नासाग्रविलोकिनी ।।
अर्थात दृष्टि को ज्ञानमय करके संसार को ब्रह्ममय देखे यही दृष्टि अति उत्तम है, नासिका के अग्र भाग को देखने वाली नहीं ।
सत, असत और मिथ्या का अर्थ क्या हुआ ? यही, की वे हैं. (सचमुच यह विश्वास होना कि दिन में
सितारे नहीं दिखाई देने से भी वे हैं, रात्रि में अवश्य निकल आएंगे. या
बाबूजी अँधेरे कमरे में सो रहे हैं, उनको ढूंढ़ते ढूंढ़ते हाथ पहले जंगला
पर पड़ गया, नहीं ये बाबूजी नहीं हैं, पलंग पर पड़ा ये भी नहीं हैं, बाबूजी
पर हाथ पड़ गया, तो हम निश्चिन्त हो गये कि बाबूजी हैं.) 'अस्ति ' का भाव,
वे हैं के भाव को ' सत ' कहते हैं. असत का अर्थ है, जो तीन काल में
नहीं हो सकता. वास्तव में ' सत-असत-मिथ्या ' पर चिन्तन-मनन करने का अर्थ
अच्छा-बुरा में अन्तर करना नहीं है, उसका अर्थ है- वे हैं ! वे चित स्वरुप
हैं. वे ' Consciousness ' हैं, वे चैतन्य (अभिज्ञता ) हैं, वे चिति हैं.
दुर्गा सप्तसती में कहा गया है- ' या देवी सर्वभूतेषु चिति-रूपेण
संस्थिता।' वे चिति या बोधस्वरूप हैं, वे सभी वस्तुओं में बोधस्वरूप हैं.
एवं वे
आनन्दमय हैं. आनन्द को कैसे समझा जाता है ? जब आनन्द का प्रवाह होता
है, तो वह प्रेम के रूप में ही प्रवाहित होता है. इसीलिए हम इस प्रकार
ब्रह्म के उपर चिन्तन करते रहें- कि वे सर्वत्र हैं, सर्व जीवों में हैं,
वे सर्व लोकों में हैं, फिर वे ही सर्व लोकों का अतिक्रमण करके भी हैं."
"
वे मेरे भीतर हैं और मेरे बाहर भी वही हैं. जो सदा-सर्वदा हैं वे
सत-स्वरूप हैं, जो चिन्मय हैं, जो चितस्वरूप हैं, जो विचार स्वरूप हैं, जो
बोधस्वरूप हैं, जो आनन्दमय हैं, जो कई धाराओं में प्रेमरूप से प्रवाहित
होकर सबों का आलिंगन करते हैं, वे सबों के भीतर रहते हुए, मेरे भीतर भी
हैं."
जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा
नहीं रह सकती, वह किसी से द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती,
स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती. उसके भीतर की शक्ति जाग्रत
हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी
प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है. यही है जातिवाद और सम्प्रदायवाद को समाप्त करने श्रेष्ठ उपाय। '
मनष्य' बनने का सच्चा तरीका, एवं जगत-कल्याण का वास्तविक उपाय भी यही है.
आजकल के कुछ विदेशी मनीषी, और ठेठ-विदेशि भाषा की कुछ पुस्तकों को पढ़े-लिखे
तथाकथित कुछ देशी बुद्धिजीवी लोग, जिन्होंने इन बातों को कभी अपने जीवन
में सुना भी नहीं है, या कभी इसके उपर परिचर्चा करने की कोई चेष्टा भी यदि
नहीं किया है,और वैसे लोग ही अगर यह फतवा देने लगें, कि यह सब झूठी बात है,
भ्रामक है-भ्रम में डालने वाली बातें हैं, कपोल-कल्पित बातें हैं, और उन
पढ़े-लिखे मूर्खों की बातों को सुन कर हमलोग यह मानने लग जाएँ, कि सचमुच
हमारे उपनिषदों में ज्ञान की बातें हैं ही नहीं, तो फिर हमलोगों के
दुःख-कष्टों को दूर करने की शक्ति सम्पूर्ण त्रिलोकी में किसी के पास नहीं
है. वैसे जो पढ़े-लिखे मूर्ख ऐसी बकवास करते हैं, उनके संबन्ध में
शंकराचार्य ने अपरोक्षा अ ० में कहा हैं-
स्वात्मानम् शृणु मूर्ख त्वम् श्रुत्या युक्त्या च पुरुषम् ।
देहातीतम् सदाकारम् सुदुर्दर्शम् भवादृशैः ॥—३०
शृणु मूर्ख त्वम् = हे अज्ञानी, सुनो ! स्वात्मानम् श्रुत्या युक्त्या च पुरुषम् = उपनिषद आदि शास्त्रों में युक्तियों और ऋषियों के द्वारा तुम्हारी अपनी आत्मा को ही पुरुष या परमात्मा कहा है; देहातीतम् = शरीर से परे है; सदाकारम् = अस्तित्व की प्रकृति का है; सुदुर्दर्शम् भवादृशैः = आप जैसे लोगों से जाना जाता है के लिए मुश्किल है। ।-30
-अर्थात,
हे मुर्ख ! श्रुतियों (वेद-उपनिषद आदि) में तुम्हारी अपनी आत्मा को ही
पुरुष कहा गया है, उनके बारे में सुनो एवं उनको तर्क-वितर्क की सहायता
जानने की चेष्टा करो. यह आत्मा देहातीत हैं (केवल शरीर नहीं हैं), अस्तित्व
के आकर एवं स्वरुप को समझ पाना तुम्हारे जैसे बुद्धि-सम्पन्न व्यक्तियों
के लिए समझ पाना सचमुच बहुत दुष्कर है.
ऐसा दृढ विश्वास रखना ही
यथार्थ श्रद्धा है, यही वास्तविक आध्यात्मिकता है. आत्मा पर विश्वास, अपनी
शक्ति के उपर विश्वास रखो. स्वयं में जो शक्ति है, वह कहाँ से आ रही है ?
मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं शक्तिमान हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं,
इसीलिए मुझमें ज्ञान का प्रस्फुटन होता है. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए तो
मैं आनन्द का अनुभव करता हूँ. मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं मनुष्यों
से प्रेम कर सकता हूँ. प्रेम हृदय से प्रेम प्रवहित हो सकता है. यह
सच्चिदानन्दमय आत्मा मेरे भीतर हैं, इसी विश्वास को हृदय में धारण करके
जीवन जीना ही आध्यात्मिकता है.
केवल यह आध्यात्मिकता ही सच्चा
साम्यवाद (Communism - या सब वस्तुओं में सबका समानाधिकार रखने का
सिद्धान्त) स्थापित कर सकती है.जोलोग शोषित, मुर्ख, दरिद्र है, गरीबी से
त्रस्त और पददलित हैं, सताये हुए हैं और भूखों मर रहे हैं- वैसे लोगों के चेहरे पर भी यह आध्यात्मिकता
ही हँसी खिला सकती है.
इसी ज्ञान, इसी
शक्ति, इसी आध्यात्मिकता को यदि भारत के जनसाधारण के भीतर जाग्रत नहीं
कराया जा सका- तो उनके चेहरों पर हँसी खिला पाना कभी संभव नहीं होगा. एवं
भारत के गाँवों की झोपड़ियों में रहने वाली आम-जनता के बीच इस प्रकार के
सच्चे साम्यवाद या आध्यात्मिकता को स्थापित नहीं करने से भारतवर्ष का
पुनर्निर्माण कभी संभव नहीं हो सकेगा, फलस्वरूप सम्पूर्ण पृथ्वी के
मनुष्यों की उन्नति भी संभव नहीं हो सकेगी. इसीलिए समाज के नीतिनिर्धारकों
को सम्पूर्ण पृथ्वी के विकास के लिए इसी आध्यात्मिकता या सच्चे साम्यवाद की
शरण में जाना ही होगा.
स्वामी विवेकानन्द, जगन्माता माँ सारदा एवं
ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने इसी सच्चाई को अपने जीवन (धन का आभाव तथा ग्रामीण
परिवेश के जीवन) द्वारा प्रदर्शित किया है, अपनी अमृतमयी वाणी से इन्हीं
बातों का उल्लेख कई प्रकार से किया है-और किस लिए किया है ? जगत के कल्याण
के लिए किया है. इसके अलावा उनका कोई दूसरा उद्देश्य नहीं था. सम्पूर्ण जगत
का कल्याण हो सके, इसीलिए हमलोगों की आँखों के सामने उन लोगो ने अपने
जीवन-लीला का मंचन किया था.
हमलोग उनके इतने निकट (भारत में जन्मे
हैं) रहे हैं, इसीलिए उनकी लीलाओं को विभिन्न प्रकार से सुन पा रहे हैं.
यदि हमलोगों में थोड़ी सी भी सद्बुद्धि बची हुई हो, तो हमलोग इस परमसुन्दर
आदर्श को अपने जीवन में धारण करने की चेष्टा अवश्य करेंगे. पर केवल अपनी
मुक्ति, अपने आनन्द, अपने सुख के लिए नहीं, बल्कि भारत के जनसाधारण के लिए,
विश्व के समस्त मनुष्यों का कल्याण साधित करने की इच्छा से करें.
मनुष्यों
के कल्याण के लिए- हमलोग अपने जीवन की समस्त शक्तियों को उद्घाटित कर
सकें, उन्हें जाग्रत कर सकें, उस अनन्त प्रेम को अनेकों धाराओं में
प्रवाहित-प्रस्फुटित या अभिव्यक्त करके अपने जीवन को सार्थक बनाकर अन्त में
हँसते-हँसते इस जगत से प्रस्थान कर सकें; ठाकुर-माँ-स्वामीजी हम सभी लोगों
को यही आशीर्वाद दें !
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