(प्रथम संस्करण २५ दिसम्बर २००१ -द्वितीय संस्करण २५ दिसम्बर २०१८ )
'आवरण चित्र की व्याख्या '
इस पुस्तिका के आवरण पृष्ठ पर जो चित्र छपा है उसका विस्तृत विवरण रामकृष्ण मठ, नागपुर से प्रकाशित श्रीरामकृष्णवचनामृत:२४ अगस्त १८८२ ई. इस प्रकार मिलता है :
कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति ही अन्यमनस्कता (डिस्ट्रैक्शन) का का कारण है।
(কামিনী-কাঞ্চনই যোগের ব্যাঘাত -- সাধনা ও যোগতত্ত্ব)
श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। मास्टर से कहने लगे- " ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलने की आवश्यकता है। मूर्तिकार को जो मूर्ति गढ़नी होती है, उसका पहले वह एक खाका (blueprint-3H) तैयार कर लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा गढ़ने के लिये पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ाई जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रंगी जाती है। -विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। कुछ अच्छे काम (समाज-सेवा) करता है ; परन्तु हृदय में क्या है उसकी खबर नहीं। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं (माँ जगदम्बा/ परम् सत्य हैं) -यह जान लेने के बाद सब कुछ छोड़कर ('नाम-यश 'आदि असत्य विषयों में आसक्ति को त्याग कर) व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। " (অন্তরে ঈশ্বর আছেন, -- জানতে পারলে সব কাজ ছেড়ে ব্যাকুল হয়ে তাঁকে ডাকতে ইচ্ছা হয়।)
.... श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं।
[ 'वासना और धन' ('lust and lucre) की तृष्णा को मिटाने के लिये एकाग्रता का अभ्यास]
(कामिनी-कांचनरूपी वृत्ति,आँधी से पार होने के लिये -साधना)
(সাধনা -- কামিনী-কাঞ্চনের ঝড়তুফান কাটাইবার জন্য)
श्रीरामकृष्ण : हृदय (Heart) में क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ साधना (मनःसंयोग करना) आवश्यक है।
[অন্তরে কি আছে জানবার জন্য একটু সাধন চাই। अन्तरे कि आछे जानबार जन्ये एकटू साधन चाई। मनुष्य निर्माण या जीवन-गठन के मूर्तिकार विवेकानन्द ने अपने गुरु के निर्देशानुसार उसका एक खाका (blueprint) पहले तैयार कर लिया था। मनुष्य-निर्माण के लिये उसके तीन प्रमुख अवयव - शरीर, मन और हृदय (3H) को विकसित करने के लिये, 'विवेकानन्द-निवेदिता भक्ति-वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा-BE AND MAKE' में प्रशिक्षित होकर स्वयं एक लोकशिक्षक या नेता बनकर, वुड बी लीडर्स को प्रशिक्षित करना होगा।]
श्रीरामकृष्ण परमहंस : " नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' हिलोरा (surge),चक्रवात (storm),आँधी चल रही होती है, और नौका नदी के तीखे मोड़ों से होकर गुजर रही होती है, तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है। उतने से पार हो जाने पर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बंदोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। 'कामिनी और कांचन' की आँधी (भँवर) से निकल जाने पर शान्ति मिलती है !
[यहाँ श्रीरामकृष्ण देव की उपमा विशेषरूप से दर्शनीय है, ठीक उसी प्रकार जैसे महाकवि कालिदास
कुमारसम्भवम् में शिव के तपस्वी रूप का वर्णन करते हुए, उनकी एकाग्रता की उपमा किसी 'बिना हवा के स्थान में जलते निष्कम्प प्रदीप' से करते हुए कहते हैं - "अन्तश्चराणां मरुतां निरोधान् निर्वातनिष्कम्पमिव प्रदीपम् "॥ कुमारसम्भव ३.४८॥ शरीर के अंदर चलने वाली प्राण-अपान आदि सभी वायु को रोक कर वे ऐसे अचल बैठे हुए हैं जैसे वर्षा न करने वाला बादल, जैसे बिना तरंगों वाला ताल, और जैसे बिना हवा के स्थान में निष्कम्प प्रदीप। क्योंकि भगवान शिव यह जानते हैं कि, समग्र चेतना को,वृत्ति से बुद्धि में और बुद्धि को 'विवेक-प्रयोग' की सहज-प्रवृत्ति (instinct : स्वाभाविक बुद्धि) में परिवर्तित कर लेने पर ही शान्ति मिलती है !]
योग के विघ्न :- 'निर्वातनिष्कम्पमिव प्रदीपम् -जैसे बिना हवा के स्थान में निष्कम्प प्रदीप। '
योग के विघ्न :- " मन के स्थिर हुए बिना योग नहीं होता। संसार की हवा मनरूपी दीपशिखा को सदा ही चंचल किया करती है। वह शिखा यदि जरा भी न हिले तो योग की अवस्था हो जाती है। कामिनी और कांचन योग के विघ्न हैं। वस्तुविचार करना चाहिये। स्त्रियों के शरीर में क्या है ---रक्त, मांस, आतें, कृमि, मूत्र, विष्ठा --यही सब। उस शरीर पर प्यार क्यों ?
" किसी किसी में योगियों के लक्षण दीखते हैं परन्तु उन लोगों को भी सावधानी से रहना चाहिये। कामिनी और कांचन ही योग में विघ्न डालते हैं। योगभ्रष्ट होकर साधक फिर संसार में आता है, - भोग की कुछ इच्छा रही होगी। इच्छा पूरी होने पर वह फिर ईश्वर की ओर जायेगा- फिर वही योग की अवस्था होगी।
" त्याग (वैराग्य) के लिये मैं अपने में अपने में राजसी भाव भरता था। साध हुई थी कि जरी की पोशाक पहनूँगा, अँगूठी पहनूँगा, लम्बी नलीवाले हुक्के में तम्बाकू पिऊँगा। जरी की पोशाक पहनी। ये लोग (मथुरबाबू) ले आये थे। कुछ देर बाद मन से कहा - यही शाल है, यही अँगूठी है, यही लम्बी नली वाले हुक्के में तम्बाकू पीना है। सब फेंक दिया, तब से फिर मन नहीं चला । "
" तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग (मनःसंयोग) है।
..... शाम हो रही है। कमरे के दक्षिण-पूर्व की ओर के बरामदे में द्वार के पास ही, अकेले में श्रीरामकृष्ण मणि से बातें कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - " योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र 'दी मदर बर्ड हैचिंग हर एग्स ' क्या मुझे दिखा सकते हो ? "
मदर बर्ड हैचिंग हर एग्स.
[ हिज आईज़ आर वाइड ओपन, विथ ऐन एमलेस लुक, लाइक दी आईज़ ऑफ़ दी मदर बर्ड हैचिंग हर एग्स. हर इन्टायर माइंड इज़ फिक्स्ड ऑन दी एग्स, ऐंड देयर इज़ अ वेकेंट लुक इन हर आईज. 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि।' (बृहदारण्यक उपनिषद /२२) इसका अर्थ यह है कि 'अरे मैत्रेयी, आत्मा के ज्ञान या दर्शन का होना सर्वथा सर्वदा वांछनीय है। उसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना होगा। ]श्रीरामकृष्ण - " योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र 'दी मदर बर्ड हैचिंग हर एग्स ' क्या मुझे दिखा सकते हो ? "
===============
भूमिका
( 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय के द्वारा बंगला भाषा में लिखित पुस्तिका- ' मनः संयोग ' का हिन्दी भावानुवाद.)
'मनः संयोग ' या मन की एकाग्रता इतना महत्वपूर्ण विषय है जिसको सीखे बिना कुछ भी कुशलतापूर्वक कर पाना संभव नहीं है। केवल पढ़ाई-लिखाई व जीवन-गठन ही नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र का कल्याण भी इसी पर निर्भर करता है। इतना महत्वपूर्ण विषय होने पर भी, जिनके लिये इसे सीखना अत्यन्त अनिवार्य है- उन छात्रों-युवाओं के पाठ्यक्रम में इसको सिखाने की कोई व्यवस्था नहीं है। इसीलिये उन्हीं युवाओं और छात्रों को ध्यान में रखते हुए यह पुस्तिका सरल भाषा में लिखी गई है।
इसके आवरण पृष्ठ पर जो चित्र छपा है वह अण्डे सेते हुए एक चिड़िया का है। इस चित्र के विषय में श्रीरामकृष्ण देव ने अपने शिष्यों से वार्तालाप करते हुए कहा था-" योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। "
महामण्डल का उदेश्य है- ' भारत का कल्याण ' और इसका उपाय है-' चरित्र-निर्माण'! अतः स्वाभाविक रूप से महामण्डल के 'मनुष्य निर्माण कार्यक्रम ' के अर्न्तगत, आर्य बनने और बनाने के लिये प्रत्येक भारतवासी को मनः संयोग अर्थात मन को एकाग्र करने की विधि को सीखना अनिवार्य है। इसीलिये महामण्डल द्वारा इसे करने की एक पद्धति निर्धारित की गई है। विगत ५१ वर्षों का हमारा यह अनुभव रहा है कि जिन छात्रों-युवओं ने मन को एकाग्र करने की पद्धति को अपने दैनिन्दन जीवन में अपनाया है, उन्हें उसका आशातीत परिणाम मिला है। यह अब एक 'परीक्षित सत्य ' बन चुका है।
पाश्चात्य जगत्, मनोविज्ञान के क्षेत्र में अभी एक नवजात शिशु के समान है ; जबकि हमारे देश में यह विज्ञान अत्यन्त ही प्राचीन है। इसीलिये इस पुस्तिका को- वेद, उपनिषद, गीता, भागवत्, पातंजलि योग-सूत्र, एवं स्वामी विवेकानन्द के मनोविज्ञान विषयक असाधारण आविष्कारों के साथ-साथ पाश्चात्य मनोविज्ञान को भी ध्यान में रखते हुये लिखा गया है। किन्तु कम उम्र के छात्र-छात्राओं की सुविधा के लिये, इसमे शास्त्रादि के नामों को उल्लिखित किये बिना, इसे अत्यन्त ही सरल भाषा में लिखा गया है। विद्यालय एवं महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं के साथ-साथ जनमानस भी इससे लाभान्वित होंगे, ऐसी हमारी आशा है। अध्यापक तथा अभिभावक गण छात्र-छात्राओं को यदि मनः संयोग की पद्धति का अनुसरण करने के लिये प्रेरित करेंगे तो उन्हें न केवल अपने अध्यन में सफलता मिलेगी बल्कि राष्ट्र का भी यथार्थ कल्याण होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
इसके आवरण पृष्ठ पर जो चित्र छपा है वह अण्डे सेते हुए एक चिड़िया का है। इस चित्र के विषय में श्रीरामकृष्ण देव ने अपने शिष्यों से वार्तालाप करते हुए कहा था-" योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि, देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। "
पाश्चात्य जगत्, मनोविज्ञान के क्षेत्र में अभी एक नवजात शिशु के समान है ; जबकि हमारे देश में यह विज्ञान अत्यन्त ही प्राचीन है। इसीलिये इस पुस्तिका को- वेद, उपनिषद, गीता, भागवत्, पातंजलि योग-सूत्र, एवं स्वामी विवेकानन्द के मनोविज्ञान विषयक असाधारण आविष्कारों के साथ-साथ पाश्चात्य मनोविज्ञान को भी ध्यान में रखते हुये लिखा गया है। किन्तु कम उम्र के छात्र-छात्राओं की सुविधा के लिये, इसमे शास्त्रादि के नामों को उल्लिखित किये बिना, इसे अत्यन्त ही सरल भाषा में लिखा गया है। विद्यालय एवं महाविद्यालय के छात्र-छात्राओं के साथ-साथ जनमानस भी इससे लाभान्वित होंगे, ऐसी हमारी आशा है। अध्यापक तथा अभिभावक गण छात्र-छात्राओं को यदि मनः संयोग की पद्धति का अनुसरण करने के लिये प्रेरित करेंगे तो उन्हें न केवल अपने अध्यन में सफलता मिलेगी बल्कि राष्ट्र का भी यथार्थ कल्याण होगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
- प्रकाशक
" मनोविज्ञान हमें केवल यह बता सकता है कि मनुष्य क्या नहीं है। वह यह नहीं बतला सकता कि मनुष्य वस्तुतः क्या है। यह मनुष्य की आत्मा को, उसके यथार्थ स्वरूप को न तो समझ सकता है, न ही उसकी व्याख्या कर सकता है। "
- इरिच फ्रॉम (जर्मन दार्शनिक एवं मनोविज्ञानी: 1900 - 1980)
- इरिच फ्रॉम (जर्मन दार्शनिक एवं मनोविज्ञानी: 1900 - 1980)
[" Psychology
can show us what man is not. It cannot tell us what man, each one of
us, is. The soul of man, the unique core of each individual, can never
be grasped and described adequately." --Erich Fromm]
==============
१.'मनः संयोग- एक परिचय'
मनः संयोग किये बिना अर्थात मन को एकाग्र किये बिना, हम न तो किसी कार्य को अच्छी तरह कर सकते हैं, न किसी विषय का सम्यक ज्ञान ही अर्जित कर सकते हैं। किसी भी विषय का ज्ञान अर्जित करने के लिये तथा किसी भी कार्य को सुचारू ढंग से करने के लिये हमें उसके ऊपर अपने मन को एकाग्र करना ही पड़ता है। हमलोग यह अच्छी तरह से जानते हैं कि मन लगा कर करने से कोई भी कार्य समुचित ढंग से सम्पन्न हो जाता है।
किन्तु जब हमें मनःसंयोग के विषय में कोई जानकारी नहीं थी, उस समय क्या हम बिल्कुल निष्क्रिय थे और हमें किसी भी विषय कि जानकारी नहीं प्राप्त हो रही थी ? ऐसा नहीं है। हम सभी लोग हर समय कुछ न कुछ कर रहे हैं, और कुछ न कुछ ज्ञान भी अर्जित कर रहे हैं। किन्तु हम जिस कार्य और विषय पर मनःसंयोग करने में जितना अधिक सक्षम हुए हैं - वह कार्य उतना ही अच्छे ढंग से सम्पन्न हुआ है, तथा उस विषय को हम उतने ही अच्छे ढंग से जान सके हैं। मनःसंयोग की पद्धति सीखे बिना भी हम निरन्तर विभिन्न विषयों में मनःसंयोग करते ही रहते हैं।
लेकिन जब हमे ज्ञात हो जायगा कि मनः संयोग क्या है, तथा अपनी इच्छा और प्रयत्न द्वारा मन को किस प्रकार एकाग्र किया जाता है-तो हम अपनी आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग कर किसी कार्य को अत्यन्त कुशलता से सम्पन्न कर सकेंगे। तथा कम समय में ही किसी भी विषय के ज्ञान को और अच्छी तरह से अर्जित कर लेंगे।
कोई भी कार्य, चाहे देखना -सुनना ही क्यों न हो; उसे करते समय हमें अपने मन को उसके साथ संयुक्त करना ही पड़ता है। मन की सहायता के बिना, देखना-सुनना अथवा कुछ भी करना सम्भव नहीं है। कभी-कभी ऐसा होता है कि मेरे सामने से कोई निकल गया, या किसी ने कुछ कहा तो भी हम उसे देख-सुन नहीं पाते। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसीलिये होता है क्योंकि उधर हमारा मन ही नहीं लगा था। उस समय मेरा मन कहीं और लगा हुआ था। ऐसी स्थिति में कहना पड़ता है कि- " क्षमा कीजियेगा, मैं थोड़ा अन्यमनस्क (Inattentive) हो गया था- मेरा मन कहीं और था, इसीलिये आपको देख न सका या आपकी बात को ठीक से सुन न सका। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि -देखने, सुनने या कोई कार्य करने अथवा किसी भी विषय का ज्ञान अर्जित करने के लिये, हमें उसके साथ अपने मन को संयुक्त करना ही पड़ता है। जो व्यक्ति अपने मन को किसी कार्य या विषय पर जितना अधिक एकाग्र रखने में समर्थ होता है, उसके किया गया कार्य भी उतनी ही उत्कृष्ट श्रेणी का होता है। किसी विषय या कार्य में मन को लगाने को ही मनोयोग करना अर्थात उस कार्य या विषय से मन का योग करना या संयुक्त करना कहते हैं। और जब यह मनोनिवेश अपनी आवश्यकता और इच्छा के अनुसार सम्यक रूप से और पूरी दक्षता के साथ सम्पन्न होने लगता है- तो उसे ही मनःसंयोग करना कहा जाता है।
अब, यह स्पष्ट हो गया कि मनः संयोग क्या है और उसे क्यों किया जाता है। किसी प्रयोजनीय कार्य या ज्ञातव्य विषय में मन को भली-भांति संयुक्त रखने कि क्षमता को ही मनः संयोग कहते हैं। और जिस किसी कार्य में जितनी दक्षता के साथ मनःसंयोग किया जाता है, वह कार्य भी उतना ही अधिक उत्कृष्ट तथा सफल होता है। उसी प्रकार हम चाहे जिस विषय का भी ज्ञान अर्जित करना चाहते हों, उस विषय पर दक्षतापूर्वक मनःसंयोग करने से उसका सम्पूर्ण ज्ञान भी अर्जित हो जाता है।
अतः किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक सम्पन्न करने के लिये हम सर्वदा मनः संयोग कि पद्धति को व्यवहार में ला सकते हैं। मान लो कि हम पढ़ रहे हैं, पर हमारा मन पढ़ाई में अच्छी तरह से नहीं लग रहा हो तो पढ़ाई भी अच्छी तरह से नहीं हो सकती।
किन्तु ज्ञातव्य विषय पर मन को एकाग्र कर पढ़ाई करने से, उस विषय को भली-भांति समझा जा सकता है तथा वह विषय याद भी जल्दी हो जाता है। अर्थात मन को पढ़ाई पर एकाग्र रख कर पढने से पढ़ाई सहजता से सम्पन्न हो जाती है। इतना ही नहीं इस तरह कम समय में ही अधिक से अधिक पढ़ा जा सकता है,उसे गहराई से समझा जा सकता है तथा वह याद भी रह जाता है।मनः संयोग सीखने से कई लाभ हो सकते हैं। मन कि चंचलता या अस्थिरता से सभी कार्यों में हानी होती है। कोई भी कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न नहीं हो सकता तथा समय भी व्यर्थ में नष्ट होता रहता है। जबकि मन को एकाग्र कर जो भी कार्य किया जाता है, वह चाहे जैसा भी क्यों न हो, अल्प समय में ही सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न हो जाता है। इसके बाद जो अतिरिक्त समय बचा रह जाता है, उसका सदुपयोग हम अध्यन में या अपनी इच्छानुसार किसी नए मनपसंद विषय को सीखने या अन्य अच्छे कार्यों में कर सकते हैं।
अतः मनःसंयोग की पद्धति को सीख कर अपने दैनन्दिन जीवन में उसे व्यवहार में लाना सचमुच अत्यन्त बुद्धिमानी का कार्य है। इसके आभाव में सम्पूर्ण जीवन में नुकसान बढ़ता ही जाएगा। जबकि मन को एकाग्र रखना सीख लेने से दुनिया के सभी क्षेत्रों में लाभ का परिमाण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाएगा। जीवन में सफलता सहज-साध्य हो जायेगी !
किन्तु जब हमें मनःसंयोग के विषय में कोई जानकारी नहीं थी, उस समय क्या हम बिल्कुल निष्क्रिय थे और हमें किसी भी विषय कि जानकारी नहीं प्राप्त हो रही थी ? ऐसा नहीं है। हम सभी लोग हर समय कुछ न कुछ कर रहे हैं, और कुछ न कुछ ज्ञान भी अर्जित कर रहे हैं। किन्तु हम जिस कार्य और विषय पर मनःसंयोग करने में जितना अधिक सक्षम हुए हैं - वह कार्य उतना ही अच्छे ढंग से सम्पन्न हुआ है, तथा उस विषय को हम उतने ही अच्छे ढंग से जान सके हैं। मनःसंयोग की पद्धति सीखे बिना भी हम निरन्तर विभिन्न विषयों में मनःसंयोग करते ही रहते हैं।
लेकिन जब हमे ज्ञात हो जायगा कि मनः संयोग क्या है, तथा अपनी इच्छा और प्रयत्न द्वारा मन को किस प्रकार एकाग्र किया जाता है-तो हम अपनी आवश्यकतानुसार इसका प्रयोग कर किसी कार्य को अत्यन्त कुशलता से सम्पन्न कर सकेंगे। तथा कम समय में ही किसी भी विषय के ज्ञान को और अच्छी तरह से अर्जित कर लेंगे।
कोई भी कार्य, चाहे देखना -सुनना ही क्यों न हो; उसे करते समय हमें अपने मन को उसके साथ संयुक्त करना ही पड़ता है। मन की सहायता के बिना, देखना-सुनना अथवा कुछ भी करना सम्भव नहीं है। कभी-कभी ऐसा होता है कि मेरे सामने से कोई निकल गया, या किसी ने कुछ कहा तो भी हम उसे देख-सुन नहीं पाते। ऐसा क्यों होता है ? ऐसा इसीलिये होता है क्योंकि उधर हमारा मन ही नहीं लगा था। उस समय मेरा मन कहीं और लगा हुआ था। ऐसी स्थिति में कहना पड़ता है कि- " क्षमा कीजियेगा, मैं थोड़ा अन्यमनस्क (Inattentive) हो गया था- मेरा मन कहीं और था, इसीलिये आपको देख न सका या आपकी बात को ठीक से सुन न सका। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि -देखने, सुनने या कोई कार्य करने अथवा किसी भी विषय का ज्ञान अर्जित करने के लिये, हमें उसके साथ अपने मन को संयुक्त करना ही पड़ता है। जो व्यक्ति अपने मन को किसी कार्य या विषय पर जितना अधिक एकाग्र रखने में समर्थ होता है, उसके किया गया कार्य भी उतनी ही उत्कृष्ट श्रेणी का होता है। किसी विषय या कार्य में मन को लगाने को ही मनोयोग करना अर्थात उस कार्य या विषय से मन का योग करना या संयुक्त करना कहते हैं। और जब यह मनोनिवेश अपनी आवश्यकता और इच्छा के अनुसार सम्यक रूप से और पूरी दक्षता के साथ सम्पन्न होने लगता है- तो उसे ही मनःसंयोग करना कहा जाता है।
अब, यह स्पष्ट हो गया कि मनः संयोग क्या है और उसे क्यों किया जाता है। किसी प्रयोजनीय कार्य या ज्ञातव्य विषय में मन को भली-भांति संयुक्त रखने कि क्षमता को ही मनः संयोग कहते हैं। और जिस किसी कार्य में जितनी दक्षता के साथ मनःसंयोग किया जाता है, वह कार्य भी उतना ही अधिक उत्कृष्ट तथा सफल होता है। उसी प्रकार हम चाहे जिस विषय का भी ज्ञान अर्जित करना चाहते हों, उस विषय पर दक्षतापूर्वक मनःसंयोग करने से उसका सम्पूर्ण ज्ञान भी अर्जित हो जाता है।
अतः किसी भी कार्य को सफलता पूर्वक सम्पन्न करने के लिये हम सर्वदा मनः संयोग कि पद्धति को व्यवहार में ला सकते हैं। मान लो कि हम पढ़ रहे हैं, पर हमारा मन पढ़ाई में अच्छी तरह से नहीं लग रहा हो तो पढ़ाई भी अच्छी तरह से नहीं हो सकती।
किन्तु ज्ञातव्य विषय पर मन को एकाग्र कर पढ़ाई करने से, उस विषय को भली-भांति समझा जा सकता है तथा वह विषय याद भी जल्दी हो जाता है। अर्थात मन को पढ़ाई पर एकाग्र रख कर पढने से पढ़ाई सहजता से सम्पन्न हो जाती है। इतना ही नहीं इस तरह कम समय में ही अधिक से अधिक पढ़ा जा सकता है,उसे गहराई से समझा जा सकता है तथा वह याद भी रह जाता है।मनः संयोग सीखने से कई लाभ हो सकते हैं। मन कि चंचलता या अस्थिरता से सभी कार्यों में हानी होती है। कोई भी कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न नहीं हो सकता तथा समय भी व्यर्थ में नष्ट होता रहता है। जबकि मन को एकाग्र कर जो भी कार्य किया जाता है, वह चाहे जैसा भी क्यों न हो, अल्प समय में ही सुव्यवस्थित रूप से सम्पन्न हो जाता है। इसके बाद जो अतिरिक्त समय बचा रह जाता है, उसका सदुपयोग हम अध्यन में या अपनी इच्छानुसार किसी नए मनपसंद विषय को सीखने या अन्य अच्छे कार्यों में कर सकते हैं।
अतः मनःसंयोग की पद्धति को सीख कर अपने दैनन्दिन जीवन में उसे व्यवहार में लाना सचमुच अत्यन्त बुद्धिमानी का कार्य है। इसके आभाव में सम्पूर्ण जीवन में नुकसान बढ़ता ही जाएगा। जबकि मन को एकाग्र रखना सीख लेने से दुनिया के सभी क्षेत्रों में लाभ का परिमाण उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाएगा। जीवन में सफलता सहज-साध्य हो जायेगी !
==============
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें