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गुरुवार, 22 मार्च 2012

हनुमान के जीवन से दास-नेतृत्व (Servant-Leadership Concept ) का उदाहरण !

चतुर्थ दर्शन 
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
                यस्मिन स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।। (गीता ६/२२)

यस्मिन् स्थितः  दुःखेन गुरुणा अपि विचाल्यते  [All the desires are fulfilled when one attains Self-realization. The Gain or the realization of the the immortal Soul. Wherein in the all-blissful Self which is free from delusion and sorrow. 
When one is under chloroform influence he feels no pain even when his hand is amputated! Because under chloroform influence the mind is withdrawn from the body.
One can experience pain and sorrow when he identifies himself with the body and the mind. If there is no mind there cannot be any pain. If one gets himself established in the Supreme Self within. he cannot be shaken every by heavy sorrow and pain. Because he is mind-less and he is identifying himself with the sorrow-less and pain-less Brahman.
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते यहाँ भगवान् कहते हैं कि आत्यन्तिक सुख की अवस्था = 'उस' तुरीय अवस्था में स्थित होने पर योगी को बड़े से बड़े दुःख भी विचलित नहीं कर सकता। जैसे जब कोई व्यक्ति क्लोरोफॉर्म के प्रभाव में  (अफीमची मोर) रहता है, तब उसके हाथ को काटकर अलग कर देने से भी उसे किसी प्रकार के दर्द का अनुभव नहीं होता। क्योंकि क्लोरोफॉर्म के प्रभाव ने उसके मन को शरीर से वापस खींच लिया है। ठीक वैसे ही तुरीय अवस्था में पहुँचे हुए योगी को विचलित नहीं किया जा सकता, 
क्योकि  जितने भी दुःख आते हैं, वे सभी प्रकृति के राज्यमें अर्थात् नश्वर शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि में ही आते हैं जब कि आत्यन्तिक सुख स्वरूप-बोध प्रकृति से अतीत तत्त्व है। इसीलिये जब वह प्रकृति से सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूपभूत सुख (देश-काल-निमित्त से परे सत्य) का अनुभव कर लेता है, और 
उसमें स्थित हो जाता है; तो फिर यह प्राकृतिक दुःख वहाँ तक पहुँच ही नहीं सकता, उसका स्पर्श ही नहीं कर सकता। इसलिये शरीरमें कितनी ही आफत आनेपर भी वह अपनी स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता। 
किन्तु जब तक पुरुष प्रकृतिस्थ रहता है, अर्थात् शरीरके साथ तादात्म्य कर लेता है, और स्वयं को केवल शरीर-मन ही मानता रहता है, तब तक वह प्रकृतिजन्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में अपने को सुखी-दुःखी मानता रहता है ! प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके वह प्रकृतिस्थ पुरुषके रूपमें अपनी एक स्वतन्त्र सत्ताका निर्माण कर लेता है, जिसको अहम् (कच्चा मैं ) कहते हैं। इस अहम् में जड और चेतन दोनों हैं। सुखदुःखरूप जो विकार होता है, वह जड अंश में ही होता है, पर जडसे तादात्म्य होनेके कारण उसका परिणाम ज्ञाता चेतन पर होता है अर्थात् जडके सम्बन्धसे सुखदुःखरूप विकार को चेतन अपने में मान लेता है कि मैं सुखी हूँ या  'मैं' दुःखी हूँ। जैसे घाटा लगता है दूकान में, पर दूकानदार कहता है कि मुझे घाटा लग गया। ज्वर शरीरमें आता है, पर मान लेता है कि मेरे में ज्वर आ गया। 
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गीता 3। 27)। प्रकृतिका कार्य बुद्धि (महत्तत्त्व) है और बुद्धिका कार्य अहंवृत्ति (अहंकार) है। यह अहंवृत्ति है तो बुद्धिका कार्य, पर इसके साथ तादात्म्य करके स्वयं बुद्धिका मालिक बन जाता है अर्थात् कर्ता और भोक्ता बन जाता है। तात्पर्य है कि बहिःकरण और अन्तःकरणके द्वारा जो क्रियाएँ होती हैं, वे सब प्रकृति से ही होती हैं, किन्तु अहंकार वश मनुष्य सोचता है मैं ही कर्ता और भोक्ता हूँ । परन्तु जब तत्त्वका बोध हो जाता है, तब स्वयं न कर्ता बनता है और न भोक्ता ही बनता है -- शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते (गीता 13। 31)। फिर कर्तृत्व-भोक्तृत्व-रहित पुरुष के शरीर द्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं, उसमें वह स्वयं को कर्ता नहीं मानता और दास भाव प्रभु के संतानों की अपने भाइयों की सेवा करता है ! जैसे कोई माँ अपने शिशु की सेवा उसकी दासी बनकर उसके मलमूत्र को भी बड़े- प्रेम से परिष्कृत करती है।
माँ सारदा देवी की कृपा से महामण्डल के भावी नेताओं को भी उसी अवस्था का अनुभव  प्राप्त हो जाता है। और वह तब सहज रूप में 'शिव ज्ञान से जीव सेवा ' करने वाला सच्चा नेता (भगवान विष्णु ) बनने की दिशा में अग्रसर होने लगता है। वैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेता का नेतृत्व को ही 'दास के जैसा नेतृत्व ' कहते हैं। 

 श्रीरामकृष्ण वचनामृत के रिकॉर्डर श्री 'म'  (मास्टर ) उसी अवस्था को प्राप्त करने की प्रेरणा देते हुए गीता के उपरोक्त श्लोक का उद्धरण देते हुए, चतुर्थ-दर्शन के समय अपनी अवस्था का वर्णन करते हुए  यहाँ कह रहे हैं -  " ६ मार्च १८८२ को भी छुट्टी थी. दिन के तीन बजे मास्टर फिर आये... श्रीरामकृष्ण नरेंद्रादि भक्तों से कहने लगे, " देखो, एक मोर को किसी ने चार बजे अफीम खिला दी.दूसरे दिन से वह अफीमची मोर ठीक चार बजे आ जाता था ! यह भी अपने समय पर आया है." सब लोग हँसने लगे...श्रीरामकृष्ण आनन्द कर रहे हैं और बीच बीच में मास्टर को देख रहे हैं. मास्टर को सविस्मय बैठा देखकर उन्होंने रामलाल से कहा - " इसकी उम्र कुछ ज्यादा हो गयी है न, इसीसे कुछ गम्भीर है. ये सब हँस रहे हैं; पर यह चुचाप बैठा है." मास्टर की उम्र उस समय सत्ताईस साल की होगी.
बात ही बात में (दास्यभाव के) परम भक्त हनुमान की बात चली. " Sri Ramakrishna said: "Just imagine Hanuman's state of mind. He didn't care for money, honor, creature comforts, or anything else. He longed only for God.) हनुमान का एक चित्र श्रीरामकृष्ण के कमरे की दीवार पर टँगा था. श्रीरामकृष्ण ने कहा," देखो तो, हनुमान का भाव कैसा है ! धन, मान, शरीरसुख कुछ भी नहीं चाहते, केवल भगवान को चाहते हैं. 
[श्री'म' ठाकुर के उपदेश में गीता ६/२२ से नेता का गुण को बता रहे हैं - " श्री रामकृष्ण ने कहा, जरा हनुमान की (उस -जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे मन की अतिचेतन अवस्था या तुरीय अवस्था) मानसिक अवस्था की कल्पना तो करो! हनुमान में दास नेतृत्व कैसे आया होगा ? इसको समझो। उन्होंने तुरीय अवस्था में पहुँचकर प्रभु श्रीरामचन्द्र के चरण-कमलों का साक्षात्कार कर लिया था। उस लाभ को प्राप्त कर लेने के बाद वे खुली आँखों से ध्यान करने अर्थात हर मनुष्य शरीर को श्रीराम का मंदिर देखने में समर्थ थे।]  
 जब हनुमान स्फटिक-स्तम्भ के भीतर से ब्रह्मास्त्र निकाल कर भागे, तब मन्दोदरी नाना प्रकार के फल लेकर लोभ दिखाने लगी. उसने सोचा कि फल के लोभ से उतरकर शायद ये ब्रह्मास्त्र फेंक दें; पर (ज्ञानिनाम अग्रगण्यम) हनुमान इस भुलावे में कब पड़ने लगे ?
  (When he was running away with the heavenly weapon that had been secreted in the crystal pillar, Mandodari began to tempt him with various fruits so that he might come down and drop the weapon. But he could not be tricked so easily.) तब हनुमान ने यह गीत गाया-
Am I in need of fruit?I have the Fruit that makes this lifeFruitful indeed. Within my heartThe Tree of Rama grows,Bearing salvation for its fruit.
-मुझे क्या फलों का आभाव है ?
मुझे जो फल (यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।) प्राप्त हुआ है,
 उससे मेरा जन्म सफल हो गया है. मेरे हृदय में मोक्षफल के वृक्ष श्रीरामचन्द्रजी है.
Under the Wish-fulfilling Tree
Of Rama do I sit at ease,
Plucking whatever fruit I will.
But if you speak of fruit --
No beggar, I, for common fruit.
Behold, I go,
Leaving a bitter fruit for you."
  
श्रीराम-कल्पतरु के नीचे बैठा रहता हूँ; जब जिस फल की इच्छा होती है,
वही फल (यस्मिन स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ।।) खाता हूँ .
किन्तु तुम यदि फल दिखा कर ललचाना चाहती हो, तो मैं तेरे सामान्य फल को 
चाहने वाला कोई भिखारी नहीं हूँ.
तू मुझे फल न दिखा, मैं इसका प्रतिफल दे जाऊंगा. "
  इसी भाव का एक गीत श्रीरामकृष्ण गा रहे हैं. फिर वही समाधि; देह निश्चल, नेत्र स्थिर. बैठे हैं, जैसी मूर्ति फोटोग्राफ में देखने को मिलती है. भक्तगण अभी इतना हँस रहे थे पर अब सब एक दृष्टि से श्रीरामकृष्ण की इस अद्भुत अवस्था का दर्शन करने लगे. मास्टर दूसरी बार यह समाधि-अवस्था देख रहे थे.
(श्रीरामकृष्णवचनामृत/प्रथम भाग/पृष्ठ २०)         

         

Master and Disciple
Fourth Visit - March 1882.

Hanuman's devotion to Rama
Sri Ramakrishna was having great fun with the young devotees; now and then he glanced at M. He noticed that M. sat in silence. The Master said to Ramlal: "You see, he is a little advanced in years, and therefore somewhat serious. He sits quiet while the youngsters are making merry." M. was then about twenty-eight years old.
The conversation drifted to Hanuman, whose picture hung on the wall in the Master's room.
    Sri Ramakrishna said: "Just imagine Hanuman's state of mind. He didn't care for money, honor, creature comforts, or anything else. He longed only for God. When he was running away with the heavenly weapon that had been secreted in the crystal pillar, Mandodari began to tempt him with various fruits so that he might come down and drop the weapon. But he could not be tricked so easily. In reply to her persuasions he sang this song:
  Am I in need of fruit?I have the Fruit 
  that makes this life Fruitful indeed.
 (The story referred to here is told in the Ramayana. Ravana had received a boon as a result of which he could be killed only by a particular celestial weapon. This weapon was concealed in a crystal pillar in his palace. One day Hanuman, in the guise of an ordinary monkey, came to the palace and broke the pillar. As he was running away with the weapon,he was tempted with fruit by Mandodari, Ravana's wife, so that he might give back the weapon. He soon assumed his own form and sang the song below.)
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बुधवार, 21 मार्च 2012

🔱🙏विवेक - गीति 🔱🙏 [जपकोटिगुणं ध्यानं ध्यान कोटि गुणं लयः ।]

विवेक- गीति 
 
 भूमिका 
    
    श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द के जीवन में संगीत का एक विशेष स्थान था।  तुलसी, कबीर, मीरा, त्यागराज, रामप्रसाद, कमलाकान्त, आदि भक्त साधकों का नाम अपने संगीत के कारण ही साधारण जनता के बीच अधिक लोकप्रिय हुआ हैं। कहा भी गया है-' न विद्या संगीतात परा'- संगीत से श्रेष्ठ अन्य कोई विद्या नहीं है ! श्री रामकृष्णदेव ने  कहा है, संगीत या अन्य किसी भी कला-विद्या के साधक के लिए ईश्वर-लाभ करना सुगम हो जाता है। स्वामीजी ने भी कहा है, संगीत साधना से ईश्वर-लाभ में सहायता मिलती है। शास्त्रों में कहा गया है -

जपकोटिगुणं ध्यानं ध्यान कोटि गुणं लयः ।
लय कोटि गुणं गानं गानात परतरं न हि ।।

 - अनुभूति को घनीभूत करने, भक्ति को पूष्ट करने, आत्मसमर्पण के उत्साह में वृद्धि करने, सद्विचारों को आत्मसात करने, चित्त की वृत्तियों को शांत करने, मन को एकदिशात्मक (Unidirectional) रखने एवं उसे अन्तर्मुखी बनाने में संगीत से बढ़ कर अन्य कुछ भी सहायक  नहीं है। पूर्णता-प्राप्ति की साधना के रूप में संगीत का वैशिष्ट यह है कि इसके माध्यम से ईश्वर की दया सुसाध्य हो जाती है। अन्य किसी भी साधना के द्वारा प्रारंभ में ही ईश्वरीय अनुग्रह का स्वाद मिलना अत्यन्त कठिन है, उनकी कृपा का अनुभव होना तो बहुत दूर की बात है। 
      अतएव जीवन गठन के लिए प्रयासरत किसी भी व्यक्ति के लिए संगीत एक विशेष लाभप्रद  वस्तु है। जिस प्रकार शारीरिक व्यायाम, मनः संयोग, सद्विचार आहरण एवं मनन के लिए सद्ग्रन्थ पाठ एवं सत्संग की, तथा हृदय के विस्तार के लिए  प्रति दिन सहानुभूति एवं सेवा का भाव मन में रखते हुए  मनुष्यों के संस्पर्श में आने की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार नित्य थोडा-बहुत संगीताभ्यास करना भी वांछनीय है।  इसके द्वारा शरीर, मन और हृदय का व्यायाम एक ही साथ  सम्पन्न हो जाता है।  
    संगीत का अभ्यास करने से स्वास्थ्य अच्छा होता है, मन शांत होता है एवं हृदय भी सरस तथा उदार बन जाता है।  इसके जैसा अन्य कोई सामग्रिक-व्यायाम दुर्लभ है।  किन्तु सवाधानी रखने की भी आवश्यकता है। प्रसिद्द लोकोक्ति के अनुसार जिस प्रकार- ' मन ही मनुष्यों के बन्धन और मुक्ति का कारण होता है ' उसी प्रकार गीत-संगीत भी मनुष्यों के उत्थान और पतन का कारण हो सकता है। इसीलिए किसी व्यक्ति को संगीत का संग विवेक-विचार एवं सावधानी के साथ करना होता है।  जिस प्रकार का सुर, जैसी शैली, जैसा ताल एवं जिस भाव से संगीत का अभ्यास किया जायेगा, गायक का मन भी उसी प्रकार का भाव में रंग जायेगा। 
    गायन का अभ्यास यदि तुच्छ स्वर, तुच्छ लय, तुच्छ भाव, हल्के शैली में की जाए तो गायक को तुच्छ भावों की ही प्राप्ति होगी। उसी प्रकार गंभीर एवं उच्च भावों की रचना के साथ उपयुक्त सुरताल के सहयोग से संगीत का अभ्यास करने से गायक का मन भी उच्च एवं गंभीर भावों में रंग जायेगा। जीवन गठन में सहायक सुर, ताल तथा भाव से समन्वित संगीत का अभ्यास सहायक होगा, इसी उद्देश्य से इस संगीत संकलन को स्वरलिपि के साथ प्रकाशित करने का प्रयास किया जा रहा है। 
     बहुत से लोग सुन्दर भावों वाले गाने को गा देना ही यथेष्ट समझते हैं, कंठ-स्वर या लय चाहे जैसा हो, उसका कोई विशेष महत्व नहीं देते, यहाँ तक कि ओछे शैली में गाये जाने वाले गीत अधिक मनोरंजक होंगे, ऐसी भ्रांत धारणा भी मन में पाले रहते हैं।  किन्तु ऐसी धारणा नितान्त अनिष्टकर है। स्वामीजी ने तो विशेष रूप से ओछे, हल्के ढंगके गायन-वादन (जैसे चैता-बिरहा दंगल एवं रासलीला तथा होली इत्यादि के गाने ) इत्यादि का बहिष्कार करने को कहा है। वे कहते हैं- " दुन्दुभी-नगाड़े क्या देश में तैयार नहीं होते ? तुरही-भेरी क्या भारत में नहीं मिलती ? वही सब गुरु गम्भीर ध्वनी लड़कों को सुना।..डमरू-श्रृंग बजाना होगा, नगाड़े में ब्रह्मरूद्र ताल का दुन्दुभी नाद उठाना होगा, जिन सब गीत-वाद्यों से मनुष्य के- "soft feeling" हृदय के कोमल भावसमुह उद्दीप्त हो जाते हैं, उन सबको थोड़े दिनों के लिए अब बन्द रखना होगा।  ख्याल टप्पा बन्द करके ध्रुपद ताल सुनने का अभ्यास लोगों को कराना होगा। वैदिक छन्दों के उच्चारण से देश में प्राण-संचार कर देना होगा।  सभी विषयों में वीरता की कठोर महाप्राणता लानी होगी। इस प्रकार के 'ideal follow' आदर्श अनुसरण करने पर ही इस समय जीव का तथा देश का कल्याण होगा।  यदि तू ही अकेला इस भाव के अनुसार अपने जीवन को तैयार कर सका तो तुझे देखकर हजारों लोग वैसा करना सिख जायेंगे। परन्तु देखना, ideal (आदर्श) से कभी एक पग भी न हटना ! कभी साहस न छोड़ना ! खाते, सोते, पहनते, गाते, बजाते, भोग में, रोग में सदैव तीव्र उत्साह एवं साहस का ही परिचय देना होगा, तभी तो महाशक्ति की कृपा होगी ? "(६/१९६-९७)
       फिर, बहुत से लोग यह सोचते हैं कि अच्छे भाव, स्वर एवं लय में तालमेल रहने से ही संगीत शुभ फल देता है। अतः भक्ति या भावपूर्ण गीतों को चाहे जिस किसी भी शैली में गाया जा सकता है। किन्तु यह धारणा भी सही नहीं है।  किसी अच्छे भावपूर्ण गीत को उपयुक्त सुर-ताल में निबद्ध कर देने से ही काम नहीं बनेगा, बल्कि उसे यथोचित सुसंस्कृत गले से गाना भी होगा।   इसके लिए कण्ठ-स्वर को साधने का अभ्यास पर्याप्त एवं लम्बे समय तक करने की आवश्यकता होगी। उस विषय में इस संकलन को पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। स्वर-साधना किये बिना केवल इस संकलन के गानों को इस संकलन में दिए स्वर एवं लय के अनुसार गाना ही पर्याप्त नहीं होगा।सुयोग्य शिक्षक के निर्देशन में कण्ठ-स्वर को साधने का अभ्यास करना भी अनिवार्य है। किसी सक्षम गुरु के निर्देशन में कण्ठ-स्वर साधने का अभ्यास किये बिना वांछनीय कण्ठ-स्वर तैयार नहीं हो पाता, बल्कि सुयोग्य निर्देशन के आभाव में गाने का अभ्यास करने से कभी कभी कण्ठ-स्वर बिल्कुल नष्ट हो जाने का खतरा भी रहता है।  
    जो लोग कण्ठ-स्वर को साधने का अभ्यास नहीं करते, सामान्यतः गाने के संबन्ध में उनमें सटीक धारणा भी नहीं होती।  वे लोग समझते हैं, हमें गाने सुनने में अच्छा लगता है, बस इतना होना ही काफी है।  किन्तु संगीत सुनने में अच्छा लगे- ऐसे श्रवण-विधि को भी सीखना होता है।  श्रीरामकृष्ण की एक उक्ति को यहाँ उपयोग में लाया जा सकता है; उन्होंने कहा था-  ' साधन ना करले शास्त्रेर माने बोझा जाय ना (সাধন না করলে শাস্ত্রের মানে বোঝা যায় না ।)" - अर्थात उपलब्धी किये बिना शास्त्र का मर्म समझ में नहीं आता ।
 जिन लोगों ने गायन की साधना नहीं की है, वे लोग गायन में जितने तत्व हैं, उन्हें किसी प्रकार सही रूप में पकड़ नहीं सकते। अन्यान्य विषयों की तरह ही, केवल पुस्तकीय विद्या  के द्वारा भावपूर्ण गीतों या सूफीयाना गजलों - (हमने तुझसे दिल को लगाया'.... )के रहस्य को कभी जाना नहीं जा सकता।  यह तो व्यक्तिगत उपलब्धी पर निर्भर करता है।  यदि वैसी कोई उपलब्धी न हुई हो तो, आमतौर से गीतों-गजलों के उपर निजी राय व्यक्त नहीं करना ही अच्छा होगा। 
   श्रीरामकृष्ण एवं स्वामी विवेकानन्द दोनों संगीत विद्या में असाधारण प्रतिभा के धनी थे।  श्रीश्री माँ भी एकान्त में गीत (गोपी-उधव गीत?) गाती थीं।  श्रीरामकृष्ण भी श्रीश्री माँ को कभी जैसे तैसे या हल्के ढंग में संगीत नहीं सुनाते थे,  वे उनके समक्ष किसी सच्चे गायक-कलाकार के रूप में ही अपने गीत प्रस्तुत करते थे। उनका गला (कण्ठ-स्वर) जितना आकर्षक और सम्मोहक था, उनका स्वरज्ञान एवं लयबोध भी उतना ही असाधारण था। 
     ऐसा उदाहरण मिलता है कि उनहोंने कण्ठ-स्वर साधने का अभ्यास करने की प्रणाली का भी उपदेश दिया है। सुर या ताल में थोड़ा भी असंगति या उलंघन होने से वे तुरन्त ही गायक के सुधार के लिए कह देते थे।  एक बार भक्तों के साथ ठाकुर वार्तालाप कर रहे हैं, और बगल वाले कमरे में गीत हो रहा है। भजन की समाप्ति के बाद जब गायक लोग उनके कमरे में पहुँचे हैं, तो प्रवेश करने के साथ ही साथ भगवान रामकृष्ण ताल में कहाँ पर गड़बड़ी हुई है बता देते हैं।  भला इसमें आश्चर्य क्या है - भगवान में सब कुछ परिशुद्ध जो रहता है ! 
      गायक लोगों को विशेष रूप से यह रूपक याद रखना चाहिए- " 'पाँड़े जी' अपने ही भाव में मस्त होकर किसी गधे को भी लजा देने वाली आवाज में एक मन्दिर में गाना गा रहे थे। स्वामीजी पूछते हैं, क्यों चिल्ला रहे हो ? उत्तर- भगवान को प्रसन्न कर रहा हूँ।  स्वामीजीने उसको समझा दिया-  जिस गीत को सुन कर मनुष्य ही प्रसन्न नहीं हो पा रहा है, भगवान क्या कभी उससे प्रसन्न हो सकेंगे ? भगवान को भी क्या तुमने कोई अनाड़ी समझ लिया है ?    
    सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड भगवान की ही प्रतिछाया जैसी है, इसीलिए उसके भीतर भी एक अनाहत स्वर एवं ताल गूंज रहा है।  संगीत के स्वर एवं लय (The tone and rhythm) की सहायता से इस जगत में अनुस्यूत भगवत सत्ता (ब्रह्म) को भी आविष्कृत किया जा सकता है।
     इसीलिए रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपने गीतों में कहा था  -

दांड़ीये आछ तुमि आमार गानेर ओ पारे,
आमार सुरगुली पाय चरन आमी पाइने तोमारे . 
  
(দাঁড়িয়ে আছ তুমি আমার গানের ওপারে
আমার সুরগুলি পায় চরণ আমি পাইনে তোমারে")

" प्रभो ! तुम मेरे गीत से परे खड़े हो।  मेरे स्वरों की ध्वनि तुम्हारे चरणों तक पहुंचती है, लेकिन मैं तुम तक नहीं पहुंच पाता !"

      श्रीरामकृष्ण घंटों तक मुग्धभाव से वीणावादन सुना करते थे तथा  उसके सुर में सुर मिला कर गीत भी गाते थे।  स्वामीजी का गीत सुन कर ठाकुर को समाधि हो जाया करती थी।  स्वामीजी ने तो पूर्वाह्न से अपराह्न तक भावविभोर होकर गायत्री का आह्वान मन्त्र # गाते हुए बिताया है।

[#" आयातु   वरदे   देवी    त्रैक्षरे    ब्रह्मवादिनी। गायत्रीच्छ्न्दस्याम माता ब्रह्मयोने नमोस्तु ते।।  "हे, अपने भक्तों को वर देने वाली देवी ! त्रिभुवन (स्वर्ग-मर्त्य-पाताल लोक) -तीनों लोकों में ' ॐ ' (शाश्वत चैतन्य बिजली शक्ति य़ा प्राण की तरह) परमात्मा ही समाया हुआ है! यह जितना भी विश्व ब्रह्माण्ड है, परमात्मा की एक जीवित-जाग्रत साकार प्रतिमा है! कण-कण में भगवान समाये हुए हैं। इस सर्वव्यापक परमात्मा को सर्वत्र देखते हुए-- मुझे कुविचारों और कुकर्मों से सदा दूर रहना चाहिये! हे, अपने भक्तों को वर देने वाली, मेरी बुद्धि को इस प्रकार के ज्ञान से उदभासित कर देने वाली, गायत्री के छन्द में -' ॐ भू: भुवः स्वः ' रूपिणी देवी ! सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करने वाली ब्रह्म-योनी माते ! तुम्हें मेरा नमस्कार है !]

       साधारण जनता भी स्वामीजी का गायन घन्टों सुनती रहती थी, समय का होश खो कर भूख नीन्द भी भूल जाते थे। ठाकुरदेव स्वयं तीव्र ताल में दोषरहित कदमों से उद्दाम नृत्य करते हुए हरि-कीर्तन किया करते थे। स्वामीजी की असाधारण रचना एवं कंठ-स्वर का सामंजस्य पूर्ण गायन सुनने से, सृष्टि एवं प्रलय का मन-वाणी से अगोचर जो गूढ़ तत्व है उसके उपर श्रोताओं में दृढ विश्वास उत्पन्न हो जाया करता था। आज भी स्वामी विवेकानन्द द्वारा रचित सुर-ताल में बंधे ठाकुर का आरात्रिक भजन सुनने से प्रति दिन संध्या के समय अनेकों भक्तिहीन हृदय में भगवान की कृपा-कटाक्ष का अनुभव होता है।  
      आज के समाज में, उनके लिए जो विशेष रूप से अपना जीवन-गठन के प्रति आग्रही हैं, उनको विशेष तौर पर पवित्र, बलप्रद, जीवन गठन कारी संगीत का अभ्यास करना आवश्यक है। 
इस विषय में ' श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द घराना का संगीत ' विशेष तौर पर उपयोगी है।  उसी संगीत का सामान्य अंश प्रस्तुत करने की चेष्टा ही इस संकलन का उद्देश्य है।  यदि दो-चार व्यक्तियों को भी इससे सहायता मिले तो प्रयास सार्थक होगा। 
-श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय

' भूवन-भवन '
खड़दह, उत्तर २४-परगना,

श्रीश्रीसारदा-सप्तमी : २ पौष, १३८८ बंगाब्द . 
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प्रकाशक का निवेदन 

      महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों तथा केन्द्रीय प्रशिक्षण कार्यक्रमों  इत्यादि में कुछ गीत शिक्षा के अंग के रूप में नियमानुसार समवेत स्वर में गाये जाते हैं।  ये गीत यदि सर्वत्र एक ही सुर में लयबद्ध तरीके से गाये जायें तो सुन्दर प्रतीत होते हैं। इस तरह के कई गीत विद्यालयों में भी दैनंदिन प्रार्थना-संगीत के रूप में भी गाये जाते हैं। इसीलिए संघ की प्रार्थना (Anthem) के अनुरुप समस्त गीतों की स्वरलिपि हिन्दी में भी प्रकाशित करने की आवश्यकता बहुत दिनों से महसूस की जा रही थी।  बहुत दिनों से प्रयास करने पर भी समस्त गीतों को एकत्रित  कर, उनके संकलन को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करना संभव नहीं हो पा रहा था। 
     प्रस्तुत पुस्तक में स्वामीजी द्वारा पसंद किये जाने वाले वैदिक प्रार्थना की दो सुरों की स्वरलिपि के अतिरिक्त महामण्डल के युवा -प्रशिक्षण शिविरों में नियमित तथा आमतौर पर जिन गीतों का गायन किया जाता है, उन सब को अलग अलग भागों में सम्मिलित किया गया है। महामण्डल के बाहर भी कई लोग इसके कुछ विशेष विशेष गीतों को गाया करते हैं।  यह पुस्तक उन लोगों के लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी ऐसी आशा की जाती है। 
     इस पुस्तक में महामण्डल के नियमित प्रार्थना-संगीत के अलावा स्वामी विवेकानन्द, श्रीश्री माँ सारदा देवी एवं श्रीरामकृष्ण से संबन्धित अत्यन्त भाव-पूर्ण गीतों को भी सन्निवेशित किया जा रहा है।  स्वामीजी रचित श्रीरामकृष्ण आरात्रिक एवं स्त्रोत्र, स्वामी विरजानन्द रचित स्त्रोत्र, स्वामी अभेदानन्द रचित श्रीश्री माँ की स्तुति तथा श्रीरामकृष्ण स्त्रोत्र, प्रणाम मन्त्र आदि, एवं स्वामीजी रचित दो शिव-संगीत भी इसमें सम्मिलित किये गये हैं। इन समस्त भावों पर आधारित अनगिनत गीतों की रचना के द्वारा पूज्य स्वामी चण्डिकानन्द जी ने अकथनीय कृपा की है। उनके द्वारा रचित कुछ गीतों को भी इस पुस्तक में सम्मिलित किया जा रहा है। 
     संकलित गीतों के कई गाने को स्वरलिपि तथा सुरों में बांधा है, संगीत विशारद वीरेश्वर चक्रवर्ती महाशय ने।  बंगला में प्रथम प्रकाशन के त्रुटियों को यथासंभव दूर करके तीन नये गानों की स्वरलिपि को मिला कर यह पुस्तक प्रकाशित की जा रही है।  कागज एवं छपाई खर्च में वृद्धि होने की वजह से इसका मूल्य बढाया जा रहा है। हमलोगों ने जिन संगीत की पुस्तकों से गीतों को संकलित किया है, उनके प्रत्येक प्रकाशकों के प्रति हमलोग अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। 
प्रकाशक


19 मार्च 2012  -
   
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(१)

श्रीश्रीरामकृष्ण -आरात्रिक भजन 

(मिश्र बहार -ताल फेरता )

खण्डन- भवबन्धन, जग-वन्दन, वन्दी तोमाय ।
निरंजन, नररूपधर,  निर्गुण, गुणमय ।१।
मोचन-अघदूषण, जगभूषण, चिदघनकाय ।
ज्ञानांजन-विमल-नयन, वीक्षने मोह जाय ।२।
भास्वर भाव-सागर, चिर-उन्मद प्रेम-पाथार ।
भक्तार्जन-युगलचरण, तारण-भव-पार ।३।
 ज्रीम्भित-युग-ईश्वर, जगदीश्वर, योगसहाय ।
निरोधन, समाहित-मन, निरखि तव कृपाय ।४।
भंजन दुःखगंजन, करुणाघन, कर्मकठोर ।
प्राणार्पण जगत-तारण कृन्तन कलिडोर ।५।
वंचन-कामकांचन, अतिनिन्दित इन्द्रियराग ।
त्यागीश्वर, हे नरवर ! देहो  पदे अनुराग ।६।
निर्भय, गतसंशय, दृढनिश्चय-मानसवान ।
निष्कारण-भकत-शरण,  त्यजि जाति-कूल-मान ।७।
सम्पद तव-श्रीपद, भव गोष्पद-वारी यथाय ।
प्रेमार्पण, समदरशन, जगजन दुःख जाय ।८।
नमो नमो प्रभु ! वाक्यमनातीत, मनोवचनैकाधार।
ज्योतिर ज्योति, उजल हृदिकन्दर तूमि तमोभन्जन हार ।९।
धे धे धे, लंग रंग भंग, बाजे अंग संग मृदंग ।
गाईछे छन्द भकतवृन्द, आरति तोमार ।।
जय जय आरति तोमार, हर हर आरति तोमार,शिव शिव आरति तोमार ।१०।
जय जय आरति तोमार ।
हर हर आरति तोमार ।
शिव शिव आरति तोमार ।।
।।जय श्री गुरु महाराज जी की जय ।।
 - स्वामी विवेकानन्द


Khandana bhava-bandhana jaga-vandana
vandi-tomay;
Niranjana nara-rupa-dhara
nirguna guna-may.

Mochana agha-dushana jaga-bhushana
chid-ghana-kay;
Jnananjana vimala-nayana
vikshane moha jay.

Bhashwara bhava-sagara chira-unmada
prema-pathar;
Bhaktarjana yugala-charana
tarana bhava-par.

Jrimbhita yuga-ishwara jagad-ishwara
yoga-sahay;
Nirodhana samahita-mana
nirakhi tava kripay.

Bhanjana duhkha-ganjana karunaghana
karma kathor;
Pranarpana jagata-tarana
kritana kali-dor.

Vanchana kama-kanchana ati-nindita
indriya-rag;
Tyagishwara he nara-vara
deha pade anurag.

Nirbhaya gata-samsaya drira-nischaya
manasavan;
Nishkarana bhakata-sarana
tyaji jati-kula-man.

Sampada tava sripada bhava gospada
vari yathay;
Premarpana sama-darshana
jaga-jana duhkha jay.

Namo namo prabhu vakya-mana-ti
mano-vachanaikadhar;
Jyotira-jyoti ujwala hridhi-khandara
tumi tama bhanjana har;
Prabhu tumi tama bhanjana har.

Dhe dhe dhe langa ranga bhanga
baje anga sanga mridanga
Gayiche chanda bhakata-vrinda
arati tomar;
Jaya jaya arati tomar!
Hara hara arati tomar!
Shiva Shiva arati tomar!

Khandana bhava-bandhana jagavandana
vandi tomay!
Jai Shri Guru maharaj ji ki jai!
{27

THE AVATARA IS THE SUN AND HIS CLOSE DISCIPLES ITS RAYS
 

"Thakur made Swamiji write these hymns of praise so that the world may listen."

M. (to Antevasi) — Just recite from memory.
Antevasi (slowly) — Khandan bhav-bandhan jag-vandan vandi tomay, Niranjan nar-rupdhara, nirgun gunamaya. . .
(We salute Thee, Lord, adored of the world. The breaker of the bondage of the world, taintless Thou embodiment of blessed qualities. Thou transcendent of all gunas, human form Thou bearest. . .)
M. — Just see what Swamiji says: He who is formless transcending all gunas, the great Brahman, has now come in a human body with all attributes, this Sri Ramakrishna. He says : ‘He who takes refuge at his feet will certainly cross this sea of the world.’ But for God who has the power to do so? and he also adds: drid nischaya manasvan and nishkaran bhakat-sharan, even when absorbed in samadhi, he is the selfless refuge of the bhaktas.
"All contradictions meet only in God. That is why in a hymn of praise, this arati Swamiji says: ‘Thakur is the meeting point of all religions contradicting each other and then he is above them all.’ (To Antevasi) What is after namo namo?
Antevasi — Namo namo prabhu vakya-mana-atit mano-vachana-ek-adhar (Refuge of the mind and speech, Thou art beyond the reach of either).
M. — Just see Thakur came in a human body, he was the greatest among men (narwar), beyond mind and speech. It means that he who is Indivisible Existence-Knowledge-Bliss-Absolute, who is beyond the human power of mind and speech has now come as avatara in the person of Sri Ramakrishna. He alongwith Shakti is making his sport in the world - creation, preservation and dissolution.
"When one recites these two verses before taking to meditation, the latter comes right. Those who live in solitude will be able to understand Thakur by reciting these verses of praise."
Antevasi — Mahapurush Maharaj (Swami Shivananda) also put it so beautifully: Whatever Swamiji had to say about Thakur, he said all in this hymn.
M. — Why not ? These are all the words of the divine personality. Itself, the same narvar, the greatest among men, the same grand man. Behold the man! Christ talked about himself. Swamiji has compiled the very words of that grand man in this hymn as his offering.
"He who said in Cossipore during his (Thakur’s) last days, ‘If he (Thakur) himself says he is an avatara I shall believe,’ that very individual composed these hymns later on.
"People only commit to memory, they don’t meditate on these hymns. If you meditate on these two, you will attain - you will know Him truly. How many persons are benefiting from the hymns because he composed them. So many maths and ashramas, throughout the world, sing them."
  
 (२)

 श्री श्रीरामकृष्ण-स्त्रोत्रम 

    ॐ ह्रीं ऋतं त्वंSचलो गुणजित गुनेड्यः
क्तिन्दीवं सकरुणं तव पादपद्मं ।
मो-हन्कषम बहुकृतं न भजे यतोहम;
 तस्मात्वमेव शरणम्  मम दीनबन्धो ! १ ।।
-क्तिर्भगश्च भजनं भवभेदकारि
          - च्छनत्यलं सुविमलं गमनाय तत्वम ।
          -क्तोध्रीतन्तु हृदि में न च भाति किंचित 
                                  तस्मात्वमेव शरणम् मम दीनबन्धो  ! २।।
      ते-जस्तरन्ति तरसा त्वयि तृप्ततृष्णा:
   रा-गे कृते ऋतपथे त्वयि रामकृष्णे।
म- र्त्योमृतं तव पदं मरनोर्मिनाशं 
                                     तस्मात्वमेव  शरणं मम दीनबन्धो ! ३।।
       कृ-त्यं करोति कलूषम कूहकान्तकारि
          ष्णा-न्तं शिवं सुविमलं तव नाम नाथ ।  
  य-स्मादेहं त्व शरणो जगदेकगम्य 
तस्मात्वमेव शरणं मम दीनबन्धो ! ४ ।।
- स्वामी विवेकानन्द 
(३) 

श्री श्रीरामकृष्ण-प्रणाम मन्त्र 

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्व-धर्म-स्वरुपिणे,
अवतार-वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ।।
ॐ नमः श्रीभगवते रामकृष्णाय नमो नमः 
ॐ नमः श्रीभगवते रामकृष्णाय नमो नमः 
         ॐ नमः श्रीभगवते रामकृष्णाय नमो नमः ।।    
   
(४)

श्री रामकृष्णाषट्कम

(भैरव -त्रिताल )
  विश्वस्य धाता पुरुषसत्वमाद्यो-
हव्यक्तेन रूपेण ततं त्वयेदम ।
हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने 
कृपाकटाक्षं कुरु देव नित्यं ।१।

त्वं पासि विश्वं सृजसि त्वमेव 
त्वमादिदेवो विनिहंसि सर्वम।
हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यं  ।2।

मायां समाश्रित्य करोषि लीलां
भक्तान समुद्धर्तु मनन्तमूर्तिः ।  
हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यम ।३।
विधृत्य रूपं नरवत्वया वै
विज्ञापितो धर्म ईहातीगुह्यः ।
हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने 
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यम ।४

तपोहथ ते त्यागमदृष्टेपूर्वं
दृष्ट्वा नमस्यन्ति कथं न विज्ञाः ।
        हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने 
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यम ।५।

श्रुत्वात्र ते नाम भवन्ति भक्ताः
दृष्ट्वा वयं त्वां न तू भक्तियुक्ताः ।
हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने 
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यम ।६।

सत्यं विभुं शान्तमनादिरूपं
प्रसादये त्वमजमन्तशून्यं ।
 हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने 
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यम ।७।

जानामि तत्वं नहि दैशिकेन्द्रं
किन्ते स्वरूपं किमू भावजातम ।
हे रामकृष्ण त्वयि भक्तिहीने 
कृपाकटाक्षं कूरू देव नित्यम ।८

।।  प्रणाम ।।

ॐ निरंजनं नित्यमनन्तरूपं
भक्तानुकम्पा धृतविग्रहं वै ।
ईशावतारं परमेशमिड्यं
हे रामकृष्णं शिरसा नमामः ।। 
  - स्वामी अभेदानन्द 
 (५)
श्रीश्रीरामकृष्ण स्त्रोत्र-दशकम

( भूपाली-दादरा )

ब्रह्म-रुपमादि-मध्य-शेष-सर्व-भासकं
भाव-षटक-हीन-रुप-नित्य-सत्यमद्व्यम ।
वांग-मनोSति-गोचरंग नेतिनेतिभावितं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम । १।

 आदितेय-भी-हरं सुरारी-दैत्य-नाशकं    
साधू- शिष्ट-कामदं मही-सुभार-हारकम ।
स्वात्म-रुप-तत्वकं युगे युगे च दर्शितं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम । २। 

सर्वभूत-सर्ग-कर्म-सूत्र-बन्ध-कारणं 
ज्ञान-कर्म-पाप-पुण्य-तारतम्य-साधनम ।
बुद्धि-वास-साक्षी-रुप-सर्व-कर्म-भासनं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।३। 

सर्व-जिव-पाप-नाश-कारणं भवेश्वरं
स्वीकृतष्ण गर्भवास-देह-धानमीदृषम
यापितं स्व-लीलया च येन दिव्य-जीवनं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।४।

तुल्य-लोष्ट-कान्चंच हेय-नेय-धीगतं
स्त्रीषू नित्य-मातृरूप-शक्ति-भाव-भावूकम ।
ज्ञान-भक्ति-भुक्ति-मुक्ति-शुद्ध बूद्धि-दायकं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।५।

सर्व-धर्म-गम्य-मूल-सत्य-तत्व देशकं
सिद्ध-सर्व-सम्प्रदाय-सम्प्रदाय-वर्जितम ।
सर्व-शास्त्र मर्म-दर्षि-सर्व विन्निरक्षरं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।६।
 
चारूदर्श-कालिका-सुगीत-चारू-गायकं
कीर्तनेषू मत्त्वच्च नित्य-भावविह्वलम ।
सूपदेश-दायकं हि शोक-ताप-वारकं
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।७।

पाद-पद्म-तत्व-बोध-शान्ति-सौख्य-दायकं 
सत्त-चित्त-भक्त्सुनु-नित्य-वित्त-वर्धकम ।
दम्भी-दर्प-दारूनन्तु निर्भयम जगद्गुरुं 
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।८।

पंचवर्ष-बाल-भाव-युक्त-हंस-रुपिनं
सर्व-लोकरंजनं भवाद्धि-संग-भंजनम ।
शान्ति-सौख्य-सद्म-जीव-जन्मभीति-नाशनम
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।९।

धर्म-हान-हारकं त्वधर्म-कर्म-वारकं
लोक-धर्म-चारनंच सर्व-धर्म-कोविदम ।
त्यागि-गेहि-सेव्य-नित्य-पावनान्गिघ-पंकजं
तं नमामि देव-देव-रामकृष्णमीश्वरम ।१०।
 
स्त्रोत्र-शून्य-सोमकं सदीश-भाव-व्यंजकं
नित्य-पाठकस्य वै विपत्ति-पुंज-नाशकम ।
स्यात कदापि जाप-याग-योग-भोग-सौलभं 
दुर्लभन्तु रामकृष्ण-राग-भक्ति-भावनम ।११।

इति श्रीविरजानन्द-रचितं भक्ति-साधकम ।
सत्व-सारं समाप्तं वै श्रीरामकृष्ण-तृणकम ।१२।

- स्वामी विरजानन्द      

(६)

'जय जय रामकृष्ण भूवन-मंगल'

(प्रभाती-त्रिताल) 

जय जय रामकृष्ण भूवन-मंगल,
जय माता श्यामासूता अति निरमल ।
जय विवेक-आनन्द परम दयाल,
प्रभूर मानस-सूत जय श्रीराखाल ।१।
जय प्रेमानन्द प्रेममय कलेवर,
जय शिवानन्द जय लीला-सहचर ।
योगी योगानन्द जय नित्य निरंजन,
जय शशि गुरूपदे गततनूमन ।२।
सेवापर योगीवर अद्भुत-आनन्द,
अभेद-आनन्द जय गत-मोह्बन्ध ।
योगरत त्यागव्रत तूरीय आख्यात,
शरत सूधीर शान्त येन गणनाथ ।३।
जीवे शिव सेवाव्रत गंगाधर वीर,
जय श्रीविज्ञानानन्द प्रशान्त गंभीर ।
प्रवीन  गोपाल मातृसेवा परायण,
सारदा सारदापदे गत प्राणमन ।४।
बालक चरित्र जय सुबोध सरल,
नागवर त्याग-वीर विवेक-सम्बल ।
कथामृत वरिषन गौर जलधर,
गिरीश भैरव जय विश्वास आकार ।५।
रामकृष्ण-दास-दास जय सबाकर,
रामकृष्ण लिलास्थान जय बारबार।
रामकृष्ण नाम जय श्रवण-मंगल.
भकत वांछित जय चरण-कमल ।६।
-स्वामी प्रेमानन्द             
(७)
श्री श्रीरामकृष्ण विषयक
वसन्त-तेओरा
आबार यदि एले हरि, आबार दिले दरशन।
आबार जीवे दिले अभय, ओहे श्रीमधूसूदन।।
ज्वालाओ तबे प्राणेर आगुन, ज्वलुक शिखा द्विगुण द्विगुण।
वज्र-विनाय झंकृत कर, स्पन्दित होक त्रिभुवन ।
पांचजन्य बाजाओ आबार, द्वापरेर सेई रूद्र तान-
ये गान शुने सव्यसाचिर क्लैव्य छाड़ी आत्मदान ।।
अभी'र मन्त्रे उठुक भारत, मूग्ध नेत्रे देखुक जगत.
कर्म यादेर धर्मेरि तरे, सेई जातिर आर नाई मरण ।।
- स्वामी चण्डिकानन्द  
      
(८)
राग-मिश्र-एकताल 
(माँ तोर ) रंग देखे रंगमयी अवाक् ह्येछि
हासिब कि काँदिब माँ वसे भावतेछि ।
एतकाल रईलाम काछे, बेड़ाईलाम पाछे पाछे,
बूझिते ना पेरे रंग हार मेनेछि ।
विचित्र  एई भावेर खेला भांगो गड़ दूटि वेला,
ठीक येन माँ पूतूल खेला बूझते पेरेछि ।
-त्रैलोक्यनाथ सान्याल ।   
सपार्षद-श्रीरामकृष्ण स्त्रोत्रम 
सर्वधर्मस्थापकस्त्वं         सर्वधर्मस्वरुपकः ।
आचार्याणां महाचार्यो      रामकृष्णाय  ते नमः।१।
यथाग्नेर्दाहिकाशक्ति रामकृष्णे स्थिता हि या ।
सर्वविद्यास्वरूपां तां सारदां प्रणमाम्यहम ।२।
परतत्वे सदा लीनो रामकृष्ण समाज्ञया ।
यो धर्मस्थापनरतो वीरेशं तं नमाम्यहम ।३।
कालिन्दीफुल्लकमले माधवेन क्रीडारत ।
ब्रह्मानन्द नमस्तुभ्यं सद्गुरो लोकनायक ।४।
अभेदानन्दः प्रेमानन्द्श्चान्ये वै ये च पार्षदाः।
      रामकृष्णगतप्राणाः सर्वास्तान प्रणमाम्यहम ।५।  
सत्व भजनांजलि
(१)
( पीलू-कहरवा )
तुम त्रिभुवन के आधार हो, रामकृष्ण भगवान ।
जड़-चेतन में, जगजीवन में, तुम ही विराजमान ।।
आत्मनाथ तुम अज अविनाशी, घट घट अन्तर्वासी ।
हरने आये भवदुखराशी, सकल मोह अज्ञान ।।
दीनबन्धु मम चित में आओ, सुमधुर रूप दिखाओ ।
भक्तह्रदय की प्यास बुझाओ, करो कृपामृत दान ।।
(२)
(कीर्तन -कावाली )
गाहो रे जय जय रामकृष्ण नाम ।।
आजी ए शुभदिन मिलिये भकतजन - गाहो गाहो रामकृष्ण नाम ।।
रामकृष्ण नामे रामकृष्ण प्रेमे मातिया उठुक धराधाम ।।
हरिते भूमि-भार, प्रेम अवतार प्रभु रामकृष्ण गुणधाम 
जेइ राम जेइ कृष्ण विश्वगुरु रामकृष्ण एकाधारे श्यामा-शिव-श्याम ।।
आजी ए शुभ दिने .......
(३)
( मिश्र खमाज -कहरवा )
वाणीरुपे रहियाछो मूरति धरि,
रामकृष्ण तोमाय प्रणाम करि ।
अन्तर विहारी छिलो तव संगे देखाइले तुमि तारे नाना रूप भंगे ।
ध्रुवतारा रहो हृदि-गगन भरी, रामकृष्ण तोमाय प्रणाम करि ।।  
        मायापाश बन्धन शोक ताप क्रन्दन,
तव वाणी दिलो चिर शान्तिवारि ।
जगतेर वेदनाय दिले नव चेतना,
परमानन्द तुमि दिशारी ।।
मुक्ति देउले फोटाले जे फूल प्रेमेर सुगन्धे दुलिलो दुदोल 
भव पाराबारे तुमि पारेर तरी ।।
रामकृष्ण तोमाय प्रणाम करि ।।    
(४)
(जयजयवन्ती-झपताल )
तुम्हीं ब्रह्म रामकृष्ण तुम्हीं कृष्ण तुम्हीं राम 
तुम्हीं विष्णु तुम्हीं जिष्णु प्रभविष्णु प्राणाराम ।
तुम्हीं आधेय आधार तुम्हीं ब्रह्म निराकार;
तुम्हीं नर रूप धर, विजित-कनक-काम ।।
अपार करुणा सिन्धु, तुम्हीं नाथ दीनबन्धु 
माँगे इन्दु कृपा बिन्दु, चरनन करे प्रणाम ।।      

(५)  
(दरबारी कानड़ा-दादरा )
  प्रेममुदित मन से कहो राम राम राम ।
श्री राम राम राम, श्रीराम राम राम ।।
पाप कटै, दुःख मिटै, लेत रामनाम ।
भव- समुद्र सुखद नाव एक रामनाम ।।
परम शांत शांत-सुख-निधान नित्य रामनाम ।
निराधार को अधार एक रामनाम ।।
परम गोप्य, परम इष्ट मन्त्र रामनाम ।
संत-हृदय सदा बसत एक रामनाम ।।
महादेव  सतत जपत दिव्य रामनाम ।
कासि मरत मुक्त करत, कहत रामनाम ।।
माता-पिता बन्धु-सखा, सबहि रामनाम ।
भक्तजन  जीवनधन एक रामनाम ।।
  (६)
मधुराष्टकम
अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।१।
वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।२।
वेणुर्मधुरो  रेणुर्मधुर: पाणिर्मधुर: पावौ मधुरौ ।
नृत्यं  मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।३।
गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।४।
करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं स्मरणं मधुरम ।
वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।५।
गुंजा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा ।
सलिलं मधुरं कमल मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।६।
गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं भूतं मधुरं ।
इष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।७।
गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा ।
दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम ।८।              
(७)
(भैरवी-त्रिताल ) 
प्रभु मोरे अवगुण चित न धरो
समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो ।।
इक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो
पारस के मन द्विधा नहीं है कांचन करत खरो ।।
एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो
जब दोनों मिलि एक बरण भए सुरसरी नाम परो ।।
इक जीव इक ब्रह्म कहावत सूरदास झगरो
अज्ञान से भेद होवत है, ज्ञानी काहे भेद करो ।।
(८)
( भैरवी-रूपक )
जो भजे हरि को सदा, सोई परम पद पायेगा ।।
देह में माला तिलक अरु छाप नहीं किस काम के ।
प्रेम-भक्ति के बिना नहीं नाथ के मन भायेगा ।।
दिल के दर्पण को सफा कर, दूर कर अभिमान को ।
खाक हो गुरु के कदम की, तो ठाकुर मिल जायेगा ।।
छोड़  दुनिया के मजे सब, बैठकर एकांत में ।
ध्यान धर हरि चरण का, फिर जनम नहीं आएगा ।।
दृढ भरोसा मन में करके जो जपे हरिनाम को ।
कहता है ' ब्रह्मानन्द ' -ब्रह्मानन्द बीच समाएगा ।।
       (९)
मुझे वारि बनवारी सैंया जाने को दे ।
जाने को दे रे सैंया, जाने को दे ।। (आज भला )
मेरो बनवारी, बाँदी तुम्हारी, छोड़ो चतुराई सैंया जाने को दे ।।
(आज भला मोरे सैंया )
जमुना किनारे, भरों गगरिया, जोरे कहत सैंया जाने को दे ।।
   
 श्रीश्रीसारदा देवी विषयक भजन
(९)
प्रकृतिं परमामभयां वरदां, नररूपधरां जनतापहराम ।
शरणागतसेवकतोषकरीं, प्रणमामि परां जननीं जगताम ।१।
गुणहीनसुतानपराधयूतान कृपायाद्दयसमुद्धर मोह्गातन ।
तरनीं भवसागरपारकरीं, प्रणमामि परां जननीं जगताम ।२।
विषयं कूसूमं परिहृत्य सदा, चरणाम्बूरुहामृतशान्तिसूधाम ।
पिव भृंगमनोभवरोगहरां प्रणमामि परां जननीं जगताम ।३।
कृपां कूरू महादेवी सूतेषू प्रणतेषू च ।
चरणाश्रयदानेन कृपामयी नमोस्तु ते ।४।
लज्जापटावृते नित्यं सारदे ज्ञानदायिके ।
पापेभ्यो नः सदा रक्ष कृपामयि नमोस्तुते ।५।
रामकृष्णगतप्राणां तन्नामश्रवणप्रियाम ।
तद्भावरंजिताकारां       प्रणमामि       मुहुर्मुहु:।६।
पवित्रं चरितं यस्याः पवित्रं जीवनं तथा ।
पवित्रतास्वरूपिण्यै तस्यै कूर्मो नमो नमः ।७।

देवीं प्रसन्नां प्रणतार्तिहन्त्रीं
योगीन्द्रपूज्यां युगधर्मपात्रीम।
तां सारदां भक्तिविज्ञानदात्रीं 
दयास्वरूपां प्रणमामि नित्यम ।८।
स्नेहेन बध्नासि मनोSस्मदीयं
दोषानशेषान सगुणीकरोषि ।
 अहेतुना नो दयसे सदोषान 
स्वांके गृहीत्वा यदिदं विचित्रम ।९।
प्रसीद मातर्विनयेन याचे 
नित्यं भव स्नेह्वती सुतेषु ।
प्रेमैकबिन्दुं चिरदग्धचित्ते
विषिंच चित्तं कुरु नः सुशान्तम ।१०। 
जननीं सारदां देवीं रामकृष्णं जगदगुरुम ।
        पादपद्मे तयो: श्रित्वा प्रणमामि मुहुर्मुहु : ।११।
- स्वामी अभेदानन्द      
(१०)
दरबारी कानाड़ा-झाँपताल
सबारि माँ हये आजि के तूमि धराते एले ।
सबारि दुःखेते सदा भासिछ नयन जले ।१।
देश-जाति भेद नाई, श्रीपदे सबारि ठाँई ।
पापी तापी सबे तूमि ' बाछा ' बले कर कोले ।२।
सब देश सब जाति ' माँ ' नामे उठिछे माति ।
तोमारे करि' प्रणति सब दुःख जाय भूले ।३।
' माँ ' नाम शिखाते सबे 'माँ ' हये ऐसेछ भवे ।
मोरेउ शिखाउ तबे, आमि जे तोमारि छेले ।४।
-स्वामी चण्डिकानन्द 
(११)
( भैरवी-एकताल )
करुणा-पाथार जननी आमार एले मा करुणा करिते ।
तापितेर तरे नरदेह धरे अशेष यातना सहिते ।।
त्रिदिव त्याजिया ए धराय आसा, सन्तान तरे कतो काँदाहासा ।
अहेतुक तव एई भालोबासा, पारि कि गो मोरा बुझिते ।।
शत जनमेर जतो पाप हाय, दियाछि ढालिया ओइ रांगा पाय,
सकलि तो तूमि सहिले हेलाय, कोल दिते कतो तापिते ।
भकति विहीन हृदय आमार, केमोने पूजिबो श्रीपद तोमार;
नयन भरिया दाओ प्रेमाधार-पदपंकज धोआते ।।
स्वामी चण्डिकानन्द 
भावानुवाद ( भैरवी-एकताल )
करुणामयी जननी मेरी आई माँ करुणा बाँटने ।
हेतु दुखित जन नारी तनु धारण अपार यातना सहने ।।
त्याग स्वर्ग तव धरा अवतरण सन्तान हेतु सुख दुःख ग्रहण ।
अहैतुक तव प्रेम विलक्षण, आये हमारी क्या समझ में ।।
शत जन्मों के पाप जितने दिया है ढाल उन्हीं चरणों में ।
सहज भाव से सहा सब तुमने, तापित हो ले गोद में ।।
भगती  विहीन हृदय मेरा, पद कंज पूंजूँ कैसे मैं तेरा ।
भर दो नयन प्रेम अश्रु धारा, पद पंकज पखारने ।।
(१२)
देवीप्रणामः
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये  त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोSस्तु ते ।१।
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि ।
गुणाश्रय गुणमये नारायणि नमोSस्तु ते ।२।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपारायणे
सर्वस्यार्तिहरे देवी नारायणि नमोSस्तु ते ।३।
   जय नारायणि नमोSस्तु ते,
    जय नारायणि नमोSस्तु ते ।
      जय नारायणि नमोSस्तु ते,
        जय नारायणि नमोSस्तु ते ।।
 देवी प्रणाम 
या देवी सर्वभूतेषू मातृरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
या देवी सर्वभूतेषू शक्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
 या देवी सर्वभूतेषू शान्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ।।
सत्व भजनांजलि 
स्तवः
(१)
अनन्तरूपिणी अनन्तगुणवति अनन्त-नाम्नि गिरिजे माँ ।
शिव-हृन्मोहिनि विश्व-विलासिनी रामकृष्ण-जय-दायिनी माँ ।।
जगज्जननी त्रिलोकपालिनी विश्वसुवासिनी शुभदे माँ ।
दुर्गतिनाशिनी सन्मतिदायिनी भोग-मोक्षसुख-कारिणि माँ ।।
परमे पार्वति सुन्दरि भगवति दुर्गे भामति त्व मे माँ ।।
प्रसीद मातर्नगेन्द्र-नन्दिनी चिरसुखदायिनी जयदे माँ ।।    
(२)
( पटदीप -एकताल )
सार देबे बोले एसेछे सारदा असार ए संसारे ।
सतेर जननी असतेर तिनि, माता गुरु एकाधारे ।।
वासनार बसे फिरे फिरे आसि, सार भुले शुधु संग भालोबाशि;
सपनेर घोरे कतो काँदि हासि भूले थाकि जननी रे ।।
पेते चाओ जदि मन ए जीवने शान्तिर पारावार,
भूलोना गो तार शेषे बोला बानी, दोष धरो आपनार,
अपरेर दोष देखो ना गो जेनो, तोमारिइ जगत भूलो ना कखन,
रुपे रुपे प्राणे जेने शेष करो, आसा जावा बारे बारे ।।
भावानुवाद  ( पटदीप-एकताल)
सार देने हेतु आयी है सारदा असार संसार में  ।
सत असत की जननी वही माता गुरु एक ही में ।।
वासना वश आऊं बार-बार मत्त रहूँ संग भूलकर सार,
सपने में रोऊँ गाऊँ मैं कितना भूल जननी को रे ।।
यदि चाहो मन इस जीवन में शान्ति अमिय पाना,
भूलो न उनकी अन्तिम वाणी, दोष सदा देखो अपना ।
दूसरे के दोष न कभी, तुम्हारा ही संसार भूलो न कभी,
भव बन्धन तोड़ो अपने देख माँ को सभी में ।।      
(३)
(भैरवी-एकताल )
मा त्वं हि तारा, तुमि त्रिगुणधरा परात्परा ।
आमि जानि गो ओ दीनदयामयी, तुमि दुर्गमेते दुःखहरा ।।
तुमि जले, तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो मा ।
आछो  सर्वघटे अक्षपुटे, साकार आकार निराकारा ।।
तुमि संध्या, तुमि गायत्री, तुमि जगदधात्री गो मा ।
अकूलेर त्राणकत्री सदाशिवेर मनोहरा ।।
भावानुवाद  (भैरवी-एकताल )
माँ तू ही तारा, तू त्रिगुणधरा परात्परा ।
मैं जानूँ तू दीनदयामयी दुरूह दुःखहरा ।।
जल में तू स्थल में तू सब के मूल में तू ही माँ ।
घट-घट में, आँखों की पुतली में - तू ही विराजे,  साकार आकार निराकारा ।।
तू ही संध्या तू गायत्री तू ही जगदधात्री है माँ ।
भवसागर की पारकर्त्री सदाशिव की मनोहरा ।।
           स्वामी विवेकानन्द विषयक भजन 
(१३)
मूर्तमहेश्वरमूज्ज्वल-भास्करमिष्टममर-नरवन्द्य्म।
वन्दे वेदतनूमूज्झित-गर्हित-कांचन-कामिनी-बन्धम ।१।
कोटिभानूकरदीप्तसिंहमहो ! कटितटकौपीनवन्तम  
अभिरभी:-हूँकार-नादित-दिंग्मूख-प्रचण्ड-ताण्डव-नृत्यम ।२।
भूक्ति-मूक्ति-कृपा-कटाक्ष प्रेक्षण मघद्ल-विदलन दक्षं
बालचन्द्रधर-मिन्दू- वन्द्य-मिह नौमी गुरुविवेकानन्दम।३।
- अर्थात जो सूर्य के सदृश प्रदीप्त एवं देवताओं तथा मनुष्यों के वन्दनीय हैं, जिन्होंने काम-कांचन के प्रति मोह के बन्धन को त्याग दिया है, उन्हीं देवतनू मूर्तिमान महेश्वर मेरे ईष्ट-देव विवेकानन्द की मैं वंदना करता हूँ.।१। 
अहो: जो कोटि भास्कर के किरणों से मण्डित सिंह के सदृश शोभायमान हैं, जो (महावीर हनूमान की तरह)
कटि पर केवल कौपीन पहनते हैं, तथा जो अभी: अभी: के हूंकार से दसों दिशाओं को निनादित करते हुए प्रचण्ड ताण्डव नृत्य करते हैं---- ।२।
जिनके  कृपा-कटाक्ष से भोग एवं मोक्ष दोनों संभव हो जाते हैं, जो पाप के समूह को दलन करने में समर्थ हैं, जो शशि-कलाधारी हैं, शिवस्वरूप हैं, उसी ईन्दु के आराध्य गुरु रूपी विवेकानन्द को हमारा प्रणाम !३!  
- शरतचन्द्र चक्रवर्ती 

  (१४)
( आड़ाना-तीव्रा ) 
वीर सेनापति विवेकानन्द ओई जे डाकिछे ' आयरे आय ' ।
आह्वाने  तार आपना भूलिया कत महारथी छूटिया जाय ।१।
आत्मत्यागेर अग्निमन्त्रे दीक्षित हये नवीन तन्त्रे ।
भोगवाद-जात-दैत्य दलिते आपना सँपिते के जाबि आय ।२।
स्वार्थ- द्वन्द्व-भोग-कोलाहल एनेछे जगते शुधू हलाहल,
निभाते आजिके एई दावानल प्रेमवारि से जे एनेछे हाय ।३।
एस देव एस करूणा-निदान लह आजि मम तनू-मन-प्राण,
कृपा करि कर ए आशिस दान तव काजे जेन जीवन जाय ।४।
- स्वामी चण्डिकानन्द     
 भावानुवाद - ( अड़ाना-तीव्रा )
वीर सेनापति विवेकानन्द, ये बुलाते हैं आओ रे आज ।
आह्वान सुनकर खुद को भूलकर, कितने महारथी दौड़े आज ।।
आत्म त्याग के अग्निमंत्र से, दीक्षित होकर नवीन तंत्र से,
भोगवाद जाति के दैत्य दलन को आये कौन सब तजके काज ।।
स्वार्थ द्वंद्व भोग कोलाहल लाया जगत में मात्र हलाहल,
बुझाने आये वे यही दावानल, लेके प्रेम जलधारा आज ।।
आओ आओ देव करुणानिधान, ले लो आज मम तन मन प्राण,
कृपा करके दो यह आशीष दान जिवनार्पित हो तेरे काज ।।            
(१५)
शिवरंजनी-त्रिताल 
जय वीरेश्वर/ विवेक भास्कर/ जय जय श्रीविवेकानन्द ।
ईन्दू निभानन/ सुन्दर लोचन / विश्वमानव-चिरवन्द्य ।१।
प्रेम-ढल -ढल/ कान्ति सूविमल/ अधिगत वेद-वेदान्त ।
त्याग-तितिक्षा/ तपस्या-उज्ज्वल/ चित्त निर्मल शान्त ।२।
कर्म भक्ति-ज्ञान/ त्रिशूल धारण/ छेदन जीव मोह-बन्ध ।
ब्रह्मपरायण/ नमो नारायण/ देहि देहि चरणारविन्द ।३।
-स्वामी चण्डिकानन्द      
 (१६)
मालकोष-तेउरा
क्षात्रवीर्य ब्रह्मतेज मूर्ति धरिया एल एबार ।
गगने  पवने उठिल रे एई माभै: माभै: हुहुँकार ।१।
आश्वास दिल शंकित जने, पूलक जागाल हताश जीवने,
उत्तिष्ठत गरजि सघने सूप्ति नाशिल ए वसूधार ।२।
अमृतस्य  पूत्र आमरा, मृत्यु मोदेर नाहिक-आर,
कार भये तबू केंदे दिशेहारा, उठे दाँड़ा मिछे स्वपन छाड़।३।
त्याग उ सेवार विजय केतन,
निर्भये तोल विदरि गगन,
धन्य हईबे विश्वभूवन, साथे आछे सदा आशिस ताँर ।४। 
   - स्वामी चण्डिकानन्द      
सत्व भजनांजलि 
(१)
के तुमि बाजाले नवीन रागेते भारतेर प्राण-वीणा ।
मधुर  झंकारे मुग्ध जगत चकिते गाहे वन्दना ।।
ललित छन्दे गभीर मंद्रे,
पाशिलो  से तान रन्ध्रे रन्ध्रे;
जगिलो सुप्त लुप्त गौरव भारतवर्ष दीना ।।
हिमाद्रि-शिखरे जलनिधि-तीरे,
प्राच्ये प्रतीच्ये दिग दिगन्तरे;
वेदान्त महिमा केवल प्रचारे वर्णीते नारी सीमा ।।
(करि) गुरूपदे मन-प्राण समर्पण 
महायोगी वेश करिले धारण,
ज्ञान, भक्ति, योग, जीव-सेवा व्रत करिले उद्दीपना ।।

भावानुवाद  (खमाज-एकताल )

तुम कौन बजाते नये राग से भारत प्राण वीणा को ।
मधुर झंकार मुग्ध जगत गाये वन्दना चकित हो ।।
ललित छंद अरु गंभीर मन्द्र में 
समाये तान रन्ध्र रन्ध्र में 
जागा सुप्त लुप्त गौरव दीन भारत का था जो ।।
हिम गिरि श्रृंग से लेकर सागर,
पूरब  पश्चिम दिग दिगन्तर;
प्रचारा वेदान्त महिमा केवल वरनन वाणी मूक हो ।।
(कर) गुरु पद मन प्राण समर्पण 
महायोगी रूप लेकर धारण,
ज्ञान भक्ति योग अरु सेवाव्रत, सिखाया सारे जगत को ।।


श्रीगुरु-स्त्रोत्रम
(२)
गुरुर्ब्रह्मा  गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव  परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।१।
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम ।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।२।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानान्जनशलाकया ।
चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।३।
न गुरोरधिकं तत्वं न गुरोरधिकं तपः ।
        तत्वज्ञानात्परं नास्ति तस्मै श्रीगुरवे नमः ।४।
       मन्नाथः  श्रीजगन्नाथो मदगुरु : श्रीजगदगुरु : ।
                मदात्मा  सर्वभूतात्मा तस्मै श्रीगुरवे नमः ।५।  
(३)  
श्रीगुरु-प्रार्थना
भवसागर-तारण-कारण हे । रविनन्दन-बन्धन-खण्डन हे ।।
शरणागत  किंकर भीत मने । गुरुदेव दया करो दीनजने ।१।
      हृदिकन्दर-तामस-भास्कर हे । तुमि विष्णु प्रजापति शंकर हे ।।
परब्रह्म परात्पर वेद भणे । गुरुदेव दया करो दीन जने ।२।
मनवारण-शासन-अंकुश हे । नरत्राण तरे हरि चाक्षुष हे ।।
गुणगान -परायण देवगणे । गुरुदेव दया करो दीनजने ।३।
       कुलकुण्डलिनी-घुम-भंजक हे । हृदिग्रंथि- वदारण-कारक हे ।।
  मम मानस चंचल रात्रदिने ।गुरुदेव दया करो दीनजने ।४। 
        रिपुसूदन मंगलनायक हे। सुख शान्ति -वराभय-दायक  हे ।।
त्रयताप हरे तव नाम गुणे । गुरुदेव दया करो दीनजने ।५।  
    अभिमान- प्रभाव-विमर्दक हे ।गतिहीन-जने तुमि रक्षक हे ।।
        चित शंकित वंचित भक्तिधने ।  गुरुदेव दया करो दीनजने ।६।
      तव नाम सदा शुभसाधक हे । पतिताधम-मानव-पावक हे ।।
    महिमा तव गोचर शुद्ध मने ।गुरुदेव दया करो दीनजने ।७। 
       जय सद्गुरु ईश्वर-प्रापक हे । भवरोग-विकार-विनाशक हे ।।
            मन जेन रहे तव श्रीचरणे । गुरुदेव दया करो दीनजने ।८।  
(४)
निर्वाण षटकम 
मनो-बुद्धि-Sहंकार- चित्तानि नाहं 
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम-भूमि न तेजो वायु-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।१।
न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायु-
र्न वा सप्तधातुर्न वा पञ्च कोषाः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू 
चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।२।
न मे द्वेषरागो न मे लोभमोहौ 
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः ।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।३।
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःख 
न मन्त्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता 
चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।४।
न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः 
पिता नैव मे नैव माता न जन्म ।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्य-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।५।
अहं निर्विकल्पो निराकाररूपो 
विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम ।
न चासंगतं नैव मुक्तिर्न मेय-
श्चिदानन्दरूपः शिवोSहं शिवोSहम ।६। 
(५)
मोह मुद्गर !
चर्पटपञ्जरिका-स्त्रोत्रम 
दीनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः ।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तद्पि  न मुन्चत्याशा वायु : ।१।
भज गोविन्दं भज गोविन्दं,  गोविन्दं भज मूढ़मते ।
प्राप्ते संनिहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृन करणे ।।
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानू रात्रौ चिबुक समर्पितजानु: ।
करतलभिक्षा तरुतलवाससस्तद्पि न मुन्चत्याशापाशः । भज गो... ।२। 
यावद्वित्तोपार्जनसक्तस्तावन्निजपरिवारो रक्तः ।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्तां पृच्छति कोSपी न गेहे ।भज गो... ।३।  
     जटिलो मुण्डी लुन्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः ।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढोउदरनिमित्तं बहुकृतवेषः । भज गो...।४।
भगवतगीता किंचिदधीता गंगाजललवकणिका पीता ।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चाम ।भज गो..।५।
अंग्म गलितं पलितं मुंडम दशनविहीनं जातं तुण्डम।
वृद्धो  याति गृहित्वा दण्डं तदपि न मुन्चत्याशा पिण्डम । भज गो..।६।
बालस्ताव्त्क्रीडासक्तस्तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः 
वृद्धस्तावच्चीन्तामग्नः परमे ब्रह्मणि कोSपि न लग्नः ।भज गो...।७।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम ।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे । भज गो...।८।
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः ।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षं तदपि न मुन्चत्याशामर्षम ।भज गो..।९।
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारो ज्ञाते तत्वे कः संसारः ।भज गो..।१०।
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्या मायामोहावेशम ।
एतन्मांसवसादिविकारं मनसि विचारय वारंवारम ।भज गो..।११।
कस्त्वं कोSहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः ।
इति परिभावय सर्वमसारं विश्वं त्यक्त्वा स्वप्नविचारम ।।भज गो..।१२ ।
गेयं गीतानामसहस्रम ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम ।
नेयं सज्जनसंगे चित्तं देयं दीनजनाय च वित्तम ।भज गो..।१३।
यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत-पृच्छती गेहे ।
गतवति वायौ देहापाये भार्या बिभ्यति तस्मिन् काये । भज गो..।१४।
सुखतः  क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः ।
यद्दपि  लोके मरणं शरणं तदपि न मुंचति पापाचरणम ।भज गो...।१५।
नाहं न त्वं नायं लोकस्तद्पि किमर्थं क्रियते शोकः । भज गो...।१६।
कुरुते गंगासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम ।
ज्ञानविहीनः सर्वमतेन मुक्ति न भजति जन्मशतेन ।भज गो..।१७। 
(६)
(गजल-कहरवा )
तुझसे हमने दिल को लगाया, जो कुछ है सो तू ही है ।
एक तुझको अपना पाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
सबके मकां दिल का मकीं तू, कौन सा दिल है जिसमें नहीं तू ।
हरेक दिल में तू ही समाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
क्या मलायक क्या इन्सान, क्या हिन्दू क्या मुसलमान ।
जैसे चाहा तूने बनाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
काबा में क्या, देवालय में क्या, तेरी परस्तिश होगी सब जाँ ।
आगे तेरे सिर सबने झुकाया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
अर्श से लेकर फर्श जमीं तक और जमीं से अर्श वरी तक ।
जहाँ मैं देखा तू ही नजर आया जो कुछ है सो तू ही है ।।
सोचा समझा देखा-भाला, तुम जैसा कोई न ढूंढ़ निकाला ।
अब ये समझ में ' जफर ' के आया, जो कुछ है सो तू ही है ।।
           (७)
प्रभु मैं गुलाम, मैं गुलाम, मैं गुलाम तेरा,
तू दीवान तू दीवान, तू दीवान मेरा ।
दो रोटी एक लंगोटी, तेरे पास मैं पाया,
भगति भाव दे और, नाम तेरा गाया ।
तू दीवान मेहरबान, नाम तेरा बढया,
दास कबीर शरण में आया, चरण लागे ताराया ।।       
       
विविध संगीत
(१७)
भैरवी-दादरा (जलद)
शौर्य दाउ -
शौर्य दाउ वीर्य दाउ नवीन जीवन दाउ,
परा अपरा विद्या दाउ, दिव्य चेतन दाउ ।१।       
कर्मे शक्ति दाउ, हृदये भकति दाउ,
निर्मल शुभ बुद्धि दाउ, ज्ञान गरिमा दाउ ।२।
' त्याग 'ते मति दाउ, ' सेवा 'ते प्रीति दाउ,
स्वार्थ-द्वन्द्व-भेद-बुद्धि चिरतरे मूछे दाउ ।३।
ए नवयुगेर नवीन तन्त्रे दीक्षित कर मिलन मन्त्रे,
सार्थक कर जीवन मोदर, चरणे शरण दाउ ।४।
-स्वामी चण्डिकानन्द
            हिन्दी अनुवाद
शौर्य दो-
शौर्य दो वीर्य दो,  नवीन जीवन दो,
परा-अपरा विद्या दो, दिव्य चेतना दो ।१।
कर्म में शक्ति दो, हृदय में भक्ति दो,
निर्मल शुभ बुद्धि दो, ज्ञान गरिमा दो ।२।
' त्याग 'में मति दो, ' सेवा ' में प्रीति दो,
स्वार्थ-द्वन्द्व-भेद-बुद्धि सर्वथा ही मिटा दो ।३।
हे नवयुग के नवीन तंत्र में,  दीक्षित करो मिलन मन्त्र में,
सार्थक करो जीवन मेरा-2 चरण में शरण दो ।४।
 शौर्य दो वीर्य दो ...........दिव्य चेतना दो ।
-स्वामी चण्डिकानन्द
(१८)
आड़ाना -झाँपताल
दाउ तेज तेजमय चित्ते आमार,
वीर्य अमृत दाउ, अमृत पाथार ।१।
दाउ देहे नव शक्ति, हृदये अचला भक्ति,
दूर करो मोह-सुप्ति, उहे सारात्सार ।२।
दाउ आलो, दाउ आशा, दाउ संजीवनी भाषा,
दाउ ज्ञान, दाउ प्राण, हे प्राण आधार,
दाउ खूले प्रेम-आँखी, सबई शिवमय देखि,
चरणे शरण दाउ तनये तोमार ।३।
स्वामी चण्डिकानन्द


(१९)
अग्निमन्त्रे दीक्षित कर सन्ताने तव आज ।
आशीर्वादेर धर्म पराउ घूचाये दैन्य साज ।१। 
तप्त कर माँ ह्रदय रुधिर, दूर करे दाउ भीति-अश्रुनीर,
दाँड़ाइ आमरा माँ तोरे घिरिया विश्व सभाय माझ ।२।
मानुष आमरा, नहि त माँ हीन, तूई जार माँ से कि कभू दीन,
तबे  केन मिछे, पड़े थाका पीछे, केन ए अलीक  लाज ?
एसो एसो एसो, एसो माँ आमार, दश-प्रहरण-धारिणी,
हास माँ अट्ट अट्ट हास्य भूलोक-दयूलोक-नादिनी,
मोरा करि विदूरित स्वार्थ-द्वन्द्व साधिया तोमार काज ।३।
-स्वामी चण्डिकानन्द
अग्निमन्त्र में दीक्षित करो सन्तन को आज।
आशीर्वाद का धर्म पहनाओ हटा दो दैन्य साज ।१।
तप्त करो माँ रक्त-हृदय, दूर करो माँ मन का भय,
घेरे तुमको माँ खड़े हों हमसब विश्व-सभा को छाय।२।
मनुष्य हैं हमसब, नहीं हैं माँ हम हीन, तू है माँ जिसकी क्या वो है कभी दीन ?
तब क्यों भ्रम में आँखे मीचे, पड़ा हुआ है सबके पीछे, क्यों यह भ्रामक लाज ?
आओ आओ आओ, आओ माँ तू मेरी, दश-प्रहरण-धारिणी,
हँसों माँ अट्ट अट्ट हास भूलोक-द्यूलोक-नादिनी,
हम सब करें विदूरित स्वार्थ-द्वन्द्व साधें तुम्हारा काज।३।
-स्वामी चण्डिकानन्द
(२०)
हेमन कल्याण -तेउड़ा 
लक्ष प्राणेर दुःख यदि वक्षे रे तोर बाजे ।
मूर्त क'रे तोल रे तोरे सकल काजेर माझे ।१।
जा छूटे जा उरे पागल, वज्र-रोले सबारे बल,
उठ रे तोरा, मोछ आँखिजल, भोल रे अलीक लाजे ।२।
प्राण दिये तोर ज्वले आगुन ज्वाला सकल घरे;
स्वार्थ-द्वन्द्व मृत्युभीति छाई हये जाक पूड़े ।३।
आबार चेये देखुक जगत, तोराउ मानुष तोराउ महत,
आजउ तोदेर शिराय शिराय तप्त शोणित आछे ।४।
-स्वामी चण्डिकानन्द
लक्ष प्राणों के दुःख - यदि सीने को तेरी बेधे,
मूर्त करो उसे अपने समस्त कार्यों में मुट्ठी बाँधे ।१।
जाओ दौड़े जाओ अरे पागल, वज्र-गर्जन से सबको बोलो,
उठो रे तुम-सब, पोछ के नेत्र-जल, भूलो रे भ्रामक लाज ।२।
प्राणों में तेरे प्रज्वलित हो अग्नि, दहके ज्वाला गृहे गृहे; 
स्वार्थ-द्वन्द्व मृत्यु का भय खाक हो जाय जल के ।३।
फिर से आवक हो देखे जगत, तुमलोग भी मनुष्य तुम भी हो महत,
आज भी तुम्हारी नसों-नाड़ियों में गर्म-लहू उबाल मारे ।४।
स्वामी चण्डिकानन्द
(२१) 
बागेश्री -एकताल 
माँ आमादेर मानुष करो एई मिनती उ राँगा पाय ।
तोमार छेले हये जेन दीन काटे ना धूलो खेलाय ।१।
मिथ्या जतई मोहन वेशे मन भूलाते आसूक हेसे ।
आमरा जेन अटल थाकि माँ तोमारई चरण सेवाय ।२।
तूमि मोदेर प्राणेर तूमि मोदेर ध्यान-ज्ञान ।
तोमार तरे गेये गान माँ जेन मोदेर जीवन जाय ।३।
स्वामी चण्डिकानन्द 
भावानुवाद (भैरवी -दादरा )
' माँ ' हमें मनुष्य बना दे - यह विनती तेरे चरणों में ।
तेरे बेटे होके फिर माँ - २  दीन बीते ना धुल कीचड़ में, यह विनती तेरे चरणों में ।१।
माँ मुझे मनुष्य बना दे ...
झूठ प्रपंच मोहक रूपों में मन को भुलाये आकर हँसते ।
ऐसा कर हम अचल रहें माँ-२  तेरे चरणों की सेवा में ।२। माँ मुझे .....
तू ही हमारे प्राणों की प्राण-2 तू ही हमारा ध्यान ज्ञान ।
तेरी लीला गाते गाते-२  जीवन जायें अन्त में -
यह विनती तेरे चरणों में ।३।
 माँ मुझे मनुष्य बना दे .
-स्वामी चण्डिकानन्द 
   (२२)
शंकरा वेहाग -एकताल 
आदर्श तव शंकर सीता, भूलीउ ना तूमि भूलीउ ना ।
भूलीउ ना तूमि महा पवित्र एई भारतेर धूलिकना ।१।
भारत सन्तान देवता तोमार, खूँजिते ईश्वर कोथा जाबे आर,
महा उपचारे त्याग उ सेवार कर तार आराधना ।२।
उच्चकण्ठे बल बल तूमि, ' भारत सन्तान आमार भाई '
मुर्ख कांगाल द्विज उ चाण्डाल देवता आमार एँरा सबाई '।
प्राणपणे तूमि बल दिनरात, उमा जगदम्बा, उगो उमानाथ,
मानुष करिया दाउ गो आमाय, आर किछू आमि चाईब ना ।३।
(२२)
भावानुवाद (मिश्र विहाग-त्रिताल) 
तव आदर्श है शंकर सीता, भूलो ना तुम भूलो ना ।
महा पवित्र है धूलकण इसके यह कभी तुम भूलोना ।१।
देवता तेरे भारत सन्तान- खोजने कहाँ जाते हो भगवान ?
सेवा अरु त्याग सरल उपाय उससे करो आरधना ।२।  
ऊच्च कंठ से लगाओ नारे ' भारत सन्तान भाई मेरे '।
मूर्ख कंगाल द्विज चंडाल देवता हैं ये मेरे ।।
प्राणपन से कहो दिनरात - हे जगदम्बा, हे उमानाथ ।
मनुष्य मुझको तुम बना दो और कुछ मैं चाहूँ ना ।।


(२३)
देशकार- एकताल 
ताथेईया, ताथेईया नाचे भोला, बोम बब बाजे गाल,
डिमि डिमि डिमि डमरू बाजे, दूलिछे कपाल-माल ।
गरजे गंगा जटा-माझे, ऊगरे अनल त्रिशूल राजे,
धक धक धक मौलीबन्ध, ज्वले शशांक-भाल ।।
-स्वामी विवेकानन्द 
(२४)
दरबारी- कानाड़ा-स्वर फाँकताल 
हर हर हर भूतनाथ पशुपति,
योगीश्वर महादेव शिव पिनाक पाणि ।।
ऊर्ध्व जलत जटाजाल, नाचत ब्योमकेश भाल,
सप्तभूवन धरत ताल, टलमल अवनी ।।
-स्वामी विवेकानन्द 
(२५)
बाउल-एकताल 
माँ आछेन आर आमि आछि भावना कि आछे आमार;
मार हाते खाई परि, माँ नियेछेन आमार भार ।।
पड़े संसार पाके घोर बिपाके जखन देखबि अंधकार,
देखबि अन्धकारेर बिपद हते माँ जे करेछेन उद्धार ।।
भूले  थाकि तबूउ देखि भोले ना माँ एकटि बार,
बड़ स्नेहेर आधार माँ जे आमार, आमि जे मार, माँ आमार ।।
-मनोमोहन चक्रवर्ती
भावानुवाद (खमाज-कहरवा )
माँ है मैं हूँ फिर तो मुझको चिन्ता कैसी अबकी बार ।
माँ के हाथों खाता पीता, माँ ने लिया मेरा भार ।।
जग माया के घोर क्षणों में जब भी देखूँ अन्धकार ।
माँ उस घन तम में है कहती ' डर मत ' -' डर मत ' बारम्बार ।।
तार स्वरों में करूँ पुकार तारा तेरी कितनी बार,
दयामयी होकर भी माँ यह तेरा कैसा व्यवहार ।।
सुत को छोड़ घर के बहार खुद सोये तू घर के भीतर,
माँ माँ की रट लगा के बची मेरी अस्थि-चर्म केवल बाहर ।।
मत्त रहा मैं डूब खेल में इससे तूने दिया बिसार,
और नहीं मैं जाऊं खेलने पड़ जाये तेरी प्रेम नजर ।।
दीन राम कहता है माँ मैं जाऊं किसके पास किधर,
माँ के बिना उठाये कौन अकृत अधम इस जनका भार ।।     
(२६)
मिश्र-दादरा
आमरा मायेर छेले, आमरा मायेर छेले ।
आमरा कि कम आसूक ना यम, जीवन अवहेले ।।
पथेर परे बिपद पेले, दलते पारि पदतले,
मोदेर हुंकारते सागर झुकाय, पाहाड़ पड़े टले ।।
चन्द्र- सूर्य ग्रह-तारा, मायेर कथाय घूरछे तारा,
एमन मायेर छेले मोरा दूर्बल के बले ।।
मोदेर आबार पाप कोथाय, स्वर्ग नरक के बल चाय ?
काज फूराले संध्या बेलाय माँ करिबे कोले ।।
(२७)
मालकोष-तेउरा
शक्तिस्वरूपिणी विश्वजननी देह माँ शक्ति देह माँ जय ।
सकल जड़ता दूर करे दाउ, दूर करे दाउ सकल भय ।।
जातिर जीवने जत सब ग्लानि बज्र अनले दाउ दाउ हानि ।
भेद- व्यवधान होक अवसान, सबे जेन एक प्राण ह्य ।
जय माँ विश्वजननी दुर्गे, जय महामायी जय माँ जय ।।
-स्वामी वेदानन्द   
सत्व भजनांजलि                      
(१)
श्रीसरस्वतीस्त्रोत्रम 
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता 
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना ।
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता 
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाडयापहा ।।
(२)
(बहार -तीनताल )
वरदे वीणावादिनी वर दे ।
प्रिय  स्वतंत्र रव अमृतमन्त्र नव, भारत में भर दे ।।
काट अंध उर के बंधन स्तर, बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर ।
कलुष  भेद, तम हर, प्रकाश भर, जगमग जग कर दे ।।
नव गति, नव लय, ताल-छंद नव, नवल कंठ नव जलद मंद्र नव, 
नव नभ के नव विहगवृन्द को नव पर, नव स्वर दे ।।
-सूर्यकान्त  त्रिपाठी ' निराला '                    
(३) 
(मनोहरसाही-झपताल )
सकलि तोमारि इच्छा इच्छामयी तारा तुमि ।
तोमार कर्म तुमि करो माँ, लोके बोले करि आमि।।
पंके बद्ध करो करि, पंगुरे लंघाओ गिरि,
कारे दाओ माँ ब्रह्मपद, कारे करो अधोगामी ।।
आमि यंत्र तुमि यंत्री, आमि घर तुमि घरनी,
आमि रथ तुमि रथी, जेमन चालाओ तेमनि चलि ।।
भावानुवाद  
सभी  तेरी इच्छा है माँ इच्छामयी तारा तुम्हीं ।
अपना कर्म तुम्हीं करती माँ लोग कहते करते हमहीं ।।
फँसाती कीच में हाथी, लंघाती पंगु को गिरि ।
देती हो किसी को ब्रह्मपद माँ, करती किसी को अधोगामी ।।
मैं हूँ यंत्र तुम हो यंत्री, मैं हूँ घर तुम हो घरनी ।
मैं हूँ रथ तुम हो रथी माँ, चलता जैसा चलाती माँ ।।
 
(२८)
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का प्रार्थना-गीत 
(संज्ञानसूकतम : ' संघ-मन्त्र ')
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।१।
समानो मन्त्रः समितिः समानी 
समानं मनः सह चित्तमेषाम।
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः
समानेन  वो हविषा जुहोमि ।२।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।३।
-ऋगवेद : १०/ १९१/२-४ 
( २९ )
(' सं गच्छध्वं ' के सुर में गेय )
एक पथे चलिब, एक कथा बलिब, 
आमादेर मनगुलि एक भाबे गड़ीब ।
देवगन जेमन भाग क'रे हवि नेन,
आमराउ सब किछू भाग करे लईब ।
आमादेर चाउया पाउया अन्तःकरण एकरूप,
आमादेर ज्ञाने सब एकेरई बहुरूप,
ऐक्य विधानेर मन्त्र पड़िया
देवगन  तोमादेर आहुति प्रदान करिब ।
संकल्प समान, हृदयउ समान,
भावगुलि समान करे 
परम ऐक्य लभिब।
भावानुवाद  : श्रीवीरेश्वर चक्रवर्ती
=============
हिन्दी भावानुवाद 
( संघ-मन्त्र )
एक साथ चलेंगे एक बात बोलेंगे, 
हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।
देवगण जैसे बाँट हवि लेते हैं,
हम सब सबकुछ बाँट कर ही लेंगे ।।
याचना हमारी हो एक, अन्तःकरण एक हो,
हमारे विचार में सब जीव एक हैं;
ऐक्य विधान के मन्त्र को गाकर,
देवगण तुम्हें हम आहुति प्रदान करेंगे ।।
संकल्प समान हृदय भी समान, 
भावना को एक करके, परम ऐक्य पायेंगे ।
एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे, हम सबके मन को एक भाव से गढ़ेंगे ।। 
हिन्दी भावानुवाद : श्रीबलेन्द्रनाथ नन्दी 
English translation  

(हिन्दी संघ-मन्त्र- ' एक साथ चलेंगे एक बात बोलेंगे.......  के सुर में गेय )
Let us move together,
Let us speak in harmony,
Let our minds think in unison,


As Gods share with one another,
We too shall care to share,

Let us pray in consistency,
Let our hearts be in uniformity,
Let us be one with infinity,

Let us chant in unison,
Let us act in unison,
Let that unison be our prayer.

We'll unify our heart, feelings and determination,
To realise and to be - One with All !

Let us move together,
Let us speak in harmony.
========
    
 - Translated by Sri Ajay agarwal on 20/4/2012
(३०)
(असतो मा सदगमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्माSमृतं गमय ।)
 
असत हईते मोरे सतपथे नाउ ।
ज्ञानेर आलोक ज्वले आँधार घुचाउ।।
मरनेर भय जाक अमर करो ।
देखा दिये भगवान शंका हरो ।।
करुना आशीष ढालो रूद्र ! शिरे ।
चिरदिन  थाको मोर जीवन घिरे ।।
झरिया पडुक शान्ति चराचरमय ।
चिरशान्ति परिमले भरुक हृदय ।।
भावानुवाद -स्वामी विश्वाश्रयानन्द     

असत राह से मुझे सत राह पर लो ।
ज्ञान आलोक देके मन का अँधेरा हटाओ ।।
भय जाय मन का, अमर करो ।
दर्शन देकर भगवान, शंका हरो ।।
करुणा आशीष ढालो रूद्र ! सिर पे ।
चिरदिन रहो मेरे जीवन घेरे ।।
चारों ओर शान्ति झरती रहे ।
           चिरशान्ति परिमल से भरो हृदय को ।
               असत राह से मुझे सत राह पर लो ।।
हिन्दी भावानुवाद : श्रीसुकान्त मजुमदार  
(३१)
तेजोSसी तेजो मयि धेहि । वीर्यमसि वीर्यं मयि धेहि ।
बलमसि बलं मयि धेहि । ओजोSसि ओजो मयि धेहि ।
मन्युरसी मन्युं मयि धेहि । सहोSसि सहो मयि धेहि ।। 
भावानुवाद
( मिश्र चौताल )
तेज तुम- तेज दो, वीर्य तुम- करो वीर्यवान, 
ओज तुम - ओज दो, बल तुम- करो बलवान ।१।
अन्याय सहते न तुम, अन्याय विद्रोही करो हमें,
सहन- रूपी शक्ति दो, दुःख-कष्ट सहिष्णु बनें ।२।
(३२)
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु ।
सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वी नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।।
ॐ शान्ति: शान्ति : शान्ति :।।
======== 
(मिश्र त्रिताल )
   हे ईश्वर, आमादेर रक्षा करो
उभयके समभावे रक्षा करो
विद्यार सूफल प्रकाश करे
( आमादेर ) उभयके समभावे पालन करो ।
समान सामर्थवान करो ।
आमादेर उभय के हे ईश्वर ..............
अधीत विद्या उभयेर जीवने
तुल्यभावे तेजोदीप्त करो ।
विद्वेष  बुद्धि विनाश करो
( आमादेर ) (आमादेर परस्पर )
हे ईश्वर ....
आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक
शान्ति विधान करो ।
हे ईश्वर .....
भावानुवाद : श्रीवीरेश्वर चक्रवर्ती      
    (  हे ईश्वर ! आप हम गुरु-शिष्य दोनों की साथ साथ सब प्रकारसे रक्षा करें, हम दोनों का आप साथ-साथ समुचित रूप से पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-ही-साथ सब प्रकारसे बल प्राप्त करें, हम दोनों की अध्यन की हुई विद्या तेजपूर्ण हो-कहीं किसी से हम विद्या में परास्त न हों और हम दोनों जीवनभर परस्पर स्नेह-सूत्र से बँधे रहें, हमारे अन्दर परस्पर कभी द्वेष न हों ।हे ईश्वर ! तीनों तापों की निवृत्ति हों ) 
(३३)
आमरा सबाई एई भारतेर 
ताल -दादरा 
आमरा सबाई एई भारतेर नवीन युवक दल ।
आमादेर पथ देखाबे अखिल भारत विवेकानन्द युव महामण्डल ।१।
आमादेर देहे आछे शक्ति, आमादेर मने आछे भक्ति,
आमरा एगिये जाबो संगे निये श्रद्धा महाबल ।२।
मूर्ख गरीब मानुष जारा भारतेर सन्तान -
तादेर सेवाय नियोजित मोदेर मन प्राण ।३।
स्वामीजीर वानी संगे करे चलब मोरा लक्ष्य धरे ।
शिव ज्ञाने सब जीवेर सेवा आमादेर सम्बल ।४।
-श्रीसनातन सिंह
हिन्दी भावानुवाद 
हमसब हैं भाई इस भारत के 
हमसब हैं भाई इस भारत के नवीन युवक दल ।
हमें तो पथ दिखाये-२ अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ।।
हमारे तन में है शक्ति, हमारे मन में है भक्ति;
हमसब आगे बढ़ेंगे संग लिये श्रद्धा महाबल -२
हमें तो पथ दिखाये -२ अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ।।
मूर्ख गरीब मानव जो हैं भारत की सन्तान -२
उनकी सेवा में समर्पित अपना मन और प्राण -२
स्वामीजी की वाणी, संग में लेकर, चलेंगे हमसब लक्ष्य रखकर ।
शिव-ज्ञान से सब जीव की सेवा-२ हमारा संबल-२ 
हमें तो पथ दिखाये .......
(३४)
भैरव-तीव्रा 
भैरव रवे डाको जगजने, आर कि घुमानो साजे ?
कत ना क्लेशे दहिछे जगत- से यातना बुके बाजे ।
' आमार, आमार ' करिये पागल 
होस नेको आर भांग ए आगल -
तोमार आमार सब एकाकार जार हृदे प्रेम राजे ।।
' चरैवेति चरैवेति ' -एगिये चलार गान 
अभय मन्त्रे हृदयतन्त्री जागाये तोले प्राण ।
विवेक-दीप्त जाग्रत शत सिंह शिशुर दल,
' प्रेह्यभीहि धर्ष्णुहि ' हाँक कम्पित हिमाचल ।
तमसा सागरे उत्थित उई आशार सूर्य देख,
युव अवतार फुत्कारे तर अभय तुर्ष बाजे ।।
(३५)               
   
सत्व भजनांजलि
(१)
हिन्द देश के निवासी, सभी जन एक हैं,
रंग-रूप वेश-भाषा, चाहे अनेक हैं।
बेला, गुलाब, जूही, चम्पा, चमेली,
प्यारे-प्यारे फूल गूँथे, माला में एक हैं ।
गंगा, जमुना, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, कावेरी
जाके मिल गई सागर में हुई मगर एक हैं ।
कोयल की कूंक न्यारी, पपीहे की टेर प्यारी,
गा रही तराना बुलबुल, राग मगर एक हैं ।
(२)
धन धान्य पुष्पे भरा आमादेर एई बसुन्धरा,
ताहर माझे आछे देश एक-सकल देशेर सेरा;
(सेजे) स्वप्न दिये तैरी से जे स्मृति दिये घेरा;
एमन देशटि कोथाओ खूंजे पाबे ना को तुमि;
सकल देशेर रानी से जे आमार जन्मभूमि ।।
चन्द्र सूर्य ग्रह तारा, कोथाय एमन उजल धारा ?
कोथाय एमन खेले तड़ित एमन कालो मेघे ?
(ओ तार ) पाखीर डाके घुमिये उठि, पाखीर डाके जेगे ।
एमन देशटि कोथाओ .................................।।
एमन स्निग्ध नदी काहार ? कोथाय एमन धूम्र पाहाड़ ?
कोथाय एमन हरित क्षेत्र आकाश तले मेशे ?
(एमन ) धानेर उपर ढेउ खेले जाय बातास काहार देशे ?
एमन देशटि कोथाओ ................................।।
पुष्पे पुष्पे भरा शाखी, कुंजे कुंजे गाहे पाखी;
गुजरिया आसे अलि पुन्जे पुन्जे थेये,
(तारा ) फूलेर उपर घुमिये पड़े फूलेर मधु खेये ।
एमन देशटि ........................................।।
भायेर मायेर एतो स्नेह, कोथाय गेले पाबे केह ?
ओमा, तोमार चरण दूटि वक्षे आमार धरि,
(आमार ) एई देशते जन्म-जेनो एई देशेतेई मरि ।
एमन देशटि कोथाओ ..............................।।
-द्विजेन्द्र  लाल राय
(३)
होंगे कामयाब, होंगे कामयाब
हम होंगे कामयाब एक दिन
हो हो मन में है विश्वास पूरा है विश्वास
हम होंगे कामयाब एक दिन ।
होगी शांति चारों ओर, होगी शांति चारों ओर
होगी शांति चारों ओर एक दिन ।
हम चलेंगे साथ-साथ डाले हाथों में हाथ
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन ।
नहीं डर किसी का आज, नहीं भय किसी का आज
नहीं डर किसी का आज के दिन ।
(४)
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती ।
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ।।
अमर्त्य  वीर-पुत्र हो दृढ-प्रतिज्ञ सोच लो ।
प्रशस्त  पुण्य पंथ है बढ़े चलो, बढ़े चलो ।।
असंख्य-कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह सी ।
सपूत  मातृभूमि के रुको न शूर साहसी ।।
अराति-सैन्य-सिन्धु में सुबाड़वाग्नि से जलो ।
प्रवीर  हो जयी बनो बढ़े चलो बढ़े चलो ।।
(५)
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा ।
हम बुलबुले हैं उसकी वह गुलिस्ताँ हमारा ।
गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में ।
समझो  हमें वहीँ पर, दिल हो जहाँ हमारा ।
पर्वत वह सबसे ऊँचा हम साया आसमाँ का ।
 वह संतरी हमारा वह पासवां हमारा ।
गोदी में खेलती हैं जिसके हजारों नदियाँ ।
गुलशन  है जिनके दम से रश्के जिनाँ हमारा ।
ऐ आवे रोदे गंगा, वह दिन है यद् तुझको ।
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा ।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना ।
हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा ।
यूनान, मिश्र, रोमा, सब मिट गये जहाँ से ।
अब तक मगर है बाकी नामो निशाँ हमारा ।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं मिटाये ।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमाँ हमारा ।
' इकबाल ' कोई मरहम अपना नहीं जहाँ में ।
मालूम  क्या किसी को दर्दे निहाँ हमारा ।
(६)
जय हो जय हो जय हो
जय जनम भूमि माता, जय जनम भूमि माता ।।
रामकृष्ण  उपजाए तूने, वीर विवेकानन्द दिया ;
कर्मी धर्मी बालक तेरे तू सबकी माता ।।
वीर मराठा शिवाजी जायो अमरसिंह राठौर बनायो;
जग जग जननी मातु सभी की कृपा करो दाता ।।
भेंट  करेंगे अपनी जान होगा न तेरा अपमान,
तेरी शान पर मरने वाले तू सबकी दाता ।।
जय जनम भूमि माता ....।
(७)
भैरवी-कहारवा
साधन करना चाही रे मनवा भजन करना चाहिये ।
प्रेम लगाना चाही रे मनवा प्रीत करना चाहिये ।।
नित नाहन से हरि मिले तो जल-जन्तु बहु होय ;
फल मूल खाके हरि मिले तो भरे बान्दुर बाँद्राय ।।
तुलसी पूजन से हरि मिले तो मैं पूजूँ तुलसी झाड़ ;
पत्थर पूजन से हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ।।
तीरण भखन से हरि मिले तो भरे हैं मृगी अजा;
स्त्री छोड़न से हरि मिले तो बहुत रहे हैं खोजा ।।
दूध पीवन से हरि मिले तो बहुत रहे वत्स वाला ;
' मीरा ' कहे बिना प्रेम के नहीं मिले नन्दलाला ।।
मनवा साधन करना चाहिये ........।
 (८)
देश हमारा धरती अपनी हम धरती के लाल
नया भारत बनायेंगे, हम चरित्रवान मनुष्य बनायेंगे।
सौ-सौ स्वर्ग उतर आयेंगे सूरज सोना बरसाएंगे ,
रोज त्यौहार मनायेंगे, हम जब चरित्रवान बन जायेंगे ।
        सुख सपनों के सुर गूंजेंगे मानव की मेहनत पूजेंगे,
नई चेतना नये विचारों - सतचरित्र की लिए मशाल ।
समय को राह दिखायेंगे नया संसार बसायेंगे ,
चरित्रवान मनुष्य बनायेंगे ।।
एक करेंगे मनुष्यता को, सींचेंगे ममता-समता को,
नई पौध के लिए बदल देंगे तारों की चाल ।
नया भूगोल बनायेंगे नया संसार बनायेंगे,
चरित्रवान मनुष्य बनायेंगे ।। 
=============================================

🔱🙏विवेक वाहिनी के गाने 🔱🙏 

Vivek Vahini's songs

[বিবেক বাহিনীর গান] 

[21 अक्टूबर, 2022]

1.  

🔱🙏बड़े बनने के लिये चरित्र अच्छा होना चाहिए।🔱🙏 

 होबो, बोड़ो   

भीम पलश्री -कहरवा

बड़ ह्बो बड़ ह्बो बड़ ह्बो भाई,
बड़ हते गेले आगे चरित्र ठिक चाई ।

चरित्र ठिक गड़ते हले कोथाय जाबि बोल,
विवेक-वाहिनी नामे रयेछे एक दल ।

छोटोरा आज सबाई मिले चलो सेथाय जाई,
बड़ हते गेले आगे चरित्र ठिक चाई ।

एई वाहिनीर पीछे आछे बड़देर एक दल,
अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ।

स्वामीजीर आदर्शे सेथाय नित्य चले काज,
युवकरा सब जड़ हलो ताईतो सेथाय आज 

जीवन सफल करते तार विकल्प नाई,
         बड़ होते गेले आगे चरित्र ठिक चाई ।। 

2.  

🙏मनुष्य बनो आन्दोलन में हम मनुष्य बनना चाहते🙏

ताल -दादरा 

मानुष होवार आन्दोलने मानुष होते चाई, 
मानुष होय देशेर तरे जीवन देबो भाई।

ए आन्दोलन तोमार आमार एका कारोर नय,  
सबाई मिले ऐसो आजि मानुष होते जाई।  

अग्निमन्त्रे दीक्षा मोदेर भय बा कोरी कारे ,  
वीर सेनानी सोबाई मोरा स्वमीजीर तरे। 

डाक दियेचेन सेनापति आर देरि नय भाई , 
एगिये चोलो एगिये एसो देशेर काजे जाई।।

(हिन्दी भाव) 

मनुष्य बनो आन्दोलन में हम मनुष्य बनेंगे भाई,
मनुष्य बनकर देश के लिये हम जीवन देंगे भाई।  

यह आन्दोलन तुम्हारा- हमारा एक किसी का है नहीं,
आओ सब मिल कर आज इन्सान बनने को चलें।      

अग्निमन्त्र में दीक्षा हमारी हमें किसी का भय नहीं,
हम सभी हैं वीर सैनिक स्वामीजी के लिये।   

 हमें पुकारा है सेनापति ने अब देर न कर भाई,
   आगे चलो आगे बढ़ो देश -सेवा करने चलें।।    


মানুষ হওয়ার আন্দোলনে মানুষ হতে চাই ,
মানুষ হয় দেশের তরে জীবন দেব ভাই। 
 
এ আন্দোলন তোমার আমার একা কারোর নয় ,
সবাই মিলে এসো আজি মানুষ হতে যাই। 

অগ্নিমন্ত্রে দীক্ষা মোদের ভয় বা করি কারে, 
বীর সেনানী সবাই মোরা স্বামীজীর তরে।
 
ডাক দিয়েছেন সেনাপতি আর দেরি নয় ভাই,
এগিয়ে চল এগিয়ে এস দেশের কাজে যাই।।


3.

ताल -कहरवा  

🙏आये आये आये आयरे सब छूटे🙏

आये आये आये आयरे सब छूटे 
सब बाधाके पिछने फेले - 
आयरे छूटे सबाई। 

मानुष होये मानुष गड़ार-  
सङ्कल्प नियेचि मोरा 
(सेई) सङ्कल्प सार्थक कोरते  
नियेचि स्वामीजीर भावधारा। 

त्यागेरई मन्त्रे दीक्षा निये जे , 
ह्रदयके विराट कोरि, 
सब मानुषेर माझे निजेके देखार  
साधना जे नियत कोरि।  

(हिन्दी भाव)

आओ आओ आओ भाई सब दौड़े आओ 
सब बाधा को पीछे छोड़ते -
आओरे भाई दौड़े सभी।   

मनुष्य बनके मनुष्य गढ़ेंगे -
यही संकल्प है हमारा 
(उसी) संकल्प को सार्थक करने 
लिया हूँ स्वामीजी की भावधारा।  

त्याग -मंत्र से दीक्षित होकर ,
ह्रदय को विराट करें,
सभी मानव के भीतर यदि स्वयं को देख 
 सेवा ही साधना है यदि नियत करें।    
 

আয় আয় আয় আয়রে সব ছুটে 
সব বাধাকে পিছনে ফেলে -
আয়রে ছুটে সবাই। 
মানুষ হয়ে মানুষ গড়ার -
সংকল্প নিয়েছি মোরা 
(সেই)সংকল্প সার্থক করতে 
নিয়েছি স্বামীজীর ভাবধারা। 
ত্যাগেরই মন্ত্রে দীক্ষা নিয়ে যে, 
হৃদয়কে বিরাট করি ,
সব মানুষের মাঝে নিজেকে দেখার 
সাধনা যে নিয়ত করি। -উৎপল সিংহ  

4.

ताल -कहरवा 

🙏एकही मत, एकही पथ , हम सब हैं भाई भाई🙏

एकई मत, एकई पथ , आमरा भाई भाई -
हिंसा द्वेष भूले, मोरा बाँचते सबाई चाई। 
मिशे मिशे स्फूर्ति कोरे हासि खेलि गान गाई -
गान गान , गाई गान।।

(हिन्दी भाव)

एकही मत, एकही पथ , हम सब हैं भाई भाई-
हिंसा द्वेष भूल के हमने नई जिंदगी पायी।  
आओ मिलकर हँसें-खेलें, मिलकर गायें गीत  -
गीत गीत , गायें गीत।।             

একই মত , একই পথ , আমরা ভাই ভাই -
হিংসা দ্বেষ ভুলে , মোরা বাঁচতে সবাই চাই। 
মিশে মিশে স্ফূর্তি ক'রে হাসি খেলি গান গাই -
গান গান , গাই গান।। 
Same mind, same path, we all are brothers-
Everyone wants to forget hatred and live together.
Let's laugh together and sing -
Song song, sing song.   

5. 

🙏प्रयाण गीत : चलो मस मस मस🙏 

ताल -दादरा 

[Marching song] 

चलो मस मस मस 
बां -डान मस मस 
सबचेये ताल पा -गाड़ी।  

रेलेते चढ़ि ना बड़ झकमारी ,
ट्रामे -बासे बड़ भीड़, होय मारामारी।  

मोटरेते चढ़ी ना पेट्रोल नाई,  
घोड़ाते चढ़ि ना आमि पाछे पड़े जाई।  

ट्रेनेते चढ़ि ना बड़ ताड़ा ताड़ी ,  
दरदेते चढ़ि ना घोड़ाय टाना गाड़ी। 

नौकाये चढ़ि ना अति धीरे जाय, 
रिक्सा, गोरूर गाड़िते एई दशा हाय।  

टैक्सी चढ़ि ना आमि लागे बेसी टाका ,
चढ़िते जानि ना हाय गाड़ी दूई चाका।।      


চলে মস্ মস্ মস্
বাঁ -ডান মস্ মস্,
সবচেয়ে তাল পা -গাড়ী।
 
রেলেতে চড়ি না বড় ঝকমারী ,
ট্রামে -বাসে বড় ভীড় হয় মারামারি। 

মোটরেতে চড়ি না প্রেট্রোল নাই,
ঘোড়াতে চড়ি না আমি পাছে পড়ে যাই। 

ট্রেনেতে চড়ি না বড় তাড়াতাড়ি ,
দরদেতে চড়ি না ঘোড়ায় টানা গাড়ী।
 
নৌকায় চড়ি না অতি ধীরে যায় ,
রিক্সা গরুর গাড়িতে ঐ দশা হায়। 

ট্যাক্সি চড়ি না আমি লাগে বেশি টাকা ,
চড়িতে জানি না হায় গাড়ী দুই চাকা।। 
 
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