बुधवार, 27 जुलाई 2011

' सत्य ' दो प्रकार के होते हैं. " हिन्दूधर्म और श्रीरामकृष्ण"

[ यह लेख ' हिन्दूधर्म क्या है ? ' के नाम से बंगाब्द १३०४ वर्ष में श्रीरामकृष्णदेव के पैंसठवें जन्मोत्सव के अवसर पर एक पर्चे के रूप में पहली बार बंगला भाषा में प्रकाशित हुआ था. -स्वामी विवेकानन्द की वाणी और रचना के बंगला संस्करण के खण्ड ६ पृष्ठ ३ का हिन्दी अनुवाद. ]  
 ' शाश्त्र ' शब्द का तात्पर्य अनादी अनन्त ' वेद ' ही समझना चाहिए. धर्म के शासन का प्रश्न उठ खड़ा हो तो इस वेद को ही एकमात्र प्रमाण माना जाता है. पुराण आदि अन्य धर्मग्रन्थों  को ' स्मृति ' कहते हैं. ये धर्मग्रन्थ जबतक ' श्रुति ' अर्थात वेद का अनुसरण करते हों तभी तक इनको प्रमाणिक कहा जा सकता है. 
 ' सत्य ' दो प्रकार के होते हैं.
१. वह सत्य  जो मनुष्य के लिए पंच-इन्द्रिय ग्राह्य होता है, तथा इन्द्रियों (मस्तिष्क में स्थित स्नायु-केन्द्रों,मन एवं बाह्य-इन्द्रियों के संयोग से ) द्वारा उपस्थापित अनुमान के आधार पर ग्राह्य (इन्द्रिय-सापेक्ष सत्य ) किया जा सकता है. 
२. वह सत्य जो अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति ( ' मनः संयोग ' के निरन्तर अभ्यास जनित ' एकाग्रता ' की शक्ति जो ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान  के एकत्व की अवस्था में ) के द्वारा ग्रहण किया जाय.( या इन्द्रिय-निरपेक्ष सत्य)
प्रथम उपाय द्वारा संकलित (आविष्कृत पन्चेंद्रिय-सापेक्ष ) ज्ञान को 
' विज्ञान ' कहा जाता है. जबकि दूसरे उपाय द्वारा आविष्कृत ज्ञान को ' वेद ' कहते हैं.' वेद ' नामक जो अनादी अनन्त  अलौकिक ज्ञानराशी सदा विद्यमान है, स्वयं सृष्टिकर्ता भी उसी की सहायता से इस जगत की सृष्टि-स्थित- प्रलय कर रहे हैं.    
यह अतीन्द्रिय-शक्ति (अथवा आत्म-साक्षात्कार की अनुभूति ) जिस मनुष्य में आविर्भूत या प्रकट होती है, उनको ' ऋषि ' कहते हैं, एवं उस शक्ति के द्वारा वे जिस अलौकिक ( देश-काल-निमित्त के परे अवस्थित ) सत्य की उपलब्धी (साक्षात्कार ) करते हैं, उसका नाम है- ' वेद ' ! 
यह ऋषित्व एवं वेद्द्रिष्टित्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूती है. जबतक हमारे भीतर भी इस ' ऋषित्व ' का उन्मेष नहीं हो जाता, तबतक
' धर्म ' केवल ' मुख से निकली कोई उक्ति ' भर है, तथा यही समझना होगा कि अभीतक हमने धर्मराज्य के प्रथम सोपान पर भी पैर नहीं रखा है. 
समस्त देश-काल-पात्र के परे अवस्थित इस वेद का शासन अर्थात वेद का प्रभाव किसी देश विशेष, काल विशेष अथवा पात्र विशेष तक कदापि सीमित नहीं हो सकता है. अतः एक मात्र ' वेद ' ही सार्वजनीन धर्म की व्याख्या प्रस्तुत करता है. 
अलौकिक ज्ञान-प्राप्ति का साधन यद्दपि हमलोगों के इतिहास-पुराण आदि ग्रन्थों तथा मलेक्षदेशीय धार्मिक ग्रन्थ-समूहों में भी थोडा-बहुत अवश्य विद्यमान हैं, तथापि अलौकिक ज्ञानराशी का सर्वप्रथम पूर्ण एवं अविकृत-संग्रह होने के कारण आर्यजाति में  ' वेद ' नाम से प्रसिद्द तथा चार भागों में विभक्त अक्षर-समूह ही सभी दृष्टिकोण से सर्वोच्च स्थान का अधिकारी है, तथा समग्र जगत में अग्र-पूज्य है, तथा आर्य एवं मलेक्ष सबके धर्मग्रन्थों की प्रमाण भूमि है. 
आर्यजाति द्वारा आविष्कृत उपरोक्त ' वेद '- नामक शब्द राशी के बारे में यह भी समझ लेना होगा कि उसका जो अंश लौकिक, अर्थवाद, अथवा इतिहास सम्बन्धी बातों तक ही सीमित नहीं है - वही अंश ' वेद ' है.
यह वेद राशि ज्ञान-काण्ड और कर्म-काण्ड के नाम से दो भागों में विभक्त है. कर्म-काण्ड के अनुष्ठान और उसके फल मायाधिकृत जगत में ही सीमित होने के कारण देश-काल-पात्र के अनुरूप उसमे परिवर्तन हुए हैं, हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे. सामाजिक रीति- नीति या लोकाचार भी इसी कर्मकाण्ड के ऊपर प्रतिष्ठित है; इसीलिए समय समय पर इसका भी परिवर्तन होता रहा है और होता रहेगा.
 लोकाचार यदि सतशास्त्र एवं सदाचार के प्रतिकूल  नहीं हैं, तो उनको भी ग्राह्य माना जा सकता है. किन्तु सतशास्त्रनिन्दित और सदाचार-विरोधी   लोकाचारों के वशीभूत हो जाना ही आर्यजाति के अधःपतन का एक प्रधान कारण है.
निष्काम-कर्म, योग, भक्ति, एवं ज्ञान की सहायता से मुक्ति दिलाने वाला  एवं माया के परे अवस्थित देश-काल-पात्र आदि के द्वारा अप्रतिहत रहने के कारण, वेदों का ज्ञानकाण्ड अथवा वेदान्त भाग ही सार्वलौकिक, सार्वभौमिक, एवं सर्वकालिक धर्म का एकमात्र उपदेष्टा है. 
मनु आदि स्मृति-शास्त्रों ने कर्मकाण्ड का आश्रय लेकर देश-काल-पात्र में अन्तर को आधार मानते हुए, मुख्यतः समाज कल्याणकारी कर्मों का अनुष्ठान करने की शिक्षा दी है. 
पुराणों ने वेदान्त-निहित तत्वों का उद्घाटन करने के लिए, अवतार आदि के महान चरित्रों का वर्णन करते हुए, इन तत्वों की विस्तृत व्याख्या की है, एवं उनमे से प्रत्येक ने अनन्त भावमय प्रभु भगवान के किसी एक भाव को प्रधान मानकर उसीका उपदेश दिया है. 
किन्तु समय के प्रवाह में सदाचारभ्रष्ट, वैराग्यहीन, केवल लोकाचार में आसक्त और क्षीणबुद्धि आर्य सन्तान इन समस्त भावविशेषों की विशेष शिक्षा के लिए अवस्थित आपात-प्रतियोगी जैसे दिखने वाले, एवं अल्पबुद्धि मनुष्यों के लिए स्थूल रूप से वेदान्त के सूक्ष्म तत्वों के ' प्रचारक ' पुराण आदि तन्त्रों में वर्णित मर्म को समझ पाने में असमर्थ हो गयी- 
और इसके फलस्वरूप, जब उनलोगों ने अनन्त भावसमष्टि अखण्ड सनातन धर्म को शत शत खण्डों में विभक्त करके, साम्प्रदायिक ईर्ष्या और क्रोध की ज्वाला को प्रज्वलित कर  उसमें परस्पर की आहुति देने की सतत सचेष्ट करते हुए इस धर्म-भूमि भारतवर्ष को लगभग नरक- भूमि में परिवर्तित कर दिया 
 ,-  उस समय, आर्य जाति का स्वाभाविक धर्म क्या है, एवं सतत विद्यमान, आपात-प्रतीयमान बहुधा-विभक्त, सर्वथा प्रतिद्वन्दी आचार-विचारों से युक्त सम्प्रदाय समाछन्न, स्वदेशियों का भ्रान्तिस्थान एवं विदेशियों के लिए घृणास्पद हिन्दुधर्म-नामक युगयुगान्तर व्यापी विखंडित एवं देश-काल योग से इधर-उधर बिखरे धर्मखण्डसमष्टि के बीच यथार्थ एकत्व कहाँ है, यह दिखलाने के लिए
- तथा समय के प्रवाह में नष्ट इस सनातन धर्म के  सार्वलौकिक, सर्वकालिक, एवं सार्वदेशिक स्वरुप को अपने जीवन में समाहित करके संसार के समक्ष सनातन धर्म के जीवन्त उदाहरणस्वरुप स्वयं को प्रदर्शित करते हुए लोगों का मंगल करने के लिए श्रीभगवान रामकृष्ण अवतीर्ण हुए हैं. 
सृष्टि-स्थिति और प्रलय कर्ता के अनादी -वर्तमान सहयोगी शास्त्र संस्कार रहित ऋषि हृदय में किस प्रकार में आविर्भूत होते हैं, उसीको दिखाने के लिए एवं इस प्रकार शास्त्रों द्वारा प्रमाणिकृत होने पर धर्म का पुनरुद्धार, पुनः स्थापन और पुनः प्रचार होगा, इसीलिए वेदमूर्ति भगवान ने अपने इस नूतन रूप में बाह्य शिक्षा को लगभग सम्पूर्णतया उपेक्षा किये हैं. 
स्मृति आदि ग्रंथों में यह बात प्रसिद्द है कि, वेद अर्थात स्वाभाविक धर्म की एवं ब्राह्मणत्व की अर्थात - ' धर्मशिक्षकत्व ' की रक्षा करने के लिए भगवान बारम्बार शरीर धारण करते हैं. 
ऊपर से गिरने वाली नदी (जलप्रपात) की जलधारा अधिक वेगवती होती है, पुनरुत्थित तरंगें पहले से अधिक ऊँची उठतीं हैं. उसी प्रकार, इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्रत्येक पतन के बाद आर्य समाज भी श्रीभगवान के करुणापूर्ण नियन्त्रण में निरोग (भ्रष्टाचार से मुक्त ) होकर पूर्व की अपेक्षा अधिकतर यशस्वी और वीर्यवान हुआ है.
प्रत्येक पतन के बाद पुनरुत्थित समाज अन्तर्निहित सनातन पूर्णत्व को और भी अधिक प्रकाशित करता है, उसी प्रकार  सर्वभूतों में अवस्थित प्रभु भी अपने स्वरुप को प्रत्येक अवतार में उतरोत्तर अधिकाधिक अभिव्यक्त करते हैं. 
बारम्बार यह भारतभूमि मूर्च्छापन्न अर्थात सदाचार-भ्रष्ट हुई है, और  बारम्बार भारत के भगवान ने अपने आविर्भाव के द्वारा इसको पुनरुज्जीवित किया है. 
किन्तु प्रस्तुत दो घड़ी में ही बीत जाने वाली वर्तमान गम्भीर विषाद-रात्रि के समान और किसी भी अमानिशा (अमावश्या) ने अबतक इस पुण्यभूमि को इतना अधिक तमसा छन्न पहले कभी नहीं किया था. इस पतन की गहराई के समक्ष पहले के समस्त पतन गाय के खूर जैसे छोटे जान पड़ते हैं.
एवं इसीलिए इस भावी-प्रबोधन की समुज्ज्वालता के सम्मुख पूर्व युग के समस्त उत्थान उसीप्रकार महिमाविहीन हो जायेंगे, जिस प्रकार सूर्य के आलोक के समक्ष तारा-गण. और इस पुनरुत्थान के महावीर्य की तुलना में प्राचीन काल के समस्त उत्थान बालकेलि से जान पड़ेंगे.
पतनावस्था में सनातन धर्म के समस्त भाव-समूह अधिकारी-विहीनता
(सत्य-दर्शन के लिए योग्य आधार के अभाव) से, अब तक इधर-उधर छिन्न-भिन्न होकर पड़े रहे हैं- कुछ तो छोटे छोटे सम्प्रदायों के रूप में और शेष सब लुप्तावस्था में.
किन्तु आज, इस नवोत्थान में नए बल से बलवान मानव-सन्तान विखण्डित और बिखरी हुई आध्यात्म विद्या को एकत्र कर उसकी धारणा और अभ्यास करने में समर्थ होगी तथा लुप्त विद्या का भी पुनराविष्कार करने में समर्थ होगी. 
इसके प्रथम निर्देशनस्वरुप परम करुणाशील श्रीभगवान पूर्व सभी युगों की अपेक्षा अधिक पूर्णता प्रदर्शित करते हुए, सर्वभाव समन्वित एवं सर्वविद्या युक्त होकर युगावतार श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतीर्ण हुए हैं. 
अतएव इस महायुग के उषाकाल में सर्व-धर्म सम-भाव ही नहीं बल्कि सर्वधर्म-समन्वय प्रचारित हो रहा है, और असीम अनन्त भाव, जो सनातन शास्त्र और धर्म में निहित रहते हुए भी इतने दिनों से प्रछन्न था, वह पुनः आविष्कृत होकर  उच्च-स्वर से जनसमाज में उदघोषित हो रहा हैं. 
यह नया युगधर्म समस्त जगत के लिए, विशेषतः भारतवर्ष के लिए महा कल्याणकारी है; और इस नवीन युगधर्म के प्रवर्तक श्रीभगवान रामकृष्ण पहले के समस्त युगधर्म-प्रवर्तकों के पुनः संस्कृत प्रकाश हैं.
हे मानव, इसपर विश्वास करो और इसे ह्रदय में धारण करो. मृत व्यक्ति फिर से जीवित नहीं होता. बीती हुई रात्रि फिर से नहीं आती.विगत उच्छ्वास फिर नहीं लौटता. जीव दो बार एक ही शरीर धारण नहीं करता. हे मानव, मृत की पूजा करने के बजाय हम जीवित की पूजा के लिए तुम्हारा आह्वान करते हैं;  लुप्त पंथों के पुनरुद्धार में वृथा शक्ति क्षय न कर के सद्यनिर्मित विशाल और सन्निकट पथ में आने का आह्वान करते हैं. मिटे चुके मार्ग को खोजने में व्यर्थ शक्ति-क्षय करने के बदले तथा बीती हुई बातों पर माथापच्ची करने के बदले अभी-अभी निर्मित प्रशस्त और सन्निकट पथ पर चलने के लिए तुम्हारा आह्वान करते हैं. बुद्धिमान, समझ लो !
जिस शक्ति के उन्मेष मात्र से दिगदिगन्तव्यापी प्रतिध्वनी जाग्रत हुई है, उसकी पूर्णावस्था का जरा अपनी कल्पना में अनुभव करने की चेष्टा तो करो; वृथा सन्देह (मैं आत्मा हूँ या नहीं ?), दुर्बलता (मन और इन्द्रियों की गुलामी)  और दासजाति-सुलभ ईर्ष्या-द्वेष का परित्याग कर,  इस महायुग-चक्र के परिवर्तन में सहायक बनो. 
हम प्रभु के दास हैं, प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं- इसी विश्वास को दृढ करके कार्यक्षेत्र (चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार) में कूद पड़ो.  (विवेकानन्द साहित्य दशम खंड पृष्ठ १३९-४१ )              

कोई टिप्पणी नहीं: