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रविवार, 31 जुलाई 2011

पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, " योगी अभेदानन्द "

योगी अभेदानन्द 
उस समय स्वामी अभेदानन्द थे कालीप्रसाद. उनमे योग-साधना करने की प्रबल ईच्छा थी. एक दिन वे कालेज-स्ट्रीट स्थित अलबर्ट-हाल में उपस्थित हुए. उस दिन वहाँ ' पातन्जल-योगसूत्र ' के उपर चर्चा हो रही थी. वक्ता थे, उस समय के विख्यात पण्डित शशधर तर्कचूड़ामणि. वक्ता ने इतने सहज-सरल भाषा में ज्ञान-गर्भित व्याख्यान दिया कि उसने कालीप्रसाद के ह्रदय को छू लिया.
{Swami Abhedananda was born on 2 October 1866 as Kaliprasad Chandra. He was a direct disciple of Sri Ramakrishna and was known as "Kali Tapaswi" to his fellow discipiles. His father was Rasiklal Chandra and his mother was Nayantara Devi. After the passing away of Sri Ramakrishna, he formally became a Sanyasi along with Swami Vivekananda and others, and came to be known as "Swami Abhedananda".
During his life as a monk he travelled extensively throughout India, depending entirely on alms. During this time he met several famous sages like Paohari Baba, Trailanga Swami and Swami Bhaskaranand. He went to the sources of the Ganga and the Yamuna, and meditated in the Himalayas. He was a forceful orator, prolific writer, yogi and intellectual with devotional fervor. Swami Vivekananda asked him to propagate the message of Vedanta in the West, which he did with great success. He went to USA in 1897 and preached messages of Vedanta and teachings of his Guru for about 25 years. In 1921, he returned to India.
In 1922, he crossed the Himalayas on foot and reached Tibet, where he studied Buddhistic philosophy and Lamaism. In Hemis Monastery, he discovered a manuscript on the unknown life of Jesus Christ[citation needed], which has been incorporated in the book Swami Abhedananda's Journey Into Kashmir & Tibet published by the Ramakrishna Vedanta Math, Kolkata. He formed the 'Ramakrishna Vedanta Society' in Kolkata in 1923, which is now known as Ramakrishna Vedanta Math. In 1924, he established Ramakrishna Vedanta Math in Darjeeling in West Bengal. In 1927, he started publishing Visvavani, the monthly magazine from 'Ramakrishna Vedanta Society', which is published today as well.
He died on 8 September 1939.}

बिना देरी किये अपनी जेब-खर्च के पैसों को इकट्ठा करके एक पातन्जल-दर्शन खरीद लिए. खरीदने का उद्देश्य था, योग-सूत्र पढ़ कर और अच्छी तरह से समझना होगा, और भी गहराई में उतर कर इसे जानना होगा. 
योग-सूत्र पढ़ना तो सहज है, किन्तु केवल पढ़ कर क्या इसके गूढ़ मर्मार्थ को भी समझ लेना संभव है ! इसीलिए इस विषय के अधिकारी पुरुष ' शशधर तर्कचूड़ामणि महाशय ' के साथ मुलाकात किये. उनके निकट पूरे विनय के साथ अपने मन की इच्छा प्रकट किये; --' दया कर के यदि आप पातन्जल-दर्शन के सूत्रों की व्याख्या कर देंगे, तो मेरी बहुत दिनों की ईच्छा तो पूर्ण होगी ही, मेरा आपके निकट आना भी सफल हो जायेगा. ' 
 बालक कालीप्रसाद की ईच्छा सुनकर, पण्डित महाशय अति प्रसन्न हुए, बोले-  ' अच्छी बात है, तुम्हारी इस सदिच्छा को साधुवाद देता हूँ. किन्तु देखो, बेटे देखता हूँ की तुम्हारी आयु अभी बहुत कम है. इसी आयु में तुमको योग-सूत्र पढ़ने की ईच्छा हुई है, इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ. किन्तु अभी मेरे पास समय की बहुत कमी है, क्योंकि मुझे अक्सर विभिन्न स्थानों में व्याख्यान आदि देने में बहुत व्यस्त रहना पड़ता है. पर तुम यदि एक काम करो तो लगता है, तुम्हारा उद्देश्य सिद्ध हो सकता है. ' 
{अष्टांग योगमहर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' के रूप में परिभाषित किया है | उन्होंने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है | अष्टांग योग (आठ अंगों वाला योग), को आठ अलग-अलग चरणों वाला मार्ग नहीं समझना चाहिए; यह आठ आयामों वाला मार्ग है जिसमें आठों आयामों का अभ्यास एक साथ किया जाता है | योग के ये आठ अंग हैं:
१) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणयाम, ५) प्रत्यहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि
१. यम: पांच सामाजिक नैतिकता
(क) अहिंसा - शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को हानि नहीं पहुँचाना
(ख) सत्य - विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना
(ग) अस्तेय - चोर-प्रवृति का न होना
(घ) ब्रह्मचर्य - दो अर्थ हैं:
  • चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना
  • सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना
(च) अपरिग्रह - आवश्यकता से अधिक संचय नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना
२. नियम: पाच व्यक्तिगत नैतिकता
(क) शौच - शरीर और मन की शुद्धि
(ख) संतोष - संतुष्ट और प्रसन्न रहना
(ग) तप - स्वयं से अनुशाषित रहना
(घ) स्वाध्याय - आत्मचिंतन करना
(च) इश्वर-प्रणिधान - इश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा
३. आसन: योगासनों द्वारा शरीरिक नियंत्रण
४. प्राणायाम: श्वास-लेने सम्बन्धी खास तकनीकों द्वारा प्राण पर नियंत्रण
५. प्रत्याहार: इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना
६ . धारणा: एकाग्रचित्त होना
७. ध्यान: निरंतर ध्यान
८. समाधि: आत्मा से जुड़ना: शब्दों से परे परम-चैतन्य की अवस्था हम सभी समाधि का अनुभव करें !!!}
कालीप्रसाद ने विनम्र स्वर में कहा- ' आप आदेश दीजिये पण्डित महाशय.'
' देखो, तुम एकबार ' कालीवर वेदान्तवागीश ' के पास जाओ, मैं सोचता हूँ कि वे तुम्हारे लिए थोडा समय अवश्य निकाल पाएंगे. उनसे कहना कि, मैंने तुमको उनके पास भेजा है. तब वे तुमको ना नहीं कर पाएँगे, तथा नीश्चय ही तुमको आनन्द के साथ पढ़ाएंगे. '
पण्डित महाशय के इस निर्देशानुसार कालीप्रसाद, कालीवर वेदान्तवागीश के साथ मिलने के लिए चल पड़े. उनसे भी विनम्रता के साथ मन कि इच्छा कह सुनाये. वेदान्तवागीश महाशय ने विशेष आग्रह के साथ कालीप्रसाद के आवेदन को सुना, एवं अपने समयाभाव की बात इस प्रकार कहे- " इस समय मैं पातन्जल-योगदर्शन का बंगला में अनुवाद कर रहा हूँ और मेरे पास, थोडा भी समय नहीं है. किन्तु तुम एक काम कर सकते हो, स्नान करने के पहले थोडा अवकाश मिलता है, इस समय एक सेवक मेरे शरीर पर तेल मालिश करता है, यदि उस समय आ सको तो, योग-सूत्र का कुछ अर्थ तुमको समझा सकता हूँ. फिर स्नान करने के उपरान्त भी लिखना पड़ता है, इसीलिए बस उतना ही समय है, अब तुम सोचो क्या करना चाहोगे !"
कोई उपाय न देख कर कालीप्रसाद को अपने आशैशव आकांक्षित योगशिक्षा अर्जित करने के लिए इसी शर्त पर राजी होना पड़ा. और कालीप्रसाद प्रतिदिन प्रातः ८-९ बजे पातन्जल-योगसूत्र का पाठ करने, कालीवर वेदान्तवागीश महाशय के घर जाना शुरू कर दिए.
इस ग्रन्थ में हठयोग, कुण्डलिनी योग, प्राणायाम और राजयोग की साधन-पद्धति को बहुत सुन्दर ढंग से वर्णित किया गया है. पूरे पुस्तक को अच्छी तरह से पढ़ कर पण्डित महाशय ने सुन्दर तरीके से समझा दिया. कालीप्रसाद को वह सब अच्छा ही लगा, मन तो भरा किन्तु प्राण नहीं भरा. तत्वतः योगशिक्षा तो मिल गयी, किन्तु कार्यतः व्यवहारिक शिक्षा की प्राप्ति नहीं हुई. इस इच्छा ने मन में उथल-पुथल मचा दिया. योगियों के समान उनका मन-प्राण हर समय योग-साधना में निमग्न रहना चाहता था. योगी लोग जिस प्रकार खेचरी-मुद्रा का अभ्यास करके जड़-समाधि में तल्लीन हो कर रहते हैं, उसीप्रकार कालीप्रसाद की इच्छा भी योग-साधना में डूबे रहने की थी.
किन्तु योगशिक्षा हो कैसे,- शिवसंहिता आदि योगशास्त्र में, स्पष्ट कहा गया है कि पुस्तक पढ़ कर योगसाधना करना उचित नहीं है, किसी उपयुक्त सिद्ध-योगिगुरु के सानिध्य में रहते हुए योगशिक्षा का अभ्यास करना जरूरी होता है. पुनः सोंच में पड़ गए, कहाँ से किसी सिद्ध योगिगुरु का पता खोजा जाय. आहार-निद्रा सब कुछ त्याग दिए, मन में केवल एक ही विचार था, दिन-रात पद्मासन में बैठ कर कैसे समाधिस्त रहा जाये. अपने मन की बात किसी से कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि यह सुनकर सभी हँसते और मजाक उड़ाते थे. योगी होने की बात सुन कर चारो ओर से बाधाएँ भी आने लगी. शास्त्र-वचन मूर्तमान हो उठा- ' श्रेयांसि बहुबिघ्नानी ' . 
इसी समय एक दिन सहपाठी यज्ञेश्वर भट्टाचार्य के साथ मुलाकात हो गयी. सैकड़ो बाधाओं से अवसन्न कालीप्रसाद को देख कर मित्र ने पूछा- तुम्हारी समस्या क्या है ?
' देखो, मेरी तीव्र इच्छा योगसाधना करने की है. किन्तु केवल पुस्तक पढ़ने और अपनी चेष्टा से ही तो यह सब हो नहीं सकता. गुरु की आवश्यकता होती है. क्या तुम बता सकते हो कि वैसा योगिगुरु कहाँ मिल सकते हैं ? '
कालीप्रसाद की व्याकुलता को देख कर यज्ञेश्वर ने कहा-
' बता सकता हूँ, दक्षिणेश्वर में रानी रासमणि के काली-मन्दिर में एक अद्भुत योगी हैं- परमहंस हैं. सभी लोग ऐसा कहते हैं कि उनमे कोई ढोंग-ढकोसला नहीं है. वे एक यथार्थ योगी ही नहीं- महायोगी हैं. कोलकाता के बहुत से सम्भ्रान्त लोग भी उनके पास आते-जाते हैं.
वे भी बीच बीच में कोलकाता आते रहते हैं. तुम यदि उनसे अपनी योगशिक्षा ग्रहण करने की ईच्छा उनको सुनोगे तो लगता है, वे तुम्हारी इस ईच्छा को पूर्ण कर सकते हैं. ' 
अपने बाल-सखा यज्ञेश्वर की बातें सुन कर, कालीप्रसाद का ह्रदय उत्साह, आनन्द, आत्मविश्वास से भर उठा. उन्होंने तय कर लिया कि, अपने गुरु के रूप में मुझे केवल परमहंसदेव को ही वरण करना है. जैसे भी हो, मुझे  एक बार दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में जाना ही होगा, एवं उनके साथ अवश्य ही भेंट करनी होगी.परमयोगी परमहंसदेव से मिलने की व्याकुलता क्रमशः बढती चली गयी.
एकदिन बिना किसी को बताये अकेले ही- चल पड़े दक्षिणेश्वर की ओर. काली-मन्दिर पहुँच कर किसी से पूछे - परमहंसदेव हैं क्या ? एक आगन्तुक युवक ने बताया नहीं वे तो कोलकाता गए हैं. वह युवक थे उस समय के शशिभूषण चक्रवर्ती जो आगे चल कर स्वामी रामकृष्णानन्द हुए.
कालीप्रसाद भूख-प्यास और पैदल चलने की थकान से बहुत अवसन्न अनुभव कर रहे थे; यह देख कर शशिभूषण ने उनको परामर्श दिया कि,' गंगा में स्नान कर के माँ काली का प्रसाद ग्रहण करके थोडा विश्राम कर लो; जब उनके साथ मुलाकात करने के लिए इतना कष्ट सह कर आये हो, तो मिलने के बाद ही कोलकाता जाना.' परमहंसदेव का दर्शन करने की ईच्छा से उनके परामर्श के अनुसार कालीप्रसाद इंतजार करने लगे.
दोपहर बीत जाने के बाद शाम हो गयी. उसके बाद रात्रि के समय बरामदे में चटाई बिछा कर तीन-जन विश्राम कर रहे थे. इसी समय रामलाल दादा ने समाचार दिया कि परमहंसदेव बग्घी पर सवार होकर आ रहे हैं. कालीप्रसाद उठ खड़े हुए. उनकी धड़कने तेज हो गयीं. परमहंसदेव ने गुरुगम्भीर स्वर से तीन बार ' काली ' नाम का उच्चारण करके अपने कमरे में प्रविष्ट हुए, और छोटी सी चौकी पर बैठ गए. 
कालीप्रसाद पलक झपकाए बिना परमहंसदेव का दर्शन करने लगे, सोच रहे हैं- योगी-सन्यासी का अर्थ तो जटाजूट-धारी, लाललाल-आँखों वाले, पूरे शरीर पर राख मले किसी रूद्र मूर्ति होना चाहिए. किन्तु इनको तो एक अति सहज, सरल, शान्त, सौम्यमूर्ति के रूप में देखता हूँ. अब उन्होंने श्रद्धापूर्वक भक्तिपूर्ण ह्रदय से प्रणाम किया. परमहंसदेव ने उनको स्नेहपूर्वक बैठने को कहा, तथा पूछा- ' तुम कौन हो? तुम्हारा घर कहाँ है ? तुम किस लिए इतना कष्ट सह कर यहाँ आये हो ? क्या चाहते हो ? '
भक्ति में गदगद कंठ से कालीप्रसाद उत्तर दिए- ' योगशिक्षा ग्रहण करने की मेरी तीव्र ईच्छा है. क्या आप दया करके मुझको योग-शिक्षा प्रदान करेंगे ? इसी आशा को लेकर मैं यहाँ आया हूँ. '
श्रीरामकृष्ण थोड़ी देर मौन रहकर सोचे, उसके बाद बोले- ' इतने कम उम्र में ही, तुम्हारे अन्दर योगशिक्षा ग्रहण करने की इच्छा हुई है- यह तो बड़ा ही शुभ लक्ष्ण है. तुम पूर्वजन्म में एक बड़े योगी थे. थोडा बाकी रह गया था, यही तुम्हारा अंतिम जन्म है. आज रात्रि में यहीं विश्राम करो, कल सुबह में फिर आना.' 
दुसरे दिन प्रातः काल में कालीप्रसाद गंगा स्नान करके, श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठ गए. उन्होंने पूछा - तुमने कौन कौन सी पुस्तकें पढ़ी हैं ? कालीप्रसाद ने कहा- रघुवंश, कुमारसम्भव, गीता, पातन्जल-दर्शन, शिव-संहिता आदि. सुन कर श्रीरामकृष्ण बड़े प्रसन्न हुए और आशीर्वाद दिए. उसके बाद सस्नेह बोले- ' योगासन में बैठ कर अपनी जीभ बाहर निकालो '. कालीप्रसाद ने जिह्वा को प्रसारित कर दिया. तब उनकी जिह्वा के बीच में दाहिने हाथ के बीच वाली ऊँगली से श्रीरामकृष्ण ने मूलमंत्र लिख दिया. साथ ही साथ उनके सम्पूर्ण अंगों में एक अद्भुत शक्ति संचारित हो गयी. कालीप्रसाद का वाह्यज्ञान जाता रहा और वे गम्भीर ध्यान में समाधिस्त हो गए !
योगशिक्षा का जितना बाकी रह गया था, उतना योगिराज श्रीरामकृष्ण ने दे दिया. उनकी आजन्म-आकांक्षित वह समाधी परम योगी के परम स्पर्श से घटित हो गयी. इसी योग-समाधि में तो वे निमग्न रहना चाहते थे. कुछ समय के बाद सर्वयोग-सिद्ध श्रीरामकृष्ण ने कालीप्रसाद के ह्रदय का स्पर्श करके, कुण्डलिनी शक्ति को निचे उतार दिया, और स्वाभाविक अवस्था में वापस लौटा दिया. महायोगी श्रीरामकृष्ण विशाल-योगशक्ति के अधकारी थे, योगीगण जिस योगबल को आजीवन तपस्या करने के बाद भी नहीं प्राप्त कर सकते थे, उसे वे केवल स्पर्श-मात्र से प्रदान कर सकते थे. 
योग्शास्त्रों में कहा गया है,- परमात्मा के साथ जीवात्मा के मिलन को ' योग ' कहा जाता है. यहाँ श्रीरामकृष्ण रूपी परमात्मा के साथ कालीप्रसाद रूपी जीवात्मा घुल-मिल कर एकाकार हो गये, - और उत्तरण हुए योगी अभेदानन्द !
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( ' वर्तमान ' २२ सितम्बर २०००, स्वामी अभेदानन्द जन्मतिथि के उपलक्ष पर प्रकाशित )      
                     

यथार्थ में किसी की मृत्यु नहीं होती

श्रीरामकृष्ण- भावान्दोलन में अभेदानन्द 
आज श्रीरामकृष्ण- सारदा- विवेकानन्द का नामत्रय सर्वजन विदित है. किन्तु इस नामत्रय के अतिरिक्त भी अन्य कुछ नाम भी इसके नेपथ्य में थे, जिनको जाने बिना रामकृष्ण-विवेकानन्द-वेदान्त-साहित्य का अधिकांश भाग असम्पूर्ण ही रह जाता है. इनमे से स्वामी ब्रह्मानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी सारदानन्द, स्वामी अभेदानन्द जैसे प्रधान नाम विशेष तौर से उल्लेखनीय हैं. किन्तु श्रीरामकृष्ण-साहित्य आकाश की व्यापकता इन नामों में ही सीमित नहीं हो जाती है. 
 इस आकाश में श्रीरामकृष्ण एक महासूर्य-स्वरुप हैं, जिनकी हजारो करोज्ज्वल रश्मियाँ संन्यासी-पार्षद रूपी उज्जवल नक्षत्रों के माध्यम से प्रवाहित होकर सम्पूर्ण विश्व को नूतन आलोक से आलोकित कर रही हैं. इन सबों में से प्रत्येक ने एक एक पक्ष को उज्जवल प्रभा से महिमा-मंडित किया है. इनमे से प्रत्येक एक एक दिकपाल रूप से अवस्थित हैं. इनमे से किसी की तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती है. इनमे से प्रत्येक असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न थे.
एक ही सत्ता श्रीरामकृष्ण-सारदा-विवेकानन्द रूपी त्रिमूर्तियों में प्रकाशित है. अवतार लीला को पूर्ण करने के उद्दश्य से यह त्रिमूर्ति आविर्भूत हुई है. प्रसिद्द दार्शनिक अमियकुमार मजुमदार के मतानुसार- ये सभी एक अभिन्न सत्ता से गठित; वृक्ष, फुल और फल के समान अविच्छिन्न सत्ता हैं;  एवं उन्होंने श्रीरामकृष्ण को भक्ति, श्रीसारदा देवी को कर्म और स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान के रूपों में प्रकाशित एक ही चैतन्य शक्ति की अभीव्यक्ति माना है.
इस महाभाव राज्य के राजाओं-महाराजाओं में इनके अतिरिक्त: 
ब्रह्मज्ञ स्वामी ब्रह्मानन्द, स्थितप्रज्ञ महापुरुष स्वामी शिवानन्द, कर्णधार प्राणपुरुष स्वामी सारदानन्द, वेदान्तप्रचारक प्रभावशाली-वक्ता स्वामी अभेदानन्द, शिवज्ञान से जीवसेवा के संस्थापक स्वामी अखंडानन्द, ब्रह्म-वैज्ञानिक स्वामी विज्ञानानन्द, सेवापरायण स्वामी अद्वैतानन्द, संघसेवक स्वामी योगानन्द, सेवा की मूर्तरूप स्वामी प्रेमानन्द, शुद्धसत्व-गुणी स्वामी निरंजनानन्द, श्रीरामकृष्ण-सेवक कर्मवीर स्वामी रामकृष्णानन्द, वेदान्तविद स्वामी तुरीयानन्द, सफल कर्मयोगी और श्रीरामकृष्ण के वार्ता-वाहक स्वामी निर्मलानन्द, सारदा-सेवक और भाव-प्रचारक स्वामी त्रिगुणतीतानन्द, श्रीरामकृष्णदास स्वामी अद्भुतानन्द, तथा देवशिशु-सुलभ-स्वाभाव स्वामी सुबोधानन्द आदि अन्य १६ व्यक्तियों को भी हमलोगों ने प्राप्त किया है. 
इनमे से कोई किसी दुसरे से थोड़े परिमाण में भी कमतर नहीं थे. इनमे से प्रत्येक एक एक भावराज्य के महान महारथी हैं. फिरभी हमलोगों के चर्चा का आलोच्य विषय के अतिरिक्त अन्य चर्चा के समय कम है; इसीलिए यहाँ हमलोग एक नक्षत्र के कई पहलुओं के ऊपर चर्चा करेंगे.
श्रीरामकृष्ण-भावान्दोलन का एक विशेष अध्याय स्वामी अभेदानन्द के नाम के साथ जुड़ा हुआ है; इनको छोड़ कर इस रामकृष्ण-दर्शन को परिपूर्ण आकर में समझना संभव नहीं है; श्रीरामकृष्ण-लीलासहचरों के बीच केवल इन्होंने ही सबसे अधिक समय तक लीला की है. श्रीरामकृष्ण के अन्तरंग-पार्षदों में से किसी को भी इतने लम्बे समय (१८८३-१९३८ ई०) तक इस रामकृष्ण-भावान्दोलन बने रहने का अवसर में या सुयोग नहीं मिला है. इसीलिए उनके माध्यम से हमलोगों को दीर्घ काल की अभिज्ञता इतिहास जानने का सुयोग मिला है; एवं उन्होंने भी कृपा करके कुछ तथ्यों को जोड़ कर श्रीरामकृष्ण के इतिहास को अधिक संजीवित तथा समृद्ध किया है.
२ अक्टूबर १८६६ ई० को स्वामी अभेदानन्द का आगमन हुआ था. उत्तर कोलकाता के निमू गोस्वामी लेन में उनका जन्म हुआ था. माँ-काली के आशीर्वाद से जन्म हुआ था, इसीलिए उनका नाम कालीप्रसाद पड़ा. आश्चर्य की बात यह है कि जब कालीप्रसाद या काली उर्फ़ स्वामी अभेदानन्द जब पहली बार श्रीरामकृष्ण के निकट उपस्थित हुए तब उनको देखते ही श्रीरामकृष्ण ने कहा था- " पूर्वजन्म में तूँ एक योगी था; पर कुछ बाकी रह गया था. यह जन्म तुम्हारा आखरी जन्म होगा. " कैसी अद्भुत दिव्यदृष्टि थी ! यह मानो किसी जौहरी द्वारा स्वर्ण को पहचान लेने जैसी बात थी. प्रथम मिलन में ही उन्होंने अपने लीलापार्षद को चुन लिया था. उनको पहचानने में थोड़ी भी कठिनाई नहीं हुई. परन्तु घटित हो गयी थी परमप्राप्ति. 
दूसरी बार मिलने पर कालीप्रसाद को श्रीश्रीठाकुर ने कहा- " देखो, तुम्हारी दोनों आँखें, भवें, और ललाट को देखने से मेरे भीतर श्रीकृष्ण के मुखड़े की उद्दीपना होती है." ठाकुर इसीप्रकार अपने अन्तरंग पार्षदों को देखते ही पहचान लिया करते थे. पूर्वजन्म में किये गए सद्कर्मों के कारण ही इस प्रकार के गुरु प्राप्त होते हैं.
यह तो हुई उनके जन्मजात प्राप्त संपदा की बात. इसके अतिरिक्त उन्होंने अपनी साधना के बलबूते पर वेदान्त-विद्या में प्रज्ञा प्रोज्ज्वल प्रदीप्त प्रतिभा भी अर्जित की थी. जिसने उनके विद्याबुद्धि तथा अतीन्द्रियज्ञान को स्फूरित कर दिया था.
  इसीलिए तो श्रीरामकृष्ण कहते थे- " सभी लडकों में तुम भी बुद्धिमान हो, नरेन् के बाद तुम्हारी ही बुद्धि प्रखर है. नरेन् जिस प्रकार किसी मत को चला सकता है, तुम भी वैसा कर सकोगे." श्रीरामकृष्ण का यह आशीर्वचन व्यर्थ नहीं हुआ था. भविष्य-द्रष्टा श्रीरामकृष्ण की भविष्यवाणी को वास्तविकता में रूपायित करते हुए उन्होंने यह प्रमाणित किया था कि वे भी एक मत को चलाने के अधिकारी हैं. 
श्रीरामकृष्ण की कृपा से काली-महाराज दर्शन आदि के चरम शिखर पर पहुँच गए थे. इसके बारे में अपनी अभिज्ञता का उल्लेख स्वामी अभेदानन्द जी ने अपनी आत्मजीवनी में इस प्रकार किया है- " एकदिन मैं परमहंसदेव के श्रीचरणों को सहला रहा था, इसी समय अनुभव हुआ मानो परमहंसदेव श्रीश्रीजगन्माता के रूप में मुझे अपना स्तन-पान करवा रहे हैं....
.उस अद्भुत अनुभूति की बात जीवन में मैं कभी भूल नहीं सकूँगा. एक दिन गहरी रात्रि में ध्यानस्थ होकर मैं बाह्यज्ञान शून्य हो गया था, और मेरी आत्मा मानो देहरूपी पिंजड़े से बाहर निकल कर शून्य आकाश में मुक्त पंछी के जैसा विचरण कर रही थी; ...देखते देखते एक सुन्दर सुशोभित प्रासादोपम सुरम्य स्थान में उपस्थित हुआ. उस स्थान में प्रविष्ट होकर एक के बाद एक नाना सम्प्रदाय के विभिन्न भावों की मूर्तियों का दर्शन करके आश्चर्य चकित रह गया.
शाक्त, शैव, वैष्णव, गाणपात्य, क्रिश्चियन, इस्लामिक, आदि धर्मों के भिन्न भिन्न भाव और प्रतीकों को देख कर भाव विह्वल हो गया. क्रमशः किसी महान अतिवाहिक आत्मा की प्रेरणा से मानो अनुप्रेरित होकर एक विराट ह़ाल जैसे कमरे में प्रविष्ट करके देखा कि, उस कमरे के चारों दीवालों से सटे एक विशाल वेदी पर समस्त देवदेवी, अवतारपुरुष और धर्मप्रवर्तकों की मूर्तियाँ स्थापित की हुई हैं...और उसी हाल के बीचोबीच परमहंसदेव दंडायमान हैं.
  मैं उसी अद्भुत दृश्य का दर्शन कर रहा हूँ, तभी परमहंसदेव की मूर्ति ज्योतिर्मय होकर विराट आकार धारण कर ली और उनके भीतर समस्त देवदेवी, अधिकारिक और अवतारपुरुष ( मत्स्य, कूर्म, श्रीरामचंद्र, बुद्ध आदि दशावतार ) श्रीकृष्ण, ईसामसीह, जरथ्रुष्ट, नानक, श्रीचैतन्य, शंकराचार्य,...आदि प्रविष्ट होने लगे. तब उस अद्भुत दर्शन का कुछ यथार्थ मर्म नहीं समझ सका तो तेजगति से दक्षिणेश्वर पहुँच कर परमहंसदेव से सब बातों को कह सुनाया. परमहंसदेव ने सुन कर कहा- " तुमको वैकुण्ठ का दर्शन हुआ है. इसबार देवदेवी दर्शन की चरमसीमा में पहुंचे हो. अब तुमको और कुछ दर्शन करना बाकी नहीं है- अभी से तुम निराकार और अरूप के घर में उठ गए हो. " ( ' आमार जीवनकथा ' : १म भाग, पृष्ठ ३४-३५ )
काली-महाराज तार्किक या युक्तिवादी थे. युक्ति के आलोक में समस्त वस्तुओं को देखते थे. बिना तर्क की कसौटी पर कसे वे किसी भी बात को नहीं मानते थे. एकबार काली-महाराज काशीपुर उद्यानवाटी में रहते समय तालाब में बंशी डालकर मछली पकड़ रहे थे. यह देख कर श्रीरामकृष्ण को बहुत कष्ट हुआ, उनका समानानुभूति शील मन और व्यथातुर ह्रदय रो पड़ा. और उन्होंने उनको बंशी में चारा डाल कर मछली पकड़ने से मना किया. किन्तु काली-महाराज ने गीता के एक श्लोक को उद्धृत करते हुए युक्तिसंगत व्याख्या देते हुए कहा-
( ' नायं हन्ति न हन्यते ' गीता २ : १९ ) ' यह आत्मा हनन नहीं करता, और हत भी नहीं होता. ' ( अर्थात यथार्थ में किसी की मृत्यु नहीं होती, केवल अवस्थान्तर होकर सब कुछ आत्मा में लीन हो जाता है.)  ...इत्यादि.
  वे सदैव अपने द्वारा किये किसी कार्य के समर्थन में सूक्ष्म विचारणीय युक्ति द्वारा एक सिद्धान्त ( मत ) खड़ा कर लेते थे. स्वयं श्रीरामकृष्ण भी इस सूतीक्ष्ण बुद्धि से परास्त हुए हैं. किन्तु वे स्वयं कभी पराजित नहीं होते थे. परन्तु कोई यदि किसी सिद्धान्त को उपस्थापित करना चाहता तो वे उसे आसानी से स्वीकार नहीं कर लेते थे. इतना ही नहीं वे उस सिद्धान्त को अपनी तीक्ष्ण युक्ति-तर्क द्वारा खंडन करके एक अन्य सिद्धान्त को सामने रख देते थे.
वेदान्त शास्त्रों की सूक्ष्मातिसूक्ष्म बाल की खाल निकालने वाली तर्कशील बुद्धि के सामने सभी परास्त हो जाते थे. इसीकारण उनको ' काली-वेदान्ती ' कह कर पुकारा जाता था. उनकी असाधारण बुद्धिदीप्त प्रतिभा के लिए श्रीरामकृष्ण भी उनकी प्रशंसा किया करते थे. 
काली-महाराज जब वराहनगर-मठ में निवास करते थे, उस समय वे एक छोटे से कमरे में जप-ध्यान और शास्त्र-चर्चा करते हुए अपना समय बिताते थे. वे सदैव शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों में डूबे रहते थे. यहाँ तक कि गीता और उपनिषदों के प्रत्येक श्लोक के ऊपर ध्यान करके उसका मर्मार्थ उपलब्धि कर लेते थे. इसके फलस्वरूप उनका वह छोटा सा कमरा सदैव एक आध्यात्मिक- परिवेश से परिपूर्ण रहा करता था. इसीलिए उनके कमरे
को ' काली-तपस्वी का कमरा ' कहा जाता था. और उनके सभी गुरुभाई उसी कमरे में सामूहिक रूप से आध्यात्मशास्त्रों की चर्चा करते हुए अपना समय बिताते थे.
वराहनगर मठ में उनलोगों को अपना साधू-जीवन दरिद्रता के अनेक कष्टों को झेलते हुए बिताना पड़ता था. यहाँ तक कि शारीरिक परिश्रम करके उनलोगों को भोजन के लिए दो मुट्ठी अन्न का जुगाड़ करना पड़ता था. किन्तु स्वामी अभेदानान्दजी इस शारीरिक श्रम से विरत रहते हुए शास्त्र-चर्चा में ही निमग्न रहते थे. फलस्वरूप उनके शास्त्र-अध्यन को लेकर कोई कोई व्यंगपूर्ण आक्षेप भी कर देते थे, किन्तु वे कभी विचलित नहीं होते थे. 
एक दिन स्वामीजी उनलोगों के इस प्रकार व्यंगपूर्ण विद्रूप आक्षेपों को सुने तो भर्त्सना करते हुए बोले- " तुमलोगों का एक भाई यदि कल अध्यन-मनन में ही डूबा रहता है तो तुमलोगों के शरीर में इतनी जलन क्यों होती है ? तुमलोगों के भोजन बनाने वाले जितने बर्तन-भांडे हैं मेरे पास भेज दो, मैं उनको मांज देता हूँ. " (श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका : १म, पृष्ठ ३९८)
स्वामीजी अपने इस प्रियगुरुभाई के प्रति सदैव सहृदय रहते हुए उनको सदैव अपनी स्नेह्छाया की ओट में रखते थे. कोई यदि कुछ आक्षेप लगाता तो स्वामीजी उसका खण्डन करने में मुखर हो जाते एवं अभेदानन्द जी के शास्त्र-अध्यन आदि क्रियाकलापों को सादर ग्रहण करने के लिए अनुप्रेरित करते थे. 
स्वामी अभेदानन्द में शास्त्रों के प्रति प्रबल निष्ठा थी. अनेक विपरीत परिस्थितयों में भी उनको अपना पठन-पाठन का अभ्यास करते रहना पड़ता था. एकाग्रचित्त होकर की जाने वाली प्रचेष्टा एवं तीव्र व्याकुलता के फलस्वरूप वेदान्त-चर्चा करने में वे सिद्धस्त हो गए थे. अभेदानन्द के पण्डित-महाशय कालीवर वेदान्तवागीश उनमें वेदान्त चर्चा के प्रति व्याकुल आग्रह देख कर कहे थे- " बच्चे, तुम्हारा ही वेदान्त पढ़ना सार्थक है. तुम्हारे प्राणों में ज्ञान की पिपासा जाग्रत हो गयी है. परमतत्व की उपलब्धी करना ही तुम्हारे जीवन का व्रत है. इसीलिए तुमको उस पीपासा ने त्याग के पथ में खींच रखा है, और तुम प्राणपण से तपस्या कर रहे हो. तुम्हारे जैसे विद्यानुरागी तपस्वी को पढाना, मेरे लिए भी सार्थक हुआ है. " ( ' स्मृतिसंचयन ', विश्ववाणी : चैत्र १३५१, पृष्ठ ११) 
 स्वामी अभेदानन्द जी आत्मजीवनी में इस प्रसंग पर लिखते हैं -
" उस समय (वराहनगर मठ में रहते समय १२९५ बंगाब्द ) मैंने श्रीश्रीठाकुर और श्रीश्रीमाँ के प्रति स्त्रोत्र रचना की थी और श्रीश्रीमाँ को सुनाया था, जिसे सुनकर श्रीश्रीमाँ ने आनन्दपूर्वक आशीर्वाद देते हुए कहा था-
"  তোমার মুখে সরস্বতী বসুক "
' तुम्हारे मुख में विद्या की देवी सरस्वती का वास हो जाय '!  
इसी समय में मैंने श्रीश्रीमाँ की हाथों से जप की माला (रुद्राक्ष की बनी हुई ) प्राप्त की थी. " ( ' आमार जीवनकथा ': १म, पृष्ठ १११)  
श्रीश्रीमाँ का यह आशीर्वाद उनके ऊपर बरस पड़ा था. जिसके परिणामस्वरूप पाश्चात्य देशों में प्रचार करते समय हमलोग उनकी उस प्रज्ञादीप्त प्रतिभा, लोकोत्तर मनीषा, अद्भुत भाषणकला और अपूर्व आध्यात्म-अनुभूति को देख सकते हैं, जिसने उनको सर्वजन-वर्णीय बना दिया था. स्वामी अभेदानन्द जी द्वारा 
अनुष्टप-छन्दों में ' श्रीरामकृष्णस्त्रोत्रम ' शीर्षक प्रथम संस्कृत रचना की गयी थी. एक बानगी देखें-
" लोकनाथश्चिदाकारो राजमानः स्वधामणि 
कलीकल्मषमग्नानामूत्तारणचिकीर्षया |
मायाश्क्तीं समाश्रित्य मोहवतीर्नो महीतले 
नमोस्तु रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरुवे नमः || "
( ' स्त्रोत्ररत्नाकर ' : पृष्ठ १ )
  काली-महाराज ने स्वरचित जिस श्लोक का पाठ श्रीश्रीमाँ के समक्ष किया था उसे ' श्रीसारदादेवी- स्त्रोत्रम ' कहते हैं, जिसमें उनकी स्तुति इस प्रकार की गयी है-  
" प्रकृतिं परमामभयां वरदां नररूपधरां जनतापहराम |
शरणागत सेवकतोषकरीं प्रणमामि परां जननीं जगताम || 
( ' स्त्रोत्ररत्नाकर ' : पृष्ठ ४२ ) 
स्वामी अभेदानन्दजी के असाधारण लोकोत्तर जीवन की बहु सृष्टिशील कालजयी रचनायें आजभी आध्यात्म समाज में मार्गदर्शक बनी हुई हैं. उनकी रचनाओं में कहीं कोई उग्रता नहीं है, अगर है तो बस केवल परम स्निग्धता और सहिष्णुता. यही है उनकी रचनाओं का वैशिष्ठ. उन्होंने जीवन किसी क्रान्तिद्रष्टा के जैसी दूरदृष्टि लेकर देखा है. पुनः कभी आध्यात्मिक भावनाओं में डूब कर अपने ईष्टदेवता के साथ एकात्मबोध में एकाकार हुए से दिख जाते हैं. 
अभेदानन्दजी की अनुभूतिशील लेखनी से भावावेग पूर्ण एक कविता-कलि निःसृत हुई थी-
' आत्मसमर्पण ' : 
" तुमने जो कृपा की है प्रभु, क्या मैं उसे कभी भूल सकता हूँ ?
जिस प्रकार तुमने मुझे (मेरे वजूद को, ' अहं '  को ) निगल लिया है,
उसी प्रकार मैंने भी तुमको (आत्मसात कर लिया- बूंद सागर में मिल कर एक हो गया है ) निगल लिया है;
इस रहस्य को कौन समझ सकेगा ! - यह मैं नहीं कह सकता |
तुम्हारे आदेशानुसार इस रहस्य को
- मैं कभी जगजाहिर कर ही नहीं सकता || 
It Will Die With Me.
तुम और मैं एक हो गए है, 
तुम और मैं भिन्न नहीं है !
मैं हूँ आधार और तुम हो आधेय-
मेरा यह देह्मन प्राण; 
तुम्हारे ही चरणों में समर्पित है |
आगे तुम्हारी जैसी इच्छा  हो वैसा ही करो | " 
(' विश्ववाणी ' : १म वर्ष, पौष १३४६, पृष्ठ ३९३ )

    स्वामी अभेदानन्द जी ने इसके अतिरिक्त और भी कितने सारे स्त्रोत्र एवं कविताओं की रचना की है. इन में पूर्वोक्त प्रथम स्त्रोत्र के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है - ' वराहनगर-मठ में आरात्रिक (संध्या-प्रार्थना ) हो जाने के बाद हमसभी लोग एकसाथ बैठ कर कुछ श्लोकों का पाठ भी किया करते थे. ' यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि उस समय तक श्रीश्रीठाकुर और श्रीश्रीमाँ के ऊपर अन्य किसी स्त्रोत्र कि रचना नहीं हुई थी. इसीलिए वे लोग श्रीश्रीठाकुर के फोटो के सामने बैठ कर पूर्वोक्त स्तव का ही पाठ किया करते थे. और श्रीश्रीमाँ भी उस समय तक स्थूल शारीर में ही लीला कर रहीं थीं, इसीलिए उनके स्त्रोत्र का पाठ नहीं किया जाता था. 
स्वामी अभेदानन्द ने ही ठाकुर और माँ के लिए पहले पहल स्त्रोत्र रचना की थी. इसी समय से उनकी सारस्वत- प्रतिभा विकसित होने लगी थी. उनके इन  सब वेदान्तिक तत्वों की गवेषणा करने उद्देश्य था- " किसी अंधे के समान जो कुछ सामने आ जाय, उसीका अनुसरण न करते हुए, जिस प्रकार श्रीश्रीठाकुर के आदर्श को सामने रख कर जप-ध्यान आदि साधनाएँ करनी होंगी, उसी प्रकार वेदान्त, उपनिषद, और शास्त्रों का पठान-पाठन करते हुए अपने ज्ञान में भी वृद्धि करनी होगी. केवल इतना ही नहीं विभिन्न देशों के दर्शन-शास्त्रों में ब्रह्म के सम्बन्ध में क्या कहा गया है, उसका भी तुलनात्मक अध्यन करके उन्हें जानना होगा, समझना होगा, और सीखना होगा. " (- ' आचार्य अभेदानन्द ' : हासिराशि देवी, पृष्ठ ३२ )
इसके बाद अभेदानन्द कुछ समय तक ऋषिकेश के झोपड़ी में रहते हुए कठोर तपस्या किये थे, और यहीं पर धनराज गिरी से वेदान्त शास्त्रों का पाठ (१८९० ई०) में ग्रहण किये. धनराज गिरी उनकी प्रज्ञादीप्त प्रतिभा होकर उनके गुरुभ्राता स्वामीजी (विवेकानन्द) को कहे थे- " अभेदानन्द ! अलौकिक प्रज्ञा !"(श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका : १म, पृष्ठ - ३९७ ) परवर्तीकाल में उनकी इस प्रतिभा की भूरी-भूरी प्रशंशा पाश्चात्य मनीषियों ने भी की है.
१८९३ ई० में विश्वधर्ममहासम्मेलन में स्वामीजीने हिन्दुधर्म का प्रतिनिधित्व किया था. उसी समय शिकागो के इसाई मिशनरीयों ने यह दुष्प्रचार करना शुरू कर दिया कि स्वामी विवेकानन्द हिन्दू समाज के स्वाभाविक प्रतिनिधि नहीं हैं.
इस दुष्प्रचार के विरुद्ध अपना पक्ष रखने के लिए स्वामीजी को परिचय-पत्र की प्रयोजनीयता हो गयी. इस परिचय-पत्र का जुगाड़ करने में, हमलोग स्वामी अभेदानन्दजी को एक भिन्न प्रकार के दक्ष कर्मी की भूमिका में देख सकते हैं. उनके तथा स्वामी सारदानन्दजी महाराज के अथक प्रयास से कोलकाता में लोक-संग्रह करके, सभा करके परिचय-पत्र का जुगाड़ हुआ, जिसे स्वामीजी के पास भिजवाया गया था. 
एक प्रत्यक्षदर्शी के प्रतिवेदन से ज्ञात होता है : " काली-वेदान्ती ने इस समय जी-जान से परिश्रम किया था. किसी उन्मत्त व्यक्ति के समान दिनरात काम करते हुए उन्होंने टाउन हाल में सभा आयोजित की थी. " ( श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका : १म, पृष्ठ ४०० )
स्वामीजी शिकागो अभियान में वेदान्त की पताका लहराने के बाद, उतनी ही सफलतापूर्वक अमेरिका और इंगलैण्ड में भी वेदान्त-प्रचार कार्य को आगे बढ़ाते जा रहे थे. किन्तु यहाँ से स्वदेश वापस लौट जाने के बाद यह प्रचार-कार्य कैसे चल पायेगा ? इसीलिए उन्होंने अपने गुरुभ्राता स्वामी सारदानन्दजी को बुलाभेजा ताकि उनका यह वेदान्त-प्रचार कार्य, रुक न जाये आगे ही बढ़ता रहे. किन्तु सारदानन्दजी रामकृष्ण-संघ के कर्णधार थे, क्या उनके लिए इस प्रचार-कार्य में दीर्घ समय तक लिप्त रहना संभव होगा ? संघ के विशाल कार्यक्रमों को कौन संचालित करेगा ? इसीलिए थोड़े से दिनों में ही अभूतपूर्व कर्म-सफलता के साथ प्रचार-कार्य करते हुए भी उनको शीघ्र ही वापस मठ में लौटना पड़ा.
  तब स्वामीजी ने पाश्चात्य देशों में अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्रचार-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए स्वामी अभेदानन्दजी का चुनाव किया. इसी बीच प्रचार-कार्य करने वेदान्तविद स्वामी तुरीयानन्दजी भी, थोड़े समय के लिए पाश्चात्य देशों में गए थे.
( Sititng: Swami Vivekananda, Alberta Sturges, (obscured) Besse Leggett, Josephine MacCleod, ?. Standing: Turiyananda, Abedananda. This photograph was taken sometime between September 8th and 18th, 1899.) इनके बाद ' उद्बोधन ' पत्रिका के प्रथम सम्पादक स्वामी त्रिगुणातीतानान्दजी भी कुछ अधिक दिनों तक वेदान्त-प्रचार में लिप्त थे, एवं इसी प्रचार-कार्य में उन्होंने अपना जीवन विसर्जित कर दिया था. इनके अतिरक्त स्वामी निर्मलानन्दजी भी पाश्चात्य में स्वामी अभेदानन्दजी के सहायक प्रचारक थे. 
पाश्चात्य में वेदान्त-प्रचार करने के पहले भी अभेदानन्दजी की वेदान्त-साहित्य की प्रतिभा ' ब्रह्मवादिन ' पत्रिका में अभियक्त हुई है. स्वामीजी द्वारा पाक्षिक-पत्रिका के रूप में पहली बार यही प्रकाशित हुई थी. इस पत्रिका में स्वामी अभेदानन्दजी द्वारा पहली बार अंग्रेजी में लिखित निबन्ध ' The Hindu Preacher ' २३-११- १८९५ को प्रकाशित हुआ था. कहा जा सकता है कि इसी निबन्ध ने उनकी पाश्चात्य यात्रा का सूत्रपात किया था.
इस प्रसंग पर स्वामी अभेदानन्दजी ने अपनी आत्मजीवनी में लिखा था : " इस प्रबन्ध को लिखने के पहले या लिखते समय मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि, स्वामीजी के आह्वान पर एकदिन धर्म-प्रचार करने के लिए मुझे पाश्चात्य जाना पड़ेगा. जो हो अल्मोड़ा में कुछ महीनों तक रहने के बाद पुनः पैदल चलते हुए आलमबाजार मठ पहुँच गया. आने के बाद अमेरिका में सर्वत्र स्वामीजी की सफलता की बातें सुन सुन कर आनन्द और गर्व का अनुभव करने लगा. श्रीरामकृष्ण के आदर का पात्र नरेन्द्रनाथ उनकी अलौकिक आचार्य की शक्ति और आशीर्वाद वरण करके यदि विश्व-वरणय  हो जाएँ तो इसमें आश्चर्य क्या है ! ( ' आमार जीवनकथा ' : पृष्ठ १८१-१८२ ) 
इसके बाद स्वामीजी के आह्वान का प्रतिउत्तर देने के लिए, जन्मभूमि बंगालमाँ को प्रणाम निवेदित कर अपना सरस्व त्याग कर, गुरुभाइयों के स्नेह्बन्धन को काटकर, जननी श्रीश्रीसारदा माँ के स्नेहाशीष को सिर पर रख कर, स्वामी अभेदानन्दजी दिनांक २५ अगस्त, १८९६ ई० को एम्. एस. गोलकुंडा नामक जहाज में बैठ कर लन्दन की यात्रा पर निकल पड़े. 
स्वामीजी के निर्देश से वेदान्तिक-शास्त्र ' पंचदशी  ' के ऊपर अभेदानन्दजी ने २७ अक्टूबर, १८९६ को पाश्चात्य में अपना पहला व्याख्यान दिया था. लन्दन में हुए इस व्याख्यान को सुनने के लिए सभा में स्वयं स्वामीजी भी उपस्थित थे. उनकी उस प्रथम व्याख्यान को सुनकर प्रशंसा करते हुए स्वामीजी ने कहा था-
" You have a resonant voice, which has carrying power. "
( ' आमार जीवनकथा ', २ रा, पृष्ठ ९ )
अर्थात ' तुम्हारी गूंजती हुई आवाज में एक ऐसी शक्ति है जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर सकती है. '
इस व्याख्यान को सुनने के बाद एक अन्य प्रत्यक्षदर्शी कैप्टन सेवियर इस व्याख्यान को सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए थे, और कहा था- " Swami Abhedananda is a born preacher, wherever he will go, he will succeed. " ( वही, पृष्ठ ८ ) अर्थात ' स्वामी अभेदानन्द एक जन्मजात धर्मोपदेशक हैं, वे जहाँ कहीं भी जायेंगे उन्हें सफलता मिलेगी." 
अभेदानन्दजी के प्रथम व्याख्यान को सुन कर स्वामी विवेकानन्द  बहुत आनन्दित हुए थे, और अपना सुयोग्य उत्तराधिकारी मानते हुए, उनसे बहुत स्नेह करते थे. केवल इतना ही नहीं, वक्तृता से मुग्ध होकर आनन्द के उच्छ्वास में भरकर सभा में उपस्थित श्रोतामण्डली के बीच स्वामीजी ने घोषणा की थी-
" Even if I perish out of this plane,
my message will be sounded through
these dear lips and the world will hear it "   
( ' An Introduction to the Philosophy of Panchadashi. '-by Swami Abhedananda, Page 5) 
अर्थात
' मैं यदि अपना शरीर त्याग दूँ, तो मेरी वाणी 
  मेरे
प्रिय गुरुभ्राता के कन्ठ से ध्वनित होगी
एवं सम्पूर्ण विश्व उसको सुनेगा ! '    
  स्वामीजी की यह भविष्यवाणी सच्ची सिद्ध हुई थी एवं  देववाणी बन कर वास्तविकता में रूपान्तरित हो गयी थी. दीर्घ २५ वर्षों तक स्वामीजी के इस आदेश और आशीर्वाद को सिरोधार्य करते हुए इसका अक्षरशः पालन किया था स्वामी अभेदानन्दजी ने और उनकी अमृतवाणी को पश्चात्यवासियों ने अधीर आग्रह के साथ श्रवण किया था. अभेदानन्दजी के पाश्चात्य विजय-अभियान में अभूतपूर्व कार्य साफल्य का जिक्र स्वयं स्वामीजी ने इस प्रकार से एक पत्र में किया है- " The new Swami delivered maiden speech yesterday at a friendly society's meeting. It was good and I liked it; he has the making of a good speaker in him. I am sure. " (C.W. Vol. V, Page 120 ) 
अभेदानन्दजी की प्रशंसा स्वयं स्वामीजी ने अपने पत्र में की है- यह सुन कर अद्भुतानन्दजी आनन्द से झूम कर बोल उठे - " काली-भाई अक्सर वराहनगरमठ से पैदल ही शांखारी-टोला स्थित डाक्टर महेंद्र सरकार के घर  किताबों को पढ़ने जाया करता था, और कभी कभी तो वहाँ से गट्ठर की गट्ठर पुस्तकें उठा कर मठ में ले आता और घंटों पढ़ता रहता था. किसी के भी साथ अधिक मेल-जोल नहीं बढ़ाता था, व्यर्थ की बातें नहीं करता था, व्यर्थ की गप्पबाजी उसे पसंद नहीं थी. काली इतना अधिक गहन-गम्भीर मुद्रा में रहता था कि जब भक्त लोग मठ में आते थे तो व्यर्थ में  उनके नजदीक जाने की हिम्मत नहीं जूता पाते थे. वह अपने कमरे में बैठ कर केवल पढ़ाई-लिखाई करने या ध्यान-धारणा करने में ही डूबा रहता था. 
इसी प्रकार से उसने कितने दीर्घ काल तक अपना समय व्यतीत किया था, तभी तो आज लोग काली का महत्व समझ पा रहे हैं. काली ने कठिन परिश्रम से अपना जीवन इतना सुन्दर रूप में गठित कर लिया था कि, बड़े बड़े विद्वान् भी आज उससे प्यार करते हैं ! " ( ' स्मृति- संचयन ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २२ )
स्वामीजी पाश्चात्य में भावप्रचार करने के लिए स्थायी आवासस्थल का निर्माण करना चाहते थे. उनकी उस इच्छा को अभेदानन्दजी ने जी-जान से प्रयास करके बहुत अल्प दिनों में ही साकार रूप दे दिया था. इसीलिए स्वामीजी कहा करते थे, " पाश्चात्य में मैं जो काम नहीं कर सका, उसको काली ने कर दिखाया है- एक स्थाई आवासस्थान का उसने निर्माण किया है. " इसके लिए स्वामीजी बहुत प्रसन्न हुए थे एवं उनके व्यापक प्रचार कार्य में सफलता की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए कहे थे, 
" Thrice I knocked at the door of New York, but it did not respond,
I am glad that you have established a permanent Headquarters.
This is first time I have found our own home in New York. "
( ' Swami Abhedananda : A Spiritual Biography '- by Moni Bagchi, page 294 )
अर्थात ' मैंने निउ यार्क के दरवाजे को तीन बार खटखटाया था, किन्तु वह नहीं खुला. पर तुमने वहाँ वेदान्त-समिति का स्थायी केन्द्र प्रतिष्ठित कर दिखाया है, इसे देख कर मैं बहुत खुश हुआ हूँ. पहली बार मैंने वेदान्त-सोसाईटी का अपना स्थाई केन्द्र देखा है. '
केवल इतना ही नहीं, जब स्वामीजी दूसरी बार १८९९ में अमेरिका होते हुए यूरोप गए थे, तो इस नवनिर्मित वेदान्त -सोसाईटी के वासभवन में विश्राम किये थे, और उन्होंने स्वामी अभेदानन्दजी को बुलवा कर
कहा था- " Well brother my days are numbered. I shall live only three or four years at the most. " स्वामीजी के साथ यही उनकी आखरी मुलाकात थी. कहना न होगा कि, इसके बाद उन दोनों को आपस में मिलने फिर कोई सुयोग और अवसर नहीं मिला था. 
स्वामी अभेदानन्द का साधना-काल १८८३ से १९३९ ई० पर्यन्त रहा था. इसमें से १८९६ से लेकर १९२१ ई० तक उन्होंने पाश्चात्य देशों में प्रचार कार्य किया था. अर्थात उनके साधक जीवन का अधिकांश समय वेदान्त-चर्चा और चर्या में ही व्यतीत हुआ था. इसीलिए वेदान्त-प्रचार कार्य में स्वामी अभेदानन्द का योगदान असीम है, एवं उनके व्याख्यानों में वेदान्त-दर्शन की असाधारण प्रतिभा की झलक मिलती है. पाश्चात्य देशों के शिक्षित एवं  तर्कशील मनुष्यों में वेदान्त का प्रचार करना कोई आसन कार्य नहीं था. क्योंकि वे लोग अकस्मात् प्रज्वलित वैज्ञानिक-प्रकाश के आलोक में आलोकित थे. इसलिए वैसे लोगों के द्वारा प्राचीन भारतीय- दर्शन एवं वेदान्त प्रचार के एक नवीन भावधारा को ग्रहण कर लेना जितना आश्चर्य जनक था, ठीक उसी प्रकार इस प्रचार कार्य में सफलता प्राप्त करना भी कम आश्चर्य जनक नहीं था.
स्वामी अभेदानन्दजी के प्रचार-साफल्य से अभिभूत हो कर एक बार स्वामी प्रेमानन्दजी ने स्वामीजी से बहुत आग्रह पूर्वक कहा था कि, - " कोलकाता में वेदान्त की शिक्षा प्रदान करने के लिए, काली-भाई को उस देश (अमेरिका ) से यहाँ बुलवा लो. यहाँ के शिक्षित लोगों को वेदान्त समझाने में योग्य व्यक्ति है काली-भाई (अभेदानन्द ). उसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा था- " काली को यहाँ बुला लूँगा तो जानते हो क्या होगा ?
- वह क्षेत्र बिल्कुल अँधेरे में डूब जायेगा... उसने अपने अथक प्रयास से निउ योर्क जैसे विशाल शहर में एक हाल भाड़े पर लेकर, वेदान्त-सोसाईटी को एक firm footing (दृढ नींव ) पर प्रतिष्ठित कर दिया है; और चारो तरफ भ्रमण करते हुए लेक्चर देकर ऐसा प्रभाव जमा दिया है कि, वहाँ के बड़े बड़े विद्वान् साहेब लोग उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते. उनलोगों से वाहवाही (स्वीकृति ) प्राप्त कर लेना कोई छोटी बात नहीं है ! चपरास (प्रभु का आदेश ) नहीं हो, तो उस देश में वेदान्त-प्रचार कर पाना क्या ऐसे-वैसे लोगों का कर्म है ! " ( ' स्मृतिसंचय ' : विश्ववाणी, चैत्र १३५१, पृष्ठ २१ ) 
पाश्चात्य में स्वामी विवेकानन्द की कर्मधारा उत्तरसाधक स्वामी अभेदानन्द के माध्यम से कितना साफल्य प्राप्त की थी, उस सम्बन्ध में एक प्रत्यक्ष-प्रतिवेदन में भगिनी निवेदिता इस प्रकार लिखती है- "  These two  names Vivekananda and Abhedananda are names as inseparable as is the confluence of stream, as are revers sides of a single coin. " ( Swami Abhedananda : A Spiritual Biography, ' Page 479 ) 
- अर्थात " विवेकानन्द और अभेदानन्द दो नाम होने पर भी अभिन्न थे, जैसे दो नदियों का एक संगम हों- या एक ही सिक्के के (हेड-टेल) दो पहलू हों. " 
उसीप्रकार से एक अन्य प्रत्यक्षदर्शिनी भगिनी शिवानी ( Mary Le page ) लिखती हैं- :
" Without a Vivekananda,  without an Abhedananda,
how far outside India would have travelled
  the Gospel of Sri Ramakrishna
  is a question we cannot answer. " 
( ' Swami Abhedananda in Amerika ', Page 51)
भारतवर्ष एक शाश्वत सनातन धर्म का देश है. आध्यात्मिकता उसकी अमूल्य सम्पत्ति है. स्वामीजी ने भारत के इस आध्यात्मिक-सम्पदा को वहन करके विश्व-सभा (दरबार ) तक पहुंचा दिया था, एवं अभेदानन्दजी उसको द्वार द्वार तक पहुंचा दिए थे.
इस समबन्ध में एक कथन, प्रत्यक्ष दर्शी अध्यापक बिनय कुमार सरकार की भाषा  में - " इन दो बंग-वीरों के माध्यम से भारतमाता सम्पूर्ण जगत में अपने रक्त-मांस में गुंथे (ताजे-ताजे ) हुए स्वधर्म, शक्तियोग की दिग्विजय साधना का निर्यात कर रही थी. विवेक-अभेद उस समय भारत से विदेश गए कोई सौदागर नहीं थे; बल्कि ये दोनों बंगवीर ताजा रक्त-मांस वाले कर्मनिष्ठ-जीवन के भारतीय प्रतिनिधि थे."
                                  किन्तु पाश्चात्य देशों में भारत का वेदान्त-प्रचार यहीं पर समाप्त नहीं हो गया था. बल्कि यह कहा जा सकता है कि, स्वामीजी के माध्यम से जिस कर्मप्रवाह का सूत्रपात हुआ था, वह अभेदानन्दजी के माध्यम से २५ वर्षों तक प्रवाहित रहते हुए अपने पूर्ण रुपरेखा में परिणत हुई थी, एवं वर्तमान में उसी कर्मसाफल्य की परिणति स्वरुप श्रीरामकृष्ण-भावप्रचार-समिति के माध्यम से वही कार्यधारा अब भी प्रवाहित है.
एक अन्य प्रत्यक्ष प्रतिवेदक और रामकृष्ण-भावान्दोलन के अन्यतम प्रधान प्रवीण प्रचारक-धारक-वाहक स्वामी गह्नानन्दजी महाराज उनके पाश्चात्य अभियान की अभिज्ञता से कहे हैं- " श्रीरामकृष्ण के साक्षात् शिष्यों में पहले स्वामी विवेकानन्द, बाद में कुछ समय के लिए स्वामी सारदानन्दजी, स्वामी तुरीयानन्द, स्वामी त्रिगुणतीतानन्द और बहुत लम्बे समय तक स्वामी अभेदानन्द ने पाश्चात्य में वेदान्त-प्रचार की धारा को प्रसारित किया था. एवं विभिन्न समय में उनके सहयोगी रूप में स्वामी निर्मलानन्द, स्वामी बोधानन्द और स्वामी परमानन्द प्रमुख थे, एवं परम्पराक्रम से हमारे सन्यासीगण भी उसी धारा का अनुसरण कर रहे है...."
( ' विश्ववाणी ' : फाल्गुन १३९८, पृष्ठ २२ )
स्वामी अभेदानन्दजी केवल एक प्रचारक मात्र ही नहीं थे, बल्कि आध्यात्म जगत के एक छत्रपति राजा थे. उनके जीवन का सिंहभाग समय वेदान्त-प्रचार कार्य में ही व्यतीत हुआ था, इसीलिए उनके त्याग-तपस्या की बात आखों से ओझल रह जाती है. जबकभी भी उनको सुयोग-समय मिला है, वैसे ही वे तपस्या के लिए निकल पड़े हैं. रामकृष्ण-साम्राज्य के राजा तथा Spiritual Hero स्वामी ब्रह्मानन्दजी महाराज उनकी आध्यात्मिकता के सम्बन्ध में कहते हैं - " काली जैसे ही अपने बाहरी कार्यों को कम कर देगा, उसी समय लोग उसके आध्यात्मिक-शक्ति के विकास को समझ सकेंगे. " ( ' श्रीरामकृष्ण भक्तमालिका ' : १म, पृष्ठ ४१८ ) 
बाद में उनके व्याख्यानों के भीतर, इस बात का अच्छा आभाष प्राप्त होता है. किन्तु अपने विशाल कर्म प्रवाह के लिए वे एक प्रचारक के रूप में ही प्रतिष्ठित हैं. 
श्रीरामकृष्ण-पार्षदों के बीच जिस प्रकार स्वामी सारदानन्दजी अपनी लेखनी से रामकृष्ण-साहित्य रचने में असाधारण थे, ठीक वैसे ही अपनी लेखनी से वेदान्त-साहित्य की रचना करने में स्वामी अभेदानन्दजी भी कोई सानी नहीं रखते थे. यह बात ठीक है कि स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यानों में भी वेदान्त-साहित्य का काफी परिचय मिल जाता है. स्वामीजी के समान अभेदानन्दजी में भी एक बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न एक व्यक्तित्वशाली आचार्य का आलोक परिलक्षित होता है; एवं उस आलोक से पाश्चात्य के बड़े बड़े विद्वान् एवं महान व्यक्तित्व प्रभावित हुए हैं.
उनके व्याख्यानों को सुन कर दार्शनिक, वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, चित्रकार, साहित्यकार, कवि से आरम्भ कर के सभी श्रेणी के मनुष्य मंत्रमुग्ध हो जाते थे. इसलिए उनका यह वेदान्त प्रचार सभी प्रकार से सार्थक हुआ है. अपने इस प्रचार-कार्य के सम्बन्ध में, १९२२ ई० में भारत लौट आने के बाद जमशेदपुर में दिए गए व्याख्यान ' Universal Religion And Vedanta ' में अपने विचारो को इस प्रकार अभिव्यक्त किया था- 
" स्वामीजी ने अपने कार्य में सहायता करने के लिए मुझे १८९६ ई० में भारत से बुलवा लिया था. वहाँ के कार्यों को मेरे ऊपर न्यस्त करके, स्वयं मातृभूमि भारतवर्ष के लिए प्रस्थान कर गए थे. २५ वर्षों पूर्व मैंने  इंग्लैंड में पदार्पण किया था. ' २५ वर्ष '- कोई कम समय नहीं होता, एक शताब्दी का ' एक चौथाई ' समय है. बहुत थोड़े से लोग ही इस- समय की दीर्घता की बात अच्छी तरह से समझ सकते हैं. स्वामीजी के द्वारा प्रारम्भ किये गए कार्य को सूसम्पन्न करने के लिए, तथा मनुष्यजाति के कल्याण के लिए मैं ने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ भाग वहाँ पर व्यय किया है...
.अमेरिका में सभी के लिए बड़ा बनने या उन्नति करने की पूरी सम्भावना है, क्योंकि वहाँ सभी मनुष्यों को एक समान-अधिकार प्राप्त है, और इसीकारण से वेदान्त प्रचार करने के लिए अमेरिका एक सर्वथा उचित स्थान है. ...हमलोगों द्वारा वेदान्त-प्रचार करने के फलस्वरूप अमेरिकावासियों को ऐसा अनुभव होता था, मानो उनलोगों में व्याप्त अनेकों भ्रान्त धारणाएँ दूर हो गयी हैं. ....
आज विज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं हमलोगों द्वारा किये गए वेदान्त-प्रचार के फलस्वरूप सैंकड़ों वर्षों से पाश्चात्य धार्मिकजगत के आकाश पर छाये हुए, कूसंस्कार (अन्धविश्वास ) रूपी काले बादल शरदऋतु के शुभ्र मेघ जैसा धीरे धीरे दूर होते जा रहे हैं. " ( विश्ववाणी : अषाढ़ १४०२, पृष्ठ १९२-१९३ )
स्वामी अभेदानन्दजी एक सच्चे वेदान्त-प्रचारक थे. वेदान्त की सार्वभौमिकता (सार्वजनीनता ) तथा भारत के धर्म को उन्होंने सम्पूर्ण विश्व-वासियों के लिए उपलब्ध करा दिया था. सर्वोपरि श्रीरामकृष्ण-प्रदत्त आध्यात्मिकता को वे विश्व-सभा तक वहन करके ले जाने में सफल रहे थे. क्योंकि श्रीरामकृष्ण- स्वयं घनीभूत आध्यात्मिकता के मूर्त रूप थे.
भारत-भक्त ' रोम्यां रोलाँ ' के शब्दों में- " श्रीरामकृष्ण भारतवर्ष के ३० कड़ोड़ मनुष्यों द्वारा पाँच हजार वर्षों तक की गयी साधना से उपलब्ध घनीभूत आध्यात्मिकता की प्रतिमूर्ति थे. " श्रीरामकृष्ण की इसी आध्यात्मिक-शक्ति के बल पर उन्होंने (अभेदानन्द ने ) जगत के कल्याण का कार्य किया था. १९३१ ई० में श्रीरामकृष्ण-शतवार्षिकी के अवसर पर आयोजित ' स्मरण-सभा ' में अभेदानन्दजी ने
कहा था-
  " आज आध्यात्मिक-भावप्रवाह का जैसा अभ्युत्थान देखा जा रहा है, एवं जिसकी भाव-तरंगें पृथ्वी के लगभग आधे हिस्से का अतिक्रमण करते हुए, अमेरिका के तटों पर आघात कर दिया है, उसका प्रादुर्भाव ' ऋषि-ईसामसीह ' चरिततुल्य श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के दिव्य-व्यक्तिगत चरित्र एवं ईश्वरीय-शक्ति के प्रवाह से हुआ था. वे (श्रीरामकृष्ण ) वर्तमान भारत में सभी जातियों के मनुष्यों द्वारा इस युग के सर्वश्रेष्ठ महापुरुष एवं पूर्ण-परमेश्वर की प्रतिमूर्ति के रूप पूजित हो रहे हैं. " ( ' आचार्य  अभेदानन्द ', पृष्ठ १०२ )
श्रीरामकृष्ण की इसी आध्यात्मिकता के आलोक से आलोकित अभेदानन्दजी का जीवन भी परिपूर्ण हो उठा था. उनकी रचनावली में हमलोग इस आध्यात्मिकता की झलक देख सकते हैं. इस सम्बन्ध में उनकी मानस-पुत्री एवं पाश्चात्य की एक प्रत्यक्षदर्शिनी भगिनी शिवानी ( Sister Shivani ) लिखती हैं-
" Like a beacon at the crossroad of eternity stands Abhedananda, this Apostle of Monism, guide and guru to all humanity."
( Swami Abhedananda in America ', Page-55 )
अर्थात ' शाश्वत के पथ-संधि ( चौराहे ) पर अधिष्ठित किसी 'आकाश-दीप ' के समान स्वामी अभेदानन्द अद्वैतवाद के उपदेष्टा हैं, समस्त मानव-जाति के पथप्रदर्शक - आचार्य हैं.' 
इसीलिए श्रीरामकृष्ण के आध्यात्मिक-आलोक से आप्लुत आनन्द-धरा में अभिस्नात अभेदानन्द जिस आलोक-सामान्य अपार अनुभूति दीप्त अमित अमल अमिय अमृत वाणी अयुत नरनारी के मध्य वितरित किये थे, वह आज भी आध्यात्म चेतना के अंग में अम्लान आनेन अव्यहत है - जो युगयुगान्तर तक मानव-समाज को अनन्त आध्यात्म के पथ पर आगे बढ़ने के सोपान पर आरूढ़ होने की प्रेरणा देता रहेगा. समय के प्रवाह में सबकुछ धो-पोछ कर एकाकार हो जाने के बाद भी उनका यह अतुलनीय अवदान अक्षुण अमर रहेगा.                 
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' সমাজশিক্ষা ' পত্রিকায় প্রকাশিত   ( ' समाज-शिक्षा ' नामक पत्रिका में प्रकाशित )