मेरे पितामह, अर्थात दादाजी महिमाचरण के जमाता (दामाद) थे, और उन्होंने स्वयं भी स्वामी विवेकानन्द को देखा था|जिस तिथी को उन्होंने स्वामीजी को देखा था, मैंने उस तिथी का पता भी लगा लिया है, और वह तिथी थी- 7 मार्च 1897 !
उस समय तक बेलुड़ मठ स्थापित नहीं हुआ था , इसीलिये ठाकुर का जन्मोत्सव दक्षिणेश्वर के भवतारिणी मन्दिर के परिशर में ही आयोजित हुआ करता था| उस दिन दक्षिणेश्वर के मन्दिर में स्वामीजी आने वाले हैं- मेरे पितामह को इसकी सूचना नाट्यकार महाकवि श्री गिरीशचंद्र घोष से प्राप्त हुई थी, जिनके साथ मेरे पितामह की गहरी अंतरंगता थी|
यह अंतरंगता केवल पितामह के साथ ही नहीं, बल्कि मेरे पितामह के अग्रज - यतीशचन्द्र विद्यार्नव तथा मेरे पितामह शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय दोनों के साथ थी| तथा इन दोनो को गिरीशचन्द्र घोष " खड़दा के राम-लक्ष्मण " कह कर बुलाया करते थे|गिरीशचन्द्र ने बहुत सारे नाटक लिखे हैं, इसके साथ ही साथ उन्होंने कितने ही कविताओं और गानों की रचना भी की है|
महाकवि गिरीशचन्द्र घोष केवल एक नाट्यकार या अभिनेता (नट) मात्र ही नहीं थे| वे जब कभी किसी नये नाटक आदि की रचना करते तो उसे छपने से पूर्व इन दोनों भाइयों, " खड़दा के राम-लक्ष्मण " के पास उनका मन्तव्य जानने के लिये भिजवा दिया करते थे| जब ये लोग उसे भली भाँति देखकर अपना मन्तव्य दे देते, साधारणतया वे उसके बाद ही उसे छपने के लिये भेजते थे| इसीतरह जब ' बिल्वमंगल ' नाटक भी लिखा गया तो इसके बारे में एक पत्र उन्होंने खड़दा भेजा था, उस पत्र को मैंने भी देखा है| गिरीशचन्द्र घोष की रचनाओं तथा उनके कार्यक्रमों की देख-भाल करने के लिये उनके निजी सचिव के तौर पर जो सज्जन नियुक्त थे उनका नाम अविनाश गांगुली था| वे भी खड़दा के राम-लक्ष्मण को गिरीशचन्द्र घोष की तरफ से पत्र दिया करते थे, और स्वयं गिरीशचन्द्र भी उनको पत्र लिखा करते थे, उनके द्वारा लिखित दस-बारह चिट्ठियां तो मैंने भी देखी हैं|एक पत्र में उनके सेक्रेट्री लिखते हैं कि - गिरीशबाबू यथाशीघ्र आप दोनों से मिलना चाहते हैं, जितनी जल्दी संभव हो आप लोग चले आइये!
उन दिनों किन्तु कोलकाता से खड़दा तक चिट्ठी पहुँचने में मात्र एक ही दिन लगता था, उस पत्र के ऊपर जिस दिन कोलकाता के डाकखाने का मुहर पड़ा था, मैंने स्वयं देखा है कि उसके दूसरे ही दिन सुबह में वह पत्र खड़दा में मिल गया था| किन्तु किसी कारणवश दोनों भाई तो नहीं जा सके थे, मेरे पितामह अर्थात शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय अकेले ही गये थे|गिरीशचन्द्र ने बिल्वमंगल नाटक की पाण्डुलिपि मेरे पितामह को देते हुए कहा कि, आप इसे देख कर अपने विचारों से मुझे तुरत अवगत करा दीजियेगा ताकि मैं इसे यथाशीघ्र छपने भेज सकूँ, क्योंकि इसबार इसके मंचन की तिथी पहले से ही निर्धारित हो चुकी है|
उस पाण्डुलिपि को लेकर पितामह घर आ गये और दो-चार दिनों के भीतर ही पूरी पुस्तक को समाप्त करके जब लौटाने गये तो गिरीशचन्द्र को देख कर उन्हें ऐसा लगा, मानो बड़ी व्यग्रता के साथ वे उन्हीं की प्रतीक्षा कर रहे हों|पहुँचते ही जिज्ञाषा किये- ' आपने इसे ठीक से पढ़ तो लिया है न, कहिये इसके बारे में आपकी क्या राय है?'
पितामह ने कहा -" सम्पूर्ण रचना अतिसुन्दर हुई है, किन्तु आपके इस नाटक का सर्वश्रेष्ठ अंश वह है- जहाँ बिल्वमंगल एक पतिता रमणी के चरणों का स्पर्श कर उसे प्रणाम करते हैं|" गिरीशचंद्र बैठे हुए थे, उनकी मुखाकृति जितनी भारीभरकम थी, उनकी दृष्टि भी उतनी ही गंभीर थी- वे उठ खड़े हुए, और दोनों हाथों को ऊँचा उठाकर बोले - " जय रामकृष्ण ! Even Vivekananda could not tell me that, अविनाश , इस पाण्डुलिपि को तुम अभी तुरन्त प्रेस में भिजवा दो! "
पितामह ने कहा -" सम्पूर्ण रचना अतिसुन्दर हुई है, किन्तु आपके इस नाटक का सर्वश्रेष्ठ अंश वह है- जहाँ बिल्वमंगल एक पतिता रमणी के चरणों का स्पर्श कर उसे प्रणाम करते हैं|" गिरीशचंद्र बैठे हुए थे, उनकी मुखाकृति जितनी भारीभरकम थी, उनकी दृष्टि भी उतनी ही गंभीर थी- वे उठ खड़े हुए, और दोनों हाथों को ऊँचा उठाकर बोले - " जय रामकृष्ण ! Even Vivekananda could not tell me that, अविनाश , इस पाण्डुलिपि को तुम अभी तुरन्त प्रेस में भिजवा दो! "
हमलोग महेंद्रनाथ दत्त (स्वामीजी के भाई?) द्वारा लिखित प्रबन्ध में इस बात का उल्लेख पाते हैं कि गिरीशचंद्र को बिल्वमंगल नाटक लिखने के लिये स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ही अनुप्रेरित किया था, और नाटक लिखने के बाद, गिरीशचन्द्र ने उसकी पाण्डुलिपि को पढने के लिये स्वामी विवेकानन्द को भी दिया था|
तो इसी बिल्वमंगल नाटक के लेखक गिरीशचन्द्र घोष ने एक दिन मेरे पितामह से कहा था- " अगले 7 मार्च (1897) को दक्षिणेश्वर में ठाकुर का जन्मोत्सव मनाया जायेगा, उसमे भाग लेने के लिये स्वामी विवेकानन्द आ रहे हैं| मेरे साथ आप भी वहाँ चलना चाहेंगे क्या ?" उस दिन भी वहाँ पर स्वामीजी का कोई भाषण आदि का पूर्व निर्धारित कार्यक्रम नहीं था|
उस शुभ अवसर पर दक्षिणेश्वर में ठाकुर के बहुत सारे भक्तगण एकत्र हुए हैं, माँ भवतारिणी का दर्शन किये हैं, प्रसाद पाये हैं, द्वादश शिवमन्दिर में प्रणाम किये हैं, और मन्दिर परिशर के आसपास चारों ओर घूम रहे हैं| तब का दक्षिणेश्वर मन्दिर भी आज से बिल्कुल भिन्न रहा होगा! हमलोगों ने भी अपने बचपन में दक्षिणेश्वर मन्दिर का जो चेहरा देखा था, उसका वह चेहरा पहले से कितना बदल गया है, पहले जैसा तो अभी बिल्कुल नहीं लगता|
जो हो उसदिन स्वामीजी भी टहलते टहलते पंचवटी के निकट पहुँचे हैं, उनको देख कर जो भक्तगण इधर-उधर घूम रहे थे वे उनके आकर्षण में बंध कर उनके निकट खींचे चले आये हैं| सभी लोग उनसे अनुरोध करते हैं- ' स्वामीजी आप कुछ कहिये '; और स्वामीजी कुछ सुनाते हैं! उस दिन मेरे पितामह ने स्वामीजी के जिस भाषण को बिल्कुल आमने-सामने खड़े होकर सुना था, उसका वर्णन तो वे अनेक दिनों बाद तक किया करते थे- वह एक अलग प्रसंग है।
उस शुभ अवसर पर दक्षिणेश्वर में ठाकुर के बहुत सारे भक्तगण एकत्र हुए हैं, माँ भवतारिणी का दर्शन किये हैं, प्रसाद पाये हैं, द्वादश शिवमन्दिर में प्रणाम किये हैं, और मन्दिर परिशर के आसपास चारों ओर घूम रहे हैं| तब का दक्षिणेश्वर मन्दिर भी आज से बिल्कुल भिन्न रहा होगा! हमलोगों ने भी अपने बचपन में दक्षिणेश्वर मन्दिर का जो चेहरा देखा था, उसका वह चेहरा पहले से कितना बदल गया है, पहले जैसा तो अभी बिल्कुल नहीं लगता|
The panchavati hut where Ramakrishna
practiced his spiritual practices
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{ श्रीरामकृष्ण वचनामृत : तृतीय खण्ड के पृष्ठ ४३८ पर ठाकुर ने " भक्त बिल्वमंगल की कथा " कही है}
डाक्टर- क्यों, कहेंगे क्यों नहीं ? हम उनकी (ईश्वर की) गोद में हैं, उनकी गोद में खाते-पीते हैं, बीमारी होने पर उनसे नहीं कहेंगे तो किससे कहेंगे ?
श्रीरामकृष्ण - ठीक है, कभी कभी कहता हूँ, परन्तु कहीं कुछ होता नहीं |
डाक्टर- और कहना भी क्यों, क्या वे जानते नहीं?
श्रीरामकृष्ण -(सहास्य) एक मुसलमान नमाज पढ़ते समय ' हो अल्ला, हो अल्ला ' कह कर अजान दे रहा था| उससे एक आदमी ने कहा, ' तू अल्ला को पुकार रहा है तो इतना चिल्लाता क्यों है? क्या तुझे नहीं मालूम की उन्हें चींटी के पैरों के नुपूरों की आह्ट भी मिल जाती है ?' " जब उनमे मन लीन हो जाता है, तब मनुष्य ईश्वर को बहुत समीप में देखता है| परन्तु एक बात है, जितना ही यह योग होगा, उतना ही बाहर की चीजों से मन हटता जायेगा|
' भक्तमाल ' में बिल्वमंगल नामक एक भक्त की बात लिखी हुई है| वह वेश्या के घर जाया करता था| एक दिन बहुत रात हो गयी थी, और वह वेश्या के घर जा रहा था| घर में माँ-बाप का श्राद्ध था, इसलिए देर हो गयी थी| श्राद्ध की पूड़ियाँ वेश्या को खिलाने के लिये ले जा रहा था| वेश्या के ऊपर उसका इतना मन था कि किसके ऊपर से और कहाँ से होकर वह जा रहा था, उसे कुछ भी ज्ञान न था, कुछ होश ही न था |
रास्ते में एक योगी आँखे बन्द किये ईश्वर का ध्यान कर रहा था, उसे भी बेहोशी कि हालत में लात मारकर निकल गया| योगी गुस्से में आकर बोल उठा, ' क्या तू देखता नहीं? मैं ईश्वर -चिन्तन कर रहा हूँ, और तू लात मार कर चला जा रहा है?'
तब उस आदमी ने कहा- ' मुझे क्षमा कीजिये, परन्तु मैं आपसे एक बात पूछता हूँ- वेश्या की चिन्ता करके तो मुझे होश नहीं, और आप ईश्वर की चिन्ता कर रहे हैं, फिर भी आपको बाहरी दुनिया का होश है ! यह कैसी ईश्वर-चिन्ता है ?'
अन्त में वह भक्त बिल्वमंगल -संसार का त्याग करके ईश्वर की आराधना करने चला गया; जाने से पहले उसने वेश्या से कहा था, ' तुम मेरी ज्ञानदात्री हो, तुम्हीं ने मुझे सिखलाया कि ईश्वर के ऊपर किस तीव्रता से अनुराग किया जाता है !' और वेश्या को माता कह कर उसने उसका त्याग किया था|"
डाक्टर - " यह तान्त्रिक उपासना है, इसके अनुसार स्त्री को माता कह कर संबोधन किया जाता है|" ]
[ बिल्वमंगल प्रसंग देने का तात्पर्य : दादा के पितामह ने 7 मार्च 1897 को (तब बेलुड़ मठ स्थापित नहीं हुआ था) गिरीश घोष के दक्षिणेश्वर मंदिर जाकर स्वामी विवेकानन्द का दर्शन तथा उनकी वाणी का श्रवण किया था। हिन्दी अनुवाद के प्रथम प्रकाशन (दिसम्बर, 2009) में नवनीदा के पितामह द्वारा स्वामी विवेकानन्द के दर्शन और उनकी वाणी का श्रवण करने का प्रसंग छूट गया है। Bh -उसने प्रेम के समय माँ की नेत्रों से देखा, समझाया तांत्रिक उपासना घोषपाड़ा मत में Bh ज्ञानदात्री है ! बंगला रीप्रिंट में गिरीश घोष द्वारा लिखित पत्र की कॉपी भी अनुलग्न करें।
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Girish Chandra Ghosh.
Result
- Girish Chandra Ghosh. (February 28, 1844 - February 8, 1912)
We read page after page of scriptures. How much do we actually assimilate in our lives? Sri Ramakrishna once said to Girish Ghosh:' What are you talking about the knowledge of Brahman! Sukadeva only saw and touched the ocean of Knowledge. Lord Shiva drank only three handfuls of its water and became unconscious.'
Girish Ghosh clasped his head and exclaimed: 'Say no more, sir! My brain is reeling."
Try to understand this. Try to understand Girish Ghosh also.What a great mind he had. And how he could assimilate spiritual teaching! With us it enters one ear and goes out the other.
Think of Suka! How great he was! He did not want to be born in this world because he realized that it was illusory. 'And he only saw and touched the ocean of Brahman ! And Lord Shiva is the God of gods. He could only sip its water three times ! How true! One's head would reel to think of it!'
If one is in the company of Girish Babu for even five minutes, one gets freed from worldly delusion.. .He has such keen insight that he can see at a glance the innermost recess of a man's heart, and by virtue of this powerful insight he was able to recognise the Master as an Avatar.
— Nag Mahashay]
the devotional drama "BILVAMANGAL THAKUR !"
It was staged on the 12th June, 1886, the theme being taken from the religious book Bhaktmal. The hero, a dissolute Brahmin youth,
squandered everything on Chintamoni, a dancing girl, who lived on the other side of the Ganges.
One day after haying performed the Sradh Ceremony, he came on the banks of the river in the evening to cross it and come to Chintamoni. But the river heaved and assumed a threatening aspect owing to heavy storm and rain and there, was no boat, nor even a piece of wood there. It was all dark and he crossed the river at last, mostly with the help of a corpse which he found In the mid-stream and took it for a log of wood.
Next, when ho arrived at Chintamoni's house at dead of night, he found the door bolted from inside but a deadly snake was there dangling from the window.
Bilwa took it for a piece of string left by Chintamoni for him and holding fast by it, climbed up the window into the room. Now the presence of Bilwa smelling
so nesty with the worm-eaten decomposed body annoyed Chintamoni beyond the measure and the sight of the snake next bewildered her. At that psychological moment she scolded him in these words:- "this mind of yours if were so deeply devoted to God, instead of to a woman of my origin, would do you good."
These few words brought him to senses and led him to think of "Krsna, the All-shelter". The next is the history of his struggle, ups and down again, and how ultimately he was blessed with the beautiful vision of Srikrsna and Radha.
The above story Girish developed into an intensely devotional and lofty
drama with an exquisite art that defies all critical analysis.
The world -renowned Swami Vivekananda used to say of it, "Fifty times I have read the drama, and each time I find new light in it".
Sister Nivedita, Vivekananda's disciple and devoted to Girish as a daughter, was so much charmed with it that she actually translated a considerable portion of the drama into her own language. It is worthy of mention here that Bilwa- mangal was practically the first drama written by Girish after he obtained Ramkrishna Deb's blessings and accepted him as his Guru.
Songs of Pagalini and the teachings of Soingui represent the great Paramhansa in his various phases and the highest truth of Vedantism Nirbikalpa Samadhi is reflect- ed in the words of Pagalini .
Nahi ar Killer Gaman
Nuhi Hillol Kallol
Sthir Sthir Samudoy
Nahi Nuhi Phuraila Bak
Bartaman Birajita."
"All is one and there is no distinction of night and day, present and past. That state is Nirvana, when there is no stir, no noise and there is an end of the individual consciousness and one is immersed in the mighty ocean of supreme and divine bliss when every thing melts into Him".
Indeed Bilwamangal is not only rich in deep religious sentiments and lofty philosophical thoughts
* Bilwamangal : Amrita Mittra, Sadhak :Bel Babu, Bhikshuk Aghore Pathak, Banik Upendra Mitra, Shomgiri Probodh Ghose, Ahalya Bhuni ( Bonabiharini ),
Thaka Khetromoni, Purohit Shyam Kundu, Maiigala Khonra Kusum, Dewan Mohendra Chowdhuri, Pagalinl Gangamoni, Servant Paran Sil, Chintamoni : Binodini, Daroga Upendra Mitra, Chaukidar, SiSyas Ramtaran, Shyam Kundu, Rakhal ( cowherd boy ) Kashi Chatterji Janaika Sthri Promoda Sundarj.,
In Kdlapahar, "Chintamoni' speaks to "Leto" "Poor Leto, you differentiate Between a God and Allah " There is one God, "various people Call him in various names".
"As water is named in various words. Jal, Acqua, Pani, so is God, even if to some he is God to others Hari, Allah or Iswara, Jesus or Jehova. It is the narrow-minded only who try to form parties but the true worshippers of God entertain no feeling of difference between their own methods and those of others."
Girish was preaching this ' principle of Religious unity 'from the stage,that we fight over names, ver differences without any distinction,when
"Swami Vivekananda was preaching the same thing at the "Parliament of Religions held at Chicago and both of them were echoing the lessons given to them and to all by their common Guru Ramkrishna Deb" As many are ways as there are views." "Jata mat tata path."
Now Girish wants to make clear that what is true in the domain of religion is also true in the sphere of politics and nationalism. He deprecates that kind of unity between Hindus and Mohammedans which consists in shaking each others' hands in public meetings, but cherishing feelings of enmity in private life, and in communal interests. Thus in the Mayabasan Kalikinkar says " Excepting religious unity no other unity is possible."
What he means is this : "Hindus, Mohornedans, Christians and even the Brahmos are divided into various sects. Hindus again are sub-divided into various sub-sects and classes. There is an interminable quarrel between the Saktas and the Vaisnavas.To one sect the other is damnable.
If, however, we all consider that God is one and that we be we Hindus or Mohammedans, Christians or Jains are only His sons, then alone is unity possible,but until that is achieved, there is no hope."
Indeed this only can bring our regeneration and an instance may be quoted in
support of Girish's theory of unity. The Turkish delegation who came to India last yearstated in answerto the invitation of a section of the Mohammedan community
"We are Turks first and Mohammedans afterward." Similarly,if reli- gious unity is achieved,we Hindus and Mohammedans would then be in a position plainly to say that we are Indians first, and Hindus and Mohammedans afterward.
In 1884 Sri Ramakrishna came to see a play and visited Binodini backstage afterwards. This was an event, which left a deep impression on the actress who became an ardent devotee of Ramkrishna. In her time she was called the Flower of the Native Stage and the Moon of the Star Theatre. She introduced the modern techniques of stage make-up blending European and indigenous styles, at a time when there was no role model before her. Thus to a very great degree Chaitanya Lila contributed to the Hindu-awakening and Hindu revival. "
Truth is indeed stranger than fiction. So was the life of Binodini Dasi (1863-1941), a scarlet woman -turned-actress who dominated the Kolkata stage for a little more than a decade. Legend says Binodini quits the stage at the peak of her career. Binodini quits the theatre scene when she found herself moving towards spiritualism. Once, after portraying the title role of Sri Chaitanya in the play Chaitanya Lila, (the great saint who founded the Vaishnava philosophy in Bengal), Sri Ramkrishna Paramahamsa who had come to watch the play, walked up to the stage to bless her for her brilliant performance. Chaitnya Lila spread far and wide, the great Ram Krishna Paramhansha one night came with his disciples to see its performance. Girish gave an account of thisvisit in his reminiscences about Sri Ramkrishna....When a disciple asked him "How didyou find it ?",
Paramhansha Dev replied - " Ashal Nakal Ek Dekhlam " "I found the imitation and the real to be identi- cally the same "
After the play was over, Binodini had the good luck of a darshan (look) of him. She touched his feet Sri Ramkrishna blessed her : "May you attain Chaityana " or knowledge i.e. self-consciousness," * For a full description we refer to our readers 6V7 Sri Ramkrsna Kathamrta, 2nd part. It was a red-letter day for the Bengali Stage that it was favoured and blessed by so saintly a person (whom thousands went to see and to touch his feet) that came to seek his own dear one from the obscurity and impure elements of the stage. The great devotee and Yogi Bijoy Krishna Goswami, on seeing a performance of the same on an occasion, danced as if in a trance. She flowered into a versatile actress-star under the able guidance of none other than -
" Chaitanya Lila " also acted as a renaissance of Hindu religion and culture at that critical time in the national history of Bengal, when young Bengal, England-returned anglicised Balms and the Brahmos predominated in the educated society. The reli- gious faith of the whole Hindu community was greatly revived by the religious sentiments so deeply incorporated in the drama. Thus says Babu Amritalal Bose about it : "In cities and villages Jatra parties were formed, various editions of the Gitti and Chaitanya's life flooded the country. Even an England-returned Bengali instead of feeling any sense of shame rather proudly began to proclaim himself as a Hindu". His 'Ode to Girish' also composed after the latter's death, conveys the same idea :
"Who else but Girish of Bengal Will play upon the lyre ? The stage became a shrine of pilgrimage, And the theatre, a resort of the devotees ! The dniina of Chaitanya Llla which practically rledrified the whole country was the chief topic of the day.}
**With thanks to https://archive.org/THE INDIAN STAGE
Vol. Ill ] ]
1 टिप्पणी:
I have tried to create a blog where the teachings of Sri Bijoy Krishna Goswami Can be read.
sadgurusanga.blogspot.com
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