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बुधवार, 20 जनवरी 2010

" न कृतः शीलविलयः" (Basantpur Camp Lecture of Navnida)

  " भर्तृहरि के नीतिशतक की शिक्षा "

भाइयों, प्रश्नोत्तरी की कक्षा में मुझे आज बहुत बोलना पड़ा, जबकि मेरा स्वास्थ्य अभी बहुत ख़राब है| वैसे बाहर से देखकर मेरी शारीरिक अवस्था या उम्र का सही-सही अनुमान लगा पाना काफी मुश्किल है, क्योंकि मेरे सिर के बाल अभी भी काले ही हैं, सफ़ेद नहीं हुए हैं| किन्तु मेरी आयु तो अब ८० वर्ष होने वाली है|
स्वामी विवेकानन्द ने युवा वर्ग को जितने भी परामर्श दिये हैं, तथा वे युवा वर्ग से जिन बातों की अपेक्षा रखते थे, उसके सार को हमलोगों ने यहाँ बार-बार सुना है| उनके अनुसार अपने चरित्र को सुन्दर ढंग से गठित कर लेना ही युवाओं का एकमात्र कर्त्तव्य है| केवल मनुष्य की आकृति प्राप्त कर लेने से ही कोई व्यक्ति मनुष्य नहीं बन जाता, बल्कि अपने चरित्र का निर्माण कर, सुन्दर जीवन-गठित कर लेने वाले व्यक्ति को ही यथार्थ ' मनुष्य ' की संज्ञा दी जा सकती है| भारत में दो हजार वर्ष से भी पहले एक प्रतापी राजा हुए हैं - भर्तृहरि ! आज उनका यह पवित्र नाम, " भर्तृहरि "- हमारे पूरे देश में वैराग्य का ज्वलन्त प्रतीक माना जाता है| 
किन्तु, इनका प्रारम्भिक जीवन ठीक नहीं था| ये बड़े ही बुरे ढंग से अपना जीवन-यापन करते थे, बड़े ही बुरे ढंग से| यौवन काल में वे अत्यन्त ही भोग-विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे| और इसी कारण अपने उस जीवन के ऊपर, उन्होंने संस्कृत भाषा में एक सौ श्लोकों की रचना की थी| नाम था - ' श्रृंगार शतकम '! इस श्रृंगार-शतक में बस केवल श्रृंगार-रस ही भरा हुआ था|
क्योंकि इनकी रचना करते समय उनमे ' विवेक-शक्ति ' का उदय नहीं हुआ था| लेकिन धीरे धीरे व्यावहारिक जीवन का अनुभव प्राप्त करने से उनमें नीतिबोध जाग्रत हुआ| तब उन्होंने योग्य राजा के लिये उपयोगी और भी १०० संस्कृत श्लोकों की रचना की, जिसका नाम हुआ, ' नीति-शतकम '! मन में नीति का बोध जाग्रत होने से बाद में वैराग्य का भाव भी उत्पन्न हो गया|      
वैसे, श्रृंगार का यह भाव बीज रूप से सभी में रहता है| किन्तु वह बीज वृक्ष के रूप में परिणत होने से पूर्व ही, अनेकों युवाओं के जीवन को बिल्कुल ही नष्ट कर देता है| जो युवा नैतिकता के महत्व को समझकर उसे आचरण में उतारना चाहते हैं, वे श्रृंगार वाले भाव का त्याग कर देते हैं| क्योंकि जीवन में नैतिकता का पालन करने से ही ' जीवन गठन ' होता है| नीति बोध रहने से ही हम यथार्थ मनुष्य में परिणत हो पाते हैं| 
इसके बाद है- वैराग्य| वैराग्य का अर्थ घर से निकल कर जंगल में चले जाना और साधु बन जाना ही नहीं है| " घर-गृहस्थी में रहते हुये भी वैराग्य में सुप्रतिष्ठित " - ऐसे एक दो नहीं, बल्कि कई लोगों को देखने तथा उनके साथ रहने का सौभाग्य मुझे इस जीवन में प्राप्त हुआ है|
मैंने यह अनुभव किया है, कि घर-गृहस्थी में रहते हुए परिवार के सदस्यों, सगे-संबंधियों एवं पास-पड़ोस में रहने वाले लोगों के साथ यथायोग्य व्यवहार करते हुए भी त्याग, वैराग्य के भाव में सुप्रतिष्ठित रहा जा सकता है| 
नीति-शतक में भर्तृहरि कहते हैं कि श्रृंगार के चक्कर में पड़कर कई युवाओं का बहुमूल्य जीवन नष्ट हो जाता है, उनका चरित्र सुन्दर ढंग से गठित नहीं हो पाता, वे यथार्थ मनुष्य बनने के लक्ष्य से भटक जाते हैं, इसीलिये समय रहते इसका त्याग कर देना चाहिये, जीवन भर इसीमें नहीं रहना चाहिये| श्रृंगार के आकर्षण से बाहर निकलने और नीतिबोध में जाग्रत रहने का मार्ग बतलाते हुए, ' राजा-कवि-योगी ' भर्तृहरि कहते हैं- 
वरं तुंगात श्रृंगात गुरुशिखरिणः  क्वापि विषमे 
   पतित्वायं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः |
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदंशने
वरं वह्नौ पातास्तदपि न कृतः शीलविलयः ||
- यदि तुम श्रृंगार के आकर्षण से स्वयं को मुक्त करने में, या स्थिति को सँभालने में असमर्थ हो और चरित्रवान मनुष्य बनना तुमसे संभव नहीं हो पाता हो, तो इससे अच्छा है कि तुम विशाल पर्वत के ऊँचे शिखर से किसी भी टेढ़ी-मेढ़ी कठोर चट्टान के बीच गिरकर अपनी हड्डियाँ तुड़वा लो, या किसी फणधारी नाग के मुख में तीखी दाढ़ों के बीच हाथ धर देना भी उचित है|
क्योंकि चरित्रहीन होने की अपेक्षा आग में कूद पड़ना भला हो सकता है, किन्तु किसी भी परिस्थिति में अपने चरित्र को गिरने देना उचित नहीं है! क्योंकि अपने चरित्र का निर्माण किये बिना तुमसे देश की सेवा का कोई भी कार्य सुचारू ढंग से नहीं हो पायेगा| इस वाणी को दो हजार वर्ष पूर्व ही, भारत को सुनाया गया था| कवि-राजा योगी भर्तृहरि की इस प्राचीन वाणी को भारत में हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक पदबद्ध कर( लोक-गीत का रूप देकर) भिन्न-भिन्न भाषाओँ में योगियों-वैरागियों द्वारा गाये जाने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है, और भविष्य में भी यह क्रम चलता रहेगा| स्वामी विवेकानन्द ने भी पूरे पाश्चात्य जगत को भारत की इसी प्राचीन शिक्षा को अपने ढंग से अंग्रेजी में सुनाया था| 
स्वामीजी तो बंगाल में जन्म लिये थे न, इसीलिये जब उनको बंगाल में भाषण देना पड़ा तो उन्होंने बंगला भाषा में दिया| किन्तु, उत्तर भारत की यात्रा के समय उन्होंने हिन्दी में भी व्याख्यान दिया था| अपने हिन्दी-भाषी भाईयों से, मैं एक बात और कहना चाहूँगा- शायद आप इसे नहीं जानते होंगे या हो सकता है आप में कोई-कोई इस बात को सुने भी होंगे|आज सारे भारत में हिन्दी भाषा में व्याख्यान देने की जिस परम्परा को आप देख रहे हैं, हिन्दी में भाषण देने की इस परम्परा का प्रारम्भ करने वाले ' प्रथम-व्यक्ति ' स्वामी विवेकानन्द ही थे| 
शायद, आपको हिन्दी में व्याख्यान देने की परम्परा के प्रारम्भ का इतिहास पुर्णतः ज्ञात न हो, क्योंकि इतिहासकार लोग भाषा के विषय में इतना विस्तृत इतिहास नहीं लिखते हैं| आमतौर पर इतिहास में राजा, उसकी शासन व्यवस्था, उसकी न्याय प्रणाली आदि के विषय में ही लिखा जाता है|लेकिन उस समय की सामजिक परिस्थितियों पर या छोटी-छोटी Cultural  गतिविधियों पर विस्तार से कुछ भी लिखा हुआ मिल पाना मुश्किल है| स्वामी विवेकानन्द जब पाश्चात्य की यात्रा से लौटे तो सिंहल-द्विप में उतरे थे, कोलम्बो में| फिर भारत आकर मद्रास होते हुए हिमालय तक चले गये थे| " Columbo to Almora " नामक पुस्तक में उनके इन व्याख्यानों को संकलित किया गया है- ऐसा अदभूत व्याख्यान और कहीं नहीं मिलेगा| उन्होंने उन्ही व्याख्यानों के माध्यम से पूरे भारत को यह संदेष दिया था कि अपने पुनरुत्थान के लिये उसे क्या करना होगा ! 
इसी क्रम में वे कुछ दीन अल्मोड़ा में ठहरे और विश्राम किया| लोग उन्हें देखने आते और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होते| अल्मोड़ा में रहते समय उन्होंने अंग्रेजों के लिये उन्होंने जो व्याख्यान अंग्रेजी भाषा में दिया था, उसका अंग्रेजी पढ़े-लिखे वहाँ के अन्य स्थानीय लोगों पर भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था| वे स्वामीजी से विनती करने लगे कि - स्वामीजी यहाँ के स्थानीय लोग अंग्रेजी भाषा को ठीक से समझ नहीं पाते अतः वे हमसे पूछते हैं कि स्वामीजी ने क्या कहा, तो हम उन्हें थोड़ा बहुत बतलाने कि चेष्टा करते हैं| किन्तु आपके जैसा तो हम बोल नहीं सकते| इसीलिये यदि आप अपना व्याख्यान हिन्दी भाषा में देंगे तो उससे यहाँ की साधारण जनता का बहुत कल्याण हो सकेगा|'
 किन्तु उस समय तक समाज में संस्कृत के पंडितों की इतनी प्रधानता थी कि, तब हिन्दी में व्याख्यान देने का साहस कोई कर ही नहीं सकता था|उस समय तक संस्कृत के पंडित लोग समाज के ऊपर इतना वर्चस्व रखते थे कि पूरा समाज उनके आदेश को शिरोधार्य कर लेता था, अतः उस समय तक यही परम्परा थी कि यदि कहीं जनसभा में कोई भाषण होगा तो वह या तो संस्कृत में होगा या अंग्रेजी में होगा| उन पंडितों में कुछ महान गुणों के साथ साथ कुछ दोष भी थे जिसके कारण हिन्दी में व्याख्यान देने की पाबन्दी को समाज ने भी स्वीकार कर लिया था|
खैर, बहुत अनुनय-विनय करने पर स्वामीजी ने हिन्दी में ब्याख्यान देना स्वीकार कर लिया| एक स्कूल में व्याख्यान की व्यवस्था की गयी, लेकिन स्वामीजी ने इससे पूर्व कभी भी हिन्दी में व्याख्यान नहीं दिया था, पर, हिन्दी भाषा को समझते अवश्य थे| भारत में रहने वाले सभी लोग थोड़ा-बहुत हिन्दी अवश्य समझ लेते हैं, किन्तु, अधिकांश अहिन्दी भाषी क्षेत्र के लोगों को धारा प्रवाह हिन्दी बोलने में कठिनाई होती है| 
पर जब स्वामीजी ने भारत की प्राचीन शिक्षाओं को आम जनता के समक्ष पहली बार हिन्दी में रखा तो वहाँ के स्थानीय लोग बहुत खुश हुए, बहुत खुश ! वे कहने लगे अहा ! ऐसे-ऐसे श्रेष्ठ उपदेश हमारे भारत में सदियों से प्रचलित हैं !किन्तु लोकभाषा में रहने के कारण  अधिकांश आधुनिक तथाकथित पढ़े-लिखे लोग (उन्हें ' Shepherd Song ' गरड़िया का गीत मान कर ?)उनकी उपेक्षा कर देते थे| और प्राचीन काल से चली आ रही चरित्र-निर्माण कारी और जीवन गठन के लिये उपयोगी - ' भर्तृहरि के नीतिशतक की शिक्षा ' जैसी बहुमूल्य शिक्षाओं से वंचित रह जाते थे| अब उन्ही प्राचीन भारतीय शिक्षाओं को स्वामीजी के मुख से (अंग्रेजी, बंगला के साथ-साथ) पहली बार हिन्दी भाषा में भी सुनने से वे लोग अपने को धन्य मान रहे थे !
जिस दिन वह व्याख्यान हुआ था, उसके अगले दिन - २९ जुलाई १८९७ को स्वामीजी अपने एक गुरुभाई, स्वामी रामकृष्णानन्द जी को एक पत्र में बहुत ही आनन्द पूर्वक सूचित करते हैं कि- " देखो-देखो, मुझसे हिन्दी भाषा में व्याख्यान देना भी संभव हो गया|और यहाँ के हिन्दी भाषी लोग मेरा हिन्दी व्याख्यान सुनकर बहुत प्रसन्न हुए हैं |" 
तो इस प्रकार से स्वामीजी द्वारा किसी आम सभा में  पहली बार हिन्दी में व्याख्यान देने की मिशाल पेश करने के बाद अन्य जगहों  पर भी हिन्दी में व्याख्यान देने का प्रचलन हो गया|और तब पंडितों ने भी यह स्वीकार कर लिया कि हिन्दी में व्याख्यान दी जा सकती है| इसके पहले आम सभाओं में हिन्दी में व्याख्यान नहीं होता था| संस्कृत के अलावा कहीं-कहीं English में  होता था किन्तु, हिन्दी में तो बिल्कुल नहीं होता था|
हिन्दी भाषा मुझे बहुत प्रिय है, हालाँकि मैं इस भाषा को बहुत अच्छी तरह से नहीं जनता हूँ| पर यह भाषा बड़ी मीठी है तथा भारत के सभी प्रान्तों के लोग हिन्दी समझ सकते हैं|" We see some people pretend that they don't follow Hindi, But I have never found  a single person who does not follow if somebody says something in Hindi."
(- हम यह देखते हैं कि कुछ लोग हिन्दी जानते हुए भी उसे न समझने का बहाना करते हैं, किन्तु, मुझे आज तक कोई ऐसा एक भी भारतीय नहीं मिला जो हिन्दी में कुछ कहने से वह उसे नहीं समझ लेता हो|) 
हिन्दी सभी समझते हैं, अतः इसको ही भारत की ' Lingua Franca ' (a common language used by speakers of different languages) " सार्वजनिक भाषा " के रूप में स्वीकार करना चाहिये| हिन्दी ही राष्ट्र-भाषा  ' Lingua Franca ' है !
अतः राष्ट्रभाषा कहलाने का गौरव भी हिन्दी को छोड़ अन्य किसी भी भाषा को नहीं दिया जा सकता है| हिन्दी के अलावा इंग्लिश, मराठी, बंगाली या अन्य कोई भाषा भारत की राष्ट्रभाषा नहीं हो सकती| भारत के किसी भी प्रान्त में चले जाइये, हिन्दी में बात करने से काम चल जायेगा| मैं एकबार दक्षिण भारत गया था| वहाँ बहुत स्थानों में घूमा, वहाँ मेरे साथ एक वरिष्ठ साधु भी थे| मेरी बहुत ईच्छा हुई कि दक्षिण भारत आया हूँ तो शंकराचार्य के जन्मस्थान को भी देखना चाहिये|लेकिन मेरे बहुत कहने पर भी कोई मेरे साथ चलने को तैयार नहीं हुआ| उस समय मैं किस शहर में था अब याद नहीं पर जब कोई तैयार नहीं हुआ तो मैं अकेला ही चल पड़ा| 
वहाँ कलाडी में शंकराचार्य के जीवन से संबन्धित पूर्णा नदी को देख कर मैं शंकराचार्य जी की स्मृति से इतना अभिभूत हो गया कि करीब १५-२० फीट कि ऊँचाई से नदी में कूद पड़ा ! लोग चिल्लाते हुए दौड़ पड़े - ये क्या कर रहे हैं ? यह बहुत खतरनाक है ऐसा करने से जान भी जा सकती थी|देखिये, उस सुदूर दक्षिणी प्रान्त में भी, लोगों ने मुझे North Indian  समझ कर मुझसे हिन्दी में ही बात की| यह है हिन्दी !
नदी की बात निकली है तो एक बात और याद आ गयी| जिन्होंने शंकराचार्य जी की जीवनी पढ़ी है वे जानते हैं कि उनकी माताजी को प्रतिदिन नदी में नहाने का अभ्यास था| लेकिन नदी उनके घर से थोड़ी दूर पर बहती थी| शंकराचार्य जी को लगा कि इतनी दूर जाकर नदी में नहाने से माँ को बहुत कष्ट होता है, यदि वह नदी ही थोड़ी नजदीक आ जाती तो माँ को आसानी हो जाती|
तब शंकराचार्य जी प्रार्थना की- " हे नदी माता, यदि तुम मेरे घर के निकट आ जाती तो अच्छा होता, मेरी माँ को तुम्हारे जल में स्नान करना अच्छा लगता है| " और ऐसा कहा जाता है कि नदी पास में आ गयी थी| There is another instance- श्री रामकृष्ण देव के एक गृही भक्त थे, साधु नाग महाशय, वे पूर्वी बंगाल में रहते थे, उनकी कुटिया से कुछ दूरी पर पद्मा नदी बहती थी| ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने भी शंकराचार्य जी की तरह प्रार्थना की और नदी सचमुच उनकी कुटिया के नजदीक आ गयी थी|
वरं तुंगात श्रृंगात गुरुशिखरिणः  क्वापि विषमे 
   पतित्वायं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः |
वरं न्यस्तो हस्तः फणिपतिमुखे तीक्ष्णदंशने
वरं वह्नौ पातास्तदपि न कृतः शीलविलयः ||
 
- भले ही ऊँचे पर्वत-शिखर से कूद पड़ने के कारण तुम्हारा अंग भंग क्यों न हो जाय, काले नाग के मुख में हाँथों को डाल देने पर सर्प के दंश से तुम्हारे प्राण क्यों न छूट जाएँ, अग्नि में गिर पड़ने से तुम्हारा शरीर भी जल कर खाक क्यों न होता हो, लेकिन - " न कृतः शीलविलयः !! " अपने चरित्र को कभी नष्ट न होने देना|
कैसी अदभूत शिक्षा थी- भर्तृहरि की ! कैसा आह्वान था ! - ये सब वाणियाँ हजारो वर्ष पूर्व भारत में गुंजायमान हुई थीं| भारत की संतानें कितनी महान हैं ! सभी को भर्तृहरि की वाणी सुननी चाहिये और आचरण में उतारना चाहिये | चरित्र को कभी नष्ट नहीं होने देना, उसे सुन्दर रूप से बना लेना ही सबकुछ है| 
मैंने आपका बहुत समय ले लिया| मैं अपना प्रेम आप सभी को देता हूँ | किन्तु देना-लेना कुछ होता नहीं है, क्यों; जानते हो भाइयों ? तुमलोग और यहाँ से जो बैठकर बोल रहा है, एक ही हैं- बिल्कुल एक ! शरीर अलग-अलग है किन्तु, भीतर में एक ही वस्तु है | जगत में अनेक प्राणी हैं, पर मनुष्य को ही उनमे सबसे महान क्यों कहा जाता है ? वह इसीलिये कि सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही जगत को उसके यथार्थ स्वरूप में जान सकता है| इस जगत का जो सार वस्तु है, उसे ब्रह्म कहा जाता है |
इसी ब्रह्म से ही सबकुछ आया है और फिर अन्त में सबकुछ उसी में लौट जाता है| वही ब्रह्म सभी के भीतर में हैं ! इसीलिये बाहरी तौर पर अलग-अलग होते हुए भी हम सभी लोग भीतर से एक हैं| विविधता के भीतर ही एकत्व भी है |
मेरी शुभकामनाएँ आपके पास पहुँचे| मेरा हार्दिक प्रेम लो भाई| तुम सब अपने जीवन को सुन्दर रूप से बनाओ| और इस सुन्दर जीवन को राष्ट्रमाता कि सेवा में न्योछावर कर दो | और दुखी मनुष्यों के आँसू पोंछने का प्रयास करो | उन्हें भोजन मिल सके, विद्या प्राप्त हो सके, सुख किसे कहते हैं, इसका कुछ अनुभव इसी जीवन में उन्हें भी हो सके, इसकी व्यवस्था करो !
भगवान श्री रामकृष्ण, जगन्माता सारदा देवी एवं जगतबन्धु स्वामी विवेकानन्द के पास मेरी यही प्रार्थना है।
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अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय द्वारा बसंतपुर (प० बंगाल) में आयोजित, महामण्डल के ४३ वें वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में ३० दिसम्बर २००९ को विदाई सत्र में दिये गये भाषण का सम्पादित अंश) 
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