बुधवार, 17 जुलाई 2013

वेदान्ती साम्यवाद

 
जब कोई व्यक्ति बिन्दु से सिन्धु बन जाता है, या यथार्थ मनुष्य बन जाता है तो उसका ह्रदय अनन्त तक विस्तृत हो जाता है। तब उसे धर्म लाभ होता है, और वह बोल पड़ता है -
अयं निजो परेवेति गणना लघुचेतसाम, 
उदारचरितानाम तु वसुधैव कुटुम्बकम।
किन्तु जब इस तरह के यथार्थ धर्म का पतन हो जाता है तब हर स्थान में कोई महापुरुष आविर्भूत हो जाते हैं, जो धर्म को पुनः स्थापित करते हैं। एक ऐसा समय भी आया था जब सभी धर्म पतित हो गये थे। उस समय सभी धर्मों को फिर से स्थापित करने के लिये श्रीरामकृष्ण देव आविर्भूत हुए थे। उन्होंने केवल हिन्दू धर्म को ही स्थापित नहीं किया था, बल्कि इस्लाम धर्म, ईसाई धर्म, सिख धर्म सभी उपासना मार्गों से धर्म लाभ करने के बाद कहा था - 'जितने मत उतने पथ।' इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने ' ठाकुर देव ' को 
अवतार वरिष्ठ घोषित करते हुए प्रणाम-मन्त्र की रचना की थी - 
ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे,
 अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः।
हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि श्रीरामकृष्ण देव स्वामी विवेकानन्द के गुरु थे इसीलिये पक्षपात करके उन्हें अवतार वरिष्ठ कह दिया होगा। जब ' शिकागो भाषण ' के बाद पूरे अमेरिका में उनका नाम प्रसिद्द हो गया, जब सम्पूर्ण भारत उनको जानने लगा, तो लोगों में यह स्वाभाविक जिज्ञाषा हुई कि ऐसे विलक्षण वक्ता का गुरु कौन है ? सभी लोग उनसे अनुरोध करने लगे कि आप अपने गुरुदेव के बारे में कुछ बताइये। किन्तु वे  उनके विषय में कुछ कहने में हिचकिचाहट महसूस कर रहे थे। जब उनसे बहुत अनुरोध किया गया तब उन्होंने कहा, " मेरे गुरुदेव इतने महान थे, इतने असीम थे, कि उनके बारे में कुछ भी कहने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि असीम अनन्त को शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है। कई बार पूछने से वे इतना ही कह सके कि - " श्रीरामकृष्ण प्रेमस्वरूप हैं !
 " He is LOVE personified !" वे तो प्रेम की साकार मूर्ति थे ! " उन्होंने इस प्रणाम मन्त्र को हावड़ा में जिस गृहस्थ के पूजा-गृह में ठाकुर की जिस छवि के सामने बैठकर रचा था, वह चित्र आज भी वहाँ उसी प्रकार रखी हुई है। प्रश्न हो सकता है कि प्रेम-स्वरूप भगवान (ठाकुर देव) को " अवतार-वरिष्ठ " मनुष्य देह धारण करके आविर्भूत क्यों होना पड़ा ? क्योंकि यह मानव मनोविज्ञान (human psychology ) का एक नियम है कि "श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।"
   
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरा जन: ।
                     स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।गीता 3 /21।।

केवल धर्म-ग्रंथों से ही काम नहीं चलता है; यत्  यत्  अचरति  श्रेष्ठ: = श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है; इतरः जनः -दूसरे लोग भी उसी का अनुसरण करते हैं। " स: यत्  प्रमाणम्  कुरुते लोक: तत् अनुवर्तते " -पुरुषोत्तम (भगवान) स्वयं मनुष्य शरीर धारण करके अपने जीवन द्वारा जिसे प्रमाणित करते हैं लोग उसी का अनुसरण करते हैं। श्रेष्ठ लोग (वर्तमान सन्दर्भ में नेता ) जैसा आचरण करते हैं उसी का अनुकरण जनता भी करती है । इसीलिये महामण्डल के जो 'नेता ' केवल भाषण या प्रवचन देकर ही नहीं, बल्कि स्वामीजी के आदर्श को अपने जीवन में उतार कर, अपने जीवन को ही ' उदहारण स्वरुप ' गठित करके लोगों के समक्ष रखने में समर्थ होंगे, दूसरे लोग उसका ही अनुसरण करेंगे। इसी कारण सर्व शक्तिमान भगवान मनुष्य शरीर धारण करके अपने जीवन में आचरण द्वारा शास्त्र को मर्यादा देते हैं, और अपने जीवन को ही प्रमाण बनाकर
' युग-धर्म ' के आदर्श को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। उनके जीवनादर्श से शिक्षा प्राप्त करके अन्य लोग उनके द्वारा निर्देशित धर्म-मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसी प्रकार श्री भगवान संसार में धर्म-संस्थापन करते हैं।     
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
           अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।4 /7।।

हे भारत ! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूपको रचता हूँ (अर्थात् साकार रूपसे प्रकट होता हूँ) । इसीलिये समय के प्रवाह में जब संसार में अधर्म बढ़ जाता है, तब वे मानों अपना कर्तव्य पालन के उद्देश्य से धर्म की ग्लानी दूर करने के लिये भगवान संसार में अवतीर्ण होते रहते हैं। जीव-जगत के कल्याण के लिये स्वयं श्रीभगवान का आविर्भूत होना जगत के अध्यात्मिक इतिहास में घटित होने वाली एक अनिवार्य घटना है। हर युग में ऐसा ही होता आया है। 
इसीलिये जब सभी धर्मों में ग्लानी आ गयी और अधर्म का उत्थान हो गया तो श्रीभगवान (श्रीरामकृष्ण) ने अपनी आत्मा को प्रकट कर दिया, यही सार बात है। " तदात्मानं सः सृजस -इमानी बभूव भारत ।"  ऐसा नहीं है कि बुद्ध देव ने तो केवल इतना ही कहा था कि " मैं जाग गया हूँ "; इसीलिये ठाकुर देव उनसे बड़े थे। बल्कि वर्तमान युग में विभिन्न नाम वाले धर्मों के लिये एक दूसरे के प्रती केवल सहिष्णुता (tolerance ) या सम-भाव रखना ही पर्याप्त नहीं हो रहा था, वर्तमान युग की आवश्यकता विश्व के समस्त धर्मों में समन्वय लाने की थी, अर्थात एक दूसरे के धर्म में निहित सार बातों को अंगीकार (acceptance ) करने की थी। इसीलिये  विभिन्न मतावलम्बियों के भिन्न भिन्न उपासना पद्धतियों द्वारा साधना (तुलनात्मक अध्यन ) करके सभी धर्मों के भीतर एक ही सत्य अन्तर्निहित है - को  उद्घाटित करना होगा, उन्हें संस्कारित करना होगा, अर्थात सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बियों के भीतर 'धर्म ' की भावना को जाग्रत करके पुनः प्रतिष्ठित करना, युग-धर्म है ! यह बोध विश्व के अध्यात्मिक इतिहास में केवल श्रीरामकृष्ण ने ही स्थापित किया है, इसीलिये स्वामीजी उनको  अवतार-वरिष्ठ कहते हैं।
' तद समः कोSपी न दृश्यते '- उनके बराबर का दूसरा कोई अवतार दिखाई नहीं देता है। श्रीरामकृष्ण ने यह कभी नहीं कहा कि केवल मेरा धर्म ही ठीक है, अतः विश्व के सभी मनुष्यों को मेरा धर्म ग्रहण करना ही पड़ेगा ! उन्होंने तो यह कहा था कि विश्व के सभी धर्म सही हैं ! ' जितने मत उतने पथ ' हैं, और सभी ठीक हैं। ठाकुर देव की इसी उक्ति को प्रतिध्वनित करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "  वेदान्त सब धर्मों का बौद्धिक सार है। वेदान्त के सागर में हिन्दू, पारसी, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी एक हो जाते हैं। " आज तक के मानव इतिहास में इस तरह की घोषणा अन्य किसी महापुरुष ने नहीं की है। यह बात पुराणों में भी नहीं है। श्रीरामकृष्ण के धरती पर अवतरित होने के पहले तक धर्म के ही नाम पर एक धर्म का दूसरे धर्म के साथ संघर्ष, हत्या, दंगा-फसाद क्या क्या नहीं होता रहा है, क्या इसी को धर्म कहा जाता है ? एक लाख में से कोई एक आदमी ही शायद धर्म को सही रूप में समझते होंगे। जिसको हमलोग हिन्दू धर्म कहते है, वास्तव में उसका नाम सनातन धर्म है।
" तंत्र  वक्ता शिव साक्षात् " तन्त्रों के वक्ता स्वयं साक्षात् शिव हैं, और सुनने वाली स्वयं माता पार्वती हैं। जब भगवान शिव बोलते हैं, और माता पार्वती सुनती हैं, तो उसको आगम कहा जाता है, और जब माँ पार्वती बोलती हैं, और शिव श्रोता होते हैं, उसे निगम कहा जाता है। [आगम और निगम आध्यात्म के दो पंख हैं। जिनके सहारे साधक साधना जगत में उड़ान भरते हैं। उन्होंने कहा कि दोनों के संयोग से त्रिगुणातीत की अवस्था प्राप्त होती है जिससे समाधि प्राप्त होना तय है।] यही है सनातन धर्म जो शास्वत है। उसको धर्म नहीं कहते हैं, जिसका एक दिन जन्म होता है, जो कुछ वर्षों तक स्थित रहता है, फिर उसका अन्त हो जाता है। जिस सम्प्रदाय या मतवाद में ऐसी मान्यता हो उसे मतवाद (Religion) कहा जा सकता है, किन्तु उसे धर्म नहीं कह सकते हैं। भागवत में युधिष्ठिरजी देवर्षि नारद से पूछते हैं कि " सनातन धर्म क्या है ? आप मुझे समझाइये। " भगवन् श्रोतुमिच्छामि नृणां धर्मं सनातनम् । " (७/११/२) 
उसके उत्तर में नारदजी ने जो बताया है, वह मार्क्स के साम्यवाद से हजार गुना उत्कृष्ट सिद्धान्त है-नारदजी कहते हैं, "वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायणमुखात् श्रुतम् ॥ ७/११/ ५ ॥ " युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। मनुष्यों के धर्म सेतुस्वरुप भगवान को प्रणाम करके मैं आज बतलाऊंगा कि सनातन धर्म क्या है, जिसे मैंने स्वयं नारायण के मुख से सुना है।" 

अन्नाद्यादेः संविभागो भुतेभ्यश्च यथार्थतः ।

             तेष्वात्मदेवताबुद्धिः सुतरां नृषु पाण्डव ॥७/११/ १०॥



अर्थात समाज में अन्नादि (खेतों में या फैक्ट्रियों में ) जो कुछ भी उत्पादन होगा, उस 'सकल घरेलू उत्पाद' 'GDP' को समस्त प्राणियों में यथायोग्य विभाजन, समाज के सभी वर्ग के लोगों में जिसकी जितनी आवश्यकता हो, उसी हिसाब से वितरण करना होगा। किन्तु 'सकल घरेलू उत्पाद' का वितरण करने वाले (जो कर्मचारी या नेता) होंगे उनको वितरण करते समय विशेष करके मनुष्यों -" तेष्वात्मदेवताबुद्धिः" में अपनी आत्मा या अपने इष्टदेव को देखते हुए वितरण करना होगा। इसको कहते हैं- सनातन धर्म !! 
 (इसका पालन करने से स्कूलों में मिड डे मिल खाने वाले बच्चे कभी मर नहीं सकते हैं।)-अर्थात जिनको भी मैं अन्न या विद्या दान कर रहा हूँ, वे सभी मनुष्य हमलोगों के अपनी ही आत्मा-देवता  हैं इस बुद्धि से देना होगा। ' शिव ज्ञान से जीव सेवा करना ' -यही है सनातन धर्म ! किन्तु मार्क्स यह नहीं बता सके कि सकल घरेलू उत्पाद को क्यों सभी मनुष्यों में उसकी आवश्यकता के अनुसार वितरित करनी चाहिये ? वहीँ सनातन धर्म इस सच्चाई को स्पष्ट करता है, की सभी मनुष्य बिल्कुल मेरी आत्मा ही हैं। या सभी मानव शरीर देवालय है, जिसमें मेरे इष्टदेव रहते हैं, इस बुद्धि से वितरित करना होगा।
 किन्तु इस धर्म का नाम सनातन धर्म है, हिन्दू -धर्म नहीं है।  स्वयं को सनातन -धर्म या वैदिक धर्म का अनुयायी अथवा  "वेदान्ती " नहीं कहकर हिन्दू कहना स्वयं को छोटा करना है। यदि आज के युवा धर्म की इस परिभाषा को समझ ले, और अपना जीवन गठित करके यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने के कार्य में लग जाये तो उस नये मनुष्यों से नया और महान भारत निर्मित हो जायेगा। हमलोग जो कुछ यहाँ सुन रहे हैं, उसे अपने जीवन में उतार लें, तो हमारा जीवन बदल जायेगा, जिसके फलस्वरूप समाज भी बदल जायेगा, नई दुनिया आ जाएगी। सबकुछ चेतन है, जड़ कुछ भी नहीं है, सब कुछ एक है, दो कुछ नहीं है, भीतर से सब एक हैं, हाँ अभिव्यक्ति के तारतम्य में अन्तर अवश्य होता है। श्रीरामकृष्ण सम्पूर्ण जगत को इसी भाव की शिक्षा देने के लिए अवतरित हुए हैं। कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी तर्क दे सकते हैं, कि उनको तो व्याकरण का कुछ भी ज्ञान नहीं था, वे स्वयं अनपढ़ थे तो मूर्ख व्यक्ति हमें क्या सिखा सकता है? इसीलिये आचार्य शंकर ने कहा था -
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥ (भज गोविन्दम्)
हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है। 
श्रीरामकृष्ण एक कथा सुनाते थे- " एक दिन कोई शास्त्रों के ज्ञाता पण्डितजी एक नाव में बैठकर नदी पार कर रहे थे, उसी समय वे माँझी को शास्त्र का उपदेश देने लगे। उन्होंने माँझी से प्रश्न किया, क्या तुमने रामायण या भागवत आदि कुछ नहीं पढ़ा है ? तब तो तुम्हारा आधा जीवन व्यर्थ ही बीत गया। माँझी ने कहा, बाबा मैं तो अनपढ़ हूँ, आप शास्त्रों के ज्ञाता हैं, किन्तु मैं तैरना जानता हूँ। क्या आप तैरना जानते हैं ? देखिये सामने बहुत बड़ा तूफान आ रहा है, और आप यदि तैरना नहीं जानते हैं, तब तो आपका पूरा जीवन ही चला गया - मैं तो चला, और वो नाव से कूद गया। " ' डुकृञ् ' व्याकरण का सूत्र है जो क्रिया पद में लगता है, यह बात कोई जानता हो, किन्तु तैरना नहीं सीखा हो, अर्थात सत्संग या पाठ-चक्र में नहीं जाता हो, तो उसको इस भव-सागर में संसार-समुद्र में डूबना ही होगा। 
हम युवाओं को स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिये - धर्म किसे कहते हैं ? क्या मैंने धर्म को सीखा है ? यदि स्वयं नहीं सीख सकते हो, तो किसी खेवैया के ' तरणी ' को पकड़ लो। ' वैतरणी ' कहते हैं, उस माँझी को जो स्वयं नहीं डूबे और तुम्हें भी पार करा दे। यही है धर्म का सच्चा भाव जो ठकुर,माँ स्वामीजी के जीवन से प्राप्त होता है। दक्षिणेश्वर स्थित ठाकुर के कमरे में आप आज भी बुद्ध, महाबीर, ईसा, चैतन्य सभी के चित्र देख सकते हैं।
इसीलिये स्वामीजी कहते थे,   "वेदान्त जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है। वेदान्त में वैराग्य का अर्थ है, जगत को ब्रह्मरूप देखना। वेदान्त का प्रतिपाद्य है - ' विश्व का एकत्व', केवल विश्व बन्धुत्व नहीं। धर्मान्धों का कोई धर्म नहीं होता। प्रत्येक सम्प्रदाय एक एक महान सत्य को अभिव्यक्त कर रहा है। हर बून्द अपने में सम्पूर्ण सागर छिपाये हुए है। सम्प्रदाय अवश्य रहें, पर साम्प्रदायिकता दूर हो जाये। विश्व में केवल एक आत्म-तत्व (अल्ला या ब्रह्म) है, सब कुछ केवल ' उसी ' की अभिव्यक्ति है। अब प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में धर्म का कोई उपयोग है ? हाँ, वह मनुष्य को अमर बना देता है, उसने मनुष्य के निकट उसके यथार्थ स्वरुप को प्रकाशित किया है और वह मनुष्य को ईश्वर बनायेगा। यह है धर्म की उपयोगिता। मानवसमाज से धर्म को पृथक कर लो, तो क्या रह जायेगा ? कुछ नहीं, केवल पशुओं का समूह।"



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