शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

🔱🙏धार्मिक नेताओं के दो वर्ग (species)- " पुरोहित और पैगम्बर "🔱🙏

धार्मिक नेताओं के दो वर्ग (species)- " पुरोहित और पैगम्बर "

क जिज्ञाषु तरुणों के मन में बहुत से प्रश्न मन में उठते हैं, ईश्वर कौन है ? कहाँ रहते हैं ? क्या करते हैं ? जगत में इतनी असामनता क्यों है ? जीवन क्या है ? जीवन का उद्देश्य क्या है ? जीवन सफल और सार्थक कैसे होता है ? युवाओं की इस अवस्था को स्वामी विवेकानन्द अच्छी तरह से समझते थे क्योंकि वे स्वयं एक युवा थे। 
   इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूल-भुलैयों में भटका हुआ है। अपने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के मर्म को नहीं समझने के कारण, उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना, आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक पैमान उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ कष्ट उठाता है। किन्तु अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है,या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त (मौलवी-पण्डित का चोला ओढ़े धार्मिक नेता) को अवतार या ईश्वर का संदेश-वाहक कहकर पूजने लगता है, और -परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः को चरितार्थ करता है। केवल वे युवा ही बच पाते हैं, जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सद्गुरु के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो जाती है।"

मानवजाति के सभी महान आचार्यों (नेताओं, पैगम्बरों) में तुम्हें एक लक्षण सर्वत्र दिखेगा कि उनमें प्रचण्ड आत्मविश्वास भरा होता है। उनका यह आत्मविश्वास असाधारण है, इसीलिए उन्हें हम पूर्णतया नहीं समझ सकते। ये महान शिक्षक इस पृथ्वी पर जीवंत ईश्वरस्वरूप है। इनके अतिरिक्त हम और किनकी उपासना करें ? "अपनी मानसिक चहारदीवारी को भला कौन स्वयं पार कर सकता है ?  ये नर देव - ये मानवरूप-धारी देवता, सदा से, सभी जातियों एवं सभी राष्ट्रों में चिरकाल से पूजित होते रहे हैं, और तब तक पूजित होते रहेंगे, जब तक मानव मानव ही बना रहेगा। (अर्थात पशु से मनुष्य और मनुष्य से ईश्वर बंनने की चेष्टा नहीं करेगा ?) तुममें से जो जो किसी एक विशेष अवतार (अपने देश के पैगम्बर या नेता) में ही सत्य एवं ईश्वर की अभिव्यक्ति देखते हैं, और दूसरे में नहीं , उनके विषय में मेरा स्वाभाविक निष्कर्ष यही है कि वे किसी भी अवतार के ईश्वरत्व को नहीं जानते। (अर्थात वे यह नहीं जानते कि बिना किसी मार्गदर्शक गुरु के सहायता के बिना कोई व्यक्ति देश-काल-निमित, माया के राज्य को पार कर ब्रह्म में कैसे पहुँच सकता है ?७/१८२)          

 श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति विवेकानन्द को दी थी। यह गुरू का दैवी स्पर्श कहा जाता है, ईश्वर ने आपको तमाम प्रकार की सुविधाएँ, अच्छा स्वास्थ्य एवं मार्ग दिखाने के लिए (श्रीरामकृष्ण जैसे) गुरू दिये हैं। इससे अधिक और क्या चाहिए ? अतः विकास करो, ब्रहमविद बनो, सत्य का साक्षात्कार करो,और सर्वत्र उसका प्रचार करो।

इस प्रकार से प्रसन्न होने पर आध्यात्मिक गुरू अपनी आध्यात्मिक शक्ति अपने शिष्य को प्रदान करते हैं। सदगुरू के अमूल्य स्पन्दन शिष्य के मन की ओर भेजे जाते हैं। मनुष्य स्वयं अपने नाम-रूप की सीमा को या तुच्छ अहं को क्रॉस करके ख्रिस्त नहीं बन सकता है, उसे किसी गुरु की चरणों में बैठकर मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण प्राप्त करना ही पड़ता है।
" एक बात और गौर करने की है ; वह यह कि मानवजाति के सभी महान शिक्षक/नेता / अवतार /पैगम्बर स्वार्थशून्य हैं ! (७.२२८)

  "ईसा के शिष्य सोचते हैं-ईश्वर केवल एक बार अवतीर्ण हो सकता है। किन्तु यही विचार सब कुसंस्कारों,सब भ्रमों की जड़ है। प्रकृति में ऐसी कोई घटना नहीं है, जो नियम के अधीन न हो।जो घटना एक बार हुई है, वह चिर काल से ही घटती आ रही है, और भविष्य में भी घटित होगी।"७/२२९ 
" ईसा भी पहले हमलोगों के समान मनुष्य थे, बाद में वे ख्रिस्त हो गये थे। हम भी उनके समान ख्रिस्त हो सकते हैं,और हमें वह होना ही होगा। ख्रिस्त और बुद्ध अवस्था विशेष के नाम हैं-जिसे हमें भी प्राप्त करना होगा। ईसा और गौतम वे मनुष्य हैं, जिनमें यह अवस्था व्यक्त हुई। जगन्माता या आद्या शक्ति ही ब्रह्म का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ प्रकाश है-उसके बाद ख्रिस्त,बुद्ध मोहम्मद और श्रीरामकृष्ण आदि प्रकाशित हुए हैं।
"ईसा की नकल मत बनो बल्कि ईसा बनो। हमें अवश्य पुरुषार्थ करना चाहिये और बन जाना चाहिये। सबसे महान धर्म है, अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना। स्वयं अपनी आत्मा में विश्वास करो। "७/२३३
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है - "महापुरुषत्व, ऋषित्व,अवतारत्व, या लौकिक विद्या में शूरत्व -सभी जीवों, में विद्यमान है।जो (परिवार या) समाज गुरु द्वारा प्रेरित है,वह अधिक वेग से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु जो समाज (या परिवार या राष्ट्र ) गुरुविहीन है, उसमें भी समय की गति के साथ गुरु का उदय और ज्ञान का विकास होना उतना ही निश्चित है। "

किन्तु इस उम्र में आकर भी,"यदि हममें इस मार्ग पर अग्रसर होने की क्षमता नहीं है,तो हमें मुख में तृण धारण कर विनीत भाव से अपनी यह दुर्बलता स्वीकार कर लेनी चाहिये कि हममें अब भी 'मैं' और 'मेरे' के प्रति ममत्व है, हममें धन और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति है। हमें धिक्कार है कि हम यह सब स्वीकार न कर , मानवजाति के उन महान आचार्यों , आदर्श नेताओं का अन्य रूप में रंजीत कर उन्हें अपनी स्तर या निम्न स्तर पर  खींच लाने की चेष्टा करते हैं। ( ठाकुर, माँ  स्वामीजी-नवनीदा जैसा) त्याग और वैराग्य का आदर्श साधारण जनों की पहुँच के अवश्यमेव बाहर है। 
..कोई हर्ज नहीं, लेकिन हमें अपना आदर्श कभी विस्मृत नहीं कर देना चाहिये -उसकी प्राप्ति के लिये सतत यत्नशील रहना चहिये। हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि " त्याग और सेवा " ही हमारे राष्ट्रीय जीवन के आदर्श हैं,किन्तु अभी तक हम उस तक पहुँचने में असमर्थ हैं।"७/२२२

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जिसके मन में स्त्री,पुत्र, धन, मान प्राप्त करने का संकल्प है, (ऐषणा है ?) उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे हो ? जो सर्वस्व त्यागने को तैयार है, जो सुख-दुःख , भले-बुरे के चंचल प्रवाह में भी धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़ संकल्पवान रहता है , वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट होता है। वही ,  'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  -  महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल जाता है। " (6/164)

"...... ' वीर ' (Hero) के सामने कठिन नाम की कोई चीज है क्या ? कापुरुष ही ऐसी बातें कहा करते हैं ! " विराणमेव करतलगता मुक्तिः, न पुनः कापुरुषाणाम। " अभ्यास और वैराग्य के बल से मन को संयत कर। गीता में कहा है , - "अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।6.35।।  ऋषि पतंजलि ने भी यही उपदेश दिया है- अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधाः।। (पतंजली योगदर्शन-1.12) [दादा बोलते थे -वीर हो -धीर बनो !....... ] 'मन की चंचलता  को निरन्तर अभ्यास और विरक्ति द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।' 

मन को संसार से हटाना वैराग्य है और मन को भगवान (आदर्श ,नेता,गुरु, शिक्षक,अवतार, पैगम्बर, महापुरुष)  में स्थित करना अभ्यास है। चित्त मानो एक शान्त सरोवर की तरह है। रूप -रस आदि इन्द्रिय विषयों के आघात से उसमें जो तरंगे उठ रही हैं, उसी का नाम है मन। ... इस मन को वृत्तिशून्य बना देना होगा। उसे पुनः स्वच्छ तालाब में परिणत करना होगा, जिससे उसमें फिर वृत्तिरूपी (स्वार्थी प्रवृत्ति रूपी) एक भी तरंग न उठ सके। तभी अन्तर्निहित ब्रह्म-तत्व (Divinity) प्रगट होगा। ... तभी ज्ञानस्वरूप का बोध या सच्चिदानन्द स्वरुप में स्थिति होगी। उस समय ध्याता-ध्येय-ध्यान एक बन जायेंगे। ज्ञाता -ज्ञेय-ज्ञान एक हो जायेंगे। अभी अध्यासो की निवृत्ति हो जाएगी। इसीको शास्त्र में 'त्रिपुटी भेद' कहा है। इस स्थिति में जानने , न जानने का प्रश्न ही नहीं रह जाता। आत्मा ही जब एकमात्र विज्ञाता , तब उसे फिर जानेगा कैसे ? आत्मा ही ज्ञान - आत्मा ही चैतन्य - आत्मा ही सच्चिदानन्द है।  मैंने वास्तव में इस अवस्था को प्रत्यक्ष किया है.... उसका अनुभव किया है। तुमलोग भी देखो -अनुभव करो - और जाकर जीवों को यह ब्रह्म-तत्व सुनाओ। तभी तो शान्ति पायेगा। " 
" ब्रह्मज्ञ बनना ही चरम लक्ष्य है - परम् पुरुषार्थ है। परन्तु मनुष्य तो हर समय ब्रह्म में स्थित नहीं रह सकता ? व्युत्थान के समय कुछ लेकर तो रहना होगा ? उस समय ऐसे कर्म करना चाहिए, जिससे लोगों का कल्याण हो। इसलिए तुम लोगों से कहता हूँ, अभेद बुद्धि से जीव की सेवा के भाव से कर्म करो। परन्तु भैया कर्म के ऐसे दाँव -घात हैं कि बड़े -बड़े साधु भी इसमें आबद्ध हो जाते हैं ! ... निष्काम कर्म से किसी किसी को ब्रह्मज्ञान हो सकता है। लेकिन यह कर्म केवल चित्त शुद्धि का उपाय है , परन्तु उद्देश्य है ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति। (६/१६६ -६७)

यहीं पर दादा कहते थे .... और वैराग्य की बात यदि निवृत्ति मार्गी गेरुआ धारी संन्यासी करे तो तो अधिकांश प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारी युवा समझेंगे कि मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए हमें भी सन्यासी बनना होगा ? और वे इस कैम्प से दूर भागेंगे। इसलिए जो गृहस्थ आश्रम या प्रवृत्ति मार्ग की साधारण वेशभूषा में रहते हुए भी - ब्रह्म को अपने अनुभव से जानने वाले, (C-IN-C  नवनीदा जैसे) युवा नेताओं का निर्माण किया जाये, तभी इस ज्ञानोदय शिक्षा का प्रचार-प्रसार व्यापक पैमाने पर करना सम्भव है। 
".... ब्रह्म तथा ब्रह्मज्ञ में कुछ भी अन्तर नहीं है - ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति ( ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म हो जाता है।) 'आत्मा को तो जाना नहीं जा सकता' क्योंकि यह आत्मा ही ज्ञाता (सत्यार्थी) और मननशील बनी हुई है - यह बात मैंने पहले ही कही है। अतः मनुष्य का जानना उसी अवतार (नेता -अवतार वरिष्ठ) तक है - जो आत्मसंस्थ है ! मानव बुद्धि ईश्वर के सम्बन्ध में जो सबसे उच्च भाव ग्रहण कर सकती है, वह वहीं तक है। उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ कभी कभी ही जगत में पैदा होते हैं।  उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं। वे नेता (CINC नवनीदा जैसे नेता) ही शास्त्र वचनों के प्रमाण स्थल हैं - 'भवसागर के 'lighthouse' -आलोकस्तम्भ है !' इन अवतारों के सत्संग तथा कृपादृष्टि से एक क्षण में ही ह्रदय का अन्धकार दूर हो जाता है - एकाएक ब्रह्मज्ञान का स्फुरण हो जाता है। क्यों होता है ? अथवा किस उपाय से होता है , इसका निर्णय नहीं किया जा सकता , परन्तु होता अवश्य है। मैंने होते देखा है। ......  'श्रेय' को ग्रहण कर - 'प्रेय ' का त्याग कर ! यह आत्म-तत्व चाण्डाल आदि सभी को सुना। सुनाते सुनाते तेरी बुद्धि भी निर्मल हो जाएगी। तत्त्वमसि , सोअहमस्मि, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, प्रज्ञानं ब्रह्म - आदि महावाक्य -महामंत्र का सदा उच्चारण कर, और ह्रदय में सिंह की तरह बल रख। 
भय क्या है ? भय ही मृत्यु है - भय ही महापातक है। नररूपी अर्जुन को भय हुआ था - इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने आत्मसंस्थ होकर उन्हें गीता का उपदेश दिया ; फिर भी कि क्या उनका भय चला गया था ? अर्जुन जब विश्वरूप का दर्शन कर स्वयं आत्मसंस्थ हुए तभी वे ज्ञानाग्नि-दग्धकर्मा बने और उन्होंने युद्ध किया। लकिन उस समय उनका युद्ध जैसा कर्म भी 'जगद्धिताय ' हो जाता है। आत्मज्ञानी की सभी बातें जीव के कल्याण के लिए होती हैं।  श्री रामकृष्ण को देखा है - देहस्थोपि न देहस्थः - (देह में रहते हुए भी देह में न रहना ) यह भाव ! वैसे नेताओं/ जीवनमुक्त शिक्षकों  के कर्म के उद्देश्य के सम्बन्ध में केवल यही कहा जा सकता है - "लोकवत्तु लीला कैवल्यं " (ब्रह्मसूत्र - 2.1.33) - जो कुछ वे करते हैं , वे लोक में लीला रूप में है। 
 [लीला लोकवत तो है , किंतु लौकिक (cosmic) नहीं है। अलौकिक ( transcendental)  को लौकिक के द्वारा समझने का प्रयास है। अज्ञात को ज्ञात विंबों से ही तो आप समझाते हैं। लीला इतिहास की घटना नहीं है। इतिहास की घटना देशकाल से आबद्ध होती है,लीला देशकाल से निर्बंध है। 
"The Supreme Brahman’s creation and manifestation of ITSELF as a reflection is just a pastime. The truth is that the entire creation is always in a state of unmanifest and is neither created nor destroyed." (2.1.33)[ वार्ता एवं संलाप 6/168-69] 

 " जब एक अवतार जन्म लेता है,तो समस्त संसार में आध्यात्मिकता की एक बाढ़ आ जाती है। और लोग वायु के कण कण में धर्म-भाव का अनुभव करने लगते हैं। 4/28 

" ये अनन्त ज्योति के पुत्र-जिनमें ब्रह्म की ज्योति प्रकाशित है, जो स्वयं ब्रह्म ज्योति स्वरुप हैं, इनकी पूजा-अर्चना-आराधना करने पर, आराधित किये जाने पर हमारे साथ तादात्म्य भाव स्थापित कर लेते हैं, और हम भी उनके साथ एकत्व स्थापित कर लेते हैं।" 
 "निर्गुण ब्रह्म को हम नहीं जान सकते। हम परम पिता-'God the Father' को नहीं जान सकते; उसके पुत्र- ' God the Son' को जान सकते हैं।"मनुष्य की जन्मजात महिमा कभी मत भूलना। भूत हो या भविष्य में,न कोई हमारी अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा। तुम अपने अन्तस्थ आत्मा को छोड़ और किसी के सामने सिर मत झुकाओ।मैं ही समग्र समुद्र हूँ, तूम स्वयं इस समुद्र में जिस एक क्षुद्र तरंग की सृष्टि करते हो, उसे 'मैं' मत कहो। "७/९३ 
श्रीरामकृष्ण का नाम जिनको मिल गया वे धन्य हैं, कुलं पवित्रं जननी कृतार्था !6/212"

"नर रूप धारी अवतार की पहचान क्या है ? जो मनुष्यों के विनाश के दुर्भाग्य को बदल सके, वह भगवान है। मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता, जो रामकृष्ण को भगवान समझता हो। उन्हें भगवान के रूप में जान लेने और साथ ही संसार से आसक्ति रखने में संगती नहीं है। " 10/401

 "लोग ठाकुर का नाम ले रहे हैं और साथ ही संसार के माया-मोह में भी ग्रस्त हैं ? जो लोग मक्खी की तरह एक एक बार फूल पर बैठते हैं, और दूसरी ही क्षण विष्ठा पर बैठ जाते हैं। और जो बचपन से उर्ध्वरेता हैं वे बड़े हैं ? स्वयं ही सोच। "6/231

आत्म-ज्ञान की प्राप्ति ही परम साध्य है। अवतारी पुरुष रूपी जगद्गुरु के प्रति भक्ति होने पर समय आते ही वह ज्ञान स्वयं ही प्रकट हो जाता है। 6/210

"हम भविष्य में क्या होने वाले हैं,कितने महान होने वाले है-यह क्या ईश्वर नहीं जानता? सभी मनुष्य जीवन्त ईश्वर हैं,जीवन्त ईसा हैं- इस भाव से सबको देखो। मनुष्य का अध्यन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है।" ७/१०४  
किन्तु क्या मनुष्य का अध्यन करना इतना आसान है ? मनुष्य का अध्यन करने के लिये पहले उसकी पात्रता अर्जित करनी पड़ेगी। पहले हमें अपना चरित्र गठित करके स्वयं मनुष्य बनना होगा,तथा दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करनी होगी। कहा गया है- ‘देवो भूत्वा देवं यजेत’ अर्थात् स्वयं देव बनकर देव का यजन करना चाहिये। स्वामीजी आगे कहते हैं- " केवल महत्ता ही 'महत्ता' का आदर कर सकती है, ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्धी कर सकता है। स्वप्न स्वप्नद्रष्टा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, स्वप्न द्रष्टा से भिन्न स्वप्न का अपना कोई अलग आधार नहीं है। स्वप्न और स्वप्न-द्रष्टा दो पृथक वस्तुएं नहीं हैं।"   (7/105-4)

 इसीलिये स्वामीजी ने कहा था -" मुक्ति का लाभ का 'विजातीय' आग्रह अब नहीं रहा। जब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य अमुक्त है, तबतक मुझे अपनी मुक्ति की कोई आवश्यकता नहीं।"

समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किन्तु अपने आमोद पूर्ण जीवन से सन्तुष्ट, अपने सुन्दर भवनों, सुन्दर वस्त्र और गहनों से विभूषित, अनेकविध भोज्य  पदार्थों से तुष्ट; हे मोहनिद्रा में अभिभूत नर-नारियों! ..जगत के इस महा सत्य पर विचार करो, संसार में चारो ओर दुःख ही दुःख है।देखो,संसार में पदार्पण करता हुआ शिशु भी वेदनापूर्ण रुदन करने लगता है। यह एक हृदयविदारक सत्य है। जब मैं कभी मोह से अभिभूत हो जाता हूँ,तब हठात तथागत बुद्ध का सन्देश मुझे सुनाई पड़ता है-" सर्वं दुःखम दुःखम, सर्वं क्षणिकम् क्षणिकम्.! सावधान ! संसार के सकल पदार्थ नश्वर हैं। संसार नश्वर है। संसार दुःखमय है, "तभी मेरे कानों में ईसा की घोषणा गूंजने लगती है-"प्रस्तुत रहो, स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है।" एक क्षण का भी विलम्ब न होने दो।कल पर कुछ न छोड़ो और उस परम अवस्था के लिये सदा प्रस्तुत रहो, वह तुम्हारे निकट किसी भी क्षण उपस्थित हो सकती है।""हम नहीं जानते कि हमारे जीवन का अर्थ और उद्देश्य क्या है, अपने इस उद्देश्यहीन जीवन में हम आज तो एक काम करते हैं, और कल दूसरा। 7/179"

अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण का  जन्म भी होता है और परमधामगमन भी। किंतु लोकवेदातीत रूप में वे लीलापुरुषोत्तम हैं, 'रसो वै स:।'  वे भावरूप हैं। अस्थिमांस का शरीर नहीं हैं,आनंद-विग्रह हैं। लीला एक दार्शनिक अवधारणा है। लीला को इतिहास समझ लेना - 'मन का हार है', बुद्धि का पराभव (defeat) है। हम बुद्धिजीवी लोग उस मैकॉले की शिक्षा पद्धति में पढ़ रहे हैं, जिसके पैर अपनी धरती (भारत) पर नहीं हैं? भारत का ऐसा कोई प्रांत है,जो 5000 साल पहले जन्मे श्रीकृ्ष्ण के रस में न डूबा हो? जहां श्रीकृ्ष्ण की लीलाओं के गीत और नृत्य न गाये जाते हों? बंगाल की कहावत है, " धान बिना खेत नाई कानु छाड़ा गीत नाई।" हम अपने को लोकजीवन से कुछ अधिक समझदार मान लेते हैं। हमने अपनी विरासत को भी साथ रखा होता तो हमें संशय नहीं होता !! लीला को इतिहास समझ लेना बुद्धि का पराभव है।
तैत्तिरीय और बृहदारण्यक में एक महत्वपूर्ण वाक्य है >" को ह्येवान्यात्क: प्राण्यात्‌ यदि एष आकाश आनन्दो न स्यात्‌ ?" यदि यह आकाश आनन्द रूप न होता तो इसमें कोई क्यों सांस लेता ? कोई क्यों गति करता ? क्यों जीवित रहता ?आनन्द न होता तो कोई संघर्ष भी क्यों करता ?आनन्द के लिए और आनन्द की आशा के साथ ही वह संघर्ष भी कर रहा है न ? 
                    
>>God the Father : 'गॉड द फादर', 'परम पिता परमेश्वर', निर्गुण परब्रह्म, या अल्ला परवर दीगार कहकर जिनको पुकारा जाता है, उनके किसी सगुण रूप को देखे बिना उनकी  उपासना नहीं की जा सकती। अर्थात उनके चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास नहीं किया जा सकता है। मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए हमें चाहिए कोई 'सगुण आदर्श', हमें अपने ही सदृश दूसरे किसी मनुष्य में उनके किसी प्रकाश विशेष  'गॉड द सन' (God the Son) की उपासना करनी होगी। ईसा कहते हैं, 'मैं केवल ईश्वर-पुत्र ही नहीं हूँ, मैं और मेरे पिता एक और अभिन्न हैं।" उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ इस जगत में कभी कभी ही पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं, वे ही शास्त्र-वचनों के प्रमाण हैं। वे ही "भवसागर के-'lighthouse'- आलोक-स्तम्भ हैं!" 
स्वामी विवेकानन्द निश्चल दास की रचनाओं से बहुत प्रभावित थे तथा वे विचारसागर को विगत तीन सदियों में किसी भी भाषा की सर्वश्रेष्ठ रचना मानते थे।  

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निश्चल आया, निश्चल आया । 
ज्ञान गुदड़ी बांध के लाया ।।

[Saint Nishchal Das (1791-1863) was born in village Kirohli District Rohtak in a prominent family of Dahiya Gotra.]
उनकी रचना का उल्लेख करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" सनातन धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा एक भाव सबसे विलक्षण है; जिस भाव को प्रकट करने में ऋषियों ने हमारे शास्त्रों में संस्कृत श्लोकों की भरमार कर दी है। वह मूल भाव यह है कि मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी। हमारे द्वैत-अद्वैत दोनों ग्रंथों में तर्क के साथ कहा गया है, कि " ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति  " मुण्डकोपनिषत् ३-२-९ " जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाई " (तुलसी रामायण, अयोध्याकाण्ड) इसके फलस्वरूप भारतीय संस्कृति का सबसे उदार और अत्यन्त प्रभावशाली मत आविर्भूत हुआ, जिसे केवल विदुर और धर्मव्याध ने ही नहीं कहा,वरन अभी कुछ समय पूर्व दादू-पंथी संप्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास अपने ग्रन्थ 'विचार-सागर' में भी कहते हैं-

ब्रह्मरूप अहि ब्रह्मवित, ताकी बानी बेद। 
भाषा अथवा संस्कृत, करत भेद भ्रम छेद।। 

-अर्थात जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेदरूप है, और उससे अज्ञान का अंधकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोकभाषा में(बंगला में) हो। इस प्रकार द्वैत वादियों के मत से ब्रह्म (परम सत्य) की उपलब्धी करना, ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने अनुसार ब्रह्म (प्रेमस्वरूप) हो जाना !- यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है, और उसके अन्य उपदेश हमारी, उस लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं।" ९/३७१

गोस्वामी तुलसीदास जी एवं श्री मधुसूदन सरस्वती समसामयिक थे, काशी में रहते थे । गोस्वामी जी हिन्दी में उपदेशादि देते थे एवं स्वकृत रामायण सुनाते थे । मधुसूदन सरस्वती जी संस्कृत में शास्त्रीय प्रवचन देते थे एवं भागवत, गीता पर व्याख्यान् करते थे । एकदिन गोस्वामी जी के कुछ संस्कृतानुरागी भक्तों ने उनसे कहा, " महात्मन् ! आप केवल हिन्दी भाषा में ही क्यों उपदेश देते हैं ? काशी के पण्डितगण ऐसा नहीं करते, वे संस्कृत भाषा में ही शास्त्रव्याख्या करते हैं । फिर आप क्यों नहीं करते ? " यह  सुनकर गोस्वामी जी ने मुस्कराते हुए कहा --- 

हरि हर जस सुर नर गिरहुँ बरनहिं सुकबि समाज । 
हाँड़ी हाटक घटित चरु रॉधे स्वाद सुनाज ।। 

" कविगण भगवान् श्रीहरि और भोलेनाथ के यश का वर्णन संस्कृत और स्थानीय भाषा—दोनों में करते हैं । उत्तम अनाज मिट्टी की हाँड़ी में पकाया जाए या सोने के पात्र में, स्वादिष्ट ही होता हैं ।"   
ये संस्कृतानुरागी भक्तों श्री मधुसूदन सरस्वती जी के भक्त भी थे । उन्होंने मधुसूदन जी के पास जाकर ये पंक्ति कहा एवं उनका मत पुछा तो उदारह्रदय एवं गुणग्राही मधुसूदन ने अपना मत एक सुन्दर श्लोक रचना करके सुनाया ---

आनन्दकानने कश्चिज्जङ्गमस्तुलसीतरुः ।
कवितामञ्चरी यस्य रामभ्रमरभूषिता ॥ 

" इस आनन्दकानन काशी में कोई चलता-फिरता तुलसी का पौधा है जिसकी कवितारूपीमञ्जरी पर श्रीरामरूपी भ्रमर सदा मँडराता रहता है । " ये सुनकर संस्कृतानुरागी भक्तों का चैतन्य हुआ एवं वे गोस्वामी जी के प्रति अधिकतर श्रद्धावान् हो गए।   

इसी प्रकार काशी के और एक अविस्मरणीय विभूति  'lighthouse'- आलोक स्तम्भ, मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर - साधू श्री निश्चलदास जी भी इन दोनों महापुरुषों, गोस्वामी तुलसीदास एवं मधुसूदन सरस्वती के समसामयिक थे। हिन्दी भाषा में वेदान्तप्रचारार्थ ही उनकी महान कीर्ति का नाम हैं विचारसागर --- 

भय्यो वेद सिद्धांतजाल, 
जामैं अतिगंभीर।।  
अस विचारसागर कहूं, 
पेखि मुदित व्है धीर।। ६।। 

सूत्र भाष्य वार्तिक प्रभृति,
ग्रंथ बहुत सुरबानि।। 
तथापि मैं भाषा करूं,
लखि मतिमंद अजानि।।७।।    
~ विचारसागर 

" यद्यपि सूत्र, भाष्य, वार्तिक आदि से लेकर बहुत सारे संस्कृत ग्रंथ उपलब्ध हैं, तथापि संस्कृतग्रंथ से मंदबुद्धि पुरुष को बोध नहीं होता। परंतु भाषाग्रंथ से मन्दबुद्धि पुरुष को भी बोध होता हैं।  इसलिए भाषाग्रंथ की रचना निष्फल नहीं ; किन्तु संस्कृत ग्रंथ पर विचार करने में जिनकी बुद्धि समर्थ नहीं हैं, उनके निमित्त ये ग्रंथ आरंभ किया जा रहा हैं। "  

ब्रह्मरूप अहि ब्रह्मवित,
ताकी वानी वेद।। 
भाषा अथवा संस्कृत, 
करत भेदभ्रम छेद।। १०।।
  
~ विचारसागर 

" वेद के वचन विना ज्ञान नहीं होगा " --- ऐसा कोई नियम नहीं | जैसे आयुर्वेद में जो रोग, उसका लक्षण एवं औषध कहा हैं, वह अन्य संस्कृतग्रंथ अथवा भाषाग्रंथ पढ़कर पूर्णरूप से ज्ञात होना संभव हैं, वैसे आत्मा एवं ब्रह्मविषयक ज्ञान भी भाषाग्रंथ से प्राप्त करना संभव हैं | "

भाषाग्रंथ से ज्ञान नहीं होता ये मानना हठमात्र हैं।  इसी अभिप्राय से नानक, दादूजी, रामदास स्वामी, एकनाथस्वामी आदि अनेक महात्मा पुरुषों ने प्राकृतवाणी में रचना की हैं, जो कल्याणकारक हैं।  ये ग्रंथों संस्कृत के अभ्यास से रहित पुरुषों के लिए ज्ञानद्वारा कल्याण का हेतु हैं। 

   वे स्वयं भी संस्कृत के बहुत बड़े विद्वान् थे, जाट परिवार में जन्म लेकर भी उन्होंने बनारस में संस्कृत का अध्यन किया था,किन्तु लोक कल्याण के लिये लोक-भाषा में ही उपदेश देते थे। डंके की चोट पर यह घोषणा-  'जो ब्रह्मवेत्ता पुरुष हैं, सो ब्रह्मरूप हैं।' करने वाले संत निश्चलदास दहिया गोत्री जाट थे।  उन्होंने कहा था, " जो यह कहते हैं कि 'वेद का अध्यन किये बिना किसी को ज्ञान नहीं होता'-सो नीयम नहीं है। जैसे सिर-दर्द की जो दवा है, उस दवा के नाम को संस्कृत में लिखें, या फारसी में उसके खाने से आराम अवश्य मिलता है। उसी प्रकार जो ब्रह्म सभी की आत्मा हैं, उसका ज्ञान भी लोक-भाषा में लिखे ग्रन्थों 'रामायण' आदि ग्रंथों से किसी वर्ण या किसी उम्र के व्यक्ति को भी हो सकता है। इसीलिये मैं चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में जो संत हुए हैं और जो इस संसार-सागर से पार होकर परब्रह्म स्वरूप में लीन हुए हैं, हो रहे हैं या होंगे, उन सभी साधुओं को वन्दना करता हूँ। और इसी प्रकार आगे भी हरि गुरु-सन्तों को प्रणाम करने वाले सभी मनुष्य इस भवसागर से अवश्य पार होंगे!"
संत निश्चल दास कहते थे, जैसे सूर्य के सामने आतसी शीशा (focal point of Convex lens, गुरु-नेता का जीवन और सन्देश) करने से, उत्तल लेंस का केंद्र बिंदु पर सूर्य की किरणों से अग्नि प्रकट होती है और कागज जलने लगता है। और उसके , वैसे ही सच्चा गुरु मिलने से शिष्य के अन्त:करण में ब्रह्म-प्रकाश प्रकट हो जाता है। गुरु-परम्परा वेदों से प्रारम्भ हुई। गुरु-परम्परा को मानना वैदिक परम्परा का स्वीकार भी है और आस्तिकता या नचिकेता वाली आत्मश्रद्धा का स्वीकार भी। क्योंकि अधयात्म रहस्य का विषय है। गूढ़ है। इसलिए गुरु की भूमिका निर्गुणपंथी संतों में अनिवार्य हो जाती है। 
स्वामी निश्चलदास के मतानुसार सूफ़ी संत सरमद भी एक ' ब्रह्मविद ' थे, इसीलिये उनकी वाणी भी वेद है, एक उदहारण उनके वचनों में देखिये -
" ऐ आदमी, तू एक पहेली है !

तू सिर्फ उसे जानता है,
जो कि दिखाई देता है।
लेकिन तेरी हकीकत ढंकी हुई है
तू जिस्‍म नहीं, जान (spirit)  है !

जैसे सियाह कांच के पीछे छिपी हुई लौ
तेरी रोशनी छिपी है
लेकिन कांच के पीछे तेरी बेपर्दा हकीकत है।।"

 (https://hindisamay.com/dadu/daadu-granthawali-1.html) 
साभार > @@@@https://www.hindwi.org/poets/dadu-dayal/dohe 
सन्त / नेता / अवतार /दादू दयाल (1544 - 1603) अहमदाबाद, गुजरात: > भक्तिकाल के निर्गुण संत। दादूपंथ के संस्थापक। ग़रीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना के गुरु। राजस्थान के कबीर। संत दादूदयालजी ने परमार्थ का और अधयात्म का ज्ञान देने वाले गुरु की महिमा-वर्णन करने का उपक्रम मंगलाचरण के रूप में किया है :-

दादू  नमो  नमो  निरंजनं,  नमस्कार  गुरु  देवत:।
वन्दनं  सर्व  साधावा,  प्रणामं  पारंगत:।।1।।
परब्रह्म  परापरं,  सो  मम  देव  निरंजनं।
निराकारं  निर्मलं,  तस्य  दादू  वन्दनं।।2।।

 पहले अपने इष्टदेव को बारंबार प्रणाम किया है। यह इष्टदेव मायारहित परब्रह्म है इसलिए निरंजन है। गुरु की कृपा से परब्रह्म प्राप्ति होती है अत: गुरुदेव को भी नमस्कार। सत्संगति के कारण रूप संतों को भी प्रणाम। चौथे चरण में परब्रह्म, गुरु तथा साधु-संतों को सदा प्रणाम किया है जो सुख-दु:ख के क्लेश स्वरूप इस संसार से पार चले गये हैं।
निरंजन कहते हैं आकार रहित को, सो तो मिथ्या होता है। कैसे ? आकाश पुष्पवत्, बांझपुत्रवत्, शसाश्रुंगवत्। मरीचिका बारिवत् (मृग-तृष्णा का जल) शुक्ति रजतवत् (सीपी में रजत), रज्जु भुंजगवत् (रस्सी में सांप) इति शंका ? 
प्रश्न : उस निरंजन की प्राप्ति किस प्रकार से होती है ? उत्तर : निरंजन की प्राप्ति का हेतु गुरु उपदेश है। किन्तु जैसे समुद्र के पार जाने के साधनों में जहाज ही एक सुन्दर साधन है, वैसे ही परमात्मा को जानने के साधनों में श्रेष्ठ साधन गुरु-ज्ञान ही है। इस वास्ते गुरु को नमस्कार करते हुए प्रथम "गुरुदेव का अंग'' से ग्रन्थ का प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि गुरु परमात्मस्वरूप है- 

 "गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।”


 गुरु लक्षण-गुकार: प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासक:। रुकारोऽद्वितीयं ब्रह्म माया भ्रान्ति विमोचक:। गुकारस्त्वन्धकार: स्यात् रुकारस्तन्निरोधक:। अन्धकार विरोधित्वाद्, गुरुरित्यभिधीयते।।
(गु=अन्धकार, रु= विनाशक, गुरु= अज्ञानान्धकार को मिटाने वाला। 

 अखंड-मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नम:।।

 शंका :- ईश्वर सर्वज्ञ है एवं जीव अल्पज्ञ है, तो फिर आप ईश्वर से अभेद (एकरूप) करके गुरु को कैसे कहते हो? समाधान :- यद्यपि जीव और ईश्वर का व्यवहारिक भेद तो है, परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से भेद नहीं है, अर्थात् एक हैं। इसलिए जिस गुरु ने अपना लक्ष्य रूप जान लिया है। वे और ब्रह्म एक ही हैं, अलग नहीं है। वेद वचन :- "ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति"। 
गुरू एवं शास्त्र आपको मार्ग दिखा सकते हैं और आपके संशय दूर कर सकते हैं। अपरोक्ष का अनुभव (सीधा आंतरज्ञान) करना आप पर निर्भर रखा गया है। भूखे व्यक्ति को स्वयं ही खाना चाहिए। जिसको सख्त खुजली आती हो उसे खुद ही खुजलाना चाहिए। उनके कुछ अन्य उपयोगी दोहे इस प्रकार हैं-
                             वाणी जाकी वेद सम, कीजै ताकी सेव।
                             भये प्रसन्न जब सेवतैं, तब जानै निज भेद।।३/११।।

                             होवै जबहीं गुरु संग, करै दण्ड जिम दण्डवत।।
                             धारै उत्तम अंग, पावन पद-सरोज रज।।३/१२।।  

                              इम व्यवहृत अवसर जब पेखै।मुख प्रसन्न गुरु सन्मुख लेखै।।
                              विनती करै दोउ कर जोरी। गुरु-आज्ञातैं प्रश्न बहोरी।।३/२२।। 

जिज्ञासु को चाहिये कि वह जिस ब्रह्मवेत्ता की वाणी वेद के समान हो,उस ब्रह्मवेत्ता आचार्य की सेवा करें। क्यों करें ? सेवा से जब आचार्य प्रसन्न हो जायेंगे, तो 'निज-भेद',अपना स्वरूप ज्ञात हो जायेगा। क्योंकि आचार्य की सेवा ईश्वर की सेवा से भी अधिक फलदायी है।११
जब गुरु प्राप्त होवें तो दण्ड के जैसा चरणों में गिरकर साष्टांग प्रणाम करें। और जो पावन है-उनके चरण रूपी कमल, तिनकी रज जो धूरि है,उसको अपने उत्तम अंग मस्तक पर धारण कीजिये।१२
इस रीति का व्यवहार करते हुए जब गुरु प्रसन्न मुख से अवकाश में बैठे दिख जायें, तब हाथ जोड़ कर गुरु से विनती करें -'हे भगवन,मैं आपसे कुछ पूछना चाहता हूँ।' तब यदि गुरु आज्ञा दें तब प्रश्न करें। या पूर्वजन्म के किसी पूण्य से गुरु बिना कोई सेवा लिये ही उपदेश देदें तो अधिकारी शिष्य का कल्याण होई जावै है। काहेतैं ? गुरु सेवा के दो फल हैं, एक तो गुरु की प्रसन्नता, और दूसरा अन्तःकरण की शुद्धि। सो दोनूं  वा के सिद्ध हैं।२२ 


>>(Buddha's Message To The World)संसार को बुद्ध का सन्देश :
 " जिस समय बुद्ध ने जन्म लिया , उस भारत को एक महान आध्यात्मिक नेता , एक पैगम्बर की आवश्यकता थी। दो तरह के धार्मिक नेता होते हैं -पुरोहित और पैगम्बर। पुरोहित जनता को अज्ञान में रखते हैं,और उसके मन को अंधविश्वासों से भरते रहते हैं। पुरोहित यह विश्वास करते हैं कि एक ईश्वर है , किन्तु इस ईश्वर के समीप पहुँच सकना और उसे जान सकना केवल उन्हीं के माध्यम से हो सकता है। पैगम्बर लोग पुरोहितों और उनके अंधविश्वासों को चुनौती देते हैं। पैगम्बर लोग पुरोहितों और उनके अंधविश्वासों तथा षड्यन्त्रों के विरुद्ध चेतावनियाँ देते रहते हैं,.... इस संघर्ष पैगम्बरों की विजय और पुरोहितों की पराजय होती है।   ७/ २०१  
" बुद्ध, भारत में पुरोहितों और मनीषियों (पैगम्बरों) के मध्य चलते रहने वाले संघर्ष में में विजय के प्रतीक थे। 'मानव की समता' उनके महान उपदेशों में से एक है। सब मनुष्य बराबर हैं। वहाँ किसी के साथ कोई रियायत नहीं ! बुद्ध समता के महान उपदेष्टा थे। हर स्त्री-पुरुष को आध्यात्मिकता प्राप्त करने का समान अधिकार है, यह उनकी शिक्षा थी। उन्होंने पुरोहितों तथा निम्न जातियों के मध्य अन्तर का उन्मूलन कर निर्वाण के द्वार को हर किसी के लिए खोल दिया। " (७/२०५)    
  
 आजकल (भारत-अमेरिका के) लोकतंत्र या जनतंत्र की, मनुष्य मात्र की समता की, खूब चर्चा होती है। किन्तु कोई 'मनुष्य' (नेता) यह कैसे जान पायेगा कि वह सबके समान है ? इसके लिए उसके पास सबल शरीर, सबल मस्तिष्क या षडरिपुओं से रहित (निरर्थक विचारों ईर्ष्या -द्वेष से रहित) निर्मल बुद्धि होनी ही चाहिए; उसे अपनी बुद्धि पर जमी अंधविश्वासों की  राशि की पपड़ी को भेदकर ("विवेक-प्रयोग शक्ति युक्त बुद्धि " के द्वारा भ्रमवश बनी कूसंस्कारों की प्रवृत्तियों को भेदकर) उस परम् सत्य पर ( ह्रदय में विराजमान ठाकुर देव पर ,इन्द्रियातीत शुद्ध सच्चिदानन्द स्वरुप पर) पहुँचना ही चाहिए, जो उसकी अंतरतमवासी आत्मा में है। तब उसको ज्ञात होगा कि समस्त पूर्णता , सभी शक्तियाँ (100 Unselfishness बन जाने की क्षमता), स्वयं उसके भीतर पहले से ही मौजूद हैं, वे उसको दूसरों के द्वारा प्रदान की जानेवाली नहीं हैं। इस सत्य को भलीभाँति अनुभव कर लेने पर वह उसी क्षण मुक्त (D-hypnotized) हो जाता है, समता को प्राप्त कर लेता है। तब वह भली भाँति अनुभव कर लेता है कि हर अन्य व्यक्ति [rnen and party-kjn-dsin-sudi-pin-ajn-rnc-rjc-bin-suk-sdd-.....] भी एक समान वैसा ही पूर्ण है जैसा वह स्वयं है ; और अपने भाई-बन्धुओं पर किसी भी प्रकार का - शारीरिक, बौद्धिक या नैतिक -बल प्रयोग करने की आवश्यकता उसे नहीं है। वह इस विचार को सदा के लिए त्याग देता है कि कभी कोई मनुष्य ऐसा भी हुआ, जो उससे निम्नतर था ? तभी वह समता की बात कर सकता है , उसके पूर्व नहीं। (७/२०२)         
  
सृष्टि का तो अर्थ ही है - विभिन्नता। सृष्टि के पहले साम्य की अवस्था रही होगी , लेकिन जब समय अवस्था में विक्षोभ होता है तभी सृष्टि होती है। शारीरिक, बौद्धिक और नैतिक बल की दृष्टि से विभिन्नता दृष्टिगोचर होती ही है। लेकिन नेता का कार्य होता है, अनेकता में अंतर्निहित एकता का दर्शन करते हुए , अपने से एक सोपान नीचे खड़े लोगों को ऊपर उठाने , पशु से मनुष्य, और मनुष्य से देवता में उन्नत करने का प्रयास करना।           


पैगम्बर या मानवजाति के सच्चे शिक्षक ठाकुर हमें स्वावलंबी होने की शिक्षा देते हैं। वे आत्मा या किसी अदृश्य सत्ता ईश्वर पर निर्भर रहने से भी मुक्त कर देते हैं।

Power of Organization :  स्वामीजी ने कहा है - " जनसाधारण को उपर उठाने के लिये कार्य करो ! इसलिये नहीं कि वे अधम या पतित हैं; कृष्ण ऐसा नहीं कहते। यह सोचना पाखण्ड है कि तुम किसी की सहायता कर सकते हो। पहले इस सहायता करने की विचार को जड़ से निकाल दो। और तब उपासना करने के लिये जाओ। के सदस्य ईश्वर के बच्चे हैं, ठाकुर के बच्चे हैं, तुम्हारे गुरु के बच्चे है ! और बच्चे पिता के ही विविध रूप होते हैं। तुम उसके सेवक हो। जीवंत ईश्वर की सेवा करो। तुम्हारे पास ईश्वर अन्धों,पंगुओं,दरिद्रो,निर्बलों और नरकियों के रूप में आता है। तुम्हारे पास पूजन करने का कितना महिमान्वित अवसर है।" 
" सिंह (Lion) और बारहसिंगा (reindeer) दोनों पशु हैं-पर सिंह की शक्ति अधिक है। किन्तु पशु अपनी शक्ति का प्रयोग केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये करता है, वह अपना पेट भरने के लिये बारहसिंगा को मार देता है। पर जो पशु मनुष्य बन जायेगा वह अपना पेट भरने के लिये कभी अपने भाई,दुसरे किसी भाई को मार कर या लूट कर अपना पेट नहीं भरेगा। और जो 'मनुष्य' बनकर या मानवजाति का सच्चा नेता या पैगम्बर बनकर अपने जीवन को सार्थक करना चाहेगा, वह भारत माता को उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठाने के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर सकता है। "

" जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार कर लिया है, उनके भीतर एक महा शक्ति खेलने लगती है। उस महापुरुष को केन्द्र बनाकर थोड़ी दूसरी तक लम्बी त्रिज्या के सहारे जो एक वृत्त बन जाता है, उस वृत्त के भीतर जो लोग आ जाते हैं, वे साधन-भजन न करके भी अपूर्व आध्यात्मिक फल के अधिकारी बन जाते हैं। इसे यदि कृपा कहता है, तो कह ले !" ६/१२०

हम केवल 'अस्ति'-स्वरूप,सत्स्वरूप होने की ही चेष्टा कर रहे है, और कुछ नहीं,उसमें अहं भी नहीं रहेगा,..शरीर स्वामीजी का यंत्र बन कर कार्य करेगा। अंगूर की लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर फलते हैं,उसी प्रकार भविष्य में सैंकड़ों ईसाओं का आविर्भाव हो जायेगा। 7/12 

स्वामीजी  कहते हैं- "मैं तो यह पसन्द करूँगा कि तुममें से हर एक व्यक्ति मसीहा बन जाओ। बुद्ध,कृष्ण,ईसा,मोहम्मद सभी अवतार महान हैं, हम उनके चरणों में प्रणाम करते हैं। किन्तु इसके साथ साथ हम स्वयं को भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि वे यदि ईश्वर-पुत्र और अवतार हैं, तो हम भी वही हैं। उनहोंने अपनी पूर्णता पहले प्राप्त कर ली है,और हम भी यहीं और इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेंगे। ईसा के शब्दों का स्मरण करो-'स्वर्गराज्य निकट ही है।' 

इसीलिये इसी क्षण हम सबको यह दृढ संकल्प कर लेना चाहिये कि-" मैं पैगम्बर बनूंगा,मानव जाति का मसीहा बनूँगा,मैं ईश्वर-पुत्र बनूंगा- नहीं, मैं स्वयम ईश्वरस्वरुप बनूँगा। " चरित्रनिर्माणकारी आन्दोलन में हमें इन 'चारो योग -ज्ञान,भक्ति,कर्म और राजयोग' का समन्वय (अविरोध) ही अभीष्ट है।
 इसीलिये युवाओं को प्रारम्भ से (विवेक-वाहिनी से ) ही संघबद्ध होकर, प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के नेतृत्व में मनुष्य बनने और बनाने BE AND MAKE ' आन्दोलन से जुड़ जाना चाहिये। श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत कम ही आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते है।  यदि हममे से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सकें, तो भी हम उसे सामूहिक रूप में परस्पर एक दुसरे के परिमार्जन, सन्तुलन, आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।'  इसके लिये भारतवर्ष के प्रत्येक राज्य में विवेकानन्द को अपना आदर्श मानने वाले युवाओं को एकत्रित कर, उन्हें  प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के चरणों  बैठकर चरित्रनिर्माण की शिक्षा पद्धति सीखने के लिये अनुप्रेरित करना हमारा (महामण्डल का ) प्रथम कार्य होगा।

हमलोगों को यह तय कर लेना होगा कि हम चाहते क्या हैं ? हम महामण्डल का सदस्य क्यों बनना चाहते हैं?  क्या महामण्डल का सदस्य होने से मैं मनुष्य जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सकता हूँ ? क्योंकि महामण्डल का उद्देश्य तो भारत का कल्याण है ! और मेरे जीवन का लक्ष्य है पशु (अपने अहं को मैं समझकर केवल अपने स्वार्थ को देखने वाला ) से 'मनुष्य ' (परहित देखने वाला निःस्वार्थी मानव-मानवजाति का सच्चा नेता या पैगम्बर ) बन जाना। किन्तु जो लोग महामण्डल का सदस्य बनने को 'अमुक नेता' की तरह 'जहरपीने' को तैयार हो जाना समझते हैं, वे कृपा करके महामण्डल का सदस्य नहीं बनें। 

"सर्वप्रथम तो हमें उस चिन्ह -'ईर्ष्या रूपी कलंक' को, जिसे गुलामों के ललाट में प्रकृति सदैव लगा दिया करती है, धो डालना चाहिये। इसी से ईर्ष्या मत करो।भलाई के काम करने करने वाले प्रत्येक को अपने हाथ का सहारा दो। तीनों लोकों के जीव मात्र के लिये शुभ कामना करो। "9/379 
महामण्डल  सभी कर्मियों को स्वामी जी की उपरोक्त चेतावनी पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिये! महामण्डल के नेतृत्व प्रशिक्षण शिविर में प्रशिक्षण-प्राप्त, नेताओं में भी यदाकदा 'ईर्ष्या रूपी कलंक' बीच बीच में अपना सिर उठाने लगता है। 
[ कैम्प में ऑफिसर का एक बड़ा बैज मुझे मिले, फिर उससे बड़ा, और अंत में सबसे बड़ा कमाण्डर इन चीफ़ बनने की ललक से कोई कोई २५ वर्षों से जुड़े वरिष्ठ नेता (सुभाष गुहा, कोन्नगर) भी इतने मदान्ध हो जाते हैं कि, उन्हें न न्याय सूझता है, न औचित्य और न परिणाम, न मर्यादाओं का ध्यान रहता है और न नम्रता सधती है। (महामण्डल के सचिव की आज्ञा का उल्लंघन कर महामण्डल भवन का उपयोग अन्य कार्य में किया, मना करने पर अध्यक्ष-सचिव से भी बहस किया तो उन्हें निकालना आवश्यक होगा।) कहानी है न - कोई मेढ़क बैल बनने की प्रतिस्पर्धा में अपने पेट में हवा भरता चला गया और अन्त में उदर, कलेवर फट जाने पर बेमौत मरा। अन्य जगहों में बैल को देखकर मेढ़क के नाल ठोकवाने की कथा भी कही जाती है। यह कहानी मनुष्यों पर लागू होती है, कुछ महामण्डल कर्मी चरित्र-गठन और जीवन-गठन किये बिना, अधिक से अधिक नाम-यश पाने के चक्कर में  बिना मूल्य चुकाये, बिना ब्रह्मविद् बने, किसी भी प्रकार छल, छद्म से ब्रह्मज्ञ होने का ढोंग करके अपने लिये सर्वोच्च नेता पद की माँग करते हैं। 
ऐसा तो राजनीति के भ्रष्ट नेता लोग करते हैं - जितनी जल्दी बन पड़े, जितना अधिक से अधिक बटोरना संभव हो उतना बिना प्रतीक्षा किए,बिना किसी योग्यता के नेताजी कहे जायें, भले भाई-भतीजा बाद में जेल चला जाये। 
महामण्डल कर्मियों को यह बात समझ लेनी चाहिये कि 'त्याग और सेवा ' ही हमारा राष्ट्रिय आदर्श है ! और नाम-यश पाने की कामना तथा ईर्ष्या - यही है सेवा मार्ग पर चलने वालों की दुर्गति बनाने वाली ललक, भावनात्मक अधोगति। यदि नाम-यश और धन कमाने की इच्छा थी, जब ख्याति की, पदवी की इतनी अधिक लिप्सा थी तो उसके लिए दूसरे सस्ते उपाय, राजनीतिक हथकण्डे क्यों नहीं अपनाये ? किसी पार्टी में शामिल हो सकते थे। सेवा का जटिल मार्ग, उसमें भी महामण्डल जैसे चरित्र-निर्माण आन्दोलन का लीडर बनने का मार्ग क्यों चुना लिया ? यदि चुन ही लिया गया तो सेवा की अभिन्न सहचरी नम्रता को भी साथ लेकर चलना था।  सेवा धर्म के साथ शालीनता का समन्वय रहना चाहिए। मानवजाति के मार्गदर्शक नेता (या लोकसेवी)  को निस्पृह एवं विनम्र होना चाहिए। 
इसी में उसकी गरिमा और उज्ज्वल भविष्य की संभावना है। भगवान् कृष्ण ने महाभारत के उपरान्त हुए राजसूय यज्ञ में आग्रह पूर्वक आगन्तुकों के पैर धोने का काम अपने जिम्मे लिया था और सच्चे नेता में अनिवार्य रूप से रहने वाली विनम्रता (humbleness) का परिचय दिया था। चाणक्य झोंपड़ी में रहते थे, ताकि राजमद उनके ऊपर न चढ़े और किसी अन्य सहयोगी साथी नेता के मन में प्रधानमंत्री का ठाठ- बाट देखकर वैसी ही ललक न उठे।
जो बड़प्पन लूटने, साथियों की तुलना में अधिक चमकने, उछलने का प्रयत्न करेंगे वे औंधे मुँह गिरेंगे और अपने दाँत तोड़ लेंगे। साथी-सहयोगी क्यों किसी नेता का दर्प सहेंगे? या अपने ही किसी सहयोगी के बड़े बनने को अपनी कमी मानते हुए उससे ईर्ष्या क्यों करें। कृष्ण का यादव वंश कोई भूखा नंगा नहीं था, लेकिन उसका हर सदस्य अपनी विशिष्टता सिद्ध करने और अन्यों को गिराने के लिए सामूहिक आत्मघात की स्थिति तक जा पहुँचा। यही सब देखकर व्यास जी ने अकाट्य सिद्धान्त के रूप में लिखा था-

  बहवः यत्र नेतारः बहवः मानकाक्षिणः । 
                सर्वे महत्त्वमिच्छन्ति, स दल अवसीदति ॥ .             
जहाँ सब लोग नेता बनने के इच्छुक हैं, जहाँ सब सम्मान चाहते हैं और पण्डित बनते हों, जहाँ सभी महत्वाकाँक्षी हों वह समुदाय पतित और नष्ट हुये बिना नहीं रहेगा।
संस्थाओं के विघटन में यह पद लोलुपता ही प्रधान कारण रही हैं । मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (युग-शिल्पियों)  को समय रहते इस खतरे से बचना चाहिए। हममें से एक भी लोकेषणाग्रस्त बड़प्पन का महत्त्वाकाँक्षी न बनने पाए। जो महामण्डल नेता (युग शिल्पी) विश्व विनाश को रोकने चले हैं, यदि वे बिना पैगम्बर बने या ब्रह्मविद् मनुष्य बनने का प्रयास किये, महत्त्वाकाँक्षा अपनाकर साथियों को पीछे धकेलेंगे, अपना चेहरा चमकाने के लिए प्रतिद्वंद्विता खड़ी करेंगे, तो अपने पैरों कुल्हाड़ी मारेंगे और इस मिशन को बदनाम, नष्ट, भ्रष्ट करके रहेंगे, जिसकी नाव पर वे चढ़े हैं।]

 युवाओं को संगठित करने, उन्हें संघबद्ध करने में समर्थ मार्गदर्शक नेताओं का एक दल तैयार करने के लिये,शुरुआत में हरियाण के दहिया जाट संत निश्चलदास अनुयायिओं से संपर्क कर उनको को महामण्डल के लीडरशिप ट्रेनिंग शिविर में भेजने का कार्य रजत और रितेश के माध्यम से करना होगा। अर्थात अब हिन्दी भाषी राज्यों में ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्मविद् या पैगम्बर बनने और बनाने वाला प्रशिक्षण देने में समर्थ मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करने वाली स्वामी विवेकानन्द की जो कार्य-योजना थी उसे लागु करने का समय आ गया है ?-"प्रस्तुत रहो, स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है।" 

संगठन की शक्ति पर स्वामी विवेकानन्द के विचारों को सुना जाये ---स्वामीजी  3 मार्च, 1894 को शिकागो से -किडी या सिंगारावेलु मुदालियार को [What we believe in]  लिखित पत्र में कहते हैं - 
 " ज्ञानमार्ग अच्छा है, परन्तु उसके शुष्क तर्क में परिणत हो जाने का डर रहता है। प्रेम (भक्ति) बड़ी ही उच्च वस्तु है, पर निरर्थक भावुकता में परिणत होकर उसके विनष्ट होने का भय रहता है। हमें इनका समन्वय (ज्ञान और भक्ति में अविरोध) ही अभीष्ट है। इसीलिये युवाओं को प्रारम्भ से (विवेक-वाहिनी से ) ही संघबद्ध होकर, प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण के नेतृत्व में मनुष्य बनने और बनाने BE AND MAKE ' आन्दोलन से जुड़ जाना चाहिये।) श्री रामकृष्ण का जीवन ऐसा ही समन्वयपूर्ण था। ऐसे महापुरुष जगत् में बहुत कम ही आते हैं, परन्तु हम उनके जीवन और उपदेशों को आदर्श के रूप में सामने रखकर आगे बढ़ सकते है।  यदि हममे से प्रत्येक उस आदर्श की पूर्णता को व्यक्तिगत रूप में प्राप्त न कर सकें, तो भी हम उसे सामूहिक रूप में परस्पर एक दुसरे के परिमार्जन, सन्तुलन, आदान-प्रदान से एवं सहायक बनकर प्राप्त कर सकते हैं। यह समन्वय कई एक व्यक्तियों द्वारा साधित होगा और यह अन्य सभी प्रचलित धर्ममतों की अपेक्षा श्रेष्ठ होगा।

.... यद्यपि ईश्वर सर्वत्र है, तो भी उसको हम केवल मनुष्य चरित्र में और उसके द्वारा ही जान सकते हैं। श्री रामकृष्ण के जैसा पूर्ण चरित्र कभी किसी महापुरुष का नहीं हुआ और इसीलिए हमें उन्हीं को केन्द्र बनाकर संगठित होना पड़ेगा। हाँ, हर एक आदमी उनको अपनी-अपनी भावना के अनुसार ग्रहण करे, इसमे कोई बाधा नहीं डालनी चाहिए। चाहे कोई उन्हें ईश्वर माने, चाहे परित्राता या आचार्य, या आदर्श पुरूष अथवा मार्गदर्शक महापुरुष- जो जैसा चाहे। (२/३२६) 

....हमें विश्वास है कि सभी जीव ब्रह्म हैं। प्रत्येक आत्मा मानो अज्ञान के बादल से ढके हुए सूर्य के समान है और एक मनुष्य से दुसरे का अन्तर केवल यही है कि कहीं सूर्य के ऊपर बादलों का घना आवरण है और कहीं कुछ पतला। हमें विश्वास है कि यही वेदों का सार है, हर एक मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरे मनुष्य को इसी तरह, अर्थात् ईश्वर समझकर, सोचे और उससे उसी तरह अर्थात् ईश्वर-दृष्टि से बर्ताव करे; उससे घृणा न करे, उसे कलंकित न करे और न उसकी निन्दा ही करे। किसी भी तरह से उसे हानी पहुँचाने कि चेष्टा भी न करे। (ऐसा जीवनमुक्त शिक्षक, नेता, पैगम्बर बनना) यह केवल सन्यासी का ही नहीं, वरन सभी नर-नारियों का कर्तव्य है।" (वि० सा० ख० २: ३२७)

" शिक्षा का अर्थ है , उस पूर्णता की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। 
        धर्म का अर्थ है , उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति , जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। 
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक (नेता, पैगम्बर)  का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। 

जैसा मैं सर्वदा कहता हु - हस्तक्षेप बंद करो ! सब ठीक हो जायेगा।  अर्थात हमारा कर्तव्य है , रास्ता साफ कर देना - शेष सब भगवान ही करते हैं। " (२/३२८) 

" मुझे दृढ़ विश्वास है कि मद्रासियों के द्वारा ही भारत की उन्नति होगी। इसीलिए कहता हूँ कि हे मद्रास के युवक वृन्द , सोचो क्या तुममें से कुछ लोग भी इस नूतन भगवान रामकृष्ण को केन्द्र बनाकर इस नए आदर्श के कट्टर अनुयायी बन सकते हो ? .. तुम्हारा मुख्य उद्देश्य होगा उनकी शिक्षाओं को जगत में फैलाना। यद्यपि मैं खुद शिक्षा -निदेशक बनने के अयोग्य हूँ , तथापि मेरे जिम्मे एक यह विशेष काम था कि जो रत्न की पेटी मुझे सौंपी गयी थी, मैं उसे मद्रास में ले आकर तुम्हारे हाथों में दे दूँ। ... समझो कि अब मैं मर गया ; यही समझो कि सब कामों का भार तुम्हीं पर है। मद्रास के युवकों , समझो कि तुम्हीं इस काम के लिए विधाता द्वारा भेजे हुए हो। किसी व्यक्ति के या किसी रीति -रिवाज के विरुद्ध कुछ मत कहना। जाति-भेद के पक्ष या विपक्ष में कुछ मत कहना , और न किसी सामाजिक कुरीति के विरुद्ध ही कुछ कहने की आवश्यकता है। केवल लोगों से यही कहो कि 'हस्तक्षेप मत करो '-- बस, सब ठीक हो जायेगा। " (२.३२९)     


किसी भी व्यक्ति ने ईश्वर-पुत्र के माध्यम बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है। जगत का सर्वव्यापी ईश भी तबतक दृष्टिगोचर नहीं होता,जबतक ये महान शक्तिशाली दीपक, प्रकाश-स्तम्भ! ये ईशदूत, ये पैगम्बर, ये उनके संदेशवाहक और अवतार, ये नर-नारायण उसे अपने में प्रतिबिंबित नहीं करते। "   
"हममें से अधिकांश जन्मजात रूप से सगुण धर्म, अवतारवाद में श्रद्धा रखते हैं। मुसलमानों ने आरम्भ में ऐसी उपासना का विरोध किया है,..किन्तु प्रत्यक्षतः मुसलमान भी सहस्रों पीरों की पूजा करते पाये जाते हैं।...कोई भी पैगम्बर सारे विश्व पर सदा के लिये शासन करने नहीं जन्मा  है। सब स्वरों के समन्वय से ही एकलयता उत्पन्न होती है, किसी एक स्वर से नहीं। जातियों की इस ईश्वर निर्दिष्ट एकलयता में सभी जातियों को अपने अपने अंश का अभिनय करना पड़ता है। सभी जातियों को अपना अपना जीवनोद्देश्य प्राप्त करना पड़ता है, अपने अपने कर्तव्यों की पूर्ति करनी पड़ती है। "7/178 

>>मनुष्य निर्माण(पैगम्बर या नेता निर्माण) कारी शिक्षा में प्रार्थना का महत्व :
 " ईश्वर उनकी सहायता करता है जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। हर स्वावलम्बी वस्तु सुखी होती है, हर परावलम्बी वस्तु दुःखी। ईश्वर दुकान खोले नहीं बैठा है। हर साँस के साथ तुम ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हो। मैं बोल रहा हूँ ; यह भी एक प्रार्थना है। तुम सुन रहे हो ; एक प्रार्थना यह भी है।  क्या तुम्हारा कोई मानसिक या शारीरिक व्यापार कभी ऐसा भी होता है , जिसमें तुम असीम दैवी शक्ति के साथ शामिल नहीं रहते हो ? यह सब एक अविच्छिन्न प्रार्थना है।  यदि तुम विभिन्न शब्दों के विन्यास मात्र को प्रार्थना समझते हो, तो तुम प्रार्थना को छिछला बना डालते हो। ... क्या प्रार्थना कोई जादू का मंत्र है जिसका जप करने से बिना कठिन श्रम किये तुमको चमत्कारिक फल प्राप्त हो जायेगा ? ऐसा नहीं होता कि एक व्यक्ति कठोर श्रम करे और दूसरा कुछ १०-२० अक्षर के शब्दों का जप करके फलों को प्राप्त कर ले। यह सब विश्व ब्रह्माण्ड स्वयं में ही एक अविच्छिन्न प्रार्थना है। यदि तुम प्रार्थना को इस अर्थ में ग्रहण करते हो तो मैं तुम्हारे साथ हूँ।  शब्द आवश्यक नहीं मूक प्रार्थना श्रेष्ठतर है।  " (७/२०९)    

प्रार्थना शक्ति की खोज विश्व समुदाय को भारत की अद्भुत देन है। 
अंतःप्रकृति है हमारा चंचल मन, अन्तःप्रकृति की इस प्रचण्ड शक्ति को शान्त करने के लिये शिव संकल्प की प्रार्थना के अतिरिक्त और उपाय हो ही क्या सकता था? प्रार्थना का कोई विकल्प नहीं। 
वैदिक साहित्य में प्रकृति की शक्तियों के प्रति प्रार्थी भाव है। पश्चिमी साहित्य और समाज में प्रकृति की शक्तियों के प्रति भोगवादी आक्रामकता है।  यजुर्वेद की तमाम प्रार्थनाएं और नमस्कार के विषय चकित करते हैं। ऋषि कहते हैं, 
"नमो ह्रस्वाय च वामनाय च"
नमो बृहते च वर्षीयसे च
नमो वृद्धाय च संवृद्ध्वने च ॥ "

अति छोटे कद वाले को नमस्कार, और भी ज्यादा लघु कद वाले को नमस्कार और बड़े शरीर वाले को भी नमस्कार है। फिर कहते हैं, "प्रौढ़ को नमस्कार, वृद्ध को नमस्कार, अतिवृद्ध को नमस्कार, तरुण को नमस्कार, अग्रणी और प्रथमा को भी नमस्कार है।" यही परम्परा ऋग्वेद की भी है-

ॐ इदं नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृद्भ्यः ॐ 

(Rig Veda 10.14.15)

 - नमन उन सभी ऋषियों को, जो हम से पहले रहे, जो हमारे पूर्वज थे और 'पथिकृद्भ्यः ' मार्ग बनाने वाले थे; [मानवजाति के समस्त मार्दर्शक नेताओं-पैगम्बरों को भी नमस्कार] जिन्होंने हमारे लिये वैदिक मार्ग का निर्माण किया। 
प्रार्थना का कर्म है तो भौतिक, किन्तु उसका मर्म आदिभौतिक है, और मनुष्य के मस्तिष्क पर उसका प्रभाव रासायनिक होता है। चंचल मन को लोककल्याण से जोड़ना आसान नहीं है। प्रार्थना और नमस्कार दरअसल मन को एकाग्र करने में बहुत सहायक उपकरण हैं। विकल्पों में ही रमने वाले गतिशील, परिवर्तनशील घुमन्तू मन को संकल्प के खूंटे से बांधना सामान्य काम नहीं है। ईशावास्योपनिषद के ऋषि प्रार्थना कर रहे हैं-

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् । 
तत्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।॥१५॥

हिरण्यमय पात्र, अर्थात सोने की थाली से सत्य का मुख ढका हुआ है। हे माँ सारदा ! सांसारिक चमक-दमक और सांसारिक सुखद आकर्षणरूपी आवरण के पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है। हे सर्व पोषक ! उस भौतिक आकर्षण के परदे को हटाइये ताकि मुझ सत्यधर्मा (सत्यार्थी) को परम सत्य का दर्शन हो सके। 
 और हमलोग सोने की थाली पर  ही प्रलोभित होकर, उसी में संतुष्ट हो गये हैं। किन्तु उस सोने की थाली के पीछे ही वह परम सत्य है। इसीलिये प्रार्थना करते हैं- "सत्य-धर्माय दृष्टये अपावृणु।" हे माँ! तुम इस सोने की थाली को हटा लो, दूर कर दो, ताकि मैं सत्य को देख सकूँ। इस माया को यदि हम हटा सकें तो, हमलोग अनेक को नहीं देखेंगे, केवल एक उसी सत्य को देखेंगे।

यहां ऋषि ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय‘ अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चल, प्रार्थना नहीं कर रहा। वह ज्योति के सामने पहुंच गया है। ऋषि परम सत्य के बिल्कुल आमने-सामने खड़ा है। बड़ी दुविधा है, प्रकाश के आधिक्य के कारण सूक्ष्म आंखे भी चौधियां जा रही हैं। वह तो प्रकाश के पर्दे (मन की चहार दिवारी) को हटाने के लिए प्रार्थना कर रहा है। साधक बिल्कुल लक्ष्य तक पहुंच गया है, किन्तु प्रकाश का पर्दा इतना गहन है कि सत्य के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। ज्यों ही प्रकाश का पर्दा हटता है, सत्य का मूल रूप आलोक फूट पड़ता है। आलोक दर्शन होते ही ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं। दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, फिर वह ऋषि (ब्रह्मविद) ही सत्य (ब्रह्म) हो जाता है। 
'वृहदारण्यक उपनिषद्' में हजारों बरस पहले कहा गया था 'वह पूर्ण है, यह पूर्ण है। पूर्ण में पूर्ण घटाओ तो पूर्ण ही बचता है।' मुण्डकोपनिषद (2.2.10) में कहते हैं 'वहां न सूर्य हैं न चांद, न तारे, न अग्नि, न विद्युत। केवल उसकी आभा से ही यह सब प्रकाशमान है।' सारे प्रकाश उसी की दीप्ति हैं। तैत्तिरीयोपनिषद् के ऋषि अनेक वैदिक देवताओं (भावी मार्गदर्शक नेताओं) का आह्वान करते हुए कहते हैं-

ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । 
शं नो इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । 
त्वमेव प्रत्यक्षं बह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । 
तन्मामवतु । तद्वक्तारमवतु । अवतु माम । अवतु वक्तारम् ।"

 इन सभी देवताओं के (भावी नेताओं के) (आत्मा स्वरूप) ब्रह्म को नमस्कार है, तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो। मैं तुम्हें ही ब्रह्म कहूँगा। तुम ही प्रत्यक्ष ‘सत्य’ हो, मैं तुम्हें ही ‘सत्य’ अथवा ‘ऋत’ कह कर पुकारूंगा। जो भी नाम लिया जाए वह नित्य (तत्त्व ॐ ) का ही द्योतक है-दोनों अभिन्न हैं। केनोपनिषद् में इन्द्र के पहुँचते ही यक्ष रूपी  ‘‘ब्रह्म’’ के लोप हो जाने में कितना भारी नाटकीय प्रभाव है, वैसा ही उमा का प्रकट होना और कहना, इन्द्र को बताना कि  ‘‘वह बह्म था’’। 


‘’रिसरेक्शन’’ टॉलस्‍टॉय का आखिरी उपन्‍यास है। इससे पहले ‘’वार एंड पीस’’ और ऐना कैरेनिना’’ जैसे श्रेष्‍ठ और महाकाय उपन्‍यास लिखकर टॉलस्‍टॉय ने विश्‍व भर में ख्‍याति अर्जित कर ली थी। ऐना कैरेनिना के बारे में उसने खुद कहा कि मैंने अपने आपको पूरा उंडेल दिया है। इस उपन्‍यास के बाद टॉलस्‍टॉय की कल्‍पनाशीलता वाकई चुक गई थी क्‍योंकि इसके बाद वह दार्शनिक किताबें लिखने लगा था। अपने आपको एक संत या ऋषि की तरह प्रक्षेपित करने लगा था। उस भाव दशा में ‘’रिसरेक्शन’’ जैसा उपन्‍यास लिखने की प्रेरणा टॉलस्‍टॉय के पुनर्जन्‍म जैसी ही थी। रिसरेक्‍शन अर्थात पुनरुज्जीवन।पूरी जिंदगी लियो टॉलस्‍टॉय जीसस क्राइस्‍ट से बहुत प्रभावित था। यह शीर्षक ‘’रिसरेक्‍शन’’ उसी से आया था।
टालस्टाय सचमुच जीसस से प्रेम करता था। और प्रेम जादुई है। क्‍योंकि जब तुम किसी से प्रेम करते हो तब समय खो जाता है। टॉलस्‍टॉय जीसस से इतना प्रेम करता था कि वे दोनों समसामयिक हो गए। दोनों के बीच अंतराल बड़ा है, दो हजार साल का, लेकिन जीसस और टॉलस्टॉय के बीच वह खो जाता है।यह किताब 1899 में लिखी गई। 
वह विख्‍यात रशियन क्रांति के पहले का समय था। जमींदारी, जार शाही, गरीब ओर अमीर के बीच की अलंघ्य खाई, ये सब रशियन समाज व्‍यवस्‍था के अंग थे। उन दिनों रशिया पर ईसाई धर्म की पकड़ जबरदस्‍त थी जैसे कि पूरे यूरोप में थी। किन्तु जीसस के मूल सूत्र खो गए थे। और चर्च तथा चर्च का आडंबर बहुत शक्‍तिशाली हो गया था। समय के इस दौर में जो-जो ब्रह्मविद या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हुए, —गैलीलियो से लेकिर बर्ट्रेंड रसेल तक—उन सबने चर्च के द्वारा फैलाये गये पाखंड को मानने से साफ इंकार कर दिया। स्‍वभावत: उसकी कीमत भी चुकाई—मृत्‍यु दंड से लेकर सामाजिक बहिष्‍कार तक।
 किन्तु भारत में किसी भी सच्चे संदेशवाहक या पैगम्बर को सामाजिक वहिष्कार या मृत्युदण्ड नहीं दिया जाता है, बल्कि उनके गुरु के रूप में पूजा जाता है। क्योंकि ' विष्णु- सहस्त्रनाम ' घर घर में गाया जाता है, उसमें भगवान विष्णु का एक नाम ' नेता 'भी है। समाज को मार्गदर्शन देने वाले नेता या पैगम्बर का यहाँ कभी आभाव नहीं होता है। यहाँ भगवान स्वयं अवतार के रूप में आविर्भूत होते रहते हैं। वर्तमान समय में हमलोग स्वामी विवेकानन्द की सार्धशती मना रहे हैं। उनको मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बनाने के लिये लिये भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस अपने साथ लाये थे।

भारतवर्ष को एक बार फिर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द के चरणों में बैठकर ब्रह्मविद बनना होगा। तभी तो स्वामी विवेकानन्द  संत निश्चलदास जैसे धार्मिक नेता या पैगम्बर का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि " ब्रह्मविद किसी भी जाति में (चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र), किसी भी आश्रम चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास) में हो सकते हैं, और किसी भी भाषा में उपदेश दे सकते हैं। वैसे संदेशवाहकों की अवस्था का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " वे उन अभिनेताओं के समान हैं,जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चूका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रयोजन नहीं है, तो भी वे दूसरों को आनन्द देने रंगमंच पर बारम्बार आते रहते हैं। "7/8 "मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय सम्पत्ति का कोई बंधन नहीं है, मैं सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। सभी मेरे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं, अतएव आनन्द पूर्वक निचोड़ता हूँ।92/
" अवतार का अर्थ है, जीवन्मुक्त अर्थात जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त कर लिया है। सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उस अवस्थाविशेष की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहयता का नाम धर्म है, बाकि अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है,शेष कूकर्म है।" 4/298ब्रह्मज्ञ पुरुष ही लोक-गुरु बन सकते हैं।"6/23सभी प्रकार की साधना का फल है, ब्रह्मज्ञता प्राप्त करना।"6/167
-" बंगाल के नवयुवकों ! तुमलोगों से मेरा विशेष अनुरोध है। भाइयों !..अपने धर्म के उस केन्द्रवर्ती सत्य पर खड़े हो जाओ-जो हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख की पैत्रिक सम्पत्ति है। वह सत्य है मनुष्य की आत्मा ! जो अज,अविनाशी,सर्वव्यापी, अनन्त है-जिसकी महिमा वेद भी वर्णन नहीं कर सकते, जिसके वैभव के सामने सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड एक बिन्दुवत है। प्रत्येक स्त्री-पुरुष यही नहीं समस्त प्राणियों में वही आत्मा,विकसित या अविकसित -या विकासशील अवस्था में है। अन्तर प्रकार में नहीं केवल परिमाण में है। आत्मा की इस शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने पर होने पर (मनुष्य अवतार में परिणत हो जाता है) मनुष्य का ईश्वर बन जाता है। पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पशचात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहयता देंगे। बनो और बनाओ- " Be and Make " यही हमारा मूलमंत्र रहे ! "9/379 
सबसे पहले हमें स्वयं यथार्थ 'मनुष्य' (अर्थात "केन्द्रवर्ती सत्य पर खड़ा मनुष्य") बनना होगा, फिर दूसरे मनुष्यों को भी केन्द्रवर्ती सत्य (आत्मा) पर खड़ा 'मनुष्य' बनने में सहायता करनी पड़ेगी।
 "केन्द्रवर्ती सत्य पर खड़ा मनुष्य" बनने के लिये मन को एकाग्र करने की विद्या सीखकर मन की चाहरदीवारी को पार करके पुनः जब उस मन को यंत्र बना कर और स्वयं को प्रभु यंत्र मानकर कर्म करोगे-   अहंकार को कम करो ! विवेक प्रयोग करो ! अर्थात मनुष्य अपनी समग्रता में ब्रह्म ही है ! मनुष्य के अधूरेपन की ओर मत देखो, उसे उसकी अन्तर्निहित पूर्णता का सुसमाचार दो, और हो सके तो उसके अभिव्यक्त करने का उपाय -Be and Make से जुड़ने का उपाय बता दो !
परिव्राजक के रूप में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करके स्वामीजी ने हजार वर्षों तक विदेशियों के गुलामी करने के कारण भारत में निवास करने वाले ऋषि-मुनि की संतानों की दुर्दशा के कारणों का बहुत सूक्ष्मता से अवलोकन किया था। वर्तमान भारतवासी विभिन्न कारणों से (पाश्चात्य संस्कृति और शिक्षा पद्धति क्षूद्र राजनीति आदि) के चक्कर में पड़कर अपनी संस्कृति को भूल गये है। भारतीय संस्कृति के चार पुरुषार्थ-'धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष' को भूल कर केवल पाश्चात्य संस्कृति के दो पुरुषार्थ -अर्थ और काम का भोग करने में मनुष्य से पशु बनता जा रहा है। शिक्षा को मनुष्य बनाने वाले धर्म से जोड़े बना केवल डंडे का भय दिखाकर या कानून बना कर भारत का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता।
भारत में निवास करने वाली प्रजा तो ऋषि-मुनियों की संतानें हैं, इन्हें ऐतेरेय ब्राह्मण के मन्त्र को सुनाकर युवाओं को कलियुग की मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा,यही स्वामीजी की योजना थी! और  यही वह कार्य है, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के उपर सौंपा था। और स्वामीजी ने भारत के युवाओं को सौंपा था। क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है -
" कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता है, इसीलिये-
" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! "
सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है- "कलिः शयानो भवति" वह अभी ' कलिकाल में वास 'कर रहा है, और स्वामीजी की ललकार -  सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, " संजिहानस्तु द्वापरः" वह द्वापर युग में वास कर रहा है.
" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"
- जो उठ कर के खड़ा हो जाता है- (जो पुरुषार्थ करने के लिये )अर्थात मनुष्य बन जाने के लिये, कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में वास कर रहा है, " कृतं संपद्यते चरन् । "
और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है,अर्थात मनुष्य बन जाने के लिये तप करना (Emblem में दिखने वाले स्वामी विवेकानन्द की छवि पर मन को एकाग्र करना )जिस व्यक्ति ने भी शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है.

इसीलिये महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, बहुत गहराई चिन्तन-मनन कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem) निर्धारित किया गया. इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर " चरैवेति चरैवेति " को प्रमुखता से दर्शाया गया है। ' आगे बढो, आगे बढो ' का यह आह्वान स्वामीजी युवाओं से कर रहे हैं- और " Be and Make " का परम-पुरषार्थ करने के लिये पुकार रहे हैं - उनकी यह दोनों वाणी महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है ! Emblem में जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के नीचे की ओर लिखा है " Be and Make "
स्वामीजी के द्वारा दिया गये ये दोनों सन्देश-' आगे बढो, आगे बढो ' तथा " बनो और बनाओ " उपनिषदों में कहे गये " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है.(दादा कहते हैं- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे  मोक्ष तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है :-" स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! "
क्योंकि मनुष्य बनना तप है ! (गुरु गोबिन्द सिंह को भी उनके शिष्यों ने छोड़ दिया था, किन्तु वे कुछ कार्य करने को आये थे, लक्ष्य को पाने में कठिनाई उठाना, अपमान सह लेना भी तप है। )
  "आगे बढो, आगे बढो ! " का तात्पर्य है स्वयं की मानसिक चाहारदिवारी को तोड़ दो और देश-काल से परे अपने अनन्त स्वरूप में स्थित होने तक की यात्रा पर आगे बढ़ते रहो, जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो ! 
स्वामी विवेकानन्द कहते थे,धर्म का मतलब हिन्दू-मुसलमान-ईसाई नहीं होता, " धर्म तो वह वस्तु है, जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में रूपांतरित कर देता है।" धर्म के साथ शिक्षा की अभिन्नता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-" शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था 'बाबु' पैदा करने की मशीन के सिवाय कुछ नहीं है।जो शिक्षा मनुष्य में चरित्र-बल, परहित-भावना, तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती,वह भी कोई शिक्षा है ? Education is the manifestation of the perfection already in man." -अर्थात मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करा देने का नाम ही शिक्षा है ! इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि " चरित्र-निर्माण तथा मनुष्य-निर्माण कर शिक्षा "ही भारत की सभी समस्याओं की रामबाण औषधी है। जीवन में मूल्यों को भरने वाली शिक्षा देनी होगी।
कोई व्यक्ति यदि अपने स्थान, परिवार, व्यवसाय, पद आदि के कारण जो महत्व पाता है वह उसका स्वयं का मूल्य नहीं होता अपितु उस उस उपाधि के द्वारा मनुष्य पर भावित मूल्य होता है। ऐसे उपाधि मूल्य (Face Value) की अवधि (Expiry) उपाधि के साथ ही समाप्त होती है। जैसे जिले के जिलाधीश (Collector) को मिलने वाला मान-सम्मान पद के होने तक ही होता है। पद के छूट जाने के बाद वह सम्मान नहीं मिलेगा। मनुष्य का भी आंतरिक मूल्य ( अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ) ही महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह परिस्थिति, पद, सम्बंद्ध ऐसे परिवर्तनीय कारकों पर निर्भर नहीं होता। चाहे बाह्य कारक पूर्णतः बदल जाय फिर भी जो आंतरिक चरित्र (दिव्यता) है उसका मूल्य वैसे ही बना रहेगा। इसी आधार ही कठीन परिस्थितियों में भी ' वीर और धीर' युवा (चरित्र-बल के धनी युवा )अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर ही लेते है। 
स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में गये तब उनका परिचय पत्र, सामान सब चोरी हो गया। पराये देश में कोई एक भी परिचित व्यक्ति नहीं जहाँ जाना है वहाँ का पता नहीं। अर्थात उपाधि मूल्य कुछ भी नहीं। ऐसे समय उनका साथ दिया उनके आंतरिक मूल्य नें उनके चरित्र ने, ज्ञान ने। इस असम्भव स्थिति में भी पूर्ण श्रद्धा के साथ उन्होंने अपने लक्ष्य को प्राप्त किया।

  बोस्टन में, शिकागो में जिन लोगों से उनका परिचय हुआ वे सब उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहें। जिस घर में वे रहते थे, वहाँ की गृहस्वामीनी अपनी सहेलियों की चाय पार्टी में स्वामीजी को एक अजूबे के रूप में, मसखरे के रूप में प्रस्तुत करती थी।  पर उनकी बातों में भरा जीवन का ज्ञान इस विडम्बना और अपमान को पार कर फैलता गया। फिर उन महिलाओं के परिवारों के प्रबुद्ध सदस्य आकर्षित हेाते गये और स्वामी विवेकानन्द की ख्याति सुरभी की भाँति सर्वत्र फैल गई। विद्वानों ने उन्हे परिचय और सन्दर्भ देकर शिकागो भेजा। प्रोफेसर राइट ने धर्मसभा के आयोजक फादर बैरोज को पत्र लिखा। यह सब आंतरिक मूल्य का परिणाम थे। 
भारतमाता को पुनः जगद्गुरू बनाने इतने महान कार्य को आरम्भ कर उसकी पूर्णता की चिंता किये बिना स्वामीजी का महाप्रयाण - इस बात का संकेत है कि उन्हें अपने शिष्यों पर पूरा विश्वास था कि वे उनका कार्य अवश्य सम्पन्न करेंगे। 
अब यह हमारा कर्तव्य है कि उस कार्य के सभी आयामों को समझ उसे पूर्णता तक ले जाये। स्वामीजी ने कहा था कि आनेवाले 1500 वर्षों के लिये उन्होंने कार्य का नियोजन किया है। उन्होंने यह भी कहा था कि शरीर छोड़ने के बाद भी मैं कार्य करता रहुंगा। मद्रास के व्याख्यान ‘मेरी समर नीति’ में स्वामीजी ने युवाओं को अभिवचन दिया, ‘यदि तुम मेरी योजना को समझ कर कार्य में लग जाओगे तो मै तुम्हारे कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करूंगा।’ स्वामीजी के कार्य में पूर्ण समर्पण से लगे साथियों को यह अनुभूति समय समय पर आती है कि स्वामीजी उनके साथ कार्य कर रहे है !!" आइये उनके महाप्रयाण पर हम सब भी इस कार्य में तन, मन, धन, सर्वस्व के समर्पण के साथ लग जाये।
स्वामीजी के कार्य को आगे बढ़ाने में नारी शक्ति को भी आगे आना होगा। सभी मनुष्यों में इतनी पात्रता नहीं होती कि सांसारिक जीवन का त्याग करके पूर्ण रूप से संन्यासी या संन्यासिनी बन जायें।इसीलिये जो स्त्री-पुरुष गृहस्थ रहना चाहते हैं, उनके लिये महामण्डल और 'सारदा नारी संगठन' का सदस्य बन कर स्वामीजी के 'Be and Make' आन्दोलन के माध्यम से ब्रह्मविद होकर ब्रह्मविद बनाने का अवसर उपलब्ध है। स्त्रियाँ भी ब्रह्मविद बन सकती हैं। स्वामीजी कहते हैं-"आत्मा लिंगविहीन है। विदेह आत्मा का देह तथा पाशव भाव से कोई सम्बन्ध नहीं होता। कई स्त्रियाँ सद्गुरु बनी हैं। कश्मीर की लल्ला भी ऐसी ही स्त्री-गुरु थीं।
 स्वामीजी कहते हैं- "इस नूतन युग में जनता वेदान्त के अनुसार जीवन यापन करेगी,और यह स्त्रियों के द्वारा ही यह कार्य रूप में परिणत होगा।'हृदय में सहेज रखो सुन्दरी प्यारी श्यामा माँ को ..ओ मेरे जीवन की चाँद, मेरी आत्मा की आत्मा !" 7/112/

अपनी पत्नी को तुम अवश्य प्रेम करो,पर पत्नी के लिये नहीं।'हे प्रिये, पत्नी को पति प्रिय लगता है, किन्तु वह पति के लिये नहीं। उसका कारण है उसमें वर्तमान अनन्त परमात्मा।  न वा अरे पत्युः कामाय पतिः प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पतिः प्रियो भवति  ।आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि ...आत्मनि खल्वरे दृष्टे श्रुते मते विज्ञात इदं सर्वं विदितं  ॥" ७/१८७
अपने कर्तव्य में अपने को डूबा दो-जो काम हाथ में आ जाये, उसे करते जाओ।7/192

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[बहुत पहले पन्द्रह-सोलह साल के उम्र में सुदर्शन जी की एक कहानी पढ़़ी थी- ' एथेंस का सत्यार्थी’। यूनान देश के एथेंस नगर के निवासी विख्यात दार्शनिक सुकरात (Socrates 469-399 ई.पू.)(देवकुलीश) को एथेंस का सत्यार्थी इसलिए कहते थे कि उन्होंने ' सत्य की खोज एवं झूठ के खंडन ' के लिए जहर का प्याला पीना भी स्वीकार कर लिया था। यूनान का सुकरात रहस्‍यदर्शी था, उसे दार्शनिक कहना ठीक नहीं होगा। वह कहता था- " ज्ञान और सच्चरित्रता एक ही वस्तु हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं। ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शुभ या भद्र दो चरम सीमाओं में मध्यवर्ती स्थिति है। घृष्टता और कायरता दोनों अवगुण हैं; इनके मध्य में साहस है जो सदाचार है। शिष्टाचार उद्दंडता और दासभाव के बीच की अवस्था है।"सुख-दूःख या सर्दी-गर्मी उसके लिए सब एक बराबर था। उसे बार-बार घंटो ट्राँस में खो जाने की आदत थी। लोग कहते थे उसकी आत्‍मा ने शरीर पर विजय पा ली है। उसकी एक ही बुरी आदत थी: लोगों के साथ संवाद करना। वह संवाद के द्वारा सत्‍य को उघाड़ने की, और लोगों को झकझोरने की कोशिश करने लगा। यदि हम स्वामीजी की दृष्टि से या, सनातन भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि से कहें तो सुकरात एक सत्य-द्रष्टा ऋषि थे,नेता,या पैगम्बर थे। भारतवर्ष में शिष्य अपने गुरु को मनुष्य की दृष्टि से नहीं देखते हैं, वे उनको ईश्वर का अवतार या भगवान भी कह सकते हैं। यहाँ किसी एक ही व्यक्ति को अन्तिम पैगम्बर मानने की बाध्यता नहीं है। मनुष्य-मात्र ही ऋषि या पैगम्बर हो सकता हैं। परम सत्य का दर्शन करके ऋषि बनने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित है। लेकिन पाश्चात्य संस्कृति में ऋषि बनने की या बुद्धों-अवतारों की कोई परंपरा नहीं है। इसलिए इतिहासकार या सुकरात के अपने शिष्‍य भी उसे समझ नहीं पाये। वे उसे एक विचित्र, बेबूझ व्‍यक्‍ति मानते थे।  एथेन्‍स के सारे नेता उस की हरकत से परेशान थे। वे उसके बोलने को रोक नहीं सके तो आखिर उसकी आवाज को ही बंद करवा दिया। अफलातून और अरस्तू सुकरात के ही शिष्य थे। तरुणों को बिगाड़ने, ईश-निन्दा करने और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी।
उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा-भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए है जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना? हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर ओढ़ा देना। "उस कहानी में लेखक ने बताया कि एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश उस परम-सत्य को आमने सामने खड़ा होकर देखने की चेष्टा में सातवें पर्दे को भी चीर देता हैं, तो अँधा हो जाता है. तब मैंने अपने हिन्दी शिक्षक (श्री वासुदेव झाजी) से पूछा था-'सर, परम-सत्य में ऐसा क्या था कि देवकुलीश अँधा हो गया ?' मेरे स्कूल के गेट के निकट एक बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष था, शिक्षक ने पेट में चूंटी काटते हुए कहा तुम बहुत प्रश्न करते हो, जाओ पीपल पेंड़ के नीचे। और मुझे क्लास से बाहर जाने को कहा। महामण्डल में आने के बाद स्वामीजी के जीवन और सन्देश को पढ़ने तथा उनके साथ परमपूज्य श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के जीवन को मिलाकर देखने से यह स्पष्ट हो गया कि, आज के युग में भी जो सत्य की खोज में समर्पित हो जाए उसे भी एथेंस का सत्यार्थी ही कहना चाहिये। पूज्य नवनीदा के कृपा से समझ में आया मृत्यु 'अहं' को होती है, 'आत्मा' अजर-अमर अविनाशी है,सत्य का साक्षात्कार भी आत्मा को होता है, अहं को नहीं। ]   

[दिल्‍ली की मशहूर जामा मस्‍जिद से कुछ ही दूर, बल्‍कि बहुत करीब, एक मज़ार है जिस पर हजारों मुरीद फूल चढ़ाते, चादर उढ़ाने आते है। आज भी लोग उनकी रुबाईयों को पढ़ते हैं।  धामिर्क कट्टरपंथ उनका छूकर भी नहीं गया था। सूफी सरमद का संबंध एक यहूदी परिवार से था और वे ईरान में पैदा हुए थे। बाद में उन्होंने इस्लाम कुबूल कर लिया था। बाद में मुसलमान हुए और अन्त में वेदान्त धर्म के अनुयायी हो गये। सरमद का संबंध एक तिजारत पेशा परिवार से था। एक समय की बात है कि वह व्यापार के संबंध में ईरान से सिंध पहुंचे। सिंध में ठट्ठा के नाम से एक ऐतिहासिक नगरी है। यहां वे एक युवती से प्रेम करने लगे। थोड़े ही समय में उनको इस प्रकार का तजुर्बा हुआ कि उनका यह प्रेम अनायास ही खुदा के प्रेम में बदल गया और तब से ही उनका मिजाज भी सूफियाना हो गया।
उत्‍तर प्रदेश के गाज़ीपुर शहर में उसे संत भीखा मिले। भीखा क्‍या मिले, प्‍यासे को पानी मिल गया।संत भीखा, गुलाल साहब के शिष्‍य थे और गृहस्‍थ जीवन जीते थे। सिर से पैर तक भीगा हुआ सरमद भीखा पर कुरबान हो गया। भीखा ने एक ही करिश्मा किया: सरमद का रूख बाहर से भीतर की और मोड़ दिया। बहुत घूम लिये बाजारों और जंगलों में, अब भीतर ठहर जाओं। अपने जिस्‍म में ही काबा और काशी है, उसे ढूंढो। और सरमद ने वाकई उसे ढूंढ लिया। मुसलमान उसे बुतपरस्‍त कहते क्‍योंकि वह गुरु की तस्वीर के आगे झुकता था। वह लोगों को समझाता, झकझोरता। वह बात तो साधारण आदमी से करता और मुल्‍ला-मौलवियों की मस्‍जिद के गुंबद कांप उठते। वह कहता, ‘’मत जाओ काबा काशी। वहां अंधकार है। और कुछ भी नहीं। मेरे गुलशन में आओं, तब तुम्‍हें रोशनी को देख पाओंगे। अच्‍छी तरह से देखो। आशिको, फूल और कांटा एक ही है।
दारा शिकोह उनकी भक्ति और विद्वता से बहुत प्रभावित थे। सूफी सरमद कहा करते थे कि जिसके दिल में अल्लाह का डर है वह किसी से नहीं डरता। शाहजहां के दरबार में सरमद का आना-जाना रहता था। और किस्‍मत से अचानक करवट ली। शाहजहां के तीसरे बेटे औरंगज़ेब ने उसे कैद कर दिया। (औरंगजेब ने भारत के १५ करोड़ लोगों पर शासन किया जो की दुनिया की आबादी का १/४ था। औरंगज़ेब ‘दारुल हर्ब’ (क़ाफिरों का देश भारत) को ‘दारुल इस्लाम’ (इस्लाम का देश) में परिवर्तित करने को अपना महत्त्वपूर्ण लक्ष्य मानता था।) उसने एक के बाद एक अपने भाईयों और भतीजों का कत्‍ल करना शुरू कर दिया। उनमें दारा का नंबर सबसे पहला था क्‍योंकि वह सबसे बड़ा बेटा था। इसलिए तख्‍त पर बैठने का हक रखता था।‘’ सूफी सरमद आधा कलमा ही पढ़ा करते थे अर्थात लाइलाहा इल्लल्लाह। बाकी का आधा कलमा , मुहम्मदुर रसूलुल्लाह , वे नहीं पढ़ा करते थे। इसका कारण था कि सिवाय अल्लाह के वे किसी को नहीं मानते थे। वह इसलिए मारा गया क्‍योंकि एक मुस्‍लिम कलमा है: अल्‍लाह ही एक मात्र परमात्‍मा है। और मोहम्मद उसके अकेले पैगम्बर हैं। वे दुनिया में घोषित करना चाहते है कि सिर्फ मोहम्‍मद ही अल्‍लाह के पैगंबर है। ईश्‍वर ही ईश्‍वर है। और मोहम्‍मद उसके अकेले सन्देश वाहक या पैगंबर है। सूफी इस कलमा के दूसरे हिस्‍से को कबूल नहीं करते। वह उसके लिए काफी नहीं है।
वह कुछ और चाहते है। सरमद का कुफ्र यही था। स्‍वभावत: कोई भी अकेला पैगंबर नहीं हो सकता। कोई भी आदमी—फिर से जीसस हो या मोहम्‍मद या मोज़ेज या बुद्ध, एकमात्र नहीं हो सकता। अपना सर काटने के लिए करीब आते हुए जल्‍लाद को देखकर वह बोल उठा, ‘’या खुदा, आज तू मेरे पास इस शक्‍ल में आया है।‘’जब उसका सर काटा गया तो उसके खून का कतरा-कतरा बोल उठा, ‘’अनलहक़, अनलहक़…‘’ दिल्‍ली के प्रधान काजी के मुताबिक सरमद का कुफ्र था: दिल्‍ली की सड़कों पर ‘’अनलहक, अनलहक …चिल्‍लाते हुए गुजरना। यह कुरान की बेइज्‍जती थी क्‍योंकि कुरान में लिखा है कि बस एक ही अल्‍लाह है। और इस नंगे फकीर की जुर्रत कि अपने आपको सरेआम अल्‍लाह कहता फिरे?

 औरंगज़ेब 1658 में तख़्तनशीन हुआ और उसने 1659 में सरमद का कांटा हटा दिया। लेकिन सरमद की मस्‍ती उन आखिरी घड़ियों में भी उतनी ही थी। सरमद का कत्‍ल कर दिया गया मुगल बादशाह के हुक्‍म से। उसने मुल्लाओं के साथ साजिश की थी। लेकिन सरमद हंसता रहा। उसने कहा, मरने के बाद भी मैं यही कहूंगा।उसका कटा हुआ सिर मस्‍जिद की सीढ़ियों पर लुढ़कता हुआ चिल्‍ला रहा था: ‘’ला इल्‍लाही इल अल्‍लाहा।‘’ वहां खड़े हजारों लोग इस घटना को देख रहे थे।
[लल्‍ला कश्‍मीरी साहित्‍य की पहली कवयित्री है। उन्‍होंने संस्‍कृत जैसी प्रतिष्‍ठित भाषा को त्‍यज कर आम लोगों की कश्‍मीरी भाषा को अपने ज्ञान की अभिव्‍यक्‍ति के लिए अपनाया था ।वे कहती हैं," गुरु ने मुझसे एक ही वचन कहा: ‘बाहर से भीतर की तरफ जा।' यही वचन लल्‍ली को राह दिखाता रहा। देह के मकान के सारे द्वार-झरोखे मैंने बंद कर लिए। और प्राण चोर को पकड़कर उसके भागने के सब रास्‍ते बंद कर दिये। फिर ह्रदय कोठरी में उसे बांधा और ओम् के चाबुक से खूब पीटा।चित के घोड़े को लगाम लगाई। दस नाड़ियों पर नियंत्रण कर श्‍वासोश्‍वास को बाँध लिया। तब कहीं शशि कला पिघली और मेरे शरीर में उतर आई। और शून्‍य में शून्‍य मिल गया। चित-तुरंग पूरे गगन में भ्रमण करता है। एक निमिष में लाखों योजन पार करता है। जिसने बुद्धि और विवेक की लगाम से इसे थामना सीख लिया उसी के प्राण-अपान वायु नियंत्रित हो जाते है।हर क्षण मन को ओंकार का पाठ कराया। स्‍वयं ही पढ़ती रही, स्‍वयं ही सुनती रही। 'सो हम्' पद में मैंने अहं को समाप्‍त किया तब मैं ‘’लल्‍ला‘’ प्रकाश स्‍थान तक पहुंची। "
'पाँच, दस और ग्‍यारह को क्‍या करूं? ये सब मेरी हँड़िया खाली कर गये। अगर ये सब रस्‍सियों को खींचते तो गाय को खो नहीं बैठते। एक गाय के ग्‍यारह मालिक उसे अपनी-अपनी और खींचते है तो फिर गाय कहीं की नहीं रहती।'
(यह बाख एक प्रतीक रूप है। पाँच तत्‍व, दस इंद्रियाँ और ग्‍यारहवां मन—ये सब मिल कर व्‍यक्‍ति को सब दिशाओं में खिंचते है। और उसे आत्‍मा से, अपने केंद्र से अलग करते हैं।)

कश्‍मीरी लोग कहते थे, ‘हम दो ही नाम जानते है; एक अल्‍लाह और दूसरा लल्‍ला।कश्‍मीर में निन्यानवे प्रतिशत मुसलमान है। फिर भी वे अल्‍लाह के साथ लल्‍ला को जोड़ते है। यह महत्‍वपूर्ण है। वह एक महान सदगुरू थी। उसके कई शिष्‍य थे। उसका बहुत बड़ा गुण था : वह किसी भी संगठित धर्म में शामिल नहीं हुई। वह स्‍वतंत्र सदगुरू या पैगम्बर थी। फिर भी अन्‍य धर्मों के लोग उसे मानते थे—माने बगैर नहीं रह सकते थे।]
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