मंगलवार, 30 मार्च 2010

" आन्दुल-मौड़ी प्रियूनिवर्सिटी स्कूल " [जीवन नदी के हर मोड़ पर -4]


मेरे पितामह ने वकालत के पेशे को ठुकरा दिया: परवर्तीकाल में (प्रेसिडेंसी कॉलेज से पढाई पूरी करने के बाद) पितामह ने "ओर्डिगनाम कम्पनी " (Orr Dignam & Co, The well -known Solicitors; as mentiond by Montague Massey.) में योगदान किया था, किन्तु इसी बीच मेरी पितामही की मृत्यु होगई| तब उन्होंने तय किया कि मैं अपनी आजीविका के लिये क़ानूनी पेशे में नहीं जाऊंगा, क्योंकि किसी विधवा की सम्पत्ति को हड़पने की नियत से कोई व्यक्ति मेरे पास मुकदमा लेकर आयेगा, तो ? ...  मैं इस तरह के मुकदमों की पैरवी नहीं कर पाउँगा| इस प्रकार क़ानूनी व्यवसाय को उन्होंने त्याग दिया| 

इसी बीच प्रसिद्ध अंग्रेजी अख़बार स्टेट्समैन में एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ -" Wanted Headmaster for Andul H.C.E.School, Howrah, Consolidated pay Rs.100 " हावड़ा जिले के ' आन्दुल-मौड़ी ' को एक जुड़वे-ग्राम के रूप में जाना जाता था| 





(New Andul Higher Class School got its birth on 10th February 1941after the Kundu Chaudhurys renamed the century old ANDUL HIGHER CLASS ENGLISH SCHOOL to bear their flag. Behind the establishment of this school at this sight there was a long struggle of "Andul H.C.E. School Samman Rakshan Samity".)
आन्दुल का राजमहल आज भी विद्यमान है, तथा मौड़ी ग्राम के जमींदारवंश के कुंडू चौधरी एवं मल्लिक वंश के योगेन्द्रनाथ मल्लिक काफी धनाड्य व्यक्ति थे, उन्होंने ही वर्ष 1841 में इस स्कूल की स्थापना की थी| यह एक प्रि-यूनिवर्सिटी स्कूल था, (2016 में इसका 175 वाँ वर्षगाँठ मनाया जायेगा -पूज्य नवनी दा भी जाने वाले हैं ) और उस समय वहाँ प्रधान शिक्षक का पद रिक्त था| उस समय तक भारतवर्ष में एक भी विश्वविद्यालय नहीं था| जहाँ तक मुझे याद है, वर्ष 1859 में सर्वप्रथम तीन स्थानों पर -   कलकाता, बम्बई और मद्रास में, तीन यूनिवर्सिटी स्थापित हुई थी| इसके पूर्व तक भारतवर्ष में एक भी यूनिवर्सिटी नहीं था| किन्तु आन्दुल का यह स्कूल प्रि-यूनिवर्सिटी था ! 

और वर्ष 1853 से 1856 तक सर आशुतोष मुखोपाध्याय (जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता) के बड़ेचाचा दुर्गाप्रसाद मुखोपाध्याय इस स्कूल के प्रथम प्रधान शिक्षक थे; एवं आशुतोष मुखोपाध्याय के पिता गंगाप्रसाद मुखोपाध्याय इसी स्कूल के छात्र थे|  संस्कृत श्लोकों के उद्भट- संग्रह्कार, कविभूषण पूर्णचंद्र दे महाशय भी हमारे स्कूल में कुछ दिनों तक प्रधान शिक्षक रहे थे| उन्होंने सम्पूर्ण भारत में प्रचलित लगभग पाँच हजार उद्भट श्लोकों का संग्रह किया था| उनके द्वारा लिखित
' उद्भट-श्लोक-संग्रह ' नामक पुस्तिका में चुने हुए 360 श्लोक हैं।  कलकाता के किसी मकान में अनेक पण्डित आएथे, इनके माध्यम से ही उन्होंने लगभग 3000  श्लोकों का संग्रह किया था|
सधारायणतया ' उद्भट ' कहने से हमलोग अलौकिक या अद्भुत समझते हैं, यहाँ वैसा नहीं है फिर भी कई श्लोकों को तो निश्चय ही अद्भुत कहा जा सकता है| क्योंकि एक-एक श्लोकों में आश्चर्यजनक तरीके से किसी विशेष परिस्थिति के संकट एवं संकटमोचन का सूत्र  उपलबध है। तथा विशेष परिस्थितियों में उनके प्रभावों का उल्लेख भी है। एक उदहारण देखिये- 

विद्या विवादाय धनं मादाय, 
शक्तिः परेषाम परपीड़नाय। 
  खलस्य साधोः विपरीतमेतत, 
        ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।।      

- अर्थात विद्द्या, धन-सम्पत्ति और शारीरिक शक्ति खल-व्यक्ति (या दुर्जन) और साधू-व्यक्ति (सज्जन) दोनों पर अलग-अलग प्रभाव डालते हैं। विपरीत अर्थात एकदम उलटे फल प्रदान करते हैं| दुर्जन या खल व्यक्ति को अगर विद्द्या मिल जाय तो विवाद करने में खर्च होती है, धन-सम्पत्ति यदि मिल जाय तो उनमे बहुत अहंकार भर जाता है, और अपनी शारीरिक-शक्ति का दुष्प्रयोग वे दूसरों को कष्ट पहुँचाने में करते हैं| जब की सज्जन व्यक्ति विद्या का उपयोग ज्ञान के लिये, धन को दान के लिये और शारीरिक शक्ति को दूसरों की रक्षा में वलगाता है।  
 बहरहाल , शिरीषचन्द्र (पितामह) ने जब विज्ञापन देखा तो उस स्कूल में ' प्रधान-शिक्षक ' के पद पर नियुक्ति पाने के लिये अपना आवेदन-पत्र भेज दिया| वहाँ से साक्षात्कार का बुलावा आया, और वे वहाँ चले गये। वहाँ पर स्कूल से संबन्धित लोगों ने उन्हें सूचना दी कि यहाँ एक डाक्टर हैं जो इस स्कूल कि व्यवस्था भी देखते हैं, उनका नाम डा० बाबुराम मुखोपाध्याय है| वे केवल एक डाक्टर ही नहीं बल्कि विद्वान् व्यक्ति भी हैं, वे ही आपसे बातचीत करेंगे (या आपका साक्षात्कार लेंगे)|
उनके साथ मुलाकात हुई, बातचीत हुई| साक्षात्कार क्या लेंगे, बातचीत होने पर पता चला कि दोनों ही शेक्सपीयर के घोर प्रशंसक हैं। जो बाबुराम डाक्टर के नाम से वहाँ विख्यात थे उनका वास्तविक नाम अमर चाँद मुखोपाध्याय था। तथा इधर जो साक्षात्कार दे रहे थे, वे थे शिरीष चन्द्र मुखोपाध्याय ! दोनों के बीच शेक्सपीयर को लेकर बहुत लम्बे समय तक आनंददायी बातें होते रहीं, इस चर्चा में दोनों के आनंद का कोई ठिकाना न था।  शेक्सपीयर के अतिरिक्त उन दोनों के बीच अन्य कोई बात तो हुई ही नहीं।  और इस प्रकार वर्ष 1901 में पितामह इस स्कूल के ' प्रधान-शिक्षक ' के पद पर नियुक्त हो गये, तथा तब से उस विद्यालय में उनका शिक्षादान का कार्य आरम्भ हो गया। 
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