मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

सापेक्ष-ज्ञान ' पूर्ण ज्ञान ' का मात्र एक छोटा सा अंश है।

" ईश्वर तो ज्ञात से भी ' अधिक ज्ञात ' है ! "

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-" अद्वैतवादी कहते हैं, 'नाम-रूप' को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? ' (४:३३)
" जिसके ह्रदय में अथाह प्रेम है, और जो सभी अवस्थाओं में ' अद्वैत तत्त्व ' का साक्षात्कार करता है, वही सच्चा ज्ञानी है। "(१०:३७४)
"मनुष्य तभी वास्तव में प्रेम करता है, जब वह देखता है कि उसके प्रेम का पात्र कोई क्षुद्र मर्त्य जीव नहीं है। ...वे ही लोग अपने महान शत्रुओं के प्रति भी प्रेमभाव रख सकेंगे, जो जानेंगे कि ये ' शत्रु ' भी साक्षात् 'ब्रह्म' स्वरूप हैं। वे ही लोग अत्यन्त अपवित्र व्यक्तियों से भी प्रेम करेंगे जो यह जान लेंगे कि इन महा दुष्टों के पीछे भी वे ही प्रभु विराजमान हैं। जिनका क्षुद्र अहं एकदम मर चुका है और उसके स्थान पर ईश्वर ने अधिकार जमा लिया है, वे ही लोग जगत के प्रेरक (नेता ) हो सकते हैं। उनके लिये समग्र विश्व दिव्य भाव में रूपांतरित हो जाएगा। (२:४०)
" कोई भी चीज उन्हें बदला लेने के लिये प्रवृत्त नहीं कर सकती। वे सर्वदा अनन्त प्रेमस्वरूप हैं, और प्रेम की शक्ति से सर्व शक्तिमान हो गये हैं। ... योगी के अतिरिक्त अन्य सभी तो मानो गुलाम हैं। खाने-पीने के गुलाम, अपनी स्त्री के गुलाम, अपने लड़के-बच्चों के गुलाम, जलवायु परिवर्तन के गुलाम,इस संसार के हजारों विषयों के गुलाम। जो मनुष्य इन बन्धनों में से किसी में भी नहीं फंसे, वे ही यथार्थ मनुष्य हैं- यथार्थ योगी हैं। जिनका मन साम्य भाव में स्थित है, उन्होंने यहीं संसार पर जय प्राप्त कर ली है। ब्रह्म निर्दोष और सम्भावापन्न है, इसलिए वे ब्रह्म में अवस्थित हैं। " (१०:३९१) गिता ५/१९ 
" जो ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गए हैं, - जहाँ न सृष्टि है, न सृष्ट, न स्रष्टा - जहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान और न ज्ञेय, जहाँ न 'मैं' है, न 'तुम' और न 'वह', जहाँ न प्रमाता है, न प्रमेय और न प्रमाण, जहाँ ' कौन किसको देखे '- वे पुरूष सबसे अतीत हो गये हैं, और वे वहाँ पहुँच गये हैं- ' जहाँ न वाणी पहुँच सकती है, न मन ' और श्रुति जिसे नेति,नेति कहकर पुकारती है।
....जब प्रह्लाद अपने आपको भूल गये, तो उनके लिए न सृष्टि रही और न उसका कारण, रह गया केवल नाम-रूप से अविभक्त एक अनन्त-तत्व। पर ज्यों ही उन्हें यह बोध हुआ कि मैं प्रह्लाद हूँ, त्योंही उनके सम्मुख जगत और कल्याणमय अनन्त-गुणागार ' जगदीश्वर ' प्रकाशित हो गये। "(४:१२) 
" इस अवस्था को प्राप्त कर लेने के बाद....तुम में इर्ष्या अथवा दूसरों पर शासन करने का भाव नहीं रहेगा; तब प्रेम इतना प्रबल हो जायेगा कि मानवजाति को सत्पथ पर चलाने के लिये फ़िर चाबुक कि आवश्यकता नहीं रह जायेगी। "(२:४१)

"जो कोई विषय हमारे मन के विषयीभूत हो जाता है, अर्थात मन के द्वारा सीमा बद्ध हो जाता है, हम उसी को जान सकते हैं। और जब वह हमारे मन के बाहर रहता है, अर्थात मन का विषय नहीं रहता, तब हम उसे नहीं जान सकते।...यदि ईश्वर ज्ञात हो जाय, तो उसका ईश्वरत्व फ़िर नहीं रहेगा- वह हमारे समान ही एक व्यक्ति हो जायगा। उसको जाना नहीं जा सकता, वह सर्वदा ही अज्ञेय है।....किन्तु तुम अज्ञेय-वादियों के समान कहीं यह धारणा मत बनालेना, कि ईश्वर अज्ञेय है।.
..अद्वैत-वादी कहते हैं कि ईश्वर तो ज्ञात से भी कुछ और ' अधिक ज्ञात ' है ! कैसे ? दृष्टान्त स्वरूप देखो- सामने कुर्सी है, मैं इसे जानता हूँ, यह मेरा ज्ञात पदार्थ है। पर ईश्वर तो इससे अधिक ज्ञात है, क्योंकि पहले उसे जानकर, उसी के माध्यम से हमे कुर्सी का ज्ञान प्राप्त करना होता है। वह साक्षी स्वरूप है, समस्त ज्ञान का वह साक्षीस्वरूप है। 
हम जो कुछ जानते हैं, वह सब पहले उसे जानकर, उसी के माध्यम से जानते हैं। ईश्वर हमारी आत्मा का सार-सत्ता स्वरूप है। वही हमारा वास्तविक ' अहं ' है। और वह ' अहं ' ही हमारे इस अहं (क्षुद्र अहं) का सारसत्ता-स्वरूप है; हम उस ' अहं ' के माध्यम से जाने बिना कुछ नहीं जान सकते, अतएव सभी कुछ हमे ब्रह्म के माध्यम से ही जानना पड़ेगा। " (२:८७-८८)
* " ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति। तुमने बहुत से मनुष्यों को देखा है, और प्रत्येक ने तुम्हारे मन पर एक संस्कार (छाप) डाला है, और तुम जैसे ही इस मनुष्य को देखते हो, इसेअपने चित्त(या स्मृति के भंडार घर) से सम्बद्ध करते हो, और वहाँ तुमको इसी प्रकार के बहुत से चित्र दिखाई पड़तेहैं। और उनके साथ इस नए चित्र को भी रख देते हो। (तब पहचान जाते हो कि दो हाथ दो पैर वाला यह एलियन नहीं मनुष्य है ) साहचर्य की इसी अवस्था को ज्ञान कहते हैं।
तुम्हारा मन समारम्भ के लिये- एक ' अनुत्किर्ण फलक ' (Tabula Rasa या कोरा स्लेट) नहीं है। अपने पास पहले से ज्ञान का एक भण्डार होना चाहिये, जिसके साथ किसी नये संस्कार को सम्बद्ध किया जा सके।कोई नवजात शिशु (जन्म से) पहले एक ऐसी अवस्था में अवश्य रहा होगा, जब कि उसके पास ( संचित अनुभवोंका ) कोई ज्ञान-कोष था। इस प्रकार ज्ञान कि वृद्धि शाश्वत रूप से होती रहती है।..यह एक गणितीय तथ्य है।" ... (४:२०६)
" Knowledge is the ' recognition ' of the new- by means of associations already existing in the mind. Recognition - is finding associations with similar impressions that one already has. Nothing further is meant by Knowledge.Knowledge means finding the association; that is why a drunken man naturally gravitates to the lowest slums of the city. "(C.W.2:447,78 )

" किसी व्यक्ति के पास पहले से जो संस्कार हैं, उनके तुल्य संस्कारों कि साहचर्य- प्राप्ति ही प्रति-अभिज्ञा (Recognition या मान्यता) कहलाती है। ज्ञान का अर्थ है, साहचर्य-प्राप्ति । इससे भिन्न ज्ञान का कोई दूसरा अर्थ नहीं है।  

यह दृष्टिगोचर जगत् तभी जाना जा सकता है, जब हम इसके साह्चर्यों को पा सकने में सफल हो जायेंगे। इसकी सच्ची पहचान, प्रतिभिग्या (Recognition) तो हम तभी कर पायेंगे जब हम इस विश्व एवं चेतना के परे चले जायेंगे और तब विश्व हमे स्वतः व्याख्यात हो जाएगा।
हमारी वर्त्तमान चेतना से पृथक, विश्व का यह टुकड़ा हमारे लिये विस्मयकारी नूतन पदार्थ है, क्योंकि हम अभी तक इसके साह्चर्यों को न पा सके हैं। अतएव हम इससे संघर्ष कर रहे हैं, और इसे भयावह, दुष्ट तथा बुरा समझते हैं- हमारा विचार सदैव यही रहता है कि यह अपूर्ण है।...क्योंकि चेतना का यह साधारण स्तर हमे इसके एक ही स्तर (Dimension) का प्रत्यक्ष बोध प्रदान कर पाता है। यही बात ईश्वर के सम्बन्ध में हमारे विचारों के लिये है। 
ईश्वर का जो कुछ  हमे दिखाई पड़ता है, वह अंश मात्र है, उसी प्रकार जिस प्रकार हम विश्व का केवल एक अंश (नाम-रूप) देखते हैं और शेष (अस्ति, भाति, प्रिय) मानव बोध से परे है। यही कारण है कि ईश्वर हमें अपूर्ण दिखाई पड़ता है, और हम उसे समझ नहीं पाते। 'उसे' तथा विश्व को समझने का एकमात्र उपाय यह है कि हम इस बुद्धि एवं चेतना के परे चले जायें।...जब हम इनके परे जाते हैं, तब हमें सामंजस्य की प्राप्ति होती है, इसके पूर्व नहीं।
..सूक्ष्म ब्रह्मांड (यापिण्ड -सूक्ष्म शरीर) के हम केवल एक अंश- मध्य भाग- को ही जानते हैं। अभी हम न अवचेतन को जानते हैं, न अतिचेतन को। हम केवल चेतन को ही जानते हैं। यदि कोई व्यक्ति कहता है, ' मैं पापी हूँ ', तो वह मिथ्या कथन करता है; क्योंकि वह अपने को नहीं जानता। क्योंकि वह जिस भूमि पर है, उसका ज्ञान केवल उसके एक ही पक्ष को स्पर्श करता है। ... यही बात विश्व के सम्बन्ध में है, बुद्धि द्वारा इसके केवल एक अंश को जानना सम्भव है, सम्पूर्ण को नहीं; क्योंकि विश्व का निर्माण अवचेतन, चेतन, अतिचेतन अथवा व्यक्तिगत महत्, सार्वभौम महत्, तथा परवर्ती परिणामों से होता है।"(४:२०६-२०७)
* " सापेक्ष-ज्ञान को- ' पूर्ण ज्ञान ' का एक छोटा सा अंश कहा जा सकता है। जिस प्रकार सोने की मुहर को भुना कर रुपया, आना, पैसा में बदला जा सकता है। उसी प्रकार इस पूर्ण ज्ञान की अवस्था (अतिचेतन) से सब प्रकार के ज्ञान में जाया जा सकता है।  इस अतिचेतन अवस्था को ज्ञानातीत या पूर्ण-ज्ञान की अवस्था कहते हैं- चेतन और अचेतन दोनों उसके अर्न्तगत आ जाते हैं। जो व्यक्ति इस पूर्ण ज्ञानावस्था को प्राप्त हो जाता है, उसमे यह सापेक्ष साधारण ज्ञान भी पूर्णरूप से विद्यमान रहता है। जब वह ज्ञान की दूसरी अवस्था - अर्थात हमारी परिचित सापेक्ष ज्ञानावस्था का अनुभव करना चाहता है, तो उसे एक सीढ़ी नीचे उतर आना पड़ता है। यह सापेक्ष ज्ञान तो एक निम्नतर अवस्था है- केवल माया (नाम-रूप या देश-काल-निमित्त) के भीतर ही इस प्रकार का ज्ञान हो सकता है। ( १०:३९७) 
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गुरुवार, 15 अक्तूबर 2009

प्रारंभिक अवस्था में मूर्ति पूजा क्यों आवश्यक है ?

साकार मूर्ति की पूजा निराकार 'ब्रह्म' या 'अल्ला' की धारणा में सहायक है !

हजार सालों की गुलामी के कारण पाश्चात्य शिक्षा और सेमेटिक भावों से प्रभावित होकर कुछ अत्यन्त तर्कवादी और उच्च डिग्रीधारी समाज-सुधारक नेताओं ने ब्रह्म-समाज और आर्य-समाज जैसे मूर्तिपूजा-विरोधी आंदोलन का सूत्रपात किया था। जिसके फलस्वरूप तथाकथित बुद्धिजीवी या (elite group) में माँ काली की मूर्ति पर से विश्वास उठता जा रहा था। इसीलिये अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को अनपढ़ के रूप में अवतरित होना पड़ा और आचार्य केशव सेन और नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द) अंग्रेजी भाषा में पढ़े-लिखे, उच्च-डिग्री प्राप्त लोगों को भारतीय गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार मनःसंयोग या मन को एकाग्र करने का प्रशिक्षण देना पड़ा। 
अब तर्क-वादी आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज के अनुयायी नरेन्द्रनाथ जैसे युवाओं के मन में संघर्ष होने लगा कि मेन्टल कान्सन्ट्रेशन का अभ्यास करते समय, प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों से मन को खींचकर अपने हृदय में धारण करने का अभ्यास या ' धारणा ' के लिए किसी मूर्त आदर्श का चयन करें या अमूर्त आदर्श , जैसे ॐ आदि का ?  
"मूर्ति-पूजा " करना भी जीवन की एक आवश्यक अवस्था है। किसी (' नर-देव ' या ' पुरुषोत्तम ' की ) मूर्ति पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करने का तात्पर्य है, अपने ' दिव्य-स्वरूप ' को किसी - ' दिव्य-मूर्ति ' के अनुरूप मान कर ध्यान करने से आगे बढ़ने में सहायता मिलती है। उनका दिव्य गुण हमारे भीतर आने लगता है।
स्थूल भौतिक मूर्ति पर ध्यान (मनःसंयोग) करने से - ' सहचर्य ' (Law of Association ) के नियमानुसार उस ध्यान की 'वस्तु ' के अनुरूप मानसिक भावाविशेष का उद्दीपन हो जाताहै। और यदि कोई उस अवस्था के भी परे पहुँच गया है, तब भी उसके लिए मूर्ति-पूजा या मूर्ति पर ध्यान करने को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है।
 स्वामी विवेकानन्द ने कहा है," जो लोग मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं करते वे - ईश्वर के ' सर्वव्यापित्व' का क्या अर्थ समझते हैं ? क्या परमेश्वर का भी कोई क्षेत्रफल है ? अपनी मानसिक संरचना के नियमानुसार, हमें अनन्तता का भाव लानेके लिए नील-आकाश या अपार-समुद्र की कल्पना से जोड़ना ही पड़ता है। मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ, मन्दिर, ग्रन्थ, या गिरजाघर तो धर्मजीवन की शिशु-पाठशाला के सहायक उपकरण मात्र हैं; पर उसे जीवन भर वहीं पड़े नहीं रहना चाहिए, उसे तो वहाँ से आगे बढ़ कर उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिए। " (वि० सा० ख०१:१७,१८)
" बालक ही मनुष्य का जनक है  - तो क्या किसी वृद्धपुरुष के लिए बचपन या युवावस्था को पाप समझना उचित होगा ? मन में किसी मूर्ति का ध्यान आए बिना कुछ सोंच सकना उतना ही असंभव है, जितना श्वांस लिए बिना जीवित रहना। अपनी आंखों को बंद करके यदि मैं अपने अस्तित्व - ' मैं ' क्या हूँ; को समझने का प्रयत्न करूँ, तो मुझमे किस भाव का उदय होगा ? इस भाव कि मैं (M/F) शरीर हूँ। तो क्या मैं भौतिक पदार्थों केसंघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों कि घोषणा है- नहीं ! मैं शरीर में रहने वाली ' आत्मा ' हूँ ! मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जायगा,  पर ' मैं ' नहीं मरूँगा !" (१:८) ' 
" निरपेक्ष ब्रह्मत्व का साक्षात्कार, चिन्तन या वर्णन केवल सापेक्ष के सहारे ही हो सकता है, और मूर्तियाँ, क्रूस या नवोदित चंद्र-सितारा केवल प्रतीक हैं, जिनको अब इन प्रतीकों की सहायता की आवश्यकता नहीं है, उन्हें यह कहने का अधिकार नहीं के वे ग़लत हैं, जिनको इसकी आवश्यकता है। "(१:१९)
'मूर्तिपूजा सबसे नीचे की अवस्था है, आगे बढ़ते समय मानसिक जप-ध्यान साधना की दूसरी अवस्थाहै।  ' उत्तमो ब्रह्म सद्भावों ' - सबसे उच्च अवस्था तो वह है, जब परमेश्वर का साक्षात्कार हो जाय।' (१:१७)
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " संसार के समस्त धर्म -ग्रंथों में केवल वेद ही ऐसा ग्रन्थ है, जिसमे बारम्बार यह कहा गया है कि - ' तुम्हें वेदों के भी अतीत हो जाना चाहिए '। वेद कहते हैं कि वे केवल बाल-बुद्धि रखने वाले व्यक्ति की सहायता के लिए लिखे गए हैं, इस लिए जब तुम स्वयं आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो जाते हो, तो तुम्हें वेदों के भी परे जाना पड़ेगा। " (१०: ३७७)
" मन को एकाग्र करने की विद्या में सिद्ध " ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं-... हमने उस रहस्य का पता लगा लिया है, जिसके द्वारा स्मृति-सागर की गंभीरतम गहराई तक मंथन किया जा सकता है-उसका प्रयोग कीजिये और आप अपने (यथार्थ स्वरूप की या) पूर्व जन्मोंकी सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे। ( श्वेताशतर२/५)." (१:१०) 
" एक ऋषि कहते हैं कि - तुम इस विश्व का कारण नहीं जानते; इसीलिये तुम्हारे और मेरे बीच में बड़ा भारी अन्तर उत्पन्न हो गया है ; ऐसा क्यों ? इसलिए कि तुम केवल इन्द्रिय-परक बातों की चर्चा करते हो, और इन्द्रिय विषयों तथा धार्मिक कर्म- कांडों में ही संतुष्ट रहते हो, जबकि - मैंने उस द्वन्द्वातीत पुरूष को जान लिया है।" (१:२५१)
' चेतना मानस-सागर की सतह मात्र है और भीतर उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभव-राशिस्मृतियाँ संचित हैं। केवल प्रयत्न तथा उद्यम कीजिये, वे सब ऊपर उठ आयेंगे, और आप अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान भी प्राप्त कर सकेंगे। ' (१:१०)
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सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

' स्वतंत्रता-दिवस '

" उत्साह की अग्नि से ह्रदय को भर लो और देश के कोने-कोनेतक फ़ैल जाओ !"
' स्वतंत्रता-दीवस ' को धूम-धाम से मनाने की प्रथा का निर्वहन प्रतिवर्ष की भाँति इस वर्ष भी आमतौर से कर लिया गया है। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी स्वाधीनता-दीवस की पूर्वसंध्या पर भारत की गरीब अशिक्षित जनता के उत्थान के लिए लम्बे-चौड़े वादे करने की प्रथा को भी एक बार फिर से दुहरा जरुर लिया गया था।  
किन्तु आजके दिन हमलोग उन शहीदों को याद करना आवश्यक नहीं समझते, जिन्होंने स्वाधीनता की बलिवेदी पर अपने जीवन का उत्सर्ग किया था। हो सकता है कि हमारी इन उक्तियों को कुछ लोग नकारात्मक भी कहें। परन्तु किसी राष्ट्र के लिए ' स्वतंत्रता ' का क्या मूल्य है इस बात को हम ठीक से समझ नहीं सके हैं। क्योंकि इसे प्राप्त करने के लिए हमने यथेष्ट मूल्य नहीं चुकाया है। इसीलिये स्वतंत्रता कि उल्टी गिन्ती का प्रारम्भ होते समय ही हमलोग डगमगा गए थे; जिसके परिणाम स्वरुप ब्रिटिश संसद ने भारतवर्ष को तीन  टुकड़ों में बाँट कर दी जाने इस आजादी को  " India Independence Act "  बिल पास करवा कर, हमारे ऊपर जबरन थोप दिया था। 
यह आजादी अंग्रेजों को इसीलिये देनी पड़ी, क्योंकि नेताजी सुभाष के नेतृत्व में हिन्दू-मुसलमानों ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए, मिलजुल कर " आज़ाद हिन्द फ़ौज " का निर्माण किया था, एवं राष्ट्र को स्वाधीन करवाने के लिए ' सर्वोच्च बलिदान ' का जैसा उदाहरण प्रस्तुत किया था ; उसके कारण जो भारतीय सैनिक ब्रिटश-राज के प्रति वफादार थे,  उनके वफ़ादारी की वह ' बुनियाद ' ही हिल चुकी थी जिनके दम पर अंग्रेज-सरकार अभी तक टिकी हुई थी, टूट-टूट कर बिखरने लगी थी।उधर हँसते हँसते फाँसी के फंदों पर झूल जाने वाले क्रन्तिकारी शहीदों के भूत से भी ब्रिटिश राज-शाही भयभीत हो गयी थी। द्वितीय-विश्वयुद्ध ने ब्रिटिश-राजशाही की कमर को ही तोड़ डाला था। वे जान चुके थे कि उनका खेल अब ख़त्म हो चुका है। 
और इस प्रकार ' ब्रिटिश-राष्ट्रमंडल ' (British Commonwealth) के अर्न्तगत १४ एवं १५ अगस्त १९४७ को दो " स्वतंत्र उपनिवेशों " (Independent Dominions) का जन्म हुआ। विभाजित भारतवर्ष के बड़े भूखंड को ही ' India ' कहा जाने लगा, और स्वतंत्र India  के चाटुकारों ने अन्तिम ब्रिटिश वाइसराय " British Viceroy "  या " बड़े लाट-साहब " को अपना पहला गवर्नर जनरल (first Governor General ) बनने के लिए आमन्त्रित किया ! 
 अंग्रेजों की ' फूट डालो और राज करो ' की नीति के कारण जो भारत सन्तानें (हिन्दू-मुसलमान) आपस में लड़ते रहते थे, उनको नेताजी ने 'आजाद हिन्द फौज़ ' का निर्माण करके फिर से एक कर दिया था। किन्तु अंग्रेजों ने इस देश को स्थाई रूप से कमजोर बना देने की एक चाल चली; तथा इस देश को तीन टुकड़ों में बाँट दिया - ताकि ये दोनों भाई धर्म और भाषा के नाम पर, अनादि काल तक एक दुसरे से झगड़ते रहें।इस प्रकार देश को छोड़ने के पहले अंग्रेजों ने,हिंदुस्तान-पाकिस्तान-बंगलादेश की बुनियाद डाल कर भारतवर्ष के उन सन्तानों के बीच ही फूट पैदा करवा दिया। 
अन्ततोगत्वा - इसी अन्तिम British Viceroy ने हमारे एकमात्र संगठित राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अन्तिम अवशेष ' आज़ाद हिन्द फ़ौज ' को चतुराई से ( नेहरू-एडविना प्रसंग को प्रोत्साहित कर ) धूल में मिला दिया। उनके द्वारा लूट लिए जाने के बाद भी हम लोगगर्वान्वित थे और हमे किसी बात की कोई चिंता नहीं थी। और हमारे तत्कालीन बूढ़े, थके-माँदे, सौदेबाज तथा सत्ता के लोभी नेताओं ने ' भारत माता ' को इस प्रकार तीन टुकडों में काटे जाना स्वीकार भी कर लिया।

 इसके बाद हमलोगों ने उद्दात लक्ष्य एवं सिद्धान्तों से भरपूर, संसार के सबसे भारी- भरकम संविधान के रूप में ' Constitution of India ' की रचना की। इस संविधान द्वारा निर्धारित राष्ट्र को संचालित करने की पद्धति पूरी तरहसे पाश्चात्य देशों, विशेष कर England के संविधान को आँख मूंद कर की गई नक़ल है।सच्चाई तो यह है कि भारत की राष्ट्रीयता (Nationality of India) क्या है ? - हम लोग पहले एक भारतीय हैं, या किसी खास राज्य के नागरिक - बिहारी, बंगाली,गुजराती, या मराठी-मानुष हैं ?  ' एक भारत एक-राष्ट्र ' के गौरव  को आज तक हम भारतियों को समझने ही नहीं दिया गया है।

क्योंकि जिन दिनों England के संविधान का अन्धानुकरण किया जा रहा था, उस समय भारत की  साधारण जनता से लेकर यहाँ के नेता तक - हम सभी लोग, किसी भी British चीज की नक़ल करने में अपनी शान समझते थे। आजकल हम लोग England का अन्धानुकरण करने के बदले US का अन्धानुकरण करने में अपनी शान समझते हैं।
किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने विदेशी शासन के कारण मिलने वाली गुलामी या परतन्त्रता के दमनकारी टीस या कसक को बहुत गहराई से महसूस किया था। उन्होंने भारत वासियों के ह्रदय में ' राष्ट्रीय- गौरव ' की चेतना को जाग्रत कराया था, तथा भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करवाने के लिए युवाओं को ' युग-नायक ' ने समस्त भारतियों को एक सच्चा देश-भक्त (Hero) बनने का आह्वान करते हुए कहा था -" उत्तिष्ठत् ! जाग्रत् ! प्राप्य वरान्नी बोधत ! "
उन्होंने ' भारत माता ' से ही प्रेम करने को कहा था, इस एकमात्र जाग्रत आराध्या देवी के लिए आहुतिप्रदान करने को कहा था।उन्होंने राष्ट्र के युवाओं को, भारत के ग्रामो की झोपड़ीयों में निवास करने वाले करोडों पददलित जाग्रत देवी-देवताओं की सेवा तन मन धन से करने के लिए पुकारा था। " उत्तिष्ठत् ! जाग्रत् ! प्राप्य वरान्नी बोधत ! " - अर्थात उठो ! जागो ! और लक्ष्य प्राप्त किए बिना विश्राम मत लो ! और उनके इस आह्वान को नेताजी ' सुभाष ' ने विशेष रूप से अपने ह्रदय में धारण कर लिया था। आज एक बार फ़िर उसी राष्ट्र-चेतना को पुनरुज्जीवित करने की आवश्यकता है। 
किन्तु स्वतंत्र भारत के क्रमशःविकसित होते हुए इतिहास में ' सच्चा राष्ट्रवाद ' विकसित नहीं हो सका है।देश के विकास की योजनाओं में शिक्षा और स्वाथ्य को बहुत कम महत्व दिया गया।नैतिकता या युवाओं के चरित्र-निर्माण के लिए स्वतंत्र भारत की शिक्षा-निति में कोई स्थान नहीं दिया गया। जिसके फलस्वरूप आजादी के प्रारंभिक दिनों में " भ्रष्टाचार " को कुछ हद तक बर्दास्त किया जाने लगा, किन्तु बाद में भ्रष्टाचार को प्रत्येक स्तर पर व्याप्त ' एक आवश्यक बुराई(Necessary Evil) ' के रूप में स्वीकृति प्रदान कर दी गई।
और स्वतंत्र भारत में ' नेताजी ' को नगण्य बना दिया गया। किन्तु यदि सचमुच वे एक ' नाचीज़ ' हैं, तो उनसे जुड़ी हुयी समस्त फाइलों को अनन्त कल तक ' गोपनीय ' रखना क्यों आवश्यक है ? पिछले जाँच आयोग के अनुसार - ' नेताजी ' उस हवाई जहाज दुर्घटना में मर गए जो कभी दुर्घटना ग्रस्त हुआ ही नहीं था।और ' स्वामीजी ' ? स्वतंत्र भारत में स्वामी विवेकानन्द को केवल एक हिन्दू आध्यात्मिक नेता का तगमा लगाकर किनारे कर दिया गया।
भारत के जन-जन में ' सच्चे राष्ट्रवाद ' की चेतना को जाग्रत करा देने में समर्थ - स्वामी विवेकानन्द द्वारारचित जिस ' स्वदेश मन्त्र ' को पढने से श्री मोहनदास करमचंद गाँधी की राष्ट्र भक्ति हज़ार गुना बढ़ गई थी, उसे आजादी के बाद - ' स्वाधीन भारत की शिक्षा व्यवस्था ' में उचित स्थान देना भी आवश्यक नहीं समझा गया।
 उसी प्रकार राजनैतिक तथा राष्ट्रीय परिपेक्ष्य में स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त  भारत-निर्माण सूत्र -' Be & Make ' -' तुम स्वयंमनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ' को शिक्षा व्यवस्था में जोड़ने का प्रयास अभी तक नहीं किया गया ? किन्तु भारत की जनता इतनी मूर्ख नहीं है, धीरे धीरे शिक्षा-व्यवस्था की सच्चाई साधारण जनता के सामने आ रही है।अब यह समय आ गया है कि भारत के युवा स्वयं अपने ' heroes ' का चुनाव करें। क्योंकि युवा काल में तुम इसी तरह अपने आदर्श का चुनाव करते हो। इस समय तुम जिसे अपने ' आदर्श-पुरूष ' के रूप में चुन लोगे वही तुम्हारे भावी जीवन की क्रिया-कलापों को निर्देशित करेगा।

अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के शीर्षस्थ अर्थ-शास्त्री भले ही यह सोंचे,कि ' वैश्विक आर्थिक मन्दी ' अब समाप्त हो चुकी है; किन्तु विश्व-व्याप्त  'भुखमरी ' को समाप्त होने में अभी बहुत लम्बा समय लगेगा। हमारे देश के बहुत से राज्यों में यह बढ़ रही है। भारत में २३ करोड़ मनुष्य कुपोषण के शिकार हैं। दीर्घ दिनों तक खाली पेट रहने से गंभीर तरह की स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न हो जातीं हैं, जिसके कारण अक्सर मौत भी हो जाती है। किन्तु ' लाल-फीता शाही ' इस मौत को, कभी - भूख से हुई मौत को नहीं मानती है; वे कहते हैं, यहाँ (झारखण्ड ) की आदिवासी- दरिद्र जनता को क्या कहना चाहिये यह पता नहीं है, जंगल के जहरीले जड़ी-बूटी या गुठली खाने से मौतें होती हैं।

किन्तु क्या हम लोग, भारत की सामान्य जनता - देश की युवा शक्ति इस सीधी सी सच्चाई भी नहीं देख सकते ? वैश्विक भूख सूचकांक ( Global Hunger Index ) में शामिल ११९ देशों की सूचि में भारत ९४ वें क्रम में है। विश्व खाद्य परियोजना(World Food Program)द्वारा जारी " वर्ष २००९ के ग्रामीण भारत में खाद्य-असुरक्षा की स्थिति पर रिपोर्ट-( The State of Food Insecurity in Rural report 2009) में- न्यून-पोषित मनुष्यों की बढती हुई संख्या, गरीबग्रामीण-जनता की क्रय शक्ति (Purchasing Power) में ह्रास, खाद्य सामग्रियों के कीमतों में वृद्धि, बढती हुई बेरोजगारी की ' विकट-संकटावस्था ' को चित्रित किया गया है ।  
इस रिपोर्ट में कहा गया है-" दक्षिण एशिया में न्यून -पोषित (undernourished) मनुष्यों की संख्या में अभी तक हुई वृद्धि का सर्वाधिक अंशदान भारत में खाद्य एवं पौष्टिक-आहार सुरक्षा की स्थिति में बदलाव के कारण रहा है। " एक अग्रणी आर्थिक समाचार पत्र का रिपोर्ट है- "समालोचकों का कहना है कि उच्च आर्थिक विकास दर (High growth rates) केवल IT outsourcing तथा दूरसंचार (Telecommunications) जैसे कुछ अद्यौगिक एवं सेवा क्षेत्रों तक ही सीमित है; जबकि ग्रामीण भारतीय अर्थव्यवस्था में केवल २% के दर से वृद्धि हो रही है।
उनका यह भी कहना है कि पौष्टिक-खुराक योजनायें (Feeding Schemes) गाँवों कि गरीब जनता तक पहुँचने के पहले ही अक्सर कुछ भ्रष्ट राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों के लूट की शिकार हो जातीं हैं। ' इस वर्ष हमलोग जब स्वाधीनता दिवस  मना रहे थे, तब आधा भारत घोर सूखे की चपेट में था। हमारे जो देश वासी सर्वाधिक कष्ट झेलने के लिए मजबूर हैं, उनकेलिए किसका ह्रदय रोता है ? और कब तक देश में इस प्रकार लूट-खसोट जारी रखने की अनुमति दीजायेगी ? कब तक ?

जबकि हमारा देश उच्च विकास दर को पाने की दिशा में तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है, क्या स्वाधीनभारत के करोड़ो मनुष्यों के लिए दोनों शाम बिना रोटी, बिना पीने का पानी, बिना स्वास्थ्यकर-शौचालय (Hygienic toilet), बिना चिकित्सा सुविधा , तथा बहुत थोड़ी सी वह भी घटिया स्तर की प्राथमिक शिक्षा के साथ- जीना ही उनकी नियति बनी रहेगी ? क्या हम लोग स्वतंत्र हैं ? क्या हमलोग स्वतंत्रता के अर्थ और महत्व को समझते भी हैं ?
" हे भारत के युवाओं ! एक बार फ़िर - उठ कर खड़े हो जाओ ! सारी जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ले लो ! और इस बात को अच्छीतरह से जान लो, कि भारत कि साधारण जनता के दुःख-दर्द को अपने ह्रदय में महसूस कर उसको दूर हटाने के लिए उच्चतम प्रयास करने वाला, तुम्हारे सिवा और दूसरा कोई मनुष्य शायद ही कहीं है। इससम्बन्ध में तुम्हारी ओर से दिखाई गई थोड़ी भी सुस्ती या लापरवाही देश के भविष्य को संकट में डालदेगा।
आज यदि स्वामी विवेकानन्द आज शरीर में रहते तो तुमसे यही कहते कि," उत्साह कि अग्नि से ह्रदय को भर लो और देश के कोने-कोने तक फ़ैल जाओ। " केवल युवाओं के भीतर रहने वाला अनम्य और हठीला (Uncompromising) जीवन-व्रत (missionary zeal) ही उन भारतवासियों के लिए भी एक उज्जवल भविष्य का निर्माण कर सकता है, जिन्हें आजतक सुख-आराम को देखने का अवसर नहीं मिला है।पहले अपने जीवन का गठन करो ! अपने चरित्र को सुंदर ढंग से गढो ! विध्वंषक नहीं, किन्तु ओजस्वी मनोभाव धारण करो। युवा-उत्साह और स्फूर्ति कि अग्नि से भारत के पुनर्निमाण के लिए कार्य करो ! कोई भी शक्ति अब हमे सफल होने से रोक नहीं सकती ! "