(Mahamndal Booklet -18)
No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context. "If you like something, leave a comment!" --Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
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Thursday, June 26, 2025
"Aims And Activity Of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal " (Mahamndal Booklet -18)
Tuesday, June 24, 2025
" प्रश्नोत्तर रत्नमालिका"- (श्रीमद् आद्य शङ्कराचार्य कृत)
प्रश्नोत्तर रत्नमालिका
Saturday, April 26, 2025
🙏🏹🔱🕊"भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण " (শ্রীরামকৃষ্ণ ও ভবিষ্যৎ ভারত)🙏🏹🔱🕊 [स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' अध्याय- 10, "विश्व एवं मानवता के कल्याण हेतु (বিশ্ব -মানবের কল্যানে) [For the welfare of the world and humanity] "
"भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण "
(শ্রীরামকৃষ্ণ ও ভবিষ্যৎ ভারত)
स्वामी विवेकानन्द ने एक बार कहा था कि 'श्रीरामकृष्ण देव के आविर्भूत होने के साथ ही साथ सत्ययुग का आरम्भ हुआ है ! ' [उन्होंने 1895 में (खण्ड-४/पृष्ठ-३१७) अपने गुरुभाई शशि, (स्वामी रामकृष्णानन्द) को लिखित एक पत्र में कहा था - 'श्री रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्ययुग का आरम्भ हुआ है !'] उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है? 'सत्ययुग' कहने से हमलोग क्या समझें ? क्या हमलोगों को यह समझना चाहिये कि - श्रीरामकृष्ण आये, और अराजकता, मलिनता, अपवित्रता आदि जितने अशुभ भाव समाज में व्याप्त थे, वे सभी समाप्त हो गये- सब कुछ सुन्दर हो गया, और सभी मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ? सत्ययुग आरम्भ हो गया -कहने का अर्थ यही है क्या? किन्तु हमारे शास्त्रों में तो कहा गया है, " युग-परिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है।" ऐतरेय ब्राह्मण कहता है-
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
जो व्यक्ति मोहनिद्रा में सोया पड़ा है, उसके लिये कलियुग चल रहा है; ['उत्तिष्ठत जाग्रत' -' मनुष्य बनो बनाओ- Be and Make' मंत्र सुनकर] जिस व्यक्ति की मोह-निद्रा टूट चुकी है वह द्वापर में वास कर रहा है। जो व्यक्ति (3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण लेकर) अपना जीवन -गठन करने के लिए उठ खड़ा हुआ है, उसके जीवन में त्रेता युग चल रहा है; और जो व्यक्ति स्वयं मनुष्य बनने के साथ-साथ दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलना शुरू कर देता है , वही सत्ययुग में वास कर रहा है। इसीलिए सत्ययुग का लक्षण हुआ - आगे बढ़ते रहना - इसीलिये श्रुति कहती है -" हे मनुष्यों ! चरैवेति, चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो !"
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि, स्वामी विवेकानन्द भी शास्त्रसम्मत भाव से यही कहना चाहते हैं, कि श्रीरामकृष्ण के जीवन और संदेश ने मोहनिद्रा में पड़े अचेतन (मृतप्राय) मनुष्यो को , मनुष्य जीवन की महान संभावनाओं को अभिव्यक्त करने, अन्तर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) या ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने, (या ईश्वरलाभ) की दिशा में आगे बढ़ने के प्रति चैतन्य करके उन्हें पुनर्जीवित कर दिया है।
(श्रीरामकृष्ण परमहंस देव के अवतरित होने से पहले) मनुष्य मानो घोर निद्रा जैसी अज्ञान- अन्धकार की अवस्था में मृतक के जैसा सोया पड़ा था। श्री रामकृष्ण अवतरित होते हैं और युगानुरूप नवीनतम पद्धति से (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने की मनःसंयोग या स्व-परामर्श या Autosuggestion पद्धति से) मानव-मात्र में अन्तर्निहित आत्मा की महिमा (ब्रह्मत्व) को अभिव्यक्त करने का संग्राम, आरम्भ हो जाता है। और जो मनुष्य अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित होने का दृढ़ संकल्प लेकर, जीवन-गठन के लिए चलना प्रारम्भ कर देता है, या जीवन के हर क्षेत्र में अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने 'Be and Make' आंदोलन के प्रचार-प्रसार के लिये (नरेन्द्रनाथ के नेतृत्व श्रीरामकृष्ण के 12 युवा शिष्यों के जैसा ) चलना आरम्भ कर देता है, तब उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने अपने जीवन में उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) का परिक्षण करके देखा था कि कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा मनुष्य की मानसिक अवस्था में रूपान्तरण को दर्शाने के उद्देश्य से दी गयी है। मनुष्य का मन कभी सोया रहता है, कभी कभी जागृत जैसा हो जाता है, या कभी तो उठ कर खड़ा हो जाता है, और फिर चलना शुरू कर देता है। [जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और मनुष्य बनने और बनाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है, जो Be and Make आन्दोलन से जुड़ने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता है, इसीलिये-" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! ]
' श्रीरामकृष्ण के अवतरित होने (देह धारण करने) के साथ साथ सत्ययुग आरम्भ हुआ है' - ऐसा कहकर स्वामीजी यही कहना चाहते हैं कि, लंबे समय से गहरी नींद में सोये हमारे राष्ट्र ने चलना शुरू कर दिया है। उनके इस कथन- 'लंबे समय से गहरी नींद में सोये हमारे राष्ट्र ने चलना शुरू कर दिया है' पर हमलोगों को गहराई से चिन्तन करते हुए -' चलने या आगे बढ़ने की दिशा ' के तात्पर्य को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और यह विश्वास भी करना चाहिये कि, " हाँ ! अब हमलोग सचमुच सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ! "
[ महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में आदर्श-वाक्य 'Be and Make' तथा अभियान मंत्र 'चरैवेति, चरैवेति ' को लिखा देखकर जब हम 'आगे बढ़ने की दिशा ' के तात्पर्य को समझने और उस पर विश्वास करने के लिए इस पर गहराई से चिंतन करना आरम्भ करते हैं, तब हमारा ध्यान बरबस भगिनी निवेदिता द्वारा विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखित निम्न पंक्तियों की ओर खिंच जाता है - " यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये स्वामी विवेकानन्द ही थे, जिन्होंने अद्वैत दर्शन के श्रेष्ठत्व की घोषणा करते हुए कहा था कि इस अद्वैत में यह अनुभूति समाविष्ट है कि, 'जो एकमेवाद्वितीय (सच्चिदानन्द) है-उसमें सब एक हैं '; पर साथ ही साथ उन्होंने हिन्दू धर्म में यह सिद्धान्त भी जोड़ा कि-द्वैत, विशिष्टाद्वैत और अद्वैत एक ही विकास के तीन सोपान या स्तर हैं, जिनमें अंतिम लक्ष्य (Goal) अद्वैत ही है! (also added to Hinduism the doctrine that Dvaita, Vishishtâdvaita, and Advaita are but three phases or stages in a single development, of which the last-named constitutes the goal. उस लक्ष्य तक पहुँचे बिना रुकना नहीं है !)
इसी सिद्धान्त का यह एक और भी महान तथा अधिक सरल अंग है कि अनेक और एक, विभिन्न समयों पर (युगों कलि, द्वापर, त्रेता आदि?) विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखे जाने वाला एक ही तत्त्व है। अथवा जैसा श्री रामकृष्ण ने उसी सत्य को इस प्रकार व्यक्त किया है," ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें साकार और निराकार, दोनों ही समाविष्ट हैं। यदि 'एक' और 'अनेक' सचमुच एक ही सत्य हैं, तो केवल उपासना के विविध प्रकार ही नहीं, वरन सामान्य रूप से कर्म के सभी प्रकार , संघर्ष के सभी प्रकार, सृजन के सभी प्रकार भी , 'सत्य' के साथ साक्षात्कार करने के मार्ग हैं। अतः लौकिक (secular) और धार्मिक (sacred ) में अब आगे कोई भेद नहीं रह जाता। कर्म करना ही उपासना करना है। विजय प्राप्त करना ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है। प्राप्त करना और अपने अधिकार में रखना उतना ही कठोर न्यास है, जितना कि त्याग करना और अनासक्त होना।"
"It was the Swami Vivekananda who, while proclaiming the sovereignty of the Advaita Philosophy, as including that experience in which all is one, without a second, also added to Hinduism the doctrine that Dvaita, Vishishtâdvaita, and Advaita are but three phases or stages in a single development, of which the last-named constitutes the goal. This is part and parcel of the still greater and more simple doctrine that the many and the One are the same Reality, perceived by the mind at different times and in different attitudes; or as Sri Ramakrishna expressed the same thing, "God is both with form and without form. And He is that which includes both form and formlessness." If the many and the One be indeed the same Reality, then it is not all modes of worship alone, but equally all modes of work, all modes of struggle, all modes of creation, which are paths of realisation. No distinction, henceforth, between sacred and secular. To labour is to pray. To conquer is to renounce. Life is itself religion. To have and to hold is as stern a trust as to quit and to avoid."]
अतएव श्रीरामकृष्ण देव के आविर्भूत होने के साथ ही साथ एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के बीच (रंग-रूप, जाती, भाषा, या सम्प्रदाय आदि के आधार पर) सभी प्रकार के भेद-भाव दूर हो चुके हैं ! शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, ब्राह्मण-चाण्डाल यहाँ तक स्त्री-पुरुष के बीच भी समस्त प्रकार के विभेद-जनित आशान्ति का अवसान हो गया है। श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन से यह उदाहरण प्रस्तुत किया (दिखा दिया) है, कि ईश्वरीय-प्रेम या अन्तर्निहित दिव्यता -(Inherent Divinity, ब्रह्मत्व) को अभिव्यक्त करने पर सभी मनुष्यों का एक समान अधिकार है, तथा 'सत्य' (अतीन्द्रिय सत्य, परम् सत्य, आत्मा , ब्रह्म , अल्ला, God, काली, राम, कृष्ण जिस नाम से पुकारें) को प्राप्त करने (realize अनुभूति करने) की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण मात्रा में विद्यमान है। स्वामी जी के अनुसार (क्योंकि) ' प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' - इसलिये हिन्दू, मुसलमान, ईसाई -आदि सभी धर्मावलम्बियों के बीच सारे विरोध, समस्त प्रकार की विभाजनकारी अशांति समाप्त हो गई है।
स्वामीजी जिस समय यह बात कह रहे थे , उस समय उनका ध्यान ठाकुर (श्री रामकृष्ण देव) की जीवन-लीला के भीतर इतना केंद्रित था, मानो इन भावों को स्वामीजी वहाँ अभिव्यक्त होता हुआ देख पा रहे थे। इसीलिये, ठाकुर (श्रीरामकृष्ण देव) के जीवन और उपदेशों (कामिनी-कांचन और नाम-यश में अनासक्ति) का शुद्ध रूप से पालन करने से जो घटना भविष्य में घटित होने वाली है; उन भावों को वे इस प्रकार देख रहे थे मानो -'घटना जैसे घटित हो चुकी हो !' इसके अतिरिक्त, उनकी दूर-दृष्टि के समक्ष यदि भविष्य भी वर्तमान जैसा स्पष्ट रूप में दिखाई देता हो, तो इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार, श्री रामकृष्ण का चरित्र हर दृष्टि से इतना परिपूर्ण और उत्कृष्ट था कि, उनके पूर्णता-सम्पन्न चरित्र के सामने भगवान श्री कृष्ण और रामचन्द्र के चरित्र भी फीके पड़ जाते हैं ! इसीलिये, वे जानते थे कि यदि हमलोग अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण के चरित्र को केन्द्र में रखकर अपने जीवन- गठन करने के कार्य में लग जायें, तो निश्चित रूप से हमलोगों के जीवन में एक युगांतकारी परिवर्तन घटित हो जायेगा। और इस प्रकार आज के दिन भी मानव-जाति के लिए नई सम्भावनाओं की (चारित्रिक पतन के युग में भी मनुष्य बनने और बनाने वाला -सत्ययुग की) शुरुआत हो जाती हैं।
श्रीरामकृष्ण को, हमलोग अपनी-अपनी दृष्टि की विभिन्नता के कारण, चाहे जिस-भाव से भी क्यों न देखें, उनको केवल एक मनुष्य कहें, महापुरुष कहें, अवतार कहें, या भगवान कहें - जो कुछ भी क्यों न कहें, हमलोगों के जीवन पर उनका प्रभाव (उनके जीवन और संदेशों का प्रभाव) पड़ना निश्चित है; और हमारे हृदय में उनके प्रति श्रद्धा का भाव स्वतः उत्सारित होने को बाध्य है। तथा उनके प्रति अदम्य श्रद्धा के उस भाव के प्रति हमारी निष्कपटता (sincerity) ही हमलोगों के जीवन के मोड़ को घुमा देगी (अधोमुखी प्रवाह को उर्ध्व-मुखी बना देगी), और हमलोगों को 'मनुष्य' बना देगी ! (या पशु से मनुष्य बनाकर ही छोड़ेगी?) श्रीरामकृष्ण हमलोगों के अपना उद्धारक (भवबन्धन का खण्डन करने वाला- Savior) मानें, अपना आचार्य (गुरुदेव) समझें, प्रेरणाश्रोत (Role model) या अनुकरणीय आदर्श व्यक्ति समझे; हर दृष्टि से वे ' समस्त मनुष्यों के समस्त सदगुणों का एक विशुद्ध (unadulterated-मिलावट रहित) -समन्वय हैं, सनातन धर्म के अद्वितीय सिद्धान्त- 'अनेकता में एकता' के धारक और वाहक हैं।
हमलोग सत्ययुग में एक आदर्श राष्ट्र की कल्पना करते हैं। उस युग में एक राष्ट्र, एक आत्मा, एक चेतना स्थापित होगी, शांति होगी, समन्वय रहेगा। स्वामीजी ने कहा है, उस सत्ययुग की कल्पना को साकार रूप केवल तभी दिया जा सकता है, जब ब्राह्मण-युग का ज्ञान, क्षत्रिय-युग की सभ्यता और संस्कृति, वैश्य-युग का अभ्युदय विस्तार (Expansion) उसे हस्तान्तरित करने के किये उत्साह, और शूद्र-वर्ग में जो साम्य-भाव, दृष्टिगोचर होता है - उन सबों के बीच एक पूर्ण समन्वय स्थापित कर दिया जाय। और श्रीरामकृष्ण के जीवन के ऊपर व्यापक और गहराई से चिंतन करना ही इस समन्वय को साकार करने का एक मात्र उपाय है ।
वर्तमान समय में विभिन्न कारणों से हमारे आन्तरिक जीवन में जो मतभेद, विद्वेष आदि बने हुए हैं, और उसके घातक परिणाम हम आसाम, पंजाब (कश्मीर) आदि राज्यों में घटित होने वाली घटनाओं में देखने को मिल रहा है। इन सब मतभेदों को समाप्त करने का एकमात्र उपाय है श्रीरामकृष्ण के जीवन और संदेश का बिल्कुल शुद्ध रूप में प्रचार करना। जो लोग ठाकुर के भक्त या उनके अनुयायी हैं, उनके लिये दूसरे धर्म के लोगों से घृणा करना या उन्हें चोट पहुँचाना बिल्कुल असंभव है। जो लोग ऐसा कहेंगे कि वे ठाकुर पर श्रद्धा और विश्वास रखते हैं, उनका अनुसरण करते हैं , फिर भी धर्म के नाम पर घृणा को प्रश्रय देंगे, और धन-दौलत के नाम पर मनुष्य को छोटा - बड़ा समझेंगे , तो इसीसे सिद्ध हो जायेगा कि वे चाहे और भले ही जो कुछ हों, किन्तु श्रीरामकृष्ण के अनुयायी तो बिल्कुल ही नहीं हैं। ऐसे कृतघ्न लोगों को अपने मुख से ठाकुर का नाम लेना शोभा नहीं देता।
सत्ययुग जो आदर्श है उसको वास्तविकता में तभी रूपायित किया जा सकता है, जब श्रीरामकृष्ण के अनुयायी सचमुच उनका अनुसरण करें। (अर्थात स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करें ) केवल तभी भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण विश्व का पुनरुद्धार सम्भव होगा।इसीलिये स्वामीजी ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! 'काम' में लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा।" यहाँ धर्म कहने का अर्थ (हिन्दू-मुस्लिम या ईसाई धर्म नहीं) बल्कि वैदिक धर्म है, जिसमें समस्त प्राणियों के एकत्व (Oneness of Existence- एकं सत् ) की घोषणा की गयी है , जिसका मूल मन्त्र है-'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' , "तत्त्वमसि " (Thou art that -'तुम वही हो' या स्वामीजी की भाषा में , प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! )
[ उपनिषदों के इसी ज्ञान को अपना संबल बनाकर, भारतमाता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराने के लिये, अपने देशवासियों का आह्वान करते हुए] स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " और फिर एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटी भेदकर, जाली, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से. निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।"अर्थात समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले, आम लोगों के बीच से- प्राचीन धर्म के सार को आत्मस्थ करके, नया भारतवर्ष उभर कर सामने आये । ऐसा हो जाने से क्या होगा ? यह होगा कि सभी मनुष्यों को केवल 'मनुष्य' होने के लिये ही सम्मान दिया जायेगा, सभी जाती-धर्म-भाषा के मनुष्यों के साथ, उनको बिल्कुल अपना समझकर, हर किसी से प्रेम करना संभव हो जायेगा।
[किन्तु जो तथाकथित नेता 'पुरोहित-पण्डे ' अब भी निजी स्वार्थवश इस ज्ञान (वैदिक धर्म के महावाक्यों) को जन जन के द्वारा तक ले जाने में बाधा खड़ी करते हैं, उनको बड़े भाई के जैसा झिड़की भरा परामर्श देते हुए स्वामी जी कहते हैं- " अतीत के कंकाल-समूहों ! - देखो तुम्हारा उत्तराधिकारी भविष्य का भारत, तुम्हारे समक्ष खड़ा है। तुमलोगों के पास पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं, तुम्हारी अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली। अब अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो। फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। " तुम " ( कर्तापन का अहंकार ) ज्यों ही विलीन होगे, वैसे ही सुनाई देगी, ' कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पन-कारिणी ' भावी भारत की जागरण-वाणी- "वाह गुरू की फतेह!"
स्वामीजी द्वारा कहे गए इस प्रकार के सन्देश ही श्रीरामकृष्ण के आविर्भाव के महत्व को सूचित करते हैं। तथा सत्ययुग की स्थापना के संकल्प का वहन करते हैं। हमलोगों के लिये इसे समझना आवश्यक है। एवं उन्हीं के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिये प्रयत्न शील होना होगा। क्योंकि भविष्य के भारत के 'गौरव मय दिन' बस आने ही वाले हैं। " "उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !"
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