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रविवार, 16 जुलाई 2023

🔱🙏परिच्छेद~122- * श्यामपुकुर में श्रीरामकृष्ण* [ ( 18 अक्टूबर, 1885 ) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122] 🔱🙏 सर हम्फ्री डेवी

*परिच्छेद ~ १२२*

(१)

सुरेन्द्र की भक्ति गीता

आज विजयादशमी है । 18 अक्टूबर,1885। श्रीरामकृष्ण श्यामपुकुर वाले मकान में हैं । शरीर अस्वस्थ रहता है, कलकत्ते में चिकित्सा कराने के लिए आये हैं । भक्तगण निरन्तर रहते और उनकी सेवा किया करते हैं । भक्तों में से अभी तक किसी ने संसार का त्याग नहीं किया । वे लोग अपने घर से आया-जाया करते हैं ।

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏आज दुर्गापूजा के विसर्जन का दिन है, सुरेन्द्र का मन  कुछ उदास है🔱🙏 

जाड़े का मौसम है, सबेरे आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण अस्वस्थ हैं, बिस्तर पर बैठे हुए हैं, जैसे पाँच वर्ष का बालक जो माता के सिवा और कुछ नहीं जानता । सुरेन्द्र आये और आसन ग्रहण किया । नवगोपाल, मास्टर तथा और भी कई लोग उपस्थित हैं । सुरेन्द्र के यहाँ दुर्गापूजा हुई थी । श्रीरामकृष्ण नहीं जा सके; भक्तों को प्रतिमा के दर्शन करने के लिए भेजा था । आज विजयादशमी है, इसीलिए सुरेन्द्र का मन कुछ उदास है

THE DOCTORS HAD DEFINITELY diagnosed Sri Ramakrishna's illness as cancer. No proper arrangement for his treatment and nursing could be made at Dakshineswar. He needed the constant attention of a physician, which could not be given at the temple garden. Furthermore, the devotees who lived in Calcutta found it very inconvenient to attend to him daily at Dakshineswar. Therefore the older devotees had rented a small two-story house in Baghbazar, Calcutta, and had brought the Master there. Sri Ramakrishna, however, had not liked the place and had gone to Balaram's house. In a few days a new house had been engaged in Syampukur, in the northern section of Calcutta, and the Master had been taken there. He had been placed under the treatment of Dr. Mahendra Lal Sarkar. The new building had two large rooms and two smaller ones on the second floor. One of the larger rooms was used as the parlor, and in the other, the Master lived. Of the two smaller rooms, one was used as a sleeping room by the devotees, and the other by the Holy Mother when she came there. Near the exit to the roof was a small, covered, square space, where the Holy Mother stayed during the day and prepared the Master's food.

It was Vijaya day, the fourth day of the worship of Durga, when the image is immersed in water. On that day the Divine Mother returns to Her heavenly abode at Mount Kailas, leaving gloom in the hearts of Her devotees.

It was eight o'clock in the morning. The air was chilly. Though ill, Sri Ramakrishna was sitting on his bed. He was like a five-year-old child who knows nothing but its mother. Navagopal, M., and a few other devotees were present. Surendra arrived and sat down. The Divine Mother had been worshipped at his house for the past three days. Sri Ramakrishna had not been able to go there on account of his illness, but he had sent some of his disciples. Surendra was in a very unhappy mood because on this day the image of the Mother was to be immersed in the water.

শ্রীশ্রীবিজয়া দশমী। ১৮ই অক্টোবর, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ (৩রা কার্তিক, ১২৯২, রবিবার)। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শ্যামপুকুরের বাটীতে আছেন। শরীর অসুস্থ — কলিকাতায় চিকিৎসা করিতে আসিয়াছেন। ভক্তেরা সর্বদাই থাকেন, ঠাকুরের সেবা করেন। ভক্তদের মধ্যে এখন কেহ সংসারত্যাগ করেন নাই — তাঁহারা নিজেদের বাটী হইতে যাতায়াত করেন।

শীতকাল সকাল বেলা ৮টা। ঠাকুর অসুস্থ, বিছানায় বসিয়া আছেন। কিন্তু পঞ্চমবর্ষীয় বালকের মতো, মা বই কিছু জানেন না। সুরেন্দ্র আসিয়া বসিলেন। নবগোপাল, মাস্টার ও আরও কেহ কেহ উপস্থিত আছেন। সুরেন্দ্রের বাটিতে ৺দুর্গাপূজা হইয়াছিল। ঠাকুর যাইতে পারেন নাই, ভক্তদের প্রতিমা দর্শন করিতে পাঠাইয়াছিলেন। আজ বিজয়া, তাই সুরেন্দ্রের মন খারাপ হইয়াছে

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

(शोकसन्तप्त ह्रदय को सर्वोत्तम सन्देश) 

🙏प्रतिमा विसर्जित हो भी गयी तो क्या ? माँ तुम बस हृदयकमलासन पर विराजती रहो🙏

"May Mother dwell in the heart!"

তাহলেই বা। মা হৃদয়ে থাকুন!

सुरेन्द्र - मैं घर से भाग आया ।

SURENDRA: "I had to run away from home."

সুরেন্দ্র — বাড়ি থেকে পালিয়ে এলাম।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - प्रतिमा पानी में डाल दी गयी तो क्या, माँ बस हृदय में विराजती रहें ।

MASTER (to M.): "What if the image is thrown into the water? May Mother dwell in the heart!"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারকে) — তাহলেই বা। মা হৃদয়ে থাকুন!

सुरेन्द्र ‘माँ माँ’ करके जगदीश्वरी के सम्बन्ध में बहुत कुछ कहने लगे ।

(सुरेन्द्र शोकाकुल होकर माँ जगदम्बा से बातें करने लगे ?) 

Surendra was disconsolate. He was crying to the Divine Mother and talking to Her. 

সুরেন্দ্র মা মা করিয়া পরমেশ্বরীর উদ্দেশে কত কথা কহিতে লাগিলেন।

श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र को देखते हुए आँसू बहाने लगे । मास्टर की ओर देखकर गद्गद स्वर से कहने लगे, “अहा ! कैसी भक्ति है ! ईश्वर के लिए कैसा अगाध प्रेम !”

At this yearning of his beloved disciple Sri Ramakrishna could not control his tears. He looked at M. and said in a choked voice: "What bhakti! Ah, what great love he feels for God!"

ঠাকুর সুরেন্দ্রকে দেখিতে দেখিতে অশ্রু বির্সজন করিতেছেন। মাস্টারের দিকে তাকাইয়া গদ্‌গদস্বরে বলিতেছেন, কি ভক্তি! আহা, এর যা ভক্তি আছে!

श्रीरामकृष्ण - कल साढ़े सात बजे के लगभग मैने देखा, तुम्हारे दालान में श्रीदेवीप्रतिमा है, चारों ओर ज्योति हो ज्योति है । सब एकाकार हो गया है - यह और वह । दोनों जगह के बीच मानो ज्योति की एक तरंग बह रही है - इस घर से तुम्हारे उस घर तक

MASTER (to Surendra): "Yesterday evening at seven or seven-thirty I saw your worship hall in a vision. I saw the divine image full of effulgence. This place and your hall were joined by a stream of light flowing between them."

শ্রীরামকৃষ্ণ — কাল ৭টা-৭৷৷টার সময় ভাবে দেখলাম, তোমাদের দালান। ঠাকুর প্রতিমা রহিয়াছেন, দেখলাম সব জ্যোতির্ময়। এখানে-ওখানে এক হয়ে আছে। যেন একটা আলোর স্রোত দু-জায়গার মাঝে বইছে! এবাড়ি আর তোমাদের সেই বাড়ি!

सुरेन्द्र - उस समय मैं देवोजीवाले दालान में खड़ा हुआ “माँ माँ” कहकर उन्हें पुकार रहा था । मेरे भाई मुझे छोड़कर ऊपर चले गये थे । मेरे मन में ऐसा जान पड़ा कि माँ कह रही हैं, ‘मैं फिर आऊँगी ।’

SURENDRA: "At that time I was crying to the Mother in the worship hall. My elder brothers had gone upstairs. I thought the Mother said, 'I will come again.'"

সুরেন্দ্র — আমি তখন ঠাকুর দালানে মা মা বলে ডাকছি, দাদারা ত্যাগ করে উপরে চলে গেছে। মনে উঠলো মা বললেন, ‘আমি আবার আসব’

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏अवतार वरिष्ठ भगवान श्री रामकृष्ण और भगवद गीता🔱🙏

केवल सात्विक भोजन करना ही सर्वोत्तम है।

It is best to take only sattvic food. 

Temperance in Eating.

সাত্ত্বিক আহার করা ভাল।

दिन के ग्यारह बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण को पथ्य दिया गया । मणि मुँह धुलाने के लिए उनके हाथों पर पानी डाल रहे हैं ।

It was about eleven o'clock in the morning. Sri Ramakrishna finished his meal. M. poured water into his hand for him to rinse his mouth.

বেলা এগারটা বাজিবে। ঠাকুর পথ্য পাইলেন। মণি হাতে আঁচাবার জল দিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण (मणि से) - चने की दाल खाकर राखाल कुछ अस्वस्थ है । आहार सात्विक करना अच्छा है । तुमने गीता में नहीं देखा ? क्या तुम गीता नहीं पढ़ते ?

MASTER (to M.): "Rakhal has indigestion. It is best to take only sattvic food. Haven't you read about it in the Gita? Don't you read the Gita?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মণির প্রতি) — ছোলার ডাল খেয়ে রাখালের অসুখ হয়েছে। সাত্ত্বিক আহার করা ভাল। তুমি গীতা পড় না?

मणि - जी हाँ, युक्ताहार (भोजन में संयम) की बातें हैं । सात्विक आहार, राजसिक आहार और तामसिक आहार; और सात्त्विक दया, राजसिक दया और तामसिक दया भी हैं । सात्विक अहं आदि सब है ।

M: "Yes, sir. The Gita speaks of temperance in eating. Sattvic food, rajasic food, tamasic food; sattvic kindness, sattvic ego, and so on — all these are described in the Gita."

মণি — আজ্ঞা হাঁ, যুক্তাহারের কথা আছে। সাত্ত্বিক আহার, রাজসিক আহার, তামসিক আহার। আবার সাত্ত্বিক দয়া, রাজসিক দয়া, তামসিক দয়া। সাত্ত্বিক অহং ইত্যাদি সব আছে।

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏गीता में सब शास्त्रों का सार है🔱🙏

 " The B.G. contains essence of all the scriptures." 

গীতাতে  সর্বশাস্ত্রের সার আছে।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे पास गीता (~उपनिषद)  है ?

MASTER: "Have you a copy of the book?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — গীতা তোমার আছে?

मणि - जी हाँ, है ।

M: "Yes, sir."

মণি — আজ্ঞা, আছে।

श्रीरामकृष्ण - उसमें सब शास्त्रों का सार है ।

MASTER: "It contains the essence of all the scriptures."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ওতে সর্বশাস্ত্রের সার আছে।

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🙏 ज्ञान, भक्ति, कर्म, ध्यान  आदि 

अनेक मार्ग से उसके पास जाना  ~जितने मत, उतने पथ 🙏  

 [knowledge, devotion, work, and meditation.

As many faiths , So many paths]

 জ্ঞান, ভক্তি, কর্ম, ধ্যান~ যত মত, তত পথ

मणि - जी हाँ, ईश्वर को अनेक प्रकार से देखने की बातें लिखी हैं; आप जैसा कहते हैं, अनेक मार्गों से उनके पास जाना; ज्ञान, भक्ति, कर्म, ध्यान आदि अनेक मार्गों से ।

M: "The Gita describes various ways of realizing God. You too say that God can be reached by various paths: knowledge, devotion, work, and meditation."

মণি — আজ্ঞা, ঈশ্বরকে নানারকমে দেখার কথা আছে; আপনি যেমন বলেন, নানা পথ দিয়ে তাঁর কাছে যাওয়া — জ্ঞান, ভক্তি, কর্ম, ধ্যান।

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏कर्मयोग है सब कर्मों का फल गुरु/ठाकुर को समर्पित करना 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - कर्मयोग का अर्थ जानते हो ? सब कर्मों का फल ईश्वर को समर्पण कर देना ।

MASTER: "Do you know the meaning of karmayoga? It is to surrender to God the fruit of all action."

শ্রীরামকৃষ্ণ — কর্মযোগ মানে কি জান? সকল কর্মের ফল ভগবানে সমর্পণ করা।

मणि - जी हाँ, मैंने देखा है । गीता में लिखा है, कर्म भी तीन तरह से किये जा सकते हैं ।

মণি — আজ্ঞা, দেখছি, ওতে আছে। কর্ম আবার তিনরকমে করা যেতে পারে, আছে।

[ (18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🙏कार्य करने के तीन तरीके-चित्तशुद्धि हेतु, लोकशिक्षण और जन्मजातप्रवृत्ति🙏

[Three ways of performing an action.] 

কর্ম আবার তিনরকমে করা যেতে পারে 

श्रीरामकृष्ण - किस किस तरह से ?

MASTER: "What are they?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — কি কি রকম?

मणि – प्रथम, ज्ञान के लिए । दूसरा, लोक-शिक्षा के लिए । तीसरा, स्वभाववश ।

M: "First, one may perform karma to attain jnana; second, to teach others; third, under the impulse of one's nature."

মণি — প্রথম — জ্ঞানের জন্য। দ্বিতীয় — লোকশিক্ষার জন্য। তৃতীয় — স্বভাবে

आचमन करने के बाद श्रीरामकृष्ण पान खा रहे हैं। फिर प्रसाद करके मणि के मुख में पान का प्रसाद दिया। 

Sri Ramakrishna is eating betel leaves after performing Aachaman. Then after making prasad, gave the prasad of betel leaves in the mouth of Mani.

ঠাকুর আচমনান্তে পান খাইতেছেন। মণিকে মুখ হইতে পান প্রসাদ দিলেন।

(२)

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏श्रीरामकृष्ण - सर हम्फ्री डेवी तथा अवतारवाद🔱🙏

Sri Ramakrishna — Sir Humphrey Davy and Avatarism

শ্রীরামকৃষ্ণ — Sir Humphrey Davy ও অবতারবাদ

श्रीरामकृष्ण मास्टर से डाक्टर सरकार की बातें कह रहे हैं । पहले दिन मास्टर श्रीरामकृष्ण का हाल लेकर डाक्टर सरकार के पास गये थे ।

Sri Ramakrishna was talking with M. about Dr. Sarkar. M. had been at the doctor's house the previous day to report the Master's condition.

ঠাকুর মাস্টারের সহিত ডাক্তার সরকারের কথা কহিতেছেন। পূর্বদিনে ঠাকুরের সংবাদ লইয়া মাস্টার ডাক্তারের কাছে গিয়াছিলেন।

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे साथ क्या-क्या बातें हुई ?

MASTER: "What did you talk about?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার সঙ্গে কি কি কথা হল?

मास्टर - डाक्टर के यहाँ बहुत सी पुस्तकें हैं । मैं वहाँ बैठा हुआ एक पुस्तक पढ़ रहा था । उसी से कुछ अंश पढ़कर डाक्टर को सुनाने लगा । सर हम्फ्री डेवी की पुस्तक है । उसमें अवतार की आवश्यकता पर लिखा गया है ।

M: "There are many books in the doctor's room. I took out one to read, and now and then read a passage aloud to Dr. Sarkar. It was a book by Sir Humphry Davy. He wrote about the necessity of Divine Incarnation."

["तुममें से बहुतों को सर हम्फ्री डेवी के प्रसिद्ध प्रयोग की बात याद होगी। हास्योत्पादक गैस (Laughing Gas) ने जब उनको अभिभूत कर लिया, तब वे भाषण देते समय स्तब्ध और निःस्पन्द होकर खड़े रहे। कुछ देर बाद जब होश आया, तो बोले, “सारा जगत् विचारों की समष्टि मात्र है।" कुछ समय के लिए सारे स्थूल कम्पन (gross vibrations) चले गये थे और केवल सूक्ष्म कम्पन, जिनको उन्होंने विचारराशि कहा था, बच रहे थे। उन्होंने चारों ओर केवल सूक्ष्म कम्पन देखे थे। सम्पूर्ण जगत् उनकी आँखों में मानो एक महान विचारसमुद्र में परिणत हो गया था। उस महासमुद्र में वे और जगत् की प्रत्येक व्यष्टि मानो एक एक छोटा विचार भँवर बन गयी थी।" - (स्वामी विवेकानन्द राजयोग अध्याय-3 प्राण)

>>>>@@@साभार -https://www.khabardailyupdate.com/2022/04/rajyog-tritiya-adhyay-pran.html/ >>>>@@@साभार -https://www.gutenberg.org/files/17882/17882-h/17882-h.htm/"Title: "Consolations in Travel" or, "the Last Days of a Philosopher", by Humphry Davy./ Author: Humphrey Davy/Editor: Henry Morley/Release Date: February 28, 2006/eBook #17882] 

মাস্টার — ডাক্তারের ঘরে অনেক বই আছে। আমি একখানা বই সেখানে বসে বসে পড়ছিলাম। সেই সব পড়ে আবার ডাক্তারকে শোনাতে লাগলাম। Sir Humphrey Davy-র বই। তাতে অবতারের প্রয়োজন এ-কথা আছে।

 [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏आत्मा ,ईश्वर या ब्रह्म को समझने के लिए अवतार (महामण्डल) की अनिवार्यता 🔱🙏

 [अवतार के माध्यम से होकर बिना आये मनुष्य "वेद-वेदान्त या चार महावाक्यों " को समझ नहीं सकता]

[Necessity of Divine Incarnation ~ 

Human beings cannot understand the "Mahavakya"~ 

 unless it comes through the incarnation. 

 অবতারের প্রয়োজন 

श्रीरामकृष्ण – हाँ ? तुमने क्या कहा था ?

MASTER: "Indeed! What did you say to the doctor?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — বটে (Indeed) ? তুমি কি কথা বলেছিলে?

मास्टर - उसमें एक बात यह है कि ईश्वर की वाणी [वेद -वेदान्त-महावाक्य ] आदमी के भीतर से होकर बिना आये मनुष्य उसे समझ नहीं सकते । इसीलिए अवतार की आवश्यकता है ।

M: "There was one passage that stated that Divine Truth must be made human truth to be appreciated by us; therefore Divine Incarnation is necessary."

মাস্টার — একটি কথা আছে, ঈশ্বরের বাণী মানুষের ভিতর দিয়ে না এলে মানুষ বুঝতে পারে না। (Divine Truth must be made human Truth to be appreciated by us)। তাই অবতারাদির প্রয়োজন।

श्रीरामकृष्ण – वाह (Splendid)! ये सब तो बड़ी अच्छी बातें हैं ।

MASTER: "Splendid! That's very good."

শ্রীরামকৃষ্ণ — বাঃ, এ-সব তো বেশ কথা!

मास्टर - लेखक ने उपमा दी है कि सूर्य की ओर कोई देख नहीं सकता, परन्तु सूर्य की किरणें जिस जगह पर पड़ती है (Reflected Rays) वहाँ लोग देख सकते हैं

M: "The author gave the illustration of the sun: one cannot look at the sun, but one can look at its reflected rays."

মাস্টার — সাহেব উপমা দিয়েছে, যেমন সূর্যের দিকে চাওয়া যায় না, কিন্তু সূর্যের আলো যেখানে পড়ে, (Reflected rays) সেদিকে চাওয়া যায়।

  [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🙏बिना अवतार,नेता या गुरु के मार्गदर्शन पाए मनुष्य स्वयं को आत्मा नहीं समझ सकता🙏  

श्रीरामकृष्ण - यह तो बड़ी अच्छी बात है, कुछ और है ?

MASTER: "Very fine. Anything else?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — বেশ কথা, আর কিছু আছে?

   [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏(आत्म-) विश्वास ही सच्चा ज्ञान है ! 🔱🙏

[Real knowledge is faith ~ As many faiths, so many paths]

যথার্থ জ্ঞান হচ্ছে বিশ্বাস ~ যত মত, তত পথ ]

मास्टर - एक दूसरी जगह लिखा था, यथार्थ ज्ञान विश्वास है ।

M: "Another passage stated that real knowledge is faith."

মাস্টার — আর এক যায়গায় ছিল, যথার্থ জ্ঞান হচ্ছে বিশ্বাস।

श्रीरामकृष्ण - ये तो बहुत सुन्दर बातें है । विश्वास हुआ तब तो सब कुछ हो गया ।

MASTER: "That too is very good. If one has faith one has everything."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এ তো খুব ভাল কথা। বিশ্বাস হল তো সবই হয়ে গেল।

मास्टर - लेखक ने स्वप्न में रोमन देव-देवियों को देखा था ।

M: "The author dreamt of the Roman gods and goddesses."

মাস্টার — সাহেব আবার স্বপ্ন দেখেছিলেন রোমানদের দেবদেবী।

श्रीरामकृष्ण - क्या इस तरह की पुस्तकें निकल रही हैं ? ऐसी जगह वे ही (ईश्वर) काम कर रहे हैं। और भी कोई बात हुई ?

MASTER: "Do such books really exist? Surely the author was inspired by God. Did you talk of anything else?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — এমন সব বই হয়েছে? তিনিই (ঈশ্বর) সেখানে কাজ করছেন। আর কিছু কথা হল?

   [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏श्री रामकृष्ण और 'जगत का उपकार ' या कर्म योग 🔱🙏

[শ্রীরামকৃষ্ণ ও ‘জগতের উপকার’ বা কর্মযোগ ]

मास्टर - वे लोग कहते हैं, हम संसार का उपकार करेंगे । तब मैंने आपकी बात कही ।

M: "People like Dr. Sarkar speak of doing good to the world. So I told him what you had said about it."

মাস্টার — ওরা বলে জগতের উপকার করব। তাই আমি আপনার কথা বললাম।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - कौनसी बात ?

MASTER (smiling): "What did I say?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি কথা?

मास्टर - शम्भु मल्लिक-वाली बात । उसने आपसे कहा था, ‘मेरी इच्छा होती है कि रुपये लगाकर कुछ अस्पताल और दवाखाने, स्कूल आदि बनवा दूँ । इससे बहुतों का उपकार होगा ।’ आपने उससे कहा था, ‘अगर ईश्वर सामने आये तो क्या तुम कहोगे, मेरे लिए कुछ अस्पताल, दवाखाने और स्कूल बनवा दो ?’ एक बात मैंने और कही थी ।

M: "About Sambhu Mallick. He had said to you: 'It is my desire to devote my money to the building of schools, hospitals, dispensaries, and the like. That will do good to many.' Thereupon you had said to him, 'Suppose God appears before you; will you then ask Him to build schools, hospitals, and dispensaries?' I told the doctor another thing."

মাস্টার — শম্ভু মল্লিকের কথা। সে আপনাকে বলেছিল, ‘আমার ইচ্ছা যে টাকা দিয়ে কতকগুলি হাসপাতল, ডিস্পেন্সারি, স্কুল, এইসব করে দিই; হলে অনেকের উপকার হবে।’ আপনি তাকে যা বলেছিলেন, তাই বললুম, ‘যদি ঈশ্বর সম্মুখে আসেন, তবে তুমি কি বলবে, আমাকে কতকগুলি হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি, স্কুল করে দাও!’ আর-একটি কথা বললাম।

   [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏ईश्वरकोटि के लोग ही समाधि से लौटकर 'भीख' नहीं 'सेवा' दे सकते हैं🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण - जो कर्म करने के लिए आते हैं उनका दर्जा अलग है । हाँ, कौनसी बात ?

MASTER: "Those who are born to do work belong to a different class. What else did you say?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, থাক আলাদা আছে, যারা কর্ম করতে আসে। আর কি কথা?

मास्टर – मैंने कहा, ‘यदि आपका उद्देश्य श्रीकाली की मूर्ति का दर्शन करना है तो सड़क के किनारे खड़े होकर गरीबों को भीख बाँटने में ही अपना सब समय लगा देने से क्या लाभ होगा ? पहले आप किसी प्रकार मूर्ति के दर्शन कर लें । फिर जी भर के भीख दें !’

M: "I said to the doctor: 'If your aim is to visit the image of Mother Kali, what will you gain by spending all your time in giving alms to the poor by the roadside? First, you had better somehow visit the image. Afterward, you may give alms to your heart's content."

মাস্টার — বললাম, কালীদর্শন যদি উদ্দেশ্য হয়, তবে রাস্তায় কেবল কাঙ্গালী বিদায় করলে কি হবে? বরং জো-সো করে একবার কালীদর্শন করে লও; — তারপর যত কাঙ্গালী বিদায় করতে ইচ্ছা হয় করো।

    [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏भगवान श्री रामकृष्ण देव के भक्त और कामजय🔱🙏 

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের ভক্ত ও কামজয় ]

श्रीरामकृष्ण - और भी कोई बात हुई ?

MASTER: "Did you talk about anything else?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর কিছু কথা হল?

मास्टर - आपके पास जो लोग आते हैं, उनमें बहुतों ने काम को जीत लिया है, यह बात हुई । डाक्टर ने कहा, ‘मेरा भी कामभाव दूर हो गया है, इतना समझ लेना ।’ मैंने कहा, ‘आप तो बड़े आदमी हैं । आपने काम को जीत लिया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । क्षुद्र प्राणियों में भी, उनके पास रहकर, इन्द्रियों को जीतने की शक्ति आ रही है, यही आश्चर्य है ।’ फिर मैंने वह बात कही जो आपने गिरीश घोष से कही थी ।

M: "Yes. I told him that many of those who come to you have conquered lust. Thereupon the doctor replied, 'I too have conquered lust.' I said: 'You are a great man. It is no wonder that you have conquered lust. But the amazing thing is that under his influence even insignificant creatures have conquered it.' Afterward, I told him what you had said to Girish."

মাস্টার — আপনার কাছে যারা আসে তাদের অনেকে কামজয় করেছেন, এই কথা হল। ডাক্তার তখন বললে, ‘আমারও কামটাম উঠে গেছে, জানো?’ আমি বললাম, আপনি তো বড় লোক। আপনি যে কাম জয় করেছেন বলছেন তাতো আশ্চর্য নয়। ক্ষুদ্র প্রাণীদের পর্যন্ত তাঁর কাছে ইন্দ্রিয় জয় হচ্ছে, এই আশ্চর্য! তারপর আমি বললাম, আপনি যা গিরিশ ঘোষকে বলেছিলেন।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - क्या कहा था ?

MASTER (smiling): "What did I say?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি বলেছিলাম?

    [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏जो अपने भक्त को भवसागर से पार ले जाकर तार देता हैं ~वो अवतार है 🔱🙏

[जो दूसरों को मुक्त (D-Hypnotized) करता है वह ईश्वर का अवतार, नेता, गुरु है।]

 He who liberates others is an Incarnation of God.

অবতার — যিনি তারণ করেন।

मास्टर- आपने गिरीश घोष से कहा था, ‘डाक्टर तुमसे ऊँचे नहीं चढ़ सका ।’ $ वही अवतार वाली बात । 

[$ अर्थात डॉक्टर अवतार वरिष्ठ को पहचान नहीं सके , किन्तु गिरीश घोष ने पहचान लिया। ]

M: "You said to Girish, 'The doctor has not been able to surpass you.' You said that with reference to his calling you a Divine Incarnation."

মাস্টার — আপনি গিরিশ ঘোষকে বলেছিলেন, ‘ডাক্তার তোমাকে ছাড়িয়ে যেতে পারে নাই।’ সেই অবতারে কথা।

श्रीरामकृष्ण - अवतार की बात उससे (डाक्टर से) कहना । अवतार वे हैं जो तारते हैं इस तरह दस अवतार हैं, चौबीस अवतार है और असंख्य अवतार भी हैं

MASTER: "Discuss the doctrine of Divine Incarnation with Dr. Sarkar. He who liberates others is an Incarnation of God. The scriptures speak of ten, of twenty-four, and also of innumerable Incarnations."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি অবতারের কথা তাকে (ডাক্তারকে) বলবে। অবতার — যিনি তারণ করেন। তা দশ অবতার আছে, চব্বিশ অবতার আছে আবার অসংখ্য অবতার আছে।

    [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏गिरीश घोष ने शराब पीना क्या क्रमशः बिल्कुल ही छोड़ दिया था ?🔱🙏

[মদ্যপান ক্রমে ক্রমে একেবারে ত্যাগ ]

मास्टर - गिरीश घोष की वे (डा. सरकार) खूब खबर रखते हैं । यही पूछते रहे कि गिरीश घोष ने क्या बिलकुल शराब पीना छोड़ दिया ? उन पर $ खूब नजर है ।

M: "Dr. Sarkar is keenly interested in Girish Ghosh. He always asks me whether Girish has given up drinking. He keeps a sharp eye on him."

মাস্টার — গিরিশ ঘোষের ভারী খবর নেয়। কেবল জিজ্ঞাসা করেন, গিরিশ ঘোষ কি সব মদ ছেড়েছে? তার উপর বড় চোখ।

श्रीरामकृष्ण - क्या गिरीश घोष से यह बात तुमने कही थी ?

MASTER: "Did you tell Girish about that?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি গিরিশ ঘোষকে ও-কথা বলেছিলে?

मास्टर - जी हाँ, कही थी, और बिलकुल शराब छोड़नेवाली बात भी ।

M: "Yes, sir, I did. And I also told him about giving up drinking."

মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, বলেছিলাম। আর সব মদ ছাড়বার কথা।

श्रीरामकृष्ण - उसने क्या कहा ?

MASTER: "What did he say?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি বললে?

मास्टर - उन्होंने कहा, ‘तुम लोग जब कह रहे हो, तो इस दशा में इसे श्रीरामकृष्ण की बात समझकर मान लेता हूँ - परन्तु मैं स्वयं अब जोर देकर कोई बात न कहूँगा ।’

M: "He said: 'Since you all say so, I take your words as the words of the Master himself. But I won't promise anything.'"

মাস্টার — তিনি বললেন, তোমরা যে কালে বলছো সেকালে ঠাকুরের কথা বলে মানি — কিন্তু আর জোর করে কোনও কথা বলব না।

श्रीरामकृष्ण - (आनन्दपूर्वक) - कालीपद ने कहा है, उसने एकदम शराब पीना छोड़ दिया है ।

MASTER (joyously). "Kalipada told me that he had altogether given up drinking."

শ্রীরামকৃষ্ণ (আনন্দের সহিত) — কালীপদ বলেছে, সে একেবারে সব ছেড়েছে।

(३)

    [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

* नित्य-लीला-योग*

[Identity of the Absolute or the Universal Ego 

and the Phenomenal World ]

ब्रह्म (निराकार) और जगत (साकार) का एकत्व 

अपने पक्के मैं (Universal Ego, सार्वभौमिक अहंकार) से तादात्म्य 

Identity with your core

[पूर्ण (Absolute:  ब्रह्म, परम् सत्य, इन्द्रियातीत सत्य) और माँ जगदम्बा (माँ सारदा) के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं (Universal Ego, सार्वभौमिक अहंकार) से तादात्म्य और अभूतपूर्व जगत का एकत्व !]

दिन का पिछला पहर है, डाक्टर आये हुये हैं । अमृत (डाक्टर के लड़के) और हेम भी डाक्टर के साथ आये हैं । नरेन्द्र आदि भक्त भी उपस्थित हैं ।

It was afternoon. Dr. Sarkar arrived accompanied by his son Amrita and Hem. Narendra and other devotees were present.

[Hem (Rai Bahadur Hemchandra Kar) — Deputy Magistrate. Father of Paltu, a devotee of Sri Sri Thakur.] 

বৈকাল হইয়াছে, ডাক্তার আসিয়াছেন। অমৃত (ডাক্তারের ছেলে) ও হেম, ডাক্তারের সঙ্গে আসিয়াছেন। নরেন্দ্রাদি ভক্তেরাও উপস্থিত আছেন।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏ध्यान (समाधि) की अवस्था में मन तैलधारा की तरह हो जाता है🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण एकान्त में अमृत के साथ बातचीत कर रहे हैं । पूछ रहे हैं, ‘क्या तुम्हें ध्यान जमता है?’ और कह रहे हैं, ‘क्या जानते हो, ध्यान की अवस्था कैसी होती है ? मन तैलधारा की तरह हो जाता है । ईश्वर की ही चिन्ता रह जाती है । उसमें कोई दूसरी चिन्ता नहीं आती ।’ अब श्रीरामकृष्ण दूसरों से बातचीत कर रहे हैं ।

Sri Ramakrishna was talking aside to Amrita. He asked him, "Do you meditate?" He further said to him: "Do you know what one feels in meditation? The mind becomes like a continuous flow of oil — it thinks of one object only, and that is God. It does not think of anything else." Sri Ramakrishna was talking to the devotees.

 ঠাকুর নিভৃতে অমৃতের সঙ্গে কথা কহিতেছেন। জিজ্ঞাসা করিতেছেন, “তোমার কি ধ্যান হয়?” আর বলিতেছেন, “ধ্যানের অবস্থা কিরকম জানো? মনটি হয়ে যায় তৈলধারায় ন্যায়। এক চিন্তা, ঈশ্বরের; অন্য কোন চিন্তা আর ভিতর আসবে না।” এইবার ঠাকুর সকলের সঙ্গে কথা কহিতেছেন।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏"मनुष्य और मानहूँश "🔱🙏  

[जार हूँश आछे, चैतन्य आछे, से निश्चित जाने - 

" ईश्वर सत्य आर सब अनित्य " -- सेई मानहूँश !]

[जो ब्रह्मविद है, जिसको अपने ब्रह्म होने का बोध है, जिसको चैतन्य लाभ हुआ है~ 

वह निश्चित रूप से जानता है कि - 'ब्रह्म सत्य (अविनाशी) और जगत अनित्य (नश्वर) है'

और उसी मनुष्य को 'मानहूँश' या श्रेय-प्रेय विवेक सम्पन्न "मनुष्य " कहा जाता है।]           

श्रीरामकृष्ण (डाक्टर से) - तुम्हारा लड़का अवतार नहीं मानता । यह अच्छी बात है । नहीं मानता तो न सही ।

MASTER (to the doctor): "Your son does not believe in the Incarnation of God. That's all right. It doesn't matter if he doe's not believe in it.

শ্রীরামকৃষ্ণ (ডাক্তারের প্রতি) — তোমার ছেলে অবতার মানে না। তা বেশ। নাই বা মানলে।

“तुम्हारा लड़का बड़ा अच्छा है । और होगा भी क्यों नहीं ? बम्बई-आम के पेड़ में कभी खट्टे आम भी लगते हैं ? ईश्वर पर उसका कैसा विश्वास है ! ईश्वर पर जिसका मन है, आदमी तो बस वही है। मनुष्य और मन-होश । जिसमें होश है - चैतन्य है, जो निश्चयपूर्वक जानता है कि ईश्वर सत्य हैं और सब अनित्य, वही वास्तव में मनुष्य है । अवतार नहीं मानता तो इसमें क्या दोष ?

"Your son is a nice boy. Why shouldn't he be? Does a mango tree of the fine 'Bombay' variety ever bear sour mangoes? How firm his faith in God is! That man is a true man whose mind dwells on God. He alone is a man whose spiritual consciousness has been awakened and who is firmly convinced that God alone is real and all else illusory. He does not believe in Divine Incarnation; but what does that matter? 

“তোমার ছেলেটি বেশ। তা হবে না? বোম্বাই আমের গাছে কি টোকো আম হয়? তার ঈশ্বরে কেমন বিশ্বাস! যার ঈশ্বরে মন সেই তো মানুষ। মানুষ — আর মানহুঁশ। যার হুঁশ আছে, চৈতন্য আছে, সে নিশ্চিত জানে, ঈশ্বর সত্য আর সব অনিত্য — সেই মানহুঁশ। তা অবতার মানে না, তাতে দোষ কি?

‘ईश्वर हैं, यह सम्पूर्ण जीव-जगत् उनका ऐश्वर्य है, ‘इसे मानने से ही हो गया । - जैसे कोई बड़ा आदमी और उसका बगीचा ।

It is enough if he believes that God exists and that all this universe and its living beings are the manifestations of His Power — like a rich man and his garden.

“ঈশ্বর; আর এ-সব জীবজগৎ, তাঁর ঐশ্বর্য। এ মানলেই হল। যেমন বড় মানুষ আর তার বাগান।

“बात यह है कि दस अवतार हैं, चौबीस अवतार हैं और फिर असंख्य अवतार भी हैं । जहाँ कहीं उनकी शक्ति का विशेष प्रकाश है, वहीं अवतार हैं । मेरा यही मत है ।

"Some say that there are ten Divine Incarnations, some twenty-four, while others say that there are innumerable Incarnations. If you see anywhere a special manifestation of God's Power, you may know that God has incarnated Himself there. That is my opinion.

“এরকম আছে, দশ অবতার, — চব্বিশ অবতার, — আবার অসংখ্য অবতার। যেখানে তাঁর বিশেষ শক্তি প্রকাশ, সেখানেই অবতার! তাই তো আমার মত।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

ब्रह्म (नित्य) को जाने बिना, देह-मन (नाम-रूप,लीला) की धारणा नहीं हो सकती   

🔱🙏"एक बेल-फल के तीन भाग होते हैं बीज, खोपड़ा और गूदा"🔱🙏 

God has become all that you see. 

 The bel-fruit consists of three parts ~ seeds, shell, and flesh. 

যা কিছু দেখছো এ-সব তিনি হয়েছেন। 

“एक बात और है, जो कुछ देख रहे हो यह सब वे ही हुए हैं । - जैसे बेल के बीज, खोपड़ा, गूदा, तीनों को मिलाकर एक बेल है । जिनकी नित्यता है, उन्हीं की लीला भी है । नित्य (the Absolute, ब्रह्म) को छोड़कर केवल लीला (Relative aspect, दुनिया) समझ में नहीं आती। लीला के रहने के कारण ही, लीला को छोड़-छोड़कर लोग नित्य में जाया करते हैं ।

"There is another view, according to which God has become all that you see. It is like a bel-fruit, which consists of three parts: seeds, shell, and flesh. That which is the Absolute has also its relative aspect, and that which is the Relative has also its absolute aspect. You cannot set aside the Absolute and understand just the Relative. And it is only because there is the Relative that you can transcend it step by step and reach the Absolute.

“আর-এক আছে, যা কিছু দেখছো এ-সব তিনি হয়েছেন। যেমন বেল, — বিচি, খোলা, শাঁস — তিন জড়িয়ে এক। যাঁর নিত্য তাঁরই লীলা; যাঁর লীলা তাঁরই নিত্য। নিত্যকে ছেড়ে শুধু লীলা বুঝা যায় না। লীলা আছে বলেই ছাড়িয়া ছাড়িয়ে নিত্যে পৌঁছানো যায়।

 [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏लीला से नित्य में पहुँचते ही अहं बुद्धि नहीं रहती 🔱🙏 

"जब तक 'अहं बुद्धि' ('I-consciousness') रहती है तब तक लीला के परे मनुष्य नहीं जा सकता । ‘नेति नेति’ करके ध्यान-योग द्वारा नित्य में लोग पहुँच सकते हैं, परन्तु कुछ भी छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि यह सब वे ही हुए हैं - जैसा मैंने कहा – बेल ।”

"So long as 'I-consciousness' exists, a man cannot go beyond the Relative. Through meditation he can negate the phenomena, following the process of 'Neti, neti', and reach the Absolute; but nothing can really be denied, as in the instance of the bel-fruit."

“অহং বুদ্ধি যতক্ষণ থাকে, ততক্ষণ লীলা ছাড়িয়ে যাবার জো নাই। নেতি নেতি করে ধ্যানযোগের ভিতর দিয়ে নিত্যে পৌঁছানো যেতে পারে। কিন্তু কিছু ছাড়বার জো নাই। যেমন বললাম, — বেল।”

डाक्टर - बहुत ठीक है ।

DOCTOR: "Quite true."

ডাক্তার — ঠিক কথা।

श्रीरामकृष्ण - कचदेव #  निर्विकल्प समाधि में थे । जब समाधि छूटी तब एक ने पूछा, ‘आप इस समय क्या देखते हैं ?’ कचदेव ने कहा, ‘मैं देख रहा हूँ, संसार मानो उनसे मिला हुआ है । वे ही पूर्ण हैं । जो कुछ देख रहा हूँ, सब वे ही हुए हैं । इसमें से क्या छोडूँ और क्या पकडूँ, कुछ समझ में नहीं आता ।’

[कच # पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार देवताओं के गुरु बृहस्पति के पुत्र थे। इन्होंने दैत्य गुरु शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या प्राप्त की थी।]  

MASTER: "Kacha had been immersed in nirvikalpa samadhi. When his mind was coming down to the relative plane, someone asked him, 'What do you see now?' Kacha replied: 'I see that the universe is soaked, as it were, in God. Everything is filled with God. It is God alone who has become all that I see. I do not know what to accept and what to reject.'

শ্রীরামকৃষ্ণ — কচ নির্বিকল্পসমাধিতে রয়েছেন। যখন সমাধিভঙ্গ হচ্ছে একজন জিজ্ঞাসা করলে, তুমি এখন কি দেখছো? কচ বললেন, দেখছি যে জগৎ যেত তাঁতে জরে রয়েছে! তিনিই পরিপূর্ণ! যা কিছু দেখছি সব তিনিই হয়েছেন। এর ভিতর কোন্‌টা ফেলব, কোন্‌টা লব, ঠিক করতে পাচ্ছি না।

  [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏नित्य का दर्शन करने के बाद, हनुमान की तरह दास भाव में रहना चाहिये 🔱🙏

अब सेक्यूलर और सेक्रेड में कोई भेद नहीं रहेगा !! 

Now there will be no difference between secular and sacred.

“बात यह है कि नित्य (निराकार-सच्चिदानन्द) और लीला (साकार-श्रीरामकृष्ण) का दर्शन करके दास-भाव में रहना चाहिए । हनुमान ने साकार और निराकार दोनों का साक्षात्कार किया था । इसके बाद, दास-भाव से - भक्त के भाव से रहे थे।”

"In my opinion one should realize both the Nitya and the Lila and then live in the world as the servant of God. Hanuman saw both the Personal God and the formless Reality. He then lived as a devotee of God, as His servant."

“কি জানো — নিত্য আর লীলা দর্শন করে, দাসভাবে থাকা। হনুমান সাকার-নিরাকার সাক্ষাৎকার করেছিলেন। তারপরে, দাসভাবে — ভক্তের ভাবে — ছিলেন।”

मणि (स्वगत) - नित्य (ब्रह्म-the Absolute) और लीला (जगत- the Relative manifestation), दोनों को लेना होगा । जर्मनी में वेदान्त के प्रवेश के समय से यूरोपीय पण्डितों में भी किसी किसी का मत ऐसा ही है; परन्तु श्रीरामकृष्ण ने तो कहा है कि सम्पूर्ण रूप से त्याग – कामिनी-कांचन का त्याग - हुए बिना नित्य और लीला का साक्षात्कार नहीं होता । सच्चे साधक को ठीक ठीक त्यागी, सम्पूर्ण अनासक्त होना चाहिए । यहीं पर उनमें तथा हेगल जैसे यूरोपीय पण्डितों में भेद है ।

M. (to himself): "So we must accept both — the Absolute and the Relative. Since the introduction of the Vedanta philosophy in Germany, some of the European philosophers, too, have been thinking along that line. But the Master says that one cannot realize both the Nitya and the Lila without complete renunciation, that is to say, without totally giving up 'woman and gold'. Such a person must be a true renouncer; he must be totally detached from the world. Here lies the real difference between him and such European philosophers as Hegel."

মণি (স্বগতঃ) — নিত্য, লীলা দুই নিতে হবে। জার্মানিতে বেদান্ত যাওয়া অবধি ইউরোপীয় পণ্ডিতদের কাহারও কাহারও এই মত। কিন্তু ঠাকুর বলেছেন, সব ত্যাগ — কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ — না হলে নিত্য-লীলার সাক্ষাৎকার হয় না। ঠিক ঠিক ত্যাগী। সম্পূর্ণ অনাসক্তি। এইটুকু হেগেল প্রভৃতি পণ্ডিতদের সঙ্গে বিশেষ তফাত দেখছি।

(४)

  [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

*श्रीरामकृष्ण तथा ज्ञानयोग*

डाक्टर कह रहे है, ‘ईश्वर ने हमारी सृष्टि की है, और हम सब लोगों की आत्माएँ अनन्त उन्नति करेंगी ।’ वे यह मानने के लिए राजी नहीं कि एक आदमी किसी दूसरे आदमी से बड़ा है । इसीलिए वे अवतार नहीं मानते ।

In Dr. Sarkar's opinion. God created men and ordained that every soul should make infinite progress. He would not believe that one man was greater than another. That was why he did not believe in the doctrine of Divine Incarnation.

डाक्टर - अनन्त उन्नति । यह अगर न हो तो पाँच-सात वर्ष और बचकर क्या होगा ? इससे तो मैं गले में रस्सी की फाँसी लगाकर मर जाना बेहतर समझता हूँ !

DOCTOR: "I believe in infinite progress. If that is not so, then what is the use of leading a mere five or six years' existence in the world? I would rather hang myself with a rope around my neck.

ডাক্তার — ‘Infinite Progress’ তা যদি না হল তাহলে পাঁচ বছর সাত বছর আর বেঁচেই বা কি হবে! গলায় দড়ি দেব!

  [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏अवतार को पहचान लेना कठिन है अवतार में ईश्वर की ज्योति प्रतिबिम्बित होती है🔱🙏 

“अवतार फिर है क्या ? जो मनुष्य शौच जाता है - पेशाब करता है, उसके पैरों सिर झुकाऊँ ! हाँ, परन्तु यह मानता हूँ कि मनुष्य में ईश्वर की ज्योति प्रतिबिम्बित होती है ।”

"Incarnation! What is that? To cower before a man who excretes filth! It is absurd. But if you speak of a man as the reflection of God's Light — yes, that I admit."'

“অবতার আবার কি! যে মানুষ হাগে মোতে তার পদানত হব! হাঁ, তবে Reflection of God's light (ঈশ্বরের জ্যোতি) মানুষে প্রকাশ হয়ে থাকে তা মানি।”

गिरीश (हँसकर) - आपने ईश्वरी ज्योति कभी देखी नहीं –

GIRISH (smiling): "But you have not seen God's Light."

গিরিশ (সহাস্যে) — আপনি God's Light দেখেন নি —

डाक्टर उत्तर देने से पहले कुछ इधर-उधर करने लगे । पास ही एक मित्र बैठे हुए थे - धीरे धीरे उन्होंने कुछ कहा ।

Dr. Sarkar was hesitating before giving a reply. A friend who sat near him whispered something into his ear.

ডাক্তার উত্তর দিবার পূর্বে একটু ইতস্ততঃ করিতেছেন। কাছে একজন বন্ধু বসিয়াছেলেন — আস্তে আস্তে কি বলিলেন।

डाक्टर (गिरीश के प्रति) - आपने भी तो प्रतिबिम्ब के सिवा और कुछ नहीं देखा ।

DOCTOR (to Girish): "You too have not seen anything but a reflection."

ডাক্তার — আপনিও তো প্রত্বিম্ব বই কিছু দেখেন নাই।

गिरीश - मैं देखता हूँ ! वह ज्योति में देखता हूँ ! श्रीकृष्ण अवतार हैं, यह मैं प्रमाणित कर दूँगा, नहीं तो अपनी जीभ काटकर फेंक दूँगा !

GIRISH: "I see It! I see the Light! I shall prove that Sri Krishna is an Incarnation of God or I shall cut out my tongue!"

গিরিশ — I see it, I see the Light! শ্রীকৃষ্ণ যে অবতার Prove (প্রমাণ) করব — তা নাহলে জিব কেটে ফেলব।

  [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🙏नित्य का दर्शन और भ्रममुक्त अवस्था को प्राप्त किये बिना अवतार को कैसे पहचाने?🙏

[भ्रान्त, चैतन्यरहित (delirious) रोगी का प्रलाप 

- पूर्ण ज्ञान में जगत ब्रह्ममय और सेक्यूलर -सैक्रेड निर्णय समाप्त। ]

[Judgment of the wicked patient — judgment ceases in full knowledge]

[বিকারী রোগীরই বিচার — পূর্ণজ্ঞানে বিচার বন্ধ হয় ] 

श्रीरामकृष्ण - यह सब जो बातचीत हो रही है, कुछ भी नहीं है । यह सब सन्नीपात-ग्रस्त रोगी की बकवाद है । 

MASTER: "All this is useless talk. It is like the ravings of a delirious patient.

শ্রীরামকৃষ্ণ — এ-সব যা কথা হচ্ছে, এ কিছুই নয়। “এ-সব বিকারের রোগীর খেয়াল।

“विकार के रोगी ने कहा था, ‘मैं घड़ा भर पानी पिऊँगा, हण्डी भर भात खाऊँगा ।’ वैद्य ने कहा, ‘अच्छा, खाना तब खाना । अच्छे हो जाने के बाद जो कुछ तू कहेगा, वैसा ही किया जायगा ।’

"A delirious patient says, 'I shall drink a whole tank of water; I shall eat a whole pot of rice.' The physician says: 'Yes, yes. You will have all these. We shall give you whatever you want when you are convalescent.'

বিকারের রোগী বলেছিল, — এক জালা জল খাব। এক হাঁড়ি ভাত খাব! বদ্যি বললে, আচ্ছা আচ্ছা খাবি। পথ্য পেয়ে যা বলবি তখন করা যাবে।

“जब घी कच्चा रहता है, तभी तक उसमें कलकलाहट होती है । पक जाने पर फिर आवाज नहीं निकलती । जिसका जैसा मन है, वह ईश्वर को उसी तरह देखता है । मैंने देखा है, बड़े आदमी के घर में रानी की तस्बीर आदि - यह सब है और भक्तों के यहाँ देव-देवियों की तस्वीरें हैं ।

"When butter is heated it sizzles and crackles. But all sound comes to a stop when it is thoroughly boiled. As a man's mind is, so is his conception of God. I have seen in rich men's houses portraits of the Queen (Queen Victoria.) and other aristocrats. But the devotees keep in their houses pictures of gods and goddesses.

“যতক্ষণ কাঁচা ঘি, ততক্ষণই কলকলানি শোনা যায়। পাকা হলে আর শব্দ থাকে না। যার যেমন মন, ঈশ্বরকে সেইরূপ দেখে। আমি দেখেছি, বড় মানুষের বাড়ির ছবি — কুইন-এর ছবি আছে। আবার ভক্তের বাড়ি — ঠাকুরদের ছবি!

“लक्ष्मण ने कहा था, ‘हे राम, वशिष्ठदेव जैसे पुरुष को भी पुत्रों का शोक हो रहा है ।’ राम ने कहा, ‘भाई, जिसमें ज्ञान है उसमें अज्ञान भी है । जिसे उजाले का ज्ञान है, उसे अँधेरे का भी ज्ञान है । इसलिए ज्ञान और अज्ञान से परे हो जाओ ।’ ईश्वर को विशेष रूप से जान लेने पर यह अवस्था प्राप्त हो जाती है । इसे ही विज्ञान कहते हैं

"Lakshmana said, 'O Rama, even a sage like Vasishthadeva was overcome with grief on account of the death of his sons!' 'Brother,' replied Rama, 'whoever has knowledge has ignorance also. Whoever is conscious of light is also conscious of darkness. Therefore go beyond knowledge and ignorance.' One attains that state through an intimate knowledge of God. This knowledge is called vijnana.

“লক্ষণ বলেছিলেন, রাম, যিনি স্বয়ং বশিষ্ঠদেব, তাঁর আবার পুত্রশোক! রাম বললেন, ভাই যার জ্ঞান আছে তার অজ্ঞানও আছে। যার আলোবোধ আছে, তার অন্ধকারবোধও আছে। তাই জ্ঞান-অজ্ঞানের পার হও। ঈশ্বরকে বিশেষরূপে জানলে সেই অবস্থা হয়। এরই নাম বিজ্ঞান।

“पैर में काँटा चुभ जाने से, उसे निकालने के लिए एक और काँटा ले आना पड़ता है । निकालने के बाद फिर दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं । ज्ञानरूपी काँटे से अज्ञानरूपी काँटा निकालकर, ज्ञान और अज्ञानरूपी दोनों काँटे फेंक दिये जाते हैं ।

"When a thorn enters the sole of your foot you have to get another thorn. You then remove the first thorn with the help of the second. Afterward, you throw away both. Likewise, after removing the thorn of ignorance with the help of the thorn of knowledge, you should throw away the thorns of both knowledge and ignorance.

“পায়ে কাঁটা ফুটলে আর-একটি কাঁটা যোগাড় করে আনতে হয়। এতে সেই কাঁটাটি তুলতে হয়। তোলার পর দুটি কাঁটাই ফেলে দেয়। জ্ঞান দিয়ে অজ্ঞান কাঁটা তুলে, জ্ঞান অজ্ঞান দুই কাঁটাই ফেলে দিতে হয়।

“पूर्ण ज्ञान के कुछ लक्षण हैं । उस समय विचार बन्द हो जाता है । पहले जैसा कहा, कच्चा रहने से ही घी में कलकलाहट रहती है ।”

"There are signs of Perfect Knowledge. One is that reasoning comes to an end. As I have just said, the butter sizzles and crackles as long as it is not thoroughly boiled."

“পূর্ণজ্ঞানের লক্ষণ আছে। বিচার বন্ধ হয়ে যায়। যা বললুম, কাঁচা থাকলেই ঘিয়ের কলকলানি।”

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

 🔱🙏स्वतंत्र इच्छा और प्रारब्ध का सामंजस्य 🔱🙏

[Reconciliation of Free Will and Predestination]

🔱🙏प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है तो आप परमहंसगिरि क्यों करते हैं ?🔱🙏

डाक्टर - पूर्ण ज्ञान रहता कहाँ है ? सब ईश्वर है, तो फिर आप परमहंसगिरी क्यों करते हैं ? और ये लोग आकर आपकी सेवा क्यों करते हैं ? आप चुप क्यों नहीं रहते ?

DOCTOR: "But can one retain Perfect Knowledge permanently? You say that all is God. Then why have you taken up this profession of a paramahamsa? And why do these people attend on you? Why don't you keep silent?'

ডাক্তার — পূর্ণজ্ঞান থাকে কি? সব ঈশ্বর! তবে তুমি পরমহংসগিরি করছো কেন? আর এরাই বা এসে তোমার সেবা করছে কেন? চুপ করে থাক না কেন?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - पानी स्थिर रहने पर भी पानी है, और तरंग-रूप से हिलने-डुलने पर भी वह पानी ही है ।

MASTER (smiling): "Water is water whether it is still or moves or breaks into waves.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — জল স্থির থাকলেও জল, হেললে দুললেও জল, তরঙ্গ হলেও জল।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏ईश्वर या विवेक की आवाज - हाथी नारायण है, तो महावत भी नारायण है🔱🙏

मैं घर है, वे मालिक हैं !  

[Voice of God or Conscience — মাহুত নারায়ণ ]

“एक बात और । महावत-नारायण की बात भी क्यों न मानी जाय ? गुरु ने शिष्य को समझाया था कि सब नारायण हैं । पागल हाथी आ रहा था, शिष्य गुरु की बात पर विश्वास करके वहाँ से नहीं हटा । यही सोचकर कि हाथी भी नारायण है !

महावत इधर चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था, ‘सब लोग हट जाओ - रास्ते से सब हट जाओ ।’ पर शिष्य नहीं हटा । हाथी आया और उसे एक ओर फेंककर चला गया । शिष्य को बड़ी चोट लगी, केवल जान ही नहीं निकली । मुँह पर पानी के छींटे लगाने से उसे चेत हुआ ।

"I must tell you something else. Why should I not listen to the 'Mahut Narayana'? The guru had taught his disciple that everything was Narayana. A mad elephant was coming toward the disciple, but he did not move away since he believed the guru's words. He thought that the elephant was Narayana. The mahout shouted to him: 'Get away! Get away!' But the disciple did not move. The elephant picked him up and threw him to the ground. The disciple was not quite dead; when his face was sprinkled with water he regained consciousness.

“আর একটি কথা। মাহুত নারায়ণের কথাই বা শুনি কেন? গুরু শিষ্যকে বলে দিছলেন সব নারায়ণ। পাগলা হাতি আসছিল। শিষ্য গুরুবাক্য বিশ্বাস করে সেখান থেকে সরে নাই। হাতিও নারায়ণ। মাহুত কিন্তু চেঁচিয়ে বলছিল, সব সরে যাও, সব সরে যাও; শিষ্যটি সরে নাই। হাতি তাকে আছাড় দিয়ে চলে গেল। প্রাণ যায় নাই। মুখে জল দিতে দিতে জ্ঞান হয়েছিল।

जब उससे पूछा गया कि तुम हटे क्यों नहीं, तब उसने कहा, ‘क्यों, गुरु महाराज ने तो कहा था सब नारायण हैं ।’ गुरु ने कहा, ‘बेटा, अगर ऐसा ही था तो तुमने महावत नारायण की बात क्यों नहीं मानी ? महावत भी तो नारायण हुआ ।’ वे ही शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि होकर भीतर वास करते हैं । मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं । मैं घर है, वे मालिक वे ही महावतनारायण हैं ।”

 Being asked why he had not moved away, he said 'Why should I? The guru said, "Everything is Narayana."' 'But, my child,' said the guru, 'why didn't you listen to the words of the mahut Narayana?' "It is God who dwells within as the Pure Mind and Pure Intelligence. I am the machine and He is its Operator. I am the house and He is the Indweller. It is God who is the mahut Narayana."

 যখন জিজ্ঞাসা করলে কেন তুমি সরে যাও নাই, সে বললে, ‘কেন, গুরুদেব যে বলেছেন — সব নারায়ণ!’ গুরু বললেন, বাবা, মাহুত নারায়ণের কথা তবে শুন নাই কেন? তিনিই শুদ্ধমন শুদ্ধবুদ্ধি হয়ে ভিতরে আছেন। আমি যন্ত্র, তিনি যন্ত্রী। আমি ঘর, তিনি ঘরণী। তিনিই মাহুত নারায়ণ।”

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏यदि सब नारायण हैं तो डॉक्टर की क्या आवश्यकता है ?🔱🙏 

🙏आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं🙏   

[‘मैं’ रूपी कुम्भ में जल (ब्रह्म-चैतन्य) है, और बाहर भी जल (ब्रह्म) है- 

 परन्तु 'अहं' रूपी कुम्भ को फोड़े बिना एकाकार नहीं होता। 

माँ सारदा देवी ने ही मेरे इस 'अहं' रूपी कुम्भ से ब्रह्मज्ञान को ढँक रखा है ? ]  

डाक्टर - और एक बात कहूँगा, आप फिर मुझसे ऐसा क्यों कहते हैं- कि रोग अच्छा कर दो ?

DOCTOR: "Let me ask you something. Why do you ask me to cure your illness?"

ডাক্তার আর একটা বলি; তবে কেন বল, এটা সারিয়ে দাও?

श्रीरामकृष्ण - जब तक ‘मैं’ रूपी घट है, तभी तक ऐसा हो रहा है । सोचो, एक महासमुद्र है, ऊपर-नीचे जल से पूर्ण है । उसके भीतर एक घट है । घर के भीतर बाहर पानी है; परन्तु उसे बिना फोड़े यथार्थ में एकाकार नहीं होता । उन्हीं ने इस ‘मैं’ – घट को रख छोड़ा है

MASTER: "I talk that way as long as I am conscious of the 'jar' of the 'ego'. Think of a vast ocean filled with water on all sides. A jar is immersed in it. There is water both inside and outside the jar; but the water does not become one unless the jar is broken. It is God who has kept this 'jar' of the 'ego' in me."

শ্রীরামকৃষ্ণ — যতক্ষণ আমি ঘট রয়েছে, ততক্ষণ এইরূপ হচ্ছে। মনে করো মহাসমুদ্র — অধঃ উর্ধ্ব পরিপূর্ণ। তার ভিতর একটি ঘট রয়েছে। ঘটের অন্তরে-বাহিরে জল। কিন্তু না ভাক্ষলে ঠিক একাকার হচ্ছে না। তিনিই এই আমি-ঘট রেখে দিয়েছেন।

[>>>>@@@भक्ति : ब्रह्म आत्मा में और आत्मा ब्रह्म में विराजमान है -ज्ञानी इसे जानते हैं; कि आत्मा को जाना नहीं जा सकता , किन्तु ब्रह्म को जानकर - ब्रह्म हुआ जा सकता है !  

जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।

फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ्य कथ्यो ज्ञानी।।

अर्थ: जल - पानी।कुंभ - घड़ा।समाना - समाहित होना। तथ्य - गूढ़ बात। कथ्यो - कहते हैं।ज्ञानी - विद्वान।

जब पानी भरने जाएं तो घड़ा  जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है।  इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है।  जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा (ब्रह्म) में और परमात्मा (ब्रह्म) आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता हैजब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है. एकाकार हो जाती है। 

जिस प्रकार सागर में मिट्टी का घड़ा डुबोने पर उसके अन्दर - बाहर पानी ही पानी होता है , मगर फिर भी उस घट ( कुम्भ ) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है।  इस पृथकता का कारण उस घट का रूप तथा आकार (नाम-रूप) होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है , पानी पानी में मिल जाता है , सभी अंतर लुप्त हो जाते हैं। 

मित्रों ! इस प्रकार  शरीर और आत्मा के साथ भी यही होता है। जब तक शरीर और 'मैं' - या  "अहं " रूपी घट में आत्मा कैद है, तब तक वह विभिन्न नामों से (M/F नाम से ) जाना पहचाना जाता है । लेकिन जैसे ही आत्मा इस शरीर रूपी घट से निकल जाता है, वह परमात्मा में विलीन हो जाता है। फिर उसकी अलग पहचान नहीं रह जाती। आत्मा परमात्मा में पूर्णतया विलीन हो जाता है।

ठीक उसी प्रकार यह विश्व ( ब्रह्माण्ड ) सागर समान है, चहुँ ओर चेतनता रूपी जल ही जल है, तथा हम जीव भी छोटे - छोटे मिट्टी के घड़ों समान हैं ( कुम्भ हैं ), जो पानी से भरे हैं , अर्थात चेतना - युक्त हैं।  तथा हमारे शरीर रूपी कुम्भ को विश्व रूपी सागर से अलग करने वाले कारण हमारे रूप - रंग - आकार - प्रकार ही हैं।  इस शरीर रूपी घड़े के फूटते ही अन्दर - बाहर का अंतर मिट जाएगा, पानी पानी में मिल जाएगा, जड़ता के मिटते ही चेतनता चारों ओर निर्बाध व्याप्त हो होगी, सारी विभिन्नताओं को पीछे छोड़ आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगी।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏मैं कौन हूँ ?🔱🙏

[Who am I? ]

[আমি কে? ]

डाक्टर - तो यह ‘मैं’ जो आप कह रहे हैं, यह सब क्या है ? इसका भी तो अर्थ कहना होगा । क्या वे (ईश्वर) हमारे साथ कोई मजाक कर रहे हैं ?

DOCTOR: "What is the meaning of 'ego' and all that you are talking about? You must explain it to me. Do you mean to say that God is playing tricks on us?"

ডাক্তার — তবে এই ‘আমি’ যা বলছ, এগুলো কি? এর তো মানে বলতে হবে। তিনি কি আমাদের সঙ্গে চালাকি খেলছেন?

गिरीश - (डाक्टर से) - महाशय, आपको कैसे मालूम हुआ कि वह मजाक नहीं है ?

GIRISH: "Sir, how do you know that He is not playing tricks?"

গিরিশ — মহাশয়, কেমন করে জানলেন, চালাকি নয়?

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

राजकुमार (सिंह-शावक, राजा के लड़के) होकर कोतवाल का खेल !

🙏जीव का 'व्यष्टि अहं ' माँ जगदम्बा के मातृहृदय के 'सर्वव्यापी विराट अहं' की लीला है🙏  

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - इस ‘मैं’ को उन्हीं ने रख छोड़ा है । उनकी क्रीड़ा – उनकी लीला !“एक राजा के चार लड़के थे । सब थे तो राजा के लड़के, परन्तु उन्हीं में कोई मन्त्री, कोई कोतवाल, इसी तरह बन-बनकर खेल रहे थे । राजकुमार (सिंह-शावक, राजा के लड़के) होकर कोतवाल का खेल !

MASTER (smiling): "It is God who has kept this 'ego' in us. All this is His play, His Lila. A king has four sons. They are all princes; but when they play, one becomes a minister, another a police officer, and so on. Though a prince, he plays as a police officer.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — এই ‘আমি’ তিনিই রেখে দিয়েছেন। তাঁর খেলা — তাঁর লীলা! এক রাজার চার বেটা। রাজার ছেলে। — কিন্তু খেলা করছে — কেউ মন্ত্রী, কেউ কোটাল হয়েছে, এই সব। রাজার বেটা হয়ে কোটাল কোটাল খেলছে!

(डाक्टर से) “सुनो, यदि तुम्हें आत्म-साक्षात्कार हो जाय तो यह सब तुम मानने लग जाओगे । उनके दर्शन से सब संशय दूर हो जाते हैं ।

(To the doctor) "Listen. If you realize Atman you will see the truth of all I have said. All doubts disappear after the vision of God."

(ডাক্তারের প্রতি) — “শোন! তোমার যদি আত্মার সাক্ষাৎকার হয়, তবে এই সব মানতে হবে। তাঁর দর্শন হলে সব সংশয় যায়।”

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏पुत्रत्व की शक्ति और पिता - ज्ञानयोग और श्री रामकृष्ण🔱🙏

[Sonship and the Father ]

— জ্ঞানযোগ ও শ্রীরামকৃষ্ণ ]

[The power of sonship releases confidence and purpose into your life. Operating out of the power of sonship means that you receive the love of the Father and step into your identity as a child and heir.  John 4:7 says that God is love. Therefore let us love one another. The power of sonship is to know you are loved and to love others. The love of God runs through you like a river, giving life to all those who come to you. This is the power of receiving the love of the Father—to give life, to speak life, and to have life everlasting.पुत्रत्व की शक्ति आपके जीवन में आत्मविश्वास और जीवन का उद्देश्य उत्पन्न करती है। पिता और पुत्र के बीच अनन्त पुत्रत्व सृष्टि से पहले अस्तित्व में था। “ मैं पिता से निकलकर जगत में आया हूं, फिर जगत को छोड़कर पिता के पास जाता हूं” (यूहन्ना/John16:28)]

डाक्टर - सब सन्देह कहाँ जाता है ?

DOCTOR: "But is it ever possible to get rid of all doubts?"

ডাক্তার — সব সন্দেহ যায় কই?

श्रीरामकृष्ण- मेरे पास इतना ही सुन जाओ । इससे अधिक कुछ जानना चाहो तो अकेले में उनसे (ईश्वर से) कहना । उनसे पूछना, क्यों उन्होंने ऐसा किया है ।

MASTER: "Learn from me as much as I have told you. But if you want to know more, you must pray to God in solitude. Ask Him why He has so ordained.

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমার কাছে এই পর্যন্ত শুনে যাও। তারপর বেশি কিছু শুনতে চাও, তাঁর কাছে একলা একলা বলবে। তাঁকে জিজ্ঞাসা করবে, কেন তিনি এমন করেছেন।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏कैंप कमांडर और कमांडर-इन-चीफ के बीच अंतर🔱🙏

[Difference between Camp Commander and Commander-in-Chief] 

“लड़का भिक्षुक को मुट्ठी भर चावल ही दे सकता है । अगर रेल के किराये की उसे आवश्यकता होती है, तो यह बात मालिक के कान तक पहुँचायी जाती है ।” डाक्टर चुप हैं ।

"The son of the house can give a beggar only a small measure of rice. But if the beggar asks for his train fare, then the master of the house must be called." The doctor remained silent.

“ছেলে ভিখারীকে এক কুনকে চাল দিতে পারে। রেলভাড়া যদি দিতে হয় তো কর্তাকে জানাতে হয়। [ডাক্তার চুপ করিয়া আছেন।]

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏अर्जुन ने देखा जामुन के पेड़ पर गुच्छों में कृष्ण जैसे मार्गदर्शक नेता फले थे🔱🙏  

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, तुम्हें विचार प्यारा है, तो सुनो कुछ विचार करता हूँ । ज्ञानी के मत से अवतार नहीं है । कृष्ण ने अर्जुन से कहा था, ‘तुम मुझे अवतार-अवतार कह रहे हो, आओ, तुम्हें एक दृश्य दिखलाऊँ ।’ अर्जुन साथ-साथ गये । कुछ दूर जाने पर कृष्ण ने पूछा, ‘क्या देखते हो ?’

अर्जुन ने कहा, ‘एक बहुत बड़ा पेड़ है और उसमें गुच्छे के गुच्छे जामुन लटक रहे हैं ।’ कृष्ण ने कहा, ‘वे जामुन नहीं हैं । जरा और बढ़कर देखो ।’ तब अर्जुन ने देखा, गुच्छों में कृष्ण फले हुए थे। कृष्ण ने कहा, ‘अब देखा ? - मेरी तरह कितने कृष्ण फले हुए हैं !

MASTER: "Well, you love reasoning. All right. Let us reason a little. Listen. According to the jnani there is no Incarnation of God. Krishna said to Arjuna: 'You speak of Me as an Incarnation of God. Let Me show you something. Come with Me.' Arjuna had followed Sri Krishna a short distance, when Sri Krishna asked him, 'What do you see there?' Arjuna replied, 'A big tree with black berries hanging in bunches.' Krishna said, 'Those are not blackberries. Go nearer and look at them.' Arjuna went nearer and saw that they were Krishnas hanging in bunches. 'Do you see now', said Krishna, 'how many Krishnas like Me have grown there?'

“আচ্ছা, তুমি বিচার ভালবাস। কিছু বিচার করি, শোন। জ্ঞানীর মতে অবতার নাই। কৃষ্ণ অর্জুনকে বলেছিলেন, — তুমি আমাকে অবতার অবতার বলছ, তোমাকে একটা জিনিস দেখাই — দেখবে এস। অর্জুন সঙ্গে সঙ্গে গেলেন। খানিক দূরে গিয়ে অর্জুনকে বললেন, ‘কি দেখতে পাচ্ছ?’ অর্জুন বললেন, ‘একটি বৃহৎ গাছ, কালো জাম থোলো থোলো হয়ে আছে।” শ্রীকৃষ্ণ বললেন, ‘ও কালো জাম নয়। আর একটু এগিয়ে দেখ।’ তখন অর্জুন দেখলেন, থোলো থোলো কৃষ্ণ ফলে আছে। কৃষ্ণ বললেন, ‘এখন দেখলে? আমার মতো কত কৃষ্ণ ফলে রয়েছে!’

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏भगवान की ओर जितना आगे बढ़ेगा, भक्त को उपाधि उतनी ही कम दिखेगी🔱🙏 

"कबीरदास ने कृष्ण की बात पर कहा था, ‘वह तो गोपियों की तालियों पर बन्दर-नाच नाचा था !’

"Kabir Das said on Krishna, 'He danced like a monkey to the clapping of the gopis!'

“কবীর দাস শ্রীকৃষ্ণের কথায় বলেছিল, তুমি গোপীদের হাততালিতে বানর নাচ নেচেছিলে!

"जितना ही बढ़ जाओगे, ईश्वर की उपाधि उतनी ही कम देखोगे । भक्त को पहले दशभुजा के दर्शन हुए । और भी बढ़कर उसने देखा, षड़भुजा देवी मूर्ति । और भी बढ़कर देखा, द्विभुज  गोपाल । जितना ही बढ़ रहा है, उतना ही ऐश्वर्य घट रहा है । और भी बढ़ा तब ज्योति (सच्चिदानन्द-शाश्वत चैतन्य स्पन्दन) के दर्शन हुए - कोई उपाधि नहीं ।

"As you go nearer to God you see less and less of His upadhis, His attributes. A devotee at first may see the Deity as the ten-armed Divine Mother; when he goes nearer he sees Her possessed of six arms; still nearer, he sees the Deity as the two-armed Gopala. The nearer he comes to the Deity, the fewer attributes he sees. At last, when he comes into the presence of the Deity, he sees only Light (without any attributes.

“যত এগিয়ে যাবে ততই ভগবানের উপাধি কম দেখতে পাবে। ভক্ত প্রথমে দর্শন করলে দশভূজা। আরও এগিয়ে দেখলে ষড়ভুজ। আরও এগিয়ে গিয়ে দেকছ দ্বিভুজ গোপাল! যত এগুচ্ছে ততই ঐশ্বর্য কমে যাচ্ছে। আরও এগিয়ে গেল, তখন জ্যোতিঃদর্শন কল্লে — কোনও উপাধি নাই।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏शाश्वत-नश्वर विवेक : सत-असत-मिथ्या विवेक: ब्रह्म-जगत विवेक 🔱🙏    

“जरा वेदान्त का भी विचार सुनो । किसी राजा को एक आदमी इन्द्रजाल दिखाने के लिए आया था। उसके जरा हट जाने पर राजा ने देखा, एक सवार आ रहा है – घोड़े पर बड़े रोब-दाब से, हाथ में अस्त्र-शस्त्र लिये हुए । सभा भर के आदमी और राजा विचार करने लगे कि इसके भीतर क्या सत्य है । वह घोड़ा? तो सत्य नहीं है, वह साज-बाज ? सत्य नहीं है, वे अस्त्र-शस्त्र ? भी सत्य नहीं हैं । अन्त में सचमुच देखा, सवार ही अकेला खड़ा था और कुछ नहीं । अर्थात् ब्रह्म सत्य है, संसार मिथ्या । विचार करना चाहो तो फिर और कोई चीज नहीं टिकती ।”

"Listen a little to the Vedantic reasoning. A magician came to a king to show his magic. When the magician moved away a little, the king saw a rider on horseback approaching him. He was brilliantly arrayed and had various weapons in his hands. The king and the audience began to question what was real in the phenomenon before them. Evidently, the horse was not real, the robes, or the armor. At last they found out beyond the shadow of a doubt that the rider alone was there. This is significant because Brahman alone is real and the world unreal. Nothing whatsoever remains if you analyze."

“একটু বেদান্তের বিচার শোন। এক রাজার সামনে একজন ভেলকি দেখাতে এসেছিল। একটু সরে যাওয়ার পর রাজা দেখলে, একজন সওয়ার আসছে। ঘোড়ার উপর চড়ে, খুব সাজগোজ — হাতে অস্ত্রশস্ত্র। সভাশুদ্ধ লোক আর রাজা বিচার কচ্ছে, এর ভিতর সত্য কি? ঘোড়া তো সত্য নয়, সাজগোজ, অস্ত্রশস্ত্রও সত্য নয়। শেষে সত্য সত্য দেখলে যে সোয়ার একলা দাঁড়িয়ে রয়েছে! কিনা, ব্রহ্ম সত্য, জগৎ মিথ্যা — বিচার করতে গেলে কিছুই টেকে না।”

डाक्टर - इसमें मेरी ओर से कोई आपत्ति नहीं ।

DOCTOR: "I don't object to this."

ডাক্তার — এতে আমার আপত্তি নাই।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏ब्रह्म और जगत : जगत और बिजूका 🔱🙏

(काक-भगौड़ा, पक्षियों को डरानेवाला पुतला)

[The World and the Scarecrow ]

সংসার ও কাকতাড়ুয়া

श्रीरामकृष्ण परन्तु यह भ्रम सहज ही दूर नहीं होता । ज्ञान के बाद भी कुछ कुछ रहता है । स्वप्न में अगर कोई बाघ देखता है तो आँख खुलने के बाद भी छाती धड़कती रहती है ।

MASTER: "But it is not easy to get rid of the illusion. It lingers even after the attainment of Knowledge. A man dreamt of a tiger. Then he woke up and his dream vanished. But his heart continued to palpitate.

শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে এ-ভ্রম সহজে যায় না। জ্ঞানের পরও থাকে। স্বপনে বাঘকে দেখেছে, স্বপন ভেঙে গেল, তবু বুক দুড়দুড় করছে!

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏नेता कहेगा "डरने की कोई बात नहीं : नेति नेति ! ब्रह्म ही जगत बन गया है!" 🔱🙏

[जगत और बिजूका :घुसपैठियों को डराने के लिए आदमी की आकृति का पुतला]

“चोर खेत में चोरी करने के लिए गये हुए थे । वहाँ आदमी के आकार का पुतला बनाकर खड़ा कर दिया गया था, डरवाने के लिए । चोर मारे डर के घुस नहीं रहे थे । एक ने पास जाकर देखा तो केवल घास ! - आदमी के शक्ल की बाँधकर खड़ी कर दी गयी थी ।

"Some thieves came to a field. A straw figure resembling a man had been put there to frighten intruders. The thieves were scared by the figure and could not persuade themselves to enter the field. One of them, however, approached and found that it was only a figure made of straw. 

“ক্ষেতে চুরি করতে চোর এসেছে। খড়ের ছবি মানুষের আকার করে রেখে দিয়েছে — ভয় দেখাবার জন্য। চোরেরা কোনও মতে ঢুকতে পারছে না। একজন কাছে গিয়ে দেখলে — খড়ের ছবি। 

उसने वहाँ से आकर अपने साथियों से कहा कि डरने की कोई बात नहीं । किन्तु फिर भी वे लोग मारे डर के कदम आगे नहीं बढ़ा रहे थे । कहते थे, ‘छाती धड़कती है ।’ तब जिसने पास जाकर देखा था, उसने उस गड़े हुए आकार (बिजूका) को जमीन में सुला दिया और - कहने लगा, ‘यह कुछ नहीं है, यह कुछ नहीं हैं’ – ‘नेति’ ‘नेति’ ।”

He came back to his companions and said, 'There is nothing to be afraid of.' But still, they refused to go; they said that their hearts were beating fast. Then the daring thief laid the figure on the ground and said, 'It is nothing, it is nothing.' This is the process of 'Neti, neti'."

এসে ওদের বললে, — ভয় নাই। তবু ওরা আসতে চায় না — বলে বুক দুড়দুড় করছে। তখন ভূঁয়ে ছবিটাকে শুইয়ে দিলে, আর বলতে লাগল এ কিছু নয়, এ-কিছু নয়, ‘নেতি’ ‘নেতি’।”

 [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏विभीषण तुम अज्ञानियों (मूर्खों) के लिए राजा का (V.P. का) पोस्ट ग्रहण करो ! 🔱🙏  

डाक्टर - यह तो बड़ी सुन्दर बात है !

DOCTOR: "These are fine words."

ডাক্তার — এ-সব বেশ কথা।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हाँ, कैसी बात है ?

MASTER (smiling): "What kind of words?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ! কেমন কথা?

डाक्टर - बड़ी सुन्दर है ।

DOCTOR: "Fine."

ডাক্তার — বেশ।

श्रीरामकृष्ण - एक बार थैन्क यू (Thank you) भी तो कहो ।

MASTER: "Then give me a 'Thank you'." [The Master said the words "thank you" in English.]

শ্রীরামকৃষ্ণ — একটা ‘Thank you’ দাও।

डाक्टर - क्या आप मेरे मन का भाव नहीं समझ रहे हैं ? इतना कष्ट करके आपको यहाँ देखने के लिए आता हूँ !

DOCTOR: "Don't you know what is in my mind? I go to so much trouble to come and visit you!"

ডাক্তার — তুমি কি বুঝছো না, মনের ভাব? আর কত কষ্ট করে তোমায় এখানে দেখতে আসছি।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - नहीं जी, मूर्ख के कल्याण के लिए भी तो कुछ कहो । विभीषण ने लंका का राजा होना अस्वीकृत कर दिया था, कहा था, ‘राम, मैं तुम्हें जब पा गया तो अब राज्य से क्या काम ?’ राम ने कहा, "विभीषण, तुम मूर्खों के लिए राजा बनो । जो लोग कह रहे हैं, ‘तुमने राम की इतनी सेवा की, परन्तु तुम्हें ऐश्वर्य क्या मिला ?’- उनकी शिक्षा के लिए तुम राजा बनो ।

MASTER (smiling): "No, it is not that. Say something for the good of the ignorant. After the death of Ravana, his brother Bibhishana refused to be king of Ceylon. He said: 'O Rama, I have obtained You. What shall I do with kingship?' Rama said: 'Bibhishana, be king for the sake of the ignorant, for those who might ask what riches you have gained by serving Me so much. Be king to give them a lesson.'"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — না গো, মূর্খের জন্য কিছু বল। বিভীষণ লঙ্কার রাজা হতে চায় নাই — বলেছিল, রাম তোমাকে পেয়েছি আবার রাজা হয়ে কি হবে! রাম বললেন, বিভীষণ, তুমি মূর্খদের জন্য রাজা হও। যারা বলছে, তুমি এত রামের সেবা করলে, তোমার কি ঐশ্বর্য হল? তাদের শিক্ষার জন্য রাজা হও

 [(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏क्या स्वाति नक्षत्र के जल या अवतार/नेता के शब्दों को सिर्फ सीपियाँ ही सुनेंगी ?🔱🙏

(अवतार, गुरु /नेतावरिष्ठ बुद्धिमान सीपियों और आलसी घोंघा-बसंतों पर भी कृपा करते हैं) 

(The Avatar, the Guru/Leader blesses the wise oysters 

and also the lazy snail-springs)  

डाक्टर - यहाँ उस तरह का मूर्ख है कौन ?

DOCTOR: "Are there such ignorant people here?"

ডাক্তার — এখানে তেমন মূর্খ কই?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - नहीं जी, यहाँ सीपियाँ भी है और शंख (conchs-कौंच)-शम्बुक (आलसी घोंघा-बसन्त snails) भी हैं ! (सब हँसते हैं)

MASTER (smiling): "Oh, yes! Here you will find oysters and snails as well as conchs." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — না গো, শাঁকও আছে আবার গেঁড়ি-গুগলিও আছে। (সকলের হাস্য)

(५)

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

*डाक्टर के प्रति उपदेश*

मनुष्य को भोजन उसकी पाचनशक्ति के अनुसार ही मिलना चाहिए 

🔱🙏पुरुष (ब्रह्म) और प्रकृति (शक्ति) अलग नहीं रह सकते 🔱🙏 

(दो दिव्य कबूतरों का दर्शन : पुरुष (नर) और प्रकृति (मादी) अलग नहीं रह सकते) 

পুরুষ-প্রকৃতি — অধিকারী

डाक्टर सरकार होमियोपैथी के डॉक्टर थे, उन्होंने श्रीरामकृष्ण के लिए दवा दी, दो प्रकार की छोटी गोलियाँ (globules) , कहने लगे, ‘ये गोलियाँ दी हैं - पुरुष और प्रकृति !’ (सब हँसते हैं)

Doctor Sarkar, who was a homeopath, gave Sri Ramakrishna two globules of medicine. He said, "I am giving you these two globules: one is Purusha and the other is Prakriti." (All laugh.)

ডাক্তার ঠাকুরের জন্য ঔষধ দিলেন — দুটি Globule; বলিতেছেন, এই দুইটি গুলি দিলাম — পুরুষ আর প্রকৃতি। (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - हाँ, पुरुष और प्रकृति एक ही साथ रहते हैं । तुमने कबूतरों को नहीं देखा? नर तथा मादी अलग नहीं रह सकते । जहाँ पुरुष है, वहीं प्रकृति भी है । जहाँ प्रकृति है, वहीं पुरुष भी है ।

MASTER (smiling): "Oh yes, Purusha and Prakriti are always together. Haven't you observed pigeons? The male and female cannot live separately. Wherever Purusha is, there is Prakriti, and wherever Prakriti is, there is Purusha."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — হাঁ, ওরা এক সঙ্গেই থাকে। পায়রাদের দেখ নাই, তফাতে থাকতে পারে না। যেখানে পুরুষ সেখানেই প্রকৃতি, যেখানে প্রকৃতি সেইখানেই পুরুষ।

आज विजयादशमी है । श्रीरामकृष्ण ने डाक्टर से कुछ मिष्टान्न खाने के लिए कहा । भक्तगण मिष्टान लाकर देने लगे ।

It was Vijaya day. Sri Ramakrishna asked Dr. Sarkar to have some refreshments. The devotees served him with sweets.

আজ বিজয়া। ঠাকুর ডাক্তারকে মিষ্টমুখ করিতে বলিলেন। ভক্তেরা মিষ্টান্ন আনিয়া দিতেছেন।

डाक्टर (खाते हुए) - भोजन के लिए थैन्क यू (Thank you) कहता हूँ; आपने जो ऐसा उपेदश दिया, उसके लिए नहीं । वह थैन्क यू मुँह से क्यों निकाला जाय ?

DOCTOR (while eating): "Now I say 'Thank you' for the sweets, but it is not for your teachings. Why should I give that 'Thank you' in words?"

ডাক্তার (খাইতে খাইতে) — খাবার জন্য ‘Thank you’ দিচ্ছি। তুমি যে অমন উপদেশ দিলে, তার জন্য নয়। সে ‘Thank you’ মুখে বলব কেন?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - उनमें मन रखना । और क्या कहूँ, और थोड़ी थोड़ी देर के लिए ध्यान करना । (छोटे नरेन्द्र को दिखलाकर) देखो, इसका मन ईश्वर में बिलकुल लीन हो जाता है । जो सब बातें तुमसे कही गयी थीं –

MASTER (smiling): "The essential thing is to fix the mind on God and to practice meditation a little. What more shall I say? (Pointing to the younger Naren) Look at him. His mind totally merges with God. Those things I was telling you —"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — তাঁতে মন রাখা। আর কি বলব? আর একটু একটু ধ্যান করা। (ছোট নরেনকে দেখাইয়া) দেখ দেখ এর মন ঈশ্বরে একেবারে লীন হয়ে যায়। যে-সব কথা তোমায় বলছিলাম। —

डाक्टर - अब इन लोगों से कहिये ।

DOCTOR: "Tell the others also."

ডাক্তার — এদের সব বলো।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏जिसका जैसा विश्वास है , उसको वैसा ही उपदेश दो🔱🙏

[Preach any person, according to his  faith]

श्रीरामकृष्ण - जिसे जैसा सह्य है उसके लिए वैसी ही व्यवस्था की जाती है । वे सब बातें (14 अप्रैल 1992 वाली ?) ये सब लोग~ क्या कभी समझ सकते हैं ? तुमसे कही गयी थीं, वह और बात है । लड़के को जो भोजन रुचता है और जो उसे सह्य है वही भोजन उसके लिए माँ पकाती है। (सब हँसते हैं)

MASTER: "No, a man should be given food according to his power of digestion. Can all understand what I told you? I cannot talk to everyone as I talked to you. Suppose a mother has bought a fish for the family. All her children have not the same power of digestion. For some she makes pilau and for others she makes stew. These latter have weak stomachs." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — যার যা পেটে সয়। ওসব কথা কি সব্বাই লতে পারে? তোমাকে বললাম, সে এক। মা বাড়িতে মাছ এনেছে। সকলের পেট সমান নয়। কারুকে পোলোয়া করে দিলে, কারুকে আবার মাছের ঝোল। পেট ভাল নয়। (সকলের হাস্য)

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏नेतावरिष्ठ की पदधूलि सिरपर : शुभ विजया का प्रेमालिंगन और मिष्टान्न भोजन🔱🙏

[नेता वरिष्ठ (C-IN-C) के यहाँ दुर्गापूजा कैसा हुआ ? 

इस बात को केवल माँ दुर्गा और उसका पुजारी बेटा (जय घोष) समझता है!]   

डाक्टर चले गये । विजया के उपलक्ष्य में सब भक्तों ने श्रीरामकृष्ण को साष्टांग प्रणाम करके उनके पैरों की धूल लेकर सिर से लगायी । फिर एक दूसरे को सप्रेम भेंटने लगे । आनन्द की मानो सीमा नहीं रहीं । श्रीरामकृष्ण को इतनी सख्त बीमारी है, परन्तु वे जैसे सब भूल गये हों । प्रेमालिंगन और मिष्टान्न भोजन बड़ी देर तक चल रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास छोटे नरेन्द्र, मास्टर तथा दो-चार भक्त और बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण आनन्द से बातचीत कर रहे हैं । डाक्टर के बारे में बातचीत होने लगी ।

Dr. Sarkar took his leave. It was Vijaya day, when people show their love and respect to their friends and elders with appropriate greetings. The devotees all prostrated themselves before Sri Ramakrishna and took the dust of his feet. Then they embraced one another. Their joy knew no bounds. The Master was seriously ill, but he made them all forget about his illness. The embracing and exchange of greetings continued a long time. The devotees also took light refreshments. The younger Naren, M., and a few other devotees sat near Sri Ramakrishna. The Master talked to them joyfully. He spoke of Dr. Sarkar.

ডাক্তার চলিয়া গেলে। আজ বিজয়া। ভক্তেরা সকলে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে সাষ্টাঙ্গ প্রণিপাত করিয়া তাঁহার পদধূলি গ্রহণ করিলেন। তৎপরে পরস্পর কোলাকুলি করিতে লাগিলেন। আনন্দের সীমা নাই। ঠাকুরের অত অসুখ, সব ভুলাইয়া দিয়াছেন! প্রেমালিঙ্গন ও মিষ্টমুখ অনেকক্ষণ ধরিয়া হইতেছে। ঠাকুরের কাছে ছোট নরেন, মাস্টার ও আরও দু’চারিটি ভক্ত বসিয়া আছেন। ঠাকুর আনন্দে কথা কহিতেছেন। ডাক্তারের কথা পড়িল।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏होमियोपैथी डॉक्टर सरकार और पीदा का अहं रूपी पेड़ कटना समाप्त🔱🙏

The cutter steps aside.  

श्रीरामकृष्ण - डाक्टर को और अधिक कुछ कहना न होगा । पेड़ का काटना जब समाप्त हो आता है तब जो आदमी काटता है वह (लक्क्ड़-हारा, नेता) जरा हटकर खड़ा हो जाता है । कुछ देर बाद पेड़ आप ही गिर जाता है

MASTER: "I shall not have to tell him very much. When the trunk of a tree is cut almost to the other side, the cutter steps aside. A little later the tree falls down of itself."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ডাক্তারকে আর বেশি কিছু বলতে হবে না।“গাছটা কাটা শেষ হয়ে এলে, যে ব্যক্তি কাটে সে একটু সরে দাঁড়ায়। খানিকক্ষণ পরে গাছটা আপনিই পড়ে যায়।”

छोटा नरेन (मुस्कुराते हुए): "यहाँ की प्रत्येक बात में सिद्धान्त (शिक्षा) है!" 

THE YOUNGER NAREN (smiling): "Here everything is principle!"

ছোট নরেন (সহাস্যে) — সবই Principle!

(मास्टर से) “डाक्टर बहुत बदल गया है ।”

MASTER (to M.): "The doctor has already changed a great deal, hasn't he?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারকে) — ডাক্তার অনেক বদলে গেছে না?

मास्टर - जी हाँ ! यहाँ आने पर उसकी अक्ल ही मारी जाती है क्या दवा दी जानी चाहिए, इसकी बात ही नहीं उठाते । हम लोग जब याद दिलाते हैं, तब कहते हैं – ‘हाँ-हाँ, दवा देनी है ।’

M: "Yes, sir. When he comes here he loses his wits. He never talks about medicine. When we remind him of it, he says: 'Oh, yes, yes! I shall have to give the medicine.'"

মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ। এখানে এলে হতবুদ্ধি হয়ে পড়েন। কি ঔষধ দিতে হবে আদপেই সে কথা তোলেন না। আমরা মনে করে দিলে তবে বলেন, হাঁ হাঁ ঔষধ দিতে হবে।

[(18 अक्टूबर, 1885) श्री रामकृष्ण वचनामृत-122]

🔱🙏गायकों में कोई एक क्या बेतालसिद्ध ( adept in discord) भी था ?🔱🙏

बैठकखाने में कोई कोई भक्त गा रहे थे । श्रीरामकृष्ण जिस कमरे में हैं, उसी में सब के आने पर श्रीरामकृष्ण कहने लगे - “तुम सब गा रहे थे - ताल ठीक क्यों नहीं रहता था ? कोई एक बेतालसिद्ध था - यह भी वैसी ही बात हुई !” (सब हंसते हैं)

Some of the devotees were singing in the parlor. They returned to the Master's room. Sri Ramakrishna said: "I heard your music; but why did you make mistakes in the rhythm? I once heard of a man who was adept in discord. You sang like him." (All laugh.)

বৈঠকখানা ঘরে ভক্তেরা কেহ কেহ গান গাহিতেছিলেন।ঠাকুর যে ঘরে আছেন, সেই ঘরে তাঁহারা ফিরায়া আসিলে পর ঠাকুর বলিতেছেন, “তোমরা গান গাচ্ছিলে, — তাল হয় না কেন? কে একজন বেতালসিদ্ধ ছিল — এ তাই!” (সকলের হাস্য)

छोटे नरेन्द्र का आत्मीय एक लड़का आया हुआ है । खूब भड़कीली पोशाक पहने और नाक पर चश्मा लगाये । श्रीरामकृष्ण छोटे नरेन्द्र से बातचीत कर रहे हैं ।

A young man, a relative of the younger Naren, arrived. He was bespectacled and foolishly dressed. Sri Ramakrishna spoke to the younger Naren.

ছোট নরেনের আত্মীয় ছোকরা আসিয়াছেন। খুব সাজগোজ, আর চক্ষে চশমা। ঠাকুর ছোট নরেনের সহিত কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - देखो, इसी रास्ते से एक जवान आदमी जा रहा था । उसकी कमीज की आस्तीनों मेंप्लेट’ पड़ी थी । उसके चलने का ढंग भी कैसा था ! रह-रहकर वह चादर हटाकर अपनी कमीज दिखाता था और इधर-उधर देखता था कि कोई उसकी कमीज देखता भी है या नहीं ! परन्तु जब वह चलता था तो साफ मालूम हो जाता था कि उसके पैर टेढ़े हैं ! मोर अपने पंख तो दिखलाता है, पर उसके पैर बड़े गन्दे होते हैं । इसी प्रकार ऊँट भी बड़ा भद्दा होता है, उसके सब अंग कुत्सित होते हैं ।

MASTER: "You see, a young man was going along the road. He had put on a pleated shirt. And how he strutted! Now and again he would display the shirt by removing his scarf, and then look around to see if anyone was admiring him. But when he walked you could see that he was knock-kneed. (All laugh.) The peacock displays its feathers, but its feet are very dirty. (All laugh.) The camel is very ugly. Everything about it is ugly."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখ, এই রাস্তা দিয়ে একজন ছোকরা যাচ্ছিল, প্লেটওলা জামা পরা। চলবার যে ঢঙ। প্লেটটা সামনে রেখে সেইখানটা চাদর খুলে দেয় — আবার এদিক-ওদিক চায়, — কেউ দেখছে কিনা। চলবার সময় কাঁকাল ভাঙা। (সকলের হাস্য) একবার দেখিস না। “ময়ূর পাখা দেখায়। কিন্তু পাগুলো বড় নোংরা। (সকলের হাস্য) উট বড় কুৎসিত, — তার সব কুৎসিত।”

नरेन्द्र का आत्मीय - परन्तु आचरण अच्छे होते हैं ।

YOUNG MAN: "But it acts well."

নরেনের আত্মীয় — কিন্তু আচরণ ভাল।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा है, परन्तु ऊँट कंटीली घास खाता है - मुख से धर-धर खून गिरता है, फिर भी वही घास खाता जाता है । आँख के सामने लड़का मरा, फिर भी संसारी ‘लड़का-लड़का’ की ही रट लगाये रहता है

MASTER: "Yes. But it browses on briars. It will continue to eat thorns though its mouth bleeds. The worldly man loses his children and still clamors for more."

শ্রীরামকৃষ্ণ — ভাল। তবে কাঁটা ঘাস খায় — মুখ দে রক্ত পড়ে, তবুও খাবে! সংসারী, এই ছেলে মরে, আবার ছেলে ছেলে করে!

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🔱🙏गुच्छों में नेता वरिष्ठ (C-IN-C) फलेंगे ?🔱🙏 

[ और भी बढ़कर देखने पर दिखाई देगा कि जगतजननी देवी काली ही द्विभुज गोपाल बनकर गोप बालकों का मार्गदर्शन करते हुए कह रही हैं -

 "पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।

वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति न: ॥ ३२ ॥

(श्रीमद् भागवत) 

शब्दार्थ~ पश्यत—जरा देखो तो; एतान्— इन; महा-भागान्—परम भाग्यशाली; पर-अर्थ—अन्यों के लाभ हेतु; एकान्त—एकान्त भाव से; जीवितान्—जिनका जीवन; वात—वायु; वर्ष—वर्षा; आतप—सूर्य की तपन; हिमान्—तथा बर्फ (पाला); सहन्त:—सहते हुए; वारयन्ति—दूर रखते हैं; न:—हमारे लिए ।

भगवान् कृष्ण ने कहा “हे मित्रों  (स्तोककृष्ण,  अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, वृषभ, ओजस्वी, देवप्रस्थ तथा वरूथप) , जरा इन भाग्यशाली वृक्षों को तो देखो; ये वृक्ष इतने महान हैं कि परोपकार के लिये ही जीते हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन ही दूसरों के लाभ हेतु समर्पित हैं। ये आँधी, वर्षा, धूप और बर्फ (पाला) को स्वयं सहन करते हुए भी इन तत्त्वों से हमारी रक्षा करते हैं।

Trees are so great that they live only for charity. They tolerate storm, rain and cold on their own.

"अहो एषां वरं जन्म सर्वप्राण्युपजीवनम्।

सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः॥"

शब्दार्थ~ अहो—ओह, जरा देखो तो; एषाम्—इन वृक्षों का; वरम्—श्रेष्ठ; जन्म—जन्म; सर्व—समस्त; प्राणि—जीवों के लिए; उपजीविनम्—पालन करने वाले; सु-जनस्य इव—महापुरुषों की भाँति; येषाम्—जिनसे; वै—निश्चय ही; विमुखा:—निराश; यान्ति—चले जाते हैं; न—कभी नहीं; अर्थिन:—कुछ चाहने वाले ।

इनका जन्म बहुत अच्छा है क्योंकि इन्हीं के कारण सभी प्राणी जीवित हैं। जरा देखो, कि ये वृक्ष किस तरह प्रत्येक प्राणी का भरण कर रहे हैं। इनका जन्म सफल है। इनका आचरण महापुरुषों के तुल्य है, जिस प्रकार किसी सज्जन के सामने से कोई याचक खाली हाथ नहीं जाते उसी प्रकार इन वृक्षों के पास से कुछ माँगने वाला कोई भी व्यक्ति कभी निराश नहीं लौटता।

His birth is very good because because of him all the living beings are alive. Just as no petitioner leaves empty-handed in front of a gentleman, similarly no one goes empty handed near these trees.

" पत्रपुष्पफलच्छायामूलवल्कलदारुभि: ।

          गन्धनिर्यासभस्मास्थितोक्मै: कामान्वितन्वते ॥ ३४ ॥"

शब्दार्थ: पत्र—पत्तियाँ; पुष्प—फूल; फल—फल; छाया—छाया; मूल—जड़; वल्कल—छाल; दारुभि:—तथा लकड़ी द्वारा; गन्ध— अपनी सुगन्ध से; निर्यास—रस से; भस्म—राख से; अस्थि—लुगदी से; तोक्मै:—तथा नये नये कल्लों से; कामान्—इच्छित वस्तुएँ; वितन्वते—प्रदान करते हैं ।

ये हमें पत्र, पुष्प, फल, छाया, मूल, बल्कल (छाल), इमारती और जलाऊ लकड़ी, सुगंध, राख, गुठली और अंकुर प्रदान करके हमारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। 

They fulfill our wishes by providing us with letters, flowers, fruits, shade, roots, bulk, timber and firewood, fragrance, ash, kernels, and shoots.

"एतावज्जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु।

प्राणैरर्थधिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सहा॥३५।। "

शब्दार्थ : एतावत्—इसी के जैसा ; जन्म—जन्म की; साफल्यम्—सफलता, सिद्धि; देहिनाम्—हर प्राणी की; इह—इस जगत में; देहिषु— देहधारियों के प्रति; प्राणै:—प्राण से; अर्थै:—धन से; धिया—बुद्धि से; वाचा—वाणी से; श्रेय:—शाश्वत सौभाग्य; आचरणम्—आचरण करते हुए; सदा—सदैव ।.

इसी वृक्ष की तरह हर प्राणी का कर्तव्य है कि वह अपने प्राण, धन, बुद्धि तथा वाणी से दूसरों  के लाभ हेतु कल्याणकारी कर्म करे। 

It is the duty of every living being to do welfare work for the benefit of others with his life, money, intellect, and speech. ] 

 [लीला (Relative aspect, नाम-रूप, देह-मन या देश-काल -निमित्त  ) रहने के कारण ही, आत्मा (अहं नहीं ?), लीला यानि देह-मन (सापेक्षिक सत्य) का अतिक्रमण कर ब्रह्म तक पहुँच सकती है। "Time, space, and causation are in the mind," says Vivekananda. What is causation (कारणत्व , कार्य-कारण सम्बन्ध )? 

Maya is neither Idealism nor Realism, nor is it a theory, it is a statement of the fact of this universe, what we are and what we see around us.

Maya manifests itself as Space, Time, and Causation. The one question that is most difficult to grasp in understanding the Advaita philosophy, and the one question that will be asked again and again and that will always remain is: How has the Infinite, the Absolute, become the finite? I will now take up this question, and, in order to illustrate it, I will use a figure.

Here is the Absolute (a), and this is the universe (b). The Absolute has become the universe. By this is not only meant the material world, but the mental world, the spiritual world — heavens and earths, and in fact, everything that exists. Mind is the name of a change, and body the name of another change, and so on, and all these changes compose our universe. This Absolute (a) has become the universe (b) by coming through time, space, and causation (c). This is the central idea of Advaita.

 It was Shankaracharya who first found out the idea of the identity of time, space, and causation with Maya, and I had the good fortune to find one or two passages in Shankaracharya’s commentaries. ”

Space – Time – Causation :

1. First, would arise the concept of space, here vs. there, me taking up space over here, you taking up space over there.

2. Next would be time, if something is here and not there it has to get from here to there and can’t be in both places at once, therefore, it takes time to travel from one place to another.

3. Finally causation, in space and time one thing seems to be the cause of another. In the relative sense all this is real. In the absolute sense none of it is real.

That which is subject to time, space, and causation is changeable; while that which is beyond these is unchangeable.

Time exists in mind. What is time ?

Time, for instance , means “succession,” which is a condition of thought; and space means “coexistence.” The activities of mind, being either in succession or simultaneous, produce the ideas of time and space; they are conditions, or, as Kant calls them, forms of thought. One thought following another gives us a conception of intervals which we call time. Time means succession in thought. When one thought rises after another, the interval between them is what we call Time, so it is subject to mental activity.

When two ideas rise simultaneously, that which separates them is what we call space. Thus, that which exists between the idea ” me ” and the idea ” sun ” we classify as space ; yet it is purely a mental concept, having no existence outside the mind; for who knows any concrete thing designated space ? Hence, since these ideas of time and space are merely conditions of thought, they must be subject to change, because our thought is continually changing.

Thus we see, first, that the combination of time, space, and causation has neither existence nor non-existence. Secondly, it sometimes vanishes.

 To give an illustration, there is a wave on the ocean. The wave is the same as the ocean certainly, and yet we know it is a wave, and as such different from the ocean. What makes this difference ? The name and the form, that is, the idea in the mind and the form.

Now, can we think of a waveform as something separate from the ocean ? certainly not. It is always associated with the ocean idea. If the wave subsides, the form vanishes in a moment, and yet the form was not a delusion. So long as the wave existed the form was there, and you were bound to see the form. This is Maya.

We have to understand this, and impress it on our minds, that what we call causation begins after, if we may be permitted to say so, the degeneration of the Absolute into the phenomenal, and not before; that our will, our desire and all these things always come after that.

A stone falls and we ask, why?

This question is possible only on the supposition that nothing happens without a cause. Whenever we ask why anything happens, we are taking for granted that it must have been preceded by something else which acted as the cause. This precedence and succession are what we call the law of causation. It means that everything in the universe is by turn a cause and an effect. It is the cause of certain things which come after it, and is itself the effect of something else which has preceded it. This is called the law of causation and is a necessary condition of all our thinking. We believe that every particle in the universe, whatever it be, is in relation to every other particle.

For in the Absolute, there is neither time, space, nor causation; It is all one. That which exists by itself alone cannot have any cause. That which is free cannot have any cause; else it would not be free, but bound. That which has relativity cannot be free. Thus we see the very question, why the Infinite became the finite, is an impossible one, for it is self-contradictory.

 A God known is no more God; He has become finite like one of us. He cannot be known He is always the Unknowable One. First, we see then that the question, “What caused the Absolute?” is a contradiction in terms; and secondly, we find that the idea of Advaita is this Oneness; and, therefore, we cannot objectify Him, for we are always living and moving in Him, whether we know it or not. Whatever we do is always through Him. “Om Shanti Shanti Shanti”

>>>साभार @@@https://pparihar.com/2014/11/30/the-absolute-and-manifestation-vivekananda/   

[$अवतार या नेता वरिष्ठ (C-IN-C) की पहचान होते ही श्रेय-प्रेय विवेक का जीवन में धारण स्वतः हो जाता है।  क्योंकि नेता वह है जो दूसरों को (भक्तों को या भावी नेता को) भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त कर देते हैं !!! अवतार को पहचानते ही~ पशुता, स्वार्थपरता या कामिनी-कांचन में आसक्ति का 100 % त्याग सम्भव हो जाता है! जैसे उषादा का सिग्रेट झाड़ना, रनकी  Bh पर रूपी गिरीश की-kn खैनपर,गुपर bj की पर पदा की ? 

कालीपद घोष (1849 - 1905) - श्री रामकृष्ण संघ में वे 'दाना-काली' के नाम से जाने जाते थे।  श्री रामकृष्ण के विशेष पसंदीदा गृहस्थ शिष्य थे। घोष उत्तरी कलकत्ता के श्यामपुकुर में एक मशहूर कंपनी में काम करते थे. 1884 ई. में दक्षिणेश्वर में पहली यात्रा। नाट्याचार्य गिरीश चंद्र घोष घोष के साथ उनका बहुत सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध था। इन दोनों को भक्तजन एक साथ जगाई- मधाई कहते थे। उन्होंने कई गीत लिखे जो "रामकृष्ण संगीत" के नाम से प्रकाशित हुए। स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें 'दाना' कह कर सम्बोधित किया था। ठाकुर देव ने भाग्यशाली कालीपद की जीभ पर "काली" नाम लिख कर मंत्र दिया था। टैगोर ने उन्हें एक विशेष वरदान दिया था । उसी दिन, ठाकुर कालीपदर श्यामपुकुर के घर को अलविदा कहकर दक्षिणेश्वर लौट आए। ठाकुर  कई बार कालीपद के घर गए और काशीपुरा में "कल्पतरु" के दिन भी कालीपद को अपनी छाती से लगाकर आशीर्वाद दिया। गायक, वायलिन वादक और बांसुरी वादक कालीपद की बांसुरी सुनने के बाद एक बार, ठाकुर समाधि में चले गए थे। अपने बाद के बंबई प्रवास के दौरान, श्री रामकृष्ण के त्यागी संतान उनके घर पर मेहमान होकर रहते थे । श्री रामकृष्ण के समर्पित भक्त कालीपद घोष का कलकत्ता में निधन हो गया।

কালীপদ ঘোষ (১৮৪৯ - ১৯০৫) — ‘দানা-কালী’ নামে শ্রীরামকৃষ্ণ সঙ্ঘে পরিচিত । ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের বিশেষ কৃপাপ্রাপ্ত গৃহীশিষ্য। উত্তর কলিকাতার শ্যামপুকুরে প্রসিদ্ধ ঘোষ কোম্পানীতে চাকুরী করিতেন। প্রথম দর্শন ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দে দক্ষিণেশ্বরে। ন্যাট্যাচার্য গিরিশচ ন্দ্র ঘোষের সহিত তাঁহার খুব হৃদ্যতা ছিল। ভক্তগণ ইঁহাদের দুইজনকে একত্রে জগাই মাধাই বলিতেন। তিনি বহু গান লিখিয়াছিলেন যাহা “রামকৃষ্ণ সঙ্গীত” নামে প্রকাশিত হয়। স্বামী বিবেকানন্দ তাঁহাকে ‘দানা’ বলিয়া সম্বোধন করিয়াছিলেন। ভাগ্যবান কালীপদর জিহ্বায় ঠাকুর “কালী” নাম লিখিয়া দিয়াছিলেন এবং ঠাকুর তঁহাকে বিশেষ কৃপাদান করেন। সেইদিনই অযাচিতভাবে কালীপদর শ্যামপুকুরের বাড়িতে ঠাকুর প্রথম শুভাগমন করিয়া পুনরায় দক্ষিণেশ্বরে ফিরিয়া আসেন। কালীপদর বাড়িতে ঠাকুর আরও কয়েকবার শুভাগমন করেন এবং কাশীপুরে “কল্পতরু” হওয়ার দিনেও কালীপদর বক্ষঃস্পর্শ করিয়া তাঁহাকে আশীর্বাদ করেন। সুগায়ক, বেহালা ও বংশীবাদক কালীপদর বাঁশী শুনিয়া একদা ঠাকুর সমাধিস্থ হইয়াছিলেন। পরবর্তী কালে বোম্বাইতে অবস্থানকালে শ্রীরামকৃষ্ণের ত্যাগী সন্তানগণ তাঁহার গৃহে অতিথি হইতেন । ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের একনিষ্ঠ ভক্ত কালীপদ ঘোষ কলিকাতাতেই দেহত্যাগ করেন।

Amritlal Sarkar — Born in Calcutta in 1860. His father Dr. Mahendralal Sarkar was a physician and a special devotee of Sri Ramakrishna. Amritlal also became a doctor. After his father's death, he was appointed as the Secretary of The Indian Association for Cultivation of Science, founded by him, and held that office till the end. Amrita was blessed with Thakurs love. Amritlal did not believe in the incarnation of God. Thakur  fondly mentioned this to Mahendralal. He admired Amritlal's simplicity. In reply, Mahendralal spoke of Amrit's respect and loyalty to Thakur and that Amrit was a devotee of Sri Ramakrishna.

অমৃতলাল সরকার — কলকাতায় ১৮৬০ সালে জন্মগ্রহণ করেন। পিতা ডা: মহেন্দ্রলাল সরকার শ্রীরামকৃষ্ণের চিকিৎসক এবং বিশেষ অনুরাগী। অমৃতলালও চিকিৎসক হন। পিতার মৃত্যুর পর তাঁহারই প্রতিষ্ঠিত The Indian Association for Cultivation of Science-এর সম্পাদক নিযুক্ত হন এবং শেষ পর্যন্ত সেই দায়িত্ব পালন করেন। অমৃত ঠাকুরের স্নেহলাভে ধন্য হন। অমৃতলাল ঈশ্বরের অবতারে বিশ্বাসী ছিলেন না। ঠাকুর কথা প্রসঙ্গে মহেন্দ্রলালের নিকট সস্নেহে ইহা উল্লেখ করেন। তিনি অমৃতলালের সরলাতার প্রশংসা করেন। উত্তরে মহেন্দ্রলাল ঠাকুরের প্রতি অমৃতের শ্রদ্ধা ও আনুগত্যের কথা বলেন এবং অমৃত যে শ্রীরামকৃষ্ণের অনুরাগী সেকথাও জানান।