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रविवार, 7 मई 2023

$$$$🔱🙏परिच्छेद~118 [ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 🔱🙏" 'माँ, मुझे शुद्धा भक्ति दो ! 🔱🙏*श्रीरामकृष्ण कहते थे - 'बलराम के घर का अन्न बहुत शुद्ध है' 🔱🙏हएक दिन सभी अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेंगे, और मुक्त हो जायेंगे🙏🙏'राम ! यह आशीर्वाद करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में बद्ध न होऊँ ।🙏

 *परिच्छेद- ११८*

[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

(१)

🔱🙏बलराम के मकान में श्रीरामकृष्ण *🔱🙏

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बलराम के बैठकखाने में बैठे हुए हैं । मुख पर प्रसन्नता विराज रही है । इस समय दिन के तीन बजे होंगे । विनोद, राखाल, मास्टर आदि श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । छोटे नरेन्द्र भी आये ।

आज मंगलवार है, २८ जुलाई, १८८५, आषाढ़ की कृष्ण प्रतिपदा । श्रीरामकृष्ण सबेरे से बलराम के यहाँ आये हैं । भक्तों के साथ भोजन भी उन्होंने वहीं किया है । बलराम के घर में भगवान श्री जगन्नाथ की पूजा उनके कुलदेवता के रूप में की जाती थी। तथा घर के सभी सदस्य कुलदेवता पर चढ़ाये हुए भोग को ही अपने भोजन रूप में ग्रहण करते थे।   श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि 'बलराम के घर का अन्न बहुत शुद्ध है'।

नारायण आदि भक्तों ने कहा है, 'नन्द वसु के घर में ईश्वरसम्बन्धी चित्र बहुत से हैं ।' आज दिन के पिछले पहर उनके घर जाकर श्रीरामकृष्ण चित्र देखेंगे ।

एक ब्राह्मणी भक्त नन्द वसु के घर के पास ही रहती है, श्रीरामकृष्ण उसके घर भी जायेंगे । कन्या के गुजर जाने पर ब्राह्मणी दुखी रहा करती है । प्रायः दक्षिणेश्वर श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए जाया करती है । अत्यन्त व्याकुलता के साथ उसने श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण भेजा है । उसके घर तथा एक और स्त्री-भक्त - गनू की माँ - के घर भी श्रीरामकृष्ण जानेवाले हैं ।

श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ आते ही बालक-भक्तों को बुला भेजते हैं । छोटे नरेन्द्र ने अभी उस दिन कहा था, 'मुझे काम रहता है, इसलिए सदा मैं नहीं आ सकता, परीक्षा के लिए भी तैयारी करनी पड़ रही है ।' छोटे नरेन्द्र के आने पर श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत करते हुए कह रहे हैं - "तुझे बुलाने के लिए मैंने आदमी नहीं भेजा ।"

छोटे नरेन्द्र (हँसते हुए) - तो इससे क्या होता है ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं भाई, तुम्हारा नुकसान होता है, जब अवकाश हो तब आया करो ! श्रीरामकृष्ण ने जैसे अभिमान करके ये बातें कहीं ।

पालकी आयी है । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत नन्द बसु के यहाँ जायेंगे ।

ईश्वर का नाम लेते हुए श्रीरामकृष्ण पालकी पर बैठे, पैरों में काली चट्टी, लाल धारीदार धोती पहने। मणि ने जूतों को पालकी की बगल में एक ओर रख दिया । पालकी के साथ साथ मास्टर जा रहे हैं। इतने में परेश भी आ गये ।

पालकी नन्द बसु के फाटक के भीतर गयी । क्रमशः घर का लम्बा आँगन पार करके पालकी मकान के द्वार पर पहुँची । गृहस्वामी के आत्मीयों ने श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से चट्टियाँ निकाल देने के लिए कहा । पालकी से उतरकर वे ऊपर के दालान में गये । दालान बहुत लम्बा-चौड़ा है । चारों ओर देवी-देवताओं के चित्र टँगे हुए हैं ।

गृहस्वामी और उनके भाई पशुपति ने श्रीरामकृष्ण से सम्भाषण किया । पालकी के पीछे पीछे भक्तगण भी आ रहे थे । अब वे भी उसी दालान में एकत्र होने लगे । गिरीश के भाई अतुल भी आये हुए हैं । प्रसन्न के पिता श्रीयुत नन्द वसु के यहाँ अक्सर आया-जाया करते हैं । वे भी वहाँ मौजूद हैं ।

[नन्द वसु (नन्दलाल वसु)* - एक अभिजात्य (aristocrat) व्यक्ति थे। उनका घर बागबाजार में था। यह जानकर कि उनके घर में विभिन्न देवी-देवताओं के सुंदर चित्र हैं, 1885 में बलराम बोस के घर से होते हुए वे वहाँ भी गए थे। उन चित्रों को देखने के बाद गृहस्वामी नन्दलाल वसु तथा उनके भाई पशुपति बसु के साथ काफी देर तक ईश्वरीय प्रसंग पर चर्चा हुई थी। ठाकुर देव ने उन चित्रों की प्रशंसा करते हुए नन्द बाबू को एक सच्चे हिंदू के रूप में सराहना की थी।]

(२)

[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

🔱🙏चित्रों का दर्शन 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण अब चित्रों को देखने के लिए उठे । साथ मास्टर हैं तथा कुछ भक्तगण । गृहस्वामी के भ्राता श्रीयुत पशुपति साथ साथ रहकर तस्वीरें दिखा रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण पहले चतुर्भुज विष्णुमूर्ति देख रहे हैं । देखकर ही भावावेश में परिपूर्ण हो गये । खड़े थे, बैठ गये । कुछ काल भावाविष्ट रहे।

दूसरा चित्र श्रीरामचन्द्रजी की भक्तवत्सल मूर्ति का है । श्रीराम हनुमान के सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं । हनुमान की दृष्टि श्रीरामचन्द्रजी के पादपद्मों पर लगी हुई है श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक यह चित्र देखते रहे । भावावेश में कह रहे हैं - "आहा ! आहा !"

तीसरा चित्र वंशीधर श्रीमदनगोपाल का है । कदम्ब के नीचे खड़े हुए हैं ।

चौथा चित्र वामनावतार का है, छाता लगाये हुए बलि के यज्ञ में जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'वामन', और टकटकी लगाये देख रहे हैं ।

फिर नृसिंहमूर्ति देखकर श्रीरामकृष्ण गो-चारण देख रहे हैं । श्रीकृष्ण गोपाल बालकों के साथ गौएँ चरा रहे हैं । श्रीवृन्दावन और यमुनापुलिन ! मणि कह उठे, 'बड़ी सुन्दर तस्बीर है !'

सप्तम चित्र देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – धूमावती ! 'अष्टम, 'षोडशी'; नवम, 'भुवनेश्वरी'; 'दशम', तारा; एकादश, 'काली' । इन सब मूर्तियों को देखकर श्रीरामकृष्ण कहते हैं - "ये सब उग्र मूर्तियाँ हैं, उन्हें घर में न रखना चाहिए । इन्हें यदि घर पर रखे तो इनकी पूजा करना उचित है, साथ ही भोग भी चढ़ाना चाहिए । परन्तु आप लोगों के भाग्य अच्छे हैं, आप रख सकते हैं ।"

श्रीअन्नपूर्णा के दर्शन कर श्रीरामकृष्ण भावावेश में कह रहे है - "वाह ! वाह !'

फिर देखा राधिका का राजा-वेश, सखियों के साथ वन में सिंहासन पर बैठी हुई हैं । श्रीकृष्ण द्वार पर कोतवाल बनकर बैठे हुए हैं फिर झूलना-चित्र । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक इसके बाद का चित्र देख रहे हैं । ग्लास-केस के भीतर वीणावादिनी का चित्र है । देवी हाथ में वीणा लिये हुए आनन्द से रागिनी अलाप रही हैं 

तस्वीरों (Exhibition) का देखना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण फिर गृहस्वामी के पास गये । खड़े हुए गृहस्वामी से कह रहे हैं, "आज बड़ा आनन्द आया । वाह ! आप तो पूरे हिन्दू हैं । अंग्रेजी चित्र न रखकर इन चित्रों को रखा है, यह सचमुच बड़े आश्चर्य की बात है ।"

श्रीयुत नन्द बसु बैठे हुए हैं, वे श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं - "बैठिये, आप खड़े क्यों हैं ?"

श्रीरामकृष्ण (बैठकर) - ये चित्र काफी बड़े हैं । तुम अच्छे हिन्दू हो ।

नन्द बसु - अंग्रेजी चित्र भी हैं ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वे ऐसे नहीं हैं । अंग्रेजी की ओर तुम्हारी वैसी दृष्टि नहीं है ।

कमरे की दीवार पर श्रीयुत केशचन्द्र सेन के नवविधान की तस्बीर लटकी हुई थी । श्रीयुत सुरेश मित्र ने वह चित्र बनाया था । वे श्रीरामकृष्ण के एक प्रिय भक्त हैं । उस चित्र में दिखाया है कि श्रीरामकृष्ण केशव को दिखा रहे हैं कि भिन्न-भिन्न मार्गों से सब धर्मों के लोग ईश्वर की ही ओर अग्रसर होते जा रहे हैं । गम्यस्थान एक है, केवल मार्ग पृथक्-पृथक् हैं

श्रीरामकृष्ण - वह तो सुरेन्द्र का बनाया हुआ चित्र है ।

प्रसन्न के पिता (हँसकर) - आप भी उसके भीतर हैं ।

श्रीरामकृष्ण - वह एक विशेष ढंग का है, उसके भीतर सब कुछ है - वह आधुनिक भाव का चित्र है ।

यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण को एकाएक भावावेश हो रहा है । श्रीरामकृष्ण जगन्माता से वार्तालाप कर रहे हैं । कुछ देर बाद मतवाले की भाँति कह रहे हैं - "मैं बेहोश नहीं हुआ ।" घर की ओर दृष्टि करके कह रहे हैं, "बड़ा मकान, इसमें क्या हैं, - ईंटें, काठ और मिट्टी ।"

कुछ देर बाद उन्होंने कहा, "देव-देवताओं के ये सब चित्र देखकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ ।" फिर कहने लगे - "उग्र मूर्ति, काली, तारा (शव और शिवा के बीच श्मशान में रहनेवाली) रखना अच्छा नहीं, रखने पर पूजा चढ़ानी चाहिए ।"

पशुपति (हँसकर) - वे जितने दिन चलायेंगी, उतने दिन तो चलेगा ही ।

श्रीरामकृष्ण - यह ठीक है । परन्तु ईश्वर में मन रखना अच्छा है, उन्हें भूलकर रहना अच्छा नहीं ।

नन्द बसु - उनमें मति होती कहाँ है ? 

श्रीरामकृष्ण - उनकी कृपा होने पर सब हो जाता है ।

नन्द बसु - उनकी कृपा होती कहाँ है ? उनमें कृपा करने की शक्ति भी हो तब न ?

गम्यस्थान एक है, केवल मार्ग पृथक्-पृथक् हैं ।

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्म स्वरूपिणे, 

अवतार वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ।।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैं समझा, तुम्हारा मत पण्डितों जैसा (पुस्तकीय-ज्ञान रटन्ती) है कि "जो जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा फल मिलता रहेगा"  यह सब छोड़ दो । ईश्वर की शरण में जाने पर कर्मों का क्षय हो जाता है। 

" मैंने माता के पास हाथ में फूल लेकर कहा था, 'माँ, यह लो अपना पाप और यह लो अपना पुण्य, मैं कुछ नहीं चाहता; तुम मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना भला और यह लो अपना बुरा; मैं भला-बुरा कुछ नहीं चाहता; मुझे बस अपनी शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना धर्म और यह लो अपना अधर्म, मैं धर्माधर्म कुछ नहीं चाहता; मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना ज्ञान और यह लो अपना अज्ञान; मैं ज्ञान अज्ञान कुछ नहीं चाहता; मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपनी शुचिता और यह लो अपनी अशुचिता; मुझे शुचिता-अशुचिता नहीं चाहिए, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"

नन्द लाल बोस - क्या वे कानून रद्द कर सकते हैं ?

'पूर्णब्रह्म" श्रीरामकृष्ण - " यह क्या ! वे ईश्वर हैं, वे सब कुछ कर सकते हैं । जिन्होंने कानून बनाया है, वे कानून बदल भी सकते हैं ।

"परन्तु यह बात तुम कह सकते हो । तुम्हारी शायद भोग करने की इच्छा हैं, इसीलिए तुम ऐसी बात कह रहे हो । यह एक मत है भी, - ठीक है; भोग की शान्ति बिना हुए चैतन्य नहीं होता; परन्तु भोग भी क्या करोगे ? - कामिनी और कांचन का भोग ? - वह तो अभी है, अभी नहीं; क्षणिक । कामिनी और कांचन में है ही क्या ? छिलका और गुठली ही है - खाने पर अम्लशूल होता है । सन्देश निगलने के साथ ही स्वाद भी गायब !”

नन्द लाल बोस चुप हो रहे । फिर कहा – ‘यह सब कहते तो हैं, परन्तु क्या ईश्वर पक्षपात करनेवाले हैं ? अगर उनकी कृपा से होता है, तो कहना पड़ता है कि ईश्वर में पक्षपात है ।’

श्रीरामकृष्ण - वे स्वयं ही सब कुछ हैं । ईश्वर स्वयं ही जीव जगत् हुए हैं । जब पूर्ण ज्ञान होगा, तब यह बोध होगा । वे मन, बुद्धि और देह हुए हैं - चौबीसों तत्त्व सब वे ही हुए हैं । वे पक्षपात करें भी तो किस पर करें ?

नन्द लाल बोस - अनेक रूपों का धारण उन्होंने क्यों किया ? कोई ज्ञानी और कोई अज्ञानी क्यों है ?

श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा ।

अतुल - केदार ने अच्छा कहा है । एक ने उनसे पूछा, 'ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ?' इस पर वे बोले, "जिस मीटिंग में ईश्वर ने सृष्टि बनाने का ठहराया, उस मीटिंग में मैं हाजिर नहीं था ।' (सब हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा ।

यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे --

सकलि तोमार इच्छा, इच्छामयी तारा तुमि। 

तोमार कर्म तुमि कर माँ, लोके बोले करि आमि।   

पङ्के बद्ध करो करि, पंगुरे लँघाओ गिरी। 

कारे दाओ माँ ! ब्रह्मपद, कारे कर अधोगामी।। 

आमि यन्त्र तुमि यन्त्री, आमि घर तुमि  घरनी। 

आमि रथ तुमि रथी, जेमन चलाओ तेमनी चली।।      

‘सब तुम्हारी ही इच्छा है, तुम इच्छामयी तारा हो । माँ, अपने कर्म तुम खुद करती हो, परन्तु लोग कहते हैं कि मैं करता हूँ । ऐ काली, हाथी को तो तुम दलदल में फँसा देती हो और किसी पंगु से गिरि का उल्लंघन करा देती हो । किसी को तुम ब्रह्मपद दे देती हो और किसी को तुम 'अधोगामी' कर देती हो ।'

वे आनन्दमयी हैं । इसी सृष्टि, स्थिति और प्रलय की लीला कर रही हैं । जीव असंख्य हैं, उनमें दो ही एक मुक्त हो रहे हैं, उससे भी उन्हें आनन्द होता है । कोई संसार में  में बँध रहा है, कोई मुक्त हो रहा है ।"

नन्द लाल बोस - उनकी इच्छा तो है, परन्तु इधर तो जान निकली जा रही है ।

श्रीरामकृष्ण - 'तुम लोग' हो कहाँ ? वे ही सब कुछ हुए हैं। जब तक उन्हें तुम नहीं समझ सकते हो, तभी तक 'मैं मैं' कर रहे हो ।

"सब लोग अगर उन्हें जान लें तो तर जायँ । परन्तु बात यह है कि किसी को दिन निकलते ही खाने को मिल जाता है, कोई दोपहर के समय भोजन पाता है और कोई शाम को; परन्तु खाना सभी को मिल जाता है - कोई बिना खाये हुए नहीं रहता । इसी तरह अपने स्वरूप का ज्ञान सभी प्राप्त करेंगे ।"  

पशुपति [(पशुपति बोस) — नंदलाल बोस के भाई।] - जी हाँ, जान पड़ता है, वे ही सब कुछ हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण - मैं क्या हूँ, इसे जरा खोजो तो । क्या मैं हाड़ हूँ ? माँस, खून या आँत हूँ ? 'मैं' को खोजते ही खोजते 'तुम' आ जाता है; अर्थात् अन्दर में उस ईश्वर की शक्ति के सिवा और कुछ नहीं है । 'मैं' नहीं है, 'वे' हैं (पशुपति बोस के प्रति) तुममें अभिमान नहीं है - इतना ऐश्वर्य होकर भी ।

" 'मैं' का सम्पूर्ण त्याग नहीं होता । यह सब जाने का नहीं तो रहने दो इसे ईश्वर का दास बना । मैं ईश्वर का भक्त हूँ, ईश्वर का दास हूँ, ईश्वर का पुत्र हूँ, यह अभिमान अच्छा है । जो 'मैं' कामिनी और कांचन में फँसता है वह कच्चा 'मैं' है, उसी का त्याग करना चाहिए ।"

अहंकार की यह व्याख्या सुनकर गृहस्वामी और दूसरे लोग बहुत प्रसन्न हुए ।

श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के लक्षण हैं । पहला यह कि अभिमान न रह जायेगा । दूसरा, स्वभाव शान्त बना रहेगा । तुममें दोनों लक्षण हैं । अतएव तुम पर ईश्वर का अनुग्रह है ।

"अधिक ऐश्वर्य (बहुत अधिक धन) के होने पर ईश्वर को लोग भूल जाते हैं, ऐश्वर्य का स्वभाव ही ऐसा है । यदु मल्लिक को बहुत ऐश्वर्य हुआ है, वह आजकल ईश्वर की बात ही नहीं करता । पहले ईश्वर-चर्चा खूब किया करता था ।

"कामिनी और कांचन एक तरह की शराब है । अधिक शराब पीने पर फिर चाचा और दादा का विचार नहीं रह जाता । उन्हें ही कह डालता है - 'तेरी ऐसी की तैसी ।’ मतवाले को बड़े-छोटे का ज्ञान नहीं रहता ।"

नन्द बसु - हाँ, यह तो ठीक है ।

पशुपति - ये सब क्या ठीक हैं ? स्पिरिच्युएलिज्म (अध्यत्मविद्या) , थियोसफी (ब्रह्मविद्या), सूर्यलोक, चन्द्रलोक, नक्षत्रलोक ?

श्रीरामकृष्ण - नहीं भाई, मैं नहीं जानता । इतना हिसाब-किताब क्यों ? आम खाओ । आम के कितने पेड़ हैं, कितनी लाख डालियाँ हैं, कितने करोड़ पत्ते हैं, इसके हिसाब लगाने की क्या जरूरत ? मैं बगीचे में आम खाने के लिए आया करता हूँ, आम खाकर चला जाऊँगा ।

"एक बार भी अगर चैतन्य जाग्रत हो, अगर एक बार भी ईश्वर को कोई समझ सके, तो दूसरी व्यर्थ बातों के जानने की इच्छा भी नहीं होती । विकार के होने पर लोग बहुत कुछ बका करते हैं - 'अरे ! मैं तो पाँच सेर चावल का भात खाऊँगा, मैं दस घड़ा पिऊँगा रे !' - यह सब । वैद्य कहता है - 'खायेगा ! अच्छा खा लेना - यह कहकर वह तम्बाकू पीने लगता है । विकार अच्छा हो जाने पर, रोगी जो कुछ कहता है उसकी ओर वह ध्यान देता है ।"

पशुपति - जान पड़ता है, हम लोगों का विकार चिरकाल तक बना रहेगा ।

श्रीरामकृष्ण - क्यों, ईश्वर पर मन रखो, चैतन्य प्राप्त होगा। 

पशुपति (सहास्य) - हम लोगों का ईश्वर से योग क्षणिक है । तम्बाकू पीने में जितनी देर लगती है, बस उतनी ही देर तक । (सब हँसते हैं)

श्रीरामकृष्ण - तो क्या हुआ, थोड़ी देर के लिए भी उनसे योग हो गया तो मुक्ति होगी ही ।

"अहिल्या ने कहा, 'राम, चाहे शूकर-योनि में जन्म हो, अथवा और कहीं, ऐसा करो कि तुम्हारे श्रीचरणों में मन लगा रहे - शुद्धा भक्ति बनी रहे ।’

[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

*पाप तथा परलोक, मृत्युकाल के समय ईश्वर-चिन्ता*

"नारद ने कहा, 'राम ! तुमसे मैं और कोई वर नहीं चाहता । मुझे बस शुद्धा भक्ति दो । और यह आशीर्वाद करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में बद्ध न होऊँ ।’ उनसे आन्तरिक प्रार्थना करने पर उन पर मन भी लगता है और शुद्धा भक्ति भी उनके श्रीचरणों में होती है ।

“ ‘क्या हमारा विकार दूर होगा ? - हम पापी जो हैं,' यह सब बुद्धि दूर करो। (नन्द बसु से) चाहिए यह भाव कि एक बार हमने उनका नाम लिया है, अब हममें पाप कहाँ रह गया ?"

नन्द बसु - तो क्या परलोक है ? और क्या पाप का शासन?

श्रीरामकृष्ण - तुम आम खाते तो जाओ । इन सब बातों के हिसाब से तुम्हें क्या काम ? - परलोक है या नहीं - वहाँ क्या होता है, क्या नहीं - इन सब बातों से क्या प्रयोजन ? 

“आम खाओ, आम की जरूरत है - उनमें भक्ति की जरूरत है ।"

नन्द बसु - 'आम का पेड़'  है कहाँ ? आम मिलता कहाँ है ?

श्रीरामकृष्ण – पेड़ ! वे अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं । वे तो हैं ही - वे नित्य हैं । एक बात और - वे कल्पतरु हैं । 

'काली कल्पतरु मूले रे मन, चारि फल कूड़ाये पाबि !' 

"उस माँ काली रूपी कल्पतरु के नीचे तुम्हें चारों फल मिलेंगे । "  

"तुम्हें किन्तु कल्पतरु (अपने इष्टदेव अवतार-वरिष्ठ) के पास जाकर प्रार्थना करनी होगी, तभी पेड़ से फल गिरेंगे। जब देखोगे, पेड़ के नीचे फल है, तब बीन लेना । चार फल हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।

 “ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं, भक्त भक्ति चाहते हैं - अहेतुकी भक्ति, वे धर्म, अर्थ, काम नहीं चाहते ।

श्रीरामकृष्ण - “परलोक की बात कहते हो । गीता का मत है, मृत्यु के समय जो कुछ सोचोगे, वहीं होओगे । राजा भरत ने हरिण-हरिण कहकर दुःख में देह छोड़ी थी । दूसरे जन्म में वे हरिण हुए भी थे । इसीलिए जप, ध्यान और पूजा आदि का दिन-रात अभ्यास किया जाता है, इस तरह अभ्यास के गुण से मृत्यु के समय ईश्वर की याद आती है । इस तरह से अगर मृत्यु होती है तो ईश्वर का स्वरूप मिलता है ।

केशव सेन ने भी परलोक की बात पूछी थी । मैंने केशव से कहा, 'इन सब बातों का हिसाब लगाकर क्या करोगे ? फिर कहा, 'जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक बार बार संसार में आना-जाना होगा । कुम्हार मिट्टी के बासन धूप में सुखाता है । बकरी या गाय के पैरों से दबकर जो फूट जाते हैं उनमें जो पक्के बासन होते हैं उन्हें तो कुम्हार फेंक देता है, परन्तु कच्चे बासनों को वह फिर से गढ़ता है ।’ "

(३)

[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

🔱🙏ज्ञानमार्ग तथा शुद्धा भक्ति🔱🙏

अब तक गृहस्वामी ने श्रीरामकृष्ण के जलपान के लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी । तब श्रीरामकृष्ण ने नन्द बोस से स्वयं कहा – “देखो , तुम्हें मुझे कुछ 'खाने के लिये' देना चाहिए। इसलिए एक दिन मैंने यदु की माँ से मैंने कहा,' कुछ खाने को दो।' नहीं तो गृहस्थ का कहीं अमंगल न हो। " 

गृहस्वामी (नन्दलाल बोस) ने कुछ मिष्टान्न मँगाया । श्रीरामकृष्ण मिष्टान्न खा रहे हैं । नन्द बसु तथा अन्य लोग श्रीरामकृष्ण की ओर एकदृष्टि से ताक रहे हैं । देख रहे हैं, वे क्या करते हैं ।

श्रीरामकृष्ण हाथ धोयेंगे । जिस तश्तरी में मिठाई दी गयी थी वह दरी पर बिछी हुई चद्दर पर रखी थी, इसलिए श्रीरामकृष्ण वहीं अपने हाथ नहीं धो सके । हाथ धोने के लिए एक आदमी एक बरतन ले आया । 

 पीकदान रजोगुण का चिह्न है । श्रीरामकृष्ण देखकर कह उठे, "ले जाओ - ले जाओ ।" गृहस्वामी ने कहा, "हाथ धोइये।" 

श्रीरामकृष्ण अन्यमनस्क हैं । कहा, "क्या ? - हाथ धोऊँगा ।"

श्रीरामकृष्ण बरामदे के दक्षिण ओर उठ गये । मणि को हाथ पर पानी डालने के लिए आज्ञा की । मणि गडुए से पानी छोड़ने लगे । श्रीरामकृष्ण अपनी धोती में हाथ पोंछकर फिर बैठने की जगह पर आ गये । समागत सज्जनों के लिए तश्तरी में पान लाये गये थे । उसी में के पान श्रीरामकृष्ण के पास ले जाये गये । उन्होंने पान नहीं लिया

[ইষ্টদেবতাকে নিবেদন — জ্ঞানভক্তি ও শুদ্ধাভক্তি ]

नन्द वसु (श्रीरामकृष्ण से) - एक बात कहूँ ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – क्या ?

नन्द बसु - पान आपने क्यों नहीं खाया ? सब तो ठीक हुआ, इतना यह अन्याय हो गया ।

श्रीरामकृष्ण - इष्ट को देकर खाता हूँ । यह एक अपना भाव है ।

नन्द बसु - वह तो इष्ट ही में जाता ।

श्रीरामकृष्ण - ज्ञानमार्ग और चीज है, और भक्तिमार्ग दूसरी ।

ज्ञानी के मत से सभी चीजें ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से ली जा सकती हैं, लेकिन भक्तिमार्ग में  कुछ भेद-बुद्धि होती है। [दासोऽहं भाव ?]  

नन्द बसु - तो यह दोष हुआ है ।

श्रीरामकृष्ण - यह एक मेरा भाव है । तुम जो कुछ कहते हो ठीक है, शास्त्रों में उसका भी समर्थन किया गया है।

श्रीरामकृष्ण गृहस्वामी को चापलूसों के सम्बन्ध में सावधान कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - एक बात के बारे में सावधान रहना । चापलूस अपने स्वार्थ की ताक में रहते हैं । (प्रसन्न के पिता से) आप क्या यहाँ रहते हैं ?

प्रसन्न के पिता - जी नहीं, परन्तु इसी मुहल्ले में रहता हूँ ।

श्रीरामकृष्ण  (बहुत विनम्रता से): "नहीं, कृपया आप हुक्के का आनंद लें। मुझे अब धूम्रपान करने का मन नहीं कर रहा है।"

नन्द बसु का मकान बहुत बड़ा है, इस पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "यदु का मकान इतना बड़ा नहीं है । इसीलिए उससे उस दिन मैंने कहा ।"

नन्द - हाँ, उन्होंने (जोड़ासाखों में) एक नया मकान बनवाया है ।

श्रीरामकृष्ण नन्द वसु (गृहस्थ) का उत्साह बढ़ा रहे हैं, कह रहे हैं – "तुम संसार में रहकर ईश्वर की ओर मन रखे हुए हो, क्या यह कुछ कम बात है ? जिसने संसार का त्याग कर दिया है वह तो ईश्वर को पुकारेगा ही । उसमे बहादुरी क्या है ? जो संसार में रहकर उन्हें पुकारता है, धन्य वही है। 

[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

🔱🙏 हनुमान में ज्ञान और भक्ति दोनों थे, नारद में शुद्धा भक्ति थी 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण (नन्द लाल बोस के प्रति) "किसी एक भाव का आश्रय लेकर उन्हें पुकारना चाहिए । हनुमान में ज्ञान और भक्ति दोनों थे, नारद में शुद्धा भक्ति थी ।

"राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम किस भाव से मेरी पूजा करते हो ?" हनुमान ने कहा, 'कभी तो देखता हूँ, तुम पूर्ण हो और मैं अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो और मैं दास हूँ; और राम, जब तत्व का ज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं 'मैं हो और मैं ही 'तुम' हूँ ।’

[^* देहबुद्‍ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्‍ध्या त्वदंशकः।आत्मबुद्‍ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥]

 नारद का माया दर्शन -??

"राम ने नारद से कहा, 'तुम वर लो ।' नारद ने कहा, 'राम, यह वर दो कि तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो जिससे फिर तुम्हारी भुवन-मोहिनी माया से मुग्ध न होऊँ ।’ "

श्रीरामकृष्ण अब उठनेवाले हैं ।

श्रीरामकृष्ण (नन्द बसु से) - गीता का मत है, बहुत-से आदमी जिसे मानते और पूजते हैं उसमें ईश्वर की विशेष शक्ति है । तुममें ईश्वर की शक्ति है ।

नन्द बसु - शक्ति सभी मनुष्यों में बराबर है ।????

श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) - यही तुम लोगों की एक रट है । सब आदमियों की शक्ति कभी बराबर हो सकती है ? विभुरूप से वे सर्वभूतों में विराजमान हैं, यह ठीक है, परन्तु शक्ति की विशेषता है

"यही बात विद्यासागर ने भी कही थी । उसने कहा था, 'क्या उन्होंने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ?' तब मैंने कहा, 'अगर शक्ति की भिन्नता न रहती, तो तुम्हें हम लोग देखने क्यों आते ? क्या तुम्हारे सिर पर दो सींग हैं ?"

श्रीरामकृष्ण उठे । साथ-साथ सब भक्त भी उठे । पशुपति साथ साथ दरवाजे तक आये ।

(४)

[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

🔱 ब्राह्मणी के मकान में श्रीरामकृष्ण 🔱

प्रेममय प्रभु श्रीरामकृष्ण बागबाजार की एक शोकातुरा ब्राह्मणी के यहाँ आये हुए हैं । मकान पुराने ढंग का है, पर पक्का है, इसलिए छत पर ही बैठने का प्रबन्ध किया गया है । घर में प्रवेश करने के बाद श्रीरामकृष्ण बाईं ओर स्थित गौशाला को पार कर अपने भक्तों के साथ छत पर पहुँचे और स्थान ग्रहण किया। छत पर कतार बाँधकर कुछ लोग खड़े हैं, कुछ लोग बैठे हुए हैं । सब उत्सुक हैं कि श्रीरामकृष्ण को कब देखें ।

ब्राह्मणी दो बहनें हैं, दोनों विधवा हैं, घर में उनके भाई सपत्नीक रहते हैं । ब्राह्मणी के एक ही कन्या थी । उसके निधन से वह अत्यन्त दुःखी रहा करती है आज श्रीरामकृष्ण पधारेंगे, यह सुनकर दिन भर से वह उनके स्वागत की तैयारी कर रही है । जब तक श्रीरामकृष्ण नन्द बसु के यहाँ थे तब तक ब्राह्मणी भीतर-बाहर कर रही थी कि कब वे आयें । आने में विलम्ब होते देख वह निराश हो रही थी, सोंच रही थीं -लगता है अब ठाकुर नहीं आयेंगे।

भक्तों के साथ आकर छत पर बैठने के स्थान पर श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया । पास चटाई पर मास्टर, नारायण, योगीन्द्र सेन, देवेन्द्र तथा योगीन बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद छोटे नरेन्द्र आदि बहुत से भक्त आ गये । ब्राह्मणी की बहन छत पर आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कह रही है - "दीदी नन्द बसु के यहाँ खबर लेने के लिए अभी थोड़ी देर हुई, गयी हैं । आती ही होंगी ।"

नीचे एक शब्द सुनकर उसने कहा, 'वह - दीदी आयीं ।' यह कहकर वह देखने लगी, परन्तु ब्राह्मणी नहीं आयी थी ।

श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं ।

मास्टर (देवेन्द्र से) - कितना सुन्दर दृश्य है ! लड़के बच्चे, पुरुष, स्त्री सब लोग कतार बाँधकर खड़े हुए हैं । सब लोग इन्हें देखने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं - और इनकी बात सुनने के लिए ।

देवेन्द्र - (श्रीरामकृष्ण से) - मास्टर महाशय कहते हैं, 'नन्द बसु के वहाँ से यह जगह अच्छी है, - इन लोगों में कितनी भक्ति है !’

श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।

अब ब्राह्मणी की बहन कह रही है, 'दीदी वह आ रही है ।’

ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके, अपने-आपे में न थी ! कुछ सोच न सकी कि क्या कहे ।

वह अधीर होकर कहने लगी - "अरी, देख, इतना आनन्द मैं कहाँ रखूँ ? - बताओ री - जब मेरी चण्डी आती थी, सिपाहियों को साथ लेकर, और  वे लोग रास्ते पर पहरा देते थे, तब भी तो मुझे इतना आनन्द नहीं हुआ - अरी, अब मुझे चण्डी के देहत्याग का दुःख जरा भी नहीं है ।

मैंने सोचा था, जब 'वे ' (अर्थात् श्री रामकृष्ण) नहीं आये, तब जो कुछ आयोजन मैंने किया, सब गंगा में फेंक दूँगी - फिर कभी उनसे बोलूँगी भी नहीं – जहाँ आयेंगे, आड़ से एक बार देख भर लूँगी, बस चली आऊँगी ।

"जाऊँ, सब से कहूँ, तुम आकर मेरा सुख देख जाओ, - जाऊँ योगीन से कहूँ, मेरा सुख देख जा –”

मारे आनन्द के अधीर होकर ब्राह्मणी फिर कहने लगी - "खेल (लाटरी) में एक रुपया लगाकर किसी कुली को एक लाख रुपये मिले थे । एक लाख रुपये मिले हैं, सुनकर मारे आनन्द से वह मर गया था - सचमुच मर गया था ! – अरी ! मेरी भी तो वही दशा हो गयी है । तुम लोग सब आशीर्वाद दो, नहीं तो मैं भी सचमुच मर जाऊँगी ।"

मणि ब्राह्मणी की व्याकुलता और भाव की अवस्था देखकर मुग्ध हो गये हैं । वे उसके पैरों की धूल लेने के लिए बढ़े । ब्राह्मणी ने कहा, 'अजी, यह क्या ?' - उसने मणि को भी बदले में प्रणाम किया।

ब्राह्मणी भक्तों को आये हुए देखकर मारे आनन्द के कह रही है - "तुम सब लोग आये हो, छोटे नरेन्द्र को भी मैं ले आयी हूँ, नहीं तो हँसेगा कौन ?"

ब्राह्मणी इसी तरह की बातें कह रही है, इसी समय उसकी बहन ने आकर कहा, 'दीदी, तुम जरा नीचे भी तो आओ, हम लोग अकेले क्या क्या करें ?'

ब्राह्मणी आनन्द में अपने को भूली हुई है । श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों को देख रही है । उन्हें अब छोड़कर जा नहीं सकती ।

इस तरह की बातों के पश्चात् बड़ी भक्ति से ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण को एक दूसरे कमरे में ले गयी और खाने के लिए अनेक मिष्टान्न आदि दिये । भक्तों को भी छत पर बैठाकर खिलाया ।

रात के आठ बजे । श्रीरामकृष्ण बिदा हो रहे हैं । नीचे के मँजले में कमरे के साथ बरामदा भी है । बरामदे से पश्चिम की ओर आँगन में आया जाता है, फिर दाहिनी ओर गोओं के रहने की जगह छोड़कर सदर दरवाजे को रास्ता है । उस समय ब्राह्मणी जोर से पुकार रही थी - 'ओ बहू, जल्दी आ - पैरों की धूल ले ।' बहू ने प्रणाम किया । ब्राह्मणी के एक भाई ने भी आकर प्रणाम किया ।ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण से कह रही है - 'यह एक दूसरा भाई है - अनाड़ि है ।

'श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'नहीं, सब भलेमानस हैं ।'

एक व्यक्ति साथ साथ दिया दिखाते हुए आ रहे हैं, आते आते एक जगह प्रकाश ठीक नहीं पहुँचा, तब छोटे नरेन्द्र ऊँचे स्वर से कहने लगे – ‘दिया दिखाओ – दिया दिखाओ - यह न सोचो दिया दिखाना अब बस है ।' (सब हँसते हैं)

अब गौओं की जगह आयी । ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण से कहती है, 'यहाँ मेरी गौएँ रहती हैं ।' श्रीरामकृष्ण वहाँ जरा खड़े हो गये, और चारों ओर भक्तगण । मणि ने भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया और पैरों की धूल ली । अब श्रीरामकृष्ण गनू की माँ के घर जायेंगे ।

(५)

[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

🔱🙏गनू की माँ के मकान में श्रीरामकृष्ण*🔱🙏 

गनू की माँ के बैठकखाने में श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कमरा एक मँजले पर है, बिलकुल रास्ते पर। उस कमरे में बजानेवालों का अखाड़ा (Concert) लगा करता है । कुछ नवयुवक श्रीरामकृष्ण के आनन्द के लिए वाद्ययन्त्र लेकर बीच बीच में बजाते भी हैं ।

रात के साढ़े आठ बजे का समय होगा । आज आषाढ़ की कृष्णा प्रतिपदा (पूर्णिमा के बाद पहला दिन) है । चाँदनी में आकाश, गृह, राजपथ, सब कुछ प्लावित हो रहा है । श्रीरामकृष्ण के साथ भक्तगण आकर उसी कमरे में बैठे । साथ साथ ब्राह्मणी भी आयी हुई है, वह कभी घर के भीतर जा रही है, कभी बाहर बैठकखाने के दरवाजे के पास खड़ी होती है ।

मुहल्ले के कुछ लड़के झरोखों पर चढ़कर श्रीरामकृष्ण को झाँककर देख रहे हैं । मुहल्ले भर के लड़के, बूढ़े और जवान श्रीरामकृष्ण के आगमन की बात सुनकर उनके दर्शन करने के लिए आये हैं ।

झरोखे पर बच्चों को देखकर छोटे नरेन्द्र कह रहे हैं, 'अरे, तुम लोग वहाँ क्यों खड़े हो, जाओ अपने अपने घर ।' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'नहीं, नहीं रहने दो ।' श्रीरामकृष्ण बीच बीच में 'हरि ॐ - हरि ॐ' कह रहे हैं ।

दरी पर एक आसन बिछाया गया है । श्रीरामकृष्ण उसी पर बैठे हैं । वाद्य बजानेवाले लड़कों से गाने के लिए कहा गया । उनके लिए बैठने की सुविधा नहीं है । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अपने पास दरी पर बैठने के लिए बुलाया । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, ‘इसी पर आकर बैठो मैं इसे समेटे लेता हूँ ।’ यह कहकर उन्होंने अपना आसन समेट लिया । नवयुवक गा रहे हैं - 

"केशव कुरु करुणा दीने कुंजकाननचारी ।

माधव मनोमोहन मोहन मुरलीधारी। 

(हरिबोल, हरिबोल, हरिबोल, मन आमार।।)  

ब्रजकिशोर, कालीयहर कातर भयभंजन,    

नयन -बाँका, बाँका -शिखिपाखा, राधिका-हृदिरंजन,      

गोबर्धन- धारण, वनकुसुम-भूषण, दामोदर कंस-दर्पहारी।

श्याम रास-रसबिहारी।      

(हरिबोल, हरिबोल, हरिबोल, मन आमार।।) 

श्रीरामकृष्ण – अहा ! कितना मधुर गाना है ! – बेला (violin)  भी कितना सुन्दर बज रहा है ! और गाना भी कैसा स्वरयुक्त हो रहा है ! एक लड़का फ्लुट (बंसी) बजा रहा था । उसकी ओर तथा एक दूसरे लड़के की ओर उँगली से इशारा करके श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘ये इनके जोड़ीदार हैं ।’

अब वाद्य बजने लगे । श्रीरामकृष्ण आनन्दित होकर कह रहे हैं - "वाह ! कितना सुन्दर है !" एक लड़के की ओर उँगली से इशारा करके कह रहे हैं - "इनको सब तरह का बाजा बजाना आता है।"मास्टर से कह रहे हैं - "ये सब बड़े अच्छे आदमी हैं ।"

बालक-भक्त जब खुद गा-बजा चुके तब भक्तों से उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने)  कहा, 'आप लोग भी कुछ गाइये ।' ब्राह्मणी खड़ी हुई है । उसने दरवाजे के पास ही से कहा, 'ये लोग कोई गाना नहीं जानते । एक हैं महिनबाबू, परन्तु उनके (श्रीरामकृष्ण के) सामने वे भी नहीं गायेंगे ।'

एक बालक-भक्त - क्यों मैं तो अपने बाबूजी के सामने गा सकता हूँ ।

छोटे नरेन्द्र (जोर से हँसकर) - इतनी दूर ये नहीं बढ़ सके ।

सब हँस रहे हैं । कुछ देर बाद ब्राह्मणी ने आकर कहा, "आप भीतर आइये ।" श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्यों ?"

ब्राह्मणी - वहाँ जलपान की व्यवस्था की गयी है ।

श्रीरामकृष्ण - यहीं न ले आओ ।

ब्राह्मणी - गनू की माँ ने कहा है, 'घर में ले आओ, पैरों की धूल पड़ जायेगी तो मेरा घर वाराणसी हो जायेगा, इस घर में मरूँगी तो फिर किसी बात की (लोक-परलोक) चिन्ता न रहेगी । श्रीरामकृष्ण घर के लड़कों के साथ मकान के भीतर गये । 

भक्तगण चाँदनी में टहलने लगे । मास्टर और विनोद घर के दक्षिण और सदर रास्ते पर -अपने प्रेममय गुरुदेव के जीवन में घटित घटनाओं के विषय में बात-चीत करते हुए टहल रहे हैं ।

(६)

[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118] 

🔱🙏गुह्य कथा- 'तीनों एक’🔱🙏

श्रीरामकृष्ण बलराम के घर लौट आये हैं । बलराम के बैठकखाने के पश्चिम ओरवाले कमरे में विश्राम कर रहे हैं, अब वे सोयेंगे । गनू की माँ के घर से लौटते हुए बड़ी रात हो गयी है । रात के पौने ग्यारह बजे होंगे ।

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "योगीन, जरा पैरों पर हाथ तो फेर दो ।" पास ही मास्टर भी बैठे हुए हैं।योगीन पैरों पर हाथ फेर रहे हैं, इतने में ही श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'मुझे भूख लगी है, थोड़ीसी सूजी का हलवा खाऊँगा ।

ब्राह्मणी यहाँ भी साथ-साथ आयी हुई है । ब्राह्मणी के भाई तबला बहुत अच्छा बजाते हैं । श्रीरामकृष्ण ब्राह्मणी को देखकर फिर कह रहे हैं, 'अगली बार नरेन्द्र या किसी दूसरे गवैये के आने पर इनके भाई भी बुला लिये जायेंगे ।’

श्रीरामकृष्ण ने थोड़ी सी सूजी खायी । क्रमशः योगीन आदि भक्तगण कमरे से चले गये । मणि श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेर रहे हैं, श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत कर रहे हैं

श्रीरामकृष्ण - अहा, इन्हें (ब्राह्मणी आदि को) कितना आनन्द हुआ है !

मणि - कैसे आश्चर्य की बात है, ईसा मसीह के समय भी ऐसा ही हुआ था । वे भी दो बहनें थीं - परम भक्त मारथा (Martha) और मेरी (Mary)

श्रीरामकृष्ण(आग्रह से) - उनकी कहानी क्या है, जरा कहो तो ।

MASTER (eagerly): "Tell me the story."

मणि - ईशू उनके यहाँ भक्तों के साथ बिलकुल इसी तरह गये थे । एक बहन उन्हें देखकर भाव और आनन्द के पारावार में मग्न हो गयी थी । यह मुझे गौरांग के बारे में एक गीत की याद दिलाती है: 'गौर के रूप-सागर में मेरे नयन डूब गये, फिर लौटकर मेरे पास न आये; मेरा मन भी, तैरना भूलकर, एकदम तल में पैठ गया ।'

"दूसरी बहन अकेली जलपान का प्रबन्ध कर रही थी । उसने अपनी बहन से कोई मदद न पा ईशू के पास शिकायत की, कहा, 'प्रभु, देखिये तो, दीदी का यह कितना बड़ा अन्याय है ! आप यहाँ अकेली चुपचाप बैठी हुई हैं और मैं अकेली यह सब काम कर रही हूँ !’

"तब ईशू ने कहा, 'तुम्हारी दीदी धन्य हैं, क्योंकि मनुष्यजीवन में जो कुछ चाहिए  वह उन्हें हो गया है ।’ "

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यह सब देखकर तुम्हें क्या जान पड़ता है ?

मणि – मुझे जान पड़ता है, ईशू, चैतन्य और आप एक ही हैं ।

श्रीरामकृष्ण – एक ! एक ! एक ही तो ! वे (ईश्वर) – देखते नहीं हो – इसमें किस तरह से हैं !

यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने अपने शरीर की ओर उँगली से इशारा किया ।

मणि - उस दिन आप इस अवतीर्ण होने की बात को बहुत अच्छी तरह समझा रहे थे ।

श्रीरामकृष्ण - किस तरह, कहो तो ।

मणि -आपने हमें क्षितिज और उससे आगे तक फैले एक क्षेत्र की कल्पना करने के लिए कहा था - जैसे खूब लम्बा-चौड़ा मैदान पड़ा हुआ है । सामने चारदीवार है । इसलिए यह विस्तृत मैदान हमें देखने को नहीं मिलता । लेकिन, उस चारदीवार में एक गोलाकार छेद है । उस छेद से उस अनन्त तक विस्तृत मैदान का कुछ अंश दिखायी पड़ता है ।

श्रीरामकृष्ण - कहो भला वह छेद क्या है ?

मणि - वह छेद आप हैं; आपके भीतर से सब दीख पड़ता है, - यह दिगन्तव्यापी मैदान भी दिखायी पड़ता है ।

श्रीरामकृष्ण सन्तुष्ट होकर मणि की पीठ ठोंकने लगे और कहा, 'तुमने इसे (सत्य नारायण भगवान को) समझ लिया, अच्छा हुआ ।"

मणि - उसे समझना सचमुच बड़ा कठिन है । पूर्ण ब्रह्म होते हुए भी उतने के भीतर किस तरह रहते हैं, यह नहीं समझ में आता ।

[ केला का पत्ता सत्य नारायण पूजा में केले  के पत्ते से बने मण्डप में शालिग्राम भगवान को रखते हैं, केला नारायण पूजा में प्रमुख प्रसाद भी है,  क्योंकि सत्य नारायण भगवान केले  की तरह कदली स्तम्भ से बिना बीज के ही  प्रकट होते हैं। कदली को स्वर्ग फल कहा जाता है जो 'कल्पतरु ' जैसा सबसे शुद्ध पेड़ माना जाता है। इसीलिए आराध्य देवी की प्रतिमा बनाने में इसी वृक्ष के तनों व पत्तों का इस्तेमाल होता आ रहा है।] 

श्रीरामकृष्ण देव ने एक लोकभजन को उद्धृत करते हुए कहा - " उसे किसी ने न पहचाना, वह पागल की तरह, किसी  जीवों के घरों में घूम रहा है ।"

मणि - और आपने ईशू की बात कही थी ।

श्रीरामकृष्ण - क्या-क्या ?

मणि - यदु मल्लिक के बगीचे में ईशू की तस्बीर देखकर भावसमाथि हुई थी, आपने देखा था - ईशू की मूर्ति तस्बीर से निकलकर आपमें आकर लीन हो गयी ।

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं । फिर मणि से कह रहे हैं - 'गले में यह जो हुआ है, सम्भव है इसका कोई अर्थ हो । यदि यह न होता तो मैं सब स्थानों में जाता, गाता और नाचता, और इस प्रकार स्वयं को खिलवाड़ -सा बना लेता ।'

श्रीरामकृष्ण द्विज की बात कह रहे हैं । कहा 'द्विज नहीं आया ।'

मणि - मैंने तो आने के लिए कहा था । आज आने की बात भी थी, परन्तु क्यों नहीं, आया, कुछ समझ में नहीं आता ।

श्रीरामकृष्ण - उसमें अनुराग खूब है । अच्छा, वह यहाँ का (सांगोपांग में से) कोई एक होगा, न ?

मणि - जी हाँ, होगा जरूर । नहीं तो इतना अनुराग फिर कैसे होता ?

मणि मसहरी के भीतर श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं । 

श्रीरामकृष्ण करवट बदलकर फिर बातचीत करने लगे । आदमी के भीतर अवतीर्ण होकर वे लीला करते हैं, यही बात हो रही है ।

श्रीरामकृष्ण - पहले मुझे रूपदर्शन नहीं होता था, ऐसी अवस्था भी हो चुकी है । इस समय भी देखते नहीं हो ? रूपदर्शन घटता जा रहा है ।

मणि - लीलाओं में नरलीला मुझे अधिक पसन्द है ।

श्रीरामकृष्ण - तो बस ठीक है । - और तुम मुझे देखते ही हो !

उपरोक्त कथन से क्या श्रीरामकृष्ण का यही संकेत है कि ईश्वर नररूप में अवतीर्ण होकर इस शरीर में लीला कर रहे हैं

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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

$$🔱🙏परिच्छेद~117 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 🔱🔱ईश्वर ही कर्ता हैं । अपने को 'अकर्ता' समझकर 'कर्ता' की तरह काम करते रहो ।🙏 'मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री !' 🔱🙏

 परिच्छेद ११७.

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

(१)

*श्रीश्री रथ-यात्रा के दिन बलराम के मकान में*

🔱🙏 पूर्ण, छोटे नरेन्द्र, 'गोपाल की माँ' 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण बलराम के बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । आज आषाढ़ को शुक्ला प्रतिपदा है, सोमवार, १३ जुलाई १८८५, सबेरे ९ बजे का समय होगा ।

कल रथ-यात्रा है । रथ-यात्रा के उपलक्ष्य में बलराम ने श्रीरामकृष्ण को आमन्त्रित किया है । उनके घर में श्रीजगन्नाथजी की नित्य सेवा हुआ करती है । एक छोटासा रथ भी है । रथ-यात्रा के दिन रथ बाहर के बरामदे में चलाया जायेगा ।

श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ बातचीत कर रहे हैं । पास ही नारायण, तेजचन्द्र तथा अन्य दूसरे भक्त भी हैं । पूर्ण के सम्बन्ध में बातचीत हो रही हैं । पूर्ण की उम्र पन्द्रह साल की होगी । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - अच्छा, वह किस रास्ते से आकर मिलेगा ? द्विज और पूर्ण के मिला देने का भार तुम्हीं पर रहा ।


श्रीरामकृष्ण - एक ही प्रकृति तथा एक ही उम्र के आदमियों को मैं मिला दिया करता हूँ । इसका एक विशेष अर्थ है। इससे  'सह नौ भुनक्तु' दोनों की उन्नति होती है । पूर्ण में कैसा अनुराग है, तुमने देखा ?"

मास्टर - जी हाँ, मैं ट्राम पर जा रहा था, छत से मुझे देखकर दौड़ा हुआ आया और व्याकुल होकर वहीं से उसने नमस्कार किया ।

श्रीरामकृष्ण (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) अहाहा ! मतलब यह कि तुमने परमार्थ लाभ (Summum bonum-निःश्रेयस्- लाभ) के लिए उसका मेरे साथ संयोग करा दिया है । ईश्वर के लिए व्याकुल हुए बिना ऐसा नहीं होता ।

"नरेन्द्र, छोटा नरेन्द्र और पूर्ण, इन तीनों की सत्ता पुरुष-सत्ता है । भवनाथ में यह बात नहीं - उसके स्वभाव में जनानापन है, प्रकृति भाव है ।

"पूर्ण की जैसी अवस्था है, इससे बहुत सम्भव है, उसकी देह का नाश बहुत जल्द हो जाय - इस विचार से कि ईश्वर तो मिल गये, अब किसलिए यहाँ रहा जाय ? – या यह भी सम्भव है कि थोड़े ही दिनों में वह बड़े जोरों की बाढ़ बढ़ेगा ।

"उसका है देव-स्वभाव - देवता की प्रकृति । इससे लोकभय कम रहता है । अगर गले में माला डाल दी जाय या देह में चन्दन लगा दिया जाय अथवा धूप-धूना जलाया आय, तो उस प्रकृतिवाले को समाधि हो जाती है । - उसे जान पड़ता है, हृदय में नारायण हैं - वे ही देहधारण करके आये हुए हैं । मुझे  इसका ज्ञान हो गया है

"दक्षिणेश्वर में पहले-पहल जब मेरी यह अवस्था हुई, तब कुछ दिनों के बाद एक भले ब्राह्मण-घर की लड़की आयी थी । वह बड़ी सुलक्षणी थी । ज्योंही उसके गले में माला डाली और धूप-धूना दिया, त्योंही वह समाधिमग्न हो गयी । कुछ देर बाद उसे आनन्द मिलने लगा - और आँखों से अश्रुधारा बह चली । तब मैंने प्रणाम करके पूछा, 'माँ, क्या मुझे भी लाभ होगा ?' उसने कहा, 'हाँ।'

"पूर्ण को एक बार और देखने की इच्छा है । परन्तु देखने की सुविधा कहाँ ?

“जान पड़ता है कला है । कैसा आश्चर्यजनक ! केवल अंश नहीं, कला है (दिव्य अवतार का एक अंश।)!"कितना चतुर है ! - सुना है, लिखने-पढ़ने में भी बड़ा तेज है । - तब तो मेरा अन्दाजा पूरा उतर गया ।

"तपस्या के प्रभाव से नारायण भी सन्तान होकर जन्म लेते हैं । कामारपुकुर के रास्ते में एक तालाब पड़ता है, नाम है रणजित राय का तालाबरणजित राय के यहाँ भगवती ने कन्या होकर जन्म लिया था । अब भी चैत के महीने में वहाँ मेला लगता है । जाने की मेरी बड़ी इच्छा होती है, परन्तु अब नहीं जाया जाता ।

"रणजित राय वहाँ का जमींदार था । तपस्या के प्रभाव से उसने भगवती को कन्या के रूप में पाया था । कन्या पर उसका बड़ा स्नेह था । उसी स्नेह के कारण वह अपने पिता का संग नहीं छोड़ती थी ।

 एक दिन रणजित अपनी जमींदारी का काम कर रहा था, फुरसत नहीं थी । लड़की, बच्चों का स्वभाव जैसा होता है, बार बार पूछ रही थी - 'बाबूजी, यह क्या है ? - वह क्या है ?' पिता ने बड़े मधुर स्वर से कहा, 'बेटी, अभी जाओ, बड़ा काम है ।' पर लड़की वहाँ से किसी तरह नहीं टली । अन्त में ध्यानरहित हो उसके बाप ने कहा, 'तू यहाँ से दूर हो जा ।'

कन्या वहाँ से चली आयी । उसी समय एक शंख की चूड़ियाँ बेचनेवाला वहाँ से जा रहा था । उसे बुलाकर उसने शंख की चूड़ियाँ पहनीं । दाम देने की बात पर उसने कहा, 'घर की अमुक अलमारी की बगल में रुपये रखे हैं, माँग लेना ।' और यह कहकर वहाँ से चली गयी, फिर नहीं दीख पड़ी । उधर घर में चूड़ीवाला पुकार रहा था । तब लड़की को घर में न देख, सब इधर-उधर दौड़ पड़े । रणजित राय ने खोज करने के लिए जगह-जगह आदमी भेजे । चुड़ीवाले का रुपया उसी जगह मिला । रणजित राय रोते हुए घूम रहे थे, इतने में ही किसी ने कहा, 'तालाब में कुछ दीख पड़ता है ।'  लोगों ने उसके किनारे पर खड़े होकर देखा, एक हाथ जिसमें वही शंख की चूड़ियाँ थीं, पानी के ऊपर उठा हुआ था । फिर वह हाथ भी न दीख पड़ा । अब भी मेले के समय भगवती की पूजा होती है, - वारुणी के दिन । (मास्टर से) यह सब सत्य है ।"

मास्टर – जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र अब यह सब मानता है ।     

"पूर्ण का जन्म विष्णु के अंश से है । मन ही मन बिल्व-पत्र से मैंने पूजा की – पूजा ठीक न हुई, तब चन्दन और तुलसीदल लिया । तब पूजा ठीक हुई ।

"वे अनेक रूपों से दर्शन देते हैं । कभी नररूप से, कभी चिन्मय ईश्वर के रूप से रूप मानना चाहिए - क्यों जी ?"

मास्टर - जी हाँ ।

श्रीरामकृष्ण - कामारहाटी की ब्राह्मणी (गोपाल की माँ) तरह तरह के रूप देखती है; गंगा के किनारे, एक निर्जन कुटिया में अकेली रहती है और जप किया करती है । गोपाल के पास सोती है। (कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण चौंके) कल्पना में नहीं, साक्षात् । उसने देखा, गोपाल के हाथ लाल हो रहे हैं ! गोपाल उसके साथ साथ घूमते हैं ! - उसका दूध पीते हैं ! - बातचीत करते हैं । जब नरेन्द्र ने यह सब सुना, वह रोने लगा !

श्रीरामकृष्ण - "पहले मैं भी बहुत कुछ देखा करता था । इस समय भाव में उतना दर्शन नहीं होता। अब प्रकृति-भाव घट रहा है । पुरुष-भाव आ रहा है । इसीलिए अन्तर में ही भाव रहता है, बाहर उतना प्रकाश नहीं हो पाता ।

"छोटे नरेन्द्र का पुरुष-भाव है, - इसीलिए मन लीन हो जाया करता है । भावादि नहीं होते । नित्यगोपाल का प्रकृति-भाव है; इसीलिए टेढ़ा-मेढ़ा बना रहता है - भावावेश में शरीर लाल हो जाता है ।"

 [ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

(२)

कामिनी -कांचन त्याग 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - अच्छा, आदमियों का त्याग तिल-तिल करके होता है, परन्तु इनकी (लड़कों की) कैसी अवस्था है ?

"विनोद ने कहा, 'स्त्री के साथ सोना पड़ता है, मन को जरा भी नहीं रुचता ।"

"देखो, संग हो या न हो, एक साथ सोना भी बुरा है । देह का संघर्ष - देह की गरमी तो लगती ही है ।

"द्विज की कैसी अवस्था है ! बस देह हिलाता हुआ मेरी ओर देखता रहता है । यह क्या कम बात है ? सब मन सिमटकर अगर मुझमे आ गया तो समझो सब कुछ हो गया ।

 "मैं और क्या हूँ ? - वे ही हैं । मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं।"

 "इसके (मेरे) भीतर ईश्वर की सत्ता है, इसीलिए आकर्षण इतना बढ़ रहा है, लोग खिंचे आते हैं । 

"छूने से ही हो जाता है । वह आकर्षण ईश्वर का ही आकर्षण है ।"

“तारक (बेलघड़िया के) वहाँ से (दक्षिणेश्वर से) घर लौट रहा था । मैंने देखा, इसके (मेरे) भीतर से शिखा की तरह जलता हुआ कुछ निकल गया – उसके पीछे पीछे ।"कुछ दिनों बाद तारक फिर आया । तब समाधिस्थ होकर उसकी छाती पर पैर रख दिया – उन्होंने, जो इसके (मेरे) भीतर हैं।

"अच्छा, इन लड़कों की तरह  क्या और लड़के है ?"

मास्टर - मोहित अच्छा है । आपके पास दो-एक बार आया था । दो (उच्च डिग्री) परीक्षाओं के लिए तैयारी कर रहा है और ईश्वर पर अनुराग भी है ।

श्रीरामकृष्ण - यह हो सकता है, परन्तु इतना ऊंचा स्थान उसका (तारक,पूर्ण या नरेन्द्र जैसा ऊँचा आधार मोहित का ?) नहीं है । शरीर के लक्षण उतने अच्छे नहीं हैं -मुँह चिपटा है ।

" इनका स्थान ऊँचा है ।  परन्तु शरीर-धारण करने से ही आफतों में पड़ना है । और शाप रहा तब तो सात बार जन्म लेना ही होगा । बड़ी सावधानी से रहना पड़ता है । वासनाओं के रहने से ही शरीर-धारण होता है।"

एक भक्त - जो अवतार हैं और देहधारण करके आये हैं, उनमें कौनसी वासना है ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैंने देखा है, मेरी सब वासनाएँ नहीं गयीं । एक साधु का शाल  देखकर मेरी इच्छा हुई थी कि मैं भी इस तरह का शाल ओढूँ । अब भी है । कौन जाने, एक बार कहीं फिर न आना पड़े ।

बलराम (सहास्य) - आपका जन्म होगा 'शाल' के लिए ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - एक 'अच्छी कामना' रखनी चाहिए । उसी की चिन्ता करते हुए शरीर का त्याग हो, इसलिए । साधु चार धामों में एक धाम बाकी रख छोड़ते हैं । बहुतेरे जगन्नाथक्षेत्र बाकी रखते हैं । इसलिए कि जगन्नाथ की चिन्ता करते हुए शरीर-पात हो ।

गेरूआ पहने हुए एक व्यक्ति कमरे के भीतर आये और नमस्कार किया । ये भीतर ही भीतर श्रीरामकृष्ण की निन्दा किया करते हैं । इसीलिए बलराम हँस रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अन्तर्यामी हैं, बलराम से कह रहे हैं - 'कोई चिन्ता नहीं, यदि वे मुझे ढोंगी कहते हैं तो कहने दो ।’

श्रीरामकृष्ण तेजचन्द्र के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (तेजचन्द्र से) - तुझे इतना बुला भेजता हूँ, तू आता क्यों नहीं ? अच्छा, ध्यान आदि करता है ? इसी से मुझे प्रसन्नता होगी । मैं तुझे अपना जानता हूँ इसलिए बुला भेजता हूँ ।

तेजचन्द्र - जी, आफिस जाना पड़ता है । काम भी बहुत रहता है ।

मास्टर (सहास्य) - घर में शादी थी, दस दिन की इन्होंने छुट्टी ली थी ।

श्रीरामकृष्ण - तो फिर, अवकाश नहीं है, अवकाश नहीं है - ऐसा क्यों कहा ? अभी तो तूने कहा था कि संसार छोड़ दूँगा

नारायण - मास्टर ने एक दिन कहा था - संसार का अरण्यभाव । 

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - तुम वह कहानी जरा कहो तो । इन लोगों का उपकार होगा । शिष्य दवा खाकर अचेत हो रहा । गुरु ने आकर कहा, "इसके प्राण बच सकते हैं, अगर यह गोली कोई और खा ले । यह शिष्य तो बच जायेगा परन्तु जो गोली खायेगा, उसके प्राण निकल जायेंगे ।'

"और वह भी कहो, - टेढ़ा-मेढ़ा हो गया था । उस हठयोगी के बारे में, जिसने सोचा था, स्त्री-पुत्र यही सब अपने आदमी हैं ।"

दोपहर को श्रीरामकृष्ण ने जगन्नाथजी का प्रसाद पाया । रामकृष्ण ने कहा, ‘बलराम का अन्न' शुद्ध है ।' भोजन के बाद कुछ देर के लिए वे विश्राम कर रहे हैं ।

दोपहर ढल चुकी है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हुए हैं । कर्ताभजा चन्द्रबाबू और वे रसिक ब्राह्मण भी हैं । ब्राह्मण का स्वभाव एक तरह भाँड़  जैसा है । - वे एक बात कहते है और हँसते हँसते लोगों का पेट फूलने लगता है ।

श्रीरामकृष्ण ने कर्ताभजा सम्प्रदाय ^* के लोगों पर बहुत सी बातें कही - रूप, स्वरूप, रज, वीर्य, पाकक्रिया आदि बहुतसी बातों का उल्लेख किया ।

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

* श्रीरामकृष्ण की भावावस्था* 

लगभग छ: बजे का समय है । गिरीश के भाई अतुल और तेजचन्द्र के भाई आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण भाव-समाधि में मग्न हैं । कुछ देर बाद भावावेश में कह रहे हैं - "चैतन्य की चिन्ता करके क्या कोई कभी अचेतन होता है ? - ईश्वर की चिन्ता करके क्या कभी किसी को मस्तिष्क-विकार हो सकता है ? - वे बोधस्वरूप जो हैं - नित्य (शाश्वत), शुद्ध और बोधरूप ।"

आये हुए दो लोगों में से क्या कोई ऐसा सोचते रहे होंगे कि ईश्वर की अधिक चिन्ता करके लोग पागल हो जाते हैं - शायद इन्हें भी कोई मस्तिष्क-विकार हो गया है ?

श्रीरामकृष्ण कृष्णधन नाम के उसी रसिक ब्राह्मण से कह रहे हैं – “साधारण – से ऐहिक विषय को लेकर तुम दिन-रात मजाक कर-करके समय क्यों बिता रहे हो ? उसी को ईश्वर की ओर लगा दो । जो नमक का हिसाब लगा सकता है, वह मिश्री का भी लगा लेता है ।"

कृष्णधन - (हँसकर) - आप खींच लीजिये । 

श्रीरामकृष्ण - मैं क्या करूँगा, सब तुम्हारी ही चेष्टा पर अवलम्बित है । ‘यह मन्त्र नहीं -अब मन तेरा है। 

" उस साधारण-सी रसिकता को छोड़कर ईश्वर की ओर बढ़ जाओ।  आगे एक से एक बढ़कर चीजें मिलेंगी । ब्रह्मचारी ने लकड़हारे से बढ़ जाने के लिए कहा था । उसने बढ़कर देखा, चन्दन का वन था - फिर चाँदी की खान थी, और फिर आगे बढ़कर सोने की खान, - फिर हीरे और मणि की खानें ।" 

कृष्णधन - इस मार्ग का अन्त नहीं है ।

श्रीरामकृष्ण - जहाँ शान्ति हो, वहीं रुक जाओ ।

श्रीरामकृष्ण एक आये हुए व्यक्ति के सम्बन्ध में कह रहे हैं –"उसके भीतर कोई सार -वस्तु मुझे नहीं दीख पड़ी, जैसे जंगली बेर ।"

शाम हो गयी । कमरे में दिया जला दिया गया । श्रीरामकृष्ण जगन्माता की चिन्ता करते हुए मधुर स्वर से उनका नाम ले रहे हैं । भक्तगण चारों ओर बैठे हुए हैं । कल रथ-यात्रा है । आज श्रीरामकृष्ण यहीं रहेंगे ।

अन्तः पुर से कुछ जलपान करके श्रीरामकृष्ण फिर बड़े कमरे में आये । रात के दस बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण मणि से कह रहे हैं - उस कमरे से अँगौछा तो ले आओ ।

उसी छोटे कमरे में श्रीरामकृष्ण के सोने का प्रबन्ध किया गया है । रात के साढ़े दस का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण शयन करने के लिए गये ।

 गरमी का मौसम है श्रीरामकृष्ण ने मणि से पंखा ले आने के लिए कहा । मणि पंखा झल रहे हैं । रात के बारह बजे श्रीरामकृष्ण की नींद उचट गयी, कहा, 'पंखा बन्द कर दो, जाड़ा लग रहा है ।'

(३)

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏 विचार के अन्त में मन का नाश तथा ब्रह्मज्ञान🔱🙏

आज रथ यात्रा है । दिन मंगलवार । प्रातः काल उठकर अपने कमरे में श्रीरामकृष्ण अकेले नृत्य करते हुए मधुर कण्ठ से नाम ले रहे हैं । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । क्रमशः भक्तगण आकर प्रणाम करके श्रीरामकृष्ण के पास बैठे । श्रीरामकृष्ण पूर्ण के लिए बहुत व्याकुल हो रहे हैं । मास्टर को देखकर उन्हीं की बातें कर रहे हैं। 

श्रीरामकृष्ण - तुम पूर्ण को देखकर क्या कोई उपदेश दे रहे थे ?

मास्टर - जी, मैंने चैतन्य चरितामृत पढ़ने के लिए उससे कहा था । उस पुस्तक की बातें वह खूब बतला सकता है । और आपने कहा था सत्य को पकड़े रहने के लिए; यह बात भी मैंने कही थी । 

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, 'ये अवतार हैं' इन सब बातों के बताने पर क्या कहता था ?

मास्टर - मैंने कहा था, 'चैतन्यदेव की तरह एक और आदमी देखना हो तो चलो ।'

श्रीरामकृष्ण - और भी कुछ ?

मास्टर - आपकी वही बात । छोटी-सी गड़ही में हाथी उतर जाता है तो पानी में उथल-पुथल मच जाती है, - आधार के छोटे होने पर उसमें से भाव छलककर गिरता है । 

लगभग साढ़े छ: का समय है । बलराम के घर से मास्टर गंगा नहाने के लिए जा रहे हैं । रास्ते में एकाएक भूकम्प होने लगा । वे उसी समय श्रीरामकृष्ण के कमरे में लौट आये । श्रीरामकृष्ण बैठकखाने में खड़े हुए हैं । भक्तगण भी खड़े हैं । भूकम्प की बात हो रही है । कम्पन कुछ अधिक जोर से हुआ था  भक्तों में बहुतों को भय हो गया था ।

मास्टर - तुम सब लोगों को नीचे चले जाना चाहिए था ।

श्रीरामकृष्ण - जिस घर में रहते हैं, उसी की तो यह दशा है ! इस पर फिर आदमियों का अहंकार! (मास्टर से) तुम्हें वह आश्विन की आँधी याद है ?

मास्टर - जी हाँ, तब मेरी उम्र बहुत थोड़ी थी – नौ-दस साल की रही होगी - मैं कमरे में अकेला देवताओं का नाम ले रहा था ।

मास्टर विस्मय में आकर सोच रहे हैं, 'श्रीरामकृष्ण ने एकाएक आश्विन की आँधी की बात क्यों चलायी ? मैं व्याकुल होकर एक कमरे में बैठा हुआ ईश्वर की प्रार्थना कर रहा था; श्रीरामकृष्ण क्या सब जानते हैं ? वे क्या मुझे उसकी याद दिला दे रहे हैं ? मेरे जन्म के समय से ही वे क्या गुरु-रूप से मेरी रक्षा कर रहे हैं ?"

   श्रीरामकृष्ण - जब दक्षिणेश्वर में आँधी आयी, उस समय दिन बहुत चढ़ गया था, पर कैसा भी करके भोग पकाया गया था । देखो, जिस घर में निवास है, उसी की यह हालत है ! 

"परन्तु पूर्ण ज्ञान के होने पर मरना और मारना एक जान पड़ता है। मरने पर भी कुछ नहीं मरता -मार डालने पर भी कुछ नहीं मारता। जिनकी लीला है, नित्यता भी उन्हीं की है । एक रूप में नित्यता है और दूसरे रूप में लीला ।लीला का रूप नष्ट हो जाने पर भी उसकी नित्यता नहीं जाती । पानी के स्थिर रहने पर भी वह पानी है और हिलने-डुलने पर भी पानी ही है । फिर हिलकर, उस हिलने के बन्द हो जाने पर भी वह वही पानी है ।"

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकखाने में बैठे हुए हैं । महेन्द्र मुखर्जी, हरिबाबू, छोटे नरेन्द्र तथा अन्य कई बालक-भक्त बैठे हुए हैं । हरिबाबू अकेले ही रहते हैं, वेदान्त की चर्चा किया करते हैं, उम्र २३-२४ साल की होगी । विवाह नहीं किया है । श्रीरामकृष्ण इन्हें बड़ा प्यार करते हैं । सदा दक्षिणेश्वर आने के लिए कहा करते हैं । वे अकेले ही रहना पसन्द करते हैं, इसलिए श्रीरामकृष्ण के पास भी अधिक नहीं जाया करते । 

श्रीरामकृष्ण (हरिबाबू से) - क्यों जी, तुम बहुत दिन नहीं आये ?

 "वे एक रूप से नित्य हैं, एक रूप से लीला । वेदान्त में क्या है ? ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या । परन्तु जब तक उन्होंने 'भक्त का मैं' रख दिया है, तब तक लीला भी सत्य है । 'मैं' को जब वे पोंछ डालेंगे, तब जो कुछ है, वही है । मुँह से उसका वर्णन नहीं हो सकता । 'मैं' को जब तक उन्होंने रखा है, तब तक सब मानना होगा । केले के पेड़ के खोलों को निकालते रहने पर उसका माझा मिलता है । अतएव खोलों के रहने पर माझा का रहना भी सिद्ध होता है और माझे के रहने पर खोलों का । खोलों का ही माझा है और माझे का ही खोल है । नित्य है, यह कहने से लीला का अस्तित्व सिद्ध होता है; और लीला है, यह कहने पर नित्य का अस्तित्व ।

"वे ही जीव और जगत् हुए हैं, चौबीसों तत्त्व हुए हैं । जब वे निष्क्रिय हैं, तब उन्हें लोग ब्रह्म कहते हैं और जब सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं तब उन्हें शक्ति कहते हैं । ब्रह्म और शक्ति दोनों अभेद हैं । पानी स्थिर रहने पर भी पानी है और हिलने डुलने पर भी पानी ही है ।

" 'मैं' का भाव दूर नहीं होता । जब तक 'मैं' का भाव है, तब तक जीव-जगत् को मिथ्या कहने का अधिकार नहीं है । बेल के खोपड़े और बीजों को फेंक देने पर, कुल बेल का वजन समझ नहीं आता ।

"जिस ईंट, चूना और सुर्खी से छत बनी है, उसी से सीढ़ियाँ भी बनी हैं । जो ब्रह्म है उन्हीं की सत्ता से यह जीव-जगत् भी बना है ।

भक्त और विज्ञानी निराकार और साकार दोनों मानते हैं - अरूप  और रूप  दोनों को ग्रहण करते हैं,   भक्तिरूपी हिम के लगने से उसी (अनन्त -असीम) जल का कुछ अंश बर्फ (ससीम) बन जाता है । फिर ज्ञान-सूर्य के उगने पर वह बर्फ गलकर जल का फिर जल ही हो जाता है ।

श्रीरामकृष्ण - "जब तक मनुष्य मन के द्वारा विचार करता है, तब तक वह नित्य को नहीं प्राप्त कर सकता । जब तक तुम अपने मन का सहारा लेकर विचार करते हो तब तक तुम संसार के परे नहीं जा सकते, तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों को भी नहीं छोड़ सकते ।

 " विचार के बन्द होने पर ही ब्रह्मज्ञान होता है । इस मन से कोई आत्मा को जान नहीं सकता । आत्मा के द्वारा ही आत्मा का ज्ञान प्राप्त होता है । शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा, ये सब एक ही वस्तु हैं ।

श्रीरामकृष्ण - " देखो न, एक ही वस्तु को देखने के लिए कितनी चीजों की आवश्यकता होती है । आँखें चाहिए, उजाला चाहिए और मन का संयोग होना चाहिए । इन तीनों में से किसी एक को छोड़ देने से दर्शन नहीं होता । मन का यह काम जब तक चल रहा है, तब तक किस तरह कहोगे कि संसार नहीं है या मैं नहीं हूँ ?

श्रीरामकृष्ण - "मन का नाश होने पर, संकल्प और विकल्प के चले जाने पर समाधि होती है - ब्रह्मज्ञान होता है । परन्तु – सा, रे, ग, म, प, ध, नि - 'नि' में बड़ी देर तक नहीं रहा जाता ।”

छोटे नरेन्द्र की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, " ‘ईश्वर है' - केवल इतना ही आभास पाने से क्या होगा ? ईश्वर की केवल झलक से ही सब कुछ हो जाता हो, सो बात नहीं ।

"उन्हें अपने घर ले आना चाहिए - उनसे जान-पहचान करनी चाहिए ।

"किसी ने दूध की बात सुनी ही है, किसी ने दूध देखा है और किसी ने पिया है ।

"राजा को किसी किसी ने देखा है, परन्तु दो एक आदमी उन्हें अपने मकान ले आ सकते हैं और उन्हें खिला-पिला सकते हैं ।"

मास्टर गंगा-स्नान के लिए गये ।

(४)

[(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117]

🔱🙏*वाराणसी में शिव तथा अन्नपूर्णा दर्शन*🔱🙏

दिन के दस बजे का समय हो गया । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । मास्टर ने गंगा-स्नान करके श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया और उनके पास बैठे ।

श्रीरामकृष्ण भाव के पूर्णावेश में कितनी ही बातें कह रहे हैं । बीच बीच में दर्शन की गुह्य बातें कह रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - मथुरबाबू के साथ मैं वाराणसी गया था । मणिकर्णिका के घाट से हमारी नाव जा रही थी; एकाएक मुझे शिव के दर्शन हुए । मैं नाव के एक सिरे पर खड़ा हुआ समाधिमग्न हो गया। मल्लाह हृदय से कहने लगे, 'अरे ! पकड़ो !' उन्होंने सोचा, मैं कहीं गिर न जाऊँ । देखा, शिव मानो संसार की कुल गम्भीरता लिए हुए खड़े हैं । पहले मैंने उन्हें दूर खड़े हुए देखा था, फिर मेरे पास आने लगे और मेरे भीतर विलीन हो गये ।

"भावावेश में मैंने देखा, एक संन्यासी मेरा हाथ पकड़कर मुझे लिए जा रहा है । एक ठाकुर-मन्दिर में मैं घुसा, वहाँ सोने की अन्नपूर्णा देखी ।

श्रीरामकृष्ण - "वे ही यह सब हुए हैं, - किसी किसी वस्तु में उनका प्रकाश अधिक है ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) "तुम लोग शायद शालिग्राम में विश्वास नहीं करते – इंग्लिशमैन भी नहीं करते । तुम लोग मानो चाहे न मानो, कोई बात नहीं । शालिग्राम अगर सुलक्षणयुक्त हों - उनमें अच्छे चक्र आदि हों - तभी ईश्वर के प्रतीक रूप में उनकी पूजा हो सकती है ।"

मास्टर - जी, जैसे उत्तम लक्षणवाले मनुष्य के भीतर ईश्वर का प्रकाश अधिक है ।

श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र पहले इन सब बातों को मन की भूल कहा करता था, अब सब मानने लगा है।

ईश्वर-दर्शन की बातें कहते हुए श्रीरामकृष्ण को भाव की अवस्था हो रही है । धीरे-धीरे आप भाव-समाधि में लीन हो गये । भक्तगण चुपचाप एकटक दृष्टि से देख रहे हैं । बड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण ने भाव को रोका और फिर बातचीत करने लगे ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैं देख रहा था, ब्रह्माण्ड एक शालग्राम है । उसके भीतर तुम्हारी दो आँखें देख रहा था ।

मास्टर और भक्तगण यह अद्भुत और अश्रुतपूर्व दर्शन आश्चर्यचकित होकर सुन रहे हैं । इसी समय एक और बालक-भक्त सारदा आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

श्रीरामकृष्ण (सारदा से) - तू दक्षिणेश्वर क्यों नहीं आता ? मैं जब कलकत्ता आया करता हूँ, तो तू दक्षिणेश्वर क्यों नहीं आता ?

सारदा - मुझे खबर नहीं मिलती ।

श्रीरामकृष्ण - अब तुझे ख़बर दूँगा । (मास्टर से, सहास्य) लड़कों की एक (सूची) फेहरिस्त तो बनाओ । (मास्टर और भक्त हँसते हैं)

सारदा - घरवाले विवाह कर देना चाहते हैं । ये (मास्टर) विवाह की बात पर कितने ही बार मना कर चुके हैं ।

श्रीरामकृष्ण - अभी विवाह क्यों ?

(मास्टर से) "सारदा की अच्छी अवस्था हो गयी है, पहले संकोच का भाव था, अब मुख पर आनन्द आ गया है ।"

श्रीरामकृष्ण एक भक्त से पूछ रहे हैं - "तुम क्या एक बार पूर्ण को ले आओगे ?"

नरेन्द्र आये । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को जलपान कराने के लिए कहा । नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण को बड़ा आनन्द हो रहा है । नरेन्द्र को खिलाकर मानो वे साक्षात् नारायण की सेवा करते हैं । उनकी देह पर हाथ फेरकर उन्हें प्यार कर रहे हैं ।

गोपाल की माँ -जिन्हें श्री रामकृष्ण में गोपाल या शिशु कृष्ण के दर्शन हुए थे]  कमरे के भीतर आयी । श्रीरामकृष्ण ने बलराम से कामारहाटी आदमी भेजकर गोपाल की माँ को ले आने के लिए कहा था । इसीलिए वे आयी हुई हैं । कमरे के भीतर आते ही गोपाल की माँ कह रही हैं, 'मारे आनन्द के मेरी आँखों से आँसू बह रहे हैं ।’ यह कहकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो उन्होंने प्रणाम किया ।

श्रीरामकृष्ण - यह क्या है, तुम मुझे 'गोपाल' भी कहती हो और प्रणाम भी करती हो !"जाओ, घर में कोई तरकारी बनाओ जाकर, खूब बघार देना जिससे यहाँ तक सुगन्ध आये ।" (सब हँसते हैं)

गोपाल की माँ - ये लोग (घर के लोग) क्या सोचेंगे ?

घर के भीतर जाने से पहले उन्होंने नरेन्द्र से कातर स्वर में कहा, 'भैया, मेरी बन गयी या अभी कुछ बाकी है ?"

आज रथ यात्रा है । श्रीजगन्नाथजी के भोग आदि के होने में कुछ देर हो गयी । अब श्रीरामकृष्ण भोजन करेंगे, अन्तःपुर की ओर जा रहे हैं । भक्त-स्त्रियाँ उनके दर्शन करने के लिए उत्सुक हैं । 

बहुत सी स्त्रियाँ श्रीरामकृष्ण की भक्ति करती थीं । परन्तु उनकी बातें वे पुरुष भक्तों से न कहते थे

कोई परुष-भक्त यदि किसी स्त्री-भक्त से पास अधिक आना-जाना करते तो वे उससे कहते थे - "उसके पास ज्यादा न जाया कर, गिर जायेगी ।” 

कभी कभी कहते थे, "अगर मारे भक्ति के कोई स्त्री जमीन में लोटती भी रहे तो भी उसके पास न जाना चाहिए ।" 

श्री रामकृष्ण का स्पष्ट आदेश था - "स्त्री-भक्त अलग रहेंगी – पुरुष-भक्त अलग, तभी दोनों की भलाई हैं । "

कभी कहते थे, "स्त्रियों के गोपाल-भाव – वात्सल्य-भाव - का अतिरेक अच्छा नहीं । उसी वात्सल्य से एक दिन बुरा भाव पैदा हो जाता है ।"

(५)

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

*नरेन्द्रादि भक्तों के साथ कीर्तनानन्द में*

दिन के एक बजे का समय है । भोजन करके श्रीरामकृष्ण फिर बैठकखाने में आकर भक्तों के बीच में बैठे । एक भक्त पूर्ण को बुला लाये हैं । श्रीरामकृष्ण बड़े आनन्द में आकर कहने लगे, 'यह देखो, पूर्ण आ गया ।' नरेन्द्र, छोटे नरेन्द्र, नारायण, हरिपद और दूसरे भक्त श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं ।

छोटे नरेन्द्र - अच्छा, हम लोगों में स्वाधीन इच्छा है या नहीं ?

श्रीरामकृष्ण - मैं क्या हूँ - कौन हूँ, पहले इसे खोज तो लो । 'मैं' की खोज करते ही करते 'वे' निकल पड़ेंगे । 'मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री !' 

चीन का बना हुआ यंत्रमानव (robot) चिट्ठी (पार्सल) लेकर दूकान चला जाता है, तुमने सुना है ? ईश्वर ही कर्ता हैं । अपने को 'अकर्ता' समझकर 'कर्ता' की तरह काम करते रहो ।

श्रीरामकृष्ण - "जब तक उपाधियाँ हैं, तभी तक अज्ञान हैं । मैं पण्डित हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं धनी हूँ, मैं मानी हूँ, मैं कर्ता हूँ, पिता हूँ, गुरु हूँ, यह सब अज्ञान से उत्पन्न  होता है । ‘मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो,’ यह ज्ञान है । उस समय सब उपाधियाँ दूर हो जाती हैं । काठ के जल जाने पर फिर शब्द नहीं होता, न ताप रहता है । सब ठण्डा हो जाता है। - शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।”

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) "कुछ गाओ न ।"

नरेन्द्र - घर जाऊँगा, कई काम हैं ।

श्रीरामकृष्ण - हाँ भाई, हम लोगों की बात तुम क्यों सुनने लगे । जिसके पास पूँजी है, उसी के पीछे लोग लगे रहते हैं, और जिसके कमर पर एक धोती भी साबित नहीं बची है, उसकी बात भला कौन सुनता है ? (सब हँसते हैं)

"तुम गुहों के बगीचे में तो जा सकते हो ! जब कभी मैं पूछता हूँ, 'नरेन्द्र कहाँ है ?'' - तो सुनता हूँ, 'गुहों के बगीचे में ।’ - यह बात मैं न कहता, तूने ही तो निकाली ।"

नरेन्द्र कुछ देर चुप रहे । फिर कहा, 'बाजा नहीं हैं, कैसे गाऊँ ?’

श्रीरामकृष्ण - हमारी जैसी हालत ! - इसी में रहकर गा सको तो गाओ । इस पर बलराम का बन्दोबस्त ।

"बलराम कहता है, 'आप नाव पर ही कलकत्ता आया कीजिये, अगर कभी न बने तभी गाड़ी से आया कीजिये ।'

(सब हँसते हैं) देखते हो, आज उसने खिलाया है, इसीलिए आज तीसरे पहर भर हम सबों को कसकर नचायेगा । (हास्य) यहाँ से एक दिन उसने गाड़ी की - बारह आने में ! मैंने पूछा, 'क्या बारह आने में दक्षिणेश्वर तक गाड़ी जायेगी ?' उसने कहा, 'हाँ, ऐसा होता है ।' रास्ते में जाते जाते गाड़ी का कुछ हिस्सा ही अलग हो गया ! (उच्च हास्य) घोड़ा भी बीच-बीच में पैर अड़ाता था । किसी तरह चलता ही न था, गाड़ीवान जब कसकर चाबुक मारता था तब घोड़े के पैर उठते थे । इधर राम खोल बजायेगा और हम लोग नाचेंगे - राम को ताल का भी ज्ञान नहीं है । (सब हँसे) बलराम का यह भाव है, - आप लोग गाइये, बजाइये, नाचिये और मौज कीजिये !" (सब हँसते हैं)

घर से भोजन कर क्रमश: भक्तगण आते जा रहे हैं ।  

महेन्द्र मुखर्जी को दूर से प्रणाम करते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण उन्हें प्रणाम कर रहे हैं - फिर सलाम भी किया । पास के एक नवयुवक भक्त से कह रहे हैं, "उसे बताओ कि इन्होंने मुसलमान के तरीके से सलाम किया है - वह खुश हो जायेगा।  'अल्काट' 'अल्काट' (थिऑसफी के एक महात्मा) ही रटता है ।"

गृही भक्तों में से अनेकों ने अपने घर की स्त्रियों को भी साथ लाया है - वे श्रीरामकृष्ण के दर्शन करेंगी और रथ के सामने श्रीरामकृष्ण का कीर्तनानन्द देखेंगी । राम और गिरीश आदि भक्त भी आ गये हैं । नवयुवक भक्त भी बहुतसे आ गये हैं ।

नरेन्द्र गाने लगे – 

" वह प्रेम का संचार और कितने दिनों में होगा ?"

बलराम ने आज कीर्तन का बन्दोबस्त किया है - वैष्णवचरण और बनवारी का कीर्तन है । वैष्णवचरण ने गाया - 

 "ऐ मेरी रसने, सदा माँ दुर्गा-नाम का जप कर। "  

गाने का कुछ अंश सुनते ही श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े होकर समाधिस्थ हुए थे - छोटे नरेन्द्र पकड़े हुए हैं । मुख पर हास्य की रेखा प्रकट हो गयी । कमरे भर के भक्त आश्चर्यचकित हो देख रहे हैं । स्त्रियाँ चिक के भीतर से श्रीरामकृष्ण की यह अवस्था देख रही हैं । नाम जपते जपते बड़ी देर के बाद समाथि छूटी । 

श्रीरामकृष्ण के आसन ग्रहण करने पर वैष्णवचरण ने फिर गाया –“ऐ विणे, तू हरिनाम कर ।”

अब एक दूसरे कीर्तनिये बनवारी 'रूप' गा रहे हैं । परन्तु वे गाते ही गाते ‘आहा हा, आहा हा’ कहकर भूमिष्ठ होकर प्रणाम करने लगते हैं । इससे कोई श्रोता हँसते हैं, किसी को विरक्ति होती है ।

पिछला प्रहर हो आया । इस समय बरामदे में श्रीजगन्नाथदेव का वही छोटा रथ ध्वजा-पताकाओं से सुसज्जित करके लाया गया है । श्रीजगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम चंदन-चर्चित तथा वसन-भूषण और पुष्पमालाओं से सुशोभित हैं । श्रीरामकृष्ण बनवारी का कीर्तन छोड़कर बरामदे में रथ के सामने चले गये । साथ साथ भक्तगण भी गये । श्रीरामकृष्ण ने रथ की रस्सी पकड़ जरा खींचा, फिर रथ के सामने भक्तों के साथ नृत्य और कीर्तन करने लगे । 

छोटे बरामदे में रथ चलने के साथ ही कीर्तन और नृत्य हो रहा है । उच्च संकीर्तन और खोल का शब्द सुनकर बहुतसे बाहर के लोग वहाँ आ गये । श्रीरामकृष्ण भगवत्प्रेम से मतवाले हो रहे हैं । भक्तगण प्रेमोन्मत्त हो साथ-साथ नाच रहे हैं

(६)

*भावावेश में श्रीरामकृष्ण*

रथ के सामने कीर्तन और नृत्य करके श्रीरामकृष्ण कमरे में आकर बैठे । मणि आदि भक्त उनकी चरण-सेवा कर रहे हैं ।

भावमग्न होकर नरेन्द्र तानपूरा लेकर फिर गाने लगे - 

"ऐ प्राणों की पुतली , माँ , हृदयरमा,  तू हृदय-आसन में आकर आसीन हो, मैं तेरा निरीक्षण करूँ।”

 “तुम्हीं को मैंने अपने जीवन का ध्रुवतारा बना लिया है ।"

एक भक्त ने नरेन्द्र से कहा - क्या तुम वह गाना गाओगे – ‘ऐ अन्तर्यामिनी माँ, तुम हृदय में सदा ही जाग रही हो ।’

श्रीरामकृष्ण – चल, इस समय ये सब गाने क्यों ? इस समय आनन्द के गीत हो – ‘श्यामा सुधा-तरंगिणी ।’

नरेन्द्र गा रहे हैं --

श्रीरामकृष्ण गाना सुनते ही प्रेमोन्मत्त होकर नृत्य करने लगे । बड़ी दिर तक नृत्य करने के बाद उन्होंने आसन ग्रहण किया । भावावेश में नरेन्द्र की आँखों में आँसू आ गये । श्रीरामकृष्ण को देखकर बड़ा आनन्द हुआ । 

रात के नौ बजे का समय होगा । अब भी भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए वैष्णवचरण का गाना सुन रहे हैं ।

वैष्णवचरण ने दो गाने और गाये । तब तक रात के दस-ग्यारह बजे का समय हो गया । भक्तगण प्रणाम करके विदा हो रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, अब सब लोग घर जाओ । (नरेन्द्र और छोटे नरेंद्र की ओर इशारा करके) इन दोनों के रहने ही से हो जायेगा । (गिरीश से) क्या घर जाकर भोजन करोगे ? रहना चाहो तो कुछ देर रहो । तम्बाकू ! - अरे, बलराम का नौकर भी वैसा ही है । बुलाकर देखो - हरगिज न देगा । (सब हँसते हैं) परन्तु तुम तम्बाकू पीकर जाना ।

श्रीयुत गिरीश के साथ चश्मा लगाये हुए उनके एक मित्र आये हैं । वे सब कुछ देख सुनकर चले गये । श्रीरामकृष्ण गिरीश से कह रहे हैं - "तुमसे तथा अन्य सभी से कहता हूँ, जबरदस्ती किसी को न ले आया करो, - बिना समय के आये कुछ नहीं होता ।"

एक भक्त ने प्रणाम किया । साथ एक छोटा लड़का है । श्रीरामकृष्ण सस्नेह कह रहे हैं - "अच्छा, बड़ी देर हो गयी है, फिर यह लड़का भी साथ है ।" नरेन्द्र, छोटे नरेन्द्र तथा दो-एक भक्त और कुछ देर रहकर घर गये ।

(७)

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

श्रीरामकृष्ण बैठकखाने के पश्चिम ओर बने एक छोटे से कमरे में खाट पर लेटे हुए हैं । रात के चार बजे का समय होगा । कमरे के दक्षिण ओर बरामदा है, उसमें एक स्टूल पड़ा हुआ है । उस पर मास्टर बैठे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण बरामदे में गये । मास्टर ने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । आज संक्रान्ति है, बुधवार, १५ जुलाई १८८५

श्रीरामकृष्ण - मैं एक बार और उठा था । अच्छा, क्या सबेरे दक्षिणेश्वर जाऊँ ?

मास्टर - प्रातःकाल गंगा की लहरें बहुत कुछ शान्त रहती है ।

सबेरा हो गया है । भक्तों का आगमन अभी नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण हाथ-मुख धोकर मधुर स्वर से नाम ले रहे हैं । पश्चिमवाले कमरे के उत्तर तरफ के दरवाजे के पास खड़े होकर नाम ले रहे हैं । पास ही मास्टर हैं । थोड़ी देर बाद , ठाकुर से कुछ दूरी पर गोपाल की माँ आकर खड़ी हुई । अन्तःपुर के द्वार के पीछे से दो-एक अन्य स्त्रियाँ भी श्रीरामकृष्ण को आकर देख रही हैं । 

राम-नाम करके श्रीरामकृष्ण कृष्ण का नाम ले रहे हैं । "कृष्ण कृष्ण ! गोपी कृष्ण ! गोपी ! गोपी ! राखालजीवन कृष्ण ! नन्दनन्दन कृष्ण ! गोविन्द ! गोविन्द !"


फिर गौरांग का नाम लेने लगे - "गौरांग प्रभु नित्यानन्द, हरे कृष्ण हरे राम राधे गोविन्द !"

फिर कह रहे हैं - 'अलख निरंजन !' निरंजन कहकर रो रहे हैं । उनका रोना और करुण कण्ठ सुनकर पास में खड़े हुए सब भक्त भी रोने लगे । वे रोते हुए कह रहे हैं -"निरंजन ! आ बेटा, कब तुझे भोजन कराकर जन्म सफल करूँ ! देह धारण करके मनुष्य के रूप में तू मेरे लिए आया हुआ है।"

जगन्नाथजी को अपनी विनय सुना रहे हैं - "जगन्नाथ ! जगद्वन्धो ! दीनबन्धो ! मैं संसार से अलग तो हूँ ही नहीं नाथ, मुझ पर दया करो ।"

प्रेमोन्मत्त होकर गा रहे हैं - "उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले बिराजे जी ।"

अब नारायण का नाम-कीर्तन करते हुए नाच रहे हैं - "श्रीमन्नारायण ! नारायण ! नारायण !"

अब श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ छोटे कमरे में बैठे । दिगम्बर ! जैसे पाँच साल का बच्चा ! बलराम, मास्टर और भी दो-एक भक्त बैठे हुए हैं ।

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर के रूप के दर्शन होते हैं । जब सब उपाधियाँ चली जाती हैं, विचार बन्द हो जाता है तब दर्शन होता है । तब मनुष्य निर्वाक् हो समाधि में लीन हो जाता है । थिएटर में जाकर, वहाँ बैठे हुए आदमी कितनी ही गप्पें सुनते-सुनाते रहते हैं । पर्दा उठा नहीं कि सब गप्पें बन्द हो जाती हैं । जो कुछ देखते हैं, उसी में मग्न हो जाते हैं । 

"तुम्हें यह मैं गुह्य बात सुना रहा हूँ । पूर्ण और नरेन्द्र आदि को प्यार करता हूँ, इसका एक खास अर्थ है । जगन्नाथ को मधुरभाव में आकर भेंटने के लिए मैंने हाथ बढ़ाया नहीं कि गिरकर हाथ टूट गया । उसने समझा दिया - 'तुमने शरीर धारण किया है, इस समय नर-रूपों में ही सख्य, वात्सल्य आदि भावों को लेकर रहो ।'

"रामलला पर जो जो भाव होते थे, वे ही अब पूर्णादि को देखकर होते हैं । रामलला को मैं नहलाता था, खिलाता था, सुलाता था, साथ लेकर घूमता था । रामलला के लिए बैठकर रोता था; इन सब लड़कों को लेकर ठीक वे ही बातें हो रही हैं । 

देखो न, निरंजन किसी में लिप्त नहीं है । खुद रुपया लगाकर गरीबों को दवाखाने ले जाया करता है । विवाह की बात पर कहता है, 'बाप रे ! विशालाक्षी नदी का भँवर है ।’ उसे मैं देखता हूँ, एक ज्योति पर बैठा हुआ है ।

“पूर्ण साकार ईश्वर के राज्य का है । उसका जन्म विष्णु के अंश से है । आहा ! - कैसा अनुराग है!

(मास्टर से) "देखा नहीं, वह तुम्हारी तरफ देखने लगा - जैसे गुरुभाई पर दृष्टि हो - जैसे कोई अपना सगा हो ? पूर्ण ने एक बार और मिलने के लिए कहा है । उसने कहा है, कप्तान के यहाँ भेंट होगी।

"नरेन्द्र का स्थान बहुत ऊँचा है - निराकार का घर  है । - पुरुष की सत्ता है । इतने भक्त आ रहे हैं, उसकी तरह एक भी नहीं है ।

"एक एक बार मैं बैठकर हिसाब लगाता हूँ । - देखता हूँ - दूसरों में से कोई तो पद्मों में दस दल का है, कोई सोलह दल का, कोई सौ दल का, परन्तु नरेन्द्र सहस्र दल का है

"दूसरे लोग यदि लोटा, घड़ा आदि हैं तो नरेन्द्र खूब बड़ा मटका है ।

"गड़हियों और तालाबों में नरेन्द्र सरोवर है । - जैसे हालदार सरोवर ।

"मछलियों में नरेन्द्र लाल आँखों की रोहू है तथा अन्य सब तरह-तरह की छोटी मछलियाँ हैं ।

 "बेलघर के तारक को 'मृगाल' (एक प्रकार की मछली, चालाक और बड़ी) कह सकते हैं ।

"नरेन्द्र बहुत बड़ा आधार है - उसमें बहुतसी चीजें समा जाती हैं । बड़े लम्बी छेदवाला बाँस है ।

"नरेन्द्र किसी के वश नहीं है। वह आसक्ति और इन्द्रिय-सुख के वश नहीं है । नर-कबूतर है । नर-कबूतर की चोंच पकड़ने पर वह चोंच खींचकर छुड़ा लेता है, - मादा चुपचाप रह जाती है

"नरेन्द्र पुरुष स्वभाव का है, इसीलिए गाड़ी में दाहिनी ओर बैठता है । भवनाथ का जनाना भाव  है, इसलिए उसे दूसरी ओर बैठाता हूँ ।

“नरेन्द्र सभा में रहता है तो मुझे भरोसा रहता है ।"

श्रीयुत महेन्द्र मुखर्जी आये और प्रणाम किया । दिन के आठ बजे होंगे । हरिपद, तुलसीराम भी क्रमशः आये और प्रणाम किया । बाबूराम को बुखार है । इसलिए वे नहीं आ सके ।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - छोटा नरेन्द्र नहीं आया ? उसने सोचा होगा - वे चले गये । (मुखर्जी से) कितने आश्चर्य की बात है, वह (छोटा नरेन्द्र) बचपन में, स्कूल से लौटकर ईश्वर के लिए रोता था । (ईश्वर के लिए) रोना क्या सहज ही होता है ?

फिर बुद्धि भी खूब है । बाँसों में बड़े छेदवाला बाँस है ।"और सब मन मुझ पर रहता है । 

गिरीश घोष ने कहा, 'नवगोपाल के यहाँ जिस दिन कीर्तन हुआ था, उस दिन (छोटा नरेन्द्र) गया था, - परन्तु 'वे कहाँ' कहकर बेहोश हो गया, लोग उसके ऊपर से चले जाते थे !"

“उसे भय भी नहीं है कि घरवाले नाराज होंगे । दक्षिणेश्वर में लगातार तीन रात रहा था ।”

(८)

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏भक्तियोग का रहस्य। ज्ञान और भक्ति का समन्वय🔱🙏

मुखर्जी - हरि (बागबाजार के हरिबाबू) आपकी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गये । कहते हैं, 'ऐसा ज्ञान केवल सांख्यदर्शन, पातंजलि योगसूत्र और वेदान्त की दार्शनिक पद्धति से प्राप्त होती हैं। ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं ।

श्रीरामकृष्ण - सांख्य और वेदान्त तो मैंने नहीं पढ़ा ।

"पूर्ण ज्ञान और पूर्ण भक्ति एक ही हैं । 'नेति नेति' के द्वारा जहाँ विचार का अन्त हो जाता है, वहीं ब्रह्मज्ञान है । - फिर जो कुछ छोड़कर जाना पड़ा था, लौटते हुए उसी को ग्रहण करना पड़ता है । छत पर चढ़ते समय बड़ी सावधानी से चढ़ना चाहिए । फिर वह देखता है, जिन चीजों से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हुई हैं - उन्हीं ईंटों से - उसी सुर्खी और चूने से ।

"जिसे उच्च का ज्ञान है, उसे निम्न का भी ज्ञान है । ज्ञान के बाद ऊँचा-नीचा एक जान पड़ता है ।

"प्रह्लाद को जब तत्त्वज्ञान होता था, तब वे 'सोऽहम्' होकर रहते थे । जब देह-बुद्धि आती थी, तब 'दासोऽहम्' - 'मैं दास हूँ’ यह भाव रहता था ।

"हनुमान को भी कभी सोऽहम्' का भाव रहता था, कभी 'दास मैं, कभी मैं तुम्हारा अंश हूँ’ यह भाव रहता था ।

"भक्ति लेकर क्यों रहना ? - इसे छोड़ दे तो मनुष्य फिर क्या लेकर रहे ? – क्या लेकर दिन पार किया करे ?

" 'मैं' जाने का तो है ही नहीं । ‘मै’ रूपी घट के रहते 'सोऽहम्' नहीं होता । समाधिमग्न होने पर 'मैं' पूर्ण रूप से चला जाता है । - तब जो कुछ है, वही है । रामप्रसाद ने कहा है – ‘फिर मैं अच्छा हूँ या तुम, यह तुम्हीं समझो ।’

"जब तक 'मैं' है तब तक भक्त की तरह ही रहना अच्छा है । ‘मैं ईश्वर हूँ’, यह भाव अच्छा नहीं । हे जीव ! भक्तवत् न तु कृष्णवत् ! - परन्तु अगर वे खुद खींच लें तो वह बात और है । जिस तरह मालिक नौकर को प्यार करके कहता है – ‘आ, पास बैठ, मैं जो कुछ हूँ, वही तू भी है ।’

“तरंगें गंगा की हैं, परन्तु गंगा तरंगों की नहीं । 

शिव की दो अवस्थाएँ हैं । जब वे आत्माराम रहते हैं, तब उनकी 'सोऽहम्' अवस्था होती है - योग में सब कुछ स्थिर है । जब 'मैं' - ज्ञान रहता है, तब 'राम राम' कहकर नृत्य करते हैं ।

“जिनमें स्थिरता है, उनमें अस्थिरता भी है ।"अभी तुम स्थिर हो, फिर थोड़ी देर बाद तुम काम करने लगोगे ।

"ज्ञान और भक्ति एक ही वस्तु हैं । अन्तर इतना ही है कि कोई कहता है पानी और कोई कहता है पानी का एक बड़ा ढेला (बर्फ) ।

"साधारणतया समाधियाँ दो तरह की हैं । ज्ञान-मार्ग पर विचार करते हुए अहं के नष्ट हो जाने के बाद जो समाधि होती है, उसे स्थिर समाधि, जड़ समाधि (निर्विकल्प समाधि) कहते हैं । 

भक्तिपथ की समाधि को भाव-समाधि कहते हैं । भाव-समाधि में भोग के लिए 'अहं' की एक रेखा रह जाती है, भक्त को ईश्वरानन्द देने के लिए । कामिनी और कांचन में आसक्ति के रहने पर इन सब बातों की धारणा नहीं होती ।  

"केदार से मैंने कहा, कामिनी और कांचन में मन के रहने पर कुछ होगा नहीं । इच्छा हुई, एक बार उसकी छाती पर हाथ फेर दूँ, - परन्तु फेर न सका । भीतर टेढ़ापन था । उसके हृदयरूपी कमरे में मानो विष्ठा की दुर्गन्ध थी, मैं घुस नहीं सका । उसमें की आसक्ति मानो स्वयंम्भू लिंग जैसी है, वाराणसी तक उसकी जड़ फैली हुई है । संसार में आसक्ति - कामिनी और कांचन में आसक्ति के रहते हुए कुछ हो नहीं सकता

"इन लड़कों में कामिनी और कांचन का प्रवेश अभी तक नहीं हो पाया । इसीलिए तो उन्हें मैं इतना प्यार करता हूँ । हाजरा कहता है, 'धनी लोगों के सुन्दर लड़के देखकर तुम उन्हें प्यार करते हो ।’ अगर यही बात है तो हरीश, लाटू, नरेन्द्र, इन्हें मैं क्यों प्यार करता हूँ ? नरेन्द्र को तो रोटी खाने के लिए नमक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं मिलते ।

“इन लड़कों में विषय-बुद्धि अभी नहीं पैठी । इसीलिए उनका मन इतना शुद्ध है ।"

और बहुतेरे उनमें नित्य-सिद्ध भी हैं । जन्म से ही ईश्वर की ओर मन लगा हुआ है । जैसे तुमने एक बगीचा खरीदा । साफ करते हुए कहीं जल का स्त्रोत तुम्हें मिल गया । मिट्टी हटी नहीं कि कलकल स्वर से पानी निकलने लगा ।'

बलराम - महाराज, संसार मिथ्या है, यह ज्ञान पूर्ण को एकदम कैसे हो गया ?

श्रीरामकृष्ण – जन्मगत । पिछले जन्मों में सब किया हुआ है । शरीर ही छोटा और वृद्ध होता रहता है, पर आत्मा के लिए वह बात नहीं ।    

"वे कैसे हैं, जानते हो ? - जैसे पहले फल लगकर फिर फूल हों । पहले दर्शन, फिर गुण-महिमा आदि का श्रवण, फिर मिलन ।

"निरंजन को देखो - न लेना है, न देना । - जब पुकार होगी तभी चला जा सकता है । परन्तु जब तक मनुष्य की माँ जीवित है, तब तक उसे उसका भरण-पोषण करना चाहिए । मैं अपनी माँ की फूल- चन्दन से पूजा करता था । वह जगन्माता ही हैं जो हमारे लिए सांसारिक माता के रूप में विराजमान हैं

"जब तक अपने शरीर की खबर है तब तक माता की खबर लेनी चाहिए, इसीलिए मैं हाजरा से कहता हूँ, अपने शरीर में अगर खाँसी की बीमारी हो गयी तो मिश्री और मरिच की व्यवस्था की जाती है - मरिच और नमक की जरूरत होती हैं - अतएव, जब तक अपने शरीर के लिए यह इतना किया जाता है, तब तक माता की खबर भी रखना उचित है । इसीलिए किसी का श्राद्ध भी अन्त में अपने ईष्टदेव की पूजा बन जाती है।  वैष्णव सप्रदाय में जब किसी की मृत्यु होती है तो उसे महोत्स्व जैसा मनाने के पीछे भी यही भाव रहता है।  

"परन्तु जब अपने शरीर की भी खबर नहीं रख सकते तब दूसरे के लिए बात ही क्या है ? तब सब भार ईश्वर ले लेते हैं । 

"नाबालिग अपना भार नहीं ले सकता । इसीलिए उसके एक अभिभावक होता है । नाबालिग अवस्था और चैतन्यदेव की अवस्था दोनों एक हैं ।"

मास्टर गंगा-स्नान करने के लिए गये ।

(९)

   [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏श्रीरामकृष्ण द्वारा ईश्वर के रूपों का दर्शन 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण भक्तों से उसी कमरे में बातचीत कर रहे हैं । महेन्द्र मुखर्जी, बलराम, तुलसी, हरिपद, गिरीश आदि भक्तगण बैठे हुए हैं । गिरीश श्रीरामकृष्ण की कृपा प्राप्त कर सात-आठ महीने से आते-जाते हैं । मास्टर गंगा-स्नान करके आ गये, श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उनके पास बैठे । श्रीरामकृष्ण अपने अपूर्व ईश्वर-दर्शन की बातें सुना रहे हैं –

"कालीमन्दिर में एक दिन नागा और हलधारी अध्यात्मरामायण पढ़ रहे थे । मैंने एकाएक एक नदी देखी, उसके पास ही वन था - हरे रंग के पेड़-पौधे, और जाँघिया पहने हुए राम और लक्ष्मण चले जा रहे थे । एक दिन मैंने कोठी के सामने अर्जुन का रथ देखा था । सारथी के वेश में श्रीकृष्णजी बैठे हुए थे । वह अब भी मुझे याद है । "एक दिन और, देश में (कामारपुकुर में) कीर्तन हो रहा था । सामने मैंने गौरांग की मूर्ति देखी ।

"एक नंगा आदमी मेरे साथ घूमता था । उससे मैं खूब मजाक करता था । वह नंगी मूर्ति मेरे ही भीतर से निकलती थी, परमहंस मूर्ति, बालकवत् ।

"ईश्वर के कितने रूपों के दर्शन हो चुके हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता । उस समय मुझे पेट की सख्त बीमारी थी और वह उन सब दर्शनों के समय और भी अधिक बढ़ जाती थी । इसलिए जब मुझे वे दर्शन होते थे तब मैं उन पर 'थू थू' करने लगता था, - परन्तु वे तो मेरे पीछे भूत के समान लग जाते थे । इन रूपों के भावावेश में मैं मस्त रहा करता था और रात-दिन न जाने कहाँ बीत जाते थे । दूसरे दिन फिर दस्त आने लगते थे ।" (हास्य)

गिरीश (सहास्य) - आप की जन्मपत्री देख रहा हूँ ।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - द्वितीया के चन्द्र में जन्म है। और रवि, चन्द्र और बुध को छोड़ और कोई बड़ी बात नहीं है ।

गिरीश - आपका जन्म कुम्भराशि में हुआ है । कर्क और वृष में राम और कृष्ण का जन्म है - सिंह में चैतन्यदेव का ।

श्रीरामकृष्ण - मुझमें दो वासनाएँ थीं, - पहली यह कि मैं भक्तों का राजा होऊँगा; दूसरी, तपस्या के मारे सूख जानेवाला साधु न होऊँगा   

गिरीश (सहास्य) - आपको साधना क्यों करनी पड़ी ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - भगवती ने शिव के लिए बड़ी कठोर साधना की थी - पंचाग्नि तापना, जाड़े में पानी के भीतर गले तक डूबकर रहना, सूर्य की ओर एकदृष्टि से ताकते रहना ।

"स्वयं कृष्ण ने राधायन्त्र लेकर बहुतसी साधनाएँ की थीं । यन्त्र ब्रह्मयोनि है – उसी की पूजा और ध्यान । इस ब्रह्मयोनि से कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि हो रही है ।

"बड़ी गुप्त बात है । बेल के नीचे मैं उसे चमकते हुए देखा करता था ।

 "यहाँ तन्त्र की बहुतसी साधनाएँ मैंने की थी, मुर्दे की खोपड़ी लेकर । ब्राह्मणी (श्रीरामकृष्ण की तान्त्रिक आराधना की आचार्या) सब सामग्री इकट्ठा कर देती थी । 

"एक अवस्था और होती थी । जिस दिन में अहंकार करता था उसके दूसरे ही दिन बीमार पड़ता था ।"

सब लोग चुपचाप बैठे हुए हैं ।

तुलसी - ये (मास्टर) नहीं हँसते ।

श्रीरामकृष्ण - भीतर हँसी है, फल्गू-नदी (गया) के ऊपर बालू रहती है और खोदने पर भीतर पानी मिलता है ।

(मास्टर से) "तुम जीभ नहीं छीलते । रोज जीभ छीला करो ।"   

बलराम - अच्छा, इनके (मास्टर के) द्वारा पूर्ण आपकी बहुतसी बातें सुन चुके हैं –

श्रीरामकृष्ण - पहले की बातें ये जानते हैं, मुझे याद नहीं ।

बलराम - पूर्ण स्वभावसिद्ध हैं, और ये (मास्टर), इनकी भूमिका क्या है ?

श्रीरामकृष्ण - ये (श्री म निमित्तमात्र हैं) साधन मात्र हैं ।

नौ बज चुके हैं । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जानेवाले हैं । इसी का प्रबन्ध हो रहा है । बागबाजार के अन्नपूर्णा-घाट में नाव ठीक की गयी है । श्रीरामकृष्ण को भक्तगण भूमिष्ठ हो प्रणाम करने लगे ।

श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों को लेकर नाव पर बैठे । गोपाल की माँ भी उसी नाव पर बैठीं - दक्षिणेश्वर में कुछ देर विश्राम करके पिछले पहर चलकर कामारहाटी जायेंगी ।

श्रीरामकृष्ण की कैम्प-खाट भी नाव पर चढ़ा दी गयी । इस पर श्रीयुत राखाल सोया करते थे । 

 अगले शनिवार को श्रीरामकृष्ण फिर बलराम के यहाँ शुभागमन करेंगे ।

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