*परिच्छेद- ११८*
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
(१)
🔱🙏*श्रीरामकृष्ण कहते थे - 'बलराम के घर का अन्न बहुत शुद्ध है' *🔱🙏
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बलराम के बैठकखाने में बैठे हुए हैं । मुख पर प्रसन्नता विराज रही है । इस समय दिन के तीन बजे होंगे । विनोद, राखाल, मास्टर आदि श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । छोटे नरेन्द्र भी आये ।
IT WAS ABOUT THREE O'CLOCK in the afternoon. Sri Ramakrishna was sitting in Balaram's drawing-room with the devotees. Among others, Binode, Rakhal, the younger Naren, and M. were present.
শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে বলরামের বৈঠকখানায় বসিয়া আছেন। সহাস্যবদন। এখন বেলা প্রায় তিনটা; বিনোদ, রাখাল, মাস্টার ইত্যাদি কাছে বসিয়া। ছোট নরেনও আসিয়া উপস্থিত হইলেন।
आज मंगलवार है, २८ जुलाई, १८८५, आषाढ़ की कृष्ण प्रतिपदा । श्रीरामकृष्ण सबेरे से बलराम के यहाँ आये हैं । भक्तों के साथ भोजन भी उन्होंने वहीं किया है । बलराम के घर में भगवान श्री जगन्नाथ की पूजा उनके कुलदेवता के रूप में की जाती थी। तथा घर के सभी सदस्य कुलदेवता पर चढ़ाये हुए भोग को ही अपने भोजन रूप में ग्रहण करते थे। श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि 'बलराम के घर का अन्न बहुत शुद्ध है'।
The Master had come to Balaram's house in the morning and had taken his midday meal there. At Balaram's house the Deity was worshipped as Jagannath, and the members of the family partook of the food offered to the Deity. Sri Ramakrishna used to say that the food at Balaram's house was very pure.
আজ মঙ্গলবার, ২৮শে জুলাই, ১৮৮৫ খ্রীষ্টাব্দ, (১৩ই শ্রাবণ, ১২৯২) আষাঢ় কৃষ্ণা প্রতিপদ। ঠাকুর বলরামের বাড়িতে সকালে আসিয়াছেন ও ভক্তসঙ্গে আহারাদি করিয়াছেন। বলরামের বাড়িতে শ্রীশ্রীজগন্নাথদেবের সেবা আছে। তাই ঠাকুর বলেন, “বড় শুদ্ধ অন্ন।”
नारायण आदि भक्तों ने कहा है, 'नन्द वसु के घर में ईश्वरसम्बन्धी चित्र बहुत से हैं ।' आज दिन के पिछले पहर उनके घर जाकर श्रीरामकृष्ण चित्र देखेंगे ।
Narayan and certain other devotees had remarked to the Master that Nanda Bose, an aristocrat of Baghbazar, had many pictures of gods and goddesses in his house. Hence Sri Ramakrishna intended to pay a visit to Nanda's house in the afternoon.
নারাণ প্রভৃতি ভক্তেরা বলিয়াছিলেন, নন্দ বসুর বাড়িতে অনেক ঈশ্বরীয় ছবি আছে। আজ তাই ঠাকুর তাদের বারি গিয়া অপরাহ্নে ছবি দেখিবেন।
एक ब्राह्मणी भक्त नन्द वसु के घर के पास ही रहती है, श्रीरामकृष्ण उसके घर भी जायेंगे । कन्या के गुजर जाने पर ब्राह्मणी दुखी रहा करती है । प्रायः दक्षिणेश्वर श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए जाया करती है । अत्यन्त व्याकुलता के साथ उसने श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण भेजा है । उसके घर तथा एक और स्त्री-भक्त - गनू की माँ - के घर भी श्रीरामकृष्ण जानेवाले हैं ।
A brahmin woman devoted to the Master lived near by. She often came to see him at Dakshineswar. She was extremely sorrowful over the death of her only daughter, and the Master had agreed to go to her house. She had invited him with great earnestness. From her house the Master was to go to the house of Ganu's mother, another devotee.
একটি ভক্ত ব্রাহ্মণীর বাড়ি নন্দ বসুর বাটীর নিকটে, সেখানেও যাইবেন। ব্রাহ্মণী কন্যা-শোকে সন্তপ্তা, প্রায় দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে জান। তিনি অতিশয় ব্যাকুলা হইয়া ঠাকুরকে আমন্ত্রণ করিয়াছেন। তাঁহার বাটীতে যাইতে হইবে ও আর-একটি স্ত্রী ভক্ত গণুর মার বাটীতেও যাইতে হইবে।
श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ आते ही बालक-भक्तों को बुला भेजते हैं । छोटे नरेन्द्र ने अभी उस दिन कहा था, 'मुझे काम रहता है, इसलिए सदा मैं नहीं आ सकता, परीक्षा के लिए भी तैयारी करनी पड़ रही है ।' छोटे नरेन्द्र के आने पर श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत करते हुए कह रहे हैं - "तुझे बुलाने के लिए मैंने आदमी नहीं भेजा ।"
The younger Naren had said to Sri Ramakrishna that he would not be able to visit him often on account of his having to prepare for his examinations. MASTER (to the younger Naren): "I didn't send for you today."
ঠাকুর বলরামের বাটীতে আসিয়াই ছোকরা ভক্তদের ডাকিয়া পাঠান। ছোট নরেন মাঝে বলিয়াছিলেন; “আমার কাজ আছে বলিয়া সর্বদা আসিতে পারি না, পরীক্ষার জন্য পড়া” — ইত্যাদি; ছোট নরেন আসিলে ঠাকুর তাহার সহিত কথা কহিতেছেন —শ্রীরামকৃষ্ণ (ছোট নরেনকে) — তোকে ডাকতে পাঠাই নাই।
छोटे नरेन्द्र (हँसते हुए) - तो इससे क्या होता है ?
THE YOUNGER NAREN (smiling): "What can be done about it now?"
ছোট নরেন (হাসিতে হাসিতে) — তা আর কি হবে?
श्रीरामकृष्ण - नहीं भाई, तुम्हारा नुकसान होता है, जब अवकाश हो तब आया करो ! श्रीरामकृष्ण ने जैसे अभिमान करके ये बातें कहीं ।
MASTER: "Well, my child, I don't want to interfere with your studies. You may visit me when you have leisure."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বাপু তোমার অনিষ্ট হবে, অবসর হলে আসবে! ঠাকুর যেন অভিমান করিয়া এই কথাগুলি বলিলেন।
पालकी आयी है । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत नन्द बसु के यहाँ जायेंगे ।
The Master said these words as if he were piqued. He was ready to go to Nanda Bose's house. A palanquin was brought tor him, and he got into it repeating the name of God.
পালকি আসিয়াছে। ঠাকুর শ্রীযুক্ত নন্দ বসুর বাটীতে যাইবেন।
ईश्वर का नाम लेते हुए श्रीरामकृष्ण पालकी पर बैठे, पैरों में काली चट्टी, लाल धारीदार धोती पहने। मणि ने जूतों को पालकी की बगल में एक ओर रख दिया । पालकी के साथ साथ मास्टर जा रहे हैं। इतने में परेश भी आ गये ।
He had put on a pair of black varnished slippers and a red-bordered cloth. As Sri Ramakrishna sat down in the palanquin, M. put the slippers by his side. He accompanied the palanquin on foot. Paresh joined them.
ঈশ্বরের নাম করিতে করিতে ঠাকুর পালকিতে উঠিতেছেন। পায়ে কালো বার্ণিশ করা চটি জুতা, পরনে লাল ফিতাপাড় ধুতি, উত্তরীয় নাই। জুতা-জোড়াটি পালকির একপাশে মণি রাখলেন। পালকির সঙ্গে সঙ্গে মাস্টার যাইতেছেন। ক্রমে পরেশ আসিয়া জুটিলেন।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏श्री नन्द वसु का भवन जहाँ ईश्वर (सत्य नारायण भगवान) सम्बन्धी चित्र बहुत से हैं🔱🙏
पालकी नन्द बसु के फाटक के भीतर गयी । क्रमशः घर का लम्बा आँगन पार करके पालकी मकान के द्वार पर पहुँची । गृहस्वामी के आत्मीयों ने श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से चट्टियाँ निकाल देने के लिए कहा । पालकी से उतरकर वे ऊपर के दालान में गये । दालान बहुत लम्बा-चौड़ा है । चारों ओर देवी-देवताओं के चित्र टँगे हुए हैं ।
They entered the gate of Nanda's house, crossed the spacious square, and stopped in front of the building. The members of the family greeted the Master. He asked M. to hand him the slippers and then got out of the palanquin and entered the large hall. It was a very spacious room. Pictures of gods and goddesses were hanging on all sides.
নন্দ বসুর গেটের ভিতর পালকি প্রবেশ করিল। ক্রমে বাটীর সম্মুখে প্রশস্ত ভূমি পার হইয়া পালকি বাটীতে আসিয়া উপস্থিত হইল। গৃহস্বামীর আত্মীয়গণ আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম মরিলেন। ঠাকুর মাস্টারকে চটিজুতা-জোড়াটি দিতে বলিলেন। পালকি হইতে অবতরণ করিয়া উপরের হলঘরে উপস্থিত হইলেন। অতি দীর্ঘ ও প্রশস্ত হলঘর। দেবদেবীর ছবি ঘরের চতুর্দিকে।
गृहस्वामी और उनके भाई पशुपति ने श्रीरामकृष्ण से सम्भाषण किया । पालकी के पीछे पीछे भक्तगण भी आ रहे थे । अब वे भी उसी दालान में एकत्र होने लगे । गिरीश के भाई अतुल भी आये हुए हैं । प्रसन्न के पिता श्रीयुत नन्द वसु के यहाँ अक्सर आया-जाया करते हैं । वे भी वहाँ मौजूद हैं ।
Nanda Bose and his brother Pasupati saluted Sri Ramakrishna. The devotees of the Master also arrived. Girish's brother Atul came, and Prasanna's father, who was a frequent visitor at Nanda's house, was there. Prasanna was a devotee of the Master.
গৃহস্বামী ও তাঁহার ভ্রাতা পশুপতি ঠাকুরকে সম্ভাষণ করিলেন। ক্রমে পালকির পশ্চাৎ পশ্চাৎ আসিয়া ভক্তেরা এই হলঘরে জুটিলেন। গিরিশের ভাই অতুল আসিয়াছেন। প্রসন্নের পিতা শ্রীযুক্ত নন্দ বসুর বাটীতে সর্বদা যাতায়াত করেন। তিনিও উপস্থিত আছেন।
[नन्द वसु (नन्दलाल वसु)* - एक अभिजात्य (aristocrat) व्यक्ति थे। उनका घर बागबाजार में था। यह जानकर कि उनके घर में विभिन्न देवी-देवताओं के सुंदर चित्र हैं, 1885 में बलराम बोस के घर से होते हुए वे वहाँ भी गए थे। उन चित्रों को देखने के बाद गृहस्वामी नन्दलाल वसु तथा उनके भाई पशुपति बसु के साथ काफी देर तक ईश्वरीय प्रसंग पर चर्चा हुई थी। ठाकुर देव ने उन चित्रों की प्रशंसा करते हुए नन्द बाबू को एक सच्चे हिंदू के रूप में सराहना की थी।]
(२)
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏भारत का पुनरुत्थान शारीरिक शक्ति से नहीं, बल्कि आत्मिक शक्ति से होगा।🔱🙏
(सत्य नारायण भगवान की शक्ति - त्याग और सेवा,*
'Be and Make' -लीडरशिप ट्रेनिंग कैम्प (2022) में दशावतार चित्रों का दर्शन*)
श्रीरामकृष्ण अब चित्रों को देखने के लिए उठे । साथ मास्टर हैं तथा कुछ भक्तगण । गृहस्वामी के भ्राता श्रीयुत पशुपति साथ साथ रहकर तस्वीरें दिखा रहे हैं ।
The Master looked at the pictures. M. and a few other devotees stood around him. Pasupati was explaining the pictures to them.
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ এইবার ছবি দেখিতে গাত্রোত্থান করিলেন। সঙ্গে মাস্টার ও আরও কয়েকজন ভক্ত, গৃহস্বামীর ভ্রাতা শ্রীযুক্ত পশুপতিও সঙ্গ সঙ্গে থাকিয়া ছবিগুলি দেখাইতেছেন।
श्रीरामकृष्ण पहले चतुर्भुज विष्णुमूर्ति ^*देख रहे हैं । देखकर ही भावावेश में परिपूर्ण हो गये । खड़े थे, बैठ गये । कुछ काल भावाविष्ट रहे।
[>>>विष्णु मूर्ति में उनकी चार भुजाएं हैं, जिनमें वे शंख, सुदर्शन चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए हैं। विष्णु मूर्ति के ये चिह्न किस गुण के प्रतीक हैं और हमें क्या शिक्षा देते हैं?
ॐ 'ध्वनि का प्रतीक है शंख- भगवान विष्णु द्वारा धारण किया गया शंख नाद (ध्वनि) का प्रतीक है। अध्यात्म में शंख ध्वनि ओम ध्वनि के समान ही मानी गई है। यह नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करके सकारात्मक ऊर्जा का संचार करती है। यह ध्वनि शिक्षा देती है कि ऐसा ही नाद हमारी देह में स्थित है। वह है आत्म नाद, जिसे आत्मा की आवाज कहते हैं। जो हर अच्छे-बुरे कर्म से पहले हमारे भीतर गूंजायमान होता है। यदि हम भीतर के इस नाद को सुनकर कर्म करें, तो जीवन बहुत सहज और सरल हो जाए। शंख जीव को आत्मा से जुड़ने व अंतर्मुखी होने की शिक्षा का प्रतीक है। शंख बजाने के वैज्ञानिक लाभ भी हैं। शंख बजाने वाले मनुष्य के फेफड़े सुचारू रूप से कार्य करते हैं। स्मरण, श्रवण शक्ति और मुख का तेज बढ़ता है।
सुदर्शन चक्र भगवान विष्णु का अमोघ अस्त्र है। यह दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। सर्वहित शुभ मार्ग पर चलते हुए दृढ़ संकल्पित जीव अपने लक्ष्य को भेदने में सदा विजयी होता है। चक्र शिक्षा देता है कि जीव को दूरदर्शी व दृढ़ संकल्प वाला होना चाहिए।
पद्म (कमल पुष्प) सत्यता, एकाग्रता और अनासक्ति का प्रतीक है। जिस प्रकार कमल पुष्प कीचड़ में रहकर भी स्वयं को निर्लेप रखता है, ठीक वैसे ही जीव को संसार रूपी माया रूप कीचड़ में रहते हुए स्वयं को निर्लेप रखना चाहिए अर्थात संसार में रहें, लेकिन संसार को अपने भीतर न आने दें। कमल मोह से मुक्त होने व ईश्वरीय चेतना से जुड़ने की शिक्षा देता है। कीचड़ कमल के अस्तित्व की मात्र जरूरत है, जिस तरह संसारिक पदार्थ मनुष्य की जरूरत मात्र हैं।
न्याय प्रणाली को दर्शाता है गदा -गदा ईश्वर की अनंत शक्ति, बल का प्रतीक है। कर्मों के अनुसार ईश्वर जीव को दंड प्रदान करते हैं। यह ईश्वरीय न्याय प्रणाली को दर्शाता है।--लेखिका - साध्वी कमल वैष्णव (लेखिका वैष्णव परंपरा के रामानंदी संप्रदाय से संबंध रखती हैं)]
The first picture was of Vishnu with four arms. At the very sight of it Sri Ramakrishna was overwhelmed with ecstasy; he sat down on the floor and remained a few minutes in that spiritual mood.
ঠাকুর প্রথমেই চতুর্ভুজ বিষ্ণুমূর্তি দর্শন করিতেছেন। দেখিয়াই ভাবে বিভোর হইলেন। দাঁড়াইয়াছিলেন, বসিয়া পড়িলেন। কিয়ৎকাল ভাবে আবিষ্ট হইয়া রহিলেন।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏प्रह्लाद के प्रति भगवान नृसिंह (मानव रूपी सिंह) की भक्तवत्सलता और नवनीदा 🔱🙏
दूसरा चित्र श्रीरामचन्द्रजी की भक्तवत्सल मूर्ति का है । श्रीराम हनुमान के सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं । हनुमान की दृष्टि श्रीरामचन्द्रजी के पादपद्मों पर लगी हुई है । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक यह चित्र देखते रहे । भावावेश में कह रहे हैं - "आहा ! आहा !"
In the second picture Rama was blessing Hanuman, with His hand on the devotee's head. Hanuman's gaze was fixed on Rama's Lotus Feet. The Master looked at the picture a long time and exclaimed with great fervour, "Ah me! Ah me!"
হনুমানের মাথায় হাত দিয়া শ্রীরাম আশীর্বাদ করিতেছেন। হনুমানের দৃষ্টি শ্রীরামের পাদপদ্মে। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অনেকক্ষণ ধরিয়া এই ছবি দেখিতেছেন। ভাবে বলিতেছেন, “আহা! আহা!”
तीसरा चित्र वंशीधर श्रीमदनगोपाल का है । कदम्ब के नीचे खड़े हुए हैं ।
The third picture was of Krishna standing with flute to His lips under the kadamba tree.
তৃতীয় ছবি বংশীবদন শ্রীকৃষ্ণ কদমতলায় দাঁড়াইয়া আছেন।
चौथा चित्र वामनावतार का है, छाता लगाये हुए बलि के यज्ञ में जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'वामन', और टकटकी लगाये देख रहे हैं ।
The fourth was of Vamana, the Dwarf, who was an Incarnation of Vishnu. The Master looked intently at this picture.
চতুর্থ — বামনাবতার। ছাতি মাতায় বলির যজ্ঞে যাইতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “বামন!” এবং একদৃষ্টে দেখিতেছেন।
फिर नृसिंहमूर्ति देखकर श्रीरामकृष्ण गो-चारण देख रहे हैं । श्रीकृष्ण गोपाल बालकों के साथ गौएँ चरा रहे हैं । श्रीवृन्दावन और यमुनापुलिन ! मणि कह उठे, 'बड़ी सुन्दर तस्बीर है !'
Next the Master looked at a picture of Nrisimha,1 and then at one of Krishna with a herd of cows. Krishna was tending the cows with His cowherd friends on the bank of the Jamuna at Vrindavan. M. said, "A lovely picture!"
এইবার নৃসিংহমূর্তি দর্শন করিয়া ঠাকুর গোষ্ঠের ছবি দর্শন করিতেছেন। শ্রীকৃষ্ণ রাখালদের সহিত বৎসগণ চরাইতেছেন। শ্রীবৃন্দাবন ও যমুনাপুলিন! মণি বলিয়া উঠিলেন — চমৎকার ছবি।
सप्तम चित्र देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – धूमावती ! 'अष्टम, 'षोडशी'; नवम, 'भुवनेश्वरी'; 'दशम', तारा; एकादश, 'काली' । इन सब मूर्तियों को देखकर श्रीरामकृष्ण कहते हैं - "ये सब उग्र मूर्तियाँ हैं, उन्हें घर में न रखना चाहिए । इन्हें यदि घर पर रखे तो इनकी पूजा करना उचित है, साथ ही भोग भी चढ़ाना चाहिए । परन्तु आप लोगों के भाग्य अच्छे हैं, आप रख सकते हैं ।"
Sri Ramakrishna then saw pictures of Dhumavati, Shorasi, Bhuvanesvari, Tara, and Kali. He said: "All these portray the terrible aspects of the Divine Mother. If one keeps these pictures, one should worship them. But you must be lucky, to be able to hang them like that on the wall."
সপ্তম ছবি দেখিয়া ঠাকুর বলিতেছেন — “ধূমাবতী”; অষ্টম — ষোড়শী; নবম — ভুবনেশ্বরী; দশম — তারা; একাদশ — কালী। এই সকল মূর্তি দেখিয়া ঠাকুর বলিতেছেন — “এ-সব উগ্রমূর্তি! এ-সব মূর্তি বাড়িতে রাখতে নাই। এ-মূর্তি বাড়িতে রাখলে পূজা দিতে হয়। তবে আপনাদের অদৃষ্টের জোর আছে, আপনারা রেখেছেন।”
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
अन्नपूर्णा मन्दिर आन्दुल
श्रीअन्नपूर्णा के दर्शन कर श्रीरामकृष्ण भावावेश में कह रहे है - "वाह ! वाह !'
At the sight of Annapurna's picture, Sri Ramakrishna exclaimed with great fervour, "Grand! Grand!"
শ্রীশ্রীঅন্নপূর্ণা দর্শন করিয়া ঠাকুর ভাবে বলিতেছেন, “বা! বা!”
फिर देखा राधिका का राजा-वेश, सखियों के साथ वन में सिंहासन पर बैठी हुई हैं । श्रीकृष्ण द्वार पर कोतवाल बनकर बैठे हुए हैं । फिर झूलना-चित्र । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक इसके बाद का चित्र देख रहे हैं । ग्लास-केस के भीतर वीणावादिनी का चित्र है । देवी हाथ में वीणा लिये हुए आनन्द से रागिनी अलाप रही हैं ।
The next picture was one of Radhika as monarch. She was seated on a throne in the nikunja grove, surrounded by her woman attendants. Sri Krishna guarded the entrance of the grove as her officer. Next was Sri Krishna's picture. Then came a picture of Sarasvati, the goddess of learning and music. It was in a glass case. She was in an ecstatic mood, playing melodies on the vina.
তারপরই রাই রাজা। নিকুঞ্জবনে সখীপরিবৃতা সিংহাসনে বসিয়া আছেন। শ্রীকৃষ্ণ কুঞ্জের দ্বারে কোটাল সাজিয়া বসিয়া আছেন। তারপর দোলের ছবি। ঠাকুর অনেকক্ষণ ধরিয়া এর পরের মূর্তি দেখিতেছেন। গ্লাসকেসের ভিতর বীণাপাণির মূর্তি; দেবী বীনাহস্তে মাতোয়ারা হইয়া রাগরাগিনী আলাপ করিতেছেন।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏अंग्रेजी राज में मूर्तिपूजा विरोधी ब्रह्मसमाजी के बदले हिन्दू बने रहना महत्वपूर्ण था🔱🙏
तस्वीरों (Exhibition) का देखना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण फिर गृहस्वामी के पास गये । खड़े हुए गृहस्वामी से कह रहे हैं, "आज बड़ा आनन्द आया । वाह ! आप तो पूरे हिन्दू हैं । अंग्रेजी चित्र न रखकर इन चित्रों को रखा है, यह सचमुच बड़े आश्चर्य की बात है ।"
After seeing the pictures, Sri Ramakrishna went to the master of the house and said: "I am very happy today. It is grand! You are a real Hindu. You have these pictures instead of English ones. I am surprised!"
ছবি দেখা সমাপ্ত হইল। ঠাকুর আবার গৃহস্বামীর কাছে আসিয়া উপস্থিত হইলেন। দাঁড়াইয়া দাঁড়াইয়া গৃহস্বামীকে বলিতেছেন, “আজ খুব আনন্দ হল। বা! আপনি তো খুব হিন্দু! ইংরাজী ছবি না রেখে যে এই ছবি রেখেছেন — খুব আশ্চর্য!”
श्रीयुत नन्द बसु बैठे हुए हैं, वे श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं - "बैठिये, आप खड़े क्यों हैं ?"
Nanda Bose was seated. He said to the Master: "Please take a seat. Why are you standing?"
শ্রীযুক্ত নন্দ বসু বসিয়া আছেন। তিনি ঠাকুরকে আহ্বান করিয়া বলিতেছেন, “বসুন! দাঁড়িয়ে রইলেন কেন?”
श्रीरामकृष्ण (बैठकर) - ये चित्र काफी बड़े हैं । तुम अच्छे हिन्दू हो ।
Sri Ramakrishna sat down. He said: "These are very large pictures. You are a real Hindu."
শ্রীরামকৃষ্ণ (বসিয়া) — এ পটগুলো খুব বড় বড়। তুমি বেশ হিন্দু।
नन्द बसु - अंग्रेजी चित्र भी हैं ।
NANDA: "I have European pictures also."
নন্দ বসু — ইংরাজী ছবিও আছে।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वे ऐसे नहीं हैं । अंग्रेजी की ओर तुम्हारी वैसी दृष्टि नहीं है ।
MASTER (smiling): "They are not like these. I am sure you don't pay much attention to them."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — সে-সব অমন নয়। ইংরাজীর দিকে তোমার তেমন নজর নাই।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏भविष्य के सार्वभौमिक धर्म -Be and Make' के भीतर श्रीरामकृष्ण की तस्वीर🔱🙏
[Picture of future Universal Religion--'Be and Make' ]
এটা আধুনিক চেতনার ছবি।
कमरे की दीवार पर श्रीयुत केशचन्द्र सेन के नवविधान की तस्बीर लटकी हुई थी । श्रीयुत सुरेश मित्र ने वह चित्र बनाया था । वे श्रीरामकृष्ण के एक प्रिय भक्त हैं । उस चित्र में दिखाया है कि श्रीरामकृष्ण केशव को दिखा रहे हैं कि भिन्न-भिन्न मार्गों से सब धर्मों के लोग ईश्वर की ही ओर अग्रसर होते जा रहे हैं । गम्यस्थान एक है, केवल मार्ग पृथक्-पृथक् हैं ।
A picture of Keshab's Navavidhan hung on the wall. Suresh Mitra, a beloved householder disciple of the Master, had had it painted. In this picture Sri Ramakrishna was pointing out to Keshab that people of different religions proceed to the same goal by different paths.
ঘরের দেওয়ালের উপর শ্রীযুক্ত কেশব সেনের নববিধানের ছবি টাঙ্গানো ছিল। শ্রীযুক্ত সুরেশ মিত্র ওই ছবি করাইয়াছিলেন! তিনি ঠাকুরের একজন প্রিয় ভক্ত। ওই ছবিতে পরমহংসদেব কেশবকে দেখাইয়া দিতেছেন, ভিন্ন পথ দিয়া সব ধর্মাবলম্বীরা ঈশ্বরের দিকে যাইতেছেন। গন্তব্য স্থান এক, শুধু পথ আলাদা।
श्रीरामकृष्ण - वह तो सुरेन्द्र का बनाया हुआ चित्र है ।
MASTER: "That was painted for Surendra."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ও যে সুরেন্দ্রের পট!
प्रसन्न के पिता (हँसकर) - आप भी उसके भीतर हैं ।
PRASANNA'S FATHER (smiling): "You too are in that picture."
প্রসন্নের পিতা (সহাস্যে) — আপনিও ওর ভিতরে আছেন।
श्रीरामकृष्ण - वह एक विशेष ढंग का है, उसके भीतर सब कुछ है - वह आधुनिक भाव का चित्र है ।
MASTER (smiling): "Yes, it contains everything. This is the ideal of modern times."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ওই একরকম, ওর ভিতর সবই আছে। — ইদানিং ভাব!
यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण को एकाएक भावावेश हो रहा है । श्रीरामकृष्ण जगन्माता से वार्तालाप कर रहे हैं । कुछ देर बाद मतवाले की भाँति कह रहे हैं - "मैं बेहोश नहीं हुआ ।" घर की ओर दृष्टि करके कह रहे हैं, "बड़ा मकान, इसमें क्या हैं, - ईंटें, काठ और मिट्टी ।"
As he spoke Sri Ramakrishna manifested great spiritual fervour. He was in an ecstatic mood, talking to the Divine Mother. A few minutes later he said, like a drunkard, "I am not unconscious." Looking at the house, he said: "It is a huge mansion. But what does it consist of? Bricks, timber, and clay."
এই কথা বলিতে বলিতে হঠাৎ ঠাকুর ভাবে বিভোর হইতেছেন। ঠাকুর জগন্মাতার সঙ্গে কথা কহিতেছেন।কিয়ৎক্ষণ পরে মাতালের ন্যায় বলিতেছেন, “আমি বেহুঁশ হই নাই।” বাড়ির দিকে দৃষ্টি করিয়া বলিতেছেন, “বড় বাড়ি! এতে কি আছে? ইট, কাঠ, মাটি!”
कुछ देर बाद उन्होंने कहा, "देव-देवताओं के ये सब चित्र देखकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ ।" फिर कहने लगे - "उग्र मूर्ति, काली, तारा (शव और शिवा के बीच श्मशान में रहनेवाली) रखना अच्छा नहीं, रखने पर पूजा चढ़ानी चाहिए ।"
A little later he said, "I am very happy to see these pictures of gods and goddesses." He added: "It is not good to keep pictures of the terrible aspects of the Divine Mother. If one does, one should worship them."
কিয়ৎক্ষণ পরে বলিতেছেন, “ঈশ্বরীয় মূর্তিসকল দেখে বড় আনন্দ হল।” আবার বলিতেছেন, “উগ্রমূর্তি, কালী, তারা (শব শিবা মধ্যে শ্মশানবাসিনী) রাখা ভাল নয়, রাখলে পূজা দিতে হয়।”
पशुपति (हँसकर) - वे जितने दिन चलायेंगी, उतने दिन तो चलेगा ही ।
PASUPATI (smiling): "Well, things will go on as long as She keeps them going."
পশুপতি (সহাস্যে) — তা তিনি যতদিন চালাবেন, ততদিন চলবে।
श्रीरामकृष्ण - यह ठीक है । परन्तु ईश्वर में मन रखना अच्छा है, उन्हें भूलकर रहना अच्छा नहीं ।
MASTER: "That is true. But one should think of God. It is not good to forget Him."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বটে, কিন্তু ঈশ্বরেতে মন রাখা ভাল; তাঁকে ভুলে থাকা ভাল নয়।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏ईश्वर (गुरु विवेकानन्द) की शरण में जाने पर कर्मों का क्षय हो जाता है।🔱🙏
The effect of karma wears away if one takes refuge in God.
ঈশ্বরের শরণাগত হলে কর্ম ক্ষয় হয়।
[ঈশ্বর কর্তা — না কর্মই ঈশ্বর ]
नन्द बसु - लेकिन हमलोग ईश्वर के बारे में इतना कम क्यों सोचते हैं ?
NANDA: "But how little we think of God!"
নন্দ বসু — তাঁতে মতি কই হয়?
श्रीरामकृष्ण - उनकी कृपा होने पर सब हो जाता है ।
MASTER: "One thinks of God through His grace."
नन्द बसु - उनकी कृपा होती कहाँ है ? उनमें कृपा करने की शक्ति भी हो तब न ?
NANDA: "But how can we obtain God's grace? Has He really the power to bestow grace?"
নন্দ বসু — তাঁর কৃপা কই হয়? তাঁর কি কৃপা করবার শক্তি আছে?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैं समझा, तुम्हारा मत पण्डितों जैसा है कि जो जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा फल मिलता रहेगा; यह सब छोड़ दो । ईश्वर की शरण में जाने पर कर्मों का क्षय हो जाता है।
MASTER (smiling): "I see. You think as the intellectuals do: one reaps the results of one's actions. Give up these ideas. The effect of karma wears away if one takes refuge in God.
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — বুঝেছি, তোমার পণ্ডিতের মত, ‘যে যেমন কর্ম করবে সেরূপ ফল পাবে’; ওগুলো ছেড়ে দাও! ঈশ্বরের শরণাগত হলে কর্ম ক্ষয় হয়।
" मैंने माता के पास हाथ में फूल लेकर कहा था, 'माँ, यह लो अपना पाप और यह लो अपना पुण्य, मैं कुछ नहीं चाहता; तुम मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना भला और यह लो अपना बुरा; मैं भला-बुरा कुछ नहीं चाहता; मुझे बस अपनी शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना धर्म और यह लो अपना अधर्म, मैं धर्माधर्म कुछ नहीं चाहता; मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना ज्ञान और यह लो अपना अज्ञान; मैं ज्ञान अज्ञान कुछ नहीं चाहता; मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपनी शुचिता और यह लो अपनी अशुचिता; मुझे शुचिता-अशुचिता नहीं चाहिए, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"
I prayed to the Divine Mother with flowers in my hand: 'Here, Mother, take Thy sin; here, take Thy virtue. I don't want either of these; give me only real bhakti. Here, Mother, take Thy good; here, take Thy bad. I don't want any of Thy good or bad; give me only real bhakti. Here, Mother, take Thy dharma; here, take Thy adharma. I don't want any of Thy dharma or adharma; give me only real bhakti. Here, Mother, take Thy knowledge; here, take Thy ignorance. I don't want any of Thy knowledge or ignorance; give me only real bhakti. Here, Mother, take Thy purity; here, take Thy impurity. Give me only real bhakti.'"
আমি মার কছে ফুল হাতে করে বলেছিলাম, ‘মা! এই লও তোমার পাপ, এই লও তোমার পুণ্য; আমি কিছুই চাই না, তুমি আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার ভাল, এই লও তোমার মন্দ; আমি ভালমন্দ কিছুই চাই না, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার ধর্ম, এই লও তোমার অধর্ম; আমি ধর্মাধর্ম কিছুই চাই না, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার জ্ঞান, এই লও তোমার অজ্ঞান; আমি জ্ঞান-অজ্ঞান কিছুই চাই না, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও। এই লও তোমার শুচি, এই লও তোমার অশুচি, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও।’
नन्द लाल बोस - क्या वे कानून [कर्म-फल का नियम] रद्द कर सकते हैं ?
NANDA: "Can God violate law?'
'নন্দ বসু — আইন তিনি ছাড়াতে পারেন?
श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! वे ईश्वर हैं, वे सब कुछ कर सकते हैं । जिन्होंने कानून बनाया है, वे कानून बदल भी सकते हैं ।
MASTER: "What do you mean? He is the Lord of all. He can do everything. He. who has made the law can also change it.
শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি! তিনি ঈশ্বর, তিনি সব পারেন; যিনি আইন করেছেন, তিনি আইন বদলাতে পারেন।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏चैतन्य लाभ (self-realization) क्या माँ की कृपा से या भोगों के क्षय होने पर🔱🙏
[চৈতন্যলাভ ভোগান্তে — না তাঁর কৃপায় ]
"परन्तु यह बात तुम कह सकते हो । तुम्हारी शायद भोग करने की इच्छा हैं, इसीलिए तुम ऐसी बात कह रहे हो । यह एक मत है भी, - ठीक है; भोग की शान्ति बिना हुए चैतन्य नहीं होता; परन्तु भोग भी क्या करोगे ? - कामिनी और कांचन का भोग ? - वह तो अभी है, अभी नहीं; क्षणिक । कामिनी और कांचन में है ही क्या ? छिलका और गुठली ही है - खाने पर अम्लशूल होता है । सन्देश निगलने के साथ ही स्वाद भी गायब !”
"But you may very well talk that way. Perhaps you want to enjoy the world, and that is why you talk that way. There is a view that a man's inner spirit is not awakened unless he is through with enjoyment. But what is there to enjoy? The pleasures of 'woman and gold'? This moment they exist and the next moment they disappear. It is all momentary. And what is there in 'woman and gold'? It is like the hog plum — all stone and skin. If one eats it, one suffers from colic. Or like a sweetmeat. Once you swallow it, it is gone."
“তবে ওকথা বলতে পার তুমি। তোমার নাকি ভোগ করবার ইচ্ছা আছে, তাই তুমি অমন কথা বলছ। ও এক মত আছে বটে, ভোগ শান্তি না হলে চৈতন্য হয় না! তবে ভোগেই বা কি করবে? কামিনী-কাঞ্চনের সুখ — এই আছে, এই নাই, ক্ষণিক! কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর আছে কি? আমড়া, আঁটি আর চামড়া; খেলে অমলশূল হয়। সন্দেশ, যাই গিলে ফেললে আর নাই!”
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱ईश्वर स्वयं ही जीव जगत् हुए हैं, इसीलिए अच्छा आदमी हर किसी का मित्र होता है🔱
किसी का अज्ञान कब नष्ट होगा, यह उनकी ख़ुशी पर निर्भर
[ঈশ্বর কি পক্ষপাতী — অবিদ্যা কেন — তাঁর খুশি ]
नन्द लाल बोस चुप हो रहे । फिर कहा – ‘यह सब कहते तो हैं, परन्तु क्या ईश्वर पक्षपात करनेवाले हैं ? अगर उनकी कृपा से होता है, तो कहना पड़ता है कि ईश्वर में पक्षपात है ।’
Nanda remained silent a few minutes. Then he said: "Oh, yes. People no doubt talk that way. But is God partial? If things happen through God's grace, then I must say God is partial."
নন্দ বসু একটু চুপ করিয়া আছেন, তারপর বলিতেছেন, — ও-সব তো বলে বটে! ঈশ্বর কি পক্ষপাতী? তাঁর কৃপাতে যদি হয়, তাহলে বলতে হবে ঈশ্বর পক্ষপাতী?
श्रीरामकृष्ण - वे स्वयं ही सब कुछ हैं । ईश्वर स्वयं ही जीव जगत् हुए हैं । जब पूर्ण ज्ञान होगा, तब यह बोध होगा । वे मन, बुद्धि और देह हुए हैं - चौबीसों तत्त्व सब वे ही हुए हैं । वे पक्षपात करें भी तो किस पर करें ?
MASTER: "But God Himself has become everything — the universe and its living beings. You will realize it when you have Perfect Knowledge. God Himself has become the twenty-four cosmic principles: the mind, intellect" body, and so forth. Is there anyone but Himself to whom He can show partiality?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তিনি নিজেই সব, ঈশ্বর নিজেই জীব, জগৎ সব হয়েছেন। যখন পূর্ণ জ্ঞান হবে, তখন ওই বোধ। তিনি মন, দেহ বুদ্ধি, দেহ — চতুর্বিংশতি তত্ত্ব সব হয়েছেন। তিনি আর পক্ষপাত কার উপর করবেন?
नन्द लाल बोस - अनेक रूपों का धारण उन्होंने क्यों किया ? - कोई ज्ञानी और कोई अज्ञानी क्यों है ?
NANDA: "Why has He assumed all these different forms? Why are some wise and some ignorant?"
নন্দ বসু — তিনি নানারূপ কেন হয়েছেন? কোনখানে জ্ঞান, কোনখানে অজ্ঞান?
श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा ।
MASTER: "It is His sweet will."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর খুশি।
अतुल - केदार ने अच्छा कहा है । एक ने उनसे पूछा, 'ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ?' इस पर वे बोले, "जिस मीटिंग में ईश्वर ने सृष्टि बनाने का ठहराया, उस मीटिंग में मैं हाजिर नहीं था ।' (सब हँसते हैं)
ATUL: "Kedar Babu puts it nicely. Once a man asked him, 'Why has God created the world?' He replied, 'I was not present at the conference where God made the plans of His creation.'"
অতুল — কেদারবাবু (চাটুজ্যে) বেশ বলেছেন। একজন জিজ্ঞাসা করেছিল, ঈশ্বর সৃষ্টি কেন করলেন, তাতে বলেছিলেন যে, যে মিটিং-এ তিনি সৃষ্টির মতলব করেছিলেন, সে মিটিং-এ আমি ছিলাম না। (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा ।
MASTER: "Oh! It is His sweet will."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁর খুশি।
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे --
सकलि तोमार इच्छा, इच्छामयी तारा तुमि।
तोमार कर्म तुमि कर माँ, लोके बोले करि आमि।
पङ्के बद्ध करो करि, पंगुरे लँघाओ गिरी।
कारे दाओ माँ ! ब्रह्मपद, कारे कर अधोगामी।।
आमि यन्त्र तुमि यन्त्री, आमि घर तुमि घरनी।
आमि रथ तुमि रथी, जेमन चलाओ तेमनी चली।।
‘सब तुम्हारी ही इच्छा है, तुम इच्छामयी तारा हो । माँ, अपने कर्म तुम खुद करती हो, परन्तु लोग कहते हैं कि मैं करता हूँ । ऐ काली, हाथी को तो तुम दलदल में फँसा देती हो और किसी पंगु से गिरि का उल्लंघन करा देती हो । किसी को तुम [माया-देश,काल, निमित्त से परे] ब्रह्मपद दे देती हो और किसी को तुम 'अधोगामी' कर देती हो ।'[जगत -की आसक्ति में फँसा देती हो!] इस शरीर और मन (Head and Hand) रूपी यन्त्र को गतिशील रखने वाली 'शक्ति' माँ सारदा हैं, और मैं सिर्फ उनका यन्त्र (ह्रदय-Heart) हूँ। घर मैं हूं, और उस घर (ह्रदय-मन्दिर) में वास करने वाली आत्मा ठाकुर और माँ हैं । मैं एक रथ ( chariot) हूँ, और आप (बड़े भाई -गुरु विवेकानन्द-नवनीदा) इसके सारथी ( Charioteer) हैं। हे ज्ञानदायिनी माँ सारदा, आप मुझे जैसा चलाती हैं, मैं केवल वैसा चलता हूँ।
So saying, the Master sang: "O Mother, all is done after Thine own sweet will; Thou art in truth self-willed, Redeemer of mankind! Thou workest Thine own work; men only call it theirs. Thou it is that holdest the elephant in the mire; Thou, that helpest the lame man scale the loftiest hill. On some Thou dost bestow the bliss of Brahmanhood; Yet others Thou dost hurl into this world below. Thou art the Moving Force, and I the mere machine; The house am I, and Thou the Spirit dwelling there; I am the chariot, and Thou the Charioteer: I move alone as Thou, O Mother, movest me.
এই বলিয়া ঠাকুর গান গাইতেছেন:
সকলি তোমার ইচ্ছা, ইচ্ছাময়ী তারা তুমি।
তোমার কর্ম তুমি কর মা, লোকে বলে করি আমি।
পঙ্কে বদ্ধ কর করী, পঙ্গুরে লঙ্ঘাও গিরি,
কারে দাও মা! ব্রহ্মপদ, কারে কর অধোগামী ॥
আমি যন্ত্র তুমি যন্ত্রী, আমি ঘর তুমি ঘরণী।
আমি রথ তুমি রথী, যেমন চালাও তেমনি চলি ॥
“वे आनन्दमयी हैं । इसी सृष्टि, स्थिति और प्रलय की लीला कर रही हैं । जीव असंख्य हैं, उनमें दो ही एक मुक्त हो रहे हैं, उससे भी उन्हें आनन्द होता है ।
He continued: "The Divine Mother is full of bliss. Creation, preservation, and destruction are the waves of Her sportive pleasure. Innumerable are the living beings. Only one or two among them obtain liberation. And that makes Her happy.
“তিনি আনন্দময়ী! এই সৃষ্টি-স্থিতি-প্রলয়ের লীলা করছেন। অসংখ্য জীব, তার মধ্যে দু-একটি মুক্ত হয়ে যাচ্ছে, — তাতেও আনন্দ।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏एक दिन सभी अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेंगे, और मुक्त हो जायेंगे🔱🙏
[तर जाना = भ्रममुक्त हो जाना=De-Hypnotized ]
"घुड़िर लक्ष्येर दूटो -एकटो काटे , हेसे दाओ माँ हात चापड़ी। ' हे माँ, उड़ती हुई लाखों पतंगों में से एक या दो पतंगें ही कट पाती हैं; और उन 'कटी पतंगों' को देखकर, तू हँसती है और ताली बजाती है ! "कोई संसार में (कामिनी-कांचन की आसक्ति में) में बँध रहा है, कोई (तुम्हारी कृपा से तीनो ऐषणाओं की निस्सारता को समझकर) मुक्त हो रहा है ।"
Out of a hundred thousand kites, at best but one or two break free; And Thou dost laugh and clap Thy hands, O Mother, watching them! Some are being entangled in the world and some are being liberated from it.
‘ঘুড়ির লক্ষের দুটো-একটা কাটে, হেসে দাও মা হাত চাপড়ি’। কেউ সংসারে বদ্ধ হচ্ছে, কেউ মুক্ত হচ্ছে।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏सरल लीडरशिप ट्रेनिंग - मन के साथ बातचीत-'करहु बिचारु सुजन मन माहीं' 🔱🙏
" भवसिन्धु माझे मन उठछे- डूबछे कतो तरी। " -हे मन, जरा सोंचो - इस संसार-समुद्र में कितने बड़े-बड़े जहाज क्यों डूब जाते हैं, पर कुछ जहाज कैसे स्वयं तो पार होते ही हैं दूसरों को भी पार लगा देते हैं ?
How many are the boats, O mind, That float on the ocean of this world! How many are those that sink!"
“ভবসিন্ধু মাঝে মন উঠছে ডুবছে কত তরী!”
[हम लोग ईश्वर की कृपा की प्रतीक्षा करते हैं। किसी पर उनकी कृपा होती है, किसी पर नहीं होती। कुछ लोगों पर कृपा बहुत देर से होती है। इससे भक्तों के मन में एक सहज प्रश्न उठता है कि क्या ईश्वर पक्षपाती हैं? भगवान श्री रामकृष्ण ने इस प्रश्न के उत्तर में उस दिन क्या कहा था ? आइये इसे सुनते हैं।
ঈশ্বরের কৃপার জন্য আমরা অপেক্ষা করি। কারও প্রতি তাঁর কৃপা হয়। কারও প্রতি হয় না। কারোর প্রতি আবার অনেক দেরিতে কৃপা হয়। ভক্তমনে তাই সরল প্রশ্ন জাগে, ঈশ্বর কি তবে পক্ষপাতী? এ প্রশ্নের জবাব দিইয়েছিলেন ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ। কী বলেছিলেন ঠাকুর সেদিন? আসুন শুনে নিই। साभार https://shono.sangbadpratidin.in/spiritual/19-december-2021-listen-to-this-podcast-for-mental-piece-and-tranquillity/
हे मेरे मन, एकाग्र होकर उन नौकाओं को देखो - कितनी नावें ऐसी हैं, जो इस भवसागर को तैर कर पार कर जाती हैं !
और कितनी ऐसी हैं जो 'कुशल माँझी' (गुरु विवेकानंद की कृपा से C-IN-C नवनीदा का मार्गदर्शन प्राप्त करने) के अभाव में डूब गयीं ? भव सिंधु =संसार रूपी सागर। सच्चा गुरु (नेता - विवेकानन्द,.... कैप्टन सेवियर परम्परा के C-IN-C प्रेममय नवनीदा ) ही हमें भवसागर पार करा सकता है। प्रभु श्रीरामकृष्ण के चरण भी ‘भवसिंधु पोतम्’ हैं, जिन्हों ने उनका आश्रय किया, वे भवसिंधु से पार हो गये।
राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
- श्रीरामचरितमानस (बालकाण्ड)।
अर्थात, यह सब कोई जानते ही हैं कि श्रीराम जी ने समुद्र से पार उतरने के लिये भालू (रीछ) और बन्दरों की बड़ी भारी सेना इकट्ठी की और पुल बनाने में उन्हें थोड़ा भी परिश्रम नहीं करना पड़ा। हे सुजन, जरा एक बार उन प्रभु श्री राम की महिमा का मन में विचार करके तो देखो कि (श्री राम और राम का नाम ' -दोनों में कौन बड़ा है ?) एक बार पूरे मन से जिनका नाम लेते ही सम्पूर्ण भवसागर (दुःख का समुद्र) सूख जाता है, कोई पुल बनाने की भी जरूरत नहीं पड़ती।और फिर तो पैदल ही चले जाओ पार, तैरना ही नहीं पड़े ।। ('कैसा है मेरे दिल तू खिलाड़ी, भर के भी तेरा प्याला खाली ?' क्या नहीं मेरे पास ? धन भी इज़्ज़त भी, बंगला भी कार भी, जाम भी शराब भी बाग़-ओ-बहार भी।) 'सपने में चैतन्य प्राप्ति का चपरास है -(नए दाँत का चिन्ह' जितेन्द्रजी या पीदा के बाएं कलाई पर ?) ISMC मेल जितेन्द्रजी ने भेजा मिशन स्थापना दिवस 1मई, 2023 ]
नन्द लाल बोस - उनकी इच्छा तो है, परन्तु इधर तो जान निकली जा रही है ।
NANDA: "It may be Her sweet will; but it is death to us."
নন্দ বসু — তাঁর খুশি! আমরা যে মরি!
श्रीरामकृष्ण - तुम लोग हो कहाँ ? वे (ठाकुर -माँ-स्वामीजी -प्रेममय नवनीदा) ही सब कुछ हुए हैं। जब तक उन्हें तुम नहीं समझ सकते हो, तभी तक 'मैं मैं' कर रहे हो ।
MASTER: "But who are you? It is the Divine Mother who has become all this. It is only as long as you do not know Her that you say, 'I', 'I'.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমরা কোথায়? তিনিই সব হয়েছেন। যতক্ষণ না তাঁকে জানতে পাচ্ছ, ততক্ষণ ‘আমি’ ‘আমি’ করছ!
"सब लोग अगर उन्हें जान लें तो तर जायँ । परन्तु बात यह है कि किसी को दिन निकलते ही खाने को मिल जाता है, कोई दोपहर के समय भोजन पाता है और कोई शाम को; परन्तु खाना सभी को मिल जाता है - कोई बिना खाये हुए नहीं रहता । इसी तरह अपने स्वरूप का ज्ञान सभी प्राप्त करेंगे ।"
"All will surely realize God. All will be liberated. It may be that some get their meal in the morning, some at noon, and some in the evening; but none will go without food. All, without any exception, will certainly know their real Self."
“সকলে তাঁকে জানতে পারবে — সকলেই উদ্ধার হবে, তবে কেহ সকাল সকাল খেতে পায়, কেহ দুপুর বেলা কেউ বা সন্ধ্যার সময়; কিন্তু কেহ অভুক্ত থাকবে না! সকলেই আপনার স্বরূপকে জানতে পারবে।”
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏जो 'मैं' कामिनी -कांचन में आसक्त हो जाता है, उस 'मैं ' को ही
'कच्चा मैं' (unripe ego) कहते हैं; उसका त्याग करो 🔱🙏
पशुपति [(पशुपति बोस) — नंदलाल बोस के भाई।] - जी हाँ, जान पड़ता है, वे ही सब कुछ हुए हैं ।
PASUPATI: "True, sir. It seems that it is God alone who has become everything."
পশুপতি — আজ্ঞা হাঁ, তিনিই সব হয়েছেন বোধ হয়।
श्रीरामकृष्ण - मैं क्या हूँ, इसे जरा खोजो तो । क्या मैं हाड़ हूँ ? माँस, खून या आँत हूँ ? 'मैं' को खोजते ही खोजते 'तुम' आ जाता है; अर्थात् अन्दर में उस ईश्वर की शक्ति के सिवा और कुछ नहीं है । 'मैं' नहीं है, 'वे' हैं (पशुपति बोस के प्रति) तुममें अभिमान नहीं है - इतना ऐश्वर्य होकर भी ।
MASTER: "Try to find out what this 'I' is. Is this 'I' the bones or flesh or blood or intestines? Seeking the 'I', you discover 'Thou'. In other words, nothing exists inside you but the power of God. There is no 'I', but only 'He'. (To Pasupati) You have so much wealth, but you have no egotism.
শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি, এটা খোঁজো দেখি। আমি কি হাড়, না মাংস, না রক্ত, না নাড়ীভুঁড়ি? আমি খুঁজতে খুঁজতে ‘তুমি’ এসে পড়ে, অর্থাৎ অন্তরে সেই ঈশ্বরের শক্তি বই আর কিছুই নাই। ‘আমি’ নাই! — তিনি। তোমার অভিমান নাই! এত ঐশ্বর্য।
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
Interpretation of the 'rascal ego' !
दुष्ट या शठ अहंकार की व्याख्या !
বদমাশ অহং এর ব্যাখ্যা!
🔱🙏'कच्चा मैं' को पूर्णतः त्याग देना असम्भव है - "तबे थाक शाला ईश्वरेर दास होय !"🔱🙏
" 'मैं' का सम्पूर्ण त्याग नहीं होता । यह सब जाने का नहीं तो रहने दो इसे ईश्वर का दास बना । मैं ईश्वर का भक्त हूँ, ईश्वर का दास हूँ, ईश्वर का पुत्र हूँ, यह अभिमान अच्छा है । जो 'मैं' कामिनी और कांचन में फँसता है वह कच्चा 'मैं' है, उसी का त्याग करना चाहिए ।"
It is not possible to rid oneself altogether of the ego; so, as long as it is there, let the rascal remain as the servant of God. (All laugh.) The ego that makes a man feel he is a devotee of God or a son of God or a servant of God is good. But the ego that makes a man attached to 'woman and gold' is the 'unripe ego'. That ego is to be renounced."
‘আমি’ একেবারে ত্যাগ হয় না; তাই যদি যাবে না তবে থাক শ্যালা ঈশ্বরের দাস হয়ে। (সকলের হাস্য) ঈশ্বরের ভক্ত, ঈশ্বরের ছেলে, ঈশ্বরের দাস, এ-অভিমান ভাল। যে ‘আমি’ কামিনী-কাঞ্চনে আসক্ত হয়, সেই ‘আমি’ কাঁচা আমি, সে ‘আমি’ ত্যাগ করতে হয়।
[इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि ईश्वर पक्षपाती नहीं है। किन्तु कच्चा 'मैं' समाप्त होने पर, ही ईश्वर की कृपा प्राप्त हो सकती है। अर्थात अपने 'कच्चा मैं' को माँ सारदा देवी के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट मैं' में रूपान्तरित कर सकने में समर्थ गुरु विवेकानन्द (या प्रेममय,नवनीदा) को अपना मारःदर्शक नेता समझ लेने पर ही अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव की कृपा प्राप्त हो सकती है। আমরা বুঝতে পারি, ঈশ্বর পক্ষপাতী নন। কাঁচা ‘আমি’র অবসান হলেই ঈশ্বরের কৃপা লাভ করা যায়। অর্থাৎ, মা সারদা দেবীর কৃপা তখনই প্রাপ্ত হয় যখন 'কাঁচা আমি' (প্রেমময়-নবনিদার মায়ের হৃদয়ের) সর্বব্যাপী 'বিরাট আমি'-তে রূপান্তরিত হতে পারে।]
अहंकार की यह व्याख्या सुनकर गृहस्वामी और दूसरे लोग बहुत प्रसन्न हुए ।
The head of the household and the others were very much pleased to hear this interpretation of the ego.
অহংকারের এইরূপ ব্যাখ্যা শুনিয়া গৃহস্বামী ও অন্যান্য সকলে সাতিশয় প্রীতিলাভ করিলেন।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏चैतन्य लाभ के लक्षण, सम्पन्नता का घमण्ड नहीं होगा और स्वभाव शान्त🔱🙏
[Pride and arrogance of wealth]
[ঐশ্বর্যের অহংকার ও মত্ততা ]
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के लक्षण हैं । पहला यह कि अभिमान न रह जायेगा । दूसरा, स्वभाव शान्त बना रहेगा । तुममें दोनों लक्षण हैं । अतएव तुम पर ईश्वर का अनुग्रह है ।
MASTER (to Pasupati): " There are two signs of knowledge: first, absence of pride, and second, a peaceful nature. You have both. Therefore you must have received the grace of God.
শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞানের দুটি লক্ষণ, প্রথম অভিমান থাকবে না; দ্বিতীয় শান্ত স্বভাব। তোমার দুই লক্ষণই আছে। অতএব তোমার উপর ঈশ্বরের অনুগ্রহ আছে।
"अधिक ऐश्वर्य (बहुत अधिक धन) के होने पर ईश्वर को लोग भूल जाते हैं, ऐश्वर्य का स्वभाव ही ऐसा है । यदु मल्लिक को बहुत ऐश्वर्य हुआ है, वह आजकल ईश्वर की बात ही नहीं करता । पहले ईश्वर-चर्चा खूब किया करता था ।
"Too much wealth makes one forget God. That is the very nature of wealth. Jadu Mallick has become very rich. Nowadays he doesn't talk of God. Formerly he used to enjoy spiritual talk a great deal.
“বেশি ঐশ্বর্য হলে, ঈশ্বরকে ভুল হয়ে যায়; ঐশ্বর্যের স্বভাবই ওই। যদু মল্লিকের বেশি ঐশ্বর্য হয়েছে, সে আজকাল ঈশ্বরীয় কথা কয় না। আগে আগে বেশ ঈশ্বরের কথা কইত।
"कामिनी और कांचन एक तरह की शराब है । अधिक शराब पीने पर फिर चाचा और दादा का विचार नहीं रह जाता । उन्हें ही कह डालता है - 'तेरी ऐसी की तैसी ।’ मतवाले को बड़े-छोटे का ज्ञान नहीं रहता ।"
"'Woman and gold' is a kind of wine. If a man drinks too much wine, he does not show his father and uncle the respect that is due to them. Very often he abuses them. A drunkard cannot distinguish between his superior and his inferior."
“কামিনী-কাঞ্চন একপ্রকার মদ। অনেক মদ খেলে খুড়া-জ্যাঠা বোধ থাকে না, তাদেরই বলে ফেলে, তোর গুষ্টির; মাতালের গুরু-লঘু বোধ থাকে না।”
नन्द बसु - हाँ, यह तो ठीक है ।
NANDA: "That is true, sir."
নন্দ বসু — তা বটে।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
[शुद्धभक्ति का साधन मनःसंयोग - क्षणभर के योग से मुक्ति ,थियोसोफी (ब्रह्मविद्या)]
[Theosophy — ক্ষণকাল যোগে মুক্তি — শুদ্ধাভক্তিসাধন ]
🔱🙏ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) पर मन रखो, क्षण भर का योग होने से भी चैतन्य प्राप्त होगा🔱🙏
(आम खाओ अर्थात विवेकानन्द के गुरु को पहचान कर उनमें भक्ति रखो)
पशुपति - ये सब क्या ठीक हैं ? स्पिरिच्युएलिज्म (अध्यत्मविद्या) , थियोसफी (ब्रह्मविद्या), सूर्यलोक, चन्द्रलोक, नक्षत्रलोक ?
PASUPATI: "Sir, what do you think of Theosophy and Spiritualism? Are these true? What do you think of the solar plane, the lunar plane, the stellar plane?"
পশুপতি — মহাশয়! এগুলো কি সত্য — Spiritualism, Theosophy? সূর্যলোক, চন্দ্রলোক? নক্ষত্রলোক?
श्रीरामकृष्ण - नहीं भाई, मैं नहीं जानता । इतना हिसाब-किताब क्यों ? आम खाओ । आम के कितने पेड़ हैं, कितनी लाख डालियाँ हैं, कितने करोड़ पत्ते हैं, इसके हिसाब लगाने की क्या जरूरत ? मैं बगीचे में आम खाने के लिए आया करता हूँ, आम खाकर चला जाऊँगा ।
MASTER: "My dear sir, I don't know about these things. Why bother about them so much? You have come to the orchard to eat mangoes. Enjoy them. What is the use of your calculating how many mango-trees there are, how many millions of branches, how many billions of leaves? I have come to the orchard to eat mangoes. Let me enjoy them.
শ্রীরামকৃষ্ণ — জানি না বাপু! অত হিসাব কেন? আম খাও; কত আমগাছ, কত লক্ষ ডাল, কত কোটি পাতা, এ হিসাব করা আমার দরকার কি? আমি বাগানে আম খেতে এসেছি, খেয়ে যাই।
"एक बार भी अगर चैतन्य (inner spirit) जाग्रत हो, अगर एक बार भी ईश्वर को कोई समझ सके, तो दूसरी व्यर्थ बातों के जानने की इच्छा भी नहीं होती । विकार के होने पर लोग बहुत कुछ बका करते हैं - 'अरे ! मैं तो पाँच सेर चावल का भात खाऊँगा, मैं दस घड़ा पिऊँगा रे !' - यह सब । वैद्य कहता है - 'खायेगा ! अच्छा खा लेना - यह कहकर वह तम्बाकू पीने लगता है । विकार अच्छा हो जाने पर, रोगी जो कुछ कहता है उसकी ओर वह ध्यान देता है ।"
"Once a man's inner spirit is awakened, once he succeeds in knowing God, he doesn't feel the desire even to know about all this rubbish. How incoherently a delirious patient talks: 'I shall eat five seers of rice! I shall drink a whole tank of water!' 'Will you?' says the physician. 'All right! You will have them.' Saying this, the physician goes on with his smoke. But he pays attention to what the patient says when the patient is no longer delirious."
“চৈতন্য যদি একবার হয়, যদি একবার ঈশ্বরকে কেউ জানতে পারে তাহলে ও-সব হাবজা-গোবজা বিষয় জানতে ইচ্ছাও হয় না। বিকার থাকলে কত কি বলে, — ‘আমি পাঁচ সের চালের ভাত খাবো রে’ — ‘আমি একজালা জল খাবো রে।’ — বৈদ্য বলে, ‘খাবি? আচ্ছা খাবি!’ — এই বলে বৈদ্য তামাক খায়। বিকার সেরে, যা বলবে তাই শুনতে হয়।”
पशुपति - जान पड़ता है, हम लोगों का विकार चिरकाल तक बना रहेगा ।
PASUPATI: "Will our delirium last forever?"
পশুপতি — আমাদের বিকার চিরকাল বুঝি থাকবে?
श्रीरामकृष्ण - क्यों, ईश्वर पर मन रखो, चैतन्य प्राप्त होगा। (spiritual consciousness-जाग्रत होगा और भारत पुरुज्जीवित हो जायेगा। )
MASTER: "Why should you think so? Fix your mind on God, and spiritual consciousness will be awakened in you."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন ঈশ্বরেতে মন রাখো, চৈতন্য হবে।
पशुपति (सहास्य) - हम लोगों का ईश्वर से योग क्षणिक है । तम्बाकू पीने में जितनी देर लगती है, बस उतनी ही देर तक । (सब हँसते हैं)
PASUPATI (smiling): "Our union with God is only momentary. It doesn't last any longer than a pipeful of tobacco." (All laugh.)
পশুপতি (সহাস্যে) — আমাদের ঈশ্বরে যোগ ক্ষণিক। তামাক খেতে যতক্ষণ লাগে। (সকলের হাস্য)
श्रीरामकृष्ण - तो क्या हुआ, थोड़ी देर के लिए भी उनसे योग हो गया तो मुक्ति होगी ही ।
MASTER: "What if that is so? Union with God even for one moment surely gives a man liberation.
শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হোক; ক্ষণকাল তাঁর সঙ্গে যোগ হলেই মুক্তি।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🙏'राम ! यह आशीर्वाद करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में बद्ध न होऊँ ।’🙏
"अहिल्या ने कहा, 'राम, चाहे शूकर-योनि में जन्म हो, अथवा और कहीं, ऐसा करो कि तुम्हारे श्रीचरणों में मन लगा रहे - शुद्धा भक्ति बनी रहे ।’
'Ahalya said to Rama, 'O Rama, it doesn't matter if I am born as a pig or any other being; only bless me that my mind may dwell on Thy Lotus! Feet and be filled with real devotion to Thee.'
“অহল্যা বললে, রাম! শূকরযোনিতেই জন্ম হউক আর যেখানেই হউক যেন তোমার পাদপদ্মে মন থাকে, যেন শুদ্ধাভক্তি হয়।
"नारद ने कहा, 'राम ! तुमसे मैं और कोई वर नहीं चाहता । मुझे बस शुद्धा भक्ति दो । और यह आशीर्वाद करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में बद्ध न होऊँ ।’ उनसे आन्तरिक प्रार्थना करने पर उन पर मन भी लगता है और शुद्धा भक्ति भी उनके श्रीचरणों में होती है ।
"Narada said to Rama: 'O Rama, I want from Thee no other favour. Please give me real love for Thee; and please bless me, that I may not come under the spell of Thy world-bewitching maya.' "When a man sincerely prays to God, he is able to fix his mind on God and develop real love for His Lotus Feet.
“নারদ বললে, রাম! তোমার কাছে আর কোনও বর চাই না, আমাকে শুদ্ধাভক্তি দাও, আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই, এই আশীর্বাদ করো। আন্তরিক তাঁর কাছে প্রার্থনা করলে, তাঁতে মন হয়, — ঈশ্বরের পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয়।”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
*पाप तथा परलोक, मृत्युकाल के समय ईश्वर-चिन्ता*
[পাপ ও পরলোক — মৃত্যুকালে ঈশ্বরচিন্তা — ভরত রাজা ]
🙏अवतार वरिष्ठ के नाम का एक बार भी सही उच्चारण (रामोकृष्णो)हुआ तो पाप खत्म🙏
["आम की जरूरत है" अर्थात " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में माँ सारदा (काली) से अवतार वरिष्ठ (C-IN-C) का चपरास प्राप्त नेता को पहचान कर उनका भक्त बनने और बनाने की भक्ति जरूरत है। ]
“ ‘क्या हमारा विकार (delirium-प्रलाप) दूर होगा ? - हम पापी जो हैं, यह सब बुद्धि दूर करो। (नन्द बसु से) चाहिए यह भाव कि एक बार हमने उनका नाम लिया है, अब हममें पाप कहाँ रह गया ?"
"Give up all such notions as: 'Shall we be cured of our delirium?', 'What will happen to us?', 'We are sinners!' (To Nanda) One must have this kind of faith: 'What? Once I have uttered the name of Rama, can I be a sinner any more?'"
“আমাদের কি বিকার যাবে!’ — ‘আমাদের আর কি হবে’ – ‘আমরা পাপী’ — এ-সব বুদ্ধি ত্যাগ করো। (নন্দ বসুর প্রতি) আর এই চাই — একবার রাম বলেছি, আমার আবার পাপ!”
नन्द बसु - तो क्या परलोक (hereafter, मरणोत्तर जीवन) नहीं होता है ? और क्या पाप का फल नहीं भुगतना होगा ?
NANDA: "Is there no after-life? What about punishment for our sins?"
নন্দ বসু — পরলোকে কি আছে? পাপের শাস্তি?
श्रीरामकृष्ण - तुम आम खाते तो जाओ । इन सब बातों के हिसाब से तुम्हें क्या काम ? - परलोक है या नहीं - वहाँ क्या होता है, क्या नहीं - इन सब बातों से क्या प्रयोजन ? “आम खाओ, आम की जरूरत है - उनमें भक्ति की जरूरत है ।"
MASTER: "Why not enjoy your mangoes? What need have you to calculate about the after-life and what happens then, and things like that? Eat your mangoes. You need mangoes. You need devotion to God —"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি আম খাও না! তোমার ও-সব হিসাবে দরকার কি? পরলোক আছে কি না — তাতে কি হয় — এ-সব খবর! “আম খাও। ‘আম’ প্রয়োজন, — তাঁতে ভক্তি —”
नन्द बसु - 'आम का पेड़' है कहाँ ? आम मिलता कहाँ है ?
NANDA: "But where is the mango-tree? Where do I get mangoes?"
নন্দ বসু — আমগাছ কোথা? আম পাই কোথা?
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏सत्य नारायण भगवान श्री 'रामोकृष्णो' शाश्वत हैं और 'पेड़' नहीं 'कल्पतरु' हैं🔱🙏
(प्रार्थना करने पर इस कल्पतरु से चार प्रकार के फल गिरते हैं)
श्रीरामकृष्ण – पेड़ ? वे अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं । वे तो हैं ही - वे नित्य हैं । एक बात और - वे कल्पतरु हैं । 'काली कल्पतरु मूले रे मन, चारि फल कूड़ाये पाबि !' "उस माँ काली रूपी कल्पतरु के नीचे तुम्हें चारों फल मिलेंगे । "
[>>>मनःसंयोग (आसन-प्रत्याहार -धारणा) का अभ्यास करते समय - मन को बालक की तरह सामने बैठाकर समझाओ और कहो --- " आओ रे मन, हमलोग अभी टहलने के लिए कल्पतरु 'काली' के पास (मनोकामना पूर्ण करने वाले वृक्ष -ठाकुर - माँ-स्वामीजी के पास) चलते हैं; और उनसे हम फलों के लिए प्रार्थना करते हैं। तब हमें उस वृक्ष के नीचे चार प्रकार के फल दिखाई देंगे, फिर हम अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार उन्हें बिन लेंगे।]
MASTER: "Tree? God is the eternal and infinite Brahman. He does exist; there is no doubt about it. He is eternal. But you must remember this, that He is the Kalpataru.--- "Come, let us go for a walk, O mind, to Kali, the Wish-fulfilling Tree, And there beneath It gather the four fruits of life."
শ্রীরামকৃষ্ণ — গাছ? তিনি অনাদি অনন্ত ব্রহ্ম! তিনি আছেনই, তিনি নিত্য! তবে একটি কথা আছে — তিনি ‘কল্পতরু —’ “কালী কল্পতরু মূলে রে মন, চারি ফল কুড়ায়ে পাবি!
"तुम्हें किन्तु कल्पतरु (अपने इष्टदेव अवतार-वरिष्ठ) के पास जाकर प्रार्थना करनी होगी, तभी पेड़ से फल गिरेंगे। जब देखोगे, पेड़ के नीचे फल है, तब बीन लेना । चार फल हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । “ज्ञानी 'मुक्ति का फल' (मोक्ष,de-Hypnotized होना) चाहते हैं, भक्त (विवेकानन्द) केवल भगवान श्री 'रामोकृष्णो' की भक्ति चाहते हैं - अहेतुकी भक्ति, वे धर्म, अर्थ, काम (तीनो ऐषणाओं में से कुछ भी) नहीं चाहते ।
"You must go to the Kalpataru and pray. Only then will you obtain the fruits. Only then will the fruits fall from the tree. Only then will you be able to gather them. There are four fruits: dharma, artha, kama, and moksha. The jnanis seek the fruit of liberation; and the bhaktas, love of God, love without any motive behind it. They seek neither dharma nor artha nor kama.
“কল্পতরুর কাছে গিয়ে প্রার্থনা করতে হয়, তবে ফল পাওয়া যায়, — তবে ফল তরুর মূলে পড়ে, — তখন কুড়িয়ে লওয়া যায়। চারি ফল, — ধর্ম, অর্থ, কাম, মোক্ষ।“জ্ঞানীরা মুক্তি (মোক্ষফল) চায়, ভক্তেরা ভক্তি চায়, — অহেতুকী ভক্তি। তারা ধর্ম, অর্থ, কাম চায় না।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏परलोक (hereafter, मरणोत्तर जीवन) होता है, या नहीं ?🔱🙏
*मृत्युकाल के समय ईश्वर-चिन्ता*
श्रीरामकृष्ण - “परलोक की बात कहते हो । गीता का मत है, मृत्यु के समय जो कुछ सोचोगे, वहीं होओगे । राजा भरत ने हरिण-हरिण कहकर दुःख में देह छोड़ी थी । दूसरे जन्म में वे हरिण हुए भी थे । इसीलिए जप, ध्यान और पूजा आदि का दिन-रात अभ्यास किया जाता है, इस तरह अभ्यास के गुण से मृत्यु के समय ईश्वर की याद आती है । इस तरह से अगर मृत्यु होती है तो ईश्वर का स्वरूप मिलता है ।
"You ask about the after-life. According to the Gita you will become in the next life what you think of in the hour of death. King Bharata was very much grieved over his pet deer; he died repeating the word 'deer'; therefore he was reborn as a deer. That is why day and night a man should practise worship, japa, meditation, and other spiritual exercises. Only then, by virtue of practice, will he be able to think of God in the hour of death. If one dies thus, thinking of God, one will acquire God's nature.
“পরলোকের কথা বলছ? গীতার মত, — মৃত্যুকালে যা ভাববে তাই হবে। ভরত রাজা ‘হরিণ’ ‘হরিণ’ করে শোকে প্রাণত্যাগ করেছিল। তাই তার হরিণ হয়ে জন্মাতে হল। তাই জপ, ধ্যান, পূজা এ-সব রাতদিন অভ্যাস করতে হয়, তাহলে মৃত্যুকালে ঈশ্বরচিন্তা আসে — অভ্যাসের গুণে। এরূপে মৃত্যু হলে ঈশ্বরের স্বরূপ পায়।
केशव सेन ने भी परलोक की बात पूछी थी । मैंने केशव से कहा, 'इन सब बातों का हिसाब लगाकर क्या करोगे ? फिर कहा, 'जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक बार बार संसार में आना-जाना होगा । कुम्हार मिट्टी के बासन धूप में सुखाता है । बकरी या गाय के पैरों से दबकर जो फूट जाते हैं उनमें जो पक्के बासन होते हैं उन्हें तो कुम्हार फेंक देता है, परन्तु कच्चे बासनों को वह फिर से गढ़ता है ।’ "
"Keshab Sen, too, asked me about the after-life. I said to him also, 'What need have you of all these calculations?' Then I said: 'As long as a man does not realize God, he will return to the world. The potter puts his clay jars and lids out in the sun to bake. If cattle trample them underfoot, he throws away the baked ones. But he collects the soft ones, mixes them with more clay, puts them on the wheel, and makes new vessels from them.'"
“কেশব সেনও পরলোকের কথা জিজ্ঞাসা করেছিল। আমি কেশবকেও বললুম, ‘এ-সব হিসাবে তোমার কি দরকার?’ তারপর আবার বললুম, যতক্ষণ না ঈশ্বরলাভ হয়, ততক্ষণ পুনঃ পুনঃ সংসারে যাতায়াত করতে হবে। কুমোরেরা হাঁড়ি-সরা রৌদ্র শুকুতে দেয়; ছাগল-গরুতে মাড়িয়ে যদি ভেঙে দেয় তাহলে তৈরি লাল হাঁড়িগুলো ফেলে দেয়। কাঁচাগুলো কিন্তু আবার নিয়ে কাদামাটির সঙ্গে মিশিয়ে ফেলে ও আবার চাকে দেয়!”
(३)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏ज्ञानमार्ग तथा करुणानिधान अवतार वरिष्ठ की शुद्धा भक्ति🔱🙏
अब तक गृहस्वामी ने श्रीरामकृष्ण के जलपान के लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी । तब श्रीरामकृष्ण ने नन्द बोस से स्वयं कहा – “देखो , तुम्हें मुझे कुछ 'खाने के लिये' देना चाहिए। इसलिए एक दिन मैंने यदु (यदु मल्लिक) की माँ से मैंने कहा था - 'ओगो, किछु खेते दाओ।' - अर्थात देखो, सन्त-संन्यासी (अतिथि) के घर आने पर उसे खाने के कुछ देना चाहिये, ऐसा नहीं करने से गृहस्थ का अमंगल भी हो सकता है।"
এ পর্যন্ত গৃহস্বামী ঠাকুরের মিষ্ট মুখ করাইবার কোনও চেষ্টা করেন নাই। ঠাকুর স্বতঃপ্রবৃত্ত হইয়া গৃহস্বামীকে বলিতেছেন —“কিছু খেতে হয়। যদুর মাকে তাই সেদিন বললুম — ‘ওগো কিছু (খেতে) দাও’! তা না হলে পাছে গৃহস্থের অমঙ্গল হয়!”
The master of the house had not yet shown any sign of serving Sri Ramakrishna with refreshments. Sri Ramakrishna himself said to Nanda: "You see, you should offer me something to eat. That is why the other day I said to Jadu's mother: 'Look here. Give me something to eat.' Otherwise it brings harm to the householder."
गृहस्वामी (नन्दलाल बोस) ने कुछ मिष्टान्न मँगाया । श्रीरामकृष्ण मिष्टान्न खा रहे हैं । नन्द बसु तथा अन्य लोग श्रीरामकृष्ण की ओर एकदृष्टि से ताक रहे हैं । देख रहे हैं, वे क्या करते हैं ।
Nanda Bose ordered some sweets. Sri Ramakrishna began to eat them. Nanda and the others were watching the Master and his actions.
গৃহস্বামী কিছু মিষ্টান্ন আনাইয়া দিলেন। ঠাকুর খাইতেছেন। নন্দ বসু ও অন্যান্য সকলে ঠাকুরের দিকে একদৃষ্টে চাহিয়া আছেন। দেখিতেছেন তিনি কি কি করেন।
श्रीरामकृष्ण हाथ धोयेंगे । जिस तश्तरी में मिठाई दी गयी थी वह दरी पर बिछी हुई चद्दर पर रखी थी, इसलिए श्रीरामकृष्ण वहीं अपने हाथ नहीं धो सके । हाथ धोने के लिए एक आदमी एक पीतल का कटोरा ( brass bowl -पीकदान) ले आया ।
After eating the sweets, Sri Ramakrishna wanted to wash his hands. The plate on which the sweets were served had been placed on the sheet covering the carpet; so the Master could not wash his hands in the plate. A servant brought a brass bowl for him to use.
ঠাকুর হাত ধুইবেন, চাদরের উপর রেকাবি করিয়া মিষ্টান্ন দেওয়া হইয়াছিল, সেখানে হাত ধোয়া হইবে না। হাত ধুইবার জন্য একজন ভৃত্য পিকদানি আনিয়া উপস্থিত হইল।
भोजन के बाद 'पीतल के कटोरे' (पीकदान) में हाथ धोना, रजोगुण का चिह्न है । श्रीरामकृष्ण देखकर कह उठे, "ले जाओ - ले जाओ ।" गृहस्वामी ने कहा, "आप कृपया इसी बर्तन में हाथ धो लीजिये ।"
But Sri Ramakrishna would not use it, since only rajasic people used such things. He asked the servant to take it away. The master of the house said to him, "Please wash your hands."
"পিকদানি রজোগুণের চিহ্ন। ঠাকুর দেখিয়া বলিয়া উঠিলেন, “নিয়ে যাও, নিয়ে যাও।” গৃহস্বামী বলিতেছেন, “হাত ধুন।”
श्रीरामकृष्ण अन्यमनस्क हैं । कहा, "क्या ? - हाथ धोऊँगा ।"
Absent-mindedly Sri Ramakrishna said: "What? Shall I wash my hands?"
ঠাকুর অন্যমনস্ক। বলিলেন, “কি? — হাত ধোবো?
श्रीरामकृष्ण बरामदे के दक्षिण ओर उठ गये । मणि को हाथ पर पानी डालने के लिए आज्ञा की । मणि गडुए से पानी छोड़ने लगे । श्रीरामकृष्ण अपनी धोती में हाथ पोंछकर फिर बैठने की जगह पर आ गये । समागत सज्जनों के लिए तश्तरी में पान लाये गये थे । उसी में के पान श्रीरामकृष्ण के पास ले जाये गये । उन्होंने पान नहीं लिया ।
The Master walked to the south verandah. He asked M. to pour water into his hands. M. poured water from a jug. The Master dried his hands with his cloth and returned to the room. Then he was offered betel-leaf on a tray. But the other guests had already taken some from the same tray; the Master did not accept any.
ঠাকুর দক্ষিণে বারান্দার দিকে উঠিয়া গেলেন। মণিকে আজ্ঞা করিলেন, “আমার হাতে জল দাও।” মণি ভৃঙ্গার হইতে জল ঢালিয়া দিলেন। ঠাকুর নিজের কাপড়ে হাত পুঁছিয়া আবার বসিবার স্থানে ফিরিয়া আসিলেন। ভদ্রলোকদের জন্য রেকাবি করিয়া পান আনা হইয়াছিল। সেই রেকাবির পান ঠাকুরের কাছে লইয়া যাওয়া হইল, তিনি সে পান গ্রহণ করিলেন না।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
इष्टदेवता को अर्पण - ज्ञानभक्ति और शुद्धभक्ति
[ইষ্টদেবতাকে নিবেদন — জ্ঞানভক্তি ও শুদ্ধাভক্তি ]
नन्द वसु (श्रीरामकृष्ण से) - एक बात कहूँ ?
NANDA (to the Master): "May I say something?"
নন্দ বসু (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — একটা কথা বলব?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – क्या ?
MASTER (smiling): "What?"
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি?
नन्द बसु - पान आपने क्यों नहीं खाया ? सब तो ठीक हुआ, इतना यह अन्याय हो गया ।
NANDA: "Why didn't you eat any betel-leaf? Everything else you did was proper; this alone seems to be otherwise."
নন্দ বসু — পান খেলেন না কেন? সব ঠিক হল, ওইটি অন্যায় হয়েছে!
श्रीरामकृष्ण - इष्ट को देकर खाता हूँ । यह मेरी एक अपनी धारण है ।
MASTER: "Before I eat anything I offer it to God.2 It is a notion of mine."
শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈষ্টকে দিয়ে খাই; — ওই একটা ভাব আছে।
[^हिंदू धार्मिक रीति-रिवाज के अनुसार कोई चीज भगवान को (अपने इष्टदेव को) तभी अर्पित की जा सकती है जब उसका कोई भी टुकड़ा किसी और को पहले ही समर्पित नहीं किया गया हो।
^According to Hindu religious custom a thing can be offered to God only if no part of it has been eaten by anyone else beforehand.]
नन्द बसु - वह तो इष्ट ही में जाता ।
NANDA: "But the betel-leaf would have gone to God all the same."
নন্দ বসু — ও তো ইষ্টতেই পড়ত।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञानमार्ग और चीज है, और भक्तिमार्ग दूसरी । ज्ञानी के मत से सभी चीजें ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से ली जा सकती हैं, लेकिन भक्तिमार्ग में (पवित्र गंगाजल और अपवित्र नाले के जल के बीच।) कुछ भेद-बुद्धि होती है।
[मास्टर: "ज्ञान का मार्ग है, और भक्ति का मार्ग भी है। ज्ञानी के अनुसार ब्रह्म के ज्ञान को लागू करके सब कुछ खाया जा सकता है, लेकिन भक्ति मार्ग का अनुयायी (पवित्र और अपवित्र के बीच।) थोड़ा अंतर रखता है।"
MASTER: "There is the path of jnana, and there is also the path of bhakti. According to the jnani everything can be eaten by applying the Knowledge of Brahman;3 but the follower of bhakti keeps a little distinction." (Between holy and unholy.)
শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞানপথ একটা আছে; আর ভক্তিপথ একটা আছে। জ্ঞানীর মতে সব জিনিসই ব্রহ্মজ্ঞান করে লওয়া যায়! ভক্তিপথে একটু ভেদবুদ্ধি হয়।
नन्द बसु - तो यह दोष हुआ है ।
NANDA: "But I still maintain that you did not act rightly."
নন্দ — ওটা দোষ হয়েছে।
श्रीरामकृष्ण - यह एक मेरा भाव है । तुम जो कुछ कहते हो ठीक है, शास्त्रों में उसका भी समर्थन किया गया है।
MASTER (smiling): "It is just a notion of mine. What you say is also right. That too is supported by the scriptures."
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ও আমার একটা ভাব আছে। তুমি যা বলছ ও ঠিক বটে — ও-ও আছে।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏 जो संसार में रहकर (चापलूसों से घिरे रहकर भी) उन्हें पुकारता है, धन्य वही है 🔱🙏
[Blessed is the one who calls upon Him while living in the world.]
श्रीरामकृष्ण गृहस्वामी को चापलूसों के सम्बन्ध में सावधान कर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna was warning Nanda of flatterers.
ঠাকুর গৃহস্বামীকে মোসাহেব হইতে সাবধান করিতেছেন।
श्रीरामकृष्ण - एक बात के बारे में सावधान रहना । चापलूस अपने स्वार्थ की ताक में रहते हैं । (प्रसन्न के पिता से) आप क्या इसी मकान में रहते हैं ?
MASTER: "Beware of flatterers. They are after their own selfish purpose. (To Prasanna's father) Do you live in this house?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — আর একটা সাবধান! মোসাহেবরা স্বার্থের জন্য বেড়ায়। (প্রসন্নের পিতাকে) আপনার কি এখানে থাকা হয়?
प्रसन्न के पिता - जी नहीं, परन्तु इसी मुहल्ले में रहता हूँ ।
PRASANNA'S FATHER: "No, sir, I am a neighbour. Won't you have a smoke?"
প্রসন্নের পিতা — আজ্ঞে না, এই পাড়াতেই থাকা হয়। তামাক ইচ্ছা করুন।
श्रीरामकृष्ण (बहुत विनम्रता से): "नहीं, कृपया आप हुक्के का आनंद लें। मुझे अब धूम्रपान करने का मन नहीं कर रहा है।"
नन्द बसु का मकान बहुत बड़ा है, इस पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "यदु का मकान इतना बड़ा नहीं है । इसीलिए उससे उस दिन मैंने कहा ।"
Nanda's house was like a palace. Sri Ramakrishna said to him: "Jadu hasn't such a big house. I told him so the other day."
নন্দ বসুর বাড়িটি খুব বড় তাই ঠাকুর বলিতেছেন — যদুর বাড়ি এত বড় নয়; তাই তাকে সেদিন বললাম।
नन्द - हाँ, उन्होंने (जोड़ासाखों में) एक नया मकान बनवाया है ।
NANDA: "He has built a new house at Jorashanko."
নন্দ — হাঁ, তিনি জোড়াসাঁকোতে নূতন বাড়ি করেছেন।
श्रीरामकृष्ण नन्द वसु का उत्साह बढ़ा रहे हैं, कह रहे हैं – "तुम संसार में रहकर ईश्वर की ओर मन रखे हुए हो, क्या यह कुछ कम बात है ? जिसने संसार का त्याग कर दिया है वह तो ईश्वर को पुकारेगा ही । उसमे बहादुरी क्या है ? जो संसार में रहकर उन्हें पुकारता है, धन्य वही है । वह उस आदमी की तरह है जो बीस मन वजनी पत्थर को हटाकर कोई वस्तु पाता है।
MASTER (to Nanda): "Though you are a householder, still you have kept your mind on God. Is that a small thing? The man who has renounced the world will pray to Him as a matter of course. Is there any credit in that? But blessed indeed is he who, while leading a householder's life, prays to God. He is like a man who finds an object after removing a stone weighing twenty maunds.
ঠাকুর নন্দ বসুকে উৎসাহ দিতেছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (নন্দ বসুর প্রতি) — তুমি সংসারে থেকে ঈশ্বরের প্রতি মন রেখেছ, এ কি কম কথা? যে সংসারত্যাগী সে তো ঈশ্বরকে ডাকবেই। তাতে বাহাদুরি কি? সংসারে থেকে যে ডাকে, সেই ধন্য! সে ব্যক্তি বিশ মন পাথর সরিয়ে তবে দেখে।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
'You are I and I am You !' my dear open the door !
"तुम्हीं 'मैं हो और मैं ही 'तुम' हूँ - मेरे प्रिय दरवाजा खोलो!" --राबिया
🔱🙏 हनुमान में ज्ञान और भक्ति दोनों थे, नारद में शुद्धा भक्ति थी 🔱🙏
[Hanuman had both knowledge and devotion, Narad had pure devotion]
(হনুমানের জ্ঞান ও ভক্তি দুটোই ছিল, নারদের ছিল শুদ্ধ ভক্তি।)
श्रीरामकृष्ण (नन्द लाल बोस के प्रति) "किसी एक भाव का आश्रय लेकर उन्हें पुकारना चाहिए । हनुमान में ज्ञान और भक्ति दोनों थे, नारद में शुद्धा भक्ति थी ।
"One should pray to God, establishing with Him an appropriate relationship. Hanuman's love for God was mixed with knowledge; but Narada's love for God was pure and unadulterated.
“একটা ভাব আশ্রয় করে তাঁকে ডাকতে হয়। হনুমানের জ্ঞানভক্তি, নারদের শুদ্ধাভক্তি।
"राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम किस भाव से मेरी पूजा करते हो ?" हनुमान ने कहा, 'कभी तो देखता हूँ, तुम पूर्ण (whole) हो और मैं अंश (part) हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु (Master) हो और मैं दास (servant) हूँ; और राम, जब तत्व (सच्चिदानन्द -the Knowledge of Reality) का ज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं 'मैं हो और मैं ही 'तुम' हूँ ।’
[^* देहबुद्ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥]
"Rama asked Hanuman, 'Hanuman, what attitude do you cherish toward Me when you worship Me?' Hanuman answered: 'Sometimes I see that You are the whole and I am a part; sometimes I see that You are the Master and I am Your servant. But Rama, when I have the Knowledge of Reality, then I find that You are I and I am You.'
“রাম জিজ্ঞাসা করলেন, ‘হনুমান! তুমি আমাকে কি ভাবে অর্চনা কর?’ হনুমান বললেন, ‘কখনও দেখি, তুমি পূর্ণ আমি অংশ; কখনও দেখি তুমি প্রভু আমি দাস; আর রাম যখন তত্ত্বজ্ঞান হয়, তখন দেখি, তুমিই আমি — আমিই তুমি।’ —
"राम ने नारद से कहा, 'तुम वर लो ।' नारद ने कहा, 'राम, यह वर दो कि तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो जिससे फिर तुम्हारी भुवन-मोहिनी माया से मुग्ध न होऊँ ।’ "
"Rama said to Narada, 'Ask a favour of Me.' Narada said, 'O Rama, grant me the boon that I may have genuine love for Thy Lotus Feet and that I may not come under the spell of Thy world-bewitching maya!'"
“রাম নারদকে বললেন, ‘তুমি বর লও।’ নারদ বললেন, ‘রাম! এই বর দাও, যেন তোমার পাদপদ্মে শুদ্ধাভক্তি হয়, আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই!”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
क्या नेता/कल्पतरु सिर्फ पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते ?
🔱क्या ईश्वर की शक्ति (Unselfishness)सभी मनुष्यों में एक समान हो सकती है ?🔱
(Can the Energy of God be same in all human beings?)
(ঈশ্বরের শক্তি কি সব মানুষের মধ্যে একই হতে পারে?)
श्रीरामकृष्ण अब उठनेवाले हैं ।
Sri Ramakrishna was about to take his leave.
এইবার ঠাকুর গাত্রোত্থান করিবেন।
श्रीरामकृष्ण (नन्द बसु से) - गीता का मत है, बहुत-से आदमी जिसे मानते और पूजते हैं उसमें ईश्वर की विशेष शक्ति है । तुममें ईश्वर की शक्ति है ।
MASTER (to Nanda): "According to the Gita a man who is honoured and respected by many people possesses a special power of God. You have divine power."
শ্রীরামকৃষ্ণ (নন্দ বসুর প্রতি) — গীতার মত — অনেকে যাকে গণে মানে, তাতে ঈশ্বরের বিশেষ শক্তি অছে। তোমাতে ঈশ্বরের শক্তি আছে।
नन्द बसु - शक्ति सभी मनुष्यों में बराबर है ।
NANDA: "All men have the same power."
নন্দ বসু — শক্তি সকল মানুষেরই সমান।
श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) - यही तुम लोगों की एक रट है । सब आदमियों की शक्ति कभी बराबर हो सकती है ? विभुरूप से वे सर्वभूतों में विराजमान हैं, यह ठीक है, परन्तु शक्ति की विशेषता है।
[God no doubt dwells in all beings as the all-pervading Spirit, but the manifestation of His energy (Unselfishness) varies from being to being.
ठाकुर (तीखेपन से): " तुम लोग जो (पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से प्रभावित हो) सब एक ही बात कहते हैं। क्या सभी मनुष्यों में एक समान शक्ति हो सकती है ? निस्सन्देह ईश्वर सर्वव्यापी आत्मा के रूप में सभी प्राणियों में निवास करते हैं, लेकिन उनकी शक्ति (Unselfishness) की अभिव्यक्ति अलग-अलग प्राणियों में अलग-अलग होती है।]
MASTER (sharply): "You all say the same thing. Can all men ever possess power to the same degree? God no doubt dwells in all beings as the all-pervading Spirit, but the manifestations of His Power are different in different beings.
শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — ওই এক তোমাদের কথা; — সকল লোকের শক্তি কি সমান হতে পারে? বিভুরূপে তিনি সর্বভূতে এক হয়ে আছেন বটে, কিন্তু শক্তিবিশেষ!
"यही बात विद्यासागर ने भी कही थी । उसने कहा था, 'क्या उन्होंने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ?' तब मैंने कहा, 'अगर शक्ति की भिन्नता न रहती, तो तुम्हें हम लोग देखने क्यों आते ? क्या तुम्हारे सिर पर दो सींग हैं ?"
"Vidyasagar, too, said the same thing. He said, 'Has God given some more power and some less?' Thereupon I said to him: 'If there are not different manifestations of His Power, then why have we come to see you? Have you grown two horns on your head?'"
“বিদ্যাসাগরও ওই কথা বলছিল, — ‘তিনি কি কারুকে বেশি শক্তি কারুকে কম শক্তি দিয়েছেন?’ তখন আমি বললাম — যদি শক্তি ভিন্ন না হয়, তাহলে তোমাকে আমরা কেন দেখতে এসেছি? তোমার মাথায় কি দুটো শিং বেরিয়েছে? "
श्रीरामकृष्ण उठे । साथ-साथ सब भक्त भी उठे । पशुपति साथ साथ दरवाजे तक आये ।
Sri Ramakrishna rose. The devotees followed him. Pasupati accompanied them to the door.
ঠাকুর গাত্রোত্থান করিলেন। ভক্তেরাও সঙ্গে সঙ্গে উঠিলেন। পশুপতি সঙ্গে সঙ্গে প্রত্যুদগমন করিয়া দ্বারদেশে পৌঁছাইয়া দিলেন।
(४)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏शोकातुरा विधवा ब्राह्मणी के घर में श्रीरामकृष्ण 🔱🙏
(Sri Ramakrishna in the house of grief-stricken brahmin lady.)
শোকাতুরা ব্রাহ্মণীর বাটীতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ
प्रेममय प्रभु श्रीरामकृष्ण बागबाजार की एक शोकातुरा ब्राह्मणी के यहाँ आये हुए हैं । मकान पुराने ढंग का है, पर पक्का है, इसलिए छत पर ही बैठने का प्रबन्ध किया गया है । घर में प्रवेश करने के बाद श्रीरामकृष्ण बाईं ओर स्थित गौशाला को पार कर अपने भक्तों के साथ छत पर पहुँचे और स्थान ग्रहण किया। छत पर कतार बाँधकर कुछ लोग खड़े हैं, कुछ लोग बैठे हुए हैं । सब उत्सुक हैं कि श्रीरामकृष्ण को कब देखें ।
The Master arrived at the house of the brahmin lady who was grief-stricken on account of her daughter's death. It was an old brick house. Entering the house, the Master passed the cow-shed on his left. He and the devotees went to the roof, where they took seats. People were standing there in rows. Others were seated. They were all eager to get a glimpse of Sri Ramakrishna.
ঠাকুর বাগবাজারের একটি শোকাতুরা ব্রাহ্মণীর বাড়ি আসিয়াছেন। বাড়িটি পুরাতন ইষ্টকনির্মিত। বাড়ি প্রবেশ করিয়াই বাম দিকে গোয়ালঘর। ছাদের উপর বসিবার স্থান হইয়াছে। ছাদে লোক কাতার দিয়া, কেহ দাঁড়াইয়া কেহ বসিয়া আছেন। সকলেই উৎসুক — কখন ঠাকুরকে দেখিবেন।
ब्राह्मणी दो बहनें हैं, दोनों विधवा हैं, घर में उनके भाई सपत्नीक रहते हैं । ब्राह्मणी के एक ही कन्या थी । उसके निधन से वह अत्यन्त दुःखी रहा करती है । आज श्रीरामकृष्ण पधारेंगे, यह सुनकर दिन भर से वह उनके स्वागत की तैयारी कर रही है । जब तक श्रीरामकृष्ण नन्द बसु के यहाँ थे तब तक ब्राह्मणी भीतर-बाहर कर रही थी कि कब वे आयें । आने में विलम्ब होते देख वह निराश हो रही थी, सोंच रही थीं -लगता है अब ठाकुर नहीं आयेंगे।
The brahmani had a sister; both of them were widows. Their brothers also lived in the house with their families. The brahmani had been busy all day making arrangements to receive Sri Ramakrishna. While the Master was at Nanda Bose's house she had been extremely restless, going out of the house every few minutes to see if he was coming. He had promised to come to her place from Nanda's. Because of his delay she had thought perhaps he would not come at all.
ব্রাহ্মণীরা দুই ভগ্নী, দুই জনেই বিধবা। বাড়িতে এঁদের ভায়েরাও সপরিবারে থাকেন। ব্রাহ্মণীর একমাত্র কন্যা দেহত্যাগ করাতে তিনি যারপরনাই শোকাতুরা। আজ ঠাকুর গৃহে পদার্পণ করিবেন বলিয়া সমস্ত দিন উদ্যোগ করিতেছেন। যতক্ষণ ঠাকুর শ্রীযুক্ত নন্দ বসুর বাড়িতে ছিলেন, ততক্ষণ ব্রাহ্মণী ঘর-বাহির করিতেছিলেন, — কখন তিনি আসেন। ঠাকুর বলিয়া দিয়াছিলেন যে, নন্দ বসুর বাড়ি হইতে আসিয়া তাঁহার বাড়িতে আসিবেন। বিলম্ব হওয়াতে তিনি ভাবিতেছিলেন, তবে বুঝি ঠাকুর আসিবেন না।
भक्तों के साथ आकर छत पर बैठने के स्थान पर श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया । पास चटाई पर मास्टर, नारायण, योगीन्द्र सेन, देवेन्द्र तथा योगीन बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद छोटे नरेन्द्र आदि बहुत से भक्त आ गये । ब्राह्मणी की बहन छत पर आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कह रही है - "दीदी नन्द बसु के यहाँ खबर लेने के लिए अभी थोड़ी देर हुई, गयी हैं । आती ही होंगी ।"
Sri Ramakrishna was seated on a carpet. M., Narayan, Jogin, Devendra, and others were seated on a mat. A few minutes later the younger Naren and some other devotees arrived. The brahmani's sister came to the Master and saluted him. She said, "Sister has just gone to Nanda Bose's house to inquire the reason for your delay in coming here. She will return presently.
ঠাকুর ভক্তসঙ্গে আসিয়া ছাদের উপর বসিবার স্থানে আসন গ্রহণ করিলেন। কাছে মাদুরের উপর মাস্টার, নারাণ, যোগীন সেন, দেবেন্দ্র, যোগীন। কিয়ৎক্ষণ পরে ছোট নরেন প্রভৃতি অনেক ভক্তেরা আসিয়া জুটিলেন। ব্রাহ্মণীর ভগ্নী ছাদের উপর আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া বলিতেছেন — “দিদি এই গেলেন নন্দ বোসের বাড়ি খবর নিতে, কেন এত দেরি হচ্ছে; — এতক্ষণে ফিরবেন।”
नीचे एक शब्द सुनकर उसने कहा, 'वह - दीदी आयीं ।' यह कहकर वह देखने लगी, परन्तु ब्राह्मणी नहीं आयी थी ।
A sound was heard downstairs and she exclaimed, "There she comes!" She went down. But it was not the brahmani.
নিচে একটি শব্দ হওয়াতে তিনি আবার বলিতেছেন — “ওই দিদি আসছেন।” এই বলিয়া তিনি দেখিতে লাগিলেন। কিন্তু তিনি এখনও আসিয়া পৌঁছেন নাই।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏दरिद्र विधवा ब्राह्मणी की छोटी कुटिया नन्द बसु विशाल भवन से अच्छा क्यों है ? 🔱🙏
(अपराजिता का मलयपुर का पुराना घर (जन्मस्थान) नए घर से अच्छा क्यों था ?)
श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं ।
Sri Ramakrishna sat there smiling, surrounded by devotees.
ঠাকুর সহাস্যবদন, ভক্তপরিবৃত হইয়া বসিয়া আছেন।
मास्टर (देवेन्द्र से) - कितना सुन्दर दृश्य है ! लड़के बच्चे, पुरुष, स्त्री सब लोग कतार बाँधकर खड़े हुए हैं । सब लोग इन्हें देखने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं - और इनकी बात सुनने के लिए ।
M. (to Devendra): "What a grand sight! All these people — young and old, men and women — standing in lines, eager to have a glimpse of him and hear his words."
মাস্টার (দেবেন্দ্রের প্রতি) — কি চমৎকার দৃশ্য। ছেলে-বুড়ো, পুরুষ-মেয়ে কাতার দিয়ে দাঁড়িয়া রয়েছে! সকলে কত উৎসুক — এঁকে দেখবার জন্য! আর এঁর কথা শোনবার জন্য!
देवेन्द्र - (श्रीरामकृष्ण से) - मास्टर महाशय कहते हैं, 'नन्द बसु के वहाँ से यह जगह अच्छी है, - इन लोगों में कितनी भक्ति है !’
DEVENDRA (to the Master): "M. says that this place is better than Nanda's. The devotion of these people is amazing."
দেবেন্দ্র (শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — মাস্টার মশাই বলছেন যে, এ জায়গাটি নন্দ বোসের চেয়ে ভাল জায়গা; — এদের কি ভক্তি!
श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।
Sri Ramakrishna laughed.
ঠাকুর হাসিতেছেন।
अब ब्राह्मणी की बहन कह रही है, 'दीदी वह आ रही है ।’
The brahmani's sister exclaimed, "Here comes sister!"
এইবার ব্রাহ্মণীর ভগ্নী বলিতেছেন, “ওই দিদি আসছেন।”
ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके, अपने-आपे में न थी ! कुछ सोच न सकी कि क्या कहे ।
The brahmani came and saluted the Master. She was beside herself (आपे में न थी) with joy. She did not know what to say.
ব্রাহ্মণী আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া কি বলিবেন, কি করিবেন কিছুই ঠিক করিতে পারিতেছেন না।
वह अधीर होकर कहने लगी - "अरी, देख, इतना आनन्द मैं कहाँ रखूँ ? - बताओ री - जब मेरी चण्डी आती थी, सिपाहियों को (liveried footmen को) साथ लेकर, और वे लोग ( Z -श्रेणी के हथियारबंद सुरक्षाकर्मी ) रास्ते पर पहरा देते थे, तब भी तो मुझे इतना आनन्द नहीं हुआ - अरी, अब मुझे चण्डी के देहत्याग का दुःख जरा भी नहीं है ।
In a half-choked voice she said: "This joy is too much for me. Perhaps I shall die of it. Tell me, friends, how shall I be able to live? I did not feel such a thrill even when Chandi, my daughter, used to visit the house accompanied by liveried footmen, with armed guards lining both sides of the street. Oh! Now I have no trace of my grief at her death.
ব্রাহ্মণী অধীর হইয়া বলিতেছেন, “ওগো, আমি যে আহ্লাদে আর বাঁচি না, গো! তোমরা সব বল গো আমি কেমন করে বাঁচি! ওগো, আমার চণ্ডী যখন এসেছিল, — সেপাই শান্ত্রী, সঙ্গে করে — আর রাস্তায় তারা পাহারা দিচ্ছিল — তখন যে এত আহ্লাদ হয়নি গো! — ওগো চণ্ডীর শোক এখন একটুও আমার নাই!
मैंने सोचा था, जब 'वे ' (अर्थात् श्री रामकृष्ण) नहीं आये, तब जो कुछ आयोजन मैंने किया, सब गंगा में फेंक दूँगी - फिर कभी उनसे बोलूँगी भी नहीं – जहाँ आयेंगे, आड़ से एक बार देख भर लूँगी, बस चली आऊँगी ।
I was afraid he (Meaning Sri Ramakrishna.) would not come. Then I thought that, if that happened, I should throw into the Ganges all the things I had arranged for his reception and entertainment. I should not speak to him any more. If he visited a place, I should go there, look at him from a distance, and then come away.
মনে করেছিলাম, তিনি যেকালে এলেন না, যা আয়োজন করলুম, সব গঙ্গার জলে ফেলে দেব; — আর ওঁর (ঠাকুরের) সঙ্গে আলাপ করব না, যেখানে আসবেন একবার যাব, অন্তর থেকে দেখব, — দেখে চলে আসব।
"जाऊँ, सब से कहूँ, तुम आकर मेरा सुख देख जाओ, - जाऊँ योगीन से कहूँ, मेरा सुख देख जा –”
"Let me go and tell everybody how happy I am. Let me go and tell Yogin of my good luck."
“যাই — সকলকে বলি, আয়রে আমার সুখ দেখে যা! — যাই, — যোগীনকে বলিগে, আমার ভাগ্যি দেখে যা!”
मारे आनन्द के अधीर होकर ब्राह्मणी फिर कहने लगी - "खेल (लाटरी) में एक रुपया लगाकर किसी कुली को एक लाख रुपये मिले थे । एक लाख रुपये मिले हैं, सुनकर मारे आनन्द से वह मर गया था - सचमुच मर गया था ! – अरी ! मेरी भी तो वही दशा हो गयी है । तुम लोग सब आशीर्वाद दो, नहीं तो मैं भी सचमुच मर जाऊँगी ।"
Still overwhelmed with joy she said: "A labourer won a hundred thousand rupees in a lottery. The moment he heard the news he died of joy. Yes, he really and truly died. I am afraid the same thing is going to happen to me. Please bless me, friends, or else I shall certainly die."
ব্রাহ্মণী আবার আনন্দে অধীর হইয়া বলিতেছেন, “ওগো খেলাতে (লটারী-তে) একটা টাকা দিয়ে মুটে এক লাখ টাকা পেয়েছিল, — সে যেই শুনলে এক লাখ টাকা পেয়েছি, অমনি আহ্লাদে মরে গিছল — সত্য সত্য মরে গিছল! — ওগো আমার যে তাই হল গো! তোমরা সকলে আশীর্বাদ কর, না হলে আমি সত্য সত্য মরে যাব।”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏"भगत के वश में है भगवान"-सच्ची घटना 🔱🙏
मणि ब्राह्मणी की व्याकुलता और भाव की अवस्था देखकर मुग्ध हो गये हैं । वे उसके पैरों की धूल लेने के लिए बढ़े । ब्राह्मणी ने कहा, 'अजी, यह क्या ?' - उसने मणि को भी बदले में प्रणाम किया।
M. was amazed to see the brahmani's sincere joy and her ecstatic mood. He was about to take the dust of her feet. "What are you doing?" she exclaimed and saluted M.
মণি ব্রাহ্মণীর আর্তি ও ভাবের অবস্থা দেখিয়া মোহিত হইয়া গিয়াছেন। তিনি তাঁহার পায়ের ধুলা লইতে গেলেন। ব্রাহ্মণী বলিতেছেন, ‘সে কি গো!’ — তিনি মণিকে প্রতিপ্রণাম করিলেন।
ब्राह्मणी भक्तों को आये हुए देखकर मारे आनन्द के कह रही है - "तुम सब लोग आये हो, छोटे नरेन्द्र को भी मैं ले आयी हूँ, नहीं तो हँसेगा कौन ?"
The brahmani was extremely happy at the sight of the devotees. She said: "I am so happy to see you all here. I have brought the younger Naren; without him, who would there be to make us laugh?"
ব্রাহ্মণী, ভক্তেরা আসিয়াছেন দেখিয়া আনন্দিত হইয়াছেন আর বলিতেছেন, “তোমরা সব এসেছ, — ছোট নরেনকে এনেছি, — বলি তা না হলে হাসবে কে!”
ब्राह्मणी इसी तरह की बातें कह रही है, इसी समय उसकी बहन ने आकर कहा, 'दीदी, तुम जरा नीचे भी तो आओ, हम लोग अकेले क्या क्या करें ?'
She was talking like this when her sister came up and said: "Come down, sister! How can I manage things if you stay here? Can I do it all by myself?"
ব্রাহ্মণী এইরূপ কথাবার্তা কহিতেছেন, উহার ভগ্নী আসিয়া ব্যস্ত হইয়া বলিতেছেন, “দিদি এসো না! তুমি এখানে দাঁড়ায়ে থাকলে কি হয়? নিচে এসো! আমরা কি একলা পারি।”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏पिद्दिम धोर, पिद्दिम धोर ! मोने कोरो ना जे , पिद्दिम धोरा फुरिये गेलो !🔱🙏
‘दिया दिखाओ – दिया दिखाओ - यह न सोचो दिया दिखाना अब बस है ।'
ब्राह्मणी आनन्द में अपने को भूली हुई है । श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों को देख रही है । उन्हें अब छोड़कर जा नहीं सकती ।
But the brahmani was overwhelmed with joy. She could not take her eyes from the Master and the devotees.
ব্রাহ্মণী আনন্দে বিভোর! ঠাকুর ও ভক্তদের দেখিতেছেন। তাঁদের ছেড়ে যেতে আর পারেন না।
इस तरह की बातों के पश्चात् बड़ी भक्ति से ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण को एक दूसरे कमरे में ले गयी और खाने के लिए अनेक मिष्टान्न आदि दिये । भक्तों को भी छत पर बैठाकर खिलाया ।
After a while she very respectfully took Sri Ramakrishna to another room and offered him sweets and other refreshments. The devotees were entertained on the roof.
এইরূপ কথাবার্তার পর ব্রাহ্মণী অতিশয় ভক্তিসহকারে ঠাকুরকে অন্য ঘরে লইয়া গিয়া মিশটান্নাদি নিবেদন করিলেন। ভক্তেরাও ছাদে বসিয়া সকলে মিষ্টমুখ করিলেন।
रात के आठ बजे । श्रीरामकृष्ण बिदा हो रहे हैं । नीचे के मँजले में कमरे के साथ बरामदा भी है । बरामदे से पश्चिम की ओर आँगन में आया जाता है, फिर दाहिनी ओर गोओं के रहने की जगह छोड़कर सदर दरवाजे को रास्ता है । उस समय ब्राह्मणी जोर से पुकार रही थी - 'ओ बहू, जल्दी आ - पैरों की धूल ले ।' बहू ने प्रणाम किया । ब्राह्मणी के एक भाई ने भी आकर प्रणाम किया ।ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण से कह रही है - 'यह एक दूसरा भाई है - अनाड़ि है ।'श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'नहीं, सब भलेमानस हैं ।'
It was about eight o'clock in the evening. Sri Ramakrishna was ready to leave. When he came to the door, the brahmani asked her sister-in-law to salute the Master. Next, one of her brothers took the dust of the Master's feet. Referring to him, she said: "He is one of my brothers. He is a fool." No, no!" said the Master. "They are all good."
রাত প্রায় ৮টা হইল, ঠাকুর বিদায় গ্রহণ করিতেছেন। নিচের তলায় ঘরের কোলে বারান্দা, বারান্দা দিয়ে পশ্চিমাস্য হইয়া উঠানে আসিতে হয়। তাহার পর গোয়ালঘর ডান দিকে রাখিয়া সদর দরজায় আসিতে হয়। ঠাকুর যখন বারান্দা দিয়া ভক্তসঙ্গে সদর দরজার দিকে আসিতেছেন, তখন ব্রাহ্মণী উচ্চৈঃস্বরে ডাকিতেছেন, “ও বউ, শীঘ্র পায়ের ধুলা নিবি আয়!” বউ ঠাকুরানী প্রণাম করিলেন। ব্রাহ্মণীর একটি ভাইও আসিয়া প্রণাম করিলেন।ব্রাহ্মণী ঠাকুরকে বলিতেছেন, “এই আর একটি ভাই; মুখ্যু।”শ্রীরামকৃষ্ণ — না, না, সব ভাল মানুষ।
एक व्यक्ति साथ साथ दिया दिखाते हुए आ रहे हैं, आते आते एक जगह प्रकाश ठीक नहीं पहुँचा, तब छोटे नरेन्द्र ऊँचे स्वर से कहने लगे – ‘दिया दिखाओ – दिया दिखाओ - यह न सोचो दिया दिखाना अब बस है ।' (सब हँसते हैं) अब गौओं की जगह आयी । ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण से कहती है, 'यहाँ मेरी गौएँ रहती हैं ।' श्रीरामकृष्ण वहाँ जरा खड़े हो गये, और चारों ओर भक्तगण । मणि ने भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया और पैरों की धूल ली ।अब श्रीरामकृष्ण गनू की माँ के घर जायेंगे ।
A man showed the way with a light. At places it was dark. Sri Ramakrishna stood in front of the cow-shed. The devotees gathered around him. M. saluted the Master, who was about to go to the house of Ganu's mother.
একজন সঙ্গে সঙ্গে প্রদীপ ধরিয়া আসিতেছেন, আসিতে আসিতে এক যায়গায় তেমন আলো হইল না। ছোট নরেন উচ্চৈঃস্বরে বলিতেছেন, “পিদ্দিম ধর, পিদ্দিম ধর! মনে করো না যে, পিদ্দিম ধরা ফুরিয়ে গেল!” (সকলের হাস্য)এইবার গোয়ালঘর। ব্রাহ্মণী ঠাকুরকে বলিতেছেন, এই আমার গোয়ালঘর। গোয়ালঘরের সামনে একবার দাঁড়াইলেন, চতুর্দিকে ভক্তগণ। মণি ভূমিষ্ঠ হইয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিতেছেন ও পায়ের ধুলা লইতেছেন।এইবার ঠাকুর গণুর মার বাড়ি যাইবেন।
(५)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏चाँदनी रात में 'ताजमहल रूपी ' मानव शरीर में सन्त का दर्शन🔱🙏
(गनू की माँ के मकान में श्रीरामकृष्ण*)
গণুর মার বাড়িতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ
" The only God to worship is the human soul in the human body. Of course, all animals are temples too, but man is the highest, the Taj Mahal of temples. If I cannot worship in that, no other temple will be of any advantage."- Swami Vivekananda
(CW/V2/Practical Vedanta and other lectures/Practical Vedanta II)
"मनुष्य- देह में स्थित मानव -आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है। पशु भी भगवान के मंदिर हैं, किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मंदिर है -ताजमहल जैसा। यदि मैं उसकी उपासना नहीं कर सका तो अन्य किसी भी मंदिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा।" -स्वामी विवेकानंद (व्यावहारिक जीवन में वेदांत -भाग २ )
गनू की माँ के बैठकखाने में श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कमरा एक मँजले पर है, बिलकुल रास्ते पर। उस कमरे में बजानेवालों का अखाड़ा (Concert) लगा करता है । कुछ नवयुवक श्रीरामकृष्ण के आनन्द के लिए वाद्ययन्त्र लेकर बीच बीच में बजाते भी हैं ।
Sri Ramakrishna was seated in the drawing-room of Ganu's mother's house. It was on the street floor. The room was used by a concert party. Several young men played on their instruments now and then for the pleasure of the Master.
গণুর মার বাড়ির বৈঠকখানায় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বসিয়া আছেন। ঘরটি একতলায়, ঠিক রাস্তার উপর। ঘরের ভিতর ঐকতান বাদ্যের (Concert) আখড়া আছে। ছোকরারা বাদ্যযন্ত্র লইয়া ঠাকুরের প্রীত্যর্থে মাঝে মাঝে বাজাইতেছিল।
रात के साढ़े आठ बजे का समय होगा । आज आषाढ़ की कृष्णा प्रतिपदा (पूर्णिमा के बाद पहला दिन) है । चाँदनी में आकाश, गृह, राजपथ, सब कुछ प्लावित हो रहा है । श्रीरामकृष्ण के साथ भक्तगण आकर उसी कमरे में बैठे । साथ साथ ब्राह्मणी भी आयी हुई है, वह कभी घर के भीतर जा रही है, कभी बाहर बैठकखाने के दरवाजे के पास खड़ी होती है ।
It was eight-thirty In the evening. Moonlight flooded the streets, the houses, and the sky. It was the first day after the full moon.The brahmani, who had also come, was visiting the drawing-room and the inner apartments alternately. Every few minutes she would come to the door of the drawing-room and look at the Master.
রাত সাড়ে আটটা। আজ আষাঢ় মাসের কৃষ্ণা প্রতিপদ। চাঁদের আলোতে আকাশ, গৃহ, রাজপথ সব যেন প্লাবিত হইয়াছে। ঠাকুরের সঙ্গে সঙ্গে ভক্তেরা আসিয়া ওই ঘরে বসিয়াছেন।ব্রাহ্মণীও সঙ্গে সঙ্গে আসিয়াছেন। তিনি একবার বাড়ির ভিতর যাইতেছেন, একবার বাহিরে আসিয়া বৈঠকখানার দরজার কাছে আসিয়া দাঁড়াইতেছেন।
मुहल्ले के कुछ लड़के झरोखों पर चढ़कर श्रीरामकृष्ण को झाँककर देख रहे हैं । मुहल्ले भर के लड़के, बूढ़े और जवान श्रीरामकृष्ण के आगमन की बात सुनकर उनके दर्शन करने के लिए आये हैं ।
Some youngsters from the neighbourhood also looked at him through the windows. The people of the locality, young and old, came thronging to see the saint.
পাড়ার কতকগুলি ছোকরা বৈঠকখানার জানলার উপর উঠিয়া ঠাকুরকে দেখিতেছে। পাড়ার ছেলে-বুড়ো সকলেই ঠাকুরের আগমন সংবাদ শুনিয়া ব্যস্ত হইয়া মহাপুরুষ দর্শন করিতে আসিয়াছেন।
झरोखे पर बच्चों को देखकर छोटे नरेन्द्र कह रहे हैं, 'अरे, तुम लोग वहाँ क्यों खड़े हो, जाओ अपने अपने घर ।' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'नहीं, नहीं रहने दो ।' श्रीरामकृष्ण बीच बीच में 'हरि ॐ - हरि ॐ' कह रहे हैं ।
The younger Naren saw the boys in the street climbing the windows. He said to them: "Why are you here? Get away! Go home!" The Master said tenderly, "Let them stay." Every now and then he chanted: "Hari Om! Hari Om!"
জানলার উপর ছেলেরা উঠিয়াছে দেখিয়া ছোট নরেন বলিতেছেন, “ওরে তোরা ওখানে কেন? যা, যা বাড়ি যা।” ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সস্নেহে বলিতেছেন, “না, থাক না, থাক না।” ঠাকুর মাঝে মাঝে বলিতেছেন, “হরি ওঁ! হরি ওঁ!”
दरी पर एक आसन बिछाया गया है । श्रीरामकृष्ण उसी पर बैठे हैं । वाद्य बजानेवाले लड़कों से गाने के लिए कहा गया । उनके लिए बैठने की सुविधा नहीं है । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अपने पास दरी पर बैठने के लिए बुलाया । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, ‘इसी पर आकर बैठो मैं इसे समेटे लेता हूँ ।’ यह कहकर उन्होंने अपना आसन समेट लिया । नवयुवक गा रहे हैं -
"केशव कुरु करुणा दीने कुंजकाननचारी ।
माधव मनोमोहन मोहन मुरलीधारी।
(हरिबोल, हरिबोल, हरिबोल, मन आमार।।)
ब्रजकिशोर, कालीयहर कातर भयभंजन,
नयन -बाँका, बाँका -शिखिपाखा, राधिका-हृदिरंजन,
गोबर्धन- धारण, वनकुसुम-भूषण, दामोदर कंस-दर्पहारी।
श्याम रास-रसबिहारी।
(हरिबोल, हरिबोल, हरिबोल, मन आमार।।)
শতরঞ্জির উপর একখানি আসন দেওয়া হইয়াছে, তাহার উপর শ্রীরামকৃষ্ণ বসিয়াছেন। ঐকতান বাদ্যের ছোকরাদের গান গাহিতে বলা হইল। তাহাদের বসিবার সুবিধা হইতেছে না, ঠাকুর তাঁহার নিকটে শতরঞ্জিতে বসিবার জন্য তাহাদের আহ্বান করিলেন।ঠাকুর বলিতেছেন, “এর উপরেই বস না। আই আমি লিচ্ছি।” এই বলিয়া আসন গুটাইয়া লইলেন। ছোকরারা গান গাহিতেছে:
কেশব কুরু করুণাদীনে কুঞ্জকাননচারী
মাধব মনোমোহন মোহন মুরলীধারী।
(হরিবোল, হরিবোল, হরিবোল, মন আমার) ॥
ব্রজকিশোর, কালীয়হর কাতরভয়ভঞ্জন,
নয়ন-বাঁকা, বাঁকা-শিখিপাখা, রাধিকা-হৃদিরঞ্জন;
গোবর্ধনধারণ, বনকুসুমভূষণ, দামোদর কংসদর্পহারী।
শ্যাম রাসরসবিহারী।
(হরিবোল, হরিবোল, হরিবোল, মন আমার) ॥
গান — এস মা জীবন উমা — ইত্যাদি।
The floor of the drawing-room was covered with a carpet. The young musicians sat on it and sang: " O Kesava, bestow Thy grace, Upon Thy luckless servants here!O Kesava, who dost delight, To roam Vrindavan's glades and groves! . . .
श्रीरामकृष्ण – अहा ! कितना मधुर गाना है ! – बेला (violin,सारंगी, या वायलिन) भी कितना सुन्दर बज रहा है ! और गाना भी कैसा स्वरयुक्त हो रहा है ! एक लड़का फ्लुट (बंसी) बजा रहा था । उसकी ओर तथा एक दूसरे लड़के की ओर उँगली से इशारा करके श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘ये इनके जोड़ीदार हैं ।’
MASTER: "Ah, how sweet the music is! How melodious the violin is! How good the accompaniments are! (Pointing to a boy) He and the flutist seem to be a nice pair."
শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা কি গান! — কেমন বেহালা! — কেমন বাজনা!একটি ছোকরা ফ্লুট বাজাইতেছিলেন। তাঁহার দিকে ও অপর আর আকটি ছোকরার দিকে অঙ্গুলিনির্দেশ করিয়া বলিতেছেন। “ইনি ওঁর যেন জোড়।”
अब वाद्य बजने लगे । श्रीरामकृष्ण आनन्दित होकर कह रहे हैं - "वाह ! कितना सुन्दर है !" एक लड़के की ओर उँगली से इशारा करके कह रहे हैं - "इनको सब तरह का बाजा बजाना आता है।"मास्टर से कह रहे हैं - "ये सब बड़े अच्छे आदमी हैं ।"
The orchestra went on playing. After it was over, Sri Ramakrishna said joyfully, '"It is very fine indeed." Pointing to a young man, he said, "He seems to know how to play every instrument." He said to M., "They are all good people."
এইবার কেবল কনসার্ট বাজনা হইতে লাগিল। বাজনার পর ঠাকুর আনন্দিত হইয়া বলিতেছেন, “বা! কি চমৎকার!” একটি ছোকরাকে নির্দেশ করিয়া বলিতেছেন, “এঁর সব (সবরকম বাজনা) জানা আছে।”মাস্টারকে বলিতেছেন, — এঁরা সব বেশ লোক।”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏प्रेममय के चरण-रज जिस घर में पड़े वो घर (होटल?) वाराणसी हो जायेगा🔱🙏
बालक-भक्त जब खुद गा-बजा चुके तब भक्तों से उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा, 'आप लोग भी कुछ गाइये ।' ब्राह्मणी खड़ी हुई है । उसने दरवाजे के पास ही से कहा, 'ये लोग कोई गाना नहीं जानते । एक हैं महिनबाबू, परन्तु उनके (श्रीरामकृष्ण के) सामने वे भी नहीं गायेंगे ।'
After the concert the young musician said to the devotees, "We should like to hear some of you sing." The brahmani stood near the door. She said; "None of them knows how to sing. Perhaps Mohin Babu can sing. But he will not sing before the Master."
ছোকরাদের গান-বাজনার পর তাহারা ভক্তদের বলিতেছে — “আপনারা কিছু গান!” ব্রাহ্মণী দাঁড়াইয়া আছেন। তিনি দ্বারের কাছ থেকে বলিলেন, গান এরা কেউ জানে না, এক মহিমবাবু বুঝি জানেন, তা ওঁর সামনে উনি গাইবেন না।
एक बालक-भक्त - क्यों मैं तो अपने बाबूजी के सामने गा सकता हूँ ।
A YOUNG MAN: "Why? I can sing even before my father."
একজন ছোকরা — কেন? আমি বাবা সুমুখে গাইতে পারি।
छोटे नरेन्द्र (जोर से हँसकर) - इतनी दूर ये नहीं बढ़ सके ।
THE YOUNGER NAREN (laughing): "But he has not yet advanced that far."
ছোট নরেন (উচ্চহাস্য করিয়া) — অতদূর উনি এগোননি!
सब हँस रहे हैं । कुछ देर बाद ब्राह्मणी ने आकर कहा, "आप भीतर आइये ।" श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्यों ?"
All laughed. A few minutes later the brahmani said to Sri Ramakrishna, "Please come inside." MASTER: "Why?"
সকলে হাসিতেছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ব্রাহ্মণী আসিয়া বলিতেছেন, — “আপনি ভিতরে আসুন।” শ্রীরামকৃষ্ণ বলিতেছেন, “কেন গো!”
ब्राह्मणी - वहाँ जलपान की व्यवस्था की गयी है ।
BRAHMANI: "The refreshments are served there. Please come."
ব্রাহ্মণী — সেখানে জলখাবার দেওয়া হয়েছে; যাবেন?
श्रीरामकृष्ण - यहीं न ले आओ ।
MASTER: "Why not bring them here?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — এইখানেই এনে দাও না।
ब्राह्मणी - गनू की माँ ने कहा है, 'घर में ले आओ, पैरों की धूल पड़ जायेगी तो मेरा घर वाराणसी हो जायेगा, इस घर में मरूँगी तो फिर किसी बात की (लोक-परलोक) चिन्ता न रहेगी । श्रीरामकृष्ण घर के लड़कों के साथ मकान के भीतर गये ।
भक्तगण चाँदनी में टहलने लगे । मास्टर और विनोद घर के दक्षिण और सदर रास्ते पर -अपने प्रेममय गुरुदेव के जीवन में घटित घटनाओं के विषय में बात-चीत करते हुए टहल रहे हैं ।
BRAHMANI: "Ganu's mother requests you to bless the room with the dust of your feet. Then the room will be turned into Benares, and anyone dying in it will have no trouble hereafter." Sri Ramakrishna went inside accompanied by the brahmani and the young men of the family.
The devotees were strolling outside in the moonlight. M. and Binode were pacing the street south of the house and recalling the various incidents in the life of their beloved Master.
ব্রাহ্মণী — গণুর মা বলেছে, ঘরটায় একবার পায়ের ধুলা দিন, তাহলে ঘর কাশী হয়ে থাকবে, — ঘরে মরে গেলে আর কোন গোল থাকবে না। ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ, ব্রাহ্মণী ও বাড়ির ছেলেদের সঙ্গে অন্তঃপুরে গমন করিলেন।
ভক্তেরা চাঁদের আলোতে বেড়াইতে লাগিলেন। মাস্টার ও বিনোদ বাড়ির দক্ষিণদিকে সদর রাস্তার উপর গল্প করিতে করিতে পাদচারণ করিতেছেন!
(६)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏बलराम के घर पर रात में मणि से श्रीरामकृष्ण की पौराणिक कथा- 'तीनों एक’🔱🙏
Mythology — “Three are One”
গুহ্যকথা — “তিনজন এক”
श्रीरामकृष्ण बलराम के घर लौट आये हैं । बलराम के बैठकखाने के पश्चिम ओरवाले कमरे में विश्राम कर रहे हैं, अब वे सोयेंगे । गनू की माँ के घर से लौटते हुए बड़ी रात हो गयी है । रात के पौने ग्यारह बजे होंगे ।
Sri Ramakrishna had returned to Balaram's house. He was resting in the small room to the west of the drawing-room. It was quite late, almost a quarter to eleven.
বলরামের বাড়ির বৈঠকখানার পশ্চিমপার্শ্বের ঘরে ঠাকুর বিশ্রাম করিতেছেন, নিদ্রা জাইবেন। গণুর মার বাড়ি হইতে ফিরিতে অনেক রাত হইয়া গিয়াছে। রাত পৌনে এগারটা হইবে।
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "योगीन, जरा पैरों पर हाथ तो फेर दो ।" पास ही मास्टर भी बैठे हुए हैं।योगीन पैरों पर हाथ फेर रहे हैं, इतने में ही श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'मुझे भूख लगी है, थोड़ीसी सूजी का हलवा खाऊँगा ।
Sri Ramakrishna said to Jogin, "Please rub my feet gently." M. was sitting near by. While Jogin was rubbing his feet the Master said suddenly: "I feel hungry. I shall eat some farina pudding."
ঠাকুর বলিতেছেন, “যোগীন একটু পায়ে হাতটা বুলিয়ে দাও তো।”কাছে মণি বসিয়া আছেন। যোগীন পায়ে হাত বুলাইয়া দিতেছেন; এমন সময় ঠাকুর বলিতেছেন, আমার ক্ষিদে পেয়েছে, একটু সুজি খাব।
ब्राह्मणी यहाँ भी साथ-साथ आयी हुई है । ब्राह्मणी के भाई तबला बहुत अच्छा बजाते हैं । श्रीरामकृष्ण ब्राह्मणी को देखकर फिर कह रहे हैं, 'अगली बार नरेन्द्र या किसी दूसरे गवैये के आने पर इनके भाई भी बुला लिये जायेंगे ।’
The brahmani had accompanied the Master and the devotees to Balaram's house. Her brother knew how to play the drums. Sri Ramakrishna said, "It will serve our purpose to send for her brother when Narendra or some other singer wants to sing."
ব্রাহ্মণী সঙ্গ সঙ্গে এখানেও আসিয়াছেন। ব্রাহ্মণীর ভাইটি বেশ বাঁয়া তবলা বাজাইতে পারেন। ঠাকুর ব্রাহ্মণিকে আবার দেখিয়া বলিতেছেন, “এবার নরেন্দ্র এলে, কি আর কোনও গাইয়ে লোক এলে ওঁর ভাইকে ডেকে আনলেই হবে।”
श्रीरामकृष्ण ने थोड़ी सी सूजी खायी । क्रमशः योगीन आदि भक्तगण कमरे से चले गये । मणि श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेर रहे हैं, श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत कर रहे हैं ।
Sri Ramakrishna ate a little pudding, Jogin and the other devotees left the room. M. was stroking the Master's feet. They talked together.
ঠাকুর একটু সুজি খাইলেন। ক্রমে যোগীন ইত্যাদি ভক্তেরা ঘর হইতে চলিয়া গেলেন। মণি ঠাকুরের পায়ে হাত বুলাইতেছেন, ঠাকুর তাঁহার সহিত কথা কহিতেছেন।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
[ईशु की भक्त बहनें मार्था (Martha) और मेरी (Mary)]
🔱🙏'जगत के लिये प्रेम और प्रेममय (अवतार वरिष्ठ) के साथ घनिष्टता' -जीवन सार्थक🔱🙏
[Love for the World, Intimacy With God !]
श्रीरामकृष्ण - अहा, इन्हें (ब्राह्मणी आदि को) कितना आनन्द हुआ है !
MASTER (referring to the brahmani and her relatives): "Ah! How happy they were!"
শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা, এদের (ব্রাহ্মণীদের) কি আহ্লাদ!
मणि - कैसे आश्चर्य की बात है, ईसा मसीह के समय भी ऐसा ही हुआ था । वे भी दो बहनें थीं - परम भक्त मारथा (Martha) और मेरी (Mary) ।
M: "How amazing! A similar thing happened with two women at the time of Jesus. They too were sisters, and devoted to Christ. Martha and Mary."
মণি — কি আশ্চর্য, যীশুকৃষ্টের সময় ঠিক এইরকম হয়েছিল! তারাও দুটি মেয়েমানুষ ভক্ত, দুই ভগ্নী। মার্থা আর মেরী।
श्रीरामकृष्ण(आग्रह से) - उनकी कहानी क्या है, जरा कहो तो ।
MASTER (eagerly): "Tell me the story."
শ্রীরামকৃষ্ণ (উৎসুক হইয়া) — তাদের গল্প কি বল তো।
मणि - ईशू उनके यहाँ भक्तों के साथ बिलकुल इसी तरह गये थे । एक बहन उन्हें देखकर भाव और आनन्द के पारावार में मग्न हो गयी थी । यह मुझे गौरांग के बारे में एक गीत की याद दिलाती है: "डूबलो नयन फिरे ना ऐलो। गौर रूप-सागरे साँतार भूले , तलिये गेलो आमार मन। '-- अर्थात 'गौर के रूप-सागर में मेरे नयन डूब गये, फिर लौटकर मेरे पास न आये; मेरा मन भी, तैरना भूलकर, एकदम तल में पैठ गया ।'
[गौर के दिव्य रूप -सागर में मेरे नयन डूब गये, और फिर मेरे पास वापस ही नहीं आये; मेरा मन भी तैरना भूल गया और चंचलता छोड़कर उसमें ही खो गया।]
M: "Jesus Christ, like you, went to their house with His devotees. At the sight of Him one of the sisters was filled with ecstatic happiness. It reminds me of a song about Gauranga: " My two eyes sank in the sea of Gora's heavenly beauty , And did not come back to me again; Down went my mind, as well, forgetting how to swim."
মণি — যীশুকৃষ্ট তাঁদের বাড়িতে ভক্তসঙ্গে ঠিক এইরকম করে গিয়েছিলেন। একজন ভগ্নী তাঁকে দেখে ভাবোল্লাসে পরিপূর্ণ হয়েছিল। যেমন গৌরের গানে আছে, — ‘ডুবলো নয়ন ফিরে না এলো। গৌর রূপসাগরে সাঁতার ভুলে, তলিয়ে গেল আমার মন।’
"दूसरी बहन अकेली जलपान का प्रबन्ध कर रही थी । उसने अपनी बहन से कोई मदद न पा ईशू के पास शिकायत की, कहा, 'प्रभु, देखिये तो, दीदी का यह कितना बड़ा अन्याय है ! आप यहाँ अकेली चुपचाप बैठी हुई हैं और मैं अकेली यह सब काम कर रही हूँ !’
"The other sister, all by herself, was arranging the food to entertain Jesus. She complained to the Master, saying: 'Lord, please judge for Yourself — how wrong my sister is! She is sitting in Your room and I am doing all these things by myself.'
“আর-একটি বোন একলা খাবর-দাবার উদ্যোগ করছিল। সে ব্যতিব্যস্ত হয়ে যীশুর কাছে নালিশ করলে, প্রভু, দেখুন দেখি — দিদির কি অন্যায়! উনি এখানে একলা চুপ করে বসে আছেন, আর আমি একলা এই সব উদ্যোগ করছি?
"तब ईशू ने कहा, 'तुम्हारी दीदी धन्य हैं, क्योंकि मनुष्यजीवन में जो कुछ चाहिए (ईश्वर-प्रेम, अवतार वरिष्ठ, C-IN-C से प्रेम) वह उन्हें हो गया है ।’ "
[>>>जीवन क्या है ? जीवन सार्थक कैसे होता है ? श्रद्धा क्या है ? विवेक क्या है? जीवन का अर्थ सिर्फ जन्म लेना और मरना नहीं है। यह क्रम तो हम अतीत में अनगिनत बार निभाते रहे हैं। जीवन वही सार्थक है जिसमें हम मनुष्य बनकर जिएं। मनुष्य देवता बनना चाहता है। मनुष्य का देवता होना कोई बड़ी बात नहीं है। देवता (सत्य, नारायण, भगवान) स्वयं चाहते हैं कि वह मनुष्य बनें। प्रश्न है कि फिर मनुष्य क्यों दिग्भ्रमित है? वह क्यों मनुष्य के गुणों को छोड़कर पशुता को जी रहा है? तीन ऐषणाओं में घोर रूप से आसक्त हो जाने के कारण वह अपने 'मुख्य जीवन लक्ष्य' और 'कैरियर चूजिंग का लक्ष्य ' को एक समझ लेने की भूल करता हैं। क्योंकि उसने अभी तक उसने मार्गदर्शक नेता के रूप में अवतार वरिष्ठ का चयन नहीं किया है।
किसी व्यक्ति ने एक संत से पूछा कि महाराज यह रास्ता कहां जाता है? संत ने जवाब दिया कि ये रास्ता कहीं नहीं जाता है। आप बताइए कि आपको कहां जाना है? व्यक्ति ने कहा कि महाराज मुझे मालूम ही नहीं है कि जाना कहां है। संत ने कहा कि जब कोई लक्ष्य ही नहीं है तो फिर रास्ता कोई भी हो उससे क्या फर्क पड़ता है, आप भटकते रहिए। जिस व्यक्ति के जीवन में कोई लक्ष्य नहीं होता वह अपनी जिंदगी तो जीता है, लेकिन वह इसी राहगीर की तरह यहां-वहां भटकता रहता है। दूसरी ओर जीवन में लक्ष्य होने से मनुष्य को मालूम होता है कि उसे किस दिशा की ओर जाना है। वास्तव में असली जीवन उसी का है जो परिस्थितियों को बदलने का साहस रखता है और अपना लक्ष्य निर्धारित करके अपनी राह खुद बनाता है।
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि जीवन में एक ही लक्ष्य बनाओ और दिन-रात उसी लक्ष्य के बारे में सोचो। स्वप्न में भी तुम्हें वही लक्ष्य दिखाई देना चाहिए। फिर जुट जाओ, उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए। धुन सवार हो जानी चाहिए आपको। सफलता अवश्य आपके कदम चूमेगी। असल में जब आप कोई कर्म करते हैं तो जरूरी नहीं कि आपको सफलता मिल ही जाए, लेकिन आपको असफलताओं से घबराना नहीं चाहिए। अगर बार-बार भी असफलता हाथ आती है तो भी आपको निराश नहीं होना है। इस बारे में विवेकानंद कहते हैं, एक हजार बार प्रयास करने के बाद यदि आप हार कर गिर पड़े हैं तो एक बार फिर से उठें और प्रयास करें। हमें लक्ष्य की प्राप्ति तक स्वयं पर विश्वास और आस्था रखनी चाहिए और अपनी सोच को हमेशा सकारात्मक रखना चाहिए।]
Jesus said: 'Your sister indeed is blessed. She has developed the only thing needful in human life: love of God.'"
“তখন যীশু বললেন, তোমার দিদিই ধন্য, কেন না মানুষ জীবনের যা প্রয়োজন (অর্থাৎ ঈশ্বরকে ভালবাসা — প্রেম) তা ওঁর হয়েছে।”
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यह सब देखकर तुम्हें क्या जान पड़ता है ?
MASTER: "Well, after seeing all this, what do you feel?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা তোমার এ-সব দেখে কি বোধ হয়?
मणि – मुझे जान पड़ता है, ईशू, चैतन्य और आप एक ही हैं ।
M: "I feel that Christ, Chaitanyadeva, and yourself — all three are one and the same. It is the same Person that has become all these three."
মণি — আমার বোধ হয়, তিনজনেই এক বস্তু! — যীশুখ্রীষ্ট, চৈতন্যদেব আর আপনি — একব্যক্তি!
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏एक ही अनेक हो गये हैं🔱🙏
The One has become many
श्रीरामकृष्ण – एक ! एक ! एक ही तो ! वे (ईश्वर) – देखते नहीं हो – इसमें किस तरह से हैं !
MASTER: "Yes, yes! One! One! It is indeed one. Don't you see that it is He alone who dwells here in this way."
শ্রীরামকৃষ্ণ — এক এক! এক বইকি। তিনি (ঈশ্বর), — দেখছ না, — যেন এর উপর এমন করে রয়েছে!
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने अपने शरीर की ओर उँगली से इशारा किया ।
As he said this, Sri Ramakrishna pointed with his finger to his own body.
এই বলিয়া ঠাকুর নিজের শরীরের উপর অঙ্গুলি নির্দেশ করিলেন — যেন বলছেন, ঈশ্বর তাঁরই শরীরধারণ করে অবতীর্ণ হয়েই রয়েছেন।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏सत्य-नारायण -भगवान खुद को पृथ्वी पर कैसे अवतरित करते हैं।🔱🙏
मणि - उस दिन आप इस अवतीर्ण होने की बात को बहुत अच्छी तरह समझा रहे थे ।
M: "You explained clearly, the other day, how God incarnates Himself on earth."
মণি — সেদিন আপনি এই অবতীর্ণ হওয়ার ব্যাপারটি বেশ বুঝিয়ে দিচ্ছিলেন।
श्रीरामकृष्ण - किस तरह, कहो तो ।
MASTER: "Tell me what I said."
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি বল দেখি।
मणि -आपने हमें क्षितिज और उससे आगे तक फैले एक क्षेत्र की कल्पना करने के लिए कहा था - जैसे खूब लम्बा-चौड़ा मैदान पड़ा हुआ है । सामने चारदीवार है । इसलिए यह विस्तृत मैदान हमें देखने को नहीं मिलता । लेकिन, उस चारदीवार में एक गोलाकार छेद है । उस छेद से उस अनन्त तक विस्तृत मैदान का कुछ अंश दिखायी पड़ता है ।
M: "You told us to imagine a field extending to the horizon and beyond. It extends without any obstruction; but we cannot see it on account of a wall in front of us. In that wall there is a round hole. Through the hole we see a part of that infinite field."
মণি — যেন দিগ্দিগন্তব্যাপী মাঠ পড়ে রয়েছে! ধু-ধু করছে! সম্মুখে পাঁচিল রয়েছে বলে আমি দেখতে পাচ্ছি না; — সেই পাঁচিলে কেবল একটি ফাঁক! — সেই ফাঁক দিয়ে অনন্ত মাঠের খানিকটা দেখা যায়!
श्रीरामकृष्ण - कहो भला वह छेद क्या है ?
MASTER: "Tell me what that hole is."
শ্রীরামকৃষ্ণ — বল দেখি সে ফাঁকটি কি?
मणि - वह छेद आप हैं; आपके भीतर से सब दीख पड़ता है, - यह दिगन्तव्यापी मैदान भी दिखायी पड़ता है ।
M: "You are that hole. Through you can be seen everything — that Infinite Meadow without any end."
মণি — সে ফাঁকটি আপনি! আপনার ভিতর দিয়ে সব দেখা যায়; — সেই দিগ্দিগন্তব্যাপী মাঠ দেখা যায়!
श्रीरामकृष्ण सन्तुष्ट होकर मणि की पीठ ठोंकने लगे और कहा, 'तुमने इसे (सत्य नारायण भगवान को) समझ लिया, अच्छा हुआ ।"
Sri Ramakrishna was very much pleased. Patting M.'s back, he said: "I see you have understood that. That's fine!"
শ্রীরামকৃষ্ণ অতিশয় সন্তুষ্ট, মণির গা চাপড়াতে লাগলেন। আর বললেন, “তুমি যে ওইটে বুঝে ফেলেছ। — বেশ হয়েছে।”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🙏कदली स्तम्भ से बिना बीज के सत्य नारायण भगवान भी केले की तरह प्रकट होते हैं🙏
मणि - उसे समझना सचमुच बड़ा कठिन है । पूर्ण ब्रह्म होते हुए भी उतने के भीतर (माँ के गर्भ में) किस तरह रहते हैं, यह नहीं समझ में आता ।
[ केला सत्य नारायण पूजा में केले के पत्ते से बने मण्डप में शालिग्राम भगवान को रखते हैं, केला नारायण पूजा में प्रमुख प्रसाद भी है, क्योंकि सत्य नारायण भगवान केले की तरह कदली स्तम्भ से बिना बीज के ही प्रकट होते हैं। कदली को स्वर्ग फल कहा जाता है जो 'कल्पतरु ' जैसा सबसे शुद्ध पेड़ माना जाता है। इसीलिए आराध्य देवी की प्रतिमा बनाने में इसी वृक्ष के तनों व पत्तों का इस्तेमाल होता आ रहा है।]
M: "It is indeed difficult to understand that. One cannot quite grasp how God, Perfect Brahman that He is, can dwell in that small body."
মণি — ওইটি শক্ত কি না; পূর্ণব্রহ্ম হয়ে ওইটুকুর ভিতর কেমন করে থাকেন, ওইটা বুঝা যায় না।
श्रीरामकृष्ण देव ने एक लोकभजन को उद्धृत करते हुए कहा - " उसे (अवतार वरिष्ठ या C-IN-C को) किसी ने न पहचाना, वह पागल की तरह, किसी जीवों के घरों में घूम रहा है ।"
(तुमि कांगाल वेशे ऐसेछो हरि, कांगाले करुणा करते हे।
प्रेम वितरिते मरुसम चित्ते , पतित जने तारिते हे।।)
[The Master quoted from a song: " Oh, no one at all has found out who He is; Like a madman from door to door He roams, Like a poor beggar He roams from door to door.
শ্রীরামকৃষ্ণ — ‘তারে কেউ চিনলি না রে! ও সে পাগলের বেশে (দীনহীন কাঙালের বেশে) ফিরছে জীবের ঘরে ঘরে!’
[তুমি কাঙাল বেশে এসেছ হরি, কাঙালে করুণা করিতে হে ।।
প্রেম বিতরিতে মরুসম চিতে, পতিত জনে তারিতে হে ।।
রামকৃষ্ণ নামে অমিয় ঢালা, হেরিলে ও রূপ জুড়ায় জ্বালা।।
(তব) চরণ তলে পরাণ সঁপিলে, ভাবনা পলায় দূরেতে হে।।
করি তব কথা অমৃত পান, জাগিয়া উঠিছে অবশ পরাণ ।
হতাশ হৃদয়ে শত আশা জাগে, তোমার মধুর নামেতে হে।।
--স্বামী প্রেমেশানন্দ]
मणि - और आपने ईशू की बात कही थी ।
M: "You also told us about Jesus."
মণি — আর আপনি বলেছিলেন যীশুর কথা।
श्रीरामकृष्ण - क्या-क्या ?
MASTER: "What did I say?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — কি, কি?
मणि - यदु मल्लिक के बगीचे में ईशू की तस्बीर देखकर भावसमाथि हुई थी, आपने देखा था - ईशू की मूर्ति तस्बीर से निकलकर आपमें आकर लीन हो गयी ।
M: "You went into samadhi at the sight of Jesus Christ's picture in Jadu Mallick's garden house. You saw Jesus come down from the picture and merge in your body."
মণি — যদু মল্লিকের বাগানে যীশুর ছবি দেখে ভাবসমাধি হয়েছিল। আপনি দেখেছিলেন যে যীশুর মূর্তি ছবি থেকে এসে আপনার ভিতর মিশে গেল।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं । फिर मणि से कह रहे हैं - 'गले में यह जो हुआ है, सम्भव है इसका कोई अर्थ हो । यदि यह न होता तो मैं सब स्थानों में जाता, गाता और नाचता, और इस प्रकार स्वयं को खिलवाड़ (जोकर) -सा बना लेता ।'
Sri Ramakrishna was silent a few moments. Then he said to M.: "Perhaps there is a meaning in what has happened to my throat [referring to the sore in his throat]. This has happened lest I should make myself light before all; lest I should go to all sorts of places and sing and dance."
ঠাকুর কিয়ৎকাল চুপ করিয়া আছেন। তারপর আবার মণিকে বলিতেছেন, “এই যে গলায় এইটে হয়েছে, ওর হয়তো মানে আছে — সব লোকের কাছে পাছে হালকামি করি। — না হলে যেখানে সেখানে নাচা-গাওয়া তো হয়ে যেত।”
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏ईश्वरकोटि के भीतर अवतीर्ण होकर वे लीला करते हैं🔱🙏
श्रीरामकृष्ण द्विज की बात कह रहे हैं । कहा 'द्विज नहीं आया ।'
[द्विज (द्विज सेन) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्रीम के साला लगते थे । वे श्रीरामकृष्ण के अनन्य भक्त थे । श्रीश्रीठाकुर से उनकी पहली भेंट 1884 ई. में हुई थी। द्विज के दक्षिणेश्वर जाने पर उनके पिता को कड़ी आपत्ति थी। जब उनके पिता श्रीरामकृष्ण के साथ इस विषय पर चर्चा करने आए, तो श्रीरामकृष्ण ने उन्हें मीठे शब्दों में समझाया कि यदि किसी का पुत्र जन्मजात रूप से आस्तिक (श्रद्धावान हो?) तो वह उसके पिता के गुणों की निशानी है। ठाकुर ने उनके पास उनके पुत्र द्विज की प्रशंसा करते हुए कहा कि आप उसको दक्षिणेश्वर आने से मना मत कीजियेगा। अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण के प्रति द्विज की भक्ति को देखकर वे उसके पूर्व जन्मों का संस्कार कहते थे । ठाकुर ने मास्टर महाशय को उनकी आध्यात्मिक प्रगति के बारे में बताया था। "जानकी नाथ सहाय करें, जब कौन बिगाड़ करे नर तेरो ? सुरज, मंगल, सोम, भृगु सुत बुध, और गुरु वरदायक तेरो, राहु केतु की नाहिं गम्यता, संग शनीचर होत हुचेरो। जानकी नाथ सहाय करें..जानकी नाथ सहाय करें, जब कौन बिगाड़ करे नर तेरो ? सुरज, मंगल, सोम, भृगु सुत बुध, और गुरु वरदायक तेरो, राहु केतु की नाहिं गम्यता, संग शनीचर होत हुचेरो। जानकी नाथ सहाय करें..दुष्ट दु:शासन विमल द्रौपदी,चीर उतार कुमंतर प्रेरो। ताकी सहाय करी करुणानिधि, बढ़ गये चीर के भार घनेरो। जानकी नाथ सहाय करें..जाकी सहाय करी करुणानिधि,ताके जगत में भाग बढ़े रो , रघुवंशी संतन सुखदाय,तुलसीदास चरनन को चेरो। जब जानकी नाथ सहाय करें,जब जानकी नाथ सहाय करे,तब कौन बिगाड़ करे नर तेरो ?]
Sri Ramakrishna began to talk about Dwija. MASTER: "He didn't come today. Why?"
ঠাকুর দ্বিজর কথা কহিতেছেন। বলিতেছেন, “দ্বিজ এল না?”
मणि - मैंने तो आने के लिए कहा था । आज आने की बात भी थी, परन्तु क्यों नहीं, आया, कुछ समझ में नहीं आता ।
M: "I asked him to come. He said he would. I don't know why he didn't."
মণি — বলেছিলাম আসতে। আজ আসবার কথা ছিল; কিন্তু কেন এল না, বলতে পারি না।
श्रीरामकृष्ण - उसमें अनुराग खूब है । अच्छा, वह यहाँ का (सांगोपांग में से) कोई एक होगा, न ?
MASTER: "He has great yearning. Well, he must be someone belonging to this. (Meaning the circle of the Master's devotees.) Isn't that so?"
শ্রীরামকৃষ্ণ — তার খুব অনুরাগ। আচ্ছা, ও এখানকার একটা কেউ হবে (অর্থাৎ সাঙ্গোপাঙ্গের মধ্যে একজন হবে), না?
मणि - जी हाँ, होगा जरूर । नहीं तो इतना अनुराग फिर कैसे होता ?
M: "Yes, sir, it must be so. Otherwise, how could he have such yearning?"
মণি — আজ্ঞা হাঁ, তাই হবে, তা না হলে এত অনুরাগ।
मणि मसहरी के भीतर श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण करवट बदलकर फिर बातचीत करने लगे । आदमी के भीतर (ईश्वरकोटि के भीतर) अवतीर्ण होकर वे लीला करते हैं, यही बात हो रही है ।
Sri Ramakrishna lay down inside the mosquito curtain. M. fanned him. The Master turned on his side. He told M. how God incarnates Himself in a human body. He told him, further, about his, M.'s, spiritual ideal.
মণি মশারির ভিতর গিয়া ঠাকুরকে বাতাস করিতেছেন। ঠাকুর একটু পাশ ফেরার পর আবার কথা কহিতেছেন। মানুষের ভিতর তিনি অবতীর্ণ হইয়া লীলা করেন, এই কথা হইতেছে।
श्रीरामकृष्ण - पहले मुझे रूपदर्शन नहीं होता था, ऐसी अवस्था भी हो चुकी है । इस समय भी देखते नहीं हो ? रूपदर्शन घटता जा रहा है ।
MASTER: "At the beginning I too passed through such states that I did not see divine forms. Even now I don't see them often."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার ওই ঘর। আমার আগে রূপদর্শন হত না, এমন অবস্থা গিয়েছে। এখনও দেখছ না, আবার রূপ কম পড়ছে।
मणि - लीलाओं में नरलीला मुझे अधिक पसन्द है ।
[एम: "ईश्वर अपनी लीला के लिए जितने भी रूप चुनते हैं, उनमें से एक मनुष्य के रूप में मुझे उनका नाटक सबसे अच्छा लगता है।"
M: "Among all the forms God chooses for His lila, I like best His play as a human being."
श्रीरामकृष्ण - तो बस ठीक है । - और तुम मुझे देखते ही हो !
MASTER: "That is enough. And you are seeing me."
শ্রীরামকৃষ্ণ — তাহলেই হল; — আর আমাকে দেখছো!
उपरोक्त कथन से क्या श्रीरामकृष्ण का यही संकेत है कि ईश्वर नररूप में अवतीर्ण होकर इस शरीर में लीला कर रहे हैं ?
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কি বলিতেছেন যে, আমার ভিতর ঈশ্বর নররূপে অবতির্ণ হইয়া লীলা করিতেছেন?
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[" ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्॥ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"-May All Be Prosperous and Happy, May All Be Free from Illness, May All See What Is Spiritually Uplifting, May No One Suffer In Any Way !
"सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो! 'सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी का जीवन मंगलमय बनें और कोई भी दुःख का भागी न बने। हे भगवन हमें ऐसा वर दो!"
[यह मंत्र भारत संस्कृति का उद्घोषक है। इस मंत्र को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी संयुक्त राष्ट्र संघ में बोला जिससे वर्तमान में ज्यादा प्रचलित है। यह मंत्र गरुड़ पुराण में वर्णित है। (यह सम्पूर्ण विश्व के कल्याण का मंत्र या लोकक्षेम मंत्र : कदाचित् गरुडपुराण, प्रेतकल्प का उपान्त्यमन्त्र है – ३५/५२/ अन्यत्र पन्द्रहवीं शताब्दी में निरुक्त पर उव्वट की टीका में भी यह उपलब्ध होता है ।) इस मंत्र का पाठ करने से मनुष्य के मन शांति का भाव उत्पन्न होता है, और ह्रदय में समस्त प्राणियों के प्रति प्रेम का भाव उत्पन्न होता है। {Saturday, 6th May, 2023 - 52nd marriage anniversary} I Went or I was instructed by Mother to go with Aprajita, Ambalika, and Dipa with my grand son, to a Mothers temple near Metro Depot, Greater Noida Mu sector. The Temple was Known as Mothers, Hanuman and Bholebaba Temple. But I for the first time in my life saw Shani Maharaj in Mothers temple.}
>>>चरित्र निर्माण कैसे करें?
• आप (और संसार) जो चाहते हैं वह चरित्र है, इच्छाशक्ति को मजबूत करना। अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करना जारी रखें और यह आपको और ऊंचा ले जाएगा। यह इच्छा सर्वशक्तिमान है। यह चरित्र ही है जो कठिनाइयों की कठोर दीवारों को चीर सकता है।
• अच्छा करते रहो, पवित्र विचारों को लगातार सोचते रहो, यही आधार संस्कारों को दबाने का एकमात्र तरीका है.... चरित्र बार-बार की जाने वाली आदत है, और बार-बार की आदत ही चरित्र को सुधार सकती है।
• ...यदि मनुष्य अच्छे विचार सोचता है और अच्छे कार्य करता है, तो इन (उसके) संस्कारों का कुल योग अच्छा होगा; और वे .... उसे खुद के बावजूद अच्छा करने के लिए मजबूर करेंगे।
• ... एक आदमी पियानो पर एक धुन बजाता है, वह प्रत्येक कुंजी पर प्रत्येक उंगली सचेत रूप से रखता है। वह इस प्रक्रिया को तब तक दोहराता है जब तक कि अंगुलियों का हिलना उसकी आदत न बन जाए। वह फिर प्रत्येक विशेष कुंजी पर विशेष ध्यान दिए बिना एक धुन बजाता है। इसी तरह हम अपने बारे में पाते हैं कि हमारी प्रवृत्तियाँ पिछले सचेत कार्यों का परिणाम हैं...
• हर अच्छा विचार जो हम दुनिया को भेजते हैं, बिना किसी वापसी के बारे में सोचे, वहाँ जमा हो जाएगा और श्रृंखला की एक कड़ी को तोड़ देगा, और हमें तब तक पवित्र और पवित्र बनाओ, जब तक कि हम मनुष्यों में शुद्धतम न हो जाएं।
• दूसरों के लिए किया गया छोटा सा काम भी भीतर की शक्ति को जगा देता है; दूसरों का थोड़ा सा भी भला सोचना भी धीरे-धीरे दिल में एक शेर की ताकत पैदा कर देता है।
• अच्छाई का मार्ग ब्रह्मांड में सबसे कठिन और कठिन है। यह आश्चर्य की बात है कि इतने लोग सफल होते हैं, कोई आश्चर्य नहीं कि इतने लोग गिर जाते हैं। हजारों ठोकरों से चरित्र की स्थापना करनी पड़ती है।
• महसूस करो, मेरे बच्चों, महसूस करो; गरीबों, अज्ञानियों, दलितों के लिए महसूस करें; तब तक महसूस करें जब तक कि हृदय रुक न जाए और मस्तिष्क हिल न जाए और आपको लगता है कि आप पागल हो जाएंगे; फिर आत्मा को प्रभु के चरणों में उंडेल दो, और फिर शक्ति, सहायता और अदम्य ऊर्जा आएगी।
• पिछले दस सालों से संघर्ष, संघर्ष, मेरा ध्येय था। संघर्ष, अब भी कहते हैं मैं। जब रोशनी आ रही होती है, तब भी मैं कहता हूं, संघर्ष करो। डरो मत, मेरे बच्चों।
• आग लगाओ और सब तरफ फैल जाओ। काम काम। नेतृत्व करते हुए सेवक बनो। निःस्वार्थ बनो, और कभी भी एक मित्र को दूसरे पर आरोप लगाते हुए अकेले में मत सुनो। अनंत धैर्य रखें, और सफलता आपकी है।
• अपना ध्यान रखना! हर उस चीज़ से सावधान रहो जो असत्य है; सच्चाई पर टिके रहें, और हम सफल होंगे, शायद धीरे-धीरे, लेकिन निश्चित रूप से। काम ऐसे करें मानो आप में से प्रत्येक पर पूरा काम निर्भर है। - ( स्वामी विवेकानंद के कथन ) ]
[लूका (10:38-42 ) >>>Love for the World, Intimacy With God !
मरियम और मार्था
"जब ईशु और उनके शिष्य अपने रास्ते से चले जा रहे थे तो ईशु एक गाँव में पहुँचे। एक विधवा स्त्री, जिसका नाम मार्था था, उसने बहुत गाजे-बाजे के साथ उनका स्वागत सत्कार किया। उसकी मेरी नाम की एक विधवा बहन थी जो प्रभु ईशु के चरणों में बैठकर, जो कुछ वे कह रहे थे, उसे भावविभोर होकर सुन रही थी। उधर मार्था अकेले ही तरह-तरह की आयोजन -तैयारी करने में कर्म -व्यस्त थी। जब अति-कर्मव्यस्त मार्था ने ईशु के पास आकर यह शिकायत की कि 'देखिये प्रभु दीदी ने काम का सारा बोझ मुझपर ही डाल है, अतएव आप उसे मेरी सहायता करने का आदेश दीजिये।' तब प्रभु ईशु ने कहा - “मार्था, हे मार्था", तू बहुत सी बातों के लिये चिंतित और व्याकुल रहती है। किन्तु मनुष्य जीवन को सार्थक करने के लिए - जो कुछ चाहिए (ईश्वर-प्रेम) वह उसे (मेरी को) हो गया है ।’ और मेरी ने क्योंकि अपने लिये उसी उत्तम अंश को चुन लिया है, सो वह उससे नहीं छीना जायेगा।”
इस कहानी का मूलभाव यह है कि ईशु (मेरे लिए प्रभु श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द ......तथा प्रेममय C-IN-C नवनीदा ) भी हमारे ही साथ समय बिताना पसंद करते हैं। वे अपने 'श्री रामकृष्ण वचनामृत " के माध्यम से हमसे बातचीत करते हैं, और अपनी आत्मा की शक्ति के द्वारा वे हमारे विचारों और हृदय के स्पंदनों को निर्देशित करते हैं। [प्रेममय नवनीदा 'विवेक-अंजन' और महामण्डल पुस्तिकाओं के माध्यम से हमसे बातचीत करते हैं, और अपनी आत्मा की शक्ति के द्वारा (स्वप्न में भी) हमारे विचारों और ह्रदय की धड़कनों को नियंत्रित और निर्देशित करते रहते हैं। A true leader who shows the right path had arrived!]
ईशु (ठाकुर-माँ-स्वामीजी और नवनीदा) प्रतीक्षा कर रहे हैं.... कि कब हम उनके चरणों में बैठें और उनकी उपस्थिति को तलाश (महसूस) करें। उनके उपदेशों को पढ़ें। उनकी उपस्थिति में शान्ति और परमानन्द का अनुभव करें। "Talk a walk with God as your audience.
[ अपने श्रोताओं या दर्शकों के रूप में बैठे भगवान के साथ चलने जैसी बात करें। कैम्प ऑडोटोरियम में श्रोता के रूप में उपस्थित कैम्पर भाइयों, युवाओं में विराजित प्रेममय (नवनीदा-ठाकुर, माँ, स्वामीजी) को देखें, उनके साथ आत्मभाषण करें। soliloquies (बहुवचन so·lil·o·quies-बात करते समय या अकेले होने की क्रिया।) किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा एक कथन या प्रवचन जो खुद से बात कर रहा है या उपस्थित श्रोताओं के प्रति अवहेलना या बेखबर है (अक्सर एक चरित्र के अंतरतम विचारों को प्रकट करने के लिए नाटक में एक विधा के रूप में उपयोग किया जाता है): जैसे 'Hamlet's soliloquy' हैमलेट का आत्मभाषण "प्रश्न यह है कि मनुष्य होना है या नहीं होना है ?" से (“To be, or not to be, that is the question” से शुरू होता है। उन्हें (नवनीदा को) अपने कानों में बहुत धीरे-धीरे बोलते हुए दिल की फुसफुसाहट जैसा सुनें, और उन्हें अपने मन के विचारों में (खुली आँख से दिखे स्वप्न जैसा) देखें।Sit at His feet. Sing to Him in song. हम (भाषण नहीं दें -बल्कि ) उनके चरणों में बैठ कर, उन्हें प्रसन्न करने के लिए गीत गायें । भगवान के साथ घनिष्ठता में बिताया हुआ समय को ही जीवन का सबसे अच्छा हिस्सा समझना चाहिए। Intimacy with God is meant to be the best part of life
"As Jesus and his disciples were on their way, he came to a village where a woman named Martha opened her home to him. She had a sister called Mary, who sat at the Lord’s feet listening to what he said. But Martha was distracted by all the preparations that had to be made. She came to him and asked, “Lord, don’t you care that my sister has left me to do the work by myself? Tell her to help me!” “Martha, Martha,” the Lord answered, “you are worried and upset about many things, but few things are needed—or indeed only one. Mary has chosen what is better, and it will not be taken away from her.” (Luke 10:38-42 /Martha and Mary)
The good news of this story is that Jesus likes to spend time with us. He speaks to us through His word, and by His Spirit He directs our thoughts and hearts. Jesus is waiting…Seek His presence. Read His Word. Rest and delight in His presence.
Talk a walk with God as your audience. Hear Him in the whispers of your heart, and see Him in the ideas of your mind.
Sit at His feet. Sing to Him in song. Intimacy with God is meant to be the best part of life. ]
>>>लीडरशिप ट्रेनिंग : प्रेममय नेता का जीवन ही उपदेश है :[शोकग्रस्त भक्त परिवार के दुःख को दूर करने के लिए प्रेममय (नेता/गुरु) नवनीदा ने एक बार प्रमोद दा को अपना दूत बनाकर किसी के XYZ नगर भेजा था , जिसकी पुत्री ने अपनी बुआ की शादी दिव्यांग से होते देखकर ब्राह्मण लड़के से अन्तर्जातीय प्रेमविवाह कर लिया था। ]
यदि नेता /गुरु का जीवन स्वयं उपदेश न हो, तो उसके सब उपदेश व्यर्थ हैं। जो मैं तुमसे कहूं, अगर वह मेरे भीतर न खिला हो, तो तुम्हारे भीतर खिलने की कोई संभावना नहीं है। जो मैं तुमसे कहूं, 'वह' मैंने ही न जाना हो, तो मैंने तुम्हारा भी समय खराब किया, अपना भी समय खराब किया। और अक्सर अहंकार दूसरों को सुधारने की यात्रा पर निकल जाता है। 'अहंकार' को गुरु होने की बड़ी आकांक्षा है। दादा ने एक बार क्लास में कहा था - मैंने सुना है, एक आश्रम में एक युवक आया। उसने गुरु को कहा कि मुझे शिष्य बना लें, स्वीकार करें। गुरु ने कहा, बड़ा कठिन है। तपश्चर्या करनी होगी। अनुशासन में जीना होगा। उसने पूछा, क्या करना होगा? काम क्या है? तो गुरु ने कहा, पहले तो लकड़ियां काटनी होंगी जंगल से, सर्दी करीब आ रही है। फिर लकड़ियों का काम पूरा हो जाएगा तो चौके में बहुत काम है। वहां लगना होगा। फिर बगीचे को बोना है। खेत में काम लगा है, वहां सब लगना होगा। उसने कहा, अच्छा ठीक है, यह तो मैं समझ गया,यह तो शिष्य का काम है। अब बताइये कि यहाँ गुरु का क्या काम है ? उसने कहा, गुरु का काम है कि बैठा रहे और लोगों को आदेश दे। तो उसने कहा, फिर ऐसा करो, मुझे भी गुरु ही बना लो।
अथर्व वेद का यह प्यारा सूत्र है: '“आरोह तमसो ज्योतिः।” -उठो अंधकार से, चढ़ो ज्योति-रथ पर।अरे क्या देर कर रहे हो! तुम्हारे भीतर अमृत है। तुम अमृत पुत्र हो। अमृतस्य पुत्राः! लेकिन मृत्यु में भटक गए हो। मृत्यु यानी अंधकार। अमृत अर्थात आलोक। उठो अंधकार से, चढ़ो ज्योति रथ पर। उठो मृत्यु से--अमृत में डूबो। ऐसा इशारा किया राबिया ने। ' मंजिले गम से तो गुजरना है आसां एक बार। इश्क (भक्ति) है नाम, अपने से गुजर जाने का। " जो अपने से पार हो जाता है, जो अपने के पार हो जाता है, 'मैं ' के पार हो जाता है, जो मैं से आगे निकल जाता है...। मैं पर अटके हैं हम, तो फिर पहचान न हो पाएगी। 'मैं ' के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है।
जब पवित्र चेतना आत्मतत्व की साधना की ओर अग्रसर होती हैं तो प्रमुख रूप से उसके मार्ग में तीन वाधायें ( ऐषणाएँ -Speed breaker ) आते है -
१- कंचन - अर्थात धन का लोभ ।
२- काया- अर्थात स्त्री या पुरुष का आकर्षण जैसे विश्वामित्र के सामने मेनका के रूप में आया था।
३- कीर्ति - अर्थात अपनी त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं उससे उत्पन्न मान सम्मान का लोभ या अहंकार। भक्ति का शुभारम्भ ज्ञान है (यह ज्ञान कि मेरे नेता, गुरु, इष्टदेव ही अवतार वरिष्ठ हैं), और भक्ति ज्ञान की पराकाष्ठा है , अंतिम सोपान है । और भक्ति का फल वैराग्य है । आचार्यो मृत्युः। गुरु के पास जा कर क्या मिलेगा? मौत मिलेगी। क्योंकि गुरु मृत्यु है। उसके पास अहंकार मरेगा। "अपने को प्रेम करो, स्वार्थी बनो," तो ही तुम आत्मा (100 % निःस्वार्थपरता) को उपलब्ध हो सकोगे। और मजा यह है, विरोधाभास यह है कि अगर तुमने अपने को प्रेम किया, तो तुम दूसरे को प्रेम करोगे ही, अन्यथा तुम कर न पाओगे। जो है, वही बांटोगे। ]
[देहबुद्ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥
देहबुद्धि से मै आपका दास हूँ, पर जीव होने के कारण मैं आपका अंश हूँ।(ममैवाशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः॥गीता )। आत्मा होने के कारण मैं और आप एक ही हैं(अयम् आत्मा ब्रह्म, "तत् त्वम् असि"॥ महावाक्य) और यह मेरा निश्चित मत है।
>>>श्रीरामानुजाचार्य जी लिख रहे हैं –"ब्रह्मा, शिव आदि देवता भी जिसकी वन्दना करते हैं, जो भक्तों की इच्छा के अनुसार परम सुन्दर एवं चिन्तन करने योग्य लीला-शरीर धारण करते हैं, जिनकी भक्ति अचिन्त्य है तथा उनके अभिप्राय को उनकी कृपा के बिना कोई नहीं जान सकता । उन श्रीकृष्ण भगवान् के चरणारविन्दों की कृपा के बिना जीव की दूसरी गति हो ही नहीं सकती । जो अचिन्त्य दुस्तर संसार-सागर से पार (देश-काल -निमित्त को लाँघकर ब्रह्म में) जाना चाहता है, वह केवल पुरुषोत्तम भगवान् (अवतार वरिष्ठ) की लीला-कथा-रूप- लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ पूर्ण कर सकता हैं।
>>>यदि ईश्वर निराकार है, तो हमें मूर्ति की आवश्यकता क्यों है? मूर्ति पूजा भारत के सबसे बड़े विज्ञानों में से एक है। किस मूर्ति की पूजा की जा रही है? जिनके भीतर भगवान प्रकट हुए है, उनकी मूर्ति की, जिन्हें अपने सच्चे स्वरुप की प्राप्ति की है, संपूर्ण प्रकाशक है। इसलिए यदि आप मूर्ति को नमन करते हैं, तो यह प्रत्यक्ष भगवान तक पहुंचता है। इन मूर्तियों की पूजा करने से वीतरागता के बीज बोए जाते हैं। मनुष्य जीवन का ध्येय- ईश्वरलाभ या मोक्ष प्राप्त करना है ! जहाँ कायम ज्ञाता-द्रष्टा की अवस्था है, अकर्तापद। इस अवस्था तक पहुँचने के लिए हमें भगवान की मूर्ति की पूजा करनी होगी।
हिन्दू सभ्यता में मूर्ति-पूजा का विज्ञान का अपना एक अलग महत्व है। मूर्तिविज्ञान ही एक ऐसा साधन है जो कि मूर्तियों की महत्ता और उनकी पहचान में मदद करता है। भगवान विष्णु, हिन्दू त्रिदेवों में से एक देव हैं जिनकी महत्ता अत्यंत ही ऊंची है। भगवान विष्णु को मुख्य रूप से 10 अवतारों में दिखाया जाता है जो की निम्नवत प्रकार से हैं-मतस्य अवतार, कुर्म अवतार, वराह अवतार, नरसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, रामावतार, कृष्णावतार, गौतम बुद्ध, कल्कि अवतार आदि। इन सभी अवतारों की मूर्तियों आदि को पहचानने का अपना एक तरीका है, जो कि विभिन्न वास्तुकला और मूर्तिविज्ञान के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित हैं।
>>>हमें किस मूर्ति की पूजा करनी चाहिए?
इस दुनिया में कई तरह के देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। हर मूर्ति की पूजा अपने स्थान पर सही है। प्रत्येक के व्यक्तिगत आध्यात्मिक विकास के आधार पर, हर कोई एक विशेष देवता की पूजा करने का विकल्प चुनता है, चाहे वह देवी या भगवान गणेश, भगवान शिव, जीसस या अल्लाह, भगवान हनुमान, भगवान राम, भगवान कृष्ण, भगवान श्रीरामकृष्ण , माँ सारदा देवी, आदि हो, तदनुसार आध्यात्मिक विकास के पंथ में उनकी प्रगति होती रहती है। आध्यात्मिक विकास के अंतिम चरण में, वह केवलज्ञानी प्रभु (वीतराग भगवान) की पूजा करता है जिसका अंतिम परिणाम मोक्ष है।
जब कोई "श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द Be and Make 'लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता या एक श्रद्धालू गुरु (C-IN-C नवनीदा) किसी भी मंदिर में मूर्ति स्थापना करता है, तब वह निश्चित एक धार्मिक विधि करता है, जिसके दौरान वह अपनी सर्वोच्च जाग्रति के साथ, मूर्ति में उच्चतम कक्षा के स्पंदन को संपादित है जो इससे पहले एक मात्र पत्थर का टुकड़ा, या फ्रेम बाँधने वाले की दुकान पर सजा ठाकुर-माँ-स्वामीजी का फोटो हुआ करता था। तत्पश्चात, जब मूर्ति को सामान्य जनता के समक्ष पूजा के लिए प्रदर्शित किया जाता है, तो जो कोई भी वहाँ जाता है और मूर्ति को देखता है तब वह मूर्ति को अपने हृदय में पूर्ण श्रद्धा के साथ भगवान के रूप में पूजते है; और जाने या अनजाने भी, वे मूर्ति में अच्छे कंपन उत्पन्न होते हैं। दिन प्रतिदिन, जैसे अधिक से अधिक लोगों की श्रद्धा मूर्ति में स्थापित होती है, मूर्ति अधिक से अधिक फल देती है। यही कारण है कि लोगों जब मूर्ति को देखते हैं तब उस पल में उन्हें शान्ति महसूस होती हैं ।
हमें भगवान की मूर्ति की पूजा क्यों करनी चाहिए?
1. पूरा दिन, एक व्यक्ति अधिक पैसा बनाने, अधिक गहने खरीदने, एक बड़ा घर खरीदने, एक अच्छे कार, आदि के बारे में सोचने में व्यस्त है, हालांकि, जब वह भगवान की मूर्ति देखता है, तो वह कुछ बेहतर सोचता है। उसका मन अपने जीवन और भौतिक वस्तुओं के बारे में सोचना बंद कर देता है। वह भगवान में स्थिर होता है, और इस वजह से वह शांति और सुख का अनुभव करता है। वह व्यक्ति फिर धर्मध्यान की और मुड़ता है और इससे उनमे आध्यात्मिक रूप से प्रगति करने की शक्ति प्राप्त होती है।
2. जब कोई जीवन में चुनौतियों का सामना करता है, तो परमेश्वर में उसका दृढ़ और अटूट विश्वास उन्हें स्थिति से निपटने की ताकत देता है। वह उसके रास्ते में आये किसी भी प्रकार के संकट का सामना कर के अकेले ही बिना किसी को नुकसान पहुंचाए आगे निकल जाता है।
3.जब कोई सच्चे दिल से और श्रद्धा के साथ भगवान की पूजा करता है, तब वह पुण्य कर्म को बांधता है। इन बीजों का परिणाम अगले जीवन में एक अच्छी पत्नी, एक अच्छा जीवन, अच्छे माता-पिता, अच्छे बच्चे, अच्छे पैसे, अच्छी किस्मत, एक अच्छा घर, एक अच्छा धर्म और एक अच्छा वातावरण के रूप में प्राप्त होता है। यह सभी आसानी से बिना किसी पुरुषार्थ से ही प्राप्त हो जाता हैं।
4. जब कोई ऐसे अच्छे वातावरण से घिरा होता है, तो उसके विचार भी परिपक्व होते हैं, वह अपने आध्यात्मिक विकास में अधिक ऊँचा उठता है और अधिक पुण्य कर्मों को बांधता है जिससे बेहतर परिणाम मिलते हैं। जब पुण्यानुबंधी पुण्य कर्म को उनके कर्म खाते में जमा हो जाता है, तो वह व्यक्ति ज्ञानी पुरुष से मिलने में सक्षम होता है। और परिणाम स्वरुप उसके लिए परम मोक्ष के द्वार खुलते है।
5. जब तक ईश्वर के निराकार के स्वरूप की पहचान नहीं हो जाती, तब तक मूर्ति पूजा जीवन में एक बड़ा और आवश्यक आधार है। मूर्ति की मदद से, हम भगवान के गुणों और सच्चे स्वरुप को याद करते है। और जब वह उस दशा में पहुँच जाता है जहाँ वह निराकार ईश्वर का अनुभव करता है, तो यह आधार स्वतः ही निराधार हो जाएगा।
>>>>'मूर्ति, पत्थर का एक टुकड़ा है, एक पत्थर की पूजा करने से क्या लाभ हो सकते है? '
हम यह नहीं जानते है कि जब अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण जीवित थे तो वह कैसे दिखते थे। ईश्वर तक हमारी सीधी पहुँच नहीं है, इसलिए हम मूर्ति या चित्र के माध्यम से उनके साथ जुड़ सकते हैं। जब हमे भगवान की प्राप्ति हो जाती है, तब हमें किसी भी प्रकार के माध्यम की आवश्यकता नहीं रहती है। यहाँ तक कि उनकी पत्थर की मूर्ति या चित्र पर श्रद्धापूर्वक की हुई भक्ति का फल प्राप्त है। यह हमारे भीतर की श्रद्धा है जो परिणाम देती है। हमारी श्रद्धा एसी होनी चाहिए कि भले ही मूर्ति के माध्यम से भजना करे पर वह जैसे प्रत्यक्ष भगवान की प्रार्थना कर रहे हैं वैसा फल हमे देती है।
तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ को माननेवाले महाभारत के पांच पांडवों में से एक भीम की एक दिलचस्प कहानी है। उनकी परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि वह न तो भगवान की पूजा कर सकते था और न ही उनके पास भगवान की मूर्ति थी, के जिसका उपयोग वह पूजा करने के लिए कर सके। इसलिए उन्होंने एक मटका लिया, उस पर ' ॐ नेमिनाथाय नमः ’(मैं भगवान नेमिनाथ को नमस्कार करता हूँ) लिखा और मटके को भगवान मानते हुए, हर दिन अत्यंत भक्ति के साथ पूजा करना शुरू कर दिया। इसके परिणाम स्वरुप उन्हें बाद में भगवान नेमिनाथ के प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त हुए। तो, अंततः यह हमारी श्रद्धा है जो मायने रखती है; और वही परिणाम देती है!
>>>हम भगवान की मूर्तियों को क्यों सजाते हैं और उन्हें आकर्षक बनाते हैं?
मनुष्य का मन ऐसा है कि वह आकर्षक चीजों को देखना पसंद करता है और यह वहाँ स्थिर हो जाता है। इसलिए जब कोई भगवान की मूर्ति को अच्छे वस्त्र, आभूषणों और मालाओं से सजा हुआ देखते है, तो उसका मन वहाँ स्थिर हो जाता है और वह सोचता है, 'वाह, प्रभु सुंदर दीखते है' और इस प्रकार वह भगवान के लिए भक्ति उत्पन्न होता है। इसी भक्ति का परिणाम स्वरुप वह पुण्य कर्म को बांधता हैं। यही वजह से भगवान की मूर्तियों को खूबसूरती से बनाया जाता है। भगवान की आकर्षक मूर्तियों को देखकर लोगोंमे उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो इसीलिए उन्हें हर रोज़ आकर्षक वस्त्रो से सुशोभित किया जाता हैं। मूर्ति पूजा (आराधना) प्रारंभिक चरणों में बहुत ही सहायक है। बाद में, जैसे हमारी आराधना बढ़ती जाती है, वैसे हमारी श्रद्धा कायमी बनी रहती चाहे फिर कितने ही बाह्य संजोग आए।
>>>What is true worship according to Swami Vivekananda ?
" The only God to worship is the human soul in the human body. Of course, all animals are temples too, but man is the highest, the Taj Mahal of temples. If I cannot worship in that, no other temple will be of any advantage."
'We are the servants of that God who by the ignorant is called MAN.'
" This is the gist of all worship - to be pure and to do good to others. He who sees LORD SHIVA in the poor, in the weak, and in the diseased, really worships Shiva; and if he sees SHIVA only in the image, his worship is but preliminary."
" If the Lord grants that you can help any one of His children, blessed you are; do not think too much of yourselves. Blessed you are that that privilege was given to you when others had it not. Do it only as a worship.
May I be born again and again, and suffer thousands of miseries,, so that I may worship the only God that exists, the only God I believe in, the sum total of all souls - and above all, my God the wicked, my God the miserable, my God the poor of all races, of all species, is the special object of my worship.
After so much austerity, I have understood this as the real truth - God is present in every Jiva; there is no other God besides that. 'WHO SERVES JIVA, SERVES GOD INDEED.'
You must give your body, mind and speech to 'the welfare of the world'. You have read - 'Matru Devo Bhava, Pitru Devo Bhava - Look upon your mother as God, look upon your father as God', but I say, ' Daridra Devo Bhava, Murkha Devo Bhava - the poor, the illiterate, the ignorant, the afflicted - let these be your God'. Know that service to these alone is the highest religion.
The fool, dwelling on the bank of the Ganga, digs a well for water, such are we! Living in the midst of God - we must go and make images. We project Him in the form of the image, while all the time He exists in the temple of our body. We are lunatics and this is the great delusion. Worship everything as God - every form is His temple. All else is delusion.
We think that we have helped some man and expect him to thank us, and because he does not, unhappiness comes to us. Why should we expect anything in return for what we do? Be grateful to the man you help, think of him as God. Is it not a great privilege to be allowed to worship God by helping our fellow men?
Let me tell you again that you must be pure and help any one who comes to you, as much as lies in your power. And this is good KARMA. By the power of this, the heart becomes pure (Chitta-shuddhi), and then SHIVA who is residing in every one will become manifest.
Let some of you spread like fire, and preach this worship of the universal aspect of the Godhead - a thing that was never undertaken before in our country. No quarreling with people, we must be friends with all. Spread ideas - go from village to village, from door to door - then only there will be real work. Otherwise, lying complacently on the bed and ringing the bell now and then is a sort of disease.
>>>Swami Vivekananda and Nation building, स्वामी विवेकानन्द और राष्ट्र निर्माण। (Swami Shantatmananda) :- Swami Vivekananda was a dreamer. He dreamt big day and night. But, the only theme of his dream was India. This one word stirred extraordinary feelings in the deepest regions of his heart. Perhaps, he was the greatest patriot to have ever been born in this country.
The testimony of Mahatma Gandhi vouches for this assertion. Mahatma Gandhi visited Belur Math in 1921 and before leaving he wrote in the Visitors’ Book that after reading Swami Vivekananda’s works, his patriotism for the country had increased thousand fold.
One of the Western disciples of Swami Vivekananda, Sister Christine, wrote in her reminiscences, “Our love for India came to birth, I think, when we first heard him (Swami Vivekananda) say the word, “India”, in that marvelous voice of his. It seems incredible that so much could have been put into one small word of five letters. There was love, passion, pride, longing, adoration, tragedy, chivalry, himweh, and again love. Whole volumes could not have produced such a feeling in others. It had the magic power of creating love in those who heard it.” In fact, his love for our motherland was perhaps the singular factor which held him tied to this earth. He was a born Yogi. He was a great contemplative and diving deep into meditation was the natural drift of his mind. However, he sacrificed all these to serve our motherland.
Swami Vivekananda knew everything about India like the palm of his hand. What was the source and basis of his knowledge? He was a keen student of history and had a thorough knowledge of India’s glorious past. He was immensely practical in his outlook and that helped him understand the then condition of our country.
After the passing away of his Guru and mentor, Sri Ramakrishna, he had gone on a pilgrimage of the entire country on foot. He met people from every segment of the society, from the richest to the poorest, from the most learned to the most ignorant, from high caste priests to those condemned as the low caste, from Maharajas to penniless beggars. The firsthand knowledge which he gained through his explorations gave him a complete understanding of our country including the causes for its downfall.
Being a visionary and endowed with an extraordinary intellect and even a more feeling heart, he could find out the cure for India’s maladies and for restoring her to her former glory. He predicted that India’s future glory would far surpass her past glory. He felt deeply concerned and pained by the degradation of our country. He said, “If there are holes in this national ship, this society of ours, we are its children, let us go and stop the holes. Let us gladly do it with our hearts' blood; and if we cannot, then let us die. We will make a plug of our brains and put them into the ship, but condemn it never.”
After a stay of four years in the West, during which he achieved extraordinary fame and recognition and was virtually lionized by the society; when he was about to depart for India, a Westerner asked him how he was feeling about returning to his motherland. In reply he said, “India I loved before I came away. Now the very dust of India has become holy to me, the very air is now to me holy; it is now the holy land, the place of pilgrimage, the Tirtha."
Swami Vivekananda clearly identified the causes for our downfall, one of which was the neglect of the masses which he labeled as the great national sin. He said, “The poor, the low, the sinner in India have no friends, no help – they cannot rise, try however they may. They sink lower and lower every day, they feel the blows showered upon them by a cruel society, and they do not know whence the blow comes.” He said that millions were oppressed in the name of religion and one of the chief causes of India’s ruin was the monopoly of education by a few belonging to the privileged classes.
Swami Vivekananda said that the whole difference between the West and the East is in that, they are nations i.e. civilizations, whereas we are not. While the higher classes in India and the West are the same, but there is infinite distance between the lower classes of these countries.
He lamented that for centuries people had been taught (by whom?) theories of degradation and have been told that they were nothing. The masses have been repeatedly told that they are not human beings and frightened for centuries till that they have become animals. Laziness, lack of energy, want of sympathy and appreciation for others were at the root of all miseries and that they should be given up.
Another cause according to him was our exclusiveness. India went into her shell as the oyster does, and refused to give her jewels and her treasures to the other races of mankind, refused to give the life-giving truths to thirsting nations outside the Aryan fold. He said that we shut ourselves from the outside world, did not go out and did not compare notes with other nations.
One of the drawbacks of our nation according to him was that it totally lacked in the faculty of organization and that we are altogether averse to making a common cause for anything (Life building and Character Building education). He said that the first requisite for organisation was obedience which we lacked as a race. He said, “In spite of the greatness of the Upanishads, in spite of our boasted ancestry of sages, compared to many other races, I must tell you that we are weak, very weak. First of all is our physical weakness. That physical weakness is the cause of at least one-third of our miseries. We are lazy, we cannot work; we cannot combine, we do not love each other; we are intensely selfish, not three of us can come together without hating each other, without being jealous of each other.”
According to him another major reason for India’s degradation was the trampling of the women. He said that our country is one of the weakest in the world because Shakti was held in dishonor here. He said that uplift of women deserves utmost priority and only after that can there be hope for any real good for the nation. He said, “All nations have attained greatness by paying proper respect to women. That country and that nation which does not respect women has never become great”. In addition to the causes identified by Swamiji, corruption, particularly in public life has become yet another major cause. But, then the solutions given by Swamiji - cover this malady also.
What is the way to regeneration? The first step in this regard is uplifting the masses by restoring their lost individuality and faith (shraddha) in themselves. Swami Vivekananda said that we should remember that the nation lives in the cottages and that no amount of politics will be of any avail until the masses of India are once more well educated, well fed and well cared for.
He said, “our mission is for the destitute, the poor, and the illiterate peasantry and labouring classes, and if, after everything has been done for them first, there is spare time, then only for the gentry.” He said emphatically that we should feel proud of our past and derive our strength and inspiration from those glorious chapters of the bygone days.
Along with this he also advocated respect for the great men (Rishi Patanjali) of the country. He was of the firm view that material civilization was absolutely necessary to create work for the poor. He said, “Bread! Bread! I do not believe in a God, who cannot give me bread here, giving me eternal bliss in heaven! Pooh! India is to be raised, the poor are to be fed, education is to be spread...Hence he said that our process of education should be such that it helps the students to manifest their innate knowledge and power.
He was highly critical of the so-called educated who do not care for the poor and downtrodden. He said, “So long as the millions live in hunger and ignorance, I hold every man a traitor who, having been educated at their expense, pays not the least heed to them.”
He advocated a man-making character-building education. (Process of 3H Development ?)” According to him, a nation is advanced in proportion as education is spread among the masses. But, what was the education that he advocated? According to him “education is the manifestation of perfection already in man and that what a man ‘learns’ is really what he ‘discovers’ by taking the cover off his own soul, which is a mine of infinite knowledge.” He said, “We want that education by which character is formed, strength of mind is increased, the intellect is expanded, and by which one can stand on one's own feet.” He said that education must make the students self-reliant and help them face the challenges of life.
Swami Vivekananda laid the greatest emphasis on education for the regeneration of our motherland. He said, “Education, education, education alone! Travelling through many cities of Europe and observing in them the comforts and education of even the poor people, these brought to my mind the state of our own poor people, and I used to shed tears. What made the difference? Education was the answer I got.” According to him, three things are necessary to make every man great, every nation great and that is we should have conviction in the powers of goodness, the absence of jealousy and suspicion and helping all those who are trying to be and do good.
Swami Vivekananda had immense faith in the youth of this country and said that they would work out his ideas like lions. “That you may catch my fire, that you may be intensely sincere, that you may die the heroes' death on the field of battle — is the constant prayer of Vivekananda.”
[*Swami Shantatmananda is associated with Ramakrishna Mission, New Delhi]
युगपुरुष स्वामी विवेकानन्दजी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ था। उन्होंने भारतवर्ष के पुनरुत्थान के लिए नवयुवकों का मार्गदर्शन करते हुए कहा था -Be and Make !' स्वामी विवेकानन्दजी ने कहा था -"भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं त्याग और सेवा। आप इन दो धाराओं में तीव्रता उन्नत कीजिये शेष सबकुछ अपनेआप ठीक हो जायेगा।" इनके बचपन का नाम था नरेन्द्रनाथ दत्त। पिता का नाम विश्वनाथ दत्त, माता का नाम भुवनेश्वरी देवी। बचपन से ही आप बहुत ही प्रभावशाली, गरीबों के प्रति दयापूर्ण हृदय रखनेवाले और भक्ति एवं वेदान्त में रुचि रखनेवाले थे। श्रीरामकृष्ण परमहंस आपके गुरु थे। सितंबर 1893 में अमेरिका के चिकागों नगर में आयोजित ‘सर्व धर्म सम्मेलन’ में हिन्दू धर्म, भक्ति और वेदान्त के बारे में स्वामीजी ने जो भाषण दिया वह अद्वितीय था। आपकी मुख्य कृतियाँ हैं – ‘कर्मयोग’, ‘भगवान कृष्ण और भगवद्गीता’, ‘मेरे गुरुदेव’ आदि। आपकी मृत्यु 4 जुलाई 1902 को हुई। विवेकानन्दजी का विश्वास था कि देश का उद्धार केवल नवयुवक एवं नवयुवतियों के द्वारा ही संभव हैं।
स्वामी विवेकानन्द आधुनिक भारत के निर्माताओं में एक थे। उन्होंने पहचान लिया था कि युवाओं से ही आधुनिक भारत बन सकता है। इसलिए उन्होंने युवाओं को देश की वर्तमान दुःस्थिति से परिचित कराया। फिर उन्होंने प्रबुद्ध और संपन्न भारत की तस्वीर खींची। उन्होंने युवा-पीढ़ी को अपना कर्तव्य समझाया। भारत एक जमाने में शिक्षा, संपत्ति तथा ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में बहुत आगे था। लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों, शासकों तथा स्वदेशी राजाओं के आपसी द्वेष के कारण, भारत पिछड़ा हुआ था। अब उन्होंने भारत के विगत वैभव को फिर लाने का संकल्प किया। स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास है कि भारत का भविष्य उज्ज्वल होगा और वह केवल युवा पीढ़ी के द्वारा। इस दृष्टि से उन्होंने युवाओं को इस तरह संबोधित किया। भारतवासियों में अनेक किसान, मजदूर और बेरोजगार हैं। पढ़े-लिखे लोग और अनपढ़ भी निराश होकर घर में बैठे हैं। हमें उनको जगाना है, उन्हें शिक्षित करना है, उन्हें क्रियाशील बनाना है। उन्हें पहले रोटी, कपड़ा और मकान का प्रबंध करने का मार्ग दिखाना है। हर एक भारतीय में सिंह सोया हुआ है। इसलिए युवाओं को गाँव-गाँव जाकर सोये हुए लोगों को जगाना है। हमें केवल अपना स्वार्थ ही नहीं देखना है। जब तक भारत में एक भी दरिद्र व्यक्ति रहेगा, तब-तक इसकी उन्नति नहीं होगी। इसलिए हमें अपना स्वार्थ भुलाकर, सारी जनता की भलाई के बारे में सोचना है। भारत में कई धर्मों के लोग हैं। हमें धर्म के नाम पर लड़ना नहीं चाहिए। हमें जाति और धर्म को भुलाकर देश की आजादी के लिए एकजुट होकर लड़ना चाहिए। हमें प्रेम, दया, करुणा तथा सहानुभूति आदि गुणों को सीखकर आचरण में लाना चाहिए। अज्ञान के अंधेरे से बाहर निकलना चाहिए और उजाले की ओर कदम बढ़ाना चाहिए। भारत देश के पिछड़ेपन के कई कारण हैं जैसे – अशिक्षा, अज्ञान, आलस्य, ईर्ष्या, निराशा आदि। हमें सर्व प्रथम इन कमजोरियों पर विजय पानी है। विजय पाने का हमें संकल्प करना चाहिए। बाद में कर्मपथ पर निडर होकर आगे बढ़ना चाहिए। इसलिए हमारा मूलमंत्र यह होना चाहिए – “उठो, जागो और रुको नहीं मंजिल पहुँचाने तक|” भारत की युवा पीढ़ी को चरित्रवान बनना चाहिए। शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होना चाहिए। निस्वार्थ भाव से जनता-जनार्दन की सेवा करनी चाहिए। स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को देश की रीढ़ कहा है, जो शत-प्रतिशत सच है।
>>>भारतवर्ष का पुनरुत्थान कैसे होगा? (या भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित कैसे किया जा सकता है ? How can India be regenerated ?
"India will be raised not by the power of flesh but by the power of spirit" ....India's revival will not be by physical power, but by spiritual power. स्वामी विवेकानंद के अनुसार भारत का पुनरुत्थान शारीरिक शक्ति से नहीं, बल्कि आत्मिक शक्ति से होगा। [सत्य नारायण भगवान की कथा से होगा ! वह उत्थान विनाश की ध्वजा से नहीं, बल्कि शांति और प्रेम की ध्वजा से होगा। हमारी यह वृद्ध भारत माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर पूर्ण वैभवता के साथ विराजमान हो गी।
प्रत्येक व्यक्ति को कैसे उपयुक्त मनुष्य बनाया जा सकता है?
How can everyone be made a suitable human being?
प्रत्येक व्यक्ति को स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त ' मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा - Be and Make' 3H विकास के 5 अभ्यास के प्रशिक्षण द्वारा उपयुक्त मनुष्य बनाया जा सकता है।
प्रत्येक आत्मा क्या है? (What is each soul?)
प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। Each soul is potentially divine
>>>हमारे स्वभाव में किसका अभाव है?
"हमारे स्वभाव में संगठन का सर्वथा अभाव है, पर इसे हमें अपने स्वभाव में लाना है। इसका महान रहस्य हैं। ईर्ष्या का अभाव। उपाय है अपने भाइयों के मत से सहमत होने को सदैव तैयार रहो और हमेशा समझौता करने का प्रयास करो ।
>>>भारत के राष्ट्रीय आदर्श क्या हैं ?स्वामी विवेकानंद के अनुसार “भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं- त्याग और सेवा। तुम काम में लग जाओ, फिर देखोगे इतनी शक्ति आयेगी कि तुम उसे सँभाल नहीं सकोगे। दूसरों के प्रति सोचने से व काम करने से भीतर की शांति जाग उठती है और धीरे-धीरे हृदय में सिंह का-सा बल आ जाता है। दुखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो। प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन लोगों के उद्धार कार्य में लगा देंगे।”
उन्होंने साफ कहा कि जीवन बहुत छोटा है, लेकिन आत्मा अजर-अमर है, इसलिए अपने जीवन को एक बड़े लक्ष्य की प्राप्ति में लगा दो। एक बार जीवन की कठिनाइयों पर भाषण करते हुए उन्होंने कहा कि त्याग और सेवा के आदर्शो को राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करना चाहिए, जिससे ये युवाओं के जीवन का अभिन्न हिस्सा बन सकें।
निःस्वार्थ समाज सेवा - स्वामी विवेकानंद चाहते थे कि युवा अधिक से अधिक संख्या में सामाजिक गतिविधियों में शामिल हों, जिससे न केवल समाज बेहतर बनेगा, बल्कि इससे व्यक्तिगत विकास भी होगा। उनके अनुसार निःस्वार्थ समाज सेवा से चित्तशुद्धि भी होती है। मनुष्य क्रमशः पशुत्व (घोर स्वार्थपरता) से मनुष्य में , और मनुष्यत्व से देवत्व में (100 % Unselfishness में) उन्नत होता जाता है। उन्होंने समाज के सबसे कमजोर तबके के लोगों की सेवा करके एक नए समाज के निर्माण की बात कही। युवाओं से अपील करते हुए उन्होंने कहा कि बाकी हर चीज की व्यवस्था हो जाएगी, लेकिन सशक्त, मेहनती, श्रद्धावान युवा खड़े करना बहुत जरूरी है। ऐसे 100 युवा दुनिया में एक नई क्रांति कर सकते हैं।उन्होंने सामाजिक सेवा के साथ आध्यात्मिकता को भी जोड़ा और मनुष्य में मौजूद ईश्वर की सेवा करने की बात कही।
>>>शिक्षा के बारे में स्वामी विवेकानंद जी क्या कहते हैं?
स्वामी विवेकानंदजी के अनुसार – शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो तुम्हारे मस्तिष्क में ढूंस दिया गया है और जो आत्मसात हुए बिना वहाँ आजन्म पड़ा रहकर गड़बड़ मचाया करता हैं। हमें उन विचारों की अनुभूति करनी चाहिए, जो जीवन-निर्माण तथा चरित्र-निर्माण में सहायक हों। यदि केवल पाँच ही परखे हुए विचार आत्मसात् कर उनके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हैं, तो हम पूरे ग्रंथालय को कंठस्थ करनेवाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हैं।
>>>सर्व धर्म सहिष्णुता नहीं समन्वय : के बारे में स्वामी विवेकानंद जी के विचार- सर्व धर्म समभाव नहीं सर्वधर्म समन्वय के बारे में स्वामीजी का विचार है- मैं सभी धर्मों को स्वीकार करता हूँ। और उन सबकी पूजा करता हूँ। मैं उनमें से प्रत्येक के साथ ईश्वर की उपासना करता हूँ। वे स्वयं चाहे किसी भी रूप में उपासना करते हो, मैं मुसलमानों की मस्जिद में जाऊँगा, मैं ईसाइयों के गिरिजा में क्रास के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करूँगा, मैं बौद्धमंदिरों में जाकर बुद्ध और उनकी शिक्षा की शरण लूँगा। मैं जंगल में जाकर हिन्दुओं के साथ ध्यान करूँगा, जो हृदयस्थ ज्योतिस्वरूप परमात्मा को प्रत्यक्ष करने में लगे हुए हैं।
>>>स्वदेश-भक्ति के बारे में स्वामी विवेकानंद जी का आदर्श क्या है?
स्वदेशभक्ति के बारे में स्वामीजी कहते हैं- बड़े काम करने के लिए तीन चीजों की आवश्यकता होती है- बुद्धि, विचारशक्ति और हृदय की महाशक्ति। अतः युवकों को चाहिए कि वे हृदयवान बने। यदि युवकों ने जान लिया है कि भारत के अपने गरीब, दीन-बन्धुओं की कई समस्याएँ हैं, तो समझ लो कि यही देशभक्ति की प्रथम सीढ़ी है। देशभक्ति का पहला पाठ है- स्वदेश-हितैषी होना। “उठो, जागो और तब-तक रुको नहीं, जब-तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय।”
महामण्डल प्रशिक्षण का विषय भारत -' भारत को पुनरुज्जीवित कैसे करेंगे? भारतवर्ष का पुनरुत्थान कैसे होगा? स्वामी विवेकानंद के अनुसार भारत का पुनरुत्थान शारीरिक शक्ति से नहीं, बल्कि आत्मिक शक्ति से होगा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा से नहीं, बल्कि शांति और प्रेम की ध्वजा से होगा। हमारी यह वृद्ध भारत माता पुनः एक बार जाग्रत होकर अपने सिंहासन पर पूर्ण वैभवता के साथ विराजमान होगी।]
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