*परिच्छेद- ११८*
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
(१)
🔱🙏बलराम के मकान में श्रीरामकृष्ण *🔱🙏
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बलराम के बैठकखाने में बैठे हुए हैं । मुख पर प्रसन्नता विराज रही है । इस समय दिन के तीन बजे होंगे । विनोद, राखाल, मास्टर आदि श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । छोटे नरेन्द्र भी आये ।
आज मंगलवार है, २८ जुलाई, १८८५, आषाढ़ की कृष्ण प्रतिपदा । श्रीरामकृष्ण सबेरे से बलराम के यहाँ आये हैं । भक्तों के साथ भोजन भी उन्होंने वहीं किया है । बलराम के घर में भगवान श्री जगन्नाथ की पूजा उनके कुलदेवता के रूप में की जाती थी। तथा घर के सभी सदस्य कुलदेवता पर चढ़ाये हुए भोग को ही अपने भोजन रूप में ग्रहण करते थे। श्री रामकृष्ण कहा करते थे कि 'बलराम के घर का अन्न बहुत शुद्ध है'।
नारायण आदि भक्तों ने कहा है, 'नन्द वसु के घर में ईश्वरसम्बन्धी चित्र बहुत से हैं ।' आज दिन के पिछले पहर उनके घर जाकर श्रीरामकृष्ण चित्र देखेंगे ।
एक ब्राह्मणी भक्त नन्द वसु के घर के पास ही रहती है, श्रीरामकृष्ण उसके घर भी जायेंगे । कन्या के गुजर जाने पर ब्राह्मणी दुखी रहा करती है । प्रायः दक्षिणेश्वर श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए जाया करती है । अत्यन्त व्याकुलता के साथ उसने श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण भेजा है । उसके घर तथा एक और स्त्री-भक्त - गनू की माँ - के घर भी श्रीरामकृष्ण जानेवाले हैं ।
श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ आते ही बालक-भक्तों को बुला भेजते हैं । छोटे नरेन्द्र ने अभी उस दिन कहा था, 'मुझे काम रहता है, इसलिए सदा मैं नहीं आ सकता, परीक्षा के लिए भी तैयारी करनी पड़ रही है ।' छोटे नरेन्द्र के आने पर श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत करते हुए कह रहे हैं - "तुझे बुलाने के लिए मैंने आदमी नहीं भेजा ।"
छोटे नरेन्द्र (हँसते हुए) - तो इससे क्या होता है ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं भाई, तुम्हारा नुकसान होता है, जब अवकाश हो तब आया करो ! श्रीरामकृष्ण ने जैसे अभिमान करके ये बातें कहीं ।
पालकी आयी है । श्रीरामकृष्ण श्रीयुत नन्द बसु के यहाँ जायेंगे ।
ईश्वर का नाम लेते हुए श्रीरामकृष्ण पालकी पर बैठे, पैरों में काली चट्टी, लाल धारीदार धोती पहने। मणि ने जूतों को पालकी की बगल में एक ओर रख दिया । पालकी के साथ साथ मास्टर जा रहे हैं। इतने में परेश भी आ गये ।
पालकी नन्द बसु के फाटक के भीतर गयी । क्रमशः घर का लम्बा आँगन पार करके पालकी मकान के द्वार पर पहुँची । गृहस्वामी के आत्मीयों ने श्रीरामकृष्ण को आकर प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण ने मास्टर से चट्टियाँ निकाल देने के लिए कहा । पालकी से उतरकर वे ऊपर के दालान में गये । दालान बहुत लम्बा-चौड़ा है । चारों ओर देवी-देवताओं के चित्र टँगे हुए हैं ।
गृहस्वामी और उनके भाई पशुपति ने श्रीरामकृष्ण से सम्भाषण किया । पालकी के पीछे पीछे भक्तगण भी आ रहे थे । अब वे भी उसी दालान में एकत्र होने लगे । गिरीश के भाई अतुल भी आये हुए हैं । प्रसन्न के पिता श्रीयुत नन्द वसु के यहाँ अक्सर आया-जाया करते हैं । वे भी वहाँ मौजूद हैं ।
[नन्द वसु (नन्दलाल वसु)* - एक अभिजात्य (aristocrat) व्यक्ति थे। उनका घर बागबाजार में था। यह जानकर कि उनके घर में विभिन्न देवी-देवताओं के सुंदर चित्र हैं, 1885 में बलराम बोस के घर से होते हुए वे वहाँ भी गए थे। उन चित्रों को देखने के बाद गृहस्वामी नन्दलाल वसु तथा उनके भाई पशुपति बसु के साथ काफी देर तक ईश्वरीय प्रसंग पर चर्चा हुई थी। ठाकुर देव ने उन चित्रों की प्रशंसा करते हुए नन्द बाबू को एक सच्चे हिंदू के रूप में सराहना की थी।]
(२)
[ (28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏चित्रों का दर्शन 🔱🙏
श्रीरामकृष्ण अब चित्रों को देखने के लिए उठे । साथ मास्टर हैं तथा कुछ भक्तगण । गृहस्वामी के भ्राता श्रीयुत पशुपति साथ साथ रहकर तस्वीरें दिखा रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण पहले चतुर्भुज विष्णुमूर्ति देख रहे हैं । देखकर ही भावावेश में परिपूर्ण हो गये । खड़े थे, बैठ गये । कुछ काल भावाविष्ट रहे।
दूसरा चित्र श्रीरामचन्द्रजी की भक्तवत्सल मूर्ति का है । श्रीराम हनुमान के सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं । हनुमान की दृष्टि श्रीरामचन्द्रजी के पादपद्मों पर लगी हुई है । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक यह चित्र देखते रहे । भावावेश में कह रहे हैं - "आहा ! आहा !"
तीसरा चित्र वंशीधर श्रीमदनगोपाल का है । कदम्ब के नीचे खड़े हुए हैं ।
चौथा चित्र वामनावतार का है, छाता लगाये हुए बलि के यज्ञ में जा रहे हैं । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - 'वामन', और टकटकी लगाये देख रहे हैं ।
फिर नृसिंहमूर्ति देखकर श्रीरामकृष्ण गो-चारण देख रहे हैं । श्रीकृष्ण गोपाल बालकों के साथ गौएँ चरा रहे हैं । श्रीवृन्दावन और यमुनापुलिन ! मणि कह उठे, 'बड़ी सुन्दर तस्बीर है !'
सप्तम चित्र देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – धूमावती ! 'अष्टम, 'षोडशी'; नवम, 'भुवनेश्वरी'; 'दशम', तारा; एकादश, 'काली' । इन सब मूर्तियों को देखकर श्रीरामकृष्ण कहते हैं - "ये सब उग्र मूर्तियाँ हैं, उन्हें घर में न रखना चाहिए । इन्हें यदि घर पर रखे तो इनकी पूजा करना उचित है, साथ ही भोग भी चढ़ाना चाहिए । परन्तु आप लोगों के भाग्य अच्छे हैं, आप रख सकते हैं ।"
श्रीअन्नपूर्णा के दर्शन कर श्रीरामकृष्ण भावावेश में कह रहे है - "वाह ! वाह !'
फिर देखा राधिका का राजा-वेश, सखियों के साथ वन में सिंहासन पर बैठी हुई हैं । श्रीकृष्ण द्वार पर कोतवाल बनकर बैठे हुए हैं । फिर झूलना-चित्र । श्रीरामकृष्ण बड़ी देर तक इसके बाद का चित्र देख रहे हैं । ग्लास-केस के भीतर वीणावादिनी का चित्र है । देवी हाथ में वीणा लिये हुए आनन्द से रागिनी अलाप रही हैं ।
तस्वीरों (Exhibition) का देखना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण फिर गृहस्वामी के पास गये । खड़े हुए गृहस्वामी से कह रहे हैं, "आज बड़ा आनन्द आया । वाह ! आप तो पूरे हिन्दू हैं । अंग्रेजी चित्र न रखकर इन चित्रों को रखा है, यह सचमुच बड़े आश्चर्य की बात है ।"
श्रीयुत नन्द बसु बैठे हुए हैं, वे श्रीरामकृष्ण से कह रहे हैं - "बैठिये, आप खड़े क्यों हैं ?"
श्रीरामकृष्ण (बैठकर) - ये चित्र काफी बड़े हैं । तुम अच्छे हिन्दू हो ।
नन्द बसु - अंग्रेजी चित्र भी हैं ।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - वे ऐसे नहीं हैं । अंग्रेजी की ओर तुम्हारी वैसी दृष्टि नहीं है ।
कमरे की दीवार पर श्रीयुत केशचन्द्र सेन के नवविधान की तस्बीर लटकी हुई थी । श्रीयुत सुरेश मित्र ने वह चित्र बनाया था । वे श्रीरामकृष्ण के एक प्रिय भक्त हैं । उस चित्र में दिखाया है कि श्रीरामकृष्ण केशव को दिखा रहे हैं कि भिन्न-भिन्न मार्गों से सब धर्मों के लोग ईश्वर की ही ओर अग्रसर होते जा रहे हैं । गम्यस्थान एक है, केवल मार्ग पृथक्-पृथक् हैं ।
श्रीरामकृष्ण - वह तो सुरेन्द्र का बनाया हुआ चित्र है ।
प्रसन्न के पिता (हँसकर) - आप भी उसके भीतर हैं ।
श्रीरामकृष्ण - वह एक विशेष ढंग का है, उसके भीतर सब कुछ है - वह आधुनिक भाव का चित्र है ।
यह कहते हुए श्रीरामकृष्ण को एकाएक भावावेश हो रहा है । श्रीरामकृष्ण जगन्माता से वार्तालाप कर रहे हैं । कुछ देर बाद मतवाले की भाँति कह रहे हैं - "मैं बेहोश नहीं हुआ ।" घर की ओर दृष्टि करके कह रहे हैं, "बड़ा मकान, इसमें क्या हैं, - ईंटें, काठ और मिट्टी ।"
कुछ देर बाद उन्होंने कहा, "देव-देवताओं के ये सब चित्र देखकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ ।" फिर कहने लगे - "उग्र मूर्ति, काली, तारा (शव और शिवा के बीच श्मशान में रहनेवाली) रखना अच्छा नहीं, रखने पर पूजा चढ़ानी चाहिए ।"
पशुपति (हँसकर) - वे जितने दिन चलायेंगी, उतने दिन तो चलेगा ही ।
श्रीरामकृष्ण - यह ठीक है । परन्तु ईश्वर में मन रखना अच्छा है, उन्हें भूलकर रहना अच्छा नहीं ।
नन्द बसु - उनमें मति होती कहाँ है ?
श्रीरामकृष्ण - उनकी कृपा होने पर सब हो जाता है ।
नन्द बसु - उनकी कृपा होती कहाँ है ? उनमें कृपा करने की शक्ति भी हो तब न ?
गम्यस्थान एक है, केवल मार्ग पृथक्-पृथक् हैं ।
ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्म स्वरूपिणे,
अवतार वरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ।।
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैं समझा, तुम्हारा मत पण्डितों जैसा (पुस्तकीय-ज्ञान रटन्ती) है कि "जो जैसा कर्म करेगा, उसे वैसा फल मिलता रहेगा" यह सब छोड़ दो । ईश्वर की शरण में जाने पर कर्मों का क्षय हो जाता है।
" मैंने माता के पास हाथ में फूल लेकर कहा था, 'माँ, यह लो अपना पाप और यह लो अपना पुण्य, मैं कुछ नहीं चाहता; तुम मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना भला और यह लो अपना बुरा; मैं भला-बुरा कुछ नहीं चाहता; मुझे बस अपनी शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना धर्म और यह लो अपना अधर्म, मैं धर्माधर्म कुछ नहीं चाहता; मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपना ज्ञान और यह लो अपना अज्ञान; मैं ज्ञान अज्ञान कुछ नहीं चाहता; मुझे शुद्धा भक्ति दो । यह लो अपनी शुचिता और यह लो अपनी अशुचिता; मुझे शुचिता-अशुचिता नहीं चाहिए, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"
नन्द लाल बोस - क्या वे कानून रद्द कर सकते हैं ?
'पूर्णब्रह्म" श्रीरामकृष्ण - " यह क्या ! वे ईश्वर हैं, वे सब कुछ कर सकते हैं । जिन्होंने कानून बनाया है, वे कानून बदल भी सकते हैं ।
"परन्तु यह बात तुम कह सकते हो । तुम्हारी शायद भोग करने की इच्छा हैं, इसीलिए तुम ऐसी बात कह रहे हो । यह एक मत है भी, - ठीक है; भोग की शान्ति बिना हुए चैतन्य नहीं होता; परन्तु भोग भी क्या करोगे ? - कामिनी और कांचन का भोग ? - वह तो अभी है, अभी नहीं; क्षणिक । कामिनी और कांचन में है ही क्या ? छिलका और गुठली ही है - खाने पर अम्लशूल होता है । सन्देश निगलने के साथ ही स्वाद भी गायब !”
नन्द लाल बोस चुप हो रहे । फिर कहा – ‘यह सब कहते तो हैं, परन्तु क्या ईश्वर पक्षपात करनेवाले हैं ? अगर उनकी कृपा से होता है, तो कहना पड़ता है कि ईश्वर में पक्षपात है ।’
श्रीरामकृष्ण - वे स्वयं ही सब कुछ हैं । ईश्वर स्वयं ही जीव जगत् हुए हैं । जब पूर्ण ज्ञान होगा, तब यह बोध होगा । वे मन, बुद्धि और देह हुए हैं - चौबीसों तत्त्व सब वे ही हुए हैं । वे पक्षपात करें भी तो किस पर करें ?
नन्द लाल बोस - अनेक रूपों का धारण उन्होंने क्यों किया ? कोई ज्ञानी और कोई अज्ञानी क्यों है ?
श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा ।
अतुल - केदार ने अच्छा कहा है । एक ने उनसे पूछा, 'ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ?' इस पर वे बोले, "जिस मीटिंग में ईश्वर ने सृष्टि बनाने का ठहराया, उस मीटिंग में मैं हाजिर नहीं था ।' (सब हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण - उनकी इच्छा ।
यह कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे --
सकलि तोमार इच्छा, इच्छामयी तारा तुमि।
तोमार कर्म तुमि कर माँ, लोके बोले करि आमि।
पङ्के बद्ध करो करि, पंगुरे लँघाओ गिरी।
कारे दाओ माँ ! ब्रह्मपद, कारे कर अधोगामी।।
आमि यन्त्र तुमि यन्त्री, आमि घर तुमि घरनी।
आमि रथ तुमि रथी, जेमन चलाओ तेमनी चली।।
‘सब तुम्हारी ही इच्छा है, तुम इच्छामयी तारा हो । माँ, अपने कर्म तुम खुद करती हो, परन्तु लोग कहते हैं कि मैं करता हूँ । ऐ काली, हाथी को तो तुम दलदल में फँसा देती हो और किसी पंगु से गिरि का उल्लंघन करा देती हो । किसी को तुम ब्रह्मपद दे देती हो और किसी को तुम 'अधोगामी' कर देती हो ।'
“वे आनन्दमयी हैं । इसी सृष्टि, स्थिति और प्रलय की लीला कर रही हैं । जीव असंख्य हैं, उनमें दो ही एक मुक्त हो रहे हैं, उससे भी उन्हें आनन्द होता है । कोई संसार में में बँध रहा है, कोई मुक्त हो रहा है ।"
नन्द लाल बोस - उनकी इच्छा तो है, परन्तु इधर तो जान निकली जा रही है ।
श्रीरामकृष्ण - 'तुम लोग' हो कहाँ ? वे ही सब कुछ हुए हैं। जब तक उन्हें तुम नहीं समझ सकते हो, तभी तक 'मैं मैं' कर रहे हो ।
"सब लोग अगर उन्हें जान लें तो तर जायँ । परन्तु बात यह है कि किसी को दिन निकलते ही खाने को मिल जाता है, कोई दोपहर के समय भोजन पाता है और कोई शाम को; परन्तु खाना सभी को मिल जाता है - कोई बिना खाये हुए नहीं रहता । इसी तरह अपने स्वरूप का ज्ञान सभी प्राप्त करेंगे ।"
पशुपति [(पशुपति बोस) — नंदलाल बोस के भाई।] - जी हाँ, जान पड़ता है, वे ही सब कुछ हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण - मैं क्या हूँ, इसे जरा खोजो तो । क्या मैं हाड़ हूँ ? माँस, खून या आँत हूँ ? 'मैं' को खोजते ही खोजते 'तुम' आ जाता है; अर्थात् अन्दर में उस ईश्वर की शक्ति के सिवा और कुछ नहीं है । 'मैं' नहीं है, 'वे' हैं (पशुपति बोस के प्रति) तुममें अभिमान नहीं है - इतना ऐश्वर्य होकर भी ।
" 'मैं' का सम्पूर्ण त्याग नहीं होता । यह सब जाने का नहीं तो रहने दो इसे ईश्वर का दास बना । मैं ईश्वर का भक्त हूँ, ईश्वर का दास हूँ, ईश्वर का पुत्र हूँ, यह अभिमान अच्छा है । जो 'मैं' कामिनी और कांचन में फँसता है वह कच्चा 'मैं' है, उसी का त्याग करना चाहिए ।"
अहंकार की यह व्याख्या सुनकर गृहस्वामी और दूसरे लोग बहुत प्रसन्न हुए ।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञान के लक्षण हैं । पहला यह कि अभिमान न रह जायेगा । दूसरा, स्वभाव शान्त बना रहेगा । तुममें दोनों लक्षण हैं । अतएव तुम पर ईश्वर का अनुग्रह है ।
"अधिक ऐश्वर्य (बहुत अधिक धन) के होने पर ईश्वर को लोग भूल जाते हैं, ऐश्वर्य का स्वभाव ही ऐसा है । यदु मल्लिक को बहुत ऐश्वर्य हुआ है, वह आजकल ईश्वर की बात ही नहीं करता । पहले ईश्वर-चर्चा खूब किया करता था ।
"कामिनी और कांचन एक तरह की शराब है । अधिक शराब पीने पर फिर चाचा और दादा का विचार नहीं रह जाता । उन्हें ही कह डालता है - 'तेरी ऐसी की तैसी ।’ मतवाले को बड़े-छोटे का ज्ञान नहीं रहता ।"
नन्द बसु - हाँ, यह तो ठीक है ।
पशुपति - ये सब क्या ठीक हैं ? स्पिरिच्युएलिज्म (अध्यत्मविद्या) , थियोसफी (ब्रह्मविद्या), सूर्यलोक, चन्द्रलोक, नक्षत्रलोक ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं भाई, मैं नहीं जानता । इतना हिसाब-किताब क्यों ? आम खाओ । आम के कितने पेड़ हैं, कितनी लाख डालियाँ हैं, कितने करोड़ पत्ते हैं, इसके हिसाब लगाने की क्या जरूरत ? मैं बगीचे में आम खाने के लिए आया करता हूँ, आम खाकर चला जाऊँगा ।
"एक बार भी अगर चैतन्य जाग्रत हो, अगर एक बार भी ईश्वर को कोई समझ सके, तो दूसरी व्यर्थ बातों के जानने की इच्छा भी नहीं होती । विकार के होने पर लोग बहुत कुछ बका करते हैं - 'अरे ! मैं तो पाँच सेर चावल का भात खाऊँगा, मैं दस घड़ा पिऊँगा रे !' - यह सब । वैद्य कहता है - 'खायेगा ! अच्छा खा लेना - यह कहकर वह तम्बाकू पीने लगता है । विकार अच्छा हो जाने पर, रोगी जो कुछ कहता है उसकी ओर वह ध्यान देता है ।"
पशुपति - जान पड़ता है, हम लोगों का विकार चिरकाल तक बना रहेगा ।
श्रीरामकृष्ण - क्यों, ईश्वर पर मन रखो, चैतन्य प्राप्त होगा।
पशुपति (सहास्य) - हम लोगों का ईश्वर से योग क्षणिक है । तम्बाकू पीने में जितनी देर लगती है, बस उतनी ही देर तक । (सब हँसते हैं)
श्रीरामकृष्ण - तो क्या हुआ, थोड़ी देर के लिए भी उनसे योग हो गया तो मुक्ति होगी ही ।
"अहिल्या ने कहा, 'राम, चाहे शूकर-योनि में जन्म हो, अथवा और कहीं, ऐसा करो कि तुम्हारे श्रीचरणों में मन लगा रहे - शुद्धा भक्ति बनी रहे ।’
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
*पाप तथा परलोक, मृत्युकाल के समय ईश्वर-चिन्ता*
"नारद ने कहा, 'राम ! तुमसे मैं और कोई वर नहीं चाहता । मुझे बस शुद्धा भक्ति दो । और यह आशीर्वाद करो कि फिर कभी तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में बद्ध न होऊँ ।’ उनसे आन्तरिक प्रार्थना करने पर उन पर मन भी लगता है और शुद्धा भक्ति भी उनके श्रीचरणों में होती है ।
“ ‘क्या हमारा विकार दूर होगा ? - हम पापी जो हैं,' यह सब बुद्धि दूर करो। (नन्द बसु से) चाहिए यह भाव कि एक बार हमने उनका नाम लिया है, अब हममें पाप कहाँ रह गया ?"
नन्द बसु - तो क्या परलोक है ? और क्या पाप का शासन?
श्रीरामकृष्ण - तुम आम खाते तो जाओ । इन सब बातों के हिसाब से तुम्हें क्या काम ? - परलोक है या नहीं - वहाँ क्या होता है, क्या नहीं - इन सब बातों से क्या प्रयोजन ?
“आम खाओ, आम की जरूरत है - उनमें भक्ति की जरूरत है ।"
नन्द बसु - 'आम का पेड़' है कहाँ ? आम मिलता कहाँ है ?
श्रीरामकृष्ण – पेड़ ! वे अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं । वे तो हैं ही - वे नित्य हैं । एक बात और - वे कल्पतरु हैं ।
'काली कल्पतरु मूले रे मन, चारि फल कूड़ाये पाबि !'
"उस माँ काली रूपी कल्पतरु के नीचे तुम्हें चारों फल मिलेंगे । "
"तुम्हें किन्तु कल्पतरु (अपने इष्टदेव अवतार-वरिष्ठ) के पास जाकर प्रार्थना करनी होगी, तभी पेड़ से फल गिरेंगे। जब देखोगे, पेड़ के नीचे फल है, तब बीन लेना । चार फल हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ।
“ज्ञानी मुक्ति चाहते हैं, भक्त भक्ति चाहते हैं - अहेतुकी भक्ति, वे धर्म, अर्थ, काम नहीं चाहते ।
श्रीरामकृष्ण - “परलोक की बात कहते हो । गीता का मत है, मृत्यु के समय जो कुछ सोचोगे, वहीं होओगे । राजा भरत ने हरिण-हरिण कहकर दुःख में देह छोड़ी थी । दूसरे जन्म में वे हरिण हुए भी थे । इसीलिए जप, ध्यान और पूजा आदि का दिन-रात अभ्यास किया जाता है, इस तरह अभ्यास के गुण से मृत्यु के समय ईश्वर की याद आती है । इस तरह से अगर मृत्यु होती है तो ईश्वर का स्वरूप मिलता है ।
केशव सेन ने भी परलोक की बात पूछी थी । मैंने केशव से कहा, 'इन सब बातों का हिसाब लगाकर क्या करोगे ? फिर कहा, 'जब तक ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक बार बार संसार में आना-जाना होगा । कुम्हार मिट्टी के बासन धूप में सुखाता है । बकरी या गाय के पैरों से दबकर जो फूट जाते हैं उनमें जो पक्के बासन होते हैं उन्हें तो कुम्हार फेंक देता है, परन्तु कच्चे बासनों को वह फिर से गढ़ता है ।’ "
(३)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏ज्ञानमार्ग तथा शुद्धा भक्ति🔱🙏
अब तक गृहस्वामी ने श्रीरामकृष्ण के जलपान के लिए कोई व्यवस्था नहीं की थी । तब श्रीरामकृष्ण ने नन्द बोस से स्वयं कहा – “देखो , तुम्हें मुझे कुछ 'खाने के लिये' देना चाहिए। इसलिए एक दिन मैंने यदु की माँ से मैंने कहा,' कुछ खाने को दो।' नहीं तो गृहस्थ का कहीं अमंगल न हो। "
गृहस्वामी (नन्दलाल बोस) ने कुछ मिष्टान्न मँगाया । श्रीरामकृष्ण मिष्टान्न खा रहे हैं । नन्द बसु तथा अन्य लोग श्रीरामकृष्ण की ओर एकदृष्टि से ताक रहे हैं । देख रहे हैं, वे क्या करते हैं ।
श्रीरामकृष्ण हाथ धोयेंगे । जिस तश्तरी में मिठाई दी गयी थी वह दरी पर बिछी हुई चद्दर पर रखी थी, इसलिए श्रीरामकृष्ण वहीं अपने हाथ नहीं धो सके । हाथ धोने के लिए एक आदमी एक बरतन ले आया ।
पीकदान रजोगुण का चिह्न है । श्रीरामकृष्ण देखकर कह उठे, "ले जाओ - ले जाओ ।" गृहस्वामी ने कहा, "हाथ धोइये।"
श्रीरामकृष्ण अन्यमनस्क हैं । कहा, "क्या ? - हाथ धोऊँगा ।"
श्रीरामकृष्ण बरामदे के दक्षिण ओर उठ गये । मणि को हाथ पर पानी डालने के लिए आज्ञा की । मणि गडुए से पानी छोड़ने लगे । श्रीरामकृष्ण अपनी धोती में हाथ पोंछकर फिर बैठने की जगह पर आ गये । समागत सज्जनों के लिए तश्तरी में पान लाये गये थे । उसी में के पान श्रीरामकृष्ण के पास ले जाये गये । उन्होंने पान नहीं लिया ।
[ইষ্টদেবতাকে নিবেদন — জ্ঞানভক্তি ও শুদ্ধাভক্তি ]
नन्द वसु (श्रीरामकृष्ण से) - एक बात कहूँ ?
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) – क्या ?
नन्द बसु - पान आपने क्यों नहीं खाया ? सब तो ठीक हुआ, इतना यह अन्याय हो गया ।
श्रीरामकृष्ण - इष्ट को देकर खाता हूँ । यह एक अपना भाव है ।
नन्द बसु - वह तो इष्ट ही में जाता ।
श्रीरामकृष्ण - ज्ञानमार्ग और चीज है, और भक्तिमार्ग दूसरी ।
ज्ञानी के मत से सभी चीजें ब्रह्मज्ञान की दृष्टि से ली जा सकती हैं, लेकिन भक्तिमार्ग में कुछ भेद-बुद्धि होती है। [दासोऽहं भाव ?]
नन्द बसु - तो यह दोष हुआ है ।
श्रीरामकृष्ण - यह एक मेरा भाव है । तुम जो कुछ कहते हो ठीक है, शास्त्रों में उसका भी समर्थन किया गया है।
श्रीरामकृष्ण गृहस्वामी को चापलूसों के सम्बन्ध में सावधान कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - एक बात के बारे में सावधान रहना । चापलूस अपने स्वार्थ की ताक में रहते हैं । (प्रसन्न के पिता से) आप क्या यहाँ रहते हैं ?
प्रसन्न के पिता - जी नहीं, परन्तु इसी मुहल्ले में रहता हूँ ।
श्रीरामकृष्ण (बहुत विनम्रता से): "नहीं, कृपया आप हुक्के का आनंद लें। मुझे अब धूम्रपान करने का मन नहीं कर रहा है।"
नन्द बसु का मकान बहुत बड़ा है, इस पर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "यदु का मकान इतना बड़ा नहीं है । इसीलिए उससे उस दिन मैंने कहा ।"
नन्द - हाँ, उन्होंने (जोड़ासाखों में) एक नया मकान बनवाया है ।
श्रीरामकृष्ण नन्द वसु (गृहस्थ) का उत्साह बढ़ा रहे हैं, कह रहे हैं – "तुम संसार में रहकर ईश्वर की ओर मन रखे हुए हो, क्या यह कुछ कम बात है ? जिसने संसार का त्याग कर दिया है वह तो ईश्वर को पुकारेगा ही । उसमे बहादुरी क्या है ? जो संसार में रहकर उन्हें पुकारता है, धन्य वही है।
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏 हनुमान में ज्ञान और भक्ति दोनों थे, नारद में शुद्धा भक्ति थी 🔱🙏
श्रीरामकृष्ण (नन्द लाल बोस के प्रति) "किसी एक भाव का आश्रय लेकर उन्हें पुकारना चाहिए । हनुमान में ज्ञान और भक्ति दोनों थे, नारद में शुद्धा भक्ति थी ।
"राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम किस भाव से मेरी पूजा करते हो ?" हनुमान ने कहा, 'कभी तो देखता हूँ, तुम पूर्ण हो और मैं अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो और मैं दास हूँ; और राम, जब तत्व का ज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं 'मैं हो और मैं ही 'तुम' हूँ ।’
[^* देहबुद्ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥]
नारद का माया दर्शन -??
"राम ने नारद से कहा, 'तुम वर लो ।' नारद ने कहा, 'राम, यह वर दो कि तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो जिससे फिर तुम्हारी भुवन-मोहिनी माया से मुग्ध न होऊँ ।’ "
श्रीरामकृष्ण अब उठनेवाले हैं ।
श्रीरामकृष्ण (नन्द बसु से) - गीता का मत है, बहुत-से आदमी जिसे मानते और पूजते हैं उसमें ईश्वर की विशेष शक्ति है । तुममें ईश्वर की शक्ति है ।
नन्द बसु - शक्ति सभी मनुष्यों में बराबर है ।????
श्रीरामकृष्ण (विरक्ति से) - यही तुम लोगों की एक रट है । सब आदमियों की शक्ति कभी बराबर हो सकती है ? विभुरूप से वे सर्वभूतों में विराजमान हैं, यह ठीक है, परन्तु शक्ति की विशेषता है।
"यही बात विद्यासागर ने भी कही थी । उसने कहा था, 'क्या उन्होंने किसी को अधिक शक्ति दी है और किसी को कम ?' तब मैंने कहा, 'अगर शक्ति की भिन्नता न रहती, तो तुम्हें हम लोग देखने क्यों आते ? क्या तुम्हारे सिर पर दो सींग हैं ?"
श्रीरामकृष्ण उठे । साथ-साथ सब भक्त भी उठे । पशुपति साथ साथ दरवाजे तक आये ।
(४)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱 ब्राह्मणी के मकान में श्रीरामकृष्ण 🔱
प्रेममय प्रभु श्रीरामकृष्ण बागबाजार की एक शोकातुरा ब्राह्मणी के यहाँ आये हुए हैं । मकान पुराने ढंग का है, पर पक्का है, इसलिए छत पर ही बैठने का प्रबन्ध किया गया है । घर में प्रवेश करने के बाद श्रीरामकृष्ण बाईं ओर स्थित गौशाला को पार कर अपने भक्तों के साथ छत पर पहुँचे और स्थान ग्रहण किया। छत पर कतार बाँधकर कुछ लोग खड़े हैं, कुछ लोग बैठे हुए हैं । सब उत्सुक हैं कि श्रीरामकृष्ण को कब देखें ।
ब्राह्मणी दो बहनें हैं, दोनों विधवा हैं, घर में उनके भाई सपत्नीक रहते हैं । ब्राह्मणी के एक ही कन्या थी । उसके निधन से वह अत्यन्त दुःखी रहा करती है । आज श्रीरामकृष्ण पधारेंगे, यह सुनकर दिन भर से वह उनके स्वागत की तैयारी कर रही है । जब तक श्रीरामकृष्ण नन्द बसु के यहाँ थे तब तक ब्राह्मणी भीतर-बाहर कर रही थी कि कब वे आयें । आने में विलम्ब होते देख वह निराश हो रही थी, सोंच रही थीं -लगता है अब ठाकुर नहीं आयेंगे।
भक्तों के साथ आकर छत पर बैठने के स्थान पर श्रीरामकृष्ण ने आसन ग्रहण किया । पास चटाई पर मास्टर, नारायण, योगीन्द्र सेन, देवेन्द्र तथा योगीन बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद छोटे नरेन्द्र आदि बहुत से भक्त आ गये । ब्राह्मणी की बहन छत पर आकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके कह रही है - "दीदी नन्द बसु के यहाँ खबर लेने के लिए अभी थोड़ी देर हुई, गयी हैं । आती ही होंगी ।"
नीचे एक शब्द सुनकर उसने कहा, 'वह - दीदी आयीं ।' यह कहकर वह देखने लगी, परन्तु ब्राह्मणी नहीं आयी थी ।
श्रीरामकृष्ण प्रसन्नतापूर्वक भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं ।
मास्टर (देवेन्द्र से) - कितना सुन्दर दृश्य है ! लड़के बच्चे, पुरुष, स्त्री सब लोग कतार बाँधकर खड़े हुए हैं । सब लोग इन्हें देखने के लिए कितने उत्सुक हो रहे हैं - और इनकी बात सुनने के लिए ।
देवेन्द्र - (श्रीरामकृष्ण से) - मास्टर महाशय कहते हैं, 'नन्द बसु के वहाँ से यह जगह अच्छी है, - इन लोगों में कितनी भक्ति है !’
श्रीरामकृष्ण हँस रहे हैं ।
अब ब्राह्मणी की बहन कह रही है, 'दीदी वह आ रही है ।’
ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके, अपने-आपे में न थी ! कुछ सोच न सकी कि क्या कहे ।
वह अधीर होकर कहने लगी - "अरी, देख, इतना आनन्द मैं कहाँ रखूँ ? - बताओ री - जब मेरी चण्डी आती थी, सिपाहियों को साथ लेकर, और वे लोग रास्ते पर पहरा देते थे, तब भी तो मुझे इतना आनन्द नहीं हुआ - अरी, अब मुझे चण्डी के देहत्याग का दुःख जरा भी नहीं है ।
मैंने सोचा था, जब 'वे ' (अर्थात् श्री रामकृष्ण) नहीं आये, तब जो कुछ आयोजन मैंने किया, सब गंगा में फेंक दूँगी - फिर कभी उनसे बोलूँगी भी नहीं – जहाँ आयेंगे, आड़ से एक बार देख भर लूँगी, बस चली आऊँगी ।
"जाऊँ, सब से कहूँ, तुम आकर मेरा सुख देख जाओ, - जाऊँ योगीन से कहूँ, मेरा सुख देख जा –”
मारे आनन्द के अधीर होकर ब्राह्मणी फिर कहने लगी - "खेल (लाटरी) में एक रुपया लगाकर किसी कुली को एक लाख रुपये मिले थे । एक लाख रुपये मिले हैं, सुनकर मारे आनन्द से वह मर गया था - सचमुच मर गया था ! – अरी ! मेरी भी तो वही दशा हो गयी है । तुम लोग सब आशीर्वाद दो, नहीं तो मैं भी सचमुच मर जाऊँगी ।"
मणि ब्राह्मणी की व्याकुलता और भाव की अवस्था देखकर मुग्ध हो गये हैं । वे उसके पैरों की धूल लेने के लिए बढ़े । ब्राह्मणी ने कहा, 'अजी, यह क्या ?' - उसने मणि को भी बदले में प्रणाम किया।
ब्राह्मणी भक्तों को आये हुए देखकर मारे आनन्द के कह रही है - "तुम सब लोग आये हो, छोटे नरेन्द्र को भी मैं ले आयी हूँ, नहीं तो हँसेगा कौन ?"
ब्राह्मणी इसी तरह की बातें कह रही है, इसी समय उसकी बहन ने आकर कहा, 'दीदी, तुम जरा नीचे भी तो आओ, हम लोग अकेले क्या क्या करें ?'
ब्राह्मणी आनन्द में अपने को भूली हुई है । श्रीरामकृष्ण तथा भक्तों को देख रही है । उन्हें अब छोड़कर जा नहीं सकती ।
इस तरह की बातों के पश्चात् बड़ी भक्ति से ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण को एक दूसरे कमरे में ले गयी और खाने के लिए अनेक मिष्टान्न आदि दिये । भक्तों को भी छत पर बैठाकर खिलाया ।
रात के आठ बजे । श्रीरामकृष्ण बिदा हो रहे हैं । नीचे के मँजले में कमरे के साथ बरामदा भी है । बरामदे से पश्चिम की ओर आँगन में आया जाता है, फिर दाहिनी ओर गोओं के रहने की जगह छोड़कर सदर दरवाजे को रास्ता है । उस समय ब्राह्मणी जोर से पुकार रही थी - 'ओ बहू, जल्दी आ - पैरों की धूल ले ।' बहू ने प्रणाम किया । ब्राह्मणी के एक भाई ने भी आकर प्रणाम किया ।ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण से कह रही है - 'यह एक दूसरा भाई है - अनाड़ि है ।
'श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'नहीं, सब भलेमानस हैं ।'
एक व्यक्ति साथ साथ दिया दिखाते हुए आ रहे हैं, आते आते एक जगह प्रकाश ठीक नहीं पहुँचा, तब छोटे नरेन्द्र ऊँचे स्वर से कहने लगे – ‘दिया दिखाओ – दिया दिखाओ - यह न सोचो दिया दिखाना अब बस है ।' (सब हँसते हैं)
अब गौओं की जगह आयी । ब्राह्मणी श्रीरामकृष्ण से कहती है, 'यहाँ मेरी गौएँ रहती हैं ।' श्रीरामकृष्ण वहाँ जरा खड़े हो गये, और चारों ओर भक्तगण । मणि ने भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया और पैरों की धूल ली । अब श्रीरामकृष्ण गनू की माँ के घर जायेंगे ।
(५)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏गनू की माँ के मकान में श्रीरामकृष्ण*🔱🙏
गनू की माँ के बैठकखाने में श्रीरामकृष्ण बैठे हुए हैं । कमरा एक मँजले पर है, बिलकुल रास्ते पर। उस कमरे में बजानेवालों का अखाड़ा (Concert) लगा करता है । कुछ नवयुवक श्रीरामकृष्ण के आनन्द के लिए वाद्ययन्त्र लेकर बीच बीच में बजाते भी हैं ।
रात के साढ़े आठ बजे का समय होगा । आज आषाढ़ की कृष्णा प्रतिपदा (पूर्णिमा के बाद पहला दिन) है । चाँदनी में आकाश, गृह, राजपथ, सब कुछ प्लावित हो रहा है । श्रीरामकृष्ण के साथ भक्तगण आकर उसी कमरे में बैठे । साथ साथ ब्राह्मणी भी आयी हुई है, वह कभी घर के भीतर जा रही है, कभी बाहर बैठकखाने के दरवाजे के पास खड़ी होती है ।
मुहल्ले के कुछ लड़के झरोखों पर चढ़कर श्रीरामकृष्ण को झाँककर देख रहे हैं । मुहल्ले भर के लड़के, बूढ़े और जवान श्रीरामकृष्ण के आगमन की बात सुनकर उनके दर्शन करने के लिए आये हैं ।
झरोखे पर बच्चों को देखकर छोटे नरेन्द्र कह रहे हैं, 'अरे, तुम लोग वहाँ क्यों खड़े हो, जाओ अपने अपने घर ।' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'नहीं, नहीं रहने दो ।' श्रीरामकृष्ण बीच बीच में 'हरि ॐ - हरि ॐ' कह रहे हैं ।
दरी पर एक आसन बिछाया गया है । श्रीरामकृष्ण उसी पर बैठे हैं । वाद्य बजानेवाले लड़कों से गाने के लिए कहा गया । उनके लिए बैठने की सुविधा नहीं है । श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अपने पास दरी पर बैठने के लिए बुलाया । श्रीरामकृष्ण कहते हैं, ‘इसी पर आकर बैठो मैं इसे समेटे लेता हूँ ।’ यह कहकर उन्होंने अपना आसन समेट लिया । नवयुवक गा रहे हैं -
"केशव कुरु करुणा दीने कुंजकाननचारी ।
माधव मनोमोहन मोहन मुरलीधारी।
(हरिबोल, हरिबोल, हरिबोल, मन आमार।।)
ब्रजकिशोर, कालीयहर कातर भयभंजन,
नयन -बाँका, बाँका -शिखिपाखा, राधिका-हृदिरंजन,
गोबर्धन- धारण, वनकुसुम-भूषण, दामोदर कंस-दर्पहारी।
श्याम रास-रसबिहारी।
(हरिबोल, हरिबोल, हरिबोल, मन आमार।।)
श्रीरामकृष्ण – अहा ! कितना मधुर गाना है ! – बेला (violin) भी कितना सुन्दर बज रहा है ! और गाना भी कैसा स्वरयुक्त हो रहा है ! एक लड़का फ्लुट (बंसी) बजा रहा था । उसकी ओर तथा एक दूसरे लड़के की ओर उँगली से इशारा करके श्रीरामकृष्ण ने कहा, ‘ये इनके जोड़ीदार हैं ।’
अब वाद्य बजने लगे । श्रीरामकृष्ण आनन्दित होकर कह रहे हैं - "वाह ! कितना सुन्दर है !" एक लड़के की ओर उँगली से इशारा करके कह रहे हैं - "इनको सब तरह का बाजा बजाना आता है।"मास्टर से कह रहे हैं - "ये सब बड़े अच्छे आदमी हैं ।"
बालक-भक्त जब खुद गा-बजा चुके तब भक्तों से उन्होंने (श्रीरामकृष्ण ने) कहा, 'आप लोग भी कुछ गाइये ।' ब्राह्मणी खड़ी हुई है । उसने दरवाजे के पास ही से कहा, 'ये लोग कोई गाना नहीं जानते । एक हैं महिनबाबू, परन्तु उनके (श्रीरामकृष्ण के) सामने वे भी नहीं गायेंगे ।'
एक बालक-भक्त - क्यों मैं तो अपने बाबूजी के सामने गा सकता हूँ ।
छोटे नरेन्द्र (जोर से हँसकर) - इतनी दूर ये नहीं बढ़ सके ।
सब हँस रहे हैं । कुछ देर बाद ब्राह्मणी ने आकर कहा, "आप भीतर आइये ।" श्रीरामकृष्ण ने पूछा - "क्यों ?"
ब्राह्मणी - वहाँ जलपान की व्यवस्था की गयी है ।
श्रीरामकृष्ण - यहीं न ले आओ ।
ब्राह्मणी - गनू की माँ ने कहा है, 'घर में ले आओ, पैरों की धूल पड़ जायेगी तो मेरा घर वाराणसी हो जायेगा, इस घर में मरूँगी तो फिर किसी बात की (लोक-परलोक) चिन्ता न रहेगी । श्रीरामकृष्ण घर के लड़कों के साथ मकान के भीतर गये ।
भक्तगण चाँदनी में टहलने लगे । मास्टर और विनोद घर के दक्षिण और सदर रास्ते पर -अपने प्रेममय गुरुदेव के जीवन में घटित घटनाओं के विषय में बात-चीत करते हुए टहल रहे हैं ।
(६)
[(28 जुलाई, 1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-118]
🔱🙏गुह्य कथा- 'तीनों एक’🔱🙏
श्रीरामकृष्ण बलराम के घर लौट आये हैं । बलराम के बैठकखाने के पश्चिम ओरवाले कमरे में विश्राम कर रहे हैं, अब वे सोयेंगे । गनू की माँ के घर से लौटते हुए बड़ी रात हो गयी है । रात के पौने ग्यारह बजे होंगे ।
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - "योगीन, जरा पैरों पर हाथ तो फेर दो ।" पास ही मास्टर भी बैठे हुए हैं।योगीन पैरों पर हाथ फेर रहे हैं, इतने में ही श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'मुझे भूख लगी है, थोड़ीसी सूजी का हलवा खाऊँगा ।
ब्राह्मणी यहाँ भी साथ-साथ आयी हुई है । ब्राह्मणी के भाई तबला बहुत अच्छा बजाते हैं । श्रीरामकृष्ण ब्राह्मणी को देखकर फिर कह रहे हैं, 'अगली बार नरेन्द्र या किसी दूसरे गवैये के आने पर इनके भाई भी बुला लिये जायेंगे ।’
श्रीरामकृष्ण ने थोड़ी सी सूजी खायी । क्रमशः योगीन आदि भक्तगण कमरे से चले गये । मणि श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ फेर रहे हैं, श्रीरामकृष्ण उनसे बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - अहा, इन्हें (ब्राह्मणी आदि को) कितना आनन्द हुआ है !
मणि - कैसे आश्चर्य की बात है, ईसा मसीह के समय भी ऐसा ही हुआ था । वे भी दो बहनें थीं - परम भक्त मारथा (Martha) और मेरी (Mary) ।
श्रीरामकृष्ण(आग्रह से) - उनकी कहानी क्या है, जरा कहो तो ।
MASTER (eagerly): "Tell me the story."
मणि - ईशू उनके यहाँ भक्तों के साथ बिलकुल इसी तरह गये थे । एक बहन उन्हें देखकर भाव और आनन्द के पारावार में मग्न हो गयी थी । यह मुझे गौरांग के बारे में एक गीत की याद दिलाती है: 'गौर के रूप-सागर में मेरे नयन डूब गये, फिर लौटकर मेरे पास न आये; मेरा मन भी, तैरना भूलकर, एकदम तल में पैठ गया ।'
"दूसरी बहन अकेली जलपान का प्रबन्ध कर रही थी । उसने अपनी बहन से कोई मदद न पा ईशू के पास शिकायत की, कहा, 'प्रभु, देखिये तो, दीदी का यह कितना बड़ा अन्याय है ! आप यहाँ अकेली चुपचाप बैठी हुई हैं और मैं अकेली यह सब काम कर रही हूँ !’
"तब ईशू ने कहा, 'तुम्हारी दीदी धन्य हैं, क्योंकि मनुष्यजीवन में जो कुछ चाहिए वह उन्हें हो गया है ।’ "
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, यह सब देखकर तुम्हें क्या जान पड़ता है ?
मणि – मुझे जान पड़ता है, ईशू, चैतन्य और आप एक ही हैं ।
श्रीरामकृष्ण – एक ! एक ! एक ही तो ! वे (ईश्वर) – देखते नहीं हो – इसमें किस तरह से हैं !
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने अपने शरीर की ओर उँगली से इशारा किया ।
मणि - उस दिन आप इस अवतीर्ण होने की बात को बहुत अच्छी तरह समझा रहे थे ।
श्रीरामकृष्ण - किस तरह, कहो तो ।
मणि -आपने हमें क्षितिज और उससे आगे तक फैले एक क्षेत्र की कल्पना करने के लिए कहा था - जैसे खूब लम्बा-चौड़ा मैदान पड़ा हुआ है । सामने चारदीवार है । इसलिए यह विस्तृत मैदान हमें देखने को नहीं मिलता । लेकिन, उस चारदीवार में एक गोलाकार छेद है । उस छेद से उस अनन्त तक विस्तृत मैदान का कुछ अंश दिखायी पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण - कहो भला वह छेद क्या है ?
मणि - वह छेद आप हैं; आपके भीतर से सब दीख पड़ता है, - यह दिगन्तव्यापी मैदान भी दिखायी पड़ता है ।
श्रीरामकृष्ण सन्तुष्ट होकर मणि की पीठ ठोंकने लगे और कहा, 'तुमने इसे (सत्य नारायण भगवान को) समझ लिया, अच्छा हुआ ।"
मणि - उसे समझना सचमुच बड़ा कठिन है । पूर्ण ब्रह्म होते हुए भी उतने के भीतर किस तरह रहते हैं, यह नहीं समझ में आता ।
[ केला का पत्ता सत्य नारायण पूजा में केले के पत्ते से बने मण्डप में शालिग्राम भगवान को रखते हैं, केला नारायण पूजा में प्रमुख प्रसाद भी है, क्योंकि सत्य नारायण भगवान केले की तरह कदली स्तम्भ से बिना बीज के ही प्रकट होते हैं। कदली को स्वर्ग फल कहा जाता है जो 'कल्पतरु ' जैसा सबसे शुद्ध पेड़ माना जाता है। इसीलिए आराध्य देवी की प्रतिमा बनाने में इसी वृक्ष के तनों व पत्तों का इस्तेमाल होता आ रहा है।]
श्रीरामकृष्ण देव ने एक लोकभजन को उद्धृत करते हुए कहा - " उसे किसी ने न पहचाना, वह पागल की तरह, किसी जीवों के घरों में घूम रहा है ।"
मणि - और आपने ईशू की बात कही थी ।
श्रीरामकृष्ण - क्या-क्या ?
मणि - यदु मल्लिक के बगीचे में ईशू की तस्बीर देखकर भावसमाथि हुई थी, आपने देखा था - ईशू की मूर्ति तस्बीर से निकलकर आपमें आकर लीन हो गयी ।
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप हैं । फिर मणि से कह रहे हैं - 'गले में यह जो हुआ है, सम्भव है इसका कोई अर्थ हो । यदि यह न होता तो मैं सब स्थानों में जाता, गाता और नाचता, और इस प्रकार स्वयं को खिलवाड़ -सा बना लेता ।'
श्रीरामकृष्ण द्विज की बात कह रहे हैं । कहा 'द्विज नहीं आया ।'
मणि - मैंने तो आने के लिए कहा था । आज आने की बात भी थी, परन्तु क्यों नहीं, आया, कुछ समझ में नहीं आता ।
श्रीरामकृष्ण - उसमें अनुराग खूब है । अच्छा, वह यहाँ का (सांगोपांग में से) कोई एक होगा, न ?
मणि - जी हाँ, होगा जरूर । नहीं तो इतना अनुराग फिर कैसे होता ?
मणि मसहरी के भीतर श्रीरामकृष्ण को पंखा झल रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण करवट बदलकर फिर बातचीत करने लगे । आदमी के भीतर अवतीर्ण होकर वे लीला करते हैं, यही बात हो रही है ।
श्रीरामकृष्ण - पहले मुझे रूपदर्शन नहीं होता था, ऐसी अवस्था भी हो चुकी है । इस समय भी देखते नहीं हो ? रूपदर्शन घटता जा रहा है ।
मणि - लीलाओं में नरलीला मुझे अधिक पसन्द है ।
श्रीरामकृष्ण - तो बस ठीक है । - और तुम मुझे देखते ही हो !
उपरोक्त कथन से क्या श्रीरामकृष्ण का यही संकेत है कि ईश्वर नररूप में अवतीर्ण होकर इस शरीर में लीला कर रहे हैं ?
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