🔱 *परिच्छेद~ ११०
बलराम बसु के घर में
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(१)
श्रीरामकृष्ण तथा त्याग की पराकाष्ठा
आज फाल्गुन की कृष्णा दशमी है, बुधवार, ११ मार्च, १८८५ । आज दस बजे के लगभग दक्षिणेश्वर से आकर बलराम बसु के यहाँ श्रीरामकृष्ण ने जगन्नाथजी का प्रसाद ग्रहण किया । उनके साथ लाटू आदि भक्त भी हैं ।
बलराम, तुम धन्य हो ! आज तुम्हारा ही घर श्रीरामकृष्ण का प्रधान कार्य-क्षेत्र हो रहा है । यहाँ श्रीरामकृष्ण कितने ही नये नये भक्तों को आकर्षित कर प्रेमरज्जु से बाँध रहे हैं, भक्तों के साथ कितना नृत्य करते हैं, गाते हैं । मानो श्रीचैतन्यदेव ने श्रीवास के भवन में प्रेम की हाट बसा दी हो !
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के कालीमन्दिर में बैठे हुए रोते हैं, अपने अन्तरंगों को देखने के लिए व्याकुल हो जाते हैं, रात को नींद नहीं आती । जगदम्बा से कहते हैं, "माँ, उसे बड़ी भक्ति है, उसे तुम खींच लो; माँ उसे यहाँ ले आओ; अगर वह न आ सके तो माँ, मुझे ही वहाँ ले चलो, मैं उसे देख लूँ ।"
इसीलिए श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ दौड़ आते हैं । लोगों से कहा कहते हैं, बलराम के यहाँ श्रीजगन्नावजी की सेवा होती है, उसका अन्न बड़ा शुद्ध है ।" जब आते हैं तब बलराम को भक्तों को न्योता देने के लिए भेजते हैं; कहते हैं "जाओ, नरेन्द्र को, भवनाथ को, राखाल को न्योता दे आओ । छोटा नरेन्द्र नारायण इन सब को न्योता दे आओ । इन्हें खिलाने से नारायण को खिलाना होता है । ये ऐसे-वैसे नहीं हैं, ये ईश्वरांश से पैदा हुए हैं । इन्हें खिलाने पर तुम्हारा बहुत कल्याण होगा ।”
बलराम के ही यहाँ गिरीश घोष के साथ पहली बार बैठकर बातचीत हुई थी । यहीं रथ के समय कीर्तनानन्द हुआ करता है । यहीं कितने ही बार प्रेम का दरबार लगा और आनन्द की हाट जमी ।
मास्टर पास ही के विद्यालय में पढ़ाते हैं । उन्होंने सुना है; आज दस बजे श्रीरामकृष्ण बलराम के यहाँ आयेंगे । बीच में पढ़ाई से थोड़ा अवकाश मिलने पर दोपहर के समय वे वहाँ गये । श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । श्रीरामकृष्ण भोजन के बाद बैठकखाने में जरा विश्राम कर रहे हैं । बीच बीच में मसाला निकालकर खा रहे हैं । कुछ कम उम्रवाले भक्त उन्हें चारों ओर से घेरे हुए हैं।
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह) - तुम यहाँ आये, स्कूल नहीं है ?
मास्टर - स्कूल से आ रहा हूँ । इस समय वहाँ विशेष काम नहीं है ।
एक भक्त - नहीं महाराज, स्कूल से भाग आये हैं । (सब हँसते हैं ।)
मास्टर (स्वगत) – हाय ! मानो कोई मुझे यहाँ खींच लाया !
श्रीरामकृष्ण कुछ चिन्तित-से हो रहे हैं । फिर मास्टर को पास बैठाकर अनेक प्रकार की बातें करने लगे ।
कहा, “मेरा गमछा जरा निचोड़ तो दो और कुर्ता धूप में डाल दो । पैर झनझना रहा है । क्या उस पर जरा हाथ फेर दे सकोगे ?" मास्टर सेवा करना नहीं जानते, इसीलिए श्रीरामकृष्ण उन्हें सेवा करना सिखा रहे हैं । मास्टर हकपकाकर एक एक करके वे सब काम कर रहे हैं । फिर वे पैरों पर हाथ फेरने लगे । श्रीरामकृष्ण उन्हें बातों ही बातों में उपदेश दे रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - क्यों जी, कुछ दिनों से लगातार मुझे ऐसा क्यों हो रहा है ? धातु के किसी बरतन को मैं छू नहीं सकता । एक बार कटोरे में हाथ लगाया तो ऐसा हो गया जैसे सिंगी मछली ने हाथ में काँटा मार दिया हो । हाथ में झुनझुनी-सी चढ़ गयी और दर्द होने लगा । गडुए को बिना छुए तो काम चल ही नहीं सकता, इस ख्याल से मैंने सोचा, जरा गमछे से ढककर तो देखें, उठा सकता हूँ या नहीं । यह सोचकर ज्योंही उसे छुआ कि हाथ में झुनझुनी चढ़ गयी और बहुत दर्द होने लगा । अन्त में माता से प्रार्थना की, 'माँ, अब ऐसा काम न करूंगा, अब की बार माँ, क्षमा करो ।'
(मास्टर से) - "क्यों जी, छोटा नरेन्द्र आया-जाया करता है, घरवाले क्या कुछ कहेंगे ? बिलकुल शुद्ध है, स्त्री-संग कभी नहीं किया ।”
मास्टर - और उच्च आधार है।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, और कहता है, ईश्वरी बातें एक बार सुन लेने से मुझे याद रहती हैं । कहता है, 'बचपन में मैं रोया करता था, ईश्वर दर्शन नहीं दे रहे हैं इसलिए ।'
मास्टर के साथ छोटे नरेन्द्र के सम्बन्ध में बहुत सी बातें हुई । इस समय भक्तों में से किसी ने कहा, "मास्टर महाशय, क्या आप स्कूल नहीं आयेंगे ?’
श्रीरामकृष्ण - क्या बजा है ?
भक्त - एक बजने को दस मिनट है ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - तुम जाओ, तुम्हें देर हो रही है । एक तो काम छोड़कर आये हो । (लाटू से) राखाल कहाँ है ?
लाटू - घर चला गया है ।
श्रीरामकृष्ण - मुझसे मुलाकात बिना किये ही ?
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(२)
🙏अवतारवाद तथा श्रीरामकृष्ण🙏
स्कूल की छुट्टी हो जाने पर मास्टर ने आकर देखा, श्रीरामकृष्ण बलराम के बैठकखाने में भक्तों के साथ दरबार लगाये बैठे हुए हैं । मुख पर हास्य की रेखा है और वही हास्य भक्तों के मुख पर भी प्रतिबिम्बित हो रहा है । मास्टर को लौटकर आते हुए देख, उनके प्रणाम करने के पश्चात्, श्रीरामकृष्ण ने उन्हें अपने पास बैठने का इशारा किया । श्री गिरीश घोष, सुरेश मित्र, बलराम, लाटू, चुन्नीलाल आदि भक्त उपस्थित हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - तुम एक बार नरेन्द्र के साथ विचार करके देखना कि वह क्या कहता है।
गिरीश (हँसकर) - नरेन्द्र कहता है, ईश्वर अनन्त हैं । जो कुछ हम लोग देखते या सुनते हैं - वस्तु या व्यक्ति - सब उनके अंश हैं - इतना भी कहने का हमें अधिकार नहीं है । Infinity(अनन्तता) जिसका स्वरूप है, उसका फिर अंश कैसे हो सकता है ? अंश नहीं होता ।
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर अनन्त हों अथवा कितने ही बड़े हों, वे अगर चाहें तो उनके भीतर का सार पदार्थ आदमी के भीतर से प्रकट हो सकता है, और होता भी है । वे अवतार लेते हैं, यह उपमा के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । इसका अनुभव होना चाहिए । इसे प्रत्यक्ष करना चाहिए । उपमा के द्वारा कुछ आभास मात्र मिलता है । गो का सींग अगर कोई छू ले, तो गौ को ही छूना हुआ; पैर या पूँछ के छूने पर भी गौ को ही छूना है; परन्तु हमारे लिए गौ के भीतर का सार भाग दूध है । वह दूध उसके स्तनों से निकलता है । उसी तरह प्रेम और भक्ति की शिक्षा देने के लिए ईश्वर मनुष्य की देह धारण करके समय समय पर आते हैं ।
गिरीश - नरेन्द्र कहता है, उनकी सम्पूर्ण धारणा क्या कभी हो सकती है ? वे अनन्त हैं ।
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - ईश्वर की सब धारणा कर भी कौन सकता है ? न उनका कोई बड़ा अंश, न कोई छोटा अंश सम्पूर्ण धारणा में लाया जा सकता है; और सम्पूर्ण धारणा करने की जरूरत ही क्या है ? उन्हें प्रत्यक्ष कर लेने ही से काम बन गया। उनके अवतार को देखने ही से उन्हें देखना हो गया । अगर कोई गंगाजी के पास जाकर गंगाजल का स्पर्श करता है तो वह कहता है, मैं गंगाजी के दर्शन कर आया । उसे हरिद्वार से गंगासागर तक की गंगा का स्पर्श नहीं करना पड़ता । (सब हँसते हैं ।)
"तुम्हारे पैर अगर मैं छू लूँ, तो तुम्हें ही छूना हुआ । (हास्य)
"अगर समुद्र के पास जाकर कुछ पानी छू लो तो समुद्र का ही स्पर्श करना होता है । अग्नितत्त्व सब जगह है, परन्तु लकड़ी में अधिक है ।"
गिरीश (हँसते हुए) - जहाँ मुझे आग मिलेगी, मुझे उसी जगह से जरूरत है ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - अग्नितत्व लकड़ी में अधिक है । अगर तुम ईश्वर की खोज करते हो तो आदमी में खोजो आदमी में उनका प्रकाश अधिक होता है । जिस आदमी में ऊर्जिता भक्ति देखोगे - देखोगे उसमें प्रेम और भक्ति, दोनों उमड़ रहे हैं - ईश्वर के लिए वह पागल हो रहा है - उनके प्रेम में मस्त घूमता है - उस मनुष्य में, निश्चयपूर्वक समझो कि वे अवतीर्ण हो चुके हैं ।
(मास्टर को देखकर) - "वे तो हैं ही, परन्तु कहीं उनकी शक्ति का प्रकाश अधिक है, कहीं कम । अवतारों में उनकी शक्ति का प्रकाश अधिक है । वही शक्ति कभी कभी पूर्ण भाव से रहती है । अवतार शक्ति का ही होता है ।”
गिरीश - नरेन्द्र कहता है, वे अवाङ्मनसगोचरम् हैं ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं; इस मन के गोचर तो नहीं हैं, परन्तु वे शुद्ध मन के गोचर अवश्य हैं । इस बुद्धि के गोचर नहीं, परन्तु शुद्ध बुद्धि के गोचर हैं । कामिनी और कांचन पर से आसक्ति गयी नहीं कि शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि की उत्पत्ति हुई । तब शुद्ध मन और शुद्ध बुद्धि दोनों एक कहलाते हैं । वे उस शुद्ध मन से दीख पड़ते हैं । क्या ऋषि और मुनियों ने उनके दर्शन नहीं किये ? उन लोगों ने चैतन्य के द्वारा चैतन्य का साक्षात्कार किया था ।
गिरीश (हँसकर) - नरेन्द्र तर्क में मुझसे परास्त हो गया है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, उसने मुझसे कहा है, गिरीश घोष आदमी को अवतार कहकर जब इतना विश्वास करता है, तो इस पर मैं और क्या कहता ? इस तरह के विश्वास पर कुछ कहना भी न चाहिए ।
गिरीश (सहास्य) – महाराज ! हम लोग तो अनर्गल बातें कर रहे हैं, और मास्टर चुपचाप बैठे हुए हैं - जरा भी जबान नहीं हिलाते । महाराज ! ये क्या सोचते हैं ?
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - अधिक बकवाद करनेवाला, अधिक चुप्पी साधनेवाला, कान में तुलसी खोसनेवाला आदमी, बड़ा लम्बा घूँघट काढ़नेवाली स्त्री, काईवाले तालाब का पानी, इनकी गणना अनर्थकारियों में है । (सब हँसते हैं) । (हँसकर) परन्तु ये ऐसे नहीं हैं, ये गम्भीर प्रकृति के हैं । (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण ने जिन्हें अनर्थकारियों में गिनाया, उनके लिए वहाँ उन्होंने एक पद कहा था ।
गिरीश – महाराज ! वह पद आपने कैसे कहा ?
श्रीरामकृष्ण - इन आदमियों से सचेत रहना चाहिए । पहले तो वह है जो अधिक बकता हो - अनाप-शनाप; फिर चुपचाप बैठा रहनेवाला - जिसके मन की थाह मिलती ही नहीं - गोताखोर भी मिट्टी न छू पाये; फिर कान में तुलसी के दल खोंसनेवाला, कान में इसलिए तुलसी खोंस लेता है कि लोग समझें, यह बड़ा भक्त है लम्बा घूँघट काढ़नेवाली औरत - लम्बा घूँघट देखकर आदमी सोचते हैं कि यह बड़ी सती है, परन्तु बात ऐसी नहीं है, और काईवाले तालाब के पानी में नहाने से ही सन्निपात हो जाता है ।
चुन्नीलाल - इनके (मास्टर के) नाम पर एक बात फैली है । छोटा नरेन्द्र, बाबूराम, इनके विद्यार्थी हैं । नारायण, पल्टू, पूर्ण, तेजचन्द्र ये भी इनके विद्यार्थी है । बात फैली है कि ये उन्हें यहाँ ले आते हैं और इस तरह उनका लिखना-पढ़ना मिट्टी में मिल रहा है ! इन पर लोग दोषारोपण कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण - उनकी बात पर विश्वास कौन करेगा ?
इस तरह बातें हो रही थी, इतने में नारायण आये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । नारायण का रंग गोरा, उम्र सत्रह अठारह साल की है, स्कूल में पढ़ते हैं, श्रीरामकृष्ण इन्हें बहुत प्यार करते हैं । इन्हें देखने और खिलाने को वे सदा ही व्याकुल रहा करते हैं । इनके लिए दक्षिणेश्वर में बैठे हुए रोते भी हैं । नारायण को वे साक्षात् नारायण देखते हैं ।
गिरीश (नारायण को देखकर) - किसने तुम्हें खबर दी ? देखते हैं, मास्टर ने सब को साफ कर दिया ! (सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) – बैठो ! चुपचाप बैठो ! एक तो वैसे ही इन्हें (मास्टर को) लोग दोष दे रहे हैं ।
फिर नरेन्द्र की बात चली ।
एक भक्त - अब उतना क्यों नहीं आते ?
श्रीरामकृष्ण – अन्न की चिन्ता भी बड़ी बिकट होती है, बड़ों बड़ों की अक्ल उस समय काम नहीं देती ।
बलराम - शिव गुहा के घराने के अन्नदा गुहा के पास नरेन्द्र का आना-जाना खूब हैं ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ, एक आफिसवाले के यहाँ नरेन्द्र, अन्नदा, ये लोग जाया करते हैं । वहाँ सब मिलकर ब्राह्म समाज करते हैं ।
एक भक्त - उनका (ऑफिस वाले का) नाम तारापद है ।
बलराम (हँसते हुए) - कुछ ब्राह्मण कहते हैं, अन्नदा गुहा बड़ा अहंकारी है ।
श्रीरामकृष्ण - ब्राह्मणों की इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए । उनका हाल तो जानते ही हो, जो नहीं देता वह बदमाश हो जाता है और जो देता है वह अच्छा। (सब हंसते हैं ।) अन्नदा को मैं जानता हूँ, वह अच्छा आदमी है ।
110, [( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(३)
🙏 भक्तों के साथ भजनानन्द में 🙏
श्रीरामकृष्ण की 'गाना सुनने की इच्छा' है । बलराम के बैठकखाने के कमरे में आदमी भरे हैं । सब के सब उनकी ओर ताक रहे हैं, उनकी वाणी सुनने के लिए ।
श्रीरामकृष्ण की इच्छा-पूर्ति के लिए तारापद गाने लगे –
"केशव कुरु करुणा दीने कुंज-काननचारी ।
माधव मनमोहन मोहनमुरलीधारी ।
ब्रजकिशोर कालीयहर कातर-भयभंजन,
नयनबाँका बाँका शिखिपाखा, राधिका-हृदिरंजन ।
गोवर्धनधारण, वनकुसुमभूषण,
दामोदर कंसदर्पहारी, श्याम रामरसविहारी ॥"
श्रीरामकृष्ण (गिरीश से) - अहा, बड़ा अच्छा गाना है सब गानों की रचना तुम्हीं ने की है ?
भक्त - जी हाँ, 'चैतन्यलीला' के सब गाने इन्हीं के बनाये हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - यह गाना उतरा भी खूब है ।
(गानेवाले के प्रति) - “निताई का गाना आता है ?" फिर गाना होने लगा, नित्यानन्द ने गाया था –
(भावार्थ) "किशोरी का प्रेम अगर तुझे लेना है तो चला आ,...... प्रेम का ज्वार बहा जा रहा है । अरे, वह प्रेम शत धाराओं में बह रहा है, जो जितना चाहता है, उसे उतना ही मिलता है । प्रेम की किशोरी, स्वयं इच्छा करके प्रेम वितरण कर रही हैं । राधा के प्रेम में तुम भी 'जय कृष्ण जय कृष्ण' कहो । उस प्रेम से प्राण मस्त हो जाते हैं, उसकी तरंगों पर प्राण नाचने लगते हैं । राधा के प्रेम से 'जय कृष्ण जय कृष्ण’ कहता हुआ तू चला आ ।"
फिर गौरांग का गाना होने लगा –
(भावार्थ) - "किसके भाव में आकर गौरांग के वेश में तुमने प्राणों को शीतल कर दिया ? प्रेम के सागर में तूफान आ गया है, अब कुल की मर्यादा न रह जायेगी । व्रज में गोपाल का वेश धारण कर तुमने गौएँ चरायी थी, बंसी बजाकर गोपियों का मन मुग्ध कर लिया था, गोवर्धन धारण कर वृन्दावन की रक्षा की थी, गोपियों के मान करने पर तुम उनके पैरो पड़े थे - आँसुओं से तुम्हारा चन्द्रानन प्लावित हो गया था ।"
सब मास्टर से गाने के लिए अनुरोध कर रहे हैं । मास्टर स्वभाव के कुछ लजीले हैं, वे धीमे शब्दों में माफी माँगने लगे ।
गिरीश (श्रीरामकृष्ण से हँसकर) - महाराज, मास्टर किसी तरह नहीं गा रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण (विरक्ति के स्वर में) - वह स्कूल में भले ही दाँत दिखाये, मुँह खोले, पर गाने में ही उसे दुनिया भर की लज्जा सवार हो जाती हैं । मास्टर चुपचाप बैठे रहे ।
सुरेश मित्र कुछ दूर बैठे थे । श्रीरामकृष्ण उन्हें सस्नेह देखकर गिरीश की ओर इशारा करके हँसते हुए कह रहे हैं –"तुम्हीं नहीं, ये (गिरीश) तुमसे भी बड़े चढ़े हैं ।"
सुरेश (हँसते हुए) - जी हाँ, मेरे बड़े भाई हैं । (सब हँसते हैं ।)
गिरीश (श्रीरामकृष्ण से) - अच्छा महाराज, बचपन में मैंने न कुछ पढ़ा न लिखा, फिर भी लोग मुझे विद्वान् कहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - महिम चक्रवर्ती ने शास्त्रावलोकन खूब किया है - आधार भी उच्च है । (मास्टर से) क्यों जी ?
मास्टर - जी हाँ ।
गिरीश - क्या ? विद्या ? यह बहुत देख चुका हूँ ! अब इसके चकमे में नहीं आता ।
श्रीरामकृष्ण (हँसते हुए) - यहाँ का भाव क्या है, जानते हो ? पुस्तक और शास्त्र ये सब केवल ईश्वर के पास पहुँचने का मार्ग ही बताते हैं । मार्ग – उपाय - के समझ लेने पर फिर पुस्तकों और शास्त्रों की क्या जरूरत है ? तब स्वयं अपना काम करना चाहिए ।
"एक आदमी को एक चिट्ठी मिली । उसको उसके किसी आत्मीय ने कुछ चीजें भेजने के लिए लिखा था । जब चीजों के खरीदने का समय आया , तब चिट्ठी की तलाश करने पर भी वह नहीं मिल रही थी । मकानमालिक ने बड़ी उत्सुकता के साथ खोजना शुरू किया । बड़ी देर तक कई आदमियों ने मिलकर खोजा । अन्त में वह चिट्ठी मिल गयी । तब उसे खूब आनन्द हुआ ।
मालिक ने बड़ी उत्सुकता के साथ चिट्ठी अपने हाथ में ले ली, और उसमें जो कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने लगा, लिखा था - पाँच सेर सन्देश भेजियेगा, एक धोती, तथा कुछ अन्य चीजें - न जाने क्या क्या । तब फिर चिट्ठी की कोई जरूरत न रही, चिट्ठी फेंककर सन्देश, कपड़े तथा और और चीजों की व्यवस्था करने को वह चल दिया । चिट्ठी की जरूरत तो तभी तक थी, जब तक सन्देश, कपड़े आदि के विषय में ज्ञान नहीं हुआ था । इसके बाद प्राप्ति की चेष्टा हुई ।
“शास्त्रों में तो उनके पाने के उपायों की ही बातें मिलेंगी । परन्तु खबरें लेकर काम करना चाहिए । तभी तो वस्तुलाभ होगा ।
"केवल पाण्डित्य से क्या होगा ? बहुत से श्लोक और बहुत से शास्त्र पण्डितों के समझे हुए हो सकते हैं, परन्तु संसार पर जिसकी आसक्ति है, मन ही मन कामिनी और कांचन पर जिसका प्यार है, शास्त्रों पर उसकी धारणा नहीं हुई – उसका पढ़ना व्यर्थ है । पंचांग में लिखा है कि इस साल वर्षा खूब होगी, परन्तु पंचांग को दाबने पर एक बूँद भी पानी नहीं निकलता, भला एक बूँद भी तो गिरता, परन्तु उतना भी नहीं गिरता !” (सब हँसते हैं ।)
गिरीश (सहास्य) - महाराज, पंचांग को दाबने पर एक बूँद भी पानी नहीं गिरता ? (सब हँसते हैं।)
श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - पण्डित खूब लम्बी लम्बी बातें तो करते हैं, परन्तु उनकी नजर कहाँ है ? - कामिनी और कांचन पर - देह-सुख और रुपयों पर ।
"गीध बहुत ऊँचे उड़ता है, परन्तु उसकी नजर मरघट पर ही रहती है । (हास्य) वह बस मुर्दे की लाश ही खोजता रहता है - कहाँ है मरघट और कहाँ है मरा हुआ बैल !
(गिरीश से) - "नरेन्द्र बहुत अच्छा है गाने-बजाने में, पढ़ने लिखने में - सब बातों में पक्का है, इधर जितेन्द्रिय भी है, विवेक और वैराग्य भी है, सत्यवादी भी है । उसमें बहुत से गुण हैं । (मास्टर से) - "क्यों जी ! कैसा है, अच्छा है न खूब ?"
मास्टर - जी हाँ, बहुत अच्छा है ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से अकेले में) - देखो, उसमें (गिरीश में) अनुराग खूब है, और विश्वास भी है।
मास्टर आश्चर्य में आकर एकदृष्टि से गिरीश को देख रहे हैं । गिरीश कुछ ही दिनों से श्रीरामकृष्ण के पास आने लगे है, परन्तु मास्टर ने देखा, श्रीरामकृष्ण से मानो उनका बहुत दिनों का परिचय हो - जैसे वे कोई परम आत्मीय हों, जैसे एक ही सूत में पिरोये हुए मणियों में से एक हो ।
नारायण ने कहा, "महाराज, क्या गाना न होगा ? श्रीरामकृष्ण मधुर कण्ठ से माता का नाम और गुणगान करने लगे –
(भावार्थ) - “आदरणीय श्यामा माँ को यत्नपूर्वक हृदय में रखना । ऐ मन, तू देख और मैं देखूँ, कोई और जैसे न देखने पावे । कामादि को धोखा देकर, ऐ मन, आ, एकान्त में उनके दर्शन करें । रसना को हम लोग साथ रखेंगे, ताकि वह 'माँ माँ' कहकर पुकारती रहे । जितने कुरुचि कुमन्त्री हैं उन्हें पास भी न फटकने देना । ज्ञान के नेत्रों को पहरेदार बनाना और उन्हें सतर्क रहने के लिए होशियार कर देना ।"
श्रीरामकृष्ण त्रितापपीड़ित संसारियों का भाव अपने पर आरोपित कर माता से अभिमानपूर्वक कह रहे हैं –
(भावार्थ) - "माँ, आनन्दमयी होकर तुम मुझे निरानन्द न करना । तुम्हारे दोनों चरणों को छोड़ मेरा मन और कुछ भी नहीं जानता । माँ, मुझे यम बदमाश कहता है, मैं उसे क्या जवाब दूँ, तुम्हीं बता दो । मेरे मन की यह इच्छा थी की 'भवानी' कहकर में भव से पार हो जाऊँ । तुम मुझे इस अछोर सागर में डुबो दोगी, यह विचार स्वप्न में भी मुझे न था । मैं दिन-रात तुम्हारा दुर्गा-नाम लिया करता हूँ, फिर भी मेरे इन असंख्य दुःखों का विनाश न हो पाया । ऐ हरसुन्दरी, अब की बार अगर मैं मरा, तो समझ लेना कि तुम्हारा यह दुर्गा-नाम फिर कोई न लेगा ।"
फिर वे नित्यानन्दमयी के ब्रह्मानन्द के स्वरूप का कीर्तन करने लगे –
(भावार्थ) - “तुम शिव के साथ सदा ही आनन्द में मग्न हो रही हो । कितने ही रंग दिखा रही हो । माँ, सुधा पान करके लड़खड़ाती हुई भी तुम गिर नहीं पड़ती ।"
भक्तगण नि:स्तब्ध भाव से गाना सुन रहे हैं । वे टकटकी लगाये श्रीरामकृष्ण की इस आत्मविस्मृत प्रमत्त अवस्था का अवलोकन कर रहे हैं । गाना समाप्त हो गया । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं - “आज मेरा गाना अच्छा नहीं हुआ । जुकाम हो गया है ।"
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(४)
🙏 श्रीरामकृष्ण की प्रार्थना🙏
सन्ध्या हो आयी है । समुद्र के वक्षःस्थल पर, जहाँ अनन्त की नील छाया पड़ रही है, घने जंगलों में, आसमान को छूनेवाले पर्वतों की चोटियों पर, हवा से काँपती हुई नदी के तट पर, दिगन्त के छोर तक फैले हुए प्रान्तर में साधारण मानव का सहज ही भावान्तर हो जाता है । यह सूर्य जो समस्त संसार को आलोकित कर रहा था, कहाँ गया ? बालक सोच रहा है - तथा सोच रहे हैं बालकस्वभाव महापुरुष । सन्ध्या हो गयी । कैसा आश्चर्य है ! किसने ऐसा किया ? चिड़ियाँ डालियों पर बैठी हुई चहक रही हैं, मनुष्यों में जिन्हें चैतन्य हो गया है, वे भी उस आदिकवि - कारण के कारण पुरुषोत्तम - का नाम ले रहे हैं ।
बातचीत करते हुए सन्ध्या हो गयी । भक्तों में, जो जिस आसन पर बैठा था, वह उसी पर बैठा रहा। श्रीरामकृष्ण मधुर नाम ले रहे हैं । सब लोग उत्सुकता से दत्तचित्त हो सुन रहे हैं । इस तरह का मधुर नाम उन लोगों ने कभी नहीं सुना, मानो सुधावृष्टि हो रही है । इस तरह प्रेम से भरे हुए बालक का 'माँ माँ' कहकर पुकारना उन लोगों ने कभी नहीं सुना ।आकाश, पर्वत, महासागर, वन, इन सब को देखने की अब क्या जरूरत है ? गौ के सींग, पैर और शरीर के दूसरे अँगों को देखने की अब क्या जरूरत है ? श्रीरामकृष्ण ने गौ के जिन स्तनों की बात कही है, इस कमरे में हम वही तो नहीं देख रहे हैं ? सब के अशान्त मन को कैसे शान्ति मिली ? निरानन्द का संसार आनन्द की धारा में कैसे प्लावित हो गया ? भक्तों को आनन्दमग्न और शान्तिपूर्ण क्यों देख रहा हूँ?
ये प्रेमिक संन्यासी क्या सुन्दर रूपधारी अनन्त ईश्वर हैं ? दूध के पिपासुओं को क्या यहीं दूध मिल सकेगा ? अवतार हो या कोई भी हो, मन तो इन्हीं के श्रीचरणों में बिक गया, अब और कहीं जाने की शक्ति नहीं रही । इन्हीं को अपने जीवन का ध्रुवतारा बना लिया है । देखूँ तो नहीं, इनके हृदय-सरोवर में वे आदिपुरुष किस तरह प्रतिबिम्बित हो रहे हैं ।
भक्तों में से कोई कोई इस तरह का चिन्तन कर रहे हैं और श्रीरामकृष्ण के श्रीमुख से निकले हुए हरि का नाम और देवी का नाम सुन-सुनकर कृतार्थ हो रहे हैं । नामगुण-कीर्तन के पश्चात् श्रीरामकृष्ण प्रार्थना करने लगे; मानो साक्षात् भगवान् प्रेम का शरीर धारण कर जीवों को शिक्षा दे रहे हैं कि कैसे प्रार्थना करनी चाहिए ।
कहा - "माँ, मैं तुम्हारी शरण में हूँ - शरणागत हूँ ! तुम्हारे चरणकमलों में मैंने शरण ली है । माँ, मैं देह-सुख नहीं चाहता, मान सम्मान नहीं चाहता, अणिमादि अष्ट सिद्धियों नहीं चाहता, केवल यह कहता हूँ कि तुम्हारे पादपद्मों में शुद्धा भक्ति हो - निष्काम, अमला, अहेतुकी भक्ति ।
और माँ, तुम्हारी भुवनमोहिनी माया में मुग्ध न होऊँ - तुम्हारी माया के संसार के कामिनी-कांचन पर कभी प्यार न हो। माँ, तुम्हारे सिवा मेरा और कोई नहीं है । मैं भजनहीन हूँ, साधनाहीन हूँ, ज्ञानहीन हूँ, भक्तिहीन हूँ, कृपा करके अपने श्रीपादपद्मों में मुझे भक्ति दो ।"
मणि सोच रहे हैं - 'तीनों काल में जो उनका नाम ले रहे हैं - जिनके श्रीमुख से निकली हुई नामगंगा तैलधारा की भाँति निरवच्छिन्ना है, फिर उनके लिए सन्ध्या-वन्दना का क्या प्रयोजन ?’ मणि ने बाद में समझा कि लोकशिक्षा के लिए ही श्रीरामकृष्ण ने मानवशरीर धारण किया है - "हरि ने स्वयं ही आकर योगी के वेश में नाम का संकीर्तन किया ।”
गिरीश ने श्रीरामकृष्ण को न्योता दिया । उसी रात को जाना है ।
श्रीरामकृष्ण - रात न होगी ?
गिरीश - नहीं, आप जब चाहें, आइयेगा । मुझे आज थिएटर जाना होगा, उन लोगों में लड़ाई हो रही है, उसका निपटारा करना है ।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(५)
🙏 श्रीरामकृष्ण का अद्भुत भावावेश🙏
गिरीश का न्योता है, रात ही को जाना होगा । इस समय रात के नौ बजे हैं । श्रीरामकृष्ण को खिलाने के लिए बलराम भी भोजन का प्रबन्ध करा रहे थे । कहीं बलराम को दुःख न हो, इसलिए श्रीरामकृष्ण ने गिरीश के यहाँ जाते समय बलराम से कहा, "बलराम, तुम भी भोजन भिजवा देना।"
दुमँजले से नीचे उतरते हुए श्रीरामकृष्ण भगवद्भावना में मस्त हो रहे हैं, जैसे मतवाला । साथ में नारायण हैं और मास्टर । पीछे राम, चुन्नी आदि कितने ही हैं । एक भक्त पूछ रहे हैं, 'साथ कौन जायेगा ?' श्रीरामकृष्ण ने कहा, 'किसी एक के जाने ही से काम हो जायेगा ।' उतरते हुए ही विभोर हो रहे हैं । नारायण हाथ पकड़ने के लिए बढ़े कि कहीं गिर न जायँ । श्रीरामकृष्ण को इससे विरक्ति-सी हुई । कुछ देर बाद नारायण से उन्होंने स्नेहपूर्ण स्वर में कहा, "हाथ पकड़ने पर लोग मतवाला समझेंगे, मैं खुद चला जाऊँगा ।"
बोसपाड़े का तिराहा पार कर रहे हैं - कुछ ही दूर पर गिरीश का घर है । इतने शीघ्र क्यों जा रहे हैं ? भक्त सब पीछे रह जाते हैं । शायद हृदय में किसी अद्भुत दिव्यभाव का आवेश हो रहा है । वेदों में जिन्हें वाणी और मन से परे कहा है, क्या उन्हीं की चिन्ता करते हुए श्रीरामकृष्ण पागल की तरह लड़खड़ाते हुए चले जा रहे हैं ? अभी कुछ ही समय हुआ होगा, उन्होंने बलराम के यहाँ कहा था, वे वाणी और मन से परे नहीं हैं, वे शुद्ध मन शुद्ध बुद्धि और शुद्ध आत्मा के गोचर हैं । शायद वे उस परमपुरुष का साक्षात्कार कर रहे हैं । क्या यही देख रहे हैं ‘जो कुछ है सो तू ही है’?
नरेन्द्र आ रहे हैं । श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के लिए पागल रहते हैं । नरेन्द्र सामने आये, परन्तु श्रीरामकृष्ण कुछ बोल न सके । लोग इसी को 'भाव' कहते हैं; क्या श्रीगौरांग को भी ऐसा ही होता था ? कौन इस भावावस्था को समझेगा ?
गिरीश के घर में जानेवाली गली के सामने श्रीरामकृष्ण आये । भक्त सब साथ हैं । अब आप नरेन्द्र से बोले –"क्यों भैया, अच्छे हो न ? मैं उस समय कुछ बोल नहीं सका ।" श्रीरामकृष्ण के अक्षर-अक्षर में करुणा भरी हुई है । तब भी वे गिरीश के दरवाजे पर नहीं पहुँचे थे ।
श्रीरामकृष्ण एकाएक खड़े हो गये । नरेन्द्र की ओर देखकर बोले, "एक बात है, एक तो यह (देह) है और एक वह (संसार) ।"
जीव और संसार । वे ही जानें कि भाव में वे यह सब क्या देख रहे थे। अवाक् होकर उन्होंने क्या देखा ? दो ही एक बात वे कह सके थे - जैसे वेदवाक्य या देववाणी, अथवा जैसे कोई समुद्र के तट पर खड़ा हुआ अनन्त तरंगमालाओं से उठते हुए अनाहत नाद की दो ही एक ध्वनि सुनता है, उसी तरह उस अनन्त ज्ञानराशि से निकले हुए दो ही एक शब्द श्रीरामकृष्ण के पास खड़े हुए भक्तों ने सुने ।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(६)
🙏नित्यगोपाल से वार्तालाप*🙏
गिरीश दरवाजे पर से श्रीरामकृष्ण को ले जाने के लिए आये हैं । भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण के बिलकुल निकट आ जाने पर गिरीश दण्ड की तरह श्रीरामकृष्ण के पैरों पर गिर पड़े । आज्ञा पाकर उठे, श्रीरामकृष्ण की पदधूलि ली और उन्हें अपने साथ दुमँजले के बैठकखाने में ले जाकर बैठाया । भक्तों ने भी आसन ग्रहण किया । उन्हीं के पास बैठकर उनका वचनामृत पान करने की सब की इच्छा है ।
आसन ग्रहण करते हुए श्रीरामकृष्ण ने देखा, एक संवादपत्र (अख़बार) पड़ा हुआ था । संवादपत्र में विषयी मनुष्यों की बातें रहती हैं - दूसरों की चर्चा, दूसरों की निन्दा, यही सब रहता है, अतएव श्रीरामकृष्ण की दृष्टि में वह अपवित्र है; उन्होंने उसे हटा देने के लिए इशारा किया । अख़बार के हटाने के बाद उन्होंने आसन ग्रहण किया । नित्यगोपाल ने प्रणाम किया ।
श्रीरामकृष्ण (नित्यगोपाल से) - वहाँ ? –[ "ठीक तो है! तुम लंबे समय से दक्षिणेश्वर नहीं गए।"
नित्यगोपाल - जी हाँ, दक्षिणेश्वर मैं नहीं जा सका, शरीर अस्वस्थ था, दर्द है ।
श्रीरामकृष्ण - कैसा है तू ?
नित्यगोपाल - अच्छा नहीं रहता ।
श्रीरामकृष्ण - मन को कुछ निम्न पर लाना ।
नित्यगोपाल - आदमी अच्छे नहीं लगते । कितनी ही बातें लोग कहा करते हैं - कभी कभी मुझे भय होता है । कभी कभी साहस भी खूब होता है ।
श्रीरामकृष्ण - होगा क्यों नहीं ? तेरे साथ रहता कौन है ?
नित्यगोपाल – तारक* हमारे साथ रहता है । उसे भी कभी कभी जी नहीं चाहता ।
(*श्री तारकनाथ घोषाल - स्वामी शिवानन्दजी (1854-1934) । स्वामी शिवानंद का जन्म 16 दिसंबर 1854 को कोलकाता के बारासात में रहने वाले घोषाल परिवार में हुआ था। उनके पिता रामकनाई घोषाल एक वकील थे। उनकी माता वामासुंदरी देवी भी एक धार्मिक महिला थीं। उन्होंने आध्यात्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों तरह की शिक्षा प्राप्त की। तारकनाथ का विवाह किशोरावस्था में ही हो गया था। लेकिन अपनी पत्नी की सहमति से उन्होंने ब्रह्मचर्य का पालन किया। बाद के वर्षों में जब स्वामी विवेकानंद ने यह सुना, तो उन्होंने तारकनाथ को ‘महापुरुष’ के रूप में संदर्भित किया। तब से उन्हें ‘महापुरुष महाराज’ के रूप में जाना जाने लगा। रामकृष्ण के निधन के बाद, बारानगर मठ की स्थापना हुई थी। तारकनाथ बारानगर मठ में शामिल होने वाले पहले कुछ व्यक्तियों में से एक थे। मठवासी आदेश प्राप्त करते हुए उन्हें ‘स्वामी शिवानंद’ नाम दिया गया था। 1902 में स्वामी शिवानंद वाराणसी गए और रामकृष्ण अद्वैत मठ की स्थापना की और सात वर्षों तक वहां प्रमुख के रूप में कार्य किया। हालांकि साल 1910 में उन्हें रामकृष्ण मिशन का उपाध्यक्ष चुना गया। स्वामी शिवानंद 1922 में ब्रह्मानंद महाराज के निधन के बाद, रामकृष्ण मठ और मिशन के दूसरे अध्यक्ष बने। Sri Ramakrishna once commented that Taraknath belonged to a high state of divine power ‘shakti’ from where ‘nama-rupa’ originates. स्वामी शिवानन्द और सुबोधानंद रामकृष्ण के एकमात्र प्रत्यक्ष शिष्य थे , और स्वामी शिवानन्द जो रामकृष्ण मिशन के दूसरे अध्यक्ष बने।जिन्होंने अलमोड़ा से 5 km दूर कसार देवी माता के मन्दिर में ध्यान किया था स्वामी विवेकानन्द ने भी ध्यान किया था। बताया जाता है कि मंदिर के आसपास के क्षेत्र वैन एलेन बेल्ट है, जहां धरती के भीतर विशाल भू-चुंबकीय पिंड है। जहां खास चुंबकीय शक्तियां विद्यमान है जो मनुष्य को सकारात्मक उर्जा प्रदान करती हैं. कसार देवी मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहां पर देवी माँ साक्षात अवतरित हुई थी। अल्मोड़ा के ब्राइट कार्नर में राम कृष्ण मठ को स्थापित किए आज 100 साल पूरे हो गए हैं. 22 मई 1916 के दिन स्वामी तुरियानंद महाराज और स्वामी शिवानन्द महाराज ने इस मठ की स्थापना की थी। माना जाता हैं कि अल्मोड़ा के ही काकड़ीघाट में स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान प्राप्ति हुई। )
श्रीरामकृष्ण - नागा कहता था, उसके मठ में एक सिद्ध था, वह आसमान की ओर नजर उठाये हुए चला जाता था । परन्तु उसका एक साथी चला जाने से उसे बड़ा दुःख हुआ, वह अधीर हो गया।
कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण का भाव-परिवर्तन हो गया । किसी एक भाव में वे निर्वाक् हो गये । कुछ देर बाद कह रहे हैं, “तू आया है ? मैं भी आया हूँ ।” यह बात कौन समझेगा ? क्या यही देवभाषा है ?
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(७)
🙏अवतार के सम्बन्ध में विचार🙏
कितने ही भक्त आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । नरेन्द्र, गिरीश, राम, हरिपद, चुन्नी, बलराम, मास्टर - कितने ही हैं ।
नरेन्द्र नहीं मानते कि मनुष्य की देह में कभी अवतार हो सकता है । इधर गिरीश को ज्वलन्त विश्वास है कि प्रत्येक युग में ईश्वर का अवतार होता है, - वे मनुष्य की देह धारण करके संसार में आते हैं । श्रीरामकृष्ण की बड़ी इच्छा है कि इस सम्बन्ध में दोनों विचार करें । श्रीरामकृष्ण गिरीश से कह रहे हैं, “तुम दोनों जरा अंग्रेजी में विचार करो, मैं सुनूँगा ।"
विचार आरम्भ हुआ । अंग्रेजी में न होकर बंगला में ही होने लगा - बीच-बीच में अंग्रेजी के दो-एक शब्द निकल जाते थे । नरेन्द्र ने कहा, "ईश्वर अनन्त हैं, उनकी धारणा करना क्या हम लोगों की शक्ति का काम है ? वे सब के भीतर हैं, केवल किसी एक के ही भीतर वे आये हैं, ऐसी बात नहीं।'
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह ) - इसका जो मत है, वही मेरा भी है । वे सब जगह है; परन्तु इतनी बात है कि शक्ति की विशेषता है । कहीं तो अविद्याशक्ति का प्रकाश है, कहीं विद्याशक्ति का । किसी आधार में शक्ति अधिक है, किसी में कम, इसलिए सब आदमी समान नहीं है ।
राम - इस तरह के वृथा तर्क से क्या फायदा है ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, नहीं; इसका एक खास अर्थ है ।
गिरीश (नरेन्द्र के प्रति) - तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि वे देह धारण करके नहीं आते ?
नरेन्द्र - वे अवाङ्मनसगोचरम् हैं ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, वे शुद्ध-बुद्धि-गोचर हैं । शुद्ध बुद्धि और शुद्ध आत्मा, ये एक ही वस्तु हैं । ऋषियों ने शुद्ध बुद्धि के द्वारा शुद्ध आत्मा का साक्षात्कार किया था ।
गिरीश (नरेन्द्र से) - मनुष्य में उनका अवतार न हो तो समझाये फिर कौन ? मनुष्य को ज्ञान-भक्ति देने के लिए वे देह धारण करते हैं । नहीं तो शिक्षा कौन देगा ?
नरेन्द्र – क्यों ? वे अन्तर में रहकर समझायेंगे ।
श्रीरामकृष्ण (सस्नेह) - हाँ, हाँ, अन्तर्यामी के रूप से वे समझायेंगे ।
फिर घोर तर्क ठन गया । Infinity (अनन्त) के अंश किस तरह होंगे, हैमिल्टन क्या कहते हैं, हर्बर्ट स्पेन्सर क्या कहते हैं, टिण्डल, हक्सले क्या कह गये हैं, ये सब बातें होने लगीं ।
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - देखो, यह सब मुझे अच्छा नहीं लगता ! मैं सब वही देख रहा हूँ, विचार अब इस पर क्या करूँ ? देख रहा हूँ - वे ही सब हैं, सब कुछ वे ही हुए हैं । यह भी हैं, और वह भी । एक अवस्था में अखण्ड में मन और बुद्धि खो जाती है । नरेन्द्र को देखकर मेरा मन अखण्ड में लीन हो जाता है । (गिरीश से) इसके बारे में तुम्हारी क्या राय है ?
गिरीश (हँसते हुए) - आप यह मुझसे क्यों पूछते हैं ? इतने ही को छोड़ मानो और सब कुछ मैं जानता हूँ ! (सब हँसने लगे।)
[রামানুজ ও বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ ]
श्रीरामकृष्ण - दो श्रेणी बिना उतरे मुख से बोला नहीं जाता। “वेदान्त - शंकर ने जो कुछ समझाया है, वह भी है और रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद भी है।"
नरेन्द्र - विशिष्टाद्वैतवाद क्या है ?
श्रीरामकृष्ण (नरेन्द्र से) - विशिष्टाद्वैतवाद रामानुज का मत है । अर्थात् जीवजगत्-विशिष्ट ब्रह्म सब मिलकर एक । "जैसे एक बेल । एक ने उसके खोपड़े को अलग, बीजों को अलग और गूदे को अलग कर लिया था । फिर यह समझने की जरूरत हुई कि बेल वजन में कितना था । तब सिर्फ गूदा तौलने पर बेल का वजन कैसे पूरा उतर सकता था ? क्यों कि पूरा वजन समझना है तो खोपड़ा, बीज और गूदा तीनों ही एक साथ लेने होंगे । खोपड़े और बीजों को निकालकर गूदे को ही लोग असल चीज समझते हैं । फिर विचार करके देखो – जिस वस्तु का गूदा है, उसी का खोपड़ा भी है और उसी के बीज भी । पहले नेति नेति करके जाना पड़ता है; जीव नेति, जगत् (नेति,नेति) इस तरह का विचार करना चाहिए, ब्रह्म ही वस्तु है और सब अवस्तु; फिर यह अनुभव होता है -(इति,इति) जिसका गूदा है, खोपड़ा और बीज भी उसके हैं; जिसे ब्रह्म कहते हो, उसी से जीव और जगत् भी हुए हैं । जिसकी नित्यता है, लीला भी उसी की है । इसीलिए रामानुज कहते थे, जीवनजगत्-विशिष्ट ब्रह्म । इसे ही विशिष्टाद्वैतवाद कहते हैं ।"
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(8)
🙏ईश्वरदर्शन । अवतार प्रत्यक्षसिद्ध हैं🙏
श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैं ईश्वर को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, विचार अब और क्या करना हैं ? मैं देख रहा हूँ, वे ही सब कुछ हुए हैं - वे ही जीव और जगत हुए हैं ।
"परन्तु चैतन्य का लाभ हुए बिना चैतन्य को कोई जान नहीं सकता । विचार तो तभी तक है जब तक उन्हें कोई पा नहीं लेता । केवल जबानी जमाखर्च से काम न होगा, मैं देख रहा हूँ, वे ही सब कुछ हुए हैं । उनकी कृपा से चैतन्य लाभ करना चाहिए । चैतन्य लाभ करने पर समाधि होती है, कभी कभी देह भी भूल जाती है, कामिनी और कांचन पर आसक्ति नहीं रह जाती, - ईश्वरी बातों के सिवा और कुछ नहीं सुहाता विषय की बातें सुनकर कष्ट होता है।
"चैतन्य प्राप्त करके ही मनुष्य चैतन्य को जान सकता है ।"... अब श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं –
“मैंने देखा है, विचार करने पर एक तरह का ज्ञान होता है, और ध्यान करने पर लोग एक दूसरी तरह उन्हें समझते हैं । और वे जब खुद दिखा देते हैं तब वे एक और है ।
"वे जब खुद दिखलाते हैं कि अवतार इस प्रकार होता है, वे जब अपनी मनुष्यलीला समझा देते हैं, तब विचार करने की जरूरत नहीं रह जाती; किसी के समझाने की आवश्यकता नहीं रहती । किस तरह - जानते हो ? - जैसे अँधेरे कमरे के भीतर दियासलाई घिसने से एकाएक उजाला हो जाता है । उसी तरह एकाएक वे अगर उजाला दे दें तो (द्प् से हृदय आलोकित हो जाता है और) सब सन्देह अपने आप मिट जाते हैं । इस तरह विचार करके उन्हें कौन जान सकता है ?”
श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को पास बुलाकर बैठाया और कुशल-प्रश्न करते हुए बड़े ही प्यार से बातचीत आरम्भ की ।
नरेन्द्र (श्रीरामकृष्ण से) - तीन-चार दिन तो मैंने काली का ध्यान किया, परन्तु कहाँ मुझे तो कहीं कुछ नहीं हुआ ।
श्रीरामकृष्ण - धीरे-धीरे होगा। काली और कोई नहीं, जो ब्रह्म हैं वही काली भी हैं । काली आद्याशक्ति हैं । जब वे निष्क्रिय रहती हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहता हूँ और जब वे सृष्टि, स्थिति और प्रलय करती हैं, तब उन्हें शक्ति कहता हूँ, काली कहता हूँ । जिन्हें तुम ब्रह्म कह रहे हो, उन्हें ही मैं काली कहता हूँ ।
"ब्रह्म और काली अभेद हैं । जैसे अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति । अग्नि को सोचते ही उसकी दाहिका शक्ति की चिन्ता की जाती है । काली के मानने पर ब्रह्म को मानना पड़ता है और ब्रह्म को मानने पर काली को ।
"ब्रह्म और शक्ति अभेद हैं, मैं उन्हें ही शक्ति – काली - कहता हूँ ।"
अब रात हो रही है । गिरीश हरिपद से कह रहे हैं, "भाई, एक गाड़ी अगर ला दो तो बड़ा उपकार मानूँ - थिएटर जाना है ।"
श्रीरामकृष्ण (हँसकर) - देखना, कहीं भूल न जाना । (सब हँसते हैं ।)
हरिपद (हँसकर) - मैं लाने के लिए जा रहा हूँ, तो ले क्यों नहीं आऊँगा ?
गिरीश - आपको छोड़कर भी थिएटर जाना पड़ रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, दोनों तरफ की रक्षा करनी चाहिए । राजा जनक दोनों बचाकर - संसार तथा ईश्वर - दूध का कटोरा खाली किया करते थे । (सब हँसते हैं ।)
गिरीश - सोचता हूँ, थिएटर को उन लड़कों के हाथ में छोड़ दूँ ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं नहीं, यह अच्छा है । बहुतों का इससे उपकार हो रहा है ।
नरेन्द्र (धीमे स्वर में) - यह (गिरीश) अभी तो ईश्वर और अवतार की बात कर रहे थे, अब इन्हें थिएटर घसीट रहा है !
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(९)
*ईश्वरदर्शन तथा विचार-मार्ग*
श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को अपने पास बैठाकर एकदृष्टि से उन्हें देख रहे हैं । एकाएक वे उनके पास और सरक कर बैठे । नरेन्द्र अवतार नहीं मानते तो इससे क्या ? श्रीरामकृष्ण का प्यार मानो और उमड़ पड़ा । नरेन्द्र की देह पर हाथ फेरते हुए कह रहे हैं " ‘राधे ! तुमने मान किया तो क्या हुआ, हम लोग भी तुम्हारे मान में तुम्हारे साथ ही हैं।'
(नरेन्द्र से) - "जब तक विचार है, तब तक वे नहीं मिले। तुम लोग विचार कर रहे थे, मुझे अच्छा नहीं लग रहा था ।
“जहाँ न्योता रहता है, वहाँ शब्द तभी तक सुन पड़ता है जब तक लोग भोजन करने के लिए बैठते नहीं । तरकारी और पूड़ियाँ आयीं नहीं कि बारह आने गुलगपाड़ा घट जाता है । (सब हँसते हैं ।) दूसरी चीजें ज्यों ज्यों आती हैं, त्यों त्यों आवाज घटती जाती है । दही आया कि बस सपासप आवाज रह गयी । फिर भोजन हो जाने पर निद्रा ।
"जितना ही ईश्वर की ओर बढ़ोगे, विचार उतना ही घटता जायेगा । उन्हें पा लेने पर फिर शब्द या विचार नहीं रह जाते । तब रह जाती है निद्रा – समाधि ।”
यह कहकर नरेन्द्र की देह पर हाथ फेरते हुए स्नेह कर रहे हैं और ‘हरि: ॐ, हरि: ॐ, हरिः ॐ’ कह रहे हैं ।
वैसा क्यों कह तथा कर रहे हैं ? क्या श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र के अन्दर नारायण का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं ? क्या यही मनुष्य में ईश्वर-दर्शन है ? बड़े आश्चर्य की बात है ! देखते ही देखते श्रीरामकृष्ण का बाह्यज्ञान विलीन होने लगा । बहिर्जगत् का होश बिलकुल जाता रहा । शायद यही अर्धबाह्य दशा है जो चैतन्यदेव को हुई थी । अब भी नरेन्द्र के पैर पर श्रीरामकृष्ण का हाथ पड़ा हुआ है मानो किसी बहाने से नारायण का पैर दबा रहे हों - फिर देह पर हाथ फेर रहे हैं । परमात्मा जाने, इस तरह श्रीरामकृष्ण नरेन्द्र को नारायण मानकर उनकी सेवा कर रहे थे या उनमें शक्ति का संचार कर रहे थे ।
देखते ही देखते और भी भावान्तर होने लगा । नरेन्द्र के आगे हाथ जोड़कर कह रहे हैं, "एक गाना गा तो मैं अच्छा हो जाऊँगा, - उठूँगा कैसे !- गौरांग के प्रेम में पूरे मतवाले (ऐ निताई) –
" कुछ देर के लिए वे फिर चित्रवत् हो निर्वाक रह गये । भावावेश में मस्त होकर फिर कहने लगे - “सम्हालकर, राधे - यमुना में गिर जाओगी – कृष्ण-प्रेमोन्मादिनी !”
भावविभोर हो फिर कह रहे हैं - "सखी ! वह वन कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं ? (श्रीकृष्ण के अंग-से सुगन्ध निकल रही है ।) अब मैं चल नहीं सकती ।"
इस समय संसार भूल गया है, - किसी की याद नहीं है, - नरेन्द्र सामने हैं, परन्तु उनकी भी याद नहीं है, - कहाँ वे बैठे हैं, इसका कुछ भी ज्ञान नहीं है ! इस समय प्राण मानो ईश्वर में लीन हो गया है - "मद्रतान्तरात्मा !"-[‘मद्गत अन्तरात्मा’ [गीता 6.47]
‘‘ गौरांग के प्रेम में पूरे मतवाले !"यह कहते हुए हुंकार देकर श्रीरामकृष्ण एकाएक उठकर खड़े हो गये । फिर बैठकर कहने लगे - “वह एक उजाला आ रहा है, मैं देख रहा हूँ, - परन्तु किस तरफ से आ रहा है, अभी तक कुछ समझ में नहीं आता ।"
अब नरेन्द्र गाने लगे - (भावार्थ) - "दर्शन देकर तुमने मेरे सब दुःख दूर कर दिये । तेरी सुंदरता की जादू ने मेरे प्राणों को मुग्ध कर दिया है , सप्तलोक तुम्हें पाकर अपना सब शोक भूल जाता है - फिर मेरे जैसे दीनहीन की बात ही क्या है !"
गाना सुनते हुए श्रीरामकृष्ण का बाहरी संसार का ज्ञान छूटता जा रहा है । फिर आँखें निमीलत हो गयीं, देह निःस्पन्द हो गयी, - श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये ।
समाधि छूटने पर कह रहे हैं - "मुझे कौन ले जायेगा ?" बालक जैसे साथी के बिना चारों ओर अँधेरा देखता है, यह वही भाव है ।
रात अधिक हो गयी है । फागुन की कृष्णा दशमी है । रात अँधेरी है । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर-कालीमन्दिर जायेंगे । गाड़ी पर बैठेंगे । भक्त सब गाड़ी के पास खड़े हुए हैं । श्रीरामकृष्ण को वे बड़ी सावधानी से गाड़ी पर चढ़ा रहे हैं । इस समय भी श्रीरामकृष्ण भावोन्मत्त हो रहे हैं । गाड़ी चली गयी । भक्तगण अपने अपने घर जा रहे हैं ।
[( 11 मार्च 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-110 ]
(१०)
*सेवक के हृदय के विचार*
मस्तक के ऊपर ताराओं से सुशोभित रात्रि का गगन है; हृदय पटल पर श्रीरामकृष्ण की अपूर्व छबि अंकित है; मानसनेत्रों के आगे उस भक्तसमागम प्रेम का - उस प्रेम की हाट का - दृश्य किसी सुखद स्वप्न की भाँति झलक रहा है । भक्तगण कलकत्ते के राजमार्ग पर से चलते हुए अपने अपने घरों की ओर जा रहे हैं । कोई कोई वसन्तसमीरण का सेवन करते हुए उस गीत को गुनगुनाते जा रहे हैं -“दर्शन देकर तुमने मेरे सब दुःख (शंकाओं को) दूर कर दिये - मेरे प्राणों को मुग्ध कर दिया है ।"
मणि (मास्टर महाशय) सोचते हुए चले हैं “क्या सचमुच में ही ईश्वर मनुष्यदेह धारण कर आया करते हैं ? तो क्या अवतार वास्तव में सत्य हैं ? पर अनन्त ईश्वर साढ़े तीन हाथ का मनुष्य कैसे बन सकते हैं ? क्या अनन्त कभी सान्त हो सकता है ? विचार तो बहुत कर चुका पर क्या समझा ? विचार के द्वारा तो कुछ न समझ पाया !
"श्रीरामकृष्ण ने कितना सुन्दर कहा - 'जब तक विचार है तब तक वस्तुलाभ नहीं हुआ, ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई ।" ठीक ही तो है । छटाक भर तो बुद्धि है, भला इसके द्वारा ईश्वर का तत्त्व कैसे समझा जाय ? एक सेर के बरतन में क्या चार सेर दूध आ सकता है ? फिर अवतार पर विश्वास कैसे हो ? श्रीरामकृष्ण ने तो कहा कि ईश्वर स्वयं अगर एकाएक प्रकाशित कर दिखायें तो क्षणभर में सब समझ में आ जाय । वे अगर एकाएक ज्ञानदीप जला दें तो सब सन्देह मिट जायँ ।
"जिस प्रकार पैलेस्टाइन के अज्ञ मछुओं ने ईसा मसीह को, अथवा श्रीवास पण्डित आदि भक्तों ने श्रीचैतन्यदेव को पूर्णावतार के रूप में देखा था, उस प्रकार इस समय भी हो !
"पर वे यदि न दिखा दें तो फिर उपाय ही क्या है ? क्यों ? जब श्रीरामकृष्ण स्वयं यह बात कह रहे हैं तो मैं अवतार पर विश्वास रखूँगा । उन्होंने ही सिखाया है – विश्वास ! विश्वास ! विश्वास ! फिर, गुरुवाक्य पर विश्वास ! फिर,मैंने तो उन्हीं को (ठाकुर-माँ -स्वामीजी को) जीवन का ध्रुवतारा मान लिया है। इस, भवसमुद्र में मैं अब कभी दिशा नहीं भूलूँगा ।' ईश्वर की कृपा से उनकी बातों पर मेरा विश्वास हुआ है । मैं तो यह विश्वास रखूँगा; दूसरे लोग चाहे जो भी करें मैं इस देवदुर्लभ विश्वास को क्यों छोडूँ ?
तर्क- विचार पड़ा रहे । ज्ञान चर्चा की खिचड़ी पकाते हुए क्या मैं दूसरा फॉस्ट क्यों (Faust) बनूँ? जिसने गम्भीर रात्रि में अकेले घर में 'हाय में कुछ नहीं जान सका ! मैंने व्यर्थ ही विज्ञान और दर्शन का अध्ययन किया ! इस जीवन को धिक्कार है !' यह सोचते हुए जहर पीकर आत्महत्या कर ली! या, दूसरे अलास्टर (Alaster- जर्मन तर्कवादियों) की तरह अज्ञान का बोध न हो सकने के कारण एक शिला पर मस्तक टेककर मृत्यु की राह देखता रहूँ ! नहीं, इन प्रकाण्ड पण्डितों की तरह छटाक भर ज्ञान के द्वारा इस अवतार रहस्य को भेदने का प्रयत्न करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं और एक सेर के बरतन में चार सेर दूध नहीं आया इसीलिए मरने की भी आवश्यकता नहीं !
कितनी सुन्दर बात है - गुरुवाक्य पर विश्वास ! हे भगवन्, मुझे यह विश्वास दो, अब व्यर्थ न भटकाओं जिसे पाना सम्भव नहीं उसे खोजने मत लगाओ । और जैसा कि श्रीरामकृष्ण ने सिखाया है – ‘तुम्हारे पादपद्मों में शुद्ध भक्ति हो; अमर, अहेतुकी भक्ति हो; तथा मैं तुम्हारी भुवन मोहिनी माया से मुग्ध न हो जाऊँ’ - कृपा कर मुझे यही आशीर्वाद दो ।"
श्रीरामकृष्ण के अपूर्व प्रेम की बात सोचते हुए मणि उस अँधेरी रात में राजपथ पर से चलते हुए घर लौट रहे हैं । वे सोच रहे हैं - "गिरीश पर आपका कितना प्रेम है ! गिरीश थोड़ी ही देर में थिएटर को जाने वाले हैं, फिर भी उनके यहाँ जाते हैं !
केवल यही नहीं ! आप उनसे यह भी नहीं कहते कि सब कुछ त्याग दो - घर बार, परिवार, सांसारिक कामकाज आदि सब त्यागकर संन्यास लो ! समझ गया इसका अर्थ यही है कि समय न आने पर, तीव्र वैराग्य न होने पर यह सब छोड़ते हुए कष्ट होगा ।
जैसा कि श्रीरामकृष्ण कहा करते हैं, घाव पूरा सूखने के पहले ही यदि उसकी पपड़ी खींच निकाली जाय तो खून निकलने लगता है और वेदना होती है। पर फिर घाव सूख जाने पर वह अपने आप झड़ जाती है। सामान्य लोग , जिनकी अन्तर्दृष्टि नहीं खुली , कहते हैं अभी संसार त्याग दो ! पर ये सद्गुरु हैं , अहेतुक कृपासिन्धु हैं, प्रेम समुद्र हैं, जीव का मंगल कैसे हो यही प्रयत्न रात-दिन कर रहे हैं।
"फिर गिरीश का कैसा विश्वास है ! दो ही बार दर्शन करने के बाद कहा था, 'प्रभो, तुम्हीं ईश्वर हो। मनुष्यदेह धारण कर आये हो - मेरे उद्धार के लिए ।' गिरीश ने ठीक ही तो कहा; ईश्वर (भगवान विष्णु जैसा नेता) यदि मनुष्यदेह धारण कर न आयें तो इस प्रकार अपने आत्मीय की तरह कौन उपदेश दे; कौन सिखा दे कि ईश्वर ही वस्तु हैं और सब अवस्तु; जमीन पर पड़े हुए दुर्बल जनों को कौन हाथ पकड़कर उठाये; कामिनी-कांचन में आसक्त पशुभाव को प्राप्त हुए मनुष्य को फिर पूर्ववत् अमृततत्त्व का अधिकारी कौन बनाये ? और वे यदि मनुष्यरूप धरकर साथ साथ न रहें तो जो तद्रतान्तरात्मा हैं, जिन्हें ईश्वर के सिवा दूसरा कुछ नहीं सुहाता, उनके दिन कैसे कटेंगे? इसीलिए तो भगवान् ने कहा है –
‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवाभि युगे युगे ॥’[गीता ४. ८]
"क्या अपूर्व प्रेम है ! नरेन्द्र के लिए मानो पागल हैं । नारायण के लिए कितना क्रन्दन करते हैं; कहते हैं, 'ये और राखाल, भवनाथ, पूर्ण, बाबूराम आदि दूसरे बालकगण साक्षात् नारायण हैं; मेरे लिए देह धारण कर आये हैं ।’
यह प्रेम तो मनुष्य बुद्धि से नहीं किया जा रहा है यह तो ईश्वर प्रेम है ! ये बालक शुद्ध चित्त हैं; इन्होंने कभी कामभाव से स्त्रीयों का स्पर्श नहीं किया; वैषयिक कर्म करते हुए इनमें लोभ, अहंकार, ईर्ष्या आदि का स्फुरण नहीं हुआ; इसीलिए इन बालकों के भीतर ईश्वर का प्रकाश अधिक है । परन्तु यह दृष्टि है किसकी ?
श्रीरामकृष्ण की अन्तर्दृष्टि है; वे सब देखते हैं - कौन विषयासक्त है, कौन सरल, उदार और भक्त है ! इसीलिए ऐसे भक्तों को देखते ही वे साक्षात् नारायण मानकर उनकी सेवा करते हैं । उन्हें नहलाते, खिलाते तथा सुलाते हैं । उन्हें देखने के लिए रोते हैं तथा दौड़-दौड़कर कलकत्ता जाते हैं। उन्हें कलकत्ते से गाड़ी पर अपने साथ ले आने के लिए लोगों से विनती करते हैं ।
गृहस्थ भक्तों से सदा कहा करते हैं, ‘इन्हें न्योता देकर भोजन कराना; इससे तुम्हारा भला होगा ।’ क्या यह मायिक प्रेम है; अथवा विशुद्ध ईश्वर प्रेम ? मिट्टी की मूर्ति में इतने उपचारों से ईश्वर की सेवा पूजा हो सकती है, फिर शुद्ध मनुष्यदेह में क्यों न हो ? फिर ये लोग तो भगवान् की प्रत्येक लीला में सहायक रहे हैं ! जन्म-जन्म के सहचर हैं !
"नरेन्द्र को देखते ही देखते आप बाह्य जगत् को भूल गये । फिर धीरे धीरे नरेन्द्र की देह को, बाह्य मनुष्य को भूल गये और उसके यथार्थ स्वरूप के दर्शन करने लगे । मन अखण्ड सच्चिदानन्द में लीन हुआ । उनके दर्शन करते हुए कभी निर्वाक्, निःस्पन्द रहने लगे, तो कभी 'ॐ ॐ' कहने लगे या बालक की तरह 'माँ माँ' कहते हुए पुकारने लगे । नरेन्द्र के भीतर ईश्वर का अधिक प्रकाश देखते हैं, इसीलिए ‘नरेन्द्र नरेन्द्र’ कह व्याकुल होते हैं ।
"नरेन्द्र अवतार नहीं मानते तो क्या हुआ ? श्रीरामकृष्ण ने दिव्यचक्षु से देखा कि यह ईश्वर पर अभिमान के कारण सम्भव हो सकता है । ईश्वर तो अपने हैं, वे अपनी माँ हैं, मानी हुई माँ नहीं, तब वे क्यों नहीं समझा देते, क्यों नहीं प्रकाशित कर दिखाते ? शायद इसीलिए श्रीरामकृष्ण ने गाते हुए कहा-`तुमने मान किया तो क्या हुआ, हम लोग भी तुम्हारे मान में तुम्हारे साथ ही हैं ।'
"जो अपने से भी अपने हैं उन पर मान न करें तो और किस पर करें ? धन्य नरेन्द्रनाथ, तुम्हारे ऊपर इन पुरुषोत्तम का इतना प्रेम है ! तुम्हें देखकर इन्हें इतनी सहजता से ईश्वर का उद्दीपन होता है !"
इस प्रकार सोचते हुए तथा श्रीरामकृष्ण का स्मरण करते हुए उस गहरी रात में भक्तगण अपने अपने घरों में लौट रहे हैं ।
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