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गुरुवार, 9 जून 2022

$$$ BANKIM CHANDRA*🔆🙏परिच्छेद ~103 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]🙏उनके दर्शन देकर आदेश न देने तक प्रचार नहीं होता🔆 ईश्वर वस्तु है, बाकी सभी अवस्तु - यह बुद्धि न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती । 🙏 दान आदि सभी राम की इच्छा पर निर्भर है🔆🙏

परिच्छेद -१०३

श्रीरामकृष्ण तथा श्री बंकिमचन्द्र

(শ্রীরামকৃষ্ণ ও শ্রীযুক্ত বঙ্কীম)

(१)

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

🔆🙏बंकिम और राधाकृष्ण ; युगल -रूप की व्याख्या 🔆🙏

आज श्रीरामकृष्णदेव अधर के मकान पर पधारे हैं; मार्गशीर्ष की कृष्ण चतुर्थी है, शनिवार ६ दिसम्बर, सन् १८८४ । श्रीरामकृष्ण पुष्य नक्षत्र में आये हैं । 

अधर विशेष भक्त हैं; वे डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । उम्र २९-३० होगी । श्रीरामकृष्ण उनसे विशेष प्रेम रखते हैं । अधर की भी कैसी भक्ति है ! सारा दिन आफिस के परिश्रम के बाद मुँह-हाथ धोकर प्रायः प्रतिदिन ही सन्ध्या के समय श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने जाया करते थे । मकान शोभाबाजार बेनेटोला में है । वहाँ से दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीरामकृष्ण के पास गाड़ी करके जाते थे । इस प्रकार प्रतिदिन प्रायः दो रुपये गाडीभाड़ा देते थे । केवल श्रीरामकृष्ण का दर्शन करेंगे, यही आनन्द है । 

उनके श्रीमुख की वाणी सुनने का अवसर प्रायः नहीं होता था । पहुँचकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम करते थे; कुशल प्रश्न आदि के बाद में माँ काली का दर्शन करने जाते थे । बाद में जमीन पर चटाई बिछी रहती थी, उस पर विश्राम करते थे । श्रीरामकृष्ण स्वयं ही उनको विश्राम करने को कहते थे ।अधर का शरीर परिश्रम के कारण इतना क्लान्त हो जाता था कि वे थोड़े ही समय में सो जाते थे । रात के ९-१० बजे उन्हें उठा दिया जाता था । वे भी उठकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर फिर गाड़ी पर सवार होते और घर लौट जाते थे ।

अधर श्रीरामकृष्ण को अक्सर शोभाबाजार में अपने घर पर ले जाते थे । श्रीरामकृष्णदेव के आने पर वहाँ उत्सव लग जाता था । श्रीरामकृष्ण तथा अन्य भक्तों के साथ अधर खूब आनंद मनाते थे और अनेक प्रकार उन्हें तृप्ती के साथ भोजन कराते थे ।

एक दिन श्रीरामकृष्ण उनके घर पर पधारे । अधर ने कहा, “आप बहुत दिनों से इस मकान पर नहीं आये थे; घर बड़ा मैला पड़ा था, न जाने कैसी दुर्गन्ध पैदा हो गयी थी; आज देखिये, घर की कैसी शोभा हुई है और कैसी सुगन्ध फैली हुई है ! मैंने आज ईश्वर को बहुत पुकारा था । यहाँ तक कि आँखों से आँसू निकल पड़े थे ।" श्रीरामकृष्ण बोले, "कहते क्या हो जी" और यह कहकर अधर की ओर स्नेह-भरी दृष्टि से देखकर हँसने लगे ।

आज भी उत्सव होगा । श्रीरामकृष्ण भी आनन्दमय है, भक्तगण भी आनन्द से पूर्ण हैं; क्योंकि जहाँ श्रीरामकृष्ण उपस्थित हैं, यहाँ ईश्वर की चर्चा के अतिरिक्त और कोई भी बात न होगी । भक्तगण आये हैं और श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अनेक नये नये व्यक्ति आये हैं।  अधर स्वयं डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । वे अपने कुछ मित्र तथा डिप्टी मैजिस्ट्रेट को आमन्त्रित करके लाये हैं । वे स्वयं श्रीरामकृष्ण को देखेंगे और कहेंगे, वास्तव में वे महापुरुष है या नहीं । 

श्रीरामकृष्ण हँसमुख हो भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । इसी समय अधर अपने कुछ मित्रों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । 

अधर - (बंकिम को दिखाकर, श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, ये बड़े विद्वान है; अनेक पुस्तकें लिखी हैं । आपको देखने आये हैं । इनका नाम है बंकिमबाबू

{'बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय [Bankim Chandra Chattopadhyay : (1838-1894)] - "वंदे मातरम्" संगीत के रचयिता साहित्य सम्राट बंकिमचंद्र कलकत्ता विश्वविद्यालय के पहले स्नातक थे। उन्होंने अपने साहित्यिक अभियान के माध्यम से बंगाल के लोगों को बौद्धिक रूप से प्रेरित किया। भारत को अपना राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् आनंदमठ से मिला। बंगाल में वर्ष 1770 के भीषण अकाल के बाद संन्यासी विद्रोह शुरू हुआ जिससे घोर अराजकता और दुर्दशा उत्पन्न हुई। उनका महाकाव्य उपन्यास आनंदमठ, संन्यासी विद्रोह (1770-1820) की पृष्ठभूमि से प्रभावित था। आधुनिक बंगाली साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से एक बंकिमचंद्र पेशे से डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, तथा  बंगदर्शन पत्रिका के संस्थापक भी थे । बंकिमचंद्र का जन्म 24 परगना जिले के कांठाल पाड़ा नामक गांव में हुआ था।  श्री रामकृष्ण देव से उनकी मुलाकात 6 दिसंबर 1884 ईस्वी को अधरलाल सेन के  शोभाबाजार स्थित घर पर हुई थी । बंकिमचंद्र ने उस दिन ठाकुर से धर्म के विषय में विभिन्न प्रश्न पूछे थे और उनके उचित उत्तर को सुनकर संतुष्ट हुए थे। दक्षिणेश्वर में एक बार श्रीरामकृष्ण देव ने महेन्द्रनाथ गुप्त को  बंकिमचंद्र द्वारा लिखित पुस्तक 'देवी चौधुरानी' को पढ़कर सुनाने के लिए कहा था, तथा उस पुस्तक में गीतोक्त निष्काम कर्म का उल्लेख होते देखकर अपनी प्रशंसा व्यक्त की थी। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में उल्लिखित ठाकुर देव के साथ हुए उनके वार्तालाप और उपदेशों को सुनकर बंकिम बाबू अध्यात्म के विषय में गहराई से चिंतन करने को विवश हो गए थे। बाद के दिनों में ठाकुर देव के निर्देशानुसार मास्टर महाशय और गिरीश बाबू ने बंकिम बाबू के सानकी- भांगा घर पर जाकर श्रीरामकृष्ण देव के उपदेशों की चर्चा विस्तार से की थी। ] 

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) – बंकिम ! तुम फिर किसके भाव में बंकिम हो गए हो भाई !

[बंकिम, तिरछा-bent या टेढ़ा] 

बंकिम - (हँसते हँसते) - जी महाराज, जूते की चोट से ! (सभी हँसे) अंग्रेज साहब के जूते की चोट से टेड़ा ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, श्रीकृष्ण प्रेम से बंकिम बने थे । श्रीमती राधा के प्रेम से त्रिभंग हुए थे । कृष्ण-रूप की व्याख्या कोई कोई करते हैं, श्रीराधा के प्रेम से त्रिभंग ।

"श्री कृष्ण काला (नील कलेवर) क्यों है जानते हो ? और साढ़े तीन हाथ - उतने छोटे क्यों है ?

"जब तक ईश्वर दूर हैं, तब तक काले दिखते हैं; जैसा समुद्र का जल दूर से नीला दिखता है । समुद्र के जल के पास जाने से और हाथ में उठाने से फिर जल काला नहीं रहता, उस समय बहुत साफ-सफेद दिखता है । सूर्य दूर है, इसलिए छोटा दिखता है; पास जाने पर फिर छोटा नहीं रहता, ईश्वर का स्वरूप ठीक जान लेने पर फिर काला भी नहीं रहता, छोटा भी नहीं रहता । यह बहुत दूर की बात है । समाधिमग्न न होने से उन्हीं की सब लीला है यह समझ में नहीं आता । 'मैं' 'तुम' है तब तक नाम-रूप भी हैं । उन्हीं की सब लोला है । 'मैं’ ‘तुम' जब तक रहते हैं, तब तक वे अनेक रूपों में प्रकट होते हैं ।" 
"श्रीकृष्ण पुरुष हैं, श्रीमती राधा उनकी शक्ति हैं - आद्याशक्ति । पुरुष और प्रकृति युगल मूर्ति का अर्थ क्या है ? पुरुष और प्रकृति अभिन्न हैं । उनमें भेद नहीं है । पुरुष प्रकृति के बिना नहीं रह सकता, प्रकृति भी पुरुष के बिना नहीं रह सकती । एक का नाम करने से ही दूसरे को उसके साथ ही समझना होगा । जिस प्रकार अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति । दाहिका शक्ति को छोड़कर अग्नि का चिन्तन नहीं किया जा सकता और अग्नि को छोड़कर दाहिका शक्ति का भी चिन्तन नहीं किया जा सकता ।

" इसलिए युगल-मूर्ति में श्रीकृष्ण की दृष्टि श्रीमती की ओर, और श्रीमती की दृष्टि श्रीकृष्ण की ओर है । श्रीमती का गौर वर्ण है, बिजली की तरह श्रीमती ने नीली साड़ी पहनी है और उन्होंने नीलकान्त मणि से अंग को सजाया है । श्रीमती के चरणों में नुपुर है, इसलिए श्रीकृष्ण ने भी नुपुर पहने हैं, अर्थात् प्रकृति के साथ पुरुष का अन्दर तथा बाहर मेल है ।"

ये सब बातें समाप्त हुईं । अब अधर के बंकिम आदि मित्रगण अंग्रेजी में धीरे धीरे बातें करने लगे । श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए बंकिम आदि के प्रति) - क्या जी आप लोग अंग्रेजी में क्या बातचीत कर रहे हैं ? (सभी हँसे ।)
अधर - जी, इसी विषय में जरा बात हो रही थी, कृष्णरूप की व्याख्या की बात !

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए सभी के प्रति) - एक कहानी की याद आने से मुझे हँसी आ रही है । सुनो कहानी कहूँ । नाई हजामत बनाने गया था । एक भद्र पुरुष हजामत बनवा रहे थे । अब हजामत बनवाते बनवाते उन्हें जरा कहीं अस्तुरा लग गया और उस भद्र पुरुष ने कहा 'डैम' (damn) परन्तु नाई तो डैम का मतलब नहीं जानता था । जाड़े का दिन था, उसने अस्तुरा आदि छोड़-छाड़कर अपनी कमीज की अस्तीन उठाकर कहा 'तुमने मुझे डैम कहा, अब कहो, इसका मतलब क्या है ?'
उस व्यक्ति ने कहा, 'अरे, तू हजामत बना न ! उसका मतलब विशेष कुछ भी नहीं है, परन्तु जरा होशियारी से बनाना !' नाई भी छोड़नेवाला न था । वह कहने लगा, 'डॅम का मतलब यदि अच्छा है, तो मैं डॅम, मेरा बाप डॅम, मेरे चौदह पुरुष डॅम हैं । (सभी हँसे ।) और डॅम का मतलब यदि खराब हो तो तुम डॅम, तुम्हारा बाप डॅम, तुम्हारे चौदह पुरुष डॅम हैं । (सभी हँसे ।) फिर केवल डॅम ही नहीं - डॅम डॅम डॅम डॅम ।’ (सभी जोर से हँसे ।)

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(२) 

🔆🙏 श्रीरामकृष्ण और प्रचारकार्य 🔆🙏


सब की हँसी बन्द होने पर बंकिम ने फिर बातचीत प्रारम्भ की ।

बंकिम - महाराज, आप प्रचार क्यों नहीं करते ?

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हँसते ) – " प्रचार ? वह सब गर्व की बातें हैं । मनुष्य तो क्षुद्र जीव है । प्रचार वे ही करेंगे । जिन्होंने चन्द्र-सूर्य पैदा करके इस जगत् को प्रकाशित किया है । प्रचार करना क्या साधारण बात है ? उनके दर्शन देकर आदेश न देने तक प्रचार नहीं होता ।" हाँ ,परन्तु प्रचार करने से तुम्हें कोई रोक नहीं सकता । 
तुम्हें आदेश नहीं मिला, फिर भी तुम बक-बक कर रहे हो; वही दो दिन लोग सुनेंगे फिर भूल जायेंगे । जैसे एक लहर । जब तक तुम कह रहे हो, तब तक लोग कहेंगे, 'अहा, अच्छा कह रहे हैं वे ।’ तुम रुकोगे, उसके बाद कहीं कुछ भी न होगा ।

“जब तक दूध की कढ़ाई के नीचे आग जलती रहेगी, तब तक दूध खौल करके उबल उठता है । लकड़ी खींच लो, दूध भी ज्यों का त्यों नीचे उतर गया
“और साधना करके अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए, नहीं तो प्रचार नहीं होता । 'अपने सोने के लिए जगह नहीं पाता और ऊपर से शंकरा को पुकारता हैं ।' अपने ही सोने के लिए स्थान नहीं, फिर पुकारता है, 'अरे शंकरा, आओ मेरे पास आकर सोओ ।'

"उस देश में हालदारों के तालाब के किनारे लोग रोज शौच को जाते थे, सबेरे लोग आकर देखते थे और गाली-गलौज करते थे । लोग गाली देते थे, फिर भी लोगों का शौच जाना बन्द नहीं होता था । अन्त में मुहल्लेवालों ने अर्जी भेजकर कम्पनी को सूचित किया ।

`उन्होंने एक नोटिस लगा दिया, 'यहाँ पर शौच जाना या पेशाब करना मना है, जो ऐसा करेगा उसे सजा दी जायेगी ।’ उसके बाद सब एकदम बन्द और फिर कोई गड़बड़ी नहीं । कम्पनी का हुक्म - सभी को मानना होगा । "उसी प्रकार ईश्वर का साक्षात्कार होने पर यदि वे आदेश दें, तभी प्रचार होता है, लोकशिक्षा होती है, नहीं तो तुम्हारी बात कौन सुनेगा ?"

 इन बातों को सभी गम्भीर भाव से स्थिर होकर सुनने लगे।

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) - अच्छा, आप तो बड़े पण्डित हैं, और कितनी पुस्तकें लिखी हैं आपने ! आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है ? साथ क्या जायेगा ? परकाल तो है न ?

बंकिम – परकाल ? वह क्या चीज है ?

श्रीरामकृष्ण -" हाँ, ज्ञान के बाद और दूसरे लोक में जाना नहीं पड़ता, पुनर्जन्म नहीं होता । परन्तु जब तक ज्ञान नहीं होता, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक संसार में लौटकर आना पड़ता है, बचने का कोई भी उपाय नहीं है । तब तक परलोक भी है । ज्ञान प्राप्त होने पर, ईश्वर का दर्शन होने पर मुक्ति हो जाती है - और आना नहीं पड़ता ।
"उबाला हुआ धान बोने से फिर पौधा नहीं होता । ज्ञानरूपी अग्नि से यदि कोई उबाला हुआ हो, तो उसे लेकर और सृष्टि का खेल नहीं होता । वह गृहस्थी कर नहीं सकता, उसकी तो कामिनी-कांचन में आसक्ति नहीं है । उबाले हुए धान को फिर खेत में बोने से क्या होगा ?
बंकिम - (हँसते हँसते) - हाँ महाराज, और घास-पतवार से भी तो पेड़ का कार्य नहीं होता !
श्रीरामकृष्ण - परन्तु ज्ञानी घास-पतवार नहीं हैं । जिसने ईश्वर का दर्शन किया है, उसने अमृतफल प्राप्त किया है - वह कोई कद्दू-कोंहड़ा फल नहीं है ! उसका पुनर्जन्म नहीं होता । पृथ्वी कहो, सूर्यलोक कहो, चन्द्रलोक कहो - कहीं पर भी उसे आना नहीं पड़ता । 
"उपमा एकदेशी है। तुमने न्यायशास्त्र नहीं पढ़ा ? बाघ की तरह भयानक कहने से , बाघ की तरह एक भारी दुम या बड़े भारी मुख से अर्थ हो, सो नहीं। (सभी हँसे)  
"मैंने केशव सेन से वही बात कही थी । केशव ने पूछा - 'महाराज, क्या परलोक हैं ?' मैंने न इधर बताया और न उधर कहा, कुम्हार लोग मिट्टी के बर्तन बनाकर सूखने के लिए बाहर रखते हैं। उनमें पक्के बर्तन भी है और फिर कच्चे बर्तन भी । कभी कोई जानवर आकर उन्हें कुचलकर चले जाते हैं ।
" पक्के बर्तन टूट जाने पर कुम्हार उन्हें फेंक देता है, परन्तु कच्चे बर्तन टूट जाने पर उन्हें कुम्हार फिर घर में लाता है, लाकर पानी मिलाता है और उसे गीला करके रगड़कर फिर चाक पर चढ़ाता और नया बर्तन बना लेता है; छोड़ता नहीं । इसीलिए केशव से कहा, जब तक कच्चा रहेगा तब तक कुम्हार नहीं छोड़ेगा, जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होता, जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं मिलता, तब तक कुम्हार फिर चाक पर डालेगा; छोड़ेगा नहीं । अर्थात् लौट-लौटकर इस संसार में आना पड़ेगा - छुटकारा नहीं । 
"उन्हें प्राप्त करने पर तब मुक्ति होती है, तब कुम्हार छोड़ देता है, क्योंकि उसके द्वारा माया की सृष्टि का कोई काम नहीं होता । ज्ञानी माया के परे चले गये हैं; वे फिर माया के संसार में क्या करेंगे ?
"परन्तु किसी किसी को [`C-IN-C' नवनीदा को ?]वे माया के संसार में रख देते हैं, लोक शिक्षा के लिए । लोगों को शिक्षा देने के लिए ज्ञानी विद्यामाया का सहारा लेकर रहते हैं । ईश्वर ही अपने काम के लिए उन्हें रख छोड़ते हैं, जैसे शुकदेव, शंकराचार्य । 
श्रीरामकृष्ण (बंकिम के प्रति सहास्य ) - " अच्छा, आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है?”

बंकिम – (हँसते हँसते) - यदि आप पूछते ही हैं तो उसका कर्तव्य है, आहार, निद्रा और मैथुन ।

श्रीरामकृष्ण - (विरक्त होकर) – ओह ! "तुमि तो बोड़ो छैंछड़ा " तुम बहुत ही बेहूदे हो ! तुम दिन-रात जो करते हो वही तुम्हारे मुख से निकल रहा है । लोग जो कुछ खाते हैं उसी की डकार आती है । मूली खानेपर मूली की डकार आती है । नारियल खाने पर नारियल की डकार आती है। कामिनी-कांचन में दिन-रात रहते हो और वही बात मुख से निकल रही है । केवल विषय का चिन्तन करने से हिसाबी स्वभाव बन जाता है, मनुष्य कपटी बन जाता है । ईश्वर का चिन्तन करने पर सरल होता है, ईश्वर का साक्षात्कार होने पर ऐसी बातें कोई नहीं कहेगा । 

 "यदि ईश्वर का चिन्तन न हो, यदि विवेक-वैराग्य न हो तो केवल विद्वत्ता रहने से क्या होगा ? यदि कामिनी-कांचन में मन रहे, तो केवल पण्डिताई से क्या होगा ?

"गिद्ध बहुत ऊँचाई पर उड़ता है, परन्तु दृष्टि उसकी केवल मरघट पर ही रहती है । पण्डितजी अनेक पुस्तकें, शास्त्र पढ़ते हैं, श्लोक झाड़ सकते हैं, कितनी ही पुस्तकें लिखते हैं, परन्तु औरत के प्रति आसक्त हैं, धन और मान को सार समझते हैं, वह फिर कैसा पण्डित ? ईश्वर में यदि मन न रहा तो फिर क्या पण्डित और क्या उसकी पण्डिताई ?

      "कोई-कोई समझते हैं कि ये लोग केवल ईश्वर-ईश्वर कर रहे हैं; पगले हैं ! ये लोग बौरा गये हैं । हम कैसे चालाक हैं, कैसे सुख भोग रहे हैं - धन-सम्मान, इन्द्रिय-सुख । कौआ भी समझता है, मैं बहुत चालाक हूँ, परन्तु सबेरे उठकर ही दूसरों की विष्ठा खाता हैं । कौओं को नहीं देखते हो, कितनी ऐंठ के साथ घुमते-फिरते हैं, बड़े सयाने ! (सभी चुप हैं ।)
 
"जो लोग ईश्वर का चिन्तन करते हैं, विषय में आसक्ति, कामिनी-कांचन में प्रेम दूर करने के लिए दिन-रात प्रार्थना करते हैं, जिन्हें विषय का रस कडुवा लगता है, हरि-पाद पद्म की सुधा को छोड़कर जिन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उनका स्वभाव हंस का सा होता है । हंस के सामने दूध-जल मिलाकर रखो, जल छोड़कर दूध पी जायगा । हंस की चाल देखी है ? एक ओर सीधा चला जायेगा ।
" और शुद्ध भक्ति की गति भी केवल ईश्वर की ओर होती है । वह और कुछ नहीं चाहता । उसे और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । (बंकिम के प्रति कोमल भाव से) आप कुछ बुरा न मानियेगा ।"

बंकिम - जी, मैं यहाँ मीठी बातें सुनने नहीं आया हूँ ।

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(३)

*जगत् का उपकार तथा कर्मयोग*

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) – कामिनी-कांचन ही संसार है । इसी का नाम माया है । ईश्वर को देखने तथा उसका चिन्तन नहीं करने देती । एक-दो बच्चे होने पर स्त्री के साथ भाई-बहन के सदृश रहना चाहिए और आपस में सदा ईश्वर की बातचीत करनी चाहिए ।  इससे दोनों का ही मन उनकी ओर जायेगा और स्त्री धर्म की सहायक बनेगी । पशुभाव न मिटने पर ईश्वर के आनन्द का आस्वादन हो नहीं सकता । ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि जिससे पशुभाव दूर हो । व्याकुल होकर प्रार्थना । वे अन्तर्यामी हैं, अवश्य ही सुनेंगे - यदि प्रार्थना आन्तरिक हो ।

"फिर 'कांचन' । मैंने पंचवटी में गंगा के किनारे पर बैठकर 'रुपया मिट्टी' 'रुपया मिट्टी' 'मिट्टी ही रुपया' 'रुपया ही मिट्टी' कहकर दोनों जल में फेंक दिये थे ।”
बंकिम - रुपया मिट्टी ! महाराज, चार पैसे रहे तो गरीब को दिये जा सकते हैं । रुपया यदि मिट्टी है तो फिर दया परोपकार कैसे होगा ?

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) – दया ! परोपकार ! तुम्हारी क्या शक्ति है कि तुम परोपकार करो ? मनुष्य का इतना घमण्ड, परन्तु जब सो जाता है, तो यदि कोई खड़े होकर उसके मुँह में पेशाब भी कर दे, तो पता नहीं लगता । उस समय अहंकार, गर्व, दर्प कहाँ जाता है ?
"संन्यासी को कामिनी-कांचन का त्याग करना पड़ता है । उसे फिर वह ग्रहण नहीं कर सकता । थूक को फेंककर फिर उसे चाटना नहीं चाहिए । संन्यासी यदि किसी को कुछ देता है तो वह ऐसा नहीं समझता कि उसने स्वयं दिया । दया ईश्वर की है, मनुष्य बेचारा क्या दया करेगा ? दान आदि सभी राम की इच्छा पर निर्भर है ।

यथार्थ संन्यासी मन से भी `कामिनी -कांचन' का त्याग करता है, और बाहर से भी त्याग करता है। वह गुड़ नहीं खाता, उसके पास गुड़ रहना भी ठीक नहीं । पास गुड़ रहते यदि वह कहे कि ‘न खाओ’ तो लोग सुनेंगे नहीं ।
   
“गृहस्थ लोगों को रुपयों की आवश्यकता है, क्योंकि स्त्री बच्चे हैं । उन्हें संचय करना चाहिए – स्त्री-बच्चों को खिलाना होगा । संचय नहीं करेंगे केवल पंछी और दरवेश, अर्थात् चिड़िया और संन्यासी । परन्तु चिड़िये का बच्चा होने पर वह मुँह में उठाकर खाना लाती है । उसे भी उस समय संचय करना पड़ता है । इसीलिए गृहस्थ लोगों को धन की आवश्यकता है - परिवार का पालन-पोषण करना चाहिए ।

"गृहस्थ लोग यदि शुद्ध भक्त हों तो अनासक्त होकर कर्म कर सकते हैं । यह कर्म का फल, हानि, लाभ, सुख, दुःख ईश्वर को समर्पित करता है । और उनसे दिन-रात भक्ति की प्रार्थना करता है, और कुछ भी नहीं चाहता । इसी का नाम है 'निष्काम कर्म’ - अनासक्त होकर कर्म करना । संन्यासी के सभी कर्म निष्काम होने चाहिए । परंतु संन्यासी गृहस्थों की तरह विषयकर्म नहीं करता।
"गृहस्थ व्यक्ति निष्काम भाव से यदि किसी को कुछ दान दे, तो वह अपने ही उपकार के लिए होता है । परोपकार के लिए नहीं । सर्व भूतों में हरि विद्यमान है, उन्हीं की सेवा होती है । हरि सेवा होने से अपना ही उपकार हुआ, 'परोपकार' नहीं

" यही सर्व भूतों में हरि की सेवा है - केवल मनुष्य की नहीं, जीवजन्तुओं में भी हरि की सेवा यदि कोई करे, और यदि वह मान, यश, मरने के बाद स्वर्ग न चाहे, जिनकी सेवा कर रहा है उनसे बदले में कोई उपकार न चाहे - इस प्रकार यदि सेवा करे, तो उसका निष्काम कर्म, अनासक्त कर्म होता है । "इस प्रकार निष्काम कर्म करने पर उसका अपना कल्याण होता है । इसी का नाम कर्मयोग है । यह कर्मयोग भी ईश्वर को प्राप्त करने का एक उपाय है, परन्तु यह मार्ग है बड़ा कठिन । कलियुग के लिए नहीं है । 

"इसलिए कहता हूँ, जो व्यक्ति अनासक्त होकर इस प्रकार कर्म करता है, दया दान करता है, वह अपना ही भला करता है । दूसरों का उपकार, दूसरों का कल्याण - यह सब ईश्वर करते हैं जिन्होंने जीव के लिए चन्द्र, सूर्य, माँ बाप, फल, फूल, अनाज पैदा किया है । पिता आदि में जो स्नेह देखते हो, वह उन्हीं का स्नेह है, जीव की रक्षा के लिए ही उन्होंने यह स्नेह दिया है । दयालु के भीतर जो दया देखते हो, वह उन्हीं की दया है, उन्होंने असहाय जीव की रक्षा के लिए दी है । तुम दया करो या न करो, वे किसी न किसी उपाय से अपना काम करेंगे ही । उनका काम रुका नहीं रह सकता । 
"इसीलिए जीव का कर्तव्य क्या है ? वह यह कि उनकी शरण में जाना, और जिससे उनकी प्राप्ति हो, उनका दर्शन हो उसी के लिए व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करना - और दूसरा क्या ?

"शम्भू ने कहा था, 'मेरी इच्छा होती है कि अनेक डिस्पेन्सरियाँ (दवाखाने), अस्पताल बनवा दूँ । इससे गरीबों का बहुत उपकार होगा ।’ मैंने कहा, 'हाँ, अनासक्त होकर यदि यह सब करो तो बुरा नहीं ।’ परन्तु ईश्वर पर आन्तरिक भक्ति न रहने पर अनासक्त बनना बड़ा कठिन है ।

"फिर अनेक काम बढ़ा लेने से न जाने किधर से आसक्ति आ जाती है, जाना नहीं जाता । मन में सोचता हूँ कि निष्काम भाव से काम कर रहा हूँ, परन्तु सम्भव है, यश की इच्छा हुई, ख्याति प्राप्त करने की इच्छा हुई । फिर जब (नाम-यश के चक्कर में) अधिक कर्म करने को जाता है, तो कर्म की भीड़ में ईश्वर को भूल जाता है ।

" और कहा 'शम्भू ! तुमसे एक बात पूछता हूँ । यदि ईश्वर तुम्हारे सामने आकर प्रकट हों तो क्या तुम उनसे कुछ डिस्पेन्सरियाँ या अस्पताल माँगोगे या स्वयं उन्हें माँगोगे ?' उन्हें प्राप्त करने पर और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मिश्री का शरबत पीने पर फिर गुड़ का शरबत अच्छा नहीं लगता ।

"जो लोग अस्पताल, डिस्पेन्सरी खोलेंगे और इसी में आनन्द अनुभव करेंगे, वे भी भले आदमी हैं । परन्तु उनकी श्रेणी अलग है । जो शुद्ध भक्त है, वह ईश्वर के अतिरक्त और कुछ भी नहीं चाहता; अधिक कर्म के बीच में यदि वह पड़ जाय तो व्याकुल होकर प्रार्थना करता है, 'हे ईश्वर, दया करके मेरा कर्म कम कर दो, नहीं तो, जो मन रातदिन तुम्हीं में लगा रहेगा, वह मन व्यर्थ में इधर-उधर खर्च हो रहा है । उसी मन से विषय का चिन्तन किया जा रहा है ।’

"शुद्धा भक्ति की श्रेणी अलग ही होती है । ईश्वर वस्तु है, बाकी सभी अवस्तु - यह बुद्धि न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती । यह संसार अनित्य है, दो दिन के लिए है, और इस संसार के जो कर्ता हैं, वे ही सत्य हैं; नित्य हैं । यह ज्ञान न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती ।
"जनक आदि ने आदेश पाने पर ही कर्म किया है ।"

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(४)

🔆🙏पहले विद्या (Science) या पहले ईश्वर🔆🙏

[আগে বিদ্যা (Science) না আগে ঈশ্বর]

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) कोई कोई समझते हैं कि बिना शास्त्र पढ़े अथवा पुस्तकों का अध्ययन किये ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता । वे सोचते हैं, पहले जगत् के बारे में, जीव के बारे में जानना चाहिए, पहले साइन्स(Science) पढ़ना चाहिए । (सभी हँसे ।) वे कहते हैं, ईश्वर की यह सारी सृष्टि समझे बिना ईश्वर को जाना नहीं जाता । तुम क्या कहते हो ? पहले साइन्स या पहले ईश्वर ?

बंकिम - जी हाँ, पहले जगत् के बारे में दस बातें जान लेनी चाहिए । थोड़ा इधर का ज्ञान हुए बिना ईश्वर को कैसे जानूँगा ? पहले पुस्तकें पढ़कर कुछ जान लेना चाहिए ।

श्रीरामकृष्ण - वही तुम लोगों का एक (उल्टा>) ख्याल है पहले ईश्वर, उसके बाद सृष्टि । उन्हें प्राप्त करने पर, आवश्यक हो तो सभी जान सकोगे ।  किसी भी तरह यदु मल्लिक के साथ बातचीत कर सकोगे फिर यदि तुम यह जानना चाहोगे कि उसके कितने मकान हैं, कितने कम्पनी के कागज हैं, कितने बगीचे हैं, तो यह सब भी जान सकोगे । यदु मल्लिक ही खुद सब बता देगा ।
     " परन्तु यदि उसके साथ पहले से कोई जान-पहचान न हो,  बतचीत न हो, और मकान के अन्दर घुसना चाहोगे, तो दरवान लोग घुसने ही न देंगे । फिर ठीक-ठीक  कैसे जानोगे कि उसके कितने मकान है, कितने कम्पनी के कागजात हैं, कितने बगीचे हैं आदि आदि ? उन्हें जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है । परन्तु उन्हें जान लेने के बाद  फिर मामूली चोजें जानने की इच्छा नहीं रहती
" वेद में भी यही बात है । जब तक किसी व्यक्ति को (माँ जगदम्बा को) देखा नहीं जाता तब तक उसके गुणों की बातें बतायी जा सकती है; जब वह सामने आ जाता है, उस समय वे सब बातें बन्द हो जाती हैं । लोग उसे ही लेकर मस्त रहते हैं । उसके साथ हो बातचीत करते हुए विभोर हो जाते हैं, उस समय दूसरी बाते नहीं सूझतीं ।

"पहले ईश्वर की प्राप्ति, उसके बाद सृष्टि या दूसरी बातचीत । वाल्मीकि को राममन्त्र का जप करने को कहा गया, परन्तु उनसे कहा गया, 'मरा' 'मरा' का जप करो । 'म' अर्थात् ईश्वर और 'रा' अर्थात् जगत् । पहले ईश्वर, उसके बाद जगत्, एक को जानने पर सभी जाना जा सकता है । एक के बाद यदि पचास शून्य रहे तो संख्या बढ़ जाती हैं । १ को मिटा देने से कुछ भी नहीं रहता। एक को लेकर ही अनेक है । पहले एक, उसके बाद अनेक; पहले ईश्वर, उसके बाद जीव-जगत्।
 
"तुम्हारी आवश्यकता है ईश्वर को प्राप्त करने की । तुम इतना जगत्, सृष्टि, साइन्स-फाइन्स यह सब क्या कर रहे हो ? तुम्हें आम खाने से मतलब । बगीचे में कितने सौ पेड़ हैं, कितने हजार टहनियाँ, कितने लाख करोड़ पत्ते हैं - इन सब हिसाबों से तुम्हारा क्या काम ?
" तुम आम खाने आये हो, आम खाकर चले आओ । इस संसार में मनुष्य आया है भगवान को प्राप्त करने के लिए । उसे भूलकर अन्य विषयों में मन लगाना ठीक नहीं। आम खाने के लिए आये हो, आम खाकर ही चले जाओ ।"

बंकिम - आम पाता हूँ कहाँ?

श्रीरामकृष्ण - उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करो, आन्तरिक प्रार्थना होने पर वे अवश्य सुनेंगे । सम्भव है कि ऐसा कोई सत्संग जुटा दें, जिससे सुभीता हो जाय । सम्भव है कोई कह दें, ऐसा-ऐसा करो,तो ईश्वर को पाओगे ।

बंकिम – कौन ? गुरु ? वे अच्छे आम स्वयं खाकर मुझे खराब आम देते हैं ! (हंसी ।)

श्रीरामकृष्ण - क्यों जी ! जिसके पेट में जो सहन होता है । सभी लोग कलिया खाकर पचा सकते हैं ? घर में अच्छी चीज बनने पर माँ सभी बच्चों को पुलाव-कलिया नहीं देती । जो कमजोर है, जिसे पेट की बीमारी है, उसे सादी तरकारी देती है; तो क्या माँ उस बच्चे से कम स्नेह करती है ?

[One must have faith in the guru's words. God Himself is the Guru.] 

"गुरुवाक्य में विश्वास करना चाहिए । गुरु ही सच्चिदानन्द, सच्चिदानन्द ही गुरु हैं; उनकी बात पर विश्वास करने से, बालक की तरह विश्वास करने से, ईश्वरप्राप्ति होती है । बालक का क्या हो विश्वास है ! माँ ने कहा, 'वह तेरा भाई लगता है’, उसी समय जान लिया, 'वह मेरा भाई है ।' एकदम पूरा पक्का विश्वास ।
"ऐसा भी हो सकता है कि वह लड़का ब्राह्मण के घर का है, और वह 'भाई' सम्भव है कि किसी दूसरी जाति का हो।" माँ ने कहा, उस कमरे में 'जूजू' है । बस, पक्का जान लिया, उस कमरे में 'जूजू' है । यही बालक का विश्वास है; गुरुवाक्य में इसी प्रकार विश्वास चाहिए । सयानी बुद्धि, हिसाबी बुद्धि, विचार बुद्धि करने से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता । विश्वास और सरलता होनी चाहिए, कपटी होने से न होगा । सरल के लिए वे बहुत सहज हैं । कपटी से वे बहुत दूर हैं ।

"परन्तु बालक जिस प्रकार माँ को न देखने से बेचैन हो जाता है, लड्डू मिठाई हाथ पर लेकर चाहे भुलाने की चेष्टा करो परन्तु वह कुछ भी नहीं चाहता, किसी से नहीं भूलता और कहता है, 'नहीं, मैं माँ के ही पास जाऊँगा,' इसी प्रकार ईश्वर के लिए व्याकुलता चाहिए ।

"अहा ! कैसी स्थिति ! - बालक जिस प्रकार 'माँ माँ' कहकर पागल हो जाता है, किसी भी तरह नहीं भूलता ! जिसे संसार के ये सब सुखभोग फीके लगते हैं, जिसे अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वही हृदय से 'माँ माँ' कहकर कातर होता है । उसी के लिए माँ को फिर सभी कामकाज छोड़कर दौड़ आना पड़ता है ।
"यही व्याकुलता (restlessness) है । किसी भी पथ से क्यों न जाओ, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, शाक्त, ब्राह्म - किसी पथ से जाओ, यह व्याकुलता ही असली बात है । वे तो अन्तर्यामी हैं, यदि भूल पथ में भी चले गये हो तो भी दोष नहीं है - पर व्याकुलता रहे । वे ही फिर ठीक पथ में उठा लेते हैं ।

"फिर सभी पथों में भूल है - सभी समझते हैं, मेरी घड़ी ठीक जा रही है, पर किसी की घड़ी ठीक नहीं चलती । तिस पर भी किसी का काम बन्द नहीं रहता । व्याकुलता हो तो साधु-संग मिल जाता है, साधु-संग से अपनी घड़ी बहुत कुछ मिला ली जा सकती है ।”

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(५)

🔆🙏 श्री रामकृष्ण कीर्तनानंद में🔆🙏
 
শ্রীরামকৃষ্ণ কীর্তনানন্দে

ब्राह्म समाज के श्री त्रैलोक्य गाना गा रहे हैं ।  श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते-सुनते एकाएक खड़े हो गये और ईश्वर के आवेश में बाह्यज्ञान-शून्य हो गये । एकदम अन्तर्मुख, समाधिमग्न । खड़े खड़े समाधिमग्न । सभी लोग घेरकर खड़े हुए । बंकिम व्यस्त होकर भीड़ हटाकर श्रीरामकृष्ण के पास जाकर एकदृष्टि से देख रहे हैंउन्होंने कभी समाधि नहीं देखी थी

"थोड़ी देर बाद थोड़ा बाह्य ज्ञान होने के बाद श्रीरामकृष्ण प्रेम से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे । मानो श्रीगौरांग श्रीवास के मन्दिर में भक्तों के साथ नृत्य कर रहे हैं । वह अदभुत नृत्य बंकिम आदि अंग्रेजी पढ़े लोग देखकर दंग रह गये

"क्या आश्चर्य ! क्या इसी का नाम प्रेमानन्द है ? ईश्वर से प्रेम करके क्या मनुष्य इतना मतवाला हो जाता है ? क्या ऐसा ही नृत्य नवद्वीप में श्रीगौरांग ने किया था ? क्या इसी तरह उन्होंने नवद्वीप में और श्रीक्षेत्र में (पुरी में) प्रेम का बाजार बैठाया था ? इसमें तो ढोंग नहीं हो सकता ।

" ये सर्वत्यागी हैं, इन्हें धन, मान, यश - किसी चीज की आवश्यकता नहीं है । तो क्या यही जीवन का उद्देश्य है ? किसी ओर मन न लगाकर ईश्वर से प्रेम करना ही क्या जीवन का उद्देश्य है ? अब उपाय क्या है ? उन्होंने कहा, 'माँ के लिए बेचैन होकर व्याकुल होना, व्याकुलता, प्रेम करना ही उपाय है, प्रेम ही उद्देश्य है । सच्चा प्रेम आते ही दर्शन होता है ।’

"भक्तगण इसी प्रकार चिन्तन करने लगे और उस अद्भुत देवदुर्लभ नृत्य एवं कीर्तन का आनन्द प्रत्यक्ष करने लगे । - सभी श्रीरामकृष्ण के चारों ओर खड़े हैं - और एकटक उन्हें देख रहे हैं ।
      कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर रहे हैं । ‘भागवत-भक्त-भगवान' इस कथन का उच्चारण करके कह रहे हैं, 'ज्ञानी, योगी, भक्त' - सभी के चरणों में प्रणाम ।' फिर सब लोग उनके चारों और घेरकर बैठ गये ।

 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

(६) 

🔆🙏श्री बंकिम और भक्ति योग। ईश्वरप्रेम🔆🙏

बंकिम - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, भक्ति का क्या उपाय है ?
श्रीरामकृष्ण – व्याकुलता । लड़का जिस प्रकार माँ के लिए, माँ को न देखकर बेचैन होकर रोता है, उसी प्रकार व्याकुल होकर ईश्वर के लिए रोने से ईश्वर को प्राप्त तक किया जाता है।
 
   "अरुणोदय होने पर पूर्व दिशा लाल हो जाती है, उस समय समझा जाता है कि सूर्योदय मे अब अधिक विलम्ब नहीं है । उसी प्रकार यदि किसी का प्राण ईश्वर के लिए व्याकुल देखा जाय, तो भलीभांति समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति का ईश्वर प्राप्ति में अधिक विलम्ब नहीं है ।
"एक व्यक्ति ने गुरु से पूछा था, 'महाराज, ईश्वर को कैसे प्राप्त करूं, बता दीजिये ।' गुरु ने कहा, ‘आओ, मैं तुम्हें बता देता हूँ ।' यह कहकर वे उसे एक तालाब के किनारे ले गये । दोनों जल में उतर पड़े । इतने में ही एकाएक गुरु ने शिष्य का सिर पकड़कर उसे जल में डुबो दिया और कुछ देर पानी में डुबाकर रखा । फिर थोड़ी देर बाद उसे छोड़ दिया ।

शिष्य सिर उठाकर खड़ा हो गया । गुरु ने पूछा, 'कहो, तुम्हें कैसा लग रहा था ?' शिष्य ने कहा, 'ऐसा लग रहा था कि अभी प्राण जाते ही हैं, प्राण बेचैन हो रहे थे ।' तब गुरु ने कहा, 'ईश्वर के लिए जब प्राण इसी प्रकार बेचैन होंगे, तभी जानो कि अब उनके साक्षात्कार में विलम्ब नहीं है ।'
       " तुमसे कहता हूँ, ऊपर ऊपर बहने से क्या होगा ? जरा गोता लगाओ । गहरे जल के नीचे रत्न है, जल के ऊपर हाथ पैर पटकने से क्या होगा ? यथार्थ मणि भारी होता है, वह जल पर तैरता नहीं; वह जल के नीचे डूबा हुआ रहता है । असली मणि प्राप्त करना हो तो जल के भीतर गोता लगाना पड़ेगा ।"
बंकिम - महाराज, क्या करूँ, पीठ पर काग बँधी हुई है । (सभी हँसे) वह डूबने नहीं देती ।

श्रीरामकृष्ण - उनका स्मरण करने से सभी पाप कट जाते हैं । उनके नाम से काल का फन्दा कट जाता है । गोता लगाना होगा, नहीं तो रत्न नहीं मिलेगा । एक गाना सुनो –
 (भावार्थ) "रे मेरे मन, रूप के समुद्र में गोता लगा । ओ रे, तल, अतल, पाताल खोजने पर प्रेमरूपी धन को पायेगा । ढूँढो, ढूँढो, ढूँढ़ने पर हृदय के बीच में वृन्दावन पाओगे और हृदय में सदाज्ञान का दीपक जलता रहेगा । कबीर कहते हैं, सुन सुन, गुरु के श्रीचरणों का चिन्तन कर ।"
श्रीरामकृष्ण ने अपने देवदुर्लभ मधुर कण्ठ से इस गाने को गाया । सभा के सभी लोग आकृष्ट होकर एक-मन से गाना सुनने लगे । गाना समाप्त होने पर फिर वार्तालाप शुरू हुआ ।

श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) - कोई कोई गोता लगाना नहीं चाहते । वे कहते हैं, 'ईश्वर ईश्वर करके ज्यादती करके अन्त में क्या पागल हो जाऊँ ?' जो लोग ईश्वर के प्रेम में मस्त हैं, उन्हें कहते हैं 'बौरा गये हैं', परन्तु ये सब लोग इस बात को नहीं समझते कि सच्चिदानन्द अमृत का समुद्र है। 
"मैंने एकबार नरेन्द्र से पूछा था, 'मान लो कि एक बर्तन रस है, और तू मक्खी बना है, तो तू कहाँ पर बैठकर रस पीयेगा ?' नरेन्द्र ने कहा, 'किनारे पर बैठकर मुँह बढ़ाकर पीऊँगा ।' मैंने कहा, क्यों ? बीच में जाकर डूबकर पीने में क्या हर्ज है ?' नरेन्द्र ने कहा, 'फिर तो रस में डूबकर मर जाऊँगा ।'

तब मैंने कहा, 'भैया, सच्चिदानन्द-रस ऐसा नहीं है, यह रस अमृत रस है । इसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं, अमर हो जाता है ।'

"तभी कह रहा हूँ, 'गोता लगाओ । कोई भय नहीं है । डूबने से अमर हो जाओगे ।"

अब बंकिम ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । वे बिदा लेंगे ।

बंकिम - महाराज, मुझे आपने जितना बड़ा मूर्ख समझा है, उतना नहीं हूँ । एक प्रार्थना है, दया करके मेरी कुटिया में एक बार पधार कर, उसे अपनी चरणधूलि से पवित्र कर दीजिये ।

श्रीरामकृष्ण - ठीक तो है, यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो जाऊंगा।

बंकिम - वहाँ पर भी देखेंगे, भक्त हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - कैसा भक्त जी ? कैसे सब भक्त है वहाँ पर ? जिन्होंने गोपाल गोपाल, केशव केशव कहा था, उनकी तरह हैं क्या ? - (सभी हँसे ।)

एक भक्त - महाराज, गोपाल गोपाल की कहानी क्या है ?

श्रीरामकृष्ण - (हँसते हँसते) - अरे वह कहानी ! अच्छा सुनो । एक स्थान पर एक सुनार की दुकान है । वे लोग परम वैष्णव है, गले में माला, तिलक है । हमेशा हाथ में हरिनाम का झोला और मुख में सदैव हरिनाम ।
उन्हें कोई भी साधु ही कहेगा और सोचेगा कि वे पेट के लिए ही सुनार का काम करते हैं, क्योंकि औरत-बच्चों को पालना ही है । परम वैष्णव जानकर अनेक ग्राहक उन्हीं की दूकान में आते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इनकी दूकान में सोने-चांदी में गड़बड़ी न होगी ।

ग्राहक दुकान में आते ही देखता है कि वे मुख से हरिनाम जप रहे हैं और बैठे हुए कामकाज भी कर रहे हैं । खरीददार ज्यों जाकर बैठा कि एक आदमी बोल उठा, ‘केशव ! केशव ! केशव !' थोड़ी देर बाद एक दूसरा कह उठा, ‘गोपाल ! गोपाल ! गोपाल !' फिर थोड़ी देर बातचीत होने पर एक तीसरा व्यक्ति कह उठा, ‘हरि हरि हरि ।'

अब जेवर बनाने की बातचीत एक प्रकार से समाप्त हो रही है । इतने में ही एक व्यक्ति बोल उठा, 'हर हर हर ।' इसीलिए तो इतनी भक्ति प्रेम देखकर वे लोग इन सुनारों के पास अपना रुपया पैसा देकर निश्चिन्त हो जाते हैं । सोचा कि वे लोग कभी न ठगेंगे ।

"परन्तु असली बात क्या है जानते हो ? ग्राहक के आने के बाद जिसने कहा था, 'केशव केशव' उसका मतलब है, ये सब लोग कौन हैं ? अर्थात् ये ग्राहक लोग कौन हैं ? जिसने कहा, 'गोपाल गोपाल’ - उसका मतलब है, ये लोग गाय के दल हैं । जिसने कहा, 'हरि हरि', इसका मतलब है, ये लोग मूर्ख हैं, तो फिर 'हरि' अर्थात् हरण करूँ ? और जिसने कहा, 'हर हर', इसका मतलब है, इनका सब कुछ हरण कर लो । ऐसे वे परम भक्त साधु थे !" (सभी हँसे ।)

बंकिम ने बिदा ली । परन्तु अन्यमनस्क होकर वे न जाने क्या सोच रहे थे । कमरे में दरवाजे के पास आकर देखते हैं, चद्दर छोड़ आये हैं । केवल कमीज पहने हैं । एक बाबू ने चादर उठा ली और दौड़कर उनके हाथ में दे दी । बंकिम क्या सोच रहे होंगे ?
राखाल आये हैं । वे बलराम के साथ श्रीवृन्दावनधाम गये थे । वहाँ से कुछ दिन हुए लोटे हैं । श्रीरामकृष्ण ने शरत् और देवेन्द्र के पास उनकी बात कही थी और उनसे कहा था कि उनके साथ बातचीत करें । इसीलिए वे राखाल के साथ परिचय करने के लिए उत्सुक होकर आये हैं । सुना, इन्हीं का नाम राखाल है ।
शरत् और सान्याल ब्राह्मण हैं और अधर हैं जाति के सुवर्ण वणिक् (बनिया) । कहीं उनके घरवाले भोजन करने के लिए न बुला लें इसीलिए जल्दी से भाग गये । नये आये हैं; अभी नहीं जानते कि श्रीरामकृष्ण अधर से कितना स्नेह करते हैं । श्रीरामकृष्ण का कहना है, भक्तों की एक अलग जाति है । उनमें जातिभेद नहीं है ।
अधर ने श्रीरामकृष्ण को तथा उपस्थित भक्तों को अत्यन्त आदर के साथ बुलाकर सन्तोषपूर्वक भोजन कराया । भोजन के बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण के मधुर वचनों का स्मरण करते करते उनका विचित्र प्रेममय चित्र हृदय में धारण कर घर लौटे
अधर के घर शुभागमन के दिन श्री बंकिम ने श्रीरामकृष्णदेव से उनके मकान पर पधारने का अनुरोध किया था । अतएव थोड़े दिनों के बाद श्रीरामकृष्ण ने श्री गिरीश व मास्टर को उनके कलकत्ते के मकान पर भेज दिया था । उनके साथ श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में काफी बातचीत हुई। बंकिम ने श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए फिर आने की इच्छा प्रकट की थी, परन्तु काम में व्यस्त रहने के कारण न आ सके ।
 [(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]

🔆🙏पंचवटी के नीचे 'देवी चौधरानी’ का पाठ🔆🙏

ता. ६ दिसम्बर, १८८४ ई. को श्रीरामकृष्ण ने श्री अधर के घर पर शुभागमन किया था और श्री बंकिम बाबू के साथ वार्तालाप किया था । प्रथम से षष्ठ विभाग तक ये ही सब बातें विवृत हुई ।
इस घटना के कुछ दिनों के बाद अर्थात् २७ दिसम्बर, शनिवार को श्रीरामकृष्ण ने पंचवटी के नीचे भक्तों के साथ बंकिम रचित 'देवी चौधरानी' के कुछ अंश का पाठ सुना था और गीतोक्त निष्काम धर्म के बारे में अनेक बातें कही थीं ।
श्रीरामकृष्ण पंचवटी के नीचे चबूतरे पर अनेक भक्तों के साथ बैठे थे । मास्टर से पढ़कर सुनाने के लिए कहा । केदार, राम, नित्यगोपाल, तारक (शिवानन्द), प्रसन्न (त्रिगुणातीतानन्द), सुरेन्द्र आदि अनेक भक्त उपस्थित थे ।
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रविवार, 15 मई 2022

$$$ 🔆🙏 परिच्छेद~ 102 [ November 9-10, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] जिसमें रागभक्ति (12 , जनवरी 1985 ) है, उसका भार माँ लेती हैं“🙏 प्याज खाया, उसी समय विचार करने लगा, रे मन यही प्याज है 🔆🙏 भक्तगण ‘मैं’ रूपी कुम्भ रखते हैं, ज्ञानी नहीं रखते ।" जगतगुरु श्रीरामकृष्ण की शिक्षा पद्धति : रागभक्ति -वैधी भक्ति

 *परिच्छेद 102.

(१)

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏 संन्यासी तथा संचय । पूर्ण ज्ञान तथा प्रेम के लक्षण🔆🙏  

श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में विराजमान हैं । अपने कमरे में छोटी खाट पर पूर्व की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । भक्तगण जमीन पर बैठे हैं । आज कार्तिक की कृष्णा सप्तमी है, ९ नवम्बर १८८४ । दोपहर का समय है । श्रीयुत मास्टर आये, दूसरे भक्त भी धीरे धीरे आ रहे हैं । श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी के साथ कई ब्राह्म भक्त आये हुए हैं । पुजारी राम चक्रवर्ती भी आये हैं । क्रमशः महिमाचरण, नारायण और किशोरी भी आये । कुछ देर बाद और भी कई भक्त आये।

जाड़ा पड़ने लगा है । श्रीरामकृष्ण को कुर्तें की जरूरत है । मास्टर से ले आने के लिए कहा था । वे नैनगिलाट के कुर्तों के सिवा एक और जीन का कुर्ता भी ले आये हैं; परन्तु इसके लिए श्रीरामकृष्ण ने नहीं कहा था ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) – तुम बल्कि इसे लेते जाओ तुम्हीं पहनना । इसमें दोष है । अच्छा, तुमसे मैंने किस तरह के कुर्तों ले लिए कहा था ?

मास्टर – जी आपने सादे कुर्तों की बात कही थी । जीन का कुर्ता ले आने के लिए नहीं कहा था ।

श्रीरामकृष्ण – तो जीन वाले को ही लौटा ले जाओ ।

(विजय आदि से) 'देखो द्वारका बाबू ने एक शाल दिया था । मारवाड़ी भक्तों ने भी एक लाया था, पर मैंने नहीं लिया ।' श्रीरामकृष्ण और भी कहना चाहते थे, उसी समय विजय बोल उठे –

विजय – जी हाँ ठीक तो है । जो कुछ चाहिये और जितना चाहिये, उतना ही ले लिया जाता है । किसी एक को तो देना ही होगा । मनुष्य को छोड़ और देगा भी कौन ?

श्रीरामकृष्ण – देनेवाले वही ईश्वर हैं । सास ने कहा, बहू, सब की सेवा करने के लिए आदमी हैं परन्तु तुम्हारे पैर दबाने वाला कोई नहीं है ।’ कोई होता तो अच्छा होता । बहू ने कहा, 'माँ, मेरे पैर भगवान दबायेंगे, मुझे किसी की जरूरत नहीं है ।’ उसने भक्तिपूर्वक यह बात कही थी ।

"एक फकीर अकबरशाह के पास कुछ भेंट लेने गया था । बादशाह उस समय नमाज पढ़ रहा था और कह रहा था, ऐ खुदा मुझें दौलतमन्द कर दे । फकीर ने अब बादशाह की याचनाएँ सुनी तो उठकर वापस जाना चाहा । परन्तु अकबरशाह ने उससे बैठने के लिए इशारा किया । नमाज समाप्त होने पर उन्होंने पूछा, तुम क्यों वापस जा रहे थे ? उसने कहा, 'आप खुद ही याचना कर रहे हैं, ऐ खुदा, मुझे दौलतमन्द कर दे । इसलिए मैंने सोचा, अगर माँगना ही है तो भिक्षुक से क्यों माँगू, खुदा से ही क्यों न माँगू ?

विजय - गया में मैंने एक साधु देखा था । वे स्वयं कुछ प्रयत्न नहीं करते थे । एक दिन इच्छा हुई, भक्तों को खिलाऊँ । देखा, न जाने कहाँ से मैदा और घी आ गया । फल भी आये ।

श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि से) - साधुओं के तीन दर्जे हैं, उत्तम, मध्यम और अधम । जो उत्तम श्रेणी (विवेकानन्द ?) के हैं, वे भोजन की खोज में नहीं फिरते । मध्यम और अधम दण्डियों की तरह के होते हैं । मध्यम जो हैं, वे नमोनारायण करके खड़े हो जाते हैं । जो अधम हैं वे न देने पर झगड़ा करते हैं । (सब हँसे ।)

"उत्तम श्रेणी के साधु अजगर-वृत्ति के होते हैं उन्हें बैठे हुए ही आहार मिलता है । अजगर हिलता-डुलता नहीं । एक छोकरा साधु था - बाल ब्रह्मचारी । वह कहीं भिक्षा लेने के लिए गया । एक लड़की ने आकर भिक्षा दी । उसके स्तन देखकर उसने सोचा, इसकी छाती पर फोड़ा हुआ है । जब उसने पूछा तो घर की पुरखिन ने आकर उसे समझाया । इसके पेट में बच्चा होगा, उसके पीने के लिए ईश्वर इनमें दूध भर दिया करेंगे इसीलिए पहले से इसका बन्दोबस्त कर रखा है । यह बात सुनकर उस साधु को बड़ा आश्चर्य हुआ । तब उसने कहा, 'तो अब मुझे भिक्षा माँगने की क्या जरूरत है ? ईश्वर मेरे लिए भी भोजन तैयार कर दिया करेंगे ।

"कुछ भक्त मन में सोचते हैं कि तब तो हम लोग भी यदि चेष्टा न करें, तो चल सकता है ।

श्रीरामकृष्ण -  "जिसके मन में यह है कि चेष्टा करनी चाहिए, उसे चेष्टा करनी होगी ।”

विजय - भक्तमाल में एक बड़ी अच्छी कहानी है ।

श्रीरामकृष्ण - कहो, जरा सुनें तो ।"

विजय - आप कहिये ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हीं कहो, मुझे पूरी याद नहीं है । पहले पहल सुनना चाहिए, इसीलिए मैं सुना करता था ।

"मेरी अब वह अवस्था नहीं है । हनुमान ने कहा था, वार, तिथि, नक्षत्र, इतना सब मैं नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी के बारे में चिन्तन करता रहता हूं।'।

"चातक को बस स्वाति के जल की चाह रहती है । मारे प्यास के जी निकल रहा है, परन्तु गला उठाये वह आकाश की बूँदों की ही प्रतिक्षा करता है । गंगा-यमुना और सातों समुद्र इधर भरे हुए हैं, परन्तु वह पृथ्वी का पानी नहीं पीता ।

"राम और लक्ष्मण जब पम्पा सरोवर पर गये तब लक्ष्मण ने देखा, एक कौआ व्याकुल होकर बार बार पानी पीने के लिए जा रहा था, परन्तु पीता न था । राम से पूछने पर उन्होंने कहा 'भाई, यह कौआ परम भक्त है । दिनरात यह रामनाम जप रहा है । इधर मारे प्यास के छाती फटी जा रही है, परन्तु पानी पी नहीं सकता । सोचता है, पानी पीने लगूँगा तो जप छूट जायेगा ।' मैंने पूर्णिमा के दिन हलधर से पूछा, दादा, आज क्या अमावस है ? (सब हँसते हैं ।)

(सहास्य) “हाँ जी यह सच्ची बात है। मैंने सुना था कि ज्ञानी पुरुष की पहचान यह है कि वह पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं पाता । परन्तु हलधारी को इस विषय में कौन विश्वास दिला सकता है ? उसने कहा 'यह निश्चय ही कलिकाल है । वे (श्रीरामकृष्ण) पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं जानते और फिर भी लोग उनका आदर करते हैं ।" (इसी समय महिमाचरण आ गये ।)

श्रीरामकृष्ण - (आदरपूर्वक) - आइये, आइये, बैठिये । (विजय आदि से) इस अवस्था में दिन और तिथि का ख्याल नहीं रहता । उस दिन वेणीपाल के बगीचे में उत्सव था - मैं दिन भूल गया । ‘अमुक दिन संक्रान्ति है,अच्छी तरह ईश्वर का नाम लूँगा’, यह अब याद नहीं रहता । (कुछ देर विचार करने के बाद) परन्तु अगर कोई आने को होता है तो उसकी याद रहती है ।

"ईश्वर पर सोलहों आने मन जाने पर यह अवस्था होती है । जब हनुमान सीता का पता लगा कर लंका से लौटे तब राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम सीता की खबर तो ले आये, अच्छा, तो उन्हें कैसा देखा ? कहो, मेरी सुनने की इच्छा है ।' 

हनुमान ने कहा, 'राम, मैंने देखा, सीता का शरीर मात्र पड़ा हुआ है । उसमें मन, प्राण नहीं है । आप के ही पादपद्मों में उन्होंने वे समर्पण कर दिये हैं । इसलिए केवल शरीर ही पड़ा हुआ है । और मैंने देखा काल (यमराज) पास ही था, परन्तु वह करे क्या ? वहाँ तो शरीर ही है, मन और प्राण तो हैं ही नहीं ।'

"जिसकी चिन्ता की जाती है, उसकी सत्ता आ जाती है । दिनरात ईश्वर की चिन्ता करते रहने पर ईश्वर की सत्ता आ जाती है । नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया तो गलकर खुद वही हो गया ।

" पुस्तकों या शास्त्रों का उद्देश्य क्या है ? – ईश्वरलाभ । साधु की पौथी को एक ने खोलकर देखा, उसमें सिर्फ रामनाम लिखा हुआ था, और कुछ भी नहीं । 

"ईश्वर पर प्रोति होने पर थोड़े ही में उद्दीपन हुआ करता है । तब एक बार रामनाम करने पर कोटि सन्ध्योपासन का फल होता है ।

"मेघ देखकर मयूर को उद्दीपन होता है । आनन्द से पंख फैलाकर नृत्य करता है । श्रीमती राधा को भी ऐसा ही हुआ करता था । मेघ देखकर उन्हें कृष्ण की याद आती थी ।

"चैतन्यदेव मेड़गाँव के पास ही से जा रहे थे । उन्होंने सुना इस गाँव की मिट्टी से ढोल बनता है । बस भावावेश में विह्वल हो गये - क्योंकि संकीर्तन के समय ढोल का ही वाद्य होता है ।

"उद्दीपन किसे होता है ? जिसकी विषयबुद्धि दूर हो गयी है, जिसका विषयरस सूख जाता है, उसे ही थोड़े में उद्दीपन होता है । दियासलाई भीगी हुई हो तो चाहे कितना ही क्यों न घिसो, वह जल नहीं सकती, पानी अगर सूख जाय तो जरा सा घिसने से ही वह जल जाती है ।

"देह में सुख और दुःख लगे ही हैं । जिसे इश्वरलाभ हो चुका है, वह मन, प्राण, आत्मा, सब उन्हें दे देता है । पम्पा सरोवर में नहाते समय राम और लक्ष्मण ने सरोवर के तट की मिट्टी में धनुष गाड़ दिये । स्नान करके लक्ष्मण ने धनुष निकालते हुए देखा, धनुष में खून लगा हुआ था

राम ने देखकर कहा, भाई, जान पड़ता है, कोई जीव-हिंसा हो गयी । लक्ष्मण ने मिट्टी खोदकर देखा तो एक बड़ा मेंढ़क था, वह मरणासन्न हो गया था । राम ने करुणापूर्ण स्वर में कहा, 'तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? हम लोग तुम्हें बचा लेते । जब साँप पकड़ता है, तब तो खूब चिल्लाते हो ।'

 मेंढ़क ने कहा, 'राम, जब साँप पकड़ता है, तब मैं चिल्लाता हूँ, राम, रक्षा करो - राम, रक्षा करो। पर अब देखता हूँ, राम स्वयं मुझे मार रहे हैं, इसीलिए मुझे चुपचाप रह जाना पड़ा।'”

(२)

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

गुरु-महिमा । ज्ञानयोग

श्रीरामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए महिमाचरण आदि भक्तों को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने सुना है कि महिमाचरण गुरु नहीं मानते । इस विषय पर वे कहने लगे –

श्रीरामकृष्ण - गुरु की बात पर विश्वास करना चाहिए । गुरु के चरित्र की ओर देखने की आवश्यकता नहीं । 'मेरे गुरु यद्यपि शराबवाले की दूकान जाते हैं, फिर भी मैं उन्हें नित्यानन्द राय मानता हूँ', यह भाव रखना चाहिए ।

"एक आदमी चण्डी भागवत सुनाता था । उसने कहा, झाडू स्वयं तो अस्पृश्य है, परन्तु स्थान को पवित्र करता है ।"

महिमाचरण [नवनीदा का जन्म इनके घर में हुआ था ?]  वेदान्त की चर्चा किया करते हैं । उद्देश्य ब्रह्मज्ञान है । उन्होंने ज्ञानी का मार्ग ग्रहण किया है और सदा ही विचार करते रहते हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (महिमा से) - ज्ञानी का उद्देश्य है, वह स्वरूप को समझे; यही ज्ञान है और इसे ही मुक्ति कहते हैं । परब्रह्म जो हैं, वे ही सब के स्वरूप हैं । 'मैं और 'परब्रह्म' दोनों एक ही सत्ता हैं । माया समझने नहीं देती । हरीश से मैंने कहा, 'और कुछ नहीं - सोने पर कुछ टोकरी मिट्टी पड़ गयी है, उसी मिट्टी को निकाल देना है ।'

“भक्तगण ‘मैं’ रखते हैं, ज्ञानी नहीं रखते । किस तरह स्वरूप में रहना चाहिए, 'न्यांगटा' (तोतापुरी) इसका उपदेश देता था, कहता था, 'मन को बुद्धि में लीन करो और बुद्धि को आत्मा में, तब स्वरूप में रह सकोगे ।’

"परन्तु 'मैं' रहेगा ही, वह नहीं जाता । जैसे अनन्त जल राशि, ऊपर-नीचे, सामने-पीछे, दाहिने-बायें पानी भरा हुआ है । उसी जल के भीतर एक जलपूर्ण कुम्भ है । 'मैं' रूपी कुम्भ ।

"ज्ञानी का शरीर ज्यों का त्यों ही रहता है; परन्तु इतना होता है कि ज्ञानाग्नि में कामादि रिपु दग्ध हो जाते हैं । कालीमन्दिर में बहुत दिन हुए आँधी और पानी दोनों एक साथ आये, फिर मन्दिर पर बिजली गिरी । हम लोगों ने जाकर देखा, कपाट ज्यों के त्यों ही थे, नुकसान नहीं हुआ था, परन्तु स्क्रू जितने थे उनका सिर टूट गया था । कपाट मानो शरीर है और कामादि आसक्तियाँ जैसे स्क्रू ।

“ज्ञानी केवल ईश्वर की बात चाहता है । विषय की बातें होने पर उसे बड़ा कष्ट होता है । विषयी और दर्जे के हैं । उनकी अविद्या की पगड़ी नहीं उतरती; इसीलिए घूम घामकर वही विषय की बात ले आते हैं ।

"वेदों में सप्त भूमियों की बातें हैं, पंचम भूमि पर जब ज्ञानी चढ़ता है, तब ईश्वरी बात के सिवा न तो कुछ और सुन सकता है, न कह सकता है; तब उसके मुँह से केवल ज्ञान का उपदेश निकलता है ।"

"वेदों में सच्चिदानन्द ब्रह्म की बात है । ब्रह्म न एक है, न दो, एक और दो के बीच में है । उसे (न तो कोई अस्ति कह सकता है, न नास्ति । वह अस्ति और नास्ति के बीच की वस्तु है।

🔆🙏 वैधी से नहीं ,रागभक्ति से ईश्वर प्राप्ति होती है 🔆🙏   

राग भक्ति के आने पर अर्थात् ईश्वर पर प्यार होने पर मनुष्य उन्हें पाता है । वैधी भक्ति जिस तरह होती है, उसी तरह चली भी जाती है। इतना जप करना है, इतना ध्यान करना है, इतना याग यज्ञ और होम करना है, इन उपचारों से पूजा करनी है, पूजा के समय इन मन्त्रों का पाठ करना है, ये सब वैधी भक्ति के लक्षण हैं । यह होती है जैसे, जाती भी है वैसे ही । कितने आदमी कहते हैं, 'अरे भाई, कितना हविष्यान्न किया, कितनी बार घर में पूजा की, परन्तु क्या हुआ ?"

रागभक्ति (खानदानी किसान) का कभी पतन नहीं होता । रागभक्ति उन्हें होती है जिनका बहुत सा काम पूर्व जन्म से किया हुआ है;  अथवा जो लोग नित्य-सिद्ध हैं । जैसे किसी गिरी हुई इमारत का ढेर साफ करते हुए लोगों को एक नलदार फव्वारा मिल गया । उसके ऊपर मिट्टी और सुरखी पड़ी हुई थी, ज्योंही सब कूड़ा हटा दिया गया कि जोरों से पानी निकलने लगा

"जिन्हें रागभक्ति होती है, वे यह बात नहीं कहते कि भाई इतना हविष्यान्न किया, परन्तु कहीं कुछ न हुआ । जो लोग पहले पहल किसानी करते हैं, अगर उपज नहीं होती तो वे किसानी छोड़ देते हैं। [खानदानी किसान ] जिसके पुश्त-दरपुश्त से खेती हो रही है, वह यह काम नहीं छोड़ता, चाहे दो-एक बार पैदावार अच्छी न भी हो । वे जानते है कि खेती से ही उनका जीवन-निर्वाह होगा।

🔆🙏जिसमें रागभक्ति (12, जनवरी 1985) है, उसका भार त्रिदेव लेते हैं🔆🙏    

"जिनमें रागभक्ति है, उनका भाव आन्तरिक है, उनका भार ईश्वर लेते हैं । अस्पताल में नाम लिखाने पर जब तक रोगी अच्छा नहीं हो जाता तब तक डाक्टर छोड़ता नहीं । ईश्वर जिन्हें पकड़े हुए हैं उनके लिए किसी भय की बात नहीं । खेत की मेंड़ पर से चलते हुए जो लड़का अपने बाप का हाथ पकड़े रहता है, वह चाहे भले ही गिर जाय - सम्भव है वह किसी दूसरे ख्याल में डूबकर बाप का हाथ छोड़ दे, परन्तु जिस लड़के को बाप खुद पकड़े रहता है, वह कभी नहीं गिर सकता

"विश्वास से क्या नहीं हो सकता ? जो सच्चे मार्ग पर है, वह सब पर विश्वास करता है - साकार, निराकार, राम, कृष्ण, भगवती - सब पर

"उस देश (कामरपुकुर) में मैं जा रहा था, एकाएक रास्ते में आँधी और पानी एक साथ आये । बीच मैदान में डाकुओं का भी भय था । तब मैंने सब कुछ कह डाला - राम, कृष्ण, भगवती, फिर मैंने हनुमानजी की याद की ! अच्छा मैंने सभी देव मूर्तियों का नाम लिया, इसका क्या अर्थ है?

“बात यह है जब कि नौकर या नौकरानी बाजार करने को पैसे लेती है तब हर चीज के पैसे अलग अलग लेती है, कहती है - ये आलू के पैसे हुए, ये बैंगन के, ये मछली के, इस तरह सब पैसे अलग अलग लेती है । सब हिसाब करके फिर पैसे मिला देती है ।

"ईश्वर पर प्यार होने पर केवल उन्हीं की बात कहने को जी चाहता है । जो जिससे सच्चा प्यार  करता है, उसे केवल उसी के विषय में बातें करना और सुनना अच्छा लगता है । 

संसारी आदमियों के मुँह से अपने बच्चे की बातें करते हुए लार टपक पड़ती है । अगर कोई उसके बच्चे की तारीफ करता है तो वह अपने बच्चे से उसी समय कहता है, अरे देख अपने चाचा को पैर धोने के लिए पानी तो ले आ ।

"कबूतरों पर जिनकी रुचि है, उनके पास कबूतरों की तारीफ करो तो खुश हो जाते है । अगर कोई उनकी निन्दा करता है, तो वह कहता है, तुम्हारे बाप-दादे ने भी कभी कबूतरों को पाला है?

ठाकुर महिमाचरण को समझा रहे हैं। क्योंकि महिमा संसारी व्यक्ति हैं। 

 [ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ] 

🙏 प्याज खाया,  विचार करने लगा, रे मन यही प्याज है 🔆🙏  

(महिमाचरण से) "संसार को एकदम छोड़ देने की क्या जरूरत है ? आसक्ति के जाने ही से हुआ, परन्तु साधना चाहिए । इन्द्रियों के साथ लड़ाई करनी पड़ती है। 

“किले के भीतर से लड़ने में और सुविधाएँ हैं । वहीं बड़ी सहायता मिलती है । संसार भोग की जगह है । एक-एक चीज का भोग करके उसी समय उसे छोड़ देना चाहिए । मेरी इच्छा थी कि सोने की करधनी पहनूँ । अन्त में वह मिली भी । मैंने सोने की करधनी पहनी । पहनने के बाद उसे उसी समय खोल डाला ।

"प्याज खाया और उसी समय विचार करने लगा । कहा, रे मन, यही प्याज है ।' फिर मुँह में एक बार इधर, एक बार उधर, इस तरह चबाकर उसे फेंक दिया ।"

(३)

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏संकीर्तनानन्द  में🔆🙏

आज एक गानेवाले आयेंगे, अपनी मण्डली के साथ कीर्तन करेंगे । श्रीरामकृष्ण बार बार अपने शिष्यों से पूछ रहे हैं, 'कीर्तनिया कहाँ है ?' 

महिमाचरण ने कहा, "हम लोग ऐसे ही अच्छे हैं ।"

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, हम लोगों का मिलना तो बारहों महीने लगा है ।

बाहर से किसी ने कहा, "कीर्तनिया आ गया ।"

श्रीरामकृष्ण ने आनन्द के उच्छ्वास में इतना ही कहा - "क्या आ गया ?"

कमरे के दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे में शतरंजी बिछायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने कहा - "इस पर थोड़ा सा गंगाजल छिड़क देना । न जाने कितने विषयी मनुष्यों ने इसे रौंदा है ।”

बाली के प्यारी बाबू की स्त्रियाँ और लड़कियाँ काली का दर्शन करने के लिए आयी हुई हैं । कीर्तन होने का आयोजन देखकर उन्हें भी सुनने की इच्छा हुई । एक ने श्रीरामकृष्ण से आकर कहा, 'वे सब पूछती हैं - क्या कमरे में जगह होगी ? क्या वे भी बैठें ?" श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते हुए ही कह रहे हैं - 'नहीं नहीं, जगह कहाँ है ?

इसी समय नारायण आये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

[नारायण (Narayan)^* - कलकत्ता के एक ब्राह्मण परिवार के सन्तान थे । ठाकुर उनके सरल और पवित्र स्वभाव के कारण उन्हें बहुत प्यार करते थे। नारायण श्रीरामकृष्ण वचनामृत के रचयिता श्री महेंद्रनाथ गुप्त के छात्र थे। वे अपने परिवार के कड़े विरोध के बावजूद शारीरिक यातना सहकर भी ठाकुर के पास दक्षिणेश्वर आया करते थे। घर में नारायण को मिलने वाली शारीरिक प्रताड़ना का दर्द ठाकुर को अपने जैसा अनुभव होता था। कम उम्र में ही नारायण का निधन हो गया था।]

श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'तू क्यों आया ? घरवालों ने तुझे इतना मारा !'नारायण श्रीरामकृष्ण के कमरे की ओर जा रहे थे; श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम को इशारे से कह दिया - इसे खाने के लिए देना।

नारायण कमरे के अन्दर गये । एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उठकर कमरे में प्रवेश किया, नारायण को अपने हाथों भोजन करायेंगे । खिलाने के बाद फिर वे कीर्तन में आकर बैठे ।

[ November 9, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

(४)

🔆🙏 भक्तों के साथ संकीर्तनानन्द🔆🙏  

बहुत से भक्त आये हुए है, श्रीयुत विजय गोस्वामी, महिमाचरण, नारायण, अधर, मास्टर, छोटे गोपाल आदि । राखाल, बलराम इस समय वृन्दावन में है । दिन के ३-४ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण बरामदे में कीर्तन सुन रहे हैं, पास में नारायण आकर बैठे । चारों ओर दूसरे भक्त बैठे हुए हैं । इसी समय अधर आये । अधर को देखकर श्रीरामकृष्ण में कुछ उद्दीपना हो गयी । अधर के प्रणाम करके आसन ग्रहण करने पर श्रीरामकृष्ण ने उन्हें और निकट बैठने के लिए इशारा किया ।

कीर्तनियों ने कीर्तन समाप्त किया । सभा उठ गयी । बगीचे में भक्तगण इधर-इधर टहल रहे हैं । कोई कोई काली और राधाकान्तजी की आरती देखने के लिए गये ।

सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण के कमरे में भक्तगण फिर आये । उनके कमरे में कीर्तन का आयोजन फिर होने लगा । उनमें खूब उत्साह है । कहते हैं, एक बत्ती इधर भी देना । दो बत्तियों जला दी गयीं, खूब रोशनी होने लगी ।

श्रीरामकृष्ण विजय से कह रहे हैं - 'तुम ऐसी जगह क्यों बैठे ? इधर आकर बैठो ।'

अब की बार कीर्तन खूब जमा । श्रीरामकृष्ण मस्त होकर नृत्य कर रहे हैं । भक्तगण उन्हें घेर-घेरकर खूब नाच रहे हैं । विजय नाचते हुए दिगम्बर हो गये । होश कुछ भी नहीं हैं

कीर्तन के बाद विजय चाभी खोज रहे हैं । कहीं गिर गयी है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "अब भी एक बार 'बोल वृन्दावन बिहारी की जय' होनी चाहिए !" यह कहकर हँस रहे हैं, विजय से और भी कह रहे हैं, "अब यह सब क्यों ?" (अर्थात् अब चाभी के साथ क्यों सम्बन्ध रखते हो ?)

किशोरी प्रणाम करके बिदाई ले रहे हैं । श्रीरामकृष्ण स्नेहार्द्र हो उनकी देह पर हाथ फेरने लगे और बोले, 'अच्छा आओ ।' बातों में करुणा मिली हुई है । कुछ देर बाद मणि और गोपाल ने आकर प्रणाम किया - वे लोग भी चलने वाले हैं । श्रीरामकृष्ण की करुणापूर्ण बातें ! कहा, कल सुबह को उठकर जाना, कहीं ओस लगकर तबीयत न खराब हो जाय ।

मणि और गोपाल फिर नहीं गये । वे आज रात को यहीं रहेंगे । वे तथा और भी दो-एक भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राम चक्रवर्ती से कह रहे हैं, "राम, यहाँ एक पाँवपोश और था, क्या हो गया ?''

श्रीरामकृष्ण को दिन भर अवकाश नहीं मिला कि जरा विश्राम करते । भक्तों को छोड़कर जाते भी कहाँ ? अब एक बार बाहर की ओर जाने लगे । कमरे में लौटकर उन्होंने देखा, मणि रामलाल से सुनकर गाना लिख रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने मणि से पूछा, 'क्या लिखते हो ?'  गाने का नाम सुनकर कहा, यह तो बहुत बड़ा गाना है ।

रात को श्रीरामकृष्ण जरा सी सूजी की खीर और दो-एक पूड़ियाँ खाते हैं । उन्होंने रामलाल से पूछा, 'क्या सूजी है ?’

गाना दो-एक लाइन लिखकर मणि ने लिखना बन्द कर दिया ।

श्रीरामकृष्ण जमीन पर बिछे हुए आसन पर बैठकर सूजी की खीर खा रहे हैं । भोजन करके आप छोटी खाट पर बैठे । मास्टर खाट की बगल में तख्त पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण से बातचीत कर रहे हैं । नारायण की बात करते हुए श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है ।

श्रीरामकृष्ण - आज नारायण को मैंने देखा ।

मास्टर - जी हाँ, आँखे डबडबाई हुई थी । उसका मुँह देखकर रुलाई आती थी ।

श्रीरामकृष्ण - उसे देखकर वात्सल्य भाव का उद्रेक होता है । यहाँ आता है, इसीलिए घरवाले उसे मारते हैं । उसकी ओर से कहनेवाला कोई नहीं है । 

मास्टर - (सहास्य) - हरिपद के घर में पुस्तकें रखकर वह यहाँ भाग आया ।

श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा नहीं किया ।

श्रीरामकृष्ण चुप हैं । कुछ देर बाद बोले –"देखो, उसमें (नारायण नामक लड़के में ?) बड़ी शक्ति है । नहीं तो कीर्तन सुनते हुए मुझे क्या कभी आकर्षित भी कर सकता था ? मुझे कमरे के भीतर आना पड़ा । कीर्तन छोड़कर आना - ऐसा कभी नहीं हुआ ।

"उससे मैंने भावावेश में पूछा था, उसने एक ही वाक्य में कहा - मैं आनन्द में हूँ । (मास्टर से) तुम उसे कभी कभी कुछ मोल लेकर खिलाया करो - वात्सल्य भाव से ।”

श्रीरामकृष्ण ने फिर तेजचन्द्र की बात निकाली । (मास्टर से) "एक बार उससे पूछना तो सही, एक शब्द में वह मुझे क्या बतलाता है ? – ज्ञानी या कुछ और सुना, तेजचन्द्र अधिक बातचीत नहीं करता । (गोपाल से) देख, तेजचन्द्र से शनि या मंगल के दिन आने के लिए कहना ।"

[तेजचंद्र [तेजचंद्र मित्र] (1863 - 1912)  वे वे श्री म के छात्र थे और ठाकुर के एक गृहस्थ भक्त थे। तेजचंद्र बोस पाड़ा , बागबजार अंचल के निवासी थे। श्री म की अनुप्रेरणा से उन्हें बचपन में ही श्री श्री ठाकुर का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।  श्रीश्री माँ की शरण में आकर वे उनकी कृपा से भी धन्य हुए थे। वे नियमित रूप से जप-ध्यान किया करते थे,और  मितभाषी थे। ठाकुर उन्हें 'शुद्ध आधार' कहा करते थे, और उन्हें अपना सगा मानकर उससे बहुत प्यार करते थे। ]

श्रीरामकृष्ण जमीन पर बैठे हुए सूजी की खीर खा रहे हैं । पास ही एक दीपदान पर दिया जल रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास मास्टर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'क्या कुछ मिठाई है ?' मास्टर नये गुड़ के सन्देश ले आये थे । रामलाल ने कहा, ताक पर सन्देश रखे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण - कहाँ है ? जरा ले आओ । मास्टर फुर्ती से उठकर ताक पर खोजने लगे । वहाँ सन्देश न थे । भक्तों की सेवा में गये होंगे ।  मास्टर संकुचित होकर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण (नारायण के विषय में भावुक होकर) बातचीत कर रहे हैं

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, अबकी बार अगर तुम्हारे स्कूल में जाकर देखूँ –

मास्टर ने सोचा, ये नारायण को देखने के लिए स्कूल जाने की बात कह रहे हैं । उन्होंने कहा, हमारे घर में चलकर बैठिये तो भी काम हो जायेगा ।

श्रीरामकृष्ण - एक इच्छा है । वह यह कि वहाँ और कोई लड़का उस तरह का है या नहीं, जरा देखूँ चलकर ।

मास्टर - आप अवश्य चलिये । दूसरे आदमी देखने जाया करते हैं, उसी तरह आप भी जाइयेगा ।

श्रीरामकृष्ण भोजन करके छोटी खाट पर बैठे । इस बीच में मास्टर और गोपाल ने बरामदे में बैठकर भोजन किया - रोटी और दाल । उन लोगों ने नौबतखाने में सोने का निश्चय किया । भोजन करके मास्टर श्रीरामकृष्ण के पाँवपोश पर आकर बैठे ।

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - नौबतखाने में हंडियाँ-बर्तन न रखे हों, यहाँ सोओगे – इस कमरे में ?

मास्टर - जी हाँ ।

(५)

[ November 9-10, 1884;  श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]

🔆🙏सेवक के संग में 🔆🙏 

रात के १०-११ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर तकिये के सहारे विश्राम कर रहे हैं । मणि जमीन पर बैठे हैं । मणि के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । कमरे की दीवार के पास उसी दीपदान पर दिया जल रहा है । 

श्रीरामकृष्ण - मेरे पैर सुहारते हैं, जरा हाथ फेर दो ।

मणि श्रीरामकृष्ण के पैरों की ओर छोटी खाट पर बैठे हुए धीरे धीरे पैरों पर हाथ फेर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण रह-रहकर बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अकबर बादशाह की बात कैसी रही ?

मणि - जी हाँ, काफी अच्छी थीं ।

श्रीरामकृष्ण - कौन सी बात, कहो तो जरा ।

मणि - फकीर बादशाह से मिलने आया था । अकबर बादशाह उस समय नमाज पढ़ रहे थे । नमाज पढ़ते हुए ईश्वर से धनदौलत की प्रार्थना करते थे । यह सुनकर फकीर धीरे से अपने घर चल दिया । बाद में अकबर बादशाह के पूछने पर उसने कहा 'अगर माँगना ही है तो भिखारी से क्या माँगू ?’

श्रीरामकृष्ण - और कौन कौन सी बातें हुई थीं ?

मणि - संचय की बातें खूब हुई ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कौन-कौन सी ?

मणि - जब यह ज्ञान रहता है कि हमें प्रयत्न करना चाहिए तब तक प्रयत्न करना चाहिए । संचय की बात सींती में कैसी कही आपने ?

श्रीरामकृष्ण - कौन सी बात ?

मणि - जो पूर्ण रूप से उन पर अवलम्बित है, उसका भार वे लेते भी हैं - नाबालिग का भार जैसे वली (संरक्षक-Patron) लेता है । एक बात और सुनी थी, वह यह कि जिस घर में घरभोज का न्योता रहता है, वहाँ अकेला पहुँचा कोई छोटा लड़का खुद स्थान ग्रहण नहीं कर सकता, खाने के लिए दूसरे लोग जब उसे खाने की अनुमति देकर बैठाते हैं, तभी उसे भोजन परोसा जाता है।

श्रीरामकृष्ण – नहीं । यह ठीक नहीं हुआ । बाप अगर लड़के का हाथ पकड़कर ले जाता है तो वह लड़का नहीं गिरता ।

मणि - और आज आपने तीन तरह के संन्यासियों (साधुओं) की बात कही थी । उत्तम संन्यासी (साधु) को बैठे हुए ही भोजन मिलता है । आपने उस बालक साधु की बात कही । उसने लड़की के स्तन देखकर पूछा था, इसकी छाती पर ये फोड़े कैसे हुए ? और भी बहुत सी सुन्दर सुन्दर बातें आपने कही थी, सब बातें कैसे ऊँचे लक्ष्य की थीं !

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कौन कौन सी बातें ?

मणि - पम्पा सरोवर के उस कौए की बात । दिन-रात रामनाम जपता है, इसीलिए पानी के पास पहुँचकर भी पानी पी नहीं सकता । और उस साधु की पोथी की बात जिसमें केवल 'श्रीराम' लिखा हुआ था । और हनुमान ने श्रीरामजी से जो कुछ कहा –

श्रीरामकृष्ण - क्या कहा ?

मणि - 'लंका में मैंने सीता को देखा, केवल उनकी देह पड़ी हुई है, मन और प्राण सब तुम्हारे श्रीचरणों में उन्होंने अर्पित कर दिये हैं ।'

"और चातक की बात - स्वाति की बूँदों को छोड़ और दूसरा पानी नहीं पीता । " और ज्ञानयोग और भक्तियोग की बातें ।"

श्रीरामकृष्ण - कौन सी ?

मणि - जब तक 'कुम्भ' का ज्ञान है, तब तक 'मैं कुम्भ हूँ' यह भाव रहेगा ही । जब तक 'मैं' है, तब तक 'मै भक्त हूँ, तुम भगवान हो' यह भाव भी रहेगा ।

श्रीरामकृष्ण - नहीं, 'कुम्भ' का ज्ञान रहे या न रहे, 'कुम्भ' मिट नहीं सकता । उसी तरह 'मैं' भी नहीं मिटता । चाहे लाख विचार करो, वह नहीं जाता ।

मणि कुछ देर चुप हो रहे; फिर बोले –“काली-मन्दिर में ईशान मुखर्जी से आपकी बातचीत हुई थी – भाग्यवश उस समय हम लोग भी वहाँ थे और सब बातें सुनी थीं ।

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ, कौन-कौन सी बातें हुई थीं, जरा कहो तो सही ।

मणि - आपने कहा था, कर्मकाण्ड प्रथम अवस्था की क्रिया (आदिकाण्ड) है; शम्भू मल्लिक से आपने कहा था, 'अगर ईश्वर तुम्हारे सामने आयें तो क्या तुम उनसे कुछ अस्पतालों और दवाखानों की प्रार्थना करोगे ?"

"एक बात और हुई थी । वह यह कि जब तक कर्मों में आसक्ति रहती है, तब तक ईश्वर दर्शन नहीं देते । केशव सेन से इसी सम्बन्ध की बातें आपने कही थीं ।"

श्रीरामकृष्ण - कौन-कौन सी बातें ?

मणि - जब तक लड़का खिलौने पर रीझा रहता है, तब तक माँ रोटी-पानी में लगी रहती है, पर खिलौना फेंककर जब लड़का चिल्लाता रहता है तब माँ तव उतारकर बच्चे के लिए दौड़ती है ।

“एक बात और उस दिन हुई थी । लक्ष्मण ने पूछा था, 'कहाँ कहाँ ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ?’ राम ने बहुत सी बातें कहकर फिर कहा, “ एक और है - उर्जिता भक्ति (ecstatic love, उन्मत्त प्रेम)। मानो भक्ति उमड़ रही है ।  ऐसी भक्ति कि वह भाव में हँसता है, रोता है, - नाचता - गाता है, मारे प्रेम के मतवाला हो रहा है, जैसे चैतन्य देव। 'भाई, जिस मनुष्य में उर्जिता भक्ति देखोगे, वहाँ समझना, मै अवश्य हूँ ।’

श्रीरामकृष्ण – आहा – आहा !

শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! আহা! 

श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे ।

मणि - ईशान से तो आपने केवल निवृत्ति की बातें कही थीं । उसी दिन से बहुतों की अक्ल दुरुस्त हो गयी । अब हम लोगों का रुझान कर्तव्यकर्मों के घटाने की ओर है । आपने कहा था किसी दूसरे की बला अपने सिर क्यों लादी जाय ? श्रीरामकृष्ण यह बात सुनकर बड़े जोर से हँसे ।

मणि - (बड़े विनय-भाव से) - अच्छा, कर्तव्य-कर्म, यह जंजाल घटाना तो अच्छा है न ?

श्रीरामकृष्ण – हाँ, परन्तु सामने कोई पड़ गया, वह और बात है । साधु या गरीब आदमी अगर सामने आया, तो उनकी सेवा करनी चाहिए ।

मणि - और उस दिन ईशान मुखर्जी से चाटुकार लोगों की बात भी आपने खूब कही । मुर्दे पर जैसे गीध टूटते हैं । यही बात आपने पण्डित पद्मलोचन से भी कही थी । 

श्रीरामकृष्ण - नहीं, उलो के वामनदास से कही थी ।

[उलो के वामनदास (श्री वामनदास मुखोपाध्याय ) - नदिया जिले के बीरनगर या उलो में उनका निवास स्थान था। उन्होंने उत्तरी कलकत्ता के काशीपुर में माँ-काली का एक बड़ा मंदिर स्थापित किया था । एक बार दक्षिणेश्वर में एक भक्त के घर पर रहते समय, ठाकुर देव ह्रदय को अपने साथ लेकर,उनसे मिलने गए थे । उस दिन, श्रीरामकृष्ण के मधुर स्वर में श्यामा संगीत सुनकर वामनदास मुग्ध हुए थे। और अप्रत्याशित रूप से अवतार वरिष्ठ  को अपने घर में पधारे देखकर खुद को धन्य माना था ।]

श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है । उन्होंने मणि से कहा - "तुम अब सोओ जाकर । गोपाल कहाँ गया ? तुम दरवाजा बन्द कर लो, पर जंजीर न चढ़ाना ।”

दूसरे दिन (10 नवंबर) सोमवार था । श्रीरामकृष्ण बिस्तरे से प्रातः काल उठकर देवताओं के नाम ले रहे हैं । रह-रहकर गंगा-दर्शन कर रहे हैं । उधर काली और श्रीराधाकान्त के मन्दिर में मंगलारती हो रही है । मणि श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर लेटे हुए थे । वे भी बिस्तर से उठकर सब देख और सुन रहे हैं ।

प्रातःकृत्य समाप्त करके वे श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण स्नान करके काली-मन्दिर जा रहे हैं । उन्होंने मणि से कमरे में ताला बन्द कर लेने के लिए कहा

काली-मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण आसन पर बैठे और फूल लेकर कभी अपने मस्तक पर और कभी श्रीकाली के पादपद्यों पर चढ़ा रहे हैं । फिर चामर लेकर व्यजन करने लगे ।

 श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर लौटे । मणि से ताला खोलने के लिए कहा । कमरे में प्रवेश कर छोटी खाट पर बैठे । इस समय भाव में मग्न होकर नाम ले रहे हैं । मणि जमीन पर अकेले बैठे हुए हैं । 

श्रीरामकृष्ण गाने लगे । भाव में मस्त हुए आप मणि को गीतों से क्या यह शिक्षा दे रहे हैं कि--काली ही ब्रह्म है; काली निर्गुण हैं और सगुण भी हैं, अरूपा हैं और अनन्तरूपिणी भी है ।" 

गाना (भावार्थ) "ऐ तारिणी, मेरा त्राण कर । तू जल्दी कर, इधर यम-त्रास से मेरा जी निकल रहा है । तू जगदम्बा है, तू लोकों का पालन करती है, मनुष्यों को मुग्ध भी तू ही करती है, तू संसार की जननी है, यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर कृष्ण की लीला में तू ही ने सहायता दी थी । वृन्दावन में तू विनोदिनी राधा थी, व्रजवल्लभ कृष्ण के साथ तूने विहार किया था । रासरंगिनी और रसमयी होकर रास में तूने अपनी लीला का प्रकाशन किया था । .... तू शिवानी है, सनातनी है, ईशानी है, सदानन्दमयी है, सगुणा भी है, निर्गुणा भी है, सदा ही तू शिव की प्यारी है, तेरी महिमा कहने के योग्य ऐसा कौन है ?''

कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने पूछा 'अच्छा, इस समय मेरी कैसी अवस्था तुम देख रहे हो ?"

मणि - (सहास्य) - यह आपकी सहजावस्था है ।

श्रीरामकृष्ण बहुत धीमे स्वर में गाने का एक चरण अलाप रहे हैं - 

[ঠাকুর আপন মনে গানের ধুয়া ধরিলেন, — “সহজ মানুষ না হলে সহজকে না যায় চেনা।”

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