No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.Every idea is borrowed from Swami Vivekananda and their linking has only one purpose:Regeneration or ushering in a new India.If use of a new coinage is allowed,it may be said:Here is an attempt to study "Applied Vivekananda" in the national context.
"If you like something, leave a comment!"
--Bijay Kumar Singh, Jhumritelaiya Vivekananda Yuva Mahamandal .
अधर विशेष भक्त हैं; वे डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । उम्र २९-३० होगी । श्रीरामकृष्ण उनसे विशेष प्रेम रखते हैं । अधर की भी कैसी भक्ति है ! सारा दिन आफिस के परिश्रम के बाद मुँह-हाथ धोकर प्रायः प्रतिदिन ही सन्ध्या के समय श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने जाया करते थे । मकान शोभाबाजार बेनेटोला में है । वहाँ से दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में श्रीरामकृष्ण के पास गाड़ी करके जाते थे । इस प्रकार प्रतिदिन प्रायः दो रुपये गाडीभाड़ा देते थे । केवल श्रीरामकृष्ण का दर्शन करेंगे, यही आनन्द है ।
[অধর ভারী ভক্ত, তিনি ডেপুটি ম্যাজিস্ট্রেট। বয়ঃক্রম ২৯/৩০ বৎসর হইবে। ঠাকুর তাঁহাকে অতিশয় ভালবাসেন। অধরের কি ভক্তি! সমস্ত দিন অফিসের খাটুনির পর মুখে ও হাতে একটু জল দিয়াই প্রায় প্রত্যহই সন্ধ্যার সময় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে যাইতেন। তাঁহার বাড়ি শোভাবাজার বেনেটোলা। সেখান হইতে দক্ষিণেশ্বর কালীবাড়িতে ঠাকুরের কাছে গাড়ি করিয়া যাইতেন। এইরূপ প্রত্যহ প্রায় দুই টাকা গাড়িভাড়া দিতেন। কেবল ঠাকুরকে দর্শন করিবেন, এই আনন্দ।
ADHAR, A GREAT DEVOTEE of Sri Ramakrishna, lived in Sobhabazar in the northern section of Calcutta. Almost every day, after finishing his hard work at the office and returning home in the late afternoon, he paid Sri Ramakrishna a visit. From his home in Calcutta he would go to Dakshineswar in a hired carriage. His sole delight was to visit the Master.
उनके श्रीमुख की वाणी सुनने का अवसर प्रायः नहीं होता था । पहुँचकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो प्रणाम करते थे; कुशल प्रश्न आदि के बाद में माँ काली का दर्शन करने जाते थे । बाद में जमीन पर चटाई बिछी रहती थी, उस पर विश्राम करते थे । श्रीरामकृष्ण स्वयं ही उनको विश्राम करने को कहते थे ।अधर का शरीर परिश्रम के कारण इतना क्लान्त हो जाता था कि वे थोड़े ही समय में सो जाते थे । रात के ९-१० बजे उन्हें उठा दिया जाता था । वे भी उठकर श्रीरामकृष्ण को प्रणाम कर फिर गाड़ी पर सवार होते और घर लौट जाते थे ।
[তাঁহার শ্রীমুখের কথা শুনিবেন, এমন সুবিধা প্রায় হইত না। পৌঁছিয়াই ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিতেন; কুশল প্রশ্নাদির পর তিনি মা-কালীকে দর্শন করিতে যাইতেন। পরে মেঝেতে মাদুর পাতা থাকিত সেখানে বিশ্রাম করিতেন। অধরের শরীর পরিশ্রমের জন্য এত অবসন্ন থাকিত যে, তিনি অল্পক্ষণমধ্যে নিদ্রাভিভূত হইতেন। রাত্রে ৯/১০টা সময় তাঁহাকে উঠাইয়া দেওয়া হইত। তিনিও উঠিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া আবার গাড়ীতে উঠিতেন। তৎপরে বাড়িতে ফিরিয়া যাইতেন।
But he would hear very little of what Sri Ramakrishna said; for, after saluting the Master and visiting the temples, he would lie down, at the Master's request, on a mat spread on the floor and would soon fall asleep. But he would hear very little of what Sri Ramakrishna said; for, after saluting the Master and visiting the temples, he would lie down, at the Master's request, on a mat spread on the floor and would soon fall asleep. At nine or ten o'clock he would he awakened to return home.
अधर श्रीरामकृष्ण को अक्सर शोभाबाजार में अपने घर पर ले जाते थे । श्रीरामकृष्णदेव के आने पर वहाँ उत्सव लग जाता था । श्रीरामकृष्ण तथा अन्य भक्तों के साथ अधर खूब आनंद मनाते थे और अनेक प्रकार उन्हें तृप्ती के साथ भोजन कराते थे ।
[অধর ঠাকুরকে প্রায়ই শোভাবাজারের বাড়িতে লইয়া যাইতেন। ঠাকুর আসিলে তথায় উৎসব পড়িয়া যাইত। ঠাকুর ও ভক্তদের লইয়া অধর খুব আনন্দ করিতেন ও নানারূপে তাঁহাদিগকে পরিতোষ করিয়া খাওয়াইতেন।
However, he considered himself blessed to be able to visit the God-man of Dakshineswar. At Adhar's request Sri Ramakrishna often visited his home. His visits were occasions for religious festivals. Devotees in large numbers would assemble, and Adhar would feed them sumptuously.
एक दिन श्रीरामकृष्ण उनके घर पर पधारे । अधर ने कहा, “आप बहुत दिनों से इस मकान पर नहीं आये थे; घर बड़ा मैला पड़ा था, न जाने कैसी दुर्गन्ध पैदा हो गयी थी; आज देखिये, घर की कैसी शोभा हुई है और कैसी सुगन्ध फैली हुई है ! मैंने आज ईश्वर को बहुत पुकारा था । यहाँ तक कि आँखों से आँसू निकल पड़े थे ।" श्रीरामकृष्ण बोले, "कहते क्या हो जी" और यह कहकर अधर की ओर स्नेह-भरी दृष्टि से देखकर हँसने लगे ।
[একদিন তাঁহার বাড়িতে গিয়াছেন। অধর বলিলেন, আপনি অনেকদিন এ-বাড়িতে আসেন নাই, ঘর মলিন হইয়াছিল; যেন কি একরকম গন্ধ হইয়াছিল; আজ দেখুন, ঘরের কেমন শোভা হইয়াছে! আর কেমন একটি সুগন্ধ হইয়াছে। আমি আজ ঈশ্বরকে ভারি ডেকেছিলাম। এমন কি চোখ দিয়ে জল পড়েছিল। ঠাকুর বলিলেন, “বল কি গো!” ও অধরের দিকে সস্নেহে তাকাইয়া হাসিতে লাগিলেন।
One day, while Sri Ramakrishna was visiting his home, Adhar said to him: "Sir, you haven't come to our house for a long time. The rooms seemed gloomy; they had a musty smell. But today the whole house is cheerful; the sweetness of your presence fills the atmosphere. Today I called on God earnestly. I even shed tears while praying." "Is that so?" the Master said tenderly, casting a kindly glance on his disciple.
आज भी उत्सव होगा । श्रीरामकृष्ण भी आनन्दमय है, भक्तगण भी आनन्द से पूर्ण हैं; क्योंकि जहाँ श्रीरामकृष्ण उपस्थित हैं, यहाँ ईश्वर की चर्चा के अतिरिक्त और कोई भी बात न होगी । भक्तगण आये हैं और श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए अनेक नये नये व्यक्ति आये हैं। अधर स्वयं डिप्टी मैजिस्ट्रेट हैं । वे अपने कुछ मित्र तथा डिप्टी मैजिस्ट्रेट को आमन्त्रित करके लाये हैं । वे स्वयं श्रीरामकृष्ण को देखेंगे और कहेंगे, वास्तव में वे महापुरुष है या नहीं ।
[আজও উৎসব হইবে। ঠাকুরও আনন্দময় ও ভক্তেরা আনন্দে পরিপূর্ণ। কেননা যেখানে ঠাকুর উপস্থিত, সেখানে ঈশ্বরের কথা বৈ আর কোন কথাও হইবে না। ভক্তেরা আসিয়াছেন ও ঠাকুরকে দেখিবার জন্য অনেকগুলি নূতন নূতন লোক আসিয়াছে। অধর নিজে ডেপুটী ম্যাজিস্ট্রেট। তিনি তাঁহার কয়েকটি বন্ধু ডেপুটী ম্যাজিস্ট্রেটকে নিমন্ত্রণ করিয়া আনিয়াছেন। তাঁহারা নিজে ঠাকুরকে দেখিবেন ও বলিবেন, যথার্থ তিনি মহাপুরুষ কিনা।
Sri Ramakrishna arrived at Adhar's house with his attendants. Everyone was in a joyous mood. Adhar had arranged a rich feast. Many strangers were present. At Adhar's invitation, several other deputy magistrates had come; they wanted to watch the Master and judge his holiness.
श्रीरामकृष्ण हँसमुख हो भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । इसी समय अधर अपने कुछ मित्रों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे ।
[ ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ সহাস্যবদনে ভক্তদের সহিত কথা কহিতেছেন। এমন সময় অধর কয়েকটি বন্ধু লইয়া ঠাকুরের কাছে আসিয়া বসিলেন।
Sri Ramakrishna had been talking happily with the devotees when Adhar introduced several of his personal friends to him.
अधर - (बंकिम को दिखाकर, श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, ये बड़े विद्वान है; अनेक पुस्तकें लिखी हैं । आपको देखने आये हैं । इनका नाम है बंकिमबाबू ।
অধর (বঙ্কিমকে দেখাইয়া ঠাকুরের প্রতি) — মহাশয়, ইনি ভারি পণ্ডিত, অনেক বই-টই লিখেছেন। আপনাকে দেখতে এসেছেন। ইঁহার নাম বঙ্কিমবাবু।
ADHAR (introducing Banking): "Sir, he is a great scholar and has written many books. He has come here to see you. His name is Bankim Babu."
{'बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय [Bankim Chandra Chattopadhyay : (1838-1894)] -"वंदेमातरम्" संगीत के रचयिता साहित्य सम्राट बंकिमचंद्र कलकत्ता विश्वविद्यालय के पहले स्नातक थे। उन्होंने अपने साहित्यिक अभियान के माध्यम से बंगाल के लोगों को बौद्धिक रूप से प्रेरित किया।भारत को अपना राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् आनंदमठ से मिला। बंगाल में वर्ष 1770 के भीषण अकाल के बाद संन्यासी विद्रोह शुरू हुआ जिससे घोर अराजकता और दुर्दशा उत्पन्न हुई। उनका महाकाव्य उपन्यास आनंदमठ, संन्यासी विद्रोह (1770-1820) की पृष्ठभूमि से प्रभावित था। आधुनिक बंगाली साहित्य के प्रमुख रचनाकारों में से एक बंकिमचंद्र पेशे से डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, तथा बंगदर्शन पत्रिका के संस्थापक भी थे । बंकिमचंद्र का जन्म 24 परगना जिले के कांठाल पाड़ा नामक गांव में हुआ था। श्री रामकृष्ण देव से उनकी मुलाकात 6 दिसंबर 1884 ईस्वी कोअधरलाल सेन के शोभाबाजार स्थित घर पर हुई थी । बंकिमचंद्र ने उस दिन ठाकुर से धर्म के विषय में विभिन्न प्रश्न पूछे थे और उनके उचित उत्तर को सुनकर संतुष्ट हुए थे। दक्षिणेश्वर में एक बार श्रीरामकृष्ण देव नेमहेन्द्रनाथ गुप्त को बंकिमचंद्र द्वारा लिखित पुस्तक 'देवी चौधुरानी'को पढ़कर सुनाने के लिए कहा था, तथा उस पुस्तक में गीतोक्त निष्काम कर्म का उल्लेख होते देखकर अपनी प्रशंसा व्यक्त की थी। श्रीरामकृष्ण वचनामृत में उल्लिखित ठाकुर देव के साथ हुए उनके वार्तालाप और उपदेशों को सुनकर बंकिम बाबू अध्यात्म के विषय में गहराई से चिंतन करने को विवश हो गए थे। बाद के दिनों में ठाकुर देव के निर्देशानुसार मास्टर महाशय और गिरीश बाबू ने बंकिम बाबू के सानकी- भांगा घर पर जाकर श्रीरामकृष्ण देव के उपदेशों की चर्चा विस्तार से की थी।
বঙ্কিমচন্দ্র চট্টোপাধ্যায় (১৮৩৮ - ১৮৯৪) — সাহিত্য সম্রাট বঙ্কিমচন্দ্র কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের প্রথম স্নাতক। পেশায় ডেপুটি-ম্যাজিস্ট্রেট। “বন্দেমাতরম্” সংগীতের স্রষ্টা। বঙ্গদর্শন পত্রিকার প্রতিষ্ঠাতা। বঙ্কিমচন্দ্র ২৪ পরগণা জেলার কাঁঠালপাড়া গ্রামে জন্মগ্রহণ করেন। আধুনিক বাংলা সাহিত্যের অন্যতম স্রষ্টা বঙ্কিমচন্দ্র শ্রীরামকৃষ্ণকে ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দের ৬ই ডিসেম্বর শোভাবাজারের অধরলাল সেনের বাড়িতে দর্শন করেন। বঙ্কিমচন্দ্র সেদিন ঠাকুরকে ধর্ম সম্বন্ধে নানাবিধ প্রশ্ন করিয়াছিলেন এবং যথাযথ উত্তর পাইয়া সন্তুষ্ট হইয়াছিলেন। দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণ মহেন্দ্রনাথ গুপ্তের নিকট বঙ্কিমচন্দ্রের লেখা ‘দেবী চৌধুরাণী’ গ্রন্থের পাঠ শুনিয়াছিলেন এবং গীতোক্ত নিষ্কাম কর্মযোগ বঙ্কিমবাবু উক্ত গ্রন্থে উল্লেখ করায় খুশি হইয়াছিলেন। কথামৃতে ঠাকুরের সঙ্গে কথোপকথনটি বঙ্কিমবাবুকে গভীরভাবে চিন্তাশীল করিয়াছিল। পরবর্তী কালে মাস্টার মহাশয় ও গিরিশবাবু ঠাকুরের নির্দেশে বক্ষকিমবাবুর সানকীভাঙ্গার বাসায় গিয়া শ্রীরামকৃষ্ণ বিষয়ে আলোচনা করিয়াছিলেন।
Among them wasBankim Chandra Chatterji ,perhaps the greatest literary figure of Bengal during the later part of the nineteenth century. He was one of the creators of modern Bengali literature and wrote on social and religious subjects. Bankim was a product of the contact of India with England. He gave modern interpretations of the Hindu scriptures and advocated drastic social reforms.]
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏बंकिम नाम में निहित है राधाकृष्णः युगल-रूप की व्याख्या🔆🙏
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) – बंकिम ! तुम फिर किसके भाव में बंकिम हो गए हो भाई ! [बंकिम शब्द का अर्थ होता है तिरछा-bent या टेढ़ा]
শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — বঙ্কিম! তুমি আবার কার ভাবে বাঁকা গো!
MASTER (smiling): "Bankim! (Literally the word means "bent" or "curved".) Well, what has made you bent?")
बंकिम - (हँसते हँसते) - जी महाराज, जूते की चोट से ! (सभी हँसे) अंग्रेज साहब के जूते की चोट से टेड़ा ।
BANKIM (smiling): "Why, sir, boots are responsible for it. The kicks of our white masters have bent my body."
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, श्रीकृष्ण प्रेम से बंकिम बने थे । श्रीमती राधा के प्रेम से त्रिभंग ^* हुए थे । कृष्ण-रूप की व्याख्या कोई कोई करते हैं, श्रीराधा के प्रेम से त्रिभंग ।
['त्रिभंग' ओडिसी शैली में नृत्य की एक स्त्रीयोचित मुद्रा है, जिसमें शरीर गले, धड़ और घुटने पर मुड़ा होता है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না গো, শ্রীকৃষ্ণ বঙ্কিম হয়েছিলেন। শ্রীমতীর প্রেমে ত্রিভঙ্গ হয়েছিলেন। কৃষ্ণরূপের ব্যাখ্যা কেউ কেউ করে, শ্রীরাধার প্রেমে ত্রিভঙ্গ।
MASTER: "No, my dear sir! Sri Krishna was bent on account of His ecstatic love. His body was bent in three places owing to His love for Radha. That is how some people explain Sri Krishna's form.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏श्रीकृष्ण का रंग काला क्यों,और साढ़े तीन हाथ के मनुष्य जैसे क्यों बने 🔆🙏
"श्री कृष्ण काला (नील कलेवर) क्यों है जानते हो ? और साढ़े तीन हाथ - उतने छोटे क्यों है ?
[কালো কেন জানো? আর চৌদ্দপো, অত ছোট কেন?
" Do you know why He has a deep-blue complexion? And why He is of such small stature — only three and a half cubits measured by His own hand? "
"जब तक ईश्वर दूर हैं, तब तक काले दिखते हैं; जैसा समुद्र का जल दूर से नीला दिखता है । समुद्र के जल के पास जाने से और हाथ में उठाने से फिर जल काला नहीं रहता, उस समय बहुत साफ-सफेद दिखता है । सूर्य दूर है, इसलिए छोटा दिखता है; पास जाने पर फिर छोटा नहीं रहता, ईश्वर का स्वरूप ठीक जान लेने पर फिर काला भी नहीं रहता, छोटा भी नहीं रहता । यह बहुत दूर की बात है । समाधिमग्न न होने से उन्हीं की सब लीला है यह समझ में नहीं आता । 'मैं' 'तुम' है तब तक नाम-रूप भी हैं । उन्हीं की सब लोला है । 'मैं’ ‘तुम' जब तक रहते हैं, तब तक वे अनेक रूपों में प्रकट होते हैं ।"
[चंदन-चर्चित-नील-कलेवर-पीतवसन-वनमालिन् ।केलि-चलन्मणि-कुंडल-मंडित-गंडयुग-स्मितशालीन् ।। - हे विलासिनी श्रीराधे! देखो! पीतवसन धारण किये हुए, अपने तमाल-श्यामल-अंगो में चन्दन का विलेपन करते हुए, केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा मुखमण्डल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥1॥]
[ যতক্ষণ ঈশ্বরদূরে, ততক্ষণ কালো দেখায়, যেমন সমুদ্রের জল দূর থেকে নীলবর্ণ দেখায়। সমুদ্রের জলের কাছে গেলে ও হাতে করে তুললে আর কালো থাকে না, তখন খুব পরিষ্কার, সাদা। সূর্য দূরে বলে খুব ছোট দেখায়; কাছে গেলে আর ছোট থাকে না। সে অনেক দূরের কথা সমাধিস্থ না হলে হয় না। যতক্ষণ আমি তুমি আছে, ততক্ষণ নাম-রূপও আছে। তাঁরই সব লীলা। আমি তুমি যতক্ষণ থাকে ততক্ষণ তিনি নানারূপে প্রকাশ হন।
" God looks so as long as He is seen from a distance. So the water of the ocean looks blue from afar. But if you go near the ocean and take the water in your hand, you will no longer find it blue; it will be very clear, transparent. So the sun appears small because it is very far away; if you go near it, you will no longer find it small. When one knows the true nature of God, He appears neither blue nor small. But that is a far-off vision: one does not see it except in samadhi. As long as 'I' and you' exist, name and form will also exist. Everything is God's lila, His sportive pleasure. As long as a man is conscious of 'I' and 'you', he will experience themanifestations of God through diverse forms."
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏आत्मा बिना शक्ति (शरीर) के संसार में कुछ भी कार्य नहीं कर सकती🔆🙏
[E=Mc2]
"श्रीकृष्ण पुरुष हैं, श्रीमती राधा उनकी शक्ति हैं - आद्याशक्ति । पुरुष और प्रकृति युगल मूर्ति का अर्थ क्या है ? पुरुष और प्रकृति अभिन्न हैं । उनमें भेद नहीं है । पुरुष प्रकृति के बिना नहीं रह सकता, प्रकृति भी पुरुष के बिना नहीं रह सकती । एक का नाम करने से ही दूसरे को उसके साथ ही समझना होगा । जिस प्रकार अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति । दाहिका शक्ति को छोड़कर अग्नि का चिन्तन नहीं किया जा सकता और अग्नि को छोड़कर दाहिका शक्ति का भी चिन्तन नहीं किया जा सकता ।
[“শ্রীকৃষ্ণ পুরুষ, শ্রীমতী তাঁর শক্তি — আদ্যাশক্তি। পুরুষ আর প্রকৃতি। যুগলমূর্তির মানে কি? পুরুষ আর প্রকৃতি অভেদ, তাঁদের ভেদ নাই। পুরুষ, প্রকৃতি না হলে থাকতে পারে না; প্রকৃতিও পুরুষ না হলে থাকতে পারে না। একটি বললেই আর একটি তার সঙ্গে সঙ্গে বুঝতে হবে। যেমন অগ্নি আর দাহিকাশক্তি। দাহিকাশক্তি ছাড়া অগ্নিকে ভাবা যায় না।
আর অগ্নি ছাড়া দাহিকাশক্তি ভাবা যায় না।
"Sri Krishna is the Purusha; Srimati (Radhika, the Divine Consort of Krishna.) is His Sakti, the Primal Power. The two are Purusha and Prakriti. What is the meaning of the Yugala Murti, the conjoined images of Radha and Krishna? It is that Purusha and Prakriti are not different; there is no difference between them. Purusha cannot exist without Prakriti, and Prakriti cannot exist without Purusha. If you mention the one, the other is understood. It is like fire and its power to burn: one cannot think of fire without its power to burn; again, one cannot think of fire's power to burn without fire.
" इसलिए युगल-मूर्ति में श्रीकृष्ण की दृष्टि श्रीमती की ओर, और श्रीमती की दृष्टि श्रीकृष्ण की ओर है । श्रीमती का गौर वर्ण है, बिजली की तरह श्रीमती ने नीली साड़ी पहनी है और उन्होंने नीलकान्त मणि से अंग को सजाया है । श्रीमती के चरणों में नुपुर है, इसलिए श्रीकृष्ण ने भी नुपुर पहने हैं, अर्थात् प्रकृति के साथ पुरुष का अन्दर तथा बाहर मेल (समन्वय -harmony)है ।"
[ " তাই যুগলমূর্তিতে শ্রীকৃষ্ণের দৃষ্টি শ্রীমতীর দিকে, ও শ্রীমতীর দৃষ্টি কৃষ্ণের দিকে। শ্রীমতীর গৌর বর্ণ বিদ্যুতের মতো, তাই কৃষ্ণ পীতাম্বর পরেছেন। শ্রীকৃষ্ণের বর্ণ নীল মেঘের মতো; তাই শ্রীমতী নীলাম্বর পরেছেন। আর শ্রীমতী নীলকান্ত মণি দিয়ে অঙ্গ সাজিয়েছেন। শ্রীমতীর পায়ে নূপুর, তাই শ্রীকৃষ্ণ নূপুর পরেছেন; অর্থাৎ প্রকৃতির সঙ্গে পুরুষের অন্তরে-বাহিরে মিল।”
Therefore in the conjoined images of Radha and Krishna, Krishna's eyes are fixed on Radha and Radha's on Krishna. Radha's complexion is golden, like lightning; so Krishna wears yellow apparel. Krishna's complexion is blue, like a dark cloud; so Radha wears a blue dress; she has also decked herself with blue sapphires. Radha has tinkling anklets; so Krishna has them too. In other words, there is inner and outer harmony between Purusha and Prakriti."
ये सब बातें समाप्त हुईं । अब अधर के बंकिम आदि मित्रगण अंग्रेजी में धीरे धीरे बातें करने लगे । श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए बंकिम आदि के प्रति) - क्या जी आप लोग अंग्रेजी में क्या बातचीत कर रहे हैं ? (सभी हँसे ।)
[এই কথাগুলি সমস্ত সাঙ্গ হইল, এমন সময়ে অধরের বঙ্কিমাদি বন্ধুগণ পরস্পর ইংরেজীতে আস্তে আস্তে কথা কহিতে লাগিলেন। শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে বঙ্কিমাদির প্রতি) — কি গো। আপনারে ইংরাজীতে কি কথাবার্তা করছো? (সকলের হাস্য)
As Sri Ramakrishna finished these words, Bankim and his friends began to whisper in English. MASTER (smiling, to Bankim and the others): "Well, gentlemen! What are you talking about in English?"
अधर - जी, इसी विषय में जरा बात हो रही थी, कृष्णरूप की व्याख्या की बात !
[অধর — আজ্ঞে, এই বিষয় একটুকথা হচ্ছিল, কৃষ্ণরূপের ব্যাখ্যার কথা।
ADHAR: "We are discussing what you have just said, your explanation of Krishna's form."
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए सभी के प्रति) - एक कहानी की याद आने से मुझे हँसी आ रही है । सुनो कहानी कहूँ । नाई हजामत बनाने गया था । एक भद्र पुरुष हजामत बनवा रहे थे । अब हजामत बनवाते बनवाते उन्हें जरा कहीं अस्तुरा लग गया और उस भद्र पुरुष ने कहा 'डैम' (damn) परन्तु नाई तो डैम का मतलब नहीं जानता था । जाड़े का दिन था, उसने अस्तुरा आदि छोड़-छाड़कर अपनी कमीज की अस्तीन उठाकर कहा 'तुमने मुझे डैम कहा, अब कहो, इसका मतलब क्या है ?'
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য সকলের প্রতি) — একটা কথা মনে পড়ে আমার হাসি পাচ্ছে। শুন, একটা গল্প বলি। একজন নাপিত কামাতে গিয়েছিল। একজন ভদ্রলোককে কামাচ্ছিল। এখন কামাতে কামাতে তার একটু লেগেছিল। আর সে লোকটি ড্যাম (Damn) বলে উঠেছিল। নাপিত কিন্তু ড্যামের মানে জানে না। তখন সে ক্ষুর-টুর সব সেখানে রেখে, শীতকাল, জামার আস্তিন গুটিয়ে বলে, তুমি আমায় ড্যাম বললে, এর মানে কি, এখন বল।
MASTER (smiling): "That reminds me of a funny story. It makes me want to laugh. Once a barber was shaving a gentleman. The latter was cut slightly by the razor. At once he cried out, 'Damn!' But the barber didn't know the meaning of the word. He put his razor and. other shaving articles aside, tucked up his shirt-sleeves — it was winter —, and said: 'You said "damn" to me. Now you must tell me its meaning.'
उस व्यक्ति ने कहा, 'अरे, तू हजामत बना न ! उसका मतलब विशेष कुछ भी नहीं है, परन्तु जरा होशियारी से बनाना !' नाई भी छोड़नेवाला न था । वह कहने लगा, 'डॅम का मतलब यदि अच्छा है, तो मैं डॅम, मेरा बाप डॅम, मेरे चौदह पुरुष डॅम हैं । (सभी हँसे ।) और डॅम का मतलब यदि खराब हो तो तुम डॅम, तुम्हारा बाप डॅम, तुम्हारे चौदह पुरुष डॅम हैं । (सभी हँसे ।) फिर केवल डॅम ही नहीं - डॅम डॅम डॅम डॅम ।’ (सभी जोर से हँसे ।)
সে লোকটি বললে, আরে তুই কামা না; ওর মানে এমন কিছু নয়, তবে একটু সাবধানে কামাস। নাপিত, সে ছাড়বার নয়, সে বলতে লাগল, ড্যাম মানে যদি ভাল হয়, তাহলে আমি ড্যাম, আমার বাপ ড্যাম, আমার চৌদ্দপুরুষ ড্যাম। (সকলের হাস্য) আর ড্যাম মানে যদি খারাপ হয়, তাহলে তুমি ড্যাম, তোমার বাবা ড্যাম, তোমার চৌদ্দপুরুষ ড্যাম। (সকলের হাস্য) আর শুধু ড্যাম নয়। ড্যাম ড্যাম ড্যাম ড্যা ড্যাম ড্যাম। (সকলের উচ্চ হাস্য)
The gentleman said: 'Don't be silly. Go on with your shaving. The word doesn't mean anything in particular; but shave a little more carefully.' But the barber wouldn't let him off so easily. said, 'If "damn" means something good, then I am a "damn", my father is a "damn", and all my ancestors are "damns". (All laugh.') But if it means something bad, then you are a "damn", your father is a "damn", and all your ancestors are "damns". (All laugh.) They are not only "damns", but "damn — damn — damn — da-damn — damn".'" (Loud laughter.)
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
(२)
🔆🙏 जगतगुरु श्रीरामकृष्ण और धर्मोपदेश (preaching) का कार्य 🔆🙏
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ও প্রচারকার্য]
सब की हँसी बन्द होने पर बंकिम ने फिर बातचीत प्रारम्भ की ।
[সকলের হাস্য থামিলে পর, বঙ্কিম আবার কথা আরম্ভ করিলেন।
[As the laughter stopped, Bankim began the conversation.
बंकिम - महाराज, आप प्रचार क्यों नहीं करते ?
[বঙ্কিম — মহাশয়, আপনি প্রচার করেন না কেন?
BANKIM: "Sir, why don't you preach?"
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हँसते ) – " प्रचार ? वह सब गर्व की बातें हैं । मनुष्य तो क्षुद्र जीव है । प्रचार वे ही करेंगे । जिन्होंने चन्द्र-सूर्य पैदा करके इस जगत् को प्रकाशित किया है । प्रचार करना क्या साधारण बात है ? उनके दर्शन देकर आदेश न देने तक प्रचार नहीं होता ।"
{अनुवाद का मेरा विनम्र प्रयास > *धर्मोपदेश देना (Preaching-धर्म अर्थात विवेकप्रयोग का या मन को वशीभूत करने का प्रशिक्षण देना)*?जो व्यक्ति यह सोचता हो कि `मैं' (अमुक-सिंह) धर्मोपदेशक हूँ , 'मैं' लोगों को उपदेश देता हूँ' - इसी सोंच को मनुष्य का घमण्ड या मिथ्याभिमान (vanity) कहा जाता है ! मनुष्य तो एक तुच्छ प्राणी (नश्वर) है। जिस ईश्वर ने (शाश्वत -माँ जगदम्बा ने) चन्द्र-सूर्य पैदा करके इस जगत् (स्वतः परिवर्तनशील शरीर - मन सहित जीवात्मा और विश्व-ब्रह्माण्ड) को प्रकाशित किया है; उनका प्रचार करना क्या साधारण बात है ? उनके दर्शन देकर आदेश ( लिखित चपरास) न देने तक प्रचार नहीं होता ।]
[শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — প্রচার! ওগুলো অভিমানের কথা। মানুষ তো ক্ষুদ্র জীব। প্রচার তিনিই করবেন, যিনি চন্দ্র-সূর্য সৃষ্টি করে এই জগৎ প্রকাশ করেছেন। প্রচার করা কি সামান্য কথা? তিনি সাক্ষাৎকার হয়ে আদেশ না দিলে প্রচার হয় না।
MASTER (smiling): "Preaching? It is only a man's vanity that makes him think of preaching. A man is but an insignificant creature. It is God alone who will preach — God who has created the sun and moon and so illumined the universe. Is preaching such a trifling affair? You cannot preach unless God reveals Himself to you and gives you the command to preach.
हाँ ,परन्तु प्रचार करने से तुम्हें (उच्च डिग्री, उच्च पद या धनड्य व्यक्ति को) कोई रोक नहीं सकता । तुम्हें आदेश नहीं मिला, फिर भी तुम बक-बक कर रहे हो; वही दो दिन लोग सुनेंगे फिर भूल जायेंगे । जैसे एक लहर । जब तक तुम कह रहे हो, तब तक लोग कहेंगे, 'अहा, अच्छा कह रहे हैं वे ।’ तुम रुकोगे, उसके बाद कहीं कुछ भी न होगा ।
[তবে হবে না কেন? আদেশ হয়নি তুমি বকে যাচ্ছ; ওই দুদিন লোকে শুনবে তারপর ভুলে যাবে। যেমন একটা হুজুক আর কি! যতক্ষণ তুমি বলবে ততক্ষণ লোকে বলবে, আহা ইনি বেশ বলছেন। তুমি থামবে, তারপর কোথাও কিছুই নাই!
Of course, no one can stop you from preaching. You haven't received the command, but still you cry yourself hoarse. People will listen to you a couple of days and then forget all about it. It is like any other sensation: as long as you speak, people will say, 'Ah! He speaks well'; and the moment you stop, everything will disappear.
“जब तक दूध की कढ़ाई के नीचे आग जलती रहेगी, तब तक दूध खौल करके उबल उठता है । लकड़ी खींच लो ^*, दूध भी ज्यों का त्यों नीचे उतर गया ! “और साधना करके अपनी शक्ति बढ़ानी चाहिए, नहीं तो प्रचार नहीं होता ।
[लकड़ी खींच लो ^* जब तक शरीर -मन के साथ आत्मा संयुक्त है , तभी तक आत्मा की शक्ति से मन (मिथ्या अहं) को वशीभूत रखा जा सकता है। आत्मा को खींच लेने से मन भी शांत हो जाता है ! अतः साधना करके अपनी शक्ति को बढ़ाना चाहिए अर्थात `मिथ्या अहं को दासोऽहं ' में रूपान्तरित कर लेना चाहिए ! नहीं तो प्रचार नहीं होता - अर्थात मनःसंयोग और विवेक-प्रयोग का प्रशिक्षण या 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता।
जाति, कुल और क्षेत्र की सीमाओं से परे धर्मोपदशक हनुमान जी : रावण को अपना परिचय देते हुए उन्होंने यह गर्वोक्ति की-
`मैं भगवान् श्रीराम का दास हूँ, मैं पवनपुत्र हूँ, हनुमान् मेरा नाम है और मेरा काम शत्रुओं की सेनाओं का संहार करना है।
महाभागवत-पुराण तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में यह आया है कि शिवजी ने विष्णु भगवान् से कहा था कि आप जब रावण के संहार के लिए राम-रूप में अवतरित होंगे, तो मैं पवनात्मज के रूप में आपकी सहायता के लिए आऊँगा।
वाल्मीकि-रामायण एवं अन्य परवर्ती ग्रन्थों में हनुमान्, सुग्रीव आदि सब वानर-रूप में वर्णित हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये सचमुच वानर थे या मानव थे ? इस प्रश्न के उत्तर में एक बृहद् ग्रन्थ लिखा जा सकता है। किन्तु यहाँ रामकथा के सबसे उद्भट विद्वान् फादर कामिल बुल्के का निष्कर्ष उद्धृत करता हूँ। उनकी पुस्तक “रामकथा” एक कालजयी रचना है। उसमें उन्होंने लिखा है-''रामायण के वानर-मनुष्यों की तरह बुद्धि-सम्पन्न हैं, मानवीय भाषा बोलते हैं, कपड़े पहनते हैं, घरों में निवास करते हैं, विवाह-संस्कार को मान्यता देते हैं और राजा के शासन के अधीन रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि कवि की दृष्टि में वे निरे वानर नहीं हैं। उनकी अपनी-अपनी संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था है। वास्तव में वे वानर ऋक्ष आदि जनजातियाँ थे।... हनुमान् की जन्मकथा की तरह उनके चरित्र-चित्रण का विकास भी अत्यन्त रोचक है। वह वानर-गोत्रीय आदिवासी थे। '' (अनु0 110 और 680)
विप्ररूप धारण करके जब हनुमानजी रामजी से मिलने गये हैं और उन्होंने रामजी का नमन किया है, तो कैसे विप्र क्षत्रिय का नमन कर सकता है, इस पर सैकड़ों पृष्ठ लिखे गये हैं। किन्तु यह सबको स्वीकार्य होना चाहिए कि कोई महामानव जब राष्ट्रनायक हो जाता है, तो वह जाति, कुल, क्षेत्र सबकी सीमाओं से परे होकर देश और दुनिया का आराध्य हो जाता है। --साभार ,आचार्य किशोर कुणाल,सेवानिवृत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी तथा पटना के महावीर मन्दिर न्यास के सचिव। ]
[“যতক্ষণ দুধের নিচে আগুন জ্বাল রয়েছে, ততঁন দুধটা ফোঁস করে ফুলে উঠে। জ্বালও টেনে নিলে, আর দুধও যেমন তেমনি! কমে গেল।“আর সাধন করে নিজের শক্তি বাড়াতে হয়। তা না হলে প্রচার হয় না।
"The milk in the pot hisses and swells as long as there is heat under it. Take away the heat, and the milk will quiet down as before."One must increase one's strength by sadhana; otherwise one cannot preach.
'अपने सोने के लिए जगह नहीं पाता और ऊपर से शंकरा को पुकारता हैं ।' अपने ही सोने के लिए स्थान नहीं, फिर पुकारता है, 'अरे शंकरा, आओ मेरे पास आकर सोओ ।'
‘আপনি শুতে স্থান পায় না, শঙ্করাকে ডাকে।’ আপনারই শোবার জায়গা নাই, আবার ডাকে ওরে শঙ্করা আয়, আমার কাছে শুবি আয়। (হাস্য)
As the proverb goes: 'You have no room to sleep yourself and you invite a friend to sleep with you.' There is no place for you to lie down and you say: 'Come, friend! Come and lie down with me.' (Laughter.)
"उस देश में हालदारों के तालाब के किनारे लोग रोज शौच को जाते थे, सबेरे लोग आकर देखते थे और गाली-गलौज करते थे । लोग गाली देते थे, फिर भी लोगों का शौच जाना बन्द नहीं होता था । अन्त में मुहल्लेवालों ने अर्जी भेजकर कम्पनी को सूचित किया ।
[“ও-দেশে হালদার পুকুরের পাড়ে রোজ বাহ্যে (befoul-)করে যেত, লোকে সকালে এসে দেকে গালাগালি দিত। লোক গালাগালি দেয় তবু বাহ্যে আর বন্ধ হয় না। শেষে পাড়ার লোক দরখাস্ত করে কোম্পানিকে জানালে।
"Some people used to befoul the bank of the Haldarpukur at Kamarpukur every morning. The villagers would notice it and abuse the offenders. But that didn't stop it. At last the villagers filed a petition with the Government.
`उन्होंने एक नोटिस लगा दिया, 'यहाँ पर शौच जाना या पेशाब करना मना है, जो ऐसा करेगा उसे सजा दी जायेगी ।’ उसके बाद सब एकदम बन्द और फिर कोई गड़बड़ी नहीं । कम्पनी का हुक्म - सभी को मानना होगा ।
তারা একটি নোটিশ মেরে দিলে — ‘এখানে বাহ্যে, প্রস্রাব করিও না; তা করিলে শাস্তি পাইবে।’ তখন একেবারে সব বন্ধ। আর কোনও গোলযোগ নাই। কোম্পানির হুকুম — সকলের মানতে হবে।
An officer visited the place and put up a sign: 'Commit no nuisance. Offenders fenders will be punished.' That stopped it completely. Afterwards there was no more trouble. It was a government order, and everyone had to obey it.
"उसी प्रकार ईश्वर का साक्षात्कार होने पर यदि वे आदेश दें, तभी प्रचार होता है, लोकशिक्षा होती है, नहीं तो तुम्हारी बात कौन सुनेगा ?" इन बातों को सभी गम्भीर भाव से स्थिर होकर सुनने लगे।
[“তেমনি ঈশ্বর সাক্ষাৎকার হয়ে যদি আদেশ দেন, তবেই প্রচার হয়; লোকশিক্ষা হয়, তা না হলে কে তোমার কথা শুনবে?”এই কথাগুলি সকলে গম্ভীরভাবে স্থির হইয়া শুনিতে লাগিলেন।
"Likewise, if God reveals Himself to you and gives you the command, then you can preach and teach people. Otherwise, who will listen to you?" The visitors were listening seriously.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏मरणोपरान्त जीवन है या नहीं ? कुम्हार और मिट्टी की उपमा 🔆🙏
[यदि कोई व्यक्ति आत्मज्ञान के बाद मरे तो उसका पुनर्जन्म नहीं होता !]
[শ্রীযুক্ত বঙ্কিম ও পরকাল ]
[Life after Death — argument from analogy]
श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) - अच्छा, आप तो बड़े पण्डित हैं, और कितनी पुस्तकें लिखी हैं आपने ! आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है ? साथ क्या जायेगा ? परकाल (मरणोत्तर जीवन-पुनर्जन्म) तो है न ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (বঙ্কিমের প্রতি) — আচ্ছা, আপনি তো খুব পণ্ডিত, আর কত বই লিখেছ; আপনি কি বলো, মানুষের কর্তব্য কি? কি সঙ্গে যাবে? পরকাল তো আছে?
MASTER (to Bankim): "I understand you are a great pundit and have written many books. Please tell me what you think about man's duties? What will accompany him after death? You believe in the hereafter, don't you?"
बंकिम – परकाल ? वह क्या चीज है ?
বঙ্কিম — পরকাল! সে আবার কি?
BANKIM: "The hereafter? What is that?"
श्रीरामकृष्ण - " हाँ, ज्ञान के बाद और दूसरे लोक में जाना नहीं पड़ता, पुनर्जन्म नहीं होता । परन्तु जब तक ज्ञान नहीं होता, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती, तब तक संसार में लौटकर आना पड़ता है, बचने का कोई भी उपाय नहीं है । तब तक परलोक भी है । ज्ञान प्राप्त होने पर, ईश्वर का दर्शन होने पर मुक्ति हो जाती है - और आना नहीं पड़ता ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, জ্ঞানের পর আর অন্যলোকে যেতে হয় না, — পুনর্জন্ম হয় না। কিন্তু যতক্ষণ না জ্ঞান হয়, ঈশ্বরলাভ হয়, ততক্ষণ সংসারে ফিরে আসতে হয়, কোনমতে নিস্তার নাই। ততক্ষণ পরকালও আছে। জ্ঞানলাভ হলে, ঈশ্বরদর্শন হলে মুক্তি হয়ে যায় — আর আসতে হয় না।
MASTER: "True. When a man dies after attaining Knowledge, he doesn't have to go to another plane of existence; he isn't born again. But as long as he has not attained Knowledge, as long as he has not realized God, he must come back to the life of this earth; he can never escape it. For such a person there is a hereafter. A man is liberated after attaining Knowledge, after realizing God. For him there is no further coming back to earth.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏आत्मज्ञानी की कामिनी-कांचन में आसक्ति नहीं, उससे सृष्टि का खेल नहीं होता🔆🙏
[`उबला धान पुनः बोने के लायक नहीं रहता']
`সেদ্ধ ধান আবার বপনের উপযোগী নয়'
`Boiled paddy is not fit to sow again']
"उबाला हुआ धान बोने से फिर पौधा नहीं होता । ज्ञानरूपी अग्नि से यदि कोई उबाला हुआ हो, तो उसे लेकर और सृष्टि का खेल नहीं होता । वह गृहस्थी कर नहीं सकता, उसकी तो कामिनी-कांचन में आसक्ति नहीं है । उबाले हुए धान को फिर खेत में बोने से क्या होगा ?
সিধোনো-ধান পুঁতলে আর গাছ হয় না। জ্ঞানাগ্নিতে সিদ্ধ যদি কেহ হয় তাকে নিয়ে আর সৃষ্টির খেলা হয় না। সে সংসার করতে পারে না, তার তো কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি নাই। সিধোনো-ধান আর ক্ষেতে পুতলে কি হবে?
If a boiled paddy-grain is sown, it doesn't sprout. Just so, if a man is boiled by the fire of Knowledge, he cannot take part any more in the play of creation; he cannot lead a worldly life, for he has no attachment to 'woman and gold'. What will you gain by sowing boiled paddy?"
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏 जिसे अमृतफल प्राप्त हुआ है, वह सर्वज्ञ व्यक्ति ही लोकशिक्षा दे सकता है🔆🙏
{`मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया। '
`रोक सकता हमें ज़िन्दाने (जेलर या जेल) बला क्या मजरूह;
हम तो आवाज़ हैं (आकारहीन-voice without form हैं !) दीवारों से छन जाते हैं ।'
– मजरूह सुल्तानपुरी।]
बंकिम - (हँसते हँसते) - हाँ महाराज, और घास-पतवार से भी तो पेड़ का कार्य नहीं होता !
বঙ্কিম (হাসিতে হাসিতে) — মহাশয়, তা আগাছাতেও কোন গাছের কাজ হয় না।
BANKIM (smiling): "Sir, neither does a weed serve the purpose of a tree.
श्रीरामकृष्ण - परन्तु ज्ञानी घास-पतवार नहीं हैं । जिसने ईश्वर का दर्शन किया है, उसने अमृतफल प्राप्त किया है - वह कोई कद्दू-कोंहड़ा फल (gourd or a pumpkin) नहीं है ! उसका पुनर्जन्म नहीं होता । पृथ्वी कहो, सूर्यलोक कहो, चन्द्रलोक कहो - कहीं पर भी उसे आना नहीं पड़ता ।
শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞানী তা বলে আগাছা নয়। যে ঈশ্বরদর্শন করেছে, সে অমৃত ফল লাভ করেছে — লাউ, কুমড়া ফল নয়! তার পুনর্জন্ম হয় না। পৃথিবী বল, সূর্যলোক বল, চন্দ্রলোক — কোনও জায়গায় তার আসতে হয় না।
MASTER: "But you cannot call a jnani a weed. He who has realized God has obtained the fruit of Immortality — not a common fruit like a gourd or a pumpkin. He is free from rebirth. He is not born anywhere — on earth, in the solar world, or in the lunar world.
" तुम्हारी उपमा एकदेशी है। तुमने न्यायशास्त्र नहीं पढ़ा ? बाघ की तरह भयानक कहने से , बाघ की तरह एक भारी दुम या बड़े भारी मुख से अर्थ हो, सो नहीं। (सभी हँसे)
“উপমা (Analogy)— একদেশী (one-sided,सादृश्य)। তুমি তো পণ্ডিত, ন্যায় (तर्कशास्त्र) পড় নাই? বাঘের মতো ভয়ানক বললে যে বাঘের মতো একটা ভয়ানক ন্যাজ কি হাঁড়ি মুখ থাকবে তা নয়। (সকলের হাস্য)
"Analogy is one-sided. You are a pundit; haven't you read logic? Suppose you say that a man is as terrible as a tiger. That doesn't mean that he has a fearful tail or a tiger's pot-face! (All laugh.)
[अमृतवाणी-545 : मान लो हण्डी में चावल पक रहा है। चावल पका है कि नहीं यह देखने के लिये तुम उसमें से एक ही सोथ लेकर उसे दबाकर देखते हो , और उसी पर से समझ लेते हो कि चावल पका है या नहीं। तुम चावल के सभी सोथों को एक-एक करके परखकर नहीं देखते, फिर भी यह समझ लेते हो।
यहाँ जिस प्रकार पूरा चावल पक चुका है या कच्चा है -यह एक सोथ को देखकर ही तुम समझ लेते हो ; उसी प्रकार यह संसार सत है या असत ? नित्य है अनित्य --यह भी तुम संसार की दो- चार वस्तुओं को परखकर ही जान सकते हो। मनुष्य जन्म लेता है , कुछ दिन जीता है , फिर मर जाता है। पशु का भी यही हाल होता है और वृक्ष का भी। विचार करके देखने पर तुम्हारी समझ में आ जाता है कि जो भी वस्तु नाम और रूप से युक्त है उसकी यही गति है।
पृथ्वी , सूर्यलोक , चन्द्रलोक - सभी के नाम और रूप हैं , अतएव उनकी भी यही गति है। इस प्रकार जब तुम जान लेते हो कि सारे संसार का यही स्वभाव है , तब तुम्हें संसार की सभी वस्तुओं का स्वभाव ज्ञात हो जाता है या नहीं ? ?
इसी तरह जब तुम संसार को सचमुच ही अनित्य , असत अनुभव करोगे -- तब तुम उससे आसक्त नहीं रह सकोगे , उस पर पहले जैसा प्यार नहीं कर सकोगे ! तब तुम उसे बिल्कुल मन से त्यागकर वासनारहित बन जाओगे।
और जब तुम इस प्रकार पूर्ण त्याग करने में समर्थ होओगे तभी तुम जगत्कारण परमेश्वर के दर्शन पाओगे। इस तरह से जिसने ईश्वरदर्शन (अमृतफल) प्राप्त कर लिया है ,वह व्यक्ति यदि सर्वज्ञ नहीं हुआ तो फिर वह क्या हुआ ? ]
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏क्या कोई मरणोपरांत जीवन भी है?🔆🙏
[इस प्रश्न को बहस का मुद्दा नहीं बनाना है - कुम्हार की उपमा से समझो]
[এই প্রশ্নটি বিতর্কিত হওয়ার নয় - একজন কুমারের উপমা দিয়ে বুঝুন]
[This question is not to be debatable -
understand with the analogy of a potter]
"मैंने केशव सेन से वही बात कही थी । केशव ने पूछा - 'महाराज, क्या परलोक हैं ?' मैंने न इधर बताया और न उधर कहा, कुम्हार लोग मिट्टी के बर्तन बनाकर सूखने के लिए बाहर रखते हैं। उनमें पक्के बर्तन भी है और फिर कच्चे बर्तन भी । कभी कोई जानवर आकर उन्हें कुचलकर चले जाते हैं ।
[मैंने खुद को किसी एक ही पक्ष का समर्थक बनने नहीं दिया। कुम्हार के बर्तन का उदाहरण देकर समझाया ?]
[“আমি কেশব সেনকে ওই কথা বলেছিলাম। কেশব জিজ্ঞাসা করলে — মহাশয়, পরকাল কি আছে? আমি না এদিক না ওদিক বললাম! বললাম, কুমোররা হাঁড়ি শুকোতে দেয়, তার ভিতর পাকা হাঁড়িও আছে, আবার কাঁচা হাঁড়িও আছে। কখনও গরুটরু এলে হাঁড়ি মাড়িয়ে দেয়।
"I said the same thing to Keshab. He asked me, 'Sir, is there an after-life?' I didn't commit myself either way. I said that the potters put their pots in the sun to bake. Among them you see both baked and soft pots. Sometimes cattle trample over them.
" पक्के बर्तन टूट जाने पर कुम्हार उन्हें फेंक देता है, परन्तु कच्चे बर्तन टूट जाने पर उन्हें कुम्हार फिर घर में लाता है, लाकर पानी मिलाता है और उसे गीला करके रगड़कर फिर चाक पर चढ़ाता और नया बर्तन बना लेता है; छोड़ता नहीं । इसीलिए केशव से कहा, जब तक कच्चा रहेगा तब तक कुम्हार नहीं छोड़ेगा, जब तक ज्ञान प्राप्त नहीं होता, जब तक ईश्वर का दर्शन नहीं मिलता, तब तक कुम्हार फिर चाक पर डालेगा; छोड़ेगा नहीं । अर्थात् लौट-लौटकर इस संसार में आना पड़ेगा - छुटकारा नहीं ।
[পাকা হাঁড়ি ভেঙে গেলে কুমোর সেগুলোকে ফেলে দেয়। কিন্তু কাঁচা হাঁড়ি ভেঙে গেলে সেগুলি কুমোর আবার ঘরে আনে; এনে জল দিয়ে মেখে আবার চাকে দিয়ে নূতন হাঁড়ি করে, ছাড়ে না। তাই কেশবকে বললুম, যতক্ষণ কাঁচা থাকবে কুমোর ছাড়বে না; যতক্ষণ না জ্ঞানলাভ হয়, যতক্ষণ না ঈশ্বর দর্শন হয়, ততক্ষণ কুমোর আবার চাকে দেবে; ছাড়বে না, অর্থাৎ ফিরে ফিরে এ সংসারে আসতে হবে, নিস্তার নাই।
When the baked pots are broken, the potters throw them away; but when the soft ones are broken they keep them. They mix them with water and put the clay on the wheel and make new pots. They don't throw away the unbaked pots. So I said to Keshab: 'The Potter won't let you go as long as you are unbaked. He will put you on the wheel of the world as long as you have not attained Knowledge, as long as you have not realized Him. He won't let you go. You will have to return to the earth again and again: there is no escape.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏जो ज्ञानी माया के पार चले गये हैं, वे फिर माया के संसार में क्या करेंगे ?🔆🙏
"उन्हें प्राप्त करने पर तब मुक्ति होती है, तब कुम्हार छोड़ देता है, क्योंकि उसके द्वारा माया की सृष्टि का कोई काम नहीं होता । ज्ञानी माया के परे चले गये हैं; वे फिर माया के संसार में क्या करेंगे ?
[তাঁকে লাভ করলে তবে মুক্তি হয়, তবে কুমোর ছাড়ে, কেননা, তার দ্বারা মায়ার সৃষ্টির কোন কাজ আসে না। জ্ঞানী মায়াকে পার হয়ে গেছে। সে আর মায়ার সংসারে কি করবে।
You will be liberated only when you realize God. Then alone will the Potter let you go. It is because then you won't serve any purpose in this world of maya.' The jnani has gone beyond maya. What will he do in this world of maya?
"परन्तु किसी किसी को [`C-IN-C' नवनीदा को ?]वे माया के संसार में रख देते हैं, लोक शिक्षा के लिए । लोगों को शिक्षा देने के लिए ज्ञानी विद्यामाया का सहारा लेकर रहते हैं । ईश्वर ही अपने काम के लिए उन्हें रख छोड़ते हैं, जैसे शुकदेव, शंकराचार्य ।
“তবে কারুকে কারুকে তিনি রেখে দেন, মায়ার সংসারে লোকশিক্ষার জন্য। লোকশিক্ষা দিবার জন্য জ্ঞানী বিদ্যামায়া আশ্রয় করে থাকে। সে তাঁর কাজের জন্য তিনিই রেখে দেন; যেমন শুকদেব, শঙ্করাচার্য।
"But God keeps some jnanis in the world of maya to be teachers of men. In order to teach others the jnani lives in the world with the help of vidyamaya. It is God Himself who keeps the jnani in the world for His work. Such was the case with Sukadeva and Sankaracharya.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
मनुष्य का कर्तव्य क्या है ?
🔆🙏 निरंतर विषय चिंता से मनुष्य पटवारी जैसा (मतलबी और मक्कार) बन जाता है🔆🙏
श्रीरामकृष्ण (बंकिम के प्रति सहास्य ) - " अच्छा, आप क्या कहते हैं, मनुष्य का क्या कर्तव्य है?”
[ (বঙ্কিমের প্রতি) — “আচ্ছা, আপনি কি বল, মানুষের কর্তব্য কি?”
(To Bankim, smiling) "Well, what do you say about man's duties?"
बंकिम – (हँसते हँसते) - यदि आप पूछते ही हैं तो उसका कर्तव्य है, आहार, निद्रा और मैथुन ।
[বঙ্কিম (হাসিতে হাসিতে) — আজ্ঞা, তা যদি বলেন, তাহলে আহার, নিদ্রা ও মৈথুন।
BANKIM (smiling): "If you ask me about them, I should say they are eating, sleeping, and sex-life."
श्रीरामकृष्ण - (विरक्त होकर) – ओह ! "तुमि तो बोड़ो छैंछड़ा "तुम बहुत ही बेहूदे हो ! तुम दिन-रात जो करते हो वही तुम्हारे मुख से निकल रहा है । लोग जो कुछ खाते हैं उसी की डकार आती है । मूली खानेपर मूली की डकार आती है । नारियल खाने पर नारियल की डकार आती है। कामिनी-कांचन में दिन-रात रहते हो और वही बात मुख से निकल रही है । केवल विषय का चिन्तन करने से हिसाबी स्वभाव (घोटाला करने में सिद्ध पटवारी) बन जाता है, मनुष्य कपटी बन जाता है । ईश्वर का चिन्तन करने पर सरल होता है, ईश्वर का साक्षात्कार होने पर ऐसी बातें कोई नहीं कहेगा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বিরক্ত হইয়া) — এঃ! তুমি তো বড় ছ্যাঁচড়া! তুমি যা রাতদিন কর, তাই তোমার মুখে বেরুচ্ছে। লোকে যা খায়, তার ঢেকুর উঠে। মূলো খেলে মূলোর ঢেকুর উঠে। ডাব খেলে ডাবের ঢেকুর উঠে। কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর রাতদিন রয়েছো আর ওই কথাই মুখ দিয়ে বেরুচ্ছে! কেবল বিষয়চিন্তা করলে পাটোয়ারি স্বভাব হয়, মানুষ কপট হয়। ঈশ্বরচিন্তা করলে সরল হয়, ঈশ্বর সাক্ষাৎকার হলে ও-কথা কেউ বলবে না।
MASTER (sharply): "Eh? You are very saucy! What you do day and night comes out through your mouth. A man belches what he eats. If he eats radish, he belches radish; if he eats green coconut, he belches green coconut. Day and night you live in the midst of 'woman and gold'; so your mouth utters words about that alone. By constantly thinking of worldly things a man becomes calculating (मतलबी) and deceitful (मक्कार) . On the other hand, he becomes guileless by thinking of God. A man who has seen God will never say what you have just said.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏 শ্রীযুক্ত বঙ্কিম — শুধু পাণ্ডিত্য ও কামিনী-কাঞ্চন 🔆🙏
कोई विद्वान् यदि अच्छी पुस्तकें लिखे किन्तु कामिनी कांचन में आसक्त है तो वह विद्वान् है ?
"यदि ईश्वर का चिन्तन न हो, यदि विवेक-वैराग्य न हो तो केवल विद्वत्ता रहने से क्या होगा ? यदि कामिनी-कांचन में मन रहे, तो केवल पण्डिताई (erudition) से क्या होगा ?
[ (বঙ্কিমের প্রতি) — “শুধু পাণ্ডিত্য হলে কি হবে, যদি ঈশ্বরচিন্তা না থাকে? যদি বিবেক-বৈরাগ্য না থাকে? পাণ্ডিত্য কি হবে, যদি কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকে?
What will a pundit's scholarship profit him if he does not think of God and has no discrimination and renunciation? Of what use is erudition
(पाण्डित्य) if the mind dwells on 'woman and gold'?
"गिद्ध बहुत ऊँचाई पर उड़ता है, परन्तु दृष्टि उसकी केवल मरघट पर ही रहती है । पण्डितजी अनेक पुस्तकें, शास्त्र पढ़ते हैं, श्लोक झाड़ सकते हैं, कितनी ही पुस्तकें लिखते हैं, परन्तु औरत के प्रति आसक्त हैं, धन और मान को सार समझते हैं, वह फिर कैसा पण्डित ? ईश्वर में यदि मन न रहा तो फिर क्या पण्डित और क्या उसकी पण्डिताई ?
[“চিল শকুনি খুব উঁচুতে উঠে, কিন্তু ভাগাড়ের কদিকে কেবল নজর! পণ্ডিত অনেক বই শাস্ত্র পড়েছে, শোলোক ঝাড়তে পারে, কি বই লিখেছে, কিন্তু মেয়েমানুষে আসক্ত, টাকা, মান সার বস্তু মনে করেছে; সে আবার পণ্ডিত কি? ঈশ্বরে মন না থাকলে পণ্ডিত কি?
"Kites and vultures soar very high indeed, but their gaze is fixed only on the charnel-pit. The pundit has no doubt studied many books and scriptures; he may rattle off their texts, or he may have written books.But if he is attached to women, if he thinks of money and honour as the essential things, will you call him a pundit? How can a man be a pundit if his mind does not dwell on God?
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏ईश्वर भक्त 'राजर्षि जनक ' क्या पागल और मूर्ख थे ?🔆🙏
"कोई-कोई समझते हैं कि ये लोग केवल ईश्वर-ईश्वर कर रहे हैं; पगले हैं ! ये लोग बौरा गये हैं । हम कैसे चालाक हैं, कैसे सुख भोग रहे हैं - धन-सम्मान, इन्द्रिय-सुख । कौआ भी समझता है, मैं बहुत चालाक हूँ, परन्तु सबेरे उठकर ही दूसरों की विष्ठा खाता हैं । कौओं को नहीं देखते हो, कितनी ऐंठ के साथ घुमते-फिरते हैं, बड़े सयाने ! (सभी चुप हैं ।)
“কেউ কেউ মনে করে এরা কেবল ঈশ্বর ঈশ্বর করছে, পাগলা। এরা বেহেড হয়েছে। আমরা কেমন স্যায়না, কেমন সুখভোগ করছি; টাকা, মান, ইন্দ্রিয়সুখ। কাকও মনে করে, আমি বড় স্যায়না, কিন্তু সকালবেলা উঠেই পরের গু খেয়ে মরে। কাক দেখো না কত উড়ুর পুড়ুর করে, ভারী স্যায়না! (সকলে স্তব্ধ)
Some may say about the devotees: 'Day and night these people speak shout God. They are crazy; they have lost their heads. But how clever we are. How we enjoy pleasure — money, honour, the senses!' The crow, too thinks he is a clever bird; but the first thing he does when he wakes up in the early morning is to fill his stomach with nothing but others' filth. Haven't you noticed how he struts about? Very clever indeed!" [There was dead silence.]
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏हंस राजर्षि जनकका विवेक और चलने का ढंग :the gait of a swan !🔆🙏
"जो लोग ईश्वर का चिन्तन करते हैं, विषय में आसक्ति, कामिनी-कांचन में प्रेम दूर करने के लिए दिन-रात प्रार्थना करते हैं, जिन्हें विषय का रस कडुवा लगता है, हरि-पाद पद्म की सुधा को छोड़कर जिन्हें और कुछ भी अच्छा नहीं लगता, उनका स्वभाव हंस का सा होता है । हंस के सामने दूध-जल मिलाकर रखो, जल छोड़कर दूध पी जायगा । हंस की चाल देखी है ? एक ओर सीधा चला जायेगा ।
" और शुद्ध भक्ति की गति भी केवल ईश्वर की ओर होती है । वह और कुछ नहीं चाहता । उसे और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । (बंकिम के प्रति कोमल भाव से) आप कुछ बुरा न मानियेगा ।"
[“যারা কিন্তু ঈশ্বরচিন্তা করে, বিষয়ে আসক্তি, কামিনী-কাঞ্চনে ভালবাসা চলে যাবার জন্য রাতদিন প্রার্থনা করে, যাদের বিষয়রস তেঁতো লাগে, হরিপাদপদ্মের সুধা বই আর কিছু ভাল লাগে না, তাদের স্বভাব যেমন হাঁসের স্বভাব। হাঁসের সুমুখে দুধেজলে দাও, জল ত্যাগ করে দুধ খাবে। আর হাঁসের গতি দেখেছো? একদিকে সোজা চলে যাবে।শুদ্ধভক্তের গতিও কেবল ঈশ্বরের দিকে। সে আর কিছু চায় না; তার আর কিছু ভাল লাগে না।(বঙ্কিমের প্রতি কোমলভাবে) — “আপনি কিছু মনে করো না।”
Sri Ramakrishna continued: "But like the swan are those who think of God, who pray day and night to get rid of their attachment to worldly things and their love for 'woman and gold', who do not enjoy anything except the nectar of the Lotus Feet of the Lord, and to whom worldly pleasures taste bitter. If you put a mixture of milk and water before the swan, it will leave the water and drink only the milk. And haven't you noticed the gait of a swan? It goes straight ahead in one direction. So it is with genuine devotees: they go toward God alone. They seek nothing else; they enjoy nothing else.
(Tenderly, to Bankim) "Please don't take offence at my words."
बंकिम - जी, मैं यहाँ मीठी बातें सुनने नहीं आया हूँ ।
[বঙ্কিম — আজ্ঞা, মিষ্টি শুনতে আসিনি।
BANKIM: "Sir, I haven't come here to hear sweet things."
{जो पहले शिर त्यागे, सो रण संग्राम न भागे ॥२॥
✦ जो वीर पहले ही शिर त्याग कर युद्ध करता है, वह रण भूमी से नहीं भागता । वैसे ही जो साधक पहले ही देहाभिमान छोड़ देता है वह साधन संग्राम से नहीं भागता ।
मरजीवा मरि समुद्र समाई, सो रज्जब नग निरखै जाई ॥३॥
✦ जो मरजीवड़ा अपने को मरा हुआ समझ कर समुद्र की गहराई में घुसता है, तब नीचे जाकर नग देखता है । वैसे ही जो पहले ही जीवित मृतक होकर स्मरण करता है वह अपने प्रभु का दर्शन करता है ।
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
(३)
*जगत् का उपकार तथा कर्मयोग*
🔆🙏कामिनी-कांचन में आसक्ति ही माया है, ईश्वर को देखने नहीं देती🔆🙏
श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) – कामिनी-कांचन ही संसार है । इसी का नाम माया है । ईश्वर को देखने तथा उसका चिन्तन नहीं करने देती । एक-दो बच्चे होने पर स्त्री के साथ भाई-बहन के सदृश रहना चाहिए और आपस में सदा ईश्वर की बातचीत करनी चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বঙ্কিমের প্রতি) — কামিনী-কাঞ্চনই সংসার। এরই নাম মায়া। ঈশ্বরকে দেখতে, চিন্তা করতে দেয় না; দুই-একটি ছেলে হলে স্ত্রীর সঙ্গে ভাই-ভগ্নীর মতো থাকতে হয়, আর তার সঙ্গে সর্বদা ঈশ্বরের কথা কইতে হয়।
MASTER (to Bankim):" 'Woman and gold' alone is the world; that alone is maya. Because of it you cannot see or think of God. After the birth of one or two children, husband and wife should live as brother and sister and talk only of God. ]
" इससे दोनों का ही मन उनकी ओर जायेगा और स्त्री धर्म की सहायक बनेगी । पशुभाव न मिटने पर ईश्वर के आनन्द का आस्वादन हो नहीं सकता । ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि जिससे पशुभाव (आहार,निद्रा मैथुन में आसक्ति)दूर हो । व्याकुल होकर प्रार्थना । वे अन्तर्यामी हैं, अवश्य ही सुनेंगे - यदि प्रार्थना आन्तरिक हो ।
[তাহলে দুজনেরই মন তাঁর দিকে যাবে আর স্ত্রী ধর্মের সহায় হবে। পশুভাব না গেলে ঈশ্বরের আনন্দ আস্বাদন করতে পারে না। ঈশ্বরের কাছে প্রার্থনা করতে হয় যাতে পশূভাব যায়। ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা। তিনি অন্তর্যামী, শুনবেনই শুনবেন। যদি আন্তরিক হয়।
Then both their minds will be drawn to God, and the wife will be a help to the husband on the path of spirituality. None can taste divine bliss without giving up his animal feeling. A devotee should pray to God to help him get rid of this feeling. It must be a sincere prayer. God is our Inner Controller; He will certainly listen to our prayer if it is sincere.]
"फिर 'कांचन' । मैंने पंचवटी 1 में गंगा के किनारे पर बैठकर 'रुपया मिट्टी' 'रुपया मिट्टी' 'मिट्टी ही रुपया' 'रुपया ही मिट्टी' कहकर दोनों जल में फेंक दिये थे ।”
[1 पंचबटी - रानी रासमणि के दक्षिणेश्वर काली उद्यान में पंचवटी के नीचे ठाकुर श्री रामकृष्ण देव ने बहुत दिनों तक आध्यात्मिक साधना और तपस्या की थी। यह बहुत एकान्त स्थान है। इसका दर्शन करने और यहाँ थोड़ी देर बैठने सेईश्वर के प्रति भक्ति सहज ही जाग्रत हो जाती है।]
"And 'gold'. Sitting on the bank of the Ganges below the Panchavati, I used to say, 'Rupee is clay and clay is rupee.' Then I threw both into the Ganges."
১ পঞ্চবটী — রাসমণির কালীবাটীতে পঞ্চবটীতলায় ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ অনেক সাধনা তপস্যা করিয়াছিলেন। অতি নির্জন স্থান। সহজেই ঈশ্বর উদ্দীপন হয় | https://www.ramakrishnavivekananda.info/kathamrita/unicodekathamrita/58_c_sriramakrishna_1119_1121.html#txt1]
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏 दान या परोपकार करने का सामर्थ्य ईश्वर की कृपा से मिलता हैं 🔆🙏
बंकिम - रुपया मिट्टी ! महाराज, चार पैसे रहे तो गरीब को दिये जा सकते हैं । रुपया यदि मिट्टी है तो फिर दया परोपकार कैसे होगा ?
[বঙ্কিম — টাকা মাটি! মহাশয় চারটা পয়সা থাকলে গরিবকে দেওয়া যায়। টাকা যদি মাটি, তাহলে দয়া পরোপকার করা হবে না?
BANKIM: "Indeed! Money is clay! Sir, if you have a few pennies you can help the poor. If money is clay, then a man cannot give in charity or do good to others."
श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति ) – दया ! परोपकार ! तुम्हारी क्या शक्ति है कि तुम परोपकार करो ? मनुष्य का इतना घमण्ड, परन्तु जब सो जाता है, तो यदि कोई खड़े होकर उसके मुँह में पेशाब भी कर दे, तो पता नहीं लगता । उस समय अहंकार, गर्व, दर्प कहाँ जाता है ?
শ্রীরামকৃষ্ণ (বঙ্কিমের প্রতি) — দয়া! পরোপকার! তোমার সাধ্য কি যে তুমি পরোপকার কর? মানুষের এতো নপর-চপর কিন্তু যখন ঘুমোয়, তখন যদি কেউ দাঁড়িয়ে মুখে মুতে দেয়, তো টের পায় না, মুখ ভেসে যায়। তখন অহংকার, অভিমান, দর্প কোথায় যায়?
MASTER (to 'Bankim'): "Charity! Doing good! How dare you say you can do good to others? Man struts about so much; but if one pours foul water into his mouth when he is asleep, he doesn't even know it; his mouth overflows with it. Where are his boasting, his vanity, his pride, then?
"संन्यासी को कामिनी-कांचन का त्याग करना पड़ता है । उसे फिर वह ग्रहण नहीं कर सकता । थूक को फेंककर फिर उसे चाटना नहीं चाहिए । संन्यासी यदि किसी को कुछ देता है तो वह ऐसा नहीं समझता कि उसने स्वयं दिया । दया ईश्वर की है, मनुष्य बेचारा क्या दया करेगा ? दान आदि सभी राम की इच्छा पर निर्भर है ।
“সন্ন্যাসীর কামিনী-কাঞ্চন ত্যাগ করতে হয়! তা আর গ্রহণ করতে পারে না। থুথু ফেলে আবার থুথু খেতে নাই। সন্ন্যাসী যদি কারুকে কিছু দেয়, সে নিজে দেয়, মনে করে না। দয়া ঈশ্বরের; মানুষে আবার কি দয়া করবে? দানটান সবই রামের ইচ্ছা।
"A sannyasi must give up 'woman and gold'; he cannot accept it any more. One must not swallow one's own spittle. When a sannyasi gives something to another, he knows that it is not himself who gives. Kindness belongs to God alone. How can a man lay claim to it? Charity depends on the will of Rama.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
[पल्ले ख़र्च न बनणदे, पंछी ते दरवेश।
जिन्ना तकिया रब दा, तिन्ना रिज़क हमेश।।]
'Palle kharch na bannde panchhi te darvesh.
Jinna takia Rab da tinna rizk (=आजीविका) hamesh.'
🔆🙏-केवल ‘पंछी और दरवेश’ संचय नहीं करेंगे🔆🙏
यथार्थ संन्यासी मन से भी `कामिनी -कांचन' का त्याग करता है, और बाहर से भी त्याग करता है। वह गुड़ नहीं खाता, उसके पास गुड़ रहना भी ठीक नहीं । पास गुड़ रहते यदि वह कहे कि ‘न खाओ’ तो लोग सुनेंगे नहीं ।
[ঠিক সন্ন্যাসী মনেও ত্যাগ করে, বাহিরেও ত্যাগ করে। যে গুড় খায় না, তার কাছে গুড় থাকাও ভাল নয়। কাছে গুড় থেকে যদি সে বলে খেয়ো না, তা লোকে শুনবে না।
A true sannyasi renounces 'woman and gold' both mentally and outwardly. He who eats no molasses must not even keep molasses about. If he does, and yet tells others not to eat it, they won't listen to him.
“गृहस्थ लोगों को रुपयों की आवश्यकता है, क्योंकि स्त्री बच्चे हैं । उन्हें संचय करना चाहिए – स्त्री-बच्चों को खिलाना होगा । संचय नहीं करेंगे केवल पंछी और दरवेश, अर्थात् चिड़िया और संन्यासी । परन्तु चिड़िये का बच्चा होने पर वह मुँह में उठाकर खाना लाती है । उसे भी उस समय संचय करना पड़ता है । इसीलिए गृहस्थ लोगों को धन की आवश्यकता है - परिवार का पालन-पोषण करना चाहिए ।
[“সংসারী লোকের টাকার দরকার আছে, কেননা মাগছেলে আছে। তাদের সঞ্চয় করা দরকার, মাগছেলেদের খাওয়াতে হবে।সঞ্চয় করবে না কেবল পঞ্ছী আউর দরবেশ, অর্থাৎ পাখি আর সন্ন্যাসী। কিন্তু পাখির ছানা হলে সে মুখে করে খাবার আনে। তারও তখন সঞ্চয় করতে হয়। তাই সংসারী লোকের টাকার দরকার। পরিবার ভরণপোষণ করতে হয়।
"A householder, of course, needs money, for he has a wife and children. He should save up to feed them. They say that the bird and the sannyasi should not provide for the future. But the mother bird brings food in her mouth for her chicks; so she too provides. A householder needs money He has to support his family.
"गृहस्थ लोग यदि शुद्ध भक्त हों तो अनासक्त होकर कर्म कर सकते हैं । यह कर्म का फल, हानि, लाभ, सुख, दुःख ईश्वर को समर्पित करता है । और उनसे दिन-रात भक्ति की प्रार्थना करता है, और कुछ भी नहीं चाहता । इसी का नाम है 'निष्काम कर्म’ - अनासक्त होकर कर्म करना । संन्यासी के सभी कर्म निष्काम होने चाहिए । परंतु संन्यासी गृहस्थों की तरह विषयकर्म नहीं करता।
[“সংসারী লোক শুদ্ধভক্ত হলে অনাসক্ত হয়ে কর্ম করে। কর্মের ফল — লাভ, লোকশান, সুখ, দুঃখ ঈশ্বরকে সমর্পণ করে। আর তাঁর কাছে রাতদিন ভক্তে প্রার্থনা করে, আর কিছু চায় না। এরই নাম নিষ্কাম কর্ম — অনাসক্ত হয়ে কর্ম করা। সন্ন্যাসীরও সব কর্ম নিষ্কাম করতে হয়। তবে সন্ন্যাসী সংসারীদের মতো বিষয়কর্ম করে না।
"If a householder is a genuine devotee he performs his duties without attachment; he surrenders the fruit of his work to God. — his gain or loss, his pleasure or pain — and day and night he prays for devotion and for nothing else. This is called motiveless work, the performance of duty without attachment. A sannyasi, too, must do all his work in that spirit of detachment; but he has no worldly duties to attend to, like a householder.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
श्रीरामकृष्ण और कर्मयोग -*सर्व भूतों में हरि की सेवा*
`सर्वभूते हरिर सेवा'
🔆🙏निष्काम समाजसेवा उद्देश्य नहीं हृदयवान मनुष्य बनने और बनाने का उपाय है !🔆🙏
"गृहस्थ व्यक्ति निष्काम भाव से यदि किसी को कुछ दान दे, तो वह अपने ही उपकार के लिए होता है । परोपकार के लिए नहीं । सर्व भूतों में हरि विद्यमान है, उन्हीं की सेवा होती है । हरि सेवा होने से अपना ही उपकार हुआ, 'परोपकार' नहीं ।
[“সংসারী ব্যক্তি নিষ্কামভাবে যদি কাউকে দান করে সে নিজের উপকারের জন্য, ‘পরোপকারের’ জন্য নয়। সর্বভূতে হরি আছেন তাঁরই সেবা করা হয়। হরিসেবা হলে নিজেরই উপকার হলো, ‘পরোপকার’ নয়।
"If a householder gives in charity in a spirit of detachment, he is really doing good to himself and not to others. It is God alone that he serves — God, who dwells in all beings; and when he serves God, he is really doing good to himself and not to others.
" यही सर्व भूतों में हरि की सेवा है - केवल मनुष्य की नहीं, जीवजन्तुओं में भी हरि की सेवा यदि कोई करे, और यदि वह मान, यश, मरने के बाद स्वर्ग न चाहे, जिनकी सेवा कर रहा है उनसे बदले में कोई उपकार न चाहे - इस प्रकार यदि सेवा करे, तो उसका निष्काम कर्म, अनासक्त कर्म होता है ।
[এই সর্বভূতে হরির সেবা — শুধু মানুষের নয়, জীবজন্তুর মধ্যেও হরির সেবা, যদি কেউ করে, আর যদি সে মান চায় না, যশ চায় না, মরবার পর স্বর্গ চায় না, যাদের সেবা করছে, তাদের কাছ থেকে উলটে কোন উপকার চায় না, এরূপ ভাবে যদি সেবা করে, তাহলে তার যথার্থ নিষ্কাম কর্ম, অনাসক্ত কর্ম করা হয়।
If a man thus serves God through all beings, not through men alone but through animals and other living beings as well; if he doesn't seek name and fame, or heaven after death; if he doesn't seek any return from those he serves; if he can carry on his work of service in this spirit — then he performs truly selfless work, work without attachment.
"इस प्रकार निष्काम कर्म [Be and Make] करने पर उसका अपना कल्याण होता है । इसी का नाम कर्मयोग है । यह कर्मयोग भी ईश्वर को प्राप्त करने का एक उपाय है, परन्तु यह मार्ग है बड़ा कठिन । कलियुग के लिए नहीं है । "इसलिए कहता हूँ, जो व्यक्ति अनासक्त होकर इस प्रकार कर्म करता है, दया दान करता है, वह अपना ही भला करता है ।
[এইরূপ নিষ্কাম কর্ম করলে তার নিজের কল্যাণ হয়, এরই নাম কর্মযোগ। এই কর্মযোগও ঈশ্বরলাভের একটি পথ। কিন্তু বড় কঠিন, কলিযুগের পক্ষে নয়। তাই বলছি, যে অনাসক্ত হয়ে এরূপ কর্ম করে, দয়া দান করে, সে নিজেরই মঙ্গল করে।
Through such selfless work he does good to himself. This is called karmayoga. This too is a way to realize God. But it is very difficult, and not suited to the Kaliyuga."Therefore I say, he who works in such a detached spirit — who is kind and charitable — benefits only himself.
" दूसरों का उपकार, दूसरों का कल्याण - यह सब ईश्वर करते हैं जिन्होंने जीव के लिए चन्द्र, सूर्य, माँ बाप, फल, फूल, अनाज पैदा किया है । पिता आदि में जो स्नेह देखते हो, वह उन्हीं का स्नेह है, जीव की रक्षा के लिए ही उन्होंने यह स्नेह दिया है । दयालु के भीतर जो दया देखते हो, वह उन्हीं की दया है, उन्होंने असहाय जीव की रक्षा के लिए दी है । तुम दया करो या न करो, वे किसी न किसी उपाय से अपना काम करेंगे ही । उनका काम रुका नहीं रह सकता ।
[পরের উপকার পরের মঙ্গল সে ঈশ্বর করেন — যিনি চন্দ্র, সূর্য, বাপ মা, ফল, ফুল, শস্য জীবের জন্য করেছেন! বাপ-মার ভিতর যা স্নেহ দেখ, সে তাঁরই স্নেহ, জীবের রক্ষার জন্যই দিয়েছেন। দয়ালুর ভিতর যা দয়া দেখ, সে তাঁরই দয়া, নিঃসহায় জীবের রক্ষার জন্য দিয়েছেন। তুমি দয়া কর আর না কর, তিনি কোন না কোন সূত্রে তাঁর কাজ করবেন। তাঁর কাজ আটকে থাকে না।
Helping others, doing good to others — this is the work of God alone, who for men has created the sun and moon, father and mother, fruits, flowers, and corn. The love that you see in parents is God's love: He has given it to them to preserve His creation. The compassion that you see in the kind-hearted is God's compassion: He has given it to them to protect the helpless. Whether you are charitable or not, He will have His work done somehow or other. Nothing can stop His work.
"इसीलिए जीव का कर्तव्य क्या है ? वह यह कि उनकी शरण में जाना, और जिससे उनकी प्राप्ति हो, उनका दर्शन हो उसी के लिए व्याकुल होकर उनसे प्रार्थना करना - और दूसरा क्या ?
[“তাই জীবের কর্তব্য কি? আর কি, তাঁর শরণাগত হওয়া, আর তাঁকে যাতে লাভ হয়, দর্শন হয়, সেইজন্য ব্যাকুল হয়ে তাঁর কাছে প্রার্থনা করা।”
"What then is man's duty? What else can it be? It is just to take refuge in God and to pray to Him with a yearning heart for His vision.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏ईश्वर ही वस्तु हैं और सब अवस्तु है-ऐसा बोध हुए बिना सच्ची भक्ति नहीं होती 🔆🙏
[ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু ]
[केवल ईश्वर ही सत्य (अविनाशी) हैं और बाकी सब मिथ्या (नश्वर) है।]
[The world is two days' existence, its Creator alone is real and eternal.]
"शम्भू ने कहा था, 'मेरी इच्छा होती है कि अनेक डिस्पेन्सरियाँ (दवाखाने), अस्पताल बनवा दूँ । इससे गरीबों का बहुत उपकार होगा ।’ मैंने कहा, 'हाँ, अनासक्त होकर यदि यह सब करो तो बुरा नहीं ।’ परन्तु ईश्वर पर आन्तरिक भक्ति न रहने पर अनासक्त बनना बड़ा कठिन है ।
[“শম্ভু বলেছিল, আমার ইচ্ছা যে খুব কতকগুলো ডিস্পেনসারি, হাসপাতাল করে দিই, তাহলে গরিবদের অনেক উপকার হয়। আমি বললুম, হাঁ, অনাসক্ত হয়ে যদি এ-সব কর, তো মন্দ নয়। তবে ইশ্বরের উপর আন্তরিক ভক্তি না থাকলে অনাসক্ত হওয়া বড় কঠিন।
"Sambhu said to me: 'It is my desire to build a large number of hospitals and dispensaries. Thus I can do much good to the poor.' I said to him: 'Yes, that is not bad if you can do it in a detached spirit. But to be detached is very difficult unless you sincerely love God.
"फिर अनेक काम बढ़ा लेने से न जाने किधर से आसक्ति आ जाती है, जाना नहीं जाता । मन में सोचता हूँ कि निष्काम भाव से काम कर रहा हूँ, परन्तु सम्भव है, यश की इच्छा हुई, ख्याति प्राप्त करने की इच्छा हुई । फिर जब (नाम-यश के चक्कर में) अधिक कर्म करने को जाता है, तो कर्म की भीड़ में ईश्वर (आत्मा) को भूल जाता है ।
[আবার অনেক কাজ জড়ালে কোনদিক থেকে আসক্তি এসে পড়ে, জানতে দেয় না। মনে করছি নিষ্কামভাবে করছি, কিন্তু হয়তো যশের ইচ্ছা হয় গেছে, নাম বার করবার ইচ্ছা হয়ে গেছে। আবার বেশি কর্ম করতে গেলে, কর্মের ভিড়ে ঈশ্বরকে ভুলে যায়।
And further, if you entangle yourself in many activities, you will be attached to them in a way unknown to yourself. You may think you have no motive behind your work, but perhaps there has already grown a desire for fame and the advertising of your name. Then again, if you are entangled in too many activities, the pressure of them will make you forget God.'
" और कहा 'शम्भू ! तुमसे एक बात पूछता हूँ । यदि ईश्वर तुम्हारे सामने आकर प्रकट हों तो क्या तुम उनसे कुछ डिस्पेन्सरियाँ या अस्पताल माँगोगे या स्वयं उन्हें माँगोगे ?' उन्हें प्राप्त करने पर और कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मिश्री का शरबत पीने पर फिर गुड़ का शरबत अच्छा नहीं लगता ।
[আরও বললুম, শম্ভু! তোমাকে একটা কথা জিজ্ঞাসা করি। যদি ঈশ্বর তোমার সম্মুখে এসে সাক্ষাৎকার হন, তাহলে তুমি তাঁকে চাইবে, না কতকগুলি ডিস্পেনসারি বা হাসপাতাল চাইবে? তাঁকে পেলে আর কিছু ভাল লাগে না। মিছরির পানা পেলে আর চিটেগুড়ের পানা ভাল লাগে না।
I also said to him: 'Sambhu, let me ask you one thing. If God appears before you, will you want Him or a number of hospitals and dispensaries?' If one realizes God, one doesn't enjoy anything else. One who has tasted syrup of sugar candy cannot enjoy a drink made from common treacle (गुड़) .
"जो लोग अस्पताल, डिस्पेन्सरी खोलेंगे और इसी में आनन्द अनुभव करेंगे, वे भी भले आदमी हैं । परन्तु उनकी श्रेणी अलग है । जो शुद्ध भक्त है, वह ईश्वर के अतिरक्त और कुछ भी नहीं चाहता; अधिक कर्म के बीच में यदि वह पड़ जाय तो व्याकुल होकर प्रार्थना करता है, 'हे ईश्वर, दया करके मेरा कर्म कम कर दो, नहीं तो, जो मन रातदिन तुम्हीं में लगा रहेगा, वह मन व्यर्थ में इधर-उधर खर्च हो रहा है । उसी मन से विषय का चिन्तन किया जा रहा है ।’
[“যারা হাসপাতাল, ডিস্পেনসারি করবে, আর এতেই আনন্দ করবে তারাও ভাল লোক, কিন্তু থাক্ আলাদা। যে শুদ্ধভক্ত, সে ঈশ্বর বই আর কিছু চায় না; বেশি কর্মের ভিতর যদি সে পড়ে, সে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা করে, হে ঈশ্বর, কৃপা করে আমার কর্ম কমিয়ে দাও; তা না হলে যে মন তোমাতেই নিশিদিন লেগে থাকবে, সেই মন বাজে খরচ হয়ে যাচ্ছে; সেই মনেতে বিষয়চিন্তা করা হচ্ছে।
'Those who build hospitals and dispensaries, and get pleasure from that, are no doubt good people; but they are of a different type. He who is a real devotee of God seeks nothing but God. If he finds himself entangled in too much work, he earnestly prays, 'Lord, be 'gracious and reduce my work; my mind, which should think of Thee day and night, has been wasting its power; it thinks of worldly things alone.'
"शुद्धा भक्ति की श्रेणी अलग ही होती है । ईश्वर वस्तु है, बाकी सभी अवस्तु - यह बुद्धि न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती । यह संसार अनित्य है, दो दिन के लिए है, और इस संसार के जो कर्ता हैं, वे ही सत्य हैं; नित्य हैं । यह ज्ञान न होने पर शुद्धा भक्ति नहीं होती ।
[শুদ্ধভক্তির থাক্ একটি আলাদা থাক্। ঈশ্বর বস্তু আর সব অবস্তু, এ বোধ না হলে শুদ্ধভক্তি হয় না। এ-সংসার অনিত্য, দুদিনের জন্য, আর এ-সংসারের যিনি কর্তা, তিনিই সত্য, নিত্য; এ-বোধ না হলে শুদ্ধভক্তি হয় না।
Pure-souled devotees are in a class by themselves. You cannot have real love of God unless you know that God alone is real and all else illusory. You cannot have real love of God unless you know that the world is impermanent, only of two days' existence, while its Creator alone is real and eternal.
"जनक आदि ने आदेश पाने पर ही कर्म किया है ।"
[अष्टावक्र ऋषि जैसे सद्गुरु की कृपा से गृहस्थ होकर भी राजा जनक (राजर्षि जनक = राजा + ऋषि) विदेह बन गए थे , लेकिन अपने गुरु की आज्ञानुसार (चपरास पाकर) निष्काम भाव से एक राजा/नेता के कर्तव्य का पालन किया करते थे।]
[“জনকাদি প্রত্যাদিষ্ট হয়ে কর্ম করেছেন।”
"Janaka and sages like him worked in the world at the command of God.
🔆🙏गुरूकृपा गृहस्थ को भी `विदेह ' बना देती है🔆🙏
तुम्हें सौ रुपये खो जाने से दुःख हो सकता है , किन्तु ऐसे (राजर्षि जनक जैसे) भी अनेक लोग हैं जिनके करोड़ों रुपये नष्ट होने पर तनिक भी कष्ट नहीं होगा । ऐसे लोग प्राचीन काल में बहुत थे और आज भी हैं ।
" तुम उन्हें अपने आदर्श के पैमाने से क्यों नापते हो ? तुम क्षुद्र सीमित भावों में आबद्ध हो । ये ही तुम्हारे सर्वोच्च आदर्श लेकर रहो न । जैसा चाहोगे वैसा ही पाओगे , किन्तु तुम्हें छोड़कर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं , जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है - वे उसे स्वर्गादि भोगों से परे हैं , वे उनमें फँसना जगत् नहीं चाहते , वे सम्पूर्ण सीमाओं के बाहर जाना चाहते हैं , की कोई भी वस्तु उन्हें परितृप्त नहीं कर सकती । जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग उन्हें गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता । तुम उन्हें अपने भाव में क्यों फँसाकर रखना चाहते हो ? यह भाव बिलकुल छोड़ना पड़ेगा, प्रत्येक को अपने रास्ते चलने दो ।
राजा जनक को अपने गुरूदेव अष्टावक्र की कृपा से ज्ञान हुआ था। महर्षि अष्टावक्र की कृपा से ही उन्हें सिद्धि मिली थी। साधना से सिद्धि की यात्रा कर लेने के बावजूद वे गुरू आदेश से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहे। उनके लिए सभी कुछ समान था। परन्तु मूढ़ जन इस रहस्य को समझ न पाये और उन्हें साधारण गृहस्थ समझने की भूल करते रहे।
इन्हीं दिनों ब्रहर्षि विश्वामित्र ने वेदान्त विदों का एक शिविर मिथिला नगरी में लगाया। इस शिविर में देशभर के ऋषि- मुनि, त्यागी वेश एवं कमण्डलुधारी, संन्यासी सभी पधारे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, योगी याज्ञवल्क्य, महर्षि अष्टावक्र सरीखें पारदर्शी ज्ञानी वहां रोज प्रवचन देते। इस प्रवचन कक्षा में राजर्षि जनक भी शामिल होते। एक दिन सभा में किसी ऋषि ने सूचना दी - ` महाराज महाराज! आग लगी है। आप तो राजा हैं। आपका राज्य एवं महल जल रहा है। क्या आपको चिंता नहीं हों रही है?' महर्षि के प्रश्न पर राजा जनक स्थिर चित्त से बोले- ऋषियों! आप चिंता न करें। सद्गुरू की कृपा से मैंने सत्य जान लिया है-
`अनन्तं वत मे वित्तं यस्य, मे नास्ति किंचन ।
मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दह्यति किंचन ॥'
(महाभारत 12.171.56)
" मेरे पास अनन्त धन है, फिर भी जैसे कुछ नहीं है। सारी मिथिला भस्म हो जाय तो भी मेरा बाल बांका नहीं होता। जो व्यक्ति प्रज्ञा के महल पर पहुँच गया है, उसे जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता।
" My treasures are immense, yet I have nothing ! If again the whole of Mithila were burnt and reduced to ashes, nothing of mine will be burnt.
जनक के इस कथन के साथ ही आग बुझ गयी। महर्षि ने अपना खेल समेट लिया। ज्ञान और आसक्ति का भेद स्पष्ट हो गया। सचमुच सद्गुरू (स्वामी विवेकानन्द) की कृपा से क्या नहीं हो सकता।]
(४)
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏पहले विद्या (Science) सीखना या पहले अवतार/नेता को पहचनना 🔆🙏
[আগে বিদ্যা (Science) না আগে ঈশ্বর]
[Science first, or God first]
श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) कोई कोई समझते हैं कि बिना शास्त्र पढ़े अथवा पुस्तकों का अध्ययन किये ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता । वे सोचते हैं, पहले जगत् के बारे में, जीव के बारे में जानना चाहिए, पहले साइन्स(Science) पढ़ना चाहिए । (सभी हँसे ।) वे कहते हैं, ईश्वर की यह सारी सृष्टि समझे बिना ईश्वर को जाना नहीं जाता । तुम क्या कहते हो ? पहले साइन्स या पहले ईश्वर ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বঙ্কিমের প্রতি) — কেউ কেউ মনে করে শাস্ত্র না পড়লে, বই না পড়লে ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না। তারা মনে করে, আগে জগতের বিষয়, জীবের বিষয় জানতে হয়, আগে সায়েন্স পড়তে হয়। (সকলের হাস্য) তারা বলে ঈশ্বরের সৃষ্টি এ-সব না বুঝলে ঈশ্বরকে জানা যায় না। তুমি কি বল? আগে সায়েন্স না আগে ঈশ্বর?
(To Bankim) "Some people think that God cannot be realized without the study of books and scriptures. They think that first of all one should learn of this world and its creatures; that first of all one should study 'science'. (All laugh.) They think that one cannot realize God without first understanding His creation. Which comes first, 'science' or God? What do you say?"
बंकिम - जी हाँ, पहले जगत् के बारे में दस बातें जान लेनी चाहिए । थोड़ा इधर का ज्ञान हुए बिना ईश्वर को कैसे जानूँगा ? पहले पुस्तकें पढ़कर कुछ जान लेना चाहिए ।
[বঙ্কিম — হাঁ, আগে পাঁচটা জানতে হয়, জগতের বিষয়। একটু এ দিককার জ্ঞান না হলে, ঈশ্বর জানব কেমন করে? আগে পড়াশুনা করে জানতে হয়।
BANKIM: "I too think that we should first of all know about the different things of the world. How can we know of God without knowing something of this world? We should first learn from books."
श्रीरामकृष्ण - वही तुम लोगों का एक ख्याल है (तुम तथाकथित बुद्धिजीविओं के साथ यही प्रॉब्लम है ] । पहले ईश्वर, उसके बाद सृष्टि । उन्हें प्राप्त करने पर, आवश्यक हो तो सभी जान सकोगे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ওই তোমাদের এক। আগে ঈশ্বর, তারপর সৃষ্টি। তাঁকে লাভ করলে, দরকার হয়তো সবই জানতে পারবে।
MASTER: "That's the one cry from all of you. But God comes first and then the creation. After attaining God you can know everything else, if it is necessary.
" किसी भी तरह यदु मल्लिक के साथ बातचीत कर सकोगे फिर यदि तुम यह जानना चाहोगे कि उसके कितने मकान हैं, कितने कम्पनी के कागज हैं, कितने बगीचे हैं, तो यह सब भी जान सकोगे । यदु मल्लिक ही खुद सब बता देगा ।
[“যদি যদু মল্লিকের সঙ্গে আলাপ করতে পারো জো-সো করে, তাহলে যদি তোমার ইচ্ছা থাকে, যদু মল্লিকের কখানা বাড়ি, কত কোম্পানির কাগজ, কখানা বাগান, এও জানতে পারবে। যদু মল্লিকই বলে দেবে।
"If you can somehow get yourself introduced to Jadu Mallick, then you will be able to learn, if you want to, the number of his houses and gardens and the amount of his money invested in government securities. Jadu Mallick himself will tell you all about them.
" परन्तु यदि उसके साथ पहले से कोई जान-पहचान न हो, बतचीत न हो, और मकान के अन्दर घुसना चाहोगे, तो दरवान लोग घुसने ही न देंगे । फिर ठीक-ठोक कैसे जानोगे कि उसके कितने मकान है, कितने कम्पनी के कागजात हैं, कितने बगीचे हैं आदि आदि ? उन्हें जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है । परन्तु उन्हें १ जान लेने के बाद (अर्थात ईश्वर के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण को जान लेने के बाद) फिर मामूली चोजें जानने की इच्छा नहीं रहती ।
[কিন্তু তার সঙ্গে যদি আলাপ না হয়, বাড়ি ঢুকতে গেলে দারোয়ানেরা যদি না ঢুকতে দেয়, তাহলে কখানা বাড়ি, কত কোম্পানির কাগজ, কখানা বাগান, এ-সব ঠিক খবর কেমন করে যানবে? তাঁকে জানলে সব জানা যায়,১ কিন্তু সামান্য বিষয় জানবার আকাঙ্ক্ষা থাকে না।
But if you haven't met him and if you are stopped by his door-keepers when you try to enter his house, then how will you get the correct information about his houses, gardens, and government securities? When you know God 1 you know all else; but then you don't care to know small things.
" वेद में भी यही बात है । जब तक किसी व्यक्ति को (माँ जगदम्बा को) देखा नहीं जाता तब तक उसके गुणों की बातें बतायी जा सकती है; जब वह सामने आ जाता है, उस समय वे सब बातें बन्द हो जाती हैं । लोग उसे ही लेकर मस्त रहते हैं । उसके साथ हो बातचीत करते हुए विभोर हो जाते हैं, उस समय दूसरी बाते नहीं सूझतीं ।
[ বেদেও এ-কথা আছে। যতক্ষণ না লোকটিকে দেখা যায়, ততক্ষণ তার গুণের কথা কওয়া যায়; সে যেই সামনে আসে, তখন ও-সব কথা বন্ধ হয়ে খায়। লোকে তাকে নিয়েই মত্ত হয়, তার সঙ্গে আলাপ করে বিভোর হয়, তখন আর অন্য কথা থাকে না।
১ তস্মিন্ বিজ্ঞাতে সর্বমিদং বিঞ্চাতং ভবতি।]
The same thing is stated in the Vedas. You talk about the virtues of a person as long as you haven't seen him, but no sooner does he appear before you than all such talk stops. You are beside yourself with joy simply to be with him. You feel overwhelmed by simply conversing with him. You don't talk about his virtues any more.
"पहले ईश्वर की प्राप्ति २ , उसके बाद सृष्टि या दूसरी बातचीत । वाल्मीकि को राममन्त्र का जप करने को कहा गया, परन्तु उनसे कहा गया, 'मरा' 'मरा' का जप करो । 'म' अर्थात् ईश्वर और 'रा' अर्थात् जगत् । पहले ईश्वर, उसके बाद जगत्, एक को जानने पर सभी जाना जा सकता है ।एक के बाद यदि पचास शून्य रहे तो संख्या बढ़ जाती हैं । १ को मिटा देने से कुछ भी नहीं रहता। एक को लेकर ही अनेक है ।पहले एक, उसके बाद अनेक; पहले ईश्वर, उसके बाद जीव-जगत्।
[२ मानव जीवन का उद्देश्य (जीवन का अंतिम लक्ष्य) ईश्वर को प्राप्त करना है। `सबसे पहले तुम स्वर्ग के राज्य की खोज करो और अन्य सभी चीजें तुम्हें उपलब्ध हो जाएँगी। - यीशु। मत्ती 6:33]
[“আগে ঈশ্বরলাভ২, তারপর সৃষ্টি বা অন্য কথা। বাল্মীকিকে রামমন্ত্র জপ করতে দেওয়া হল, কিন্তু তাকে বলা হল, ‘মরা’ ‘মরা’ জপ করো। ‘ম’ মানে ঈশ্বর আর ‘রা’ মানে জগৎ। আগে ঈশ্বর তারপর জগৎ, এককে জানলে সব জানা যায়। ১-এর পর যদি পঞ্চাশটা শূন্য থাকে অনেক হয়ে যায়। ১কে পুছে ফেললে কিছুই থাকে না। ১কে নিয়েই অনেক। এক আগে, তারপর অনেক; আগে ঈশ্বর৩ তারপর জীবজগৎ।
২ মানুষ জীবনের উদ্দেশ্য (End of Life) আগে ঈশ্বরলাভ।]
"First realize God, then think of the creation and other things. Valmiki was given the name of Rama to repeat as his mantra, but was told at first to repeat 'mara'. 'Ma' means God and 'ra' the world. First God and then the world. If you know one you know all. If you put fifty zeros after a one, you have a large sum; but erase the one and nothing remains. It is the one that makes the many. First one, then many. First God, then His creatures and the world.
[ Seek ye first the kingdom of Heaven and all other things shall be added unto you — Jesus.]
"तुम्हारी आवश्यकता है ईश्वर को प्राप्त करने की । तुम इतना जगत्, सृष्टि, साइन्स-फाइन्स यह सब क्या कर रहे हो ? तुम्हें आम खाने से मतलब । बगीचे में कितने सौ पेड़ हैं, कितने हजार टहनियाँ, कितने लाख करोड़ पत्ते हैं - इन सब हिसाबों से तुम्हारा क्या काम ?
“তোমার দরকার ঈশ্বরকে লাভ করা! তুমি অত জগৎ, সৃষ্টি, সায়েন্স, ফায়েন্স এ-সব করছো কেন? তোমার আম খাবার দরকার। বাগানে কত শ আমগাছ, কত হাজার ডাল, কত লক্ষ কোটি পাতা, এ-সব খবরে তোমার কাজ কি?
"The one thing you need is to realize God. Why do you bother so much about the world, creation, 'science', and all that? Your business is to eat mangoes. What need have you to know how many hundreds of trees there are in the orchard, how many thousands of branches, and how many millions of leaves?
" तुम आम खाने आये हो, आम खाकर चले आओ । इस संसार में मनुष्य आया है भगवान को प्राप्त करने के लिए । उसे (अवतार/नेता वरिष्ठ को) भूलकर अन्य विषयों में मन लगाना ठीक नहीं। आम खाने के लिए आये हो, आम खाकर ही चले जाओ ।"
[তুই আম খেতে এসেছিস আম খেয়ে যা। এ-সংসারে মানুষ এসেছে ভগবানলাভের জন্য। সেটি ভুলে নানা বিষয়ে মন দেওয়া ভাল নয়। আম খেতে এসেছিস আম খেয়েই যা।”
You have come to the garden to eat mangoes. Go and eat them. Man is born in this world to realize God; it is not good to forget that and divert the mind to other things. You have come to eat mangoes. Eat the mangoes and be happy."
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏निर्विकल्प समाधि रूपी पुलाव-कालिया केवल ईश्वर कोटि पचा सकते हैं🔆🙏
बंकिम -आम (ईश्वर प्राप्ति का उपाय बताने वाला सच्चा गुरु /मार्गदर्शक नेता ? ) पाता हूँ कहाँ?
[ বঙ্কিম — আম পাই কই?
BANKIM: "Where do we get the mangoes?"
श्रीरामकृष्ण - उनसे व्याकुल होकर प्रार्थना करो, आन्तरिक प्रार्थना होने पर वे अवश्य सुनेंगे । सम्भव है कि ऐसा कोई सत्संग जुटा दें [सम्भव है ईश्वर तुमको मार्गदर्शक नेता `C-IN-C नवनीदा द्वारा " स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में आयोजित `Be and Make युवा-प्रशिक्षण शिविर में भेज दें। ], जिससे सुभीता हो जाय । सम्भव है कोई कह दें, ऐसा-ऐसा करो, [3H विकास के 5 अभ्यास करो] तो ईश्वर को पाओगे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে ব্যাকুল হয়ে প্রার্থনা কর। আন্তরিক হলে তিনি শুনবেনই শুনবেন। হয়তো এমন কোনও সৎসঙ্গ জুটিয়ে দিলেন, যাতে সুবিধা হয়ে গেল। কেউ হয়তো বলে দেয়, এমনি এমনি কর তাহলে ঈশ্বরকে পাবে।
MASTER: "Pray to God with a longing heart. He will surely listen to your prayer if it is sincere. Perhaps He will direct you to holy men [C-IN-C नवनीदा] with whom you can keep company; and that will help you on your spiritual path. Perhaps someone will tell you, 'Do this and you will attain God."
बंकिम – कौन ? गुरु ? वे अच्छे आम (समाधि?) स्वयं खाकर मुझे खराब आम देते हैं ! (हंसी ।)
BANKIM: "Who? The guru? He enjoys all the good mangoes himself and gives us the bad ones!" (Laughter.)
श्रीरामकृष्ण - क्यों जी ! जिसके पेट में जो सहन होता है । सभी लोग कलिया खाकर पचा सकते हैं ? घर में अच्छी चीज बनने परमाँ सभी बच्चों को पुलाव-कलिया नहीं देती । जो कमजोर है, जिसे पेट की बीमारी है, उसे सादी तरकारी देती है; तो क्या माँ उस बच्चे से कम स्नेह करती है ?
[सभी लोग नहीं , केवल ईश्वरकोटि ही निर्विकल्प समाधि में जाकर वापस लौट सकते हैं; इसलिए माँ उसे पहले नाड़िशुद्धि का अभ्यास करने कहती है। तो क्या माँ उस बच्चे से कम स्नेह करती है?]
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন গো! যার যা পেটে সয়। সকলে কি পলুয়া-কালিয়া খেলে হজম করতে পারে? বাড়িতে মাছ এলে মা সব ছেলেকে পমুয়া-কালিয়া দেন না। যে দুর্বল, যার পেটের অসুখ, তাকে মাছের ঝোল দেন; তা বলে কি মা সে ছেলেকে কম ভালবাসেন?
MASTER: "Why should that be so? The mother, knows what food suits the stomachs of her different children. Can all of them digest pilau and kalia? Suppose a fish has been procured. The mother doesn't give pilau and kalia to all the children. For the weak child with a poor stomach she prepares simple soup. But does that mean she loves him the less?
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏ईश्वर-प्राप्ति का उपाय -व्याकुलता और महावाक्य में बालक जैसा विश्वास 🔆🙏
[ঈশ্বরলাভের উপায়, — ব্যাকুলতা, বালকের বিশ্বাস ]
[One must have faith in the guru's words. God Himself is the Guru.]
"गुरुवाक्य में विश्वास करना चाहिए । गुरु ही सच्चिदानन्द, सच्चिदानन्द ही गुरु हैं; उनकी बात पर विश्वास करने से, बालक की तरह विश्वास करने से, ईश्वरप्राप्ति होती है । बालक का क्या हो विश्वास है ! माँ ने कहा, 'वह तेरा भाई लगता है (`नवनीदा तुम्हारा दार्शनिक मित्र,भैया,नेता लगता लगता है) ,’ उसी समय जान लिया, 'वह मेरा भाई है ।' एकदम पूरा पक्का विश्वास ।
[“গুরুবাক্যে বিশ্বাস করতে হয়। গুরুই সচ্চিদানন্দ, সচ্চিদানন্দই গুরু, তাঁর কথা বিশ্বাস করলে, — বালকের মতো বিশ্বাস করলে — ঈশ্বরলাভ হয়। বালকের কি বিশ্বাস! মা বলেছে, ‘ও তোর দাদা হয়’, অমনি জেনেছে, ‘ও আমার দাদা।’ একেবারে পাঁচ সিকা পাঁচ আনা বিশ্বাস!
"One must have faith in the guru's words. The guru is none other than Satchidananda. God Himself is the Guru. If you only believe his words like a child, you will realize God. What faith a child has! When a child's mother says to him about a certain man, 'He is your brother', the child believes he really is his brother. The child believes it one hundred and twenty-five per cent .
"ऐसा भी हो सकता है कि वह लड़का (शिष्य कैप्टन सेवियर) ब्राह्मण के घर का है, और वह 'भाई' सम्भव है कि किसी दूसरी जाति का हो (नेता विवेकानन्द क्षत्रिय जाति का?)।" माँ ने कहा, उस कमरे में 'जूजू' है । बस, पक्का जान लिया, उस कमरे में 'जूजू' है । यही बालक का विश्वास है; गुरुवाक्य में इसी प्रकार विश्वास चाहिए । सयानी बुद्धि, 'पटवारी बुद्धि ' क्लर्क वाली हिसाबी बुद्धि (सरकार आपके द्वार योजना से कमीशन खाने वाला बड़ाबाबू वाली हिसाबी बुद्धि) या विवादप्रिय बुद्धि (argumentative-पारा शिक्षक जैसी कैंची बुद्धि ), करने से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता ।विश्वास और सरलता होनी चाहिए, कपटी होने से न होगा । सरल के लिए वे बहुत सहज हैं । कपटी से वे बहुत दूर हैं ।
[তা সে ছেলে হয়তো বামুনের ছেলে, আর দাদা হয়তো ছুতোর কামারের ছেলে। মা বলেছে, ও ঘরে জুজু। তো পাকা জেনে আছে, ও ঘরে জুজু। এই বালকের বিশ্বাস; গুরুবাক্যে এমন বিশ্বাস ছাই। স্যায়না বুদ্ধি, পাটোয়ারী বুদ্ধি, বিচার বুদ্ধি করলে, ঈশ্বরকে পাওয়া যায় না। বিশ্বাস আর সরল হওয়া, কপট হলে চলবে না। সরলের কাছে তিনি খুব সহজ। কপট থেকে তিনি অনেক দূর।
though he may be the son of a brahmin, and the man the son of a blacksmith. The mother says to the child, 'There is a bugaboo in that room', and the child really believes there is a bugaboo in the room. Such is the faith of a child! One must have this childlike faith in the guru's words. God cannot be realized by a mind that is hypocritical, calculating, or argumentative. One must have faith and sincerity. Hypocrisy will not do. To the sincere, God is very near; but He is far, far away from the hypocrite.
"परन्तु बालक जिस प्रकार माँ को न देखने से बेचैन हो जाता है, लड्डू मिठाई हाथ पर लेकर चाहे भुलाने की चेष्टा करो परन्तु वह कुछ भी नहीं चाहता, किसी से नहीं भूलता और कहता है, 'नहीं, मैं माँ के ही पास जाऊँगा,' इसी प्रकार ईश्वर के लिए व्याकुलता चाहिए ।
[“কিন্তু বালক যেমন মাকে না দেখলে দিশেহারা হয়, সন্দেশ মিঠাই হাতে দিয়ে ভোলাতে যাও কিছুই চায় না, কিছুতেই ভোলে না, আর বলে, ‘না, আমি মার কাছে যাব’, সেইরকম ঈশ্বরের জন্য ব্যাকুলতা চাই।
"One must have for God the yearning of a child. The child sees nothing but confusion when his mother is away. You may try to cajole him by putting a sweetmeat in his hand; but he will not be fooled. He only says, 'No, I want to go to my mother.' One must feel such yearning for God.
"अहा ! कैसी स्थिति ! - बालक जिस प्रकार 'माँ माँ' कहकर पागल हो जाता है, किसी भी तरह नहीं भूलता ! जिसे संसार के ये सब सुखभोग फीके लगते हैं, जिसे अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वही हृदय से 'माँ माँ' कहकर कातर होता है । उसी के लिए माँ को फिर सभी कामकाज छोड़कर दौड़ आना पड़ता है ।
[আহা! কি অবস্থা! বালক যেমন মা মা করে পাগল হয়। কিছুতেই ভোলে না! যার সংসারে এ-সব সুখভোগ আলুনী লাগে, যার আর কিছু ভাল লাগে না —টাকা, মান, দেহের সুখ, ইন্দ্রিয়ের সুখ, যার কিছুই ভাল লাগে না, সেই আন্তরিক মা মা করে কাতর হয়। তারই জন্যে মার আবার সব কাজ ফেলে দৌড়ে আসতে হয়।
Ah, what yearning! How restless a child feels for his mother! Nothing can make him forget his mother. He to whom the enjoyment of worldly happiness appears tasteless,he who takes no delight in anything of the world — money, name, creature comforts, sense pleasure —, becomes sincerely grief-stricken for the vision of the Mother. And to him alone the Mother comes running, leaving all Her other duties.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏जीवनमुक्त शिक्षक (नेता C-IN-C) से अपनी घड़ी मिलाओ🔆🙏
"यही व्याकुलता (restlessness) है । किसी भी पथ से क्यों न जाओ, हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, शाक्त, ब्राह्म - किसी पथ से जाओ, यह व्याकुलता ही असली बात है । वे तो अन्तर्यामी हैं, यदि भूल पथ में भी चले गये हो तो भी दोष नहीं है - पर व्याकुलता रहे । वे ही फिर ठीक पथ में उठा लेते हैं ।
[“এই ব্যাকুলতা। যে পথেই যাও, হিন্দু, মুসলমান, খ্রীষ্টান, শাক্ত, ব্রহ্মজ্ঞানী — যে পথেই যাও, ওই ব্যাকুলতা নিয়েই কথা। তিনি তো অন্তর্যামী, ভুলপথে গিয়ে পড়লেও দোষ নাই — যদি ব্যাকুলতা থাকে। তিনি আবার ভালপথে তুলে লন।
"Ah, that restlessness is the whole thing. Whatever path you follow — whether you are a Hindu, a Mussalman, a Christian, a Sakta, a Vaishnava, or a Brahmo — the vital point is restlessness. God is our Inner Guide. It doesn't matter if you take a wrong path — only you must be restless for Him. He Himself will put you on the right path.
"फिर सभी पथों में भूल है - सभी समझते हैं, मेरी घड़ी ठीक जा रही है, पर किसी की घड़ी ठीक नहीं चलती । तिस पर भी किसी का काम बन्द नहीं रहता । व्याकुलता हो तो साधु-संग मिल जाता है, साधु-संग (C-IN-C) से अपनी घड़ी बहुत कुछ मिला ली जा सकती है ।”
[“আর সব পথেই ভুল আছে, — সব্বাই মনে করে আমার ঘড়ি ঠিক যাচ্ছে, কিন্তু কারও ঘড়ি ঠিক যায় না। তা বলে কারু কাজ আটকায় না। ব্যাকুলতা থাকলে সাধুসঙ্গ জুটে যায়, সাধুসঙ্গে নিজের ঘড়ি অনেকটা ঠিক করে লওয়া যায়।”
"Besides, there are errors in all paths. Everyone thinks his watch is right; but as a matter of fact no watch is absolutely right. But that doesn't hamper one's work. If a man is restless for God he gains the company of sadhus and as far as possible corrects his own watch with the sadhus' help."
(५)
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏कीर्तनानंद में श्री रामकृष्ण🔆🙏
শ্রীরামকৃষ্ণ কীর্তনানন্দে
ब्राह्म समाज के श्री त्रैलोक्य गाना गा रहे हैं ।
[ব্রাহ্মসমাজের শ্রীযুক্ত ত্রৈলোক্য গান করিতেছেন।
Trailokya of the Brahmo Samaj began to sing.
" श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते-सुनते एकाएक खड़े हो गये और ईश्वर के आवेश में बाह्यज्ञान-शून्य हो गये । एकदम अन्तर्मुख, समाधिमग्न । खड़े खड़े समाधिमग्न । सभी लोग घेरकर खड़े हुए । बंकिम व्यस्त होकर भीड़ हटाकर श्रीरामकृष्ण के पास जाकर एकदृष्टि से देख रहे हैं । उन्होंने कभी समाधि नहीं देखी थी ।
ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কীর্তন একটু শুনিতে শুনিতে হঠাৎ দণ্ডায়মান ও ঈশ্বরাবেশে বাহ্যশূন্য হইলেন। একেবারে অন্তর্মুখ, সমাধিস্থ। দাঁড়াইয়া সমাধিস্থ। সকলেই বেষ্টন করিয়া দাঁড়াইলেন। বঙ্কিম ব্যস্ত হইয়া ভিড় ঠেলিয়া ঠাকুরের কাছে গিয়া একদৃষ্টে দেখিতেছেন। তিনি সমাধি কখনও দেখেন নাই।
Presently Sri Ramakrishna stood up and lost consciousness of the outer world. He became completely indrawn, absorbed in samadhi. The devotees stood around him in a circle. Pushing aside the crowd, Bankim came near the Master and began to watch him attentively.He had never seen anyone in samadhi.
"थोड़ी देर बाद थोड़ा बाह्य ज्ञान होने के बाद श्रीरामकृष्ण प्रेम से उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे । मानो श्रीगौरांग श्रीवास के मन्दिर में भक्तों के साथ नृत्य कर रहे हैं । वह अदभुत नृत्य बंकिम आदि अंग्रेजी पढ़े लोग देखकर दंग रह गये ।
[কিয়ৎক্ষণ পরে একটু বাহ্য হইবার পর ঠাকুর প্রেমে উন্মত্ত হইয়া নৃত্য করিতে লাগিলেন, যেন শ্রীগৌরাঙ্গ শ্রীবাসমন্দিরে ভক্ত সঙ্গে নাচিতেছেন। সে অদ্ভুত নৃত্য! বঙ্কিমাদি ইংরেজী পড়া লোকেরা দেখিয়া অবাক্।
After a few minutes Sri Ramakrishna regained partial consciousness and began to dance in an ecstatic mood. It was a never-to-be-forgotten scene. Bankim and his Anglicized friends looked at him in amazement.
"क्या आश्चर्य ! क्या इसी का नाम प्रेमानन्द है ? ईश्वर से प्रेम करके क्या मनुष्य इतना मतवाला हो जाता है ? क्या ऐसा ही नृत्य नवद्वीप में श्रीगौरांग ने किया था ? क्या इसी तरह उन्होंने नवद्वीप में और श्रीक्षेत्र में (पुरी में) प्रेम का बाजार बैठाया था ? इसमें तो ढोंग नहीं हो सकता ।
[কি আশ্চর্য! এরই নাম কি প্রেমানন্দ? ঈশ্বরকে ভালবেসে মানুষ কি এত মাতোয়ারা হয়? এইরূপ কাণ্ডই কি নবদ্বীপে শ্রীগৌরাঙ্গ করেছিলেন? এইরকম করেই কি তিনি নবদ্বীপে আর শ্রীক্ষেত্রে প্রেমের হাট বসিয়াছিলেন? এর ভিতর তো ঢঙ হতে পারে না।
[ Was this he God-intoxicated state? The devotees also watched him with wondering eyes.]
" ये सर्वत्यागी हैं, इन्हें धन, मान, यश - किसी चीज की आवश्यकता नहीं है । तो क्या यही जीवन का उद्देश्य है ? किसी ओर मन न लगाकर ईश्वर से प्रेम करना ही क्या जीवन का उद्देश्य है ? अब उपाय क्या है ? उन्होंने कहा, 'माँ के लिए बेचैन होकर व्याकुल होना, व्याकुलता, प्रेम करना ही उपाय है, प्रेम ही उद्देश्य है । सच्चा प्रेम आते ही दर्शन होता है ।’
[ইনি সর্বত্যাগী, এঁর টাকা, মান, নাম বেরুনো কিছুই দরকার নাই। তবে এই কি জীবনের উদ্দেশ্য? কোন দিকে মন না দিয়ে ঈশ্বরকে ভালবাসাই কি জীবনের উদ্দেশ্য? এখন উপায় কি? ইনি বললেন, মার জন্য দিশেহারা হয়ে ব্যাকুল হওয়া, ব্যাকুলতা, ভালবাসাই উপায়, ভালবাসাই উদ্দেশ্য। ঠিক ভালবাসা এলেই দর্শন হয়।
"भक्तगण इसी प्रकार चिन्तन करने लगे और उस अद्भुत देवदुर्लभ नृत्य एवं कीर्तन का आनन्द प्रत्यक्ष करने लगे । - सभी श्रीरामकृष्ण के चारों ओर खड़े हैं - और एकटक उन्हें देख रहे हैं ।
[ভক্তরা এইরূপ চিন্তা করিতে লাগিলেন ও সেই অদ্ভুত দেবদুর্লভ নৃত্য ও কীর্তনানন্দ দেখিতে লাগিলেন। সকলেই দণ্ডায়মান — ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের চারিদিকে — আর একদৃষ্টে তাঁকে দেখিতেছেন।
कीर्तन के बाद श्रीरामकृष्ण भूमिष्ठ होकर प्रणाम कर रहे हैं । ‘भागवत-भक्त-भगवान' इस कथन का उच्चारण करके कह रहे हैं, 'ज्ञानी, योगी, भक्त' - सभी के चरणों में प्रणाम ।' फिर सब लोग उनके चारों और घेरकर बैठ गये ।
কীর্তনান্তে ঠাকুর ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিতেছেন। “ভাগবত-ভক্ত-ভগবান” এই কথা উচ্চারণ করিয়া বলিতেছেন, জ্ঞানী-যোগী-ভক্ত সকলের চরণে প্রণাম। আবার সকলে তাঁহাকে ঘেরিয়া আসন গ্রহণ করিলেন।
The singing and dancing over, the Master touched the ground with his forehead, saying, "Bhagavata — Bhakta — Bhagavan! Salutations to the jnanis, yogis, and bhaktas! Salutations to all!" He sat down again and all sat around him.
(६)
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏श्री बंकिम और भक्ति योग - ईश्वर के प्रति प्रेम कैसे विकसित करें ?🔆🙏
শ্রীযুক্ত বঙ্কিম ও ভক্তিযোগ — ঈশ্বরপ্রেম
बंकिम - (श्रीरामकृष्ण के प्रति) - महाराज, भक्ति का क्या उपाय है ?
[বঙ্কিম (ঠাকুরের প্রতি) — মহাশয়, ভক্তি কেমন করে হয়?
BANKIM (to the Master): "Sir, how can one develop divine love?"
श्रीरामकृष्ण – व्याकुलता । लड़का जिस प्रकार माँ के लिए, माँ को न देखकर बेचैन होकर रोता है, उसी प्रकार व्याकुल होकर ईश्वर के लिए रोने से ईश्वर को प्राप्त तक किया जाता है।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — ব্যাকুলতা। ছেলে যেমন মার জন্য মাকে না দেখতে পেয়ে দিশেহারা হয়ে কাঁদে, সেই রকম ব্যাকুল হয়ে ঈশ্বরের জন্য কাঁদলে ঈশ্বরকে লাভ করা পর্যন্ত যায়।
MASTER: "Through restlessness — the restlessness a child feels for his mother. The child feels bewildered when he is separated from his mother, and weeps longingly for her. If a man can weep like that for God he can even see Him.
"अरुणोदय होने पर पूर्व दिशा लाल हो जाती है, उस समय समझा जाता है कि सूर्योदय मे अब अधिक विलम्ब नहीं है । उसी प्रकार यदि किसी का प्राण ईश्वर के लिए व्याकुल देखा जाय, तो भलीभांति समझा जा सकता है कि इस व्यक्ति का ईश्वर प्राप्ति में अधिक विलम्ब नहीं है ।
[“অরুণোদয় হলে পূর্বদিক লাল হয়, তখন বোঝা যায় যে, সূর্যোদয়ের আর দেরি নাই। সেইরূপ যদি কারও ঈশ্বরের জন্য প্রাণ ব্যাকুল হয়েছে দেখা যায়, তখন বেশ বুঝতে পারা যায় যে, এ ব্যক্তির ঈশ্বরলাভের আর বেশি দেরি নাই।
"At the approach of dawn the eastern horizon becomes red. Then one knows it will soon be sunrise. Likewise, if you see a person restless for God, you can be pretty certain that he hasn't long to wait for His vision.
"एक व्यक्ति ने गुरु से पूछा था, 'महाराज, ईश्वर को कैसे प्राप्त करूं, बता दीजिये ।' गुरु ने कहा, ‘आओ, मैं तुम्हें बता देता हूँ ।' यह कहकर वे उसे एक तालाब के किनारे ले गये । दोनों जल में उतर पड़े । इतने में ही एकाएक गुरु ने शिष्य का सिर पकड़कर उसे जल में डुबो दिया और कुछ देर पानी में डुबाकर रखा । फिर थोड़ी देर बाद उसे छोड़ दिया ।
[“একজন গুরুকে জিজ্ঞাসা করেছিল, মহাশয়, বলে দিন ঈশ্বরকে কেমন করে পাব। গুরু বললে, এসো আমি তোমায় দেখিয়ে দিচ্ছি। এই বলে তাকে সঙ্গে করে একটি পুকুরের কাছে নিয়ে গেল। দুই জনেই জলে নামল, এমন সময় হঠাৎ গুরু শিষ্যকে ধরে জলে চুবিয়ে ধরলে। খানিক পরে ছেড়ে দিবার পর শিষ্য মাথা তুলে দাঁড়াল।
"A disciple asked his teacher, 'Sir, please tell me how I can see God.' Come with me,' said the guru, 'and I shall show you.' He took the disciple to a lake, and both of them got into the water. Suddenly the teacher pressed the disciple's head under the water. After a few moments he released him and the disciple raised his head and stood up.
शिष्य सिर उठाकर खड़ा हो गया । गुरु ने पूछा, 'कहो, तुम्हें कैसा लग रहा था ?' शिष्य ने कहा, 'ऐसा लग रहा था कि अभी प्राण जाते ही हैं, प्राण बेचैन हो रहे थे ।' तब गुरु ने कहा, 'ईश्वर के लिए जब प्राण इसी प्रकार बेचैन होंगे, तभी जानो कि अब उनके साक्षात्कार में विलम्ब नहीं है ।'
[গুরু জিজ্ঞাসা করলে, তোমার কি রকম বোধ হচ্ছিল? শিষ্য বললে, প্রাণ যায় যায় বোধ হচ্ছিল, প্রাণ আটু-পাটু করছিল। তখন গুরু বললে, ঈশ্বরের জন্য যখন প্রাণ ওইরূপ আটু-পাটু করবে, তখন জানবে যে, তাঁর সাক্ষাৎকারের দেরি নাই।
The guru asked him, 'How did you feel?' The disciple said, 'Oh! I thought I should die; I was panting for breath.' The teacher said, 'When you feel like that for God, then you will know you haven't long to wait for His vision.'
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏हम जिस काग से बंधे हैं, वह हमें गोता लगाने से रोकता है।🔆🙏
[`तो विवेकदर्शन का अभ्यास करो !' আমরা যে শোলা (cork) দিয়ে আবদ্ধ তা আমাদের ডাইভিং থেকে বাধা দেয়।'তাহলে বিবেকদর্শন অনুশীলন কর!'We are tied to a cork, It prevents us from diving.'Then practice Vivekdarshan!']
" तुमसे कहता हूँ, ऊपर ऊपर बहने से क्या होगा ? जरा गोता लगाओ । गहरे जल के नीचे रत्न है, जल के ऊपर हाथ पैर पटकने से क्या होगा ? यथार्थ मणि भारी होता है, वह जल पर तैरता नहीं; वह जल के नीचे डूबा हुआ रहता है । असली मणि प्राप्त करना हो तो जल के भीतर गोता लगाना पड़ेगा ।"
[“তোমায় বলি, উপরে ভাসলে কি হবে? একটু ডুব দাও। গভীর জলের নিচে রত্ন রয়েছে, জলের উপর হাত-পা ছুঁড়লে কি হবে? ঠিক মাণিক ভারী হয়, জলে ভাসে না; তলিয়ে গিয়ে জলের নিচে থাকে। ঠিক মাণিক লাভ করতে গেলে জলের ভিতর ডুব দিতে হয়।”
(To Bankim) "Let me tell you something. What will you gain by floating on the surface? Dive a little under the water. The gems lie deep under the water; so what is the good of throwing your arms and legs about on the surface? A real gem is heavy. It doesn't float; it sinks to the bottom. To get the real gem you must dive deep."
बंकिम - महाराज, क्या करूँ, पीठ पर काग बँधी हुई है । (सभी हँसे) वह डूबने नहीं देती ।
[বঙ্কিম — মহাশয়, কি করি, পেছনে শোলা বাঁধা আছে। (সকলের হাস্য) ডুবতে দেয় না।
BANKIM: "Sir, what can we do? We are tied to a cork. It prevents us from diving." (All laugh.)
श्रीरामकृष्ण - उनका स्मरण करने से सभी पाप कट जाते हैं । उनके नाम से काल का फन्दा कट जाता है । गोता लगाना होगा, नहीं तो रत्न नहीं मिलेगा । एक गाना सुनो –
डूब डूब डूब रूप -सागरे आमार मन।
तलातल पाताल खुंजले पाबे रे प्रेमरत्न -धन।
ख़ूँज ख़ूँज ख़ूँज -ले पाबि हृदय -माझे वृन्दावन।
दीप दीप दीप ज्ञानेर बाती ज्वलबे हृदे अनुक्षण।।
ड्याँग ड्याँग ड्याँग ड्याँगाय डिँगे चालाय आबार से कोन जन।
कुबीर बोले शोन शोन शोनभाव गुरुर श्रीचरण।।
(भावार्थ) "रे मेरे मन, रूप के समुद्र में गोता लगा । ओ रे, तल, अतल, पाताल खोजने पर प्रेमरूपी धन को पायेगा । ढूँढो, ढूँढो, ढूँढ़ने पर हृदय के बीच में वृन्दावन पाओगे और हृदय में सदाज्ञान का दीपक जलता रहेगा । कबीर कहते हैं, सुन सुन, गुरु के श्रीचरणों का चिन्तन कर ।"
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তাঁকে স্মরণ করলে সব পাপ পেটে যায়। তাঁর নামেতে কালপাথ কাটে। ডুব দিতে হবে, তা না হলে রত্ন পাওয়া যাবে না। একটা গান শোন:
ড্যাং ড্যাং ড্যাং ড্যাঙ্গায় ডিঙে চালায় আবার সে কোন্ জন।
কুবীর বলে শোন্ শোন্ শোন্ ভাব গুরুর শ্রীচরণ ৷৷
MASTER: "All sins vanish if one only remembers God. His name breaks the fetters of death. You must dive; otherwise you can't get the gem. Listen to a song."-The Master sang in his sweet voice:
Dive deep, O mind, dive deep in the Ocean of God's Beauty;If you descend to the uttermost depths,There you will find the gem of Love.Go seek, O mind, go seek Vrindavan in your heart,Where with His loving devotees Sri Krishna sports eternally.Light up, O mind, light up true wisdom's shining lamp,And let it bum with steady flame Unceasingly within your heart.Who is it that steers your boat across the solid earth? It is your guru, says Kubir; Meditate on his holy feet.
श्रीरामकृष्ण ने अपने देवदुर्लभ मधुर कण्ठ से इस गाने को गाया । सभा के सभी लोग आकृष्ट होकर एक-मन से गाना सुनने लगे । गाना समाप्त होने पर फिर वार्तालाप शुरू हुआ ।
[ঠাকুর তাঁহার সেই দেবদুর্লভ মধুর কণ্ঠে এই গানটি গাইলেন। সভাসুদ্ধ লোক আকৃষ্ট হইয়া একমনে এই গান শুনিতে লাগিলেন। গান সমাপ্ত হইলে আবার কথা আরম্ভ হইল।
All listened spellbound. Again Sri Ramakrishna began to talk.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏कुछ लोग माँ काली के अवतार को ढूँढने के लिए रूपसागर में डूबने से डरते हैं🔆🙏
সচ্চিদানন্দ অমৃতের সাগর, তাতে ডুব দিলেই মানুষ অমর হয়।
[Satchidananda is the ocean of nectar,
by drowning in it one becomes immortal.]
श्रीरामकृष्ण - (बंकिम के प्रति) - कोई कोई गोता लगाना नहीं चाहते । वे कहते हैं, 'ईश्वर ईश्वर करके ज्यादती करके अन्त में क्या पागल हो जाऊँ ?' जो लोग ईश्वर के प्रेम में मस्त हैं, उन्हें कहते हैं 'बौरा गये हैं', परन्तु ये सब लोग इस बात को नहीं समझते कि सच्चिदानन्द अमृत का समुद्र है ...
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বঙ্কিমের প্রতি) — কেউ কেউ ডুব দিতে চায় না। তারা বলে, ঈশ্বর ঈশ্বর করে বাড়াবাড়ি করে শেষকালে কি পাগল হয়ে যাব? যারা ঈশ্বরের প্রেমে মত্ত, তাদের তারা বলে, বেহেড হয়ে গিয়েছে। কিন্তু এই সব লোক এটি বোঝে না যে সচ্চিদানন্দ অমৃতের সাগর।
MASTER (to Bankim): "There are some who do not want to dive. They say, 'Won't we become deranged it we go to excess about God?' Referring to those who are intoxicated with divine love, they say, 'These people have lost their heads.' But they don't understand this simple thing: God is the Ocean of Amrita, Immortality.
"मैंने एकबार नरेन्द्र से पूछा था, 'मान लो कि एक बर्तन रस है, और तू मक्खी बना है, तो तू कहाँ पर बैठकर रस पीयेगा ?' नरेन्द्र ने कहा, 'किनारे पर बैठकर मुँह बढ़ाकर पीऊँगा ।' मैंने कहा, क्यों ? बीच में जाकर डूबकर पीने में क्या हर्ज है ?' नरेन्द्र ने कहा, 'फिर तो रस में डूबकर मर जाऊँगा ।'
[আমি নরেন্দ্রকে জিজ্ঞাসা করেছিলাম, মনে কর যে, এক খুলি রস আছে, আর তুই মাছি হয়েছিস; তুই কোন্খানে বসে রস খাবি? নরেন্দ্র বললে, আড়ায় (কিনারায়) বসে মুখ বাড়িয়ে খাব। আমি বললুম, কেন? মাঝখানে গিয়ে ডুবে খেলে কি দোষ? নরেন্দ্র বললে, তাহলে যে রসে জড়িয়া মরে যাব।
Once I said to Narendra: 'Suppose there were a cup of syrup and you were a fly. Where would you sit to drink the syrup?' Narendra said, 'I would sit on the edge of the cup and stretch out my neck to drink it.' 'Why?' I asked. 'What's the harm of plunging into the middle of the cup and drinking the syrup?' Narendra answered, 'Then I should stick in the syrup and die.'
तब मैंने कहा, 'भैया, सच्चिदानन्द-रस ऐसा नहीं है, यह रस अमृत रस है । इसमें डूबने से मनुष्य मरता नहीं, अमर हो जाता है ।'
[তখন আমি বললুম, বাবা সচ্চিদানন্দ-রস তা নয়, এ-রস অমৃত রস, এতে ডুবলে মানুষ মরে না; অমর হয়। “তাই বলছি ডুব দাও। কিছু ভয় নেই, ডুবলে অমর হয়।”
'My child,' I said to him, 'that isn't the nature of the Nectar of Satchidananda. It is the Nectar of Immortality. Man does not die from diving into It. On the contrary he becomes immortal.'
"तभी कह रहा हूँ, 'गोता लगाओ । कोई भय नहीं है । डूबने से अमर हो जाओगे ।"
[“তাই বলছি ডুব দাও। কিছু ভয় নেই, ডুবলে অমর হয়।”
"Therefore I say, dive deep. Don't be afraid. By diving deep in God one becomes immortal."
अब बंकिम ने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया । वे बिदा लेंगे ।
[এইবার বঙ্কিম ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন — বিদায় গ্রহণ করিবেন।
Bankim bowed low before the Master. He was about to take his leave.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏केशव-केशव-? गोपाल, गोपाल - हरि हरि? हर ! हरो !🔆🙏
बंकिम - महाराज, मुझे आपने जितना बड़ा मूर्ख समझा है, उतना नहीं हूँ । एक प्रार्थना है, दया करके मेरी कुटिया में एक बार पधार कर, उसे अपनी चरणधूलि से पवित्र कर दीजिये ।
[বঙ্কিম — মহাশয়, যত আহাম্মক আমাকে ঠাওরেছেন তত নয়। একটি প্রার্থনা আছে — অনুগ্রহ করে কুটিরে একবার পায়ের ধুলা —
BANKIM: "Sir, I am not such an idiot as you may think. I have a prayer to make. Please be kind enough to grace my house with the dust of your holy feet."
श्रीरामकृष्ण - ठीक तो है, यदि ईश्वर की इच्छा हुई तो जाऊंगा।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বেশ তো, ঈশ্বরের ইচ্ছা।
MASTER: "That's nice. I shall go if God wills."
बंकिम - वहाँ पर भी देखेंगे, भक्त हैं ।
[বঙ্কিম — সেখানেও দেখবেন, ভক্ত আছে।
BANKIM: "There too you will see devotees of God."
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हुए) - कैसा भक्त जी ? कैसे सब भक्त है वहाँ पर ? जिन्होंने गोपाल गोपाल, केशव केशव कहा था, उनकी तरह हैं क्या ? - (सभी हँसे ।)
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কি গো! কি রকম সব ভক্ত সেখানে? যারা গোপাল গোপাল, কেশব কেশব বলেছিল, তাদের মতো কি? (সকলের হাস্য)
MASTER (smiling): "How so? What kind of devotees are they? Are they like those who said, 'Gopal! Gopal! Kesava! Kesava!'?" (All laugh.)
एक भक्त - महाराज, गोपाल गोपाल की कहानी क्या है ?
[একজন ভক্ত — মহাশয়, গোপাল, গোপাল, ও গল্পটি কি?
A DEVOTEE: "What is the story of 'Gopal', sir?"
श्रीरामकृष्ण - (हँसते हँसते) - अरे वह कहानी ! अच्छा सुनो । एक स्थान पर एक सुनार की दुकान है । वे लोग परम वैष्णव है, गले में माला, तिलक है । हमेशा हाथ में हरिनाम का झोला और मुख में सदैव हरिनाम ।
শ্রীরামকৃষ্ণ (হাসিতে হাসিতে) — তবে গল্পটি বলি শোন। এক জায়গায় একটি স্যাকরার দোকান আছে। তারা পরম বৈষ্ণব, গলায় মালা, তিলক সেবা, প্রায় হাতে হরিনামের ঝুলি আর মুখে সর্বদাই হরিনাম।
MASTER (smiling): "Let me tell you. At a certain place there is a gold-smith's shop. The workers there are known as pious Vaishnavas: they have strings of beads around their necks, religious marks on their foreheads, and bags containing rosaries in their hands. They repeat the names of God aloud.
उन्हें कोई भी साधु ही कहेगा और सोचेगा कि वे पेट के लिए ही सुनार का काम करते हैं, क्योंकि औरत-बच्चों को पालना ही है । परम वैष्णव जानकर अनेक ग्राहक उन्हीं की दूकान में आते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि इनकी दूकान में सोने-चांदी में गड़बड़ी न होगी ।
[সাধু বললেই হয়, তবে পেটের জন্য স্যাকরার কর্ম করা; মাগছেলেদের তো খাওয়াতে হবে। পরম বৈষ্ণব, এই কথা শুনে অনেক খরিদ্দার তাদেরই দোকানে আসে; কেননা, তারা জানে যে, এদের দোকানে সোনা-রূপা গোলমাল হবে না।
One can almost call them sadhus; only they have to work as goldsmiths to earn their bread and support their wives and children. Many customers, hearing of their piety, come to the shop because they believe that in that shop there will be no trickery with their gold or silver.
ग्राहक दुकान में आते ही देखता है कि वे मुख से हरिनाम जप रहे हैं और बैठे हुए कामकाज भी कर रहे हैं । खरीददार ज्यों जाकर बैठा कि एक आदमी बोल उठा, ‘केशव ! केशव ! केशव !' थोड़ी देर बाद एक दूसरा कह उठा, ‘गोपाल ! गोपाल ! गोपाल !' फिर थोड़ी देर बातचीत होने पर एक तीसरा व्यक्ति कह उठा, ‘हरि हरि हरि ।'
[খরিদ্দার দোকানে গিয়ে দেখে যে, মুখে হরিনাম, করছে, আর বসে বসে কাজকর্ম করছে। খরিদ্দার যাই গিয়ে বসল, একজন বলে উঠল, ‘কেশব! কেশব! কেশব!’
খানিকক্ষণ পরে আর-একজন বলে উঠল, ‘গোপাল! গোপাল! গোপাল!’ আবার একটু কতাবার্তা হতে না হতেই আর-একজন বলে উঠল — ‘হরি! হরি! হরি!’
When the customers enter the shop, they see the workers repeating the name of Hari with their tongues and doing their work with their hands. No sooner do the customers take seats in the shop than one of the workers cries out, 'Kesava! Kesava! Kesava!' A few minutes later another says, 'Gopal! Gopal! Gopal!' After they talk a little while, the third man cries out, 'Hari! Hari! Hari!'
अब जेवर बनाने की बातचीत एक प्रकार से समाप्त हो रही है । इतने में ही एक व्यक्ति बोल उठा, 'हर हर हर ।' इसीलिए तो इतनी भक्ति प्रेम देखकर वे लोग इन सुनारों के पास अपना रुपया पैसा देकर निश्चिन्त हो जाते हैं । सोचा कि वे लोग कभी न ठगेंगे ।
[গয়না গড়বার কথা যখন একরকম ফুরিয়ে এল, তখন আর-একজন বলে উঠলো — ‘হর! হর! হর! হর!’ কাজে কাজেই এত ভক্তি প্রেম দেখে তারা স্যাকরাদের কাছে টাকাকড়ি দিয়ে নিশ্চিন্ত হল; জানে যে এরা কখনও ঠকাবে না।
In the mean time the customers have almost finished their transactions. Then the fourth exclaims, 'Hara! Hara! Hara!' The customers are very much impressed with the devotion and fervour of the owners and feel themselves quite secure in handing them the money. They are sure they won't be cheated.
"परन्तु असली बात क्या है जानते हो ? ग्राहक के आने के बाद जिसने कहा था, 'केशव केशव' उसका मतलब है, ये सब लोग कौन हैं ? अर्थात् ये ग्राहक लोग कौन हैं ? जिसने कहा, 'गोपाल गोपाल’ - उसका मतलब है, ये लोग गाय के दल हैं । जिसने कहा, 'हरि हरि', इसका मतलब है, ये लोग मूर्ख हैं, तो फिर 'हरि' अर्थात् हरण करूँ ? और जिसने कहा, 'हर हर', इसका मतलब है, इनका सब कुछ हरण कर लो । ऐसे वे परम भक्त साधु थे !" (सभी हँसे ।)
[“কিন্তু কথা কি জানো? খরিদ্দার আসবার পর যে বলেছিল ‘কেশব! কেশব!’ তার মানে এই, এরা সব কে? অর্থাৎ যে খরিদ্দারেরা আসলো এরা সব কে? যে বললে, ‘গোপাল! গোপাল!’ তার মানে এই, এরা দেখছি গোরুর পাল, গোরুর পাল। যে বললে, ‘হরি! হরি!’ তার মানে এই, যেকালে দেখছি গোরুর পাল, সে স্থলে তবে ‘হরি’ অর্থাৎ হরণ করি। আর যে বললে, ‘হর! হর!’ তার মানে এই যেকালে গোরুর পাল দেখছো, সেকালে সর্বস্ব হরণ কর।’ এই তারা পরমভক্ত সাধু।” (সকলের হাস্য)
"But do you know what lies behind all this? The man who says 'Kesava! Kesava!1 after the arrival of the customers means, 'Who are they?' In other words, he wants to know how intelligent they are. The man who says 'Gopal! Gopal!' means to say he finds them no better than a herd of cows. The man saying 'Hari! Hari!' means, 'May I rob them?'; he suggests that since they are like a herd of cows they can be robbed. And the last man, who says 'Hara! Hara!', replies, 'Yes, rob them.' He means that since the customers are like a herd of cows, they can certainly be robbed. Here, too, you see a group of pious men, very much devoted to God!" (All laugh.)
बंकिम ने बिदा ली । परन्तु अन्यमनस्क होकर वे न जाने क्या सोच रहे थे । कमरे में दरवाजे के पास आकर देखते हैं, चद्दर छोड़ आये हैं । केवल कमीज पहने हैं । एक बाबू ने चादर उठा ली और दौड़कर उनके हाथ में दे दी । बंकिम क्या सोच रहे होंगे ?
[ বঙ্কিম বিদায় গ্রহণ করিলেন। কিন্তু একাগ্র হয়ে কি ভাবিতেছিলেন। ঘরের দরজার কাছে আসিয়া দেখেন, চাদর ফেলিয়া আসিয়াছেন। গায়ে শুধু জামা। একটি বাবু চাদরখানি কুড়াইয়া লইয়া ছুটিয়া আসিয়া চাদর তাঁহার হস্তে দিলেন। বঙ্কিম কি ভাবিতেছিলেন?
Bankim took his leave; but he was absent-minded. When he reached the door he discovered that he had dropped his shawl in the room; he was in his shirt-sleeves. A gentleman handed him his shawl.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏अवतार वरिष्ठ के भक्तों की अपनी अलग जाति होती है🔆🙏
राखाल आये हैं । वे बलराम के साथ श्रीवृन्दावनधाम गये थे । वहाँ से कुछ दिन हुए लोटे हैं । श्रीरामकृष्ण ने शरत् और देवेन्द्र के पास उनकी बात कही थी और उनसे कहा था कि उनके साथ बातचीत करें । इसीलिए वे राखाल के साथ परिचय करने के लिए उत्सुक होकर आये हैं । सुना, इन्हीं का नाम राखाल है ।
[রাখাল আসিয়াছেন। তিনি বৃন্দাবনধামে বলরামের সঙ্গে গিয়াছিলেন। সেখান হইতে কিছুদিন ফিরিয়াছিলেন। ঠাকুর তাঁহার কথা শরৎ ও দেবেন্দ্রের কছে বলিয়াছিলেন ও তাঁহার সহিত আলপা করিতে তাঁহাদের বলিয়াছিলেন। তাই তাঁহারা রাখালের সঙ্গে আলাপ পরিতে উৎসুক হইয়া আসিয়াছিলেন। শুনিলেন, এঁরই নাম রাখাল।
शरत् और सान्याल ब्राह्मण हैं और अधर हैं जाति के सुवर्ण वणिक् (बनिया) । कहीं उनके घरवाले भोजन करने के लिए न बुला लें इसीलिए जल्दी से भाग गये । नये आये हैं; अभी नहीं जानते कि श्रीरामकृष्ण अधर से कितना स्नेह करते हैं । श्रीरामकृष्ण का कहना है, भक्तों की एक अलग जाति है । उनमें जातिभेद नहीं है ।
শরৎ ও সান্যাল এঁরা ব্রাহ্মণ, অধর সুবর্ণবণিক। পাছে গৃহস্বামী খাইতে ডাকেন, তাই তাড়াতাড়ি পলাইয়া গেলেন। তাঁহারা নূতন আসিতেছেন; এখনও জানেন না, ঠাকুর অধরকে কত ভালবাসেন। ঠাকুর বলেন, “ভক্ত একটি পৃথক জাতি। সকলেই এক জাতীয়।”
Of the devotees at Adhar's house, Sarat2 and Sannyal were brahmins. But Adhar belonged to the lower caste of the goldsmiths, and so the two brahmins quickly left, lest they should be pressed by their host to take their meal there. Sarat and Sannyal had been coming to the Master only a short, time and did not know how fond the Master was of Adhar. The Master used to say that the devotees formed a separate caste by themselves; among them there could be no caste distinction.
अधर ने श्रीरामकृष्ण को तथा उपस्थित भक्तों को अत्यन्त आदर के साथ बुलाकर सन्तोषपूर्वक भोजन कराया । भोजन के बाद भक्तगण श्रीरामकृष्ण के मधुर वचनों का स्मरण करते करते उनका विचित्र प्रेममय चित्र हृदय में धारण कर घर लौटे ।
Adhar entertained the Master and the devotees with a feast. It was quite late in the evening when the devotees returned home, cherishing in their hearts the image of the Master in his spiritual ecstasy and remembering his words of great wisdom.
अधर के घर शुभागमन के दिन श्री बंकिम ने श्रीरामकृष्णदेव से उनके मकान पर पधारने का अनुरोध किया था । अतएव थोड़े दिनों के बाद श्रीरामकृष्ण ने श्री गिरीश व मास्टर को उनके कलकत्ते के मकान पर भेज दिया था । उनके साथ श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में काफी बातचीत हुई। बंकिम ने श्रीरामकृष्ण का दर्शन करने के लिए फिर आने की इच्छा प्रकट की थी, परन्तु काम में व्यस्त रहने के कारण न आ सके ।
[অধরের বাটীতে শুভাগমনের দিনে শ্রীযুক্ত বঙ্কিম শ্রীরামকৃষ্ণকে তাঁহার বাটীতে যাইবার জন্য অনুরোধ করাতে তিনি কিছুদিন পরে শ্রীযুক্ত গিরিশ ও মাস্টারকে তাঁহার সান্কীভাঙার বাসায় পাঠাইয়া দিয়াছিলেন। তাঁহাদের সহিত শ্রীরামকৃষ্ণ সম্বন্ধে অনেক কথা হয়। ঠাকুরকে আবার দর্শন করিতে আসিবার ইচ্ছা বঙ্কিম প্রকাশ করেন, কিন্তু কার্যগতিকে আর আসা হয় নাই।
Since Bankim had invited Sri Ramakrishna to visit his home, the Master a few days later sent Girish and M. to his Calcutta residence. At that time Bankim had a long discussion with these two devotees about the Master. He told them that he wanted to visit Sri Ramakrishna again. But his desire was not fulfilled.
[(6 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-103 ]
🔆🙏पंचवटी के नीचे 'देवी चौधरानी’ का पाठ🔆🙏
ता. ६ दिसम्बर, १८८४ ई. को श्रीरामकृष्ण ने श्री अधर के घर पर शुभागमन किया था और श्री बंकिम बाबू के साथ वार्तालाप किया था । प्रथम से षष्ठ विभाग तक ये ही सब बातें विवृत हुई ।
[৬ই ডিসেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দে শ্রীযুক্ত অধরের বাটীতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ শুভাগমন করিয়াছিলেন ও শ্রীযুক্ত বঙ্কিমবাবুর সহিত আলাপ করিয়াছিলেন। প্রথম হইতে ষষ্ঠ পরিচ্ছেদে এই সব কথা বিবৃত হইল।
इस घटना के कुछ दिनों के बाद अर्थात् २७ दिसम्बर, शनिवार को श्रीरामकृष्ण ने पंचवटी के नीचे भक्तों के साथ बंकिम रचित 'देवी चौधरानी' के कुछ अंश का पाठ सुना था और गीतोक्त निष्काम धर्म के बारे में अनेक बातें कही थीं ।
[এই ঘটনার কিছুদিন পরে অর্থাৎ ২৭শে ডিসেম্বর, শনিবার ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ পঞ্চবটীমূলে দক্ষিণেশ্বরে ভক্তসঙ্গে বঙ্কিম প্রণীত দেবী চৌধুরাণীর কতক অংশ পাঠ শুনিয়াছিলেন ও গীতোক্ত নিষ্কাম কর্মের বিষয় অনেক কথা বলিয়াছিলেন।
श्रीरामकृष्ण पंचवटी के नीचे चबूतरे पर अनेक भक्तों के साथ बैठे थे । मास्टर से पढ़कर सुनाने के लिए कहा । केदार, राम, नित्यगोपाल, तारक (शिवानन्द), प्रसन्न (त्रिगुणातीतानन्द), सुरेन्द्र आदि अनेक भक्त उपस्थित थे ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ পঞ্চবটীমূলে চাতালের উপর অনেক ভক্তসঙ্গে বসিয়াছিলেন। মাস্টারকে পাঠ করিয়া শুনাইতে বলিলেন। কেদার, রাম, নিত্যগোপাল, তারক (শিবানন্দ), প্রসন্ন (ত্রিগুণাতীত), সুরেন্দ্র প্রভৃতি অনেকে উপস্থিত ছিলেন।
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काली और माया (KALI AND MAYA): श्री रामकृष्ण देव भी अपने गुरु श्री तोतापुरी जी की तरह, इस बात को अच्छी तरह से समझते थे कि यह जगत अवास्तविक या मायिक (illusory) प्रतीति है। परन्तु किसी कट्टरपन्थी वेदान्ती (अद्वैतवादी) की तरह, श्रीरामकृष्ण ने माया को तिरस्कृत करने के बजाये उसकी शक्ति को सापेक्षिक जीवन में स्वीकृत किया था। श्री रामकृष्ण देव माया को ईश्वर (Divinity, भगवान) की एक रहस्यमयी और राजसी (mysterious and majestic) अभिव्यक्ति मानकर उसके प्रति गहरी श्रद्धा तथा प्रेम (भक्ति) का भाव रखते थे।
उनके लिए `माया ' (शक्ति) ही ईश्वर थी, क्योंकि सब कुछ ईश्वरमय था। उनके लिए माया का चेहरा भी ब्रह्म के कई चेहरों में से एक चेहरा ही था। अतीन्द्रिय (transcendental, देश-काल से परे) क्षेत्र में पहुँचकर उन्होंने जिस परम् सत्य की अनुभूति की थी ; वहाँ लौटकर या उतरकर भी उन्होंने उसी निरपेक्ष सत्य को प्रत्येक 'नाम और रूप ' के रहस्यमयी आवरण में छुपा हुआ पाया।और नाम-रूप का यह पर्दा उन्हें बिल्कुल पारदर्शी म्यान की तरह प्रतीत होता था, जिसके माध्यम से वे ब्रह्म की महिमा को पहचान सकते थे।
माया, नाम-रूप (M/F, शरीर-मन) रूपी वस्त्र की शक्तिशाली करघेवाली (weaver, बुनकर) और कोई नहीं बल्कि काली , माँ जगदम्बा हैं। वे ही मूल आद्य ऊर्जा, बीजभूत शक्ति हैं , उन्हें परब्रह्म से उसी प्रकार अलग नहीं किया जा सकता, जिस प्रकार अग्नि से उसकी दाहिका शक्ति को अलग नहीं किया जा सकता। वे अपने भीतर से जगत को प्रक्षेपित करती हैं , और फिर उसे वापस खींच लेती हैं। वे जगत को इस प्रकार बुनती हैं , जैसे मकड़ी अपना जाला बुनती हैं। वे जगतजननी हैं , सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की माता हैं , माँ जगदम्बा वेदान्त के ब्रह्म तथा योग की आत्मा के साथ अभिन्न हैं।
माँ जगदम्बा ही सर्वकालिक विधि-निर्माता (eternal Lawgiver) हैं, वे अपनी इच्छानुसार कानून बनाती हैं और तोड़ती हैं; उन राजराजेश्वरी की अभिमानी इच्छा (imperious will) से ही कर्म का फल भोगना पड़ता है ! वे अपनी सौम्य आँखों (benign eyes) से पुरुषों/मनुष्यों को भ्रमजाल में फँसाती हैं (Hypnotized करती हैं) , और फिर से उन्हें भ्रममुक्त या जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त कर देती हैं। माँ जगदम्बा ही ब्रह्मांडीय खेल की सर्वोच्च श्रीमती (supreme Mistres) है, तथा जड़ (निर्जीव, inanimate) और चेतन (animate, सजीव) सभी वस्तुएं, उसकी इच्छा से नृत्य करती हैं। यहां तक कि जिन लोगों ने निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर परमसत्य (या इन्द्रियातीत सत्य) का अनुभव कर लिया है, वे भी जब तक सापेक्षिक स्तर पर रहते हैं, शक्ति (श्रीमती) के अधिकार क्षेत्र में ही रहते हैं।
इस प्रकार, निर्विकल्प समाधि के बाद, श्री रामकृष्ण ने माया को पूरी तरह से एक नई भूमिका में अनुभव किया। उनकी दृष्टि के सामने से माँ काली का बंधनकारी पहलू बिल्कुल लुप्त हो गया। माँ काली ने श्रीरामकृष्ण की धारणा (understanding या प्रज्ञा) को अब धुँधला करना समाप्त कर दिया।उनके लिए अतीन्द्रिय सत्ता (Transcendental-पुरुषोत्तम) स्वयं सर्वव्यापी (Immanent) सत्ता में रूपांतरित हो गयी।सारा जगत ही जगतजननी की महिमामयी अभिव्यक्ति में परिणत हो गया। माया (शक्ति) ही ब्रह्म हो गई।
श्री रामकृष्ण ने ही यह पता लगाया , (discover या आविष्कृत किया) कि माया इस सापेक्षिक जगत (परिवर्तनशील जगत) में दो प्रकार से - कार्य करती है; तथा उन्हें उन्हें "अविद्यामाया" और "विद्यामाया" की संज्ञा दी। अविद्यामाया सृष्टि की काली शक्तियों (dark forces ) का यथा - कामोन्माद , अशुभ जूनून, कामना-वासना, क्रूरता इत्यादि का प्रतिनिधित्व करती हैं। अविद्यामाया विश्व-व्यवस्था को निम्न स्तरों पर बनाये रखती है। यह अविद्या ही मनुष्य के जन्म और मृत्यु के चक्र के लिए जिम्मेदार है। इस अविद्या (अत्यंत चंचल मन) से लड़कर इसे परास्त करना चाहिए।
लेकिन विद्यामाया सृष्टि की उच्चतर शक्ति (श्रीराधा -श्रीमती) हैं, इनकी कृपा से भक्तों को शिक्षात्मक गुण - (enlightening qualities, चरित्र के 24 ज्ञानवर्धक गुण) तथा करुणा, पवित्रता, प्रेम, भक्ति आदि आध्यात्मिक गुण ( spiritual virtues) प्राप्त होते हैं। विद्यामाया की शरण में जाने से, वे मनुष्य को चेतना (consciousness, होश, बोध ) के उच्चतर स्तरों तक उठा देती हैं।माँ काली जगदम्बा का भक्त विद्यामाया की सहायता से ही स्वयं को अविद्यामाया से मुक्त करता है; फिर वह मायातीत हो जाता है ! अर्थात माया से (अपने -पराये के भेदबुद्धि से) मुक्त हो जाता है; उसके लिए कोई पराया नहीं रह जाता , सभी उसके अपने हो जाते हैं !
माया के दो पक्ष माँ काली की, या सृष्टि की दो शक्तियाँ (आवरण और विक्षेप दो aspects, पहलू या स्वरुप) हैं; परन्तु जगतजननी माँ काली स्वयं उन दोनों शक्तियों के परे खड़ी हैं। माँ काली उस देदीप्यमान सूर्य की भांति हैं, जो सम्पूर्ण अस्तित्व (कायनात) को प्रकाशित करता है; तथा स्वयं विभिन्न रंग एवं आकृतियों के बादलों के पीछे निरंतर एक समान चमकता रहता है। तथा माँ काली ही शरद ऋतू के स्वच्छ नीले आकाश में खेलते बादल की विभिन्न आकृतियों का अद्भुत इन्द्रजाल रचती हैं।
माँ जगदम्बा ने श्री रामकृष्ण को निराकार निरपेक्षता में (featureless Absolute पूर्णता, निर्विकल्प समाधि के आनंद में ) खो जाने (लीन हो जाने) के लिए नहीं कहा, बल्कि भावमुख अवस्था में रहने का आदेश दिया। भावमुख [bhavamukha] अवस्था में रहने का सामर्थ्य माँ जगदम्बा के उसी भक्त को प्राप्त होता है जो , माँ (गुरु) की कृपा से सापेक्षिक चेतना (relative consciousness) की दहलीज पर खड़े होकर, अर्थात कामिनी -कांचन में अनासक्त होकर निरपेक्ष और सापेक्ष के बीच की सीमा रेखा पर स्थित रहते हुए नश्वर बाह्य-जगत तथा अंतर्जगत को अविनाशी आत्मा के (विवेक-प्रयोग शक्ति) के आधीन में रख सकता हो। श्रीरामकृष्ण अब अपने आपको तन्त्र शास्त्र में कहे गए "छठे केंद्र" (sixth centre) पर रखना था, जहाँ अवस्थित रहते हुए वे न केवल 'सप्तम केंद्र' की महिमा को देख सकते थे , बल्कि मूलाधार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियों का भी समस्त निचले केंद्रों में दर्शन कर सकते थे। वे निरपेक्ष (अमूर्त) और सापेक्ष (मूर्त) के बीच की विभाजन रेखा के इधर-उधर दोनों ओर दोलायमान रहते थे। वे माँ जगदम्बा के प्रति उन्मत्त भक्ति तथा निरपेक्ष पूर्ण एकत्व के सागर के साथ निर्मल तल्लीनता में बारी बारी से आ-जा सकते थे। इस प्रकार उन्होंने परम् सत्य के व्यक्तिगत (Personal) और अवैयक्तिक (Impersonal) अंतर्वर्ती और पारलौकिक पहलुओं के बीच की खाई को पाट दिया था । विश्व के अभिलिखित आध्यात्मिक इतिहास में यह एक अनूठा दृष्टान्त है।
Significance of Totapuri's lessons: (तोतापुरी को माँ काली द्वारा दी गयी दण्डात्मक शिक्षा का महत्व):
"जब मैं सर्वोच्च सत्ता (इन्द्रियातीत सत्य) को निष्क्रिय मानता हूं - अर्थात जब वे न तो सृजन कर रहे होते हों, न पालन कर रहे होते हों, और न ही संहार कर रहे हों - उस अवस्था में मैं उन्हें ब्रह्म, पुरुष, या निर्वैयक्तिक ईश्वर (Impersonal God)कहता हूं। और जब मैं उन्हें सक्रिय मानता हूं - अर्थात वे सृजन, संरक्षण और संहार कर रहे होते हों - तो मैं उन्हें शक्ति, माया, प्रकृति अथवा वैयक्तिक ईश्वर (Personal God-जगतजननी माँ काली) कहता हूं।
["When I think of the Supreme Being as inactive — neither creating nor preserving nor destroying —, I call Him Brahman or Purusha, the Impersonal God. When I think of Him as active — creating, preserving, and destroying —, I call Him Sakti or Maya or Prakriti, the Personal God.
" लेकिन ब्रह्म और शक्ति बीच अंतर करने का मतलब उनको अलग -अलग समझना कदापि नहीं है। वैयक्तिक और अवैयक्तिक ईश्वर एक ही वस्तु हैं, जैसे दूध और उसकी सफेदी, अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति , हीरा और उसकी चमक, सांप और उसकी गति। एक के बिना दूसरे की कल्पना करना असंभव है। वास्तव में माँ जगदम्बा और ब्रह्म एक ही हैं।"
But the distinction between them does not mean a difference. The Personal and the Impersonal are the same thing, like milk and its whiteness, the diamond and its lustre, the snake and its wriggling motion. It is impossible to conceive of the one without the other. The Divine Mother and Brahman are one."
" तोतापुरी के प्रस्थान के बाद, श्री रामकृष्ण छह महीने तक ब्रह्म के साथ पूर्ण एकत्व की स्थिति में रहे। उन्होंने कहा, "मैं छह महीने तक लगातार", उस स्थिति में रहा, जहां से सामान्य पुरुष कभी वापस नहीं आ सकते ! आम तौर पर सामान्य कोटि के मनुष्यों का शरीर तीन सप्ताह (21 दिनों) के बाद, किसी सूखे हुए पत्ते की तरह झड़ जाता है। तब मुझे न दिन का और न रात का ही होश रहता था। मक्खियाँ मेरे मुँह और नासिका छिद्रों में उसी तरह से प्रवेश कर जातीं थीं जैसे किसी मृत शरीर में करती हैं। लेकिन मैंने मक्खियों का घुसना-निकलना जरा भी महसूस नहीं किया। मेरे बाल धूल से जट्टा में परिणत हो गए थे ।
"After the departure of Totapuri, Sri Ramakrishna remained for six months in a state of absolute identity with Brahman. "For six months at a stretch", he said, "I remained in that state from which ordinary men can never return; generally the body falls off, after three weeks, like a sere leaf. I was not conscious of day and night. Flies would enter my mouth and nostrils just as they do a dead body's, but I did not feel them. My hair became matted with dust."
"उस अवस्था में उनके शरीर का जीवित रहना सम्भव नहीं होता, यदि ठीक उसी समय दक्षिणेश्वर पधारे एक साधु का ध्यान उनकी समाधिस्थ अवस्था की ओर न गया होता, और उन्होंने यह नहीं महसूस किया होता कि सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए श्री रामकृष्ण के शरीर को किसी भी प्रकार बचाकर रखना अनिवार्य है ! ठाकुर के शरीर रूपी कारागार को छोड़कर बाहर निकलती हुई आत्मा को वापस लाने के लिए उस साधु ने शारीरक हिंसा समेत कई उपाय किये , जिसके परिणाम स्वरुप कुछ क्षणों के लिए उनमें यदि चेतना का संचार होता तब उस समय वे भोजन के कुछ निवाले श्री रामकृष्ण के गले में धकेल दिया करते। किन्तु वर्तमान समय में माँ जगदम्बा ने श्री रामकृष्ण को 'भावमुख रहने ' अर्थात सापेक्षिक चेतना की दहलीज पर खड़े रहने का आदेश दिया था। इस घटना के तुरंत बाद पेचिश के गंभीर हमले से वे पीड़ित हो गए थे । जब दिन-रात के पेट दर्द ने उन्हें सताया, तब उनका मन धीरे-धीरे भौतिक तल पर उतर आया।"
[https://www.ramakrishnavivekananda.info/gospel/introduction/kali_and_maya.htm/ का हिन्दी अनुवाद ]
{तमोगुण , रजोगुण अविद्या माया है , सतो गुण विद्या माया : विद्या माया एवं भक्ति जीव को परमात्मा से मिला देती है। वहीं अविद्यारुपी माया जीव को भरमाकर इस संसार सांसारिक विषयों में उलझा देती हैं। ज्ञान मार्गी विद्या माया द्वारा अविद्या माया को खतम तो कर देते है परन्तु विद्या माया को नही। अत: ज्ञानी लोगों को भी अंत मे विद्या माया को समाप्त करने के लियसगुण साकार भगवान श्री रामकृष्ण की ही उपासना करनी पड़ती है और भक्ति द्वारा विद्या माया समाप्त हो जाने पर ही भगवत् प्राप्ति होती है। ठीक उसी प्रकार जैसे संसार में आप लोग साबुन लगा कर नहा कर शरीर के गंदगी को दुर करते है ; फिर साफ पानी द्वारा उस साबुन को भी साफ कर देते है।}
{" मनुष्य जो दिखता है, वह नहीं है, बल्कि वह साक्षात् सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। मनुष्य का वास्तविक और प्रातिभासिक स्वरूप बहुत भिन्न-भिन्न हैं ;और बिना अपरोक्षानुभूति के यह जानना बहुत कठिन है।"
`मनुष्य का सत्य एवं आभासमय स्वरुप'(THE REAL AND THE APPARENT MAN) :
(स्म विवेकानन्द द्वारा न्यूयार्क में दिया हुआ
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{तत्वमसि (तुम वही हो), अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूं), प्रज्ञानं ब्रह्म (आत्मा ही ब्रह्म है), सर्वम खल्विदं ब्रह्म (सर्वत्र ब्रह्म ही है)। उपनिषद के ये चार महावाक्य मानव जाति के लिए महाप्राण, महोषधि एवं संजीवनी बूटी के समान हैं, जिन्हें हृदयंगम कर मनुष्य आत्मस्थ हो सकता है। वेद में कई महावाक्य हैं। जैसेः `नेति नेति (यह भी नही, यह भी नहीं)/अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ)/अयम् आत्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है)/यद् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे (जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है)/वेद की व्याख्या इन महावाक्यों से होती है। उपनिषद उद्घोष करते हैं कि मनुष्य देह, इंद्रिय और मन का संघटन मात्र नहीं है, बल्कि वह सुख-दुख, जन्म-मरण से परे दिव्यस्वरूप है, आत्मस्वरूप है। आत्मभाव से मनुष्य जगत का द्रष्टा भी है और दृश्य भी। वह परमात्मा का अंशीभूत आत्मा है।
प्रज्ञानं ब्रह्म
इस महावाक्य का अर्थ है- 'प्रकट ज्ञान ब्रह्म है।' वह ज्ञान-स्वरूप ब्रह्म जानने योग्य है और ज्ञान गम्यता से परे भी है। वह विशुद्ध-रूप, बुद्धि-रूप, मुक्त-रूप और अविनाशी रूप है। वही सत्य, ज्ञान और सच्चिदानन्द-स्वरूप ध्यान करने योग्य है। उस महातेजस्वी देव का ध्यान करके ही हम 'मोक्ष' को प्राप्त कर सकते हैं। वह परमात्मा सभी प्राणियों में जीव-रूप में विद्यमान है। वह सर्वत्र अखण्ड विग्रह-रूप है। वह हमारे चित और अहंकार पर सदैव नियन्त्रण करने वाला है। जिसके द्वारा प्राणी देखता, सुनता, सूंघता, बोलता और स्वाद-अस्वाद का अनुभव करता है, वह प्रज्ञान है। वह सभी में समाया हुआ है। वही 'ब्रह्म' है।
अहं ब्रह्माऽस्मि
इस महावाक्य का अर्थ है- 'मैं ब्रह्म हूं।' यहाँ 'अस्मि' शब्द से ब्रह्म और जीव की एकता का बोध होता है। जब जीव परमात्मा का अनुभव कर लेता है, तब वह उसी का रूप हो जाता है। दोनों के मध्य का द्वैत भाव नष्ट हो जाता है। उसी समय वह 'अहं ब्रह्मास्मि' कह उठता है।
तत्त्वमसि
इस महावाक्य का अर्थ है-'वह ब्रह्म तुम्हीं हो।' सृष्टि के जन्म से पूर्व, द्वैत के अस्तित्त्व से रहित, नाम और रूप से रहित, एक मात्र सत्य-स्वरूप, अद्वितीय 'ब्रह्म' ही था। वही ब्रह्म आज भी विद्यमान है। उसी ब्रह्म को 'तत्त्वमसि' कहा गया है। वह शरीर और इन्द्रियों में रहते हुए भी, उनसे परे है। आत्मा में उसका अंश मात्र है। उसी से उसका अनुभव होता है, किन्तु वह अंश परमात्मा नहीं है। वह उससे दूर है। वह सम्पूर्ण जगत में प्रतिभासित होते हुए भी उससे दूर है।
अयमात्मा ब्रह्म
इस महावाक्य का अर्थ है- 'यह आत्मा ब्रह्म है।' उस स्वप्रकाशित परोक्ष (प्रत्यक्ष शरीर से परे) तत्त्व को 'अयं' पद के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अहंकार से लेकर शरीर तक को जीवित रखने वाली अप्रत्यक्ष शक्ति ही 'आत्मा' है। वह आत्मा ही परब्रह्म के रूप में समस्त प्राणियों में विद्यमान है। सम्पूर्ण चर-अचर जगत में तत्त्व-रूप में वह संव्याप्त है। वही ब्रह्म है। वही आत्मतत्त्व के रूप में स्वयं प्रकाशित 'आत्मतत्त्व' है।}
'SOUL, NATURE, AND GOD '
'आत्मा का मुक्त स्वभाव ' [1896 ई ० में न्यूयार्क में दिया हुआ व्याख्यान/ ८:६७-७९ ]
'आत्मा और विश्व ' [ ८ : ८० -८२ ]/ 'ईश्वर और ब्रह्म ' [८ : ८३]
`आत्मा, प्रकृति तथा ईश्वर ' = 3H =man consists of three substances !
🔆🙏अवयवों (organs-उपकरण,साधन या अंग) को संस्कृत में इन्द्रिय कहते हैं !🔆🙏
`जिस प्रकार मनुष्य की आत्मा , मनुष्य के शरीर और मन की आत्मा है , उसी प्रकार ईश्वर हमारी आत्माओं की आत्मा हैं ! '..... मानो वह (परमेश्वर) उनमें रमता है , उन्हें निर्देश देता है और उन सबका शासक है। प्रथम दृष्टि , द्वैतवाद के अनुसार हम सभी ईश्वर और प्रकृति से शाश्वत रूप से पृथक व्यक्ति हैं। दूसरी दृष्टि के अनुसार हम व्यक्ति हैं , परन्तु ईश्वर के साथ एक हैं। फिर भी मनुष्य और मनुष्य में , मनुष्य और ईश्वर में एक कठोर व्यक्तिता है , जो पृथक है , और पृथक नहीं भी। अब इससे भी सूक्ष्मतर प्रश्न उठता है। प्रश्न है : क्या अनन्त के अंश हो सकते हैं ? अनन्त के अंशों से क्या तात्पर्य है ? यदि तुम इस पर विचार करो , तो देखोगे कि यह असम्भव है। अनन्त के अंश नहीं हो सकते , वह हमेशा अनन्त ही रहता है; और दो अनन्त भी नहीं हो सकते। अनन्त केवल एक तथा अविभाज्य ही हो सकता है। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि अनन्त एक है, अनेक नहीं ; और वही एक अनन्त आत्मा पृथक आत्माओं के रूप में प्रतीत होने वाले असंख्य दर्पणों में (चित्त में) प्रतिबिम्बित हो रही है। यह वही अनन्त आत्मा है , जो विश्व का आधार है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं। वही अनन्त आत्मा मनुष्य के मन का भी आधार है , जिसे हम जीवात्मा कहते हैं।
जैसे जीवात्मा शरीर (M/F) धारण करती है। ( वैसे ही लोकशिक्षा देने या धर्म -संस्थापन का कार्य करने के लिए परमेश्वर अवतार लेते हैं , लेकिन केवल विषय-भोग करने के लिए परेमश्वर कभी शरीर धारण नहीं करते। परमात्मा अपने सभी कार्य बिना शरीर धारण किए और बिना किसी की (योगमाया की सहायता से) करते हैं। किन्तु आत्मा बिना शरीर के संसार में कुछ भी कार्य नहीं कर सकती। इसको कार्य करने के लिए शरीर की आवश्यकता पड़ती है। जीवात्मा शरीर धारण करती है। परेमश्वर लोकशिक्षा देने के सिवा कभी शरीर धारण नहीं करते। परमात्मा अपने सभी कार्य योगमाया की सहायता से बिना शरीर धारण किए भी कर सकते हैं। किन्तु आत्मा बिना शरीर के संसार में कुछ भी कार्य नहीं कर सकती। इसको कार्य करने के लिए शरीर की आवश्यकता पड़ती है।
The question is: Can infinity have parts? What is meant by parts of infinity? If you reason it out, you will find that it is impossible. Infinity cannot be divided, it always remains infinite. If it could be divided, each part would be infinite. And there cannot be two infinites. Suppose there were, one would limit the other, and both would be finite. Infinity can only be one, undivided. Thus the conclusion will be reached that the infinite is one and not many, and that one Infinite Soul is reflecting itself through thousands and thousands of mirrors, appearing as so many different souls. It is the same Infinite Soul, which is the background of the universe, that we call God. The same Infinite Soul also is the background of the human mind which we call the human soul.
According to the Vedanta philosophy, man consists of three substances, so to say. The outermost is the body, the gross form of man, in which are the instruments of sensation, such as the eyes, nose, ears, and so forth. This eye is not the organ of vision; it is only the instrument. Behind that is the organ. So, the ears are not the organs of hearing; they are the instruments, and behind them is the organ, or what, in modern physiology, is called the centre. The organs are called Indriyas in Sanskrit. [Volume 2, Practical Vedanta and other lectures/व्यावहारिक वेदान्त :खण्ड ८ /८४ -९१/]
🔆🙏अपने सच्चे आत्मस्वरूप को जाग्रत करने के लिये अविनाशी विचारों का (अवतार वरिष्ठ के उपदेशों का या श्रीरामकृष्ण-वचनामृत का उपयोग कैसे करें ?🔆🙏
यदि कोई शराबी राजकुमार अपनी वास्तविक पहचान भूलकर झुग्गी झोपड़ी में जाकर रोने चिल्लाने लगे कि, “मैं कितना गरीब हूँ” तो उसके मित्र उस पर हँसेंगे और कहेंगे, “उठो ! जागो ! और याद करो कि तुम एक राजकुमार हो” इसी प्रकार आप भ्रम की स्थिति में हैं। आप स्वयं को संघर्ष करने वाला, दुःखी असहाय प्राणी समझ रहे हैं। उन सभी सीमित विचारों के आवरण को उतार कर फेंक दें जो आपकी वास्तविक पहचान को ढंके रहते हैं। आत्मज्ञान सर्वोच्च ज्ञान है — स्वयं को, आत्मा को जानना कि वह निरन्तर ईश्वर से पृथक नहीं है। ईश्वर ही समस्त अस्तित्व की गहराई में निहित हैं। “हे अर्जुन! मैं सभी प्राणियों के हृदय में निहित निजता हूँ : मैं उन सब का स्रोत हूँ, अस्तित्व हूँ, अन्त हूँ।” ( श्रीमद्भागवद्गीता X:20.)
सफलता के बीज बोने के लिए असफलता का मौसम सर्वोत्तम समय होता है। परिस्थितियों की मार से आप घायल हो सकते हैं, परन्तु अपना मस्तक ऊँचा रखिये। सदैव एक बार और प्रयास कीजिये, भले ही आप अनेक बार असफल हो चुके हों। जब आपको लगे कि आप और संघर्ष नहीं कर सकते या जब आप सोचें कि आप हर सम्भव प्रयास कर चुके हैं, या जब तक आपके प्रयासों को सफलता का मुकुट नहीं बन्ध जाता, संघर्ष करते ही रहिये।
^* आत्मा कर्म करने में स्वतंत्र और फल पाने में परतंत्र है।^*
" पूरे दिन आप निरन्तर शरीर के द्वारा कार्य करते रहते हैं अतः आप अपने आप की पहचान शरीर (M/F) से बना लेते हैं।परन्तु प्रत्येक रात्रि ईश्वर आपके ऊपर से माया का बंधन हटा देते हैं। पिछली रात में गहरी स्वप्न रहित नींद में आप स्त्री थे या पुरुष अथवा एक अमरीकन थे या हिन्दू थे या गरीब थे? कोई भी नहीं, आप पवित्र आत्मा थे।…अर्धचेतन अवस्था की गहरी निद्रावस्था में ईश्वर आपके सभी नश्वर नाम वापस ले लेते हैं और आपको यह अनुभव कराते हैं कि आप शरीर से अलग हैं, आप शरीर की सभी सीमाओं से परे हैं। आप ब्रह्माण्ड में विश्राम करने वाली शुद्ध चेतना हैं। यही विस्तार आपका सच्चा स्वरूप है।
प्रत्येक प्रातःकाल जैसे ही आप जागें, स्वयं को इस सत्य की याद दिलाइये :“मैं अपने स्वरूप के आन्तरिक अन्तर्ज्ञान से बाहर आया हूँ। मैं शरीर नहीं हूँ। मैं अदृश्य हूँ। मैं आनन्द हूँ। मैं प्रकाश हूँ। मैं विवेक हूँ। मैं प्रेम हूँ। मैं स्वप्न शरीर में वास करता हूँ जिसके द्वारा इस सांसारिक जीवन का स्वप्न देख रहा हूँ; परन्तु मैं सदा अमर रहने वाली आत्मा हूँ।”
आत्मा निराकार है। जिस तरह प्रकृति से बनी वस्तुएं साकार हैं, उस तरह आत्मा साकार नहीं है। जो वस्तु (जैसे मनुष्य) अनेक अवयवों (3'H') से मिलकर बनी हो और जिसमें रूप गुण हों, उसको साकार कहेंगे, अर्थात जो आंखों से दिखाई देवे, वह साकार कहलाता है।
इस परिभाषा के अनुसार न तो आत्मा अनेक अवयवों से मिलकर बनी है, न ही उसमें रूप गुण है और न ही आंखों से दिखाई देती है। इसलिए आत्मा निराकार है। यदि साकार की परिभाषा यह करें कि जो-जो इंद्रियों से प्रतीत हो वह-वह साकार है। इस परिभाषा अनुसार भी आत्मा निराकार ही सिद्ध होगी क्योंकि आत्मा रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द आदि इंद्रियों के विषयों से परे है। और यदि साकार परिभाषा यह ली जाए कि जो-जो प्रकृति से बना है, वह-वह साकार है तो भी आत्मा निराकार ही सिद्ध होगी।
कुछ विद्वान् आत्मा के निराकार होने पर आक्षेप करते हैं कि निराकार परमात्मा निराकार आत्मा में कैसे रह सकता है ? जब साकार वस्तुएं एक देशीय होते हुए निराकार परमात्मा में रहती है तो एक देशीय निराकार आत्मा क्यों नहीं रह सकती ? अर्थात निराकार आत्मा एक देशीय है और एक देशीय पदार्थ निराकार परमेश्वर में रहता है, रह सकता है।
आत्मा और शक्ति (शरीर-नामरूप) अनादि है। जैसे परमेश्वर (ब्रह्म) और मूल प्रकृति (आद्य शक्ति) अनादि है, वैसे ही आत्मा भी अनादि है। इसका आदि प्रारंभ कहां से हुआ, यह कहा नहीं जा सकता। अनादि उसे कहते हैं जिसका कभी प्रारंभ न हुआ हो। जैसे परमेश्वर सदा से अनादि हैं, वैसे ही आत्मा भी सदा से अनादि है। आत्मा अल्पज्ञ है। परमेश्वर सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी, सबको जानने वाले हैं, आत्मा ऐसी नहीं है। आत्मा के पास जो ज्ञान है वह सब अन्य द्वारा प्राप्त है। परमेश्वर के सान्निध्य से आत्मा बहुत सारा शुद्ध ज्ञान प्राप्त करती है परन्तु फिर भी अल्पज्ञ ही रहती है।आत्मा एक देशीय है। परमात्मा सर्वव्यापक हैं, सर्वत्र विद्यमान हैं परन्तु आत्मा एक देशीय ही है।