' पुनर्जन्मवाद और कर्मवाद'
अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण के वचन अमृत तुल्य हैं। पिछली कक्षा में हम श्री रामकृष्ण एवं मास्टर महाशय के बीच चल रहे वार्तालाप पर चर्चा कर रहे थे। यहाँ भगवान श्री रामकृष्ण स्वयं सनातन धर्म के प्रमुख सिद्धांतों में से एक पुनर्जन्मवाद के सिद्धान्त के ऊपर चर्चा कर रहे हैं। प्रश्न उठ सकता है कि क्या पुनर्जन्म होने पर क्या यही शरीर प्राप्त होगा, जिस परिवार में अभी हैं, उसी परिवार में अगला जन्म भी होगा?
नहीं, अगला जन्म कहाँ और किस शरीर में होगा, वह हमारे कर्मों पर निर्भर करता है।
गीता के अनुसार जो भी नए कर्म और उनके संस्कार बनाते है वे सब केवल मानव योनी में ही बनाते है , पशु पक्षी आदि योनियों में नहीं , क्योंकि उनके पास श्रेय-प्रेय विवेक नहीं होता, इसलिये वे योनियाँ केवल कर्मफल के भोग के लिए है। इस कर्म प्रधान विश्व में केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसे विवेक-युक्त कर्म करने का अधिकार मिला है। इसलिये पुनर्जन्मवाद के साथ कर्मवाद (कर्मफल का सिद्धान्त) भी स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है।
हमें नैतिक अर्थात
चरित्रवान मनुष्य क्यों बनना चाहिये ? हमें
' BE AND MAKE ' आन्दोलन से जुड़ कर, स्वयं (मौलिक ) मनुष्य बनने के साथ साथ दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता क्यों करनी चाहिये ? हमें मन वचन कर्म से पवित्र क्यों बनना चाहिये ? स्वयं को निम्नयोनियों में जाने से बचाने के लिये, दूसरों की सहायता नहीं, स्वयं अपनी सहायता के लिये।
स्वयं अपनी ही सहायता करने के लिये, दूसरों पर एहसान करने के लिये नहीं ! क्योंकि यदि ऐसा न करें तो हमें ही कष्ट भुगतना होगा। क्योंकि कर्मफल के अनुसार ही पुनर्जन्म प्राप्त होता है। ऋषि दर्शन या भारतीय दर्शन के अनुसार भरतीय-दर्शन के अनुसार "आत्मा" अमर है। इसका कभी भी नाश नहीं होता। कर्मों के अनादि-प्रवाह के कारण आत्मा विभिन्न योनियों को धारण करता रहता है। अनेक जन्मों के संचित कर्म-फलों को एक साथ किसी एक योनि में भोगना संभव नहीं होता, इसलिए उसे बार-बार विभिन्न योनियों को धारण करना पड़ता है। अतः उसे एक-एक करके भोगना पड़ता है। इसी कारण जीव को बारम्बार जन्म-मृत्यु के चक्र में भ्रमण करते हुए विभिन्न योनियों को धारण करना पड़ता है।
कुल मिला कर भाग्य (पुनर्जन्म ) और कर्म ये दोनों एक दूसरे से जुड़े है। शर शय्या पर पड़े
भीष्म पितामह श्री कृष्ण जी से पूछते है कि अपने पिछले कुछ जन्मो में तो मैंने ऐसा कोई काम किया ही नहीं कि मुझे यह दारुण दुःख सहना पड़े ? तब
श्री कृष्ण जी ने उनके पिछले
७ वें जन्म का दृश्य उन्हें अपनी योगमाया से दिखाया, कि भीष्म एक राजा थे और जंगल में जा रहे थे। रास्ते में
एक सांप आ गया , तब
पितामह ने धनुष की नोक से उस सांप को पीछे उछाल दिया वह
सांप एक बबूल के पेंड पर जा गिरा। और
६ मास तक तडपता रहा , ६ मास बाद उसकी मृत्यु हुई। मतलब
भीष्म अपने पूर्व के ७ वें जन्म का फल भोग रहे थे । सार यह है कि
भाग्य (पुनर्जन्म) और कर्म का आपस में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। और
भाग्य से ही, किसी मनुष्य को इस जन्म में सुकर्म करने (महामण्डल के बनो
और बनाओ आंदोलन से जुड़ने) का अवसर प्राप्त होता है ! और किसी व्यक्ति के मन
में कुकर्म करने की इच्छा का जन्म होता है; ....और फिर
कर्मवाद का
सर्किल, ज्ञान प्राप्त होने तक चलता रहता है !
हमारे ऋषि त्रिकाल दर्शी थे, वे सूक्ष्म बातों को भी स्पष्ट रूप से देख
सकते थे। उन्होंने इन सिद्धांतों को कहीं पढ़कर नहीं लिख दिया है, गहराई से
कुछ मूलभुत प्रश्नों पर मन को एकाग्र करके इन सिद्धांतों आविष्कृत किया
है। उनके अनुसार कर्म तीन प्रकार के होते हैं,-१.संचित कर्म,२-प्राब्ध कर्म,३-क्रियमाण कर्म.
१. संचित कर्म : अनेक जन्मों के पाप-पुण्यों द्वारा वर्तमान तक अर्जित (एकुमुलेटेड) कर्म " संचित-कर्म" कहलाते हैं। जिस
पर अभी हमारा कोई कंट्रोल नहीं है, वे सब डिपॉज़िट हो चुके हैं । पहले बुद्ध भी सिद्धार्थ गौतम थे, जब उन्होंने सत्य का साक्षात्कार करके बुद्धत्व को प्राप्त कर लिया - अर्थात जब वे नोअर ऑफ़ ब्रह्म, या ब्रह्मविद् बन गए; तो उसके बाद भी जिस प्रकार वे गौतम के जीवन को याद कर
सकते
थे, उसी प्रकार अपने पिछले ५०० जन्मों को भी याद कर सकते थे। बुद्धत्त्व की
प्राप्ति के पूर्व बुद्ध ने कई जन्म लिए थे,बुद्ध विगत
जन्मों में अच्छे कर्म करते हुए अच्छे कर्मफल संचित करते आ रहे थे, पक्षी,
हाथी, फिर एक साधारण व्यक्ति का पुत्र भी बने थे। इन जन्मों की कथाएँ ' जातक
कथा' के नाम से प्रसिद्ध है। साँची के स्तूपों में, जिनका निर्माण तीसरी शताब्दी ई० पूर्व में हुआ था, जातक कथाएं अंकित हैं। अप्रत्यक्ष
रूप से इनमें से प्रत्येक कथा में महात्मा बुद्ध का एक संदेश छिपा है।
इनसे सिद्ध होता है कि प्राणी के सद्कार्य उसे किसी न किसी जन्म में अवश्य
ही बुद्ध बना देते हैं। प्रत्येक व्यक्ति बुद्ध बन सकता है। वह उस संभावना
को कैसे दिशा दे, यह भी बताती हैं ये कहानियां। बुद्ध ने कर्मों पर जोर
दिया है। इसलिए इन कहानियों में यह भी दिया गया है कि कौन से कर्म करने
योग्य हैं और किन्हें नहीं करना चाहिए।
यही बात श्रीरामकृष्ण भी अपने निकट आने वाले सभी शिष्यों से कहा करते थे,चाहे वह नरेन्द्रनाथ हों, या मास्टर महाशय हों। अब देखें कि श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हिन्दू लोग पृथ्वी पर ईश्वर का पूर्णावतार मानते हैं , इस प्रेम के सिद्धांत का पूर्ण विकास किस प्रकार किया हैं और हमें क्या उपदेश दिया हैं । उन्होेंने कहा हैं कि - ' मनुष्य को इस संसार में पद्मपत्र की तरह रहना चाहिए । पद्मपत्र जैसे पानी में रहकर भी उससे नहीं भीगता, उसी प्रकार मनुष्य को भी संसार में रहना चाहिए -- उसका हृदय ईश्वर में लगा रहे और हाथ कर्म में लगें रहें । '
स्वामी विवेकानन्द -" वेद कहते हैं कि आत्मा दिव्यस्वरूप हैं, वह केवल पंचभूतों के बन्धन में बँध गयी हैं और उन बन्धनों के टूटने पर वह अपने पूर्णत्व को प्राप्त कर लेगीं । इस अवस्था का नाम मुक्ति हैं, जिसका अर्थ हैं स्वाधीनता -- अपूर्णता के बन्धन से छुटकारा , जन्म-मृत्यु से छुटकारा । और यह बन्धन केवल ईश्वर की दया से ही टूट सकता हैं और वह दया पवित्र लोगों को ही प्राप्त होती हैं । अतएव पवित्रता ही उसके अनुग्रह की प्राप्ति का उपाय हैं। उसकी दया किस प्रकार काम करती हैं? वह पवित्र हृदय में अपने को प्रकाशित करता हैं । पवित्र और निर्मल मनुष्य इसी जीवल में ईश्वर दर्शन प्राप्त कर कृतार्थ हो जाता हैं । 'तब उसकी समस्त कुटिलता नष्ट हो जाती हैं, सारे सन्देह दूर हो जाते हैं ।' --मुण्डकोपनिषद् ॥२.२.८॥" "श्रीमद्भगवतगीता"
४/३७ में ज्ञान को कर्मफल समाप्त करने का महत्वपूर्ण साधन कहा गया है-
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा|
जैसे प्रज्वलित अग्नि इंधनों को भष्म कर देती है ,वैसे ही ज्ञान रुपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भष्म कर देता है|इस
ज्ञानाग्नि को प्रज्ज्वलित करने के लिए अनेक उपाय बताये गये हैं। जिस दिन
संचित कर्मों का भोग समाप्त हो जाता है तथा क्रियमाण-कर्म शुभ होता
है, उसी समय आत्मा बार-बार के आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाती है।
२. प्रारब्ध = प्रा = पूर्व, आरब्ध = अर्थात पूर्व संचित कर्म के जिस भाग को हमें
चाहे-अनचाहे भोगना ही पड़ता है, वह प्रारब्ध कहलाता है। संचित
कर्मों का ही एक भाग प्रारब्ध के रूप में हर जीव को भोगना पड़ता है। प्रारब्ध कर्म धनुष पर चढ़ा ऐसा तीर है- जो मनुष्य के हाथ से छूट चुका हैं। अब उसे आप रोक नहीं सकते , शुभ या
अशुभ जैसे भी कर्म हुए, वे हो चुके हैं। हम चाहकर भी वापस भूतकाल में नहीं
जा सकते जहां जाकर हम उनका सुधार कर सकें। जन्मजन्मांतर तक
कर्म अपने शुभाशुभ फल प्रदान करने के लिए जीव का पीछा करते रहते हैं। ज्ञानी
को भी प्रारब्ध भोग कर ही क्षय करना पड़ता है।
अपने संचित कर्मो में से जितने कर्मो का फल वर्त्तमान शरीर, जो भोगना आरम्भ कर देता है उसे "प्रारब्ध" अथवा "भाग्य" कहा जाता है। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " केवल इस कर्मवाद के सिद्धांत पर ही हमलोग प्रश्नो का उत्तर प्राप्त कर सकते हैं कि -
कुछ लोग जन्म से ही सुखी होते हैं और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द भोगते हैं, उन्हे सुन्दर शरीर , उत्साहपूर्ण मन और सभी आवश्यक सामग्रियाँ प्राप्त रहती हैं । दूसरे
कुछ लोग जन्म से ही दुःखी होते हैं, किसी के हाथ या पाँव नहीं होते , तो कोई मूर्ख होते हैं, और येन केन प्रकारेण अपने दुःखमय जीवन के दिन काटते हैं।
ऐसा क्यों ?
यदि सभी एक ही न्यायी और दयालु ईश्वर ने उत्पन्न किये हों , तो फिर उसने एक को सुखी और दुसरे को दुःखी क्यों बनाया ?
ईश्वर ऐसा पक्षपाती क्यों हैं ? फिर ऐसा मानने से बात नहीं सुधर सकती कि जो वर्तमान जीवन में दुःखी हैं, भावी जीवन में पूर्ण सुखी रहेंगे । न्यायी और दयालु ईश्वर के राज्य में मनुष्य इस जीवन में भी दुःखी क्यों रहे ? अतएव इस जन्म के पूर्व ऐसे कारण होने ही चाहिए, जिनके फलस्वरुप मनुष्य इस जन्म में सुखी या दुःखी हुआ करते हैं । और ये कारण हैं, उसके ही पुर्वनुष्ठित कर्म या प्रारब्ध कर्म।"
किन्तु हम अपने क्रियमाण कर्मों के द्वारा प्रारब्ध के प्रभाव को कुछ हद तक नियंत्रित अवश्य कर सकते हैं।
क्रियमाण-कर्म, अर्थात आदतों और प्रवृत्तियों का निर्माण पूर्णतः परिवर्तनशील होते
हैं। अपनी ज्ञान और पुरुषार्थ के बल पर उनमें व्यापक परिवर्तन किया जा सकता
है। इस प्रकार "प्रारब्ध" को अपने क्रियमाण शुभ-कर्मों द्वारा बदला जा सकता
है।
कैसे कर सकते हैं ? यह एक महत्वपूर्ण
प्रश्न है जिसका उचित उत्तर जानकर ही हम अपना वर्तमान जीवन सुखमय बना सकते
हैं। संचित कर्म तो संचित हैं उनका फल तो अभी भोगना शुरू भी नहीं हुआ है।
लेकिन प्रारब्ध कर्म का फल इस जीवन के प्रारंभ से ही मिलना शुरू हो जाता
है। अत: प्रारब्ध से मिलने वाले कर्मों के फल की कड़वाहट मिटाने और मधुरता
को बढ़ाने के लिए आज और अब ही कुछ किया जा सकता है।
३. क्रियमाण कर्म - वर्तमान मे जो कर्म हो रहा
है, वह क्रियमाण है। मनुष्य का
वर्तमान जीवन अति महत्वपूर्ण है और उससे भी महत्वपूर्ण है
केवल मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाला पुरुषार्थ अथवा क्रियमाण कर्म !
उनके संबंध में यदि हम कुछ कर सकते हैं तो
वर्तमान के क्रियमाण कर्म के रूप में। वर्त्तमान शरीर द्वारा होने वाले प्रत्येक पाप और पुण्यात्मक कर्मो को
"क्रियमाण-कर्म" कहते हैं। जन्म से मृत्यु के बीच का जो हमारा वर्तमान जीवन काल है, इस अवधि में
मिलने वाले दुखों से बचने के लिए हमें क्या करना चाहिए? हमें काम्यकर्म करना चाहिये, और निषिद्ध कर्मों से बचना चाहिये।
वेदांत में छह प्रकार के (क्रियमाण ) कर्म हैं-
१. काम्य कर्म, २. निषिद्ध कर्म ३. नित्य कर्म, ४. नैमितिक कर्म,५.
प्रायश्चित कर्म और ६. उपासना कर्म - 'BE AND MAKE' । इन कर्मो को करते करते, भगवान की कृपा से ज्ञान होने के बाद सारे कर्म भष्म हो जाते हैं और जीव का मनुष्य जन्म सफल हो जाता है। संत तुलसीदास जी ने मानस
अयोध्याकाण्ड २१९ /३-४|| में लिखा है-
जद्यपि सम नहि राग न रोषू | गहहि न पाप पूनु गुन दोषू ||
करम प्रधान बिस्व करि राखा| जो जस करहि सो तस फल चाखा||
अर्थात्,यद्यपि भगवान सम है,-उनमे न राग है,न रोष है|न ही वे किसी पाप-पुण्य और गुण-दोष ही ग्रहण करते हैं।
उन्होंने विश्व में कर्म को ही प्रधान कर रखा है। जो जैसा करता है ,वह वैसा ही फल भोगता है।
कर्म से ही भविष्य तय होता है, भाग्य तय होता
है।
इसीलिये सनातन धर्म में कर्म का बहुत महत्व है। कर्म किए बगैर गति नहीं। कर्म और
कर्तव्य से जो व्यक्ति मुँह मोड़ता है वह अधोगति को प्राप्त होता है।
श्रेष्ठ और निरंतर कर्म किए जाने या
सही दिशा (उपासना कर्म - 'BE AND MAKE' ) में सक्रिय बने रहने से ही
पुरुषार्थ फलित होता है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठता हैं -- क्या मनुष्य
कार्य-कारण की सततप्रवाही, निर्मम, भीषण तथा गर्जनशील धारा में पड़ा हुआ अशक्त, असहाय भग्न पोत हैं ? क्या वह उस कारणता के चक्र के नीचे पड़ा हुआ एक क्षुद्र शलभ हैं, जो विधवा के आँसुओं तथा अनाथ बालक की आहों की तनिक भी चिन्ता न करते हिए, अपने मार्ग में आनेवाली सभी वस्तुओं को कुचल डालता हैं ? इस प्रकार के विचार से अन्तःकरण काँप उठता हैं , पर
यही प्रकृति का नियम हैं । तो फिर क्या कोई आशा ही नहीं हैं ? क्या इससे बचने का कोई मार्ग नहीं हैं ?-- यही करुण पुकार निराशाविह्वल हृदय के अन्तस्तल से उपर उठी और उस करुणामय के सिंहासन तक जा पहुँची । वहाँ से
आशा तथा सान्त्वना की वाणी निकली और उसने एक वैदिक ऋषि को अन्तःस्फूर्ति प्रदान की, और
उसने संसार के सामने खड़े होकर तूर्यस्वर में इस आनन्द-सन्देश की घोषणा की :
' हे अमृत के पुत्रों! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो !
मैंने उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं,
जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है ।
केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो।
दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २.५, ३-८ ॥
'अमृत के पुत्रो ' -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन हैं यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम - अमृत के अधिकारी से - आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दे ।
निश्चय ही हिन्दू आपको पापी कहना अस्वीकार करता हैं । आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप बैं , वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं ।
आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं, न कि आप हैं जड़ के दास ।"
" अतः वेद ऐसी घोषणा नहीं करते कि यह सृष्टि - व्यापार कतिपय निर्मम विधानों का सघात हैं , और न यह कि वह कार्य-कारण की अनन्त कारा हैं ; वरन् वे यह घोषित करते हैं कि इन सब प्राकृतिक नियमों के मूल नें , जड़तत्त्व और शक्ति के प्रत्येक अणु-परमाणु में ओतप्रोत वही एक विराजमान हैं, ' जिसके आदेश से वायु चलती हैं, अग्नि दहकती हैं, बादल बरसते हैं और मृत्यु पृथ्वी पर नाचती हैं। ' -- कठोपनिषद् ॥२.३.३॥ और उस पुरुष का स्वरूप क्या हैं ? वह सर्वत्र हैं, शुद्ध, निराकार, सर्वशक्तिमान् हैं, सब पर उसकी पूर्ण दया हैं । "
" ये सभी बातें यदि स्वयंसिद्ध भी मान लें , तो
मैं अपने पूर्व जन्म की कोई बात स्मरण क्यों नहीं रख पाता ? इसका समाधान सरल हैं । मैं अभी अंग्रेजी बोल रहा हीँ । वह मेरी मातृ भाषा नहीं हैं । वस्तुतः इस समय मेरी मातृभाषा का कोई भी शब्द मेरे चित्त में उपस्थित नहीं हैं , पर उन शब्दों को सामने लोने का थोड़ा प्रयत्न करते ही वे मन में उमड़ आते हैं । इससे यही सिद्ध होता है कि चेतना मानससागर की सतह मात्र हैं और भीतर, उसकी गहराई में, हमारी समस्त अनुभवराशि संचित हैं । केवल प्रयत्न और उद्यम किजिए, वे सब ऊपर उठ आएँगे । और आप अपने पूर्व जन्मों का भी ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे ।.…यह प्रत्यक्ष एवं प्रतिपाद्य प्रमाण हैं । सत्यसाधन ही किसी परिकल्पना का पूर्ण प्रमाण होता हैं , और ऋषिगण यहाँ समस्त संसार को एक चुनौती दे रहे हैं । हमने उस
रहस्य का
(मनःसंयोग की पद्धति )
पता
लगा लिया हैं ,
जिससे स्मृतिसागर की गम्भीरतम गहराई तक मन्थन किया जा सकता हैं -- उसका प्रयोग कीजिए और आप अपने पूर्व जन्मों का सम्पूर्ण संस्मृति प्राप्त कर लेंगे ।"
बचपन से ही जीवन खेल के नियम को जानकर
बहुत सावधानी से खेलना होगा। आप कर्मसिद्धान्त, पुनर्जन्मवाद को माने या
नहीं, उसपर विश्वास करें या नहीं , विज्ञान के नियम जैसा वह सभी मनुष्यों
पर लागू होगा। जो व्यक्ति
किसी ऐसे धर्म-सिध्दांत में विश्वास रखते हैं जिसमें पुनर्जन्म की कोई
चर्चा नहीं है, उनके लिए तो वर्तमान जीवन और भी महत्वपूर्ण हो जाता
है। क्योंकि यही एकमात्र अवसर है जब मनुष्य को कर्म करने का मौका मिला है
और इन्हीं कर्मों का लेखा-जोखा देखकर मनुष्य को मरणोपरांत मिलने वाले
स्वर्ग-नरक का फैसला किया जाता है।
१.काम्य कर्म
(किसी मकसद से किया हुआ कार्य) कुछ लोग किसी खास उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही कर्म करते हैं। स्वर्ग क्या है, कहाँ है- जानते नहीं पर उसमें विश्वास करते हैं। इसलिये स्वर्गप्राप्ति की इच्छा से यज्ञ करते हैं, मंदिर या तालाब बनवाते हैं, दान-पुण्य आदि सद कर्म (धार्मिक अनुष्ठान ) करते हैं।
२. निषिद्ध
कर्म (नहीं करने योग्य कर्म)। प्रत्येक धर्म शास्त्र में कुछ निषिद्ध कार्यों को नहीं करने के लिये स्पष्ट रूप से (categorically) आदेश दिया गया है। किसी भी प्राणी को दुःख मत पहुँचाओ, डोन्ट हार्म अदर्स ! किन्तु कुछ लोग दूसरों को दुःखी करने , नुकसान पहुँचाने या मार देने तक की इच्छा से तंत्र-मंत्र का अनुष्ठान करवाते हैं। कोलकाता-दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों के
संडे एडिशन में ऐसे
'तांत्रिक बाबाओं ' का फूल पेज विज्ञापन भरा रहता है।
वे लोग अपने विज्ञापन में दावा करते हैं कि आप कोई भी काम करवाना चाहते हों, किसी व्यक्ति को अपने वश में करना चाहते हों, तो हमारे पास आइये,
वशीकरण,मारन-मोहन
-उच्चाटन के तांत्रिक अनुष्ठान से आपकी मनचाही वस्तु या व्यक्ति सात समुद्र पार कर, सात ताले तोड़कर भी आपके वश में चली आएगी। कोई व्यक्ति इन बाबाओं से कहता है, मेरा बॉस पहले मेरी बात मानते थे, अभी मेरी जगह पर एक दूसरा व्यक्ति आ
गया है, शायद उसने कुछ वशीकरण मंत्र कर दिया है। आप मेरी मदद कीजिये,
उस पर एक ऐसा
बाण मार दीजिए कि उसका यहाँ से बदली हो जाये, और मुझे फिर से उस विभाग का इंचार्ज बना दिया जाय! फिर कुछ मनुष्यों की मानसिकता ऐसी होती है कि मुझे कोई लाभ होता हो या नहीं किन्तु दूसरे का नुकसान जरूर हो जाय, ऐसा कुछ कार्य कर दीजिये कि न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी ! इसको ही मानव-राक्षस कहा जाता है।
यदि इस प्रकार के निषद्ध कर्म करोगे तो बुरे कर्मफल अवश्य संचित होते रहेंगे।
मुमुक्षु क्रो निषिद्ध कर्म नहीं करने चाहिए क्योंकि उनसे दुःख भोगना पड़ता है । उसे काम्य कर्मों का भी त्याग कर देना होता है, क्योंकि उनसे इहलोक और परलोक में सुख भोगना पड़ता है । जैसे पाप का फल भोग लेने पर जीव को पुनः संसार में जन्म लेना होता है, वैसे ही पुण्य का फल भोगने पर भी पुनर्जन्म ग्रहण करना होता है। लेकिन नित्य और नैमित्तिक कर्मों को उसे अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार करते रहना चाहिये।
३. नित्य कर्म (दैनिक कार्य), शास्त्रों में कुछ कार्यों को दैनन्दिन जीवन में अवश्य करने की आज्ञा (injunction) भी दी गयी है। स्नान, संध्या आदि जो हमेशा किए जाने वाले कर्म हैं उन्हें नित्यकर्म कहते हैं। इनके करने से कुछ विशेष फल अथवा अर्थ की सिद्धि नहीं होती, परन्तु न करने से दोष अवश्य लगता है।जैसे
महामण्डल में मनुष्य बनने के लिये
पाँच नित्य कर्म बताये गए हैं , जिनका अभ्यास हमें प्रतिदिन करना चाहिये। वे क्या हैं ?
प्रार्थना, मंसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग ।या जिसने
किसी
श्रीरामकृष्ण मार्गी सदगुरु से दीक्षा प्राप्त कर ली है, उसे गुरु के निर्देशानुसार दो बार जप ध्यान (या मनःसंयोग) करना होगा तथा यम-नियम का पालन और
विवेक-प्रयोग प्रतिमुहूर्त करते रहना होगा।
इसके अतिरिक्त कुछ सेवा-कार्य भी अवश्य करना चाहिये।पूर्वी भारत के ग्रामीण अंचलों में आज भी यह प्रथा है कि रोज काम पर निकलने से पहले, जरुरत मंदों या अभावग्रस्त लोगों के लिये १६ आना या अभी का १ रुपया अलग से निकाल कर ईश्वर के चरणों में अवश्य रख देना चाहिये। और उनसे प्रार्थना करनी चाहिये कि भगवान मैं बड़े बड़े सेवाकार्य नहीं कर सकता, मुझे पारिवारिक जिम्मेदारी उठाने के लिये व्यस्त रहना पड़ता है। इसीलिये मैं यह १ रुपया जमा कर रहा हूँ, ताकि बाद में किसी अच्छे कार्य में इसका व्यय कर सकूँ। एक रुपया कोई बड़ी चीज नहीं है, किन्तु इसी बहाने वह ईश्वर का स्मरण तो कर लेता है।
इसी प्रकार घर की गृहणी भी प्रतिदिन जो खाना पकाने के लिये चावल निकालती है, उसमें से एक मुट्ठी चावल अभावग्रस्त लोगों की सेवा के लिये अलग से निकाल कर रख देती है। घर के स्टोर से नहीं, रोज परिवार के सदस्यों के लिये जो खाना बनने वाला है, उसमें से बचा लेती है।
मुठिया-चावल निकाल कर जमा करते करते दो-तीन महीनों के बाद वे गृहणियाँ नजदीक के किसी आश्रम में जाकर उन्हें साधुओं की सेवा में अर्पित कर देतीं हैं। वे लोग इसे गरीबों को या सन्यासियों में बाँट देते हैं। जो लोग अन्य कोई साधना नहीं कर पाते, उनको भी यह नित्य-कर्म अवश्य करना चाहिये, वे ऐसा करना कभी नहीं भूलते। मुसलमान भी इसी लिये रोजा-नमाज के बाद
जकात को भी फर्ज मानते हैं, उसे याद रखते हैं । कोई दूसरा गरीब या जरूरतमंद व्यक्ति इससे लाभान्वित होगा यह
स्मरण रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है।
४. नैमित्तिक कर्म - परीक्षा में सर्वोत्तम अंक प्राप्त करने के लिए या नौकरी पाने के लिए किया जाने वाला काम नैमित्तिक कर्म है। जैसे वर्षा होने के लिए या पुत्रप्राप्ति के लिए, या पुत्र-पुत्री का विवाह हो जाय, इस इच्छा से यज्ञ करना। नैमित्तिक कर्म वे कहलाते है, जो किसी विशेष निमित्त को लेकर खास-खास अवसरों पर आवश्यकरूप से किये जाते है । जैसे पितृपक्ष ( आश्र्विन कृष्णपक्ष) में पितरो के लिए श्राद्ध किया जाता है। नैमित्तिक कर्मो को भी शास्त्रों में आवश्यक कर्तव्य बतलाया गया है। और उन्हें भी कर्तव्य रूप से बिना किसी फलासंधि के करने की आज्ञा दी गयी है; परन्तु उन्हें नित्य करने की आज्ञा नहीं दी है। यह नित्य और नैमित्तिक कर्मो के भेद है |
रामानुज के मतानुसार
नित्य एवं नैमित्तिक कर्मो को निष्काम भावना से करने के फलस्वरूप मानब के ह्रदय में भक्ति का संचार होता है ।
५. प्रायश्चित - प्रायश्चित का अर्थ तौबा है।
दंड और प्रायश्चित में भेद यह है कि अपने पाप का प्रायश्चित करनेवाले
व्यक्ति को पश्चाताप होता है । प्रायश्चित लेनेवाला व्यक्ति, अपनी
प्रतिज्ञा से बंधा होता है । वह अपनी प्रतिज्ञा का पूरी लगन से पालन करता
है, तदुपरांत सदाचारी बन जाता है ।
इसके विपरीत, केवल अपने अपराध
सबके सामने बताने से अथवा दंड भुगतने से कोई व्यक्ति अपनेआप को वैसी चूकें
दोहराने से रोक नहीं सकता । अपराधी व्यक्ति, जो अपने अपराध के लिए दंडित
होते हैं, उनमें अधिकांशतः अंत में कोई सुधार नहीं दिखता, क्योंकि ना तो
उन्हें पश्चाताप होता है और ना ही वे अपने अपराधी कृत्यों के भयानक
परिणामों के प्रति सर्तक हो पाते हैं ।
पश्चाताप में अपनी गलतियों को छिपाना नहीं होता है। गलतियों को छिपाने का
मतलब है बिखरे हुए बीजों को मिट्टी डालकर ढक देना, जो बाद में पेड़ बनकर
तमाम बीजों को जन्म देते हैं। प्रायश्चित करना सीधा-सीधा अपने दोषों को
स्वीकार करना है, अपने गलत कर्मो को अपनी अंतरात्मा के समक्ष मान लेना है।
प्रायश्चित कमजोरी का नहीं, साहस का परिणाम होता है। यह गलतियों के आगे
हथियार डालने नहीं, उन पर विजय प्राप्त करने का रास्ता है। चूंकि मनुष्य को कर्म करने का अधिकार मिला है, अत: वह प्रारब्धवश मिलने
वाले दुखों से छुटकारा पाने के लिए प्रायश्चित कर निज पूर्वकृत अशुभ कर्मों
का शुद्धिकरण भी कर सकता है।
भूलें होना मानवीय स्वभाव का एक अभिन्न अंग है, परन्तु भूलों के विषय में
सोच-सोचकर अपने व्यक्तित्व को कुंठित कर लेना किस भी दृष्टि से समझदारी
नहीं है। जब व्यक्ति को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि उसने यह कर्म गलत किया है या भूलवश हो गया है,तो इस बात की स्वीकारोक्ति ही कर्मफल के प्रभाव को समाप्त करने के लिए प्रयाप्त है। परन्तु यह स्वीकारोक्ति हृदय से होनी चाहिए,मात्र शब्दों से नहीं। भूलें हो जाने पर उनका प्रायश्चित कर लेने से मनुष्य के
व्यक्तित्व का संपूर्ण परिष्कार संभव है। यही एकमात्र माध्यम है-हमारी सोच
में स्थायी बदलाव लाने का। हमारे जीवन में कहीं राग है तो कहीं द्वेष होता है। चूक होने पर बुरा लगना और वह चूक पुन: न हो इसके लिए प्रयत्नशील रहना, यह मनुष्य का स्वभाव है ।
जब हमारा चित्त स्थिर होता है और विवेक जागता है। तभी हम सही मायने में अपनी भूलों को पहचान पाते हैं और पश्चात्ताप के भाव को समझ पाते हैं।
चूक होने पर एक छोटा बालक भी यह बात समझता है और क्षमा मांगना सीखता है । ऐसा कार्य जिसे पूर्ण करने के पश्चात किसी घटना से ऐहसास हो कि वह गलत था
लेकिन अब उस गलती के सुधारा नहीं जा सकता; तो उसका मन पर भार कम करने के
लिए किया गया शुभ कार्य प्रायश्चित कहलाता है। प्रायश्चित करने का मतलब
होता है, सीधा ३६० डिग्री पर पलटना या चलना। जिन्दगी है तो भूलें होती रहेंगी, गलतियां भी होंगी, लेकिन इन गलतियों और
भूलों को मन में बसा लेना इनका समाधान नहीं है। इनका समाधान प्रायश्चित है।
प्रायश्चित करने का सीधा मतलब है। अपने दोषों को खुले मन से स्वीकार करना, अपने गलत कर्मों को अपनी अंतरात्मा के समक्ष मान लेना।
प्रायश्चित कमजोरी का नहीं साहस का प्रतीक है। यह गलतियों के आगे हथियार डालने का नहीं, बल्कि उन पर विजय प्राप्त करने का मार्ग है। प्रायश्चित ऐसा कर्म है, जिससे मन में बदलाव और जाता है। हम अपनी गलतियों के लिए खेद अनुभव करते हैं। यह स्वीकार करते हैं कि हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। उस विशिष्ट कर्म को
प्रायश्चित या कर्म शुद्धिकरण भी कहा जाता है।
प्रायश्चित करने से हममें प्रेम व स्नेह के भाव पैदा होते हैं और हम सांसारिक वस्तुओं को छोड़कर सबसे व्यापक हितों की ओर मुडने लगते हैं। अतः आवश्यक है कि मात्र भूलों पर चिंतन करने के बजाय प्रायश्चित-प्रक्रिया को जीवन का अंग बना लिया जाए।
इसके अतिरिक्त अपने वर्त्तमान जन्म के शुभ-कर्म रूपी पुरुषार्थ द्वारा
अपने अगले जन्म के लिए श्रेष्ठ प्रारब्ध का निर्माण भी किया जा सकता है। यदि
हमारी अन्तरात्मा कचोटती हो, कि मुझसे कुछ अपराध या बुरे कर्म हो गए हैं,
तो उसके लिए प्रायश्चित करना। गंगा स्नान, दान, तीर्थ भ्रमण,डंडी
काटना- कुछ लोग गंगा स्नान करके मंदिर तक की दूरी २-४ कि.मी, स्वयं को एक डंडा के जैसा धरती पर गिराते हुए, तय करते हैं। यह बहुत कष्टदायक होता है, फिर भी बहुत से लोग ऐसा करते हैं। ऐसा करने से उनका मन शांत हो जाता है।
रत्नाकर डाकू ने नारद ऋषि
की आज्ञा से अपने पापों का प्रायश्चित किया था। और दस्यु रत्नाकर उल्टा नाम जपकर भी
ऋषि बाल्मीकि बन गया । कोई व्यक्ति माँ सारदा के पास जाकर पूछता है माँ, मैं इतना जप करता हूँ, फिर भी
मेरे अंगूठे का टेंडन
टियर क्यों हुआ ? माँ ने कहा , बच्चे तुम प्लेटफॉर्म पर गिरे थे? तुम्हारा तो हाथ ही कटना था, पर तुम जप
करते थे, इसलिए उतना ही होकर रह गया । इसलिये यदि सचमुच हमलोग भगवान के अवतार में विश्वास करते हैं, और उनका नाम जपते हैं, तो संचित और प्रारब्ध कर्म को भी काबू में किया जा सकता है। संचित कर्म का मतलब पूर्वजन्मों के कर्म, प्रारब्ध का मतलब वर्तमान जीवन के कर्म से
आगामी कर्म अर्थात भविष्य में मिलने वाले कर्मफल को भी नियंत्रित कर सकते हैं।
६. उपासना कर्म - 'BE AND MAKE' ! (बिना किसी स्वार्थ के किया हुआ कार्य), स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " एक विशेष प्रवृत्तिवाली जीवात्मा
' योग्यं योग्येन युज्यते ' इस
नियमानुसार उसी शरीर में जन्म ग्रहण करती है, जो उस प्रवृत्ति के प्रकट
करने के लिए सब से उपयुक्त आधार हो ।
यह विज्ञानसंगत है, क्योंकि
विज्ञान हर
प्रवृत्ति की व्याख्या आदत से करना चाहता है, और आदत की
आवृत्तियों से-अर्थात एक ही कार्य को पुनः पुनः दुहराते रहने से आदत बनती
है, और आदत ही परिपक्व होकर प्रवृत्ति बन जाती है । अतएव
नवजात जीवात्मा की नैसर्गिक आदतों की व्याख्या के लिए
प्रवृत्ति-निर्माण
की प्रक्रिया को समझना अनिवार्य
हो जाता है । और चूँकि वे प्रस्तुत जीवन में प्राप्त नहीं होती, अतः वे
पिछले जीवनों से ही आयी होंगी । "
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " यू आर द मेकर ऑफ़ युओर ओन डेस्टिनी ! -
तुम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता
हो ! " परमात्माका द्वारा रचित
कर्मवाद का विधान एक
प्रकार का खेल है, (दैट इज द बीयूटी ऑफ़ नेचर ) वह हमारे
कर्मों का नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये बनाया गया है । इस खेल में
विजयी होने के लिये हमें अपने मन-वचन-कर्मों को करने के पहले बहुत सावधान
रहना होगा। पहले विवेक-प्रयोग करने के बाद ही किसी कार्य की आदत बनानी
होगी। क्योंकि आदत से प्रवृति (प्रोपेन्सिटी) बनती है, और उस रुझान के
अनुसार ही हमलोग न चाहते हुए भी बहुत से कार्य बाध्य होकर कर बैठते हैं।
इसीलिए बचपन से ही हम लोग सद-असद विवेक करके केवल सद्कर्मों को करने
प्रशिक्षण लेकर, पवित्र कर्मों को करने की आदत बना ले, तो यह हमारे भावी
जीवन को सफल बनाने में बहुत सहायक सिद्ध होगा। क्योंकि
कर्मवाद या ' ' कैरेक्टर इज बंडल ऑफ़ हैबिट्स' के सिद्धांत को आप स्वीकार करते हों या नहीं, इस सिद्धांत पर विश्वास करते हों या नहीं, यह एक प्राकृतिक नियम है जो,
न्यूटन के लॉ ऑफ़ ग्रैभिटेशन के सामान हर जगह लागु होता है।
इसीलिए
गीता में कहा गया है कि जो भी कर्म करो परमात्मा के निमित्त करो|इन्द्रियों
के सुख भी अगर प्राप्त करने हैं तो उसे यह मानकर भोगें कि यह सब गुण ही
गुण में कार्य कर रहे है|उन सुखों के प्रति आसक्ति का भाव न रखे।
कोई कहे मैं स्वयं किसी को नुकसान नहीं पहुँचता, किन्तु दूसरों को
वैसा
करने के लिये प्रेरित करता हूँ, तो क्या होगा ? तुम भले शरीर के स्तर पर
किसी का बुरा नहीं कर रहे हो, पर मन में किसी का बुरा सोच रहे हो, तो उसका
भी फल मिलेगा। इसलिये मन में उठने वाले विचारों के ऊपर बहुत सतर्क दृष्टि
रखनी होगी, उन्हें अपने नियंत्रण में रखना होगा। अपने अपने वचनों और
व्यवहार (कार्यकलाप) को भी नियंत्रित रखना होगा।
मन-वचन कर्म पर पूर्ण
नियंत्रण कैसे रखा जा सकता है ? उपाय क्या है ? भगवान श्रीरामकृष्ण इसका बहुत सरल उपाय
बताते हुए कहते हैं, " विवेक-प्रयोग द्वारा मन में सदा पवित्र विचारों को रखने का अभ्यास करो
!" इसीलिये मनःसंयोग की कक्षा में यम-नियम-आसन के साथ प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास पर बल दिया जाता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए संत कबीर
कहते हैं ,
' काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब ॥'
कल
के सारे काम आज कर लो, और आज के अभी, क्योंकि समय का कोई भरोसा नहीं, पता
नहीं कब प्रलय हो जाये | इसलिये शुभ काम को कल पर मत टालो, फौरन कर डालो |
वेदों में
कहा गया है कि
समय तुमको बदले इससे पूर्व तुम ही स्वयं को बदल लो- यही कर्म
का मूल सिद्धांत है। अन्यथा फिर तुम्हें प्रकृति या दूसरों के अनुसार ही
जीवन जीना होगा।
द्वैतवाद का वेदान्ती एक और बात कहता है — आप को यदि कुछ माँगना हो तो उसे देवताओं से माँगो। इसके लिये परमात्मा को कष्ट मत दो। परमात्मा को केवल प्रेम करना है। कुछ माँगना हो, तो देवताओं की पूजा करो, और मुक्ति चाहिए हो तो परमात्मा की पूजा करो। इन सब बातों को मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है, पर यह द्वैतवाद कुछ प्रश्न उत्पन्न करता है —
परमात्मा यदि दयालु है तो संसार में इतने दुख क्यों हैं? परमात्मा यदि कल्याणकारी है तो संसार में इतने त्रास क्यों हैं? परमात्मा यदि अच्छा ही है तो संसार में इतनी बुराई क्यों है?
जो लोग ईसाई धर्म से परिचित हैं, वे जानते हैं कि
ईसाई धर्म में सारी बुराइयों के लिये शैतान (satan) को जिम्मेवार ठहराया गया है। ईसाई धर्म कहता है कि परमात्मा तो सुन्दर है, दयालु है, कल्याणकारी है, किन्तु शैतान उस के कामों में विघ्न डालता है। मनुष्य शैतान के बहकावे में आकर परमात्मा को भूल जाते हैं जिसके कारण वे दुख पाते हैं।
पर, हिन्दू धर्म में शैतान की कोई परिकल्पना (concept) नहीं है। हिन्दुओं में दुख और बुराई का सारा दोष मनुष्य पर डाल दिया गया है। हिन्दू कहते हैं —सब हमारे अपने कर्मों का फल है। हम जो आज करेंगे, कल वही पायेंगे। कल जो करेंगे, उसका फल परसों मिलेगा। इस प्रकार से हमारा भविष्य आज के कर्मों का ही प्रक्षेपण (projection) होगा। ठीक इसी तरह से हम भूत काल में जाते हैं। आज का दुख हमारे पिछले कर्मों का फल है — इसके लिये कुछ नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार हम अनन्त जीवन को टुकड़ों में बाँटते हैं, फिर समझाते हुए कहते हैं — हम स्वयं ही अपनी नियति के लिये जिम्मेवार हैं, कोई दूसरा नहीं। सारी बुराई हमारे द्वारा ही निर्मित होती है। अपने बुरे कर्मों के कारण ही हम दुख पाते हैं। इस में परमात्मा का कोई दोष नहीं है — वह तो शाश्वत रूप से कृपालु है, दयालु है, पिता है।
अब प्रश्न उठता है —
यदि हमारी नियति के लिये हम स्वयं ही जिम्मेवार हैं तो फिर परमात्मा की क्या भूमिका है? फिर उसके कृपालु होने का क्या मतलब है? उसके दयालु होने का क्या अर्थ है? फिर वह कल्याणकारी क्यों कहलाता है?
द्वैतवाद से इसका उत्तर पाना कठिन हो जाता है। विशिष्ट अद्वैत का वेदान्ती कहता है —
कर्म (कारण) और फल (परिणाम) अलग नहीं हैं। फल कर्म का ही दूसरा पहलू है — परिणाम कारण का ही दूसरा रूप है। यदि सृष्टि परिणाम है तो परमात्मा उसका कारण है। वह ही सृजनहार है और वह ही आकाश (material) है जिस से सारी प्रकृति निकली है। जैसे मकड़ी अपने ही शरीर से धागा निकालते हुए बुनती है, वैस ही सृष्टा ने सृष्टि की रचना की है।विशिष्ट अद्वैतवाद का परमात्मा भी सगुण होता है। वह सर्वत्र होता है, सब में होता है और वह भी सारे सद्गुणों का भण्डार होता है।
लेकिन यह सिद्धान्त (theory) भी दुविधा उत्पन्न करती है। क्यों? क्योंकि सृष्टि और सृष्टा में तो कोई मेल ही नहीं नजर आता। यदि परिणाम कारण की ही प्रस्तुति है तो फिर सृष्टि के गुण-धर्म सृष्टा के गुण-धर्म के अनरूप होने चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। देखिये जरा —परमात्मा अनन्त चेतना है — संसार में जडता है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है — जीवात्मा निर्बल है। परमात्मा निर्मल है — हम पर मैल चढ़ी हुई है। परमात्मा दिव्य है — मनुष्य अपने को मरणधर्मा शरीर मात्र समझता है। परमात्मा अनन्त सुख का भण्डार है — संसार दुखों से भरा पड़ा है।परमात्मा पूर्ण है — सृष्टि में अपूर्णता है।परमात्मा सर्वज्ञ है — जीव अल्पज्ञ है। सृष्टा और सृष्टि की भिन्नता को समझाने के लिये विशिष्ट अद्वैतवाद इस प्रकार का स्पष्टीकरण देता है —परमात्मा, आत्मा और प्रकृति अलग-अलग हैं तो क्या हुआ, इन तीनों का अस्तित्व तो एक साथ होता है। सनातन काल से ही ये तीनों एक साथ रहते आये हैं। परमात्मा ही भौतिक सृष्टि का कारण है। जीवात्मा और प्रकृति परमात्मा का ही अंश हैं। जिस प्रकार दधकती आग में से निकली लाशों चिनगारियाँ उसी आग का अंश होती हैं, इसी प्रकार सारी जीवात्माएँ अलग-अलग होते हुए भी परमात्मा का ही अंश हैं। इसीलिये भगवान कृष्ण कहते हैं — जीवात्मा मेरा ही अंश है, सनातन अंश है।
विशिष्ट अद्वैती कहता है कि सभी जीव ईश्वर के अंश हैं — सनातन काल से ही। हमारी आत्मा परमात्मा का शरीर है। आत्मा देह है, परमात्मा उसका दैही है। और, जिस प्रकार शरीर आते जाते हैं, पर आत्मा वहीं की वहीं होती है, इसी प्रकार जीवात्मा और प्रकृति के आने जाने से परमात्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता। सृष्टि में होने वाले परिवर्तनों से परमात्मा पर कोई असर नहीं पड़ता।
संत तुलसीदास जी कहते हैं जीव न केवल परमात्मा का अंश है, बल्कि उसके गुण-धर्म भी वही हैं जो परमात्मा के हैं। यह बात शिवजी ने पार्वती को बताई थी। रामचरित मानस में तुलसीदास जी इसे समझा रहे हैं अपनी उस कथा में जिसे काक भुसण्डी गरुड़ जी को सुनाते हैं —
सुनहु तात यह अकथ कहानी। समुझत बनई न जाई बखानी।।
ईश्वर अंस जीव अविनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी।।
हे तात! यह अकथनीय कहानी सुनिये। यह बात बस समझते ही बनती है, इसे कहा नहीं जा सकता। (वह बात है—) जीव ईश्वर का अंश है। इसीलिए उसमें चेतना है, इसलिये वह अविनाशी है, इसीलिए वह निर्मल है और इसीलिए वह स्वभाव से ही सुख की राशि है।
अद्वैतवाद का सिद्धान्त है —हम, आप और यह सारी सृष्टि एक ही हैं। प्रकृति हम से अलग नहीं है, सृष्टि हम से अलग नहीं है, सृष्टा हम से अलग नहीं है। जो सृष्टा है, वही सृष्टि है। शंकराचार्य को वेदान्त-दर्शन का सम्राट माना जाता है। अपने अद्वैतवाद के लिये प्रसिद्ध कुशाग्र तर्क-शास्त्री शंकराचार्य कहते हैं —
“ब्रह्म एक है.. ब्रह्म निर्गुण है.. विभिन्न आकारों वाली माया हमारा ध्यान ब्रह्म की अविभाजितता से हटाती है.... सगुणता माया है... सारे विरोधी गुणधर्म माया हैं... यह तो उस ब्रह्म का चमत्कार है जो एक होते हुए भी अनेक रूपों में नजर आता है... “एक तिनके से लेकर प्रत्यक्ष रूप में नजर आने वाले सारे देवी-देवता माया के अन्तर्गत आते हैं।”
अद्वैतवाद कहता है — अन्ततः सब एक है। गहराई में जाकर सब एक हो जाता है — आत्मा, प्रकृति, परमात्मा, ब्रह्म। जो विशुद्ध चेतना है, वह ही माया है। जो प्राण है, वह ही आकाश है। जो ऊर्जा है, वह ही पदार्थ है।
कितने आश्चर्य की बात है! आज विज्ञान भी यही कह रहा है — जो आकाश (matter) है, वह ही प्राण (energy) है। जो ऊर्जा है वही पदार्थ है। इतना ही नहीं, विज्ञान ने इन दोनों के सम्बन्ध को जोडने वाला समीकरण भी हमें दिया है। आइन्स्टीन ने अपने इसी समीकरण (E=mc2)के लिये ही तो इतनी ख्याति पाई है।
अद्वैतवाद की परिधारणा (concept) मानव-बुद्धि की पराकाष्ठा पर पहुँचती है और फिर उस के बाहर (परे) निकल जाती है। क्योंकि परमात्मा बुद्धि से नहीं जाना जा सकता, इसलिये बुद्धि से परे जाना आवश्यक हो जाता है। यह काम कठिन है, दुरूह है और साधारण जनता की समझ के बाहर है। इसीलिये भारत में जन्मी अद्वैतवाद की परिधारणा इतने वर्षों के बाद भी आम जनता तक नहीं पहुँच पाई।
लेकिन आप आम जनता नहीं हैं। आप साधारण लोग नहीं हैं। आप पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं, विज्ञान की आधुनिक परिकल्पनाओं (theories) से भी परिचित हैं। आप अद्वैतवाद की परिधारणा पर विचार कर सकते हैं। इसीलिये अद्वैतवाद के अद्वितीय सिद्धान्त को आपके समक्ष प्रस्तुत करने में हमें संकोच नहीं है। हमें विश्वास है कि हमारे उपनिषदों के ऋषियों की तपस्या-फल से आप लाभान्वित हो सकते हैं।
पातञ्जलयोगदर्शन के द्वितीय पाद में पतंजलि ने हमें बतलाया है
:“अविद्या, अस्मिता,राग,द्वेष और अभिनिवेश – ये पाँच क्लेश हैं” (२/३ )दुःख
का मूल कारण है अविद्या और यही अन्य क्लेशों का श्रोत है | यहाँ पर
अविद्या से सामान्य अज्ञान या विद्या का अभाव नहीं बल्कि अपनी सही पहचान से
वंचित रहना है | अपने वास्तविकता को न पहचान पाने के कारण ही हम बोल
बैठते हैं “मैं थक गया हूँ”, “मैं परेशान हूँ”, “मैं गुस्से में हूँ” |
जबकि सच्चाई ये है कि “मेरा शरीर थक गया है” अथवा “मेरा मन चिंताग्रस्त है”
| अपना वास्तविक परिचय या अपनी आत्मा को न जान पाना ही मानवता के दुखों का
मूल कारण है | आत्मा चिरस्थायी शाक्षी है | आत्मा अपरिवर्तनशील है, यही
अनन्त आत्मा नाना रूपों में गतिशील होते हुए भी शुद्ध और निर्लिप्त द्रष्टा
है जो सब में व्याप्त है | बाकी सब कुछ अस्थायी और परिवर्तनशील है | अगर
हम अनित्य से चिपके रहेंगे तो दुःख को तो आना ही है |
में लिखा है‒‘सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः’ (२/१३) अर्थात् पहले किये हुए कर्मोंके फलसे जन्म, आयु और भोग होता है ।
सुख-दुःख भोगने का तातपर्य क्या है ? जब
यह पुरुष (आत्मा ) प्रकृति (शरीर-मन ) के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब
प्रकृति की क्रिया पुरुष का "कर्म " बन जाती है।
क्योंकि प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से तादात्म्य हो जाता है, तादात्म्य
होने से जो प्राकृत वस्तुए प्राप्त है , उनमे आसक्ति ( ममता ) होती है।
और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है ... इस प्रकार जब तक
कामना , ममता , और तादात्म्य रहता है , तब तक जो कुछ भी परिवर्तन रूप
क्रिया होती है उसका नाम ही " कर्म" है। योगी विवेक और वैराग्य के अभ्यास
से अतिक्रमण कर अपनी चेतना को पुनः विस्तृत कर सकता है | “मैं दुखी हूँ” के
सोचने के जगह अपने दुःख को साक्षी भाव से देखते हुए इस दुःख के निवारण
अथवा सुख् के प्राप्ति के लिये आवश्यक कर्म करते रहें
‘अनुकूलवेदनीयं
सुखम्’, ‘प्रतिकूलवेदनीयं दुःखम्’ और ‘सुखदुःख अन्यतरः साक्षात्कारो भोगः’
अथात् सुखदायी और दुःखदायी परिस्थिति सामने आ जाय और उस परिस्थितिका अनुभव
हो जाय, उसमें
अनुकूल-प्रतिकूलकी मान्यता हो जाय, इस
का नाम ‘भोग’ है ।
हम जो सुखी-दुःखी होते हैं, वास्तव में हमारे ही द्वारा पूर्व जन्मों किये
गए कर्मों का फल है, यह हमारी ही गलती है । इसमें गलती क्या है ?
लक्ष्मणजीने
अध्यात्मरामायण में निषादराज गुहसे कहा है‒
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता, परो ददातीति कुबुद्धिरेषा ।
अहं करोमीति वृथाभिमानः स्वकर्मसूत्रे ग्रथितो हि लोकः ॥ (२/६/६)
‘सुख-दुःखको
देनेवाला दूसरा कोई नहीं है । दूसरा सुख-दुःख देता है‒यह समझना कुबुद्धि
है । मैं करता हूँ‒यह वृथा अभिमान है । सब लोग अपने-अपने कर्मोंकी डोरीसे
बँधे हुए हैं ।’ यही बात तुलसीकृत रामायणमें भी आयी है‒
काहु न कोउ सुख दुख कर दाता ।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता ॥
(मानस २/९२/२)
कर्मवाद
का सिद्धांत - "सुख-दुःख देनेवाला दूसरा कोई नहीं है" ‒हमारे सनातन धर्म
का विशिष्ट सिद्धांत है। दूसरा दुःख देता है‒यह कुबुद्धि है, कुत्सित
बुद्धि है, खोटी बुद्धि है । अमुक आदमीने मेरेको दुःख दे दिया‒यह
सिद्धान्तकी दृष्टिसे गलत है।आपने अच्छा काम किया है तो सुखदायी परिस्थिति
आपके सामने आयेगी और बुरा काम किया है तो दुःखदायी परिस्थिति आपके सामने
आयेगी । यह तो है कर्मोंकी बात । अब परिस्थितिको लेकर सुखी-दुःखी होना केवल
मूर्खता है । वह
परमात्माका द्वारा रचित कर्मवाद का विधान है, जो हमारे
कर्मोंका नाश करके हमें शुद्ध करनेके लिये हुआ है ।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " यहाँ पर मैं खड़ा हूँ और अपनी आँखें बन्द करके यदि अपने अस्तित्व --
'मैं', 'मैं', 'मैं' को समझने का प्रयत्न करूँ , तो मुझमे किस भाव का उदय
होता हैं ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ । तो क्या मैं भौतिक पदार्थों के
संघात के सिवा और कुछ नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा हैं -- 'नहीं, मैं शरीर
में रहने वाली आत्मा हूँ , मैं शरीर नहीं हूँ । शरीर मर जाएगा, पर मैं नहीं
मरूँगा । मैं इस शरीर में विद्यमान हूँ और इस शरीर का पतन होगा, तब भी मैं
विद्यमान रहूँगा ही । मेरा एक अतीत भी हैं ।' आत्मा की सृष्टि नहीं हुई
हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न द्रव्यों का संघात, और इस
संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं । अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ,
तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए । "
" अतएव मनुष्य की आत्मा अनादि और
अमर हैं, पूर्ण और अनन्त हैं, और मृत्यु का अर्थ हैं -- एक शरीर से दूसरे
शरीर में केवल केन्द्र-परिवर्तन । वर्तमान अवस्था हमारे पूर्वानुष्ठित
कर्मों द्वारा निश्चित होती हैं और भविष्य, वर्तमान कर्मों द्वारा । आत्मा
जन्म और मृत्यु के चक्र में लगातार घूमती हुई कभी ऊपर विकास करती हैं, कभी
प्रत्यागमन करती हैं । "
"
अतएव हिन्दू का यह विश्वास हैं कि वह आत्मा हैं । ' उसको शस्त्र काट नहीं
सकते, अग्नि दग्ध नहीं कर सकती, जल भीगो नहीं सकता और वायु सुखा नही सकती ।
' -- गीता ॥२.२३॥ हिन्दुओं की यह धारणा हैं कि आत्मा एक ऐसा वृत्त हैं
जिसकी कोई परिधि नहीं हैं, किन्तु जिसका केन्द्र शरीर में अवस्थित हैं; और
मृत्यु का अर्थ हैं, इस केन्द्र का एक शरीर से दूसरे शरीर में स्थानान्तरित
हो जाना । यह आत्मा जड़ की उपाधियों से बद्ध नहीं हैं । वह स्वरूपतः
नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं । परन्तु किसी कारण से वह अपने को जड़
से बँधी हुई पाती हैं , और अपने को जड़ ही समझती हैं ।"
" जब आत्मा पूर्ण
और निरपेक्ष हो जाती हैं, और वह ईश्वर के केवल अपने स्वरूप की पूर्णता,
सत्यता और सत्ता के रूप में -- परम् सत्, परम् चित्, परम् आनन्द के रूप में
प्रत्यक्ष करती हैं। इसी साक्षात्कार के विषय में हम बारम्बार पढ़ा करते
हैं कि
क्या उसमें मनुष्य अपने व्यक्तित्व को खोकर जड़ता प्राप्त करता हैं
या पत्थर के समान बन जाता हैं ?
'जिन्हें चोट कभी नहीं लगी हैं, वे ही चोट
के दाग की ओर हँसी की दृष्टि से देखते हैं ।'
मैं आपको बताता हूँ कि ऐसी
कोई बात नहीं होती । यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनन्द होता
हैं, तो दो शरीरों की चेतना का आनन्द अधिक होना ताहिए ,और उसी प्रकार
क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनन्द की मात्रा भी अधिकाधिक बढ़नी
चाहिए, और विश्वचेतना का बोध होने पर आनन्द की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी
। अतः उस असीम विश्वव्यक्तित्व की प्राप्ति के लिए इस कारास्वरूप
दुःखमय क्षुद्र व्यक्तित्व का अन्त होना ही चाहिए । जब मैं प्राण स्वरूप से
एक हो जाऊँगा , तभी मृत्यु के हाथ से मेरा छुटकारा हो सकता हैं; जब मैं
आनन्दस्वरूप हो जाऊँगा, तभी दुःख का अन्त हो सकता हैं; जब मैं ज्ञानस्वरूप
हो जाऊँगा, तभी सब अज्ञान का अन्त हो सकता हैं, और यह अनिवार्य वैज्ञानिक
निष्कर्ष भी हैं । विज्ञान ने मेरे निकट यह सिद्ध कर दिया हैं कि
हमारा यह भौतिक व्यक्तित्व भ्रम मात्र हैं, वास्तव
में मेरा यह 'शरीर' एक अविच्छन्न जड़सागर में एक क्षुद्र सदा परिवर्तित
होता रहने वाला पिण्ड हैं ,और मेरे दूसरे पक्ष-'आत्मा' -- के सम्बन्ध में
अद्वैत ही अनिवार्य निष्कर्ष हैं।"
श्रीरामकृष्ण वचनामृत जिसे पंचम वेद भी कहा जाता है, के इन दो पृष्ठों में हम
सनातन धर्म के गहरे दर्शन की झलक देख सकते हैं। वे क्या हैं ? एक है पुनर्जन्मवाद का सिद्धांत और दूसरा है, कर्मवाद (चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया) का सिद्धांत-
' करम प्रधान बिस्व करि राखा।जो जस करहि सो तस फल चाखा।। ' यदि तुम अच्छे कर्म करोगे तो अच्छा फल मिलेगा बुरे कर्म करोगे तो बुरा फल मिलेगा। कभी कभी लोग पूछते हैं, मैं हमेशा अच्छे कर्म ही करता हूँ, फिर भी मुझे इतना कष्ट क्यों भुगतना पड़ता है ? और अमुक आदमी बुरे कर्म करता है, फिर भी सुख से रहता है ! ऐसा अन्याय क्यों है ? यहाँ हम उत्तर पाते हैं, यह उसका प्रारब्ध जिसे वह भोग रहा है, किन्तु अभी अपने खाते में वह बुरे फल संचित कर रहा है, और तुम्हारे खाते में अभी अच्छे फल संचित हो रहे है। यदि तुम ईश्वर की कृपा से अगले जन्म में इस जन्म का स्मरण कर सको, तो देखोगे उसे कितना कष्ट उठाना पड़ रहा है, और तुम्हारा जीवन सुखपूर्वक बीत रहा है ! अतः हमलोगों को सदैव संचित, प्रारब्ध और आगामी कर्मों के बारे में सतर्क रहना चाहिये।
म ठाकुर वार्तालाप के प्रथम भाग में हम देखते हैं - श्रीरामकृष्ण उनसे दो प्रश्न पूछते हैं -
' तुम्हारा विवाह हुआ है? तुम्हारे लड़के बच्चे हैं ? ' म उत्तर देते हैं - जी हाँ । इस उत्तर पर ठाकुर की
प्रतिक्रिया होती है - ' अरे रामलाल! अरे अपना विवाह तो इसने कर डाला ! मास्टर घोर अपराधी जैसा सिर नीचा किये चुपचाप बैठे रहे। सोचने लगे विवाह करना क्या इतना बड़ा अपराध है ? श्रीरामकृष्ण ने फिर पूछा - "क्या तुम्हारे लड़के-बच्चे भी हैं ? " मास्टर का कलेजा काँप उठा। डरते हुए बोले - ' जी हाँ, लड़के-बच्चे हुए हैं । ' श्रीरामकृष्ण ने फिर दुःख के साथ कहा -'अरे लड़के भी हो गए !'
ऐसा उन्होंने क्यों
कहा ? श्रीरामकृष्ण मास्टर को देखते ही पहचान लेते हैं कि पास्टलाइफ में इसके कर्म बड़े पवित्र थे, यदि यह पारिवारिक जिम्मेदारी
से छूट जाये तो जगत का भला कर सकता था ?
इस तरह तिरष्कृत होकर मास्टर चुपचाप बैठे रहे। उनका अहंकार चूर्ण होने लगा। कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण
सस्नेह कहने लगे- ' देखो, तुम्हारे लक्षण अच्छे हैं , यह सब मैं किसी के कपाल, ऑंखें आदि को देखते ही जान लेता हूँ । अब श्रीरामकृष्ण उनसे तीसरा प्रश्न पूछते हैं - अच्छा तुम्हारी स्त्री कैसी है - नहीं
पूछते; पूछते हैं-
तोमार परिवार केमन ? विद्याशक्ति है या अविद्या शक्ति ?
यदि हम परिवार को अंग्रेजी में ट्रांसलेट करें तो उसका अर्थ होगा फैमिली ! ठाकुर ऐसा क्यों पूछे ? क्योंकि स्त्री को ही केन्द्र बनाकर पूरा परिवार गठित होता है। इसीलिये मनुमहाराज ने भी
कहा था लड़कियों को बहुत अच्छा प्रशिक्षण देना चाहिये। किसी छात्र से पूछा गया तुम्हारे पिता क्या करते हैं ? उसने बताया वे किसी कम्पनी के मार्केटिंग मैनेजर हैं, उससे पूछा गया तुम्हारी माँ क्या करती हैं? वे कुछ नहीं करतीं केवल घर के कुछ कार्य करती हैं । बाजार से सब्जी आदि लाती हैं, और रसोई बनाती हैं। पड़ोसियों
के साथ और रिश्तेदारों साथ मधुर संबंध रखने में पी.आर. ऑफिसर का भी कार्य करती है, कोई व्यक्ति कटु व्यवहार करता है तो उसे शांत भी करती है ।तुम्हारी पढाई-फ़ीस आदि पर कौन ध्यान रखता है ? इतना सब करने पर भी हम समझते हैं, वे कुछ नहीं करतीं ? पिता तो केवल किसी कम्पनी के लिये अच्छे रॉ मटेरियल खरीदते हैं, क्या केवल फादर
मार्केटिंग मैनेजर है ? माँ घर परिवार का कुशल संचालन नहीं करती ? आज जो एक छोटी सी बच्ची
है, कल वो पूरे परिवार का कुशल संचालन करेगी, यही सोचकर स्त्री-शक्ति को परिवार कह कर सम्बोधित करते हैं।
एम.ए पास शिक्षक मास्टर तो डिग्री वाले ज्ञान-अज्ञान को ही समझता है, वो कभी स्कूल नहीं गयी , पढ़ नहीं सकती है, यदि वह इग्नोरेंट नहीं है तो
किसे इग्नोर्रेंट कहेंगे ? इसीलिये वे निश्चिन्त थे कि इस प्रश्न उत्तर तो वे बिल्कुल सही दे सकते हैं ।
इसीलिये इसबार मास्टर बड़ी दृढ़ता से उत्तर देते हैं -
' आज्ञा (अगेहैं), भालो किन्तु अज्ञान ! जी अच्छी है, पर अज्ञान है ।' (आज्ञा अगे हैं - किन्तु बड़े आदरणीय व्यक्ति से सम्मानपूर्वक बात करते समय बंगला में
कहते हैं-जी हाँ !) किन्तु जब श्री रामकृष्ण विरक्त होकर -
आर 'तुमि' ज्ञानी ? -और 'तूम' ज्ञानी हो ? (
with evident displeasure):
"And you are a man of knowledge!" कहते हैं, तो वे आश्चर्यचकित हो जाते हैं ! क्या तुम अपने आपको को (कच्चे मैं को ) ज्ञानी समझते हो ?
उनके पास उस समय की सर्वोच्च डिग्री थी, वे एमए पास थे; अभीतक वे समझते थे कि ज्ञान पुस्तक से या स्कूल से मिलता है, अभी तो उनकी धारणा यही है कि कोई लिख-पढ़ ले तो मानो ज्ञानी हो गया।
एक बात ध्यान देने की है कि मास्टर बिल्कुल नये व्यक्ति हैं, पहली मुलाकात है; फिर भी तीन बार डाँट देते हैं ? किन्तु मास्टर ने बुरा क्यों नहीं माना ?
वे सोच रहे थे, अभी भी मुझे
विद्या -अविद्या में विवेक करना सीखना आवश्यक
है ! उनका भ्रम तो तब दूर हुआ जब उन्होंने सुना कि-
ईश्वर को जान लेना ज्ञान है, और उनको नहीं जानना अज्ञान है।
म का
अहंकार एक बार फिर बुरी तरह चूर हुआ.
M.'s ego was again badly
shocked.इस बात पर गहराई से चिंतन करने की आवश्यकता है !
जब आप किसी आध्यात्मिक गुरु से मिलने आते हैं, तो वे इस प्रकार के प्रश्न पूछ कर , आपको टेस्ट करके देखते हैं,कि इसमें अहंकार है या नहीं ? क्यों ? क्योंकि
' एगोस्टिक पर्सन कैन नेभर लर्न !' क्योंकि अहंकारी व्यक्ति कभी सीख नहीं सकता है । वो सोचता है, मैं तो चीफ़ इंजीनियर या मैनेजर हूँ, मैं सब
कुछ जानता हूँ ! मेरे सेक्रेटरी से मिलो, मेरे पास स्लिप भेजो ! डिग्री या पोस्ट पर ऐसा अहंकार करने वाला व्यक्ति, किसी संत-महात्मा से कुछ सीख सकता है ? कदापि नहीं !! यहाँ ठाकुर - जो कभी
स्कूल नहीं गए, जिनके पास कोई सर्टिफिकेट नहीं है, वे मास्टर को एक डिग्री-होल्ड़र को डांट रहे हैं ? किन्तु मास्टर उनकी फटकार को आशीर्वाद मानकर ग्रहण कर रहे हैं, यह बात यहाँ अपने दिल पर लिख लेने की है।
इसीलिये यदि आप
श्रीरामकृष्ण वचनामृत को किसी उपन्यास के समान पृष्ठ पर पृष्ठ उलटते हुए समाप्त करने की चेष्टा करेंगे तो उसका कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि उनकी वाणी ही वेद है, उन्होंने जो कुछ भी कहा है, वे सब
वैदिक महावाक्यों की व्याख्या है ! इसीलिये वचनामृत को
पंचम वेद कहा जाता है। वेद का अर्थ होता है -ज्ञान ! और ज्ञान क्या है यह हमें मास्टर महाशय के विनम्र व्यव्हार को देखकर सीखना पड़ेगा !
'विद्या ददाति विनयम - विनयाद याति पात्रताम । '
प्रायः यह देखा गया है कि विद्या प्राप्ति (डिग्री वाली विद्या ) के पश्चात् विवेक के अभाव में विनय का प्रादुर्भाव होने के स्थान पर अहंकार (अविनय) की उत्पत्ति होती है | यह
'विवेक' क्या है जो विद्या अर्जन के पश्चात भी अधिकांश जनों को नहीं आता है ?
वर्तमान में जिस डिग्री को ज्ञान अथवा विद्या कह कर बेचा जा रहा है - वह केवल सूचना है - इन्फोर्मेशन है - बस | मस्तिष्क में सूचनाएं भर लेने से प्राणी एक चलता फिरता
पुस्तकालय तो बन सकता है - परन्तु 'मनुष्य' कदापि नहीं बन सकता है | ज्ञानवर्धक सूचनाएं तो पुस्तकों से - प्रवचनों से - संपर्क से प्राप्त हो जाती है - परन्तु विवेक को कोई किसी दूसरे व्यक्ति में आरोपित नहीं कर सकता है - क्योंकि विवेक का प्रकाश तो अंतरात्मा में ही उत्पन्न होता है |
विवेक का प्रकाश अच्छे संस्कारों से उत्पन्न होता है-इसिलये चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा से ही विवेक-प्रयोग के महत्व को समझा जा सकता है। चरित्र निर्माण मे संस्कारों का (बंडल ऑफ़ हैबिट्स का ) बहुत महत्त्व है | जिस प्रकार सर्वोच्च कोटि के - अंतररास्ट्रीय स्तर के स्वर्ण आभूषणों के निर्माण के लिए, उसके विभिन्न घटकों का सु-संस्कार किया जाता है एवं तद्पश्चात श्रेष्ठ आभूषण बनने तक अति कठोर प्रक्रियाओं एवं परीक्षणों में अच्छे अंकों से २२ कैरेट गोल्ड के टेस्ट में उत्तीर्ण होना पड़ता है | मनुष्य को भी यदि, देशोपयोगी उच्च कोटि का आभूषण बनना है तो चरित्र के २४ गुणों में से गुण में से उसे न्यूनतम २ कैरेट गुण (आत्मश्रद्धा और आत्मविश्वास ) अर्जित करने के लिये - संस्कारवान स्वर्ण के समकक्ष कठोर प्रक्रियाओं एवं परीक्षणों में उत्तीर्ण होने की आवश्यकता है |
इसीलिये श्रीरामकृष्ण कहते हैं -
" नीचू जमीं ते जल जमे ! ऊँचू जमीं ते नय !" उभरी हुई भूमि में जल को संचित नहीं किया जा सकता ! सिर्फ गहरे भूमितल में ही जल इकट्ठा हो सकता है। इसका अर्थ हुआ कि यदि आप बहुत विनम्र हैं, तभी ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । इसीलिए कहा गया है -
'श्रद्धावान
लभते ज्ञानं !' इसीलिये मास्टर महाशय उनकी फटकार को भी बहुत विनम्र भाव से ग्रहण करते हैं। वे समझ रहे हैं कि ठाकुर जो कुछ भी कह रहे हैं, सब सत्य है ! इसको ही -पूर्वजन्म का संस्कार कहते हैं ! आमतौर से हमलोग अपने गुरु में भी कमियों को ही ढूँढ़ने का प्रयास करते हैं । वे यहाँ जो बोले वह ग्रामेटिकली ठीक नहीं था, मास्टर महाशय से उनकी विनम्रता सीखने की चीज है । इसीलिये संत कबीर जो स्वयं अनपढ़ थे, और आज की भाषा में पसमंदा मुसलमान (नीच जाति के बुनकर थे ) कहते हैं -
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान।।
जब कोई नया डी.सी. या कॉलेज का नया प्रिंसिपल आता है, तो पहले हम उसके टाइटिल से पता लगाना चाहते हैं कि वो किस जाती का है, या किस स्टेट का है ? इससे क्या होगा ? किसी के ज्ञान का सही टेस्ट है, वह व्यक्ति विनम्र है या नहीं ?
माँ एक बार जयराम बाटी से अपनी माँ श्यामासुंदरी देवी (नानी ) के साथ दक्षिणेश्वर आती हैं । और नाव से उत्तर
रही थीं, तो हृदय कहता है, यह उतरने का शुभ मुहूर्त नहीं है, पहले पंचांग
देखो तब आना, अभी वापस जाओ ! ठाकुर वहीं खड़े थे। वे स्वयं भगवान थे, हृदय से कह सकते थे, नहीं नहीं इतने दूर से आ रही है, उसे आने दो ! पर वे चुपचाप खड़े होकर
सिर्फ माँ को ऑब्जर्व कर रहे थे,
कि माँ क्या कहती हैं ? माँ ने हृदय से कुछ नहीं कहा
सिर्फ काली मंदिर के गुंबद की ओर देखी और मन ही मन प्रार्थना की
'माँ जब तुम बुलाओगी, उसी दिन मैं आऊँगी ! '
ठाकुर-माँ-स्वामीजी का जीवन उनका व्यव्हार देखकर हम बहुत कुछ सीख सकते हैं । जो ईश्वर की कृपा पाने के आकांक्षी हैं,
उनके लिए सबसे आवश्यक है - अपने अहंकार को दूर हटाना ।आपको याद होगा एक बार ठाकुर ने नरेंद्रनाथ का भी ऐसे ही टेस्ट लिया था ? वे नरेन्द्र को देखे
बिना रह नहीं सकते थे, उसको देखने कलकत्ते चले जाते थे। कोई भी अच्छा फल या मिठाई आता तो वे उसे केवल नरेन्द्र को ही खिलाना चाहते थे। किन्तु जब नरेन्द्र
आना शुरू किये तो अचानक उसके प्रति उनका व्यवहार कैसा हो गया था ? महीने तक नरेन्द्र से बात नहीं
किये, उसको देखते भी नहीं थे । वे यह दिखाना चाहते थे कि मैं यहाँ तुम्हारी उपस्थिति नहीं चाहता। बहुत दिनों बाद नरेन्द्र जो १८-१९ वर्ष के युवा थे, पूछे
मैं तुमसे बात नहीं करता, तुम्हारी तरफ देखता भी नहीं, तो तुम आते क्यों हो ? यही उनकी परीक्षा थी।
नरेन्द्र का उत्तर क्या था ? उन्होंने बंगला में उत्तर दिया -
' मोशाय, अपना के भालो बासी; ताई आशी ! ' सर, आई लभ यू सो आई कम !' आप मुझे पसंद करते हैं या नहीं, आप मुझको महत्व दे रहे हैं या नहीं - यह आपका अधिकार है, इन बातों से मुझे कोई मतलब नहीं । किन्तु मैं आपको पसन्द करता हूँ । आपको प्रेम करता हूँ, इसीलिये आता हूँ ! इसीलिये जो लोग भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें निरहंकार होने का यह गुण सीखना पड़ेगा। ऐसा व्यवहार सीखना पड़ेगा। अब हमलोग
ज्ञानी -अज्ञानी इन दो शब्दों के अर्थ को समझने का प्रयास करेंगे। ठाकुर यहाँ इसकी व्याख्या नहीं करते हैं, किन्तु हमारे शास्त्रों में इसे बहुत सुंदर ढंग से समझाया गया है।
मुण्डक उपनिषद में यह कथा आती है- -
शौनक वै महाशालो ! वे एक वेल रिच एस्टैब्लिश्ड पर्सन थे । पहले के समाज में ऐसी मान्यता थी कि समाज में जो व्यक्ति
विद्या और अर्थ उपार्जन के क्षेत्र में सू-प्रतिष्ठित हो चुका हो, वही धर्म सीखने जा सकता है। क्यों ? क्योंकि वैसे व्यक्ति को नाम-यश या भोगों के प्रति एक ललक होती है। किन्तु एक वेल इस्टैब्लिस्ट पर्सन - अब तक उसने
कई प्रकार का
प्रोफेशन कर के देख लिया है, (
आटा चक्की, चश्मा -खोल,
नर्सरी बैग, डेलभरी इरिगेशन पाईप, पीभीसी पाईप, क्रशर मशीन, चश्मा दुकान,
कम्प्यूटर ट्रेनिंग सेंटर, होटल ऐंड मॉल, डिरेक्टर इन मल्टीनेशनल कम्पनी ! ) इतना
हो जाने के बाद, उसमें लोकेषणा, पुत्रेषणा, वित्तेषणा का हैंकरिंग नहीं
रहता - वे पेट भरने की चिंता-फ़िक्र से मुक्त हो चुके हैं। वह सोचता
है, अब मैं इस धर्म के प्रोफेशन को भी समझना चाहता हूँ !
ठाकुर कहते थे,
'खाली पेटे धर्म होय ना !' जो व्यक्ति
इस जीवन में सन्तुष्ट हो चूका है, वह
महागृहस्थ शौनक, अंगिरा ऋषि के पास
हाथों में समिधा लेकर विनम्रता पूर्वक पूछे -
'कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति इति
'? वह कौन सी वस्तु है, जिसे जान
लेने पर सम्पूर्ण विज्ञान करतलगत हो जाता है ? समिधा लेकर क्यों पहुँचे ? क्योंकि ऐसे ऋषि स्वयं रोजी-रोटी कमाने में नहीं लगे रहते, तभी तो ज्ञान
अर्जित करने की साधना में लग पाते हैं । इसीलिये समाज उनके समस्त खर्चों
का भार वहन करता था। साधु के पास या मंदिर में खाली हाथ नहीं जाया जाता है,
कुछ प्रणामी अवश्य देना चाहिये। नहीं तो वे जीवन यापन कैसे करेंगे ?
[पूर्वी बंगाल के भक्त असम के आश्रम में
कुछ न कुछ प्रणामी अवश्य देते हैं, इसीलिये पहले जिन साधुओं को बद्री-केदार
जाना होता वे पहले असम जाते थे, ताकि खर्च के लिए कुछ प्रणामी मिल जाय। असम
में जब था एक स्त्री भक्त का बेटा किडनैप हो गया था, उसके शॉक में उसके
पति का देहांत हो गया, फिर भी वे १०१ /दान कर दी ।]
तब
उन्होंने कहा -
'द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति - ऐसा मैं नहीं कह रहा, जो लोग ब्रह्मविद् हैं, इतने महान ऋषि की विनम्रता देखें , उन्होंने कहा है -- परा चैवापरा च ॥
तदा गुरुः परापरविद्यायाः उपदेशं कृतवान् ; अपरा क्या है ? यह साइंटिफिक
नॉलेज , नॉलेज ऑफ़ दिस वर्ल्ड , जिससे विश्व-ब्रह्माण्ड का ज्ञान होता है ।
इस अपरा विद्या के अंतर्गत क्या क्या आता है ? ऋग्वेद, यजुर्वेद, शामवेद,
अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष इत्यादि का ज्ञान
-सभी अपरा विद्या के अंर्तगत आते हैं ! चारो वेद ? जो सनातन हिन्दू धर्म की
आधारशिला है, उसे लोग कितना महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रन्थ समझते हैं, सारा
ज्ञान है उसमें , उसे भी ऋषि अंगिरा अपरा विद्या बता रहे हैं ? ! क्या आश्चर्य ? गीता रामायण इतने पवित्र हैं, कि लोग उन्हें लाल कपड़े में
बांध कर ताखा पर रख देते हैं, पढ़ने की चेष्टा नहीं करते। पर अपने को धार्मिक व्यक्ति समझते हैं, गीता जलाने पर दंगा करते हैं ।
फिर परा विद्या क्या है - sअथ परा, यया तदक्षरमधिगम्यते – बाई व्हिच यू रियलाइज दैट अनचेंजेबल वन ! “वही परा विद्या है, जिससे हमें उस अविनाशी पुरुष की प्राप्ति होती है | वे यही कहना चाह रहे हैं कि इस जगत में सब कुछ परिवर्तनशील है, और केवल ईश्वर ही अपरिवर्तन शील हैं !
श्रीरामकृष्ण ने उस समय ज्ञान क्या है -ये नहीं कहा पर मास्टर महाशय ने बाद में समझा कि ईश्वर की अनुभूति करना ही ज्ञान है, और न करना अज्ञान ! अब श्रीरामकृष्ण मास्टर महाशय से चौथा प्रश्न करते हैं, जो सनातन धर्म के एक अन्य प्रमुख सिद्धांत - ' मूर्तिपूजा ' की व्याख्या करता है । श्रीरामकृष्ण वचनामृत के इन दो पृष्ठों में ठाकुर और मास्टर महाशय के बीच जो प्रश्नोत्तरी की कक्षा चल रही है, उसके माध्यम से हमलोग सनातन हिन्दू धर्म के कई प्रमुख सिद्धांतों को समझ सकते हैं। क्योंकि हमलोग जैसे जैसे आगे बढ़ेंगे यह स्पष्ट हो जायेगा कि भगवान श्रीरामकृष्ण स्वयं सनातन धर्म के अवतार हैं!
अब श्रीरामकृष्ण पूछते हैं - " अच्छा, तुम ईश्वर के 'साकार ' रूप पर विश्वास करते हो या 'निराकार' पर ? वे यह प्रश्न क्यों पूछते हैं ? "वेल, डू यू बिलीव इन गॉड विथ फॉर्म और विदाउट फॉर्म?" साकार-निराकार की बात क्यों उठाते हैं ? क्योंकि उस समय हमलोग अंग्रेजों के गुलाम थे, और ब्रिटिश शासन में ईसाइयत का इतना प्रचार हो गया था कि
मूर्ति पूजा पर से हमलोगों का विश्वास हिल गया था । ईसाइयत एक सेमेटिक धर्म है, इसलिये स्वाभाविक रूप से वे लोग निराकार ईश्वर में विश्वास करते हैं । क्योंकि सभी सेमेटिक रिलिजन का यही मानना है
कि भगवान निराकार हैं ! और चूँकि वे हमारे शासक थे -अपने विश्वास को हमपर
जबरन, चालाकी से, या जबरदस्ती भी लादना चाहते थे।
जबकि सनातन धर्म में ईश्वर के साकार रूप धारण कर अवतरित होने के साथ -साथ उनके सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, निराकार, निर्गुण स्वरूप में विश्वास किया जाता है। अनन्तशक्ति सम्पन्न ईश्वर में विश्वास करने के साथ ही साथ हम यह कैसे मान लें कि वे निर्गुण -निराकार तो हो सकते हैं, किन्तु सगुण-साकार नहीं हो सकते ?
हमारा सिद्धांत (सामान ) ही वैज्ञानिक तर्क की कसौटी पर अधिक खरा था, किन्तु आजकल की भाषा में कहें, तो उसकी पैकेजिंग उतनी अच्छी नहीं थी। इसीलिये हम सनातन धर्म की मार्केटिंग (तिजारत) नहीं कर सके। जबकि पाश्चत्य शिक्षा में पैकेजिंग और मार्केटिंग को ही सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है। मार्केटिंग करने के लिये ज्यादा जरुरी होता है, अच्छी से अच्छी पैकेजिंग पर ध्यान देना भले भीतर में माल, भले जैसा भी हो, एक बार तो बिक ही जायेगा। इसीलिये काजू-किसमिस खरीदते समय बहुत सावधान रहना चाहिये, चमकदार पैकेजिंग के भीतर सड़ा हुआ माल भी रह सकता है ! पहले खोल कर देख लेना चाहिए, चख करके देख लेना चाहिये तभी उसकी गुणवत्ता पर विश्वास करना चाहिये, उसके पैकेजिंग पर नहीं !
इसीलिये पैकेजिंग के आकर्षण से बचने के लिए सावधान करते हुए श्रीरामकृष्ण का महावाक्य है - " भक्त होबी ?; तो बोका हॉबी केनो ? " यदि तुमको ईश्वर का भक्त होना है, तो तुमको उनके अवतार को पहचानने में मूर्खता क्यों करनी चाहिये ? जो कोई भी व्यक्ति अपने नाम के आगे दो बार 'श्री श्री ' लगा दे, या स्वयं को बापू आशाराम कहने लगे, कृष्ण की पोशाक पहन कर ढोंग करने लगे, तो क्या हमें उसे ईश्वर का अवतार मानकर भक्ति शुरू कर देनी चाहिये ? भक्त बनने के लिये, उस व्यक्ति को पहले बहुत अधिक अक्लमंद, चतुर-सुजान या मनीषी (क्लेभर) होना चाहिये, उसमें चुनने का श्रेय-प्रेय विवेक तो अवश्य रहना चाहिये। बहुत अधिक भीड़ वहां, जा रही है, या उच्च पदस्थ लोग उस बाबा के शिष्य हैं, यह सब देखकर किसी को अपना गुरु या नेता स्वीकार नहीं करना चाहिये। जो अपने को गुरु होने का दावा कर रहा है, उसका अपना आचार-आचरण कैसा है ? वह ब्रह्मज्ञ है या नहीं ? इन सब बातों की समझ होनी चाहिए, तभी किसी को अपना गुरु या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता मानकर स्वीकार करना चाहिए। भक्त चुनना अवश्य आना
चाहिए, किस मनुष्य को अपना नेता मानें ? बिना उस गुरु को जाँचे, यदि धर्मान्तरित हो गए, और बाद में पता चला कि वह तो ढोंगी था ? तब लास्ट में
बहुत अफ़सोस होगा, पर अपनी भूल-सुधार करने के लिये समय नहीं बचेगा ?
इसीलिये ईश्वर या सत्य के खोजी को बहुत बहुत विचक्षण होना चाहिए, इसी बात को टेस्ट करने के लिये श्रीरामकृष्ण पूछ रहे हैं - "वेल, डू यू बिलीव इन गॉड विथ फॉर्म और विदाउट फॉर्म?" 'म' आश्चर्य से सोचने
लगे -
' यदि साकार पर विश्वास हो तो क्या निराकार पर भी विश्वास हो सकता है ? ईश्वर निराकार है -यदि ऐसा विश्वास हो ; तो ईश्वर साकार है - ऐसा भी विश्वास कभी हो सकता है ? ये दोनों परस्पर विरोधी भाव किस प्रकार सत्य हो सकते हैं? सफ़ेद दूध क्या कभी काला हो सकता है ? ' ["How can one believe in God without form when one believes in God
with
form? And if one believes in God without form, how can one believe that
God has a form? Can these two contradictory ideas be true at the same
time? Can a white liquid like milk be black?"] इस बार म बहुत सावधान है, पहले तीन बार ठाकुर की फटकार सुन चुके हैं, इसीलिये उत्तर देने के पहले विवेक-विचार कर रहे हैं ।
इसबार 'म ' बहुत सोच-समझकर उत्तर देते हैं -' महाशय, निराकार मुझे अधिक पसंद है । '
श्रीरामकृष्ण - " अच्छी बात है। किसी एक पर विश्वास रखने से काम हो जायेगा। निराकार पर विश्वास करते हो, अच्छा है। पर यह न कहना यही सत्य है, और सब झूठ । यह समझना कि निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। जिस तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो ।
यहाँ पहलीबार ठाकुर उनकी सराहना करते हैं -- [ "Very good. It is enough to have faith in either aspect. You believe in
God without form; that is quite all right. But never for a moment
think that this alone is true and all else false.]
किन्तु मास्टर यह सुनकर चकित हो गये कि -दोनों सत्य हैं ! यह बात उनके किताबी ज्ञान में तो थी नहीं !! तीसरी बार धक्का खाकर उनका अहंकार चूर्ण हुआ, पर अभी कुछ रह गया था; इसीलिये फिर वे तर्क को आगे बढ़ाने लगे। अब म एक जोरदार तर्क देते हुए कहते हैं -
' अच्छा, वे साकार हैं, यह विश्वास मानो हुआ ! पर मिट्टी की या पत्थर की मूर्ति तो वे हैं नहीं ।' [ "Sir, suppose
one believes in God with form. Certainly He is not the clay
image!"] श्री रामकृष्ण मास्टर जितने पढ़े-लिखे नहीं थे, वे तो कभी स्कूल भी नहीं गए थे, पर वे स्वयं भगवान थे, इसलिये म की बात काटते हुए
श्रीरामकृष्ण कहते है -
"बट व्हाई क्ले? इट इज अ इमेज ऑफ़ स्पिरिट. - मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे ? पत्थर या मिट्टी नहीं, चिन्मयी मूर्ति ! "
' इमेज ऑफ़ स्पिरिट' ? यह चिन्मयी मूर्ति क्या चीज है ? यह बात मास्टर न समझ सके । उन्होंने कहा, ' अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें समझना भी तो चाहिये कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है और मूर्ति के सामने ईश्वर की पूजा करना ही ठीक है, किन्तु मूर्ति की नहीं ! ' यह बात बहुत महत्वपूर्ण है , जो निराकार मानते हैं, वे मंदिर जाने वालों मूर्ख समझते हैं !
क्या हमारा स्थूल शरीर भी हमारी सूक्ष्म आत्मा या स्पिरिट का मूर्त रूप नहीं है ? कहा जाता है -'फ़ेस इज इंडेक्स ऑफ़ माइंड !' जब हमारा चेहरा मन का सूचक हो सकता है, तो हमारा शरीर, मन से भी सूक्ष्मतर - 'आत्मा' का सूचक क्यों नहीं हो सकता ? यह जो निराकार ईश्वर का कन्सेप्ट या अवधारणा है, वह कहाँ से और क्यूँ आया ? इतिहास में लौटने पर हम यह देखते हैं कि जो सेमेटिक समाज निराकार ईश्वर की अवधारणा का प्रचार करता है, वह समाज कबीलों में बँटा हुआ था उन्हें एकता के सूत्र में पिरोने के लिये ही इस सिद्धांत का प्रचार किया जाता था, उन्होंने उसको स्वयं की अनुभति से इस सत्य को नहीं जाना है !
साधारण मनुष्य के मन का गठन इस प्रकार हुआ है, कि उसको मूर्त -रूप या स्थूल रूप में मन को एकाग्र करने में आसानी होती है, इसीलिये भारत में ईश्वर का जैसा भी रूप पसंद है, स्त्री-पुरुष या गणेश-हनुमान वे अपने अपने देवता-देवी के मूर्त रूप में आसानी से ईश्वर के २४ गुणों की अवधारणा कर पाते हैं। कुछ लोगों ने सोचा यदि ये सभी एक निराकार ईश्वर को स्वीकार कर लेंगे तो इनमें कोई भेद-बुद्धि नहीं रहेगी ! हमलोग भी यह विश्वास करते हैं कि सच्चिदानन्द स्वरूप 'ब्रह्म' निर्गुण-निराकार हैं ! किन्तु इसके साथ साथ हम यह भी विश्वास करते हैं कि सर्वशक्तिमान ईश्वर साकार रूप भी धारण कर सकते हैं ! तो इसमें क्या नुकसान है ? वे तो सर्वशक्तिमान हैं, यदि कोई
रूप धारण करना चाहें तो क्यों नहीं धारण कर सकते ? यदि वे अन्य सभी काम तो कर
सकते हों, किन्तु एक काम- ' सगुण-साकार रूप में आने का काम ' नहीं कर सकते हैं ! जब इस एक काम को ईश्वर भी नहीं कर सकते हैं, तो ऐसे कई काम हो सकते हैं जिन्हें ईश्वर भी नहीं कर सकते ? फिर ऐसे ईश्वर को हम सर्शक्तिमान ईश्वर कैसे कह सकते हैं ? इसीलिये श्रीरामकृष्ण पहली बार मास्टर की सराहना करते हुए कहते हैं - " वेरी गुड, इट इज एनफ टु हैव फेथ इन आइदर आस्पेक्ट.( म भ्रम में थे- दोनों आस्पेक्ट कैसे सही हो सकते हैं ? ) यू बिलीव इन गॉड विदाउट फॉर्म; दैट इज क्वाइट ऑल राइट। बट नेवर फॉर अ मोमेंट थिंक (यही सबसे मार्मिक बात है ! ) दैट दिस अलोन इज ट्रू एंड आल एल्स फाल्स !"
जो सेमेटिक लोग ऐसा विश्वास रखते थे, कि ईश्वर कभी साकार रूप धारण कर ही नहीं सकते -उन लोगो ने भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की मूर्तियों को तोड़ दिया, मंदिरों को ढाह दिया ! आज भी कुछ कट्टरपन्थी लोग अफगानिस्तान में भगवान बुद्ध की विशालकाय मूर्तियों को तोप से उड़ा रहे हैं ! क्यों ? वे ऐसा समझते थे कि मैं जिस बात को सही समझता हूँ -केवल वही बात सत्य हो सकती है, शेष सभी बातें गलत हैं ! यह कहने का अधिकार तुम्हें किसने दिआ है ? इसीलिये गॉड,अल्ला या माँ काली को सम्पूर्ण विश्व का मार्गदर्शन करने के लिये पुनः एक बार मनुष्य शरीर धारण करके श्रीरामकृष्ण के रूप में अवतरित होना पड़ा। भगवान श्रीरामकृष्ण का दूसरा महावाक्य बार बार कहते थे - " मोतुआर-बुद्धि कोरो ना ! " - अर्थात मेरे भक्त हो तो कभी संकीर्ण मन वाले मनुष्य मत बनो ! ( जितने मत उतने पथ - एक राम हजार नाम !) अपने हृदय को सागर जितना विस्तृत करो, जिसमें विश्व के सभी धर्मों के प्रति सहिष्णुता ही नहीं ब्लकि पूर्ण समन्वय का भाव हो !
शिकागो में आयोजित पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स में जब प्रत्येक धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म को दूसरे धर्म से ऊपर दिखाने की चेष्टा कर रहा था तब विवेकानंद ने उनके इस शीतयुद्ध का निवारण एक छोटी-सी परंतु महत्वपूर्ण कहानी ' फ्रॉग ऑफ़ द वेल' या 'कुँयें का मेंढक' की
कथा के द्वारा किया था। तुमने कहानी सुनी है मेंढक की, जो कुएं में था। और फिर सागर का एक मेंढक आ गया। उस कुएं के मेंढक ने स्वाभाविक पूछा, कहाँ से आते हो मित्र?
सागर से आता हूं उसने कहा। सागर? कितना बड़ा है? सागर के मेंढक ने चारों तरफ देखा, कैसे बताए! क्योंकि यह कुएं का मेंढक, कुएं में ही पैदा हुआ, कुएं में ही बड़ा हुआ। उसने कहा, जरा मुश्किल पड़ेगा समझाना। आप यहीं कुएं में ही रहे हैं सदा? उसने कहा, सदा से रहा हूं। इससे तो छोटा ही होगा सागर? उसने कहा कि नहीं।
तो कुएं का मेंढक छलांग लगाया। एक तिहाई कुएं में छलाँग लगायी, इतना बड़ा? हंसने लगा सागर का मेंढक, उसने कहा कि नहीं। मुश्किल है बताना। उसने दो तिहाई कुएं में छलांग लगा दी, इतना बड़ा? उसने कहा कि नहीं, इतने से काम न चलेगा। उसने पूरे कुएं में छलांग लगा दी, लेकिन सागर के मेंढक ने कहा कि नहीं, इतना बड़ा, इससे भी काम न चलेगा, बहुत बड़ा है। इस कुएं से हम पैमाना न बना सकेंगे। हम इसके आधार पर, इसके मापदंड से नाप न सकैंगे।
तो फिर कुएं के मेंढक ने कहा, निकल झूठे, बाहर! इससे बड़ा कोई सागर न कभी हुआ है, न हो सकता है।
ऐसा कट्टरपंथी मनुष्यों का विचार ही कुआँ है। उसी में हम पैदा होते, उसी में बड़े होते। उसी में जीते। बुद्ध सागर से आते हैं। सागर को देखकर हमारे कुएं में आते हैं। हम उनसे पूछते हैं, क्या ईश्वर भी हमारे जैसा ही सत्य है ? बुद्ध कहते हैं, नहीं! इससे काम न चलेगा। नहीं, नहीं, नहीं। नेति—नेति ही करते जाना पड़ेगा।
कुयें का मेढक, सागर की विशालता की कल्पना कैसे कर सकता है? कुये का मेढक कुये के अंदर सोचता है दुनिया इतनी ही बड़ी है, दुनिया मेरी मुट्ठी मे है कुयें के बाहर वह निकलना ही नहीं चाहता। सभी धर्म और जाति अपने आप में एक 'कुआं' हैं, और अपने को मात्र शरीर समझने वाले लोग इसमें रहने वाले 'मेंढक' हैं। धर्म और जाति के नाम पर राजनीति करने वाले धर्म राजनितिक दलों के लीडर, इन कुओं के जगत पर बैठे हुये मेढ़कों के 'संरक्षक' हैं, जो उन्हें कुयें से बाहर आने नहीं देगें, जब तक लोग, इन संरक्षकों के सहयोग से, देश की प्रकतिक सम्पदा, फिर देश को बेंच नहीं लेगें।
विवेकानंद की इस कथा का सार न केवल धर्म की संकीर्णता दूर करने वाला है वरन इसके पीछे युवाओं को भी एक संदेश है कि प्रत्येक हृदय का विस्तार ही (बगैर कूपमंडूकता के) जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए।
विवेकानंद चाहते थे कि हर समाज स्वतंत्र हो, दूसरे समाज से विचारगत, आस्थागत समायोजन हो। भारत के विषय में उनका सोचना था कि एक तरफ तो हम निष्क्रिय रहकर प्राचीन गौरव के गर्व में फंस गए, दूसरी ओर हीनता की भावना में दब गए। तीसरे, सारी दुनिया से कटकर घोंघे में बंद हो गए। वे कहते थे कि जिस प्राचीन आध्यात्मिक शक्ति पर हम गर्व करते हैं, उसे अपने भीतर जगाना होगा। यह अभी हमारे भीतर नहीं है, केवल बाहरी है।
उन्होंने यह आह्वान युवाओं से किया था कि तुम ही यह कार्य कर दिखाओ। ये युवा ही हैं, जो इस समाज को आत्मशक्ति दे सकते हैं, संपूर्ण विश्व से गर्व से संवाद व संबंध स्थापित कर सकते हैं। इसके उपरांत ही हम स्वतंत्र हो पाएंगे व सामाजिक न्याय की अवधारणा समाज में स्थापित कर सकेंगे।
ये विचार आज कहीं अधिक उपयोगी हैं, जिससे हम उस राष्ट्र को फिर जीवित कर सकें जो विवेकानंद की कल्पनाओं का था। आवश्यकता है तो बस इतनी ही कि विवेकानंद के दर्शन का प्रसार युवाओं में एक चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन की भांति हो।
यदि तुम ऐसा सोचते हो कि केवल कर्म करने से भी ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है, तो यह बड़ी अच्छी बात है, तुम इसी मार्ग पर चलो ! पर यदि कोई भक्ति मार्गी है, और मूर्ति-पूजा में विश्वास करता है, तो उसे अपना मार्ग छोड़ने के लिये बाध्य मत करो ।
हिन्दी भाषी क्षेत्रों - एम.पी, यूपी, बिहार आदि राज्यों में ऐसी धारणा है कि किसी धार्मिक व्यक्ति को, या साधु-संन्यासियों को बहुत कड़ाई से नियम-धरम का पालन करना चाहिए। नंगे पाँव चलना चाहिये या खँडाउ ही पहनना चाहिए। पियाज-लहसुन, मांस-मछली-अंडा आदि नहीं खाना चाहिए, न्यूजपेपर, टी.वी आदि नहीं देखना चाहिये। महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर में मध्यप्रदेश का छात्र आया था, वह धर्म का अर्थ प्याज-लहसुन नहीं खाना ही समझता था। उसने देखा कि शिविर में तो पेपर, मछली, अंडा भी मिलता है ! वह एकदम बिगड़ गया, तुम मत खाना वहाँ शाकाहारी भोजन भी है, तुम वही खाओ, पर दूसरों को तुम्हें क्यों रोकना चाहिये ? चप्पल क्यों पहनते हैं ? तुम
मत पहनो !
शाम को मैदान में लड़कों के साथ खेल भी खेलता है ? बाद में उसको समझ आया की आधुनिक युग की जानकारी रखने के साथ साथ, कोई व्यक्ति
चरित्रवान मनुष्य भी बन सकता है। और कोई व्यक्ति प्याज-लहसुन तो नहीं खाता किन्तु चंद रुपयों के लिए अपने भाई का गला मरोड़ सकता है, तो क्या उसे उच्च आध्यात्मिक मनुष्य कहा सकता है ? यदि तुमको संन्यास लेना सहज लगता है,
तो तुम अवश्य संन्यासी बनो पर किसी चरित्रवान गृहस्थ की निंदा भी न करो ! तुम केवल किसी व्यक्ति के बाहरी वेश-भूषा को देखकर नहीं बतला सकते कि उसका चरित्र कैसा है ? चरित्र तो कुछ दिनों तक उसके साथ रहने के बाद उसके व्यवहार को देख कर ही जाना जा सकता है ! यहां ठाकुर यह बतला रहे हैं, कि तुम्हें निराकार की पूजा करनी चाहिये, तो तुम अवश्य करो, किन्तु जो मूर्ति पूजक हैं-उनकी निंदा भी मत करो ! किसी के विश्वास या आस्था पर प्रश्न मत खड़े करो !
मास्टर महाशय का अहंकार गुरु के समक्ष पूरी तरह से चूर्ण नहीं हुआ था, इसीलिये फिर वे तर्क देते हैं - "सर, सपोज वन बिलीव्स इन गॉड विथ 'फॉर्म'. सर्टेनली ही इज नॉट द क्ले इमेज!" श्रीरामकृष्ण कहते हैं - "बट व्हाई क्ले? इट इज अ इमेज ऑफ़ स्पिरिट. - मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे ? पत्थर या मिट्टी नहीं, चिन्मयी मूर्ति ! " यहाँ हम देख सकते हैं, कि सत्य का साक्षात्कार करने के लिये स्कूली शिक्षा अर्जित करना अनिवार्य नहीं है ! क्योंकि ज्ञान भीतर से आता है, वे स्वयं भगवान हैं, इसलिये कहते हैं - " वे
मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे ? वे तो स्वयं आत्माराम हैं ! "
अघोरमणी देवी ठाकुर की भक्त थीं, उनको लोग
गोपालेर माँ 'गोपाल की माँ ' के नाम से जानते हैं । स्वामीजी निवेदिता आदि को - एक
रीयल इंडियन लेडी
दिखाने लिए - उनसे मिलवाने ले गए थे, कि उनको देखकर समझो की सच्ची भारतीय नारी किंतनी भक्तिमति होती हैं ! ८ वर्ष की अवस्था में विधवा हो गयी
थीं, तब से एक कमरे में अकेली रहती थी। और बालक कृष्ण को अपने पुत्र के रूप
में पूजा करती थी। वे चाहती थीं कि बालक कृष्ण भी कभी उनके साथ वैसी ही लीला करेंगे, जैसी वे माँ यशोदा के साथ करते थे ? उन्हीं के आगमन की प्रतीक्षा में लगी रहती थीं। जब उन्होंने ठाकुर के बारे में सुना तो उनसे मिलने की इच्छा हुई ।
जाने के पहले बालक कृष्ण के लिये जैसा भोजन बनाना चाहती थी, वैसा कुछ
खाने का समान बना कर ले गयी। उन्होंने सोचा श्रीरामकृष्ण कोई ऐसे धार्मिक मनुष्य होंगे जो पेड़ नीचे बैठे ध्यान कर रहे होंगे, और वे उनको घर का बना खाना खिला देंगी ! पर जब दक्षिणेश्वर मंदिर स्थित ठाकुर के कमरे के सामने पहुँची , पूरा अहाता बड़ी बड़ी फिटिंग्स (बग्घी) से भरा हुआ था। और कलकत्ते के
धनिमानी बड़े बड़े लोग सभी फर्श पर बैठे थे , जबकि ठाकुर एक तखत पर बैठे थे। सोचने
लगी इतना साधारण साग-भात ठाकुर को कैसे दूँ ? उसको आँचल में छुपाने लगी
ठाकुर ने देख लिया पूछा क्या है ? बच्चे जैसा जिद करने लगे मैं अभी खाऊंगा।
सोची कैसा साधु है केवल खाने का बात किया अब यहाँ नहीं आउंगी , पर अपने घर
जाकर जैसे ही कृष्ण का ध्यान करने लगी, तो उन्हें अनुभव हुआ वही श्रीरामकृष्ण, बालक कृष्ण के रूप में प्रकट होकर उनके
पीठपर चढ़कर खेल रहे हैं । इतने दिनों से जो उनकी मनोकामना थी, वह आज पूर्ण हुई थी !
इसीलिये श्रीरामकृष्ण जो स्वयं भगवान थे, वे जानते थे कि वे केवल मिट्टी की मूर्ति नहीं हैं ! वे कह रहे हैं कि प्रेम के वश साक्षात् भवगवान भी मनुष्य
के रूप में आते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता ४/६ में कहा है - यह मेरा स्वाभाव है कि
मैं
(श्रीरामकृष्ण) अजन्मा और अवनाशी स्वरूप होते हुए भी, मनुष्य के रूप में आता रहता हूँ ! भगवान् दो श्लोकों में अपने अवतार के
अवसर, हेतु और उद्देश्य बतलाते हैं-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा
भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
संभवाम्यात्ममायया ।।6।।
अव्ययात्मा
= (मैं)अविनाशी स्वरूप; अज: = अजन्मा; सन् = होने पर; अपि =भी (तथा);
भूतानाम् = सब भूत−प्राणियों का; ईश्वर: = ईश्वर; सन् = होने पर; अपि = भी;
स्वाम् = अपनी; प्रकृतिम् = प्रकृति को; अधिष्ठाय = आधीन करके; आत्ममायया =
योगमाया से; संभवामि =प्रकट होता हूं
मैं अजन्मा और अवनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर
होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ
।।6।।
जनवरी १८९७ में कोलम्बो में अपने स्वागत के प्रतिउत्तर में स्वामी जी ने कहा था - " आत्मस्वरूप के अज्ञान के कारण भय होता है | संसार को यदि किसी एक धर्म की शिक्षा आवश्यक है तो वह है
“निर्भयता” |
हममें से प्रत्येक
सम्राटों के सम्राट उस ईश्वर (श्रीरामकृष्ण ) का ही अंश है | अद्वैत
मतानुसार तो हम स्वयम ही ईश्वर हैं, ब्रम्ह हैं | अपने असली स्वरुप को
विस्मृत कर स्वयम को छोटा सा आदमी समझ रहे हैं | इसी कारण, मैं अमुक से
श्रेष्ठ या अमुक मुझसे श्रेष्ठ जैसे भाव उदय होते हैं |
विश्व को यह एकत्व
की शिक्षा ही आज भारत द्वारा दी जानी आवश्यक है | जब यह समझ लिया जाता है,
तब सारा द्रष्टिकोण ही बदल जाता है, संसार को देखने की द्रष्टि बदल जाती है
| एकत्व का वोध हो जाने के बाद तो यह संसार एक क्रीडास्थल बन जाता है जहां
स्वयम भगवान एक बालक के सद्रश खेलते हैं | जब मनुष्य आत्मा को पहचान लेता
है तो वह चाहे जैसा दुर्बल, पतित अथवा घोर पातकी ही क्यों न हो, उसके भी
ह्रदय में एक आशा की किरण निकल आती है | वेदान्त कभी भय से धर्माचरण करने
को नहीं कहता | हमारे सभी शास्त्रों में ब्राम्हण आदर्श विशिष्ट रूप से
प्रतिष्ठित है, जिसमें सांसारिकता एकदम न हो और असली ज्ञान पूर्ण मात्रा
में विद्यमान हो -
ब्राम्हणों जायमानो हि प्रथिव्यामधिजायते |
ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोषस्य गुप्तये ||
“धर्मरूपी
खजाने की रक्षा के लिए ब्राम्हणों का जन्म होता है |” इस पवित्र मातृभूमि
पर ब्राम्हण का ही नहीं, प्रत्युत जिस किसी स्त्री-पुरुष का जन्म होता है,
उसके जन्म लेने का कारण यही “धर्मकोषस्य गुप्तये” है | दूसरे सभी विषयों को
हमारे जीवन के इस मूल उद्देश्य के अधीन करना होगा | "
वे आगे कहते हैं - " मेरा विश्वास है कि शीघ्र ही भारतवर्ष शीघ्र ही उस श्रेष्ठता का अधिकारी होगा, जितना पहले कभी नहीं था | प्राचीन ऋषियों से भी श्रेष्ठतर ऋषियों का आविर्भाव होगा, और आपके पूर्वज परलोक में अपने अपने स्थानों से अपने वंशजों की महिमा और महत्व को देखकर गौरवान्वित होंगे |
भाइयो हम सभी को इस समय कठिन परिश्रम करना होगा | अब सोने का समय नहीं है | हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है | देखिये भारतमाता तत्परता से प्रतीक्षा कर रही है | वह केवल सो रही है, उसे जगाईये और पहले की अपेक्षा और भी गौरव मंडित और अभिनव शक्तिशाली बनाकर भक्ति भाव से उसे उसके सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दीजिये |"
जिस
प्रकार न्यूटन, आइंस्टीन आदि वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत भौतिक जगत
(दृश्यमान जगत ) पर शासन करने वाले नियमों को जानकर हमलोग अपने दैनन्दिन
जीवन को सुखी और समृद्ध बना सकते हैं; ठीक उसी प्रकार आध्यात्मिक जगत् का शासन करनेवाले नियमों- वेदों;जैसे पुनर्जन्मवाद, कर्मवाद, अवतारवाद और मोक्ष [सांसारिक बन्धनों (टाईम -स्पेश-कॉजेशन या माया) से मुक्ति-- जिसके कई रास्ते हो सकते हैं] को
जानकर, हम उसकी सहायता से मनुष्य जीवन के लक्ष्य को भी प्राप्त कर सकते
हैं। अर्थात जो दुनिया हमारे नजरों के सामने नहीं है (सूक्ष्म जगत- मन, आत्मा,
परमात्मा आदि ) उस मृत्यु की समस्या का समाधान करके हम अमृतत्व की
प्राप्ति भी कर सकते हैं।
जिस प्रकार न्यूटन द्वारा आविष्कृत गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त आदि
के सिद्धान्त- चाहे हम उनपर विश्वास करते हों या नहीं करते हों, उन्हें
स्वीकार करते हों या नहीं करते हों, विश्व के सभी स्थानों में, सभी
मनुष्यों पर समान रूप से लागू होता है। ठीक उसी प्रकार भारतीय ऋषियों
द्वारा आविष्कृत सनातन धर्म के कुछ प्रमुख सिद्धान्त जैसे ' पुनर्जन्मवाद, कर्मवाद, अवतारवाद और मोक्ष [सांसारिक बन्धनों से मुक्ति-- जिसके कई रास्ते हो सकते हैं]' भी वैसे इटर्नल ग्लोबल लॉ या शास्वत वैश्विक नियम हैं जो अनादि काल से विश्व के सभी स्थानों में, सभी मनुष्यों पर समान रूप से लागू होता चला आ रहा है, या कोई उस पर विश्वास करता हो या नहीं करता हो !
अन्यान्य धर्मों की भाँति सनातन धर्म का
संस्थापक कोई व्यक्ति नहीं है। जिसे आजकल हिन्दू धर्म समझा जाता है, उसका वास्तविक
नाम सनातन धर्म या वैदिक धर्म है । स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " हिन्दू जाति (सनातन धर्म के अनुयायियों) ने
अपना धर्म श्रुति -- वेदों से प्राप्त किया हैं । उसकी धारणा हैं कि वेद
अनादि और अनन्त हैं: श्रोताओ को, सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई
पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं । किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक
हैं ही नहीं। वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न
व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष ।
जिस
प्रकार गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत मनुष्यों के पता लगने से पूर्व भी अपना
काम करता चला आया था और आज यदि मनुष्यजाति उसे भूल जाए, तो भी वह नीयम अपना
काम करता रहेगा , ठीक वही बात आध्यात्मिक जगत् का शासन करनेवाले नियमों, के सम्बन्ध में भी हैं। एक आत्मा का दूसरी आत्मा के साथ और जीवात्मा का
आत्माओं के परम पिता के साथ जो नैतिक तथा आध्यात्मिक सम्बन्ध हैं, वे उनके
आविष्कार के पूर्व भी थे और हम यदि उन्हें भूल भी जाएँ, तो बने रहेंगे ।
इन
नियमों या सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं और हम उनको
पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा [या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता ] मानकर
सम्मान देते हैं । श्रोताओं को यह बतलाते हुए मुझे हर्ष होता हैं कि इन
महानतम ऋषियों (नेताओं ) में कुछ स्त्रियाँ भी थीं । "
स्वामी विवेकानन्द अन्यत्र कहते हैं - "
यहाँ यह कहा जा सकता हैं कि ये नियम, नियम के रूप में अनन्त भले ही हैं, पर
इनका आदि तो अवश्य ही होना चाहिए । वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न
आदि हैं न अन्त। विज्ञान ने हमें सिद्ध कर दिखाया हैं कि समग्र विश्व की
सारी ऊर्जा-समष्टि का परिमाण सदा एक सा रहता हैं । तो फिर, यदि ऐसा कोई समय
था , जब कि किसी वस्तु का आस्तित्व ही नहीं था , उस समय यह सम्पूर्ण ऊर्जा कहाँ थी ?" कोई कोई कहता हैं कि ईश्वर में ही वह सब अव्यक्त रूप में निहित थी। तब तो
ईश्वर कभी अव्यक्त और कभी व्यक्त हैं; इससे तो वह विकारशील हो जाएगा । प्रत्येक विकारशील पदार्थ
यौगिक होता हैं और
हर यौगिक पदार्थ में वह परिवर्तन अवश्वम्भावी हैं, जिसे हम विनाश कहते हैं। इस तरह तो ईश्वर की मृत्यु हो जाएगी, जो अनर्गल हैं ।
अतः ऐसा समय कभी नहीं था, जब यह सृष्टि नहीं थी ।
ईश्वर
नित्य क्रियाशील विधाता हैं, जिसकी शक्ति से प्रलयपयोधि में से नित्यशः एक
के बाद एक ब्रह्माण्ड का सृजन होता हैं, वे कुछ काल तक गतिमान रहते हैं,
और तत्पश्चात् वे पुनः विनष्ट कर दिये जाते हैं ।
' सूर्या-
चन्द्रमसौ धाता यथापूर्वकल्पयत् ' अर्थात
इस सूर्य और इस चन्द्रमा को विधाता ने पूर्व कल्पों के सूर्य और चन्द्रमा
के समान निर्मित किया हैं -- इस वाक्य का पाठ हिन्दू बालक प्रतिदिन करता
हैं ।"
स्वामी
जी अन्यत्र कहते हैं - " जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और
दूसरा अंतर्जगत. खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई. परन्तु उससे भारतीय मन
को तृप्ति नहीं हुई. अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा..खोज अन्तर्जगत में
शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात्
मनुष्य का क्या हाल होता है? नचिकेता तीसरा वर मांगते हुए कहता है, मरे हुए
मनुष्य के विषय में यह संशय है—
' ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।' (कठ० उ० १/१/२०)
--'
किसी किसी का कथन है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व
रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज ! इनमें कौन सा सत्य
है ? '
उपनिषदों का प्रायः
प्रत्येक अध्याय द्वैतवाद या उपासना से आरम्भ होता है. पहले शिक्षा दी गयी
है कि ईश्वर मानो प्रकृति के बाहर है, वही हमारा उपास्य है, वही शासक है.
आगे चल कर वे ही आचार्य बतलाते हैं कि ईश्वर प्रकृति के बाहर नहीं, नहीं
बल्कि प्रकृति में अंतर्व्याप्त हैं. अंत में ये दोनों भाव छोड़ दिये गये
हैं, और जो कुछ है सब वही है - कोई भेद नहीं. ' तत्वमसि श्वेतकेतो ' - हे श्वेतकेतु, तुम वही (ब्रह्म ) हो ! " (५/२८९)
आधुनिक विज्ञान कहता है - ऊर्जा को आप दो प्रकार मे बांट सकते है, गति करती
ऊर्जा और स्थिर ऊर्जा। पदार्थ स्थिर ऊर्जा के स्वरूप मे है। द्रव्यमान
केवल स्थिर ऊर्जा का ही होता है, इसी स्थिर ऊर्जा को हम पदार्थ (मैटर) कहते है। जब
स्थिर ऊर्जा गति करती हुयी ऊर्जा मे परिवर्तित होती है तब द्रव्यमान ही उस
ऊर्जा के रूप मे परिवर्तित हो जाता है। इसलिये ऊर्जा के घनत्व की बात ही
बेमानी हो जाती है।
ब्रह्म या सत्य की भी दो अवस्थाएँ है- स्थैतिक (Static -अपरिवर्तिक, गौतम बुद्ध की अवस्था) और गतिज (Dynamic- सक्रीय,
सिद्धार्थ गौतम की अवस्था )। अपनी स्थैतिक अवस्था में यह (भगवान बुद्ध)
निरपेक्ष सत्ता है, अनेक (many-जीवजगत या सिद्धार्थ गौतम) से परे
एकमेवाद्वितीय अवस्था, किसी भी दृष्टिगोचर वस्तु, विचार या कल्पना से परे
की अवस्था है। अपने गतिज अवस्था में यह जीव, जगत और ईश्वर के रूप में
अभिव्यक्त होता है।
स्वामी विवेकानन्द के गुरु अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण कहते हैं - " जिस व्यक्ति ने ब्रह्म के स्थैतिक अवस्था का अनुभव कर लिया है, वह ज्ञानी
है. तथा जिसने यह अनुभव से जान लिया है कि अपने सक्रीय या गतिज अवस्था में
वह ब्रह्म (सच्चिदानन्द) ही विभिन्न नामरुपों वाला जगत बन कर भास रहा है-
वह विज्ञानी (भक्त) है. श्रीरामकृष्ण और विवेकानन्द के आविर्भूत होने से पहले साधारण जन इस सत्य से परिचित नहीं थे.
जगत
में सभी वस्तुओं का कारण होता है। बिना कारण के कोई कार्य नहीं होता। कारण
दो प्रकार के होते हैं- एक उपादान, जिसके द्वारा कोई वस्तु बनती है और
दूसरा निमित्त, जो उसको बनाता है। कुछ लोग ईश्वर को जगत का निमित्त कारण और
कुछ लोग निमित्त और उपादान दोनों ही कारण मानते हैं। जो लोग वेद को परम प्रमाण नहीं मानते वे नास्तिक कहलाते हैं। नास्तिक मनुष्य मानने के स्थान पर जानने पर विश्वास करते हैं। (नास्ति = न + अस्ति = नहीं है, अर्थात ईश्वर नहीं है।) नास्तिक लोग ईश्वर (भगवान) के अस्तित्व का स्पष्ट प्रमाण न होने कारण झूठ करार देते हैं।जिस प्रकार हम प्राकृतिक नियमों के आविष्कारक (न्यूटन, स्टीफन हाकींग आदि
) को साइंटिस्ट (वैज्ञानिक)
कहते हैं। किन्तु प्राकृतिक नियमों के आविष्कारकों को पवित्र-जीवन जीने, या
चरित्रवान मनुष्य बनने की बाध्यता नहीं होती इसीलिये हम उनका सम्मान तो
करते हैं, किन्तु उनके चरण-स्पर्श नहीं करते। उसी प्रकार ' इन नियमों या
सत्यों का आविष्कार करनेवाले ऋषि कहलाते हैं और हम
उनको पूर्णत्व तक पहुँची हुई आत्मा, (मानवजाति के
मार्गदर्शक नेता) मानकर सम्मान देते हैं, इसीलिये उनका चरण-स्पर्श करने को बाध्य हो जाते हैं ।
और
जब सृष्टि ही शाश्वत और सनातन है, तो उसको कुशलता पूर्वक संचालित करने
वाले नियम भी सनातन हैं, इसीलिये भारतीय संस्कृति और धर्म भी
सनातन धर्म-संस्कृति है। वेद कहते हैं "आत्मा की सृष्टि नहीं हुई हैं, क्योकि सृष्टि का अर्थ हैं, भिन्न भिन्न
द्रव्यों का संघात, और इस संघात का भविष्य में विघटन अवश्यम्भावी हैं ।
अतएव यदि आत्मा का सृजन हुआ, तो उसकी मृत्यु भी होनी चाहिए ।
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मॉडर्न फिजिक्स-ज्ञानी की अज्ञानी ?
हमारा यह विश्व ब्रह्माण्ड और उसकी क्रियाएँ कुछ भौतिक नियमों पर आधारित
हैं, इन भौतिक नियमों की खोज की सहायता से हम प्राकृतिक और भौतिक दुनिया
के कार्य-कलापों की सही व्याख्या कर सकते हैं। इनमें कई सार्वभौम प्राकृतिक नियम आज
भी हमारी दुनिया को सफलतापूर्वक चला रहे हैं। जैसे चलती हुई गाड़ी से
उतरते समय हमें कैसे और क्यों उतरना चाहिए ?
सड़क
को मोड़ देने के लिए ग्रेडिएंट (Gradient- झुकाव या ढलान) कितनी होनी
चाहिए? बिल्डिंग बनाते हुए कंक्रीट की स्ट्रेंथ क्या होनी चाहिए ? कितने
वोल्टेज से कितनी करेंट बहनी चाहिए ? हवाई जहाज के निर्माण में
एरोडाइनैमिक (वायुगतिकीय) सिद्धांतों का कैसे पालन किया जाता है?
इनमें
से हर चीज के लिए हमारे पास सही-सही और ठोस उत्तर हैं। ‘लगभग’ या
‘अनुमान’ जैसे शब्दों का हमारी भौतिक दुनिया के नियमों से कोई वास्ता नहीं।
वो दुनिया (स्थूल -जगत ) जो हमारी नजरों के सामने है, जिसकी क्रिया-कलापों को सही-सही मापा और तौला जा सकता है।
कोई
भी वस्तु ऊपर से गिरने पर सीधी पृथ्वी की ओर आती है। ऐसा प्रतीत होता है,
मानो कोई अलक्ष्य और अज्ञात शक्ति उसे पृथ्वी की ओर खींच रही है। सभी लोग प्रतिदिन ऐसा होते देखते थे, किन्तु उसके कारण को जानने की चेष्टा नहीं करते थे। किन्तु जब सर
आइज़क न्यूटन ने सेव को नीचे गिरते देखा तो उसका कारण जानने के लिये, उसी प्रश्न पर मन को एकाग्र कर दिया, और गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त आविष्कृत हो गया। उन्होंने अपनी मौलिक खोजों के आधार पर बताया कि केवल पृथ्वी ही
नहीं, अपितु विश्व का प्रत्येक कण प्रत्येक दूसरे कण को अपनी ओर आकर्षित
करता रहता है।
दो
कणों के बीच कार्य करनेवाला आकर्षण बल उन कणों की संहतियों के गुणनफल का
(प्रत्यक्ष) समानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती
होता है। कणों के बीच कार्य करनेवाले पारस्परिक आकर्षण को गुरुत्वाकर्षण
(Gravitation) तथा उससे उत्पन्न बल को गुरुत्वाकर्षण बल (Force of
Gravitation) कहा जाता है। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त नियम को “न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम” (Law of Gravitation) कहते हैं। उपर्युक्त
नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है : मान लिया m1
और m2 संहति वाले दो पिंड परस्पर d दूरी पर स्थित हैं। उनके बीच कार्य
करनेवाले बल f का संबंध होगा :
F=Gm1m2/d2
यहाँ
G एक समानुपाती नियतांक है जिसका मान सभी पदार्थों के लिए एक जैसा रहता
है। इसे गुरुत्व नियतांक (Gravitational Constant) कहते हैं।
[ न्यूटन ने हमने बताया था कि किसे भी
स्थायी और गतिशील अवस्था में भौतिकशास्त्र के नियम यानि स्पेस और टाइम नही
बदलेंगे जो कि सोहलवीं सदी से लेकर उन्नीसवी सदी के अंतिम दशक तक कायम
रहा।
लेकिन जब २० वीं
सदी के प्रारंभ मे मैक्सवेल ने हमें ये बताया कि, एक ऐसे गति
भी है जो कि स्थिर है और वो है - प्रकाश की गति। प्रकाश ऊर्जा का ही एक रूप
है। प्रकाश का व्यवहार थोड़ा विचित्र है। इन दोनो मे क्या सही है? क्या प्रकाश कण है ? या एक तरंग ?
आज हम जानते हैं कि ये दोनों सिद्धांत सही है, प्रकाश दोहरा व्यवहार रखता
है, वह एक ही समय में कण और तरंग दोनों गुण-धर्म रखता है। फोटान किसी परमाणु द्वारा उत्सर्जित वह ऊर्जा है जिसे हम प्रकाश के रूप मे देखते हैं। प्रकाश के कण व्यवहार मे उसे फोटान कहा जाता है और उसके तरंग व्यवहार मे उसे विद्युत-चुंबकिय विकिरण (electro-magnetic radiation) कहा जाता है।
इसके आधार पर पाया गया कि न्युटन का गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत सभी
प्रश्नो का उत्तर नही देता है, उदाहरण के लिये न्युटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के अनुसार बुध की कक्षा सही नही थी। इसके हल के लिये आइंस्टाइन ने सापेक्षतावाद का सिद्धांत प्रस्तुत किया।
[क्वांटम भौतिकी और साधारण सापेक्षतावाद दोनो आधुनिक भौतिकी के आधार स्तम्भ है। क्वांटम सिद्धांत जहाँ परमाणु और परमाणु से छोटे कणों से संबंधित है वहीं सापेक्षतावाद खगोलीय पिंडों के लिए है। सापेक्षतावाद
के अनुसार अंतराल लचीला होता है जिसमे भारी पिंड वक्रता उत्पन्न कर सकते
है, वहीं क्वांटम सिद्धांत मे अंतराल की व्याख्या करने के लिए एकाधिक मत
है। यदि स्ट्रींग सिद्धांत सही
है, तब समस्त ब्रह्माण्ड कणो से नही तंतुओ से बना है। कण-भौतिकी की अधिकतर
जानकारी और स्ट्रींग सिद्धांत इसी पर आधारित है। लेकिन यह सिद्धांत भी अधूरा
है। इस सिद्धांत से जुड़े अनेक प्रश्नो का उत्तर इस सिद्धांत के सम्पूर्ण
होने पर ही संभव होगा।
स्ट्रींग सिद्धांत के पिछे आधारभूत तर्क यह है कि मानक प्रतिकृति के
सभी मूलभूत कण एक मूल वस्तु के भिन्न स्वरूप है : एक स्ट्रींग। सरल हिन्दी
मे इसे एक महीन तंतु, एक धागे जैसी संरचना कह सकते है। यह तंतु एक आयाम की
संरचना है, इसकी एक निश्चित लंबाई भी है। एक तंतु गति के अतिरिक्त भी
क्रियायें कर सकता है, वह भिन्न तरीकों से दोलन कर सकता है। वह किसी और तरह
से दोलन करे तो उसे फोटान कहा जा सकता है, तीसरी तरह से दोलन करने पर वह
क्वार्क हो सकता है। अर्थात एक तंतु वलय भिन्न प्रकार से दोलन करे तो वह
सभी मूलभूत कणो की व्याख्या कर सकता है। ]
लेकिन सापेक्षतावाद का सिद्धांत भी अभी संपूर्ण नही है, यह बड़े पै माने पर अर्थात सूर्य , ग्रह , तारे और आकाशगंगा के स्तर पर गुरुत्वाकर्षण की व्याख्या करता
है लेकिन छोटे पैमाने अर्थात परमाणु और उससे छोटे कणों पर गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव कैसे काम करता है ? यह अभी एक अनसुलझा प्रश्न है।]
अलबर्ट आइन्स्टाइन ने १९०५ में “विशेष सापेक्षतावाद (Theory of Special Relativity)” तथा १९१५ में “सामान्य सापेक्षतावाद (Theory of General Relativity)” के सिद्धांत को प्रस्तुत कर भौतिकी की नींव हीला दी थी।
आइंस्टीन के ' विशेष सापेक्षता का सिद्धांत' में ३ कॉन्सेप्ट है-
१. रीलेटिविटी ऑफ़ स्पेस
२.रीलेटिविटी ऑफ़ टाइम
३.रीलेटिविटी ऑफ़ मास।
तो सबसे पहले हम बात करेंगे रीलेटिविटी ऑफ़ टाइम
के बारे में इसमें हमे आइंस्टीन ने बताया है कि वक़्त भी धीमा हो सकता है।
पर ये बात इतनी विचित्र और अजीबोगरीब है कि हम इसे समझ नही पाते हैं, और
अक्सर हमारा दिमाग इस बात को मानने के लिए इंकार कर देता है। पर यकीन
मानिये ऐसा हो सकता हैं. लेकिन वक़्त स्लो यानि धीमा कैसे हो सकता है?
इस बात को समझाने के लिए मैं आपको एक उदहारण देता हूँ - मान
लीजिये की आपको बाईक से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना है. यदि आपको
वहाँ पहुँचने में ४० की मी पर ऑवर की स्पीड से १० मिनिट का वक़्त लगने वाला
है तो सोचिये कि आप ने अपनी बाईक क़ी स्पीड ८० कर दी तो कितना वक़्त लगेगा ?
जाहिर सी बात है जब आपने स्पीड बढ़ा दी है तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर
जाने के लिए वक़्त कम लगेगा। अर्थात आप ने जब बाइक कि स्पीड ८० कर दी है,
तो वहाँ तक पहुँचने में मात्र ५ मिनिट का समय ही लगेगा।
इस दुनिया में प्रकाश कि गति से अधिक तेज
और दूसरी कोई गति नही है. हम जानते हैं कि और प्रकाश कि गति ३ लाख कि.मी. पर सेकंड होती हैं। अब आप ऐसा सोचिये कि आपकी बाईक ३००००० कि मी प्रति सेकंड की स्पीड से चल रही है तो आपको एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए कितना कम वक़्त लगेगा ? हम जानते है कि एक बाइक इतने स्पीड चलना असम्भव हैं, लेकिन आइंस्टीन की दूसरी सबसे बड़ी खोज काल और अंतराल पर गति का प्रभाव है। सापेक्षतावाद के सिद्धांत के अनुसार काल (समय) और अंतराल (अंतरिक्ष) अलग नही है, दोनो एक दूसरे से संबंधित है। यही बात उनके विशेष सापेक्षतावाद का मुलभुत आधार
भी हैं. प्रकाश
गति के समीप गति प्राप्त करने पर अंतराल गति की दिशा में सिकुड जाता है
तथा समय की गति धीमी हो जाती है।
अगर आप
किसे ऐसे अंतरिक्ष यान में बैठे जो कि प्रकाश कि गति से चलता हो, तो जब आप
प्रकाश की गति से अंतरिक्ष से पूरा एक साल तक चक्कर लगाने के बाद पुनः
इस धरती पर वापस आयेंगे, तो आपको लगेगा कि धरती पर भी केवल एक ही साल बीता
होगा। किन्तु तब तक तो यहाँ की धरती पर लाखो-करोड़ों साल गुजर चुके होंगे ?
और अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहले ही बता दिया हैं कि टाइम के इस धीमेपन को हम तभी महसूस कर सकते हैं,
जब हम किसी ऐसे गति से चले जो कि प्रकाश की गति के करीब हो। यही कारण है
कि समय की सापेक्षता को हम आम जिंदगी में महसूस नहीं कर पाते। और शायद कभी
कर भी नही पाएंगे क्यों कि हम इंसानो के लिए प्रकाश कि गति से चलने वाले
किसी यान को बनाना लगभग नामुमकिन है।
यह सब विचित्र लगता है क्योंकि हमने आज
तक प्रकाश गति की गति के तुल्य कोई भी वस्तु/पिंड देखा नहीं है, लेकिन अनेक
प्रयोगों ने सिद्ध किया है कि विशेष सापेक्षतावाद का सिद्धांत सही है और
हमारी समझ से सही न्युटन के नियम प्रकाश गति के समीप गलत हो जाते है।
अब हम रीलेटिविटी ऑफ़ स्पेस, अन्तराल या देश के सापेक्षता को समझने का प्रयास करेंगे। हमलोग ऐसा मानते हैं कि अगर अंतरिक्ष में दो वस्तुएँ एक-दूसरे से एक किलोमीटर की दूरी पर हैं और उन दोनों में से कोई भी न हिले, तो वे सदैव एक-दूसरे से एक किलोमीटर दूर ही रहेंगी। हमारा रोज़ का साधारण जीवन भी हमें यही दिखलाता है। लेकिन आइनस्टाइन ने कहा कि ऐसा नहीं है। स्थान या देश (अन्तराल ) भी खिच और सिकुड़ सकता है। ऐसा भी संभव है कि जो दो वस्तुएँ एक-दूसरे से एक किलोमीटर दूर हैं वे स्वयं न हिलें, लेकिन उनके बीच का अंतर कुछ परिस्थितियों के कारण फैल कर सवा किलोमीटर हो जाए या सिकुड़ के पौना किलोमीटर हो जाए। लेकिन हम स्पेस कि इस सापेक्षता को भी तभी महसूस कर सकते हैं जब किसी दो चीजो के स्पेस में प्रकाश कि गति के आसपास कि गति का प्रभाव हो।
अब हम रीलेटिविटी ऑफ़ मास को जानने का प्रयास करेंगे। विशेष सापेक्षतावाद की सबसे बड़ी खोज द्रव्यमान तथा ऊर्जा में संबध है। रीलेटिविटी ऑफ़ मास का फार्मूला है E=mc2; यहाँ E मतलब है ENERGY और M यानि MASS और C यानि प्रकाश
का वेग। इसी सूत्र के आधार पर आइंस्टीन ने यह सिद्ध कर दिखया था कि energy (ऊर्जा) को mass यानी द्रव्यमान (मैटर) में, और mass को Energy में रूपान्तरित किया जा सकता है। इसी फॉर्मूले के आधार पर वैज्ञानिको ने एटमबम का निर्माण किया है। आइंस्टाइन ने हमें बताया कि mass भी relative है और किसी वस्तु की गति बढ़ने से उसका mass भी बढ़ेगा। पर वो गति भी प्रकाश कि गति हो या उसके आसपास हो,पर इसका मतलब ये नही होता कि गति के बढ़ने से उस वस्तु का आकर भी बढ़ेगा बल्कि उस वस्तु में ऊर्जा निर्माण करने के वृद्धिदर में बढ़ोत्तरी हो जायेगी।
अब हम सापेक्षता के दूसरे भाग यानि सामान्य सापेक्षतावाद (General Theory of Relativity) के बारे में जानेंगे। साधारण
सापेक्षतावाद के सिद्धांत के अनुसार न्युटन के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत
भी पूरी तरह से सही नहीं है और वह अत्याधिक गुरुत्वाकर्षण वाले क्षेत्रो
में कार्य नहीं करता है। इस
वजह से आइंस्टाइन के इस सिद्धांत ने न्यूटन के गुरूत्वाकर्षण के नियमों को
भी चुनौती दी। इस सामान्य सापेक्षतावाद के सिद्धांत में आइंस्टीन ने यह बतलाया कि गुरुत्वाकर्षण कैसे और क्यों काम करता हैं ? सामान्य सापेक्षतावाद (General Theory of Relativity) के अनुसार कोई भी द्रव्यमान वाला पिंड अपने द्रव्यमान से देश (या अंतराल)-काल
(Space-Time) मे वक्रता (मोड़ ) उत्पन्न करता है, यह वक्रता उसके द्रव्यमान के
अनुपात मे होती है। देश-काल में आयी यह वक्रता ही गुरुत्वाकर्षण है। जिस तरह
आइंस्टीन अपना विशेष सापेक्षतावाद का सिद्धांत प्रकाश के गति के स्थिर मान
के आधार पर प्रस्थापित किया था, उसी तरह उनकी यह मौलिक खोज थी कि गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में आने वाली हर चीज में मोड़ (वक्रता) आ जाती है।
इस
बात को समझने केलिए आप ऐसा कीजिये आप कोई भी चीज ऊपर फेकिये आपको वो चीज
जब निचे गिरेगी तो आप इस बात पर ध्यान दे कि वो चीज एकदम सीधी लाइन में
निचे नही गिरती थोड़ी तिरछे यानि मुड़ के गिरती हैं। और इसी गुरुत्वाकर्षण के
वजह से ब्रम्हांड में हर जगह मोड़(वक्रता) है। और ये बात हमारे धरती और सूरज के बिच भी लागु होती हैं।
उदाहरण
के लिये सूर्य अपने द्रव्यमान से देश-काल मे वक्रता उत्पन्न करता है,
तथा सौरमण्डल के अन्य सभी ग्रह देश-काल मे इस वक्रता के कारण सूर्य की परिक्रमा करते है। आइंस्टाइन ने यह बतलाया कि गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से स्पेस (अंतराल या देश) में जो वक्रता उत्पन्न हो जाती है, उसी के कारण सूर्य के चारों तरफ घूमने वाले ग्रह सूरज का चक्कर लगाते रहते हैं, ना कि सूर्य की गुरूत्वाकर्षण शक्ति की वजह से उसके चारों तरफ
घूमते हैं। और यही उनकी दूसरी क्रन्तिकारी अवधारणा थी। जिसके आधार पर आइंस्टीन ने अपना ये दूसरा सिद्धांत प्रस्थापित किया था।
एक
सरल उदाहरण लेते है, एक चादर को देश-काल (काल-अंतराल) मान
लेते है। अब इस चादर पर एक भारी गेंद डाल देते है, यह भारी गेंद चादर पर एक
झोल (वक्रता) उत्पन्न करेगी। अब इसी चादर पर कंचे डाल दे तो वे इस झोल
की परिक्रमा करते हुये भारी गेंद की ओर केंद्र की ओर जायेंगे। अब आप भारी
गेंद को सूर्य से और कंचो को ग्रहों से बदल दे, बस यही गुरुत्वाकर्षण का
प्रभाव है।
मान
लीजिये कि सूर्य अभी नष्ट हो गया है, तो हमें इसका पता आठ मिनट बाद लगेगा।
क्योंकि सूर्य की रोशनी धरती तक पहुंचने में आठ मिनट लेती है। पर न्यूटन
के अनुसार gravity का प्रभाव तात्कालिक होता है इसलिए सूर्य के
गुरूत्वाकर्शण प्रभाव के नष्ट होने का पता तुरंत यानि प्रकाश के धरती पर
पहुंचने से पहले ही लग जाना चाहिए जो कि विशेष सापेक्षतावाद के मूलभूत
सिद्धांत से मेल नहीं खाती। इसके अनुसार किसी भी Physical Interaction या
प्राकृतिक अंतःक्रिया का परिणाम प्रकाश की गति से ज्यादा तेजी से सफर नहीं
कर सकता। इसी विरोधाभास ने आइंस्टाइन को न्यूटन की गुरूत्वाकर्शण की
अवधारणा पर पुनः सोचने के लिए मजबूर कर दिया।
जब हमलोग केवल रीलेटिविटी ऑफ़ मास के फार्मूला E=mc2 के आधार पर ही दोनों प्रकार के सापेक्षतावाद के सिद्धांत को भी समझने का प्रयास करते हैं, कन्फ्यूज्ड हो जाते हैं। क्योंकि आइंस्टीन का यह सिद्धांत कि 'देश-काल (टाईम -स्पेस या काल अंतराल) में वक्रता या मोड़ हैं' -उनके सामान्य सापेक्षतावाद के सिद्धान्त (General Theory of Relativity) से
जुडी हैं,और जो उनके “विशेष सापेक्षतावाद (Theory of Special Relativity)” के तीनो कॉन्सेप्ट से बिल्कुल भिन्न है। किन्तु अक्सर हम इन सब बातो में भिन्नता को एकदूसरे से जोड़ देते
हैं, इसीलिये हमें सापेक्षता के सिद्धांत को समझने में कठिनाई होती हैं।
कभी कभी ये भी हम पढ़ लेते हैं कि आइंस्टीन ने समय को चौथा आयाम कहा है ! तो ये भी एक अलग बात हैं. जिस तरह किसी भी (स्थूल वस्तु ) के स्थाई अवस्था का मापन करने क लिए लम्बाई चौड़ाई और ऊंचाई कि जरुरत होती हैं, उसी तरह किसी भी गतिशील अवस्था का मापन करने के लिए हम समय का उपयोग करते हैं। और यही वह महत्वपूर्ण कारण कि समय को चौथा आयाम इसलिए कहा जाता है।
हमारी आकाशगंगागुरुत्वाकर्षण के कारण सौर मंडल के ग्रह सूर्य से बंधे है और सूर्य की
परिक्रमा करते है, इस प्रक्रिया में गुरुत्वाकर्षण श्याम ऊर्जा पर भारी
पड़कर सौर मंडल को बांधे रखता है। इसी तरह से तारे भी एक दूसरे से बंधे रहकर
आकाशगंगा बनाते है। बड़े पैमाने पर कुछ आकाशगंगाये भी एक दूसरे से बंध एक
एक आकाशगंगा समूह बनाती है। हमारी एंड्रोमिडा आकाशगंगा और कुछ
छोटी आकाशगंगाये एक दूसरे से बंधी हुयी है और एक दूसरे की परिक्रमा करती
है।
जब बिग बैंग हुआ
तब उसका विस्तार प्रारंभ हुआ। इस स्थिति मे उसके कुछ हिस्सो मे
गुरुत्वाकर्षण प्रभावी हो गया था, जिसके फलस्वरूप तारे, निहारीकायें, ग्रह
और आकाशगंगाये बने। लेकिन जहाँ श्याम ऊर्जा ने अपना प्रभाव जारी रखा वहीँ
ब्रह्माण्ड का विस्तार भी जारी रहा। दोनो मे एक संतुलन रहा और ब्रह्माण्ड
के
विस्तार के साथ विभिन्न ब्रह्मांडीय संरचनाओं जैसे तारे, निहारीकायें, ग्रह
और आकाशगंगाओं का भी निर्माण होता रहा है।
किन्तु जब गुरुत्वाकर्षण बल पिंडो को एक दूसरे से बांधे रखता है तो बिग बैंग के पश्चात ब्रह्माण्ड का विस्तार कैसे हो रहा है? इसका कारण यह है कि ब्रह्माण्ड
स्तर पर दो बल कार्य करते है, गुरुत्वाकर्षण बल और श्याम (कृष्ण) ऊर्जा। उपर हमने
गुरुत्वाकर्षण के लिये एक समीकरण दिया है, इस समीकरण के अनुसार दूरी बढ़ने
पर गुरुत्वाकर्षण बल कमजोर होते जाता है। श्याम ऊर्जा वह बल है जो
ब्रह्माण्ड के विस्तार को गति दे रहा है, ब्रह्माण्ड के विस्तार का अर्थ है
कि ब्रह्माण्ड के विभिन्न पिंडो के मध्य अंतराल बढ़ रहा है। इन दोनो बलो के
मध्य खींचतान चल रही है, जहाँ पर गुरुत्वाकर्षण प्रभावी है वहाँ श्याम
ऊर्जा का बस नही चलता है। जहाँ श्याम ऊर्जा प्रभावी है वहाँ गुरुत्वाकर्षण
का बस नही चलता है। यदि हम अपने सौर मंडल का उदाहरण ले तो यहाँ पर
गुरुत्वाकर्षण प्रभावी है जिससे श्याम ऊर्जा सौर मंडल को बिखेर नही पायेगी।
यह हमारी आकाशगंगा के लिये भी है, जिसने हमारी आकाशगंगा को बांधे रखा है।
लेकिन विभिन्न आकाशगंगाओ के मध्य श्याम ऊर्जा प्रभावी है जिससे उनके मध्य
अंतराल बढ़ रहा है और ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। (साभार 'विज्ञान विश्व' )
अगले भाग में हमलोग सनातन धर्म के साकार -निराकार ईश्वर पर चर्चा करेंगे !
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