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Active worker of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal.

Tuesday, July 1, 2025

" अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का उद्देश्य एवं कार्यपद्धति " [Aims And Activity Of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal : Mahamndal Booklet -18]

दो शब्द         

    देश में जब पहले से ही स्वामी विवेकानन्द के नाम पर इतने सारे स्थानीय , राष्ट्रीय एवं अन्तरार्ष्ट्रीय स्तर के गैर सरकारी संगठन कार्यरत हैं, स्वयं उन्हीं के द्वारा स्थापित किया गया ' रामकृष्ण मठ और मिशन ' भी कार्यरत है ; तो फिर किन कारणों से, 1967 ई. में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' को आविर्भूत होना पड़ा ? इसकी कार्य पद्धति क्या है ? -इसी विषय पर केन्द्रित है यह पुस्तिका। 

      यह निश्चित है कि जबतक किसी संगठन का उद्देश्य और उसकी कार्यपद्धति से भलीभाँति परिचित न हुआ जाय तबतक उसमें आत्मनियोग कर उसके निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन है। इसीलिए इस पुस्तिका में महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यपद्धति को यथासंभव सरल भाषा में रखने की चेष्टा की गई है। 

      वस्तुतः, महामण्डल के हिन्दी प्रकाशन की एक पुस्तक ' एक युवा आन्दोलन ' में पहले से ही यह विद्यमान है, किन्तु सुधि पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए इसे एक अलग पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है, आप इस पुस्तिका को पढ़कर सहजता से महामण्डल के उद्देश्य एवं कार्यपद्धति से परिचित हो सकेंगे तथा इसमें अपना आत्मनियोग कर सकेंगे। 

प्रकाशक 

===============  

 अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल 
का 
उद्देश्य एवं कार्यपद्धति 

       समाज की मूल इकाई 'मनुष्य' है। इसलिए 'मनुष्य-निर्माण' का कार्य ही मौलिक कार्य है। समाज-सेवा का कोई भी कार्य चाहे सरकार करे, या स्वयं सेवी संस्थायें करें - समस्त कार्यों का सम्पादन मनुष्यों के द्वारा ही होता है। कोई भी सेवा कार्य तब तक यथार्थ फलप्रद नहीं हो सकती , जब तक कि उस कार्य जुड़े मनुष्यों की धारणा शक्ति भ्रम रहित न हो, उनकी मनोभूमिका तथा सेवाव्रती बनने के पीछे उनका उद्देश्य स्पष्ट न हो और वे स्वयं निःस्वार्थी न हों। अतएव इन गुणों को क्रमशः बढ़ाने का अभ्यास करते हुए , उन्हें अपने भीतर पूर्ण मात्रा में अर्जित कर लेना ही हमारा मौलिक कार्य है। दूसरे शब्दों में इन्हीं गुणों को मनुष्य का चारित्रिक गुण कहते हैं- इसलिए इन चारित्रिक गुणों को अर्जित कर लेना ही मनुष्य-निर्माण का मौलिक कार्य हुआ। अतएव जिसे 'चरित्र-गठन' (character-building) कहा जाता है उसका ही दूसरा नाम 'मनुष्य निर्माण' (man-making) है। 
      निःसन्देह इस 'मनुष्य-निर्माण' कार्य का प्रारम्भ स्वयं को लेकर भी किया जा सकता है, या दूसरों को ले कर भी। चाहे जहाँ से शुरुआत करें, यदि इस मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन को देश के सभी राज्यों में, सर्वत्र फैला देने की तीव्र इच्छा हमारे मन में हो; तथा यह जोश केवल गिने-चुने सनकी लोगों में सोडावाटर के बोतल की तरह, उफान मारने और तुरंत ही शांत हो जाने वाला न हो, बल्कि यदि हमारा संकल्प दृढ़ हो, तो इसके लिए संघबद्ध होकर एक राष्ट्रव्यापी प्रयास करना विशेष प्रयोजनीय है। और महामण्डल यही करना चाहता है, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि भी यही है। 
 
     देश देश के पुनर्निर्माण के लिये जो कुछ करना आवश्यक है - उन सब कल्याणकारी योजनाओं के ऊपर विस्तार से चर्चा कर लेने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने सबका निचोड़ देते हुए अन्त में कहा था -" अतएव, पहले मनुष्य निर्माण करो ! हमें अभी मनुष्यों की आवश्यकता है और बिना श्रद्धा के 'मनुष्य' बन कैसे सकते हैं ? जब देश में ऐसे मनुष्य तैयार हो जायेंगे, जो अपना सर्वस्व देश के लिए होम कर देने को तैयार हों, जिनकी अस्थियाँ तक निष्ठा के द्वारा गठित हो, भीतर तक एकदम सच्चे, जब ऐसे मनुष्य जाग उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। भारत तभी जागेगा ; जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास एवं सुख की इच्छाओं को विसर्जित कर मनसा-वाचा -कर्मणा उन करोड़ों भारतवासियों के कल्याण के लिए प्राण -पण से प्रयास करेंगे, जो गरीबी और अज्ञान (अविवेक) के भँवर में निरन्तर डूबते जा रहे हैं।" (#१,२,३) इसलिए उन्होंने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था - " जो सच्चे ह्रदय से भारतवासियों के कल्याण का व्रत ले सकें तथा इसी कार्य को अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे तरुणों के साथ कार्य करने में लग जाओ। भारत के तरुणों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।" {#4}  
      रुपया -पैसा या कुछ दान सामग्री (औषधि या अन्न-वस्त्र) इकट्ठा कर अभावग्रस्त लोगों के बीच उनका वितरण करना एक अच्छा कार्य है, ताकि जनसाधारण की आर्थिक कमी थोड़ी दूर हो सके। इसी उद्देश्य के लिये कोई विशेष परियोजना चलाना या राष्ट्रीय संस्थान स्थापित करना भी एक अच्छा कार्य है। लेकिन, जो तरुण लोग अपना सब कुछ भूलकर अपने क्षुद्र स्वार्थों को त्यागकरना सीख कर, भारतवासियों के कल्याण को ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, वैसे तरुणों के चरित्र-निर्माण करने का कार्य, और भी गुरुत्वपूर्ण तथा उत्कृष्ट कार्य है। जीविकोपार्जन के सभी क्षेत्रों में, समाज में एवं घर-परिवार में इसी प्रकार के मनुष्यों की ही तो आवश्यकता है। ऐसे युवा ही तो सतत एवं  सुनिश्चित सामाजिक कल्याण (social welfare) की गारंटी होंगे, जबकि ऐसे मनुष्यों का भारी अभाव है। अतएव, समाजसेवा के समस्त कार्यों में इस प्रकार के मनुष्यों का निर्माण करना ही सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है। महामण्डल के माध्यम से अखिल भारत स्तर पर, यही प्रयास विगत 58 वर्षों से चल रहा है- तथा निःसन्देह उस प्रयास का फल भी मिल रहा है। 
      सही दृष्टिकोण (विवेक-युक्त) रख कर साधारण एवं छोटे -छोटे सेवा कार्यों (ऑफिस ड्यूटी, गार्ड-ड्यूटी, भोजन -कक्ष आदि) को करते- करते भी हम सीख जाते हैं कि बदले में कुछ चाहे बिना भी दाता की भूमिका को कैसे ग्रहण किया जा सकता है , और साथ ही साथ भरपूर आत्मविश्वास भी अर्जित हो जाता है। अखिल भारत विवेकानंद युवा महामंडल, सबोंको इसी प्रकार के प्रयासों में जुट जाने के लिए अनुप्रेरित करता चला आ रहा है। इसका कोई अत्यंत विस्तृत घोषणापत्र नहीं है। यह बहुत ही छोटे रूप में गठित होकर क्रमशः छोटे से बड़ा होता जा रहा है। धीरे-धीरे यह तरुणों के मन जीत रहा है, ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को विशेष तौर पर अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। उन युवाओं ने स्वयं को एक ऐसे दुर्भेद्य दुर्ग के रूप में गठित कर लिया है, जिसमें स्वार्थपरता को प्रविष्ट होने की अनुमति नहीं है, जहाँ सेवापरयाणता की भावना आत्मश्लाघा (perkiness-ढोंग या ऐंठूपन) के बोझ तले दब नहीं सकती।     

       स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा है - " मैं कभी कोई योजना नहीं बनाता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है, और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल यही कहता हूँ- जागो , जागो!" {5} विवेकानन्द युवा महामण्डल मात्र यही चाहता है कि स्वामी जी का यह जागरण- मंत्र देश के समस्त युवाओं के कानों में गूँजने लगे और इस संकट की घड़ी में जब हम हर किसी के प्रति, यहाँ तक कि स्वयं के प्रति भी विश्वास खो बैठे हैं; चिर गौरवमयी भारत माता को पुनः अपने सिंहासन पर प्रतिष्ठित करने के लिए सभी युवा उठ खड़े हों तथा विषम परिस्थिति का डटकर सामना करें। इस महती कार्य में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को यदि कोई भूमिका निभानी है, तो वह है देश के युवाओं के खोये हुए आत्मविश्वास को वापस लौटा देना। महामण्डल का प्रमुख  कार्य युवाओं के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना है, जिससे वे मनुष्य जीवन के महत्व विषय में अपना  एक जीवन-दर्शन बना सकें, अपने जीवन का एक लक्ष्य निर्धारित कर सकें, अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक एवं कर्तव्यों का पालन करने में सक्षम एक योग्य विवेक-सम्पन्न नागरिक के रूप में तैयार होकर अपने व्यक्तिगत जीवन में उच्चतर सार्थकता को प्राप्त कर सकें। विवेक-सम्पन्न मनुष्य के रूप में तैयार होने के इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए आत्मविश्वासी होने तथा चरित्र-निर्माण की व्यावहारिक पद्धति को सरल भाषा में समझा देना ही महामण्डल का मुख्य कार्य है। महामण्डल के समस्त कार्यक्रम इसी लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संचालित हैं। 
      अतएव, व्यष्टि मनुष्य के 'जीवन-गठन एवं चरित्र-निर्माण' के माध्यम से श्रेष्टतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है। इस तरह हम स्वामी विवेकानन्द की मूल शिक्षा:  "मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" (man-making and character-building Education) ग्रहण करने की ओर अग्रसर हो रहे हैं। उन्होंने कहा था " हम ऐसे सामंजस्ययुक्त मनुष्य बनना चाहते हैं, जिसमें हमारी प्रकृति के मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और क्रियावान पक्षों का समान विकास हुआ हो। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है : अनुभव करने के लिए ह्रदय (Heart) की कल्पना करने के लिए मस्तिष्क (Head) की और काम करने के लिये हाथ (Hand) की, इन तीनों का एक साथ सुसमन्वित विकास को पाना हमारा लक्ष्य है।" {6}  " तुम्हारे पास तीन चीजें हैं : (१) शरीर (२) मन (३) आत्मा। आत्मा इन्द्रियातीत (Intangible- अमूर्त) है। मन (Head) जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर (Hand) की है। तुम वही अजर, अमर, अविनाशी आत्मा हो,पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। {7} व्यष्टि मानव यदि संघबद्ध प्रयत्न के द्वारा इस लक्ष्य को प्राप्त करने में निरन्तर लगा रहे तो समाज का बहुत बड़ा भाग निश्चित रूप से उत्तरोत्तर प्रभावित होने के लिए बाध्य है।  क्योंकि यह परिणाम अन्ततः घटित ही होगा, सामाजिक मानदण्डों में क्रमागत उन्नति # के माध्यम से।
     
    परन्तु यह कार्य- (3H में विकसित सामंजस्ययुक्त मनुष्य निर्माण का कार्य) कोई पंचवर्षीय, दशवर्षीय या पच्चीसवर्षीय योजना के अंतर्गत पूरा हो जाने वाला कार्य नहीं है। जन्म-जन्मान्तर होते रहेंगे और यह कार्य-योजना भी चलती रहेगी।  एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी इस कार्य को अपने हाथों में  ले लेगी और यह कार्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी,अनवरत चलता रहेगा। लेकिन इस कार्य से जुड़ने के पहले हमें यह भी समझ लेना चाहिये कि समय के अनन्त प्रवाह में ऐसा कोई भी क्षण नहीं आएगा, जब हम उच्च स्वर से यह घोषणा कर सकेंगे कि " बस ! अब हमलोगों का कार्य समाप्त होता है, हमने अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है - और यह रहा आपके सपनों का त्रुटिरहित आदर्श समाज (perfect society)!" क्योंकि ऐसा होना एक खूबसूरत कल्पना ही हो सकती है, यथार्थ नहीं। अतएव, जो लोग जीवनव्रत के रूप में इस कार्य में आत्मनियोग करेंगे, उन्हें जीवनपर्यन्त (जीवेम शरदः शतम्' ) संघर्ष करने के लिए प्रस्तुत रहना होगा; और विदा लेते समय इस कार्य का दायित्व उनके हाथों में सौंप देना होगा जो एक के बाद एक कर इस आन्दोलन के अनुगामी बनते जायेंगे। 

     अपने देश की अवस्था आज किसी से छिपी हुई नहीं है, देशवासियों की दुर्दशा से सभी लोग परिचित हैं। इस अवस्था को सुधारने के लिए सरकारी तंत्र, गणतन्त्र तथा असंख्य मतवाद  [ism] 
भी हैं। किन्तु इन सबके क्रिया-कलापों को देख-सुन लेने के बाद यह तो समझ में आ ही जाता है 
कि अभी भी एक ऐसा कार्य किया जाना बाकी है, जो परमावश्यक होते हुए भी किसी की भी दल, सरकार या NGO की कार्य सूची में शामिल नहीं है, परन्तु उसे करना ही होगा। उस कार्य को करना ही पड़ेगा, ऐसा सोच कर महामण्डल ने उसी कार्य का चयन कर लिया है। और वह परमावश्यक कार्य है स्वयं को एक 'सुसमन्वित रूप से विकसित मनुष्य' के रूप गढ़ लेने का प्रयास। क्योंकि इसी एकमात्र मौलिक कार्य में असफल रहने कारण हमारे देशवासियों की दुःख-वेदना को कम करने की समस्त योजनायें, अंतिम आदमी को सुखी बनाने प्रयास, और जिस पर हमें गर्व हो, ऐसा एक विकसित महान राष्ट्र बनाने की सारी कोशिशें लगातार व्यर्थ सिद्ध हो रही हैं। 
       गहराई से देखने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि 'सुसमन्वित मनुष्य निर्माण' रूपी समाज-सेवा का यह कार्य [अर्थात 'Be and Make' या स्वयं (3H विवेकी) मनुष्य बनना और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करना] जितना आधिभौतिक (corporeal-दैहिक) है ; उससे कहीं ज्यादा आध्यात्मिक (spiritual) कार्य है।  इसका कारण यह है कि मनुष्य (विवेक-सम्पन्न) बनने और बनाने का कार्य  मनुष्य के केवल बाहरी आवरण, उसके स्थूल शरीर  (outer shell) को विकसित करना ही नहीं, बल्कि उसके अंतर्निहित सत्य स्वरूप (core या हृदय, दिव्यता) को विकसित करना है, जो इन्द्रियातीत (intangible-अमूर्त) है, मन-वाणी से परे है [" Because this wants to treat the core of man and not merely his outer shell."]
      किन्तु आत्मिक विकास या विवेक-सम्पन्न मनुष्य बनने की बात सुनकर यह सोच लेना कि महामण्डल भी कोई धार्मिक संगठन होगा, उचित न होगा। क्योंकि यह अपने सदस्यों को कभी मन्दिर,मस्जिद या चर्च जाने के लिए बाध्य नहीं करता और न ही अपने सदस्यों को किसी प्रकार की धार्मिक पूजा- अनुष्ठान अदि आयोजित करने के लिए कभी प्रेरित करता है। क्योंकि, यह संगठन केवल नवयुवकों के प्रति समर्पित है, और इसमें शामिल सभी नवयुवक पूजा-पाठ या धार्मिक आचार -अनुष्ठानों को उसी प्रकार पारंपरिक ढंग से पालन करते रहने के प्रति आग्रही नहीं भी हो सकते हैं। 
 किन्तु, बिना अपवाद उनमें यह आग्रह अवश्य होता है कि हम एक देशभक्त एवं जिम्मेदार नागरिक बनें, तथा भारत माता के गौरव को बढ़ाने तथा देशवासियों के कल्याण में अपना सम्पूर्ण जीवन न्योछावर कर दें। यदि गहराई से विचार करें , तो पता चलेगा तरुणों की इसी भावना में अद्भुत आध्यात्मिकता सन्निहित है ! इसी प्रकार का जीवन-यापन करने से तो उनमें पूर्ण-मनुष्यत्व (देवत्व या सम्पूर्ण निःस्वार्थपरताका उन्मेष होगा। [तरुण देशभक्त खुदीराम बोस, नेताजी , भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्रशेखर आजाद आदि आत्मबलिदानी देशभक्तों की  देशभक्ति के ऊपर गहराई से विचार करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत माता जब गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी , उस समय देश की आजादी के लिए फाँसी के फंदे पर झूल जाना जिस प्रकार एक उत्कृष्ट देशभक्ति का उदाहरण था ; उसी प्रकार 'आजादी के बाद' उच्च पद पर आसीन रहने या प्रचुर धन रहने के बाद भी केवल देश और देशवासियों के कल्याण के लिये ही जीना भी देशवासियों की 'शिवज्ञान' से सेवा करने में ही सन्निहित है।  और उतनी सच्ची देशभक्ति और सच्ची आध्यात्मिकता भी है।  देश-वासियों की निःस्वार्थ सेवा करने से ही तरुण लोग  पूर्णतर मनुष्यत्व अर्जित करने में समर्थ हो जायेंगे।] स्वामी विवेकानन्द के संदेश को पुनः स्मरण कराते हुए महामण्डल सभी से यह कहना चाहता है कि - " The secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion. " धर्म का रहस्य उसके सिद्धान्तों को जान लेने (या महावाक्यों को रट लेने) में नहीं वरन उस तत्व ज्ञान को अपने जीवन में उतार लेने या रूपायित कर लेने में निहित है। भला बनना तथा भलाई करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।' {8} " एक वाक्य में कहें तो वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उसका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की , व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की आराधना कैसे कर सकोगे , जो अव्यक्त है ?
{9}  'मनुष्य रूपी बुलबुले का जो सत्य-स्वरूप है', जब कोई व्यक्ति अपरो-क्षानुभूति के द्वारा अपने उस यथार्थ स्वरुप को जान लेता है अथवा आत्म -साक्षात्कार कर लेता है तो वह क्या देखता है? (समुद्र का कोई बुलबुला यदि अपने को जान लेगा, तो वह क्या देखेगा ?) स्वामी विवेकानंद को ही पुनः उद्धृत करते हुए कहना पड़ता है - वह यही देखता है कि " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र एक स्थान में निश्चित है। और परमेश्वर एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र सर्वत्र है।" {10} वह व्यक्ति (ब्रह्मविद) यह भी जान लेता है कि अब उसके आस-पास रहने वालों तथा अन्यत्र अवस्थित लोगों में भी अखण्ड रूप से वही विद्यमान है, इसलिए वह स्वयं को केन्द्रबिन्दु मानकर अपने हृदय हृदय की परिधि को विस्तृत करते हुए वह अनन्त दुरी पर रहने वाले पराये मनुष्यों (प्राणियों) को भी अपना बना सकता है।  इस प्रकार उसका ह्रदय विकसित हो जाता है, उसका प्रभाव क्षेत्र प्रसारित होता है, वह बृहद होते- होते यथार्थ मनुष्य में परिणत हो जाता है। इसी को 'journey towards godhood' या  
ईश्वराभिमुखी पथ पर अग्रसर होना भी कहते है।  
       किन्तु, प्रश्न उठ सकता है कि क्या हम अभी तुरंत ही अपने भीतर की स्वार्थपरता, हिंसा , लोभ, असंयम, क्षुद्र अहंबोध से परिपूर्ण अपने पाशविक आवरण (The shell of a brute existence) को भेदकर सीधा 'ईश्वर के साथ एकत्व ' की अनुभूति (Inherent Divinity के साथ, एकत्व की अनुभूति) कर लेंगे ? इसका उत्तर यह है कि 'ईश्वर में उपनीत हो जाना' इतना आसान नहीं है। देवत्व को प्राप्त करने के लिए,  आचरण में जो स्वार्थपरता (100%), ईर्ष्या , लोभ, अहंभाव आदि पाशविक दुर्गुण या 'पशुत्व' अन्तर्निहित है उसकाअतिक्रमण कर पह 'मनुष्यत्व' (50 % निःस्वार्थपरता) अर्जित कर लेना प्रथम सोपान है; और हमलोग अभी इसी प्रथम सोपान की ओर अग्रसर हो रहे हैं। हम स्वीकार करते हैं 'मनुष्यत्व' अर्जित करने तक ही हमारी सीमा है। क्योंकि, केवल मनुष्य का ढाँचा प्राप्त हो जाने मात्र से ही , कोई व्यक्ति मनुष्य नहीं हो जाता, बल्कि उसे क्रमशः निःस्वार्थी होते हुए 'मनुष्य' बनना पड़ता है। 
     प्रसिद्द अंग्रेजी कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग अपनी कविता में कहते हैं - "Progress, man's distinctive mark alone, Not God's, and not the beasts': God is, they are, Man partly is and wholly hopes to be" पशुत्व से पूर्णत्व (ईश्वरत्व) में उन्नत होना केवल 'मनुष्य' की विशिष्ट पहचान है, पशु पूर्ण है (100% स्वार्थी है) ईश्वर पूर्ण (100 % निःस्वार्थी) हैं, मनुष्य आंशिक रूप से (50 %निःस्वार्थी) है, लेकिन पूर्ण रूप से (100%) निःस्वार्थी होने (ईश्वरत्व में उन्नत होने) की आशा करता है।" 
       अतएव जीवन में "पूर्णत्व " (100 निःस्वार्थपरता या ईश्वर के साथ एकत्व की अनुभिति) प्राप्ति के अन्य जितने भी संभावित मार्ग हो सकते हैं उन सब पर चर्चा न करके महामण्डल जाति-धर्म -मतवाद के आधार पर भेदभाव किये बिना तरुणों से केवल उसी मार्ग की चर्चा करना चाहता है जो उसके लिए सरल एवं उपयोगी है और वह मार्ग है - कर्म मार्ग ! जीवन में प्राप्त जो कुछ भी मूल्यवान सुख हो, उसे एक "महान उद्देश्य "के लिए त्याग देने में समर्थ होने को ही तो आध्यात्मिक शक्ति कहा जाता है। यहाँ वह उद्देश्य है - देश एवं करोड़ों देशवासियों का कल्याण। निःस्वार्थभाव से देशवासियों के कल्याण के लिए थोड़ा से भी कुछ करने से हृदय में सिंह का सा बल और हाथों को  अधिक कर्म करने का सामर्थ्य प्राप्त होता है। और यह विशिष्ट समाज सेवा भी इसी प्रकार का कार्य है। इसलिए महामंडल इस कार्य [कर्मयोग या 'Be and Make'] को लक्ष्य नहीं बल्कि हृदय को विशाल बनाते हुए  पूर्णहृदय-मनुष्य (Heart-whole Man) या विवेक-सम्पन्न मनुष्य बनने और बनाने का साधन मानता है। 
       महामण्डल के पास न तो प्रचुर धनबल है, न ही जनबल है। किन्तु उसे तब तक इसकी चिन्ता नहीं है जब तक इसके कर्मियों की दृष्टि के सम्मुख उसका वास्तविक लक्ष्य- 'भारत का कल्याण' और उसका उपाय -'चरित्र-निर्माण', आदर्श -स्वामी विवेकानन्द, ध्येयमंत्र-'Be and Make'  और अभियान मंत्र - 'चरैवेति, चरैवती' बिल्कुल स्पष्ट है। तथा थोड़े से ही सही पर उसके साथ ऐसे युवा जुड़े हुए हैं जो यह जान चुके हैं कि देश के कल्याण का एकमात्र उपाय है -चरित्र निर्माण। आज भी एक बड़ी संख्या में सच्चे ,ईमानदार, निष्ठवान, परिश्रमी , देशभक्त, जिज्ञासु, निःस्वार्थी, त्यागव्रती, तेजस्वी एवं साहसी युवक समुदाय देश के प्रत्येक स्थान में हैं तथा वे लोग देश में नव जागरण लाने  के लिए आग्रही भी हैं; और  महामण्डल का कार्य केवल उन्हें संगठित करना है और मोहनिद्रा को त्याग कर इस मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़ जाने के लिए प्रेरित करना है। 
      महामण्डल कुछ चुनिंदा, तथाकथित गणमान्य (VIP) या प्रसिद्द हस्तियों (Celebrities) का संगठन भी नहीं है। यह उन समस्त तरुणों का संगठन है जो अपने देश, देशवासियों तथा साथ ही साथ स्वयं से भी प्रेम करते हैं। महामण्डल उन युवाओं का संगठन है जो अथक कर्मशील एवं गौरवपूर्ण जीवन जीना चाहते हैं और राष्ट्रीय जीवन में गौरव प्राप्त करने के इच्छुक हैं, चाहे वे किसी भी स्थान पर रहें, किसी भी धर्म को मानें या वे नास्तिक ही क्यों न हों। महामण्डल के सदस्यों को न तो अपना घर-परिवार छोड़ना पड़ता है, न ही स्वाभाविक रूप से प्राप्त आजीविका का परित्याग करना होता है। उन्हें देना होता है अपना कुछ अतिरिक्त समय, थोड़ी शक्ति और यदि संभव हो तो इसके कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए थोड़ा धन। और अपने दैनन्दिन जीवन में उन्हें जो करना पड़ता है, वह हुआ - किसी विवेक-सम्पन्न नागरिक का समुन्नत चरित्र जैसा होना चाहिए,उसी प्रकार का चरित्र गठित करने के लिए अध्यवसाय के साथ कुछ शारीरिक और मानसिक अभ्यास (जैसे व्यायाम या योगासन, सुबह-शाम प्रार्थना और मन को विषयों से खींचने और सही जगह में रखने का अभ्यास), निःस्वार्थ समाज सेवा का कोई एक कार्य और साथ ही साथ चरित्र-गठन में सहयक पुस्तकों का अध्यन। 
      इन दिनों सभी आम और खास लोग चौक -चौराहों पर खड़े होकर अक्सर ये कहते हैं कि भारत की वर्तमान अवस्था में परिवर्तन लाने के लिए इस निकम्मी सरकार को तुरन्त बदल देना होगा। कोई-कोई यह भी सुझाव देते हैं कि प्रजातंत्र के वर्त्तमान स्वरुप स्वरुप को बदलने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा। किन्तु इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं है कि इन कार्यों का उत्तरदायित्व लेने के लिए या साकार को समुचित ढंग से चलाने के लिए और भी अधिक योग्य, ईमानदार, पवित्र एवं और अधिक निःस्वार्थी मनुष्यों की आवश्यकता होगी; वे कहाँ हैं ?  वे कहाँ से आयेंगे ? आखिर ऐसे सच्चरित्र मनुष्यों का निर्माण कैसे होता है? और इनके निर्माण की जिम्मेदारी कौन उठायेगा ? जो लोग  बाँहें चढ़ाते हुए गण-तांत्रिक व्यवस्था में क्रांतकारी परिवर्तन लाने के लिए संघर्षरत रहने का दावा किया करते हैं, वे इस सबसे महत्वपुर्ण कार्य 'मनुष्य-निर्माण' की कोई योजना नहीं बनाते तथा असली कार्य को तो भूले ही रहते हैं। 
       इसीलिए महामंडल अन्य बड़े-बड़े परिवर्तनों की ओर ध्यान दिये बिना पूर्णतः उपेक्षित इस चरित्रनिर्माण के कार्य का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठा लेना चाहता है ; क्योंकि इस प्रारंभिक आवश्यक कार्य "मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा" का प्रचार-प्रसार किये बिना बाद वाले बड़े-बड़े परिवर्तन कभी संभव नहीं है। अतः महामण्डल पूरी विनम्रता के साथ यह स्वीकार करता है कि उसके कार्यक्षेत्र की सीमा या उड़ान बस यहीं- मनुष्य बनने और बनाने तक: 'Be and Make' तक ही है। इसीलिए राजनीति के साथ महामण्डल का कोई संबंध नहीं है; क्योंकि राजनीति सर्वदा घोड़े को पीछे छोड़कर गाड़ी पर ध्यान केंद्रित रखती है। 
    ट्रकों के ऊपर 'मेरा भारत महान ' लिख देने मात्र से भारत महान नहीं बन जाता। कोई भी देश महान तब होता है जब वहाँ के मनुष्य महान होते हैं। हमें इस बात पर गहन चिन्तन करना चाहिये कि देश के लिये सचमुच प्रयोजनीय क्या है ? फिर उस प्रयोजनीयता को समझ लेने पर,  चरित्र-निर्माण की पद्धति को सीखकर उसे अपने आचरण में उतारना चाहिये। यदि हम भारत वर्ष को पुनः उसकी ऊँचाइयों पर ले जाना चाहते हों, उसे एक महान राष्ट्र बनाना चाहते हों तो उसका एकमात्र उपाय यही है। अपने जीवन में चारित्रिक गुणों को सुदृढ़ और पुष्ट बना लेना ही सच्ची शिक्षा है। अतएव 'यथार्थ शिक्षित मनुष्य' कहने का वास्तविक अर्थ यह निकलता है कि, उस व्यक्ति ने चरित्र के सुंदर गुणों का आत्मसातीकरण कर लिया है या उन्हें अपने अस्तित्व के साथ एक कर लिया है।    
 [यदि हम भी चारित्रिक गुणों का आत्मसातीकरण कर यथार्थ शिक्षित मनुष्य, या विवेक-सम्पन्न मनुष्य बनना चाहते हों, तो हमें पहले 'स्व-परामर्श ' (Autosuggestion) पद्धति के अनुसार एक चरित्रवान मनुष्य बनने का संकल्प लेकर, महामण्डल की पुस्तिका 'चरित्र के गुण' (Character qualities) का अध्यन कर उन गुणों को विवेकप्रयोग तथा आत्म-मूल्यांकन तालिका पद्धति के द्वारा अपने जीवन और आचरण में उतारकर आत्मसात (imbibed) कर लेना होगा। यही वास्तविक शिक्षा है।] अतः कहा जा सकता है कि 'यथार्थ शिक्षित मनुष्यों' (विवेकी, श्रद्धावान मनुष्यों) का निर्माण करने वाली शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना ही महामण्डल प्रमुख कार्य है !!   
   अब, स्वभाविक है कि इस कार्य में समय तो लगेगा ही। केवल बैठकर सोचते रहने से, रातों-रात किसी बड़े परिवर्तन को नहीं लाया जा सकता। इसके लिए हमें समुद्र मंथन की ही तरह बिना विश्राम किये तब तक संघर्ष करना होगा जबतक कि अमृत नहीं निकल आता। स्वामी जी कहते हैं- " सभी आधुनिक सुधारक यूरोप के 'विनाशात्मक सुधार' की नकल करना चाहते हैं। इससे न कभी किसी की भलाई हुई है और न होगी। हमारे यहाँ के सुधारक हैं आचार्य शंकर, रामानुज , मध्वाचार्य, चैतन्य आदि। ये महान सुधारक थे जो सदा राष्ट्रनिर्माता रहे और उन्होंने अपने अपने समय की परिस्थिति के अनुसार राष्ट्र निर्माण किया। यह काम करने करने की हमारी (सनातन हिन्दू धर्म की) विशिष्ट विधि है। " (4:256)- इसीलिए महामण्डल का कार्य भी जड़ में जाकर सुधार/निर्माण करना है। स्वामीजी कहते हैं - "जब आप मूल और आधार के प्रति कुछ करना चाहते हैं, तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी। ये विचार, इस रीति से नहीं तो किसी दूसरी से, फैले बिना न रहेंगे , और हममें से बहुतों का विचार है कि उनके प्रचार का उचित समय अब आ गया है। " {11}
      इसीलिए हमारे इस धीमी गति से चलने वाले कार्य को देखकर कोई-कोई बुद्धिवादी बड़ा ही सूक्ष्म प्रश्न उठाते हुए कहते हैं, 'क्या इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश के समस्त मनुष्यों का चरित्र निर्माण कभी संभव है ? ठीक है, ऐसा करना संभव नहीं है। तो क्या आपके पास भारत को महान बनाने का कोई दूसरा उपाय या विकल्प है ? यदि है, तो वही बता दीजिये। यही न कि 'यथा पूर्वं तथा परं।यानि जैसा चल रहा है, वैसे ही चलते रहने दिया जाय। अब कुछ नहीं हो सकता। अब हमें हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना चाहिए। तथा प्रलय होने का इंतजार करना चाहिए। [अभी हिमाचल प्रदेश में बादल फटने की कई घटनाओं के बाद -कुछ बुजुर्ग तुरंत प्रलय की भविष्यवाणी भी करने लगे हैं ?] क्या इस प्रकार से सोचने पर किसी भी समस्या का समाधान सम्भव हो सकेगा ? 
 
    किन्तु, यदि संगठित होकर थोड़े से लोग भी इस 'Be and Make' आंदोलन के साथ जुड़े रहें, यानि स्वयं को तथा साथ ही साथ दूसरों को भी मनुष्य बनाने के प्रयत्न में लगे रहें ; तो कोई न कोई तरुण अवश्य ही यथार्थ मनुष्य के रूप में उन्नत हो सकेगा।  इस प्रकार क्रमशः ऐसे मनुष्यों की संख्या में वृद्धि होती रहेगी। परिणामस्वरूप उसी अनुपात में समाज में भी परिवर्तन सम्भव हो पायेगा। स्वामी विवेकानंद ने इसका उदाहरण देते हुए कहा था - "जब हम विश्व के इतिहास का मनन करते हैं करते हैं तो पाते हैं कि जब-जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब-तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, और जैसे ही अपनी अन्तःप्रकृति का अन्वेषण करना वह छोड़ देता है , वैसे ही उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। भले ही उपयोगितावादी लोग इस चेष्टा को कितना भी अर्थहीन प्रयास कहते रहें।" {12}  
      स्वामी विवेकानन्द का यही निश्चित मत है कि- " जब तक कि लोग शिक्षित न हो जायें, जब तक वे स्वयं अपनी आवश्यक्ताओं को समझने न लगें और अपनी समस्याओं का समाधान खुद करने में समर्थ न हो सकें -तब तक हमें प्रतीक्षा करनी होगी।" {13} उस शिक्षा के संबंध में स्वामी जी ने एक पत्र में कहा था -" शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस विद्या का अभ्यास (प्रत्याहार-धारणा या मनःसंयोग) के अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह एवं प्रस्फुटन को इस प्रकार अपने वश में कर लिया जाता है, जिससे वह फल प्रसविनी शक्ति के रूप में रूपांतरित हो जाती है। और वह रूपांतरण 'विवेक-संपन्न मनुष्य ' के निर्माण के रूप में होता है।  वह शिक्षा (उच्च 'शी'क्षा ) कहलाती है।" {14}  किन्तु इस प्रकार की शिक्षा --[श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में विवेकी मनुष्य बनने और बनाने  Be and Make' का प्रशिक्ष] राज्य संपोषित विद्यालयों और कॉलेजों की स्थापना कर नहीं दी जा सकती। आज प्रतिष्ठित शिक्षालयों की संख्या कम नहीं है, इसके अलावा, एक से बढ़कर एक नामी -गिरामी विद्यालय और विश्वविद्यालय प्रतिदिन खुलते भी जा रहे हैं। किन्तु स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " मैं शिक्षा को गुरु के साथ सम्पर्क, गुरु-गृहवास समझता हूँ। गुरु के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थायें हैं। जनसमुदाय के दुःख-कष्ट में सहभागी बनने के लिए अपने भोग-विलास को त्याग देने की भावना अभी तक हमारे देशवासियों के हृदय को भेद नहीं सका है। "{15} इसलिए तरुण वर्ग के प्राणों में भारतवर्ष के राष्ट्रीय आदर्श -"त्याग और सेवा " की इसी भावना को प्रज्वलित करा देना होगा। अपने देश के सभी युवाओं के द्वार-द्वार तक इस शिक्षा को ले जाना होगा। " यदि पहाड़ मुहम्मद तक नहीं आता है , तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना होगा। " यही है महामण्डल का कार्य। (भारत के गाँव -गाँव में युवा प्रशिक्षण-शिविर का आयोजन करने में सक्षम युवा नेतृत्व का संगठन तैयार करना।)
      एक प्रश्न और है जिसे हमलोगों से अक्सर पूछा जाता है - ' आपलोगों का उद्देश्य तो महान है, आपकी परिकल्पना भी प्रशंसनीय है, किन्तु इस कार्य को धरातल पर उतारने की आपकी पद्धति क्या है ? आप इस कार्य को पूरा करने के लिए किस प्रकार अग्रसर होना चाहते हैं ? इसके उत्तर में हम बस यही कहते हैं कि प्राचीनकाल हमारे ऋषियों ने 'मनुष्य -निर्माण और चरित्र गठन' (man-making and character-building) की जिस पद्धति का आविष्कार किया था, उसी को वर्तमान युग के भविष्य द्रष्टा स्वामी विवेकानन्द जिस प्रकार सरल भाषा में समझाया है , वह पूरी तरह से विज्ञान-सम्मत है। और यही महामण्डल का भी पथ है। आधुनिक मनोविज्ञान तो उसकी अविकल प्रतिध्वनि मात्र है। 
      संक्षेप में कहें तो यह पद्धति है श्रवण , मनन तथा निदिध्यासन की। पहले श्रवण अर्थात चरित्र के गुणों के विषय में पहले सुनना होगा। उसके बाद मनन के द्वारा इन गुणों की स्पष्ट धारणा को अपने अवचेतन मन में स्थापित करना होगा। फिर उनके संरक्षण, प्रयोग एवं इच्छाशक्ति के द्वारा पुनः पुनः अभ्यास करके अपने संस्कार में परिणत करना होगा। श्रेय-प्रेय (शाश्वत-नश्वर) के विवेक को सीखकर लालच को थोड़ा कम करते हुए एवं मन को इन्द्रिय-विषयों में जाने से खींचकर , सही जगह पर (ह्रदयमें) धारण किये रहने का अभ्यास द्वारा मन को वश में रखते हुए हमें बार-बार ऐसे कार्यों को करना होगा जिनके माध्यम से ये गुण (निःस्वार्थपरता आदि गुण)  प्रतिबिंबित हो सकें । इस कार्य में ह्रदय की भी एक भूमिका है। नियंत्रित हृदय-आवेग चरित्र निर्माण की समग्र प्रक्रिया को ही सहज और सरस् बना देता है। 
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि चरित्र-निर्माण की इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में पहले श्रेय-प्रेय के विवेक (ब्रह्मसत्य जगतमिथ्या विवेक)  को जीवन में उतार लेना ज्ञानयोग है, मन को वश में करने का अभ्यास करना राजयोग है। फिर ह्रदय के आवेग को नियंत्रित करना भक्तियोग है, एवं अपने सुविचारित उद्देश्य भारत का कल्याण के लिए निःस्वार्थ कर्म (Be and Make) करना कर्मयोग है। इन चारों योगों के सुसमन्वित अभ्यास से ही चरित्र गठन होता है।  महामण्डल के समस्त कार्यक्रमों को इस प्रकार बनाया गया है कि इसमें सम्मिलित प्रत्येक सदस्य को इन चारों योगों का अनुसरण करने का अवसर प्राप्त हो जाता है। महामण्डल का मनुष्य निर्माण कार्यक्रम उपरोक्त योग प्रणाली के अनुसार चार धाराओं में बंटी हुई है -पाठचक्र, प्रार्थना, मनःसंयोग (mental concentration) एवं समाज सेवा। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि समाज सेवा महामण्डल का लक्ष्य नहीं बल्कि चरित्र-गठन का उपाय मात्र है।
     इसीलिये महामण्डल के कार्यों का आकलन करते समय समाज सेवा के कार्यों की गणना को  मानदण्ड बनाना उचित नहीं होगा बल्कि, यह देखना होगा कि उन कार्यों का सम्पादन करते समय  महामण्डल के सेवाकर्मी का कार्य के प्रति मनोभाव कैसा रहता है ? पाठ चक्र में बोलते समय भी वही मनोभाव रहता है या नहीं ? ह्रदय में प्रेम आवेग के प्रस्फुटन पर विवेक शक्ति का नियंत्रण, तथा सेवा कार्य करते समय भी मन को वश में रखने की क्षमता है या नहीं , यही सब बातें विचारणीय हैं। [दूसरे शब्दों में या श्री रामकृष्ण के शब्दों क्या वह ज्ञानमयी दृष्टि से जगत को ब्रह्ममय देखते हुए निष्काम भाव से; शिव-ज्ञान से जीव-सेवा कर रहा है, अथवा नाम-यश या अन्य लाभ के लिए कर रहा है ?] 
       महामण्डल के केन्द्र अपने-अपने क्षेत्र में इस प्रकार के परिवेश की रचना कर देते हैं जिससे वहाँ के तरुण, महामण्डल के उद्देश्य के अनुरूप चरित्र-गठन का अभ्यास करने में सक्षम हो सकें।  इसके केन्द्र, गाँव, शहर कहीं भी स्थापित किये जा सकते हैं।  इस समय देश के 12 राज्यों में महामण्डल के 330 केन्द्र कार्यशील हैं। इन केंद्रों को किसी विद्यालय के कमरे में, बरामदे में, पेड़ की छाया में, खेल के मैदान में , कहीं भी जहाँ तरुण लोग एकत्र होते हों - स्थापित किया जा सकता है। वहाँ पर ये तरुण अपने शरीर को स्वस्थ-सबल रखने के लिए व्यायाम करते हैं। ज्ञान को बढ़ाने तथा बुद्धि को तीक्ष्ण करने के लिए सागर से विशाल हृदय वाले स्वामी विवेकानंद के जीवन और उपदेशों का अध्यन एवं उनपर चर्चा किया करते हैं। फिर अपने ह्रदय को विस्तृत करने के लिए स्वामीजी के निर्देशों को कार्यरूप में उतारने के लिए मानव सेवा किया करते हैं।
 
       "श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा: 'Be and Make" के माध्यम से 3'H' निर्माण या 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी ' यह शिक्षा -पद्धति कितनी व्यावहारिक है, इसपर कोई तबतक विश्वास नहीं कर सकता जबतक कि वह स्वयं इस प्रणाली के अनुसरण के फल-स्वरूप अपने हृदय के विस्तार को देखकर आश्चर्यचकित न हो जाए !! युवाओं के ही समान बच्चों के लिए महामण्डल का एक  'शिशु -विभाग' भी है जिसमें उपरोक्त अभ्यासों को और भी सहजतर तरीके से कराया जाता है। [ फिर नारियों के चरित्र-गठन के लिये ठीक महामण्डल की ही  कार्य-पद्धति पर आधारित अलग से 'सारदा नारी संगठन' भी है, स्वामीजी है के निर्देशानुसार जिसका संचालन भी स्त्रियों के द्वारा ही किया जाता है।] कई स्थानों पर महामण्डल के केन्द्रों में निःशुल्क चिकित्सालय, कोचिंग क्लासेज, वयस्क शिक्षा केंद्र, शिशु पाठशाला, उच्चविद्यालय , छात्रावास, पुस्तकालय -सह-वाचनालय , पौष्टिक आहार इत्यादि वितरण किये जाते हैं। इसके अलावा ग्राम-सेवा, प्राकृतिक आपदाओं के पीड़ितों को राहत और इसी तरह के अन्य बाह्य समाजसेवा रूपी कार्य भी, केवल सेवा ही नहीं, बल्कि मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ईश्वरत्व की आराधना की दृष्टि से किये जाते हैं। क्योंकि समाज सेवा के इन कार्यों को करते समय महामण्डल कर्मियों का मनोभाव यही रहता है कि ' नरदेह में नारायण सेवा' करने का जो सौभाग्य मिला है, उसे पूजा भाव से करना है;  तथा इसी भावना को अपने जीवन के प्रत्येक कार्यक्षेत्र में अभिव्यक्त करना है। ये लोग प्रतिवर्ष जरूरतमंद रोगियों के लिए रक्तदान भी करते हैं। 
     इस प्रकार वे उन समस्त कार्यों को करते हैं जिसके माध्यम से मांसपेशियों को बलिष्ठ, मस्तिष्क को प्रखर एवं हृदय को प्रसारित करने में सहायता मिलती हो। सभी युवा (तरुण) मनुष्य -निर्माण एवं चरित्र-गठन की पद्धति को आत्मसात कर पाने में समर्थ हों, इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर अखिल भारतीय स्तर पर, राज्य स्तर पर , जिला स्तर पर एवं स्थानीय स्तर पर भी  युवा प्रशिक्षण शिविर प्रतिवर्ष आयोजित किये जाते हैं। शिविर में उन्हें मन को एकाग्र करने की विधि, चरित्र निर्माण की  पद्धति, एवं चरित्र के गुण , 'नेति से इति' आदि विषयों को स्पष्ट रूप से समझा दिया जाता है। यहाँ बताये जाने वाले निर्देशों को आग्रही तरुण लोग अपने -अपने नोटबुक में उतार लेते हैं। उन्हें अपने चरित्र के गुणों में वृद्धि को तालिकाबद्ध कर स्वयं अपना -मूल्यांकन करना या आत्म -मूल्यांकन तालिका को भरना भी सिखाया जाता है। 
    बाद में सभी तरुण व्यक्तिगत स्तर पर अपने चरित्र के गुणों के मानांक में वृद्धि को देखकर स्वयं ही आश्चर्य और उत्साह से भर उठते हैं। देश के विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी युवा समुदाय जब एक ही उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए छः दिनों तक एक ही साथ निवास करते हैं तो सामूहिक क्रिया-कलाप, एवं पारस्परिक प्रेमपूर्ण व्यवहार से उनके भीतर सहिष्णुता , सहयोग की भावना,  एकात्मबोध एवं राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत हो जाती है।  
 
    शिविर के सभी कार्यक्रम उन्हें एक कर्तव्यपरायण , देशभक्त, निःस्वार्थी , त्यागी, एवं विवेक-संपन्न सभ्य नागरिक  बनने में सहायता प्रदान करते हैं। इस प्रकार  शिविर के माध्यम से तरुण लोग क्रमशः मानवोचित भावों से विभूषित, सेवा के लिए तत्पर एवं उदार जीवन दृष्टि सम्पन्न चरित्रवान मनुष्य के रूप में परिणत हो जाते हैं। स्वामी जी कहते हैं - " संसार के धर्म प्राणहीन परिहास की वस्तु हो गए हैं जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र। संसार को ऐसे लोग चाहिये, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण है। " {16} स्वामीजी के अनुसार दर्शन या धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और 'मनुष्य' - परमात्मा तक उठ सकता है। " {17} 
        युवाओं को यह बात ठीक से समझ लेना होगा कि, राष्ट्र की सेवा सही ढंग कर पाने समर्थ होने के लिए पहले स्वयं को उसके 'योग्य' बनाना अति आवश्यक है। देश की यथार्थ सेवा करने के लिए पहले उचित योग्यता अर्जित करना क्यों जरुरी है ; 'अपने चरित्र को सुंदर ढंग गढ़ लेना ही सबसे बड़ी समाजसेवा है' - इस बात को ठीक से समझ लेने के बाद ही तरुण लोग सामाजिक समस्याओं का समाधान करने तथा समाज में हो रहे अनिष्ट को रोकने में समर्थ हो सकते हैं। अतएव, तरुणों से इतर समाज के अन्य सभी समृद्ध और प्रभावशाली लोगों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इन तरुणों के चरित्र-निर्माण के प्रयास में हर सम्भव सहायता करें। और यही वह कार्य है, जिसे महामण्डल ने स्वयं करने के लिए चुन लिया है ; क्योंकि आज के भारत में जो सबसे अनिवार्य कार्य है , वह है सभी तरुणों के लिए स्वामी विवेकानन्द की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' को उपलब्ध करा देना। वह प्रशिक्षण कार्यक्रम [छः दिवसीय, तीन दिवसीय या दो दिवसीय 'Be and Make ' (गुरु-गृहवास) प्रशिक्षण कार्यक्रम] ऐसा सुनियोजित होना चाहिए कि उससे नव युवक लोग शरीर, मन और हृदय (3H) हर दृष्टि से उन्नत हो सकें । प्रत्येक तरुण में एक पूर्ण मानव का विकास ही शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। वर्तमान संस्थागत शिक्षा पद्धति (The institutional educational system) पूर्ण शिक्षा के इस आवश्यक तत्व को प्रदान नहीं कर पाती है जिससे प्रत्येक नागरिक को विभूषित होना चाहिए।  इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल का कार्य प्रचलित शिक्षा पद्धति के शिक्षा व्यवस्था की परिपूरक है। और चूँकि, महामण्डल के समस्त कार्यक्रमों में समाजसेवा का भाव अनिवार्य रूपसे अन्तर्निहित रहता है इसलिए जिन राज्यों के जिन- जिन क्षेत्रों में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज उनकी सेवाओं से अवश्य लाभान्वित होता है।             तथा जो लोग महामण्डल में योगदान करते हैं उन निष्ठावान कर्मियों को महामण्डल जो सेवायें (आध्यात्मिकता) प्रदान करता है, वही तो सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा है। क्योंकि यही एकमात्र ऐसा कार्य है जो समाज में वास्तविक परिवर्तन ला सकता है। अतएव महामण्डल मात्र एक संस्था ही नहीं वरन एक धीर गति से चलने वाला एक विशेष प्रकार का (आध्यात्मिक) आन्दोलन भी है। यदि देश के युवा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन से जुड़ जाये तो इसमें सन्देह नहीं कि समाज अपनी पतनोन्मुख अवस्था से ऊपर उठकर उत्थान एवं सदाचार की दिशा में मुड़ जायेगा।
       विगत 58 वर्षों में इसके कार्य की प्रगति तथा सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर यह आशा क्रमशः बढ़ती जाती है तथा इस आन्दोलन से जुड़े पुराने निष्ठवान कर्मियों की आशा तो अब दृढ़ विश्वास में परिणत हो चुकी है। इसी प्रकार से चरित्रवान मनुष्यों की संख्या में क्रमशः वृद्धि करते हुए उन्हें समाज के हर क्षेत्र में प्रविष्ट करा देना है।  किन्तु, यह कार्य दूसरों का छिद्रान्वेषण या जासूसी करने के लिए नहीं , और न ही राजनीति (T.M.C.) के माध्यम से सत्ता का सुख प्राप्त करने के लिए ही है। इस आन्दोलन से आजीवन जुड़े रहने का एकमात्र कारण यह है कि इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी उपाय से समाज की सबसे बड़ी समस्या -भ्र्ष्टाचार का निदान संभव नहीं है। धन्यवादरहित इस कार्य को अनवरत सफलतापूर्वक संचालित करते रहने में सक्षम होकर ही महामण्डल संतुष्ट है। 
       स्वामी विवेकानन्द के कथन " अतएव, पहले मनुष्य निर्माण करो। " का यही अर्थ है। उन्होंने 
कहा था- " मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। " {18} -उनके  महान भारत बनाने के इस अचूक परामर्श  'Be and Make'  के तात्पर्य को हमलोग अभी तक ठीक से समझ नहीं पाए हैं, इसलिए उनके परामर्श पर हम भारतियों ने ठीक से ध्यान भी नहीं दिया है। किन्तु, उनकी इसी वाणी में -'Revolutionary change' क्रान्तिकारी परिवर्तन का बीज निहित है। सत्ता और सम्पत्ति के लालच में लीन दलालों (pander-कुटिल लोगों) के स्वार्थी सपने (selfish dream) बाद में कहीं खो न जायँ, इसी डर से नवीन भारत के इस जननायक स्वामी विवेकानन्द के गले में- 'हिन्दू संन्यासी ' (The Hindu Monk) का तगमा लगाकर भारत की आम जनता से दूर हटाने का प्रयास करना छोड़कर आइये, हम चरित्र-गठन के कार्य में कूद पड़ें एवं 'मनुष्य-निर्माण के इस आंदोलन को एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में फैलाते हुए सम्पूर्ण राष्ट्र के कोने-कोने तक पहुँचा दें। इसलिए महामण्डल का अभियान मंत्र है - ' चरैवेति , चरैवेति !' अतएव, अखिल भारत विवेकानंद युवा महामण्डल का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दिया जा सकता है:  
 
उद्देश्य -भारत का कल्याण !

उपाय -चरित्र निर्माण !

आदर्श -स्वामी विवेकानंद !

आदर्श वाक्य - 'Be and Make !' 

अभियान मंत्र - ' चरैवेति , चरैवेति !'   

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अनुप्रयुक्त विवेकानन्द 

(Applied Vivekananda)  

1. "इसलिये, पहले मनुष्य निर्माण करो ! हमें अभी 'मनुष्यों' की आवश्यकता है, और बिना श्रद्धा के मनुष्य कैसे बन सकते हैं ? (खण्ड-8:270) " आज हमें श्रद्धा की आवश्यकता है, आत्मविश्वास की आवश्यकता है। बल ही जीवन है, और निर्बलता ही मृत्यु है -'हम आत्मा हैं -अजर, अमर, मुक्त और पवित्र। फिर हमसे पाप कैसे सम्भव है ? असम्भव ! इस प्रकार की दृढ़ निष्ठा होनी चाहिये। इस प्रकार का अडिग विश्वास हमें मनुष्य बना देता है , देवता बना देता है। पर आज हम श्रद्धाहीन हो गए हैं और इसीलिए हमारा तथा देश का पतन हो रहा है। (खण्ड -8 : 269) [श्री सुरेन्द्र नाथ सेन की व्यक्तिगत डायरी से- शनिवार, 22 जनवरी, 1898.]

>>Q. But it is the ruler's duty to see to the wants of the subject people. Whom should we look up to for everything, if not to the king?

Swamiji: Never are the wants of a beggar fulfilled. Suppose the government give you all you need, where are the men who are able to keep up the things demanded? So make men first.  Men we want, and how can men be made unless Shraddha is there? (Vol-5:33)
 "We want Shraddhâ, we want faith in our own selves. Strength is life, weakness is death. 'We are the Âtman, deathless and free; pure, pure by nature. Can we ever commit any sin? Impossible!'—such a faith is needed. Such a faith makes men of us, makes gods of us. It is by losing this idea of Shraddha that the country has gone to ruin." (Vol-5: 332) [Shri Surendra Nath Sen—from private dairy/  Saturday, the 22nd January, 1898.]

2. "जब आपके पास ऐसे मनुष्य होंगे , जो अपना सब कुछ देश के लिये होम कर देने को तैयार हों, भीतर तक एकदम सच्चे , जब ऐसे मनुष्य उठेंगे , तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। ये मनुष्य हैं, जो देश को महान बनाते हैं।  " (खण्ड -4 :249)  [विदेशों की बात और देश की समस्याएं – (द हिंदू, मद्रास, फरवरी, 1897)]"

>>" When you have men who are ready to sacrifice their everything for their country, sincere to the backbone — when such men arise, India will become great in every respect. It is the men that make the country!" (Vol-5:210)  
{'The Abroad And The Problems At Home.'(The Hindu, Madras, February, 1897) } 

3. " भारत तभी जागेगा ; जब विशाल ह्रदय वाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास एवं सुख की इच्छाओं को विसर्जित कर मन ,वचन और शरीर से उन करोड़ों भारतीयों के कल्याण के लिए सचेष्ट होंगे जो अभाव तथा अज्ञानता के भँवर (vortex) में क्रमशः नीचे की ओर डूबते जा रहे हैं।"  
(खण्ड-6:307) [श्रीमती सरला घोषाल - संपादक, भारती को -6 अप्रैल, 1897 को लिखा गया पत्र।)
>>" Then only will India awake, when hundreds of large-hearted men and women, giving up all desires of enjoying the luxuries of life, will long and exert themselves to their utmost for the well-being of the millions of their countrymen who are gradually sinking lower and lower in the vortex of destitution and ignorance." (Vol-5:127)[(Letter dated -6th April, 1897. written to Shrimati Sarala Ghoshal — Editor, Bharati) ]  

4. " जो सच्चे ह्रदय से भारतवासियों के कल्याण का व्रत ले सकें तथा इसी कार्य को अपना एकमात्र कर्तव्य समझें, ऐसे युवाओं के साथ कार्य करने में लग जाओ। भारत के तरुणों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।" -(खण्ड -4 : 280)  [Letter कलकत्ते के किसी बंगाली भाई को लिखित -2nd May, 1895.)
>>Work among those young men who can devote heart and soul to this one duty — the duty of raising the masses of India. Awake them, unite them, and inspire them with this spirit of renunciation; it depends wholly on the young people of India. (Vol-5:78)  [2nd May, 1895] 

5. " मैं उपाय कभी नहीं सोचता। कार्य-संकल्प का अभ्युदय स्वतः होता है, और वह निज बल से ही पुष्ट होता है। मैं केवल कहता हूँ, जागो, जागो !' (खण्ड -4 /408) सिस्टर निवेदिता को 7 जून, 1896 को लिखित पत्र।)
>> "I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake!"  (Vol-7:501) (letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.)

(6-A)  "सामाजिक दोषों के निराकरण का कार्य उतना वस्तुनिष्ट नहीं है, जितना आत्मनिष्ठ। हम कितनी भी लम्बी चौड़ी डिंग क्यों न हाँके समाज के दोषों को दूर करने का कार्य जितना स्वयं के लिए शिक्षात्मक है , उतना समाज के लिए वास्तविक नहीं। " (मेरी क्रान्तिकारी योजना :खण्ड -5 :109)
["This work against evil is more subjective than objective. The work against evil is more educational than actual, however big we may talk. This, first of all, is the idea of work against evil; and it ought to make us calmer, it ought to take fanaticism out of our blood. [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras) Vol-3:207)]  
"मनुष्य, केवल मनुष्य भर  चाहिए बाकी सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी , श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट युवकों की। ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायकल्प हो जाय। " (मेरी क्रान्तिकारी योजना :खण्ड -5 :118) 
"Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized. [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras) Vol-3:207) (Vol-3 :223-24)]

    " सबके समक्ष अपने धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो, संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है। संसार भर में सर्वत्र सर्वसाधारण से यही कहा गया कि तुम लोग मनुष्य ही नहीं हो। शताब्दियों से इस प्रकार डराये जाने के कारण वे बेचारे करीब करीब पशुत्व को प्राप्त हो गए हैं। उन्हें कभी आत्मतत्व के विषय में सुनने का मौका नहीं दिया गया। अब उनको आत्मतत्व सुनने दो , यह जान लेने दो कि उनमें से नीच से नीच में भी आत्मा विद्यमान है -वह आत्मा, जो न कभी मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है न आग जला सकती है, और न हवा सूखा सकती है , जो अजर, अमर , अनादि और अनन्त है, जो शुद्धस्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। " (नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।। गीता २:२३)(मेरी क्रान्तिकारी योजना : खण्ड-5 : 119)

"Preach, preach unto the world the great truths of your religion; the world waits for them. For centuries people have been taught theories of degradation. They have been told that they are nothing. The masses have been told all over the world that they are not human beings. They have been so frightened for centuries, till they have nearly become animals. Never were they allowed to hear of the Atman. Let them hear of the Atman — that even the lowest of the low have the Atman within, which never dies and never is born — of Him whom the sword cannot pierce, nor the fire burn, nor the air dry — immortal, without beginning or end, the all-pure, omnipotent, and omnipresent Atman! (Vol-5 :224)
   
" हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है, जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वसम्पन्न शिक्षा चाहिए, जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी (अमूर्त आत्मा में स्थित रहने की कसौटी) - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भाँति त्याग दो, उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रता है, वह ज्ञानस्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो ह्रदय के अंधकार को दूर कर दे, जो ह्रदय में स्फूर्ति भर दे। सत्य जितना ही महान होता है, उतना ही सहज बोधगम्य होता है -स्वयं अपने अस्तित्व के समान सहज। जैसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए और किसी की आवश्यकता नहीं होती, बस वैसा ही। उपनिषद के सत्य तुम्हारे सामने हैं। इनका अवलंबन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो। बस देखोगे, भारत का उद्धार निश्चित है। " (खण्ड -5 : 120)               

"It is a man-making religion that we want. It is man-making theories that we want. It is man-making education all round that we want. And here is the test of truth — anything that makes you weak physically, intellectually, and spiritually, reject as poison; there is no life in it, it cannot be true. Truth is strengthening. Truth is purity, truth is all-knowledge; truth must be strengthening, must be enlightening, must be invigorating. Give up these weakening mysticisms and be strong. Go back to your Upanishads — the shining, the strengthening, the bright philosophy — and part from all these mysterious things, all these weakening things. Take up this philosophy; the greatest truths are the simplest things in the world, simple as your own existence. The truths of the Upanishads are before you. Take them up, live up to them, and the salvation of India will be at hand." (Vol -3:225)  [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras)] 

6. "हम ऐसे सामंजस्ययुक्त मनुष्य बनना चाहते जिसमें हमारी प्रकृति के मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और क्रियावान पक्षों का समान विकास हुआ हो। अधिकांश राष्ट्र (जातियाँ) और व्यक्ति इनमें से किसी एक पक्ष/पहलू का विकास व्यक्त करती हैं और वे उस एक से अधिक को नहीं समझ पातीं। वे किसी एक ही आदर्श में ऐसी ढल जाती हैं कि किसी अन्य को नहीं देख सकतीं। वास्तविक आदर्श है हम बहुपार्श्वीय बनें।"(खण्ड -3 : 264)    
We want to become harmonious beings, with the psychical, spiritual, intellectual, and working (active) sides of our nature equally developed. Nations and individuals typify one of these sides or types and cannot understand more than that one. They get so built up into one ideal that they cannot see any other. The ideal is really that we should become many-sided. Indeed the cause of the misery of the world is that we are so one-sided that we cannot sympathize with one another. (Vol-6: 137)      " आधुनिक वणिक सभ्यता (mercantile civilization) को, अपने समस्त दंभों और आडम्बरों के साथ, जो एक प्रकार का 'लार्ड मेयर का तमाशा' है, मरना होगा। संसार को जो चाहिए वो है व्यक्तियों के माध्यम से विचार शक्ति। मेरे गुरुदेव कहा करते थे, " तुम स्वयं अपने चरित्र-कमल रूपी फूल को खिलने में सहायता क्यों नहीं देते ? भ्रमर तब अपने आप आयेंगे। " संसार को ऐसे लोग चाहिए, जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले हों। तुम पहले अपने आप पर विश्वास करो, तब तुम ईश्वर में विश्वास करोगे। संसार छः श्रद्धालु मनुष्यों का इतिहास, छः गंभीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं की आवश्यकता है : अनुभव करने के लिए ह्रदय (Heart) की कल्पना करने के लिए मस्तिष्क (Head) की और काम करने के लिये हाथ (Hand) की, इन तीनों का एक साथ सुसमन्वित विकास को पाना हमारा लक्ष्य है। पहले हमें संसार से बाहर जाना चाहिए (ऐषणाओं में आसक्ति से बाहर जाना चाहिए) और अपने लिए समुचित उपकरण (विकसित '3H') तैयार करना चाहिए। अपने को एक डाइनेमो बनाओ।" 
(खण्ड -3 :271) [भक्तियोग के पाठ -संसार का उपकार] 
 
 "The present mercantile civilization must die, with all its pretensions and humbug—all a kind of "Lord Mayor's Show".(6/137)  "What the world wants is thought-power through individuals. My Master used to say, "Why don't you help your own lotus flower to bloom? The bees will then come of themselves." The world needs people who are mad with love of God. You must believe in yourself, and then you will believe in God. The history of the world is that of six men of faith, six men of deep pure character. We need to have three things; the heart to feel, the brain to conceive, the hand to work. First we must go out of the world and make ourselves fit instruments. Make yourself a dynamo. (Vol-6:144)  [Lessons On Bhakti-Yoga /The Yoga Through Devotion/ On Doing Good to the World.]  

7. [#स्वामी विवेकानंद की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' का प्रचार -प्रसार क्यों अनिवार्य है ? (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है :Each soul is potentially Divine किन्तु) " अव्यक्त से अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम कभी ईसा नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो - वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में निरन्तर एक हैं, लेकिन गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में निरन्तर भिन्न हैं'ब्रह्म' ही ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उपादान है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं , परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं।  " तुम्हारे पास तीन चीजें हैं : (१) शरीर (२) मन (३) आत्माआत्मा इन्द्रियातीत (Intangible- अमूर्त) है। मन (Head) जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर (Hand)  की है। तुम वही आत्मा हो,पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। जब मनुष्य कहता है 'मैं यहाँ हूँ', वह शरीर कि बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है, जब तुम उच्चतम भूमिका में होते हो , तब तुम यह नहीं कहते, ' मैं यहाँ हूँ। ' किन्तु जब तुम्हें कोई गाली देता है अथवा शाप देता है और तुम रोष प्रकट नहीं करते, तब तुम आत्मा (हृदय -Heart - तुरीय अवस्था में ) हो। " जब मैं सोचता हूँ कि मैं मन हूँ, तब मैं उस अनन्त अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ, जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ, तब तुम और मैं एक हूँ। ' (अर्थात दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।  देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः।)- यह कथन प्रभु के एक भक्त का है। क्या मन (Head-मिथ्या अहं)  आत्मा (Heart) से बढ़कर है ?"] {7}
 
 सुधार क्यों ?# : (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! किन्तु अव्यक्त से) अभिव्यक्त प्राणियों में बहुत अन्तर होता है। अभिव्यक्त प्राणी के रूप में तुम कभी ईसा नहीं हो सकते। मिट्टी से एक मिट्टी का हाथी बना लो, उसी मिट्टी से एक मिट्टी का चूहा बना लो। उन्हें पानी में डाल दो - वे एक बन जाते हैं। मिट्टी के रूप में निरन्तर एक हैं, लेकिन गढ़ी हुई वस्तुओं के रूप में निरन्तर भिन्न हैं। 'ब्रह्म' (सच्चिदानन्द) ही ईश्वर तथा मनुष्य दोनों का उपादान है। पूर्ण सर्वव्यापी सत्ता के रूप में हम सब एक हैं , परन्तु वैयक्तिक प्राणियों के रूप में ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) अनन्त स्वामी है और हम शाश्वत सेवक हैं।  " तुम्हारे पास तीन चीजें हैं : (१) शरीर (२) मन (३) आत्मा। आत्मा इन्द्रियातीत (Intangible- अमूर्त) है। मन जन्म और मृत्यु का पात्र है और वही दशा शरीर की है। तुम वही आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते हो कि तुम शरीर हो। जब मनुष्य कहता है, 'मैं यहाँ हूँ ', वह शरीर की बात सोचता है। फिर एक दूसरा क्षण आता है , जब तुम उच्च भूमिका में होते हो, तब तुम यह नहीं कहते, 'मैं यहाँ हूँ।' किन्तु जब तुम्हें कोई गाली देता है अथवा शाप देता है (जानबूझ कर अपमानित करता है ?) और तुम रोष प्रकट नहीं करते, तब तुम आत्मा हो। " जब मैं सोचता हूँ कि मैं मन हूँ, तब मैं उस अनंत अग्नि की एक स्फुलिंग हूँ , जो तुम हो। जब मैं यह अनुभव करता हूँ कि मैं आत्मा हूँ , तब तुम और मैं एक हूँ ' - यह एक प्रभु के भक्त (हनुमान जी) का कथन है। क्या मन (अहं ) आत्मा से बढ़कर है ? (खण्ड -10:40) (मनुष्य और ईसा में अन्तर १०/४०)  [यह कथन प्रभु के भक्त हनुमान जी का है। 'लेकिन वही बुद्ध ईसा हुए थे , यह मेरा अपना विश्वास है !' दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत्।  देहबुद्धया तु दासोऽहं  जीवबुद्धया त्वदंशक। आत्मबुद्धया  त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः ॥  ज्ञानमय दृष्टि से संसार को ब्रह्ममय देखना चाहिए।  देहबुद्धि से तो मैं आपका दास हूँ, बताइये आपके लिए क्या कर सकता हूँ ?  जीवबुद्धि से आपका अंश ही हूँ और  आत्मबुद्धि से में वही हूँ जो आप हैं, यही मेरी निश्चित मति है॥ लेकिन ईश्वर मायापति हैं और जीव (मनुष्य) ईश्वर की कृपा के बिना (पवित्र त्रयी की कृपा के बिना) यह कभी नहीं समझ सकता कि 'माया' क्या है ? माया तुम्हारी राम राम जीव भी तुम्हारा। माया जीव दोनों को ही राम का सहारा-जीव जाने क्या है माया राम की कृपा से !]  

" There is much difference in manifested beings. As a manifested being you will never be Christ. Out of clay, manufacture a clay elephant, out of the same clay, manufacture a clay mouse. Soak them in water, they become one. As clay, they are eternally one; as fashioned things, they are eternally different. The Absolute is the material of both God and man. As Absolute, Omnipresent Being, we are all one; and as personal beings, God is the eternal master, and we are the eternal servants. You have three things in you: (1) the body, (2) the mind, (3) the spirit. The spirit is intangible, the mind comes to birth and death, and so does the body. You are that spirit, but often you think you are the body. When a man says, "I am here", he thinks of the body. Then comes another moment when you are on the highest plane; you do not say, "I am here". But if a man abuses you or curses you and you do not resent it, you are the spirit. "When I think I am the mind, I am one spark of that eternal fire which Thou art; and when I feel that I am the spirit, Thou and I are one"-- so says a devotee to the Lord (Hanuman). Is the mind (Ego) in advance of the spirit? (Vol -8 :179-180) [ Notes Of Class Talks And Lectures/ The Difference Between Man and Christ.]

8. " धर्म का रहस्य तत्व को (चार महावाक्यों को) जान लेने में नहीं वरन उस तत्व ज्ञान को आचरण में उतार लेने में निहित है। भला बनना तथा भलाई करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।'
 ["धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।"(30 अप्रैल, 1891 को गोविन्द सहाय को लिखित पत्र/ (खण्ड-1: 380)]
My children, the secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion. (vol-6 :245)] 

" संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गए हैं। जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र। संसार को ऐसे मनुष्य चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण है। वह प्रेम के एक एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा। " (खण्ड -4 /408) सिस्टर निवेदिता को 7 जून, 1896 को लिखित पत्र।)   

"Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt." (Vol-7:501) (letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.) 

धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और 'मनुष्य' - परमात्मा तक उठ सकता है। " {17} (सू.सु -२/११/खंड १० /२१३) 

"Religion is the idea that raises the brute to man, and man to God."
 [5/409]  

9.  "एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना' , और उसका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की , व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की आराधना कैसे कर सकोगे , जो अव्यक्त है ? (खण्ड -8 :३४)  
" In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is !" and this is its message, that if you cannot worship your brother man, the manifested God, how can you worship a God who is unmanifested? (2/325) PRACTICAL VEDANTA/PART II/ (Delivered in London, 12th November 1896)

10. " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र एक स्थान में निश्चित है। और परमेश्वर एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है लेकिन जिसका केंद्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है , सब आँखों द्वारा देखता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा साँस लेता है , सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्क द्वारा विचार करता है। यदि मनुष्य (ठाकुर देव) अपनी आत्मचेतना को अनंत गुनी कर ले , तो वह ईश्वररूप बन सकता है और सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। " (खण्ड -3: 119) [क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत। 'होम ऑफ़ ट्रुथ' (सत्य का घर), लॉस एंजिल्स, कैलिफोर्निया में दिया गया भाषण।]
Man is an infinite circle whose circumference is nowhere, but the centre is located in one spot; and God is an infinite circle whose circumference is nowhere, but whose centre is everywhere. He works through all hands, sees through all eyes, walks on all feet, breathes through all bodies, lives in all life, speaks through every mouth, and thinks through every brain. Man can become like God and acquire control over the whole universe if he multiplies infinitely his centre of self-consciousness." (Vol-2:33) (HINTS ON PRACTICAL SPIRITUALITY:( Delivered at the Home of Truth, Los Angeles, California )

11. "जब आप मूल और आधार के प्रति कुछ करना चाहते हैं, तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी।....और हममें से बहुतों का विचार है कि उनके प्रचार का उचित समय अब आ गया है। यह नया सिद्धान्त ('नाम -जप' की तरह " Be and Make") भी बिना शुल्क और बिना मूल्य वितरित किया जाता है, यह पूर्णतया उन्हीं लोगों के निजी प्रयासों पर निर्भर होता है, जो उसे अपनाते हैं। (खण्ड -4: 235)- भारत का मिशन) 

[When you deal with roots and foundations, all real progress must be slow. Of course, I need not say that these ideas ( Be and Make) are bound to spread by one means or another, and to many of us the right moment for their dissemination seems now to have come."(vol- 5/193)(India's Mission (Sunday Times, London, 1896) ] 

12. " मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है, जब तक वह प्रकृति से ऊपर उठने (उसका अतिक्रमण करने) के लिए संग्राम करता है। और वह प्रकृति बाह्य और आन्तरिक दोनों है। बाह्य प्रकृति को जीत लेना अच्छा है, कितना भव्य है। पर उससे असंख्य गुना अच्छा और भव्य है अभ्यंतर प्रकृति (अहं) पर विजय पाना। ग्रहों और नक्षत्रों की गति को नियंत्रित करने वाले नियमों को जान लेना बहुत अच्छा और गरिमामय है; उससे अनंत गुना अच्छा और भव्य है , उन नियमों को जानना , जिनसे मनुष्य के मनोवेग, भावनायें और इच्छाएं नियंत्रित होती हैं। इस आंतरिक मनुष्य (अहं) पर विजय पाना , मानव मन की जटिल सूक्ष्म क्रियाओं के रहस्य को समझना , पूर्णतया धर्म के अंतर्गत आता है। " (धर्म की आवश्यकता : खण्ड -2: 197-98 )    
" हर समाज में कुछ ऐसे लोग मिलते ही हैं, जिन्हें इन्द्रियविषयक वस्तुओं में कोई आनंद नहीं मिलता। वे इनसे ऊपर उठना चाहते हैं और यदा-कदा सूक्ष्मतर तत्वों की झाँकी पाकर उन्हें ही पाने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। और जब हम विश्व के इतिहास का मनन करते हैं करते हैं तो पाते हैं कि जब-जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब-तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है; तथा जब भूमा या असीम की खोज - उसे उपयोगितावादी कितनी ही अर्थहीन कहें -समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। तात्पर्य यह है कि आध्यात्मिकता ही किसी भी जाति की शक्ति का प्रधान स्रोत है। और जैसे ही अपनी अन्तःप्रकृति का अन्वेषण करना वह छोड़ देता है , वैसे ही उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। भले ही उपयोगिता-वादी लोग इस चेष्टा को कितना भी अर्थहीन प्रयास कहते रहें।" (धर्म की आवश्यकता : खण्ड -2 :198) 
"Man is man so long as he is struggling to rise above nature, and this nature is both internal and external. It is good and very grand to conquer external nature, but grander still to conquer our internal nature. This conquering of the inner man, understanding the secrets of the subtle workings that are within the human mind, and knowing its wonderful secrets, belong entirely to religion. 
But in every society, there is a section whose pleasures are not in the senses, but beyond, and who now and then catch glimpses of something higher than matter and struggle to reach it. And if we read the history of nations between the lines, we shall always find that the rise of a nation comes with an increase in the number of such men; and the fall begins when this pursuit after the Infinite, however vain Utilitarians may call it, has ceased. That is to say, the mainspring of the strength Of every race lies in its spirituality, and the death of that race begins the day that spirituality wanes and materialism gains ground. "[(Volume - 2:65), Jnana-Yoga/THE NECESSITY OF RELIGION( Delivered in London)] 

13. " समग्र धर्म वेदान्त में ही है अर्थात वेदान्त दर्शन के द्वैत , विशिष्टाद्वैत और अद्वैत , इन तीन स्तरों या भूमिकाओं में है और ये एक के बाद एक आते हैं तथा मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति की क्रम से तीन भूमिकाएं हैं। प्रत्येक भूमिका आवश्यक है। यही सार रूप से धर्म है। भारत के नाना प्रकार के जातीय आचार -व्यवहारों और धर्ममतों में वेदांत के प्रयोग का नाम है -'हिन्दू धर्म।' यूरोप की जातियों के विचारों में उसकी पहली भूमिका अर्थात द्वैतवाद का प्रयोग है -'ईसाई धर्म।' सेमेटिक जातियों में उसका (द्वैतवाद) का ही प्रयोग है -'इस्लाम धर्म। ' अद्वैतवाद ही अपनी योगानुभूति के आकार में हुआ 'बौद्ध धर्म ' - इत्यादि, इत्यादि। धर्म का अर्थ है वेदान्त ; उसका प्रयोग विभिन्न राष्ट्रों के विभिन्न प्रयोजन, परिवेश एवं अन्यान्य अवस्थाओं के अनुसार विभिन्न रूपों में बदलता ही रहेगा। मूल दार्शनिक तत्व एक होने पर भी तुम देखोगे कि शैव , शाक्त आदि हर एक सम्प्रदाय ने अपने अपने विशेष धर्ममत और अनुष्ठान -पद्धति में उसे रूपांतरित कर लिया है। (खण्ड-4: 283) [आलासिंगा पेरुमल को 6 मई, 1895 को लिखित पत्र]   

[ All of religion is contained in the Vedanta, that is, in the three stages of the Vedanta philosophy, the Dvaita, Vishishtâdvaita and Advaita; one comes after the other. These are the three stages of spiritual growth in man. Each one is necessary. This is the essential of religion: the Vedanta, applied to the various ethnic customs and creeds of India, is Hinduism. The first stage, i.e. Dvaita, applied to the ideas of the ethnic groups of Europe, is Christianity; as applied to the Semitic groups, Mohammedanism. The Advaita, as applied in its Yoga-perception form, is Buddhism etc. Now by religion is meant the Vedanta; the applications must vary according to the different needs, surroundings, and other circumstances of different nations. You will find that although the philosophy is the same, the Shâktas, Shaivas, etc. apply it each to their own special cult and forms." (Vol-5:82) [Letter to  Alasinga: 6th May, 1895.]      
 
 " हमें अपने धर्म का अध्यन वेदों में करना है (वेदान्त या उपनिषदों में करना है) ; वेदों को छोड़कर अन्य सब ग्रंथों में परिवर्तन अनिवार्य है। वेदों के प्रमाणिकता सदा के लिए है; वेदों को छोड़कर अन्य सब ग्रंथों की प्रमाणिकता केवल विशिष्ट समय के लिए है। उदाहरण के लिए, एक स्मृति एक युग में शक्तिशाली होती है, तो दूसरी दूसरे युग में। जाति-व्यवस्था का नाश नहीं होना चाहिए; उसे केवल समय समय पर परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए। जाति-व्यवस्था को मिटाने की बात करना -कोरी बुद्धिहीनता है। नयी रीति यह है कि - पुरातन का विकास हो। हमें उस समय तक ठहरना होगा, जब तक कि लोग शिक्षित न हो जायें (गीता और उपनिषदों के धर्म को समझने योग्य न हो जाएँ।), जब तक वे अपनी आवश्यक्ताओं को न समझने लगें और अपनी समस्याओं को खुद सुलझाने के लिए तैयार न हो जाएँ और ऐसा करने की क्षमता न प्राप्त कर लें। " (खण्ड -4 : 254)
[ Q -"What are your views, Swamiji, in regard to the relation of caste to rituals?"

"Caste is continually changing, rituals are continually changing, so are forms. It is the substance, the principle (चार महावाक्य), that does not change. It is in the Vedas that we have to study our religion. With the exception of the Vedas every book must change. The authority of the Vedas is for all time to come; the authority of every one of our other books is for the time being. For instance; one Smriti is powerful for one age, another for another age We have, therefore, to wait till the people are educated (ie Become able to understand the the substance, the principle  of Gita and Upanishads.), till they understand their needs and are ready and able to solve their problems.  (5/215) [Volume 5, Interviews/The Abroad And The Problems At Home (The Hindu, Madras, February, 1897]

14. " यंत्रचालित अति विशाल जहाज और महाबलवान रेल का इंजन जड़ है, वे हिलते और चलते हैं, परन्तु वे जड़ हैं। और वह नन्हा सा कीड़ा जो दूर से ही इंजन के देखकर, अपने जीवन की रक्षा के लिए रेल की पटरी से हट गया, वह क्यों चैतन्य है ? यंत्र में इच्छा-शक्ति का कोई विकास नहीं है। यंत्र कभी नियम का उलंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है और नियम के विरुद्ध जाता है, चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि; इसीलिए वह चेतन है। जिस जीव को इच्छाशक्ति को प्रकट करने में जितनी सफलता मिलती है, उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही ऊँचा होता है। परमात्मा की इच्छाशक्ति पूर्णरूप से सफल होती है , इसलिए वह उच्चतम है। " शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस विद्या (मनःसंयोग) के अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।" (खण्ड-7 :359)   
[ "जे विद्याचर्चाय इच्छा-शक्तिर प्रवाह एवं प्रकाश नियन्त्रित हये ता फलप्रसवनि  शक्तिते रूपान्तरित हय ताकेई बले शिक्षा। - अर्थात " सीखने की वह प्रक्रिया जिसमें मन को एकाग्र करने की विद्या--'मनःसंयोग' के अभ्यास का प्रशिक्षण द्वारा - (यम,नियम का अभ्यास 24 X 7, तथा आसन, प्रत्याहार धारणा का अभ्यास प्रतिदिन दो बार करने के द्वारा) इच्छाशक्ति के प्रवाह और प्रस्फुटन को इस प्रकार अपने वश में कर लिया जाता है जिससे वह फलदायी गतिविधि/शक्ति (fruitful activity -यानि निःस्वार्थपर मनुष्य के निर्माण)में रूपांतरित हो जाती है, उसे शिक्षा कहा जाता है।" (७/३५९)] 
" The huge steamer, the mighty railway engine — they are non-intelligent; they move, turn, and run, but they are without intelligence. And yonder tiny worm which moved away from the railway line to save its life, why is it intelligent? There is no manifestation of will in the machine, the machine never wishes to transgress law; the worm wants to oppose law — rises against law whether it succeeds or not; therefore it is intelligent. Greater is the happiness, higher is the Jiva, in proportion as this will is more successfully manifest. The will of God is perfectly fruitful; therefore He is the highest. What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. 
"The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education ! " (Vol-4 :490)(letter written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar, on 23rd December, 1898.)]

15. "अमेरकी जाति की आयु अभी इतनी कम है कि त्याग की बात उनकी समझ में नहीं आ सकती। इंगलैंड ने युगों में सम्पत्ति और विलास का आनन्द लिया है। वहाँ बहुत से लोग त्याग के लिए तैयार हैं। इस युग का दर्शन अद्वैतवाद है, सब इसकी चर्चा करते हैं। प्रोफेसर मैक्स मूलर पूर्ण वेदांती हैं और उन्होंने वेदांत में शानदार काम किया है। वे पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। (४/२६०) 
प्रश्न -आप भारत के पुनर्जागरण के लिए क्या करना चाहते हैं ? 
" मैं समझता हूँ कि हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय पाप जनसमुदाय की उपेक्षा है , और वह भी हमारे पतन का एक कारण है। हम कितनी ही राजनीति बरतें, उससे उस समय तक कोई लाभ नहीं होगा, जब तक कि भारत का जनसमुदाय एक बार फिर सुशिक्षित, सुपोषित और सुपालित नहीं होता। यदि हम भारत को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं , तो हमें उनके लिए काम करना होगा। मैं युवकों को धर्म-प्रचारक (वेदांत-उपदेशक) के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए पहले दो केन्द्रीय संस्थायें आरम्भ करना चाहता हूँ, एक मद्रास में और दूसरी कलकत्ते में। (४/२६१) 
" मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आयेंगे। सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे। आपके पास संसार का महानतम धर्म है और आप जनसमुदाय को सारहीन और निरर्थक कथा सुनकर पालते हैं। आपके पास चिरंतन बहता हुआ स्रोत है और आप उन्हें गंदी नाली का पानी पिलाते हैं ! " (४/२६१)                
   " विश्वास कीजिये कि आत्मा अमर है, अनन्त है और सर्वशक्तिमान है। (किन्तु इस तत्व को, या वेदान्त को केवल गुरु-शिष्य परम्परा ' Be and Make' में ही अपने अनुभव से -आत्मसाक्षात्कार द्वारा ही समझा जा सकता है, इसलिए) मैं शिक्षा को गुरु के साथ सम्पर्क, गुरु-गृहवास -समझता हूँ। गुरु के व्यक्तिगत जीवन के अभाव में शिक्षा नहीं हो सकती। अपने विश्वविद्यालयों को लीजिये। अपने 50 वर्षों के अस्तित्व में उन्होंने क्या किया है ? उन्होंने एक भी मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं किया। वे केवल परीक्षा लेने की संस्थायें हैं। सबके कल्याण के लिए बलिदान (त्याग और सेवा) की भावना का अभी हमारे राष्ट्र में विकास नहीं हुआ है।  (जनसमुदाय के दुःख-कष्ट में सहभागी बनने के लिए अपने भोग-विलास को त्याग देने की भावना अभी तक हमारे देशवासियों के ह्रदय को भेद नहीं सकी है। " (खण्ड -4 : 262)  ( पश्चिम में प्रथम हिन्दू संन्यासी का मिशनरी कार्य और भारत को पुनरुज्जीवित करने के लिए उनकी योजना : 'मद्रास टाइम्स', फरवरी, 1897) ]    
खण्ड -4 : 260 -262)  
[ "The American people are too young to understand renunciation. England has enjoyed wealth and luxury for ages. Many people there are ready for renunciation. The philosophy of the age is Advaitism; every-body talks of it; only in Europe, they try to be original.  Professor Max Müller is a perfect Vedantist and has done splendid work in Vedantism. He believes in reincarnation." 
Q : "What do you intend doing for the regeneration of India?"

"I consider that the great national sin is the neglect of the masses, and that is one of the causes of our downfall. No amount of politics would be of any avail until the masses in India are once more well educated, well fed, and well cared for.  If we want to regenerate India, we must work for them. I want to start two central institutions at first — one at Madras and the other at Calcutta — for training young men as preachers. My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. They will work out the whole problem, like lions. 
"My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. They will work out the whole problem, like lions. You have the greatest religion which the world ever saw, and you feed the masses with stuff and nonsense. You have the perennial fountain flowing, and you give them ditch-water. 
"Believe that the soul is immortal, infinite and all-powerful. My idea of education is personal contact with the teacher - Gurugriha-Vâsa. Without the personal life of a teacher there would be no education. Take your Universities. What have they done during the fifty years of their existences. They have not produced one original man. They are merely an examining body. The idea of the sacrifice for the common weal is not yet developed in our nation." (Volume- 5 : 221-224) -[Interviews : The Missionary Work Of The First Hindu Sannyasin To The West And His Plan Of Regeneration Of India . Madras Times, February, 1897) ] 
 
18. 6 मई, 1895 को आलसिंगा पेरुमल को लिखित पत्र में कहते हैं - " मैं यहाँ मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूँगा, जो ईश्वर में अंतःकरण से विश्वास करेगा और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता करने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो। " (खण्ड -4:284) 
"I am to create a new order of humanity here who are sincere believers in God and care nothing for the world. This must be slow, very slow. Nobody will come to help you if you put yourself forward as a leader. Kill self (Ego?) first if you want to succeed."(Vol-5:82)     

19. 'दी इको', लंदन, 1896 : क्या हम पूछ सकते हैं कि जिस धर्म का आप इंग्लैण्ड में प्रचार करने आये हैं , उसकी उद्भावना (शुरुआत) आपने ही की है ? 

("May one ask if you originated this religion you have come to preach to England?")
 
 स्वामीजी- " निश्चय ही नहीं। मैं भारत के एक महान ज्ञानी रामकृष्ण परमहंस का शिष्य हूँ। वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जिन्हें हम बहुत विद्वान् कह सकें , जैसा कि हमारे बहुत से ज्ञानी हैं , पर वे बहुत पवित्र थे, और वेदांत दर्शन की चेतना में गहरे डूबे हुए थे। जब मैं दर्शन कहता हूँ, तो मुझे लगता है कि शायद मुझे धर्म कहना चाहिए था, क्योंकि वह वास्तव में दोनों है। (मेरे गुरुदेव के  बारे में यदि जानना हो तो) आपको 'Nineteenth Century' के हाल के अंक प्रकशित प्रो० मैक्स मूलर द्वारा लिखित उनकी जीवनी पढ़नी चाहिए। केशवचन्द्र सेन और दूसरे लोगों के जीवन पर उनका प्रभाव बहुत गंभीर पड़ा था। अपने शरीर को संयमित करके और अपने मन को जीतकर उन्होंने आध्यात्मिक संसार में आश्चर्यजनक गहरी पैठ प्राप्त की थी उनका चेहरा उनकी शिशुवत कोमलता, गंभीर नम्रता और कथन की उल्लेखनीय मधुरता के कारण असाधरण था। उसे देखकर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था। "
 
'दी इको', लंदन, 1896 : तो क्या आपके उपदेश वेदों से लिए गए हैं ? 

स्वामीजी - " हाँ। वेदांत का अर्थ है वेदों का अंत, तीसरा भाग अर्थात उपनिषद, जिनमें वे विचार गहन रूप से उपस्थित हैं, जो आरम्भिक भाग में अंकुर रूप में वर्तमान थे। " (इंग्लैण्ड में भारत की मिशनरी का उद्देश्य : ४/२४३ -२४४)     

" जिसके मन में साहस तथा ह्रदय में प्यार है,वही मेरा साथी बने- मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है।...हम सब कुछ कर सकते हैं और करेंगे; जिनका सौभाग्य है, वे गर्जना करते हुए हमारे साथ निकल आयेंगे,  और जो भाग्यहीन हैं, वे बिल्ली की तरह एक कोने में बैठ कर म्याऊँ-म्याऊँ करते  रहेंगे ! "(४:३०६)  

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[सहचर हैं ज्ञान और आनंद !   
यह एक कठिन प्रश्न है कि समस्त वांछित , कल्पित और अभिलषित सुविधायें उपलब्ध होने के बाद भी हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों में , नामी गिरामी यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों में भी मानसिक अवसाद और तनाव क्यों है ? क्यों अनेक उच्च शिक्षा केंद्रों के बाहर असामाजिक तत्वों द्वारा नशे का व्यापार फल-फूल रहा है ?  क्यों हमारे बड़े बड़े शिक्षा केंद्र अपने छात्रों को 'आनंद' में रहना नहीं सिखा पाते ? बौद्धिक महाशक्ति बनने और विश्वगुरु के स्थान पर पुनः प्रतिष्ठित होने की कामना करने वाले देश और समाज को एक बार गंभीरता से यह समझना पड़ेगा कि हम अपने शिक्षण संस्थानों को ज्ञान के साथ- साथ आनंद का केंद्र कैसे बनायें ?  हमारी एक प्रार्थना है जो प्रायः स्कूलों में गायी जाती है-
हे प्रभु आनंद-दाता, ज्ञान हमको दीजिए,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को, दूर हमसे कीजिए।
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी धर्म-रक्षक, वीर व्रत धारी बनें।
॥ हे प्रभु आनंद-दाता ज्ञान हमको दीजिए...॥
इसके लेखक हैं रामनरेश त्रिपाठी  (4 मार्च, 1881- 16 जनवरी, 1962 ) का जन्म जौनपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा जौनपुर में ही हुई। प्रार्थना की उपर्युक्त चार पंक्तियाँ ही देश के कोने-कोने में गायी जाती हैं। लेकिन सच तो ये है कि माननीय श्री रामनेरश त्रिपाठी  ने इस प्रार्थना को छह पंक्तियों में लिखा था। जिसकी आगे की दो पंक्तियाँ इस प्रकार हैं- 
जाए हमारी आयु हे प्रभु, लोक के उपकार में।  
हाथ डालें हम कभी न, भूल कर अपकार में।।
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[इसलिए अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को 1967 में आविर्भूत होना पड़ा। प्रारम्भ से ही इस युवा- संगठन - के आदर्श रहे हैं - चिर युवा नेता स्वामी विवेकानन्द। जबकि भारत सरकार ने भी (1985 से) स्वामी विवेकानन्द को युवा नेता मानते हुए, इनके जन्मदिवस 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया है।]  
 



     

Thursday, June 26, 2025

"Aims And Activity Of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal " (Mahamndal Booklet -18)

  (Mahamndal Booklet -18) 

  
Aims And Activity 

Of

 Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal 

(NABANIHARAN MUKHOPADHYAY)

     Man is the basic thing, and man-making is the basic work. All social service, by state or voluntary organizations, is rendered through the agency of man. If these men do not have the right understanding, attitude, motivation, and selflessness, no service will deliver the goods properly. Therefore, cultivating these qualities is basic work. These qualities  belong really  in the character of man. And character-building is another name for man-making.  
      An individual may, of course, attempt at man-making with himself or others. But to make a serious attempt everywhere and not to leave it as a casual endeavour of a few, an organized effort that will cover all parts of the country is essential. And that is the idea behind the Mahamandal.
     Having discussed what is necessary, Swami Vivekananda came to the essential point when he said, 'So make men first.' {1}. When you have men who are ready to sacrifice their everything for their country, sincere to the backbone — when such men arise, India will become great in every respect. {2} " Then only will India awake, when hundreds of large-hearted men and women, giving up all desires of enjoying the luxuries of life, will long and exert themselves to their utmost for the well-being of the millions of their countrymen who are gradually sinking lower and lower in the vortex of destitution and ignorance." {3} 
     So he exhorted (समझाया/दिलसे आग्रह किया- exhorted earnestly-), 'Work among those young men who can devote heart and soul to this one duty — the duty of raising the masses of India. Awake them, unite them, and inspire them with this spirit of renunciation; it depends wholly on the young people of India." {4} 
        It is good to collect funds and materials and distribute them to the needy people or to set up some project for the economic benefit of people. But better and more important to build up the character of young men, who will unselfishly do everything for the well-being of the people. Such people should be there in all avocations of life, in society, and at homes. That is most essential and forms the guarantee for assured and sustained social well-being. The making of such men is, thus, the most essential social service.  
    This is being attempted through the Mahamandal . And, to be sure, the attempt is yielding results.
    Through small and simple items of social service (seva) with the right perspective view we can learn how to take the position of the giver without barter, at the same time gaining faith in ourselves. In this attempt, the Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal inspires all its friends. It does not have a big manifesto. It is growing in a small way, gradually captivating the minds of young men, especially in villages, in building themselves into strong fortresses , where petty selfishness cannot make any inroad, where service is not overshadowed by self . Swamiji himself said,  I never make plans. Plans grow and work themselves. I only say, awake, awake! " {5}
      The Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal asks all young men to hearken to the call of Swami Vivekananda to awake and to rise to the occasion when India, our ever glorious motherland, seems to pass through a critical stage, when we do not believe anything or anybody, not even ourselves .  
     If the Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal has any role to play, it is this recovery of faith of the young men of the country in themselves. The main work of the Mahamandal is on the minds of the young people to help them from a life-view, find an aim of life, and to provide a practical method of self-development and character-building so that they may become conscientious citizens aware of and competent to do their duty to society and to achieve grater fulfilment of their individual lives. All the work of the Mahamandal is directed to this purpose.
         The aim of the Mahamandal, is thus , building a better society by building life and character of individuals ' man-making and character-building' {5A}, to use the famous phrase of Swami Vivekananda. ('My plan of campaign' - Delivered at the Victoria Hall, Madras.) This means balanced development of his 3'H' - Head, Heart, and Hand - head to think, heart to feel , and hand to work. This aim, when pursued by individuals with collective endeavour widely is bound to have its effect on society-  an effect emerging as gradual improvement of the tone of society. This cannot be a five-year or ten-year or twenty five-year plan. As generation after generation comes, this plan of action has to continue; at no point of time we can exclaim, 'FINISH, our job is over, we have achieved  our  goal, and here is your perfect society !'  This is unrealistic. Those who join this work as a mission of life must be prepared for a lifelong struggle and hand over the struggle to be continued by those who join later. The condition of our people and their lot are well known. The state machinery, democracy, and a lot of theories are there to tackle all these. Taking everything into consideration, it is felt that something remains to be done which is not in the list of business of anybody . The Mahamandal has chosen to take that up. It is the attempt to make men of ourselves. Because all attempts to remove our sufferings and make ourselves happy, to make a great nation, a country of which we can be proud, are found to be failing due to this one failure.
      Scanned to the core, it will be seen that this is more spiritual than physical. Because this wants to treat the core of man and not merely his outer shells. The Mahamandal is not just a religious organization. It does not force its members to visit temples, churches, or mosques, nor does it encourage the holding of common religious functions. For, it is an organization for the youths, all of whom may not be interested in usual religious modes, but may be interested in becoming worthy citizens  capable of devoting their whole lives for the welfare of their fellowmen and the good of the motherland. This is indeed good spirituality. Through that, they will be acquiring fuller manhood. Instead, the Mahamandal tells its friends, in the words of Swami Vivekananda, "My children, the secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and to do good — that is the whole of religion. " {6} " In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is !" {7}
      What does anybody find if he knows man as he really is? He finds that , again , in the words of Swami Vivekananda, '  Man is an infinite circle whose circumference is nowhere, but the centre is located in one spot !' {8} The centre is he himself , but his circumference encircles all around him and elsewhere. That is how he grows , widens his sphere , and becomes big and a true man . This is indeed a journey towards godhood. Godliness is not a thing to be achieved directly from the brutish existence of selfishness, jealousy, greed, indiscipline, egoism, etc. Manliness, in which these may be overcome, is the first step. And we are now for the first step and that may be a limitation for us. Thus, the Mahamandal does not preach all the possible ways of life-fulfillment, but offers work as a means suited to most young people, who need not be discriminated on the grounds of religion, caste, or creed. The ability to give one's best to a cause is a spiritual capacity . The cause is the good of the country and its teeming millions. And the capacity for the work may be acquired  only through works which are not done for selfish ends. Social service is advocated by the Mahamandal only as a means and not as an end . 
     The Mahamandal does not have large funds nor manpower. It  is not worried over it so long as the ideal is clear before it and there are at least some young men who realize what is to be done for the real good of the country. A large number of sincere, honest, hard-working, patriotic, unselfish, docile, sacrificing, spirited and courageous young men are everywhere in the country, who are eager to dedicate  themselvs for the regeneration of the country and they may be united and enthused.  
     The Mahamandal is not a society of the selected few. It is for all young men who love their country and its men and themselves too, and want to have a full, vigorous life of action, glory, and fulfillment of the national life. It is for the young people as they are and where they are . They are neither to leave their home, nor studies, nor normal avocations, but to give only their surplus energy, time, and if possible, money for the real work and assiduously build their character ( integrated character of a good citizen) through selfless work and studies devoted to the purpose.   
       In order to change the present conditions in the country, it may be necessary to change the government, the form of democracy, or the constitution, as often suggested by some ordinary and extraordinary people. But only purer and more perfect and selfless men may undertake the job. Where are they? And how are we going to have them? That is the work left out by all those who speak for democratic or revolutionary changes. 
     The Mahamandal desires to take up this left-out job and does not like to apply its mind for those bigger changes, which cannot come unless the first job is taken care of. This may be a limitation which it humbly admits. And that is why the Mahamandal has nothing to do with politics which minds the cart and the horses.
      The real need must be understood, the methods of meeting the needs must be known , and they must be applied properly to see result following. If we want a great change in India for the better, this is the way. Character qualities should be imbibed, and ideas should be assimilated. This is true education.  The essential work is thus basically  educational in the true sense of the term. This will naturally take time. Nothing great can be achieved overnight or without sustained lanour. " When you deal with roots and foundations , all real progress must be slow.' says Swami Vivekananda.{9} 
      Some may question, Can all men be improved? If not, the alternative is status quo. Will that solve any of the problems ? If the attempts are continued some at least will improve and the number will multiply and the things are bound to change. Swami Vivekananda points out, " And if we read the history of nations between the lines, we shall always find that the rise of a nation comes with an increase in the number of such men; and the fall begins when this pursuit after the Infinite, however vain Utilitarians may call it, has ceased. {10} 
      Rightly be concluded ,"We have, therefore, to wait till the people are educated, till they understand their needs and are ready and able to solve their problems. " {11}"The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education ! " said Swami Vivekananda. {12}
      This education cannot be imparted by setting up schools and colleges under boards or universities. There are innumerable institutions established and lots are coming into existence. "But the idea of the sacrifice for the common weal is not yet developed in our nation"- observed Vivekananda.{13}
This idea is to be burned into the hearts of the young generation. This education is to be brought to the door of every young man of our country. This is the real work of the Mahamandal.
      Some may ask, as we often hear, ' Your aim is noble, the plan is laudable, but how do you go about doing your job ? In answer it may be said, the methods of man-making and character-building as enunciated by our seers of the past, as brought home to us by Swami Vivekananda, and as echoed verbatim by modern psychology, are thoroughly scientific
       To put it very briefly, the method is to embed in the subconscious mind ideas of character qualities, first by hearing (shravan), then by contemplating (manan), and afterwards making these indelible impressions by guarding, guiding, and  repeatedly performing such actions which reflect such  ideas through discrimination and control of the mind, always lubricating the process with controlled and guided feeling (emotion) - the part played by the heart. It will be seen clearly from the above that this is a harmonious combination of discrimination ( Janana- yoga) psychic control (Raj-yoga), and contemplated action for charecter development (Karma -yoga ). 
     The whole activity of the Mahamandal is so planned that this process operates on every individual who joins. Study circle, mental concentration, prayer, and social work take care of the four strands of the synthetic process, respectively. Social service not being the object of the Mahamandal, but a way of character-building, its quantum is not the criterion to assess Mahamandal's work. The attitude to such work and its inter-relation with study and acquiring of discriminating power, rousing and guiding feeling, and capacity to control the mind are what count. 
      The Mahamandal offers to young people an environment where they can cultivate their character according to this plan. Mahamandal centres are places in towns and villages (there are now about a hundred centers in different states ) - any room or shed of a tree or a playground where the youths meet. They take exercise to keep the body strong and healthy, study and discuss to sharpen their intellect and gather knowledge through the study of the life and teachings of Swami Vivekananda of an oceanic heart, and by actually emulating his exhortations on serving humanity (Seva) they make efforts to expand their hearts.  
           How practical this is none will believe unless one has gone through the process and has been astonished to mark his own heart expanding . Similar but simpler exercises for children are also provided. To utilize outward seva for puja or rather worship of the inherent divinity of man, to manifest it in every movement of life, the centers often run charitable dispensaries, coaching classes, adult education centres, schools for children, students' homes, feeding schemes, libraries, etc; undertake village work, relief to victims of natural calamities, help farmers, poor students, and other people in need, and the like. 
         They often donate blood for indigent patients. They do all that would strengthen their brwan, sharpen their brain, and broaden their heart. To help them understand the whole scheme , details of the methods of self- improvement and character-building, and the underlying principles, youth training camps are often held at various levels from local to all-India.
        Specific methods are guided and advised to keep a record of their progress. Follow-up studies point to very encouraging results of improvement in character qualities of individuals. Group activity, living together, mixing with youths from different parts of the country, gives them tolerance, cooperative spirit, a sense of identity with all, and national integrity. Everything together makes them better citizens- dutiful, patriotic, unselfish,   sacrificing -with a humanistic disposition, spirit of service (seva), and broader outlook. 
         The young must realize the necessity of making themselves fit to serve the nation properly, and in the process, prevent problems and evils from arising in society. It should naturally be the serious business of others to help the young make themselves properly. This is exactly the field the Mahamandal has chosen to work. Thus, the most urgent work is the proper training of the youth. The training should be so planned that it will develop the youths in all directions. A total man out of every youth should be the aim
         The institutional educational system in Vogue does not provide this essential element of total education that each citizen needs to have. Thus, the work of the Mahamandal, in a way, is to supplement the education system as a whole. Social service being involved in the process the society in areas where Mahamandal units function is also served by the units. And the service that is rendered to those who join the Mahamandal is perhaps social work par excellence , as this only can bring a real change in society .  
       Thus the Mahamandal is a slow movement , a movement for life-building, a movement, which if joined by a good section of the youths of the country, will certainly change the society for the better in the long run , This hope has constantly grown during the last eighteen years supported by the evidence of the success of the process as observed and has now become a conviction with those who work for this movement. 

       The mahamandal will be satisfied if it could successfully do the thankless job of making men of character and supplying them to all fields, not to gain control over them or to gain power through politics, but is without this the ultimate problem of the society cannot be solved. 
      This is the meaning of Swami Vivekananda's saying, "And therefore, make men first.' {14} We have not so far properly heeded his suggestion. But in these suggestions lies the seed of a revolutionary change. Without trying to avoid this leader of modern India, by sticking the label of 'The Hindu Monk' on this person, lest our selfish dreams of pandering to lust for power and possessions vanish, let us work upon this plan and spread this man-making movement throughout the length and breadth of the country.                                        
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(1)>>" So make men first. Men we want, and how can men be made unless Shraddha is there?" (1-5/333 )[Shri Surendra Nath Sen—from private dairy/  Saturday, the 22nd January, 1898.]

(2) >>When you have men who are ready to sacrifice [Interviews/ It is the men that make the country !-(2- 5/210) The Abroad and The Problems at Home – Swami Vivekananda/(The Hindu, Madras, February, 1897)/]"

(3) >>" Then only will India awake, when hundreds of large-hearted men/(3-5/127) (Letter dated -6th April, 1897. written to Shrimati Sarala Ghoshal — Editor, Bharati) 

(4)>>'Work among those young men who can devote heart and soul/ (4-5/78) (Letter कलकत्ते के किसी बंगाली भाई को लिखित -2nd May, 1895.)

(5)>>I never make plans. Plans grow and work themselves./ (5-7/501) (letter to Sister Nivedita - 7th June, 1896.) 

(5-A)>>"It is a man-making religion that we want. It is man-making theories that we want. It is man-making education all round that we want. And here is the test of truth — anything that makes you weak physically, intellectually, and spiritually, reject as poison; there is no life in it, it cannot be true." [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras)] 


(6)>>"My children, the secret of religion lies not in theories but in practice./ (6-6/245) (Letter -30th April, 1891./DEAR GOVINDA SAHAY)

(7)>>" In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is !" and this is its message, that if you cannot worship your brother man, the manifested God, how can you worship a God who is unmanifested? (7-2/325)PRACTICAL VEDANTA/PART II/ (Delivered in London, 12th November 1896- "एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना' , और उसका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की , व्यक्त ईश्वर की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे , जो अव्यक्त है ? ८/३४) 

(8)>>'Man is an infinite circle whose circumference is nowhere, (8-2/33) [ and God is an infinite circle whose circumference is nowhere, but whose centre is everywhere.) HINTS ON PRACTICAL SPIRITUALITY/( Delivered at the Home of Truth, Los Angeles, California )]  

(9)>>When you deal with roots and foundations ,  (9-5/193)  [(India's Mission (Sunday Times, London, 1896) ] 

(10)>>And if we read the history of nations between the lines, (10-2/65) (That is to say, the mainspring of the strength of every race lies in its spirituality, and the death of that race begins the day that spirituality wanes and materialism gains ground.)[(Volume 2, Jnana-Yoga/THE NECESSITY OF RELIGION( Delivered in London )]

(11) >>"We have, therefore, to wait till the people are educated/
(11-5/215)  [Volume 5, Interviews/The Abroad And The Problems At Home (The Hindu, Madras, February, 1897) ] 

(12) >>"The training by which the current and expression of will are brought under control/ (12-4/490)(letter written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar, on 23rd December, 1898.)

(13) >> "But the idea of the sacrifice for the common weal/ (13-5/224)  [ "The American people are too young to understand renunciation. England has enjoyed wealth and luxury for ages. Many people there are ready for renunciation. My idea of education is personal contact with the teacher - Gurugriha-Vâsa. Without the personal life of a teacher there would be no education. Take your Universities. What have they done during the fifty years of their existences. They have not produced one original man. They are merely an examining body. The idea of the sacrifice for the common weal is not yet developed in our nation." -The Missionary Work Of The First Hindu Sannyasin To The West And His Plan Of Regeneration Of India . Madras Times, February, 1897) Volume 5, Interviews] 

(14)>> "And therefore, make men first.' (14-5/333)
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" Therefore, my friends, my plan is to start institutions in India, to train our young men as preachers of the truths of our scriptures in India and outside India. Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such and the world becomes revolutionized." [MY PLAN OF CAMPAIGN (Delivered at the Victoria Hall, Madras)] 
"Give up these weakening mysticisms and be strong. Go back to your Upanishads — the shining, the strengthening, the bright philosophy — and part from all these mysterious things, all these weakening things. Take up this philosophy; the greatest truths are the simplest things in the world, simple as your own existence. The truths of the Upanishads are before you. Take them up, live up to them, and the salvation of India will be at hand." -[MY PLAN OF CAMPAIGN' Delivered at the Victoria Hall, Madras)
'In one word, the ideal of Vedanta is to know man is he really is.' 
Vedanta, according to Swami Vivekananda, emphasizes the oneness of all existence and the inherent divinity within each individual. T
The quote highlights the importance of recognizing this unity, particularly in the context of worship, by suggesting that if one cannot see God in their fellow human being, they cannot truly worship an unmanifested, abstract God. (2/325)
" In one word, this ideal is that you are divine, "Thou art That". This is the essence of Vedanta; after all its ramifications and intellectual gymnastics, you know the human soul to be pure and omniscient, you see that such superstitions as birth and death would be entire nonsense when spoken of in connection with the soul. The soul was never born and will never die, and all these ideas that we are going to die and are afraid to die are mere superstitions. (2/294) [ PRACTICAL VEDANTA/PART- I/(Delivered in London, 10th November 1896)] 
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Tuesday, June 24, 2025

" प्रश्नोत्तर रत्नमालिका"- (श्रीमद् आद्य शङ्कराचार्य कृत)

 प्रश्नोत्तर रत्नमालिका

      श्रीमद् आद्य शंकराचार्यजी की रचना है जिसमें १८१ प्रश्नोत्तर सहित ६७ श्लोक है। उसमें भी प्रथम और अंतिम श्लोक की रचना उनके शिष्यों की है । प्रश्नोत्तर के रूपमें यह रचना हमारे जीवन एवं वैदिक धर्म के सनातन मूल्यों (महावाक्य आदि) को प्रस्तुत करती है, जो देश, काल एवं परिस्थिति से परे है । जीवन के कठिन मार्ग पर चलते हुए ये सभी सिद्धांत हमें सही पथ दिखाते हुए हमारा जीवन उन्नत करते हैं ।
॥1॥
कः खलु नालङ्क्रियते दृष्टादृष्टार्थसाधनपटीयान् ।
अमुया कण्ठस्थितया प्रश्नोत्तररत्नमालिकया ॥ १॥

जीवन के दृश्य एवं अदृश्य ध्येय को पाने के लिए आवश्यक ऐसी यह 

प्रश्नोत्तर रत्न मालिका को पहन के (याद कर के) कौन खुद को अलंकृत 

नहीं करना चाहेगा?

॥ 2 ॥ 1, 2, 3 ॥

भगवन् किमुपादेयं गुरुवचनं हेयमपि किमकार्यम् ।
को गुरुः अधिगततत्त्वः शिष्यहितायोद्यतः सततम् ॥ २॥

भगवन् किमुपादेयं ? - गुरु वचनम् ! 

हेयमपि किम् ?  - अकार्यम्। 

को गुरुः ? 

      - अधिगततत्त्वः शिष्यहितायोद्यतः सततम् । 
 
क्या स्वीकार्य है? --गुरु के वचन (शिक्षा)।

क्या त्याज्य है?- जो धर्म के विरुद्ध है।

गुरु कौन है? 

--जिसने सत्य को पा लिया है और जो सदैव अपने शिष्य के लिए सही 

सोचता है।

॥ 3 ॥ 4, 5 ॥

त्वरितं किं कर्तव्यं विदुषां संसारसन्ततिच्छेदः ।
किं मोक्षतरोर्बीजं सम्यक्ज्ञानं क्रियासिद्धम् ॥ ३॥

त्वरितं किं कर्तव्यं विदुषां ? 
 
             -संसारसन्ततिच्छेदः !

 किम् मोक्षतरोः बीजम् ? 

           -- सम्यक्ज्ञानं क्रियासिद्धम् !  

समझदार व्यक्ति को कौन सी बात त्वरित करनी चाहिए ?

           - जन्म मृत्यु के चक्र का छेदन ।

मोक्ष के वृक्ष का बीज क्या है?

          - आचरण में लाया हुआ सही ज्ञान। 

॥ 4 ॥ 6, 7, 8, 9 ॥

कः पथ्यतरो धर्मः कः शुचिरिह यस्य मानसं शुद्धम् ।
कः पण्डितो विवेकी किं विषमवधीरणा गुरुषु ॥ ४॥

कः पथ्यतरः ? - धर्मः ! 

कः शुचिः इहः ? -यस्य मानसं शुद्धम् ।

 कः पण्डितः ? विवेकी ! 

किम् विषम् ? - अवधीरणा गुरुषु !  

सबसे श्रेष्ठ हितकारक क्या है?--धर्म।

 सबसे शुद्ध (व्यक्ति) कौन है?
          
         -जिसका मन शुद्ध है वह ।

समझदार कौन है? 

         --जो विवेकी है। (जो सही-गलत, धर्म- अधर्म, शाश्वत-नश्वर का भेद पहचानता है)। 

विष क्या है? ---बड़ों की आज्ञा की अवज्ञा।

॥ 5 ॥ 10, 11 ॥

किं संसारे सारं बहुशोऽपि विचिन्त्यमानमिदमेव ।
किं मनुजेष्विष्टतमं स्वपरहितायोद्यतं जन्म ॥ ५॥

किं संसारे सारम् ? 
      
      -बहुशोऽपि चिन्त्यमानं इदमेव ! 

किं मनुजेषु इष्टतमम् ? 

      -स्वपर हिताय उद्यतं जन्म !  

संसार का सार क्या है?
      
      --उस तत्व के लिए निरंतर चिंतन करना । 

मनुष्य के लिए इष्ट क्या है?

       -  खुद के और दूसरों के लिए जीवन समर्पित करना।

॥ 6 ॥ 12, 13, 14, 15 ॥ 

मदिरेव मोहजनकः कः स्नेहः के च दस्यवो विषयाः ।
का भववल्लि तृष्णा को वैरी यस्त्वनुद्योगः ॥ ६॥

मदिरेव मोहजनकः कः ? - स्नेहः !

 के च दस्यवः ? -- विषयाः । 

का भववल्लि ? - तृष्णा ! 

को वैरी? - यस्तु अनुद्योगः !
 
मदिरा की तरह कैफ़ी (भ्रामक) क्या है?

         - स्नेह।

चोर कौन है? - विषय (इन्द्रिय सुख)।

जन्म का कारण क्या है?-  तृष्णा (इच्छा)। 

शत्रु कौन है? -आलस, प्रमाद ।

॥ 7 ॥ 16, 17, 18 ॥

कस्माद्भयमिह मरणादन्धादिह को विशिष्यते रागी ।
कः शूरो यो ललनालोचनबाणैर्न च व्यधितः ॥ ७॥

कस्मात् भयं इह ? - मरणात् ! 

अन्धात् इह को विशिष्यते ? -रागी ! 
 
 कः शूरः ?

     - यो ललना लोचन बाणैः न च व्यधित
 
भय किससे है?-मृत्यु से। 

अंधे से भी बुरा (व्यक्ति) कौन है? 
     
       -रागी (इच्छाओं में फंसा हुआ।) 

शूर कौन है?
       
     - सुंदर स्त्री की नज़रों के बाणों से व्यथित न होने वाला ।

॥ 8 ॥ 19, 20 ॥

पान्तुं कर्णाञ्जलिभिः किममृतमिह युज्यते सदुपदेशः ।
किं गुरुताया मूलं यदेतदप्रार्थनं नाम ॥ ८॥

पान्तुं कर्णाञ्जलिभिः किं अमृतं इह युज्यते ?

       -  सदुपदेशः । 

किं गुरुताया मूलं ?

    - यत् एतत् अप्रार्थनं नाम  ! 
 
वह क्या है, जो अमृत की तरह कानों से पीया जाए?
   
        -सही उपदेश।

महानता का मूल क्या है? 
 
      -किसी से कुछ भी याचना न करना ।
 
॥9॥ 21, 22, 23, 24॥

किं गहनं स्त्रीचरितं कश्चतुरो यो न खण्डितस्तेन ।
किं दुःखं असन्तोषः किं लाघवमधमतो याच्ञा ॥ ९॥

किं गहनं ? --स्त्रीचरितम् !

 कः चतुरः ? - यो न खण्डितः तेन ! 

किं  दुःखम् ? -असन्तोषः ! 

किं लाघवम् ? - अधमतो याच्ञा ! 

गहन क्या है?- स्त्री का चरित्र ।

 चतुर कौन है?- 

   - स्त्री का चरित्र जिसे जीत नहीं पाता वह।

 दुःख क्या है?- असंतोष । 

लघुता क्या है? 

      -अधम (नीच) व्यक्ति से याचना करना। 

॥ 10 ॥ 25, 26, 27, 28 ॥

किं जीवितमनवद्यं किं जाड्यं पाठतोऽप्यनभ्यासः ।
को जागर्ति विवेकी को निद्रा मूढता जन्तोः ॥ १०॥

 किं जीवितम् ? -अन्वद्यम् !

 किं जाड्यम् ? - पाठतोSपि अनभ्यासः ! 

को जागर्ति? - विवेकी ! 

का निद्रा - मूढता जन्तोः !
 
जीवित कौन है?-जो निष्कलंक है, जिसमें कोई दोष नहीं है ।
 
 मूर्खता क्या है?-जो सीखा हुआ है, उसका अभ्यास न करना।

जागृत कौन है? 

    -जो विवेकी है। (जो सही-गलत, धर्म-अधर्म, शाश्वत-नश्वर का भेद पहचानता है।) 

निद्रा क्या है?-मनुष्य की अज्ञानता।
 
॥ 11 ॥ 29, 30 ॥

नलिनीदलगतजलवत्तरलं किं यौवनं धनं चायुः ।
कथय पुनः के शशिनः किरणसमाः सज्जना एव ॥ ११॥

नलिनी दल गत जलवत् तरलं किं ?
     
          - यौवनं धनं चायुः ।
 
कथय पुनः के शशिनः किरणसमाः ? 

            - सज्जना एव! 

कमल के पत्ते पे गिरि हुई पानी की बूंद के सामान क्षणिक क्या है?

        - यौवन, धन और आयु।

चन्द्र के किरणों के सामान कौन है?

         -सज्जन व्यक्ति। 

॥ 12 ॥ 31, 32, 33, 34 ॥

को नरकः परवशता किं सौख्यं सर्वसङ्गविरतिर्या ।
किं सत्यं भूतहितं प्रियं च किं प्राणिनामसवः ॥ १२॥

को नरकः ? - परवशता !

किं सौख्यं ? - सर्वसङ्ग विरतिः या ! 

किं साध्यम् ?-भूतहितं ! 

 प्रियं च किं प्राणिनां ? - असवः !   

नरक क्या है?- दूसरों के वश में रहना। 

सुख क्या है? 
    
     -सभी प्रकार के लगाव से मुक्ति।

प्राप्त करने योग्य क्या है?

        - प्राणीमात्र का हित। 

प्राणीमात्र को प्रिय क्या है?

       - खुद की जिंदगी।  

॥ 13 ॥ 35, 36, 37 ॥
कोऽनर्थफलो मानः का सुखदा साधुजनमैत्री ।
सर्वव्यसनविनाशे को दक्षः सर्वथा त्यागी ॥ १३॥

को अनर्थ फलः ? - मानः ! 

का सुखदा ? - साधुजनमैत्री !

सर्व व्यसन विनाशे को दक्षः ? - सर्वथा त्यागी ! 
 
किसका परिणाम दुर्गति है?- मान का। 

सुखदायक क्या है?-सज्जनों से मैत्री। 

सभी प्रकार के दुखों को नाश करने के लिए सक्षम कौन है?

      -जो सदैव त्यागी है वह।

॥ 14 ॥ 38, 39, 40 ॥

किं मरणं मूर्खत्वं किं चानर्घं यदवसरे दत्तम् ।
आमरणात् किं शल्यं प्रच्छन्नं यत्कृतं पापम् ॥ १४॥

किं मरणम्- मूर्खत्वम्  ! 

किं च अनर्घम् ? -  यदवसरे दत्तम् ! 

आमरणात् किं शल्यम्  ?-प्रच्छन्नं यत् कृतं पापम् ! 
  
मृत्यु क्या है?-मूर्खता। 

अमूल्य क्या है?
    
      - जो सही समय पर दिया गया है वह।

क्या है जो ज़िंदगीभर कांटे की तरह चुभता है?
      
     - छिपकर किया हुआ पाप।
॥ 15 ॥ 41, 42 ॥

कुत्र विधेयो यत्नो विद्याभ्यासे सदौषधे दाने ।
अवधीरणा क्व कार्या खलपरयोषित्परधनेषु ॥ १५॥

कुत्र विधेयो यत्नः ? 

       -विद्याभ्यासे सदौषधे दाने । 

अवधीरणा क्व कार्या ?

        -  खलु परयोषितु परधनेषु ! 

 प्रयत्न किसके लिए होना चाहिए?

       - विद्याप्राप्ति, औषधि की खोज और दान के लिए।

किसकी उपेक्षा करनी चाहिए?

        - दुर्जनों की, दूसरों की पत्नी और दूसरों के धन की।

॥16॥ 43, 44॥

काहर्निशमनुचिन्त्या संसारासारता न तु प्रमदा ।
का प्रेयसी विधेया करुणा दीनेषु सज्जने मैत्री ॥ १६॥

कः अहिर्निशं अनुचिन्त्या ?

         - सन्सार असारता,   न तु प्रमदा ।

 का प्रेयसी विधेया?

          - करुणा दीनेषु सज्जने मैत्री।  

दिन-रात क्या सोचते रहना चाहिए?

       - संसार की क्षणिकता, न की स्त्री की सुंदरता।

प्यार के लिए विषयवस्तु क्या होनी चाहिए?

        - दीन व्यक्ति के प्रति करुणा, और सज्जनों से मैत्री।

॥ 17 ॥ 45 ॥

कण्ठगतैरप्यसुभिः कस्य ह्यात्मा न शक्यते जेतुम् ।
मूर्खस्य शङ्कितस्य च विषादिनो वा कृतघ्नस्य ॥ १७॥

कण्ठगतैरपि असुभिः कस्य हि आत्मा न शक्यते जेतुम् ?

           -मूर्खस्य शङ्कितस्य च विषादिनो वा कृतघ्नस्य। 

मृत्यु के समय भी किस व्यक्ति को सही रस्ते पे नहीं लाया जा सकता?

       -मूर्ख, शंकाशील, निरानंद (उदास) और कृतघ्नी व्यक्ति को।

॥ 18 ॥ 46, 47, 48 ॥

कः साधुः सदवृत्तः कमधममाचक्षते त्वसद्वृत्तम् ।
केन जितं जगदेतत्सत्यतितिक्षावता पुंसा ॥ १८॥

कः साधुः ? सदवृत्तः ! 

कं अधमं आचक्षते ? - तु असदवृत्तं ! 

केन जितं जगदेतत् ?
 
      - सत्य तितिक्षावता पुंसा ! 

सज्जन कौन है?- जिसकी वृत्ति शुद्ध है।

 अधम (नीच) किसे कहा जाए?

          - जिसकी वृत्ति अशुद्ध है ।

 विश्व को कौन जीत सकता है?

         - जिसके पास सत्य और सहनशीलता (धैर्य) है। 

॥ 19 ॥ 49, 50 ॥  

कस्मै नमांसि देवाः कुर्वन्ति दयाप्रधानाय ।
कस्मादुद्वेगः स्यात्संसारारण्यतः सुधियः ॥ १९॥

कस्मै नमांसि देवाः कुर्वन्ति ? - दयाप्रधानाय। 

कस्मात् उद्वेगः स्यात् ?

             - संसार अरण्यतः सुधियः! 
 
देवता किसको नमन करते हैं?
  
          -जिसका प्रमुख गुण दया है। 

उद्वेग किससे निर्माण होता है?

           - संसाररूपी जंगल उद्वेग निर्माण करता है।

॥ 20 ॥ 51, 52 ॥

कस्य वशे प्राणिगणः सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य ।
क्व स्थातव्यं न्याय्ये पथि दृष्टादृष्टलाभाढ्ये ॥ २०॥

कस्य वशे प्राणिगणः? 

       -सत्यप्रियभाषिणो विनीतस्य ।

 क्व स्थातव्यं ?

      - न्याय्ये पथि दृष्ट अदृष्ट लाभाढ्ये। 

व्यक्ति को कहाँ स्थिर होना चाहिए?

      - इस विश्व में और उसके परे जो लाभदायी है, ऐसे सच्चे पथ पर। 

॥ 21 ॥ 53, 54, 55 ॥

कोऽन्धो योऽकर्यरतः को बधिरो यो हितानि न श‍ृणोति ।
को मूको यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति ॥ २१॥

को अन्धः ? - यो अकार्य रतः। 

को बधिरः ? -यो हितानि न श‍ृणोति।

 को मुकः ? 

     - यः काले प्रियाणि वक्तुं न जानाति।  

अंधा कौन है?- जो बुरे कर्मों में लिप्त है। 

बहरा कौन है?
     
        -जो अपने हित की बातें नहीं सुनता। 

गूँगा /मूक कौन है? 

       -सही समय पर जो सही बात नहीं बोलता। 

॥22॥ 56, 57, 58, 59॥ 

किं दानमनाकाङ्क्षं किं मित्रं यो निवारयति पापात् ।
कोऽलङ्कारः शीलं किं वाचां मण्डनं सत्यम् ॥ २२॥

किं दानम् ? - अनाकाङ्क्षम्  !  

किं मित्रम् ? - यो निवारयति पापात् ।

को अलङ्कारः ? - शीलं ! 

किं वाचाम् मण्डनम् ? -सत्यम् !
 
दान क्या है?

    - जो बिना किसी अपेक्षा से किया है।

मित्र कौन है? 

       - जो पाप से बचाता है।

अलंकर क्या है?

         - अच्छा चरित्र। 

वाणी को कौन सजाता है? - सत्य।

॥23॥ 60, 61॥

विद्युद्विलसितचपलं किं दुर्जनसङ्गतिर्युवतयश्च ।
कुलशीलनिष्प्रकम्पाः के कलिकालेऽपि सज्जना एव ॥ २३॥

विद्युद्विलसितचपलं किम् ?
     
       - दुर्जनसङ्गतिः युवतयश्च !

 कुलशीलनिष्प्रकम्पाः के कलिकाले अपि ? 

          - सज्जना एव!
 
बिजली के सामान क्षणिक क्या है?

         -दुर्जन का संग और युवती। 

कलियुग में भी कौन अपने अच्छे चरित्र से विचलित नहीं होता?

        - सिर्फ सज्जन व्यक्ति। 

॥24॥ 62, 63॥

चिन्तामणिरिव दुर्लभमिह किं कथयामि तच्चतुर्भद्रम् ।
किं तद्वदन्ति भूयो विधुततमसा विशेषेण ॥ २४॥

चिन्तामणिरिव दुर्लभं इह किम् ? - कथयामि तत् चतुर्भद्रं !

 किं तद्वदन्ति भूयो  विधुततमसो  विशेषेण? 
   
चिंतामणि के सामान दुर्लभ क्या है?

          -चार बातें, जो मैं कह रहा हूँ।

 प्रबुद्ध व्यक्ति द्वारा मार्गदर्शित, 

                   वह बातें क्या है?

॥ 25 ॥ 63 ॥

दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।
वित्तं त्यागसमेतं दुर्लभमेतच्चतुर्भद्रम् ॥ २५॥

दानम् प्रियवाक् सहितं, ज्ञानं अगर्वं, क्षमान्वितं शौर्यम्। 

वित्तं त्यागसमेतं दुर्लभं एतत् च्तुर्भद्र्म्।   

मीठी वाणी के साथ किया हुआ दान, गर्व रहित ज्ञान, 

क्षमा सहित शौर्य और संपत्ति की ओर त्याग (उदारता) की दृष्टि 

         – यह चार बातें दुर्लभ है।

॥26॥ 64, 65, 66॥

किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्तमौदार्यम् ।
कः पूज्यो विद्वद्भिः स्वभावतः सर्वदा विनीतो यः ॥ २६॥
 
किं शोच्यं ? -कार्पण्यं !
 
सति विभवे किं  प्रशस्तम् ? -औदार्यम् !  

कः पूज्यः विद्वद्भिः ?  -स्वभावतः सर्वदा विनीतो यः। 
 
शोक करने लायक क्या है?

       - कार्पण्य (जिसने संपत्ति का ना ही उपभोग किया, ना ही दान)।

समृद्ध होने पर कौन पूज्य है?
    
           -जो स्वाभाव से सदैव विनम्र है।

॥ 27 ॥ 67, 68 ॥

कः कुलकमलदिनेशः सति गुणाविभवेऽपि यो नम्रः ।
कस्य वशे जगदेतत्प्रियहितवचनस्यधर्मनिरतस्य ॥ २७॥

कः कुलकमल दिनेशः ? 

      - सति गुण विभवेऽपि यो नम्रः।

 कस्य वशे जगदेतत् ? 

       - प्रियहित वचनस्य धर्मनिरतस्य ! 

ज्ञानियों द्वारा कौन पूज्य है ?- जिसके पास औदार्य (उदारता) है।

कमल रूपी कुल (कुटुंब) को खिलनेवाला सूर्य कौन है?

- सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद जो विनम्र है।

 विश्व किसके वश में है?

-जिसकी वाणी मधुर, हितकारक है और जो धर्मपरायण है।

॥28॥ 69, 70॥

विद्वन्मनोहरा का सत्कविता बोधवनिता च ।
कं न स्पृशति विपत्तिः प्रवृद्धवचनानुवर्तिनं दान्तम् ॥ २८॥

विद्वन्मनोहरा का ?

       - सत्कविता बोधवनिता च । 

कं न स्पृशति विपत्तिः ? 

        - प्रवृद्धवचनानुवर्तिनं दान्तं। 

क्या विद्वानों को मोहित करता है?

       -उन्नत करती हुई कविता और ज्ञान रुपी स्त्री। 

विपत्ति किसे स्पर्श नहीं कर सकती?

       -जो बड़ों की आज्ञा को अनुसरता है और संयमी है। 

॥ 29 ॥ 71, 72 ॥

कस्मै स्पृहयति कमला त्वनलसचित्ताय नीतिवृत्ताय ।
त्यजति च कं सहसा द्विजगुरुसुरनिन्दाकरं च सालस्यम् ॥ २९॥

कस्मै स्पृहयति कमला ? - तु अनलसचित्ताय नीतिवृत्ताय । 

त्यजति च कं सहसा? -  द्विज गुरु सुर निन्दाकरं  च सालस्यम्। 

देवी लक्ष्मी को कौन पसंद है?

      - जिसका मन आलसी नहीं है तथा जिसका आचरण और चरित्र शुद्ध है।

और वह तत्क्षण किसका त्याग करती है?

       -जो ब्राह्मण, गुरुजन (बुजुर्गों) एवं देवों की निंदा करता है, और जो आलसी है। 

॥ 30 ॥ 73, 74 ॥

कुत्र विधेयो वासः सज्जननिकटेऽथवा काश्याम् ।
कः परिहार्यो देशः पिशुनयुतो लुब्धभूपश्च ॥ ३०॥

कुत्र विधेयो वासः ?

        -सज्जननिकटे अथवा काश्याम् ! 

कः परिहार्यो देशः?

        -पिशुनयुतो  लुब्धभूपश्च।
 
व्यक्ति को कहाँ रहना चाहिए?

         - सज्जनों के समीप या काशी में। 

किस जगह को छोड़ना चाहिए?

         - जहाँ के लोग नीच है एवं राजा लालची और कंजूस है।

॥ 31 ॥ 75, 76 ॥

केनाशोच्यः पुरुषः प्रणतकलत्रेण धीरविभवेन ।
इह भुवने कः शोच्यः सत्यपि विभवे न यो दाता ॥ ३१॥

केन अशोच्यः पुरुषः ?

       -  प्रणतकलत्रेण धीरविभवेन । 

इह भुवने को शोच्यः?

         -सत्यपि विभवे न यो दाता। 
 
क्या व्यक्ति को शोकमुक्त करता है ? 

          -आज्ञाकारी पत्नी और स्थायी समृद्धि। 

विश्व में क्या शोक करने जैसा है?

     - समृद्ध होते हुए भी जो दान नहीं करता है।

॥ 32 ॥ 77, 78 ॥  

किं लघुताया मूलं प्राकृतपुरुषेषु या याच्ञा ।
रामादपि कः शूरः स्मरशरनिहतो न यश्चलति ॥ ३२॥

किं लघुताया मूलं ? 

       - प्राकृतपुरुषेषु या याच्ञा ।

 रामादपि कः शूरः? 

       -स्मरशरनिहतो न  यः  चलति! 
 
मानहानि (उपहास) का कारण क्या है?

         -नीच व्यक्ति से मांगना। 

राम से भी बहादुर कौन है?

        -कामदेव के बाणों से जिसका मन चालित नहीं होता है।

॥ 33 ॥ 79, 80 ॥

किमहर्निशमनुचिन्त्यं भगवच्चरणं न संसारः ।
चक्षुष्मन्तोऽप्यन्धाः के स्युः ये नास्तिका मनुजाः ॥ ३३॥

किं अहर्निशं अनुचिन्त्य ? 

        - भगवच्चरणं न संसारः । 

चक्षुष्मन्तोSपि अन्धाः के स्युः ?  

          -ये नास्तिका मनुजाः! 

दिन रात किसका चिंतन करना चाहिए?

      - प्रभु के चरणों का, न कि सांसारिक जीवन का। 

आँखे होने के बावजूद अँधा कौन है?

     -जो ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानता है और जो वेदों की निंदा करता है।

॥ 34 ॥ 81, 82 ॥

कः पङ्गुरिह प्रथितो व्रजति च यो वार्द्धके तीर्थम् ।
किं तीर्थमपि च मुख्यं चित्तमलं यन्निवर्तयति ॥ ३४॥ 

कः पङ्गु इह प्रथितः ? 

     - व्रजति च यो वार्द्धके तीर्थम् !

 किं तीर्थमपि च मुख्यं?
 
         -चित्तमलं यन्निवर्तयति।

अपंग कौन है?

      -जो बूढा होने के बाद तीर्थयात्रा करता है।

 महत्वपूर्ण तीर्थ कौन सा है?

     -जो मन की अशुद्धि (बुरी वासनाओं) को दूर करे।

॥ 35 ॥ 83, 84 ॥

किं स्मर्त्तव्यं पुरुषैः हरिनाम सदा न यावनी भाषा ।
को हि न वाच्यः सुधिया परदोषश्चानृतं तद्वत् ॥ ३५॥

किं स्मर्त्तव्यं पुरुषैः ?

      -हरिनाम सदा,  न यावनी भाषा । 

को हि न वाच्यः सुधिया ?

        -परदोषश्च  अनृतं तद्वत् !

क्या सदैव याद रखना चाहिए?- हरि का नाम, न कि हीन व्यक्तियों की भाषा।

सज्जनों के लिए अनिर्वचनीय क्या है?- दूसरों के दोष एवं असत्य।

॥ 36 ॥ 85, 86, 87 ॥

किं सम्पाद्यं मनुजैः विद्या वित्तं बलं यशः पुण्यम् ।
कः सर्वगुणविनाशी लोभः शत्रुश्च कः कामः ॥ ३६॥

किं सम्पाद्यं मनुजैः ? 

     -विद्या वित्तं बलं यशः पुण्यम् । 

कः सर्वगुणविनाशी ? -लोभः ! 

शत्रुश्च कः ? - कामः ! 

व्यक्ति को किसका उपार्जन करना चाहिए?

          - विद्या, वित्त, बल, यश और पुण्य।

 सभी सद्गुणों को कौन नाश करता है?- लोभ।

शत्रु कौन है?

       -काम (वासना)।

॥ 37 ॥ 88, 89 ॥

का च सभा परिहार्या हीना या वृद्धसचिवेन ।
इह कुत्रावहितः स्यान्मनुजः किल राजसेवायाम् ॥ ३७॥ 

का च सभा परिहार्या ? 

          -हीना या वृद्धसचिवेन । 

इह कुत्र अवहितः स्यात् मनुजः ? 

            -किल राजसेवायाम्! 

कौन सी सभा का त्याग करना चाहिए?

        - जिसमें कोई अनुभवी सचिव नहीं है। 

व्यक्ति को किस में सतर्क रहना चाहिए?

          -राजा की सेवा करने में।

॥ 38 ॥ 90, 91 ॥

प्राणादपि को रम्यः कुलधर्मः साधुसङ्गश्च ।
का संरक्ष्या कीर्तिः पतिव्रता नैजबुद्धिश्च ॥ ३८॥

प्राणादपि को रम्यः ? 

      - कुलधर्मः साधुसङ्गश्च । 

का संरक्ष्या ? 

    -कीर्तिः  पतिव्रता नैज बुद्धिश्च ॥ ३८॥

प्राण से भी प्यारा क्या है? 

        -परंपरागत धर्म का पालन एवं सज्जनों की संगति।

किसका संरक्षण करना चाहिए?

        - कीर्ति, पतिव्रता स्त्री और अपनी विवेकपूर्ण बुद्धि का।

॥ 39 ॥ 92, 93॥

का कल्पलता लोके सच्छिष्यायार्पिता विद्या ।
कोऽक्षयवटवृक्षः स्यात्विधिवत्सत्पात्रदत्तदानं यत् ॥ ३९॥

का कल्पलता लोके ? 

       -सच्छिष्याय अर्पिता विद्या ! 

को अक्षयवटवृक्षः स्यात् ?

       -विधिवत् सत्पात्रदत्त दानं यत् ! 

इच्छापूर्ती करने वाली लता कौन सी है?

      -सुपात्र शिष्य को दी हुई विद्या। 

क्षय न होने वाला वृक्ष कौन सा है?

       -सुपात्र व्यक्ति को नियमानुसार दिया हुआ दान।

॥ 40 ॥ 94, 95, 96, 97 ॥

किं शस्त्रं सर्वेषां युक्तिः माता च का धेनुः ।
किं नु बलं यद्धैर्यं को मृत्युः यदवधानरहितत्वम् ॥ ४०॥

किं शस्त्रं सर्वेषां ?-युक्तिः ! 

 माता च का -धेनुः ! 

किं नु बलं ? - यद्धैर्यं ! 

को मृत्युः? - यत् अवदानरहितत्वम् ! 

सभी के लिए शस्त्र क्या है?- युक्ति। 

माता कौन है?- गाय। 

बल क्या है?-साहस।

मृत्यु क्या है?- असावधानी (लापरवाही)।

॥ 41 ॥ 98, 99, 100, 101 ॥

कुत्र विषं दुष्टजने किमिहाशौचं भवेतृणं नृणाम् ।
किमभयमिह वैराम्यं भयमपि किं वित्तमेव सर्वेषाम् ॥ ४१॥

कुत्र विषं? - दुष्टजने !

किमिह अशौचं भवेत् ? - ऋणं  नृणाम् । 

किं अभयं इह ?- वैराम्यं ! 

भयमपि किं? -वित्तमेव सर्वेषाम् ॥  

विष कहाँ है?- दुर्जनों के पास। 

कलंक (अपावित्र्य) क्या है?- किसी का ऋणी रहना।

अभय किससे प्राप्त होता है?- वैराग्य (दुनियावी चीजों के अलगाव) से।

 भय क्या है?- संपत्ति।

॥ 42 ॥ 102, 103, 104 ॥

का दुर्लभा नराणां हरिभक्तिः पातकं च किं हिंसा ।
को हि भगवत्प्रियः स्यात्योऽन्यं नोद्वेजयेदनुद्विग्नः ॥ ४२॥

का दुर्लभा नराणाम् ?-हरिभक्तिः! 

पातकं च किम् ? -हिंसा ।

 को हि भगवत्प्रियः स्यात् ?

     - योSन्यं न उद्वेजयेत् अनुविद्वग्नः !  

क्या पाना मनुष्य के लिए दुर्लभ है?

       -हरि भक्ति। 

पातक (पाप) क्या है?

      - हिंसा (किसी भी सजीव को शारीरिक या मानसिक पीड़ा देना)। 

कौन भगवान को प्रिय है?

      -जो दूसरों को उद्विग्न नहीं करता एवं खुद भी उद्विग्न नहीं होता।

॥ 43 ॥ 105, 106, 107, 108 ॥

कस्मात् सिद्धिः तपसः बुद्धिः क्व नु भूसुरे कुतो बुद्धिः ।
वृद्धोपसेवया के वृद्धा ये धर्मतत्त्वज्ञाः ॥ ४३॥

कस्मात् सिद्धिः ? -तपसः !

बुद्धिः क्व नु ? -भूसुरे ! 

कुतो बुद्धिः? -वृद्धोपसेवया! 

के वृद्धा?- ये धर्मतत्त्वज्ञाः ॥ 

सिद्धि किससे मिलती है?- तप से। 

बुद्धि कहाँ है? -ब्राह्मण में।

 बुद्धि कैसे मिलती है?- वृद्धों की सेवा से।

 वृद्ध कौन है?- जो धर्म और सत्य जानते हैं।

॥ 44 ॥ 109, 110, 111 ॥

सम्भावितस्य मरणादधिकं किं दुर्यशो भवति ।
लोके सुखी भवेत्को धनवान्धनमपि च किं यतश्चेष्टम् ॥ ४४॥

सम्भावितस्य मरणात्  अधिकं किम्  ?
     
        - दुर्यशो भवति । 

लोके सुखी भवेत् कः ? -धनवान् ! 

धनमपि च किम् ?-यतश्चेष्टम् ! 

प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए मृत्यु से भी बुरा क्या है?

- अपयश (बदनामी)। विश्व में सुखी कौन है?-  जो धनवान है।

धन क्या है?-  जिससे इच्छापूर्ती होती है।

॥ 45 ॥ 112, 113, 114 ॥

सर्वसुखानां बीजं किं पुण्यं दुःखमपि कुतः पापात् ।
कस्यैश्वर्यं यः किल शङ्करमाराधयेद्भक्त्या ॥ ४५॥

सर्वसुखानां बीजं किं ? पुण्यं ! 

दुःखमपि कुतः ?-पापात् । 

कस्य ऐश्वर्यं ?

      -यः किल शङ्करं आराधयेत् भक्त्या ! 
  
सभी सुखों का बीज क्या है?- पुण्य।

और दुखों का?- पाप।

 अधिपत्य किसका हो सकता है? 

      - जो भक्तहृदय से भगवान शंकर की आराधना करता है।

॥ 46 ॥ 115, 116, 117 ॥

को वर्द्धते विनीतः को वा हीयेत यो दृप्तः ।
को न प्रत्येतव्यो ब्रूते यश्चानृतं शश्वत् ॥ ४६॥

को वर्द्धते ?- विनीतः !

को वा हीयेत ? -यो दृप्तः ।

 को न प्रत्येतव्यः ? -ब्रूते यश्च अनृतं शश्वत् ॥ 

वृद्धि किसकी होती है?-जो विनम्र है।

 अधःपतित कौन होता है?-दंभी व्यक्ति। 

कौन विश्वासपात्र नहीं है?- जो सदैव असत्य कहता है ।

॥ 47 ॥ 118, 119 ॥

कुत्रानृतेऽप्यपापां यच्चोक्तं धर्मरक्षार्थम् ।
को धर्मोऽभिमतो यः शिष्टानां निजकुलीनानाम् ॥ ४७॥

कुत्र अनृतेSपि अपापम्  ? 

         -यच्चोक्तं धर्मरक्षार्थम् । 

को धर्मः ? 

       - अभिमतो यः शिष्टानां निजकुलीनानाम् ॥
 
कब असत्य भी पातक नहीं रहता?- जब धर्म रक्षणार्थ कहा गया हो।

 धर्म क्या है ?

- कुल के महान एवं पवित्र पूर्वजों द्वारा स्वीकृत शिष्टाचार और नैतिक मूल्य।

॥ 48 ॥ 120, 121, 122, 123 ॥

साधुबलं किं दैवं कः साधुः सर्वदा तुष्टः ।
दैवं किं यत्सुकृतं कः सुकृती श्लाघ्यते च यः सद्भिः ॥ ४८॥ 

साधुबलं किम्  ? दैवम् !

 कः साधुः ? -सर्वदा तुष्टः । 

दैवं किम् ? -यत् सुकृतम् ! 

 कः सुकृती ?  -श्लाघ्यते च य सद्भिः ! 

सज्जनों का बल क्या है?- प्रारब्ध।

 सज्जन कौन है?- जो सदैव संतुष्ट है।

प्रारब्ध क्या है?- सत्कर्म। 

सुकृती (सत्कर्म करने वाला) कौन है?

       -गुणीजन जिसकी प्रशंसा करते हैं वह।

॥ 49 ॥ 124, 125, 126 ॥

गृहमेधिनश्च मित्रं किं भार्या को गृही च यो यजते ।
को यज्ञो यः श्रुत्या विहितः श्रेयस्करो नृणाम् ॥ ४९॥

गृहमेधिनश्च मित्रं किं ? -भार्या ! 

को गृही च ? -यो यजते । 

को यज्ञः ?

   -यः श्रुत्या विहितः श्रेयस्करो नृणाम् ! 

गृहस्थ का मित्र कौन है?-पत्नी।

गृहस्थ कौन है?-जो यज्ञ करता है।

यज्ञ क्या है?

- जो वेदों में कहा गया है और जो मानवता के लिए हितकारक है।

॥ 50 ॥ 127, 128, 129 ॥

कस्य क्रिया हि सफला यः पुनराचारवां शिष्टः ।
कः शिष्टो यो वेदप्रमाणवां को हतः क्रियाभ्रष्टः ॥ ५०॥

कस्य क्रिया हि सफला ?

      - यः पुनः आचारवान्  शिष्टः । 

कः शिष्टः ? - यो वेदप्रमाणवान् ! 

को हतः ? - क्रियाभ्रष्टः ॥ 

किसका कर्म फलप्रद है? 

- जिसका आचरण शुद्ध है और जो शिष्ट है।

 शिष्ट कौन है?- जो वेद को प्रमाण मानता है ।

 कौन मृत्यु को प्राप्त होता है?-स्वधर्म को भूला हुआ।

॥ 51 ॥ 130, 131, 132, 133 ॥

को धन्यः संन्यासी को मान्यः पण्डितः साधुः ।
कः सेव्यो यो दाता को दाता योऽर्थितृप्तिमातनुते ॥ ५१॥

को धन्यः? -संन्यासी ! 

को मान्यः ? -पण्डितः साधुः ।

 कः सेव्यः ? -यो दाता ! 

को दाता ? - यो अर्थतृप्तिम्  आतनुते !
 
धन्य (जीवन के उच्चतम ध्येय को प्राप्त करनेवाला) कौन है?

-संन्यासी (संसार में जकड़ी हुई बेड़ी को जिसने तोड़ दिया है)।

सम्माननीय (आदरपात्र) कौन है? 

-जो ज्ञानी एवं सरल है ।

पूजनीय कौन है?-जो दाता है।

 दाता कौन है?

-ज़रूरतमंद को संतुष्ट करनेवाला।

॥ 52 ॥ 134, 135, 136, 137 ॥

किं भाग्यं देहवतामारोग्यं कः फली कृषिकृत् ।
कस्य न पापं जपतः कः पूर्णो यः प्रजावां स्यात् ॥ ५२॥

किं भाग्यं  देहवताम् ? आरोग्यं !

 कः फली ? -कृषिकृत् । 

कस्य न पापं ? -जपतः!  

कः पूर्णः ? - यः प्रजावान् स्यात् !

देहधारी के लिए आशिष (भाग्य) क्या है? -आरोग्य।

फल का आनंद कौन लेता है?-जो बोता है (प्रयत्नशील है)।

निष्पाप कौन है?- जो जप करता है (निरंतर मननशील)।

पूर्ण कौन है?- जिनकी संतान है।

॥ 53 ॥ 138, 139 ॥

किं दुष्करं नराणां यन्मनसो निग्रहः सततम् ।
को ब्रह्मचर्यवां स्यात्यश्चास्खलितोर्ध्वरेतस्कः ॥ ५३॥

किं दुष्करं नराणां ?-यन्मनसो निग्रहः सततम् ! 

 को ब्रह्मचर्यवान् स्यात् ?  -यश्च अस्खलित ऊर्ध्वरेतस्कः !  

मनुष्यों के लिए कठिन क्या है?- मन का निरंतर नियंत्रण।

ब्रह्मचारी कौन है?-जिसने अपनी शक्ति का उदात्तीकरण किया है, न कि व्यय।

॥ 54 ॥ 140, 141, 142 ॥

का च परदेवतोक्ता चिच्छक्तिः को जगत्भर्ता ।
सूर्यः सर्वेषां को जीवनहेतुः स पर्जन्यः ॥ ५४॥

का च परदेवता उक्ता ?- चिच्छक्तिः !

 को जगत्भर्ता ? -सूर्यः ! 

सर्वेषां को जीवनहेतुः?- स पर्जन्यः ॥

सर्वश्रेष्ठ देवी कौन है?- चेतनाशक्ति (माँ अम्बा)।

जगत का संरक्षक कौन है?-सूर्य।

सभी के जीवन का स्रोत क्या है?-वर्षा।

॥ 55 ॥ 143, 144, 145, 146 ॥

कः शुरो यो भीतत्राता त्राता च कः सद्गुरुः ।
को हि जगद्गुरुरुक्तः शम्भुः ज्ञानं कुतः शिवादेव ॥ ५५॥

कः शूरः ? -यो भीतत्राता !

 त्राता च कः ?-सद्गुरुः । 

को हि जगद्गुरुरुक्तः? -शम्भुः! 

 ज्ञानं कुतः ?- शिवादेव ! 

शूर कौन है?-जो भयभीत का रक्षक है।

रक्षक कौन है?-गुरु।

 जगद्गुरु कौन है?

-भगवान शिव

ज्ञान कहाँ से प्राप्त होता है?-भगवान शिव से

॥ 56 ॥ 147, 148, 149 ॥

मुक्तिं लभेत कस्मान्मुकुन्दभक्तेः मुकुन्दः कः ।
यस्तारयेदविद्यां का चाविद्या यदात्मनोऽस्फूर्तिः ॥ ५६॥

मुक्तिं लभेत् कस्मात् ?- मुकुन्दभक्तेः !  

मुकुन्दः कः ?- यस्तारयत्   अविद्याम् ! 

का च अविद्या ? - यत् आत्मनो अस्फूर्तिः ! 

मुक्ति किससे प्राप्त होती है?- मुकुंद (विष्णु) भक्ति से।

 मुकुंद कौन है?-अविद्या से तारने वाला।

अविद्या क्या है?-स्वयं को न जानना।

॥ 57 ॥ 150, 151, 152, 153 ॥

कस्य न शोको यः स्याद्क्रोधः किं सुखं तुष्टिः ।
को राजा रञ्चनकृकश्च त्कश्च श्वा नीचसेवको यः स्यात् ॥ ५७॥

कस्य न शोकः ?- यः स्यात् अक्रोधः ! 

किं सुखम्  ? -तुष्टिः । 

को राजा ? -रञ्चनकृत् ! 

कश्च श्वा ? - नीचसेवको यः स्यात् ! 

कौन शोकरहित है?-कभी क्रोधित न होनेवाला। 

सुख क्या है?-संतोष। 

राजा कौन है?- दूसरों को खुश करने वाला (जो विषयों को खुश करता है, न कि विषय उन्हें)।

कुत्ता कौन है?

-नीच व्यक्ति की सेवा करने वाला।

॥ 58 ॥ 154, 155, 156, 157 ॥

को मायी परमेशः क इन्द्रजालायते प्रपञ्चोऽयम् ।
कः स्वप्ननिभो जाग्रद्व्यवहारः सत्यमपि च किं ब्रह्म ॥ ५८॥

को मायी ? - परमेशः !

  कः इन्द्रजालायते ?-प्रपञ्चोऽयम् । 

कः स्वप्ननिभः ?- जाग्रत् व्यवहारः !  

सत्यमपि च किं ? - ब्रह्म !

माया का रचयिता कौन है?- सर्वोत्तम ईश्वर (अवतार वरिष्ठ)। 

इन्द्रजाल (सर्वश्रेष्ठ दैवी जादू) क्या है?-यह सम्पूर्ण जगत।

 स्वप्नवत् क्या है?- जागृत अवस्था में जो कुछ भी हो रहा है।

 सत्य क्या है?- ब्रह्म

॥ 59 ॥ 158, 159, 160, 161 ॥

किं मिथ्या यद्विद्यानाश्यं तुच्छं तु शशविषाणादि ।
का चानिर्वाच्या माया किं कल्पितं द्वैतम् ॥ ५९॥

किं मिथ्या ? -यद्विद्यानाश्यं ! 

तुच्छं तु ? - शशविषाणादि !

 का च अनिवर्चनीया ?-माया!  

किं कल्पितम्  ?- द्वैतम् ! 

मिथ्या (भ्रम) क्या है?

- सही ज्ञान के प्रकाश से जो नाश होता है।

अवर्णनीय क्या है?-माया। 

 तुच्छ क्या है?- खरगोश के सींग जैसी चीजें, जिनका अस्तित्व ही नहीं है।

कल्पनीय क्या है?

- द्वैतवाद (जीव और शिव का अलगाव)।

॥ 60 ॥ 162, 163, 164, 165 ॥

किं पारमार्थिकं स्यादद्वैतं चाज्ञता कुतोऽनादिः ।
वपुषश्च पोषकं किं प्रारब्धं चान्नदायि किं चायुः ॥ ६०॥

किं पारमार्थिकं स्यात् ? - अद्वैतम् !

 च  अज्ञता कुतः ? - अनादिः !  

वपुषश्च पोषकं किं ? -प्रारब्धम् ! 

च अन्नदायि किम् ? - च आयुः !

सर्वोत्तम सत्य क्या है?- अद्वैत। 

यह अज्ञानता कब से है?- अनादि से।

 शरीर का पोषक क्या है? 

-प्रारब्ध (पूर्व कर्म जिनके फल मिलने शुरू हुए है)। 

अन्न कौन देता है?- आयुष्य।  

॥ 61 ॥ 166, 167 ॥

को ब्रह्मणैरुपास्यो गायत्र्यर्काग्निगोचरः शम्भुः ।
गायत्र्यामादित्ये चाग्नौ शम्भ च किं नु तत्तत्त्वम् ॥ ६१॥

को ब्राह्मणैः उपास्यः ? - गायत्री अर्क अग्नि गोचरः शम्भुः ।

 गायत्र्याम् आदित्ये च अग्नौ शम्भो च किं नु ?- तत् तत्वम् ! 

ब्राह्मण को किसकी पूजा करनी चाहिए?

- गायत्री, ऊरी और अग्नि में जो व्याप्त है, ऐसे शिवजी की।

 गायत्री, सूर्य, अग्नि और शिव में क्या है?- परम सत्य।

॥ 62 ॥ 168, 169 ॥

प्रात्यक्षदेवता का माता पूज्यो गुरुश्च कः तातः ।
कः सर्वदेवतात्मा विद्याकर्मान्वितो विप्रः ॥ ६२॥ 

प्रात्यक्षदेवता का ? माता ! 

पूज्यो गुरुश्च कः ? -तातः । 

कः सर्वदेवतात्मा ?-विद्याकर्मान्वितो विप्रः ॥ 

प्रत्यक्ष देवता कौन है?- माता। 

पूजनीय एवं गुरु कौन है?- पिता। 

सभी देवता कहाँ स्थित है?

- ज्ञानी और कर्मनिष्ठ ब्राह्मण में।

॥ 63 ॥ 170, 171 ॥

कश्च कुलक्षयहेतुः सन्तापः सज्जनेषु योऽकारि ।
केषाममोघ वचनं ये च पुनः सत्यमौनशमशीलाः ॥ ६३॥ 

कश्च कुलक्षयहेतुः ? सन्तापः सज्जनेषु योऽकारि । 

केषां  अमोघ वचनं ?- ये च पुनः सत्य मौन शम शीलाः ! 
 
वंश के पतन का कारण क्या है?

-  सज्जनों को संताप देने वाले कर्म।

किसके शब्द विफल नहीं होते?

- जिसमें सत्य है, मौन (वाणी पर नियंत्रण) है और मन नियंत्रित है।

॥ 64 ॥ 172, 173, 174, 175 ॥

किं जन्म विषयसङ्गः किमुत्तरं जन्म पुत्रः स्यात् ।
कोऽपरिहार्यो मृत्युः कुत्र पदं विन्यसेच्च दृक्पूते ॥ ६४॥

किं जन्म ? - विषयसङ्गः !

 किं उत्तरं जन्म ? -पुत्रः स्यात् ।

 को अपरिहार्यः ?-मृत्युः !

कुत्र पदं विन्यसेच्च ? - दृक्पूते ॥  

जन्म का कारण क्या है?

-विषयों से आसक्ति। 

आगामी जन्म क्या है?- पुत्र।

अनिवार्य क्या है?-मृत्यु। 

व्यक्ति को कहाँ पैर रखना चाहिए?

- जहाँ अच्छाई मालूम हो।

॥ 65 ॥ 176, 177, 178 ॥

पात्रं किमन्नदाने क्षुधितं कोऽर्च्यो हि भगवदवतारः ।
कश्च भगवान्महेशः शङ्करनारायणात्मैकः ॥ ६५॥

पात्रं किं अन्नदाने ? -क्षुधितं !  

को अर्चयो हि ?  -भगवदवतारः ! 

कश्च भगवान् ? 

-  महेशः शङ्करनारायणात्मैकः ! 

कौन अन्नदान के पात्र है?-जो भूखा है।

कौन पूजनीय है?- भगवन के अवतार।

भगवान कौन है?

- वह परमेश्वर जिसमें शिव और नारायण व्याप्त (एक) है।

॥ 66 ॥ 179, 180, 181 ॥

फलमपि भगवद्भक्तेः किं तल्लोकस्वरुपसाक्षात्त्वम् ।
मोक्षश्च को ह्यविद्यास्तमयः कः सर्ववेदभूः अथ च ॐ ॥ ६६॥

फलमपि भगवद्भक्तेः किं ? -तल्लोक स्वरुप साक्षात्त्वम् ! 

मोक्षश्च कः ? -हि अविद्या स्तमयः !  

कः सर्ववेदभूः ?-अथ च ॐ ॥ 

भगवद् भक्ति का फल क्या है?

-  भगवद् तत्व की अनुभूति एवं स्व-स्वरूप की पहचान ।

 मोक्ष (मुक्ति) क्या है?

 - अज्ञान से मुक्ति (अविद्या का अंत)। 

वेदों का उद्भवस्थान क्या है?- ॐ ।

॥ 67 ॥

इत्येषा कण्ठस्था प्रश्नोत्तररत्नमालिका येषाम् ।
ते मुक्ताभरणा इव विमलाश्चाभान्ति सत्समाजेषु ॥ ६७॥

प्रश्नोत्तर रत्न मालिका स्वरूप इस रत्नों की माला को जो कोई भी अपने गले में पहनता है (इसे मन में याद कर लेता है), वह महान-सज्जनों की सभा में रोशन होता है (प्रशस्ति पाता है)।
साभार https://sanskritdocuments.org/hindi/translations/Prashnottara_Ratna_Malika_Hindi_Sagar_Pitroda.pdf
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