*परिच्छेद 102.
(१)
[ November 9, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]
🔆🙏 संन्यासी तथा संचय । पूर्ण ज्ञान तथा प्रेम के लक्षण🔆🙏
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर के काली-मन्दिर में विराजमान हैं । अपने कमरे में छोटी खाट पर पूर्व की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । भक्तगण जमीन पर बैठे हैं । आज कार्तिक की कृष्णा सप्तमी है, ९ नवम्बर १८८४ । दोपहर का समय है । श्रीयुत मास्टर आये, दूसरे भक्त भी धीरे धीरे आ रहे हैं । श्रीयुत विजयकृष्ण गोस्वामी के साथ कई ब्राह्म भक्त आये हुए हैं । पुजारी राम चक्रवर्ती भी आये हैं । क्रमशः महिमाचरण, नारायण और किशोरी भी आये । कुछ देर बाद और भी कई भक्त आये।
जाड़ा पड़ने लगा है । श्रीरामकृष्ण को कुर्तें की जरूरत है । मास्टर से ले आने के लिए कहा था । वे नैनगिलाट के कुर्तों के सिवा एक और जीन का कुर्ता भी ले आये हैं; परन्तु इसके लिए श्रीरामकृष्ण ने नहीं कहा था ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) – तुम बल्कि इसे लेते जाओ तुम्हीं पहनना । इसमें दोष है । अच्छा, तुमसे मैंने किस तरह के कुर्तों ले लिए कहा था ?
मास्टर – जी आपने सादे कुर्तों की बात कही थी । जीन का कुर्ता ले आने के लिए नहीं कहा था ।
श्रीरामकृष्ण – तो जीन वाले को ही लौटा ले जाओ ।
(विजय आदि से) 'देखो द्वारका बाबू ने एक शाल दिया था । मारवाड़ी भक्तों ने भी एक लाया था, पर मैंने नहीं लिया ।' श्रीरामकृष्ण और भी कहना चाहते थे, उसी समय विजय बोल उठे –
विजय – जी हाँ ठीक तो है । जो कुछ चाहिये और जितना चाहिये, उतना ही ले लिया जाता है । किसी एक को तो देना ही होगा । मनुष्य को छोड़ और देगा भी कौन ?
श्रीरामकृष्ण – देनेवाले वही ईश्वर हैं । सास ने कहा, बहू, सब की सेवा करने के लिए आदमी हैं परन्तु तुम्हारे पैर दबाने वाला कोई नहीं है ।’ कोई होता तो अच्छा होता । बहू ने कहा, 'माँ, मेरे पैर भगवान दबायेंगे, मुझे किसी की जरूरत नहीं है ।’ उसने भक्तिपूर्वक यह बात कही थी ।
"एक फकीर अकबरशाह के पास कुछ भेंट लेने गया था । बादशाह उस समय नमाज पढ़ रहा था और कह रहा था, ऐ खुदा मुझें दौलतमन्द कर दे । फकीर ने अब बादशाह की याचनाएँ सुनी तो उठकर वापस जाना चाहा । परन्तु अकबरशाह ने उससे बैठने के लिए इशारा किया । नमाज समाप्त होने पर उन्होंने पूछा, तुम क्यों वापस जा रहे थे ? उसने कहा, 'आप खुद ही याचना कर रहे हैं, ऐ खुदा, मुझे दौलतमन्द कर दे । इसलिए मैंने सोचा, अगर माँगना ही है तो भिक्षुक से क्यों माँगू, खुदा से ही क्यों न माँगू ?
विजय - गया में मैंने एक साधु देखा था । वे स्वयं कुछ प्रयत्न नहीं करते थे । एक दिन इच्छा हुई, भक्तों को खिलाऊँ । देखा, न जाने कहाँ से मैदा और घी आ गया । फल भी आये ।
श्रीरामकृष्ण - (विजय आदि से) - साधुओं के तीन दर्जे हैं, उत्तम, मध्यम और अधम । जो उत्तम श्रेणी (विवेकानन्द ?) के हैं, वे भोजन की खोज में नहीं फिरते । मध्यम और अधम दण्डियों की तरह के होते हैं । मध्यम जो हैं, वे नमोनारायण करके खड़े हो जाते हैं । जो अधम हैं वे न देने पर झगड़ा करते हैं । (सब हँसे ।)
"उत्तम श्रेणी के साधु अजगर-वृत्ति के होते हैं । उन्हें बैठे हुए ही आहार मिलता है । अजगर हिलता-डुलता नहीं । एक छोकरा साधु था - बाल ब्रह्मचारी । वह कहीं भिक्षा लेने के लिए गया । एक लड़की ने आकर भिक्षा दी । उसके स्तन देखकर उसने सोचा, इसकी छाती पर फोड़ा हुआ है । जब उसने पूछा तो घर की पुरखिन ने आकर उसे समझाया । इसके पेट में बच्चा होगा, उसके पीने के लिए ईश्वर इनमें दूध भर दिया करेंगे इसीलिए पहले से इसका बन्दोबस्त कर रखा है । यह बात सुनकर उस साधु को बड़ा आश्चर्य हुआ । तब उसने कहा, 'तो अब मुझे भिक्षा माँगने की क्या जरूरत है ? ईश्वर मेरे लिए भी भोजन तैयार कर दिया करेंगे ।
"कुछ भक्त मन में सोचते हैं कि तब तो हम लोग भी यदि चेष्टा न करें, तो चल सकता है ।
श्रीरामकृष्ण - "जिसके मन में यह है कि चेष्टा करनी चाहिए, उसे चेष्टा करनी होगी ।”
विजय - भक्तमाल में एक बड़ी अच्छी कहानी है ।
श्रीरामकृष्ण - कहो, जरा सुनें तो ।"
विजय - आप कहिये ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हीं कहो, मुझे पूरी याद नहीं है । पहले पहल सुनना चाहिए, इसीलिए मैं सुना करता था ।
"मेरी अब वह अवस्था नहीं है । हनुमान ने कहा था, वार, तिथि, नक्षत्र, इतना सब मैं नहीं जानता, मैं तो बस श्रीरामचन्द्रजी के बारे में चिन्तन करता रहता हूं।'।
"चातक को बस स्वाति के जल की चाह रहती है । मारे प्यास के जी निकल रहा है, परन्तु गला उठाये वह आकाश की बूँदों की ही प्रतिक्षा करता है । गंगा-यमुना और सातों समुद्र इधर भरे हुए हैं, परन्तु वह पृथ्वी का पानी नहीं पीता ।
"राम और लक्ष्मण जब पम्पा सरोवर पर गये तब लक्ष्मण ने देखा, एक कौआ व्याकुल होकर बार बार पानी पीने के लिए जा रहा था, परन्तु पीता न था । राम से पूछने पर उन्होंने कहा 'भाई, यह कौआ परम भक्त है । दिनरात यह रामनाम जप रहा है । इधर मारे प्यास के छाती फटी जा रही है, परन्तु पानी पी नहीं सकता । सोचता है, पानी पीने लगूँगा तो जप छूट जायेगा ।' मैंने पूर्णिमा के दिन हलधर से पूछा, दादा, आज क्या अमावस है ? (सब हँसते हैं ।)
(सहास्य) “हाँ जी यह सच्ची बात है। मैंने सुना था कि ज्ञानी पुरुष की पहचान यह है कि वह पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं पाता । परन्तु हलधारी को इस विषय में कौन विश्वास दिला सकता है ? उसने कहा 'यह निश्चय ही कलिकाल है । वे (श्रीरामकृष्ण) पूर्णिमा और अमावस में भेद नहीं जानते और फिर भी लोग उनका आदर करते हैं ।" (इसी समय महिमाचरण आ गये ।)
श्रीरामकृष्ण - (आदरपूर्वक) - आइये, आइये, बैठिये । (विजय आदि से) इस अवस्था में दिन और तिथि का ख्याल नहीं रहता । उस दिन वेणीपाल के बगीचे में उत्सव था - मैं दिन भूल गया । ‘अमुक दिन संक्रान्ति है,अच्छी तरह ईश्वर का नाम लूँगा’, यह अब याद नहीं रहता । (कुछ देर विचार करने के बाद) परन्तु अगर कोई आने को होता है तो उसकी याद रहती है ।
"ईश्वर पर सोलहों आने मन जाने पर यह अवस्था होती है । जब हनुमान सीता का पता लगा कर लंका से लौटे तब राम ने पूछा, 'हनुमान, तुम सीता की खबर तो ले आये, अच्छा, तो उन्हें कैसा देखा ? कहो, मेरी सुनने की इच्छा है ।'
हनुमान ने कहा, 'राम, मैंने देखा, सीता का शरीर मात्र पड़ा हुआ है । उसमें मन, प्राण नहीं है । आप के ही पादपद्मों में उन्होंने वे समर्पण कर दिये हैं । इसलिए केवल शरीर ही पड़ा हुआ है । और मैंने देखा काल (यमराज) पास ही था, परन्तु वह करे क्या ? वहाँ तो शरीर ही है, मन और प्राण तो हैं ही नहीं ।'
"जिसकी चिन्ता की जाती है, उसकी सत्ता आ जाती है । दिनरात ईश्वर की चिन्ता करते रहने पर ईश्वर की सत्ता आ जाती है । नमक का पुतला समुद्र की थाह लेने गया तो गलकर खुद वही हो गया ।
" पुस्तकों या शास्त्रों का उद्देश्य क्या है ? – ईश्वरलाभ । साधु की पौथी को एक ने खोलकर देखा, उसमें सिर्फ रामनाम लिखा हुआ था, और कुछ भी नहीं ।
"ईश्वर पर प्रोति होने पर थोड़े ही में उद्दीपन हुआ करता है । तब एक बार रामनाम करने पर कोटि सन्ध्योपासन का फल होता है ।
"मेघ देखकर मयूर को उद्दीपन होता है । आनन्द से पंख फैलाकर नृत्य करता है । श्रीमती राधा को भी ऐसा ही हुआ करता था । मेघ देखकर उन्हें कृष्ण की याद आती थी ।
"चैतन्यदेव मेड़गाँव के पास ही से जा रहे थे । उन्होंने सुना इस गाँव की मिट्टी से ढोल बनता है । बस भावावेश में विह्वल हो गये - क्योंकि संकीर्तन के समय ढोल का ही वाद्य होता है ।
"उद्दीपन किसे होता है ? जिसकी विषयबुद्धि दूर हो गयी है, जिसका विषयरस सूख जाता है, उसे ही थोड़े में उद्दीपन होता है । दियासलाई भीगी हुई हो तो चाहे कितना ही क्यों न घिसो, वह जल नहीं सकती, पानी अगर सूख जाय तो जरा सा घिसने से ही वह जल जाती है ।
"देह में सुख और दुःख लगे ही हैं । जिसे इश्वरलाभ हो चुका है, वह मन, प्राण, आत्मा, सब उन्हें दे देता है । पम्पा सरोवर में नहाते समय राम और लक्ष्मण ने सरोवर के तट की मिट्टी में धनुष गाड़ दिये । स्नान करके लक्ष्मण ने धनुष निकालते हुए देखा, धनुष में खून लगा हुआ था ।
राम ने देखकर कहा, भाई, जान पड़ता है, कोई जीव-हिंसा हो गयी । लक्ष्मण ने मिट्टी खोदकर देखा तो एक बड़ा मेंढ़क था, वह मरणासन्न हो गया था । राम ने करुणापूर्ण स्वर में कहा, 'तुमने आवाज क्यों नहीं दी ? हम लोग तुम्हें बचा लेते । जब साँप पकड़ता है, तब तो खूब चिल्लाते हो ।'
मेंढ़क ने कहा, 'राम, जब साँप पकड़ता है, तब मैं चिल्लाता हूँ, राम, रक्षा करो - राम, रक्षा करो। पर अब देखता हूँ, राम स्वयं मुझे मार रहे हैं, इसीलिए मुझे चुपचाप रह जाना पड़ा।'”
(२)
[ November 9, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]
गुरु-महिमा । ज्ञानयोग
श्रीरामकृष्ण चुपचाप बैठे हुए महिमाचरण आदि भक्तों को देख रहे हैं । श्रीरामकृष्ण ने सुना है कि महिमाचरण गुरु नहीं मानते । इस विषय पर वे कहने लगे –
श्रीरामकृष्ण - गुरु की बात पर विश्वास करना चाहिए । गुरु के चरित्र की ओर देखने की आवश्यकता नहीं । 'मेरे गुरु यद्यपि शराबवाले की दूकान जाते हैं, फिर भी मैं उन्हें नित्यानन्द राय मानता हूँ', यह भाव रखना चाहिए ।
"एक आदमी चण्डी भागवत सुनाता था । उसने कहा, झाडू स्वयं तो अस्पृश्य है, परन्तु स्थान को पवित्र करता है ।"
महिमाचरण [नवनीदा का जन्म इनके घर में हुआ था ?] वेदान्त की चर्चा किया करते हैं । उद्देश्य ब्रह्मज्ञान है । उन्होंने ज्ञानी का मार्ग ग्रहण किया है और सदा ही विचार करते रहते हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (महिमा से) - ज्ञानी का उद्देश्य है, वह स्वरूप को समझे; यही ज्ञान है और इसे ही मुक्ति कहते हैं । परब्रह्म जो हैं, वे ही सब के स्वरूप हैं । 'मैं और 'परब्रह्म' दोनों एक ही सत्ता हैं । माया समझने नहीं देती । हरीश से मैंने कहा, 'और कुछ नहीं - सोने पर कुछ टोकरी मिट्टी पड़ गयी है, उसी मिट्टी को निकाल देना है ।'
“भक्तगण ‘मैं’ रखते हैं, ज्ञानी नहीं रखते । किस तरह स्वरूप में रहना चाहिए, 'न्यांगटा' (तोतापुरी) इसका उपदेश देता था, कहता था, 'मन को बुद्धि में लीन करो और बुद्धि को आत्मा में, तब स्वरूप में रह सकोगे ।’
"परन्तु 'मैं' रहेगा ही, वह नहीं जाता । जैसे अनन्त जल राशि, ऊपर-नीचे, सामने-पीछे, दाहिने-बायें पानी भरा हुआ है । उसी जल के भीतर एक जलपूर्ण कुम्भ है । 'मैं' रूपी कुम्भ ।
"ज्ञानी का शरीर ज्यों का त्यों ही रहता है; परन्तु इतना होता है कि ज्ञानाग्नि में कामादि रिपु दग्ध हो जाते हैं । कालीमन्दिर में बहुत दिन हुए आँधी और पानी दोनों एक साथ आये, फिर मन्दिर पर बिजली गिरी । हम लोगों ने जाकर देखा, कपाट ज्यों के त्यों ही थे, नुकसान नहीं हुआ था, परन्तु स्क्रू जितने थे उनका सिर टूट गया था । कपाट मानो शरीर है और कामादि आसक्तियाँ जैसे स्क्रू ।
“ज्ञानी केवल ईश्वर की बात चाहता है । विषय की बातें होने पर उसे बड़ा कष्ट होता है । विषयी और दर्जे के हैं । उनकी अविद्या की पगड़ी नहीं उतरती; इसीलिए घूम घामकर वही विषय की बात ले आते हैं ।
"वेदों में सप्त भूमियों की बातें हैं, पंचम भूमि पर जब ज्ञानी चढ़ता है, तब ईश्वरी बात के सिवा न तो कुछ और सुन सकता है, न कह सकता है; तब उसके मुँह से केवल ज्ञान का उपदेश निकलता है ।"
"वेदों में सच्चिदानन्द ब्रह्म की बात है । ब्रह्म न एक है, न दो, एक और दो के बीच में है । उसे (न तो कोई अस्ति कह सकता है, न नास्ति । वह अस्ति और नास्ति के बीच की वस्तु है।
🔆🙏 वैधी से नहीं ,रागभक्ति से ईश्वर प्राप्ति होती है 🔆🙏
“राग भक्ति के आने पर अर्थात् ईश्वर पर प्यार होने पर मनुष्य उन्हें पाता है । वैधी भक्ति जिस तरह होती है, उसी तरह चली भी जाती है। इतना जप करना है, इतना ध्यान करना है, इतना याग यज्ञ और होम करना है, इन उपचारों से पूजा करनी है, पूजा के समय इन मन्त्रों का पाठ करना है, ये सब वैधी भक्ति के लक्षण हैं । यह होती है जैसे, जाती भी है वैसे ही । कितने आदमी कहते हैं, 'अरे भाई, कितना हविष्यान्न किया, कितनी बार घर में पूजा की, परन्तु क्या हुआ ?"
रागभक्ति (खानदानी किसान) का कभी पतन नहीं होता । रागभक्ति उन्हें होती है जिनका बहुत सा काम पूर्व जन्म से किया हुआ है; अथवा जो लोग नित्य-सिद्ध हैं । जैसे किसी गिरी हुई इमारत का ढेर साफ करते हुए लोगों को एक नलदार फव्वारा मिल गया । उसके ऊपर मिट्टी और सुरखी पड़ी हुई थी, ज्योंही सब कूड़ा हटा दिया गया कि जोरों से पानी निकलने लगा ।
"जिन्हें रागभक्ति होती है, वे यह बात नहीं कहते कि भाई इतना हविष्यान्न किया, परन्तु कहीं कुछ न हुआ । जो लोग पहले पहल किसानी करते हैं, अगर उपज नहीं होती तो वे किसानी छोड़ देते हैं। [खानदानी किसान ] जिसके पुश्त-दरपुश्त से खेती हो रही है, वह यह काम नहीं छोड़ता, चाहे दो-एक बार पैदावार अच्छी न भी हो । वे जानते है कि खेती से ही उनका जीवन-निर्वाह होगा।
🔆🙏जिसमें रागभक्ति (12, जनवरी 1985) है, उसका भार त्रिदेव लेते हैं🔆🙏
"जिनमें रागभक्ति है, उनका भाव आन्तरिक है, उनका भार ईश्वर लेते हैं । अस्पताल में नाम लिखाने पर जब तक रोगी अच्छा नहीं हो जाता तब तक डाक्टर छोड़ता नहीं । ईश्वर जिन्हें पकड़े हुए हैं उनके लिए किसी भय की बात नहीं । खेत की मेंड़ पर से चलते हुए जो लड़का अपने बाप का हाथ पकड़े रहता है, वह चाहे भले ही गिर जाय - सम्भव है वह किसी दूसरे ख्याल में डूबकर बाप का हाथ छोड़ दे, परन्तु जिस लड़के को बाप खुद पकड़े रहता है, वह कभी नहीं गिर सकता।
"विश्वास से क्या नहीं हो सकता ? जो सच्चे मार्ग पर है, वह सब पर विश्वास करता है - साकार, निराकार, राम, कृष्ण, भगवती - सब पर ।
"उस देश (कामरपुकुर) में मैं जा रहा था, एकाएक रास्ते में आँधी और पानी एक साथ आये । बीच मैदान में डाकुओं का भी भय था । तब मैंने सब कुछ कह डाला - राम, कृष्ण, भगवती, फिर मैंने हनुमानजी की याद की ! अच्छा मैंने सभी देव मूर्तियों का नाम लिया, इसका क्या अर्थ है?
“बात यह है जब कि नौकर या नौकरानी बाजार करने को पैसे लेती है तब हर चीज के पैसे अलग अलग लेती है, कहती है - ये आलू के पैसे हुए, ये बैंगन के, ये मछली के, इस तरह सब पैसे अलग अलग लेती है । सब हिसाब करके फिर पैसे मिला देती है ।
"ईश्वर पर प्यार होने पर केवल उन्हीं की बात कहने को जी चाहता है । जो जिससे सच्चा प्यार करता है, उसे केवल उसी के विषय में बातें करना और सुनना अच्छा लगता है ।
संसारी आदमियों के मुँह से अपने बच्चे की बातें करते हुए लार टपक पड़ती है । अगर कोई उसके बच्चे की तारीफ करता है तो वह अपने बच्चे से उसी समय कहता है, अरे देख अपने चाचा को पैर धोने के लिए पानी तो ले आ ।
"कबूतरों पर जिनकी रुचि है, उनके पास कबूतरों की तारीफ करो तो खुश हो जाते है । अगर कोई उनकी निन्दा करता है, तो वह कहता है, तुम्हारे बाप-दादे ने भी कभी कबूतरों को पाला है?
ठाकुर महिमाचरण को समझा रहे हैं। क्योंकि महिमा संसारी व्यक्ति हैं।
[ November 9, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]
🙏 प्याज खाया, विचार करने लगा, रे मन यही प्याज है 🔆🙏
(महिमाचरण से) "संसार को एकदम छोड़ देने की क्या जरूरत है ? आसक्ति के जाने ही से हुआ, परन्तु साधना चाहिए । इन्द्रियों के साथ लड़ाई करनी पड़ती है।
“किले के भीतर से लड़ने में और सुविधाएँ हैं । वहीं बड़ी सहायता मिलती है । संसार भोग की जगह है । एक-एक चीज का भोग करके उसी समय उसे छोड़ देना चाहिए । मेरी इच्छा थी कि सोने की करधनी पहनूँ । अन्त में वह मिली भी । मैंने सोने की करधनी पहनी । पहनने के बाद उसे उसी समय खोल डाला ।
"प्याज खाया और उसी समय विचार करने लगा । कहा, रे मन, यही प्याज है ।' फिर मुँह में एक बार इधर, एक बार उधर, इस तरह चबाकर उसे फेंक दिया ।"
(३)
[ November 9, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]
🔆🙏संकीर्तनानन्द में🔆🙏
आज एक गानेवाले आयेंगे, अपनी मण्डली के साथ कीर्तन करेंगे । श्रीरामकृष्ण बार बार अपने शिष्यों से पूछ रहे हैं, 'कीर्तनिया कहाँ है ?'
महिमाचरण ने कहा, "हम लोग ऐसे ही अच्छे हैं ।"
श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, हम लोगों का मिलना तो बारहों महीने लगा है ।
बाहर से किसी ने कहा, "कीर्तनिया आ गया ।"
श्रीरामकृष्ण ने आनन्द के उच्छ्वास में इतना ही कहा - "क्या आ गया ?"
कमरे के दक्षिण-पूर्व के लम्बे बरामदे में शतरंजी बिछायी गयी । श्रीरामकृष्ण ने कहा - "इस पर थोड़ा सा गंगाजल छिड़क देना । न जाने कितने विषयी मनुष्यों ने इसे रौंदा है ।”
बाली के प्यारी बाबू की स्त्रियाँ और लड़कियाँ काली का दर्शन करने के लिए आयी हुई हैं । कीर्तन होने का आयोजन देखकर उन्हें भी सुनने की इच्छा हुई । एक ने श्रीरामकृष्ण से आकर कहा, 'वे सब पूछती हैं - क्या कमरे में जगह होगी ? क्या वे भी बैठें ?" श्रीरामकृष्ण कीर्तन सुनते हुए ही कह रहे हैं - 'नहीं नहीं, जगह कहाँ है ?'
इसी समय नारायण आये और उन्होंने श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
[नारायण (Narayan)^* - कलकत्ता के एक ब्राह्मण परिवार के सन्तान थे । ठाकुर उनके सरल और पवित्र स्वभाव के कारण उन्हें बहुत प्यार करते थे। नारायण श्रीरामकृष्ण वचनामृत के रचयिता श्री महेंद्रनाथ गुप्त के छात्र थे। वे अपने परिवार के कड़े विरोध के बावजूद शारीरिक यातना सहकर भी ठाकुर के पास दक्षिणेश्वर आया करते थे। घर में नारायण को मिलने वाली शारीरिक प्रताड़ना का दर्द ठाकुर को अपने जैसा अनुभव होता था। कम उम्र में ही नारायण का निधन हो गया था।]
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, 'तू क्यों आया ? घरवालों ने तुझे इतना मारा !'नारायण श्रीरामकृष्ण के कमरे की ओर जा रहे थे; श्रीरामकृष्ण ने बाबूराम को इशारे से कह दिया - इसे खाने के लिए देना।
नारायण कमरे के अन्दर गये । एकाएक श्रीरामकृष्ण ने उठकर कमरे में प्रवेश किया, नारायण को अपने हाथों भोजन करायेंगे । खिलाने के बाद फिर वे कीर्तन में आकर बैठे ।
[ November 9, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]
(४)
🔆🙏 भक्तों के साथ संकीर्तनानन्द🔆🙏
बहुत से भक्त आये हुए है, श्रीयुत विजय गोस्वामी, महिमाचरण, नारायण, अधर, मास्टर, छोटे गोपाल आदि । राखाल, बलराम इस समय वृन्दावन में है । दिन के ३-४ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण बरामदे में कीर्तन सुन रहे हैं, पास में नारायण आकर बैठे । चारों ओर दूसरे भक्त बैठे हुए हैं । इसी समय अधर आये । अधर को देखकर श्रीरामकृष्ण में कुछ उद्दीपना हो गयी । अधर के प्रणाम करके आसन ग्रहण करने पर श्रीरामकृष्ण ने उन्हें और निकट बैठने के लिए इशारा किया ।
कीर्तनियों ने कीर्तन समाप्त किया । सभा उठ गयी । बगीचे में भक्तगण इधर-इधर टहल रहे हैं । कोई कोई काली और राधाकान्तजी की आरती देखने के लिए गये ।
सन्ध्या के बाद श्रीरामकृष्ण के कमरे में भक्तगण फिर आये । उनके कमरे में कीर्तन का आयोजन फिर होने लगा । उनमें खूब उत्साह है । कहते हैं, एक बत्ती इधर भी देना । दो बत्तियों जला दी गयीं, खूब रोशनी होने लगी ।
श्रीरामकृष्ण विजय से कह रहे हैं - 'तुम ऐसी जगह क्यों बैठे ? इधर आकर बैठो ।'
अब की बार कीर्तन खूब जमा । श्रीरामकृष्ण मस्त होकर नृत्य कर रहे हैं । भक्तगण उन्हें घेर-घेरकर खूब नाच रहे हैं । विजय नाचते हुए दिगम्बर हो गये । होश कुछ भी नहीं हैं ।
कीर्तन के बाद विजय चाभी खोज रहे हैं । कहीं गिर गयी है । श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "अब भी एक बार 'बोल वृन्दावन बिहारी की जय' होनी चाहिए !" यह कहकर हँस रहे हैं, विजय से और भी कह रहे हैं, "अब यह सब क्यों ?" (अर्थात् अब चाभी के साथ क्यों सम्बन्ध रखते हो ?)
किशोरी प्रणाम करके बिदाई ले रहे हैं । श्रीरामकृष्ण स्नेहार्द्र हो उनकी देह पर हाथ फेरने लगे और बोले, 'अच्छा आओ ।' बातों में करुणा मिली हुई है । कुछ देर बाद मणि और गोपाल ने आकर प्रणाम किया - वे लोग भी चलने वाले हैं । श्रीरामकृष्ण की करुणापूर्ण बातें ! कहा, कल सुबह को उठकर जाना, कहीं ओस लगकर तबीयत न खराब हो जाय ।
मणि और गोपाल फिर नहीं गये । वे आज रात को यहीं रहेंगे । वे तथा और भी दो-एक भक्त जमीन पर बैठे हुए हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण श्रीयुत राम चक्रवर्ती से कह रहे हैं, "राम, यहाँ एक पाँवपोश और था, क्या हो गया ?''
श्रीरामकृष्ण को दिन भर अवकाश नहीं मिला कि जरा विश्राम करते । भक्तों को छोड़कर जाते भी कहाँ ? अब एक बार बाहर की ओर जाने लगे । कमरे में लौटकर उन्होंने देखा, मणि रामलाल से सुनकर गाना लिख रहे हैं। श्रीरामकृष्ण ने मणि से पूछा, 'क्या लिखते हो ?' गाने का नाम सुनकर कहा, यह तो बहुत बड़ा गाना है ।
रात को श्रीरामकृष्ण जरा सी सूजी की खीर और दो-एक पूड़ियाँ खाते हैं । उन्होंने रामलाल से पूछा, 'क्या सूजी है ?’
गाना दो-एक लाइन लिखकर मणि ने लिखना बन्द कर दिया ।
श्रीरामकृष्ण जमीन पर बिछे हुए आसन पर बैठकर सूजी की खीर खा रहे हैं । भोजन करके आप छोटी खाट पर बैठे । मास्टर खाट की बगल में तख्त पर बैठे हुए श्रीरामकृष्ण से बातचीत कर रहे हैं । नारायण की बात करते हुए श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - आज नारायण को मैंने देखा ।
मास्टर - जी हाँ, आँखे डबडबाई हुई थी । उसका मुँह देखकर रुलाई आती थी ।
श्रीरामकृष्ण - उसे देखकर वात्सल्य भाव का उद्रेक होता है । यहाँ आता है, इसीलिए घरवाले उसे मारते हैं । उसकी ओर से कहनेवाला कोई नहीं है ।
मास्टर - (सहास्य) - हरिपद के घर में पुस्तकें रखकर वह यहाँ भाग आया ।
श्रीरामकृष्ण - यह अच्छा नहीं किया ।
श्रीरामकृष्ण चुप हैं । कुछ देर बाद बोले –"देखो, उसमें (नारायण नामक लड़के में ?) बड़ी शक्ति है । नहीं तो कीर्तन सुनते हुए मुझे क्या कभी आकर्षित भी कर सकता था ? मुझे कमरे के भीतर आना पड़ा । कीर्तन छोड़कर आना - ऐसा कभी नहीं हुआ ।
"उससे मैंने भावावेश में पूछा था, उसने एक ही वाक्य में कहा - मैं आनन्द में हूँ । (मास्टर से) तुम उसे कभी कभी कुछ मोल लेकर खिलाया करो - वात्सल्य भाव से ।”
श्रीरामकृष्ण ने फिर तेजचन्द्र की बात निकाली । (मास्टर से) "एक बार उससे पूछना तो सही, एक शब्द में वह मुझे क्या बतलाता है ? – ज्ञानी या कुछ और सुना, तेजचन्द्र अधिक बातचीत नहीं करता । (गोपाल से) देख, तेजचन्द्र से शनि या मंगल के दिन आने के लिए कहना ।"
[तेजचंद्र [तेजचंद्र मित्र] (1863 - 1912) वे वे श्री म के छात्र थे और ठाकुर के एक गृहस्थ भक्त थे। तेजचंद्र बोस पाड़ा , बागबजार अंचल के निवासी थे। श्री म की अनुप्रेरणा से उन्हें बचपन में ही श्री श्री ठाकुर का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। श्रीश्री माँ की शरण में आकर वे उनकी कृपा से भी धन्य हुए थे। वे नियमित रूप से जप-ध्यान किया करते थे,और मितभाषी थे। ठाकुर उन्हें 'शुद्ध आधार' कहा करते थे, और उन्हें अपना सगा मानकर उससे बहुत प्यार करते थे। ]
श्रीरामकृष्ण जमीन पर बैठे हुए सूजी की खीर खा रहे हैं । पास ही एक दीपदान पर दिया जल रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास मास्टर बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने पूछा, 'क्या कुछ मिठाई है ?' मास्टर नये गुड़ के सन्देश ले आये थे । रामलाल ने कहा, ताक पर सन्देश रखे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण - कहाँ है ? जरा ले आओ । मास्टर फुर्ती से उठकर ताक पर खोजने लगे । वहाँ सन्देश न थे । भक्तों की सेवा में गये होंगे । मास्टर संकुचित होकर श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण (नारायण के विषय में भावुक होकर) बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - अच्छा, अबकी बार अगर तुम्हारे स्कूल में जाकर देखूँ –
मास्टर ने सोचा, ये नारायण को देखने के लिए स्कूल जाने की बात कह रहे हैं । उन्होंने कहा, हमारे घर में चलकर बैठिये तो भी काम हो जायेगा ।
श्रीरामकृष्ण - एक इच्छा है । वह यह कि वहाँ और कोई लड़का उस तरह का है या नहीं, जरा देखूँ चलकर ।
मास्टर - आप अवश्य चलिये । दूसरे आदमी देखने जाया करते हैं, उसी तरह आप भी जाइयेगा ।
श्रीरामकृष्ण भोजन करके छोटी खाट पर बैठे । इस बीच में मास्टर और गोपाल ने बरामदे में बैठकर भोजन किया - रोटी और दाल । उन लोगों ने नौबतखाने में सोने का निश्चय किया । भोजन करके मास्टर श्रीरामकृष्ण के पाँवपोश पर आकर बैठे ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - नौबतखाने में हंडियाँ-बर्तन न रखे हों, यहाँ सोओगे – इस कमरे में ?
मास्टर - जी हाँ ।
(५)
[ November 9-10, 1884; श्रीरामकृष्ण वचनामृत-102 ]
🔆🙏सेवक के संग में 🔆🙏
रात के १०-११ बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण छोटी खाट पर तकिये के सहारे विश्राम कर रहे हैं । मणि जमीन पर बैठे हैं । मणि के साथ श्रीरामकृष्ण बातचीत कर रहे हैं । कमरे की दीवार के पास उसी दीपदान पर दिया जल रहा है ।
श्रीरामकृष्ण - मेरे पैर सुहारते हैं, जरा हाथ फेर दो ।
मणि श्रीरामकृष्ण के पैरों की ओर छोटी खाट पर बैठे हुए धीरे धीरे पैरों पर हाथ फेर रहे हैं । श्रीरामकृष्ण रह-रहकर बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अकबर बादशाह की बात कैसी रही ?
मणि - जी हाँ, काफी अच्छी थीं ।
श्रीरामकृष्ण - कौन सी बात, कहो तो जरा ।
मणि - फकीर बादशाह से मिलने आया था । अकबर बादशाह उस समय नमाज पढ़ रहे थे । नमाज पढ़ते हुए ईश्वर से धनदौलत की प्रार्थना करते थे । यह सुनकर फकीर धीरे से अपने घर चल दिया । बाद में अकबर बादशाह के पूछने पर उसने कहा 'अगर माँगना ही है तो भिखारी से क्या माँगू ?’
श्रीरामकृष्ण - और कौन कौन सी बातें हुई थीं ?
मणि - संचय की बातें खूब हुई ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कौन-कौन सी ?
मणि - जब यह ज्ञान रहता है कि हमें प्रयत्न करना चाहिए तब तक प्रयत्न करना चाहिए । संचय की बात सींती में कैसी कही आपने ?
श्रीरामकृष्ण - कौन सी बात ?
मणि - जो पूर्ण रूप से उन पर अवलम्बित है, उसका भार वे लेते भी हैं - नाबालिग का भार जैसे वली (संरक्षक-Patron) लेता है । एक बात और सुनी थी, वह यह कि जिस घर में घरभोज का न्योता रहता है, वहाँ अकेला पहुँचा कोई छोटा लड़का खुद स्थान ग्रहण नहीं कर सकता, खाने के लिए दूसरे लोग जब उसे खाने की अनुमति देकर बैठाते हैं, तभी उसे भोजन परोसा जाता है।
श्रीरामकृष्ण – नहीं । यह ठीक नहीं हुआ । बाप अगर लड़के का हाथ पकड़कर ले जाता है तो वह लड़का नहीं गिरता ।
मणि - और आज आपने तीन तरह के संन्यासियों (साधुओं) की बात कही थी । उत्तम संन्यासी (साधु) को बैठे हुए ही भोजन मिलता है । आपने उस बालक साधु की बात कही । उसने लड़की के स्तन देखकर पूछा था, इसकी छाती पर ये फोड़े कैसे हुए ? और भी बहुत सी सुन्दर सुन्दर बातें आपने कही थी, सब बातें कैसे ऊँचे लक्ष्य की थीं !
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कौन कौन सी बातें ?
मणि - पम्पा सरोवर के उस कौए की बात । दिन-रात रामनाम जपता है, इसीलिए पानी के पास पहुँचकर भी पानी पी नहीं सकता । और उस साधु की पोथी की बात जिसमें केवल 'श्रीराम' लिखा हुआ था । और हनुमान ने श्रीरामजी से जो कुछ कहा –
श्रीरामकृष्ण - क्या कहा ?
मणि - 'लंका में मैंने सीता को देखा, केवल उनकी देह पड़ी हुई है, मन और प्राण सब तुम्हारे श्रीचरणों में उन्होंने अर्पित कर दिये हैं ।'
"और चातक की बात - स्वाति की बूँदों को छोड़ और दूसरा पानी नहीं पीता । " और ज्ञानयोग और भक्तियोग की बातें ।"
श्रीरामकृष्ण - कौन सी ?
मणि - जब तक 'कुम्भ' का ज्ञान है, तब तक 'मैं कुम्भ हूँ' यह भाव रहेगा ही । जब तक 'मैं' है, तब तक 'मै भक्त हूँ, तुम भगवान हो' यह भाव भी रहेगा ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, 'कुम्भ' का ज्ञान रहे या न रहे, 'कुम्भ' मिट नहीं सकता । उसी तरह 'मैं' भी नहीं मिटता । चाहे लाख विचार करो, वह नहीं जाता ।
मणि कुछ देर चुप हो रहे; फिर बोले –“काली-मन्दिर में ईशान मुखर्जी से आपकी बातचीत हुई थी – भाग्यवश उस समय हम लोग भी वहाँ थे और सब बातें सुनी थीं ।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हाँ, कौन-कौन सी बातें हुई थीं, जरा कहो तो सही ।
मणि - आपने कहा था, कर्मकाण्ड प्रथम अवस्था की क्रिया (आदिकाण्ड) है; शम्भू मल्लिक से आपने कहा था, 'अगर ईश्वर तुम्हारे सामने आयें तो क्या तुम उनसे कुछ अस्पतालों और दवाखानों की प्रार्थना करोगे ?"
"एक बात और हुई थी । वह यह कि जब तक कर्मों में आसक्ति रहती है, तब तक ईश्वर दर्शन नहीं देते । केशव सेन से इसी सम्बन्ध की बातें आपने कही थीं ।"
श्रीरामकृष्ण - कौन-कौन सी बातें ?
मणि - जब तक लड़का खिलौने पर रीझा रहता है, तब तक माँ रोटी-पानी में लगी रहती है, पर खिलौना फेंककर जब लड़का चिल्लाता रहता है तब माँ तव उतारकर बच्चे के लिए दौड़ती है ।
“एक बात और उस दिन हुई थी । लक्ष्मण ने पूछा था, 'कहाँ कहाँ ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं ?’ राम ने बहुत सी बातें कहकर फिर कहा, “ एक और है - उर्जिता भक्ति (ecstatic love, उन्मत्त प्रेम)। मानो भक्ति उमड़ रही है । ऐसी भक्ति कि वह भाव में हँसता है, रोता है, - नाचता - गाता है, मारे प्रेम के मतवाला हो रहा है, जैसे चैतन्य देव। 'भाई, जिस मनुष्य में उर्जिता भक्ति देखोगे, वहाँ समझना, मै अवश्य हूँ ।’
श्रीरामकृष्ण – आहा – आहा !
শ্রীরামকৃষ্ণ — আহা! আহা!
श्रीरामकृष्ण कुछ देर चुप रहे ।
मणि - ईशान से तो आपने केवल निवृत्ति की बातें कही थीं । उसी दिन से बहुतों की अक्ल दुरुस्त हो गयी । अब हम लोगों का रुझान कर्तव्यकर्मों के घटाने की ओर है । आपने कहा था किसी दूसरे की बला अपने सिर क्यों लादी जाय ? श्रीरामकृष्ण यह बात सुनकर बड़े जोर से हँसे ।
मणि - (बड़े विनय-भाव से) - अच्छा, कर्तव्य-कर्म, यह जंजाल घटाना तो अच्छा है न ?
श्रीरामकृष्ण – हाँ, परन्तु सामने कोई पड़ गया, वह और बात है । साधु या गरीब आदमी अगर सामने आया, तो उनकी सेवा करनी चाहिए ।
मणि - और उस दिन ईशान मुखर्जी से चाटुकार लोगों की बात भी आपने खूब कही । मुर्दे पर जैसे गीध टूटते हैं । यही बात आपने पण्डित पद्मलोचन से भी कही थी ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, उलो के वामनदास से कही थी ।
[उलो के वामनदास (श्री वामनदास मुखोपाध्याय ) - नदिया जिले के बीरनगर या उलो में उनका निवास स्थान था। उन्होंने उत्तरी कलकत्ता के काशीपुर में माँ-काली का एक बड़ा मंदिर स्थापित किया था । एक बार दक्षिणेश्वर में एक भक्त के घर पर रहते समय, ठाकुर देव ह्रदय को अपने साथ लेकर,उनसे मिलने गए थे । उस दिन, श्रीरामकृष्ण के मधुर स्वर में श्यामा संगीत सुनकर वामनदास मुग्ध हुए थे। और अप्रत्याशित रूप से अवतार वरिष्ठ को अपने घर में पधारे देखकर खुद को धन्य माना था ।]
श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है । उन्होंने मणि से कहा - "तुम अब सोओ जाकर । गोपाल कहाँ गया ? तुम दरवाजा बन्द कर लो, पर जंजीर न चढ़ाना ।”
दूसरे दिन (10 नवंबर) सोमवार था । श्रीरामकृष्ण बिस्तरे से प्रातः काल उठकर देवताओं के नाम ले रहे हैं । रह-रहकर गंगा-दर्शन कर रहे हैं । उधर काली और श्रीराधाकान्त के मन्दिर में मंगलारती हो रही है । मणि श्रीरामकृष्ण के कमरे में जमीन पर लेटे हुए थे । वे भी बिस्तर से उठकर सब देख और सुन रहे हैं ।
प्रातःकृत्य समाप्त करके वे श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण स्नान करके काली-मन्दिर जा रहे हैं । उन्होंने मणि से कमरे में ताला बन्द कर लेने के लिए कहा ।
काली-मन्दिर में जाकर श्रीरामकृष्ण आसन पर बैठे और फूल लेकर कभी अपने मस्तक पर और कभी श्रीकाली के पादपद्यों पर चढ़ा रहे हैं । फिर चामर लेकर व्यजन करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण अपने कमरे की ओर लौटे । मणि से ताला खोलने के लिए कहा । कमरे में प्रवेश कर छोटी खाट पर बैठे । इस समय भाव में मग्न होकर नाम ले रहे हैं । मणि जमीन पर अकेले बैठे हुए हैं ।
श्रीरामकृष्ण गाने लगे । भाव में मस्त हुए आप मणि को गीतों से क्या यह शिक्षा दे रहे हैं कि--“काली ही ब्रह्म है; काली निर्गुण हैं और सगुण भी हैं, अरूपा हैं और अनन्तरूपिणी भी है ।"
गाना (भावार्थ) "ऐ तारिणी, मेरा त्राण कर । तू जल्दी कर, इधर यम-त्रास से मेरा जी निकल रहा है । तू जगदम्बा है, तू लोकों का पालन करती है, मनुष्यों को मुग्ध भी तू ही करती है, तू संसार की जननी है, यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर कृष्ण की लीला में तू ही ने सहायता दी थी । वृन्दावन में तू विनोदिनी राधा थी, व्रजवल्लभ कृष्ण के साथ तूने विहार किया था । रासरंगिनी और रसमयी होकर रास में तूने अपनी लीला का प्रकाशन किया था । .... तू शिवानी है, सनातनी है, ईशानी है, सदानन्दमयी है, सगुणा भी है, निर्गुणा भी है, सदा ही तू शिव की प्यारी है, तेरी महिमा कहने के योग्य ऐसा कौन है ?''
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण ने पूछा 'अच्छा, इस समय मेरी कैसी अवस्था तुम देख रहे हो ?"
मणि - (सहास्य) - यह आपकी सहजावस्था है ।
श्रीरामकृष्ण बहुत धीमे स्वर में गाने का एक चरण अलाप रहे हैं -
[ঠাকুর আপন মনে গানের ধুয়া ধরিলেন, — “সহজ মানুষ না হলে সহজকে না যায় চেনা।”
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