*परिच्छेद~ ८६*
*बलराम-मंदिर में रथ के पुनर्यात्रा के दिन भक्तों के साथ*
(१)
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 86]
🔆 साधना की आवश्यकता 🔆
श्रीरामकृष्ण बलराम बाबू के बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । श्रीमुख पर प्रसन्नता झलक रही है, भक्तों से बातचीत कर रहे हैं ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলরামের বৈঠকখানায় ভক্তের মজলিস করিয়া বসিয়া আছেন। আনন্দময় মূর্তি! — ভক্তদের সহিত কথা কহিতেছেন।
आज रथ की पुनर्यात्रा ("Return Car Festival") है, दिन बृहस्पति है, 3 जुलाई 1884, आषाढ़ की शुक्ला दशमी । श्रीयुत बलराम के यहाँ जगन्नाथजी (The Lord of the Universe) की सेवा होती है, एक छोटा सा रथ भी है । उन्होंने पुनर्यात्रा के उपलक्ष्य में श्रीरामकृष्ण को निमन्त्रण भेजा था । यहाँ छोटा रथ, घर के बाहरवाले दुमंजले बरामदे में चलाया जाता है ।
[Sri Ramakrishna was sitting in Balaram Bose's house in Calcutta. It was the day of the "Return Car Festival". The Lord of the Universe was worshipped in Balaram's house as Jagannath. There was a small car in the house for use during the Car Festival.
गत २५ जून बुधवार को रथयात्रा का प्रथम दिन था । श्रीरामकृष्ण ने श्रीयुत ईशान मुखोपाध्याय के यहाँ आकर निमन्त्रण स्वीकार किया था । उसी दिन पिछले पहर कालेज स्ट्रीट में भूधर के यहाँ पण्डित शशधर के साथ उनकी पहली मुलाकात हुई थी । तीन दिन की बात है, दक्षिणेश्वर में शशधर श्रीरामकृष्ण से मिले थे ।
[আজ পুনর্যাত্রা। বৃহস্পতিবার। আষাঢ় শুক্লা দশমী। ৩রা জুলাই, ১৮৮৪। শ্রীযুক্ত বলরামের বাটীতে, শ্রীশ্রীজগন্নাথের সেবা আছে, একখানি ছোট রথও আছে। তাই তিনি ঠাকুরকে, পুনর্যাত্রা উপলক্ষে নিমন্ত্রণ করিয়াছেন। এই ছোট রথখানি বারবাটীর দোতলার চকমিলান বারান্দায় টানা হইবে। গত ২৫শে জুন বুধবারে শ্রীশ্রীরথযাত্রার দিন, ঠাকুর শ্রীযুক্ত ঈশান মুখোপাধ্যায়ের ঠনঠনিয়া বাটীতে আসিয়া নিমন্ত্রণ গ্রহণ করিয়াছিলেন। সেই দিনেই বৈকালে কলেজ স্ট্রীটে ভূধরের বাটীতে পণ্ডিত শশধরের সহিত প্রথম সাক্ষাৎ হয়। তিনদিন হইল, গত সোমবারে শশধর তাঁহাকে দক্ষিণেশ্বর-কালীমন্দিরে দ্বিতীয়বার দর্শন করিতে গিয়াছিলেন।
श्रीरामकृष्ण की आज्ञा पाकर बलराम ने आज शशधर को न्योता भेजा है । शशधर पण्डितजी हिन्दूधर्म की व्याख्या करके लोगों को शिक्षा देते हैं । क्या इसीलिए श्री रामकृष्ण उनके भीतर शक्तिसंचार करने के लिए इतने उत्सुक हैं? }
{ঠাকুরের আদেশে বলরাম শশধরকে আজ নিমন্ত্রণ করিয়াছেন। পণ্ডিত হিন্দুধর্মের ব্যাখ্যা করিয়া লোকশিক্ষা দিতেছেন। তাই কি শ্রীরামকৃষ্ণ তাঁহার ভিতর শক্তিসঞ্চার করিবার জন্য এত উৎসুক হইয়াছেন?
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बातचीत कर रहे हैं । पास ही राम, मास्टर, बलराम, मनोमोहन, कई बालक भक्त, बलराम के पिता आदि बैठे हैं । बलराम के पिता वैष्णव हैं, बड़े निष्ठावान हैं । वे प्राय: वृन्दावन में अपने ही प्रतिष्ठित कुंज में अकेले रहते हैं और श्रीश्यामसुन्दर विग्रह की सेवा करते हैं । वृन्दावन में वे अपना सारा समय देव-सेवा में ही लगाते हैं ।
कभी कभी चैतन्य चरितामृत आदि भक्तिग्रन्थों का पाठ करते हैं । कभी किसी भक्तिग्रन्थ की दूसरी लिपि उतारते हैं । कभी बैठे हुए स्वयं ही फूलों की माला तैयार करते है । कभी वैष्णवों का निमन्त्रण करके उनकी सेवा करते हैं । श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने के लिए बलराम ने उन्हें पत्र पर पत्र भेजकर कलकत्ता बुलाया है । 'सभी धर्मों में साम्प्रदायिक भाव है, खासकर वैष्णवों में । दूसरे मत वाले एक दूसरे से विरोध करते हैं, वे समन्वय करना नहीं जानते ।' यही बात श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं ।
[Balaram's father was a pious Vaishnava who devoted most of his time to prayer and meditation in his garden house at Vrindavan. He also studied devotional books and enjoyed the company of devotees. Balaram had brought his father to Calcutta to meet the Master.
Sri Ramakrishna was in a very happy mood. Seated near him were Ram, Balaram, Balaram's father, M., Manomohan, and several young devotees. He was conversing with them.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆बलराम के पिता को सर्वधर्म -समन्वय की शिक्षा, भक्तमाल और श्रीमद्भागवत का प्रसंग 🔆
[ धार्मिक कट्टरता के कारण भिन्न-भिन्न मतवाले अपने ही मत को श्रेष्ठ कहते हैं ]
[Each sect magnifies its own view.]
श्रीरामकृष्ण - (बलराम के पिता और दूसरे भक्तों से) - वैष्णवों का एक ग्रन्थ है भक्तमाल, बड़ी अच्छी पुस्तक है । श्रेष्ठ भक्तों की कथाएं उसमें हैं । परन्तु यह पुस्तक एक पक्षीय मत का समर्थन करती है। एक जगह भगवती को विष्णुमन्त्र दिलाया है, तब पिण्ड छोड़ा है !
[শ্রীরামকৃষ্ণ (বলরামের পিতা প্রভৃতি ভক্তদের প্রতি) — বৈষ্ণবদের একটি গ্রন্থ ভক্তমাল। বেশ বই, — ভক্তদের সব কথা আছে। তবে একঘেয়ে। এক জায়গায় ভগবতীকে বিষ্ণুমন্ত্র লইয়ে তবে ছেড়েছে!
MASTER (to Balaram's father and the others): "The Bhaktamala is one of the Vaishnava books. It is a fine book. It describes the lives of the various Vaishnava devotees. But it is one-sided. At one place the author found peace of mind only after compelling Bhagavati, the Divine Mother, to take Her initiation according to the Vaishnava discipline.
"मैंने वैष्णचरण की बड़ी तारीफ करके सेजो बाबू के पास बुलवाया था । सेजो बाबू ने खूब खातिर की । चाँदी के बर्तन निकालकर उन्हीं में उनको जलपान कराया । फिर जब बातें होने लगीं, तब उसने सेजो बाबू के सामने कह डाला - 'हमारे केशव-मन्त्र के बिना कुछ होने-जाने का नहीं ।' सेजो बाबू देवी के उपासक थे । इतना सुनते ही उनका मुँह लाल हो गया । मैंने वैष्णव चरण का हाथ दबा दिया ।
[“আমি বৈষ্ণবচরণের অনেক সুখ্যাত করে সেজোবাবুর কাছে আনলুম। সেজোবাবু খুব যত্ন খাতির করলে। রূপার বাসন বার করে জল খাওয়ানো পর্যন্ত। তারপর সেজোবাবুর সামনে বলে কি — ‘আমাদের কেশবমন্ত্র না নিলে কিছুই হবে না!’ সেজোবাবু শাক্ত, ভগবতীর উপাসক। মুখ রাঙা হয়ে উঠল। আমি আবার বৈষ্ণবচরণের গা টিপি!
"Once I spoke highly of Vaishnavcharan to Mathur and persuaded him to invite Vaishnavcharan to his house. Mathur welcomed him with great courtesy. He fed his guest from silver plates. Then do you know what happened? Vaishnav said in front of Mathur, 'You will achieve nothing whatsoever in spiritual life unless you accept Krishna as your Ideal.' Mathur was a follower of the Sakta cult and a worshipper of the Divine Mother. At once his face became crimson. I nudged Vaishnavcharan.
“सुना है कि श्रीमद्भागवत जैसे ग्रन्थ में भी इस तरह की बातें हैं । 'केशव का मन्त्र बिना लिये भवसागर के पार जाना कुत्ते की पूँछ पकड़कर महासमुद्र पार करना है ।' -भिन्न-भिन्न मतवालों ने अपने ही मत को प्रधान बतलाया है ।
[“শ্রীমদ্ভাগবত — তাতেও নাকি ওইরকম কথা আছে, ‘কেশবমন্ত্র না নিয়ে ভবসাগর পার হওয়াও যা, আর কুকুরের ল্যাজ ধরে মহাসমুদ্র পার হওয়াও তা!’ সব মতের লোকেরা আপনার মতটাই বড় করে গেছে।
"I understand that the Bhagavata also contains some statements like that. I hear that it is said there that trying to cross the ocean of the world without accepting Krishna as the Ideal Deity is like trying to cross a great sea by holding to the tail of a dog. Each sect magnifies its own view.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆काली और कृष्ण तो एक हैं, फिर वैष्णव-शाक्त में झगड़ा क्यों ? 🔆
"शाक्त भी वैष्णवों को छोटा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं । श्रीकृष्ण भव-नदी के नाविक हैं, पार कर देते हैं, इस पर शाक्त लोग कहते हैं - 'हाँ, यह बिलकुल ठीक है, क्योंकि हमारी माँ राजराजेश्वरी हैं, भला वे कभी खुद आकर पार कर सकती हैं ? - कृष्ण को पार करने के लिए नौकर रख लिया है ।' (सब हँसते हैं ।)
{“শাক্তেরাও বৈষ্ণবদের খাটো করবার চেষ্টা করে। শ্রীকৃষ্ণ ভবনদীর কাণ্ডারী, পার করে দেন, শাক্তেরা বলে, ‘তা তো বটেই, মা রাজরাজেশ্বরী — তিনি কি আপনি এসে পার করবেন? ওই কৃষ্ণকেই রেখে দিয়েছেন পার করবার জন্য’” (সকলের হাস্য)
"The Saktas, too, try to belittle the Vaishnavas. The Vaishnavas say that Krishna alone is the Helmsman to take one across the ocean of the world. The Saktas retort: 'Oh, yes! We agree to that. Our Divine Mother is the Empress of the Universe. Why should She bother about a ferry-boat? Therefore She has engaged that fellow Krishna for the purpose.' (All laugh.)
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
[ पृष्ठभूमि -1880 में ठाकुर की जन्मभूमि यात्रा ]
🔆वैष्णव-मतावलम्बी ताँति लोगों का अहंकार - समन्वय की शिक्षा 🔆
"अपने मत पर लोग अहंकार भी कितना करते हैं । उस देश (कामारपुकुर), श्यामबाजार आदि स्थानों में ताँति (करघे वाले-weavers) बहुत हैं । उनमें से अधिकांश लोग वैष्णव हैं । वे बड़ी लम्बी लम्बी डिंग मारते हैं । कहते हैं, 'अरे ये किस विष्णु को मानते हैं - पाता विष्णु को ? (पालनकर्ता विष्णु को ?)- उसे तो हम लोग छुयें भी नहीं। कौन शिव ? - हम लोग तो आत्माराम शिव - आत्मारामेश्वर शिव को मानते हैं ।’ कोई दूसरा बोल उठा, ‘तुम लोग समझाओ भी तो, किस हरि को मानते हो ?' इधर कपड़े बुनते हैं और उधर इतनी लम्बी लम्बी बातें ! (बीड़ी बनाते मियाँ कहते हैं -राम तो बन्दा है , अल्ला परवरदिगार है !)
[“নিজের নিজের মত লয়ে আবার অহংকার কত! ও-দেশে, শ্যামবাজার এই সব জায়গায়, তাঁতীরা আছে। অনেকে বৈষ্ণব, তাদের লম্বা লম্বা কথা। বলে, ‘ইনি কোন্ বিষ্ণু মানেন? পাতা বিষ্ণু! (অর্থাৎ যিনি পালন করেন!) — ও আমরা ছুঁই না! কোন্ শিব? আমরা আত্মারাম শিব, আত্মারামেশ্বর শিব, মানি।’ কেউ বলছে, ‘তোমরা বুঝিয়ে দেও না, কোন্ হরি মান?’ তাতে কেউ বলছে — ‘না, আমরা আর কেন, ওইখান থেকেই হোক।’ এদিকে তাঁত বোনে; আবার এইসব লম্বা লম্বা কথা!”
"Besides, how vain people are about their own sects! There are weavers in the villages near Kamarpukur. Many of them are Vaishnavas and like to talk big. They say: 'Which Vishnu does he worship? The Preserver? Oh, we wouldn't touch him!' Or: 'Which Siva are you talking about? We accept the Atmarama Siva.' Or again, 'Please explain to us which Hari you worship.' They spin their yarn and indulge in talk like that.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆कट्टर वैष्णवी रति की माँ पहले ठाकुर देव का भक्त होने का दिखावा करता थी 🔆
"रति की माँ, रानी कात्यायनी की पसंदीदा विश्वासपात्र है; वैष्णवचरण के दल की है, कट्टर वैष्णवी। यहाँ बहुत आया-जाया करती थी । भक्ति का खूब दिखलावा था, ज्योंही मुझे उसने काली का प्रसाद पाते हुए देखा कि भागी ।
{“রতির মা রানী কাত্যায়নীর মো-সাহেব; — বৈষ্ণবচরণের দলের লোক, গোঁড়া বৈষ্ণবী। এখানে খুব আসা যাওয়া করত। ভক্তি দেখে কে! যাই আমায় দেখলে মা-কালীর প্রসাদ খেতে, অমনি পালাল!
"Rati's mother, Rani Katyayani's favourite confidante, is a follower of Vaishnavcharan. She is a bigoted Vaishnava. She used to visit me very frequently, and none could outdo her in devotion. One day she noticed me eating the prasad from the Kali temple. Since then I haven't seen even her shadow.}
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
[निर्गुण ब्रह्म मेरे पिता है, सगुण ईश्वर मेरी माँ, निर्गुण-सगुण समन्वयवादी दृष्टिकोण]
*Sri Ramakrishna's syncretic (सिंक्रेटिक) approach*
🔆जो साकार हैं वे ही निराकार हैं, उन्हीं के अनेक रूप हैं । 🔆
[যিনিই নিরাকার, তিনিই সাকার, তাঁরই নানা রূপ।]
“जिसने समन्वय किया है, वही मनुष्य है । अधिकतर आदमी एक खास ढरें के होते हैं । परन्तु मैं देखता हूँ, सब एक हैं । शाक्त, वैष्णव, वेदान्त मत, सब उसी एक को लेकर हैं; जो साकार हैं वे ही निराकार हैं, उन्हीं के अनेक रूप हैं ।
"निरगुण है सो पिता हमारा, सगुण है महतारी।
किसको नींदू किसको बंदू , दोनों पल्ला भारी ।
[श्री दरियाव साहेब ]
'निर्गुण ब्रह्म मेरे पिता है, सगुण ईश्वर मेरी माँ, मैं किसकी निन्दा करूँ और किसकी वन्दना, दोनों ही पलड़े भारी हैं।
[“যে সমন্বয় করেছে, সেই-ই লোক। অনেকেই একঘেয়ে। আমি কিন্তু দেখি — সব এক। শাক্ত, বৈষ্ণব, বেদান্ত মত সবই সেই এককে লয়ে। যিনিই নিরাকার, তিনিই সাকার, তাঁরই নানা রূপ।
নির্গুণ মেরা বাপ, সগুণ মাহতারি,
কারে নিন্দো কারে বন্দো, দোনো পাল্লা ভারী।’
"He is indeed a real man who has harmonized everything. Most people are one-sided. But I find that all opinions point to the One. All views — the Sakta, the Vaishnava, the Vedanta — have that One for their centre. He who is formless is, again, endowed with form. It is He who appears in different forms. The attributeless Brahman is my Father. God with attributes is my Mother. Whom shall I blame? Whom shall I praise? The two pans of the scales are equally heavy.'
वेदों में जिनकी बात है उन्हीं की बात तन्त्रों में है और पुराणों में भी उसी एक सच्चिदानन्द की बातें हैं । जो नित्य है, लीला भी उन्हीं की है ।
"वेदों में है - ॐ सच्चिदानन्द ब्रह्म । तन्त्रों में है - ॐ सच्चिदानन्दः शिवः - शिवः केवल: - केवलः शिवः । पुराणों में हैं - ॐ सच्चिदानन्दः कृष्णः । उसी एक सच्चिदानन्द की बात वेदों, पुराणों और तन्त्रों में है । और वैष्णव-शास्त्र में भी है कि कृष्ण स्वयं काली हुए थे ।"
[“বেদে যাঁর কথা আছে, তন্ত্রে তাঁরই কথা, পুরাণেও তাঁরই কথা। সেই এক সচ্চিদানন্দের কথা। যাঁরই নিত্য, তাঁরই লীলা।“বেদে বলেছে, ওঁ সচ্চিদানন্দঃ ব্রহ্ম। তন্ত্রে বলেছে, ওঁ সচ্চিদানন্দঃ শিবঃ — শিবঃ কেবলঃ — কেবলঃ শিবঃ। পুরাণে বলেছে, ওঁ সচ্চিদানন্দঃ কৃষ্ণঃ। সেই এক সচ্চিদানন্দের কথাই বেদ, পুরাণ, তন্ত্রে আছে। আর বৈষ্ণবশাস্ত্রেও আছে, — কৃষ্ণই কালী হয়েছিলেন।”
"He who is described in the Vedas is also described in the Tantras and the Puranas. All of them speak about the one Satchidananda. The Nitya and the Lila are the two aspects of the one Reality. It is described in the Vedas as 'Om Satchidananda Brahman', in the Tantras as 'Om Satchidananda Siva', the ever-pure Siva, and in the Puranas as 'Om Satchidananda Krishna'. All the scriptures, the Vedas, the Puranas, and the Tantras, speak only of one Satchidananda. It is stated in the Vaishnava scriptures that it is Krishna Himself who has become Kali."
(२)
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆श्रीरामकृष्ण की परमहंस अवस्था – बालकवत् और उन्मादवत् 🔆
[आय लो तोर खोंपा बेधे दी , तोर भातार एले बोलबे कि ! ]
[আয় লো তোর খোঁপা বেঁধে দি, তোর ভাতার এলে বলবে কি!]
श्रीरामकृष्ण जरा बरामदे की ओर जाकर फिर कमरे की ओर चले आये । बाहर जाते समय विश्वम्भर की लड़की ने उन्हें नमस्कार किया था, उसकी उम्र छः-सात साल की होगी । कमरे में उनके चले जाने पर लड़की उनसे बातचीत कर रही है । उसके साथ और भी दो-तीन उसी की उम्र के लड़के-लड़कियाँ हैं ।
[ঠাকুর বারান্দার দিকে একটু গিয়া আবার ঘরে ফিরিয়া আসিলেন। বাহিরে যাইবার সময় শ্রীযুক্ত বিশ্বম্ভরের কন্যা তাঁহাকে নমস্কার করিয়াছিল, তাহার বয়স ৬/৭ বৎসর হইবে। ঠাকুর ঘরে ফিরিয়া আসিলে পর মেয়েটি তাঁহার সহিত কথা কহিতেছে। তাহার সঙ্গে আরও দু-একটি সমবয়স্ক ছেলেমেয়ে আছে।
Sri Ramakrishna went to the porch for a few minutes and then returned. As he was going out, Vishvamvhar's daughter, six or seven years old, saluted him. On returning to the room, the Master began talking to the little girl and her companions, who were of the same age.
विश्वम्भर की लड़की - (श्रीरामकृष्ण से) - मैंने तुम्हें नमस्कार किया, तुमने देखा भी नहीं !
[বিশ্বম্ভরের কন্যা (ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণের প্রতি) — আমি তোমায় নমস্কার করলুম, দেখলে না।
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कहाँ, मैंने नहीं देखा ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — কই, দেখি নাই।
MASTER (smiling): "Did you? I really didn't notice."
कन्या - तो खड़े हो जाओ, फिर नमस्कार करूँ खड़े हो जाओ, इधर से भी करूँ ।
[কন্যা — তবে দাঁড়াও, আবার নমস্কার করি; — দাঁড়াও, এ পা’টা করি!
CHILD: "Then wait. I want to salute you again — the other foot too."
श्रीरामकृष्ण हंसते हुए बैठ गये और जमीन तक सिर झुकाकर कुमारी के प्रति नमस्कार किया । श्रीरामकृष्ण ने लड़की को गाने के लिए कहा । लड़की ने कहा - माँ -कसम, मैं गाना नहीं जानती।
उससे फिर अनुरोध करने पर उसने कहा, माँ-कसम कहने पर फिर क्या कभी गाने के लिए कहा जाता है ? श्रीरामकृष्ण उनके साथ आनन्द कर रहे हैं और उन्हें खुश करने के लिए बच्चों के गीत सुना रहे हैं - "आओ, मैं तुम्हारी चोटी गूँथ दूँ , तुम्हारा पति ऐसे देख कर कहीं डांटे नहीं !"बच्चे और भक्त गाना सुनकर हँस रहे हैं ।
[ঠাকুর হাসিতে হাসিতে উপবেশন করিলেন ও ভূমি পর্যন্ত মস্তক নত করিয়া কুমারীকে প্রতিনমস্কার করিলেন। ঠাকুর মেয়েটিকে গান গাহিতে বলিলেন। মেয়েটি বলিল — “মাইরি, গান জানি না!”তাহাকে আবার অনুরোধ করাতে বলিতেছে, “মাইরি বললে আর বলা হয়?” ঠাকুর তাহাদের লইয়া আনন্দ করিতেছেন ও গান শুনাইতেছেন। প্রথমে কেলুয়ার গান, তারপর, “আয় লো তোর খোঁপা বেঁধে দি, তোর ভাতার এলে বলবে কি!” (ছেলেরা ও ভক্তেরা গান শুনিয়া হাসিতেছেন)
Sri Ramakrishna laughed and sat down. He returned the salute and bowed to the child, touching the ground with his forehead. He asked her to sing. The child said, "I swear I don't sing." When the Master pressed her again, she said, "Should you press me when I said 'I swear'?" The Master was very happy with the children and sang light and frivolous songs to entertain them.He sang:Come, let me braid your hair,Lest your husband should scold you When he beholds you!The children and the devotees laughed.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆परमहंस का स्वभाव : बालक शिवराम का चरित्र -शिहड़ में ह्रदय के घर पर दुर्गा पूजा 🔆
['अरे चोप ! आमि फ़डिंग धोरबो; ओ खुड़ो !आबार चकमकी ठूकछे' ]
[পাতাকে বলছে ‘চোপ্! আমি ফড়িং ধরব!’]
[পূর্বকথা — জন্মভূমিদর্শন — বালক শিবরামের চরিত্র — সিওড়ে হৃদয়ের বাড়ি দুর্গাপূজা ]
श्रीरामकृष्ण - (भक्तों से) - परमहंस का स्वभाव बिलकुल पाँच साल के बच्चे का-सा होता है । वह सब चेतन देखता है ।
"मैं जब उस देश में (कामारपुकुर में) रहता था तब रामलाल का भाई (शिवराम *) ४-५ साल का था; तालाब के किनारे पतिंगे पकड़ने जा रहा था । एक पत्ता हिल रहा था । पत्ते की खड़खड़ाहट से शिकार कहीं भाग न जाय, इस विचार से वह पत्ते से कहने लगा –'अरे चोप ! आमि फ़डिंग धोरबो ', ‘अरे चुप ! मैं पतिंगा पकडूंगा ।’ पानी बरस रहा था और आँधी भी चल रही थी । रह रहकर बिजली चमकती थी, फिर भी द्वार खोलकर वह बाहर जाना चाहता था । डाटने पर फिर बाहर न गया, झाँक-झाँककर देखने लगा, बिजली चमक रही थी, तो कहा --खुड़ो ! आबार चकमकी ठूकछे' --अर्थात चाचा, फिर चकमकी (दियासलाई) घिस रहा है !
(There, uncle! They are striking matches again!' *১ श्री शिवराम का जन्म 30 मार्च , 1866 ई० (दोलपूर्णिमा के दिन) को हुआ था , ठाकुर इसके बाद जब 1869 -70 में जन्मभूमि का दर्शन करने गए थे तब उनकी आयु ३-४ वर्ष की रही होगी। )
[শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — পরমহংসের স্বভাব ঠিক পাঁচ বছরের বালকের মতো। সব চৈতন্যময় দেখে। “যখন আমি ও-দেশে (কামারপুকুরে), রামলালের ভাই (শিবরাম) তখন ৪/৫ বছর বয়স, — পুকুরের ধারে ফড়িং ধরতে যাচ্ছে। পাতা নড়ছে, আর পাতার শব্দ পাছে হয়, তাই পাতাকে বলছে ‘চোপ্! আমি ফড়িং ধরব!’ ঝড় বৃষ্টি হচ্ছে, আমার সঙ্গে ঘরের ভিতরে সে আছে; বিদ্যুৎ চমকাচ্ছে, তবুও দ্বার খুলে খুলে বাহিরে যেতে চায়। বকার পর আর বাহিরে গেল না, উঁকি মেরে মেরে এক-একবার দেখছে, বিদ্যুৎ, — আর বলছে, ‘খুড়ো! আবার চকমকি ঠুকছে’।
[শ্রীযুক্ত শিবরামের জন্ম — ১৮ই চৈত্র, ১২৭২, দোলপূর্ণিমার দিনে (৩০শে মার্চ, ১৮৬৬ খ্রী:) ঠাকুরের এবার জন্মভূমিদর্শনের সময় তিন-চার বছর বয়স অর্থাৎ ১৮৬৯-৭০ খ্রী:।}
MASTER (to the devotees): "The paramahamsa is like a five-year-old child. He sees everything filled with Consciousness. At one time I was staying at Kamarpukur when Shivaram (A nephew of the Master.) was four or five years old. One day he was trying to catch grasshoppers near the pond. The leaves were moving. To stop their rustling he said to the leaves: 'Hush! Hush! I want to catch a grass-hopper.' Another day it was stormy. It rained hard. Shivaram was with me inside the house. There were flashes of lightning. He wanted to open the door and go out. I scolded him and stopped him, but still he peeped out now and then. When he saw the lightning he exclaimed, There, uncle! They are striking matches again!'
"परमहंस बालक की तरह होते हैं - उनके लिए न कोई अपना है, न कोई पराया । सांसारिक सम्बन्ध की कोई परवाह नहीं है । रामलाल के भाई ने एक दिन कहा, तुम चाचा हो या मौसा ?
{“পরমহংস বালকের ন্যায় — আত্মপর নাই, ঐহিক সম্বন্ধের আঁট নাই। রামলালের ভাই একদিন বলছে, ‘তুমি খুড়ো না পিসে?’
"The paramahamsa is like a child. He cannot distinguish between a stranger and a relative. He isn't particular about worldly relationships. One day Shivaram said to me, 'Uncle, are you my father's brother or his brother-in-law?'
" परमहंसों का चाल-चलन भी बालकों का-सा होता है; कोई हिसाब नहीं रहता कि कहाँ जायँ । सब ब्रह्ममय देखते हैं । कहाँ जा रहे हैं, कहाँ चल रहे हैं, कुछ हिसाब नहीं । रामलाल का भाई हृदय के यहाँ दुर्गापूजा देखने गया था । हृदय के यहाँ से आप ही आप किसी तरफ चला गया । किसी को इसका पता भी न चला ।
चार वर्ष के लड़के को देखकर लोग पूछने लगे, तू कहाँ से आ रहा है ? वह कुछ न कह सकता था । उसने सिर्फ कहा – चाला* अर्थात् जिस आठ चाले में पूजा हो रही है । जब लोगों ने पूछा, तू किसके यहाँ से आ रहा है ? तब उसने कहा – दादा ।
[ “পরমহংসের বালকের ন্যায় গতিবিধির হিসাব নাই। সব ব্রহ্মময় দেখে — কোথায় যাচ্ছে — কোথায় চলছে — হিসাব নাই। রামলালের ভাই হৃদের বাড়ি দুর্গাপূজা দেখতে গিছিল। হৃদের বাড়ি থেকে ছটকে আপনা-আপনি কোন্ দিকে চলে গেছে! চার বছরের ছেলে দেখে পথের লোক জিজ্ঞাসা করছে, তুই কোথা থেকে এলি? তা কিছু বলতে পারে না। কেবল বললে — ‘চালা’ (অর্থাৎ যে আটচালায় পূজা হয়েছে)। যখন জিজ্ঞাসা করলে, ‘কার বাড়ি থেকে এসেছিস?’ তখন কেবল — ‘দাদা’।
"The paramahamsa is like a child. He doesn't keep any track of his whereabouts. He sees everything as Brahman. He is indifferent to his own movements. Shivaram went to Hriday's house to see the Durga Puja. He slipped out of the house and wandered away. A passer-by saw the child, who was then only four years old, and asked, 'Where do you come from?' He couldn't say much. He only said the word 'hut'. He was speaking of the big hut in which the image of the Divine Mother was being worshipped. The stranger asked him further, 'Whom are you living with?' He only said the word 'brother'.
(*बड़े बड़े छप्परों से छाये हुए बंगले को बंगाल में 'आठ वाला' अर्थात् आठ चालियों या छप्परोंवाला मकान कहते हैं ।)
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆काली मंदिर प्रतिष्ठा (1855 में स्थापित) के बाद पूर्णज्ञानी पागल से मुलाकात 🔆
[প্রতিষ্ঠার পর (প্রতিষ্ঠা ১৮৫৫) পূর্ণজ্ঞানী পাগলের সঙ্গে দেখা ]
परमहंसों की पागलों की-सी अवस्था भी होती है । [जखन उन्माद होलो ,शिवलिंग बोधे निजेर लिंग पूजा कोरताम। जीवन्त लिंग पूजा। एकटा आबार मुक्ता पोरानो होतो ! एखन आर पारी ना।] दक्षिणेश्वर की मन्दिर-प्रतिष्ठा के कुछ दिन बाद एक पागल आया था । वह पूर्ण ज्ञानी था - फटे जूते पहने था, एक हाथ में बांस की एक कमची लिये था और दूसरे में गमले में लगा हुआ एक आम का पौधा । गंगा में डुबकी मारकर उठा, न सन्ध्या, न पूजन; कपड़े में कुछ लिये हुए था, वही खाने लगा । फिर कालीमन्दिर में जाकर स्तव करने लगा । मन्दिर काँप उठा था !
हलधारी उस समय मन्दिर में था । अतिथिशाला में लोगों ने उसे खाने को नहीं दिया था, परन्तु उसने जरा भी परवाह नहीं की । जूठी पत्तलें खींच खींचकर उनमें जो कुछ लगा था, वही खाने लगा; जहाँ कुत्ते खा रहे थे वहीं कभी-कभी कुत्तों को हटाकर खाता था । कुत्तों ने उसका कुछ नहीं किया । हलघारी उसके पीछे-पीछे गया था । पूछा - 'तुम कौन हो ? क्या तुम पूर्ण ज्ञानी हो ?’ तब उसने कहा था – ‘मैं पूर्ण ज्ञानी हूँ ! चुप !!’
[“পরমহংসের আবার উন্মাদের অবস্থা হয়। যখন উন্মাদ হল, শিবলিঙ্গ বোধে নিজের লিঙ্গ পূজা করতাম। জীবন্ত লিঙ্গপূজা। একটা আবার মুক্তা পরানো হত! এখন আর পারি না।” “দক্ষিণেশ্বরে মন্দির প্রতিষ্ঠার কিছুদিন পরে একজন পাগল এসেছিল, — পূর্ণজ্ঞানী। ছেঁড়া জুতা, হাতে কঞ্চি — একহাতে একটি ভাঁড়, আঁবচারা; গঙ্গায় ডুব দিয়ে উঠে, কোন সন্ধ্যা আহ্নিক নাই, কোঁচড়ে কি ছিল তাই খেলে। তারপর কালীঘরে গিয়ে স্তব করতে লাগল। মন্দির কেঁপে গিয়েছিল! হলধারী তখন কালীঘরে ছিল। অতিথিশালায় এরা তাকে ভাত দেয় নাই — তাতে ভ্রূক্ষেপ নাই। পাত কুড়িয়ে খেতে লাগল — যেখানে কুকুরগুলো খাচ্ছে। মাঝে মাঝে কুকুরগুলিকে সরিয়ে নিজে খেতে লাগল, — তা কুকুরগুলো কিছু বলে নাই। হলধারী পেছু পেছু গিয়েছিল, আর জিজ্ঞাসা করেছিল, ‘তুমি কে? তুমি কি পূর্ণজ্ঞানী?’ তখন সে বলেছিল, ‘আমি পূর্ণজ্ঞানী! চুপ!’
"Sometimes the paramahamsa behaves like a madman. When I experienced that divine madness I used to worship my own sexual organ as the Siva-phallus. But I can't do that now. A few days after the dedication of the temple at Dakshineswar, a madman came there who was really a sage endowed with the Knowledge of Brahman. He had a bamboo twig in one hand and a potted mango-plant in the other, and was wearing torn shoes. He didn't follow any social conventions. After bathing in the Ganges he didn't perform any religious rites. He ate something that he carried in a corner of his wearing-cloth. Then he entered the Kali temple and chanted hymns to the Deity. The temple trembled. Haladhari was then in the shrine. The madman wasn't allowed to eat at the guest-house, but he paid no attention to this slight. He searched for food in the rubbish heap where the dogs were eating crumbs from the discarded leaf-plates. Now and then he pushed the dogs aside to get his crumbs. The dogs didn't mind either. Haladhari followed him and asked: 'Who are you? Are you a purnajnani?' (A perfect knower of Brahman.) The madman whispered, 'Sh! Yes, I am a purnajnani.'
"मैंने हलदारी से जब ये सब बातें सुनीं, मेरा कलेजा दहलने लगा, मैं हृदय से लिपट गया । माँ से कहा - 'माँ, तो क्या वही अवस्था मेरी भी होगी ?' हम लोग उसे देखने गये । हम लोगों से खूब ज्ञान की बातें करता था, दूसरे आदमी आते तो वही पागलपन शुरू कर देता था । जब वह गया, तब हलधारी बहुत दूर तक उसके साथ गया था । फाटक पार करते समय उसने हलधारी से कहा था, 'तुझे मैं क्या कहूँ ? जब तलैया और गंगाजी के पानी में भेद-बुद्धि न रह जाय, तब समझना कि पूर्ण ज्ञान हुआ ।' इतना कहकर उसने अपना सीधा रास्ता पकड़ा ।"
[“আমি হলধারীর কাছে যখন এ-সব কথা শুনলাম আমার বুক গুর গুর করতে লাগল, আর হৃদেকে জড়িয়ে ধরলুম। মাকে বললাম, ‘মা, তবে আমারও কি এই অবস্থা হবে!’ আমরা দেখতে গেলাম — আমাদের কাছে খুব জ্ঞানের কথা — অন্য লোক এলে পাগলামি। যখন চলে গেল, হলধারী অনেকখানি সঙ্গে গিয়েছিল। ফটক পার হলে হলধারীকে বলেছিল ‘তোকে আর কি বলব। এই ডোবার জল আর গঙ্গাজলে যখন কোন ভেদবুদ্ধি থাকবে না, তখন জানবি পূর্ণজ্ঞান হয়েছে।’ তারপর বেশ হনহন করে চলে গেল।”
My heart began to palpitate as Haladhari told me about it. I clung to Hriday. I said to the Divine Mother, 'Mother, shall I too have to pass through such a state?' We all went to see the man. He spoke words of great wisdom to us but behaved like a madman before others. Haladhari followed him a great way when he left the garden. After passing the gate he said to Haladhari: 'What else shall I say to you? When you no longer make any distinction between the water of this pool and the water of the Ganges, then you will know that you have Perfect Knowledge.' Saying this he walked rapidly away."
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆पाण्डित्य की अपेक्षा तपस्या का प्रयोजन । साधना 🔆
श्रीरामकृष्ण मास्टर से बातचीत कर रहे हैं । पास ही भक्तगण भी बैठे हैं ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন। ভক্তেরাও কাছে বসিয়া আছেন।
Sri Ramakrishna began to talk with M. Other devotees, too, were present.
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - शशधर को तुम क्या समझते हो ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — শশধরকে তোমার কেমন বোধ হয়?
MASTER (to M.): "How do you feel about Shashadhar?"
मास्टर – जी, बहुत अच्छा ।
[মাস্টার — আজ্ঞা, বেশ।
M: "He is very nice."
श्रीरामकृष्ण - बड़ा बुद्धिमान है न ?
[শ্রীরামকৃষ্ণ — খুব বুদ্ধিমান, না?
MASTER: "He is very intelligent, isn't he?"
मास्टर - जी हाँ, उसमें खूब पाण्डित्य है ।
[মাস্টার — আজ্ঞা, পাণ্ডিত্য বেশ আছে।
M: "Yes, sir. He is very erudite."
श्रीरामकृष्ण - गीता का मत है, जिसे बहुत से लोग मानते, जानते हैं, उसके भीतर ईश्वर की शक्ति है । परन्तु शशघर के कुछ काम बाकी है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — গীতার মত — যাকে অনেকে গণে, মানে, তার ভিতর ঈশ্বরের শক্তি আছে। তবে ওর একটু কাজ বাকী আছে।
MASTER: "According to the Gita there is a power of God in one who is respected and honoured by many. But Shashadhar has still a few things to do.
"सूखे पाण्डित्य से क्या होगा ? कुछ तपस्या चाहिए - कुछ साधना चाहिए ।
[“শুধু পাণ্ডিত্যে কি হবে, কিছু তপস্যার দরকার — কিছু সাধ্য-সাধনার দরকার।”
What will he accomplish with mere scholarship? He needs to practise some austerity. It is necessary to practise some spiritual discipline.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆गौरी पंडित और नारायण शास्त्री की साधना का बल कैसा था ? 🔆
[পূর্বকথা — গৌরী পণ্ডিত ও নারায়ণ শাস্ত্রীর সাধনা]
"गौरी पण्डित ने साधना की थी । जब वह स्तुतियाँ पढ़ता था - " हा रे रे निरालम्बो लम्बोदर जननि कं यामि शरणम्,मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि। " ** - तब अन्य पण्डित केंचुए हो जाते थे ।
[**परित्यक्ता देवा विविधविधसेवाकुलतया, मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि। इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता, निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्॥५॥ गणेशजी को जन्म देनेवाली, हे माता पार्वती! [ अन्य देवताओंकी आराधना करते समय ] मुझे नाना प्रकार की सेवाओं में व्यग्र रहना पड़ता था , इसलिये पचासी वर्ष से अधिक अवस्था बीत जाने पर मैंने देवताओं को छोड़ दिया है, अब उनकी सेवा – पूजा मुझ से नहीं हो पाती ; अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलने की आशा नहीं है । इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मैं अवलम्ब रहित होकर किसकी शरणमें जाऊँगा ॥५॥ ..... मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि। एवं ज्ञात्वा महादेवि यथायोग्यं तथा कुरु॥१२॥ महादेवि ! मेरे समान कोई पातकी नहीं है और तुम्हारे समान दूसरी कोई पापहारिणी नहीं है ; ऐसा जानकर जो उचित जान पड़े , वह करो ॥१२॥ इति श्रीशङ्कराचार्यविरचितं देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रं सम्पूर्णम्।}
“গৌরী পণ্ডিত সাধন করেছিল। যখন স্তব করত, ‘হা রে রে নিরালম্ব লম্বোদর!’ — তখন পণ্ডিতেরা কেঁচো হয়ে যেত।"
Gauri Pundit practised austerity. When he chanted a hymn to the Divine Mother, the other pundits would seem no more than earthworms.]
"नारायण शास्त्री भी केवल पण्डित नहीं, उसने भी साधना की है ।
[“নারায়ণ শাস্ত্রীও শুধু পণ্ডিত নয়, সাধ্য-সাধনা করেছিল।
Naravan Shastri was not merely a scholar, either. He practised sadhana as well.
"नारायण शास्त्री पचीस साल तक एक ही बहाव में पड़ा था । सात साल तक सिर्फ न्याय पढ़ा था । फिर भी 'हर हर' कहते ही भावमग्न हो जाता था । जयपुर के महाराजा ने उसे अपना सभापण्डित बनाना चाहा था । उसने वह काम मंजूर नहीं किया । दक्षिणेश्वर में प्रायः आकर रहता था ।
वशिष्ठाश्रम जाने की उसकी बड़ी इच्छा थी । तपस्या करने के लिए वशिष्ठाश्रम जाने की बात प्रायः मुझसे कहा करता था । मैंने उसे वहाँ जाने के लिए मना किया, तब उसने कहा, (ডুব্কি কব্ ফাট্ যায়গা!’---डुबकी कब फट जायगा ।) किसी दिन दम खतम हो जायेगा, फिर साधना कब करूँगा ? जब उसने हठ पकड़ा, तब मैंने कह दिया - अच्छा जाओ ।
"सुनता हूँ, कोई कोई कहते हैं, नारायण शास्त्री का देहान्त हो गया है । तपस्या करते समय किसी भैरव ने चपत मारी थी । कोई कोई कहते हैं, वे बचे हुए हैं, अभी उनको रेल पर सवार कराके हम आ रहे हैं ।
[“নারায়ণ শাস্ত্রী পঁচিশ বৎসর একটানে পড়েছিল। সাত বৎসর ন্যায় পড়েছিল — তবুও ‘হর, হর,’ বলতে বলতে ভাব হত। জয়পুরের রাজা সভাপণ্ডিত করতে চেয়েছিল। তা সে কাজ স্বীকার করলে না। দক্ষিণেশ্বরে প্রায় এসে থাকত। বশিষ্ঠাশ্রমে যাবার ভারী ইচ্ছা, — সেখানে তপস্যা করবে। যাবার কথা আমাকে প্রায় বলত। আমি তাকে সেখানে যেতে বারণ করলাম। — তখন বলে ‘কোন্ দিন মরে যাব, সাধন কবে করব — ডুব্কি কব্ ফাট্ যায়গা!’ অনেক জেদাজেদির পর আমি যেতে বললাম।“শুনতে পাই, কেউ কেউ বলে, নারায়ণ শাস্ত্রী নাকি শরীরত্যাগ করেছে, তপস্যা করবার সময় ভৈরবে নাকি চড় মেরেছিল। আবার কেউ কেউ বলে, ‘বেঁচে আছে — এই আমরা তাকে রেলে তুলে দিয়ে এলাম।’
He studied for twenty-five years without a break. Nyaya alone, he studied for seven years. Still he would go into ecstasy while repeating the name of Siva. The King of Jaipur wanted to make him his court pundit, but Narayan refused. He used to spend much time here. He had a great desire to go to the Vasishtha Asrama to practise tapasya. He often spoke to me about it, but I forbade him to go there. At that he said: 'Who knows when I shall die? When shall I practise sadhana? Any day I may crack.' After much insistence on his part I let him go. Some say that he is dead, that he died while practising austerity. Others say that he is still alive and that they saw him off on a railway train.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆केशव सेन को परखने बेलघड़िया गार्डन में नारायण शास्त्री 1875 में गए थे 🔆
"केशव सेन को देखने से पहले नारायण शास्त्री से मैंने कहा, तुम एक बार जाकर उन्हें देख आओ और मुझे बताओ कि वे कैसे आदमी हैं । वह देखकर जब आया, तब कहा, वह जप करके सिद्ध हो गया है । नारायण शास्त्री ज्योतिष भी जानता था । उसने कहा, 'केशव सेन भाग्य का बड़ा जबरदस्त है । मैंने उससे संस्कृत में बातचीत की थी, और उसने भाषा (बंगाली) में।
"तब मैं हृदय को साथ लेकर बेलघड़िया के बगीचे में केशव से मिला । उसे देखते ही मैंने कहा था, 'इन्हीं की पूँछ गिर गयी है - ये पानी में भी रह सकते हैं और जमीन पर भी ।'
श्रीरामकृष्ण पूँछ गिरने की लोकोक्ति के द्वारा कह रहे हैं कि यही केशव है जो संसार में भी रहते हैं और ईश्वर में भी ।
[“কেশব সেনকে দেখবার আগে নারাণ শাস্ত্রীকে বললুম, তুমি একবার যাও, দেখে এস কেমন লোক। সে দেখে এসে বললে, লোকটা জপে সিদ্ধ। সে জ্যোতিষ জানত — বললে, ‘কেশব সেনের ভাগ্য ভাল। আমি সংস্কৃতে কথা কইলাম, সে ভাষায় (বাঙলায়) কথা কইল।’“তখন আমি হৃদেকে সঙ্গে করে বেলঘরের বাগানে গিয়ে দেখলাম। দেখেই বলেছিলাম, ‘এঁরই ন্যাজ খসেছে, — ইনি জলেও থাকতে পারেন, ডাঙাতেও থাকতে পারেন।’}
"Before meeting Keshab, I asked Narayan Shastri to visit him and tell me what he thought of him. Narayan reported that Keshab was an adept in japa. He knew astrology and remarked that Keshab had been born under a good star. Then I went to visit Keshab in the garden house at Belgharia. Hriday was with me. The moment I saw Keshab, I said: 'Of all the people I see here, he alone has dropped his tail. He can now live on land as well as in water, like a frog.'
🔆1875,76 में ठाकुर की परीक्षा लेने केशव ने कुछ ब्रह्म समाजियों को काली मन्दिर भेजा था 🔆
“मेरी परीक्षा लेने के लिए तीन ब्राह्मसमाजियों को केशव ने काली-मन्दिर भेजा । उनमें प्रसन्न भी था। बात यह थी कि वे रात-दिन मुझे देखेंगे और केशव के पास खबर भेजते रहेंगे । मेरे घर में रात को सोये । बस 'दयामय' 'दयामय' * करते थे और मुझसे कहते थे, 'तुम भी केशव बाबू का अनुसरण करो, तो तुम्हारे लिए अच्छा होगा ।' मैंने कहा, 'मैं साकार मानता हूँ ।' उन्होंने 'दयामय, दयामय' कहना न छोड़ा; तब मेरी एक दूसरी अवस्था हो गयी । उस अवस्था में मैंने कहा - 'हटो यहाँ से ।' घर के भीतर मैंने उन्हें किसी तरह न रहने दिया । वे सब बरामदे में पड़े रहे । "कप्तान ने भी जिस दिन मुझे पहले-पहल देखा, उस दिन रात को यहीं रह गया ।
[* आर्यसमाजियों की तरह ब्रह्मसमाजी लोग ईश्वर को निर्गुण -निराकार समझते हैं , फिर भी ईश्वर को सगुन-साकार मानकर मानवीय गुणों से विभूषित करते हुए उन्हें 'दयामय ' (The Compassionate One.) कहकर सम्बोधित करते हैं।]
[“আমাকে পরোখ করবার জন্য তিনজন ব্রহ্মজ্ঞানী ঠাকুরবাড়িতে পাঠিয়েছিল। তার ভিতরে প্রসন্নও ছিল। রাতদিন আমায় দেখবে, দেখে কেশবের কাছে খবর দিবে। আমার ঘরের ভিতর রাত্রে ছিল — কেবল ‘দয়াময়, দয়াময়’ করতে লাগল — আর আমাকে বলে, ‘তুমি কেশববাবুকে ধর তাহলে তোমার ভাল হবে।’ আমি বললাম, ‘আমি সাকার মানি।’ তবুও ‘দয়াময়, দয়াময়’ করে! তখন আমার একটা অবস্থা হল হয়ে বললাম, ‘এখান থেকে যা!’ ঘরের মধ্যে কোন মতে থাকতে দিলাম না! তারা বারন্দায় গিয়ে শুয়ে রইল।"“কাপ্তেনও যেদিন আমায় প্রথম দেখলে সেদিন রাত্রে রয়ে গেল।”
Keshab sent three members of the Brahmo Samaj to the temple garden at Dakshineswar to test me. Prasanna was one of them. They were commissioned to watch me day and night, and to report to Keshab. They were in my room and intended to spend the night there. They constantly uttered the word 'Dayamaya'15 and said to me: 'Follow Keshab Babu. That will do you good.' I said, 'I believe in God with form.' Still they went on with their exclamations of 'Dayamaya!' Then a strange mood came over me. I said to them, 'Get out of here!' I didn't allow them to spend the night in my room. So they slept on the verandah. Captain also spent the night in the temple garden the first time he visited me.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
[माइकल मधुसूदन दत्त - नारायण शास्त्री के साथ मुलाकात ]
"नारायण जब था तब एक दिन माइकेल ^* (^माइकल मधुसूदन दत्त, एक वकील, और महान तमबंगाली कवियों में से एक । उन्होंने पेट के लिए ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था।)आया था । मथुर बाबू का बड़ा लड़का द्वारका बाबू उसे अपने साथ ले आया था । मैगजीन के साहबों के साथ मुकदमा होनेवाला था । इस पर सलाह लेने के लिए बाबुओं ने माइकेल को बुलाया था ।
"दप्तर के साथ ही बड़ा कमरा है । वहीं माईकेल से मुलाकात हुई थी । मैंने नारायणशास्त्री को बातचीत करने के लिए कहा । संस्कृत में माइकेल अच्छी तरह बातचीत न कर सका । तब भाषा (बंगला) में बातचीत हुई ।
“नारायण शास्त्री ने पूछा, तुमने अपना धर्म क्यों छोड़ा ? माइकेल ने पेट दिखाकर कहा, पेट के लिए छोड़ना पड़ा ।
"नारायण शास्त्री ने कहा, 'जो पेट के लिए धर्म छोड़ता है, उससे क्या बातचीत करूँ ।' तब माइकेल ने मुझसे कहा, आप कुछ कहिये ।"
मैंने कहा, न जाने क्यों मेरी कुछ बोलने की इच्छा नहीं होती । किसी ने मेरा मुँह जैसे दबा रखा हो।"
[“নারায়ণ শাস্ত্রী যখন ছিল, মাইকেল এসেছিল। মথুরবাবুর বড়ছেলে দ্বারিকবাবু সঙ্গে করে এনেছিল। ম্যাগাজিনের সাহেবদের সঙ্গে মোকদ্দমা হবার যোগাড় হয়েছিল। তাই মাইকেলকে এনে বাবুরা পরামর্শ করছিল।"“দপ্তরখানার সঙ্গে বড়ঘর। সেইখানে মাইকেলের সঙ্গে দেখা হয়েছিল। আমি নারায়ণ শাস্ত্রীকে কথা কইতে বললাম। সংস্কৃতে কথা ভাল বলতে পারলে না। ভুল হতে লাগল! তখন ভাষায় কথা হল।“নারায়ণ শাস্ত্রী বললে, ‘তুমি নিজের ধর্ম কেন ছাড়লে।’ মাইকেল পেট দেখিয়ে বলে, ‘পেটের জন্য — ছাড়তে হয়েছে।’“নারায়ণ শাস্ত্রী বললে, ‘যে পেটের জন্য ধর্ম ছাড়ে তার সঙ্গে কথা কি কইব!’ তখন মাইকেল আমায় বললে, ‘আপনি কিছু বলুন।’“আমি বললাম, কে জানে কেন আমার কিছু বলতে ইচ্ছা করছে না। আমার মুখ কে যেন চেপে ধরছে।“
Michael1 (Michael Madhusudan Dutt, a lawyer, and one of the greatest of Bengali poets. He was a convert to Christianity.)visited the temple garden when Narayan Shastri was living with me. Dwarika Babu, Mathur's eldest son, brought him here. The owners of the temple garden were about to get into a lawsuit with the English proprietors of the neighbouring powder magazine; so they wanted Michael's advice. I met him in the big room next to the manager's office. Narayan Shastri was with me. I asked Narayan to talk to him. Michael couldn't talk very well in Sanskrit. He made mistakes. Then they talked in the popular dialect. Narayan Shastri asked him his reason for giving up the Hindu religion. Pointing to his stomach, Michael said, 'It was for this.' Narayan said, 'What shall I say to a man who gives up his religion for his belly's sake?' Thereupon Michael asked me to say something. I said: 'I don't know why, but I don't feel like saying anything. Someone seems to be pressing my tongue.'"
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆कामिनी-कांचन पंडित को भी निस्तेज बना देती है - विषयी की उपासना 🔆
श्रीरामकृष्ण के दर्शनों के लिए चौधरी बाबू के आने की बात थी ।
मनोमोहन - चौधरी नहीं आयेंगे; उन्होंने कहा है, फरीदपुर का वह बांगाल (शशधर) जायेगा, अतएव मैं न जाऊँगा ।
[ঠাকুরকে দর্শন করিতে চৌধুরীবাবুর আসিবার কথা ছিল।মনোমোহন — চৌধুরী আসবেন না। তিনি বললেন, ফরিদপুরের সেই বাঙাল (শশধর) আসবে — তবে যাব না!
MANOMOHAN: "Mr. Choudhury will not come. He said: 'That fellow Shashadhar from Faridpur will be there. I shall not go.'"
चौधरी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम. ए. पास किया है । पहली स्त्री की मृत्यु होने पर बड़ा वैराग्य था । श्रीरामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर प्रायः जाता था । उसने दूसरा विवाह किया है । तीन-चार सौ रुपया महीना पाता है।
[চৌধুরী এম. এ. পাশ করিয়াছেন। প্রথম স্ত্রীর মৃত্যুর পর খুব বৈরাগ্য হইয়াছিল। ঠাকুরের কাছে দক্ষিণেশ্বরে প্রায় যাইতেন। আবার তিনি বিবাহ করিয়াছেন। তিন-চার শত টাকা মাহিনা পান।
Mr. Choudhury had obtained his Master's degree from Calcutta University. He drew a salary of three or four hundred rupees. After the death of his first wife he had felt intense dispassion for the world, but after some time he had married again. He frequently visited the Master at the temple garden.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆 यदि पण्डित भी रोज बीबी के लिए बाजार करता है, तो निस्तेज हो जाता है 🔆
(कामिनी -कांचन की आसक्ति ने मनुष्य को ह्रदय को संकीर्ण बना दिया है)
श्रीरामकृष्ण - कैसा नीचप्रकृती है ! विद्या का अहंकार दिखलाता है । उधर दूसरा विवाह किया है, इधर, संसार को तिनके बराबर समझने लगा है ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কি হীনবুদ্ধি! — বিদ্যার অহংকার, তার উপর দ্বিতীয় পক্ষের স্ত্রী বিবাহ করেছে, — ধরাকে সরা মনে করেছে!
MASTER: "How mean of him! He is vain of his scholarship. Besides, he has married a second time. He looks on the world as a mere mud-puddle.
{শ্রীরামকৃষ্ণ (ভক্তদের প্রতি) — এই কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি মানুষকে হীনবুদ্ধি করেছে। হরমোহন যখন প্রথম গেল, তখন বেশ লক্ষণ ছিল। দেখবার জন্য আমি ব্যাকুল হতাম। তখন বয়স ১৭। ১৮ হবে। প্রায় ডেকে ডেকে পাঠাই, আর যায় না। এখন মাগকে এনে আলাদা বাসা করেছে। মামার বাড়িতে ছিল, বেশ ছিল। সংসারের কোনো ঝঞ্ঝাট ছিল না। এখন আলাদা বাসা করে পরিবারের রোজ বাজার করে। (সকলের হাস্য) সেদিন ওখানে গিয়েছিল। আমি বললাম, ‘যা এখান থেকে চলে যা — তোকে ছুঁতে আমার গা কেমন করছে।’
(To the devotees) "This attachment to 'woman and gold' makes a man small-minded. When I first saw Haramohan he had many good traits. I longed to see him. He was then seventeen or eighteen years old. I used to send for him every now and then, but he wouldn't come. He is now living away from the family with his wife. He had been living with his uncle before. That was very good. He had no worldly troubles. Now he has a separate home and does the marketing for his wife daily. The other day he came to Dakshineswar. I said to him: 'Go away. Leave this place. I don't even feel like touching you.'}
कर्ताभजा चन्द्र चटर्जी आये हैं । उम्र साठ-पैंसठ की होगी । मुख पर कर्ताभजावालों के श्लोक रहते हैं । श्रीरामकृष्ण के पैर दबाने के लिए जा रहे थे, उन्होंने पैर छूने ही न दिये, हँसकर कहा, इस समय तो खूब हिसाबी बातें कर रहा है । भक्तगण हँसने लगे ।
[কর্তাভজা চন্দ্র (চাটুজ্যে) আসিয়াছেন। বয়ঃক্রম ষাট-পঁয়ষট্টি। মুখে কেবল কর্তাভজাদের শ্লোক। ঠাকুরের পদসেবা করিতে যাইতেছেন। ঠাকুর পা স্পর্শ করিতে দিলেন না। হাসিয়া বলিলেন, ‘এখন তো বেশ হিসাবি কথা বলছে।’ ভক্তেরা হাসিতে লাগিলেন।
अब श्रीरामकृष्ण बलराम के अन्तःपुर में श्रीजगन्नाथ-दर्शन करने के लिए जा रहे हैं । वहाँ की स्त्रियाँ उनके दर्शनों के लिए व्याकुल हो रही हैं ।
[এইবার ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ বলরামের অন্তঃপুরে শ্রীশ্রীজগন্নাথ দর্শন করিতে যাইতেছেন। অন্তঃপুরে স্ত্রীলোক ভক্তেরা তাঁহাকে দর্শন করুবার জন্য ব্যাকুল হইয়া আছেন।
Sri Ramakrishna went to the inner apartments to see the Deity. He offered some flowers. The ladies of Balaram's family were pleased to see him.
श्रीरामकृष्ण फिर बैठकखाने में आये । हँस रहे हैं, कहा, "मैं शौच को गया था, कपड़े बदलकर श्रीजगन्नाथ के दर्शन किये और कुछ फूल-दल चढ़ाये ।
"विषयी लोगों की पूजा, जप, तप, सब सामयिक हैं । जो लोग ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं जानते, वे साँस के साथ साथ उनका नाम लेते हैं । कोई मन ही मन सदा 'राम ॐ राम' जपता रहता है । ज्ञानमार्गी 'सोऽहम् सोऽहम्' जपते हैं । किसी-किसी की जीभ सदा हिलती रहती है ।
"सदा ही स्मरण-मनन रहना चाहिए ।"
[ঠাকুর আবার বৈঠকখানায় আসিয়াছেন। সহাস্যবদন। বলিলেন, ”আমি পাইখানার কাপড় ছেড়ে জগন্নাথকে দর্শন করলাম। আর একটু ফুল-টুল দিলাম।“বিষয়ীদের পূজা, জপ, তপ, যখনকার তখন। যারা ভগবান বই জানে না তারা নিঃশ্বাসের সঙ্গে তাঁর নাম করে। কেউ মনে মনে সর্বদাই ‘রাম’, ‘ওঁ রাম’ জপ করে। জ্ঞানপথের লোকেরাও ‘সোঽহম্’ জপ করে। কারও কারও সর্বদাই জিহ্বা নড়ে।
The Master came back to the drawing-room and said: "The worldly-minded practise devotions, japa, and austerity only by fits and starts. But those who know nothing else but God repeat His name with every breath. Some always repeat mentally, 'Om Rama'. Even the followers of the path of knowledge repeat, 'Soham', 'I am He'. There are others whose tongues are always moving, repeating the name of God. One should remember and think of God constantly."
(४)
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆ज्ञानी और विज्ञानी का अन्तर 🔆
पण्डित शशधर दो-एक मित्रों के साथ कमरे में आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके आसन ग्रहण किया ।
[শ্রীযুক্ত শশধর দু-একটি বন্ধু সঙ্গে ঘরে প্রবেশ করিলেন ও ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া উপবিষ্ট হিলেন।
Pundit Shashadhar entered the room with one or two friends and saluted the Master.
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - हम लोग वधू-सखियों के समान शय्या के पास बैठे हुए जाग रहे हैं कि कब वर आयें ।
{আমরা সকলে বাসকসজ্জা জেগে আছি — কখন বর আসবে!}
"We are like the bridesmaids waiting near the bed for the arrival of the groom."
पण्डित शशधर हँस रहे हैं । अनेक भक्त उपस्थित हैं । बलराम के पिता भी उपस्थित हैं । डाक्टर प्रताप भी आये हुए हैं। श्रीरामकृष्ण फिर बातचीत कर रहे हैं ।
[পণ্ডিত হাসিতেছেন। ভক্তের মজলিস। বলরামের পিতাঠাকুর উপস্থিত আছেন। ডাক্তার প্রতাপও আসিয়াছেন। ঠাকুর আবার কথা কহিতেছেন।
The pundit laughed. The room was filled with devotees, among them Dr. Pratap and Balaram's father. The Master continued his talk.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆ज्ञानी और विज्ञानी के लक्षण अलग अलग होते हैं 🔆
श्रीरामकृष्ण - (शशधर से) - ज्ञान का पहला लक्षण है, स्वभाव शान्त (peaceful nature) हो; दूसरा, अहंकार न रहे (absence of egotism) । तुममें दोनों लक्षण हैं ।
"ज्ञानी के और भी कुछ लक्षण हैं । साधु के पास वह त्यागी है, कार्य करते समय - जैसे लेक्चर देते हुए - वह सिंह के समान है, स्त्री के पास रसराज है, रसशास्त्र का पण्डित । (पण्डितजी और दूसरे लोग हँसते हैं ।)
{জ্ঞানের চিহ্ন, প্রথম — শান্ত স্বভাব; দ্বিতীয় — অভিমানশূন্য স্বভাব। তোমার দুই লক্ষণই আছে।“জ্ঞানীর আর কতকগুলি লক্ষণ আছে। সাধুর কাছে ত্যাগী, কর্মস্থলে — যেমন লেকচার দিবার সময় — সিংহতুল্য, স্ত্রীর কাছে রসরাজ, রসপণ্ডিত। (পণ্ডিত ও অন্যান্য সকলের হাস্য }
"The first sign of knowledge is a peaceful nature, and the second is absence of egotism. You have both. There are other indications of a jnani. He shows intense dispassion in the presence of a sadhu, is a lion when at work, for instance, when he lectures, and is full of wit before his wife. (All laugh.)
"विज्ञानी का और स्वभाव है । जैसे चैतन्यदेव की अवस्था । बालकवत्, उन्मत्तवत्, जड़वत्, पिशाचवत्।
"बालक की अवस्था में कई अवस्थाएँ है - बाल्य, कैशोर्य, यौवन । किशोरावस्था में दिल्लगी सूझती है । उपदेश देते समय यौवनावस्था होती है ।"
[“বিজ্ঞানীর স্বভাব আলাদা। যেমন চৈত্যদেবের অবস্থা। বালকবৎ, উন্মাদবৎ, জড়বৎ, পিশাচবৎ।"“বালকের অবস্থার ভিতর আবার বাল্য, পৌগণ্ড, যৌবন! পৌগণ্ড অবস্থায় ফচকিমি। উপদেশ দিবার সময় যুবার ন্যায়।”
But the nature of the vijnani is quite different, as was the case with Chaitanyadeva. He acts like a child or a madman or an inert thing or a ghoul. While in the mood of a child, he sometimes shows childlike guilelessness, sometimes the frivolity of adolescence, and sometimes, while instructing others, the strength of a young man."
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
🔆भक्तितत्व पर चर्चा - माँ को देखने और बात करने की ज्वलन्त इच्छा 🔆
[Burning desire to see and talk to Mother ]
पण्डितजी - किस तरह की भक्ति से वे मिलते हैं ?
[PUNDIT: "By what kind of bhakti does one realize God?"
श्रीरामकृष्ण - मनुष्य के स्वभाव के अनुसार भक्ति तीन तरह की है । भक्ति का सत्त्व, भक्ति का रज और भक्ति का तम ।
[ "Three kinds of bhakti are found, according to the nature of the man: sattvic bhakti, rajasic bhakti, and tamasic bhakti.]
"भक्ति के सत्त्व को केवल ईश्वर ही समझ पाते हैं । उस तरह का भक्त भाव छिपाना पसन्द करता है । कभी वह मसहरी के भीतर बैठकर ध्यान करता है । बाहर से कोई समझ नहीं सकता। जब इस तरह की (शुद्ध-सात्विक) भक्ति जाग्रत हो जाती है, फिर ईश्वर-दर्शन में देर नहीं रहती; जैसे पूरब की ओर ललाई छा जाने पर, यह समझने में देर नहीं होती कि अब शीघ्र ही सूरज निकलेंगे।
{“ভক্তির সত্ত্ব — ঈশ্বরই টের পান। সেরূপ ভক্ত গোপন ভালবাসে, — হয়তো মশারির ভিতর ধ্যান করে, কেউ টের পায় না। সত্ত্বের সত্ত্ব — বিশুদ্ধ সত্ত্ব — হলে ঈশ্বরদর্শনের আর দেরি নাই; — যেমন অরুণোদয় হলে বুঝা যায় যে, সূর্যোদয়ের আর দেরি নাই।}
"Sattvic bhakti is known to God alone. It makes no outward display. A man with such devotion loves privacy. Perhaps he meditates inside the mosquito net, where nobody sees him. When this kind of devotion is awakened, one hasn't long to wait for the vision of God. The appearance of the dawn in the east shows that the sun will rise before long.
"जिसे भक्ति का रजोभाव होता है, उसकी इच्छा होती है कि लोग देखें, जानें कि मैं भक्त हूँ । वह षोडशोपचार से उनकी पूजा करता है । रेशम की धोती पहनकर श्रीठाकुर-मन्दिर में जाता है, गले में रुद्राक्ष की माला धारण करता है जिसमें मुक्ता और कहीं कहीं सोने के दाने पड़े रहते हैं !
[“ভক্তির রজঃ যাদের হয়, তাদের একটু ইচ্ছা হয় — লোকে দেখুক আমি ভক্ত। সে ষোড়শোপচার দিয়ে পূজা করে, গরদ পরে ঠাকুরঘরে যায়, — গলায় রুদ্রাক্ষের মালা, — মালায় মুক্তা, মাঝে মাঝে একটি সোনার রুদ্রাক্ষ।"
A man with rajasic bhakti feels like making a display of his devotion before others. He worships the Deity with 'sixteen ingredients', (As prescribed in the books of Hindu ritual.) enters the temple wearing a silk cloth, and puts around his neck a string of rudraksha beads interspersed here and there with beads of gold and ruby.
"भक्ति का तमोभाव वह है जिसमें डकैती करने जैसा भाव दीख पड़े । डाकू बड़े बड़े हथियार लेकर डाका डालते हैं, आठ थानेदारों को भी नहीं डरते - मुख पर 'मारो लूट लो' लगा रहता है; पागल की तरह 'हर , हर -बम,बम'; बम-बम भोले ' [बोल बम -तारक बम], हा,रे, रे .... जय माँ काली !' कहते जाते हैं; मन में पूरा भरोसा, पक्का बल और ज्वलन्त विश्वास, माँ को देखने की ज्वलंत इच्छा !
{“ভক্তির তমঃ — যেমন ডাকাতপড়া ভক্তি। ডাকাত ঢেঁকি নিয়ে ডাকাতি করে, আটটা দারোগার ভয় নাই, — মুখে ‘মারো! লোটো!’ উন্মাদের ন্যায় বলে — ‘হর, হর, হর; ব্যোম, ব্যোম! জয় কালী!’ মনে খুব জোর জ্বলন্ত বিশ্বাস!}
"A man with tamasic bhakti shows the courage and boisterousness of a highway robber. A highway robber goes on his expedition openly, shouting, 'Kill! Plunder!' He isn't afraid even of eight police inspectors. The devotee with tamasic bhakti also shouts like a madman: 'Hara! Hara! Vyom! Vyom! Victory to Kali!' He has great strength of mind and burning faith. (^By such loud exclamations a devotee of Siva invokes his Ideal Deity.)
“शाक्तों का भी विश्वास ऐसा ही है । - क्या, एक बार मैं काली का नाम ले चुका, दुर्गा को पुकारा, राम नाम जपा, इतने पर भी मुझे पाप छू ले ?
{“শাক্তদের ওইরূপ বিশ্বাস। — কি, একবার কালীনাম, দুর্গানাম করেছি — একবার রামনাম করেছি, আমার আবার পাপ!}
"A Sakta has such faith. He says: 'What? I have uttered once the name of Kali and of Durga! I have uttered once the name of Rama! Can there be any sin in me?'
"वैष्णवों के भाव में बड़ी दीनता है । (बलराम के पिता की ओर देखते हुए) वे लोग बस माला फेरते रहते हैं, रोते-कलपते हुए कहते हैं, हे कृष्ण ! दया करो, मैं अधम हूँ, मैं पापी हूँ !
{ “বৈষ্ণবদের বড় দীনহীনভাব। যারা কেবল মালা জপে, (বলরামের পিতাকে লক্ষ্য করিয়া) কেঁদে ককিয়ে বলে, ‘হে কৃষ্ণ দয়া কর, — আমি অধম, আমি পাপী!’}
"The Vaishnavas have a very humble and lowly attitude. (Looking at Balaram's father) They tell their rosary and whine and whimper: 'O Krishna, be gracious to us! We are wretched! We are sinners!'
"ज्वलन्त विश्वास चाहिए । ऐसा विश्वास कि मैंने उनका नाम लिया है, मुझे फिर कैसा पाप ? - पर कुछ लोग रात-दिन ईश्वर का नाम लेते हैं और कहते हैं - मैं पापी हूँ !”
{“এমন জ্বলন্ত বিশ্বাস চাই যে, তাঁর নাম করেছি আমার আবার পাপ! — রাতদিন হরিনাম করে, আমার বলে — আমার পাপ!’}
"A man should have such fiery faith as to be able to say, 'I have uttered the name of God; how can I be a sinner?' Imagine a man repeating the name of Hari day and night and at the same time saying that he is a sinner!"
यह कहते ही श्रीरामकृष्ण का प्रेम-पारावार उमड़ चला । वे गाने लगे : -
आमि दूर्गा दूर्गा दूर्गा बोले मा जदि मरि ।
आखेरे ए दिने ना तारो केमने जाना जाबे गो शंकरी।।
नाशि गो ब्राह्मण, हत्या करी भ्रूण, सुरापान आदि बिनाशी नारी।
ए सब पातक न भाबी तिलेक, (ओ माँ) ब्रह्म पद निते पारि।।
(१) यदि दुर्गा-दुर्गा कहते हुए मेरे प्राण निकलेंगे तो अन्त में इस दीन को तुम कैसे नहीं तारती हो, मैं देखूंगा । ब्राह्मणों का नाश करके, गर्भपात करके, मदिरा पीकर और स्त्री-हत्या करके भी मैं नहीं डरता । मुझे ज्वलंत विश्वास है कि इतने पर भी मुझे ब्रह्मपद की प्राप्ति होगी ।
আমি দুর্গা দুর্গা বলে মা যদি মরি।
আখেরে এ দীনে না তারো কেমনে, জানা যাবে গো শংকরী।।
নাশি গো ব্রাহ্মণ, হত্যা করি ভ্রূণ, সুরাপানাদি বিনাশী নারী।
এ-সব পাতক না ভাবি তিলেক, (ও মা) ব্রহ্মপদ নিতে পারি।।
So saying, Sri Ramakrishna became overwhelmed with divine ecstasy and sang:If only I can pass away repeating Durga's name,How canst Thou then, O Blessed One,Withhold from me deliverance,Wretched though I may be?I may have stolen a drink of wine, or killed a child unborn,Or slain a woman or a cow,Or even caused a brahmin's death;But, though it all be true,Nothing of this can make me feel the least uneasiness;For through the power of Thy sweet name My wretched soul may still aspire Even to Brahmanhood.
दूसरा गाना -
शिव संगे सदा रंगे आनंद मगना,
सूधा पाने ढल ढल ढले किन्तु पड़े ना॥
विपरित रतातूरा पदभरे कांपे धरा,
उभये पागलेर पारा लज्जा भय आर माने ना॥
(२) शिव के साथ सदा ही रंग करती हुई तू आनन्द में मग्न है । सुधापान करके, तेरे पैर तो लड़खड़ा रहे हैं, पर, माँ, तू गिर नहीं जाती ।
गाना सुनकर शशधर की आँखों में आँसू आ गये । गीतों का भाव यह है –
গান শুনিয়া শশধর কাঁদিতেছেন।Pundit Shashadhar was weeping. Vaishnavcharan, the musician, sang:
শিব সঙ্গে সদারঙ্গে আনন্দে মগনা।
সুধাপানে ঢল ঢল কিন্তু ঢলে পড়ে না মা!
বিপরীত রতাতুরা, পদভরে কাঁপে ধরা,
উভয়ে পাগলের পারা, লজ্জা ভয় আর মানে না।
{Behold my Mother playing with Siva, lost in an ecstasy of joy! Drunk with a draught of celestial wine, She reels, and yet She does not fall. Erect She stands on Siva's bosom, and the earth trembles under Her tread ;She and Her Lord are mad with frenzy, casting aside all fear and shame!}
अब अधर के गवैये वैष्णवचरण गा रहे हैं - भाव इस प्रकार है ।
(१) ऐ मेरी रसने, सदा दुर्गा-नाम का जप कर । बिना दुर्गा के इस दुर्गम मार्ग में और कौन निस्तार करनेवाला है ? तुम स्वर्ग हो, मर्त्य और पाताल हो । हरि, ब्रह्मा और द्वादश गोपाल भी तुम्हीं से हुए हैं; ऐ माँ, तुम दसों महाविद्याएँ हो, दस बार तुमने अवतार लिया है । अबकी बार किसी तरह मुझे पार करना ही होगा । माँ, तुम चल हो, अचल हो, तुम सूक्ष्म हो, तुम स्थूल हो, सृष्टि-स्थिति और प्रलय तुम हो, तुम इस विश्व की मूल हो । तुम तीनों लोक की जननी हो, तीनों लोक की त्राणकारिणी हो । तुम सब की शक्ति हो, तुम स्वयं अपनी शक्ति हो ।
इस गाने को सुनकर श्रीरामकृष्ण को भावावेश हो गया । गाना समाप्त होने पर ठाकुर स्वयं 'काली और कृष्ण' के एकत्व का गीत गाने लगे -
यशोदा नाचातो श्यामा , बोले निलमणि,
शे रुप लुकाले कोथाय करालबदनी ॥
एकबार नाच गो श्यामा , असि फेले बांशि लोये।
मुण्डमाला फेले बनमाला लोये, शिव बलराम होक।
तेमनि तेमनि तेमनि कोरे नाचे गो श्यामा ,
एकबार बाजा गो मा, तोर मोहन बेणू। जे बेणूर रवे गोपीर मन भूलितो।
जे बेणुरवे धेनू फिरातिश।
जे बेणुरवे जमूना उजान बय, गगने बेला बाडितो।
राणीर मन ब्याकूल होत, बोले, धर धर, धर रे गोपाल, क्षीर सर ननी’
एलाये चांचर केश, राणी बेंधे दितो वेणी, श्रीदामेर संगे नाचिते त्रिभंगे गो मा,
(आबार) ताथैय्या ताथैय्या ताता थैय्या थैय्या, बाजितो नूपुर ध्वनि,शुनते पेये आसतो धेये, जतो ब्रजेर रमणी गो मा ।
उनके बाद वैष्णवचरण ने फिर गाया । इस बार उन्होंने कीर्तन गाया । कीर्तन सुनते ही श्रीरामकृष्ण निर्बीज समाधि में लीन हो गये । शशधर की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी ।
যশোদা নাচাতো শ্যামা বলে নীলমণি,
সেরূপ লুকালে কোথা করালবদনী।
🔆कालीरूप-कल्पना ब्रह्म स्वयं करते हैं ? 🔆
(रथ के सामने ठाकुर एवं भक्तों का नृत्य-संकीर्तन)
श्रीरामकृष्ण समाधि से उतरे । गाना भी समाप्त हो गया। शशधर, प्रताप, रामदयाल, राम, मनमोहन आदि बालक भक्त तथा और भी बहुत से आदमी बैठे हैं । श्रीरामकृष्ण मास्टर से कह रहे हैं, तुम लोग कुछ छेड़ते क्यों नहीं ? ( तुमलोग पंडित शशधर से- कुछ पूछते क्यों नहीं ?)
[ঠাকুরের সমাধি ভঙ্গ হইল। গানও সমাপ্ত হইল। শশধর, প্রতাপ, রামদয়াল, রাম, মনোমোহন, ছোকরা ভক্তেরা প্রভৃতি অনেকেই বসিয়া আছেন। শ্রীরামকৃষ্ণ মাস্টারকে বলিতেছেন, “তোমরা একটা কেউ খোঁচা দেও না” — অর্থাৎ শশধরকে কিছু জিজ্ঞাসা কর।
Sri Ramakrishna came down to consciousness of the world. Pointing to Shashadhar, he said to M., "Why don't you prod him?" He wanted M. or some other devotee to ask Shashadhar a question.
रामदयाल - (शशधर से) - ब्रह्म की रूप-कल्पना शास्त्रों में है, परन्तु वह कल्पना करते कौन हैं ?
{রামদয়াল (শশধরের প্রতি) — ব্রহ্মের রূপকল্পনা যে শাস্ত্রে আছে, সে কল্পনা কে করেন?}
"The scriptures speak of Brahman's form as a projection of mind. Who is it that , who projects?"
शशधर - ब्रह्म स्वयं । वह मनुष्य की कल्पना नहीं ।
{পণ্ডিত — ব্রহ্ম নিজে করেন, — মানুষের কল্পনা নয়।}
SHASHADHAR: "It is Brahman Itself that does so. It is no projection of a man's mind."
प्रताप - क्यों, वे रूप की कल्पना क्यों करते हैं ?
{ডাঃ প্রতাপ — কেন রূপ কল্পনা করেন?}
Dr. PRATAP: "Why does Brahman project the form?"
श्रीरामकृष्ण - तुम पूछते हो ब्रह्म रूप कल्पना क्यों करते हैं ? उनकी इच्छा, वे इच्छामय जो हैं । वे किसी से परामर्श लेकर थोड़े ही कुछ करते हैं? क्यों वे करते हैं, इस बात से हमें क्या मतलब ? बगीचे में आम खाने के लिए आये हो, आम खाओ - कितने पेड़ हैं, कितनी हजार डालियाँ हैं, कितने लाख पत्ते हैं, इस हिसाब से क्या काम ? वृथा तर्क और विचार करने से वस्तुलाभ नहीं होता।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — কেন? তিনি কারু সঙ্গে পরামর্শ করে কাজ করেন না। তাঁর খুশি, তিনি ইচ্ছাময়! কেন তিনি করেন, এ খপরে আমাদের কাজ কি? বাগানে আম খেতে এসেছ, আম খাও; কটা গাছ, ক-হাজার ডাল, কত লক্ষ পাতা, — এ-সব হিসাবে কাজ কি? বৃথা তর্ক-বিচার করলে বস্তুলাভ হয় না।}
MASTER: "You ask why? Brahman doesn't act in consultation with others. It is Brahman's pleasure. Brahman is self-willed. Why should we try to know the reason for Brahman's acting this way or that? You have come to the orchard to eat mangoes. Eat the mangoes. What is the good of calculating how many trees there are in the orchard, how many thousands of branches, and how many millions of leaves? One cannot realize Truth by futile arguments and reasoning."
प्रताप - तो अब विचार न करें ?
[ডাঃ প্রতাপ — তাহলে আর বিচার করব না?
PRATAP: "Shouldn't we reason any more then?"
श्रीरामकृष्ण - वृथा तर्क और विचार न करो । हाँ, सदसत् का विचार करो कि क्या नित्य है और क्या अनित्य - काम, क्रोध और शोक आदि के समय में ।
{শ্রীরামকৃষ্ণ — বৃথা তর্ক-বিচার করবে না। তবে সদসৎ বিচার করবে, — কোন্টা নিত্য। কোন্টা অনিত্য। যেমন কাম-ক্রোধাদি বা শোকের সময়।}
MASTER: "I am asking you not to indulge in futile reasoning. But reason, by all means, about the Real and the unreal, about what is permanent and what is transitory. You must reason when you are overcome by lust, anger, or grief."
पण्डितजी - वह और चीज है, उसे विवेकात्मक विचार कहते हैं ।
{পণ্ডিত — ও আলাদা। ওকে বিবেকাত্মক বিচার বলে।
It is called reasoning based on discrimination."}
श्रीरामकृष्ण - हाँ, सदसत् विचार । (सब चुप हैं ।)
[শ্রীরামকৃষ্ণ — হাঁ, সদসৎ বিচার [সকলে চুপ করিয়া আছেন]
MASTER: "Yes, discrimination between the Real and the unreal."
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - पहले यहाँ बड़े बड़े आदमी आते थे ।
[(পণ্ডিতের প্রতি) — “আগে বড় বড় লোক আসত।”
MASTER: "Formerly many great men used to come here."
पण्डितजी - क्या धनी (rich) आदमी ?
श्रीरामकृष्ण - नहीं, बड़े बड़े पण्डित (scholars) ।
[পণ্ডিত — কি, বড়মানুষ?
SHASHADHAR: "You mean rich people?"
इतने में छोटा रथ बाहर के दुमंजले वाले बरामदे में लाया गया । श्रीजगन्नाथ, बलराम और सुभद्रादेवी पर अनेक प्रकार की फूल-मालाएँ पड़ी हुई उनकी शोभा बढ़ा रही हैं । सब नये नये अलंकार और नये नये वस्त्र धारण किये हुए हैं । बलराम बासु के यहाँ सात्विक भाव से पूजा होती है । उसमें कोई आडम्बर नहीं किया जाता । बाहर के आदमियों को जरा भी खबर नहीं कि भीतर रथ चल रहा है।
[ইতিমধ্যে ছোট রথখানি বাহিরের দুতলার বারান্দার উপর আনা হইয়াছে। শ্রীশ্রীজগন্নাথদেব, সুভদ্রা ও বলরাম নানা বর্ণের কুসুম ও পুষ্পমালায় সুশোভিত হইয়াছেন এবং অলঙ্কার ও নববস্ত্র পীতাম্বর পরিধান করিয়াছেন। বলরামের সাত্ত্বিক পূজা, কোন আড়ম্বর নাই। বাহিরের লোকে জানেও না যে, বাড়িতে রথ হইতেছে।
In the mean time the small car of Jagannath had been brought to the verandah. Inside the car were the images of Krishna, Balarama, and Subhadra. They were adorned with flowers, garlands, jewelry, and yellow apparel. Balaram was a sattvic worshipper: there was no outward grandeur in his worship. Outsiders did not even know of this Car Festival at his house.
श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ रथ के सामने आये । उसी बरामदे में रथ खींचा जायगा । श्रीरामकृष्ण ने रथ की पकड़ी और कुछ देर खींचा । फिर गाने लगे ।
' नदिया ढलमल ढलमल करे गौर प्रेमेर हिल्लोले रे।'...
(भावार्थ) – “श्रीगौरांग के प्रेम की हिलोरों में नदिया डावाडोल हो रहा है ।"
[এইবার ঠাকুর ভক্তসঙ্গে রথের সম্মুখে আসিয়াছেন। ওই বারান্দাতেই রথ টানা হইবে। ঠাকুর রথের দড়ি ধরিয়াছেন ও কিয়ৎক্ষণ টানিলেন। পরে গান ধরিলেন — নদে টলমল টলমল করে গৌরপ্রেমের হিল্লোলে রে।
The Master and the devotees went to the verandah. Sri Ramakrishna pulled the car by the rope. Then he began to sing:See how all Nadia is shaking Under the waves of Gauranga's love. . . .
'जादेर हरि बोलिते नयन झरे तारा , दूभाई (गौरांग और नित्यानन्द) ऐसेछे रे।'
{विशेष : नित्यानंद प्रभु (निताई ,जन्म:1474) चैतन्य महाप्रभु (निमाई) के प्रथम शिष्य थे। इन्हें निताई भी कहते हैं। इनका नृत्य कीर्तन देखकर जनता मुग्ध हो जाती तथा 'जै निताई-गौर' कहती।यह वैष्णव संन्यासी थे। नवद्वीप (नदिया) में ही इन्होंने दो दुष्ट ब्राह्मणों जगाई-मधाई का उद्धार किया, जो वहाँ के अत्याचारी कोतवाल थे। कुछ दिनों बाद श्री गौरांग ने इन्हें गृहस्थ धर्म पालन करने तथा बंगाल में कृष्णभक्ति का प्रचार करने का आदेश दिया। यह गौड़ देश लौट आए। अंबिका नगर के सूर्यनाथ पंडित की दो पुत्रियों वसुधा देवी तथा जाह्नवी देवी से इन्होंने विवाह किया। इसके अनंतर खड़दह ग्राम (पूज्य नवनीदा के जन्मस्थान) में आकर बस गए और श्री श्यामसुंदर की सेवा स्थापित की। श्रीवास पण्डित : श्रीमन्महाप्रभु जी की आज्ञा के अनुसार श्रीवास पण्डित के भवन में द्वार बन्द करके संकीर्तन होता था। एक दिन कीर्तन के पश्चात् महाप्रभु जी सारे शालिग्रामों को गोद में लेकर विष्णु आसान पर आसीन हो गये और सब भक्तों को अपने अभीष्ट वर भी प्रदान किये। इस सात-प्रहरिया लीला में श्रीगौरसुन्दर जी ने विष्णु के समस्त अवतारों के रूपों को प्रकाशित किया था।}
श्रीरामकृष्ण नृत्य कर रहे हैं । भक्तगण भी उनके साथ नाचते हुए गा रहे हैं । कीर्तनिया वैष्णवचरण भी सब में मिल गये ।
देखते ही देखते सारा बरामदा भर गया । स्त्रियाँ भी पासवाले कमरे से यह सब आनन्द देख रही हैं। मालूम हो रहा था कि श्रीवास पण्डित के घर में भगवत्प्रेम से विह्वल होकर श्रीगौरांग भक्तों के साथ नृत्य कर रहे हैं । मित्रों के साथ पण्डितजी भी रथ के सामने खड़े हुए इस नृत्य-गीत का दर्शन कर रहे हैं ।
[ঠাকুর নৃত্য করিতেছেন। ভক্তেরাও সেই সঙ্গে নাচিতেছেন ও গাইতেছেন। কীর্তনীয়া বৈষ্ণবচরণ, সম্প্রদায়ের সহিত গানে ও নৃত্যে যোগদান করিয়াছেন।দেখিতে দেখিতে সমস্ত বারান্দা পরিপূর্ণ হইল। মেয়েরাও নিকটস্থ ঘর হইতে এই প্রেমানন্দ দেখিতছেন! বোধ হইল, যেন শ্রীবাসমন্দিরে শ্রীগৌরাঙ্গ ভক্তসঙ্গে হরিপ্রেমে মাতোয়ারা হইয়া নৃত্য করিতেছেন। বন্ধুবর্গসঙ্গে পণ্ডিতও রথের সম্মুখে এই নৃত্য গীত দর্শন করিতেছেন।
Sri Ramakrishna danced with the devotees. The musician and his party joined the Master in the music and dancing. Soon the whole verandah was filled with people. The ladies witnessed this scene of joy from an adjoining room. It appeared as if Chaitanya himself were dancing with his devotees, intoxicated with divine love!
अभी शाम नहीं हुई है । श्रीरामकृष्ण बैठकखाने में चले आये । भक्तों के साथ आसन ग्रहण किया।
[এখনও সন্ধ্যা হয় নাই। ঠাকুর বৈঠকখানাঘরে আবার ফিরিয়া আসিয়াছেন ও ভক্তসঙ্গে উপবেশন করিয়াছেন।
It was not yet dusk. Sri Ramakrishna returned to the drawing-room with the devotees.
श्रीरामकृष्ण - (पण्डितजी से) - इसे भजनानन्द कहते हैं । संसारी लोग विषयानन्द में मग्न रहते हैं - वह कामिनी-कांचन का आनन्द है । भजन करते ही करते जब उनकी कृपा होती है, तब वे दर्शन देते हैं - तब उसे ब्रह्मानन्द कहते हैं ।
{— এর নাম ভজনানন্দ। সংসারীরা বিষয়ানন্দ নিয়ে থাকে, — কামিনী-কাঞ্চনের আনন্দ। ভজন করতে করতে তাঁর যখন কৃপা হয়, তখন তিনি দর্শন দেন — তখন ব্রহ্মানন্দ।}
MASTER (to Shashadhar): "This is called bhajanananda, the bliss of devotees in the worship of God. Worldly people keep themselves engrossed in the joy of sensuous objects, of 'woman and gold'. Through worship devotees receive the grace of God, and then His vision. Then they enjoy Brahmananda, the Bliss of Brahman."
शशघर और भक्तमण्डली चुपचाप सुन रही है ।
[শশধর ও ভক্তেরা অবাক্ হইয়া শুনিতেছেন।
Shashadhar and the devotees listened to these words with rapt attention.
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
* अवतार -वरिष्ठ के चरणों में भक्ति ही एकमात्र सार वस्तु*
(The essence of the whole world -"To love God")~
[God's incarnation meaning : Incarnation, central Christian doctrine that God became flesh, that God assumed a human nature and became a man in the form of Jesus Christ, the Son of God and the second person of the Trinity. Christ was truly God and truly man.]
पण्डितजी – (विनयपूर्वक) - महाशय , किस तरह व्याकुल होने पर मन की यह आनन्दमय अवस्था ( blissful state of mind) प्राप्त होती है ?
[পণ্ডিত (বিনীতভাবে) — আজ্ঞা, কিরূপ ব্যাকুল হলে মনের এই সরস অবস্থা হয়?
SHASHADHAR (humbly): "Sir, please tell us what kind of yearning gives one this blissful state of mind."
श्रीरामकृष्ण - ईश्वर के दर्शन के लिए जब प्राण डूबते उतराते रहते हैं, तब वह व्याकुलता होती है। गुरु ने शिष्य से कहा, आओ, तुम्हें दिखा दें, किस तरह व्याकुल होने पर वे मिलते हैं । इतना कहकर वे शिष्य को एक तालाब के किनारे ले गये । वहाँ उसे पानी में डुबाकर ऊपर से दबा रखा। थोड़ी देर बाद शिष्य को निकालकर उन्होंने पूछा, कहो, तुम्हारा जी कैसा हो रहा था ? उसने कहा, 'मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा था कि मानो मेरे प्राण निकल रहे हों । एक बार सांस लेने के लिए मैं छटपटा रहा था ।'
{MASTER: "One feels restless for God when one's soul longs for His vision. The guru said to the disciple: 'Come with me. I shall show you what kind of longing will enable you to see God.' Saying this, he took the disciple to a pond and pressed his head under the water. After a few moments he released the disciple and asked, 'How did you feel?' The disciple answered: 'Oh, I felt as if I were dying! I was longing for a breath of air.'}
पण्डितजी - हाँ हाँ ठीक है, अब मैं समझा ।
(পণ্ডিত — হাঁ হাঁ, তা বটে, এবার বুঝেছি।)
SHASHADHAR: "Yes! Yes! That's it. I understand it now."
श्रीरामकृष्ण – ईश्वर को प्यार करना, यही सार वस्तु है । भक्ति एकमात्र सार वस्तु है । नारद ने राम से कहा, 'ऐसा करो कि तुम्हारे पादपद्मों में मेरी सदा शुद्धा भक्ति रहे । अभी के समान संसार को मुग्ध कर लेनेवाली तुम्हारी माया में न पडूँ ।' श्रीरामचन्द्र ने कहा, कोई दूसरा वर लो । नारद ने कहा, 'मुझे और कुछ न चाहिए । तुम्हारे पादपद्मों में भक्ति रहे - इतना ही बहुत है ।’
{"শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরকে ভালবাসা, এই সার! ভক্তিই সার। নারদ রামকে বললেন, তোমার পাদপদ্মে যেন সদা শুদ্ধাভক্তি থাকে; আর যেন তোমার ভুবনমোহিনী মায়ায় মুগ্ধ না হই। রামচন্দ্র বললেন, আর কিছু বর লও; নারদ বললেন, আর কিছু চাই না, — কেবল যেন পাদপদ্মে ভক্তি থাকে।}
MASTER: "To love God is the essence of the whole thing. Bhakti alone is the essence. Narada said to Rama, 'May I always have pure love for Your Lotus Feet; and may I not be deluded by Your world-bewitching maya!' Rama said to him, 'Ask for some other boon.' 'No,' said Narada, 'I don't want anything else. May I have love for Your Lotus Feet. This is my only prayer.'
पण्डितजी जानेवाले हैं । श्रीरामकृष्ण ने कहा, इनके लिए गाड़ी मँगवा दो ।
[পণ্ডিত বিদায় লইবেন। ঠাকুর বললেন, এঁকে গাড়ি আনিয়া দাও।
Pundit Shashadhar was ready to leave. Sri Ramakrishna asked a devotee to bring a carriage for the pundit.
पण्डितजी - जी नहीं, हम लोग ऐसे ही चले जायेंगे ।
[পণ্ডিত — আজ্ঞা না, আমরা অমনি চলে যাব।
SHASHADHAR: "Don't trouble yourself. I shall walk."
श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - कभी ऐसा भी हो सकता है ? - 'ब्रह्मा भी तुम्हें ध्यान में नहीं पाते’ ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — তা কি হয়! ব্রহ্মা যাঁরে না পায়ে ধ্যানে —
MASTER (smiling): "Oh, how can that be? 'You are beyond the reach of even Brahma's meditation.'"
पण्डितजी - अभी जाने की कोई जरूरत न थी, परन्तु सन्ध्या अभी करनी है ।
[পণ্ডিত — যাবার প্রয়োজন ছিল না, তবে সন্ধ্যাদি করতে হবে।
SHASHADHAR: "There is no particular need of my going just now. The only thing is that I shall have to perform my sandhya."
[(3 जुलाई, 1884 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-86]
*श्री रामकृष्ण की वह परमहंस अवस्था- जहाँ कर्मत्याग स्वतः हो जाता है।*
श्रीरामकृष्ण – “माँ की इच्छा से मेरे सन्ध्यादि कर्म छूट गये हैं । सन्ध्यादि के द्वारा देह और मन की शुद्धि की जाती है । वह अवस्था अब नहीं ।"
{" শ্রীরামকৃষ্ণ — মা আমার সন্ধ্যাদি কর্ম উঠিয়ে দিয়েছেন, সন্ধ্যাদি দ্বারা দেহ-মন শুদ্ধ করা, সে অবস্থা এখন আর নাই।}
MASTER: "The Divine Mother has taken away my sandhya and other devotions. The purpose of the sandhya is to purify body and mind. I am no longer in that state.
यह कहकर श्रीरामकृष्ण ने गाने के एक चरण की आवृत्ति की: " शुचि अशुचिरे लोये दिव्यघरे कोबे शुबि , तादेर दूई सौतिन पिरित होले तबे श्यामा मा रे पाबि !"
(भावार्थ) “हे मेरे मन , एक तरफ शुचिता (पवित्रता) और दूसरी तरफ अशुचिता (मलीनता) को एक साथ लेकर दिव्यभवन में तू कब सोयेगा ? उन दोनों सौतों में जब प्रीति होगी तभी तू श्यामा माँ को पा सकेगा ।"
{এই বলিয়া ঠাকুর গানের ধুয়া ধরিলেন — ‘শুচি অশুচিরে লয়ে দিব্যঘরে কবে শুবি, তাদের দুই সতীনে পিরিত হলে তবে শ্যামা মারে পাবি!’
When will you learn to lie, O mind, in the abode of Blessedness, With Cleanliness and Defilement on either side of you? Only when you have found the way To keep these wives contentedly under a single roof, Will you behold the matchless form of Mother Syama.
श्री रामकृष्ण को प्रणाम करके पण्डित शशधर बिदा हुए ।
राम - कल मैं शशधर के पास गया था, आपने कहा था ।
[রাম — আমি কাল শশধরের কাছে গিয়েছিলাম, আপনি বলেছিলেন।
RAM: "I visited Shashadhar yesterday. You asked me to."
श्रीरामकृष्ण - कहाँ, मैंने तो नहीं कहा; परन्तु तुम गये तो अच्छा किया ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — কই, আমি তো বলি নাই, তা বেশ তো, তুমি গিছিলে।
MASTER: "Did I? I don't remember. But it is nice that you went."
राम - एक संवाद-पत्र (Indian Empire) का संपादक आपकी निन्दा कर रहा था ।
[রাম — একজন খবরের কাগজের (Indian Empire) সম্পাদক আপনার নিন্দা করছিল।
RAM: "The editor of a newspaper (The Indian Empire.) was abusing you."
श्रीरामकृष्ण - तो इससे क्या हुआ, की होगी ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — তা করলেই বা।
MASTER: "Suppose he was. What does it matter?"
राम - और भी तो सुनिये । मुझसे आपकी बात सुनकर मुझे छोड़ता ही न था, आपकी बात और सुनना चाहता था ।
[রাম — তারপর শুনুন! আমার কথা শুনে তখন আর আমায় ছাড়ে না, আপনার কথা আরও শুনতে চায়!
RAM: "Please listen. Then I began to talk to the editor about you. He wanted to hear more and wouldn't let me go."
डॉक्टर प्रताप अब भी बैठे हुए हैं । श्रीरामकृष्ण ने उनसे कहा, वहाँ (दक्षिणेश्वर में) एक बार जाना, भुवन ने कहा है, भाड़ा दूँगा ।
शाम हो गयी है । श्रीरामकृष्ण जगज्जननी का नाम ले रहे हैं । कभी राम नाम करते हैं, कभी कृष्णनाम, कभी हरिनाम भक्तगण चुपचाप सुन रहे हैं । इतने मधुर कण्ठ से नाम ले रहे हैं, जैसे मधु की वर्षा हो रही हो । आज बलराम का मकान नवद्वीप हो रहा है । बाहर नवद्वीप और भीतर वृन्दावन ।
आज रात को ही श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जायेंगे । बलराम उन्हें अन्तःपुर में लिये जा रहे हैं, जलपान कराने के लिए । इस सुयोग में स्त्रियाँ भी उनके दर्शन कर लेंगी ।
इधर बाहर के बैठकखाने में भक्तगण उनकी प्रतीक्षा करते हुए एक साथ कीर्तन करने लगे । श्रीरामकृष्ण भी बाहर आकर उनके साथ मिल गये । खूब कीर्तन होने लगा ।...... आमार गौर नाचे , नाचे संकीर्तने , श्रीवास आंगने , भक्तगण संगे।।
=====================
[श्री दरियाव साहेब * (1676-1758 ) का जन्म 1676 ई ० की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, बुधवार को राजस्थान के नागौर जनपद में हुआ था। इन्होने 82 वर्ष की अवस्था में शरीर का त्याग किया। इनके पिता का नाम मानसा तथा माता का नाम गीगा था। ये मुसलमान कपड़ा बुनकर थे। साधारण जन को लोकभाषा में धर्म के मर्म की बात समझाकर, एक सुत्र में पिरोने में दरियाव साहेब से जुड़े लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन्होने हिंदू- मुसलमान, जैन- वैष्णव, द्विज- शूद्र, सगुण-निर्गुण, भक्ति व योग के द्वन्द्व को समाप्त कर एक ऐसे सरल सुसमन्वित मानवीय धर्म की प्रतिष्ठापना की जो सबके लिए सुकर एवं ग्राह्य था। आगे चलकर मानवीय मूल्यों से सम्पन्न इसी धर्म को "रामस्नेही संप्रदाय' की संज्ञा से अभिहित किया गया।
दरिया उस ब्रह्म की ज्योति का साक्षात्कार कर चुके थे, जिसके दर्शन के पश्चात् कथनी व करनी झूठी लगने लगती है, धुआं जैसे प्रतीत होने लगती है। दरिया ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए राम- सुमिरन को महत्व दिया है। राम- के स्मरण से ही कर्म व भ्रम का विनाश संभव है। राम- सुमिरन में ही मनुष्य देह की सार्थकता है, वरन् पशु व मनुष्य में अंतर ही क्या है ?
" राम नाम नहीं हिरदै धरा, जैसे पसुवा तेसै नरा।
जन दरिया जिन राम न ध्याया, पसुआ ही ज्यों जनम गंवाया।।"
लेकिन यह राम-स्मरण भी गुरु द्वारा निर्देशित विधि- विशेष से संपन्न होना चाहिए। केवल मुख से राम- राम करने से राम प्राप्ति नहीं हो सकती। उस राम- शब्द यानि नाद का प्रकाशित होना अनिवार्य है, तभी "ब्रह्म परचै" संभव हे। गुरु प्रदत्त निरंतर राम- स्मरण की साधना से धीरे- धीरे एक स्थिति ऐसी आती है, जिसमें "राम " शब्द भी लोप हो जाता है, केवल ररंकार ध्वनि ही शेष रहती है। क्षर अक्षर में परिवर्तित हो जाता है, यह ध्वनि ही निरति है। यही "पर- भाव " है और इसी "पर- भाव में भाव " अर्थात् सुरति का लय हो जाता है अर्थात "भाव " व "पर- भाव " परस्पर मिलकर एकाकार हो जाते हैं, यही निर्वाण है, यही समाधि है। यही सगुण का निर्गुण में विलय है। यही संतों का सुरति- निरति परिचय है और चौथे पद ( निर्वाण) में निवास की स्थिति है।
यही जीव का शिव से मिलन है, यही आत्मा का परमात्मा से परिचय है, यही वेदान्तियों की त्रिपुटी से रहित निर्विकल्प समाधि है। यही संतों का निज घर में प्रवेश होना है, यही अलख ब्रह्म की उपलब्धि है, यही बिछुड़े जीव का अपने मूल उद्गम ( जात ) से मिलन है, यही बूंद का समुद्र में विलीनीकरण है, यही अनंत जन्मों की बिछुड़ी मछली का सागर में समाना है। इस सुरत- निरति की एकाकारिता से ही जन्म- मरण का संकट सदा- सदा के लिए मिट जाता है। यही सुरति- निरति परिचय संत दरिया का साधन भी है और साध्य भी। शब्द- सूरति का योग ही ब्रह्म का साक्षात्कार है, निर्वाण है, जिसे सद्गुरु सुलभ बनाता है। सुरति यानि चित्तवृति का राम शब्द में अबोध रुप से समाहित होना ही सुरति- शब्द योग है। इसलिए जब तक शरीर में सांस चल रहा है, तब तक राम- स्मरण कर लेना चाहिए, इस अवसर को व्यर्थ नहीं खोना है, क्योंकि यह शरीर तो मिट्टी के कच्चे "करवा की तरह है, जिसके विनष्ट होने में कोई देर नहीं लगती।
परंतु इस समाधि की स्थिति की प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया- विशेष से गुजरना पड़ता है। वह प्रक्रिया- विधि- सद्गुरु सिखलाता है, इसलिए संत- मत में सद्गुरु की महत्ता स्वीकार की गई है। उनकी मान्यता है कि सतगुरु ही हरि की भक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं तथा शिष्य में पड़े संस्कार- रुप बीज को अंकुरित कर उसे पल्लवित एवं पुष्पित करते हैं। दरिया का मान्यता है कि गुरु प्रदत्त राम- शब्द तथा ज्ञान द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। शास्रों के पठन तथा श्रवण से प्राप्त ज्ञान द्वारा आत्म- साक्षात्कार संभव नहीं। क्योंकि शास्त्र द्वारा प्राप्त ज्ञान वैसा ही निस्सार एवं प्रयोजतनहीन है, जैसा हाथी के मुँह से अलग हुआ दाँत। हाथी का दाँत जब तक हाथी के मुंह से स्वाभाविक रुप में स्थित है, तभी तक वह शक्ति व बलसंयुत है और किसी गढ़ अथवा पौल ( दरवाजा ) को तोड़ने में सक्षम है, टूटकर मुँह से अलग होने पर निस्सार है।
चरित्रगत अवगुणों के विनाश एवं सद्गुणों के विकास से ही समाज में परिवर्तन संभव है, अतः दरिया ने सदाचरण एवं चारित्रिक मूल्यों पर बल देकर सत्संगति व गुणोपेत सज्जनों की प्रशंसा की है।
दरिया लच्छन साध का क्या गृही क्या भेष।
निहकपटी निपंख रहै, बाहिर भीतर एक।।
- दरिया वाणी
आचार्यश्री दरियावजी महराज फरमाते हैं कि साधना करने वाले गेरुआ भेषधारी तथा गृहस्थी सभी साधकों को साधु कहते हैं । सच्चे साधु का तो यही लक्षण है कि वे गृहस्थ जीवन में होकर भी परमात्मा के एहसास में रहते हैं, ये बाहर से जीतने पाक पवित्र होते हैं उतने ही पाक साफ निष्पक्ष मन के होते हैं। सदा निष्कपटी और तथा न ही कभी उसके मन में परमात्मा के प्रति किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होता है । वह तो सदा बाहर भीतर एक रहता है ।
दरिया के विचार में परमात्म- प्राप्ति के लिए कर्म- विरत या संन्यस्त होने की कोई अनिवार्यता नहीं, वह तो संसार में "स्वकर्मण्यभिरतः " होते हुए भी की जा सकती है। दरिया के विचार में तो गृही और साधु दोनों के लिए उत्तम रीति भी यही है --
हाथ काम मुख राम है, हिरदे साची प्रीत ।
जन दरिया गृही साध की, याहि उत्तम रीत।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि गृहस्थियों को भगवा वेश धारण करके, घर बार छोड़कर वन में जाने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि घर में रहते हुए भी आत्म -कल्याण संभव है । तुम हाथों से कर्म करते रहो तथा मुख से राम-राम करते रहो तो सहज ही मुक्ति हो जायेगी ।
दरिया गृहस्थी साध को, माया बिना न आब ।
त्यागी होय संग्रह करे, ते नर घणा खराब।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि गृहस्थी साधु अर्थात भक्त की धन के बिना कोई प्रतिष्ठा नहीं, इसलिए गृहस्थी भक्त यदि धन-संग्रह करता है तो उसमें कोई बुराई नहीं परन्तु त्यागी (संन्यासी) बन कर यदि कोई धन-संग्रह करता है तो वह बड़ा ही दुष्ट - पापी है ।
मिधम काम घर में करे, त्यागी गृह बसाय ।
जन दरिया बिन बंदगी, दोऊँ नरकां जाय।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि जो गृहस्थी , गृहस्थ में रहते हुए मिधम काम (शास्त्रनिषिद्ध कर्म) अर्थात पाप, अत्याचार-अनाचार करता है वह नरक में जाएगा । इसी प्रकार जो त्याग धारण करके पुनः गृहस्थी जैसा ही हो जाता है, वह त्यागी भी नरक में जाएगा । अतः ईश्वर की वन्दना किये बिना चाहे वह त्यागी हो अथवा गृहस्थी हो सभी नरक में जाएंगे ।
उत्तम काम घर में करे, त्यागी सबको त्याग ।
दरिया सुमिरे राम को, दोनों ही बड़भाग।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज कहते हैं कि उत्तम काम करने वाला गृहस्थी भी साधु है तथा सबसे उत्तम कार्य तो ईश्वर भजन ही है । त्यागी को आध्यात्मिक जीवन में बाधा पहुँचाने वाले सभी विरोधी तत्वों (कामिनी -कांचन) में आसक्ति का त्याग करके भगवद नामजाप करना चाहिए । इस प्रकार से गृहस्थी और त्यागी दोनों के ऐसे पावन आचरण हैं तो वे दोनों ही बड़भागी हैं ।
दरिया साहब का नारी के प्रति उदार और मानवीय दृष्टिकोण रहा है। उनके विचार में नारी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है, उसे गर्हित एवं निंदनीय बताकर श्रेष्ठ समाज की कल्पना करना बेमानी है। नारी तो वस्तुतः ममता, त्याग व स्नेह की प्रतिमूर्ति है --
नारी जननी जगत की,पाल पोष दे पोस ।
मूर्ख राम बिसार के, ताहि लगावे दोस।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि प्रत्येक मानव के जीवन को उत्कृष्ट बनाने का श्रेय मातृ शक्ति को होता है क्योंकि बच्चे की प्रथम गुरू उसकी माता होती है । जो मूर्ख होता है, वह राम को भूलकर नारी के ऊपर दोष लगाता है, तो क्या नारी के अंदर राम नहीं है ।
नारी आवे प्रीत कर, सतगुरु परसै आण ।
दरिया हित उपदेश दे, माय बहन धी जाण।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि स्त्री भी संतों के पास प्रीति (प्रेम) करके आती है तो, उसे भी माँ, बहन और धी (पुत्री ) समझकर उपदेश देना चाहिए। अर्थात उन स्त्रियों (मातृशक्ति) में कभी अवगुण नहीं देखना चाहिए, क्योंकि सभी अवतारों और ईश्वरकोटि के संतों को नारी ही ने प्रकट किया है ।
दरिया का योग भक्ति का प्राबल्य है। इसीलिये तो उनकी वाणी में एक भक्त की सी विनम्रता है और भक्ति की याचना भी -जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा। अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हो सिरताज हमारा। मैं नांही मेहनत का लोभी, बख्सो मौज भक्ति निज पाऊँ।।
भक्ति ज्ञान से भी श्रेष्ठ है !
साँख जोग पपील गति, विघ्न पड़ै बहु आय ।
बावल लागै गिर पड़ै, मंजिल न पहुंचे जाय।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज ज्ञानयोग की तुलना चींटी की गति और भक्तियोग की तुलना पंछी की गति से करते हुए कह रहे हैं कि भक्तियोग की तुलना में ज्ञानयोग कठिन है । जिस प्रकार चींटी पेड़ के ऊपर चढती है तो मार्ग में बहुत विघ्न आते हैं तथा अंत में हवा लगते ही वह पुनः नीचे गिर जाती है ।
भक्ति सार बिहंग गति,जहँ इच्छा तहँ जाय ।
श्री सतगुरु रक्षा करै,विघ्न न व्यापै ताय।
आचार्यश्री दरियावजी महाराज फरमाते हैं कि भक्तियोग पक्षियों की गति है । पक्षी आकाश में जहाँ इच्छा हो, वहाँ उड़ सकता है उसके मार्ग में कोई विघ्न नहीं आता है । इसी प्रकार भक्ति सदा ही निर्बाध गति से आगे बढ़ती रहती है, क्योंकि भक्त की सदा ही श्री सतगुरु रक्षा करते हैं ।
साभार http://kavitakosh.org/kk }
==============