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बुधवार, 12 अगस्त 2015

पंचम वेद -६ " वेदान्त का मूल मन्त्र है- आत्मानं विद्धि।"

 " नेता को सिर्फ दो ही कार्य करने होते हैं -' BE AND MAKE ' धर्मपालन और धर्मशिक्षा ! "
पिछले सत्र में हमने देखा कि मास्टर महाशय के मन में मूर्ति पूजा को लेकर उठे सन्देह को श्री रामकृष्ण दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। मानव समाज में कोई न कोई थीसिस (वाद या पूर्वपक्ष ) प्रभावित रहती है, किन्तु जैसे ही कोई वाद प्रचलित होती है, उसके विरोध में कोई ऐन्टिथिसिस (प्रतिवाद) भी प्रारम्भ हो जाता है। और जब ऐन्टिथिसिस की चर्चा जोर पकड़ने लगती है, तब अंतिम रूप में दोनों के बीच एक सिन्थिसिस (सम्मिलन बिन्दु) स्थापित हो जाती है। यहाँ भगवान श्री रामकृष्ण में हम उसी थीसिस, ऐन्टिथिसिस के -या परस्पर विरोधी सिद्धान्तों के सम्मिलन बिन्दु को देख सकते हैं।
प्राचीन युग में हिन्दू धर्म में भी मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था। ऋषियों ने आविष्कृत किया था कि एक ही सत वस्तु कण -कण में विद्यमान है, किन्तु साधारण मनुष्य इस बात को समझ नहीं पा रहे थे। तब धीरे धीरे द्वैत वाद की परिकल्पना प्रचलित हुई। सामान्य जनता की भलाई को ध्यान में रखकर ही ईश्वर के विभिन्न रूपों की अवधारणा प्रतिस्थापित की जाने लगी। इसके बाद जो लोग ईश्वर को निराकार मानते थे, और जो उनको सगुण साकार रूपों में देखते थे -दोनों परस्पर विरोधाभासी अवधारणाओं में संघर्ष होने लगा। और यह संघर्ष हजारों वर्षों तक जारी रहा। किन्तु हिन्दू धर्म की यह विशेषता है कि इसमें किसी भी विचारधारा को दूसरों पर जबरन थोपने का प्रयास कभी नहीं किया जाता है। जो मार्ग आपको अच्छा लगे आप उसी मार्ग पर चलने को स्वतंत्र हैं !
आचार्य श्रीहरिभद्र ने 'षड्दर्शन-समुच्चय' नाम का अपने ग्रन्थ में - ' न्याय, वैशेषिक,सांख्य,योग,मीमांसा और वेदान्त' -- इन छ: को वैदिक दर्शन (आस्तिक-दर्शन) तथा चार्वाक,बौद्ध और जैन-इन तीन को 'अवैदिक दर्शन' (नास्तिक-दर्शन) कहा है  और उन सब पर विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है। वेद को प्रमाण मानने वाले आस्तिक और न मानने वाले नास्तिक हैं, इस दृष्टि से उपर्युक्त न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन को आस्तिक और चार्वाकादि दर्शन को नास्तिक कहा गया है।
न्याय दर्शन के प्रतिष्ठाता गौतम मुनि हैं।  ईसा से ४०० वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था। यह दर्शन तर्क पर आधारित है। ५ मार्च, १८८२ को श्री रामकृष्ण मास्टर महाशय से पूछते हैं - " अंग्रेजी में क्या कोई तर्क की किताब है ? मास्टर - जी हाँ है, अंग्रेजी में इसको न्यायशास्त्र (Logic) कहते हैं। श्रीरामकृष्ण - अच्छा, कैसा है कुछ सुनाओ तो !
मास्टर अब मुश्किल में पड़े। आखिर कहने लगे - 'इसमें तर्क के आधार पर साधारण सिद्धान्त से विशेष सिद्धान्त पर पहुँचने की चेष्टा की जाती है; जैसे यह कौआ काला है, वह कौआ काला है और जितने भी कौए दिख पड़ते हैं, वे भी काले हैं, इसलिये निष्कर्ष यह निकला कि सभी कौए काले हैं ! '-किन्तु उस प्रकार के सिद्धान्त से भूल भी हो सकती है; क्योंकि सम्भव है ढूंढ़ -तलाश करने से किसी देश में सफ़ेद कौआ भी मिल सकता है। " ऐसे तर्क को ठाकुर ने महत्व नहीं दिया है ।
इस पर एक मजेदार कहानी है -किसी छात्र ने तर्कशास्त्र के प्रोफेसर से पूछा सर, इस प्रकार तो हम सिद्ध कर सकते हैं कि इस बकरे को दाढ़ी है, उस बकरे को दाढ़ी है, सभी बकरों को दाढ़ी है; और आपको भी दाढ़ी है -तो क्या निष्कर्ष निकाले कि आप भी बकरा हैं ?
इसके बाद आता है, वैशेषिक दर्शन - इसके प्रतिष्ठाता कणाद मुनि हैं। वे सत्य की अनेकता पर विश्वास रखते हैं, उनका मानना है कि दृष्टिगोचर प्रत्येक वस्तुएँ कण से बनी हैं, इसलिये इसके प्रतिष्ठाता को कणाद कहा गया है। अणु -परमाणु पर आधारित दर्शन है। इन सभी सिद्धांतों से जीव, ईश्वर , जगत और उनके संबन्ध को समझाने की चेष्टा की गयी है । दर्शन शास्त्र तीन प्रश्नों का उत्तर खोजता है १. इस जगत का रचयिता कौन है ? २.इन जीवों तथा मनुष्यों का उस रचयिता (ईश्वर) से क्या सम्बन्ध है ? ३. मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ?
इसके बाद सांख्य-दर्शन आता है, यह बहुत प्रसिद्द दर्शन है, इसके प्रतिष्ठाता कपिल मुनि हैं । इस दर्शन का मुख्य बिन्दु है -पुरुष और प्रकृति ! पुरुष एक हैं प्रकृति अनेक हैं
इसके बाद योग-दर्शन का स्थान आता है, इसके प्रतिष्ठाता महर्षि पतंजलि हैं ! यह दर्शन सांख्य दर्शन पर आधारित है। इसमें मन को पूर्णतः नियंत्रित करने पद्धति बतलायी गयी है। इस प्रकार पुरुष से प्रकृति को अलग करके पुरुष को प्राप्त करने का उपाय कहा गया है। सांख्य और योग दर्शन एक दूसरे से सम्बंधित हैं।
इसके बाद मीमांसा का स्थान है, इसके दो भेद हैं -पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा। इसके प्रतिष्ठाता जैमिनी मुनि हैं। जैमनी दर्शन का भी लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना ही है। किन्तु ये लोग किसी ईश्वर या रचयिता पर विश्वास नहीं करते हैं।
वेदान्त को सबसे महत्वपूर्ण दर्शन माना गया है, इसीलिये भारत में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, और योग दर्शन के उतने अधिक अनुयायी नहीं पाये जाते हैं। हमलोग कह सकते हैं कि इसके प्रतिष्ठाता व्यासदेव हैं । इनके मतानुसार 'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या ' है ! अर्थात ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, और जो कुछ भी यह विश्व-ब्रह्माण्ड दिखाई दे रहा है, सब केवल माया,भ्रम या धोखा (elusion) है । हम जगत को जिस रूप में देखना चाहते हैं, वह हमें उसी रूप में दिखाई देता है। वेदान्त का मूल मन्त्र है- 'आत्मानं विद्धि।' अर्थात आत्मा को जानो। पिण्ड-ब्रह्माण्ड में ओतप्रोत हुआ एकमेव आत्म-तत्त्व का दर्शन (साक्षात्कार) कर लेना ही मानव जीवन का अन्तिम साध्य है, ऐसा वेद कहता है। इसके लिये तीन उपाय हैं- वेदमन्त्रों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन। इसीलिये तो मनीषी लोग कहते हैं- 'यस्तं वेद स वेदवित्।' अर्थात ऐसे आत्मतत्त्व को जो सदाचारी व्यक्ति जानता है, वह वेदज्ञ (वेद को जानने वाला) है।
भगवान श्रीरामकृष्ण को हम अद्वैत वेदान्ती मान सकते हैं। कुछ लोग उनको विशिष्टाद्वैत और द्वैतवादी भी कहते हैं। क्योंकि वे ' जितने मत उतने पथ ' को सही मानते थे, वे सर्वधर्म समन्वय के मूर्त रूप थे। सभी लोग यही दावा करते हैं कि मात्र मेरा ही मत सही है, बाकि सभी गलत हैं, तो आम आदमी किसे सत्य माने ? ठाकुर कहते थे -'सभी लोग अपनी घड़ी को ही सही बतलाते हैं ! मेरी घड़ी में अभी १२ बज रहा हो तो सभी की घड़ी में १२ ही बजना चाहिए ? ' शास्त्रों के महारण्य में सत्य को ढूँढना ही मुश्किल हो गया था। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थ विभिन्न बातें कह रहे थे। संस्कृत का श्लोक है -
  "वेदा विभिन्नौः स्मृतयो विभिन्ना
नासौ मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम्।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां
महाजनो येन गतः स पन्थाः॥"

अर्थात् - वेद अर्थात ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं स्मृतियाँ भिन्न-भिन्न हैं , 'न असौ मुनि यस्य मतं न भिन्नं'  ----ऐसे सन्त मुनि नहीं है जिनमें मतों की भिन्नता ना हो ऐसे में , किया क्या जाय ? महापुरुष जिस मार्ग पर चले वही सही मार्ग है । 
 वे आगे के पृष्ठों में कहते हैं ब्रह्म भी सत्य है तो जगत भी सत्य है, यदि ऐसा नहीं है तब तो मेरी जन्मभूमि कामारपुकुर भी असत्य हो जाएगी ?
वचनामृत में मास्टर महाशय ' जगद्गुरु-श्रीरामकृष्ण स्तोत्रम् ' से एक श्लोक को उद्धृत करते हैं -

संसारार्णवघोरे यः कर्णधारस्वरूपकः
नमोऽस्तु रामकृष्णाय तस्मै श्रीगुरवे नमः॥१२॥

संसार जो नित्य परिवर्तनशील है, संसार रूपी समुद्र में निरंतर बड़ी बड़ी लहरें उठती गिरती रहती हैं। ऐसे घोर तूफान में भी जो हमारी जीवन नौका के खेवैया हैं, या जहाज के कप्तान हैं, उन भगवान श्रीरामकृष्ण को मैं अपना गुरु मानकर नमस्कार करता हूँ ! संसार भी ठीक इसी तरह है, अभी सब कुछ बहुत सुंदर ढंग से चल रहा है, पर अगले ही क्षण क्या घटित हो जायेगा , कोई नहीं जानता। जब बोट  हिचकोले खा रही है, उस समय स्टीयरिंग को कौन थामे रहेंगे ? 'मैं और मेरा' का जन्म अहंकार से होता है। मैं सब जानता हूँ, मैं जो कह रहा हूँ वही ठीक है ! गुरु क्या करते है ? वे उस अहंकार पर ही चोट करते हैं। अधिकांश गुरु अपने शिष्यों को अत्यन्त संकीर्ण क्षेत्र में विश्वास करने की सीख देते हैं। उस मंदिर में मत जाना, उनका प्रसाद मत खाना, उस मूर्ति को मत छूना; इस किताब के सिवा अन्य किसी किताब को नहीं पढ़ना । फिर यह भी कहते हैं कि ईश्वर ने ही इस सृष्टि को रचा है। 
जब मास्टर महाशय यह कहते हैं कि, " अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें समझाना भी तो चाहिये कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है । "
वर्तमान युग के  विश्व-गुरु श्री रामकृष्ण हमें उदार हृदय के मनुष्य बनने की शिक्षा देते हुए कहते हैं - " अजी समझाने वाले तुम हो कौन ? जिनका संसार है वे समझायेंगे। जिन्होंने सृष्टि रची है, सूर्य-चन्द्र, मनुष्य, जीव-जन्तु बनाये हैं, जीव-जन्तुओं के भोजन के उपाय सोचते हैं, उनका पालन करने के लिये माता-पिता बनाये हैं, माता-पिता में स्नेह का संचार किया है- वे समझायेंगे। " अपने शिष्य को वे सिखा रहे हैं कि आध्यात्मिक व्यक्ति को कभी संकीर्ण बुद्धि नहीं रखनी चाहिये। आगे कहते हैं - " यदि मिट्टी की मूर्ति पूजने में कोई भूल होगी तो क्या वे नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है ? वे उसी पूजा से सन्तुष्ट हैं, तो इससे तुम्हारा सिर क्यों धमक रहा है ? तुम यह चेष्टा करो जिससे तुम्हें ज्ञान हो -भक्ति हो। ....  जिनका यह संसार है उन्होंने ही ज्ञान के विभिन्न स्तर पर खड़े व्यक्तियों के लिये, जो जैसा अधिकारी है, उसके लिए वैसे पूजाओं की योजना ईश्वर ने की है। लड़के को जो भोजन रुचता है, और जो उसके पेट में पच सकता है, वही भोजन माँ उसके लिये पकाती है,-- समझे ? बंगला में पूछते हैं - क्या तुम मुझे समझे ? मैं कौन हूँ ? " 
यह नहीं समझने सकने के कारण बहुत से पढ़े-लिखे वयस्क लोग धार्मिक-आस्था का प्रसंग उठने से -मुस्टैच बेबी- मूंछो वाले बच्चों जैसा झगड़ना शुरू कर देते हैं। हजारों लाखों लोग हज्ज करने या तीर्थ यात्रा पर जाते हैं, वे क्या भक्ति से जाते हैं, या मार्केटिंग से प्रभावित होकर जाते हैं ? गायत्री मंत्र को “गुरु मंत्र” के रुप मे जाना जाता है। (ओम भूर्भवः स्वः तत्स वितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात॥)  गायत्री मंत्र में प्रार्थना है - 'धीमहि धियो योनः प्रचोदयात'  अर्थात वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे ! 
बड़े बड़े वकील लोग कानून की सभी धाराओं को याद रखते हैं, अन्तर्राष्ट्रीय कानून तक की जानकारी रखते हैं, डॉक्टर लोग चिकित्सा शास्त्र की जानकारी रखते हैं, केमिस्ट्री-फिजिक्स कहीं भी आप देखें ये लोग सूक्ष्म बातों की जानकारी रखते हैं। किन्तु जैसे ही तुम उनसे ईश्वर के बारे में चर्चा करो,  बिल्कुल नासमझ बन जाते हैं ! क्यों ? वे गुरु मंत्र से प्रार्थना -धीमहि धियो योनः प्रचोदयात' की प्रार्थना नहीं करते। इसीलिये अवतार तत्व को समझ नहीं पाते हैं। 
 इसीलिये ठाकुर जब पूछते हैं - मुझे समझे ? मास्टर कहते हैं - अज्ञे हाँ ! अज्ञे का अर्थ है -रिवीयर्ड सर, मैं आपको समझ रहा हूँ ! जब मनुष्य का अहंकार चला जाता है, तभी उसमें चरित्र के चौबीसो गुण प्रविष्ट हो पाते हैं। गीता में बहुत सुंदर ढंग से बताया गया है कि कौन व्यक्ति ज्ञान को समझ सकता है ? तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया । उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ प्रणिपात का अर्थ है - अत्यंत विनम्रता से ; उसे (ज्ञानको) तू प्रणाम करके, दूसरा परिप्रश्नेन - बार बार सब प्रकारके प्रश्न कर जब तक तुम्हारे सारे सन्देह मिट नहीं जाते, तीसरा है सेवया - अर्थात सेवा द्वारा जान ले; तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुष तुझे उस ज्ञानका उपदेश करेंगे ।" 
सिस्टर निवेदिता जब स्वामीजी के पास आती हैं तो सैकड़ो प्रश्न पूछती हैं , किन्तु प्रश्न करने का अर्थ बच्चों जैसा सवाल करना नहीं है ! 
अहंकार हट जाने के बाद, भगवान हैं या नहीं ऐसे प्रश्न समाप्त हो जाते हैं, अब मास्टर महाशय विनीत भाव से पूछते हैं - " महाशय, ईश्वर में मन को किस तरह लगाया जाता है ? हाउ कैन आई फिक्स माई माइंड ऑन गॉड ? " इस सुंदर प्रश्न को सुनकर ठाकुर प्रसन्न हो जाते हैं, वे नहीं पूछते कि क्या तुम ब्राह्मण हो ? शाकाहारी हो या नहीं ? रोज गंगा-स्नान करके लाल टिका लगाते हो या नहीं ? वे उत्तर देते हैं - " सर्वदा ईश्वर के नाम का गुण-गान करना चाहिये, सत्संग करना चाहिये --बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये। दिनरात सांसरिक विषय-भोगों में पड़े रहने से मन ईश्वर में नहीं लगता। कभी कभी निर्जन स्थान में जाकर ईश्वर पर मन को एकाग्र करना बहुत जरूरी है। प्रथम अवस्था में बीच बीच में एकान्तवास किये बिना ईश्वर में मन को लगाना बड़ा कठिन है। " 
तुरंत एक उपमा द्वारा बात को स्पष्ट करते हैं - " पौधा जब छोटा होता है, उसके चारों ओर घेरा बाँधना पड़ता है, नहीं तो बकरी चर लेगी।" उपमा कालिदासस्य -कालिदास उपमा के लिये प्रसिद्द हैं । उपमा देकर युवाओं को समझा रहे हैं, जब संडे स्टडी सर्कल में जाने की बात अपने दोस्तों से करोगे, तो वे तुमसे कहेंगे -मूर्ख, वहाँ जाकर अपना समय क्यों बर्बाद करता है, चलो सिनेमा चलें ! इस प्रस्ताव से कच्चे उम्र में या प्रारम्भ में मन भटक सकता है। 
फिर वे तीन प्रकार से मनःसंयोग करने की शिक्षा देते हैं - " सर्वदा ईश्वर के नाम का गुण-गान करना चाहिये, सत्संग करना चाहिये --बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये।" ईश्वर के तो अनेक नाम हैं, और सभी पवित्र हैं, मानलो तुम सभी नामों को दुहराने लगे तो क्या होगा ? इसीलिये सिर्फ नाम नहीं दुहराना है, उसके साथ साथ भगवान के गुणों पर भी चिंतन करना है। नहीं तो लोग इतने चतुर हैं कि अपने बच्चों का नाम भगवान पर रखते हैं, किन्तु काली छोड़कर रखते है । सोचते हैं जब मैं उन्हें पुकारूँगा भगवान को पुकारना हो जायेगा। कुछ लोग माला जपते रहते हैं और साथ  मोल-भाव भी करते रहते है। किन्तु वे भगवान के उपदेशों का पालन नहीं करते हैं। भगवान के गुण का क्या अर्थ है ? भगवान के उपदेश की चर्चा ही तो है ! रिपीट द गॉड्स नेम ऐंड सिंग हिज ग्लोरी ! का अर्थ यह नहीं कि अपने घर के छत पर चारों कोन में माइक लगा कर पड़ोसियों की नींद हराम कर दो। आध्यात्मिक विकास का क्या अर्थ है ? संत तुलसीदास जी कहते हैं - 

राम नाम  मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार |  
 तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर || 

 हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला (लौकिक एवं पारमार्थिक ज्ञान) चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप [हवा के झोंके अथवा तेल की कमी से कभी न बुझने वाला नित्य प्रकाशमय दीप  ] को रखो | अर्थात् प्रत्येक स्वांस के साथ जीभ के द्वारा अखण्डरूप से श्रीराम-नाम का जप करता रह ।
कैसे गुणगान किया जाता है ? यह तरीका गुरु बतलाते हैं ! ठाकुर कहीं जाते थे तो अपने भक्तों को वहाँ आने को बोल देते थे, इससे उनके भक्त लोग संघबद्ध होना सीख रहे थे। वे मास्टर महाशय को बलराम के घर पर आने का आदेश देते हैं। बलराम बोस बहुत धनी जमींदार थे, वहाँ गेट पर दरवान भी खड़े रहते थे, जो परिचयपत्र देखकर ही किसी को अंदर जाने देते थे। मास्टर पूछे क्या वे मुझे अंदर जाने देंगे ? ठाकुर ने कहा तुम मेरा नाम लेना , वे तुम्हें अंदर आने देंगे। 
ठाकुर यही कहना चाहते थे कि तुम श्री रामकृष्ण का केवल नाम ले लो -सभी बंद दरवाजे खुल जायेंगे ! हमने अपने इस छोटे से जीवन में इस वेदांत को सत्य होते देखा है ! जहाँ उम्मीद की कोई किरण भी नहीं थी, उन स्थानों में भी कैम्प स्वतः होने लगे ! माम् अनुस्मर युद्धश्च ! असम्भव सिग्नेचर भी मिल जाते हैं ! 
भगवान का नाम भगवान से भी बड़ा है ! अंजना देवी हनुमान की माँ बोली मेरा बेटा वहाँ है तो विश्वामित्र भी राम के भक्त का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। राम का बाण बिना शत्रु को मारे लौट आया ? नारद से कारण पूछा तो नारद ने कहा राम , आपका बाण आपको कैसे छू सकता है ? हनुमान के पूरे शरीर में आपका नाम बसा हुआ है। किसी बीमार से मिलो तो भगवान से प्रार्थना करो ! हमें हमेशा विवेक-प्रयोग करके सोचना चाहिये - 'जब कोई हमें प्रणाम करता है, तो वो मेरे माध्यम से श्रीरामकृष्ण को ही प्रणाम कर रहा है ! '
 नेता को सिर्फ दो ही कार्य करने हैं - " धर्म-पालन और धर्म-शिक्षा' महामण्डल नेता के व्यवहार से लोग श्रीरामकृष्ण के संतान की समीक्षा करते हैं ! इसलिये 'नाम गुणगान सर्वदा ' । यह शिक्षा ठाकुर दे रहे हैं। गुण तो अच्छे और बुरे दोनों हो सकते हैं । अच्छे गुण यदि भगवान से आते हैं, तो बुरे गुण कहाँ से आते हैं ? कुछ लोग मानते हैं कि वे शैतान से आते हैं । पशुओं को सिंघ और पूँछ कौन देता है ? यदि अच्छे बुरे दोनों प्रकार के गुण भगवान में रहते हैं, तो क्या दुर्गुण का असर भगवान पर भी पड़ता है ? नहीं ! सर्प के मुख में जहर रहता है, पर क्या उस जहर का असर सर्प पर होता है ? नहीं, हमें सदगुणों को अर्जित करना है और दुर्गुणों को निकालना है । इसलिये प्रार्थना है भगवान आप दक्षिणामुखं ही रहें - केवल सदगुणों को आने दें। राम के गुण क्या हैं ? वे भीलनी के जूठे बैर खा रहे हैं । श्रीकृष्ण का गुण -अनासक्ति है। वे चाहते तो चक्रवर्ती सम्राट हो सकते थे, पर कुछ नहीं लिया।
हमलोग राम, कृष्ण, बुद्ध, जीसस क्राइस्ट, के अनुयायी हैं उन्होंने क्षमा करने की शिक्षा दी है। हमलोग जीसस का नाम लेते हैं, किन्तु उनके उपदेशों का पालन करते हैं ? दिखावा छोड़कर अभ्यास में लाना होगा। गीता के १२ वें अध्याय के १३-१९ तक केवल ७ श्लोकों का स्मरण कर लो। १६ वें अध्याय का केवल ४ श्लोक अद्वेष्टा और अभयं सर्वभूतेषु का अभ्यास करो. भक्त का जीवन दूसरों के लिये प्रेरणा स्वरूप होना चाहिये, अपने ड्राइंग रूम में दो टांग पर खड़े घोड़े का नहीं भगवान का चित्र लगाना चाहिए, सद्साहित्य रखना चाहिये, व्यवहार में विनम्रता रखनी चाहिये।
माँ सारदा ने कहा है, जब तुम ठाकुर के फोटो को देखते हो तो तुम जीवंत भगवान को ही देख रहे हो ! उनके गुण तुममें कैसे आयेंगे ? जब तुम उनके भक्तों के यहाँ जाओगे, महामण्डल कैम्पों में जाओगे ! बीच बीच में निर्जनवास करो का अर्थ है - महामण्डल का वार्षिक शिविर कभी मत छोड़ो ! नवनी दा का संग करने का जहाँ अवसर हाथ लगे, जरूर पहुँचो ! आमी सकल काजे पायी हे समय तोमाके डाकिते पायी ने - ऐसी लाचारी महामण्डल कर्मी में कभी नहीं आ सकती है ! हमलोग सर्वोत्तम भगवान श्रीरामकृष्ण के भक्त हैं, आधुनिक युग के भगवान के भक्त हैं, वे अत्यंत सरल भाषा में कहते हैं - ' आमी ईश्वर के देखेची, तोके ऊ देखाते पारी! ' उपाय क्या है ? बस तीन कार्य करो - " सर्वदा ईश्वर के नाम का गुण-गान करना चाहिये, सत्संग करना चाहिये --बीच बीच में भक्तों और साधुओं से मिलना चाहिये।"तुमको अवश्य ईश्वर लाभ होगा ! भगवान स्वयं कह रहे हैं- तुम्हें केवल इस पर विश्वास करना है, इसका अभ्यास करना है, और दूसरों को भी इसका अभ्यास करने के लिये प्रेरित करना है ! तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य है - 'धर्मपालन और धर्मशिक्षा' BE AND MAKE ! 
अर्जुन के अहंकार को तोड़ते हुए कृष्ण ने कहा था -

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैततत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥३॥

 हे पार्थ ! नपुसंकताको मत प्राप्त हो, तुझमें यह उत्पन्न मत होने दे ! हे परंतप ! हृदयकी तुच्छ दुर्बलताको त्यागकर खडा हो जा । यहाँ मास्टर महाशय भी एम.ए पास हैं, उनकी ईश्वर संबन्धी अवधारणा को सही करने के लिये कहते हैं -निराकार को मानो पर यह कभी मत कहना कि केवल यही मत सही है। वह एक ही अनेक बन गया है, अब हमें अनेक से एक में पहुँचना है ! 
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मंगलवार, 11 अगस्त 2015

पंचम वेद - ५ " जो यहाँ नानात्व देखता और बरतता है वो मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।"

'अनेक दीखने पर भी परमात्मा तत्वतः एक ही हैं—एकम् एवं अद्वितीयम् !
पंचम वेद -भाग ४ में हमलोगों ने, भगवान श्रीरामकृष्ण एवं मास्टर महाशय के बीच प्रथम भेंट-वार्ता के आधार पर
'पुनर्जन्मवाद,'  'कर्मफल वाद,' के अनुसार छः भिन्न प्रकार के कर्मों - काम्य कर्म, निषिद्ध कर्म।  नित्यकर्म, निमित्त कर्म, नैमित्तिक कर्म, प्रायश्चित कर्म,क्रियमान कर्मों में सर्वश्रेष्ठ है -'BE AND MAKE' रूपी  उपासना कर्म !  आदि  सनातन धर्म के कुछ प्रमुख सिद्धान्तों - को विस्तार से समझा था।
जब श्री म प्रथम बार श्रीरामकृष्ण से मिलते हैं, तो उनके कुछ शब्दों को सुनते ही उनकी तरफ आकर्षित हो जाते हैं। पर उनके मित्र सिधू पर वैसा कुछ असर क्यों नहीं हुआ ? किसी के ऊपर अवतार का प्रभाव पड़ना, या नहीं पड़ना पुनर्जन्मवाद के सीद्धान्त के अनुसार ही घटित होता है। बाद में श्रीरामकृष्ण इसके कारण को स्पष्ट करते हुए कहा था कि तुम पिछले जन्म में चैतन्य के दल में रहे थे !
 यही इस प्रश्न का उत्तर है कि, क्यों महामण्डल के पाठचक्र में बहुत थोड़े से लोग ही मनःसंयोग, चरित्र के गुण और चरित्रनिर्माण की पद्धति सुनना पसन्द करते हैं?जबकि अन्य बहुत से अच्छे लोग ऐसे भी हैं - जो किसी को धोखा नहीं देते, किसी को नुकसान नहीं पहुँचाते, वे किसी ऐसे मनोरंजक मित्र-मण्डली या क्लबों में जाना पसंद करते हैं, और जो भी पारिवारिक जिम्मेदारी उनके ऊपर है, उसे पूरा करने के लिये जो कार्य करना पड़े करते रहना ही अपना परम कर्तव्य समझते हैं ।
तो कुछ लोग ढेरों उपन्यास पढने, पेपर में आर्टिकल भी लिखने। दोस्तों के साथ पार्लियामेंट में चल रही लॉग जाम पर सांसदों की पे कटे या नहीं इस पर बहस करते रहना ही देशभक्ति समझते हैं ! हो सकता है वे कुछ जरूरत मंदों की सहायता भी करते हों । किन्तु ऐसे मनुष्यों को धार्मिक मनुष्य नहीं कहा जा सकता, इसीलिए बहुत थोड़े से चुने हुए यथार्थ धर्मपरायण लोग ही श्रीरामकृष्ण की पुकार को सुनकर उनके पास आ सके थे।
भगवान स्वयं, दक्षिणेश्वर मंदिर के अपने कमरे के छत पर खड़े होकर कोलकाता की और मुख करके, भारत की तात्कालीन राजधानी में रहने वाले यथार्थ जिज्ञासु लोगों को पुकार रहे थे !  गंगा के ऊपर से बहने वाली वायु ने उस गूँज को चारों और फैला दिया, बहुत से लोगों ने इस पुकार को सुना किन्तु बहुत थोड़े से लोगों ने ही उसका प्रतिउत्तर दिया ?
जिन लोगों ने उस पुकार का प्रतिउत्तर दिया उनका पिछला जन्म अवश्य ही बहुत अच्छा रहा होगा। जो लोग उनके निकट रहते थे, वे भी नहीं आना चाहते थे, जो लोग आते भी थे वे इतने अहंकार से भरे होते थे कि कोई नई बात देखते ही कटुआलोचना करते हुए आना ही छोड़ देते थे। क्या घर में कोई काम दिया जाता है, और उसके करने पर भी यदि कोई संबंधी आपकी आलोचना करता है, या अन्य प्रकार से करने की सलाह देता है, तो क्या हम उससे अपना सम्बन्ध ही तोड़ लेते हैं ? नहीं, किन्तु  किसी अच्छे संगठन में भी परस्पर के बीच गहरा प्रेम नहीं रहने के कारण ऐसा दिखाई पड़ता है।
सदियों से दुनिया के अधिकांश आधुनिक मनुष्यों में यह भ्रम बना ही रहता है कि क्या 'भगवान, खुदा, या गॉड' निराकार-साकार दोनों हो सकते हैं ? विगत १००० वर्षों की गुलामी के कारण भारत में भी भगवान के साकार या निराकार होने पर बहस छिड़ा हुआ था। भारतीय जनमानस के बीच सबसे जटिल समस्या यही रही है कि ‘वास्तव में भगवान क्या है? उसे हम कैसे प्राप्त कर सकते हैं, और उनकी परख-पहचान कैसे कर सकते हैं?’ एक पक्ष कहता था 'अल्ला' परवरदिगार है, 'राम' तो बंदा है गुलाम भारत के हिन्दू डिग्री डिप्लोमा प्राप्त आलिम-फाजिल हिन्दू (मुसलमान में कन्भर्टेड हिन्दू)  लोग भी, अपने आकाओं से सुन सुन कर यह कहने लगे थे - 'राम' एक राजा या मज़हबी पेशवा का नाम है ! क्योंकि अल्लाहतऽला तो निराकार सर्वव्यापी सत्ता है, वह कभी साकार नहीं होता हाजिर- नाजिर नहीं हो सकता! किन्तु यह सत्य नहीं है ।  
मौलानाः 'सैय्यद मज़हर अली नक़वी अमरोहवी' कहते हैं - " यदि अल्लाहतऽला केवल निराकार ही होता है ! तो वहिस्त में अल्लाहतऽला सिंहासन पर बैठकर निर्णय कैसे करता है ?  उसमें फरिश्ते सब लाइन में खड़े  होते हैं, मोमिन लाइन में खड़े होते हैं । ये काफिर लाइन में खड़े होते हैं । ये सब क्या है निराकार का वर्णन है ? कुछ मुल्लाओं ने समाज में फैला दिया है की नमाज़ ,रोज़ा ,हज्ज ,दाढ़ी,का नाम मुसलमान है ।
 जबकि मुसलमान नाम है इस्लाम के बताये कानून पे चलने का और यह कानून बताते हैं की, लोगों पे ज़ुल्म न करो, इमानदार रहो, इर्ष्या , हसद और लालच से बचो। इस्लाम अपराध करने वाले जालिमो का साथ देने,उनसे सहानभूति करने वालों और ज़ुल्म देख के चुप रहने वालों को भी अपराधी करार देता है । आप कह सकते हैं की इस्लाम न अपराध करने वालों को पसंद करता है और न ही अपराध को बढ़ावा देने वालों को पसंद करता है ।  यह फ़िक्र करने की बात है कि इंसानियत का सबक सिखाने वाला इस्लाम आज आतंकवादियों के शिकंजे में कैसे फँस गया ?
यदि आप को यह पहचानना हो कि यह शख्स इस्लाम को मानने वाला है या नहीं; सच्चा मुसलमान है या नहीं ? तो न उसके सजदों को देखो और न उसकी नमाज़ों को देखो, कि उसके लिलार में काला निशान बना है या नहीं ? बल्कि देखो उसके किरदार को ,उसकी सीरत को ,और यदि वो हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) से मिलती हो, यदि वो शख्स समाज में अमन और शांति फैलाता दिखे या वो शख्स इंसानों मेंआपस में मुहब्बत पैदा करता दिखे तो समझ लेना मुसलमान है ।" 
कठोपनिषद् १/१/२१ में नचिकेता के पूछने पर यम कहते हैं -
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्॥
नचिकेता ! यह ‘आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्)’ अत्यंत सूक्ष्म विषय है। इसका समझना सहज नहीं है। पहले देवताओं को भी इस विषय में सन्देह हुआ था। उनमें भी बहुत सा विचार विनिमय हुआ था, परन्तु वे भी इसको जान नहीं पाये। अतएव तुम दूसरा वर माँग लो। मैं तुम्हें तीन वर देने का वचन कर चुका हूँ, अतएव तुम्हारा ऋणी हूँ। पर तुम इस वर के लिए जैसे महाजन ऋणी को दबाता हैं, वैसे मुझको मत दबाओ। इस ‘आत्मतत्त्वम् (परमतत्त्वम्)’ विषयक वर को मुझे लौटा दो। इसको मेरे लिए छोड़ दो।
यही बात श्रीरामकृष्ण मास्टर महाशय के माध्यम से हमें सीखा रहे हैं।  पिछले सत्र में हमने सुना था श्रीरामकृष्ण पूछते हैं - "वेल, डू यू बिलीव इन गॉड विथ फॉर्म और विदाउट फॉर्म?" अच्छा, तुम ईश्वर के 'साकार ' रूप पर विश्वास करते हो या 'निराकार' पर ?   'म ' बहुत सोच-समझकर उत्तर देते हैं -' महाशय, निराकार मुझे अधिक पसंद है । ' श्रीरामकृष्ण  यह प्रश्न क्यों पूछते हैं ? 
विगत ६-७ शताब्दियों से इसी बात पर विवाद चल रहा था कि ईश्वर साकार हैं या निराकार ?  राम तो बंदा है, और अल्ला परवरदिगार ? राम अभी कहाँ हैं ? उस समय, गुलाम भारत में -ईश्वर केवल निराकार हैं, मूर्ति पूजा नहीं करनी चाहिए, इन बातों को आर्यसमाज और ब्रह्मसमाज के लोगों ने पढ़े-लिखे लोगों के बीच इतना अधिक प्रचारित कर दिया था; निराकार पर विश्वासी को एजुकेटेड और साकार मूर्ति मानने वाले पर अनपढ़-गँवार नॉन एजुकेटेड का ठप्पा लग जाता था ! उन दोनों जो लोग इंगिलश मीडियम स्कूलों में, कन्वेंट स्कूलों में नहीं पढ़े हैं, इंग्लैण्ड  से बैरिस्टरी नहीं पास किये हैं, पाश्चात्य वेश-भूषा नहीं है, उनको एजुकेटेड ही नहीं माना जाता था। जबकि उस समय के संस्कृत विद्यालयों में जो उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, या भारतीयशिक्षा ग्रहण करते थे, उन्हें अच्छे लोग होने से भी शिक्षित नहीं समझा जाता था। केवल यूरोपीय शिक्षा का ही प्रचार हो रहा था। अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग अपने को तर्कसंगत अक्लमंद या रैशनल व्यक्ति समझते थे, वे कैसे कह सकते थे की मूर्तिपूजा करना उचित है ! इसीलिये जब भारत पर ब्रिटिश रुल लागु हो गया, तबतो अधिकांश एजुकेटेड लोग यह मानने लगे कि चूँकि ईश्वर सर्वव्याप्त है, इसलिये वे साकार कैसे हो सकते हैं ? 

 

राजा राममोहन राय अंग्रेजी -संस्कृत-फ़ारसी के विद्वान थे, इन्होने ब्रह्मसमाज की स्थापना की थी, क्योंकि वे हिन्दू समाज को बचाना चाहते थे। क्योंकि तब अधिकांश उच्च शिक्षित लोग सेमेटिक धर्मों में धर्मान्तरित होने लगे थे। उन्होंने सोचा केवल मूर्ति होने से लोगों को आपत्ति है, तो अगर साकार रूप को हटाकर ईश्वर को 'निराकार किन्तु सगुण' के रूप में प्रतिष्ठित किया जाय , तो अंग्रेजी लिखे -पढ़े लोग भी भगवान से प्रार्थना कर सकते हैं, किन्तु उनका कोई मूर्त रूप नहीं माना जायेगा।
 नॉर्थईस्ट में नामघर सम्प्रदाय कृष्णा विदाउट फॉर्म की प्रार्थना करते थे। उनके मंदिरों में नाम की पूजा होती थी, किन्तु रूप की पूजा वर्जित थी। मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण की जीवनी पढ़ते थे, श्रीमद्भागवत पुस्तक रखकर उसकी पूजा करते थे, पर श्रीकृष्ण की मूर्ति नहीं रखते थे। तो ऐसा ही मनोभाव एमए पास मास्टर का भी था, ठीक वही भाव नरेन्द्रनाथ का भी था। 'म ' बहुत सोच-समझकर उत्तर देते हैं -' महाशय, निराकार मुझे अधिक पसंद है।' 
श्रीरामकृष्ण के विचारों की उदारता देखिये ! ठाकुर  क्षणमात्र में इस बहस को समाप्त करते हुए कहते हैं - तुम जिस पर विश्वास करते हो उसी को पकडे रहो ! पर यह न कहना कि केवल यही सत्य है, और सब झूठ !श्रीरामकृष्ण कहते हैं - " अच्छी बात है। किसी एक पर विश्वास रखने से काम हो जायेगा। निराकार पर विश्वास करते हो, अच्छा है। पर यह न कहना यही सत्य है, और सब झूठ । यह समझना कि  निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। जिस  पर तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो । " 
 श्रीरामकृष्ण क्षणभर में समाधान कैसे कर सके ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण स्वयं भगवान हैं, इस सत्य को वे जानते थे, और दूसरे लोग केवल ईश्वर के विषय में सोचते थे ! हम लोग के जीवन में देखा जाता है, कुछ लोग बोलते हैं, नवनी दा को मछली नहीं आलू ज्यादा पसंद है, पर नवनी दा ही जानते हैं कि उन्हें क्या पसंद है। 
स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " हमारे गुरुदेव बिल्कुल मौलिक थे, (वे कभी जर्मन फिलॉसफर की दुहाई नहीं देते थे) वे जानते थे कि गीता स्वयं ईश्वर की वाणी है, क्योंकि गीता का उपदेश स्वयं उन्होंने ने ही दिया  था।
 इसीलिए हम सबों को भी मौलिक ही होना होगा !" जब हमलोग स्वयं आत्मसाक्षात्कार कर लेंगे, ब्रह्मविद् बन जायेंगे तभी कह सकेंगे मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ क्यों कहा गया है ? मास्टर यह सुनकर चकित हो गये कि -दोनों सत्य हैं ! यह बात उनके किताबी ज्ञान में तो थी नहीं !! इसे - ' नेति, नेति से इति इति' को  तो केवल अपने अनुभव से ही जाना जा सकता है !
 तीसरी बार धक्का खाकर उनका अहंकार चूर्ण हुआ ! क्योंकि जो व्यक्ति उनकी बातों को गलत सिद्ध कर रहा था, वह तथाकथित रूप से बिल्कुल अनएजुकेटेड था ! इसके बावजूद म उनकी बातों को बिल्कुल सही अर्थों में ग्रहण कर रहे थे। 
माँ सारदा देवी कहती थी, 'किसी का दोष मत देखना, दोष देखना तो सिर्फ अपना ' ताकि तुम उसका सुधार कर सको ! यह काम कौन कर सकता है ? केवल वही जिसका अपना कोई अहंकार नहीं है ! जब हममें उतना ज्यादा अहंकार नहीं रहता है, तभी हम दूसरों की बातों को साकारात्मक रूप में ग्रहण कर सकते हैं । 
का अहंकार तीसरी बार चूर्ण हुआ, पर अभी कुछ रह गया था; इसीलिये फिर वे तर्क करने को आगे बढे -  "सर, सपोज वन विलिव्स इन गॉड विथ फॉर्म. सर्टेनली ही इज नॉट द क्ले इमेज!"श्रीरामकृष्ण कहते है -   "बट व्हाई क्ले? इट इज अ इमेज ऑफ़ स्पिरिट. - मिट्टी की मूर्ति वे क्यों होने लगे ? चिन्मयी मूर्ति ! हम सभी लोग किसी न किसी मूर्ति की पूजा करते हैं, किन्तु पत्थर की मूर्ति, या कागज में बना फोटो देखते हैं, क्या कभी सोचा है कि वह मूर्ति -इमेज ऑफ़ स्पिरिट है ? यह चिन्मयी मूर्ति क्या चीज है ? यह बात मास्टर न समझ सके । वे खुद नहीं समझ सके पर ठाकुर से कहते है -' अच्छा, जो मिट्टी की मूर्ति पूजते हैं, उन्हें किसी को समझना भी तो चाहिये कि मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है;  और मूर्ति के सामने ईश्वर की पूजा करना ही ठीक है, किन्तु मूर्ति की नहीं!' 
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहीं लिखा है - 'जारा तोदेर प्राण देन तादेर आचे कि प्राण ?' जब पुजारी घट-स्थापित करते हैं, तो ध्यान में बैठकर स्वयं को भगवान में रूपांतरित करके अपने ही सिर पर फूल चढ़ाते हैं, फिर उस फूल को सूँघकर घट पर चढ़ा देते हैं, मानों वे मूर्ति में प्राण संचारित कर रहे हों ! कविगुरु कहते हैं, वह ईश्वर जिसने सबों में प्राण का संचार किया है, और ये लोग इतने अज्ञानी हैं कि उस ईश्वर में प्राण फूंकने का दुस्साहस कर रहे हैं ? जो तुम्हें प्राण अर्थात जीवन दे रहे हैं, क्या उनमें प्राण है ? 
 युवा नरेन्द्रनाथ भी उसी समय की शिक्षा से प्रभावित थे, क्योंकि समाज के समाजसुधारक नेता लगातार पानी पी पी कर इसी सब चर्चा कर रहे थे, बहुत थोड़े से लोग थे जिनका कोई अपना मौलिक दर्शन था, यहाँ श्रीरामकृष्ण हैं! कोलकाता के बहुत नजदीक रहते थे, वहाँ चल रहे चर्चाओं की जानकारी रखते थे, पर उनपर इन ब्राह्म नेताओं का कुछ प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि वे ओरिजिनल थे मौलिक थे। किन्तु म इतने अधिक प्रभावित थे कि ठाकुर के सामने जब बार बार -  ' मिट्टी की मूर्ति ईश्वर नहीं है' का प्रश्न उठाने लगे, तो ठाकुर ने कहा -   ' माटी केनो गो, चिन्मयी प्रतिमा '! बंगाली में 'गो' का कोई अर्थ नहीं है, पर इसका प्रयोग वाक्य में मधुरता भर देता है।  जैसे महाशय माने महा आशय ! अर्थात 'पर्सन हैविंग एक्सीलेंट थॉट !'
दयानन्द सरस्वती स्वयं बड़े शास्त्रज्ञ- विद्वान थे, वे भी कहते थे कि मूर्ति-पूजा नहीं होनी चाहिये। दिल्ली में बहुत से लोग आर्यसमाजी हैं । लोग जब फल-मिठाई लेकर मंदिर जाते थे, तो उनसे कहते थे, विग्रह में क्यों चढ़ाते हो, पंडितों को दे दो ! जो पंडित उन मूर्तियों की पूजा करते हैं, उनकी क्या गलती है ? म सोच रहे हैं थे ये जो कुछ बोल रहे हैं क्या वह श्रुति -स्मृति के अनुकूल है ? श्रुति अर्थात वेद तथा स्मृति का अर्थ है -गीता। छान्दोग्य उपनिषद में ऋषि आरुणि अपने पुत्र श्वेतकेतु को शिक्षा दे रहे हैं - 
सदेव (सद एव ) सौम्‍य इदम् अग्रे आसीत्, एकम् एवं अद्वि‍तीयम् (छान्‍दोग्‍य ६ -२ -१ ) 
‘हे सोम्य ! आरम्भमें (सृष्टि के पहले , इन द बिगनिंग ) यह एकमात्र अद्वितीय सत् (दैट नेवर चेंजेज ) ही था’ । -अकेला और अद्वि‍तीय;  कोई दूसरा था ही नहीं ! सेमेटिक धर्म भी कहता है- गॉड इज वन ! किन्तु किस प्रकार का एकम् है ? इसकी व्याख्या नहीं करता। वेदान्त ब्रह्म को भेद-रहित कहता है !  तात्पर्य है कि वह तत्त्व अद्वैत है । उस तत्त्वमें किसी भी तरहका भेद नहीं है । 
भेद तीन तरहका होता है—स्वगत भेद, सजातीय भेद और विजातीय भेद । जैसे, एक शरीरमें भी पैर अलग हैं, हाथ अलग हैं, पेट अलग हैं, सिर अलग हैं—यह ‘स्वगत भेद’ है । इतने भिन्न रंग-रूप के हैं फिर भी मानव रूप में सभी मनुष्य एक है,वृक्ष-वृक्षमें कई भेद हैं, गाय-गायमें अनेक भेद हैं—यह ‘सजातीय भेद’ है ।  वृक्ष अलग हैं और गाय, भैंस, भेंड़ आदि पशु अलग हैं—यह स्थावर और जंगम का भेद ‘विजातीय भेद’ है । 
जबकि परमात्मतत्त्व ऐसा है कि उसमें न स्वगत भेद है, न सजातीय भेद है और न विजातीय भेद है । परमात्मतत्त्वमें कोई अवयव नहीं है, इसलिये उसमें ‘स्वगत भेद’ नहीं है । जीव भिन्न-भिन्न होने पर भी स्वरूपसे एक ही हैं; अत: उसमें ‘सजातीय भेद’ भी नहीं है । वह परमात्मतत्त्व सत्तारूपसे एक ही है । जैसे, समुद्रमें तरंगें उठती हैं, बुदबुद पैदा होते हैं, ज्वार-भाटा आता है, पर यह सब-का-सब जल ही है। इसी तरह सोनेके अनेक गहने होते हैं । उनका अलग-अलग उपयोग, माप-तौल, मूल्य, आकार आदि होते हैं । परन्तु तत्त्वसे देखें तो सब सोना-ही-सोना है । पहले भी सोना था, अन्तमें भी सोना रहेगा और बीचमें अनेक रूपसे दीखने पर भी सोना ही है।इसी प्रकार पहले भी परमात्मा थे, बादमें भी परमात्मा रहेंगे और बीचमें संसार रूपसे अनेक दीखने पर भी तत्त्व से परमात्मा ही हैं—एकम् एवं अद्वितीयम् ! 
ब्रह्म काल-अन्तराल-निमित्त से परे हैं, हमारे मन-वाणी से भी परे हैं ! हम ब्रह्म क्या हैं-मुख से नहीं कह सकते ।
ऋषि आरुणि ने कहा- हे सौम्य! वह ‘सत्’ इस नमक की भाँति है जो संसार में सर्वत्र घुला हुआ है जो कि आँखों से दिखाई नहीं देता तथापि अनुभव से जाना जा सकता है! वह सत् है और वहीं आत्मा है। श्वेतकेतु! (तत्वमसि) वह आत्मा तू ही है। 'आचार्यवान् पुरुषो वेद' =गुरु के द्वारा उपदिष्ट पुरुष ही परम तत्व को जानता है; आरुणि का यह उपदेश गुरुतत्व की आधारशिला है। 
वेदान्त सिर्फ एक उच्चकोटिका दर्शन ही नहीं वह एक सशक्त एवं जीवन्त जीवनदर्शन भी है। सारा भारतीय चिन्तन वेदान्त व्याख्याओं से ओतप्रोत रुप में प्रभावित है। रामकृष्ण के इस कथन का -'यह समझना कि  निराकार भी सत्य है और साकार भी सत्य है। जिस  पर तुम्हारा विश्वास हो उसी को पकड़े रहो ।
 उनके इस कथन का दूसरा समर्थन भी श्रुति से प्राप्त होता है ! ‘एको अहं  बहु स्याम्।
‘मैं एक हूं अनेक हो जाऊं।‘ ऐसी इच्छा उनमें क्यों जागी ? क्यों , क्या मेरी इच्छा है ! सनातन धर्म कहता है -यह उनकी लीला है, इस पर आप प्रश्न नहीं उठा सकते ! कठोपनिषद के ऋषि भी आत्मसाक्षात्कार के बाद कहते हैं
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा
एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीराः
तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्॥१२॥ 
एक ही सत्ता सभी मनुष्यों के हृदय में रहती है, जिस प्रकार एक ही अग्नितत्त्व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रवेश करके प्रत्येक आधारभूत वस्तु के अनुरूप हो जाता है, उसी प्रकार समस्त प्राणियों में स्थित अन्तरात्मा(ब्रह्म) एक होने पर भी अनेक रूपों में प्रतिभासित होता है। वही भीतर है और वही बाहर है। जो विद्वान सब में इस एक को देखते हैं उन्हीं को शाश्वत सुख मिलता है दूसरों को नहीं। 
आचार्य शंकर ८ वर्ष की उम्र में ही उपनिषदों के सत्य को समझ चुके थे, किशोरावस्था में ही उन्हें ज्ञात था कि उनका जन्म किस उद्देश्य के लिए हुआ है! किन्तु उनकी माँ उन्हें संन्यास लेने की आज्ञा नहीं दे रही थीं । शंकर एक दिन अपने गाँव की नदी में नहा रहे थे, तो एक मगरमच्छ ने उन्हें पकड़ लिया, वे माँ से बोले अभी लास्ट समय आ गया है, अभी मुझे संन्यास लेने की अनुमति दे दो ! जैसे ही माँ ने अनुमति दे दी मगरमच्छ उनको छोड़ कर चला गया। शंकर ने कहा - ' माँ अब मैं जा रहा हूँ किन्तु जब तुम बुलाओगी मैं मिलने आ जाऊंगा। १६ वर्ष में उन्होंने अद्वैत वेदान्त को प्रतिष्ठित कर दिया, बिना एक भी व्यक्ति की हत्या किये! भारत में शास्त्र चर्चा से हराया जाता है, तलवार से नहीं !'
 मनुष्य अलग ईश्वर अलग ऐसा नहीं है-सब एक है ! तो अलग क्यों प्रतीत होते हैं ? माया के कारण । माया सत्य पर आवरण दाल देती है, और दूसरी वस्तु को उस पर आरोपित करती है । रज्जु-सर्प का उदाहरण है - माया कैसे हटेगी ? इसका आदि नहीं है, किन्तु अंत है ! कैसे ? जैसे ही तुम समझते हो कि रस्सी है, सांप नहीं है, वैसे ही तुम्हारा भ्रम चला जाता है! जब हम बहुत को देखते हैं, तो भय होता है, सब में जब हम एक को देखना सीख जाते हैं, तो भ्रम चला जाता है। 
स्वामी विवेकानन्द टेक्सास में वेदान्त पर लेक्चर देते हुए कहते हैं-वेदान्त केवल निर्भयता की शिक्षा देता है ! शंकर के बाद वे भी अद्वैतवादी थे, यहाँ के काउबॉय (घुड़सवार अहीर) ने सुना तो उनके चारो तरफ फायरिंग करने लगे, वे कानों के पास से निकलते बुलेट की कोई परवाह नहीं किये, तो ये लोग बड़े खुश हुए। कूदते हुए बोले वाह, ये ही रियल मैन हैं सचमुच इनको भय नहीं है। दूसरे लोग चिल्ला रहे थे-गोली मत चलाओ लग जाएगी। कोई व्यक्ति को धक्का देकर नदी में फेंक दिया जाय और बाहर निकले यह साहस नहीं है, सच्चा साहस कहाँ से आता है ? इसी सत्य की अनुभूति करने से ! कि मैं ही सब हूँ कोई दूसरा नहीं है ! 
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा/ एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति'अर्थ"वह ईश्वर एक है, विद्वान भाँति भाँति की शिक्षाओं द्वारा उसी एक सत्य का निरूपण करवाते हैं" उपनिषद बार बार सावधान करते हैं जो यहाँ एक के बदले अनेक देखता है, उसे बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है ! वह श्रुति --कठोपनिषद में यम कहते हैं -  

" मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति। "

जो यहाँ नानात्व देखता और बरतता है वो मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। अपने शुद्ध स्वरूप मैं रहना ही जीवन है और प्रकृति में अहं -मम  भाव रखकर बरतना ही मृत्यु है।  जो परब्रह्म यहाँ है, वही वहाँ (दूसरे के शरीर में भी) है, एक ही परमात्मा अखिल ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। जो उन एक ही परब्रह्म को विभिन्न नाम-रूपों में प्रकाशित देखकर मोहवश उनमें नानात्व की कल्पना करता है, उसे पुनः पुनः मृत्यु के अधीन होना पड़ता है।
हमारे वास्तविक स्वरूप का किसी काल में नाश नही होता है। यह तो प्रकृति --शरीर , मन ,बुद्धि ,अहंकार  में  ही परिवर्तन  होता है। यह  अनुभव भी है --हमारा शुद्ध स्वरूप ज्यों का त्यों  ही रहता है जाग्रत ,स्वप्न ,सुषुप्ति में परन्तु प्रकृति में निरन्तर ही परिवर्तन होता रहता है।  शरीर ,बुद्धि आदि सबका  विकास होता है फिर क्षय होता है। 
आई ऐम होलियर देन दाऊ ' - सबसे खराब मनोभाव है ! जो यह कहते हैं कि मुझे मत छूओ , मेरे मंदिर में मत आना ! उन्हें यह श्लोक याद रखना चाहिये! अपरा-रणेन दा - भावप्रचार परिषद - महामण्डल में भेद ? जीजस कहते हैं, पाप को देखो -पापी  को नहीं;यदि हम उनको सुधरने का मौका नहीं देंगे, उन्हें खींचकर ऊपर नहीं उठाएंगे तो कौन उठाएगा ? ऐसी मानसिकता कहाँ से प्राप्त होती है ? ठाकुर-माँ-स्वामीजी के जीवन से ! गीता १०/२० में भगवान कहते हैं -  

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित: ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ।।

हे अर्जुन ! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सबका आत्मा हूँ तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ। हम वैष्णव लोग गीता को सिर पर रखते हैं, पर पढ़ते नहीं है। जब पढ़ते हैं, तब समझ नहीं पाते हैं, जब हम इस तथ्य को समझ जाते हैं, तब जगत के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाती है।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ॥ १३ ॥ 
गुण और कर्मोंके विभागपूर्वक चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) मैंने रचे हैं । इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्मका कर्ता होनेपर भी तू मुझे अकर्ता-अविकारी ही जान ।   अर्थात् मैंने ही गुण एवं कर्मों को आधार बनाकर चार वर्णों की रचना की है। इसे कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है कि मनुष्य की चार प्रकृतियाँ होती हैं, जो केवल मानवमात्र में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों में भी पाई जाती हैं।
ये प्रकृतियाँ तीन गुणों पर आधारित हैं - सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण। सत्त्वगुण की प्रधानता से ब्राह्मण की, रजोगुण की प्रधानता एवं सत्त्वगुण की गौणता से से क्षत्रिय की, रजोगुण की प्रधानता एवं तमोगुण की गौणता से वैश्य की तथा तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति होती है।
इसी प्रकार गोवंश ब्राह्मण-प्रकृतिक, शेर, चीता आदि क्षत्रिय-प्रकृतिक, हाथी, ऊँट आदि वैश्य-प्रकृतिक एवं शूकर आदि शूद्र-प्रकृतिक हैं। इतना ही नहीं बल्कि शरीर में सिर ब्राह्मण, हाथ क्षत्रिय, उदर वैश्य एवं पैर शूद्र प्रकृतिक हैं। वस्तुतः यह सारी सृष्टि ही त्रिगुण आधारित है और तदनुसार ही व्यवहार भी करती है। यह सार्वभौमिक व्यवस्था कर्म पर आधारित है।
 इसे आज जाति आधरित मानकर अनुचित कहा जाता है, किन्तु जो सार्वभौम सत्य और तथ्य है कि ये वस्तुतः मानवीय प्रकृतियाँ हैं और कोई भी मानव अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करता है अथवा उसकी रुचि उन्हीं कर्मों में होती है।
इसीलिये अपने जीवन से श्री रामकृष्ण यह दिखलाते हैं कि जिन्हें समाज में अछूत समझा जाता है, देवघर में उन्हीं के बीच जाकर बैठ जाते हैं और मथुर बाबू से कहते हैं - ' जब तक तुम इन जीवन्त शिव को भरपेट भोजन तथा सिर में तेल नहीं देते,मैं काशी तीर्थ में जाकर भगवान शिव का दर्शन नहीं करूँगा। ' श्री रामकृष्ण स्वयं माँ काली के पुजारी हैं, वे माँ काली की चिन्मयी मूर्ति के सामने बैठकर प्रार्थना करते हैं - " माँ मुझे दर्शन दो ! " किन्तु माँ जब आती हैं तो किस रूप में आती हैं ? चैतन्य स्वरूप में दर्शन देतीं हैं, यही सनातन धर्म की सुंदरता है ! किन्तु स्वयं को हिन्दू कहने वाले अधिकांश लोग इस दर्शन का अर्थ नहीं समझ पाते हैं।
इसीलिये वचनामृत के प्रारंभिक दो पृष्ठों में ही श्री रामकृष्ण सनातन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों- जैसे कर्मवाद, ईश्वर ही विश्व-ब्रह्माण्ड के रचयिता हैं, अवतार में भक्ति, फिर साकार और निराकार दोनों ईश्वर के स्वरूप हैं, हिन्दू धर्म के समस्त विशेष पहलू को स्पष्ट कर देते हैं।
जिस प्रकार गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को सनातन धर्म के सभी प्रमुख बिन्दुओं को स्पष्ट रूप से समझा दिया था, इन दो पृष्ठों में ठाकुर भी ठीक वैसा ही करते हैं । जैसे गीता के बाद के अध्यायों में पुनः उन्ही बिन्दुओं को स्पष्ट किया गया है, उसी प्रकार वचनामृत  में भी आगे इसके अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं।
एक व्यक्ति ह्रदय ठाकुर के बहुत निकट रहकर उनकी सेवा करते थे, ठीक उसी प्रकार जैसे  बासुदेव बाघ, केदार दा आदि लोग नवनी दा की सेवा करते हैं। जो लोग अवतार की सेवा करते हैं, यदि वे सावधान नहीं रहे तो उनमें एक विशेष प्रकार का अहंकार बढ़ जाता है । ह्रदय तो ठाकुर के भगिना थे, एक दिन ठाकुर से कहते हैं, मामा तुम सभी से रोज एक ही बात क्यों कहते हो ? ठाकुर से मिलने के लिये रोज नये नये लोग आते थे, तो ठाकुर को सभी से सत्य क्या है, कहना ही पड़ता था।
 श्रीरामकृष्ण ने कहा, " सत्य बहुत सरल है - वही यह कि एक 'सत' या 'गॉड'  हैज बिकम मेनी ! अब हमें क्या करना है ? अनेक से एक में जाना है ! बस धर्म हमें अनेकता से एकता में जाने का मार्ग बतलाता है ! " मेरा यही दृष्टिकोण है, तुम्हें क्या लगता है, तुम वही मानो!
एक दिन ठाकुर नरेन्द्रनाथ से कहते हैं- मैंने एक दिन इस मंदिर, चौखट, बिल्ली सबकुछ को देखा तो लगा सब कुछ चैतन्य है ! नरेन्द्र १८ -१९ वर्ष के युवा थे, वे अपनी हँसी रोक नहीं पाये और बाहर निकल गये। तथा हाजरा के पास बैठकर हँसते हुए कहा - ' तब तो लोटा भी ब्रह्म थाली भी ब्रह्म है !'
ठाकुर प्रताप हाजरा को नरेन्द्र का 'फ्रैन्डो' कहते थे ! अनपढ़ थे न फ्रेंड को फ्रैन्डो कहते थे ? (जैसे नितीश दा मेरा फ्रैन्डो है !) प्रताप चन्द्र हाजरा बहुत से पुस्तकों को पढ़ते थे, पर समझ नहीं पाते थे। दर्शनशास्त्र के कितने ही प्रोफेसर हैं जो धर्म क्या है बिल्कुल नहीं समझते। ठाकुर ने केवल नरेन्द्र को छू लिया, ठाकुर स्वयं भगवान थे, उनमे अद्भुत शक्ति थी जो इस बात में विश्वास करेगा - वह तुरंत रूपांतरित हो जायेगा !
एक शास्त्रपण्डित नाव से जा रहे थे, माँझी  शास्त्रार्थ करने लगे, अरे तुमने भागवत पढ़ा है ? उपनिषद भी नहीं पढ़ा ? मैंने तो नाम भी नहीं सुना ! २५ +२५=५० % तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया।  गीता भी नहीं पढ़ा ? गीता नाम की स्त्री मेरे पड़ोस में रहती है । ७५% जीवन नष्ट हो गया ! उसी समय तूफान आ गया-माँझी ने पंडित से पूछा महाशय क्या आपको तैरना आता है ? नो ? १००% तुम्हारा जीवन गया !
जब नानेन्द्रनाथ बाद में विविदिशानन्द और विवेकानन्द में रूपांतरित होकर राजस्थान का भ्रमण  कर रहे थे, तो  अलवर के राजा भी मूर्तिपूजा नहीं मानते थे।  स्वामीजी ने राजा के फोटो को पैर से मसलने/थूकने को कहा ! आप तो उस चित्र में नहीं हैं, यह कागज पर बनी तस्वीर है ! फिर भी लोग इस चित्र में आपको ही देखते हैं ! उसी तरह भक्त मिट्टी की मूर्ति में 'इमेज ऑफ़ स्पिरिट' (चिन्मयी मूर्ति को )देखते हैं !
 ठाकुर भी म को यही सीखा रहे हैं कि ऑंखें बंद करके मूर्ति को प्रणाम करते हो, वैसे ही शिव ज्ञान से जीव सेवा आँखों  खोलकर करो ! भारत के ग्रामीण भी जब हम यह समझ जायेंगे कि स्वयं ब्रह्म ही श्री रामकृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं, तो क्या होगा ? हमलोग स्वयं ब्रह्म बन जायेंगे ! ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ! ब्रह्म (परमतत्व) को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है। अनेकता में एकता - निराकार ही साकार बना है ; यह मान्यता ही भारत की विशेषता है ! किन्तु संकीर्ण लोग उन्हें बंगाली समझते हैं, कहते हैं यदि वे भगवान थे तो उनके गले में कैंसर कैसे हुआ ? उन्होंने शास्त्र -गीता कुछ नहीं पढ़ा, उन्होंने भगवत गीता पर कोई भाष्य भी नहीं लिखा, उनको हम अपना गुरु कैसे माने ?  श्री मद्भगवद् गीता २/२९ भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।

[कश्र्चित् आश्र्चर्यवत्  पश्यति/ अन्य:आश्र्चर्यवत् वदति/ अन्य: एनम् आश्र्चर्यवत् श्रृणोति/  और  कश्र्चित्  श्रुत्वा अपि  एनम्  न एव  वेद।]
भावार्थ----‘कोई कोई विरला प्राप्त कर्त्ता ही इस ‘परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवत्तत्त्वम्’ को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई तत्त्वज्ञान दाता सत्पुरुष ही इसके ‘तत्त्व’ का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरे कोई भगवत् कृपा पात्र  ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है ; और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जान पाता ।‘  
श्री रामचंद्र जी लंका-विजय प्राप्त कर अयोध्या में राज्याभिषेक के पश्चात् जब राज्य भार संभाले, और प्रजा को बुलवाकर जब उपदेश देने लगे, तो उनका उपदेश बजाय एक राजा और प्रजा के, एक सच्चे धर्मोपदेशक भगवदवतारी के ही रूप में होता देख करके वशिष्ठ जी अपने को रोक नहीं पाये, और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे।
 (जबकि वशिष्ठ जी अपने आपमें एक श्रेष्ठ अध्यात्मवेत्ता थे। योग-वाशिष्ठ्य उनके द्वारा विरचित ग्रन्थ भी है।) अध्यात्मवेत्ता को जब अपने से श्रेष्ठतर कोई महापुरुष दिखाई देता है, तो वे उसे भगवदवतार मानने हेतु दिल-दिमाग से मजबूर हो जाते हैं। ठीक यही स्थिति यहाँ पर गुरु वशिष्ठ जी की भगवदवतारी श्रीराम जी के प्रति हुई। वशिष्ठ जी अपने को रोक नहीं पाये थे, भाव विह्वल होकर प्रार्थना करते हुये बोल पड़े थे कि-------

 राम सुनहु मुनि कह कर जोरी । कृपा सिंधु बिनती कछु मोरी ।
देखि देखि आचरन तुम्हारा । होत मोह मम हृदय अपारा ।।  

वशिष्ठ जी भी सप्त ऋषियों में से एक ब्रम्हर्षि भी थे, साथ ही साथ एक उपदेशक व अध्यात्मवेत्ता भी थे, फिर भी श्रीराम जी के भगवत्ता के प्रति मोहित (भ्रमित) हो रहे थे क्योंकि भगवदवतार की भगवत्ता और व्यवहार दोनों बिल्कुल ही भिन्न होते  हैं । भगवत्ता तो सम्पूर्ण ब्रम्हाण्ड के मालिक के रूप में है और आचरण-व्यवहार एक साधारण नर जैसा। भगवदवतार के प्रति भ्रम-सन्देह का कारण यही द्वैध स्थिति ही है।
 जो साकार थे वे ही निराकार हो गए हैं, और जो निराकार थे वे ही साकार जाते हैं ! जो राम हैं वे ही शिव हो जाते हैं और जो शिव हैं वे ही राम हो जाते हैं !
स्वामी जी कहते हैं,  "  दूसरे की देह कौन देखता है ? जो अपने को देह समझता है। जिस क्षण तुम देहभाव-रहित होगे, उसी क्षण फिर तुम जगत नहीं देखने पाओगे। वह चिर काल के लिये अन्तर्हित हो जायेगा। भला-बुरा कौन देखता है ? वही जिसके निज के भीतर भला-बुरा बना हुआ रहता है। ज्ञानी केवल बौद्धिक विचार स्वीकृति के बल से इस जड़-बन्धन से 'चिज्जड़-ग्रन्थि ' से अपने को विच्छिन्न करते हैं। यही नेति-नेति मार्ग है।" (6/299)  
 श्रीरामकृष्ण एम को समझाते हैं (अप्रसन्न होकर )- " तुम्हारे कलकत्ते के आदमियों में यही एक धुन सवार है, दूसरों को सिर्फ लेक्चर देना, दूसरों को समझाना !  पर अपने को कौन समझाये ? इसका ठिकाना नहीं ! अजी समझाने वाले तुम, होते कौन हो ? जिनका संसार है, वे समझायेंगे ! जिन्होंने सृष्टि रची है,सूर्य-चन्द्र, मनुष्य, जीव-जन्तुओं के भोजन के उपाय सोचे हैं,उनका पालन करने के लिये माता-पिता बनाये हैं। माता-पिता में वातसल्य का संचार किया है --वे समझायेंगे ! जब उन्होंने इतने सारे उपाय किये हैं, तो यह उपाय वे न करेंगे ? अगर समझाने की जरूरत होगी, तो वे समझायेंगे ; क्योंकि वे अन्तर्यामी हैं ! यदि मिटटी की मूर्ति पूजने में कोई भूल होगी, तो क्या वे नहीं जानते कि पूजा उन्हीं की हो रही है ? वे उसी पूजा से सन्तुष्ट होते हैं । इसके लिये तुम्हारा सिर क्यों धमक रहा है ? तुम यह चेष्टा करो जिससे तुम्हें ज्ञान हो -भक्ति हो !" 
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सोमवार, 10 अगस्त 2015

" खण्डन- भवबन्धन, जग-वन्दन, वन्दी तोमाय "

श्रीश्रीरामकृष्ण -आरात्रिक भजन 

(मिश्र बहार -ताल फेरता )

 
खण्डन- भवबन्धन, जग-वन्दन, वन्दी तोमाय ।

निरंजन, नररूपधर,  निर्गुण, गुणमय ।१।


हे भवबन्धन को खण्डन करने वाले, जगत के वन्दनीय , मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम निरंजन हो, नर-रूप धारण किये हो, निर्गुण होकर भी गुणमय हो । ]
मोचन-अघदूषण, जगभूषण, चिदघनकाय ।

ज्ञानांजन-विमल-नयन, वीक्षने मोह जाय ।२।

 
[तुम मनुष्य को दूषित करने वाले पाप से मुक्त करते हो, जगत के भूषणरूपी हो, ज्ञानस्वरूप हो, ज्ञानरूपी अंजन से तुम्हारे नेत्र विशुद्ध हैं, तुम्हारे उन नेत्रों की ओर देखने मात्र से ही मोह दूर भाग जाता है । ]
भास्वर भाव-सागर, चिर-उन्मद प्रेम-पाथार ।

भक्तार्जन-युगलचरण, तारण-भव-पार ।३।

 
[तुम ज्ञानमय भाव-समुद्र हो, सदा मतवाले प्रेम-महावारिधि हो, तुम्हारे जो युगल चरण हैं, वे भवसागर के पार उतार देते हैं, वे भक्तों के द्वारा ही प्राप्त करने योग्य हैं । ]
 ज्रीम्भित-युग-ईश्वर, जगदीश्वर, योगसहाय ।

निरोधन, समाहित-मन, निरखि तव कृपाय ।४।

 [तुम युगावतार के रूप में प्रकट हुए हो, जगदीश्वर हो, योग के सहायक हो, तुम्हारी कृपा से देखता हूँ, मेरी इन्द्रियाँ निरुद्ध और मन समाधिमग्न हुआ है। ]
भंजन दुःखगंजन, करुणाघन, कर्मकठोर ।
प्राणार्पण जगत-तारण कृन्तन कलिडोर ।५।

 
[ तुमने दुःख के उत्पातों को दूर किया है, तुम दया की मूर्ति हो और दृढ कर्मवीर हो, तुमने जगत के उद्धार के लिये अपने प्राणों का अर्पण कर दिया है, कलियुग के बन्धनों को छिन्न कर दिया है। ]
वंचन-कामकांचन, अतिनिन्दित इन्द्रियराग ।

त्यागीश्वर, हे नरवर ! देहो  पदे अनुराग ।६।

 
[तुमने कामिनी और कांचन को छोड़ा है और इन्द्रियों के आकर्षण को बहुत ही तुच्छ माना है, हे त्यागीश्वर, हे नरवर, मुझे श्री चरणों में प्रेम दो !]
निर्भय, गतसंशय, दृढनिश्चय-मानसवान ।

निष्कारण-भकत-शरण,  त्यजि जाति-कूल-मान ।७।

  [तुम भयरहित हो, तुममें कोई सन्देह नहीं रहा, तुम दृढ़निश्चय तथा उदार चित्तवाले हो। तुम जाति या कुल का विचार न करके बिना कारण ही भक्तों को शरण देते हो। ]
सम्पद तव-श्रीपद, भव गोष्पद-वारी यथाय ।

प्रेमार्पण, समदरशन, जगजन दुःख जाय ।८।

 
[तुम्हारे चरणकमल ही मेरी संपत्ति हैं, जिनकी तुलना में यह संसार गाय के एक खूर से दबी जमीन के छोटे से गड्ढे में आने वाले जल जैसा है। तुम प्रेम के दाता हो, समदर्शी हो, तुम्हारे दर्शन से जगत-निवासियों के सभी दुःख दूर हो जाते हैं।
नमो नमो प्रभु ! वाक्यमनातीत, मनोवचनैकाधार।

ज्योतिर ज्योति, उजल हृदिकन्दर तूमि तमोभन्जन हार ।९।

 
[वाणी और मन से परे होकर भी वाणी और मन के एकमात्र आधार रूपी हे प्रभो ! तुम्हें बार बार नमस्कार ! तुम ज्योति की भी ज्योति हो, हृदय रूपी गुफा में उजाला करनेवाले तथा अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करनेवाले हो। ]
धे धे धे, लंग रंग भंग, बाजे अंग संग मृदंग ।

गाईछे छन्द भकतवृन्द, आरति तोमार ।।

जय जय आरति तोमार, हर हर आरति तोमार,शिव शिव आरति तोमार ।१०।
[भक्तगण छन्दों में आबद्ध तुम्हारी आरती का संगीत गा रहे हैं, जिसमें धे धे धे लंग -रंग-भंग रव से अंगों के साथ साथ मृदंग बज रहे हैं। तुम्हारी आरती की जय हो, तुम्हारी आरती पापों का हरण करनेवाली तथा परमकल्याणदायिनी है।]
  जय जय आरति तोमार । हर हर आरति तोमार । शिव शिव आरति तोमार ।।
 
।।जय श्री गुरु महाराज जी की जय ।।
 - स्वामी विवेकानन्द

 

श्री रामकृष्णप्रणामः 

ॐ स्थापकाय च धर्मस्य सर्वधर्मस्वरूपिणे ।
अवतारवरिष्ठाय रामकृष्णाय ते नमः ॥

धर्म के प्रतिष्ठाता एवं सकल धर्मस्वरूप, सब अवतारों में श्रेष्ठ, हे रामकृष्ण, तुम्हें प्रणाम है ! 
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 श्रीरामकृष्ण वचनामृत के लेखक श्री 'म' कहते हैं - " अवतार एक सूर्य के सदृश्य होते हैं, तथा उनके लीला पार्षद या उनके नजदीकी शिष्य लोग सूर्य की किरणों के सदृश्य होते हैं। स्वयं ठाकुर ने ही स्वामीजी को अपनी प्रशंसा में  इन छन्दों को लिखने के लिये प्रेरित किया था, ताकि समस्त संसार उसे सुन सके और उन्हें जान सके ! 
म (अन्तेवासी से ) - देखकर नहीं, जरा अपनी स्मृति पर जोर डालकर इन्हें गाओ तो !
अन्तेवासी (धीमे स्वर में ) -
खण्डन- भवबन्धन, जग-वन्दन, वन्दी तोमाय ।

निरंजन, नररूपधर,  निर्गुण, गुणमय ।१।


हे भवबन्धन को खण्डन करने वाले, जगत के वन्दनीय , मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ। तुम निरंजन हो, नर-रूप धारण किये हो, निर्गुण होकर भी गुणमय हो । ]
'म'-- आओ देखें स्वामीजी यहाँ क्या कह रहे हैं, " जो ब्रह्म निर्गुण निराकार हैं, अर्थात  सभी गुणों से परे हैं, वही ब्रह्म सभी गुणों के साथ श्री रामकृष्ण के इस मानव शरीर में आविर्भूत हुए हैं! "
वे आगे कहते हैं, " जो कोई भी मनुष्य उनके श्रीचरणों की शरण में चला आयेगा, वह निश्चित रूप से इस भवसागर से पार हो जायेगा।" फिर भवसागर से जो पार करा दे, ऐसी शक्ति भला स्वयं भगवान के सिवा और किसमें हो सकती है? 
 वे उसमें दो विशेषणों को और जोड़ देते हैं - " दृढ़निश्चय मानसवान " और " निष्कारण भकत- शरण" अर्थात जब दृढ़ निश्चयी मन समाधि में लीन हो जाता है, तब उस समय भी भक्तों के लिये वे ही निःस्वार्थ शरण स्थल के रूप में उपस्थित रहते हैं ! " इस प्रकार के विरोधाभासी गुण केवल भगवान में ही होना सम्भव है। इसीलिये अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण की प्रशंसा में यह भजन लिखा गया है।"
 इस आरती में स्वामी जी कहते हैं - " ठाकुर ही परस्पर विरोधी सभी धर्मों के मिलन-बिन्दु (मीटिंग पॉइन्ट) हैं, उनकी यही विशेषता उन्हें अन्य समस्त अवतारों और पैगंबरों से श्रेष्ठ बना देती है ! फिर अन्तेवासी की ओर देखते हुए एम पूछते हैं - ' नमो नमो के बाद क्या है ? '
अन्तेवासी - 'नमो नमो प्रभु ! वाक्यमनातीत, मनोवचनैकाधार।' अर्थात वाणी और मन से परे होकर भी वाणी और मन के एकमात्र आधार रूपी हे प्रभो ! तुमको बार बार नमस्कार है !
" देखो भगवान (ठाकुर) ने स्वयं मानव शरीर धारण किया है, इसीलिये वे सभी पुरुषों में महानतम हैं, मन वाणी से परे हैं इसीलिये - नरवर हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो अस्तित्व अविभाज्य, अखण्ड सच्चिदानन्द - सत-चित-आनन्द ब्रह्म हैं, जो मनुष्य के मन-वाणी से अगोचर है, वे ही अभी श्री रामकृष्ण के रूप में अवतरित हुए हैं। वे ही अपनी शक्ति की सहायता से इस विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना करने, उसका पालन करने पुनः उसे विघटित करने की लीला कर रहे हैं! " जब कोई साधक मनःसंयोग करने से पहले इन दो छन्दों - 
' निर्भय, गतसंशय, दृढनिश्चय-मानसवान । 
निष्कारण-भकत-शरण,  त्यजि जाति-कूल-मान ।७। '
और 
' नमो नमो प्रभु ! वाक्यमनातीत, मनोवचनैकाधार। 
ज्योतिर ज्योति, उजल हृदिकन्दर तूमि तमोभन्जन हार ।९।'  
का गान कर लेगा, तो बाद के सभी छन्दों को समझने का अधिकार उसे प्राप्त हो जायेगा। कोई भी साधक जो निर्जन में (अर्थात जहाँ केवल ठाकुर-माँ-स्वामीजी की चर्चा होती है -जैसे महामण्डल शिविर में) में रहते हुए आरती के इन प्रशंसात्मक पंक्तियों का गायन करेगा, वह ठाकुर को समझने में सक्षम हो जायेगा ! (तुम्हीं ब्रह्म रामकृष्ण, तुम्हीं कृष्ण तुम्हीं राम ! का मर्म समझ कर ब्रह्मविद् हो जायेगा। )
अन्तेवासी - एक बार अमेरिका में स्वामी जी से किसी ने पूछा था कि आप अपने गुरु श्री रामकृष्ण के सम्बन्ध में कुछ कहिये। किन्तु वे इतने महान थे कि स्वामी जी उनके ऊपर कुछ कहने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे, बहुत कोशिश करने के बाद उन्होंने कहा था -'श्री रामकृष्ण इज लभ ' ठाकुर मूर्तिमान प्रेम थे ! आगे चलकर महापुरुष महाराज (स्वामी शिवानन्द) जी कहते थे कि स्वामी जी को वास्तव में ठाकुर के सम्बन्ध में जो कुछ भी कहना था, उसे उन्होंने भजन की इन पंक्तियों में ही बहुत सुंदर ढंग से कह दिया है।   
एम - " क्यों नहीं ? ये सभी शब्द दिव्य महापुरुषों के शब्द हैं। जो एकमात्र पुरुषोत्तम हैं -नरवर हैं, सभी मनुष्यों में महानतम हैं, वे ही मानवजाति के सच्चे नेता (विष्णु) हैं, इस नरवर को निहारो ! ईसा मसीह ने भी अपने विषय में इसी प्रकार कहा था - स्वामी जी ने इस स्तवन में उसी पैग़म्बर के शब्दों को भेंट के रूप में संकलित किया है। 
जिस व्यक्ति (नरेन्द्रनाथ) ने कभी काशीपुर उद्दान बाड़ी में ठाकुर के अंतिम दिनों में उनकी अवस्था को देखकर कहा था - " यदि वे (ठाकुर) इस समय कहें कि वे अवतार हैं, तो मैं विश्वास कर लूंगा। " उसी व्यक्ति ने आगे चलकर स्वयं इस भजन की रचना की थी। कुछ लोग केवल इन पंक्तियों को रट कर याद कर लेते हैं, किन्तु वे इस भजन के छन्दों पर मनःसंयोग नहीं करते।
यदि तुम इन दो छन्दों पर ध्यान करो, तो तुम्हें ईश्वरलाभ हो जायेगा-तुम श्री रामकृष्ण के सच्चे स्वरूप को जान लोगे। चूँकि स्वामी जी ने स्वयं इस भजन को लिखा था, इसीलिये आज कितने ही लोग इस आरात्रिक भजन को सुनकर लाभान्वित हो रहे हैं ! संसार भर में (पाश्चात्य देशों में भी ) कितने ही मठों और आश्रमों में इस बंगला भजन को ठीक इसी रूप में गाया जाता है।"