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शनिवार, 21 जून 2014

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' - श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः (22)

' विवेकानन्द - दर्शनम् ' 
२२. 
भारतवर्ष के सभी बुराइयों की जड़ है- गरीबों की दुर्दशा। 

(अखिल- भारत- विवेकानन्द- युवमहामण्डलम् अध्यक्षः  श्री नवनीहरण मुखोपाध्यायः विरचित )
[In this book, within quotes, the words are of Swami Vivekananda. The ideas, of course, are all his.
इस पुस्तिका में, उद्धरण के भीतर लिखे गये शब्द स्वामी विवेकानन्द के हैं। निस्सन्देह विचार भी उन्हीं के हैं।]

 
श्री श्री माँ सारदा और आप , मैं ...या कोई भी ... 


नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते |
वाणि लक्ष्मि महामाये मायापाशविनाशिनी ||
नमस्ते सारदे देवि राधे सीते सरस्वति |
सर्वविद्याप्रदायिण्यै संसाराणवतारिणी ||
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||
सारदेति जगन्माता कृपागङ्गा प्रवाहिनी ||


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विशुद्ध भावनाज्ञानतत्वप्रख्या च दर्शनम्
' विवेकानन्द - वचनामृत ' २२.
जीवन्ति केवलं ते ये प्रार्थैकान्तजीविताः । 
अन्येsवरा  मृतेभ्योsपि जीवितं यन्न तादृशम्॥ 
' They alone live who live for others, the rest are more dead than alive.' 4/361 'Our duty to the masses'
[ ' Royal son of India' महाराज आप क्षत्रियराजा हैं, आप जैसे एक उन्नत, महामना भारत के राजपूत लोग भारत को फिर से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं। स्वामीजी द्वारा २४ जून १८९४ को शिकागो से मैसूर के महाराज को लिखित पत्र -
महाराज,
श्री नारायण (ठाकुर) आपका और आपके कुटुम्ब का मंगल करें।  आपके द्वारा दी गयी उदार साहायता से ही मेरा इस देश में आना सम्भव हुआ है।  यहाँ आने के बाद से यहाँ के लोग मुझे अच्छी तरह से जानने लगे हैं, और इस देश के अतिथिपरायण निवासियों ने मेरे सारे आभाव दूर कर दिये हैं। यह एक अदभुत देश है और यह जाति भी कई बातों में एक अदभुत जाति है। कोई और जाति अपने रोजमर्रा के कामों में, मशीनों का इतना अधिक व्यवहार नहीं करती, जितना यहाँ के लोग करते हैं। यहाँ घर के सारे काम मशीनों के द्वारा ही किये जाते हैं। फिर देखिये, ये लोग सारे संसार की जनसंख्या के मात्र ५ % ही हैं; फिर भी सम्पूर्ण विश्व की कुल सम्पदा के षष्ठांश के ये मालिक हैं। इनके धन और विलासिता की कोई सीमा नहीं है। फिर भी यहाँ सब चीजें बहुत महँगी हैं। यहाँ के मजदूरों की मजदूरी दुनिया में सब जगहों से अधिक है,फिर भी श्रम और पूँजी (labour and capital) के बीच हमेशा झगड़ा होता रहता है।
अमेरिका की महिलाओं को जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं. धीरे धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि शिक्षित पुरुषों की अपेक्षा यहाँ शिक्षित स्त्रियों की संख्या कहीं अधिक है....धर्म के विषय में यहाँ के लोग य़ा तो कपटी होते हैं य़ा मतान्ध; विवेकी लोग धर्मों में व्याप्त कुसंस्कार से उब चुके हैं और नये प्रकाश के लिये भारत की ओर देख रहे हैं.....मेरा निष्कर्ष यह है कि उन्हें और भी अधिक आध्यात्मिक सभ्यता को अपनाने की आवश्यकता है और हमें अभी कुछ और भी अधिक भौतिकवादी सभ्यता को नजदीक से जानने की.
अमेरिकी महिलाओं जितने अधिकार प्राप्त हैं, उतने दुनिया भर में और कहीं की महिलाओं को नहीं। धीरे धीरे वे सब कुछ अपने अधिकार में करती जा रही हैं, और आश्चर्य की बात तो यह है कि सुसंस्कृत महिलाओं की संख्या सुसंस्कृत पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक हैबेशक, उच्च प्रतिभा के क्षेत्र में पुरुषों का ही अधिक दबदबा है। पाश्चात्य देश के लोग भारत की जाति-प्रथा की चाहे जितनी निन्दा करें, किन्तु उनके यहाँ का जाति-भेद तो हमारे यहाँ से खराब है, क्योंकि वहाँ का समाज धन के आधार पर उंच-नीच में विभक्त है। 
अमेरकियों का कहना है - 'सर्वशक्तिमान डॉलर सब कुछ करने में समर्थ है !' संसार के अन्य किसी देश में इतने कानून नहीं हैं, जितने यहाँ। और कोई देश ऐसा नहीं जो अपने कानूनों की इतनी कम परवाह करता हो। कुल मिलाकर हमारे गरीब हिन्दू लोग किसी भी पाश्चात्य देशवासी की तुलना में लाखों गुना अधिक नैतिक हैं धर्म के विषय में यहाँ के लोग या तो पाखण्डी होते हैं या कट्टरपंथी। समझदार लोग अपने अंधविश्वासी धर्मों से घृणा करने लगे हैं, और नये प्रकाश के लिये भारत की ओर देख रहे हैं।
महाराज, आप स्वयं इस बात को अपनी आँखों से देखे बिना महसूस नहीं कर सकते कि पवित्र वेदों के उदार विचारसमूहों के एक भी महावाक्य - जो आधुनिक विज्ञान के प्रचण्ड आक्रमणों के सम्मुख अपनी प्रमाणिकता के बल पर अक्षत और अप्रतिरोध्य (-अत्यन्त सम्मोहक) बना हुआ है; को पाश्चात्य लोग कितनी उत्कण्ठा और आग्रह के साथ ग्रहण करते हैं ! 
यहाँ के विचाशील और शिक्षित लोग चर्च के पादरियों के - ' अभाव से भाव, अर्थात शून्य से सृष्टि का सृजन हुआ है', ' आत्मा एक सृष्ट पदार्थ है' 'स्वर्ग नामक स्थान में ईश्वर किसी अत्याचारी राजा के समान सिंहासन पर बैठा है, और क़यामत के दिन नरक की आग में जला डालेगा'; ऐसे-ऐसे बे सिर पैर के सृष्टि-सिद्धान्तों पर विश्वास करना छोड़ चुके हैं। तथा वेदों के महान सिद्धान्तों -'सृष्टि एवं आत्मा दोनों अनादि-अनन्त हैं'' भगवान हमारे ह्रदय के सिंहासन पर ही बैठा है -अर्थात परमात्मा हमारी आत्मा में ही अवस्थित है' आदि को वे लोग किसी न किसी रूप में बहुत तेजी के साथ आत्मसात करते जा रहे हैं। 
केवल पचास वर्षों के भीतर संसार की सभी शिक्षित लोग- 'सृष्टि और आत्मा की नित्यता या सनातनत्व' एवं ' मनुष्य का यथार्थ स्वरुप सर्वोच्च और पूर्ण ईश्वर (श्रीरामकृष्ण) है' आदि हमारे पवित्र वैदिक सिद्धान्तों पर विश्वास करने लगेंगे। उनके विद्वान् पादरियों ने तो अभी से ही बाइबिल की व्याख्या करते समय वेदान्ती महावाक्यों तथा श्रीरामकृष्ण के जीवन एवं उपदेशों का उल्लेख करते हुए करना प्रारम्भ कर दिया है। मेरा निष्कर्ष यह है कि उनको अधिक से अधिक आध्यात्मिक सभ्यता की आवश्यकता है, और हमें और भी अधिक ऐहिक और भौतिक शिक्षा की। भारतवर्ष के सभी बुराइयों की जड़ है- गरीबों की दुर्दशा।  पाश्चात्य देशों के गरीब तो निरे दानव हैं, उनकी तुलना में हमारे यहाँ के गरीब देवता हैं, इसीलिये हमारे देश के गरीब मनुष्यों की उन्नति करना अपेक्षाकृत सहज है।  
अपने निम्न वर्ग के लोगों के प्रति हमारा एक मात्र कर्तव्य है- उनको शिक्षा देना, नके खोये हुए व्यक्तित्व (आत्मश्रद्धा) का विकास करना। पुरोहितों की शक्ति और विदेशी विजेतागाण सदियों से उन्हें कुचलते रहे हैं, जिसके फलस्वरुप भारत के गरीब बेचारे भूल गये हैं- कि वे भी 'मनुष्य' हैं। हमारे देश के युवाओं तथा अधिकारी पुरुषों के सम्मुख, देश की आमजनता के प्रति यही एक बहुत बड़ा काम- उन्हें यथार्थ मनुष्य में रूपान्तरित करने का काम- पड़ा हुआ है ! किन्तु अब तक (आजादी के ६५ साल बाद तक) मनुष्य बनने और बनाने (Be and Make), अर्थात मनुष्य- निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की दिशा में कुछ भी नहीं हो रहा है। 
 उनमे अच्छे-अच्छे भाव (चरित्र के २४ गुण) भरने होंगे; उनके चारों ओर आस-पास की दुनिया में कहाँ क्या हो रहा है, इस सम्बन्ध में उनकी आँखें खोल देनी होंगी।  इसके बाद, वे 'श्रद्धावान और आत्मविश्वासी' युवा फिर अपना उद्धार अपने आप कर लेंगे ![ फिर सामाजिक न्याय और आरक्षण की राजनीती के नाम पर देश को बाँटने का खेल बन्द हो जायेगा !] प्रत्येक जाति के, प्रत्येक स्त्री-पुरुष को अपना उद्धार स्वयं ही करना होगा। उनको अच्छे अच्छे विचार अर्थात ' वेदान्त के महावाक्य और मनःसंयोग का प्रशिक्षण' दो- उन्हें बस इसी एक साहायता की जरुरत है; इसी शिक्षा के प्रभाव से बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। 
हमें केवल रासायनिक पदार्थों को इकठ्ठा भर कर देना है, (अर्थात '3H' के विषय में उनकी आँखों को खोल देने वाले प्रशिक्षकों का निर्माण करना है) क्रिस्टलीकरण रवा बंध जाना (चरित्र-गठन य़ा ) तो साहचर्य के प्राकृतिक नियम (Law of Association) से ही साधित हो जायेगा। हमारा कर्तव्य है, उनके दिमागों में विचार भर देना- बाकी वे स्वयं कर लेंगे। वर्तमान भारत-सरकार को बस इतना ही काम करना है। भारत को फिर से महान बनाने के लिये, मेरे मन में एक लंबे समय से यही योजना थी। किन्तु तब भारत गुलाम था, इसलिये मैं कार्य रूप में परिणत न कर सका, और यही कारण था कि मैं इस देश में आया। 
भारत के गरीबों को शिक्षा देने में मूख्य बाधा यह है- मान लीजिये महाराज, आपने हर एक गाँव में एक निःशुल्क पाठशाला खोल दी, तो भी इससे कुछ काम न होगा। क्योंकि भारत में गरीबी ऐसी है कि गरीब लड़के पाठशाला में आने के बजाये खेतों में अपने माता-पिता को मदद देने य़ा किसी दूसरे उपाय से रोटी कमाने जायेंगे। इसीलिये अगर पहाड़ मुहम्मद के पास न  आये, तो मुहम्मद को ही पहाड़ के पास जाना पड़ेगा। अर्थात अगर गरीब लड़का शिक्षा ग्रहण करने के लिये 'ऋषियों' तक न आ सके, तो शिक्षा को ही (ऋषियों या महामण्डल-नेताओं को) उसके पास जाना पड़ेगा। (अर्थात गाँव-गाँव में युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना होगा।)  
हमारे देश में हजारों वेदान्त-निष्ठ और त्यागी साधु (और देशप्रेमी गृही-भक्त) हैं, जो गाँव गाँव में धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमे से कुछ लोगों को सांसारिक विषयों के शिक्षकों के रूप में (नेता का प्रशिक्षण देकर) संगठित किया जा सके तो गाँव गाँव, दरवाजे दरवाजे पर जाकर वे केवल धर्मशिक्षा  ही नहीं देंगे, बल्कि धन कमाने की शिक्षा भी दिया करेंगे। मानलीजिये कि इनमे से दो व्यक्ति (महामण्डल प्रशिक्षित दो नेता) शाम को साथ में एक मैजिक लैंटर्न, एक ग्लोब, और कुछ नक्शे आदि लेकर किसी गाँव में (जानिबीगहा लैपटॉप लेकर) जाते हैं।  वे अपढ़ लोगों को गणित, ज्योतिष, और भूगोल की बहुत कुछ शिक्षा दे सकते हैं। वे गरीब पुस्तकों से जीवन भर में जितनी जानकारी पा सकेंगे, उससे सौगुनी अधिक वे उन्हें बातचीत के माध्यम से विभिन्न देशों के बारे में कहानियाँ सुनाकर दे सकते है। किन्तु इसके लिये भी एक संगठन की आवश्यकता है, जो पुनः धन पर निर्भर करता है। इस योजना को कार्यरूप में परिणत करने के लिये भारत में मनुष्य तो बहुत हैं, पर हाय ! वे निर्धन हैं। मनुष्यों के चारित्रिक पतन-चक्र को रोक कर, उस चक्र को उर्ध्व दिशा या चरित्र-निर्माण की दिशा में घुमा देना; पहली बार (१९९८८) के लिये तो एक बड़ा कठिन काम है, पर अगर एक बार वह गतिशील हुआ कि वह क्रमशः अधिकाधिक वेग से चलने लगता है।
अपने देश में साहायता पाने का प्रयत्न करने के बाद जब मैंने धनिकों से कुछ भी सहानुभूति न पायी, तब मैं, महाराज, आपकी साहायता से इस देश में आ गया। अमेरिका वासियों को इस बात की कुछ भी परवाह नहीं कि भारत के गरीब जियें य़ा मरें।और भला वे परवाह भी क्यों करने लगें, जब कि हमारे अपने देशवासी (रिटायर्ड लोग भी) सिवाय अपने स्वार्थ की बातों के और किसी की चिन्ता नहीं करते ? महामना राजन, कम से कम आप तो इतना समझ ही सकते हैं कि- " this life is short, the vanities of the world are transient, but they alone live who live for others, the rest are more dead than alive." यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। यथार्थ रूप से वही जीवित है जो दूसरों का हितसाधन करने कि ईच्छा से जीवन धारण करता है,(जैसे स्वामीजी बटवृक्ष बन करदूसरों को छाया देने के लिये जीवन धारण किये हैं) बाकी लोगों का जीना (रिटायर्ड होने पर भी भोग चिन्ता) तो मरने ही के बराबर है। 
' Royal son of India' महाराज आप क्षत्रिय-राजा हैं, आप जैसे एक उन्नत, महामना भारत के राजपूत लोग भारत को फिर से अपने पैरों पर खड़ा कर देने के लिये बहुत कुछ कर सकते हैं। और इस तरह भावी वंशजों के लिये एक ऐसा नाम छोड़ जा सकते हैं, जिसकी वे पूजा करें ! प्रभु (ठाकुर) आपके महान ह्रदय में भारत के उन लाखों नर-नारियों के लिये गहरी संवेदना पैदा कर दें, जो अज्ञात में गड़े हुए दुःख झेल रहे हैं- यही मेरी प्रार्थना है। 
भवदीय -विवेकानन्द ।