युनानी विद्वान मेगेस्थेनिस सम्राट चन्द्रगुप्त के समय भारत में आया था। उसे सेल्यूकस ने ग्रीक का राजदूत बनाकर देश की राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) में सम्राट के दरबार में नियुक्त किया था। भारतीय सम्राट के दरबार में उनके आगमन का सही समय निश्चित तो कहा नहीं जा सकता किन्तु इतिहासकार, ईसापूर्व 228 अर्थात लगभग 2200 वर्ष
पूर्व का काल बताते है।
अपने कार्यकाल में मेगास्थनीज़ ने बड़े पैमाने पर देश की यात्रा की थी और बहुत बारीकी से भारतीय न्यायालय व्यवस्था (Royal Court) सैन्य और नागरिक प्रशासन (military and civil administration) तथा देश के नागरिकों की आर्थिक अवस्था तथा राजनितिक और समाजिक विधि-व्यवस्था का बहुत बारीकी से अध्यन किया था। लगभग 2000 ईस्वी पूर्व भारतवर्ष कितना महान था उसका वर्णन मेगास्थनीज़ ने अपने अनुभवों के आधार पर ‘इण्डिका’ नामक अपनी दैनन्दिनी में किया है।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-"
वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूल-भुलैयों में
भटका हुआ है। अपने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के
मर्म को नहीं समझने के कारण, उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी
भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना, आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक
पैमान उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का
व्यर्थ कष्ट उठाता हुआ, अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या
तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है, या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं
के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त को
अवतार कहकर पूजने लगता है, और -परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः को
चरितार्थ करता है। केवल वे युवा ही बच पाते हैं, जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति
सद्गुरु के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो चुकी है। " 9/361 " अपनी मानसिक चहारदीवारी को स्वयं कौन पार कर सकता है ?7/182" अपने कार्यकाल में मेगास्थनीज़ ने बड़े पैमाने पर देश की यात्रा की थी और बहुत बारीकी से भारतीय न्यायालय व्यवस्था (Royal Court) सैन्य और नागरिक प्रशासन (military and civil administration) तथा देश के नागरिकों की आर्थिक अवस्था तथा राजनितिक और समाजिक विधि-व्यवस्था का बहुत बारीकी से अध्यन किया था। लगभग 2000 ईस्वी पूर्व भारतवर्ष कितना महान था उसका वर्णन मेगास्थनीज़ ने अपने अनुभवों के आधार पर ‘इण्डिका’ नामक अपनी दैनन्दिनी में किया है।
मेगास्थनीज़ भारत
के वैभव, सामाजिक संरचना और कृषि-व्यवस्था आदि को देखकर अभिभूत हो गया था।
भारत का वर्णन उसके शब्दों में किसी परिकथा के समान मिलता है।
सबसे अधिक आश्चर्य उसे यहाँ की शांति को देखकर हुआ। कहीं कोई झगड़ा टंटा नहीं।
कानूनी विवाद भी यदा कदा ही होते थे। कोई आपसी विवाद हो भी गया तो सहजता से
उसका निपटारा हो जाता था।
जिस वैभवशाली स्वर्णयुग की हम बात कर रहे है। उस समय सब
भारत वासी सम्पन्न थे, प्रसन्न थे। उसे जो पहला वादविवाद मिला, वो था दो किसानों के
बीच, पाटलीपुत्र, आज के पटना के पास। गाँव के सब लोग जमा थे। एक किसान ने
कुछ दिन पूर्व ही अपनी खेती दूसरे को बेची थी। क्रेता ने जब जुताई प्रारम्भ
की तो उसे उस जमीन में एक सोने का बरतन मिला जिसमें सोने के गहने भरे थें।
वह किसान विक्रेता के पास उस सोने को ले आया और कहने लगा कि ये आपके
पूर्वजों की सम्पत्ति है आप ले ले। विक्रेता किसान उसे लेने को तैयार नहीं
था। उसका तर्क था कि जब मैने भूमि का सौदा किया तो उसके साथ उसमें जो भी था
वह भी क्रेता का हो गया। दोनों अपने अपने तर्कों के अनुसार उस सोने पर
दूसरे का ही अधिकार बता रहे थे। विवाद सम्पत्ति को रखने के लिये नहीं, नहीं रखने
को लेकर हो रहा था। दोनों धर्म का वास्ता दें रहे थे।
धर्म के अनुसार उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार ना होने के कारण उसे अपने घर में रखना विषवत् मान रहे थे। बात तो न्यायालय तक भी गयी।
धर्म के अनुसार उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार ना होने के कारण उसे अपने घर में रखना विषवत् मान रहे थे। बात तो न्यायालय तक भी गयी।
न्यायालय ने क्रेता का अधिकार बताया किन्तु फिर भी
वह किसान तैयार नहीं था उस धन को स्वीकार करने के लिये। उसका कथन था कि
उसके सौदे के समय यह नियम नही था अतः धर्म को पूर्ववर्ती समय से लागू नहीं
किया जा सकता।
धन को राजा को सौंप दिया गया इस चेतावनी के साथ कि केवल धर्मकार्य अर्थात जनता के कल्याण के कार्य में ही इसका प्रयोग हो। यदि राजा ने भी अपने नीजी अथवा राजकार्य में इस 'अनधिकार धन' या आज की भाषा में कहें तो- 'काला धन' का प्रयोग किया तो राज्य का भी अहित होगा।
धन को राजा को सौंप दिया गया इस चेतावनी के साथ कि केवल धर्मकार्य अर्थात जनता के कल्याण के कार्य में ही इसका प्रयोग हो। यदि राजा ने भी अपने नीजी अथवा राजकार्य में इस 'अनधिकार धन' या आज की भाषा में कहें तो- 'काला धन' का प्रयोग किया तो राज्य का भी अहित होगा।
युनानी विद्वान मेगास्थनीज़ को जिस समय पाटलिपुत्र के गाँव के उस विवाद को देखने को मौका मिला था; उस समय आचार्य चाणक्य भारत के प्रधान मंत्री थे। वह इतनी सुन्दर कानून व्यवस्था और इतने चरित्रशील-ईमानदार नागरिकों के निर्माण की विधि जानने के लिये
तात्कालीन भारतवर्ष के प्रधानमन्त्री आचार्य चाणक्य से मिलने उनके निवास स्थान
पर पहुँचता है।
तो देखता है-कि वे लैंप की रौशनी में कुछ लिख रहे थे। वे उसे थोड़ी देर प्रतीक्षा करने को कहते हैं। काम समाप्त हो जाने के बाद, वे उस लैंप को बुझा देते हैं, और एक दूसरा लैंप जलाते हैं, फिर उससे उसके आगमन का कारण पूछते हैं। किन्तु मेगास्थनीज़ को तो यह देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था कि पहले वाले लैंप को बुझाकर इन्होने दूसरा लैंप क्यों जलाया?
तो देखता है-कि वे लैंप की रौशनी में कुछ लिख रहे थे। वे उसे थोड़ी देर प्रतीक्षा करने को कहते हैं। काम समाप्त हो जाने के बाद, वे उस लैंप को बुझा देते हैं, और एक दूसरा लैंप जलाते हैं, फिर उससे उसके आगमन का कारण पूछते हैं। किन्तु मेगास्थनीज़ को तो यह देखकर घोर आश्चर्य हो रहा था कि पहले वाले लैंप को बुझाकर इन्होने दूसरा लैंप क्यों जलाया?
प्रधानमंत्री आचार्य चाणक्य कहते हैं, " जब आप आये थे, उस समय मैं सरकार
के काम (government work) कर रहा था, उस लैंप में सरकारी खर्च का तेल जल
रहा था। पर अभी आप मेरे मित्र के रूप में मुझसे मिलने आये हैं, तो अपने
निजी कार्य में सरकारी धन का उपयोग कैसे कर सकता हूँ ?" सरकारी धन तो केवल
प्रजा के हित में ही खर्च हो सकता है। क्योंकि
न्यायालय ने भी धर्म के आधार पर यह माना है कि "यदि राजा या
प्रधानमन्त्री, किसी सरकारी कर्मचारी ने भी अपने नीजी अथवा राजकार्य में इस
अनधिकार धन (या काला धन ) का प्रयोग किया तो राज्य
का भी अहित होगा।" तब इस देश में धर्म की ऐसी व्यवस्था थी? जहाँ 'अनाधिकार-धन' या 'Black-Money' को विषवत् मानकर, और अनिष्ट होने की आशंका से कोई छूना भी नहीं चाहता था? ग्रीक राजदूत (Ambassador) मेगास्थनीज़ तात्कालीन भारतवर्ष की राजधानी से सटे गाँव के किसानों तथा प्रधानमंत्री की ईमानदारी को देखकर तो ठगा सा रह गया था ! उस समयके भारतवर्ष में प्रधानमंत्री इतने ईमानदार हुआ करते थे ?
किन्तु
मेगास्थनीज़ के जाने के बाद एक हजार वर्षों की गुलामी और अंग्रेजो द्वारा थोपी गयी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति ने हमारे देश के
नागरिकों के चरित्र को इतना बिगाड़ दिया है कि आज के प्रधानमन्त्री हर घोटाले के अभियुक्त सिद्ध होने पर भी कुर्सी छोड़ना नहीं चाहते हैं। आज देश की राजधानी दिल्ली और उससे सटे गाँव जिसे NCR कहा जाता है, की क्या अवस्था है ? भारत अब भी 'अनाधिकार धन' या 'Black-Money' को विषवत् मानता है, इसीलिये अब हमारे चतुर-नेता गण काले धन को विदेशी बैंको में जमा करवा देते हैं। जिसके फलस्वरूप पूरे विश्व में अशांति-आतंकवाद आदि बुराइयाँ अपने पैर पसार रही हैं।
स्वामी विवेकानन्द ने परिव्राजक रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया था, तथा अपने हृदय से यह अनुभव किया था कि भारत एक धर्म-प्रधान देश है। तभी तो एक हजार वर्षों तक गुलाम रहने के बाद भी इस देश में प्रतिदिन पूजा के समय 192 करोड़ वर्ष की गणना के साथ इस प्रकार संकल्प किया जाता है- " ॐ विष्णु र्विष्णु र्विष्णु श्री मद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो राज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे तत्रादौ श्री श्वेत वाराह कल्पे सप्तमें वैवस्वतमन्वतरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे भारतवर्षे भरत खण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मा वर्तैक देशे कन्या कुमारिकानां क्षेत्रे......आदि।" इस समय सातवें वैवस्वत नामक मनवंतर का अट्ठाईसवां कलियुग है।
महाभारत का युद्ध समाप्त होने के 36 वर्षों बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महाप्रयाण किया। यह घटना ईस्वी सन प्रारंभ होने से 3102 वर्ष पहले की है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण भगवान के दिवंगत होते ही कलियुग प्रारंभ हो गया अर्थात ईस्वी सन् 2013 में कलियुग को प्रारंभ हुये 5115 वर्ष हो गये। जिसे युगाब्द या कलि संवत कहते हैं।भारत का दुर्भाग्य है कि एक जनवरी आते ही नववर्ष की शुभकामनाओं का तांता लग जाता है किन्तु अपने नव संवत्सर पर गर्व करने में हमें संकोच लगता है।
किन्तु हमारी समय गणना का आधार ईसा मसीह हो गये, इसे हम आजादी के सातवें दशक में भी बदल नहीं पाए क्योंकि अंग्रेजियत में रचे बसे पंडित नेहरू के हाथ में देश की बागडोर तो आ गयी किन्तु इंडियावादी दृष्टि से भारत को मुक्ति नहीं मिल सकी। इस लिये हमारे देश के लिये 2000 वर्ष कोई बहुत बड़ा काल नहीं है। पर जिनका इतिहास ही उनके ईश्वरदूत के जन्म से प्रारम्भ होता है उनके लिये ये बहुत ही बड़ी अवधि है। दूसरा उनकी कालगणना भी एकरेखीय होने के कारण उसमें परिवर्तन की एक ही दिशा देखी जा सकती है। भारतीय चिंतन दर्शन में काल और इतिहास में बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भाव है। जो वहां काल है। वही इतिहास है और जो इतिहास है, वहीं काल है। इनका अंगांगि-भाव सम्बन्ध है। बिना काल के इतिहास हो ही नहीं सकता।
स्वामी विवेकानन्द ने परिव्राजक रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष का भ्रमण किया था, तथा अपने हृदय से यह अनुभव किया था कि भारत एक धर्म-प्रधान देश है। तभी तो एक हजार वर्षों तक गुलाम रहने के बाद भी इस देश में प्रतिदिन पूजा के समय 192 करोड़ वर्ष की गणना के साथ इस प्रकार संकल्प किया जाता है- " ॐ विष्णु र्विष्णु र्विष्णु श्री मद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णो राज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्री ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे तत्रादौ श्री श्वेत वाराह कल्पे सप्तमें वैवस्वतमन्वतरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे भारतवर्षे भरत खण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मा वर्तैक देशे कन्या कुमारिकानां क्षेत्रे......आदि।" इस समय सातवें वैवस्वत नामक मनवंतर का अट्ठाईसवां कलियुग है।
महाभारत का युद्ध समाप्त होने के 36 वर्षों बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महाप्रयाण किया। यह घटना ईस्वी सन प्रारंभ होने से 3102 वर्ष पहले की है। मान्यता है कि श्रीकृष्ण भगवान के दिवंगत होते ही कलियुग प्रारंभ हो गया अर्थात ईस्वी सन् 2013 में कलियुग को प्रारंभ हुये 5115 वर्ष हो गये। जिसे युगाब्द या कलि संवत कहते हैं।भारत का दुर्भाग्य है कि एक जनवरी आते ही नववर्ष की शुभकामनाओं का तांता लग जाता है किन्तु अपने नव संवत्सर पर गर्व करने में हमें संकोच लगता है।
किन्तु हमारी समय गणना का आधार ईसा मसीह हो गये, इसे हम आजादी के सातवें दशक में भी बदल नहीं पाए क्योंकि अंग्रेजियत में रचे बसे पंडित नेहरू के हाथ में देश की बागडोर तो आ गयी किन्तु इंडियावादी दृष्टि से भारत को मुक्ति नहीं मिल सकी। इस लिये हमारे देश के लिये 2000 वर्ष कोई बहुत बड़ा काल नहीं है। पर जिनका इतिहास ही उनके ईश्वरदूत के जन्म से प्रारम्भ होता है उनके लिये ये बहुत ही बड़ी अवधि है। दूसरा उनकी कालगणना भी एकरेखीय होने के कारण उसमें परिवर्तन की एक ही दिशा देखी जा सकती है। भारतीय चिंतन दर्शन में काल और इतिहास में बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भाव है। जो वहां काल है। वही इतिहास है और जो इतिहास है, वहीं काल है। इनका अंगांगि-भाव सम्बन्ध है। बिना काल के इतिहास हो ही नहीं सकता।
भारत में कालगणना का आधार अधिक वैज्ञानिक है। कालगणना का आदि
है अतः हम कालचक्र की बात करते हैं और जानते हैं कि समय तो चक्रीय गति में
चलता है अतः इसमें परिवर्तन भी किसी चक्र की भाँति होता है। सत्ययुग के बाद
क्रमशः पतन होते हुए कलियुग आता है उसी प्रकार फिर उन्नति की सम्भावना भी
बनी रहती है और पुनः सत्ययुग का आगमन निश्चित है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" यदि हमलोग इस अवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, तो हमें यह समझना होगा कि युग परिवर्तन तो देश के नागरिकों के आन्तरिक जगत में परिवर्तन लाने से ही संभव हो सकता है।
भारत में निवास करने वाली प्रजा तो ऋषि-मुनियों की संतानें हैं, इन्हें ऐतेरेय ब्राह्मण के मन्त्र को सुनाकर युवाओं को कलियुग की मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा,यही स्वामीजी की योजना थी! और यही वह कार्य है, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी उनके गुरु श्रीरामकृष्ण ने स्वामी विवेकानन्द के उपर सौंपा था। पाश्चात्य भ्रमण के दौरान स्वामीजी ने स्पष्ट रूप से जान लिया था, कि " सभी सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाएँ (System) उससे जुड़े मनुष्यों के सदाचार और सच्चरित्रता के उपर ही निर्भर करती हैं। कोई भी राष्ट्र केवल इसलिए महान और अच्छा नहीं बन जाता कि उसके पार्लियामेंट ने यह या वह बिल पास कर दिया है,वरन इसलिए होता है कि उसके नागरिक महान और अच्छे हैं।" इसीलिए स्वामी विवेकानन्द ने भविष्य के गौरवशाली भारत का निर्माण-सूत्र दिया था-'Be and Make' अर्थात " तुम स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता करो।" यही वह पद्धति है जिसके द्वारा हमारे देश का 'राष्ट्रीय - चरित्र ' (National-character) भी पुनर्निर्मित हो सकता है। क्योंकि चरित्र मनुष्य को दो बड़े गुणों से विभूषित कर देता है,पहला-उसको
यह समझ में आ जाता है कि उसे स्वयं के साथ कैसा व्यव्हार करना चाहिए और
दूसरा-यह कि उसे दूसरों के साथ कैसा व्यव्हार करना चाहिए। पहला गुण है पवित्रता और दूसरा है नैतिकता या सदाचार । चरित्रगठन
हो जाने से मनुष्य को मनसा-वाचा-कर्मणा पवित्र रहने कि क्षमता स्वतः
प्राप्त हो जाती है; तथा अन्य मनुष्यों के साथ उसका व्यवहार भी स्वतः नैतिकतापूर्ण
हो जाता है।
स्वामीजी कहते हैं -" भाइयों !..अपने धर्म के उस केन्द्रवर्ती सत्य पर खड़े हो जाओ-जो हिन्दू, बौद्ध, जैन और सिख की साझी-पैत्रिक सम्पत्ति है। वह सत्य है मनुष्य की आत्मा ! जो अज,अविनाशी,सर्वव्यापी, अनन्त है-जिसकी महिमा वेद भी वर्णन नहीं कर सकते, जिसके वैभव के सामने सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड एक बिन्दुवत है।
प्रत्येक स्त्री-पुरुष यही नहीं समस्त प्राणियों में वही आत्मा,विकसित या अविकसित -या विकासशील अवस्था में है। अन्तर प्रकार में नहीं केवल परिमाण में है। आत्मा की इस शक्ति का प्रयोग जड़ वस्तु पर होने से भौतिक उन्नति होती है, विचार पर होने से बुद्धि का विकास होता है और अपने पर होने से मनुष्य ईश्वर (ब्रह्मरूप) बन जाता है। पहले हमें ईश्वर बन लेने दो। तत्पशचात दूसरों को ईश्वर बनाने में सहयता देंगे। बनो और बनाओ- " Be and Make " यही हमारा मूलमंत्र रहे ! "9/379
ईश्वरत्व की धारणा को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-
" निर्गुण ब्रह्म को हम नहीं जान सकते,अर्थात हम परम पिता-'God the Father' को नहीं जान सकते; किन्तु उसके पुत्र- ' God the Son' को जान सकते हैं।7/7 "
किन्तु उनको हम पहचाने कैसे ?- " बल क्या है ? यह बलवान व्यक्ति ही समझ सकता है, हाथी ही सिंह को समझ सकता है, चूहा नहीं। हम जब तक ईसा के समान नहीं हुए हैं, तब तक उन्हें किस प्रकार समझेंगे ?"7/104
" निर्गुण ब्रह्म को हम नहीं जान सकते,अर्थात हम परम पिता-'God the Father' को नहीं जान सकते; किन्तु उसके पुत्र- ' God the Son' को जान सकते हैं।7/7 "
किन्तु उनको हम पहचाने कैसे ?- " बल क्या है ? यह बलवान व्यक्ति ही समझ सकता है, हाथी ही सिंह को समझ सकता है, चूहा नहीं। हम जब तक ईसा के समान नहीं हुए हैं, तब तक उन्हें किस प्रकार समझेंगे ?"7/104
किसी भी व्यक्ति ने ईश्वर-पुत्र के माध्यम
बिना ईश्वर का साक्षात्कार नहीं किया है। जगत का सर्वव्यापी ईश भी तब तक
दृष्टिगोचर नहीं होता,जबतक ये महान शक्तिशाली दीपक, प्रकाश-स्तम्भ! ये
ईशदूत, ये पैगम्बर, ये उनके संदेशवाहक और अवतार, ये नर-नारायण उसे अपने में
प्रतिबिंबित नहीं करते। "
" ईश्वर सर्वव्यापी,निर्गुण और निराकार तत्व है,..जब इन महान ज्योतिर्मय आत्माओं का विश्व में आविर्भाव होता है, तभी मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार होता है।और हम जिस रूप में विश्व में पदार्पण करते हैं, वे उस प्रकार विश्व में नहीं आते।..हम नहीं जानते कि हमारे जीवन का अर्थ और उद्देश्य क्या है? अपने इस उद्देश्य-हीन जीवन में हम आज तो एक काम करते हैं, कल दूसरा।किन्तु विश्व के कल्याण के लिये जो अवतार हुए हैं,उनका कार्य प्रारंभ से ही निश्चित रहा है। चूँकि वे अपने जीवन के लिये एक कार्य लेकर आते हैं, अतः वे एक सन्देश भी लाते हैं; और उसके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क नहीं करते। वे तो सीधे शब्दों में सत्य को व्यक्त करना जानते है। उनमें सत्य के दर्शन करने की क्षमता है-और है उसे दूसरों को दिखाने का सामर्थ्य !" 7/179
" ईसा से जब लोगों ने पूछा-' प्रभु, हमें परम पिता परमेश्वर के दर्शन कराइये' तो ईसा ने कहा, " जिसने मुझे देख लिया है,उसने उस परम पिता को भी देख लिया।"
" ये अनन्त ज्योति के पुत्र-जिनमें ब्रह्म की ज्योति प्रकाशित है, जो स्वयं ब्रह्म ज्योति स्वरुप हैं, इनकी पूजा-अर्चना-आराधना करने पर, आराधित किये जाने पर वे हमारे साथ तादात्म्य भाव स्थापित कर लेते हैं, और हम भी उनके साथ एकत्व स्थापित कर लेते हैं।" 7/224
" मनुष्य की आन्तरिक अभीप्सा उस व्यक्ति को पाने के लिए होती है, जो प्रकृति के नियमों से परे हो। वेदान्ती ऐसे ही नित्य ईश्वर में विश्वास करता
है ! जबकि बौद्ध और सांख्य वादी केवल जन्येश्वर अर्थात वह ईश्वर जो, पहले मनुष्य था, और फिर आध्यात्मिक साधना द्वारा ईश्वर बना, में विश्वास करते हैं। पुराण इन दो मतवादों का समन्वय अवतारवाद द्वारा करते हैं। उनका कहना है कि जन्येश्वर भी नित्य ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं है, उसने माया से जन्येश्वर का रूप धारण कर लिया है। सांख्यवादियों का नित्य ईश्वर के प्रति यह तर्क कि ' एक जीवन्मुक्त आत्मा विश्व की रचना कैसे कर सकती है?', एक मिथ्या आधार पर आश्रित है, क्योंकि तुम एक मुक्तात्मा को कोई आदेश नहीं दे सकते। वह मुक्त है अर्थात वह जो चाहे कर सकता है। वेदान्त के अनुसार जन्येश्वर विश्व की रचना,पालन और संहार नहीं कर सकता है। " 8/92
" ईश्वर सर्वव्यापी,निर्गुण और निराकार तत्व है,..जब इन महान ज्योतिर्मय आत्माओं का विश्व में आविर्भाव होता है, तभी मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार होता है।और हम जिस रूप में विश्व में पदार्पण करते हैं, वे उस प्रकार विश्व में नहीं आते।..हम नहीं जानते कि हमारे जीवन का अर्थ और उद्देश्य क्या है? अपने इस उद्देश्य-हीन जीवन में हम आज तो एक काम करते हैं, कल दूसरा।किन्तु विश्व के कल्याण के लिये जो अवतार हुए हैं,उनका कार्य प्रारंभ से ही निश्चित रहा है। चूँकि वे अपने जीवन के लिये एक कार्य लेकर आते हैं, अतः वे एक सन्देश भी लाते हैं; और उसके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क नहीं करते। वे तो सीधे शब्दों में सत्य को व्यक्त करना जानते है। उनमें सत्य के दर्शन करने की क्षमता है-और है उसे दूसरों को दिखाने का सामर्थ्य !" 7/179
" महापुरुषत्व, अवतारत्व, ऋषित्व
या लौकिक विद्या में शूरत्व -सभी मनुष्यों में विद्यमान
है। जो व्यक्ति या समाज गुरु द्वारा प्रेरित है,वह अधिक वेग से उन्नति के
पथ पर अग्रसर होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु जो
समाज (या परिवार या राष्ट्र ) गुरुविहीन है, उसमें भी समय की गति के साथ
गुरु का उदय और ज्ञान का विकास होना उतना ही निश्चित है। " 10/160
" ईसा से जब लोगों ने पूछा-' प्रभु, हमें परम पिता परमेश्वर के दर्शन कराइये' तो ईसा ने कहा, " जिसने मुझे देख लिया है,उसने उस परम पिता को भी देख लिया।"
" ये अनन्त ज्योति के पुत्र-जिनमें ब्रह्म की ज्योति प्रकाशित है, जो स्वयं ब्रह्म ज्योति स्वरुप हैं, इनकी पूजा-अर्चना-आराधना करने पर, आराधित किये जाने पर वे हमारे साथ तादात्म्य भाव स्थापित कर लेते हैं, और हम भी उनके साथ एकत्व स्थापित कर लेते हैं।" 7/224
" मनुष्य की आन्तरिक अभीप्सा उस व्यक्ति को पाने के लिए होती है, जो प्रकृति के नियमों से परे हो। वेदान्ती ऐसे ही नित्य ईश्वर में विश्वास करता
है ! जबकि बौद्ध और सांख्य वादी केवल जन्येश्वर अर्थात वह ईश्वर जो, पहले मनुष्य था, और फिर आध्यात्मिक साधना द्वारा ईश्वर बना, में विश्वास करते हैं। पुराण इन दो मतवादों का समन्वय अवतारवाद द्वारा करते हैं। उनका कहना है कि जन्येश्वर भी नित्य ईश्वर के सिवा और कुछ नहीं है, उसने माया से जन्येश्वर का रूप धारण कर लिया है। सांख्यवादियों का नित्य ईश्वर के प्रति यह तर्क कि ' एक जीवन्मुक्त आत्मा विश्व की रचना कैसे कर सकती है?', एक मिथ्या आधार पर आश्रित है, क्योंकि तुम एक मुक्तात्मा को कोई आदेश नहीं दे सकते। वह मुक्त है अर्थात वह जो चाहे कर सकता है। वेदान्त के अनुसार जन्येश्वर विश्व की रचना,पालन और संहार नहीं कर सकता है। " 8/92
" हममें ऐसा कौन है,जो ईश्वर की मानव के अतिरिक्त अन्य भाव में कल्पना कर सकता है ?7/179"
"..दो डबल रोटियों में 5000 लोग खायें, अथवा पाँच डबल रोटियों में दो व्यक्ति खायें, ये दोनों बाते माया के राज्य के अन्तर्गत हैं। इनमें कोई भी सत्य नहीं है। तुम अपनी आत्मा के उपर स्थिर रहो। मृत शरीर के साथ चाहे जैसा भी व्यवहार क्यों न करो,उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। हमें अपने शरीर को इसी प्रकार मृतवत रखना होगा; और उसके साथ हमारा जो अभिन्न भाव रहता है,उसे दूर करना होगा। "(7/104-5) )
"..दो डबल रोटियों में 5000 लोग खायें, अथवा पाँच डबल रोटियों में दो व्यक्ति खायें, ये दोनों बाते माया के राज्य के अन्तर्गत हैं। इनमें कोई भी सत्य नहीं है। तुम अपनी आत्मा के उपर स्थिर रहो। मृत शरीर के साथ चाहे जैसा भी व्यवहार क्यों न करो,उसमें कोई बाधा उपस्थित नहीं होती। हमें अपने शरीर को इसी प्रकार मृतवत रखना होगा; और उसके साथ हमारा जो अभिन्न भाव रहता है,उसे दूर करना होगा। "(7/104-5) )
धर्म का ये व्यवस्थागत अर्थ समझना सबसे अधिक आवश्यक है। धर्म केवल
व्यक्तिगत जीवन को सुव्यवस्थित करने का ही उपाय नहीं है वास्तविकता में यह
ऐसी सामाजिक व्यवस्था को स्थापित करने का नाम है जिसमे सबका हित हो।जिसका प्रभाव बाहयजगत में पड़ने से देश के नागरिकों का जीवन वैसा बन जाता है,जैसा युनानी विद्वान मेगास्थनीज़ को पाटलिपुत्र के गाँव में देखने को मौका मिला था।
धर्म के अनुसार मानव के सर्वतोमुखी-विकास (integrated-development) के दो अंग है – अभ्युदय तथा निःश्रेयस। अभ्युदय का अर्थ है पूर्ण उदय। अभि उपसर्ग लगाने से उदय के बाहरी व सर्वतोमूखी होने का अर्थ निकलता है। अभि + उदय = अभ्युदय अर्थात पूर्ण भौतिक विकास; इसी ' पूर्ण ' के अन्तर्गत में संवेदना भी आ जाती है। अतः, अभ्युदय का तात्पर्य आधुनिक जीवन में मानव का एकांगी विकास या बाहरी विकास जैसा कि हम देखते है, केवल उतना ही नहीं है। ना ही यह केवल आर्थिक विकास है। अभ्युदय वास्तविक विकास का नाम है, दिखावे का नहीं। इसमें केवल आंकड़ेबाजी नहीं है। इसमें केवल अपने लिये नहीं सब के लिये, यर्थाथ- वीरता से पृथ्वि का दोहन कर धन, सम्पदा और इससे भी अधिक गहन ‘श्री’ का उत्पादन किया जाता है। यह दोनों मिलकर धर्म को परिभाषित करते है। कणादऋषी (वैशेषिकदर्शन, अध्याय १, आह्निक १, सूत्र २) में धर्म को परिभाषित करते हैं -
धर्म के अनुसार मानव के सर्वतोमुखी-विकास (integrated-development) के दो अंग है – अभ्युदय तथा निःश्रेयस। अभ्युदय का अर्थ है पूर्ण उदय। अभि उपसर्ग लगाने से उदय के बाहरी व सर्वतोमूखी होने का अर्थ निकलता है। अभि + उदय = अभ्युदय अर्थात पूर्ण भौतिक विकास; इसी ' पूर्ण ' के अन्तर्गत में संवेदना भी आ जाती है। अतः, अभ्युदय का तात्पर्य आधुनिक जीवन में मानव का एकांगी विकास या बाहरी विकास जैसा कि हम देखते है, केवल उतना ही नहीं है। ना ही यह केवल आर्थिक विकास है। अभ्युदय वास्तविक विकास का नाम है, दिखावे का नहीं। इसमें केवल आंकड़ेबाजी नहीं है। इसमें केवल अपने लिये नहीं सब के लिये, यर्थाथ- वीरता से पृथ्वि का दोहन कर धन, सम्पदा और इससे भी अधिक गहन ‘श्री’ का उत्पादन किया जाता है। यह दोनों मिलकर धर्म को परिभाषित करते है। कणादऋषी (वैशेषिकदर्शन, अध्याय १, आह्निक १, सूत्र २) में धर्म को परिभाषित करते हैं -
यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ।
– जिससे अभ्युदय (अर्थात ऐहिक उन्नति, जिसमें स्वास्थ्य,
विद्या, संपत्ति, संतति तथा एकता, इन बातोंका समावेश है ।) साध्य होता है और
‘निःश्रेयस’
अर्थात ‘मोक्षप्राप्ति’ करवाता है।अर्थात जिसका पालन करने से ‘लौकिक एवं पारलौकिक ' जीवन अच्छा (श्रेष्ठ) बनता है, उसे ‘धर्म’ कहते हैं। आदि शंकराचार्य (श्रीमद्भगवद्गीताभाष्यका उपोद्घात) में कहते हैं -
जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षात्
अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुर्यः स धर्मः ।
अर्थ : जिसे धारण करने से, संपूर्ण जगतकी स्थिति एवं व्यवस्था उत्तम रहती
है, प्रत्येक प्राणिका अभ्युदय, अर्थात ऐहिक उन्नति होती है एवं पारलौकिक
उन्नति, अर्थात मोक्ष प्राप्त होता है, उसे ‘धर्म’ कहते हैं । इन दो व्याख्याओंका एक लक्षांश भाग क्या अन्य धर्मों में भी है ?
आगे बढ़ने की प्रेरणा धर्म है, जिससे अभ्युदय और परम और विश्वव्यापी कल्याण हो वह धर्म है। धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। धर्मकी उत्पत्ति ईश्वरने की है । अतः,‘धर्म’ ईश्वरकी प्राप्ति करवाता है। इसके विपरीत, मानवनिर्मित पंथोंको ईश्वरका सामान्य परिचय भी न होनेके कारण वे व्यक्तिको ईश्वरसे दूर ले जाते हैं ।आगे बढ़ने की प्रेरणा धर्म है, ‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयःसंसिद्धि स धर्मः’जिससे अभ्युदय और परम और विश्वव्यापी कल्याण हो वह धर्म है। धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। व्यास का यह वाक्य
आगे बढ़ने की प्रेरणा धर्म है, जिससे अभ्युदय और परम और विश्वव्यापी कल्याण हो वह धर्म है। धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। धर्मकी उत्पत्ति ईश्वरने की है । अतः,‘धर्म’ ईश्वरकी प्राप्ति करवाता है। इसके विपरीत, मानवनिर्मित पंथोंको ईश्वरका सामान्य परिचय भी न होनेके कारण वे व्यक्तिको ईश्वरसे दूर ले जाते हैं ।आगे बढ़ने की प्रेरणा धर्म है, ‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयःसंसिद्धि स धर्मः’जिससे अभ्युदय और परम और विश्वव्यापी कल्याण हो वह धर्म है। धर्म व्यक्ति और समाज दोनों में समरसता स्थापित करने वाला माध्यम है। व्यास का यह वाक्य
‘ऊध्र्वबाहुर्विरौम्येष न च कश्चित श्रृणोति माम,
धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते?’
(स्वर्गारोहण पर्व 5.62ष्।)
अर्थात ‘मैं अपनी बाहें उठाकर लोगों को समझा रहा हूं कि धर्म से ही अर्थ
और काम की भी प्राप्ति होती है, इसलिए क्यों नहीं धर्म के मार्ग पर चलते?
पर मेरी कोई सुनता ही नहीं।’ धर्म की जिस दुरवस्था पर वेदव्यास सरीखा क्रांतदर्शी कवि रो रहा है (‘विरौमि’ष्) वह धर्म क्या है? हमारे देश के पश्चिम प्रेरित महा-ब्राह्मण (क्षद्म-धर्मनिरपेक्ष लोग-' मुल्लायम,नितीश,राहुलगाँधी ' जैसे pseudo-secularist) चाहते हैं कि हम अपने वेदान्त को भूल जाएं। भला कैसे भूल जाएं? क्या वेदव्यास को भूल जाएं?
क्या हम इतने दयनीय हो गए हैं कि अपना खजाना भूलकर भीख मांगने के लिए कटोरा हाथ में लेकर निकल पड़ें? वेदव्यास कहते हैं कि धर्म की रक्षा करोगे तो वह आपकी रक्षा करेगा-धर्मो रक्षति रक्षितः (वनपर्व 30.8।) यह वाक्य देश के करोड़ों भारतीयों को याद है।
आश्वमेधिक पर्व (92ष्में व्यास कहते हैं कि धर्म पर आचरण करने से धर्म में बढ़ोतरी होती है। वे कहते हैं- धर्म से बढ़कर फायदेमन्द चीज जीवन में और क्या है? न धर्मात परमो लाभः (अनुशासन पर्व 106.65)। धर्म क्या है, यह ठीक-ठीक बता पाना किसी के बस की बात नहीं है क्योंकि वह अतिसूक्ष्म है और इसलिए उसे जानना आसान नहीं- सूक्ष्मो धर्मो दुर्विदश्च (कर्णपर्व, 70. 28)। पर इस सबके बावजूद व्यासदेव का उसी कर्णपर्व (69.58ष् में भरपूर आग्रह है कि धर्म के कारण ही प्रजा खुद को बचाकर रख पाती है, इसलिए धर्म वही है जो हमें बचे रहने में मदद करे- ‘धारणाद् धर्ममित्याहुः धर्मो धारयते प्रजाः।
महाभारतकालीन हमारे पूर्वजों ने ऐसा क्या-क्या आचरण किया जो धर्म की हमारी समझ से मेल नहीं खाता।महाभारत काल था ही ऐसा तनावों से भरा समय, कि तबके हमारे पूर्वज इस तरह का व्यवहार कर रहे थे कि जिस पर सवाल-दर सवाल खड़े हो सकते हैं। युधिष्ठिर सब कुछ हारने का खतरा उठाकर भी जुआ खेलते हैं, क्योंकि वैसा करना पिता समान धृतराष्ट्र की आज्ञा है और पिता की आज्ञा का पालन करना धर्म है, जबकि कृष्ण साफ कहते हैं कि अगर वे तब हस्तिनापुर में होते, तो जुआ कभी नहीं होने देते (वनपर्व, अध्याय 13ष्। व्यवहार और मर्यादा में फर्क का नमूना इससे बढ़कर और क्या हो सकता है?इसलिए कृष्ण के जैसा, अपने समय का सर्वप्रिय व्यक्तित्व पाकर भी युधिष्ठिर कृष्ण के नहीं, राम के पाले में खडे़ नजर आते हैं। कृष्ण योगेश्वर हैं, पर राम तो मर्यादा फरुषोत्तम हैं। राम की ही परम्परा में युधिष्ठिर धर्मराज हैं। मर्यादा और धर्म चूंकि एक स्तर पर आकर पर्यायवाची बन जाते हैं, इसलिए राम और युधिष्ठिर भी एक ही वर्ग के दो महापुरुष नजर आते हैं। बस, विडम्बना इतनी भर है कि मर्यादा के बजाए व्यावहारिकता को धर्म मानकर उसी को फैसलों का आधार बनाने वाले कृष्ण सरीखे महानायक प्रखर तेजस्वी बनकर उभरकर सामने आते हैं तो मर्यादा की कसौटी पर सौ टंच खरा उतरने के इच्छुक महापुरुषों को वैसी प्रखरता नहीं मिल पाती।
पर चूंकि प्रखरता कोई एकमात्र काम्य वस्तु नहीं है, इसलिए व्यावहारिकता के बजाए मर्यादा के मानदंड कायम करने वालों की भी पूजा इस देश ने कम नहीं की है। युधिष्ठिर का अर्थ यही है कि तनावों के झंझावत में भी, क्यों न धर्म और मर्यादा के सहारे एक संतुलित जीवन जिया जाए। शायद वेदव्यास के धर्मलोप संबंधी एकाकी विलाप का कारण भी यही नजर आता है कि वे हर मनुष्य में युधिष्ठिर की तस्वीर देखना चाहते थे, पर इस पूरे झंझावती युग में उन्हें अकेले युधिष्ठिर ही ऐसे नजर आए, जो उनके मानदंडों पर खरा उतर पा रहे थे। इसीलिए वेदव्यास ने उन्हें धर्मराज बनाया, तो सारा भारत आज तक उन्हें वैसा मानता चला आ रहा है।
अनुशासनपर्व (5.24ष् में व्यासदेव कहते हैं- ‘अनुक्रोशो हि साधूनां महद् धर्मस्य लक्षणम’। यानी दूसरों पर दया करना ही सबसे बड़ा धर्म है। कर्णपर्व (69.57ष् में कहा है कि अहिंसा ही धर्म है- ‘अहिंसार्थाय भूताना धर्मप्रवचनं कृतम’। फिर अनुशासनपर्व (104.9ष् में अच्छे आचरण को धर्म माना है। वनपर्व (313.76ष् और अनुशासनपर्व (47.20ष् में ‘आनृशंस्यं परोधर्मः’ कहकर करुणा को बड़ा धर्म कह दिया है। फिर वनपर्व (2.75ष् में दशलक्षण धर्म की परवर्ती शैली में अष्टविध, आठ तरह के धर्म का विवरण है- ‘इज्याध्ययनदाननि तपः सत्यं क्षमा दमः, अलोभ इति मार्गोयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः’ अर्थात धर्म आठ तरह का बताया गया है- यज्ञ, अध्ययन, दान, तपस्या, सत्य, क्षमा, दम और अलोभ। यही धर्म है।
अर्थ और काम की आधार-रेखा के लिए धर्म ही शीर्षबिन्दु है और सुघटित समाज
के लिए तीनों का समत्रिकोण अत्यावश्यक है। कितना गहरा फर्क है पश्चिम
के धर्म यानी रिलीजन और भारत के धर्म यानी सामाजिक मर्यादा में?
इस संदर्भ में आंकेंगे, तो हमें पुत्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, देशधर्म, मनुष्यधर्म, पड़ोसीधर्म और इस तरह के हर धर्म का अर्थ समझ में आने लगेगा। इसी दृष्टि से देखेंगे, तो धर्म मर्यादा और सदाचरण के तमाम मानदण्डों को तोड़ने में मजा लेने वाले महाभारतकाल के उस तनावभरे और मर्यादाहीन समाज में महाराज युधिष्ठिर को धर्मराज कहलाया जाना, सटीक और अर्थपूर्ण नजर आएगा।
पश्चिम के, मार्क्सवाद और इस्लाम के प्रभाव के परिणामस्वरूप हमने धर्म की अपनी भारतीय अवधारणा को ही बिसार दिया है। पश्चिम, मार्क्सवाद और इस्लाम, एक अजीब सा वर्गीकरण है यह। अजीब इसलिए कि इस्लाम भी भारत के पश्चिम से ही भारत में आया, माक्र्सवाद का जन्म भी पश्चिम में हुआ और पश्चिम, यानी यूरोप और अमेरिका इत्यादि तो हमारे लिए पश्चिम हैं ही।
इस पूरे पश्चिम में धर्म की अवधारणा ऐसी है जो भारत की धर्म की अवधारणा से कतई मेल नहीं खाती, पर पश्चिम और पश्चिम प्रभावित हमारे देश के पढ़े-लिखे लोगों द्वारा, हम पर इस कदर थोप दी गई है कि हम धर्म शब्द की अपनी अवधारणा को ही भुला बैठे हैं। पश्चिम ने हमें समझा दिया कि धर्म का अर्थ है रिलीजन। ईसाइयत एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। इस्लाम एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। अगर धर्म की परिभाषा, उसका स्वरूप निर्धारण इस आधार पर होना है तो यकीनन भारत में कोई रिलीजन है ही नहीं, क्योंकि वैसा कोई धर्म भारत में है ही नहीं।
इस संदर्भ में आंकेंगे, तो हमें पुत्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, देशधर्म, मनुष्यधर्म, पड़ोसीधर्म और इस तरह के हर धर्म का अर्थ समझ में आने लगेगा। इसी दृष्टि से देखेंगे, तो धर्म मर्यादा और सदाचरण के तमाम मानदण्डों को तोड़ने में मजा लेने वाले महाभारतकाल के उस तनावभरे और मर्यादाहीन समाज में महाराज युधिष्ठिर को धर्मराज कहलाया जाना, सटीक और अर्थपूर्ण नजर आएगा।
पश्चिम के, मार्क्सवाद और इस्लाम के प्रभाव के परिणामस्वरूप हमने धर्म की अपनी भारतीय अवधारणा को ही बिसार दिया है। पश्चिम, मार्क्सवाद और इस्लाम, एक अजीब सा वर्गीकरण है यह। अजीब इसलिए कि इस्लाम भी भारत के पश्चिम से ही भारत में आया, माक्र्सवाद का जन्म भी पश्चिम में हुआ और पश्चिम, यानी यूरोप और अमेरिका इत्यादि तो हमारे लिए पश्चिम हैं ही।
इस पूरे पश्चिम में धर्म की अवधारणा ऐसी है जो भारत की धर्म की अवधारणा से कतई मेल नहीं खाती, पर पश्चिम और पश्चिम प्रभावित हमारे देश के पढ़े-लिखे लोगों द्वारा, हम पर इस कदर थोप दी गई है कि हम धर्म शब्द की अपनी अवधारणा को ही भुला बैठे हैं। पश्चिम ने हमें समझा दिया कि धर्म का अर्थ है रिलीजन। ईसाइयत एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। इस्लाम एक रिलीजन है, यानी पश्चिम के हिसाब से एक धर्म है। अगर धर्म की परिभाषा, उसका स्वरूप निर्धारण इस आधार पर होना है तो यकीनन भारत में कोई रिलीजन है ही नहीं, क्योंकि वैसा कोई धर्म भारत में है ही नहीं।
पाश्चात्य में धर्म की स्थापना कोई एक ऐसा व्यक्ति करता है, जो ईश्वर का
कोई एकमात्र पुत्र है या कोई अंतिम पैगम्बर है। फिर अपने धर्म को किसी धर्मग्रन्थ के आधार पर परिभाषित करता है और
उसी के आधार पर पनपता है, फलता-फूलता है, कि उस धर्म को मानने वाले सभी एक
ही प्रकार से ईश्वर की आराधना करते हैं।
यहां एक गैप है और यकीनन बहुत बड़ा गैप है। उस बहुत बड़े और
अर्थ का अनर्थ कर देने की सम्भावना से भरपूर गैप का कारण, अगर एक ही धारणा
में कहा जाए तो वह यह है कि जहां भारत के बुद्धिजीवी का धर्म-ज्ञान पश्चिम
और सिर्फ पश्चिम से प्रभावित है, वहीं आम हिन्दुस्तानी का धर्म-ज्ञान भारत
और सिर्फ भारत की परम्परा और विरासत से प्रभावित है। इसीलिये रिलीजन या मजहब शब्द का समानार्थक पर्यायवाची शब्द भारत में भी होने या ढूंढने का आग्रह पालना मूर्खता है। इसका निकटतम कोई शब्द अगर है तो वह शब्द है, ‘सम्प्रदाय’।
हम पश्चिम के असर की वजह से बौद्ध धर्म, जैन धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म, शाक्त धर्म, सिख धर्म, वगैरह कहने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। और हमारे भ्रष्ट किन्तु तथाकथित सेक्युलर राजनीतिज्ञ लोग (मुल्लायम, नितीश,दिग्गीराजा आदि ) राजनीतिक घोषणा करते फूले नहीं समाते कि भारत अनेक धर्मों का देश है ! किन्तु भारत के ज्ञान, अध्यात्म और पौराणिक परंपरा के हिसाब से, रूहानियत (आध्यात्मिकता) और मजहब या रिलिजन (जिसे किसी पैगम्बर ने स्थापित किया हो ) में कोई समानता नहीं है। क्योंकि रूहानियत (अद्वैत-अनुभूति ) या सम्पूर्ण मानवता के साथ एकत्व की अनुभूति किसी एक पैगम्बर की बपौती नहीं हो सकती। कोई अपने को मानव-जाती का अंतिम नेता या मार्गदर्शक कैसे कह सकता है ?
जिस प्रकार हम अपना परिचय वेदान्त सम्प्रदाय, मीमांसा सम्प्रदाय, रामानुज सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, सांख्य सम्प्रदाय, वैशेषिक सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय, जैन सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, शाक्त सम्प्रदाय, सिख सम्प्रदाय, आदि से देते हैं, उसी प्रकार हमलोग सूफ़ी सम्प्रदाय या सिया-सुन्नी सम्प्रदाय के अनुयायियों को इस्लामी-सम्प्रदाय के अन्तर्गत समझ सकते हैं। किन्तु धर्म का पर्यायवाची शब्द मजहब या रिलीजन नहीं हो सकता है, रूहानियत (या आध्यात्मिकता) कहा जा सकता है। इसलिए भारत के सन्दर्भ में, उसके आध्यात्मिक (या रूहानी) व्यक्तित्व की सही परिभाषा के सन्दर्भ में, यही वक्तव्य देना उचित है कि भारत विभिन्न सम्प्रदायों का देश है, बजाए यह कहने के कि भारत विभिन्न धर्मों का देश है।
हम पश्चिम के असर की वजह से बौद्ध धर्म, जैन धर्म, शैव धर्म, वैष्णव धर्म, शाक्त धर्म, सिख धर्म, वगैरह कहने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। और हमारे भ्रष्ट किन्तु तथाकथित सेक्युलर राजनीतिज्ञ लोग (मुल्लायम, नितीश,दिग्गीराजा आदि ) राजनीतिक घोषणा करते फूले नहीं समाते कि भारत अनेक धर्मों का देश है ! किन्तु भारत के ज्ञान, अध्यात्म और पौराणिक परंपरा के हिसाब से, रूहानियत (आध्यात्मिकता) और मजहब या रिलिजन (जिसे किसी पैगम्बर ने स्थापित किया हो ) में कोई समानता नहीं है। क्योंकि रूहानियत (अद्वैत-अनुभूति ) या सम्पूर्ण मानवता के साथ एकत्व की अनुभूति किसी एक पैगम्बर की बपौती नहीं हो सकती। कोई अपने को मानव-जाती का अंतिम नेता या मार्गदर्शक कैसे कह सकता है ?
जिस प्रकार हम अपना परिचय वेदान्त सम्प्रदाय, मीमांसा सम्प्रदाय, रामानुज सम्प्रदाय, निम्बार्क सम्प्रदाय, सांख्य सम्प्रदाय, वैशेषिक सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय, जैन सम्प्रदाय, शैव सम्प्रदाय, वैष्णव सम्प्रदाय, शाक्त सम्प्रदाय, सिख सम्प्रदाय, आदि से देते हैं, उसी प्रकार हमलोग सूफ़ी सम्प्रदाय या सिया-सुन्नी सम्प्रदाय के अनुयायियों को इस्लामी-सम्प्रदाय के अन्तर्गत समझ सकते हैं। किन्तु धर्म का पर्यायवाची शब्द मजहब या रिलीजन नहीं हो सकता है, रूहानियत (या आध्यात्मिकता) कहा जा सकता है। इसलिए भारत के सन्दर्भ में, उसके आध्यात्मिक (या रूहानी) व्यक्तित्व की सही परिभाषा के सन्दर्भ में, यही वक्तव्य देना उचित है कि भारत विभिन्न सम्प्रदायों का देश है, बजाए यह कहने के कि भारत विभिन्न धर्मों का देश है।
आशपाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहर्थेकामभोगार्थम् अन्यायेनार्थ संचयान्।। गी 16.12।।
- बिना धर्म के नियन्त्रण के अर्थ व काम पुरुषार्थ के पीछे पागल होनेवाले आसुरी वृत्ति के लोग सैंकड़ों ईच्छारुपी आशा के पाश में बन्धें काम और क्रोध में फँस जाते है। और लौकिक जीवन में भोग करने की इच्छा से अन्याय पूर्वक अर्थात शोषण से अर्थ का संचय करते है। ऋण लेकर घी पीने की वकालत करने वाले चार्वाक की तरह ये आसुरी लोभी (भ्रष्ट किन्तु अपने को क्षद्म सेक्युलर समझने वाली) व्यवस्था धर्महीन अर्थ (काला -धन ) के दुश्चक्र में फँस जाती है। यह अभ्युदय को ना समझने का परिणाम है, अधर्म है। गीता इस दुश्चक्र का स्पष्ट वर्णन करती है-
इदम् अद्य मया लब्धं, इमं प्राप्स्ये मनोरथं।
इदम् अस्ति इदम् अपि मे भविष्यति पुनर्धनं।। गी 16.13।।
यह अभी मुझे मिल गया पर जो नहीं मिला वो भी पाने की मन में इच्छा है बिना
उसके लिये कष्ट किये। फिर ये मेरा है, ये और मेरा होगा ऐसे धन को फिर फिर
कैसे बनाया जाय। ऋण पत्र (Credit Cards), वायदा कारोबार (Speculative
Commodity Market) तथा पुंजी बाजार (Share Market) यह सब जुए के ही
वैधानिक रुप है।
सामान्यतः निःश्रेयस को आध्यात्मिक विकास कह दिया जाता है। निः श्रेयस्, हम सबको श्री की ओर ले जाने वाला। श्रेय को हमने पिछले
प्रकरणों में विस्तार से समझा है। यहाँ व्यक्तिगत श्रेय की बात नहीं यह
अंतिम कल्याण की बात है। इसीलिये इसको आध्यात्म से जोड़कर भी देख जाता है।
किन्तु धर्म के अंग के रुप में इसको समझने में हमे ठीक से इसकी व्याख्या
करनी होगी। श्रेयस् अर्थात श्री की ओर ले जाने वाला। पर इसका परिपूर्ण रुप,
अंतिम स्वरुप निःश्रेयस इसको कैसे समझेंगे। यहाँ हमे अपने 'स्व' की संकल्पना
को ठीक से समझना होगा। स्व के सतत् विस्तारित होनवाले अखण्डमण्डल स्वरूप
का साक्षत्कार ही निःश्रेयस है। यह अनुभूति हमें मानव के एकात्म स्वरुप का
दर्शन कराती है। जिसे गीता में अविभक्त कहा है।
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते।
अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकं।।गी 18.20।।
जो कुछ भी अस्तीत्व में है, बना है उसे भूत कहते है। भू- भवति इस संस्कृत
धातु का यह रुप है। इस सब में एक, अव्यय अर्थात अखण्ड, बिना किसी भी क्षति
के एक भाव को ईक्षते- अर्थात देखना ही सच्चा, सात्विक ज्ञान है। बाहर से
विभक्त अर्थात बिखरे, असम्बद्ध दिखाई देनेवाले जगत को अविभक्त अर्थात एक
अखण्ड देखना ही ज्ञान है। इस ज्ञान की अनुभूति ही निःश्रेयस है। इस मानव के
तथा जगत के एकात्म स्वरुप को देखे बिना अभ्युदय की परिकल्पना ही नहीं की
जा सकती।
अपनी गहन अन्तर्दृष्टि से ऋषियों ने जिस सत्य को देख लिया था और उसपर
आधारित आदर्श व्यवस्था धर्म का मार्ग भी समय समय पर प्रशस्त किया था। भारत
में इसे धर्म कहा। अभ्युदय व निःश्रेयस का समन्वित, संतुलित तथा समुचित
अनुपालन इसे एक शब्द में समुत्कर्ष कहा गया। सम्यक उत्कर्ष अर्थात भौतिक,
आर्थिक, बाह्य विकास के साथ ही सबके कल्याण का भी उचित ध्यान यह धर्म की
व्यवस्थागत परिभाषा है। जब धर्मराज्य की बात होती है तो धर्म के इस अर्थ की बात हो रही होती है। वर्तमान समय में अक्षय विकास (Sustainable Development), समग्र विकास
(Holistic Development) तथा जैव विकास (Organic Development) जैसी शब्दावली
का तो चलन हो गया है किन्तु इसके वास्तविक स्वरुप सनातन धर्म के वर्तमान
में समुचित युगधर्म का विकास होना अभी बाकी है।
यह भारत के ' हिन्दू,बौद्ध,जैन,सिख और सूफ़ी सम्प्रदाय ' का वैश्विक कर्तव्य है – धर्माधारित (अर्थात मजहब नहीं, रूहानियत-आधारित ) व्यवस्था की स्थापना कर जगत का मार्गदर्शन करना। अविश्वास व व्यक्तिगत अधिकार के स्थान पर विश्वास व कर्तव्य पर आधृत संविधान से प्रारम्भ कर सभी न्यायिक, प्रशासनिक व्यवस्थाओं में वर्तमान युगानुकूल धर्म को स्थापित करने हेतु सम्यक अनुसंधान करने में समर्थ आधुनिक युवा ऋषि चाहिये।किन्तु ऋषियों की भूमि में गहन, मौलिक सत्य का अनुसंधान करने का साहस आज युवाओं में कम ही देखने को मिल रहा है।
यह भारत के ' हिन्दू,बौद्ध,जैन,सिख और सूफ़ी सम्प्रदाय ' का वैश्विक कर्तव्य है – धर्माधारित (अर्थात मजहब नहीं, रूहानियत-आधारित ) व्यवस्था की स्थापना कर जगत का मार्गदर्शन करना। अविश्वास व व्यक्तिगत अधिकार के स्थान पर विश्वास व कर्तव्य पर आधृत संविधान से प्रारम्भ कर सभी न्यायिक, प्रशासनिक व्यवस्थाओं में वर्तमान युगानुकूल धर्म को स्थापित करने हेतु सम्यक अनुसंधान करने में समर्थ आधुनिक युवा ऋषि चाहिये।किन्तु ऋषियों की भूमि में गहन, मौलिक सत्य का अनुसंधान करने का साहस आज युवाओं में कम ही देखने को मिल रहा है।
मेगास्थनीज के समय में ऐसी धर्म की व्यवस्था इस देश में थी? इस बात को पढ़कर किस भारत वासी का सीना चौड़ा नहीं होगा ? किन्तु भारत में भ्रष्टाचार आज इतना कैसे और क्यों बढ़ गया ?
इस बात पर चिंतन करने से यही समझ में आता है कि, पूर्वकाल में जब तक आचार्य चाणक्य जैसे लोग भारत के प्रधानमंत्री हुआ करते थे, तब यहाँ की शिक्षापद्धति में जीवन-मूल्यों पर अधिक बल दिया जाता था। यहाँ की शिक्षा मनुष्यनिर्माणकारी और चरित्र निर्माण कारी हुआ करती थी। जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति - डॉक्टर, इंजीनियर, " क्लर्क और सीनियर क्लर्क" जिसे आजकल - " I.A.S, I.F.S " कहते हैं, तो बनाती है,किन्तु 'मनुष्य' बनाने पर कोई ध्यान नहीं देती है।
जिसके परिणाम स्वरूप कुछ ' कलर्क के यहाँ से 50 करोड़ की काली कमाई और कुछ सीनियर क्लर्क के यहाँ से 100 करोड़ से लेकर300 करोड़, सरकारी कम्पाउण्डर के यहाँ से २०० करोड़' तक का काला-धन मिलता है। किस राजनैतिक पार्टी ने ऐसी गलती की है? इसको खोजने पर अपना समय नहीं बर्बाद कर हमें यह सोचना चाहिए कि गलती कहाँ हुई ?
इतालवी पुनर्जागरण काल में ' मानव-धर्म ' क्या है ? इसको समझे बिना ही 'सेक्युलर शिक्षा' -अर्थात जिसमें पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने की कोई व्यवस्था नहीं होती,को लागु कर दिया गया।
उपर से देखने पर सभी मनुष्य एक जैसे दीखते हैं, इसीलिए बिना चरित्र-निर्माण किये ही सभी मनुष्यों को समान अधिकार मिले ! इसको ही 'मानववादी' दृष्टिकोण समझ लिया गया और यह विचार मार्क्सवाद के रूप और अधिक प्रचलित हो गया।
उपर से देखने पर सभी मनुष्य एक जैसे दीखते हैं, इसीलिए बिना चरित्र-निर्माण किये ही सभी मनुष्यों को समान अधिकार मिले ! इसको ही 'मानववादी' दृष्टिकोण समझ लिया गया और यह विचार मार्क्सवाद के रूप और अधिक प्रचलित हो गया।
फिर जात-धर्म में विद्वेष के आधार बंटे हुए भारतवर्ष को अंगेजों ने गुलाम बना लिया और उसी शिक्षा पद्धति को भारत के उपर थोप दिया गया। और आजाद भारत में भी कोई अपनी शिक्षापद्धति नहीं बनी जिसमे भारत के सनातन सिद्धांतों, भरतीय संस्कृति को पढ़ने की व्यवस्था हो। और इसीका परिणाम है की लन्दन स्कुल ऑफ़ इकोनोमिक्स में पढ़े नेता भी देश की चिंता किये बिना, बड़े बड़े घोटालों को अंजाम देते देखे जा रहे हैं।
किन्तु अंग्रेजो द्वारा थोपी गयी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति ने हमारे देश के नागरिकों के चरित्र को इतना बिगाड़ दिया है कि भ्रष्टाचार कैंसर की तरह पूरे सिस्टम में फ़ैल चूका है। आज देश की राजधानी में महिलाएं अपने को सुरक्षित नहीं महसूस करती हैं, आज 2013 ईस्वी
में देश की राजधानी महिलाओं के लिये असुरक्षित बन चुकी है, ऐसा वहां की मूख्य मंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने भी स्वीकार किया है।
इन सब का कारण है-भारत के युवा पाश्चात्य राजनीती के चक्कर में पड़कर अपनी संस्कृति को भूल गये है। भारतीय संस्कृति के चार पुरुषार्थ -'धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष' को भूल कर केवल पाश्चात्य संस्कृति के दो पुरुषार्थ -अर्थ और काम का भोग करने में मनुष्य से पशु बनता जा रहा है। शिक्षा को मनुष्य बनाने वाले धर्म से जोड़े बना केवल डंडे का भय दिखाकर या कानून बना कर भारत का पुनर्निर्माण नहीं हो सकता।
भारत में निवास करने वाली प्रजा तो ऋषि-मुनियों की संतानें हैं, इन्हें ऐतेरेय ब्राह्मण के मन्त्र को सुनाकर युवाओं को कलियुग की मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा। यही स्वामीजी की योजना थी, यही वह कार्य है, जिसे पूरा करने के लिये स्वामीजी भारत के युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं-"उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्यवरान्नी बोधत !" क्योंकि ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है -
" कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
- जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है, जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता है, इसीलिये-
" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! "
सोये रहने का तात्पर्य है, जो मनुष्य सोया हुआ है- "कलिः शयानो भवति" वह अभी ' कलिकाल में वास
'कर रहा है, और स्वामीजी की ललकार -
सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, " संजिहानस्तु द्वापरः" वह द्वापर युग में वास कर रहा है.
" उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति |"
- जो व्यक्ति (पुरुषार्थ करने के लिये ) उठ कर के खड़ा हो जाता है- अर्थात मनुष्य बन जाने के लिये, अपना चरित्र-निर्माण करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह त्रेता युग में वास कर रहा है,
" कृतं संपद्यते चरन् । "
और अपनी मंजिल की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है,अर्थात जो व्यक्ति मनुष्य बन जाने के लिये तप करना (मन को एकाग्र करने का अभ्यास ) शुरू कर दिया है, वह मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है.
इसीलिये महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, बहुत गहराई चिन्तन-मनन कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem) निर्धारित किया गया. इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर " चरैवेति चरैवेति " को प्रमुखता से दर्शाया गया है। ' आगे बढो, आगे बढो ' का यह आह्वान स्वामीजी युवाओं से कर रहे हैं- और " Be and Make " का परम-पुरषार्थ करने के लिये पुकार रहे हैं - उनकी यह दोनों वाणी महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है ! Emblem में जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के नीचे की ओर लिखा है " Be and Make "
इसीलिये महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, बहुत गहराई चिन्तन-मनन कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " (Emblem) निर्धारित किया गया. इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर की ओर " चरैवेति चरैवेति " को प्रमुखता से दर्शाया गया है। ' आगे बढो, आगे बढो ' का यह आह्वान स्वामीजी युवाओं से कर रहे हैं- और " Be and Make " का परम-पुरषार्थ करने के लिये पुकार रहे हैं - उनकी यह दोनों वाणी महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है ! Emblem में जो गोलाई है, वह पृथ्वी है, पृथ्वी के भीतर, कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, भारतवर्ष के भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द खड़े हैं. उस गोलाई के नीचे की ओर लिखा है " Be and Make "
स्वामीजी के द्वारा दिया गये ये दोनों सन्देश-' आगे बढो, आगे बढो ' तथा " बनो और
बनाओ " उपनिषदों में कहे गये "
महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है.(दादा कहते हैं- इस मन्त्र
में इतनी शक्ति है जो भी इस काम से निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा उसे मोक्ष
तक प्राप्त हो जायेगा, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ) इसका अर्थ है :-" स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! "
क्योंकि मनुष्य बनना तप है ! (गुरु गोबिन्द सिंह को भी उनके शिष्यों ने छोड़ दिया था, किन्तु वे कुछ कार्य करने को आये थे, लक्ष्य को पाने में कठिनाई उठाना, अपमान सह लेना भी तप है। )
"आगे बढो, आगे बढो ! " का तात्पर्य है स्वयं की मानसिक चाहारदिवारी को तोड़ दो और देश-काल से परे अपने अनन्त स्वरूप में स्थित होने तक की यात्रा पर आगे बढ़ते रहो, जब तक कि लक्ष्य की प्राप्ति न हो ! क्योंकि मनुष्य बनना तप है ! (गुरु गोबिन्द सिंह को भी उनके शिष्यों ने छोड़ दिया था, किन्तु वे कुछ कार्य करने को आये थे, लक्ष्य को पाने में कठिनाई उठाना, अपमान सह लेना भी तप है। )
स्वामीजी ने कहा था," वर्तमान युग का हिन्दू युवक, सनातन धर्म के अनेक पंथों की भूल-भुलैयों में भटका हुआ है। ...अपने भ्रमात्मक पुवाग्रहों से ग्रस्त रहने और धर्म के मर्म को नहीं समझने के कारण, उन पाश्चात्य देशों से - जिन्होंने निरी भौतिकता के सिवाय कभी और कुछ नहीं जाना, आध्यात्मिक सत्य का अवैज्ञानिक पैमान उधार लेकर अँधेरे में टटोलता हुआ, अपने पूर्वजों के धर्म को समझने का व्यर्थ कष्ट उठाता हुआ, अन्त में उस खोज को बिल्कुल त्याग देता है और या तो वह निपट अज्ञेय-वादी बन जाता है,या अपनी धार्मिक प्रवृत्ति की प्रेरणाओं के कारण पशुजीवन बिताने में असमर्थ होकर किसी आधे-अधूरे बाबा या धूर्त को अवतार कहकर पूजने लगता है, और -परियन्ति मूढ़ा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः को चरितार्थ करता है। केवल वे ही बच पाते हैं, जिनकी आध्यात्मिक प्रकृति सद्गुरु के संजीवनी स्पर्श से जाग्रत हो चुकी है " 9/361
स्वामी विवेकानन्द कहते थे,धर्म का मतलब हिन्दू-मुसलमान-ईसाई होना नहीं है , " धर्म तो वह वस्तु है, जो पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवता में रूपांतरित कर देता है।" धर्म के साथ शिक्षा की अभिन्नता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-" शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था 'बाबु' पैदा करने की मशीन के सिवाय कुछ नहीं है।जो शिक्षा मनुष्य में चरित्र-बल, परहित-भावना, तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती,वह भी कोई शिक्षा है ? Education is the manifestation of the perfection already in man." -अर्थात मनुष्य में अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करा देने का नाम ही शिक्षा है ! इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि " चरित्र-निर्माण तथा मनुष्य-निर्माण कर शिक्षा "ही भारत की सभी समस्याओं की रामबाण औषधी है। जीवन में मूल्यों को भरने वाली शिक्षा देनी होगी।
किसी भी नोट पर उसका मूल्य लिखा होता है। किन्तु वह मूल्य रिजर्व बैंक के
गवर्नर के आश्वासन का मूल्य होता है ना कि नोट के कागज और छपाई आदि का। नोट का मूल्य उसका अपना नहीं है, राज्य की सत्ता द्वारा प्रदत्त मूल्य ही
वह कागज का टुकड़ा धारण करता है। उसी प्रकार मनुष्य भी अपने स्थान, परिवार,
व्यवसाय, पद आदि के कारण जो महत्व पाता है वह भी उसका स्वयं का मूल्य नहीं
होता अपितु उस उस उपाधि के द्वारा मनुष्य का मूल्य निर्धारित या भावित होता है। ऐसे
उपाधि मूल्य (Face Value) की अवधि (Expiry) उपाधि के साथ ही समाप्त होती
है।
मनुष्य भी अपने स्थान, परिवार, व्यवसाय, पद आदि के कारण जो महत्व पाता है
वह भी उसका स्वयं का मूल्य नहीं होता अपितु उस उस उपाधि के द्वारा मनुष्य
पर भावित मूल्य होता है। ऐसे उपाधि मूल्य (Face Value) की अवधि (Expiry)
उपाधि के साथ ही समाप्त होती है। जैसे जिले के जिलाधीश (Collector) को
मिलने वाला मान-सम्मान पद के होने तक ही होता है। पद के छूट जाने के बाद वह
सम्मान नहीं मिलेगा।
मनुष्य का भी आंतरिक मूल्य ( अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति ) ही महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि वह
परिस्थिति, पद, सम्बंद्ध ऐसे परिवर्तनीय कारकों पर निर्भर नहीं होता। चाहे
बाह्य कारक पूर्णतः बदल जाय फिर भी जो आंतरिक चरित्र (दिव्यता) है उसका मूल्य वैसे ही
बना रहेगा।
इसी आधार ही कठीन परिस्थितियों में भी वीर युवा (चरित्र-बल के धनी युवा )अपने लक्ष्य की
प्राप्ति कर ही लेते है। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में गये तब उनका
परिचय पत्र, सामान सब चोरी हो गया। पराये देश में कोई एक भी परिचित व्यक्ति
नहीं जहाँ जाना है वहाँ का पता नहीं। अर्थात उपाधि मूल्य कुछ भी नहीं। ऐसे
समय उनका साथ दिया उनके आंतरिक मूल्य नें उनके चरित्र ने, ज्ञान ने। इस
असम्भव स्थिति में भी पूर्ण श्रद्धा के साथ उन्होंने अपने लक्ष्य को
प्राप्त किया।
बोस्टन में, शिकागो में जिन लोगों से उनका परिचय हुआ वे सब उनसे
प्रभावित हुए बिना नहीं रहें। जिस घर में वे रहते थे, वहाँ की गृहस्वामीनी
अपनी सहेलियों की चाय पार्टी में स्वामीजी को एक अजूबे के रूप में, मसखरे
के रूप में प्रस्तुत करती थी।
पर उनकी बातों में भरा जीवन का ज्ञान इस
विडम्बना और अपमान को पार कर फैलता गया। फिर उन महिलाओं के परिवारों के
प्रबुद्ध सदस्य आकर्षित हेाते गये और स्वामी विवेकानन्द की ख्याति सुरभी की
भाँति सर्वत्र फैल गई। विद्वानों ने उन्हे परिचय और सन्दर्भ देकर शिकागो
भेजा। प्रोफेसर राइट ने धर्मसभा के आयोजक फादर बैरोज को पत्र लिखा। यह सब
आंतरिक मूल्य का परिणाम थे।
भारतमाता को पुनः जगद्गुरू बनाने इतने महान कार्य को आरम्भ कर उसकी
पूर्णता की चिंता किये बिना स्वामीजी का महाप्रयाण इस बात का संकेत है कि
उन्हें अपने शिष्यों पर पूरा विश्वास था कि वे उनका कार्य अवश्य सम्पन्न
करेंगे। अब यह हमारा कर्तव्य है कि उस कार्य के सभी आयामों को समझ उसे
पूर्णता तक ले जाये।
स्वामीजी ने कहा था कि आनेवाले 1500 वर्षों के लिये उन्होंने कार्य का
नियोजन किया है। उन्होंने यह भी कहा था कि शरीर छोड़ने के बाद भी मैं कार्य
करता रहुंगा। मद्रास के व्याख्यान ‘मेरी समर नीति’ में स्वामीजी ने युवाओं
को अभिवचन दिया, ‘यदि तुम मेरी योजना को समझ कर कार्य में लग जाओगे तो मै
तुम्हारे कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करूंगा।’ स्वामीजी के कार्य में पूर्ण
समर्पण से लगे साथियों को यह अनुभूति समय समय पर आती है कि स्वामीजी उनके
साथ कार्य कर रहे है !!" "
आइये उनके महाप्रयाण पर हम सब भी इस कार्य में तन,
मन, धन, सर्वस्व के समर्पण के साथ लग जाये।