इस धराधाम पर श्रीरामकृष्ण जैसे महापुरुषों का आगमन, 'मानव-जीवन विकास' (डार्विन की भाषा में उद्विकास,evolution या क्रमागत उन्नति) को पूर्णता प्रदान करने के लिये ही होता है। किन्तु, स्वामीजी ने कहा था," हमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ये अवतारी महापुरुष गण किसी अन्य श्रेणी के महामानव होते होंगे; और हम जैसे साधारण मनुष्य कभी इन लोगों के समान नहीं बन सकते। नहीं, ऐसा सोचना बिल्कुल ठीक नहीं है। केवल ईसा मसीह ही ईश्वर के पुत्र नहीं हैं, हम सभी लोग अमृत के सन्तान है। चरित्र के केवल ५ गुणों -आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा तथा प्रेम और पवित्रता को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने पर हमलोगों में भी अन्तर्निहित दिव्य चेतना (Divine consciousness) स्वतः उद्घाटित हो जाती है। यदि तुम्हारे भीतर अवतार बनने की सम्भावना नहीं हो, तो यह समझ लेना कि कोई भी अवतार कभी नहीं आये थे।"
किन्तु,श्रीरामकृष्ण जैसे किसी मनुष्य का आविर्भाव- जिनके भीतर नाम,यश, अर्थ या दैहिक भोगाकंक्षा का कण-मात्र भी दिखाई नहीं देती हो;मानव जाति के हजारों वर्षों की तपस्या के परिणाम स्वरूप ही होता है। वे इन सब मानवीय दुर्बलताओं से बहुत उपर उठ चुके थे; श्री रामकृष्ण त्यागियों के भी बादशाह हैं!श्रीरामकृष्ण की अर्चना स्वामीजी ने इस प्रकार की है -"वंचन-काम-कांचन अतिनिन्दित इन्द्रियराग, त्यागीश्वर!!"
जबकि आधुनिक युग का मनुष्य यह मान बैठा है कि कुछ अनिवार्य अपेक्षित भोग्य वस्तुओं के बिना उनका दैनिक जीवन यापन बिलकुल असम्भव है। और उनके इन आवश्यक वस्तुओं की सूचि लगातार बढ्ती ही जा रही है। इन भौतिक जीवन की विलासपूर्ण -सामग्रियों की अधिकता ने मनुष्य को यन्त्र-मानव में परिणत कर दिया है। येन-केन-प्रकारेण उन सब भौतिक वस्तुओं के उपार्जन और भोग में व्यस्त रहना ही मानो मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन गया है। पाश्चात्य जीवन चर्या का अन्धानुकरण और भारतीय जीवन के आदर्श के सम्बन्ध में अज्ञान, इन दो कारणों ने ही भारतवासीयों को ऐसी निम्न स्थिति में पहुंचा दिया है। जिसके कारण आज समाज में भ्रष्टाचार और अनैतिकता का बोलबाला हो गया है, साधारण मनुष्य का जीवन कष्टपूर्ण हो गया है।
भारत के मनुष्यों को इस निम्न स्थिति से उद्धार करने का मार्ग दिखलाने के लिये ही श्रीरामकृष्ण का आविर्भाव हुआ है। इस बार श्रीरामकृष्ण मोहनिद्रा में सोये भारत को झकझोरते हुए सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये अपने साथ नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) को भी लेकर आये थे। यदि हमलोग 'त्यागीश्वर' श्रीरामकृष्ण के पुण्य जीवन की विवेचना और उनके जीवन और आचरण का यथा-साध्य अनुसरण नहीं करेंगे, तो इस 'अतिनिन्दित इन्द्रियाराग' और 'कामकांचन-तृष्णा' (लस्ट ऐंड लूकर) के चोर बालू (quicksand या धोखा देने वाली वस्तु ) से बचने का कोई अन्य उपाय नहीं है। टी .वी . आदि देखकर केवल दिन बिता देने से, 'प्राणधारण की थकन' ही हमलोगों के जीवन को क्षण क्षण करके विनाश की ओर ही ले जाती रहेगी। यदि हम भोगसुख, नाम-यश, स्वीकृति और प्रशंसा की इस संकीर्ण भंवर से बाहर नहीं निकल सके, तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन में जिस समुद्र जैसी गहरी और असीम व्यापकता या सम्पूर्णता प्राप्ति के आनन्द का अस्वादन मिलता है, उसे प्राप्त करना कभी संभव नहीं होगा। यह तभी संभव हो सकता है, जब हमलोग 'श्रीरामकृष्ण-जीवन ' रूपी ध्रुवतारा के उपर अपनी दृष्टि को अविचल रख सकें। यदि एक मुहूर्त के लिये भी हम अपनी नजरों को श्री रामकृष्ण परमहंस हटा कर संसार पर डालने की चेष्टा करेंगे, तो कामना-वासना और भोग-लालसा की जटिल भँवर में फँस कर, 'महती-विनष्टि' की सम्भावना को टाल नहीं सकेंगे।
जब हम श्रीरामकृष्ण परमहंस के अद्भुत जीवन पर ध्यान करते हैं, तो हमें आश्चर्य से अवाक् हो जाना पड़ता है। इस धरती पर एक ऐसे व्यक्ति ने रक्त-मांस से बना शरीर धारण किया था, जो नाम-यश, निन्दा-प्रशंसा को कभी स्वीकार्य वस्तु मानते ही नहीं थे। स्वयं के शरीर के बीमार हो जाने के बाद भी वे (नवनी दा) भक्तों के घर-घर में जाते थे, ताकि उनके भीतर देवात्म-बुद्धि को संचारित किया जा सके। घोर शारीरिक रोग की यंत्रणा में, मृत्यु के आमने-सामने खड़े होकर भी, उनकी उस चेष्टा का अन्त होता नहीं दिखता था। स्वामीजी ने कहा था कि इस बार वे(नवनी दा) अपने अधोपतित संतानों की सहायता करने के लिए ही आये थे। उनके
जीवन को अपना आदर्श मान कर, अनुसरण करने से ही निरुत्साही भारत में
पुनः उत्साह का संचार हो जायेगा।
हो सकता है कि कोई यह दावा करे, कि भारत का अभ्युत्थान तो केवल वेद के शरण में जाने से ही संभव हो सकता है ! किन्तु क्या वेद का अनुसरण करना उतना आसान है? वेद के चार महावाक्यों का मूल भाव को नहीं समझ पाने के कारण,तथा सके यथार्थ तात्पर्य की विवेचना करने में असमर्थ हो जाने के बाद केवल उसके कर्मकाण्ड के उपर अधिक जोर देने के फलस्वरूप, भारत के कई धार्मिक-सुधारवादी सम्प्रदाय असफल ही सिद्ध हुए हैं। स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का जीवन ही, वेद-उपनिषद का सबसे जीवन्त भाष्य है। वेद के मूल तत्व उनके जीवन में बहुत यशस्वी रूप से प्रस्फुटित हुए हैं। उनके जीवन और सन्देश का अनुसरण करने से ही हमलोग वेदों के मूल तत्वों की धारणा कर सकते हैं। भारत के समस्त क्षेत्रों में, उसके रोम-रोम में उनके जीवन और सन्देश को प्रविष्ट करा सकने से ही, इस समाज का पुनरुत्थान संभव है।
स्वामीजी ने केवल भारत के पुनरुत्थान की बात नहीं कही है, उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के (न्यूयार्क के) मनुष्यों को पुनर्जागृत करने का निर्देश दिया है। आज सम्पूर्ण विश्व के मनुष्य ही तुच्छ भोग-सुख, और संकीर्ण राष्ट्रभक्ति के फेरे में पड़कर मोहग्रस्त हो गये है, और अपनी अन्तर्निहित पूर्णता और देवत्व के भाव को भूल चुके हैं। चिन्तन
करने की अनन्त शक्ति स्वामी होने के बाद भी मनुष्य, व्यर्थ के कर्मकांडों
में ही उलझा हुआ है। इस निरानन्द जीवन को अमृत-आनन्द के स्पर्श से परिपूर्ण
करने के लिये श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश की विवेचना और अनुसरण करना आज की अनिवार्य आवश्यकता है। किन्तु, यहाँ स्वामीजी विशेष रूप से भारत के
उपर जोर इसीलिये देते हैं कि इस सत्य को विश्व में सर्वप्रथम आविष्कृत करने
का श्रेय भारतवर्ष का ही है। इस देश की धरती पर युगों युगों से
आध्यात्मिकता के उपर प्रयोग एवं अनुसन्धान होता रहा है। यहाँ के वायुमंडल
में वेदों के इस चार महावाक्यों में सन्निहित महान भाव की गूंज आज भी सुनी जा सकती है। किन्तु ये आध्यात्मिक सत्य यूनिवर्सल या सार्वलौकिक हैं ! ये सार्वभौमिक सत्य किसी एक देश और काल के चौहद्दी (Boundaries) तक ही सीमाबद्ध नहीं हैं।
इसीलिये वेदों के मूल भाव ('मानव-मात्र में अन्तर्निहित देवत्व' जैसी भावनाओं) का प्रचार सम्पूर्ण विश्व में हो, इसके लिये भारतवर्ष के उपर एक विशेष जिम्मेदारी सौंपी गयी है। किन्तु इसका प्रचार करने के पहले भारतवर्ष के मनुष्यों (युवाओं ) को अपने जीवन में आध्यात्मिकता जन्य सोने की फसल उगानी होगी। तभी भारतवासियों के जीवन-मंथन से उत्पन्न आनंद-अमृत के प्रवाह से सम्पूर्ण विश्व में इन महान भावों की बाढ़ आ जायेगी। इसके लिये सर्वप्रथम हम भारत-वासियों को अपने दैनंदिन जीवन यात्रा में तुच्छ भोग-सुख, संकीर्ण सीमाबद्धता से उपर उठकर विश्व-मानवता के अमृत आनन्द में निमग्न होना होगा। और उत्सुक पिपासा से कातर मानव समाज, उसके अमृत से लबालब भरे जीवन-ज्योति के कुम्भ से छलक कर जो आनन्द-अमृत की बूंदें गिरेंगी, उसका आस्वादन करके देश-विदेश के, सम्पूर्ण विश्व के जिज्ञासु आध्यत्मिक सत्य को जानने के पिपासु मनुष्य तृप्त हो जायेंगे।
[जब हमलोग भी 'श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग' और 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत', के साथ पूज्य नवनी दा के जीवन और सन्देश को एक साथ स्वयं उनके द्वारा बोलकर लिखवाये और आधुनिक युग के श्रीम,प्रबाल दा के द्वारा रिकॉर्डेड- 'जीवन-नदी के हर मोड़ पर' में वर्णित नवनी दा का जीवन ही वेद-उपनिषद का सबसे जीवन्त भाष्य है। उसके सार को ग्रहण करके, हमलोग भी जब परितृप्त होकर अपनी मुक्ति की चिन्ता भूल जायेंगे, मानव जाती के सच्चे नेता बन जायेंगे, केवल तभी हमारे अपने जीवन-मंथन से निकली अमृत-धारा के बाढ़ में विश्व का हर देश आप्लावित हो जायेगा।
अर्थात हमें पहले स्वयं सत्य का साक्षात्कार करके पैगम्बर बनना होगा, तभी हम भी स्वामी विवेकानन्द के समान अनुभव कर सकेंगे कि "मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय सम्पत्ति का कोई बंधन नहीं है, मैं सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। सभी मेरे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं, अतएव सन्तरे को आनन्द पूर्वक निचोड़ता हूँ।" ]
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इसीलिये वेदों के मूल भाव ('मानव-मात्र में अन्तर्निहित देवत्व' जैसी भावनाओं) का प्रचार सम्पूर्ण विश्व में हो, इसके लिये भारतवर्ष के उपर एक विशेष जिम्मेदारी सौंपी गयी है। किन्तु इसका प्रचार करने के पहले भारतवर्ष के मनुष्यों (युवाओं ) को अपने जीवन में आध्यात्मिकता जन्य सोने की फसल उगानी होगी। तभी भारतवासियों के जीवन-मंथन से उत्पन्न आनंद-अमृत के प्रवाह से सम्पूर्ण विश्व में इन महान भावों की बाढ़ आ जायेगी। इसके लिये सर्वप्रथम हम भारत-वासियों को अपने दैनंदिन जीवन यात्रा में तुच्छ भोग-सुख, संकीर्ण सीमाबद्धता से उपर उठकर विश्व-मानवता के अमृत आनन्द में निमग्न होना होगा। और उत्सुक पिपासा से कातर मानव समाज, उसके अमृत से लबालब भरे जीवन-ज्योति के कुम्भ से छलक कर जो आनन्द-अमृत की बूंदें गिरेंगी, उसका आस्वादन करके देश-विदेश के, सम्पूर्ण विश्व के जिज्ञासु आध्यत्मिक सत्य को जानने के पिपासु मनुष्य तृप्त हो जायेंगे।
[जब हमलोग भी 'श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग' और 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत', के साथ पूज्य नवनी दा के जीवन और सन्देश को एक साथ स्वयं उनके द्वारा बोलकर लिखवाये और आधुनिक युग के श्रीम,प्रबाल दा के द्वारा रिकॉर्डेड- 'जीवन-नदी के हर मोड़ पर' में वर्णित नवनी दा का जीवन ही वेद-उपनिषद का सबसे जीवन्त भाष्य है। उसके सार को ग्रहण करके, हमलोग भी जब परितृप्त होकर अपनी मुक्ति की चिन्ता भूल जायेंगे, मानव जाती के सच्चे नेता बन जायेंगे, केवल तभी हमारे अपने जीवन-मंथन से निकली अमृत-धारा के बाढ़ में विश्व का हर देश आप्लावित हो जायेगा।
अर्थात हमें पहले स्वयं सत्य का साक्षात्कार करके पैगम्बर बनना होगा, तभी हम भी स्वामी विवेकानन्द के समान अनुभव कर सकेंगे कि "मेरा कोई कर्तव्य नहीं है, मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय सम्पत्ति का कोई बंधन नहीं है, मैं सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। सभी मेरे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं, अतएव सन्तरे को आनन्द पूर्वक निचोड़ता हूँ।" ]
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[वेदों का मूल भाव को उद्घाटित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-" एक विशेष भाव भारत के धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा बिल्कुल अलग है; जिस भाव को प्रकट करने में ऋषियों ने हमारे शास्त्रों में संस्कृत श्लोकों की भरमार कर दी
है। वह मूल भाव है, ब्रह्म हो जाना ! " ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति " - (मुण्डकोपनिषत् ३- २-९)अर्थात ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है! मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वरत्व की प्राप्ति करनी होगी! यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है, और उसके अन्य उपदेश हमारी, उस लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं।"9/371 किन्तु हजार वर्षों की गुलामी के कारण भारत सनातन धर्म के मर्म को ठीक से ग्रहण नहीं कर पा रहा था, इसीलिये स्वयं 'सत्य को या अद्वैत' को ही श्रीरामकृष्ण के रूप में आविर्भूत होना पड़ता है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- "उस प्रकार के
ब्रह्मज्ञ इस जगत में कभी कभी ही पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते
हैं, वे ही शास्त्र-वचनों के प्रमाण हैं। वे ही भवसागर के आलोक-स्तम्भ हैं!6/168 आत्म-ज्ञान
की प्राप्ति ही परम साध्य है। अवतारी पुरुष रूपी जगद्गुरु के प्रति
भक्ति होने पर समय आते ही वह ज्ञान स्वयं ही प्रकट हो जाता है। " जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार कर लिया है, उनके भीतर एक महा शक्ति खेलने लगती है। उस महापुरुष को केन्द्र
बनाकर थोड़ी दूसरी तक लम्बी त्रिज्या के सहारे जो एक वृत्त बन जाता है, उस
वृत्त के भीतर जो लोग आ हैं, वे साधन-भजन न करके भी अपूर्व आध्यात्मिक फल
के अधिकारी बन जाते हैं। इसे यदि कृपा कहता है, तो कह ले !"6/210 ]
"मैं केवल ईश्वर-पुत्र ही नहीं हूँ, मैं और
मेरे पिता एक और अभिन्न हैं।" 223/ ब्रह्मज्ञ पुरुष ही लोक-गुरु बन सकते हैं।"6/23 सभी
प्रकार की साधना का फल है, ब्रह्मज्ञता प्राप्त करना।"6/167 हम केवल 'अस्ति'-स्वरूप,सत्स्वरूप होने की ही चेष्टा कर रहे है, और कुछ नहीं,उसमें अहं भी नहीं रहेगा,..शरीर
स्वामीजी का यंत्र बन कर कार्य करेगा। अंगूर की लता पर जिस प्रकार गुच्छों
में अंगूर फलते हैं,उसी प्रकार भविष्य में सैंकड़ों ईसाओं का आविर्भाव हो
जायेगा। 7/12 "
अवतार का अर्थ है, जीवन्मुक्त अर्थात जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त कर लिया
है। सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उस अवस्थाविशेष
की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहयता का नाम धर्म
है, बाकि अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है,शेष कूकर्म है।" 4/298
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था -" मुक्ति का लाभ का 'विजातीय' आग्रह अब नहीं रहा। जब तक
पृथ्वी पर एक भी मनुष्य अमुक्त है, तबतक मुझे अपनी मुक्ति की कोई आवश्यकता
नहीं।" 10/348
( ईसा ने कहा था - "be perfect, as your heavenly Father is perfect" — Matthew 5:48 17 “Do not think that I have come to abolish the Law or the Prophets; I have not come to abolish them but to fulfill them. 18 For
truly I tell you, until heaven and earth disappear, not the smallest
letter, not the least stroke of a pen, will by any means disappear from
the Law until everything is accomplished.)***
( . 'The
kingdom of God is within you'. "Man, know thyself ... and thou shalt
know the gods." -These words are among the most powerful ever uttered,
and of eternal
significance. No better advice has ever been given to man or woman. When
one begins to explore this dictate it leads to profound understandings
about all of creation. It makes unhappiness, fear, sadness, doubt, and
all the negative emotions meaningless. This inner, transcendental reality can be directly
experienced. This experience has likewise been given different names.
In India traditions it is called Yoga, in Buddhism Nirvana, in Islam fana, in Christianity spiritual marriage. It is a universal teaching based on a universal reality and a universal experience. "Ye shall know the truth, and the truth shall make you
free. "--John viii. 32) ये महात्मा मार्ग के संकेत दर्शक हैं। बस वे इतने ही हैं। वे कहते हैं , "बन्धुओं, आगे बढ़े चलो !" पर हम उनके चित्र या मूर्ति से चिपक जाते हैं; हम खुद कुछ करना नहीं चाहते । हम चाहते हैं, हमारे लिये दूसरे सोचें। वे हमसे उद्दमी होने के लिये कहते हैं, पर सौ साल बाद हम उस सन्देश से चिपक जाते हैं, और सो जाते हैं। बड़ी बड़ी बातें करना आसान है, किन्तु चरित्र-निर्माण करना और इन्द्रियों के वेगों का निग्रह करना बड़ा कठिन है। हम उनके शिकार बन जाते हैं। और मिथ्याचारी हो जाते हैं। 7/233" "जीवों में मनुष्य ही सर्वोच्च जीव है और यह लोक ही सर्वोच्च लोक है।"7/40 "वे धन्य हैं, जो जल्दी जल्दी पापों का फल भोग लेते हैं-उनका हिसाब जल्दी जल्दी निपट गया। जिन्होंने समत्व प्राप्त कर लिया है, वे ही ब्रह्म में अवस्थित कहलाते हैं। सभी प्रकार की घृणा का अर्थ है, आत्मा के द्वारा आत्मा का हनन। इसीलिये प्रेम ही जीवन का यथार्थ नियामक है। प्रेम की अवस्था को प्राप्त करना ही सिद्धावस्था है। किन्तु हम जितना ही सिद्धि की ओर अग्रसर होते हैं, उतना ही तथाकथित कर्म (बिजनेस-या निजी लाभ का कार्य) कम होता जाता है। वे जानते हैं और देखते हैं, कि सभी मानो लड़कों का खिलवाड़ मात्र हैं; इसीलिये वे किसी भी घटना से चिंतित नहीं होते।"7/41 " तब तक शिक्षा ग्रहण करो, ' जब तक तुम्हारा मुख ब्रह्मविद के समान दिव्य भाव चमक नहीं उठता ' जैसे कि श्वेतकेतु का हुआ था। "7/78 " किसी चित्र-पहेली में छिपी हुई वस्तु को यदि तुम एकबार देख लो, तो फिर तुम उसे सर्वदा देख सकोगे।"7/90 " मनुष्य-स्वभाव की महिमा कभी मत भूलना। भूत या भविष्य में, न कोई हमारी अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा।"7/93
" तुम्हारी अपनी इच्छा-शक्ति ही तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर दे देती है-हम उसे बुद्ध,ईसा,कृष्ण,जिहोवा, अथवा अग्नि चाहे जिस नाम से पुकार सकते हैं, किन्तु वास्तव में वह है हमारी ही आत्मा।"7/104
" मनुष्य को अन्य सबके प्रति इसीलिये प्रेम करना होगा कि अन्य सब स्वयं उसी के रूप हैं। केवल एक की ही सत्ता है।" 7/113 " किसी सूक्ष्म तत्व की धारणा में हम तभी समर्थ होते हैं, जब वह किसी पुरुषविशेष के रूप में साकार रूप धारण कर लेता है। केवल दृष्टान्त की सहायता से ही हम उपदेशों को समझ सकते हैं। " 7/178 " महापुरुषों का स्वयं अपने में श्रद्धा अटल होती है। इन दिव्य पुरुषों में जितना आत्मविश्वास होता है, उतना अन्य किसी में नहीं होता। कभी हम सोचते हैं कि हम बहुत पवित्र और धार्मिक हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण एक धक्का लगता है और हम चारों खाने चित हो जाते हैं। इसका कारण ? कारण यही है कि हमारा आत्मविश्वास मर गया है, हमारी नैतिकता की रीढ़ टूट गयी है।" 7/180 " ये नरदेव- ये मानवरूप धारी देवता,सदा से, सभी जातियों एवं सभी राष्ट्रों के यथार्थ ईश्वर रहे हैं।" 7/182 " यहूदियों में पुरोहितों और पैगम्बरों के मध्य अनवरत संघर्ष चलता रहता था। ईसा ने पुरोहिती स्वार्थ रूपी अज़दहे (Dragon) का वध करके उसके पंजों से सत्य के रत्न का उद्धार करके उसे समग्र संसार को प्रदान कर दिया। लेकिन दो पीढ़ियों के बाद ही, उनके शिष्य पुनः अंधविश्वासों, जादू-टोनों के रस्ते पर चलकर स्वयं पुरोहित बन गये और सत्य की दुकान खोल कर बोर्ड लटका दिया- 'असली सत्य की दुकान यही है ! सत्य को तुम हमारे ही द्वार पर प्राप्त कर सकते हो ! ' बस सत्य एक बार फिर से जम गया। और पपड़ियों को तोड़ कर सत्य को पुनः मुक्त कराने के लिये पैगम्बर फिर आये, और यह क्रम इसी प्रकार चलता रहा। हाँ, उस मानव का, पैगम्बर का आविर्भाव सदा होता रहना अनिवार्य है, अन्यथा मानवता मर जायेगी। " 7/202-3] " जगत का सर्वव्यापी ईश भी तब तक दृष्टिगोचर नहीं होता, जब तक ये महान शक्तिशाली दीपक, ये ईश दूत, ये उसके सन्देश-वाहक और अवतार, ये नर-नारायण उसे अपने में प्रतिबिंबित नहीं करते। " 7/216 " यह कुसंस्कार पूर्ण मिथ्या भावना छोड़ दो कि हम दीन-हीन हैं। क्योंकि तुममें एक ऐसा तत्व विद्यमान है, जिसे पददलित तथा पीड़ित नहीं किया जा सकता, जिसका विनाश नहीं हो सकता।स्वर्ग का राज्य तुम्हारे हृदय में अवस्थित है। मैं और मेरे पिता अभिन्न हैं।" 7/223] " मैं अपने पिता में हूँ, तुम मुझमें हो और मैं तुममें हूँ।" 7/225]"हमें केवल नाज़रथवासी ईसा में ही ईश्वर का दर्शन न कर उन सभी महान आचार्यों और पैगम्बरों में भी T का दर्शन करना चाहिये जो ईसा के पहले जन्म ले चुके थे, जो ईसा के पश्चात् आविर्भूत हुए हैं और जो भविष्य में अवतार ग्रहण करेंगे। एक दृष्टि से हम सभी अवतार हैं,-हम भी अपने छोटे छोटे घरों में, अपने छोटे संसार में अपने क्रूस सिर पर कर अग्रसर हो रहे हैं। कोई कितना ही अपदार्थ क्यों न हो, कितना ही हीन क्यों न हो, अपना क्रूस स्वयं ही वहन करता है।कहीं न कहीं एक ऐसा सुवर्ण सूत्र है जिसके द्वारा हम सदैव भगवान से संयुक्त रहते हैं। हमारे अंतर के अंतरतम प्रदेश में ज्योति की एक ऐसी किरण विराजमान है, जो भगवान से चिर संयुक्त है। जीवन्त ईश्वर-स्वरूप जो महापुरुष भविष्य में हमारी सन्तान के लिये निःस्वार्थ होकर कार्य करने के लिये अवतार धारण करेंगे,अपना जीवन निछावर कर देंगे,उन सबको प्रणाम है।"7/230
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"The will is the "still small voice", the real Ruler who says "do" and "do not". It has done all that binds us. The ignorant will leads to bondage, the knowing will can free us. The will can be made strong in thousands of ways; every way is a kind of Yoga, but the systematised Yoga accomplishes the work more quickly. Bhakti, Karma, Raja, and Jnana-Yoga get over the ground more effectively. Put on all powers, philosophy, work, prayer,meditation — crowd all sail, put on all head of steam — reach the goal. The sooner, the better."
" हमारी इच्छा-शक्ति (अर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति) ही वह 'मृदु-गंभीर वाणी' है, वही यथार्थ शासक (real Ruler) जो कहती है --यह करो, यह न करो ! यही हमें विविध बन्धनों के भीतर ले आयी है। [दी इग्नोरैंट विल] अज्ञ-व्यक्ति (अज्ञानता में लस्ट ऐंड लूकर में आसक्त व्यक्ति) की इच्छा-शक्ति उसे बन्धन में डालती है, वही इच्छा-शक्ति यदि ज्ञानपूर्वक परिचालित हो, [दी नोइंग विल: अर्थात निरन्तर विवेक-प्रयोग (संयम) के प्रशिक्षण के द्वारा उस इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास को वश में लाकर फलदायी दिशा में एकाग्र रखा जा सके] तो हमें मुक्ति दे सकती है। हजारों उपायों से इच्छा-शक्ति को दृढ़ किया जा सकता है, इसका प्रत्येक उपाय ही एक प्रकार का योग है। किन्तु प्रणाली-बद्ध योग के द्वारा यह कार्य बड़ी शीघ्रता से साधित हो सकता है। भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग और ज्ञानयोग के द्वारा अधिक निश्चित रूपसे सफलता प्राप्त की जा सकती है। मुक्ति-लाभ करने के लिए अपनी सभी शक्तियों को -कर्म, विचार, उपासना और मनःसंयम समस्त पद्धतियों का अवलम्बन करो, सभी पालों को एक साथ उठा दो, अपने सभी अवयवों (शरीर-मन-हृदय) को पूरी शक्ति के साथ विकसित करो -और लक्ष्य तक पहुँच जाओ! इसे जितनी शीघ्रता से कर सको, उतना ही अच्छा है ! " ७/८५
" आत्मा को अपना स्वभाव, अपना स्वरूप समझना ही ज्ञान एवम प्रत्यक्षानुभूति है। -'आई ऐम ही' - मैं ही वह हूँ ! --इस विषय में किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है। "टु नो दी आत्मन ऐज मायी नेचर इज बोथ नॉलेज एंड रियलाइजेशन। "आई ऍम 'ही', देयर इज नॉट दी लीस्ट डाउट ऑफ़ इट." ७/८६
" देश-काल-निमित्त --ये सभी भ्रम हैं ! तुम सोचते हो कि मैं अभी बद्ध हूँ, आगे चलकर मुक्त होऊँगा --यही तुम्हारा रोग (भवरोग) है ! तुम तो अपरिणामी हो ! पार्थक्य या भेद नामक कोई वस्तु नहीं है, वह सब तो कुसंस्कार मात्र है। अतएव मौन भाव का अवलम्बन करो और अपना स्वरूप पहचानो। बारम्बार बोलो- 'मैं आत्मा हूँ, मैं आनंदघनस्वरूप हूँ ' -शेष सब उड़ जाने दो ! 'उस समय'---सापेक्षिक ज्ञान का अतिक्रमण कर लेने के बाद, देह और मन के परे चले जाने के कारण; देह और मन के द्वारा जो कुछ अनुभव होता है, वह भी चला जाता है। आत्मा नाम-रूप के साथ कभी भी मिलती नहीं ! हम पहले प्रत्यक्षानुभूति करते हैं, युक्ति-विचार बाद में आता है। हमें यह प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनी होगी, और इसीको धर्म अर्थात आत्म- साक्षात्कार कहा जाता है। ७/ ८८-८९
" मैंने अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल से कहा था - ' मैं आपकी अपेक्षा इस जगत रूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्कृष्ट प्रणाली जानता हूँ --और मैं उससे आपकी अपेक्षा अधिक रस प्राप्त करता हूँ। क्योंकि, 'मैं जानता हूँ , मैं मर नहीं सकता' -अतएव मुझे रस निचोड़ने की जल्दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ, भय का कोई कारण नहीं है-अतएव आनंदपूर्वक निचोड़ता हूँ । मेरा कोई कर्तव्य नहीं है -मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय-सम्पत्ति का कोई बन्धन नहीं है ! इसीलिये सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। क्योंकि सभी (१६ जनवरी भी) मेरे लिए ब्रह्मस्वरूप हैं ! मनुष्य को भगवान समझकर उसके प्रति प्रेम रखने में कितना आनंद होता है !! ' --संतरे को इस रूप में निचोड़ कर देखिये - अन्य रूप से निचोड़ने पर आप जो रस पाएंगे, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पाएंगे-रस की एक बून्द भी व्यर्थ न जाएगी। जिसे हम 'इच्छा-शक्ति' समझते हैं, वास्तव में वही हमारी अंतःस्थ आत्मा है, और वह स्वभावतः मुक्त ही है !दैट व्हिच सीम्स टु बी दी विल इज दी आत्मन बिहाइंड, इट इज रियली फ्री. " ७/९१-९२ [अधोपतित भारत फिर से उठ खड़ा होगा। किन्तु यहाँ के ऋषियों ने जिन आध्यात्मिक सत्यों का आविष्कार किया था, वे केवल भारत के लिये न होकर सम्पूर्ण विश्व की धरोहर है। ये सत्य किसी देश-कल की संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं किये जा सकते हैं। 92/216)
" जीज़स वाज इम्परफेक्ट बिकॉज़ ही डीड नॉट लीव अप फुल्ली टु हिज ओन आइडियल, इसी कारण कि उन्होंने नारी-जाति को पुरुष के तुल्य अधिकार नहीं दिया। एक भी स्त्री को (लीडरशिप ट्रेनिंग देकर) वे 'प्रेरित शिष्या' (Apostle-अपॉसल या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता -या प्रचारक नहीं बना सके!) परन्तुबुद्ध ने धर्म-प्रचारक बनने के क्षेत्र में पुरुषों के समान ही स्त्रियों का अधिकार स्वीकार किया था, और उनकी अपनी स्त्री ही उनकी प्रथम और प्रधान शिष्या थीं। वे बौद्ध भिक्षुणियों (SNS) की लीडर (कैम्प कमाण्डर) बनी थीं। हमारे लिए उनका दोषानुसन्धान करना उचित नहीं है, किन्तु कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसी के भरोसे हमें बैठे नहीं रहना चाहिये; बल्कि हमें भी बुद्ध या ईसा (जैसा अवतार) बनना होगा। किसी व्यक्ति के दोष या असम्पूर्णता को देखकर उसके बारे में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है। किसी नेता में जो सद्गुण दिखाई देता है, वह उसका अपना है, किन्तु दोष मानवसुलभ सर्वसाधारण दुर्बलता मात्र हैं; अतः सच्चे मार्गदर्शक नेताओं के चरित्र का विचार करते समय, उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिये। " ७/९२
" नेवर फॉरगेट दी ग्लोरी ऑफ ह्यूमन नेचर. मनुष्य- स्वभाव की महिमा कभी मत भूलना ! भूत या भविष्य में, न कोई हमलोगों की अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा! मैं ही वह अनंत महासमुद्र हूँ -ईसा, बुद्ध मेरी ही सतह पर उठने वाली तरंगे हैं ! ७/९३
" निर्गुण परब्रह्म की उपासना नहीं की जा सकती, इसीलिये हमें अपने ही सदृश मनुष्य-शरीर धारी उनके किसी प्रकाश-विशेष की उपासना करनी होगी। ईसा भी पहले हमलोगों के समान मनुष्य थे, बाद में वे ख्रिस्त हो गये थे। हम भी उनके समान ख्रिस्त हो सकते हैं,और हमें वह होना ही होगा। ख्रिस्त और बुद्ध अवस्था विशेष का नाम है-जो हमें प्राप्त करनी होगी। ईसा और गौतम वे मनुष्य हैं, जिनमें यह अवस्था व्यक्त हुई। जगन्माता या आद्या शक्ति ही ब्रह्म का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ प्रकाश है- उसके बाद ख्रिस्त,बुद्ध मोहम्मद और श्रीरामकृष्ण आदि प्रकाशित हुए हैं।" ७/३९
" हमारी इच्छा-शक्ति (अर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति) ही वह 'मृदु-गंभीर वाणी' है, वही यथार्थ शासक (real Ruler) जो कहती है --यह करो, यह न करो ! यही हमें विविध बन्धनों के भीतर ले आयी है। [दी इग्नोरैंट विल] अज्ञ-व्यक्ति (अज्ञानता में लस्ट ऐंड लूकर में आसक्त व्यक्ति) की इच्छा-शक्ति उसे बन्धन में डालती है, वही इच्छा-शक्ति यदि ज्ञानपूर्वक परिचालित हो, [दी नोइंग विल: अर्थात निरन्तर विवेक-प्रयोग (संयम) के प्रशिक्षण के द्वारा उस इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास को वश में लाकर फलदायी दिशा में एकाग्र रखा जा सके] तो हमें मुक्ति दे सकती है। हजारों उपायों से इच्छा-शक्ति को दृढ़ किया जा सकता है, इसका प्रत्येक उपाय ही एक प्रकार का योग है। किन्तु प्रणाली-बद्ध योग के द्वारा यह कार्य बड़ी शीघ्रता से साधित हो सकता है। भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग और ज्ञानयोग के द्वारा अधिक निश्चित रूपसे सफलता प्राप्त की जा सकती है। मुक्ति-लाभ करने के लिए अपनी सभी शक्तियों को -कर्म, विचार, उपासना और मनःसंयम समस्त पद्धतियों का अवलम्बन करो, सभी पालों को एक साथ उठा दो, अपने सभी अवयवों (शरीर-मन-हृदय) को पूरी शक्ति के साथ विकसित करो -और लक्ष्य तक पहुँच जाओ! इसे जितनी शीघ्रता से कर सको, उतना ही अच्छा है ! " ७/८५
" आत्मा को अपना स्वभाव, अपना स्वरूप समझना ही ज्ञान एवम प्रत्यक्षानुभूति है। -'आई ऐम ही' - मैं ही वह हूँ ! --इस विषय में किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है। "टु नो दी आत्मन ऐज मायी नेचर इज बोथ नॉलेज एंड रियलाइजेशन। "आई ऍम 'ही', देयर इज नॉट दी लीस्ट डाउट ऑफ़ इट." ७/८६
" देश-काल-निमित्त --ये सभी भ्रम हैं ! तुम सोचते हो कि मैं अभी बद्ध हूँ, आगे चलकर मुक्त होऊँगा --यही तुम्हारा रोग (भवरोग) है ! तुम तो अपरिणामी हो ! पार्थक्य या भेद नामक कोई वस्तु नहीं है, वह सब तो कुसंस्कार मात्र है। अतएव मौन भाव का अवलम्बन करो और अपना स्वरूप पहचानो। बारम्बार बोलो- 'मैं आत्मा हूँ, मैं आनंदघनस्वरूप हूँ ' -शेष सब उड़ जाने दो ! 'उस समय'---सापेक्षिक ज्ञान का अतिक्रमण कर लेने के बाद, देह और मन के परे चले जाने के कारण; देह और मन के द्वारा जो कुछ अनुभव होता है, वह भी चला जाता है। आत्मा नाम-रूप के साथ कभी भी मिलती नहीं ! हम पहले प्रत्यक्षानुभूति करते हैं, युक्ति-विचार बाद में आता है। हमें यह प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनी होगी, और इसीको धर्म अर्थात आत्म- साक्षात्कार कहा जाता है। ७/ ८८-८९
" मैंने अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल से कहा था - ' मैं आपकी अपेक्षा इस जगत रूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्कृष्ट प्रणाली जानता हूँ --और मैं उससे आपकी अपेक्षा अधिक रस प्राप्त करता हूँ। क्योंकि, 'मैं जानता हूँ , मैं मर नहीं सकता' -अतएव मुझे रस निचोड़ने की जल्दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ, भय का कोई कारण नहीं है-अतएव आनंदपूर्वक निचोड़ता हूँ । मेरा कोई कर्तव्य नहीं है -मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय-सम्पत्ति का कोई बन्धन नहीं है ! इसीलिये सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। क्योंकि सभी (१६ जनवरी भी) मेरे लिए ब्रह्मस्वरूप हैं ! मनुष्य को भगवान समझकर उसके प्रति प्रेम रखने में कितना आनंद होता है !! ' --संतरे को इस रूप में निचोड़ कर देखिये - अन्य रूप से निचोड़ने पर आप जो रस पाएंगे, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पाएंगे-रस की एक बून्द भी व्यर्थ न जाएगी। जिसे हम 'इच्छा-शक्ति' समझते हैं, वास्तव में वही हमारी अंतःस्थ आत्मा है, और वह स्वभावतः मुक्त ही है !दैट व्हिच सीम्स टु बी दी विल इज दी आत्मन बिहाइंड, इट इज रियली फ्री. " ७/९१-९२ [अधोपतित भारत फिर से उठ खड़ा होगा। किन्तु यहाँ के ऋषियों ने जिन आध्यात्मिक सत्यों का आविष्कार किया था, वे केवल भारत के लिये न होकर सम्पूर्ण विश्व की धरोहर है। ये सत्य किसी देश-कल की संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं किये जा सकते हैं। 92/216)
" जीज़स वाज इम्परफेक्ट बिकॉज़ ही डीड नॉट लीव अप फुल्ली टु हिज ओन आइडियल, इसी कारण कि उन्होंने नारी-जाति को पुरुष के तुल्य अधिकार नहीं दिया। एक भी स्त्री को (लीडरशिप ट्रेनिंग देकर) वे 'प्रेरित शिष्या' (Apostle-अपॉसल या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता -या प्रचारक नहीं बना सके!) परन्तुबुद्ध ने धर्म-प्रचारक बनने के क्षेत्र में पुरुषों के समान ही स्त्रियों का अधिकार स्वीकार किया था, और उनकी अपनी स्त्री ही उनकी प्रथम और प्रधान शिष्या थीं। वे बौद्ध भिक्षुणियों (SNS) की लीडर (कैम्प कमाण्डर) बनी थीं। हमारे लिए उनका दोषानुसन्धान करना उचित नहीं है, किन्तु कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसी के भरोसे हमें बैठे नहीं रहना चाहिये; बल्कि हमें भी बुद्ध या ईसा (जैसा अवतार) बनना होगा। किसी व्यक्ति के दोष या असम्पूर्णता को देखकर उसके बारे में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है। किसी नेता में जो सद्गुण दिखाई देता है, वह उसका अपना है, किन्तु दोष मानवसुलभ सर्वसाधारण दुर्बलता मात्र हैं; अतः सच्चे मार्गदर्शक नेताओं के चरित्र का विचार करते समय, उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिये। " ७/९२
" नेवर फॉरगेट दी ग्लोरी ऑफ ह्यूमन नेचर. मनुष्य- स्वभाव की महिमा कभी मत भूलना ! भूत या भविष्य में, न कोई हमलोगों की अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा! मैं ही वह अनंत महासमुद्र हूँ -ईसा, बुद्ध मेरी ही सतह पर उठने वाली तरंगे हैं ! ७/९३
" निर्गुण परब्रह्म की उपासना नहीं की जा सकती, इसीलिये हमें अपने ही सदृश मनुष्य-शरीर धारी उनके किसी प्रकाश-विशेष की उपासना करनी होगी। ईसा भी पहले हमलोगों के समान मनुष्य थे, बाद में वे ख्रिस्त हो गये थे। हम भी उनके समान ख्रिस्त हो सकते हैं,और हमें वह होना ही होगा। ख्रिस्त और बुद्ध अवस्था विशेष का नाम है-जो हमें प्राप्त करनी होगी। ईसा और गौतम वे मनुष्य हैं, जिनमें यह अवस्था व्यक्त हुई। जगन्माता या आद्या शक्ति ही ब्रह्म का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ प्रकाश है- उसके बाद ख्रिस्त,बुद्ध मोहम्मद और श्रीरामकृष्ण आदि प्रकाशित हुए हैं।" ७/३९
" किन्तु ईसा के शिष्य सोचते हैं, ईश्वर केवल एक बार अवतीर्ण हो सकता है,किन्तु यही विचार सब कुसंस्कारों,सब भ्रमों की जड़ है। " ७/२२९
प्रकृति में ऐसी कोई घटना नहीं है, जो नियम के अधीन न हो। जो घटना एक बार हुई है, वह चिर काल से ही घटती आ रही है, और भविष्य में भी घटित होगी। ईसा की नकल मत बनो बल्कि ईसा बनो। हमें अवश्य पुरुषार्थ करना चाहिये और बन जाना चाहिये। सबसे महान धर्म है,अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।स्वयं अपनी आत्मा में विश्वास करो। (7/39-233)"]
प्रकृति में ऐसी कोई घटना नहीं है, जो नियम के अधीन न हो। जो घटना एक बार हुई है, वह चिर काल से ही घटती आ रही है, और भविष्य में भी घटित होगी। ईसा की नकल मत बनो बल्कि ईसा बनो। हमें अवश्य पुरुषार्थ करना चाहिये और बन जाना चाहिये। सबसे महान धर्म है,अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।स्वयं अपनी आत्मा में विश्वास करो। (7/39-233)"]
[ उनके गुरु ने अपने शिष्य नरेन्द्रनाथ के उपर सम्पूर्ण जगत में उस 'शिक्षा' का प्रचार-प्रसार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था जिसे वेदों में, 'श' के साथ 'ई' की मात्रा लगा कर "शीक्षा" कहा जाता है। (तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा-वल्ली ' देखें वहाँ शिक्षा को 'शीक्षा' लिखा गया है ) जो शिक्षा मनुष्य को पैगम्बर या मानवजाति के सच्चे 'नेता' में परिणत कर दे उसी को 'शीक्षा' कहते हैं। इसीलिये 'अनपढ़ ठाकुर' ने स्लेट पर लिखा था- " नरेन् शिक्षा देगा ! " और उसी 'शीक्षा' को प्राप्त करके भारतवासी मानवजाति के पथप्रदर्शक या सच्चे नेता बनेंगे। और तब हमारी भारतमाता अपने "जगद्गुरू" के गौरवशाली सिंहासन पर फिर से विराजमान हो जाएगी। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं का आह्वान करते है-
'चरैवेति चरैवेति!' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो !
देखो यह अवसर कहीं बीत न जाये। वे हमे सचेत करते हुए कहते हैं- " समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किन्तु अपने आमोद पूर्ण जीवन से सन्तुष्ट, अपने सुन्दर प्रसादों में मनोरम वस्त्राभूषणों से विभूषित, अनेकविध भोज्य पदार्थों से तुष्ट; हे मोहनिद्रा में अभिभूत नर-नारियों! ..जगत के इस महा सत्य पर विचार करो, संसार में चारो ओर दुःख ही दुःख है।देखो,संसार में पदार्पण करता हुआ शिशु भी वेदनापूर्ण रुदन करने लगता है। यह एक हृदयविदारक सत्य है।
कभी कभी इन उपदेशों को भूलकर मैं मोह से अभिभूत हो जाता हूँ। तब इस स्थिति में हठात तथागत बुद्ध का सन्देश मुझे सुनाई पड़ता है-'सावधान ! संसार के सकल पदार्थ नश्वर हैं। संसार दुःखमय है।
"
तभी मेरे कानों में ईसा की घोषणा गूंजने लगती है-
"प्रस्तुत रहो ! (अर्थात मन को एकाग्र करने का अभ्यास करो !), स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है !"
एक क्षण का भी विलम्ब न होने दो।कल पर कुछ न छोड़ो और उस परम अवस्था (वह 'सत्य' जो हमें मुक्त का देगा या transcendental reality ) के लिये सदा प्रस्तुत रहो, वह तुम्हारे निकट किसी भी क्षण उपस्थित हो सकती है।"7/192 (मन फिराओ; क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।Matthew - मत्ती3/2)जिस शिक्षा को वेदों में 'शीक्षा' कहा गया है, जिसका प्रशिक्षण केवल वे महापुरुष ही दे सकते हैं, जो स्वयं 'मनुष्य' बन चुके हों, उस ' मनुष्य निर्माण कारी शिक्षा ' को स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं के समक्ष रखते हुए कहते हैं- "मनुष्य की जन्मजात महिमा कभी मत भूलना। भूत हो या भविष्य में,न कोई हमारी अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा। तुम अपने अन्तस्थ आत्मा को छोड़ और किसी के सामने सिर मत झुकाओ।मैं ही समग्र समुद्र हूँ, तूम स्वयं इस समुद्र में जिस एक क्षुद्र तरंग की सृष्टि करते हो, उसे 'मैं' मत कहो। हम भविष्य में क्या होने वाले हैं,कितने महान होने वाले है-यह क्या ईश्वर नहीं जानता?7/93" " महापुरुषत्व, ऋषित्व,अवतारत्व, या लौकिक विद्या में शूरत्व -सभी जीवों,में विद्यमान है।जो समाज गुरु द्वारा प्रेरित है,वह अधिक वेग से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु जो समाज (या परिवार या राष्ट्र ) गुरुविहीन है, उसमें भी समय की गति के साथ गुरु का उदय और ज्ञान का विकास होना उतना ही निश्चित है। " 10/160 क्योंकि देश-काल की सीमा को, या स्वामीजी की भाषा में " अपनी मानसिक चहारदीवारी को स्वयं कौन पार कर सकता है ?7/182]
[स्वामीजी कहते हैं, "नर रूप धारी अवतार की पहचान क्या है ? जो मनुष्यों के विनाश के दुर्भाग्य को बदल सके, वह भगवान है। मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता, जो रामकृष्ण को भगवान समझता हो। उन्हें भगवान के रूप में जान लेने और साथ ही संसार से आसक्ति रखने में संगती नहीं है। " 10/401 "वे उन अभिनेताओं के समान हैं,जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चूका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रयोजन नहीं है, तो भी वे दूसरों को आनन्द देने रंगमंच पर बारम्बार आते रहते हैं। "7/8 श्रीरामकृष्ण का नाम जिनको मिल गया वे धन्य हैं, कुलं पवित्रं जननी कृतार्था !6/212"
"हममें से अधिकांश जन्मजात रूप से सगुण धर्म, अवतारवाद में श्रद्धा रखते हैं।मुसलमानों ने आरम्भ में ऐसी उपासना का विरोध किया है,किन्तु प्रत्यक्षतः वे सहस्रों पीरों की पूजा करते पाये जाते हैं।कोई भी पैगम्बर सारे विश्व पर सदा के लिये शासन करने नहीं जन्मा है। सब स्वरों के समन्वय से ही एकलयता उत्पन्न होती है, किसी एक स्वर से नहीं। जातियों की इस ईश्वर निर्दिष्ट एकलयता में सभी जातियों को अपने अपने अंश का अभिनय करना पड़ता है। सभी जातियों को अपना अपना जीवनोद्देश्य प्राप्त करना पड़ता है, अपने अपने कर्तव्यों की पूर्ति करनी पड़ती है। "7/178 "मुहम्मद साहब दुनिया में समता,बराबरी के सन्देश वाहक थे-वे मानव जाति में, मुसलमानों में भ्रातृ-भाव के प्रचारक थे।" 7/192 स्वामीजी कहते हैं- "मैं तो यह पसन्द करूँगा कि तुममें से हर एक व्यक्ति मसीहा बन जाओ। बुद्ध,कृष्ण,ईसा,मोहम्मद सभी अवतार महान हैं, हम उनके चरणों में प्रणाम करते हैं। किन्तु इसके साथ साथ हम स्वयं को भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि वे यदि ईश्वर-पुत्र और अवतार हैं, तो हम भी वही हैं। उनहोंने अपनी पूर्णता पहले प्राप्त कर ली है,और हम भी यहीं और इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेंगे। ईसा के शब्दों का स्मरण करो-'स्वर्गराज्य निकट ही है।' इसीलिये इसी क्षण हम सबको यह दृढ संकल्प कर लेना चाहिये कि-" मैं पैगम्बर बनूंगा,मानव जाति का मसीहा बनूँगा,मैं ईश्वर-पुत्र बनूंगा- नहीं, मैं स्वयम ईश्वरस्वरुप बनूँगा। '7/193]
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