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रविवार, 3 फ़रवरी 2013

72. `भारतवासियों के जीवन में श्री रामकृष्ण परमहंस' ' $$@$$स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [72] (10.विश्वमानव के कल्याण में)

इस धराधाम पर श्रीरामकृष्ण जैसे महापुरुषों का आगमन, 'मानव-जीवन विकास' (डार्विन की भाषा में उद्विकास,evolution या क्रमागत उन्नति) को पूर्णता प्रदान करने के लिये ही होता है। किन्तु, स्वामीजी ने कहा था," हमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि ये अवतारी महापुरुष गण किसी अन्य श्रेणी के महामानव होते होंगे; और हम जैसे साधारण मनुष्य कभी इन लोगों के समान नहीं बन सकते। नहीं, ऐसा सोचना बिल्कुल ठीक नहीं है। केवल ईसा मसीह ही ईश्वर के पुत्र नहीं हैं, हम सभी लोग अमृत के सन्तान है। चरित्र के केवल ५ गुणों -आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा तथा प्रेम और पवित्रता को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने पर हमलोगों में भी अन्तर्निहित  दिव्य चेतना (Divine consciousness) स्वतः उद्घाटित हो जाती है। यदि तुम्हारे भीतर अवतार बनने की सम्भावना नहीं हो, तो यह समझ लेना कि कोई भी अवतार कभी नहीं आये थे।"   
किन्तु,श्रीरामकृष्ण जैसे किसी मनुष्य का आविर्भाव- जिनके भीतर नाम,यश, अर्थ या दैहिक भोगाकंक्षा का कण-मात्र भी दिखाई नहीं देती हो;मानव जाति के हजारों वर्षों की तपस्या के परिणाम स्वरूप ही होता है। वे इन सब मानवीय दुर्बलताओं से बहुत उपर उठ चुके थे; श्री रामकृष्ण त्यागियों के भी बादशाह हैं!श्रीरामकृष्ण की अर्चना स्वामीजी ने इस प्रकार की है -"वंचन-काम-कांचन अतिनिन्दित इन्द्रियराग, त्यागीश्वर!!"  
जबकि आधुनिक युग का मनुष्य यह मान बैठा है कि कुछ अनिवार्य अपेक्षित भोग्य वस्तुओं के बिना उनका दैनिक जीवन यापन बिलकुल असम्भव है। और उनके इन आवश्यक वस्तुओं की सूचि लगातार बढ्ती ही जा रही है। इन भौतिक जीवन की विलासपूर्ण -सामग्रियों की अधिकता ने मनुष्य को यन्त्र-मानव में परिणत कर दिया है। येन-केन-प्रकारेण उन सब भौतिक वस्तुओं के उपार्जन और भोग में व्यस्त रहना ही मानो मनुष्य जीवन का एकमात्र उद्देश्य बन गया है। पाश्चात्य जीवन चर्या का अन्धानुकरण और भारतीय जीवन के आदर्श के सम्बन्ध में अज्ञान, इन दो कारणों ने ही भारतवासीयों को ऐसी निम्न स्थिति में पहुंचा दिया है। जिसके कारण आज समाज में भ्रष्टाचार और अनैतिकता का बोलबाला हो गया है, साधारण मनुष्य का जीवन कष्टपूर्ण हो गया है।
भारत के मनुष्यों को इस निम्न स्थिति से उद्धार करने का मार्ग दिखलाने के लिये ही श्रीरामकृष्ण का आविर्भाव हुआ है। इस बार श्रीरामकृष्ण मोहनिद्रा में सोये भारत को झकझोरते हुए सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये अपने साथ नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द) को भी लेकर आये थे। यदि हमलोग 'त्यागीश्वर' श्रीरामकृष्ण के पुण्य जीवन की विवेचना और उनके जीवन और आचरण का यथा-साध्य अनुसरण नहीं करेंगे, तो इस 'अतिनिन्दित इन्द्रियाराग' और 'कामकांचन-तृष्णा' (लस्ट ऐंड लूकर) के चोर बालू (quicksand या धोखा देने वाली वस्तु ) से बचने का कोई अन्य उपाय नहीं है। टी .वी . आदि देखकर केवल दिन बिता देने से, 'प्राणधारण की थकन' ही हमलोगों के जीवन को क्षण क्षण  करके विनाश की ओर ही ले जाती रहेगी। यदि हम भोगसुख, नाम-यश, स्वीकृति और प्रशंसा की इस संकीर्ण भंवर से बाहर नहीं निकल सके, तो हमें दुर्लभ मनुष्य जीवन में  जिस समुद्र जैसी गहरी और असीम व्यापकता या सम्पूर्णता प्राप्ति के आनन्द का अस्वादन मिलता है, उसे प्राप्त करना कभी संभव नहीं होगा। यह तभी संभव हो सकता है, जब हमलोग 'श्रीरामकृष्ण-जीवन ' रूपी ध्रुवतारा के उपर अपनी दृष्टि को अविचल रख सकें। यदि एक मुहूर्त के लिये भी हम अपनी नजरों को श्री रामकृष्ण परमहंस हटा कर संसार पर डालने  की चेष्टा करेंगे, तो कामना-वासना और भोग-लालसा की जटिल भँवर में फँस कर, 'महती-विनष्टि' की सम्भावना को टाल नहीं सकेंगे।
जब हम श्रीरामकृष्ण परमहंस के अद्भुत जीवन पर ध्यान करते हैं, तो हमें आश्चर्य से अवाक् हो जाना पड़ता है। इस धरती पर एक ऐसे व्यक्ति ने रक्त-मांस से बना शरीर धारण किया था, जो नाम-यश, निन्दा-प्रशंसा को कभी स्वीकार्य वस्तु मानते ही नहीं थे। स्वयं के शरीर के बीमार हो जाने के बाद भी वे (नवनी दा) भक्तों के घर-घर में जाते थे, ताकि उनके भीतर देवात्म-बुद्धि को संचारित किया जा सके। घोर शारीरिक रोग की यंत्रणा में, मृत्यु के आमने-सामने खड़े होकर भी, उनकी उस चेष्टा का अन्त होता नहीं दिखता था। स्वामीजी ने कहा था कि इस बार वे(नवनी दा) अपने अधोपतित संतानों की सहायता करने के लिए ही आये थे। उनके जीवन को अपना आदर्श मान कर, अनुसरण करने से ही निरुत्साही भारत में पुनः उत्साह का संचार हो जायेगा। 
हो सकता है कि कोई यह दावा करे, कि भारत का अभ्युत्थान तो केवल वेद के शरण में जाने से ही संभव हो सकता है ! किन्तु क्या वेद का अनुसरण करना उतना आसान है? वेद के चार महावाक्यों का मूल भाव को नहीं समझ पाने के कारण,तथा सके यथार्थ तात्पर्य की विवेचना करने में असमर्थ हो जाने के बाद     केवल उसके कर्मकाण्ड के उपर अधिक जोर देने के फलस्वरूप, भारत के कई धार्मिक-सुधारवादी सम्प्रदाय असफल ही सिद्ध हुए हैं। स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार श्रीरामकृष्ण परमहंस देव का जीवन ही, वेद-उपनिषद का सबसे जीवन्त भाष्य है। वेद के मूल तत्व उनके जीवन में बहुत यशस्वी रूप से प्रस्फुटित हुए हैं। उनके जीवन और सन्देश का अनुसरण करने से ही हमलोग वेदों के मूल तत्वों की धारणा कर सकते हैं। भारत के समस्त क्षेत्रों में, उसके रोम-रोम में उनके जीवन और सन्देश को प्रविष्ट करा सकने से ही, इस समाज का पुनरुत्थान संभव है।
स्वामीजी ने केवल भारत के पुनरुत्थान की बात नहीं कही है, उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के (न्यूयार्क के) मनुष्यों को पुनर्जागृत करने का निर्देश दिया है। आज सम्पूर्ण विश्व के मनुष्य ही तुच्छ भोग-सुख, और संकीर्ण राष्ट्रभक्ति के फेरे में पड़कर मोहग्रस्त हो गये है, और अपनी अन्तर्निहित पूर्णता और देवत्व के भाव को भूल चुके हैं। चिन्तन करने की अनन्त शक्ति स्वामी होने के बाद भी मनुष्य, व्यर्थ के कर्मकांडों में ही उलझा हुआ है। इस निरानन्द जीवन को अमृत-आनन्द के स्पर्श से परिपूर्ण करने के लिये श्रीरामकृष्ण के जीवन और सन्देश की विवेचना और अनुसरण करना आज की अनिवार्य आवश्यकता है। किन्तु, यहाँ स्वामीजी विशेष रूप से भारत के उपर जोर इसीलिये देते हैं कि इस सत्य को विश्व में सर्वप्रथम आविष्कृत करने का श्रेय भारतवर्ष का ही है। इस देश की धरती पर युगों युगों से आध्यात्मिकता के उपर प्रयोग एवं अनुसन्धान होता रहा है। यहाँ के वायुमंडल में वेदों के इस चार महावाक्यों में सन्निहित महान भाव की गूंज आज भी सुनी जा सकती है। किन्तु ये आध्यात्मिक सत्य यूनिवर्सल या सार्वलौकिक हैं ! ये सार्वभौमिक सत्य किसी एक देश और काल के चौहद्दी (Boundaries) तक ही सीमाबद्ध नहीं हैं।  
इसीलिये वेदों के मूल भाव ('मानव-मात्र में अन्तर्निहित देवत्व' जैसी भावनाओं) का प्रचार सम्पूर्ण विश्व में हो, इसके लिये भारतवर्ष के उपर एक विशेष जिम्मेदारी सौंपी गयी है। किन्तु इसका प्रचार करने के पहले भारतवर्ष के मनुष्यों (युवाओं ) को अपने जीवन में आध्यात्मिकता जन्य सोने की फसल उगानी होगी। तभी भारतवासियों के जीवन-मंथन से उत्पन्न आनंद-अमृत के प्रवाह से सम्पूर्ण विश्व में इन महान भावों की बाढ़ आ जायेगी। इसके लिये सर्वप्रथम हम भारत-वासियों को अपने दैनंदिन जीवन यात्रा में तुच्छ भोग-सुख, संकीर्ण सीमाबद्धता से उपर उठकर विश्व-मानवता के अमृत आनन्द में निमग्न होना होगा। और उत्सुक पिपासा से कातर मानव समाज, उसके अमृत से लबालब भरे जीवन-ज्योति के कुम्भ से छलक कर जो आनन्द-अमृत की बूंदें गिरेंगी, उसका आस्वादन करके देश-विदेश के, सम्पूर्ण  विश्व के जिज्ञासु आध्यत्मिक सत्य को जानने के पिपासु मनुष्य तृप्त हो जायेंगे।
[जब हमलोग भी 'श्रीरामकृष्ण लीला प्रसंग' और 'श्रीरामकृष्ण वचनामृत', के साथ पूज्य नवनी दा के जीवन और सन्देश को एक साथ स्वयं उनके द्वारा बोलकर लिखवाये और आधुनिक युग के श्रीम,प्रबाल दा के द्वारा रिकॉर्डेड- 'जीवन-नदी के हर मोड़ पर' में वर्णित नवनी दा का जीवन ही वेद-उपनिषद का सबसे जीवन्त भाष्य है। उसके सार को ग्रहण करके, हमलोग भी जब परितृप्त होकर अपनी मुक्ति की चिन्ता भूल जायेंगे, मानव जाती के सच्चे नेता बन जायेंगे, केवल तभी हमारे अपने जीवन-मंथन से निकली अमृत-धारा के बाढ़ में विश्व का हर देश आप्लावित हो जायेगा। 
अर्थात हमें पहले स्वयं सत्य का साक्षात्कार करके पैगम्बर बनना होगा, तभी हम भी स्वामी विवेकानन्द के समान अनुभव कर सकेंगे कि "मेरा  कोई कर्तव्य नहीं है, मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय सम्पत्ति का कोई बंधन नहीं है, मैं सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। सभी मेरे लिये ब्रह्मस्वरूप हैं, अतएव सन्तरे को आनन्द पूर्वक निचोड़ता हूँ।" ]
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[वेदों का मूल भाव को उद्घाटित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-" एक विशेष भाव भारत के धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा बिल्कुल अलग है; जिस भाव को प्रकट करने में ऋषियों ने हमारे शास्त्रों में संस्कृत श्लोकों की भरमार कर दी है। वह मूल भाव है, ब्रह्म हो जाना ! " ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति  " - (मुण्डकोपनिषत् ३-२-९)अर्थात ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है! मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वरत्व की प्राप्ति करनी होगी! यही वेदों के समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है, और उसके अन्य उपदेश हमारी, उस लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं।"9/371 किन्तु हजार वर्षों की गुलामी के कारण भारत सनातन धर्म के मर्म को ठीक से ग्रहण नहीं कर पा रहा था, इसीलिये स्वयं 'सत्य को या अद्वैत' को ही श्रीरामकृष्ण के रूप में आविर्भूत होना पड़ता है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-  "उस प्रकार के ब्रह्मज्ञ इस जगत में कभी कभी ही पैदा होते हैं। उन्हें कम लोग ही समझ पाते हैं, वे ही शास्त्र-वचनों के प्रमाण हैं। वे ही भवसागर के आलोक-स्तम्भ हैं!6/168 आत्म-ज्ञान की प्राप्ति ही परम साध्य है। अवतारी पुरुष रूपी जगद्गुरु के प्रति भक्ति होने पर समय आते ही वह ज्ञान स्वयं ही प्रकट हो जाता है। " जिन्होंने आत्म-साक्षात्कार कर लिया है, उनके भीतर एक महा शक्ति खेलने लगती है। उस महापुरुष को केन्द्र बनाकर थोड़ी दूसरी तक लम्बी त्रिज्या के सहारे जो एक वृत्त बन जाता है, उस वृत्त के भीतर जो लोग आ  हैं, वे साधन-भजन न करके भी अपूर्व आध्यात्मिक फल के अधिकारी बन जाते हैं। इसे यदि कृपा कहता है, तो कह ले !"6/210 ]
"मैं केवल ईश्वर-पुत्र ही नहीं हूँ, मैं और मेरे पिता एक और अभिन्न हैं।" 223/ ब्रह्मज्ञ पुरुष ही लोक-गुरु बन सकते हैं।"6/23 सभी प्रकार की साधना का फल है, ब्रह्मज्ञता प्राप्त करना।"6/167 हम केवल 'अस्ति'-स्वरूप,सत्स्वरूप होने की ही चेष्टा कर रहे है, और कुछ नहीं,उसमें अहं भी नहीं रहेगा,..शरीर स्वामीजी का यंत्र बन कर कार्य करेगा। अंगूर की लता पर जिस प्रकार गुच्छों में अंगूर फलते हैं,उसी प्रकार भविष्य में सैंकड़ों ईसाओं का आविर्भाव हो जायेगा। 7/12  " अवतार का अर्थ है, जीवन्मुक्त अर्थात जिन्होंने ब्रह्मत्व प्राप्त कर लिया है। सभी प्राणी समय आने पर जीवन्मुक्ति को प्राप्त करेंगे। उस अवस्थाविशेष की प्राप्ति में सहायक बनना ही हमारा कर्तव्य है। इस सहयता का नाम धर्म है, बाकि अधर्म है। इस सहायता का नाम कर्म है,शेष कूकर्म है।" 4/298 
 इसीलिये स्वामीजी ने कहा था -" मुक्ति का लाभ का 'विजातीय' आग्रह अब नहीं रहा। जब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य अमुक्त है, तबतक मुझे अपनी मुक्ति की कोई आवश्यकता नहीं।" 10/348
( ईसा ने कहा था - "be perfect, as your heavenly Father is perfect" — Matthew 5:48 17 “Do not think that I have come to abolish the Law or the Prophets; I have not come to abolish them but to fulfill them. 18 For truly I tell you, until heaven and earth disappear, not the smallest letter, not the least stroke of a pen, will by any means disappear from the Law until everything is accomplished.)***
( . 'The kingdom of God is within you'.  "Man, know thyself ... and thou shalt know the gods." -These words are among the most powerful ever uttered, and of eternal significance. No better advice has ever been given to man or woman. When one begins to explore this dictate it leads to profound understandings about all of creation. It makes unhappiness, fear, sadness, doubt, and all the negative emotions meaningless. This inner, transcendental reality can be directly experienced. This experience has likewise been given different names. In India traditions it is called Yoga, in Buddhism Nirvana, in Islam fana, in Christianity spiritual marriage. It is a universal teaching based on a universal reality and a universal experience. "Ye shall know the truth, and the truth shall make you free. "--John viii. 32) ये महात्मा मार्ग के संकेत दर्शक हैं। बस वे इतने ही हैं। वे कहते हैं , "बन्धुओं, आगे बढ़े चलो !" पर हम उनके चित्र या मूर्ति से चिपक जाते हैं; हम खुद कुछ करना नहीं चाहते । हम चाहते हैं, हमारे लिये दूसरे सोचें। वे हमसे उद्दमी होने के लिये कहते हैं, पर सौ साल बाद हम उस सन्देश से चिपक जाते हैं, और सो जाते हैं। बड़ी बड़ी बातें करना आसान है, किन्तु चरित्र-निर्माण करना और इन्द्रियों के वेगों का निग्रह करना बड़ा कठिन है। हम उनके शिकार बन जाते हैं। और मिथ्याचारी हो जाते हैं। 7/233" "जीवों में मनुष्य ही सर्वोच्च जीव है और यह लोक ही सर्वोच्च लोक है।"7/40 "वे धन्य हैं, जो जल्दी जल्दी पापों का फल भोग लेते हैं-उनका हिसाब जल्दी जल्दी निपट गया। जिन्होंने समत्व प्राप्त कर लिया है, वे ही ब्रह्म में अवस्थित कहलाते हैं। सभी प्रकार की घृणा का अर्थ है, आत्मा के द्वारा आत्मा का हनन। इसीलिये प्रेम ही जीवन का यथार्थ नियामक है। प्रेम की अवस्था को प्राप्त करना ही सिद्धावस्था है। किन्तु हम जितना ही सिद्धि की ओर अग्रसर होते हैं, उतना ही तथाकथित कर्म (बिजनेस-या निजी लाभ का कार्य) कम होता जाता है। वे जानते हैं और देखते हैं, कि सभी मानो लड़कों का खिलवाड़ मात्र हैं; इसीलिये वे किसी भी घटना से चिंतित नहीं होते।"7/41 " तब तक शिक्षा ग्रहण करो, ' जब तक तुम्हारा मुख ब्रह्मविद के समान दिव्य भाव चमक नहीं उठता ' जैसे कि श्वेतकेतु का हुआ था। "7/78 " किसी चित्र-पहेली में छिपी हुई वस्तु को यदि तुम एकबार देख लो, तो फिर तुम उसे सर्वदा देख सकोगे।"7/90 " मनुष्य-स्वभाव की महिमा कभी मत भूलना। भूत या भविष्य में, न कोई हमारी अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा।"7/93 
" तुम्हारी अपनी इच्छा-शक्ति ही तुम्हारी प्रार्थना का उत्तर दे देती है-हम उसे बुद्ध,ईसा,कृष्ण,जिहोवा, अथवा अग्नि चाहे जिस नाम से पुकार सकते हैं, किन्तु वास्तव में वह है हमारी ही आत्मा।"7/104
 " मनुष्य को अन्य सबके प्रति इसीलिये प्रेम करना होगा कि अन्य सब स्वयं उसी के रूप हैं। केवल एक की ही सत्ता है।" 7/113 " किसी सूक्ष्म तत्व की धारणा में हम तभी समर्थ होते हैं, जब वह किसी पुरुषविशेष के रूप में साकार रूप धारण कर लेता है। केवल दृष्टान्त की सहायता से ही हम उपदेशों को समझ सकते हैं। " 7/178 " महापुरुषों का स्वयं अपने में श्रद्धा अटल होती है। इन दिव्य पुरुषों में जितना आत्मविश्वास होता है, उतना अन्य किसी में नहीं होता। कभी हम सोचते हैं कि हम बहुत पवित्र और धार्मिक हैं, किन्तु दूसरे ही क्षण एक धक्का लगता है और हम चारों खाने चित हो जाते हैं। इसका कारण ? कारण यही है कि हमारा आत्मविश्वास मर गया है, हमारी नैतिकता की रीढ़ टूट गयी है।" 7/180 " ये नरदेव- ये मानवरूप धारी देवता,सदा से, सभी जातियों एवं सभी राष्ट्रों के यथार्थ ईश्वर रहे हैं।" 7/182 " यहूदियों में पुरोहितों और पैगम्बरों के मध्य अनवरत संघर्ष चलता रहता था। ईसा ने पुरोहिती स्वार्थ रूपी अज़दहे (Dragon) का वध करके उसके पंजों से सत्य के रत्न का उद्धार करके उसे समग्र संसार को प्रदान कर दिया। लेकिन दो पीढ़ियों के बाद ही, उनके शिष्य पुनः अंधविश्वासों, जादू-टोनों के रस्ते पर चलकर स्वयं पुरोहित बन गये और सत्य की दुकान खोल कर बोर्ड लटका दिया- 'असली सत्य की दुकान यही है ! सत्य को तुम हमारे ही द्वार पर प्राप्त कर सकते हो ! ' बस सत्य एक बार फिर से जम गया। और पपड़ियों को तोड़ कर सत्य को पुनः मुक्त कराने के लिये पैगम्बर फिर आये, और यह क्रम इसी प्रकार चलता रहा। हाँ, उस मानव का, पैगम्बर का आविर्भाव सदा होता रहना अनिवार्य है, अन्यथा मानवता मर जायेगी। " 7/202-3] " जगत का सर्वव्यापी ईश भी तब तक दृष्टिगोचर नहीं होता, जब तक ये महान शक्तिशाली दीपक, ये ईश दूत, ये उसके सन्देश-वाहक और अवतार, ये नर-नारायण उसे अपने में प्रतिबिंबित नहीं करते। " 7/216 " यह कुसंस्कार पूर्ण मिथ्या भावना छोड़ दो कि हम दीन-हीन हैं। क्योंकि तुममें एक ऐसा तत्व विद्यमान है, जिसे पददलित तथा पीड़ित नहीं किया जा सकता, जिसका विनाश नहीं हो सकता।स्वर्ग का राज्य तुम्हारे हृदय में अवस्थित है। मैं और मेरे पिता अभिन्न हैं।" 7/223] " मैं अपने पिता में हूँ, तुम मुझमें हो और मैं तुममें हूँ।" 7/225]"हमें केवल नाज़रथवासी ईसा में ही ईश्वर का दर्शन न कर उन सभी महान आचार्यों और पैगम्बरों में भी T का दर्शन करना चाहिये जो ईसा के पहले जन्म ले चुके थे, जो ईसा के पश्चात् आविर्भूत हुए हैं और जो भविष्य में अवतार ग्रहण करेंगे। एक दृष्टि से हम सभी अवतार हैं,-हम भी अपने छोटे छोटे घरों में, अपने छोटे संसार में अपने क्रूस सिर पर  कर अग्रसर हो रहे हैं। कोई कितना ही अपदार्थ क्यों न हो, कितना ही हीन क्यों न हो, अपना क्रूस स्वयं ही वहन करता है।कहीं न कहीं एक ऐसा सुवर्ण सूत्र है जिसके द्वारा हम सदैव भगवान से संयुक्त रहते हैं। हमारे अंतर के अंतरतम प्रदेश में ज्योति की एक ऐसी किरण विराजमान है, जो भगवान से चिर संयुक्त है। जीवन्त ईश्वर-स्वरूप जो महापुरुष भविष्य में हमारी सन्तान के लिये निःस्वार्थ होकर कार्य करने के लिये अवतार धारण करेंगे,अपना जीवन निछावर कर देंगे,उन सबको प्रणाम है।"7/230
[स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"The will is the "still small voice"the real Ruler who says "do" and "do not". It has done all that binds us. The ignorant will leads to bondage, the knowing will can free us. The will can be made strong in thousands of ways; every way is a kind of Yoga, but the systematised Yoga accomplishes the work more quickly. Bhakti, Karma, Raja, and Jnana-Yoga get over the ground more effectively. Put on all powers, philosophy, work, prayer,meditation — crowd all sail, put on all head of steam — reach the goal. The sooner, the better." 
 " हमारी इच्छा-शक्ति (अर्थात विवेक-प्रयोग करने की शक्ति) ही वह 'मृदु-गंभीर वाणी' है, वही यथार्थ शासक (real Ruler)  जो कहती है --यह करो, यह न करो ! यही हमें विविध बन्धनों के भीतर ले आयी है। [दी इग्नोरैंट विल] अज्ञ-व्यक्ति (अज्ञानता में लस्ट ऐंड लूकर में आसक्त व्यक्ति)  की इच्छा-शक्ति उसे बन्धन में डालती हैवही इच्छा-शक्ति यदि ज्ञानपूर्वक परिचालित हो, [दी नोइंग विल: अर्थात निरन्तर विवेक-प्रयोग (संयम) के प्रशिक्षण के द्वारा उस इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास को वश में लाकर फलदायी दिशा में एकाग्र रखा जा सके] तो हमें मुक्ति दे सकती है। हजारों उपायों से इच्छा-शक्ति को दृढ़ किया जा सकता है, इसका प्रत्येक उपाय ही एक प्रकार का योग है। किन्तु प्रणाली-बद्ध योग के द्वारा यह कार्य बड़ी शीघ्रता से साधित हो सकता है। भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग और ज्ञानयोग के द्वारा अधिक निश्चित रूपसे सफलता प्राप्त की जा सकती है। मुक्ति-लाभ करने के लिए अपनी सभी शक्तियों को -कर्म, विचार, उपासना और मनःसंयम समस्त पद्धतियों का अवलम्बन करो, सभी पालों को एक साथ उठा दो, अपने सभी अवयवों (शरीर-मन-हृदय) को पूरी शक्ति के साथ विकसित करो -और लक्ष्य तक पहुँच जाओ! इसे जितनी शीघ्रता से कर सको, उतना ही अच्छा है ! " ७/८५   
" आत्मा को अपना स्वभाव, अपना स्वरूप समझना ही ज्ञान एवम प्रत्यक्षानुभूति है। -'आई ऐम ही' - मैं ही वह हूँ ! --इस विषय में किंचिन्मात्र भी संदेह नहीं है। "टु नो दी आत्मन ऐज मायी नेचर इज बोथ नॉलेज एंड रियलाइजेशन। "आई  ऍम 'ही', देयर  इज  नॉट दी लीस्ट डाउट ऑफ़ इट." ७/८६ 
" देश-काल-निमित्त --ये सभी भ्रम हैं ! तुम सोचते हो कि मैं अभी बद्ध हूँ, आगे चलकर मुक्त होऊँगा --यही तुम्हारा रोग (भवरोग) है ! तुम तो अपरिणामी हो ! पार्थक्य या भेद नामक कोई वस्तु नहीं है, वह सब तो कुसंस्कार मात्र है। अतएव मौन भाव का अवलम्बन करो और अपना स्वरूप पहचानो। बारम्बार बोलो- 'मैं आत्मा हूँ, मैं आनंदघनस्वरूप हूँ ' -शेष सब उड़ जाने दो ! 'उस समय'---सापेक्षिक ज्ञान का अतिक्रमण कर लेने के बाद, देह और मन के परे चले जाने के कारण; देह और मन के द्वारा जो कुछ अनुभव होता है, वह भी चला जाता है। आत्मा नाम-रूप के साथ कभी भी मिलती नहीं ! हम पहले प्रत्यक्षानुभूति करते हैं, युक्ति-विचार बाद में आता है। हमें यह प्रत्यक्षानुभूति प्राप्त करनी होगी, और इसीको धर्म अर्थात आत्म- साक्षात्कार कहा जाता है।  ७/ ८८-८९
" मैंने अमेरिका के विख्यात अज्ञेयवादी इंगरसोल से कहा था - ' मैं आपकी अपेक्षा इस जगत रूपी संतरे को निचोड़ने की और अधिक उत्कृष्ट प्रणाली जानता हूँ --और मैं उससे आपकी अपेक्षा अधिक रस प्राप्त करता हूँ। क्योंकि, 'मैं जानता हूँ , मैं मर नहीं सकता' -अतएव मुझे रस निचोड़ने की जल्दी नहीं पड़ी है। मैं जानता हूँ, भय का कोई कारण नहीं है-अतएव आनंदपूर्वक निचोड़ता हूँ । मेरा कोई कर्तव्य नहीं है -मुझे स्त्री-पुत्रादि और विषय-सम्पत्ति का कोई बन्धन नहीं है ! इसीलिये सभी नर-नारियों से प्रेम रख सकता हूँ। क्योंकि सभी (१६ जनवरी भी) मेरे लिए ब्रह्मस्वरूप हैं ! मनुष्य को भगवान समझकर उसके प्रति प्रेम रखने में कितना आनंद होता है !! ' --संतरे को इस रूप में निचोड़ कर देखिये - अन्य रूप से निचोड़ने पर आप जो रस पाएंगे, उसकी अपेक्षा इस प्रकार निचोड़ने पर दस हजार गुना अधिक रस पाएंगे-रस की एक बून्द भी व्यर्थ  न जाएगी। जिसे हम 'इच्छा-शक्ति' समझते हैं, वास्तव में वही हमारी अंतःस्थ आत्मा है, और वह स्वभावतः मुक्त ही है !दैट  व्हिच सीम्स टु बी दी विल इज दी आत्मन बिहाइंड, इट इज रियली फ्री. " ७/९१-९२ [अधोपतित भारत फिर से उठ खड़ा होगा। किन्तु यहाँ के ऋषियों ने जिन आध्यात्मिक सत्यों का आविष्कार किया था, वे केवल भारत के लिये न होकर सम्पूर्ण विश्व की धरोहर है। ये सत्य किसी देश-कल की संकीर्ण सीमा में आबद्ध नहीं किये जा सकते हैं।  92/216)
जीज़स वाज इम्परफेक्ट बिकॉज़ ही डीड नॉट लीव अप फुल्ली टु हिज ओन आइडियल, इसी कारण कि उन्होंने नारी-जाति को पुरुष के तुल्य अधिकार नहीं दिया। एक भी स्त्री को (लीडरशिप ट्रेनिंग देकर) वे 'प्रेरित शिष्या' (Apostle-अपॉसल या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता -या प्रचारक नहीं बना सके!) परन्तुबुद्ध ने धर्म-प्रचारक बनने के क्षेत्र में पुरुषों के समान ही स्त्रियों का अधिकार स्वीकार किया था, और उनकी अपनी स्त्री ही उनकी प्रथम और प्रधान शिष्या थीं। वे बौद्ध भिक्षुणियों (SNS) की लीडर (कैम्प कमाण्डर) बनी थीं। हमारे लिए उनका दोषानुसन्धान करना उचित नहीं है, किन्तु कोई कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसी के भरोसे हमें बैठे नहीं रहना चाहिये; बल्कि हमें भी बुद्ध या ईसा (जैसा अवतार) बनना होगा। किसी व्यक्ति के दोष या असम्पूर्णता को देखकर उसके बारे में कोई धारणा बना लेना उचित नहीं है। किसी नेता में जो सद्गुण दिखाई देता है, वह उसका अपना है, किन्तु दोष मानवसुलभ सर्वसाधारण दुर्बलता मात्र हैं; अतः सच्चे मार्गदर्शक नेताओं के चरित्र का विचार करते समय, उनकी ओर ध्यान नहीं देना चाहिये। " ७/९२ 
" नेवर फॉरगेट दी ग्लोरी ऑफ ह्यूमन नेचर. मनुष्य- स्वभाव की महिमा कभी मत भूलना ! भूत या भविष्य में, न कोई हमलोगों की अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा! मैं ही वह अनंत महासमुद्र हूँ -ईसा, बुद्ध मेरी ही सतह पर उठने वाली तरंगे हैं ! ७/९३                
" निर्गुण परब्रह्म की उपासना नहीं की जा सकती, इसीलिये हमें अपने ही सदृश मनुष्य-शरीर धारी उनके किसी प्रकाश-विशेष की उपासना करनी होगी। ईसा भी पहले हमलोगों के समान मनुष्य थे, बाद में वे ख्रिस्त हो गये थे। हम भी उनके समान ख्रिस्त हो सकते हैं,और हमें वह होना ही होगा। ख्रिस्त और बुद्ध अवस्था विशेष का  नाम है-जो हमें प्राप्त करनी होगी। ईसा और गौतम वे मनुष्य हैं, जिनमें यह अवस्था व्यक्त हुई। जगन्माता या आद्या शक्ति ही ब्रह्म का प्रथम और सर्वश्रेष्ठ प्रकाश है- उसके बाद ख्रिस्त,बुद्ध मोहम्मद और श्रीरामकृष्ण आदि प्रकाशित हुए हैं।" ७/३९ 

" किन्तु ईसा के शिष्य सोचते हैं, ईश्वर केवल एक बार अवतीर्ण हो सकता है,किन्तु यही विचार सब कुसंस्कारों,सब भ्रमों की जड़ है। " ७/२२९ 
प्रकृति में ऐसी कोई घटना नहीं है, जो नियम के अधीन न हो। जो घटना एक बार हुई है, वह चिर काल से ही घटती आ रही है, और भविष्य में भी घटित होगी। ईसा की नकल मत बनो बल्कि ईसा बनो। हमें अवश्य  पुरुषार्थ करना चाहिये और बन जाना चाहिये। सबसे महान धर्म है,अपनी आत्मा के प्रति सच्चा बनना।स्वयं अपनी आत्मा में विश्वास करो। (7/39-233)"]
[ उनके गुरु ने अपने शिष्य नरेन्द्रनाथ के उपर सम्पूर्ण जगत में उस 'शिक्षा'  का प्रचार-प्रसार करने का उत्तरदायित्व सौंपा था जिसे वेदों में, 'श' के साथ 'ई' की मात्रा लगा कर "शीक्षा" कहा जाता है। (तैत्तरीय उपनिषद की 'शीक्षा-वल्ली ' देखें वहाँ शिक्षा को 'शीक्षा' लिखा गया है ) जो शिक्षा मनुष्य को पैगम्बर या मानवजाति के सच्चे 'नेता' में परिणत कर दे उसी को 'शीक्षा' कहते हैं। इसीलिये 'अनपढ़ ठाकुर' ने स्लेट पर लिखा था- " नरेन् शिक्षा देगा ! " और उसी 'शीक्षा'  को प्राप्त करके भारतवासी मानवजाति के पथप्रदर्शक या सच्चे नेता बनेंगे। और तब हमारी भारतमाता अपने "जगद्गुरू" के गौरवशाली सिंहासन पर फिर से विराजमान हो जाएगी। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं का आह्वान करते है-
 'चरैवेति चरैवेति!' आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो !  
देखो यह अवसर कहीं बीत न जाये। वे हमे सचेत करते हुए कहते हैं- " समय तीव्र गति से व्यतीत होता जा रहा है, किन्तु अपने आमोद पूर्ण जीवन से सन्तुष्ट, अपने सुन्दर प्रसादों में मनोरम वस्त्राभूषणों से विभूषित, अनेकविध भोज्य  पदार्थों से तुष्ट; हे मोहनिद्रा में अभिभूत नर-नारियों! ..जगत के इस महा सत्य पर विचार करो, संसार में चारो ओर दुःख ही दुःख है।देखो,संसार में पदार्पण करता हुआ शिशु भी वेदनापूर्ण रुदन करने लगता है। यह एक हृदयविदारक सत्य है।  
कभी कभी इन उपदेशों को भूलकर मैं मोह से अभिभूत हो जाता हूँ। तब इस स्थिति में हठात तथागत बुद्ध का सन्देश मुझे सुनाई पड़ता है-'सावधान ! संसार के सकल पदार्थ नश्वर हैं। संसार दुःखमय है। 
" सर्वं दुःखम् अनित्यम् ध्रुवम् "
तभी मेरे कानों में ईसा की घोषणा गूंजने लगती है-
"प्रस्तुत रहो ! (अर्थात मन को एकाग्र करने का अभ्यास करो !), स्वर्गराज्य अत्यन्त समीप है !" 

एक क्षण का भी विलम्ब न होने दो।कल पर कुछ न छोड़ो और उस परम अवस्था (वह 'सत्य' जो हमें मुक्त का देगा या transcendental reality ) के लिये सदा प्रस्तुत रहो, वह तुम्हारे निकट किसी भी क्षण उपस्थित हो सकती है।"7/192 (मन फिराओ; क्योंकि स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।Matthew - मत्ती3/2)जिस शिक्षा को वेदों में 'शीक्षा' कहा गया है, जिसका प्रशिक्षण केवल वे महापुरुष ही दे सकते हैं, जो स्वयं 'मनुष्य' बन चुके हों, उस  ' मनुष्य निर्माण कारी शिक्षा ' को स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं के समक्ष रखते हुए कहते हैं- "मनुष्य की जन्मजात महिमा कभी मत भूलना। भूत हो या भविष्य में,न कोई हमारी अपेक्षा श्रेष्ठ ईश्वर था, न होगा। तुम अपने अन्तस्थ आत्मा को छोड़ और किसी के सामने सिर मत झुकाओ।मैं ही समग्र समुद्र हूँ, तूम स्वयं इस समुद्र में जिस एक क्षुद्र तरंग की सृष्टि करते हो, उसे 'मैं' मत कहो।  हम भविष्य में क्या होने वाले हैं,कितने महान होने वाले है-यह क्या ईश्वर नहीं जानता?7/93" " महापुरुषत्व, ऋषित्व,अवतारत्व, या लौकिक विद्या में शूरत्व -सभी जीवों,में विद्यमान है।जो  समाज गुरु द्वारा प्रेरित है,वह अधिक वेग से उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु जो समाज (या परिवार या राष्ट्र ) गुरुविहीन है, उसमें भी समय की गति के साथ गुरु का उदय और ज्ञान का विकास होना उतना ही निश्चित है। " 10/160 क्योंकि देश-काल की सीमा को, या स्वामीजी की भाषा में " अपनी मानसिक चहारदीवारी को स्वयं कौन पार कर सकता है ?7/182]
[स्वामीजी कहते हैं, "नर रूप धारी अवतार की पहचान क्या है ? जो मनुष्यों के विनाश के दुर्भाग्य को बदल सके, वह भगवान है। मुझे कोई ऐसा व्यक्ति नहीं दिखाई पड़ता, जो रामकृष्ण को भगवान समझता हो। उन्हें भगवान के रूप में जान लेने और साथ ही संसार से आसक्ति रखने में संगती नहीं है। " 10/401 "वे उन अभिनेताओं के समान हैं,जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चूका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रयोजन नहीं है, तो भी वे दूसरों को आनन्द देने रंगमंच पर बारम्बार आते रहते हैं। "7/8 श्रीरामकृष्ण का नाम जिनको मिल गया वे धन्य हैं, कुलं पवित्रं जननी कृतार्था !6/212"


"हममें से अधिकांश जन्मजात रूप से सगुण धर्म, अवतारवाद में श्रद्धा रखते हैं।मुसलमानों ने आरम्भ में ऐसी उपासना का विरोध किया है,किन्तु प्रत्यक्षतः वे सहस्रों पीरों की पूजा करते पाये जाते हैं।कोई भी पैगम्बर सारे विश्व पर सदा के लिये शासन करने नहीं जन्मा  है। सब स्वरों के समन्वय से ही एकलयता उत्पन्न होती है, किसी एक स्वर से नहीं। जातियों की इस ईश्वर निर्दिष्ट एकलयता में सभी जातियों को अपने अपने अंश का अभिनय करना पड़ता है। सभी जातियों को अपना अपना जीवनोद्देश्य प्राप्त करना पड़ता है, अपने अपने कर्तव्यों की पूर्ति करनी पड़ती है। "7/178 "मुहम्मद साहब दुनिया में समता,बराबरी के सन्देश वाहक थे-वे मानव जाति में, मुसलमानों में भ्रातृ-भाव के प्रचारक थे।" 7/192 स्वामीजी कहते हैं- "मैं तो यह पसन्द करूँगा कि तुममें से हर एक व्यक्ति मसीहा बन जाओ। बुद्ध,कृष्ण,ईसा,मोहम्मद सभी अवतार महान हैं, हम उनके चरणों में प्रणाम करते हैं। किन्तु इसके साथ साथ हम स्वयं को भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि वे यदि ईश्वर-पुत्र और अवतार हैं, तो हम भी वही हैं। उनहोंने अपनी पूर्णता पहले प्राप्त कर ली है,और हम भी यहीं और इसी जीवन में पूर्णता प्राप्त कर लेंगे। ईसा के शब्दों का स्मरण करो-'स्वर्गराज्य निकट ही है।' इसीलिये इसी क्षण हम सबको यह दृढ संकल्प कर लेना चाहिये कि-" मैं पैगम्बर बनूंगा,मानव जाति का मसीहा बनूँगा,मैं ईश्वर-पुत्र बनूंगा- नहीं, मैं स्वयम ईश्वरस्वरुप बनूँगा। '7/193]
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शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

71. 'अन्तरराष्ट्रिय महिला दशक ' $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [71] (10.विश्वमानव के कल्याण में)

उत्सव मनाना मनुष्यों को स्वाभाविक रूप से बहुत पसन्द है। इन दिनों कई प्रकार के महोत्सव-समारोह आदि आयोजित हो रहे हैं। जैसे किसी भी यादगार घटना की वर्षगाँठ या सालगिरह,जयन्ती आदि मना लिये 
जाते हैं। यहाँ तक कि पुस्तक प्रकाशन की, सत्याग्रह की, या बहुत समय पहले के किसी उपलक्ष्य को केन्द्र में रखकर इन सब को आयोजित किया जाता है। उत्सव मनाने में कोई एक ही महोत्सव मना लेना हमें यथेष्ट नहीं लगता, विभिन्न प्रकार के लगातार उत्सवों के माध्यम से जयंती-महोत्सव आदि होते ही रहना चाहिये। अगर ये महोत्सव पूरे वर्ष भर होते रहते हों, तब तो और भी अच्छा है। इसीलिये आजकल वार्षिकी-समारोह-महोत्सव मनाना एक प्रथा ही बन गयी है। 
कुछ विशेष विशेष महत्वपूर्ण विचारों को लेकर भी इन दिनों 'वर्ष-पालन' मनाया जा रहा है। किन्तु लोग उसके भाव को अक्सर भूल जाया करते हैं। किन्तु 'वर्ष-पालन ' करने की योजना अच्छी ही है। हमलोगों का उद्देश्य शायद जनमानस को जगाना होता है। किन्तु उन सम्मेलनों या समारोहों में यदि कुछ सीखने लायक मिला तो, हम जो कुछ सीख आये थे, उसको भूल जाने में थोड़ा भी समय नहीं लगता है। इसके बावजूद उत्सव-समारोह-सम्मेलन आदि होते रहें, हमलोग ऐसी कामना करते हैं। 
इस समय 'अन्तरराष्ट्रिय महिला वर्ष ' के आयोजन को समाप्त करके हमलोग अब 'अंतरराष्ट्रीय महिला दशक '*का प्रारंभ करने जा रहे हैं। (यह निबन्ध 1976* में प्रकाशित हुआ था) निश्चय ही इसके विषय में पुरुषों को कहने लायक कुछ नहीं है। किन्तु कुछ असहिष्णु बुद्धि जीवी महिला-वर्ष के पालन के विरुद्ध इधर-उधर अपनी उपेक्षा ही अभिव्यक्त करते दिखे थे। हमलोगों की तात्कालीन प्रधानमन्त्री ने उनकी इस असहिष्णुता के लिये सरल इशारे में मीठी झिड़की देते हुए कही थीं, जैसा कि यह पूरा वर्ष ही पुरुषों के लिये अनन्य हो गया है, इसीलिये कम सेकम एक एक वर्ष उनको महिलाओं के लिये उत्सर्ग कर देना चाहिये। हमारी एकमात्र आपत्ति इतनी ही है कि अन्य सभी वर्षों को पुरुषों के लिये छोड़ कर, महिलाओं को अपने लिये सिर्फ एक ही वर्ष क्यों मिलना चाहिए ? 
यदि महिलाओं के बारे में मेरी बातों को अनधिकृत प्रयास न मानें तो मैं प्रस्ताव करूँगा, कि उनको और भी आगे बढ़ कर समाज-निर्माण की योजना मजबूती से अपना योगदान करना उचित होगा। सच कहा जाय तो यह केवल महिलाओं की बात नहीं है। उनके क्रियाकलाप का प्रभाव केवल महिलाओं के उपर ही नहीं पड़ता है। हमलोग यह नहीं कहना चाहते हैं कि उनको और अधिक अनियंत्रित या मुंहजोर हो जाना चाहिये या अपने वेश-भूषा के प्रति लापरवाह हो जाना चाहिये।
 हमलोग केवल यही इतना ही चाहते हैं कि उनकी सत्यनिष्ठा, समान-अधिकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता,  पवित्रता, चरित्र-बल इतना अधिक शक्तिशाली हो जाये कि समस्त समाज की अधोगति के रास्ते में एक ठोस दीवार बनकर खड़ी हो जाएँ। हाल ही में महिला-वर्ष के अवसर पर आयोजित एक सम्मेलन में किसी राजनीति कुशला नेत्री ने अपनी राय देते हुए कहा था कि, देश के कल्याण के लिये महिलाओं को राजनीति के क्षेत्र में और अधिक संख्या में भाग लेना उचित है। किन्तु उसी सभा में उपस्थित टेम्पलटन पुरुषकार विजयनी, और बाद में जिनको नोबेल पुरुष्कार भी मिला था-मदर टेरेसा; ने प्रस्ताव दिया था कि समाज को बेहतर बनाने के लिये महिलाओं को अन्तःपुर में लौट जाना ही अधिक फायदेमन्द होगा। उनके इस परामर्श को महिलायें किस रूप में लेंगी इस बात का अभीतक खुलासा नहीं हुआ है। किन्तु मन की भावनाओं को दबा देने की रत्ती भर चेष्टा नहीं करके, उन्हें मदर टेरेसा के प्रस्ताव पर आपस में बैठकर गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। 
इन दिनों जिस प्रकार समस्त पुरुष लोग राजनीतिज्ञ या राजनीतीविद होना चाहते हैं, यदि समस्त महिला समाज भी वैसा ही बन जाता, हमलोग बालक ईशु को अपने गोद में लेकर प्यार करने वाली माँ मेरी या, बालक श्रीकृष्ण को उखल में बांध कर दण्ड देने वाली माता यशोदा को कहाँ से देख पाते ? क्या आज हमारे समाज के घर घर में हजारो हजार रानी मदालसा जैसी माताओं की आवश्यकता नहीं है ? जो ब्रह्मज्ञान को अपने आंचल में बांधकर भावी पुरुष-समाज को यथार्थ रूप में शिक्षित कर सकती हों ? इनदिनों सबसे अधिक चर्चा महिला-मुक्ति आन्दोलन के उपर हो रही है। किन्तु उसका सच्चा स्वरूप क्या है ? 
स्कूल की लड़कियां शराब का सेवन करने को सभ्यता समझ रही हैं, छात्रायें परीक्षा रुकवाने के लिये स्कूल की चाहरदीवारी को लांघ रही हैं, गहना या रुपया का प्रदर्शन कर रही हैं, लड़कियां सरस्वती-प्रतिमा-विसर्जन की शोभायात्रा में 'ट्विस्ट' नाच रही हैं,या लिविंग रिलेशन में रहकर पवित्रता के आदर्श को धूल में मिला रही है। ( ये सब बातें कुछ समाचार पत्रों में छपी हैं।) "क्या इन्हीं को तथाकथित महिला-मुक्ति का प्रमाण समझना चाहिये ? मुक्ति का अर्थ होता है, अंतर्निहित शक्तियों को विकसित करना और पूर्ण आत्म-विकास एवं लोक कल्याण के उद्देश्य से उन सबका सुप्रयोग करना। "-महिला-स्वतंत्रता क्या इसी प्रकार कार्यकारी  होने के मार्ग पर अग्रसर होगी ? 
स्त्री जाति के समक्ष अनेकों आदर्श नारियों के जीवन और चरित्र को आदर्श-नारी का प्रतीक माना जाता है। हमारे देश में सीता, सावित्री, दमयन्ती,, गार्गी, मैत्रेयि, उभय भारती, यहाँ तक की झाँसी की रानी का नाम भी प्रसिद्द है। यह बात अलग है, आज की तरुणी के लिये ये सब उतने परिचित नाम नहीं हैं। यदि हमारे देश की तरुणी उनके जीवन और चरित्र के विषय में जानकर जहांतक संभव हो, इन दृष्टान्त स्वरूप नारियों की समकक्ष बनने का प्रयत्न करतीं, तो बहुत अच्छा होता। अभी हाल ही में सोवियत गणराज्य में रूस की एक छोटी सी लड़की ने बाल-चलचित्र को देखने के बाद यह कहा था,कि वह बड़ी होकर सीता जैसी नारी बनना चाहती है। उसकी इच्छा के अनुसार उसका नाम बदल कर 'सीता' रख दिया गया है। क्या हमारे देश की लड़कियां वैसा नहीं कर सकती हैं ? क्या उपरोक्त समस्त नाम अत्यंत प्राचीन हैं, और इनमें से किसी का भी चरित्र आधुनिक युग के लिये उपयोगी नहीं है ?
 यदि वैसी कोई बात हो भी, तो एक नाम आज भी ऐसा है, जो उतना पुराना नहीं है; बल्कि यह कहना पड़ेगा कि नया होने के कारण ही अधिकांश लड़कियां उनके विषय में नहीं जानती हैं। उस नाम के पीछे जो चरित्र है, वह उपरोक्त नामों में किसी के साथ भी तुलना करने पर कम गौरव शाली नहीं है। बल्कि और अधिक गौरव-शाली हैं। और उनका गौरव केवल आधुनिक समय का ही नहीं है, बल्कि उस चरित्र की पूर्णता में उन सबका चरित्र की विविध महिमाधारा शूरु से लेकर अंत तक मिल गयी है। उनके चरित्र की व्यापकता और गंभीरता इनमें से अधिकांश नारियों के बहुत आगे निकल चुकी है। अतीत के कोहरे में उनका चरित्र अभीतक धुंधला नहीं हुआ है।
उस नारी का जन्म गाँव में रहने वाले साधारण माँ-पिता के घर में ही हुआ था। पढाई-लिखाई कहने से आजकल जो समझा जाता है, वैसी पढाई लिखाई उनकी नहीं हुई थी। उनका विवाह एक ऐसे व्यक्ति के साथ हुआ था, जो ईश्वर का चिन्तन करने में जगत को भूल जाते थे। उस विवाह के फलस्वरूप उनको एक भी सन्तान नहीं थी, फिर भी वे सचमुच की जगत-जननी बन गयी थीं। वे थीं श्रीरामकृष्ण की सहधर्मिणी सारदा देवी। साधारण ग्रामवासियों की प्रत्यक्ष दृष्टि के सामने ही वे विराजित थीं, अपने घर की गौओं और बछड़ों को खिलाने के लिये जलमग्न दलदल में उगे घांस  को काट कर ले आती थीं,परिवार के लोगों तथा अतिथि-आगंतुकों के लिये अपने हाथों से भोजन बनाती थीं। 
जनता के सामने कभी अपने को बेपर्दा नहीं होने देती थीं, कभी अपने को जगत के सामने प्रदर्शन की वस्तु नहीं बनने देती थीं। तब तक अपने को जगत की दृष्टि के सामने नहीं आने दीं , जब एक दिन उनके निकट उपस्थित एक हीनतम व्यक्ति को भी परमज्ञान का दान कर दीं थीं।मदर मेरी केवल ईशु की माँ ही नहीं थीं, वे तो समग्र ईसाई समाज के लिये जननी स्वरुप थीं। माँ सारदा देवी सम्पूर्ण मानव-जाति की माँ थीं। वे जो सचमुच की माँ थीं, जिन्होंने गाँव-घर की सीमा का अतिक्रमण कर  था। वे केवल किसी एक ही सांसारिक-जन्म की माँ नहीं थीं, वे तो अनन्त जन्मों के लिये हमलोगों की माँ बने रहने के लिये धरा-धाम पर अवतरित हुई थीं। वे किसी ईश्वर-पुत्र संन्यासी को या अकुलीन (base born) डाकू दुर्जन को भी एक ही समान अपना पुत्र समझती थीं।
स्वदेशी आन्दोलन के युग में जब मैनचेशटर में बने वस्त्रों को भारत में वर्जित कर दिया गया, और विदेशी कपड़ों की होली जलाई जा रही थी, तब उनको अपने ब्रिटेन में जन्मे जुलाहे संतानों की चिंता होने लगी। क्योंकि वे उनको भी अपनी ही संतान समझती थीं। इसी एक तर्क के आधार पर किसी भी अंग्रेज को मारने की योजना को कभी अनुमति नहीं दी थीं। इसके बावजूद उन्होंने अपने देश को स्वतंत्र करने के लिये संघर्ष करने की प्रेरणा तरुणों को देती थी। फिर ब्रिटिश सैनिकों के द्वारा नारियों पर अत्याचार करने की बात को सुनकर तीव्र विरोध करती थीं। वे हृदय से चाहती थीं, कि अंगेज लोग भारत छोड़ कर चले जाएँ। एकबार जब एक उन्मादी व्यक्ति उनको स्पर्श करने की कोशिश करने लगा, तो उन्होंने रौद्र रूप धारण कर लिया और बहुत जोर का एक थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिया, और उसको जमीन पर पटक दिया, और उसकी छति पर बैठकर अपने हाथों से उसकी जीभ खिंच ली। इसी समय उस व्यक्ति को होश आ गया। 
करुणा की सागर होने पर भी, जो गलत थे उसके प्रति कठोर और निर्मम होना भी वे जानती थी।सामान्य दैनंदिन जीवन में जो कोई भी उनके समीप आया है, उसके भीतर जो बुरे भाव थे उसको नष्ट करके सद्भावों को बढ़ा देती थीं। सर्वभूतों के प्रति करुणा और प्रेम -यही उनकी शिक्षा थी। अपने में भी भावान्तर नहीं करके जो सामने आता था, इसीके जैसे उससे व्यव्हार करती थीं। संन्यासी और गृहस्थ, देवोपम और दुरात्मा, पंडित और मूर्ख, धनी और दरिद्र किसी की भी वे उपेक्षा नहीं करती थीं। अपने सिवा अन्य किसी का दोष मत देखना- यही उनका उपदेश था। अपने ही हृदय में इहलोक और परलोक के आननन्द की प्राप्ति के मार्ग उनहोंने दिखाया था, अर्थात मनुष्य जीवन की परिपूर्णता या मुक्ति के मार्ग के अनुसन्धान का मार्ग बताकर गयी हैं। 
विवेकानन्द जब सारदा देवी से भारत भूमि छोड़ कर विदेश-यात्रा की अनुमति लेने गये थे, उस समय श्रीरामकृष्ण की भविष्य वाणी -नरेन् शिक्षा देगा ! उनके भी गले से आदेश के रूप में ध्वनित हुआ था। सारदा देवी के जन्मस्थान से विश्व के दूरतम देशों के अनगिनत नर नारी उनके चरित्र और उपदेशों से मानवजीवन का तात्पर्य और उद्देश्य का पता प्राप्त किये हैं। उनके उपदेश वर्षों से चले आ रहे निःशब्द अनेको लोगों को सन्मार्ग पर ले कर जा रही है। 
श्रीश्री माँ सारदा देवी का पुण्य चरित्र और उपदेश यदि सम्पूर्ण जगत में प्रचारित नहीं किया गया, तो अन्तर राष्ट्रीय महिला-दशक का उद्देश्य असम्पूर्ण ही रह जायेगा। और यदि ऐसा हो सका तो, केवल नारी समाज  ही नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति जीवन संग्राम में और महाजीवन में प्रशांति को खोज निकालेगा।   
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70. 'आचार्य शंकर के प्रसंग में ' $@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [70] (10. विश्व मानव के कल्याण में),

श्रीमद शंकराचार्य का जन्म अनुमानतः ७८८ ईस्वी में हुआ था, एवं अनुमानतः ८२० ईस्वी में उनका देहान्त हो गया था। [उनके जन्म तिथि के संबंध में मतभेद है, दयानन्द सरस्वती ने शंकराचार्य की जन्मतिथि को ईसा के पूर्व का माना है। 'केरलोत्पत्ति' ग्रन्थ के अनुसार आचार्य शंकर जन्म ३९२ ईस्वी में हुआ था। लेकिन बाद में १० ऐतिहासिक प्रमाण की सहायता से अधिकांश विद्वानों का यही मानना है कि वे ७८८ ई. में आविर्भूत हुए। सामान्यतः उनका जीवन मात्र ३२ वर्ष का माना जाता है, किसी किसी प्राचीन ग्रन्थ के अनुसार ऐसा भी कहा जाता है कि वे ३८ वर्ष तक जीवित रहे थे।]
आचार्य शंकर का जन्म  केरल प्रदेश के पूर्णानदी के तट पर बसे कालाड़ी ग्राम में हुआ था। पूर्णानदी के विषय में एक किंवदन्ती है कि आचार्य शंकर की माताजी को नदी में स्नान करना बहुत अच्छा लगता था, किन्तु क्रमशः उम्र बढ़ जाने के कारण उनके लिये नदी तक जाना कष्टकर हो गया। इसीलिये आचार्य शंकर की इच्छशक्ति के प्रभाव से नदी की धारा ने अपना मार्ग बदल लिया और उनके घर के किनारे से होकर बहने लगी। उनके जन्म के सम्बन्ध में यह भी सुना जाता है कि किसी साधू-महात्मा ने उनकी माँ से कहा था कि तुम्हारे पुत्र का भविष्य दो प्रकार का हो सकता है- वह यदि दीर्घायू हुआ तो मूर्ख रहेगा, और यदि अल्पायु हुआ तो बहुत बुद्धिमान,प्रतिभा सम्पन्न होगा, धर्म इत्यादि विषयों के प्रति इसमें विशेष रूचि रहेगी; तुम अपने पुत्र की आयू कितनी चाहती हो ? उत्तर में उनकी माँ ने कहा- स्वल्पायु हो। स्वल्पायु ही हुए, सोलह वर्ष जीवित रहेंगे।
 इस अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर बड़ा होने लगा और मात्र 8 वर्ष के भीतर ही वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभरत आदि समस्त शास्त्रों का अध्यन कर लिया। और उनको अद्भुत व्युत्पत्ति विज्ञान (शब्दों के उद्गम का शास्त्र-etymology) प्राप्त हुआ। उसके बाद आठ से सोलह वर्ष तक की उम्र में ही उन्होंने अपनी मौलिक रचनाओं तथा भाष्य आदि लिख डाले। उसके बाद व्यासदेव से वर प्राप्त करने पर इनकी आयू दोगुनी होकर बत्तीस वर्ष की हो गयी। सोलह से बत्तीस वर्ष तक इन्होंने धर्म-प्रचार किया था। उस समय भरत में वैदिक धर्म म्लान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश-स्तम्भ बनकर प्रकट हुए। मात्र ३२ वर्ष के जीवनकाल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई।
इन्होंने भारतवर्ष के चार कोणों में चार मठों की स्थापना की थी जो अभी तक बहुत प्रसिद्ध और पवित्र माने जाते हैं और जिनके प्रबंधक तथा गद्दी के अधिकारी शंकराचार्य कहे जाते है । वे चारों स्थान निम्न- लिखित हैं—(१) उत्तर में ज्योतिर्मठ या ज्योतिषपीठ,बद्रिकाश्रम उत्तराखण्ड,  हिमालय में स्थित है (२) दक्षिण में श्रृंगेरीपीठ, मैसूर, कर्नाटक राज्य में स्थित (३) पूर्व में गोवर्धन पीठ पुरी, उड़ीसा और (४) पश्चिम में द्वारिकापीठ गुजरात में स्थित हैं; और भारत की एकात्मकता को आज भी दिग्दर्शित कर रहे हैं। 
इतिहास यह भी बतलाता है कि उस समय बौद्धधर्म निम्न स्तर पर पहुँच गया था, जिसके दुष्प्रभाव से देश में अनाचार और धर्म की ग्लानी हो रही थी, जिसकी निन्दा स्वामीजी ने भी की है। उन्होंने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित करके वैदिक धर्म को पुनरुजीवित किया था । इन्होंने अनेक विधर्मियों को भी अपने धर्म में दक्षित किया था।
 चार मठों की स्थापना, दशनाम सन्यास को सुव्यवस्थित रूप देकर, हरिहर निष्ठा की स्थापना करके सगुण-निर्गण का भेद मिटाने का प्रयास किया था। एक तरफ उन्होने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया था, तो दूसरी तरफ जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करके  शंकराचार्य ने सनातन धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित कर दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने विदेशों में जाकर जिस जिस वैदिक धर्म और अद्वैत वेदान्त का प्रचार किया था, उसे आचार्य शंकर ने ही भारत में चार मठ और समूचे देश में दशनामी संन्यास परम्परा और अखाड़ों के माध्यम से पुनर्स्थापित किया था।
ऐसा कहा जाता है कि इन्होंने सन्यासी शिष्य भी बनाये थे और गार्हस्थ सम्प्रदाय में गाणपत्‍य, सौर, शैव, शाक्‍त और वैष्‍णव संप्रदाय इत्यादि छः संप्रदाय बनाये थे। ऐसा कहना कि उन्होंने साधारण लौकिक धर्म को बिल्कुल समाप्त ही कर दिया था, बिल्कुल सही बात नहीं है। इस ओर भी उनका ध्यान समानरूप से था, इससे यह सिद्ध होता है कि शंकराचार्य एक महान समन्वयवादी थे;ये कार्य ही उन्हें 'जगदगुरु' पद पर प्रतिष्ठित करते हैं।
हमलोग यह जानते हैं कि जब बहुत दीर्घ समय तक लिखित भाषा नहीं बनी थी, तो किस प्रकार; गुरु-शिष्य के माध्यम से श्रुति के माध्यम से, कान से सुन सुन कर, मन ही मन याद रखते हुए, वंश परम्परा के अनुसार- वेद को किस प्रकार संरक्षित रखा गया था, फिर उनको एकीकृत या संहित करके वेदव्यास ने उसे चार भागों में विभक्त किया था। वेदों की बहुत सी साखायें हैं, जिनके पाठ्य-विधि में (Text) थोड़ा-बहुत अन्तर या विभिन्नता होती है। उसके बाद जब इनकी संख्या बहुत ज्यादा हो गयी, तो उसको याद रखना बहुत मुश्किल हो गया, सुसंहती (compactness) का अभाव दिखाई देने लगा-तब व्यासदेव ने उसको ठीक से सजाकर एकत्रित किया और उसको समान वर्ग में श्रेणीबद्ध कर दिया। पहले उनको तीन श्रेणी में विभाजित किया-ऋगवेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा जो शेष रह गए उनको अथर्ववेद कहा गया। ऋगवेद में जितने भी मन्त्र या श्लोक हैं, वे काव्यमय हैं, उनको कविता के माध्यम व्यक्त किया गया है। यजुर्वेद मुख्यतः गद्य है। तथा सामवेद में मुख्यतः ऋग्वेद के मन्त्र हैं, जिनमें कुछ और मन्त्र जोड़ कर संगीतमय बनाया गया है। सामवेद गाया जाने वाला -ग्येय वेद है।
 वेद को मुख्यतः तीन भागों में विभक्त क्या गया है, इसीलिये उसको 'त्रयी' कहा जाता है। वेद के सारांश को वेद से अलग करके -उसका नाम 'उपनिषत' दिया गया। चूँकि वेद का सारांश उसमें है, जिसे गुरु के मुख से सुन सुन कर याद रखना होता था, इसीलिये उसको 'श्रुति' कहा जाता है। फिर उनका भी प्रधान या सिर होने के कारण उपनिषदों को 'श्रुतिशिर' भी कहा जाता है।
[ जगद्गुरु आदि शंकराचार्य कृत साधना पंचकं में कहा गया है- वाक्यार्थश्च विचार्यताम श्रुतिशिर: पक्ष: स्माश्रीयताम। हम वेदों के चार महावाक्यों और श्रुतियो को समझ सकें, हम कुतर्को में ना उलझें, "में ब्रह्म हूँ" ऐसा विचार करें, हम अभिमान से प्रतिदिन दूर रहे, "में देह हूँ" ऐसे विचार का त्याग कर सकें और इसको लेकर हम विद्वान बुद्धिजनों से या तथाकथि बुद्धिजीवियों से बहस न करें... ]
फिर उपनिषदों में भी जिनको अन्तिम भाग रखा गया है, उसको 'वेदान्त' कहते हैं। फिर वेद शब्द विद धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है-ज्ञान, उसका भी जो अन्त है, अर्थात ज्ञान का भी जहाँ अंत हो जाता है, जिसके परे और कोई ज्ञान नहीं है, जो ज्ञान का शिखर हो -उस अर्थ में भी 'वेदान्त' कहा गया है। वेदव्यास ने समस्त वेद को एकत्रित करके श्रेणीबद्ध या सुसंहित किया था इसीलिये वेद को 'संहिता' भी कहा जाता है। इसीलिये ऋगवेद संहिता,यजुर्वेद संहिता, सामवेद संहिता इत्यादि कहा जाता है। फिर वैदिक साहित्य के जिस अंश पर अरण्य-जीवन या वानप्रस्थ जीवन में विवेचना की जाती थी, उसको 'आरण्यक' कहा जाने लगा। फिर आरण्यक के भी विभाग थे-कुछ अंश को आरण्यक, कुछ अंश को ब्राह्मण, कुछ अंश उपनिषत के नाम से परिचित हुए। उपनिषत में दार्शनिक तत्वों को प्रमुखता दी गयी है। इन अंशों को छोड़ देने के बाद जो कुछ बचता है, उसको 'कर्मकाण्ड' कहा जाता है।
कर्मकाण्ड के भीतर जिन कर्मों को प्रधानता दी जाती है, उसको 'श्रौतकर्म' कहा जाता है। श्रुति माने वेद, इसलिये श्रुति विषयक कर्मों को या वेद में कथित कर्मों को 'श्रौतकर्म' कहते हैं। इस समय जिस प्रकार हमलोग हथौड़ी ठोकने को भी कर्म कहते हैं- वैदिक कर्म का वैसा अर्थ नहीं होता है। गीता में जिस कर्म पर चर्चा की गयी है, वह कर्म 'श्रौतकर्म' है, जो वेदोक्त कर्म है, अर्थात यज्ञ इत्यादि कर्म। उसको ही वास्तव में कर्म कहा जाता है। उपनिषद में भी यही बात कही गयी है।
उपनिषत शब्द का अर्थ होता है, उप-नि-षद, अर्थात जिन शब्दों को नजदीक में बैठकर सुना जाता है। अर्थात जो विद्या संपूर्णतः गुरुमुखी विद्या है, जिसे शिष्य लोग गुरु के पास जाकर तत्वों पर चर्चा करके अर्जन करते हैं। इस विद्या को पुस्तक पढ़कर नहीं सीखा जा सकता है। महान व्यक्तियों के पास जाकर, और उनके मुख से सुनकर, उनके जीवन को देखकर जो कुछ सीखा जाता है, उसको उपनिषद कहते हैं। वेद पढ़ने के लिये जिन समस्त विद्या को जानना होता है, उसको 'वेदांग' कहते हैं।
 शिक्षा,कल्प,व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छ: वेदांग है। वेद का व्याकरण बिल्कुल अलग होता है, साधारण संस्कृत व्याकरण और वैदिक व्याकरण एक नहीं होता है। इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। व्याकरण नहीं जानने से भाषा समझ में नहीं आती है। उसी प्रकार वैदिक छन्द भी साधारण छन्दों से अलग होते हैं। उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है, उन्हीं छन्दों में से एक है, गायत्री छन्द। गायत्री-मन्त्र की रचना गायत्री-छन्द में हुई है, इसीलिये उसको गायत्री कहा जाता है।
संस्कृत श्लोकों में साधारणतः चार चरण या चार पंक्तियाँ होती हैं। चारो चरण या पंक्ति में एक एक श्लोक होते हैं। किन्तु गायत्री-छन्द एक अद्भुत  छन्द है। वह त्रिपाद रचना है। 'पाद' शब्द का अर्थ होता है, एक-चतुर्थांश -चौथा हिस्सा 1/4th.।किन्तु गायत्री छन्द इसका अपवाद है। इसके तीन चरण हैं या एक त्रिपाद है।
विभिन्न समय में विभिन्न ऋषियों ने जिन सत्यों को आविष्कृत क्या था, या सत्य के सम्बन्ध में उन्हें जो अनुभूतियाँ हुई थीं, वेद के मन्त्रों में मुख्यतः उन्हीं को अभिव्यक्त किया गया है। किन्तु उनमें कहीं  कोई युक्तिपूर्ण तारतम्य नहीं था, छिट-पुट रूप से बीच बिच में सत्य का  झलक मिल जाता था। इसीलिये लोगों को दर्शन वाला हिस्सा समझने में कठिनाई हो रही थी। जब व्यासदेव ने देखा कि वेद के विभिन्न अंश अस्त-व्यस्त हैं,बिखरे हुए हैं-  यथाक्रम नहीं रखे हैं, तो उन्होंने वेद को एकत्र करके इस प्रकार से वर्गीकृत कर दिया ताकि भविष्य में उपयुक्त तरीके से उसका अभ्यास किया जा सके।
उसके बाद वेदान्त या उपनिषद के भीतर जो दर्शन है, उस दर्शन के मूल तत्वों को सूत्रबद्ध कर दिए। ' सूत्र ' का अर्थ होता है, मूल और प्राथमिक तत्वों को छोटे छोटे शब्दों में अभिव्यक्त करना या संचित रखना। क्योंकि छोटे छोटे शब्दों को याद रखना अपेक्षाकृत सहज  होता है, और आवश्यकता पड़ने पर उसकी व्याख्या करने से, या उसके भाव की विवेचना करने से, सम्पूर्ण दर्शन समझ में आ सकता है। इसका नाम - व्याससूत्र, या 'ब्रह्मसूत्र' या 'शारीरकसूत्र' अथवा 'वेदान्तसूत्र'।
वेदान्त सूत्र के प्रथम चार सूत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन चारों को मिलाकर 'चतुःसूत्री' कहा जाता है। वेदान्त के चतुःसूत्री का प्रथम सूत्र है- 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा'। अर्थात इसके पहले भी कई जिज्ञासा थी, और उसका उत्तर प्राप्त करने की भी बहुत चेष्टाएँ हुई थीं। किन्तु वाह्य भौतिक जगत में उसका उत्तर नहीं प्राप्त हो सका
इक्कीसवीं सदी का विज्ञान भी यह घोषणा करता है कि बाहर में खोज करने पर यथार्थ वस्तु के बारे में कुछ पता नहीं चलता। वे यह कहते हैं कि वस्तु को बाहर से विश्लेषण करने पर जितना कुछ दीखता है,हम उतना ही जानते हैं, उससे अधिक नहीं जानते हैं। वस्तु की सत्ता या अस्तित्व के बारे में हमारे पास कोई जानकारी नहीं होती है। हमें अपनी इन्द्रियों के द्वारा या इन्द्रिय-सहायक यंत्रों के द्वारा किसी वस्तु का जो रूप दिखलाई पड़ता है, वह रूप एवं उसकी सहयता से हम उसको अपने उपयोग में कैसे ला सकते हैं, हमलोग इसी की व्याख्या करते हैं। इसीलिये वेदान्त जगत के प्रत्येक पहलु के उपर विचार करके कहता है- " नाल्पे सुखमस्ति, भूमैव सुखम।"(छान्दोग्य. 7।23।1)
सीमा के भीतर (ससीम या दृष्टिगोचर जगत का) अनुसन्धान कर लेने के बाद जब कुछ नहीं मिला तो, हमलोगों ने ससीम के भीतर ही असीम की खोज का प्रारंभ कर दिया। हमलोगों ने अबतक ससीम वस्तुओं का ही अन्वेषण किया है, अब ब्रह्म का या अनन्त का असीम का अनुसन्धान करेंगे। किन्तु उस आत्मा को तो "अणोरणीयान् महतो महीयान " कहा गया हैं - अर्थात आत्मा तो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और वृहत से भी वृहत वस्तु है।  पहले हमलोगों में सूक्ष्म मौलिक कण अणु-परमाणु  को भी जब खंडित और विश्लेषित कर लिया तो हमलोगों ने सोचा कि वाह, बहुत बड़ा आविष्कार हमने कर लिया है। किन्तु इसी प्रकार और आगे प्रयोग करने पर 200 से अधिक मूल कणों का पता चल गया। इस समय भी प्रयोग-अनुसन्धान आदि चल रहा है। (अभी एक ऐसा मौलिक कण पाया गया है, जिसको God Particle या बोसॉन भी कहा जा रहा है। प्रत्येक भौतिक पदार्थ में गुण और मात्रा प्रत्यक्ष दिखते हैं। कणों में भार कहाँ से आया ?) किन्तु अन्त में क्या मिलेगा, इस बात को विज्ञान बताने में असमर्थ होता जा रहा है।
 किन्तु उपनिषद के ऋषि घोषणा करते हैं- " वे अणु से भी छोटे हैं,और हमलोग सबसे वृहत कहने से जो समझते हों, मानलो 'आकाश' तो वे उससे भी बड़े हैं।" जैसे 'माया' के प्रसंग में एक जगह कहा गया है, 'साधू नाग महाशय' इतने विनम्र थे, इतने मितभाषी थे, अपने को सभी मनुष्यों के सामने इतना छोटा मानते थे, कि माया का बन्धन भी उनको बांधने में असमर्थ था। वे उस माया के फन्दे से फिसल कर बाहर निकल गये थे। और स्वामी विवेकानन्द के बारे में कहा जाता है कि उनका अहंकार इतना वृहत था कि सम्पूर्ण विश्व उनके लिये एक जैसा ही था। उनका अहंकार विश्वव्यापी हो गया था। वे अपने को समूर्ण विश्व से एक और अभिन्न अनुभव करते थे। इसीलिये माया की डोर इतनी लम्बी नहीं थी कि उनको बांध सके।
इस प्रकार छोटा और बड़ा में वास्तव में कोई भेद नहीं है। (वह आत्मा कीड़ी में कीड़ी के आकर का है,और हाथी में हाथी के आकर का है।) ससीम सुख का अनुसन्धान तो हर पहलु से कर के देख लिया गया है, उसका कोई परिणाम नहीं मिला, अब वृहत का अनुसन्धान करना है- 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।'अथ अतः 'Thereafter' - तत्पश्चात; इसीलिये कहा जा रहा है, कि इसके पहले तो अनेको चेष्टा हो चुकी है। अतः,इसके बाद-अर्थात जब भौतिक पदार्थों के सूक्ष्म से सूक्ष्म कणों में भी, कुछ नहीं मिला है, तो अब 'वृहत' का अनुसन्धान करो ! इस प्रकार व्यासदेव ने अपना 'वेदान्तसूत्र' सम्पूर्ण विश्व को उपहार स्वरूप दिया।
 इसके अतिरिक्त व्यासदेव ने जितने अन्य कार्य किये हैं, इसमें वेदों को चार भाग में बर्गीकृत करना भी एक पर्मुख कार्य है। वेदों के ज्ञान काण्ड या वेदान्त भाग ये उपनिषदों में जो दार्शनिक चिन्तन है उनको एकत्रित करके उनको युक्ति के आधार पर श्रेणीबद्ध करके, एक तत्व के रूप में प्रकाशित किये।पहले उनको युक्ति के आधार पर संकलित नहीं किया गया था, इसलिये उसके परस्पर विरोधी धर्म को बहुत से लोग नहीं समझ पाते थे, इसलिये सिलसिलेवार ढंग से युक्ति के आधार पर सजाकर प्रस्तुत किया गया।
अब वेद को वर्गीकृत किया गया, उसको सुसंहित किया गया, उसमें जो वेदान्त दर्शन था, उसको सूत्र में ढाल कर सुसंबद्ध किया गया। किन्तु इन सब का क्या कोई व्यावहारिक पक्ष भी है? हालाँकि विदेशी लोग यह कहकर भारत की निन्दा करते हैं, कि ये लोग व्यावहारिक-बुद्धि नहीं रखते हैं; किन्तु ऐसा कहना बिल्कुल गलत है।
हमारे देश के लोग बड़े व्यावहारिक थे, और सामाजिक जीवन में वेदान्त के महान तत्वों को कैसे उपयोगी बनाया जा सकता है,यह सब भी विचार किये थे। स्वामी विवेकानन्द ने जिस वेदान्त को 'व्यावहारिक-वेदान्त' कहकर प्रचारित किया था, वह भारत का सनातन व्यावहारिक वेदान्त ही तो था ! हमारे देश के वेदान्त का अर्थ ही है-व्यावहारिक वेदान्त।  किसी प्राचीन कवि ने कहा था-" वेदान्ती लोक कल्याण के कर्मों में निरन्तर लगा नहीं रहता-ऐसा कहने बढ़ कर और हास्यापद बात क्या हो सकती है ? वेदान्त किस प्रकार दैनन्दिन जीवन में उपयोगी हो सकता है, इसको वेदव्यास ने महाभारत की रचना करके दिखलाया है। विशेषरूप से महाभारत में उस स्थान पर जहाँ श्रीकृष्ण ने गीता कहा है। इसीलिये कहा गया है-
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।
पार्थो वत्स: सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।।   
समस्त उपनिषद मानो गाय है, और गोपालनन्दन कृष्ण मानो दूध दुहने वाले हैं।वे मानो उपनिषदों का दोहन कर रहे हों, और पार्थ अर्थात अर्जुन मानो बछड़ा है। बछड़ा जब दूध खींचता है,तभी तो दूध दूहा जा सकता है। पार्थ बार बार जिज्ञासा करके, थोड़ा थोड़ा करके उपनिषदों से खींचे थे, इसीलिये वहाँ से गीतामृत रूपी असाधारण पौष्टिक दूध सम्पूर्ण मानवता को प्राप्त हुआ है।
 यह गीता ही व्यावहारिक वेदान्त है !इस प्रकार वेद से उपनिषद बना है, उपनिषद से वेदान्तसूत्र बना है, और वेदान्त का जो व्यावहारिक पक्ष या प्रयोग-धर्मी वेदान्त है, वह है गीता। किन्तु ये समस्त कार्य व्यासदेव ने अकेले ही कर दिखाया था। इसीलिये सनातन धर्म, या दर्शन या मनुष्य जाति के लिये व्यासदेव का अवदान असाधारण है। इसीलिये व्यास को 'चिरजीवी विशालबुद्धि व्यास' कहा जाता है, उनकी कीर्ति ने उनको मानवता के समक्ष अमर बना दिया है।
एक अन्य दृष्टि से देखने पर, यदि यह विचार करें कि वास्तव में 'व्यास' किसको कहते हैं? किसी वृत्त के केन्द्र गुजरती हुई जो सरल रेखा परिधि को दोनों ओर स्पर्श करती है, उसे व्यास कहते है। अर्थात यदि व्यास ज्ञात हो जाय, या व्यास के सम्बन्ध में रहने से, इस पार और उस पार सम्पूर्ण का ज्ञान हो जाता है।
इसलिये गीता के ध्यान मन्त्र में, जहाँ व्यासदेव की स्तुति की गयी है, वहाँ उनको 'विशालबुद्धि' कहा गया है।
व्यासदेव ने जो वेदान्त-सूत्र लिखा था, उसके बाद आचार्य शंकर उसके उपर भाष्य की रचना किये थे। क्योंकि वेद या उपनिषद के भीतर जो दार्शनिक तत्व थे उनको वर्गीकृत करके व्यासदेव ने जिस वेदान्त-सूत्र की रचना की थी, उसकी व्याख्या में भी विभिन्नता की सम्भावना हो गयी थी। विभिन्न लोग अलग अलग ढंग से वेदांत-सूत्र की व्याख्या करने लगे थे, जिसके कारण भ्रान्ति उत्पन्न हो गयी थी। इनमें से किसकी व्याख्या सही है, किसकी गलत है ? इसमें ग्रहण करने योग्य कौन सा भाष्य होगा ? इन सबके बारे में भी भ्रम उत्पन्न हो गया था।
तब अत्यन्त तीक्ष्णबुद्धि-सम्पन्न शंकर ने समस्त शास्त्रों का अध्यन कर लेने के बाद, उसके अद्वैत पक्ष को लेकर वेदान्त-सूत्र पर भाष्य रचना किये। सनातन भावधारा में सामान्य रूप से तीन मतों को स्वीकार किया जाता है- द्वैत,विशिष्टाद्वैत एवं अद्वैत। शंकर ने अद्वैत पक्ष को आधार बनाकर, पहले ब्रह्मसूत्र के उपर, फिर उपनिषद एवं गीता पर भी भाष्य रचना किये थे। इन तीनों को एक साथ मिलाकर 'प्रस्थानत्रैय' कहा जाता है।
 इस 'प्रस्थानत्रैय', अर्थात गीता,उपनिषद और ब्रह्मसूत्र में ही-हमलोगों के देश का सम्पूर्ण प्राचीन ज्ञान-भण्डार छुपा हुआ है, इसीलिये जो लोग उसके उपर भाष्य लिखते हैं, उन्हें हमारे देश में आचार्य कहा जाता है। शंकर, रामानुज,मध्व, निम्बार्क आदि आचार्यों ने अपने-अपने मत के अनुसार इनकी जो व्याख्या की है, उनमें कुछ व्याख्या की भिन्नता है, और अपने मतानुसार स्वतंत्र-व्याख्या की गयी है।
आचार्य शंकर की सर्वश्रेष्ठता या वैशिष्ट्य (per-eminence) का प्रारंभ यहीं से होता है। उनहोंने वेदान्त के अद्वैत पक्ष को आधार बनाकर ब्रह्मसूत्र की जो व्याख्या की है, उसका मूल बिन्दु यही है कि -यहाँ दो  कुछ भी नहीं है, सत्य एक है, अनेक नहीं! और अनेक रूपों में जो कुछ दिख रहा है-वह सब ज्ञेय वस्तु या प्रतीत होने वाली वस्तु है, क्षणभंगुर है, मायिक वस्तु है, या अध्यस्त है।
 जो वस्तु दिखाई दे रही है, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कोई वस्तु वहां है,किन्तु वास्तव में नहीं है, तो उसको ही भ्रान्ति या भ्रम कहते हैं; जिसका कारण है 'माया'। जो एक होकर भी अनेक रूपों में भास रहा है-उसी को माया कहते हैं। जो वस्तु वह नहीं हो, जिस रूप में वह दिख रही हो, उसी को 'माया' कहते हैं। माया (एक वस्तु का किसी अन्य वस्तु के रूप में दिखना -परिणाम नहीं है, विवर्त है।)का सबसे प्रसिद्द उदाहरण है, ' सर्प-रज्जू-न्याय '।  अर्थात अँधेरे में रज्जू को देखने से, उसके सर्प होने का भ्रम हो जाता है। जो वास्तव में वह नहीं है, वह उसी रूप में दिखाई पड़ रहा है। इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी है। आचार्य शंकर इस भ्रम को अध्यास कहते हैं, अर्थात सम्मोहित अवस्था में जो जैसा नहीं है, वैसा ही दिख रहा है; इसीको माया या माया का कार्य कहते हैं। माया-तत्व की व्याख्या में कहा जाता है, कि इसकी दो शक्तियाँ है- एक है आवरण-शक्ति और दूसरी है विक्षेप शक्ति। आवरण-शक्ति की सहायता से जो वस्तु वास्तव में जो है, उसको यह माया उस रूप में देखने नहीं देती है। जैसे वास्तव में है तो रज्जू किन्तु वैसा देखने नहीं देती है, या दिख नहीं रही है। फिर विक्षेप शक्ति की सहायता से जो नहीं है, उसी रूप में दिख रही है। जैसे वास्तव में है तो रज्जू, किन्तु सर्प जैसी दिख रही है। और हम वहाँ रज्जू नहीं देखकर सर्प देख रहे हैं। वास्तव में एक ही है,अनेक नहीं है, उसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है।
ठीक इसी बात को या इसी विचार को ठाकुर बहुत सरल भाषा में इस प्रकार कहते हैं-" ब्रह्म ही वस्तु हैं, ईश्वर ही वस्तु हैं, उनके स्थान पर अन्य जो कुछ भी दिख रहा है, वह सब अ-वस्तु है। एक को जानने का नाम ज्ञान है, अनेक को जानने का नाम अज्ञान है।" वास्तव में सबकुछ ब्रह्म ही हैं, किन्तु हमलोग अनगिनत रूप में देख रहे हैं। इसको ही अध्यास कहते हैं।

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन। 
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। ११।।  
(कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली)
वे एक ही हैं,इस संसार में अनेक कुछ भी नहीं है। किन्तु जो इसे नहीं देखता।जो मनुष्य यहाँ (इस संसार में) (परमात्मा को) अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है। संसार का अर्थ होता है जन्म-मृत्यु; अर्थात जो यहाँ अनेक को देखता है, वह संसार का के भँवर में फँस जाता है, बार बार जन्मता और मरता रहता है।
जो एक को एक नहीं देखते, अनेक रूप में देखते हैं, वे समझते हैं कि जो कुछ दिख रहा है, वही सत्य है।माया की शक्ति कार्य कर रही है, इसीलिये आवरण पड़ जाता है, इसीलिये हमलोग ब्रह्म को देख नहीं पा रहे हैं, या अनेकता में एक की उपलब्धी नहीं कर पा रहे हैं। जिस प्रकार रस्सी को रस्सी के रूप में नहीं देख रहे हैं, वह बिल्कुल सर्प प्रतीत हो रहा है।
उसी प्रकार माया में आवृत होने के कारण ही हम जगत को जो ईंट,लकड़ी,पत्थर इत्यादि अलग अलग रूपों में देख रहे हैं। जब माया हट जायेगी तो सब कुछ को ब्रह्म के रूप में देख सकेंगे। सत्य प्रकट हो जायेगा। एक बार माया का पर्दा हट जाने के बाद,हमलोगों की सत्य-दृष्टि खुल जाती है।

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्य -धर्माय दृष्टये।। 
(ईशावास्योपनिषद/15)
हिरण्यमय पात्र, अर्थात सोने की थाली से सत्य का मुख ढका हुआ है। और हमलोग सोने की थाली पर  ही प्रलोभित होकर, उसी में संतुष्ट हो गये हैं। किन्तु उस सोने की थाली के पीछे ही वह परम सत्य है। इसीलिये प्रार्थना करते हैं- "सत्य-धर्माय दृष्टये अपावृणु।"  हे महामाया ! तुम इस सोने की थाली को हटा लो, दूर कर दो, ताकि मैं सत्य को देख सकूँ। इस माया को यदि हम हटा सकें तो, हमलोग अनेक को नहीं देखेंगे, केवल एक उसी सत्य को देखेंगे।
 ठाकुर ने कहा था, " मैं ब्रह्म और माया, जीव और जगत-सबको लेकर चलता हूँ। पहले नेति नेति करने के समय जीव और जगत को छोड़ देना होता है। जिसका नित्य है, उसीकी लीला है। इसीलिये मैं नित्य और लीला दोनों को लेता हूँ। माया के बल पर विश्व-ब्रह्माण्ड को उड़ा देने के लिये नहीं कहता हूँ। ज्ञानी देखते हैं, कि सबकुछ स्वप्नवत है। भक्त सभी अवस्था को लेते हैं। उत्तम भक्त नित्य और लीला दोनों को लेता है। इसीलिये नित्य से उतर आने के बाद भी उनका सम्भोग कर सकता है।"
आचार्य शंकर ने जगत को व्यावहारिक सत्य कहा है। उनहोंने भी जगत को बिलकुल उड़ा नहीं दिया था। आचार्य शंकर कोई शुष्क हृदय मनुष्य नहीं थे इसका प्रमाण उनके द्वारा लिखित -गंगा-स्त्रोत्र,भवानी-स्त्रोत्र, शिव-स्त्रोत्र आदि में देखा जा सकता है। आचार्य शंकर के द्वारा रचित 'विष्णुषट्पदी ' नामक एक अभूतपूर्व स्त्रोत्र है, जिसमें विष्णु का वर्णन किया गया है। उसको पढने से समझ में आता है कि शंकर कितने हृदयवान व्यक्ति थे।
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वं । सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ॥ ३॥
अविनयमपनय विष्णो दमय मनः शमय विषयमृगतृष्णां । भूतदयां विस्तारय तारय संसारसागरतः ॥ १॥

-हे विष्णु ! मेरे अविनय या अशिष्टता को दूर कर दो। मेरे अहंकार को चूर्ण करदो, मुझे अपने मन का दमन करने में सहायता करो। विषय-भोग रूपी मृगतृष्णा (मरीचिका)-उसमें सुख है, ऐसा मानकर, इस लौकिक सुखों में आनन्द है, इसीमे अर्थ है, ऐसा सोंच कर उसके पीछे दौड़ रहा हूँ। किन्तु उस उषर रेगिस्तान में जीवन का थोडा भी आनन्द नहीं मिलता, किन्तु वहीं पहुँच कर हमलोग अपने को खो देते हैं। इसीलिये प्रार्थना करते हैं कि इसप्रकार की विषय भोगों की मृगतृष्णा बिल्कुल दूर हो जाये। ऐसा केवल मन का दमन करने से ही संभव है। इसीलिये हे विष्णु ! मेरे मन को दमन करने में मेरी सहायता करें। 
किन्तु जब तक अहंकार है, तब तक मन का दमन नहीं किया जा सकता है। इसीलिये सर्वप्रथम मेरा अविनय, अर्थात विनयहीनता या अहंकार दूर करो। इसका, अहंकार दूर करने का -क्या उपाय है ? एकमात्र सभी भूतों पर दया का विस्तार करने से ही अहंकार दूर करना संभव होता है। इसी बात को ठाकुर देव कहते थे, " अपने लोगों को प्रेम करने का नाम माया है, सर्वभूतों  को प्रेम करने का नाम दया है। "
हमारे समस्त शास्त्रों में चिरकाल से दया की प्रशंसा होती आ रही है। समस्त प्राणियों के प्रति दया,प्रेम, करुणा, सहानुभूति बढ़ाने का उपदेश दिया गया है। इसका फल क्या होगा ? यही, कि वैसा करने से ह्मलोग संसार से मुक्त हो जायेंगे, या जन्म-मृत्यु के हाथों से छुटकारा प्राप्त कर लेंगे। संसार-सागर से उद्धार मिल जायेगा।
बौद्ध धर्म के प्रभाव से हमलोगों का जो सनातन धर्म है,वह लगभग लुप्त होने के कागार तक पहुँच गया था। क्योंकि बौद्ध धर्म में वेद के उपर विश्वास करने की कोई बात नहीं थी। यहाँ तक कि स्वयं बुद्धदेव ने भी ईश्वर के बारे में कुछ नहीं कहा है। हालाँकि वे किस प्रकार के नास्तिक थे, इस सम्बन्ध में संदेह की गुंजाईश है, और इसको लेकर बहुत मतभेद भी है। किन्तु सामान्य जनता जिनको तत्वज्ञ बनने की क्षमता नहीं थी,वे उनके ईश्वर के सम्बन्ध में चुप्पी को गलत समझ लिये, और ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को खोने लगे थे। वेद पर विश्वास नहीं करने के कारण, वेद-वेदान्त में जो महान सत्य छुपे हुए थे, वे सब मनुष्य के जीवन से लूप्त होने लगे थे।
बुद्धदेव ने जिस संन्यासी सम्प्रदाय की स्थापना की थी, उसमें कोई व्यक्ति संन्यास धारण करने का उचित या योग्य अधिकारी है या नहीं इसपर कोई विचार किये बिना ही, बिना किसी रुकावट के सभी को संन्यास दिया जाने लगा था। परिणाम स्वरूप संन्यास धर्म की अधोगति होने लगी, और क्रमशः संन्यास का आदर्श विकृत होकर अपभ्रष्ट हो गया था। क्रमशः संन्यासियों के जीवन में अराजकता का प्रवेश हो गया, तह संन्यासियों के जीवन की अराजकता को देखकर समाज भी कलुषित होने लगा। सम्पूर्ण भारतवर्ष का समाज क्रमशः चरित्रहीन होने लगा।
उसी समय में आचार्य शंकर ने व्यास-सूत्र पर भाष्य की रचना किये, समस्त उपनिषदों पर (दश उपनिषद या मतभेद है की बारह उपनिषदों ) भाष्य की रचना किये। उसके भीतर जो कर्म में रूपायित करने की दृष्टि थी, जिसकी व्याख्या व्यासदेव ने गीता के माध्यम से की थी, उसके उपर भी असाधारण भाष्य की रचना की। इसप्रकार वेदान्त, ब्रह्मसूत्र, एवं गीता के बीच सुसामंजस्य स्थापित करके तत्व और जीवन के बीच स्थापित किये। ताकि अपने व्यावहारिक जीवन में भी उपयोगी तत्वों को ग्रहण करके भारत की उन्नति हो सके। नया संन्यासी सम्प्रदाय स्थापित किये, नये मठ को स्थापित किये।
उसी प्रकार आगे चलकर और भी नये ढंग से समयोपयोगी बनाकर वेदान्त के तत्वों को जीवन में अपनाने के योग्य बनाकर ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने अपने जीवन के माध्यम से हमलोगों को दिया है। सम्पूर्ण मानव सभ्यता की प्रगति के जीवनधारा को याद रखने के लिये यदि तीन चरणों में व्यक्त करना हो, तो प्रथम सोपान पर व्यासदेव हैं, दूसरे सोपान पर आचार्य शंकर हैं, और तृतीय तथा अंतिम सोपान पर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द हैं।
सम्पूर्ण मानव-इतिहास, उसका दर्शन, उसकी संस्कृति, उसकी प्रगति, उसके उत्थान-पतन का इतिहास यदि याद रखने की बात हो, तो बहुत सी बातों को याद नहीं रखकर, इन तीन सोपानों को याद रखने काम हो जायेगा। वेदव्यास ने क्या किया था, आचार शंकर ने क्या किया था तथा ठाकुर-माँ-स्वामीजी ने क्या किया था-इतना जान लेना ही भारत के सच्चे इतिहास को जानना है।
इसके भीतर सामयिक पतन और उससे पुनरुत्थान के उपाय को भलीभांति समझा जा सकता है। और इनके बीच की कड़ी (शङ्करः)भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। कहा गया है-  "शङ्करः शङ्करः साक्षात् व्यासो नारायणः स्वयम् । आचार्य शंकर साक्षात् शिव हैं, शिवजी का अवतार हैं -आचार्य शंकर; उन्होंने मनुष्य के कल्याण के लिये शरीर धारण किया था, ऐसा कहा जाता है।
ठाकुर ने कहा था, " शिव के अंश से जिसका जन्म होता है, वह ज्ञानी होता है; उसका मन हर समय 'ब्रह्म सत्य,जगत मिथ्या ' के बोध की ओर चला जाता है। विष्णु के अंश से जिसका जन्म होता है, उसमें प्रेम-भक्ति होती है।" किन्तु शंकराचार्य में विष्णु के प्रति भक्ति भी कम नहीं थी। ठाकुर यह भी कहते थे, कि " शंकराचार्य ने लोक-शिक्षा के लिये 'विद्या का मैं' रख लिया था। " उस महान पुरुष को हम प्रणाम करते हैं।

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[  कोई दूसरा मरता है तो कहते हैं बेचारा मर गया। खयाल ही नहीं आता, अपने मरने की खबर आई है। किसी अंग्रेज कवि की पंक्ति है-  किसी को भेजो मत पूछने कि लिए की चर्च की घंटी किसके लिए बजती है। तुम्हारे लिए ही बजती है। बिना पूछे ही जानो कि तुम्हारे लिए ही बजती है।’ हम मौत से बहुत घबराते हैं। हम मृतक को फूलों से ढककर मौत की भयावहता को कम करने की चेष्टा करते हैं।
संन्यास का अर्थ यही है- जीते जी, इस तरह जीना जैसे मर गए। मृत्यु में जो उतरेगा, वह अमृत को उपलब्ध होगा। संन्यास लेने का अर्थ है, स्वयं को स्वयं की मृत्यु की खबर देना। कह देना है जो चर्च में घण्टी बज रही है, मेरे लिए ही बज रही है, वह जो रास्ते से लाश गुजर रही है, वह मेरी ही गुजर रही है।
परम सत्य के बिल्कुल आमने-सामने ऋषि खड़ा है। बड़ी दुविधा है, प्रकाश के आधिक्य के कारण सूक्ष्म आंखे भी चौधियां जा रही हैं। जैसे-जैसे सत्य की तरफ यात्रा होती हैं, वैसे-वैसे प्रकाश बढ़ता जाता है। ध्यान में गहरे उतरते हैं, प्रकाश बढ़ता चला जाता है। एक बिन्दु ऐसा आता है जब प्रकाश इतना ज्यादा हो जाता है कि गहन अंधकार मालूम होने लगता है।इसे बाइबिल में आत्मा की अधंकारपूर्ण रात्रि कहा गया है। ऋषि प्रार्थना कर रहा है ‘प्रकाश के इस पर्दे को हटाले ताकि मैं इसके पीछे छिपे सत्य के मुख को देख सकूं। अनन्त सूर्य एक साथ जलने लगते हैं। अंधकार में आंख खोलना आसान है, प्रकाश के आधिक्य में आंख खोलना बहुत कठिन है। हमने प्रकाशित चीजें देखी है, प्रकाश के स्त्रोत को देखा हे, प्रकाश को देखा ही नहीं है। प्रकाश का अनुभव बाहर के जगत में होता ही नहीं। प्रकाश इतनी सूक्ष्म ऊर्जा है कि बाहर उसके दर्शन नहीं हो सकते। प्रकाश के दर्शन तो भीतर ही होते हैं।‘जब तक भीतर नहीं देखा था, तब तक जिसे प्रकाश समझा था, भीतर देखने के बाद मालूम चला, वह अंधकार है। 
यहां ऋषि ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय‘ अंधेरे से प्रकाश की ओर ले चल, प्रार्थना नहीं कर रहा। वह ज्योति के सामने पहुंच गया है। वह तो प्रकाश के पर्दे को हटाने के लिए प्रार्थना कर रहा है। साधक लक्ष्य पर पहुंच गया है। प्रकाष का पर्दा इतना गहन हैं कि सत्य के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। ज्यों ही प्रकाश का पर्दा हटता है, सत्य का मूल रूप आलोक फूट पड़ता है।आलोक दर्शन होते ही ज्ञाता और ज्ञेय दोनों खो जाते हैं। दृष्टा और दृश्य खो जाते हैं, फिर ऋषि ही सत्य हो जाता हैं। भक्त खोजता है, भगवान खो जाता है।
 हे प्रभु ! सांसारिक चमक-दमक और सांसारिक सुखद आकर्षणरूपी आवरणके पात्र से सत्य का मुख ढका हुआ है।हे प्रकाशवान, सर्व पोषक ! उस भौतिक आकर्षण के परदे को हटाइये ताकि मुझे सत्य - धर्म का ज्ञान हो और मैं परम सत्यको देख सकूँ ।]
बहुत पहले सुदर्शन जी की एक कहानी पढ़़ी थी- ' एथेंस का सत्यार्थी’। यूनान देश के एथेंस नगर के निवासी दार्शनिक सुकरात (देवकुलीश) को एथेंस का सत्यार्थी इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने ' सत्य की खोज एवं झूठ के खंडन ' के लिए जहर का प्याला पीना भी स्वीकार कर लिया था। इसलिए आज के युग में भी जो सत्य की खोज में समर्पित हो जाए उसे एथेंस का सत्यार्थी ही कहना चाहिये। सुकरात (Socrates 469-399 ई. पू.) यूनान का विख्यात दार्शनिक वह कहता था-ज्ञान और सच्चरित्रता एक ही वस्तु हैं। ज्ञान के समान पवित्रतम कोई वस्तु नहीं हैं।'ज्ञान का संग्रह और प्रसार, ये ही उसके जीवन के मुख्य लक्ष्य थे। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि शुभ या भद्र दो चरम सीमाओं में मध्यवर्ती स्थिति है। घृष्टता और कायरता दोनों अवगुण हैं; इनके मध्य में साहस है जो सदाचार है। शिष्टाचार उद्दंडता और दासभाव के बीच की अवस्था है।
 सुकरात रहस्‍यदर्शी था, उसे दार्शनिक कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन पश्‍चिम में बुद्धों की कोई परंपरा नहीं है। इसलिए इतिहासकार या उसके स्‍वयं के शिष्‍य भी उसे समझ नहीं पाये। वे उसे एक विचित्र, बेबूझ व्‍यक्‍ति मानते थे। सुख-दूःख या सर्दी-गर्मी उसके लिए सब एक बराबर था। उसे बार-बार घंटो टाँस में खो जाने की आदत थी। लोग कहते थे उसकी आत्‍मा ने शरीर पर विजय पा ली है। उसकी एक ही बुरी आदत थी: लोगों के साथ संवाद करना। और संवाद के द्वारा सत्‍य को उघाड़ना। एथेन्‍स के सारे नेता उस की हरकत से परेशान थे। वे उसके बोलने को रोक नहीं सके तो आखिर उसकी आवाज को ही बंद करवा दिया। उसके अधूरे कार्य को उसके शिष्य अफलातून और अरस्तू ने पूरा किया।
 तरुणों को बिगाड़ने, देवनिंदा और नास्तिक होने का झूठा दोष उसपर लगाया गया था और उसके लिए उसे जहर देकर मारने का दंड मिला था। सुकरात ने जहर का प्याला खुशी-खुशी पिया और जान दे दी। उसे कारागार से भाग जाने का आग्रह उसे शिष्यों तथा स्नेहियों ने किया किंतु उसने कहा-भाइयो, तुम्हारे इस प्रस्ताव का मैं आदर करता हूँ कि मैं यहाँ से भाग जाऊँ। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन और प्राण के प्रति मोह होता है। भला प्राण देना कौन चाहता है? किंतु यह उन साधारण लोगों के लिए है जो लोग इस नश्वर शरीर को ही सब कुछ मानते हैं। आत्मा अमर है फिर इस शरीर से क्या डरना?
 हमारे शरीर में जो निवास करता है क्या उसका कोई कुछ बिगाड़ सकता है? आत्मा ऐसे शरीर को बार बार धारण करती है अत: इस क्षणिक शरीर की रक्षा के लिए भागना उचित नहीं है। क्या मैंने कोई अपराध किया है? जिन लोगों ने इसे अपराध बताया है उनकी बुद्धि पर अज्ञान का प्रकोप है। मैंने उस समय कहा था-विश्व कभी भी एक ही सिद्धांत की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। मानव मस्तिष्क की अपनी सीमाएँ हैं। विश्व को जानने और समझने के लिए अपने अंतस् के तम को हटा देना चाहिए। मनुष्य यह नश्वर कायामात्र नहीं, वह सजग और चेतन आत्मा में निवास करता है। इसलिए हमें आत्मानुसंधान की ओर ही मुख्य रूप से प्रवृत्त होना चाहिए। यह आवश्यक है कि हम अपने जीवन में सत्य, न्याय और ईमानदारी का अवलंबन करें। हमें यह बात मानकर ही आगे बढ़ना है कि शरीर नश्वर है। अच्छा है, नश्वर शरीर अपनी सीमा समाप्त कर चुका। टहलते-टहलते थक चुका हूँ। अब संसार रूपी रात्रि में लेटकर आराम कर रहा हूँ। सोने के बाद मेरे ऊपर चादर उड़ देना। "] 
एक जगह यह भी लिखा है- इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहाँ विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टादेवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा- ‘वर माँगो।’ शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र माँगा। भगवान शंकर ने कहा- ‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’ तब धर्मप्राण शास्त्रसेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा- ‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहाँ अवतीर्ण होऊँगा।’इन्हीं शंकराचार्यजी को प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए श्री शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।
 हमारे दशनामी सम्प्रदाय के नाम इस परकार हैं -(1)-वन, (2)-अरण्य, (3)-गिरि, (4)-सागर, (5)-पर्वत, (6)-तीर्थ, (7)-आश्रम, (8)-पुरि, (9)-भारती, (10)-सरस्वती। इसमें से पुरी-सम्प्रदाय के श्रीमद तोतापुरी जी महाराज, श्रीरामकृष्ण के गुरु थे, इसलिये उनके (ठाकुर के ) सभी भक्त पूरी सम्प्रदाय के माने जा सकते हैं। पुरी की परिभाषा इस प्रकार है -
'ज्ञान तत्वेण सम्पूर्णः पूर्णतत्व पदेस्थितः।
पद ब्रह्मरता नित्य पुरी नामा स उच्यते।।'
-अर्थात ज्ञान तत्व से युक्त पूर्ण तत्वज्ञ व शब्द ब्रह्ममें लीन में रहने वाला पुरी है। पुरियों की 16 मढी इस प्रकार है:-1-वैकुण्ठ पुरि, 2-केशव पुरि मुलतानी, 3-गंगा पुरि दरिया पुरि, 4-ञिलोक पुरि, 5-वन मेघनाथ पुरि, 6-सेज पुरि, 7-भगवन्त पुरि, 8-पू्रण पुरि 9-भण्डारी हनुमत पुरि, 10-जड भरत पुरि, 11-लदेर दरिया पुरि, 12-संग दरिया पुरि, 13-सोम दरिया पुरि 14-नील कण्ठ पुरि,15-तामक भियापुरि, 16-मुयापुरिनिरंजनी]