मेरे बारे में

सोमवार, 19 नवंबर 2012

'वस्तु ही प्राप्त करने योग्य (attainable) है !' (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री )@$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [36] ,


 वस्तु (ब्रह्म-श्रीरामकृष्ण) ही प्राप्त करने योग्य हैं !  
(अनात्मवाद या भौतिकवाद तो अल्पबुद्धि  लोगों का दर्शन है) 
[Materialism is a philosophy of unintelligent]   
आज विभिन्न स्थानों पर विभिन्न प्रकार की बातें सुनने को मिलती हैं। कहीं पर लोग पूछते हैं, आज स्वामी विवेकानन्द क्या आवश्यकता है ? कोई पूछता है, आज दुनिया में अवतार कौन है,कहाँ है ? आज का धर्म क्या है? कोई व्यक्ति तो श्रीरामकृष्ण के ही शब्दों को उद्धृत करते हुये पूछते हैं- ' क्या मुगल साम्राज्य के जमाने का सिक्का  इस शासन-काल में चल सकता है ? क्या हमारे जीवन में धर्म की कोई आवश्यकता है? धर्म के बिना  केवल  भौतिकवाद (physical science) की सहायता से ही हमलोग जब अपनी समस्त समस्याओं का निदान कर सकते हैं; तो एक मनगढ़न्त वस्तु के ऊपर फिर से चर्चा करने की क्या जरूरत है? 
आदिम युग में जब मनुष्य अल्पबुद्धि (imbecile) था, वह प्रकृति के आँधी-तूफान और गुस्से को देखकर सर्वदा भयभीत हो जाया करता था। और तब इसी भय के कारण धर्म की उत्पत्ति हुई थी। युग बदला, और विज्ञान की प्रगति के साथ साथ, हमलोग अपना उद्धार स्वयं करना सीख चुके हैं। पहले तो हमलोग बाघ और घड़ियाल को भी देखकर डर जाते थे, उनको मार डालने की कोशिश करते थे। इस समय सरकारी धन से बाघ-घड़ियाल संवर्धन परियोजना चला रहे हैं। हमलोग चाहते हैं कि बाघ और घड़ियाल की संख्या में वृद्धि हो। कोई कोई चाहते हैं कि साँप की संख्या में वृद्धि हो। पहले ये हिंसक पशु हमलोगों के शत्रु थे, किन्तु अभी विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है कि अब हम इनकी संख्या में वृद्धि होते देखना चाहते हैं। 
इन्हीं प्रकार के बेतुके प्रश्नों से हमलोगों का चित्त इतना अधिक विचलित हो गया है कि, हमलोग,इसी बहस में सारा समय गँवा देते हैं -कि श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा, स्वामी विवेकानन्द की आवश्यकता आज के विश्व को है या नहीं ? और इसी कारण, हम उनसे प्यार नहीं कर पाते हैं, उनके नजदीक नहीं जा पाते हैं, अपने जीवन का विकास नहीं कर पाते हैं, उनकी सहायता से हम अपने जीवन को पवित्र नहीं बना पाते हैं। तथा अपना कल्याण करके दूसरों का कल्याण करने में स्वयं को पूरी तरह से न्योछावर नहीं कर पाते हैं। इस महान बली के लिये अपने जीवन को गठित  नहीं कर पाते हैं। और यही सबसे बड़े दुःख की बात है।
हमलोग विज्ञान का अध्यन करते हैं, " Materialism " या  भौतिकवाद के उपर चर्चा करते हैं,  चिन्तन करते हैं। किन्तु पाश्चात्य जगत के एक नॉबेल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक रॉबर्ट एंड्रयूज मिल्लिकन (R. A. Millikan)कहते हैं -" मटीरीअलिज़म इज अ फिलॉसफी ऑफ़ अनइंटेलिजेंट "अर्थात -भौतिकवाद, (चार्वाक मत, अनात्मवाद अथवा देह-सर्वस्ववाद) एक ऐसा दर्शन है, जो केवल अल्पबुद्धि लोगों के लिए ही उपयुक्त हो सकता है। वे बहुत शिष्ट भाषा का प्रयोग करते हुए कहते हैं, कि जड़वाद या 'अनात्मवाद'-केवल अज्ञानी लोगों का ही दर्शन है।  इस विषय पर चिंतन करने से यही समझ में आता है कि, जो व्यक्ति सब कुछ को जड़ पदार्थ समझता है, आम भाषा में जिसको 'ठोस वस्तु' (Solid objects,इन्द्रिय गोचर या Tangible ठोस पदार्थ कहते हैं, जो छूने से जान पड़े,स्पर्श योग्य मूर्त पदार्थ) कहा जाता है, इसी जड़ वस्तु पर विचार करते करते उसके दिमाग में भी 'जड़ता' (गोबर) भर जाती है, वह स्वयं जड़ पदार्थ में परिणत जाता है।एक शब्द में यदि अनात्मवादियों की व्याख्या करनी हो, तो कहना पड़ेगा कि जड़-वस्तुओं का चिंतन करते करते उनका दिमाग इतना 'impervious' (इम्पर्वीअसअविवेकी या अभेद्य गैंडा का चमड़ा जैसा) अप्रवेशनीय हो जाता है, वहाँ कोई भी प्रवेश-द्वार खुला नहीं रहने के कारण उसमें कोई नया या सूक्ष्म विचार घुस ही नहीं पाता है। जब किसी मनुष्य की ऐसी अवस्था हो गयी हो, तब उसको देखने से लगता है, इसके व्यक्तित्व का विकास होना अब संभव नहीं है।
अब इन प्रश्नों में उलझना छोड़ कर कुछ और आगे की बात सोचनी होगी। केवल श्रीरामकृष्ण, माँ सारदा या स्वामी विवेकानन्द आज भी हैं या नहीं ? यदि हैं तो, उनको रहने दिया जा सकता है कि नहीं ? ... इस 
बहस में न उलझते हुए, हमलोगों के मन में उनको ग्रहण का विचार उठाना चाहिये। वर्तमान समय में जहाँ हम अपनी आँखों के सामने असामनता, दारिद्र्य, दुःख, दुर्दशा आदि देखते हैं तो हमलोग इसके समाधान के उपायों पर चर्चा करते हैं। और अक्सर हमलोग इन समस्याओं का हल ढूँढने के लिये राजनीति का सहारा लेना चाहते हैं। किन्तु राजनीति के माध्यम से इन समस्याओं का सच्चा समाधान हम कभी नहीं ढूँढ़ सकते।
क्योंकि राजनीति में सबसे बड़ी कमी यह है कि वहाँ मनुष्य का अन्वेषण (खोज) करने की कोई व्यवस्था नहीं है। (जम्हूरियत वह तर्जे हुकूमत है, जिसमें बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते ! -अकबर इलाहाबादी) मनुष्य को अधिक सुख कैसे मिलेगा -इसके अन्वेषण की चेष्टा होती है, उसमें धन-सम्पति के खोज की व्यवस्था है, शक्ति और समाज को समृद्ध करने का अन्वेषण होता रहता है, किन्तु जिस मनुष्य के सुख, धन, ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये वे सभी वस्तुएँ हैं, उसी मनुष्य का विश्लेष्ण करने की कोई व्यवस्था नहीं है। 
राजनीतिक विचारधारा में मनुष्य के बारे में जो थोड़ा -बहुत विश्लेष्ण हुआ भी है वह केवल उन्हीं तथाकथित समाज-सेवकों के चिन्तन पर आधारित है,जो भौतिकवाद की सहायता से मनुष्य के देह को सुख कैसे पहुंचेगा, केवल इसी विषय पर अपनी बुद्धि लगाते हैं। हमारे देश का "योजना आयोग " जड़वादी दृष्टिकोण रखने वाले, Materialism के दर्शन में विश्वास रखने वाले लोगों के मनुष्य सम्बन्धी विश्लेष्ण को आधार बना कर  मनुष्य के कल्याण की योजनायें बनाता है। ये मूर्ख भौतिकतावादी लोग मनुष्य को केवल एक क्षूद्र जीव समझते (और मात्र 26/= रुपये कमाकर एक दिन का भोजन मिल सकेगा, ऐसी BPL -योजना बनाते) हैं।
(भारत के विश्वविद्यालयों में दर्शनशास्त्र पढ़ाने वाले अधिकांश प्राध्यापक भौतीकतावादी या चार्वाक मत के अनुयायी हैं) वे छात्रों को केवल यही बताते हैं कि मनुष्य एक सामाजिक जीव है, जिसके कुछ इन्द्रियाँ हैं, अर्थात मनुष्य केवल body-mind complex, शरीर-मन का एक संयोजन (combination) मात्र है। 
राजनीति शास्त्र में मनुष्य को केवल एक ऐसे प्राणी के रूप में देखा जाता है, जिसकी कुछ इन्द्रियाँ होती है। इस प्रकार मनुष्य की महिमा को छोटा कर दिया जाता हैं, उसकी अवमानना की जाती है। सेक्सपियर ने अपने एक नाटक में कहा है -" अक्सर हमलोग आचार-अनुष्ठान को इतना बड़ा बना देते हैं, कि देवता ही उपेक्षित हो जाते हैं। " हमलोग मनुष्य के लिये ही विचार करते हैं, उनका  दुःख-दैन्य किस प्रकार दूर हो सकता है, उसी के उपर सोचने में हमलोग इतने अधिक डूब चुके हैं, कि जिस मनुष्य के कल्याण की चिन्ता कर रहे हैं, उस मनुष्य को - उस मनुष्य की यथार्थ सत्ता को भूल गये हैं।
आज जो वैश्विक समस्या का रूप ले चुकी है, विशेष रूप से भारत के लिए जो एक संकट की स्थिति बन चुकी है, जिसे दूर करना सबसे आवश्यक है, वह है यहाँ के मनुष्यों की अपहृत सत्ता को पुनः प्रतिष्ठित करना। ऐसा प्रतीत होता है, मानो किसी अपराध के फलस्वरूप भगवान की मूर्ति में जिस प्राण को प्रतिष्ठित किया गया था, वह प्राण ही विलुप्त हो चूका है, और कहीं संगमरमर की मूर्ति पड़ी है, तो कहीं लकड़ी की बेजान मूर्ति लुढ़क रही  है। जो मानव शरीर दिख रहा है, वह तो केवल लकड़ी, मिट्टी या संगमरमर का पत्थल है, उसमें देवता कहाँ हैं ? हमलोगों के भीतर जो ब्रह्म निश्चित रूप से विद्यमान हैं, उनको ही हमलोग अस्वीकार कर रहे हैं। तथा अपने को केवल एक हाड़-माँस का पिंजरा समझते हैं, जिसके भीतर कुछ इन्द्रियाँ अद्भुत करामात कर रही हैं, और हमलोग उसके कारनामों को नजर भर भर कर देख रहे हैं, और उसके उसकावे में बहते जा रहे हैं। इन्द्रिय विषयों में ही सुख ढूँढ़ रहे हैं, यही मनुष्य -समाज का सबसे बड़ा संकट है।
यह संकट बेबुनियाद नहीं है। इसीलिये बार बार यह समझाना पड़ता है, चर्चा करनी पडती है कि स्वामी विवेकानन्द, माँ सारदा और श्रीरामकृष्ण आज भी अत्यन्त आवश्यक हैं। जगत में इस प्रकार का संकट पहले भी कई बार उपस्थित होता रहा है, और जब जब ऐसा संकट आता है, उसको कहते हैं, धर्म की ग्लानी होना या नीचे गिर जाना, एवं अधर्म का अभ्युत्थान हो जाना, अधर्म का उपर उठ जाना। यह धर्म का नीचे गिरना और अधर्म का अभ्युत्थान होने का अर्थ यह नहीं है कि मन्दिर टूट-फूट गये हैं, और अमीर लोगों से काला धन लेकर कुछ नये मन्दिर बना देने मात्र से ही धर्म का अभ्युत्थान हो जायेगा।  ऐसा सोचना बिल्कुल गलत होगा। धर्म अपने स्थान से च्युत कब होता है ? जब हमलोग मनुष्य की अन्तर्निहित सत्ता या उसके ब्रह्मत्व की अवमानना करते हैं, उसको अस्वीकार करते हैं, और वह मानो संकोच, दुःख, लज्जा से अवनत हो जाती है, मनुष्य की दृष्टि अपनी ही अंतर्निहित सत्ता को देख ही नहीं पाती है। और तब हमलोग मात्र एक जीव या केवल एक पशु हो जाते हैं।हमलोगों की बाहरी आकृति या ढाँचा तो मनुष्य का ही है, आवरण मनुष्य का है, किन्तु पशु के जैसा स्वभाव लेकर समाज में विचरण करते हैं।
इसी प्रकार की घटना का सूत्रपात आधुनिक युग में भी हुआ था, जब पाश्चात्य विज्ञान, पाश्चात्य दर्शन, पाश्चात्य साहित्य आदि (रावण) ने हमलोगों के देश की मनीषा या बुद्धि (रूपी सीता ) का हरण कर लिया था। जिस समय हमारे देशवासी पाश्चात्य विद्या में धीरे धीरे शिक्षित होते जा रहे थे, जब वे पाश्चात्य संस्कृति की बाढ़ में डूबने-उतराने लगे थे, तथा हमारी प्राचीन संस्कृति जिसमें मनुष्य को उसकी यथार्थ सत्ता को जानने की पद्धति बताई गयी थी, उसकी उपेक्षा करने लगे थे और अपनी प्राचीन विचारधारा की हर बात को अन्धविश्वास कहकर उसका मजाक उड़ाने में लगे हुए थे, उसी समय भगवान श्रीरामकृष्ण आविर्भूत हुए।
बार बार 1853 ई0 की बात याद हो आती है, जब महान विचारक कार्ल मार्क्स किसी व्यक्ति को पत्र में लिखते हैं, " भारतवर्ष की वर्तमान अवस्था को देख कर मुझे बहुत दुःख का अनुभव हो रहा है, भारतवर्ष ने अपने अतीत को तो भुला दिया है, किन्तु उसके बदले किसी नई विचारधारा को अंगीकार भी नहीं किया है। वर्तमान में उसकी निराशाजनक अवस्था को देखते हुए, उसके भविष्य के विषय में कुछ भी सोच नहीं पा रहा हूँ। "
 किन्तु ठीक उसी वर्ष, अर्थात 1853 ई0 में ही श्रीरामकृष्ण देव ने कोलकाता में पदार्पण किया था। उन्होंने वहाँ  कोई मैजिक नहीं दिखलाया बल्कि, तत्कालीन शिक्षित समुदाय के समक्ष-जो ज्ञान प्राचीन काल में साधारण जनता की आँखों से अदृश्य जंगल की गोपनीयता में आविष्कृत हुआ था, उसी 'निर्विकल्प -समाधि ' को ही अपने नवीनतम विज्ञान के रूप में सीधे तौर पर प्रस्तुत कर दिया था। और जगत के समक्ष पहली बार, आधुनिक समय की शिक्षा के उपर इतराने वाले कोलकाता में,  'Trance-Science' या "भाव समाधी (तन्मयावस्था) " का विज्ञान प्रकट हो गया।  एक ऐसे वैज्ञानिक धर्म का जन्म हुआ, जो कहता है- ' विश्वास नहीं, साक्षात्कार कर के देखो।' " सत्य-ज्ञान (अपने सच्चे स्वरूप ज्ञान ) प्राप्त कर लेना ही धर्म है।"
कठोपनिषद में कहा गया है कि प्रकृति ने जिस प्रकार हमलोगों की रचना की है, उसके अनुसार स्वभावतः हमारी समस्त इन्द्रियाँ बहिर्मुखी (बाहर जाने वाली) हो गयी हैं। इसी बहिर्मुखिनता के कारण हमलोग विभिन्न प्रकार के विषयों के संसर्ग में आते हैं; इस संसर्ग-छूटने से वेदना होती है, वेदना से अनुभूति (दिल को चोट पहुँचता है ), अनुभूति से  क्रमशः तृष्णा आती है, और उसके बाद उन्हीं विषयों में हमलोग घोर आसक्त हो जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से हमलोगों को विभिन्न प्रकार के दुःख, कमजोरी, बीमारी, मृत्यु आदि घेर लेते हैं। इस जन्म-मृत्यु के चक्र से हमलोग बाहर नहीं निकल पा रहे हैं।
इन्द्रिय जन्य वेदना के अतिरिक्त और किसी प्रकार के सत्य-ज्ञान को नहीं पा रहे हैं। बहुत तरह का सत्य-ज्ञान (True -Knowledge) हो सकता है, उन सबों में सबसे अपेक्षित (आवश्यक) सत्य-ज्ञान है- मनुष्य के सम्बन्ध में सत्य-ज्ञान। इसी मनुष्य के सम्बन्ध में सत्य-ज्ञान नहीं रहने से हमलोग खोखला (भाव शून्य, मूढ़) बन जाते हैं, हमलोगों को अन्तःसार शून्य (आन्तरिक दिव्य-उर्जा से रहित) हो जाना पड़ता है। श्रीरामकृष्ण-सारदा देवी-स्वामी  विवेकानन्द ने आधुनिक समाज के सामने मनुष्य की इसी विडम्बना को उद्घाटित किया है। 
उन्होंने मानव-जाति को यही उपदेश दिया कि तुमलोग अपने सभी क्षेत्रों में विकास करने के लिये, पहले आत्मविश्वासी बनो। तुम लोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता के प्रति अपनी खोयी हुई श्रद्धा को वापस ले आओ। स्वामी विवेकानन्द ने भारत के सर्वांगीन विकास के लिये, अपने देशवासियों के अपहृत आत्मश्रद्धा को वापस लौटा देने का आह्वान किया है। उनको शिक्षित करो। यदि ब्राह्मण के लड़के के लिये एक शिक्षक की आवश्यकता हो, तो चांडाल के लडकों को शिक्षित करने के लिये दस शिक्षकों (आत्मश्रद्धा वापस लौटाने में समर्थ क्रांति-दूतों ) का निर्माण करो। आजकल जिनको अनुसूचित जाति और जनजाति कहा जाता है, उनके लिये अधिक शिक्षा की आवश्यकता है। सच्ची शिक्षा के माध्यम से ही उनकी गरीबी दूर की जा सकती है। इसी शिक्षा को प्राप्त करके अंतर में सोये हुए ब्रह्म जाग उठते हैं। जब कोई मनुष्य सच्चा आत्मविश्वासी बन जाता है, तब उसको समस्त वस्तुएँ प्राप्त हो जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता (6/5) में कहा है-   
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥ 
 मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध पतन नहीं करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है।।
गीता (2/31 -38) में ही एक जगह श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं, " तुम युद्ध करो। तुम यदि युद्ध करके अपने कर्तव्य का पालन करो, यदि गृहस्थ होकर पारिवारिक कर्तव्यों का पालन करो, सामाजिक होकर समाज के कर्तव्यों का पालन करो, तभी तुम्हारे स्वधर्म का पालन करना होगा। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु भी हो तो वही श्रेयस्कर है। " 
हमलोग यदि श्रीरामकृष्ण को श्रद्धा के साथ, बहुत प्रेम के साथ, बहुत नजदीक से देखने की चेष्टा करें तो देखते हैं कि माँ को प्राप्त करने के लिये उनके जीवन में कितनी वेदना थी। कह रहे हैं, " माँ, तूने रामप्रसाद को दर्शन दिया है, मुझे नहीं दोगी ? " प्रतिदिन सूर्यास्त हो जाने के बाद कह रहे हैं, " और एक दिन बीत गया, आज भी तूने दर्शन नहीं दिया ? " माँ को पाने की क्या असाधारण व्याकुलता है, कितनी वेदना है ! और अंत में जब वे हाथ में कटार लेकर अपना जीवन ही समाप्त कर देने पर उतारू हो जाते हैं, ठीक उसी समय आद्याशक्ति उनको दर्शन देती हैं। किन्तु उसके बाद भी वे दर्द भरे गले से युवाओं को पुकार रहे हैं, " अरे, तुमलोग कहाँ हो ? माँ ने तो कहा था, तुम लोग आओगे। " 
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि वे युवाओं को पुकार रहे हैं ! वृद्ध लोगों के लिये जितना देने को था, उससे अधिक ही वे दे चुके थे। किन्तु वही श्रीरामकृष्ण- माँ सारदा को कहते हैं, " तुम रहो, बहुत से काम करने हैं ! " अपने परिवार की तंगी (अभावग्रस्तता) को दूर करने की प्रार्थना करने गये तो माँ से माँग बैठते हैं- " माँ मुझे विवेक दो, वैराज्ञ दो, ज्ञान दो, भक्ति दो !" यह सब क्यों माँगे ? ' आत्मनो मोक्षार्थं जगतहिताय च ' - आत्मा की मुक्ति और जगत का कल्याण करने के लिये। उसके बाद माँ सारदा देवी ठाकुर के भक्त युवाओं का पालन-पोषण करने में अपने मन को निवेशित कर देती हैं। उनकी प्रार्थना और आशीर्वाद से ही  इन युवाओं के लिये - ' रामकृष्ण मठ और मिशन ' नामक एक संगठन खड़ा हो जाता है। इस संगठन के माध्यम से ही श्रीरामकृष्ण-जीवन-गोमुखी वितरण धारा से आज भारत भूमि को सिंचित और पल्लवित करते हुए, सम्पूर्ण विश्व क्रमशः उस धारा में स्नान करके पुलकित हो उठी है। इस मठ-मिशन के आविर्भूत होने के कारण ही हमलोग आज उनके जीवन और उपदेश पर चर्चा तथा समाज में उनके प्रयोग के प्रश्न को लेकर विचार-विमर्श कर पा रहे हैं। 
कुछ लोग पूछते हैं, रामकृष्ण मिशन ने क्या किया है ? हमलोगों का मानना है कि, 'रामकृष्ण मठ और मिशन' जैसे सम्पूर्ण मानवता को समर्पित महान संगठन द्वारा की गयी सेवा-कार्यों को सूचीबद्ध किया ही नहीं जा सकता ! इस तरह की सूची तो कई छोटे-बड़े कई संगठन देते ही रहते हैं । किन्तु इस संगठन द्वारा की गयी सेवा-कार्यों की सूची तो बहुत लम्बी हो जाएगी। इसी विषय पर स्वामी अखण्डानन्द के साथ खेत्री के महाराज के वार्तालाप का स्मरण कीजिये। एक धनाड्य महाराज के साथ इस तरह के बर्ताव की सूची और कहीं नहीं मिलेगी। [ राजस्थान में प्राचीन समय मे ऐसा रिवाज था कि छोटी जाती की लड़कियों को राजा अपनी दासी बनाकर रखते थे...इन्हे गोली और लड़कों को गोला कहा जाता था...गोलियों के रहन सहन का पूरा खर्च राजा ही उठाते थे लेकिन उनकी संतान,जो की राजा की ही संतान हुआ करती थी,को राजा का नाम या रुतबा नहीं मिलता था...उन्हे अपने कथित पिता के साथ रहना पड़ता था...जो कि आमतौर पर गोली के सेवक की तरह रखा जाता था, उनके लिये स्कूल की स्थापना किये थे]  किन्तु यह भी एक प्रकार की बाह्य समाज-सेवा ही है।
जयदेव रचित गीत गोविन्द में माँ जगदम्बा के दस अवतारों की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है -प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम् । विहितवहित्रचरित्रमखेदम्॥ केशवाधृतमीनशरीर जयजगदीशहरे॥" 
-हे जगदीश्वर! हे हरे! जिस प्रलय काल में सात समुद्रों के जल ने सम्पूर्ण पृथ्वी को बाढ़ में डुबो दिया था, हे केशव ! उस समय आपने मानवजाति के कल्याण के लिए मछली (और वाराह) जैसे तुच्छ शरीर में अवतार लेकर अथक परिश्रम द्वारा चारो वेदों को सुरक्षित बनाये रखा है। क्योंकि ये वेद ही उस नौका (जलयान)  के समान हैं जो जीवात्मा को दूसरे तट तक (परमात्मा तक) ले जाने में समर्थ है। [विहित = make do [improvising]; वहित्र = (like a) ship; चरितम= legendary; वेदं = Veda s] इस प्रकार हे हरि ! आप ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं, आपकी जय हो ! अर्थात  जैसे नौका (जलयान) बिना किसी खेद के सहर्ष सलिल-स्थित किसी वस्तु का उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रम के निर्मल चरित्र के समान प्रलय जलधि में मत्स्य रूप में अवतीर्ण होकर चार वेदों को धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान! आपकी जय हो।
[साभार krishnakosh.org]
ठीक जयदेव के शब्दों में हमलोग भी कह सकते हैं, जिस समय पाश्चात्य जगत के 'यूट्यूब', 'फेसबुक'  आदि द्वारा निकृष्ट विचारों के बाढ़ में हमलोगों का देश लगभग डूबने को था, मानव कल्याण के लिये उस समय मनुष्य की अपहृत सत्ता का पुनरुद्धार करने हेतु, यह संगठन भी (मछली जैसे) नगण्य शरीर को धारण करके  इस युग के लिये एक नये वेद को अपने सिर पर उठाये हुए किसी जलपोत के समान एक महादेश से दूसरे महादेशों तक पहुँचा देने के महान कार्य में लगी हुई है। इस संगठन के कारण ही आज हमलोग समाज-कल्याण के लिये नये विचार देख रहे हैं। हमलोग स्वयं इस प्रकार के सेवा कार्य में उतर पा रहे हैं, जहाँ मानव का कल्याण करते समय उसकी सत्ता को तिरस्करणीय नहीं समझा जाता है।
रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में भौतिक जगत, जड़-जगत की सत्यता को कभी अस्वीकार नहीं किया जाता है, किन्तु अनजाने में (Energy =Matter, ब्रह्म और शक्ति, पुरुष और प्रकृति अभेद हैं, निर्गुण में सगुण होने, या जल में बरफ बनने की शक्ति विद्यमान है -नहीं जानने के कारण ) कुछ लोग इस भावधारा पर इस प्रकार का दोषारोपण किया करते हैं। स्वयं श्रीरामकृष्ण देव ने ही स्वामीजी के घर के लिये थोड़ा मोटा चावल-कपड़ा की व्यवस्था, और देवघर के संथालों के लिये अन्न-वस्त्र और सिर में तेल देने की व्यवस्था की थी। उन्होंने ने ही कहा था- " खाली पेट धर्म नहीं होता।" एक व्यक्ति अपना घर-द्वार छोड़ कर दक्षिणेश्वर में ही पड़ा रहता था और साधक-पुजारी होने का ढोंग कर रहा था, किन्तु वास्तव में वह आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं था। उसकी भर्त्सना करते हुए श्रीरामकृष्ण बोले , " तुम्हारे पत्नी-पुत्र को क्या तुम्हारे पड़ोसी खाना खिलाएंगे ? उन्होंने ही कहा था, " बेल के खोपड़े और बीजों को हटा कर बेल का पूरा वजन नहीं पाया जा सकता।" ध्यान केवल इतना रखना है कि खोपड़े-बीज में ही सारा आकर्षण हो जाने से कहीं गूदा से ही वंचित न होना पड़े। सम्पूर्ण शक्ति को औपचारिक अनुष्ठान में ही खपा देने पर, मूल देवता पहुँच के बाहर ही छूट जाते हैं। केवल बाहरी वस्तुओं (भौतिक पदार्थों के रंग-रूप) में ही नजरों को गड़ाये रखने से भीतर की वस्तु पर कभी नजर जा ही नहीं सकती है।
इसीलिये जब हमलोग ' वस्तु वस्तु ' ( शरीर का रंग-रूप और भौतिक वस्तुओं में असक्त रहते है) करते हुए मनुष्य के भीतरी गूदे की उपेक्षा करते हैं, तो असली वस्तु ( यथार्थ स्वरूप या अस्तित्व ) को खो देते हैं, और इस प्रकार निःस्व (आत्म-रहित) होकर निर्धनता, अज्ञानता और विभिन्न समस्याओं से उत्पीड़ित हो जाते हैं, उस समय इन समस्याओं का सही हल निकलना हो, तो मनुष्य के भीतरी वस्तु के पुनर्बोधन तथा उद्घाटित करने की आवश्यकता होती है।
 उस आन्तरिक सत्ता में ही हमलोगों की सारी शक्ति, ज्ञान और पवित्रता अन्तर्निहित रहती है। आन्तरिक वस्तु के इन्हीं तीन संसाधनों को कार्य में नियोजित किया जाये, तो हमलोग स्वयं अपने समस्त दुखों को दूर कर सकते हैं, समस्त समस्यायों का समाधान कर सकते हैं। जगत और मनुष्य का यथार्थबोध एवं उसके दुःख के बोझ को उठाने के सामर्थ्य प्राप्त करने के लिये श्रीरामकृष्ण-सारदा देवी-स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा का श्रवण-चिन्तन और कर्म में रूपायन करना आवश्यक है।
यह विचारधारा मनुष्य को जीवन से उदासीन होने को नहीं कहती है, बल्कि जीवन में जीत हासिल करने की अदम्य उर्जा प्रदान करती है। यह विचारधारा किसी भी भौतिक वस्तु की उपेक्षा करने की बात नहीं कहती; बल्कि यह यथार्थवाद के जंजीर में न बंध कर मनुष्य को उसके यथार्थ स्वरूप की खोज करने, तथा उसी के बल पर मनुष्य के जीवन को पूर्णतर बना लेने के लिये प्रेरित करती है। इसीलिए, हमलोग वस्तु (पदार्थ) को अस्वीकार नहीं करते, बल्कि हमलोगों के लिये तो 'वस्तु' ही लभ्य है ! 
========
[ In philosophy, the theory of materialism holds that the only thing that exists is matter or energy; that all things are composed of material and all phenomena (including consciousness) are the result of material interactions. In other words, matter is the only substance, and reality is identical with the actually occurring states of energy and matter.  

materialist regards nothing as real and substantial which has not tangibility. He reduces everything to the terms of physical matter, which is for him the only reality. If he uses the words, energy, power, force, motion, principle, law, mind, life or thought, which represent intangible things, it is to regard them merely as attributes, conditions or products of matter. For him the things represented are neither real or substantial. They exist, as it were, only in the imagination. Because they are not tangible they are not real. 

It holds, for example, that the "wave-theory" of sound is a fallacy in science. Hall experimentally established the fact that; - "Sound consists of corpuscular emissions and is therefore a substantial entity, as much so as air or odor." He argues; - "If sound can be proved to be a substance there cannot be the shadow of a scientific objection raised against the substantial or entitative nature of life and the mental powers."
"If mind is the result of the motion of the molecules of the brain, of what does that result consist? If the motion of the molecules is the all of mind, then the mind is nothing, a nonentity, since motion itself is a nonentity" (Hal)
From nothing, nothing comes. Every effect proceeds from a cause. Effects follow causes in unbroken succession.  No substantial effect can be produced upon any subject without an absolute substance of some kind connecting the cause with the effect.
Gravity, or that which produces gravitation, is a substance, since it acts upon physical objects at a distance and causes substantial physical effects. Magnetism is a substance, since it passes through imporous bodies, seizes upon and moves iron.Sound is a substance, since it is "conveyed through space by air waves." It must be something substantial or it could not be conveyed.
Light, heat and (or) electricity are (is) substantial. (They may be identical.) It is absurd to call them "modes of motion" or "vibratory phenomena." But physical science (materialism) does not tell us who or what moves the ether and determines the rate of vibration. That remains for substantialism, which teaches that Life is a substance, having the qualities of a real, entitative being. By its agency alone organized, living, conscious, thinking, willing entities are created, maintained and reproduced. Hence, Life is intelligent, else it could not manifest these qualities.
 Mind is a substance, since it acts to think or produce thoughts and things. Mind, therefore, has intelligence. Thought - the action of mind - may be called "a mode of motion of mind, acting upon the molecules of the brain." In the last analysis life and mind are one and identical, since they have identical qualities and attributes, and Mind (Syn: life, spirit) is the primary cause of motion. Life is energy and all energy is living energy.R. A. Millikan says that a purely materialistic philosophy is the height of unintelligence. ]   
[Velocity of  Light ज्यादा है Velocity of Sound से, तो पहले धरती पर कौन आया ? यदि धरती Big Bang के बाद या Sound के बाद आई तो अस्तित्व वह है, जो सदा से है। ईश्वर या सत्य है ' अस्ति-भाति-प्रिय (Existence- Knowledge- Bliss) ' और 'नाम-रूप (Name -Form )'  उस सत्य की अभिव्यक्ति है। बीज या सत्य है 'Sound' ( ॐ ) और उसका प्रकाश 'Light' है बृक्ष या नाम-रूप मिथ्या जगत ! सत्य के उपर ही जगत आरोपित है। विकासवाद के सिद्धान्त के अनुसार बीज में पूरा वृक्ष समाहित है, उसी प्रकार जगत में ईश्वर समाहित हैं। ईश्वर ही जगत बन गये हैं। इसीलिये मुझसे भिन्न कोई नहीं है। सबसे प्रेम करना चाहिए, जगत में कोई कोई पराया नहीं है ! किसी का दोष नहीं देखना चाहिए। मनुष्य का व्यक्तित्व उसके चरित्र में समाहित है। यहाँ चरित्र है बीज और व्यक्तित्व है वृक्ष ! किसी व्यक्ति के light या नाम-रूप को देखकर उसे नहीं जाना जा सकता है, कुछ दिनों तक उसके साथ रहने के बाद ही, उसके  Sound या व्यवहार को देखने से उसका यथार्थ चरित्र प्रकट हो जाता है। यदि (पशु-मानव देव-मानव में उन्नत या विकसित हो चूका है, उसका चरित्र गठित हो चूका है, " I am He " को पहचान कर यदि वह जीव मनुष्य बन चूका है, अर्थात देवताओं से भी उपर उठ चूका है, तो वह पुर्णतः निःस्वार्थी बन चूका होगा, किन्तु उसकी पहचान उपर उपर से देख कर नहीं हो सकती, कुछ दिनों तक उसके साथ रहकर उसे परखना होता है। पश्य लक्ष्मण बकः परमं धार्मिकः ......... ?

 Thursday 15/11/12 The Master Said: "Bondage is of the mind, and freedom is also of the mind. A man is free if he constantly thinks: 'I am a free soul. How can I be bound, whether I live in the world or in the forest? I am a child of God, the King of Kings. Who can bind me?" om tat sat]

[While in Khetri, Rajasthan during 1894, he went about from door to door, all alone to bring awareness in the people about the utility of education, and it was because of his efforts that the number of students in the Khetri Rajy English School rose from 80 to 257. Swami Akhandananda started a school for the children of the   slaves (called 'Gola') of the kings of Khetri. This sort of services rendered was a pioneering one ever-attempted in history. Under his inspiration the Maharaja of Khetri Ajit Singh arranged for the education of the Golas and also set up a permanent Education Department to open schools in the villages. Akhandananda also arranged for the publication of a newspaper on agriculture in order to educate the farmers of that area. He also contacted renowned landlords in the numerous village of Khetri, inspiring them to take some concrete steps towards removing the miseries of their poor labourers. At the instance of the Swami the Sanskrit school in Khetri was converted to Vedic school and he raised subscriptions to purchase books for the poor students. He fed the Bhils, an aboriginal tribe, in Uadaipur. ] 



बुधवार, 14 नवंबर 2012

'चरित्र निर्माण का प्रक्रिया '[The way to build character] स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [35](जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री ),

[१.चरित्र-निर्माण का संकल्प ग्रहण]  चरित्र-निर्माण कैसे किया जाता है; चरित्र है क्या चीज? अथवा चरित्र गठन करने की आवश्यकता ही क्यों है- इन विषयों पर चर्चा करनी हो, या यदि चरित्र-निर्माण की पद्धति को क्रियान्वित करनी हो, तो ये सभी कार्य हमें मन की सहायता से ही करने होंगे। अन्य कोई उपाय नहीं है। कोई दवा खा कर, या किसी अनुष्ठानिक प्रक्रिया (नाक दबाकर साँस लेने-छोड़ने) के द्वारा, चरित्र-निर्माण करना असम्भव है। हालाँकि बहुत से लोग ऐसा दावा भी करते हैं, किन्तु वह ठीक नहीं प्रतीत होता है। चरित्र-निर्माण करने में 'मन' की सहयता लेनी ही पड़ेगी; क्योंकि मन की सहयता के बिना हम किसी भी कार्य को कुशलता पूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकते। यजुर्वेद के शिव संकल्प सूत्र (३४/३) में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है -
'यस्मान्न ऋते किंचन कर्म न क्रियते तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु ।'   
[ (यस्मात् ऋते) जिसके बिना (किंचन) कुछ (कर्म) काम (न) नहीं (क्रियते) किया जाता हैं (तन्मे मनः) वह मेरा मन (शिवसंकल्पमस्तु) शिव संकल्पों वाला हो।] जिसके बिना किंचित् कर्म नहीं होता,मेरे उस मन में सदा शिव-संकल्प ही रहे (यही कामना रहे कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बन जाऊँ !
[२. व्यक्ति और समाज] हमलोग यह जानते हैं कि व्यक्तियों से मिलकर ही समाज बनता है। अतः,इस विषय में किसी को कोई सन्देह नहीं होना चाहिये कि, यदि सुन्दर समाज का निर्माण करना चाहते हों, तो जिन व्यक्तियों का वह समाज बना है,उन व्यक्तियों के जीवन को ही सुन्दर रूप में गठित करना पड़ेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि, इस बात से कोई असहमत नहीं होंगे। क्योंकि व्यक्तियों के समूह को ही समाज कहते हैं। इसलिये जब तक व्यक्ति-मनुष्य अच्छा नहीं बन जाता तब तक समाज भी अच्छा नहीं बन सकता है।
घुन या नोना-लगे ईंट से यदि किसी घर का निर्माण किया जाय तो थोड़े ही दिनों के बाद, भले ही उसके उपर कितना भी अच्छा प्लास्टर क्यों न किया गया हो, उस घर के ऊपर खारेपन की पपड़ी उभर आएगी। उसी प्रकार यदि समाज भी घुन लगे,असुन्दर व्यक्तियों से निर्मित हो, तो समाज भी बदसूरत (ugly) ही दिखाई देगा यहाँ सुन्दर मनुष्य कहने का तात्पर्य क्या है ? यहाँ सुन्दर से तात्पर्य है चरित्रवान, केवल देखने में सुन्दर नहीं। जो सही मायने में अच्छे फल (Truly good fruit) दे सकता है,उसी को सुन्दर वृक्ष कहते हैं। केवल देखने में सुन्दर, या गंध में सुन्दर, सुनने में सुन्दर, या स्पर्श करने में सुन्दर होने से ही नहीं होगा; सुन्दर उसी को कहते हैं, जो सुन्दर फल देता हो- ' फलेन परिचीयते।' फल ही वास्तविक परिचय है। यदि हमलोग ऐसा सुन्दर समाज चाहते हैं, जो सचमुच सुन्दर फल दे सके, अर्थात मनुष्यों का मंगल करे; तो वैसा सुन्दर समाज गढ़ने  के लिये, उसी प्रकार के सुन्दर मनुष्यों को गढ़ना होगा - जिस मनुष्य के कार्य से समाज को सुन्दर फल प्राप्त हो सकता हो।

[३. विचार और कर्म (Thought and Action)] इसके बाद विचार और कर्म के महत्व को ठीक से समझने का प्रयास करना होगा। किसी भी कार्य को करने के लिए हमें तीन तरह से प्रयास करना होता है । मन ,वचन और कर्म से । मनसा , वाचा , कर्मणा के भाव को यूनीडिरेक्श्नल या एकमुखी रखने से ही विचार
कर्म को पूर्णता की ओर ले जाता है। बोलने या करने से पहले मन में विचार (Thought ) उठता है, फिर अपनी इच्छा या कल्पना को साकार करने के लिये वह कोई कर्म (Action) करता है। बिना कर्म किये कुछ भी प्राप्त नहीं होता, किन्तु कर्म करने की प्रेरणा हमें विचारों से प्राप्त होती है, इसीलिये सर्वप्रथम विचारों को ही स्वच्छ या पवित्र बना लेना होगा। 

अतः कुछ भी बोलने या करने के पहले हमारा प्राथमिक कार्य है - 'विवेक-प्रयोग'! पहले विवेक की छलनी से विचारों को छान (Sieve) कर स्वच्छ और अर्थपूर्ण बना लेना होगा, ताकि अपने अच्छे विचारों से हमलोग सुन्दर कार्यों में प्रवृत्त हो सकें। सुन्दर मनुष्य कौन होता है ? जिस व्यक्ति का चरित्र सुंदर होता है। क्योंकि हमलोग जो कुछ भी कार्य करते हैं, वह अपने चरित्र के वशिभूत होकर ही करते हैं !  
[४. कार्य-कारण(cause & effect)] हमलोग अक्सर कहा करते हैं-स्वामीजी ने इस विषय के उपर बहुत सुन्दर कहा है, या अमुक विषय पर उनके विचार बड़े सुन्दर हैं। इसका तात्पर्य और कुछ नहीं, केवल यही है कि स्वामीजी की बातें सुन्दर फल देती हैं। स्वामीजी की शिक्षाओं का अनुसरण करते हुए कार्य करने से, उस कार्य का फल सुन्दर ही होता है। फल के सुन्दर होने का तात्पर्य है, कर्म और फल में एक सीधा सम्बन्ध दीखता है। अर्थात कार्य-कारण की एक श्रृंखला दिखाई देती है। कार्य-कारण की श्रृंखला के अनुसार, एक फल के द्वारा उसी प्रकार का दूसरा फल प्राप्त होता है-जैसे किसी फल के बीज से फिर एक बृक्ष उत्पन्न होता है। उसी बृक्ष पर पुनः नये फल लगते हैं। उसके बीज से फिर एक बृक्ष उत्पन्न होता है। इसीलिये फल का भी पुनः फल होता है। क्रमशः यही प्रक्रिया चलती रहती है। यदि पहला फल अच्छा हुआ तो वही फल बार बार अच्छे फल देता रहता है। (यही है गुरु-शिष्य परम्परा या रामकृष्ण-विवेकानन्द परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग !] 
यहाँ कारण (गुरु का पवित्र) चरित्र है, तो कार्य या फल (शिष्य ) एक सुन्दर मनुष्य है। तो फिर मनुष्य के चरित्र को सुन्दर रूप से गढ़ने के लिये क्या करना आवश्यक है ? सर्वप्रथम तो यह जानना आवश्यक है कि चरित्र कहते किसे हैं ? उसके बाद यह जानना होगा कि उस चरित्र को अर्जित करने की पद्धति क्या है ? हमलोगों की प्रवृत्तियों (रुझानों या Propensity) की समष्टि या योगफल को ही चरित्र कहते हैं। इस प्रसंग में स्वमीजी की एक वाणी उल्लेखनीय है, " तुम यदि अच्छे हो, तो इसमें तुम्हारी कोई बहादुरी नहीं है, और यदि तुम बुरे हो, तो इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है।" 
स्वामीजी के ऐसा कहने का तात्पर्य क्या है ? कोई व्यक्ति बहुत अच्छे कार्य करता हो- वह यदि बहुत सेवा-परायण हो, बहुत निःस्वार्थी हो, बहुत त्यागी हो; तो स्वामीजी उसको ही लक्ष्य करते हुए कहते हैं, कि इसमें उसकी कुछ बहादुरी नहीं है। उसका चरित्र ही ऐसा बन गया है, कि अब वह अपने स्वार्थ का अन्वेषण ही नहीं कर पाता है। अर्थात वह सद्कर्म इसीलिये करता है, कि उसका चरित्र अच्छा बन गया है। इसमें कुछ बहादुरी उसकी भी अवश्य है, किन्तु वह बहादुरी यही है कि उसने एक अच्छा चरित्र अर्जित कर लिया है, तथा उस चरित्र को गढ़ने के लिये उसने बहुत परिश्रम किया है, तथा परिश्रम करने के पहले उसने इसी विषय पर बहुत सोच-विचार भी किया है। इसी बात के लिये उसकी बहादुरी है, अभी के अच्छे कार्यों के लिये नहीं। अभी जो कुछ भी अच्छे कार्य वह कर रहा है, उसके लिये उसका चरित्र ही उसको प्रेरित करता रहता है।इससे यही सिद्ध होता है कि हमलोग जो कोई भी कार्य करते हैं,वह अपने (अच्छे या बुरे चरित्र?) से वशीभूत होकर ही करते हैं। 
[५. किशोरावस्था से ही चरित्र-निर्माण में लगना क्यों आवश्यक है ? ] एक अच्छे चरित्र का गठन करने के लिये हमलोगों को आजीवन प्रयत्न करते रहना होगा, तथा आजीवन इसी विचार को अपने मन में धारण किये रहना होगा। यदि इस समय मैं केवल सद्कर्म ही करता हूँ, निःस्वार्थी हूँ, कभी झूठ नहीं बोल पाता हूँ, तो ऐसा कैसे हो रहा है ? मैं एक अच्छे चरित्र का अधिकारी हूँ, और मेरा अच्छा चरित्र ही मुझे केवल अच्छे कार्यों को करते रहने के लिये अनुप्रेरित करता रहता है।
किन्तु ऐसे चरित्र को गढने के लिये मैंने इस बात पर काफी सोच-विचार किया है, अपने मन में केवल अच्छे विचारों को ही धारण किये रहने का दृढ संकल्प लिया है। फिर बहुत लम्बे समय तक विवेक-प्रयोग करने के बाद ही कोई कार्य करने के लिये निरन्तर कठोर संघर्ष किया है। उसकी फल आज बैठे बैठे खा रहा हूँ, जैसे बैंक में जमा फिक्स्ड डिपोजिट का इंटरेस्ट हर महीने मिलता रहता है। किन्तु किसी समय निश्चय ही मुझको बहुत सोचविचार कर एक अच्छे व्यापारिक-प्रतिष्ठान को स्थापित करना पड़ा था, और कड़ी मिहनत से संचालित कर उसके मुनाफे से बैंक में एक अच्छा डिपोजिट जमा करवा दिया था, अब उसी का सूद आराम से बैठ कर खा रहा हूँ। उसी प्रकार बहुत सोच-विचार कर, बहुत परिश्रम से एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके मैंने रखा था, इसीलिये आज मैं अच्छे कार्य कर पा रहा हूँ, सेवा-परायण बन गया हूँ, मुख से कोई झूठी बात निकलती ही नहीं है। दूसरे मनुष्यों के दुःख को देखकर मेरे हृदय में पीड़ा होती है, मेरा हृदय द्रवित हो जाता है।
पुनः स्वामीजी ने सावधान करते हुए कहा था, ' यदि तुम बुरे कार्य करते हो, तो उसका दोष अपने बुरे चरित्र के मत्थे मढ़ कर अपनी जिम्मेवारी से बचने की चेष्टा मत करना।' क्योंकि इतना तो हम सभी लोग समझ सकते हैं कि - चूँकि हमारा चरित्र ही हमें अच्छा या बुरा कर्म करने के लिए अनुप्रेरित करता है, ऐसा कहते हुए बुरे कर्म करने के बाद उसका समस्त दोष चरित्र के मत्थे मढ़ देने की चेष्टा करना स्वयं को ही धोखा देने के सिवा और कुछ नहीं है।
हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, मैं आखिर बुरा कर्म करने के लिये उतारू क्यों हो जाता हूँ ? इसका कारण यही है कि किसी कारण से (बहुत लम्बे समय तक बुरी संगती, या गलत परिवेश में रहने से) मेरी उम्र अधिक हो गयी है, किन्तु अभी तक मेरा अपना चरित्र अच्छा नहीं बना सका है। और अब उसी बुरे चरित्र का दास बन कर, उसके वशीभूत होकर मैं कोई बुरा कार्य कर देता हूँ। यदि मेरी अवस्था सचमुच ऐसी हो गयी है, तो अब मुझे क्या करना चाहिये ?
यह अवस्था थोड़ी कठिन है, क्योंकि मेरी उम्र अब अधिक हो गयी है, और अपना काफी समय मैंने नष्ट कर दिया है। उसी बुरे चरित्र के वशीभूत होकर, उसका दास होकर कार्य करते रहने के फलस्वरूप मेरे भीतर बुरे कार्यों को करने की प्रवृत्ति दृढ़ हो गयी है। मेरे अवचेतन मन पर उसकी लकीर गहरी हो गयी है। उस गहरी लकीर को मिटा कर फिर से अच्छे चरित्र का गठन करना अधिक मुश्किल काम है। वस्तुतः बुरे विचारों के दृढ़ हो जाने के बाद, या मन की गहरी परतों तक बैठ जाने के बाद, उनको मिटाया नहीं जा सकता। बल्कि जब मन में अच्छे विचारों की लकीर अधिक गहरी हो जाती है, तो उसके नीचे बुरे विचारों की लकीरें केवल दब भर जाते हैं। इसलिये बुरी आदतों के परिपक्कव हो जाने के पहले, या कम उम्र में ही यदि अच्छा चरित्र निर्मित कर लिया जाय, तो इस खतरे से बचा जा सकता है। अतः युवकों को अन्य समस्त कार्यों को छोड़ कर, सर्व प्रथम अच्छा चरित्र निर्मित करने की अनिवार्यता को समझने के लिये प्रयास करना चाहिये। फिर उन्हें प्रकृति तथा इन्द्रियों की अनेकों  प्रलोभनों पर विजय प्राप्त करने का दृढ़ संकल्प लेकर, अथक परिश्रम करते हुए एक सुन्दर चरित्र अर्जित करके उसे बहुमूल्य धरोहर के रूप में संचित कर लेना होगा।
[६. निरंतर विवेक-प्रयोग करने की आदत को अपनी रुझान या टेन्डन्सी में परिणत करो।] अब हमलोग चरित्र क्या है, इस बात को और अधिक गहराई से समझने की चेष्टा करेंगे। हमने इस रहस्य को जान लिया है कि चरित्र हमलोगों की प्रवृत्तियों (चित्त-वृत्तियों या रुझानों) की समष्टि या योगफल है। प्रवृत्तियों (या रुझानों  propensity) की समष्टि या योगफल की कार्यकारी शक्ति से भी हमलोग परिचित हैं। प्रवृत्तियाँ कितनी शक्तिशाली होती हैं, इस बात को भी हम जानते हैं। किसी विशेष परिस्थिति में सोच-विचार किये बिना, या विवेक-प्रयोग किये बिना ही, हमलोग जिसके वशीभूत होकर कोई कार्य कर डालते हैं, उसको ही प्रवणता या प्रवृत्ति कहते हैं। 
अर्थात किसी अवस्था विशेष के आ जाने पर, विशेष कुछ सोच-विचार किया बिना ही, स्वतःप्रवृत्त होकर या स्वेच्छापूर्वक (voluntarily) हम जो कुछ कर डालते हैं, वैसा कर बैठने के झोंक को ही प्रवृत्ति या 'tendency' कहते हैं। उदहारण के लिये मान लो मैं कहीं खड़ा हूँ, और अचानक सामने कोई व्यक्ति गिर पड़ता है। उस समय मैं कागज-कलम लेकर यह लिखने नहीं बैठ जाता कि, इस समय मेरा क्या कर्तव्य होना चाहिए, बल्कि उसके गिरने के साथ ही साथ उसको झपट कर उठा लेता हूँ। चूँकि मेरे अन्दर अच्छे कार्यों को करने की प्रवृत्ति  है, इसीलिये मैं ने उस प्रकार का आचरण किया। अब यह स्पष्ट हो गया कि बिना विवेक-विचार किये, स्वेच्छापूर्वक हमलोग जो कुछ भी कर बैठते हैं, उस झोंक को ही 'propensity' या प्रवृत्ति कहते हैं; तथा ऐसी प्रवृत्तियों के योगफल या समष्टि को चरित्र कहा जाता है।
इस प्रकार हमने यह समझ लिया कि प्रवृत्तियों के योगफल को ही चरित्र कहा जाता है।प्रवृत्ति क्या है, किसे कहते हैं -यह भी समझ में आ गया। 
अब हमें यह जानना होगा कि प्रवृत्ति या ' tendency' निर्मित कैसे होती है ? किसी वाद्य-यंत्र जैसे वीणा या सितार आदि को बजाने का लगातार अभ्यास करते रहने से जैसे हम उसमे प्रवीणता (Proficiency) या महारत प्राप्त कर लेते हैं, उसी प्रकार एक ही कार्य को बार बार दुहराते रहने का अभ्यास करने से, हमलोगों में उसी कार्य को करने की प्रवृत्ति या झोंक उत्पन्न हो जाती है। किसी भी कार्य को बार बार करते रहने से हमें उसकी आदत पड़ जाती है। 
किन्तु जब पहले-पहल हम कोई कार्य करते हैं, तो उस समय सोच-विचार करने के बाद ही हम उस कार्य को करते हैं। तब हम अपने सामने उपस्थित कई विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुन लेते हैं, हम विचार करते हैं- यह करूँगा, या वह करूँगा या कोई तीसरा ही विकल्प चुनना अच्छा होगा ? किसी भी कार्य को करने के जब कई विकल्प रहते हैं, और उसमें से किसी एक विकल्प का चयन जब हमें करना होता है, तो काफी सोच-विचार करने के बाद ही हमलोग उस एक विकल्प को चुन लेते हैं। किसी कार्य को काफी सोच-विचार करने के बाद या  विवेक-विचार करके, जब बार बार दुहराने लगते हैं तो वह कार्य हमारी आदत में परिणत हो जाता है। जब कोई  आदत परिपक्व हो जाती है, तो वही हमारी प्रवृत्ति या  'tendency' बन जाती है।  
तब हम विवेक विचार करके कोई निर्णय लिये बिना, मानो बाध्य होकर या उसी प्रवृत्ति के वशीभूत होकर उस प्रकार का कार्य करते हैं। इसी प्रकार के विभिन्न प्रवृत्तियों का योगफल हमलोगों के चरित्र का निर्माण करता है, तथा उस चरित्र के फल को हमें अनिवार्य रूप से भोगना भी पड़ता है। या तो सुख भोगते हैं, या दुःख भोगना पड़ता है, बल्कि हमारे चरित्र के अनुसार ही हमारा भविष्य भी निर्धारित हो जाता है। इसीलिये अब आगे से प्रत्येक कार्य को करते समय हमें सतर्क रहते हुए उस कार्य को करना होगा; क्योंकि जो कार्य कर रहा हूँ, उसकी ही आदत पड़ जाएगी। तथा परिपक्व हो जाने के बाद वैसी प्रवृत्तियों के योगफल से मेरा चरित्र गठित हो जायेगा। तथा उसी चरित्र के अनुसार आचरण करने को मैं बाध्य हो जाऊंगा। उसी अवस्था की बात स्वामीजी कहते हैं, ' तुम जो अच्छे कार्य करते हो, उसमें बहादुरी तुम्हारे उस समय किये गये कार्य के लिये नहीं, बल्कि तुम्हारे अच्छे चरित्र के लिये मिलनी चाहिए। ' उसी प्रकार यदि तुम बुरे कार्य भी करते हो, तो दोष तुम्हारे चरित्र का है, तुम्हारा चरित्र ही तुमसे बुरे कर्मों को करवा रहा है। यदि तुम अच्छे कर्म करते हो, तो तुम्हारा चरित्र ही तुमसे अच्छे कर्म करवा रहा है। अतः इस विषय में बहुत सतर्क होकर किसी कार्य को करो कि उसके द्वारा तुम किस प्रकार के चरित्र के अधिकारी होने जा रहे हो?
उस विषय में सावधान रहने का अर्थ क्या हुआ ? किसी भी कार्य को करते समय विवेक-प्रयोग करो। जो अच्छा हो वही करो, जो अच्छा नहीं हो, उसे मत करो। इसीलिये चरित्र निर्माण के लिये आजीवन प्रयत्न करते रहना पड़ता है। निरन्तर विवेक को जाग्रत रखना आवश्यक होता है। यदि विवेक-प्रयोग का बार बार अभ्यास करते करते निरंतर विवेक में ही जाग्रत रहना हमारी टेन्डन्सी बन जाये, तो हमलोग अपने मन को सदैव शिव-संकल्प (पवित्र विचार) परिपूर्ण रखने में समर्थ मनुष्य (MAN with capital M) बन सकते हैं। और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का कठिन भाग भी यहीं तक है।
[७.चरित्र-निर्माण का नियम] मनसा-वाचा कर्मणा किसी भी कार्य करने-सोचने,बोलने या करने के पहले यदि हम विवेक-प्रयोग करने के बाद ही प्रत्येक कार्य करने में महारत, (प्रवीणता Proficiency) प्राप्त कर लेते हैं, तो उसके बाद वाली चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया अत्यन्त सरल है। किसी Algebra जितना, quadratic equation जितना, या किसी higher mathematics जितना, या अन्य किसी कठिन
formula के जितना नहीं, बल्कि साधारण जोड़-घटाव जितना ही सहज है- चरित्र-निर्माण !  ऐसा करोगे तो यह होगा, वैसा करोगे तो वैसा होगा। जिस प्रकार २ में २ जोड़ने से ४  होता है, ४  में २  जोड़ने ६ होता है, और ६ में २  जोड़ देने से ८  हो जाता है, उसी प्रकार चरित्र भी अत्यन्त सहज वस्तु है। किन्तु निरन्तर इस जोड़-घटाव के के चिन्ह पर दृष्टि गड़ाय रखना, और उन्हें देते रहने की क्षमता को बनाय रखना ही कठिन हो जाता है। एक बार किया, दो बार किया; दो-चार अच्छे कार्य करके लोगों की वाहवाही प्राप्त कर लिया। कैम्प में आकर दूसरों के साथ सुन्दर व्यवहार कर लिया, क्योंकि कैम्प में आचरण ठीक नहीं रखने से सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा, लेकिन यहाँ लौट कर घर जाने के बाद विवेक-प्रयोग करने के लिए सावधान रहने का अभ्यास करना एकदम छोड़ दूंगा। यदि ऐसा सोचोगे या करोगे तो चरित्र-गठन करना कभी संभव नहीं होगा।
चरित्र-गठन करने में यही तो कठिनाई है। चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का Formula या सूत्र तो बिलकुल सहज है, किन्तु विवेक-प्रयोग के लिये निरन्तर सजगता बनाये रखना आवश्यक है, इसकेलिये अथक प्रयास करना होता है; नहीं तो हर कदम पर पाँव फिसल जाने की सम्भावना बनी रहती है।  बहुत बार विवेक का ठीक ठीक प्रयोग किया, और अपने आचरण को ठीक रखा, किन्तु दो बार नहीं हो सका, आलस्य आ गया और एक बुरी आदत पड़ गयी।
 इसी प्रकार यदि बुरी आदतें पड़ती ही रहें, तो उसके नीचे अच्छी आदतें दब जाएँगी। उसी प्रकार यदि बहुत सी अच्छी आदतें एकत्रित हो गयीं, तो उसके निचे बुरी आदतें दब जाएँगी। तथा चरित्र-निर्माण का नियम (सिद्धान्त) ( जो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त के अनुसार सभी देशों के सभी मनुष्यों के लिये सत्य है) भी यही है, बुरी आदतों की स्मृतियों को जड़ सहित नहीं उखाड़ सकते, उसको अच्छी आदतों के नीचे ही दबा कर  रखना पड़ता है। तथा अच्छी आदतों से दबाते दबाते ऐसा हो जाता है, कि वे फिर कभी अपना सिर उठा नहीं पातीं। जैसे किसी टेप-रेकार्डर के कैसेट में यदि एक बार रेकार्डिंग हो गया, और उसके उपर बाद में कुछ और रेकार्डिंग किया जाय तो पहले वाला रेकार्डिंग तुम नहीं सुन सकते। उसी प्रकार यदि बुरी आदतें या प्रवृत्तियों की लकीरें चित्त में पहले से पड़ी हुई भी रहें, किन्तु उसके उपर यदि अच्छी आदतों की चौड़ी-गहरी लकीरें डाल दी जाय तो, वे बुरी आदतें पुनः अपना सिर नहीं उठा सकती हैं। 
अभी हमलोगों के लिये यह जानना अनिवार्य हो जाता है कि -किस किस प्रकार के आदतों के योगफल से हम अपना चरित्र निर्मित करेंगे ? चरित्र विचार के अनुसार, कार्य या action से गठित होता है,आदत से ही निर्मित होता है। [किसी भी कार्य को करने के पहले उसे कर डालने की तीव्र इच्छा या  झोंक पहले तो मन में ही उठता है। उससे ही प्रेरित होकर हम कोई कार्य करते हैं, और बार बार उसकी को दुहराते रहने से वैसा ही चरित्र बन जाता है।] हम किस किस अच्छे कार्य को करने की आदत डालें ? केवल अच्छी आदत डालो, कह देने से तो नहीं होगा; कौन सा विचार अच्छा है, कौन सा विचार बुरा है - इसे मैं कैसे समझ सकता हूँ ?
अच्छा व्यवहार उसी को कहते हैं, जो हमें स्वार्थहीन बनने में सहायता करे; जो हमें सार्वजनिक कल्याण के लिये प्रेरित करे। जिन कार्यों को करने से हमारे शरीर और मन की शक्ति बढ़ जाती हो, उन्हीं को अच्छा समझना चाहिये। किन्तु यह समझ लेना ही तो कठिन है, क्योंकि उतनी बुद्धि मेरे पास नहीं भी हो सकती है, उतनी समझ मेरे पास नहीं भी हो सकती है ? इसीलिये सद्गुणों की एक तालिका बना लेना अच्छा है। कौन-कौन से गुण सचमुच में अच्छे हैं, जिसकी आदत मुझे बनानी है ? जिन लोगों को इसके बारे में पता होता है उनसे पूछ कर उन गुणों का एक चार्ट या तालिका बनायी जा सकती है। फिर उन गुणों को अपनी आदत में ढाल लेने से, उन्हें परिपक्व बनाने से -उन्हीं प्रवृत्तियों का योगफल मेरे अच्छे चरित्र में परिणत हो जायेगा। अतः चरित्र के गुणों की तालिका में लिखे गुणों के बारे में ठीक से समझ कर उसी प्रकार के कार्यों को बार बार दुहरा कर अपनी आदत और प्रवृत्ति में शामिल कर लूँगा।
[८.चरित्र के गुण: किन सदगुणों की प्रवृत्ति या टेन्डन्सी बनाई जाय ?] जिन अच्छे गुणों को आत्मसात करने से मेरा चरित्र निश्चित रूप से अच्छा बन जायेगा, उनके नाम हैं- [१.] आत्मश्रद्धा, [२] आत्मविश्वास  [३] सत्यनिष्ठा [४] पारदर्शी सोच [५] साहस (निर्भीकता) [६] दृढ़ संकल्प [७] निःस्वार्थपरता [८] निष्ठा  [९] अध्यवसाय [१०] उद्यम (बिना किसी के कहे प्रयत्न करने में उत्साह ) [११] प्रति-उत्पन्न मतित्व [१२] सहनशीलता (तितिक्षा) [१३] शालीनता (भद्र व्यवहार) [१४] सहानुभूती (हमदर्दी) [१५] बिश्वसनीयता [१६] आत्मसंयम (त्याग)[१७] आत्मनिर्भरता [१८] धैर्य [१९] सेवापरायणता [२०] मानसिक संतुलन [२१] ईमानदारी  [२२] अनुशासन [२३] स्वच्छता [२४] साधारण बुद्धि इन गुणों की एक तालिका बना कर इनका (कम से कम पाँच लाल-रंग के गुणों का) अभ्यास करने से इन समस्त गुणों को आत्मसात किया जा सकता है।
९.संकल्प ग्रहण:'अब लौं नसानी अब न नसैहौं !:  इस प्रकार से पुनः पुनः अभ्यास करके चारित्रिक गुणों या सुंदर -सुंदर भावों को आत्मसातीकरण करने की प्रणाली या प्रवृत्ति में ढाल लेने की प्रक्रिया- खयाली पुलाव पकाने जैसी बात बिल्कुल नहीं है। यह तो बिल्कुल एक प्रयोगात्मक फॉर्मूला (Practical Formula) है, जिसे हमलोग अपने दैनंदिन जीवन में उतार कर दिखला सकते हैं। 
जो कोई भी व्यक्ति इसका परिक्षण करेगा, वह स्वयं यह देख पायेगा कि मात्र छः महीनों में ही उसका चरित्र पहले से कितना अच्छा बन चूका है ! जो भी व्यक्ति चरित्रवान मनुष्य बन जाने के लिये इच्छुक(desirous) है, वह यदि दृढ़तापूर्वक संकल्प ग्रहण करके, इन गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करेगा, वह जरुर सफल होगा ! जिस प्रकार प्रयोग-शाला में सही प्रयोग करने से सभी को एक ही समान परिणाम प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस प्रैक्टिकल फॉर्मूला के निष्फल होने की कोई सम्भावना ही नहीं है। किन्तु अपने चरित्रवान मनुष्य बन जाने के संकल्प पर मैं अटल कैसे रह पाउँगा ? चरित्र-गठन के अपने संकल्प पर अटल रहने के लिये भी एक अन्य वैज्ञानिक फॉर्मूला या सूत्र है। 
ऑटो-सजेशन: चमत्कार जो आप कर सकते हैं !"
" मैं दृढ़ता के साथ यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा, क्योंकि केवल इसी प्रकार मैं जगत का सर्वाधिक कल्याण करने, और अपनी मातृभूमि भारतवर्ष को सुन्दर रूप से गढ़ने में सहायता कर सकता हूँ। तथा अपना भी सर्वाधिक कल्याण, मैं केवल चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद ही कर सकता हूँ। क्योंकि चरित्र-बल के बिना व्यवहारिक जगत में या जीवन के अन्य किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना संभव ही नहीं है।" 
" मैं जानता हूँ कि मैं स्वयं को एक चरित्रवान मनुष्य के साँचे में ढाल सकता हूँ। इसी लिये इस उद्देश्य को सिद्ध करने के मार्ग में आने वाले किसी भी बाधा या विघ्न के प्रति कभी ढिलाई नहीं आन दूंगा; तथा धैर्य और अध्यवसाय के साथ बिना आलस्य किये इस उद्देश्य के सिद्ध हो जाने तक निरन्तर प्रयत्न करता रहूँगा; लक्ष्य प्राप्त किये बिना मैं विश्राम नहीं लूँगा ! मैं अवश्य सफल होऊंगा, क्योंकि मैं अपने सामर्थ्य में पूर्ण विश्वास रखता हूँ ! "  
उपरोक्त कथन को पत्येक व्यक्ति एक कागज पर लिखिये तथा उसके नीचे अपना हस्ताक्षर करके आज की तारीख डाल दीजिये। अपने आप से की गयी  इस वचनबद्धता को प्रतिदिन कई बार पढिये, विशेष रूप से रात में सोने से पहले तथा सुबह नीन्द से उठने के तुरन्त बाद बहुत ध्यान पूर्वक पढिये, तथा आपने जो प्रतिज्ञा की है उसको साकार करने के कार्य में जुट जाइये।
आप देखेंगे कि केवल छः महीनों में ही आपका चरित्र पहले से अच्छा बन गया है, और आपका आत्मविश्वास बहुत बढ़ चूका है। इस प्रक्रिया की सफलता के सम्बन्ध में कोई सन्देह ही नहीं है, आप इसका परिक्षण करके स्वयं देख सकते हैं। इस प्रक्रिया को अपनाने से सुन्दर चरित्र बनता ही है-यह कोई चमत्कार नहीं है। यह एक ऐसा प्राकृतिक नियम है, जो आपकी आज्ञा का पालन करने को बाध्य है। चरित्र-गठन के कार्य को हमें स्वयं करना है, इसके लिये हमलोगों को दृढ़ संकल्प लेना होगा, तथा इस संकल्प पर अटल रहने के लिये अध्यवसाय के साथ प्रयत्न करते रहना होगा।
अतः चरित्रवान मनुष्य बनने के लिए पहला कार्य है- संकल्प को गहरा (inveterate) बना लेना!  क्योंकि तभी तो हमलोग इस कार्य में आगे बढ़ पायेंगे। सबसे पहले पूँजी (Capital) रहना चाहिये, तभी तो उसे अपने व्यापार में निवेशित करूँगा। उसी प्रकार चरित्र-निर्माण के लिये उद्यम करना हो, तो उसकी पूँजी क्या होगी ?- यही  चरित्रवान मनुष्य बनने का दृढ़ संकल्प तथा चरित्र-निर्माण पद्धति को कार्यान्वित करने का सामर्थ्य! केवल एक ही कार्य (संकल्प गहरा करने) पर रुक जाने से काम नहीं चलेगा, चरित्र-गठन में सफलता प्राप्त होने तक, निरन्तर प्रयास जारी रखना होगा, तभी तो मेरा सुन्दर चरित्र-गठित हो पायेगा। 

१०. मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने हैं : 
 यहाँ सारी चर्चा मन के विषय में ही हो रही है। क्योंकि इच्छा, विचार या दृढ़ संकल्प आदि मन के साथ जुड़े हुए विषय हैं। और मन हमलोगों का दास है, हमलोग मन के दास नहीं हैं; उसे हमारी आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये। किन्तु मन का स्वाभाव ऐसा है, कि वह अपने मालिक को ही, हमलोगों को ही, अपना दास बनाने का प्रयत्न करता है। अब हमलोगों को इसका उल्टा करना होगा, मन को अपना दास बना लेना होगा। किन्तु यह कैसे करूँगा ?
पहले ही हमलोग यह जान चुके हैं कि चरित्र गठन करने में मन की सहायता लेनी ही पड़ेगी। इसके लिये मन को अपने वश में रखने या अपने नियंत्रण (control) में रखने की बात भी कही गयी है। मन को संयमित करना होगा, उसको एकाग्र करने का अभ्यास करना होगा। एकाग्रता का नियमित अभ्यास करने से असंशय (assuredness, स्वावलम्बन का भाव) आयेगा, आत्मविश्वास आयेगा, तथा प्रतिमुहूर्त इसी कार्य में लगे रहने की क्षमता भी प्राप्त होगी।(वैराग्य का फाटक लगाकर,चित्तनदी के प्रवाह की दिशा को निरन्तर अंतर्मुखी बनाये रखने की शक्ति प्राप्त कर सकेंगे।) यह कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। 
वर्तमान युग में इस विज्ञान को Psychology या मनोविज्ञान कहते हैं। किन्तु हमारे देश में यह बहुत प्राचीन समय से विद्यमान था। इस विषय का  सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ है, ऋषि पतंजली रचित अष्टांग-योग, या योग-सूत्र। मन को इन्द्रिय विषयों में जाने से रोक कर उसे वश में लाकर, उसे अपने लिये उपयोगी कैसे बनाया जाता है, उसकी पद्धति को इस ग्रन्थ में सूत्र-बद्ध किया गया है। इसी मनोवैज्ञानिक (Psychological ) अथवा वैज्ञानिक पद्धति (Scientific Method ) के द्वारा हमलोग अपना चरित्र गढ़ने के लिये एक महती इच्छाशक्ति (Will -Power ) का निर्माण करेंगे, इससे अपने निश्चय (Resolution या संकल्प) पर अटल रहने की शक्ति प्राप्त होगी, और निरन्तर प्रयासरत रहने का सामर्थ्य भी प्राप्त होगा। 
हमलोग चरित्र के अच्छे अच्छे गुणों (आत्मश्रद्धा, निर्भीकता, निःस्वार्थता,त्याग और सेवा आदि) के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे तथा मन की सहायता से उन गुणों को अर्जित करने अर्थात अभिव्यक्त करने की कोशिश (उद्यम ) करते जायेंगे। एकदम साधारण सी बात है, बिल्कुल प्रैक्टिकल प्रोसेस है; कोई भी व्यक्ति घर बैठे इसका प्रयोग करके देख सकता है। इसके लिये जंगल जाने या गुफा में बैठने की कोई जरुरत नहीं है। (चरित्र कोई जंगल-बियाबान में बैठकर पकाने वाली वस्तु नहीं है, समाज परिवार में रहते हुए ही इसका निर्माण करना पड़ता है।) इसका परिणाम होगा एक सुन्दर चरित्र ! मन की भूमि (चित्त) में सद्विचारों के बीज बोने से, केवल सद्कर्म ही करूँगा जिसका परिणामी पैदावार (भरपूर फसल) होगा-मेरा सुन्दर चरित्र! बीज के अनुसार फल मिलेगा ही मिलेगा, प्राकृतिक नियम है, होने को बाध्य है। जो कोई भी व्यक्ति चरित्र-निर्माण के इस वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग करेगा, उसका चरित्र अवश्य सुंदर होगा, अच्छा हुए बिना रह नहीं सकता।  
जैसे ही कोई विचार बुल बुले के रूप में चित्त-भूमि से उपर उठने की कोशिश करेगा, या कोई भी शब्द जुबान पर लाने से पहले, हरेक गतिविधि या किसी भी कार्य को करने के पहले, संकल्प और पूरे आत्मविश्वास के साथ विवेक-प्रयोग करके यह देखने कि कोशिश करूँगा कि मेरे उस विचार,शब्द, या कार्य से मेरा और दूसरों का कल्याण होगा या नहीं ? उससे मेरे हृदय में सिंह जैसा बल प्राप्त होगा या नहीं?  इस बात को भली-भाँति समझ लेने के बाद ही उस प्रकार से कुछ सोचूंगा, या कोई शब्द कहूँगा या कोई कार्य करूँगा। यदि मैं निरन्तर मन-वचन-कर्म में विवेक-प्रयोग करने में समर्थ बन सकूँ, तो मेरा चरित्र अच्छा हुए बिना रह ही नहीं सकता। और इसी प्रकार 'विवेक-प्रयोग' की चेष्टा सभी युवा भाई करते रहें, तो देश का कल्याण हुए बिना रह नहीं सकता। 
(कोई किसी को ' विवेक-प्रयोग ' सिखा नहीं सकता, स्वयं को सिखाना चाहिये, विवेक-प्रयोग के बाद ही कुछ सोचने-बोलने-करने की ) सरल वैज्ञानिक-पद्धति सामने रख दी गयी है, अब यह पूरी तरह से मुझपर निर्भर करता है कि मैं इसे प्रयोग में लाता हूँ या नहीं ? इस तथ्य को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि यदि हम इसे प्रयोग में नहीं अपनायें, तो अन्य किसी भी उपाय से समाज का कोई भला होना असम्भव है। इस पद्धति को प्रयोग में लाने से हममें से प्रत्येक का जीवन भी सुन्दर, सम्पूर्ण, सार्थक और कल्याणकारी होगा। यदि विवेक-प्रयोग को अभ्यास में नहीं उतारा गया, तो मनुष्य-जीवन विफल हो जायेगा, और समाज भी दुःख में डूबा रहेगा। यदि मैं अपने सभी सगे-सम्बन्धियों को, समाज और देश को प्यार करता हूँ, यदि स्वयं से भी सच्चा प्रेम करता हूँ, तो मैं आज और अभी से ही, अपना सुन्दर चरित्र गढ़ने के लिये बिना आलस्य किये परिश्रम करता रहूँगा, तथा मनुष्य जीवन के स्वाद को चख कर स्वयं धन्य होऊंगा, तथा दूसरों के जीवन के दुःख को अपने सुन्दर चरित्र के द्वारा हटाने के कार्य में न्योछावर कर सकूँगा। 
=========
 [व्यक्ति ही समाज की आधारशिला रखता है । व्यक्ति जैसा होता है समाज भी वैसा ही होता है। व्यक्ति की विचारधारा ही समाज की दिशा तय करती है । एक समय था । परिवार में एक व्यक्ति कमाता था और सारे उनपर निर्भर होते थे, सुखशान्ति थी । आज परिवार का हर व्यक्ति कमाता है, फिर भी वैसी सुखशान्ति थोड़ा भी है क्या? ज्यादा से ज्यादा धन कमाने के चक्कर में व्यक्ति नैतिकता से काफी दूर होता जा रहा है। पहले व्यक्तित्व का निर्धारण गुणों के आधार पर होता था मगर आज धन के आधार पर होने लगा है। अतः यदि परिवार और समाज को फिर अच्छा बनाना हो, समाज या परिवार की बुनियाद व्यक्ति के चरित्र-निर्माण द्वारा व्यक्ति का सुंदर जीवन-गठन करना होगा।  व्यक्ति का जीवन अच्छा होने से परिवार का जीवन सुंदर होगा। सुंदर-चरित्र सम्पन्न व्यक्तियों का समाज ही महान होगा। जब हमारा समाज महान बन जायेगा, वहाँ -हत्या,नारी अपमान, भ्र्ष्टाचार जैसे अपराध नहीं होंगे और हमारा देश महान बन जायेगा। तब हमारी भारत-माता पुनः विश्वगुरु के सिंहासन पर विराजमान हो जायेंगी । समाज को बुरे लोग खराब नहीं कर रहे हैं बल्कि अच्छे लोगों की निष्क्रियता खराब कर रही है। जितने भी देश-भक्त युवा हैं, उन सबों को इस 'मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ' आन्दोलन 'BE AND MAKE' से बिना देर किये जुड़ जाना चाहिये ! 
मनुष्य जैसी इच्छा और जैसा संकल्प करने लगता है, वैसा ही आचरण करता है और जैसा आचरण करता है फिर वैसा ही बन जाता है। जिन बातों का बार-बार विचार करता है, धीरे-धीरे वैसी ही इच्छा हो जाती है, फिर उसी के अनुसार वार्ता, आचरण, कर्म करता है और कर्मानुसारिणी गति होती है। स्पष्ट है कि अच्छे आचरण एवं चरित्र के लिए अच्छे विचारों को लाना चाहिए। बुरे कर्मों को त्यागने से पहले बुरे विचारों को त्यागना चाहिए। जो बुरे विचारों का त्याग नहीं करता वह बुरे कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता, फिर बुरे कर्मों की आदत पड़ जाती है। आदत जब बहुत पक्का हो जाता है, वह हमारी प्रवृत्ति बन जाती है। और प्रवृत्तियों के समूह को ही चरित्र कहते हैं। और कर्म का आधार विचार है। अतः पहले अपने विचारों को शुद्ध कर के सद्प्रवृत्तियों का निर्माण करना होगा और वशीभूत मन के द्वारा असद प्रवृत्तियों को निकाल बाहर करना होगा।] 



बुधवार, 7 नवंबर 2012

महाप्राण (सुप्रीम पावर-जगदम्बा ) की स्पर्श-प्राप्ति ! स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [34] (जीवन-गठन की निर्माण-सामग्री),

ब्रह्मचर्य पालन के द्वारा - 'जीवेम  शरदः शतम्' !  
राजयोग के मतानुसार सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में समाहित है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में एक ही आकाश है, तथा एक ही प्राण है। प्राण सर्वत्र समाहित है, सार्वभौमिक है। आकाश के उपर प्राण की लीला (क्रिया) होने से यह चराचर विश्व-ब्रह्माण्ड अभिव्यक्त हो गया है। उसी प्राण-शक्ति को जाग्रत करने की पद्धति ही राजयोग की गुह्य प्रक्रिया है। और प्राणायाम का अभ्यास करने से वह शक्ति जाग्रत हो जाती है। व्यक्ति को इसी विश्व-व्यापिनी शक्ति या प्राण-उर्जा के साथ जोड़ देना ही प्राणायाम का उद्देश्य है। किन्तु नाक दबाने से ही कोई शक्ति प्राप्त नहीं होती। यह केवल प्राण-वायु के संयम (रेचक-पूरक-कुम्भक) के अभ्यास के द्वारा भीतर की शक्ति को बढ़ाने की एक यांत्रिक प्रक्रिया है। वह अनन्त शक्ति जो सर्वगत या वुश्व-व्यापिनी है, वही शक्ति इस छोटे से मनुष्य शरीर के भीतर स्वाभाविक प्राण के रूप में अवस्थित है। प्राणायाम की प्रक्रिया उसी प्राण-शक्ति को नश्वर शरीर के भीतर पकड़ने की चेष्टा मात्र है। शरीर के प्रत्येक कोष में वही प्राण अवस्थित है। योगी दीर्घ अभ्यास के द्वारा इस प्राण को इतने करीब से जानते हैं, कि शरीर में कहीं भी (किसी भी कोष में)  इस प्राण के आभाव से रोग हो जाने पर वे स्वतः रोग-मुक्त हो जाते हैं तथा लम्बी आयु का भोग करते हैं।
लम्बी आयु या दीर्घ जीवन प्राप्त करने का उद्देश्य ही उस महाप्राण का (महत्-तत्व का) स्पर्श प्राप्त करना है। दीर्घ-जीवन अर्थात लम्बी आयु प्राप्त करने का इसके अतिरिक्त कोई दूसरा उद्देश्य नहीं हो सकता। वेद-उपनिषदों में प्रार्थना की गयी है कि स्वस्थ और सबल शरीर लेकर हमलोग उस शास्वत-जीवन का स्पर्श पाने के लिये हमलोग सौ वर्षों तक जीवित रह सकें। इस जगत के क्षणिक सुखों (कामुकता और कमाई) को भोगने के लिये दीर्घ-जीवन पाने की प्रार्थना नहीं की जाती है। किसी प्रिय नेता के जन्म-दिवस पर प्रार्थना की जाती है- "जीवेम शरदः शतम् -(अथर्ववेद/१९/६७/२) अर्थात आप राष्ट्र की सेवा करने के लिए सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें,और आपके सभी प्रयासों में ईश्वर आपको अच्छा स्वास्थ्य और  सफलता प्रदान करें !] 
निम्नतम जीवों से लेकर देवत्व जैसी उच्च अवस्था तक सभी अवस्थायें उसी प्राण की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। इसी जन्म में उस प्राण-शक्ति को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में सफल होना ही जीवन का उद्देश्य है। यदि हमलोग महा-जीवन या ब्रह्माण्ड-व्यापिनी शक्ति (महत्-तत्व) के साथ युक्त होने की चेष्टा न कर केवल शरीर तथा मन के भौतिक सुखों में (लस्ट ऐंड लूकर) ही व्यस्त रहें, तो फिर हमलोग अपने शरीर और मन को स्वस्थ तथा निरोग रखने की चाहे कितनी भी चेष्टा करे वे सारे प्रयास व्यर्थ ही सिद्ध होंगे। इसीलिये हमें अपने दैनंदिन जीवन से जुड़े समस्त विचारों, वाणी और कर्मों को एक-मुखी बनाना आवश्यक होगा। इसी विश्व-जीवन को पकड़ने, समझने, विकसित करने में, जितना समय लगता है, उस समय को कम करने के कौशल को सिखाना ही-राजयोग का विवेच्य विषय है। साधारणतः यह प्रयास असम्भव प्रतीत होता है, किन्तु प्राण-शक्ति की अभिव्यक्ति होने से वह अत्यन्त सहज (१०० वर्ष के भीतर ही संभव हो  जाती है।
उसी महाशक्ति को अभिव्यक्त करने, या महाजीवन से जुड़ जाने के उद्देश्य (माँ की गोदी में लौट जाने के उद्देश्य से) ओर केवल ब्रह्म को जानने के मार्ग में मन-वचन-कर्म से अग्रसर होते रहने को ही-- ब्रह्मचर्य कहते हैं। शारीरिक, मानसिक, वाचिक शक्ति को व्यर्थ में बर्बाद होने से रोक कर, सम्पूर्ण शक्ति को एक ही उद्देश्य में नियोजित रखने से इस कार्य में सिद्धि प्राप्त होती है। अपने जीवन में हमलोग महाशक्ति (अनन्त ऊर्जा - जिससे सारी शक्तियाँ निकली हैं) के साथ खेल कर रहे हैं। किन्तु अनावश्यक रूप से शक्ति का अपव्यय करते रहना शक्ति का दुरूपयोग करना है। शक्ति का दुरूपयोग करने को ब्रह्मचर्य-पालन कैसे कह सकते हैं ? 
[ब्रह्मचर्य पालन की दिशा में अग्रसर होने के लिए] सबसे पहले हमलोग नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ और सबल रखने की चेष्टा करेंगे। इसके साथ-साथ हमलोग अपने शरीर और मन की सभी प्रकार की शक्तियों का असंयमित या अतिरंजित खर्च भी नहीं होने देंगे। शक्ति का सदुपयोग करने के लिये विवेक-प्रयोग करना अनिवार्य होता है, इसीलिये हमलोग मन को अपने वश में या नियंत्रण में रखने का नियमित अभ्यास करेंगे! अर्थात अपने मन-वचन-कर्म को यूनिडायरेक्शनल रखने का निरन्तर प्रयत्न करते रहेंगे। इसके लिये अपने मन को - निरन्तर विचारों, शब्दों और शरीर के प्रत्येक गतिविधियों के भीतर एकाग्र और एकमुखी बनाये रखने का अभ्यास करना होगा। यदि हमलोग दिन-रात अपने मन को नियंत्रण में रखने की चेष्टा नहीं करके, केवल सुबह-शाम कुछ ही मिनटों तक एकाग्र रखने प्रयत्न करके चुप बैठजायेंगे, तो उतने से कुछ नहीं होगा।
अंग्रेजी कहावत है - थॉट इज पॉवर ! किन्तु अपवित्र विचारों की शक्ति भी, पवित्र विचारों के समान ही प्रचण्ड होती है। इसीलिये हर समय, रातदिन- पवित्रता का विचार, आन्तरिक आनन्द या 'विवेकज -आनन्द' का चिन्तन करते रहना होगा। मैं पवित्रता स्वरूप हूँ, मैं आनन्द स्वरुप हूँ, इसी बात के उपर विचार करते रहना होगा। इसके लिये किसी पवित्र वस्तु को, जैसे पवित्रता  की प्रतिमूर्ति है, स्वामी विवेकानन्द का चिन्तन करना अधिक सुविधा जनक है। स्वामीजी का शरीर पवित्रता का एक मूर्तमान विग्रह है, ऐसा मान कर उनकी मूर्ति के उपर हमलोग अपने मन को एकाग्र कर सकते हैं। 
[पतंजलि योगसूत्र (१.१२) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः ॥१२॥ को अधिक स्पष्ट करते हुए व्यास-भाष्य  में कहा गया है - "तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।  इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः = इस प्रकार (इति) चित्तवृत्तिनिरोधः (चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी प्रवृत्ति, अर्थात विषयों में दौड़ने वाली प्रॉपेनसिटी का दमन या संशोधन, वैराग्य या लालच का  त्याग और विवेक-दर्शन (डिस्क्रिमनेशन) अर्थात (बुद्धि-पुरुष विवेक या शास्वत-नश्वर को पहचानने की क्षमता) दोनों के अभ्यास पर निर्भर है। ] 
इस प्रकार मन को एकाग्र रख सकने पर, उसको एकमुखी बना लेने पर हमारे शरीर और मन की शक्ति का दुरूपयोग अवश्य रुक जायेगा। तब महाशक्ति का या महाप्राण का स्पर्श प्राप्त करना हमलोगों के लिये भी कोई असंभव कार्य नहीं रह जायेगा। 
------------------------

[अथर्ववेद की १९ वें खंड के ६७ वें सूक्त में एक ऋषि प्रार्थना करते हैं - हमें पूर्ण स्वास्थ्य के साथ सौ वर्ष का जीवन मिले, और यदि हो सके तो सक्षम एवं सक्रिय इंद्रियों के साथ जीवन उसके आगे भी चलता रहे । अवश्य ही सौ वर्षों की आयु सबको नहीं मिलती होगी । इसीलिए सौ वर्ष की आयु को एक मानक के रूप में देखते हुए उसे चार बराबर आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में भी वैदिक चिंतकों ने बांटा होगा। पश्येम शरदः शतम् !!१!! इसका अर्थ है हम सौ शरदों को देखें अर्थात सौ वर्षों तक हमारी नेत्र इन्द्रिय स्वस्थ रहे I जीवेम  शरदः शतम् ।।२।। हम सौ शरद ऋतु तक जीयें यानि हम सौ वर्ष तक जीयें I बुध्येम शरदः शतम् ।।३।। सौ वर्ष तक हमारी बुद्धि सक्षम बनी रहे अर्थात मानसिक तौर पर सौ वर्षों तक स्वस्थ रहे I रोहेम शरदः शतम् ।।४।। सौ वर्षों तक हमारी वृद्धि होती रहे अर्थात हम सौ वर्षों तक उन्नति को प्राप्त करते रहे I पूषेम शरदः शतम् ।।५।। सौ वर्षों तक हम पुष्टि प्राप्त करते रहें, हमें अच्छा भोजन मिलता रहे।]
 [ स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- ब्रह्माण्ड के सभी पदार्थ उस एक प्रारम्भिक पदार्थ के परिणाम हैं, जिसे आकाश कहते हैं. इसी तरह, सभी बल, चाहे वह गुरुत्वाकषर्ण हों, आकषर्ण-विकषर्ण हों या जीवन हो; वे सब एक ही प्राथमिक बल के परिणाम हैं, जिसे हम प्राण कहते हैं। आकाश-प्राण की यह जोड़ी बड़ी रम्य है।  प्राण ऊर्जा ही गतिशील होकर आकाश में सृष्टि रचती है। पहले सृष्टि का आदि तत्व आकाश निष्क्रिय है।  प्राण में स्पंदन हुआ, गतिशील हुआ, उसकी ऊर्जा के कारण ही सूक्ष्म से स्थूल का विकास हुआ।  पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए।  सृष्टि के चरम विकास के बाद प्रलय होता है। तब सब कुछ सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होकर अपने मूल आकाश और प्राण में समाहित हो जाते हैं।  सारे पदार्थ आकाश में और सारी ऊर्जा प्राण में।]