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सोमवार, 10 अगस्त 2009

'विवेक-प्रयोग का महत्व ' परिप्रश्नेन (प्रश्न संख्या 55 से 67 )

भगवान श्री कृष्ण आत्मज्ञान प्राप्त करने का उपाय बताते हुए कहते हैं -
 तद विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
                     उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्त्वदर्शिनः॥' (गीता :४: ३४)
उस (तत्त्वज्ञान) को (तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुषोंके पास जाकर) समझ। उनको साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे तत्त्वदर्शी ज्ञानी महापुरुष तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश देंगे।  
जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिए ज्ञान का उपदेश अनिवार्य है। उस ज्ञानोपदेश को देने के लिए गुरु (नेता या लोकशिक्षक) का जिन गुणों से सम्पन्न होना आवश्यक है उन्हें इस श्लोक में बताया गया है। गुरु के उपदेश से पूर्णतया लाभान्वित होने के लिए शिष्य में जिस भावना तथा बौद्धिक क्षमता का होना आवश्यक है उसका भी यहाँ वर्णन किया गया है। 
प्रणिपातेन वैसे तो साष्टांग दण्डवत शरीर से किया जाता है परन्तु यहाँ प्रणिपात से शिष्य का प्रपन्नभाव और नम्रता गुरु के प्रति आदर एवं आज्ञाकारिता अभिप्रेत है। सामान्यत लोगों को अपने यथार्थ स्वरूप के विषय में पूर्ण अज्ञान होता है। वे न तो अपने मन की प्रवृत्तियों को जानते हैं और न ही मनःसंयोग की साधना को। अतः उनके लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे गुरु के समीप रहकर उनके दिये उपदेशों को समझने तथा उसके अनुसार आचरण करने में सदा तत्पर रहें।
जिस प्रकार जल का प्रवाह ऊपरी धरातल से नीचे की ओर होता है उसी प्रकार ज्ञान का उपदेश भी ज्ञानी गुरु के मुख से जिज्ञासु शिष्य के लिये दिया जाता है। इसलिये शिष्य में नम्रता का भाव होना आवश्यक है जिससे कि उपदेश को यथावत् ग्रहण कर सके। परिप्रश्नेन प्रश्नों के द्वारा गुरु की बुद्धि मंजूषा में निहित ज्ञान निधि को हम खोल देते हैं।
सेवया गुरु को फल फूल और मिष्ठान आदि अर्पण करना ही सेवा नहीं कही जाती। यद्यपि आज धार्मिक संस्थानों एवं आश्रमों में इसी को ही सेवा समझा जाता है। गुरु के उपदेश को ग्रहण करके उसी के अनुसार आचरण करने का प्रयत्न ही गुरु की वास्तविक सेवा है। इससे बढ़कर और कोई सेवा नहीं हो सकती। शिष्यों को ज्ञान का उपदेश देने के लिये गुरु में मुख्यत दो गुणों का होना आवश्यक है (क) आध्यात्मिक शास्त्रों का पूर्ण ज्ञान तथा (ख) अनन्त स्वरूप परमार्थ सत्य के अनुभव में दृढ़ स्थिति
इन दो गुणों को इस श्लोक में क्रमश ज्ञानिन और तत्त्वदर्शिन ( अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने में सक्षम) शब्दों से बताया गया है। केवल पुस्तकीय ज्ञान से प्रकाण्ड पंडित बना जा सकता है लेकिन योग्य गुरु नहीं। शास्त्रों से अनभिज्ञ आत्मानुभवी पुरुष मौन हो जायेगा, क्योंकि शब्दों से परे अपने निज अनुभव को वह व्यक्त ही नहीं कर पायेगा। अत गुरु का शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मनिष्ठ दोनों होना आवश्यक है। उपर्युक्त कथन से भगवान् का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी और तत्त्वदर्शी आचार्य द्वारा उपादिष्ट ज्ञान ही फलदायी होता है और अन्य ज्ञान नहीं।
एक निष्णात गुरु शिष्य के प्रश्न से ही उसके बौद्धिक स्तर को समझ लेते हैं। शिष्य के विचारों में हुई त्रुटि को दूर करते हुए वे अनायास ही उसके विचारों को सही दिशा भी प्रदान करते हैं। प्रश्नोत्तर रूप इस संवाद के द्वारा गुरु के पूर्णत्व की आभा शिष्य को भी प्राप्त हो जाती है इसलिये हिन्दू धर्म में गुरु और शिष्य के मध्य प्रश्नोत्तर की यह प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है जिसे पाठ-चक्र या सत्संग कहते हैं।
[ साभार http://www.gitasupersite.iitk.ac.in]
 "वह ज्ञान श्रीगुरु के चरणों में प्रणाम करके (प्रणिपातेन ), आत्मविषयक प्रश्नों के द्वारा - अर्थात आत्मा और अनात्मा के विषय में, मैं कौन हूँ, संसार-बन्धन क्या है, उससे मुक्ति का उपाय क्या है, इस प्रकार विविध प्रश्नों के द्वारा; तथा गुरुसेवा के द्वारा प्राप्त होता है। तत्वदर्शी लोग तुम्हें उस ज्ञान का उपदेश देंगे। "
श्री रामकृष्ण ने कहा है - " विज्ञानी सदा ब्रह्म दर्शन करते हैं, आँखें खोल कर भी सर्वत्र उन्हीं को देखते हैं। वे कभी नित्य से लीला में रहते हैं और कभी लीला से नित्य में जाते हैं। विज्ञानी के आठों बन्धन खुल जाते हैं, काम क्रोधादि भस्म हो जाते हैं, केवल आकार मात्र रहते हैं। ' नेति नेति ' विचार कर वे उस नित्य अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँच जाते हैं। वे विचार करते हैं - वह जीव नहीं, जगत नहीं, २४ तत्त्व भी नहीं हैं। नित्य में पहुँच कर वे फ़िर देखते हैं, वही सब कुछ हुए हैं- जीव, जगत २४ तत्व सभी। "
56 प्रश्न: धर्म यह शिक्षा देता है कि ईश्वर सब कुछ (कण-कण ) में विद्यमान हैं, तथा यह मानव शरीर ही ईश्वर का निवास-स्थान है, तो फ़िर हम उन्हें देख क्यों नहीं पाते हैं ? कृपया मुझे उन्हें देखने और ह्रदय से प्रेम करने का उपाय बताइए।
उत्तर: जो ब्रह्मत्व (Divinity) हम सबों के भीतर पहले से विद्यमान है, उसे प्रकट करने कि सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में  है. किन्तु वह अभी निंद्रित अवस्था में सो रही है। मुझे अवश्य ही उसको नींद से जगा देना होगा। और तब वह ब्रह्मत्व दूसरों के कल्याण के लिए, मेरे विचारों, वचनों और कर्मो द्वारा प्रवाहित होने लगेगा।
यह ठीक है कि ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि, उन्हें मानव शरीर के भीतर किसी मिट्टी की गुड़िया (मूर्ति) जैसा बैठा दिया गया है, बल्कि यही वह शक्ति है जो मनुष्य शरीर के आकृति में स्वयं को प्रकट कर रही है। यही शक्ति स्वयं को सबों के प्रति अपरिबद्ध और असीम ' प्रेम ' के रूप में अभिव्यक्त करती है, वही अनन्त शक्ति और पवित्रता है। इसीको ब्रह्मत्व कहते हैं।
मैं इसे कैसे जाग्रत कर सकता हूँ ?- इस अन्तर्निहित अनन्त शक्ति के ऊपर उत्कट ' श्रद्धा ' को विकसित करके ! यह क्या चीज है ? 
- श्रद्धा का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि, अर्थात यह विश्वास कि आनन्द-स्वरूप , प्रेम-स्वरूप मेरे भीतर हैं; वह निस्स्वार्थ प्रेम ,शक्ति और पवित्रता मेरे भीतर में है। ये सारे गुण प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित हैं तथा मानव मात्र में उन्हें अभिव्यक्त करने कि संभावना है। सुंदर वस्तुएँ हमारे भीतर स्वाभाविक या जन्मजात रूप से विद्यमान हैं, और सो रहीं हैं, तथा दूसरों के कल्याण के लिए उन्हें अभिव्यक्त करना, और इस शक्ति को जाग्रत कर लेना ही मनुष्य का कर्तव्य है।
  57 प्रश्न: क्या श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के विचारों में कोई अन्तर है ? या उनके मत अलग अलग तो नहीं हैं ?
उत्तर: नहीं, बिल्कुल नहीं ! उन दोनों के विचार या मत बिल्कुल एक समान थे - बिल्कुल एक ही थे। स्वामी विवेकानन्द ने जो भी शिक्षाएँ हमें दीं हैं, वह सब उन्होंने अपने गुरु श्री रामकृष्ण से ही प्राप्त किए थे; तथा स्वामीजी ने पूरी ईमानदारी के साथ आजीवन केवल उन्ही का अनुसरण किया था।
उन्हों ने कहा था- " यदि मनसा, वाचा, कर्मणा मैंने कोई सत्कार्य किया हो, यदि मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकली हो, जिससे संसार के किसी भी मनुष्य का कुछ उपकार हुआ हो, तो उसमें मेरा कुछ भी गौरव नहीं, वह उनका है। परन्तु यदि मेरी जिह्वा ने कभी अभिशाप कि वर्षा की हो, यदि मुझसे कभी किसी के प्रति घृणा का भाव निकला हो, तो वे मेरे हैं, उनके नहीं। जो कुछ दुर्बल है, वह सब मेरा है, पर जो कुछ भी जीवनप्रद है, बलप्रद है, पवित्र है, वह सब उन्हींकी शक्ति का खेल है, उन्हींकी वाणी है और वे स्वयं हैं।" (वि० सा० ख० ५: २०६)
"..... उनके चरित्र का निर्णय मुझे देखकर न करना। वे इतने बड़े थे कि मैं या उनके शिष्यों में से कोई दूसरा सैकड़ों जीवन तक चेष्टा करते रहने के बावजूद भी उनके यथार्थ स्वरूप के एक करोड़वें अंश के तुल्य भी न हो सकेगा। ... मैं ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ कि हमारी जाति के कल्याण के लिए, हमारे देश कि उन्नति के लिए तथा समग्र मानव जाति के हित के लिए वही श्री रामकृष्ण परमहंस तुम्हारा ह्रदय खोल दें; ....तुम्हें और हमें रुचे या न रुचे, इससे प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता, अपने कार्य के लिए वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। उनकी अधीनता में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे परम सौभाग्य और गौरव कि बात है। " (५:२०९)
इन बातों का जिक्र स्वामीजी ने ' कलकत्ता-अभिनन्दन ' का उत्तर देते समय इसी लिए किया था: वे स्पष्ट कर देना चाहते थे कि, उन्होंने जो कुछ भी कहा या किया था वे सभी केवल श्री रामकृष्ण के विचारों का प्रतिबिम्ब मात्र था। अतः श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द के विचारों में कोई अन्तर नहीं है।
58 प्रश्न: दुर्लभ ' मनुष्य- जीवन ' का सदुपयोग कैसे किया जाता है ?
उत्तर :- अगर तुम्हे यह ज्ञात हो चुका है कि मनुष्य-जीवन दुर्लभ है, तब तुम उसका सदुपयोग करने की दिशा में अवश्य अग्रसर हो सकते हो। मनुष्य जीवन को दुर्लभ क्यों कहा जाता है ? इस जीवन की विशेषता क्या है ? अन्य जीव के जीवन में ऊँच्च भावों की धारणा नहीं होती, महत्तम (सर्वश्रेष्ठ) ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
चार पैरों पर चलने की असुविधा से शुरू करके अन्य सभी विषयों में उनका विकास मनुष्य की तुलना में काफी पीछे है।विशेषतः मानव मस्तिष्क की तुलना में अन्य जीवों का मस्तिष्क बहुत कम विकसित रहने के कारण वे ऊँच्च्तर विचारों या ज्ञान को समझ नहीं सकते। 'ब्रह्म-वस्तु' की धारणा कर पाना तो बिल्कुल असम्भव है। यह केवल मनुष्य के लिए ही सम्भव है।
हाँ, यह भी सच है की सभी मनुष्य के लिए सामान रूप से ब्रह्म-वस्तु को समझ सकना सम्भव नहीं है, किंतु न्यूनाधिक (थोड़ा-बहुत) सभी मनुष्य उस दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। ब्रह्म-तत्त्व को समझने या अपने अनुभव से जान लेने, की दिशा में अग्रसर होने को ही साधना कहते हैं। नियमित साधना या अभ्यास करने से जो शक्ति क्रमशः बढ़ने लगती है उसको धारणा शक्ति (conceptual power) कहते हैं। धारणा- 
शक्ति में वृद्धि का तात्पर्य है- किसी गूढ़ विषय को अच्छी तरह से समझने की शक्ति,वह साधना (मनः संयोग का अभ्यास ) करने से बढ़ जाती है। कैसा अभ्यास करना पड़ता है ?किस प्रकार, क्या करने से बढ़ती है ? अर्थात साधना करने की पद्धति क्या है ?
पूर्व काल में जो महान हुए थे, जिन लोगों ने सत्य दर्शन किया था,(जो लोग सत्य-द्रष्टा होते हैं उनको ही ऋषि कहा जाता है), उनलोगों ने जो उपदेश दिए हैं, उनके वचनों को सुनना (श्रवण), उन वचनों पर गंभीरता से चिंतन करना (मनन), फ़िर उसे जान लेने के लिए उसी पथ पर अग्रसर होने की चेष्टा करना(निदिध्यासन)। इसी प्रकार, श्रेष्ठ जनों (ऋषिओं) की वाणी का श्रवण- मनन- निदिध्यासन का अभ्यास करने से हम लोग धीरे धीरे अपने जीवन का सदुपयोग करना सीख जायेंगे।जीवन का सदुपयोग करने का क्या अर्थ है ?
माँ सारदा के उपदेश का स्मरण करो- " केऊ पर नय, जगत तोमार।" अर्थात - ' कोई पराया नहीं, जगत तुम्हारा अपना है।'मैं जितना उन्नत होऊंगा, जितना विकसित होऊंगा, जितना अधिक से अधिक मनुष्यत्व अर्जित करने की दिशा में अग्रसर होता जाऊंगा उतना ही पराये लोग मेरे अपने हो जायेंगे।

उतना ही दूसरों के लिए मन में अनुभूति जाग उठेगी। दूसरों का सुख-दुःख बिल्कुल अपने जैसा महसूस होगा। मेरे भीतर उतना ही दूसरे लोगों का क्लेश हटा देने का आग्रह, चेष्टा और क्षमता बढ़ जायेगी। ऐसा ' मनुष्य ' बन जाने से मैं अपने जीवन का सदुपयोग करने में समर्थ हो सकता हूँ।
(Vivek-Jivan मई २००९)
59 प्रश्न : साहस बढ़ाने के लिए क्या करूँ ?
उत्तर : हर समय अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति में आस्था जाग्रत रखने की चेष्टा करोगे। स्वामी विवेकानन्द जब अमेरिका में थे, एक दिन किसी रास्ते से जा रहे थे। देखा की एक छोटी सी नदी में कुछ अण्डे के खोल या बौल बहते जा रहे थे, और कुछ लड़के छोटे छोटे shot gun से उनके ऊपर गोली छोड़ रहे थे पर निशाने पर कोई गोली लग नहीं रही थी। स्वामीजी नजदीक ही खड़े हो कर उनका खेल देख रहे थे।कुछ देर बाद उन लड़कों का ध्यान उनकी तरफ़ गया। उन लोगों ने पूछा, क्या आप निशाना लगा सकेंगे ? स्वामीजी बोले लाओ कोशिश करके देखता हूँ। स्वामीजी ने बन्दूक लिया- अपने जीवन में उन्होंने पहली ही बार उनहोंने बन्दूक थामा था। उन्होंने जितनी भी बार shot मारे सभी गोलियां निशाने पर लगीं और सारे बौल फूट गए।
लड़कों को बहुत आर्श्चय हुआ, उन्होंने पूछा- आपने कैसे ऐसा किया ? उन्होंने कहा - ' यह कोई चमत्कार नहीं बल्कि concentration, एकाग्रता की शक्ति है। मैं देख रहा था की तुमलोग खेल रहे थे एक आनन्द प्राप्त करने के लिए, किन्तु कुछ हो नहीं रहा था एक भी गोली निशाने पर लग नहीं रही थी, जिसकी असफलता की हताशा तुमलोगों के चेहरों और आँखों से झलक रही थी। मुझको जब पूछा तो मैंने सोंचा यह कौन सा कठिन काम है ? मैं अगर अपने मन को उन बहती हुई गेंदों में से किसी एक पर,ठीक से एकाग्र कर दूँ तो मेरी गोली ठीक उसी पर लगेगी। और तुमने देखा कि मेरी प्रत्येक गोली निशाने पर लगी।'
इसी प्रकार साहस बढाने के सम्बन्ध में भी - ' नहीं बढा पाउँगा ' ' नहीं बढा पाउँगा ' कभी मत करना। हम लोग मनुष्य हैं, हमारे लिए असाध्य कुछ भी नहीं है। हमारे लिए ऐसा कोई स्थान नहीं जो दुर्गम हो, ऐसा कोई कार्य नहीं जो हमारे लिए असम्भव हो।हम किसी भी बात से भयभीत न होंगे। क्योंकि हम मनुष्य ही चिर काल से जगत् पर विजय प्राप्त करते आ रहे हैं। इस प्रकार निरन्तर विचार करते हुए भय-शुन्य हुआ जा सकता है। कई तरह के भय से व्यर्थ में त्रस्त रहते हैं। 
जैसे भूत का भय। आज कल मनुष्यों के बीच भूतों का भय कम हो गया है। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, अधिकांश भूत मर चुके हैं।मेरे बचपन कि बात, याद है- हमलोगों का घर जहाँ था उसके नाम के अनुसार उसको शहर कहते थे, किन्तु वह लगभग एक गाँव जैसा ही था। हमारे घर के पीछे कि तरफ़ एकतालाब था, मेरे कमरे की खिड़की- दरवाजे उसी ओर खुलते थे। उसी दरवाजे से बगान में भी जाया जा सकता था। 
एक दिन शाम के समय किसी कारण वश खिड़की खोल कर बाहर देखा। खोलते ही बाहर देखा, तो मुंह से निकला- अरे बाप ! .... इस प्रकार पंजा फैलाय मानो एक बड़ा सा सिर हिलने लगा। बाप रे ! यह क्या है ! पर कुछ क्षण हिम्मत बांधे खड़े हो कर देखता रहा तो देखा कि एक बड़े आकर के कच्चू गाछ का पत्ता था, उसके ऊपर का हिस्सा हवा के कारण (या शायद पानी भी पड़ा हो )..... इस प्रकार इस प्रकार हिल रहा था।  
फ़िर जब घर के भीतर जा कर इस बात को बताया तो मेरे बाबा (पितामह) हँसने लगे और कहा - " विटपे विकट भूत देखे भीरु जन " अर्थात जो लोग भीरु होते हैं, जिनमे साहस नहीं होता, वे ही 'विटप' में यानि गाछ में 'विकट' भूत देखते हैं। उस समय मेरी उम्र कितनी रही होगी- पॉँच, छः वर्ष या बहुत होगा तो सात वर्ष। उनकी वह बात- " विटपे भूत देखे भीरु जन ", मुझे आज भी याद है।हिलते हुए गाछ का पत्ता ही तो था, उसी को देख कर, उसी में - पता नहीं यह क्या होगा सोंचते समय अवश्य मेरे मन में भी भूत की ही बात उठी थी। 
और एक घटना है। नौकरी के सिलसिले में एक जगह जाना पड़ा था। वह भी शहर ही था पर उतना विकसित नहीं था। वहां मैं और एक अन्य सज्जन व्यक्ति -दोनों एक ही घर में रहते थे। उनको रात के समय ही काम से बाहर जाना पड़ता था। उनकी official duty ही रात की पाली में पड़ती थी। इसीलिए मैं कमरे में अकेला था। उस घर में दो ही कमरे थे, और आस पास में गाछ-वृक्ष थे थोड़ा बगान जैसा लगता था। किन्तु बगान तैयार नहीं था, बस उसमे कुछ थोड़े बहुत झाड़-झंखार नुमा गाछ-वृक्ष उग आए थे। उसी के बीच से एक पगडण्डी से होते हुए पैदल चलने के बाद थोडी दूरी पर दूसरा एक रिहायसी मकान था।
मैं सोया हुआ था। खिड़की के सामने ही मेरा बिस्तर था, और एक ओर दरवाजा था। घर में प्रवेश करने का जो मुख्य द्वार था उसके अतिरिक्त और एक द्वार। उसको खोलने से सीधा बाहर बगान में जाया जा सकता था। हठात दरवाजे के कुण्डी को किसीने हिलाया। खट,खट-खट ! नींद टूट गई...बाप रे, अभी सुनसान में कौन आ गया ?
... कोई जन-प्राणी भी तो नहीं है आस पास; फ़िर नींद पड़ गई। फ़िर से वही दरवाजा खटखटाने की आहट। इसी प्रकार दो-तीन बार होने के बाद उठा। बिछावन पर तकिये के पास टॉर्च रखने की आदत मुझे सदा से है। मैंने आस्ते-आस्ते तकिये के नीचे से टॉर्च निकाला और सिर को नीचे झुकाते हुए ( जिससे खिड़की के बाहर से कोई मुझे देखे नहीं) खिड़की के नीचे से टॉर्च की रौशनी को बाहर फेंका। जितनी दूर तक देखा, कहीं कुछ नहीं था। फ़िर जाकर बिस्तर पर लेट गया, थोड़ी देर बाद फ़िर से वही बात। बहुत देर तक पड़े रहने के बाद सोंचने लगा यह चोर-डकैत या अन्य कुछ नहीं है। 
 उसके बहुत देर बाद लगा दूर से एक आवाज आ रही है। जैसे ही वह आवाज आई, वैसे ही कुण्डी बज उठी। बहुत देर तक विचार करने के बाद समझ में आया की वहाँ से दो माइल दूर Railway siding है वहाँ shunting हो रहा है। उस स्थान की मिट्टी में जो कम्पन हो रहा था वही बहुत दूर तक थोड़ा थोड़ा जाता है। वही यहाँ की कुण्डी को हिला दे रहा था।
इसीलिए साहस बढाने के लिए अपने ऊपर विश्वास रखना होगा, और बुद्धि को सतर्क रखना होगा। किस बात का भय, बोलो ? मानलो कोई तुम्हारे ऊपर हठात आक्रमण कर दे- चोर, डकैत या अन्य कोई -तो क्या करोगे ? ...fight and fight valiantly without any fear ( निर्भय हो कर वीर की तरह युद्ध करोगे)।तभी तुम्हारे जीतने की सम्भावना है। और अगर वैसा नहीं किया तो सब हो गया। पहले ही डर गए तो कुछ भी न करपाओगे। " अरे बाप रे, गया रे !"- इस प्रकार चिल्लाने से क्या लाभ है, बोलो ? डरना नहीं।
60 प्रश्न : महामण्डल ( अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ) का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर : महामण्डल का उद्देश्य एक ऐसे स्वस्थ- सुंदर, विवेकशील समाज का निर्माण करना है, जिसमे - अधिकांश मनुष्यों का ह्रदय प्रेम, सहानुभूति, करुणा से परिपूर् हो तथा वे सदैव दूसरों की सेवा 
(शिवज्ञान से जीव सेवा) करने में तत्पर रहते हों। हमलोगों के लिये (प्रभु श्री रामकृष्ण द्वारा) नियत कार्य (Task) है - ऐसे ही ' हृदयवान ' मनुष्यों का बहुत बड़ी संख्या में निर्माण करना है, ताकि वे भारतीय समाज में बहुमत का रूप धारण कर ले।
आज के मानव-समाज को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है की, अभी उसका चेहरा बहुत बिगड़ चुका है। केवल भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व के प्रत्येक देश के मनुष्य समाज ने जहाँ तक सम्भव हो सकता है , वहाँ तक बदतरीन शक्ल अख्तियार कर लिया है।प्राचीन काल में हमारा देश बहुत ही सुन्दर और सहृदय मनुष्यों का देश था।
आज उसका वह सुन्दर रूप क्यों दिखाई नहीं दे रहा है ? सबसे पहला कारण तो यह है कि- हमारे नेताओं के व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण, हमारे देश को तीन टुकडों में खण्डित कर दिया गया था ! India has been ' trisected '। जब हमलोग स्कूल के छात्र थे, तब भारत का- अखण्ड भारत का कितना भव्य और सुन्दर रूप हमने देखा है !
जिस समय हमलोग १० वीं कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के बाद, अन्तिम परीक्षा में बैठने का इन्तजार कर रहे थे, उसी समय हमने सुना कि भारत स्वतंत्र होने जा रहा था।विदेशियों ने भारत पर बहुत लम्बे समय तक शासन किया था, जो भारत सदियों से परतन्त्र ( गुलामी कि जंजीरों में जकड़ा हुआ) था, वही भारत स्वतंत्र होने जा रहा था।
कैसी सुखद घटना घटित होने को थी !हमलोगों को कक्षा में भूगोल पढ़ाते समय, हमारे भूगोल शिक्षक ब्लैकबोर्ड पर( एक ओर ) अखण्ड  भारत का मानचित्र टांग दिया करते थे। वहाँ देखने से हमारा देश कितना सुन्दर और विशाल दीखता था ! तब हमे भारत माता की आकृति सचमुच ' माँ ' के समान ही लगती थी, जिसके दोनों हाथो से गुलामी की बेडियाँ अब खुलने ही वाली थी। हमलोग इसी माँ की पूजा किया करते थे।( And the Mother was trisected।) और उसी माँ को तीन टुकडों में खण्डित कर दिया गया। 
क्योंकि सत्ता के लोभ और मोह ने तब उन लोगों को अँधा बना दिया था, जिनके उत्तराधिकारी आज यह घोषणा करते हैं कि -" हमलोग तुम्हारे नेता हैं, हम तुम्हे सुरक्षा देंगे, तुम्हारे लिए सब कुछ करेंगे ,(तुम केवल वोट दो, कहोगे तो तुम्हारे लिए चाँद को भी धरती पर उतार देंगे।)" किन्तु तब उन्ही लोगों ने भारत को तीन खंडों में - पाकिस्तान, पूर्वी पाकिस्तान में बाँट दिया, और सेष बचे बीच वाले भू-खण्ड को आज हमलोग ' भारत ' के नाम से जानते हैं।जबकि आजादी से पहले वाला भारत, प्राचीन भारत - कितना विशाल था !
तुम्हे भारत के मानचित्र में बर्मा वाला जो हिस्सा दीखता है, तब उसे देखने से मुझे ऐसा प्रतीत होता था मानो सचमुच वह मेरी माँ का लहराता हुआ आँचल है, जो बंगाल कि खाड़ी तक फैला हुआ है।तब वह चित्र मुझे साक्षात् माँ कि प्रतिमा ही जान पड़ती थी।किन्तु इन्ही लोगों ने भारत माता को ठीक उसी प्रकार तीन टुकडों में काट डाला, जिस प्रकार किसी पशु को खाने,या निगल जाने के लिए, पहले उसके टुकड़े कर दिए जाते है !
इसके बाद जो कुछ बचा है, वह तुम सबसे छुपा हुआ नहीं है।विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का एकमात्र उद्देश्य है, किसी न किसी तरह से अधिक से अधिक पैसे बना लेना और देशवासियों की जान की कीमत पर भी, अपने लिए अधिक से अधिक इन्द्रिय-भोगों को सुनिश्चित कर लेना।
आज तुम्हे अपने चारो ओर स्वच्छ छवि के इमानदार व्यव्हार करने वाले मनुष्य बहुत कम ही दिखाई देंगे।आज तो समाज के हर एक क्षेत्र में, अपनी इच्छाओं-अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिये नियम-विरुद्ध या भ्रष्ट साधन अपनाये जा रहे हैं।
आज के समाज का चेहरा ऐसा ही विकृत हो गया है। किन्तु यह सब क्या इसी प्रकार चलता रहेगा ? समाज की यह दुर्दशा होते देख कर चुप नहीं रहना चाहिए। इस अवस्था में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के लिये कुछ न कुछ प्रयास हम सबों को करना चाहिए। किन्तु क्रान्तिकारी परिवर्तन क्या है ?
...सड़कों में परिवर्तन, हवाई अड्डा या बंदरगाह में परिवर्तन, और ज्यादा जहाज, अधिक से अधिक आव्रजन मार्गों (flyovers) का निर्माण, चतुर्भुज सड़क निर्माणों की श्रृंखला बनाने वाले परिवर्तन से हमारा कोई तात्पर्य नहीं है।जबकि आज के समाज में इन्हीं सब चीजों को मनुष्य जीवन से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि मनुष्य ही उपेक्षित हो रहे हैं।आज अपने युवाओं को हमलोग कैसी शिक्षा दे रहे है ?
कोलकाता विश्वविद्यालय हो या आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, आजकल अधिकांश PhD शोधपत्र अंशतः या पुर्णतः दूसरों के चुराये हुए रहते हैं। पश्चिम बंगाल के एक विश्वविद्यालय में किसी प्रोफ़ेसर की नियुक्ति की गई थी। विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त होने के लिये PhD होना आवशयक होता है, पर उनके पास PhD नहीं था। २० वर्ष के बाद यह ज्ञात हुआ कि उन्होंने एक विदेशी विश्वविद्यालय में एक शोध-प्रबंध (Thesis) तो जमा करवाया था, किन्तु उनको PhD प्राप्त नहीं हुई थी। हमे अपनी शिक्षा ऐसे लोगों से ग्रहण करनी होगी जिनके पास थोड़ी सी ईमानदारी भी नहीं है।
वर्तमान में हमारा देश जिन समस्याओं से जूझ रहा है, उसके कारणों पर यदि गहराई विश्लेषण किया जाय तो केवल एक ही कारण उभर कर सामने आती है कि हमारे पास सद्चारित्रावन ' मनुष्य ' बहुत अल्प संख्या में हैं। अतः हमारी समस्त समस्याओं का निदान केवल मनुष्य निर्माण है।
महामण्डल इस मनुष्य निर्माण आन्दोलन के लक्ष्य को सभी युवाओं के ह्रदय में बैठा देना चाहता है, एवं इसी कार्य के लिये स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श के रूप में स्थापित करना चाहता है। वे मानव जाती को उठाने के लिये आये थे, भारत को उठाने के लिये आये थे। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के लिये कार्य किया था। उन्होंने परम सत्य का साक्षात्कार किया था, तथा विश्व भर के मानव-मन को आलोकित कर दिया था।
परन्तु अपने जीवन का कल्याण, भारत का कल्याण तथा विश्व का कल्याण करने वाले कार्यकर्त्ता बनने तथा बनाने के लिये उनका आह्वान मुख्य रूप से केवल युवाओं के लिये ही था।इसीलिये महामण्डल भी तुम लोगों से, भारत के युवाओं से बहुत उम्मीद रखता है तथा भरोसा करता है।
अपने जीवन का गठन चट्टानी नींव पर करो- अर्थात अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाओ, अपनी बुद्धि को इतना विवेकशील और तीक्ष्ण बना लो कि उसमे सागर की तली को भी देख लेने का सामर्थ्य हो, ह्रदय को विशाल तथा उत्साह से परिपूर्ण रखो।
यथार्थ ज्ञान (Right knowledge) अर्जित करो (जगत में कोई पराया नहीं है) तथा अपने उदार ह्रदय में सबों के प्रति मैत्री-भाव रखते हुए इन महान विचारों को, धनाड्यतमों से लेकर दरिद्रतमों तक, शिक्षितों से अशिक्षितों तक, ज्ञानियों से अज्ञानियों तक के जीवन में उतारने लेने के लिये - उनके द्वार द्वार पर पहुँच कर उन्हें अनुप्रेरित करो।
इस कार्य को पूरा करने के लिये पहले ख़ुद तुम्हे मनुष्य बनना पड़ेगा। तुम्हे अपना शरीर हृष्ट-पुष्ट रखने के साथ साथ मन को भी संयम में रखना होगा। किन्तु केवल शरीर-मन का विकास करने से ही यथार्थ मनुष्य नहीं बना जाता है। इसके साथ ही यह भी देखना पड़ेगा कि उस शरीर में जो ह्रदय है, वह पशु का ह्रदय है या मनुष्य का,या देवता का ह्रदय है।किसी को असली मनुष्यत्व अर्जित हुआ है नहीं, उसकी सही पहचान उसके ह्रदय से ही होती है। मनुष्य बन जाने के बाद संसार के सभी मनुष्यों का दुःख-दर्द (Sorrows and Sufferings) तुम्हे बिल्कुल अपना महसूस होगा। तब अपने शरीर और मन के द्वारा तुम सदैव दूसरों का केवल कल्याण ही सोंचोगे और करोगे। तुम्हारे मुख से सदैव केवल दूसरों के कल्याण के लिये प्रार्थना ही निकलेगी। यदि तुम्हारे पास कुछ धन है, तो उसका एक हिस्सा उन्हें मिलेगा जिनके पास यह नहीं है।
आज हमारे देश को बहुत बड़ी संख्या में ऐसे ही युवाओं कि आवश्यकता है। किन्तु इस तथ्य को समझ पाने में सक्षम कोई व्यक्ति न तो सरकार में है न किसी भी राजनितिक दल में है। किसी भी संगठन के ध्यान का विषय मनुष्य निर्माण नहीं है, या ऐसे युवाओं को गढ़ने का स्वप्न आज कोई नहीं देख रहा है। (स्वामीजी का) यह सपना साकार करने के लिये अब युवाओं को ही आगे आना होगा। इस वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में इस वर्ष भारत के कई राज्यों से, तुमलोग कुल १३०९ युवा भाग लेने आये हो। इस छोटे से गाँव में, जहाँ तक पहुँचने के लिये उचित ढंग का सड़क भी नहीं है,आने में तुम लोगों ने कई कष्ट उठाये होंगे। क्यों ?
- तुम यहाँ कुछ अति महत्वपूर्ण विचारों को सुनने के लिये आये हो। महामण्डल यह जानता है कि, इस प्रकार का भाव तुम्हे और कहीं से प्राप्त नहीं हो सकते हैं। 
भारत में धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनितिक आदि कई बड़े बड़े संगठन हैं तो जरुर किन्तु ये विचार तुम्हे किसी भी संगठन में सुनने को नहीं मिलेंगे।
अतः यह हमारा सौभाग्य है कि हमलोग आपस में विचार-विमर्ष करने के लिये यहाँ तक पहुँच सके हैं। यदि इन विचारों को तुम सचमुच उपयोगी समझते हो तो उन्हें आत्मसात कर लो। अपने जीवन में उतार लो।
हमलोगों को दूसरों के लिये जीना सीखना चाहिए, अपने लिये जीना भी कोई जीना है ? जो केवल अपने लिये जीता है, वह तो नर-पशु है। जो सचमुच मनुष्य बनना चाहता है, वह अवश्य ही दूसरों के लिये जीवन धारण करना चाहेगा। हमलोग अपनी शक्ति, ज्ञान, धन, सब कुछ दूसरों के कल्याण में समर्पित कर देंगे। संक्षेप में यही है महामंडल का उद्देश्य है।
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(अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का बयालिसवाँ (42nd) वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले के - " गंगाधरपुर शिक्षण मन्दिर " (बी.एड.कॉलेज) में २५ से ३० दिसम्बर तक २००८ में आयोजित हुआ था। इस शिविर में बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, नई दिल्ली, अंडमान- निकोबार द्वीप तथा पश्चिम बंगाल के विभिन्न जिलों से कुल १३०९ युवा प्रशिक्षनार्थियों ने भाग लिया था। इस शिविर का उद्घाटन ' रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन, बेलूड़ ' के सहायक सचिव ' श्रीमत स्वामी सुविरानान्दजी महाराज ने किया था। ३० दिसम्बर को आयोजित ' विदाई सत्र' के मुख्य अतिथि रामकृष्ण मठ और मिशन के ट्रस्टी ' श्रीमत स्वामी शिवमायानान्दजी महाराज थे। शिविर के पांचवें दिन, २९ दिसम्बर को २७५ प्रशिक्षनार्थियों ने 'रक्त-दान' किया था।
इस शिविर में उपस्थित शिविरार्थियों की संख्या अबतक की सर्वाधिक संख्या थी। जिसमे आयोजित प्रश्नोत्तरी कक्षा में महामण्डल के अध्यक्ष ' परम पूज्य श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय ' द्वारा प्रदत्त यह उत्तर महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका vivek-jivan के annual number (वार्षिकांक ) २००९ में छपा था। ' पूज्य दादा ' द्वारा अंग्रेजी में प्रदत्त उत्तर का हिन्दी अनुवाद ' झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' 
( कोडरमा, झारखण्ड ) से हिन्दी में प्रकाशित किया जा रहा है।)
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61 प्रश्न- इनदिनों समाचार माध्यमों में अक्सर सामाजिक परिवर्तन की बात सुनाई पड़ती है; महामण्डल के दृष्टिकोण से ' सामाजिक परिवर्तन ' का क्या अर्थ है ? 
उत्तर- समाज बनता है- मनुष्यों से,अतः व्यष्टि मनुष्य में परिवर्तन न आने से समाज में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है. समाचार पत्र में जिस परिवर्तन का उल्लेख रहता है, वह कोई परिवर्तन नहीं है. महामण्डल की दृष्टि के अनुरूप यदि सचमुच समाज को परिवर्तित करना है, तो सर्वप्रथम समाज में सुयोग्य नागरिक ( य़ा उपयुक्त मनुष्य) का निर्माण करना होगा. वह मनुष्य- समाज किसे कहते हैं, मनुष्य किसे कहते हैं, मनुष्यों का यथार्थ कल्याण किस बात पर निर्भर करता है, आदि बातों को समझ सकेगा. 
मनुष्य के कल्याण के लिये क्या करना आवश्यक है- इसे बता सकने में समर्थ मनुष्य लगभग नहीं है. दो एक व्यक्ति यदि हैं, तब भी इस समय वैसे मनुष्यों की संख्या बहुत अधिक नहीं है जो एक साथ मिल कर य़ा संघबद्ध होकर समाज में परिवर्तन लाने के लिये जो करना आवश्यक है, उसे करेंगे. इसीलिये महामण्डल की सारी चेष्टा ऐसे ही (उपयुक्त) मनुष्यों का निर्माण करना है.
 वर्तमान समय में समाज का जो अशुभ य़ा विकृत पक्ष है, उसमे कमी लाने की कोई व्यवस्था है ही नहीं- ऐसा कहना पड़ता है. इस कूव्यवस्था के लिये जो वास्तव में दोषी हैं, उनको अभी दोषी कह कर चिन्हित भी नहीं किया जाता है. उनको न्याय-व्यवस्था के समक्ष लाकर, पदमुक्त कर देना य़ा दण्डित करना वर्तमान समाज में बिल्कुल असम्भव है. 
इसीलिये यदि सचमुच समाज में परिवर्तन लाना हो, तो भविष्यत् की ओर दृष्टि रखते हुए वर्तमान में जो कम उम्र के लड़के-लड़कियां हैं उनका जीवन इतने सुन्दर ढंग से गठित करना होगा ताकी वे बड़े होकर समाज में यथार्थ परिवर्तन लाने में सक्षम हो सकें. यदि कम उम्र से ही बहुसंख्यक लड़के-लड़कियों का जीवन सुन्दर ढंग से निर्मित किया जा सके, तो बड़े होकर वे ही लोग समाज में आमूल परिवर्तन कर सकते हैं. 
इसीलिये सर्वप्रथम जो लोग समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम हों, उनमे परिवर्तन लाना होगा- इसीलिये पहले इसी कार्य को करना होगा. 
62 प्रश्न- प्रवृत्ति और निवृत्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर- प्रवृत्ति का अर्थ है, व्यस्त रहना, ग्रहण करना, पी जाना, उपभोग करना। निवृत्ति का अर्थ है, खाली रहना, अस्वीकार करना, परित्याग करना. हमारे शास्त्रों के अनुसार प्रवृत्ति का प्रश्न  सृष्टि के समय में ही उपस्थित हुआ था. हमारे देश में ऐसी मान्यता है कि इस विश्व-ब्रह्माण्ड को ब्रह्माजी ने रचा है. इस सम्पूर्ण विश्व को रचने के बाद, वे स्वयं ही अपनी इस अनूठी रचना को देख-देख कर आनन्दित हो रहे थे.
जब उन्होंने देखा, कि करोड़ो तारे, हजारों सूर्य-चन्द्र से भरी आकाश-गंगा वाला यह विश्व-ब्रह्माण्ड तो अत्यन्त सुन्दर है, जिसमे नीले नीले आसमान, हरे हरे समुद्र, ऊँचे ऊँचे पर्वत, और अनगिनत चीजें हैं जो इसको अत्यन्त मनोहारी बना रही हैं. उस समय तक उनको टूरिस्म य़ा पर्यटन विभाग के बारे में पता नहीं था. वरना वे, अपनी रचना का आनन्द लेने के लिये, स्वयं पर्यटन कार्यालय खोल कर, पर्यटकों को आमन्त्रित करते. पर उनके मन में यह विचार आया, मैंने इतने विशाल और सुन्दर विश्व-ब्रह्माण्ड की रचना की है, किन्तु इसको देख कर आनन्द लेने वाला और तारीफ करने वाला तो कोई नहीं है ? 
इस सुन्दर सृष्टि की बड़ाई सुनने के लिये, उन्होंने सोंचा कि कुछ जीव-जन्तुओं के साथ मनुष्यों की रचना भी करूं. यह सोंच कर सबसे पहले उन्होंने सप्तऋषियों की रचना की, जिनको प्रवृत्तिमार्ग य़ा भोग-मार्ग के ऋषि कहा जाता है. उन ऋषियों ने अपना वंश-विस्तार करना शुरू किया, मनुष्यों की रचना हुई, उनलोगों ने सृष्टि का उपभोग करना, मौज-मस्ती लूटना शुरू किया और जितना अधिक से अधिक भोग सम्भव था, उपभोग करने लगे.  
फिर एक दिन ब्रह्माजी के मन में विचार उठा, मैंने इन सात ऋषियों की रचना की, फिर इस सृष्टि की सराहना करने के लिये, इनलोगों ने इतने मनुष्यों को उत्पन्न किया, पर ये मनुष्य तो बहुत ज्यादा भोग करने में डूब गये हैं, और इतना ज्यादा भोग, अन्त में इनको नष्ट कर देगा. इसलिए इन मनुष्यों की अत्यधिक भोग ईच्छा पर थोड़ा नियन्त्रण करना चाहिये.
इसलिए उन्होंने पुनः, कुछ नहीं से निवृत्ति मार्ग के सात ऋषियों को बनाने की ईच्छा की, और बनाया. ये ऋषि लोग मनुष्यों को त्याग करने की शिक्षा देंगे,  भोग करने की ईच्छा को त्यागने य़ा कमसे कम उनको अपनी इच्छाओं को निर्धारित सीमा के अन्दर रखने को अनुप्रेरित करेंगे.
 स्वामी विवेकानन्द, सप्त ऋषियों के दूसरे जत्थे, निवृत्ति मार्गी ऋषियों में से एक ऋषि थे. इसीलिये स्वामीजी ने, अपना जीवन गठित किया, और श्रीरामकृष्ण की आज्ञा (चपरास) - ' नरेन् शिक्षा देगा ' का पालन करते हुए, जगत के मनुष्यों को अपने जीवन से त्याग की शिक्षा दी थी, निःस्वार्थपर होना सिखाया था.  

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च नूनमुभे तु कर्मणि |
प्रवृत्तिः स्वार्थबुध्याश्च निवृत्तिस्तदविसर्जने ||
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों कर्म के स्वाभाव हैं।  इनमे से जो प्रवृत्ति है वह प्रत्येक मनुष्य में रहने वाली स्वाभाविक वृत्ति है, जो हर स्थान से हरेक वस्तु को एक केन्द्र के चारों ओर इकट्ठा करना चाहती है, वह केन्द्र है मनुष्य का अपना मैंपन (मिथ्या अहंकार ) और निवृत्ति समस्त नैतिकता और धर्म की मूल तत्व है.तथा इसकी पूर्णता उस आत्मत्याग में है, जो दूसरों के कल्याण के लिये अपना शरीर, मन और सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर बना देती है। 

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च द्वे एते श्रुतिगोचरे |
प्रवृत्त्या बध्यते जन्तुर्निवृत्त्या तु विमुच्यते ||२०१||

"उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी-
र्दैवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषमात्मशक्त्या
    यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः॥"
 इति हितोपदेशः॥ 
.[श्री आदिशंकराचार्यकृत निर्वाणाष्टकम: 

मनोबुद्धयहंकार चित्तानि नाहं, न च श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे ।  

न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः, चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥ १  


न वै प्राणसंज्ञा न वै पंचवायुः, न वा सप्तधातुर्न वा पंचकोषः। 

न वाक्पाणि पादौ न चोपस्थ-पायुः चिदानन्दरूपःशिवोहं शिवोहम्॥ २


न मे रागद्वेषौ, न मे लोभमोहौ, मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः। 

न धर्मों, न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ३



न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखं, न मंत्रो न तीर्थो न वेदा न यज्ञाः।

अहं भोजनम् नैव भोज्यं न भोक्ता, चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ४  

न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म:।

न बन्धुर्न मित्रं गुरुनैव शिष्यः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ५


अहं निर्विकल्पो निराकार-रूपो, विभुत्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।

न चासंगतं नैव मुक्तिर्न बन्धः चिदानन्दरूपः शिवोहं शिवोहम्॥ ६ ॥

63 प्रश्न : जहाँ तक मैं समझता हूँ, महामण्डल का उद्देश्य तो, चरित्र-निर्माण करना है; किन्तु यहाँ पर स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के ऊपर ही विशेष जोर क्यों दिया जाता है ?
उत्तर : महामण्डल का उद्देश्य केवल चरित्र-गठन करना है, ऐसा कहना बहुत सही नहीं है। यदि केवल चरित्र-निर्माण करना ही, महामण्डल का काम होता, तो शायद स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों पर जोर दिये बिना भी काम चल सकता था- किन्तु अभी इसके ऊपर विस्तार से चर्चा नहीं करूंगा। वास्तव में महामण्डल का उद्देश्य है- भारत के कल्याण के लिये कार्य करना.
हमलोग अपने देश के लिये कुछ कर गुजरना चाहते हैं, इसीलिये हमलोगों को पहले अपना जीवन सुन्दर रूप से गठित करना आवश्यक है, चरित्रवान मनुष्य बनना आवश्यक है, देशप्रेमी होना आवश्यक है,  स्वार्थ-शून्य बनना आवश्यक है, परार्थपर होना आवश्यक है, और भी बहुत सी चीजें आवश्यक हैं, किन्तु  कम से कम स्वार्थ को, भोग की ईच्छा को कम करना तो अत्यन्त आवश्यक है.
यदि केवल चरित्र-गठन की महत्ता पर ही प्रकाश डालने की बात होती, तो स्वामीजी के उपदेशों को छोड़ कर अन्य कई प्रकार की बातें की जा  सकती थीं, किन्तु स्वामीजी के उपदेशों में, चरित्र-निर्माण की समस्त प्रयोजनीय बातें सन्निहित हैं. नके उपदेशों में चरित्र-गठन के महत्व की बातें तो हैं ही,  साथ-साथ चरित्र- गठन करने की पद्धति का भी निर्देश दिया गया है.
महामण्डल के उद्देश्य के बारे में बहुत संक्षेप में कहना हो, तो हम कहते हैं- भारतवर्ष की उन्नति के लिये प्रयास करना, भारत का कल्याण करना, और इसी महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपना जीवन गठित करना, और परार्थ के लिये कार्य करने में ही, अपने जीवन की शक्ति को व्यय कर देना. यह बात (ऐसा महान जीवन लक्ष्य) अन्य किसी के उपदेश में है?
बहुत से लोगों के नाम गिनाये जाते हैं, किन्तु स्वामी विवेकानन्द के जैसा और कोई दूसरा हुआ ही नहीं है. स्वामीजी को बाद देकर चरित्र गठन करने में कोई आपत्ति नहीं है. अनेक लोगों के पास अनेक प्रकार के Prescription नुस्खा रहता है, उनके निर्देशानुसार कार्य करोगे तो देखोगे कि शुरू शुरू में शायद कुछ अच्छा होगा, कई प्रकार के विशेष गुण शायद तुम्हारे भीतर आ जायेंगे, किन्तु जो असली वस्तु चाही गयी है, वह ठीक तरीके से नहीं भी मिल सकती है. चरित्र के विषय में अनेकों लोगों ने बहुत कुछ कहा है, किन्तु चरित्र-निर्माण की उपयोगिता और चरित्र-गठन करने की पद्धति के बारे में स्वामीजी ने  जैसा कहा है, वैसा अन्य किसी ने भी नहीं कहा है.
महामण्डल का कार्य है, युवाओं को जगा कर, उनमे मनुष्य जैसा मनुष्य बनने को उत्साहित करना, जिससे उनका जीवन आदि देश के काम में लग सके, इसीका प्रयास करना. आजकल बहुत से लोग हमलोगों को परामर्श देते हैं, थोड़ा career- के लिये भी बताया जाता तो अच्छा नहीं था ? किस प्रकार career का चुनाव करना चाहिये, इन सब की व्यवस्था क्या यहाँ से नहीं की जा सकती है ? क्या कोई वैसा प्रकल्प नहीं चलाना चाहिये जिससे ये युवा लोग स्वनिर्भर हो जाएँ ? सरकार तो यह सब कर ही रही है, और यही सब कर कर के देश को बिल्कुल डूबने के कगार तक पहुँचा दिया है. सरकारी दावे से तो लग रहा है कि गरीबी तो लगभग बिल्कुल खत्म होने जैसी अवस्था में आ गयी है. और सच्चाई यह है कि आज भी भूख से, खाने बिना लोग मर रहे हैं.
इसीलिये यह सब निरर्थक चेष्टा होगी. किन्तु महामण्डल स्वामीजी का सामग्रिक मार्ग-दर्शन का ही अनुसरण करेगा. स्वामीजी का replacement करने योग्य, उनके समतुल्य, ग्रहण करने योग्य कोई दूसरा आदर्श, अभी तक तो इस पृथ्वी पर जन्मा नहीं है. स्वामीजी ने भारतवर्ष के लिये जो कहा है, समस्त मानवजाति के लिये जो कहा है और दिया है, उसको कोई replace  करने में समर्थ हो, ऐसा तो कोई आज तक इस पृथ्वी पर पैदा नहीं लिया है. टीवी य़ा फ्रिज खरीद लेने जैसा आसन नहीं समझें कि एक ही वस्तु कई विभिन्न कम्पनी में बनाकर एक ही दुकान में सजा कर रखी हुई रहतीं हैं, उसमे से किसी एक को चुन लिया. स्वामीजी किसी मनिहारी के दुकान में सजा कर रखी गयी, सामग्री जैसे कोई सामग्री नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि उनको पसंद हुए, इसीलिये खरीद लिया. स्वामीजी को बाद करके, स्वामीजी जैसा ही कोई दूसरा आदर्श प्राप्त होता हो, ऐसा एक ही जगह में एकत्रित भाव और दूसरा नहीं हुआ है. समस्त को ध्यान में रख कर ही ऐसा कहा जा रहा है.
उडिषा में एक स्थान पर भाषण करते समय मैंने कहा था- " In human history a second person like Swami Vivekananda was never born." भाषण समाप्त होने पर कॉलेज के छात्रों का एक समूह ने मुझे घेर लिया और बोले, " आपका भाषण बहुत अच्छा लगा, किन्तु आपने जिस एक बात का उल्लेख किया, वह क्या सही है ? " मैंने पूछा कौन सी बात? " आपने एक जगह कहा था,  कि " स्वामीजी के जैसा और दूसरा कोई भी मनुष्य आज तक पृथ्वी पर जन्मा ही नहीं है ! "- यह क्या अपने ठीक कहा था ?  मैंने कहा, " देखो, मैं कभी कहीं से रट कर, य़ा किसी अन्य से सुनि हुई कोई बात कभी नहीं कहता, जिस तथ्य को मैं स्वयं ठीक से समझ पाने में सक्षम हुआ हूँ, बस उसी एक बात को  मैं हर बार कहता हूँ !"
तब उनलोगों ने बताया, " देखिये, यहीं पास में एक साधु रहते हैं, उनके पांडित्य की परिधि बिल्कुल स्वामीजी की विद्या की परिधि जितनी विस्तृत है, उनका अध्यन भी बहुत गहरा है, उनके पास ज्ञान का असीम भण्डार है, समस्त शास्त्रों पर उनका पूर्ण अधिकार है.  कहा जाय तो उनका समस्त ज्ञान उनकी मुट्ठी में है, ऐसा कोई विषय नहीं है, जिसके बारे में वे नहीं जानते हों; और त्याग के बारे में क्या कहा जाय ? वे भी सन्यासी हैं, और असाधारण त्यागी हैं. वे अपने भोजन के लिये कोई चेष्टा नहीं करते, कोई भोजन दे देता है, तो खा लेते हैं, नहीं मिला तो, कुछ नहीं खाते हैं. अदभुत महात्यागी हैं, उनके सारे गुण बिल्कुल स्वामीजी की तरह ही हैं. इसीलिये हमलोग कह सकते हैं कि स्वामीजी के जैसा और एक व्यक्ति हैं. यदि आप उनको देखना चाहें, तो कल सुबह में ही आपको दिखला सकते हैं, गाड़ी से जाने पर एक घन्टा लगेगा, पास में ही एक जंगल है, उसी जंगल में वे रहते हैं. "
मैंने बहुत शान्त भाव से ही कहा, " नहीं, कल मैं उनको देखने नहीं जा रहा हूँ, " " क्यों ? क्यों ? वे स्वामीजी के जैसे क्यों नहीं हैं? " मैंने कहा, " मैं इस बात पर आपत्ति नहीं करता कि उनकी विद्या स्वामीजी के जैसी है, यह भी मान लेता हूँ कि उनका त्याग स्वामीजी के जैसा है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द स्वयं कहते हैं, " मैं अपना शेष जीवन हिमालय की किसी गुफा में, ध्यान करते हुए बीता सकता हूँ, किन्तु ऐसा मैं कैसे कर पाऊंगा रे ? जगत में इतने मनुष्य कष्ट में हैं, इतना दुःख है, दरिद्रता का कैसा उत्पीड़न भोग रहे हैं, और मैं अपनी मुक्ति के लिये, हिमालय की गुफा में ध्यान करके बीता दूंगा ? नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता !"
और ये साधु अभी तक जंगल में ही बैठे हुए हैं. इसीलिये इन साधु का बाकी सबकुछ स्वामीजी के जैसा होने पर भी, इस जगह वे स्वामीजी के जैसे नहीं हैं. " स्वामीजी  दुखी मनुष्यों के दुःख से विदग्ध ह्रदय लेकर, उन दुखी-पीड़ित मानवों के कल्याण के लिये, उन मनुष्यों के पास, सम्पूर्ण भारतवर्ष का कल्याण करने के लिये दौड़ पड़े हैं. और इसी आशा से विदेशों तक भी दौड़ गये कि - शायद वहाँ से भारत के लिये कुछ सहायता मिल जाये. किन्तु वहाँ जाने के बाद वे समझ गये थे- कि नहीं, सहायता करने वाला यहाँ कोई नहीं है.
तब उन्होंने कहा, तुम लोग स्वयं अपने पैरों पर खड़े होने की चेष्टा करो.मनुष्य बनो, चरित्र गठन करो, देश को प्यार करना सीखो, देश का अर्थ देश की मिट्टी ही नहीं है, देश से प्यार करने का अर्थ है अपने देशवासियों से प्यार करना. देश के मनुष्यों को प्यार करना सीखो, अपने देशवासियों के दुःख को समझना सीखो, अपने ह्रदय (Heart )को बड़ा करो, शरीर (Hand) को बलवान बनाओ, सिर (मस्तिष्क Head ) को जाग्रत करो- प्रखर बुद्धि, विवेक-विचार करने की शक्ति चाहिये.
उन्होंने हमे आदेश दिया है - " ह्रदय से मनुष्यों के दुःख को अनुभव करो, विचारशक्ति से उनके दुखों को दूर करने का उपाय ढूँढो, और शारीरिक शक्ति का प्रयोग कर उस उपाय को क्रियान्वित करके दिखा दो." इतना बड़ा महामानव सचमुच नहीं जन्मा है, उनके उपदेशों को सुनकर, उनके आदेश, उनकी शिक्षा, उनकी डांट-फटकार - आदि को सुनकर,  शायद हमारी सुबुद्धि वापस लौट आये. उनकी बात को सुन कर हमलोग एक दूसरे प्रकार के मनुष्य बन जायेंगे, हमलोगों की मनोवृत्ति बिल्कुल बदल जाएगी,
जैसे किसी बहुत बड़े चुम्बक के पहाड़ के निकट जहाज चला जाये, तो लोहे से निर्मित उसके समस्त नट-भोल्ट, कब्जा-काठी, इत्यादि स्वतः खुल जायेंगे, उसी तरह इनके पास जाने से, इनकी आकर्षण की शक्ति से हमलोगों के समस्त बंधन छिन्न-भिन्न होजाएंगे, हम बंधन मुक्त हो जायेंगे. ऐसा होने पर हमलोग जो बन जायेंगे, वह क्या है? केवल ह्रदय, इसीलिये स्वामीजी एक स्थान पर कहते हैं -  
" Be a heart-whole man !"  
ऐसा मार्ग-दर्शन और किसी दूसरे व्यक्ति से मिल सकता है क्या ?  
64 प्रश्न : अपने कार्य को पूरी तरह से समाप्त किये बिना ही स्वामी विवेकानन्द ने अपने नश्वर शरीर का त्याग क्यों किया ?
उत्तर : यह कार्य (सम्पूर्ण भारत में ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा केन्द्रों ' को स्थापित कराकर ' व्यक्ति-चरित्र गठन ' करने का कार्य) दो या चार वर्षों में ही पूरा नहीं किया जा सकता, और न इसको ' पँच-वर्षीय योजना ' की संज्ञा ही दी जा सकती है. यह कार्य (व्यक्ति जीवन-गठन अर्थात युवाओं के जीवन को युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द के साँचे में ढाल लेने का कार्य)एक अत्यन्त दीर्घकालिक व्यवस्था-क्रम (Longtime-process) है, जिसे समय के साथ-साथ आगे बढ़ते रहना है, और कोई व्यक्ति यह नहीं जनता कि इस तरह की परियोजना का कभी अन्त होगा भी या नहीं. 
आँकड़ों की दृष्टि से इस कार्य के बारे में निष्कपटता पूर्वक चिन्तन किया जा सकता है. मान लो कि आज का युवा-वर्ग,(चरित्र-निर्माणकारी प्रशिक्षण प्राप्त करके) 'यथार्थ मनुष्य ' बन जाता है, किन्तु इसी बीच जनसंख्या में बढ़ोत्तरी भी हो रही है, नव-जात शिशु जन्म ले रहे हैं. (वे भी कल युवा बनेंगे), अतः इस मनुष्य-निर्माणकारी प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखना होगा. और निश्चित तौर पर, स्वामीजी भी इस धरा-धाम पर (अपने नश्वर शरीर में) तबतक नहीं ठहरे नहीं रह सकते थे, जबतक इस पृथ्वी पर सारे मानव, यथार्थ पुरुष और स्त्री में विकसित होने के लिए जन्म-ग्रहण नहीं कर लेते.
उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर कहा था कि उनका अपना नियत काम (कर्तव्य या टास्क) साधारण जनता के लिए उपयोगी विचारों (सिद्धान्तों) को प्रबुद्ध-जनमानस में प्रविष्ट करा देना था; और इस कार्य को उन्होंने प्रवीणता के साथ पूरा कर लिया था. और इस बारे में उनके मन कोई संशय भी नहीं था;उन्होंने कहा था- ' My work is done !' 
            (मैंने अपना कार्य समाप्त कर लिया है !)
दुर्भाग्यवश, बहुत थोड़े से व्यक्ति ही उनके विचारों सही रूप से ग्रहण कर के, उन्हें अपने व्यहार में अपनाने कठोर प्रयास करते हैं. उनके सिद्धान्तों ( Be and Make ) को बहुत गम्भीरता के साथ समझने का प्रयास नहीं किया गया है. यह एक सच्चाई है, जिसे हमें स्वीकार करना चाहिए, किन्तु अपनी असमर्थतता के चलते हमलोग इसे स्वीकार करने में संकोच करते हैं. हमलोग सोचते है कि हम जो कुछ भी कर रहे हैं वह स्वामीजी के विचारों को व्यावहारिक धरातल पर रूपायित करने का प्रयास ही कर रहे हैं; किन्तु उनका प्रधान सिद्धान्त (' स्वयं यथार्थ मनुष्य बनो और दूसरों को भी यथार्थ मनुष्य बनने में सहायता करो !) का प्रमुख अंश (Be), अर्थात स्वयं मनुष्य बनने का कार्य अधुरा ही रह जाता है. 
स्वामीजी ने सरकार (सत्ता किसके हाथ में है या सरकार किसकी है) के विषय में ज्यादा कुछ नहीं कहा था, उन्होंने सामाजिक परिवर्तन (समाजिक व्यवस्था में परिवर्तन) के बारे में सम्भाषण दिया था; और सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन इसमें रहने वाले (सामाजिक व्यवस्था को चलाने वाले ) मनुष्यों की गुणवत्ता (चारित्रिक गुणों ) पर निर्भर करती है. राजनीति विज्ञान का सिद्धान्त है-" People get as good a government as they Deserve. "
             " जिस देश या राज्य की जनता जिस योग्य होती है उसे वैसी ही सरकार प्राप्त होती है।"
आज हमारे देश की ' केन्द्रीय सरकार ' और राज्यों की सरकारें भी बिलकुल वैसी ही हैं, जिसके हम पात्र हैं. यदि जब हमलोग बदल जायेंगे (अर्थात हमारी चारित्रिक गुणवत्ता सुधर जाएगी और हमलोग यथार्थ मनुष्य बन जायेंगे) तो हमारी सरकारें भी स्वतः बदल जाएँगी. इसीलिए, स्वामीजी का कार्य हर समय में जारी रहेगा. उन्होंने हमें आश्वस्त करते हुए कहा था- " Work unto death- I am with you, and when I am gone, my spirit will work with you."  
" मृत्यु पर्यन्त कार्य (मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण का कार्य ) करते रहो, मैं तुम्हारे साथ हूँ, और जब मैं चला जाउँगा(इस रंग-मँच से हट जाउँगा) तब मेरी आत्मा तुम्हारे साथ कार्य करेगी ! "  
अन्यत्र उन्होंने कहा था-
" It may be that I shall find it good to get outside of my body-to cast it off like a disused garment. Bur I shall not cease to work. I shall inspire men everywhere, until the whole world shall know that it is one with God. "
" यह सम्भव है कि मुझे अपने इस नश्वर शरीर को किसी जीर्ण वस्त्र के समान त्याग कर बाहर निकल जाना पड़े, किन्तु मैं कार्य करना कभी नहीं छोडूंगा,मैं सर्वत्र मनुष्यों में तबतक प्रेरणा भरता रहूँगा जब तक वह यह नहीं अनुभव करता कि वह और ईश्वर (श्रीरामकृष्ण, अल्ला, ब्रह्म) एक हैं."                  
 65 प्रश्न  " हाल का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और ' जन लोकपाल बिल '  के बारे में महामण्डल का दृष्टिकोण क्या है ? " 
उत्तर- यह कत्तई आवश्यक नहीं है कि महामण्डल को हर मुद्दे पर अपना एक अभिमत व्यक्त करना ही चाहिए. कोई गंभीर और ईमानदार व्यक्ति, या समूह, यदि राष्ट्र के कल्याण के लिए, कोई महत्वपूर्ण काम कर रहे हों तो, हमें उनको अपनी शुभ कामनाएँ अवश्य देनी चाहिए. किन्तु हमारा कार्य क्षेत्र अलग है; और हम अपना सारा ध्यान उसी कार्य पर केन्द्रित रखते हैं, जिसे हमने अपने लिए चुन लिया है. हमलोग भावनाओं के आवेग और उत्तेजना में बह कर अपना ध्यान अन्य किसी विषय की ओर भटकने नहीं दे सकते.
सामाजिक और राजनीतिक संबंधों, व्यवस्थाओं, और संस्थाओं में परिवर्तन लाकर समस्याओं को सुलझाने के उद्देश्य से सामाजिक या राजनीतिक आंदोलन किये जाते रहे हैं. सामाजिक बुराइयों के इलाज के लिए अक्सर इसी प्रकार के आन्दोलन आवश्यक हो जाते हैं. किन्तु, हमारा तरीका रोग-निरोधक या सुरक्षात्मक है. हमारा ध्यान, सदैव सभी समस्याओं की जड़, स्त्री और पुरुषों के चरित्र के उपर ही केन्द्रित रहना चाहिए. जो किसी पौधे के जड़ को सींचता है, वास्तव में वह पुरे पौधे को ही सींचता है. सारी समस्याएँ मन की गलत प्रवृत्तियों की उपज होती हैं. इसीलिए यदि इसका ध्यान नहीं रखा जाय तो किसी अन्य उपाय से इसका स्थायी समाधान सम्भव नहीं है.     
  इसीलिए महामण्डल युवा लोगों  के मन पर कार्य कर रहा है, क्योंकि वे ही परिवर्तन के लिए सर्वाधिक सहज अनुगामी होते हैं. मूल रूप से यह काम शैक्षणिक है, जिसके अनुसार उनके लिए अपने मन को अन्तर्मुखी करने की थोड़ी सी योग्यता भी अपेक्षित है. मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति बहिर्मुखी है; इसीलिए यह अपने अंतर्निहित गुरु ' विवेक-शक्ति ' पर से, मन अपनी एकाग्रता को आसानी से खो देता है. इसीलिए मन को सदैव विवेक के साथ संयुक्त रखने के कार्य को, या मन को अन्तर्मुखी बनाने के अभ्यास को, अन्य क्रिया-कलापों, चाहे वे कितने भी अच्छे क्यों न हों, के साथ जोड़ कर व्यर्थ नहीं होने देना चाहिए.इंग्लैंड में एक पत्रकार ने स्वमी विवेकानन्द से पूछा था- ' क्या आपने इंडियन नेशनल कांग्रेस आन्दोलन की ओर कुछ ध्यान दिया है ? ' (४/240 )
 स्वामीजी ने उत्तर में कहा था- " मैं यह नहीं कह सकता कि मैंने काफ़ी ध्यान दिया है; मेरा कार्यक्षेत्र दूसरा है. पर मैं इस आन्दोलन को महत्वपूर्ण मानता हूँ और हृदय से उसकी सफलता चाहता हूँ।'उन्होंने, राजनैतिक या सामाजिक सुधार आंदोलनों के साथ, ' मनुष्य निर्माण के कार्य ' को मिश्रण करने की स्वीकृति नहीं दी थी. क्योंकि देश की व्यवस्था में एक दीर्घकालिक, मौलिक परिवर्तन लाने के लिए, वे ' मनुष्य-निर्माण के कार्य ' को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते थे. 
उसी साक्षात्कार के क्रम में उन्होंने, उस अंग्रेज पत्रकार से कहा था- ' आपके यहाँ एक कहावत है कि लोगों को पार्लियामेंट के कानून से पुण्यात्मा नहीं बनाया जा सकता...और इसीलिए धर्म, राजनीति की अपेक्षा अधिक गहरे महत्व की वस्तु है, ' वह जड़ तक पहुँचता है और आचरण के सार से संबंध रखता है.' 
तब उस साक्षात्कार-कर्ता ने थोड़ा आश्चर्य व्यक्त करते हुए स्वामीजी से पूछा था- ' क्या भारत को उस जागरण (मन और इन्द्रियों को अन्तर्मुखी रखने ) का ज्ञान है, जिसकी आप चर्चा कर रहे हैं ? '
इसका उत्तर देते हुए स्वामीजी ने कहा था- ' (इस मामले में भारत ) पुर्णतः जाग्रत है. किन्तु संसार शायद उस जागरण को मुख्यतया कांग्रेस आन्दोलन और सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में ही देख पाता है, पर यह जागरण धर्म के क्षेत्र में भी उतना ही वास्तविक है, यद्दपि वह वहाँ अधिक निस्तब्धता से काम करता है. '
यहाँ ' धर्म ' से तात्पर्य वह विचार है जो ' जड़ तक पहुँचता है और आचरण के सार से संबंध रखता है.' ऐसा धर्म और चरित्र-निर्माण में कोई अन्तर नहीं है.
बहुत कम लोग ही ऐसे हैं, जो इस यथार्थ धर्म या ' चरित्र-निर्माण ' के कार्य के महत्व को समझ पाते हैं, क्योंकि यह कार्य (चरित्र-निर्माण ) ओस की बूंदों की तरह ख़ामोशी के साथ ' जीवन-पुष्प ' को प्रस्फुटित कर देता है. इसलिए हमारी राय में, जो लोग इसके महत्व को समझते हैं और इसके लिए काम करते हैं, उन्हें उच्च दक्षता प्राप्त करने के चक्कर में पड़ कर, अपनी ऊर्जा को नष्ट नहीं करना चाहिए. 
 इसके अलावा, हमलोग वैसे युवाओं के बीच काम कर रहे हैं, जिनमें जटिल सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर, स्वतंत्र राय बनाने या निर्णय लेने की क्षमता, अभी तक विकसित नहीं हुई है. हमें अपने विचारों को उन पर नहीं थोपना चाहिए.
उन्हें, अपनी आँखों के साथ चीजों को देखने, खुले दिमाग के साथ विकसित होनेऔर फिर खुद तय करने का मौका देना चाहिए. हमारे काम सिर्फ उन्हें सच्चे मनुष्य के रूप में विकसित होने में सहायता करना है. और यही हमारी सीमा है .
66  प्रश्न- ' विवेक ' और ' हृदय ' में क्या अन्तर है ? ' ब्रह्म ' क्या है ?
उत्तर- विवेक एक विशिष्ठ प्रकार से विचार करने की प्रक्रिया का नाम है- अर्थात यह क्या है, यह क्या है, यह क्या है, इसप्रकार हर वस्तु को अलग अलग करके समझना। किस वस्तु का मूल्य कितना है- इसका मूल्य बहुत अधिक नहीं है, इसका मूल्य इससे अधिक है, इस प्रकार से जब विचार किया जाता है; तब इसे विवेक कहा जाता है।  
और इस प्रकार से विचार करने के लिए मस्तिष्क के आलावा और कोई दूसरा यन्त्र कहीं शरीर में फिट नहीं है.हमलोगों की धारणा यह कि शायद हृदय ( दिल ) हमलोगों के छाती के निकट है. किन्तु छाती के निकट जो हृदय ( दिल ) है, वह एक यंत्र है, जिसको ' हृदय-यंत्र ' या heart कहते हैं. वह तो रक्त-संचालन करने वाला यंत्र या  Blood Pumping Machine है. वह जन्म के समय से लेकर जब तक मनुष्य जीवित रहता है तबतक चलता ही रहता है।  हृदय का धड़कना बंद होते ही मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। सारे शरीर में रक्त को संचालित को करना (blood pumping ) इसका कार्य है।  किन्तु उसी यंत्र को यह हृदय नहीं समझना चाहिए।  
हमलोग जिस हृदय की बात कर रहे हैं, वह अनुभव करने की शक्ति है। उसका स्थान हमारे शरीर में कहाँ है, इसे तुरन्त खोजा नहीं जा सकता है। इसीलिए छाती पर हाथ रख कर जहाँ हृदय-यंत्र रहता है, हमलोग उसी का उल्लेख करते हैं। यह एक काल्पनिक मान्यता है, इसका कोई अर्थ नहीं होता, वास्तव में जो कार्य होता है वह, मस्तिष्क के भीतर होता है. मस्तिष्क क्या है, कैसा चौंका देने वाला पदार्थ है, इसके पूरी संरचना को आज तक मनुष्य पूरी तरह से जान नहीं पाया है। लगातार मस्तिष्क की नयी नयी शक्तियों के परिचय का खुलासा हो रहा है. 
वास्तव में शुभ-अशुभ, पसंद-नापसंद, लोभ, त्याग, पाने की इच्छा, त्याग कर देने की इच्छा आदि  समस्त  विवेकपूर्ण निर्णय लेने का कार्य, मस्तिष्क में ही घटित होता है. इन दिनों मस्तिष्क को लेकर बहुत से अनुसन्धान किये जा रहे हैं. यह भी सच है कि अनुसन्धान कार्य में बहुत उन्नति हुई है, किन्तु मन की शक्ति का पूरा परिचय अभी तक बहुत कम ही मिल सका है. 
सिर के उपर, ठीक बिच में एक स्थान को ब्रह्म-रन्ध्र कहा जाता है. ऐसा  माना जाता है की यह स्थान ब्रह्म की उपलब्धी करने के लिए है. ब्रह्मवस्तु से ही यह विश्व-ब्रह्माण्ड आविर्भूत हुआ है। ब्रह्म का अर्थ क्या है ? ब्रह्म का शाब्दिक अर्थ है- बृहत. इतना बृहत, कि उसके बाहर और कुछ भी नहीं है. हमलोग भी इससे अलग नहीं हैं. इसीलिए हमलोग घटिया सोच नहीं रखेंगे, संकीर्ण विचार नहीं रखेंगे, बृहत के बारे में ही विचार करेंगे। शब्दार्थ के अनुसार इसको ही ब्रह्म विचार कहते हैं.
अपने को अनुदार मत रखो, छोटे से दायरे में कैद मत होने दो. ' अपने को मैंने जगत्स्वरूप बना लिया है; सारे विश्व के साथ अपने को एक और अभिन्न  देखता हूँ !' कितनी बड़ी उपलब्धी है, कितने आनन्द की बात है ! हमलोग सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का अनुभव कर सकते हैं, हमलोग इतने बड़े हो सकते हैं. किन्तु हमने अपने को सीमित बना डाला है।  थोड़ा सा पकवान, थोड़ा सा इन्द्रिय सुख, इतने को ही बहुत बड़ा सुख मान लेते हैं।  यदि हमलोग अपने जीवन को ठीक ठीक गढ़ सकें, तो इससे बहुत बड़ी वस्तु हमलोग प्राप्त कर सकते हैं,बृहत वस्तु, जिस से बड़ा और कुछ भी नहीं है, भूमा आनन्द की प्राप्ति का संवाद सभी के पास पहुंचना चाहिए।  
इस  संवाद को हमलोगों ने  इस युवा प्रशिक्षण शिविर में प्राप्त किया है, यही समझ कर लौट सकें, तो बहुत बड़ा कार्य होगा. इसी ' भूमा आनन्द ' को प्राप्त करने का लोभ, हमलोगों को और अधिक पवित्र बनने में सहायक होगा, हमें उन्नत बनाएगा, हमलोग पुष्पित हो जायेंगे.
जीवन क्या एक घर में रहना, खाना-पीना, स्कूल-कॉलेज, यूनिवर्सिटी में जाना, थोड़ा पढ़-लिख कर नौकरी-रोजगार में लग जाना भर है? दिन भर कुछ रोजी-रोजगार किया, घर आया, खाना खाया, और सो गया, फिर वंश-विस्तार होने लगा- क्या इसी को मनुष्य- जीवन कहते हैं? ऐसा जीवन तो पशु लोग भी जी लेते हैं. पशुओं और मनुष्यों का जीवन क्या एक ही जैसा होना चाहिए ?
मनुष्य तो विरासत से ही इतनी बुद्धि लेकर जन्म ग्रहण किया है, वह क्या अपने कार्य के माध्यम से, जीवन-यात्रा की प्रणाली के माध्यम से, जीवन का सही उद्देश्य या लक्ष्य निर्धारित करने के माध्यम से, उसे प्राप्त करने के लिए जी-जान से प्रयत्न करने के माध्यम से, अपने उस ' मनुष्यत्व ' प्रकाशित नहीं करेगा ? यथार्थ ' मनुष्यत्व ' के उत्थान और आविर्भाव को देख कर जगत अवाक रह जायेगा- मनुष्य की शक्ति कितनी असीम है!
सच्चा मनुष्य ऐसा ही होता है. इस तरह के मनुष्य बनने के लिए जो कुछ चाहिए, वह सभी चीजें हमारे पास हैं. हमारे पास शरीर, मन, बुद्धि, हृदय या अनुभव करने की शक्ति विद्यमान है. हमलोग क्या इन्हें यूँ ही नष्ट हो जाने देंगे ? यह जो बाहर का परिवेश है, आज के समाज में भौतिक-वाद की जो आंधी बह रही है, उसके बाढ़ में क्या हम स्वयं को भी डूब जाने देंगे?
नहीं, हमलोग ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे. हमलोग सच्चरित्रता के धरातल पर अपने कदमों को सख्ती के साथ जमाये रखेंगे. पश्चमी सभ्यता के आँधियों का वेग चाहे जितना भी क्यों न हो, वह हमें अपने प्रवाह में डुबोने नहीं पायेगी। इस बाढ़ के बीच में खड़े रहकर भी, जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त कर के ही दम लेंगे.   
 67 प्रश्न : हमलोग ' मनुष्य ' ही हैं, इस बात को हम कैसे समझ सकते हैं ?
उत्तर : यदि इसी समय की बात लो, तो तुम देखोगे कि, शरीर में ऐसा कुछ प्रतीत हो रहा है, जो तुमको नीचे की ओर गिराना चाह रहा है, तुम्हारे मन में फिर एक ऐसा ख्याल आ रहा है,  तुम्हारे मन में ऐसे एक विचार की पुनरावृत्ति जाग रही है और चूँकि तुम ' विवेकी ' हो,  इसीलिए इस बात समझ पा रहे हो। 
हमलोग अपना परिचय देते है कि हमलोग विवेकानन्द के अनुयायी हैं, यदि सचमुच हमलोग ' विवेक ' के अनुगामी हों, अर्थात कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले यदि ' विवेक- प्रयोग ' अवश्य करने की आदत यदि हमारी ' प्रवृत्ति ' बन चुकी हो; तो हम स्पष्ट देख पाएंगे की मेरा मन कभी कभी मुझको धोखे में डाल कर अच्छाई के मार्ग पर न लेजा कर ( श्रेय ) से भटकाकर, नीचे (प्रेय) की ओर ले जाना चाह रहा है. जो अच्छा नहीं है, जो मुझे दुर्बल बना देगा, उसे मैं अपने पैर के अंगूठे से भी स्पर्श नहीं करूंगा, उससे दूर ही रहूँगा. कोई प्रलोभन दिखा कर मुझे उसके साथ युक्त नहीं कर पायेगा. यदि यह सामर्थ्य मुझमें है, तभी मैं ' मनुष्य ' हूँ. स्वयं के उपर ऐसा नियन्त्रण केवल ' मनुष्य ' ही रख सकता है. इसीलिए ' मनुष्य योनी ' को सर्वश्रष्ठ कहा जाता है.
' मनुष्य ' का अर्थ क्या है ? श्रीरामकृष्ण कहते थे- ' मान हूँश, तो मानुष ' जिसको अपनी मानवोचित मर्यादा के प्रति ' होश ' सदैव बना रहता हो, उसी को ' मनुष्य ' कहा जाता है. विचार करके देखो तो जरा, यह उक्ति कितनी सरल, पर कितनी असाधारण है? दूसरे प्रकार से देखें तो श्रीरामकृष्ण देव मूर्ख ही ठहरे. पाठशाला में पढ़ने के लिए, बहुत ही थोड़े समय के लिए गये थे। हिसाब बनाने के लिए कहा गया तो किसी प्रकार ' जोड़ ' करना सीख लिए थे, किन्तु ' घटाव ' करना नहीं सीख पाये।  ' शेष नहीं निकालने ' (घटाव नहीं करने) से जोड़ (योग) होता है. यह योग ( जोड़ ) क्या है ? जो सबसे ऊँची बात है, सबसे सुन्दर वस्तु है, वह है- सभी के साथ जुड़ जाना, एक और अभिन्न बन जाना !
  हमलोग टी.वी. पर देख कर आजकल ' योग-योग ' बोलते हैं. अभी तो पार्क में बैठ कर योग करना एक फैशन बन चुका है. कई कई नामों से ' योगा-सेन्टर ' खुल गये हैं। वास्तव में ' योग ' का क्या अर्थ है? यह देखना कि हमारे हृदय में जो मौलिक वस्तु है, उसके साथ स्वयं को ' जोड़ ' करके रखने पर ही, अन्य सबों के साथ योग बना रहता है, क्योंकि सबों के भीतर ' मौलिक वस्तु ' एक ही है। इस तथ्य को सदा स्मरण रखते हुए जीवनयापन करने से, हमारी जो अन्तर्निहित ' सत्ता ' (ब्रह्मत्व ) है, वह और अधिक प्रस्फुटित होने लगता है, और अधिक अभिव्यक्त होता है, और अधिक फलदायी होता है।  इसीलिए अपनी ' स्मृति ' ध्रुव तारे के जैसा अटल बनाये रखना लाज़मी है!   
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शनिवार, 8 अगस्त 2009

" ज्ञान, शिक्षा और धर्म "

हे बद्धपाश प्रोमिथियस, सारे बन्धन तोड़ डालो ! 
'ज्ञान', 'शिक्षा' और 'धर्म' के क्षेत्र में मतवादों की संख्या इतनी अधिक है कि सामान्य जनता इनके परिभाषाओं के जाल में उलझ जाती है, और उन शब्दों के यथार्थ मर्म को न समझ पाने के कारण अक्सर दिग्भ्रमित हो जाती है। इन सिद्धान्तों के पांडित्यपूर्ण बहस में उलझ जाने के फलस्वरूप, उनकी
बुद्धि में भ्रम का कीचड़ उत्पन्न हो जाता है। किंतु इस धालमेल वाले कीचड़ को उबाल कर, यदि थोड़ा परिशोधित और संघनित कर लिया जाय, तो ज्ञान-शिक्षा-धर्म के विषय में मात्र वैसे विशुद्ध सिद्धान्त ही शेष रह जाते हैं, जिन्हें कोई बच्चा भी आसानी से समझ सकता है। यदि हमलोग ऐसे ही कुछ विशुद्ध एवं मूलभूत तात्विक सिद्धान्तों को समझना चाहें, तो इन विषयों पर स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दी गयी सरल और स्पष्ट परिभाषा हमारी सहायक सिद्ध हो सकती है।      
क्योंकि स्वामी विवेकानन्द के समस्त उपदेशों के केन्द्र में वेदान्त-वाणी का यही जयघोष पड़ता है - 
" प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, मानव-मात्र में अनन्त-शक्ति अव्यक्त रूप में अन्तर्निहित है; तथा वह शक्ति विविध मानवीय स्तरों पर जागृत एवं क्रम-विकसित होने की प्रतीक्षा कर रही है।'  

* शिक्षा क्या है ? इसीलिए स्वामी विवेकानन्द 'शिक्षा ' के सारांश को परिभाषित करते हुए  कहते हैं-
" शिक्षा " का अर्थ है, उस 'पूर्णता' की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। " (२:३२८) ' Education'  is the manifestation of the perfection; already in man.'  

*यह पूर्णता (perfection) क्या है ?  - 'पूर्णता ज्ञान, पवित्रता और प्रेम की वह सर्वोत्कृष्ट स्थिति है, जिसे प्राप्त कर लेने से मनुष्य के सारे बंधन खुल जाते हैं, समस्त प्रकार की सीमायें टूट जाती हैं, तथा वह पूर्णतः मुक्त हो जाता है। अतएव इस अवस्था को अपने जीवन में मूर्तमान कर लेने के लिए प्रत्येक मनुष्य को उपयुक्त शिक्षा या 'शीक्षा' (उपनिषद-विद्या) के द्वारा निरंतर प्रयत्न या पुरुषार्थ करते रहना चाहिए।


*धर्म क्या है ? इस समय जगत में जितने भी प्रचलित-धर्म हैं, उन सबों के दर्शन, पुराण और रस्म रिवाज (धार्मिक-क्रिया) आदि भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं,किन्तु सभी धर्मों का जो अन्तर्तम भाग या सार-तत्व होता है, वह बिल्कुल एक जैसा होता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार सभी धर्मों के उस सारतत्व, अन्तर्तम भाग या परिपूर्ण-अवस्था को यदि कोई नाम देना हो तो उसे - 'ब्रह्मत्व' (Divinity) भी कहा जा सकता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने संसार के सभी धर्मों के इसी सार-तत्व को परिभाषित करते हुए कहा था,- 'धर्म ' का अर्थ है उस 'ब्रह्मत्व' की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है '। (२:३२८)  'Religion' is the manifestation of the Divinity already in man. " 

* मनुष्य बनने में 'शिक्षा और धर्म'  (Education and Religion) की क्या भूमिका है ?
उपरोक्त परिभाषा के अनुसार हम देख सकते हैं कि ' धर्म और शिक्षा ' के सार-तत्व में कोई अन्तर नहीं है ! और अन्तर हो भी कैसे सकता है ? ये दोनों  " शिक्षा और धर्म " ही मानव-जाति को पशु-जगत भिन्न कर देता है।
पशुओं के जीवन का कोई उद्देश्य नहीं होता, इसीलिये पशुओं को शिक्षा या धर्म प्राप्त करने के लिये किसी 'शिक्षा-गुरु या धर्म-गुरु ' के पास जाने की आवश्यकता भी नहीं होती। किन्तु प्रत्येक मनुष्य के जीवन का एक उद्देश्य होता है, 'यथार्थ मनुष्य' (ब्रह्मविद मनुष्य) बन जाने से ही मनुष्य-जीवन सार्थक होता है। इसीलिये 'शिक्षा और धर्म' दोनों का वास्तविक लक्ष्य या उद्देश्य एक ही है, और वह है- मनुष्य-जाति को अपना जीवन उद्देश्य सिद्ध करने, अपने जीवन को सार्थक बनाने में सहायता करना।

*जीवन क्या है ?  स्वामी विवेकानन्द उसी वेदान्तिक उद्घोष के आलोक में 'शिक्षा' और 'धर्म' के समान 'जीवन' के मर्म को भी भली-भाँति जानते थे।  यदि हम जीवन (Life) को भी स्पष्ट रूप से स्वामी जी की वाणी में समझना चाहें, तो ' शिक्षा' (Education)और 'धर्म' (Religion) की तरह वे 'जीवन' (Life)
को भी सरल और स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हुए कहते हैं --" एक अन्तर्निहित 'शक्ति' अपने स्वरूप में व्यक्त होने, के लिए मानो अविराम चेष्टा कर रही है; और बाह्य प्रकृति एवं परिवेश उसे दबाये रखना चाहती है, प्रकृति और परिवेश के इस दबाव को हटा कर, मुक्त हो जाने की इस चेष्टा का नाम ही 'जीवन' है !" (विवेकानन्द चरित : १०८)
' लाइफ़ इज अनफोल्डमेन्ट एण्ड डेवलपमेन्ट ऑफ़ अ बीइंग अंडर दी सर्कमस्टांसेज टेंडिंग टू प्रेस इट डाउन।' ( 'Life' is the unfoldment and development of a being, under circumstances tending to press it down.) 

गुरु स्वामी विवेकानन्द जानते थे कि मनुष्य-शरीर (क्षेत्र) के भीतर एक अनन्त शक्ति (क्षेत्रज्ञ या आत्मा) अपने सूक्ष्म संस्कारों के आवरण में कुण्डलीकृत होकर मानो परत-दर- परत मुड़ी हुई सुप्त अवस्था में पड़ी है, और जाग्रत होने की प्रतीक्षा कर रही है। उन परिस्थितियों और परिवेश जन्य सूक्ष्म संस्कारों
(आदत या प्रकृति) के दबाव के विरुद्ध विद्रोह कर अपने ' जीवन-पुष्प'  को निरन्तर 'पूर्ण-विकसित' करने की चेष्टा का नाम ही -'जीवन' है!  
इसी सच्चाई को अन्य प्रकार से अभिव्यक्त करते हुए उन्होंने अन्यत्र कहा था- " अ  स्प्रिंग  ऑफ़  इनफिनिट पॉवर  इज़  क्वाइल्ड  अप, एंड  इज इनसाइड दिस लिटिल बॉडी , एंड  दी  स्प्रिंग इज स्प्रेडिंग इटसेल्फ
.... " एक असीम शक्ति का स्प्रिंग इस छोटी सी काया में कुंडली मारे विद्यमान है और वह स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। और ज्यों ज्यों यह फैलता है, त्यों त्यों एक के बाद दूसरा शरीर अपर्याप्त होता जाता है; वह उनका परित्याग करके उच्चतर शरीर धारण करता है। ... यही है मनुष्य का धर्म, सभ्यता अथवा प्रगति का इतिहास। देखो वह भीमकाय बद्धपाश - ' प्रोमिथियस '* अपने को बन्धनमुक्त कर रहा है "। ( ९:१५६) 
{ *' प्रोमिथियस '*  २५०० वर्ष  पूर्व प्राचीन  ग्रीस के एक नाटककार एस्कीलस ने "प्रोमिथियस बाउंड"  नामक एक महाकाव्य लिखा था। सम्पूर्ण ग्रीक साहित्य का चिन्तन इसी ट्रैजडी (त्रासदी) पर आधारित है कि-" मैन कैन नॉट ट्रान्सेन्ड हिज लिमिटेशन्स" अर्थात  ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’ । ग्रीक साहित्य में प्रोमिथियस बाउंड नामक कृति का संदेश भी उसी क्लासिकल विचारधारा पर आधारित था। इसका निषेध करते हुए, क्रांतिकारी रोमानी अंग्रेज़ी कवि पी बी शैले ने एक कृति रची, 'प्रोमिथियस अनबाउंड' यह नयी चेतना का साक्ष्य प्रस्तुत करती है कि मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है। क्योंकि वैज्ञानिकों के नित-नये आविष्कारों के द्वारा मानव-सभ्यता की आधुनिक विकास-धारा ने यह प्रमाणित कर दिया है, कि 'मनुष्य के मन में अनन्त शक्ति है', और यदि मनुष्य ठान ले तो, ‘ वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है!’
वह प्रोमिथियस ही था जिसने स्वर्ग से आग्नि चुराकर मानव को दी थी।  जब देवताओं के राजा ज़ीयस को यह बात पता चली तो उन्होंने सज़ा के तौर पर प्रोमिथियस को ताउम्र एक चट्टान के साथ बांधकर रख दिया जहां रोज़ एक परभक्षी पक्षी आकर उसका कलेजा खाता था, लेकिन वह दोबारा उग जाता था ;और पक्षी अगले दिन आकर उसे दोबारा खाता था। अंत में प्रोमिथियस को हेराकल्स (हरक्यूलीस) ने इस बंधन से मुक्ति दिलाई। 
 इस काव्य के नायक 'प्रोमिथियस' का शब्दार्थ होता है- "दूरदर्शिता"। उसने अपने "फ़िलांथ्रोपोस ट्रोपोस" (फ़िलांथ्रोपी) या "मानवता-प्रेमी स्वभाव" के कारण, मानव-जीवन को सुखमय बनाने के लिये औरअधिक सशक्त बनाने के उद्देश्य से  भावी मानवता को दो उपहार दिए थे-- पहला आग, (समस्त ज्ञान, कौशल, प्रौद्योगिकी, और विज्ञान का प्रतीक),और दूसरा "अज्ञात को पाने की आशा" दोनों साथ-साथ चलने लगे। 'आग' (विज्ञान) को प्राप्त करके मनुष्य आशावादी बन गया, और वह अपनी अवस्था में सुधार लाने के उद्देश्य से 'आग ' (या विज्ञान) का रचनात्मक इस्तेमाल भी करने लगा। किन्तु इस त्रासदी कहानी में भी यही संकेत था कि - मनुष्य को अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये , वर्ना जो स्पार्टाकस ( रोमन साम्राज्य के खिलाफ एक व्यापक दास विद्रोह का नायक ) के सामान बनने का दुस्साहस कोशिश करेंगे, सज़ा पायेंगे।
बाइबिल का पहला अध्याय "(original sin, ओरिजिनल सिन) भी यही संदेश देता है कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’ और अगर करने की कोशिश करेगा तो सज़ा पायेगा। ईडन के
उद्यान में आदम और हव्वा बिलकुल अज्ञान और निर्दोष स्थिति में आनंद से बच्चों की तरह रहते थे। वे पूरी तरह नग्न रहते थे क्योंकि उन्हें यौन संबंधों का कोई ज्ञान नहीं था और कोई शर्म नहीं अनुभव होती थी। इसी उद्यान में एक वृक्ष था जिसे " ज्ञान का वृक्ष " कहा जाता है। उस पर लगे फल का खाना ईश्वर ने स्पष्ट रूप से आदम (पहला मनुष्य) को वर्जित किया था।
आदम ने आज्ञा-उल्लंघन की और फल खा लिया। इस से उसकी निष्कपटता ख़त्म हो गई और आदम और हव्वा को एक-दूसरे को देखकर शर्म महसूस होने लगी। उन्होंने कुछ अंजीर के पत्तों के छोटे वस्त्र बनाकर अपने कुछ अंग ढकने का प्रयास किया। जब ईश्वर उनसे मिलने आये और यह देखा तो वह समझ गए की आदम ने ज्ञान का फल खा लिया है और भयंकर क्रोध में आ गए। उन्होंने आदम और हव्वा हो ईडन से निकाल दिया।
 ईसाई मान्यताओं में तब से मानव पापी अवस्था में संसार में भटक रहे हैं। इस ईडन-निकाले को ईसाई धर्म में "मानव का पतन" (fall of man, फ़ॉल ऑफ़ मैन) कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि हर मानव एक जन्मजात पापी है जो मरणोपरांत नरक जाएगा क्योंकि आदम और हव्वा का पाप हर मानव पर लागू होता है। इसे "मूल पाप" (original sin, ओरिजिनल सिन) कहा जाता है। 
आदम और हौवा ने जब ईश्वर के आदेश के विरुद्ध जाते हुए, 'ज्ञान' (?) को प्राप्त करने की चेष्टा की तो उन्हें पापी घोषित कर दिया जाता है, उन्हें सज़ा मिलती है और मृत्यु के हाथों (जन्म -मृत्यु के चक्र) सौंप दिया जाता है। ईसाई धर्म में माना जाता है, कि जो लोग धर्म-परिवर्तन करके ईसा मसीह को अपना भगवान् स्वीकार का लेंगे, ईसा उन्हें नरक में जाने से बचा लेंगे, क्योंकि उन्होंने क्रूस पर चढ़ कर अपनी क़ुरबानी इसी लिये तो दी थी । 
इन कथाओं में 'ईडन में मानवों की निर्दोष अवस्था' के चित्रण से मानव-मन में यौन संबंधों को लेकर एक प्रकार की कुंठा (अस्वस्थ विचार) उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु इस वंश-विस्तार की इच्छा को अपराध-भाव से देखने से, मनुष्य के मन पर इसका हानिकारक प्रभाव होता है, और अकारण ही गृहस्थ लोग अपराध बोध से ग्रस्त हो जाते हैं, जो कभी कभी मानसिक अवसाद के रूप में भी प्रकट हो सकता है।क्योंकि वंश-विस्तार
करने की इच्छा (procreative urge ) गृहस्थ जीवन के लिये एक ऐसी शक्तिशाली मानवीय भावना है, जिसे कुचला नहीं जा सकता। किन्तु कुछ साधनों (यम-नियम-आसन-प्रत्याहार-धारणा) को अपनाकर इस कामशक्ति को अध्यात्मिक ऊर्जा या ओजस में अवश्य रूपांतरित किया जा सकता है।   
उपरोक्त कहानी के आलोक में इस्लाम और ईसाई धर्म के इतिहास को जानना आवश्यक हो जाता है। क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में ईडन की कहानी इस्लामी स्रोतों से आई थी । ईडन की कथा में हव्वा ने आदम से ज्ञानफल खाने को कहा था, इसलिए अक्सर व्यंग्य में "नारी पुरुष के पतन का कारण है" कह दिया जाता है। क्षेत्रीय कविता में भी इस कहानी की ओर इशारा किया जाता है। उदाहरण के लिए - मिर्जा ग़ालिब  की प्रसिद्ध ग़जल "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी" के इस शेर में एक प्रेमी अपनी प्रेमिका की गली से निकलवाने की बेइज्ज़ती की तुलना आदम के ईडन से निकाले जाने से करता है:



 हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
 बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले। 

 निकलना ख़ुल्द से 'आदम' का सुनते आये थे लेकिन,   
 बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम  निकले।।  ]

किन्तु नवजागरण के अग्रदूत स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं का आह्वान करते हुए कहा है - 'मनुष्य अपनी सीमाओं (मृत्यु या मन की चहारदिवारी) का अतिक्रमण कर सकता है, तथा भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा' के माध्यम से मानव-मात्र को अमृतत्व की प्राप्ति हो सकती है।"
उनके अनुसार कोई भी साधारण मनुष्य मन को एकाग्र करने की विद्या सीख कर तथा जीवन में त्याग को अपना कर अपने मन की चहारदिवारी के पार जा सकता है,और इसी जीवन में अमृतत्व को प्राप्त कर सकता है। शर्त केवल यह है कि उसके हृदय में 'मन' की चहारदिवारी को पार करने की 'ज्वलंत इच्छा और प्रबल आत्मश्रद्धा' की भावना रहनी चाहिये। किन्तु सीमाओं का अतिक्रमण करने की चाह रखने वाला साधारण युवा की त्रासदी यही है कि उसे 'विवेक-प्रयोग' करने की शिक्षा नहीं दी जाती है, - इसीलिये वह ' अहंकार और आत्मश्रद्धा'  में अन्तर करना नहीं जानता। हमारा (महामण्डल के भावी नेताओं का) मुख्य कार्य है, युवाओं को उनकी खोयी हुई आत्मश्रद्धा - या इस विवेक को धारण करने की क्षमता को लौटा देना कि 'अहंकार' नश्वर है और 'आत्मा' शास्वत है।   
इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द से हमलोग एक वैसा सरल और अकृत्रिम मौलिक सिद्धान्त प्राप्त करते हैं, जिसे हम स्वर-सप्तक (सरगम) की तरह अपने दैनन्दिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में और 'सम्पूर्ण- अस्तित्व' के सम्मिलित विचार-क्षेत्र में भी  प्रयोग कर सकते हैं। और जो ' जीवन-पुष्प ' अभी हमारे अनजाने ही प्रस्फुटित होने का प्रयास कर रहा है, अब हमें उसे सचेतन रूप से और हर अवस्था में पूर्ण विकसित करने के लिए चेष्टा कर सकते हैं । स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के इसी मौलिक सिद्धान्त की व्यावहारिक - महत्ता को, मनुष्य-मात्र में अन्तर्निहित उसके 'अमित-प्रताप' या 'महिमा' को अभिव्यक्त करने के संघर्ष में शिक्षा, ज्ञान और धर्म के महत्व को जनसाधारण या सम्पूर्ण मानवता के लिए ज्ञातव्य बना देना चाहते थे। 
इसी बात को स्पष्टतर करते हुए कहते हैं- " अद्वैतवाद, द्वैतवाद अथवा अन्य किसी वाद का प्रचार करना मेरा उद्देश्य नहीं है।" I do not mean to preach advaitism , or Dvaitism, or any ism in the world.....  हमें इस समय आवश्यकता है केवल आत्मा की - उसके अपूर्व तत्त्व, उसकी अनन्त शक्ति, अनन्त वीर्य, अनन्त शुद्धता और अनन्त पूर्णता के तत्त्व को जानने की। यदि मेरी कोई सन्तान होती तो मैं उसे जन्म के समय से ही सुनाता - ' त्वमसि निरंजनः '। तुमने अवश्य ही पुराण में 'रानी मदालसा' की वह सुन्दर कहानी पढ़ी होगी। उसके सन्तान होते ही वह उसको अपने हाथ से झूले पर रख कर झुलाते हुए उसके निकट गाती थी- ' तुम हो मेरे लाल निरंजन, अति पावन निष्पाप ! तुम हो शक्तिशाली तेरा है अमित प्रताप ॥ 'इस कहानी में महान सत्य छिपा हुआ है। अपने को महान समझो और तुम सचमुच महान हो जाओगे।"  (५:१३८) 
 उनका यह अटूट विश्वास था कि जनसाधारण को ऊपर उठाने या उन्नत होने में वेदान्त का यह सिद्धान्त किसी चमत्कार कि तरह कारगर सिद्ध हो सकता है। हमें केवल इतना ही करना है कि- इन अमोघ सिद्धान्तों को, मठों, अरण्य में आश्रम बना कर रहने वाले बिचौलियों या मध्यस्थ होने का दावा करने वालों से मुक्त कराकर, अलौकिक ऊंचाइयों से नीचे, जनसाधारण के दैनन्दिन जीवन के व्यावहारिक धरातल पर उतार लाना है। " देखो वह भीमकाय बद्धपाश ' प्रोमिथियस ' जो अपने को बन्धनमुक्त कर रहा है "। वास्तव में वह 'प्रोमिथियस' कौन है ? 
वह हमारा भारतवर्ष ही है, जो १००० वर्ष से गुलामी की  बंधनों में जकड़ा हुआ था, उसको स्वयं बन्धन-मुक्त होना होगा । इतना विशाल और ज्ञानी देश ' प्रोमिथियस ' के जैसा गुलामी के बन्धनों में कब और कैसे पड़ गया ? 
 विश्वविख्यात कवि रविंद्रनाथ ठाकुर की भतीजी सरला घोषाल को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द पददलित जनसाधारण की समस्याओं का विस्तार से विचार-विश्लेष्ण करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि- " the remedy now is the spread of education; first of all, atma-vidya.." अब उपाय है- (चरित्र-निर्माणकारी) शिक्षा का प्रसार। सबसे पहले आत्मज्ञान। इससे मेरा मतलब जटा- जूट, दण्ड,कमण्डलु और पहाड़ों की कन्दराओं से नहीं जो इस शब्द(आत्मा) के उच्चारण करते ही याद आते हैं। तो फ़िर मेरा मतलब क्या है ?
जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संसार-बन्धन तक से छूट जाता है, उससे क्या तुच्छ भौतिक उन्नति नहीं हो सकेगी ? अवश्य ही हो सकेगी। मुक्ति, वैराग्य, त्याग - ये सब उच्चतम आदर्श हैं, परन्तु गीता के अनुसार-'स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् '- अर्थात इस धर्म का थोड़ा सा भाग भी महाभय (जन्म-मरण ) से त्राण करता है। ...प्रत्येक जीवात्मा में अनन्त शक्ति अव्यक्त भाव से निहित है।... उपयुक्त अवसर (निमित्त) और उपयुक्त देश- काल मिलते ही उस शक्ति का विकास हो जाता है। परन्तु चाहे विकास हो चाहे न हो, वह शक्ति ब्रह्मा से लेकर घास तक में विद्यमान है।... अन्तर केवल उसके प्रत्यक्षीकरण के भेद में है।'

वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् '॥ कैवल्यपाद-३॥

जैसे, किसान खेतों की मेंड़ तोड़ देता है और एक खेत का पानी दुसरे खेत में चला जाता है, वैसे ही आवरण के टूटते ही आत्मा भी  स्वतः प्रकट हो जाती है। इस शक्ति को सर्वत्र जा जा कर जगाना होगा। यह हुई पहली बात। दूसरी बात यह है कि इसके (चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा ) के साथ साथ प्रचलित (धन कमाने वाली Secular education) शिक्षा भी देनी होगी। (६: ३१२)
जनसाधारण के सामान्य धरातल पर (- जो केवल पैसा कमाने पर जोर देते हैं), वेदान्त ज्ञान का प्रयोग  करने से उनका अभिप्राय क्या है ? इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहते हैं : " न्यूयार्क में मैं आइरिश उपनिवेशवासी को आते हुए देखा करता था- पददलित, कान्तिहीन, निःसंबल, अति दरिद्र और महामूर्ख, साथ में एक लाठी और उसके सिरे पर लटकती हुई फटे कपड़ों की एक छोटी सी गठरी। उसकी चाल में भय और आँख में शंका होती थी। छः ही महीने के बाद यही दृश्य बिल्कुल दूसरा हो जाता। अब वह तन कर चलता था, उसका वेश बदल गया था, उसकी चाल और चितवन में पहले का वह डर दिखाई नहीं पड़ता। ऐसा क्यों हुआ ?
हमारा वेदान्त कहता है कि वह आइरिश अपने देश में चारों तरफ़ घृणा से घिरा हुआ रहता था - सारी प्रकृति एक स्वर से उससे कह रही थी कि - ' बच्चू, तेरे लिए और कोई आशा नहीं है, तू गुलाम ही पैदा हुआ और सदा गुलाम ही बना रहेगा '। आजन्म सुनते सुनते बच्चू को उसीका विश्वास हो गया। बच्चू ने अपने को सम्मोहित कर डाला कि वह अति नीच है। इससे उसका ब्रह्मभाव संकुचित हो गया। परन्तु जब उसने अमेरिका में पैर रखा तो चारों ओर से ध्वनी उठी कि ' बच्चू, तू भी वही आदमी है जो हमलोग हैं। आदमियों ने ही सब काम किए हैं, तेरे और मेरे समान आदमी ही सब कुछ कर सकते हैं। धीरज धर। ' 

बच्चू ने सर उठाया और देखा कि बात तो ठीक ही है- बस, उसके अन्दर सोया हुआ ब्रह्म जाग उठा, मानो स्वयं प्रकृति ने ही कहा हो- ' उठो, जागो, और जब तक मंजिल पर न पहुँच जाओ - रुको मत !" (६:३१३)'  
' प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ' या एक ही शक्ति सभी मनुष्यों में अव्यक्त रूप से विद्यमान है '- मानव-मात्र का यही गौरव मानव-जाती के लिए सर्वोत्कृष्ट 'एकत्व' स्थापित कराने वाली शक्ति है। यही वह शक्ति है जो हमारे उस 'सारभूत- एकत्व ' को सूचित करती है, जो घृणा और मतभेद के समस्त अवरोधों या बाधाओं को तोड़ कर स्वयं को निःस्वार्थपरता के रूप में कि अभिव्यक्त करती है। तथा अपने दैनन्दिन जीवन में इसी अवधारणा को आत्मसातीकरण या स्वांगीकरण करने के लिए इसका अभ्यास करने को ही व्यावहारिक वेदान्त कहते हैं। 
(vivek-jivan अप्रैल २००९ में प्रकाशित VEDANTA FOR THE MASSES का हिन्दी भावानुवाद)
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[इस्लाम के ५ स्तम्भ : इस्लाम के दो प्रमुख वर्ग हैं, शिया और सुन्नी। शिया इस्लाम में थोड़े अलग सिद्धांतों को स्तम्भ कहा जाता है। दोनों के अपने अपने इस्लामी नियम हैं लेकिन आधारभूत सिद्धान्त मिलते-जुलते हैं। सुन्नी इस्लाम में हर मुसलमान के ५ आवश्यक कर्तव्य होते हैं जिन्हें इस्लाम के ५ स्तम्भ भी कहा जाता है।  वे  ५ स्तंभ इस प्रकार  हैं-
१. साक्षी होना (शहादाह)- इस का शाब्दिक अर्थ है गवाही देना। इस्लाम में इसका अर्थ इस अरबी घोषणा से हैः "अल्लाह् के सिवा और कोई पूजनीय ( एबादत या पूजा करने के योग्य) नहीं और मुहम्मद (सल्लल्लहु अलैहि वस्सल्लम्) ईश्वर के रसूल हैं।" 
यह इस्लाम का सबसे प्रमुख सिद्धांत है। हर मुसलमान के लिये अनिवार्य है कि वह इसे स्वीकारे। एक गैर-मुस्लिम को इस्लाम स्वीकार करने के लिये केवल इसी एक ' साक्षी-भाव ' स्वीकार कर लेना पर्याप्त है। इस घोषणा से हर मुसलमान ईश्वर की एकेश्वरवादिता और मुहम्मद साहब के रसूल होने के अपने विश्वास की गवाही देता है। 

२. प्रार्थना (सलात)- इसे हिन्दुस्तानी में नमाज़ भी कहते हैं। यह एक प्रकार की प्रार्थना है जो अरबी भाषा में एक विशेष नियम से पढ़ी जाती है। इस्लाम के अनुसार नमाज़ ईश्वर के प्रति मनुष्य की कृतज्ञता दर्शाती है। यह मक्का की ओर मुँह कर के पढ़ी जाती है। हर मुसलमान के लिये दिन में ५ बार नमाज़ पढ़ना अनिवार्य है। विवशता और बीमारी की हालत में इसे  टाला जा सकता है।

३. दान (ज़कात)- यह एक वार्षिक दान है जो कि हर आर्थिक रूप से सक्षम मुसलमान को निर्धनों को देना अनिवार्य है। अधिकतर मुसलमान अपनी वार्षिक आय का २.५% दान में देते हैं। यह एक धार्मिक कर्तव्य इस लिये है क्योंकि इस्लाम के अनुसार मनुष्य की पून्जी वास्तव में ईश्वर की देन है। और दान देने से जान और माल कि हिफा.जत होती हे ।

४. व्रत (रम्.जान ) (सौम)- इस के अनुसार इस्लामी कैलेण्डर के नवें महीने में सभी सक्षम मुसलमानों के लिये (फ.जर्)

५. तीर्थ यात्रा (हज)- हज उस धार्मिक तीर्थ यात्रा का नाम है जो इस्लामी कैलेण्डर के १२वें महीने में मक्का में जाकर की जाती है। हर समर्पित मुसलमान (जो हज का खर्च‍ स्वयं उठा सकता हो और विवश न हो) के लिये जीवन में एक बार इसे करना अनिवार्य है।
पैगम्बर मुहम्मद (५७०-६३२) को ६१० ई ० के आसपास मक्का की पहाड़ियों में परम ज्ञान  प्राप्त हुआ था। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरत कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है।

 मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और मुहम्मद साहब के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। ६३० में मुहम्मद साहब अपने अनुयायियों के साथ एक संधि कि उल्लंघना होने के कारण मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्कावासियों ने आत्मसमर्पण करके इस्लाम कबूल कर लिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया । ६३२ में मुहम्मद साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ। 
मुहम्मद साहब के चचा जाद भाई, अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी  
मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।
अली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों के एक वर्ग का मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद साहिब के परिवार का ही हो सकता है। यह वर्ग शिया वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनका मानना था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। 

बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद साहिब का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी  कहलाये। माविया के  बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया , उसके कृत्य से धार्मिक मुसलमान असहज स्थिति में आ गए। यज़ीद ने हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे , हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद साहब की इकलौती पुत्री जनाबे फातिमा सल्वातुल्लाहे अलैहा के पुत्र हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करानी चाही।  परन्तु हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी मंजूरी देने से मना कर दिया ,हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम के मना करने पर यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया , ये इस्लाम का कोई गृह युद्ध नहीं था बल्कि सत्य और असत्य की लड़ाई थी जिसे हज़रत हुसैन अलैहिस सलाम ने अपनी जान देकर भी जीत लिया : 

" क़त्ले हुसैन असल में मर्गे यज़ीद है ,
 इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद "

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शनिवार, 25 जुलाई 2009

' क्या किसी परिवर्तन की सम्भावना है ?

" पार्लियामेन्टरी-डेमोक्रेसी-सिस्टम की वर्तमान अवस्था "
परिवर्तन कहाँ ? किस चीज में परिवर्तन ? यही कि २००९ के बाद विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र (भारत) में  ' यू .पी . ए . 2 ' की  सरकार गठित हुई है,  उसके बाद भारत की वर्तमान  परिस्थिति में, या देश की वर्तमान व्यवस्था में, क्या किसी परिवर्तन की  संभावना  है ? इसका छोटा सा उत्तर है -' नहीं '। 
 क्यों? इस क्यों को समझने के लिये हमें इस तथा-कथित 'पार्लियामेन्टरी-डेमोक्रेसी-सिस्टम' या 'लोकतान्त्रिक-व्यवस्था ' की वर्तमान अवस्था को सही सही रूप में समझना होगा। हर पाँच साल के बाद किसी पुरानी, बदरंग, दागी हो चुके पत्तों के ताश की गड्डी को फेंट कर, पुनः उन्ही पुरानी दागी, विकृत पत्तों में से कुछ पत्तों को चुन लेने की प्रक्रिया को ही वर्त्तमान में ' पार्लियामेन्टरी-डेमोक्रेसी-सिस्टम ' लोकतान्त्रिक व्यवस्था कहा जाता है । इस बार (२००९ई०) के आम -चुनाव के बाद जो मंत्री-मण्डल गठित हुआ है, उसमें वही पुराने राजा ( चिड़ि के बादशाह) हैं , रानियाँ (काले पान की बेगम) भी वही हैं, और कुछ जोकर (दग्गी -राजा या लाल -पान के गुलाम,किन्तु स्वयं को अब भी राजा समझते हैं।) भी वही हैं, या बहुत हुआ तो उनके ( युवा संताने है, जो २०१४ के चुनाव के बाद स्वयं राजा बन जाने के स्वप्न देख रहे है ) ही कुछ पसंदीदा लोग हैं। 
निजी- स्वार्थ की बलि-वेदी पर (स्वयं प्रधान-मंत्री बनने के स्वार्थवश) भारतमाता का अंग-भंग करके जो स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी, उसके बाद विगत छः दशकों में राजनीती ने पूरे ' सिस्टम को ' - अर्थात सब कुछ को प्रदूषित कर दिया है। पाश्चात्य विजय से लौट आने के बाद, कुछ लोगों ने स्वामी विवेकानन्द से प्रश्न किया था, ' क्या आप भारत को स्वतंत्र करने में कोई सहायता नहीं कर सकते हैं ? उसके उत्तर में उन्होंने ने कहा था, " स्वतंत्रता प्राप्त होने पर उसे सुरक्षित और सम्भाल कर रखने वाले मनुष्य, अभी भारत में निर्मित कहाँ हुए हैं ?"
उन्होंने कहा था - " मैंने अमेरिका को, वहाँ पहुँचने के पहले ही जीत लिया था। मैं भारत को भी तीन दिन में स्वतंत्र करा सकता हूँ; किन्तु प्राप्त होने पर उसे  सुरक्षित और सँभाल कर रखने वाले मनुष्य कहाँ हैं ? इसीलिए पहले आदमी- ' मनुष्य ' उत्पन्न करो ! " यहाँ द्रष्टव्य है कि भारत कि पिछली भंग हो गई लोक-सभा के ५४३ ' जन-प्रतिनिधियों ' में से कुल १२८ सांसद खून, दंगा से लेकर विभिन्न गंभीर अपराध के आसामी थे; तथा इनके चुनावी-प्रचार को और भी असरदार बनाने के लिए ब्लैक-मार्केट का करोड़ो करोड़ रुपया और अस्त्र-सश्त्र से सारे देश को पाट दिया गया था।
वर्तमान राजनितिक परिदृश्य में युवा वर्ग को राजनीती के क्षेत्र में उतारने के लिए, उनके बीच एक प्रकार की सनक या उन्माद फैलाने की चेष्टा की जा रही है। किन्तु राजनितिक दलों का यह प्रस्ताव वास्तव में - कुछ ' पेशेवर राजनीतिज्ञों ' की संतानों के लिए एक " दीर्घकालीन-पेन्सन योजना " के आलावा और कुछ नहीं है। जिस प्रकार के युवाओं की आवश्यकता को स्वामी विवेकानन्द ने पूरा करने का आह्वान किया था, उस कसौटी पर ये लोग खरे नहीं उतरते। क्योंकि स्वामीजी के निर्देश के अनुसार इन्हें, पहले इन्सान या " मनुष्य "- बनने का प्रशिक्षण नहीं दिया गया है।
क्या उन्होंने ( नेता-पुत्रों ने )   अपना ' चरित्र -निर्माण ' कार्य पूरा कर लिया है ? क्या उनका ह्रदय भारत की करोड़ो-करोड़ अभागी आम जनता के दुःख-कष्टों का अनुभव करने में संवेदनशील है ? क्या उनका ह्रदय उपेक्षित, निर्बुद्धि पशुओं जैसी हालत में रहने को विवश लाखो-करोड़ो जनसाधारण के दुर्बल, अशक्त, क्षीण होती हुई ह्रदय की धडकनों को महसूस कर सकता है ? बिल्कुल नहीं। क्योंकि उनको तो प्रारम्भ से ही सत्ता की तड़क-भड़क, शान-शौकत से जीने का आदि बनाया जगया है। और वे लोग भारत की सीधी-साधी ग्रामीण जनता को भविष्य में आने वाले स्वर्णिम-प्रभात का स्वप्न दिखाने का असफल प्रयास कर रहे हैं।  विगत आम-चुनाव से पहले अंग्रेजी समाचार-पत्र के एक सम्पादक ने लिखा था - " भारत के युवाओं से कहा जाता है की उन्हें निष्ठापूर्वक अपने उत्तरदायित्व का पालन करना चाहिए। क्यों ? क्योंकि वे भविष्य के भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। यदि किसी उम्मीदवार की उम्र ४० या ४५ से कम होती है तो उस पुरूष या स्त्री को भविष्यकी आशा के रूप में प्रक्षेपित किया जाता है। 
किन्तु इस घुड़-दौड़ में कितने " युवा " उम्मीदवार ऐसे हैं जो अपनी स्वयं की 'योग्यता' या ' नेतृत्व-क्षमता ' के कौशल के बलबूते पर उम्मीदवार बनते हैं ? इनमे से अधिकांश लोग किसी न किसी पेशेवर राजनीतिज्ञों के बेटे-बेटियाँ या भतीजे-भतीजियाँ हैं या जो लोग देश की समस्त समस्याओं के लिए उत्तरदायी हैं, वास्तव में वे लोग उन्हीं की संताने  हैं। " वही सम्पादक राजनीतिज्ञों के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए आगे कहते हैं-- 
" वर्त्तमान राजनैतिक कलाबाजियों को देखने-सुनने के बाद जो निष्कर्ष निकल कर सामने आते हैं, उन में से पहला तो यह है कि- अधिकांश राजनीतिज्ञ या तो " Unscrupulous Scoundrels " हैं अनैतिक बदमाश  लोग हैं, या फिर वे " Opportunistic Scoundrels " या अवसरवादी  खलाधम जन हैं। और अंतिम निष्कर्ष यह कि अधिकांश राजनीतिज्ञ उस श्रेणी के दुष्ट हैं जो न किसी सिद्धान्त को मानते हैं, न किसी विचार-धारा से अनुप्रेरित हैं, वे केवल निजी स्वार्थ को पूरा करने के लिए ही ' आत्म-संरक्षण ' के  राजनीती का सहारा लेते हैं। किन्तु देश-प्रेम से प्रेरित हो कर राजनीती करने वाले बहुत थोड़े से राजनीतिज्ञ  ही अपवाद स्वरूप शेष रह गए हैं। " अब तो यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि नामी-
गिरामी राजनीतिज्ञ लोग आपस में एक दुसरे को कैसे-कैसे अमर्यादित भाषा में कोसते रहते हैं। इंग्लैंड के प्रधान मंत्री ने तो यहाँ तक कह दिया है कि- " राजनीति सज्जन-व्यक्तियों के लिए उपयुक्त व्यवसाय नहीं है।' 
अब प्रश्न उठता है कि, क्या हम लोग इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए कुछ कर सकते हैं? या  इस वस्तुस्थिति का सामना हम कर भी सकते हैं या या नहीं ? ' Yes,We Can! '  हाँ, हम कर सकते हैं ! ' इसके लिए हमें अपने अन्दर वह कुशाग्र-बुद्धि, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति - जो हमे अनिष्टकारी और हितकारी या सद्-असद् के बीच भेद करने में सक्षम बनाती है; विकसित करनी होगी, जिसे हमने लगभग खो ही दिया है। महाभारत में कहा गया है-
" जानामि धर्मम् न च में प्रवृत्तिः ।
जानाम्यअधर्मम् न च में निवृत्तिः ॥ "
- अर्थात मैं यह जानता हूँ कि ' धर्म ' क्या है, किन्तु मेरी उसमे कोई अभिरुचि नहीं है। मैं यह भी जानता हूँ कि 'अधर्म' क्या है, किन्तु मैं उससे अपने को चाह कर भी अलग नहीं कर पाता हूँ।
ठीक इसी तरह हमलोग भी, अपना चरित्र-निर्माण करने या मनुष्य बनने की आवश्यकता को समझते हैं; किन्तु इसके लिए जीवन में जो निरन्तर 'विवेक-प्रयोग' आदि अभ्यास करने अनिवार्य होते हैं, उस काम में हमलोग आलसी हो चुके हैं। इसीलिये हमारे शास्त्रों में कहा गया है -

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः।
-नीतिशतक
आलस्य मनुष्यों के शरीर में रहने वाला महान् शत्रु है। अपना जीवन गठन करने के लिये हमलोग तत्पर नहीं हो पाते हैं। क्योंकि हम लोग अधिक से अधिक भोग-सुख लूटने की कामनाओं से इतने सम्मोहित हो चुके हैं कि अपनी विवेक-क्षमता को ही भूल गए हैं। हमलोग यह भूल चुके हैं कि, इस पृथ्वी पर केवल मनुष्य ही वह " Biped-animal "(द्विपाद-प्राणी ) है, जो चार आधारभूत उपकरणों कि सहायता से अपने शरीर को सीधा खड़ा रख कर चल सकता है। मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपने सिर को ऊपर उठा कर सीमाहीन (अनन्त ) आकाश को निहार सकता है, तथा लोकोत्तर (परम सत्य) का चिन्तन भी कर सकता है।
स्वामी विवेकानन्द आर्श्चय जनक शब्दों में मनुष्य को परिभाषित करते हुए कहते हैं- " मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है ; और परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, परन्तु जिसका केन्द्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है, सब आँखों द्वारा देखता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा साँस लेता है, सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्क द्वारा विचार करता है।(यदि मनुष्य अपनी विवेक-क्षमता को अनन्त गुनी कर ले तो ) मनुष्य ईश्वररूप बन सकता है और सम्पूर्ण विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है। " (वि० सा० ख० ३:११९) उन्होंने कहा था-" मेरे मित्रो ! पहले मनुष्य बनो, तब तुम देखोगे कि वे सब बाकि चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी " (१०:६२) 
हमारे देश को वास्तव में कैसे लोग चलाते हैं, यह बात अब इतने वर्ष बीत जाने के बाद किसी से छुपी नहीं है। इसीलिए चुनाव-प्रचार करते समय इन राजनीतिज्ञों को आम जनता के दुःख -कष्टों के लिए घड़ियाली आँसू बहाने और थोथे आश्वासनों का किसी पर कोई असर नहीं होता। कोई ढाई हजार साल पहले विख्यात दार्शनिक प्लेटो ने कहा था - 'बुद्धिजीवियों की सबसे बड़ी सजा यह होती है कि वे बुरे और भ्रष्ट अपराधी लोगों का शासन झेलें, क्योंकि उन्होंने स्वयं शासन-तंत्र में भाग लेने से इंकार किया है। ' इस प्रजातन्त्र के मंदिर (वर्तमान-लोकसभा ) के वर्तमान माननीय सांसदों में से १६३ सांसद आपराधिक मुकदमों के आसामी हैं। किन्तु ये लोग बन्दुक के बल पर नहीं आये हैं, बल्कि जनता के द्वारा चुने गए हैं। क्योंकि हमने नेहरूवादी कांग्रेस के नेतृत्व में आजादी मिलने के साथ ही साथ  व्यापक तौर पर ब्रिटेन के प्रजातन्त्र व प्रशसनिक व्यवस्था का अनुकरण (परानुकरण ) किया था। किन्तु हमारे रहनुमा यह नहीं समझ पाये कि ब्रिटेन के भोगवादी समाज के  एथिक्स अर्थात ' भोगवादी आदत से बनी नैतिकता ' और हजार वर्षों की " गुलामी की आदत से पैदा हुई हमारी नैतिकता " में फर्क था और है।  (एथिक्स शब्द यूनानी मूल शब्द एथिकोस से पैदा हुआ है। जिसका मतलब होता है, आदत से पैदा हुआ)
२०१३ ई० के चर्चित कोलगेट के ' तोता-प्रकरण ' मामले से १६ साल पहले १९९७ ई० में ही सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को कड़ी फटकार लगते हुए सिबिआइ को सीधे सिभिसी (केन्द्रीय सतर्कता आयोग ) के अधीन काम करने को कहा था। किन्तु राजनीतिज्ञों की नैतिकता पहले ही बेशर्मी के भेंट चढ़ चुकी थी।  नतीजतन विश्वसनीय (सरकार के पिट्ठू ) अफसरों को रिटायरमेन्ट के बाद भी पाँच साल के लिये घोडा-गाड़ी और लालबत्ती के साथ ही मोटी आय की व्यवस्था की जाने लगी। किन्तु अपने समाज के एथिक्स, या ' आदत से पैदा हुई नैतिकता या चरित्र-निर्माण ' के उपर कोई ध्यान नहीं दिया। जिसके फलस्वरूप इन ६२ सालों में जीडीपी के साथ साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ता गया। ' मेरा भारत महान ' के कर्णभेदी नारे में गरीब साधारण जनता की चीत्कार दबती चली गयी।
 आज की जरुरत 'मनरेगा-योजना'   या 'मुफ्त खाद्य योजना ' की नहीं है, बल्कि यह है कि पहले योग्य और चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करने वाली भारत के ऋषियों द्वारा अविष्कृत पतंजलि-योगसूत्र को शिक्षापद्धति से जोड़ने की है। उन्हें ऐसी शिक्षा दी जाये कि वे अपने मन को एकाग्र करना सीख कर अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं करने में हो सकें, वे निःस्वार्थ  देश-सेवा से भागे नहीं, बल्कि मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के गाँव गाँव तक फैला कर , बुरे लोगों से प्रजातंत्र को मुक्त करने के कार्य में जुट जाएँ। (वरिष्ट पत्रकार एनके सिंह की लेख के आधार पर)]  
 
 ' सच्ची-शिक्षा ' विहीन गणतंत्र में जन साधारण के लिए सामान स्वाधीनता, मर्यादा और सामान अधिकार देने की बातें करना दिन में सपने देखने जैसी बातें हैं। इसीलिये पाकिस्तान के एक पूर्व राष्ट्रपति ने कहा था- " Democracy without education is a hypocrisy without limitation " - अर्थात  शिक्षा के सर्वगत न होने तक, सीमाहीन पाखण्ड का ही दूसरा नाम गणतंत्र है।"  
इस देश में गणतंत्र आने से बहुत पहले, अमेरिका और यूरोप में प्रवास करते समय स्वामी विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशों में स्थापित गणतंत्र की राजनैतिक कलाबाजिओं को भी बड़ी गहराई में जा कर देखा था, और पार्लियामेन्टरी सिस्टम का जो चेहरा उनको दिखाई दिया था, उसका वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " मैंने तुम्हारा Parliament 'लोक-सभा', Senate 'वरिष्ठ-सभा' अथवा
 ' राज्य-सभा', Vote ' मताधिकार' , Majority ' बहुमत अथवा जनादेश', Ballot 'मतपत्र' , Ballot Rigging (मतपत्रों की हेराफेरी) सब कुछ को देखाहै- अरे राम हो राम ! प्रत्येक देश में एक ही नियम लागु होता है, थोड़े से शक्तिमान मनुष्य जिस ओर चाहते हैं, समाज को चलाते हैं; बाकि लोग भेंड़ की झुंड के समान उनका अनुशरण करते हैं। ......यह ठीक है कि वोट, बैलेट आदि द्वारा प्रजा को जो एक विशेष ढंग कि शिक्षा मिलती है, उससे हम वंचित रह जाते हैं। 
किन्तु राजनीती के नाम पर चोरों का जो दल देशवासियों का रक्त चूस कर, समस्त यूरोपीय देशों का नाश करता है, और उनका भक्षण करके स्वयं मोटा-ताजा बना रहता है, वैसा कोई भी दल कम से कम हमारे देश भारत में तो नहीं है। (यह बात उन्होंने भारत के यूपीए 2 सरकार के  २०१३ वाले टुजी-घोटाला, कोमन वेल्थ घोटाला,कोलगेट, रेलगेट, आईपीएल  घोटालों से  १०० वर्षों से भी अधिक पहले कही थी) घूस कि वैसी धूम, वह दिन-दहाड़े लूट, जो पाश्चात्य देशोंमें होती है- अरे राम कहो ! यदि वहाँ की आन्तरिक व्यवस्था को देख लेते तो मनुष्य पर से विश्वास ही उठ जाता। !
' घर की जोरू बर्तन माँजे, गणिका लड्डू खाय।
गली-गली में गोरस फिरता, मदिरा बैठ बिकाय।। '


जिनके हाथ में रुपया है, वे राज्य-शासन को अपनी मुट्ठी में रखते हैं, प्रजा को लूटते हैं, उसको चूसते हैं, और बाद में उन्हें सिपाही बनाकर देश-देशान्तर में मरने के लिए भेज देते हैं। जीत होने पर पुनः उन्ही का घर धन-धान्य से भरा जाएगा, किन्तु बेचारी निरीह प्रजा तो उसी जगह मार डाली गई। ....राम हो राम ! यह सब देख-सुन कर भी न तो तुम्हे अपनी भृकुटी ताननी चाहिए, न किसी प्रकार का आर्श्चय ही व्यक्त करना चाहिए। " (वि०सा० ख० १० : ६१ )
 

यदि स्वामीजी आज भी जीवित होते तो कहते - " मेरे मित्रो ! यदि तुम इन राजनीतिज्ञों (मौनी-बाबा नब्बे चोर ) की  कलाबाजिओं के पृष्ठभूमि में चलने वाली कृत्यों को एक बार भी देख लो,तो घूसखोरी कि धूम और दिन-दहाड़े डकैती करते समय मनुष्यों के भीतर शैतानियत के नृत्य को देख कर, तुम मानव-जाति के उज्ज्वल भविष्य के प्रति हताश ही हो जाओगे। इसलिए मेरी सलाह अपने युवा मित्रों के लिए तो केवल इतना ही है कि- 'मेरे मित्रों, पहले तुम मनुष्य बनो ! '
इस कथन का तात्पर्य क्या है? क्या हम मनुष्य नहीं हैं ? आकृति में हमलोग अवश्य मनुष्य हैं, हमारा ढाँचा अवश्य ही मनुष्य जैसा है। किन्तु हमलोग केवल मनुष्य कि आकृति में " Homo Erect-us " श्रेणी के वह पशु नहीं हैं, जो केवल अपने पैरों पर सीधाखडा हो सकता है। हमलोग तो " Homo Sapience " श्रेणी के सदस्य हैं। " Sapience " का अर्थ होता है, समझ-बुझ रखने वाला, ' विवेकी ' जो सद्-असद् या हितकर- अहितकर का ज्ञान रखता है। यदि हमलोग अपने विचार, संकल्प और कर्म में विवेक-शक्ति या उचित-अनुचित निर्णयबोध का परिचय नहीं देते, तो हमलोग स्वयं को -" Homo Sapient " या यथार्थ मनुष्य कहने का दावा भी नहीं कर सकते। इसीलिये राजा कवि भर्तृहरी कहते हैं- 
येषां न विद्या न तपो न दानं
ज्ञान न शीलं न गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।
-नीतिशतक
जिन मनुष्यों के पास न विद्या, न दान, न ज्ञान, न शील (चरित्र) , न गुण, और न धर्म ही है, वे इस मनुष्यलोक में पृथ्वी पर भाररूप हैं, जो आकृतिमात्र से मनुष्य होकर पशुरूप में विचरण करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण मानव जाती के लिए कौन सा उपदेश दिया है, उसे अगर एक ही पंक्ति में कहने का साहस किया जाय, तो वह है- " यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास कि सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ जीवित हैं, जो दूसरों के लिए जीवन धारण करते हैं। बाकि लोग तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं। " (२: ३७१ )

क्या हमलोगों में से अधिकांश मनुष्यों कि ही तरह, हमारे ये राजनीतिज्ञ लोग - " मृत से भी ज्यादा अधम " नहीं हैं ?स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " हम उस मनुष्य को देखना चाहते हैं, जिसका विकास सम्निवित रूप से हुआ हो- ह्रदय से परम उदार, मन से उच्च , कर्म में महान। हम ऐसा मनुष्य चाहते हैं, जिसका ह्रदय संसार के दुःख-दर्दों को गंभीरता से अनुभव करे। जो न केवल अनुभव ही करे बल्कि दुःख के कारण का भी पता लगा सकता हो, जो यहाँ भी न रुके उस दुःख को दूर करने का उपाय भी बता सके। हम मस्तिष्क, ह्रदय और हाथों के ऐसे ही संघात को चाहते हैं। जो समानरूप से क्रियाशील, ज्ञानवान और प्रेमवान है। " ( ३:२१५)
इस प्रकार स्वामी विवेकानन्द के परामर्श के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि, यथार्थ मनुष्य बनने के लिए हमे अपने तीन प्रमुख अवयवों (3H's)- our Hand,Head and Heart - के समन्वित विकास पर ध्यान देना होगा। यहाँ पहला ' H ' Hand- हाथ या भुज-दण्ड प्रतिक है ' बाहू-बल' या शारीरिक शक्ति का, दूसरा 'H' Head - मस्तिष्क या सिर प्रतिक है ' विवेक-शक्ति' या सद्-असद् का विवेकपूर्ण निर्णय लेने की शक्ति का। तीसरा 'H' Heart या ह्रदय का विकास - जो दूसरों के दुःख-कष्टों को देख कर अपने ह्रदय में पीड़ा का अनुभव करने में सक्षम हो।
जब हमारे पास ' अपनी फिक्र ' नहीं दूसरों की फ़िक्र ' दूसरों के दुःख को दूर हटाने के लिए चिन्ता करने वाला ह्रदय(Heart) विकसित हो जायगा, तभी हम अपनी शारीरक-शक्ति(Hand) और मानसिक-शक्ति (Head) की सहायता से दूसरों के चहरे पर छाये दुःख,विषाद, उदासी को दूर हटा कर उनके मुख पर भी हँसी खिलाने में थोड़ी सहायता कर सकते हैं।
इन तीनो अवयवों (3H's) को विकसित करने की प्रक्रिया को ही चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया कहते हैं. इसके लिए हम सभी लोगों को अपना चरित्र-निर्माण करना, सबसे पहला कर्तव्य है। क्योंकि सुंदर चरित्र एक वैसे ' दिशासूचक-यन्त्र ' की तरह कार्य करता है, जो हमे सदैव विवेक-संगत दिशा या उचित दिशा में ही अग्रसर रहने को प्रेरित करता रहता है।
एक ही क्रिया (सद्-कर्म) को बार-बार दुहराते रहने से। तथा क्रिया (सद्-कर्म) निर्देशित होते हैं विवेक-सम्मत निर्णय लेने एवं इच्छा-शक्ति द्वारा (and actions are guided by ratiocination and will)। इस प्रकार का सुंदर चरित्र या ' सद्-चरित्र ' गठित होता है- " Repetition of action "  सद् या असद् किसी भी तरह के कार्य को करने के पहले मन में इच्छा उठती है, फ़िर हम उसे पूरा करने का संकल्प लेते हैं, अतः हमें अपने मन में उठने वालीइच्छाओं तथा संकल्पों को बहुत सतर्क रहकर देखना होगा कि वे विवेक-सम्मत हैं या नहीं ?
हमे अपने मन में केवल उन्हीं इच्छाओं को उठने देना चाहिए जो मनुष्यत्व के उन आदर्शों को प्राप्त करने में सहायक हों जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं (will should always be guided by ratiocination)। इसप्रकार जब हम सदैव सद्कर्म करने का ही अभ्यास करते रहेंगे तो हम सद्चरित्र के अधिकारी- ' मनुष्य 'बन जायेंगे। मनुष्य का मन इतना अधिक संवेदनशील और कोमल होता है कि, उसपर पड़ी कोई हलकी सी लकीर या छाप कोभी मिटा पाना कभी सम्भव नहीं होता।
इसीलिए हमे अपने ' मन ' का व्यवहार अत्यधिक सतर्क हो कर करना चाहिए, क्योंकि हमने स्वयं कि इच्छा से प्रेरित होकर जिन कर्मों कि लकीर या छाप इसके ऊपर डाल दिए हैं, वे ही सूक्ष्म संस्कार जब तक हम जीवित रहेंगे हमारे जीवन को निर्देशित करते रहेंगे। मन का स्वभाव ही ऐसा है कि, पढने, देखने, सुनने या अनुभव करने केसाथ ही साथ उसके साथ जुड़ी हुई कोई खास कामना या इच्छा मानो विद्युत-चमक की जैसी तीव्र गति से- मन केभी उत्पत्ति स्थान ( चित्त ) में प्रविष्ट हो कर वहाँ अन्तः स्थापित हो जाती है।
 
इस तरह मन के उत्पत्ति-स्थान (चित्त ) में अन्तः स्थापित समस्त छापों या प्रवृत्तियों की समष्टि ही व्यक्ति मनुष्यके चरित्र का निर्माण करतीं हैं। क्योंकि अचेतन मन पर पड़ी ये प्रवृत्तियाँ अथवा मनोवृत्तियाँ अचानक कोई नयी परिस्थिति या परिवेश के सम्मुखीन होते ही, किसी मनुष्य को ठंढे मन से विवेक-विचार द्वारा निर्णय किए बिना ही, सहसा कोई क्रिया या प्रतिक्रिया कर देने के लिए उद्दत कर देतीं हैं।
इसीलिए जैसे ही कोई कामना या इच्छा विद्युत-चमक के समान तीव्र गति से हमारे मन के भीतर प्रविष्ट करनेवाली हो ,ठीक उसी क्षण( then & there )  हम लोगों को विवेक-प्रयोग करने में समर्थ 'मनुष्य 'बनना होगा। उसके गुण-दोष का निर्णय ले कर , उसे वहाँ प्रविष्ट करने कि अनुमतिदेने या अस्वीकार कर देने 
की ' इच्छा-शक्ति ' को प्रबल बनाने के लिए, हमें निरंतर सतर्क रहते हुए अपनी इच्छाओं और कामनाओं को  अपने पूर्व निर्धारित आदर्श के साँचे में डाल कर देखना होगा कि, कहीं वे हमारे चरित्र को दूषित तो न कर देगी ?
हम लोगों में से कितने व्यक्ति ऐसे हैं जो इस चरित्र-निर्माण कारी पद्धति से परिचित हैं तथा अपने चरित्र को कलुषित न होने देने के लिए उस पर निरन्तर पहरेदारी बनाये रखते हैं ? हमारे देश के नागरिकों तथा राजनीतिज्ञों में से बहुत थोड़े से लोगों ने ही मनुष्य जीवन की अनन्त संभावनाओं को प्रस्फुटित करने के विषय में कभी सुना या समझा है।  
हाय ! अफ़सोस है ! हम अभी तुंरत (बिना स्वयं मनुष्य बने और बनाये ) ही किसी नई सरकार के चरित्र में वास्तविक परिवर्तन की अपेक्षा अभी  कैसे कर सकते हैं ? या अपनी मातृभूमि के उपेक्षित जनसाधारण की ' आत्मा के सर्व-ग्रासी प्रेम और सौहार्द की धारा को हिमखंड जैसा रुखा '- बन जाने से रोक भी कैसे सकते हैं ?
( vivek- jivan के मई २००९ में प्रकशित सम्पादकीय ' ANY CHANCE OF A CHANGE ?' का हिन्दी अनुवाद )