🔱 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना 🔱
खण्ड - 4
🙏शिक्षा समस्त समस्याओं की रामबाण औषधि है ! 🙏
[Education is the panacea for all problems!]
(SVHS- 4.3)
🔆🙏 चरित्र निर्माण में शिक्षा की भूमिका 🔆🙏
[चरित्र निर्माण में स्वपरामर्श (Autosuggestion) द्वारा संकल्प-ग्रहण की भूमिका]
[1.>>शिक्षा का उद्देश्य इच्छाशक्ति को नियंत्रित कर उसे प्रभावी (effective-असरदार) बनाना है। The aim of education is to control the willpower to make it effective. ]
श्रीरामकृष्ण की एक प्रसिद्द उक्ति है- "जब तक जीना, तब तक सीखना "('जावत बाँची तावत सीखी ! ' क्योंकि अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है।) इच्छाशक्ति को प्रभावी (effective) बनाने के लिये उसे नियंत्रित करना ही शिक्षा का लक्ष्य है। आज हमारे समाज की जो असहनीय परिस्थिति (परस्पर विश्वास की कमी) बन गयी है उसका कारण हमारी शिक्षा है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। अपना सुन्दर चरित्र गठन करके, हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम 'मनुष्य' बन सकते हैं, छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है।
[2.>>Another name for morality is unselfishness. #नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है।]
अतएव पारस्परिक सम्बन्ध और पारस्परिक-श्रद्धा (Interpersonal relationship and mutual respect) इन दोनों विषयों के उपर शिक्षा प्रणाली में विशेष रूप से ध्यान देना आवश्यक है। ये दोनों गुण निःस्वार्थपरता से प्राप्त होते हैं। नैतिकता का दूसरा नाम निःस्वार्थपरता है। स्वार्थ प्रेरित कार्य कभी नैतिक नहीं हो सकता है।
क्योंकि जैसे ही (कोई) व्यक्ति अपने स्वार्थ को प्रश्रय देना चाहेगा, तुरन्त ही प्रतिस्पर्धा का प्रश्न उठ खड़ा होगा। फलस्वरूप उसकी सम्पूर्ण शक्ति संघर्ष और घृणा में बर्बाद होने लगेगी। इसलिये जो शिक्षा उपरोक्त दोनों विषयों का ध्यान नहीं रखती हो, वह व्यर्थ है। यथार्थ शिक्षा हमें चलने, बोलने, कार्य करने इत्यादि समस्त हाव-भाव को मानवोचित ढंग से करने के लिए निर्देशित करती है।
[3.>>व्यावहारिक जीवन के अनुभवों से प्राप्त होने वाली शिक्षा ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। (Education gained from practical life experiences is helpful in building character.)
सही शिक्षा (यानि जीवन अनुभव से प्राप्त शिक्षा) ही चरित्र निर्माण में सहायक होती है। क्योंकि यथार्थ शिक्षा की बुनियाद एक सकारात्मक सोच (Positive thinking) पर आधारित होती है। मन के ऊपर अधिकार रखे बिना हम अपने विचारों को प्रयोजनीय मार्ग (इच्छानुसार क्षेत्र के लीक Rut) में नहीं प्रवाहित कर सकते। मनुष्योचित चरित्र गठित हो जाने के बाद ही कोई व्यक्ति अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति सही रूप में जागरूक हो सकता है। हर समय केवल अपने अधिकार की बात सोंचते रहने से कोई परिवार, समाज या देश सुचारू रूप में नहीं चल सकता। कर्तव्य की परवाह किये बिना किसी को उसका उचित अधिकार मिल भी नहीं सकता। हमारे मानवोचित एवं विवेकपूर्ण कर्तव्य के द्वारा ही समाज में नैतिक-मूल्यों की स्थापना हो सकती है।
हमारा पहला कर्तव्य है, दूसरों का सुख, दूसरों के कल्याण के बारे में सोचना। इसी के माध्यम से हम समाज के प्रति जागरूक बनते हैं। समाज के कल्याण के प्रति जागरूक बनने से ही हम अपना अधिकार अर्जित कर सकेंगे। यदि हम काम करने जायेंगे ही नहीं तो वेतन कैसे मिलेगा ? उसी प्रकार यदि हमें कर्तव्य-बोध ही न रहे तो हमें अधिकार क्यों मिलना चाहिये ? कर्तव्यबोध की शिक्षा नहीं मिलने पर चरित्र-निर्माण नहीं हो सकता। यदि हम सचमुच अपने समाज और देश का निर्माण करना अपना दायित्व समझते हैं, तो हममें से प्रत्येक को दूसरों के लिये अपने स्वार्थ का त्याग करना सीखना होगा। सर्वप्रथम स्वयं एक चरित्रवान मनुष्य बनना पड़ेगा।
[4 .>> मानव कल्याण या समाजसेवा के कई स्तर हैं :गीता के सांख्य योग के अनुसार 3rd 'H हृदय ' का विकास (Development of heart) बाकी के 2H के विकास से से कैसे भिन्न है (मन और शरीर के विकास से ) से कैसे भिन्न है -यह समझा देना उच्च स्तर की समाज सेवा है। ]
मानव कल्याण या समाजसेवा के कई स्तर हैं। अन्नहीन को अन्नदान, बेघर लोगों के लिये आवास निर्माण, कर्तव्य-बोध जाग्रत होने के बाद, कर्म करने की पहल से (उद्यम से) मानसिक संपदा से समृद्ध करना आदि । फिर समाज सेवा का उच्चतम स्तर है मनुष्य को उसकी अध्यात्मिक संपदा के प्रति जाग्रत कर देना। यही सबसे बड़ी समाज सेवा है। हमारे पास जो अत्यन्त दुर्लभ पर स्वाभाविक सम्पदा है उसके बारे में कुछ नहीं जानने से उसे व्यर्थ में गवाँना पड़ेगा । जब हम अपनी अध्यात्मिक संपदा को आविष्कृत कर लेंगे तब हम इस बात को भी जान लेंगे कि हम सभी लोगों का अस्तित्व अलग- अलग नहीं है, बल्कि हम सभी लोगो के भीतर एक आन्तरिक एकत्व का सूत्र विद्यमान है - ऐसी समझ #होते ही हम आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्मबोध अर्जित कर लेंगे। [(#"जे जार इष्ट देव सेइ तार आत्मा " काली-कृष्ण एक हैं- की धारणा होते ही हमलोग आध्यात्मिक दृष्टि से एकात्म बोध अर्जित कर लेंगे। ]
हमारी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है आध्यात्मिक दृष्टि का जागरण-(ह्रदय का विकास)। इससे एक सीढ़ी नीचे उतर कर पहले अपने मन को उच्च-भावों से भर लेना होगा। इसी को मन की शक्ति का विकास या मन को प्रशिक्षित करना कहते हैं। इसके एक सीढ़ी नीचे उतर कर हम लोग शारीरिक व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा अपने शरीर को हृष्ट-पुष्ट या शक्तिशाली बना सकते हैं।
[5.>>अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी? Why good habits
will form good character? ভালো অভ্যাসে চরিত্র গঠন হবে কেন ?কোন পরিস্থিতিতে কোন ব্যক্তি যে রকম আচরণ করবে তার অভ্যাস কি ধরনের হয়েছে তার উপর। ]
अच्छे अभ्यास से किस प्रकार चरित्र गठन होगा ? कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी पुरानी आदतों (ingrained habits) पर निर्भर करेगा। कोई व्यक्ति निर्जन स्थान में मूल्यवान वस्तु गिरी हुई देखकर नजरें बचाकर उसे अपने अधिकार में लेने की चेष्टा करेगा, दूसरा उसके असली मालिक को वापस करने की चेष्टा करेगा।
हमारा मन एक हद तक कैमरे के समान है। जिस वस्तु के सामने कैमरा निर्दिष्ट होगा उसके पर्दे पर सिर्फ उसी वस्तु का चित्र बनेगा। किन्तु मनुष्य का मन किसी कैमरा की अपेक्षा अधिक उन्नत किस्म का यंत्र है। इसीलिए मन रूपी कैमरे में शब्द और रूप के आलावा किसी वस्तु के गंध, स्पर्श और स्वाद के छाप भी पड़ जाते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियाँ से युक्त हमारा मन रूपी कैमरा हर समय जगत के असंख्य वस्तुओं की छाप हमारे चित्त पर डालता रहता है। मेरे अपने विचार, वाणी और कर्म का जितना गहरा छाप (लकीर) मेरे चित्त पर पड़ेगा , उतना गहरा छाप दूसरों के विचार , कथन और कार्य के द्वारा नहीं पड़ सकता है। एक ही कार्य का बार- बार अभ्यास करने से उन्हीं विचारों, शब्दों और कार्यों के आदतों की लकीरें हमारे चित्त के ऊपर भी पड़ जाती है, तथा ये लकीरें क्रमशः गहरी होती जाती हैं। इस प्रकार हमलोग बैल-गाड़ी में जुते बैलों के समान ही एक ही लकीर पर बार- बार चलते रहते हैं।
इसीलिये जब हम बार-बार विवेक का प्रयोग करके अपनी (विवेकसम्पन्न) बुद्धि को केवल पवित्र विचारों का संग्रह करने में दक्ष बना लेंगे, तब हमारे चित्त पर केवल सदविचारों की ही लकीरें गहरी पड़ेंगी। फिर हम यदि यही सदअभ्यास दुहराते रहेंगे तो हमारा चरित्र अच्छा बने बिना नहीं रहेगा ! इसलिये स्वयं का और दूसरों का कल्याण के लिए पहले अपना चरित्र अच्छा बनाना होगा। इसके लिये सही शिक्षा प्राप्त कर ('जब तक जीना तब तक सीखना ' जैसे अनुभव से शिक्षा प्राप्त करते हुए) हमें स्वयं अपना चरित्र गठित करना होगा। इसके लिये निरंतर अभ्यास आवश्यक है।
इस शिक्षा को ग्रहण करने के लिये बड़े- बड़े विद्यालय भवन की आवश्यकता नहीं है। घर पर हों या बाहर, दिन-रात अच्छी आदतों को अर्जित करने की शिक्षा प्राप्त करने से जीवन में असफलता नहीं आयेगी। हम स्वयं अपने जीवन को सुन्दर रूप में गढ़ेंगे और अपने देश-वासियों का कल्याण करने की क्षमता अर्जित करके, अपने जीवन को सार्थक बना सकेंगे।
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>>>गीता अध्याय-2 सांख्य योग: विश्लेषणात्मक ज्ञान का योग (sum of analytical knowledge) : जीवन के खेल में सफलता का रहस्य : (Secret of success in the game of life:)
यह सांख्ययोग वास्तव में ज्ञानयोग है। ज्ञानयोग को बुद्धियोग भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ पर बुद्धि का अर्थ है संख्या। अत: जिससे आत्मतत्त्व का दर्शन हो वह सांख्ययोग है। आत्मा एवं शरीर दोनों पृथक्-पृथक् हैं फिर भी अज्ञानी जन शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं, अत: शरीर के नाश होने से आत्मा के नाश का ज्ञान कर लेते हैं।
साभार https://www.holy-bhagavad-gita.org/chapter/2/hi]
[🔆🙏"शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। और धर्म का अर्थ उस दिव्यता को व्यक्त करना है जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है। " -स्वामी विवेकानन्द।
"शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं , यह भी नहीं। जिस मनःसंयोग के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , उसे शिक्षा कहते हैं। "]
🔆🙏दादा कहते थे - नेता को इन तीन बातों की पक्की धारणा रखनी होगी। ->>बुद्धि और विवेक का अंतर क्या है ? धर्म क्या है ?श्रद्धा क्या है? और मनुष्य जीवन सार्थक कैसे होता है ? जानो और बताओ !
>>1 आज हमारे समाज में, संगठन में यहाँ तक कि परिवार में भी जो असहनीय स्थिति पैदा हो गयी है, उसका कारण परस्पर विश्वास की कमी है; जो हमारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली से उत्पन्न हो गयी है। हमलोगों ने जो शिक्षा पाई है, उसी शिक्षा ने इस वर्तमान परिवेश का निर्माण किया है। इसका समाधान स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति -"Be and Make " है, जो भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आधारित है। अपना जीवन और चरित्र सुन्दर रूप से गठन करके हमलोग किस प्रकार अपना और दूसरों का कल्याण करने में सक्षम "मनुष्य " बन सकते हैं। छात्रों को इसी का उपाय बता देना शिक्षा का अभीष्ट है। अर्थात C-IN-C नवनीदा~ C-C दीपक दा Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित और महामण्डल से चपरास प्राप्त "मनुष्य " क्रमशः कैसे बन सकते हैंऔर बना सकते हैं -प्रशिक्षणार्थियों को इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है! अर्थात पशु की अवस्था से, मनुष्य में और मनुष्य से देवमानव- (51 to 100 % निःस्वार्थी-जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) के रूप में क्रमशः कैसे विकसित हुआ जाता है -इसीका उपाय बता देना - स्वामी विवेकानन्द की शिक्षानीति में आधारित महामण्डल के छः दिवसीय -"गुरुगृह वास युवा प्रशिक्षण शिविर" का अभीष्ट है !]
>>>5. अच्छी आदतें अच्छे चरित्र का निर्माण क्यों करेंगी? Why good habits will form good character? कोई व्यक्ति किसी विशेष परिस्थिति में कैसा व्यवहार करेगा यह उसकी पुसनी आदतों या अन्तर्निहित प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। [अर्थात अच्छी आदतों का निर्माण करने से अच्छे चरित्र का निर्माण कैसे होगा ? कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में किस प्रकार का आचरण करेगा यह उसकी अन्तर्निहित प्रवृत्तियों (inherent tendencies) के पर निर्भर करेगा।]
(How a person will behave in a particular situation depends on his ingrained habits (inherent tendencies). 3H विकसित करने के 5 अच्छे अभ्यासों से अच्छी आदतें बनेंगी (सर्वमंगल की प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग आदि का पुनः-पुनः अभ्यास करने से अच्छी आदत बनेंगी), अच्छी आदतें पुरानी हो जाने से अच्छी प्रवृत्ति, और अच्छी प्रवृत्तियों के कुल समाहार को ही अच्छा चरित्र कहते हैं। विवेकानन्द कहते थे - " हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखो कि तुम क्या सोचते हो ? जो तुम सोचते हो, वो बन जाओगे। यदि तुम खुद को कमजोर सोचते हो, तुम कमजोर हो जाओगे, अगर खुद को ताकतवर सोचते हो, तुम ताकतवर हो जाओगे। एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो, उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है।]
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