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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

RRR🔱🙏परिच्छेद~117 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 🔱चक्रयुक्त शालिग्राम सपमूर्ण ब्रह्माण्ड के ईश्वर श्री विष्णु का प्रतिक है🔱महामण्डल- (शालीग्राम,C-IN-C) गुरु के भक्त युवा शिष्यों की सूची बनाओ🙏🔱🙏दर्शन के लिये मनःसंयोग का प्रशिक्षण अनिवार्य है 🔱🙏🔱🙏मन का अतिक्रमण करके समाधि में ब्रह्मज्ञान होता है🔱🙏 🙏आत्मा (spirit) को मन (अहं) के द्वारा नहीं आत्मा (spirit) के द्वारा ही जाना जाता है🔱🔱🙏 ईश्वरदर्शन के बाद उन्हें अपने घर में लाकर उनसे बात-चीत करो🔱🙏🙏"Be and Make वैदिक परम्परा" में प्रशिक्षित नेता विज्ञानी और भक्त होते हैं 🔱🙏 शारदा (शिक्षा की देवी), सरस्वती (माँ सारदा - ज्ञान की देवी) और वाग्देवी (वाणी की देवी)।'कोंहड़ा काटने वाले भैसूर जी' - अविवाहित वेदान्ती हरिबाबू ^ को उपदेश '- 'मैं' का भाव-'I-consciousness' दूर नहीं होता🔱🙏Repeat ,Roar and Revolt !*🔱🙏ब्रह्म और शक्ति अविभाज्य हैं 🔱🙏"RRR: "रौद्रम, रणम, रुधिरं", राइज़ रोर रिवोल्ट (2022)" - मेरे लिए "रिपीट रोर एंड रिवोल्ट" - का अर्थ है दिनांक 14 जुलाई, 1885 के 'वचनामृत' को बार-बार दुहराओ और देश-काल -निमित्त की सीमा का अतिक्रमण करो ! या देश, काल और निमित्त (माया) की सीमाओं को लांघ जाओ !श्रीश्री रथ-यात्रा के दिन बलराम के मकान में*'त्रिदवसीय कैम्प की रूप-रेखा' पूर्ण, छोटे नरेन्द्र, 'गोपाल की माँ'*"Be and Make" सूत्र से 'सह नौ भुनक्तु' दोनों की उन्नति होती है।* महामण्डल का आदर्शवाक्य- 'Be and Make ' और संघगीत : संगच्छध्वं'* 🙏पूर्ण का पुरुषोचित दिव्य स्वभाव 'ईश्वर तो मिल गये, अब किसलिए यहाँ रहा जाय ?'* बोधगया पीपल वृक्ष के नीचे दादा का ध्यान और अश्रुपात*रंजीत राय ने तपस्या की शक्ति से माँ भगवती को पुत्री रूप में पाया* नरेंद्र का विश्वास- माँ भगवती ही पुत्री -पुत्रवधु -स्त्री आदि रूप धारण करती हैं*विष्णु के अंशावतार पर चन्दन और तुलसीदल, शिव के अंशावतार पर विल्वपत्र*ईश्वर अनेक रूपों में दर्शन देते हैं-गोपाल की माँ उन्हें स्तनपान कराती थीं **पुरुष स्वभाव पूर्ण, नरेन्द्र आदि का बचपन से वैराग्य दृढ़ रहता है *

 परिच्छेद ११७.

CAR FESTIVAL AT BALARAM'S HOUSE

শ্রীশ্রীরথযাত্রা বলরাম-মন্দিরে

(१)

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

*श्रीश्री रथ-यात्रा के दिन बलराम के मकान में*

🔱🙏'त्रिदवसीय कैम्प की रूप-रेखा' पूर्ण, छोटे नरेन्द्र, 'गोपाल की माँ' 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण बलराम के बैठकखाने में भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । आज आषाढ़ को शुक्ला प्रतिपदा है, सोमवार, १३ जुलाई १८८५, सबेरे ९ बजे का समय होगा ।

कल रथ-यात्रा है । रथ-यात्रा के उपलक्ष्य में बलराम ने श्रीरामकृष्ण को आमन्त्रित किया है । उनके घर में श्रीजगन्नाथजी की नित्य सेवा हुआ करती है । एक छोटासा रथ भी है । रथ-यात्रा के दिन रथ बाहर के बरामदे में चलाया जायेगा ।

SRI RAMAKRISHNA was sitting in Balaram's drawing-room with the devotees. It was nine o'clock in the morning. Balaram was going to celebrate the Car Festival the following day. The Deity Jagannath1 was worshipped daily at his house. He had a small car which would be drawn along the verandah to celebrate the festival. The Master had been specially invited for the occasion.

শ্রীরামকৃষ্ণ বলরামের বাড়ির বৈঠকখানায় ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। (৩০শে আষাঢ়, ১২৯২) আষাঢ় শুক্লা প্রতিপদ, সোমবার, ১৩ই জুলাই, ১৮৮৫, বেলা ৯টা।কল্য শ্রীশ্রীরথযাত্রা। রথে বলরাম ঠাকুরকে নিমন্ত্রণ করিয়া +আনিয়াছেন। বাড়িতে শ্রীশ্রীজগন্নাথ-বিগ্রহের নিত্য সেবা হয়। একখানি ছোট রথও আছে, — রথের দিন রথ বাহিরের বারান্দায় টানা হইবে।

श्रीरामकृष्ण मास्टर के साथ बातचीत कर रहे हैं । पास ही नारायण, तेजचन्द्र तथा अन्य दूसरे भक्त भी हैं । पूर्ण के सम्बन्ध में बातचीत हो रही हैं । पूर्ण की उम्र पन्द्रह साल की होगी । श्रीरामकृष्ण उन्हें देखने के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं ।

Sri Ramakrishna and M. were talking together. Narayan, Tejchandra, Balaram, and other devotees were in the room. The Master was talking about Purna, a lad of fifteen. He was very eager to see the boy.

ঠাকুর মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন। কাছে নারাণ, তেজচন্দ্র, বলরাম ও অন্যান্য অনেক ভক্তেরা। পূর্ণ সম্বন্ধে কথা হইতেছে। পূর্ণের বয়স পনর হইবে। ঠাকুর মাস্টারের সহিত কথা কহিতেছেন। কাছে নারাণ, তেজচন্দ্র, বলরাম ও অন্যান্য অনেক ভক্তেরা। পূর্ণ সম্বন্ধে কথা হইতেছে। পূর্ণের বয়স পনর হইবে। ঠাকুর তাঁহাকে দেখিবার জন্য ব্যাকুল হইয়াছেন।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - अच्छा, वह किस रास्ते से आकर मिलेगा ? द्विज और पूर्ण के मिला देने का भार तुम्हीं पर रहा ।

MASTER (to M.): "Well, by which road will he come to see me? Please have Purna and Dwija meet each other.

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, সে (পূর্ণ) কোন পথ দিয়ে এসে দেখা করবে? — দ্বিজকে ও পূর্ণকে তুমিই মিলিয়ে দিও।

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏"Be and Make" सूत्र से 'सह नौ भुनक्तु' दोनों की उन्नति होती है।🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - एक ही प्रकृति तथा एक ही उम्र के आदमियों को मैं मिला दिया करता हूँ । इसका एक विशेष अर्थ है। इससे ('Be and Make' -Formula का पालन करने से)- 'सह नौ भुनक्तु' दोनों की उन्नति होती है । पूर्ण में कैसा अनुराग है, तुमने देखा ?"

"When two people are of the same age and have the same inner nature, I bring them together. There is a meaning in this. In this way both make progress. Have you noticed Purna's longing for God?"

“এক সত্তার আর এক বয়সের লোক, আমি মিলিয়ে দিই। এর মানে আছে। দুজনেরই উন্নতি হয়। পূর্ণর কেমন অনুরাগ দেখেছ।”

मास्टर - जी हाँ, मैं ट्राम पर जा रहा था, छत से मुझे देखकर दौड़ा हुआ आया और व्याकुल होकर वहीं से उसने नमस्कार किया ।

M: "Yes, sir. One day I was riding on a tram. He saw me from the roof of his house and ran down to the street. With great fervour he saluted me from the street."

মাস্টার — আজ্ঞা হাঁ, আমি ট্রামে করে যাচ্ছি, ছাদ থেকে আমাকে দেখে, রাস্তার দিকে দৌড়ে এল, — আর ব্যাকুল হয়ে সেইখান থেকেই নমস্কার করলে।

श्रीरामकृष्ण (अश्रुपूर्ण नेत्रों से) अहाहा ! मतलब यह कि तुमने परमार्थ लाभ (Summum bonum-निःश्रेयस्- लाभ) के लिए उसका मेरे साथ संयोग करा दिया है । ईश्वर के लिए व्याकुल हुए बिना ऐसा नहीं होता ।

MASTER (with tears in his eyes): "Ah! Ah! It is because you have helped him make the contact through which he will find out the supreme ideal of his life. One doesn't act like that unless one longs for God.

শ্রীরামকৃষ্ণ (সাশ্রুনয়নে) — আহা! আহা! — কি না ইনি আমার পরমার্থের (পরমার্থলাভের জন্য) সংযোগ করে দিয়েছেন। ঈশ্বরের জন্য ব্যাকুল না হলে এইরূপ হয় না।

[>>>Mahamandal's Motto and Anthem : महामण्डल का आदर्शवाक्य- 'Be and Make ' और संघगीत :   

संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।

देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।

अर्थात- हम सब एक साथ चलें; एक साथ बोलें; हमारे मन एक हों। प्राचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं।

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्वि नावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:।।

अर्थ : ॐ =हे परमात्मन् ! 'सह नौ भुनक्तु ' - आप हम दोनों (गुरू और शिष्य) की साथ- साथ रक्षा करें , हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ (वीर्य) शक्ति प्राप्त करें, 'तेजस्वि नौ अवधीतम् अस्तु' = हमारी पढ़ी हुई विद्या तेजप्रद हो, हम दोनों (गुरु और शिष्य) परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें।

 'Be and Make '100% निःस्वार्थता की प्राप्ति की ओर एक साथ विकसित होने का सूत्र है!' 'Be and Make ' is formula for simultaneous development towards attainment of 100 % unselfishness! 'বি অ্যান্ড মেক' একই সাথে (নিঃস্বার্থ) মানবতার বিকাশের সূত্র !नेता (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण-) पहली भेंट में ही भावी नेता (नरेन्द्र-CINC नवनीदा) को मनुष्य जीवन का परमार्थ और प्राप्ति का उपाय (निःश्रेयस् लाभ का उपाय)'श्रद्धा और विवेक' का मर्म (निःस्वार्थपरता) की ओर विकसित होने का सूत्र बतला देते हैं !  मनुष्य जीवन को सार्थक करने की पद्धति- "गुरु-गृहवास वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  '3H' विकास के 5 अभ्यास की पद्धति- 'Be and Make' को सीखना और सिखाना एक साथ करते रहने को निःश्रेयस्, परमार्थ, परम शुभ, परम हित भी कहते हैं।  सर्वोच्च कल्याण की वस्तु है -उस 'ह्रदय का विकास' - जिसमें चरित्र के सभी 24 गुण (नैतिक मूल्य) अन्तर्निहित  हैं ! अथवा जहाँ से वे अभिव्यक्त होते हैं,व्युत्पन्न होते हैं या धातु के रूप में निकलते हैं ? अर्थात्, कार्यों का लक्ष्य, जिसका यदि निरंतर पालन किया जाए, तो वह सर्वोत्तम कल्याणमय  जीवन की ओर ले जाएगा। (Summum bonum : the highest good, especially as the ultimate goal according to which values and priorities are established in an ethical system.) जिसे समझने में 40 वर्ष लग जाते हैं। परमार्थ 'Summum bonum' is a Latin expression meaning the highest or ultimate good ! 'सममम बोनम' एक लैटिन भावाभिव्यक्ति (expression-ईशारा) है जिसका अर्थ वह उच्चतम या परम कल्याण है, जिससे अधिक श्रेयस्कर लक्ष्य और कुछ हो ही नहीं सकता। (the supreme good in which all 24 Qualities of Character (moral values) are included or from which they are derived. that is, the aim of actions, which, if consistently pursued, will lead to the best possible life.)पाश्चात्य परम्परा में "Summum bonum" का सिद्धान्त रोमन दार्शनिक सिसरो (Cicero) ने प्रतिपादित किया था।  भारतीय दर्शन और परम्परा में इसे निःश्रेयस्, परमार्थ, परम शुभ, परम हित भी कहते हैं।['सममम बोनम' मनुष्य जीवन का वह सर्वोच्च नैतिक लक्ष्य, जो मानवीय प्रयत्न (पुरुषार्थ) का सबसे बड़ा साध्य है, जिससे अधिक श्रेयस्कर लक्ष्य और कुछ हो ही नहीं सकता। विभिन्न विचारकों ने सुख, शक्ति,आत्म-साक्षात्कार  (मोक्ष), इत्यादि विभिन्न मूल्यों को सर्वोच्च साध्य माना है।]

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

"Womanly nature and Manly-divine nature "

🙏पूर्ण का पुरुषोचित दिव्य स्वभाव 'ईश्वर तो मिल गये, अब किसलिए यहाँ रहा जाय ?'🙏

[পূর্ণের পুরুষত্তা, দৈবস্বভাব, — তপস্যার জোরে নারায়ণ সন্তান ]

"नरेन्द्र, छोटा नरेन्द्र और पूर्ण, इन तीनों की सत्ता पुरुष-सत्ता (विष्णु-शिव) है । भवनाथ में यह बात नहीं - उसके स्वभाव में जनानापन है, प्रकृति भाव है ।

"Narendra, the younger Naren, and Purna — these three have a manly nature. It is not so with Bhavanath. He has a womanly nature.

“এ তিনজনের পুরুষসত্তা — নরেন্দ্র, ছোট নরেন আর পূর্ণ। ভবনাথের নয় — ওর মেদী ভাব (প্রকৃতিভাব)

"पूर्ण की जैसी अवस्था है, इससे बहुत सम्भव है, उसकी देह का नाश बहुत जल्द हो जाय - इस विचार से कि ईश्वर तो मिल गये, अब किसलिए यहाँ रहा जाय ? – या यह भी सम्भव है कि थोड़े ही दिनों में वह बड़े जोरों की बाढ़ बढ़ेगा ।

"Purna is in such an exalted state that either he will very soon give up his body — the body is useless after the realization of God — or his inner nature will within a few days burst forth.

“পূর্ণর যে অবস্থা, এতে হয় শীঘ্র দেহনাশ হবে — ঈশ্বরলাভ হল, আর কেন; — বা কিছুদিনের মধ্যে তেড়েফুঁড়ে বেরুবে।

"उसका है देव-स्वभाव - देवता की प्रकृति । इससे लोकभय कम रहता है । अगर गले में माला डाल दी जाय या देह में चन्दन लगा दिया जाय अथवा धूप-धूना जलाया आय, तो उस प्रकृतिवाले को समाधि हो जाती है । - 'उसे' जान पड़ता है, हृदय में नारायण हैं - वे ही देहधारण करके आये हुए हैं । 'मुझे ' इसका ज्ञान हो गया है

"He has a divine nature — the traits of a god. It makes a person less fearful of men. If you put a garland of flowers round his neck or smear his body with sandal-paste or burn incense before him, he will go into samadhi; for then he will know beyond the shadow of a doubt that Narayana Himself dwells in his body, that it is Narayana who has assumed the body. 'I' have come to know about it.

“দৈবস্বভাব — দেবতার প্রকৃতি। এতে লোকভয় কম থাকে। যদি গলায় মালা, গায়ে চন্দন, ধূপধুনার গন্ধ দেওয়া যায়; তাহলে সমাধি হয়ে যায়! — ঠিক বোধ হয়ে যায় যে, অন্তরে নারায়ণ আছেন — নারায়ণ দেহধারণ করে এসেছেন। "আমি" টের পেয়েছি।”

[🔱🙏14.4.1992 , बनारस , ऊँच का अनुभव : जिसका पुरुषोचित या दिव्य स्वभाव होता है , उस प्रकृति वाले को लोकभय कम रहता है, इसीलिए प्रथम कैम्प में 'वीर सेनापति' सुनते ही और ऊँच, बनारस में 'चिदानन्द रूपः शिवोऽहं' सुनते ही समाधि हो जाती है। - 'उसे' जान पड़ता है, हृदय में नारायण ऋषि (विवेकानन्द) हैं - और उसे सन्देह की छाया से परे -'beyond the shadow of a doubt' जान पड़ता है कि वे (विवेकानन्द) ही इस देह को धारण करके आये हुए हैं । और 'मुझे ' इसका ज्ञान हो गया है । तब प्रेममय नवनीदा शंका हरण करते हुए कहते  - तुमने नहीं आत्मा ने सच्चिदानन्द का अनुभव किया था !! "मैं केवल अंश नहीं कला हूँ, A part of the divine incarnation. दिव्य अवतार का एक अंश हूँ" जिसको पूर्ण का अनुभव हुआ था ?]

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏बोधगया पीपल वृक्ष के नीचे दादा का ध्यान और अश्रुपात🔱🙏 

[सुलक्षणा ब्राह्मणी की समाधि ]

(সুলক্ষণা ব্রাহ্মণির সমাধি ) 

"दक्षिणेश्वर में पहले-पहल जब मेरी यह अवस्था हुई, तब कुछ दिनों के बाद एक भले ब्राह्मण-घर की लड़की आयी थी । वह बड़ी सुलक्षणी थी । ज्योंही उसके गले में माला डाली और धूप-धूना दिया, त्योंही वह समाधिमग्न हो गयी । कुछ देर बाद उसे आनन्द मिलने लगा - और आँखों से अश्रुधारा बह चली । तब मैंने प्रणाम करके पूछा, 'माँ, क्या मुझे भी लाभ होगा ?' उसने कहा, 'हाँ।'

"A few days after my first experience of the God-intoxicated state at Dakshineswar, a lady of a brahmin family arrived there. She had many good traits. No sooner was a garland put round her neck and incense burnt before her than she went into samadhi. A few moments later she experienced great bliss; tears streamed from her eyes. I saluted her and said, 'Mother, shall I succeed?' 'Yes', she replied.

“দক্ষিণেশ্বরে যখন আমার প্রথম এইরুপ অবস্থা হল, কিছুদিন পরে একটি ভদ্রঘরে বামুনের মেয়ে এসেছিল। বড় সুলক্ষণা। যাই গলায় মালা আর ধূপধুনা দেওয়া হল অমনি সমাধিস্থ। কিছুক্ষণ পরে আনন্দ, — আর ধারা পড়তে লাগল। আমি তখন প্রণাম করে বললুম, ‘মা, আমার হবে?’ তা বললে, ‘হাঁ!’ 

"पूर्ण को एक बार और देखने की इच्छा है । परन्तु देखने की सुविधा कहाँ ?

"I want to see Purna once more. But how will it be possible for me?

তবে পূর্ণকে আর একবার দেখা। তা দেখবার সুবিধা কই?

“जान पड़ता है कला है । कैसा आश्चर्यजनक ! केवल अंश नहीं, कला है (दिव्य अवतार का एक अंश।)!"कितना चतुर है ! - सुना है, लिखने-पढ़ने में भी बड़ा तेज है । - तब तो मेरा अन्दाजा पूरा उतर गया ।

 It seems he is a part. (A part of the Divine Incarnation.) How amazing! Not a mere particle, but a part. Very intelligent, too. I understand that he is very clever in his studies. Therefore I have hit it right.

“কলা বলে বোধ হয়। কি আশ্চর্য অংশ শুধু নয়, কলা!“কি চতুর! — পড়াতে নাকি খুব। — তবে তো ঠিক ঠাওরেছি!

 [ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

 [ तपस्या के बल पर नारायण सन्तान बनते हैं ]

🔱🙏रंजीत राय ने तपस्या की शक्ति से माँ भगवती को पुत्री रूप में पाया 🔱🙏 

(রণজিতের ভগবতী কন্যা)

"तपस्या के प्रभाव से नारायण भी सन्तान होकर जन्म लेते हैं । कामारपुकुर के रास्ते में एक तालाब पड़ता है, नाम है रणजित राय का तालाबरणजित राय के यहाँ भगवती ने कन्या होकर जन्म लिया था । अब भी चैत के महीने में वहाँ मेला लगता है । जाने की मेरी बड़ी इच्छा होती है, परन्तु अब नहीं जाया जाता ।

"By dint of austerity, a man may obtain God as his son. By the roadside on the way to Kamarpukur is Ranjit Raya's lake. Bhagavati, the Divine Mother, was born as his daughter. Even now people hold an annual festival there in the month of Chaitra, in honour of this divine daughter. I feel very much like going there.

“তপস্যার জোরে নারায়ণ সন্তান হয়ে জন্মগ্রহণ করেন। ও-দেশে যাবার রাস্তায় রণজিত রায়ের দীঘি আছে। রণজিত রায়ের ঘরে ভগবতী কন্যা হয়ে জন্মেছিলেন। এখনও চৈত্রমাসে মেলা হয়। আমার বড় যাবার ইচ্ছা হয়! — আর এখন হয় না।

"रणजित राय वहाँ का जमींदार था । तपस्या के प्रभाव से उसने भगवती को कन्या के रूप में पाया था । कन्या पर उसका बड़ा स्नेह था । उसी स्नेह के कारण वह अपने पिता का संग नहीं छोड़ती थी ।

"Ranjit Raya was the landlord of that part of the country. Through the power of his tapasya he obtained the Divine Mother as his daughter. He was very fond of her, and she too was much attached to him; she hardly left his presence. 

“রণজিত রায় ওখানকার জমিদার ছিল। তপস্যার জোরে তাঁকে কন্যারূপে পেয়েছিল। মেয়েটিকে বড়ই স্নেহ করে। সেই স্নেহের গুণে তিনি আটকে ছিলেন, বাপের কাছ ছাড়া প্রায় হতেন না। 

 एक दिन रणजित अपनी जमींदारी का काम कर रहा था, फुरसत नहीं थी । लड़की, बच्चों का स्वभाव जैसा होता है, बार बार पूछ रही थी - 'बाबूजी, यह क्या है ? - वह क्या है ?' पिता ने बड़े मधुर स्वर से कहा, 'बेटी, अभी जाओ, बड़ा काम है ।' पर लड़की वहाँ से किसी तरह नहीं टली । अन्त में ध्यानरहित हो उसके बाप ने कहा, 'तू यहाँ से दूर हो जा ।'

One day Ranjit Raya was engaged in the duties of his estate. He was very busy. The girl, with her childlike nature, was constantly interrupting him, saying: 'Father, what is this? What is that?' Ranjit Raya tried, with sweet words, to persuade her not to disturb him, and said: 'My child, please leave me alone. I have much work to do.' But the girl would not go away. At last, absent-mindedly, the father said, 'Get out of here!'

একদিন সে জমিদারির কাজ করছে, ভারী ব্যস্ত; মেয়েটি ছেলের স্বভাবে কেবল বলছে, ‘বাবা, এটা কি; ওটা কি।’ বাপ অনেক মিষ্টি করে বললে — ‘মা, এখন যাও, বড় কাজ পড়েছে।’ মেয়ে কোনমতে যায় না। শেষে বাপ অন্যমনস্ক হয়ে বললে, ‘তুই এখান থেকে দূর হ’। 

कन्या वहाँ से चली आयी । उसी समय एक शंख की चूड़ियाँ बेचनेवाला वहाँ से जा रहा था । उसे बुलाकर उसने शंख की चूड़ियाँ पहनीं । दाम देने की बात पर उसने कहा, 'घर की अमुक अलमारी की बगल में रुपये रखे हैं, माँग लेना ।' और यह कहकर वहाँ से चली गयी, फिर नहीं दीख पड़ी । 

 On this pretext she left home. A pedlar of conch-shell articles was going along the road. From him she took a pair of bracelets for her wrists. When he asked tor the price, she said that he could get the money from a certain box in her home. Then she disappeared. Nobody saw her again. 

মা তখন এই ছুতো করে বাড়ি থেকে চলে গেলেন। সেই সময় একজন শাঁখারী রাস্তা দিয়ে যাচ্ছিল। তাকে ডেকে শাঁখা পরা হল। দাম দেবার কথায় বললেন, ঘরের অমুক কুলুঙ্গিতে টাকা আছে, লবে। এই বলে সেখান থেকে চলে গেলেন, আর দেখা গেল না। 

उधर घर में चूड़ीवाला पुकार रहा था । तब लड़की को घर में न देख, सब इधर-उधर दौड़ पड़े । रणजित राय ने खोज करने के लिए जगह-जगह आदमी भेजे । चुड़ीवाले का रुपया उसी जगह मिला । रणजित राय रोते हुए घूम रहे थे, इतने में ही किसी ने कहा, 'तालाब में कुछ दीख पड़ता है ।'

In the mean time the pedlar came to the house and asked for the price of his bracelets. When she was not to be found at home, her relatives began to run about looking for her. Ranjit Raya sent people in all directions to search for her. The money owed to the pedlar was found in the box, as she had indicated. Ranjit Raya was weeping bitterly, when people came running to him and said that they had noticed something in the lake. 

এদিকে শাঁখারী টাকার জন্য ডাকাডাকি করছে। তখন মেয়ে বাড়িতে নাই দেখে সকলে ছুটে এল। রণজিত রায় নানাস্থানে লোক পাঠালে সন্ধান করবার জন্য। শাঁখারীর টাকা সেই কুলুঙ্গিতে পাওয়া গেল। রণজিত রায় কেঁদে কেঁদে বেড়াচ্ছেন, এমন সময় লোকজন এসে বললে, যে, দীঘিতে কি দেখা যাচ্ছে। 

  [ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🙏नरेंद्र का विश्वास- माँ भगवती ही पुत्री -पुत्रवधु -स्त्री आदि रूप धारण करती हैं🙏 

लोगों ने उसके किनारे पर खड़े होकर देखा, एक हाथ जिसमें वही शंख की चूड़ियाँ थीं, पानी के ऊपर उठा हुआ था । फिर वह हाथ भी न दीख पड़ा । अब भी मेले के समय भगवती की पूजा होती है, - वारुणी ^* के दिन । (मास्टर से) यह सब सत्य है ।"

They all ran there and saw an arm, with conch-shell bracelets on the wrist, being waved above the water. A moment afterwards it disappeared. Even now people worship her as the Divine Mother at the time of the annual festival. (To M.) All this is true."

সকলে দীঘির ধারে গিয়ে দেখে যে শাঁখাপরা হাতটি জলের উপর তুলেছেন। তারপর আর দেখা গেল না। এখনও ভগবতীর পূজা ওই মেলার সময় হয় — বারুণীর দিনে।(মাস্টারকে) — “এ সব সত্য।”

मास्टर – जी हाँ ।

M: "Yes, sir."

মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ।

श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र अब यह सब मानता है ।

MASTER: "Narendra now believes these things.

শ্রীরামকৃষ্ণ — নরেন্দ্র এখন এ-সব বিশ্বাস করে।

[>>> वारुणी मेला  ^* आरामबाग से कामारपुकुर जाने के रास्ते में रणजित राय की दिघी (तालाब) : रंजीत राय इस इलाके के बड़े जमींदार थे, उनके पूर्वज  बुंदेलखंड से यहाँ आकर बस गए थे।  इस तालाब के तट पर बंगाली चैत्र के महीने में बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले को बरुनी (वारुणी) मेला के नाम से जाना जाता है। 


Dighi of Ranjit Rai of Dihi Bayra in Arambagh

      इस मेले से एक पौराणिक कथा जुड़ी हुई है। रंजीत राय एक बहुत ही नेक इंसान थे। एक बार देवी पार्वती ने उन्हें स्वप्न दिया। सपने में देवी ने जमींदार से कहा कि वे इस शर्त पर उनकी पुत्री के रूप में जन्म लेगी,  कि वे उसे कभी जाने के लिए नहीं कह सकते। जमींदार रणजीत राय उनकी शर्त पर सहमत हो गए, तब माँ भगवती ने उनकी पुत्री बनकर जन्म ग्रहण किया।

जब वे बड़ी हुई, तब उन्होंने अपने पिता से शंख की चूड़ियां और सिंदूर पहन कर मेले में जाने की अनुमति मांगी। लेकिन ये सब तो विवाहित महिलाओं के द्वारा पहने जाते हैं, यह सोचकर रणजीत राय ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी। किन्तु जब पुत्री रूपा माँ भगवती बार -बार शंख की चूड़ियां और सिंदूर पहन कर मेले में जाने की ज़िद करने लगीं, तब जमीन्दारी कार्यों में व्यस्त रणजीत राय इतना परेशान हो गये कि ( वे माँ भगवती को दिए अपने वचन को भूल गए - he was so pestered that he told her to go away.), और उन्हें वहाँ से जाने के लिए कह दिया। (अपने शर्त के अनुसार?) वे चली गयीं।       

   काफी समय बीत गया, लेकिन वे वापस नहीं आई। रंजीत राय अपनी पुत्री की खोज में इधर-उधर काफी दौड़धूप की लेकिन कहीं उनका संधान नहीं मिला। अन्त में जब वे तालाब के सामने पहुँचे, तब उन्होंने उसने देखा कि, तालाब के पानी के बीच उनके हाथ ऊपर उठे हुए थे , जिसमें उन्होंने  शंख की चूड़ियाँ पहन रखी हैं। तब रणजीत को याद आया कि उसकी बेटी स्वयं देवी पार्वती थी और फिर वे पश्चाताप करते हुए विलाप करने लगे। तालाब के किनारे माँ दुर्गा का एक नया मन्दिर निर्मित हुआ है।


>>>Dighi of Ranjit Rai of Dihi Bayra in Arambagh PS of Hooghly district: Ranjit Rai was a big landlord of this area. His forefathers arrived here from Bundelkhand. On the bank of this pond at big fair is organized in the Bengali month of Chaitra. The fair is known as Baruni Mela. There is a legend connected with this fair. Ranjit Rai was a very pious man. Once Goddess Parvati gave him a dream. In the dream the Goddess told the Zamindar that she would be born as his daughter on the condition that he could never ask her to go away. The Zamindar agreed and the Goddess was born as his daughter. When she grew up, she asked his father for permission to visit the fair and wear conch bangles and vermillion. These are worn by married women and Ranjit would not let her do that. When she requested many times, he was so pestered that he told her to go away. She went away. Time elapsed and she did not return. Ranjit ran helter skelter to look out for his daughter. When he appeared before the pond, he saw her hands in the midst of the pond and in her hand she had worn the conch bangles. Ranjit remembered that her daughter was Devi Parbati herself and mourned for the loss in a pitiful manner. A Durga temple has been newly constructed beside the pond.]

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

पूर्ण और नरेन्द्र 

🔱🙏विष्णु के अंशावतार पर चन्दन और तुलसीदल, शिव के अंशावतार पर विल्वपत्र🔱🙏     

"पूर्ण का जन्म विष्णु के अंश से है । मन ही मन बिल्व-पत्र से मैंने पूजा की – पूजा ठीक न हुई, तब चन्दन और तुलसीदल लिया । तब पूजा ठीक हुई ।

[^ बेलपत्ता : बेल-वृक्ष के पत्ते शिव को चढ़ाए जाते हैं, जबकि विष्णु को तुलसी-दल और चंदन का लेप चढ़ाया जाता है।^The leaves of the bel-tree are offered to Siva, whereas tulsi-leaves and sandal-paste are offered to Vishnu.

"Purna was born with an element of Vishnu. I worshipped him mentally with bel-leaves; but the offering was not accepted. Then I worshipped him with tulsi-leaves and sandal-paste.2 That proved to be all right.

“পূর্ণর বিষ্ণুর অংশে জন্ম। মানসে বিল্বপত্র দিয়ে পূজা করলুম, তা হল না; — তুলসী-চন্দন দিলাম, তখন হল!

[^* पूर्ण (Sri Purnachandra Ghosh (1871 - 1913) - उनका जन्म कोलकाता के सिमुलिया में हुआ था । श्रीरामकृष्णदेव से उनकी प्रथम भेंट मार्च 1885 ई. में हुई थी। श्रीश्रीठाकुर ने उन्हें गृहस्थ भक्तों में ईश्वरकोटि के रूप में चिन्हित किया था। मास्टर महाशय द्वारा अनुप्रेरित होकर बहुत कम उम्र में ही दक्षिणेश्वर में ठाकुरदेव के सम्पर्क में आ गए थे। उनके पिता राय बहादुर दीनानाथ घोष उच्चपदस्थ सरकारी कर्मचारी थे। ठाकुर ने पूर्ण से कहा था कि जब कभी उनको सुविधा हो वे ठाकुरदेव के पास आ सकते हैं। श्रीश्री ठाकुर देव कहते थे कि पूर्ण चंद्र का जन्म 'विष्णु के अंश से' हुआ था, और 'श्रीठाकुर युवा महामण्डल' में उनके सम्मिलित होने के बाद ईश्वरकोटि के चिन्हित भक्तों (निर्विकल्प समाधि से पुनः शरीर में लौट आने वाले नेता वर्ग के शिक्षक) का आगमन पूर्ण हो गया था। [শ্রীশ্রীঠাকুর বলিয়াছিলেন পূর্ণচন্দ্রের ‘বিষ্ণুর অংশে জন্ম’ এবং তাঁহার আগমনে ওই শ্রেণীর ভক্তদের আগমন পূর্ণ হইল।] हालाँकि ऊपर से देखने पर वे सरकारी काम-काज में लगे हुए प्रतीत होते थे, लेकिन भीतर ही भीतर वे श्री श्री ठाकुरदेव की शिक्षाओंऔर विचारों में तल्लीन रहते थे। स्वामीजी के प्रति उनका गहरा लगाव था। स्वामीजी की भक्त मैडम काल्वे जब कलकत्ता आईं तो विवेकानंद सोसाइटी की ओर से, उसके  सचिव के रूप में उनका स्वागत किया था। 42 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया था ]

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

(गोपाल की माँ का प्रकृतिभाव और रूपदर्शन) 

[গোপালের মার প্রকৃতিভাব ও রূপদর্শন— মাই খায়! — কথা কয়! ] 

🔱🙏ईश्वर अनेक रूपों में दर्शन देते हैं-गोपाल की माँ उन्हें स्तनपान कराती थीं 🔱🙏 

"वे अनेक रूपों से दर्शन देते हैं । कभी नररूप से, कभी चिन्मय ईश्वर के रूप से रूप मानना चाहिए - क्यों जी ?"

 God reveals Himself in many ways: sometimes as man, sometimes in other divine forms made or Spirit. One must believe in divine forms. What do you say?"

“তিনি নানারূপে দর্শন দেন। কখন নররূপে, কখন চিন্ময় ঈশ্বরীয় রূপে। রূপ মানতে হয়। কি বল?”

मास्टर - जी हाँ ।

M: "It is true, sir."

মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ!

श्रीरामकृष्ण - कामारहाटी की ब्राह्मणी (गोपाल की माँ ^*) तरह तरह के रूप देखती है; गंगा के किनारे, एक निर्जन कुटिया में अकेली रहती है और जप किया करती है । गोपाल के पास सोती है। (कहते ही कहते श्रीरामकृष्ण चौंके) कल्पना में नहीं, साक्षात् । उसने देखा, गोपाल के हाथ लाल हो रहे हैं ! गोपाल उसके साथ साथ घूमते हैं ! - उसका स्तनपान करते हैं ! - बातचीत करते हैं । जब नरेन्द्र ने यह सब सुना, वह रोने लगा !

MASTER: "The brahmani of Kamarhati ^* sees many visions. She lives all by herself in a lonely room in a garden on the bank of the Ganges. She spends her time in japa. Gopala (The Baby Krishna.) sleeps with her. (The Master gives a start.) It is not imagination, but fact. She saw that Gopala's palms were red. He walks with her. She suckles Him at her breast. They talk to each other. When Narendra heard the story he wept.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কামারহাটির বামনী (গোপালের মা) কত কি দেখে! একলাটি গঙ্গার ধারে একটি বাগানে নির্জন ঘরে থাকে, আর জপ করে। গোপাল কাছে শোয়! (বলিতে বলিতে ঠাকুর চমকিত হইলেন)। কল্পনায় নয়, সাক্ষাৎ! দেখলে গোপালের হাত রাঙা! সঙ্গে সঙ্গে বেড়ায়! — মাই খায়! — কথা কয়! নরেন্দ্র শুনে কাঁদলে!

[गोपाल की मां - (अघोरमणि देवी : 1822 - 1906) - का जन्म 24 परगना जिले के कमरहाटी में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम काशीनाथ घोषाल था। नौ-दस वर्ष की आयु में ही उनका विवाह हो गया था। कम उम्र में नि:संतान विधवा होने के बाद, उनके कुलगुरु ने उनको 'गोपाल मंत्र की दीक्षा ' दी थी। तब से वे मुंडित मस्तक साधिका (संन्यासिनी) की अवस्था में कामारहाटि ग्राम के 'दत्त लोगों की ठाकुर बाड़ी' में रहा करतीं थीं।   1852 ई. से 30 वर्षों तक निरन्तर जप-तप की साधना से वे साधिका से सिद्धा बन गयीं थीं।श्री श्री रामकृष्ण परमहंसदेव से उनकी भेंट सर्वप्रथम 1884 ई० में हुई थी। एक दीन देर रात्रि में जप करते समय अघोरमणि को आचानक श्रीरामकृष्ण का दर्शन प्राप्त हुआ, और जैसे ही उन्होंने उनके हाथ को पकड़ा, उनके स्थान पर गोपाल जैसे बालक मूर्ति का दर्शन हुआ। इसके बाद वे कई बार दक्षिणेश्वर पहुँचकर ठाकुरदेव का दर्शन करती थीं। उनको ठाकुर देव के भीतर गोपाल मूर्ति का दर्शन होता था। श्री श्री ठाकुर भी उन्हें माँ यशोदा के रूप में सम्मान देते थे। तभी से उन्हें 'गोपाल की माँ' कहा जाने लगा। अघोरमणि सिस्टर निवेदिता को 'नरेन की बेटी' कहकर बुलाती थीं। उनके अंतिम दिनों में  निवेदिता ने उनकी खूब सेवा की थी।]

श्रीरामकृष्ण - "पहले मैं भी बहुत कुछ देखा करता था । इस समय भाव में उतना दर्शन नहीं होता। अब प्रकृति-भाव घट रहा है । पुरुष-भाव आ रहा है । इसीलिए अन्तर में ही भाव रहता है, बाहर उतना प्रकाश नहीं हो पाता ।

 Formerly I too used to see many visions, but now in my ecstatic state I don't see so many. I am gradually getting over my feminine nature; I feel nowadays more like a man. Therefore I control my emotion; I don't manifest it outwardly so much.

“আমি আগে অনেক দেখতুম। এখন আর ভাবে তত দর্শন হয় না। এখন প্রকৃতিভাব কম পড়ছে। বেটাছেলের ভাব আসছে। তাই ভাব অন্তরে, বাহিরে তত প্রকাশ নাই।

"छोटे नरेन्द्र का पुरुष-भाव है, - इसीलिए मन लीन हो जाया करता है । भावादि नहीं होते । नित्यगोपाल का प्रकृति-भाव है; इसीलिए टेढ़ा-मेढ़ा बना रहता है - भावावेश में शरीर लाल हो जाता है ।"

"The younger Naren has the nature of a man. Therefore in meditation his mind completely merges in the Ideal. He does not show emotion. Nityagopal has a feminine nature. Therefore while he is in a spiritual mood his body becomes distorted and twisted; it becomes flushed.

“ছোট নরেনের পুরুষভাব, — তাই মন লীন হয়ে যায়। ভাবাদি নাই। নিত্যগোপালের প্রকৃতিভাব। তাই খ্যাঁচা ম্যাঁচা; — ভাবে তার শরীর লাল হয়ে যায়।”

[नित्यगोपाल बसु (उर्फ़ ज्ञानानन्द अवधूत' 1855 - 1911)] - नित्यगोपाल जी श्री रामकृष्ण के एक स्नेहपात्र भक्त थे। वे रामचंद्र और मनमोहन मित्रा के मौसरे भाई थे। तुलसीचरण दत्त (बाद में स्वामी निर्मलानन्द) नित्यगोपाल के भगिना थे। अहिरीटोला ' कलकत्ता के प्रसिद्ध बसु वंश की सन्तान थे। उनके पिता का नाम जनमेजय और माता का नाम गौरी देवी था। नित्यगोपाल कभी अकेले तो कभी रामचंद्र के साथ ठाकूर देव का दर्शन करने दक्षिणेश्वर जाया करते थे।वह सदैव ईश्वर प्रेम में लीन रहते थे। श्री रामकृष्ण ने उनकी आध्यात्मिक अवस्था को देखकर उनसे बहुत प्रेम करते थे। उनकी अवस्था को 'परमहंस अवस्था' कहते थे। ठाकुरदेव कहते थे कि नित्यगोपाल को बिना कोई विशेष साधना किये ही उनको आध्यात्मिक अनूभूति प्राप्त हो गयी थी। नित्यगोपाल का यह भाव गुरु-शिष्य परम्परा के अनुकूल नहीं था, इसीलिए ठाकुर अपने अन्य भक्तों को उसके साथ मेलजोल रखने से मना करते थे।  वह कहा करते थे, “ওর ভাব আলাদা, ও এখানকার লোক নয়।”- उसका भाव अलग प्रकार का है, वह महामण्डल के भाव (समाज -सेवा जीवन का उद्देश्य नहीं,ह्रदय को बड़ा करने का उपाय है- इस भाव से) से भावित नहीं है। '' ठाकुरदेव के देहत्याग करने के बाद उनके 'अस्थिकलश' (आत्मराम की डिबिया) को काँकुरगाछि के योगोद्यान मठ में रखा गया था, तब नित्यगोपाल पांच- छह महीने तक प्रतिदिन ठाकुर की पूजा किया करते थे। उस समय नित्यगोपाल दिन का अधिकांश समय ध्यान में व्यतीत करते थे। उन्होंने 'ज्ञानानन्द  अवधूत' नाम अपना लिया था और 113 रासबिहारी एवेन्यू में ' महानिर्वाण मठ' की स्थापना की स्थापना की थी। पनिहाटी में उन्होंने एक अन्य मठ की स्थापना की थी जिसे 'कैवल्य मठ' कहा जाता है। उनके द्वारा लिखित 25 पुस्तकों में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद किया गया है।]

(२)

 [ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

*पुरुष स्वभाव पूर्ण, नरेन्द्र आदि का बचपन से वैराग्य दृढ़ रहता है *

কামিনী-কাঞ্চনত্যাগ ও পূর্ণাদি

[विनोद, द्विज, तारक, मोहित, तेजचंद्र, नारान, बलराम, अतुल]

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - अच्छा, आदमियों का त्याग तिल-तिल करके होता है, परन्तु इनकी (लड़कों की) कैसी अवस्था है ?

(To M.) "Well, people renounce grain by grain, but what a mood these youngsters are in!

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — আচ্ছা, লোকের তিল তিল করে ত্যাগ হয়, এদের কি অবস্থা।

"विनोद ने कहा, 'स्त्री के साथ सोना पड़ता है, मन को जरा भी नहीं रुचता ।""देखो, संग हो या न हो, एक साथ सोना भी बुरा है । देह का संघर्ष - देह की गरमी तो लगती ही है ।

"Binode said: 'I have to sleep with my wife. That makes me feel very bad.' It is bad for an aspirant to sleep with his wife, whether he has intercourse with her or not. There is the friction of the body and also the physical warmth.

“বিনোদ বললে, ‘স্ত্রীর সঙ্গে শুতে হয়, বড়ই মন খারাপ হয়।’“দেখো, সঙ্গ হউক আর নাই হউক, একসঙ্গে শোয়াও খারাপ। গায়ের ঘর্ষণ, গায়ের গরম!

[विनोद (विनोदविहारी सोम) - महेंद्रनाथ गुप्त के स्कूल के छात्र। अपने मित्रों के बीच वे 'पद्मविनोद' के नाम से जाने जाते थे। 1884 ई. में उन्होंने एक छात्र के रूप में श्री रामकृष्णदेव के दर्शन किए। बाद में, उन्होंने गिरीशचंद्र घोष के नाटकों में अभिनय किया था, लेकिन कुसंग में पड़कर शराबी बन गए थे । एक दिन, थिएटर से लौटते समय, रात में 'माँ-ऐर बाड़ी' (श्रीमाँ सारदा के निवास) के सामने, उन्होंने श्री माँ को प्रसन्न करने के लिए एक गीत गाकर उनका दर्शन प्राप्त किया था। इसके तुरंत बाद, वे बीमार पड़ गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया और उनका वहां निधन हो गया। अपनी मृत्यु से पहले, उन्होंने श्री म द्वारा कथित 'रामकृष्ण कथामृत' से एक पाठ सुनने की इच्छा व्यक्त की। जब उनकी अंतिम इच्छा पूरी हुई तो उन्होंने श्री रामकृष्ण के नाम का जप करते हुए अंतिम सांस ली। मुझे फणीश्वरनाथ रेणु का स्मरण क्यों हो आया ?]

"द्विज की कैसी अवस्था है ! बस देह हिलाता हुआ मेरी ओर देखता रहता है । यह क्या कम बात है ? सब मन सिमटकर अगर मुझमे आ गया तो समझो सब कुछ हो गया ।

"What a state Dwija is passing through! In my presence he only sways his body and fixes his glance on me. Is that a trifling thing? If a man gathers his whole mind and fixes it on me, then, indeed, he achieves everything.

“দ্বিজর কি অবস্থা! কেবল গা দোলায় আর আমার পানে তাকিয়ে থাকে, একি কম? সব মন কুড়িয়ে আমাতে এল, তাহলে তো সবই হল।”

 [ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏प्रेममय श्री रामकृष्ण परमहंसदेव [C-IN-C नवनीदा] क्या एक अवतार हैं?🔱🙏

[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ কি অবতার? ]

अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण - "मैं और क्या हूँ ? - (इस देह में?) वे ही हैं । मैं यन्त्र हूँ, वे यन्त्री हैं।"

"But what am I? It is all He. I am the machine and He is its Operator." 

“আমি আর কি? — তিনি। আমি যন্ত্র, তিনি যন্ত্রী। "

 "इसके (प्रेममय नवनीदा के शरीर के) भीतर ईश्वर की सत्ता है, इसीलिए आकर्षण इतना बढ़ रहा है, लोग खिंचे आते हैं । 

It is God alone who exists in this [meaning his body]. That is why so many people are feeling more and more attracted to it.

 এর (আমার) ভিতর ঈশ্বরের সত্তা রয়েছে! তাই এত লোকের আকর্ষণ বাড়ছে। 

"छूने से ही हो जाता है । वह आकर्षण ईश्वर का ही आकर्षण है ।"

[जानिबिघा से भूखे -प्यासे कैम्प पहुँचकर उनसे आशीर्वाद लेने का यह आकर्षण, उनके कमरे में जाने का खिंचाव -माँ काली का ही आकर्षण है, किसी और का नहीं !प्रेममय नवनीदा के स्पर्श मात्र से (सिर के पीछे ठोक देने से ही) अन्तर्निहित ब्रह्मत्व , दिव्यत्व या निःस्वार्थप्रेम, आध्यात्मिकता जाग्रत हो जाती है। ]     

 A mere touch is enough to awaken (heir spirituality). This attraction, this pull, is the attraction of God and of none else.

ছুঁয়ে দিলেই হয়! সে টান সে আকর্ষণ ঈশ্বরেরই আকষর্ণ।

“तारक (बेलघड़िया के) वहाँ से (दक्षिणेश्वर से) घर लौट रहा था । मैंने देखा, इसके (मेरे) भीतर से शिखा की तरह जलता हुआ कुछ निकल गया – उसके पीछे पीछे ।"कुछ दिनों बाद तारक फिर आया । तब समाधिस्थ होकर उसकी छाती पर पैर रख दिया – उन्होंने, जो इसके (मेरे) भीतर हैं।

"Tarak of Belgharia was going home from Dakshineswar. I clearly noticed that a flame-like thing came out of this [meaning his body] and followed him. A few days later Tarak came back to Dakshineswar. In a state of samadhi He who dwells in this body placed His foot on Tarak's chest.

“তারক (বেলঘরের) ওখান থেকে (দক্ষিণেশ্বর থেকে) বাড়ি ফিরে যাচ্ছে। দেখলাম, এর ভিতর থেকে শিখার ন্যায় জ্বল্‌ জ্বল্‌ করতে করতে কি বেরিয়ে গেল, — পেছু পেছু!“কয়েকদিন পরে তারক আবার এল (দক্ষিণেশ্বরে)। তখন সমাধিস্থ হয়ে তার বুকে পা দিলে — এর ভিতর যিনি আছেন।

"अच्छा, इन लड़कों की तरह (ऊँचे आधार वाले) क्या और लड़के है ?"

"Well, are there more youngsters like these?"

“আচ্ছা, এমন ছোকরাদের মতন আর কি ছোকরা আছে!”

*चिपटे नाक वाले नेता*  

मास्टर - मोहित अच्छा है । आपके पास दो-एक बार आया था । दो (उच्च डिग्री) परीक्षाओं के लिए तैयारी कर रहा है और ईश्वर पर अनुराग भी है ।

M: "Mohit is very nice. He came to you once or twice. He is studying enough books to pass two university examinations. He has great longing for God."

মাস্টার — মোহিতটি বেশ। আপনার কাছে দু-একবার গিয়েছিল। দুটো পাশের পড়া আছে, আর ঈশ্বরে খুব অনুরাগ।

[मोहित सेन (मोहितचंद्र सेन) - जयकृष्ण सेन के पुत्र थे । उन्होंने हेयर स्कूल, मेट्रोपॉलिटन कॉलेज और प्रेसीडेंसी कॉलेज में पढ़ाई की थी। वे केशव सेन के नव ब्रह्म समाज से समबन्ध  रखते थे। मोहित ने 1885 ई. में श्री रामकृष्ण के दर्शन किए। उन्हें धार्मिक विषयों में गहरी रूचि थी। वह एमए है।  कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया था  और विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापन किया था। 1899 में, उन्होंने सरकारी सेवा छोड़ दी और खुद को पूरी तरह से ब्रह्मसमाज के प्रचार के लिए समर्पित कर दिया। भगिनी निवेदिता से उनकी भेंट हुई थी और वे उनके ज्ञान की प्रशंसा करते थे।]

श्रीरामकृष्ण - यह हो सकता है, परन्तु इतना ऊंचा स्थान उसका (तारक,पूर्ण या नरेन्द्र जैसा ऊँचा आधार मोहित का ?) नहीं है । शरीर के लक्षण उतने अच्छे नहीं हैं - नाक-मुँह चिपटा है ।

MASTER: "That may be. But he doesn't belong to a high plane. His physical traits are not so good; he has a puggish face.

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা হতে পারে, তবে অত উঁচু ঘর নয়। শরীরের লক্ষণ তত ভাল নয়। মুখ থ্যাবড়ানো।

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏अवतार किस वासना से शरीर धारण कर आफतों में फँसना स्वीकार करते है ?🔱🙏

[To have a body is to fall into trouble !]

"यद्यपि इनका स्थान ऊँचा है । (पूर्ण और नरेन्द्र जैसे ईश्वरकोटि के भावी नेताओं/पैगम्बरों का आधार ऊँचा है ?) परन्तु शरीर-धारण करने से ही आफतों में पड़ना है । और शाप रहा तब तो सात बार जन्म लेना ही होगा । बड़ी सावधानी से रहना पड़ता है । वासनाओं के रहने से ही शरीर-धारण होता है।"

" These other youngsters (Would be Leaders?)  belong to a high plane. But Many troubles and worries follow in the wake of a birth in a physical body. Further, if a person is cursed, he may have to be born seven times. One must be very careful. One has to assume a human body it one cherishes the slightest desire."

“এদের উঁচুঘর। তবে শরীরধারণ করলেই বড় গোল। আবার শাপ হল তো সাতজন্ম আসতে হবে। বড় সাবধানে থাকতে হয়! বাসনা থাকলেই শরীরধারণ।”

[>>> सावधान ! तीनों ऐषणाओं में ज़रा-सी इच्छा भी बाकी रहे तो मनुष्य शरीर धारण करना ही पड़ता है।]

एक भक्त - जो अवतार हैं और देहधारण करके आये हैं, उनमें कौनसी वासना है ?

A DEVOTEE: "What are the desires of those who are Incarnations of God?"

একজন ভক্ত — যাঁরা অবতার দেহধারণ করে এসেছেন, তাঁদের কি বাসনা — ?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - मैंने देखा है, मेरी सब वासनाएँ नहीं गयीं । एक साधु का शाल (नवनी दा के कन्धे पर पड़ा सफ़ेद शाल ?) देखकर मेरी इच्छा हुई थी कि मैं भी इस तरह का शाल ओढूँ । अब भी है । कौन जाने, एक बार कहीं फिर न आना पड़े ।

MASTER (smiling): "I find that I have not got rid of all my desires. Once I saw a holy man with a shawl, and I too wanted to put on one like it. Even now I have that desire. I don't know whether I shall have to be born again for it."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — দেখেছি, আমার সব বাসনা যায় নাই। এক সাধুর আলোয়ান দেখে বাসনা হয়েছিল, ওইরকম পরি। এখনও আছে। জানি কিনা আর-একবার আসতে হবে।

बलराम (सहास्य) - आपका जन्म होगा 'शाल' के लिए ?

BALARAM (smiling): "Then will you be born again just for a shawl?" (All laugh.)

বলরাম (সহাস্যে) — আপনার জন্ম কি আলোয়ানের জন্য? (সকলের হাস্য)

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - एक 'अच्छी कामना' ^* रखनी चाहिए । उसी की चिन्ता करते हुए शरीर का त्याग हो, इसलिए । 

MASTER (smiling): "One has to keep a good desire so that one may give up the body meditating on it."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — একটা সৎ কামনা রাখতে হয়। ওই চিন্তা করতে করতে দেহত্যগ হবে বলে। 

साधु चार धामों में एक धाम बाकी रख छोड़ते हैं । बहुतेरे जगन्नाथक्षेत्र बाकी रखते हैं । इसलिए कि जगन्नाथ की चिन्ता करते हुए शरीर-पात हो ।

 There are four-holy places for the sadhus to visit. They visit three and leave out one. Many of them leave out Puri, the place of Jagannath, so that they can give up their bodies meditating on Jagannath."

সাধুরা চারধামের একধাম বাকী রাখে। অনেকে জগন্নাথক্ষেত্র বাকী রাখে। তাহলে জগন্নাথ চিন্তা করতে করতে শরীর যাবে।

गेरूआ पहने हुए एक व्यक्ति कमरे के भीतर आये और नमस्कार किया । ये भीतर ही भीतर श्रीरामकृष्ण की निन्दा किया करते हैं । इसीलिए बलराम हँस रहे हैं । श्रीरामकृष्ण अन्तर्यामी हैं, बलराम से कह रहे हैं - 'कोई चिन्ता नहीं, यदि वे मुझे ढोंगी कहते हैं तो कहने दो ।’

A man dressed in an ochre robe entered the room and greeted the Master. Privately he was in the habit of criticizing Sri Ramakrishna; so at the sight of him Balaram laughed. Sri Ramakrishna could read a man's mind. He said to Balaram: "Never mind. Let him say I am a cheat."

গেরুয়া পরা একব্যক্তি ঘরে প্রবেশ করিয়া অভিবাদন করিলেন। তিনি ভিতরে ভিতরে ঠাকুরের নিন্দা করেন, তাই বলরাম হাসিতেছেন। ঠাকুর অন্তর্যামী, বলরামকে বলিতেছেন — “তা হোক, বলুকগে ভণ্ড।”

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏'यह दुनिया एक जंगल है' तेजचंद्र द्वारा गृहस्थ-जीवन के त्याग करने का प्रस्ताव🔱🙏 

[তেজচন্দ্রের সংসারত্যাগের প্রস্তাব ]

श्रीरामकृष्ण तेजचन्द्र के साथ बातचीत कर रहे हैं ।

श्रीरामकृष्ण (तेजचन्द्र से) - तुझे इतना बुला भेजता हूँ, तू आता क्यों नहीं ? अच्छा, ध्यान आदि करता है ? इसी से मुझे प्रसन्नता होगी । मैं तुझे अपना जानता हूँ इसलिए बुला भेजता हूँ ।

Sri Ramakrishna was talking to Tejchandra.

MASTER: "I send for you so often. Why don't you come? If you practise meditation and prayer it will make me happy. I look on you as my own; that is why I send for you."

ঠাকুর তেজচন্দ্রের সহিত কথা কহিতেছেন।শ্রীরামকৃষ্ণ (তেজচন্দ্রের প্রতি) — তোকে এত ডেকে পাঠাই, — আসিস না কেন? আচ্ছা, ধ্যান-ট্যান করিস, তা হলেই আমি সুখী হব। আমি তোকে আপনার বলে জানি, তাই ডাকি।

तेजचन्द्र - जी, आफिस जाना पड़ता है । काम भी बहुत रहता है ।

TEJCHANDRA: "Sir, I have to go to the office. I am very busy with my duties."

তেজচন্দ্র — আজ্ঞা, আপিস যেতে হয়, — কাজের ভিড়।

मास्टर (सहास्य) - घर में शादी थी, दस दिन की इन्होंने छुट्टी ली थी ।

M. (smiling): "There was a marriage ceremony at his home and he got leave from his office for ten days,"

মাস্টার (সহাস্যে) — বাড়িতে বিয়ে, দশদিন আপিসের ছুটি নিয়েছিলেন।

श्रीरामकृष्ण - तो फिर, अवकाश नहीं है, अवकाश नहीं है - ऐसा क्यों कहा ? अभी तो तूने कहा था कि संसार छोड़ दूँगा

MASTER: "Well, well! You say you have no leisure. You told me just now that you were going to renounce the world."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তবে! — অবসর নাই, অবসর নাই! এই বললি সংসারত্যাগ করবি।

नारायण - मास्टर ने एक दिन कहा था - संसार का अरण्यभाव । (यह दुनिया एक जंगल है?)

NARAYAN: "M. said to us one day that this world is a wilderness."

নারাণ — মাস্টার মহাশয় একদিনে বলেছিলেন — wilderness of this world — সংসার অরণ্য।    

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - तुम वह कहानी जरा कहो तो । इन लोगों का उपकार होगा । शिष्य दवा खाकर अचेत हो रहा । गुरु ने आकर कहा, "इसके प्राण बच सकते हैं, अगर यह गोली कोई और खा ले । यह शिष्य तो बच जायेगा परन्तु जो गोली खायेगा, उसके प्राण निकल जायेंगे ।'

MASTER (to M.): "Please tell them that story of the disciple who became unconscious after taking the medicine. His teacher arrived at the house and said he would revive if someone else swallowed a pill that he would prescribe. The disciple would get back his life, but the man who swallowed the pill would die.

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — তুমি ওই গল্পটা বল তো, এদের উপকার হবে। শিষ্য ঔষধ খেয়ে অজ্ঞান হয়ে আছে। গুরু এসে বললেন, এর প্রাণ বাঁচতে পারে, যদি এই বড়ি কেউ খায়। এ বাঁচবে কিন্তু বড়ি যে খাবে সে মরে যাবে।

"और वह भी कहो, - टेढ़ा-मेढ़ा हो गया था । उस हठयोगी के बारे में, जिसने सोचा था, स्त्री-पुत्र यही सब अपने आदमी हैं ।"

"Please tell the other one, too, of the hathayogi who thought that his wife and children were his very own, and who feigned death with his limbs stretched out. It will do them good to hear those stories."

“আর ওটাও বল — খ্যাঁচা ম্যাঁচা। সেই হঠযোগী যে মনে করেছিল যে পরিবারাদি — এরাই আমার আপনার লোক।”

दोपहर को श्रीरामकृष्ण ने जगन्नाथजी का प्रसाद पाया । रामकृष्ण ने कहा, ‘बलराम का अन्न' शुद्ध है ।' भोजन के बाद कुछ देर के लिए वे विश्राम कर रहे हैं ।

It was noon. Sri Ramakrishna partook of the food that had been offered to the Family Deity, Jagannath. The Master often used to say that the food at Balaram's house was very pure. Afterwards he rested awhile.

মধ্যাহ্নে ঠাকুর শ্রীশ্রীজগন্নাথদেবের প্রসাদ পাইলেন। বলরামের জগন্নাথদেবের সেবা আছে। তাই ঠাকুর বলেন, ‘বলরামের শুদ্ধ অন্ন।’ আহারান্তে কিঞ্চিৎ বিশ্রাম করিলেন।

दोपहर ढल चुकी है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हुए हैं । कर्ताभजा चन्द्रबाबू और वे रसिक ब्राह्मण भी हैं । ब्राह्मण का स्वभाव एक तरह भाँड़ (जोकर-जॉनी लीवर) जैसा है । - वे एक बात कहते है और हँसते हँसते लोगों का पेट फूलने लगता है ।

Late in the afternoon Sri Ramakrishna sat with the devotees in the drawing-room of Balaram's house. Chandra Babu, of the Kartabhaja sect, and a witty brahmin were there. The brahmin was something of a buffoon; his words made everybody laugh.

বৈকাল হইয়াছে। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে সেই ঘরে বসিয়া আছেন। কর্তাভজা চন্দ্রবাবু ও রসিক ব্রাহ্মণটিও আছেন। ব্রাহ্মণটির স্বভাব একরকম ভাঁড়ের ন্যায়, — এক-একটি কথা কন আর সকলে হাসে।

श्रीरामकृष्ण ने कर्ताभजा सम्प्रदाय ^* के लोगों पर बहुत सी बातें कही - रूप, स्वरूप, रज, वीर्य, पाकक्रिया आदि बहुतसी बातों का उल्लेख किया ।

[कर्ताभजा सम्प्रदाय ^* Kartabhaja of Ghosh Para/ Attitude of a "Hero" toward Women. श्रीरामकृष्ण वचनामृत : (9 सितम्बर, 1883) एवं (7 सितंबर,1884)

ঠাকুর কর্তাভজাদের সম্বন্ধে অনেক কথা বলিলেন, — রূপ, স্বরূপ, রজঃ, বীজ, পাকপ্রণালী ইত্যাদি।

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

*अन्तर्यामी श्रीरामकृष्ण की भावावस्था*

[गिरीश के भाई श्रीयुक्त अतुल और तेजचंद्र के भाई]

“চৈতন্যকে ভেবে কি অচৈতন্য হয়?"

चैतन्य के भेबे की अचतैन्य होय ?

"Can one become unconscious by meditating on Consciousness?

 🔱🙏माँ काली पर मन को एकाग्र करने से क्या मस्तिष्क-विकार हो सकता है ?🔱🙏 

लगभग छ: बजे का समय है । गिरीश के भाई अतुल और तेजचन्द्र के भाई आये हुए हैं । श्रीरामकृष्ण भाव-समाधि में मग्न हैं । कुछ देर बाद भावावेश में कह रहे हैं - "चैतन्य की चिन्ता करके क्या कोई कभी अचेतन होता है ? - ईश्वर की चिन्ता करके क्या कभी किसी को मस्तिष्क-विकार हो सकता है ? - वे बोधस्वरूप जो हैं - नित्य (शाश्वत), शुद्ध और बोधरूप ।"

About six o'clock Girish's brother Atul and Tejchandra's brother arrived. Sri Ramakrishna was in samadhi. A few minutes later he said, still in the ecstatic mood: "Can one become unconscious by meditating on Consciousness? Can one lose one's mind by thinking of God? God is of the very nature of Knowledge; He is of the very nature of Eternity, Purity, and Consciousness."

ছটা বাজে। গিরিশের ভ্রাতা অতুল, ও তেজচন্দ্রের ভ্রাতা আসিয়াছেন। ঠাকুর ভাবসমাধিস্থ হইয়াছেন। কিয়ৎক্ষণ পরে ভাবে বলিতেছেন, “চৈতন্যকে ভেবে কি অচৈতন্য হয়? — ঈশ্বরকে চিন্তা করে কেউ কি বেহেড হয়? — তিনি যে বোধস্বরূপ!”

आये हुए दो लोगों में से क्या कोई ऐसा सोचते रहे होंगे कि ईश्वर की अधिक चिन्ता करके लोग पागल हो जाते हैं - शायद इन्हें भी कोई मस्तिष्क-विकार हो गया है ?

আগন্তুকদের ভিতর কেউ কি মনে করিতেছিলেন যে, বেশি ঈশ্বরচিন্তা করিয়া ঠাকুরের মাথা খারাপ হইয়া গিয়াছে?

[तेजचंद्र (तेजचंद्र मित्रा; 1863 - 1912) - ठाकुरदेव के एक गृहस्थ भक्त । श्रीम के छात्र बागबाजार बोस पाड़ा के रहने वाले थे। श्री म की प्रेरणा से उन्होंने बचपन में ही श्रीश्री ठाकुर का दर्शन प्राप्त कर लिया था। इसीलिए श्रीश्री माँ सारदा देवी की कृपा से भी वे धन्य हुए थे। वे नियमित जप-ध्यान किया करते थे और मृदुभाषी थे। ठाकुर देव उनको 'शुद्ध आधार' समझते थे और अपने युवा-महामण्डली का सदस्य कहकर उनसे बहुत प्रेम करते थे। ....अतएव गिरीश के भाई अतुल और तेजचन्द्र के भाई में से कौन या दोनों....... मन ही मन सोच रहे होंगे कि माँ काली का चिन्तन करने से शायद ठाकुर का दिमाग खराब हो गया है ? उनके मन में उठ रहे प्रश्न को अन्तर्यामी ठाकुर ने देख लिया था इसीलिए उन्होंने कहा ......"चैतन्य के भेबे की अचतैन्य होय?"]  

 [ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏संसार-रसिकता में आसक्ति को छोड़कर ईश्वर की ओर बढ़ते जाओ ! 🔱🙏   

[‘এগিয়ে পড়’ — কৃষ্ণধনের সামান্য রসিকতা ]

श्रीरामकृष्ण कृष्णधन नाम के उसी रसिक ब्राह्मण से कह रहे हैं – “साधारण – से ऐहिक विषय को लेकर तुम दिन-रात मजाक कर-करके समय क्यों बिता रहे हो ? उसी को ईश्वर की ओर लगा दो । जो नमक का हिसाब लगा सकता है, वह मिश्री का भी लगा लेता है ।"

Sri Ramakrishna said to the witty brahmin: "Why do you waste your time with these frivolous jokes about insignificant worldly things? Direct your mind to God. If a man can calculate about salt, he can also calculate about sugar candy."

ঠাকুর কৃষ্ণধন নামক ওই রসিক ব্রাহ্মণকে বলিতেছেন — “কি সামান্য ঐহিক বিষয় নিয়ে তুমি রাতদিন ফষ্টিনাষ্টি করে সময় কাটাচ্ছ। ওইটি ঈশ্বরের দিকে মোড় ফিরিয়ে দাও। যে নুনের হিসাব করতে পারে, সে মিছরির হিসাবও করতে পারে।”

कृष्णधन - (हँसकर) - आप खींच लीजिये ।

BRAHMIN (smiling): "Please attract me."

কৃষ্ণধন (সহাস্যে) — আপনি টেনে নিন!

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏अब मन तुम्हारा अपना है (buffoonery -बफुनरी) भँड़ैती छोड़ कर 

जगत (स्वार्थपरता) से ब्रह्म (100 % निःस्वार्थपरता) की ओर बढ़ जाओ 🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण - मैं क्या करूँगा, सब तुम्हारी ही चेष्टा पर अवलम्बित है । ‘यह मन्त्र लो, - अब मन  तुम्हारा अपना है ;और "उस तुच्छ (buffoonery) भँड़ैती या मसखरापन छोड़ कर ईश्वर की ओर बढ़ जाओ । आगे एक से एक बढ़कर चीजें मिलेंगी । ब्रह्मचारी ने लकड़हारे से बढ़ जाने के लिए कहा था । उसने बढ़कर देखा, चन्दन का वन था - फिर चाँदी की खान थी, और फिर आगे बढ़कर सोने की खान, - फिर हीरे और मणि की खानें ।" [.... अन्त में ? परम् शान्ति ! ॐ शान्ति !]

MASTER: "What can I do? Everything depends on your effort. Your mind is your own. Give up this trifling buffoonery (भँड़ैती या मसखरापन छोड़ कर)   and go forward toward God. You can go farther and farther along that way. The brahmachari asked the wood-cutter to go forward. At first the wood-cutter found a sandal-wood forest; next, a silver-mine; next, a gold-mine; and then gems and diamonds."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি করব, তোমার চেষ্টার উপর সব নির্ভর করছে। ‘এ মন্ত্র নয় — এখন মন তোর!’“ও সামান্য রসিকতা ছেড়ে ঈশ্বরের পথে এগিয়ে পড়, — তারে বাড়া, তারে বাড়া, — আছে! ব্রহ্মচারী কাঠুরিয়াকে এগিয়ে পড়তে বলেছিল। সে প্রথমে এগিয়ে দেখে চন্দনের কাঠ, — তারপর দেখে রূপার খনি, — তারপর সোনার খনি, — তারপর হীরা মাণিক!”

कृष्णधन - इस मार्ग का अन्त नहीं है ।

BRAHMIN: "There is no end to this path."

কৃষ্ণধন — এ-পথের শেষ নাই!

श्रीरामकृष्ण - जहाँ शान्ति हो, वहीं रुक जाओ ।

MASTER: "Where you find peace, there is the end."

श्रीरामकृष्ण एक आये हुए व्यक्ति के सम्बन्ध में कह रहे हैं –"उसके भीतर कोई सार -वस्तु मुझे नहीं दीख पड़ी, जैसे जंगली बेर ।"

About a new visitor Sri Ramakrishna said: "I didn't find any substance in him. He seemed worthless."

ঠাকুর একজন আগন্তুক সম্বন্ধে বলিতেছেন —“ওর ভিতর কিছু বস্তু দেখতে পেলেম না। যেন ওলম্বাকুল।”

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏 (रथ-यात्रा = कैम्प) मई 1988 की गर्मी और दादा का तारा-निकेतन वास🔱🙏  

शाम हो गयी । कमरे में दिया जला दिया गया । श्रीरामकृष्ण जगन्माता की चिन्ता करते हुए मधुर स्वर से उनका नाम ले रहे हैं । भक्तगण चारों ओर बैठे हुए हैं । कल रथ-यात्रा है । आज श्रीरामकृष्ण यहीं रहेंगे ।

It was dusk. Lamps were lighted in the room. Sri Ramakrishna was meditating on the Divine Mother and chanting Her name in his melodious voice. The devotees sat around him. Since Balaram was going to celebrate the Car Festival at his house the following day, Sri Ramakrishna intended to spend the night there.

সন্ধ্যা হইল। ঘরে আলো জ্বালা হইল। ঠাকুর জগন্মাতার চিন্তা ও মধুর স্বরে নাম করিতেছেন। ভক্তেরা চতুর্দিকে বসিয়া আছেন।কাল রথযাত্রা। ঠাকুর আজ এই বাটীতেই রাত্রিবাস করিবেন।

अन्तः पुर से कुछ जलपान करके श्रीरामकृष्ण फिर बड़े कमरे में आये । रात के दस बजे होंगे । श्रीरामकृष्ण मणि (दादा का P.A. केदार, बासुदेव बाघ, दयानन्द) से कह रहे हैं - उस कमरे से अँगौछा तो ले आओ ।

After taking some refreshments in the inner apartments, Sri Ramakrishna returned to the parlour. It was about ten o'clock. The Master said to M., "Please bring my towel from the other room."

उसी छोटे कमरे में श्रीरामकृष्ण के सोने का प्रबन्ध किया गया है । रात के साढ़े दस का समय हुआ । श्रीरामकृष्ण शयन करने के लिए गये । गरमी का मौसम है श्रीरामकृष्ण ने मणि से पंखा ले आने के लिए कहा । मणि पंखा झल रहे हैं । रात के बारह बजे श्रीरामकृष्ण की नींद उचट गयी, कहा, 'पंखा बन्द कर दो, जाड़ा लग रहा है ।'

A bed was made for Sri Ramakrishna in the adjoining sir all room. About half past ten Sri Ramakrishna lay down to sleep. It was summertime. He said to M., "You had better bring a fan." He asked the disciple to fan him. At midnight Sri Ramakrishna woke up. He said to M., "Don't fan me any more; I feel chilly."

ঠাকুরের সেই ছোট ঘরটিতেই শয্যা প্রস্তুত হইয়াছে। রাত সাড়ে দশটা হইল। ঠাকুর শয়ন করিলেন।গ্রীষ্মকাল। ঠাকুর মণিকে বলিতেছেন, “বরং পাখাটা আনো।” তাঁহাকে পাখা করিতে বলিলেন। রত বারটার সময় ঠাকুরের একটু নিদ্রাভঙ্গ হইল। বলিলেন, “শীত করছে, আর কাজ নাই।”

(३)

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

(श्रीश्रीरथ यात्रा के दिन बलराम-मंदिर में भक्तों के साथ)

১৮৮৫, ১৪ই জুলাই, 

শ্রীশ্রীরথযাত্রা দিবসে বলরাম-মন্দিরে ভক্তসঙ্গে

🔱🙏'नेति,नेति' विचार के अन्त में मन का नाश तथा ब्रह्मज्ञान🔱🙏

 'जीवन नदी के हर मोड़ पर' पढ़ो और सत्य पर अटल रहो' 

आज रथ यात्रा है । दिन मंगलवार । प्रातः काल उठकर अपने कमरे में श्रीरामकृष्ण अकेले नृत्य करते हुए मधुर कण्ठ से नाम ले रहे हैं । मास्टर ने आकर प्रणाम किया । क्रमशः भक्तगण आकर प्रणाम करके श्रीरामकृष्ण के पास बैठे । श्रीरामकृष्ण पूर्ण के लिए बहुत व्याकुल हो रहे हैं । मास्टर को देखकर उन्हीं की बातें कर रहे हैं। 

It was the day of the Car Festival. Sri Ramakrishna left his bed very early in the morning. He was alone in the room, dancing and chanting the name of God. M. entered and saluted the Master. Other devotees arrived one by one. They saluted the Master and took seats near him. Sri Ramakrishna was longing intensely for Purna. He was talking to M. about him.

আজ শ্রীশ্রীরথযাত্রা। মঙ্গলবার (৩১শে আষাঢ়, ১২৯২, শুক্লা দ্বিতীয়া, ১৪ই জুলাই, ১৮৮৫)। অতি প্রতূষ্যে ঠাকুর উঠিয়া একাকী নৃত্য করিতেছেন ও মধুর কণ্ঠে নাম করিতেছেন। মাস্টার আসিয়া প্রণাম করিলেন। ক্রমে ভক্তেরা আসিয়া প্রণাম করিয়া ঠাকুরের কাছে উপবিষ্ট হইলেন। ঠাকুর পূর্ণর জন্য বড় ব্যাকুল। মাস্টারকে দেখিয়া তাঁরই কথা কহিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - तुम पूर्ण को देखकर क्या कोई उपदेश दे रहे थे ?

MASTER: "Did vu give Purna any instruction?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি পূর্ণকে দেখে কিছু উপদেশ দিতে?

मास्टर - जी, मैंने चैतन्य चरितामृत पढ़ने के लिए उससे कहा था । उस पुस्तक की बातें वह खूब बतला सकता है । और आपने कहा था सत्य को पकड़े रहने के लिए; यह बात भी मैंने कही थी ।

M: "I asked him to read the life of Chaitanya. He is familiar with the incidents of his life. I told him further that you ask people to stick to the truth."

মাস্টার — আজ্ঞা, চৈতন্যচরিত পড়তে বলেছিলাম, — তা সে সব কথা বেশ বলতে পারে। আর আপনি বলেছিলেন, সত্য ধরে রাখতে, সেই কথাও বলেছিলাম।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏अवतार की तरह का मनुष्य 'नवनीदा' को देखना हो तो एनुअल कैंप चलो🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, 'ये (C-IN-C श्रीरामकृष्ण) अवतार हैं' इन सब बातों के बताने पर क्या कहता था ?

MASTER: "How did he take it when you said about me, 'He is an Incarnation of God'?'

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা ‘ইনি অবতার’ এ-সব কথা জিজ্ঞাসা করলে কি বলত।

मास्टर - मैंने कहा था, 'चैतन्यदेव की तरह एक और आदमी देखना हो तो चलो ।'

M: "I said to him, 'Come with me if you want to see a person like Chaitanya.'"

মাস্টার — আমি বলেছিলাম, চৈতন্যদেবের মতো একজনকে দেখবে তো চল।

श्रीरामकृष्ण - और भी कुछ ?

MASTER: "Anything else?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আর কিছু?

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏परमसत्य की अनुभूति के बाद वापस शरीर में लौटना माँ की कृपा पर निर्भर🔱🙏 

मास्टर - आपकी वही बात । छोटी-सी गड़ही में हाथी उतर जाता है तो पानी में उथल-पुथल मच जाती है, - आधार के छोटे होने पर उसमें से भाव छलककर गिरता है ।

M: "Also that remark of yours that when an elephant enters a small pool there is a great splashing of water all around; likewise, in the case of a 'small receptacle', emotion overflows.

মাস্টার — আপনার সেই কথা। ডোবাতে হাতি নামলে জল তোলপাড় হয়ে যায়, — ক্ষুদ্র আধার হলেই ভাব উপছে পড়ে।

[The Indian-American short film : ‘The Elephant Whisperers’ follows a couple caring for an orphaned baby elephant. Set in Mudumalai National Park, The Elephant Whisperers follows Bomman and Bellie, a South Indian couple who take on the daunting task of caring for an orphaned baby elephant, Raghu. The unlikely trio forge an unbreakable bond as they work to help the baby recover and survive. The film also serves as a document of the gorgeous natural landscape of Mudumalai, and the connection between the land and its people. The Elephant Whisperers is the first Indian-produced film to win an Academy Award.]

" (अद्वैत स्वरुप ठाकुरदेव से मिलने के बाद) पूर्ण ने मछली खाना भी छोड़ दिया था, इसके के बारे में, मैंने उससे कहा: 'तुमने ऐसा क्यों किया? तुम्हारा परिवार वाले इस बात पर तुम्हारा बहुत विरोध करेंगे। 

"About his giving up of fish, I said to him: 'Why have you done that? Your family will make a great fuss about it.'"

“মাছ ছাড়ার কথায় বলেছিলাম, কেন অমন করলে। হইচই হবে।”

श्रीरामकृष्ण : "यह तुमने बिल्कुल सही कहा। व्यक्ति (ऋषि) को अपनी आध्यात्मिक अनुभूतियों को  और भावनाओं को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए।"

MASTER: "That's good. One should keep one's feelings and emotions to oneself."

শ্রীরামকৃষ্ণ — তাই ভাল। নিজের ভাব ভিতরে ভিতরে থাকাই ভাল।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

[ভূমিকম্প ও শ্রীরামকৃষ্ণ — জ্ঞানীর দেহ ও দেহনাশ সমান ]

['भूकंप और श्री रामकृष्ण' यही अंश लिखते समय ग्रेटर नोएडा में 80 सेकण्ड का भूकंप]   

🔱🙏'पुत्र-पौत्र और पेन्ट हॉउस का अहंकार' कितना क्षणिक है !🔱🙏 

लगभग साढ़े छ: का समय है । बलराम के घर से मास्टर गंगा नहाने के लिए जा रहे हैं । रास्ते में एकाएक भूकम्प होने लगा । वे उसी समय श्रीरामकृष्ण के कमरे में लौट आये । श्रीरामकृष्ण बैठकखाने में खड़े हुए हैं । भक्तगण भी खड़े हैं । भूकम्प की बात हो रही है । कम्पन कुछ अधिक जोर से हुआ था (ऑडोटोरियम के बाहर तालाब का पानी बहुत जोर-जोर से हिल रहा था !) भक्तों में बहुतों को भय हो गया था ।

It was about half past six in the morning. M. was going to bathe in the Ganges, when suddenly tremors of an earthquake were felt. At once he returned to Sri Ramakrishna's room. The Master stood in the drawing-room. The devotees stood around him. They were talking about the earthquake. The shaking had been rather violent, and many of the devotees were frightened.

প্রায় সাড়ে ছয়টা বাজে। বলরামের বাটী হইতে মাস্টার গঙ্গাস্নানে যাইতেছেন। পথে হঠাৎ ভূমিকম্প। তিনি তৎক্ষণাৎ ঠাকুরের ঘরে ফিরিয়া আসিলেন। ঠাকুর বৈঠকখানা ঘরে দাঁড়াইয়া আছেন। ভক্তেরাও দাঁড়াইয়া আছেন। ভূমিকম্পের কথা হইতেছে। কম্প কিছু বেশি হইয়াছিল। ভক্তেরা অনেকে ভয় পাইয়াছেন।

मास्टर - तुम सब लोगों को नीचे चले जाना चाहिए था ।

M: "You should all have gone downstairs."

মাস্টার — আমাদের সব নিচে যাওয়া উচিত ছিল।

श्रीरामकृष्ण - जिस घर में रहते हैं, उसी की तो यह दशा है ! इस पर फिर आदमियों का अहंकार! (मास्टर से) तुम्हें वह आश्विन की आँधी [अम्फान महाचक्रवात (Cyclone Amphan जैसी आँधी ?] याद है ?

MASTER: "Such is the fate of the house under whose roof one lives; and still people are so egotistic. (To M.) Do you remember the great storm of the month of Aswin?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — যে ঘরে বাস, তারই এই দশা ! এতে আবার লোকে অহংকার। (মাস্টারকে) তোমার আশ্বিনের ঝড় মনে আছে?

मास्टर - जी हाँ, तब मेरी उम्र बहुत थोड़ी थी – नौ-दस साल की रही होगी - मैं कमरे में अकेला देवताओं का नाम ले रहा था ।

M: "Yes, sir. I was very young at that time — nine or ten years old. I was alone in a room while the storm was raging, and I prayed to God."

মাস্টার — আজ্ঞা, হাঁ। তখন খুব কম বয়স — নয়-দশ বছর বয়স — একঘরে একলা ঠাকুরদের ডাকছিলাম!

मास्टर विस्मय में आकर सोच रहे हैं, 'श्रीरामकृष्ण ने एकाएक आश्विन की आँधी की बात क्यों चलायी ? मैं व्याकुल होकर एक कमरे में बैठा हुआ ईश्वर की प्रार्थना कर रहा था; श्रीरामकृष्ण क्या सब जानते हैं ? वे क्या मुझे उसकी याद दिला दे रहे हैं ? मेरे जन्म के समय से ही वे क्या गुरु-रूप से मेरी रक्षा कर रहे हैं ?"

M. was surprised and said to himself: "Why did the Master suddenly ask me about the great storm of Aswin? Does he know that I was alone at that time earnestly praying to God with tears in my eves? Does he know all this? Has he been protecting me as my guru since my very birth?"

মাস্টার বিস্মিত হইয়া ভাবিতেছেন — ঠাকুর হঠাৎ আশ্বিনের ঝড়ের দিনের কথা জিজ্ঞাসা করিলেন কেন? আমি যে ব্যাকুল হয়ে কেঁদে একাকী একঘরে বসে ঈশ্বরকে প্রার্থনা করেছিলাম, ঠাকুর কি সব জানেন ও আমাকে মনে করাইয়া দিতেছেন? উনি কি জন্মাবধি আমাকে গুরুরূপে রক্ষা করিতেছেন?

[ ऐन्यूअल कैम्प में नवनीदा के मनःसंयोग  क्लास के समय सुनामी का भूकम्प, और प्रेममय अवतारी/ ऋषि के लिये शरीर और शरीर का नाश समान है। 

At Greater Noida on 21st March 2023 at 10.30 pm  80 seconds sudden tremors of an earthquake were felt by me at Penthouse (an apartment on the top floor of a tall building, typically luxuriously fitted and offering fine views.) 

पेंटहाउस (एक ऊंची इमारत की सबसे ऊपरी मंजिल पर एक अपार्टमेंट, आमतौर पर शानदार ढंग से सज्जित और बढ़िया दृश्य पेश करता है। Same way on 14 th April, 1992 at 6 am at बनारस ऊँच -में ऐक्सिडेंट, उस सम मेरी उम्र 42 साल थी ! और मैं पुरुषोत्तम दास जलोटा का भजन सुन रहा था - 

"मनो बुद्धि अहंकार चित्तानि नाहं,

न च श्रोत्र जिव्हे न च घ्राण नेत्रे |

न च व्योम भूमि न तेजो न वायु:, 

चिदानंद रूपः शिवोहम शिवोहम ||1||

[मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेद:,

पिता नैव मे नैव माता न जन्म |

न बंधू: न मित्रं गुरु: नैव शिष्यं

चिदानंद रूप: शिवोहम शिवोहम ||5||

[न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ…क्या जगतगुरु श्रीरामकृष्ण ही मेरे जन्म के समय से, गुरु विवेकानन्द, नेता नवनीदा के रूप में मेरी रक्षा कर रहे हैं।     

 I do not have fear of death, as I do not have death. I have no separation from my true self, no doubt about my existence, nor have I discrimination on the basis of birth. I have no father or mother, nor did I have a birth. I am not the relative, nor the friend, nor the guru, nor the disciple. I am indeed, That eternal knowing and bliss, the auspicious (Shivam), love and pure consciousness......So let's see who will die now?....And sense of Religion is Realization] 

श्रीरामकृष्ण - जब दक्षिणेश्वर में आँधी आयी, उस समय दिन बहुत चढ़ गया था, पर कैसा भी करके भोग पकाया गया था । देखो, जिस घर में निवास है, उसी की यह हालत है !

MASTER: "It was quite late in the day at Dakshineswar when the storm broke, but somehow they managed to cook the meals. The trees were uprooted You see, this is the fate of the house one lives in.

শ্রীরামকৃষ্ণ — দক্ষিণেশ্বরে অনেক বেলায় — তবে কি কি রান্না হল। গাছ সব উলটে পড়েছিল! দেখ যে ঘরে বাস, তারই এ-দশা!

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏ब्रह्म और जगत 🔱🙏

Repeat ,Roar and Revolt !

🔱🙏नित्य और लीला दोनों एकमात्र सत्य श्रीश्री माँ सारदा (काली) की संपत्ति हैं🔱🙏

वेदान्त केसरी गर्जना करे - "श्रीरामकृष्ण अवतार भी एक लीला है !" 

[Bring in the light; the darkness will vanish of itself. Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. Throw the ideas broadcast, and let the result take care of itself. Let us put the chemicals together; the crystallization will take its own course. Bring forth the power of the spirit, and pour it over the length and breadth of India; and all that is necessary will come by itself."  -Swami Vivekananda 

"RRR:  - For me "RRR:- Raudraṁ, Raṇaṁ Rudhiraṁ", Rise Roar Revolt (2022)" means Repeat Roar and Revolt "- means Repeat 'Vachnamrit' dated July 14, 1885 again and again and transcend  the limits of Time, Space and causation ! [repeat vachanamrit (dated- July 14, 1885) and Go beyond Time, Space and Causation !]

"RRR: "रौद्रम, रणम, रुधिरं", राइज़ रोर रिवोल्ट (2022)" - मेरे लिए "रिपीट रोर एंड रिवोल्ट" - का अर्थ है दिनांक 14 जुलाई, 1885 के 'वचनामृत' को बार-बार दुहराओ और देश-काल -निमित्त की सीमा का अतिक्रमण करो ! या देश, काल और निमित्त (माया) की सीमाओं को लांघ जाओ !

'ऋषि' (विवेक में प्रतिष्ठित विवेकानन्द) के लिए - लीला और नित्य (जगत-अभिव्यक्ति-लीला- manifestation, Relative Truth-शक्ति -जादू, ब्रह्म- निरपेक्ष-the Absolute) दोनों एक ही वास्तविकता (काली-कृष्ण या अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण-जादूगर ) की संपत्ति  हैं। 

Both the Lila (जगत-manifestation) and the Nitya (ब्रह्म- the Absolute) belong to the same Reality- Kali !]

 🙏"परन्तु पूर्ण ज्ञान के होने पर मरना और मारना एक जान पड़ता है । 

["लेकिन जब कोई निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर आत्मसाक्षात्कार करता है या पूर्ण ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह पाता है कि मरना और मारना (dying and killing सब मिथ्या शरीर के लिए है।)  एक ही बात है, अर्थात दोनों असत्य (मिथ्या) हैं।]

"But when one attains Perfect Knowledge, then one finds that dying and killing are one and the same thing; that is to say, both are unreal

“তবে পূর্ণজ্ঞান হলে মরা মারা একবোধ হয়। 

🙏मरने पर भी कुछ नहीं मरता - मार डालने पर भी कुछ नहीं मारता ।

When one is dead, one has not really died; and when one has killed another, the man is not really dead. 

মলেও কিছু মরে না — মেরে ফেল্লেও কিছু মরে না১ 

[गीता, 2.19, 20]

 मरना और मारना समान है अर्थात दोनों असत्य (मिथ्या -unreal) हैं ! 

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।गीता 2.19।।

जो मनुष्य इस आत्मा को मारने वाला समझता है, और जो मनुष्य इसको मरा समझता है, वे दोनों ही इस आत्मा को नहीं जानते। क्योंकि यह आत्मा न मरता है और न मारा जाता है।

जो तू मानता है कि मेरे द्वारा युद्ध में भीष्मादि मारे जायँगे, और मैं ही उनका मारने वाला हूँ ; तो  तेरी यह बुद्धि  सर्वथा मिथ्या है। क्योंकि जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है अर्थात् हनन-क्रिया का कर्ता समझता है, और जो  दूसरा ( कोई ) इस आत्मा को देह के नाश से मैं नष्ट हो गया, ऐसा समझता है, अर्थात् हनन-क्रिया को सच्चा - कर्म समझता है। वे दोनों ही  अविवेक के कारण अहंप्रत्यय के विषयभूत आत्मा को नहीं जानते। वे दोनों ही आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ हैं। जो मरता है वह शरीर है, और मैं मारने वाला हूँ यह भाव अहंकारी जीव का है। शरीर और अहंकार को प्रकाशित करने वाली चैतन्य आत्मा दोनों से भिन्न है। यह बोध या आत्मसाक्षात्कार उन्हें अभी तक  नहीं हुआ है। वे दोनों ही आत्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते और व्यर्थ का विवाद करते हैं।  संक्षेप में इसका तात्पर्य यह है कि 'आत्मा' अविकारी है (अर्थात ब्रह्म जो जगत के रूप में भास रहा है , वह 'दूध' से 'दही' बन जाने जैसा, जगत ब्रह्म का विकार (परिणाम)  नहीं है -विवर्त है !)  न किसी क्रिया का कर्त्ता है और न किसी क्रिया का विषय अर्थात् उस पर किसी प्रकार की क्रिया नहीं की जा सकती। (आत्मा किस प्रकार अविकारी है इसका उत्तर अगले श्लोक में दिया गया है।)

न जायते म्रियते वा कदाचि

न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।2.20।।

यह आत्मा न कभी जन्मता है और न मरता है, और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। 

शरीर के समान आत्मा का जन्म नहीं होता क्योंकि वह तो सर्वदा ही विद्यमान है। तरंगों की उत्पत्ति होती है और उनका नाश होता है परन्तु उनके साथ न तो समुद्र की उत्पत्ति होती है और न ही नाश। जिसका आदि है उसी का अन्त भी होता है। उत्ताल तरंगे ही मृत्यु की अन्तिम श्वांस लेती हैं। सर्वदा विद्यमान आत्मा के जन्म और नाश का प्रश्न ही नहीं उठता। 

 जन्म ,अस्तित्व, वृद्धि, विकार, क्षय और नाश-- ये छः  प्रकार के परिर्वतन शरीर में होते हैं जिनके कारण जीव को कष्ट भोगना पड़ता है। इस श्लोक में बताया गया है कि आत्मा शरीर में होने वाले समस्त विकारों से परे है। एक अपरिवर्तनीय आत्मा, परिवर्तनशील या मिथ्या शरीर से बिल्कुल पृथक है।  र्मत्य शरीर के लिये इन समस्त दुख के कारणों का आत्मा के लिये निषेध किया गया है अर्थात् आत्मा इन विकारों से सर्वथा मुक्त है।] 

🙏जिनकी लीला है, नित्यता भी उन्हीं की है । एक रूप में नित्यता है और दूसरे रूप में लीला ।

Both the Lila (जगत) and the Nitya (ब्रह्म) belong to the same Reality (काली) . In one form It is the Absolute, and in another, the Lila. 

যাঁরই লীলা তাঁরই নিত্য। সেই একরূপে নিত্য, একরুপে লীলা। 

🙏लीला का रूप (नाम-रूप, Time, Space and Causation) नष्ट हो जाने पर भी उसकी नित्यता (अस्ति-भाति-प्रियता) नहीं जाती ।

Even though the Lila is destroyed, the Nitya always exists. 

লীলারূপ ভেঙে গেলেও নিত্য আছেই।

🙏पानी के स्थिर रहने पर भी वह पानी है और हिलने-डुलने पर भी पानी ही है । फिर हिलकर, उस हिलने के बन्द हो जाने पर भी वह वही पानी है ।"

Water is water, whether it is still or in waves; it is the same water when the waves quiet down."

 জল স্থির থাকলেও জল, — হেললে দুললেও জল। হেলা দোলা থেমে গেলেও সেই জল।”

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏ब्रह्म और जगत 🔱🙏

🔱🙏'कोंहड़ा काटने वाले भैसूर जी' - अविवाहित वेदान्ती हरिबाबू ^ को उपदेश '- 'मैं' का भाव-'I-consciousness' दूर नहीं होता🔱🙏

‘আমি’বোধ যায় না। 

[হরিবাবুকে উপদেশ — অদ্বৈতবাদ ও বিশিষ্টাদ্বৈতবাদ — বিজ্ঞান ]

श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ बैठकखाने में बैठे हुए हैं । महेन्द्र मुखर्जी, हरिबाबू, छोटे नरेन्द्र तथा अन्य कई बालक-भक्त बैठे हुए हैं । हरिबाबू अकेले ही रहते हैं, वेदान्त की चर्चा किया करते हैं, उम्र २३-२४ साल की होगी । विवाह नहीं किया है । श्रीरामकृष्ण इन्हें बड़ा प्यार करते हैं । सदा दक्षिणेश्वर आने के लिए कहा करते हैं । वे अकेले ही रहना पसन्द करते हैं, इसलिए श्रीरामकृष्ण के पास भी अधिक नहीं जाया करते । श्रीरामकृष्ण (हरिबाबू से) - क्यों जी, तुम बहुत दिन नहीं आये ?

Sri Ramakrishna sat in the drawing-room with the devotees. Mahendra Mukherji, Hari, the younger Naren, and many other devotees were there. Hari lived alone and studied Vedanta. He was about twenty-three years old, and unmarried. Sri Ramakrishna was very fond of him. He wanted Hari to visit him frequently. But since Hari loved solitude he did not often come to the Master. MASTER (to Hari): "Well, I haven't seen you for a long time.

ঠাকুর বৈঠকখানা ঘরে ভক্তসঙ্গে আবার বসিয়াছেন। মহেন্দ্র মুখুজ্জে, হরিবাবু, ছোট নরেন ও অন্যান্য অনেকগুলি ছোকরা ভক্ত বসিয়া আছেন। হরিবাবু একলা একলা থাকেন ও বেদান্তচর্চা করেন। বয়স ২৩।২৮ হবে। বিবাহ করেন নাই। ঠাকুর তাহাকে বড় ভালবাসেন। সর্বদা তাঁহার কাছে যাইতে বলেন। তিনি একলা একলা থাকতে চান বলিয়া হরিবাবু ঠাকুরের কাছে অধিক যাইতে পারেন না।শ্রীরামকৃষ্ণ (হরিবাবুকে) — কি গো, তুমি অনেকদিন আস নাই।

श्रीरामकृष्ण हरिबाबू  प्रति-  "वे एक रूप से नित्य हैं, एक रूप से लीला । वेदान्त में क्या है ? ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या । परन्तु जब तक उन्होंने 'भक्त का मैं' रख दिया है, तब तक लीला भी सत्य है । 'मैं' को जब वे पोंछ डालेंगे, तब जो कुछ है, वही है । मुँह से उसका वर्णन नहीं हो सकता । 'मैं' को जब तक उन्होंने रखा है, तब तक सब मानना होगा ।

"You see, in one form He is the Absolute and in another He is the Relative. What does Vedanta teach? Brahman alone is real and the world illusory. Isn't that so? But as long as God keeps the 'ego of a devotee' in a man, the Relative is also real. When He completely effaces the ego, then what is remains. That cannot be described by the tongue. But as long as God keeps the ego, one must accept all.

“তিনি একরূপে নিত্য, একরূপে লীলা। বেদান্তে কি আছে? — ব্রহ্ম সত্য জগৎ মিথ্যা। কিন্তু যতক্ষণ ‘ভক্তের আমি’ রেখে দিয়েছে, ততক্ষণ লীলাও সত্য। ‘আমি’ যখন তিনি পুছে ফেলবেন, তখন যা আছে তাই আছে। মুখে বলা যায় না। যতক্ষণ ‘আমি’ রেখে দিয়েছেন, ততক্ষণ সবই নিতে হবে। 

केले के पेड़ के खोलों को निकालते रहने पर उसका माझा मिलता है । अतएव खोलों के रहने पर माझा का रहना भी सिद्ध होता है और माझे के रहने पर खोलों का । खोलों का ही माझा है और माझे का ही खोल है । नित्य है, यह कहने से लीला का अस्तित्व सिद्ध होता है; और लीला है, यह कहने पर नित्य का अस्तित्व ।

 you removing the outer sheaths of the plantain-tree, you reach the inner pith. As long as the tree contains sheaths, it also contains pith. So too, as long as it contains pith, it also contains sheaths. The pith goes with the sheaths and the sheaths go with the pith. In the same way, when you speak of the Nitya, it is understood that the Lila also exists; and when you speak of the Lila, it is understood that the Nitya also exists.

কলাগাছের খোল ছাড়িয়া ছাড়িয়া মাজ পাওয়া যায়। কিন্তু খোল থাকলেই মাজ আছে। মাজ থাকলেই খোল আছে। খোলেরই মাজ, মাজেরই খোল। নিত্য বললেই লীলা আছে বুঝায়। লীলা বললেই নিত্য আছে বুঝায়।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏ब्रह्म और शक्ति अविभाज्य हैं 🔱🙏

ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ 

[जल तो जल ही रहता है, चाहे स्थिर हो या गतिमान।🔱🙏Water is water, whether it is still or moving.]

"वे ही जीव और जगत् हुए हैं, चौबीसों तत्त्व हुए हैं । जब वे निष्क्रिय हैं, तब उन्हें लोग ब्रह्म कहते हैं और जब सृष्टि, स्थिति और संहार करते हैं तब उन्हें शक्ति कहते हैं । ब्रह्म और शक्ति दोनों अभेद हैं । पानी स्थिर रहने पर भी पानी है और हिलने डुलने पर भी पानी ही है ।

"It is He alone who has become the universe, living beings, and the twenty-four cosmic principles. When He is actionless, I call Him Brahman; when He creates, preserves, and destroys, I call Him Sakti. Brahman and Sakti are not different from each other. Water is water, whether it is still or moving.

“তিনি জীবজগৎ হয়েছেন, চতুর্বিংশতি তত্ত্ব হয়েছেন। যখন নিষ্ক্রিয় তখন তাঁহাকে ব্রহ্ম বলি। যখন সৃষ্টি করছেন, পালন করছেন, সংহার করছেন, — তখন তাঁকে শক্তি বলি। ব্রহ্ম আর শক্তি অভেদ, জল স্থির থাকলেও জল, হেললে দুললেও জল।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏'जगत मिथ्या' कहने का अधिकार-भक्त को नहीं है !🔱🙏

[भक्त को यह कहने का अधिकार नहीं है कि 'संसार असत्य है'!]

The devotee has no right to say that 'the world is unreal'!

'জগৎ মিথ্যা' বলার অধিকার ভক্তের নেই !

" 'मैं' का भाव दूर नहीं होता । जब तक 'मैं' का भाव है, तब तक जीव-जगत् को मिथ्या कहने का अधिकार नहीं है । बेल के खोपड़े और बीजों को फेंक देने पर, कुल बेल का वजन समझ नहीं आता ।

"It is not possible to rid oneself of 'I-consciousness'. And as long as one is aware of this 'I-consciousness', one cannot speak of the universe and its living beings as unreal. You cannot get the correct weight of the bel-fruit if you leave out its shell and pits.

“আমিবোধ যায় না। যতক্ষণ ‘আমি’বোধ থাকে, ততক্ষণ জীবজগৎ মিথ্যা বলবার জো নাই! বেলের খোলটা আর বিচিগুলো ফেলে দিলে সমস্ত বেলটার ওজন পাওয়া যায় না।

"जिस ईंट, चूना और सुर्खी से छत बनी है, उसी से सीढ़ियाँ भी बनी हैं । जो ब्रह्म है उन्हीं की सत्ता से यह जीव-जगत् भी बना है ।

"The brick, lime, and brick-dust of which the stairs are made are the same brick, lime, and brick-dust of which the roof is made. The universe and its living beings exist on account of the Reality of Him who is known as Brahman.

“যে ইট, চুন, সুরকি থেকে ছাদ, সেই ইট, চুন, সুরকি থেকেই সিঁড়ি। যিনি ব্রহ্ম, তাঁর সত্তাতেই জীবজগৎ।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏"Be and Make वैदिक परम्परा" में प्रशिक्षित नेता विज्ञानी और भक्त होते हैं 🔱🙏

शारदा (शिक्षा की देवी), सरस्वती (माँ सारदा - ज्ञान की देवी) और वाग्देवी (वाणी की देवी)।

श्रीरामकृष्ण -  जो 'विज्ञानी श्रेणी के भक्त' होते हैं वे निराकार और साकार दोनों मानते हैं - अरूप (सच्चिदानन्द)  और रूप (ठाकुर-माँ -स्वामीजी-गुरुदेव....... नवनीदा) दोनों को ग्रहण करते हैं 

"The devotees — I mean the vijnanis — accept both God with form and the Formless, both the Personal God and the Impersonal. 

“ভক্তেরা — বিজ্ঞানীরা — নিরাকার-সাকার দুইই লয়, অরূপ-রূপ দুইই গ্রহণ করে। 

[भक्त तथा विज्ञानी ^* यहाँ तात्पर्य ईश्वरकोटि के सत्यार्थी,नेता, भावी पैगम्बर, विज्ञानियों या ऋषियों से है, जो माँ सारदा (ज्ञानदायिनी-enlightener) की कृपा से माया (देश,काल,निमित्त) का अतिक्रमण कर ब्रह्म में पहुँचकर पुनः शरीर या नांम-रूप के राज्य में लौट आते हैं !--वे मातृभक्त अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के नाम-रूप और उनके सच्चिदानन्द स्वरुप दोनों पर विश्वास करते हैं। 

"शारदा पीठ मंदिर" कश्मीरी पंडितों की आस्था का प्रतीक रहा है लेकिन सदियों पुराना ये मंदिर खंडहर में बदल चुका था।  कश्मीर के इसी मंदिर में सर्वप्रथम देवी की आराधना शुरू हुई।  बाद में खीर भवानी और वैष्णो देवी मंदिर की स्थापना हुई।  शारदा पीठ मुजफ्फराबााद से लगभग 140 किलोमीटर और कुपवाड़ा से करीब 30 किलोमीटर दूर है। – ये मंदिर विद्या की देवी सरस्वती को समर्पित है। कश्मीरी पंडितों का मानना है कि शारदा पीठ में पूजी जाने वाली माँ  शारदा तीन शक्तियों का संगम है।  पहली शारदा (शिक्षा की देवी) दूसरी सरस्वती (ज्ञान की देवी) और वाग्देवी (वाणी की देवी)     शैव संप्रदाय के जनक शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों यहां पर आए थे।  दोनों ने यहां महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की।  शंकराचार्य ने सर्वज्ञ पीठ पर बैठे।  रामानुजाचार्य ने यही पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया। 

शारदापीठ देवी सरस्वती का प्राचीन मन्दिर है जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में शारदा के निकट किशनगंगा नदी (नीलम नदी) के किनारे स्थित है।   इसके भग्नावशेष भारत-पाक नियन्त्रण-रेखा के निकट स्थित हैं।  इस पर भारत का अधिकार है।  इसके आसपास का इलाका बहुत सुंदर और मनोरम है।  इसे करीब 2400 साल पुराना बताया जाता है। 

ये प्रमुख शक्ति पीठों में एक माना जाता है।  जब भगवान शिव देवी सती के देह त्याग करने के बाद उनके शव लेकर दुख में डूबे थे।  सती के शव के साथ तांडव किया था तब उसमें सती का दाहिना हाथ यहां आ गिरा। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार, इसे देवी शक्ति के 18 महाशक्ति पीठों में एक माना गया। माना जाता है कि शारदा पीठ शाक्त संप्रदाय को समर्पित पहला तीर्थ स्थल है। 

इतिहासकारों के अनुसार, शारदा पीठ मंदिर 'अमरनाथ' और अनंतनाग के 'मार्तण्ड सूर्य मंदिर' की तरह की कश्मीरी पंडितों के लिए श्रद्धा का केंद्र रहा। इसमें पिछले 70 सालों से पूजा नहीं हुई।  दिसंबर 2021 के महीने में इस भूमि पर पारंपरिक पूजा की गई।  इस मंदिर के जीर्णोद्धार के लिए सेवा शारदा समिति ने एक मंदिर निर्माण समिति का गठन किया।  समिति में तीन स्थानीय मुस्लिम, एक सिख और कश्मीरी पंडित शामिल थे।  उत्तरी कश्मीर के टिटवाल गांव में 28 मार्च को माता शारदा मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ।  मंदिर के साथ-साथ गुरुद्वारा और मस्जिद का निर्माण भी शुरू हुआ।  सेवा  शारदा कमेटी (SSC) के पदाधिकारियों ने कहा कि हम यहां भाईचारे की मिसाल कायम करना चाहते हैं। 'SSC'  प्रमुख रविंदर पंडिता ने बताया कि तीतवाल में मंदिर निर्माण वाली जगह में पड़ने वाले मार्ग पर वार्षिक छड़ी मुबारक ली जाती थी। स्थानीय मुस्लिमों की मदद से एसएसी ने भूमि को प्राप्त किया। शिलान्यास समारोह के बाद किशनगंगा नदी पर जीरो लाइन पर बने पुल पर पवित्र जल समर्पित किया। केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की वक्फ विकास समिति अध्यक्ष दरक्षान अंद्राबी ने मंदिर की आधारशिला रखी। तीतवाल में मंदिर निर्माण के साथ शारदा लिपि और शारदा पीठ के साथ शोध को बढ़ावा देने के लिए एक सेंटर बनेगा।]      

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏अनन्त असीम ब्रह्म ही भक्त के लिये ससीम सगुण भगवान बन जाते हैं🔱🙏  

श्रीरामकृष्ण - भक्तिरूपी हिम के लगने से उसी (अनन्त -असीम) जल का कुछ अंश बर्फ (ससीम) बन जाता है । फिर ज्ञान-सूर्य के उगने पर वह बर्फ गलकर जल का फिर जल (सच्चिदानन्द) ही हो जाता है ।

ভক্তি হিমে ওই জলেরই খানিকটা বরফ হয়ে যায়। আবার জ্ঞান-সূর্য উদয় হলে ওই বরফ গলে আবার যেমন জন তেমনি হয়।”

In a shoreless ocean — an infinite expanse of water — visible blocks of ice are formed here and there by intense cold. Similarly, under the cooling influence, so to say, of the deep love of Its worshipper, the Infinite reduces Itself to the finite and appears before the .worshipper as God with form. Again, as, on the rising of the sun, the ice melts away, so, on the awakening of Knowledge, God with form melts away into the same Infinite and Formless (Existence-Consciousness-Bliss).

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏आत्मा  (spirit) को मन (अहं) के द्वारा नहीं 

आत्मा  (spirit) के द्वारा ही जाना जाता है🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - "जब तक मनुष्य मन (मिथ्या अहं) के द्वारा विचार करता है, तब तक वह नित्य को नहीं प्राप्त कर सकता । जब तक तुम अपने मन का सहारा लेकर विचार करते हो तब तक तुम संसार के परे नहीं जा सकते, तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द आदि इन्द्रिय-विषयों को भी नहीं छोड़ सकते ।

"As long as a man analyses with the mind, he cannot reach the Absolute. As long as you reason with your mind, you have no way of getting rid of the universe and the objects of the senses — form, taste, smell, touch, and sound. 

“যতক্ষণ মনের দ্বারা বিচার ততক্ষণ নিত্যেতে পৌঁছানো যায় না। মনের দ্বারা বিচার করতে গেলেই জগৎকে ছাড়বার জো নাই, — রূপ, রস, গন্ধ, স্পর্শ, শব্দ, — ইন্দ্রিয়ের এই সকল বিষয়কে ছাড়বার জো নাই। 

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏विचार (तर्क-वितर्क) के अन्त में मन का नाश तथा ब्रह्मज्ञान🔱🙏

श्रीरामकृष्ण - " विचार (तर्क-वितर्क) के बन्द होने पर ही ब्रह्मज्ञान होता है । इस मन से कोई आत्मा को जान नहीं सकता । आत्मा के द्वारा ही आत्मा का ज्ञान प्राप्त होता है । शुद्ध मन, शुद्ध बुद्धि, शुद्ध आत्मा, ये सब एक ही वस्तु हैं ।

When reasoning stops, you attain the Knowledge of Brahman. Atman cannot be realized through this mind; Atman is realized through Atman alone. Pure Mind, Pure Buddhi, Pure Atman — all these are one and the same.

বিচার বন্ধ হলে তবে ব্রহ্মজ্ঞান। এ মনের দ্বারা আত্মাকে জানা যায় না। আত্মার দ্বারাই আত্মাকে জানা যায়। শুদ্ধমন, শুদ্ধবুদ্ধি, শুদ্ধ-আত্মা, একই।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏दर्शन के लिये मनःसंयोग का प्रशिक्षण अनिवार्य है 🔱🙏 

श्रीरामकृष्ण - " देखो न, एक ही वस्तु को देखने के लिए कितनी चीजों की आवश्यकता होती है । आँखें चाहिए, उजाला चाहिए और मन का संयोग होना चाहिए । इन तीनों में से किसी एक को छोड़ देने से दर्शन नहीं होता । मन का यह काम जब तक चल रहा है, तब तक किस तरह कहोगे कि संसार नहीं है या मैं नहीं हूँ ?

"Just think how many things you need to perceive an object. You need eyes; you need light; you need mind. You cannot perceive the object if you leave out any one of these three. As long as the mind functions, how can you say that the universe and the 'I' do not exist?

“দেখ না, একটা জিনিস দেখতেই কতকগুলো দরকার — চক্ষু দরকার, আলো দরকার, আবার মনের দরকার। এই তিনটার মধ্যে একটা বাদ দিলে তার দর্শন হয় না। এই মনের কাজ যতক্ষণ চলছে, ততক্ষণ কেমন করে বলবে যে, জগৎ নাই, কি আমি নাই?

[हरिबाबू (हरि चौधरी) - मास्टर महाशय के पड़ोसी और मित्र थे । वे (20.8.1883) को श्री रामकृष्ण के दर्शन के लिए मास्टर महाशय के साथ दक्षिणेश्वर गए थे । श्रीश्रीठाकुर ने उन्हें अकेला रहने वाले और सिर्फ 'कोंहड़ा काटने वाले भैंसुर जी' न होकर भगवान के चरण कमलों में मन लगाकर गृहस्थ जीवन के काम करने का उपदेश दिया दिया था। दादा कहते थे, "चरित्र जंगल में बैठकर पकाने की चीज नहीं है।"  अकेले रहने से, संसार में व्यवहार करते समय , और गृहस्थ जीवन का सब काम करते समय अनासक्त हुए कि नहीं चरित्र-निर्माण हुआ कि नहीं, कैसे जानोगे?  হরিবাবু (হরি চৌধুরী) — মাস্টার মহাশয়ের প্রতিবেশী ও বন্ধু। মাস্টার মহাশয়ের সহিত দক্ষিণেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণকে দর্শন করিতে যান (২০।৮।১৮৮৩)। শ্রীশ্রীঠাকুর ইঁহাকে ‘কুমড়োকাটা বঠ্‌ঠাকুর’ না হইয়া ঈশ্বরের পাদপদ্মে মন রাখিয়া সংসারের কাজ করিতে উপদেশ দিয়াছিলেন।]


[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏मन का अतिक्रमण करके समाधि में ब्रह्मज्ञान होता है🔱🙏 

[By transcending the mind, there is Brahmagyan in Samadhi.] 

[नेति-नेति विवेक-प्रयोग के अन्त में मन का नाश और ब्रह्मज्ञान]

[বিচারান্তে মনের নাশ ও ব্রহ্মজ্ঞান ]   

श्रीरामकृष्ण - "मन का नाश होने पर, संकल्प और विकल्प के चले जाने पर समाधि होती है - ब्रह्मज्ञान होता है । परन्तु – सा, रे, ग, म, प, ध, नि - 'नि' में बड़ी देर तक नहीं रहा जाता ।”

"When the mind is annihilated, when it stops deliberating pro and con, then one goes into samadhi, one attains the Knowledge of Brahman. You know the seven notes of the scale: sa, re, ga, ma, pa, dha, ni. One cannot keep one's voice on 'ni' very long."

“মনের নাশ হলে, সঙ্কল্প-বিকল্প চলে গেলে, সমাধি হয়, ব্রহ্মজ্ঞান হয়। কিন্তু সা রে গা মা পা ধা নি — নি-তে অনেকক্ষণ থাকা যায় না।”

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

*छोटे नरेन्द्र को उपदेश *

[छोटे नरेन्द्र (नरेंद्रनाथ मित्र) - श्यामपुकुर के निवासी और श्रीम के छात्र थे । वे श्री रामकृष्ण की कृपा-प्राप्त एक शुद्ध आत्मा भक्त थे। स्वामी विवेकानंद का नाम भी "नरेन्द्र" था, इसीलिये ठाकुर देव उनको "छोटे नरेन्द्र" के नाम से पुकारते थे। ठाकुर के प्रति अपने तीव्र आकर्षण के कारण, वे सभी बाधाओं और खतरों की उपेक्षा करते हुए, अक्सर दक्षिणेश्वर जाया करते थे। ठाकुर भी उन्हें देखने के लिए उत्सुक रहते थे - और अक्सर उन्हें देखते ही समाधि में चले जाते थे। ठाकुर के सानिध्य में छोटे नरेन्द्र को भी बीच बीच में भावसमाधि हुआ करती थी। बाद के जीवन में वे उच्च न्यालय के वकील बने - और रामकृष्ण मिशन के कानूनी सलाहकार बने थे। लेकिन दुर्भाग्य से उनका वैवाहिक जीवन सुखमय नहीं था।]

🔱🙏 ईश्वरदर्शन के बाद उन्हें अपने घर में लाकर उनसे बात-चीत करो🔱🙏

[ছোট নরেনকে উপদেশ — ঈশ্বরদর্শনের পর তাঁর সঙ্গে আলাপ ]

छोटे नरेन्द्र की ओर देखकर श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, " ‘ईश्वर है' - केवल इतना ही आभास पाने से क्या होगा ? ईश्वर की केवल झलक से ही सब कुछ हो जाता हो, सो बात नहीं ।

Looking at the younger Naren, Sri Ramakrishna said: "What will you gain by merely being intuitively aware of God's existence? A mere vision of God is by no means everything. 

ছোট নরেনের দিকে তাকাইয়া ঠাকুর বলিতেছেন, “শুধু ঈশ্বর আছেন, বোধে বোধ করলে কি হবে? ঈশ্বরদর্শন হলেই যে সব হয়ে গেল, তা নয়।

"उन्हें अपने घर ले आना चाहिए - उनसे जान-पहचान करनी चाहिए ।

You have to bring Him into your room. You have to talk to Him.

“তাঁকে ঘরে আনতে হয় — আলাপ করতে হয়।

"किसी ने दूध की बात सुनी ही है, किसी ने दूध देखा है और किसी ने पिया है ।

"Some have heard of milk, some have seen milk, and some have drunk milk. 

“কেউ দুধ শুনেছে, কেউ দুধ দেখেছে, কেউ দুধ খেয়েছে।

"राजा को किसी किसी ने देखा है, परन्तु दो एक आदमी उन्हें अपने मकान ले आ सकते हैं और उन्हें खिला-पिला सकते हैं ।"

Some have seen the king, but only one or two can bring the king home and entertain him."

“রাজাকে কেউ কেউ দেখেছে। কিন্তু দু-একজন বাড়িতে আনতে পারে, আর খাওয়াতে-দাওয়াতে পারে।”

मास्टर गंगा-स्नान के लिए गये ।

M. went to the Ganges to take his bath.

মাস্টার গঙ্গাস্নান করিতে গেলেন।

(४)

[(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117]

🔱🙏*वाराणसी में शिव तथा अन्नपूर्णा दर्शन*🔱🙏

दिन के दस बजे का समय हो गया । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । मास्टर ने गंगा-स्नान करके श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया और उनके पास बैठे ।

It was ten o'clock. Sri Ramakrishna was still talking with the devotees. After finishing his bath, M. returned to Balaram's house. He saluted the Master and sat down near him.

বেলা দশটা বাজিয়াছে। ঠাকুর ভক্তসঙ্গে কথা কহিতেছেন। মাস্টার গঙ্গাস্নান করিয়া আসিয়া ঠাকুরকে প্রণাম করিলেন ও কাছে বসিলেন।

श्रीरामकृष्ण भाव के पूर्णावेश में कितनी ही बातें कह रहे हैं । बीच बीच में दर्शन की गुह्य बातें कह रहे हैं ।

Sri Ramakrishna was filled with intense spiritual fervour. Words of wisdom flowed from him. Now and then he narrated his profound mystical experiences to the devotees.

ঠাকুর ভাবে পূর্ণ হইয়া কত কথাই বলিতেছেন। মাঝে মাঝে অতি গুহ্য দর্শনকথা একটু একটু বলিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - मथुरबाबू के साथ मैं वाराणसी गया था । मणिकर्णिका के घाट से हमारी नाव जा रही थी; एकाएक मुझे शिव के दर्शन हुए । मैं नाव के एक सिरे पर खड़ा हुआ समाधिमग्न हो गया। मल्लाह हृदय से कहने लगे, 'अरे ! पकड़ो !' उन्होंने सोचा, मैं कहीं गिर न जाऊँ । देखा, शिव मानो संसार की कुल गम्भीरता लिए हुए खड़े हैं । पहले मैंने उन्हें दूर खड़े हुए देखा था, फिर मेरे पास आने लगे और मेरे भीतर विलीन हो गये ।

MASTER: "I went to Benares with Mathur Babu. Our boat was passing the Manikarnika Ghat on the Ganges, when suddenly I had a vision of Siva. I stood near the edge of the boat and went into samadhi. The boatman, fearing that I might fall into the water, cried to Hriday: 'Catch hold of him! Catch hold of him!' I saw Siva standing on that ghat, embodying in Himself all the seriousness of the world. At first I saw Him standing at a distance; then I saw Him approaching me. At last He merged in me.

শ্রীরামকৃষ্ণ — সেজোবাবুর সঙ্গে যখন কাশী গিয়েছিলাম, মণিকর্ণিকার ঘাটের কাছ দিয়ে আমাদের নৌকা যাচ্ছিল। হঠাৎ শিবদর্শন। আমি নৌকার ধারে এসে দাঁড়িয়ে সমাধিস্থ। মাঝিরা হৃদেকে বলতে লাগল — ‘ধর! ধর!’ পাছে পড়ে যাই। যেন জগতের যত গম্ভীর নিয়ে সেই ঘাটে দাঁড়িয়ে আছেন। প্রথমে দেখলাম দূরে দাঁড়িয়ে তারপর কাছে আসতে দেখলাম, তারপর আমার ভিতরে মিলিয়ে গেলেন!

"भावावेश में मैंने देखा, एक संन्यासी मेरा हाथ पकड़कर मुझे लिए जा रहा है । एक ठाकुर-मन्दिर में मैं घुसा, वहाँ सोने की अन्नपूर्णा देखी ।

"Another time, in an ecstatic mood, I saw that a sannyasi was leading me by the hand. We entered a temple and I had a vision of Annapurna made of gold.

ভাবে দেখলাম, সন্ন্যাসী হাতে ধরে নিয়ে যাচ্ছে। একটি ঠাকুরবাড়িতে ঢুকলাম — সোনার অন্নপূর্ণাদর্শন হল!

श्रीरामकृष्ण - "वे ही यह सब हुए हैं, - किसी किसी वस्तु (जैसे हिग्स बोसॉन या God Particle -शालीग्राम)  में उनका प्रकाश अधिक है ।

"God alone has become all this; but He manifests Himself more in certain things than in others.

“তিনিই এই সব হয়েছেন, — কোন কোন জিনিসে বেশি প্রকাশ।

[(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117]

🔱🙏चक्रयुक्त शालिग्राम सपमूर्ण ब्रह्माण्ड के ईश्वर श्री विष्णु का प्रतिक है🔱🙏

[The whole universe is Shaligram Bhagwan -God Particle ]

(ব্রহ্মাণ্ড একটি শালগ্রাম)  

श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) "तुम लोग शायद शालिग्राम में विश्वास नहीं करते – इंग्लिशमैन भी नहीं करते । तुम लोग मानो चाहे न मानो, कोई बात नहीं । शालिग्राम अगर सुलक्षणयुक्त हों - उनमें अच्छे चक्र आदि हों - तभी ईश्वर के प्रतीक (जगत के पालनहार श्री विष्णु के अवतार-ठाकुरदेव के प्रतीक-सत्यनारायण) रूप में उनकी पूजा हो सकती है ।"

(To M.) "Perhaps you do not believe in the salagram. 'Englishmen' do not believe in it. It doesn't matter whether you believe in it or not. A salagram should contain the mark of a disc and other signs; only then can it be worshipped as an emblem of God."

(মাস্টারাদির প্রতি) — “শালগ্রাম তোমরা বুঝি মান না — ইংলিশম্যানরা মানে না। তা তোমরা মানো আর নাই মানো। সুলক্ষণ শালগ্রাম, — বেশ চক্র থাকবে, — গোমুখী। আর সব লক্ষণ থাকবে — তাহলে ভগবানের পূজা হয়।”

मास्टर - जी, जैसे उत्तम लक्षणवाले मनुष्य के भीतर ईश्वर का प्रकाश अधिक है ।

M: "Yes, sir. It is like the fuller manifestation of God in a man with good physical traits."

মাস্টার — আজ্ঞা, সুলক্ষণযুক্ত মানুষের ভিতর যেমন ঈশ্বরের বেশি প্রকাশ।

श्रीरामकृष्ण - नरेन्द्र पहले इन सब बातों को मन की भूल कहा करता था, अब सब मानने लगा है।

MASTER: "At first Narendra used to say that these were figments of my imagination; but now he accepts everything."

শ্রীরামকৃষ্ণ — নরেন্দ্র আগে মনের ভুল বলত, এখন সব মানছে।

ईश्वर-दर्शन की बातें कहते हुए श्रीरामकृष्ण को भाव की अवस्था हो रही है । धीरे-धीरे आप भाव-समाधि में लीन हो गये । भक्तगण चुपचाप एकटक दृष्टि से देख रहे हैं । बड़ी देर बाद श्रीरामकृष्ण ने भाव को रोका और फिर बातचीत करने लगे ।

Sri Ramakrishna was describing the vision of God, when he went into samadhi. The devotees looked at him with fixed gaze. After a long time he regained consciousness of the world and talked to the devotees.

ঈশ্বরদর্শনের কথা বলিতে বলিতে ঠাকুরের ভাবাবস্থা হইয়াছে। ভাব-সমাধিস্থ। ভক্তেরা একদৃষ্টে চুপ করিয়া দেখিতেছেন। অনেকক্ষণ পরে ভাব সম্বরণ করিলেন ও কথা কহিতে লাগিলেন।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - मैं देख रहा था, ब्रह्माण्ड एक शालग्राम है । उसके भीतर तुम्हारी दो आँखें देख रहा था ।

MASTER (to M.): "What do you think I saw? I saw the whole universe as a salagram, and in it I saw your two eyes."

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারের প্রতি) — কি দেখছিলাম। ব্রহ্মাণ্ড একটি শালগ্রাম। — তার ভিতর তোমার দুটো চক্ষু দেখছিলাম!

[>>  Shaligram Bhagwan:^*जालन्धर, वृन्दा, शाप, तुलसी, श्रीविष्णु, शालीग्राम भगवान  धार्मिक ग्रंथों के अनुसार शालिग्राम जी जगत के पालनहार श्री हरि विष्णु का विग्रह स्वरूप हैं।  शालिग्राम शिला को विष्णु का अवतार माना गया है। शालिग्राम शिला में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती है। ये काले रंग के गोल चिकने पत्थर के स्वरूप में होते हैं। इन्हीं के साथ तुलसी जी का विवाह हुआ है। ये नेपाल के गंडक नदी के तल में पाए जाते हैं। यहां पर सालग्राम नामक स्थान पर भगवान विष्णु का मंदिर है, जहां उनके इस रूप का पूजन होता है। कहा जाता है कि इस ग्राम के नाम पर ही उनका नाम शालिग्राम पड़ा। 

राम जन्मभूमि (अयोध्या)  के पुराने मंदिर शालिग्रामी शिला से बने हुए थे।  "नेपाल की शालिग्रामी नदी में काले रंग के एक विशेष प्रकार के पत्थर पाए जाते हैं। धार्मिक मान्यताओं में इन्हें शालिग्राम भगवान विष्णु का रूप कहा जाता है। प्राचीनकाल की मूर्तिकला में इस पत्थर का इस्तेमाल किया जाता रहा है।" "शालिग्रामी पत्थर बेहद मजबूत होते हैं। इसलिए, शिल्पकार बारीक से बारीक आकृति उकेर लेते हैं। अयोध्या में भगवान राम की सांवली प्रतिमा इसी तरह की शिला पर बनी हैं। राम जन्मभूमि के पुराने मंदिर में कसौटी के अनेक स्तंभ इन्हीं शिलाओं से बने थे।

 "नेपाल की शालिग्रामी नदी, भारत में प्रवेश करते ही नारायणी बन जाती है। सरकारी कागजों में इसका नाम बूढ़ी गंडकी नदी है। शालिग्रामी नदी के काले पत्थर भगवान शालिग्राम के रूप में पूजे जाते हैं। बताया जाता है कि शालिग्राम पत्थर, सिर्फ शालिग्रामी नदी में मिलता है। नेपाल में पोखरा स्थित शालिग्रामी नदी (काली गंडकी ​​​​​) से यह दोनों शिलाएं जियोलॉजिकल और ऑर्किलॉजिकल विशेषज्ञों की देखरेख में निकाली गई हैं। 26 जनवरी, 2023  को ट्रक में लोड किया गया। पूजा-अर्चना के बाद दोनों शिलाओं को ट्रक से सड़क मार्ग से अयोध्या भेजा जा रहा है। नेपाल में पोखरा के पास गंडकी नदी से दो विशालकाय शालिग्राम शिलाएं अयोध्या लाई जा रही हैं।  ये दोनों शिलाएं 2 फरवरी, 2023  को अयोध्या पहुंचेंगी।  इन शिलाओं से ही भगवान श्री राम  की मूर्ति को तैयार किया जाएगा। रास्ते में इन शिलाओं के दर्शन और स्वागत के लिए भी लोग जुटे हैं। एक शिला का वजन 26 टन जबकि दूसरे का 14 टन है। यानी दोनों शिलाओं का वजन 40 टन है। इनसे श्रीराम और माता सीता की मूर्ति बनाई जाएंगी। दावा है कि ये शिलाएं करीब 6 करोड़ साल पुरानी हैं। ये पत्थर बेहद मजबूत हैं, ऐसे में इन पर बारीक से बरीक नक्काशी की जा सकती है।

स्विटजरलैंड की सर्न (CERN) प्रयोगशाला में हिग्स बोसोन या God Particle की खोज कर ली गई है। वैज्ञानिक इससे ये साबित करने में जुटे थे कि कणों में भार क्यों होता है ? भार या द्रव्यमान वो चीज है जो कोई चीज़ अपने अंदर रख सकता है।  जब कणों में भार आता है तो वो एक दूसरे से मिलते हैं। अगर कुछ नहीं होगा तो फिर किसी चीज़ के परमाणु उसके भीतर घूमते रहेंगे और जुड़ेंगे ही नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार हर खाली जगह में एक फील्ड बना हुआ है जिसे हिग्स फील्ड का नाम दिया गया इस फील्ड में कण होते हैं जिन्हें हिग्स बोसोन कहा गया है। लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर नामक परियोजना में दस अरब डॉलर खर्च हो चुके हैं. लीवरपूल यूनिवर्सिटी में पार्टिकल फिजिक्स पढ़ाने वाली तारा सियर्स कहती हैं,  ‘‘हिग्स बोसोन से कणों को भार मिलता है. यह सुनने में बिल्कुल सामान्य लगता है. लेकिन अगर कणों में भार नहीं होता तो फिर तारे नहीं बन सकते थे।  आकाशगंगाएं न होंती और परमाणु भी नहीं होते. ब्रह्माण्ड कुछ और ही होता। ’’]  

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117]

🔱🙏महामण्डल- (शालीग्राम,C-IN-C) गुरु  के भक्त युवा शिष्यों की सूची बनाओ🔱🙏

(अर्थात 'Be and Make' आन्दोलन के उत्साही नेताओं की सूची बनाओ)  

मास्टर और भक्तगण यह अद्भुत और अश्रुतपूर्व दर्शन आश्चर्यचकित होकर सुन रहे हैं । इसी समय एक और बालक-भक्त (शालीग्राम-गुरु का युवा शिष्य-young disciple of the Master) सारदा आये और श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।

In silent wonder M. and the devotees listened to these words about his inner experience. At this moment Sarada, another young disciple of the Master, entered the room and saluted him.

মাস্টার ও ভক্তেরা এই অদ্ভুত, অশ্রুতপূর্ব দর্শনকথা অবাক্‌ হইয়া শুনিতেছেন। এই সময় আর-একটি ছোকরা ভক্ত, সারদা, প্রবেশ করিলেন ও ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া উপবেশন করিলেন।

श्रीरामकृष्ण (सारदा से) - तू दक्षिणेश्वर क्यों नहीं आता ? मैं जब कलकत्ता आया करता हूँ, तो तू दक्षिणेश्वर क्यों नहीं आता ?

MASTER (to Sarada): "Why don't you come to Dakshineswar? Why don't you see me when I come to Calcutta?"

শ্রীরামকৃষ্ণ (সারদার প্রতি) — দক্ষিণেশ্বরে যাস না কেন? কলিকাতায় যখন আসি, তখন আসিস না কেন?

सारदा - मुझे खबर नहीं मिलती ।

SARADA: "Nobody tells me about it."

সারদা — আমি খবর পাই না।

श्रीरामकृष्ण - अब तुझे ख़बर दूँगा । (मास्टर से, सहास्य) लड़कों की एक (सूची) फेहरिस्त तो बनाओ । (मास्टर और भक्त हँसते हैं)

MASTER: "Next time I shall let you know. (To M., smiling) Make a list of these youngsters." (M. and the devotees laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — এইবার তোকে খবর দিব। (মাস্টারকে সহাস্যে) একখানা ফর্দ করো তো — ছোকরাদের। (মাস্টার ও ভক্তদের হাস্য)

सारदा - घरवाले विवाह कर देना चाहते हैं । ये (मास्टर) विवाह की बात पर कितने ही बार मना कर चुके हैं ।

SARADA: "My relatives at home want me to marry. (Pointing to M.) How many times he has scolded me about marriage!"

সারদা — বাড়িতে বিয়ে দিতে চায়। ইনি (মাস্টার) বিয়ের কথায় আমাদের কতবার বকেছেন।

श्रीरामकृष्ण - अभी विवाह क्यों ?(मास्टर से) "सारदा की अच्छी अवस्था हो गयी है, पहले संकोच का भाव था, अब मुख पर आनन्द ^* आ गया है ।"

MASTER: "Why should you marry just now? (To M.) Sarada is now in a very good state of mind. Formerly he had a hesitant look; now his face beams with joy."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এখন বিয়ে কেন? (মাস্টারের প্রতি) সারদার বেশ অবস্থা হয়েছে। আগে সঙ্কোচ ভাব ছিল। যেন ছিপের ফাতা টেনে নিত। এখন মুখে আনন্দ এসেছে

[साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है। दुःख के वर्ग में जो स्थान 'भय' का है, आनंद वर्ग में वही स्थान 'उत्साह' का है। जिन कर्मों में किसी प्रकार का कष्ट या हानि सहने का साहस अपेक्षित होता है, उन सबके प्रति उत्कंठापूर्ण आनंद उत्साह के अंतर्गत लिया जाता है।  इनमें सबसे प्राचीन और प्रधान युद्ध-वीरता है, जिसमें प्राणांत, पीड़ा क्या मृत्यु तक की परवाह नहीं रहती। इस प्रकार की वीरता का प्रयोजन अत्यंत प्राचीन काल से पड़ता चला आ रहा है, जिसमें साहस और प्रयत्न दोनों चरम उत्कर्ष पर पहुँचते हैं। कर्म-सौंदर्य के उपासक ही सच्चे उत्साही कहलाते हैं। (साभार -उत्साह-आचार्य रामचंद्र शुक्ल; https://www.hindwi.org/essay/

utsaah-ramchandra-shukla-eassy)

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117]

[पूर्ण की खबर - नरेंद्रदर्शन में ठाकुर का आनंद]

[পূর্ণের সংবাদ — নরেন্দ্রদর্শনে ঠাকুরের আনন্দ ]

श्रीरामकृष्ण एक भक्त से पूछ रहे हैं - "तुम क्या एक बार पूर्ण को ले आओगे ?"

Sri Ramakrishna said to a devotee, "Will you kindly fetch Purna?"

ঠাকুর একজন ভক্তকে বলিতেছেন, “তুমি একবার পূর্ণর জন্য যাবে?”

नरेन्द्र आये । श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को जलपान कराने के लिए कहा । नरेन्द्र को देखकर श्रीरामकृष्ण को बड़ा आनन्द हो रहा है । नरेन्द्र को खिलाकर मानो वे साक्षात् नारायण की सेवा करते हैं । उनकी देह पर हाथ फेरकर उन्हें प्यार कर रहे हैं ।

Narendra arrived. Sri Ramakrishna asked a devotee to give him some refreshments. He was greatly pleased at the sight of Narendra. When he fed Narendra, he felt that he was feeding Narayana Himself. He stroked Narendra's body affectionately.

এইবার নরেন্দ্র আসিয়াছেন। ঠাকুর নরেন্দ্রকে জল খাওয়াইতে বলিলেন। নরেন্দ্রকে দেখিয়া বড়ই আনন্দিত হইয়াছেন। নরেন্দ্রকে খাওয়াইয়া যেন সাক্ষাৎ নারায়ণের সেবা করিতেছেন। গায়ে হাত বুলাইয়া আদর করিতেছেন, যেন সূক্ষ্মভাবে হাত-পা টিপিতেছেন!

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏 क्या मैं लक्ष्य तक पहुँच गया हूँ, या मुझे अभी और आगे जाना है?🔱🙏

[Have I reached the goal, or have I farther to go?]

আমার কি হয়েছে; না বাকী আছে?

गोपाल की माँ Aghormani Devi (1822 - 1906) उम्र में ठाकुर से 14 वर्ष बड़ी थीं।]-जिन्हें श्री रामकृष्ण में गोपाल या शिशु कृष्ण के दर्शन हुए थे]  कमरे के भीतर आयी । श्रीरामकृष्ण ने बलराम से कामारहाटी आदमी भेजकर गोपाल की माँ को ले आने के लिए कहा था । इसीलिए वे आयी हुई हैं । कमरे के भीतर आते ही गोपाल की माँ कह रही हैं, 'मारे आनन्द के मेरी आँखों से आँसू बह रहे हैं ।’ यह कहकर श्रीरामकृष्ण को भूमिष्ठ हो उन्होंने प्रणाम किया ।

Gopal Ma entered the room. She was a great devotee of Gopala and was blessed with many lofty spiritual visions. Sri Ramakrishna had asked Balaram to send a man to bring her from Kamarhati. As soon as she entered the room she said, "I am shedding tears of joy." With these words she bowed before the Master, touching the ground with her forehead.

গোপালের মা (‘কামারহাটির বামনী’)ঘরের মধ্যে আসিলেন। ঠাকুর বলরামকে কামারহাটিতে লোক পাঠাইয়া গোপালের মাকে আনিতে বলিয়াছিলেন। তাই তিনি আসিয়াছেন। গোপালের মা ঘরের মধ্যে আসিয়াই বলিতেছেন, “আমার আনন্দে চক্ষে জল পড়ছে।” এই বলিয়া ঠাকুরকে ভূমিষ্ঠ হইয়া নমস্কার করিলেন।

श्रीरामकृष्ण - यह क्या है, तुम मुझे 'गोपाल' भी कहती हो और प्रणाम भी करती हो !"जाओ, घर में कोई तरकारी बनाओ जाकर, खूब बघार देना जिससे यहाँ तक सुगन्ध आये ।" (सब हँसते हैं)

MASTER: "What is this? You address me as 'Gopala' and still you salute me! Now go into the inner apartments and cook some curry for me. Put some spicy seasoning in it so that I may get the smell from here." (All laugh.)

শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি গো। এই তুমি আমাকে গোপাল বল — আবার নমস্কার!“যাও, বাড়ির ভিতর গিয়ে একটি বেন্নন রাঁধ গে — খুব ফোড়ন দিও — যেন এখানে পর্যন্ত গন্ধ আসে।” (সকলের হাস্য)

गोपाल की माँ - ये लोग (घर के लोग) क्या सोचेंगे ?

GOPAL MA: "What will they [meaning the members of the household] think of me?"

গোপালের মা — এঁরা (বাড়ির লোকেরা) কি মনে করবে?

घर के भीतर जाने से पहले उन्होंने नरेन्द्र से कातर स्वर में कहा, 'भैया, मेरी बन गयी या अभी कुछ बाकी है ?"

Before she left the room she said to Narendra in a very fervent voice, "My child, have I reached the goal, or have I farther to go?"

বাড়ির ভিতর যাইবার আগে তিনি নরেন্দ্রকে সম্বোধন করিয়া কাতরস্বরে বলিতেছেন, “বাবা! আমার কি হয়েছে; না বাকী আছে?

[ (13 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏सारदा नारी संगठन के प्रति महामण्डल के नेता का दृष्टिकोण🔱🙏

आज रथ यात्रा है । श्रीजगन्नाथजी के भोग आदि के होने में कुछ देर हो गयी । अब श्रीरामकृष्ण भोजन करेंगे, अन्तःपुर की ओर जा रहे हैं । भक्त-स्त्रियाँ उनके दर्शन करने के लिए उत्सुक हैं । 

It was the day of the Car Festival; so there was some delay in the worship of the Family Deity. When the worship was finished Sri Ramakrishna was asked to have his meal. He went to the inner apartments. The woman devotees were anxious to see him.

আজ রথযাত্রা — শ্রীশ্রীজগন্নাথের ভোগরাগাদি হইতে একটু দেরি হইয়াছে। এইবার ঠাকুর সেবা হইবে। অন্তঃপুরে যাইতেছেন। মেয়ে ভক্তেরা ব্যাকুল হইয়া আছেন, — তাঁহাকে দর্শন ও প্রণাম করিবেন . 

🔱Sri Ramakrishna had many woman devotees, but he did not talk much about them to his man devotees.

बहुत सी स्त्रियाँ श्रीरामकृष्ण की भक्ति करती थीं । परन्तु उनकी बातें वे पुरुष भक्तों से न कहते थे

[नवनीदा की भक्ति बहुत सी स्त्रियाँ भी करती थीं । परन्तु उनके बारे में अधिक चर्चा वे अपने पुरुष भक्तों से नहीं करते थे।]

ঠাকুরের অনেক স্ত্রীলোক ভক্ত ছিলেন। কিন্তু তিনি তাঁহাদের কথা পুরুষ ভক্তদের কাছে বেশী বলিতেন না। 

🔱He would warn the men against visiting woman devotees. He would say: "Don't overdo it. Otherwise you will slip."

कोई परुष-भक्त यदि किसी स्त्री-भक्त से पास अधिक आना-जाना करते तो वे उससे कहते थे - "उसके पास ज्यादा न जाया कर, गिर जायेगी ।” 

[श्री नवनीदा अपने पुरुष भक्तों को उपदेश देते हुए कहते थे - ब्रह्मचर्य के विषय में बाईबिल नहीं अपने पुराणों से जलन्धर -वृन्दा, तुलसी-विष्णु-शालीग्राम का या उपनिषदों का प्रसंग सुनाओ, अकेले कमरे में किसी स्त्री भक्त को अपने पास अधिक देर तक बैठने की अनुमति मत दो!]    

 কেহ মেয়ে ভক্তদের কাছে যাতায়াত করিলে, বলিতেন, ‘বেশী যাস নাই; পড়ে যাবি!’ 

 🔱To some of his man devotees he would say, "Don't go near a woman even if she rolls on the ground with devotion."

कभी कभी कहते थे, "अगर मारे भक्ति के कोई स्त्री जमीन में लोटती भी रहे तो भी उसके पास न जाना चाहिए ।" 

 কখন কখন বলিতেন, ‘যদি স্ত্রীলোক ভক্তিতে গড়াগড়ি যায়, তবুও তার কাছে যাতায়াত করবে না।’ 

🔱The Master wanted the men to live apart from woman devotees; only thus would the two groups make progress.

श्री रामकृष्ण का स्पष्ट आदेश था - "स्त्री-भक्त अलग रहेंगी – पुरुष-भक्त अलग, तभी दोनों की भलाई हैं । "

[नवनीदा का स्पष्ट आदेश था - 'सारदा नारी संगठन'  का कैम्प अलग होगा, पाठचक्र अलग होगा,  सारदा नारी संगठन के समस्त क्रियाकलाप केवल नारियों द्वारा ही संचालित होंगे। विशेष प्रयोजन होने पर  महामण्डल के कुछ वरिष्ठ सदस्य ही उनको सहयोग देने जा सकते हैं। तभी महामण्डल और नारी संगठन दोनों की भलाई है।]   

"মেয়েভক্তেরা আলাদা থাকবে — পুরুষ-ভক্তেরা আলাদা থাকবে।" তবেই উভয়ের মঙ্গল। 

🔱He did not like the woman devotees to caress the men as "Gopala"; for too much of this motherly affection was not good; it degenerated in time into a harmful relationship.

कभी कहते थे, "स्त्रियों के गोपाल-भाव – वात्सल्य-भाव - का अतिरेक अच्छा नहीं । उसी वात्सल्य से एक दिन बुरा भाव पैदा हो जाता है ।"

[नवनीदा और गौर दा को किसी स्त्री-भक्त को अपने किसी पुरुष-भक्त के प्रति सखा-भाव रखना, या किसी विशेष पुरुष भक्त को 'गोपाल' के रूप में दुलार करना, अथवा मठ-मिशन के किसी समारोह में मिलजुल कर भाग लेना भी पसन्द नहीं था। क्योंकि सीमा से अधिक वात्सल्य भाव, या सखा-भाव भी समय के साथ बुरे-भाव (insolence-निर्लज्जता,‘তাচ্ছিল্য’) में परिणत हो जाता है!]   

 আবার বলিতেন, “মেয়েভক্তদের গোপাল ভাব — ‘বাৎসল্য ভাব’ বেশি ভাল নয়। ওই ‘বাৎসল্য’ থেকেই আবার একদিন ‘তাচ্ছল্য’ হয়।”

(५)

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

*नरेन्द्रादि भक्तों के साथ कीर्तनानन्द में*

[বলরামের রথযাত্রা — নরেন্দ্রাদি ভক্তসঙ্গে সংকীর্তনানন্দে]

दिन के एक बजे का समय है । भोजन करके श्रीरामकृष्ण फिर बैठकखाने में आकर भक्तों के बीच में बैठे । एक भक्त पूर्ण को बुला लाये हैं । श्रीरामकृष्ण बड़े आनन्द में आकर कहने लगे, 'यह देखो, पूर्ण आ गया ।' नरेन्द्र, छोटे नरेन्द्र, नारायण, हरिपद और दूसरे भक्त श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए उनसे वार्तालाप कर रहे हैं ।

After his midday meal Sri Ramakrishna sat in the drawing-room with the devotees. It was one o'clock. A devotee brought Purna from his home. With great joy the Master exclaimed to M.: "Here he is! Purna has come." Narendra, the younger Naren, Narayan, Haripada, and other devotees were talking with the Master.

বেলা ১টা হইয়াছে। ঠাকুর আহারান্তে আবার বৈঠকখানা গরে আসিয়া ভক্তসঙ্গে বসিয়া আছেন। একটি ভক্ত পূর্ণকে ডাকিয়া আনিয়াছেন। ঠাকুর মহানন্দে মাস্টারকে বলিতেছেন, “এই গো! পূর্ণ এসেছে।” নরেন্দ্র, ছোট নরেন, নারাণ, হরিপদ ও অন্যান্য ভক্তেরা কাছে বসিয়া আছেন ও ঠাকুরের সহিত কথা কহিতেছেন।

[ (14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

[স্বাধীন ইচ্ছা (Free will)  ]

🔱🙏 'मैं' की खोज करने से 'वे' बाहर आ जाते हैं तो स्वतंत्र इच्छा कैसे ?🔱🙏

[Searching for 'I' brings out 'He '; so how about free will?]

अपने को 'अकर्ता' समझकर 'कर्ता' की तरह काम करते रहो ।

[Keep working like a 'doer' considering yourself as a 'non-doer'.]

छोटे नरेन्द्र - अच्छा, हम लोगों में स्वाधीन इच्छा है या नहीं ?

THE YOUNGER NAREN: "Sir, have we any free will?"

ছোট নরেন — আচ্ছা, আমাদের স্বাধীন ইচ্ছা (ফ্রি উইল) আছে কি না?

श्रीरामकृष्ण - मैं क्या हूँ - कौन हूँ, पहले इसे खोज तो लो । 'मैं' की खोज करते ही करते 'वे' निकल पड़ेंगे । 'मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री !' 

MASTER: "Just try to find out who this 'I' is. While you are searching for 'I', 'He' comes out. 'I am the machine and He is the Operator.' 

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কে খোঁজ দেখি। আমি খুঁজতে খুঁজতে তিনি বেরিয়ে পড়েন! ‘আমি যন্ত্র তুমি যন্ত্রী’। 

चीन का बना हुआ यंत्रमानव (robot) {और दूरनियंत्रित यान (drone)} चिट्ठी (पार्सल) लेकर दूकान चला जाता है, तुमने सुना है ? ईश्वर ही कर्ता हैं । 

You have heard of a mechanical toy that goes into a store with a letter in its hand. You are like that toy. God alone is the Doer.

চীনের পুতুল দোকানে চিঠি হাতে করে যায় শুনেছ! ঈশ্বরই কর্তা! 

अपने को 'अकर्ता' समझकर 'कर्ता' की तरह काम करते रहो ।

[मयैवैते निहताः पूर्वमेव, निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्। (गीता 11.33) : हे सव्यसाचिन् मेरे द्वारा ये मारे ही हुए हैं , तुम केवल निमित्त बनो।  संसार में अपने कर्तव्यों का पालन ऐसे करो मानो तुम उसके कर्ता हो, लेकिन हर समय यह ध्यान बनाये रखो कि केवल भगवान ही कर्ता हैं और तुम निमित्त-मात्र हो !]

 [Keep working like a 'doer' considering yourself as a 'non-doer'.]

Do your duties in the world as if you were the doer, but knowing all the time that God alone is the Doer and you are the instrument.

আপনাকে অকর্তা জেনে কর্তার ন্যায় কাজ করো।

[(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

State oF Knowledge

[माँ (तारा,काली , दुर्गा,सारदा) ही ड्रोन ऑपरेटर (Drone operator) हैं !]

🔱🙏'मैं दूरनियंत्रित यान (drone) हूँ और तुम इसके संचालक हो,'यह ज्ञान है🔱🙏   

'I am the machine and You are the Operator' -that is Knowledge

‘আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী’ — এই জ্ঞান

श्रीरामकृष्ण - "जब तक उपाधियाँ हैं, तभी तक अज्ञान हैं । मैं पण्डित हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं धनी हूँ, मैं मानी हूँ, मैं कर्ता हूँ, पिता हूँ, गुरु हूँ, यह सब अज्ञान से उत्पन्न (begotten of ignorance) होता है । ‘मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो,’ यह ज्ञान है ।

"As long as the upadhi exists there is ignorance. 'I am a scholar', 'I am a jnani', 'I am wealthy', 'I am honourable, 'I am the master, father, and doer (teacher) — all these ideas are begotten of ignorance. 'I am the machine and You are the Operator' — that is Knowledge.

“যতক্ষণ উপাধি, ততক্ষণ অজ্ঞান; আমি পণ্ডিত, আমি জ্ঞানী, আমি ধনী, আমি মানী; আমি কর্তা বাবা গুরু — এ-সব অজ্ঞান থেকে হয়। ‘আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী’ — এই জ্ঞান। 

 उस समय सब उपाधियाँ दूर हो जाती हैं । काठ के जल जाने पर फिर शब्द नहीं होता, न ताप रहता है । (उस समय-'जब' अहं की मृत्यु या समाधि हो जाती है - 'तब' ) सब ठण्डा हो जाता है। - शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।”

 In the state oF Knowledge all upadhis are destroyed. When the log is burnt in entirely, there is no more sound; no heat either. Everything cools down. Peace! Peace! Peace!

অন্য সব উপাধি চলে গেল। কাঠ পোড়া শেষ হলে আর শব্দ থাকে না — উত্তাপও থাকে না। সব ঠাণ্ডা! — শান্তিঃ শান্তিঃ শান্তিঃ!

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत हो कर ,गर्व से पुकार कर कहो, कि भारतवासी मेरे भाई हैं🔱

श्रीरामकृष्ण - (नरेन्द्र से) "कुछ गाओ न ।"

 (To Narendra) Sing a little."

(নরেন্দ্রকে) — “একটু গা না।”

नरेन्द्र - घर जाऊँगा, कई काम हैं ।

NARENDRA: "I must go home. I have many things to do."

নরেন্দ্র — ঘরে যাই — অনেক কাজ আছে।

श्रीरामकृष्ण - हाँ भाई, हम लोगों की बात तुम क्यों सुनने लगे । 

जार आछे काने सोना, तार कथा आना आना। 

जार आछे पोंदे टाना, तार कथा केउ सुने ना।।   

जिसके पास पूँजी है, उसी के पीछे लोग लगे रहते हैं, और जिसके कमर पर एक धोती भी साबित नहीं बची है, उसकी बात भला कौन सुनता है ? (सब हँसते हैं)

MASTER: "Yes, yes, my child! Why should you listen to us? The words of those who have gold in their ears are valuable; no one listens to him who hasn't even a rag round his waist.' (All laugh.)

"तुम गुहों के बगीचे में तो जा सकते हो ! जब कभी मैं पूछता हूँ, 'नरेन्द्र कहाँ है ?'' - तो सुनता हूँ, 'गुहों के बगीचे में ।’ - यह बात मैं न कहता, तूने ही तो निकाली ।"

 You frequent the garden house of the.Guhas. I always hear about it. Whenever I ask, 'Where is Narendra today?' I am told, 'Oh, he has gone to the Guhas.' I should not have said all these things, but you have wrung them out of me."

[অন্নদা গুহ —(unscrupulous, अनैतिक संग) নরেন্দ্রনাথের বিশেষ বন্ধু। তিনি বরাহনগর নিবাসী ছিলেন। প্রথম জীবনে অন্নদা অসৎসঙ্গে কাটাইতেন। একদা নরেন্দ্রনাথের উপরেও অন্নদার প্রভাব পড়ে। অন্নদা শ্রীরামকৃষ্ণের দর্শনলাভে ধন্য হন। পরবর্তীকালে শ্রীরামকৃষ্ণের উপদেশ অনুসরণ করিয়া নিজের জীবনধারাকে পরিচালিত করিতে সক্ষম হইয়াছিলেন। কেহ কেহ অন্নদাকে অহঙ্কারী মনে করিলেও ঠাকুর তাহা অস্বীকার করিয়াছিলেন।]

শ্রীরামকৃষ্ণ — তা বাছা, আমাদের কথা শুনবে কেন? 

‘যার আছে কানে সোনা, তার কথা আনা আনা।

যার আছে পোঁদে ট্যানা তার কথা কেউ শোনে না!’ 

(সকলের হাস্য) তুমি গুহদের বাগান যেতে পারো। প্রায় শুনি, আজ কোথায়, না গুহদের বাগানে! — এ কথা বলতুম না, তুই কেঁড়েলি করলি —”

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏जानिबिघा लास्ट कैम्प में बीडीओ साहेब के घर में दादा के रहने की व्यवस्था🔱🙏

[उम्मीद है राम खोल बजायेगा और हम लोग नाचेंगे लेकिन राम को ताल का भी ज्ञान नहीं है ।]

मुझसे दादा ने पूछा -अपने घर में रहने दिया तो भाड़ा लेगा क्या ?  

Ram doesn't even have knowledge of rhythm.

नरेन्द्र कुछ देर चुप रहे । फिर कहा, 'बाजा नहीं हैं, कैसे गाऊँ ?’

Narendra kept quiet a few moments. Then he said: "There are no instruments to accompany me. Shall I just sing?"

নরেন্দ্র কিয়ৎক্ষণ চুপ করিয়া আছেন। বলছেন, “যন্ত্র নাই শুধু গান —”

श्रीरामकृष्ण - हमारी जैसी हालत ! - इसी में रहकर गा सको तो गाओ । इस पर बलराम का बन्दोबस्त ।

MASTER: "My child, this is all we have. Please sing if it suits you. You must know how Balaram arranges things.

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমাদের বাছা যেমন অবস্থা — এইতে পার তো গাও। তাতে বলরামের বন্দোবস্ত!

"बलराम कहता है, 'आप नाव पर ही कलकत्ता आया कीजिये, अगर कभी न बने तभी गाड़ी से आया कीजिये ।'

"Balaram says to me, 'Please come to Calcutta by boat; take a carriage only if you must.' (All laugh).

“বলরাম বলে, ‘আপনি নৌকা করে আসবেন, একান্ত না হয় গাড়ি করে আসবেন’, — (সকলের হাস্য) 

(सब हँसते हैं) देखते हो, आज उसने खिलाया है, इसीलिए आज तीसरे पहर भर हम सबों को कसकर नचायेगा । (हास्य) यहाँ से एक दिन उसने गाड़ी की - बारह आने में ! मैंने पूछा, 'क्या बारह आने में दक्षिणेश्वर तक गाड़ी जायेगी ?' उसने कहा, 'हाँ, ऐसा होता है ।' रास्ते में जाते जाते गाड़ी का कुछ हिस्सा ही अलग हो गया ! (उच्च हास्य) 

You see, he has given us a feast today; so this afternoon he will make us all dance! (All laugh.) One day he hired a carriage for me from here to Dakshineswar. He said that the carriage hire was twelve annas. I said to him, 'Will the coachman take me to Dakshineswar for twelve annas?' 'Oh, that will be plenty', he replied. One side of the carriage broke down before we reached Dakshineswar. (All laugh.)

घोड़ा भी बीच-बीच में पैर अड़ाता था । किसी तरह चलता ही न था, गाड़ीवान जब कसकर चाबुक मारता था तब घोड़े के पैर उठते थे । इधर राम खोल बजायेगा और हम लोग नाचेंगे - राम को ताल का भी ज्ञान नहीं है । (सब हँसे) बलराम का यह भाव है, - आप लोग गाइये, बजाइये, नाचिये और मौज कीजिये !" (सब हँसते हैं)

Besides, the horse stopped every now and then; it simply would not go. Once in a while the coachman whipped the horse, and then it ran a short distance. (All laugh.) The program for the evening is that Ram will play on the drum and we shall all dance. Ram has no sense of rhythm. (All laugh.) Anyhow, that is Balaram's attitude — sing yourselves, dance yourselves, and make yourselves happy!" (All laugh.)

খ্যাঁট দিয়েছে। আজ তাই বৈকালে নাচিয়ে নেবে (হাস্য)। একান থেকে একদিন গাড়ি করে দিছলো — বারো আনা ভাড়া; — আমি বললাম, বার আনায় দক্ষিণেশ্বরে যাবে? তা বলে, ‘ও অমন হয়।’ গাড়ি রাস্তায় যেতে যেতে একধার ভেঙে পড়ে গেল — (সকলের উচ্চ হাস্য)। আবার ঘোড়া মাঝে মাঝে একেবারে থেমে যায়। কোন মতে চলে না; গাড়োয়ান এক-একবার খুব মারে, আর এক-একবার দৌড়ায়! (উচ্চ হাস্য) তারপর রাম খোল বাজাবে — আর আমরা নাচব — রামের তালবোধ নাই। (সকলের হাস্য) বলরামের ভাব, আপনারা গাও, নাচো, আনন্দ করো। (সকলের হাস্য)

घर से भोजन कर क्रमश: भक्तगण आते जा रहे हैं ।

Other devotees were arriving.

ভক্তেরা বাটী হইতে আহারাদি করিয়া ক্রমে ক্রমে আসিতেছেন।

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏जिसको गुरु,नेता, बड़ा भाई कहते हो उसको दूर से प्रणाम करोगे ?🔱🙏  

महेन्द्र मुखर्जी को दूर से प्रणाम करते हुए देखकर श्रीरामकृष्ण उन्हें प्रणाम कर रहे हैं - फिर सलाम भी किया । पास के एक नवयुवक भक्त से कह रहे हैं, "उसे बताओ कि इन्होंने मुसलमान के तरीके से सलाम किया है - वह खुश हो जायेगा।  'अल्काट' 'अल्काट' (थिऑसफी के एक महात्मा) ही रटता है ।"

 Mahendra Mukherji saluted the Master from a distance. The Master returned the salute. Then he salaamed to Mahendra like a Mussalman. The Master said to a young devotee who sat next to him: "Why don't you tell him I have salaamed to him? He will appreciate it." (All laugh.)

মহেন্দ্র মুখুজ্জেকে দূর হইতে প্রণাম করিতে দেখিয়া ঠাকুর তাঁহাকে প্রণাম করিতেছেন — আবার সেলাম করিতেছেন। কাছের রকটি ছোকরা ভক্তকে বলিতেছেন, ওকে বল্‌না ‘সেলাম করলে’, — ও বড় অলকট্‌ অলকট্‌ করে। (সকলের হাস্য) 

गृही भक्तों में से अनेकों ने अपने घर की स्त्रियों को भी साथ लाया है - वे श्रीरामकृष्ण के दर्शन करेंगी और रथ के सामने श्रीरामकृष्ण का कीर्तनानन्द देखेंगी । राम और गिरीश आदि भक्त भी आ गये हैं । नवयुवक भक्त भी बहुतसे आ गये हैं ।

Many of the householder devotees were accompanied by their wives and other woman relatives. They wanted to salute the Master and watch his dancing before the car. Ram, Girish, and other devotees gradually assembled. Many young devotees were present.

গৃহস্থ ভক্তেরা অনেকে নিজেদের বাটীর পরিবারদের আনিয়াছেন; — তাঁহারা শ্রীশ্রীঠাকুরকে দর্শন করিবেন ও রথের সম্মুখে কীর্তনানন্দ দেখিবেন। রাম, গিরিশ প্রভৃতি ভক্তেরা ক্রমে ক্রমে আসিয়াছেন। ছোকরা ভক্তেরা অনেকে আসিয়াছেন।

नरेन्द्र गाने लगे – 

भजन 

(१) 

" वैसे प्रेम का वैसा संचार होने में और कितने दिन लगेंगे ?"

 Kato dine hobe se prema sanchār.

"How many more days will it take......  

कत दीने होबे से प्रेम संचार। 

কতদিনে হবে সে প্রেম সঞ্চার

Oh, when will dawn the blessed day

When Love will waken in my heart?

ओह, वह शुभ दिन कब आरम्भ होगा, जब मेरे हृदय में प्रेम जाग्रत होगा ? 

होये पूर्णकाम बोलबो हरिनाम ,

नयने बोहिबे प्रेम-अश्रुधार।। 

कत दीने होबे से प्रेम संचार..... 

হয়ে পূর্ণকাম বলব হরি নাম, 

নয়নে বহিবে প্রেম অশ্রুধার॥

When will my tears flow uncontrolled

As I repeat Lord Hari’s name.

And all my longing be fulfilled?

जैसे ही मैं लीलाधारी हरि का नाम लूँगा, मेरे आंसू बेकाबू होकर फूट पड़ेंगे - और मेरी सारी लालसा पूरी हो जाएगी?" प्रेम का वैसा संचार होने में और कितने दिन लगेंगे ?"...... 

कबे होबे आमार शुद्ध प्रणमन , 

कबे जाबो आमी प्रेमेर वृन्दाबन ,

কবে হবে আমার শুদ্ধ প্রাণমন,

 কবে যাব আমি প্রেমের বৃন্দাবন,

When will my mind and soul be pure?

Oh, when shall I at last repair

Unto Vrindāvan’s sacred groves?

ओह, मेरा मन और आत्मा कब शुद्ध होगी?  आखिर कब मैं वृंदावन के पवित्र उपवनों का आश्रय लूँगा ? 

संसार बंधन होइबे मोचन। 

ज्ञान-अंजने जाबे लोचन आधार , 

          कत दीने होबे से प्रेम संचार..... 

সংসার বন্ধন হইবে মোচন,

 জ্ঞানাঞ্জনে যাবে লোচন আঁধার।

When will my worldly bonds fall off

And my imperfect sight be healed

By Wisdom’s cool collyrium?

मेरे भव-बन्धन कब टूटेंगे, और विवेकज-ज्ञान के शीतल अंजन से मेरी अपूर्ण दृष्टि पूर्ण हो जाएगी? " प्रेम का वैसा संचार और कितने दिनों में होगा ?"...... 

करे परशमणि करि परशन,  

लौहमय देह होईबे कांचन। 

কবে পরশমণি করি পরশন,

 লৌহময় দেহ হইবে কাঞ্চন,

When shall I learn true alchemy

And, touching the Philosopher’s Stone,

Transmute my body’s worthless iron

Into the Spirit’s purest gold?

[मैं सच्ची रसायन विद्या ( कीमिया-रामरसायन पीना-दृष्टिं ज्ञानमयीं  कृत्वा पश्येद्  ब्रह्ममयं जगत् ) कब सीखूंगा, और पारस पत्थर को छूते ही मेरा शरीर-मन खरे सोने में परिणत हो जायेगा ?

हरिमय बिश्व कोरीबो दर्शन ,

लुटाइबो भक्ति पथे अनिबार।  

হরিময় বিশ্ব করিব দর্শন,

 লুটাইব ভক্তি পথে অনিবার॥

When shall I see this very world

As God, and roll on Love’s highway?

मैं इस जगत को, कब तक ईश्वर के रूप में (सियाराम मय जगत) देखना सीख लूँगा 

और प्रेम के राजमार्ग पर चलना प्रारम्भ करूँगा। 

कबे जाबे आमार धरम -करम,  

कबे जाबे जाति कुलेर ओ भरम। 

কবে যাবে আমার ধরম করম,

 কবে যাবে জাতি কুলের ভরম.

When shall I give up piety

And duty and the thought of caste? 

 पाप-पुण्य और कर्तव्य का तथा जात-पांत का विचार कब छोड़ूंगा?

कबे जाबे भय भावना शरम,  

परिहरि अभिमान लोकाचार।  

কবে যাবে ভয় ভাবনা সরম, 

পরিহরি অভিমান লোকাচার॥

When shall I leave behind all fear,

All shame, convention, worry, pride?

 कब सब भय, सारी लज्जा, रूढ़ियों, चिन्ताओं, अभिमान आदि को पीछे छोड़ पाउँगा ?

कत दीने होबे से प्रेम संचार.....

माखि सर्व अंगे भक्त पदधूलि,  

काँधे लोये चिर वैराग्येरओ झूली। 

মাখি সর্ব অঙ্গে ভক্ত পদ ধূলি,

 কাঁধে লয়ে চির বৈরাগ্যের ঝুলি,

Oh, I shall smear my body then

With dust from the feet of devotees;

Across my shoulders I shall sling Renunciation’s pack and,

ओह, मैं तब अपने शरीर को भक्तों के चरणों की धूल से पोतूँगा,

और अपने कन्धों पर संन्यासी वाली झोली लटकाऊँगा।   

दिबो प्रेम बारी दुई हाते तुलि ,

अंजलि अंजलि प्रेम यमुनार। 

পিব প্রেম বারি দুই হাতে তুলি, অঞ্জলি অঞ্জলি প্রেম যমুনার॥

drink From my two hands a cooling draught

Of Jamuna’s life-renewing stream.

मेरे दोनों हाथों से जमुना की पुनरुज्जीवित करने वाली प्रवाह 

का शीतल जल पीकर अपने मुरझाये हुए ह्रदय को हराभरा कर लो। 

कत दीने होबे से प्रेम संचार.....

प्रेमे पागल होय हासिबो कांदीबो ,

सच्चिदानन्द सागरे भासिबो। 

প্রেমে পাগল হয়ে হাসিব কাঁদিব, 

সচ্চিদানন্দ সাগরে ভাসিব,

Oh, then I shall be mad with love;

I shall both laugh and weep for joy!

Then I shall swim, upon the Sea,

Of blessed Satchidananda;

ओह, तब मैं प्रभु-प्रेम में पागल हो कर, उनकी खुशी के लिए हँसूँगा और रोऊँगा! तब मैं सच्चिदानन्द समुद्र में तैरूंगा। 

आपनि मातिये सकले माताबो,  

हरि पदे नित्य करिबो बिहार। 

আপনি মাতিয়ে সকলে মাতাব, 

হরিপদে নিত্য করিব বিহার !

Drunk with His love, I shall make all

As drunk as I! Oh, I shall sport

At Hari’s feet for evermore!

कत दीने होबे से प्रेम संचार.....   

और लीलाधारी ईश्वर के प्रेम में स्वयं मतवाला होकर, दूसरों को भी मतवाला बना दूँगा , और निरन्तर हरि के चरणों पर खेलूँगा!

[This is the translation of a Bengali song by Nilkantha Mukhopadhyay, a famous singer of his time who met Sri Ramakrishna. (First line: Kato dine hobe se prema sanchār.)

यह अपने समय के प्रसिद्ध गायक नीलकंठ मुखोपाध्याय के एक बंगाली गीत का अनुवाद है, जो श्री रामकृष्ण से मिले थे। (पहली पंक्ति: कतो दिन होबे से प्रेम संचार।)

(নীলকণ্ঠ মুখোপাধ্যায়ের এই গানটি) -

 কত দিনে হবে সে প্রেম সঞ্চার

হয়ে পূর্ণকাম বলব হরিনাম,

নয়নে বহিবে প্রেম-অশ্রুধার

কত দিনে হবে সে প্রেম সঞ্চার...


কবে হবে আমার শুদ্ধ প্রাণমন

কবে যাব আমি প্রেমের বৃন্দাবন

সংসার বন্ধন হইবে মোচন

জ্ঞানঞ্জনে যাবে লোচন আধার

কত দিনে হবে সে প্রেম সঞ্চার...


কবে পরশমণি করি পরশন

লৌহময় দেহ হইবে কাঞ্চন

হরিময় বিশ্ব করিব দর্শন

লুটাইব ভক্তি পথে অনিবার


কবে যাবে আমার ধরম-করম

কবে যাবে জাতি কুলেরও ভরম

কবে যাবে ভয় ভাবনা শরম

হরি হরি অভিমান লোকাচার

কত দিনে হবে সে প্রেম সঞ্চার...


মাখি সর্ব অঙ্গে ভক্ত পদধুলি

কাঁধে লয়ে চির বৈরাগ্যেরও ঝুলি

দিব প্রেম বারি দুই হাতে তুলি

অঞ্জলি অঞ্জলি প্রেম যমুনায়


প্রেমে পাগল হয়ে হাসিব কাদিব

সচ্চিদানন্দ সাগরে ভাসিব

আপনি মাতিয়ে সকলে মাতাব

হরি পদে নিত্য করিব বিহার

কত দিনে হবে সে প্রেম সঞ্চার...

" प्रेम का वैसा संचार और कितने दिनों में होगा ?"...... 

भजन 

(२)

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

माँ काली का आत्मिक -मुखमण्डल (Spirit-Face) 

🔱🙏योगी लोग पहाड़ की अँधेरी गुफा में ध्यान क्यों करते हैं ?🔱🙏

 Why do yogis meditate in a dark cave in a mountain?

[যোগীরা কেন পাহাড়ের অন্ধকার গুহায় ধ্যান করেন?]

निबिड़ ऑंधारे माँ तोर चमके ओ रूपराशि। 

ताई योगी ध्यान धरे होय गिरिगुहा बासी।। 

নিবিড় আঁধারে মা তোর চমকে ও রূপরাশি।

তাই যোগী ধ্যান ধরে হয়ে গিরি-গুহাবাসী।। 

[हे माँ काली, तेरा निराकार सौन्दर्य ('Spirit-Face' आत्मिक -मुखमण्डल)  घोर-घने  अन्धकार में ही जगमगाता है; इसलिए योगी लोग पहाड़ की अँधेरी गुफा तुम्हारा ध्यान में  करते हैं।

In dense darkness, O Mother, Thy formless beauty sparkles; Therefore the yogis meditate in a dark mountain cave. . . .

अनन्त आँधार कोले महानिर्बान -हिल्लोले ,

चिरशान्ति -परिमल अविरल जाय भासि।। 

অনন্ত আঁধার কোলে মহানির্বাণ-হিল্লোলে,

চিরশান্তি -পরিমল অবিরল যায় ভাসি।।

असीम अन्धकार (आसन्न मृत्यु) की गोद में, महानिर्वाण की उमड़ती लहरों पर, निर्मल और अक्षय शांति का ज्वार प्रवाहित होता है।

In the lap of boundless dark, on Mahanirvanas waves upborne, Peace flows serene and inexhaustible.

महाकाल रूप धरि, आँधार बसन परि,   

समाधि मन्दिरे ओ माँ के गो तुमि एका बसि। 

মহাকাল রূপ ধরি,আঁধার বসন পরি,

সমাধি মন্দিরে ও মা কে গো তুমি একা বসি।

समाधि के मंदिर (निर्विकल्प-shrine of samādhमें भी 'शून्य का रूप' धारण कर, अन्धकार के वस्त्र में लिपटी हुई अकेली बैठी हुई - हे माँ,तुम कौन हो?  

Taking the form of the Void, in the robe of darkness wrapped, Who art Thou, Mother, seated alone in the shrine of samādhi?

अभय पद कमले प्रेमेर बिजली खेले , 

चिन्मय-मुख मण्डले शोभे अट्ट अट्ट हासि।।

অভয় পদ কমলে প্রেমের বিজলী খেলে,

চিন্ময়-মুখ মন্ডলে শোভে অট্ট অট্ট হাসি।।

हे माँ काली, तेरे चरण कमलों से तुम्हारे प्रेम की भय-प्रकीर्णन आकाशीय विद्युत् (दामिनी-lightnings) चमकती है, और तुम्हारे आत्मिक -मुखमण्डल (स्पिरिट फेस-Spirit-Face) पर भयंकर अट्टहास् (shines forth) शोभायमान हो रहा हैं। 

From the Lotus of Thy fear-scattering Feet flash Thy love's lightnings; Thy Spirit-Face shines forth with laughter terrible and loud!

[https://maasarada.blogspot.com/2016/11/by-swami-atmajnananda-nibid-adhare-maa.html] 

[>>>The Spirit-Face of Maa Kali: माँ काली का आत्मिक -मुखमण्डल (स्पिरिट फेस-Spirit-Face):जैसे नया जन्म एक उत्साहित करने वाला पल है। वैसे ही नया आत्मिक जन्म। यीशु ने कहा, " यदि कोई नये सिरे से न जन्मे तो परमेश्वर का राज्य देख नहीं सकता" (यूहन्ना 3:3)। 

 As a new birth is an exciting moment. Similarly new spiritual birth. Jesus said, "Unless one is born again he cannot see the kingdom of God" (John 3:3).

भौतिक जन्म का एक दिन भौतिक अंत होगा। आत्मिक जन्म अनंत जीवन देता है - "स्वर्ग में एक भविष्य – और भविष्य की शुरुवात अभी होती है" (व.3, एम.एस.जी)। 

Physical birth will one day have a physical end. Spiritual birth gives eternal life – “a future in heaven – and that future begins now” (v.3, MSG).

भौतिक जीवन घास की तरह है जो सूख जाता है। यह नया जीवन परमेश्वर की ओर से मिलता है जो सर्वदा बना रहता है (वव.23-25, एम.एस.जी)।

Material life is like grass which withers. This new life comes from God who remains forever (vv.23-25, MSG).

Every human is a spirit that has a body, not a body that has a spirit. We are made of flesh and bone. That is until our body wears out and no longer functions well enough to be used as a vehicle for efficiently navigating this world.

The mind, through its process, creates a dichotomy between “spirit” and “matter” and between “mind” and “body” . This is an artificial distinction that creates serious drawbacks and limitations in the way we approach our lives, and the relation of our physical body to our mental and spiritual life. There is no opposition between them when we recognise the unity of all existence.

Modern day scientists are learning these truths which have been known by the ancient Rishis and Yogis since the Vedic age. Scientists first determined that Matter and Energy are one, and that matter can be converted into energy and energy converted into matter. They learned that matter is, at the atomic level, a highly organised form of energy. More recently they have learned that energy and consciousness are one. Matter, Mind and Spirit are all aspects of the same spectrum.

बलराम ने आज कीर्तन का बन्दोबस्त किया है - वैष्णवचरण और बनवारी का कीर्तन है । वैष्णवचरण ने गाया - 

"श्रीदुर्गा नाम जप सदा रसना आमार।  

दुर्गमे श्रीदुर्गा बिने के करे निस्तार।

 "ऐ मेरी रसने, सदा माँ दुर्गा-नाम का जप कर; क्योंकि दुर्गम जगत से निस्तरण करने में (देश-काल-निमित्त से बचकर निकलने की क्रिया; छुटकारा; उद्धार; मोक्ष या भ्रम से मुक्ति दिलाने में) भला और कौन समर्थ है ?

Balaram had arranged for kirtan with Vaishnavcharan, the musician. Vaishnavcharan sang: O tongue, always repeat the name of Mother Durga; Who but your Mother Durga will save you in distress?...

বলরাম আজ কীর্তনের বন্দোবস্ত করিয়াছেন, — বৈষ্ণবচরণ ও বেনোয়ারীর কীর্তন। এইবার বৈষ্ণবচরণ গাহিতেছেন — শ্রীদুর্গানাম জপ সদা রসনা আমার। দুর্গমে শ্রীদুর্গা বিনে কে করে নিস্তার।

गाने का कुछ अंश सुनते ही श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये । खड़े होकर समाधिस्थ हुए थे - छोटे नरेन्द्र पकड़े हुए हैं । मुख पर हास्य की रेखा प्रकट हो गयी । कमरे भर के भक्त आश्चर्यचकित हो देख रहे हैं । स्त्रियाँ चिक के भीतर से श्रीरामकृष्ण की यह अवस्था देख रही हैं । नाम जपते जपते बड़ी देर के बाद समाथि छूटी । 

When Sri Ramakrishna had heard a line or two of the song he went into samadhi. He stood up in that ecstatic mood. The younger Naren supported him. The Master's face was lighted with a smile. Gradually his body became motionless; his mind appeared to have gone to another realm. All the devotees in the room looked at him in amazement. The woman devotees watched the scene from behind the screen. After a long time he came down from samadhi, chanting the holy name of God.

গান একটু শুনিতে শুনিতে ঠাকুর সমাধিস্থ! দাঁড়াইয়া সমাধিস্থ! — ছোট নরেন ধরিয়া আছেন। সহাস্যবদন। ক্রমে সব স্থির! একঘর ভক্তেরা অবাক্‌ হইয়া দেখিতেছেন। মেয়ে ভক্তেরা চিকের মধ্য হইতে দেখিতেছেন। সাক্ষাৎ নারায়ণ বুঝি দেহধারণ করিয়া ভক্তের জন্য আসিয়াছেন। কি করে ঈশ্বরকে ভালবাসতে হয়, তাই বুঝি শিখাতে এসেছেন! নাম করিতে করিতে অনেকক্ষণ পরে সমাধিভঙ্গ হইল।

श्रीरामकृष्ण के आसन ग्रहण करने पर वैष्णवचरण ने फिर गाया –“ऐ विणे, तू हरिनाम कर ।”

As the Master sat down, Vaishnavcharan sang again: 

O vina, sing Lord Hari's name!

Without the blessing of His feet

You cannot know the final Truth.

The name of Hari slays all grief:

Sing Hari's name! Sing Krishna's name! . . .

(১)  হরি হরি বল রে বীণে!

अब एक दूसरे कीर्तनिये बनवारी 'रूप' गा रहे हैं । परन्तु वे गाते ही गाते ‘आहा हा, आहा हा’ कहकर भूमिष्ठ होकर प्रणाम करने लगते हैं । इससे कोई श्रोता हँसते हैं, किसी को विरक्ति होती है ।

Then he sang:

O vina, forgetting to worship Hari,

I pass the days of my life in vain. . . .

(২)     বিফলে দিন যায় রে বীণে, শ্রীহরির সাধন বিনে।

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏नेता प्रेमोन्मत्त (प्रेम के उन्माद में) होते हैं🔱🙏

 [Ecstasy of love]

पिछला प्रहर हो आया । इस समय बरामदे में श्रीजगन्नाथदेव का वही छोटा रथ ध्वजा-पताकाओं से सुसज्जित करके लाया गया है । श्रीजगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम चंदन-चर्चित तथा वसन-भूषण और पुष्पमालाओं से सुशोभित हैं । 

It was afternoon. In the mean time the small car of Jagannath, decorated with flowers, flags, and bunting, had been brought to the inner verandah. The images of Jagannath Subhadra, and Balarama, were adorned with sandal-paste, flower garlands, robes, and jewelry. 

অপরাহ্ন হইয়াছে। ইতিমধ্যে বারান্দায় শ্রীশ্রীজগন্নাথের সেই ছোট রথখানি ধ্বজা পতাকা দিয়া সুসজ্জিত করিয়া আনা হইয়াছে। শ্রীশ্রীজগন্নাথ, সুভদ্রা ও বলরাম চন্দনচর্চিত ও বসন-ভূষণ ও পুষ্পমালা দ্বারা সুশোভিত হইয়াছেন। 

श्रीरामकृष्ण बनवारी का कीर्तन छोड़कर बरामदे में रथ के सामने चले गये । साथ साथ भक्तगण भी गये । श्रीरामकृष्ण ने रथ की रस्सी पकड़ जरा खींचा, फिर रथ के सामने भक्तों के साथ नृत्य और कीर्तन करने लगे । 

Sri Ramakrishna left the room where the professional musicians were singing and came to the verandah, accompanied by the devotees. He stood in front of the car and pulled it by the rope. He began to sing and dance with the devotees in front of the car.

छोटे बरामदे में रथ चलने के साथ ही कीर्तन और नृत्य हो रहा है । उच्च संकीर्तन और खोल का शब्द सुनकर बहुतसे बाहर के लोग वहाँ आ गये । श्रीरामकृष्ण भगवत्प्रेम से मतवाले हो रहे हैं । भक्तगण प्रेमोन्मत्त हो साथ-साथ नाच रहे हैं

The Master sang: Behold, the two brothers (Gauranga and Nityananda.) have come, who weep, while chanting Hari's name. . . .He sang again: See how all Nadia is shaking Under the waves of Gauranga's love! . . The music and dancing went on in the verandah as the car was pulled to and fro. A large crowd entered the house on hearing the loud music and the beating of the drums. Sri Ramakrishna was completely intoxicated with divine love. The devotees felt its contagion and danced with the Master in an ecstasy of love.

অন্যান্য গানের সঙ্গে ঠাকুর পদ ধরিলেন:যাদের হরি বলতে নয়ন ঝরে, তারা তারা দুভাই এসেছে রে! যারা মার খেয়ে প্রেম যাচে, তারা তারা দুভাই এসেছে রে! আবার — নদে টলমল টলমল করে, গৌরপ্রেমে হিল্লোলে রে। ছোট বারান্দাতে রথের সঙ্গে সঙ্গে কীর্তন ও নৃত্য হইতেছে। উচ্চ সংকীর্তন ও খোলের শব্দ শুনিয়া বাহিরের লোক অনেকে বারান্দা মধ্যে আসিয়া পড়িয়াছে। ঠাকুর হরিপ্রেমে মাতোয়ারা। ভক্তেরাও সঙ্গে সঙ্গে প্রেমোন্মত্ত হইয়া নাচিতেছেন।

(६)

*भावावेश में श्रीरामकृष्ण*

रथ के सामने कीर्तन और नृत्य करके श्रीरामकृष्ण कमरे में आकर बैठे । मणि आदि भक्त उनकी चरण-सेवा कर रहे हैं ।

Afterwards Sri Ramakrishna returned to the drawing-room. M. and other devotees stroked his feet.

রথাগ্রে কীর্তন ও নৃত্যের পর ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ঘরে আসিয়া বসিয়াছেন। মণি প্রভৃতি ভক্তেরা তাঁহার পদসেবা করিতেছেন।

भावमग्न होकर नरेन्द्र तानपूरा लेकर फिर गाने लगे - 

(1) 

एसो  माँ, एसो माँ, ओ हृदय -रमा , प्राण-पुतली गो ,

हृदय-आसने ,  होउ माँ आसीन , निरखी तोमारे गो ।

"हे मेरे आत्मा की पुत्तलिका (Doll),ओ हृदयरमा माँ, आओ माँ, तू हृदय-आसन में आकर आसीन हो, मैं तेरा निरीक्षण करूँ।”

নরেন্দ্র ভাবে পূর্ণ হইয়া তানপুরা লইয়া আবার গান গাহিতেছেন:

(১)     

এসো মা এসো মা, ও হৃদয়-রমা, পরাণ-পুতলী গো,

হৃদয়-আসনে, হও মা আসীন, নিরখি তোমারে গো।

Filled with divine fervour, Narendra sang to the accompaniment of the tanpura: 

Come! Come, Mother! Doll of my soul!

 My heart's Delight! In my heart's lotus 

         come and sit, that I may see Thy face. . . .

2 . श्री श्रीमाँ भवतारिणी : 

आमार माँ त्वं हि तारा , 

तुमि त्रिगुणधरा परात्परा। 

आमि जानि गो ओ दीन-दयामयी , तुमि दुर्गमते दुःखहारा।।

तुमि सन्ध्या तुमि गायत्री , तुमि जगधात्री गो माँ। 

तुमि अकूलेर त्राण-कर्त्री, सदाशिवेर मनोरमा।।  

तुमि जले , तुमि स्थले, तुमि आद्यमूले गो माँ। 

तुमि सर्वघटे अर्घपूटे, साकार आकार , निराकारा।। 

"त्रिगुणरूपधारिणी, परात्परा ( Higher than the most high-देश-काल और निमित्त का अतिक्रमण करवा कर, जगत से छुड़ाकर) परब्रह्म (ठाकुर देव) के चरण कमलों में स्थान देने में समर्थ माँ तारा तुम्हीं हो ।" माँ, तू ही हमारी एकमात्र मोक्षदायिनी है, तू ही तीन गुणों की आधार है, परब्रह्म से भी ऊँची है। तू एकदम दयालु है, मैं जानता हूं, कि वह एकमात्र तू है जो मेरे कटु शोक-दुःख  को दूर कर देती  है। 

माँ तू ही संध्या और गायत्री है; तू ही इस ब्रह्मांड को धारण करती है। तू महाकाल  (शिव) के शाश्वत प्रिया काली है, माँ तू उनकी सहायता करती है, जिनका कोई सहारा नहीं है।

[संन्ध्या दिन और रात्रि दोनों के संधिकालों के नाम- प्रातःकाल (उषा काल) और सायंकाल (गोधूलि बेला) नाम है। प्रातःकाल की पूजा देवताओं का पोषण करती है, तो सायंकाल की पूजा पित्रों का पोषण करती है।]

माँ जल में तू है, थल में तू है; सब के मूल में तुम्हारा ही निवास है। मुझमें, प्रत्येक प्राणी में, तेरा निवास है; यद्यपि तुम आकार से (नाम-रूप से) आच्छादित हो, फिर भी तुम इन्द्रियातीत सत्य या 'formless Reality' अथवा निराकार शाश्वत सत्य -हो।

(২)  শ্রীশ্রীমা ভবতারিণী

আমার মা ত্বং হি তারা, 

তুমি ত্রিগুণধরা পরাৎপরা।

আমি জানি গো ও দীন-দয়াময়ী, তুমি দুর্গমেতে দুখহারা ॥

তুমি সন্ধ্যা তুমি গায়ত্রী, তুমি জগদ্ধাত্রী গো মা।

তুমি অকূলের ত্রাণকর্ত্রী, সদাশিবের মনোরমা ॥

তুমি জলে, তুমি স্থলে, তুমি আদ্যমূলে গো মা।

তুমি সর্বঘটে অর্ঘপুটে, সাকার আকার নিরাকারা ॥

Mother, Thou art our sole Redeemer, Thou the Support of the three gunas, Higher than the most high. Thou art compassionate, I know, Who takes away our bitter grief.

Sandhya art Thou, and Gayatri; Thou dost sustain this universe. Mother, the Help art Thou,  Of those, that have no help but Thee, O Eternal Beloved of Siva!

Thou art in earth, in water Thou; Thou liest at the root of all. In me, in every creature, Thou hast Thy home; though clothed with form, Yet art Thou formless Reality.

3.

 “तुम्हीं को मैंने अपने जीवन का ध्रुवतारा बना लिया है ।"

 तोमारेई कोरियाछि जीवनेर ध्रुवतारा। 

ए -समुद्रे आर कोभु हबो नाको पथोहारा।

जेथा  आमी जाई नाको तुमी प्रोकशितो थाको,

आकुल नयोंजले ढालो गो किरणोधारा ।

तबो मुखो सदा मोने जागीतेचे सांगोपाने,

तिलेक अंतर होले ना हेरी कुलोकिनारा।

कखोनो बिपथे जोदी  भ्रोमिते चाहे ए हृदी

अमोनी ओ मुखो हेरी शर्मे से होय सारा।

I have made Thee, O Lord, the Pole-star of my life; No more shall I lose my way on the world's trackless sea. Wherever I wander here. Thy brilliance shines undimmed; With Thy serene and gracious light, Thou drivest all the tears out of my troubled soul. In my heart's inmost shrine Thy face for ever beams; If, for a moment even, I cannot find it there, My soul is overwhelmed with woe; And when my witless mind strays from the thought of Thee, The vision of Thy face strikes me with deepest shame.

हे प्रभु, मैंने तुझे,अपने जीवन का ध्रुव-तारा बनाया है; अब मैं दुनिया के पथविहीन समुद्र में अपना रास्ता नहीं खोऊँगा। मैं यहाँ जहाँ भी भटकता हूँ। तेरा तेज अखंड चमकता है; अपने शांत और अनुग्रहपूर्ण प्रकाश के साथ, तू मेरी व्याकुल आत्मा से सारे आँसू निकाल देता है। मेरे हृदय के अंतरतम मंदिर में तेरा चेहरा हमेशा के लिए मुस्कराता है; शोक से व्याकुल, और जब मेरा बुद्धिहीन मन तेरे विचार से भटकता है,तेरे मुख के दर्शन से मुझ पर गहरी लज्जा होती है।]

(৩)

তোমারেই করিয়াছি জীবনের ধ্রুবতারা। 

এ-সমুদ্রে আর কভু হব নাকো পথহারা ॥

[रवींद्रनाथ टैगोर का गीत: यह गीत उनकी उन्नीस वर्ष की आयु में 1880 में कविता संग्रह 'भगना-हृदोय' में प्रकाशित हुआ था। यह गीत उनके बड़े भाई ज्योतिरिंद्रनाथ की पत्नी कादम्बरी देवी को समर्पित है। यह पृष्ठ इंगित करता है कि गीत 'श्रीमती हे ...' को समर्पित है। कोड नाम को समझने के लिए बहुत सारे शोध किए गए हैं। मैकबेथ में मुख्य डायन का नाम हेकिटी है। यह बाद में ज्ञात हुआ कि रवीन्द्रनाथ अपनी भाभी कादम्बरी का उपहास करने के लिए इस नाम से पुकारते थे। शोधकर्ता अब लगभग निश्चित हैं कि यह 'श्रीमती हे ...' कोई और नहीं बल्कि कादंबरी है।

Song of Rabindranath Tagore: This song was published in the year 1880 in a collection of poems 'Bhagna-hridoy' at his nineteen years of age. This song  have been dedicated to Kadambari Devi, wife of his elder brother, Jyotirindranath. This page indicates that the song  is dedicated to 'Mrs.Hey...'. Lots of research has been done to decipher the code name. The name of the main witch in the Macbeth is Heckety. It was later known that Rabindranath used to call his sister in law, Kadambari, this name in order to ridicule her. Researchers now are almost certain that this 'Mrs. Hey...' is nobody else but Kadambari.]

एक भक्त ने नरेन्द्र से कहा - क्या तुम वह गाना गाओगे – ‘ऐ अन्तर्यामिनी माँ, तुम हृदय में सदा ही जाग रही हो ।’

A devotee said to Narendra, "Will you sing that one — 'O Mother, Thou my Inner Guide, ever awake within my heart'?"

একজন ভক্ত নরেন্দ্রকে বলিতেছেন, তুমি ওই গানটা গাইবে? —অন্তরে জাগিছো গো মা অন্তরযামিনী!

জয় মা ভবতারিণী : 

অন্তরে জাগিছ গো মা অন্তরযামিনী,

কোলে করে আছ মোরে, দিবস যামিনী।।

অধম সুতের প্রতি, কেন এত স্নেহ প্রীতি,

প্রেমে আহা! একেবারে যেন পাগলিনী।।

কখনো আদর করি, কখনো সবলে ধরি

পিয়াও অমৃত, শুনাও মধুর কাহিনী ;

নিরবধি অবিকারে কত ভালবার আমারে,

উদ্ধারিছ বারে বারে, পতিতোদ্ধারিণী।।

বুঝেছি এবার সার, মা আমার আমি মার,

চলিব সুপথে সদা শুনি তব বাণী;

করি মাতৃস্তন্য পান, হব বীর বলবান,

আনন্দে গাহিব জয় ব্রহ্মসনাতনী।।

श्रीरामकृष्ण – चल, इस समय ये सब गाने क्यों ? इस समय आनन्द के गीत हो – ‘श्यामा सुधा-तरंगिणी ।’

MASTER: "Oh, no! Why that song now? The proper thing now is to sing of divine bliss — a song like 'O Mother Syama, full of the waves of drunkenness divine'."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দূর! এখন ও-সব গান কি! এখন আনন্দের গান — ‘শ্যামা সুধা-তরঙ্গিণী।’

नरेन्द्र गा रहे हैं --

कखन कि रंगे थाको माँ ,

कखन कि रंगे थाको माँ , श्यामा, सूधा- तरंगिनि !  

तुमि रंगे भंगे अपांगे अनंगे भंग दाओ जननी।

 

लम्पेझम्पे कम्पे धरा असिधरापरायिनी,  

तुमि त्रिगुणा -त्रिपुरा तारा , भयंकरा कालकामिनी। 


साधकेर वांछापूर्ण करो नानारूपधारिणी,   

कोभु कमले -कमले नाचो माँ पूर्णब्रह्म सनातनी।  

दिव्य नशे की तरंगों  से भरी, हे दिव्या माँ  श्यामा ! कौन जानता है कि आप ब्रह्माण्ड में कैसे खेल करती हैं? मौजमस्ती - आनन्द से भरकर आपका इठलाना , तथा आपकी नजरें प्रेम के देवता को भी लज्जित  करती हैं।

Narendra sang: O Mother Syama, full of the waves of drunkenness divine! Who knows how Thou dost sport in the world? Thy fun and frolic and Thy glances put to shame the god of love.

हे कृपाण चलाने वाली, हे भयानक मुख वाली, माँ ! आपकी लम्बी छलाँगों और लम्बे कदमों के नीचे, यह भूमि स्वयं हिल रही है! हे तीन गुणों की धाम! हे मोक्षदायिनी! आप जो शिव की पत्नी हैं, कितनी भयंकरी हैं !

O Wielder of the sword! O Thou of terrifying face! The earth itself is shaken under Thy leaps and strides! O Thou Abode of the three gunas! O Redeemer! Fearsome One! Thou who art the Consort of Siva!

Many the forms Thou dost assume, fulfilling Thy bhaktas' prayers. Thou dancest in the Lotus of the Heart, O Mother, Eternal Consort of Brahman!

अपने भक्तों की प्रार्थनाओं को पूरा करने के लिए आप ने (माँ सारदा ने) कई रूपों को धारण किया है। ब्रह्म की शाश्वत सहचरी- हे मृत्युरूपा माँ, तूँ ही हृदय के अष्टदल -कमल में नृत्य करती हो !

दिव्य परमानंद से भरे, नरेंद्र ने बार-बार ये पंक्तियाँ गाईं: हे मृत्युरूपा माँ, ब्रह्म की शाश्वत सहचरी-  तूँ ही हृदय के अष्टदल -कमल में नृत्य करती हो !"कोभु कमले -कमले नाचो माँ पूर्णब्रह्म सनातनी।"  

Full of divine ecstasy, Narendra sang again and again the lines: Thou dancest in the Lotus of the Heart, O Mother, Eternal Consort of Brahman!

ভাবোন্মত্ত হইয়া নরেন্দ্র বারবার গাইতে লাগিলেন: কভু কমলে -কমলে থাকো মা পূর্ণব্রহ্মসনাতনী।

নরেন্দ্র গাইতেছেন:

কখন কি রঙ্গে থাকো মা

কখন কি রঙ্গে থাক মা, শ্যামা, সুধা-তরঙ্গিনী!

তুমি রঙ্গে-ভঙ্গে অপাঙ্গে অনঙ্গে ভঙ্গ দাও জননী ॥

লম্ফেঝম্পে কম্পে ধরা অসিধরাপরায়িণী,

তুমি ত্রিগুণা-ত্রিপুরা তারা, ভয়ঙ্করা কালকামিনী।

সাধকের বাঞ্ছাপূর্ণ, করো নানারূপধারিণী,

কভু কমলে-কমলে নাচো মা পূর্ণব্রহ্ম সনাতনী।

 [(14 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏तुमसे तथा अन्य सभी कहता हूँ, 'बिना समय के आये कुछ नहीं होता'🔱🙏 

Nothing happens except at the right time.

 সময় না হলে হয় না।

श्रीरामकृष्ण गाना सुनते ही प्रेमोन्मत्त होकर नृत्य करने लगे । बड़ी दिर तक नृत्य करने के बाद उन्होंने आसन ग्रहण किया । भावावेश में नरेन्द्र की आँखों में आँसू आ गये । श्रीरामकृष्ण को देखकर बड़ा आनन्द हुआ । 

After dancing a long time Sri Ramakrishna resumed his seat. He was very much pleased to see Narendra in a spiritual mood, singing with tears in his eyes. 

ঠাকুর প্রেমোন্মত্ত হইয়া নৃত্য করিতেছেন, — ও গাইতেছেন, ওমা পূর্ণব্রহ্মসনাতনী! অনেকক্ষণ নৃত্যের পর ঠাকুর আবার আসন গ্রহণ করিলেন। নরেন্দ্র ভাবাবিষ্ট হইয়া সাশ্রুনয়নে গান গাহিতেছেন দেখিয়া ঠাকুর অত্যন্ত আনন্দিত হইলেন

रात के नौ बजे का समय होगा । अब भी भक्तों के साथ श्रीरामकृष्ण बैठे हुए वैष्णवचरण का गाना सुन रहे हैं ।

It was about nine o'clock in the evening. The devotees still sat around the Master. Vaishnavcharan sang about Gauranga:The beautiful Gauranga, the youthful dancer, fair as molten gold. ...

রাত্রি প্রায় নয়টা হইবে, এখনও ভক্তসঙ্গে ঠাকুর বসিয়া আছেন।আবার বৈষ্ণবচরণের গান শুনিতেছেন।

वैष्णवचरण ने दो गाने और गाये । तब तक रात के दस-ग्यारह बजे का समय हो गया । भक्तगण प्रणाम करके विदा हो रहे हैं ।

About eleven o'clock the devotees saluted the Master and were departing one by one.

রাত্রি দশটা-এগারটা। ভক্তেরা প্রণাম করিয়া বিদায় লইতেছেন।

श्रीरामकृष्ण - अच्छा, अब सब लोग घर जाओ । (नरेन्द्र और छोटे नरेंद्र की ओर इशारा करके) इन दोनों के रहने ही से हो जायेगा । (गिरीश से) क्या घर जाकर भोजन करोगे ? रहना चाहो तो कुछ देर रहो । तम्बाकू ! - अरे, बलराम का नौकर भी वैसा ही है । बुलाकर देखो - हरगिज न देगा । (सब हँसते हैं) परन्तु तुम तम्बाकू पीकर जाना ।

MASTER: "You may all go. (Pointing to Narendra and the younger Naren) It will be enough if these two stay. (To Girish) Will you eat your supper at home? You may stay a few minutes if you want to. You want a smoke! But Balaram's servant is just like his master. Ask him for a smoke; he won't give it! (All laugh.) But don't go away without having your smoke."

শ্রীরামকৃষ্ণ — আচ্ছা, আর সব্বাই বাড়ি যাও — (নরেন্দ্র ও ছোট নরেনকে দেখাইয়া) এরা দুইজন থাকলেই হল! (গিরিশের প্রতি) তুমি কি বাড়ি গিয়ে খাবে? থাকো তো খানিক থাক। তামাক্‌! — ওহ বলরামের চাকরও তেমনি। ডেকে দেখ না — দেবে না। (সকলের হাস্য) কিন্তু তুমি তামাক খেয়ে যেও

श्रीयुत गिरीश के साथ चश्मा लगाये हुए उनके एक मित्र आये हैं । वे सब कुछ देख सुनकर चले गये । श्रीरामकृष्ण गिरीश से कह रहे हैं - "तुमसे तथा अन्य सभी से कहता हूँ, जबरदस्ती किसी को न ले आया करो, - बिना समय के आये कुछ नहीं होता ।"

Girish had brought with him a bespectacled friend. The latter observed all these things and left the place. Sri Ramakrishna said to Girish: "I say this to you and to everyone: Please do not force anybody to come here. Nothing happens except at the right time."

শ্রীযুক্ত গিরিশের সঙ্গে একটি চশমাপরা বন্ধু আসিয়াছেন। তিনি সমস্ত দেখিয়া শুনিয়া চলিয়া গেলেন। ঠাকুর গিরিশকে বলিতেছেন, — “তোমাকে আর হরে প্যালাকে বলি, জোর করে কারুকে নিয়ে এসো না, — সময় না হলে হয় না।”

एक भक्त ने प्रणाम किया । साथ एक छोटा लड़का है । श्रीरामकृष्ण सस्नेह कह रहे हैं - "अच्छा, बड़ी देर हो गयी है, फिर यह लड़का भी साथ है ।" नरेन्द्र, छोटे नरेन्द्र तथा दो-एक भक्त और कुछ देर रहकर घर गये ।

Before leaving, a devotee saluted the Master. He had a young boy with him. Sri Ramakrishna said to him affectionately, "It is getting late, and you have this boy with you." Narendra, the younger Naren, and a few other devotees stayed awhile and then took their leave.

একটি ভক্ত প্রণাম করিলেন। সঙ্গে একটি ছেলে। ঠাকুর সস্নেহে কহিতেছেন — “তবে তুমি এসো — আবার উটি সঙ্গে।” নরেন্দ্র, ছোট নরেন, আর দু-একটি ভক্ত, আর একটু থাকিয়া বাটী ফিরিলেন।

(७)

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

[त्रिदिवसीय राज्य-स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर- 15 जुलाई, 1885] 

श्री रामकृष्ण का सुप्रभात - मधुर नृत्य तथा नामसंकीर्तन

সুপ্রভাত ও ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ — মধুর নৃত্য ও নামকীর্তন

श्रीरामकृष्ण बैठकखाने के पश्चिम ओर बने एक छोटे से कमरे में खाट पर लेटे हुए हैं । रात के चार बजे का समय होगा । कमरे के दक्षिण ओर बरामदा है, उसमें एक स्टूल पड़ा हुआ है । उस पर मास्टर बैठे हैं । कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण बरामदे में गये । मास्टर ने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । आज संक्रान्ति है, बुधवार, १५ जुलाई १८८५

It was four o'clock in the morning. Sri Ramakrishna was in bed in the small room next to the drawing-room. M. was sitting on a bench on the outer verandah to the south of the room. A few minutes later Sri Ramakrishna came out to the verandah. M. saluted him.

শ্রীরামকৃষ্ণ বৈঠকখানার পশ্চিমদিকের ছোট ঘরে শয্যায় শয়ন করিয়া আছেন। রাত ৪টা। ঘরের দক্ষিণে বারান্দা, তাহাতে একখানি টুল পাতা আছে। তাহার উপর মাস্টার বসিয়া আছেন। কিয়ৎক্ষণ পরেই ঠাকুর বারান্দায় আসিলেন। মাস্টার ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিলেন। সংক্রান্তি, বুধবার, ৩২শে আষাঢ়; ১৫ই জুলাই, ১৮৮৫।

श्रीरामकृष्ण - मैं एक बार और उठा था । अच्छा, क्या सबेरे दक्षिणेश्वर जाऊँ ?

MASTER: "I have already been up once. Well, shall we go to Dakshineswar this morning?"

শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি আর-একবার উঠেছিলাম। আচ্ছা, সকালবেলা কি যাব?

मास्टर - प्रातःकाल गंगा की लहरें बहुत कुछ शान्त रहती है ।

M: "The Ganges is less choppy in the morning."

মাস্টার — আজ্ঞা, সকালবেলায় ঢেউ একটু কম থাকে।

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏'राम'-नाम करके श्रीरामकृष्ण 'कृष्ण' का नाम ले रहे हैं ।🔱🙏

[राखालजीवन कृष्ण, नन्दनन्दन कृष्ण !]

सबेरा हो गया है । भक्तों का आगमन अभी नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण हाथ-मुख धोकर मधुर स्वर से नाम ले रहे हैं । पश्चिमवाले कमरे के उत्तर तरफ के दरवाजे के पास खड़े होकर नाम ले रहे हैं । पास ही मास्टर हैं । थोड़ी देर बाद , ठाकुर से कुछ दूरी पर गोपाल की माँ आकर खड़ी हुई । अन्तःपुर के द्वार के पीछे से दो-एक अन्य स्त्रियाँ भी श्रीरामकृष्ण को आकर देख रही हैं । उन भक्तिमति स्त्रियों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है मानो, वृन्दावन की गोपियाँ श्रीकृष्ण का दर्शन कर रही हैं, अथवा नदिया की भक्तिमति स्त्रियाँ चिक के पीछे से गौरांग का दर्शन कर रही हों।   

Day was gradually breaking. The devotees had not yet arrived. Sri Ramakrishna had washed his mouth and was chanting the names of God in his sweet voice. He stood near the north door of the room. M. was by his side. A few minutes later Gopal Ma arrived and stood near him. One or two woman devotees were looking at the Master from behind the doors of the inner apartments. They were like the gopis of Vrindavan looking at Sri Krishna, or the woman devotees of Nadia looking at Gauranga from behind the screen.

ভোর হইয়াছে — এখনও ভক্তেরা আসিয়া জুটেন নাই। ঠাকুর মুখ ধুইয়া মধুর স্বরে নাম করিতেছেন। পশ্চিমের ঘরটির উত্তর দরজার কাছে দাঁড়াইয়া নাম করিতেছেন। কাছে মাস্টার। কিয়ৎক্ষণ পরে অনতিদূরে গোপালের মা আসিয়া দাঁড়াইলেন। অন্তঃপরে দ্বারের অন্তরালে ২/১টি স্ত্রীলোক ভক্ত আসিয়া ঠাকুরকে দেখিতেছেন। যেন শ্রীবৃন্দাবনের গোপীরা শ্রীকৃষ্ণদর্শন করিতেছেন! অথবা নবদ্বীপের ভক্ত মহিলারা প্রেমোন্মত্ত হইয়া শ্রীগৌরাঙ্গকে আড়াল হইতে দেখিতেছেন।

राम-नाम करके श्रीरामकृष्ण कृष्ण का नाम ले रहे हैं । "कृष्ण कृष्ण ! गोपी कृष्ण ! गोपी ! गोपी ! राखालजीवन कृष्ण ! नन्दनन्दन कृष्ण ! गोविन्द ! गोविन्द !"

[ गोपी कृष्ण ! गोपी ! गोपी ! ^*: गोपी शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गयी है–’गो’ अर्थात् इन्द्रियां और ‘पी’ का अर्थ है पान करना। ‘गोभि: इन्द्रियै: भक्तिरसं पिबति इति गोपी।’ जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे, वही गोपी है। गोपी का एक अन्य अर्थ है केवल श्रीकृष्ण की सुखेच्छा। जिसका जीवन इस प्रकार का है, वही गोपी है। 

गोपियों की प्रत्येक इन्द्रियां श्रीकृष्ण को अर्पित हैं। गोपियों के मन, प्राण–सब कुछ श्रीकृष्ण के लिए हैं। उनका जीवन केवल श्रीकृष्ण-सुख के लिए है। सम्पूर्ण कामनाओं से रहित उन गोपियों को श्रीकृष्ण को सुखी देखकर अपार सुख होता है। उनके मन में अपने सुख के लिए कल्पना भी नहीं होती।  श्रीकृष्ण को सुखी देखकर ही वे दिन-रात सुख-समुद्र में डूबी रहती हैं।

गोपी श्रीकृष्ण से अपने लिए प्रेम नहीं करती अपितु श्रीकृष्ण की सेवा के लिए, उनके सुख के लिए श्रीकृष्ण से प्रेम करती है। गोपी की बुद्धि, उसका मन, चित्त, अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियां प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के साधन हैं। उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना–सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है। गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है।

 मीराबाई सुन्दर श्रृंगार करके गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती थीं। उनका भाव था–’गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।’भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अर्जुन से कहा है–‘हे अर्जुन ! गोपियां अपने शरीर की रक्षा उसे मेरी वस्तु मानकर करती हैं। गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है।’ यही कारण है कि श्रीकृष्ण जोकि स्वयं आनन्दस्वरूप हैं, आनन्द के अगाध समुद्र हैं, वे भी गोपीप्रेम का अमृत पीकर आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं।]

After chanting the name of Rama, Sri Ramakrishna chanted the name of Krishna: "Krishna! Krishna! Krishna of the gopis! Gopi! Gopi! Krishna, the Life of the cowherd boys of Vrindavan! Krishna, the son of Nanda! Govinda! Govinda!"

রামনাম করিয়া ঠাকুর কৃষ্ণনাম করিতেচেন, কৃষ্ণ! কৃষ্ণ! গোপীকৃষ্ণ! গোপী! গোপী! রাখালজীবন কৃষ্ণ! নন্দনন্দন কৃষ্ণ! গোবিন্দ! গোবিন্দ!

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ]

🔱🙏भगवान श्रीरामकृष्ण साक्षात् लीलावतार हैं, लीलावतार से लगन लगाओ🔱🙏 

फिर गौरांग का नाम लेने लगे - "गौरांग प्रभु नित्यानन्द, हरे कृष्ण हरे राम राधे गोविन्द !"फिर कह रहे हैं - 'अलख निरंजन !' निरंजन कहकर रो रहे हैं । उनका रोना और करुण कण्ठ सुनकर पास में खड़े हुए सब भक्त भी रोने लगे । वे रोते हुए कह रहे हैं -" निरंजन ^*! आय बाप - खा रे नेरे - कबे तोरे खाइये जन्म सफल करबो ! तुई आमार जोन्ने देहधारण कोरे नररूपे ऐसेछीस।' -"निरंजन ! आ बेटा, कब तुझे भोजन कराकर जन्म सफल करूँ ! देह धारण करके मनुष्य के रूप में तू मेरे लिए आया हुआ है।"

['निरंजन' ^*का शाब्दिक अर्थ है- 'अंजन रहित'। अंजन से तात्पर्य माया से है। अर्थात व्यक्ति जिसमें  माया का लेश भी न हो।  इस प्रकार 'निरंजन' का सामान्य अर्थ हुआ-मायारहित निर्गुण ब्रह्म। और सगुण ब्रह्म साकार ईश्वर है। शंकराचार्य के दर्शन में हम सगुण और निर्गुण ब्रह्म प्राप्त कर सकते हैं। 

मैत्रायण्युपनिषद् में कहा गया है कि ब्रह्म के दो रूप होते हैं-- एक मूर्त (साकार) और दूसरा अमूर्त (निराकार)। जो मूर्त है, वह असत्य है और जो अमूर्त है वह सत्य ब्रह्म है।" द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चामूर्तं चाथ यन्मूर्तं तदसत्यं यदमूर्तं तत्सत्यं तद्ब्रह्म…।" जो ईश्वर का मूर्त या साकार रूप है , उसे ही सगुण रूप कहते हैं और जो अमूर्त या निराकार रूप है, उसे निर्गुण रूप कहते हैं। सगुण = गुण-सहित, निर्गुण = गुण-रहित। 

गुण तीन हैं - रज, सत और तम। रजोगुण = उत्पादक शक्ति, सत्त्वगुण = पालक शक्ति और तमोगुण = विनाशक शक्ति। इस प्रकार जो उत्पन्न हो, कुछ समय तक रहे और पश्चात नहीं रहे, विनष्ट हो जाए वह सगुण कहलाता है। जो कभी ना उत्पन्न हो और ना विनष्ट हो वह निर्गुण कहलाता है। सगुण जड़ (अपरा प्रकृति) है और निर्गुण चेतन (परा प्रकृति) है। सगुण इन्द्रिय-ग्राह्य है और निर्गुण इन्द्रियातीत है। सगुण विनाशी है और निर्गुण अविनाशी है।

जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार तीन प्रकार की सत्ताएँ है-- पारमार्थिक सत्ता, वास्तविक सत्ता और प्रतिभासिक सत्ता। परमात्मा या आत्मा की सत्ता को पारमार्थिक सत्ता कहते हैं। वस्तुतः आत्मा- परमात्मा में भेद नहीं है। आत्मा 'व्यष्टि चेतन' है और परमात्मा 'समष्टि चेतन' है।

(श्रीरामकृष्ण-लोक) स्वर्गलोग या देव-सत्ता को वास्तविक सत्ता कहते हैं और दृश्यमान जगत् को प्रतिभासिक सत्ता कहते हैं। तीनों में पारमार्थिक या ईश्वरीय सत्ता ही मूल और अविनाशी है। इसी से अन्य दो सत्ताएँ प्रकट होती हैं। यानि निर्गुण निराकार से ही सगुण साकार प्रकट होता है।

जब निराकार परमात्मा अपने अंश से राम, कृष्ण, वामन आदि रूप धारणकर प्रकट होते हैं, तब वही साकार है। विराट रूप, दिव्यरूप, नररूप सभी साकार ही हैं। यह वैसा ही है जैसे द्रवीभूत जल घनीभूत अवस्था में बर्फ बनकर ठोस आकार ग्रहण कर लेता है। रामचरितमानस में सुन्दर चित्रण किया गया है--

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।।

अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसे। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसे।।

जैसे जल से ही ओला और बर्फ  प्रकट होता है उसी प्रकार निर्गुण से सगुण प्रकट होता है। सगुण- निर्गुण; दोनो रूप परमात्मा के हैं और दोनो की भक्ति समाज में प्रचलित है। यद्यपि मोक्ष-प्रप्ति हेतु दोनो की आवश्यकता होती है, तथापि निर्गुण को श्रेष्ठ बतलाया गया है। 

भगवान के सगुण रूप को देखकर सती को भ्रम हुआ, गरुड़जी को भ्रम हुआ, ब्रह्मा जी को भ्रम हुआ, देवराज इन्द्र को भ्रम हुआ। (इन सब प्रसंगों में अभी नहीं जाना चाहता हूँ।) इसलिए रामचरितमानस में कहा गया है-- निरगुण रूप सुलभ अति, सगुण जान नहिं कोय। सुगम अगम नाना चरित, सुनि मुनि मन भ्रम होय।।

तुलसीदासजी को हनुमानजी की कृपा से दो बार श्रीराम के दर्शन हुए, किन्तु भ्रम नहीं मिटा। फिर उन्होंने निर्गुण निराकार की उपासना की और अपने अंतर में दिव्य दर्शन किया। फिर उन्होंने विनय-पत्रिका में अपना अनुभव लिखा-- एहि के मैं हरि ज्ञान गँवायो।। परिहरि हृदय कमल रघुनाथहिं, बाहर फिरत विकल भय धायो। अर्थात् मैं हृदय-स्थित परमात्मा राम को छोड़कर बाहर भटकता रहा और इस तरह हरि के ज्ञान को खो दिया। ये उक्ति बतलाती है कि तुलसीदासजी को सगुनियाँ संत कहना कितना गलत है। 

अब सूरदासजी की वाणी देखिये और विचारिये कि क्या इनको सगुनियाँ संत कहना ठीक है। "दूरि गयो दरशन के ताईं, व्यापक प्रभुता सब बिसरी। मनसा वाचा नैन अगोचर, सो मूरति नहिं नैन धरी।। प्रभु की सर्वव्यापकता को भूलकर मैं उनके दर्शन के लिए दूर दूर भटकता रहा और इन्द्रियों से परे उनके निर्गुण स्वरूप को ग्रहण नहीं किया।

वस्तुतः सगुण और निर्गुण; दोनों भक्ति किए बिना भक्ति की पूर्णता नहीं होती और न मोक्ष की प्राप्ति होती है। ये दोनों एक दूसरे का विकल्प नहीं, बल्कि पूरक है। सभी संत पहले सगुण भक्ति करते हैं और फिर निर्गुण भक्ति। ये कह सकते हैं कि किन्हीं संतों की वाणी में सगुण की प्रधानता होती है और किन्हीं की वाणी में निर्गुण की। पर दोनों भक्ति किए बिना न कोई पूर्ण संत हो सकते हैं और न मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं।

सगुण पहली सीढ़ी है और निर्गुण दूसरी सीढ़ी है।  'मूल ध्यान गुरु रूप है , मूल पूजा गुरु पाँव।' तो ये सगुण उपासना है या नहीं? अब सगुण की क्या आवश्यकता है, इसको भी जानें। हमारी दृष्टि जहाँ जाती है, हमारा मन भी वहाँ जाता है। हम जो देखते हैं उसके बारे में सोचते हैं। सुनी हुई बातों को भी सोचते हैं। यदि हम आँखें बंदकर लेते हैं तो भी मन पहले के देखे हुए रंग- रूप, आकार-प्रकार के बारे में सोचता है या सुनी हुई बातों को सोचता है। नाम-रूप (सगुण) में फँसा रहना मन का स्वभाव हो गया है। निर्गुण को ग्रहण करने की क्षमता इसमें नहीं है।

 जैसे पानी में डूब रहा व्यक्ति पानी का ही सहारा लेकर पानी से बाहर आता है (यानि आगे के पानी को पकड़ता है और पीछे के पानी को छोड़ता है) उसी तरह नाम-रूप (माया) में डूबे हुए आदमी को पहले नाम-रूप का ही सहारा होता है। फिर वह निर्गुण में जाता है। इसलिए भक्ति के शुरुआत में परमात्मा के एक नाम का जप और एक रूप का ध्यान (स्थूल सगुण ध्यान) बतलाया जाता है।

 ये भी देव पूजन की तरह सगुण उपासना है, किन्तु इसे पूजा से श्रेष्ठ माना गया है। इससे मन का सिमटाव होता है और सिमटाव से सूक्ष्म ध्यान करने की योग्यता प्राप्त होती है। जब किसी जानकार से सीखकर सूक्ष्म ध्यान (शून्य ध्यान/नासाग्र ध्यान /दृष्टियोग) करने लगते हैं तब निर्गुण भक्ति की शुरुआत होती है। स्थूल और सूक्ष्म; दोनों ध्यान के फल भी भिन्न हैं।

योगतत्त्वोपनिषद् में कहा गया है-- सगुणं ध्यानमेतत्स्यादणिमादि गुणप्रदम्। निर्गुणध्यानयुक्तस्य समाधिश्च ततो भवेत्।। --अर्थात् सगुण ध्यान से अणिमा आदि गुणों की प्राप्ति होती है और निर्गुण ध्यान से युक्त को समाधि होती है।

जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ।

नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥

साधक नाम जपहिं लय लाएँ।

होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥

भावार्थ:-जो परमात्मा के गूढ़ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियों के चाहने वाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥

सगुण भक्ति से अर्थ है-- प्रभु के अवतारों (राम, कृष्णादि) की भक्ति करनी। निर्गुण भक्ति से अर्थ है-- कण-कण में व्याप्त, ह्दय में स्थित प्रभु की भक्ति ।

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।

अकथ अगाध अनादि अनूपा॥

मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।

किए जेहिं जुग ‍निज बस निज बूतें॥

भावार्थ:-निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बड़ा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है॥

*ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।

रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥

भावार्थ:-इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बड़ा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड़ राम चरित्र में से इस 'राम' नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥

भक्ति सगुण-साकार से निर्गुण-निराकार को पाने की यात्रा है। हम मूर्ति पूजा करें, ठीक है; लेकिन हम जैसे-जैसे अपनी उम्र के पड़ाव को पार करते जाएँ वैसे-वैसे उस परम तत्व के साथ अपने को संयुक्त करें। यानि शरीर से आत्मा की ओर चलें, पूजा-पाठ से जप-ध्यान की ओर चलें, यही सार भक्ति, सच्ची उपासना है और इसी में मानव जीवन की सार्थकता है।] 

Next he chanted the name of Gauranga. Then he repeated, "Alekh Niranjana", which is a name of God. Saying, "Niranjana", he wept. The devotees wept too. With tears in his eyes the Master said: "O Niranjan! O my child! Come! Eat this! Take this! When shall I make my life blessed by feeding you? You have assumed this human form for my sake."

আবার গৌরাঙ্গের নাম করিতেছেন —শ্রীকৃষ্ণ চৈতন্য প্রভু নিত্যানন্দ। হরেকৃষ্ণ হরে রাম, রাধে গোবিন্দ! আবার বলিতেছেন, আলেখ নিরঞ্জন! নিরঞ্জন বলিয়া কাঁদিতেছেন। তাঁহার কান্না দেখিয়া ও কাতর স্বর শুনিয়া, কাছে দণ্ডায়মান ভক্তেরা কাঁদিতেছেন। তিনি কাঁদিতেছেন, আর বলিতেছেন, ‘নিরঞ্জন! আয় বাপ — খারে নেরে — কবে তোরে খাইয়ে জন্ম সফল করব! তুই আমার জন্য দেহধারণ করে নররূপে এসেছিস।’

जगन्नाथजी को अपनी विनय सुना रहे हैं - "जगन्नाथ ! जगद्वन्धो ! दीनबन्धो ! मैं संसार से अलग तो हूँ ही नहीं नाथ, मुझ पर दया करो ।"

He prayed to Jagannath in a very touching voice: "O Jagannath, Lord of the Universe! O Friend of the world! O Friend of the poor! I am not O Lord, outside Thy universe. Be gracious to me!"

জগন্নাথের কাছে আর্তি করিতেছেন — জগন্নাথ! জগবন্ধু! দীনবন্ধু! আমি তো জগৎছাড়া নই নাথ, আমায় দয়া কর!

प्रेमोन्मत्त होकर गा रहे हैं - "उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले बिराजे जी ।"

While he sang in praise of Jagannath he was beside himself with divine love.

প্রেমোন্মত্ত হইয়া গাহিতেছেন — “উড়িষ্যা জগন্নাথ ভজ বিরাজ জী!”

[ठाकुर भले बिराजे जी,उड़ीसा जगन्नाथपुरी में। 

बलभद्रजी के भैया, सुभद्राजी के भैया, 

भले बिराजेजी, उड़ीसा जगन्नाथपुरी में। 

ठाकुर भले बिराजेजी। 

कबसे छोड़ी मथुरा नगरी, कबसे छोड़ी काशी,

झाड़खण्ड में आन बिराजे ,वृन्दावन के वासी,

ठाकुर भले बिराजेजी, उड़ीसा जगन्नाथपुरी में

उड़ीया मांगे खिचड़ी  बंगाली मांगे भात,

साधु मांगे दर्शन तेरा और महापरसाद।

ठाकुर भले बिराजे जी,उड़ीसा जगन्नाथपुरी में ।

बलदेवजी भईया, सुभद्राजी के भईया , 


दाल रान्धू ,भात रान्धू, परवल की तरकारी,

मीन मारिके भोग लगावे, प्रेमी जात बंगाली।

ठाकुर भले बिराजे जी ,उड़ीसा जगन्नाथपुरी में ।

गाँव गाँव में बाग बगीचा, गली गली फुलवारी,

घर घर देखो केला नारियल, घर घर ठाकुर बारी।

ठाकुर भले बिराजे जी, उड़ीसा जगन्नाथपुरी में। 

ठाकुर भले बिराजे जी।

सतयुग छोड़ी मथुरा नगरी, द्वापर छोड़ी काशी,

कलियुग में तो आान बिराजे वृन्दावन के वासी ।

ठाकुर भले बिराजे जी,

उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले बिराजे जी।



दो दो कोस पर हाट लगेहैं पाँच कोस पर चट्टी,

चलते चलते पाँव पिराने शरीर हो गया मिट्टी।

ठाकुर भले बिराजे जी,

उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले बिराजे जी।

चट्टी चट्टी बनियाँ लूटे और लूटे फिरंगी,

सिंह दरवाजे पण्डा लूटे यात्री भये उदासी।

ठाकुर भले बिराजे जी,

उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले बिराजे जी।

नीलचक्र पर ध्वजा बिराजे मस्तक सोहे हीरा,

बीचमें बहिन सुभद्रा बिराजे आजु-बाजु दोऊ बीरा।

ठाकुर भले बिराजे जी,

उड़ीसा जगन्नाथपुरी में भले बिराजे जी।

जय जय प्रभु जगन्नाथजी।

जय जय प्रभु बलभद्रजी।

जय जय बहिन सुभद्राजी।]

अब नारायण का नाम-कीर्तन करते हुए नाच रहे हैं - "श्रीमन्नारायण ! नारायण ! नारायण !"

Now he chanted the name of Narayana. He danced and sang: "O Narayana! O Narayana! Narayana! Narayana!"

এইবার নারায়ণের নামকীর্তন করিতে করিতে নাচিতেছেন ও গাহিতেছেন — শ্রীমন্নারায়ণ! শ্রীমন্নারায়ণ! নারায়ণ! নারায়ণ!

( श्री कृष्ण भजन )

"श्रीमन्नारायण ! नारायण ! नारायण !"

भज मन नारायण नारायण नारायण ।।

शबरी के बेर सुदामा के तण्डुल ,

रुचि- रुचि भोग लगाबायन ।

श्रीमन नारायण  नारायण नारायण ,

भज मन नारायण नारायण नारायण ।

गज की पुकार पे दौड़े चले आये प्रभू,

ग्राह्य से रक्षा कीनी ना ।

श्रीमन नारायण नारायण नारायण,

भज मन नारायण नारायण नारायण ।

दुर्योधन के घर मेवा त्यागि प्रभु,

साग विदुर घर पाबायन। 

"श्रीमन्नारायण !  नारायण-नारायण-नारायण…..

श्रीमन नारायण नारायण नारायण,

भज मन नारायण नारायण नारायण ।

द्रुपद सुता की लाज बचायो ,

चीर बढ़ायो भारी न ।

श्रीमन नारायण नारायण नारायण,

भज मन नारायण नारायण नारायण ।

प्रेम के वश अर्जुन रथ हाँक्यो ,

भूल गए ठकुराई न ।

श्रीमन नारायण नारायण नारायण,

भज मन नारायण नारायण नारायण ।

He danced and sang again:Ah, friend! I have not found Him yet, whose love has driven me mad. . . .

নাচিতে নাচিতে আবার গান গাইতেছেন:

হলাম যার জন্য পাগল, তারে কই পেলাম সই।

ব্রহ্মা পাগল, বিষ্ণু পাগল, আর পাগল শিব,

তিন পাগলে যুক্তি করে ভাঙলে নবদ্বীপ

আর এক পাগল দেখে এলাম বৃন্দাবনের মাঠে,

রাইকে রাজা সাজায়ে আপনি কোটাল সাজে!

अब श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ छोटे कमरे में बैठे । दिगम्बर ! जैसे पाँच साल का बच्चा ! बलराम, मास्टर और भी दो-एक भक्त बैठे हुए हैं ।

Afterwards the Master sat in the small room with the devotees. He was completely stripped of his clothes, like a five-year-old child. M., Balaram, and a few other devotees were in the room.

এইবার ঠাকুর ভক্তসঙ্গে ছোট ঘরটিতে বসিয়াছেন। দিগম্বর! যেন পাঁচ বৎসরের বালক! মাস্টার, বলরাম আরও দুই-একটি ভক্ত বসিয়া আছেন।

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏माँ सारदा के काली रूप का दर्शन कब होता है?🔱🙏 

[दिव्यचरित्र (legend) - शुद्ध आत्मा शिष्यों में नारायणदर्शन]

(रामलला, निरंजन, पूर्णा, नरेंद्र, बेलघर तारक, छोटा नरेन)

[রূপদর্শন কখন? গুহ্যকথা — শুদ্ধ-আত্মা ছোকরাতে নারায়ণদর্শন ]

(রামলালা, নিরঞ্জন, পূর্ণ, নরেন্দ্র, বেলঘরের তারক, ছোট নরেন)

श्रीरामकृष्ण - ईश्वर के रूप के दर्शन होते हैं । जब सब उपाधियाँ चली जाती हैं, विचार बन्द हो जाता है तब दर्शन होता है । तब मनुष्य निर्वाक् हो समाधि में लीन हो जाता है । थिएटर में जाकर, वहाँ बैठे हुए आदमी कितनी ही गप्पें सुनते-सुनाते रहते हैं । पर्दा उठा नहीं कि सब गप्पें बन्द हो जाती हैं । जो कुछ देखते हैं, उसी में मग्न हो जाते हैं ।

MASTER: "One can see God's form. One sees God when all upadhis disappear and reasoning stops. Then a man becomes speechless and goes into samadhi. Coming to the theatre, people indulge in all kinds of gossip. But the moment the curtain goes up, all conversation stops; the spectators become fully absorbed in what they see on the stage.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ঈশ্বরীয় রূপ দর্শন করা যায়! যখন উপাধি সব চলে যায়, — বিচার বন্ধ হয়ে যায়, — তখন দর্শন। তখন মানুষ অবাক্‌ সমাধিস্থ হয়। থিয়েটারে গিয়ে বসে লোকে কত গল্প করে, — এ-গল্প সে গল্প। যাই পর্দা উঠে যায় সব গল্প-টল্প বন্ধ হয়ে যায়। যা দেখে তাইতেই মগ্ন হয়ে যায়।

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏दिव्यचरित्र - मधुरभाव में ठाकुरदेव का बायाँ हाथ टूट गया था🔱🙏 

"तुम्हें यह मैं गुह्य बात सुना रहा हूँ । पूर्ण और नरेन्द्र आदि को प्यार करता हूँ, इसका एक खास अर्थ है । जगन्नाथ को मधुरभाव ^* में आकर भेंटने के लिए मैंने हाथ बढ़ाया नहीं कि गिरकर हाथ टूट गया । उसने समझा दिया - 'तुमने शरीर धारण किया है, इस समय नर-रूपों में ही सख्य, वात्सल्य आदि भावों को लेकर रहो ।'

"I want to tell you something very secret. Why do I love boys like Purna and Narendra so much? Once, in a spiritual mood, I felt intense love for Jagannath, love such as a woman feels for her sweetheart. In that mood I was about to embrace Him, when I broke my arm. It was then revealed to me: "You have assumed this human body. Therefore establish with human beings the relationship of friend, father, mother, or son.'

“তোমাদের অতি গুহ্যকতা বলছি। কেন পূর্ণ, নরেন্দ্র, এদের সব এত ভালবাসি। জগন্নাথের সঙ্গে মধুরভাবে আলিঙ্গন করতে গিয়ে হাত ভেঙে গেল। জানিয়ে দিলে, “তুমি শরীরধারণ করেছ — এখন নররূপের সঙ্গে সখ্য, বাৎসল্য এইসব ভাব লয়ে থাকো।”

[मधुरभाव ^* -एक बार, आध्यात्मिक मनोदशा में, मैंने जगन्नाथ (लीलाविग्रह श्रीकृष्ण) के लिए   तीव्र  प्रेम (intense love) महसूस किया, वैसा प्रेम जो कोई स्त्री अपनी प्रियतम के लिए (श्री Bh के लिए ?) महसूस करती है। उसी भावदशा (mood) में मैं उन्हें प्रेमालिंगन में बाँधने वाला था कि गिरकर मेरा हाथ टूट गया। गिरकर -चश्मा टूट गया, विशाखापत्तनम में ठेस लगकर दोनों अँगूठे का नाख़ून उखड़ गया। माँ (ठाकुर) ने समझा दिया - मेरी कृपा के बिना कोई मनुष्य माया को (देश-काल-निमित्त को) लाँघ नहीं सकता। और फिर वहाँ से वापस शरीर में लौट नहीं सकता। तुमको यह मनुष्य -शरीर दुबारा दिया गया है ताकि अपने नए-पुराने परिचितों के साथ मधुरभाव में नहीं सखा, पिता, माता या पुत्र रूप में व्यवहार करना सीख सको । ]

"रामलला पर जो जो भाव होते थे, वे ही अब पूर्णादि को देखकर होते हैं । रामलला को मैं नहलाता था, खिलाता था, सुलाता था, साथ लेकर घूमता था । रामलला के लिए बैठकर रोता था; इन सब लड़कों को लेकर ठीक वे ही बातें हो रही हैं । 

रामलला ^ अयोध्या में रामजन्मभूमि परिसर में विगत 70 वर्षों से विराजमान करोड़ों लोगों के आराध्य रामलला एक हाथ में लड्‌डू लिए घुटनों के बल बैठे धातु की एक  6 इंच की मूर्ति अचल विग्रह के रूप में विराजमान हैं। रामलला की ठीक वैसी ही एक मूर्ति, किसी वैष्णव संत ने  श्रीरामकृष्ण को उनकी साधना के दौरान दी थी। ]

"I now feel for Purna and the other young boys as I once felt for Ramlala.4 I used to bathe Ramlala, feed Him, put Him to bed, and take Him wherever I went. I used to weep for Ramlala. Now I have the same feeling for these young boys.

“রামলালার উপর যা যা ভাব হত, তাই পূর্ণাদিকে দেখে হচ্ছে! রামলালাকে নাওয়াতাম, খাওয়াতাম, শোয়াতাম, —সঙ্গে সঙ্গে নিয়ে বেড়াতাম, — রামলালার জন্য বসে বসে কাঁদতাম, ঠিক এই সব ছেলেদের নিয়ে তাই হয়েছে! 

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏निरंजन का विवाह और विशालाक्षी नदी का भँवर🔱🙏 

देखो न, निरंजन किसी में लिप्त नहीं है । खुद रुपया लगाकर गरीबों को दवाखाने ले जाया करता है । विवाह की बात पर कहता है, 'बाप रे ! विशालाक्षी नदी का भँवर है ।’ उसे मैं देखता हूँ, एक ज्योति पर बैठा हुआ है ।

[भँवर -एक बार कोई नाव उसमें फँस जाये तो, बाहर से खींचे बिना स्वयं उससे बाहर नहीं निकल सकती।] 

Look at Niranjan. He is not attached to anything. He spends money from his own pocket to take poor patients to the hospital. At the proposal of marriage he says, 'Goodness! That is the whirlpool of the Visalakshi!' (A stream near Kamarpukur.) I see him seated on a light.

দেখ না নিরঞ্জন। কিছুতেই লিপ্ত নয়। নিজের টাকা দিয়ে গরিবদের ডাক্তারখানায় নিয়ে যায়। বিবাহের কথায় বলে, ‘বাপরে! ও বিশালাক্ষীর দ!’ ওকে দেখি যে, একটা জ্যোতিঃর উপর বসে রয়েছে।

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏श्रीरामकृष्ण देव ही ईश्वर के साकार रूप हैं 🔱🙏

“पूर्ण साकार ईश्वर [अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण देव]  के राज्य का है । उसका जन्म विष्णु के अंश से है । आहा ! - कैसा अनुराग है!

"Purna belongs to the realm of the Personal God. He was born with an element of Vishnu. Ah, what yearning he has!

“পূর্ণ উঁচু সাকার ঘর — বিষ্ণুর অংশে জন্ম। আহা কি অনুরাগ!

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏गुरुभाई -प्रमोददा आदि महामण्डल के कर्मी परस्पर आध्यात्मिक भाई हैं🔱🙏 

(मास्टर से) "देखा नहीं, वह तुम्हारी तरफ देखने लगा - जैसे गुरुभाई पर दृष्टि हो - जैसे कोई अपना सगा हो ? पूर्ण ने एक बार और मिलने के लिए कहा है । उसने कहा है, कप्तान के यहाँ भेंट होगी।

[कप्तान या 'C-IN-C' नवनीदा का घर भुवनभवन ?]    

(To M.) "Didn't you notice that he looked at you as if you were his spiritual brother, his very own? He said he would visit me again, at Captain's house.

(মাস্টারের প্রতি) — “দেখলে না, — তোমার দিকে চাইতে লাগল — যেন গুরুভাই-এর উপর — যেন ইনি আমার আপনার লোক! আর-একবার দেখা করবে বলেছে। বলে কাপ্তেনের ওখানে দেখা হবে।”

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏नरेंद्र के कितने गुण - छोटा नरेन के गुण🔱🙏

[নরেন্দ্রের কত গুণ — ছোট নরেণের গুণ ]

"नरेन्द्र का स्थान बहुत ऊँचा है - निराकार (the Absolute या ब्रह्म) का घर  है । - पुरुष की सत्ता है । इतने भक्त आ रहे हैं, उसकी तरह एक भी नहीं है ।

"Narendra belongs to a very high plane — the realm of the Absolute. He has a manly nature. So many devotees come here, but there is not one like him.

“নরেন্দ্রের খুব উঁচু ঘর — নিরাকারের ঘর। পুরুষের সত্তা। “এতো ভক্ত আসছে, ওর মতো একটি নাই।

[मूल रूप से ईश्वरी तत्व निराकार है और इसी ईश्वर से ये स्थूल विश्व भी उत्पन्न हुआ है। ये जगत ब्रह्म से ही व्याप्त है। हम इस स्थूल जगत को देख सकते हैं। वैज्ञानिकों ने जब परमाणु का विभाजन किया तो न्यूट्रॉन, इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन मिले और जब उसका विभाजन किया गया तो उसमें सतत गतिशिल एक तत्व मिला जिसे गॉड पार्टिकल या हिग बोसॉन नाम दिया गया है। इससे ये साबित होता है कि ये जगत भी ईश्वर का व्यक्त रूप है।

 मूल रूप से हम सभी ईश्वर के ही अंश है। आत्मा जो निराकार है लेकिन इस शरीर द्वारा साकार रूप में व्यक्त होता है लेकिन आत्मा शरीर नहीं है। इसी प्रकार ईश्वर भी निराकार है और अपनी इच्छा से शरीर भी धारण करते हैं।  लेकिन जो उन्हें केवल पंचभूतात्मक शरीरधारी व्यक्ति मानते हैं वह भूल कर रहे हैं। प्राचीन भारतीय सनातन धर्म में ईश्वर की साकार और निराकार दोनों रूपों में पूजा होती है। इतना ही नहीं अनेकों ने ईश्वर का सगुण और निर्गुण दोनों रूपो में साक्षात्कार किया है।]

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏महामण्डल नेता के आध्यात्मिक गुरुभाइयों की श्रेणी🔱🙏 

"एक एक बार मैं बैठकर हिसाब लगाता हूँ । - देखता हूँ - दूसरों में से कोई तो पद्मों में दस दल का है, कोई सोलह दल का, कोई सौ दल का, परन्तु नरेन्द्र सहस्र दल का है

"Every now and then I take stock of the devotees. I find that some are like lotuses with ten petals, some like lotuses with sixteen petals, some like lotuses with a hundred petals. But among lotuses Narendra is a thousand-petalled one.

“এক-একবার বসে বসে খতাই। তা দেখি, অন্য পদ্ম কারু দশদল, কারু ষোড়শদল, কারু শতদল কিন্তু পদ্মমধ্যে নরেন্দ্র সহস্রদল!

"दूसरे लोग यदि लोटा, घड़ा आदि हैं तो नरेन्द्र खूब बड़ा टँकी है ।

"Other devotees may be like pots or pitchers; but Narendra is a huge water-barrel.

"गड़हियों और तालाबों में नरेन्द्र सरोवर है । - जैसे हालदार सरोवर ।

"Others may be like pools or tanks; but Narendra is a huge reservoir like the Haldarpukur.

“অন্যেরা কলসী, ঘটি এ-সব হতে পারে, — নরেন্দ্র জালা।

"मछलियों में नरेन्द्र लाल आँखों की रोहू है तथा अन्य सब तरह-तरह की छोटी मछलियाँ हैं । "बेलघर के तारक को 'मृगाल' (एक प्रकार की मछली, चालाक और बड़ी) कह सकते हैं ।

"Among fish, Narendra is a huge red-eyed carp; others are like minnows or smelts or sardines. [Tarak of Belgharia may be called a bass.]?

“মাছের মধ্যে নরেন্দ্র রাঙাচক্ষু বড় রুই, আর সব নানারকম মাছ — পোনা, কাঠি বাটা, এই সব।

"नरेन्द्र बहुत बड़ा आधार है - उसमें बहुतसी चीजें समा जाती हैं । बड़े लम्बी छेदवाला बाँस है ।

"Narendra is a 'very big receptacle', one that can hold many things. He is like a bamboo with a big hollow space inside.

“খুব আধার, — অনেক জিনিস ধরে। বড় ফুটোওলা বাঁশ!

[ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏महामण्डल नेता के गुण-वह आसक्ति या इन्द्रिय सुखों के वश में नहीं होता 🔱🙏

"नरेन्द्र किसी के वश नहीं है। वह आसक्ति और इन्द्रिय-सुख के वश नहीं है । नर-कबूतर है । नर-कबूतर की चोंच पकड़ने पर वह चोंच खींचकर छुड़ा लेता है, - मादा चुपचाप रह जाती है

"Narendra is not under the control of anything. He is not under the control of attachment or sense pleasures. He is like a male pigeon. If you hold a male pigeon by its beak, it breaks away from you; but the female pigeon keeps still. 

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

[नरेन्द्र सभाय थाकले आमार बल]

🔱🙏पुरुष स्वभाव (उल्टीधारा के तैराक, मरजीवा) एवं स्त्रियोचित भाव🔱🙏  

"नरेन्द्र पुरुष स्वभाव (masculine nature) का है, इसीलिए गाड़ी में दाहिनी ओर बैठता है । भवनाथ का जनाना भाव (feminine) है, इसलिए उसे दूसरी ओर बैठाता हूँ ।

Narendra has the nature of a man; so he sits on the right side in a carriage. Bhavanath has a woman's nature; so I make him sit on the other side. 

“নরেন্দ্র কিছুর বশ নয়। ও আসক্তি, ইন্দ্রিয়-সুখের বশ নয়। পুরুষ পায়রা। পুরুষ পায়রার ঠোঁট ধরলে ঠোঁট টেনে ছিনিয়ে লয়, — মাদী পায়রা চুপ করে থাকে।

“नरेन्द्र सभा में रहता है तो मुझे भरोसा रहता है ।"

I feel great strength when Narendra is with me in a gathering."

“নরেন্দ্র সভায় থাকলে আমার বল।”

[मरजीवा भाव - मरजीवा का अर्थ है मरने को तैयार। मरजीवा का एक अर्थ मर कर जीवित अर्थात् अमर (जीवनमुक्त -भ्रम मुक्त) होने वाले को भी कहते हैं। प्रभु (अपने मार्गदर्शक नेता -स्वामी विवेकानन्द-नवनीदा) के प्रति अनन्य प्रेम की स्थिति ही भक्त के ह्रदय में मरजीवा  भाव उतपन्न करती है।  योगी के महासुख चक्र में प्रवेश करने की स्थिति को मरजीवा भाव स्वीकार करते हैं- जहाँ मृत्यु का स्पर्श नहीं है। मरजीवा  की अवस्था तक पहुँचने के लिए पहले मरण अर्थात रूप लोक का अभाव आवश्यक है।  यह 'मर-जीवा/जीया ' अर्थात मरकर फिर जीवित होने की अवस्था है।  सूफी कवि अलखदास (शेख अब्दुल कुद्दूस गंगोही) ने  मरजीवा भाव स्पष्ट करते हुए कहा है –

मूए ते जिउ जाय जहाँ, जीवत ही लै राखो तहाँ।

जियते जियरे जो कोऊ मुआ, सोई खेलै परम निसंक हुआँ।।

* मरजीवा होना कठोर साधना से लक्ष्य तक पहुँचने वाला होना। आनंद मनाना। * मल्हार गाना​ 

धारा के साथ बहना चरित्र की कमजोरी है, एक मर्द की तरह धारा के खिलाफ खड़ा होना चाहिए।`पुरुष या मर्द -स्वाभाव का अर्थ दुर्घर्ष चेतना के दु:साहसी, विपरीत धारा के तैराक, मर- जीवा होता है!  उपरोक्त कथन बेहद ऊर्जा प्रदान करने वाला है। महत्वाकांक्षी, जुझारू और संघर्षरत युवावर्ग की सफलता के लिए यह एक मूल मंत्र की तरह काम कर सकता है। यह नवयुवकों में जोश भर सकता है। और चूंकि नेता (C-IN-C नायकसूबेदार) के पीछे अवाम चलता है इसलिए उस पर चिंतन किया जाना आवश्यक है। 

परिवार में सब अपनी मनमर्जी का करने लगें तो घर, घर नहीं, होटल कहलाएगा, और फिर होटल के भी अपने कायदे-कानून हैं। यहां तक कि बाजार के भी अपने सिद्धांत हैं नहीं तो वहां भी लूट-खसोट मच जाएगी। लयबद्ध सुर-ताल से संगीत उत्पन्न होता है, अपनी ढपली अपना राग शोर उत्पन्न करता है। संक्षिप्त में अस्तव्यस्तता अस्तित्व के लिए चुनौती बन कर उभरती है। परिवार, समाज, राष्ट्र तब तक सुरक्षित हैं जब तक सब व्यवस्थित ढंग से आपस में गुंथे हुए एक दिशा में एक उद्देश्य के साथ रहते हुए आगे बढ़ रहे हैं। प्रकृति स्वयं सुनियोजित ढंग से विचरण करती है। सब कुछ संतुलित, सामंजस्यपूर्ण व सुचारु रूप से संचालित। तो क्या फिर विपरीत दिशा में चलना अप्राकृतिक नहीं है?

तैरने वाले जानते हैं धारा के साथ बहना आसान होता है। धारा  के विपरीत दिशा में तैरने  के लिए अधिक जोर लगाना आवश्यक है तो तेज बहाव में साँस लेना  भी मुश्किल हो जाता है। और यही कारण है जो प्रचलित व्यवस्था के खिलाफ लड़ना आसान नहीं। हार जाने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता, तो बर्बाद हो जाने पर मिट्टी में मिल जाने का खतरा मंडराता रहता है। लोगों की आलोचनाएं सुननी पड़ती हैं। जीत कर आगे बढ़ गए  तो सिकंदर और रुक गए तो  भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है।

'धारा के साथ बहना चरित्र की कमजोरी है, एक मर्द की तरह धारा के खिलाफ खड़ा होना चाहिए।`शीर्ष पुरुष सदा अग्रिम पंक्ति में होते हैं, आगे चलते हैं, अप्रत्यक्ष तौर पर समाज को नेतृत्व प्रदान करते हैं।  अगर सफल होना है तो इन जोखिम भरे रास्तों पर चलने का खतरा तो मोल लेना ही होगा और साथ ही अगर चर्चित भी होना है तो यही काम थोड़ा हटकर करना होगा।

 सवाल उठता है कि मर्द की परिभाषा क्या है? क्या सिर्फ औरतों को पसंद करना ही इसकी निशानी है? क्या धारा के विरोध में खड़ा होना ही इसकी पहचान है? और इस तरह से सभी मर्द बनने लगें तो महिला वर्ग क्या होगा? सबके मनुष्य (इन्सान-चरित्रवान मनुष्य)  बनने और बनाने से तो हम सब बच सकते हैं मगर सब के मर्द बनने से शायद ही कोई बचे।  गलत, हानिकारक, असामाजिक, अनैतिक, अमानवीय धारा के विपरीत चलना समाज, संस्कृति, सभ्यता व समय के हित में होता है और यह यकीनन मर्दानगी है। सच तो यह है कि धारा के साथ बहना अगर कमजोर व्यक्तित्व की निशानी है तो समाज (परिवार) को ऐसे कमजोर की भी आवश्यकता होती है। क्योंकि बड़े भाई या नेता की नेतृत्व क्षमता इसी प्रकार उभरकर सामने आती है। 

बौद्ध दर्शन में 'दुर्घष चेतना' (तिब्बती : Sems Pa Chen Po) मष्तिक की वह वस्तु है जो मन को एक निश्चित दिशा या निश्चित लक्ष्य की ओर प्रेरित करती है। संकल्प ही मन को उसके लक्ष्य की ओर प्रेरित करती है। Volition (कर्म के संदर्भ में "इच्छाशक्ति" (sems pa'i las))। कर्म की प्रेरक शक्ति, इच्छाशक्ति, दृढ़संकल्प, दुर्घष चेतना) is what makes the mind move towards its object.  it is this mental factor which motivates the karma. आध्यात्मिक शक्ति के अविरल प्रवाह को उर्ध्वमुखी बनाए रखने में समर्थ नेता। 

यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, जो प्रतिपल बढ़ती ही रहती है,

 चिंतन के उत्तुंग शिखर पर, गिर-गिर चढ़ती ही रहती है।  

पग-पग पर ठोकर लगने से, नए-नए अनुभव जगते हैं,

 बहते हुए घाव लोहू की, लौ जैसे जलते लगते हैं। 

और उसी के लाल उजाले में विचार चलता रहता है,

 धीरे-धीरे जैसे अपनी केन नदी में जल बहता है। 

मन के भीतर नए सूर्य की, प्रतिमा गढ़ती ही रहती है,

 यह कैसी दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है। 

यह विचार परिवर्तनधर्मी होकर दाय नया गहता है ,

जय के प्रति विश्वास लिए, युग की सर्दी-गर्मी सहता है। 

 बीते हुए समय के तेवर फिर-फिर रोज़ उलझते रहते,

 पीड़ा की किरणों से इसके, सारे द्वंद्व सुलझते रहते।  

नभ पर लिखे हुए भावी के अक्षर पढ़ती ही रहती है,

 कैसी यह दुर्धर्ष चेतना, प्रतिपल बढ़ती ही रहती है।  

 [रचनाकार : कृष्ण मुरारी पहारिया]

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏तीन दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का महत्व🔱🙏

[Importance of three day youth training camp] 

श्रीयुत महेन्द्र मुखर्जी आये और प्रणाम किया । दिन के आठ बजे होंगे । हरिपद, तुलसीराम भी क्रमशः आये और प्रणाम किया । बाबूराम को बुखार है । इसलिए वे नहीं आ सके ।

About eight o'clock in the morning Mahendra Mukherji arrived and saluted the Master. Haripada, Tulsiram, and other devotees arrived one by one and saluted him. Baburam was laid up with fever and could not come.

শ্রীযুক্ত মহেন্দ্র মুখুজ্জে আসিয়া প্রণাম করিলেন। বেলা আটটা হইবে। হরিপদ, তুলসীরাম, ক্রমে আসিয়া প্রণাম করিয়া বসিলেন। বাবুরামের জ্বর হইয়াছে, — আসিতে পারেন নাই।

श्रीरामकृष्ण (मास्टर से) - छोटा नरेन्द्र नहीं आया ? उसने सोचा होगा - वे चले गये । (मुखर्जी से) कितने आश्चर्य की बात है, वह (छोटा नरेन्द्र) बचपन में, स्कूल से लौटकर ईश्वर के लिए रोता था । (ईश्वर के लिए) रोना क्या सहज ही होता है ?

MASTER (to M. and the others): "Hasn't the younger Naren come? Perhaps he thought I had left. (To Mukherji) How amazing! Even during his boyhood, on returning from school, he cried for God. Is it a small thing to cry for God? 

শ্রীরামকৃষ্ণ (মাস্টারাদির প্রতি) — ছোট নরেন এলো না? মনে করেছে, আমি চলে গেছি। (মুখুজ্জের প্রতি) কি আশ্চর্য! সে (ছোট নরেন) ছেলেবেলায় স্কুল থেকে এসে ঈশ্বরের জন্য কাঁদত। (ঈশ্বরের জন্য) কান্না কি কমেতে হয়!

फिर बुद्धि भी खूब है । बाँसों में बड़े छेदवाला बाँस है ।"और सब मन मुझ पर रहता है । 

He is very intelligent, too. He is like a bamboo with a big hollow space inside. All of his mind is fixed on me.

“আবার বুদ্ধি খুব। বাঁশের মধ্যে বড় ফুটোওলা বাঁশ!“আর আমার উপর সব মনটা।

गिरीश घोष ने कहा, 'नवगोपाल के यहाँ जिस दिन कीर्तन हुआ था, उस दिन (छोटा नरेन्द्र) गया था, - परन्तु 'वे कहाँ' कहकर बेहोश हो गया, लोग उसके ऊपर से चले जाते थे !"

 Girish Ghosh said to me: The younger Naren went to Navagopal's house when a kirtan was going on. On entering the house he inquired about you and exclaimed, "Where is he?" He was totally unconscious of his surroundings and practically walked over the people.' 

 গিরিশ ঘোষ বললে, নবগোপালের বাড়ি যেদিন কীর্তন হয়েছিল, সেদিন (ছোট নরেন) গিছিল, — কিন্তু ‘তিনি কই’ বলে আর হুঁশ নাই, — লোকের গায়ের উপর দিয়েই চলে যায়!

“उसे भय भी नहीं है कि घरवाले नाराज होंगे । दक्षिणेश्वर में लगातार तीन रात रहा था ।”

He has no fear of his relatives' threats. Sometimes he spends three nights at a stretch at Dakshineswar."

“আবার ভয় নাই — যে বাড়িতে বকবে। দক্ষিণেশ্বরে তিনরাত্রি সমানে থাকে।”

(८)

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏भक्तियोग का रहस्य🔱🙏 

🔱🙏ज्ञान और भक्ति का समन्वय🔱🙏

मुखर्जी - हरि (बागबाजार के हरिबाबू) आपकी बात सुनकर आश्चर्य में पड़ गये । कहते हैं, 'ऐसा ज्ञान केवल सांख्यदर्शन, पातंजलि योगसूत्र और वेदान्त की दार्शनिक पद्धति (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा) से प्राप्त होती हैं। ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं ।

MUKHERJI: "Hari5 became simply speechless at what you said yesterday. He said to me: 'Such wisdom can be found only in the philosophical systems of Samkhya, Yoga, and Vedanta. He is no ordinary person.'"

মুখুজ্জে — হরি (বাগবাজারের হরিবাবু) আপনার কালকের কথা শুনে অবাক্‌! বলে, ‘সাংখ্যদর্শনে, পাতঞ্জলে, বেদান্তে — ও-সব কথা আছে। ইনি সামান্য নন।’

[हरि  - भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा प्राप्त एक युवा भक्त थे। (अंग्रेजी अनुवाद में हरि' को तुरियानन्द कहा है, जो गलत प्रतीत होता है।) वे बागबाजार के मूल निवासी थे। उनका जन्म  ब्राह्मण-कुल में हुआ था। ठाकुर के भक्त दो मुखर्जी भाई, महेन्द्रनाथ और प्रियनाथ मुखोपाध्याय के सम्बन्धी थे। रामकृष्ण वचनामृत में 'मुखर्जियों के हरि' नाम से उनका उल्लेख हुआ है। हरि श्रीरामकृष्ण का सत्संग लाभ करने के लिए कभी अकेले तो कभी मुखर्जी भाइयों के साथ दक्षिणेश्वर जाते रहते थे। जगतगुरु श्रीरामकृष्ण को उन्होंने अपने गुरु (मार्गदर्शक नेता) के रूप में स्वीकार किया था । वे ठाकुर के इतने प्रिय शिष्य थे कि दक्षिणेश्वर जाने में कुछ विलम्ब होने पर उन्हें ठाकुर की फटकार भी सुननी पड़ती थी। एक बार हरि ने ठाकुर से दीक्षा देने की प्रार्थना दी थी, किन्तु उसका सही समय नहीं हुआ था , इसीलिए ठाकुर उस पर सहमत नहीं हुए थे। लेकिन माँ जगदम्बा से उन्होंने प्रार्थना की थी जो भी व्यक्ति परम् सत्य को जानने की अदम्य इच्छा से , (स्वामी विवेकानन्द के प्रति अदम्य आकर्षण से) प्रेरित होकर अवतार वरिष्ठ (परम् सत्य)  का नाम ग्रहण करेगा उनको अवश्य सिद्धि प्राप्त होगी। ठाकुर देव ने भाग्यशाली हरि का हाथ अपने हाथपर रखकर उसकी परीक्षा करके कहा था उसके लक्षण अच्छे हैं , और उनके भक्ति की प्रशंसा की थी।]     

श्रीरामकृष्ण - सांख्य और वेदान्त तो मैंने नहीं पढ़ा ।

MASTER: "But I have never studied Samkhya or Vedanta.

শ্রীরামকৃষ্ণ — কই, আমি সাংখ্য, বেদান্ত পড়ি নাই।

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏सत-असत -मिथ्या विवेक-प्रयोग द्वारा 'नेति से इति' में पहुँचे 🔱🙏 

"पूर्ण ज्ञान और पूर्ण भक्ति एक ही हैं । 'नेति नेति' के द्वारा जहाँ विचार का अन्त हो जाता है, वहीं ब्रह्मज्ञान है । - फिर जो कुछ छोड़कर जाना पड़ा था, लौटते हुए उसी को ग्रहण करना पड़ता है । छत पर चढ़ते समय बड़ी सावधानी से चढ़ना चाहिए । फिर वह देखता है, जिन चीजों से छत बनी है, उन्हीं से सीढ़ियाँ भी बनी हुई हैं - उन्हीं ईंटों से - उसी सुर्खी और चूने से ।

"Perfect jnana and perfect bhakti are one and the same thing. A man reasons, saying, 'Not this, not this'; he rejects the unreal. When his reasoning comes to an end, he attains the Knowledge of Brahman. Then he accepts what he rejected before. A man carefully climbs to the roof, rejecting the steps one by one. After reaching the roof he realizes that the steps are made of the same materials as the roof, namely, brick, lime, and brick-dust.

“পূর্ণজ্ঞান আর পূর্ণভক্তি একই। ‘নেতি’ ‘নেতি’ করে বিচারের শেষ হলে, ব্রহ্মজ্ঞান। — তারপর যা ত্যাগ করে গিছিল, তাই আবার গ্রহণ। ছাদে উঠবার সময় সাবধানে উঠতে হয়। তারপর দেখে যে, ছাদও যে জিনিসে — ইট-চুন-সুরকি — সিঁড়িও সেই জিনিসে তৈয়ারী!

["पूर्ण ज्ञान और पूर्ण भक्ति एक ही वस्तु -'100% Unselfishness' प्राप्त करने का उपाय है।   "Complete Knowledge and Complete Devotion are the means to attain the same thing - '100% Unselfishness'. "A man reasons, saying, 'Not this, not this'; he rejects the unreal." इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य (अपरिवर्तनीय ब्रह्म या आत्मा) की खोज में कोई साधक (एथेंस का सत्यार्थी) 'जगत-से- ब्रह्म तक पहुँचने की यात्रा' में पहले -4 महावाक्यों पर श्रद्धा रखते हुए 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक परम्परा' में  शाश्वत-नश्वर विवेक-प्रयोग पद्धति से  इन्द्रियगोचर सत्य (परिवर्तनशील सत्य -शरीर और मन) के विषय में 'नेति नेति' विचार या विवेक-प्रयोग करता है। तथा नाम-रूप से सम्बद्ध विचार द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि 'यह परिवर्तनशील शरीर और मन (चित्त,मन , बुद्धि और अहंकार) भी मेरा यथार्थ स्वरुप (ब्रह्म या आत्मा)नहीं हो सकता। इस प्रकार वह सत्य (अस्ति-भाति -प्रिय) से असत्य (या मिथ्या ?)  को पृथक समझकर अस्वीकार करता है, या मिथ्या नाम-रूप से (कामिनी -कांचन से) अनासक्त  हो जाता है। "When his reasoning comes to an end, he attains the Knowledge of Brahman." जब उसका तर्क समाप्त हो जाता है, तो वह ब्रह्म के ज्ञान को प्राप्त करता है। Then he accepts what he rejected before.तब वह उस मिथ्या नाम-रूप को भी स्वीकार करता है, जिसे उसने पहले अस्वीकार कर दिया था। लेकिन विवेक जाग्रत रहने से वह उसमें आसक्त नहीं होता।  A man carefully climbs to the roof, rejecting the steps one by one. देश-काल -निमित्त (माया) का अतिक्रमण कर जगत-से-ब्रह्म तक या मूलाधार से सहस्रार तक की यात्रा में सत्यार्थी (साधक) बहुत सावधानी से छत पर चढ़ता है, एक-एक करके सीढ़ियों को अस्वीकार करता है-शरीर और मन मन का अतिक्रमण करता है और (manifestation से the Absolute तक) ब्रह्म या आत्मा तक पहुँचता है।  After reaching the roof he realizes that the steps are made of the same materials as the roof, namely, brick, lime, and brick-dust.   छत पर पहुँचने के बाद वह अपने अनुभव से समझता है कि-  सीढ़ियाँ उसी सामग्री -ईंट, चूना और सीमेंट से बनी हैं जैसे छत।]

"जिसे उच्च का ज्ञान है, उसे निम्न का भी ज्ञान है । ज्ञान के बाद ऊँचा-नीचा एक जान पड़ता है ।

"He who is aware of the high is also aware of the low. After the attainment of Knowledge one looks alike on high and low.

“যার উচ্চ বোধ আছে, তার নিচু বোধ আছে। জ্ঞানের পর, উপর নিচে এক বোধ হয়।

"प्रह्लाद को जब तत्त्वज्ञान होता था, तब वे 'सोऽहम्' होकर रहते थे । जब देह-बुद्धि आती थी, तब 'दासोऽहम्' - 'मैं दास हूँ’ यह भाव रहता था ।

"While Prahlada dwelt on the plane of the Supreme Reality, he maintained the attitude of 'I am He'; but when he climbed down to the physical plane, he would look on himself as the servant of God.

“প্রহ্লাদের যখন তত্ত্বজ্ঞান হত, ‘সোঽহম্‌’ হয়ে থাকতেন। যখন দেহবুদ্ধি আসত ‘দাসোঽহম্‌’, ‘আমি তোমার দাস’, এই ভাব আসত।

"हनुमान को भी कभी सोऽहम्' का भाव रहता था, कभी 'दास मैं, कभी मैं तुम्हारा अंश हूँ’ यह भाव रहता था ।

[>>(सीता अम्बा और हनुमान जी संवाद) जब राम ने हनुमान से पूछा - "कस्त्वम्"  (तुम कौन हो ?) तो उन्होंने उत्तर दिया:

देहबुद्‍ध्या त्वद्दासोऽहं जीवबुद्‍ध्या त्वदंशकः।

आत्मबुद्‍ध्या त्वमेवाहम् इति मे निश्चिता मतिः॥

जब मुझे अपने शरीर का बोध होता है, तब मैं स्वयं को आपका सेवक समझता हूँ। जब मैं अपने को जीव समझता हूँ, तो मैं अपने को आपका अंश मानता हूं। (समाधि के समय) जब मैं अपने यथार्थ स्वरुप से एकत्व की अवस्था में होता हूँ, उस अवस्था में मैं वास्तव में आप ही हूं। यह मेरा निश्चित विश्वास है। 

When I am conscious of my body, I am Thy servant. When aware of myself, I am a part of Thine. When I know my essence, I am verily Thyself. This is my certain belief.]

"Hanuman also sometimes said, 'I am He', sometimes, 'I am the servant of God', sometimes, 'I am a part of God.'

“হনুমানের কখনও ‘সোঽহম্‌’, কখন ‘দাস আমি’, কখন ‘আমি তোমার অংশ’, এই ভাব আসত।

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏समाधि से पुनः जगत में लौटने के बाद माँ जगदम्बा की भक्ति🔱🙏 

"भक्ति लेकर क्यों रहना ? - इसे छोड़ दे तो मनुष्य फिर क्या लेकर रहे ? – क्या लेकर दिन पार किया करे ?

"Why should a man cherish love of God in his heart? How else will he live? How else will he spend his days?

“কেন ভক্তি নিয়ে থাকো? — তা না হলে মানুষ কি নিয়ে থাকে! কি নিয়ে দিন কাটায়।

" 'मैं' जाने का तो है ही नहीं । ‘मै’ रूपी घट के रहते 'सोऽहम्' नहीं होता । समाधिमग्न होने पर 'मैं' पूर्ण रूप से चला जाता है । - तब जो कुछ है, वही है ।

"To be sure, the ego does not disappear altogether. As long as the pot of 'I' (Body-consciousness.) persists, one cannot realize 'I am He.' In samadhi the ego totally disappears; then what is remains.

रामप्रसाद ने कहा है – ‘फिर मैं अच्छा हूँ या तुम, यह तुम्हीं समझो ।’

 Ramprasad says: 'O Mother, when I shall attain Knowledge, then You alone will know whether I am good or You are good.'

রামপ্রসাদ বলে, তারপর আমি ভাল কি তুমি ভাল, তা তুমিই জানবে।

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏हे जीव ! भक्तवत् न तु कृष्णवत् !🔱🙏

"जब तक 'मैं' है तब तक भक्त की तरह ही रहना अच्छा है । ‘मैं ईश्वर हूँ’, यह भाव अच्छा नहीं । हे जीव ! भक्तवत् न तु कृष्णवत् ! - परन्तु अगर वे खुद खींच लें तो वह बात और है । जिस तरह मालिक नौकर को प्यार करके कहता है – ‘आ, पास बैठ, मैं जो कुछ हूँ, वही तू भी है ।’

"As long as 'I-consciousness' exists, one should have the attitude of a bhakta; one should rot say, 'I am God.' A man aware of his body should feel that he is not Krishna Himself, but His devotee. But if God draws the devotee to Himself, then it is different. It is like the master saying to his beloved servant: 'Come, take your seat near me. You are the same as I.'

“যতক্ষণ ‘আমি’ রয়েছে ততক্ষণ ভক্তের মতো থাকাই ভাল! ‘আমি ভগবান’ এটি ভাল না। হে জীব, ভক্তবৎ এটি ভাল না। হে জীব, ভক্তবৎ ন চ কৃষ্ণবৎ! — তবে যদি নিজে টেনে লন, তবে আলাদা কথা। যেমন মনিব চাকরকে ভালবেসে বলছে, আয় আয় কাছে বোস আমিও যা তুইও তা। 

“तरंगें गंगा की हैं, परन्तु गंगा तरंगों की नहीं ।

গঙ্গারই ঢেউ, ঢেউয়ের গঙ্গা হয় না!

"The waves are part of the Ganges, but the Ganges is not part of the waves.

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏समाधि और व्युत्थान अवस्था🔱🙏 

“शिव की दो अवस्थाएँ हैं । जब वे आत्माराम रहते हैं, तब उनकी 'सोऽहम्' अवस्था होती है - योग में सब कुछ स्थिर है । जब 'मैं' - ज्ञान रहता है, तब 'राम राम' कहकर नृत्य करते हैं ।

"Siva experiences two states of mind. When He is completely absorbed in His own Self, He feels, 'I am He.' In that union neither body nor mind functions. But when He is conscious of His separate ego, He dances, exclaiming, 'Rama! Rama!'

“শিবের দুই অবস্থা। যখন আত্মারাম তখন সোঽহম্‌ অবস্থা, — যোগেতে সব স্থির। যখন ‘আমি’ একটি আলাদা বোধ থাকে তখন ‘রাম! রাম!’ করে নৃত্য।

“जिनमें स्थिरता है, उनमें अस्थिरता भी है ।"अभी तुम स्थिर हो, फिर थोड़ी देर बाद तुम काम करने लगोगे ।

"That which is unmoving also moves. Just now you are still, but a few moments later the same you will be engaged in action.

“যাঁর অটল আছে, তাঁর টলও আছে।“এই তুমি স্থির। আবার তুমিই কিছুক্ষণ পরে কাজ করবে।

"ज्ञान और भक्ति एक ही वस्तु हैं । अन्तर इतना ही है कि कोई कहता है पानी और कोई कहता है पानी का एक बड़ा ढेला (बर्फ) ।

"Jnana and bhakti are one and the same thing. The difference is like this: one man says 'water', and another, 'a block of ice'.

“জ্ঞান আর ভক্তি একই জিনিস। — তবে একজন বলছে ‘জল’, আর-একজন ‘জলের খানিকটা চাপ’।”

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏दो प्रकार की समाधि - समाधि बाधा - कामिनी-कंचन🔱🙏

[দুই সমাধি — সমাধি প্রতিবন্ধক — কামিনী-কাঞ্চন ]

"साधारणतया समाधियाँ दो तरह की हैं । ज्ञान-मार्ग पर विचार करते हुए अहं के नष्ट हो जाने के बाद जो समाधि होती है, उसे स्थिर समाधि, जड़ समाधि (निर्विकल्प समाधि) कहते हैं । भक्तिपथ की समाधि को भाव-समाधि कहते हैं । भाव-समाधि में भोग के लिए 'अहं' की एक रेखा रह जाती है, भक्त को ईश्वरानन्द देने के लिए । कामिनी और कांचन में आसक्ति के रहने पर इन सब बातों की धारणा नहीं होती ।

"Generally speaking there are two kinds of samadhi. First, sthira or jada samadhi: one attains it by following the path of knowledge — as a result of the destruction of the ego through reasoning. Second, bhava samadhi: one attains this by following the path of bhakti. In this second samadhi a trace of ego remains, like a line, in order to enable the devotee to enjoy God, to taste His lila. But one cannot understand all this if one is attached to 'woman and gold'.

“সমাধি মোটামুটি দুইরকম। — জ্ঞানের পথে, বিচার করতে করতে অহং নাশের পর যে সমাধি, তাকে স্থিতসমাধি বা জড়সমাধি (নির্বিকল্পসমাধি) বলে। ভক্তিপথের সমাধিকে ভাবসমাধি বলে। এতে সম্ভোগের জন্য, আস্বাদনের জন্য, রেখার মতো একটু অহং থাকে। কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি থাকলে এ-সব ধারণা হয় না।

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏कामिनी-कांचन में आसक्त ह्रदय में ठाकुर घुस नहीं सकते🔱🙏  

"केदार से मैंने कहा, कामिनी और कांचन में मन के रहने पर कुछ होगा नहीं । इच्छा हुई, एक बार उसकी छाती पर हाथ फेर दूँ, - परन्तु फेर न सका । भीतर टेढ़ापन था । उसके हृदयरूपी कमरे में मानो विष्ठा की दुर्गन्ध थी, मैं घुस नहीं सका । उसमें की आसक्ति मानो स्वयंम्भू लिंग जैसी है, वाराणसी तक उसकी जड़ फैली हुई है । संसार में आसक्ति - कामिनी और कांचन में आसक्ति के रहते हुए कुछ हो नहीं सकता

"I said to Kedar, 'You will never succeed if your mind dwells on "woman and gold".' I wanted to pass my hand over his chest, but I could not. He has knots and twists inside. It was like a room smelling of filth, which I could not enter. His attachment to the world is very deep; it is like a natural emblem of Siva, whose root spreads as far as Benares. One will never succeed if one is attached to the world — to 'woman and gold'.

“কেদারকে বললুম, কামিনী-কাঞ্চনে মন থাকলে হবে না। ইচ্ছা হল, একবার তার বুকে হাত বুলিয়ে দি, — কিন্তু পারলাম না। ভিতরে অঙ্কট-বঙ্কট। ঘরে বিষ্ঠার গন্ধ, ঢুকতে পারলাম না। যেমন স্বয়ম্ভু লিঙ্গ কাশী পর্যন্ত জড়। সংসারে আসক্তি, — কামিনী-কাঞ্চনে আসক্তি, — থাকলে হবে না।

"इन लड़कों में कामिनी और कांचन का प्रवेश अभी तक नहीं हो पाया । इसीलिए तो उन्हें मैं इतना प्यार करता हूँ । हाजरा कहता है, 'धनी लोगों के सुन्दर लड़के देखकर तुम उन्हें प्यार करते हो ।’ अगर यही बात है तो हरीश, लाटू, नरेन्द्र, इन्हें मैं क्यों प्यार करता हूँ ? नरेन्द्र को तो रोटी खाने के लिए नमक खरीदने के लिए भी पैसे नहीं मिलते ।

"The youngsters are yet untouched by 'woman and gold'. That is why I love them so dearly. Hazra says to me, 'You love a boy if he comes from a wealthy family or if he is handsome.' If that is so, then why do I love Harish, Latu, and Narendra? Narendra hasn't a penny to buy salt to season his rice.

“ছোকরাদের ভিতর এখনও কামিনী-কাঞ্চন ঢোকে নাই; তাইতো ওদের অত ভালবাসি। হাজরা বলে, ‘ধনীর ছেলে দেখে, সুন্দর ছেলে দেখে, — তুমি ভালবাস’। তা যদি হয়, হরিশ, নোটো, নরেন্দ্র — এদের ভালবাসি কেন? নরেন্দ্রের ভাত নুন দে খাবার পয়সা জোটে না।

“इन लड़कों में विषय-बुद्धि अभी नहीं पैठी । इसीलिए उनका मन इतना शुद्ध है ।"और बहुतेरे उनमें नित्य-सिद्ध भी हैं । जन्म से ही ईश्वर की ओर मन लगा हुआ है । जैसे तुमने एक बगीचा खरीदा । साफ करते हुए कहीं जल का स्त्रोत तुम्हें मिल गया । मिट्टी हटी नहीं कि कलकल स्वर से पानी निकलने लगा ।'

"The youngsters' minds are not yet coloured by worldliness. That is why they are so pure in heart. Besides, many of them are eternally perfect; they have been drawn to God from their very birth. It is like a garden in which, while cleaning it, you suddenly discover water-pipes. The water gushes forth without any effort on your part."

“ছোকরাদের ভিতর বিষয়বুদ্ধি এখনও ঢোকে নাই। তাই অন্তর অত শুদ্ধ।“আর অনেকেই নিত্যসিদ্ধ। জন্ম থেকেই ঈশ্বরের দিকে টান। যেমন বাগান একটা কিনেছ। পরিষ্কার করতে করতে এক জায়গায় বসানো জলের কল পাওয়া গেল। একবারে জল কলকল করে বেরুচ্ছে।”

 [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏पूर्ण और वैष्णव महोत्सव भव 🔱🙏

[পূর্ণ ও নিরঞ্জন — মাতৃসেবা — বৈষ্ণবদের মহোৎসবের ভাব ]

बलराम - महाराज, संसार मिथ्या है, यह ज्ञान पूर्ण को एकदम कैसे हो गया ?

BALARAM: "Sir, how was it possible for Purna to know all of a sudden that the world is illusory?"

বলরাম — মহাশয়, সংসার মিথ্যা, একবারে জ্ঞান, পূর্ণের কেমন করে হল?

श्रीरामकृष्ण – जन्मगत । पिछले जन्मों में सब किया हुआ है । शरीर ही छोटा और वृद्ध होता रहता है, पर आत्मा के लिए वह बात नहीं ।

MASTER: "He has inherited that knowledge from his previous births. In his past lives he practised many disciplines. It is the body alone that is small or grows big, and not the Atman.

শ্রীরামকৃষ্ণ — জন্মান্তরীণ। পূর্ব পূর্ব জন্মে সব করা আছে। শরীরটাই ছোট হয়ে আবার বৃদ্ধ হয় — আত্মা সেইরূপ নয়।

  [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏बुलाये गए नेता के लिए पहले दर्शन, फिर गुण-महिमा श्रवण, फिर मिलन🔱🙏    

"वे कैसे हैं, जानते हो ? - जैसे पहले फल लगकर फिर फूल हों । पहले दर्शन, फिर गुण-महिमा आदि का श्रवण, फिर मिलन ।

"Do you know what these youngsters are like?' They are like certain plants that grow fruit first and then flowers. These devotees first of all have the vision of God; next they hear about His glories and attributes; and at last they are united with Him. 

“ওদের কেমন জান, — ফল আগে তারপর ফুল। আগে দর্শন, — তারপর গুণ-মহিমাশ্রবণ, তারপর মিলন!

   [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏'जगन्माता ही शारीरिक माता बनी हैं ' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते' भाव से मातृ सेवा 🔱🙏

"निरंजन को देखो - न लेना है, न देना । - जब पुकार होगी तभी चला जा सकता है । परन्तु जब तक मनुष्य की माँ जीवित है, तब तक उसे उसका भरण-पोषण करना चाहिए । मैं अपनी माँ की फूल- चन्दन से पूजा करता था । वह जगन्माता ही हैं जो हमारे लिए सांसारिक माता के रूप में विराजमान हैं

Look at Niranjan. He always keeps his accounts clear. He will be able to go whenever he hears the call. But one should look after one's mother as long as she is alive. I used to worship my mother with flowers and sandal-paste. It is the Mother of the Universe who is embodied as our earthly mother.

"जब तक अपने शरीर की खबर है तब तक माता की खबर लेनी चाहिए, इसीलिए मैं हाजरा से कहता हूँ, अपने शरीर में अगर खाँसी की बीमारी हो गयी तो मिश्री और मरिच की व्यवस्था की जाती है - मरिच और नमक की जरूरत होती हैं - अतएव, जब तक अपने शरीर के लिए यह इतना किया जाता है, तब तक माता की खबर भी रखना उचित है । इसीलिए किसी का श्राद्ध भी अन्त में अपने ईष्टदेव की पूजा बन जाती है।  वैष्णव सप्रदाय में जब किसी की मृत्यु होती है तो उसे महोत्स्व जैसा मनाने के पीछे भी यही भाव रहता है।  

"As long as you look after your own body, you must look after your mother too. Therefore I said to Hazra: 'When you have a cold, you procure black pepper, sugar candy, and salt. As long as you feel you must look after your body, you must look after your mother too.' [That's why even someone's Shraddha becomes worship of their presiding deity in the end. When someone dies in the Vaishnava sect, the same feeling remains behind celebrating it like a festival.???]

“নিরঞ্জনকে দেখ — লেনাদেনা নাই। — যখন ডাক পড়বে যেতে পারবে। তবে যতক্ষণ মা আছে, মাকে দেখতে হবে। আমি মাকে ফুল চন্দন দিয়ে পূজা করতাম। সেই জগতের মা-ই মা হয়ে এসেছেন। তাই কারু শ্রাদ্ধ, — শেষে ঈষ্টের পূজা হয়ে পড়ে। কেউ মরে গেলে বৈষ্ণবদের মহোৎসব হয়, তারও এই ভাব

[यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।। मनुस्मृति ३/५६ ।।

(यत्र तु नार्यः पूज्यन्ते तत्र देवताः रमन्ते, यत्र तु एताः न पूज्यन्ते तत्र सर्वाः क्रियाः अफलाः (भवन्ति) ।) 

जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं। 

Where women are worshiped, there lives the Gods. Wherever they are not worshiped, all actions result in failure.]

"परन्तु जब अपने शरीर की भी खबर नहीं रख सकते तब दूसरे के लिए बात ही क्या है ? तब सब भार ईश्वर ले लेते हैं । "नाबालिग अपना भार नहीं ले सकता । इसीलिए उसके एक अभिभावक होता है । नाबालिग अवस्था और चैतन्यदेव की अवस्था दोनों एक हैं ।"

"But it is quite different when you completely forget your body. Then God Himself assumes your responsibilities. A minor cannot look after himself; therefore a guardian is appointed for him. Chaitanyadeva, like a minor, could not look after himself."

मास्टर गंगा-स्नान करने के लिए गये ।

M. went to the Ganges to bathe.

মাস্টার গঙ্গাস্নান করিতে গেলেন।

(९)

   [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏श्रीरामकृष्ण द्वारा ईश्वर के रूपों का दर्शन 🔱🙏

श्रीरामकृष्ण भक्तों से उसी कमरे में बातचीत कर रहे हैं । महेन्द्र मुखर्जी, बलराम, तुलसी, हरिपद, गिरीश आदि भक्तगण बैठे हुए हैं । गिरीश श्रीरामकृष्ण की कृपा प्राप्त कर सात-आठ महीने से आते-जाते हैं । मास्टर गंगा-स्नान करके आ गये, श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करके उनके पास बैठे । श्रीरामकृष्ण अपने अपूर्व ईश्वर-दर्शन की बातें सुना रहे हैं –

Sri Ramakrishna was talking with the devotees in the small room in Balaram's house. Mahendra, Balaram, Tulasi, Haripada, Girish, and other devotees were sitting on the floor. M. returned from the Ganges. After saluting the Master he took a seat near him. Sri Ramakrishna was recounting to the devotees some of his spiritual experiences.

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ভক্তসঙ্গে সেই ছোট ঘরে কথা কহিতেছেন। মহেন্দ্র মুখুজ্জে, বলরাম, তুলসী, হরিপদ, গিরিশ প্রভৃতি ভক্তেরা বসিয়া আছেন। গিরিশ ঠাকুরের কৃপা পাইয়া সাত-আট মাস যাতায়াত করিতেছেন। মাস্টার ইতিমধ্যে গঙ্গাস্নান করিয়া ফিরিয়াছেন ও ঠাকুরকে প্রণাম করিয়া তাঁহার কাছে বসিয়াছেন। ঠাকুর তাঁহার অদ্ভুত ঈশ্বর-দর্শনকথা একটু একটু বলিতেছেন।

"कालीमन्दिर में एक दिन नागा और हलधारी अध्यात्मरामायण पढ़ रहे थे । मैंने एकाएक एक नदी देखी, उसके पास ही वन था - हरे रंग के पेड़-पौधे, और जाँघिया पहने हुए राम और लक्ष्मण चले जा रहे थे । एक दिन मैंने कोठी के सामने अर्जुन का रथ देखा था । सारथी के वेश में श्रीकृष्णजी बैठे हुए थे । वह अब भी मुझे याद है । "एक दिन और, देश में (कामारपुकुर में) कीर्तन हो रहा था । सामने मैंने गौरांग की मूर्ति देखी ।

MASTER: "One day in the Kali temple Haladhari and Nangta were reading the Adhyatma Ramayana. Suddenly I had a vision of a river with woods on both sides. The trees and plants were green. Rama and Lakshmana were walking along wearing their shorts. One day, in front of the kuthi, I saw Arjuna's chariot. Sri Krishna was seated in it as the charioteer. I still remember it. Another day, while listening to kirtan at Kamarpukur, I saw Gauranga in front of me.

“কালীঘরে একদিন ন্যাংটা আর হলধারী অধ্যাত্ম (রামায়ণ) পড়ছে। হঠাৎ দেখলাম নদী, তার পাশে বন, সবুজ রঙ গাছপালা, — রাম লক্ষ্মণ জাঙ্গিয়া পরা, চলে যাচ্ছেন। একদিন কুঠির সম্মুখে অর্জুনের রথ দেখলাম। — সারথির বেশে ঠাকুর বসে আছেন। সে এখনও মনে আছে।“আর একদিন, দেশে কীর্তন হচ্ছে, — সম্মুখে গৌরাঙ্গমূর্তি

"एक नंगा आदमी मेरे साथ घूमता था । उससे मैं खूब मजाक करता था । वह नंगी मूर्ति मेरे ही भीतर से निकलती थी, परमहंस मूर्ति, बालकवत् ।"ईश्वर के कितने रूपों के दर्शन हो चुके हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता । 

"At that time a naked person, emerging from my body, used to go about with me. I used to joke with him. He looked like a boy and was a paramahamsa. I can't describe to you all the divine forms I saw at that time. 

“একজন ন্যাংটা সঙ্গে সঙ্গে থাকত — তার ধনে হাত দিয়ে ফচকিমি করতুম। তখন খুব হাসতুম। এ ন্যাংটোমূর্তি আমারই ভিতর থেকে বেরুত। পরমহংসমূর্তি, — বালকের ন্যায়।“ঈশ্বরীয় রূপ কত যে দর্শন হয়েছে, তা বলা যায় না।

उस समय मुझे पेट की सख्त बीमारी थी और वह उन सब दर्शनों के समय और भी अधिक बढ़ जाती थी । इसलिए जब मुझे वे दर्शन होते थे तब मैं उन पर 'थू थू' करने लगता था, - परन्तु वे तो मेरे पीछे भूत के समान लग जाते थे । इन रूपों के भावावेश में मैं मस्त रहा करता था और रात-दिन न जाने कहाँ बीत जाते थे । दूसरे दिन फिर दस्त आने लगते थे ।" (हास्य)

I was suffering then from indigestion, which would become worse when I saw visions; so I would try to shun these divine forms and would spit on the ground when I saw them. But they would follow me and obsess me like ghosts. I was always overwhelmed with divine ecstasy and couldn't tell the passing of day and night. On the day after such a vision I would have a severe attack of diarrhoea, and all these ecstasies would pass out through my bowels."

 সেই সময়ে বড় পেটের ব্যামো। ওই সকল অবস্থায় পেটের ব্যামো বড় বেড়ে যেত। তাই রূপ দেখলে শেষে থু-থু করতুম — কিন্তু পেছেনে গিয়ে ভূত পাওয়ার মতো আবার আমায় ধরত! ভাবে বিভোর হয়ে থাকতাম, দিনরাত কোথা দিয়ে যেত! তার পরদিন পেট ধুয়ে ভাব বেরুত!” (হাস্য)

   [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏श्रीरामकृष्ण देव की जन्म कुंडली🔱🙏 

गिरीश (सहास्य) - आप की जन्म कुण्डली (horoscope-जन्मपत्री) देख रहा हूँ ।

GIRISH (smiling): "I am examining your horoscope."

গিরিশ (সহাস্যে) — আপনার কুষ্ঠি দেখছি।

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - द्वितीया के चन्द्र में (फाल्गुन शुक्ल द्वितीया के दिन कुम्भ राशि में) जन्म है। और रवि, चन्द्र और बुध को छोड़ और कोई बड़ी बात नहीं है ।

MASTER (smiling): "I was born on the second day of the bright fortnight of the moon. My horoscope shows the positions of the sun, the moon, and Mercury at the time of my birth. There are not many more details."

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — দ্বিতীয়ার চাঁদে জন্ম। আর রবি, চন্দ্র, বুধ — এছাড়া আর কিছু বড় একটা নাই।

गिरीश - आपका जन्म कुम्भराशि (Aquarius) में हुआ है । कर्क (Cancer) और वृष (Taurus) में राम और कृष्ण का जन्म है - सिंह (Leo) में चैतन्यदेव का ।

[कुंभ राशि के जातक अपने आस-पास की दुनिया को सुधार कर उसे रहने लायक एक अच्छी जगह बनाना पसंद करते हैं। इस राशि का प्रतीक एक आदमी है, जो कंधे पर घड़ा उठाये हुए है। ये सच्चे अर्थो में मानवीय गुणों से भरपूर होते हैं। उन्नतशील और आधुनिक जो अपने विचारो पर चलते हैं और जल्द ही दूसरे लोग भी इनसे जुड़ जाते हैं और एक बेहतर समाज बनाने के प्रयास में लग जाते हैं। इनकी मित्रता का दायरा काफी बड़ा होता है।]

GIRISH: "You were born under Kumbha. Rama and Krishna were born under Karkat and Brisha, and Chaitanya under Simha."6

গিরিশ — কুম্ভরাশি। কর্কট আর বৃষে রাম আর কৃষ্ণ; — সিংহে চৈতন্যদেব।

श्रीरामकृष्ण - मुझमें दो वासनाएँ थीं, - पहली यह कि मैं भक्तों का राजा होऊँगा; दूसरी, तपस्या के मारे सूख जानेवाला (नीरस या उदासीन) साधु न होऊँगा ।

[भक्त शिरोमणि हनुमान जी को कहा जाता है। संत तुलसीदासजी का यह कहना है कि यदि कलियुग में किसी को गुरु (नेता) बनाना है तो उसे हनुमानजी के जैसा भक्त गुरु (विवेकानन्द या नवनीदा जैसा) बनाना चाहिये! हनुमानजी भक्ति की उच्च प्राकाष्ठा हैं, जहा भगवन् भी उनके सामने नत-मस्तक हो जाते है! इसलिये हनुमानजी को भक्त-शिरोमणि भी कहा जाता है!

MASTER: "I had two desires: first, that I should be the king of the devotees, and second, that I should not be a dry sadhu."

শ্রীরামকৃষ্ণ — দুটি সাধ ছিল। প্রথম — ভক্তের রাজা হব, দ্বিতীয় শুঁটকে সাধু হবো না।

   [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏श्री रामकृष्ण की यन्त्र साधना द्वारा ब्रह्मयोनि दर्शन🔱🙏 

गिरीश - आपको साधना क्यों करनी पड़ी ?

GIRISH (smiling): "Why did you have to practise spiritual discipline?"

গিরিশ (সহাস্যে) — আপনার সাধন করা কেন?

श्रीरामकृष्ण (सहास्य) - भगवती ने शिव के लिए बड़ी कठोर साधना की थी - पंचाग्नि तापना, जाड़े में पानी के भीतर गले तक डूबकर रहना, सूर्य की ओर एकदृष्टि से ताकते रहना ।

MASTER (smiling): "Even the Divine Mother had to practise austere sadhana to obtain Siva as Her husband. She practised the panchatapa. She would also immerse Her body in water in wintertime, and look fixedly at the sun. 

শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — ভগবতী শিবের জন্য অনেক কঠোর সাধন করেছিলেন, — পঞ্চতপা, শীতকালে জলে গা বুড়িয়ে থাকা, সূর্যের দিকে একদৃষ্টে চেয়ে থাকা!

"स्वयं कृष्ण ने राधायन्त्र लेकर बहुतसी साधनाएँ की थीं । यन्त्र ब्रह्मयोनि है – उसी की पूजा और ध्यान । इस ब्रह्मयोनि से कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि हो रही है ।

Krishna Himself had to practise much sadhana. 

“স্বয়ং কৃষ্ণ রাধাযন্ত্র নিয়ে অনেক সাধন করেছিলেন। যন্ত্র ব্রহ্মযোনি — তাঁরই পূজা ধ্যান! এই ব্রহ্মযোনি থেকে কোটি কোটি ব্রহ্মাণ্ড উৎপত্তি হচ্ছে।

"बड़ी गुप्त बात है । बेल के नीचे मैं उसे चमकते हुए देखा करता था ।

“অতি গুহ্যকথা! বেলতলায় দর্শন হত — লকলক করত!

[ ब्रह्मयोनी पहाड़ गया-  की चोटी पर ब्रह्मयोनि गुफा में स्थितब्रह्मयोनी मंदिर गया के  स्थित एक प्राचीन मंदिर है।  जहां ब्रह्मा की पांच सिर वाली मूर्ति है, जो भगवान ब्रह्मा की रचनात्मक और स्त्री ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है। मंदिर के दर्शन करने के लिए भक्तों को पहाड़ी की चोटी तक पहुंचने के लिए 424 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। ब्रह्मयोनी मंदिर  एक अद्भुत पर्यटक सह धार्मिक स्थल है, जिसे एक मराठा-सरदार राव भाऊ साहेब ने बीते युग में बनवाया था और इसमें 424 सीढ़ियां हैं। ब्रह्मयोनी गया की सबसे ऊंची पहाड़ी पर स्थित है इसलिए यह आसपास के स्थानों का एक सुंदर मनोरम दृश्य भी प्रदान करता है। ब्रह्मयोनि पहाड़ के शीर्ष पर, मैत्रेयोनी गुफ़ा नामक एक और गुफा है जहाँ  श्री अष्टभुजा देवी का मंदिर है।]

    [ (13, 14, 15 जुलाई,1885) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-117 ] 

🔱🙏भैरवी ब्राह्मणी के मार्गदर्शन में श्रीरामकृष्ण द्वारा बेलतला में तंत्र साधना🔱🙏 

 "यहाँ तन्त्र की बहुतसी साधनाएँ मैंने की थी, मुर्दे की खोपड़ी (पंचमुण्डी) लेकर । ब्राह्मणी (श्रीरामकृष्ण की तान्त्रिक आराधना की आचार्या) सब सामग्री इकट्ठा कर देती थी । (हरिपद ^* की ओर बढ़ते हुए) - “ उस अवस्था में मैं धन, पुष्प और चंदन से बालकों की पूजा किये बिना मैं रह  ही नहीं सकता था।"

[हरिपद - श्री रामकृष्ण के बालक भक्त। मास्टर महाशय ने उन्हें ठाकुर के सानिध्य में भेजा था। बीच -बीच में दक्षिणेश्वर भी चला जाता था। घोषपाड़ा -मत के अनुसार  उसने साधना की थी। वह  कथावाचक था  और बहुत ध्यान करता था। ] 

“বেলতলায় অনেক তন্ত্রের সাধন হয়েছিল। মড়ার মাথা নিয়ে। আবার ... আসন। বামনী সব যোগাড় করত। (হরিপদর দিকে অগ্রসর হইয়া) — “সেই অবস্থায় ছেলেদের ধন, ফুল-চন্দন দিয়ে পূজা না করলে থাকতে পারতাম না।

I had many mystic experiences, but I cannot reveal their contents. Under the bel-tree I had many flaming visions. There I practised the various sadhanas prescribed in the Tantra. I needed many articles — human skulls, and so forth and so on. The Brahmani used to collect these things for me. I practised a number of mystic postures.

"एक अवस्था और होती थी । जिस दिन में अहंकार करता था उसके दूसरे ही दिन बीमार पड़ता था ।"

"I had another strange experience: if I felt egotistic on a particular day, I would be sick the following day."

“আর-একটি অবস্থা হত। যেদিন অহংকার করতুম, তারপরদিনই অসুখ হত।”

सब लोग चुपचाप बैठे हुए हैं ।

[श्रीरामकृष्ण के इन अनूठे वेदान्त -वाक्य (महावाक्यों) की बातें  सुनकर श्री 'म'  कैनवास पर बने एक चित्र की भाति निश्चल होकर बैठ गए। अन्य भक्त भी मंत्रमुग्ध थे। कमरे में पूर्ण निस्तबद्धता छाई हुई थी। ]

M. sat motionless as a picture on canvas, hearing about these unique visions (Vedanta) of the Master. The other devotees also were spellbound. There was a dead silence in the room.

মাস্টার শ্রীমুখনিঃসৃত অশ্রুতপূর্ব বেদান্তবাক্য শুনিয়া অবাক্‌ হইয়া চিত্রার্পিতের ন্যায় বসিয়া আছেন। ভক্তেরাও যেন সেই পূতসলিলা পতিতপাবনী শ্রীমুখনিঃসৃত ভাগবতগঙ্গায় স্নান করিয়া বসিয়া আছেন।

तुलसी - ये (मास्टर) नहीं हँसते ।

TULASI (pointing to M.): "He never laughs."

তুলসী — ইনি হাসেন না।

[तुलसी [श्रीतुलसीचरण दत्ता (1863 - 1938)] - श्री श्री रामकृष्ण के प्रेमी  एक बालक भक्त।  बागबाजार लेन के दत्ता परिवार में जन्म हुआ था । उनके बचपन के दोस्त स्वामी तुरियानन्द और स्वामी अखण्डानन्द थे। 1883 में कलकत्ता स्कूल से प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने कुछ समय कॉलेज में अध्ययन किया। 17/18 वर्ष की आयु में उन्होंने सर्वप्रथम बलराम बोस के घर श्रीश्रीठाकुर के दर्शन किए थे । तब से वे अक्सर दक्षिणेश्वर में ठाकुर के दर्शन के लिए जाया करते थे। ठाकुर के तिरोधान  के बाद, वे बारहनगर मठ में संन्यासी  बने और वे  स्वामी निर्मलानंद के नाम से जाने गए।] 

श्रीरामकृष्ण - भीतर हँसी है, फल्गू-नदी (गया) के ऊपर बालू रहती है और खोदने पर भीतर पानी मिलता है ।

MASTER: "But he laughs inside. The surface of the river Phalgu is covered with sand; but if you dig into the sand, water comes up.

শ্রীরামকৃষ্ণ — ভিতরে হাসি আছে। ফল্গুনদীর উপরে বালি, — খুঁড়লে জল পাওয়া যায়।

(मास्टर से) "तुम जीभ नहीं छीलते । रोज जीभ छीला करो ।" [रोज जिब्भी करो]  

(To M.) "Don't you scrape your tongue? Scrape it every day."

(মাস্টারের প্রতি) — “তুমি জিহ্বা ছোল না! রোজ জিহ্বা ছুলবে।”

बलराम - अच्छा, इनके (मास्टर के) द्वारा पूर्ण आपकी बहुतसी बातें सुन चुके हैं –

BALARAM: "Well, Purna has heard much about you from M."

বলরাম — আচ্ছা, এঁর (মাস্টারের) কাছে পূর্ণ আপনার কথা অনেক শুনেছেন —

श्रीरामकृष्ण - पहले की बातें ये जानते हैं, मुझे याद नहीं ।

MASTER: "Perhaps the account of my early spiritual experiences.

শ্রীরামকৃষ্ণ — আগেকার কথা — ইনি জানেন — আমি জানি না।

बलराम - पूर्ण स्वभावसिद्ध हैं, और ये (मास्टर), इनकी भूमिका क्या है ?

BALARAM: "If Purna is perfect by nature, then what is M.'s function?"

বলরাম — পূর্ণ স্বভাবসিদ্ধ। তবে এঁরা?

श्रीरामकृष्ण - ये (श्री म निमित्तमात्र हैं) साधन मात्र हैं ।

MASTER: "A mere instrument."

শ্রীরামকৃষ্ণ — এঁরা হেতুমাত্র।

नौ बज चुके हैं । श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर जानेवाले हैं । इसी का प्रबन्ध हो रहा है । बागबाजार के अन्नपूर्णा-घाट में नाव ठीक की गयी है । श्रीरामकृष्ण को भक्तगण भूमिष्ठ हो प्रणाम करने लगे ।

It was nine o'clock. Sri Ramakrishna was about to leave for Dakshineswar. Arrangements were being made for his departure. A boat bad been hired at Baghbazar. The devotees saluted the Master.

নয়টা বাজিয়াছে — ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ দক্ষিণেশ্বরে যাত্রা করিবেন তাহার উদ্যোগ হইতেছে। বাগবাজারের অন্নপূর্ণার ঘাটে নৌকা ঠিক করা আছে। ঠাকুরকে ভক্তেরা ভূমিষ্ঠ হইয়া প্রণাম করিতেছেন।

श्रीरामकृष्ण दो-एक भक्तों को लेकर नाव पर बैठे । गोपाल की माँ भी उसी नाव पर बैठीं - दक्षिणेश्वर में कुछ देर विश्राम करके पिछले पहर चलकर कामारहाटी जायेंगी ।श्रीरामकृष्ण की कैम्प-खाट भी नाव पर चढ़ा दी गयी । इस पर श्रीयुत राखाल सोया करते थे । 

Sri Ramakrishna went to the boat with one or two devotees. Gopal Ma accompanied them. She intended to spend the morning at Dakshineswar and go to Kamarhati in the afternoon. The camp cot generally used by Rakhal at Dakshineswar had been sent to Calcutta for repair. It was put in the boat, and the boat left for Dakshineswar.

ঠাকুর দুই-একটি ভক্তের সহিত নৌকায় গিয়া বসিলেন, গোপালের মা ওই নৌকায় উঠিলেন, — দক্ষিণেশ্বরে কিঞ্চিৎ বিশ্রাম করিয়া বৈকালে হাঁটিয়া কামারহাটি যাইবেন।ঠাকুরের দক্ষিণেশ্বরের ঘরের ক্যাম্পখাটটি সারাইতে দেইয়া হইয়াছিল। সেখানিও নৌকায় তুলিয়া দেওয়া হইল। এই খাটখানিতে শ্রীযুক্ত রাখাল প্রায় শয়ন করিতেন। 

हिन्दू पंचांग के अनुसार मघा नक्षत्र में यात्रा करना शुभ नहीं माना जाता है , अगले शनिवार को श्रीरामकृष्ण फिर बलराम के यहाँ शुभागमन करेंगे ।

According to the Hindu almanac the day was not auspicious. So Sri Ramakrishna decided to return to Balaram's house the next Saturday and start again for Dakshineswar on an auspicious day.

আজ কিন্তু মঘা নক্ষত্র। যাত্রা বদলাইতে ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ আগত শনিবারে বলরামের বাটীতে আবার শুভাগমন করিবেন।

[मघा नक्षत्र के स्वामी केतु हैं. केतु को ज्योतिष शास्त्र में पाप ग्रह माना गया है. केतु को जीवन में मोक्ष और अचानक होने वाली घटनाओं का कारक माना गया है.

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>>>The seven states of consciousness (चेतना की सात अवस्थाएँ) : 

1. जागृति ---- ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।जब हम भविष्य की कोई योजना बना रहे होते हैं, तो हम कल्पना-लोक में होते हैं। कल्पना का यह लोक यथार्थ नहीं होता। यह एक प्रकार का स्वप्न-लोक ही है। जब हम अतीत की किसी यद् में खोए हुए रहते हैं, तो हम स्मृति-लोक में होते हैं। यह भी एक दूसरे प्रकार का स्वप्न-लोक है। तो, वर्तमान में रहना ही, ठीक-ठीक वर्तमान में रहना ही चेतना की जागृत अवस्था है।

2. स्वप्न------ स्वप्न की चेतना एक घाल-मेली चेतना है। जागृति और निद्रा के बीच की अवस्था, थोड़े -थोड़े जागे, थोड़े -थोड़े सोए से। अस्पष्ट अनुभवों का घाल-मेल रहता है।

3. सुषुप्ति----- सुषुप्ति की चेतना निष्क्रिय अवस्था है। चेतना की यह अवस्था हमारी इन्द्रियों के विश्राम की अवस्था है। इस अवस्था में हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ और हमारी कर्मेन्द्रियाँ अपनी सामान्य गतिविधि को रोक कर विश्राम में चली जाती हैं। यह अवस्था सुख-दुःख के अनुभवों से मुक्त होती है। किसी प्रकार के कष्ट या किसी प्रकार की पीड़ा का अनुभव नहीं होता। इस अवस्था में न तो क्रिया होती है, न क्रिया की संभावना।

4. तुरीय----- तुरीय का अर्थ होता है "चौथी"। चेतना की चौथी अवस्था को तुरीय चेतना कहते हैं। इसका कोई गुण नहीं होने के कारण इसका कोई नाम नहीं है। इसके बारे में कुछ कहने की सुविधा के लिए इसकी संख्या से संबोधित कर लेते हैं। नाम होगा, तो गुण होगा नाम होगा तो रूप भी होगा। चेतना की इस अवस्था का न तो कोई गुण है न ही कोई रूप।यह निर्गुण है, निराकार है। यह सिनेमा के सफ़ेद पर्दे जैसी है। जैसे सिनेमा के पर्दे पर प्रोजेक्टर से आप जो कुछ भी प्रोजेक्ट करो, पर्दा उसे हू-ब-हू प्रक्षेपित कर देता है। ठीक उसी तरह जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि चेतनाएँ तुरीय के पर्दे पर ही घटित होती हैं, और जैसी घटित होती हैं, तुरीय चेतना उन्हें हू-ब-हू, हमारे अनुभव को प्रक्षेपित कर देती है। यह आधार-चेतना है। इसे समाधि की चेतना भी कहते हैं। यहीं से शुरू होती है हमारी आध्यात्मिक यात्रा।

5. तुरीयातीत--------चेतना की पाँचवी अवस्था : तुरीय के बाद वाली यह अवस्था जागृत, स्वप्ना, सुषुप्ति आदि दैनिक व्यवहार में आने वाली चेतनाओं में तुरीय का अनुभव स्थाई हो जाने के बाद आती है। चेतना की इसी अवस्था को प्राप्त व्यक्ति को योगी या योगस्थ कहा जाता है। कर्म-प्रधान जीवन के लिए चेतना की यह अवस्था सर्वाधिक उपयोगी अवस्था है। इस अवस्था में अधिष्ठित व्यक्ति निरंतर कर्म करते हुए भी थकता नहीं। सर्वोच्च प्रभावी और अथक कर्म इसी अवस्था में संभव हो पाता है। योगेश्वर श्री कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को इसी अवस्था में कर्म करने का उपदेश करते हुए कहा था "योगस्थः कुरु कर्मणि" योग में स्थित हो कर कर्म करो! इस अवस्था में काम और आराम एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं। काम और आराम एक साथ हो जाए तो आदमी थके ही क्यों? अध्यात्म की भाषा में समझें तो कहेंगे कि "कर्म तो होगा परन्तु संस्कार नहीं बनेगा।" इस अवस्था को प्राप्त कर लिया, तो हो गए न जीवन रहते जीवन-मुक्त। चेतना की तुरीयातीत अवस्था को ही सहज-समाधि भी कहते हैं।

6. भगवत चेतना------- बस मैं और तुम वाली चेतना। चेतना की इस अवस्था में संसार लुप्त हो जाता है, बस भक्त और भगवान शेष रह जाते हैं। चेतना की इसी अवस्था में वास्तविक भक्ति का उदय होता है। भक्त को सारा संसार भगवन-मय ही दिखाई पड़ने लगता है। इसी अवस्था को प्राप्त कर मीरा ने कहा था "जित देखौं तित श्याम-मई है"। तुरीयातीत चेतना अवस्था में सभी सांसारिक कर्तव्य पूर्ण कर लेने के बाद भगवत चेतना की अवस्था बिना किसी साधना के प्राप्त हो जाती है। इसके बाद का विकास सहज, स्वाभाविक और निस्प्रयास हो जाता है।

7. ब्राह्मी-चेतना------- एकत्व की चेतना। चेतना की इस अवस्था में भक्त और भगवन का भेद भी ख़त्म हो जाता है। दोनों मिल कर एक ही हो जाते हैं। इस अवस्था में भेद-दृष्टि का लोप हो जाता है। अवस्था में साधक कहता है "अहम् ब्रह्मास्मि" मैं ही ब्रह्म हूँ।

>>>(सीता अम्बा और हनुमानजी सम्वाद) जब श्रीसीतारामजी ने हनुमानजी को अयोध्या में दिया ज्ञान-उपदेश :-

हनुमान --"मुझे कैवल्य की आवश्यकता नहीं है। मैं सदा-सदा श्रीरघुनाथ के चारु चरणारविन्दों का चंचरीक ही रहना चाहता हूँ।" 

लेकिन अम्बा के आशीर्वाद से मुझे पराविद्या प्राप्त हो गयी थी। उसे सफल होना चाहिए था। गुरुमुख से श्रवण के बिना वह सफल नहीं हो सकती और श्रीसीताराम ही मेरे माता-पिता, त्राता-पालक, गुरु-आराध्य सर्वस्व हैं। (श्रीरामकृष्ण -स्वामी विवेकानन्द गुरु-शिष्य परम्परा अथवा  विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा - Be and Make' में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त CINC नवनीदा के सिवा) मैं अन्य किसी को स्वप्न में भी गुरु स्वीकार नहीं कर सकता

मैंने स्वयं अपने लिए तो कभी कुछ कामना नहीं की। मेरे सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, परम सदय स्वामी मेरे सिर पर हैं तो मैं क्यों अपने सम्बन्ध में सोचने का संकट उठाऊँ। उन्हें मेरी चिन्ता, उन्हें मेरी लज्जा, उन्हें मेरी वेदना। उनको जैसा रखना ही, रखें। जो देना हो, दें। जो बनाना हो, बना दें। मैं उनका–उनके कर का क्रीडनक।

एक दिन अपने निज सदन में स्वामी अम्बा के साथ सिंहासन पर आसीन थे। मैंने पादपद्मों में प्रणाम किया तो मुझे बैठ जाने का संकेत हुआ। मैं अञ्जलि बाँधकर बैठ गया। स्वामी के संकेत से समस्त अन्तरंग सेविकाएँ भी कक्ष से बाहर चली गयीं। तब श्रीरघुनाथ ने अम्बा की ओर देखा– ‘हनुमान को हमारा स्वरूप समझाओ!

बिना किसी भूमिका के अम्बा ने कहना प्रारम्भ किया– ‘तुम्हारे ये स्वामी कैसे हैं, क्या हैं, मैं भी नहीं जानती। इसके स्वरूप का वर्णन न वाणी से किया जा सकता है, न मन से कल्पना में आता है और न बुद्धि का विवेचन इनकी छाया का स्पर्श करता है। तुम जो कुछ देखते हो–देख सकते हो, भूत-भविष्य-वर्तमान का दृश्य-मात्र मेरा विलास है। जो देखा या सुना जाता है, जो मन अथवा बुद्धि में आ सकता है, सब मेरी क्रीड़ा है–मैं हूँ।’

‘वत्स! मत सोचो कि मैं क्या हूँ।’ अम्बा ने मेरी ओर स्नेहपूर्वक देखा। ‘यद्यपि मैं अपने इस आराध्य से अभिन्न इनकी शक्ति हूँ, किन्तु इन्हीं के समान मैं भी मन, बुद्धि, वाणी का विषय नहीं हूँ। मैं ही पराविद्या योगमाया हूँ। माया अथवा प्रकृति मेरा विलास है। स्वामी को सच्चिदानन्द मेरे कारण कहा जाता है। मैं चिच्छति हूँ, मैं आनन्दात्मा हूँ। इसी से मुझे सन्धिनी, संवित, आह्लादिनी कहते हैं। मेरी सत्ता कि छाया तमोगुण, चित्त रजोगुण, आनन्द सत्वगुण होकर प्रकृति को स्वरूप प्रदान करता है।’

मैं अम्बा के श्रीमुख को अपलक देख रहा था। वे कह रही थीं– ‘सीता (माँ श्री सारदा) जीव को प्रभु (श्रीरामकृष्ण) के पादपद्मों में पहुँचाने वाली पराभक्ति है। यही जगत्पालिका महालक्ष्मी, जगत्कर्तृ महासरस्वती और प्रलयंकरी महाकालिका है। ब्रह्माण्डों में ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र इससे शक्ति-प्राप्त, इसी की संतान हैं। यही योग माया है और इसी की छाया है वह माया, जो अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों की इन मेरे अद्वितीय स्वामी में प्रतीति करा रही है। जीव अनन्त काल से माया की गोद में ही सोया है और जगत का, जन्म-मरण का स्वप्न देख रहा है। उसे मैं ही जागृत कर सकती हूँ–करती हूँ, जब वह मेरे इन स्वामी का स्मरण अपने अनन्त स्वप्न में करने लगता है।’

‘हनुमान! मैंने प्रारम्भ में कहा है कि तुम्हारे ये स्वामी मन, बुद्धि, वाणी में नहीं आते। ये अद्वितीय हैं, अत: अविकारी, निष्क्रिय परिपूर्ण हैं। इनका यह श्रीविग्रह भी मेरा विलास है। मेरे आश्रय से ये साकार हैं। इनका सगुण-निर्गुण अभय स्वरूप, इनके अनन्त नित्यधाम–वत्स! सब मेरा विलास है। इनकी यह अवतार लीला, यह अयोध्या में आविर्भाव, मिथिला में मेरा पाणि-ग्रहण, वनयात्रा, मेरा अपहरण, लंका का युद्ध, दशग्रीव-वध और यह राज्य संचालन–सब मेरी क्रिया है।

 इन अति परिपूर्ण में यह आनन्दोल्लास लहरिका जीवों के कल्याण के निमित्त मैंने उठायी है। मैं अभी क्रीड़ा-लग्ना हूँ। अत्यन्त अप्रिय भी मेरी क्रीड़ा हो सकती है, केवल आनन्ददात्री ही मैं नहीं हूँ। विषाद की वह्नि-ज्वाला भी जगाती हूँ; किन्तु प्रचण्ड ताप के बिना पूर्ण परिशोधन, सम्यक् परिपाक (वैराग्य ) नहीं हुआ करता।’ 

मैं तनिक भी नहीं समझ सका कि अम्बा कोई अत्यन्त अप्रिय के सम्बन्ध में (नेता होकर कामिनी-कांचन में आसक्त होने से बचने के लिए) मुझे सावधान कर रही हैं। मुझे यह उपदेश–सम्बल दिया जा रहा है आने वाले अत्यन्त दारुण दिनों के लिए, इसका स्वप्न भी मैं नहीं देख सकता था। अम्बा ने अपना उपदेश समाप्त करके मेरे स्वामी की ओर देखा।

अम्बा (माँ श्री सारदा देवी) ने अपना उपदेश समाप्त करके मेरे स्वामी (प्रभु श्रीरामकृष्ण) की ओर देखा। अब प्रभु (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) ने प्रारम्भ किया–‘प्रभञ्जन-पुत्र! तुम स्वयं साक्षात् वैराग्य हो।’  सम्यक् वैराग्य सम्पन्न हुए बिना यदि किसी सत्यार्थी को प्रबुद्ध विवेकोद्भव आत्म-विद्या (विवेकज ज्ञान) प्राप्त भी हो जाय तो वह अनर्थकारिणी ही होती है।  क्योंकि देहासक्त-इन्द्रिय-भोगासक्त की बुद्धि में जो ज्ञानाभास आता है, वह उसे देहात्मवादी बनाकर अध:पतित ही करता है।’

‘तुम जानते हो कि समष्टि जगत इन सर्व सञ्चालिका -जगतजननी माँ सारदा की क्रीड़ा है।’ प्रभु (श्रीरामकृष्ण) ने अम्बा की ओर (माँ सारदा देवी की ओर) संकेत किया– ‘इस जगत सृष्टि में इनके अनुग्रह के बिना कोई परा-विद्या प्राप्त करके मुक्त नहीं हुआ करता। अत: अत:करण की निर्मलता के लिए; इनका–इन भक्तिदेवी (माँ श्रीसारदा देवी ) का अनुग्रह आवश्यक है । इनका अनुग्रह ही मेरा अनुग्रह है। हम दोनों के आकार ही दो हैं।’

‘जहाँ तक मेरे स्वरूप की बात है, वह तुम्हारा अपना स्वरूप है। जब चित्त लय को प्राप्त न हुआ हो, उसमें किसी प्रकार का विक्षेप भी न हो, कोई विषय आभासित न होता हो तो उस शान्त, स्थिर, आभासहीन चित्त में प्रकाशित सन्मात्र, चिन्मात्र तत्व मैं हूँ और वही तुम्हारा अपना स्वरूप है।’

‘श्रुति का उद्घोष सुना है तुमने कि मैं सर्व-व्यापक हूँ; किन्तु सर्व-व्यापक कोई कैसे हो सकता है, यदि उसमें कोई अन्य सत्ता भी हो। सर्व-व्यापक में सर्व तो प्रतीतमात्र होता है। सर्व की सत्ता पृथक् नहीं है। अत: उस सर्व में व्यापक भी औपचारिक शब्द मात्र है। मैं अद्वितीय हूँ, अत: निर्विकार हूँ। सगुण मेरा विलास है–विनोद है।’

‘मेरा निर्विकार निर्गुण स्वरूप बोधगम्य है। इस अद्वितीय तत्व की अनुभूति ‘अहं’ के रूप में ही शक्य है; क्योंकि अन्य रूप में इसकी अनुभूति (आत्मा के सिवा-अहं भी वहाँ नहीं था ) करेगा कौन? लेकिन यह प्रत्यक्ष प्रपञ्च परिवर्तनशील है, विनाशी है, विकारी है; किन्तु अनाधार नहीं है। इसका आधार है। वह आधार है मेरा सगुण स्वरूप।’

 ‘मैं सगुण-निर्गुण उभयरूप हूँ किन्तु मेरे ये दोनों रूप परस्पर अभिन्न हैं। इसलिए सगुण, सर्वसंचालक की अनुकम्पा के बिना निर्गुण रूप का बोध आत्मरूप में अनुभव भी अशक्य है।’ये सगुण स्वरूप श्रद्वैक-गम्य है।’

‘देश, काल, पदार्थ (निमित्त) ये सब सापेक्ष हैं–परस्पर सापेक्ष हैं ये। इनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं; क्योंकि ये मेरे सगुण स्वरूप में स्वप्न के समान प्रतिभात है। जो सर्वव्यापक है, उसमें दिग्भेद, बाह्याभ्यन्तर भेद बन ही नहीं सकता। शाश्वत में काल कल्पित ही होता है। मेरा सगुण साकार स्वरूप देश में या काल में है, यह जीव का अज्ञान है। इसी से वह अपने शरीर के समान परिसीम अथ–च परिच्छिन्न मानने के भ्रम में पड़ता है। मेरे सगुण साकार स्वरूप में देश-काल कल्पित होते हैं।’  ‘श्रद्वैक-गम्य सगुण की उपलब्धि होती है भक्ति से। भक्ति से ही सगुण के अनुग्रह को उपलब्ध करके निर्गुण का भी बोध होता है। राम नित्य-निष्कल, निर्गुण, निरञ्जन, निर्विकार, अद्वितीय चिन्मात्र हैं; किन्तु जब किसी की श्रद्धा समन्वित प्रीति–किसी व्यक्ति की–भक्त की प्रीति इसमें प्रतिफलित होती हैं तो उसकी श्रद्धा क्योंकि नित्य है, राम नित्य सगुण साकार हैं निर्गुण निराकार रहते भी। 

>>>श्रद्धा–ये भगवती भक्ति सीता, राम से नित्य अभिन्न हैं। (श्रद्धा - भगवती माँ सारदा भगवान श्रीरामकृष्ण से नित्य अभिन्न हैं !)  अत: इन आह्लादिनी समन्वित राम नित्य सगुण सच्चिदानन्द साकार हैं।’ ‘जीव श्रद्धा समन्वित विवेक के द्वारा वैराग्य प्राप्त करके बोध का अधिकारी होता है। यह ब्रह्ममात्मैक्य-बोध उसके अविद्यान्धकार को दूर करके निर्गुण निरञ्जन अद्वितीय तत्व से एक कर देता है। वह कैवल्य प्राप्त करता है।’

‘जीव श्रद्धा समन्वित प्रीतिका प्रश्रय प्राप्त करके मेरे सगुण साकार स्वरूप का प्रीति-भाजन बनता है। वह मेरे अनुग्रह से मेरे नित्यधाम में अपने परिकर रूप को पहचान लेता है। यह उसका अपने स्वरूप का ज्ञान भी उसके अविद्यान्धकार का नाश कर देता है। उसके प्राकृत नाम-रूप के मोह का समूलोन्मूलन कर देता है। अत: उसका कर्म–परवश परिभ्रमण समाप्त हो जाता है। वह माया के मण्डल से जन्म-मरण से मुक्त होकर मेरे नित्य-धाम में मेरा शाश्वत सान्निध्य प्राप्त कर लेता है।’

प्रभु ने अपने उपदेश का उपसंहार किया। अब तक मैं शरीर की सुधि भूल कर सुन रहा था। हनुमान अब तक केवल श्रोत्र-श्रवण वृत्ति मात्र रह गया था। अब मैंने उन मुनि-मन-मराल चारु-चरणों में मस्तक रखा।

इस उपदेश के अनन्तर दूसरे दिन प्रात: काल जब मैं आह्निक कृत्य से निवृत्त प्रभु के पादारविन्दों में प्रणाम करने पहुँचा, मेरी ओर देखकर उन्होंने पूछा– ‘कस्त्वम्?’

एक बार तो मेरे हृदय को ही धक्का लगा। प्रभु अब अपने इस सेवक को ही नहीं पहचानते? इसी से पूछते हैं कि ‘तुम कौन हो?’ इससे भी अपेक्षा है कि यह पिता के नामोच्चारण के साथ गोत्र एवं स्वनाम बोलकर प्रणाम करें? मैंने नेत्र उठाये तो देखा कि प्रभु के वदनारविन्द पर विनोदपूर्ण स्मित है। अम्बा भी सस्मित सस्नेह ही अपने इस सुत को देख रही हैं। समझ गया कि मेरे इन परमाश्रय परम गुरु-युगल ने मुझे जो कल पराविद्या का पाठ पढ़ाया है, उसकी परीक्षा ले रहे हैं। अन्तत: शिक्षक शिष्य से प्रश्न किये बिना कैसे जानेगा कि उसने उपदेश का कितना अंश हृदयंगम किया हैं। मैंने हाथ जोड़कर सविनय अपना पाठ सुना दिया–

‘देहदृष्ट्या तु दासोऽहं जीवदृष्ट्या त्वदंशकः।

वस्तुतस्तु त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः॥’

जीव–चेतन नहीं, चेतन तो केवल श्रीरघुनाथ (श्रीकृष्ण, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) हैं। इन अद्वितीय अविकारी में अंश सम्भव नहीं है। जीव का अर्थ ही है चिदाभास। त्रिगुणात्मक अन्त:करण में जो अन्तर्यामी चेतन का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है वह जीव। जीव अर्थात् जन्म-मरण को अपने में स्वीकार करके एक से दूसरे शरीर में जाने वाला, एक लोक से लोकान्तर में जाने वाला।

देह की दृष्टि से, सभी जीव सर्वेश्वर के दास हैं। देह का पालन-पोषण, देह की सब दशा एवं क्रिया उस सर्व संचालक की इच्छा पर निर्भर है। अतएव न केवल देहासक्त, मुक्तात्मक महापुरुष का भी देह तो इस सृष्टि के संचालक का दास ही है। इस सत्य को आस्तिक मनुष्य या श्रद्धावान मनुष्य को केवल  स्वीकार करना है। जैसे शरीर का प्रत्येक अंग पूरे शरीर का अंश है, प्रत्येक शरीर विराट् का अंश है। और शरीरस्थ चेतन विराट् के संचालक ईश्वर का अंश है। इसे भी सबको स्वीकार करना है।

बहुत स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार समन्वित अन्त:करण, पंच कर्मेन्द्रिय तथा पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ– शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध–इन उन्नीस तत्वों का पुञ्जीभाव सूक्ष्मशरीर व्यापक चेतना का प्रतिबिम्ब ग्रहण करके उस चिदाभास से युक्त जीव बन गया है। सूक्ष्म शरीर से परिच्छिन्न, प्रति शरीर पृथक्-पृथक् स्थित यह जीव क्या है? जिसका प्रतिबिम्ब है, उसके अंश के अतिरिक्त इसकी स्वतन्त्र सत्ता क्या?

व्यक्ति का शरीर–वह कोई भी हो, कैसा भी हो, कितना बड़ा महापुरुष हो; किन्तु शरीर तो महापुरुष होता नहीं। शरीर तो पञ्चभूतात्मक है और जिसका दीख रहा है, उसका नहीं है; क्योंकि शरीर के अणुओं की उत्पत्ति–विनाश का तो उसे पता भी नहीं लगता। सामान्य सभी शरीरों के परमाणुओं से उसके देह के परमाणुओं का प्रतिक्षण विनिमय चल रहा है। अत: शरीर किसी व्यक्ति का नहीं, वह समष्टि का है। अतएव वह समष्टि संचालक का यन्त्र है। दास है–नित्यदास है देह सृष्टि के संचालक का।

यह शरीर समष्टि का अंग है।  इसमें जो भी पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश है, वह प्रतिक्षण परिवर्तित हो रहा है। इसका अणु-अणु कुछ दिनों में नूतन हो जाता है।  केवल प्रभु का श्रीविग्रह–सगुण साकार परमात्मा का स्वरूप चिन्मय है। यह अवतार शरीर  हो अथवा नित्य-धामस्थ, केवल यही अपार्थिव अथच चिन्मय है। यही ध्येय है। यही स्मरणीय है; आराध्य है।

अब वस्तु सत्य?–इन्द्रियातीत सत्य या ब्रह्म, वस्तु सत्य दो नहीं हो सकता। मेरे स्वामी श्रीरघुनाथ अद्वितीय हैं, सर्वव्यापक हैं तो इनसे पृथक्, मेरी सत्ता सम्भव ही नहीं है।इसका फलितार्थ हुआ– ‘सकलमिदमहं च वासुदेव:’ अपने श्रुत पाठ का मनन करके जो निष्कर्ष मैंने सुनाया था, वह प्रभु के– अम्बा के साथ आसीन प्रभु के पादारविन्दों में मैंने निवेदन कर दिया। अपने इस अबोध वानर शिशु के इस पाठ-श्रवण से मेरे स्वामी सन्तुष्ट हुए। वे नित्य सुप्रसन्न–हनुमान तो उनकी अनन्त कृपा से ही परिपुष्ट हुआ है। यह जो कुछ है, उनका मूर्तिमान प्रसाद है।

– श्री सुदर्शन सिंह जी चक्र द्वारा रचित ‘आञ्जनेय की आत्मकथा’ से साभार

>>>भगवान का लीलावतार-विग्रह पंचतत्वों से उत्पन्न रक्त मांस आदि अपवित्र वस्तुओं से बना नहीं होता। पंचभूतात्मक शरीर सभी को एक जैसा ही दिखाई देता है परन्तु भगवान एक स्थान पर भी अलग-अलग स्वरूपों में दर्शन दे सकते हैं। श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में ब्रह्मा मोह के प्रसंग में ब्रह्मा जी भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहते हैं- ‘स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि’ अर्थात हे प्रभो! आपका शरीर  पंचभूतों से बना नहीं है,  भावनामय है। 

"अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य,

स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि ।

नेशे महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण, 

साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूतेः ॥ "

" स्वयंप्रकाश परमात्मन् ! आपका यह श्री विग्रह भक्तजनों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करनेवाला है । यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान् स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात् कृपा-प्रसाद है । मुझे अनुगृहीत करने के लिये ही आपने इसे प्रकट किया है । कौन कहता है कि यह पञ्चभूतों की रचना है ! प्रभो ! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है । मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता । फिर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही महिमा को तो कोई एकाग्रमन से भी कैसे जान सकता है ॥ २ ॥" 

क्योंकि नेत्र रूप को देख सकता है, अतएव भगवान को रूप वाला बनना पड़ता है।  त्वचा स्पर्श को विषय करती है, अतएव भगवान को स्पर्श वाला बनना पड़ता है।  नासिका गन्ध को विषय करती है, अतएव भगवान को दिव्य गन्धमय वपु धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार मन, अहं और बुद्धि माया का कार्य से माया से सम्मिलित वस्तु को ही चिन्तन करने और समझने में समर्थ है। इसलिये निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्‍मा प्रकृति के गुणों सहित अपने भक्तों को विशेष ज्ञान कराने के लिये साकार होकर प्रकट होते हैं, प्रकृति के सहित उस शुद्ध सच्चिदानन्दनघन परमात्मा के प्रकट होने का तत्त्व सबकी समझ में नहीं आता

रामचरितमानस में भगवान के विग्रह-(दिव्य शरीर-) के विषय में महामुनि वाल्मीकि जी भगवान् श्रीराम से कहते हैं—

चिदानंदमय देह तुम्हारी।

बिगत बिकार जान अधिकारी॥

नर तनु धरेहु संत सुर काजा।

कहहु करहु जस प्राकृत राजा॥

(मानस २। १२७। ३)

इसलिए भगवान या भगवती के शरीर को प्राकृत कभी भी नहीं मानना चाहिए। गीता के चौथे अध्याय मे भी भगवान श्री कृष्ण का वचन है

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥ ९॥

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं। इस प्रकार (मेरे जन्म और कर्म को) जो मनुष्य तत्त्व से जान लेता है अर्थात् दृढ़तापूर्वक मान लेता है, वह शरीर का त्याग करके पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता, (प्रत्युत) मुझे प्राप्त होता है।

भगवान नित्य रसमय-आनंद स्वरूप होते हुए भी भक्तों के मनोगत भावों के अनुरूप अर्थात जो जिस स्वरूप में दर्शन चाहता है, उसकी इच्छापूर्ति निमित्त वैसा सगुण-साकार विग्रह धारण करके धराधाम में अवतरित होते हैं। जनसामान्य के जन्म लेने तथा भगवान के अवतार में यह अंतर है कि जीव माया के अधीन होकर कर्मवश जन्म लेते हैं, जबकि भगवान जीव का कल्याण करने के लिए करुणावश अपनी योगमाया को अधीन करके प्रकट होते हैं।

जीवो की अभिव्यक्ति अविद्यामाया के द्वार से होती है और भगवान-भगवती की अभिव्यक्ति विद्यामाया के द्वार से । उसी विद्यामाया को #विशुद्ध_सतवात्मिका कहा गया हैं।

एक उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। जेल में जेलर, सिपाही, भंडारी तथा कैदी इत्यादि होते हैं। कैदियों को कर्मफल भोगने के लिए बंधन में पड़ कर रहना पड़ता है जबकि जेलर, सिपाही इत्यादि इच्छानुसार भीतर या बाहर आ-जा सकते हैं। इसी प्रकार ईश्वर अपने प्रेमी परिकरों तथा जीवनमुक्त महापुरुषों सहित धराधाम में आते-जाते रहते हैं या कभी-कभी दिव्य महापुरुषों को जगत्कल्याणार्थ भेजते रहते हैं।

>>>आज लाला कन्हैया के आँखन मे काजल लगाने को दिन है ! .... नन्द बाबा की बहन सुनन्दा देवी जो कन्हैया की बुआ लगती है चटकती मटकती आयी और यशोदा जी से बोली की..... 

सुनन्दा जी -- भाभी जी लाला को काजल लगावे का हक हमारो है।

श्री यशोदा जी -- हाँ बीबी जी लगाओ आप ही लगाओ।

सुनन्दा जी -- ऐसे नही लगाऊँगी मेरो को भी नेग चाहिये।

यशोदा जी -- हाँ बीबी जी आपको भी नेग मिलेगो।

सुनंदा जी -- देखो भाभी जब लाला के नाल छेदन के समय नाल काटने वारी दासी नेग के लिये मचल गई की....व्रजरानी बहुत दिन बाद लाला हुआ हुआ है नेग सोच समझकर देना तो आपने अपने गले का नौलखा हार उतार कर उसे पहना दी ...वाते कमती मुझे मत करियो नही तो ननद भाभी दोनन की झगड़ा बन जायेगी और हमेशा के लिये ननद भौजाई की शिकायत बनी रहेगी।

यशोदा जी -- नही नही बीबी जी वाते बढ़ चढ़के मिलेगो।

फिर सुनन्दा बुआ ने लाला श्यामसुन्दर को काजल लगाई और सोच रही है की देखे भाभी क्या देती है...? ज्योंही सुनन्दा बुआ ने हाथ बढ़ाये की लाओ मेरा नेग दो तो श्री यशोदा जी ने कन्हैया को उठाकर उनकी गोदी मे दे दी ...और सुनन्दा जी के मुखमंडल पर दृष्टि डाली की बीबी जी कछु कसर रह गयी हो तो दउँ कछु और ? आँखन मे आँसू आ गये। सुनन्दा बुआ के बोली भाभी याते कीमती और क्या हो सकता है। तूने तो अपना सर्वस्व दे दिवो।

अब लाला मुझे नेग मे मिल्यो तो लाला तो हमारो हय गयो। लेकिन भाभी मेरी छाती मे दूध नाय। लाला को दूध पिलावे को कोई धाय रखनो पड़ेगो और देख तेरी छाती मे दूध फालतू पड़ो रहेगो। क्या फायदो धाय रखने को। लेव मै तोहि को अपने लाला के लिये धाय के रुप मे नियुक्त करती हूँ। मेरो लाला को खूब ध्यान रखियो और उन्होने लाला कन्हैया को यशोदा जी के गोद मे दे दिया।  इस तरह से खूब आनन्द हो रहा है ब्रज मे।

भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् लीलावतार हैं। उनकी लीलाएं अनन्त हैं। उन्होंने अपनी दिव्य लीलाओं के माध्यम से विभिन्न प्रयोजनों हेतु अनेक प्राणियों का उद्धार किया।

गोपियां श्रीकृष्ण प्रेम की पराकाष्ठा हैं। गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन रहते। गोपियों का हृदय प्रेममय है, श्रीकृष्णमय है, अमृतमय है।

>>गो और गोविंद का तात्पर्य :  गोविंद का अगर संधि विच्छेद किया जाए तो 'गो' + 'विंद' = गोविन्द।   इसी शब्द के कारण श्री कृष्ण का नाम गोविंद पड़ा था। 'विंद' शब्द का अर्थ है आनंदित करने वाला। कृष्ण बचपन  से ही गाय चराने जाते थे और ग्वाले कहलाते थे। श्री कृष्ण से जुड़ी कथाएं बताती हैं कि उनकी बंसुरी की आवाज़ सुनकर सभी ग्वाल बालक और गौएँ  आनंदित हो उठती थीं । यही कारण है कि इन्हें गोपाल या फिर गोविंद के नाम से भी जाना जाता है। श्री कृष्ण गाय और बछड़ों को अपार सुख देते थे। 

गो  का दूसरा शाब्दिक अर्थ है इन्द्रियाँ, अतः  इंद्रियों को आनंदित करने वाला। इसलिए गोविंद नाम से श्री कृष्ण को पुकारा जाता है क्योंकि पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री कृष्ण की आवाज़, बंसुरी की मधुर तान और उनका ज्ञान सुनकर सब मंत्रमुग्ध हो जाते थे। 

गो शब्द का तीसरा अर्थ है धरती और अपने कूर्म अवतार में नारायण ने मंदार पर्वत को अपनी पीठ पर सम्भाला था। वराह अवतार  में उन्होंने असुरों से भूमि देवी को बचाया था और धरती को उन्होंने आनंदित किया था। इसलिए भी कृष्ण को गोविंद कहा जाता है।

>>>वस्‍त्रावतार: महाभारत की कथा-प्रसंग 'सभा पर्व' बताती है कि जब द्रौपदी का चीर हरण होना था तब उन्होंने गोविंद नाम लेकर ही कृष्ण को पुकारा था। उस समय श्लोक कहा गया था, 'गोविन्द! पुण्डरीकाक्ष! रक्ष मां शरणागताम्॥' 

जब तक जीव को कहीं से कोई आशा रहती है, तबतक वह परमात्‍मा (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) को नहीं पुकारता नहीं है।  और जब तक सब आशा भरोसा छोड़कर केवल उसे ही  (ठाकुर-माँ -स्वामीजी-.... नवनीदा को  ही) न पुकारा जाय, वह सर्वेश निर्गुण बना रहता है। उसकी अपार करुणा उमड़ती है जब सब ओर से निराश होकर प्राणी उसको, एकमात्र उसी को पुकारता है और तब उस अनन्‍त की कृपा का अवतरण होता है। धन्‍य हो जाता है प्राणी। ऐसा तो कोई संकट नहीं जो सर्वेश की कृपा के सम्‍मुख क्षण भर भी टिक सके। संकटों की घन घटाएँ तो स्‍वप्‍न के समान केवल स्‍मृति छोड़ जाती हैं।

द्रौपदी पतियों की ओर, भीष्‍म-द्रोणादि की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रही थी। प्रश्‍न कर रही थी और व्‍याकुल हो रही थी। उसकी व्‍यथा से वे अपनों के सर्वस्‍व द्वारिका में व्‍याकुल थे किन्‍तु द्रौपदी ने दोनों हाथों से साड़ी को पकड़ा था। और यह अपनी शक्ति का अवलम्‍ब ही उस अनन्‍त की कृपा के अवतरण में प्रतिबन्‍ध था। दस सहस्‍त्र गज बल जिसकी भुजाओं में था उस दु:शासन के सम्‍मुख एक कृशांगी नारी की भुजाओं की शक्ति कितनी ? द्रौपदी को अगले क्षण ही अपनी भूल समझ में आ गयी। वह कैसे दु:शासन से साड़ी का छीनना रोक सकती है ? अत: उसने नेत्र बन्‍द करके दोनों हाथ उठा दिये और उसके कातर कण्‍ठ से अत्‍यन्‍त आर्तप्राणों ने पुकारा –

‘गोविन्‍द ! द्वारिकावासिन्‌ ! कृष्‍ण ! गोपीजनप्रिय !

कौरवै परिभूतां मां किं न जानासि केशव !

हे नाथ हे रमानाथ व्रजनाथार्तिनाशन !

कौरवार्णवमग्‍नां मामुद्धरस्‍व जनार्दन।।

कृष्‍ण कृष्‍ण महायोगिन्‌ विश्‍वात्‍मन्‌ विश्‍वभावन।

प्रपन्‍नां पाहि गोविन्‍द कुरुमध्‍येऽवसीदतीम्।।

अर्थात्–’ हे गोविन्द ! हे द्वारकावासी श्रीकृष्ण ! हे गोपियों के प्राणबल्लभ ! हे केशव ! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, इस बात को क्या आप नहीं जानते? हे नाथ ! हे लक्ष्मीनाथ ! हे व्रजनाथ ! हे संकट-नाशन जनार्दन ! मैं कौरवरूप समुद्र में डूबी जा रही हूँ; मेरा उद्धार कीजिए ! हे सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! महायोगिन् ! विश्वात्मन् ! विश्वभावन ! गोविन्द ! कौरवों के बीच कष्ट में पड़ी हुई मुझ शरणागत अबला की रक्षा कीजिए।’

द्रौपदी को भूल गया वह समाज, भूल गया दु:शासन, भूल गयी साड़ी और शरीर। उसके बन्‍द नेत्रों से अश्रु झर रहे थे और वह पुकार रही थी, पुकारती जा रही थी। उसे यह पता ही नहीं लगा कि जिस वह पुकार रही है, वह उसकी पुकार के प्रथम शब्‍द के साथ ही सक्रिय हो गया है।

द्वारिका में श्रीकृष्‍ण सहसा ध्‍यानस्‍थ हो गये थे। उन सर्वरूप, सर्वात्‍मा को वस्‍त्रावतार लेते क्‍या देर लगनी थी। रजस्‍वला नारी का वस्‍त्र किन्‍तु उन सर्वव्‍यापक के लिए भी कुछ पवित्र अपवित्र होता है?

दु:शासन वस्‍त्र खींच रहा था। वह द्रौपदी की साड़ी खींचने में लगा था। साड़ी सरलता से खिंच नहीं रही थी। दु:शासन को बल लगाना पड़ रहा था और साड़ी थी कि उसका अन्‍त ही नहीं आ रहा था। रंग-बिरंगे वस्‍त्र उस साड़ी से निकलते जा रहे थे। वस्‍त्रों का अम्‍बार लग गया वहाँ।

दु:शासन का शरीर स्‍वेद से लथपथ हो गया। उसकी भुजाएँ थककर चूर हो गयीं। वह साड़ी छोड़कर लज्जित होकर बैठ गया। दुर्योधन तथा उसके साथी चकित रह गये।

विदुर ने धृतराष्‍ट्र को यह घटना सुनाकर कहा – ‘राजन ! द्रुपदपुत्री तन्‍मय होकर श्रीकृष्‍ण को पुकार रही है यह आप सुन ही रहे हैं। उन अखिलेश्‍वर का संकल्‍प उसकी साड़ी में उतर आया है। जब तक वे जनार्दन क्रुद्ध होकर चक्र उठाये प्रकट नहीं हो जाते अथवा पांचाली ही आपके पुत्रों को शाप नहीं देती तभी तक अवसर है कि अपनी इस पुत्रवधू को आप प्रसन्‍न कर लें अन्‍यथा अनर्थ होने में अब अधिक विलम्‍ब मुझे नही लगता है।’

धृतराष्‍ट्र डर गये। वस्‍त्र बढ़ता जा रहा हैं यह देखकर उनके सब पुत्र स्‍तम्भित हो उठे थे। द्रौपदी का शरीर तनिक भी अनावृत नहीं हुआ था। कोई आर्त होकर पुरुषोत्तम को पुकारे और उसकी विपत्ति बची रहे, यह कैसे संभव है। धृतराष्‍ट्र ने द्रौपदी को पुकारा, तब वह सावधान हुई। धृतराष्‍ट्र ने कहा – ‘ बेटी ! तुम जो हुआ उसे भूल जाओ और वरदान माँग लो।’ वरदान के रुप में धृतराष्‍ट्र ने द्रौपदी तथा पाण्‍डवों को दासत्‍व से मुक्‍त कर दिया। उनका राज्‍यकोष लौटा दिया। यह एक प्रकार से द्रौपदी के प्रति किये गये अपराध का परिमार्जन था।

साभार : https://hi.krishnakosh.org/

द्रौपदी कृत श्रीकृष्ण स्तुति 

शङ्खचक्रगदापाणॆ! द्वरकानिलयाच्युत!

गोविन्द! पुण्डरीकाक्ष! रक्ष मां शरणागताम्॥

 "हे शंख, चक्र और गदा से सुसज्जित भगवान, द्वारका के निवासी, अविनाशी भगवान, कमल-नेत्र गोविंदा, मेरी रक्षा करो जिसने तुम्हें शरण के रूप में चाहा है"

“O Lord armed with conch, discus and mace, Denizen of Dwaraka, imperishable Lord,Lotus-eyed Govinda, protect me who has sought you as refuge”

हे कृष्ण ! द्वारकावासिन् ! क्वासि यादवनन्दन! ।

इमामवस्थां सम्प्राप्तां अनाथां किमुपेक्षसे ॥

“हे कृष्ण, द्वारका के निवासी, यादवों के आनंद! आप कहां हैं? आप उस असहाय प्राणी की उपेक्षा क्यों करते हैं जो इस गंभीर स्थिति में आ गया है?

“O Krishna, Denizen of Dwaraka, Joy of the Yadavas! where are you? Why do you neglect the helpless being who has come to this critical state? 

गोविन्द! द्वारकावासिन् कृष्ण! गोपीजनप्रिय!।

कौरवैः परिभूतां मां किं न जानासि केशव! ॥

"कृष्ण, कृष्ण, महान योगी, ब्रह्मांड की आत्मा, ब्रह्मांड के निर्माता, गोविंदा, इस दमनकारी प्राणी को बचाएं, जो कौरवों के बीच में मर रहे हैं"

“Krishna,Krishna, great yogin, Soul of the universe, Creator of the Universe, Govinda,save this suppliant creature, perishing in the midst of the Kurus” 

हे नाथ! हे रमानाथ! व्रजनाथार्तिनाशन!।

कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन! ॥ 

कृष्ण! कृष्ण! महायोगिन् विश्वात्मन्! विश्वभावन! ।

प्रपन्नां पाहि गोविन्द! कुरुमध्येऽवसीदतीम्॥

 

नीलोत्पलदलश्याम! पद्मगर्भारुणेक्षण!

पीतांबरपरीधान! लसत्कौस्तुभभूषण! ॥

 

त्वमादिरन्तो भूतानां त्वमेव च परा गतिः।

विश्वात्मन्! विश्वजनक! विश्वहर्तः प्रभोऽव्यय! ॥

 

प्रपन्नपाल! गोपाल!  प्रजापाल! परात्पर!

आकूतीनां च चित्तीनां प्रवर्तक नतास्मि ते ॥

द्रौपदी कृत श्रीकृष्ण स्तुति माता द्रौपदी जी ने लिखी है, द्रौपदी कृत श्रीकृष्ण स्तुति का पाठ करने से मन में सकरात्मक ऊर्जा का वास होता है।

[ >>>वेदों के "गो" का अर्थ हर ब्रह्मांड में अलग अलग शक्तियाँ कार्य करती हैं । जो हमारे ब्रह्मांड में प्रकृति की शक्तियाँ हैं , वह दूसरे किसी ब्रह्मांड की शक्तियों से भिन्न होंगी ।तो इन्हीं प्राकृतिक अग्राह्य तत्वों को समझाने हेतु हमारे संत महापुरुष या ऋषि मुनि इत्यादि कुछ प्रतीक चुन लेते हैं जिससे हमें वह उन तत्वों को समझाने का प्रयत्न करते हैं ।

गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥

भावार्थ- इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो-॥2॥

ऐसे समझिये जैसे जिस वैज्ञानिक ने Electron Microscope से atom , electrons , neutrons , protons इत्यादि देखा हुआ है तो वह हमें समझाने के लिए कुछ प्रतीक चुनता है जैसे वह atom को ball के माध्यम से समझाने का प्रयत्न करेगा ताकि हम समझ सकें ।  जैसे जब घर नहीं बना होता है तो आर्किटेक्ट उसको समझाने के लिए paper पर Drawings बनाता है और फिर और अच्छी तरह समझाने के लिए उसका एक छोटा प्रतिरूप तैयार करता है कि ऐसा कुछ दिखेगा ।लेकिन वह वास्तविक घर नहीं होता । आप वहाँ नहीं रहः सकते , अपनी उँगली भर डाल सकते हैं ।

तो इसी तरह वेदों में भगवान (परम् सत्य-ब्रह्म )  का निरूपण किया गया है । इसीलिए कहा गया है कि वेद को कोई नहीं समझ सकता । बस एकमात्र वही समझ सकता है जिसको भगवान ने स्वयं अपनी बुद्धि दे दी हो । क्योंकि वेद अपौरुषेय हैं , मन बुद्धि इन्द्रियों से परे हैं । 

 वेदों में "गौ" या "गो" शब्द आया है ।  तो चलिए वेदों के "गो" का अर्थ जानते हैं । ऋग्वेद में गो शब्द का अर्थ बताया गया है जो चलायमान हो । अर्थात जो चले । ग्रह , नक्षत्र , सूर्य , पृथ्वी इत्यादि सबको गो शब्द से संबोधित किया गया है क्योंकि यह स्थिर नहीं चलते रहते हैं।  गो का अर्थ है जो कुछ भी चालित है या घटित हो रहा है या जो कुछ भी गमन करता है , वह गो है ।

"गो गोचर जँह लगि मन जाई ।" यहाँ गो का अर्थ प्राकृत इन्द्रियों से है । गोचर का अर्थ है जहाँ जहाँ मन बुद्धि जिस स्तर तक जा सकती हैं । 

गो का अर्थ होता है जो गमन करे , जो एक जगह से दूसरी जगह transfer हो या जाए ।इसी से "गोत्र" बना है ।गो का अर्थ है जो जाए या गमन करे ।गो पुंस्त्री गच्छत्यनेन गम--करणे डो। ( वाचस्पति )क्या गमन करेगा ??? DNA जिसे आज की भाषा में बोलते हैं ।एक वंश से दूसरे वंश में जो गमन करे , उसे गो कहते हैं ।त्र का अर्थ क्या हुआ फिर ?? त्र का अर्थ है त्राण करना , तारन , रक्षा करना , तारण करना ।गोत्र शब्द इसी गमन से बना है । हम बोलते हैं कि हमारा गोत्र कश्यप है ,भारद्वाज है ,शांडिल्य है इत्यादि है । यह उन्हीं का dna है जो गमन कर हम तक पहुँचा है । यहाँ  "Y" chromosomes की बात हो रही है । गुण सूत्र जिसे आप लोग biological terms में बोलते हैं । यही गोत्र है ।और यह सब जितने भी नाम ऋषि के ऊपर पड़े हैं भरद्वाज शांडिल्य इत्यादि यह सब त्राण करते हैं अर्थात तारने में सहायक हैं इसलिए गोत्र बोला जाता है ।

अब गायत्री का अर्थ सुनिये :-गयान प्राणां त्रायते स गायत्री । ( ऐतरेय उपनिषद ) अर्थात जो "गय" प्राणों की रक्षा करती है , वह गायत्री है ।

प्राण क्या है ??? चैतन्यता ।चैतन्यता क्या है ?? आत्मा ! आत्मा क्या है ?? भगवान की अंश ।भगवान क्या है ?? आनंद । सच्चिदानन्द !

अब आते हैं प्राण क्या है ??

प्राण का अर्थ होता है जो आपके अणु अणु में स्फूर्ति या ऊर्जा प्रदान करे । निराश होना , असहज होना , अधीर होना , चिंता करना , हताश रहना , काम में उत्साह न होना इत्यादि प्राणशक्ति के कम होने का द्योतक है । वृहद आरण्यक उपनिषद में गायत्री की परिभाषा बताते हुए कहा गया है :- तद्यत प्राणं त्रायते तस्माद गायत्री । अर्थात जिससे प्राणों की रक्षा हो , वह गायत्री है 

आपने देखा होगा कि प्राणशक्ति के अभाव में व्यक्ति बिल्कुल निस्तेज हो जाता है , आलस्य सा लगेगा , चेतनता या किसी भी तत्व को ग्रहण करने की क्षमता का अभाव हो जाता है । हमारी प्राण शक्ति की अपेक्षा पशुओं की प्राणशक्ति कम होती है ,ठीक इसी तरह अन्य योनियों की कीट पतंगों इत्यादि की ।

>>> Trust Maa Kali's Spirit-Face completely like a child: माँ काली (नेता , गुरु C-IN-C नवनीदा) के आत्मिक -मुखमण्डल (Spirit-Face) पर पूर्ण विश्वास करिये! क्योंकि आत्मिक नेता (जीवनमुक्त शिक्षक)  के जीवन में सबसे पहले परमेश्वर के दूत (स्वामी विवेकानन्द)  की ओर से आह्वान (बुलाहट) होती है । उसका कार्य ( चरित्र-निर्माण के लिए युवाओं का मार्गदर्शन करना)  उसके लिए व्यवसाय नहीं, परंतु आह्वान होती हैं ।

कोई भी व्यक्ति स्वयं को आत्मिक नेता होने के लिए नियुक्त नही कर सकता, इस कार्य के लिए (आध्यात्मिक नेतृत्व करने के लिए) परमेश्वर की ओर से उसके पास बुलाहट (विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त लीडरशिप परम्परा में प्रशिक्षित नेता का चपरास) होना जरूरी है । 

"And no one can become a high priest simply because he wants such an honor. He must be called by God for this work, just as Aaron was." (Hebrews 5:4)

यह सम्मान कोई अपने आप नहीं लेता, वरन्‌ परमेश्वर की ओर से बुलाए जाने पर यह सम्मान  उसे प्राप्त होता है, जैसे कि हारून को बुलाया गया था (इब्रानियों 5:4)।

[हारून: इब्राहीमी परम्परा के धर्मशास्त्रों के अनुसार, हारून, ईश्वर के एक पैग़म्बर हैं, जो हजरत मूसा की मौसी  के पुत्र थे। इब्राहीमी परंपरा के अनुसार हारुन ने कई विकट परिस्थितियों में हज़रत मूसा का  साथ निभाया था।  तथा जब लोगों ने हज़रत मूसा का विरोध किया तब उन्हों ने उनका साथ न छोड़कर अपना सखा-सम्बन्धी प्रमाणित किया था। यहूदी मान्यता के अनुसार, हारुन, यहूदी धर्म (Judaism) के सबसे पहले मुख्य काहुन (C-IN-C प्रमुख पुरोहित) थे।] 

यह एक ऐसा सिद्धान्त (ऋषियों द्वारा आविष्कृत सत्य या वेद) है जिसे बदला नहीं जा सकता ।  "In the same way, Christ did not take on himself the glory of becoming a high priest. But God said to him, 'You are my Son; today I have become your Father.' (Hebrews 5:5)अगला वचन-स्पष्ट रीति से बताता हैं कि प्रभु यीशु (भगवान श्रीरामकृष्ण देव) ने भी स्वयं को हमारा मार्गदर्शक नेता (महायाजक) नियुक्त नहीं किया था। परंतु माँ काली ने उनकी नियुक्ति की थी। यदि प्रभु यीशु (ठाकुर) के विषय में यह बात थी, तो हमारी बुलाहट के विषय में हम क्या कह सकते हैं? (इब्रानियों 5:5)

आज दु:ख की बात यह है कि भारत देश में अधिक संख्या में मसीही कार्यकर्ता केवल अपने स्वार्थ के लिए सेवा कर रहे हैं । उनकी सेवा एक व्यवसाय बन गयी हैं । उनके पास परमेश्वर की ओर से कोई बुलाहट नहीं है । 

कभी कभी मैं चिंतित, व्याकुल और यहाँ तक कि भयभीत हो जाता हूँ। मुझे यह भजन पसंद है। यह संपूर्ण विश्वास का एक सुंदर चित्र हैः"जैसा दूध छुड़ाया हुआ लड़का 'weaned baby'अपनी माँ की गोद में रहता है" (व.2, एम.एस.जी)। 

Sometimes I get worried, anxious and even scared. I like this hymn. It is a beautiful picture of absolute trust: “As a weaned child rests in its mother's arms” (v.2, MSG). 

[On 30 th March, Ramanavmi day my wife returned from hospital , and I heard my  daughter-in-law's  harsh voice ordering her not to close the door of Bathroom. I politely asked her to show respect to her . She confessed that as she had lost her mother recenly , still mentally sick .] 

हाल ही में, हमारे एकमात्र पोते का 18 वां जन्मदिन मनाया गया। जैसे ही मैं उसे अपनी बहू के हाथों से केक खाते देखता हूँ, मैं पूर्ण भरोसा और सुरक्षा का एक चित्र देखता हूँ।

Recently, our only grandson was born. As I see it in my daughter-in-law's hands, I see a picture of complete trust and security.

>>>अदृश्य माँ काली पर पूर्ण विश्वास कैसे हो ?  How to have the absolute trust in the invisible Maa Kali : First, resign as the Managing Director of Brahmand !   

      😇सर्वप्रथम तो आप ब्रह्माण्ड के 'Managing Director' या प्रबन्ध निदेशक के पद से इस्तीफा दे दीजिये, या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले लीजिये। 

     😇दूसरा, उस तरह से जगतजननी, ब्रह्माण्ड की जननी माँ सारदा पर भरोसा कीजिए जैसे एक बालक अपनी 'Biological mother ' या जन्मदायिनी माँ तारा पर पूर्ण भरोसा रखता है ! 

"निश्चय मैंने अपने मन (अहं) को सदा के लिए शान्त और चुप कर दिया है, जैसे दूध छुड़ाया हुआ लड़का (छोटा भाई जल्दी होने के कारण, बड़ा बेटा दूध कटुआ हो जाता है।) अपनी माँ की गोद में रहता है, वैसे ही दूध छुड़ाए हुए लड़के के समान मेरा मन भी मेरे (विवेकज-ज्ञान) पर निर्भर रहता है" (व.2, एम.एस.जी)।

Second, trust Mother Sarada, the mother of the universe, in the same way that a child trusts his birth mother Tara!

Second, trust God the way a child trusts a parent: "Surely I have calmed and quieted my mind, as a weaned child rests in its mother's lap. Like a weaned baby, my mind also fully depends on Me" (v.2, MSG).

     😇 हर किसी को और हर व्यक्ति को (अम्बी, अजय, रजत,kjn etc को) नियंत्रित करना बंद कीजिए। - बेटे को, बहु को या भाई को नियंत्रित करना बंद कीजिए। 

भजनसंहिता के लेखक लिखते हैं, " हे प्रभु, न तो मेरा ह्रदय गर्व (मिथ्या अहं) से भरा हो, और न मेरी दृष्टि घमण्ड से भरी हो, और मैं जगत को ज्ञानमयी दृष्टि या 'सिया-राममय' न देखकर किसी को भी नीची नजरों से न देखूं।  बल्कि आँख में आँख डालकर, अर्थात राम के जैसा प्रेममय बनकर रावण में भी अपने को ही देखूँ। और जो कार्य मेरे सामर्थ्य से बाहर हों, जिन्हें करना मेरे लिए अत्यन्त कठिन हों, उनसे कोई काम न रखूँ !  (व.1, एम.एस.जी)।

 Stop controlling everyone and everyone. The author of the Psalms writes, "O Lord, let not my heart be proud, nor my eyes haughty; and I do not deal with things that are bigger and more difficult for me" (v.1, MS). .Yes).

>>>Spiritual Leader : The first thing in a spiritual leader's life is a calling from God. His work is not a business for him, but a calling.

[साभार /https://hindi.cfcindia.com/hi/books/a-spiritual-leader]

[>>>पूर्णब्रह्म सनातनी विचार !

प्रसन्न मन से शमशान में बैठा व्यक्ति भी अपनी तंत्र साधना का फल पा जाता है ! पर खिन्न मना व्यक्ति हजारों वर्ष कटरा में माँ वैष्णों देवी के सच्चे दरवार में बैठ रहे तब भी खाली हाथ लौटता है!!

अपनी चिंता दुनिया को मत सुनाते फिरो, माँ पर अपनी सारी चिँता छोड़ दो; तभी तो वह तुम्हारी जिम्मेदारी  उठाएगी ! अभी तक तो तुमने माँ को अपना समझ ही नहीं, उसपर विश्वास किया ही नहीं ! खुद अपने को कर्ता मान बैठे हो फिर वह क्यों कृपा करेगी ! 

जब तुम न थे, तब भी तो वही सृष्ठि का संचालन कर रही थी, आगे भी वही करेगी । याद रहे यदि विधाता के लेख से अधिक पाना चाहते हो, किस्मत से ज्यदा पाना है, तो उसपर सब छोड़ दो । और यदि बस किस्मत भर का पाना है, तो खुद को दिन-रात कर्म में झोकें रहो खुद को कर्ता माने रहों । 

आपको शायद मालूम न हो, लेकिन भगवान् ब्रह्मा जी भी माँ की कृपा से ही सारे संसार के जीवों को उत्पन्न करते है।  माँ की कृपा से ही भगवान् विष्णु भी संसार के भरण-पोषण का कार्य करते है।  भगवान् रूद्र संघहार माँ की कृपा से ही कर पाते है । पर ये तीनो अपने को कर्ता मान अपने सिर पर बौझ समझ कर नहीं माँ के बल पर विश्वास रख कर करते है । जिसदिन इनको भी अपने कर्तत्व का अहंकार हो जाता है !  उस दिन इनको भी वन-वन मृत्यु लोक में आके भटकना पड़ता है शास्त्र उठा कर देख लो !

तुमने करोड़ों के मन्दिर तो बना दिए, लाखों के मूर्ति भी सजा लिए क्यों ? कारण था ये कि मूर्तियाँ कुछ मांगती नहीं ! बदले में भक्त आये दान करें तुम्हारी रोटी चलती रहे।  यहाँ तक भी कुछ हद तक ठीक था,पर जब इन मूर्तियों में विद्वान्  ब्राह्मणों से प्राण प्रतिष्ठा कर दी है-  तो इनपर विश्वास क्यों छोड़ा ?  

जिन्होंने सच्चे ह्रदय से इन मूर्तियों पर विश्चास किया वहां की बरकत- शोहरत देखो! उनको तिरुपति, वद्रीनाथ, विश्वनाथ, रामेश्वर आदि सिध्द मन्दिरों के नाम से पुकार जाता है और भक्तों का ताँता कभी टूटता नहीं । इन मन्दिरों को भी संसार के लिए दर्शनीय बनाया। प्रसन्न मना किसी एक भक्त ने जिसने वहां की मूर्ति में साक्षात भगवान का भगवती का दर्शन किया । आगे तुम समझदार हो।

एक बात याद रखों संसार में सिर्फ भगवान ही तुम्हारे सबसे करीब रहते हैं,और वही तुम्हारा सबसे करीबी रिस्तेदार भी है। बाकि सब कुछ दिनों का चला-चली का मेला है - मानों न मानों यही सनातन सत्य है ---------]

>>>मृत्युरूपा माँ काली : चारों तरफ मौत घिरी है और फूल है मुस्कुराए चला जाता है । चारों तरफ मौत धिरी है और दिया है कि जला चले जा रहा है । मौत (भौतिक मृत्यु)  ने तो चारों तरफ से सबको घेर रखा है- तुम्हें, मुझे, राम को, कृष्ण को, क्राइस्ट को, बुद्ध को, श्रीरामकृष्ण को, माँ सारदा को , स्वामीजी  को ....गुरुदेव को,  नवनीदा को, लेकिन तुम  मौत से घबड़ा रहे हो और बुद्ध ,....  नवनीदा मौत से नहीं घबड़ा रहे हैं, इतना ही फर्क है । तुम्हारी घबड़ाहट में तुम मौत से दबे जा रहे हो । बुद्ध, नवनीदा  निर्भय होकर मृत्यु को देख रहे हैं—जो होना है होना है, जैसा होना है वैसा होना है, जैसा हो वैसा हो, ज्यों का त्यों ठहराया । बस इसी क्षण तुम्हारे भीतर एक स्वर पैदा होता है जो शाश्वत का है, एक किरण उतरती है जो परमात्मा की है ।

>>>फूलों के हँसने का राज़ क्या है ? हँसने का एक ही राज़ है—मौत का स्वीकार । संन्यासी या पूर्णतः अनासक्त निःस्वार्थी गृहस्थ ही हँस सकता है । तुम्हें पता है क्यों इस देश ने संन्यास के लिए गैरिक वस्त्र चुने ? वह अग्नि का रंग है, लपटों का रंग है । 

प्राचीन समय में जब किसी को संन्यास देते थे, तो उसे चिता बनाकर उस पर लिटाते थे । फिर चिता में आग लगाते थे और घोषणा करते थे कि तू अब तक जो था, समाप्त हो गया । तेरी तरह तू मर गया । अब उठ और एक नए जीवन में उठ ! जलती चिता से संन्यासी उठता था, फिर उसे नया नाम देते थे, और गैरिक वस्त्र देते थे ताकि याद रखना अग्नि को, लपटों को, मृत्यु को; स्मरण रखना कि जो भी मरणधर्मा है वह तू नहीं है; स्मरण रखना कि जो भी मरेगा, वह तू नहीं है ।

गर्दन कट जाए तो झंझट मिटे । फिर भय भी मिट जाएगा । जब कट ही गयी, तो कटने को कुछ और बचा नहीं । जब तक है, तब तक भय है । भय के ऊपर उठो ।_ओशो

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>>>वेदान्त केसरी की दहाड़ : The Roar of the Lion of Vedanta : 

1. First, let us be Gods, and then help others to be Gods. “Be and make.” Let this be our motto. Say not man is a sinner. Tell him that he is a God. Even if there were a devil, it would be our duty to remember God always, and not the devil.

2. God has become man; man will become God again. Man is the best mirror, and the purer the man, the more clearly he can reflect God.

3. The infinite power of the spirit, brought to bear upon matter evolves material development, made to act upon thought evolves intellectuality, and made to act upon itself makes of man a God.

4. If the fisherman thinks that he is the Spirit he will be a better fisherman, if the student thinks he is the Spirit, he will be a better student. If the lawyer thinks that he is the Spirit, he will be a better lawyer.

5. This universe is simply a gymnasium in which the soul is taking exercise; and after these exercises we become God. So the value of everything is to be decided by how far it is a manifestation of God. Civilisation is the manifestation of that divinity in man.

6. Each soul is potentially divine. The goal is to manifest this Divinity within by controlling nature, external and internal. Do this either by work, or worship, or psychic control, or philosophy – by one, or more, or all of these – and be free. This is the whole of religion. Doctrines, or dogmas, or rituals, or books, or temples, or forms, are but secondary details.

7. My ideal indeed can be put into a few words and that is; to preach unto mankind their divinity, and how to make it manifest in every movement of life. God is in every man, whether man knows it or not; your loving devotion is bound to call up the divinity in him.

8. One idea that I see clear as daylight is that misery is caused by ignorance and nothing else. Who will give the world light? Sacrifice in the past has been the Law, it will be, alas, for ages to come. The earth’s bravest and best will have to sacrifice themselves for the good of many, for the welfare of all. Buddhas by the hundred are necessary with eternal love and pity.

9. Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. Throw the ideas broadcast, and let the result take care of itself. Let us put the chemicals together; the crystallization will take its own course.

10. You are the Children of God, the sharers of immortal bliss, holy and perfect beings. You divinities on earth. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; you are not matter, you are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.

http://greatmaster.info/vivekananda/topicswami/vivekananda-power-3/?print=print] 

>>>एक 'अच्छी कामना-burning desire- ज्वलन्त इच्छा/'चाह ' ! रखनी चाहिए ^*^ 

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 को हुआ और मां ने उनका बचपन का नाम वीरेश्वर रखा। बाद में जब स्कूल में गए तो नरेंद्रनाथ नाम रखा गया। श्रीरामकृष्ण परमहंस के सानिध्य में आने पर- 'रामकृष्ण-विवेकानन्द Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित नेता (C-IN-C, पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक) बनने के बाद स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए। 

    स्वामी विवेकानंद 24 वर्ष की अवस्था में वर्ष 1887 में पहली बार काशी आए।  और गोलघर स्थित दामोदर दास की धर्मशाला में ठहरे। सिंधिया घाट पर गंगा स्नान के दौरान बाबू प्रमदा दास मित्रा से मुलाकात हुई। वाराणसी के बाबू प्रमदा दास मित्रा, एक 'Orthodox Hindu' धर्मनिष्ठ हिन्दू थे (अर्थात रूढ़िवादी हिंदू नहीं, बल्कि गुरु-शिष्य परम्परा के रामभद्राचार्य -धीरेन्द्रकृष्ण जैसे हनुमानभक्त और धर्मविरोधियों की 'ठठरी बाँध देने वाले' हिन्दू थे।) प्रमदा दास स्वामी जी को अपने घर ले आए। उनके गहन ज्ञान ( profound erudition) और ईश्वर भक्ति (piety) के प्रति स्वामीजी के मन में सर्वोच्च सम्मान था। इसके बाद स्वामीजी का काशी आने का सिलसिला जारी हुआ।  संकठा मंदिर के पीछे स्थित कात्यायनी मंदिर के गर्भगृह में आत्म वीरेश्वर महादेव विराजमान हैं जिसकी दीवारों पर स्वामी विवेकानंद के माता-पिता भुवनेश्वरी देवी व विश्वनाथ दत्त की भी तस्वीर लगी हैैं। 

 26 दिसंबर, 1889 को बैद्यनाथ धाम (देवघर) से  प्रमदादास मित्रा को लिखित एक पत्र में अपनी एकमात्र कामना व्यक्त करते हुए स्वामीजी ने प्रतिज्ञा की थी कि "शरीरं वा पातयामि मन्त्रं वा साधयामि ।" —अर्थात ' मन्त्र का साधन, अथवा शरीर का नाश' ! यानी आदर्श की उपलब्धि करूंगा, नहीं तो देह का ही नाश कर दूंगा। या तो मंत्र सिद्ध करूंगा या प्राण ही त्याग दूंगा ।) (मेरे संकल्प की सिद्धि हो, या यह शरीर नष्ट हो जाये )-  अतएव काशीनाथ मेरी सहायता करें! "either to lay down my life or realise my ideal" --so help me the Lord of Kashi.

>>>‘‘त्यक्त्वा’- क्षूद्रं हृदयदौर्बल्यम्’- यह यह जो ह्रदय की दुर्बलता है वह क्षणिक है - ‘क्षुद्रं’ है वह ‘दौर्बल्यं’ जो  कोई बड़ी नहीं है, अत्यंत तुच्छ है। छोड़ दो इस दुर्बलता और संकल्प करो कि- ‘कार्यं वा साधयामि, शरीरं वा पातयामि।’ सच्चा संकल्पनिष्ठ साधक कहता है कि- ‘इहासने शुष्यतु मे शरीरम्’- इस आसन पर बैठे-बैठे मेरा शरीर छूट जाय, ‘त्वगस्थिमांसानि लयं प्रयान्तु’- मेरे शरीर की त्वचा, हड्डी और मांस खाक में मिल जायँ परंतु अब ईश्वर को प्राप्त किये बिना हमारे ये पाँव लौटने वाले नहीं हैं।

      अरे, ‘निकले थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’- इस कहावत के अनुसार निकले तो थे - (कामिनी -कांचन से अनासक्त होकर) भगवान् की प्राप्ति के लिए, किन्तु (नाम -यश की ऐषणा में फँस कर) करने लगे अपना प्रचार।ले खसम का नाम खसम सों परिचय नाहिं’- यदि कोई स्त्री कहे कि मैं अमुक की पत्नी हूँ किन्तु उससे पूछा जाय कि तुमको उसको कभी देखा भी है? उससे तुम्हारी जान-पहचान भी है? तो, वह बोले कि सो तो नहीं है। यही स्थिति उन प्रचारकों की भी है, जो जिस चीज का प्रचार करते हैं, उसको वे जानते ही नहीं है कि वह क्या है?

‘उत्तिष्ठ’- इसलिए अर्जुन, तुम अपने कर्तव्य पालन के लिए खड़े हो जाओ। देखो कि यह वेद का मंत्र है - "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" (कौमुदीधातुः-९२८)‘ष्ठा गति निवृत्तौ’ [‘अस्थाम्’ तथा ‘अस्थाः’ दोनों क्रियापद हैं।(कौमुदीधातुः-९२८)‘ष्ठा गति निवृत्तौ’]

यदि तुम खड़े नहीं होओगे, सो जाओगे, लेटे रहोगे तो तुम्हें नींद आ जायेगी और चलोगे तो गिरने का डर होगा। इसलिए जहाँ खड़े हो वहीं खड़े हो जाओ, सावधान हो जाओ। ‘उत्तिष्ठत’ का अर्थ है- स्थिति को ऊपर कर दो।  जहाँ हो, वहाँ से नेक ऊपर उठ जाओ। हे तो ‘उत्तिष्ठत’ माने ‘उपरितिष्ति’ हुआ। आशय यह है कि चलो मत, पर ऊपर हो जाओ।

हमको एक महात्मा ने बताया था कि अगर तुम्हारा शरीर तख्ते पर बैठा हो तो तु सोचो कि हम छत पर बैठे हैं। देह से अपने को अलग कर लो। हमारे वेदान्त की तीन ही भूमिकाएँ हैं। पंचभूत से अपने को अलग करने की कोई जरूरत नहीं है, उसमें तो ‘अहं’ भाव है ही नहीं। परिच्छिन्न शरीर में से ‘मैं’ को निकाल लो। वह उसके पहले भी था और पीछे भी रहेगा। इसलिए शरीर में- से ‘मैं’ को निकालना पहली भूमिका है। दूसरी भूमिका है ‘उसको ईश्वर के साथ मिला देना’ और तीसरी भूमिका है ‘परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं’ यह देखना। बस! देह से निकला, परमात्मा से एक हुआ और यह अनुभव करने लगा कि परमात्मा के सिवा दूसरा कुछ है ही नहीं।

स्वामी विवेकानंद पांच बार काशी आए थे। वर्ष 1902 में जब वो बनारस आए तो यहीं ठहरे व एक माह तक स्वास्थ्य लाभ किया। 4 जुलाई, 1902 को स्वामी विवेकानंद महासमाधि में लीन हो गए। उन्होंने 39 वर्ष पांच माह, 24 दिन की अल्प आयु में शरीर त्यागा। स्वामी विवेकानंद ने काशी के अंतिम प्रवास के दौरान एलटी कॉलेज परिसर के गोपाल लाल विला से 7 पत्र लिखे थे। 

 9 फरवरी 1902 को स्वामी स्वरूपानंद को लिखे पत्र में स्वामीजी ने कहा था कि काशी प्रवास के दौरान मुझे बौद्धधर्म के बारे में बहुत सा ज्ञान प्राप्त हुआ। बौद्धों ने शैवों के तीर्थस्थल को लेने का प्रयास किया लेकिन असफल होने पर उन्हीं के नजदीक नए स्थान बनाए, जैसे बोध गया, सारनाथ आदि। अपने शिष्य चारू को कहते हैं कि वह ब्रह्म सूत्र का स्वयं अध्ययन करे और मूर्खतापूर्ण बातों से प्रभावित ना हो। वह आगे लिखते हैं कि काशी में अच्छा हूं और यदि इसी तरह मेरा स्वास्थ्य सुधरता जाएगा तो मुझे बड़ा लाभ होगा लेकिन अगली ही लाइन में वह कहते हैं कि बौद्ध धर्म और नव हिंदू धर्म के संबंध के विषय में मेरे विचारों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। इन विचारों को निश्चित रूप देने के लिए कदाचित मैं जीवित ना रहूं, परंतु उसकी "Be and Make" कार्यप्रणाली का संकेत छोड़ जाऊंगा और तुम्हें और तुम्हारे भाई जनों  को उस पर काम करना होगा।  

स्वामी विवेकानंद ने दूसरा पत्र 10 फरवरी को ओली बुल को लिखा था और इसमें काशी के कलाकारों की प्रशंसा की थी। 12 फरवरी को भगिनी निवेदिता को लिखे गए पत्र में आशीर्वाद देते हुए लिखा था कि यदि श्रीरामकृष्ण सत्य हों तो उन्होंने जिस प्रकार मेरे जीवन में मार्गदर्शन किया है ठीक उसी प्रकार तुम्हें भी मार्ग दिखाकर अग्रसर करते रहें। चौथे पत्र में स्वामी ब्रह्मानंद को 12 फरवरी को लिखते हुए आदेशित किया कि प्रभु के निर्देशानुसार कार्य करते रहना। 18 फरवरी को पांचवां पत्र ब्रह्मानंद को और 21 फरवरी को ब्रह्मानंद को लिखे पत्र में स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि कलकत्ते और इलाहाबाद में प्लेग फैल चुका है, काशी में फैलेगा कि नहीं, नहीं जानता...। सातवें और अंतिम पत्र में 24 फरवरी को ब्रह्मानंद को संबोधित करते हुए स्वामी जी ने पत्र का जवाब नहीं लिखने पर नाराजगी जताई और लिखा कि एक मामूली सी चिट्ठी लिखने में इतना कष्ट और विलंब। ...तो मैं चैन की सांस लूंगा। पर कौन जानता है उसके मिलने में कितने महीने लगते हैं... और 4 जुलाई 1904 को वे महासमाधि में लीन हो गए।

साभार https://www.amarujala.com/photo-gallery/RSS के राम कुमार गुप्ता/स्वामी विवेकानंद पर अध्ययन कर रहे नित्यानंद राय/ प्रभु विवेकानन्द का विचार कौंधा ......क्या  पूर्वजन्म में स्वामी स्वरूपनन्द था ? 14 अप्रैल, 1992 को ऊँच, बनारस के निकट जीप ऐक्सिडेंट / RSS की शाखा के लोगों ने कबीरचौरा हॉस्पिटल पहुँचाया - प्रोफेसर का नाम ?...क्या काशी विश्वनाथ और माँ अन्नपूर्णा का दर्शन -बोधगया में बोधिवृक्ष के नीचे नवनीदा अद्भुत ध्यान ! और प्रमोददा के साथ नवनीदा ने पूर्वजों का श्राद्ध किया - हेमांगिनी देवी का नाम लिया था ?  कैप्टन सेवियर की पत्नी मायावती से वापस इंग्लैण्ड क्यों गयी थीं ? क्या RSS के राम कुमार गुप्ता और नित्यानन्द राय पाठचक्र , बनारस में वार्षिक कैम्प कर सकते हैं ?    

    विवेकानन्द पत्रावली का पत्र संख्या > [i - iv, vi - xiv, xvi - xxii, xxiv - xxvi, xxix, xxxi - xxxiii और cxxiv ] स्वामीजी द्वारा वाराणसी के प्रमदादास मित्र को बंगला भाषा में लिखे गए पत्रों से अनुवादित हैं। (अंतिम को छोड़कर) ये सभी पत्र सबसे मजेदार हैं, वे पत्र उस समय में लिखे जा रहे थे, जब स्वामीजी अपने गुरु (श्रीरामकृष्ण देव)  के निधन के बाद,एक परिव्राजक संन्यासी के रूप में भारत भ्रमण कर रहे थे। शुरुआती दिनों में वे पत्राचार के समय 'नरेंद्रनाथ' के नाम से हस्ताक्षर करते थे। किन्तु समझने में दिक्क्त न हो इसलिए पत्रावली में उनका प्रसिद्द नाम -'विवेकानन्द' छपा हुआ है।

[^Letters i - iv, vi - xiv, xvi - xxii, xxiv - xxvi, xxix, xxxi - xxxiii and cxxiv are translated from Bengali letters written to Pramadadas Mitra of Varanasi, an orthodox Hindu, for whose profound erudition and piety Swamiji had the highest regard. These letters are most interesting being written (except the last) at a time when, after his Master's passing away, Swamiji was leading a wandering monk's life. In the early days he used to sign his name as Narendranath, though his now famous name, Vivekananda, is printed in all these pages for easy comprehension.

खाते भी राम कहो पीते भी राम कहो :

सर्वदा राम वद 

गच्छन् राम वद आगच्छन् राम वद भ्रमन् राम वद राम राम राम ।

तिष्ठन् राम वद उपविशन् राम वद उत्तिष्ठन् राम वद राम राम राम ॥ १॥ राम वद 

[Repeat ‘Raama’ (while doing other activities!)

गच्छन् - Going (गच्छत् इति प्रातिपदिकम्, गम् गमॢँ गतौ इति धातुः)

आगच्छन् - Coming (आगच्छत्, आङ् उपसर्गः + गम् गमॢँ गतौ धातुः)

भ्रमन् - Roaming (भ्रमत्, भ्रम् भ्रमुँ चलने / भ्रम् भ्रमुँ अनवस्थाने)

तिष्ठन् - Standing / Staying (तिष्ठत्, स्था ष्ठा गतिनिवृत्तौ)

उपविशन् - Sitting (उपविशत्, उप + विश् विशँ प्रवेशने)

उत्तिष्ठन् - Getting up (उत्तिष्ठत्, उत् + स्था ष्ठा गतिनिवृत्तौ)

(गच्छन् = पुल्लिङ्गः, प्रथमा विभक्तिः, एकवचनम्, कृदन्तपदम्, शतृप्रत्ययान्तः ) १

पठन् राम वद लिखन् राम वद स्मरन् राम वद राम राम राम ।

खादन् राम वद पिबन् राम वद निद्रान् राम वद राम राम राम ॥ २॥ राम वद 

धावन् राम वद पतन् राम वद चलन् राम वद राम राम राम ।

गृह्णन् राम वद क्षिपन् राम वद अन्विष्यन् राम वद राम राम राम ॥ ३॥ राम वद 

क्रीडन् राम वद हसन् राम वद रुदन् राम वद राम राम राम ।

जयन् राम वद अपजयन् राम वद सर्वदा राम वद राम राम राम ॥ ४॥ राम वद 

                                 - श्रीमती विजि चन्द्रन्

>>गुरु बिन कौन सम्हारे ?तो देखता हूँ कि आसन्न ऐक्सिडेन्ट या भूकंप अभी मरेगा कौन ? की अनुभूति। ...... तो देखते हैं अब कौन मरेगा?....और धर्म का बोध ही बोध है ..... তাহলে এখন দেখা যাক কে মরবে? এর অনুভূতি।....  मेरे नेता C-IN-C नवनीदा  क्या सब जानते हैं? वे क्या मुझे उसकी याद दिला दे रहे हैं ? मेरे जन्म के समय से ही 'वे' (ठाकुर-माँ -स्वामीजी, ... नवनीदा) क्या गुरु-रूप से मेरी रक्षा कर रहे हैं ?" 

गुरु बिन कौन सम्हारे ।

को भव सागर पार उतारे ॥

टूटी फूटी नाव हमारी

पहुँच न पाई तट पर ।

जैसे कोई प्यासा राही ।

भटक गया पनघट पर ।

पास खड़ा गुरु मुस्काता है ।

दोनों बाँह पसारे।

वो भवसागर पार उतारे ।

गुरु बिन ...


मेरे राम मुझे शक्ति दो ।

मन में मेरे दृढ़ भक्ति दो ।

राम काम मैं करूँ निरंतर ।

राम नाम चित धारे।

को भव सागर पार उतारे ।

गुरु बिन ...


जीवन पथ की उलझन लख कर।

खड़े न हो जाना तुम थक कर।

तेरा साथी, राम निरंजन ।

हरदम साथ तुम्हारे।

वो भवसागर पार उतारे ।

गुरु बिन ...


हमराही तुम विकल न होना ।

संकट में धीरज ना खोना ।

अंधियारे में बाँह पकड़ कर ।

सत्गुरु राह दिखाये।

वो भवसागर पार उतारे ।

गुरु बिन ...

गुरु करे, माई करे, राम करे  सो होय रे मनवा- 

राम करे सो होय रे मनवा

राम झरोखे बैठ के सब का मुजरा लेत। 

जैसी जाकी चाकरी वैसा वाको देत।। 

राम करे सो होय रे मनवा, राम करे सो होये ..

कोमल मन काहे को दुखाये, काहे भरे तोरे नैना .

जैसी जाकी करनी होगी, वैसा पड़ेगा भरना .

काहे धीरज खोये रे मनवा, काहे धीरज खोये ..


पतित पावन नाम है वाको, रख मन में विश्वास .

कर्म किये जा अपना रे बंदे, छोड़ दे फल की आस .

राह दिखाऊँ तोहे रे मनवा, राह दिखाऊँ तोहे ..]

=>नवरात्रि सनातन धर्म में हमें परमात्मा को किसी भी मनचाहे रूप में पूजने की छूट है। हम उसकी उपासना चाहे माँ के रूप में करें, पिता के रूप में, गुरु-रूप में, मित्र, भगवान के रूप में, यहाँ तक कि अपने बच्चे के रूप में भी। बस, हमारी भक्ति निष्काम हो और उसका आधार अध्यात्म होवे।

सांसारिक सम्बन्धों में, माँ-बच्चे का सम्बन्ध सबसे पवित्र होता है। बच्चे की परेशानी का कारण जो भी हो, उसे आराम माँ की गोद में आ कर ही मिलता है। हमारा भी परमात्मा के प्रति ऐसा ही भाव होना चाहिए। और माँ तो धैर्य की मूरत होती ही है। उसका बच्चा कितनी भी गलतियां क्यों न करता रहे, वो माफ़ करती रहती है और अपना वात्सल्य बरसाती रहती है।  सभी माताओं का अपने बच्चों के प्रति ऐसा ही वात्सल्य-भाव होता है। देवी-माँ भी अपने सब प्राणियों पर समान रूप से प्रेम की वर्षा करती हुई, मानव को अध्यात्म की ओर लिए चलती है।

 बच्चे को माँ के साथ पूर्ण-स्वतंत्रता का अनुभव होता है। वो जो चाहे, रो कर, ज़िद कर के मांग लेता है। चाहे उसकी पिटाई भी क्यों न हो रही हो, बच्चा माँ को कस कर चिपका रहता है। उसका भाव होता है, “मेरी माँ के सिवा, मेरा कोई और ठिकाना नहीं है!” 

स्वरूप से जगत ब्रह्म है, जिसमें जगत के बनने से भी कभी कोई विकार नहीं आता। जगत की सृष्टिकर्त्री को हम ‘देवी’ (शक्ति)  कहते हैं। ब्रह्म और देवी (शक्ति-काली )  में कोई भेद नहीं है, बल्कि एक ही सत्य-वस्तु है, जैसे सूर्य और उसका प्रकाश पृथक नहीं, मधु और उसकी मिठास या शब्द और उसका अर्थ बिलग नहीं होते। 

 कई लोग प्रश्न करते हैं कि, “देवी को माया क्यों कहते हैं? माया तो हमें मोह, दुःख और बन्धन में डालती है। तो यदि देवी माया है तो फिर उसकी पूजा-अर्चना क्यों करें?”  यह जगत देवी का व्यक्त-रूप है। देवी की सृजनात्मक शक्ति अपनी समस्त सृष्टि में व्याप्त है। वो शक्ति जो एकमेव शुद्ध, अनन्त चेतन शक्ति को नाम-रूप के सीमित संसार में अभिव्यक्त होने देती है, उसका नाम है माया। तो, इस मायाशक्ति के माध्यम से ही ईश्वर हमें अपने कर्मफल के भोग के योग्य बनाता है।  इसी शक्ति के चलते ईश्वर हमारे सामने परमात्मा को इस प्रकार से प्रस्तुत करता है कि हमारी समझ में आ सके और हम मुक्ति पा सकें। जब हम देवी की उपासना माया के रूप में करते हैं तो हम इस सत्य को स्वीकार कर, उसे सविनय प्रणाम करते हैं। 

वास्तव में, माया का बँधनात्मक पहलू हमारा अवशिभूत और चंचल मन ही है, कोई बाहरी वस्तु या शक्ति नहीं। माया इस मन का मूल रूप है, जो बन्धन का भी कारण है और मोक्ष का भी। एक बार एक आदमी को डकैतों ने लूट कर पेड़ के साथ बांध दिया और फिर कुँए में फेंक दिया। इस आदमी ने सहायता के लिए पुकारा तो कोई राहगीर दौड़ कर आया और कुएँ में रस्सी फेंकी, जिसे पकड़ कर वो बाहर आ गया। तो यहाँ देखो, एक रस्सी ने उसे बंधन में डाला तो दूसरी रस्सी ने उसकी रक्षा की। इसी प्रकार, हमारा मन ही हमारे बंधन और मोक्ष का कारण बनता है। जब सांसारिक वस्तुओं में (कामिनी-कांचन में आसक्त हो जाता है) रम जाता है तो बन्धन का कारण बनता है।  और जब हम मनःसंयोग का अभ्यास करके अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप के प्रति जागृत हो उठते हैं तो वही मन  मोक्ष का कारण बन जाता है।

    तो मन के द्वारा ही मन पर विजय पानी है। मान लो, हमारे पाँव में काँटा चुभ जाये तो क्या हम उसे बाहर निकालने के लिए दूसरे कांटे का सहारा नहीं लेते? और फिर दोनों काँटों को फेंक देते हैं। इसी प्रकार, हमें अपने मन के द्वारा ही राग-द्वेष से परे जाना है और सद्गुणों व ज्ञान का विकास करना है। इस तरह मन द्वारा ही हमें मानसिक शुद्धि प्राप्त करनी है और फिर अपने सत्स्वरूप को जान कर मन की सीमा के पार चले जाना है।

उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत्‌ ।

आत्मा एव हि आत्मनो बंधुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ॥

बंधुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।

अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत्‌ ॥ गीता 5.6 

[मनुष्य को] अपने मन को जीतकर अपना उद्धार करना चाहिए न कि इसके अधीन होकर पतन को प्राप्त होना चाहिए।  मन मनुष्य का मित्र भी है और शत्रु भी। जिसने अपने मन को जीत लिया, मन उसका सबसे अच्छा मित्र है लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता तो वही मन उसका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। 

मनुष्य को अपने मन को जीतकर अपना उद्धार करना चाहिए न कि इसके अधीन होकर पतन को प्राप्त होना चाहिए।  मन मनुष्य का मित्र भी है और शत्रु भी। जिसने अपने मन को जीत लिया, मन उसका सबसे अच्छा मित्र है लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता तो वही मन उसका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। 

मन मनुष्य के शरीर का सबसे शक्तिशाली अंग है।  लेकिन शक्तिशाली होने के साथ मन बहुत चंचल भी होता है।  अगर मन के ऊपर नियंत्रण कर लिया जाये और इसकी शक्ति का उचित उपयोग किया जाये तो मनुष्य महान बन सकता है।  लेकिन अगर मनुष्य असावधान हो जाये और मन को स्वछंद छोड देता है तो यह मन मनुष्य के लिए घातक हो सकता है।  नियंत्रित मन मनुष्य का सबासे बड़ा मित्र है और अनियंत्रित मन मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन। इस तथ्य का उल्लेख भगवान ने ऊपर के श्लोको में किया है और मनुष्य को यह सलाह दी है कि मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण स्थापित करना चाहिए।  मन पर नियंत्रण करने से मनुष्य का सांसारिक जीवन तो सुखी होता ही है अध्यात्मिक उत्थान भी होता है। 

नवरात्रि एक अवसर है सकल जगत-कारिणी, पराशक्ति की पूजा-उपासना करने का! इन नौ दिनों की पूर्णाहूति होती है विजयदशमी के दिन। ये नौ दिन व्रत-उपवास आदि साधना-उपासना के लिए होते हैं। आलस्य, काम-क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष, अधीरता व अविश्वास – ये सब दुर्गुण साधना के मार्ग में बाधाएं हैं। तप के माध्यम से इन पर विजय पा कर आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना नवरात्रि का उद्देश्य है।

=>शंकराचार्य और रामानुजाचार्य : रामानुज भी शंकर की ही तरह अद्वैतवादी हैं, परन्तु जगत् के नाना जड़-चेतन तत्वों को मायिक माने बिना उसी उद्वय तत्व ब्रह्म के अंश मानते हैं। समस्त नानात्वमय परिणामी जगत् ब्रह्म में ही समाविष्ट है। 

 जहाँ शंकर के केवलाद्वैत में पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म के अतिरिक्त सब कुछ का निषेध किया गया है। वहाँ रामानुज के विशिष्टाद्वैत में ब्रह्म में ही सब कुछ को स्वीकार किया गया है। ब्रह्म चित् और अचित् दोनों से विशिष्ट है और उसकी अद्वैतावस्था सविशिष्ट है। चित् का सत् से तादात्म्य मानना भी अप्रामाणिक है। चित् अनिवार्यत: ज्ञाता और ज्ञेय को अपने से पृथक मानकर चलता है।

      इस दार्शनिक स्थिति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जीव के पृथक व्यक्तित्व और जगत् की सत्यता को पूर्णत: स्वीकार किया गया है तथा सर्वव्यापी चरमतत्व में उसकी पूर्णता को हानि पहुँचाए बिना उनको समुचित स्थान एवं मूल्य प्रदान किया गया है। इस तरह रामानुज ने ज्ञान एवं सत्ता के क्षेत्र में एकत्व एवं नानात्व में समन्वय स्थापित कर वेदान्त में नई मान्यताएं स्थापित की हैं।

=> देहात्म भाव : यदि ब्रह्म एक विशिष्ट है, जिसमें जीव और जगत् विशेषण रूप से स्थित हैं तो प्रश्न यह उपस्थित होता है कि इनका पारस्परिक संबंध किस प्रकार का है ? इसकी व्याख्या के लिए रामानुज देहात्म भाव की सहायता लेते हैं। ब्रह्म आत्मा या केन्द्रीभूत तत्व है। जीव और जगत् ब्रह्म के देह हैं। ब्रह्म, जीव और जगत् तीनों सत्य हैं, भिन्न हैं, परन्तु केवल ब्रह्म स्वाधीन है तथा जीव और जगत् ब्रह्मधीन एवं ब्रह्म नियंत्रित हैं। जीव और जगत् किस अर्थ में ब्रह्म के देह हैं, यह स्पष्ट करने के लिए रामानुज देह की निम्नलिखित परिभाषा देते हैं- " देह वह द्रव्य है, जिसे एक चेतन आत्मा अपने प्रयोजन हेतु (जीवनमुक्ती का आनन्द लेने के लिए) धारण करती है, नियंत्रित करती है, कार्य में प्रवृत्त करती है और जो पूर्णतया उस आत्मा के अधीनस्थ रहती है। "

=>जगत ब्रह्म का विकार (परिणाम)  नहीं है -विवर्त है !

 >>>वेदान्त दर्शन : जगत की तात्विक प्रस्थिति के बारे में वेदान्त दर्शन में मायावाद एवं लीलावाद की दो पृथक एवं पूर्णत: विरोधी परम्पराएं रही हैं। इन दोनों परम्पराओं में मौलिक भेद सत्ता के प्रति दृष्टिकोण में है। दोनों यह मानते हैं कि सृष्टि प्रक्रिया का मूल है सृजन की चाह और उस चाह को चरमतत्व (ब्रह्म) पर आरोपित एवं मिथ्या माना गया है, जबकि लीलावाद में उसे ब्रह्म की स्वाभाविक शक्ति एवं वास्तविक माना गया है। दोनों के अनुसार जगत् ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, पर एक में वह आभास मात्र है, जबकि दूसरे में वास्तविक। 

रामानुज मायावाद का प्रबल प्रतिवाद कर लीलावाद का समर्थन करते हुए जगत् के प्रति वास्तवलक्षी दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे जगत् को उतना ही वास्तविक मानते हैं, जितना की ब्रह्म है। ब्रह्म जगत की सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है। किन्तु इस प्रक्रिया में ब्रह्म निर्विकार रहता है। क्रिया शक्ति उसकी सत्ता या स्वरूप में बाधा नहीं पहुँचाती। प्रलय की अवस्था में चित् और अचित् अव्यक्त रूप में ब्रह्म में रहते हैं। 

    ब्रह्म को इस अवस्था में 'कारण-ब्रह्म' कहते हैं। जब सृष्टि होती है, तब ब्रह्म में चित् एवं अचित् व्यक्त रूप में प्रकट होते हैं। इस अवस्था को 'कार्य ब्रह्म' कहते हैं। ब्रह्म अपनी दोनों विशिष्ट अवस्थाओं में अद्वैत रूप है। केवल भेद यह है कि पहले में अद्वैत एकविध है तो दूसरे में अनेकविध हो जाता है। दोनों अवस्थाएं समान रूप से सत्य हैं। अभेद-श्रुतियां कारण-ब्रह्म की बोधक हैं और और भेद-श्रुतियां कार्य-ब्रह्म की।

>>>मायावाद का खंडन : अद्वैत वेदांत में सत्ता के प्रति जो दृष्टिकोण अपनाया गया है, उसमें यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि ब्रह्म एकमेव सत्ता है तो वैविध्यमय जगत की, जिसका हम अनुभव करते हैं, कैसे व्याख्या की जाये ?

इसका उत्तर माया के सिद्धांत को प्रस्तुत कर अवश्य दिया गया, परन्तु माया अपने आप में अनिर्वचनीय है, जो वास्तविक समाधान की अपेक्षा वैचारिक रहस्य या पहेली सी लगती है। यह एकत्व और नानात्व के विरोध को दूर करने के लिए प्रस्तुत की गई है। परन्तु स्वयं इसमें सत् और असत् के निषेध का आत्मविरोध है। रामानुज सत्ता के प्रति सजीव दृष्टिकोण रखते हैं। अत: उनके लिए एकत्व और नानात्व के समन्वय का प्रश्न ही नहीं उठता। वे इन दोनों को विभक्त न मानकर मात्र पृथक या एक ही तत्व के दो पक्ष मानते हैं। उनके मतानुसार एकमेव सत्ता अपने सविशेष स्वरूप में जगत के नाना चराचर तत्वों का अंग के रूप में समावेश कर लेती हैं। तार्किक दृष्टि से यह आवश्यक भी है कि यदि ब्रह्म में अभिव्यक्ति को स्वीकार कर लिया जाये, चाहे वह अभिव्यक्ति आरोपित हो या वास्तविक, तो उन नाना रूपों को भी ब्रह्म में स्वीकार करना पड़ेगा, जिनमें ब्रह्म की अभिव्यक्ति हुई है। 

  अद्वैतवादी इस अभिव्यक्त नानात्व को मिथ्या घोषित करते हैं और मायावाद का प्रवर्तन करते हैं, जो रामानुज को पूर्णत: श्रुति, युक्ति एवं अनुभव के साक्ष्य के विपरीत लगता है। अत: वे सात तर्कों को प्रस्तुत कर मायावाद का खंडन करने का प्रयास करते हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1.=> आश्रयानुपपत्ति-  रामानुज यह प्रश्न उपस्थित करते हैं कि जिस अविद्या से संसार की उत्पत्ति होती है, उसका आधार क्या है ? यदि यह कहा जाये कि वह जीवाश्रित है, तो यह शंका होती है कि जब जीव स्वयं अविद्या का कार्य है तो फिर जो कारण है, वह कार्य पर कैसे निर्भर रह सकता है। यदि यह कहा जाये कि अविद्या ब्रह्माश्रित है, तो फिर ब्रह्म को विशुद्ध चैतन्य कैसे कह सकते हैं ? और न अविद्या को एक पृथक स्वाश्रयी तत्व ही माना जा सकता है, क्योंकि इससे अद्वैत के सिद्धांत की हानि होती है।

2.=> तिरोधानानुपपत्ति- अद्वैत के अनुसार अविद्या ब्रह्म को आच्छादित कर अध्यारोपण द्वारा जगत को अभिव्यक्त करती है। परन्तु ब्रह्म, जो प्रकाश है, अध्यारोप का अधिष्ठान या विषय कैसे हो सकता है ? यदि फिर भी उसे ऐसा माना गया तो इससे ब्रह्म के स्वप्रकाशत्व की हानि होगी।

3.=> स्वरूपानुपपत्ति -यदि हम अविद्या की सत्ता और उसमें अध्यारोप की क्षमता स्वीकार करें भी, तो यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उसका स्वरूप क्या है। उसके स्वरूप को न तो सत् माना जा सकता है और न ही असत्। अद्वैतवादी उसे सत् मानते ही नहीं। पर उसे असत् भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि तब यह प्रश्न होगा कि क्या वह सत् (दृशि) रूप में असत् है या चित् (दृष्टा) रूप में असत् है ? वह सत् रूप में असत् नहीं हो सकती, क्योंकि ब्रह्म ही सत् है और वह नित्य है। यदि उसे चित् रूप में असत् माना जाये तो सत् चित् (ब्रह्म) के अलावा असत् चित् की कल्पना करनी होगी। इसके अलावा इस प्रस्थापना में अनवस्था दोष होगा, क्योंकि यदि असत् जगत के कारण के रूप में अविद्या को माना जाए और अविद्या स्वयं भी असत् हो तो इसके भी कारण के रूप में किसी अन्य सत् तत्व को मानना पड़ेगा। यदि इस दोष के निवारण हेतु यह माना जाए कि सत् चित् जो स्वयं ब्रह्म है, अविद्या है तो इसका अर्थ यह होगा कि ब्रह्म स्वयं ही कारण है। ऐसी स्थिति में ब्रह्मेतर किसी तत्व को मानना आवश्यक होगा। फिर ब्रह्म शाश्वत होने से उसका कार्यरूप जगत भी शाश्वत होगा। अत: अविद्या को ब्रह्म से पृथक तथा सत् माने बिना जगत की व्याख्या नहीं हो सकती।

4.=> अनिर्वचनीयानुपपत्ति-अविद्या को न तो सत् और न ही असत् मानते हुए अद्वैत वेदान्ति उसे अनिर्वचनीय कहते हैं। इसके स्वरूप को वे भावरूप अज्ञान मानते हैं। परन्तु ऐसा कहने का कुछ अर्थ नहीं निकलता। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव है। तब फिर वह भावरूप कैसे माना जा सकता है। अविद्या का ज्ञान न तो प्रत्यक्ष और न अनुमान होता है। कोई भी अनुभव भ्रामक नहीं होता है। भ्रम में भी अर्धज्ञान ही होता है। उसे अज्ञान नहीं कहा जा सकता। इस तरह न तो सिद्धांतत: और न व्यवहार से अविद्या की सिद्धि होती है।

5.=> प्रमाणानुपपत्ति-अविद्या की सिद्धि के लिए शास्त्रों में भी कोई प्रमाण नहीं है। प्रकृति को 'माया' कहकर उपनिषदों ने उल्लेख किया है, परन्तु वहाँ माया का तात्पर्य अज्ञान नहीं बल्कि ब्रह्म की विशिष्ट शक्ति है

6.=> निवर्तकानुपपत्ति-अविद्या का कोई निवर्तक नहीं हो सकता, क्योंकि अद्वैतवादियों के अनुसार निर्विशेष ज्ञान ही अविद्या का निवारण कर सकता है और ऐसा ज्ञान कदापि संभव नहीं, क्योंकि सभी ज्ञान अनिवार्यत: सविशेष होते हैं

7.=> निवर्त्यापपत्ति-अविद्या का निवारण भी संभव नहीं है, क्योंकि वह भाव रूप है और भाव रूप सत्ता का कभी विनाश नहीं होता। इस तरह मायावाद का खंडन कर रामानुज यह प्रतिपादित करते हैं कि सृष्टि वास्तविक है। जगत के पदार्थ परिणामी हैं, नश्वर हैं। पर इस आधार पर उन्हें मिथ्या नहीं माना जा सकता।

• रामानुज के दार्शनिक विचार -रामानुज के अनुसार समस्त भौतिक पदार्थ अचित् या प्रकृति के ही परिणाम हैं। यह मान्यता सांख्य दर्शन में भी है। परन्तु उससे रामानुज का यह मतभेद है कि ये प्रकृति को ब्रह्म का अंश एवं ब्रह्म द्वारा परिचालित मानते हैं। ब्रह्म की इच्छा (विमर्श) से प्रकृति तेज, जल एवं पृथ्वी में विभक्त होती है, जो क्रमश: सत्य, रजस् एवं तमस् रूप हैं। इन्हीं तीन तत्वों के नाना प्रकार के सम्मिश्रण से जगत के स्थूल पदार्थों की उत्पत्ती होती है। यह सम्मिश्रण क्रिया त्रिवृतकरण कहलाती है। 

=> ब्रह्म

यदि ब्रह्म को जगत का कारण माना जाए तो यह प्रश्न उठता है कि पूर्ण एवं निर्विकारी ब्रह्म इस अपूर्ण एवं विकारशील जगत को क्यों उत्पन्न करता है ?

>>>ब्रह्म और जगत के विषय में –उक्तं हि वासिष्ठे-

न शून्यरूपं न च सत्स्वरूपं ब्रह्माभिधं भाति जगत्स्वरूपम् ।

तच्चापरिज्ञानवशादनर्थभूतं परिज्ञातवतः शिवात्म ॥ (योग वशिष्ठ: श्लोक 7.207.38॥)

योगवासिष्ठ में कहा है कि, इस जगत् का स्वरूप स्वतः शून्य (vacuous) नहीं है और यह सत्य (substantial) भी नहीं है, किन्तु ब्रह्म चैतन्य (divine intelligence) ही जगद् रूप से भासित हो रहा है । इसलिये ऐसा ज्ञान न होने से यह जगत् अनर्थ स्वरूप प्रतीत होता है । जो इसका जानकर ज्ञानी है उसके लिये यह अति आनन्द स्वरूप ही है ।

The world is therefore neither of a substantial nor vacuous form, but the display of divine intelligence; the want of this knowledge is the source of all misery to man, but its true knowledge as representation of divine wisdom, is fraught with all bliss and joy.

यह जीव जाग्रत दशा में बाह्य इन्द्रियों से इस मिथ्या जगत् को सत्य ही देखता है । अतः परमार्थिक ज्ञान के न होने से वह जागता हुआ भी वास्तव में अज्ञान में ही सो रहा है।  और जो दोनों अवस्थाओं में अविद्या से सो रहा है, वह तो सदा सोया हुआ ही माना जाता है । वह ही जागा हुआ माना जाता है जिसने उस 'राम' का (वर्तमान युग के अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, माँ श्रीसारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द का) जो सर्वव्यापक पारमार्थिक स्वरूप है, जान लिया, वह जागा हुआ कहलाता है ।

अतः राम नाम (गुरुदेव द्वारा प्रदत्त श्री ठाकुरदेव का नाम-जप) ही कल्याण का साधन है, ऐसा जानकर उसके स्वरूप के ध्यान में लग गया, वह जाग गया । इसी तरह जो अन्धे हैं, वे तो अन्धे हैं ही, किन्तु जो परमात्मा के वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते, वे ज्ञान के अभाव से देखते हुए भी अन्धे ही हैं और जब सर्वप्रियस्वरूप राम को जान गये ( अर्थात श्रीरामकृष्ण- स्वामी विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में  चरित्र-निर्माण आन्दोलन में नेता बनो और बनाओ-'Be and Make' के प्रचार-प्रसार में जुट गए)  तब वे सभी नेत्र वाले हैं ।

ऐसे जो गूंगे हैं वे तो गूंगे प्रसिद्ध हीं हैं, किन्तु जो केवल वेदों -उपनिषदों का उच्चारण करते हैं, परन्तु अर्थ ज्ञान शून्य हैं। वे जब तक  वेद के रहस्य को नहीं समझते, तब तक वे भी गूंगे ही हैं । जब इन्द्रियातीत सत्य-ब्रह्म तत्त्व को जान जायेंगे तब वे भी बोलने वाले माने जायेंगे । ऐसे ही जो केवल अपने भोगों के लिये ही जीते हैं, (घोर स्वार्थी हैं) वे जीते हुए भी मरे के (पशु के) तुल्य हैं।  क्योंकि उनके मन में जरा सा भी ज्ञान का (निःस्वार्थपरता का) प्रकाश नहीं है, और जो बिना ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त किये ही मर गये, वे तो जीवन काल में भी मुर्दे ही थे । अतः जब ब्रह्म का (100 % Unselfishness का ) वास्तविक ज्ञान हो जायगा तब ही वे ब्रहमनिष्ठ होकर जीवन्मुक्त माने जायेंगे । तभी उनका जीवन सफल माना जायगा ।

>>>भगवान की कला और अंश में क्या अंतर है? 

[पूर्ण अवतार (नेता, पैगम्बर, अनन्त या पूर्ण निःस्वार्थपरता, 100% Unselfishness)  वह होता है जो अज्ञानी जीवों को समझाने के लिए, (मानवजाति का मार्गदर्शन करने के लिए) नेता बनकर जन्म लेता है। और भिन्न-भिन्न अर्थात बहुरुपिया शरीर धारण करके लीला अर्थात ड्रामा रचता है । परन्तु सामान्य जीव (अवतार रहस्य Be and Make को वेदान्त गुरु-शिष्य परम्परा में) समझने की बजाय खुद ड्रामा (गुरुगिरि का ड्रामा) करने लगता है। क्या आप भी "सत्य-असत्य-मिथ्या" भेद (विवेक-प्रयोग पद्धति मनःसंयोग ) समझने की बजाय, महान अवतारों के नाम पर  मन्त्र -तन्त्र, ध्यान -समाधि में  शब्द स्पर्श रुप रस गन्ध ग्रहण करने का ड्रामा (गुरुगिरि का ढोंग) तो नहीं कर रहे हैं ?

भगवान की कला सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (सृष्टि) में चहूं ओर दिखाई देती है । छोटे से छोटे प्राणी की शरीर संरचना (body structure) से लेकर सूर्य आदि ग्रहों उपग्रहों निर्माण और नियमन (regulation) तक उसी ईश्वर की कला- कारीगरी (art and workmanship)  के नमूने हैं । लेकिन भगवान की कला और अंश (art and the part) में अन्तर नहीं बताया जा सकता। क्योंकि ईश्वर सदा पूर्ण, एकरस , अखण्ड, अनन्त और निर्विकार है, और आत्मा परमात्मा का ही अंश है (the soul is a part of the Supreme Soul.)। उस अनन्त (infinite)  का  अंश या भाग हो ही नहीं सकता । जब अंश है ही नहीं तो किसी दूसरे से उसकी तुलना या अन्तर कैसे किया जा सकता है ।  (पानी में मीन प्यासी मोही देख के आवत हांसी।)  शिव के द्वारा लिखे एक योग ग्रंथ में यह तक कह है की कोई विरला ही योग की उस उच्चतम अवस्था को पाता है जब वो शिवतुल्य हो जाता है। तो अगर शिव का कहना है कि मनुष्य शिवतुल्य बन सकता है, तो मानव और ईश्वर में भेद करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है।बस देर है तो अपने को जानने की, अपनी चेतना को (हृदयवत्ता को)  इतना बढ़ाने जितना शिव बढ़ाते  हैं, आप वह कर सकते है, पर बिना गुरु-शिष्य परम्परा का प्रशिक्षण  प्राप्त किये आप जानते नहीं की कैसे करना है ? 

>>>भगवान का रूप कैसा हैभगवान भक्त की भावनाओं के अनुसार रूप धर के उसे दर्शन देते हैं - 

त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज,

आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।

यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति, 

तत्तद्वपु: प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११ ॥

 (श्रीमद्भागवत - श्लोक  3.9.11)

शब्दार्थ : त्वम्—भक्तियोग— परिभावित (शत प्रतिशत लगे ) हृत्—सरोजे—(ह्रदय कमल में) ; आस्से— (निवास करते हो) ; श्रुत-ईक्षित पथ: (कान के माध्यम से देखा हुआ पथ) ननु—अब; नाथ—हे स्वामी; पुंसाम्—भक्तों का।  यत्-यत्—जो जो; धिया—ध्यान करने से; ते—तुम्हारा; उरुगाय—(हे बहुख्यातिवान्) ; विभावयन्ति (विशेष रूप से चिन्तन करते हैं)  तत्-तत्—वही वही; वपु:—दिव्य स्वरूप; प्रणयसे—प्रकट करते हो; सत्-अनुग्रहाय—अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के लिए । (३/९/११भागवत)।

हे प्रभु, जब आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि (गुरु-शिष्य परम्परा) द्वारा कानों के माध्यम से आपको देख सकते हैं; और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं। तब  आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उसी अध्यात्म के विशेष नित्य रूप में प्रकट करते हैं, जिसमें वे सदैव आपका चिन्तन करते हैं।

तात्पर्य- यहाँ पर यह कथन कि भगवान् उसी रूप में भक्त के समक्ष प्रकट होते हैं, जिस रूप में वह उनकी पूजा करना चाहता है, यह संकेत करता है कि भगवान् भक्त की इच्छा के अधीन हो जाते हैं। —इतने अधिक कि वे भक्त की माँग के अनुसार अपना विशिष्ट रूप प्रकट करते हैं। " —त्वं भक्तियोगपरिभावित।"  यह प्रेमावस्था श्रद्धा से प्रेम की क्रमश: विकास-विधि द्वारा प्राप्त की जाती है। श्रद्धा से मनुष्य प्रामाणिक भक्तों की संगति करता है।  जिसमें उचित दीक्षा तथा शास्त्र द्वारा संस्तुत मूल भक्तिमय कार्यों की सम्पन्नता निहित रहती है। "श्रुतेक्षित मार्ग " में उन प्रामाणिक भक्तों से सुनना होता है, जो वैदिक ज्ञान में पारंगत होते हैं और संसारी आवेश से मुक्त होते हैं। और इस तरह वह भगवान् के अनेक दिव्य रूपों में से किसी एक के प्रति अनुरक्त हो जाता है जिनका वेदों में वर्णन हुआ है। भगवान् के किसी विशेष रूप के प्रति भक्त की यह आसक्ति स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण होती है। 

 हर जीव का भगवान् के साथ एक विशेष प्रकार का नित्य-दास का सम्बन्ध होता है। भगवान् के ऐसे विशेष रूप के प्रति यह आसक्ति स्वरूप सिद्धि कहलाती है। भगवान् शुद्ध भक्त के इच्छित नित्य रूप में भक्त के हृदय कमल में आसीन हो जाते हैं और इस तरह भगवान् भक्त से विलग नहीं होते। किन्तु भगवान् किसी आकस्मिक या अप्रामाणिक पूजक के समक्ष अपना उद्धाटन नहीं करते। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.२५) में हुई है—नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:। प्रत्युत भगवान् अपनी योगमाया द्वारा उन अभक्तों या आकस्मिक भक्तों से अपने को गोपित रखते हैं, जो अपनी इन्द्रियतृप्ति की सेवा में लगे होते हैं।

भगवान् कभी भी उन छद्म भक्तों को दृष्टिगोचर नहीं होते जो विश्व के मामलों का भार सँभालने वाले देवताओं की पूजा करते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि भगवान् कभी छद्म भक्त के आदेश-वाहक नहीं बन सकते, अपितु वे उस शुद्ध भक्त (तीनों ऐषणाओं से अनासक्त-'पूर्णतः निःस्वार्थी'  भक्त प्रह्लाद जैसे ) की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं, जो समस्त प्रकार के भौतिक दूषण से रहित होता है।" साभार/https://bhagavatam.in/3/9/11/]

जिस रूप में चाहो उसे बुलाओ।आदमी, औरत, बच्चा, बूढा।आधा नर आधी नारी, अर्धनारीश्वर। माँ, भाई, बहन, बेटा, बेटी, पिता, पति पत्नी आदि।पक्षी, पशु, मछली , सांप आदि। आधा पशु आधा मानव, नृसिंह भगवान।रूप अनन्त हैं।

कहा जाता है की श्री राम अवतार चौदह कलाएं के अधिपति थे, परंतु श्री कृष्ण के सोलह कलाएं हैं। श्री राम का अवतार यह सिखाता है, एक व्यक्ति को अपना जीवन लोकहित और कर्तव्य के पूर्ति के लिए जीना चाहिए, न की निजी स्वार्थ के लिए। धर्म और कर्म का उन्होंने एक आधार बनाया और दर्शाया है। श्री कृष्ण का अवतार भी एक लीला ही है। उन्होंने जन्म लिया फैले हुए अधर्म को हटाने के लिए, और अर्जुन को दिए गए भगवद गीता के माध्यम से, आने वाले कलियुग में कर्म योग के ज्ञान की स्थापना भी की। दोनों राम और कृष्ण एक ही तत्त्व हैं, परंतु जिस समय पर जो आवश्यकता होती है, उसके हिसाब से भगवान विष्णु अवतार लेते हैं। जय महाकाल ! जय महाकाली ! "जो राम थे , जो कृष्ण थे , वही इस बार रामकृष्ण है , पर तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं ! "   जय जगत गुरु अवतार वरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव, श्रीश्री माँ सारदा देवी की जय ! जो शिव के अवतार विवेकान्द को साथ लेकर अवतरित हुए हुए थे ! हरी बोल!ब्लॉग /शुक्रवार, 19 मई 2017/"अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द के प्रति क्यों आकर्षित हो जाते हैं ?"]

>>>तुलसी शालिग्राम विवाह कथा-प्राचीन काल में जालंधर नामक राक्षस ने चारों तरफ़ बड़ा उत्पात मचा रखा था। वह बड़ा वीर तथा पराक्रमी था। उसकी वीरता का रहस्य था, उसकी पत्नी वृंदा का पतिव्रता धर्म। उसी के प्रभाव से वह सर्वजंयी बना हुआ था। जालंधर के उपद्रवों से परेशान देवगण भगवान विष्णु के पास गये तथा रक्षा की गुहार लगाई। उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने वृंदा का पतिव्रता धर्म भंग करने का निश्चय किया। उधर, उसका पति जालंधर, जो देवताओं से युद्ध कर रहा था, वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही मारा गया। जब वृंदा को इस बात का पता लगा तो क्रोधित होकर उसने भगवान विष्णु को शाप दे दिया, 'जिस प्रकार तुमने छल से मुझे पति वियोग दिया है, उसी प्रकार तुम भी अपनी स्त्री का छलपूर्वक हरण होने पर स्त्री वियोग सहने के लिए मृत्यु लोक में जन्म लोगे।' यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। जिस जगह वह सती हुई वहाँ तुलसी का पौधा उत्पन्न हुआ।

कथा विस्तार : एक लड़की थी जिसका नाम वृंदा था राक्षस कुल में उसका जन्म हुआ था बचपन से ही भगवान विष्णु जी की भक्त थी.बड़े ही प्रेम से भगवान की सेवा,पूजा किया करती थी.जब वे बड़ी हुई तो उनका विवाह राक्षस कुल में दानव राज जलंधर से हो गया,जलंधर समुद्र से उत्पन्न हुआ था.वृंदा बड़ी ही पतिव्रता स्त्री थी सदा अपने पति की सेवा किया करती थी.

>>>तुलसी शालिग्राम विवाह - पद्मपुराण के पौराणिक कथानुसार राजा जालंधर की पत्नी वृंदा के श्राप से भगवान विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है और भक्तगण इस रूप में भी उनकी पूजा करते हैं.इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को अपने शालिग्राम स्वरुप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था और उसी समय से कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की एकादशी को तुलसी विवाह का उत्सव मनाया जाता है। देवोत्थान एकादशी के दिन मनाया जाने वाला तुलसी विवाह विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। तुलसी विवाह का सीधा अर्थ है, तुलसी के माध्यम से भगवान का आहावान। दरअसल, तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते हैं। देवता जब जागते हैं, तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं। इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का आयोजन माना जाता है। 

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>>>दो अवस्थाएँ -समाधि और व्युत्थान। VVImp : फुरसत में देखो। सांख्य योग दर्शन   https://bharatavani.in/bharatavani//home/dictionarysurf/?pageno=1&letter=%E0%A4%B5&did=144&language=

काश्मीर शैव दर्शन के अनुसार सृष्टि (जगत) त्रिगुणात्मक है।  शैव दर्शन के अनुसार जाग्रत्, स्वप्न तथा सुषुप्ति में क्रमशः तम, रज तथा सत्त्व प्रधानतया अभिव्यक्त होते है। प्रकाश, प्रवृत्ति तथा मोह क्रमशः सत्त्व, रज तथा तम में प्रधानतया चमकते हैं। इस प्रकार तीनों गुणों की साम्यावस्था रूप तुर्या में प्रवेश पाकर जब साधक शेष तीनों अवस्थाओं में स्वच्छंद रूप से विचरण कर सकता है तब उसे वीरेश कहते हैं। 

1. वीरेश - जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति नामक तीनों अवस्थाओं का भोग करने वाला तथा तुर्या अवस्था में प्रविष्ट हुआ साधक। परमानंद से परिपूर्ण तथा विवेक-जन्य वैराग्य द्वारा M/F भेदभाव को शांत करने में प्रवीण इंद्रियों का स्वामी साधक वीर (विवेकानन्द) कहलाता है। वीरेश्वर- तीन गुणों से उद्भूत इंद्रिया समूहों द्वारा कल्पित विश्व का स्वेच्छापूर्वक सृष्टि और संहार में से विशेषतया संहार करने में व्यस्त वीरेश ही वीरेश्वर (बिले-नरेन्द्र) कहलाता है। 

2. वीर्य : ब्रहमचर्य की प्रतिष्ठा से होने वाला बल 'वीर्य' कहलाता है (द्र. योगसूत्र 2/38)। उपस्थसंयम के कारण शारीरसार की हानि न होने से, साथ ही अन्यान्य इन्द्रियों को संयत करने से प्राणशक्ति का सात्विक विकास होता है तथा मन में सात्विक प्रकाश विकसित होता है। यह विकास ही वीर्य है। इस वीर्य के कारण ही योगी में विभूतिविशेष का आविर्भाव होता है जिससे शिष्यों में ज्ञान का आधान करने में वह समर्थ होता है। 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः', इस कठोपनिषद्वाक्य में बल से यह वीर्य ही उक्त हुआ है।

वीर्य का अर्थ है ब्रह्म की शक्ति या सामर्थ्य। परमेश्वर का सतत स्फुरणशील स्वभाव। उसकी परा विसर्गशक्ति। अपने विश्वोत्तीर्ण एवं विश्वमय, दोनों रूपों को सतत गति से अपने आनंद के लिए अपने में ही लय और उदय करने वाली परमेश्वर की सर्वकर्तृत्व तथा सर्वज्ञातृत्व लक्षणों से युक्त स्वभावभूता शक्ति।  यह वीर्य ही परमेश्वर की शक्ति है। परमेश्वरता है यदि उसमें यह वीर्य नहीं होता तो वह परमेश्वर नहीं होता। इसी वीर्य से सृष्टि-संहार आदि होते रहते हैं

>>> योगशास्त्र में वृत्ति (अर्थात् चित्तवृत्ति) का स्वरूप है - चित्त का विषयाकार परिणाम, जो ज्ञानरूप है।  चित्त के इस ज्ञानरूप परिणाम के योगसूत्र में पाँच प्रकार बताए गए हैं, जिनके नाम हैं - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति (द्र. प्रमाणादिशब्द)। ज्ञानरूप होने के कारण यह सत्त्वप्रधान है; यही कारण है कि वृत्ति के प्रसंग में चित्तसत्त्व शब्द का प्रयोग प्रायः मिलता है। वृत्ति चित्तरूप द्रव्य का परिणाम होने के कारण द्रव्यरूप एवं भंगुर है - यह विज्ञानभिक्षु ने स्पष्टतया कहा है (योगवार्त्तिक 1/4, 7)।

वृत्तियों के विषय में योगसूत्र -भाष्य में निम्नोक्त मुख्य सिद्धान्त प्रतिपादित हुए हैं -

 (1) वृत्ति उदित होने के बाद स्वभावतः संस्काररूप से परिणत होकर चित्त में रह जाती है, जो संस्कार पुनः उचित हेतु से स्मृतिरूप वृत्ति में अभिव्यक्त होता है

 (2) प्रत्येक वृत्ति का फल पुरुष को होनेवाला बोध होता है, जैसे घटज्ञानरूप प्रमाणवृत्ति का फल है - 'मैं घड़े को देख रहा हूँ', यह पौरुषेय बोध।

 (3) चित्तवृत्ति के साथ पुरुष का सम्बन्ध अनादि है। 

(4) सभी वृत्तियाँ सुख-दुःख मोह से युक्त होती हैं। 

(5) वृत्तियाँ या तो 'क्लिष्ट' (विवेकज्ञानविरोधी) होती हैं या 'अक्लिष्ट' (विवेकज्ञान के लिए अनुकूल) होती हैं। 

(6) वृत्तियाँ सदैव ज्ञात रहती हैं (स्फुट या अस्फुट रूप से); पुरुष की अपरिणामिता ही इस सदाज्ञातता का हेतु है (योगसूत्र 4/18)। 

(7) वृत्ति का अंशतः या पूर्णतः निरोध किया जा सकता है (निरोध = उदित न होना)।

>>>सांख्य-योग दर्शन :  

1. इन्द्रिय : बाह्य एवं आन्तरविषयों से व्यवहार करने के लिए बुद्धि को जिन साधनों (कारणों) की आवश्यकता होती है, वे इन्द्रिय कहलाते हैं। विषय के द्वैविध्य के कारण इन्द्रिय भी द्विविध हैं - आन्तर इन्द्रिय (अर्थात् मन) और बाह्य इन्द्रिय जो ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय के नाम से द्विधा विभक्त हैं। ज्ञानेन्द्रिय का व्यापार है - विषयप्रकाशन और कर्मेन्द्रिय का व्यापार है - विषयों का स्वेच्छया चालन। (द्र. ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय शब्द)। स्वरूपतः इन्दियाँ भौतिक (भूत द्वारा निर्मित, अर्थात् शारीरिक यन्त्र रूप) नहीं हैं - ये अभौतिक हैं - अहंकार से उत्पन्न होने के कारण आहंकारिक कहलाती हैं। स्थूल  अंग-विशेष इन्द्रियों के अधिष्ठानमात्र हैं।

सांख्य दर्शन में इन्द्रियों के व्यापार भी 'वृत्ति' कहलाते हैं, पर वृत्ति का मुख्य प्रयोग उपर्युक्त अर्थ में ही होता है। सांख्य सूत्र में बुद्धिवृत्ति शब्द प्रायः व्यवहृत होता है। सांख्यसूत्र का वृत्तिविषयक मत योगसूत्र के अविरुद्ध है। इन्द्रिय वृत्ति के विषय में कहा गया है कि (1) यह वृत्ति न इन्द्रिय का भाग (विभक्त अंश) है और न गुण है, प्रत्युत इन्द्रिय का एकदेशभूत है (5/107)  

(2) इन्द्रियवृत्तियाँ क्रमशः भी होती हैं, युगपद् भी (सांख्यसूत्र 2/32; सांख्यका. 30)।

>>>वृत्तिसारूप्य : व्युत्थान-अवस्था में यह वृत्तिसारूप्य होता है। पूर्णनिरुद्ध अवस्था के अतिरिक्त चित्त की सभी अवस्थाएँ (संप्रज्ञातसमाधि भी) व्युत्थान में ही आती हैं। योगसूत्र के अनुसार प्रतिक्षण परिणामी चित्तवृत्तियों के साथ अपरिणामी कूटस्थ द्रष्टा पुरुष की एकरूपता होना (एकरूपता का बोध होना, जो विपर्ययज्ञान है) वृत्तिसारूप्य है। 

सुखादि से युक्त चित्त के साक्षी पुरुष भी वस्तुतः सुखी आदि होते हैं - यह विपर्यय-ज्ञान वृत्तिसारूप्य का फल है (द्र. योगसूत्र 1/4)। इस वृत्तिसारूप्य को ही 3/35 योगसूत्र में 'प्रत्ययाविशेष' कहा गया है, जो भोग-स्वरूप है। इस वृत्तिसारूप्य के कारण 'चित्त वस्तुतः चेतन है', ऐसा भ्रांतियुक्त ज्ञान होता है। 

बुद्धिवृत्ति या चित्तवृत्ति में पुरुष की छाया पड़ने पर पुरुष उसमें प्रतिसंक्रान्त-से होते हैं, अतः बुद्धि को यह भ्रम होता है कि पुरुष बुद्धिवृत्ति के परिणाम से परिणामी होते हैं। जैसे चंचल जल में चन्द्रबिम्ब संक्रान्त होने पर (चन्द्र के वस्तुतः जल में प्रविष्ट न होने पर भी) जल के चांचल्य का आरोप चन्द्र में भी भ्रान्ति से किया जाता है, उसी प्रकार बुद्धिवृत्ति में वस्तुतः असंक्रान्त पुरुष की परिणामिता (यही वृत्तिसारूप्य है) के विषय में भी समझना चाहिए।

>>>पाशुपत शैव दर्शन में वृत्ति -  वृत्ति से तात्पर्य जीवन निर्वाह (livelihood)  का साधन। पाशुपत साधक के भोजन अर्जन करने के उपाय को वृत्ति कहते हैं - जो त्रिविध होती हैं- भैक्ष्य, उत्सृष्‍ट तथा यथोपलब्ध।  पाशुपत साधक जीवन निर्वाह के लिए किसी भी व्यवसाय को ग्रहण नहीं कर सकता है। धनोपार्जन के समस्त उपायों कों छोड़कर जिन भिक्षा आदि के द्‍वारा वह अन्‍नप्राप्‍ति आदि करता है वे भिक्षा आदि उसकी वृत्‍तियाँ कहलाती हैं।

>>>शाक्त दर्शन में वृन्दचक्र : वृन्द (सन्दोह), अर्थात् समूहात्मक चक्र को वृन्दचक्र कहा जाता है। यह पहले ज्ञानसिद्ध, मन्त्रसिद्ध, मैलापसिद्ध, शाक्तसिद्ध और शाम्भवसिद्ध के भेद से पाँच प्रकार का और पुनः 64 प्रकार का होता है। 65वीं कालसंकर्षिणी शक्ति इन सबमें अनुस्यूत होकर रहती है। सभी प्राणियों का मंगल करने वाली यह शक्ति भगवती महाराज्ञी मंगला के नाम से भी प्रसिद्ध है।  इस वृन्दचक्र को सूक्ष्म पीठ कहा गया है। इस वृन्दचक्र की नायिका कालसंकर्षिणी अथवा भगवती मंगला शक्ति है। गुरुपंक्ति में सर्वप्रथम इनकी उपासना विहित है (महार्थमंजरी, पृ. 89-95)।

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