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🔱🙏अल्मोड़ा का आकर्षण सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति🔱🙏
[Genesis Of true Leadership ]
(1.1)>>>What kind of person is fit to be a Leader? *नेतृत्व दरअसल मानव में दिया हुआ ईश्वर का गुण है, किन्तु वर्तमान समय में 'नेता' शब्द इतना बदनाम हो गया है कि नेता शब्द सुनने मात्र से ही मन वितृष्णा से भर उठता है। वितृष्णा उस मनोवृत्ति को कहते हैं जो किसी भी नेता को बहुत बुरा समझकर सदा उससे दूर रहने की प्रेरणा देती है। किन्तु हमे इस शब्द को केवल गलत अर्थों में न लेकर इसके यथार्थ मर्म को भी समझने की चेष्टा करनी चाहिये। आइये, हमलोग यह समझने का प्रयास करें कि 'नेतृत्व - Leadership' किसे कहते हैं, क्यों और कहाँ हमें एक मार्गदर्शक नेता की आवश्यकता महसूस होती है ? तथा सच्चे नेता 'Leader' होते कैसे हैं?
नेता शब्द संस्कृत के 'नी' धातु से निकला है । 'नयति इति नायकः' अर्थात जो आगे ले जाये वो नेता है। नेता शब्द के अर्थ हैं : आगे ले चलनेवाला, अगुआ, नायक, सरदार। स्वामीजी कहते थे -सिरदार तो सरदार। अर्थात जो साधारण मनुष्यों की सेवा या जनताजनार्दन की सेवा में अपने प्राणो को भी न्योछावर करने से न हिचके, वैसे नेता की जरूरत आज जीवन के हर क्षेत्र में पड़ती है, चाहे वो शिक्षा हो, व्यापार हो , समाज हो, या राजनीति । समस्त चराचर जगत की कार्य-प्रणाली, मनुष्य जीवन का उद्देश्य, उसका क्रियान्वयन करने का उपाय और उसे आगे ले जाने हेतु सही पथ, पद्धति या Method बतलाने वाले आध्यात्मिक शिक्षक, मार्गदर्शक नेता कि जरूरत पड़ती है।
माँ जगदम्बा की कृपा से जिनकी अपनी ज्ञानपिपासा (thirst for knowledge) तृप्त हो चुकी है, वैसे जीवनमुक्त शिक्षक ही दूसरों की ज्ञानपिपासा को तृप्त करने में समर्थ हैं ! अतएव मानव-जाति के सच्चे मार्ग-दर्शक नेता (गुरु,अवतार,पैगम्बर, आध्यात्मिक शिक्षक) प्राचीन समय से ही रहे हैं, आज भी हैं , और भविष्य में भी रहेंगे।
(1.2) >>>All this creation has manifested from the 'Whole' : यह सारी सृष्टि पूर्ण 'Whole' या ब्रह्म से ही प्रकट हुई है ! इसलिए पूज्य नवनी दा कहते थे- "Be a Whole Hearted Man !" पूर्णहृदयवान मनुष्य बनो और बनाओ।
'चैत्न्यात् सर्वं उत्पन्नं': Everything arises from consciousness. अनेकता या विविधता ही सृष्टि का आधार है, इसीलिये सृष्ट जगत में स्वाभाविक तौर पर विविधतायें रहती हैं। सृष्टि का अर्थ ही होता है, भिन्न भिन्न प्रकार की वस्तुऐं, अनेकों प्रकार के नाम-रूप । विविधताओं से रहित सृष्टि की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि प्रारंभ होने से पूर्व इसके उपादान तत्त्व सन्तुलन में थे तथा बिल्कुल साम्यावस्था थी। उस अवस्था में जब एकमेवा-द्वितीय ब्रह्म या पूर्ण (the Absolute, परम् सत्य या ईश्वर) को छोड़ कर दूसरी कोई वस्तु थी ही नहीं, तब नैसर्गिक रूप से सभी एक समान थे। किन्तु जैसे ही उस आद्य साम्यावस्था में विक्षोभ उत्पन्न हुआ, कि सृष्टि का प्रकटीकरण और विस्तार होने लगा।
[ सच्ची घटना : दूसरों की भलाई की बात सोचना, दूसरों का हित सोचना ही महा मन्त्र है : कोरोना के समय जब फिज़िकल पाठचक्र दो साल से बन्द था ,हमलोगों के झुमरीतिलैया ऑफिस के ठीक दरवाजे पर एकबार मधुमक्खियों ने बहुत बड़ा छत्ता बना दिया था। जब हमलोग अन्दर घुसना चाहे तो सेक्रेटरी अजय अग्रवाल एकदम सिर को नीचे करके घुसा और लाईट जलाया। जैसे ही लाईट जलाया, सारी मधुमक्खियाँ अन्दर आने लगीं। मैंने मजाक में हँसते हुआ कहा " हे मधुमखियौं हमलोग तुम्हारा कोई अहित नहीं करेंगे। तूम भी हमलोगों का अपकार नहीं करना।” अजय अग्रवाल भाई ने कहा कि क्या वे समझेगी ? इसके नीचे आग जलाकर भगा देना चाहिए। बलराम मिश्रा (DAV) ने कहा वे एक खास मौसम समाप्त होने के बाद खुद चली जाएँगी। हम सबों ने सुदीप, पिन्टू, धर्मेन्द्र सिंह, प्रेम से और निष्कपट भाव से, हँसते हुए यह बात मधुमख्खियों से कह दिया। बाहर का लाईट जला देने पर खुद बाहर चली गयीं। प्रमाणित हो गया कि मधुमक्खियाँ भी हृदय की भाषा समझतीं हैं ! केवल दिल खोल कर -उनके साथ, सहृदयता पूर्वक वार्तालाप करना पड़ा । उन मधुमक्खियों के अंदर तथा हमारे अंदर एक ही आत्मा का निवास है, इसे जानना चाहिए। दूसरों की भलाई की बात सोचना, दूसरों का हित सोचना ही महा मन्त्र है। अपने मन में नकारात्मक सोच हम न सोचें, और दूसरों के मन में भी सकारात्मक विचार भरने की चेष्टा करें तो सदैव हमारा मन्त्र फलीभूत होगा। किसी पेपर पिन बनाने वाली फैक्ट्री के मालिक ने एकबार पूज्य नवनीदा को बताया था कि यद्यपि सारे पेपर पिन एक ही ऑटोमेटिक मशीन द्वारा निकलते हैं, तथापि बनावट की दृष्टि से प्रत्येक पिन का हत्था या नोक एक दूसरे से भिन्न हो जाता है।]
हमारे देश के शास्त्रों के अनुसार एक मात्र ब्रह्म या पूर्ण (the Absolute) वस्तु से यह सारी सृष्टि प्रकट या अभिव्यक्त (Manifested ) हुई है -
ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।
ॐ शांति: शांति: शांतिः
(ईश उपनिषद)
- अर्थात वह 'परब्रह्म' (अल्ला,गॉड या ईश्वर) जो दिखाई नहीं देता है, वह अनंत और पूर्ण है। क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। यह दृश्यमान जगत भी अनंत है। उस अनंत से ही विश्व-ब्रह्माण्ड बहिर्गत हुआ। यह अनंत विश्व उस अनंत से बहिर्गत होने पर भी अनंत ही रह गया है!
इसका तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टि के प्रारम्भ से पहले केवल साम्य और संतुलन की अवस्था थी। "जन्मादि अस्य यतः" - (जन्मादि) जन्म-मृत्यु आदि (अस्य यतः) अर्थात जिससे इस समस्त संसार की उत्पत्ति एवं प्रलयादि होती है, वह ब्रह्म है। उस समय जब केवल एक ही वस्तु विद्यमान हो, उस समय समता न हो, ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन जैसे ही उस मौलिक या आदि साम्यावस्था (Fundamental equilibrium) में विक्षोभ उत्पन्न हुआ कि, उसी क्षण सृजन-लीला का प्रारम्भ हो गया। स्पष्ट है कि ब्रह्म या आत्मा की शक्ति से ही सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी, अंतरिक्ष, वायु, प्राणियों के शरीर आदि उत्पन्न होते हैं। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि पूर्ण से सृजन, अभिव्यक्ति या प्रकटीकरण (Manifestation) के किसी भी स्तर में, पशु से लेकर मनुष्य या देवता तक विविधताओं का अस्तित्व तो रहेगा ही। इस वैषम्य को कभी टाला नहीं जा सकता, किन्तु हमें यह बात भी समझनी होगी कि इसी अनेकता में एकता भी छुपी हुई है। इस मूल बात को हमे अपने मन में बैठा लेना होगा।
(1.3)>>>Truth is of two kinds: [The Absolute (Transcendental) and Relative truth.] नश्वर (असत नहीं- मिथ्या) और शाश्वत सत्य , परिवर्तनीय और अपरिवर्तनीय सत्य, 'इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य', सापेक्षिक सत्य और पूर्ण सत्य।"
[वैज्ञानिक और आध्यात्मिक सत्य ^* क्योंकि संसार के सभी पदार्थ परिवर्तन-शील हैं किंतु परिवर्तन का नियम भी अपरिवर्तनीय नियम से बँधा हुआ है, जिसके कारण सूर्य-चंद्र गतिशील हैं। पृथ्वी अपने अक्ष पर 23½° झुकी होने के कारण और सूर्य की परिक्रमा करने के कारण, सूर्य से मिलने वाली ताप की मात्रा बदलती रहती है। और इससे ऋतु-परिवर्तन होता है। इसीलिए सूर्य, पृथ्वी, चन्द्र आदि ग्रहों को ऋत का पालन (ईश्वरीय नियम का पालन) करने वाला कहा गया है। पृथ्वी स्वयं अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर लगभग 1700 kms/ per hour की दर से घूमती है, और सूर्य के चारों ओर परिक्रमा भी करती है। संसार में जो कुछ भी है वह सब ऋत के नियम से बँधा हुआ है। इस ऋत के नियम (ईश्वरीय नियम ) का उल्लंघन करना असंभव है। ]
स्वामीजी ने कहा है " सत्य के दो भेद हैं-- 1. पहला वह सत्य जिसे मनुष्य अपनी पंचेन्द्रियों के माध्यम से, और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण करता है। जैसे डाली से टूटकर सेव नीचे ही क्यों आया, ऊपर क्यों नहीं गया ? इस प्रकार इन्द्रियों (दर्शन-इन्द्रिय) की गवाही, एवं तर्क -आधारित अनुमान के द्वारा संकलित ज्ञान को विज्ञान कहते हैं। [जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम (Law of gravitation) को विज्ञान और न्यूटन को वैज्ञानिक कहते हैं ! ]
2. दूसरा वह सत्य जिसे अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति या 'आध्यात्मिक शक्ति' के द्वारा ग्रहण किया जाता है। 'which is cognizable by the subtle, supersensuous power of Yoga.' यह 'अतीन्द्रिय ज्ञान ' जिस मनुष्य में आविर्भूत अथवा प्रकशित होती है, उसका नाम है ऋषि, और उस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जिस अलौकिक सत्य (अविनाशी,पूर्ण -सत्य) की अनुभूति करते हैं, उसका नाम है -'वेद'। इस ऋषित्व तथा वेद-दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में जब तक इस वेद-दृष्टत्व का विकास नहीं होता, तब तक 'धर्म' केवल 'कहने भर की बात' है; एवं समझना चाहिये कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान भी पैर नहीं रखा है। (खंड १०/१३९)
--स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव कर लेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - " मृत्यु-भय तथा वासना और धनदौलत (Lust and lucre) का लालच नहीं रहने, (तीनो ऐषणाओं से अनासक्त हो जाने) पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता ! " (१/४०)
स्वामी विवेकानन्द ने भी पूछा था - `कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।' हे भगवन , भला किसको जान लेने पर यह सबकुछ जान लिया जाता है ? उनके गुरु श्रीरामकृष्ण कहते हैं , जिसने अपने जीवन के समस्या द्वय- "मृत्यु का भय और वासना और धन (Lust and lucre) में आसक्ति की समस्या को हल कर लिया है। अतीन्द्रिय सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए एक ऐसे व्यक्ति के चरणों के पास बैठकर शिक्षालाभ करना आवश्यक है , जिसने स्वयं उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। तथा जगत के करणरूपी उस भूमा को जान लिया है, जिनकी ज्ञान-पिपासा तृप्त हो गयी है और जो दूसरों को भी तृप्त करने में समर्थ हैं। [वि० चरित ५०]
स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो धर्म महासभा में 15 सितम्बर,1893 को 'हमारे मतभेद का कारण' विषय पर बोलते हुए 'कुँए का मेंढ़क' नामक एक कहानी सुनाई थी-
एक कुएँ में बहुत समय से एक मेंढ़क रहता था। वह वहीं पैदा हुआ था और वहीं उसका पालन-पोषण हुआ, पर फिर भी वह मेंढ़क छोटा ही था। धीरे-धीरे यह मेंढ़क उसी कुएँ में रहते- रहते मोटा और चिकना हो गया। अब एक दिन एक दूसरा मेंढ़क, जो समुद्र में रहता था, वहाँ आया और कुएँ में गिर पड़ा।
"तुम कहाँ से आये हो?"
"मैं समुद्र से आया हूँ।"
"समुद्र! भला कितना बड़ा है वह? क्या वह भी इतना ही बड़ा है, जितना मेरा यह कुआँ?"
और यह कहते हुए उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी। समुद्र वाले मेंढ़क ने कहा, "मेरे मित्र! भला, सुमद्र की तुलना इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार कर सकते हो?"
तब उस कुएँ वाले मेंढ़क ने दूसरी छलाँग मारी और पूछा, "तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा हैं?" समुद्र वाले मेंढ़क ने कहा, "तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती है?"
अब तो कुएँ वाले मेंढ़क ने कहा, "जा, जा! मेरे कुएँ से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है! झूठा कहीं का? अरे, इसे बाहर निकाल दो।"
यही कठिनाई सदैव रही है। मैं हिन्दू (अर्थात सामान्य मनुष्य की तरह एक मूर्तिपूजक) हूँ। मैं अपने क्षुद्र कुएँ में बैठा यही समझता हूँ कि मेरा कुआँ ही संपूर्ण संसार है। ईसाई भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए यही समझता है कि सारा संसार उसी के कुएँ में है। और मुसलमान भी अपने क्षुद्र कुएँ में बैठे हुए उसी को सारा ब्रह्माण्ड मानता है।
...किन्तु 'अनेक और एक', विभिन्न समयों पर विभिन्न वृत्तियों में मन के द्वारा देखा जाने वाला एक ही तत्व है। " जो भगवान को केवल निराकार मानते हैं, और जो भगवान को केवल साकार समझते हैं- उनकी मानसिक अवस्था 'कुएं के एक मेंढक' जैसी हो जाती है! उसी सत्य को श्रीरामकृष्ण ने इस प्रकार व्यक्त किया है - " ईश्वर साकार और निराकार, दोनों ही है। ईश्वर वह भी है, जिसमें (मनुष्य में ?) साकार और निराकार दोनों ही समाविष्ट हैं। "
यही बात उनके गुरु श्री रामकृष्णदेव ने ( 12 अप्रैल, 1885 ) को केशव सेन के अनुयायी, गीतकार और गायक एक निराकारवादी ब्रह्मसमाजी त्रैलोक्य नाथ सान्याल की मानसिक अवस्था के विषय में कही थी। पूरी घटना श्रीरामकृष्ण कथामृत /वचनामृत-परिच्छेद 112 में इस प्रकार है-
श्री रामोकृष्णो (गिरीश, मणि ओ अन्यान्य भक्त देर प्रति-'रामोकृष्णो' अपने गुरुदेव से तीन बार में नाम पुकारना सीखा ?) - " एर बुद्धि केमोन जानो ! एकटा पातकूयार बैंग कोखोनो पृथिबी देखे नाई ; पातकूयाटि जाने; ताई विश्वास कोरबे ना जे, एकटा पृथिबी आछे। भगवानेर आनन्देर सन्धान पाय नाई, ताई 'संसार , संसार ' कोरछे।"
हिन्दी अनुवाद, श्रीरामकृष्ण - (गिरीश, मणि और दूसरे भक्तों से) - ये लोग (मूर्तिपूजा नहीं मानने वाले ब्रह्मसमाजी लोग) कैसे हैं, जानते हो ? कुएं के एक मेंढक ने यह नहीं देखा कि पृथ्वी कितनी बड़ी है; वह बस कुआँ पहचानता है । इसीलिए वह यह विश्वास करता ही नहीं कि पृथ्वी भी कोई चीज है । ईश्वर के आनन्द का पता नहीं मिला, इसीलिए संसार-संसार (Lust and Lucre) रट रहा है।
MASTER (to Girish, M., and the other devotees): "Do you know what these people are like? They are like a frog living in a well, who has never seen the outside world. He knows only his well; so he will not believe that there is such a thing as the world. Likewise, people talk so much about the world (Lust and Lucre) because they have not known the joy of God.
[किसी भक्त ने श्रीश्री माँ सारदा देवी से पूछा था - "अनन्त ईश्वर को (छू कर) कैसे जानें ? आत्म-प्रयास से या दैवीय अनुग्रह से ?" श्री माँ ने उत्तर दिया था - "कोई मनुष्य अनन्त ईश्वर को केवल उनकी ही कृपा से जान सकता है। [या नेता वरिष्ठ 'C-IN-C' Nabani Da की कृपा से ही जान सकता है], लेकिन एकाग्र्यता का अभ्यास, या ध्यान और जप का अभ्यास करना चाहिए। ये मन की अपवित्रता (अशुद्धियों) को दूर करते हैं।"
आत्म-प्रयास और दिव्य अनुग्रह [SELF-EFFORT AND DIVINE GRACE : Mother: “One can know God only by His grace , But one must practise meditation and Japa. These remove the impurities of the mind. -- Sri Sri Ma Sarda devi]
द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले ।
अंधा देखे, लंगड़ा चल कर पँहुचे काशी रे ।।
🙏(1.4)>>> What is the theory of evolution? " Life is the unfoldment and development of a being under circumstances tending to press it down. स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " जो ब्रह्म अनन्त असीम है , वह सीमित, ससीम कैसे हुआ? अब मैं इसी प्रश्न को लेकर आलोचना करूँगा। अनन्त सीमित कैसे हुआ , यह प्रश्न ही भ्रमात्मक और स्वविरोधी है। हमलोग यह जानते हैं कि ब्रह्म ही जगत हो गया है।
ब्रह्म और जगत
The Absolute and Manifestation
सत्य-मिथ्या विवेक और श्रद्धा
इन्द्रियातीत सत्य और अभिव्यक्ति
यह ब्रह्म (A - पूर्ण, परम् सत्य, 100 % unselfishness, या प्रेमस्वरूप ईश्वर) ही, देश-काल-निमित्त (C-कार्य-कारणवाद की धारणा) में से होकर आने से जगत (B) बन गया है। यही अद्वैतवाद की मूल बात है। " हमलोग ब्रह्म को देश-काल-निमित्त रूपी चश्में से देख रहे हैं , और इस प्रकार नीचे की ओर देखने पर ब्रह्म (आत्मा) हमें जगत के रूप में दीखता है।"
क्रमविकासवाद का सिद्धान्त क्या है ? इसके दो प्रमुख अवयव हैं। एक है प्रबल अन्तर्निहित शक्ति (निःस्वार्थपरता-प्रेम ) , जो अपने को व्यक्त करने की चेष्टा कर रही है, और दूसरा है बाहर की परिस्थितियाँ और परिवेश का दबाव (घोर स्वार्थपरता या तीनों ऐषणाओं के लालच-जन्य घृणा-द्वेष-कामक्रोध का दबाव), जो उसे अवरुद्ध किये हुए हैं, जो उसे व्यक्त नहीं होने देतीं। इस बाह्य परिवेश के दबाव को हटाकर व्यक्त हो जाना ही जीवन है।
(1.5) >>> Education and Religion :
स्वामी विवेकानन्द (3 मार्च, 1894 को शिकागो से -सिंगारवेलु मुदलियार उर्फ़ "किडी" को लिखा गया पत्र) में कहते हैं -
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता (perfection Unselfishness 100 %) की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है। [ इसीलिए उपनिषद परम्परा (तैत्तरीय-परम्परा) में दी जाने वाली शिक्षा का नाम है 'शीक्षा'! ]
और धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व (Divinity> निःस्वार्थ प्रेम या LOVE 100%) की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है। अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक/नेता का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसा मैं कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है-रास्ता साफ कर देना--शेष सब भगवान ही करते हैं।
अर्थात " Be and Make परम्परा में प्रशिक्षित माली , पैगम्बर, जीवनमुक्त शिक्षक (नेता वरिष्ठ प्रमोद दा ) का काम है खर-पतवार साफ कर देना, जड़ को सींचना शेष सब काम यानि जीवन-पुष्प के प्रस्फुटन का काम भगवान स्वयं करते हैं।]
पूर्ण निःस्वार्थपरता (100 %) से शून्य की (0%)ओर अग्रसर होना घोरस्वार्थपरता की ओर अग्रसर होना पशुता है; तथा मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माण, जीवनगठन की प्रक्रिया द्वारा बाह्य परिस्थितियों और परिवेश के दबाव को हटाकर, अर्थात 'Lust and Lucre' में अपनी आसक्ति/लालच को कम करते हुए, 100 % निःस्वार्थपर बनने की दिशा में अग्रसर होना, या ह्रदय कमल को पूर्ण विकसित करने की ओर अग्रसर रहना ही देवत्व का जीवन है!
इसी जन्म में पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवत्व तक की ऊंचाई (लक्ष्य) तक पहुँचने की यात्रा, भावी नेता की अंतर्निहित पूर्णता (100% निःस्वार्थता, दिव्यता, ब्रह्मत्व) को प्रकट करने की क्षमता पर निर्भर करती है। [अर्थात घने अहं (काचा आमि) को पारदर्शी अहं (पाका आमि) बना लेने की क्षमता पर , यानि सब भूतों में वही प्रेममय हैं - यह देखने की क्षमता पर निर्भर करती है। [To be a Leader means to be a Heart-Whole-Man >एक आध्यात्मिक शिक्षक या नेता होने का अर्थ है बाह्य परिस्थितियों और परिवेश के दबाव (कामिनी-कांचन में आसक्ति के दबाव को हटाकर) ह्रदय कमल को पूर्णविकसित कर लेना अर्थात (100% selflessness of Heart) वाला व्यक्ति बन जाना। इस लक्ष्य पर पहुँच जाना 40 वर्ष साधना या आयु पर निर्भर नहीं करता ईश्वर की कृपा और अपने हौसला दोनों पर निर्भर करता है। (आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग क्षमता, आत्म-प्रयास और दैवी-कृपा, Self-effort and Divine-grace पर निर्भर करता है। )
[LOVE or Unselfishness tending towards zero is animality; and LOVE or Unselfishness tending from 50% to 100% is divinity (godliness) !] उठो जागो और लक्ष्य प्राप्त किये बिना रुको मत, विश्राम मत लो !
मंजिल उन्हीं को मिलती है, जिनके सपनों में जान होती है।
पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से (आत्मश्रद्धा से) उड़ान होती है।
यद्यपी सभी मनुष्य एक ही 'वस्तु' (ब्रह्म या आत्मा ) द्वारा निर्मित हुए हैं, तथापि व्यक्तावस्था में पूर्णता की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता ही है। इसी पूर्णता की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहने के कारण इस सृष्ट जगत में -सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, और धार्मिक दृष्टि से समाज में एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य की अवस्था में असामनता (Differences) दिखाई देती है ।
इस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहने के कारण ही , एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिकदृष्टि से भी अन्तर रहता है, और इसी आधार पर उनके चेहरे की बनावट, क्षमता और रूचि में भी असंख्य अंतर रहता है। इसी प्रकार जगत में, पशु, साधारण मनुष्य और मार्गदर्शक नेता या आध्यात्मिक शिक्षक की अवस्था में असामनता तो है, किन्तु अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को पूर्णतः अभिव्यक्त करने की जो सम्भावना और क्षमता मानव-मात्र में निहित है।
इस तथ्य को स्वीकार करके ही हमें आगे बढ़ना होगा। इसीलिये हमारा सारा प्रयास इसी बात के लिये होना चाहिये कि सतही तौर से दिखाई पड़ने वाले समस्त ऊँच-नीच आदि असमानताओं की उपेक्षा करके सम्पूर्ण विश्व में एक सार्वभौमिक समानता एवम वैश्विक साम्यभाव [~ " वसुधैव कुटुंबकं " का भाव] स्थापित हो जाय।
और यही नेतृत्व का उद्गम एवं नेतृत्व की मौलिक अवधारणा है ! इसीको आधार बनाकर हमलोगों का आत्मविकास,समाज-कल्याण और मानव-कल्याण के सभी प्रयास संचालित करने होंगे। इसलिए महामण्डल आंदोलन की समस्त गतिविधियाँ और कार्यक्रम (प्रशिक्षण -पाठ्यक्रम) भी नेतृत्व के इसी मौलिक सिद्धान्त - 'सार्वभौमिक ब्रह्मवाद' के आधार पर संचालित होती रहेंगी ।और इसी उद्देश्य को ठीक से समझबूझ कर उसको आत्मसात करके अभिव्यक्त करने का उपाय है -" बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय -चरैवेति,चरैवेति !"
🔱🙏(1.6) >>>starting point for Cultivation of 3H Development [Humanity, Selflessness or LOVE – Evolution Training starting point] : किन्तु, थोड़ा रुककर हमें पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि इस कार्य [Leadership Training] का प्रारम्भ समाज के किस स्तर पर रहने वाले व्यक्ति से किया जाय ? यदि गम्भीरता से इस बात पर विचार किया जाय तो हम पायेंगे कि जो मनुष्य 3H विकास की साधना [मनुष्यत्व, निःस्वार्थपरता या निःस्वार्थ -प्रेम की -क्रमविकास) की साधना में , दूसरों की अपेक्षा जो सर्वाधिक निम्नावस्था से, जो थोड़े ऊँचे स्तर पर पहुँच चुके हों, वहीं से इस कार्य को प्रारम्भ करना अच्छा होगा। क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में थोड़े उन्नत हो गए हैं, वे अपने से निम्न सोपान पर खड़े भाइयों को हाथ पकड़ कर ऊपर उठा सकते हैं। नेता और नेतृत्व की यही मौलिक अवधारणा है। और सच्चे नेतृत्व की उत्पत्ति भी यहीं से होती है। युगों -युगों में मानवजाति के सच्चे नेता हुए हैं , जिन्होंने पथ-प्रदर्शक बनकर मनुष्य का जीवन लक्ष्य क्या है तथा उसे प्राप्त करने के उपाय को युवावर्ग के सम्मुख सरल भाषा में रखा है। उन्हीं में से कुछ को आज हमलोग श्रीराम, पार्थसारथी श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मोहम्मद, श्रीचैतन्य, श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के नाम से जानते हैं। ये सभी मनुष्य जाति के सच्चे नेता हैं।
मानव समाज की समस्त ऊर्जा युवाओं में निहित है, जिस प्रकार अग्नि की लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रसिता शक्ति होती है, ठीक उसी प्रकार यौवन का जीवन भी अत्यन्त चंचल और जोशीला होता है। किन्तु कोई भी शक्ति नियंत्रण में नहीं रखने से कार्यकर नहीं होती । इसलिए युवाओं की चंचलता एवं यौवन के जोश से असहज होकर कुछ बुजुर्ग उनकी भर्तस्ना करके उन्हें शान्त करने की चेष्टा करते हैं। कुछ लोग उन्हें - झूठी प्रशंसा या वाह-वाही पाने के उद्देश्य से की गयी समाज-सेवा [अन्नदान -वस्त्रदान- Amphan Cyclone आदि रिलीफ वर्क] में लगाकर या हर साल 12 जनवरी को युवा-महोत्सव में नाच-गान आयोजित करने के काम लगा देने की चेष्टा करते हैं।]
आधुनिक युग में भगवान (श्रीरामकृष्ण) ही सबसे प्रथम युवा नेता थे, जिन्होंने कटुवचनों से युवा शक्ति की कभी पीड़ित-प्रताड़ित नहीं किया, अपितु जैसा अग्नि का आह्वान करते हुए,वेदों में कहा गया है -' नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥ ऋग्वेद १.२६.२॥ - अर्थात हे सदा 'यविष्ठ' रहने वाले,तरुण रहने वाले अग्निदेव! आप हमारे सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता, भावी नेता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर मेरे स्तुति वचनो का श्रवण करें॥ यज्ञ का अर्थ होता है त्याग के द्वारा सम्पादित कर्म। (यानि निःस्वार्थभाव से, या अनासक्त भाव से सम्पादित समाज सेवा।) जिन्होंने अपने स्तुति-वचनों से 18 वर्ष के तरुण नरेन्द्र नाथ के यौवन ऊर्जा को समाजोपयोगी बनाकर भावी नेता नेता के रूप में उनके जीवन गठित करके उन्हें 'यविष्ठ' --चिर युवा रहने वाले स्वामी विवेकनन्द में रूपान्तरित कर दिया था ! फिर स्वामीजी ने अग्निस्वरूप युवा-समुदाय को, 'उत्तिष्ट-जाग्रत ' जैसे दीप्तिमान (ओजस्वी) स्तुति -वचनों के द्वारा, उन्हें उनकी अन्तर्निहित शक्ति के संबन्ध में जाग्रत करने के लिए प्रेरित करने का संकल्प लिया है।
जब हमलोग अंग्रेजी में Leader शब्द लिखते हैं, तो कैपिटल L से उसकी शुरुआत करनी पड़ती है। अंग्रेजी भाषा के ' L' अक्षर से शुरू होने वाला सबसे सुन्दर शब्द है - LOVE प्रेम। एक बार स्वामी विवेकानन्द से बार बार अनुरोध किया गया कि अपने गुरु श्रीरामकृष्ण के ऊपर कुछ कहिये। वे उनके परम- प्रेम के धन थे, उनके पथ-प्रदर्शक और गुरु (guide and teacher) थे, उनके सर्वस्व थे -उनके लिए उन्होंने अपना सारा जीवन न्योछावर कर दिया था। किन्तु, उनके बारे में एक शब्द बोलने में भी स्वामीजी अपने को असमर्थ पा रहे थे, वैसे तो वे जगत के विभन्न विषयों पर लम्बे व्याख्यान दे सकते थे, कई ग्रन्थ लिख सकते थे, किन्तु उन्होंने कहा मैं उनके विषय में कुछ नहीं कह सकता। उनको संकोच हो रहा था कि उनके मुख से निकला कोई शब्द उनके जीवन-सर्वस्व उनके मार्गदर्शक नेता की महानता को, उनकी महिमा को कहीं सीमित तो नहीं कर देगा ? वे तो इतने विशाल हैं, इतने अगाध समुद्र जितने गहरे हैं, आकाश जैसे अनन्त हैं ! उनकी सर्वव्यापकता को कैसे मापा कैसे जाय, वे सोच भी नहीं पा रहे थे कि उस विशालता को शब्दों में व्यक्त किया जाय? बहुत अनुरोध करने पर अपने नेता के अद्भुत व्यक्तित्व को केवल एक शब्द में व्यक्त करते हुए कहा था -वे 'LOVE' हैं, श्रीरामकृष्ण मूर्तमान प्रेम हैं !-Sri Ramakrishna is Love Personified! "
🔱🙏(1.7) Are you unselfish? That is the question !
प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थी हो ? प्रश्न तो यह है कि क्या तुम्हारी ज्ञानपिपासा चातक पक्षी की तरह केवल स्वाति-नक्षत्र की बूँदों से तृप्त हो चुकी है ? प्रश्न तो यह है कि क्या तुमने दोनों प्रकार के सत्य के बीच का अन्तर अनुभव कर लिया है ? अर्थात क्या तुमने 'इन्द्रियातीत सत्य और इन्द्रियग्राह सत्य' ब्रह्म और जगत या (The Absolute and Manifestation) के बीच एकत्व का अनुभव कर लिया है ? अथवा क्या तुम्हें नित्य-लीला विवेक, सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेक हो चुका है? [ प्रश्न तो यह है कि " Be and Make परम्परा " में प्रशिक्षित किसी आध्यात्मिक शिक्षक, नेता या माली की ज्ञानपिपासा क्या केवल स्वाति की बूँदों अर्थात स्वामीजी या नवनीदा के उपदेशों से तृप्त हो चुकी है ?]
बालक शुकदेव उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजे गए। इधर राजा जनक को यह मालूम था कि व्यासमुनि का पुत्र उनके पास तत्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने आ रहा है। इसलिए उन्होंने पहले से ही कुछ प्रबंध कर रखा था। वहाँ अपमान-सम्मान दोनों मिला परन्तु शुकदेव के प्रशान्त चेहरे पर तनिक भी अन्तर न हुआ। इसके बाद उन्हें राजा के सम्मुख लाया गया, वहाँ नाच-गान तथा आमोद-प्रमोद हो रहे थे। राजा ने बालक शुक के हाथ में लबालब दूध से भरा हुआ एक कटोरा दिया और कहा - इसे लेकर दरबार की सात बार प्रदिक्षणा कर आओ , पर देखना कि एक बूँद भी दूध न गिरे। वे संगीत की ध्वनि एवं अनेक सुन्दरियों के बीच सात बार चक्कर लगा आये पर दूध की एक भी बूँद न गिरी। तब राजर्षि जनक ने कहा -वत्स जो कुछ तुम्हारे पिता ने सिखाया है, तथा तुमने स्वयं सीखा है, उसकी पुनरावृत्ति मात्र मैं कर सकता हूँ। तुमने 'सत्य' को जान लिया है, अपने घर वापस जाओ।" तुम्हारी ज्ञानपिपासा तृप्त हो चुकी है !
कोई व्यक्ति सच्चा नेता केवल तभी बन सकता है, जब उसके हृदय में इस अनन्त प्रेमाग्नि के एक छोटे से स्फुलिंग या प्रेम के उस छोटे से कण की अनुभूति प्राप्त हुई हो। जिस व्यक्ति के हृदय में इस प्रेम का एक छोटा सा अंश 'spark of Love' भी विद्यमान नहीं है, वह कभी दूसरों को उन्नततर मनुष्य बनने, आत्म-विकास करने या अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते। अब हमलोग यह समझ सकते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद, प्रेममय श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि नेता, गुरु , पथ-प्रदर्शकों उसी अनन्त प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियां थे। उन विविध नाम-रूपों में, या विशाल तरंगों की विभिन्न आकृतियों में केवल अनंत प्रेम-सिन्धु ही मूर्तमान हुआ था।
🔱🙏(1.8)>>> Spiritual Teachers must be Unattached to Lust And Lucre : परन्तु हम त्यागी बने बिना आध्यात्मिक शिक्षक (Spiritual Leader) बनना चाहते हैं। हम स्कूल की पढ़ाई पास किये बिना कॉलेज में जाना चाहते हैं। We want to rush to the college before we finish the school. यदि गृहस्थआश्रम में रहते समय भी निःस्वार्थपरता हममें 0 % हो और भोग-विषयों में घोर स्वार्थी पशुओं जैसी लालच 100 % है। तो हमें चरित्र-निर्माण और जीवनगठन करते हुए पहले 50 % निःस्वार्थपरता अर्जित करके पहले पशु से 'मनुष्य' बनना होगा। अनासक्त -गृहस्थ बने बिना, (C-IN-C नवनीदा जैसा वेशभूषा धारण कर) आध्यात्मिक शिक्षक बन जाने 100 % निःस्वार्थी बन जाने का दिखावा नहीं करना चाहिए। क्योंकि ईश्वर के आनंद को प्राप्त किये बिना हम तीनों इच्छाओं (ऐषणाओं) को काकविष्ठावत् घृणित समझकर त्याग नहीं सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि देवत्व, ईश्वरत्व, बुद्धत्व की प्राप्त करने का मार्ग भी ज्ञानपिपासा की पूर्ण तृप्ति (सन्तोष) से ही निकलता है!
क्या हमलोग भी नेता नहीं बन सकते ? क्या उस अनंत प्रेम का एक छोटा सा अंश भी अपने हृदय में जागृत नहीं कर सकते ? क्या अपने आस-पास रहने वाले लोगों से थोड़ा भी प्रेम नहीं कर सकते ? क्या हम उन्हें इस अनित्य और दुःखपूर्ण संसार के कष्ट, अभाव और विवशता के दल-दल से निकलने में उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते,उन्हें थोड़ा भी ऊपर नहीं उठा सकते ? निश्चय ही हमलोग ऐसा कर सकते हैं था हमें ऐसा करना ही चाहिए। हमलोगों को भी स्वामी विवेकानन्द की तरह युवाओं का पथ-प्रदर्शक अवश्य बनना चाहिए। और स्वयं को स्वामीजी का सैनिक, उनके दासों का दास सेवक-नेता बन जाने के बाद हम अपने में कितनी विनम्रता का अनुभव करेंगे! हमें इसी प्रकार के हजारों नेताओं की आवश्यकता है। अभी हमलोग कितने क्षुद्र, कितने दुर्बल, कितने अभावग्रस्त हैं ! किन्तु, यदि हमलोग स्वयं को बड़ा (बृहद या ब्रह्म) बनना चाहते हैं,तथा दूसरों को भी बड़ा (ब्रह्म पूर्ण निःस्वार्थ , प्रेममय ह्रदय) बनने में सहायता करना चाहते तो, हमें पहले महामण्डल द्वारा निर्देशित 3H विकास के 5 अभ्यासों का पालन करके अपने चारित्रिक गुणों और कार्यक्षमता को विकसित करना होगा, साथ ही साथ अपने आस-पास रहने वाले लोगों को भी ऐसा करने के लिये अनुप्रेरित करना होगा।
सच्चे नेतृत्व - के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त जानकारी से परिचित होने के बाद क्या हमें ऐसा अनुभव नहीं होता कि 'नेतृत्व की अवधारणा तथा उसकी उत्पत्ति का सिद्धान्त' एक अनिवार्य तथा महान विषय है ? वास्तव में प्रेममय श्रीरामकृष्ण-स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर, C-IN-C नवनीदा , जैसे लोग - ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ (Be and Make)आन्दोलन के महान नेता थे, और वे हमलोगों को भी इस आन्दोलन का नेता बनने के लिए अनुप्रेरित कर रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा के अनन्त प्रेम पर आधारित नेतृत्व -प्रशिक्षण का यह अभिनव सिद्धान्त 'Be and Make' आज भी क्रियाशील है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन काल में ही भविष्यवाणी करते हुए कहा था- " इस रामकृष्ण अवतार में नेतृत्व प्रशिक्षण के अभिनव सिद्धान्तों की तरंगें ऊँची उठ चुकी हैं। अनंत प्रेम के उस प्रचण्ड जलोच्छ्वास का कुछ भी प्रतिरोध न कर सकेगा, आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गयी है। निर्बाध, निःसीम, सर्वग्रासी उस प्लावन को मैं भूपृष्ठ पर अवतरित होता देख रहा हूँ। इस ज्वार ने लगभग सम्पूर्ण विश्व को ही ढक लिया है। अब इसे कोई रोक नहीं सकता, कोई भी शक्ति इन प्रेम-तरंगों को फिर से वापस समुद्रतल में ढकेल नहीं सकती। यह ज्वार आगे बढ़ते हुए सम्पूर्ण धरातल को आच्छादित कर लेगा, ये विचार सभी के मस्तिष्क में प्रविष्ट हो जायेंगे, सम्पूर्ण मनुष्य जाति (जाति-धर्म का भेदभाव किये बिना) इन विचारों से प्रभावित हो जायेगी। "
हम नेतृत्व सम्बन्धी इन विचारों को अपने जीवन और आचरण में उतारकर उस अनन्त प्रेमाग्नि के स्फुलिंग की अनुभूति करेंगे, तथा अपने साथ कुछ अन्य युवाभाइयों को भी लेकर आगे बढ़ेंगे। 'पंचभूतों के फन्दों में फंस कर जो ब्रह्म रो रहे हैं' --उन्हें भ्रम में तपता हुआ नहीं छोड़कर, अपने साथ आगे ले जाना होगा। यही है नेतृत्व का सार। श्रीरामकृष्ण कहते थे- " कुछ तख्ते इस प्रकार की लकड़ियों से बने होते हैं कि उस पर यदि एक कौवा भी बैठ जाये तो वह डूब जाता है; पर कुछ तख्ते ऐसी लकड़ियों से बने होते हैं जो स्वयं डूबे बिना अपने साथ- साथ अपने ऊपर लदे बोझ को भी नदी के उस पार तक पहुँचा सकते हैं। "
जो लोग मनुष्य जाति के सच्चे नेता होते हैं -वे इसी प्रकार के न डूबने वाले तख्ते जैसे होते हैं। वे दूसरों की जिम्मेवारी को भी अपने कन्धों पर उठा लेते हैं। तथा इसके बदले में वे कोई पारिश्रमिक, लाभ या पुरष्कार (नाम-यश) पाने की आशा नहीं रखते बल्कि केवल लोक-कल्याण की इच्छा से दूसरों का भार उठाते हैं । उनके सामने जीवन का केवल एक ही लक्ष्य रहता है - दूसरों की उन्नति, सुधार, विकास, समानता और पूर्णत्व को अभिव्यक्त करने में सहायता करना, तथा इस उद्देश्य के पीछे इच्छा और आग्रह का जो प्रेरणा श्रोत होता है, वह होता है -'LOVE'! प्रेम ही ईश्वर है ! -ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, तभी तो वे मनुष्य को ईश्वर बनाने के लिये बार बार इस धरती पर विभिन्न रूपों में (वर्तमान युग प्रेममय सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण के रूप में) अवतरित होते रहते हैं ! [God is Love, Unselfishness is God ! इसीलिए भावी नेता के हृदय में विद्यमान यह अनंत प्रेम उसे अपना ईश्वरत्व भूलने ही नहीं देते।]
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🔱🙏महामंडल का प्रतीक चिन्ह और नेतृत्व प्रशिक्षण 🔱🙏
[Symbol of Mahamandal and Leadership training]
(2.1)>>>The Symbol of Mahamandal depicts the Ideal, Objective and Methodology of a LEADER for leading a 'New Youth Movement' capable of taking India to the highest peak of prosperity.
महामण्डल के प्रतीक चिन्ह में भारत को समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने में सक्षम एक 'नया युवा आन्दोलन' का नेतृत्व करने वाले 'नेता' (C-IN-C नवनीदा) के आदर्श, उद्देश्य और कार्यप्रणाली को दर्शाया गया है।
'एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण' करने, या भारत को समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर आसीन करने वाले 'नए युवा आंदोलन' का नेतृत्व करने के लिए किसी नेता का ' आदर्श, उद्देश्य और कार्य-प्रणाली' (Ideal, Purpose and Methodology) क्या होना चाहिए- इन समस्त बातों को,"महामंडल युवा प्रशिक्षण शिविर के बैज (चपरास-Symbol) में ही अंकित कर दिया गया है। [दादा logo या emblem नहीं- 'Symbol' कहते थे ]
(2.2)>>> Paramount is the grace of C-IN-C Nabani Da : {सर्वोपरि है C-IN-C Nabani Da की कृपा] : स्वामीजी के जन्मदिन पर बारह बजे तक एक बजे रात तक लाइव टेलीकास्ट देखना , भाषण सुनना और जन्मस्थान देखना, अच्छी-अच्छी बातें सुनना अच्छा है , पर फल क्या हो रहा है ? चरित्र-निर्माण कहा हो रहा है ? हमलोगों की जीवनयात्रा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मिडिया के माध्यम से आजकल जो चल रहा है उसमें कुछ अच्छा भी है, औसधि धीरे -धीरे काम करती है , किन्तु विष बुरा का असर जहर जैसा जल्दी होता है; जिससे युवाओं का चरित्र नष्ट हो रहा रहा है। मंत्री जेल में पकड़ाने पर ED से से कहता है दूध बेचकर और छत पर गार्डन में गोभी लगाकर, लॉटरी का टिकट से 170 लाख कमाया है। जी.के. क्या है ? आजकल पूजा सिंघल, पार्थो चटर्जी, अणुव्रत मण्डल -हरि अनंत, हरि कथा ....यहीं पर मनुष्य जीवन का उद्देश्य , चरित्र -निर्माण और जीवन-गठन (Individual life building) की शिक्षा तथा उसकी पद्धति सिखलाने वाले प्रेमस्वरूप मार्गदर्शक नेता, (जीवनमुक्त शिक्षक, नबियों, पैगम्बरों-ब्रह्मविदों) की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है।
(2.3) >>>"5 Practices for 3H Growth" (3H विकास के 5 अभ्यास")
घनीभूत भारत स्वामी विवेकानन्द ने भारत कल्याण के लिए जिस प्रकार से युवाओं को 'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण ' की शिक्षा देने के लिए कहा था, जिसकी चेष्टा महामण्डल में की जाती है ; वह है मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं -`शरीर, मन और ह्रदय' का विकास। युवाओं को सरलभाषा में समझाने के लिये उन्होंने "3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण" देने के लिये कहा था, सीधा 'आत्मा' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। आत्मा के विषय में उन्होंने अन्यत्र बहुत कुछ कहाँ है , यहाँ (खुले सत्र में या आर्डिनरी कैंपर्स के सामने) उसकी चर्चा करने का समय नहीं है , और इस पर चर्चा करना आवश्यक भी नहीं है ।
शरीर को पौष्टिक आहार और व्यायाम द्वारा निरोग रखकर कर्मठ रूप में विकसित किया जा सकता है। लेकिन मन को किस प्रकार अपने वश में लाया जाता है ? मन को कैसे एकाग्र किया जाता ? मनःसंयोग की पद्धति को जानना आवश्यक है, क्यिंकि एकाग्र मन के द्वारा ही समस्त ज्ञान अर्जित होता है, स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। और मन की सहायता से मनुष्य सबकुछ कर सकता है।
लेकिन यदि पत्थल जैसा ह्रदय यदि द्रवित नहीं हुआ, ह्रदय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, हृदय का यदि विकास नहीं हुआ तब तो उसे 'मनुष्य' कहा ही नहीं जा सकता। पशु और मनुष्य में सबसे बड़ा पार्थक्य यही है कि पशु निःस्वार्थी बनकर अपने ह्रदय का विकास नहीं कर सकता, किन्तु घोर स्वार्थी मनुष्य भी अपने प्रयास और गुरु/ नेता की कृपा से पूर्णतः निःस्वार्थी बन सकता है। उदाहरण के लिये डाकू रत्नाकर, देवर्षि नारद की कृपा से आगे चलकर महर्षि बाल्मीकि हो गए थे। ( नास्तिक और स्वतंत्र विचारों वाले बंगला थियेटर के निर्देशक गिरीश चन्द्र घोष श्री रामकृष्ण देव की कृपा से बाद में ईश्वरलाभ किये थे।) लेकिन हमलोगों ने किसी बाघ के ह्रदय-वत्ता की बात नहीं सुनी है, कोई बहुत हिंसक बाघ था जो बाद में बहुत बड़ा सन्त बन गया।
(2.4 )>>>The hallmark of a leader is a big heart : नेता की पहचान है -उसका विशाल ह्रदय : जिस मनुष्य का ह्रदय जितना बड़ा और विशाल होता है, वह मनुष्य उतना ही महान और बड़ा होता है। स्वामी जी को हमलोग महान क्यों कहते हैं ? उनको युवा आदर्श क्यों मानते हैं ? उनके जैसा विशाल ह्रदय, दूसरा कभी हुआ ही नहीं है, इसलिए उनको महान या बड़ा आदमी कहते हैं! दादा कहते थे, ' मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने जन्म से ही कई प्रत्यक्ष दर्शियों से उनके जीवन से जुड़ी कई कहानी सुनी है। और जैसे जैसे बाह्यजगत के इतिहास को जानने -समझने का अवसर मिला तो समझ में आया कि उनके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति , कोई दूसरा मनुष्य पूरे विश्व मानव के इतिहास में कभी जन्मा ही नहीं है।"
इसी बात पर उड़ीसा में कुछ लड़कों ने एक बार कहा कि बिल्कुल स्वामी जी जैसा एक अन्य व्यक्ति यहाँ हैं, बहुत दूर नहीं है पास में ही रहते हैं । किस प्रकार वे बिल्कुल स्वामी जी जैसे हैं ? उनका शस्त्रज्ञान अद्भुत है , ऐसा कोई शास्त्र नहीं जो उन्होंने नहीं पढ़ा है। दर्शन शास्त्र के तो महान विद्वान् हैं। अन्य शास्त्र फिजिक्स, केमिस्ट्री , मैथेमेटिक्स ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर वे तुरंत न बता दें। त्याग ? का तो कहना ही क्या है ? किसी दिन यदि उनको भोजन न दिया जाये , तो भोजन पाने की चेष्टा भी नहीं करते। अद्भुत त्यागी हैं। सभी कॉलेज के छात्र थे , मैंने पूछा कहाँ रहते हैं ? यहाँ से बहुत नजदीक के एक जंगल में रहते हैं, कोई कोई खाने को देता है तभी खाते हैं । मैंने कहा नहीं भाई वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है , कह रहे थे चलकर स्वयं देख लीजिये। नहीं भाई जाने की जरूरत नहीं है। क्यों ? तुमलोगों की सब बात मान लेता हूँ कि वे भी स्वामी जी जैसे शास्त्रज्ञ हैं , किन्तु अभी भी वे जंगल में रहते हैं , इसलिए नहीं जाऊँगा ।[1st part..... नवनीदा को मैंने पूछा था 14अप्रैल 1992 को मैं दुबारा शरीर में क्यों आ गया ? दादा ने कहा था - शायद तुम्हारी ही इच्छा रही होगी !! ?? Why did the eternally liberated soul again take on a body ?? Why did I come back to my body on 14th April 1992? Dada had said - maybe it was your wish !]
(2.5 ) >>>Why did 'One' become Many? What is the ultimate Goal of the soul ? ईश्वर क्यों एक से अनेक हो गए? आत्मा का अंतिम लक्ष्य क्या है ? नित्यमुक्त आत्मा ने दुबारा शरीर धारण क्यों किया ? नित्यमुक्त आत्मा का अंतिम लक्ष्य जीवन मुक्ति ही होनी चाहिए। [Ay, Vivekananda scorned Mukti for himself until he could LEAD all beings in the universe to its portals. स्वामी जी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को तबतक प्रेरित /शिक्षित करते रहेंगे जब तक वह अपने घने अहं को पारदर्शी अहं में रूपांतरित करना- Transforming Thick Ego into Transparent Ego सीख नहीं लेता।]
स्वामीजी ने एक बार कहा था , अपना बाकी जीवन क्या मैं हिमालय की एक गुफ़ा में बैठकर मैं नहीं बिता सकता था ? किन्तु मैं क्या करूँ रे ? मनुष्य इतने दुःख में हैं , और मैं अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करूँगा ? केवल अपनी मुक्ति (मोक्ष) में क्या रखा है ? हाँ, विवेकानंद ने अपने लिए मुक्ति से तब तक इन्कार किया है , जब तक कि ब्रह्मांड के सभी प्राणियों को वे उस मुक्ति-द्वार तक ले नहीं जाते।
‘‘जीवन्मुक्ति-सुखप्राप्ति-हेतवे जन्म धारितम्।
आत्मना नित्यमुक्तेन न तु संसारकाम्यया॥
नित्यमुक्त आत्मा ने जीवनमुक्ति का सुख प्राप्त करने के लिए ही शरीर धारण किया है – संसार कामना के लिए नहीं। तीनों ऐषणाओं में आबद्ध होने के लिए नहीं।
भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश 'निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' के अनुसार जीवन-मुक्ति का लक्षण है अनासक्त भाव अपने समस्त कर्तव्य कर्मों का पालन करते हुए, राजसिक कामना भी नहीं, तामसिक कामना भी नहीं, केवल सात्विक कामना से, अर्थात भारत को समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने की कामना से "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाये - चरैवेति, चरैवेति।" चलते रहना है, चलते रहना है, चलते रहना हैं !
जीवन-मुक्ति का यह सर्वोच्च आदर्श भी अब मनुष्य के लिए दुरूह कल्पना की वस्तु नहीं रह गयी है। ठाकुर और माँ के आशीर्वाद तथा स्वामी जी की प्रेरणा -- 'जंग मत खाओ बल्कि घिस जाओ ----don't rust out but wear out' की दृष्टि से, किसी प्रवृत्ति-मार्गी अर्थात 'राग और संग्रह' के क्षेत्र में रहने वाले किसी अनासक्त गृहस्थ के लिए भी जीवनमुक्ति का सर्वोच्च आदर्श - अब दैनिक जीवन में व्यवहार्य हो गया है।
भगिनी निवेदिता ने विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखा है - " If the many and the One be indeed the same Reality, then.. No distinction, henceforth, between sacred (अलौकिक या पवित्र) and secular (लौकिक या सांसारिक) . To labour is to pray. To conquer is to renounce. Life is itself religion. To have and to hold is as stern a trust as to quit and to avoid.
" उनके लिए कारखाना, स्कूल, खेत-खलिहान और खेल का मैदान आदि भगवान के साक्षात्कार के वैसे ही उत्तम और योग्य स्थान हैं, जैसे साधु की कुटिया या मन्दिर का द्वार। उनके लिए मानव की सेवा और ईश्वर की पूजा, पौरुष तथा श्रद्धा, सच्चे नैतिक बल और आध्यात्मिकता में कोई अन्तर नहीं है। एक बार उन्होंने कहा था, " कला, विज्ञान और धर्म एक ही सत्य की अभिव्यक्ति के तीन माध्यम हैं। लेकिन इसे समझने के लिए निश्चय ही हमें अद्वैत का सिद्धान्त चाहिए। "
'नित्यमुक्त की भावना' के विषय में उनकी जो भावना थी, १९०२ में जब बेलूर मठ में स्वामीजी ने अपने शरीर का त्याग किया उस दिन सुबह में किसी सेवक शिष्य को कहा था थोड़ा मुझे बाहर घुमा दोगे ? बहुत दिन से मनुष्य नहीं देखा हूँ। मनुष्य से उनका तात्पर्य था साधारण मनुष्य। मैंने किसी प्रत्यक्ष दर्शी के नाती से सुना है। थोड़ा मठ के बाहर उनको बाजार की तरफ ले जाया गया , 2-4 साधारण मनुष्य - जनता जनार्दन को देखकर वापस लौट आये। उसके बाद की घटना सब जानते हैं।
जब स्वामी जी चले गए तो उनके गुरु भाई बहुत दुःखी हो गए, और रात में उनके एक गुरुभाई ने उन्हें (नवनीदा को ?) स्वप्न में देखा। वे कह रहे थे - " शशि, शशि ! क्या तुम समझते हो मैं मर गया हूँ? विश्व मानव को प्रेरित करने के लिए पुराने वस्त्र की तरह मैंने अपना शरीर छोड़ दिया है रे!" नचिकेता के बाद उनके जैसा श्रेय-प्रेय विवेक, श्रेष्ठ-सुखद विवेक (या आँवला-इमली विवेक Excellent-Pleasant Discretion) का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता , उन्होंने कहा था -" हो सकता है कि किसी पुराने वस्त्र को त्याग देने के भाँति, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं श्रेष्ठ (excellent) समझूँ। लेकिन मैं काम करना नहीं छोड़ूँगा। मैं लोगों को तब तक प्रेरित करता रहूँगा, जब तक सारी दुनिया यह न जान ले कि वह परमात्मा के साथ एक है। " (खंड 10, सूक्तियाँ एवं सुभाषित-४४)
"It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God."(Volume 5, Sayings and Utterances-44)
स्वामी विवेकानन्द के नये हिन्दू धर्म को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टि के संस्थापक M. N. Roy [ मानवेन्द्रनाथ राय ( 1887–1954)] आदि 'मानवतावाद' कहते थे, वह ठीक नहीं है, उनका धर्म है "ब्रह्मवाद" ! 'सर्व खलु इदं ब्रह्म।'...केवल मनुष्य ही नहीं ! मनुष्य तो एक बहुत छोटा प्रतीक है। जो कुछ है, ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही से सबकी उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सब लीन हो जाते हैं। ब्रह्म ही जगत् में एक मात्र सत्ता है, उसके अतिरिक्त संसार में और कुछ नहीं है। -'सर्वभूते सेई प्रेममय' और सभी में उनको देखकर प्रत्येक का जीवन-गठन करके, उसी सत्य को अंदर की सत्ता को जाग्रत करके सभी को आलिंगन करना। विश्व एक हो जायेगा। स्वामीजी का यही मूल उपदेश है। स्वामीजी के इस नए भाव को भारत ने ग्रहण नहीं किया। 'सखा के प्रति' अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -"सर्व भूते सेई प्रेममय।" ब्रह्म सर लेकर कीट परमाणु तक, सब भूतों में वही प्रेममय, व्यर्थ है खोज ,बहुरूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश ?
भारत ने उनसे केवल lip service या दिखावटी प्रेम किया। स्वामीजी का मन्दिर बनाया, पूजा किया , जन्मदिन मनाया, एक लेक्चर दिया हो गया । इससे कुछ नहीं होगा , जब तक यह भाव हमारी सत्ता के साथ एकाकार नहीं हो जाता, तब तक श्रद्धा दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा। हम सोचते हैं शायद इंग्लैण्ड, अमेरिका ने उनका भाव ग्रहण कर लिया है ? नहीं ऐसा नहीं है। कुछ समय पूर्व एक क्रिश्चियन महिला एलेनोर स्टार्क (Eleanor Stark) ने एक पुस्तक लिखी थी उस पुस्तक का नाम दिया था - 'The Gift Unopened' [उस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि स्वामी विवेकानंद ने अमेरिकी लोगों को 'ब्रह्मवाद' की नई दृष्टि से धर्म को देखने के विषय में अपना जो शक्तिदायी सन्देश दिया था, जगत को " सियाराम मय" देखने की उस दृष्टि ने, उनके जीवन को किस प्रकार हमेशा के लिए बदल दिया है। An explanation of how Swami Vivekananda brought his powerful message about a new way of thinking about religion to the American people and changed their lives forever.] उस पुस्तक में उन्होंने कहा था -कि स्वामीजी ने अमेरिका को एक गिफ्ट दिया था। उपहार दिया था, उस उपहार के पैकेट को अभी तक खोल कर देखा नहीं गया है। उन्होंने अमेरिका को अद्भुत वेदान्त देने का कठोर प्रयास किया था, इसीलिए अल्पायु में उन्हें अपना शरीर छोड़ना पड़ा। अमेरिका ने भी उनके गिफ्ट को ग्रहण नहीं किया, तो भारत ने भी नहीं किया है। भारत में अभी कई लोग हैं जिन्होंने न स्वामीजी का नाम सुना है न, ठाकुरदेव का नाम ही सुना है। यूनिवर्सिटी के टीचर भी नहीं जानते सिर्फ नाम जानने से काम नहीं उनका मूल्य समझना होगा।
प्रसिद्द समाज विज्ञानी प्रोफेसर बिनय कुमार सरकार ने शतवार्षिकी के अवसर पर अपने भाषण कहा था .... "with 5 words he conquered the west !" "स्वामी जी ने केवल 5 शब्द कह कर पाश्चात्य जगत को जीत लिया था वे शब्द थे - "Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep you are souls immortal." (Paper on Hinduism by Swami Vivekananda, Read at the Parliament on 19th September, 1893)]
"आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा, वह आत्मा जिसे शस्त्र नहीं काट सकते, अग्नि नहीं जला सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता है और वायु इसे सुखा नहीं सकती है। आप नश्वर शरीर और मन से पृथक अविनाशी आत्मा हैं। आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।" (शिकागो वक्तृता : हिन्दू धर्म - 19 सितम्बर,1893 )
"अमृतस्य पुत्राः " 'divinities on earth' यह है प्राच्य का सन्देश ! तथा 'sinners' यह है पाश्चात्य का सन्देश।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युम् एति,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, सनातन साक्षी उस सगुण ब्रह्म श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥
जिस समय स्वामी जी अमेरिका के धर्मसभा में 'पाप' (sin) के सम्बन्ध में कहा था, उस समय अमेरिकी महिला ने एक कविता लिखी थी जो बाद में एक पेपर में प्रकाशित हुई थी। वे बहुत अच्छी क्रिश्चियन महिला थीं , कविता में लिखा था -"A young man in ochre robe" उसने मेरे सब भावों को उलट दिया। मैं 'original sin' की कहानी को सुन -सुन कर के मैं अपने को 'sinner हूँ, sinner हूँ, sinner हूँ ' सोंच-सोंच कर इस वृद्धावस्था में बिल्कुल अवसादग्रस्त हो गयी थी। जगत छोड़ने के पहले मेरी आँखों के अश्रु कभी थमते नहीं थे। लेकिन स्वामी तो कहते हैं -हमलोग sinner नहीं है,उन्होंने कहा है -" नहीं, तुम sinner नहीं हो!" प्रत्येक प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' अर्थात हम लोग पापी नहीं हैं , यह सुनकर हमें नव-जीवन मिला !!
(2.6 ) >>> नया हिन्दू धर्म - (कम्युनिस्टों वाला) मानवतावाद नहीं, स्वामीजी धर्म है ब्रह्मवाद !
स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म का प्रचार करने वाले हिन्दू संन्यासी नहीं थे। वे हिन्दू धर्म का प्रचार करने के लिए अमेरिका नहीं गए थे। कम्प्लीट वर्क्स में तीन जगह लिखा है -हिन्दू धर्म नाम का कोई धर्म नहीं है। पर्सियन लोगों ने सिन्धु सभ्यता, दर्शन, संस्कृति के विषय में जब कुछ कहना चाहा तो, वे 'सिन्धु' नहीं बोल सकते थे सिन्धु उच्चारण उन्होंने हिन्दू कहकर किया। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख से निकलती है। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया।किंतु हमलोग पाकिस्तान के सिंध प्रांत में रहने वाले लोगों को आज भी सिन्धी या सिन्धु कहा जाता है। [ ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र (सात नदियों के क्षेत्र) में हुई थी, इसलिए ऋग्वेद में कई बार 'सप्त सिंधु' का उल्लेख मिलता है। ] क्योंकि पारसी लोग 'स' को 'ह' कहते थे। 'सप्त सिंधु' अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर 'हप्त हिंदू' में परिवर्तित हो गया। उनके पारसी धर्म ग्रन्थ जिन्दावेस्ता में वेदों में वर्णित 'सप्तसिन्धु' को 'हप्त हिन्दू' कहकर उल्लेख किया गया है। जैसे पूर्वी बंगाल के लोग भी शाला को हाला कहते हैं। ऐसा होता है। हिन्दू शब्द किसी शास्त्र में नहीं है। वेदों-उपनिषदों में नहीं है, रामायण या महाभारत में कहीं नहीं है। भारत का जो धर्म है उसको सनातन धर्म कहते हैं। सनातन अर्थात जो शाश्वत है -उसको किसी व्यक्ति ने जन्म नहीं दिया। कोई मनुष्य उस धर्म का संस्थापक नहीं है। जिस धर्म की स्थापना कोई व्यक्ति करता है , उसको धर्म नहीं मत या सम्प्रदाय कहते हैं। भागवत में सुंदर ढंग से कहा गया है - श्रीमद्भागवत में है - युधिष्ठिर नारद से पूछते हैं -हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, आप कृपा करके बताइये कि सनातन धर्म क्या है ?
नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मसेतवे ।
वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायण-मुखात्—श्रुतम् ॥ ७/११/५ ॥
श्लोक 5: अनुवाद- श्री नारद मुनि ने कहा : - युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। (जो अपने भक्तों के ह्रदय में विराजमान सगुण सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण के रूप में विराजमान हैं) उन नारायण भगवान् को नमस्कार कर के उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन-धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। और उन्होंने भारतवर्ष के धर्म का जो अर्थ बतलाया वह अन्य किसी देश में नहीं है -
अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषु आत्मदेवता बुद्धि: सततं कुरु पाण्डव ॥ ७/११/१० ॥
नारद कहते हैं -जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं >अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन धर्म है,सभी में देव-भाव रखना धर्म है” जगत को ब्रह्ममय देख कर, 'सीयराम मय सब जग जानी !” उनकी सेवा करना धर्म है। समस्त साधारण मनुष्यों को आत्मबुद्धि -देवताबुद्धि से देखकर सेवा करो। यही है भारतवर्ष का धर्म। देश में जो कुछ भी उत्पादन होगा, कृषि से लेकर, पनबिजली या ज्ञान आदि तक जिस किसी वस्तु का उत्पादन होगा- `भूतेभ्यश्च यथा अर्हत:' उसका यथायोग्य विभाजन करो यानि समस्त मनुष्यों को जिसकी जितनी आवश्यकता हो उतना देदो। यह बात कम्युनिज्म में कहने की चेष्टा हुई थी, लेकिन वैसा हुआ नहीं। `तेषु आत्म देवता बुद्धि ! देवता बुद्धि:! सततं कुरु पाण्डव' इन समस्त मनुष्यों को अपनी आत्मा या अपना इष्टदेव समझकर, कि ये सभी मनुष्य मेरी ही आत्मा हैं , मेरे ही इष्टदेव हैं - इनकी ही पूजा करनी होगी। 'सततं कुरु पाण्डव' - समझकर उनकी आवश्यकतानुसार उनमें वितरण कर दो, युधिष्ठिर से कहते हैं नारद । सभी जीवों (पशुओं तथा मनुष्यों) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को (विशेषतया मनुष्य को) परमेश्वर का अंश मानना।
यही हमारे देश में चलता आ रहा था। किन्तु पिछले 1000 वर्षों से कितने विदेशी आक्रांताओं -लुटेरों ने बार-बार आक्रमण किया और हमारे सिद्धान्त धूमिल हो गए। और कुछ कर्मकाण्डी गुरु ने यथार्थ धर्म को लुप्त करने की चेष्टा की थी घड़ी-घंट गंगा में फेंकने कहा था । सभी मनुष्यों में ब्रह्मदृष्टि केवल मंदिर में पूजा करने से नहीं आती ,ऐसा स्वामी जी जैसा विशाल ह्रदय नहीं होता है। स्वामीजी ने एक बार बोलते-बोलते अद्भुत बात कहा था बुद्ध की आत्मा मैं हूँ , ईसामसीह की आत्मा मैं हूँ, मुहम्मद की आत्मा मैं हूँ , और अद्वैत के महा समुद्र में ये सब एकाकार हो जाते हैं ! किसी शास्त्र में हिन्दू धर्म नाम नहीं है। क्या वे विश्व धर्म सभा में हिन्दू धर्म बोलने गए थे ?
(2.7)>> चिरयुवा बने रहने का सुनिश्चित विज्ञान (The Exact Science to remain eternally young :)
स्वामीजी ने सम्पूर्ण जगत को जो दिया है, हमने अभी तक उसे सही ढंग से समझने की चेष्टा ही नहीं की हैं। स्वामी जी को केवल 'lip service' देने से, स्वामीजी 'बहुत बड़े थे!' बोलकर उनकी शान में कसीदे पढ़ने से नहीं होगा। केवल एक भाषण में उनको महान बोल देने से उनके द्वारा सौंपा गया कार्य पूरा नहीं होगा। उनके प्रति यदि अपनी श्रद्धा व्यक्त करनी है, तो स्वामीजी के भावों का आत्मसातीकरण करना होगा, अपनी आत्मा के साथ मिला लेना होगा। और युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के भावों को अपने जीवन से व्यक्त करने का जो एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है, -उसी विज्ञान को महामण्डल के, जन्म के समय से ही उसके 'symbol' में "चरैवेति, चरैवेति" शब्द द्वारा, निर्देशित किया गया है।
[ अथवा यूँ समझें कि 'यविष्ठ' या चिरयुवा मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए गए अभियान मंत्र में सदैव युवा (यविष्ठ) बने रहने का जो एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है -उसी विज्ञान को महामण्डल के 'symbol' में नेता के अभियान मंत्र "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय- "चरैवेति,चरैवेति" द्वारा निर्देशित किया गया है। ]
आस्ते भग आसीनस्य उर्ध्वो, तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्य मानस्य चराति चरतो भगः, चरैवेति,चरैवेति ॥
[आस्= बैठ जाना। आस्ते भग आसीनस्य, ऊर्ध्वः तिष्ठति तिष्ठतः। निपद् = लेटजाना या सो जाना।शेते निपद्यमानस्य , चराति चरतो भगः , चर एव इति ॥]
अर्थ - जो सोया रहता हैं, उसका भाग्य भी सोया रहता हैं। जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी बैठा रहता हैं। जो उठकर खड़ा हो गया हैं उस का भाग्य भी उठकर खड़ा हो जाता हैं। और जो चलता रहता है , उसका सौभाग्य भी चलता रहता है, जो 'बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय “चरैवेति,चरैवेति ” विचरण में लगता है, उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए (चर एव इति) इसी प्रकार - चलते रहो। उद्यमशील मनुष्य को ही भाग्य का साथ मिलता हैं।
(2.8) >>>Where will you go? कहाँ चलेंगे ? manifestation से absolute की ओर, अर्थात जगत से ब्रह्म की ओर, अनेकता से एकता की ओर, पशुत्व (0%100 % Unselfishness) से मनुष्यत्व और मनुष्यत्व से देवत्व या पूर्णत्व (100 % Unselfishness) की ओर, मूलाधार से सहस्त्रार की ओर, अपने मार्गदर्शक नेता के नेतृत्व में अर्थात उनका अनुसरण करते हुए प्रवृत्ति से निवृत्ति अस्तु महाफला की ओर। [In service of ‘Divine in Man’/डिवाइन इन मैन' (100 %निःस्वार्थपरता) अर्थात मनुष्य मात्र के ह्रदय में सनातन साक्षी रूप से विद्यमान अपने इष्टदेव उसी प्रेममय श्रीरामकृष्ण देव, उसी ब्रह्म को पंचभूतों के फन्दों में फंसकर रोते देखकर, उनकी सेवा में स्वामीजी के जागरण मंत्र - उठो जागो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो रुको मत ' का भारत के गाँव -गाँव में स्थान-स्थान पर प्रचार-प्रसार करते रहो।
'एतावत जन्मसाफल्यं' वृक्ष के जैसा सबके सेवा अपना तनमनधन प्राणों को भी समर्पित कर देंगे।अर्थात पूरी मावता को यह बताने के लिए कि, विश्व का 'कोई मनुष्य पापी नहीं' है, 'प्रत्येक रत्नाकर अव्यक्त बाल्मीकि' है तुम विचरण करते रहो। (thus, चर एव इति) यही बताने के लिए कि -"प्रत्येक आत्मा अब्यक्त ब्रह्म है", तुम विचरण करते ही रहो । किसी राजसिक कामना से नहीं, किसी तामसिक कामना से नहीं , केवल सात्विक कामना से, केवल भारत -कल्याण की कामना से चलते रहो, चलते रहो , चलते रहो -जबतक don't rust out but wear out' 'जंग मत खाओ बल्कि घिस जाओ ---- बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय - " चरैवेति, चरैवेति"। `स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में '3H विकास के 5 अभ्यास' [Resolution does Miracles :संकल्प चमत्कार करता है] की प्रशिक्षण-पद्धति को अपने जीवन में आत्मसात करने का उपाय है 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति' करते हुए भारत के युवाओ के द्वार द्वार तक प्रचार -प्रसार में लगे रहना !
[ मेरा भी तो समय पूरा हो गया है। और कितने दिन रहूँगा ? लेकिन मेरा ह्रदय जिस आनन्द से भरा हुआ है। छोटे -छोटे भाइयों तुमलोगों से कहता हूँ , आनन्द से ह्रदय इतना भर गया है कि लगता है फट जायेगा। क्या तुमलोग जो महामण्डल से नए-नए जुड़े हो अपने जीवन गढ़ो -ठाकुर, माँ, स्वामीजी से प्राथना करता हूँ। -'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति' करते हुए, सर्व भूतों की सेवा करो, 'Be and Make' की प्रेरणा भरो !
[या देवी सर्वभूतेषु शक्ति- रूपेण संस्थिता' (सर्वभूतेषु एकं भावं 'अव्ययम्' -तत् ज्ञानं सात्त्विकम् ॥" (गीता 18.20) जिस ज्ञान से भक्त समस्त भूतों में, एकमात्र अपने प्रेममय इष्टदेव को ही स्थित देखता है, उस ज्ञान को तुम सात्त्विक जानो।)] अतएव अपने जीवन से 'त्याग' (अर्थात ऐषणाओं में अनासक्ति) और सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करो और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करो !
"ब्रह्म होते कीट परमाणु , सर्व भूते सेई प्रेममय।
बहुरूपे सन्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खूंजिछो ईश्वर।
जीबे प्रेम कोरे जेई जन , सेई सेबिछे ईश्वर। "
(2.7) >> Methodology to take India to the pinnacle of prosperity. भारत को समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर ले जाने की कार्यप्रणाली के विषय : प्रबुद्ध भारत पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, “हमारी कार्य-विधि बहुत सरलता के साथ समझायी जा सकती है। वह है – बस, भारत के राष्ट्रीय आदर्श को एक बार फिर से स्थापित कर देना ! (राजकुमार) बुद्ध ने "त्याग" का प्रचार किया था, भारत ने उन्हें सुना और फिर भी केवल छह शताब्दियों में ही वह अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। यही रहस्य है। भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं – त्याग और सेवा। आप उसकी इन धाराओं में तीव्रता लाइए और बाकी सब अपने-आप ठीक हो जाएगा।” [ अर्थात 'त्याग' को आदर्श समझने के बाद भी केवल छह शताब्दियों में ही भारत अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। यही रहस्य है।] (राष्ट्रीय आधार पर हिन्दुत्व का पुनर्जागरण : 'प्रबुद्ध भारत'-1898/४.२६५)
["Our method", said the Swami, "is very easily described. It simply consists in reasserting the national life. Buddha preached renunciation. India heard, and yet in six centuries she reached heir greatest height. The secret lies there. The national ideals of India are renunciation and service. Intensify her in those channels, and the rest will take care of itself." [ Reawakening Of Hinduism On A National Basis (Prabuddha Bharata, September, 1898-Volume 5, Interviews)]
'त्याग' को आदर्श समझने के बाद भी केवल छह शताब्दियों में ही भारत अपनी समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर कैसे पहुँच गया ? इस रहस्य ^*को समझने के लिए ईशावास्य उपनिषद में एक सूत्र है - "तेन त्यक्तेन भुंजीथा:!" - यानी त्याग पूर्वक उपभोग करो, क्योंकि " ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् । " यह सब कुछ ईश्वर से व्याप्त है। इसलिए त्यागपूर्वक भोग करें। वासना और धनदौलत का लालच न करें। धन किसी का नहीं है। अदभुत है सूत्र। पहले कहा, जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे। जिसने जाना, सब परमात्मा का है, फिर पकड़ने को क्या रहा? पकड़ने को कुछ भी न बचा। सब छूट गया। और जिसने जाना कि सब परमात्मा का है उसका मैं-पन (मिथ्या अहं) ही गिर गया, और वह ब्रह्म हो गया (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति)।
भगिनी निवेदिता कहती हैं, “भारत ही स्वामी जी का महानतम भाव था। …भारत ही उनके हृदय में धड़कता था, भारत ही उनकी धमनियों में प्रवाहित होता था, भारत ही उनका दिवा-स्वप्न था और भारत ही उनकी सनक थी। इतना ही नहीं, वे स्वयं भारत बन गए थे। वे भारत की सजीव प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने स्वयं को एकबार ‘घनीभूत भारत’ कहा था। सचमुच वे भारत से एकरूप हो गए थे।
हम सब भी यही सोचते हैं कि हमारा देश आगे बढ़े और विश्व में अग्रणी हो। हम सोचते हैं कि जब हम दूसरे देशों में जाएँ, तो लोग भारतीय समझकर हमारा सम्मान करें। यहाँ तक तो हमारी देशभक्ति ठीक ही है। किन्तु इसके लिए प्रत्येक भारतवासी को कंधे-से-कंधा मिलाकर चलना होगा। ह्रदय की संकीर्णता (पशुता या 0 % निःस्वार्थपरता) से दूर होना होगा, (और 50 to 100 % निःस्वार्थपरता तक पहुंचना होगा) । स्वामीजी ने इसे ही 'त्याग और सेवा' का मार्ग कहा है।
1883 में जब जापान के मार्ग में स्वामी विवेकानन्द और जमशेदजी टाटा की अप्रत्याशित भेंट हुई, तब स्वामीजी ने उनके वहाँ आने का कारण पूछा। उन्होंने कहा कि वे दियासलाई यहाँ से लेकर भारत में आयात करते हैं। स्वामीजी ने कहा कि यदि वे दियासलाई का कारखाना भारत में खोलते हैं, तो इससे भारत की सम्पत्ति भारत में ही रहेगी और अनेक लोगों को रोजगार भी प्राप्त होगा। इसके साथ ही उन्होंने जमशेदजी के साथ भारत में ऐसी व्यवस्था के बारे में चर्चा की, जहाँ कृषि-विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में अनुसन्धान किया जा सके। इसके बाद हम देखते हैं कि स्वामी विवेकानन्द ने Indian Institute of Science. की स्थापना के लिए जमशेदजी टाटा की सहायता भी की थी। स्वामीजी चाहते थे कि भारत अपनी कला एवं लघु उद्योगों से उत्पन्न उत्पादों का विदेशों में विक्रय कर आर्थिक स्थिति में सुधार ला सकता है। science and technology के सम्बन्ध में स्वामीजी सदैव उत्सुक रहते थे।
🔱🙏(2.8) >>> Carrying on trade or business is not a crime.(Although making profit is not a crime, but taking undue profit is a crime.) व्यापार या कारोबार करना कोई अपराध नहीं है। बनिया लाभ न कमाए तो अपने परिवार का पालन-पोषण कैसे करेगा ? नफा कमाना (making profits, शुभ-लाभ कमाना) वैसे तो कोई अपराध नहीं है, किन्तु अनुचित लाभ (undue profits) लेना गुनाह है। महाभारत में ऐसे कई दृष्टांत है कि जिनमे यह बताया गया है कि महाज्ञानी ब्राह्मण भी वैश्य के घर सत्संग के हेतु से जाते थे। महाभारत में यही बात तुलाधर वैश्य और जाजलि ब्राह्मण की कथा में भी आती है।
पूज्य 'C-IN-C दादा' ने मुझसे सैंकड़ो बार पूछा होगा कि बताओ धर्म क्या है ? एक बार महान तपस्वी ब्राह्मण जाजलि ने समुद्र तट एक ही आसन पर बैठकर इतनी देर तक जप किया कि, उसकी जटाओं पर घोशला बनाकर उसमें चिड़िया अंडे देने लगी। इससे वे अपने को महान धर्मात्मा समझने लगे। और मन ही मन कहा - ‘‘ मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया है। " इतने में आकाशवाणी हुई - ‘‘जाजलि, तुम नहीं जानते कि धर्म क्या है ?" यदि तुमको यह जानना हो कि धर्म क्या है ? तो तुम काशी जाकर तुलाधर वैश्य से मिलो, उससे बड़ा धार्मिक व्यक्ति अभी कोई नहीं है।
वे जब उसको खोजते हुए काशी पहुंचे तो उन्होंने तुलाधर को सौदा बेचते हुए देखा। उनको देखते ही तुलाधर उठकर खड़े हो गए, और स्वागत करते हुए बोले -‘‘प्रणाम मुनिवर, आपने समुद्र तट पर बड़ी भारी तपस्या की। आपके मस्तक पर चिड़ियों ने अण्डे दिये। वे जब चले गये, तो अपने स्वयं को बड़ा धर्मात्मा समझा। तभी आकाशवाणी हुई तथा उसी के कारण आप यहाँ आये हैं। बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।’’
तब जाजलि ब्राह्मण बोले - 'हे वैश्यपुत्र, तुम तो व्यापार करते हो, ' तुम्हें यह ज्ञान कैसे उपलब्ध हो गया? तब वर्णाश्रम -धर्म (चार आश्रम और चारो पुरुषार्थ - "धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ) को तत्व से जानने वाले तुलाधर वैश्य ने सनातन धर्म के सूक्ष्म रहस्य को (त्याग और सेवा तथा 'तेन त्यक्तेन भुञ्जितः' के सूक्ष्म रहस्य को) उजागर करते हुए कहा-
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।।
तुलाधार वैश्य ने तपस्वी जाजालि से कहा -" हे जाजले जिस प्राचीन धर्म को लोग सभी प्राणियों के लिये हितकर या कल्याणकारी रूप में जानते हैं, मुझे उसी सनातन धर्म के सार-तत्व का पता चल गया है । वह क्या है ? जो व्यक्ति सभी प्राणियों के सुहृत हैं और समस्त जीवों का हित करने में लगे रहते हैं, वास्तव में उन्हीं को धर्मज्ञ कहा जा सकता है। किसी भी प्राणी से द्रोह न करके अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार कर्तव्य - कर्म का पालन करना जीविका चलाना धर्म माना गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति एक समान भाव रखता हूँ। किसी का अहित नहीं करता सबसे मृदुल व्यवहार करता हूँ। यही मेरा व्रत है। धर्म तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है तथा कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। व्यवसाय ही मेरा धर्म है। उसका पालन करना मेरा कर्तव्य।’’
स्वामी विवेकानन्द भी , ठीक ऐसी ही शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोग तो मृत से भी अधम हैं।"
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, “एक नवीन भारत निकल पड़े – हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुए, माली, मोची, मेहतरों के कुटीरों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से । निकल पड़े झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों से।”
स्वामीजी कहते हैं - " भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें ।"
🔱🙏(2.9) >>>Serve and Inspire others: (दूसरों की सेवा करो और प्रेरणा भरो) : तुम अपने सहयोगियों या अधीन काम करने वाले दूसरे लोगों से सम्मान और सेवा लेना चाहते हो, परन्तु क्या तुम अपने छोटे भाइयों या कनिष्ठ सहयोगियों के सम्मान का भी ध्यान रखते हो ? क्या तुम अपने से बड़ों की आज्ञा का पालन करते हो, तथा उन्हें सम्मान देते हो ? तभी, दूसरे लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे, तुम्हारी आज्ञा का पालन करेंगे। क्या तुम स्वयं दूसरों को पूजनीय दृष्टि से देखकर (भक्त की दृष्टि से देखकर) उनकी सेवा कर सकते हो ? यदि हाँ, तो नेता बनने का पहला गुण तुममें विद्यमान है ! इसी प्रकार प्रत्येक नेता को विनम्र, मधुरभाषी और अहंकार रहित बनने की चेष्टा करनी चाहिये।
हमें यही सोचना चाहिये कि श्री रामकृष्ण और माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से तथा स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही हमें अपने अन्य युवा भाइयों का मार्गदर्शन करने का, उन्हें मनुष्य जीवन का लक्ष्य - और उसे प्राप्त करने का उपाय बता कर उनकी सेवा करने का, सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन केवल दूसरों की सेवा में स्वयं सदैव तत्पर रहने से ही काम नहीं होगा, बल्कि हमें अपने जीवन में 'वासना और धनदौलत के लालच' (Lust and lucre) को त्याग कर या 'कामिनी-कांचन' में आसक्ति को त्याग कर, अपने आस-पास रहने वाले भाइयों को भी ऐसा करने के लिए उत्साहित तथा उत्प्रेरित करना होगा। ताकि वे भी आगे आयें और, और मेरे उदाहरण से ऐषणाओं को त्याज्य समझकर उनमें अनासक्त होना सीखें और अपने अन्दर भी वैसा ही सेवाभाव जाग्रत कर सकें। यदि हममें से कुछ लोगों के अन्दर, नाम-यश पाने के लिए नहीं केवल अपने सामान्य जनों, (जनताजनार्दन) की सेवा दूसरों से अधिक सेवा करने का सौभाग्य पाने का संकल्प हो, वैसे लोग ही सच्चे नेता बन सकते हैं। और दूसरों को भी इसके लिए अनुप्रेरित कर सकते हैं। आज हमें इसी प्रकार के नेतृत्व की आवश्यकता है, जो स्वयं के मोक्ष के लिए नहीं समाज की सेवा में, देशभक्ति में अपना जीवन न्योछावर कर दें।
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[भगवान श्रीरामकृष्ण और श्री श्री माँ सारदा देवी के आशीर्वाद से और स्वामीजी की प्रेरणा से, प्रमोद दा जैसे (C-IN-C) चपरास प्राप्त आध्यात्मिक शिक्षक या नेता , गुरुदेव एवं नेता वरिष्ठ (C-IN-C) प्रेममय नवनीदा के सानिध्य में रहकर तथा 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक परम्परा' में प्रशिक्षित होकर' जिनकी अपनी ज्ञान-पिपासा तृप्त हो चुकी है, और जो अपनी निःस्वार्थपरता को बढ़ाकर पशु से मनुष्य बन चुके है, तथा आदर्श को अपने जीवन से व्यक्त करने, या पूर्ण तक पहुँचने के प्रयास में लगे हैं, वैसे त्यागी या कामिनी-कांचन में अनासक्त आध्यात्मिक शिक्षक, जीवनमुक्त शिक्षक ही दूसरों की ज्ञानपिपासा को तृप्त करने में समर्थ हैं।]
[हमलोग ब्रह्म को देश-काल-निमित्त रूपी चश्में से देख रहे हैं , और इस प्रकार नीचे की ओर देखने पर ब्रह्म (आत्मा) हमें जगत के रूप में दीखता है। इससे यह स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म है वहां देश-काल-निमित्त नहीं है। 'काल' (समय) वहाँ रह नहीं सकता, क्योंकि वहाँ न मन (अहं-मैंपन) है, न विचार (मेरापन)। देश (भौतिक शरीर) भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ एक भी बाहरी परिवर्तन नहीं है। [वहाँ external change, (आकाश, वायु, अग्नि आदि भी) नहीं है, और यह दृष्टिगोचर जगत भी दूध से दही बनने जैसा बाह्य परिणाम नहीं है, केवल विवर्त है। जहाँ सत्ता केवल एक (ब्रह्म) है, वहाँ प्रवृत्ति और निमित्त (motion and causation) या - कारण-कार्य सम्बन्ध (कारणत्व) भी नहीं रह सकता। -`We have to understand this, and impress it on our minds' - इस बात को अच्छी तरह से समझकर, हमें इसे अपने मन पर अंकित कर लेना होगा- अर्थात इसको आत्मसात कर लेना होगा! एक सेव नीचे गिरा और हमने प्रश्न किया कि -इसके गिरने का कारण क्या है ?-बिना कारण के कुछ घटित नहीं होता। उसके घटने के पहले और कुछ अवश्य हुआ होगा , जिसने कारण का कार्य किया। इस घटना अनुक्रम को ही 'निमित्त ' अथवा 'कार्य-कारणवाद कहते हैं।
[What you call motion and causation cannot exist where there is only One. We have to understand this, and impress it on our minds, that what we call causation begins after, if we may be permitted to say so, the degeneration of the Absolute into the phenomenal, and not before; that our will, our desire and all these things always come after that. ]
और जिसको हम कार्य-कारणवाद कहते हैं, हमारी ऐषणाएँ और लालच (Lust and lucre) या कामिनी-कांचन में आसक्ति, वह सब ब्रह्म के जगत-प्रपंचरूप में अधःपतित होने के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। 'देश-काल-निमित्त ' की विशेषता यही है कि इसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। परन्तु वह कुछ भी नहीं है, ऐसा भी भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उन्हीं में से जगत का प्रकाश हो रहा है। ये तीनों -'देश-काल-निमित्त' मिलकर नाना नाम-रूपों की उत्पत्ति कर रहे हैं। किन्तु ये -कभी कभी बिल्कुल अन्तर्हित हो जाते हैं। [ जब मन अपना विश्लेषण करते -करते एक ऐसी वस्तु का दर्शन कर लेता है -जिसका किसी काल में विनाश नहीं है , जो सनातन साक्षी है ! ] उदाहरणार्थ, समुद्र की तरंगों को लो। तरंग अवश्य समुद्र के साथ अभिन्न है , फिर भी हम उसको तरंग का नाम देकर समुद्र से पृथक रूप में जानते हैं। इस भिन्नता का कारण क्या है ? -नाम और रूप। यदि यह तरंग चली जाये, तो रूप भी अन्तर्हित हो जायेगा। फिर भी ऐसी बात नहीं कि वह रूप बिल्कुल भ्रम था। जब तक तरंग थी, तब तक रूप भी था और तुमको बाध्य होकर वह रूप देखना पड़ रहा था। यही माया है। कोई जीवात्मा ज्यों ही इस माया का परित्याग कर देती है, त्यों ही वह उसके लिए अन्तर्हित हो जाती है और वह मुक्त हो जाती है। नाम-रूप की विभिन्नता को सत्य मानकर उसमें आसक्त रहना ही हमारी उन्नति के मार्ग में बाधा डालते रहते हैं।] [ब्रह्म (पूर्ण) एवं जगत (अभिव्यक्ति) -२.९१/ या (The Absolute and Manifestation) या इन्द्रियातीत सत्य, परमसत्य, दिव्यता, ब्रह्मत्व, देवत्व, प्रेममय श्रीरामकृष्ण या100 % unselfishness) एवं और तथा दृष्टिगोचर सत्य रूप में प्रेम की अभिव्यक्ति। साभार https://hindipath.com/gyan-yog-brahm-aur-jagat-/• [The Complete Works of Swami Vivekananda/Volume 4/Lectures and Discourses/The Practice of Religion.]
[ऋग्वेद में कहा गया है -अ॒ग्निर्ने॒ता भग॑। (अग्निर्नेता भगं इव क्षितीनां दैवीनां देव ऋतुपा ऋतावा । स वृत्रहा सनयो विश्ववेदाः पर्षद्विश्वाति दुरिता गृणन्तम् ॥ (— ऋग्वेद, ३.२०.४) “The divine Agni is the guide (leader) of devout men, as the sun is the regulator of the seasons; may he, the observer of truth, the slayer of Vṛtra, the ancient, the omniscient convey his adorer (safe) over all difficulties.” (Rig Veda 3.20.4) अनुवाद : जैसे अग्निदेव (भग = सौभाग्य) या सूर्य आदि रूप धारण करके पृथ्वी को नियमपूर्वक अपनी धूरि पर स्थित रखते हुए 'ऋत' और ऋतुओं की रक्षा करते हैं, वैसे ही वह उपासित हुआ ईश्वर (सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण देव) तथा सेवित हुआ सत्य-द्र्ष्टा नेता (वृत्रहन्ता, ब्रह्मविद, जीवनमुक्त शिक्षक-विवेकानन्द ) अपने सभी भक्तों को समस्त प्रकार की दुर्बलताओं से (कुछ अशुभ आदतों या काम-क्रोध की प्रवृत्तियों से पापों से नहीं, भूलों से) पृथक् करके दुःखरूप समुद्र से सकुशल पार कराएँगे। " ऋत : वैदिक साहित्य में 'ऋत' शब्द का प्रयोग सृष्टि के सर्वमान्य नियम के लिए हुआ है। संसार के सभी पदार्थ परिवर्तन-शील हैं किंतु परिवर्तन का नियम भी अपरिवर्तनीय नियम से बँधा हुआ है, जिसके कारण सूर्य-चंद्र गतिशील हैं। संसार में जो कुछ भी है वह सब ऋत के नियम से बँधा हुआ है। इस ऋत के नियम का उल्लंघन करना असंभव है। पृथ्वी स्वयं भी अपनी धुरी पर पश्चिम से पूर्व की ओर लगभग 1700 किमी. प्रतिघंटे की दर से घूमती है, और सूर्य के चारों ओर परिक्रमा भी करती है। पृथ्वी अपने अक्ष पर 23½° झुकी होने के कारण और सूर्य की परिक्रमा करने के कारण, सूर्य से मिलने वाली ताप की मात्रा बदलती रहती है। और इससे ऋतुपरिवर्तन होता है। अतएव सूर्य, पृथ्वी, चन्द्र आदि ग्रहों को ऋत का पालन करने वाला कहा गया है। उषा और अग्नि आदि देवताओं से प्रार्थना की जाती थी कि वे हम लोगों को ऋत के मार्ग पर ले चलें तथा अनृत के मार्ग से दूर रखें।]
कविता : When you open the door of mercy, the dumb speak in the fifth note.
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे। मन मन्दिर की ज्योति जगा दो, घटघट वासी रे। मंदिर-मंदिर मूरत तेरी, फिर भी न दीखे सूरत तेरी । युग बीते, ना आई मिलन की पूरनमासी रे ।।दर्शन दो घनश्याम, नाथ ! मोरि अँखियाँ प्यासी रे ।।
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे।
द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले ।
अंधा देखे, लंगड़ा चल कर पँहुचे काशी रे ।।
मन मन्दिर की ज्योति जगा दो, घटघट वासी रे।
आँख मिचौली छोड़ो अब तो, मन के वासी रे ।।
दर्शन दो घनश्याम नाथ मोरी अँखियाँ प्यासी रे।
पानी पी कर प्यास बुझाऊँ, नैनन को कैसे समझाऊँ । आँख मिचौली छोड़ो अब तो, मन के वासी रे ।। दर्शन दो घनश्याम, नाथ ! मोरी अँखियाँ प्यासी रे ।। ( लेखक -गोपाल सिंह नेपाली/फ़िल्म 'नरसी भगत'/गायक हेमन्त कुमार)]
[शब्दार्थ -श्री-नारद: उवाच—श्री नारद मुनि ने कहा; नत्वा—नमस्कार करके; भगवते—भगवान् को; अजाय—अजन्मा, सदैव विद्यमान, सनातन साक्षी (भगवान श्रीरामकृष्ण को) ; लोकानाम्—सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भर के; धर्म-सेतवे—वर्ण और आश्रम के अनुरूप वृत्तिपरक कर्तव्यों (धार्मिक सिद्धान्तों) का रक्षक; वक्ष्ये—मैं बतलाऊँगा; सनातनम्—नित्य; धर्मम्—वृत्तिपरक कर्तव्य (धर्म) ; नारायण-मुखात्—श्रुतम् -जिसे मैंने नारायण के मुँह से सुन रखा है।]
तात्पर्य- यहाँ 'अज' शब्द श्रीरामकृष्ण का का सूचक है जिन्होंने अपने कृष्णावतार में भगवद्गीता (४.६) में बतलाया है—अजः अपि सन् अव्ययात्मा -"मैं सदैव विद्यमान रहता हूँ और इस प्रकार मैं कभी जन्म नहीं लेता। मेरे अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं आता।"— यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ। परमेश्वर अपनी निर्बाध स्वतन्त्रता और पूर्ण स्वेच्छा से एक विशिष्ट देह को धारण करके जगत् में उस काल की मोहित पीढ़ी Hypnotized generation, भ्रमित सिंह-शावकों) का मार्गदर्शन करने आते हैं। इसलिए विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है। अज्ञानी के समान देहादि के बन्धन में रहना उनके लिये वास्तविकता न होकर एक नाटक में नायक की भूमिका निभाने के समान है। र्मत्य जीव अविद्या का शिकार बनता है जबकि ईश्वर (विष्णु भगवान जैसा नेता या नायक) स्वमाया के स्वामी बने रहते हैं। [अजः अपि सन् अव्ययात्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन्। प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठष्ठाय सम्भवामि आत्ममायया ।।4.6।।
[अन्न-आद्य-आदे:—अन्न, पेय आदि का; संविभाग:—समान वितरण; भूतेभ्य:—विभिन्न जीवों के लिए; च—भी; यथा-अर्हत:—उनकी आवश्यकता के अनुकूल; तेषु—सारे जीवों में; आत्म-देवता-बुद्धि:—अपनी आत्मा या अपने इष्ट देवताओं के रूप में स्वीकार करना; सुतराम्—प्रारम्भिक रूप से; नृषु—सारे मनुष्यों में; पाण्डव—हे महाराज युधिष्ठिर !]
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ब्रह्म होते कीट परमाणु , सर्व भूते सेई प्रेममय।
मन प्राण शरीर अर्पण करो सखे ता सोबार पाय।।
बहुरूपे सन्मुखे तोमार छाड़ि कोथा खूंजिछो ईश्वर।
जीबे प्रेम कोरे जेई जन , सेई सेबिछे ईश्वर।।
"सखा के प्रति :'सर्वभूते सेई प्रेममय"
🔱सब भूतों में वही प्रेममय श्रीरामकृष्ण
सगुण सनातन साक्षी रूप में बैठे हैं🔱
ब्रह्म से परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार ,
एक प्रेममय , प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार।
बहुरूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश ?
व्यर्थ है खोज ; जीव-प्रेम की सेवा पाते स्वयं जगदीश !
[९/३२५]
“ ব্রহ্ম হতে কীট পরমাণু, সর্ব ভূতে সেই প্রেমময় ।
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে তা সবার পায় ৷৷
বহুরূপে সম্মম্মুখে তোমার ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ।
জীবে প্রেম করে যেই জন সেই জন সেবিছে ঈশ্বর ।। ”
>>>[Binoy Kumar Sarkar : (1887–1949) He praised Nazism as "form of benevolent dictatorship", उन्होंने नैतिकतावादियों (moralists) के नाजीवाद को "शुभचिन्तक तानाशाही" का एक रूप कह कर प्रशंसा की थी।
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[खुले सत्र का विषय- 'The Work.']
[Topic of open session]
(1)
"संघे शक्तिः अर्थात एकता में शक्ति है"
🔱🙏सांगठनिक एकता (अनुशासन) और नेतृत्व की आवश्यकता।🔱🙏
(1.)>>> Difference between 'MASSES and ORGANIZATIONS':-
'जन समूह और संघ ' में अन्तर: मनु महाराज ने 'संघ' शब्द का प्रयोग विवेकी लोगों का संगठित समाज के लिए किया है, जो अपने निर्णय मतैक्य के आधार पर लेते हों। 'गण' इस शब्द का सीधा अर्थ है आम लोग सामान्य जन समूह । [ Manu Maharaj has used Sangh for the organized society of intelligent people. The word 'Gana' literally means group of people.] महर्षि वेदव्यास की एक विख्यात उक्ति है -
त्रेतायां मंत्रशक्तिश्च, ज्ञानशक्तिः कृते युगे।
द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघे शक्ति कलौ युगे।।
वेद और पुराणों में चार युग बताए गए हैं। माना जाता है कि सतयुग में ज्ञान, ध्यान या तप का प्राधान्य था। प्रत्येक प्रजा पुरुषार्थ-सिद्धि कर कृतकृत्य होती थी, अत: यह "कृतयुग" कहलाता है।इस युग में भगवान विष्णु (नेता) के मत्स्य, कूर्म, वराह और नृसिंह ये चार अवतार हुए थे। सतयुग के बाद आया त्रेता युग। इस युग में भगवान श्रीराम का जन्म हुआ। इसके बाद द्वापर युग की शुरुआत हुई , इस युग में नेता का बेहतर संस्करण -'Better version of Leader' (2G,3G, 4G जैसा) भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लेकर पृथ्वी से दुष्टों का संहार किया। द्वापर युग के बाद कलयुग की शुरूआत हुई। इस कलियुग में संगठन में ही शक्ति है।
>लेकिन 'संघे शक्ति' वाला सफलता का यह मूल मंत्र तभी सफल होता है, जब संघ का उद्देश्य नाम-यश कमाना या किसी अन्य ऐषणाओं (स्वार्थपूर्ण इच्छाओं) की पूर्ति के लिए न होकर मतैक्य के द्वारा केवल 'भारत का कल्याण' (अर्थात विश्व-कल्याण) पूर्वनिर्धारित हो। तथा संघ का नेतृत्व ऐसे त्यागी (अनासक्त) नेताओं, पैगंबरों या लोकशिक्षक के हाथों में हो जिसका अपना जीवन साम्यभाव में प्रतिष्ठित हो। संगठन अनुशासित हो। तथा इसके नेता 'House building' से प्रेरित होकर नहीं बल्कि " बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति " मंत्र से अनुप्रेरित होकर एकमात्र 'Life building' व्यक्ति-'जीवनगठन' के कार्य में संलग्न हों ! अन्यथा दुर्योधन जैसे स्वार्थी और अन्यायी नेतृत्व के कारण कौरवों की विशाल सेना भी शस्त्र विहिन श्रीकृष्ण व पांच पांडवों की छोटी सी सेना के सामने परास्त हो गयी थी।
श्रीमद्भागवत महापुराण (के दशम स्कन्ध के २२ वें अध्याय में श्लोक ३२-३५ ) में वर्णित एक कथा में कहा गया है -कि एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण गोचारण करते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये। ग्रीष्म ऋतु के संताप से व्यकुल होकर सभी गऊयेँ तथा ग्वाल-बाल आदि घने वृक्षों की शीतल छाया में विश्राम करने लगे। वे वृक्षों की टहनियों से पंखों का काम ले रहे थे। यह सब देख कर,अचानक श्रीकृष्ण अपने साथियों को सम्बोधित करते हुए कहने लगे—
पश्यैतान् महाभागान् परार्थैकान्त जीवितान्।
वात-वर्षा-ताप-हिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ।।३२।।
अर्थात् - ‘‘प्रिय मित्रो, देखो। ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं !! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही समर्पित है। ये स्वयं तो हवा, वर्षा, धूप, और पाला सहते हैं, परन्तु उनसे हमारी रक्षा करते हैं।
अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।
सुजनस्यैव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः।।
-अहो (प्यारे भाइयो), मैं तो कहता हूँ कि इन वृक्षों का जीवन ही सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि ये सब प्राणियों को उपजीवन (सहारा) देते हैं, अर्थात इनके द्वारा सब प्राणियों का जीवन-निर्वाह होता है। ये वृक्ष धन्य हैं कि जिनसे याचक कभी निराश नहीं होते । जैसे कोई सज्जन पुरुष किसी याचक को खाली नहीं लौटाता, वैसे ही ये वृक्ष भी लोगों को खाली हाथ न लौटाकर उन्हें कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। वृक्ष किस प्रकार दूसरों के कल्याण में अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं? यह सब विस्तारपूर्वर समझाते हुए श्री कृष्ण आगे कहते हैं -
पत्र, पुष्प, फलच्छाया, मूल, वल्कल दारुभिः।
गन्धः निर्यास भस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते।।
अर्थात् ये वृक्ष पत्र (पत्ती), पुष्प, फल, छाया, मूल (Roots,जड़), वल्कल (Bark,छाल), दारू या लकड़ी (Timbers), गंध (Scent), निर्यास या गोंद (Gum), भस्म (Ash,राख), अस्थि (coal,कोयला), तोक्म (Seeds, बीज) आदि पदार्थों के द्वारा हमारा उपकार करते हैं। अपने गाय चराने वाले मित्रों को मनुष्य जीवन की सार्थकता क्या है, यह समझाते हुए कहते हैं -
एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयआचरणं सदा ॥
मेरे प्यारे मित्रों! वास्तव में इनका जीवन ही सार्थक है, क्योंकि ये वृक्ष दूसरों की भलाई के लिये ही जीवित हैं। संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सार्थकता इसमें ही है- कि जहाँ तक सम्भव हो सके-इन वृक्षों की भाँति ही मनुष्य को भी अपने शब्दों या विचारों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के विवेक-विचार से, अर्थ का त्याग करके, और आवश्यकता पड़ने पर- प्राणैः, अर्थात अपने प्राणों की आहुति देकर भी केवल धर्म अर्थात सद्कर्म ही करना चाहिये। हमें केवल ऐसे ही कर्म करने चाहिए, जिनसे दूसरों की भलाई होती हो। यही तो है संसार के समस्त धर्मों में निहित गूढ़ तत्व, या धर्म का वास्तविक रहस्य !
>>>श्रद्धाहीन कर्म (अन्नदान हो या ज्ञान दान) व्यर्थ है : व्यवसाय -कारोबार कोई अपराध नहीं है। वैश्य लाभ न कमाए तो अपने परिवार का परिपालन कैसे करेगा? नफा कमाना वैसे तो अपराध नहीं है किन्तु अयोग्य नफा लेना गुनाह है। महाभारत में ऐसे कई दृष्टांत है कि जिनमे यह बताया गया है कि महाज्ञानी ब्राह्मण भी वैश्य के घर सत्संग के हेतु से जाते थे। यही बात महाभारत में तुलाधर वैश्य और जाजलि ब्राह्मण की कथा में भी आती है -एक बार जप करने वालों में श्रेष्ठ यशश्वी ब्राह्मण जाजलि ने एक ही आसन पर बैठकर इतनी देर तक जप किया कि उसकी जटाओं पर घोशला बनाकर उसमें चिड़िया अंडे देने लगी। इससे वे अपने को महान धर्मात्मा समझने लगे। एक दिन उन्हीं बातों को याद करके उन्होंने मन ही मन कहा - ‘‘मैंने धर्म को प्राप्त कर लिया है।’’इतने में आकाशवाणी हुई - ‘‘जाजलि, तुम नहीं जानते कि धर्म पालन के संदर्भ में काशीनगरी के तुलाधार वैश्य की बराबरी कोई नहीं कर सकता।’’
वे जब उसको खोजते हुए काशी पहुंचे तो उन्होंने तुलाधर को सौदा बेचते हुए देखा। उनको देखते ही तुलाधर उठकर खड़े हो गए, और स्वागत करते हुए बोले -‘‘प्रणाम मुनिवर, आपने समुद्र तट पर बड़ी भारी तपस्या की। आपके मस्तक पर चिड़ियों ने अण्डे दिये। वे जब चले गये, तो अपने स्वयं को बड़ा धर्मात्मा समझा। तभी आकाशवाणी हुई तथा उसी के कारण आप यहाँ आये हैं। बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।’’ तब जाजलि बोले - 'हे वैश्यपुत्र, तुम तो व्यापार करते हो, धर्म में निष्ठा रखने वाली यह बुद्धि तुम्हें कैसे प्राप्त हुई ?' तुम्हें यह ज्ञान कैसे उपलब्ध हो गया ? यशश्वी ब्राह्मण जाजलि के इस प्रकार पूछने पर, चारों पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को तत्व से जानने वाले तुलाधर वैश्य ने सनातन वर्णाश्रम -धर्म के सूक्ष्म रहस्य को उजागर करते हुए कहा- तुलाधर उवाच
वेदाहं जाजले धर्मं सरहस्यं सनातनम्।
सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं यं जना विदुः।। ५।।
तुलाधार वैश्य ने तपस्वी जाजालि से कहा -" हे जाजले ! मुझे सनातन धर्म के सार-तत्व का पता चल गया है । वह क्या है ? किसी भी प्राणी से द्रोह न करके अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार कर्तव्य - कर्म का पालन करना जीविका चलाना धर्म माना गया है। मैं उसी धर्म के अनुसार जीवन-निर्वाह करता हूँ। मैं समस्त प्राणियों के प्रति एक समान भाव रखता हूँ। किसी का अहित नहीं करता सबसे मृदुल व्यवहार करता हूँ। यही मेरा व्रत है। धर्म तत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म है तथा कोई भी धर्म निष्फल नहीं होता। व्यवसाय ही मेरा धर्म है। उसका पालन करना मेरा कर्तव्य।’’
इन्हीं बातों के यत्किञ्चित् अंश से मुझे यह थोड़ा - सा ज्ञान प्राप्त हुआ है । यह सारा जगत् भगवान का स्वरुप है, इसमें कोई अच्छा या बुरा नहीं । मिट्टी और सोने में तनिक भी अन्तर नहीं । इच्छा, द्वेष और भय छोड़कर जो दूसरों को भयभीत नहीं करता और किसी का बुरा नहीं सोचता, वही सच्चे ज्ञान का अधिकारी है । जो लोग सनातन सदाचार का उल्लङ्घन करके अभिमान आदि के वश में हो जाते हैं, उन्हें वास्तविक ज्ञान की उपलब्धि उपलब्धि नहीं होती ।'
जाजलि ने कहा - ‘‘तुम व्यवसाय करते हुए धर्म का उपदेश दे रहे हो। तुम्हारी बातें नास्तिक की भाँति हैं। कर्म करना उचित है, किन्तु ईश्वरीय सत्ता को मानना पड़ता है।’’ तुलाधार ने कहा - ‘‘मैं नास्तिक नहीं हूँ, मैं यज्ञादि का विरोध नहीं करता, बल्कि धर्म के स्वरूप को भली-भाँति जानता हूँ। धन कमाना अनुचित नहीं, किन्तु वैदिक वचनों के तात्पर्य न समझकर मिथ्या यज्ञों का प्रचार व्यर्थ है। शुभ कर्म द्वारा जिस हविष्य का संग्रह किया जाता है, देवता उसी के होम से प्रसन्न होते हैं। कामना के वशीभूत यज्ञ करना, बगीचा बनवाना, तालाब खुदवाना उचित नहीं। उस कामना से उत्पन्न संतान भी लोभी होती है। समदर्शी कोई कामना नहीं करता, क्योंकि उसकी कामनायें स्वतः पूर्ण हो जाती हैं। असल में ज्ञानी पुरुष तो अपने को ही यज्ञ का उपकरण मानकर मानसिक यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं। निःस्वार्थपरता से प्रेरित होकर कर्म का (तीनों ऐषणाओं का) त्याग करने वाले ही लोक-संग्रह के लिये मानसिक यज्ञ -"Be and Make " आन्दोलन में प्रवृत्त होते हैं।’’
‘‘मुनिवर, श्रद्धालु पुरुष घी, दूध, दही तथा पूर्णाहुति से ही अपना यज्ञ पूर्ण कर लेते हैं। यह आत्मा ही प्रधान तीर्थ है। इसके लिये जगह-जगह भटकना आवश्यक नहीं। अहिंसा-प्रधान धर्म का पालन करना ही धर्म का अनुपालन है। आदरणीय, ये जो पक्षी आकाश में उड़ रहे हैं, उनमें से अनेक आपके मस्तक से उत्पन्न हुए हैं। आप उनके पितालुल्य हैं। मेरी बात छोड़िये तथा उन्हें बुलाइये। वे ही अहिंसा-प्रधान धर्म की बातें आपसे कहेंगे।’’ जाजलि ने आश्चर्य मिश्रित पुकार से उन्हें बुलाया तो वे आये एवं मनुष्य की भाँति स्पष्ट बोली में बोलने लगे। उन्होंने कहा - ‘‘ब्रह्मन्, हिंसा की भावना से रहित जो कर्म किये जाते हैं, वे ही इस लोक एवं परलोक में कल्याणकारी होते हैं। हिंसा (या क्रोध में बोलै गया कटुवचन) श्रद्धा का नाश करती है, जो मनुष्य का सर्वनाश करती है। श्रद्धा सबकी रक्षा करती है। उसके ही प्रभाव से विशुद्ध मानव-जन्म प्राप्त होता है। ध्यान एवं जप से भी अधिक महत्व श्रद्धा का है। असल में श्रद्धाहीन कर्म व्यर्थ हो जाता है। अश्रद्धा सबसे बड़ा पाप है। आपने हमारे लिये जो भी किया उसमें श्रद्धा का अभाव था, क्योंकि आपको अपने धर्म पर गर्व था न कि उस श्रद्धा से कि जो आपने किया वह उचित था।’’ तुलाधार के उपदेशों से जाजलि का अज्ञान नष्ट हो गया और जाजलि को अब समझ में आया कि आकाशवाणी का क्या अर्थ था। तालाब खुदवाना देना, अन्न वितरण कर देना अथवा किसी को शरण देना तब तक तो ठीक है, जबकि उन्हें श्रद्धा से किया गया हो, अन्यथा वह व्यर्थ है। दम्भ से किया गया उपकार, उपकार न होकर पाप बन जाता है। यह कहकर तुलाधार ने जाजलि को 'सदाचार' जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण की पद्धति का उपदेश किया । जाजलि भी ज्ञान सम्पन्न होकर अपने धर्म के आचरण में लग गये । बहुत दिनों तक धर्म-पालन का आदर्श उपस्थित करके और लोगों को उपदेशादि के द्वारा कल्याण की और अग्रसर करके दोनों ने सद्गति प्राप्त की। यह कथा महाभारत के शान्तिपर्व में आती है । इसमें श्रद्धा, जीवनगठन , सदाचार या चरित्र-निर्माण , वर्णाश्रम-धर्म, सत्य, समबुद्धि आदि पर बड़ा जोर दिया गया है । प्रत्येक कल्याण कामी पुरुष को इसका अध्ययन करना चाहिये।
आधुनिक युग के नेता स्वामी विवेकानन्द भी , अपने मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने के लिए हमें ठीक ऐसी ही शिक्षा देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "
स्वामीजी कहते हैं - " भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म-प्रचार आवश्यक है। सर्वप्रथम, हमारे उपनिषदों, पुराणों और अन्य सब शास्त्रों में जो महान सत्य छिपे हुए हैं, उन्हें सब ग्रन्थों के पन्नों से बाहर निकालकर, मठों की चहारदीवारियाँ भेदकर, वनों-आश्रमों से बाहर निकालकर, कुछ सम्प्रदाय-विशेषों के हाथों से छीनकर देश में सर्वत्र बिखेर देना होगा। ताकि ये सत्य दावानल के समान सारे देश को चारों ओर से लपेट लें -उत्तर से दक्षिण और पूर्व पश्चिम तक सब जगह फ़ैल जायें -हिमालय से कन्याकुमारी और सिन्धु से ब्रह्मपुत्र तक सर्वत्र वे धधक उठें ।"
" और जो भी व्यक्ति अपने शास्त्रों के महान सत्यों को -(Be and Make) दूसरों को सुनाने में सहायता पहुँचायेगा -वह आज एक ऐसा कर्म करेगा, जिसके समान कोई दूसरा कर्म ही नहीं है। महर्षि व्यास ने कहा है, " इस कलियुग में मनुष्यों के एक ही कर्म शेष रह गया है। आजकल यज्ञ और कठोर तपस्याओं का कोई फल नहीं होता। इस समय दान ही एकमात्र कर्म है। और दानों में धर्मदान, अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है।"५/११६
29 मई 1900 ई ० को सैनफ्रेंसिस्को में गीता पर भाषण करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा - " आप मुझे कर्म का उपदेश दे रहे हैं और ब्रह्मज्ञान को जीवन की उच्चतम अवस्था कह कर उसकी प्रशंसा कर रहे हैं। हे कृष्ण यदि आप ज्ञान को कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ समझते हैं , तो मुझे कर्म का उपदेश क्यों दे रहे हैं ? " (गीता 3.1) श्रीकृष्ण उत्तर देते हैं - अति प्राचीन काल से दो साधन मार्ग प्रचलित हैं - ज्ञानानुरागियों के लिए 'निवृत्ति मार्ग' (ज्ञान योग) और निष्काम कर्मियों के लिए -'प्रवृत्ति मार्ग' (कर्मयोग)। (गीता 3.8)
🙏" द्विविधो हि वेदोक्तः धर्मः प्रवृत्तिलक्षणो निवृत्तिलक्षणः च । जगतः स्थितिकारणं प्राणिनां साक्षात् अभ्युदयनिःश्रेयसहेतुः यः स धर्मो ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः अनुष्ठीयमानः । धर्म : भारत में धर्म प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तिगत कार्य है। 7/245]
गीता-भाष्य की भूमिका (उपोद्घात) मे आचार्य शंकर कहते हैं- ब्रह्म या परमात्मा कार्य कारण से और सभी प्रपंच से परे है। अर्थात नारायण माया से भी परे हैं। इस माया से ही सूक्ष्म जगत का उत्पन्न होता है। जिसमें सारे लोक और सात द्वीपों वाला भूलोक है। नारायण : जल को नारा कहा गया है, जल नर का अर्थात जीव का कार्य अथवा पुत्र है। हिरण्यगर्भ ही प्रथम उत्पन्न होता है, वह ही प्रथम जीव है उससे उत्पन्न होने से जल को नारा कहा गया है। जल परमात्मा का आश्रय है, नारायण सृष्टिपूर्व जल में अनन्तशयन करते हैं अत: जल को उनका अयन कहा गया है। नारा ही इनका अयन है अत: परमात्मा को नारायण कहा गया है। ऐसा [मनुः १.१०] मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से सिद्ध है एवं स्थूलदृष्टि वालों के लिए यह नारायण शब्द का अर्थ है।
ऊँ नारायणः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसम्भवम्।
अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा चे मेदिनी।।
पदच्छेद - नारायणः परः अव्यक्तात्, अण्डं अव्यक्त सम्भवं अण्डस्य अन्तः तु इमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी।
सरल पदार्थ - नारायणः - परमात्मा, परः - परे, अवक्तात्- जो अव्यक्त है उस कारण प्रपंच से, अण्डं - सूक्ष्म प्रपंच, अव्यक्त - कारण प्रपंच, सम्भवं - उत्पत्ति, अण्डस्य - सूक्ष्म प्रपंच के, अन्तः - में ही होना, तु - के विषय में, इमे - यह सब, लोकाः - विभिन्न लोक, सप्तद्वीपा - भूलोक जहां जम्बू, प्लाक्ष, कुश, क्रौन्च, शाक, शाल्मल व पुष्कर आदि सात द्वीप हैं, च - और, मेदिनी - पृथ्वी।
अव्यक्त से अर्थात् माया से श्रीनारायण – आदि पुरुष सर्वथा अतीत (अस्पृष्ट) हैं, संपूर्ण ब्रह्माण्ड (Great Egg) अव्यक्त- प्रकृति से उत्पन्न हुआ है, तथा ये भूः भुवः आदि सब लोक (various worlds) और सात द्वीपों (seven islands) वाली पृथिवी ब्रह्माण्ड के अंतर्गत है। [स भगवान् सृष्टा इदं जगत् तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः मरीच्यादीन अग्रे सृष्टा प्रजापतीन् प्रवृत्तिलक्षणं .......सनक सनन्दन आदिन उत्पाद्य निवृत्तिलक्षणं धर्म ज्ञानवैराग्यलक्षणं ग्राहयामास।]
उस भगवान् ने इस जगत् को रचकर इसके पालन करने की इच्छा करते हुए पहले मरीचि आदि प्रजापतियों को रचकर उनको वेदोक्त प्रवृत्तिरूप धर्म (कर्मयोग) ग्रहण करवाया। फिर उनसे अलग सनक, सनन्दनादि ऋषियों को उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य जिसके लक्षण हैं ऐसा निवृत्तिरूप धर्म (ज्ञानयोग) ग्रहण करवाया। वेदोक्त धर्म दो प्रकार का है- एक प्रवृत्ति रूप, दूसरा निवृत्तिरूप।जो जगत् की स्थिति का कारण तथा प्राणियों की उन्नति का और मोक्ष का साक्षात् हेतु है एवं कल्याणकामी ब्राह्मणादि वर्णाश्रम- अवलंबियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है उसका नाम धर्म है।
>>मतैक्य के आधार पर केवल भारत-कल्याण को ही अपने संगठन का उद्देश्य मानने वाले निःस्वार्थी और विवेकी लोगों के संगठन (ORGANIZATIONS) के विषय में श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं : -" विशाल तालाबों और स्वच्छ जल में 'दल' (sedge-वलीक) नहीं होता, वह छोटी, गंदली तलैया में ही पैदा होती है। इसी प्रकार, जिस संघ या संगठन के सदस्य शुद्ध, उदार और निःस्वार्थ भाव से परिचालित होकर कार्य करते हैं , उसमें फूट होकर दल (schism-अलग सम्प्रदाय) निर्माण नहीं होते। दल तो उसी संगठन में बनते हैं , जिसके सदस्य स्वार्थी, अविवेकी और मतैक्य के आधार पर निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं। "
" क्या दल बनाना अच्छा है ? बहते जल प्रवाह में कभी 'दल' नहीं उगता, छोटी तलैया के जमे हुए, सड़े पानी में ही 'दल' पैदा होता है। जिसका मन ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर व्याकुल होकर दौड़ रहा है, उसकी अन्य किसी ओर दृष्टि नहीं रहती; जिसकी दृष्टि मान-सम्मान पर (लोक-ऐषणा या वित्तेषणा) पर निबद्ध रहती है, वही दल बनाना चाहता है। "
" अपनी अपनी जमीन को सभी लोग घेरा लगाकर अलग कर सकते हैं, परन्तु अनन्त आकाश को घेर कर कोई खण्डित नहीं कर सकता। सभी खण्डित भूमिभागों के ऊपर एक अखण्ड आकाश विराजित है। अज्ञान के कारण मनुष्य अपने ही धर्म (या अपने मत) को सत्य और श्रेष्ठ समझता है; परन्तु चित्त में यथार्थ ज्ञान का उदय होने पर वह देखता है कि सभी धर्ममतों के पीछे एक अखण्ड सच्चिदानन्द विराजमान है। " (अमृतवाणी/पेज-१२४)
[" जीवन गठन " [ - श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय रचित 'महामण्डल पुस्तिका' ' জীবন গড়া ' का हिन्दी अनुवाद ] गुरुवार, 2 मई 2013/
(2.) >>>निःस्वार्थपरता का शून्य की ओर प्रवृत्त होना पशुता है और निःस्वार्थता का 50% से 100% पूर्णता की ओर प्रवृत्त होना ही दिव्यता है!'' (पशुता या पशु-मानव घोर स्वार्थी होते हैं।) [Unselfishness tending towards zero is animality; and Unselfishness tending from 50% to 100% perfection is divinity (godliness)!''
अतएव हमें अपने भीतर के विद्यार्थी को मरने नहीं देना चाहिए, और 3H विकास के 5 अभ्यास को सीखकर पहले जीवनगठन (life-building) कर 'मनुष्य' बनना और बनाना चाहिए , फिर दिव्यता (divinity,या ईश्वरत्व ) में प्रतिष्ठित होने या 100 % निःस्वार्थी बनने और बनाने की यात्रा ' बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय- चरैवेति,चरैवेति" को आजीवन जारी रखना चाहिए। यही तो मंत्र है अपना । नहीं रुकना, नहीं थकना, सतत चलना, सतत चलना । '
इस सूत्र का मर्म उद्घाटित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था,कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग (Golden Age) का प्रारंभ हो गया है।" उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है ? क्या सत्ययुग कहने से हमलोगों को यह समझना चाहिये कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता अन्याय आदि भाव समाज में थे, वे सभी समाप्त हो गये-सब कुछ सुन्दर हो गया और मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ! नहीं, ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि युग-परिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है। [अर्थात 0% Unselfishness से 100 % Unselfishness की दिशा में बढ़ने का प्रयत्न करने से मनुष्य के विचार-जगत में युगपरिवर्तन घटित होता है।
कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।।
चरैवैति चरैवैति ।।
"सोये रहने का नाम है कलिकाल में रहना, जब नींद टूट गयी तो द्वापर में रहना कहेंगे, जब उठ कर खड़े हो गये तब जीवन में त्रेता युग चलने लगता है; फिर जब पुरुषार्थ सिद्धि की दिशा (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष या पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा) में चलना शुरू कर दिये, तब उसे सत्ययुग में रहना कहते हैं। इसलिये सत्ययुग में वास करने वालों का लक्ष्ण है,“चरैवेति, चरैवेति ” करते हुए निकृष्ट अवस्था, पशुत्व की अवस्था से श्रेष्ठतम अवस्था, निम्न दिशा से उर्ध्व दिशा की ओर निरन्तर आगे बढ़ते रहना। अर्थात पशुत्व की अवस्था या घोर स्वार्थपरता अवस्था 0 % निःस्वार्थपरता, से मनुष्यत्व तक 50 % निःस्वार्थपरता में और मनुष्यत्व से फिर देवत्व या पूर्णत्व को की दिशा में 100 % unselfishness की ओर निरन्तर आगे बढ़ते रहना।
'आयुधानाम् अहं वज्रं दधीच्यस्थिसंभवम्।' -- शस्त्रों में मैं दधीचि ऋषि की अस्थियों से बना हुआ वज्र हूँ। (गीता भाष्य आचार्य शंकर 10 /28) स्वामी जी ने कहा है ,"संसार के धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु बन गये हैं। आज संसार जो चाहता है वह है चरित्र। आज ऐसे लोग चाहिए जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण हो। उस प्रेम से कहा गया हर शब्द वज्रवत् प्रभावी होगा।" [Religions of the world have become lifeless mockeries. What the world wants is character. The world is in need of those whose life is one burning love, selfless. That love will make every word tell like thunderbolt.]
' बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय -चरैवेति,चरैवेति' यह वाक्य अधिक से अधिक लोगों की सहायता करने, अधिक से अधिक लोगों को सुख पहुँचाने के उद्देश्य से लिखा गया है।स्वामीजी कहते हैं - " दूसरों की सहायतार्थ किया गया प्रत्येक कर्म , प्रत्येक शुभ कार्य हमारे क्षुद्र अहंभाव को प्रतिक्षण घटाता रहता है। " 'जो व्यक्ति 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय चरैवेति , चरैवेति' सूत्र के उद्देश्य को समझता है और उसका निष्ठापूर्वक पालन करता है वह ज्ञानी (ब्रह्मविद) बन जाता है; और वह दूसरों के कल्याण के लिए कार्य करने लगता है। यह वाक्य हमारी आत्मा को शुद्ध करता है और हम में दूसरों के लिए ईर्ष्या, छल, निंदा की भावना को नष्ट करता है क्योंकि दुनिया में कोई भी व्यक्ति बुरा नहीं है, अगर कुछ गलत है तो वह बुरी सोच है। हमारा दिमाग वही करता है जो हम सोचते हैं, इसलिए हमें अपना जीवन जनहित, दूसरों के कल्याण के लिए जीना चाहिए। जो केवल अपने लिए जीता है वह मृत से भी अधम है।
ऐसा कहा जाता है कि स्वामी विवेकानन्द ने 'ऐतरेय ब्राह्मण' के उपरोक्त श्रुति -' बहुजन हिताय, बहुजन सुखाये -चरैवेति, चरैवेति' सूत्र को स्वयं अपने जीवन पर प्रयोग करके देखा था कि " मनुष्य बनने और बनाने की 'Be and Make ~ प्रशिक्षण-पद्धति " को भारत के युवाओं के द्वार-द्वार तक पहुँचा देने के कार्य में जो युवा लगा रहता है , स्वयं उस कर्मी (नेता ,शिक्षक या माली) के जीवन में सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है, और वह स्वयं मुक्त [ D-hypnotized], या भ्रममुक्त हो जाता है ! संसार कुत्ते की टेढ़ी पूँछ जैसी है, लेकिन जो इसको सीधी करने का प्रयास करता है वह स्वयं सीधा हो जाता है, उसके ह्रदय की वक्रता सीधी हो जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण के 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति'- सूत्रका प्रयोग जब स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने जीवन में किया गया तो उनके सभी शिष्यों ने इस वाक्य का अर्थ समझा और अपना जीवन लोक कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। विशेषरूप से अद्वैत आश्रम , मायावती के संस्थापक उनके अंग्रेज शिष्य दम्पति “कैप्टन जे एच सेविअर”(Captain James Henry Sevier) और पत्नी सी एलिजाबेथ सेवियर (Charlotte Elizabeth Sevier) ने इंग्लैण्ड में जब 1895 में स्वामी विवेकानन्द के मुख से इस "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय -'चरैवेति, चरैवेति" सूत्र के मर्म को समझा तो सेवियर दंपत्ति ने इंग्लेंड में अपना घर और जमीन बेच दिया और स्वामी विवेकानंद के साथ भारत आ गये। और 19 मार्च 1999 को लोहाघाट में अद्वैत आश्रम, मायावती की स्थापना की। कैप्टन जे एच सेविअर पूरे समय अपनी पत्नी सहित अद्वैत वेदांत के प्रचार- प्रसार और “प्रबुद्ध भारत” नामक मासिक पत्रिका के प्रकाशन कार्य में लगे रहे। लेकिन बहुत अल्प समय में ही 28 अक्टूबर 1900 को कैप्टन जे एच सेविअर का देहांत हो गया।'
[अद्वैत आश्रम, मायावती की स्थापना के बारे में जानने के लिए हमें आश्रम की स्थापना के समय से कुछ वर्ष पीछे जाकर स्वामी विवेकानंद के जीवन वृतांत को समझना होगा। 1895 स्वामी विवेकानंद इंग्लेंड में थे तो वहीं के निवासी जेम्स हेनरी सेवियर आपनी पत्नी सी एलिजाबेथ सेविएर, के साथ स्वामी जी से मिलने आये। वे स्वामी विवेकानंद के दर्शन और व्याख्यान से काफी प्रभावित हुए। 1896 में जब स्वामी जी स्विट्जरलैण्ड , जर्मनी और इटली की यात्रा पर गये तो हेनरी दम्पत्ति भी स्वामी विवेकानंद के साथ चल दिए। इसी बीच जब स्वामी विवेकानंद और हेनरी दम्पत्ति ऐल्प्स पर्वत की यात्रा पर थे तब उन्होंने भारत के हिमालय पर्वत पर संतो के एकांतवास और गुरु-शिष्य परम्परा में वेदांत-प्रशिक्षण के लिए एक आश्रम बनाने की इच्छा व्यक्त की। स्वामी जी की आज्ञा पाकर, सेवियर दंपत्ति इंग्लेंड में अपना घर और जमीन बेच दिया और दिसम्बर 1896 को सेवियर दम्पति स्वामी विवेकानंद के साथ भारत के लिए रवाना हो गये फ़रवरी 1897 को वो मद्रास पहुचे। भारत आने के बाद स्वामी विवेकानंद जी कलकत्ता चले गये और सेवियर दम्पति अल्मोड़ा आ गये। अल्मोड़ा आ कर उन्होंने एक बंगला किराये पर लिया जहाँ वो दो वर्षों तक ठहरे। इस दौरान स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से उनके शिष्य स्वामी स्वरूपानन्द के साथ मिलकर उन्होंने आश्रम के लिए उपयुक्त स्थान की खोज जारी रखी। और अंततः जुलाई 1898 में लोहाघाट के नजदीक मायावती नामक स्थान जो की एक चाय बगान था का चुनाव किया और इसे आश्रम के लिये खरीद लिया गया। और 19 मार्च 1999 को लोहाघाट में अद्वैत आश्रम, मायावती की स्थापना की। कैप्टन जे एच सेविअर पूरे समय अपनी पत्नी सहित अद्वैत वेदांत के प्रचार- प्रसार और “प्रबुद्ध भारत” नामक मासिक पत्रिका के प्रकाशन कार्य में लगे रहे। लेकिन बहुत अल्प समय में ही 28 अक्टूबर 1900 को कैप्टन जे एच सेविअर का देहांत हो गया। शिष्य जे एच सेविअर के देहांत हो जाने के उपरांत, श्रीमती सी एलिजाबेथ सेवियर को सांत्वना देने के लिए स्वामी विवेकानंद, 3 जनवरी 1901 को मायावती आश्रम आये थे , और यहाँ लगभग 15 दिन यानि कि 18 जनवरी 1901 तक रुके थे। स्वामी विवेकानंद मानवता को वहाँ ले जाना चाहते थे जहाँ -वेद,बाइबिल, कुरान के नाम पर कोई भेद न हो , इसीलिए अद्वैत आश्रम मायावती में किसी मूर्ति या तस्वीर की अनुष्ठानिक रूप से पूजा नहीं होती है। हालाँकि प्रत्येक एकादशी को सायं के समय राम-नाम संक्रीतन जरूर होता है। साभार http://www.vivekananda.net/HistoricalPreservation/MayavatiAshram.htmlhttps://hillsofmorni.com/beyond-morni/binsar-the-himalayan-bioscope/]
पूज्य दादा (श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय) की शिक्षा: फिर अपने अधूरे कार्य को पूर्ण करने के लिए जब उनका जन्म महामण्डल के संस्थापक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक, 'C-IN-C पूज्य नबनी दा' के रूप में हुआ तब उन्होंने कहा था - अधिक से अधिक लोगों के सुख के लिए और अधिक से अधिक लोगों के हित के लिये - निरन्तर देशाटन, पर्यटन, शैक्षणिक -भ्रमण करते रहो ! सिर्फ यही करते रहने से तुम मुक्त हो जाओगे, अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी !! मूल्यवान वस्तु खरीदना हो , तो हमें उसकी सही कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। (One must be ready to pay the right price for the valued commodity.) यदि हमलोग अपना जीवन भारतकल्याण के लिए समर्पित एक योग्य सेवक के रूप में गठित करना चाहते हों, हमें पहले साम्यभाव में अवस्थित होने का प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा। अर्थात 'विकारहेतौ सति येषां मनांसी न विक्रियन्ते त एव धीरः' (कुमारसम्भव) के अनुसार मन को समत्व में स्थापित रखने वाला धैर्य अर्जित करना होगा ! अर्थात "स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर 'Be and Make ' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त नेता C-IN-C नवनीदा का अनुसरण करना पड़ेगा। क्योंकि नवनीदा कहते थे- 'अनुसरण ही सच्चा स्मरण है !' ["यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । शीश दियो जो गुरु (विवेकानन्द-CINC) मिले, तो भी सस्ता जान।।]
माँ तारा की शीक्षा : पुरानी कहावत है- 'घर फूटे गँवार लूटे ! ' हम दोनों भाई बचपन में जब भी आपस में लड़ते, तो मां इसे दोहराती थी। समय के साथ कहावत का मर्म समझ में आया। संसद में बैठे कई दर्जन महानुभाव ‘नमोनाइटिस’ की ‘मोदीसीन’ (मेडिसिन) खोजने के चक्कर में अपनी नाक कटाने पर तुले हुए हैं। गंवारों को मौका देने के लिए घर फोड़नेवालों को कौन समझाये कि अपने हमाम का दृश्य दूसरों को दिखाने के पहले यह तो देख लो कि तुम्हारा तन ढका हुआ है कि नहीं ? मतलब बहुत साफ है! जब अपने घर में भाइयों के बीच लड़ाई - झगड़े होते हैं तो दूसरे लोग आ जाते हैं लूटने! और क्या! ' घर का भेदी लंका ढाए ' आपको पता होगा की जब श्री राम रावण से युद्ध कर रहे थे तो रावण पर राम ने अनेक प्रहार किए फिर भी रावण की मृत्यु नही हुई थी । क्योंकि रावण की मृत्यु कैसे होगी यह एक भेद या राज था । जिसके बारे मे विभीषण जो रावण का भाई था उसे पता था की रावण की मृत्यु कैसे होगी । साथ ही रावण और विभीषण मे झगड़ा था जिसके कारण से विभीषण ने अपने भाई यानि रावण की मृत्यु का भेद राम को बताया जिसके कारण से रावण की मृत्यु हो गई । इस तरह से दोनो भाईयो मे आपसी फूट होने के कारण ही रावण का भेद खुल गया था । इसी तरह से जब कोई विभीषण की तरह आपसी फूट से भेद खोलता है तब इसे घर का भेदी लंका ढाए कहते है । माँ के द्वारा प्राप्त भोजपुरी दी गयी सबसे बड़ी शिक्षा थी - 'संतोष के डाढ़ प मेवा फरेला।' अर्थात संतोष के पेड़ की डाली प मेवा फलता है।' -'हँसल घर ही बसेला', सराहल बहुरिया डोमघर जाये।', " बबुआ, मन से कबो हार ना मनिह ! मन के जीते वाला जगत के जीत लेला !"
(3.1)>>> “और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर !" (Look even further - even further. “See for the highest, aim at that highest, and you shall reach the highest.” The way to attain Divinity, that is God also emerges from complete satisfaction !] स्वामीजी कहते हैं - "अग्रसर होते चलो , कर्म करते जाओ, केवल ध्यान रखना कि मन आसक्त न जाये। जो मनुष्य अनासक्ति का कौशल नहीं जानता, उसकी साधना नहीं करता, उसकी प्रज्ञा कभी स्थिर नहीं हो पाती। जैसे पृथ्वीभर की नदियाँ निरन्तर अपनी जलराशि लाकर समुद्र में उड़ेलती रहती हैं, पर उससे समुद्र अचल ही रहता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा एकसाथ प्रकृति की विभिन्न संवेदनाएँ लाये जाने पर भी ज्ञानी के ह्रदय में किसी प्रकार का विक्षेप या भय उत्पन्न नहीं हो पाता। 'सहस्र स्रोतों से दुःख आवे , या शत स्रोतों से दुःख आये, न तो मैं दुःख के अधीन हूँ, और न इन्द्रिय-सुखों का क्रीतदास ही हूँ !"
[(20 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत, परिच्छेद- 100] बड़ा बाजार से गाड़ी जा रही है । दीवाली की बड़ी धूम है । अँधेरी रात दीपों से जगमगा रही है । बड़ा बाजार की गली से होकर गाड़ी चितपुर रोड पर आयी । वहाँ भी दिये जगमगा रहे हैं और चीटियों की तरह आदमियों की पाँत चल रही है । आदमी दूकानों की सजावट पर मुग्ध हो रहे हैं । दूकानदार अच्छे अच्छे वस्त्र पहने हुए गुलाबपाश हाथ में लिये लोगों पर गुलाब छिडक रहे हैं । गाड़ी एक इत्रवाले की दूकान के सामने आयी । श्रीरामकृष्ण पाँच वर्ष के बालक की तरह तस्वीर और रोशनी देख-देखकर प्रसन्न हो रहे हैं । चारों ओर कोलाहल हो रहा है । श्रीरामकृष्ण उच्च स्वर से कह रहे हैं - “और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर ।" यह कहकर हँस रहे हैं । बड़े जोरों से हँसकर बाबूराम से कह रहे हैं, 'अरे बढ़ता क्यों नहीं ? तू कर क्या रहा है ?’ भक्तों ने समझा - श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं ईश्वर ('सत्य' को जानने लक्ष्य?) की ओर बढ़ जा, अपनी वर्तमान अवस्था से सन्तुष्ट होकर न रहना । ब्रह्मचारी ने लक्क्ड़हारे से कहा था, बढ़ जाओ, और आगे बढ़ो । बढ़ते हुए उसने क्रमशः चन्दन का वन, चाँदी की खान, सोने की खान, हीरा, मणि आदि देखा था । इसीलिए श्रीरामकृष्ण बार बार कहते हैं, बढ़ जाओ, बढ़ जाओ । सबसे आगे सन्तोष-धन मिलेगा -
गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥६॥
तुलसीदास जी कहते हैं कि मनुष्य के पास भले ही गौ रूपी धन हो, गज (हाथी) रूपी धन हो, वाजि (घोड़ा) रूपी धन हो और रत्न रूपी धन का भंडार हो, वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता। जब उसके पास सन्तोष रूपी धन आ जाता है, तो बाकी सभी धन उसके लिए धूल या मिट्टी के बराबर है। अर्थात् सन्तोष ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है।
यही संतोष रूपी धन हनुमान जी को प्राप्त हो गया था। कथा है कि लंका से लौटने के बाद भगवान राम ने राज्याभिषेक के बाद सभी लोगों को कुछ न कुछ उपहार दिया। जब हनुमान जी की बारी आयी तो भगवान राम ने अत्यंत मूल्यवान मोतियों की माला अपने गले से उतारकर हनुमान जी को दिया। हनुमान जी ने अपने दांतों से माला तोड़ दिया और एक-एक मोती लेकर बड़े गौर से देखने लगे।जब सभी मोतियों को हनुमान जी ने देख लिया तब हाथ जोड़कर राम जी से बोले 'प्रभु किसी भी मोती में आपकी छवि नहीं है, मैं इन मोतियों का क्या करूंगा'। ऐसे कहते हुए हनुमान जी ने अपनी छाती चीर कर हृदय में बसे राम और सीता की छवि भगवान राम की सभा में उपस्थिति लोगों को दिखाई। भगवान राम हनुमान जी की भक्ति और संतोष को देखकर प्रसन्न हो उठे और गले से लगा लिया। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में संतोष की महिमा को समझाते हुए कहा है कि
'तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
गीता (12.19)
- अर्थात जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त है, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है, जो अनिकेत है, जिसे किसी चीज में (तारा निकेतन या तारा टॉवर में) आसक्ति नही होती है ; ऎसा स्थिर-बुद्धि के साथ भक्ति में स्थित-(माँ जगदम्बा की कृपा-पर आश्रित) मनुष्य मुझे प्रिय है। संतोष रूपी धन के कारण ही हनुमान जी के हृदय में राम और सीता की छवि प्रकट हुई थी। इससे स्पष्ट होता है कि संतुष्टि से ही भगवान को पाने का मार्ग भी निकलता है। परम् तृप्ति या सन्तोष के परम सुख के विषय में कवी अब्दुलर्रहीम खानखाना ने कहा है -
"चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह।। "
रहीम ने साफ-साफ कहा कि और अधिक पाने की चाह से ही चिंता होती है। चिंता ही दुःख का कारण है। जिसकी चाहत समाप्त हो गयी है वह प्रसन्न है जितना है उसी में खुश है, ऐसा व्यक्ति ही शहंशाह है। संतोष के साथ सुख की बात कबीर दास जी सरल शब्द में कहते हैं-
"सॉईं इतना दीजिए, जामें कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधू न भूखा जाय।"
आर्थात भगवान से इतना ही कहिये कि हे प्रभु मेरे पास इनता हो कि जिसमें मैं और मेरा परिवार का (मेरे भाई का?) भरण-पोषण हो जाए। अगर कोई संत (प्रमोद दा) मेरे द्वार पर आएं तो उन्हें भूखा न जाना पड़े। को दरिद्रः ? यस्य तृष्णा विशाला ! मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रः ॥ वैराग्यशतकम् – ५३/ जिसने संतोष की इस महिमा को समझ लिया वास्तव में वही धनवान है। इसी 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय,चरैवेति-चरैवेति' जन्य साम्यभाव में स्थित श्रीरामकृष्ण देव रूपी सन्तोष धन पाने के चार सोपान है चार युग या चार अवस्थाएं।
अब हमलोगों को अपने क्षुद्र स्वार्थों को (नाम-यश पाने की आकांक्षा को) पूरी तरह से विसर्जित कर , यहाँ तक कि स्वयं को भूल कर (मन रूपी उपाधि को विसर्जित कर) किसी कुशल माली के समान प्रत्येक जीवन पुष्प को खिला देने के लिए, बहुत प्यार से उसका लालन -पालन करना होगा। पौधों के लिये तरह तरह के जल और खाद की व्यवस्था करनी होगी। सूर्य के प्रकाश के कृत्रिम आभाव के कारण सुंदर-सुंदर पौधे मुरझाते जा रहे हैं, उनका विकास सही ढंग से नहीं हो पा रहा है। ठीक इसी प्रकार की अवस्था हमारे समाज की भी है। युवा समाज की इसी अवस्था को देखकर कुशलतम माली,युगावतार श्रीरामकृष्ण और युगनायक (परिव्राजक, पर्यटक, बटोही, ब्रह्मचारी) स्वामी विवेकानन्द ने लक्क्ड़हारे से कहा था - "और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर।" बाह्य-परिस्थितियों के दबाव को हटाकर' अपना सुन्दर जीवन गठित करो ताकि तुम्हारा अपना जीवन एक खिले हुए पुष्प के पौधे की भाँति ही विकसित हो उठे। इससे स्पष्ट होता है कि पूर्ण सन्तुष्टि ही ईश्वर है क्योंकि सन्तुष्टि से ही परिपूर्णता (देवत्व, ब्रह्मत्व या saturation-100% Unselfishness) अर्थात भगवान श्रीरामकृष्ण को पाने का मार्ग भी निकलता है। “और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर" (Look even further - even further.):
(3.2)>>>श्रेय-प्रेय निर्णय भीतर से आने दो; [>>Who will decide -- what is right (good), what is wrong (pleasant)? Let the worthy-unworthy (good or pleasant) judgment comes from within]:
कौन निर्णय करेगा--क्या सही है, क्या गलत है ? तुम किन की सुन रहे हो ? किन की आंखों की तरफ देख रहे हो ? तुमने अपने जीवन का निर्णय करने का साराअधिकार किन को दे दिया है ? श्रेय-प्रेय का निर्णय भीतर से आने दो।
बुद्ध ने घर छोड़ा। पिता समझते थे गलत है; पत्नी समझती थी गलत है; परिवार समझता था गलत है, सब समझते थे गलत है। लेकिन आज पच्चीस सौ साल बाद क्या तुम यह कहोगे कि बुद्ध ने घर छोड़ा तो बुरा किया ? नहीं छोड़ते तो मनुष्य-जाति वंचित रह जाती, सदा-सदा के लिए वंचित रह जाती। एक अमृत की धार बही। मगर जब छोड़ा था तो कोई भी पक्ष में नहीं था--कोई भी !
जो आता, वही समझाता। आखिर बुद्ध को इतनी दूर निकल जाना पड़ा, जहां कि कोई बाप को जानता ही न हो, पहचानता ही न हो। अपने बाल काट डाले--सुंदर उनके बाल थे--ताकि कोई पहचान न सके, घुटमुंडे हो गए। वस्त्र पहन लिए दीन-हीन। भिखमंगे मालूम होने लगे। गांवों में न जाते, जंगलों में विचरने लगे, ताकि ये समझाने वालों से पीछा छूटे। क्योंकि अंतरात्मा से एक आवाज उठी थी कि सत्य को खोजे बिना नहीं मरना है। (बुद्ध ने निर्णय ले लिया था कि उस सत्य को खोजे बिना नहीं मरूँगा, जिसे देखकर एथेन्स का सत्यार्थी देवकुलिश अँधा हो गया था।) और अगर बुद्ध भी इन्हीं बातों में उलझे रहते कि, सत्य को खोजने का समय कहां है ? पहले बेटे का विवाह करना है , उसके लिए धन-दौलत इकट्ठा करना है,नाम-यश फ़ैलाने में सत्य को खोजने का अवकाश कहां है ? सुविधा कहां है ?
आज तुम यह न कहोगे कि बुद्ध ने गलत किया। बुद्ध ने बड़ा उपकार किया, पूरी मनुष्य-जाति पर उपकार किया। ऐसा कल्याण किसी और दूसरे मनुष्य ने नहीं किया है। हालांकि तुम भी अगर उस समय बुद्ध के कोई सगेवाले होते (नाना, दादा, ससुर , साले होते ?) तो तुम भी बुद्ध को समझाते--कि भई, यह तुम क्या कर रहे हो ? पिता की सुनो, पिता बूढ़े हैं, उनको दुख मत दो। पत्नी जवान है, उसको पीड़ा मत दो। बेटा अभी-अभी पैदा हुआ है, उसको छोड़ कर भागे जा रहे हो ! यह पलायनवाद है। सब कहा होता; और सब कहा था। लेकिन बुद्ध बाह्य-जगत के आकर्षण के अनुसार निर्णय नहीं लिए, कोई समझौता नहीं किये। अन्तरात्मा की आवाज का अनुसरण किये, वे भीतर से जीए। भीतर से जीए, इसलिए महिमा प्रकट हुई, गरिमा प्रकट हुई।
हे रामछबि (हे रामरूप) ! तुम्हारी अन्तरात्मा या तुम्हारा विवेक जो कुछ करना चाहता हो, वह करो ! चाहे उसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े ! चाहे प्राण ही क्यों न जाएं ! तो भी जाते वक्त प्राणों में कम से कम एक तो संतोष होगा कि मैं जो करना चाहता था वह किया; मैंने अपने को बेचा नहीं, अपनी आत्मा को बाजार में रखा नहीं; मैंने समझौते नहीं किए।
मैं मर रहा हूं, लेकिन वही करते मर रहा हूं जो मैं करना चाहता था। तुम्हारे प्राणों में वैसा ही संतोष होगा जैसा सुकरात को रहा होगा जहर पीते वक्त, जैसा मंसूर को रहा होगा गर्दन कटते वक्त। जैसा जीसस को रहा होगा सूली पर चढ़ते वक्त। संतोष, परम संतोष कि मैं जो करना चाहता था, मैंने वही किया। मैंने किसी कीमत पर समझौते नहीं किए।
इस जगत में परम तृप्ति उनकी है, जो सत्य को छोड़कर संसार से समझौते नहीं करते। जो भीतर से बाहर की तरफ जीते हैं। और उनका जीवन तो नरक है, जो बाहर से भीतर की तरफ जीते हैं। जो हर एक का इशारा पूरा करने में लगे हैं। जो सबको राजी करने में लगे हैं। जो चाहते हैं कि सब हमसे प्रसन्न रहें। उनसे कोई प्रसन्न भी नहीं रहता, यह भी खयाल रखना। और अपना जीवन वे गंवा बैठते हैं। कूड़ा-करकट में गंवा बैठते हैं। [- प्रेम पंथ ऐसो कठिन #3/🌹🙏🏻🌹ओशो..साभार : @Subhash Jain]
(3.3)>>>परन्तु हम त्यागी बने बिना लोकशिक्षक बनना चाहते हैं। हम स्कूल की पढ़ाई पास किये बिना कॉलेज में जाना चाहते हैं। पूर्णत्व (पूर्ण संतुष्टि की अवस्था- 100 % unselfishness की अवस्था) या साम्यावस्था को प्राप्त किये बिना हम मनुष्य-बनो और बनाओ आंदोलन का नेतृत्व करना चाहते हैं? अर्थात पहले सद्चरित्र-वान मनुष्य बने या अपना जीवन-गठन किये बिना, [त्यागी नवनीदा या राजर्षि जनक जैसा 'अनासक्त और राजधर्म पालन में समर्थ' बने बिना (100 % निःस्वार्थी या selfless मनुष्य बने बिना ] ही हम महामण्डल आन्दोलन का नेता, लोकशिक्षक (माली, पैगम्बर, C-IN-C) बनना चाहते हैं। यदि गृहस्थआश्रम में रहते समय भी निःस्वार्थपरता हममें 0 % हो और भोग-विषयों में घोर स्वार्थी पशुओं जैसी लालच 100 % है। तो हमें चरित्र-निर्माण और जीवनगठन करते हुए पहले 50 % निःस्वार्थपरता अर्जित करके पहले पशु से 'मनुष्य' बनना होगा। बिना हमें त्यागी-गृहस्थ लोकशिक्षक या देवत्व में पहुँच चुके नेता C-IN-C नवनीदा जैसा वेशभूषा धारण कर 100 % निःस्वार्थी बन जाने का दावा /दिखावा नहीं करना चाहिए। क्योंकि ईश्वर के आनंद को प्राप्त किये बिना अर्थात `Divine Bliss ' या दिव्य आनंद' को प्राप्त किए बिना, हम तीनों इच्छाओं (ऐषणाओं) को काकविष्ठावत् घृणित समझकर त्याग नहीं सकते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि देवत्व, ईश्वरत्व, बुद्धत्व (दिव्यानन्द 100 % unselfishness ) की प्राप्त करने का मार्ग भी पूर्ण संतुष्टि से ही निकलता है! {We want to become a Leader (Spiritual Teacher) without becoming a tyagi (selfless !) person ! We want to rush to the college before we finish the school. We cannot renounce all the three desires considering them as abominations without attaining the bliss of God ('divine bliss').Thus the way to attain Divinity (100 % unselfishness), that is God also emerges from complete satisfaction! }
[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏अपने प्रियजनों को (1970 में माँ तारा को और 1980 में सन्नी को ) पटापट कूच करते देखकर मैं शुरू में ही (1985 में ज्ञान मन्दिर -1986 कुम्भमेला में ही) सत्यार्थी बन गया🔱🙏 श्रीरामकृष्ण देव गिरीश के हाथ में (केशव -चरित) पुस्तक देखकर गिरीश, मास्टर, राम तथा दूसरे भक्तों से कह रहे हैं - "वे लोग वही लेकर हैं, इसीलिए संसार-संसार रट रहे हैं । कामिनी और कांचन के भीतर हैं न ! उन्हें पा लेने पर ऐसी बात नहीं निकलती । ईश्वर का आनन्द मिल जाता है, तब संसार तो काकविष्ठावत् जान पड़ता है । मैं पहले सब से किनाराकशी कर गया था ।(अर्थात शुरू में ही मैंने सब कुछ त्याग दिया था।) - विषयी लोगों का साथ तो छोड़ा,(किया और सब गल्ली देखा तो छोड़ा), बीच में भक्तों का संग भी छोड़ दिया था । देखा, सब पटापट कूच कर जाते हैं (मर जाते हैं) और यह सुनकर मेरा कलेजा दुःख से तड़प उठता था - इस समय कुछ कुछ तो आदमियों में रहता भी हूँ ।"
Noticing the book in Girish's hand, Sri Ramakrishna said to Girish, M., Ram, and the other devotees: "Those people are busy with the world. That is why they set such a high value on worldly life. They are drowned in 'woman and gold'. One doesn't talk that way after realizing God. After enjoying divine bliss, one looks on the world as crow-droppings. At the very outset I utterly renounced everything. Not only did I renounce the company of worldly people, but now and then the company of devotees as well. I noticed that the devotees were dropping dead one by one, and that made my heart writhe with pain. But now I keep one or two of them with me."
গিরিশের হাতে বই দেখিয়া ঠাকুর গিরিশ, মাস্টার, রাম ও অন্যান্য ভক্তদের বলিতেছেন — “ওরা ওই নিয়ে আছে, তাই ‘সংসার সংসার’ করছে! — কামিনী-কাঞ্চনের ভিতর রয়েছে। তাঁকে লাভ করলে ও কথা বলে না। ঈশ্বরের আনন্দ পেলে সংসার কাকবিষ্ঠা হয়ে যায়, — আবার মাঝে ভক্তসঙ্গ-ফঙ্গও ত্যাগ করেছিলাম! দেখলুম পট্ পট্ মরে যায়, আর শুনে ছট্ফট্ করি! এখন তবু একটু লোক নিয়ে থাকি।”
चातक पक्षी (पपीहे) की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है। " प्यास के मारे चातक की छाती फटी जाती है , सातों सागर , सारी नदियाँ, तथा कुल तालाब पानी से भरे रहते हैं, फिर भी वह उनका जल नहीं पीता। स्वाति की बूँदों के लिए चोंच फैलाये रहता है। स्वाति की बूँदों को छोड़ उसके लिए और सब पानी धूल है। " (वचनामृत -९०२) जिस नेता /नेतृ की आँखों में स्त्री-पुरष का भेद विद्यमान है, उसे 'निवृत्ति अस्तु महाफला' विवेक-प्रयोग से पहले अनासक्त बनना चाहिए।]
(iv)🙏>>>Truth is of two kinds: सापेक्षिक सत्य और पूर्ण सत्य" ['इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य' :[`Relative truth or perceptional truth and Transcendental truth or Absolute truth.' (HINDUISM AND SHRI RAMAKRISHNA)]
स्वामीजी ने कहा है " सत्य के दो भेद हैं--
1. पहला वह सत्य जिसे मनुष्य अपनी पंचेन्द्रियों के माध्यम से, और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण करता है। [जैसे डाली से टूटकर सेव नीचे ही क्यों आया, ऊपर क्यों नहीं गया ?] इस प्रकार इन्द्रियों (दर्शन-इन्द्रिय) की गवाही, एवं तर्क -आधारित अनुमान के द्वारा संकलित ज्ञान को विज्ञान कहते हैं; - Law of gravitation, या गुरत्वाकर्षण का नियम कहते हैं !
2. दूसरा वह सत्य जिसे 'supersensuous power of Yoga' अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति या 'आध्यात्मिक शक्ति' के द्वारा ग्रहण किया जाता है। [that which is cognizable by the subtle, supersensuous power of Yoga.]
यह 'अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति' जिस मनुष्य में आविर्भूत अथवा प्रकशित होती है, उसका नाम है ऋषि, और उस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जिस अलौकिक सत्य (अविनाशी,पूर्ण -सत्य) की अनुभूति करते हैं, उसका नाम है -'वेद'।
[पहला जो सत्य परिवर्तनशील होने के कारण मिथ्या, या नश्वर है। और दूसरा जो सत्य इन्द्रियातीत,अपरिवर्तनीय होने के कारण शाश्वत या अविनाशी है! जिन पुरुषों में उस सर्वग्राही प्रेम -झरने के अविनाशी सत्य का आविर्भाव होता है, उन्हें ऋषि कहते हैं। और माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट 'अहं'-से निकले उस प्रेम रूपी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा उन्होंने जिस 'एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति -अनेकता में एकता' की उपलब्धि की है, उसे वेद कहते हैं।]
इस ऋषित्व तथा वेद-दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। साधक के जीवन में गुरु -दीक्षा के द्वारा जब तक इस वेद-दृष्टत्व का विकास नहीं होता, तब तक 'धर्म' केवल 'कहने भर की बात' है; एवं समझना चाहिये कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान भी पैर नहीं रखा है। (खंड १०/१३९)
[" Truth is of two kinds: (1) that which is cognizable by the five ordinary senses of man, and by reasoning based thereon; (2) that which is cognizable by the subtle, supersensuous (metaphysical) power of Yoga. Knowledge acquired by the first means is called science; and knowledge acquired by the second is called the Vedas." The person in whom this spiritual power is manifested is called a Rishi, and the spiritual truths which he realizes by this power are called the Vedas. This Rishihood, this power of spiritual perception of the Vedas, is real religion. And so long as this does not develop in the life of an initiate, so long is religion a mere empty word to him, and it is to be understood that he has not taken yet the first step in religion. (volume-6)]
--स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द (Existence -Consciousness-Bliss) है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव कर लेने के बाद असार वासनायें फिर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारण द्वय - [" मृत्यु-भय तथा कामिनी-कांचन एवं नामयश में आसक्ति' अथवा] तीनो ऐषणाओं से अनासक्त हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। (अर्थात लालची लोगों के बीच रहते हुए भी पूर्ण सन्तुष्टि, complete fulfillment-100% Unselfishness की प्राप्ति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !(अर्थात प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास) " (१/४०)
" परन्तु अतीन्द्रिय सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए एक ऐसे व्यक्ति के चरणों के पास बैठकर शिक्षालाभ करना (मनःसंयोग का प्रशिक्षण लेना) आवश्यक है , जिसने स्वयं उस सत्य का साक्षात्कार कर लिया है। " स्वामी विवेकानन्द भी गुरु की खोज यह पूछने के लिए कर रहे थे कि`कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।' हे भगवन , भला किसको जान लेने पर यह सबकुछ जान लिया जाता है ? महामण्डल का नेता वही हो सकता है, जिसने 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक परम्परा में प्रशिक्षित होकर अपने जीवन और जगत की की समस्या [मृत्यु की समस्या ] को हल कर लिया है। तथा जगत के करणरूपी उस भूमा (सच्चिदानन्द) को जान लिया है, जिनकी ज्ञान-पिपासा तृप्त हो गयी है और जो दूसरों को भी तृप्त करने में समर्थ हैं ? [वि० चरित ५०]
🔱(v)>>>'प्रत्येक रत्नाकर संभावित वाल्मीकि हैं!' 'Each Ratnakar is potential Valmiki!' Any action with a selfish motive is far inferior :
20 नवम्बर, 2022 को ' 55th Special AGM at Konnagar at 3.00 pm " में विशेष-चर्चा होगी कि : महामण्डल के Emblem (प्रतीक चिन्ह) में सप्तर्षि को घटाकर 5 ऋषि करना क्या उचित है ? स्वामी जी ने कहा था - " यदि भारत को महान बनाना है ,उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "...संगच्छध्वं संवदध्वं' देवता मनुष्य द्वारा इसीलिए पूजे गए कि वे एकचित्त थे, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। और यदि तुम -बेलघाटा जैसे तुच्छ विषयों को लेकर 'तू तू मैं मैं ' करोगे -झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे - तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। बस, संकल्प-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है। इसलिए ये सब मतभेद के झगड़े एकदम बन्द हो जाने चाहिए। (भारत का भविष्य- ५/१९२)
सांगठनिक एकता में बल है। यह सांगठनिक एकता केवल अनुशासन से सम्भव है। जिसका महामण्डल एक उदाहरण रहा है। 'सांगठनिक एकता , शक्ति संचयन और इच्छा (चाह) के समन्वयन' में सन्निहित है। बस, इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है। देवता मनुष्य द्वारा इसीलिए पूजे गए कि वे एकचित्त थे, विवेकी जनों का 'एक मन हो जाना' ही समाज गठन (संघीय अनुशासन) का रहस्य है।अतएव `एक भारत, श्रेष्ठ भारत' बनाने का सारा रहस्य भी यही है।
[Therefore to make a great future India, the whole secret lies in organization, accumulation of power, co-ordination of wills .That the gods can be worshipped by men is because they are of one mind. Being of one mind is the secret of (Vedanta) society.]
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " प्रत्येक आत्मा 'अव्यक्त' ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव (100 % निःस्वार्थपरता) को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है। {वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद}
[" Each soul is potentially divine. Religion is the manifestation of the Divinity already in man. Religion is the idea which raises the brute unto man, and man unto God. Unselfishness is God. One may live on a throne, in a golden palace, and be perfectly unselfish; and then he is in God. Another may live in a hut and wear rags, and have nothing in the worlds; yet, if he is selfish, he is intensely merged in the world.Selfishness is the chief sin, thinking of ourselves ]
अतएव 20 नवम्बर, 2022 को आयोजित होने वाले अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के कार्यकारिणी समिति की बैठक में भारत के विभिन्न प्रान्तों के स्कूल, कॉलेज और विभिन्न यूनिवर्सिटी आदि में जो स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पर सेमिनार, पाठचक्र और युवा-प्रशिक्षण शिविर आदि आयोजित हो रहे हैं, उसकी खूबियाँ और खामियाँ (Merits and demerits-गुण और दोष) पर चर्चा होगी । क्योंकि महामण्डल या 'संघ' की संज्ञा विवेकवान लोगों के समूह के लिए सुरक्षित रही है, जो अपने निर्णय सिद्धान्ततः आमसहमति के आधार पर लेते हों।
अब महामण्डल की कार्यकारिणी समिति में 'minister without portfolio' जैसा कोई मेंबर नहीं रहेंगे। अलग-अलग प्रोजेक्ट के इंचार्ज नामित करना चाहिए। Other than West बंगाल राज्यों में कैम्प करने में हर जगह से प्रमोद दा की मांग होती है , जबकि उन्हें बोलना भाषण देना नहीं आता ; क्योंकि उनके पास आदर्श [त्याग और सेवा] के अनुरूप जीवन भी है। लेकिन वे हमारे एक्जेक्यूटिव कमिटी में क्यों नहीं हैं ?
सारदा नारी संगठन के मॉनिटरिंग में रंजीत दा, समीर सेन, रनेन दा । बाहर के राज्यों में क्लास लेने के काम में अपूर्वा दास , और डॉक्टर तुहिन चटर्जी ने अपनी दक्षता दिखाई है। अतः इनको भी कारकारिणी में शामिल करना चाहिए। इंटरस्टेस्ट मॉनिटरिंग डिपार्टमेंट - बिजय और प्रमोद दा (सोमनाथ पदेन)/ विवेक-वाहिनी मॉनिटरिंग हेड - रासबिहारी जैसे सीनियर/ उपाधि -नाश का अवसर है; और स्वयं का साक्षी बनने का अवसर है, वहाँ भी माँ ही बात करेगी !
जैसे 'अखिल भारत की जगह जैसे 'अखिल भारतीय' लगा देने से राजनीती की गंध आती है, वैसे ही इस आंदोलन को 'निखिल बंग' आंदोलन भी नहीं समझना चाहिए। अतएव युवा प्रशिक्षण शिविर के सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी-अंग्रेजी मिलाकर का प्रयोग किया जायेगा। महामण्डल की शाखाएं अब दूसरे राज्यों में भी फ़ैल रही हैं, अतएव इसकी कार्यकारिणी में जितने सदस्य होंगे उनमें सेक्रेटरी overall सभी कार्यों पर नजर रखेंगे। दादा को चार हाथ था - वे सभी शाखाओं के सचिव से व्यक्तिगत सम्पर्क रखते थे और सभी के साथ स्वयं पत्राचार करते थे। अब ये सम्भव नहीं है। इसीलिए अब कार्यकारिणी समिति के सभी सदस्यों को उनकी कार्यक्षमता के अनुरूप महामण्डल के अलग-अलग विभागों का प्रोजेक्ट इंचार्ज बनाना होगा।
:झूठी प्रशंसा द्वारा यविष्ठ नेता का निर्माण नहीं होता। इसलिए किसी व्यक्ति या शाखा के प्रति तुष्टिकरण नहीं होना चाहिए। बल्कि मधुर वचनों से प्रत्येक रत्नाकर में छिपे महर्षि बाल्मीकि को अभिव्यक्त करने की चेष्टा होनी चाहिए।
i -तो उड़ीसा स्टेट ब्रांच क्यों है ?
ii. बेलघाटा शाखा पर अनुशात्मक कार्रवाई बिल्डिंग बनाने के पहले, शुरू में ही क्यों नहीं हुई ?जो यूनिट रेगुलर रिपोर्ट नहीं भेजते हैं, या सेक्रेटरी अपने घर को गिरवी रखकर लाइब्रेरी बनाने के लिए लोन लेता है , उसको सही मार्ग कौन दिखता है ? महामण्डल के अनुशासनात्मक समिति (Disciplinary committee) में पुराने मेम्बर प्रमोद दा, विकास दा, रंजीत मोहंती, तुहिन भट्टाचार्जी, परेश बाबू, तपन गराई, जगदीश दे, किचेन इंचार्ज,जैसे भारत -प्रेमी, लोगों को एक्जेक्यूटिव कमिटी में क्यों नहीं होना चाहिए? जब महामण्डल स्वीकृत ' lingua franca' सामान्य सम्पर्क भाषा हिन्दी है तो अखिल भारत महामण्डल कैम्प में 'निखिल बंगो महामण्डल' जैसा प्रश्न क्यों उठना चाहिए कि तेलगु-गुजती भाषी के लिए अलग ऑडोटोरियम और वक्ता रहेंगे?
(vi)>>>"Education and Religion" (शिक्षा और धर्म ) : अर्थात उपनिषद परम्परा (तैत्तरीय-परम्परा) में दी जाने वाली शिक्षा का नाम है 'शीक्षा !'
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।
धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसा मैं कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है-रास्ता साफ कर देना--शेष सब भगवान ही करते हैं।
[नेता, पैगम्बर, या प्रशिक्षित माली का काम है खर-पतवार साफ कर देना, जड़ को सींचना शेष सब काम यानि जीवन-पुष्प के प्रस्फुटन का काम भगवान स्वयं करते हैं। (3 मार्च, 1894 को शिकागो से -सिंगारवेलु मुदलियार उर्फ़ "किडी" को लिखा गया पत्र- २/३२८) ]
{'Education is the manifestation of the perfection already in man. ' & 'Religion is the manifestation of the Divinity already in man.' Therefore the only duty of the teacher in both cases is to remove all obstructions from the way. Hands off! as I always say, and everything will be right. That is, our duty is to clear the way. The Lord does the rest." [ Written to "Kidi" A. Singaravelu Mudaliar (1855 -1931) on March 3, 1894, from Chicago. "Kidi" studied Tamil, Telugu and Sanskrit languages. He was a professor of Tamil at Pachaiyappa's College in Madras.]}
वे आगे कहते हैं - " धर्म (विवेक-प्रयोग) वह वस्तु है जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। -" भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं त्याग और सेवा आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये शेष सबकुछ अपने आप ठीक हो जायेगा।`मैं उसी को महात्मा मानता हूँ जिसका हृदय गरीबों के लिए रोता है,अन्यथा वह दुरात्मा है।' [मोहनिद्रा में सोये रहने वाले मनुष्य या धन-संपत्ति के लिए भाई -भाई को धोखा देने से भी नहीं हिचके तो उससे से भी गरीब और कौन है? उस धनी -पढ़े-लिखे गरीब को और अधिक प्रकाश चाहिए।] ~ स्वामी विवेकानन्द का केवल यह कथन ही किसी प्रकाश स्तम्भ (lighthouse) की तरह मानवजाति को आगामी 1500 वर्षों तक हमेशा रोशनी देता रहेगा। [अनादि काल से इस सृष्टि में भगवान विष्णु जैसे नेता (श्रीकृष्ण) का यह अमर घोष -' सम्भवामि युगे युगे', मानवमात्र के भावी नेताओं या पैगम्बरों के लिए मार्गदर्शक रहा है। " ठीक इसी तरह की बात श्री दुर्गा सप्तशती में भी कही गई है -
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा तदाऽवतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम् ॥
जब कभी इस तरह से राक्षसों द्वारा (संसार का) उत्पीड़न किया जाएगा, तो मैं स्वयं अवतार लेकर उन राक्षसों (दुष्टों) का संहार कर दूँगी।
Whenever there is harassment (of the world) by demons in this way, I will incarnate and destroy them !
" इसी को कहते हैं- साम्यभाव में स्थित नेतृत्व की ऐतिहासिक अनिवार्यता (Historical Urgency)। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है , उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए एक महान भाव को आविर्भूत होना अनिवार्यता (imperatival) बन जाती है। फिर चाहे नेतृत्व का वह सर्वश्रेष्ठ संस्करण (Best Version -5G) अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण के द्वारा हो या महामण्डल जैसे किसी संगठन के रूप में हो, एक विशिष्ट भाव मूर्तमान होता अवश्य है। इस युग श्री रामकृष्णदेव के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है। हमारी दृष्टि में श्री रामकृष्ण देव ही प्रथम युवा नेता हैं, जननेता हैं, मानवप्रेमी हैं (त्यागी लोकशिक्षक) हैं - जो कामिनी-कांचन को नहीं बल्कि मानवमात्र को ह्रदय से प्रेम करते हैं। समस्त पृथ्वी के मनुष्यों को ह्रदय अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है। समस्त मानव जाति, समस्त प्राणियों (कुत्ते के छोटे से पिल्ले के सिर पर हाथ फेर कर स्नेह करते हैं !) यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी जिन्होंने अभिन्नता (अद्वैत-एकत्व) का साक्षात्कार किया है।" उन्होंने इन्हीं जनसाधारण की मुक्ति के लिए प्रयास किया है , उन्हें संगठित करने की चेष्टा की है। इस तथ्य को समझने के लिए स्वामी विवेकानन्द के द्वारा अपने गुरु -मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण के सम्बन्ध में व्यक्त उद्गारों का अध्यन करना विशेष रूप से आवश्यक है। स्वामीजी कहते हैं - " श्रीरामकृष्णदेव युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं, सभी लोगों को आगे बढ़ने के लिए अनुप्रेरित कर रहे हैं; किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं।
-‘Come, my boys! Oh, where are you all? I cannot bear to live without you! "... Shortly thereafter the young men destined to be his monastic disciples began to arrive. And foremost among them was Narendranath. After meeting him Thakur told -हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हुए कहा -‘Ah! you have come so late. How unkind of you to keep me waiting so long!'
(vii.)>>> Are you unselfish? That is the question. प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थी हो ? प्रश्न तो यह है कि क्या तुमने इन्द्रियातीत सत्य और इन्द्रियग्राह सत्य के बीच के अंतर का अनुभव कर लिया है, अथवा क्या तुम्हें सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेक हो चुका है ?The question is, are you selfless? have you experienced the difference between the transcendental truth and the perceptive truth ?
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " भारतवर्ष में वेदव्यास नामक एक महापुरुष थे। वे बहुत बड़े ऋषि थे और वेदान्त-सूत्र के प्रणेता के नाम से प्रसिद्द हैं। (गुरु पूर्णिमा का त्यौहार वेद व्यास को समर्पित है, इसलिए गुरु पूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहा जाता है।) इनके पिता (पराशर ऋषि) ने पूर्णत्व प्राप्त करने का बहुत प्रयास किया था , परन्तु वे असफल रहे। उनके पितामह तथा प्रपितामह ने भी पूर्णत्व-प्राप्ति के लिए बहुत चेष्टा की थी , किन्तु वे भी सफलता प्राप्त नहीं कर सके थे। स्वयं व्यासदेव भी पूर्ण रूप से सफल न हो सके; परन्तु उनके पुत्र शुकदेव परम हंस जन्म से ही सिद्ध थे। {अर्थात साम्यभाव में स्थित थे।} अपने पुत्र को यथाशक्ति शिक्षा देने के बाद उन्होंने शुकदेव को राजा जनक की राजसभा में भेज दिया। जनक एक बहुत बड़े राजा थे और विदेह नाम से प्रसिद्द थे। 'विदेह ' का अर्थ है - 'शरीर से पृथक'। यद्यपि वे राजा थे , फिर भी उन्हें इस बात का तनिक भी भान न था कि वे शरीर हैं। उन्हें तो सदा यही ध्यान रहता था कि वे आत्मा हैं।
बालक शुकदेव उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजे गए। इधर राजा जनक को यह मालूम था कि व्यासमुनि का पुत्र उनके पास तत्वज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने आ रहा है। इसलिए उन्होंने पहले से ही कुछ प्रबंध कर रखा था। जब बालक राजमहल के द्वार पर आया, तो रिसेप्शनिष्ट सन्तरियों ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। उन्होंने बस उसे बैठने के लिए एक आसन भर दिया। इस आसान पर वह बालक लगातार तीन दिन बैठा रहा। इसके बाद अचानक राजा के मंत्री तथा बड़े-बड़े अधिकारी आये उन्होंने उनका अत्यंत सम्मान के सात स्वागत किया।वहाँ अपमान-सम्मान दोनों मिला परन्तु शुकदेव के प्रशान्त चेहरे पर तनिक भी अन्तर न हुआ।
इसके बाद उन्हें राजा के सम्मुख लाया गया, वहाँ नाच-गान तथा आमोद-प्रमोद हो रहे थे। राजा ने बालक शुक के हाथ में लबालब दूध से भरा हुआ एक कटोरा दिया और कहा - इसे लेकर दरबार की सात बार प्रदिक्षणा कर आओ , पर देखना कि एक बूँद भी दूध न गिरे। वे संगीत की ध्वनि एवं अनेक सुन्दरियों के बीच सात बार चक्कर लगा आये पर दूध की एक भी बूँद न गिरी। तब राजर्षि जनक ने कहा -वत्स जो कुछ तुम्हारे पिता ने सिखाया है, तथा तुमने स्वयं सीखा है, उसकी पुनरावृत्ति मात्र मैं कर सकता हूँ। तुमने 'सत्य' को जान लिया है, अपने घर वापस जाओ।"
" यदि हम सच्चे कर्मयोगी हैं और इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए अपने को प्रशिक्षित करना चाहते हैं, तो हम चाहे जिस अवस्था से आरम्भ करें, यह निश्चित है कि अन्त में हमें पूर्ण आत्मत्याग का लाभ होगा ही। (अर्थात 100 %निःस्वार्थपरता प्राप्त होगी ही !) और ज्यों ही इस कल्पित 'अहं ' का नाश हो जायेगा [अर्थात यह दासोहं बन जायेगा], त्योंही वही संसार , जो हमें पहले अमंगल से भरा प्रतीत होता था, अब स्वर्गस्वरूप और परमानंद से पूर्ण प्रतीत होने लगेगा। यहाँ तक कि हवा तक बदल कर मधुमय हो जाएगी और प्रत्येक व्यक्ति भला प्रतीत होने लगेगा। यही है कर्मयोग की चरम गति, और यही है उसकी पूर्णता या सिद्धि।
निरन्तर श्रवण-मनन और अभ्यास करते रहने से निश्चल तत्व की व्याख्या समझ में आने लगती है। 'वास्तव में कभी कोई व्यक्ति किसी दूसरे को नहीं सिखाता , हममें से प्रत्येक को अपनेआप को सिखाना होगा। यह अनुभूति ही हमारी प्रबल इच्छा-शक्ति में परिणत जाती है। और इस इच्छाशक्ति से कर्म करने की वह प्रचंड शक्ति पैदा होती है जो नसों में प्रवाहित होकर तुम्हारे देह-मन को इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र बना देती है। और इसके फलस्वरूप हमें अपना वांछित पूर्ण आत्मत्याग एवं परम् निःस्वार्थपरता (100 %निःस्वार्थपरता) प्राप्त हो जाती है। मतान्ध व्यक्ति (जो केवल अपने मत को श्रेष्ठ और अपने को गुरु जानता है) यह नहीं जानता कि उसका स्वयं का जीवन-लक्ष्य और उन लोगों का जीवन-लक्ष्य, जिन्हें वह अपना विरोधी समझता है [ap,sdd,bin], बिल्कुल एक ही है। एक भक्त अन्त में माँ जगदम्बा के शरणागत होकर कहता है -माँ तेरी इच्छा पूर्ण हो ! [अपने अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं, में रूपांतरित कर लेता है।] यही आत्मत्याग है। एक ज्ञानी भी अपने ज्ञान द्वारा देखता है कि उसका यह तथाकथित भासमान 'अहं ' केवल एक भ्रम है। इसतरह वह इसे बिना किसी हिचकिचाहट के त्याग देता है। बड़े- बड़े धर्मप्रचारकों ने जब हमें यह सिखाया कि 'ईश्वर जगत से भिन्न है, जगत से परे है ' तो असल में उसका मर्म यही था कि जगत एक चीज है और ईश्वर दूसरी; और यह भेद बिल्कुल सत्य है। जगत से उनका तात्पर्य है स्वार्थपरता। निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। कोई मनुष्य चाहे रत्नजड़ित सिंहासन पर बैंठता हो, सोने के महल में रहता हो, परन्तु यदि वह पूर्णरूप से निःस्वार्थी है, तो वह ब्रह्म में ही स्थित है। परन्तु कोई दूसरा मनुष्य चाहे झोपड़ी में ही क्यों न रहता हो, चीथड़े क्यों न पहनता हो, पर यदि वह स्वार्थी है, तो हम कहेंगे कि वह संसार में (तीनो ऐषणाओं में ?) घोर रूप से डूबा हुआ है। हाँ, तो हम कह रहे थे कि बिना कुछ बुरा किये हम न तो भला कर सकते हैं और न बिना कुछ भला किये बुरा ही। तो अब प्रश्न यह है कि यह जानते हुए हम किस प्रकार कर्म करें ? इसका यथार्थ समाधान गीता में मिलता है। और वह है अनासक्ति -अपने जीवन के समस्त कर्म करते हुए भी किसी में आसक्त न होना। .... प्रश्न तो यह है कि क्या तुम निःस्वार्थी हो ? यदि तुम हो, तो केवल महामण्डल कर्म -'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय -चरैवेति, चरैवेति' करते हुए तुम मोक्ष-लाभ कर लोगे, मुक्त हो जाओगे अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी !
अतएव हमने देखा कि जिस मनुष्य ने स्वयं पर (अपने मन पर) अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसके ऊपर बाहर की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। उसके लिए किसी प्रकार की दासता शेष नहीं रह जाती। उसका मन स्वतंत्र हो जाता है। और केवल ऐसा ही पुरुष संसार में रहने योग्य है। (अर्थात जिस धीर पुरुष ने साम्यावस्था प्राप्त कर ली है, और अपने अहं को दासोहं बना लिया है,केवल माँ काली का भक्त ही संसार में (माँ काली के राज्य में) रहने योग्य है। प्रश्न तो यह है कि क्या तुमने इन्द्रियातीत सत्य और इन्द्रियग्राह सत्य के बीच के अंतर का अनुभव कर लिया है, तुम्हें सत्य-असत्य-मिथ्या का विवेक हो चुका है ? [नवनीदा -'अनासक्ति ही पूर्ण आत्मत्याग है'३/६१]
["There was a great sage in India called Vyâsa. His father had tried to become a very perfect man and had failed. His grandfather had also tried and failed. His great-grandfather had similarly tried and failed. He himself did not succeed perfectly, but his son, Shuka, was born perfect. This boy Shuka was sent to be taught by Videh Raj Janaka . As desired by the king, seven times did the boy Shuka go round, and not a drop of the milk was spilt. And when he brought the cup to the king, the king said to him, "What your father has taught you, and what you have learned yourself, I can only repeat. You have known the Truth; go home."... Unselfishness is God. One may live on a throne, in a golden palace, and be perfectly unselfish; and then he is in God. Another may live in a hut and wear rags, and have nothing in the world; yet, if he is selfish, he is intensely merged in the world. ... Are you unselfish? That is the question. If you are, you will be perfect without reading a single religious book, without going into a single church or temple...Thus the man that has practiced control over himself cannot be acted upon by anything outside; there is no more slavery for him. His mind has become free. Such a man alone is fit to live well in the world.....This very world will become to us an optimistic world when we become masters of our own minds. Nothing will then work upon us as good or evil; we shall find everything to be in its proper place, to be harmonious. Some men, who begin by saying that the world is a hell, often end by saying that it is a heaven when they succeed in the practice of self-control. If we are genuine Karma-Yogis and wish to train ourselves to that attainment of this state, wherever we may begin we are sure to end in perfect self-abnegation; and as soon as this seeming self has gone, the whole world, which at first appears to us to be filled with evil, will appear to be heaven itself and full of blessedness. Its very atmosphere will be blessed; every human face there will be god. Such is the end and aim of Karma-Yoga, and such is its perfection in practical life. [NON-ATTACHMENT IS COMPLETE SELF-ABNEGATION]
(viii.)>>>Who won the mind? Jagadguru Shankaracharya replied – 'The one who conquered his tongue (speech)'.
विद्वान नेता (ब्रह्मविद-पैगम्बर) अपनी वाणी से किसी को पीड़ित-प्रताड़ित नहीं, अपितु प्रेरित किया करता है। ”एक बार किसी व्यक्ति ने जगद्गुरू शंकराचार्य से पूछा- गुरूदेव जगत को किसने जीता? उन्होंने उत्तर दिया- जिसने अपने मन को जीत लिया। उसने पुनः पूछा - मन को किसने जीता? जगद्गुरू शंकराचार्य ने उत्तर दिया-जिसने अपनी जुबान (वाणी) को जीत लिया।” [`जिंदगी है क्या ? सुन मेरी जां, प्यारभरा दिल-मीठी जुबाँ।' (-मजरूह, फिल्म माया।)] ‘जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।’ श्रीरामकृष्ण जैसे विनम्र शब्द (मीठे शब्द) किसी शिक्षक -नेता के चरित्र या व्यवहार की नींव है, जो भावी नेता को प्रशिक्षित कर सकते हैं ! जो जीवन में विशिष्ट बनना चाहते हैं, उन्हें पहले शिष्ट बनना चाहिए। ['As you sow, so shall you reap.': Polite words (Sweet words) are foundation of our Character or behavior! Those who want to be Leader (unique) in life, they must first become polite gentle man.]
वाणी व्यवहार का आधार होती है। यह ऐसा प्रभु-प्रदत्त गहना है जिसका कोई सानी नहीं। इसे न तो कोई चुरा सकता है और न ही कोई छीन सकता है। वाणी में विवेक और विनम्रता यश की सुगंध भरते हैं। वाक्पटुता और व्यवहार कुशलता तो व्यक्ति के हृदय पर राज करते हैं-किन्तु ध्यान रहे, वाणी में वाक् चातुर्य के साथ-साथ वाकसंयम भी नितान्त आवश्यक है। विनम्र वाणी ऐसा अमोघ अस्त्र है जिससे शत्रु भी मित्र बन जाते हैं, हृदय परिवर्तन होते हैं। इतना ही नहीं वाणी की ऋजुता (सरलता, कुटिलता रहित होना) शीतलता और मृदुता से घृणा ईर्ष्या -द्वेष (बैर) प्रतिशोध और क्रोध के ज्वालामुखी भी अपना लावा उगलना बन्द कर देते हैं। फलस्वरूप शान्ति, प्रेम, मित्रता, सौहार्द और आनन्द की अमृत वर्षा होने लगती है, प्रेम की पावस ऋतु पुन: आ जाती है, सहयोग की हरियाली देखकर आशा और अरमानों के मोर तथा पपीहे बोलने लगते हैं। वाणी इंसान को शैतान से फरिश्ता बना देती है। जरा वाणी का तप करके तो देखिये-यह आपके व्यक्तित्व को ऐसे सुसज्जित कर देगी जैसे सूर्य की स्वर्णिम रश्मियां उसके आभामण्डल को अलंकृत कर देती है। इसीलिए वाणी का गहना सब गहनों में श्रेष्ठ माना गया है।
आधुनिक युग में भगवान (श्रीरामकृष्ण) ही सबसे प्रथम युवा नेता थे ; जिन्होंने अपने स्तुति-वचनों से 18 वर्ष के तरुण नरेन्द्र नाथ के यौवन ऊर्जा को समाजोपयोगी बनाकर,(3H विकास के 5 अभ्यास का चपरास प्राप्त पुरोहित C-IN-C) भावी नेता नेता के रूप में उनके जीवन गठित करके उन्हें 'यविष्ठ' --चिर युवा रहने वाले स्वामी विवेकनन्द में रूपान्तरित कर दिया था ! जिस उपाय से ईश्वर (ब्रह्म) सदैव युवा -यविष्ठ बने रहते हैं, चिरयुवा बने रहने के उपाय का एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है -'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति' करते हुए भारत के युवाओ के द्वार द्वार तक 'राजयोग विद्या' का प्रचार -प्रसार में लगे रहना ! तीनों ऐषणाओं को त्याग कर मनुष्य जिस मानसिक-एकाग्रता का अभ्यास करके ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, युवाओं के लिये उसी सुनिश्चित विज्ञान को '3H विकास के 5 अभ्यास' पर महामण्डल द्वारा सरल भाषा में प्रकाशित 'मनः संयोग', 'जीवन-गठन', 'एक नया युवा आन्दोलन ' आदि विभिन्न पुस्तिकाओं में प्रकाशित किया गया है।
मानव समाज की समस्त ऊर्जा युवाओं में निहित है, जिस प्रकार अग्नि की लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रसिता शक्ति होती है, ठीक उसी प्रकार यौवन का जीवन भी अत्यन्त चंचल और जोशीला होता है। किन्तु कोई भी शक्ति नियंत्रण में नहीं रखने से कार्यकर नहीं होती । इसलिए युवाओं की चंचलता एवं यौवन के जोश से असहज होकर कुछ बुजुर्ग उनकी भर्तस्ना करके उन्हें शान्त करने की चेष्टा करते हैं। क्योंकि नियंत्रण में नहीं रखने से कोई भी शक्ति कार्यकर नहीं होती । इसलिए कुछ लोग उन्हें - झूठी प्रशंसा या वाह-वाही पाने के उद्देश्य से की गयी समाज-सेवा [अन्नदान -वस्त्रदान- Amphan Cyclone आदि रिलीफ वर्क] में लगाकर या हर साल 12 जनवरी को युवा-महोत्सव में नाच-गान आयोजित करने के काम लगा देने की चेष्टा करते हैं। किन्तु गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित विद्वान नेता (ब्रह्मविद-पैगम्बर) अपनी वाणी से किसी युवा को कटुवचनों से पीड़ित-प्रताड़ित नहीं करते , अपितु जैसा अग्नि का आह्वान करते हुए,वेदों में कहा गया है -' नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः। अग्ने दिवित्मता वचः॥ ऋग्वेद १.२६.२॥ - अर्थात सदा तरुण रहने वाले हे अग्निदेव! आप हमारे सर्वोत्तम होता (यज्ञ सम्पन्न कर्ता, भावी नेता) के रूप मे यज्ञकुण्ड मे स्थापित होकर मेरे स्तुति वचनो का श्रवण करें॥ यज्ञ का अर्थ होता है त्याग के द्वारा सम्पादित कर्म। (अर्थात निःस्वार्थभाव से, या अनासक्त भाव से सम्पादित समाज सेवा। श्रीरामकृष्ण ,स्वामी विवेकानन्द जैसे युवा नेता अग्निस्वरूप युवा-समुदाय को, 'उत्तिष्ट-जाग्रत ' जैसे दीप्तिमान (ओजस्वी) स्तुति -वचनों के द्वारा, उन्हें उनकी अन्तर्निहित शक्ति के संबन्ध में जाग्रत करने के लिए प्रेरित किया करते हैं । मानव समाज की समस्त ऊर्जा युवाओं में निहित है, लेकिन नेता उससे असहज नहीं होते, वे यौवन ऊर्जा की या युवाओं में अन्तर्निहित 3-'H' की शक्ति की भर्तस्ना नहीं स्तुति करते हुए उस शक्ति को नियंत्रित करने का जो सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है - मनःसंयोग (राजयोग विद्या।) और उस युवा शक्ति नियंत्रित करने के सुनिश्चित विज्ञान को `स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' 'Be and Make' में '3H विकास के 5 अभ्यास' की प्रशिक्षण-पद्धति द्वारा नियंत्रित कर, 'वैक्तिक जीवन -गठन' रूपी भारत कल्याण यज्ञ (त्याग और निःस्वार्थ सेवा और साधना रूपी यज्ञ ) में लगाकर 'भारत हिताय, भारत सुखाय -चरैवेति, चरैवेति' करते हुए चपरास प्राप्त -पुरोहित बनने और बनाने ' के आन्दोलन को सम्पूर्ण भारत के युवाओं तक पहुँचा देना महामण्डल का कार्य है।
युवैव धर्मशील: स्यात् अनित्यं खलु जीवितम्।
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युकालो भविष्यति॥
अर्थात्- यह जीवन अनित्य है, यह समझकर युवाकाल में ही धर्मशील बनना चाहिये। कौन जानता है कि आज किसका शरीर छूट जायेगा, या आज कौन मरने वाला है ? — "Owing to life itself being frail and uncertain, one should be devoted to religion even in one's youth. For who knows when one's body may fall off?"
”साधारण पुरूष अपनी वाणी में अहं (उपाधि) जोड़कर बोलता है, महिलाएं अपनी वाणी में भावना जोड़कर बोलती हैं, जबकि महापुरूष (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) अपनी वाणी को आत्मा और परमात्मा से जोड़कर बोलते हैं।” घटिया दर्जे के इंसान, की वाणी घटिया दर्जे की होती है, जबकि ऊंचे दर्जे के इंसान की वाणी ऊंचे दर्जे की होती है। यदि वह नाराज भी हो तो भी अशिष्ट भाषा का प्रयोग नहीं करता है।
सारा जग सापेक्ष है,
सम्यक कर व्यवहार।
वाणी और व्यवहार का,
मन होता आधार ।।
आइनस्टाइन विश्व विख्यात वैज्ञानिक थे उन्होंने विश्व को समय सापेक्षता का सिद्घान्त दिया था। उन्होंने कहा था- पेण्डुलम (दोलन) को आप जिस स्थान से छोड़ोगे पेण्डुलम लौटकर उसी स्थान पर आता है-यही दशा मानवीय व्यवहार की है अर्थात हम जैसा व्यवहार संसार के साथ करेंगे लौटकर वही व्यवहार हमारे पास आता है। यूरोप के प्रसिद्घ दार्शनिक ‘हीगल’ और ‘कान्ट’ ने भी ‘क्रिया से प्रतिक्रिया’ का सिद्घान्त दिया था। ध्यान रखो, किसी के कानों-कान कही हुई अच्छी अथवा बुरी बात भी लौटकर एक दिन आपके पास आ जाती है। यहां तक कि मन में उठने वाली भाव तरंगों को आंखें और चेहरे की भाव भंगिमा जाहिर कर देती है, जो परावर्तित होकर तथा पहले से कई गुणा अधिक होकर आपके पास ही आती है। इसलिए मन को सर्वदा सहज, सरल सरस रखिये, ऋजुता (कुटिलता रहित होना) से परिपूर्ण रखिये। भक्ति और भलाई के विचारों से ओत-प्रेत रखिये। उपरोक्त विचारकों का मूल अभिप्राय यह है कि ‘जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।’‘मन में जैसे विचार बोओगे , वैसी वाणी होगी , जैसी वाणी होगी वैसा ही चरित्र या व्यव्हार होगा -जैसा चरित्र होगा ,वैसा भाग्य होगा , मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है ! जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।’ हमेशा याद रखो, मानवीय व्यवहार का आधार वाणी है और वाणी का आधार मन है। मन में उठने वाले विचारों को शब्दों का कलेवर वाणी ही देती है, उनकी अभिव्यक्ति करती है। वाणी का मूर्त रूप ही हमारा व्यवहार बनता है। भाव यह है कि जैसा मन होगा, वैसी वाणी होगी, और जैसी वाणी होगी, व्यवहार (चरित्र) वैसा ही परिलक्षित होगा।
[साभार https://www.ugtabharat.com/6998/]
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(1.)>>>`जन समूह और संघ' (MASSES and ORGANIZATIONS) में अन्तर:- मनु महाराज ने संघ का प्रयोग विवेकी लोगों का संगठित समाज के लिए किया है। 'गण' इस शब्द का सीधा अर्थ है जन समूह ।
(2.) >>>Unselfishness tending towards zero is animality and selflessness tending from 50% to 100% perfection is divinity!'' बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय- चरैवेति,चरैवेति" , यही तो मंत्र है अपना ।
(3.)>>>(Look even further - even further. " और भी आगे बढ़कर देखो - और भी बढ़कर'):परन्तु हम स्कूल खत्म करने से पहले ही कॉलेज जाना चाहते हैं। हम त्यागी बने बिना लोकशिक्षक बनना चाहते हैं। निःस्वार्थी बने बिना, तीनों ऐषणाओं अनासक्त हुए बिना लोकशिक्षक नहीं बना जा सकता।
(4.)🙏>>>Truth is of two kinds: सापेक्षिक सत्य और पूर्ण सत्य" ['इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य' :(`Relative truth or perceptional truth and Transcendental truth or Absolute truth.'
🔱(5.)>>>'प्रत्येक रत्नाकर अव्यक्त बाल्मीकि है !' 'Each Ratnakar is potential Valmiki!' Any action with a selfish motive is far inferior : 20 नवम्बर, 2022 को ' 55th Special AGM at Konnagar at 3.00 pm "
(6.)>>>"Education and Religion" (शिक्षा और धर्म ) : अर्थात उपनिषद परम्परा (तैत्तरीय-परम्परा) में दी जाने वाली शिक्षा का नाम है 'शीक्षा !'
(2.) >>>Unselfishness tending towards zero is animality and selflessness tending from 50% to 100% perfection is divinity!'' बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय- चरैवेति,चरैवेति" , यही तो मंत्र है अपना । नहीं रुकना, नहीं थकना, सतत चलना, सतत चलना । ' इस सूत्र का मर्म उद्घाटित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने एक बार ऐसा कहा था,कि "श्रीरामकृष्ण के आविर्भूत होने के साथ ही साथ, सत्ययुग (Golden Age) का प्रारंभ हो गया है।"कलिः शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापरः । उत्तिष्ठंस्त्रेता भवति कृतं संपद्यते चरन् ।। चरैवैति चरैवैति ।।अर्थात महामण्डल नेता को 'विकारहेतौ सति येषां मनांसी न विक्रियन्ते त एव धीरः' (कुमारसम्भव) के अनुसार मन को समत्व में स्थापित रखने वाला धैर्य अर्जित करना होगा ! पुरानी कहावत है- 'घर फूटे गँवार लूटे ! ' हम दोनों भाई बचपन में जब भी आपस में लड़ते, तो मां इसे दोहराती थी। सबसे बड़ी शिक्षा थी - 'संतोष के डाढ़ प मेवा फरेला।'
(3.)>>>(Look even further - even further. " और भी आगे बढ़कर देखो - और भी बढ़कर'):परन्तु हम स्कूल खत्म करने से पहले ही कॉलेज जाना चाहते हैं। हम त्यागी बने बिना लोकशिक्षक बनना चाहते हैं। निःस्वार्थी बने बिना, तीनों ऐषणाओं अनासक्त हुए बिना लोकशिक्षक नहीं बना जा सकता।
The way to attain Divinity, Brahmatva, or 100 % unselfishness that is God also emerges from complete satisfaction ! (देवत्व, ब्रह्मत्व या 100% निःस्वार्थता यानी ईश्वर को प्राप्त करने का मार्ग भी पूर्ण संतुष्टि से ही निकलता है।) पूर्ण सन्तुष्टि ही ईश्वर है - ब्रह्मचारी ने लक्क्ड़हारे से कहा था -और भी बढ़कर देखो - और भी बढ़कर" (Look even further - even further.): बढ़ते हुए उसने क्रमशः चन्दन का वन, चाँदी की खान, सोने की खान, हीरा, मणि आदि देखा था। " और भी आगे बढ़कर देखो - और भी बढ़कर'..... सबसे आगे सन्तोष-धन मिलेगा -गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान। जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥६॥“अब्दुलर्रहीम खानखाना ने कहा है -"चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह।। " को दरिद्रः ? यस्य तृष्णा विशाला ! मनसि च परितुष्टे कोर्थवान् को दरिद्रः ॥ वैराग्यशतकम् – ५३/ जिसने संतोष की इस महिमा को समझ लिया वास्तव में वही धनवान है। इसी सन्तोष जन्य या साम्यभाव में स्थित श्रीरामकृष्ण देव रूपी नेतृत्व धन पाने के लिए 'चरैवेति-चरैवेति' के चार सोपान हैं - चार युग या चार अवस्थाएं। ऐसा कहा जाता है कि स्वामी विवेकानन्द ने 'ऐतरेय ब्राह्मण' के उपरोक्त श्रुति -' बहुजन हिताय, बहुजन सुखाये -चरैवेति, चरैवेति' सूत्र को स्वयं अपने जीवन पर प्रयोग करके देखा था कि " मनुष्य बनने और बनाने की 'Be and Make ~ प्रशिक्षण-पद्धति " को भारत के युवाओं के द्वार-द्वार तक पहुँचा देने के कार्य में जो युवा लगा रहता है , स्वयं उस कर्मी (नेता ,शिक्षक या माली) के जीवन में सत्ययुग का प्रारम्भ हो जाता है, और वह स्वयं मुक्त [ D-hypnotized], या भ्रममुक्त हो जाता है ! ऐतरेय ब्राह्मण के 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति'- सूत्रका प्रयोग जब स्वामी विवेकानन्द द्वारा अपने जीवन में किया गया तो उनके सभी शिष्यों ने इस वाक्य का अर्थ समझा और अपना जीवन लोक कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। विशेषरूप से अद्वैत आश्रम , मायावती के संस्थापक उनके अंग्रेज शिष्य दम्पति “कैप्टन जे एच सेविअर”(Captain James Henry Sevier) और पत्नी सी एलिजाबेथ सेवियर (Charlotte Elizabeth Sevier) ने इंग्लैण्ड में जब 1895 में स्वामी विवेकानन्द के मुख से इस "बहुजन हिताय बहुजन सुखाय -'चरैवेति, चरैवेति" सूत्र के मर्म को समझा तो सेवियर दंपत्ति ने इंग्लेंड में अपना घर और जमीन बेच दिया और स्वामी विवेकानंद के साथ भारत आ गये। और 19 मार्च 1999 को लोहाघाट में अद्वैत आश्रम, मायावती की स्थापना की। [5000 words]
(4.)🙏>>>Truth is of two kinds: सापेक्षिक सत्य और पूर्ण सत्य" ['इन्द्रियगोचर सत्य और इन्द्रियातीत सत्य' :(`Relative truth or perceptional truth and Transcendental truth or Absolute truth.' 1. पहला वह सत्य जिसे मनुष्य अपनी पंचेन्द्रियों के माध्यम से, और उस पर आधारित तर्क द्वारा ग्रहण करता है। [जैसे डाली से टूटकर सेव नीचे ही क्यों आया, ऊपर क्यों नहीं गया ? इस प्रकार इन्द्रियों (दर्शन-इन्द्रिय) की गवाही, एवं तर्क -आधारित अनुमान के द्वारा संकलित ज्ञान को 'विज्ञान' कहते हैं; - Law of gravitation, या गुरत्वाकर्षण का नियम कहते हैं ! और जो इन नियमों की खोज करता है, उसे 'वैज्ञानिक' कहते हैं। ]
2. दूसरा वह सत्य जिसे अतीन्द्रिय सूक्ष्म योगज शक्ति (subtle supersensuous power of Yoga) के द्वारा ग्रहण किया जाता है। यह `आध्यात्मिक शक्ति ' जिस मनुष्य में आविर्भूत होती है, उसका नाम है ऋषि, और उस आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा वे जिस अतीन्द्रिय -सत्य (अनेकता में एकता) की उपलब्धि करते हैं, उसका नाम है -'वेद'।
इस ऋषित्व तथा वेद-दृष्टत्व को प्राप्त करना ही यथार्थ धर्मानुभूति है। जब तक गुरु -दीक्षा के द्वारा साधक के जीवन में इस वेद-दृष्टत्व का विकास नहीं होता, तब तक 'धर्म' केवल 'कहने भर की बात' है; एवं समझना चाहिये कि उसने धर्मराज्य के प्रथम सोपान भी पैर नहीं रखा है। (खंड १०/१३९)
-स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जब कोई मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु (ब्रह्म) के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो अजर-अमर-अविनाशी है, जो स्वरूपतः सच्चिदानन्द (Existence -Consciousness-Bliss) है ! तब उसको फिर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना (तीनो ऐषणा) ही समस्त दुःखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि -उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फिर 'मृत्यु-भय' नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ लेने-अनुभव कर लेने के बाद असार वासनायें (तीनों ऐषणाओं में आसक्ति) फिर नहीं रहतीं। तीनो ऐषणाओं से अनासक्त हो जाने पर फिर कोई दुःख नहीं रह जाता, इसी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है। (अर्थात लालची लोगों के बीच रहते हुए भी पूर्ण सन्तुष्टि, complete fulfillment-100% Unselfishness की प्राप्ति हो जाती है !) इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए एकमात्र उपाय है एकाग्रता !(अर्थात प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास) " (१/४०)
`कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ।' हे भगवन , भला किसको जान लेने पर यह सबकुछ जान लिया जाता है ? महामण्डल का नेता वही हो सकता है, जिसने 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक परम्परा में प्रशिक्षित होकर अपने जीवन और जगत की की समस्या [मृत्यु की समस्या ] को हल कर लिया है। तथा जगत के करणरूपी उस भूमा (सच्चिदानन्द) को जान लिया है, जिनकी ज्ञान-पिपासा तृप्त हो गयी है और जो दूसरों को भी तृप्त करने में समर्थ हैं ? [वि० चरित ५०] लालची (मानसिक रूप से दरिद्र) लोगों के बीच रहते हुए भी पूर्ण सन्तुष्टि, complete fulfillment-100% Unselfishness की प्राप्ति हो जाती है।
🔱(5.)>>>'प्रत्येक रत्नाकर अव्यक्त बाल्मीकि है !' 'Each Ratnakar is potential Valmiki!' Any action with a selfish motive is far inferior : 20 नवम्बर, 2022 को ' 55th Special AGM at Konnagar at 3.00 pm " में विशेष-चर्चा होगी कि : महामण्डल के Emblem (प्रतीक चिन्ह) में सप्तर्षि को घटाकर 5 ऋषि करना क्या उचित है ? स्वामी जी ने कहा था - " यदि भारत को महान बनाना है ,उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिए आवश्यकता है संगठन की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। "...संगच्छध्वं संवदध्वं' देवता मनुष्य द्वारा इसीलिए पूजे गए कि वे एकचित्त थे, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है। और यदि तुम -बेलघाटा जैसे तुच्छ विषयों को लेकर 'तू तू मैं मैं ' करोगे -झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे - तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। बस, संकल्प-शक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही सारा रहस्य है। इसलिए ये सब मतभेद के झगड़े एकदम बन्द हो जाने चाहिए। (भारत का भविष्य- ५/१९२)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, " प्रत्येक आत्मा 'अव्यक्त' ब्रह्म है। बाह्य एवं अंतःप्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मन:संयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपने ब्रह्मभाव (100 % निःस्वार्थपरता) को व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान – पद्धति, शास्त्र, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया – कलाप तो उसके गौण ब्यौरे मात्र है। " {वि.सा.-१ : राजयोग : पातंजल योगसूत्र : साधनपाद}
क्योंकि " प्रत्येक आत्मा 'अव्यक्त' ब्रह्म है। प्रत्येक रत्नाकर संभावित वाल्मीकि है ! इसलिए महामण्डल या 'संघ' की संज्ञा विवेकवान लोगों के समूह के लिए सुरक्षित रही है, जो अपने निर्णय; poltics या voting system या चुनाव प्रक्रिया द्वारा नहीं बल्कि आमसहमति के आधार पर लेते हैं।
इसलिए कार्यकारिणी समिति की बैठक में भारत के विभिन्न प्रान्तों के स्कूल, कॉलेज और विभिन्न यूनिवर्सिटी आदि में जो स्वामी विवेकानन्द की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पर सेमिनार, पाठचक्र और युवा-प्रशिक्षण शिविर आदि आयोजित हो रहे हैं, उसकी खूबियाँ और खामियाँ (Merits and demerits-गुण और दोष) पर चर्चा होगी, और सभी निर्णय सर्वसम्मिति से ही लिए जायेंगे। [5000 words]
बेलघाटा शाखा पर अनुशात्मक कार्रवाई बिल्डिंग बनाने के पहले, शुरू में ही क्यों नहीं हुई ?जो यूनिट रेगुलर रिपोर्ट नहीं भेजते हैं, या विशाखापत्तनम का सेक्रेटरी अपने घर को गिरवी रखकर लाइब्रेरी बनाने के लिए लोन लेता है , उसको सही मार्ग कौन दिखता है ? महामण्डल के अनुशासनात्मक समिति (Disciplinary committee) में पुराने मेम्बर प्रमोद दा, विकास दा, रंजीत मोहंती, तुहिन भट्टाचार्जी, परेश बाबू, तपन गराई, जगदीश दे, किचेन इंचार्ज,जैसे भारत -प्रेमी, लोगों को एक्जेक्यूटिव कमिटी में क्यों नहीं होना चाहिए?
प्रमोद दा की मांग : Other than West बंगाल राज्यों में कैम्प करने में हर जगह से प्रमोद दा की मांग होती है , जबकि उन्हें बोलना भाषण देना नहीं आता ; क्योंकि उनके पास आदर्श [त्याग और सेवा] के अनुरूप जीवन भी है। लेकिन वे हमारे एक्जेक्यूटिव कमिटी में क्यों नहीं हैं ? अब महामण्डल की कार्यकारिणी समिति में 'minister without portfolio' जैसा कोई मेंबर नहीं रहेंगे। अलग-अलग प्रोजेक्ट के इंचार्ज नामित करना चाहिए। सारदा नारी संगठन के मॉनिटरिंग में रंजीत दा, समीर सेन, रनेन दा । बाहर के राज्यों में क्लास लेने के काम में अपूर्वा दास , और डॉक्टर तुहिन चटर्जी ने अपनी दक्षता दिखाई है। अतः इनको भी कारकारिणी में शामिल करना चाहिए। इंटरस्टेस्ट मॉनिटरिंग डिपार्टमेंट - बिजय और प्रमोद दा (सोमनाथ पदेन)/ विवेक-वाहिनी मॉनिटरिंग हेड - रासबिहारी जैसे सीनियर/ उपाधि -नाश का अवसर है; और स्वयं का साक्षी बनने का अवसर है, इसलिए नेता के जीवन से भी माँ ही बात करती हैं!
जैसे 'अखिल भारत की जगह जैसे 'अखिल भारतीय' लगा देने से राजनीती की गंध आती है, वैसे ही इस आंदोलन को 'निखिल बंग' आंदोलन भी नहीं समझना चाहिए। अतएव युवा प्रशिक्षण शिविर के ' lingua franca' या सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी-अंग्रेजी मिलाकर का प्रयोग किया जायेगा। झूठी प्रशंसा द्वारा यविष्ठ नेता का निर्माण नहीं होता। इसलिए किसी व्यक्ति या शाखा के प्रति तुष्टिकरण नहीं होना चाहिए। बल्कि मधुर वचनों से प्रत्येक रत्नाकर में छिपे महर्षि बाल्मीकि को अभिव्यक्त करने की चेष्टा होनी चाहिए। लेकिन तुष्टिकरण नीति से किसी राज्य में `उड़ीसा स्टेट ब्रांच ' जैसा पुनः कोई शाखा नहीं होनी चाहिए। ?
(6.)>>>"Education and Religion" (शिक्षा और धर्म ) : अर्थात उपनिषद परम्परा (तैत्तरीय-परम्परा) में दी जाने वाली शिक्षा का नाम है 'शीक्षा !'
शिक्षा का अर्थ है, उस पूर्णता की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले से ही विद्यमान है।
धर्म का अर्थ है, उस ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति, जो सब मनुष्यों में पहले ही से विद्यमान है।
अतः दोनों स्थलों पर शिक्षक का कार्य केवल रास्ते से सब रुकावट हटा देना ही है। जैसा मैं कहता हूँ -हस्तक्षेप बंद करो! सब ठीक हो जायेगा। अर्थात हमारा कर्तव्य है-रास्ता साफ कर देना--शेष सब भगवान ही करते हैं।
[नेता, पैगम्बर, या प्रशिक्षित माली का काम है खर-पतवार साफ कर देना, जड़ को सींचना शेष सब काम यानि जीवन-पुष्प के प्रस्फुटन का काम भगवान स्वयं करते हैं। (3 मार्च, 1894 को शिकागो से -सिंगारवेलु मुदलियार उर्फ़ "किडी" को लिखा गया पत्र- २/३२८) ]
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(viii)🙏 'नमस्ते', शब्द का अर्थ >>
'नमस्ते', शब्द का अर्थ भी बहुत गहरा है! ये दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं में से एक, संस्कृत का शब्द है। इसका भाव है कि सिर्फ व्यक्ति को ही नहीं, उसके भीतर व्याप्त Divinity को भी नमन करना है! [मनुष्य मात्र के भीत जो ब्रह्मत्व, पूर्णत्व, साम्यभाव अथवा परम् निःस्वार्थपरता (Divinity, Perfection,100 % Unselfishness) के व्यक्त होने की सम्भावना अन्तर्निहित है, उस Potentiality को भी नमन करना है! क्योंकि कुमारसम्भव में कालिदास जी कहते हैं - विधाता चरित्र के चौबीसो गुणों को एक जगह रखने या एक व्यक्ति को प्रदान करने से विमुख रहते हैं।
वर्णप्रकर्षे सति कर्णिकारं दुनोति निर्गन्धतया स्म चेतः ।
प्रायेण सामग्र्यविधौ गुणानां पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः ॥
(कुमार सम्भव ३।२८॥)
[अन्वय : “वर्णप्रकर्षे (उत्कृष्ट वर्ण) सति (होने पर) कर्णिकारं (कनेर का पुष्प) दुनोति (दुखाता था>स्म) निर्गन्धतया (गन्धहीन होने के कारण) स्म चेतः (मन) । प्रायेण (प्रायः) गुणानां सामग्र्य-विधौ (समग्र- सामग्र्य n/ समग्रस्य भावः- Entireness, the whole, 100 % निःस्वार्थपरता -totalité :समुदायत्वम्। या 24 गुणों की पूर्णता प्रदान करने में, प्रदान करने में) पराड्मुखी (विमुख-प्रतिकूल) विश्वसृजः (ब्रह्मा) की प्रवृत्तिः ॥”
गुणानां पराङ्मुखी विश्वसृजः प्रवृत्तिः॥ कनेर वृक्ष का पुष्प सुन्दर वर्ण का होने पर भी गन्धहीन था, अतः उसका मन अक्सर दुखाता रहता था। क्योंकि चरित्र के सभी अच्छे गुणों (24 गुणों) की पूर्णता प्रदान करने में ब्रह्मा जी प्रायः विमुख ही रहते हैं। ब्रह्मा जी अधिकांश मामलों में,चरित्र के सभी अच्छे गुणों को ( चौबीसों गुणों-सिद्धाई) को एक ही जगह पर इकट्ठा करने के लिए जो व्यक्ति अभेददर्शी या वेदान्ती या साम्यभाव में प्रतिष्ठित नहीं हो सके हैं, उनके भीतर (अर्थात एक ही व्यक्ति, उसको शक्ति प्रदान करने में) अनिच्छुक रहते हैं। विचार यह भी है कि नेता या लोकशिक्षक अभी स्वार्थपरता का त्याग करके जो अभीतक शुकदेव परमहंस या विदेह राज जनक जैसे नहीं बन सके है, वैसे आचार्य व्यासदेव जैसे सर्वश्रेष्ठ पुरुषों में भी कुछ (पत्नी और प्रेयषी में अन्तर जैसी) असफलताएँ होना स्वाभाविक है।। ( Cassia fistula. अमलतास या कनेर के पीले पुष्प जो उड़न-तश्तरी (saucer) जैसे प्रतीत होते हैं। The golden yellow flower of this tree has its petals bending inwards so that the flower looks like a saucer.)
इति ध्रुवेच्छामनुशासती सुतां शशाक मेना न नियन्तुमुद्यमात् ।
क ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः पयश्च निम्नाभिमुखं प्रतीपयेत् ।। ५.५ ।।
अन्वयः - इति अनुशासती माता मैना ध्रुवेच्छां (ध्रुवा इच्छा यस्याः सा) सुताम् उद्यमात् नियन्तुं न शशाक [शक्(शक्तौ)], ईप्सितार्थस्थिरनिश्चयं मनः निम्नाभिमुखं पयः च कः प्रतीपयेत्।
अर्थः - इस तरह उपदेश देती हुई माता मैना जी (Mena : मेना जी हिमावत या हिमालय की रानी हैं तथा पुत्री उमा (पार्वती) की माँ और पुत्र मेनाक की माता जी हैं, हमलोगों की नानी जी हैं।) भी ,अपनी दृढ़ संकल्पमना कन्या पार्वती जी को तपस्या आचरण रूपक उद्यम से निवारण करने में असमर्थ रही। क्यों की अभीष्ट वस्तु लाभ की दृढ़ इच्छा रूप मन को और निम्न तली से बहती हुई नदी की धारा को कौन विपरीत दिशा में लेने में समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं है। [उभयतोवहिनी चित्तनदी की धारा को माँ अन्नपूर्णा ने वाराणसी में उत्तरवाहिनी गंगा बना दिया?]
Meaning - Advising thus mother, Mena could not restrain her daughter, Parvati having firm desire from the attempt of practicing penance. For, who is there to reverse a resolute mind for attainment of its desired object and water flowing downwards? Means, nobody.
अपि स्वशक्त्या तपसि प्रवर्तसे शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् ।।
Are the Samit sticks and Kusa grass required for rituals, easily available? Is the water here suitable for your bathing? Are you practising austerities according to your strength? For, the human body is the chief means of pursuing Dharma.
महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- 'कुमारसम्भव' में एक अनुपम बात लिखी- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' अर्थात् शरीर ही धर्म का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है। इस तन में ही हम अपनी वास्तविकता को समझ सकते हैं कि हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना है? अब भला ऐसा क्यों कहा गया है, इसे समझने का प्रयास करेंगे.. धर्म का क्या अर्थ होता है? धर्म शब्द 'धृञ्' धातु से निकला है, जिसका मतलब होता है- धारण करना। 'धारणाद् धर्मं इति आहुः' अर्थात् जिसे धारण किया जाता है, वही धर्म है।शास्त्रों में कहा गया है- मनुष्यों में और पशुओं में यदि कुछ भेद है, तो वह है धर्म का। ऐसा क्या है धर्म में? किस धर्म को धारण कर मनुष्य मनुष्य बनता है? विवेकानंद जी ने खरे शब्दों में धर्म को परिभाषित किया- 'Religion is the Realization of God- धर्म परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति है।' आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उससे तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार कर लेना - यही वास्तविक धर्म है। मैंने लेखिका शिवानी रचित 'श्मशान चंपा' उपन्यास पढ़ा था। उसमें एक प्रसंग आया था, जिसमें उन्होंने नायिका को चंपा पुष्प के सदृश बताते हुए कहा था कि, "चंपा तुझमें तीन गुण रूप ,रंग और बास अवगुण तुझमें एक है , भ्रमर न आए पास।" -भ्रमर केवल उसी फूल की ओर आकर्षित होते हैं जिनमें परागकण होते हैं। चम्पा के फूलों में परागकण (Pollen grain, पुष्प-रेणु) नहीं होते हैं। इसलिए भ्रमर चम्पा के फूलों पर नहीं आते। " दिवं यदि प्रार्थयसे वृथा श्रमः, पितुः प्रदेशास्तव देवभूमयः । अथोपयन्तारमलं समाधिना, न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत् ।। (कुमारसम्भवम् - मल्लिनाथः/५.४५)-A valuable diamond does not seek,it is only sought after . कीमती हीरे (नेता) को ग्राहक (अनुयायियों की) खोज नहीं करनी पड़ती। रत्नों के पारखी ही रत्नों की खोज किया करते हैं।"]
(ix)>>>Why is there a reactive state of the ego?अहं की प्रतिक्रियात्मक स्थिति क्यों होती है ? " मेरी माँ काली कभी-कभी मन (अहं) की स्थिति ऐसी प्रतिक्रियात्मक (reactionary) बना देती हैं कि धीर साधक का मन भी -धैर्य की परिभाषा -विकारहेतौ सति येषां चेतांसि (मनांसि) न विक्रियन्ते त एव धीराः । ' को भूल कर या 'नर-नारायण पूजा की -दिनचर्या' को भूलकर poise से नीचे उतर जाता है। फिर उनकी कृपा से प्रतिक्रियात्मक (reactive) नहीं बनने और उसी व्यक्ति को 'नमस्ते' कहने से क्षण भर में मन ऊँचे उड़ रहे बाज (eagle-गरुड़) या glider (बिना इंजन के जहाज) की तरह के समान लीला से नित्य में (gliding) तैरता रहता है। जो माँ शिवजी के रूप में त्रिशूल भोंक देने की धमकी देती है, वही विवेक बनकर निरंतर लीला-नित्य विवेक जाग्रत रखती है ? भवतारिणी -माँ सारदा-माँ नवनीदा, जगद्धात्री-प्रसाद ? कहते थे "वीर हो धीर बनो !" मैं क्षणमात्र में देश-कालातीत अवस्था से देश-काल के राज्य में लौट आया !! फिर दुबारा उस अवस्था में - (मायातीत अवस्था में) ले जाने की चाभी माँ काली ने क्या सिर्फ अवतारों, शुकदेव परमहंस या विदेहराज राजर्षि जनक के लिए ही आरक्षित (reserved) कर रखा है ?
[कालिदास, राग-केदार, संध्या के प्रथम प्रहर में गाया जाने वाला राग-" जय कालिके विकरालिके जय शत्रुसङ्घविदारिणी। माँ काली की कृपा से 'मन' (अहं) का नित्य से उतरकर लीला में आ जाने पर 'कालिदास' को (देवीपुत्र को) माँ काली की ही सहारा है - " जय कालिके विकरालिके जय शत्रुसङ्घविदारिणी। जय लोकनाशकरि कपालिनी शम्भुवक्षविहारिणी।
(i)'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन जे.एच.सेवियर वेदान्त -शिक्षक परम्परा' में 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति 'Be and Make !' में प्रशिक्षित-अर्थात 'प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति अस्तु महाफला' में प्रशिक्षित और C-IN-C का 'चपरास' प्राप्त नेता श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय [आचार्य -नवनीदा] की पुस्तक 'A New Youth Movement' (एक नया युवा आंदोलन) के अनुसार स्वामीजी के युवा सैनिकों को स्वामीजी द्वारा सौंपा हुआ कार्य है-'Be and Make!' अर्थात महामण्डल द्वारा निर्देशित '3H विकास के 5 अभ्यास' के प्रशिक्षण द्वारा अपना जीवन गठन (Individual Life Building !) करते हुए दूसरों को भी जीवन-गठन करने के लिए अनुप्रेरित करने की कार्य-पद्धति को एक युवा आंदोलन का रूप देकर सम्पूर्ण भारत में फैला देना। स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर की इसी योजना को मूर्त रूप देने के लिये 1967 में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा है। उन्हीं के बताये रास्ते -पर चलने वाले इस युवा आन्दोलन ('निवृत्ति अस्तु महाफला- 'बहुजन हिताय -बहुजन सुखाये चरैवेति, चरैवेति' आन्दोलन) का नेतृत्व 1967 से लेकर 26 सितम्बर 2016 तक पूज्य नवनीदा जैसे त्यागी महापुरुष के हाथों में था। क्योंकि वे शुकदेव परमहंस जैसे जन्मजात नेता थे। किन्तु अपने जीवन से उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने महामण्डल संगठन के माध्यम से अपना जीवन -गठन (तीनों ऐषणा रहित - राजर्षि जनक जैसे 100 % निःस्वार्थी और राजधर्म का पालन करने में समर्थ) एक गृही मातृ-भक्त नेता के रूप कर के दिखाया था।
(x)>>>सभी भण्डारे का अन्न क्यों नहीं खाना चाहिए ? "जैसा अन्न वैसा मन" का उदाहरण : कई लोग भंडारा करते हैं और बहुत से लोग इसमें खाना भी खाते हैं, लेकिन खाने से पहले यह पता होना चाहिए कि भंडारा करने वाला व्यक्ति कौन है, लोग दुनिया भर के पाप करते हैं और फिर भंडारा भी कर लेते हैं lकहते हैं जैसा धन वैसा मन, आपको क्या पता कि जो व्यक्ति भंडारा कर रहा है उसकी कमाई ईमानदारी की है या पाप की, अगर उसने पाप की कमाई से भंडारा किया है तो कहीं न कहीं उसके पाप का अंश आप में भी विद्यमान हो सकता है l एक सच्ची घटना इस प्रकार है। एक बार एक सेठ ने भंडारा किया और उसमें उसने एक साधु बाबा को भी न्योता दे दिया, साधु बाबा उस नामी सेठ के न्योते पर भंडारा खाने आगए। सेठ ने उनकी बहुत आवभगत की और स्वयं उनके लिए भोजन परोसा, साधु महात्मा जी संतुष्ट हो गए। लेकिन वह बहुत ही ज्ञानी महापुरुष थे, लेकिन जब वह भोजन के उपरांत विश्राम करने के लिए लेटे तो उनकी आँखों के सामने एक सोलह सत्रह वर्ष की लड़की का चित्र घूमने लगा, वह आराम नहीं कर पाए। तो उन्होंने सेठ जी को बुलाया और पूछा कि उनके पास इतनी दौलत कैसे आई, सेठ भी उस पुण्यात्मा के सामने झूठ नहीं बोल सके और उसने क़बूल किया कि वह एक भले आदमी के यहां मुन्शी था और उनके पैसे का हिसाब किताब रखता था, उनकी एक बेटी थी l उस भले आदमी की मौत के बाद उसने धोखे से उनकी सारी धन दौलत पर उनकी सोलह साल की बेटी के हस्ताक्षर ले लिए थे l पूरी कहानी सुनने के बाद महात्मा जी की आंखे खुल गई और तभी से उन्होंने भंडारे का खाना छोड़ दिया l यह कथा कहने का अभिप्राय यह है कि भंडारे के लिए खर्च किया हुआ पैसा कैसा है, किस प्रकार से वह धन अर्जित किया हुआ है कहते हैं, "जैसा अन्न वैसा मन", यही कारण है कि भंडारे का खाना नहीं खाना चाहिए l
‘संघे शक्ति कलियुगे’ के सूत्र में इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि- `अनेक दुर्बल मिलकर ही किसी समर्थ से बड़े सिद्ध हो सकते हैं। आजकल संघ शक्ति ही सबसे बड़ी शक्ति है। इसके बल पर बड़े से बड़े प्रयोजन पूरे किये जाते हैं। राजतन्त्र पहले से ही जन सहमति से चल रहा है। अब अर्थ तन्त्र, समाज तन्त्र भी लोक रुचि के अनुरूप ही चलने लगेंगे। बहुत से लोग यह उदाहरण देते है कि एक सिंह असंख्य मृगों को हरा और भगा सकता है। लेकिन जन समाज के लिये यह ठीक नहीं है। किन्तु अब शासन बदलने जैसी महान प्रक्रिया सम्पन्न करने के लिये महाभारत रचने की जरूरत नहीं पड़ती वरन् वोट देने भर से राज्य पलट जाते और शासन बदल जाते हैं। प्रजातंत्र की परिपाटी ने पिछड़े समझे जाने वाले लोगों की इच्छानुसार राज्य मुकुटों को धराशायी बना देना सम्भव कर दिया है। आज जनता जनार्दन में इतनी शक्ति है कि हमलोग पुराणों में वर्णित उस घटना को साकार होते देख सकते हैं, जिसमे असुरों का सामना करने में असमर्थ ऋषियों ने बूँद-बूँद रक्त इकट्ठा करके जमा किया और जमीन में गाड़ा और उसमें से सीता उत्पन्न हुई, जिसके कारण समस्त असुरों का नाश हो गया। दूसरी घटना वह भी याद आती है जब असुरों से परास्त और निराश देवताओं की थोड़ी-सी शक्ति इकट्ठी करके ब्रह्माजी ने दुर्गा का सृजन किया और उस देवी ने दुर्दान्त असुरों को निरस्त कर दिया। इस प्रकार के अगणित उपाख्यान पुराणों में मिलते हैं, उनसे संगठन की महत्ता का समर्थन होता है। क्या आपको नहीं पता, रीछ वानरों का सहयोग लेकर भगवान राम ने और गोवर्धन उठाने में ग्वाल बालों का सहयोग लेकर भगवान कृष्ण ने जन-संगठन की महत्ता का ही प्रतिपादन किया था। आज का इंसान विभिन्न बातों को लेकर आपस में ही लड़ते हुए देखा जा सकता है। हम सभी को मिलकर रहना चाहिए और एक अच्छे समाज का निर्माण करना चाहिए।
हमको मन की शक्ति देना , मन विजय करें।
दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें।
भेदभाव अपने दिल से, साफ कर सकें। दोस्तों से भूल हो तो, माफ कर सकें। झूठ से बचे रहें, सच का दम भरें। दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें। हमको मन की शक्ति देना …॥ मुश्किलें पड़े तो हम पे, इतना कर्म कर। साथ दे तो धर्म का, चलें तो धर्म पर। खुद पे हौसला रहे, बदी से ना डरें। दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें। हमको मन की शक्ति देना , मन विजय करें। दूसरों की जय से पहले, खुद को जय करें।(प्रस्तुति-संगीता शंकर,विविधभारती, वाणी जयराम, फिल्म गुड्डी ।)
(1) "कलिः शयानो भवति" अकर्मण्य पुरुषार्थ हीन मनुष्य कलियुग में स्थित हो जाता है। अधिकांश युवाओं का मन अपने यथार्थ स्वरूप के प्रति अचेत रहता है, या सोया रहता है, उस समय उसका कलिकाल चल रहा होता है। उनमें जीने वाले मनुष्य के आन्तरिक जीवन में जो परिवर्तन आता है, उसके संदर्भ में की गई है। इसीलिए कहा गया है, मोहनिद्रा में सोने वालों के लिए (सिंहशावक होकर भी भेंड़त्व के भ्रम में या पंचेन्द्रिय भोगों में आसक्त बने रहने वालों के लिए) सदा ही कलियुग है।
(2) " संजिहानस्तु द्वापरः" अर्थात स्वामीजी की ललकार - ' उत्तिष्ठ-जाग्रत' बार -बार सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह संजिहान स्थिति में जब कर्म के लिये उद्यत हो जाता है तो उसके लिए द्वापर शुरू हो गया। [श्रीरामकृष्ण के सन्देश - " मान-हूश तो मानुष !" तथा स्वामी विवेकानन्द की वाणी में इसी उपदेश की प्रतिध्वनि - ' उठो, जागो! और लक्ष्य तक पहुँचे बिना रुको मत ! ' को सुनकर जब हमलोग संजिहान हो उठते है या Hypnotized अवस्था से जाग उठते हैं, वह द्वापर युग है। ]
(3) " उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति " अर्थात जो व्यक्ति आलस्य त्याग कर पुरुषार्थ करने या 'मनुष्य' बनने के लिये (अर्थात 50 % निःस्वार्थपर बन जाने या इन्द्रियभोगों से अनासक्त होने के लिये) कमर कस कर उठ खड़ा होता है, उसके लिए त्रेता का आरंभ हो गया, और वह त्रेता युग में वास कर रहा है।
(4) " कृतं संपद्यते चरन् " और अपनी मंजिल (100 % निःस्वार्थपरता) की ओर जिसने चलना शुरू कर दिया है, अर्थात जो व्यक्ति `3H विकास के 5 अभ्यास' स्वयं करने और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने का काम शुरू कर दिया हो , उसके लिए उसी क्षण सत्ययुग आ गया। क्योंकि निरन्तर कर्मरत होते हुए भी आत्मस्वरुप के बोध में अवस्थिति ही कृत या सत्ययुग में वास करना है । तथा कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा तो केवल व्यक्ति (सिंह-शावक) की मानसिक अवस्था को निर्धारित करने के उद्देश्य से दी गयी है।
महामण्डल का नारा है -`मिलजुल कर एकसाथ रहेंगे और बढ़ेगी एकता , उद्देश्य हमारा देश की सेवा विवेकानन्द हमारे नेता !' जन शक्ति आने वाले दिनों में सबसे बड़ी शक्ति होगी। दुनिया की अन्य सारी शक्तियाँ उसके सामने फीकी पड़ जायेंगी और बौनी रह जायेंगी। आने वाले दिनों में विज्ञान, शास्त्र और सत्ता की प्रबलता को भी जन शक्ति के आगे झुकना पड़ेगा। संघ शक्तियाँ सदा ही प्रबल रहीं थीं, पर इस युग में उनका चरम विकास होगा और ‘संघ शक्ति कलियुगे’ का चमत्कार हर किसी को प्रत्यक्ष दिखाई देने लगेगा।
वाचा मित्रत्वमायान्ति वाचैवायान्ति शत्रुताम्।
इति विज्ञाय संघार्थी सदावाचंयमो भवेत्।।
वाणी से ही मित्रता होती है और वाणी से ही शत्रुता होती है, यह ध्यान में रखकर संगठन चाहने वाला नेता सदा वाणी के संयम वाला रहे।
विना प्रीति विना नीतिं विना सत्कार्यपद्धतिम।
विना कर्तृत्वशक्तिं च संघो नैव विवर्धते।।
बिना प्रेम के, बिना नैतिकता के, बिना सत्कार्य पद्धति और कत्र्तृत्व शक्ति के बिना संगठन का कार्य नहीं बढ़ता ।
वाक्ताड़नं प्रमत्तस्य परीवादं रिपोरपि।
प्रतिवादं विमूढ़स्य वर्जयेल्लोकसंग्रही।।
प्रमत्त को डाँटना, शत्रु की भी निन्दा करना, मूर्ख का प्रतिवाद करना लोकसंग्रही/लोकप्रियता के इच्छुक 'नेता' (जीवनमुक्त शिक्षक) को त्याग देना चाहिए।
विरोधिनोपि श्रोतव्यम् आत्मनीनतया मतम्।
तत्कालं न विरोद्धव्यं यथाकालं तु खण्डयेत्।।
विरोधी के मत को भी आत्मीयता दिखाते हुए सुनना चाहिए, तत्काल विरोध नहीं करना चाहिए। समय देखकर कालान्तर में उसकी अनुचित बात का खण्डन करना चाहिए।
समानसुखदुःखानां समानोद्दिष्टकांक्षिणाम्।
तथा समानश्रद्धानां संघः स्वाभाविको यतः।।
सुख-दुःख में समान और समान उद्देश्य को चाहने वाले तथा समान श्रद्धा वालों का ‘संगठन’ स्वाभाविक है।
विदुषां शास्त्रतः शक्तिः वीराणां सा च शस्त्रतः।
धनश्रमादितोन्येषां शक्तिः सर्वस्य संघतः।।
विद्वान जिस शक्ति को शास्त्रों से, वीर शस्त्रों से एवम् अन्य धन एवम् श्रम से प्राप्त करते हैं। वह शक्ति संगठन से सभी को सहज ही प्राप्त हो जाती है।
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🔱(2) >>>महामण्डल का आदर्श, उद्देश्य और कार्क्रम: 'महान भारतस्य निर्माणार्थम् - चरैवेति, चरैवेति!' The task assigned by Swami Vivekananda for the youth of India : - `Individual Life- building ! '
इसीलिये वीर सेनापति स्वामी विवेकानन्द के सैनिकों (परिव्राजक-वानप्रस्थों) के लिए प्रातः काल ध्वजारोहण (flag hoisting) के समय में बोला जाने वाला अभियान नारा (Campaign Slogan) या युद्ध-गीत (war-song) है : -
(1) "चरैवेति चरैवेति हूङ्कारो अस्माकं," विवेकानन्दो नेतानः विभिमः कस्म्द वयं, विभिमः कस्मद् वयं ! विभिमः कस्मद् वयं !!"
(2) "महामण्डल केतन करो दुर्जय" , निवेदिता वज्र हो अक्षय, हो अक्षय, हो अक्षय!"
(3) और संध्या में ध्वज -अवरोहण (flag lowering) के समय का नारा है - " मिल-जुल कर एक साथ चलेंगे, और बढ़ेगी एकता।" उद्देश्य हमारा देश की सेवा , विवेकानन्द हमारे नेता, विवेकानन्द हमारे नेता , विवेकानन्द हमारे नेता !! [..... तो हमें कैसा भय ? किसका भय ? मृत्यु का भी भय नहीं !!]
(4) "जान लिया है हमने राज, चरित्र से बनता देश समाज।" चरित्र से बनता देश-समाज जान लिया है हमने राज!!
महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर के ' चपरास ' [बैज या Insignia जिसे दिखाये बिना प्रशिक्षण -शिविर में प्रवेश नहीं कर सकते ] के नीचे में महामण्डल का आदर्श वाक्य (motto या नीति-वाक्य) लिखा है - 'Be and Make!' अर्थात "मनुष्य बनो और बनाओ !"
महामंडल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर (Ordinary and Leadership training camp) में बार -बार सुनाई देने वाला शब्द, विशेष-धुन -'Theme Word' या वादी स्वर है-'Be and Make!'-अर्थात त्यागी मनुष्य या प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने में समर्थ अनासक्त मनुष्य बनो और बनाओ ! राग का सबसे महत्वपूर्ण स्वर 'वादी' कहलाता है। इसे राग का राजा स्वर भी कहते हैं। इस स्वर पर सबसे ज़्यादा ठहरा जाता है, और बार बार प्रयोग किया जाता है। संवादी स्वर है - `बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय - चरैवेती चरैवेती ' राग की चाल को स्पष्ट करने के लिए वादी के साथ मिलकर महत्वपूर्ण योगदान करता है। संवादी स्वर को सहायक या राग का मंत्री स्वर कहते हैं।
यूनान देश के एक दार्शनिक सुकरात के बारे में प्रसिद्ध है कि दार्शनिक सुकरात दिन में लालटेन लेकर चलता था। लोग उनसे पूछते थे-आप दिन में लालटेन लेकर क्यों चलते हो? प्रत्युत्तर में सुकरात कहता था ‘लोग सोचते कुछ हैं, कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं, सब अपना होश खोये हुए हैं, बेहोशी में हैं और अपने केन्द्र से अर्थात परमात्मा से दूर हो गये हैं। मुझे ये सब ऐसे लगते हैं जैसे मुर्दे सांस ले रहे हैं। ये बेहोशी की नींद में हैं। अत: मैं उन लोगों को ढूंढ़ रहा हूं, जो अपने आत्मस्वरूप को जानते हैं, जाग्रत पुरूष हैं और परमात्मा के समीप हैं। इसीलिए सुकरात सडक़ों पर चीख-चीखकर कहता था Know thyself, Know thyself, अर्थात अपने आत्मस्वरूप को पहचानो और परमात्मा को जानो।
महर्षि यास्क ने मनुष्य का लक्षण लिखते हुए अपने निरुक्तशास्त्र में कहा है- 'मनुष्यः कस्मात् मत्वा कर्माणि सीव्यति इति मनुष्य:' (3/8/2) अर्थात जो सदा विवेक-विचार करके करके कर्म करे, अन्धाधुन्ध कर्म न करे। कर्म करने से पूर्व जो भली प्रकार विचारे कि मेरे इस कर्म का फल क्या होगा ? किस -किस पर इसका क्या प्रभाव होगा ? अतएव कुछ भी सोचने , बोलने और करने से पहले विवेक-प्रयोग करके देखना होगा कि मैं अभी जो, सोचने, बोलने या करने जा रहा हूँ वह अन्य प्राणियों के दुःख और पीड़ा का कारण बनेगा या उनका हित साधेगा ? जो विवेक-विचार कर कर्म करे, उसे मनुष्य कहा जाता है।
'श्री रामकृष्ण - विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा।' में प्रशिक्षित और चपरास प्राप्त युवा नेता, प्रथम युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द द्वारा भारत के युवाओं के लिए सौंपा गया कार्य है- "व्यक्ति जीवन-गठन" ( The task of Individual Life- building) या 'Be and Make!' अर्थात अपने वैयक्तिक जीवन को सुन्दर रूप से गढ़ो और दूसरों को भी अपना सुन्दर जीवन -गढ़ने में सहायता करो। दूसरे शब्दों में स्वयं सद-चरित्रवान मनुष्य बनो और दूसरों को भी सद्चरित्रवान 'मनुष्य' बनने में सहायता करो! महामण्डल ध्वज, संघगान और स्वदेशमन्त्र में भी इसी भाव को व्यक्त किया गया है।
तो क्या हमलोग अभी मनुष्य नहीं हैं? 'मनुष्य' तो हैं किन्तु 'आध्यात्मिक मनुष्य' (पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य) नहीं हैं। अर्थात ढाँचा तो मनुष्य का है , किन्तु भीतर पशुता छिपी हुई है है।
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये मनुष्य और पशु में समान हैं। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् धर्म (सू-चरित्र या विवेक) के बिना मनुष्य पशुतुल्य है।
येषां न विद्या न तपो न दानं,
ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता,
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिन लोगों के पास न तो विद्या है, न तप, न दान, न शील है अर्थात अच्छा चरित्र नहीं है , न गुण और न धर्म। वे लोग इस पृथ्वी पर भार हैं और मनुष्य के रूप में मृग/जानवर की तरह से घूमते रहते हैं।
यहाँ कवि राजा (The Poet King) भर्तृहरि इस बात पर जोर डालना चाहते हैं कि मनुष्य का जीवन भी पशुओं जैसा केवल 'आहार-निद्रा-भय -मैथुन' तक ही सीमित नहीं है। मनुष्य चिन्तन -मनन की क्षमता प्राप्त कर सकता है, विद्यार्जन के आलावा परोपकार (समाजसेवा दान) आदि कार्य में संलग्न हो सकता है, या प्रत्येक मनुष्य सर्वमंगल की प्रार्थना अवश्य कर सकता है, (श्रवण-मनन-निदिध्यासन पूर्वक) आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर सकता है, अपने मन को (वंशविस्तार आदि ऐषणाओं से खींचकर) उच्च विचारों में भी केंद्रित रख सकता है। जो व्यक्ति 'देवदुर्लभ मानव-शरीर ' को प्राप्त करके भी इस प्रकार के उन्नत प्रकार के कर्मों में नहीं लगता 'मनुष्य ' रूप में उसके जीवन की सार्थकता वस्तुतः संदिग्ध हो जाती है । वे धरती के लिए एक प्रकार से बोझ ही कहे जा सकते हैं ।
🔱 .>>>चमत्कार जो तुम कर सकते हो - 'Autosuggestion' द्वारा अक्षिपात को रोक सकते हो !
इससे स्पष्ट हो गया है कि इन सबका आधार ‘मन’ है। अत: वाणी और व्यवहार (अर्थात चरित्र) को सुधारना है तो पहले मन को सुधारिये। इसीलिए यजुर्वेद का ऋषि कहता है-`तन्मे मन:शिवसंकल्पमस्तु।' यजुर्वेद 34/1अर्थात- हे प्रभु! मेरा मन आपकी कृपा से सदैव शुभ संकल्प वाला हो, अर्थात अपने तथा दूसरे प्राणियों के लिए हमेशा कल्याणकारी संकल्प वाला हो, किसी का अहित करने की इच्छा वाला यह मेरा मन कभी न हो।
हमारा मन अनन्त शक्ति का भण्डार है। मन एक सीढ़ी की तरह है जो हमें सफलता के शिखर पर पहुंचा सकता है और पतन के गर्त में भी पहुंचा सकती है। मन की तन्मयता में वह शक्ति है जो चारों पुरुषार्थ में अंतिम पुरुषार्थ मोक्ष प्राप्त करा सकती है। मन की शक्तियों को किसी एक अभीष्ट लक्ष्य पर लगाया जाए तो सफलता अवश्य मिलती है। इसलिए आवश्यकता मन को एकाग्र करने की है। ध्यान रहे, मन की एकाग्रता का अभ्यास (प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास) करते समय मन को विषयों से खींचकर ह्रदय में धारण करने के लिए एक पवित्र आदर्श (स्वामी विवेकानन्द या कोई मूर्तमान प्रेम स्वरूप महापुरुष ) का चयन पहले ही कर लेना चाहिये। किसी पवित्र वस्तु पर ही अपने मन को एकाग्र करना अनिवार्य है। क्योंकि एक बगुला भी अपने लक्ष्य (मछली) पर एकाग्र या तल्लीन होता है, किंतु उसके मन में पवित्रता नहीं होती है वह मछली को निगलने की ताक में रहता है। बगुले की शिक्षा:
"इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः ।
देशकालबलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत् ।।"
(चाणक्य-नीतिः--०६.१६)
अर्थः---बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिए कि अपनी इन्द्रियों को वश में और चित्त को एकाग्र करके तथा देश, काल और अपने बल को जानकर बगुले के समान अपने सारे कार्यों को सिद्ध करें ।
विश्लेषणः---बगुले का ध्यान जगत्प्रसिद्ध है । किंवदन्ती है कि श्रीराम ने ध्यानमग्न एक बगुले को देखकर लक्ष्मण जी से कहा--
"पश्य लक्ष्मण पम्पायां बकः परमधार्मिकः ।
मन्दं मन्दं पदं धत्ते जीवानां वधशंकया ।।"
हे लक्ष्मण ! पम्पा सरोवर पर इस परमधार्मिक बगुले को देखो, जीवों की हिंसा न हो, अतः कैसे धीरे-धीरे अपने पैरों को रख रहा है । लक्ष्मण कुछ उत्तर देते, उससे पूर्व ही एक मछली बोल उठी---
"अहो बकः प्रशंसते राम; येनाहं निष्कुली कृता ।
सहवासी विजानीयात् चरित्रं सहवासिनाम् ।।"
अहो ! हे राम ! आप बगुले की प्रशंसा कर रहे हैं, जिसने मुझे कुलहीन बना डाला । सहवासियों के चरित्र को तो सहवासी ही जान सकता है । एकाग्रता और पवित्रता का उदाहरण देखना है तो चातक पक्षी (पपीहे) की देखिये, जो स्वाति नक्षत्र की बूंद के लिए ध्यानस्थ रहता है।
मोबाइल की स्क्रीन पर देखिए क्षण-प्रतिक्षण मैसेज आते रहते हैं समझदार आदमी व्यर्थ के मैसेज को खारिज कर देता है और काम के ‘मैसेज’को ग्रहण करता है। उससे अपने जीवन को उपयोगी बनाता है। ठीक इसी प्रकार विवेकशील व्यक्ति को चाहिए कि मानस-पटल पर आने वाले बुरे विचारों को अपने विवेक से खारिज करें और ऐसे विचारों को स्थायीत्व जिससे उसके जीवन का उत्कर्ष हो। उसे 'Autosuggestion' के अभ्यास द्वारा अपनी संकल्प शक्ति (विवेक-प्रयोग शक्ति) को द्वढ़ करना चाहिए।
सोमपान जो जन करे,
होवै ना अक्षिपात।
देव-मनुज सब शान्त हों,
जब करै दृष्टिपात ।।
अक्षिपात अर्थात आंख का पतन, यानि कि दृष्टि का पतन। और सोमपान अर्थात भक्तिरस का पान, रामरस का पान, आनन्दरस का पान। व्याख्या:-यदि व्यक्ति प्रभु-भक्ति दिखाने के लिए नहीं करता है, बल्कि सचमुच प्रभु के प्रेम रस में डूब जाता है, और उस सच्चिदानन्द के आनन्दरस का पान करता है तो उसकी आंख का पतन नहीं होता है अर्थात उसकी दृष्टि पवित्र हो जाती है, उसकी सोच महान हो जाती है। उसका नजरिया ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का बन जाता है, उसे कण-कण में भगवान दिखाई देता है। उसका हृदय कह उठता है-‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’ अर्थात ब्रह्म का सब में निवास है।
ऐसा व्यक्ति जाग्रत पुरूष होता है, कोई सिद्ध पुरूष होता है, आध्यात्मिक तेज का धनी होता है। उसकी दृष्टि पैनी और पवित्र होती है, जिसमें अद्भुत तेज होता है। वह ज्ञान और तेज का सूर्य होता है, जिसके सामने सामान्य मनुष्य ही नहीं अपितु देवगण भी बड़े अदब से सिर झुकाकर और खामोश होकर बैठते हैं। ऐसी विलक्षण विभूतियां इस वन की नहीं अपितु समस्त वसुंधरा की शोभा हैं भूसुर हैं अर्थात पृथ्वी के देवता हैं। ऐसे व्यक्ति ज्ञान और तेज के सूर्य होते हैं। इनका कभी अक्षिपात नहीं होता है। वे जब दृष्टिपात करते हैं, तो सब शान्त हो जाते हैं। उनके मुखारबिन्द से ज्ञान की अमृत वर्षा होती है। जिनसे मानव मात्र का हृदय पवित्र और प्रफुल्लित होता है। उनके हृदय (चित्त) से निकलने वाली रश्मियां सुसंस्कारों का निरंतर विकीरण करती हैं। जिनसे मानवता का कल्याण निर्बाध रूप से होता रहता है।
स्वामी विवेकानन्द 1895 में अपने गुरुभाई शशि को एक पत्र में लिखा था - " जिस तिथि से रामकृष्ण -अवतार ने जन्म ग्रहण किया है, उसी तिथि से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है। रामकृष्ण -अवतार में नास्तिक विचार ज्ञानरूपी कटार से नष्ट हो होंगे, और सम्पूर्ण जगत भक्ति और प्रेम से एक कुटुम्ब जैसा होगा। सर्वोपरि इस अवतार में रजस अर्थात नाम-यश इत्यादि की इच्छा का सर्वत्र अभाव है। दूसरे शब्दों में , उनका जीवन धन्य है जो इस अवतार के उपदेश को व्यवहार में लाएंगे, चाहे वह उन्हें (इस अवतार को) स्वयं माने या न माने। " (पत्रावली 1895 पृष्ठ -374)
" From the date that the Ramakrishna Incarnation was born, has sprung the Satya-Yuga (Golden Age) . . . . In this Incarnation atheistic ideas ... will be destroyed by the sword of Jnana (knowledge), and the whole world will be unified by means of Bhakti (devotion) and Prema (Divine Love). Moreover, in this Incarnation, Rajas, or the desire for name and fame etc., is altogether absent. In other words, blessed is he who acts up to His teachings; whether he accepts Him or not, does not matter. [ letter to Shashi (Beginning of?) 1895.]
जिस समय स्वामीजी यह भविष्य-वाणी कर रहे थे, उस समय उनकी समग्र दृष्टि ठाकुर (श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव) के जीवन के भीतर इस प्रकार जुड़ी हुई थी, कि वे अपनी आँखों के सामने साक्षात् इन्हीं दृश्यों को रूपायित होते देख रहे थे। ठाकुर के जीवन और संदेशों को ठीक से समझकर अनुसरण करने वाले मनुष्यों के जीवन में आगे जो परिवर्तन अवश्यम्भावी रूप से घटित होने वाला है, उसी को वे इस प्रकार देख रहे थे मानो " घटना घट चुकी है! "
श्रीरामकृष्ण के (या महामण्डल) आविर्भूत होने से पहले मनुष्य (विशेष रूप से भारतवासी) गहरी सुषुप्ति में था , अज्ञान-रूपी घोर निद्रा के अँधेरे में मानो वह बेजान मुर्दे के जैसा सोया पड़ा था। तभी श्रीरामकृष्ण का आगमन होता है, और नये युग के लिये उपयुक्त पद्धति से मनुष्य के आत्मस्वरूप की महिमा को पुनः स्थापित करने का संघर्ष शुरू हो जाता है। मनुष्य एक बार फिर से अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाने का संकल्प लेकर चलना प्रारंभ कर देता है-इसी प्रकार उसके जीवन में सत्ययुग का प्रारंभ हो जाता है।
[यह बात कई लोगों को (रजत के प्रिंसिपल के) समझ में नहीं आती कि 10 खण्डों में प्रकाशित सम्पूर्ण विवेकानन्द साहित्य में स्वामी जी द्वारा दिया गया कौन सा भाषण या स्वामीजी द्वारा लिखित कौन सा निबन्ध युवाओं के लिये सर्वश्रेष्ठ है ? जैसे यह बात भी कई लोगों को समझ में नहीं आती कि स्वामी जी द्वारा रचित सभी कविताओं में नवनीदा का सर्वप्रिय गीत कौन सा था, जिसे उन्होंने एकबार मेरेडियन स्कूल में आयोजित कैम्प में रनेन दा द्वारा भाषण देने से इंकार करने पर गाया था और क्यों गाया उसका तात्पर्य .... क्या है ?
श्रीकृष्ण-भजन
(राग मुल्तानी -धीमा त्रिताल)
मुझे वारि बनोयारी सैंया, जाने को दे।
जाने को दे रे सैया, जाने को दे (आजु भला) ॥
मेरो बनोयारी, बाँदि तुहारि; छोड़ो चतुराइ सैया।
जाने को दे (आजु भला) ,(मोरे सैया), जाने को दे।
जमुना किनारे, भरों गागरिया, जोरे कहत सेया ,जाने को दे॥
श्रीकृष्ण भजन (राग-देवगांधार, आशावरी थाट -तीन ताल)....मनमोहन मन माधव -`चितनन्दन आगे नाचूंगी' प्रेम-पीत का बांध घुँघरा लोकलाज कुल की मर्यादा एक न राखूंगी मनमोहन मन माधव। " बरजोरी न करो ये कनाई, जमुना के घाट पनिया जो भरण, मोरी गगरी गिराई, मोसे करके लराई। बरजोरी न करो ये कनाई, मन रंग हो तो ईश रंगवा, बरजोरी न करो ये कनाई! मोसे करके लराई। ये कनाई। बैयाँ मोड़े, चूड़ी तोड़े,खाये माखन, मटकी फोड़े। जाऊँ जहाँ, आए वहाँ, कनाई, नहीं पीछा छोड़े कनाई। ना तोसे हारूँगी,नैनों से तीर मारूंगी, कनाई। कनाई मानो ना,मैं तो चली रे चली दही वाली, कनाई कनाई माखन चोर कनाई ,नवनी हरन कनाई । हिन्दी नवम खण्ड में प्रकाशित और स्वामीजी द्वारा लिखित निबन्ध 'मद्रास अभिनन्दन का उत्तर' (अंग्रेजी 4th खण्ड में REPLY TO THE MADRAS ADDRESS), और 'भारत का भविष्य' नामक भाषण दर्शनीय है।]]
अनुबन्धं क्षयं हिंसाम् अनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।
[अनुबन्धम् (भावि अशुभम्) क्षयं हिंसाम् (प्राणिपीड़नम्) अनवेक्ष्य च पौरुषम्। ' मोहात् (अविवेकात् ^*) आरभ्यते कर्म यत्' - तत् तामसम् उच्यते॥
" जो कार्य मोहवश (अविवेकात्) और अपनी क्षमता का आंकलन, परिणामों, हानि और दूसरों की क्षति पर विवेक-विचार किए बिना आरम्भ किए जाते हैं, वे तमोगुणी कहलाते हैं।
अविवेक शब्द अ+विवेक दो शब्दों से मिलकर बना है। जहाँ ‘अ’ का अर्थ है - नहीं, और ‘विवेक’ का अर्थ सत्य-असत्य-मिथ्या का ज्ञान है। अतः शाश्वत-नश्वर, श्रेय-प्रेय विवेक न होने पर भी या अल्पज्ञ होने पर भी झूठे ज्ञानी बनने का घमण्ड ही वास्तव में ‘अविवेक’ है। और यह झूठी शान या अभिमान ही हमारे पतन का कारण है। यह शाश्वत-नश्वर विवेक हमको सत्संगति से (विवेकदर्शन के अभ्यास से) प्राप्त होता है और ‘सत्संग' के लिए प्रभु श्रीरामकृष्ण की दया दष्टि परमावश्यक है, जैसा कि तुलसीदास ने अभिव्यक्त किया है:
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥
भावार्थ-सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति परम् आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि ही फल है और सब साधन तो फूल है। (गुरु विवेकानन्द की प्राप्ति और इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति ही फल है और सब साधन तो फूल है।)
इस जीवन-मुक्ति को प्राप्त करने के लिए किन किन पड़ावों से गुजरना पड़ता है, ये समझाते हुए आदि शंकरचार्य कहते हैं :
सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे निर्मोहत्वम् ॥
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन मुक्तिः।।
संतों की संगत में रहते रहते भक्त अंततः संगविहीन (कामिनी -कांचन में अनासक्त) हो जाता है। कामिनी -कांचन में अनासक्त हो जाने एवं अनावश्यक इच्छाओं से मुक्त होते ही मन से मिथ्या मोह (मैं और मेरा ) का भी नाश हो जाता है। और भक्त निर्मोहत्व (भ्रममुक्त अवस्था Dhypnotized अवस्था) को प्राप्त हो जाता है। उपरोक्त मनःस्थिति को प्राप्त करके जीव निश्चल-तत्व में स्थित हो जाता है। निश्चल -तत्व अर्थात अपरिवर्तनीय सत्य (सच्चिदानन्द) को जान कर सदैव इस एकमात्र सार्वभौमिक परम सत्य में विचरण करता हुआ निश्चल मन जीवन-मुक्त हो जाता है।
मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या 'अहंकार' के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अत मन (उपाधि) के नष्ट होने पर 'अहंकार' और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है। सांसारिक दुखों से मुक्त जीव अनुभव करता है कि वह परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं। लेकिन इस स्वरूपानुभूति के बाद भी भगवान का भक्त बने बिना समदर्शित्व प्राप्त नहीं हो सकता।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।गीता 5.19।।
।।5.19।। जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग (संसार या आवागमन) को जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं।।
पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। `विकारहेतौ सति येषां मनांसि न विक्रियन्ते ते एव धीराः।' (कुमार संभव) - मन के विकृत होने का कारण उपस्थित रहने पर भी जिसका मन चंचल नहीं होता उन्हें धीर या महापुरुष (नेता C-IN-C नवनीदा) कहते हैं। और मेरी उपाधि -मैं आजीवन नवनीदा के दासों का दास हूँ ! समुद्र की लहरों पर बढ़ती हुई लकड़ी इतस्तत भटकती रह सकती है लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ (मार्गदर्शक नेता) अविचल खड़ा रहता है। तूफान (ईस्ट कोलकाता) उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है।
गुरू (नेता CINC नवनीदा) प्रभु-प्रदत्त एक प्रेरक शक्ति है। इसका उत्कृष्टतम उदाहरण देखिये-घोर गरीबी के थपेड़े खाता हुआ बालक नरेन्द्र गुरू रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में आने से, उनकी पावन प्रेरणा से प्रतिभापुंज स्वामी विवेकानंद बन गया। उसकी सोयी हुई दिव्य शक्तियों को अपनी दिव्यता में जीने वाले गुरू रामकृष्ण परमहंस ने पहचाना और उन्हें मुखरित किया, अपनी दिव्यता से भासित किया। बालक नरेन्द्र में कुशाग्र बुद्धि, हृदय में उदारता, ऋजुता समाज और राष्ट्र ही नहीं विश्वमानवता के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा, वाकपटुता, वाकसंयम, प्रत्युत्तर मति और बहुमुखी प्रतिभा अप्रतिम थी, जिसे उनके गुरू रामकृष्ण परमहंस ने और भी धारदार बना दिया।
🔱2. >>>पाठचक्र का महत्व :
सूर्य उगे तो दीप सब
होते कान्तिहीन।
सत्संग जिनको हो गया,
हो गये व्यसन विहीन।।
व्याख्या:-उपरोक्त दोहे की व्याख्या करने से पूर्व सत्संग का अर्थ समझना प्रासंगिक रहेगा। सत्य के संग को सत्संग कहते हैं। सत्य का संग तभी होता है, जब आप अपना आत्मावलोकन करते हैं।आत्मविश्लेषण ,आत्मनिरीक्षण करते रहते हैं, हर समय स्वयं का साक्षी बने रहते हैं ! अन्यथा ताली बजा-बजाकर भजन गाने अथवा कीर्तन करने से कोई लाभ नहीं है। सत्य का संग कोई जरूरी नहीं कि आपको मंदिर में ही हो, यह तो सच्ची आत्मा से अपनी गलतियां सुधारने की प्रेरणा स्वत: भी उठते-बैठते, चलते-फिरते, आपको मिल सकती है अथवा किसी सन्त के प्रवचन से भी प्राप्त हो सकती है। जैसे-महात्मा बुद्घ की प्रेरणा से अंगुलिमाल डाकू भिक्षु बन गया। सत्संग एक वेश्या को किस प्रकार धर्मानुरागिनी बना देता है, यह आम्रपाली के जीवन से प्रकट होता है। वैशाली में रहने वाली आम्रपाली एक वेश्या थी जो महात्मा बुद्घ के प्रवचनों से प्रभावित होकर एक धर्मपरायणा स्त्री बन गयी।
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परसि कुधात सुहाई।।
अर्थात-दुष्ट व्यक्ति सज्जनों की संगति से सुधरते हैं जैसे-पारसमणि के स्पर्श से बुरी धातुएं भी शोभायमान हो जाती हैं। तुलसी की निम्नपंक्तियां भी बड़ी प्रेरणास्पद हैं :-
तुलसी लोहा काठ संग, चलत फिरत जल माहि।
बड़े न डूबन देत है, जाकी पकड़ें बांहि।।
हमेशा याद रखो, सत्संगी बनोगे तो कुछ बन जाओगे और यदि कुसंग में जाओगे तो गिर जाओगे। जिस प्रकार सूर्य के सामने सारे दीप कान्तिहीन हो जाते हैं, ठीक इसी प्रकार सत्संग के सामने सारे व्यसन प्रभावहीन हो जाते हैं। इसलिए सत्संगी बनो, कुसंगी नहीं।
‘उठो, जागो आगे बढ़ो’ कर्म करते हुए जीओ। परस्पर हम एक दूसरे को मित्र की आंख से देखें। ‘सदा संगठित रहो,’ ‘हमारे विचार एक हों’ इत्यादि ऐसे सूक्त हैं जो जीवन सन्देश हैं।
"सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दु:ख भाग भवेत्।।"
अर्थात हे प्रभो! सब सुखी हों, सब स्वस्थ और निरोग हों, सबका कल्याण हो, कोई भी प्राणी दु:खी न हो, ऐसी कृपा कीजिए।
{साभार https://www.ugtabharat.com/6995/6903}🔱
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2.>>> Shraddha (reverence) and Viveka provide the vision to recognize Yugavatar Sri Ramakrishna. विवेक और श्रद्धा ही युगावतार श्रीरामकृष्ण को पहचानने की दृष्टि प्रदान करती है।
🔱🙏 'शीक्षा' दीर्घ 'इ' का तात्पर्य है नेतृत्व प्रशिक्षण [स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित नेता C-IN-C नवनीदा से या] माँ-रूपी गुरु से प्रशिक्षण लेने की उम्र कहाँ से शुरू होती है ? इस सम्बन्ध में स्वामीजी बच्चों को पालने में झूलने (Dangling in the cradle) की उम्र से ही, ही रानी मदालसा की तरह या शिशु अवस्था से 'तुम हो मेरे लाल निरंजन अतिपावन निष्पाप अमित है तेरा निज प्रताप !' की लोरी बच्चों को सुनाते हुए आध्यात्मिक शिक्षा देने के पक्षधर थे। ताकि हर शिशु ' बाह्य-परिस्थितियों के दबाव को हटाकर' एक खिले हुए पुष्प के पौधे की भाँति ही विकसित हो उठे।हमें युवाओं के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने में प्रशिक्षित फुलवारी का माली या नेता बनना और बनाना चाहिए! यानि एक कुशल कर्मी (कार्यनिर्वाही सदस्य या नेता) को अदूरदर्शी नहीं होना चाहिए।
🔱 We must 'Be and Make' a Flower Gardener or leader, trained in making the life-flower of youth to bloom! That is, a skilled (good) worker should not be short-sighted.
>>>'कुशल कर्मी' (Skilled Worker-कार्यनिर्वाही समिति के सदस्य या नेता या धीर महापुरुष) - अर्थात "श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित नेता (या धीर महापुरुष जीवनमुक्त शिक्षक) -मोहात् (अविवेकात्-होकर नहीं), विवेक-विचार पूर्वक चुने हुए इस कठिन कार्य -(Be and Make) की श्रेष्ठता (merit-श्रेय) को समझकर ही, इस आंदोलन का नेतृत्व करना (अपने भाइयों का सेवक बनना चाहिए। अर्थात उसे यह समझ होनी चाहिए कि-`No other service to society is more beneficial than, building our own life properly.'--अर्थात स्वयं अपने जीवन को सुन्दर रूप गढ़ लेने से बढ़कर ,अन्य कोई समाज-सेवा लाभप्रद नहीं है। क्योंकि वह जानता है कि यदि मैं पवित्र हूँ तो सभी में वही पवित्रता (निःस्वार्थपरता-दिव्यत्व -पूर्णता) पहले से विद्यमान है। जीवनमुक्त शिक्षक हो या धार्मिक नेता दोनों अवस्थाओं में माली, या कुशल कर्मी का कार्य उसके जीवनपुष्प को विकसित होने की बाधाओं को हटा देना भर है। शेष काम प्रभु स्वयं करते हैं। क्योंकि - 'ईशावाश्यमिदं सर्वं यद्किञ्च जगत्यां जगत्।' - "इस संसार में जो कुछ भी है उसमें ईश्वर का वास है।" सत्य एक ही है, ज्ञानी लोग उसे अनेक प्रकार से कहते हैं। "एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति। " ईश्वर सभी प्राणियों के हृदय में रहता है। 'ईश्वरः सर्वभूतानां हृदये वसति'- "अमृतस्य पुत्राः" (हम सभी 'न मरने वाले' के पुत्र हैं) इसलिए 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सारी पृथ्वी ही परिवार है।
>>>Work more than paid for : यदि कोई काम (सेवा) को तुम इसलिए करते हो कि, तुम्हें उसे करने का आदेश दिया गया है (नाच मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा) , और यदि तुम उस काम को इसलिए करते हो कि उस काम को (सेवा को साधना समझकर, 'डीमिकी डीमिकि डीमि नाचे भोलानाथ') करने से तुम ब्रह्मत्व (दिव्यत्व ,पूर्णत्व 100 % निःस्वार्थपरता) प्राप्ति के मार्ग पर एक सीढ़ी और ऊँचे चढ़ जाओगे। तो दोनों दृष्टिकोणों के बीच एक बहुत बड़ा अंतर दिखाई देगा। प्रथम उदाहरण में कार्य से जो कुछ भी मिल जाये उससे तुम सन्तुष्ट हो जाते हो, लेकिन दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार काम करके तुम तभी सन्तुष्ट होते हो जब वह काम तुम्हारे ॐ की प्राप्ति के मार्ग को प्रशस्त करता है।
Shraddha: श्रद्धा-wisdom" नित्य और लीला'- दोनों सत्य हैं। ईश्वर नित्य हैं; फिर वे लीला भी करते हैं- नरलीला में वे अवतार (नेता) बनकर आते हैं। : For the attainment of wisdom it is necessary to be a Shraddhavan (a believer): (विवेक-प्राप्ति के लिए श्रद्धा वान (आस्तिक-मूर्तिपूजक) होना आवश्यक है।: इससे यह सिद्ध हुआ कि विवेक प्राप्ति के लिए आस्तिक होना (या सत्यान्वेषी होना) परमावश्यक है। मानव को अपना विवेक सदैव श्रद्धा (आस्तिक्य बुद्धि) से युक्त रखना चाहिए। अविवेक से (अहं और ॐ के अविवेक से) मानव का तप, यम, नियम सभी तृणवत् भस्मीभूत हो जाते हैं। इससे अहंकार, कपट, प्रमाद, दम्भ आदि का जन्म होता है। यह अहंकार अवांछनीय और अशोभनीय ही नहीं; अपितु विनाशकारी भी हैं। अतः जिस पौधे में माँ जगदम्बा की कृपा से फल पहले आते हैं (मूर्त स्वामी विवेकानन्द से प्रेम पहले होता) और फूल बाद में (नित्य -अनित्य विवेक बाद में होता है) वे संत की वाणी ‘वैष्णव जन मन अभिमान न आने दे' का ध्यान रखें। गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं-”श्रद्धावान लभ्यते ज्ञानम्” हे अर्जुन! श्रद्धावान व्यक्ति ही ज्ञान को प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त गीता में ही प्रसंगवश भगवान कृष्ण कहते हैं- ”श्रद्धा के बिना किया गया अग्निहोत्र (यज्ञ) तप, दान, तीर्थ और प्रार्थना व्यर्थ रहते हैं।” ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकाण्ड में महाकवि तुलसीदास कहते हैं-
श्रद्धा बिना धरम नहीं होई।
बिन महि गंध कि पावइ कोई।।
अर्थात जिस प्रकार पृथ्वी तत्व के बिना गंध को नहीं पाया जा सकता है ठीक इसी प्रकार श्रद्घा के बिना कोई धार्मिक कार्य अथवा धार्मिक अनुष्ठान पूरा नहीं होता है। भाव यह है कि ज्ञान अथवा भक्ति का अंकुरण वहीं होता है, जहां श्रद्धा की मनोभूमि होती है, अश्रद्धा की ऊसर अथवा पथरीली भूमि पर नहीं। ऐसी भूमि में तो श्रम और ज्ञान दोनों ही अकारथ जाते हैं। भक्ति अथवा प्रार्थना के लिए हृदय में अगाध श्रद्धा की मनोभूमि का होना नितान्त आवश्यक है। श्रद्धा में अमोघ शक्ति है। इसीलिए कहा गया है-मोह-माया की रस्सी आत्मा को संसार से बांध देती है (आवागमन के क्रम में बंधती है) जबकि श्रद्घा की रस्सी से आत्मा-परमात्मा को बांध लेती है।अर्थात वश में कर लेती है, अपने अंतिम गन्तव्य (मोक्ष) को प्राप्त कर लेती है। पूजा (भक्ति) की आत्मा -'श्रद्धा' ही होती है। इसलिए हमें प्रत्येक धार्मिक अनुष्ठान को अगाध श्रद्धा से निष्पादित करना चाहिए। [साभार /https://www.ugtabharat.com/7132/]
"माँ खुद भौंरा (काली) बन जाति , बेटे को फूल करे है।" पौधों में साधारणतः पहले फूल आते हैं, बाद में फल, परन्तु लौकी, कुम्हड़े आदि के बेलों में पहले फल और उसके बाद फूल होते हैं। इसी तरह साधारण साधकों को तो साधना करने के बाद ईश्वरलाभ होता है किन्तु जो नित्यसिद्ध श्रेणी (लत्तरश्रेणी ईश्वरकोटि) के योगी होते हैं, उन्हें पहले ही ईश्वर का लाभ हो जाता है; साधना बाद में करनी पड़ती है।" अवतार को (नित्यसिद्ध श्रेणी के योगी को) सब लोग नहीं पहचान सकते। रामचन्द्र को अवतार के रूप में भरद्वाज आदि केवल 7 ही ऋषियों ने ही (प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों ने ही) पहचाना था।
Especially the work of 'Individual Life building' or` unfoldment and development of 3H' of the youth as would be Leader or 'Mali of Phulwari'. विशेष रूप से युवाओं के जीवन-पुष्प का प्रस्फुटन करने में सक्षम 'माली बनो और बनाओ' आंदोलन का प्रचार-प्रसार करते समय , यानि '3H' के विकास और अनावरण के 5 अभ्यास का कार्य " या शरीर, मन आत्मा के विकास और अनावरण में प्रशिक्षित नेता के 'Individual Life building' हुए देश में 'चरित्रवान- मनुष्यों' की संख्या में वृद्धि करने का कार्य करते समय -"वीर हो धीर बनो! "Be brave, be patient (moral)! का उपदेश देने वाले नवनी दा अवतार हैं, वे मेरे नेता है ; इस निश्चय पर उनकी नरलीला देखकर पहुँचा हूँ! भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम को केवल सप्तर्षि (प्रवृत्ति मार्ग के वज्र-धीर पुरुष या 100 % निःस्वार्थी ऋषि) ही पहचान सके थे ! विवेक और श्रद्धा ही नेता, जीवनमुक्त शिक्षक, पैगम्बर, C-IN-C, पूज्य नवनीदा (Revered Nabani da) को धीर होने के कारण वज्र तुल्य ऋषि के रूप में पहचानने की दृष्टि प्रदान करती है।कहने वाले प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षि - RM दा, KJN, JPM, + निवृत्ति मार्ग के सप्तर्षि PRNV-दा,PR दा +5..... ? ]
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱नेति से इति🔱
(निषेध के बाद स्वीकरण -Negation to Affirmation)
🔱🙏卐🔆3.>>> एक बार अखण्ड सच्चिदानन्द तक पहुँचकर फिर वहाँ से उतरकर यह सब (जगत को) देखो ! 🔆एकं सत -'Unity in diversity ' अर्थात जगत ईश्वर (आत्मा) से भिन्न नहीं है 🔆( The world by no means exists apart from Him.)/🔱🙏卐🔆 'भक्त ' की अवस्था ही 'विज्ञानी' की अवस्था है 🙏卐🔆The state of 'Bhakta' is the state of 'Scientist' /भागवत पण्डित के भाई में भी माँ का ही प्रकाश है🔱🙏
" अनुलोम (निषेध-negation) हो जाने पर फिर विलोम (हाँ स्वीकरण-affirmation) होता है । यह पुराणों का मत है । जैसे एक बेल (वस्तु) में गूदा, बीज और खोपड़ा है । खोपड़ा और बीज निकाल देने पर गूदा रह जाता है; परन्तु बेल का वजन कितना था, यह जानने की अगर इच्छा हुई तो खोपड़ा और बीज के निकाल देने से काम न बनेगा । इसी तरह जीव-जगत् को छोड़कर पहले सच्चिदानन्द में जाया जाता है । फिर उन्हें प्राप्त कर लेने पर मनुष्य देखता है, यह सब जीव-जगत् भी सच्चिदानन्द ही हुए हैं । जिस वस्तु (बेल) का गूदा है, उसका खोपड़ा और बीज भी है, जैसे मट्ठे का मक्खन और मक्खन का मट्ठा ।
“परन्तु कोई-कोई कह सकते हैं कि सच्चिदानन्द इतने कड़े क्यों हो गये – इस पृथ्वी को दबाने से वह बड़ी कठिन जान पड़ती है । इसका उत्तर यह है कि शोणित और शुक्र तो इतना तरल पदार्थ है, परन्तु उन्हीं से इतने मनुष्य, बड़े-बड़े जीव तैयार हो रहे हैं ! ईश्वर से सब कुछ हो सकता है । एक बार अखण्ड सच्चिदानन्द तक पहुँचकर फिर वहाँ से उतरकर यह सब देखो ।”
“वे ही सब कुछ हुए हैं । संसार उनसे अलग नहीं है । गुरु के पास वेद पढ़कर श्रीरामचन्द्र को वैराग्य हो गया । उन्होंने कहा, संसार अगर स्वप्नवत् है तो इसका त्याग करना ही उचित है । इससे दशरथ डरे । उन्होंने रामको समझाने के लिए गुरु वशिष्ठ को भेज दिया । वशिष्ठ ने कहा, ‘राम, हमने सुना है – तुम संसार छोड़ना चाहते हो । तुम हमें समझा दो कि संसार ईश्वर से अलग एक वस्तु है । यदि तुम समझा सको कि ईश्वर से संसार नहीं हुआ तो तुम इसे छोड़ सकते हो ।’ राम तब चुप हो रहे, कोई उत्तर न दे सके ।
[लक्ष्मी पंडित का भाई JPM,Golu,SKM,Pdwn,Bn,Ajp,Sjdd,Ss,Kjn,Rjm, rcm,रमू-पण्डित के भाई भाई मिपद और कोन्नगर के सुभाष ? स्वप्न में दादा का ज्ञान - 3. 30 am 27 oct,2022/28 Oct रोज सुबह दादा पढ़ाते है क्या? सभी घटनाओं में माँ का ही प्रकाश है -उपाधि-नाश होता जा रहा है ,अब वाणी मीठी होगी !स्वप्न - हजारीबाग मैं गया हूँ,जगद्धात्री पूजा 2022 (पश्चिम बंगाल)। प्रारंभ: बुधवार, 2 नवंबर। समाप्ति: शनिवार,5 नवंबर।-बिकास दाकी शादी में परेशानी दुल्लु-बुल्लू-मोहन -सनत के साथ?/ पीदा नहीं जायेंगे, स्कूल बिल्डिंग नहीं मिला कैम्प कैंसिल्ड, - यदि पीदा हजारीबाग नहीं आयेंगे तो, मुझे भी नहीं जाना है।]
“मेरा ज्ञानियों जैसा स्वभाव नहीं है । ज्ञानी अपने को बड़ा देखता है, कहता है- 'मुझे' फिर रोग कैसे ? “कुँवरसिंह ने कहा, ‘आप अब भी देह की चिन्ता में रहते हैं ।’ “मेरा यह स्वभाव है – मेरी माँ अब जानती हैं । राजेन्द्र मित्र के यहाँ वे (माँ) ही बातचीत करेंगी । वही बात बात है । सरस्वती (Goddess of Wisdom) के ज्ञान की एक किरण से एक हजार पण्डित दाँत में उँगली दबा लेते हैं ।
अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण आगे कहते हैं, " नित्य और लीला'- दोनों सत्य हैं। ईश्वर नित्य हैं; फिर वे लीला भी करते हैं- ईश्वरलीला, देवलीला, जगत-लीला, नरलीला। नरलीला में वे अवतार बनकर आते हैं। नरलीला कैसी होती है जानते हो ? जैसे बड़ी छत का पानी व्याघ्रमुख परनाला या (gargoyle) से होकर धड़धड़ करते हुए नीचे गिरता है। उसी सच्चिदानन्द की शक्ति मानो परनाले के भीतर से आ रही है। "
First negation and then affirmation. This is the view held by the Puranas. A vilwa-fruit, for instance, includes flesh, seeds, and shell. You get the flesh by discarding the shell and seeds. But if you want to know the weight of the fruit, you cannot find it if you discard the shell and seeds. Just so, one should attain Satchidananda by negating the universe and its living beings. But after the attainment of Satchidananda one finds that Satchidananda. Itself has become the universe and the living beings. It is of one substance that the flesh and the shell and seeds are made, just like butter and buttermilk."It may be asked, 'How has Satchidananda become so hard?' This earth does indeed feel very hard to the touch. The answer is that blood and semen are thin liquids, and yet out of them comes such a big creature as man. Everything is possible for God. First of all reach the indivisible Satchidananda, and then, coming down, look at the universe. You will then find that everything is Its manifestation. It is God alone who has become everything.
[I have not the nature of a jnani. He considers himself great. He says, 'What? How can I be ill?' Koar Singh once said to me, 'You still worry about your body.' But it is my nature to believe that my Mother knows everything. It was She who would speak at Rajendra Mitra's house. Hers are the only effective words. One ray of light from the Goddess of Wisdom stuns a thousand scholars.]
The Mother has kept me in the state of a bhakta, a vijnani. That is why I joke with Rakhal and the others. Had I been in the condition of a jnani I couldn't do that. In this state I realize that it is the Mother alone who has become everything. I see Her everywhere. In the Kali temple I found that the Mother Herself had become everything — even the wicked, even the brother of Bhagavat Pundit. Once I was about to scold Ramlal's mother, but I had to restrain myself. I saw her to be a form of the Divine Mother. I worship virgins because I see in them the Divine Mother.My wife strokes my feet, but I salute her afterwards.
[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱🙏卐🔆4. >>>“उपाधि-नाश " At the time when the UPADHI of a man is being destroyed, it makes a loud noise !
>>> अनुलोम और विलोम अथवा `क्रमविकास और क्रमसंकोच' (evolution and involution) Creation Process : Involution and Evolution :[-अर्थात पेट (गर्भ) में रखना और पेट से बाहर निकालना (Bosom and Bust -बुजम एंड बस्ट) अथवा सृष्टि -प्रलय प्रक्रिया (Creation and Destruction Process), लपेटना और फैलाना (enfolding and unfolding), अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रक्रिया।
विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं -“सब तत्त्व अन्त में आकाश-तत्त्व में लीन हो जाते हैं । सृष्टि के समय आकाश-तत्त्व से महत्-तत्त्व, महत्-तत्त्व से अहंकार, ये सब (world-system) क्रमशः तैयार हुए हैं । अनुलोम और विलोम । भक्त इन सब को मानते हैं । भक्त अखण्ड सच्चिदानन्द को भी मानते हैं और जीव-जगत् को भी।
["All elements finally merge in akasa. Again, at the time of creation, akasa evolves into mahat and mahat into ahamkara. In this way the whole world-system is evolved. It is the process of involution and evolution.A devotee of God accepts everything. He accepts the universe and its created beings as well as the indivisible Satchidananda.]
🔆 'योगी और माँ काली के अवतार वरिष्ठ का भक्त' ~ के बीच अंतर 🔆
“परन्तु योगी का मार्ग अलग है । वह परमात्मा (Supreme Soul-अखण्ड सच्चिदानन्द) में पहुँचकर फिर वहाँ से नहीं लौटता ! उसी परमात्मा से युक्त हो जाता है । “थोड़े के भीतर जो ईश्वर को देखता है, उसे खण्ड ज्ञानी- 'partial knower' कहते हैं । वह सोचता है, उसके परे और उनकी सत्ता नहीं है । लेकिन माँ काली के (अवतार वरिष्ठ के) भक्त का मार्ग अलग है !! मां का भक्त (नेता-CINC) मन की सीमा के पार, अखण्ड सच्चिदानन्द में पहुँचकर फिर वापस उतर आता है!!
"But the yogi's path is different. He does not come back after reaching the Paramatman, the Supreme Soul. He becomes united with It. "The 'partial knower' limits God to one object only. He thinks that God cannot exist in anything beyond that. But the path of a devotee of Maa Kali is different!! The devotee of Mother (Leader-CINC-Navanida) reaches beyond the limit of mind, reaches Akhand Sachchidananda and comes back again!!]
🔆उत्तम भक्त के लिए -'लोटा ब्रह्म , थाली ब्रह्म' 🔆
“भक्त तीन श्रेणी के होते हैं । अधम, मध्यम और उत्तम । अधम भक्त कहता है, वे हैं ईश्वर, और ऐसा कहकर आकाश की ओर उँगली उठा देता है । मध्यम भक्त कहता है, वे हृदय में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं । उत्तम भक्त कहता है वे ही यह सब हुए हैं, - जो कुछ मैं देख रहा हूँ, सब उन्हीं के एक-एक रूप हैं । नरेन्द्र पहले मजाक करके कहता था, 'अगर वे ही सब कुछ हुए हैं तो ईश्वर लोटा भी है और थाली भी ।' (सब हँसते हैं)
"There are three classes of devotees. The lowest one says, 'God is up there.' That is, he points to heaven. The mediocre devotee says that God dwells in the heart as the 'Inner Controller'. But the highest devotee says: 'God alone has become everything. All that we perceive is so many forms of God.' Narendra used to make fun of me and say: 'Yes, God has become all! Then a pot is God, a cup is God!' (Laughter.)]
चित्तेरप्रतिसङ्क्रमायास्तदाकारापत्तौ स्वबुद्धिसंवेदनम् ।। (Yoga Sutra 4 – कैवल्यपाद- 22 ।।
शब्दार्थ :- (चित्ते: अप्रतिसंक्रमाया:) - चित् (पुरुष) अपरिणामी है / किसी भी प्रकार की क्रिया व किसी भी प्रकार के संक्रमण अर्थात सङ्ग से रहित है। तदाकार ( विषय को ग्रहण किए हुए चित्त -मनवस्तु से ) आपत्तौ ( सम्पर्क या सम्बन्ध होने से ) स्वबुद्धि ( उसे स्वयं के बुद्धि का ) संवेदनम् ( ज्ञान हो जाता है। )
आत्मा द्वारा चित्त के साथ सम्पर्क स्थापित करने से वह केवल अपने चित्त अर्थात बुद्धि को जानने का कार्य करता है । इसे ही स्वयं की बुद्धि का ज्ञान होना कहते हैं । इसका अर्थ यह बिलकुल भी नहीं होता है कि आत्मा भी चित्त के साथ परिणामी अर्थात परिवर्तनशील हो गई है ।
इसे स्फटिक मणि के उदाहरण से भी समझा जा सकता है । जिस प्रकार स्फटिक मणि के सम्पर्क में कोई अन्य लाल उड़हुल फूल को रखा जाता है । तब वह स्फटिक मणि भी लाल रंग की दिखने लगती है । लेकिन वास्तव में स्फटिक मणि का असली स्वरूप कभी भी नहीं बदलता । वह सदा साफ व स्वच्छ ही रहती है । ठीक इसी प्रकार जब आत्मा के सम्पर्क में विषय को ग्रहण किया हुआ चित्त आता है । तो आत्मा को भी उसके विषय का ज्ञान हो जाता है । लेकिन वह आत्मा उस विषय के साथ न ही तो कोई क्रिया करता है और न ही उसके साथ किसी तरह का सङ्ग ( साथ ) । वह आत्मा तो निर्विकार व अपरिवर्तनीय ही रहती है । जिस प्रकार स्फटिक मणि रहती है ।
सूत्रार्थ :- निश्चित रूप से वह चेतन आत्मा अपरिणामी है या सभी क्रियाओं व सभी प्रकार के सङ्ग ( साथ ) से रहित होती है । लेकिन विषय को ग्रहण किए हुए चित्त के साथ सम्बन्ध स्थापित होने से उसे स्वयं के चित्त अर्थात मन- बुद्धि का ज्ञान हो जाता है । तब वह ज्ञानमय हो जाता है।
निश्चित रूप से आत्मा सभी प्रकार के विकारों, सङ्ग व परिणाम से पूरी तरह से रहित होती है । लेकिन जैसे ही मन पुरुष के पास आता है, तब पुरुष मानो उसमें प्रतिबिंबित होता है और उसका सम्पर्क विषय का ज्ञान प्राप्त किए हुए चित्त के साथ होता है । वैसे ही आत्मा को सभी वृत्तियों का ज्ञान हो जाता है । उस समय के लिए मन ज्ञानवान हो जाता है। तब अहं को ऐसा प्रतीत होता है, मानो यह आत्मा ही कर्ता ( कर्म करने वाला ) और भोक्ता ( विषयों का उपयोग करने वाला ) है । या (अहंकार) वही स्वयं पुरुष है। " और बोल पड़ता है - 'मैं जान गया कि हारमोनियम की आवाज है।
[(2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🔱 🙏 साण्डिल्य भक्तिसूत्र : आत्मज्ञान हो जाने से मुक्ति नहीं🔱 🙏
" गुण स्फटिक को जो अहै वही दोष को हेत।
तैसे स्वाश्रय आत्मा निर्मल भी मल लेत।।
जीवों का ब्रह्मभावपन्न होना ही मुक्ति है। जीव ब्रह्म से अत्यंत अभिन्न है। उनका आवागमन स्वाभाविक नहीं है; किंतु जावाकुसुम के सानिध्य से स्फटिकमणि की लालीमा के समान अंतः करण (अहं) की उपाधि से ही होता है। किंतु केवल औपाधिक होने के कारण ही वह ज्ञान से नहीं मिटाया जा सकता, उसकी निवृत्ति तो उपाधि (M/Fआकृति को मैं समझना) और उपाधेय इन दोनों में से किसी एक की निवृत्ति से या संबंध टूट जाने से ही हो सकती है। चाहे जितना ऊँचा ज्ञान हो किंतु जैसे स्फटिक-मणि और जावाकुसुम का सानिध्य रहते लालीमा की निवृत्ति नहीं हो सकती, वैसे ही जब तक अंतःकरण (अहं) है, तब तक न तो उपाधि और उपाधेय का संबंध छुड़ाया जा सकता है। और न आवागमन से ही जीव को बचाया जा सकता है। अतः उपाधि के नाश से ही भ्रम की निवृत्ति हो सकती है, आत्मज्ञान से नहीं। और उपाधि नाश के लिए भगवत भक्ति से बढ़कर और कोई उपाय नहीं है। भक्ति क्या है, इसे बताते हुए वे अपने भक्तिसूत्र में कहते हैं- 'सा परानुरक्तिरीश्वरे' भगवान में परम अनुराग ही भक्ति है अर्थात भगवान के साथ अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है। (शांडिल्य सूत्र) इस अनुराग से ही जीव भगवन्मय हो जाता है, उसका अंत:करण (मिथ्या अहं) अंत:करण रूप में पृथक न रहकर भगवान में समा जाता है यही मुक्ति है। (अर्थात अवतार वरिष्ठ CINC को पहचानकर उनके साथ या माँ जगदम्बा के मातृ ह्रदय के सर्वव्यापी विराट 'मैं'-बोध में रूपांतरित हो जाता है यही मुक्ति है।)
मन में जैैसा चिन्तन चल रहा होता है, हमारी क्रियाएं वैसी ही होती हैं। ये क्रियाएं ही हमारी आदतों का निर्माण करती हैं और आदतों के समूह से मनुष्य का चरित्र बनता है। यह चरित्र ही हमारे व्यक्तित्व का दर्पण है। जिस प्रकार मुकुट में ‘हीरा’ लगने से मुकुट का मूल्य और महत्व अधिक हो जाता है, ठीक इसी प्रकार व्यक्ति के पास यदि ‘शील’ है अर्थात उत्तम स्वभाव है तो उसके धन दौलत, पद-प्रतिष्ठा, योग्यता (विद्या अथवा ज्ञान) और कर्मशीलता का महत्व अनमोल हो जाता है, लोकप्रियता और ऐश्वर्य का सितारा चढ़ जाता है अन्यथा शील के बिना अर्थात उत्तम चरित्र और स्वभाव के बिना सब कुछ शून्य लगता है, नगण्य लगता है। ऐसे समझो, जैसे नमक के बिना भोजन स्वादहीन लगता है। मन के सहयोग के बिना कोई भी ज्ञानेन्द्रीय अथवा कर्मेन्द्रिय अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होती है। शरीर का सभी ज्ञान-व्यापार अथवा कर्म -व्यापार मन के सहयोग से ही चलता है। मन के तीन गुण होते हैं-सतोगुण, तमोगुण और रजोगुण। मन में जिस वक्त जिस गुण की प्रधानता होती है, हमारे व्यक्तित्व पर उस समय उसी तत्व की अमिट छाप परिलक्षित होती है।
>>>(वंश) -विस्तार भय (पशुत्व) से विराम (देवत्व -100% Unselfishness)की ओर : प्रकृति के प्रथम परिणाम महत्-तत्व के ही नाम है: मन, महान, ब्रह्मा,ख्याति, ईश्वर प्रज्ञा चिति, स्मृति,संवित और विपुल। इस महत्तत्व पर वर्तमान में खगौल विज्ञान एवं भौतिकी विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत अनेकों वैज्ञानिक एवं शोधार्थी मूलभूत तत्वों की खोज में दिन-रात शोधरत है। हिग्स बोसान, आदि एलिमेंट्री पार्टिकल्स पर निरंतर शोध हो रहे हैं और होते रहेंगे जब तक आधुनिक विज्ञान एवं वैज्ञानिक सृष्टि के सृजन से प्रलय तक की ब्रह्माणडीय वैतरणी पार नहीं कर लेते। विस्तार भय से विराम की ओर। आखिर हमारे प्राचीन ऋषि मुनि भी तो वैज्ञानिक ही थे।
प्रकृतिवादी विद्वान्, मूल प्रकृति (माँ काली) को अव्यक्त कहते हैं। यह सम्पूर्ण जगत व्यक्त कहलाता है। प्रतिदिन इसका क्षरण (क्षय) होता है, इसलिए इसको क्षर कहते हैं । क्षरतत्वों में सबसे पहले महत्तत्व की सृष्टि हुई है । महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । यह महत् तत्त्व और कुछ नहीं है सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी में Black Matter मैटर है। जो भी दृश्यमान चीज़ आप देख रहे हो वह सब की सब महत् तत्त्व की डिज़ाइन से बना हुआ है।बनाया भले मूल प्रकृति ने हो परंतु आर्डर और डिज़ाइन तो महत् तत्त्व की ही है। सब Black Matter से ही बना है ऐसा आज का Modern Science भी मानता है। पहले अरबों साल पहले तो एक छोटा सा अंडा था जिसमें बहुत बहुत घन पदार्थ थे। वह अंडा और कोई नहीं एक बिंदु [ॐ का चन्द्रबिन्दु] जो कि हमारे आध्यात्मिक जगत में अव्यक्त प्रकृति के नाम से जाना जाता है। वही अंडे के भीतर जब बहुत घनता आ गयी तो उसका तापमान भी बढ़कर 36 के पीछे 21 बार ‘0’ लगे उतनी गर्मी पैदा हुई। और यही गर्मी की वजह से ही अंडा फूटा कहो या कुदरत ने तोड़ा और एक ब्लास्ट के साथ वह टुटा तो ब्लास्ट में सभी टुकड़े इत्तरबित्तर हो गए। आज भी तब तक से बिखरे हुए टुकड़े भाग रहे है रुके नहीं और यह ब्रह्माण्ड का विस्तार हो रहा है। उसीमें से ब्लैक मैटर भी निकाला और उसी में से Neutrino (न्युट्रीनो) भी निकले जो मूल तत्त्व है। यह आज का साइंस कह रहा है। यह वही Neutrino है जिन्होंने इस पुरे ब्रह्माण्ड को दृश्य पदार्थो से भर दिया है , उसको डिज़ाइन किया है इस महत् तत्त्व यानि की ब्लैक मैटर ने।🔱🙏>>>उपाधिनाश का उपाय भक्ति है : `विकारहेतौ सति येषां मनांसि न विक्रियन्ते ते एव धीराः।' (कुमार संभव) - अर्थात मन के विकृत होने का कारण उपस्थित रहने पर भी जिसका मन चंचल (विकृत) नहीं होता उन्हें धीर महापुरुष (नेता C-IN-C नवनीदा) कहते हैं। प्रमोद दा की उपाधि- मैं कार्यकारिणी समिति में मेम्बर तो क्या किसी पद पर नहीं हूँ,KJN का उपाधि -मैं PR नहीं SR हूँ,] समीर आदि का उपाधि -online निवेदिता जन्मतिथि 30 अक्टूबर 2022 पर 'वक्ता मैं कार्यनिर्वाही सदस्य' हूँ ! [Executive committee member, कारकारिणी समिति का सदस्य हूँ ! नरेन् दा का उपाधि -मैं VP हूँ ! मेरी उपाधि -मैं आजीवन नवनीदा के दासों का दास हूँ ! )
गीता (13.15) में ब्रह्मभावोपलब्धि के लिए यही उपाय भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च।।
[सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् असक्तं सर्वभृत् च एव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
---वे (परमात्मा-भगवान श्रीराकृष्ण देव) समस्त इन्द्रियों से रहित हैं और सम्पूर्ण इन्द्रियों के गुणो (कार्यों) के द्वारा प्रकाशित होने वाले हैं, आसक्ति रहित तथा गुण रहित होते हुए भी सबके भरण-पोषण करने वाले और गुणों के भोक्ता हैं ।
ब्रह्म और शक्ति अभेद है , लेकिन पहले परमात्मा (ब्रह्म) हैं, फिर परमात्मा की 'शक्ति' प्रकृति है। प्रकृति का कार्य > महत् तत्व । महत् तत्व का कार्य > अहंकार। अहंकार का कार्य > पञ्चमहाभूत। पञ्चमहाभूतों का कार्य > मन एवं दस इन्द्रियाँ। और दस इन्द्रियों का कार्य > पाँच विषय --(रूप,रस ,गंध शब्द और स्पर्श।) ये सभी प्रकृति के कार्य हैं।
परमात्मा (ब्रह्म या भगवान श्री रामकृष्ण) प्रकृति और उसके कार्य से अतीत हैं। वे चाहे सगुण हों या निर्गुण, साकार हों या निराकार, सदा प्रकृति से अतीत ही रहते हैं। वे जब अवतार लेते हैं तब भी प्रकृति से अतीत ही रहते हैं। अवतार के समय वे प्रकृति को अपने वश में करके प्रकट होते हैं। वह बद्ध जीव (मुमुक्षु या एथेन्स का सत्यार्थी) जो पहले अपने को गुणों में लिप्त, गुणों से बँधा हुआ मान कर जन्मता-मरता था (आवा-गमन करने को बाध्य था) भी जब परमात्मा को प्राप्त होने पर गुणातीत (गुणोंसे रहित) कहा जाता है, तो फिर परमात्मा (ठाकुर श्री रामकृष्ण देव- या नवनीदा) गुणों में बद्ध कैसे हो सकते हैं ? वे तो सदा ही गुणों से अतीत (रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियों से रहित हैं अर्थात् संसारी जीवों की तरह हाथ, पैर, नेत्र, सिर, मुख, कान आदि इन्द्रियों से युक्त नहीं हैं किन्तु उन -उन इन्द्रियों के विषयों को ग्रहण करनेमें सर्वथा समर्थ है।
जैसे -- वे कानों से रहित होनेपर भी भक्तों की पुकार सुन लेते हैं ! त्वचा से रहित होने पर भी भक्तों का आलिङ्गन करते हैं। नेत्रों से रहित होने पर भी प्राणि मात्र को निरन्तर देखते रहते हैं। रसना से रहित होने पर भी भक्तों के द्वारा लगाये हुए भोग का आस्वादन करते हैं। इस तरह ज्ञानेन्द्रियों से रहित होने पर भी परमात्मा शब्द, स्पर्श आदि विषयों को ग्रहण करते हैं। ऐसे ही वे वाणी से रहित होने पर भी अपने प्यारे भक्तों से बातें करते हैं। चरणों से रहित होने पर भी भक्त के पुकारने पर दौड़ कर चले आते हैं। हाथों से रहित होने पर भी भक्त के दिये हुए उपहार को ग्रहण करते हैं। इस तरह कर्मेन्द्रियों से रहित होने पर भी परमात्मा कर्मेन्द्रियों का सब कार्य करते हैं। यही इन्द्रियों से रहित होनेपर भी भगवान (श्रीरामकृष्ण-नवनीदा) का इन्द्रियों के विषयों को प्रकाशित करना है।
>>'असक्तं सर्वभृत् च'>>भगवान श्रीरामकृष्ण का (नेता -नवनीदा का) सभी प्राणियों में अपनापन है , प्रेम है, पर किसी भी प्राणी में (नरेन्द्र नाथ में भी ) आसक्ति नहीं है। आसक्ति न होने पर भी वे ब्रह्मा से चींटी पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों का पालन-पोषण करते हैं। जैसे माता-पिता अपने बालक का पालन-पोषण करते हैं, उससे भी कई गुना अधिक पालन-पोषण भगवान श्रीरामकृष्ण अपने भक्तों का करते हैं।
मनुष्य का मन (अन्तःकरण -अहं) सदैव सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के प्रभाव में कार्य करता है। इन तीनों गुणों के प्रभावों को आत्मा सदा प्रकाशित करता रहता है। प्रकाशक और प्रकाश्य के धर्मों से मुक्त होने के कारण आत्मा गुणरहित है। किन्तु एक चेतन मन (अन्तःकरण-अहं) ही इन गुणों का अनुभव कर सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि आत्मा स्वयं निर्गुण होते हुए भी मन की उपाधियों के द्वारा गुणों का भोक्ता भी है। इस प्रकार इस श्लोक में आत्मा का सोपाधिक (उपाधि सहित-जीव) और निरुपाधिक (उपाधि रहित-ब्रह्म श्रीरामकृष्ण देव) इन दोनों दृष्टिकोणों से निर्देश किया गया है। इतना ही नहीं, वरन् एक व्यष्टि उपाधि में व्यक्त आत्मा (I am He ) ही सर्वत्र समस्त प्राणियों में स्थित है।
कोई भी तरंग (नरेन्द्र नाथ) सम्पूर्ण समुद्र (भगवान श्री रामकृष्ण) नहीं है समस्त तरंगे सम्मिलित रूप में भी समुद्र नहीं है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि समुद्र उन तरंगों में आसक्त है। क्योंकि वह तो उन सबका स्वरूप ही है। असक्त होते हुए भी उन सबको धारण करने वाला समुद्र के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। इसी प्रकार विविधता की यह सृष्टि चैतन्य ब्रह्म नहीं है , परन्तु ब्रह्म ही सर्वभृत है।
कौन प्राणी (भक्त) कहाँ है और किस प्राणी (भक्त) को कब किसी वस्तु आदि की जरूरत पड़ती है , इसको पूरी तरह जानते हुए भगवान् श्री रामकृष्णदेव उस वस्तु को आवश्यकतानुसार यथोचित रीति-से पहुँचा देते हैं (अपने नरेन्द्र को शिकागो-धर्म सभा के पहले ठाकुर उनको श्रीमती हेल के घर पहुँचा देते हैं।) प्राणी (भक्त ) पृथ्वी पर हो समुद्र में हो, आकाश में हो अथवा स्वर्ग में हो अर्थात् त्रिलोकी में कहीं भी कोई छोटा -से- छोटा अथवा बड़ा-से-बड़ा प्राणी हो, उसका पालनपोषण भगवान् करते हैं। प्राणिमात्र के सुहृद् होने से वे अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के द्वारा पाप-पुण्यों का नाश करके प्राणिमात्र को शुद्ध, पवित्र करते रहते हैं।
>>> (EGO) और (I GO) अहंकार और करतार (भगवान) का छत्तीस का आंकड़ा है। अहंकार भगवान का भोजन है इसलिए जीवन में विभिन्न विभूतियों से विभूषित होने पर कभी भी अहंकार मत करो। विभिन्न विभूतियों (विलक्षणताओं) को प्रभु का प्रसाद समझो। अंग्रेजी के (EGO) और (I GO) इन दोनों शब्दों को ध्यान से देखिये-दोनों में मात्र तीन तीन अक्षर हैं किंतु इनके शब्दार्थ पर चिंतन कीजिए (EGO) का अर्थ है-अहंकार और (I GO) का अर्थ है-मैं चलता हूं। जब (EGO) है, अर्थात अहंकार आता है तो मनुष्य की बुद्धि में विवेक का दीपक बुझ जाता है। बुद्धि पर अहंकार का पर्दा पड़ता है, तो बुद्धि- शुद्धबुद्धि न रहकर दुर्बुद्धि हो जाती है और मनुष्य सदाचार को छोड़कर पापाचार में लिप्त हो जाता है। तब भगवान कहते हैं- (I GO)अर्थात मैं चलता हूं, यानि कि परमात्मा की बरसने वाली कृपा वहां से चली जाती है।इसके लिए प्रभु के प्रतिसर्वदा कृतज्ञ रहो, ऋजुता में रहो, अर्थात सहज और सरल रहो, कुटिलता रहित रहो, हृदय में उदारता और वाणी में विनम्रता से सदैव अलंकृत रहो ताकि प्रभु-कृपा की बदली आप पर निरंतर बरसती रहे।
पुराणों तथा यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति ही बताया गया है। एक बुद्धिमान् एवं विचारशील पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। ऐसे अस्पष्ट और अज्ञात लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान् पुरुष को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। उसमें उस लक्ष्य के प्रति न उत्साह होगा और न लगन। स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त में स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जीव का संसार यहीं पर समाप्त होकर वह अपने अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है। जीवभाव की परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर मनुष्य ईश्वरानुभूति में स्थित रह सकता है। जीवत्व से ईश्वरत्व तक आरोहण करने में कौन समर्थ है किस उपाय से संसार बन्धनों से मुक्ति पायी जा सकती है इस श्लोक में केवल जीवन के लक्ष्य का ही नहीं बल्कि तत्प्राप्ति के लिए साधन का भी संकेत किया गया है। भगवान् कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में (100 % निःस्वार्थपरता में) स्थित है वे ब्रह्म में स्थित हैं। भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्म-मरण के आवागमन रूपी संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में समभाव में स्थित रहता है वह पुरुष (महापुरुष-नेता ) निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है।
क्योंकि ब्रह्म सर्वत्र (मन,बुद्धि,चित्त अहंकार आदि में) समानरूप से व्याप्त है, इसीलिए वह निर्दोष और सम है। सब घटनाएं उसमें (ब्रह्म में) ही घटती रहती हैं परन्तु उसको (साक्षी को) कोई विकार प्राप्त नहीं होता। सत्य (इन्द्रियातीत सत्य या परम् सत्य) सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका (उभयतोवहिनी चित्तनदी का) जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान (साक्षी भगवान श्रीरामकृष्ण) सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि का स्वभाव (उपाधि-महत्तत्व, मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार का स्वभाव) है नित्य परिवर्तनशीलता। जीव (अहंकार) देहादि (पंचभूतों) के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा (भगवान श्रीरामकृष्ण देव, नवनीदा में स्थित साक्षी) नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है। जो व्यक्ति मनुष्य (मन उपाधि) को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और समभाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान में स्थिति प्राप्त कर ली है।
(2)3H विकास के 5 अभ्यास :
1. प्रार्थना वह सीढ़ी (निसैनी) है जो मनुष्य को सफलता के शिखर पर पहुंचाती है। जो जन मानव जीवन को सफल एवं सार्थक बनाना चाहते हैं, वे महापुरूषों के जीवन से प्रेरणा लें, उनका अनुसरण करें और पुरूषार्थ के साथ- साथ प्रार्थना मन से करें, श्रद्धा से करें। प्रार्थना ऐसी करो कि तुम्हें अपनी सुध, समय और स्थान का ध्यान बेखुदी छा जाए ऐसी कि तू खुद को भूल जाए। उसको पाने का तरीका, अपने को खोने में है। प्रार्थना आपके हृदय की भाव-तरंगों को पवित्र, प्रभावी, सुकोमल और संवेदनशील बनाती है। प्रार्थना वह सशक्त माध्यम है, जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ता है, उसमें दिव्य तेज भरता है, परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। इसीलिए प्रार्थना को आत्मा का भोजन माना गया है। प्रार्थना आत्मबल का मूल स्रोत है। प्रार्थना तभी तक सार्थक सिद्ध होती है जब तक व्यक्ति धर्म का पालन करता है, जैसे ही व्यक्ति धर्म (सत्कर्म) छोड़ देता है तो धर्म उसका साथ छोड़ देता है। धर्म जैसे ही व्यक्ति का साथ छोड़ता है तो प्रभु भी उस व्यक्ति का हाथ छोड़ देते हैं। इसलिए धर्म (चित्त की निर्मलता) पर आरूढ़ रहना नितांत आवश्यक है। प्रार्थना के महत्व पर प्रकाश डालते हुए यहां इतना कहना प्रासंगिक होगा-ही भोजन से शरीर को रस मिलता है, जबकि प्रार्थना से आत्मा को रस मिलता है। अर्थात आत्मबल मिलता है। इसलिए मनुष्य को प्रभु-प्रार्थना करने में कोताही अथवा प्रमाद नहीं करना चाहिए। यह मूल की भूल भविष्य में महंगी पड़ती है। अत: प्रभु प्रार्थना अर्थात संध्या सुबह-शाम अवश्य करनी चाहिए। प्रार्थना से मनुष्य के मन, वचन और कर्म में एकरूपता आती है, अंत:करण पवित्रता होता है तथा व्यक्ति का मन शुभसंकल्प और दृढ़ संकल्प शक्ति से ओत-प्रोत होता है। जीवन का उत्कर्ष होता है। व्यक्ति मनुष्यत्व से देवत्व को प्राप्त होता है क्योंकि प्रार्थना से दिव्यगुण (ईश्वरीय गुण-100 % निःस्वार्थपरता) उसके व्यवहार में भासने लगते हैं। इतना ही नहीं-व्यक्ति का जीवन प्राणीमात्र के लिए इतना कल्याणकारी सिद्घ होता है कि वह मानवता का मसीहा (पैगम्बर -नेता ) और धरती की धरोहर कहलाने लगता है। आने वाली पीढिय़ां उस पर गर्व करती हैं, जैसे श्री राम, श्री कृष्ण, भगवान बुद्ध, प्रभु ईसा मसीह, चैतन्य महाप्रभु, अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द .... CINC नवनीदा । प्रार्थना के संदर्भ में यूरोप के महान विचारकों का दृष्टिकोण देखिये-”हे प्रभु! मुझे अंधकार से अर्थात अज्ञान से प्रकाश (ज्ञान) की ओर ले चलो। मुझे अपनी अंगुली सर्वदा पकड़ाये रखना, कहीं कभी मेरा पदस्खलन न हो जाए। मैं तेरी कृपा का पात्र सर्वदा बना रहूं।”
[साभार साभार /https://www.ugtabharat.com/7154/]
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[ (2 मार्च, 1884) - श्रीरामकृष्ण वचनामृत-77 ]
🙏卐🔆भारत के 'भक्त' लोग या 'विज्ञानी' लोग कुमारी पूजा क्यों करते हैं ?🙏卐🔆
[Why do Devotees or Scientists of India worship Kumari?]
“कुमारी पूजा क्यों करते हैं ? सब स्त्रियाँ भगवती की एक-एक मूर्ति हैं । शुद्धात्मा कुमारी ( pure-souled virgins) में भगवती का अधिक प्रकाश है !
"Why do people worship virgins? All women are so many forms of the Divine Mother. But Her manifestation is greatest in pure-souled virgins.
[ दुर्गा-सप्तशती के अनुसार स्त्री और पुरुष दोनों समकक्ष हैं!
"विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ता सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्ति।
(श्री दुर्गा सप्तशती -11 /6)
हे देवि! समस्त संसार की सब विद्याएँ तुम्हीं से निकली हैं और सब स्त्रियाँ तुम्हारा ही स्वरूप हैं, समस्त विश्व एक मात्र तुम्हीं से पूरित है। तुम्हारी स्तुति किस प्रकार की जाए? उस स्त्री-शक्ति की स्तुति किस प्रकार की जाये जिन्होंने शुम्भ के विवाह-प्रस्ताव पर कठोर शब्दों में कहा है -
यो मां जयति संग्रामे, यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके, स मे भर्ता भविष्यति।।
( श्री दुर्गा सप्तशती-5 . 69 )
जो मुझे संग्राम में विजित करेगा और मेरे दर्प को हरेगा। जो इस लोक में मेरे समकक्ष होगा, वही मेरा पति होगा।" [--भर्त्ता (पति) = जो भरण करे।] पति धन-सम्पत्ति से घर को भरे, और पत्नी खाली करे। माँ दुर्गा कहती हैं - मैं वही शक्ति हूँ , जिसने शैशव में ही शपथ लिया, और नारी-गरिमा का प्रतिनिधि बन, हुंकार किया -
जो करे दर्प-भंजन, जो मुझसे बलवत्तर।
जो रण में करे परास्त मुझे, जो अविजित नर।।
वह वीरपुरूष- श्रेष्ठ ही कर सकता मुझसे विवाह।
अन्यथा, मुझे पाने की, नर मत करे चाह।।
और यदि आप ये समझ रहे है कि माँ दुर्गा यहाँ दैहिक बल की बात कह रहीं हैं , तो आप गलत है। देहधर्मी तो पशु होता हैं, मनुष्य नहीं। वास्तविक बल तो हृदय का बल है,आपका आत्मविश्वास है।
असुर सभ्यता में स्त्री को धन (सम्पत्ति) माना गया है। वह लक्ष्मी रूपा है अर्थात् धन को संजो कर रखने वाली है। यही शुम्भ का विचार था। किन्तु भारत में स्त्री को बराबर का माना गया है। अतः ..... यदि आप महाष्टमी के दिन किसी कुमारी को देवी मानकर पूजते है, तो फिर अपने घर की स्त्रियों को दासी मत समझिये।
कुरान में पत्नी को पति की सेवा के लिये ही माना गया है। जो सदा पति की तावूफ़ या सेवा करे वह तवायफ़ (वेश्या) है। तवायफ़ से वाइफ (Wife) हुआ है। तथा बाइबिल में उसे निर्जीव सम्पत्ति माना गया है। अमेरिका इंग्लैण्ड जैसे पुराने लोकतंत्रिक देशों में भी स्त्रियों में और काले चमड़ी के लोगों में आत्मा होती ही नहीं है ऐसा माना जाता था, इसलिए उन्हें वोटिंग का अधिकार केवल पिछली शताब्दी में ही मिला था। अतः उनके यहाँ विवाह पवित्र धार्मिक -संस्कार नहीं एक कॉन्ट्रैक्ट है। जो तय मोहर पर तोडा जा सकता है।
इसीलिए जब भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ तो अद्वैत ज्ञान में स्थित आत्मनिष्ठ नेता या आध्यात्मिक नेता बाबासाहब भीमराव अम्बेदकर ने - जाति-धर्म, रंग या लिंग का भेदभाव किये बिना प्रत्येक व्यस्क देशवासी को 'voting right' मतदान का अधिकार दिया। जबकि अन्य कई देश जो 400 -500 से अपने को Democratic country कहते हैं , वहाँ मतदान का अधिकार स्त्रियों होने या चमड़ी के रंग अश्वेत होने के आधार पर नहीं था। क्योंकि वे मानते थे कि स्त्रियों में और काले रंग वाले लोगों में आत्मा नहीं होती। केवल पिछली सदी में ही उन्हें 'voting right' प्राप्त हुआ था।
🔱7 >>>🔱卐 आत्मा का निवासस्थान और चित्त का निवास -स्थान कहाँ हैं ?-Where is the abode of the Chitta and Soul ?
" ज्ञानमय , शक्तिमय (प्रेममय) तथा कर्ममय आत्मा का निवासस्थान मस्तिष्क में नहीं वरन ह्रदय में है। 'शतं चैका च हृदयस्य नाड्य:' -हृदय की एक सौ एक नाड़ियां हैं, इत्यादि। मुख्य नाड़ी केन्द्र (The chief nerve-centre) जिसे सहानुभूति ग्रन्थि (sympathetic ganglion) कहते हैं, हमारे अकाल्पनिक ह्रदय (असली blood pumping machine) के निकट होता है ; और यही आत्मा का निवास दुर्ग है। जितना अधिक तुम ह्रदय का विकास कर सकोगे, उतनी ही अधिक तुम्हारी विजय होगी। मस्तिष्क की भाषा तो कोई कोई ही समझता है , परन्तु ह्रदय की भाषा, ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक सभी समझ सकते हैं। परन्तु हमें अपने देश में ऐसे लोगों को पुनरुज्जीवित करना है, जो मृतप्राय हैं। इसमें समय लगेगा, यदि तुममें असीम धैर्य और अध्यवसाय का गुण है, तो सफलता निश्चित रूप से ही प्राप्त होगी।" (७/४१०- 21 फरवरी, 1900. स्वामी अखंडानंद को लिखित पत्र।)
[ " It is not in the brain but in the heart that the Atman, possessed of knowledge, power, and activity, has Its seat. " शतं चैका च हृदयस्य नाड्य: — The nerves of the heart are a hundred and one" etc. The chief nerve-centre near the heart, called the sympathetic ganglion, is where the Atman has Its citadel. The more heart you will be able to manifest, the greater will be the victory you achieve. It is only a few that understand the language of the brain, but everyone from the Creator down to a clump of grass, understands the language that comes from the heart. But then, in our country, it is a case of rousing men that are, as it were, dead. It will take time, but if you have infinite patience and perseverance, success is bound to come." (21st February, 1900. letter to Swami Akhandananda ) ]
‘चिति संज्ञाने’ धातु से ‘चित्त’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ है,-ज्ञान का साधन। यह ज्ञान स्वरूप ‘जीवात्मा’ के संयोग से चेतनवत् बनकर ‘जीवात्मा’ के लिए ज्ञान तथा कर्म द्वारा समस्त भोगों का सम्पादन करता है। जीवात्मा सहित सब संस्कारों, वासनाओं तथा स्मृतियों को बीज-रूप में संजोकर रखता है। सर्वोत्कृष्ट महत् तत्व से समष्टि चित्त उत्पन्न होता है, फिर समष्टि चित्त से व्यष्टि चित्त उत्पन्न होता है। अत: स्पष्ट है कि चित्त का उपादान कारण ‘महत्तत्व’ है। चित्त (मनवस्तु -Mind-stuff मन के उपादान) का निवास स्थान-सर्वोत्कृष्ट महत् तत्व से समष्टि चित्त उत्पन्न होता है, फिर समष्टि चित्त से व्यष्टि चित्त उत्पन्न होता है। अत: स्पष्ट है कि चित्त का उपादान कारण ‘महत्तत्व’ है।
चित्त का निवास स्थान-हमारे वक्षस्थल के अंदर दोनों फुफ्फुसों के निकट बांयी स्तन की घुंडी के ठीक नीचे जो रक्ताशय (blood vessel) नामक हृदय स्थान है, और जहां पर धक-धक शब्द होता रहता है, इसी के निकट में, शिशु के अंगूठे के अगले पोरे के समान एक पोल है (sympathetic ganglion, सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि है), जिसमें चित्त का निवास स्थान है, इसी चित्त में जीवात्मा भी रहता है। चित्त और आत्मा का अथवा कारण शरीर का प्रभाव यहां ही सबसे पहले पड़ता है। आत्मा और चित्त के संयोग से चेतना और सूक्ष्मप्राण की उत्पत्ति होती है। जिनसे जीवन की क्रियाशीलता प्रतिक्षण बनी रहती है। इसी के प्रभाव से हृदय में स्वाभाविक -गति आरम्भ होकर सारे शरीर में नाडिय़ों द्वारा फैल जाती है और चेतना का संचार हो जाता है। यह चित्त प्रतिक्षण सूक्ष्म प्राण की उत्पत्ति के द्वारा अहंकार को क्रियाशील रखकर पंच-कोशों को क्रियाशील बनाये रखता है। चित्त जाग्रत अवस्था में ही नहीं अपितु निद्रा, स्वप्न , सुषुप्ति और तुरीया अवस्था में भी अपने कार्य में रत रहता है। इसीलिए अभ्यासी निद्रा,स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि के पश्चात उन अनुभवों का वर्णन करता है। चित्त का सम्बन्ध मुख्य रूप से जीवात्मा के साथ है तथा गौण रूप से सूक्ष्मप्राण,मन, बुद्धि,अहंकार और सब इन्द्रियों के साथ भी है। जीवात्मा तथा चित्त दोनों ही एकदेशी हैं,और इनका आधार आधेय सम्बन्ध है जो सृष्टि के उत्पत्तिकाल से चला आ रहा है। जीवात्मा को अपने गर्भ में धारण करके यह चित्त हृदयगुहा में अवस्थि है। आत्मा की किरणें सबसे पहले चित्त पर पड़ती हैं। अहंवृत्ति के चित्त से जीवात्मा अपने सभी कार्य प्रतिक्षण कराता रहता है।
यह (sympathetic ganglion, सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि) शरीर में तथा शरीर के बाहर के वातावरण में क्या गतिविधियां हो रही हैं?-उनके प्रति अत्यन्त संवेदनशील रहता है। बाहर कोई प्रसन्नता की बात हो अथवा अन्दर कोई अनुभूति प्रसन्नता की होती है तो आंखों में चमक आ जाती है और चेहरा खिल उठता है, और यदि शरीर के अन्दर अथवा बाहर कोई शोक, भय, तनाव, हिंसा, क्रोध इत्यादि की घटना होती है, तो आंखों में भय और रोवाँ खड़ा हो जाता है, या लज्जा होती है, चेहरा पीला पड़ जाता है, लाल हो जाता है, चेहरे का तेज घट जाता है तथा शरीर में कंपन होने लगती है, हृदय की धडक़न तेज हो जाती है, कभी-कभी तो हृदयाघात भी होता है। यह इसलिए होता है कि हमारा चित्त (sympathetic ganglion, सहानुभूति नाड़ीग्रन्थि) समवेदनाओं (Sensations) अर्थात इन्द्रिय जनित ज्ञान सूत्र अथवा चेतना की शक्तियों का केन्द्र है, उदगम स्थान है, जो तात्कालिक दबाव को सह नहीं पाता है। जिसकी वजह से कभी-कभी घबराहट और पसीना भी आता है। लेकिन ऐसी घटनायें प्रायः उनके साथ हुआ करतीं हैं -जिनकी आत्मा दुर्बल होती है, किन्तु जिनकी आत्मा बलवती होती है, उनका हौंसला (उत्साह) और हिम्मत (साहस) विषम से विषम परिस्थिति में भी कायम रहता है। इससे स्पष्ट हो गया कि हमारा चित्त शक्ति का भण्डार है। किसी महापुरुष की इच्छा-शक्ति अथवा संकल्प-शक्ति उसके महान आत्मबल की उपज होती है, जिसका उदगम स्थान भी हमारा चित्त ही होता है। इसके अतिरिक्त हमारे चित्त में एक और विशेषता है कि यह समष्टि चित्त और व्यष्टि चित के संस्कारों के साथ-साथ जन्म जन्मांतरों के संस्कारों को भी संजोये रखता है। यहां तक कि मृत्यु के समय विद्या (ज्ञान) कर्म, पूर्व प्रज्ञा (बुद्धि, वासना, स्मृति- संस्कार) को लेकर जीवात्मा के साथ हमारा चित्त ही जाता है इसलिए हमें जीवन पर्यन्त बड़ी सतर्कता से-केवल सद्विचार और सत्कर्म ही करते रहना चाहिएं।
.... चित्त की तुलना शान्त सरोवर से की गयी है। जिस प्रकार शान्त सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है। उसी प्रकार चित्त में पांच-इन्द्रिय रूपी विषय का ढेला गिरने से वह निरंतर तरंगायित बना रहता है। चित्त ही तरंगायित होकर मन बन जाता है। मन का स्वभाव चंचल क्यों है? मन का स्वभाव चंचल इसलिए है क्योंकि ‘मन’ की उत्पत्ति तरंग से होती है। मन अनन्त तरंगों का समुच्चय है जैसे-आशा, तृष्णा, कल्पना, लालसा, वासना, कामना, सुकोमल, सद्भाव (प्रेम, प्रसन्नता, श्रद्घा, स्नेह, लज्जा, सन्तोष इत्यादि) दुर्भाव, अहंकार, संकल्प-विकल्प इत्यादि इसके उत्पत्ति के कारक हैं, जिनमें मुख्य उपादान कारक अहंकार है। इसलिए मन की तुलना एक वैसे मदिरोन्मत्त बन्दर से की गयी है, जिसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया , फिर उस पर एक भूत सवार हो गया।
🔱2. >>>Leadership: नेतृत्व प्रशिक्षण का ध्वजारोहण समारोह (Flag Hoisting Ceremony) :
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।
( ऋग्वेद 10.181.2)
अर्थात: साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि चले हैं ! यजुर्ववेद कहता है : "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"-(यजुर्वेद 36/18 ) अर्थात- सभी मुझे मित्र की निगाह से देखें। मैं सभी को मित्र की निगाह से देखूं। हम सभी एक दूसरे को मित्र की निगाह से देखें। परस्पर के मानव सम्मान में ही सभी अधिकारों का सार निहित है।
अहं नहीं नेतृत्व करै,
आगे रहे विवेक।
मन को काबू में करे,
कृपा करे शिवेक ।।
व्याख्या :-जिस परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का नेतृत्व अज्ञानी और अहंकारी लोगों के हाथ में होता है-उस परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का विनाश सन्निकट होता है। लक्ष्मी अर्थात सुख-समृद्घि और शान्ति वहां से इत्र की खुशबू की तरह शनै:शनै: उडऩे लगती है। शेष रहता है, तो भय-भूख (दरिद्रता, गरीबी) पारस्परिक तनाव रहता है। इसलिए कवि आगाह करता है कि परिवार समाज अथवा राष्ट्र का नेतृत्व अज्ञानी और अहंकारी लोगों के हाथ में कदापि न रहे। परिवार, समाज अथवा राष्ट्र का नेतृत्व सर्वदा विनम्र एवं विवेकशील अर्थात गुणी ज्ञानी लोगों के हाथ में रहना चाहिए। जहां ऐसा होता है-वह घर अथवा परिवार, समाज अथवा समुदाय, राष्ट्र अथवा देश समुन्नत होता है, धरती का स्वर्ग होता है। भौतिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति का होना भी नितांत आवश्यक है, अन्यथा विकास पंगु होता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए मन पर काबू होना बेहद जरूरी है, तभी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की गति एवं दिशा विकासात्मक होती है। दूसरों को नेतृत्व देने से पहले स्वयं का नेतृत्व करो। अर्थात मन के राजा बनो, मन को अपना राजा कभी मत बनाओ। जब ऐसी अवस्था को कोई भी व्यक्ति, घर अथवा परिवार, समाज अथवा समुदाय, राष्ट्र अथवा देश प्राप्त होता है-तो वह युग उनका स्वर्णयुग होता है, क्योंकि परमपिता परमात्मा उस व्यक्ति, परिवार, समाज अथवा राष्ट्र पर तत्क्षण अपनी अनेक अनुकम्पाएं अविरल बरसाते रहते हैं। इसलिए नेतृत्व हमेशा गुणी ज्ञानी लोगों के हाथों में हितकर होता है, भविष्य सुरक्षित होता है।
[साभार https://www.ugtabharat.com/7059/]
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>>>विवेकानन्द का जीवन और सन्देश : " भगवद्गीता में हमें इस बात का बारंबार उपदेश मिलता है कि हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म स्वभावत: सत-असत से मिश्रित होता है। हम कोई ऐसा कर्म नहीं कर सकते, जिससे कहींकुछ भला न हो और ऐसा भी कोई कर्म नहीं, जिससे कहींकुछ हानि न हो। प्रत्येक कर्म गुण-दोष से मिश्रित होता है। इस संबंध में गीता का कथन है कि यदि हम अपने कर्मों में आसक्त न हों तो हमारी आत्मा पर किसी प्रकार का बंधन नहीं पड़ सकता। गीता का मूल सूत्र यह है कि निरंतर कर्म करते रहो, मगर उसमें आसक्त न हो। अतएव अनासक्त होओ, संसार में इस प्रकार कर्म करो, जैसे तुम एक पथिक हो और इस संसार में दो दिन के लिए आए हो। कर्म निरंतर करते रहो, परंतु अपने को बंधन में मत डालो। संसार हमारी निवास भूमि नहीं है, यह तो उन सोपानों में से एक है, जिसमें से होकर हम जा रहे हैं।"
प्रत्येक मानव देह -मंदिर में प्रतिष्ठित आत्मा को पूजा की इकाई मानने वाले विवेकानन्द अपने युवा भक्तों के स्वत्व को जाग्रत कर देते हैं। जब हमलोग विवेकानन्द के जीवन की को पढ़ते हैं, तो उनके भीतर से कोई सवाल करता हुआ मिलता है कि आखिर इस तमाम मानवीय भागदौड़, समृद्धि, या ज्ञान का अर्थ क्या है ? उनके जीवन में साधक, चिंतक, योगी, परिव्राजक, वेदांती सबका समामेलन है।
रोमां रोलां के शब्दों में ‘‘स्वामी विवेकानन्द के द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गए, सर्वप्रथम रहे , हर कोई उनमें अपने मार्गदर्शक नेता का दिग्दर्शन करता था । वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, -‘शिव’! उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो विवेकानंद के माथे पर उस व्यक्ति के आराध्य देव ने स्वयं अपना नाम लिख दिया हो।’’उनके जीवन में साधक, चिंतक, योगी, परिव्राजक, वेदांती सबका समामेलन है।
वर्तमान समय में मनुष्यों ने अपनी मूर्खता से भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय बना लिए हैं एवं इसी आधार पर कल्पित धर्म-ग्रन्थ भी बन रहे हैं। जो केवल इनके अपने-अपने धर्म-ग्रन्थ के अनुसार आचरण करने का आदेश दे रहा है। जैसे- ईसाई समाज का सदा से ही उद्देश्य रहा है कि सभी को "ईसाई बनाओ" क्योंकि ये इनका ग्रन्थ बाइबिल कहता है। कुरान के अनुसार केवल "मुस्लिम बनाओ"। कोई मिशनरियां चलाकर धर्म परिवर्तन कर रहा है तो कोई बलपूर्वक दबाव डालकर धर्म परिवर्तन हेतु विवश कर रहा है। इसी प्रकार प्रत्येक सम्प्रदाय साधारण व्यक्तियों को अपने धर्म में मिला रहे हैं। समस्त सम्प्रदाय भी यही कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि हम स्वयं से ही अनभिज्ञ हैं कि हम क्या हैं? यदि आपसे पूछा जाता है कि आप क्या हैं? तो आपका उत्तर होता है- हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई आदि लेकिन अगर आपसे पूछा जाए कि इससे भी पूर्व क्या आप मनुष्य हो? तो उत्तर देंगे हां। पुनः पूछें- क्या मनुष्य कहलाने वाली सारे गुण आप के चरित्र में है? थोड़ा रुककर बोल तो देंगे `हां ' लेकिन वास्तविकता यह नहीं होती। आज मानव दानव बन रहा है, मनुष्य ही मनुष्य का वैरी हो रहा है, हम बड़े गर्व से समाज को उपदेश देते हैं कि मैं ये हूँ तो तुम भी ये बनो क्योंकि यह अच्छा धर्म है इत्यादि लेकिन कोई यह उपदेश नहीं करता कि आप मनुष्य बनो अथवा मानव धर्म अपनाओ। सभी धर्म हमें विभिन्न धर्मों का अनुयायी आदि बनने का सिख तो दे रहे हैं लेकिन इनमें से कोई धर्म 'मनुष्य' बनना नहीं सिखाता। स्वामी विवेकानन्द उस सिंह-शावक की कथा कहते थे जो भेंड़ों की झुण्ड में पला -बढ़ा था। उदाहरण स्टेज के पीछे लगे बैनर में देखिये! सिंह-शावक अपने भेंड़ समझकर डरकर में-में करता हुआ भाग रहा है, गुरु मिलने पर कहता है - "नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा" (गीता 18/73) अर्जुन बोले -- हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
मनुष्य ने सदैव ही अपने विकास के लिए अनेक कार्य किए हैं। मनुष्य ने विज्ञान के माध्यम से अनेक आविष्कार किए, अनेक ऐसी वस्तुओं का निर्माण किया, जो हमारे लिए पहले सोचना भी संभव नहीं था। वे इस संबंध में विचार करते हुए पाते हैं कि लम्बे समय तक मनुष्य ने 'पाषाण युग' का जीवन जिया, फिर पहला मोड़ उसके जीवन में तब आया, जब उसने आग पैदा की। दूसरे मोड़ पर उसने अन्न को जाना और तत्पश्चात व खेतिहर बना। पर इसके बाद के मनुष्य [आदमी] की प्रगति का सारांश यह कि वह सृष्टि का सबसे ज्यादा खतरनाक और घातक जीव बन गया है या फिर माना जाने लगा है।
स्वामी विवेकानन्द कहते थे - " अपने वीरत्व को प्रकट करो, साम-दाम-दण्ड -भेद की नीति को व्यवहार में उतरकर दिखाओ, तब तुम धार्मिक होंगे। और लात-घूँसे खाकर भी चुपचाप सहकर कायरों का जीवन बिताने से इस लोक में भी नरक भोगना होगा, और परलोक में भी वही होगा। यही शास्त्र का मत है। ' সত্য, সত্য, পরম সত্য—স্বধর্ম কর হে বাপু! ' हे बापू अर्थात हे रामचन्द्र, सबसे ठीक बात तो यही है कि तुम (देश-काल, परिस्थिति के अनुसार) अपने स्वधर्म का पालन करो! किसी के साथ अन्याय मत करो, किसी पर अत्याचार मत करो, यथासाध्य परोपकार करो। किन्तु गृहस्थ के लिए अन्याय सहना भी पाप है, उसी समय उसका बदला चुकाने की चेष्टा करनी होगी। (तुम पहले किसी को नहीं मारना, किन्तु कोई यदि तुम्हें मारे तो उसका हाथ तोड़ देना ! -माँ की सीख) बड़े उत्साह के साथ इतना धन उपार्जन करने की चेष्टा तो करनी ही चाहिए जिससे तुम अपने घर-परिवार को अच्छी जिंदगी देने के साथ साथ, अन्य दस लोगों को भी नौकरी देने के योग्य बन सको। दस लोककल्याण के कार्य करने में भी समर्थ बनना होगा। यदि ऐसा नहीं कर सके तो तुम 'मनुष्य ' (हीरो/शिक्षक/नेता -माँ का बेटा) किस बात के ? जब तुम गृहस्थ-धर्म समुहों का ही पालन नहीं कर सके, फिर 'मोक्ष' की तो बात ही क्या!!" १०/५२
भारतीय संस्कृति ने दीनता और भेंड़ों की तरह -मिमियाने -रिरियाने को हेय माना है। वीर की तरह जीना चाहिए। “वीर भोग्या वसुंधरा"- अर्थात् ईश्वर ने यह भूमि वीर पुरुषों के भोग्यार्थ हेतु बनाई है कापुरुषों के नहीं। हम मनुष्य भी बने तो 'सत् चरित्रम् (Good Character) - मनुष्य ' बनें 'दस्यु ' या कु-चरित्रम् (Bad character) मनुष्य नहीं बनें।
न ही लक्ष्मी कुलक्रमज्जता, न ही भूषणों उल्लेखितोपि वा ।
खड्गेन आक्रम्य भुंजीतः, वीर भोग्या वसुंधरा ।।
अर्थात ना ही लक्ष्मी निश्चित कुल से क्रमानुसार चलती है, और ना ही आभूषणों पर उसके स्वामी का चित्र अंकित होता है । तलवार के दम पर पुरुषार्थ करने वाले ही विजेता होकर इस रत्नों को धारण करने वाली धरती को भोगते है ।
हिन्दू पुराणों, ईसाई और मुस्लिम सभी धर्मग्रन्थों में यही कहानी मिलती है कि सृष्टि की रचना के बाद ईश्वर ने जीवों का निर्माण किया, पेड़ पौधे फिर अतिसूक्ष्म जीवों के बाद, उड़ने वाले, डंक मारने वाले फिर डायनासोर जैसे बड़े-बड़े जीव बनाये। लेकिन उन्हें ख़ुशी नहीं हुई तब अंत में उन्होंने मनुष्य का निर्माण किया जो बाकी जीवों से भिन्न था, तब उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। क्योंकि इसमें सोचने- समझने और विवेक-प्रयोग करने की शक्ति, विद्यमान थी। स्वामी विवेकानन्द भी इस कहानी का उल्लेख करते हुए कहते थे -" सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम मंदिर है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से -यहाँ तक कि देवादि से भी श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञान-लाभ का अधिकारी है, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। देवताओं को भी ज्ञान-लाभ करने के लिये मनुष्य देह धारण करनी पड़ती है। तब ईश्वर ने सभी देवदूतों या फ़रिश्तों को बुलवाया से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन करने के लिये कहा। इबलीस को छोड़कर बाक़ी सबने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु किसी ऊँचे तत्व की धारणा नहीं कर सकते। देवदूत या देवता भी मनुष्य-जन्म लिये बिना मुक्ति-लाभ नहीं कर सकते। क्योंकि वह अपने बनाने वाले (ब्रह्म) को भी जान सकने में समर्थ था। " (१/५३) "मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव-जीव में वे अधिष्ठित हैं; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है।" इसीलिए वे प्रत्येक जीव को, विशेष रूप से प्रत्येक मनुष्य को पूजा की वस्तु समझते थे। इन्ही विचारों की शक्ति से मानव में दया और करुणा का जन्म हुआ, यह शक्ति अद्वितीय थी। उसे सही प्रकार से समझने के लिए और कल्याण के लिए ईश्वर ने वेदों की रचना की। जिसके अनुसार मानवता वह सिद्धांत या विचारधारा है जिसमें मानव का हित सर्वोपरि माना जाता है। वेदों उपनिषदों में मानवता को सर्वोपरि माना गया है व मनुष्य को चरित्र के गुण के साथ ही परिभाषित किया गया है। [श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय रचित। 'महामण्डल पुस्तिका' 'জীবন গড়া ' का हिन्दी अनुवाद `जीवन गठन' / रिराइट ब्लॉग गुरुवार, 2 मई 2013]
(4) धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।। ( गीता 4.8)
हम सभी लोगों को मन की तीन अवस्थाओं का पता है , हमें 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, सुषुप्ति अवस्था भी जानते हैं , पर यह 'समाधि' क्या है......? इसे जानने की उत्सुकता हम सबों में रहती है । श्री रामकृष्ण का जीवन और उपदेश [लीलाप्रसंग और वचनामृत] पढ़ते समय अक्सर उनके मुहुर्मुहः समाधि होने वाले के अनुभवों के प्रति उत्सुकता पनपती है । हमलोगों को 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, पर यह 'समाधि' क्या है......? स्वामीजी को भी इसे जानने की उत्सुकता तब उत्पन्न हुई थी जब वे जनरल असेंबली इंस्टिट्यूट ( स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में पढ़ते थे। 1879 में Entrance Exam पास करने के बाद , नरेन्द्रनाथ जब कॉलेज में भर्ती हुए तब उनकी आयु अठारह वर्ष की थी। [the Scottish Church College was established in 1830 as the General Assembly's Institution and given its present name in 1929.] एक दिन प्रोफेसर (प्रिंसिपल) हेस्टी अंग्रेजी की कक्षा में विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता “ The Excursion ” (अभियान, पर्यटन-was first published in 1814) पढ़ा रहे थे। उन्होंने प्रोफेसर विलियम हेस्टी के मुख से सुना की ' गुलाब के फूल को देख कर कवि खो गया या “Trance” (समाधि) में चला गया । स्वामीजी ने पूछा ये “Trance” क्या होता है ? वह इस शब्द की व्याख्या करते हुए प्रोफेसर हेस्टी बोले कि, [ट्रांस (समाधि) अद्वैत अवस्था में एक तरह का आनन्दमय आध्यात्मिक अनुभव है। ] " अगर इस शब्द का वास्तविक अर्थ समझना है, यदि तुम समाधि देखना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली के पुजारी श्रीरामकृष्ण से मिलो उन्हें बार -बार समाधि होती है।" स्वामी विवेकानन्द को 14 वर्ष की आयु में 1877 में नागपुर से रायपुर तक की गयी अपनी उस बैलगाड़ी यात्रा का स्मरण हो आया जब उनका मन मधुमक्खी का विशाल छत्ता देखकर तीनों जगत के नियन्ता ईश्वर के ध्यान में इतना डूब गया कि थोड़ी देर के लिये उनका बाह्यज्ञान सम्पूर्ण लुप्त हो गया। कितनी देर इस भाव में लीन (तन्मय) होकर बैलगाड़ी में पड़े रहे, उन्हें याद नहीं। जब पुनः होश आया, तो देखा कि उस स्थान से बहुत आगे चले आये थे। ध्यान -राज्य में विचरण करते हुए ईश्वर में पूर्णरूप से तन्मय हो जाने का नरेन्द्रनाथ के जीवन में , सम्भवतः यही पहला (या दूसरा?) मौका था। [चरित पृष्ठ 15]
इसके पूर्व भी नरेंद्र ने श्री रामकृष्ण के विषय में सुन रखा था। इस संत के बारे में उनके अपने कुछ संदेह थे। लेकिन, जब उन्होंने प्रोफेसर हेस्टी से उनके विषय में सुना तो वे दक्षिणेश्वर के इस संत से भेट करने को आतुर हो गये। अपने कॉलेज के प्रिंसिपल से रामकृष्ण परमहंस के बारे में सुनकर, नवम्बर 1881 को वे उनसे मिलने दक्षिणेश्वर के कालीमंदिर पहुँच गये। रामकृष्ण परमहंस से मिलने पर भी नरेन्द्र ने वही प्रश्न किया जो वे औरों से किया करते थे, कि महाशय , क्या आपने भगवान को देखा है? रामकृष्ण परमहंस ने जवाब दिया-हाँ, मैंने देखा है, मैं भगवान को उतना ही साफ देख रहा हूँ जितना कि तुम्हें देख सकता हूँ, फर्क सिर्फ इतना है कि मैं उन्हें तुमसे ज्यादा गहराई से महसूस कर सकता हूँ । रामकृष्ण परमहंस के जवाब से नरेन्द्र प्रभावित तो हुए परन्तु वे इसे ठीक से समझ नहीं सके, तथापि इस मुलाकात के बाद उन्होंने नियमपूर्वक रामकृष्ण परमहंस के पास जाना शुरू कर दिया। प्रारम्भ में तो वे रामकृष्ण परमहंस के विचारों से सहमत नहीं थे और निराकार ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाने के अद्वैतवाद के सिद्धांत को वे धर्मविरोधी समझते थे। इसी सन्दर्भ में यह जानना उचित होगा कि श्री रामकृष्ण दक्षिणेश्वर में ईश्वर की उपासना जगन्माता (माँ काली) की मूर्ति के रूप में किया करते थे। मूर्ति पूजा द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार करने के उनके इस विचार ने उस समय के ब्रह्मसमाज , आर्य समाज द्वारा किये जाने वाले मूर्ति-पूजा विरोधी आन्दोलन को जड़ से हिला दिया।
शुरुआत में ब्रह्मसमाज समाज के विचारों के प्रभाव के कारण नरेन्द्रनाथ मूर्ति पूजा, बहुदेववाद और रामकृष्ण की काली देवी पूजा के विरोधी थे। श्री रामकृष्ण के परम आनंद और दर्शन को केवल कल्पना और मतिभ्रम के रूप में देखते थे और श्री रामकृष्ण से इसको लेकर तर्क-वितर्क में भी करते थे। तब उन्हें उत्तर यही मिलता था कि सत्य (ईश्वर) को सभी दृष्टि कोण से देखने का प्रयत्न करो। इसके बाद 1884 में उनके पिता का देहावसान हो जाने के बाद नरेन्द्र के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया और अमीर परिवार के नरेन्द्र एकाएक गरीब हो गए। उनके घर पर उधार चुकाने की माँग करने वालों की भीड़ जमा होने लगी। ऐसे में नरेन्द्र ने रोजगार तलाशने की भी कोशिश की लेकिन यहाँ भी उन्हें नाकामयाबी ही हाथ लगी। इस पर वे रामकृष्ण परमहंस के पास लौट आए। उन्होंने परमहंस से कहा कि वे माँ काली से उनके परिवार की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रार्थना करें। रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि वे स्वयं काली माँ से प्रार्थना क्यों नहीं करते? कहा जाता है कि नरेन्द्र तीन बार कालीमंदिर में गये लेकिन प्रत्येक बार उन्होंने अपने लिए ज्ञान और भक्ति माँगी और वे परिवार की आर्थिक स्थिति संवारने की इच्छा तक काली के समक्ष व्यक्त नहीं कर सके । इस आध्यात्मिक अनुभूति के बाद नरेन्द्र ने सांसारिक मोह का त्याग कर दिया और राम कृष्ण परमहंस को अपना गुरु मान लिया।
[🔱2.>>>Whatever Work is done with vidya, knowledge [about Om], through shraddha, and meditation backed by upanishad -tradition (Open eyed Meditation), becomes most effective.
छान्दोग्य उपनिषद् ^*2 (01.01.10) में कहा गया है -- " तेनोभौ कुरुतो यश्चैतदेवं वेद यश्च न वेद । नाना तु विद्या चाविद्या च यदेव विद्यया करोति श्रद्धयोपनिषदा तदेव वीर्यवत्तरं भवतीति।"
जो कोई कार्य विद्या, [ओम के बारे में] ज्ञान , श्रद्धा और उपनिषद-परम्परा द्वारा समर्थित ध्यान (Open eyed Meditation -खुली आँखों वाला ध्यान) से किया जाता है, वह सबसे प्रभावी होता है। दो प्रकार के लोग कार्य करते हैं : वे जो ओम के बारे में जानते हैं (इन्द्रियातीत सत्य या आत्मा के नाम ॐ ओम् के बारे में) जानते हैं और दूसरे जो इसके बारे में नहीं जानते हैं। यद्यपि वे दोनों इस ओम् (परमात्मा) से प्राप्त शक्ति की सहायता से ही अपने कार्य सम्पन्न करते हैं। लेकिन विद्या और अविद्या में भेद है । ज्ञान (ओम का ज्ञान) और अज्ञान अलग-अलग परिणाम देते हैं। जिस किसी कार्य को विद्या से (ओम के बारे में समझ कर), श्रद्धा, विश्वास, ईमानदारी के साथ-साथ उपनिषद -परम्परा के अनुसार विधिवत ध्यान के लिए अपेक्षित तकनीकी जानकारी या (required know-how) प्राप्त करने के बाद, उसके सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं को समझते हुए प्रारम्भ किया जाता है , वह कार्य अधिक प्रभावशाली होता है, तथा उस कार्य में (3H विकास के 5 अभ्यास में) सफलता मिलने की सम्भावना भी अधिक होती है।
वेद को इस प्रकार प्रधानता से ओम् का व्याख्यान जानने वाले, और दूसरे जो वेद में सांसारिक ज्ञान पाते हैं – वे दोनों ही वेदों के ज्ञान का उपयोग करते हैं। परन्तु ये दोनों विद्याएं भिन्न है –[विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह । अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते।।' (ईशावास्योपनिषद्, ११) जो (आध्यात्म) विद्या और अविद्या (भौतिक विज्ञान) -इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमृतत्त्व (देवतात्मभाव = दिव्यत्व =100 % निःस्वार्थपरता ) प्राप्त कर लेता है। और बिल्कुल यही बात मुण्डक में पाई जाती है, जहां अङ्गिरा ऋषि महाशाल शौनक को बताते है – तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्यौतिषमिति । अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥ मुण्डक० १।१।५॥ अर्थात् वेदादि सब निम्न विद्याएं हैं । इस प्रकार सर्वत्र एक ही बात दोहराई जा रही है ।)यही बात पातञ्जल योग सूत्र (२/३) में भी कही गयी है - “अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः ॥२।३॥” अर्थात् अविद्या, अस्मिता (अहंकार- अपने परिचय को मैं समझना , स्वयं को शरीर समझना और नश्वर शरीर (M/F) से आत्मीयता मानना।), राग ( प्रिय भौतिक वस्तुओं में आसक्ति), द्वेष (अप्रिय भौतिक वस्तुओं से घृणा।) और अभिनिवेश (जीवन के प्रति ममता - ये पाँचों) क्लेश हैं, जिनके मूल में है अविद्या। अविद्या :- सत्य पदार्थों को असत्य व असत्य पदार्थों को सत्य मानने की गलती करना ही अविद्या नामक क्लेश होता है । यह अविद्या ही बाकी के सभी कलेशों की जननी अर्थात उनको जन्म देने या उनको पोषित करने वाली होती है ।
[इसीलिए वेदवित् अर्थात सामगान करने वाले अथवा ब्रह्मवित् इस ओम् को ही 'उद्गीथ' करते हैं या उच्च स्वर में गाते हैं।]
>>>ओंकार त्रयी- विद्या का सार है : देवताओं ने मृत्यु से बचने के लिए विद्या- त्रयी अर्थात ऋक , यजु: और साम की गुहा का आश्रय लिया , परन्तु वहां भी मृत्यु ने देवताओं का पीछा नहीं छोड़ा । तब देवता वहां से भागे तथा वे ओंकार की शरण में आये । ओंकार वेद-त्रयी से बड़ा गढ़ है , वह शत्रु के लिए दुर्गम और असाध्य है। वहां मृत्यु का प्रवेश असम्भव है। अत: देवता अमर हो गये। इसीलिए उपनिषदों में ऋषियों ने उपदेश दिया कि जो मृत्यु के भय से छूटना चाहते हैं , उन्हें ओंकार की उपासना करनी चाहिए। यह कथा छान्दोग्योपनिषद में वर्णित है। ओंकार त्रयी- विद्या का सार है। ओंकार की विद्या अविनाशी है, अमृतत्व और ब्रह्मपद को प्रदान करने वाली है।
>>अ + उ+ म इन तीनों की संधि से ओंकार बना है। ये तीन वर्ण तीन मात्राएँ कहलाती हैं । इन तीन मात्राओं के अलग - अलग क्षेत्रों में अलग - अलग अर्थ होते हैं। समस्त ब्रह्माण्ड तीन मात्राओं में विभक्त है।
>>'अ' अक्षर जगत की अवस्था में उत्पत्ति , अक्षर - उच्चारण में मुंह का खुलना , शरीर - अवस्था में जागृत , लोक में पृथ्वी , लोक-- देवता अग्नि , कर्म -- इन्द्रिय -कर्म तथा उपलब्धि में ऐश्वर्य है ।
' उ ' अक्षर जगत की अवस्था में विस्तार , उच्चारण में मुंह का विस्तार , शरीर अवस्था में स्वप्न , लोक में अन्तरिक्ष , लोक - देवता -- वायु , कर्म में मानसिक तथा उपलब्ब्धि में यश, उन्नति और तेज है ।
>>' म ' अक्षर जगत की अवस्था में प्रलय, उच्चारण में मुंह बंद , शरीर अवस्था में सुषुप्ति लोक में द्युलोक , लोक- देवता में सूर्य - आदित्य , कर्म में वैदिक कर्म - आध्यात्मिक तथा उपलब्धि में ब्रह्म - साक्षात्कार है ।
>> ओंकार की अर्द्ध मात्रा -- उपर्युक्त तीनों मात्राओं में सम्पर्क एवं समन्वय स्थापित करती है । यह सहिष्णुता और प्राणी - मात्र में ईश्वरीय - भावना जागृत करती है। वह ज्ञान द्वारा ज्योतित , पाप - पुण्य से अलिप्त शांत आत्मा की प्रतीक है ।
ओंकार प्राण का प्रतीक है , वाणी और प्राण का संयोग ओंकार से हुआ है । प्राण ही प्रणव है, प्राण और सूर्य दोनों ही समान हैं । प्राण को ' अंगिरस ' अर्थत: अंगों का सार कहा गया है। अंगिरस ऋषि को इस रस की प्राप्ति हो गयी थी। बृहस्पति ने उद्गीथ के रूप में उपासना की थी । संत ज्ञानेश्वर कहते हैं कि ओंकार कि तीनों मात्राएँ जब मिलकर एकाकार होती हैं , तब उसमें सारे वेद समा जाते हैं।
जो उस विद्या से, उस पर श्रद्धा करते हुए, परमात्मा के निकट आसन जमा कर अपना “काम निकालता” है (अपना लक्ष्य साधता है), उसी का प्रयास सबसे अधिक लाभ वाला होता है। सांसारिक ज्ञान भौतिक सुख अवश्य प्राप्त करा सकता है, परन्तु परम सुख मुक्ति (मोक्ष) नहीं। क्योंकि यह त्रयी विद्या निश्चय से ही ओम् का ही व्याख्यान है ।
ओम् का ज्ञान विद्या है (अर्थात मेरे नश्वर शरीर का नाम विजय है लेकिन अविनाशी आत्मा का नाम ॐ है यह अपने अनुभव से जान लेना विद्या है।), सांसारिक ज्ञान (अर्थात संसार में जीवनयापन के लिए पर्याप्त धन अर्जित करने का ज्ञान) अविद्या है । जो विद्या उस अक्षर ओम् की प्राप्ति कराए, वही उच्च विद्या है । ओंकार सभी रसों में सर्वश्रेष्ठ है, अर्थात सात छलनियों में छना ' रसशेखर ' है ।
छान्दोग्य उपनिषद् ^*के आरम्भ में उद्गीथ रूप में ओम् की उपासना करने का उपदेश है।
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत । ओमिति ह्युद्गायति तस्योपव्याख्यानम् ॥ १।१।१ ॥
ओम् – इस अक्षर, उद्गीथ की ही उपासना (मोक्षार्थी) करे । (वेदवित् अथवा सामगान करने वाले अथवा ब्रह्मवित्) इस ओम् को ही उच्च स्वर में गाते हैं । यह उपनिषद् उस ओम् का उपव्याख्यान हैं ।[Worship ye OM, the eternal syllable, OM is Udgitha, the chant of Sama-veda; for with OM they begin the chant of Sama. And this is the exposition of OM.]
परमात्मा (आत्मा) जिनका निज नाम ओम् है, वे अविनाशी हैं, और वेदों के मुख्य विषय हैं । ॐ शब्द की सनातन धर्म मे विशेष स्थान है, इसे प्रार्थना, अनुष्ठान मे उपयोग किया जाता है। ओंकार को ' प्रणव ' अर्थत: उत्तम ढंग से की गयी स्तुति ही कहा जाता है। ओंकार ध्वनि ही 'परमब्रह्म ' की वाचक है। संस्कृत में "उद्गीथ" का अर्थ है – ऊंचे स्वर में गाया हुआ, अर्थात् बढ़-चढ़ के वर्णित । वेद इस ओम् को ही बढ़-चढ़ के गाते हैं । जोर से गाना -- उत्तम गायन , यह भी ओंकार का दूसरा नाम है । ॐ की ह्रदय से उपासना की जाती है ।
'ॐ शांति: शांति: शांति: ' बोलने का यही अर्थ है कि तीनों लोकों में त्रय - तापों से शांति हो, सभी धर्मों से ऊपर की स्थिति हो। आना - जाना , लेना - देना , जीवन - मरण , इच्छा - अनिच्छा के लुप्त होने पर मात्र शांति ही शेष रहे । ओंकार -हीन मंत्र पंगु माने जाते हैं, ओंकार पूर्वक किया गया कार्य ही सात्विक माना जाता है। ओंकार हमारे प्रारंभ किए गये कार्यों कों निर्विघ्नता से सफल होने में सहायता करता है। ओंकार की उपासना से यज्ञ , दान और तप बंधक न होकर मोक्ष - दायक हो जाते हैं। यदि कर्मों के प्रारंभ में ॐ तत्सत का प्रयोग किया जाता है तो उस कर्म से मोक्ष की प्राप्ति सहज रूप से हो जाती है ।
>>उद्गीथ प्राणायाम (Udgeeth Pranayama)-उद्गीथ प्राणायाम- को "ओमकारी जप" भी कहा जाता है। यह एक बहुत ही सरल प्रकार का प्राणायाम है। उद्गीथ प्राणायाम में प्रत्येक साँस छोड़ने के साथ ॐ का जप शामिल है, इस कारण यह ओमकारी जप (ओंकार का सामगान सामवेद।) के नाम से भी जाना जाता है।
अपने शरीर को ढीला छोड़ दें, शरीर के किसी भी हिस्से में तनाव नहीं होना चाहिए और अपनी पीठ को सीधा रखे। दोनों हाथों की तर्जनी और अंगूठे की नोक को जोड़े । अपनी आँखें बंद करें और ध्यान केंद्रित करें। उद्गीथ प्राणायाम शुरू करने से पहले एक साँस लें और छोड़ें। साँस लेते और साँस छोड़ते हुए ओम का उच्चारण करें।
ओमममममममम की लय के साथ पूरी ध्वनि का जप करें। इस प्रक्रिया को 5-11 बार दोहराएं। पतंजलि योग सूत्र के अनुसार उद्गीथ प्राणायाम सरल प्राणायामों मे से एक है। जो व्यक्ति सुबह उठकर हर रोज उद्गीथ प्राणायाम का अभ्यास करता है, वह कई शारीरिक और आध्यात्मिक लाभों का आनंद पाता है। यह आपको चिंता, अपराध-बोध, नाराजगी, अवसाद, उदासी और भय से निपटने में मदद करता है। शरीर में रक्त का संचार ठीक से होने लगता है, जिसके कारण व्यक्ति के चेहरे पर एक दिव्य निखार आता है।
>>भ्रामरी प्राणायाम (Bhramari Pranayama) उद्गीथ प्राणायाम को करने से पहले भ्रामरी प्राणायाम का अभ्यास करे । भ्रामरी प्राणायाम का नाम, काली रंग की भारत में पाएं जाने वाली मधुमक्खी से उत्पन्न हुआ है, जिसे "भ्रामरी" भी कहा जाता है। भ्रामरी एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ मधुमक्खी है । इस प्राणायाम अभ्यास के दौरान गले के पीछे उत्पन्न होने वाली ध्वनि मधुमक्खी के गुनगुनाहट स्वर से मिलती-जुलती होती है, इसलिए इसे भ्रामरी प्राणायाम कहा जाता है।
पद्मासन, सुखासन या सिद्धासन मे बैठें । ऐसा माना जाता है की उद्गीथ प्राणायाम करते समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठने से अधिक लाभ मिलते है । यह उत्तेजित मन को शांत करता इसलिए यह उच्च रक्तचाप से पीड़ित लोगों के लिए एक बहुत प्रभावी श्वास तकनीक है । एकाग्रता और याददाश्त बढ़ाने में लाभकारी है।आवाज को मजबूत और बेहतर बनाता है। सुनने की क्षमता में सुधार होता है। उत्तेजित करने वाले विचार, हताशा, चिंता और क्रोध से छुटकारा पाने के लिए यह सर्वोत्तम व्यायाम है। घर हो या कार्यालय, सरल होने के कारण इसे कही भी किया जा सकता है। इस करने से हल्का सिरदर्द, तनाव, क्रोध और चिंता से तुरंत राहत मिलती है।
साभार https://www.yogainstantly.in/2020/06/bhramari-pranayama-in-hindi.html]
[`एकं सत विप्राः 'बहुधा' वदन्ती- Unity in diversity, अर्थात अनेकता में एकता में, प्रत्येक देह मन्दिर में एक ही आत्मा ईश्वर या परमसत्य है- प्रत्येक देह में मैं ही हूँ की अनुभूति हो जाती है ! या 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' का बोध हो जाता है ! ]
भारत : भारत (भा + रत) ज्ञान की देवी सरस्वती की उपासना में रत ! विदेशी आक्रमणकारी भारत को ज्ञान की देवी सरस्वती के उपासक समझकर भारत नहीं आते थे बल्कि इसे Eldorado , सोने की चिड़िया golden goose/ very profitable venture/ समझकर लूटने आते थे। भारत का सनातन धर्म आध्यात्मिकता है जिसको मुगलों ने (सिन्धु नदी का उच्चारण -स को ह कहने से) हिन्दू धर्म का नाम दिया। 'अनेकता में एकता' आदि महावाक्यों की खोज कम से 5000 वर्ष (श्री कृष्ण) पूर्व तो अवश्य मानी जाती है। जबकि भारतीय संस्कृति लाखों वर्ष पुरानी है। अद्वैत ज्ञान होने के बाद इसे सभी बाँटने की तीव्र इच्छा होती है और सामने जो भी दीखता है उसी से वह अपने ज्ञान को साझा करने की चेष्टा करता है। जैसे कपिल मुनि को जब ज्ञान हुआ तब सबसे पहले उनकी दृष्टि अपनी माँ देवहुति (देव-आहुति) पर पड़ी। उन्होंने अपने अद्वैत ज्ञान को साझा करते हुए उन्होंने ने अपनी माँ से कहा- "मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"-(यजुर्वेद 36/18 ) अर्थात- सभी मुझे मित्र की निगाह से देखें। मैं सभी को मित्र की निगाह से देखूं। हम सभी एक दूसरे को मित्र की निगाह से देखें। परस्पर के मानव सम्मान में ही सभी अधिकारों का सार निहित है।
जैसे युगों में सत्ययुग उच्चतम कोटि का कहा जाता है वैसे ही उक्त चौथी अवस्था श्रेष्ठतम स्तर की कही जाएगी । जिस युग में किसी संघ, संगठन या देश का नेतृत्व इस प्रकार के जीवन्मुक्त नेता (पैगम्बर) के हाथों में होता है वह संगठन या देश सुव्यस्थित ढंग से परिचालित होता है। और सामाजिक मूल्यों का (चारित्रिक गुणों का) सर्वत्र सम्मान होता है । उसके विपरीत कलियुग को निकृष्टतम युग कहा गया है क्योंकि कलियुग में समाज में `स्वार्थपरता सर्वाधिक (100 %) ' रहती है और परंपराओं का ह्रास देखने में आता है। ' पण्डितो मूर्खाणां कथा' के अनुसार अपने मित्र को नदी में डूबता देखकर उसे एक शास्त्रोक्त वाक्य याद आ गया- "सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पंडितः"- अर्थात् सम्पूर्ण का नाश होते देखकर आधे को बचाले और आधे का त्याग कर दे । यह याद आते ही उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिये उसकी शिखा पकड़कर गरदन काट दी । उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा आ गया । देह पानी में बह गई । यही कार्य पण्डित नेहरू ने 1947 में देश को तीन भागों में (बेलेघाटा संघ को दो फाड़) काटकर किया था
(5) दुःख-कष्ट और दरिद्रता शिक्षक है: 'दस्यु मनुष्य' की दृष्टि को भी ज्ञानमयी बना देती है
ज्ञान दो प्रकार का होता है एक परोक्ष और दूसरा अपरोक्ष । 'ज्ञान' के दो भेद हैं एक 'स्मृति' और दूसरा`अनुभूति' । उनमें से ज्ञात विषयक ज्ञान को 'स्मृति' कहते हैं और स्मृति से भिन्न ज्ञान अर्थात् अज्ञात विषयक ज्ञान (समाधि) को 'अनुभव' कहते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद किए हैं एक 'सविकल्पक' और दूसरा 'निर्विकल्पक' । 'सविकल्पक ' अर्थात् जिसमें वस्तु के स्वरूप की प्रतीति के साथ उसके नाम जाति आदि का भी भान होता है उसको सविकल्पक कहते हैं । जैसे घटः पटः आदि की प्रतीति के साथ उनके नाम जात्यादि का भान होने से, साधारणतः व्यवहार में आने वाले सभी ज्ञान सविकल्पक के उदाहरण हैं। परन्तु जहां केवल वस्तु का स्वरूप प्रतीत होता है उसके नाम जाति आदि की प्रतीति नहीं होती उसको निर्विकल्पक ज्ञान कहते हैं। साधारणतः हमारे सभी व्यवहार में आने वाले ज्ञान सविकल्पक ही होते हैं। इसलिए हम निर्विकल्पक ज्ञान की कल्पना नहीं कर पाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " अपने चारों तरफ हम जो दुःख -क्लेश देखते हैं, उन सबका एक ही मूल कारण है - अज्ञान। मनुष्य को ज्ञानालोक दो, [ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करने की पद्धति -मनःसंयोग सिखलाकर] उसे आध्यात्मिक बल से संपन्न करो। यदि हम यह करने में समर्थ हों। यदि सभी मनुष्य आध्यात्मिक बल संपन्न हो जाएं, तभी संसार से दुख का अंत हो सकेगा, अन्यथा नहीं। देश के प्रत्येक घर को हम भले ही महलों में परिणत कर दें, देश को अस्पतालों से भर दें, परंतु जब तक मनुष्य का चरित्र परिवर्तित नहीं होता, तब तक दुख क्लेश बने रहेंगे। "
दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है। यह बोध प्राप्त करने के लिए ही मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द को भी युवा अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद दारिद्रय की परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। श्रीरामचरितमानस में लिखा है–
आकर चारि लच्छ चौरासी। जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।।
कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिनु हेतु सनेही।।
यह शरीर एक साधारण-सी वस्तु है। प्रकृति से पैदा होता है और उसी में समा जाता है। इसलिए जो दस्यु या दुष्ट मनुष्य श्रीमद के कारण (कामिनी -कांचन में आसक्ति वश) अंधे से हो रहे हैं, उन कु-चरित्रवान दस्यु मनुष्यों (पशुमानव) की आंखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है। क्योंकि दरिद्र में घमंड और हेकड़ी नहीं होती, उसकी इन्द्रियां भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं। दरिद्र व्यक्ति सब तरह के मदों से बचा रहता है। दैववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या होती है।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था, दूसरों की शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करके उनकी सहायता करना महान कर्म अवश्य है, परंतु अभाव की मात्रा जितनी अधिक रहती है तथा सहायता जितनी अधिक दूर तक अपना असर कर सकता है, उसी मात्रा में वह उपकार उच्चतर होता है। यदि एक मनुष्य के अभाव एक घंटे के लिए हटाए जा सकें, तो यह उसकी सहायता आवश्यक है और यदि एक साल के लिए हटाए जा सकेें तो यह उससे भी अधिक सहायता है, पर यदि अभाव सदा के लिए दूर कर दिए जाएं तो वह उसके लिए सबसे बड़ी सहायता होगी। केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा है, जो हमारे सभी दुखों को नष्ट कर सकता है, अन्य किसी प्रकार के ज्ञान से तो केवल अल्प समय के लिए हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। केवल आत्मविषयक ज्ञान द्वारा ही हमारी अभाववृत्ति का सदा के लिए अंत हो सकता है। अत: किसी मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता करना ही सबसे बड़ी सहायता है। हम देखते भी हैैं कि जिन व्यक्तियों ने मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता की है, वे ही वास्तव में महान शक्तिशाली थे। कारण यह है कि आध्यात्मिकता ही हमारे समस्त -कृत्यों का सच्चा आधार है। जब तक मनुष्य में आध्यात्मिक बल नहीं आता, तब तक उसकी भौतिक आवश्यकताएं भी भलीभांति तृप्त नहीं होतीं।
इस शरीर पर किसका अधिकार है? यह शरीर क्या पिता का है, या माता का है ? या अपना स्वयं का है? मानव-देह श्रीकृष्ण की सेवा के लिए है। यह शरीर भगवान का है। पिता कहते हैं कि ‘मेरे वीर्य से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए इस शरीर पर मेरा अधिकार है।’ मां कहती हैकि ‘मेरे गर्भ से यह उत्पन्न हुआ है, इसलिए यह मेरा है।’ पत्नी कहती है कि ‘इसके लिए मैं अपने माता-पिता को छोड़कर आयी हूँ, इससे मेरी शादी हुई है, मैं इसकी अर्धांगिनी हूँ, अतएव इस पर मेरा अधिकार है।’अग्नि कहती है कि ‘यदि शरीर पर माता-पिता-पत्नी का अधिकार होता तो प्राण निकलने के बाद वे इसे घर में क्यों नहीं रखते? इस शरीर पर मेरा अधिकार होने के कारण श्मशान लाकर लोग इसे मुझ अग्नि को अर्पण करते हैं, इसलिए इस पर मेरा अधिकार है।’ सियार-कुत्ते कहते हैं कि ‘जहां अग्नि-संस्कार नहीं होता, वहां यह शरीर हमको खाने को मिल जाता है, इसलिए यह शरीर हमारा है।’ इस तरह सभी इस शरीर पर अपना-अपना अधिकार बताते हैं किन्तु भगवान कहते हैं कि ‘यह शरीर किसी का नहीं है। मैंने इसे जीव को अपना उद्धार करने के लिए दिया है। यह शरीर मेरा है।’ जीव जब अनेक योनियों में भटकते-भटकते थक जाता है, तब भगवान दया करके उसे मनुष्य-योनि देते हैं। जो पुरुष इस मानव शरीर को पाकर भी भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लेता, वह अपने-आप को धोखा दे रहा है।
गहराई से देखें तो हम पायेंगे की मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव (3H's) है - शरीर (Hand), मन (Head) और ह्रदय (Heart), इन तीनों को विकसित करने से हम बेहतर मनुष्य या आध्यात्मिक मनुष्य बन सकते हैं। और इन 3H के बाहरी आवरण शरीर को ही 'मैं' समझकर उसमें अटक जाते हैं। स्वयं को ईमानदारी से परखें। क्या आप व्यग्र, कामी लालची, महत्त्वाकांक्षी, क्रोधी -द्वेषी, असहिष्णु, क्षमा न करने वाले, ईर्ष्यालु , हिसंक स्वभाव के कारण विफल, जटिलताओं से घिरे हुए व्यक्ति हैं? प्राय: हम ऐसी विशिष्टताओं को जानते नहीं और हम अपना यह मत बना लेते हैं कि हमने तो इन पर- अपने अहं पर, पहले ही विजय प्राप्त कर ली है। किन्तु कई बार ये बातें फिर सम्मुख प्रगट हो जाती हैं। ये सभी हमारे अवचेतन मन में बीज के रूप में पड़ी रहती हैं, जो अनुकूल परिस्थितियों में स्वयं अंकुरित हो जाती हैं।
न्यायसूत्र (१.११) में कहा गया है - `चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम्।' अर्थात जहाँ बैठकर इन्द्रियाँ पदार्थ के लिए चेष्टा करती हैं, उसे शरीर (Hand) कहते हैं। शरीर का दूसरा लक्षण 'चेष्टाश्रयः शरीरम्' किया है। प्रश्न- ‘चेष्टा’ किसे कहते हैं ? उत्तर- इष्ट या अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति व अनिष्ट का त्याग के प्रयत्न का नाम ‘चेष्टा’ हैं। प्रश्न- शरीर को इन्द्रियों का आश्रय क्यों कहा जाता है ? उत्तर- जिनके कृपाकटाक्ष से अनुगृहीत होकर इन्द्रियाँ अपने विषयों को प्राप्त करती हैं वह उनका ‘आश्रय' अर्थात् अवलम्ब है और वही शरीर है। प्रश्न-आश्रय या अवलम्ब किसे कहते हैं ? उत्तर-इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध से उत्पन्न हुआ सुख और सुख का जो ज्ञान परस्पर सम्बन्ध है उनका वही सहारा है और वही शरीर है।
प्रश्न - यह इन्द्रियां किन से उत्पन्न होती हैं ? उत्तर-पच्च भूत से अर्थात् अग्नि से आंख, पृथ्वी से नाक, वायु से खाल, पानी से रसना और आकाश से कान उत्पन्न हैं और यह पांचो इन्द्रियां अपने-अपने विषय ग्रहण करते हैं। प्रश्न-भूत किसे कहते हैं या कौन से हैं ? अर्थ : भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश यह पांच भूत हैं। प्रश्न-इन भूतों के कौन से गुण हैं, जिनको इन्द्रियां ग्रहण करती हैं ?
सूत्र :घ्राण-रसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः। (1/1/12) अर्थ : जिससे क्रमशः रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श का ज्ञान होता है वे घ्राण (olfactory-सूँघनेवाला) कहलाते हैं। प्रश्न-इन्द्रिय किसे कहते हैं ? जो इन्द्रिय रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन पांचों विषयों में से जिस गुण को ग्रहण करती है वह `उस गुण से युक्त' कहलाती है; जैसे रूप की ग्राहक चक्षु रूपवत् [ कहलाती ] है। मनुष्य की इन्द्रियां छः हैं । आँख , कान , नाक, जीभ और त्वचा ये पाँच बाह्य इन्द्रियाँ हैं और अन्तर-इन्द्रिय या अन्तःकरण या छठी इन्द्रिय , है मन।
(6) शरीर और इन्द्रियाँ किसकी प्रेरणा से कर्म करती हैं ?
कर्म का प्रेरक मन है। मन में ही सर्वप्रथम किसी कर्म के करने या न करने का विचार आता है।
मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किंवदंतीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्।।
जिसे मुक्त होने का अभिमान या गौरव है, वह सदैव मुक्त ही है और जिसे बद्ध या बंधनग्रस्त होने का अभिमान या गौरव है, वह निश्चय ही बंधन में बंधता है। संसार में भी यह किंवदंती सत्य प्रचलित है कि जिसकी जैसी मति (बुद्धि) होती है, उसकी वैसी ही गति होती है। ‘श्रीमद्भगवद् गीता’ में भी कहा गया है कि जो कर्म आसक्ति रहित होकर किया जाए तो वह मोक्षदायी होता है। बंधन का कारण आसक्ति, मोह, राग है। यदि इनका त्याग कर दिया जाए तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। कर्म कोई भी हो यदि आसक्त होकर किया जाए तो पाप का कारण बनता है। इसके विपरीत निरासक्त कर्म पुण्य प्रदाता होता है।
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
मन ही बंधन का कारण है तो मोक्ष का साधन भी है। आजकल के मनोवैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि मनुष्य जो कुछ सोचता है, जो कुछ मनन करता है वह प्रतिफलित हो जाता है। You can turn any situation in your favor, if you have control over yourself. विवेकानन्द का कहना था -”मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।”
प्रश्न-मन किसे कहते हैं ? सुखादि की उपलब्धि का साधनभूत [अन्तः ] इन्द्रिय मन है। वह अणु परिमाण और हृदय के भीतर रहने वाला है। वह बहुत सूक्ष्म - अणु जितना सूक्ष्म तथा अत्यन्त चंचल है, इसलिए आसानी से पकड़ में नहीं आता , परन्तु वह भी शरीर के सामान जड़ वस्तु ही है। स्थूल पदार्थ के छोटे से कण या अणु का विश्लेषण करते-करते जो सबसे छोटा अन्तिम अवयव प्राप्त होता है उसको ही परमाणु कहते हैं । उसके आगे और अवयव विभाग नहीं हो सकता है। इसलिए परमाणु के अवयव नहीं होते अपितु परमाणु नित्य है। तब इन परमाणुओं में परस्पर भेद के लिए वैशेषिक दर्शन में 'विशेष' नामक एक पदार्थ की कल्पना की गई है। इसी 'विशेष' नामक पदार्थ के प्रतिपादन के आधार पर इस दर्शन को 'वैशेषिक दर्शन ' कहते हैं। एक परमाणु (शिष्य) दूसरे परमाणु (गुरु) से भिन्न इसलिए है कि उनमें रहने वाला 'विशेष' (व्यष्टि अहं और सर्वव्यापी विराट अहं) भिन्न-भिन्न है। इस प्रकार नित्य द्रव्य परमाणु में रहने वाला अन्तिम भेदक धर्म 'विशेष' कहा जाता है। जैसे जाति को व्यक्ति (मनुष्य) से या गुण को गुणी से अलग नहीं किया जा सकता। क्योंकि कार्य का भेद कारण के भेद के साथ नियत है। अर्थात् कार्य में भेद तभी हो सकता है जब उनके कारण भिन्न हों ।
मन के चार भाग हैं - `चित्त,मन बुद्धि और अहंकार ' जिन्हें एक साथ मिलाकर मन या अन्तःकरण कहा जाता है। सूत्र :बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनर्थान्तरम्। (1/1/15) अर्थ- बुद्धि, उपलब्धि और ज्ञान यह अलग-अलग वस्तु नहीं है किन्तु यह एक ही हैं। प्रश्न-क्या बुद्धि जड़ भूतों से बनी हुई नहीं है ? उत्तर- यदि भूतों से उत्पन्न होती तो जड़ और आत्मा का कारण या साधन होती। लेकिन जड़ रूप कारण को ज्ञान होना असम्भव है। इसी के बारे में सन्त तुलसीदास ने लिखा है-
अली मृग मीन पतंग गज, जरै एक ही आँच।
तुलसी वह कैसे बचे , जिन्हें जरावे पाँच।।
भंवरे की लिप्सा केवल एक ही इन्द्रिय विषय सुगन्ध या नाक में होती है ! उसके दाँत इतने तीक्ष्ण होते हैं कि वह लकड़ी में भी छेद कर बाहर निकल सकता है। लेकिन कमल पुष्प की सुगंध में वह इतना लिप्त हो जाता है कि संध्या उतर आने पर भी वह पुष्प को छोड़ नहीं पाता और अंतत: उसी में कैद होकर अपने प्राण गंवा बैठता है। दृष्टि-रोग चक्षु इन्द्रिय का मारा पतंगा को दीपक की लौ में इतनी लिप्सा है कि दीवाली के समय खुद को अग्नि-शिखा के हवाले कर स्वाहा हो जाता है। हाथी स्पर्श रोग से पीड़ि़त है , तो मृग संगीत का रसिक है। दोनों इन विवशताओं में बंधे शिकारी के बंधक बन जाते हैं। वहीं मछली स्वाद के लोभ से बाध्य हो कांटे में जा फंसती है। परन्तु इन सभी जीवों, जिन्हे केवल एक-एक इन्द्रिय विषय की ही लिप्सा है, से अधिक दयनीय दशा तो मनुष्य की है-जिन्हें पाँचो विषयों की लिप्सा है। उसकी तो पांचों ज्ञानेन्द्रियां ही अपने-अपने क्षेत्र में पूरे जोर-शोर से सक्रिय हैं।
जीवन में शांति का मार्ग इंद्रिय नियंत्रण के द्वार से ही निकलता है। पल-प्रतिपल प्रबल होती हमारी इन्द्रियों की मांग ही हमें अधीर व अशांत बनाए रखती है। मस्तिष्क एक मुख्यालय की तरह है।मान लीजिए , हमारी दृष्टि एक भोज्य पदार्थ पर पड़ी। नेत्रों ने उसी समय यह संदेश ज्ञान तंतुओं के माध्यम से मस्तिष्क में स्थित दर्शन -इन्द्रिय (Optic nerve) तक पहुंचा दिया। वह संदेश पाते ही हरकत में आ गया। उसने ज्ञान लहरें उत्पन्न कीं व झट से सभी सहायक इन्द्रियों तक इस विषय पदार्थ की खबर पहुंचा दी। अब तो बस , प्रत्येक इन्द्रिय अपना-अपना विषय भोगने को व्याकुल हो उठी।
रस ग्राही जिह्वा पदार्थ का भक्षण करना चाहती है , तो हाथ उस वस्तु को छूकर मुख तक पहुंचाना चाहते हैं। नासिका उसकी सुगन्ध में डूबने को अधीर है। पश्चिमी विचारक फ्रॉयड का कहना था कि , ' कामनाएं (कामिनी-कांचन में आसक्ति) तो मनुष्य की स्वाभाविक मनोवृत्तियां हैं। इन स्वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाने की जगह स्वच्छंद प्रवाहित होने देना चाहिए। दबाने से ये प्रवृत्तियां दबती नहीं हैं। अधिक प्रबल होकर मन में अनेकों विकारों को उत्पन्न करती हैं। देगची आग पर चढ़ी हुई है और निरंतर उसमें भाप उठ रही है। अगर आप उस पर ढक्कन रखकर भाप को रोकना चाहेंगे , तो उसका दबाव ढक्कन को भी उतार फेंकेगा। ' फ्रायड का यह कथन सुनने में तो तर्कसम्मत लगता है। परन्तु वास्तव में यह कितना व्यावहारिक एवं प्रासंगिक हैं ?
राजा ययाति की काम-वासना अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु की युवावस्था लेकर भी तृप्त नहीं हुई। दिग्विजयी सिकन्दर के भीतर एक राज्य को फतह करने के बाद दूसरे को जीतने की इच्छा प्रबल होती जाती थी। फिर ऐन्द्रिक इच्छाओं के अग्निकुंड में भोगों की आहुति बार-बार डालकर उसे और अधिक प्रबल बनाना कहां तक उचित है ? जीवन के व्यावहारिक अनुभव स्पष्ट करते हैं कि इन्द्रियों को तृप्त करने के हमारे सभी प्रयास इन्हें और अतृप्त बना देते हैं। अब प्रश्न है कि यदि कामनाओं को दबाना या उनकी पूर्ति करना दोनों ही समस्या के समाधान नहीं , तो फिर सही विकल्प कौन सा है ? क्या स्वयं को उस इच्छित वस्तु के प्रति आसक्ति से दूर करने का उपाय है ? परन्तु इस संदर्भ में श्री कृष्ण कहते हैं कि - ' विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:! ' अर्थात निराहारी पुरुष से विषय तो दूर हो जाते हैं , परन्तु उनके प्रति मन से राग नहीं। समस्या का समाधान तो तब है जब ' राग ही शेष न रहे। ' यह संभव है। श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि , ' परमतत्व (ब्रह्मा) को देखने पर ही पुरुष राग से निवृत्त हो पाता है। इस ब्रह्म (प्रकाश) का साक्षात्कार आत्मज्ञान द्वारा सम्भव है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि कुछ श्रेष्ठ मिलने पर वह निम्न को स्वयं ही छोड़ देता है। तैत्तरीयोपनिषद में वर्णित है कि ' रसो वै स: '- वह ब्रह्म रस (परम) रस है जिसे प्राप्त करके जीवात्मा आनन्द युक्त होता है। अत: आत्मज्ञान की प्राप्ति के बाद जब हम उस परम रस (ब्रह्मा) में स्थित होते हैं , तो हमसे तुच्छ सांसारिक राग व रसों की आसक्ति धीरे-धीरे अपने आप छूटती चली जाती है। जिसने ब्रह्म के इन्द्रियातीत रस को पाया है , वही सही मायनों में अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित कर सकता है। जो सत्य (ब्रह्म-रस) इन्द्रियों से गृहीत न होने वाला हो उसे अतीन्द्रिय ब्रह्म-रस कहते हैं। वैशेषिक दर्शन में बुद्धि के भी दो भेद किए गए हैं एक विद्या और दूसरा अविद्या । अंधेरे में पड़ी रस्सी को देख कर सर्प का भ्रम हो जाता है परन्तु प्रकाश में देखने पर वह सर्प-प्रतीति बाधित हो जाती है। यह सर्प नहीं रज्जु है इस प्रकार अनुभव होने लगता है।
मरुमरीचिका का उदाहरण : 'मरीचि' शब्द का अर्थ किरण होता है। हल्की वस्तु सदा ऊपर रहती है। इसलिये गर्म वायु भी हल्की होकर ऊपर जाने लगती है और उसका स्थान लेने के लिए ऊपर की ठंडी वायु नीचे आने लगती है। परन्तु नीचे आकर भूमि का स्पर्श होते ही वह भी गर्म और हल्की होकर ऊपर जाने लगती है । इस प्रकार वायुमण्डल में अत्यन्त शीघ्रता से परिवर्तन होने लगता है। इसी परिवर्तन के वेग के कारण मरुस्थल में आँधियाँ बहुत अधिक आती हैं और मरुस्थल के वृक्ष आदि से प्रतिक्षिप्त होने वाली प्रकाश की किरणों के मार्ग- परिवर्तन के द्वारा वृक्ष आदि का उल्टा प्रतिविम्ब सा दीखने लगने के कारण ही मरुस्थल में जल की मिथ्या प्रतीति होने लगती है। यह ज्ञान व्यभिचारी ज्ञान है । इसीलिए उस जल के मिथ्या ज्ञान को 'मरुमरीचिका' या 'मृगतृष्णा' कहा जाता है। "
(5) विवर्तवाद-(Tectonicism) या सत् -असत् -मिथ्या या अवतार लीला-विवेक?
संपूर्ण सृष्टि को असत्, मिथ्या या लीला मानने के सिद्धांत को विवर्तनिकतावाद कहा जाता है । यह सिद्धान्त कि ब्रह्म ही सत्य है और संपूर्ण सृष्टि असत्, मिथ्या अथवा ईश्वर की लीला है ! जैसे दही दूध का 'विकार' है। इसी को 'परिणाम' भी कहते हैं। और तत्त्व-परिवर्तन के बिना होने वाली अन्यथा प्रतीति को 'विवर्त' कहते हैं। जैसे सर्प रज्जु का 'परिणाम' नहीं अपितु 'विवर्त' है। शाङ्कर वेदान्त 'विवर्तवाद' का संस्थापक है। जगत्, स्वप्न-परिकल्पित वस्तुओं के तुल्य भ्रममात्र है। उसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है । वास्तविक सत्य वस्तु ब्रह्म ही है। अर्थात् जगत् की प्रतीति ब्रह्म में इसी प्रकार है जैसे रज्जु में सर्प की प्रतीति ।
संस्कृत भाषा के “विद्” धातु से “वेद” बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है जानना या “ज्ञान”। और जानने के अन्त को या ज्ञान की पराकाष्ठा को वेदान्त कहते हैं। जिसके अनुसार 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' वह सत्ता केवल एक ही है, ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।' अर्थात अविभाज्य समग्रता –सार्वभौमिक एकत्व - 'वसुधैव कुटुंबकम' ही एकमात्र शाश्वत सत्य है। दादागुरु गौड़पाद अद्वैत सिद्धांत के प्रधान उद्घघोषक थे। सृष्टि के विषय में भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई (आरम्भवादी) काल से सृष्टि मानते हैं और कोई (परिणाम-वादी) भगवान के संकल्प से इसकी रचना मानते हैं। इस प्रकार कोई अपने को परिणामवादी कहता है और कोई आरम्भवादी। किंतु गौड़पाद के सिद्धांतानुसार जगत् की उत्पत्ति ही नहीं हुई, केवल एक अखण्ड चिदघन सत्ता ही मोहवश प्रपञ्चवत भास रही है। यही बात आचार्य इन शब्दों में कहते हैं-
मनोदृश्यमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थ:।
मनसो ह्यन्मनीभावे द्वैतं नैवोपलभ्यते॥
(माण्डूक्य का० ३।३१)
यह जितना 'द्वैत' है, सब मन का ही दृश्य है। 'ट्रान्सेंडैंटल ' अतीन्द्रिय रूप से यानि परमार्थत: तो अद्वैत ही है, क्योंकि मन के मनन-शून्य हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती। [ यह जो कुछ चराचर द्वैत है सब मनका दृश्य है, क्योंकि मन की उन्मनी अवस्था, अमनीभाव ( संकल्पशून्यत्व-निर्विकल्प समाधि ) हो जाने पर द्वैत की उपलब्धि नहीं होती। निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर जब मन उन्मनी अवस्था (भाव) को प्राप्त हो जाता है, तब द्वैत भाव समाप्त हो जाता है।
वास्तव में तत्त्व तो एक ही है, लेकिन जो देखने वाला है वह अपनी भावना के कारण दो या अनेक चीजें देखने लग जाता है। जैसे स्वप्न में, एक मात्र मन ही होता ही होता है, तथापि अपनी कल्पना से, जाग्रत अवस्था के मनोरथों के कारण पता नहीं वह कितनी-कितनी चीजें देखने लगता है, एक स्वप्न प्रपंच खड़ा कर लेता कर लेता है। कहना यही है कि यह मन ही द्वैत खड़ा कर लेता है। इस मन का यदि आत्मा में निरोध कर दिया जाए, तब द्वैत नहीं रहता। ]
शंकराचार्य ने बलपूर्वक यह कहा कि केवल ब्रह्म ही शाश्वत सत्य है; इसके विपरीत प्रतीत होती कोई भी स्थिति असत्य है। “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः –ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है। जीव अज्ञानतावश ब्रह्म को नहीं जान पाता, जबकि ब्रह्म उसके भीतर ही विराजमान है। ”माया-मुक्त होने पर अद्वैत का बोध होता है; यथार्थ से साक्षात्कार होता है। उन्होंने यह उद्घोष किया कि माया, जो लगभग अविद्या के समान है, ब्रह्माधीन है। माया ब्रह्म को प्रभावित नहीं करती। माया विद्यमान है, लेकिन वह ब्रह्म निहित है और उससे पृथक नहीं है। अविद्या व्यक्ति को प्रभावित करती है। व्यक्ति ब्रह्म को जान ले, वह सत्य तक पहुँच जाए, तो वह अविद्या मुक्त हो जाता है तथा माया को पहचान लेता है। इस स्थिति में, अर्थात् अविद्या मुक्त होकर माया को पहचान लेने के उपरान्त, वह ब्रह्ममय हो जाता है।
भले ही कोई व्यक्ति किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो, अगर उसने वेदान्त या अद्वैत सूत्र “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति" - ऋग वेद (1:164: 46) सत्य एक है, पर ज्ञानीजन उसे अलग-अलग नामों से पुकारते हैं” के मर्म का अनुभव कर चुके हैं, या इस महावाक्य पर श्रद्धा रखते हैं, तो भी आप आध्यात्मिक हैं।
श्वेताश्वतरोपनिषद् के (4.6) मन्त्र में त्रैतवाद का सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है। संसार में तीन पदार्थ अनादि हैं--परमात्मा (ईश्वर) , जीवात्मा (जीव) और प्रकृति (माया) । मन्त्र में इन तीनों का निर्देश है।
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
[मुण्डकोपनिषद् (3.1.1)]
शब्दार्थ-(द्वा सुपर्णा) दो उत्तम पंखोंवाले पक्षी, पक्षी की भाँति गमनागमनवाले, आत्मा और परमात्मा (सयुजा) एक-साथ मिले हुए (सखाया) एक -दूसरे के मित्र बने हुए (समानं वृक्षम्) एक ही वृक्ष प्रकृति अथवा शरीर पर स्थित (परिषस्वजाते) एक-दूसरे को आलिङ्गन किये हुए हैं (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक जीवात्मा (पिप्पलं स्वादु अत्ति) संसार के फलों को स्वादु जानकर खाता है, भोगता है (अन्यः अनश्नन्) दूसरा परमात्मा न खाता हुआ (अभि चाकशीति) केवलमात्र देखता है, साक्षी बनकर रहता है।
भावार्थ-दो सुन्दर पंखों वाले पक्षी, घनिष्ठ सखा, समान वृक्ष पर ही रहते हैं; उनमें से एक वृक्ष के स्वादिष्ट फलों को खाता है, अन्य खाता नहीं अपितु अपने सखा को देखता है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ज्ञानवान् और चेतन हैं, दोन संसाररूपी वृक्ष पर स्थित हैं। जीवात्मा अल्पज्ञ है। अपनी अल्पज्ञता के कारण वह संसार वे फलों को स्वादु समझकर उनमें आसक्त हो जाता है। परमात्मा सर्वज्ञ है। उसे भोग की इच्छा नहीं, आवश्यकता भी नही । वह जीवात्मा का साक्षी बना हुआ है। मनुष्य को संसार के पदार्थों का त्यागपूर्वक भोग करते हुए । परमात्मा की शरण में जाना चाहिए, इसी में उसका कल्याण है। इस मन्त्र का भावार्थ यह है कि मित्र रूप और साथ रहने वाले दो पक्षी एक समान वृक्ष पर बैठे हुए हैं उनमें से एक उस वृक्ष के स्वादु फलों का भक्षण करता है और दूसरा न खाता हुआ शोभित हो रहा है। इस मन्त्र में अलङ्कार रूप से 'प्रकृति' रूप 'वृक्ष' के ऊपर बैठे हुए 'जीव' तथा 'ईश्वर' रूप दो 'पक्षियों का वर्णन है। जिनमें से एक अर्थात् 'जीवात्मा' उस 'प्रकृति' रूप वृक्ष के फलों को भोगता है और दूसरा उस का भोग नहीं करता है। यह प्रतिपादन किया गया है। न्यायशास्त्र भी इन तीनों की नित्य सत्ता मानता है। ईश्वर नित्य है और वह जगत् का निमित्त कारण है। प्रकृति (शक्ति) भी नित्य है और वह जगत् का उपादान कारण है। जीवात्मा भी नित्य है उसी के भोगापवर्ग सम्पादन के लिए ईश्वर, प्रकृति रूप उपादान कारण से घटादि के समान सृष्टि का निर्माण करता है।
सनातन अथवा हिंदू धर्म, आरंभ से ही, प्रगतिशील, सहिष्णु एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाता आया है। उसका कहना है कि अपरिवर्तनीय या अविनाशी सत्य एक है, किंतु कोई व्यक्ति, उसका समग्र रूप से साक्षात्कार करने में असमर्थ है एवं मात्र आंशिक या एक पक्ष का दर्शन करने में ही समर्थ हो पाता है। उसी अंश को सम्पूर्ण सत्य मानकर, कुछ लोग, सत्य खोजने-पाने-जानने का प्रबल दावा करते हैं और दूसरों को झूठा एवं दोषी ठहरा देते हैं। यही नहीं अपने अहंकार में, वे, इतने असहिष्णु हो जाते हैं कि, जो असहमत हैं, भिन्न मत रखते हैं, उनके दमन, उनकी हत्या [सर तन से जुदा] को भी अपना धर्म-सिद्ध अधिकार एवं कर्तव्य समझते हैं। ऐसा केवल दो महापुरुषों के कारण ही नहीं, केवल बुद्ध को छोड़कर कर, उन तमाम लोगों के कारण हुआ जिन्होंने यह दावा किया कि दिव्यत्व उनके माध्यम से आस्फालित हुआ है।
ईसामसीह के अनुयायिओं का मानना है कि ईसा को इल्हाम हुआ था ^*(अर्थात ईश्वर की ओर से हृदय में आयी हुई बात, देववाणी, आकाशवाणी प्रकट हुई थी।) उनमें दिव्यगुण पाकर लोगों ने उन्हें मसीहा कहना प्रारंभ कर दिया। ऐसी ही घटना मुहम्मद के साथ भी घटी थी । मुसलमानों का यह भी मानना है कि मुहम्मद अंतिम पैग़म्बर थे और कुरान अंतिम इल्हाम है। वह मानवता के लिए ईश्वर का अंतिम रहस्योद्घाटन है और क़यामत तक मान्य होगा। कुरान का दावा है की उसमें शब्द-दर-शब्द प्रगट किया गया था। इन दोनों महापुरुषोंके कारण ईसाइयत और इस्लाम का जन्म हुआ। वे कहते हैं इन दोनो महापुरुषों ने भी यह सोचा नहीं होगा कि इन दोनों के कारण दुनिया में इतना रक्तपात होगा। इतने पुस्तकालय जलाए जाएँगे।
पाश्चात्य जगत् को भारतीय तत्त्वज्ञान का संदेश देने वाले सदियों पुरानी सभ्यता के युवा ऋषि- स्वामी विवेकानन्द का यह दृढ़ विश्वास था कि “अध्यात्मविद्या, भारतीय धर्म एवं दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा।” उनका मत था कि ‘यदि मनुष्य के पास संसार की प्रत्येक वस्तु है, पर अध्यात्म नहीं है तो कुछ भी नहीं है। उनकी दृष्टि में मनुष्य की यह परा-प्रकृत्ति-आत्मा उतनी ही सत्य है, जितना कि किसी पाश्चात्य व्यक्ति की इन्द्रियों के लिए कोई भौतिक पदार्थ। वे हमें आत्म स्वरूप की अनुभूति का ही संदेश देते हैं। विवेकानंद जी कहते हैं,” पाश्चात्य शिक्षा का एक दोष है कि वह मनुष्य को अत्यंत स्वार्थी बना देती है। बुद्धि व्यक्ति को उस सर्वोच्च स्तर पर नहीं पहुंचा सकती है जिस पर हृदय उसे पहुंचाता है। हृदय ज्ञान का प्रकाश है। अतः हृदय का परिष्कार करो। ईश्वर हृदय के माध्यम से ही हमें संदेश देता है।”
(5) चरित्र में परिवर्तन लाकर आध्यात्मिक मनुष्य कैसे बना जाता है?
अध्यात्म एक संस्कृत शब्द है। 'अध्यात्म' शब्द अधि+आत्म –इन दो शब्दों से बना है, जिसका अर्थ है कि आत्मा को आधार बनाकर जो चिन्तन या कथन हो, वह अध्यात्म है। जैसे अध्यादेश, अधिनायक जय हे, यानि ऊपर, या बेहतर मनुष्य । आत्म यानि स्वयं, खुद - जैसे आत्म-निर्भर, आत्म-मंथन, आत्म-निरीक्षण (खुद का निरीक्षण) , दोनों को मिलाकर बन गया खुद को बेहतर बनाना। और वाकई यदि आपको आध्यात्मिक मनुष्य बनना है तो निर्भीक बनिए क्योंकि झूठ के कई आवरण आपको डराएंगे लेकिन जैसे ही आप अपने अंदर के डर को मिटा कर आवरण उठाएंगे आपका सत्य के सामना होगा। अध्यात्म भी यही सिखाता है। अध्यात्म और सत्य का एकमात्र अर्थ है ‘निर्भीकता’!
नरेन्द्र जब छोटे थे तब वह अपने साथियों के साथ एक बगीचे में खेलने जाया करते थे। नरेंद्र के सारे दोस्त समूह बनाकर सामान्य खेल खेला करते थे जो शायद बचपन में आपने और मैंने खेले हों लेकिन बाल नरेंद्र तो कुछ हटकर ही थे। वह एक बड़े आम के पेड़ से उल्टा लटक जाते थे। ऐसा रोज़ होता देख बगीचे का माली घबरा गया। उसे लगा कि कहीं बाल नरेंद्र एक दिन उल्टा लटकते हुए गिर ना जाए और उसे चोट ना लग जाए। यह सोचकर माली ने सारे बच्चों को इकट्ठा किया और उन्हें एक कहानी सुनाई। माली ने कहा कि तुम लोग इस आम के पेड़ के नीचे मत खेला करो, इस पेड़ पर ब्रह्मराक्षस रहता है। सभी बच्चे राक्षस का नाम सुनकर डर गए और खेलने से मना कर दिया। लेकिन बाल नरेंद्र के मन में ढेरों सवाल थे। उन्होंने माली से पूछा कि यह ब्रह्मराक्षस कौन होता है? माली ने कहा जिन लोगों की अकाल मृत्यु हो जाती है यानि उन्हें कोई कत्ल कर दे या दुर्घटना में मर जाएं, ऐसे लोग ब्रह्मराक्षस बन जाते हैं। वह आम के पेड़ पर अपना डेरा जमा लेते हैं। नरेंद्र ने माली के जवाब के फौरन बाद पूछा, फिर उस पेड़ के नीचे कौन मरा और कौन ब्रह्मराक्षस बना? माली ने कहा, बेटा मुझे नहीं पता लेकिन बस इतना जान लो वहां ब्रह्मराक्षस है। नरेंद्र ने कहा, फिर आपको कैसे पता कि वहां वह राक्षस है? एक के बाद एक इतने सारे प्रश्न सुनकर माली घबरा गया। बोला मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं बस इतना जान लो इस पेड़ के नीचे मत खेला करो। नरेंद्र ने माली की बात मान ली और कहा कि ठीक है हममें से कोई इस पेड़ के नीचे नहीं खेलेगा। सभी बच्चे बगीचे से चले गए और घर जाकर सो गए। देर रात इलाके में हलचल हुई क्योंकि बाल नरेंद्र घर पर नहीं था। परिवार को लगा कि कहीं आसपास के बच्चों के साथ खेलने तो नहीं चला गया। सभी मित्रों को जगा कर नरेंद्र के बारे में पूछा गया लेकिन उसका कोई पता नहीं लग पाया। तभी एक बुजुर्ग ने सभी से पूछा कि क्या तुमने नरेंद्र को किसी काम को करने से मना किया था। माली भी वहां मौजूद था उसने सुबह की सारी घटना बता दी। बुजुर्ग ने कहा जाओ उसी पेड़ के पास नरेंद्र मिलेगा।
सभी बगीचे के उस आम के पेड़ के पास पहुंचे। रात के 12 बज रहे थे और बगीचे में बहुत अंधेरा था। सभी नरेंद्र-नरेंद्र चिल्लाने लगे। तभी पेड़ के ऊपर से आवाज़ आई, बाबा मैं यहां हूं। सभी ने नरेंद्र से कहा, बेटा नीचे उतर आओ, सभी कितना परेशान हो गए। यहां क्यों आए तुम वो भी इतनी रात में? बाल नरेंद्र नीचे उतरे और कहा, मैं यहां ब्रह्मराक्षस की प्रतीक्षा कर रहा हूं। मैं उससे मिलना चाहता हूं और पूछना चाहता हूं कि वह ब्रह्मराक्षस कैसे बना। सभी ने कहा चलो घर चलो यहां कोई ब्रह्मराक्षस नहीं रहता है, माली ने तुमसे झूठ बोला था। बाल नरेंद्र की सत्य को जानने की इसी जिज्ञासा ने उन्हें आगे चलकर स्वामी विवेकानंद बनाया। जिन्होंने सभी धर्मों का निचोड़ और अध्यात्म और सत्य की पहचान सिर्फ एक बताई, ‘निर्भीकता’।
>>>वास्तव में मैं कौन हूँ ? पहला भ्रम -ध्यान देने की बात यह है कि हमारा परिचय हमारा परिचय है; लेकिन 'हम' हमारा परिचय (नाम-रूप) नहीं हैं। यहीं पर दुनिया भ्रमित होती है। हमारा परिचय और हम अलग।बचपन के ख्वाब के नाम पर, पति-पत्नी की इच्छा के नाम पर, दिल की तमन्ना के नाम पर, माँ-बाप का नाम रौशन करने के नाम पर, सफलता के नाम पर यह लालच बढ़ता ही जाता है। खुद को बेहतर क्यों ना किया जाए? यह तो बड़ी लॉजिकल सी बात है। लेकिन लोग ऐसा नहीं करते, क्योंकि वे अपने परिचय को बेहतर करने में लगे हुए हैं। वे अपने परिचय को "मैं" मानते हैं। उनसे पूछिए कि आप कौन। फटाक से बताएँगे कि- मैं फ़लां कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर। मेरा घर फलानी जगह….परिचय को बेहतर करने का मतलब है - पैसा, लोकप्रियता, पावर, जिसे आजकल सक्सैस कहा जाता है।
लेकिन वास्तव में आप हैं - आपका शरीर (Hand -स्वास्थ्य, बीमारियाँ, फिटनैस), आपका मन (Head-होशियारी, बेवकूफी, ज्ञान, अज्ञान, भ्रम, कुशलताएँ, आलस्य), और आपका ह्रदय (दया, माया, प्रेम, दर्द, सद्गुण, अवगुण, व्यवहार, आकांक्षाएँ, सपने)। हम अपने ह्रदय में विद्यमान अनुकम्पा, समझ, प्रेम, विनम्रता, धैर्य, अनुशासन, निष्ठा, निश्चय, संतोष, प्रसन्नता और गहन आन्तरिक परमानन्द जैसे सुन्दर, सार्थक गुणों की विद्यमानता की अभिव्यक्ति क्षमता को देखकर स्वयं अचम्भित, आश्चर्य चकित हो जाते हैं। इस खुद को (3H) को बेहतर करना, विकसित करना अध्यात्म है। अध्यात्म केवल 60 साल के लोगों के लिए नहीं है। यह 6 साल के बच्चे के लिए भी है। अध्यात्म केवल आस्तिकों के लिए नहीं है। यह नास्तिकों के लिए भी है। यह त्याग-तपस्या-कर्तव्य का कोई भारी पत्थर नहीं है, बल्कि अध्यात्म बहुत मज़े की चीज़ है।
विचार करो, जो तुम दिखाई दे रहे हो - केवल बाहरी शरीर मात्र नहीं हो। या तुम केवल तुम्हारी शक्ल-सूरत (चेहरा-मोहरा) नहीं हो। शरीर (Hand) हार्डवेयर है। {कम्प्यूटर के वे भाग जिन्हे हम देख तथा छू सकते है उन्हे हार्डवेयर कहते हैं। यह कम्प्यूटर के भौतिक भाग होते है। जिनसे मिलकर हमारे कम्प्यूटर का शरीर बनता है। जैसे; कीबोर्ड, माउस, केबिनेट, मॉनिटर, प्रिंटर आदि सभी हार्डवेयर है।) दिमाग (Head या मन ) भी शरीर का ही हिस्सा है, लेकिन सूक्ष्म है, इसलिये मन भी हार्डवेयर ही है । इस दिमाग (Head) के अंदर एक सॉफ्टवेयर (Heart -ह्रदय या दिल) है। यह सॉफ्टवेयर (ह्रदय या Heart) इन हार्डवेयर (शरीर और मन) में जान डालता हैं। और उसे कार्य करने लायक बनाता हैं। तब जाकर हमे एक जीवित तथा काम करने योग्य मानवशरीर रूपी देवदुर्लभ कम्प्यूटर मशीन प्राप्त होती हैं। कंप्यूटर से किसी भी कार्य को करवाने के लिए कंप्यूटर की भाषा में लिखे निर्देशों के प्रोग्राम को ही सॉफ्टवेयर कहते हैं। हाथ, पावों, नाक, कान, आंखे हमारें शारीर के Hardware हैं जिन्हें हम हाथ लगा सकते हैं. वहीँ दया, माया, प्रेम, दर्द ये सब हमारे शरीर के Software हैं जिन्हें हम हाथ लगा नहीं सकते हैं। हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर के बीच आपसी संबंध - हार्डवेयर कम्प्यूटर का शरीर है तो सॉफ़्टवेयर उसकी आत्मा हैं। दोनों, एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं। हार्डवेयर के बिना सॉफ्टवेयर अपना काम नही कर सकता है, और सॉफ्टवेयर के बिना हार्डवेयर अनुपयोगी हैं। कम्प्यूटर से कार्य विशेष करवाने के लिए हार्डवेयर पर उचित सॉफ्टवेयर इंस्टॉल करना पडता हैं। सॉफ्टवेयर (आत्मा) का काम आपके यानि यूजर (अहं-मन ) और हार्डवेयर के बीच संबंध स्थापित करना है।}
[>>>ज्ञान क्या है?
नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।
(गीता 5.15)
।।5.15।। विभु परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न पुण्यकर्म को ही ग्रहण करता है; (किन्तु) अज्ञान के द्वारा ज्ञान ढका हुआ है उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।’ (गीता - 5.15)
कितने बचपन आये, कितनी बार मृत्यु आयी, कितने जन्म आये और गये फिर भी हम हैं... तो हम नित्य हैं, चैतन्य हैं, शाश्वत हैं, अमर हैं। इस बात को न जानना यह अज्ञान है। ज्ञान, मन को आत्मा के साथ जोड़ने का काम करता है। यह ज्ञान की अपने आप में एक बड़ी विशेषता है। जो मन को आत्मा के साथ नहीं मिलाता है, वह ज्ञान नहीं है, बल्कि ज्ञान का भ्रम है। इसी कारण तथाकथित ज्ञान से मन में अहंकार पैदा होता है। यदि तुम एक अहंकारी व्यक्ति को देखते हो तो तुम्हे अवश्य समझना चाहिए कि उस व्यक्ति को ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है। ज्ञान है बाहरी विषयों का आत्मसातीकरण । यह व्यक्ति को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है। अर्थात् जहां इस प्रकार की मानसिकता पाई जाती है, उसे ज्ञान कहा जा सकता है और जहां यह नहीं है, वहां ज्ञान नहीं है। ज्ञान का आधार क्या है? जहां ज्ञान भौतिक है, वहां ज्ञान का आधार मन है। जहां वह पूरी तरह आध्यात्मिक है, वहां उसका आधार आत्मा है।
परमसत्ता (सच्चिदानन्द :जो निस्वार्थता का प्रतीक है) देश, काल और व्यक्ति के परे है। इस ज्ञान के आने वाले स्रोतों (विवेक स्रोत के उद्घाटन) पर कोई अहंकार नहीं कर सकता। वेद में कहा गया है- ‘मैं कहता हूं कि मैं नहीं जानता हूं और न यह कहता हूं कि मैं जानता हूं, क्योंकि वह परमसत्ता सिर्फ उसी के द्वारा जानी जाती है, जो जानता है कि परमात्मा जानने और नहीं जानने के परे है।’ यह इसलिए कि जानना एक विशेष मानसिक धारा है। जिस आध्यात्मिक-मानसिक ज्ञान का अंतिम बिन्दु आध्यात्मिक ज्ञान हो, वही एकमात्र ज्ञान है। इसके अनुसार ‘आत्म का ज्ञान’ ही अध्यात्म है। आध्यात्मिक मनुष्य कहने का अर्थ है - 'विवेकी व्यक्तित्व' वाला मनुष्य -जो वास्तविकता (सत्य) को अवास्तविकता (मिथ्या ) से अलग करके देखने में सक्षम हो। इसका अर्थ भगवान के सामने आत्म समर्पण करना और अपने अहंकार को तिलांजलि देना है। साथ ही यह भी कि आध्यात्मिकता या वह अनुशासन जो स्वयं के स्वभाव की अनुभूति करा सके। गीता के आठवें अध्याय में कहा गया है "परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते। " आध्यात्म का अर्थ व्यक्तिगत या खुद का स्वभाव होता है। अध्यात्म का अर्थ है अपने भीतर के चेतन तत्व को जानना,मनना और दर्शन करना अर्थात अपने आप के बारे में जानना या आत्मप्रज्ञ होना।
सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति सर्वत्र उदार होता है। आज के समय में हमें उदारमना मनुष्यों की ही आवश्यकता है। उदारता से वैमनस्य का शमन होता है।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् |
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् |
अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारचरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है।
आध्यात्मिकता की बातें करना या उसका दिखावा करने से कोई फायदा नहीं है। यह तो खुद के रूपांतरण के लिए है। आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है। जो इस शरीर में रहकर ही परमात्मा के इस विराट रूप को समझ पाता है, उसे अनुभव कर पाता है, वही आध्यात्मिक है। आध्यात्मिकता शरीर, मन व आत्मा की परस्पर सम्बन्ध (interrelationship) की समझ पर आधारित है। उम्र तो शरीर की होती है। उम्र का असर आत्मा पर नहीं होता वह तो नित्य नवीन है। आध्यात्मिक होने का मतलब है, जो भौतिक से परे (सापेक्षिक सत्य से परे इन्द्रियातीत सत्य या अविनाशी ईश्वर) है, उसका अनुभव कर पाना।
अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपमें केवल स्वजनों के प्रति ही नहीं, बल्कि सभी लोगों के लिए प्रेम उमड़ता है, तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके अंदर अगर सृष्टि के सभी प्राणियों के लिए करुणा फूट रही है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको बोध है कि आपके दुख, आपके क्रोध, आपके क्लेश के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है, बल्कि आप खुद इनके निर्माता हैं, तो आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं।
आप जो भी कार्य करते हैं, अगर उसमें केवल आपका हित न हो कर, सभी की भलाई निहित है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने अहंकार, क्रोध, नाराजगी, लालच, ईर्ष्या, और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। बाहरी परिस्थितियां चाहे जैसी हों, उनके बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न और आनन्द में रहते हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप किसी भी काम में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं, तो आध्यात्मिक प्रक्रिया वहीं शुरू हो जाती है, चाहे वो काम झाड़ू लगाना ही क्यों न हो। किसी चीज को सतही तौर पर जानना सांसारिकता है, और उसी चीज़ को गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है।
आध्यात्मिकता का किसी धर्म, संप्रदाय, फिलासफी, या मत से कोई लेना-देना नहीं है। आप अपने अंदर से कैसे हैं, आध्यात्मिकता इसके बारे में है। यह अपने अंदर तलाशने के बारे में है। अस्तित्व में एकात्मकता व एकरूपता है और हर इंसान अपने आप में अनूठा है। इसे पहचानना और इसका आनन्द लेना ही आध्यात्मिकता का सार है।
आत्मानुभूति हमें किसी भी क्षण शक्तिहीन नहीं रहने देती। आत्मानुभूति का अनुशासन मनुष्य को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बनाता है। चेतना सर्वोपरि है और जो चैतन्य है वह दैन्य नहीं हो सकता। दीनता कायरता है। मनोवेगों की गुलामी से ही शक्ति का अपव्यय होता है। आध्यात्मिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जो आप मंदिर, मस्जिद, या चर्च में करते हैं। यह केवल आपके अंदर ही घटित हो सकती है। आध्यात्मिकता का अर्थ है कि अपने विकास की प्रक्रिया को खूब तेज करना। आध्यात्मिक होने का अर्थ है औसत से ऊपर उठना - यह जीने का सबसे विवेकपूर्ण तरीका है।
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["भविष्य का भारत और श्री रामकृष्ण" में लिखित भविष्यवाणी के अनुसार 12 जनवरी 1985 को झुमरीतिलैया में विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर का आविर्भाव > 25 दिसम्बर 1987 युवा महामण्डल से जुड़ाव > 30 दिसंबर 1998 को शिविर में पत्र द्वारा विवेक-अंजन त्रैमासिक पत्रिका के प्रकाशन की अनुमति और आगे का इतिहास : जानने के लिये देखें -vivek-jivan blog - बुधवार, 17 जून 2009 को प्रकाशित "विवेकानन्द > ज्ञान मन्दिर> युवा महामण्डल>विवेक-अंजन त्रैमासिक पत्रिका " शीर्षक ब्लॉग तथा [http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/2.html/ भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2] को पुनः सम्पादित करना होगा गुजरात से लौटने के बाद।] [$$$$$ भारत के पुनर्निर्माण में अद्वैत वेदान्त का प्रयोग'/शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018 /https://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/blog-post.html]
वैदिक साहित्य: पुरुषार्थ का उत्तम मार्ग/डॉ. कपिलदेव हरेकृष्ण शास्त्री,( Dr. Kapildev Harekrishana Shastri) महाराजा सयाजीराव यूनिवर्सिटी बरोडा, वडोदरा, गुजरात, पिन-390 002.
" भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं त्याग और सेवा, आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये (अर्थात भगवान श्रीरामकृष्ण के प्रति श्रद्धा भक्ति घनीभूत कीजिये) शेष सबकुछ अपनेआप ठीक हो जायेगा !
"योगीजन ज्ञान वैराग्य युक्त भक्तियोग के द्वारा शांति प्राप्त करने के लिए मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते है । संसार में मनुष्य के लिए सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमे लगकर स्थिर हो जाय । "
श्रमद्भागवत में भगवान कपिल -देवहुति संवाद : भक्ति का स्वरूप क्या है ?
देवहुति बोली : भूमन् ! प्रभो ! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार में पड़ी हुई हूँ । देव ! इन देह-गेह आदि में जो मैं-मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है, अतः अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये । आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्ष के लिए कुठार के समान है, मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आई हूँ । आप भागवतधर्म जाननेवालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ ।
भगवान कपिल ने कहा - माता ! यह मेरा निश्चय है की अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यंतिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है । साध्वि ! सब अंगों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने, उनकी सुनने की इच्छा होने पर, वर्णन किया था । वही अब मैं आपको सुनाता हूँ ।
"मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः" -मन को ही इस जीव के बंधन और मोक्ष का कारण माना गया है । विषयों में आसक्त होने पर वह बंधन का हेतु होता है और परमात्मा मे अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है । जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होने वाले काम-लोभ (lust and greed) आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था (निश्चल अवस्था) में आ जाता है । तब जीव अपने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति से युक्त हृदय से आत्मा को प्रकृति से परे, एकमात्र (अद्वितीय), भेदरहित, स्वयंप्रकाश, सूक्ष्म, अखंड और उदासीन (सुख-दुःखशून्य) देखता है तथा प्रकृति को शक्तिहीन अनुभव करता है । योगियों के लिए भगवतप्राप्ति के निमित्त सर्वात्मा श्रीहरि के प्रति की हुई भक्ति के समान और कोई मंगलमय मार्ग नहीं है । विवेकीजन काम-लोभ (lust and greed) में संग या आसक्ति को ही आत्मा का अच्छेद्य बंधन मानते है, किन्तु वही संग या आसक्ति जब संतों-महापुरुषों (CINC नवनीदा) के प्रति हो जाती है, तो मोक्ष का खुला द्वार बन जाती है ।
जो लोग (मित्रस्य चक्षुषा समीक्षाम हे !) सहनशील, दयालु, समस्त देहधारियों के अकारण हितू, किसी के प्रति भी शत्रुभाव न रखनेवाले, शान्त, सरलस्वभाव और सत्पुरुषों का सम्मान करनेवाले हो जाते हैं, जो मुझमें अनन्यभाव से सुदृढ़ प्रेम करते हैं, मेरे लिए सम्पूर्ण कर्म तथा अपने सगे-संबंधियों में आसक्ति को भी त्याग देते हैं। और मेरे परायण रहकर मेरी पवित्र कथाओं का श्रवण, कीर्तन करते हैं तथा मुझमें ही चित्त लगाए रहते है- उन भक्तों को संसार के तरह-तरह के ताप कोई कष्ट नहीं पहुंचाते हैं । साध्वि ! ऐसे-ऐसे सर्वसंगपरित्यागी महापुरुष ही साधू होते हैं, तुम्हें उन्ही के संग की इच्छा करनी चाहिए, क्योंकि वे काम-लोभ (lust and greed) में संग या आसक्ति से उत्पन्न सभी दोषों को हर लेनेवाले हैं ।
सत्पुरुषों के समागम से मेरे पराक्रमों का यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानों को प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करने से शीघ्र ही मोक्षमार्ग में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति का क्रमशः विकास होगा । फिर मेरी सृष्टि आदि लीलाओं का चिंतन करने से प्राप्त हुई भक्ति के द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक सुखों में वैराग्य हो जाने पर मनुष्य सावधानतापूर्वक योग के भक्तिप्रधान सरल उपायों से समाहित होकर मनोनिग्रह के लिए यत्न करेगा (एकाग्रता का अभ्यास करेगा) । इस प्रकार प्रकृति के गुणों से उत्पन्न हुए रूप-रस-गंध-शब्द-स्पर्श आदि विषयों में आसक्ति का त्याग करने से, वैराग्ययुक्त ज्ञान से, योगसे और मेरे प्रति की हुई सुदृढ़ भक्ति से मनुष्य मुझ अपने अंतरात्मा को इस शरीर में रहते हुए ही प्राप्त कर लेता है ।
देवहुति ने कहा - भगवन ! आपकी समुचित भक्ति का स्वरूप क्या है? और मेरी-जैसी अबलाओं के लिए कैसी भक्ति ठीक है, जिससे कि मैं सहज में ही आपके निर्वाण पद को प्राप्त कर सकूँ ? वह आपका कहा हुआ योग कैसा है और उसके कितने अंग हैं ? हरे ! यह सब आप मुझे इस प्रकार समझाइए जिससे कि आपकी कृपा से मैं मंदमति स्त्रीजाति भी इस दुर्बोध विषय को सुगमता से समझ सकूँ ।
श्रीभगवान ने कहा - माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान (अवतार वरिष्ठ) में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों मे लगी हुई तथा विषयों का ज्ञान करानेवाली (कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेन्द्रिय-दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है, वही भगवान की अहैतुकी भक्ति है । यह भक्ति मुक्ति से भी बढ़कर है, क्योंकि जठरानल जिस प्रकार खाये हुए अन्न को पचाता है, उसी प्रकार यह भी कर्मसंस्कारों के भंडाररूप लिंगशरीर (कारण शरीर) को तत्काल भस्म कर देती है । मेरी चरणसेवा में प्रीति रखनेवाले और मेरी ही प्रसन्नता के लिए समस्त कार्य करनेवाले कितने ही बड़भागी भक्त, जो एक दूसरे से मिलकर प्रेमपूर्वक मेरे ही पराक्रमों की चर्चा किया करते है, मेरे साथ एकीभाव (सायुज्यमोक्ष) की भी इच्छा नहीं करते ।
माँ ! वे साधुजन अरुण-नयन एवं मनोहर मुखारविंद से युक्त मेरे परम सुंदर और वरदायक दिव्य रूपों की झांकी प्राप्त करते है। और उनके साथ सप्रेम संभाषण भी करते है, जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी लालायित रहते है । मेरे दर्शनीय अंग-प्रत्यंग, उदार हर-विलास, मनोहर चितवन और सुमधुर वाणी से युक्त उन रूपों की माधुरी में उनका मन और इंद्रियाँ फँस जाती है । ऐसी मेरी भक्ति न चाहने पर भी उन्हे परमपद की प्राप्ति करा देती है । अविद्या की निवृत्ति हो जाने पर यद्यपि वे मुझ मायापति के सत्यादि लोकों की भोगसंपत्ति, भक्ति की प्रवृत्ति के पश्चात स्वयं प्राप्त होने वाली अष्टसिद्धि अथवा बैकुंठलोक के भगवदीय ऐश्वर्य की भी इच्छा नहीं करते, तथापि मेरे धाम में पहुँचने पर उन्हे ये सब विभूतियाँ स्वयं ही प्राप्त हो जाती है । जिनका एकमात्र मैं ही प्रिय, आत्मा, पुत्र, मित्र, गुरु, सुहृद और इष्टदेव हूँ - वे मेरे ही आश्रय में रहने वाले भक्तजन शांतिमय बैकुंठधाम में पहुँचकर किसी प्रकार भी इन दिव्य भोगों से रहित नहीं होते और न उन्हे मेरा कालचक्र ही ग्रस सकता है ।
माताजी ! जो लोग इहलोक, परलोक और इन दोनों लोकों में साथ जानेवाले वासनामय लिंगदेह को तथा शरीर से संबंध रखनेवले जो धन, पशु एवं गृह आदि पदार्थ है, उन सबको और अनयनी संग्रहों को भी छोडकर जो व्यक्ति अनन्य भक्ति से सब प्रकार मेरा ही भजन करते हैं - उन्हे मैं मृत्युरूप संसारसागर से पार कर देता हूँ । मैं (माँ काली के अवतार श्रीरामकृष्ण) साक्षात भगवान हूँ, प्रकृति और पुरुष का भी प्रभु हूँ तथा समस्त प्राणियों का आत्मा हूँ, मेरे सिवा और किसी का आश्रय लेने से मृत्युरूप महाभय से छुटकारा नहीं मिल सकता । मेरे ही भय से यह वायु चलती है, मेर भय से सूर्य तपता है, मेरे भय से इंद्र वर्षा करता और अग्नि जलाती है तथा मेरे ही भय से मृत्यु अपने कार्य में प्रवृत्त होता है । योगीजन ज्ञान वैराग्य युक्त भक्तियोग के द्वारा शांति प्राप्त करने के लिए मेरे निर्भय चरणकमलों का आश्रय लेते है । संसार में मनुष्य के लिए सबसे बड़ी कल्याणप्राप्ति यही है कि उसका चित्त तीव्र भक्तियोग के द्वारा मुझमे लगकर स्थिर हो जाय ।
वेद चार हैं :- चार ग्रंथ, चार पुरुषार्थ, चार देव । वेद केवल धर्म की पुस्तकें भर नहीं है। इनके पीछे छिपा हुआ दर्शन बहुत गहरा और जीवन के अर्थों को समेटे हुए है। ये केवल मंत्रों से भरे ग्रंथ नहीं हैं। इनमें संपूर्ण मानव जीवन का सार समाया हुआ है। मानव जीवन में चार प्रमुख पुरुषार्थ हैं धर्म,अर्थ, काम, और मोक्ष। चारों वेद इन चार पुरुषार्थों का प्रतीक हैं। इन चार वेदों के चार प्रमुख देवता हैं अग्रि, वायु, सूर्य और सोम। ऋग्वेद के देवता अग्नि को माना जाता है, यजुर्वेद के देवता वायु, सामवेद के देवता सूर्य और अथर्ववेद के देवता सोम माने गए हैं।
ऋग्वेद :- शास्त्रों का मानना है कि चार पुरुषार्थों में गृहस्थ के लिए सबसे पहला 'धर्म' यह है कि वह 'अर्थ ' अर्जित करे, जीवनयापन के लिए आवश्यक साधन जुटाए । अर्थ अर्जित करने के लिए श्रम करने की आवश्यकता होती है; और श्रम करने के लिए ऊर्जा या शक्ति की आवश्यकता होती है । अर्थ के लिए परिश्रम करना होता है परन्तु यह परिश्रम भी अनुशासन (धर्म) के अनुसार हो, अधर्म के मार्ग से प्राप्त किया गया अर्थ पुरुषार्थ नहीं है। अग्नि ऊर्जा और शक्ति के प्रतीक हैं, इसलिए ऋग्वेद के प्रमुख देवता अग्नि ( और उनकी दाहिका शक्ति माँ काली ?) को माना गया हैं।
[ ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है -(नवनीदा का प्रणाम मंत्र)
ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम।
(अन्वय -अग्नि: – अग्नि अग्रणि है, अर्थात, ईश्वर के सब गुणों में अग्नि प्रथम है। ईले: – स्तुति करते हैं। पुरोहितम्- पुरः हितम् –सूक्ष्म से स्थूल होने के पूर्व, या सम्पूर्ण सृष्टि के अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आने से पूर्व। यज्ञः – हवन पूजन युक्त श्रेष्ठ वैदिक कृत्य। यज्ञस्य – इस यज्ञ के। देवम् – देने वाला अग्नि देवता हैं और ईश्वर के दिव्य गुणों में श्रेष्ठ है। ऋत्विजम् – जो सब समय एवं ऋतुऒं में पूज्य है, अर्थात ईश्वर स्वरूप है। होतारम् – जो जगत् के सब जीवों को सब पदार्थ देने वाला है, जो वर्तमान और प्रलय में सबको समाहित करने वाला है। रत्नः – सब उत्तम पदार्थों एवं स्वर्ण रत्नादि को। धातमम् – धारण करने एवं कराने वाला है। मैं सर्वप्रथम प्रकाशित यज्ञ (1967 में महामण्डल) करने वाला, देव-दूत , सत्य मुक्त अग्नि देव (पैगम्बर,नेता- नवनी दा) का पूजन करता हूँ।]
हम अग्निदेव की स्तुति करते हैं, जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले), देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज (वर्तमान समयानुकूल ज्ञान-यज्ञ अर्थात युवा प्रशिक्षण शिविर का सम्पादन करने वाले महामण्डल के प्रथम नेता), होता (देवों का आवाहन करनेवाले) और याचकों को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से) विभूषित करने वाले है। [ऋग्वेद 1.1.1]
[वेदान्तियों (सनातन धर्म मानने वाले) के लिए प्रणव या "ॐ" का उच्चारण प्रमुख है। इसे प्रणवाक्षर (प्रणव+अक्षर) भी कहते है। प्रणव का अर्थ होता है पवित्र घोष अथवा शब्द (प्र+णु स्तवने+अप्) इसका प्रतीक है रहस्यवादी पवित्र अक्षर ॐ। यह शब्द ब्रह्म (या आत्मा) का बोधक है, जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, जिसमें स्थित रहता है और जिसमें इसका लय हो जाता है। अतः प्रणव भी भगवान् विष्णु का एक रूप है। ॐ ब्रह्माण्ड की अनाहत ध्वनि है। इसे अनहद नाद भी कहते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में यह अनवरत जारी है। इस ॐ कार की शक्ति (माँ काली) से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणित हो जाती है। यह विश्व नाम-रूपात्मक है, उसमें जितने पदार्थ हैं, इनकी अभिव्यक्ति वर्णों अथवा अक्षरों से होती है। उसी अनाहत नाद से "अ " कार, "उ" कार और "म" कार रूप तीन मात्राओं से युक्त "ॐ कार" प्रकट हुआ। जितने भी वर्ण हैं वे अ (कण्ठ्य स्वर) और म् (ओष्ठ्य व्यंजन) के बीच उच्चारित होते हैं। इस प्रकार 'ॐ ' सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्ति, स्थिति और प्रलय का द्योतक है।
परब्रह्म परमेश्वर-परमात्मा के तीन प्रकार के नाम हैं - ॐ, तत् और सत्। भगवान श्रीकृष्ण गीता (9.17) में कहते हैं -
पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।
।।9.17।। मैं ही इस जगत् का पिता, माता, धाता (धारण करने वाला) और पितामह हूँ। मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ, पवित्र ॐ कार (प्रणव), ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।
।।9.17।। आत्मा कोई अस्पष्ट अगोचर सत् तत्त्व नहीं कि जो भावरहित संबंध रहित और गुण रहित हो। यह दर्शाने के लिए कि यही आत्मा ईश्वर (माँ काली के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण) के रूप में परम प्रेमस्वरूप है। परिच्छिन्न जगत् के साथ उसके सम्बन्धों को यहाँ दर्शाया गया है। मैं जगत् का पिता, माता, धाता और पितामह हूँ। माता, पिता और धाता इन तीनों से अभिप्राय यह है कि वह जगत् का एकमात्र कारण है और उसका कोई कारण नहीं है। यह तथ्य पितामह शब्द से दर्शाया गया है। परमात्मा स्वयं सिद्ध है। यहाँ विशेष बल देकर कहा गया है कि जानने योग्य एकमेव वस्तु (वेद्य) मैं हूँ।
इस बात को सभी धर्मशास्त्रों में बारम्बार कहा गया है आत्मा वह तत्त्व है जिसे जान लेने पर अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है। [ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति ] आत्मबोध से अपूर्णता का सांसारिक दैहिक भ्रमों का तथा मर्मबेधी दुखों का अन्त हो जाता है। वास्तव में हम तो 'अनन्त आनन्द के भागीदार' हैं; दैवी सार्मथ्य के उत्तराधिकारी हैं परन्तु अज्ञानवश जीव भाव को प्राप्त हो गये हैं। अपने इस परमानन्द स्वरूप का साक्षात्कार करना ही वह परम पुरुषार्थ है 'मोक्ष ' है जो मनुष्य को पूर्णतया सन्तुष्ट कर सकता है।
सम्पूर्ण विश्व के अधिष्ठान आत्मा को वेदों में ॐ कार के द्वारा सूचित किया गया है। हम अपने जीवन में अनुभवों की तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान और ज्ञाता (अनुभव करने वाला) इन तीनों से भिन्न होना चाहिए। क्योंकि ज्ञाता ज्ञेय वस्तुओं से और अधिष्ठान अध्यस्त से भिन्न होता है। इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न उस तत्त्व को, जो इन को धारण किये हुये है, उपनिषद् के ऋषियों ने तुरीय अर्थात् चतुर्थ कहा है। इन चारों को जिस एक शब्द के द्वारा वेदों में सूचित किया गया है वह शब्द है ॐ । ओम् ही आत्मा है - जिसकी उपासना के लिए भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा श्रीमद्भागवत में वर्णित है। प्रणव के द्वारा लक्षित आत्मा ही वेद्य वस्तु है, जो पारमार्थिक सत्य (इन्द्रियातीत सत्य ?सच्चिदानन्द ) है जिसको कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष अथवा 'मौनरूप' से वेदों में निर्देशित किया गया है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि मैं ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेद हूँ।]
यजुर्वेद :- यजुर्वेद 'काम' का ग्रंथ है, यहां काम का अर्थ केवल 'विषय भोग' से नहीं है। काम में कर्म, कामनाएं और कर्म का प्रेरक 'मन' तीनों शामिल है। यह कर्मकांड प्रमुख वेद है। इसमें यज्ञ का महत्व है, जो कर्म का प्रतीक भी है। यजुर्वेद के प्रमुख देवता वायु को माना गया है। वायु मन का प्रतीक है, मन वायु की तरह ही तेज चलता है और अत्यन्त चंचल है अस्थिर है। कर्म में श्रेष्ठता के लिए मन को साधना अर्थात (गुरु-शिष्य परम्परा में) मनःसंयोग या एकाग्रता का अभ्यास करना आवश्यक है। मन को साधने से ही (अष्टांग योग का पालन करने से ही), उसमें कामनाओं का लोप होता है। मन सद्कर्मों और शक्ति, धर्म के संचय में लगता है। कामनाओं का लोप (कामिनी-कांचन में आसक्ति का लोप) होने के बाद ही हम किसी भी कार्य को एकाग्रता से कर सकते हैं।
सामवेद :- साम वेद उपासना का वेद है, धर्म का ग्रंथ है। धर्म के लिए भक्ति अर्थात् उपासना का होना आवश्यक है। जब अर्थ और काम दोनों का साध लिया जाए यानी सांस्कृतिक और धार्मिक अनुशासन से इन्हें अपने जीवन में उतारा जाए तब धर्म का प्रवेश होता है, जीवन में भक्ति (भगवान श्री रामकृष्ण के चरणों में भक्ति) आती है । जीवन में ज्ञान और भक्ति का बहुत महत्व है। इनको साधने से ही धर्म आता है। भगवान सूर्य भक्ति और ज्ञान-प्रकाश के प्रतीक हैं, इसलिए सामवेद के देवता सूर्य माने गए हैं।
अथर्ववेद :- यह ग्रंथ परमशक्तियों या पराशक्तियों का है। जब अर्थ, काम और धर्म तीनों जीवन में उतरते हैं तब मोक्ष (भ्रममुक्ति) का मार्ग खुलता है। मोक्ष कर्म और जन्म के अलग से मुक्ति है, यह मुक्ति ज्ञान से आती है, इसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं। अथर्ववेद ऐसे ही ज्ञान का वेद है। जो मुक्ति का ज्ञान हमें सारे संकटों से राहत देता है (सिंह -शावक को विसम्मोहित कर देता है) , अर्थात् शीतलता देता है। इसलिए इस ग्रंथ के देवता चंद्र अर्थात् सोम माने गए हैं, जो शीतलता देते हैं।अथर्ववेद में कहा गया है-
ॐ कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो मे सव्य आहित:।
गोजिद्भूयासमश्वजिद्धनंजयो हिरण्यजित्।।
(अथर्व० ७/५२/८)
भावार्थः- यदि मेरे दाएं हाथ में विचारपूवर्क कर्म करना (विवेक-प्रयोग) है तो मेरे बाएं हाथ में विजय है। यानी यदि मेरे दाएं हाथ में पुरुषार्थ (विवेक-प्रयोग क्षमता) है तो सफलता मेरे बाएं हाथ का खेल है। जो कठिन परिश्रम करते हैं, ईश्वर उन्हीं का सच्चा साथी है। पुरुषार्थ ही मनुष्य को विजयी बनानेवाला है। यह हमें गोजित्, अश्वजित्, धनंजय और हिरण्यजित् अर्थात् स्वर्ण का जीतने वाला बनाता है।
>>रामराज्य या सतयुग का वर्णन : " सतयुग" अर्थात उस काल विशेष में जब मानवीय मूल्य सर्वोपरि होता है, शुचि-शील, धर्म -दया, धैर्य- पुरूषार्थ सब धर्म नियंत्रित थे। 'रामराज्य' शासन एवं प्रशासन का वह आदर्श रूप है, जहाँ धर्म एवं ईश्वर भक्ति उसकी आत्मा किंवा प्राण के रूप में विद्यमान होता है। ऐश्वर्य एवं समृद्धि, सुव्यवस्था एवं सुखमयता तथा अनुशासन एवं सदाचार 'रामराज्य' के अंग हैं। —स्मरण रहे कि "धर्म" शब्द बहुत व्यापक है, यह न तो पंथ है और न पाखंड, अपितु यह उस अर्थ में है कि "धारयतीति इति धर्म:|"
राम राज्य में चतुर्दिक हर्षोल्लास का साम्राज्य था। सब पुत्र- पुत्री, धन_धान्य से परिपूर्ण थे। अन्न ओज एवं जीवनी शक्ति से परिपूर्ण था|गाएं सुस्वादु एवं प्रचुर मात्रा में दूध देती थी। दैहिक, मानसिक, भौतिक, दैविक इत्यादि सभी रोगों से लोग रहित थे। ब्राह्मण वेदार्थी थे एवं समाज नैतिक सदाचार से परिपूर्ण था। इसलिए कोई वर्णशंकर नहीं था अर्थात रक्त की परिशुद्धता विद्यमान थी। कोई स्त्री वन्ध्या, एक सन्तानवती या मृतवत्सा नहीं थी। विधवाएं नहीं थी सुहागिनों के सौभाग्य अवर्णनीय थे। रामराज्य में कोई भी अपने से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, गुरु एवं माता- पिता का अनादर करने वाला नही था। रामराज्य में सभी अभिवादन शील, वृद्ध सेवी, आज्ञाकारी तथा पुण्यकर्मा थे। सभी पर स्त्री से विमुख थे|कोई किसी के भूमि धन का अपहर्ता नहीं था। रोगी, दरिद्र, चोर, जुआरी, मद्यप, दुष्ट, लंपट नहीं थे। स्त्री हन्ता, बाल हन्ता, मिथ्या वादी, जीविका हर्ता, कृतघ्न, मलिन इत्यादि से रामराज्य सर्वदा अछूता रहा। सम्पूर्ण राज्य में भगवद् भक्त तथा सदाचारी मौजूद थे।
सतयुग में वर्णाश्रम के सेवा भाव का पालन होता था । जिसमें प्रत्येक पुरुष ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,वाणप्रस्थ और सन्यास चार रूपों में अपने जीवन को जीते थे । सतयुग यानी सत्यता का युग जिस समय देवी- देवता ने अवतार लिया था । वेद ,उपनिषद ,पुराण की रचना हुई थी । साधु-संतों का जीवन दया ,दान ,समर्पण, त्याग, आस्था में लीन था । वे काम ,क्रोध ,मोह,लोभ से दूर संयम एवं सदाचारी जीवन जीते थे । व्यवहार शांत और मौन रहने की प्रव्रत्ति उनमें थी । विश्व का प्रतेक जीव (व्यक्ति) दुखी है। तीन प्रकार के तापो (दुखों) से तप रहा है। आध्यात्मिक (दैहिक), आधिदैविक (दैविक) , और आधिभौतिक (भौतिक) केवल यह तीन प्रकार के ताप (दु:ख) हैं संसार के सभी जीवों (मनुष्यों) को। यही ताप प्रतेक छण और प्रतेक जीवों (माया के अधीन मनुष्य) को दुःखमय बनाये हुए हैं। इन तीनों में सबसे प्रमुख है आध्यात्मिक ताप जिसे दैहिक दुःख भी कहते है।
दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥1॥
--'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं॥1॥
आज के बारे में लिखने की आवश्यकता ही नहीं है सभी के सामने सब कुछ है। विश्व का प्रतेक जीव (व्यक्ति) दुखी है। तीन प्रकार के तापो (दुखों) से तप रहा है। आध्यात्मिक (दैहिक), आधिदैविक (दैविक) , और आधिभौतिक (भौतिक-पंच भूतों से सम्बंधित ) केवल यह तीन प्रकार के ताप (दु:ख) हैं संसार के सभी जीवों (मनुष्यों) को। यही ताप प्रत्येक क्षण प्रत्येक जीवों (माया के अधीन मनुष्य-मिथ्या अहं बोध से ग्रस्त मनुष्य ) को दुःखमय बनाये हुए हैं। इन तीनों में सबसे प्रमुख है आध्यात्मिक ताप जिसे दैहिक दुःख भी कहते है।
आध्यात्मिक (दैहिक-मानसिक) दुःख - 1 आध्यात्मिक दुःख (दैहिक ताप) - ये तीन प्रकार का होता है:-स्थूल शरीर सम्बन्धी:- जैसे ज्वर, वात-शूल, खांसी, दमा, यक्ष्मा, फोड़ा, कुष्टादि। वैद्यक शास्त्र इस से हमारी रक्षा करते है। सूक्ष्म शरीर (मन से) सम्बन्धी:- जैसे काम, क्रोध, मद, लोभ, मात्सर्य आदि। मानसिक ताप (दुख) सबसे बड़ा दुखदाई है । धर्म शास्त्र इस से हमारी रक्षा करते है। कारण शरीर (अविद्या या अज्ञान) से संबंधी:- जैसे अस्मिता, अविद्या, आदि पञ्च क्लेश। वेदांत शास्त्र इस से हमारी रक्षा करते है।
१.शारीरक ताप : जो शरीर के रोग है, यह शारीरक ताप (दुःख) कहलाती है। आप जानते ही है। आज बुखार है, तो कलअतिसार (डायरिया) है, आज ब्लड प्रेशर बढ़ गया तो कल डाइबटीज हो गया। शरीर की बनावट इतनी जटिल है की कोई न कोई भाग गड़बड़ रहता ही है। फिर मनुष्य भी असावधान है विषयों का लोलुप (लालची) है, कोई संयम से आहार विहार व्यवहार नहीं रहता। इसलिए सदा प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रोग से ग्रस्त (पीड़ित) हैं। और अगर मान लो कोई करोड़ों में कोई एक ऐसा व्यक्ति भी हो। तो मानसिक रोग से तो सब के हैं। चींटी से लेकर स्वर्ग के देवता तक सब जीव जितने भी ❛माया अधीन है❜ वो सब इस मानसिक रोग से दुखी हैं। २. मानसिक ताप : मानसिक ताप है - षडरिपु : - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, घृणा, ईर्ष्या, द्वेष, भय आदि। इन छहों में प्रमुख दुःख हैं काम (हमारी इच्छाएं)। जो संसार सम्बन्धी सुख की इच्छाएं यही सब दुखों की जननी हैं। और जो इन सब दुखों का मूल है वो है - अज्ञान (अविद्या) । क्या अज्ञान? हमने अपना स्वरूप भुला दिया। ❛मैं कौन हूँ❜ ? सिंह-शावक होकर अपने को भेंड़ समझना ? बस इतनी सी भूल ने हमारे अनादि कल के अनंत जन्म, ८४ के शरीर में घूम-घूम कर अपने आप को दुख से युक्त कर दिया। गुरु जब स्वरुप दिखला देते हैं तब वह 'सिंह शावक' कहता है - नष्टो मोहः स्मृति लब्ध्वा।
आधिदैविक (दैविक) दुःख -अतिप्राकृतिक, दैवी। जो दुःख देवता से या मौसम से या प्रकृति से हमें मिलता हैं। जैसे आज लू लग गया, आज ठण्ड लग गया। बाढ़ आयी और लाखों का नुकसान हो गया, आदि। यह आधिदैविक दुःख है। यक्ष, देव आदि के द्वारा होने वाला (दुख या कष्ट):"यह संस्था भूकम्प, बाढ़, सूखा, आदि के कारण उत्पन्न आधिदैविक दुखों से पीड़ित जन समुदाय को सहायता पहुँचाती है"
आधिभौतिक (भौतिक) दुःख - आधिभूतों अर्थात् भौतिक पदार्थों और जीव-जंतुओं आदि के कारण या उसके द्वारा उत्पन्न होनेवाला (कष्ट या दुख): पंचभूतों से संबंध, सांसारिक। व्याघ्र, सर्पादि जीवों द्वारा कृत । जीव या शरीरधारियों द्वारा प्राप्त । एक मच्छर ने कटा और हम डेंगू , मलेरिया से बीमार हो गये। यह आधिभौतिक दुःख है। सभी प्रकार के रोग आधिभौतिक दुख के अंतर्गत ही आते हैं। आधिभौतिक ताप (दु:ख) दूसरे जीवों (मनुष्यों) के कारण मिलती है। जैसे हम तो अपना काम कर रहे थे, लेकिन वो व्यक्ति आया और हमारे काम पर पानी फेर दिया। हम रस्ते पर चल रहे थे हमारी कोई गलती नहीं और बाइक से टककर हो गयी।
एक बात ध्यान रहे, आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःख हमारे ही किये गये कर्मो का फल हैं। इसमें देवता और भगवान् हमें जबरदस्ती दुःख नहीं देते। जो हमारे कर्म है, भगवान् उसकी का फल देते हैं देवताओं के माध्यम से। शनि देव किसी पर क्रोध नहीं करते, वो तो हमारे कर्म का फल देते है भगवान् के आदेश अनुसार। और अगर मान लो की कोई देवता किसी का अनिष्ट करना चाहेगा तो भगवान् का सुदर्शन चक्र चल जायेगा उस देवता पर।
इस महामण्डल पुस्तिका में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के मानव-मस्तिष्क में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! (No idea here is an out-flow of any particular individual human brain.) इस पुस्तिका के लेखों में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है! एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ जोड़ने का उद्देश्य स्वयं के लिये नाम-यश या और कुछ कमाना नहीं है, बल्कि स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अपने व्यवहारिक जीवन में प्रयोग द्वारा 'एक नये भारत का निर्माण', 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत का निर्माण' या "हर दृष्टि से समृद्ध भारत का निर्माण' करने हेतु युवाओं को अनुप्राणित करने का एक विनम्र प्रयास है।
इसीलिये यदि किसी नए शब्द- निर्माण (coinage) की अनुमति दी जाये, तो इस पुस्तिका में वर्णित विचारों को ''Applied Vivekananda in the national context." -अर्थात `एक नये भारत का निर्माण करने के संदर्भ में अनुप्रयुक्त विवेकानन्द के विचार ' की संज्ञा दी जा सकती कहा जा सकता है।
महामण्डल की यह अंग्रेजी पुस्तिका 'A NEW YOUTH MOVEMENT' प्रथम बार सितम्बर, 1987 में प्रकाशित हुई थी, जो इस पुस्तिका के हिन्दी अनुवादक के लिए पहला वार्षिक महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर था। महामण्डल के द्वारा इसके प्रथम हिन्दी (अनुवाद) का ब्लॉग प्रकाशन दिनांक -9 फ़रवरी 2015 को हुआ था, जब नवनीदा शरीर में थे ! और इस विषय पर उनके साथ पूरी चर्चा भी हुई थी!
जो युवा महामण्डल से प्यार करते हैं उन्हें विशेष रूप से इस पुस्तिका के प्रत्येक निबंध को बहुत ध्यान पूर्वक पढ़ना चाहिये। और जिस प्रकार कोई गाय भोजन मिलने पर जल्दी जल्दी खा लेती है और और छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट देती है समय पाकर आराम से पागुर -(जुगाली rumination ) करके निगले हुए भोजन (घास, भूसा आदि) को आमाशय से पुनः अपने मुंह में लाती है, और उसे 'Chew and Digest' करके फिर उसे वापस पेट में भेज कर अच्छी तरह से पचा लेती है। उसी प्रकार हमें भी प्रत्येक पैरा समाप्ति (paragraph break) के बाद थोड़ा रुक कर जो कुछ पढ़ें हैं, उतने अंश के मर्म पर चिंतन-मनन करके उसे आत्मसात करने की चेष्टा करनी चाहिये।
यह बात कई लोगों को समझ में नहीं आती कि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आखिर करना क्या चाहता है ? इस विषय पर विगत कई वर्षों में महामण्डल की द्विभाषी संवाद पत्रिका 'विवेक-जीवन' तथा अन्य दूसरी महामण्डल पुस्तिकाओं में बहुत कुछ लिखा गया है, इसके ऊपर कई युवा सम्मेलनों, प्रशिक्षण शिविरों एवं अन्यत्र भी बहुत कुछ कहा गया है। उन सबको यहाँ दोहराना संभव नहीं है, किन्तु जो लोग महामण्डल कार्य में लगे हुए हैं, उनके लाभ के लिये प्रमुख बातों की पुनरावृत्ति संक्षेप में की जा सकती है।यदि इस पुस्तिका का अध्यन करने से, महामण्डल के कार्यों के बारे में दूसरे लोगों की समझ भी स्पष्टतर होती है, तो वह एक अतिरिक्त लाभ होगा।
1. >>महामण्डल को सौंपा गया नियत कार्य (The Task) :
भारत का कल्याण, एक भारत श्रेष्ठ भारत का निर्माण , या हर दृष्टि से एक समृद्ध भारत का निर्माण करने के लिये जितना कुछ किए जाने की जरूरत है, वह सब पूरा कर देने का दायित्व कोई एक व्यक्ति या कोई एक संगठन नहीं उठा सकता।
No one person or any single organization can take the responsibility of completing all that needs to be done for the 'welfare of India', 'building Ek Bharat Shreshtha Bharat', or 'making a prosperous India in every respect'.
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ब्रह्माण्ड एक खुला स्थान है, जिसकी कोई सीमायें नहीं हैं, कोई अंत नहीं है। इसकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई और गहराई अनंत हैं। पर इसकी रचना कैसे और क्यों हुई? नासदीय सूक्तः जो की सृष्टि की रचना के मंत्र के रूप में भी जाना जाता है, ऋग्वेद के 10वें मंडल का 129वां सूक्त है। इसका संबंध ब्रह्मांड विज्ञान और ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ है। नासदीय सूक्त में कुल ७ मन्त्र हैं:-
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥ १॥
आदि में ना ही किसी (सत्)आस्तित्व था और ना ही (असत्) अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत एक परिपुर्ण अदृश्य निराकार निर्गुण र्निविकलप ब्रह्म से हुई। तब न हवा थी, ना आसमान था और समय भी नहीं था परब्रह्म के परे कुछ था।
इस जगत् की उत्पत्ति से पहले ना ही किसी का आस्तित्व था और ना ही अनस्तित्व, मतलब इस जगत् की शुरुआत शून्य से हुई। तब न हवा थी, ना आसमान था और ना उसके परे कुछ था,चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था।
२. न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास ॥२॥
उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे,उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस एक अनादि पदार्थ था (जिसे प्रकृति कहा गया है-ब्रह्म की शक्ति?), मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से बना चला आ रहा हो।
[चारों ओर समुन्द्र की भांति गंभीर और गहन बस अंधकार के आलावा कुछ नहीं था। उस समय न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, मतलब न ही पृथ्वी पर कोई जीवन था और न ही स्वर्ग में रहने वाले अमर लोग थे,उस समय दिन और रात भी नहीं थे। उस समय बस उसके शक्ति से व्याप्त शब्द आकाश था अर्थात शब्द रुप के ॐ कार स्वरुप अक्षर ब्रह्म उसके बल था मतलब जिसका आदि या आरंभ न हो और जो सदा से एक तार (string-प्रकृति) रुप में सदा परब्रह्म में व्यक्त हो। ]
३. तम आसीत्तमसा गूहळमग्रे प्रकेतं सलिलं सर्वाऽइदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥३॥
शुरू में सिर्फ अंधकार में लिपटा अंधकार और वो जल की भांति अनादि पदार्थ था जिसका कोई रूप नहीं था, अर्थात जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है। फिर उस अनादि पदार्थ में एक महान निरंतर तप् से वो 'रचयिता'(परमात्मा/भगवान) प्रकट हुआ।
[शुरू में सिर्फ अंधकार में लिपटा अंधकार और फिर वो जल की भांति अर्थात आपस् तत्व था जिसका कोई रूप नहीं था, अर्थात जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है। वो उस परब्रह्म के निरन्तर तप से उत्पन्न हुआ था और उसके हेतु आपस् तत्त्व से परब्रह्म उत्सर्जित हुए । यहां संदेह हो सकता हैं अगर आपस् तत्व पहले से था तो क्या वो ब्रह्म से अलग था? उत्तर : नहीं !! इसके उत्पादन के मूल कारण ब्रह्म इनके जो उत्पन्न होने के जो बल होता है वो परब्रह्म ही हैं। जिस प्रकार समुद्र के लहर जल के बिना अस्थित्व में नहीं बनते उसी प्रकार आपस तत्त्व के हेतु ब्रह्म सृष्टि का कार्य करता है। प्रमाण -- "आपो नारा इति प्रोक्ता अपो वै नरसुनव:। ता यदास्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।। १/१० अर्थ: – आपस् तत्व का एक नाम 'नारा' हैं क्योंकि वह नर अर्थात् ब्रह्म ब्रह्म से उत्पन्न हुआ हैं। ब्रह्म कि ब्रह्मा रुप में उत्पत्ति इसी नार से हुई इसलिए परमात्मा का एक नाम नारायण हैं। ("आप एवदेमग्र आसुस्ता आपः सत्यमसृजन्त सत्यं ब्रह्म।""ब्रह्म प्रजापतिं प्रजापतिर्देवा अस्ते देवाः।" "सत्यमेवोपास्ते तदेत्त्रय सत्यमिति अक्षरं स इत्येकमक्षरं तीत्येकमक्षरं यमित्येकमक्षरं" "प्रथमोत्तमे अक्षरे सत्य मध्यतोऽनृतं तदेतदमृतमुभयतः सत्येन परिगृहत सत्यभूयमेव भवति नैवं विद्वा़ ँ समनृतं हिनस्ति बृहदारण्यक उपनिषद् ५:५:१)
आदि में आपस् तत्व था वहीं ब्रह्म में अव्यक्त था उसे आप तत्व के हेतु आपस् तत्व से ब्रह्म के व्यक्त रुप प्रकट हुआ। उससे प्रजापति ब्रह्म उत्पन्न हुआ प्रजापति ने देवताओं को उत्पन्न किया और देवताओं ने भी उसी सत्य के सम्मान किया। कि ये सत्य तीन अक्षर का होता है स ती और म इनमें प्रथम और अंतिम अक्षर सत्य है मध्य अक्षर असत्य है क्यों कि ये मृत्यु है। अर्थात प्रगति शील हैं और अस्थिर हैं इसलिए मृत्यु ही परिवर्तन हैं लेकिन दोनों तरफ सत्य से लिप्त होने करण ये एक तत्काल सत्य है लेकिन परंकाल सत्य है नहीं है जो इस सत्य को जानते उसके नाश नहीं होगा।
४. कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥
सबसे पहले रचयिता को कामना/विचार/भाव/इरादा आया सृष्टि की रचना का, जो की सृष्टि उत्पत्ति का पहला बीज था,इस तरह रचयिता ने विचार कर आस्तित्व और अनस्तित्व की खाई पाटने का काम किया।
(सबसे पहले रचयिता को कामना यानि इच्छा हुई रचना का, वहि सृष्टि उत्पत्ति का पहला बीज था, इस तरह रचयिता ने विचार करके अपनी माया से अस्तित्व व्यक्त न होने वाला अनस्तित्व में अस्तित्व के उत्पत्ति की परिकल्पना किया।)
५. तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥५॥
फिर उस कामना रुपी बीज से चारों ओर सूर्य किरणों के समान ऊर्जा की तरंगें निकलीं, जिन्होंने उस अनादि पदार्थ(प्रकृति) से मिलकर सृष्टि रचना का आरंभ किया।
[फिर उस कामना रुपी बीज से चारों ओर सूर्य किरणों के समान प्रकाश त्तव उत्सर्जित हुआ तब देव ने उसके रायि अर्थात (प्रकृति) से प्राण को मिलकर सृष्टि रचना किया। " तस्मै स होवाच प्रजाकामो वै प्रजापति स मिथुनमुत्पादयते। रायिं च प्रणं चेत्येतौ बहुधा प्रजा: करिष्यत इति। " (प्रश्नोपनिषद १/४) तब पिप्पलाद ने उनसे कहा कि सृष्टि परब्रह्मा प्रजापति भगवान ने वास्तव में जीवों की इच्छा करके अर्थात सृष्टि कि इच्छा करके उन्होंने तप को उत्पन्न किया अर्थात् अपने अंदर की बल को उत्पन्न किया उन्होंने उस तप अर्थात बल से एक जोड़ी में रायि (पदार्थ) और जीवन शक्ति प्राण का उत्पादन किया। यह सोचकर कि ये दोनों मेरे लिए एकिगत होकर जीव बनाएंगे इससे यही पता चलता हैं सभी जीव प्राण और रायि का संमिलन हैं।👉 प्राण शक्ति गुरुत्वाकर्षण गति या बल का एकिकृत तत्त्व है जिसे वेदांत में पुरूष तत्त्व भी कहा जाता है। 👉 रायि प्रकृति की एकिकृत तत्त्व जो कई रूपों को पकड़ने और प्रदान करने या बदलने में सक्षम है जिसे वेदांत में स्त्री तत्त्व कहा जाता हैं।]
६. को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः ।
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥
अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है की कब और कैसे इस विविध प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्यूंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये। अतः वर्तमान समय में कोई ये दावा करके ठीक-ठीक वर्णण नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके बनने का कारण क्या था।
[अभी वर्तमान में कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है की कब और कैसे इस सृष्टि की उत्पत्ति और रचना हुई, क्यूंकि विद्वान लोग तो खुद सृष्टि रचना के बाद आये। अतः वर्तमान समय में कोई ये दावा करके ठीक-ठीक वर्णण नहीं कर सकता कि सृष्टि बनने से पूर्व क्या था और इसके पीछे के कारण क्या था।]
७. इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥
सृष्टि रचना का स्रोत क्या है? कौन है इसका कर्ता-धर्ता? सृष्टि का संचालक, अवलोकन करता, ऊपर कहीं स्वर्ग में है बैठा। हे विद्वानों, उसको जानों.. तुम नहीं जान सकते तो कौन जान सकता है?
[सृष्टि रचना का स्रोत क्या है? कौन है इसका कर्ता-धर्ता? सृष्टि का संचालक, अवलोकन कर्ता , ऊपरि आकाश में सदेव स्थित सबका स्वामी वहि सचमुच में जानता होगा या नहीं भी जानता होगा?
✦" यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" -जैसा शरीर है , वैसा ही ब्रह्मांड है ! चरक संहिता का यह श्लोकांश हमें समझाता है कि जो-जो इस ब्रह्माण्ड में है वही सब हमारे शरीर में भी है। स्वामी विवेकानन्दजी भी कहते हैं कि हममें से हर एक मनुष्य मानो क्षुद्र ब्रह्मांड है । और सम्पूर्ण जगत् विश्व ब्रह्माण्ड ( बड़ा ब्रह्माण्ड ) है । जो कुछ व्यष्टि में हो रहा है , वही समष्टि में भी होता है- ' यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ।' ( विवेकानन्द साहित्य , पंचम खंड ) | As the body, so is the Universe ! You are a Universe within the Universe. As with the self so with the universe. Whats going on within you is same as whats going on in the Universe.
यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं। इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ विद्यमान हैं- आकाश की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है। पृथ्वी में हर स्थान पर गंध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गंध को सूंघता है और आनन्दित होता है।
वेदान्त का विवर्तवाद >>*संक्षिप्त विवरण* सब कुछ सृष्टि के मूल कारण परमात्मा है उसके बिना कुछ भी अस्तित्व में नहीं होता वह सब तत्त्व के मूल भूत शक्ति है। उसके इच्छा बिना कुछ भी पैदा नहीं होता। "
स्वतो वा परतो वापि न कञ्चिद् वस्तु जायते।
सदसत् सदसद्वापि न किञ्चिद् वस्तु जायते।।"
(गौड़ भगवत पाद कृत माण्डूक्य कारिका 4/22)
[अन्वयः-- किंचित् वस्तु स्वतः वा परतः वा अपि न जायते; सत्, असत् , सदसत् वा अपि किंचित् वस्तु न जायते । ]
अर्थात अगर कुछ पैदा हुआ है तो ये न तो एक अस्तित्व और न ही अनस्तित्व और न ही इन दोनों प्रकृतिओं में से कुछ पैदा हुआ है।
(22. Nothing, whatsoever, is born either of itself or of another. Nothing is ever produced whether it be being or non-being or both being and non-being.)
इसमें गौड़ भगवत पाद जी कथन जिस प्रकार मूल कारण बिना प्रभाव संभव नहीं है उसि प्रकार भगवान के बिना सृष्टि संभव नहीं होता। इसलिए उत्पादन और निमित्त कारण दोनों होता है।
>>इसी तत्व की व्याख्या करते हुए उपनिषदों में कहा गया है - " सदैव सौम्य इदमग्र आसीत् एकमेव अद्वितीयम् । - छान्दोग्योपनिषद् ६-२-१/न शून्यात् इदं जगत् उत्पन्नम् । किं तु सतः जातमिदं विश्वम् । ‘सत्’ नाम ‘अस्तिता” इत्यर्थः । सत एव नामान्तरं “ब्रह्म” । ब्रह्मैव अग्रे आसीत् । ब्रह्म च एकमेव अद्वितीयम् । >>असद् वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। तैत्तिरीयोपनिषद्/ ब्रह्मानन्दवल्ली (7. 1) तदात्मानं स्वयमकुरुत। तस्मात् तत्सुकृतमुच्यत इति। यद्वै तत्सुकृतम्। रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति। को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात्। यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।एष ह्येवानन्द याति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते। अथ सोऽभयं गतो भवति।यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति। तत्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य। तदप्येष श्लोको भवति॥
[अन्वय : अग्रे असत् वै इदम् आसीत् ततः वै सत् अजायत। तत् आत्मानं स्वयम् अकुरुत। तस्मात् तत् सुकृतम् उच्यते इति यत् वै तत् सुकृतम्। सः वै रसः। अयं रसं हि लब्ध्वा आनन्दी। भवति। कः हि एव अन्यात् कः प्राण्यात् यत् एषः आनन्दः आकाशे न स्यात् एषः हि एव आनन्दायाति। एषः यदा हि एव अदृश्ये अनात्म्ये अनिरुक्ते अनिलयने अभयं प्रतिष्ठां विन्दते अथ सः अभयं गतः भवति। यदा हि एव एषः एतस्मिन् उदरम् अन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति तत् तु एव अमन्वानस्य विदुष्सः भयम्। तत् अपि एषः श्लोकः भवति।]
व्याख्या : आरम्भ में यह सम्पूर्ण विश्व 'असत्' (अस्तित्वहीन) एवं 'अव्यक्त' था, इसी में से इस 'व्यक्त सत्ता' का प्रादुर्भाव हुआ। उसने अपना सृजन 'स्वयं' ही किया; अन्य किसी ने उसको नहीं सृजा। इसी कारण इसके सम्बन्ध में कहा जाता है यह 'सुकृत' अर्थात् बहुत सुचारु एवं सुन्दर रूप से रचा गया है। और यह जो बहुत अच्छी तरह तथा सुन्दरता से रचा गया है यह वस्तुतः अन्य कुछ नहीं, इस अस्तित्व के पीछे छिपा हुआ आनन्द, रस ही है। जब प्राणी इस आनन्द को, इस रस को प्राप्त कर लेता है तो वह स्वयं आनन्दमय बन जाता है; कारण, यदि उसकी सत्ता के हृदयाकाश में यह आनन्द न हो तो कौन है जो प्राणों को अन्दर ले पाने का श्रम कर पायेगा अथवा किसके पास प्राणों को बाहर छोड़ने की शक्ति होगी? 'यही' है जो आनन्द का स्रोत है; क्योंकि जब कभी यह जीवात्मा (हमारी 'अन्तरात्मा') उस 'अदृश्य', 'अशरीरी' (अनात्म्य), 'अनिरुक्त' (अनिर्वाच्य) एवं 'अनिलयन' (निराधार-दूसरे का आश्रय न लेने वाले परमात्मा, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव या ) 'ब्रह्म' में आश्रय ग्रहण करके-'उसमें ' दृढ़ रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है, तब वह 'भय' की पकड़ से बाहर हो जाता है (निर्भयीपद को प्राप्त हो जाता है)। किन्तु जब हमारी 'अन्तरात्मा' स्वयं के लिए 'ब्रह्म ' में स्वल्पमात्र भी भेद करती है, तो वह भयभीत होता है; जो विद्वान् मननशील नहीं है, उसके लिए स्वयं 'ब्रह्म' ही एक भय बन जाता है। जिसके विषय में 'श्रुति' का यह वचन है।
अंगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः' । अणु होने की अवस्था में शरीर में आत्मा का स्थान कौन सा माना जाय ? तो 'सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः' कह कर कठोपनिषद् ने हृदय को ही उसका स्थान माना है। भारतीय विचार धारा के अनुसार हृदय ही आत्मा का स्थान है। हृदय शब्द की निरुक्ति है 'हृदि अयम् हृदयम्' ! सत्रहवीं शताब्दी में प्रसिद्ध फ्रेंच दार्शनिक 'डेकार्ट' [ १५९६ से १६५० ] ने हृदय के स्थान पर मस्तिष्क में स्थित 'पीनियल' नामक ग्रन्थि को ज्ञान अथवा आत्मा का केन्द्र माना है। आत्मा के साथ 'ईश्वर' (परमात्मा) का विवेचन दर्शनों का मुख्य विषय होना चाहिए था। परन्तु प्रायः प्रमाणों के प्रपञ्च में फंस कर दर्शनों ने मुख्य प्रमेय परमात्मा के निरूपण में बहुत उदासीनता से काम लिया है।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत् त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
[हिरण्मयेन पात्रेण = स्वर्णमय पात्र से, सत्यस्य =सत्य का, मुखम् = मुख, अपिहितम् = ढका हुआ है,तत् = उसे, त्वं = आप, पूषन = हे पूषन ( सूर्य ), अपावृणु = अनावृत करें (हटा दें), सत्यधर्माय =सत्य के साधक को, दृष्टये = देखने के लिए। ]
सत्य का मुख चमकीले सुनहरे ढक्कन से ढका है; हे पूषन् (पोषक) सूर्यदेव! आप मुझ सत्य- साधक के साक्षात् दर्शन के लिए तू वह ढक्कन (नाम-रूप का मिथ्या अहं) अवश्य हटा दे। (ईशोपनिषद् श्लोक-15)
पदविभाग- हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्य अपिहितं मुखम् तत्त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।
अन्वय- हे (पूषन्), हे सूर्यान्तर्यामिन् परमेश्वर , हे सब आश्रितों का भरण-पोषण करने वाले नारायण,(हिरण्मयेन) ज्योतिर्मय पात्र से (पात्रेण -परमात्माविषयक वृत्ति प्रतिरोधक ढक्कन से, या आपकी दैवी शक्ति माया - आवरण और विक्षेप रूपी सुनहरे ढक्कन या नाम-रूप से) (सत्यस्य) सत्यस्वरूप आप सर्वेश्वर का ( मुखम् ) श्रीमुखारविन्द ( अपिहितम् ) ढका हुआ है (सत्यधर्माय) सत्य परब्रह्म के उपासक मेरे लिये (दृष्टये) अपना दर्शन कराने के निमित्त ( त्वम् ) तुम (तत्) उस श्रीमुख को (अपावृणु) आवरण रहित पर दो ॥५॥
विशेषार्थ- हे सब आश्रितों के भरण-पोषण करने वाले परब्रह्म नारायण यहाँ ‘पूषन्’ पद नारायण वाचक है । ज्योतिर्मय सूर्यमण्डलरूप पात्र से सत्य-स्वरूप परब्रह्म नारायण (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण !) का मुखारविन्द ढका हुआ है।
[राजपथ को कर्तव्यपथ में बदलने वाले श्रमिक 26 जनवरी को ये श्रमिक सपरिवार P.M. के अतिथि होंगे। राजपथ का निर्माण करने वाले श्रमिक गुलाम थे और 8 सितम्बर 2022 कर्तव्यपथ का निर्माण करने वाले श्रमिकों स्वतंत्र भारत की सेवा में लगे थे , इसी सोंच में अन्तर रहने के कारण कर्मों के भेद होते हैं। " क्या मैं 12 जनवरी 1985 से अपनी इच्छा से लोगों को फ्री में जागरूक कर रहा हूँ ? या स्वामी विवेकान्द की इच्छा, श्री श्री माँ सारदा देवी की कृपा और माँ काली के अवतार भगवान श्री रामकृष्ण के आशीर्वाद से ? अपने जीवन में मुझे हर क्षण जो श्री माँ की कृपा की अनुभूति हो रही है -इसीलिये मैं निरन्तर महामण्डल आन्दोलन से अपने जुड़ा होने का आनन्द ले रहा हूँ ! ]
Differences of Karma - "Am I making people aware of my own free will since 12th January 1985? Or Swami Vivekananda's wish, by the grace of Sri Sri Maa Sarada Devi and with the blessings of Lord Sri Ramakrishna, an incarnation of Maa Kali? Every moment in my life, I am feeling the grace of Shri Mother - that is why I am constantly enjoying my association with the Mahamandal movement! ]
Since his youth, Netaji Subhas Chandra Bose had only one goal - to overthrow the British domination in India. He joined politics, became the president of the Indian National Congress, and later resigned from that arena due to ideological differences with Mahatma Gandhi. He escaped from the clutches of the British government and went to Afghanistan, the Soviet Union, Germany, and Japan, asking for help in his mission. On December 30, 1943, Netaji hoisted the Indian flag at the Gymkhana Ground (now named Netaji stadium) at Port Blair, Andaman. He also announced the Islands, the first Indian Territory freed from the British rule. The Andaman and Nicobar Islands were renamed 'Shaheed' and 'Swaraj', meaning 'Martyr' and 'Self-rule' respectively. Azad Hind Government was not merely a Government in Exile anymore but had its own land, own currency, civil code and stamps. By hoisting the 'Azad Hind' flag, Bose, the first P.M. of 'Akhand Bharat ' also fulfilled his promise that INA would stand on the Indian soil by the end of 1943.
[नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अखण्ड भारत (आजाद हिन्द) के जिस भूभाग पर 1943 के अन्त में तिरंगा फहराया था उस जगह का नाम क्या है ? अपनी युवावस्था से ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन का एक ही लक्ष्य था - भारत में ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकना। इसी उद्देश्य से वे राजनीति के साथ से जुड़ गए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने, और बाद में महात्मा गांधी के साथ वैचारिक मतभेदों के कारण उन्होंने राजीनीति के क्षेत्र से इस्तीफा दे दिया। वे ब्रिटिश सरकार के चंगुल से भाग निकले और अपने मिशन में सहायता मांगने के लिए अफगानिस्तान, सोवियत संघ, जर्मनी और जापान चले गए । 30 दिसंबर, 1943 को, नेताजी ने अंडमान के पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना ग्राउंड (जिसे अब नेताजी स्टेडियम कहा जाता है) में भारतीय तिरंगा फहराया। उन्होंने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का नाम बदलकर क्रमशः 'शहीद' और 'स्वराज' रखा गया, जिसका अर्थ है 'बलिदानी' और 'स्व-शासन'। आजाद हिंद सरकार अब केवल निर्वासित सरकार नहीं थी, बल्कि उसकी अपनी जमीन, अपनी मुद्रा, नागरिक संहिता और डाक टिकट भी थीं। इस प्रकार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ही उस समय के 'गैर तकसीम आजाद हिन्द' या अखण्ड भारत (Undivided India) के प्रथम प्रधान (P. M.) थे जिन्हों ने अपना वादा भी पूरा किया कि आईएनए 1943 के अंत तक स्वतन्त्र भारतीय धरती पर खड़ी होगी।
कैलाश वाजपेयी (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) : "नियम यह है विधाता का सभी आकर चले जाते हैं । मगर कुछ लोग ऐसे हैं, जो जाकर भी नहीं जाते हैं।। न सब धनवान होते हैं, न सब भगवान होते हैं। दयालु, लोकप्रिय, सतपालक भले इनसान होते हैं।। कैलाश वाजपेयी दूरदर्शन की हिंदी सलाहकार समिति के सदस्य थे। स्वामी विवेकानंद के जीवन पर आधारित नाटक 'युवा संन्यासी' उनका प्रसिद्ध नाटक है। उन्होंने दिल्ली दूरदर्शन के लिए कबीर, सूरदास, जे कृष्णमूर्ति, रामकृष्ण परमहंस के जीवन पर फिल्में भी बनाई थीं। भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस पर वृत्तचित्र बनाने के लिए दक्षिणेश्वर गए, तो उनका जीवन चरित ~
श्री रामकृष्ण का जीवन और उपदेश [लीलाप्रसंग और वचनामृत] पढ़ते समय अक्सर उनके मुहुर्मुहः समाधि होने के अनुभवों के प्रति उत्सुकता पनपती है । हमलोगों को 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, पर यह 'समाधि' क्या है......? स्वामीजी को भी इसे जानने की उत्सुकता हुई जब उन्होंने जनरल असेंबली इंस्टिट्यूट [the Scottish Church College was established in 1830 as the General Assembly's Institution and given its present name in 1929.] मैं प्रोफेसर हेस्टी से विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता “ The Excursion ” (अभियान, पर्यटन-was first published in 1814) की व्याख्या कॉलेज में प्रोफेसर विलियम हेस्टी के मुख से सुना की ' गुलाब के फूल को देख कर कवि “trance” में चला गया । वह इस शब्द की व्याख्या करते हुए बोले की, अगर इस शब्द का वास्तविक अर्थ समझना है, यदि तुम समाधि देखना चाहते हो तो दक्षिणेश्वर मन्दिर में माँ काली के पुजारी श्रीरामकृष्ण से मिलो उन्हें बार -बार समाधि होती है। जानने की उत्सुकता रहती। हम सभी लोगों को मन की तीन अवस्थाओं का पता है , हमें 'नींद' पता है, 'जागृति' पता है, सुषुप्ति अवस्था भी जानते हैं , पर यह 'समाधि' क्या है......? .
[https://prarang.in/jaunpur/posts/7089/Ramakrishna-Paramahansa-Explanation-of-Bliss-or-True-Supreme-Bliss-from-Samadhi-Experience
>>>आवश्यकता से अधिक पूँजी जमा करने की मानसिकता ने मनुष्य को लोभी बना दिया है । वह ईश्वरीय सत्ता को भी ठेंगा दिखा कर हिंसक रास्तों पर चल पड़ी । हिटलर के पोलैण्ड पर आक्रमण और उसके विरुद्ध रूस, अमरीका, जापान और ब्रिटेन के एकजुट होने तथा हिरोशिमा नागासाकी के जल कर राख होने के पीछे यही पूँजी के सर्वभक्षी तंत्र हैं। औद्योगिक क्रांति व विज्ञान की खोजों ने गर्भनिरोधक गोलियों के आविष्कार के साथ मनुष्य की मर्यादाओं एवं मूल्य को निरस्त कर दिया। वे कहते हैं इससे पाप निर्भीक हो गया। पेट्रो-डॉलर शक्तियाँ विश्व को अनुकूलित करने लगीं। यह शक्ति और ऊर्जा का नया खेल था। पैसे की ताकत ने विलासिता के नए नए द्वार खोले। विज्ञापनों का अनैतिक दौर शुरु हुआ। चीजों की गुणवत्ता की बजाय विज्ञापन की आकर्षक पटकथा केंद्र में आ गयी। उपभोक्तावाद और विज्ञापन कला की जुगलबंदी ने सब कुछ पण्य बना दिया। वे कहते हैं, औद्योगिक युग में आदमी के सभी आयाम गायब हो जाते हैं और अंत में एक ही आयाम शेष रह जाता है, यह आयाम है आज के आदमी में मशीन के प्रति पाया जाने वाला मनोनिवेश।
कैलाश वाजपेयी कहते हैं कि विकास की औद्योगिक सभ्यता उजाड़ की अपसभ्यता है। विकास के खाऊ-उजाड़ू सभ्यता (gluttonous civilization) के संदर्भ में हो रहे पर्यावरण के विनाश को देखें। औद्योगिक सभ्यता (Industrial Civilization) और पूँजीवादी मानसिकता ने आदमी को उत्तरोत्तर ठस (बेशर्म)-लोभी बनाने का काम किया है। अध्यात्म, ध्यान अथवा प्रार्थना पद्धतियाँ भी कमोडिटी या चीजों की तरह बिकने लगी हैं। उत्तर आधुनिकता की ही परिणित है कि संसाधनों की पवित्रता के बजाय किसी भी तरीके से पाई गयी उपलब्धियाँ ही प्रमुख होती गयीं। यह मनुष्य की चेतना को अनूकूलित करने और संवेदना को भोथरा बना देने के दुष्परिणाम के रूप में सामने आया।
एक संसार हमें मिला है, स्वयंभू सृष्ट , इसी के समानांतर एक और दुनिया है जो आदमी ने बनाई है। मनुष्य ने अपनी इच्छाशक्ति के बल पर अपनी कल्पना को साकार किया। उसने ही औद्योगिक सभ्यता को जन्म दिया है। इसने जहाँ एक ओर हमें प्रगति व उन्नति के पथ में अग्रसर किया है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण का सबसे बड़ा नुकसान किया है।
इस औद्योगिक सभ्यता ने प्रकृति की जीवन शैली को आघात पहुँचाया है। इस आघात से उत्पन्न घाव से उभरने के लिए मनुष्य को शायद ही प्रकृति के द्वारा समय दिया जाए। प्रकृति के बिना पृथ्वी में रहने की कल्पना करना ही पूरे शरीर में सिहरन भर देता है। प्रकृति भगवान द्वारा दी गई बहुमूल्य भेंट है। प्रकृति, मनुष्य को सदैव देती रही है और हम याचक की तरह उसके समक्ष भिक्षा का पात्र लेकर खड़े रहे हैं। परन्तु आज स्थिति दूसरी बन गई है। वनों के कटाव से भूमि के कटाव की समस्या और रेगिस्तान के प्रसार की समस्या सामने आई है। हरे-भरे वनों के अत्यधिक कटाव ने जंगली जानवरों के अस्तित्व को संकट में डाला है। रसायनों के अत्यधिक प्रयोग ने मिट्टी संबंधी प्रदूषण को बढ़ाया है। इससे इसकी उर्वरता पर प्रभाव पड़ा है। इन सभी समस्याओं पर यदि अभी ध्यान नहीं दिया गया, तो आगे चलकर ये सभी समस्याऐं विकरालता की हद को भी पार कर जाएँगी।
आज पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण के कारण नित नई बीमारियाँ अपना मुँह फाड़े मनुष्य को काल का ग्रास बनाने के लिए तैयार हैं। एक बीमारी से हम निजात पाते नहीं कि नई बीमारी आ खड़ी होती। विद्युत् ऊर्जा के उत्पादन के लिए अचल संपदा का स्थायी क्षय हुआ है। हमने प्रकृति माता का इतना दोहन कर लिया है कि इसने अपना मैत्री भाव छोड़कर विकरालता (माँ सारदा ने माँ काली रूप) को धारण कर लिया है। बढ़ते प्रकृति दोहन से जलीय, थलीय एवं वायुमंडलीय प्रदूषण बढ़ गया है। परन्तु भूमि प्रदूषण की अधिकता देखते ही बनती है। औद्योगिक कचरे के फैलाव के कारण अनेक समस्याओं व बीमारियों को आमंत्रण मिला है। जगह-जगह मानव निर्मित कचरे के ढेर दिखाई देते हैं, जिससे मनुष्य व अन्य प्रकार के प्राणियों के लिए अधिक खतरा मंडरा रहा है। कोबिड -19 वैश्विक महामारी के बाद भारत -पाकिस्तान में उत्पन्न विनाशकारी बाढ़, भूस्खलन आदि घटनाओं पर विचार कीजिये।
वे कहते हैं, पूर्व हो या पश्चिम, दुःख लगातार बढ रहा है। ऐसे में उन्हें विवेकांनद जैसे संत योगी एवं महामानव कहीं अधिक विश्वसनीय लगते हैं। वे उन्हें खींचते रहे हैं। उनके विचारों की श्रृंखला की कड़ियाँ तब खुलती हैं जब वे विवेकानंद सरीखे संत योगी के जीवन क्रम को अपने नाटक युवा संन्यासी में दुहराते हैं। पर क्या केवल दुहराते हैं या उनके समानांतर एक वैचारिक यात्रा करते हैं। "देखत तुमहिं तुमहिं होइ जाई" वाले भाव से। कन्याकुमारी में समुद्रतट पर स्वामी विवेकानंद के ये विचार उनके अपने विचार-से लगते हैं जिसमें वे कहते हैं - " यह मेरा देश है, सदियों से गुलाम, भूख, महामारी और तरह तरह की रुढियोंसे ग्रस्त। एक ओर अधिकार मद वाले लोग हैं, दूसरी ओर लाखों अभावग्रस्त लोग। एक ओर मेरे देश के लोग 'वसुधैव कुटुम्बकम् ' का नारा लगाते हैं दूसरी ओर अपने भाई की चिता पर खिचड़ी पकाते हैं। जो शिक्षित हैं, वे पाश्चात्य प्रभाव में आकर स्वेच्छाचारी बन गए हैं । वे शरीर से तो रहते इसी भूमि पर हैं, अन्न यहाँ की मिट्टी का खाते हैं, मगर मन से कहीं किसी विदेशी उद्यान में हवा खाते हैं, क्या यह हमारा भारत देश सचमुच अवतारी पुरुषों की लीलाभूमि है ! ओ माँ । मुझे शक्ति दे कि मैं शरीर रहते कुछ कर पाऊँ, इस सोये देश की निद्रा तोड़ पाऊँ! (युवा संन्यासी, पृष्ठ, 67) विवेकानंद के भीतर से उभरे इस चिंतन से कहीं न कहीं कैलाश वाजपेयी का भी अपनापा रहा है।
उनके भीतर के चिंतक और दार्शनिक ने विचारों की ऐसी ही साधु संगत से दीक्षा पाई थी। उत्तरोत्तर औद्योगिक क्रांति और पूँजीवादी मानसिकता के चलते दुनिया बाह्य प्रदूषण के साथ-साथ मानवीय रूप से कहीं अधिक प्रदूषित होती गयी है । वे पृथ्वी सम्मेलन में पृथ्वी को प्रदूषित करने वाली महाशक्तियों के चिंता प्रदर्शित करने को लेकर चिंता करते हैं।
मानव -विकास यात्रा में `औद्योगिक सभ्यता ' का युग व्यभिचार (debauchery- भ्रष्टाचार और लाम्पट्य) की असभ्यता (barbarism)का युग है। कैलाशजी ने लिखा है कि धन्वंतरि ने तो वृक्षों का एक शास्त्र ही रच डाला था। एक पत्ता तोड़ने के लिए भी नियम होता था, कोई पत्ता या फल तोड़ने के बाद पौधे से क्षमा माँगनी होती थी। पर आज क्या हो गया है। किन्तु हरीतिमा को लगातार नष्ट करने वाले उपकरणों के सृजन के बाद जंगल के जंगल उजाडे जा रहे हैं। पशु पक्षियों के आश्रय स्थल नष्ट किए जा रहे हैं। शहरीकरण पृथ्वी की सुंदरता को नष्ट कर रही है। तमाम वनस्पतियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं जैसे अनेक पशु प्रजातियाँ। उन्होंने यहीं उपनिषदों के कवि को याद किया है जिसने कहा था, जो व्यक्ति वृक्ष काटता है, नदी का जल दूषित करता है, वह आत्महत्या करता है।यह देखकर आश्चर्य होता है कि इन दिनों पश्चिमी देश पहले प्रकृति को नष्ट करते हैं फिर उसे बचाने की मुहीम चलाते हैं। यह देखकर भी हैरत होती है कि भारत में उत्तरोत्तर माँसाहारियों की संख्या बढ रही है। मनुष्य जीव और वनस्पतियों दोनों को मारे डाल रहा है बिना इस बात की परवाह किए कि वन और वृक्ष ही उसके लिए प्राणवायु बनाते हैं। इसीलिए एक कविता में उन्होंने " तरु देवो भव " का आहवान किया और धरती माँ से प्रार्थना की है कि मैं गिरता- पड़ता आदमी पस्त हो चुका हूँ/ जन जीवन की कडवाहट झेलते/ ओ धरती माँ/ मुझे वृक्ष बनाना अगली बार/ जैसे ही बंद बंद-सी आँख बंद हो। तुम अगर परिवर्तन के पक्षधर हो/ मिट्टी से शुरू करना/ जो बाँझ हो रही है/ वृक्षों से शुरु करना जिनका वध हो रहा है बेरहमी से/ वायु से शुरु करना जिसका दम घुटा जा रहा है/ नदियों से शुरु करना जिनका यौवन रोज लुट रहा।
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुमती वायं वदतु शान्तिवाम्।।
पुत्र पिता के अनुकूल काम करे और माता के साथ समान मन वाला हो, पत्नी पति से मीठी और सुख देने वाली वाणी बोले।
कार्ल मार्क्स को ईस्ट इंडिया कंपनी की करतूतों की सम्यक जानकारी थी कि कैसे कोई देश किसी दूरस्थ देश को व्यापारी का मुखौटा पहनकर गुलाम बनाता है और फिर इन गुलामों को मारीशस, ट्रिनीडाड, फिजी, सूरीनाम और ब्रिटिश गयाना में ले जाकर बेच देता है। फांस, हालैंड, इंग्लैंड और स्पेन ने किस तरह अपने उपनिवेशों को लूटा और किस तरह ईश्वरपुत्र का विशेषण देकर ईसा से बाइबिल में अंग्रेजी बुलवाई जो कि ईसा की भाषा ही नहीं थी। और इस तरह गुलाम देशों में ईसाइयत का प्रचार किया, मार्क्स के ये सारे आदर्श कम्युनिस्ट पार्टी के भँवरजाल में डूब गए।मार्क्स ने शायद यह कल्पना नहीं की होगी कि पार्टी का सदस्य बनकर तमाम औसत लोग भयंकर रूप से स्वार्थी अथवा खुदगर्ज हो जाएँगे। मार्क्स ने यह कभी सोचा ही नहीं होगा कि उसके चिंतन के कई अंशों को पूँजीवादी अर्थ प्रणाली अपने में समोकर और अधिक समृद्ध होती चली जाएगी। संक्षेप में कहें तो मार्क्सवाद का शिकार कार्लमार्क्स माक्र्सवादियों के कारनामों की परिणतियों का एक जायजा है। कितनी चिंता से भर कर वे कहते हैं, हर आदर्शवादी के साथ जो होता है, वही मार्क्स के साथ भी हुआ।
>> महामण्डल के आविर्भूत होने का उद्देश्य कंस रूपी काल से और अज्ञान से छुटकारा है। स्वामी विवेकानन्द का प्रसिद्द कथन है-‘‘उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने मानव जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं, जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’ अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े 'मोची ' की दुकान से, भड़भूंजे के भाड़ से, कारखाने से, हाट से, बाजार से; निकल पडे झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।’’ और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिला, उसमें विवेकानंद के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
" वेद अर्थात यथार्थ धर्म और ब्राह्मणत्व अर्थात धर्मशिक्षकत्व की रक्षा के लिये भगवान बारम्बार शरीर धारण करते हैं - यह तथ्य स्मृति आदि में प्रसिद्द है। हम प्रभु के दास हैं,प्रभु के पुत्र हैं, प्रभु की लीला के सहायक हैं, इस विश्वास को अपने हृदय में धारण कर कार्यक्षेत्र में उतर जाओ। "
आचण्डालाप्रतिहतरयो यस्य प्रेमप्रवाहः
लोकातीतोऽप्यहह न जहौ लोककल्याणमार्गम् ।
त्रैलोक्येऽप्यप्रतिममहिमा जानकीप्राणबन्धो
भक्त्या ज्ञानं वृतवरवपुः सीतया यो हि रामः ॥ १॥
जिनके प्रेम का प्रवाह आचाण्डाल तक अबाध गति से व्याप्त है, जो लोकातीत होते हुए भी सदा लोकहित में रत हैं। जो श्रीजानकी जी के प्राणवल्ल्भ (प्राण के बंधन-स्वरुप) हैं। जिनकी त्रैलोक्य में कोई उपमा नहीं है। जो भक्ति द्वारा आवृत ज्ञानमय-वपु श्रीराम-अवतार हैं।
स्तब्धीकृत्य प्रलयकलितं वाहवोत्थं महांतम्
हित्वा रात्रिं प्रकृतिसहजामन्धतामिस्रमिश्राम्
गीतं शांतं मधुरमपि यः सिंहनादं जगर्ज
सोऽयं जातः प्रथितपुरुषो रामकृष्णस्त्विदानीम् ॥ २॥
कुरुक्षेत्र के प्रलयकारी हुंकार को स्तब्ध करते हुए स्वाभाविक महामोह-अन्धकार को दूर कर जिनके गीतारूप सुगम्भीर सिंहनाद का उदय हुआ था। वे ही उत्तम पुरुष श्रीकृष्ण इस समय 'श्रीरामकृष्ण' नाम से आविर्भूत हुए हैं।
"श्रीरामकृष्णदेव तो सर्वदा सभी परिस्थितियों में मेरे ही हैं -फिर चिंता किस बात की ? बाधा-विपत्तियों से मैं डरने ही क्यों लगा ? नारदभक्तिसूत्र में इस अहंकार को साधन के अन्तर्गत माना गया है; कहा गया है कि अत्यन्त सौभाग्य से मानव के अन्दर इसका उदय होता है। मनुष्य आदतों का गुलाम है -प्रवृत्तियों का (चरित्र का ?) दास है। कामिनी-कांचन का सुख तथा भगवद-आनन्द, इन दोनों की प्राप्ति कैसे हो सकती है, उसी की खोज में वह लगा रहता है। महामाया ने मानव को भेंड़ बना रखा है -सिंहशावक चाहे तो अपनी आदत को बदल कर ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकता है, किन्तु माया ने उसे हिप्नोटाइज्ड कर रखा है, वह ठाकुरदेव की शरण में आता ही नहीं !
स्वामी विवेकानंद भी अपने गुरु भाइयों को लिखित पत्र में युग परिवर्तन की बात करते हुए कहते हैं कि- 18 फरवरी 1836 में जब रामकृष्ण-अवतार का जन्म हुआ तो एक युग परिवर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई। एक स्वर्ण युग का प्रारंभ हो गया। हम भारत के गौरवशाली अतीत का जितना ही अध्ययन करेंगे । हमारा भविष्य उतना ही उज्जवल होगा । भारत अपने पुराने गौरव को प्राप्त करेगा ।और यह अवश्यंभावी है। देश का पुराना गौरव ,विज्ञान ,राज्य सत्ता अथवा धन ,बल से नहीं वरन आध्यात्मिकता के बल पर लौटेगा। तृतीय विश्व युद्ध [ रूस-यूक्रेन, चीन -ताईवान युद्ध और वैश्विक आतंकवाद] में भारत शांति स्थापक ‘गुरु' की भूमिका निभाएगा । सभी देश उसकी सहायता की आतुरता से प्रतीक्षा करेंगे भारत में एक महान नेता होगा जो दुनिया का मुखिया होगा और विश्व में शांति लाएगा। लोग अपने को बदलेंगे ,स्वभाव में अर्थात अपने चरित्र में परिवर्तन करने की पद्धति सीखकर - 'दस्यु ' या कु-चरित्रम् (Bad character)) से 'सत् चरित्रम् (Good Character) - 'मनुष्य ' बनने और बनाने (Be and Make) की नीति अपनाएंगे। गिरने और गिराने के स्थान पर, उठने और उठाने की नीति अपनाएंगे। और पतन के स्थान पर उत्थान का मार्ग गृहण करेंगे । यही नवयुग है। यही सत्ययुग है । जो अब निकट से निकटतम आता जा रहा है। “ भारत अगर मर जायेगा तो आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा” यह स्वामी विवेकानन्द का दृढ़ विश्वास था।
[महामण्डल ब्लॉग/ http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/12/2.html/ भावमुख में अवस्थित 'अटूट सहज' नेता श्री रामकृष्ण-2]
(हिरण्यगर्भ-ऋग्वेद मंडल 10 सूक्त 121)
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
" स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम । १।"
आदि में हिरण्यगर्भ परमात्मा ही सब कुछ सब देव और तत्वों के ईश्वर था। उन्होंने ही पृथिवी और अन्तरिक्ष को धारन किया हैं। उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
" य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देव:,
*यस्य छायामृतम् यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम । २ ।
ऐही जो परमात्मा आत्मा और सब पदार्थों का बल के प्रदायक हैं उसके आधीन में प्राणी और देवता सभी बसते हैं मृत्यु और अमरता जिसकी छाया प्रतिबिम्ब हैं। अर्थात सब को मृत्यु के बात अपने प्रकृति हिरण्यगर्भ में समा लेता हैरान और मोक्ष का प्रदायक हैं और अविनाशी हैं । उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
" यः प्राणतो निमिषतो महित्वै क इद्राजा जगतो बभूव।
*यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ३ ।
प्राणवान् और पलकधारियों का महिमा से अपनी ईश्वरी शक्ति प्रकट किया हैं। इस ईश्वर ह पृथिवी के राजा आर्थात पालन करने वाला हैं जो संपूर्ण धरती का स्वामी है जो द्विपद और चतुष्पद जीवों का भी ईश्वर हैं।। उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्रं रसय यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहू कस्मै देवाय हविषा विधेम । ४ ।*
हिमावत पर्वत को बनाने हेतु इसके महिमा को व्यक्त किया हैं नदियों सहित सागर भी हेतु जिसकी यश गाथा गुण गान करने योग्य हैं। उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
*५ येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळहा येन स्वः स्तभितं येन नाकः यो अंतरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ५।*
गतिमान अंतरिक्ष, जिसनें धरती अर्थात पृथ्वी के समान समस्त ग्रहों संधारित किया है आदित्य अर्थात सुर्य के समस्त और देवलोक अर्थात देवलोक के समान अन्य लोक और जो भीअन्य खगोल पिण्ड भी उसके बल से ही स्थित हैं। अंतरिक्ष में भी जल अर्थात आपस् तत्व का भी संरचना किया हैं।उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षेतां मनसा रेजमाने,
*यन्नाधि सूर उदतो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम । ६।*
सबकी संरक्षा में स्थित हुवे आकाश और पृथिवी इसके परम शब्दाकाश में ही स्थित हैं पर्यवेक्षकण करते उस भगवान को जिससे प्रकाश तत्व उत्सर्जित होकर सूरज और समस्त पिण्ड सुशोभित हुवा हैं।उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
*आपो ह यद् वृहतीर्विश्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम
ततो देवानाम् समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम । ७ ।*
इसि भगवान के द्वरा अग्नि अर्थात प्रकश तत्त्व प्रकट हुवा और कारण भूत हिरण्यगर्भ के भी प्राण स्वरूप था । इसि भगवान ने तब प्राणरूप बल से सब पदार्थ (रायि) तथा प्राण की रचना किया। उस समय जल में अर्थात इस हिरण्यगर्भ के प्रकृति के आपस् तत्व में सारा संसार ही निमग्न था ।उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
*८.यश्चिदापो महिना पर्यपश्यद् दक्षं दधाना जनयन्तीर्यज्ञम्*
*यो देवेष्वधि देवः एक आसीत कस्मै देवाय हविषा विधेम । ८ ।*
महा जलराशि अर्थात आपस् तत्व से समिभूत समस्त जगत को जिसने ध्रुवीय महिमा में बनाते हुवे पर्यक् (सब दिशो मे स्थित) होकर देखा हैं। इस प्रजापति कि रचानकरी यज्ञ में सब देवताओं के मध्य में सब को रचनाकारी इस परमात्मा ही अद्वितीय देव है। उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
" मा नो हिंसीज्जनिताः यः पृथिव्या यो वा दिव सत्यधर्मा जजान यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम । ९ ।*
इस भगवान ही आन्द रुपि हैं। जो अपस् तत्व को उत्सर्जित किया हैं वे हमें पीडित न करे हमें समस्त सृष्टि के निर्माता सत्यधर्मा वह जो अंतरिक्ष और स्वर्ग की धारण और पालन कर्ता हैं उस सुखद परमात्मा की उपासना करे हम हवि दे कर।
*१०प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव यत् कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु कस्मै देवाय हविषा विधेम । १० ।*
इस प्रजापति के राचनाकारि यज्ञ मेंआपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं हैं।वर्तमान, भूत, भविष्य और सभी उत्पन्न पदार्थों में व्याप्त हैं। जिस भगवान की कामना से हमें संपूर्ण फल मिलता हैं। उस देव को हवि दे कर उपासना करें।
*एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः आकाशाद्वायुः । वयोरग्निः अग्नेरापः अप्द्भयः पृथवी। तैत्तिरीयोपनिषत् २/१**ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिदेवः अधि विश्वे निषेदुःसमासते। ऋग्वेद १/१६४/३९*सब अविनाशि मन्त्र तथा स्त्रोत परमव्योम से व्याप्त हैं अर्थात शब्दगुणपमेत आकाश भी शब्दोपेमित प्रमाण हैं इस ॐ कार (अर्थात शब्दाकाशमयि अकाश तत्व )में ही सब देवताओं के शक्ति व्याप्त हैं।*ॐ मित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यान भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कारमेव ।**यच्चान्यत्त्रिकालातितं तदप्योङ्कार एव ॐ कारः* अविनाशि अक्षर ब्रह्म है अर्थात् शब्दाकाश में स्थित है एहि सब तत्त्व के स्रोत हैं ।इसके महिमा को लक्षित कराने वाला संपूर्ण विश्व हैं। भूत वर्तमान भविष्य आदि तीनों कालों वाला ये संसार ॐ कार ही हैं। अगर ईन तीनों कालों के परे जो भी तत्त्व है वो भी ॐ कार हैं ।इसलिए सबकुछ ॐ कार अर्थात शब्द रूप हैं इस जगत में अगर कोई भी तार है वो भी ॐ कार हैं ।तर्क प्रमाण *शब्दगुणकमाकशम् । तच्चैकं विभु नित्यञ्च* अर्थात् आकाश शब्द गुणों हे विभक्त हैं । वही शब्द ॐ हैं वहीं सर्व परि हैं वो सब स्रोत तथा सब मन्त्र मैं व्याप्त हैं।दिपिका -१) आकाशं लक्षयति शब्दगुणमिति – आकाश शब्द अर्थात तार रूपि आहत अनाहत नाद गुणो द्वार अंकित हैं। २) स च एकं च नित्यं विभु – वो एक समान हैं वो नित्य और सर्वात्र विभक्त हैं।
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परिश्रम ही सफलता की कुंजी है। ऐतरेय ब्राह्माण में कहा गया है कि जो पूरी शक्ति से परिश्रम नहीं करते, उन्हें लक्ष्मी (धन) नहीं मिलती। पुरुषार्थ विहीन मनुष्य का ऐश्वर्य भी सो जाता है । पुरुषार्थ के लिए सदैव तत्पर रहनेवाले पुरुषार्थी का ऐश्वर्य भी उसके सामने खड़ा रहता है । सोनेवाले पुरुष का ऐश्वर्य सोता रहता है और पुरुषार्थ करने वाले का ऐश्वर्य उस के साथ साथ चलता रहता है ।
ऐतरेय ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र और रोहित की कथा है, जिसमें में पांच श्लोकों का उल्लेख है, जिनके अंतिम चरण का अंत “चरैवेति”, “चरैवेति” से होता है । "ऐतरेय" का अर्थ है "ऋत्विज" अर्थात यज्ञ करानेवाला पुरोहित ^। मानव की उन्नति पुरुषार्थ पर ही आधारित है, यह सार्वकालिक सिद्धांत है। “ चरैवेति चरैवेति ” का अर्थ है, चलते रहो, चलते रहो, ज्ञान प्राप्त होगा या 'आगे बढ़ो, आगे बढ़ो'-क्योंकि अनुभव से ही सही ज्ञान प्राप्त होता है।
[पुरोहित ^ का अर्थ है “ स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ” में प्रशिक्षित "ऋत्विज"! अर्थात प्रवृत्ति मार्ग के सप्तर्षियों में एक ऋषि तुल्य युवा प्रशिक्षक 'C-IN-C' श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय, श्री प्रमोद रंजन दास ..... जैसा 100 % निःस्वार्थी एक पैगम्बर, नेता या जीवनमुक्त शिक्षक, जो 'Be and Make' परम्परा में "ऋत्विज" -निर्माण (आन्दोलन) या ज्ञान-यज्ञ का प्रचार-प्रसार करने के लिए कन्याकुमारी से कश्मीर तक सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा में 'चलता रहे,चलता रहे।']
रोहित ने अपने पिता राजा हरिश्चन्द्र के अस्वस्थ होने का समाचार लोगों के मुख से सुना । वह घर लौटने को उद्यत हुआ । वापसी के मार्ग में ब्राह्मण भेष धारण करके इंद्र देवता उससे मिले, जिन्होंने उसे घर जाने के बजाय पुनः “ पर्यटन-देशाटन करते रहो ” की सलाह दी । इस सुन्दर गीत में इन्द्र ने रोहित को सदा चलते रहने की प्रेरणा दी है । इन्द्र को यह शिक्षा किसी ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण से मिली थी ।[आधुनिक युग में मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक स्वामी विवेकानन्द को जैसे यह शिक्षा ~ " कन्याकुमारी से कश्मीर तक ही नहीं अमेरिका तक पर्यटन-देशाटन करते रहो की शिक्षा" एक ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण (भगवान श्री रामकृष्ण) से मिली थी ।] इस अभियान मंत्र का वास्तविक अभिप्राय आध्यात्मिक मनुष्य (100 % निःस्वार्थी ऋषि) बनना और बनाना है। और इस कार्य को पूर्ण करने के लिए 'चलते रहो--चलते रहो' पर्यटन-देशाटन करते रहो क्योंकि चलने का नाम ही जीवन है । इन्द्र रोहित से कहते हैं -
नानाश्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम ।
पापो नृषद्वरो जनः इन्द्र इच्चरतः सखा ।
चरैवैति चरैवैति ।।
(हे रोहित ! श्रान्ताय नाना श्रीः अस्ति इति शुश्रुम, नृषद्वरः जनः पापः, इन्द्रः इत् चरतः सखा, चर एव इति ।)
अर्थ –अर्थात् श्री,धन, कीर्ति, ऐश्वर्य, उन्नति आदि सर्वविध संपन्नता उसी पुरुष को प्राप्त होता है, जो थक जाने तक पुरुषार्थ करता रहता है । ‘नृषद्वर’ अर्थात् निकम्मा आलसी मनुष्य पापी है, और प्रयत्नशील मनुष्य ही पुण्यात्मा होता है । परमेश्वर प्रयत्नशील की ही सहायता करता है । अतः ब्राह्मण ग्रन्थ कहता है की हे मनुष्यो ! पुरुषार्थ करो । जब तक थक न जाओ, पुरुषार्थ करते रहो ।
वेद शास्त्रों में जीवन के चार पुरुषार्थ माने गए हैं। ये हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करने के लिए श्रम करना होता है। उन्हें पाने का वही एक रास्ता है। जो लोग कलियुग का बहाना करके बैठे रहते हैं, उन्हें सफलता कभी नहीं मिल सकती।
>>‘श्री’ से यहां मतलब केवल भौतिक संपदा से नहीं है बल्कि स्थान-स्थान पर विचरण करने से प्राप्त ज्ञान, भांति-भांति के लोगों से प्राप्य अनुभव, उनसे सीखे गए कर्म-संपादन का कौशल, आदि से है। इंद्र यहाँ रोहित को बताना चाहते हैं कि सम्मान उसी को मिलता है जो कर्मठ हो, अपने लिए संपदा स्वयं अर्जित करे, दूसरों पर आश्रित न हो । वह स्वयं को अकेला न समझे बल्कि दैव (ईश्वर) पर भरोसा करे । अथर्ववेद में कहा गया है- कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहित: । यानी यदि मेरे दाएं हाथ में पुरुषार्थ है तो सफलता मेरे बाएं हाथ का खेल है। जो कठिन परिश्रम करते हैं, ईश्वर उन्हीं का सच्चा साथी है।
इसीलिए कहा जाता है---"खाली मन शैतान का घर।" जागने व चलने का नाम जीवन है । जागृति ही गति है । निद्रा मृत्यु समान है । [उत्तिष्ठत-जाग्रत !] अर्थात आध्यात्मिक मनुष्य या ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के मार्ग पर (निर्विकल्प समाधि होने तक) बराबर आगे कदम बढाते रहो, तुम्हारे कानों में सदैव "चलते रहो चलते रहो" की ध्वनि गूँजनी चाहिए ।
आकाश की ओर देखो, सूर्य सदियों से चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा । इन्द्र तो चलते रहने वालों का ही मित्र (सखा) है----"इन्द्र इच्चरतः सखा" । विचरण में लगे जन, आगे बढ़ते रहने वाले सत्य -खोजी का इन्द्र यानी ईश्वर साथी होता है । आत्मा उनका ही वरण करती है, जो मार्ग में चल रहे हो, अर्थात् गतिशील हो, परिश्रम कर रहा हो । जो बलहीन है, कार्य नहीं करता, आलसी है, उसे यह आत्मा कदापि नहीं मिलती---"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" (मुण्डकोपनिषद्--३.२.५) आत्मदर्शन उसे ही होता है जो प्रमादी और आलसी नहीं है, मिथ्याचारी नहीं है---"न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात् " (मुण्डकोपनिषद्---३.२.४) अतः तुम चलते ही रहो (विचरण ही करते रहो, चर एव) ।
राजपुत्र रोहित ^ ने ब्राह्मण की बातों को मान लिया और वह घर लौटने का विचार त्यागकर पुनः देशाटन पर निकल गया । घूमते-फिरते तीसरा वर्ष बीतने को हुआ तो उसने वापस घर लौटने का मन बनाया । इस बार भी इन्द्र देव ब्राह्मण भेष में उसे मार्ग में दर्शन देते है । वे उसे पुनः “चरैवेति” का उपदेश देते हैं । वे कहते हैं –
आस्ते भग आसीनस्य उर्ध्वं तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चराति चरतो भगः।।
चरैवैति चरैवैति ।।
(आसीनस्य भग आस्ते, तिष्ठतः ऊर्ध्वः तिष्ठति, निपद्यमानस्य शेते, चरतः भगः चराति, चर एव इति ॥)
अर्थ – जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी रुका रहता है । जो उठ खड़ा होता है उसका सौभाग्य भी उसी प्रकार उठता है । जो पड़ा या लेटा रहता है उसका सौभाग्य भी सो जाता है । और जो विचरण में लगता है, आगे बढ़ता जाता है, उसका सौभाग्य भी आगे बढ़ता जाता है। चलने लगता है । इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो " तुम विचरण ही करते रहो (चर एव) ।
[तुम यदि अपने को राज पुत्र' (राजपूत) समझते हो तो क्या मैं `राजा ' अर्थात ब्राह्मण नहीं हूँ? अर्थात तुम यदि अपने को मन-व्यष्टि अहं [काचा आमि] समझते हो, तो क्या मैं राजा [पाका आमि - अर्थात माँ जगदम्बा के मातृहृदय का सर्वव्यापी विराट 'अहं' में रूपान्तरित तुम्हारा मार्गदर्शक नेता, जीवनमुक्त शिक्षक 'C-IN-C' (नवनी दा ) नहीं हूँ ? इसलिए वीर हो तो धीर बनो और कभी किसी से कटु शब्द न बोलो- सदैव तुम्हारे कानों में गूँजता रहे-"मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे।"-(यजुर्वेद 36/18 ) ]
परिश्रम दो प्रकार के (2H) होते हैं। जिसके बारे में आपको जान लेना चाहिए। पहला वह परिश्रम जिसमें हम अपनी शारीरिक अंगों का उपयोग करते हैं शारीरिक परिश्रम कहलाता है। शारीरिक परिश्रम आमतौर पर मजदूर वर्ग के लोग सबसे अधिक करते हैं। दूसरा होता है मानसिक परिश्रम, जिसमें हम अपनी मानसिक एवं बौद्धिक क्षमताओं का उपयोग करते हैं। मानसिक परिश्रम, शारीरिक परिश्रम की तुलना में ज्यादा मूल्यवान (valuable) होता है। किसी भी नई चीज के निर्माण में (जैसे मनुष्य निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी प्रशिक्षण शिविर के आयोजन में) शारीरिक और मानसिक परिश्रम दोनों करना पड़ता है। पहले मानसिक परिश्रम किया जाता है उसके बाद उसे वास्तविक रूप देने के लिए शारीरिक परिश्रम किया जाता है।
परिश्रम नहीं करेंगे तो जीवन पशु के समान हो जाएगा। एक पशु भी अपने भोजन के लिए परिश्रम करता है। यदि हम भी सिर्फ इतने के लिए (पेट भरने के लिये) ही परिश्रम करेंगे, तो फिर मनुष्य में और पशु में क्या अंतर रह जाएगा।
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(2.3)>>> Paramount is the grace of C-IN-C Nabani Da : {सर्वोपरि है C-IN-C Nabani Da की कृपा] : स्वामीजी के जन्मदिन पर बारह बजे तक एक बजे रात तक लाइव टेलीकास्ट देखना , भाषण सुनना और जन्मस्थान देखना, अच्छी-अच्छी बातें सुनना अच्छा है , पर फल क्या हो रहा है ? चरित्र-निर्माण कहा हो रहा है ? हमलोगों की जीवनयात्रा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मिडिया के माध्यम से आजकल जो चल रहा है उसमें कुछ अच्छा भी है, औसधि धीरे -धीरे काम करती है , किन्तु विष बुरा का असर जहर जैसा जल्दी होता है; जिससे युवाओं का चरित्र नष्ट हो रहा रहा है। मंत्री जेल में पकड़ाने पर ED से से कहता है दूध बेचकर और छत पर गार्डन में गोभी लगाकर, लॉटरी का टिकट से 170 लाख कमाया है। जी.के. क्या है ? आजकल पूजा सिंघल, पार्थो चटर्जी, अणुव्रत मण्डल -हरि अनंत, हरि कथा ....यहीं पर मनुष्य जीवन का उद्देश्य , चरित्र -निर्माण और जीवन-गठन (Individual life building) की शिक्षा तथा उसकी पद्धति सिखलाने वाले प्रेमस्वरूप मार्गदर्शक नेता, (जीवनमुक्त शिक्षक, नबियों, पैगम्बरों-ब्रह्मविदों) की आवश्यकता उत्पन्न हो जाती है।
भारत के युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द ने जिस मनुष्य निर्माण की शिक्षा देने के लिए कहा था, जिसकी चेष्टा महामण्डल में की जाती है ; वह है मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं -`शरीर, मन और ह्रदय' का विकास। (3H विकास के 5 अभ्यास) उन्होंने सीधा 'आत्मा' नहीं कहा है। आत्मा के विषय में उन्होंने अन्यत्र बहुत कुछ कहाँ है , यहाँ उसकी चर्चा करने का समय नहीं है , और इस पर चर्चा करना आवश्यक भी नहीं है । शरीर को पौष्टिक आहार और व्यायाम द्वारा निरोग रखकर कर्मठ रूप में विकसित किया जा सकता है। लेकिन मन को किस प्रकार अपने वश में लाया जाता है ? मन को कैसे एकाग्र किया जाता ? यह जानना आवश्यक है , क्यिंकि एकाग्र मन के द्वारा ही समस्त ज्ञान अर्जित होता है, स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है। और मन की सहायता से मनुष्य सबकुछ कर सकता है।
लेकिन यदि ह्रदय में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, पत्थल जैसा ह्रदय यदि द्रवित नहीं हुआ , हृदय का यदि विकास नहीं हुआ तब तो उसे 'मनुष्य' कहा ही नहीं जा सकता। पशु और मनुष्य में सबसे पार्थक्य यही है कि हमलोग किसी बाघ या पशु के ह्रदय-वत्ता की बात नहीं सुनी है, कोई बहुत हिंसक बाघ था जो बाद में बहुत बड़ा सन्त बन गया । किन्तु मनुष्य जितना ह्रदय वान होता है , उतना ही महान और बड़ा होता है। स्वामी जी को हमलोग महान क्यों कहते हैं ? उनको युवा आदर्श क्यों मानते हैं ? उनके जैसा विशाल ह्रदय, दूसरा कभी हुआ ही नहीं है, इसलिए उनको महान या बड़ा आदमी कहते हैं! मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने जन्म से ही उनकी कहानी सुनी है, और जैसे जैसे बाह्यजगत के इतिहास को जानने -समझने का अवसर मिला तो समझा उनके जैसा कोई व्यक्ति , कोई मनुष्य पूरे विश्व मानव के इतिहास में दूसरा कभी जन्मा ही नहीं है।
इसी बात पर उड़ीसा में कुछ लड़कों ने एक बार कहा कि बिल्कुल स्वामी जी जैसा एक अन्य व्यक्ति यहाँ हैं, बहुत दूर नहीं है पास में ही रहते हैं । किस प्रकार वे बिल्कुल स्वामी जी जैसे हैं ? उनका शस्त्रज्ञान अद्भुत है , ऐसा कोई शास्त्र नहीं जो उन्होंने नहीं पढ़ा है। दर्शन शास्त्र के तो महान विद्वान् हैं। अन्य शास्त्र फिजिक्स, केमिस्ट्री , मैथेमेटिक्स ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर वे तुरंत न बता दें। त्याग ? का तो कहना ही क्या है ? किसी दिन यदि उनको भोजन न दिया जाये , तो भोजन पाने की चेष्टा भी नहीं करते। अद्भुत त्यागी हैं। सभी कॉलेज के छात्र थे , मैंने पूछा कहाँ रहते हैं ? यहाँ से बहुत नजदीक के एक जंगल में रहते हैं, कोई कोई खाने को देता है तभी खाते हैं । मैंने कहा नहीं भाई वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं है , कह रहे थे चलकर स्वयं देख लीजिये। नहीं भाई जाने की जरूरत नहीं है। क्यों ? तुमलोगों की सब बात मान लेता हूँ कि वे भी स्वामी जी जैसे शास्त्रज्ञ हैं , किन्तु अभी भी वे जंगल में रहते हैं , इसलिए नहीं जाऊँगा ।[1st part.....]और स्वामीजी ने कहा था , अपना बाकी जीवन क्या मैं हिमालय की एक गुफ़ा में बैठकर मैं नहीं बिता सकता था ? किन्तु मैं क्या करूँ रे ? मनुष्य इतने दुःख में हैं , और मैं अपनी मुक्ति के लिए चेष्टा करूँगा ? मुक्ति में क्या रखा है ?
‘‘जीवन्मुक्ति-सुखप्राप्ति-हेतवे जन्म धारितम्।
आत्मना नित्यमुक्तेन न तु संसारकाम्यया॥
नित्यमुक्त आत्मा ने जीवनमुक्ति का सुख प्राप्त करने के लिए ही शरीर धारण किया है – संसार कामना के लिए नहीं। तीनों ऐषणाओं में आबद्ध होने के लिए नहीं। [हाँ, विवेकानंद ने अपने लिए मुक्ति से तब तक इन्कार किया है , जब तक कि ब्रह्मांड के सभी प्राणियों को वे उसके द्वार तक ले नहीं जाते। Ay, Vivekananda scorned Mukti for himself until he could LEAD all beings in the universe to its portals.]
'नित्यमुक्त की भावना' के विषय में उनकी जो भावना थी, १९०२ में जब बेलूरमठ में स्वामीजी ने अपने शरीर का त्याग किया उस दिन सुबह में किसी सेवक शिष्य को कहा था थोड़ा मुझे बाहर घुमा दोगे ? बहुत दिन से मनुष्य नहीं देखा हूँ। मनुष्य से उनका तात्पर्य था साधारण मनुष्य। मैंने किसी प्रत्यक्ष दर्शी के नाती से सुना है। थोड़ा मठ के बाहर उनको बाजार की तरफ ले जाया गया , 2-4 साधारण मनुष्य - जनता जनार्दन को देखकर वापस लौट आये। उसके बाद की घटना सब जानते हैं।
जब स्वामी जी चले गए तो उनके गुरु भाई बहुत दुःखी हो गए, और रात में उनके एक गुरुभाई ने उन्हें स्वप्न में देखा। वे कह रहे थे - " शशि, शशि ! क्या तुम समझते हो मैं मर गया हूँ ? विश्व मानव को प्रेरित करने के लिए पुराने वस्त्र की तरह मैंने अपना शरीर छोड़ दिया है रे!" नचिकेता के बाद उनके जैसा श्रेय-प्रेय विवेक या श्रेष्ठ-सुखद विवेक या (Excellent-Pleasant Discretion) का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता , उन्होंने कहा था -" हो सकता है कि किसी पुराने वस्त्र को त्याग देने के भाँति, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं श्रेष्ठ (excellent) समझूँ। लेकिन मैं काम करना नहीं छोड़ूँगा। मैं लोगों को तब तक प्रेरित करता रहूँगा, जब तक सारी दुनिया यह न जान ले कि वह परमात्मा के साथ एक है। " (खंड 10, सूक्तियाँ एवं सुभाषित-४४)"It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God."(Volume 5, Sayings and Utterances-44)
वे हिन्दू धर्म का प्रचार करने वाले हिन्दू संन्यासी नहीं थे। वे हिन्दू धर्म का प्रचार करने के लिए अमेरिका नहीं गए थे। कम्प्लीट वर्क्स में तीन जगह लिखा है -हिन्दू धर्म नाम का कोई धर्म नहीं है।
पर्सियन लोगों ने सिन्धु सभ्यता, दर्शन, संस्कृति के विषय में जब कुछ कहना चाहा तो, वे 'सिन्धु' नहीं बोल सकते थे सिन्धु उच्चारण उन्होंने हिन्दू कहकर किया। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख से निकलती है। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया।किंतु हमलोग पाकिस्तान के सिंध प्रांत में रहने वाले लोगों को आज भी सिन्धी या सिन्धु कहा जाता है। [ ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र (सात नदियों के क्षेत्र) में हुई थी, इसलिए ऋग्वेद में कई बार 'सप्त सिंधु' का उल्लेख मिलता है। ] क्योंकि पारसी लोग 'स' को 'ह' कहते थे। 'सप्त सिंधु' अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर 'हप्त हिंदू' में परिवर्तित हो गया। उनके पारसी धर्म ग्रन्थ जिन्दावेस्ता में वेदों में वर्णित 'सप्तसिन्धु' को 'हप्त हिन्दू' कहकर उल्लेख किया गया है। जैसे पूर्वी बंगाल के लोग भी शाला को हाला कहते हैं। ऐसा होता है। हिन्दू शब्द किसी शास्त्र में नहीं है। वेदों-उपनिषदों में नहीं है, रामायण या महाभारत में कहीं नहीं है। भारत का जो धर्म है उसको सनातन धर्म कहते हैं। सनातन अर्थात जो शाश्वत है -उसको किसी व्यक्ति ने जन्म नहीं दिया। कोई मनुष्य उस धर्म का संस्थापक नहीं है। जिस धर्म की स्थापना कोई व्यक्ति करता है , उसको धर्म नहीं मत या सम्प्रदाय कहते हैं। भागवत में सुंदर ढंग से कहा गया है - श्रीमद्भागवत में है - युधिष्ठिर नारद से पूछते हैं -हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, आप कृपा करके बताइये कि सनातन धर्म क्या है ?
नत्वा भगवतेऽजाय लोकानां धर्मसेतवे ।
वक्ष्ये सनातनं धर्मं नारायण-मुखात्—श्रुतम् ॥ ७/११/५ ॥
[शब्दार्थ -श्री-नारद: उवाच—श्री नारद मुनि ने कहा; नत्वा—नमस्कार करके; भगवते—भगवान् को; अजाय—अजन्मा, सदैव विद्यमान, सनातन साक्षी (भगवान श्रीरामकृष्ण को) ; लोकानाम्—सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भर के; धर्म-सेतवे—वर्ण और आश्रम के अनुरूप वृत्तिपरक कर्तव्यों (धार्मिक सिद्धान्तों) का रक्षक; वक्ष्ये—मैं बतलाऊँगा; सनातनम्—नित्य; धर्मम्—वृत्तिपरक कर्तव्य (धर्म) ; नारायण-मुखात्—श्रुतम् -जिसे मैंने नारायण के मुँह से सुन रखा है।]
तात्पर्य- यहाँ 'अज' शब्द श्रीरामकृष्ण का का सूचक है जिन्होंने अपने कृष्णावतार में भगवद्गीता (४.६) में बतलाया है—अजः अपि सन् अव्ययात्मा -"मैं सदैव विद्यमान रहता हूँ और इस प्रकार मैं कभी जन्म नहीं लेता। मेरे अस्तित्व में कोई परिवर्तन नहीं आता।"— यद्यपि मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप हूँ तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी (तथापि) अपनी प्रकृति को अपने अधीन रखकर (अधिष्ठाय) मैं अपनी माया से जन्म लेता हूँ। परमेश्वर अपनी निर्बाध स्वतन्त्रता और पूर्ण स्वेच्छा से एक विशिष्ट देह को धारण करके जगत् में उस काल की मोहित पीढ़ी Hypnotized generation, भ्रमित सिंह-शावकों) का मार्गदर्शन करने आते हैं। इसलिए विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान विष्णु का एक नाम 'नेता' भी है। अज्ञानी के समान देहादि के बन्धन में रहना उनके लिये वास्तविकता न होकर एक नाटक में नायक की भूमिका निभाने के समान है। र्मत्य जीव अविद्या का शिकार बनता है जबकि ईश्वर (विष्णु भगवान जैसा नेता या नायक) स्वमाया के स्वामी बने रहते हैं। [अजः अपि सन् अव्ययात्मा भूतानाम् ईश्वरः अपि सन्। प्रकृतिं स्वाम् अधिष्ठष्ठाय सम्भवामि आत्ममायया ।।4.6।।
श्लोक 5: अनुवाद- श्री नारद मुनि ने कहा : - युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। (जो अपने भक्तों के ह्रदय में विराजमान सगुण सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण के रूप में विराजमान हैं) उन नारायण भगवान् को नमस्कार कर के उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातन-धर्म का मैं वर्णन करता हूँ। और उन्होंने भारतवर्ष के धर्म का जो अर्थ बतलाया वह अन्य किसी देश में नहीं है -
अन्नाद्यादे: संविभागो भूतेभ्यश्च यथार्हत:।
तेषु आत्मदेवता बुद्धि: सततं कुरु पाण्डव ॥ ७/११/१० ॥
[अन्न-आद्य-आदे:—अन्न, पेय आदि का; संविभाग:—समान वितरण; भूतेभ्य:—विभिन्न जीवों के लिए; च—भी; यथा-अर्हत:—उनकी आवश्यकता के अनुकूल; तेषु—सारे जीवों में; आत्म-देवता-बुद्धि:—अपनी आत्मा या अपने इष्ट देवताओं के रूप में स्वीकार करना; सुतराम्—प्रारम्भिक रूप से; नृषु—सारे मनुष्यों में; पाण्डव—हे महाराज युधिष्ठिर !]
नारद कहते हैं -जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं >अन्न आदि का यथायोग्य विभाजन धर्म है,सभी में देव-भाव रखना धर्म है” जगत को ब्रह्ममय देख कर, 'सीयराम मय सब जग जानी !” उनकी सेवा करना धर्म है। समस्त साधारण मनुष्यों को आत्मबुद्धि -देवताबुद्धि से देखकर सेवा करो। यही है भारतवर्ष का धर्म। देश में जो कुछ भी उत्पादन होगा, कृषि से लेकर, पनबिजली या ज्ञान आदि तक जिस किसी वस्तु का उत्पादन होगा- `भूतेभ्यश्च यथा अर्हत:' उसका यथायोग्य विभाजन करो यानि समस्त मनुष्यों को जिसकी जितनी आवश्यकता हो उतना देदो। यह बात कम्युनिज्म में कहने की चेष्टा हुई थी, लेकिन वैसा हुआ नहीं। `तेषु आत्म देवता बुद्धि ! देवता बुद्धि:! सततं कुरु पाण्डव' इन समस्त मनुष्यों को अपनी आत्मा या अपना इष्टदेव समझकर, कि ये सभी मनुष्य मेरी ही आत्मा हैं , मेरे ही इष्टदेव हैं - इनकी ही पूजा करनी होगी। 'सततं कुरु पाण्डव' - समझकर उनकी आवश्यकतानुसार उनमें वितरण कर दो, युधिष्ठिर से कहते हैं नारद । सभी जीवों (पशुओं तथा मनुष्यों) में अन्न का समान वितरण करना, प्रत्येक आत्मा को (विशेषतया मनुष्य को) परमेश्वर का अंश मानना।
यही हमारे देश में चलता आ रहा था। किन्तु पिछले 1000 वर्षों से कितने विदेशी आक्रांताओं -लुटेरों ने बार-बार आक्रमण किया और हमारे सिद्धान्त धूमिल हो गए। और कुछ कर्मकाण्डी गुरु ने यथार्थ धर्म को लुप्त करने की चेष्टा की थी घड़ी-घंट गंगा में फेंकने कहा था । सभी मनुष्यों में ब्रह्मदृष्टि केवल मंदिर में पूजा करने से नहीं आती ,ऐसा स्वामी जी जैसा विशाल ह्रदय नहीं होता है। स्वामीजी ने एक बार बोलते-बोलते अद्भुत बात कहा था बुद्ध की आत्मा मैं हूँ , ईसामसीह की आत्मा मैं हूँ, मुहम्मद की आत्मा मैं हूँ , और अद्वैत के महा समुद्र में ये सब एकाकार हो जाते हैं ! किसी शास्त्र में हिन्दू धर्म नाम नहीं है। क्या वे विश्व धर्म सभा में हिन्दू धर्म बोलने गए थे ?
स्वामीजी का एक नया धर्म ने हिन्दू धर्म या एम एन रॉय आदि जिसको 'मानवतावाद' कहे वह 'मानवतावाद' नहीं - उनका धर्म है "ब्रह्मवाद" ! 'सर्व खलु इदं ब्रह्म।'...केवल मनुष्य ही नहीं ! मनुष्य तो एक बहुत छोटा प्रतीक है। जो कुछ है, ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही से सबकी उत्पत्ति होती है और फिर उसी में सब लीन हो जाते हैं। ब्रह्म ही जगत् में एक मात्र सत्ता है, उसके अतिरिक्त संसार में और कुछ नहीं है। -'सर्वभूते सेई प्रेममय' और सभी में उनको देखकर प्रत्येक का जीवन-गठन करके, उसी सत्य को अंदर की सत्ता को जाग्रत करके सभी को आलिंगन करना। विश्व एक हो जायेगा। स्वामीजी का यही मूल उपदेश है। स्वामीजी के इस नए भाव को भारत ने ग्रहण नहीं किया। सखा के प्रति अपनी कविता की अंतिम चार पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -
ब्रह्म होते कीट परमाणु , सर्व भूते सेई प्रेममय।
मन प्राण शरीर अर्पण करो सखे ता सोबार पाय।।
बहुरूपे सन्मुखे तोमार छाड़ि कोथा खूंजिछो ईश्वर।
जीबे प्रेम कोरे जेई जन , सेई सेबिछे ईश्वर।।
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"सखा के प्रति :'सर्वभूते सेई प्रेममय"
🔱सब ह्रदय में वही प्रेममय श्रीरामकृष्ण
सगुण सनातन साक्षी रूप में बैठे हैं🔱
ब्रह्म से परमाणु-कीट तक, सब भूतों का है आधार ,
एक प्रेममय , प्रिय, इन सबके चरणों में दो तन-मन वार।
बहुरूपों में खड़े तुम्हारे आगे, और कहाँ हैं ईश ?
व्यर्थ है खोज ; जीव-प्रेम की सेवा पाते स्वयं जगदीश !
[९/३२५]
“ ব্রহ্ম হতে কীট পরমাণু, সর্ব ভূতে সেই প্রেমময় ।
মন প্রাণ শরীর অর্পণ কর সখে তা সবার পায় ৷৷
বহুরূপে সম্মম্মুখে তোমার ছাড়ি কোথা খুঁজিছ ঈশ্বর ।
জীবে প্রেম করে যেই জন সেই জন সেবিছে ঈশ্বর ।। ”
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भारत ने उनसे केवल lip service या दिखावटी प्रेम किया। स्वामीजी का मन्दिर बनाया, पूजा किया , जन्मदिन मनाया, एक लेक्चर दिया हो गया । इससे कुछ नहीं होगा , जब तक यह भाव हमारी सत्ता के साथ एकाकार नहीं हो जाता, तब तक श्रद्धा दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा। हम सोचते हैं शायद इंग्लैण्ड, अमेरिका ने उनका भाव ग्रहण कर लिया है ? नहीं ऐसा नहीं है। कुछ समय पूर्व एक क्रिश्चियन महिला एलेनोर स्टार्क (Eleanor Stark) ने एक पुस्तक लिखी थी उस पुस्तक का नाम दिया था - 'The Gift Unopened' [उस पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि स्वामी विवेकानंद ने अमेरिकी लोगों को 'ब्रह्मवाद' की नई दृष्टि से धर्म को देखने के विषय में अपना जो शक्तिदायी सन्देश दिया था, जगत को " सियाराम मय" देखने की उस दृष्टि ने, उनके जीवन को किस प्रकार हमेशा के लिए बदल दिया है। An explanation of how Swami Vivekananda brought his powerful message about a new way of thinking about religion to the American people and changed their lives forever.] उस पुस्तक में उन्होंने कहा था -कि स्वामीजी ने अमेरिका को एक गिफ्ट दिया था। उपहार दिया था, उस उपहार के पैकेट को अभी तक खोल कर देखा नहीं गया है। उन्होंने अमेरिका को अद्भुत वेदान्त देने का कठोर प्रयास किया था, इसीलिए अल्पायु में उन्हें अपना शरीर छोड़ना पड़ा। अमेरिका ने भी उनके गिफ्ट को ग्रहण नहीं किया, तो भारत ने भी नहीं किया है। भारत में अभी कई लोग हैं जिन्होंने न स्वामीजी का नाम सुना है न, ठाकुरदेव का नाम ही सुना है। यूनिवर्सिटी के टीचर भी नहीं जानते सिर्फ नाम जानने से काम नहीं उनका मूल्य समझना होगा।
>>>[Binoy Kumar Sarkar : (1887–1949) He praised Nazism as "form of benevolent dictatorship", उन्होंने नैतिकतावादियों (moralists) के नाजीवाद को "शुभचिन्तक तानाशाही" का एक रूप कह कर प्रशंसा की थी।] प्रसिद्द समाज विज्ञानी प्रोफेसर बिनय सरकार ने कहा था .... "with 5 words he conquered the west !" "स्वामी जी ने केवल 5 शब्द कह कर पाश्चात्य जगत को जीत लिया था वे शब्द थे -'Ye divinities on earth, sinners?' "अमृतस्य पुत्राः " 'divinities on earth' यह है प्राच्य का सन्देश ! तथा 'sinners' यह है पाश्चात्य का सन्देश।
[ "Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep you are souls immortal." (Paper on Hinduism by Swami Vivekananda, Read at the Parliament on 19th September, 1893)]
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं आदित्य वर्णं तमसः परस्तात् ।
तमेव विदित्वा अतिमृत्युम् एति,
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥
हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो ! मैंने उस अनादि, सनातन साक्षी उस सगुण ब्रह्म श्रीरामकृष्ण को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । केवल उस पुरुष को जानकर ही तुम मृत्यु के चक्र से छूट सकते हो । दूसरा कोई पथ नहीं ।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥
"आप ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं, आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं । आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन हैं । आप उठें ! हे सिंहो ! आएँ , और इस मिथ्या भ्रम को झटक कर दूर फेक दें की आप भेंड़ हैं । आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनन्दमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास हैं , न कि आप हैं जड़ के दास ।" (शिकागो वक्तृता : हिन्दू धर्म - 19 सितम्बर,1893 )
जिस समय स्वामी जी अमेरिका के धर्मसभा में 'पाप' (sin) के सम्बन्ध में कहा था, उस समय अमेरिकी महिला ने एक कविता लिखी थी जो बाद में एक पेपर में प्रकाशित हुई थी। वे बहुत अच्छी क्रिश्चियन महिला थीं , कविता में लिखा था -"A young man in ochre robe" उसने मेरे सब भावों को उलट दिया। मैं 'original sin' की कहानी को सुन -सुन कर के मैं अपने को 'sinner हूँ, sinner हूँ, sinner हूँ ' सोंच-सोंच कर इस वृद्धावस्था में बिल्कुल अवसादग्रस्त हो गयी थी। जगत छोड़ने के पहले मेरी आँखों के अश्रु कभी थमते नहीं थे। लेकिन उन्होंने कहा -" नहीं, तुम sinner नहीं हो !" प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ' अर्थात हम लोग पापी नहीं हैं , यह सुनकर हमें नव-जीवन मिला !!
स्वामीजी ने जगत को जो दिया है, हम अभी तक उसे समझ नहीं सके हैं। 'lip service' देने से , स्वामीजी 'बहुत बड़े थे!' केवल एक भाषण में बोल देने से उनका कार्य, नहीं होगा। उनकी शिक्षाओं 'Be and Make' (नचिकेता जैसा जीवनमुक्त बनो और बनाओ) का प्रचार-प्रसार करते हुए आत्मसातीकरण करना होगा, अपनी आत्मा के साथ मिला लेना होगा।जिस उपाय से मार्गदर्शक नेता सदैव युवा -यविष्ठ बने रहते हैं, चिरयुवा बने रहने के उपाय का एक सुनिश्चित विज्ञान (Exact Science) है -`स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में '3H विकास के 5 अभ्यास' [Resolution does Miracles :संकल्प चमत्कार करता है] की प्रशिक्षण-पद्धति को अपने जीवन में आत्मसात करने का उपाय है 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय-चरैवेति, चरैवेति' करते हुए भारत के युवाओ के द्वार द्वार तक प्रचार -प्रसार में लगे रहना ! उसी बात को महामण्डल के 'symbol' में "चरैवेति, चरैवेति" शब्द द्वारा, "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय- "चरैवेति,चरैवेति" नेता के अभियान मंत्र को निर्देशित किया गया है। [In service of ‘Divine in Man’/डिवाइन इन मैन' (100 %निःस्वार्थपरता) अर्थात मनुष्य मात्र के ह्रदय में सनातन साक्षी रूप से विद्यमान अपने इष्टदेव उसी प्रेममय श्रीरामकृष्ण देव को देखकर, उनकी सेवा में स्वामीजी के जागरण मंत्र - उठो जागो और जब तक लक्ष्य पर न पहुँचो रुको मत ' का भारत के गाँव -गाँव में स्थान-स्थान पर प्रचार-प्रसार करते रहो।]
आस्ते भग आसीनस्योर्ध्वस्तिष्ठति तिष्ठतः ।
शेते निपद्यमानस्य चरति चरतो भगश्चरैवेति ॥
“चरैवेति,चरैवेति ”
[आस्= बैठ जाना। आस्ते भग आसीनस्य, ऊर्ध्वः तिष्ठति तिष्ठतः। निपद् = लेटजाना या सो जाना।शेते निपद्यमानस्य , चराति चरतो भगः , चर एव इति ॥]
अर्थ - जो सोया रहता हैं, उसका भाग्य भी सोया रहता हैं। जो मनुष्य बैठा रहता है, उसका सौभाग्य (भग) भी बैठा रहता हैं। जो उठकर खड़ा हो गया हैं उस का भाग्य भी उठकर खड़ा हो जाता हैं। और जो चलता रहता है , उसका सौभाग्य भी चलता रहता है, जो 'बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय “चरैवेति,चरैवेति ” विचरण में लगता है, उसका सौभाग्य भी चलने लगता है । इसलिए (चर एव इति) इसी प्रकार - चलते रहो। उद्यमशील मनुष्य को ही भाग्य का साथ मिलता हैं। कहाँ चलेंगे - 'एतावत जन्मसाफल्यं' वृक्ष के जैसा सबके सेवा अपना तनमनधन प्राणों को भी समर्पित कर देंगे।अर्थात पूरी मावता को यह बताने के लिए कि, विश्व का 'कोई मनुष्य पापी नहीं' है, 'प्रत्येक रत्नाकर अव्यक्त बाल्मीकि' है तुम विचरण करते रहो। (thus, चर एव इति) यही बताने के लिए कि -"प्रत्येक आत्मा अब्यक्त ब्रह्म है", तुम विचरण करते ही रहो । बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय - " चरैवेति, चरैवेति"। मेरा भी तो समय पूरा हो गया है। और कितने दिन रहूँगा ? लेकिन मेरा ह्रदय जिस आनन्द से भरा हुआ है। छोटे -छोटे भाइयों तुमलोगों से कहता हूँ , आनन्द से ह्रदय इतना भर गया है कि लगता है फट जायेगा। क्या तुमलोग जो महामण्डल से नए-नए जुड़े हो अपने जीवन गढ़ो -ठाकुर,माँ, स्वामीजी से प्राथना करता हूँ।
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>>>What is the goal of human life? मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) क्या होना चाहिए ? इसे समझने के लिए मार्ग-दर्शक नेता की आवश्यकता होती है। क्योंकि जब तक मनुष्य 3-H में शरीर और मन से आत्मा को पृथक नहीं समझ लेता तब तक वह अपने जीवन के उद्देश्य को निर्धारित नहीं कर सकता। क्योंकि आत्मा की अमरता को मानने वाले तो असंख्य हैं, किन्तु जानने वाले मुट्ठी भर हैं। इसलिए अधिकांश लोग स्व (व्यष्टि अहं) को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं का दास नहीं बना पाते हैं ! क्योंकि आत्मा को अपने अनुभव से जानकर (केवल मानकर ही नहीं) पुनः शरीर में लौटने वाले बहुत कम इक्के-दुक्के लोग ही होते हैं। मानवजाति के मार्गर्शक नेता श्रीकृष्ण शिष्य अर्जुन के सम्मुख सांख्य-योग (श्रद्धा, और सत्य-मिथ्या विवेक) के माध्यम से ज्ञान-पथ खोलते हैं। श्री कृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय में अर्जुन को शरीर और मन से आत्मा की पृथकता को समझाया है। जब किसी मनुष्य को नश्वर शरीर से अविनाशी आत्मा का पृथक्त्व समझ में आ जाता है। या जब किसी सिंह-शावक को, जो पहले अपने को भेंड़ नश्वर शरीर समझकर में -में करता था, अपने सगुण-साकार आदर्श, गुरु, नेता के मुख से उपदेश सुनकर अविनाशी आत्मा का पृथक्त्व जब समझ में आ जाता है, तब उसके सम्मुख मनुष्य जीवन का उद्देश्य (लक्ष्य) और कर्तव्य स्वतः स्पष्ट हो जाता है। और अपने-आप ही सारी समस्याओं का पूर्ण समाधान मिल जाता है। तब अपने सगुण -साकार मार्गदर्शक नेता श्रीकृष्ण के उपदेश को समझकर अर्जुन बोल उठता है, 'ॐ नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत। स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।"अर्जुन बोले -- हे अच्युत ! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और स्मृति प्राप्त हो गयी है। मैं सन्देहरहित होकर स्थित हूँ। अब मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा। मैंने समझ लिया था कि मानव-देह धारण करने का एकमात्र उद्देश्य जीवन्मुक्ति के सुख की प्राप्ति ही है, दूसरा कुछ भी नहीं । वास्तव में नित्यमुक्त आत्मा अन्य किसी कारण से देहधारण नहीं करती । देहधारण करके भी वह मुक्त है, इसी भाव की उपलब्धि के लिए उसका देहधारण होता है ।’’
"Arise, awake, and stop not till the goal is reached." "Arise" was meant as a passionate call for national awakening to obtain political freedom for the country from colonialism, and to not to "stop" until the "goal" was achieved. This was essential in the social, economic and political fields. Swamiji's teaching of these 3Ps is explained in modern employee management skills training as 'Purpose, Process and Product'.
["उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।"-हे मनुष्य! उठो, जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों/ नेता/ गुरु को पाकर उनके द्वारा आधुनिक युग के अवतार बरिष्ठ या सगुण साकार परब्रह्म परमेश्वर (श्रीरामकृष्ण परमहंस ) को जान लो। अर्थात् उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत। मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं और मेरी सारी शिक्षा वेदों के उन महान सत्यों पर आधारित है जो हमें समानता और आत्मा की सर्वत्रता का ज्ञान देती है।
सफलता के तीन आवश्यक अंग हैं,3-'P' Purity, Patience and Perseverance, पवित्रता,धैर्य और दृढ़ता। स्वामीजी की इसी 3P वाली शिक्षा को आधुनिक कर्मचारी प्रबंधन कौशल प्रशिक्षण में `Purpose, Process and Product.' या ' उद्देश्य, प्रक्रिया और उत्पाद' कहकर समझाया जाता हैं।
आहार निद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष:
धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
आहार, निद्रा, भय और मैथुन – ये तो मनुष्य (इंसान) और पशु में समान है । मानव (इंसान) में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है । धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः' -- पशुओं से मनुष्य को अलग समझने के लिए, जिस सनातन धर्म का पालन करना होता है उसको महर्षि पतंजलि ने यम-नियम कहा है।
[अष्टांग योग के अंतर्गत प्रथम पांच अंग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार) 'बहिरंग' और शेष तीन अंग (धारणा, ध्यान, समाधि) 'अंतरंग' नाम से प्रसिद्ध हैं। बहिरंग साधना यथार्थ रूप से अनुष्ठित होने पर ही साधक को अंतरंग साधना का अधिकार प्राप्त होता है। यम का अर्थ है संयम जो पांच प्रकार का माना जाता है। यम शब्द का अर्थ होता है निवृत्त होना-‘‘ यम उपरमे।‘‘ इस तरह यम [सत्य,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह अर्थात उपहार में कुछ भी लेने की इच्छा या 100 % स्वार्थपरता का त्याग करके 100 % निःस्वार्थपरता की ओर आगे बढ़ना अपरिग्रह है। इसी पूर्ण निःस्वार्थपरता की ओर आगे बढ़ने को पतंजलि ने ‘‘सार्वभौम महाव्रत" की संज्ञादी है- २.३१॥" जाति , देश , काल , समय , अनवच्छिन्नाः, सार्वभौमा:,महाव्रतम् ॥" पतंजलि उपरोक्त व्रतों को सार्वभौम महाव्रत मानते हैं जिनका पालन प्रत्येक जाति, प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक काल एवं प्रत्येक परिस्थितियों में अनुष्ठेय है। इसलिए पाँचो यम निवृत्तिमूलक है। तथा नियम प्रवृत्ति-मूलक साधन माने जाते हैं। जहाँ यम निवृत्तिमूलक साधन है, वहीं नियम प्रवृत्तिमूलक साधन माने जातेहैं जो पाँच है -शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्राणिधान। पतंजलि मानते हैं कि बाह्य शौच से अपने ही शरीर के अंगो के प्रति आसक्ति नही रह जाती,और दूसरे शरीर से संसर्ग करने की इच्छा भी जाती रहती है। ईश्वर अर्थात माँ काली, या माँ काली के अवतार अपने इष्टदेव के नाम,रूप, लीला,धाम उनके गुण और प्रभाव आदि का श्रवण, कीर्तन और मनन ईश्वर-प्राणिधान के अंग हैं।धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः' -- पशुओं से मनुष्य को अलग समझने के लिए, निवृत्ति मूलक सार्वभौम महाव्रत यम और प्रवृत्ति मूलक धर्म नियम का पालन 24X7 करना है। तथा मनःसंयोग (आसन-प्रत्याहार- धारणा) का अभ्यासदो बार करना अनिवार्य है। ]
"राष्ट्र की युवा पीढ़ी को परिवार, समाज, संघ, संगठन या राष्ट्र की सेवा में अपना तन-मन-धन यहाँ तक कि अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने के लिये, उत्प्रेरित कर देने में समर्थ किसी नेता/ लोकशिक्षक/ पैगम्बर का कौन सा गुण सर्वाधिक प्रभावकारी होता है ?
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " भारत के राष्ट्रिय आदर्श हैं 'त्याग और सेवा', आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। " भारत की युवा पीढ़ी को राष्ट्र की सेवा में अपना तन-मन-धन यहाँ तक कि अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने के लिये, उत्प्रेरित करने में समर्थ नेता की सबसे बड़ी विशेषता उनके जीवन प्रतिष्ठित साम्यभाव और त्याग की भावना ही होती है। परन्तु,सामान्यतः हमलोगों के मन में संघ और कुशल नेतृत्व के विषय में कोई स्पष्ट अवधारणा नहीं होती। किन्तु हम त्यागी बने बिना, या गृहस्थ हैं तो कम से कम 'वासना और धनदौलत' ('lust and wealth ) में अपनी आसक्ति का त्याग किये बिना ही लोकशिक्षक या नेता बनना चाहते हैं ! विवेकी लोगों के उस संगठित समाज को संघ (महामण्डल संगठन) कहते हैं जो अपने आदर्श, उद्देश्य या मार्ग-दर्शक नेता का चयन मतैक्य के आधार पर करते हों। महर्षि वेदव्यास की एक विख्यात उक्ति है -
त्रेतायां मंत्रशक्तिश्च, ज्ञानशक्तिः कृते युगे।
द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघे शक्ति कलौ युगे।।
लेकिन 'संघे शक्ति' वाला सफलता का यह मूल मंत्र तभी सफल होता है, जब संघ का उद्देश्य मतैक्य के द्वारा 'भारत का कल्याण' पूर्वनिर्धारित हो, तथा लक्ष्य नाम-यश या किसी अन्य ऐषणाओं (स्वार्थपूर्ण इच्छाओं) की पूर्ति के लिए न होकर केवल 'शिवज्ञान से जीव-सेवा' करना हो। तथा संघ का नेतृत्व त्यागी या ' वासना और धनदौलत' में अनासक्त नेताओं, लोकशिक्षकों या पैगंबरों के हाथों में हो जिसका अपना जीवन साम्यभाव में प्रतिष्ठित हो, और संगठन अनुशासित हो। [ नेतृत्व श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द- जैसे त्यागी संन्यासियों और या कैप्टन सेवियर - नवनीदा -प्रमोद दा जैसे ' वासना और धनदौलत' या नाम-यश में अनासक्त लोक-शिक्षकों, नेताओं या पैगम्बरों के हाथों में हो।] अन्यथा दुर्योधन जैसे स्वार्थी और अन्यायी नेतृत्व के कारण कौरवों की विशाल सेना भी शस्त्र विहिन श्रीकृष्ण व पांच पांडवों की छोटी सी सेना के सामने परास्त हो गयी थी।
21 वीं सदी के इस विभिन्नतापूर्ण जगत में 'वेदान्ती साम्यभाव' स्थापित करने वाला नेतृत्व वैसे नेता (लोकशिक्षक, पैगम्बर) ही प्रदान कर सकते हैं, जो सुखी- सम्पन्न होकर भी भ्रममुक्त हों और स्वयं साम्यभाव में स्थित हों। (अर्थात त्यागी संन्यासी हों या तीनों ऐषणाओं में अनासक्त गृहस्थ होकर भी राजर्षि जनक जैसे स्वयं साम्यभाव में स्थित हों।) भारत के युवा आदर्श, महान आध्यात्मिक नेता स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - “Arise, awake and stop not till the goal is reached.” लक्ष्य तक पहुँचने के कई उपाय हो सकते हैं, लेकिन किसी मार्गदर्शक नेता के अभाव में मनुष्य जीवन के लक्ष्य को निश्चित कर पाना ही बहुत कठिन कार्य है। क्योंकि , जब तक हम आत्मा होकर अपने M/F शरीर से तादात्म्य किये रहेंगे या अपने को देह-मन (2H) समझते रहेंगे, तब तक हम मनुष्य जीवन के लक्ष्य को तय नहीं कर सकेंगे। प्रजापति ब्रह्मा की तीन सन्तानें -राक्षस , मनुष्य , देवता। अतः गुरु/नेता की कृपा से श्रद्धा और विवेक-प्रयोग की पद्धति सीखकर उसका अभ्यास करना अनिवार्य है।
आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
(- श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड)
- चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ॥-अर्थात पूरे संसार में श्री राम का निवास है, सबमें भगवान हैं और हमें उनको हाथ जोड़कर प्रणाम कर लेना चाहिए। चौपाई लिखने के बाद तुलसीदास जी विश्राम करने अपने घर की ओर चल दिए। रास्ते में जाते हुए उन्हें एक लड़का मिला और बोला: अरे महात्मा जी, इस रास्ते से मत जाइये आगे एक बैल गुस्से में लोगों को मारता हुआ घूम रहा है। और आपने तो लाल वस्त्र भी पहन रखे हैं तो आप इस रास्ते से बिल्कुल मत जाइये। तुलसीदास जी ने सोचा: ये कल का बालक मुझे चला रहा है। मुझे पता है। सबमें राम का वास है। मैं उस बैल के हाथ जोड़ लूँगा और शान्ति से चला जाऊंगा। लेकिन तुलसीदास जी जैसे ही आगे बढे तभी बिगड़े बैल ने उन्हें जोरदार टक्कर मारी और वो बुरी तरह गिर पड़े। तुलसीदास जी घर जाने के बजाय उस जगह पहुंचे जहाँ वो रामचरित मानस लिख रहे थे। और उस चौपाई को फाड़ने लगे, तभी वहाँ हनुमान जी प्रकट हुए और बोले: श्रीमान ये आप क्या कर रहे हैं? तुलसीदास जी उस समय बहुत गुस्से में थे, वो बोले: ये चौपाई बिल्कुल गलत है। ऐसा कहते हुए उन्होंने हनुमान जी को सारी बात बताई। आपने उस बैल में तो श्री राम को देखा लेकिन उस बच्चे में राम को नहीं देखा जो आपको बचाने आये थे। भगवान तो बालक के रूप में आपके पास पहले ही आये थे लेकिन आपने देखा ही नहीं।ऐसा सुनते ही तुलसीदास जी ने हनुमान जी को गले से लगा लिया। और पश्चाताप करने लगे की में कितना मूर्ख हूँ, अपनी ही लिखी बात का सही-सही अर्थ नहीं समझ पाया। क्योंकि बैल में रामजी को देखना तो मैं समझ गया किन्तु उस बालक में राम के दर्शन मैंने क्यों नहीं किये ? इसलिए मनुष्य का जीवन का लक्ष्य - 'ईश्वर लाभ' तो है ; परन्तु वह ईश्वर (100 % निःस्वार्थपरता) निर्गुणनिराकर है या सगुण साकार ? इसे जानने के लिये पहले शरीर-मन से आत्मा को पृथक जानने वाले (मानने वाले नहीं) किसी त्यागी नेता से मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए हमें श्रद्धा और विवेकपूर्वक आगे बढ़ना चाहिए। इसीलिए साम्यभाव में स्थित प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण परमहंस, भावी युवा नेताओं से कहते थे `यदि हाथी नारायण है तो महावत भी नारायण है' !
इस विषय पर चिन्तन करने से हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि -ये श्रेय-प्रेय विवेक का चयन करना किसी एक इंसान की परेशानी नहीं है बल्कि ऐसा हर इंसान के साथ होता है। [अतएव प्रत्येक युवा को बचपन से ही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। ] अतएव जो लोग इस समय अभिज्ञता, सहानुभूति, प्रेम और विवेक-प्रयोग क्षमता की दृष्टि से बिल्कुल न्यूनतम स्तर या सामान्य स्तर पर रहने वाले मनुष्यों की अपेक्षा साधारणतः थोड़े उच्चतर स्तर पर खड़े हैं, वैसे लोग ही समाज के उनलोगों को, ऊपर उठा सकते हैं बुद्धि, समझदारी, योग्यता, प्रतिभा, गुणों आदि की दृष्टि से अभी उनकी जो अपेक्षा थोड़े न्यूनतम सोपान पर खड़े हैं। और और सच्चे नेतृत्व का उदगम स्थान या आरम्भ बिन्दु यही है। ठीक इसी जगह पर नेतृत्व की क्षमता की उत्पत्ति स्वतः उभर कर सामने आ जाति है।
(1.2) >>>Inevitability of Mahamandal's emergence in 1967: 1967 में महामण्डल के आविर्भूत होने की अनिवार्यता : प्रश्न उठाया जाता है कि जब स्वामी विवेकानन्द द्वारा गठित रामकृष्ण मिशन है ही, तो विवेकानन्द के नाम से उसी तरह के दूसरे संगठन की आवश्यकता क्या थी ? सम्पूर्ण भारतवर्ष में युवाओं के वैयक्तिक जीवन-गठन (individual life building) के लिए विशेष तौर पर स्वामी विवेकानन्द की 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा' के अनुरूप चरित्र-निर्माण के लिए महामण्डल से पहले और कोई दूसरा युवा संगठन बना हो , तो उसकी जानकारी हमें नहीं है। किन्तु, इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि, ऐतिहासिक अनिवार्यता (historical essentiality) जैसी कोई वस्तु होती जरूर है। यह बतलाकर कोई हमारे देश को नई जानकारी दे रहा हो , ऐसा बिल्कुल नहीं है। यदि हम अपनी स्मरण शक्ति पर थोड़ा जोर डालें तो यही ध्वनि हमें गीता से भी निकलती हुई सुनाई देगी -
'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥ -
" हे अर्जुन , जब -जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब -तब मैं शरीर धारण करके अवतीर्ण होता हूँ। " इसी को कहते हैं ऐतिहासिक अनिवार्यता। इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है। भारतवासी यह जानते हैं ऐतिहासिक समय-चक्र के घूर्णन पथ में, जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है,अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है , उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है। वह चाहे अवतार के द्वारा हो, या किसी संगठन/संघ के द्वारा हो, या जैसे भी हो -एक विशिष्ट भाव (साम्य भाव में स्थित नेतृत्व) मूर्तमान होता अवश्य है।
गीता में ब्रह्म को 'साम्य स्वरुप' कहा गया है। हमारे जीवन का उद्देश्य भी इसी साम्य को प्राप्त करना है। प्रश्न यह है कि हमलोग उस साम्य की स्थिति में कब और कैसे पहुँचेंगे ? हमलोग उस साम्य की स्थिति को तभी प्राप्त कर सकेंगे जब हम अपने क्षुद्र स्वार्थों का (ऐषणाओं में आसक्ति का) परित्याग कर देंगे,और पूर्ण निःस्वार्थपरता की दिशा में अग्रसर होंगे। जब तक हममें घोर स्वार्थपरता, ऐसी क्षुद्रता कामिनी-कांचन, नाम-यश में घोर आसक्ति बनी रहेगी, तब तक तो हम साम्य भाव की कल्पना भी नहीं कर सकते। साम्यभाव ईश्वरत्व या ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की कल्पना करते ही, हमें इस प्रकार की समस्त क्षुद्रताओं को विसर्जित कर देना होगा। समस्त स्वार्थों की (अहंकार की) बलि चढ़ा देनी होगी, तभी हमलोग इस महान साम्यभाव को प्राप्त कर सकेंगे।
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।
(गीता 5.19) जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग (संसार या आवागमन) को जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं। समुद्र की लहरों पर निरुद्देश्य बढ़ती हुई लकड़ी इतस्तत भटकती रह सकती है, लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ (lighthouse, मार्गदर्शक नेता) अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है।
पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन (अहंकार-उपाधि) का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य (प्रणव या शाश्वत स्पंदन) जीव या 'अहंकार' के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अतएव मन (रूपी उपाधि) के नष्ट होने पर 'अहंकार' और उसके संसार का (आवागमन का) भी नाश अवश्यंभावी है। सांसारिक दुखों से मुक्त जीव अनुभव करता है कि हमारा यथार्थ स्वरुप समय, स्थान या देश-काल के बन्धन से स्वतंत्र है, और वह परमात्मस्वरूप से भिन्न नहीं है। किन्तु इस स्वरूपानुभूति के बाद भी जब तक शरीर का बोध है, तब तक गुरु/नेता रूपी माँ जगदम्बा (काली भयंकरा और माता के समान स्नेहमयी मूर्ति
"वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।
लोकोत्तराणां चेतांसि को हि विज्ञातुमर्हति।।
का भक्त/दास [अहं नवनिदा' दासानां दासः!] बने बिना जगत में समदर्शित्व प्राप्त नहीं हो सकता। इस जीवन-मुक्ति को प्राप्त करने के लिए किन किन पड़ावों से गुजरना पड़ता है, ये समझाते हुए आदि शंकरचार्य कहते हैं -
सत्संगत्वे नि:संगत्वं, नि:संगत्वे निर्मोहत्वम् ॥
निर्मोहत्वे निश्चलतत्वं, निश्चलतत्वे जीवन मुक्तिः।।
संतों की संगत में रहते-रहते भक्त अंततः संगविहीन (कामिनी -कांचन में अनासक्त) हो जाता है। कामिनी -कांचन में अनासक्त हो जाने एवं अनावश्यक इच्छाओं से मुक्त होते ही मन से मिथ्या मोह (मैं और मेरा ) का भी नाश हो जाता है। नि:संगत्वं होने का एक अर्थ अहं-रहित मनःस्थिति से भी है - जिसे मन से परे या अहं से स्वतंत्र होना भी कहा जा सकता है। इस अवस्था को प्राप्त भक्त निर्मोहत्व (भ्रममुक्त अवस्था Dhypnotized अवस्था) को प्राप्त हो जाता है। उपरोक्त मनःस्थिति को प्राप्त करके जीव निश्चल-तत्व में स्थित हो जाता है। निश्चल -तत्व अर्थात अपरिवर्तनीय सत्य (सच्चिदानन्द) को जान कर सदैव इस एकमात्र सार्वभौमिक परम सत्य (देश-काल से परे की अवस्था) में विचरण करता हुआ निश्चल मन जीवन-मुक्त हो जाता है। जीवनमुक्ति के पड़ाव के विषय में सन्त तुलसीदास जी कहते हैं -
सत्य वचन अधीनता परतिय मात समान।
इतने पे हरि ना मिले, तो तुलसी झूठ जुबान।।
इस युग में श्रीरामकृष्णदेव के भीतर [स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर-परम्परा में नवनीदा के भीतर] वही साम्यभाव मूर्तमान हुआ है। हमारी दृष्टि में श्रीरामकृष्णदेव प्रथम युवा नेता हैं, जननेता हैं, मानवप्रेमी हैं -जो मानवमात्र को ह्रदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। जिनके जीवन में सम्पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है। समस्त मानवजाति ही नहीं समस्त प्राणियों यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी जिन्होंने एकत्व का अभिन्नता का साक्षात्कार किया है। उनके जीवन में प्रतिष्ठित होने वाला पूर्ण साम्य [वेदान्ती साम्य] राजनैतिकदलों के मंचों पर खड़े होकर भाषण में कहने -बोलने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतार कर दिखा दिया है। उन्होंने 'पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे' - साक्षात् ब्रह्म को ही 'पंचभूतों के फन्दे में फंसकर' रोते देखकर, तथा दिन-दुखियों के दारुण दुःख से द्रवित होकर, जनसाधारण की मुक्ति के लिए अग्नितुल्य दृढिष्ठ -बलिष्ठ युवाओं को संगठित करने [संघबद्ध करने] की चेष्टा की है।इस तथ्य को समझने के लिए श्रीरामकृष्णदेव के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के उदगारों का विशेषरूप से अध्यन करना आवश्यक है।
स्वामीजी कहते हैं - " श्रीरामकृष्ण युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं, सभी लोगों को ईश्वर की ओर बढ़ने के लिए अनुप्रेरित कर रहे हैं , किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं। उनका लक्ष्य विशेषकर युवाओं को ही आकर्षित करना था। ठाकुरदेव काशीपुर उद्यान बाटी में स्पष्ट रूप से अनुभव किया था कि मेरे अति अल्प जीवन काल में [1886-1836 लगभग 50 वर्ष की आयु में] मैं जितना कर सकता था, कर दिया हूँ, उसके बाद जो वास्तविक कार्य है, वह यही है कि बहुत अल्प समय के भीतर ही कुछ युवाओं के जीवन को इस प्रकार से गठित कर देना होगा कि वे इस भाव को थोड़े समय में ही सम्पूर्ण जगत में दावानल की तरह फैला देने में सक्षम हो जाएँ। और वैसा करने के बाद उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया था। तथा थोड़े समय में ही स्वामी विवेकानन्द ने भी अपने गुरु /नेता द्वारा सौंपे हुए कार्य को माँ जगदम्बा की कृपा से पूरा कर दिखाया।
[श्रीरामकृष्ण परमहंस (विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर, नवनीदा.... प्रमोददा) के रूप में हमें एक ऐसा ही आदर्श पुरुष -नेता, त्यागी लोकशिक्षक मिला है। राम और कृष्ण से भिन्न त्यागियों के बादशाह श्रीरामकृष्ण का वैशिष्ट्य है- ब्रह्म और शक्ति को अभिन्न बताना। जो शक्ति 'आत्मा' को शरीर और मन से पृथक जानने के बाद भी पुनः देहाध्यास के भ्रम में डाल सकती हैं, उस शक्ति को माँ काली कहकर, उनका दास-पुत्र बनकर प्रार्थना करना उनकी अविद्या माया से मुक्त होने का सरल उपाय है]
स्वामीजी ने कहा था - " युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है। " लेकिन उस युवकदल को संगठित करने का स्वयं प्रयास करने के बाद भी वे केवल मुट्ठीभर युवाओं को ही [निवेदिता -कैप्टन सेवियर आदि] श्रीरामकृष्णदेव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे। लेकिन स्वामी जी ने उसी समय भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " हमारे शास्त्रों में मनुष्य जीवन का उद्देश्य या सबसे बड़ा आदर्श -निर्गुण ब्रह्म (impersonal Ishwar) निराकार ईश्वर की अनुभूति या आत्म-साक्षात्कार) को ही माना गया है। भारत के सबसे प्राचीन शास्त्र 'ऋग्वेद' का 'महावाक्य' है-" प्रज्ञानं ब्रह्म " प्रकट ज्ञान ही ब्रह्म है !" [अर्थात शरीर और मन का-'सनातन साक्षी ('Eternal Witness, existence-consciousness-bliss' शाश्वत द्रष्टा, सच्चिदानन्द) ही ब्रह्म है! और ईश्वर (माँ जगदम्बा) की इच्छा से यदि सभी मनुष्य इस निर्गुण ब्रह्म को अपनी अनुभूति से जान पाते (या आत्मसाक्षात्कार करने में समर्थ होते?), तब तो बात ही कुछ और थी ! [तब केवल तुलसीदास ही नहीं सभी मनुष्य जगत को सियाराम मय देख पाते। ] परन्तु चूँकि ऐसा होना सम्भव नहीं है, अतएव (ध्यान या) मनःसंयोग का अभ्यास करते समय मनुष्य जाति के बहुसंख्यक वर्ग के लिए ईश्वर का मूर्त रूप या 'सगुण आदर्श' का रहना अनिवार्य है। इस तरह के किसी महान आदर्श पुरुष के ऊपर [साम्यभाव में स्थित प्रथम युवा 'नेता ' श्रीरामकृष्ण के ऊपर] हार्दिक अनुराग रखते हुए उनकी पताका के नीचे आश्रय लिए बिना कोई व्यक्ति या देश अपना जीवन-गठन करके महान नहीं बन सकता। राजनितिक, सामाजिक या व्यापारिक आदर्शों का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई पुरुष (या फ़िल्मी हीरो) धर्मप्राण भारतवासियों के ऊपर कभी अपना प्रभाव नहीं जमा सकता। अपने जीवन-आदर्श, नेता या मार्गदर्शक प्रकाशस्तम्भ (lighthouse) के रूप में हमें कोई आध्यात्मिक-सूरमा ही चाहिए। रामकृष्ण परमहंसदेव के रूप में हमें एक ऐसा ही धर्मबीर - या आदर्श आध्यात्मिक सूरमा (spiritual hero) प्राप्त हुआ है !! यदि यह जाति उठना चाहती है, तो मैं निश्चय पूर्वक कहता हूँ, कि इस नाम के चारों ओर उत्साह से भरकर हमें एक-मत हो जाना चाहिए ! ...... क्या तुम नहीं देखते कि उनके तिरोभाव के दस वर्ष के भीतर ही इस शक्ति ने सम्पूर्ण संसार को घेर लिया है ? दक्षिणेश्वर काली मंदिर का वह पुजारी -जिसके बारे में अधिकांश भारतवासी आज भी नहीं जानते, इस समय सम्पूर्ण संसार में पूजा जा रहा है ? और उसे वे पूजते हैं, जो शताब्दियों से मूर्ति-पूजा के विरोध में आवाज उठाते आये हैं ? यह किसकी शक्ति है ? यह तुम्हारी शक्ति है या मेरी ? जो शक्ति यहाँ श्रीरामकृष्ण परमहंस के रूप में [महामण्डल के रूप में] आविर्भूत हुई थी यह वही शक्ति है।
यदि तुम्हारे पास ऑंखें हैं तो तुम उसे अवश्य देखोगे। यदि तुम्हारा ह्रदय-कपाट बन्द नहीं है, तो तुम उनको अवश्य ग्रहण करोगे ! -- यदि तुम में सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति है, तो तुम उन्हें अवश्य प्राप्त करोगे। यदि तुम सचमुच एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश हो और तुम्हारा ह्रदय द्वार खुल गया है, तो परम् सत्य की अनुभूति अवश्य होगी -- 'If you have eyes, you will see it. If your heart is open, you will receive it. If you are truth-seekers, you will find it. [अर्थात यदि तुम भाषा,लिंग, जाति, धर्म के नामपर मनुष्यों से भेदभाव नहीं करते हो बंगाल में जन्मे नवनीदा और प्रमोद दा को अपने आदर्श के रूप में अवश्य ग्रहण करोगे।] 'वर्तमान युग का अन्त होने से पहले ही तुमलोग इस शक्ति के (महामण्डल रूप में आविर्भुत होने) की अधिकाधिक आश्चर्यमयी लीलाओं को देख पाओगे। भारत के पुनरुत्थान के लिए इस शक्ति का आविर्भाव ठीक ही समय पर हुआ है। तुमलोग स्वयं ही अनुमान करो। तुम्हारे ह्रदय के अन्तस्तल में वे 'सनातन साक्षी ' वर्तमान हैं, और मैं ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ कि हमारे व्यक्ति जीवन-गठन द्वारा हमारे देश की उन्नति के लिए और उसके माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए वही श्रीरामकृष्ण तुम्हारे ह्रदय के बन्द कपाट को खोल दें (मिथ्या अहंकार को मिटा दें) और तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद तुम्हारे विचारजगत में जो युगपरिवर्तन [सत्ययुग का आगमन ] अवश्यम्भावी है , उसे कार्यवन्वित करने में तुम्हें अपना सच्चा और दृढ़ यंत्र बना ले। श्री रामकृष्ण परमहंस के जीवन और शिक्षाओं (त्याग और सेवा) का प्रचार तुम्हें और हमें रुचे या न रुचे , इससे प्रभु का कार्य रुक नहीं सकता, अपने कार्य के लिए वे धूलि से भी सैकड़ों और हजारों कर्मी पैदा कर सकते हैं। और श्रीरामकृष्ण परमहंस जैसे त्यागी नेतृत्व की अधीनता में, या उनके मार्गदर्शन में कार्य करने का अवसर मिलना ही हमारे लिए परम् सौभाग्य और गौरव की बात है।(३/२०७-९)
[" আমাদের শাস্ত্র নির্গুণ ব্রহ্মকেই আমাদের চরম লক্ষ্য বলিয়া নির্দেশ করিয়াছেন।'---आमादेर शास्त्र निर्गुण ब्रह्मकेई आमादेर चरम लक्ष्य बोलिया निर्देश कोरियाछेन। आर ईश्वरेच्छाये सकलकेई यदि सेई निर्गुण ब्रह्म उपलब्धि कोरिते समर्थ होइतेन, तोबे बोड़ोई भालो होइतो। किन्तु ताहा कोखोनो होईबार नोय, तखन आमादेर मनुष्यजातिर अनेकेरई पक्षे सगुण आदर्श ना थाकिले एकेबारेई चलिबे ना। রামকৃষ্ণ পরমহংসদেবের মধ্যে আমরা এমন এক ধর্মবীর—এমন একটি আদর্শই পাইয়াছি। .... " भारत में नेता, धर्मबीर, या आध्यात्मिक सूरमा (Spiritual Hero) उन्हें ही माना जाता है जिन्होंने यम के यहाँ पहुंचकर भी अविनाशी आत्मा (मृत्यु स्वरूपा माँ काली का) साक्षात्कार कर लिया है! 'रामकृष्ण परमहंस देवेर मध्ये आमरा एमन एक धर्मबीर - एमन एकटी आदर्शई पाइयाछि। यदि एई जाति उठिते चाय, तोबे आमि निश्चय कोरिया बोलितेछि -एई नामे सकलके मातिते होइबे ! [साभार :স্বামী বিবেকানন্দের সমগ্র রচনাবলী/ https://www.thakurmaaswamiji.com/2021/08/swami-vivekananda-samagra-rachanabali.html ]
"The highest ideal in our scriptures is the impersonal, and would to God everyone of us here were high enough to realise that impersonal ideal; but, as that cannot be, it is absolutely necessary for the vast majority of human beings to have a personal ideal; and no nation can rise, can become great, can work at all, without enthusiastically coming under the banner of one of these great ideals in life. Political ideals, personages representing political ideals, even social ideals, commercial ideals, would have no power in India. We want spiritual ideals before us, we want enthusiastically to gather round grand spiritual names. Our heroes must be spiritual. Such a hero has been given to us in the person of Ramakrishna Paramahamsa. If this nation wants to rise, take my word for it, it will have to rally enthusiastically round this name. Within ten years of his passing away, this power has encircled the globe; that fact is before you. Judge for yourselves; in the heart of your hearts is the Eternal Witness, and may He, the same Ramakrishna Paramahamsa, for the good of our nation, for the welfare of our country, and for the good of humanity, open your hearts, make you true and steady to work for the immense change which must come, whether we exert ourselves or not. For the work of the Lord does not wait for the like of you or me. He can raise His workers from the dust by hundreds and by thousands. It is a glory and a privilege that we are allowed to work at all under Him.-ADDRESS OF WELCOME PRESENTED AT CALCUTTA AND REPLY]
>>>Be bold and fear not. हिम्मत करो और डरो मत ! It is only in our scriptures that this adjective is given unto the Lord — Abhih, Abhih. केवल हमारे ही शास्त्रों में ईश्वर (ब्रह्म या आत्मा) के लिए 'अभिः' विशेषण का प्रयोग हुआ है। हमें 'अभिः' यानि निर्भय होना होगा; तभी हम अपने ऊपर सौंपे हुए कार्य को सिद्ध कर सकेंगे। We have to become Abhih, fearless, and our task will be done. नचिकेता को देखो कैसे वह मृत्यु के रहस्य को जानने के लिये यम के घर तक जा पहुँचा था ! निर्भीक नचिकेता यम के घर जाकर तीन दिनों तक प्रतीक्षा करता रहा और मृत्यु के रहस्य को जान गया कि -मेरी मृत्यु कभी होगी ही नहीं ! क्योंकि मेरा जन्म भी नहीं होता। " जो अपने को दुर्बल सोचता है (मरणधर्मा शरीर-मात्र सोचता है), वह दुर्बल ही हो जाता है !" That Atman which nothing can destroy, in It is infinite power only waiting to be called out. " यह आत्मा अनन्त शक्ति का आधार है, अजर-अमर -अविनाशी है, कोई उसका नाश नहीं कर सकता, उसकी वह अनन्त शक्ति (माँ काली) प्रकट होने के लिए केवल (तुम्हारे) आह्वान की प्रतीक्षा कर रही है। `This Shraddha must enter into you.and before you is the great task to get that shraddha (faith). ' इस श्रद्धा को तुम्हें पाना ही होगा। इसी श्रद्धा को पाने का महान कार्य तुम्हारे सामने पड़ा हुआ है।
अब तक मैंने कुछ नहीं किया है, यह कार्य तुम्हें करना होगा। अगर मैं कल मर भी जाऊँ तो इस कार्य का अन्त नहीं होगा। मुझे पूरा विश्वास है कि जनताजनार्दन के भीतर से हजारों मनुष्य आकर इस व्रत को ग्रहण करेंगे और इस कार्य की इतनी उन्नति तथा विस्तार करेंगे, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी न की होगी। मुझे अपने देश पर विश्वास है, विशेषतः अपने देश के युवकों पर। बंगाल के युवकों पर सबसे बड़ा भार है। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । —उठो, जागो, और जब तक लक्ष्य नहीं प्राप्त कर लेते रुको मत , निरंतर उसकी ओर बढ़ते जाओ। पिछले दस वर्षों तक मैंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया है। [In other parts of India, there is intellect, there is money, but enthusiasm is only in my motherland. That must come out; therefore arise, young men of Calcutta, with enthusiasm in your blood.] भारत के अन्य प्रान्तों में बुद्धि है , धन भी है, परन्तु उत्साह की अग्नि केवल मेरी जन्मभूमि में है ! उस अग्नि को प्रकट होना ही होगा, इसलिए कोलकाता के युवकों अपनी रक्त-शिराओं में उत्साह भरकर जागो !
स्वामीजी 30 नवम्बर, 1894 को लिखे एक पत्र में कहते हैं - "प्रिय डॉक्टर नन्जुन्दा राव , तुम श्रीरामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष है। तुम्हारे तीव्र वैराग्य से से मुझे और भी आनन्द मिला। ईश्वर-प्राप्ति का यह एक अनिवार्य अंग है। .....त्यागियों के बादशाह रूपी मूर्त आदर्श श्री रामकृष्णदेव के चरणों का आश्रय ग्रहण करने से ही व्यक्ति जीवन-गठन और भारत का कल्याण (उत्थान) हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के रोम रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा ? नाम और यश , भोग और ऐश्वर्य का यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का बलिदान कर भारत के चारित्रिक पतन की बाढ़ को रोकने वाला है कोई? श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिए, 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय -चरैवेति, चरैवेति' अभियान करने वाला है कोई ? कुछ इक्के-दुक्के युवकों ने इस 'चरैवेति, चरैवेति' अभियान में अपने को झोंक दिया है, परन्तु इनकी संख्या बहुत कम है। ऐसे हजारों युवाओं की आवश्यकता है, और मैं जानता हूँ कि वे आयेंगे !" " A few have jumped into the breach they are only a few .A few thousands are necessary and they will come ." ( Letter to Dr. Nanjunda Rao dated 30th November, 1894.) यही जो 'they will come ' वाली भविष्यवाणी है - वैसे युवा कहाँ से आयेंगे ?
और इसीलिए आजादी के 20 वर्ष बाद भी जब देशवासियों की अवस्था में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तब 'youth unrest' को सही मार्गदर्शन देने के लिए महामण्डल को 1967 में पश्चिम बंगाल में आविर्भूत होना पड़ा। और विवेकानन्द ज्ञान मंदिर' को युवा चरित्र-निर्माणकारी संस्था के रूप में 12 जनवरी 1985 को झुमरितिलैया बिहार में आविर्भूत होना पड़ा।
मूल्यवान वस्तु खरीदना हो , तो हमें उसकी सही कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए। (One must be ready to pay the right price for the valued commodity.) यदि हमलोग अपना जीवन भारतकल्याण के लिए समर्पित एक योग्य सेवक के रूप में गठित करना चाहते हों, हमें पहले साम्यभाव में अवस्थित होने का प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा।
हमारे शास्त्रों में एक अत्यन्त सुन्दर शब्द है -धीरः। महाकवि कालिदास ने अपने 'कुमारसम्भव' महाकाव्य में भगवान शिव के स्वरुप का वर्णन करते हुए 'धीरः ' शब्द को बहुत ही सुन्दर ढंग से परिभाषित किया है -
'विकार हेतौ सति विक्रियन्ते,
येषां न मनांसी न त एव धीरः।'
अर्थात विकार का कारण उपस्थित होने पर भी जिसके मन में विकार उत्पन्न नहीं होता हो, वे ही धीर पुरुष हैं। ऐसे धीर पुरुष ही 'दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येत ब्रह्ममय जगत ' जगत को ब्रह्ममय देखने अर्थात 'सियाराम मय' देखने वाली आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त कर शाश्वत जीवन प्राप्त कर सकते हैं।
हमें भी मन को समत्व में स्थापित रखने वाले चरित्र के इस गुण धैर्य या विराट साम्य के 'लक्ष्य ' को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना होगा! बाह्य जीवन में कठोर अनुशासन का पालन करते हुए हमें अपने आन्तरिक जीवन में प्रवेश करना पड़ेगा। किन्तु, बाहर से अर्थात बोली में या शारीरक स्तर पर अनुशासन का पालन करते हुए चलें, लेकिन भीतर में अर्थात मन में इसके विपरीत चिन्तन चल रहा हो, तो वह समदृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) हमें प्राप्त नहीं होगी। हमारे संघगीत (Anthem-प्रार्थना) में हर छन्द के बाद दुहराया जाता है कि -'एक साथ चलेंगे, एक बात बोलेंगे।' इसके बाद वाले छन्द में है -" हमारे ह्रदय समान होंगे, हमारी अभिलाषायें समान होंगी, हमारे संकल्प समान होंगे, धन-ऐश्वर्य आदि जो कुछ प्राप्ति होगी उसे हम समान रूप से बाँटकर ही ग्रहण करेंगे। कितनी सुन्दर है यह प्रार्थना ! और यही हमें सीखना है कि किस प्रकार हमलोग संघबद्ध होकर कार्य कर सकते हैं ![महामण्डल का कार्य 'Be and Make' अर्थात व्यक्ति जीवन-गठन (Individual Life Building-not House building) द्वारा भारत-कल्याण के माध्यम से विश्वकल्याण का कार्य कर सकते हैं।] हमारी यह प्रार्थना मानव जाति के सबसे प्राचीन शास्त्र ऋग्वेद संहिता की अंतिम विलक्षण ऋचा है।
ऋग्वेद में अग्नि देवता से लेकर इन्द्र देवता तक जितने सारे देवता हुए हैं, उनकी कथायें हैं, एवं समस्त देवताओं की स्तुतियाँ भी हैं। एक-एक ऋचाओं को सूक्त कहा जाता है। उन समस्त सूक्तों को भिन्न-भिन्न देवताओं को समर्पित किया गया है। किन्तु, इस अन्तिम सूक्त में जिस देवता की स्तुति की गयी है, उस देवता का नाम हुआ 'मतैक्य'। इस ऐक्य को प्राप्त करना ही हमारा लक्ष्य है। इतने प्राचीन काल के ऋषि हमें क्या उपदेश दे रहे हैं ? वे कहते हैं -"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।।" (ऋग्वेद,10-191) .......अर्थात तुम सभी लोग एक मन हो जाओ, संघ के सभी सदस्य विवेक-विचार से एकमत होकर निर्णय लेना सीखो, क्योंकि प्राचीन समय में एक मन होने के कारण ही देवताओं को 'हवि ' प्राप्त होता था। देवता लोग मनुष्यों के द्वारा इसीलिये पूजे गए थे, क्योंकि वे एकमत थे, एक मन हो जाना ही समाज-गठन (अर्थात सांगठनिक एकता) का रहस्य है। अग्नि में जिस हवि की आहुति दी जाती थी, उसे सभी देवगण आपस में समान भाग में बाँटकर ही ग्रहण करते थे। इसीलिए हमलोग कोई भी काम करने से पहले यह प्रार्थना करते हैं कि हमारा ऐक्य बना रहे, ताकि हम अपनी समस्त उपलब्धियों को समान भाग में बाँटकर हो भोग करें। इसी विराट साम्य को प्राप्त करने की ओर अग्रसर होना ही भारतवर्ष की प्राचीन विरासत का लक्ष्य है। अतएव हमलोग उसी विराट साम्य की ओर एवं उसी महान मतैक्य की ओर अग्रसर होंगे।
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[( 12 अप्रैल, 1885 ) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-112 ]
🔱🙏सच्चिदानन्द प्रेम-जल है, उसके भीतर 'मैं' का घड़ा डूबा हुआ है🔱🙏
[आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं !]
[जल में कुंभ कुंभ में जल है , बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जल ही समाया , यही तथ्य कथ्यो ज्ञानी। अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह देखें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है. जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं ! आत्मा-परमात्मा दो नहीं एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है. अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – जब देह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है, एकाकार हो जाती है। (नरहरि बोधसार, भक्ति॰ ४२) में कहा गया है -
द्वैतं मोहाय बोधात्प्राग्जाते बोधे मनीषया ।
भक्त्यर्थं कल्पितं (स्वीकृतं) द्वैतमद्वैतादपि सुन्दरम् ॥
‘तत्त्व-बोध से पहले का द्वैत तो मोह में डालता है, पर बोध हो जाने पर भक्ति के लिये स्वीकृत द्वैत अद्वैत से भी अधिक सुन्दर होता है ।’ प्रेमाभक्ति तत्त्व-ज्ञान होने के बाद भी हो सकती है और सीधे भी हो सकती है । भक्त का भगवान् में गाढ़ अपनापन (आत्मीयता) होने से तत्त्वज्ञान हुए बिना भी सीधे प्रेमा-भक्ति प्राप्त हो सकती है । प्रेमाभक्ति प्राप्त होनेके बाद भगवत्कृपासे अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है‒
मम दरसन फल परम अनूपा ।
जीव पाव निज सहज सरूपा ॥
(मानस, अरण्य॰ ३६ । ५)
गुरु-जनों से (नेता या लोकशिक्षक से) मिलने वाले ज्ञानकी अपेक्षा जगद्गुरु भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस से मिलने वाला ज्ञान अत्यन्त विलक्षण होता है ! ज्ञानी में तो अखण्ड आनन्द रहता है, पर प्रेमी भक्त में प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द रहता है । इसलिये भक्त ज्ञानी की तरह शान्त, एकरस नहीं रहता, प्रत्युत उसमें विभिन्न विलक्षण भावों का उछाल आता रहता है‒
वाग्गद्गदा द्रवते यस्य चित्तं
रुदत्यभीक्ष्णं हसति क्यचिच्च ।
विलज्ज उदगायति नृत्यते च
मद्धक्तियुक्तो भुवनं पुनाति ॥
(श्रीमद्भा॰ ११ । १४ । २४)
‘जिसकी वाणी मेरे नाम, गुण और लीलाका वर्णन करते-करते गद्गद हो जाती है, जिसका चित्त मेरे रूप, गुण,प्रभाव और लीलाओं का चिन्तन करते-करते द्रवित हो जाता है, जो बारंबार रोता रहता है, कभी हँसने लग जाता है, कभी लज्जा छोड़कर ऊँचे स्वरसे गाने लगता है। और कभी नाचने लग जाता है, ऐसा मेरा भक्त सारे संसार को पवित्र कर देता है ।’]
श्रीरामकृष्ण (त्रैलोक्य से) -जो कुछ है, बस वही है । तब, कुछ प्रकाश यहाँ हुआ है और बचा-खुचा वहाँ, - यह कुछ मुँह से नहीं कहा जाता । सच्चिदानन्द सागर है । उसके भीतर 'मैं' घट है । जब तक घट है तब तक पानी के दो भाग हो रहे हैं । एक भाग घट के भीतर है, एक बाहर । घट फूट जाने पर एक ही पानी है ! यह भी नहीं कहा जा सकता - कहे कौन ?
jīvanmuktisukhaprāptyai svīkṛtaṃ janma līlayā /
ātmanā nityamuktena na tu saṃsārakāmyayā // NBs_46.3 //
जीवन्मुक्तिसुखप्राप्तिहेतवे स्वीकृतं जन्म लीलाया /
आत्मना नित्यमुक्तेन न तु संसारकाम्यया // NBs_Narahari: Bodhasāra 46.3 //
*तत्त्वज्ञान होनेपर ज्ञानी पुरुष परिस्थितिसे रहित नहीं होता प्रत्युत सुख-दुःखसे रहित होता है । ज्ञानीके सामने भी प्रारब्धके अनुसार अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति आती-जाती रहती है, पर उसपर परिस्थितिका असर नहीं होता अर्थात् वह सुखी-दुःखी नहीं होता; क्योंकि वह गुणातीत है‒‘समदुःखसुखःस्वस्थः’ (गीता १४ । २४) ।
*तत्वज्ञान शरीरके सम्बन्ध (अहंता-ममता)-का नाश तो करता है, पर शरीरका नाश नहीं करता । कारण कि जीवन्मुक्त होनेपर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता । इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान होने पर भी जब तक प्रारब्ध का वेग रहता है, तब तक शरीर भी रहता है । अगर शरीर तत्काल नष्ट हो जाय तो फिर ज्ञान का उपदेश कौन करेगा ? ब्रह्मविद्या की परम्परा कैसे चलेगी ?
“जीवन्मुक्तिसुखप्राप्तिहेतवे जन्म"
प्रवृत्ति ओर निवृत्ति दोनों मार्गो का किस प्रकार प्रवर्तन आदि हुआ, यह बताने के लिये भाष्यकार आचार्य शंकर ने गीता का उपोद्धातभाष्य रचा । "सृष्टि के प्रारंभ में परमेश्वर ने इस सारे जगत् की सृष्टि की। " मूर्ख लोग चीज को तो बना देते है, लेकिन आगे उसका क्या होगा? इसका विचार नहीं करते । अगर हम मकान बनाते है तो वह मकान ठीक तरह से रक्षित रहे, उसका उपयोग आगे होता रहे, इस सबकी व्यवस्था करना हमारा काम होता हे। ऐसा नहीं कि आगे जो होना होगा, होगा, हमसे मतलब नहीं। भगवान् ने सृष्टि करके सोचा कि यह ठीक से चलता रहे, इसलिये उन्होने मरीचि आदि प्रजापतियों की सृष्टि की ओर उनको वेद मे कहे हुए प्रवृत्ति मार्ग को बताया । ये लोग इस सृष्टि का ठीक -ठीक संचालन करेंगे ऐसा समझकर उन्होंने यह प्रवृत्ति धर्म उन्हे दे दिया जिससे जगत् की सृष्टि चलती रहे । धर्म का अंतिम प्रयोजन क्या है? स्थिति बनी रहे यह तो है ही, लेकिन स्थिति बनी रहे इससे प्रयोजन क्या सिद्ध होगा? इस सृष्टि का केवल प्रयोजन तो 'मोक्ष' (Dehypnotized-भ्रममुक्त होना) ही है ।
इसलिये शास्त्रकारों ने कहा है “जीवन्मुक्ति-सुखप्राप्तिहेतवे जन्म" हमारा जन्म इसलिये होता है कि हम जीवन्मुक्ति के सुख को प्राप्त करें । क्षुद्र भोगों की प्राप्ति तो पशु पक्षी शरीरो में भी होती हे। इसके लिये विवेक-बुद्धि वाले मनुष्य की कोई जरूरत नहीं है । भोग भोगना तो मन, इन्द्रिय से ही हो जाता है। उसमें उचित-अनुचित समझने वाली विवेक-प्रयोग बुद्धि की जरूरत नहीं है । मनुष्य कं अन्दर जो यह विवेक है या उचित-अनुचित की बुद्धि है वह इसलिये कि जीवन्मुक्ति के सुख को प्राप्त करे ।
अतः साधारण मनुष्य को उस मार्ग का मार्गदर्शन / प्रवर्तन करने के लिये उन्होंने सनकादि को उत्पन्न किया ओर उनको निवृत्ति धर्म का उपदेश दिया । निवृत्तिलक्षण धर्म क्या है ? “ज्ञानवैराग्य-लक्षणम्' जिसमें परमात्मा का ज्ञान हो ओर संसार के प्रति वैराग्य हो। यह निवृत्ति का स्वरूप है ।सनकादि को उत्पन्न करके उन्होने ज्ञान वैराग्य का उपदेश दिया। सनक सनंदन को उन्होने क्यों चुना? क्योकि इन्हें नित्यकुमार कहा है। "कुत्सितः मारः येन स कुमारः" जिसने कामदेव को जीत लिया है, उसको कुत्सित कर दिया है, वही कुमार है। चूकि सनकादियों ने पहले ही कामनाओं को नष्ट कर दिया था इसलिये वे इस उपदेश को पाने के योग्य थे। अतः उनके द्वारा निवृत्ति मार्गं का प्रवर्तन किया, और उसे 'कुरु क्षेत्र' कहा।
यह सारा संसार ठीक-ठीक चलता रहे इसकं लिये उन्होंने मरीचि आदि को प्रवृत्ति धर्म का उपदेश दिया जिसे गीता के प्रथम श्लोक में “धर्मक्षेत्र' से कहा । केवल दो प्रकार के ही धर्म सारे शास्त्रों में प्रतिपादित है प्रवृत्ति ओर निवृत्ति। जगत्. की स्थिति का कारण जो प्रवृत्ति धर्म है वही प्राणियों के अभ्युदय का कारण है। उसी धर्म का ईश्वरार्पण बुद्धि से अनुष्ठान करने पर वह मोक्ष का कारण हो जाता है।
[https://archive.org/stream/shri-krishna-sandesha-part-1-swami-maheshanand-giri-ji/
नारदजीने कहा—युधिष्ठिर ! अजन्मा भगवान् ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं। ( वह सनातन साक्षी जो सभी भक्तों के ह्रदय में भगवान श्रीरामकृष्ण के रूप में विराजमान हैं, ही समस्त धर्मों के मूल कारण हैं।) वही प्रभु चराचर जगत् के कल्याण के लिये धर्म और दक्ष-पुत्री मूर्ति के द्वारा अपने अंश से अवतीर्ण होकर बदरिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। उन नारायण भगवान् को नमस्कार करके उन्हीं के मुख से सुने हुए सनातनधर्म का मैं वर्णन करता हूँ ॥ ५-६ ॥
वह वर्णाश्रम धर्म, ब्राह्मण आदि चार वर्ण और गृहस्थ आदि जो आश्रम वाला जो धर्म है, उनके दारा अनुष्ठित होकर ही कल्याण का साधन होता हे। भगवान् ने उपदेश दे दिया, दीर्घं काल तक धर्म चलता भी रहा। सनकादि तो ` कामशून्य ' थे परन्तु अधिकतर लोग वासना और धनदौलत की कामना वाले ही होते है । इसलिये अधिकतर ब्राह्मणादि वर्णाश्रम धर्म के लिये हेतु बनने वाले निष्काम कर्मो को छोडकर कामनापूर्ति (तीनों ऐषणाओं की पूर्ति) के कर्मों मे ही प्रवृत्त होते हँ । विवेक की कमी के कारण उचित-अनुचित को अलग-अलग न कर अधर्म को ही ठीक मान लेते हैँ अतः अधर्म ही बढ़ता जाता है। यह समझने के लिये अनुमान की जरूरत नहीं है, आजकल के युग में सर्वत्र देख ही रहे हो । विवेक प्रयोग विज्ञान न होने के कारण ही हम अधर्म को आवश्यक मानते हैँ ओर कहते हैं कि अधर्म के बिना काम नहीं चल सकता। ऐसा ही अधिकतर लोगों के मन में बैठा हुआ है। इस तरह से अधर्म के द्वारा जब धर्म दब जाता है ओर चारों तरफ, घर-घर में अधर्म ही देखने मेँ आता है।
जो भी आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित है उसके लिये कोई भी प्रयोजन अपने लिए नहीं रहता है। भगवान् ने प्राणियों के ऊपर केवल करुणामात्र से ही, शोक-मोह में इूबे हुए अर्जुन को निमित्त बनाकर, प्रवृत्ति ओर निवृत्ति धर्मो का तथा परमात्मज्ञान का उपदेश दिया । अर्जुन केवल धनंजय ही नहीं, कामजयी भी था, (उर्वशी को उसने माँ कहा था) इसलिये उसे सब लोग अत्यंत प्रतिष्ठित समञ्जते थे। अतः उसे निमित्त बनाने का भाव हे कि जब अर्जुन इस उपदेश को ग्रहण करके तदनुकूल आचारण करेगा तो चूकि वह श्रेष्ठ है अतः उसे देखकर दूसरे भी वैसा आचरण करेगे । भगवान् ने खुद ही गीता में कहा कि जो-जो काम श्रेष्ठ पुरुष करते हैँ वही काम दूसरे भी उसे देखकर करते है ।
परमेश्वर ने इस सृष्टि की रचना मोक्ष के प्रयोजन के लिये की थी ओर प्राणियों के कल्याण के लिये की थी । यह अधर्म के दारा नष्ट ही होती जायेगी तो इसको कैसे बचाया जाये ? इस सृष्टि के अन्दर रह कर ही इसको बचाया जा सकता है, इससे दूर रहकर इसको नहीं बचाया जा सकता। इसमें भी प्रधान रूप से किस वर्ण को पहले बचना है? सनातन धर्म मेँ ब्राह्मण को ही धर्म का रक्षक माना है। इसलिये इस ब्राह्मणत्व की रक्षा कं लिये भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए । सारे वर्णाश्रम धर्म के किस वर्ण को कैसे और क्या करना हे, क्या नहीं करना है, क्या जानना है, क्या नहीं जानना है,? इत्यादि भेदों को ब्राह्मण ही बताता है। इसलिये ब्राह्मण की रक्षा करने से ही वैदिक धर्म की रक्षा हो सकती है। मनुष्य शरीर में आने पर भी अवतार वरिष्ठ (भगवान् श्रीरामकृष्ण) के ज्ञान, एश्वर्य, शक्ति, वीर्य, तेज वेसे ही रहते हैँ । उन्होंने जो उपदेश मरीचि आदि को उपदेश दिया, वही उपदेश सनकादि को दिया, और वही उपदेश अर्जुन को दिया ओर वही उपदेश सभी को उपलब्ध है । गीता शास्त्र मेँ वेदों -उपनिषदों का सार इकट्ठा किया गया है । व्यास जी ने इसका प्रतिपादन सात सौ श्लोकों में ही किया है। यह शास्त्र प्रवृत्ति व निवृत्ति दोनों धर्मो को बताता है। गीता का प्रयोजन परम निःश्रेयस या मोक्ष ही है जिसके कारण स्वतः संसार की निवृत्ति हो जाती है, फिर कभी भी संसार का बन्धन नहीं होता। इस प्रकार धर्मक्षेत्र ओर कुरुक्षेत्र से चारो पुरुषार्थो की सिद्धि होती है । यह धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र मनुष्य का शरीर है इसके अन्दर “समवेता युयुत्सवः मामकाः पाण्डवाश्चैव" विद्या ओर अविद्या दोनों ही वृत्तियाँं एकत्रित हुई है ।
{5 यम : सत्य = बिना तोड़े-मरोड़े सत्य का भाषण/ अहिंसा =मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचना/ ब्रह्मचर्य = शरीर और मन से पवित्र रहना (अर्थात अपने वीर्य का दुरुपयोग न होने देना, अपनी पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य स्त्री से संभोग न करना तथा वर्जित अवसरों पर यथा मासिक धर्म के अवसर पर पत्नी के साथ संभोग न करना)/ अस्तेय = चोरी नहीं करना (बिना पूछे किसी की कोई वस्तु न लेना)/ अपरिग्रह = उपहार या दान (मुफ्त) में कुछ नहीं लेना (यदि कोई तुम्हारा उपहार या अन्न-वस्त्र-ज्ञान-दान स्वीकार कर लेता है तो देने वाले दाता को कृतज्ञ होना चाहिए। 5 नियम : शौचम्—शरीर और मन को स्वच्छ रखना।/सन्तोष = यथोचित प्रयास करने बाद जो भी उपलब्ध हो उसी में सन्तुष्ट रहना। / तपः = कष्ट सहना या तपस्या (यथा एकादशी के दिन मास में दो बार उपवास करना। )/ स्वाध्याय = भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत, रामायण, महाभारत जैसे दिव्य ग्रंथों का पठन (अथवा जो वैदिक संस्कृति के लोग नहीं हैं, उनके द्वारा बाइबिल या कुरान का पठन, विवेकानन्द की शिक्षाओं को पढ़ना। )/ ईश्वरप्रणिधान= अर्थात ईश्वर या किसी महापुरुष में विश्वास और समर्पण। } जिस यम -नियम आदि सार्वभौमिक धर्म का पालन सभी मनुष्यों को करना आवश्यक होता है उस सनातन धर्म की संस्तुति करते हुए नारद मुनि कहते हैं कि -
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[स्वामी विवेकानन्द के लिये 'मृत्यु ' कोई घटना (दुर्घटना ?) नहीं थी, वे तो इसको एक यात्रा की तरह देखते थे। वे अज्ञात का भय या 'मृत्यु ' के भय से पीड़ित नहीं थे। वे तो जान चुके थे कि " मैं कभी नहीं मरूँगा", क्योंकि शरीर या अहं की मृत्यु होती है -और आत्मा तो अजर -अमर अविनाशी है। 4 मार्च 1900 को भगिनी निवेदिता को लिखित पत्र में स्वामी जी कहते हैं - " कर्म-व्यस्त जीवन मुझे पसन्द नहीं है- शान्ति (एकान्तवास) और चिरविश्राम के लिये मैं लालायित हूँ। मेरे (चिरविश्राम का) स्थान और समय भी मुझे ज्ञात है, फिर भी मेरा प्रारब्ध (भाग्य और कर्मफल) मुझे निरन्तर कर्म (बहुजन हिताय , बहुजन सुखाय -'चरैवेति,चरैवेति') की ही ओर ले जा रहा है। “I don’t want to work. I want to be quiet, and rest. I know the time and the place; but the fate, or Karma, I think, drives me on – work, work.” ...जिस समय उन्होंने लिखा"मैं समय और स्थान जानता हूं," वह स्पष्ट रूप से अपने निधन के समय और स्थान का जिक्र कर रहे थे। (Written to Mrs. Ole Bull whom Swamiji called “Dhirâ Mâtâ”, the “Steady Mother” on the occasion of the loss of her father.)
20 जनवरी 1895 को श्रीमती 'ओलि बुल' को उनके पिता की मृत्यु के अवसर पर लिखित पत्र में कहते हैं - "आना - जाना ' पूरी तरह से भ्रम है। आत्मा न कभी आती है, न कभी जाती है। जब सम्पूर्ण देश (space -स्थान) आत्मा में ही स्थित है, तब वह किस स्थान में जायेगी? जब समस्त काल आत्मा में ही है, तब उसके शरीर (स्थान) में प्रवेश करने और प्रस्थान करने का समय (दिन, तारीख स्थान ) क्या होगा ? पृथ्वी घूमती है - परन्तु पृथ्वी का यह घूर्णन ही सूर्य के घूमने का भ्रम उत्पन्न करता है; लेकिन वास्तव में सूर्य घूमता नहीं है। ठीक उसी प्रकार प्रकृति (देह-मन), माया या स्वभाव गतिशील है परिवर्तनशील है, परिणाम (विवर्त ?) को प्राप्त होती है; एक के बाद दूसरा पर्दा हटता जाता है, इस जगत रूपी विशाल पुस्तक का पन्ने पर पन्ना पलटता जाता है और उधर सनातन साक्षी आत्मा (अहं नहीं ) स्वयं निश्चल और अपरिणामी रहकर ज्ञान-अमृत का पान करने में विभोर रहती है। जितनी जीवात्मायें पहले हो चुकी हैं, या अभी हैं अथवा जो भविष्य में रहेंगी सभी वर्तमान काल (Present Tense) में हैं। क्योंकि आत्मा में स्थान (देश) का भाव नहीं रहता , इसलिए जो हमारे (मित्र-बन्धु -नेता) थे, हमारे हैं , और जो हमारे (भावी -बन्धु -नेता) होंगे - वे सदा हमारे साथ हैं। वे हममें हैं, हम उनमें हैं। ...चन्द्रमा के मुख पर बादल चलते हैं, वे यह भ्रम उत्पन्न करते हैं कि चन्द्रमा चल रहा है। इसी प्रकार प्रकृति, शरीर (जो जन्मा था, उसकी उम्र बढ़ रही है) और जड़ (matter-लक्ष्मी चंचला) ये सब गतिशील हैं। उनकी निरंतर गतिशीलता ही यह भ्रम उत्पन्न करती है कि आत्मा है। प्रत्येक जीवात्मा एक नक्षत्र है , और ये सब नक्षत्र ईश्वर-रूपी उस अनन्त निर्मल आकाश में विन्यस्त है। इन जीवात्मा-रूप नक्षत्रों में से कुछ के (माँ , नवनीदा जो हमारी दृष्टि के अतीत प्रदेश में चले गए हैं) अनुसन्धान से ही धर्म का आरम्भ हुआ और यह अनुसन्धान तभी समाप्त हुआ जब उन सबको हमने परमात्मा में (प्रेममय सनातन साक्षी श्रीरामकृष्ण में) पाया, और अपने आप को भी उन्हीं में पाया। अब सारा रहस्य यह है कि आपके पिता ने जो जीर्ण वस्त्र (शरीर) पहना था, उसका उन्होंने त्याग कर दिया , और वे वहीं अवस्थित हैं, जहाँ वे अनंत काल से थे। क्या वे पुनः वैसा ही एक वस्त्र तैयार करके उसे पहनेंगे ? जब तक कि वे यह बात पुरे ज्ञान के साथ न करें; मैं सच्चे दिल से भगवान से (माँ जगदम्बा से) प्रार्थना करता हूँ कि ऐसा न हो। मैं प्रार्थना करता हूँ कि अपने पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के फलभोग की अदृश्य शक्ति से घसीटा जाकर,कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा के विरूद्ध किसी भी योनि में जन्म लेने को बाध्य न किया जाय। मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी मुक्त हो जायें -अर्थात अपने अनुभव से वे यह जान ले कि वे मुक्त हैं!
[ मैं प्रार्थना करता हूँ कि प्रत्येक जीव भेंड़त्व के अहं से मुक्त हो जाये , और सिंह-शावक अपने को पहचान कर ह्रदय में विद्यमान उसी प्रेममय सनातन साक्षी (श्रीरामकृष्ण) का दासोहं से युक्त हो जाये हैं? যখন সমুদয় দেশ আত্মার মধ্যেই রয়েছে, তখন সে স্থানই বা কোথায়, আত্মা যেখানে যাবেন? যখন সমুদয় কাল আত্মাতেই রয়েছে, তখন ওর দেহাভ্যন্তরে প্রবেশ করবার ও ছাড়বার সময়ই বা কোথায়?भगवान कभी मर नहीं सकते या आत्महत्या नहीं कर सकते अतएव मेरे अहं के मरने का या अहं को त्याग देने का समय, दिन, तारीख और स्थान -'ऊँच, बनारस', (day, date and place,14.4.1992 at 6.15 AM and place : Unch, Banaras) वह समय पहले से पंचांग देखकर तय होगा या मालूम होगा ? 1992 का पंचांग और -????का पंचांग से तुलना करना होगा ? या महेन्द्रयोग 1986 के कुम्भस्नान के समय से मिलान करना होगा ?]
Vivekananda’s death was not an episode, it was almost a journey and the manner in which he approached it, is intensely symbolic of the calm composure and the mastery of the fear of the unknown. Death is not something to be fearful of or kept at bay, rather it should be embraced and accepted like all other worldly undertakings and he showed the way to do it. He always predicted that he would not live beyond the age of 40 and when he breathed his last, he was just 39 years and five months old. He embraced death free of any fear or apprehension. How did Swamiji view Death? Advaita Vedanta holds all men as one in spiritual brotherhood, but that the last word in religion is man’s realization of his essential oneness with the entire universe. In 4 March, 1900, Swamiji wrote a letter to Sister Nivedita. There, he wrote, “I don’t want to work. I want to be quiet, and rest. I know the time and the place; but the fate, or Karma, I think, drives me on – work, work.”......When he said, “I know the time and the place,” he was obviously referring to the time and place of his demise. He wrote to Mrs Bull in 20 January,1895., “Coming and going is all pure delusion. The soul never comes nor goes. Where is the place to which it shall go, when all space is in the soul? When shall be the time for entering and departing, when all time is in the soul? All souls that ever have been, are, or shall be, are all in the present tense…Because the idea of space does not occur in the soul, therefore all that were ours, are ours, and will be ours, are always with us. We are in them. They are in us……The whole secret is, then, that your father has given up the old garment he was wearing and is standing where he was through all eternity. Will he manifest another such garment in this or any other world? I sincerely pray that he may not, until he does so in full consciousness. I pray that none may be dragged any whither by the unseen power of his own past actions. I pray that all may be free, that is to say, may know that they are free. And if they are to dream again, let us pray that their dreams be all of peace and bliss…It is the belief of the Hindu that the soul is neither mind nor body. What is it which remains stable — which can say, ‘I am I? Not the body, for it is always changing; and not the mind, which changes more rapidly than the body, which never has the same thoughts for even a few minutes.’’The Hindus believe that a man is a soul and has a body, while Western people believe he is a body and possesses a soul.The soul is a single element, not composed of anything else, and therefore it cannot die.साभार https://www.getbengal.com/-swami-vivekananda-know-when-he-would-die]“It may be that I shall find it good to get outside my body—to cast it off like a worn-out garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God!” And that 'INSPIRATION ' has come. And now that it has come, it shall remain with the sons of men until the whole world attains the consummation of the Highest Truth.
Ay, he scorned Mukti for himself until he could lead all beings in the universe to its portals. Vision and Realisation are imperishable. Being of the Truth they are eternal. And he is eternal—he has Eternity in the palm of his hand, as it were—who has found the Truth.
And the notes of Freedom and Realisation are heard beyond the boundaries of life and death ; and with the numerous devotees, the apostles and disciples of the Modern Gospel—the prophets and the saints and seers of the Sanatana Dharma—the Voice of India is heard and shall resound down the distant centuries in those shouts of praise and triumph: Renounce! Renounce! Realise the Divine Nature! Arise! Awake! and stop not till the Goal is reached! ” साभार -XL MAHASAMADHI /https://www.ramakrishnavivekananda.info/]
Why RANAGHAT MALANCHA VIDYAPITH, is using same emblem with 6 thunderbolts ???
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शिवमंगल सिंह सुमन जी का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुर बख्श सिंह था। उनका परिवार कई पीढ़ियों से देश की सेवा में समर्पित रहा है। शिवमंगल सिंह सुमन के दादा ठाकुर बलराज सिंह रीवा सेना में कर्नल थे। और परदादा ठाकुर चन्द्रिका सिंह 1857 की क्रांति में वीरगति को प्राप्त हुए थे। उनकी कविता से प्रेरित गौतम अदाणी कहते हैं- " सफलता -असफलता तो जीवन का हिस्सा है। असफलता से डरना या झुकना नहीं है। मुझे आत्मसन्तुष्टि है कि मैं और मेरा समूह देश के नवनिर्माण में यथा सम्भव अपना योगदान दे पा रहे हैं। बचपन में शिवमंगल सिंह सुमन की इन पंक्तियों ने मुझपर अमिट छाप छोड़ी थी :
क्या हार में क्या जीत में,
किंचित नहीं भयभीत मैं।
संधर्ष पथ पर जो मिले,
यह भी सही वह भी सही।
वरदान मांगूंगा नहीं।
****>>> 'original sin' ईडन गार्डन से आदम और हव्वा के निष्कासन की कहानी : ईसाई धर्म में इस ईडन-निकाले को "मानव का पतन" (fall of man, फ़ॉल ऑफ़ मैन) कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि हर मानव एक जन्मजात पापी है जो मरणोपरांत नरक जाएगा। क्योंकि आदम और हव्वा का पाप हर मानव पर लागू होता है। ईडन के उद्यान में आदम और हव्वा बिलकुल अज्ञान और निर्दोष स्थिति में आनंद से बच्चों की तरह रहते थे। वे पूरी तरह नग्न रहते थे क्योंकि उन्हें यौन संबंधों का कोई ज्ञान नहीं था और कोई शर्म नहीं अनुभव होती थी। इसी उद्यान में एक वृक्ष था जिसे "ज्ञान का वृक्ष" कहा जाता है। उसपर लगे फल का खाना ईश्वर ने स्पष्ट रूप से आदम को वर्जित किया था। ईसाई मान्यता के अनुसार एक सर्प ने पहले हव्वा को उकसाया और फिर हव्वा ने आदम को ज्ञान का फल खाने के लिए उकसाया। आदम ने आज्ञा-उल्लंघन की और फल खा लिया। इस से उसकी निष्कपटता ख़त्म हो गई और आदम और हव्वा को एक-दूसरे को देखकर शर्म महसूस होने लगी। उन्होंने कुछ अंजीर के पत्तों (फ़िग लीफ़) के छोटे वस्त्र बनाकर अपने कुछ अंग ढकने का प्रयास किया। "fig leaf" को किसी शर्मनाक कार्य को जैसे-तैसे छुपाने के प्रयास के लिए प्रयोग किया जाता है। "It is a big scandal and this report is just a fig-leaf" का अर्थ हुआ "यह बहुत बड़ा काण्ड है और यह रिपोर्ट तो केवल एक अंजीर का पत्ता (छुपाने का प्रयास) है"। जब ईश्वर उनसे मिलने आये और यह देखा तो वह समझ गए की आदम ने ज्ञान का फल खा लिया है और भयंकर क्रोध में आ गए। उन्होंने आदम और हव्वा को ईडन से निकाल दिया। ईसाई मान्यताओं में तब से मानव पापी अवस्था में संसार में भटक रहे हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप में ईडन की कहानी इस्लामी स्रोतों से आई। क्योंकि आदम पहला पुरुष माना जाता है इसलिए उन्हें "बाबा आदम" कहा जाने लगा। ईडन की कथा में हव्वा ने आदम से ज्ञानफल खाने को कहा था इसलिए अक्सर व्यंग्य में "नारी पुरुष के पतन का कारण है" सुना जाता है। उदाहरण के लिए ग़ालिब की प्रसिद्ध ग़ज़ल "हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी" नामक के इस शेर में एक प्रेमी अपनी प्रेमिका की गली से निकलवाने की बेइज्ज़ती की तुलना आदम के ईडन से निकाले जाने से करता है:
"हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।
"निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,
बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।"
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नेता विनीतो मधुरस्त्यागी दक्षः प्रियंवदः ।
रक्तलोकः शुचिर्वाग्मी रूढवंशः स्थिरो युवा ॥१॥
बुद्ध्युत्साहस्मृतिप्रज्ञाकलामानसमन्वितः ।
शूरो दृढश्च तेजस्वी शास्त्रचक्षुश्च धार्मिकः ॥ २ ॥
[ विशेष - नायक का सामान्य लक्षण करते हुए दशरूपक कार धनंजय कहते हैं कि - नाट्य का नायक नम्रता से परिपूर्ण प्रियदर्शन अर्थात देखते ही प्रिय लगने वाला, त्यागी सब कुछ देने को तैयार, चतुर- चालाक प्रिय भाषी अर्थात मीठी जबान वाला मीठा बोलने वाला, लोक को आनंद प्रदान करने वाला शुद्ध बोलने में निपुण, उच्च कुल का ,स्थिर प्रसिद्ध कुल वाला, बुद्धि वाला, उत्साह वाला, स्मृति शक्ति वाला, विशेष ज्ञान वाला एवं सभी कलाओं को जानने वाला, मान पाने वाला शूर दृढ तेजस्वी शास्त्रों को जानने वाला एवं धार्मिक होता है।
>>>Leadership trapped in the web of egotism. अहंकार के जाल में फंसा व्यक्ति को बाहर निकालने वाला नेतृत्व। नयति इति नायकः' >>>नायकः अवदत्- दशमः त्वम् असि इति। यानी नायक अपने सभी भाइयों को अपने साथ ही लेकर चलता है। लेकिन 'ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।' ....ऐसा व्यक्ति जो वैचारिक आधार पर ,राष्ट्रीयता के आधार पर जनताजनार्दन को आगे लेकर चल सके वह नेता है ।
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