मेरे बारे में

सोमवार, 20 जून 2022

🔆🙏परिच्छेद ~104 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ] 🔆🙏दयासिंधु श्री रामकृष्ण और वारवनिता (नटी- नाचनेवाली स्त्री)🔆🙏सत्त्वगुण आने पर ईश्वरलाभ होता है - "सच्चिदानन्द या कारणानन्द ?"🔆🙏 वीरभाव से शक्ति-पूजा करने में अक्सर पतन की सम्भावना रहती है🔆🙏 त्रय दुर्लभं -मनुष्य शरीर,मुक्ति की इच्छा और भगवान श्री रामकृष्ण का आश्रय 🔆🙏 गुप्तयोगी राजर्षि जनक सद्गुरु की आज्ञा से कर्तव्य-निर्वहन करते हैं🔆🙏 रूपसागर में कामिनी-कांचन घड़ियाल का भय, विवेक-वैराग्य हल्दी है🔆🙏 गृहस्थ जीवन (रूपसागर) में रहते हुए- क्या ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है?🔆🙏 अवतार निष्ठा >भक्ति >भाव > ईश्वरकोटि को ही महाभाव और प्रेम होता है🔆🙏 *स्टार थियेटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*आध्यात्मिक विचारों का आत्मसातीकरण करने के लिए पाण्डित्य नहीं , अतीन्द्रिय सत्य की धारणा होनी चाहिए। 🔆🙏प्रह्लाद नाटक का प्रत्येक दृश्य और श्री रामकृष्ण की धारणा🔆🙏 `Hear the Holy' 'मन (आदत) का गुलाम' बनने से रक्षा करता है 'पवित्र वाणी श्रवण' 🔆🙏 जीवन-नाटक में माँ आनन्दमयी ही विभिन्न स्त्री पात्रों की भूमिका में हैं; ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस 🔆🙏ईश्वर-दर्शन के लक्षण : बालक,पौगण्ड और लोकशिक्षा के समय सिंह-युवा 🔆🙏अहं (मन-शरीर) ही वह मेघ है जो आत्मा (3rd'H') रूपी सूर्य को ढँक देता है🔆🙏संघ को एकता के सूत्र में बाँधे रखने के लिए नेता को 'दास मैं ' रखना होगा🔆🙏संघ में तीन श्रेणी के गुरुभक्त नेता (लोकशिक्षक) होते हैं🔆🙏निष्काम कर्म करने से चित्त की शुद्धि हो जाती है 🔆🙏ज्ञानी परमहंस -अपनी मुक्ति चाहते हैं, और प्रेमी परमहंस दूसरों की 🔆🙏 तीनों ऐषणा से रहित, अहेतुकी भक्ति : केवल ईश्वरकोटि में होती है🔆🙏ईश्वर दर्शन का उपाय -व्याकुलता🔆🙏ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय - कलिकाल में नारदीय भक्ति🔆🙏 *स्टार थियेटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*

*परिच्छेद -१०४*

*स्टार थियेटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय-दर्शन*

(१)

[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏आध्यात्मिक विचारों  का आत्मसातीकरण  करने के लिए पाण्डित्य नहीं ,

अतीन्द्रिय सत्य की धारणा होनी चाहिए। 🔆🙏 

[In order to assimilate spiritual thoughts, there should be a perception of the transcendental truth by reaching Nirvikalpa Samadhi, not erudition.]

श्रीरामकृष्ण आज स्टार थिएटर में प्रह्लाद-चरित्र का अभिनय देखने आये हैं । साथ में राम मास्टर, नारायण आदि हैं । तब स्टार थिएटर बिडन स्ट्रीट में था । बाद में इसी रंगमंच पर एमरेल्ड थिएटर और क्लासिक थिएटर का अभिनय होता था ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ আজ স্টার থিয়েটারে প্রহ্লাদচরিত্রের অভিনয় দেখিতে আসিয়াছেন। সঙ্গে মাস্টার, বাবুরাম ও নারায়ণ প্রভৃতি। স্টার থিয়েটার তখন বিডন স্ট্রীটে, এই রঙ্গমঞ্চে পরে এমারল্ড থিয়েটার ও ক্লাসিক থিয়েটারের অভিনয় সম্পন্ন হইত।

आज रविवार है । १४ दिसम्बर, १८८४ । श्रीरामकृष्ण एक बाक्स में उत्तर की ओर मुँह किये हुए बैठे हैं । रंगमंच रोशनी से जगमगा रहा है । श्रीरामकृष्ण के पास बाबूराम, मास्टर और नारायण बैठे हैं । गिरीश आये हैं, अभी अभिनय का आरम्भ नहीं हुआ है । श्रीरामकृष्ण गिरीश से बातचीत कर रहे हैं ।

[আাজ রবিবার। ৩০শে অগ্রহায়ণ, কৃষ্ণা দ্বাদশী তিথি, ১৪ই ডিসেম্বর, ১৮৮৪ খ্রীষ্টাব্দ। শ্রীরামকৃষ্ণ একটি বক্সে উত্তরাস্য হইয়া বসিয়া আছেন। রঙ্গালয় আলোকাকীর্ণ। কাছে মাস্টার, বাবুরাম ও নারায়ণ বসিয়া আছেন। গিরিশ আসিয়াছেন। অভিনয় এখনও আরম্ভ হয় নাই। ঠাকুর গিরিশের সঙ্গে কথা কহিতেছেন।

SRI RAMAKRISHNA arrived at the Star Theatre on Beadon Street in Calcutta to see a play about the life of Prahlada. M., Baburam, Narayan, and other devotees were with him. The hall was brightly lighted. The play had not yet begun. The Master was seated in a box, talking with Girish.

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर) - वाह, तुमने तो यह सब बहुत अच्छा लिखा है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্যে) — বা! তুমি বেশ সব লিখছ!

MASTER (smiling): "Ah! You have written nice plays."

गिरीश – महाराज, धारणा कहाँ ? सिर्फ लिखता गया हूँ ।

[গিরিশ — মহাশয়, ধারণা কই, শুধু লিখে গেছি।

GIRISH: "But, sir, how little I assimilate! I just write."

श्रीरामकृष्ण - नहीं, तुम्हें धारणा है । उसी दिन तो मैंने तुमसे कहा था, भीतर भक्ति हुए बिना कोई मनुष्य 'भगवान की दिव्य लीला' का ऐसा चित्र नहीं खींच सकता ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না তোমার ধারণা আছে। সেই দিন তো তোমায় বললাম ভিতরে ভক্ত না থাকলে চালচিত্র আঁকা যায় না —

MASTER: "No, you assimilate a great deal. The other day I said to you that no one could sketch a divine character unless he had love of God in his heart.

इसके लिए भी धारणा होनी चाहिए । केशव के यहाँ मैं नव-वृन्दावन नाटक देखने गया था । मैंने वहाँ एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को देखा जो आठ सौ रुपये महीने कमाता था। सब लोगों ने कहा, बड़ा पण्डित (learned man) है; परन्तु देखा वह गोद में एक बच्चा लिए हैरान-परेशान हो रहा था ।

[“ধারণা চাই। কেশবের বাড়িতে নববৃন্দাবন নাটক দেখতে গিয়েছিলাম। দেখলাম, একজন ডিপুটি ৮০০ টাকা মাহিনা পায়, সকলে বললে, খুব পণ্ডিত, কিন্তু একটা ছেলে লয়ে ব্যতিব্যস্ত! 

"Yes, one needs to assimilate spiritual ideas. I went to Keshab's house to see the play, Nava-Vrindavan. I saw a deputy magistrate there who earned eight hundred rupees a month. Everyone said that he was a very learned man; but I found him restless because of a boy, his son. 

क्या किया जाय जिससे बच्चा अच्छी जगह बैठे, अच्छी तरह नाटक देखे, इसी के लिए वह व्याकुल हो रहा था । इधर ईश्वरी बातें हो रही थीं, उसका जी नहीं लगता था । बच्चा बार बार पूछ रहा था, 'बाबूजी, यह क्या है ? वह क्या है ?' वह भी बच्चे के साथ उलझा हुआ था। उसने बस पुस्तकें पढ़ी हैं, धारणा नहीं हुई है ।" 

[नवनीदा : तुम देखो, उसने सिर्फ शास्त्रीय ग्रन्थ पढ़ें हैं; लेकिन उसने उनके आध्यात्मिक विचारों को  आत्मसात नहीं किया है। आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात करना, अर्थात विचार रक्त में  घुल कर नाड़ियों में बहना चाहिए। Assimilation of spiritual ideas, should be mingled with the blood, and flow into veins.

[ছেলেটি কিসে ভাল জায়গায় বসবে, কিসে অভিনয় দেখতে পাবে, এইজন্য ব্যাকুল! এদিকে ঈশ্বরীয় কথা হচ্ছে তা শুনবে না, ছেলে কেবল জিজ্ঞাসা করছে, বাবা এটা কি, বাবা ওটা কি? — তিনিও ছেলে লয়ে ব্যতিব্যস্ত। কেবল বই পড়েছে মাত্র কিন্তু ধারণা হয় নাই।”

He was very anxious to find a good seat for the boy; he paid no attention to the spiritual conversation of the players. The boy was pestering him with questions: 'Father! What is this? What is that?' He was extremely busy with the boy. You see, he merely read books; but he didn't assimilate their ideas."

गिरीश - दिल में आता है अब थियेटर-सिएटर छोड़ दूँ , क्या करूँ ?

[গিরিশ — মনে হয়, থিয়েটারগুলো আর করা কেন।

GIRISH: "I often ask myself, 'Why bother about the theatre any more?'

श्रीरामकृष्ण - नहीं, नहीं, इसका रहना जरूरी है, इससे लोकशिक्षा होगी ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না না ও থাক, ওতে লোকশিক্ষা হবে।

MASTER: "No, no! Let things be as they are. People will learn much from your plays."

[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏प्रह्लाद नाटक का प्रत्येक दृश्य और श्री रामकृष्ण की धारणा🔆🙏

(প্রহ্লাদ নাটকের প্রতিটি দৃশ্য এবং শ্রীরামকৃষ্ণের উপলব্ধি)

[Each scene of Prahlad drama and perception of Sri Ramakrishna]

अभिनय होने लगा । प्रह्लाद पाठशाला में पढ़ने के लिए आये हैं । प्रह्लाद को देखकर श्रीरामकृष्ण 'प्रह्लाद प्रह्लाद' कहते हुए एकदम समाधिमग्न हो गये ।

[অভিনয় আরম্ভ হয়েছে। প্রহ্লাদ পাঠশালে লেখাপড়া করিতে আসিয়াছেন। প্রহ্লাদকে দর্শন করিয়া ঠাকুর সস্নেহে ‘প্রহ্লাদ’ ‘প্রহ্লাদ’ এই কথা বলিতে বলিতে একেবারে সমাধিস্থ হইলেন।

The performance began. Prahlada was seen entering the schoolroom as a student. At the sight of him Sri Ramakrishna uttered once or twice the word "Prahlada" and went into samadhi.

प्रह्लाद को हाथी के पैरों के नीचे देखकर श्रीरामकृष्ण रो रहे हैं । अग्निकुण्ड में जब वे फेंक दिये गये तब भी श्रीरामकृष्ण के आँसू बह चले । गोलोक में लक्ष्मीनारायण बैठे हैं | प्रह्लाद के लिए नारायण सोच रहे हैं ! यह दृश्य देखकर श्रीरामकृष्ण फिर समाधिमग्न हो गये ।

[প্রহ্লাদকে হস্তীপদতলে দেখিয়া ঠাকুর কাঁদিতেছেন। অগ্নিকুণ্ডে যখন ফেলিয়া দিল তখনও ঠাকুর কাঁদিতেছেন। গোলোকে লক্ষ্মীনারায়ণ বসিয়া আছেন। নারায়ণ প্রহ্লাদের জন্য ভাবিতেছেন। সেই দৃশ্য দেখিয়া ঠাকুর আবার সমাধিস্থ হইলেন।

During another scene Sri Ramakrishna wept to see Prahlada under an elephant's feet. He cried when the boy was thrown into the fire.The scene changed. Lakshmi and Narayana were seen seated in Goloka. Narayana was worried about Prahlada. This scene, too, threw Sri Ramakrishna into an ecstatic mood.


(2)

[भक्तों के साथ भगवान की कथा का प्रसंग ] 

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏 'मन (आदत) का गुलाम' बनने से रक्षा करता है 'पवित्र वाणी श्रवण' 🔆🙏

[ `Hear the Holy' words before going to bed]

थियेटर -भवन के जिस कमरे में गिरीश रहते हैं , अभिनय हो जाने पर श्रीरामकृष्ण को वहीं ले गए।  गिरीश ने पूछा- 'महाराज, क्या आप  " विवाह-विभ्राट" ['शादी की व्याकुलता '] प्रहसन देखना चाहेंगे ? 

[রঙ্গালয়ে গিরিশ যে ঘরে বসেন সেইখানে অভিনয়ান্তে ঠাকুরকে লইয়া গেলেন। গিরিশ বলিলেন, “বিবাহ বিভ্রাট” কি শুনবেন? 

After the performance Girish conducted Sri Ramakrishna to his private room in the theatre. He said to the Master, "Would you care to see the farce, Vivaha Vibhrata [The Confusion of Marriage']?"

श्रीरामकृष्ण ने कहा , " नहीं , प्रह्लाद -चरित्र के बाद यह सब क्या है ? मैंने इसीलिए गोपाल उड़िया के दल से कहा था -" तुम लोग प्रोग्राम खत्म होने के बाद अन्त में कुछ ईश्वरी बातें किया करो। " बहुत अच्छी ईश्वरी बातें हो रही थीं , फिर 'विवाह -विभ्राट ' --संसार की बात आ गयी ! " जो मैं था , वही हो गया ? " फिर वही पहले के भाव आ जाते हैं।  " श्रीरामकृष्ण गिरीश आदि के साथ ईश्वरी बातें कह रहे हैं।

[ঠাকুর বলিলেন, “না, প্রহ্লাদ চরিত্রের পর ও-সব কি? আমি তাই গোপাল উড়ের দলকে বলেছিলাম, ‘তোমরা শেষে কিছু ঈশ্বরীয় কথা বলো।’ বেশ ঈশ্বরের কথা হচ্ছিল আবার বিবাহ বিভ্রাট — সংসারের কথা। ‘যা ছিলুম তাই হলুম।’ আবার সেই আগেকার ভাব এসে পড়ে।” ঠাকুর গিরিশাদির সহিত ঈশ্বরীয় কথা কহিতেছেন। 

MASTER: "Oh, no! Why something like that after the life of Prahlada? I once said to the leader of a theatrical troupe, 'End your performance with some religious talk.' We have been listening to such wonderful spiritual conversation; and now to see 'The Confusion of Marriage'! A worldly topic!  should We become our (mind's) old selves again ? We should return to our old mood."

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

गोलोक धाम के चरवाहे (राखाल, पैगम्बर, नेता) की भूमिका में स्वयं श्रीमन्नारायण हैं ! 

🔆🙏 जीवन-नाटक में माँ आनन्दमयी ही विभिन्न स्त्री पात्रों की भूमिका में हैं; 

और श्रीमन्नारायण स्वयं (नेता, चरवाहे, माता-पिता और गुरु ) की भूमिका में हैं 🔆🙏    

गिरीश पूछ रहे हैं , " महाराज , आपने कैसा देखा ? " [महाराज , आपको नाटक के पात्रों का अभिनय कैसा लगा ? ]

গিরিশ বলিতেছেন, মহাশয়, কিরকম দেখলেন?

GIRISH: "How did you like the performance?"

श्रीरामकृष्ण - साक्षात् वे ही सबकुछ हुए हैं। नाटक में जो नटी  विभिन्न स्त्रि पात्रों की भूमिका निभा रही थीं, मैंने उन्हें साक्षात् आनन्दमयी माता के अवतार के रूप में देखा। और जो लोग गोलोक -धाम के गोपाल बने थे , उन्हें मैंने साक्षात् श्रीमन्नारायण देखा। वे ही सब कुछ हुए हैं। 

শ্রীরামকৃষ্ণ — দেখলাম সাক্ষাৎ তিনিই সব হয়েছেন। যারা সেজেছে তাদের দেখলাম সাক্ষাৎ আনন্দময়ী মা! যারা গোলোকে রাখাল সেজেছে [Guard duty] তাদের দেখলাম সাক্ষাৎ নারায়ণ। তিনিই সব হয়েছেন। 

MASTER: "I found that it was God Himself who was acting the different parts. Those who played the female parts seemed to me the direct embodiments of the Blissful Mother, and the cowherd boys of Goloka the embodiments of Narayana Himself. It was God alone who had become all these.

गोलोक धाम : वैष्णव मत के अनुसार भगवान श्री कृष्ण ही परंब्रह्म हैं और उनका निवास स्थान गोलोक धाम है, जोकि नित्य है, अर्थात सनातन है। गोलोक (गो + लोक) शब्द का अर्थ है "गायों का लोक" या "कृष्ण का लोक"। गोलोक धाम को वृन्दावन, साकेत, परम्-स्थान, सनातन आकाश, परम्-लोक, या वैकुंठ भी कहा जाता है। गोलोक परम पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण का निवास स्थान है। जहाँ पर भगवान कृष्ण अपनी प्रेमिका व आदिशक्ति स्वरूपा श्री राधा रानी संग निवास करते हैं। भगवद्गीता में (15.6) भगवान श्री कृष्ण के धाम का वर्णन इस प्रकार हुआ है-

न तद्भासयते सूर्यो न शशांको न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

इसमे श्री कृष्ण कहतें हैं- "मेरा परमधाम न तो सूर्य या चंद्रमा द्वारा, न ही अग्नि या बिजली द्वारा प्रकाशित होता है। जो लोग वहाँ पहुँच जाते हैं वें इस भौतिक जगत मे फिर कभी नहीं लौटते।"  

(गीता -15.6) हिन्दू धर्म में पुनर्जन्म के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार, जीव एक देह का त्याग करने के पश्चात् अपने कर्मों के अनुसार पुन नवीन देह धारण करता है। ये शरीर देवता, मनुष्य, पशु आदि के हो सकते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि एक देह को त्यागने पर जीव का मोक्ष न होकर वह पुन संसार को ही प्राप्त होता है। परन्तु, इस श्लोक में तो यह कहा गया है,  जहाँ पहुँचकर जीव पुन लौटता नहीं, वह मेरा परम धाम है। 

आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य है संसार में अपुनरावृत्ति। तर्क की परिसीमा में आने वाले प्रमेयों की सिद्धि केवल तर्कों के द्वारा ही की जा सकती है। परन्तु आत्मज्ञान का क्षेत्र इन्द्रिय अगोचर होने से प्रारम्भ में केवल आचार्य का ही वहाँ प्रवेश होता है, शिष्यों का नहीं।  यद्यपि वह अवस्था  मन और वाणी के परे हैं, तथापि उसे इंगित करने का (इन्द्रियातीत सत्य की धारणा कराने का) यहाँ समुचित प्रयत्न किया गया है। 

सूर्य चन्द्र और अग्नि उसे प्रकाशित नहीं कर सकते हैं। यहाँ प्रकाश के उन स्रोतों का उल्लेख किया गया है जिनके प्रकाश में हमारे चर्मचक्षु दृश्य वस्तु को देख पाते हैं।  यह नियम है कि दृश्य अपने द्रष्टा को प्रकाशित नहीं कर सकता तथा कभी भी और किसी भी स्थान पर द्रष्टा और दृश्य एक नहीं हो सकते। जिस चैतन्य के द्वारा हम अपने जीवन के सुखदुखादि अनुभवों को जानते हैं वह चैतन्य ही सनातन आत्मा है और इसे ही भगवान् अपना परम धाम कहते हैं। यही जीवन का परम लक्ष्य है।

[सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल / विद्यापति


श्रीमन्नारायण नारायण नारायण, 
सबरी के बैर सुदामा के तण्डुल, 
रुचि-रुचि भोग लगाबायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  

दुर्योधन के घर मेवा त्यागि प्रभु, 
साग विदुर घर पाबायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।
 
ग्याल-बाल जब डूबन लागै प्रभु, 
हरिजी के नाम उचारायण।
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।

गज और ग्राह लड़ै जल भीतर, 
लड़लि-लड़लि गज हारायण। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।

नाक-कान जब डूबन लागै प्रभु,
हरिजी के नाम उचारायण,
हरिजी के नाम पुकारायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  

गज के टेर सुनय यदुनन्दन, 
पांव पैदल उठि धाबायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  

नारायण के चरण-कमल पर, 
सुमरि-सुमरि भन पारायण। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण…..
श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  

ग्राह के आहि गजराज उबारे स्वामी,
भक्तवत्सल कहलाबायन। 
शिब नारायण-नारायण-नारायण….

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण।।  ]   


 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏ईश्वर-दर्शन के लक्षण : बालक,पौगण्ड और लोकशिक्षा के समय सिंह-युवा 🔆🙏

परन्तु ईश्वर- दर्शन ठीक होता है या नहीं इसके लक्षण हैं। एक लक्षण तो आनन्द है। दूसरा , संकोच का लोप हो जाना। जैसे समुद्र में ऊपर तो हिलोरें और आवर्त उठ रहे हैं , परन्तु भीतर गंभीर जल है। 

তবে ঠিক ঈশ্বরদর্শন হচ্ছে কি না তার লক্ষণ আছে। একটি লক্ষণ আনন্দ। সঙ্কোচ থাকে না। যেমন সমুদ্র — উপরে হিল্লোল, কল্লোল — নিচে গভীর জল

"There are signs by which you can know whether a man has truly seen God. One of these is joy; there is no hesitancy in him. He is like the ocean: the waves and sounds are on the surface; below are profound depths. 

जिसे ईश्वर के दर्शन हो चुके हैं , वह कभी पागल की तरह रहता है , कभी पिशाच की तरह। शुचि और अशुचि में भेद नहीं रहता है ; कभी जड़ की तरह है , क्योंकि भीतर और बाहर ईश्वर के दर्शन करके आश्चर्यचकित हो गया है। 

[যার ভগবানদর্শন হয়েছে সে কখনও পাগলের ন্যায়, কখনও পিশাচের ন্যায় — শুচি-অশুচি ভেদ জ্ঞান নেই। কখন বা জড়ের ন্যায়; কেননা অন্তরে-বাহিরে ঈশ্বরকে দর্শন করে অবাক্‌ হয়ে থাকে। 

The man who has seen God behaves sometimes like a madman; sometimes like a ghoul, without any feeling of purity or impurity; sometimes like an inert thing, remaining speechless because he sees God within and without !

कभी बालकवत है , दृढ़ता नहीं है , जैसे बालक बगल में धोती दबाये घूमता है। इस अवस्था में कभी तो बाल्य-भाव होता है , कभी तरुणभाव - तब दिल्लगी सूझती है , कभी युवाभाव - तब कर्म करता है , लोक-शिक्षा देता है, तब वह सिंहतुल्य है।     

[কখন বালকের ন্যায়। আঁট নাই, বালক যেমন কাপড় বগলে করে বেড়ায়। এই অবস্থায় কখন বাল্যভাব, কখন পৌগণ্ডভাব — ফষ্টিনাষ্টি করে, কখন যুবার ভাব — যেমন কর্ম করে, লোকশিক্ষা দেয়, তখন সিংহতুল্য

sometimes like a child, without any attachment, wandering about unconcernedly with his cloth under his arm. Again, in the mood of a child, he acts in different ways: sometimes like a boy, indulging in frivolity; sometimes like a young man, working and teaching with the strength of a lion.

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏अहं (मन-शरीर) ही वह मेघ है जो आत्मा (3rd'H') रूपी सूर्य को ढँक देता है🔆🙏  

जीवों में अहंकार है , इसीलिए वे ईश्वर को नहीं देख पाते। मेघों के उमड़ने पर फिर सूर्य  नहीं दिख पड़ता।  सूर्य दिख नहीं पड़ता इसलिए क्या कभी यह कहना चाहिए कि सूर्य है ही नहीं ? सूर्य अवश्य है।  

[“জীবের অহংকার আছে বলে ঈশ্বরকে দেখতে পায় না। মেঘ উঠলে আর সূর্য দেখা যায় না। কিন্তু দেখা যাচ্ছে না বলে কি সূর্য নাই? সূর্য ঠিক আছে।"

Man cannot see God on account of his ego. You cannot see the sun when a cloud rises in the sky. But that doesn't mean there is no sun; the sun is there just the same.

" परन्तु बालक के 'मैं ' में दोष नहीं , बल्कि उपकार है। साग के खाने से बीमारी होती है , परन्तु 'हींचा' साग के खाने से उपकार होता है। इसीलिए हींचा की गिनती साग में नहीं है। इसी प्रकार मिश्री की गिनती भी मिठाइयों में नहीं होती। दूसरी मिठाइयों से बीमारी होती है , परन्तु मिश्री से कफ का दोष होता ही नहीं।  

[“তবে ‘বালকের আমি’ এতে দোষ নাই, বরং উপকার আছে। শাক খেলে অসুখ হয়। কিন্তু হিঞ্চে শাক খেলে উপকার হয়। হিঞ্চে শাক শাকের মধ্যে নয়। মিছরি মিষ্টির মধ্যে নয়। অন্য মিষ্টিতে অসুখ করে, কিন্তু মিছরিতে কফ-দোষ করে না।

"But there is no harm in the 'ego of a child'. On the contrary, this ego is helpful. Greens are bad for the stomach; but hinche is good. So hinche cannot properly be called greens. Sugar candy, likewise, cannot be classed with other sweets. Other sweets are injurious to the health, but not sugar candy.

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏संघ को एकता के सूत्र में बाँधे रखने के लिए नेता को 'दास मैं ' रखना होगा🔆🙏 

  'प्रभु '-सेव्य हैं और 'मैं'-सेवक हूँ ' के अहंकार का थोड़ा निशान रखना होगा     

[Leader must keep that trace of ego-`the servant and the Master.']

" इसीलिए मैंने केशव सेन से कहा था , तुम्हें और अधिक कहने से फिर यह दल न रह जायेगा। केशव डर गया।  तब मैंने कहा , बालक का 'मैं ' , दास का 'मैं ' - इनमें दोष नहीं है। 

[“তাই কেশব সেনকে বলেছিলাম, আর বেশি তোমায় বললে দলটল থাকবে না! কেশব ভয় পেয়ে গেল। আমি তখন বললাম, ‘বালকের আমি’ ‘দাস আমি’ এতে দোষ নাই।"

So I said to Keshab, 'If I tell you more than I have already said, you won't be able to keep your organization together.' That frightened him. Then I said to him, 'There is no harm in the "ego of a child" or the "ego of a servant".'

[अतः सेव्य-सेवक भाव रखते हुए संघ का संचालन करें :  प्रमोद दा, मिन्टूदा और रनेन दा तीनों की भूमिका श्रीमन्नारायण (ठाकुर देव) ही निभा रहे हैं !!!??? ] 

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏संघ में तीन श्रेणी के गुरुभक्त नेता (लोकशिक्षक) होते हैं🔆🙏

[महामण्डल के 'गार्ड' गोलोक के 'चरवाहे' हैं]  

" जिन्होंने ईश्वर का दर्शन किया है , वे देखते हैं , ईश्वर ही जीव और जगत हुए हैं। सब कुछ वे ही हैं। उन्हें ही उत्तम भक्त कहते हैं। "   

[“যিনি ঈশ্বরদর্শন করেছেন তিনি দেখেন যে ঈশ্বরই জীবজগৎ হয়ে আছেন। সবই তিনি। এরই নাম উত্তম ভক্ত।” 

"He who has seen God finds that God alone has become the world and all its living beings; it is He who has become all. Such a person is called a superior devotee."

गिरीश - (सहास्य) - सब कुछ तो वे ही हैं , परन्तु जरा सा 'मैं ' रह जाता है , इसमें कोई दोष नहीं है। 

[গিরিশ (সহাস্যে) — সবই তিনি, তবে একটু আমি থাকে — কফ-দোষ করে না।

GIRISH (smiling): "Yes, God is everything. But the devotee keeps a trace of ego; that is not harmful."

श्रीरामकृष्ण - (हँसकर ) - हाँ , इससे हानि नहीं। वह 'मैं ' केवल सम्भोग के लिए है।  'मैं ' अलग और 'तुम ' अलग जब होता है , तभी सम्भोग हो सकता है , सेव्य-सेवक के भाव से।  

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — হাঁ, ওতে হানি নাই। ও ‘আমি’ টুকু সম্ভোগের জন্য। আমি একটি, তুমি একটি হলে আনন্দভোগ করা যায়। সেব্য-সেবকের ভাব।

MASTER (smiling): "Yes, there is no harm in that. That trace of ego is kept in order to enjoy God. You can enjoy divine bliss only when you make a distinction between yourself and God — the distinction between the servant and the Master.

" और मध्यम दर्जे के भी भक्त हैं। वे देखते हैं , ईश्वर सब भूतों में अन्तर्यामी के रूप में विराजमान हैं। अधम दर्जे के भक्त कहते हैं , --वे हैं - अर्थात आकाश के उस पार ! (सब हँसे)  

[“আবার মধ্যম থাকের ভক্ত আছে। সে দেখে যে, ঈশ্বর সর্বভূতে অন্তর্যামীরূপে আছেন। অধম থাকের ভক্ত বলে, — ঈশ্বর আছেন, ওই ঈশ্বর — অর্থাৎ আকাশের ওপারে। (সকলের হাস্য)

"There is also the devotee of the mediocre class: he sees that God dwells in all beings as their Inner Guide. But the inferior devotee says, 'God exists; He is up there', that is to say, beyond the sky. (All laugh.)

"गोलोक के गोपालों को देखकर मुझे यह ज्ञात हुआ कि वे ही सब कुछ हुए हैं । जिन्होंने ईश्वर को देखा है वे स्पष्ट देखते हैं, ईश्वर ही कर्ता हैं, वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।”

[“গোলোকের রাখাল (गोलोकधाम के चरवाहे, गार्ड-ड्यूटी ) দেখে আমার কিন্তু বোধ হল, সেই (ঈশ্বরই) সব হয়েছে। যিনি ঈশ্বরদর্শন করেছেন, তাঁর বোধ হয় ঈশ্বরই কর্তা, তিনিই সব করছেন।”

"When I saw the cowherd boys of Goloka in your performance I felt that God has become all. He who has seen God knows truly that God alone is the Doer, that it is He who does everything."

गिरीश - महाराज, मैंने ठीक समझा है कि वे ही सब कुछ कर रहे हैं ।

[গিরিশ — মহাশয়, আমি কিন্তু ঠিক বুঝেছি, তিনিই সব করছেন।

GIRISH: "Sir, I know truly that it is God who does everything."

श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, 'माँ, मैं यन्त्र हूँ, तुम यन्त्री हो, मैं जड़ हूँ, तुम चेतना भरनेवाली हो; तुम जैसा कराती हो, मैं वैसा ही करता हूँ; जैसा कहलाती हो, वैसा ही कहता हूँ ।' जो अज्ञान दशा में हैं, वे कहते हैं, 'कुछ तो वे करते हैं, कुछ मैं करता हूँ ।'

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি বলি, “মা, আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী; আমি জড়, তুমি চেতয়িতা; যেমন করাও তেমনি করি, যেমন বলাও তেমনি বলি।” যারা অজ্ঞান তারা বলে, “কতক আমি করছি, কতক তিনি করছেন।

MASTER: "I say, 'O Mother, I am the machine and You are the Operator; I am inert and You make me conscious; I do as You make me do; I speak as You make me speak.' But the ignorant say, 'I am partly responsible, and God is partly responsible."


 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏निष्काम कर्म करने से चित्त की शुद्धि हो जाती है🔆🙏 

गिरीश - महाराज, मैं और करता ही क्या हूँ ? और अब कर्म ही क्यों किये जायँ ?

[গিরিশ — মহাশয়, আমি আর কি করছি, আর কর্মই বা কেন?
GIRISH: "Sir, I am not really doing anything. Why should I bother about work at all?"

श्रीरामकृष्ण - नहीं जी, कर्म करना अच्छा है । जमीन जुती हुई हो तो उसमें जो कुछ बोओगे वही होगा । परन्तु इतना है कि कर्म निष्काम भाव से करना चाहिए ।
[শ্রীরামকৃষ্ণ — না গো, কর্ম ভাল। জমি পাট করা হলে যা রুইবে, তাই জন্মাবে। তবে কর্ম নিষ্কামভাবে করতে হয়।
MASTER: "No, work is good. When the ground is well cultivated and cleared of stones and pebbles, whatever you plant will grow. But one should work without any personal motive.

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

 " प्रेमी परमहंस ~ स्वामी विवेकानन्द !" 

🔆🙏ज्ञानी परमहंस -अपनी मुक्ति चाहते हैं, और प्रेमी परमहंस दूसरों की 🔆🙏 

"परमहंस दो तरह के हैं । ज्ञानी परमहंस और प्रेमी परमहंस । जो ज्ञानी हैं, उन्हें अपने काम से काम । जो प्रेमी हैं, जैसे शुकदेवादि, वे ईश्वर को प्राप्त करके फिर लोक-शिक्षा देते हैं । कोई अपने आप ही आम खाकर मुँह पोंछ डालता है, और कोई और पाँच आदमियों को खिलाता है । 

[“পরমহংস দুই প্রকার। জ্ঞানী পরমহংস আর প্রেমী পরমহংস। যিনি জ্ঞানী তিনি আপ্তসার — ‘আমার হলেই হলঞ্চ। যিনি প্রেমী যেমন শুকদেবাদি, ঈশ্বরকে লাভ করে আবার লোকশিক্ষা দেন। কেউ আম খেয়ে মুখটি পুঁছে ফেলে, কেউ পাঁচজনকে দেয়।
"There are two types of paramahamsas: the jnani and the premi. (Lover of God.) The jnani is self-centred; he feels that it is enough to have Knowledge for his own self. The premi, like Sukadeva, after attaining his own realization, teaches men. Some eat mangoes and wipe off the traces from their mouths; but some share their mangoes with others.

कोई कुआँ खोदते समय टोकरी और कुदार अपने घर उठा ले जाते हैं, कोई कुआँ खुद जाने पर टोकरी और कुदार उसी कुएँ में डाल देते हैं; कोई दूसरों के लिए रख देते हैं ताकि पड़ोसियों के ही काम आ जाय । शुकदेव आदि ने दूसरों के लिए टोकरी और कुदार रख दी ।

 [কেউ পাতকুয়া খুঁড়বার সময় — ঝুড়ি-কোদাল আনে, খোঁড়া হয়ে গেলে ঝুড়ি-কোদাল ওই পাতকোতেই ফেলে দেয়। কেউ ঝুড়ি-কোদাল রেখে দেয় যদি পাড়ার লোকের কারুর দরকার লাগে। শুকদেবাদি পরের জন্য ঝুড়ি-কোদাল তুলে রেখেছিলেন।
 Spades and baskets are needed to dig a well. After the digging is over, some throw the spades and baskets into the well. But others put them away; for a neighbour may use them. Sukadeva and a few others kept the spades and baskets for the benefit of others. 

 (गिरीश से) तुम भी दूसरों के लिए रखना ।"

(গিরিশের প্রতি) তুমি পরের জন্য রাখবে।”
(To Girish) You should do the same."

गिरीश - तो आप आशीर्वाद दीजिये ।

[গিরিশ — আপনি তবে আশীর্বদ করুন।
GIRISH: "Please bless me, sir."

श्रीरामकृष्ण - तुम माता के नाम पर विश्वास करना, बस हो आयेगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তুমি মার নামে বিশ্বাস করো, হয়ে যাবে!
MASTER: "Have faith in the Divine Mother and you will attain everything."

गिरीश - मैं पापी तो हूँ ।

[গিরিশ — আমি যে পাপী!
GIRISH: "But I am a sinner."

श्रीरामकृष्ण - जो सदा पाप पाप सोचा करता है, वह पापी हो जाता है ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — যে পাপ পাপ সর্বদা করে সে শালাই পাপী হয়ে যায়! [जो हमेशा यह सोचता है कि 'मैं पापी हूँ , मैं पापी हूँ , ' से शालाई'  पापी होय जाय।]  
MASTER: "The wretch who constantly harps on sin becomes a sinner."

गिरीश - महाराज, मैं जहाँ बैठता था, वहाँ की मिट्टी भी अशुद्ध है ।

[গিরিশ — মহাশয়, আমি যেখানে বসতাম সে মাটি অশুদ্ধ।
GIRISH: "Sir, the very ground where I used to sit would become unholy."

श्रीरामकृष्ण - यह क्या ! हजार साल के अँधेरे घर में अगर उजाला आता है तो क्या जरा जरा करके उजाला होता है या एकदम ही प्रकाश फैल जाता है ?

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সে কি! হাজার বছরের অন্ধকার ঘরে যদি আলো আসে, সে কি একটু একটু করে আলো হয়? না, একেবারে দপ্‌ করে আলো হয়?
MASTER: "How can you say that? Suppose a light is brought into a room that has been dark a thousand years; does it illumine the room little by little, or all in a flash?"

गिरीश - आपने आशीर्वाद दिया ।

[গিরিশ — আপনি আশীর্বাদ করলেন। 
GIRISH: "Then you have blessed me."

श्रीरामकृष्ण - तुम्हारे अन्दर से अगर यही बात हो तो मैं इस पर क्या कह सकता हूँ ? मैं तो खाता-पीता हूँ और उनका नाम लिया करता हूँ ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — তোমার যদি আন্তরিক হয়, — আমি কি বলব! আমি খাই-দাই তাঁর নাম করি।
MASTER: "If you sincerely believe it. What more shall I say? I eat and drink and chant the name of God."

गिरीश - आन्तरिकता है नहीं, परन्तु यह कृपया आप दे जाइये ।

[গিরিশ — আন্তরিক নাই, কিন্তু ওইটুকু দিয়ে যাবেন।
GIRISH: "I have no sincerity. Please give it to me."

श्रीरामकृष्ण - क्या मैं ? नारद, शुकदेव, ये लोग होते तो दे देते ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — আমি কি? নারদ, শুকদেব এঁরা হতেন তো —
MASTER: "I? Sages like Narada and Sukadeva could have done that."

गिरीश - नारदादि तो दृष्टि के सामने हैं नहीं, पर आप मेरे सामने हैं ।

[গিরিশ — নারদাদি তো দেখতে পাচ্চি না। সাক্ষাৎ যা পাচ্চি।
GIRISH: "I don't see Narada and Sukadeva. But you are here before me."

श्रीरामकृष्ण - (सहास्य) - अच्छा, तुम्हें विश्वास है !

[শ্রীরামকৃষ্ণ (সহাস্য) — আচ্ছা, বিশ্বাস!
MASTER (smiling): "All right. You have faith."

सभी कुछ देर चुप रहे । फिर बातचीत होने लगी ।

[কিয়ৎক্ষণ সকলে চুপ করিয়া আছেন। আবার কথা হইতেছে।
All remained silent. The conversation began again.

गिरीश - एक इच्छा है, अहेतुकी भक्ति की ।

[গিরিশ — একটি সাধ, অহেতুকী ভক্তি। 
GIRISH: "I have one desire: love of God for its own sake."

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏 तीनों ऐषणा से रहित, अहेतुकी भक्ति : केवल ईश्वरकोटि में होती है🔆🙏   

श्रीरामकृष्ण - अहेतुकी भक्ति ईश्वर-कोटि को होती है । जीव-कोटि को नहीं होती ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — অহেতুকী ভক্তি ঈশ্বরকোটীর হয়। জীবকোটীর হয় না।
 MASTER: "Only the Isvarakotis have such love. It is not for ordinary men."
श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हैं । आप ही आप गाने लगे – "श्यामा को क्या सब लोग पाते हैं ? नादान मन समझाने पर भी नहीं समझता । उन सुरंजित चरणों से मन लगना शिव के लिए भी असाध्य साधन है । जो माता की चिन्ता करता है, उसके लिए इन्द्रादि का सुख और ऐश्वर्य भी तुच्छ हो जाता है । अगर वे कृपा की दृष्टि फेरती हैं, तो भक्त सदा ही आनन्द में मग्न रहता है । योगीन्द्र, मुनीन्द्र और इन्द्र उनके श्रीचरणों का ध्यान करके भी उन्हें नहीं पाते । निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है ।"

[সকলে চুপ করিয়াছেন, ঠাকুর আনমনে গান ধরিলেন, দৃষ্টি ঊর্ধ্বদিকে —
শ্যামাধন কি সবাই পায় (কালীধন কি সবাই পায়)
অবোধ মন বোঝে না একি দায়।
শিবেরই অসাধ্য সাধন মনমজানো রাঙা পায়।।
ইন্দ্রাদি সম্পদ সুখ তুচ্ছ হয় যে ভাবে মায়।
সদানন্দ সুখে ভাসে, শ্যামা যদি ফিরে চায়।।
যোগীন্দ্র মুনীন্দ্র ইন্দ্র যে চরণ ধ্যানে না পায়।
নির্গুণে কমলাকান্ত তবু সে চরণ চায়।।


All sat in silence. The Master began to sing in an absent-minded mood, his gaze turned upward:
"Can everyone have the vision of Syama? Is Kali's treasure for everyone? Oh, what a pity my foolish mind will not see what is true! Even with all His penances, rarely does Siva Himself behold, The mind-bewitching sight of Mother Syama's crimson feet. To him who meditates on Her the riches of heaven are poor indeed; If Syama casts Her glance on him, he swims in Eternal Bliss. The Prince of yogis, the King of the gods, meditate on Her feet in vain; Yet worthless Kamalakanta yearns for the Mother's blessed feet!"

गिरीश - निर्गुण में रहकर भी कमलाकान्त उन चरणों की चाह रखता है !

[গিরিশ — নির্গুণে কমলাকান্ত তবু সে চরণ চায়! 
Girish repeated:Yet worthless Kamalakanta yearns for the Mother's blessed feet!

(३)

* क्या संसार में ईश्वर लाभ होता है ?*

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏ईश्वर दर्शन का उपाय  -व्याकुलता🔆🙏 

ঈশ্বরদর্শনের উপায় — ব্যাকুলতা

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - तीव्र वैराग्य के होने पर वे मिलते हैं । प्राणों में विकलता होनी चाहिए। शिष्य ने गुरु से पूछा था, क्या करूँ जो ईश्वर को पाऊँ ? गुरु ने कहा, मेरे साथ आओ । यह कहकर गुरु ने उसे एक तालाब में डुबाकर ऊपर से पकड़ रखा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশের প্রতি) — তীব্র বৈরাগ্য হলে তাঁকে পাওয়া যায়। প্রাণ ব্যাকুল হওয়া চাই। শিষ্য গুরুকে জিজ্ঞাসা করেছিল, কেমন করে ভগবানকে পাব। গুরু বললেন, আমার সঙ্গে এসো, — এই বলে একটা পুকুরে লয়ে গিয়ে তাকে চুবিয়ে ধরলেন। 

कुछ देर बाद उसे पानी से निकाल लिया और पूछा, 'पानी के भीतर तुम्हें कैसा लगता था ?' महाराज, मेरे प्राण डूबते-उतराते थे, जान पड़ता था अभी प्राण निकलना चाहते हैं ।' गुरु ने कहा, 'देखो, इसी तरह ईश्चर के लिए जब जी डूबता उतराता है तब उनके दर्शन होते हैं।'

[খানিক পরে জল থেকে উঠিয়ে আনলেন ও বললেন, তোমার জলের ভিতর কিরকম হয়েছিল? শিষ্য বললে, প্রাণ আটুবাটু করছিল — যেন প্রাণ যায়! গুরু বললেন দেখ, এইরূপ ভগবানের জন্য যদি তোমার প্রাণ আটুবাটু করে তবেই তাঁকে লাভ করবে।
MASTER (to Girish): "One can realize God through intense renunciation. But the soul must be restless for Him, as restless as one feels for a breath of air when one's head is pressed under water.

“इस पर मैं कहता हूँ, जब तीनों आकर्षण एकत्र होते हैं तब ईश्वर मिलते हैं । विषयी का जैसा आकर्षण विषय की ओर है, सती का पति की ओर तथा माता का सन्तान की ओर, इन तीनों को अगर एक साथ मिलाकर कोई ईश्वर को पुकार सके तो उसी समय उनके दर्शन हो जायँ ।

[“তাই বলি, তিন টান একসঙ্গে হলে তবে তাঁকে লাভ করা যায়। বিষয়ীর বিষয়ের প্রতি টান, সতীর পতিতে টান, আর মায়ের সন্তানেতে টান — এই তিন ভালবাসা একসঙ্গে করে কেউ যদি ভগবানকে দিতে পারে তাহলে তৎক্ষণাৎ সাক্ষাৎকার হয়।
"A man can see God if he unites in himself the force of these three attractions: the attraction of worldly possessions for the worldly man, the husband's attraction for the chaste wife, and the child's attraction for its mother. If you can unite these three forms of love and give it all to God, then you can see Him at once.

'मन ! जिस तरह पुकारा जाता है उस तरह तू पुकार तो सही, देखूं भला कैसे माँ श्यामा रह सकती है ?' उस तरह व्याकुल होकर पुकारने पर उन्हें दर्शन देना ही होगा ।

[“ডাক দেখি মন ডাকার মতো কেমন শ্যামা থাকতে পারে! তেমন ব্যাকুল হয়ে ডাকতে পারলে তাঁর দেখা দিতেই হবে।”
Cry to your Mother Syama with a real cry, O mind! And how can She hold Herself from you?
"If a devotee prays to God with real longing, God cannot help revealing Himself to him.
[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏ज्ञानयोग और भक्तियोग का समन्वय - कलिकाल में नारदीय भक्ति🔆🙏

"उस दिन तुमसे मैंने कहा था - भक्ति (=ब्रह्मचर्य?) का अर्थ क्या है । वह है मन, वाणी और कर्म से उन्हें पुकारना । कर्म - अर्थात् हाथों से उनकी पूजा और सेवा करना, पैरों से उनके स्थानों तक जाना, कानों से भगवान और उनके नाम, गुणों और भजनों को सुनना, आँखों से उनकी मूर्ति के (अवतार वरिष्ठ की मूर्ति के) दर्शन करना

“সেদিন তোমায় যা বললুম ভক্তির মানে কি — না কায়মনোবাক্যে তাঁর ভজনা। কায়, — অর্থাৎ হাতের দ্বারা তাঁর পূজা ও সেবা, পায়ে তাঁর স্থানে যাওয়া, কানে তাঁর ভাগবত শোনা, নামগুণকীর্তন শোনা, চক্ষে তাঁর বিগ্রহ দর্শন।
"The other day I told you the meaning of bhakti. It is to adore God with body, mind, and words. 'With body' means to serve and worship God with one's hands, go to holy places with one's feet, hear the chanting of the name and glories of God with one's ears, and behold the divine image with one's eyes.

मन में सदा उनका ध्यान - अर्थात 'विवेकदर्शन' का अभ्यास करना तथा उनकी लीलाओं का  स्मरण करना (श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा का स्मरण करना)। वाणी - अर्थात् उनकी स्तुतियाँ पढ़ना - उनके भजन गाना । "कलिकाल के लिए नारदीय भक्ति है - सदा उनके नाम और गुणों का कीर्तन करना । जिन्हें समय नहीं है, उन्हें कम से कम शाम को तालियाँ बजाकर एकाग्र चित्त हो 'श्रीमन्नारायण नारायण नारायण -हरि हरि ' कहकर उनके नाम का कीर्तन करना चाहिए । 
মন — অর্থাৎ সর্বদা তাঁর ধ্যান-চিন্তা করা, তাঁর লীলা স্মমরণ-মনন করা। বাক্য — অর্থাৎ তাঁর স্তব-স্তুতি, তাঁর নামগুণকীর্তন — এই সব করা। “কলিতে নারদীয় ভক্তি — সর্বদা তাঁর নামগুণকীর্তন করা। যাদের সময় নাই, তারা যেন সন্ধ্যা-সকালে হাততালি দিয়ে একমনে হরিবোল হরিবোল বলে তাঁর ভজনা করে।

'With mind' means to contemplate and meditate on God constantly and to remember and think of His lila. 'With words' means to sing hymns to Him and chant His name and glories. "Devotion as described by Narada is suited to the Kaliyuga. It means to chant constantly the name and glories of God. Let those who have no leisure worship God at least morning and evening by whole-heartedly chanting His name- " Shriman Narayan Narayan Hari Hari "  and clapping their hands.

"भक्ति के 'मैं' [दास मैं ] में अहंकार नहीं होता । वह अज्ञान नहीं लाता, बल्कि ईश्वर की प्राप्ति करा देता है। यह 'मैं' में नहीं गिना जाता, जैसे 'हिंचा' साग नहीं गिना जाता । दूसरे सागों से बीमारी हो सकती है, परन्तु 'हिंचा' साग पित्तनाशक है; इससे उपकार ही होता है । मिश्री मिठाइयों में नहीं गिनी जाती । दूसरी मिठाइयों के खाने से अपकार होता है, परन्तु मिश्री के खाने से अम्लविकार हटता है।

[“ভক্তির আমিতে অহংকার হয় না। অজ্ঞান করে না, বরং ঈশ্বরলাভ করিয়ে দেয়। এ ‘আমি’ আমির মধ্যে নয়। যেমন হিঞ্চে শাক শাকের মধ্যে নয়, অন্য শাকে অসুখ হয়, কিন্তু হিঞ্চে শাক খেলে পিত্তনাশ হয়, উলটে উপকার হয়, মিছরি মিষ্টের মধ্যে নয়, অন্য মিষ্ট খেলে অপকার হয়, মিছরি খেলে অম্বল নাশ হয়।
"The 'ego of a devotee' begets no pride; it does not create ignorance. On the contrary it helps one realize God. This ego is no more like the ordinary ego than hinche is like ordinary greens. One generally becomes indisposed by eating greens; but hinche removes excessive bile; it does one good. Sugar candy is not like ordinary sweets. Sweets are generally harmful, but sugar candy removes acidity.

[(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏अवतार निष्ठा >भक्ति >भाव > ईश्वरकोटि को ही महाभाव और प्रेम होता है🔆🙏 

"निष्ठा के बाद भक्ति होती है । भक्ति की परिपक्व अवस्था भाव है । भाव के घनीभूत होने पर महाभाव होता है । सब से अन्त में है प्रेम ।

“নিষ্ঠার পর ভক্তি। ভক্তি পাকলে ভাব হয়। ভাব ঘনীভূত হলে মহাভাব হয়। সর্বশেষে প্রেম।
 "Nishtha leads to bhakti; bhakti, when mature, becomes bhava; bhava, when concentrated, becomes mahabhava; and last of all is prema.

"प्रेम रज्जु है । प्रेम के होने पर भक्त के निकट ईश्वर बँधे रहते हैं, फिर भाग नहीं सकते । साधारण जीवों को केवल भाव तक होता है । ईश्वर-कोटि के हुए बिना महाभाव या प्रेम नहीं होता। प्रेम चैतन्यदेव को हुआ था

[“প্রেম রজ্জুর স্বরূপ। প্রেম হলে ভক্তের কাছে ঈশ্বর বাঁধা পড়েন আর পালাতে পারেন না। সামান্য জীবের ভাব পর্যন্ত হয়। ঈশ্বরকোটি না হলে মহাভাব প্রেম হয় না। চৈতন্যদেবের হয়েছিল।
 Prema is like a cord: by prema God is bound to the devotee; He can no longer run away. An ordinary man can at best achieve bhava. None but an Isvarakoti attains mahabhava and prema. Chaitanyadeva attained them.

[परिच्छेद ६० देखें /*दक्षिणेश्वर में भक्तों के साथ*/ 
श्रीरामकृष्ण(भक्तों के प्रति) – चैतन्यदेव को तीन अवस्थाएँ (भाव-महाभाव और प्रेम) होती थीं । बाह्यदशा, - तब, स्थूल और सूक्ष्म में उनका मन रहता था । अर्धबाह्यदशा, - तब कारण-शरीर में, कारणानन्द में चला जाता था । अन्तर्दशा, - तब महाकारण में मन लीन हो जाता था।  

“वेदान्त के पंचकोष के साथ इसका यथार्थ मेल है । स्थूल-शरीर अर्थात् अन्नमय और प्राणमय कोष । सूक्ष्म–शरीर अर्थात् मनोमय और विज्ञानमय कोष । 'कारण शरीर' अर्थात् आनन्दमय कोष। 'महाकारण' पंचकोषों से परे है । महाकारण में जब मन लीन होता था तब वे समाधि-मग्न हो जाते थे । इसी का नाम निर्विकल्प अथवा जड़-समाधि है । 

“चैतन्यदेव को जब बाह्यदशा होती थी तब वे नामसंकीर्तन करते थे । अर्धबाह्यदशा में भक्तों के साथ नृत्य करते थे । अन्तर्दशा में समाधिस्थ हो जाते थे ।] 


"ज्ञान वह मार्ग है, जिस रास्ते से चलकर मनुष्य स्वरूप का पता पाता है । ब्रह्म ही मेरा रूप है, यह बोध होना चाहिए ।

[“জ্ঞানযোগ কি? যে পথে দিয়ে স্ব-স্বরূপকে জানা যায়। ব্রহ্মই আমার স্বরূপ, এই বোধ।
 "What is the meaning of jnanayoga? It is the path by which a man can realize the true nature of his own Self; it is the awareness that Brahman alone is his true nature. 

"प्रह्लाद कभी स्वरूप में रहते थे । कभी देखते थे 'एक मैं हूँ और एक तुम', तब वे भक्तिभाव में रहते थे ।

[“প্রহ্লাদ কখনও স্ব-স্বরূপে থাকতেন। কখনও দেখতেন, আমি একটি, তুমি একটি; তখন ভক্তিভাবে থাকতেন।
Prahlada sometimes was aware of his identity with Brahman. And sometimes he would see that God was one and he another; at such times he would remain in the mood of bhakti.

"हनुमान ने कहा था, 'राम, कभी देखता हूँ, तुम पूर्ण हो, मै अंश हूँ; कभी देखता हूँ, तुम प्रभु हो, मैं दास हूँ; और राम, जब तत्त्वज्ञान होता है, तब देखता हूँ, तुम्हीं मैं हो, मैं ही तुम हूँ ।'
 
“হনুমান বলেছিল, রাম! কখনও দেখি তুমি পূর্ণ, আমি অংশ; কখনও দেখি তুমি প্রভু, আমি দাস; আর রাম, যখন তত্ত্বজ্ঞান হয় — তখন দেখি তুমিই আমি, আমিই তুমি।”
"Hanuman said, 'O Rama, sometimes I find that You are the whole and I a part, sometimes that You are the Master and I Your servant; but, O Rama, when I have the Knowledge of Reality, I see that You are I and I am You.'"
গিরিশ — আহা!
GIRISH: "Ah!."

[चतुश्लोकी भागवत : चतुःश्लोकी में ब्रह्म, माया, जगत तथा ब्रह्म प्राप्ति का साधन, इन्हीं चार विषयों का वर्णन है। प्रथम श्लोक मे ब्रह्म का स्वरूप दर्शाया गया है। दूसरे श्लोक में माया का स्वरूप निरूपित है। तीसरे श्लोक में जगत क्या है यह कहा गया है और- चौथे श्लोक में ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति का साधन कहा गया हैं। 
ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर श्रीमन्नारायण ने केवल चार श्लोकों में सर्वप्रथम ब्रह्माजी को जो ज्ञान दिया था, इसी को ‘चतुःश्लोकी भागवत’ कहते हैं। वही मूल चतु:श्लोकी भागवत है। इस पर कोई कह सकता है- फिर आपको भी हमें चार ही श्लोक बताने चाहिए। अठारह हजार श्लोकों की क्या आवश्यकता है? तब शुकदेवजी बोले, उन्हीं चार श्लोकों को समझने के लिए अठारह हजार श्लोकों की आवश्यकता पड़ती है। अब पहले हम इन्हीं चार श्लोकों पर विचार करेंगे।
1

अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम्।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्।।
अर्थ- सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूं। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूं।

व्याख्या - ‘अहं एव आसम्’ और ‘आसम एवं अग्रे’। क्या सुन्दर बात है! ‘अहमेवासम्’ और ‘आसमेवाग्रे’ यदि वेदान्त का ज्ञान हो, तो यह श्लोक आपके मन को मुग्ध कर देगा। इसके आगे कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रहेगी। ‘अहम एवं आसम’ और ‘आसमेवाग्रे’। आत्मा ही केवल था और दूसरी कोई चीज नहीं थी। सत्तामात्र चैतन्य, चेतन, सत्ता, यह भगवान का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप, भगवान का ब्रह्मस्वरूप है।
सृष्टि के पहले केवल मैं ही था। और मैं केवल था। कैसा था, क्या था, कुछ नहीं बस केवल था। ‘था’ शब्द भी इसलिए कहा कि अभी हम जो सृष्टि देख रहे हैं, उसके पहले की बात कह रहे हैं। अन्यथा ‘था’ का भी प्रश्न आता नहीं। केवल मैं ही मै हूँ। अहं एवं- यहाँ ‘अहं’ शब्द से चेतनता प्रकट होती है और ‘इदं’ कहने से जड़ता। तो सबसे पहले ‘मैं’ यानी चैतन्यस्वरूप ही था, और केवल था‘न सत्’ माने स्थूल नहीं, ‘न असत’ माने सूक्ष्म नहीं और सत्-असत् के परे यानी 'अव्यक्त' भी नहीं था। केवल ‘मै’ निर्विशेष सत्तामात्र था। भगवान् पहले अकेले थे, सजातीय-विजातीय-स्वगत भेद रहित अकेले ही थे यह तो ठीक है।
लेकिन अब सृष्टि बन गयी है, तो लगता है वे अनेक हो गए हैं। बोले - नहीं, जब पहले मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं था, तो इस समय भी, जब मैं ही सर्वरूप बना हुआ हूँ, अब भी दूसरी कोई चीज नहीं हो सकतीअब जो सामने दिखाई दे रहा है, वह भी मैं ही हूँ और यह सृष्टि जब लीन हो जाती है, तब भी मैं ही रहता हूँ। ‘योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम्’ जो बाकी रह जाता है वह भी मैं ही हूँ ! ब्रह्म का स्वरूप दर्शाने के बाद, अब कहते हैं कि माया क्या है
2
“ऋतेऽर्थ यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद् विद्यादात्मनो मायां यथाभासो तथा तमः।।”
अर्थ- जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।

व्याख्या -यही माया है। पदार्थ का न होकर भी दिखाई देना - जैसे रस्सी में साँप का दिखाई देना वहाँ साँप है नहीं ‘ऋ़तेऽर्थं प्रतियेत’ वह बिना पदार्थ के ही दिखाई देता है। लेकिन ‘न प्रतीयेत चात्मनि’ - वह किस कारण से दिखाई देता है? रस्सी के अज्ञान के कारण। अज्ञान आपको दिखाई देता है क्या? नहीं। फिर भी वह है न? हाँ है। उसी के कारण दिखाई दे रहा है। पदार्थ है नहीं, परन्तु वह दिखाई नहीं दे रहा है, ‘यथाऽऽभासः’ अज्ञान है, परन्तु वह दिखाई नहीं दे रहा है, ‘यथा तमः’। यह भगवान की माया - ‘तद्विद्यादात्मनो मायां यथाऽऽभासो यथा तमः’। ‘तम’ माने अज्ञान, अन्धकार। वह है परन्तु दिखाई नहीं देतारस्सी के अज्ञान के कारण साँप दिखाई देता है। हमको तो, न अज्ञान दिखाई देता है, न रस्सी दिखाई देती है, केवल साँप दिखाई देता है जो है नहीं। विस्मयकारी माया है कि नहीं? इसीलिए यह भगवान की माया है- 'दैवी माया ' है।
जब हम भगवान को ही देखने लगेंगे, तो समझ में आने लगेगा कि माया कुछ नहीं है। तब अज्ञान है, यह कहना भी विचित्र बात ही जाएगी। जब पदार्थ नहीं होकर भी दिखाई देता है, तो समझाने के लिए कहते हैं कि माया है। अन्यथा, माया नाम की भी कोई चीज़ नहीं है-वो माँ काली हैं , जगतजननी है। यह बड़ी विचित्र बात है कि यह माया केवल आभासरूप है। कहीं पर दिखाई नहीं देती। पता नहीं कहाँ पर है, परन्तु सारा खेल कराती रहती है। यह दूसरा श्लोक हुआ माया के विषय में।
अब तीसरे श्लोक में जगत का निरूपण है। बोले - जगत क्या है? जगत का वर्णन करना भी बहुत कठिन काम है। पता नहीं यह है भी कि नहीं, और यदि है तो कैसा है?

3
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ।।

अर्थ- जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे संपृक्त हूं।

व्याख्या - यह जगत कैसा है? किससे बना हुआ है? पंचमहाभूतों से बना है। यहाँ जितनी चीज़ें है, उनमें पंचमहाभूत हैं या नहीं हैं? बोले, हाँ है। क्या वास्तव में पंचमहाभूतों ने सभी चीजों में प्रवेश किया है? प्रवेश किया है, ऐसा नहीं कह सकते। मिट्टी का घड़ा बनाया जाता है, तो पहले घड़ा बन गया और बाद में उसमें मिट्टी ने प्रवेश किया, ऐसा नहीं कह सकते। जब घड़ा नहीं था, तब भी मिट्टी थी। और घड़े के रूप में भी मिट्टी ही हैं। अतः ऐसा नहीं कह सकते कि मिट्टी ने घड़े में प्रवेश किया।
अच्छा, प्रवेश नहीं किया, यह भी नहीं कह सकते। प्रवेश नहीं किया तो घड़ा कहाँ रहने वाला है। प्रवेश किया, ऐसा कहने के लिए घड़े को मिट्टी से भिन्न कुछ और होना पड़ेगा। इसका अर्थ यह हुआ कि ‘घड़ा’ यह केवल एक नाम है, लेकिन वह है मिट्टी ही
नारायण भगवान ब्रह्माजी से कहते हैं इसी प्रकार केवल एक ‘मैं’ ही हूँ। मुझे आपने एक नाम दे दिया - जगत। बस! सारे जगत में मैंने ही प्रवेश किया है। इस संदर्भ में गीताजी में बड़ी सुन्दर बात कहीं गई है- ‘मया ततमिदं सर्वं’ यह जगत मेरे द्वारा व्याप्त है। सब मुझमें है। बाद में कहते है, मुझमें कुछ भी नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसको जगत कहते हो, वह भी आभास ही है। जिसको माया कहते हो, वह भी आभास है। जिसको जीव कहते हो वह भी जगत के अन्तर्गत है, अतः वह जीव भी आभास है आभास ही आभास है, उस परमात्मा का भास कहीं हो नहीं रहा है। तो फिर उस परमात्मा का भान कैसे हो? इसके लिए साधन क्या है? चौथे श्लोक में परमात्म प्राप्ति का साधन बताया गया है।
4
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।

अर्थ- आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है।

व्याख्या - अब कहते हैं, अन्वय और व्यतिरेक की प्रक्रिया से इस परम तत्त्व को जान लेना चाहिए। दुनिया में और कोई जानने योग्य चीज़ नहीं है। अन्वय-व्यतिरेक का अर्थ है- जब घड़ा है, तब मिट्टी है यह अन्वय हुआ। ‘अन्वय’ माने होना। जब घड़ा नहीं है तब भी मिट्टी है, यह हुआ व्यतिरेक। घड़े का व्यतिरेक- अभाव होने पर भी मिट्टी तो है ही। अब घड़े से मिट्टी को अलग कैसे समझें? घड़ा है तो मिट्टी है और घड़ा नहीं है, तब भी मिट्टी है। अन्वय-व्यतिरेक यह एक प्रक्रिया है

दूसरी पद्धति है- जब मिट्टी है तब घड़ा है। जब मिट्टी नहीं है तो घड़ा भी नहीं है, अर्थात जिसके होने से चीज़ हो, और जिसके नहीं होने से चीज़ भी न हो। हालाँकि जिसके नहीं होने से चीज़ नहीं है, यह मिट्टी के बारे में बोल सकते है (क्योंकि मिट्टी का नहीं होना बन सकता है), लेकिन आत्मा के बारे में ऐसा नहीं बोल सकते। आत्मा (ईश्वर ?) नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते। कहने वाला कौन होगा? वह आत्मा ही होगा। इसलिए इस प्रकार का वाक्य कभी बनता नहीं है।

लेकिन एक बात है, जब यह लगता है कि जगत है तब उसमें मैं हूँ ऐसा भासता है। परन्तु जब जगत का भाव नहीं होता, तब भी ‘मैं’ होता है। आपकी जाग्रत अवस्था में चेतन है या नहीं? है। स्वप्नावस्था में भी चेतन है। उस समय जाग्रत अवस्था है? नहीं है। स्वप्नावस्था में चेतन तो है, परन्तु जाग्रत अवस्था नहीं है। आप निद्रावस्था में चले गए, वहाँ जाग्रत अवस्था है? नहीं है। स्वप्न अवस्था है? नहीं है। लेकिन चेतन है। अर्थात सुषुप्ति या निद्रावस्था में न जाग्रत अवस्था है न ही स्वाप्नस्था, केवल चेतन है। क्योंकि चेतन ही सभी अभावों को प्रकाशित करता है। और समाधि की अवस्था में तो निद्रावस्था भी नहीं होती, लेकिन ‘मैं’ हमेशा रहता है। आप पूरी भागवत पढ़ें न पढ़ें, इन चार श्लोकों को प्रतिदिन पढ़ते रहना चाहिए। इनको याद कर लेना चाहिए।

इस प्रकार श्रीमन्नारायण भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी को 4 श्लोक सुनाए थे। तत् पश्चात ही, ब्रह्माजी पूरी तरह से सृष्टि कार्य करने में समर्थ हुए। इसके बाद, यह ज्ञान उन्होंने नारदजी को दिया। शुकदेवजी परीक्षित से कहते हैं- तुमने पूछा था, नारदजी ने यह ज्ञान किसको दिया? तो नारदजी ने यह ज्ञान मेरे पिता वेदव्यास जी को दिया,व्यास जी ने उन्हीं 4 श्लोकों से ही 18000 श्लोक का श्रीमद्भागवत महापुराण बना दिया, और पिताजी ने मुझे दिया। भगवान विष्णु के ही मुंह से निकले उन 4 श्लोक को ही चतु:श्लोकी भागवत कहा जाता है।

"बिम्ब ही मन की द्रवावस्था (मनवस्तु या चित्त सरोवर) में पड़कर प्रतिबिम्ब कहा जाता है। “आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते”,“आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति” इत्यादि श्रुतियों से प्रपंच की आनन्दात्मक ब्रह्मैक्योत्पादन निमित्तिकता सिद्ध होती है। कान्तादि विषय भी कारणानन्द रूप ही हैं, मायाकृत आवरण और विक्षेप के कारण उनकी अखण्डानन्द रूप से प्रतीति नहीं होती। अकार्यों का भी कार्याकार रूप से भान होता है।

[साभार krishnakosh.org/ श्रीमद्भागवत प्रवचन -तेजोमयानन्द पृ. 124]



 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏गृहस्थ जीवन (रूपसागर) में रहते हुए- क्या ईश्वर की प्राप्ति सम्भव है?🔆🙏 

श्रीरामकृष्ण - संसार में होगा क्यों नहीं ? (पारिवारिक जीवन में रहते हुए भी रजर्षि जनक बना जा सकता है !!) परन्तु विवेक और वैराग्य चाहिए । ईश्वर ही वस्तु है, और सब अनित्य और अवस्तु - दो दिन के लिए है, यह विचार दृढ़ रहना चाहिए । ऊपर -ऊपर उतराते रहने से न होगा । डुबकी मारनी चाहिए ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — সংসারে হবে না কেন? তবে বিবেক-বৈরাগ্য চাই। ঈশ্বর বস্তু আর সব অনিত্য, দুদিনের জন্য, — এইটি পাকা বোধ চাই। উপর উপর ভাসলে হবে না, ডুব দিতে হবে!
MASTER: "Why shouldn't a man be able to realize God in the world? But he must have discrimination and dispassion; he must have the unshakable awareness that God alone is real and all else is unreal and has but a two-day's existence. It will not do to float on the surface. You must dive deep."

यह कहते हुए ठाकुर ने गाना शुरू किया : 

डूब , डूब डूब रूपसागरे आमार मन। 
तलातल पाताल खुंजले पाबि रे प्रेम रत्नधन।। 

जिसका भावार्थ है - " मेरे मन , तुम ईश्वर द्वारा रचित इस रूपसागर (ह्रदय समुद्र) में गहराई तक गोता लगाओ। बिन्दु से सिन्धु बनने में डरो मत,  क्योंकि कर्णधार सद्गुरु की कृपा से वहाँ पहुंचकर नमक का पुतला पत्थर का बन जाता है इसलिए गलता नहीं है। यदि तुम (ह्रदय- समुद्र की) अंतिम गहराई (uttermost depths) तक गोता लगा सको तब वहाँ  तुमको प्रेम-रत्न धन की उपलब्धि होगी ! 
এই বলিয়া ঠাকুর গান গাহিতেছেন:
ডুব্‌ ডুব্‌ রূপসাগরে আমার মন।
তলাতল পাতাল খুঁজলে পাবি রে প্রেম রত্নধন।। 
With these words, the Master sang: Dive deep, O mind, dive deep in the Ocean of God's Beauty;If you descend to the uttermost depths, There you will find the gem of Love. . . .


 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏रूपसागर में कामिनी-कांचन घड़ियाल का भय, विवेक-वैराग्य हल्दी है🔆🙏    

"एक बात और याद रखना; समुद्र में काम आदि ( कामिनी -कांचन या Lust and lucre में आसक्ति रूपी ) घड़ियालों का भय है ।"

[“আর-একটি কথা। কামাদি কুমিরের ভয় আছে।”
MASTER: "You must remember another thing: in the ocean there is danger of alligators, that is to say, of Lust and lucre  and the like. (वासना और धन का  लालच रूपी मगरमच्छ।)"

गिरीश - परन्तु यम का भय मुझे नहीं है ।
(माँ काली के भक्त को मृत्यु का भय कैसा ???)

[গিরিশ — যমের ভয় কিন্তু আমার নাই। 
GIRISH: "I am not afraid of the King of Death."

श्रीरामकृष्ण - नहीं, काम आदि घड़ियालों का भय है । इसीलिए हलदी लगाकर डुबकी मारनी चाहिए - हलदी है विवेक और वैराग्य ।

[जिसे यम का भय तो नहीं हो , किन्तु रूपसागर में (कर्मव्यस्त जीवन में) तैरने के लिए माँ ने पुनः भेज दिया हो , उसको भी कामिनी -कांचन में आसक्ति रूपी पूर्व संस्कार रूपी घड़ियालों का भय तो रहता ही है।  विवेक-वैराग्य रूपी अंजन लगाने से रूपसागर (गृहस्थ जीवन या कर्मव्यस्त-जीवन) में राजर्षि जनक को सभी स्त्रियों में माँ आनन्दमयी दिखेंगी और पुरुषों में गोलोकधाम के चरवाहे ! तब कोई भय नहीं होगा। ]

[শ্রীরামকৃষ্ণ — না, কামাদি কুমিরের ভয় আছে, তাই হলুদ মেখে ডুব দিতে হয়। বিবেক-বৈরাগ্যরূপ হলুদ!
MASTER: "But I am speaking of the danger of the alligators of lust and the like. (Lust and lucre)  Because of them one should smear one's body with turmeric before diving in — the turmeric of discrimination and dispassion.

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏गुप्तयोगी राजर्षि जनक सद्गुरु की आज्ञा से कर्तव्य-निर्वहन करते हैं🔆🙏 

"संसार में किसी किसी को ज्ञान होता है । इस पर दो तरह के योगियों की बात कही गयी है - गुप्त योगी और व्यक्त योगी । जिन लोगों ने संसार का त्याग कर दिया है, वे व्यक्त योगी हैं, उन्हें सब लोग पहचानते हैं । गुप्त योगी व्यक्त नहीं होता । जैसे नौकरानी - सब काम तो करती है, परन्तु मन अपने देश में बालबच्चों पर लगाये रहती है ।

[“সংসারে জ্ঞান কারু কারু হয় তাই দুই যোগীর কথা আছে, গুপ্তযোগী ও ব্যাক্তযোগী। যারা সংসারত্যাগ করেছে তারা ব্যাক্তযোগী, তাদের সকলে চেনে। গুপ্তযোগীর প্রকাশ নাই।  যেমন দাসী সব কর্ম করছে, কিন্তু দেশের ছেলেপুলেদের দিকে মন পড়ে আছে।

"Some attain knowledge of God in the world. Mention is made of two classes of yogis: the hidden and the known. Those who have renounced the world are 'known' yogis: all recognize them. But the 'hidden' yogis live in the world. They are not known.They are like the maidservant who performs her duties in the house but whose mind is fixed on her children in the country.

और जैसा मैंने तुमसे कहा है, व्यभिचारणी औरत घर का कुल काम तो बड़े उत्साह से करती है, परन्तु मन से वह सदा अपने यार की याद करती रहती है । विवेक और वैराग्य का होना बड़ा मुश्किल है, 'मैं कर्ता हूँ' और 'ये सब चीजें मेरी हैं’, यह भाव बड़ी जल्दी दूर नहीं होता ।

[আর যেমন তোমায় বলেছি, নষ্ট মেয়ে (?) সংসারের সব কাজ উৎসাহের সহিত করে, কিন্তু সর্বদাই উপপতির দিকে মন পড়ে থাকে। বিবেক-বৈরাগ্য হওয়া বড় কঠিন। `আমি কর্তা, আর এ-সব জিনিস আমার' — এ বোধ সহজে যায় না।
 They are also, as I have told you, like the loose woman who performs her household duties zealously but whose mind constantly dwells on her lover. It is very hard to cultivate discrimination and dispassion. It is not easy to get rid of the idea, 'I am the master and all these --(family and business)  are mine.' 

"एक डिप्टी मजिस्ट्रेट को मैंने देखा, आठ सौ रुपया महीना पाता है; ईश्वरी बातें हो रही थीं, उधर उसका जरा भी मन नहीं लगा । वह अपने लड़कों में से एक लड़के को अपने साथ ले आया था, उसे कभी यहाँ बैठाता था, कभी वहाँ । मैं एक और आदमी को जानता हूँ, उसका नाम न लूँगा, खूब जप करता था, परन्तु दस हजार रुपयों के लिए उसने झूठी गवाही दी थी । "इसीलिए कहा, विवेक और वैराग्य के होने पर संसार में भी ईश्वर प्राप्ति होती है ।”

[  একজন ডিপুটিকে দেখলুম ৮০০‌‍ টাকা মাইনে, ঈশ্বরীয় কথা হচ্ছে, সেদিকে মন একটুও দিলে না। একটা ছেলে সঙ্গে করে এনেছে, তাকে একবার এখানে বসায়, একবার সেখানে বসায়। আর-একজনকে আমি জানি, নাম করব না; জপ করত খুব, কিন্তু দশ হাজার টাকার জন্য মিথ্যা সাক্ষি দিচ্ছিল। তাই বলছি, বিবেক-বৈরাগ্য হলে সংসারেতেও হয়।”

I saw a deputy magistrate, who earns a salary of eight hundred rupees, paying no attention to a religious discourse. He had brought one of his children with him and was busy finding a good place for him to sit. I know another man, whom I shall not name, who used to devote a great deal of time to japa; but he bore false witness in court for the sake of ten thousand rupees. Therefore I say that a man can realize God in the world, too, but only if he has discrimination and dispassion."

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏त्रय दुर्लभं -मनुष्य शरीर,मुक्ति की इच्छा और भगवान श्री रामकृष्ण का आश्रय 🔆🙏 

गिरीश - इस पापी के लिए क्या होगा ?

श्रीरामकृष्ण ऊर्ध्वदृष्टि हो गाने लगे –

भाव श्रीकान्त नरकान्तकारी रे। 
नितान्त कृतान्त भयांत हरि।।  

भाविले भव भावना जाय रे - 
तरे तरंगे भ्रूभंगे त्रिभंगे जेबा भावे। 

भावानुवाद - "ऐ जीवो, उस नरकान्तकारी श्रीकान्त का चिन्तन करो, इस तरह कृतान्त के भय का अन्त हो जायेगा । उनका स्मरण करने पर भवभावना दूर हो जाती है, उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है । सोचो तो, किस तत्त्व की प्राप्ति के लिए तुम इस मर्त्यलोक में आये, पर यहाँ आकर चित्त में बुरी वृत्तियाँ भरना शुरू कर दिया ! यह कदापि उचित नहीं, इस तरह तुम अपने को डुबा दोगे । अतएव उस नित्यपद की चिन्ता करके अपने इस चित्त का प्रायश्चित्त करो ।"

গিরিশ — এ পাপীর কি হবে?
ঠাকুর ঊর্ধ্বদৃষ্টি করিয়া করুণস্বরে গান ধরিলেন:
 ভাব শ্রীকান্ত নরকান্তকারীরে। নিতান্ত কৃতান্ত ভয়ান্ত হরি।।
ভাবিলে ভব ভাবনা যায় রে —
তরে তরঙ্গে ভ্রূভঙ্গে ত্রিভঙ্গে যেবা ভাবে।
এলি কি তত্ত্বে, এ মর্তে কুচিত্ত কুবৃত্ত করিলে কি হবে রে —
উচিত তো নয়, দাশরথিরে ডুবাবি রে —
কর এ চিত্ত প্রাচিত্ত, সে নিত্য পদ ভেবে।।
GIRISH: "What will happen to this sinner?"
Sri Ramakrishna sang in a tender voice, turning his eyes upward:
" Meditate on the Lord, the Slayer of hell's dire woes,He who removes the fear of death;Thinking of Him, the soul is freed from worldly grief And sails across the sea of life in the twinkling of an eye. Consider, O my mind, why you have come to earth; What gain is there in evil thoughts and deeds? Your way lies not through these: perform your penance here, By meditating long and deep on the everlasting Lord.

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - "तरे तरंगे भ्रूभंगे त्रिभंगे जेबा भावे।" अर्थात उस त्रिभंग के एक ही भ्रूभंग से मनुष्य इस घोर तरंग को पार कर जाता है ।

[ -- 'परन्तु, माँ की कृपा से पलक-झपकते भवतरंग को  पार करने की क्षमता केवल उन्हीं को मिलती है जो नामरूप के समस्त तरंगों में जो 'त्रिभंग-दर्शनका अभ्यास करते हैं! (अर्थात 
विवेक- दर्शन, या प्रेमी परमहंस स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते हैं।)]  

(গিরিশের প্রতি) — “তবে তরঙ্গে ভ্রূভঙ্গে ত্রিভঙ্গে যেবা ভাবে।”
MASTER: "'Sails across the sea of life in the twinkling of an eye.'

 [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏आद्यशक्ति महामाया की संतानभाव से पूजा और आममुख्तारी  या बकलमा🔆🙏

"महामाया के द्वार छोड़ने पर उनके दर्शन होते हैं, महामाया की दया चाहिए । इसीलिए शक्ति की उपासना की जाती है । देखो न, पास ही भगवान हैं, फिर भी उन्हें जानने के लिए कोई उपाय नहीं, बीच में महामाया है, इसलिए राम, सीता और लक्ष्मण जा रहे हैं; आगे राम हैं, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण । राम बस ढाई हाथ के फासले पर हैं, फिर भी लक्ष्मण उन्हें नहीं देख पाते ।

[মহামায়া দ্বার ছাড়লে তাঁর দর্শন হয়। মহামায়ার দয়া চাই। তাই শক্তির উপাসনা। দেখ না, কাছে ভগবান আছেন তবু তাঁকে জানবার জো নাই, মাঝে মহামায়া আছেন বলে। রাম-সীতা, লক্ষ্মণ যাচ্ছেন। আগে রাম, মাঝে সীতা — সকলের পিছনে লক্ষ্মণ। রাম আড়াই হাত অন্তরে রয়েছেন, তবু লক্ষ্মণ দেখতে পাচ্ছেন না। মহামায়া দ্বার ছাড়লে তাঁর দর্শন হয়। মহামায়ার দয়া চাই। তাই শক্তির উপাসনা। দেখ না, কাছে ভগবান আছেন তবু তাঁকে জানবার জো নাই, মাঝে মহামায়া আছেন বলে। রাম-সীতা, লক্ষ্মণ যাচ্ছেন। আগে রাম, মাঝে সীতা — সকলের পিছনে লক্ষ্মণ। রাম আড়াই হাত অন্তরে রয়েছেন, তবু লক্ষ্মণ দেখতে পাচ্ছেন না।
 One attains the vision of God if Mahamaya steps aside from the door. Mahamaya's grace is necessary: hence the worship of Sakti. You see, God is near us, but it is not possible to know Him because Mahamaya stands between. Rama, Lakshmana, and Sita were walking along. Rama walked ahead, Sita in the middle, and Lakshmana last. Lakshmana was only two and a half cubits away from Rama, but he couldn't see Rama because Sita — Mahamaya — was in the way.

"उनकी उपासना करने के लिए एक भाव का आश्रय लिया जाता है । मेरे तीन भाव हैं, सन्तानभाव, दासीभाव और सखीभाव । दासीभाव और सखीभाव में मैं बहुत दिनों तक था । उस समय स्त्रियों की तरह गहने और कपड़े पहनता था । सन्तानभाव बहुत अच्छा है ।

“তাঁকে উপাসনা করতে একটা ভাব আশ্রয় করতে হয়। আমার তিন ভাব, — সন্তান ভাব, দাসী ভাব আর সখীভাব। দাসী ভাব, সখীভাবে অনেক-দিন ছিলাম। তখন মেয়েদের মতো কাপড়, গয়না, ওড়না পরতুম। সন্তান ভাব খুব ভাল।"
While worshipping God, one should assume a definite attitude. I have three attitudes: the attitude of a child, the attitude or a maidservant, and the attitude of a friend. For a long time I regarded myself as a maidservant and a woman companion of God; at that time I used to wear skirts and ornaments, like a woman. The attitude of a child is very good.
(3) 

  [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏 वीरभाव से शक्ति-पूजा करने में अक्सर पतन की सम्भावना रहती है🔆🙏 

[नेड़ा -नेड़ी या भैरव-भैरवी भाव, अर्थात स्वयं को पुरुष और स्त्री को प्रकृति (M/F) समझना और स्त्री शक्ति को रमण द्वारा प्रसन्न करने की चेष्टा करना 
 बहुत खतरनाक है !! ]

"वीरभाव अच्छा नहीं । बेल -मुण्डे और बेल-मुण्डियाँ , भैरव और भैरवियाँ, ये सब वीरभाव के उपासक हैं, अर्थात् प्रकृति को स्त्रीरूप से देखना और रमण के द्वारा उसे प्रसन्न करना - - इस भाव में प्रायः पतन हुआ करता है ।"

[“বীরভাব ভাল না। নেড়া-নেড়ীদের, ভৈরব-ভৈরবীদের বীরভাব। অর্থাৎ প্রকৃতিকে স্ত্রীরূপে দেখা আর রমণের দ্বারা প্রসন্ন করা, এ-ভাবে প্রায়ই পতন আছে।”

"The attitude of a 'hero' is not good. Some people cherish it. They regard themselves as Purusha and woman as Prakriti; they want to propitiate ( प्रोपिशिएट)  woman through intercourse (स्त्रियों को रतिसंयोग द्वारा प्रसन्न करने की चेष्टा में अक्सर पतन की सम्भावना है ।) with her. But this method often causes disaster."

गिरीश - मुझ में एक समय वही भाव आया था । "एक समय मैं भी उस विचार को पोषित करता था।"

গিরিশ — আমার এক সময়ে ওই ভাব এসেছিল।
GIRISH: "At one time I too cherished that idea."

श्रीरामकृष्ण चिन्तित हुए-से गिरीश को देखने लगे ।
[ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ চিন্তিত হইয়া গিরিশকে দেখিতে লাগিলেন।
Sri Ramakrishna looked at Girish pensively.

गिरीश - इस भाव का कुछ अंश अब भी शेष है । उसे दूर करने उपाय क्या है, बतलाइये ।
[গিরিশ — ওই আড়টুকু আছে, এখন উপায় কি বলুন? 
GIRISH: "I still have that twist in my mind. Tell me what I should do."


श्रीरामकृष्ण - (कुछ देर चिन्ता करके) - उन्हें `आम मुखत्यारी' (power of attorney) दे दो, उनकी जो इच्छा हो, वे करें।

 [ अपने गुरु या  मार्गदर्शक नेता(C-IN-C) को अपना मुख्तारनामा या पावर ऑफ अटॉर्नी दे दो। उन्हें जो पसंद है उसे करने दें।"]

[শ্রীরামকৃষ্ণ (কিয়ৎক্ষণ চিন্তার পর) — তাঁকে আমমোক্তারি দাও — তিনি যা করবার করুন।
Sri Ramakrishna reflected a minute and said, "Give God your power of attorney. Let Him do whatever He likes."


(८/4)

सत्त्वगुण तथा ईश्वरलाभ*

  [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏सत्त्वगुण आने पर ईश्वरलाभ होता है - "सच्चिदानन्द या कारणानन्द ?"🔆🙏 

"সত্ত্বগুণ এলে ঈশ্বরলাভ — “সচ্চিদানন্দ না কারণানন্দ”

बातचीत का क्रम फिर श्री रामकृष्ण के युवा शिष्यों की ओर मुड़ गया।

ঠাকুর শ্রীরামকৃষ্ণ ছোকরা ভক্তদের কথা কহিতেছেন।
The conversation then turned to Sri Ramakrishna's young devotees.

श्रीरामकृष्ण - (गिरीश से) - "ध्यान में मुझे इन युवाओं के आंतरिक लक्षण दिखाई देते हैं। इनमें ' विवाह करने और भौतिक सम्पदा अर्जित करने' की कोई इच्छा नहीं है। 'माग-सुख' (काम-सुख) भोगने की कोई लालसा नहीं है। जिन युवा शिष्यों का विवाह हो चुका है, वे भी रात्रि में अपनी पत्नियों के साथ शयन नहीं करते। वास्तविकता क्या है , जानते हो ? जब तक मनुष्य रजोगुण से मुक्त होकर शुद्ध सतोगुण में स्थित नहीं हो जाता,उसका मन निरंतर ईश्वर के चिंतन में नहीं रम सकता। वह श्री भगवान से प्रेम (अहेतुकी भक्ति) नहीं कर सकता, इसलिए उनका साक्षात्कार भी  नहीं कर सकता।     
      
শ্রীরামকৃষ্ণ (গিরিশাদির প্রতি) — ধ্যান করতে করতে ওদের সব লক্ষণ দেখি। “বাড়ি করব” এ-বুদ্ধি ওদের নাই। মাগ-সুখের ইচ্ছা নাই। যাদের মাগ আছে একসঙ্গে শোয় না। কি জানো — রজোগুণ না গেলে শুদ্ধসত্ত্ব না এলে, ভগবানেতে মন স্থির হয় না। তাঁর উপর ভালবাসা আসে না, তাঁকে লাভ করা যায় না।
MASTER (to Girish and the others): "In meditation I see the inner traits of these youngsters. They have no thought of acquiring house and property. They do not crave sex pleasure. Those of the youngsters who are married do not sleep with their wives. The truth is that unless a man has got rid of rajas and has acquired sattva, he cannot steadily dwell in God; he cannot love God and realize Him."

गिरीश: "तो, आपने मुझे आशीर्वाद दिया है।"

গিরিশ — আপনি আমায় আর্শীবাদ করেছেন!
GIRISH: "You have blessed me."

श्रीरामकृष्ण – कब ? परन्तु हाँ, यह कहा है कि आन्तरिकता के होने पर सब हो जायेगा ।

[শ্রীরামকৃষ্ণ — কই! তবে বলেছি আন্তরিক হলে হয়ে যাবে।
MASTER: "How is that? I said that you would succeed if you were sincere."

बातचीत करते हुए श्रीरामकृष्ण 'आनन्दमयी' कहकर समाधिलीन हो रहे हैं । बड़ी देर तक समाधि की अवस्था में रहे । जरा समाधि से उतरकर कह रहे हैं - "ये सब कहाँ गये ?”* मास्टर बाबूराम को बुला लाये । श्रीरामकृष्ण बाबूराम  [बाबूराम घोष भविष्य के स्वामी प्रेमानन्द (1861-1918)]  और दूसरे भक्तों की ओर देखकर बोले - “सच्चिदानन्द ही अच्छा है, और कारणानन्द?"
[बाबूराम तथा अन्य भक्तों की तरफ प्रेमपूर्ण नेत्रों से देखते हुए ठाकुर श्रीरामकृष्ण प्रेमोन्मत्त होकर (प्रेम के नशे में धुत होकर) कहते हैं, “सचमुच सच्चिदानन्द का आनन्द ही 'श्रेय' है! लेकिन वह 'कारणानन्द' ? " -- ईश्वरीय मद्यपान के आनंद (bliss of divine inebriation) के जो कारण (गुरु /नेता C-IN-C)  हैं, उन्हें क्या कहें ?”]

इतना कहकर श्रीरामकृष्ण गाने लगे –

“अबकी बार मैंने अच्छा सोचा है । एक अच्छे सोचनेवाले से मैंने सोचने का ढंग सीखा है । जिस देश में रात नहीं है, मुझे उसी देश का एक आदमी मिला है । दिन की तो बात ही न पूछो, सन्ध्या को भी मैंने बन्ध्या बना डाला है । मेरी आँखें खुल गयी हैं, अब क्या फिर मैं सो सकता हूँ ? मैं योग और याग में जाग रहा हूँ । माँ, योगनिद्रा तुझे देकर नींद को ही मैंने सुला दिया है। सोहागा और गन्धक को पीसकर मैंने बड़ा ही सुन्दर रंग चढ़ाया है, आँखों की कूँची बनाकर मैं मणि-मन्दिर को साफ कर लूँगा । रामप्रसाद कहते हैं, भुक्ति और मुक्ति दोनों को सिर पर रखे हुए हूँ और 'काली ही ब्रह्म है' यह मर्म समझकर धर्म और अधर्म, दोनों को मैंने छोड़ दिया है ।"

[কথা বলিতে বলিতে ঠাকুর ‘আনন্দময়ী’! ‘আনন্দময়ী’! এই কথা উচ্চারণ করিয়া সমাধিস্থ হইতেছেন। সমাধিস্থ হইয়া অনেকক্ষণ রহিলেন। একটু প্রকৃতিস্থ হইয়া বলিতেছেন, 
“শালারা, সব কই?” মাস্টার বাবুরামকে ডাকিয়া আনিলেন। 
ঠাকুর বাবুরাম ও অন্যান্য ভক্তদের দিকে চাহিয়া প্রেমে মাতোয়ারা হইয়া বলিতেছেন, “সচ্চিদানন্দই ভাল! আর কারণানন্দ?” এই বলিয়া ঠাকুর গান ধরিলেন:

এবার আমি ভাল ভেবেছি।
ভাল ভাবীর কাছে ভাব শিখেছি।।

যে দেশে রজনী নাই, সেই দেশের এক লোক পেয়েছি।

আমি কিবা দিবা কিবা সন্ধ্যা সন্ধ্যারে বন্ধ্যা করেছি।।
ঘুম ভেঙেছে আর কি ঘুমাই যোগে যাগে জেগে আছি।

যোগনিদ্রা তোরে দিয়ে মা, ঘুমেরে ঘুম পাড়ায়েছি।।
সোহাগা গন্ধক দিয়ে খাসা রঙ চড়ায়েছি।

মণি মন্দির মেজে লব অক্ষ দু’টি করে কুঁচি।।
প্রসাদ বলে ভুক্তি মুক্তি উভয়ে মাথায় রেখেছি।

(আমি) কালীব্রহ্ম জেনে মর্ম ধর্মাধর্ম সব ছেড়েছি।।


Saying this, the Master exclaimed, "Anandamayi!" and went into samadhi. He remained in that state a long time. Regaining partial consciousness, he said, "Where are those rascals?" ["वे धूर्त " -निवृत्तिमार्गी -चालक युवा- शिष्य जो प्रवृत्ति मार्ग में फंसे ही नहीं सब कहाँ हैं ?] M. brought Baburam to him. Sri Ramakrishna looked at Baburam and the other devotees and said, still in ecstasy, "The bliss of Satchidananda is indeed good; but what about the bliss of divine inebriation?"
He began to sing:
Once for all, this time, I have thoroughly understood;
From One who knows it well, I have learnt the secret of bhava. . . .

फिर उन्होंने दूसरा गाना गाया ।
"यदि 'काली काली' कहते मेरी मृत्यु हो जाय तो गंगा, गया, काशी, कांची, प्रभासादि क्षेत्रों में मैं क्यों जाऊँ ?"
ঠাকুর আবার গান ধরিলেন:

গয়া গঙ্গা প্রভাসাদি কাশী কাঞ্চী কেবা চায়।
কালী কালী বলে আমার অজপা যদি ফুরায়।।
ত্রিসন্ধ্যা যে বলে কালী, পূজা সন্ধ্যা সে কি চায়।
সন্ধ্যা তার সন্ধ্যানে ফেরে কভু সন্ধি নাহি পায়।।
কালী নামের কতগুণ কেবা জানতে পারে তায়।
দেবাদিদেব মহাদেব যার পঞ্চমুখে গুণ গায়।।
দান ব্রত যজ্ঞ আদি আর কিছু না মনে জয়।
মদনের যাগ যজ্ঞ ব্রহ্মময়ীর রাঙ্গা পায়।




Again he sang:

Why should I go to Ganga or Gaya, to Kasi, Kanchi, or Prabhas,
So long as I can breathe my last with Kali's name upon my lips? .

फिर वे कहने लगे, “मैंने माँ से प्रार्थना करते हुए कहा था, माँ, मैं और कुछ नहीं चाहता, मुझे शुद्धा भक्ति दो ।"

[“আমি মার কাছে প্রার্থনা করতে করতে বলেছিলুম, মা আর কিছু চাই না, আমায় শুদ্ধাভক্তি দাও।”
The Master continued, saying, "While praying to the Divine Mother, I said, 'O Mother, I don't seek anything else: give me only pure love for Thee.'"
गिरीश का शान्त भाव देखकर श्रीरामकृष्ण को प्रसन्नता हुई है । वे कह रहे हैं, "तुम्हारी यही अवस्था अच्छी है । सहज अवस्था ही उत्तम अवस्था है ।"

[গিরিশের শান্তভাব দেখিয়া ঠাকুর প্রসন্ন হইয়াছেন। আর বলিতেছেন, তোমার এই অবস্থাই ভাল, সহজ অবস্থাই উত্তম অবস্থা।
Sri Ramakrishna was pleased with Girish's calm mood. He said to him, "This mood of yours is good; the calm mood is the best."

श्रीरामकृष्ण नाट्यभवन के मैनेजर के कमरे में बैठे हुए हैं । एक ने आकर पूछा, "क्या आप 'विवाह-विम्राट' देखेंगे ? अब अभिनय हो रहा है ?"

[ঠাকুর নাট্যালয়ের ম্যানেজারের ঘরে বসে আছেন। একজন আসিয়া বলিলেন,“আপনি বিবাহ বিভ্রাট দেখবেন? এখন অভিনয় হচ্ছে।”
The Master was seated in the manager's room. A man entered and said, "Will you see the farce. 'The Confusion of Marriage'? It is being played now."
श्रीरामकृष्ण ने गिरीश से कहा, "यह तुमने क्या किया ? प्रह्लाद-चरित्र के बाद विवाह-विभ्राट ? पहले खीर देकर पीछे से कड़वी तरकारी ?"

[ঠাকুর গিরিশকে বলিতেছেন, “একি করলে? প্রহ্লাদচরিত্রের পর বিবাহ বিভ্রাট? আগে পায়েস মুণ্ডি, তারপর সুক্তনি!”
Sri Ramakrishna said to Girish: "What have you done? This farce after the life of Prahlada! First sweets and rice pudding and then a dish of bitter herbs!"

  [(14 दिसंबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत- 104 ]

🔆🙏दयासिंधु श्री रामकृष्ण और वारवनिता (नटी- नाचनेवाली स्त्री)🔆🙏

[দয়াসিন্ধু শ্রীরামকৃষ্ণ ও বারবণিতা ]

अभिनय समाप्त हो जाने पर गिरीश के आदेश से रंगमंच की अभिनेत्रियाँ (actresses) श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने आयीं । सब ने भूमिष्ठ होकर प्रणाम किया । भक्तगण कोई खड़े, कोई बैठे हुए देख रहे हैं । उन्हें देखकर आश्चर्य होने लगा । अभिनेत्रियों में कोई-कोई श्रीरामकृष्ण के पैरों पर हाथ रखकर प्रणाम कर रही हैं । पैरों पर हाथ रखते समय श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं, "माँ, बस हो गया - माँ बस, रहने दो ।" बातों में करुणा सनी हुई थी ।

[অভিনয়ান্তে গিরিশের উপদেশে নটীরা (Actresses) ঠাকুরকে নমস্কার করিতে আসিয়াছে। তাহারা সকলে ভূমিষ্ঠ হইয়া নমস্কার করিল। ভক্তেরা কেহ দাঁড়াইয়া, কেহ বসিয়া দেখিতেছেন। তাহারা দেখিয়া অবাক্‌ যে, উহাদের মধ্যে কেহ কেহ ঠাকুরের পায়ে হাত দিয়া নমস্কার করিতেছে। পায়ে হাত দিবার সময় ঠাকুর বলিতেছেন, “মা, থাক্‌ থাক্‌; মা, থাক্‌ তাক্‌।” কথাগুলি করুণামাখা।
After the theatre, the actresses, following Girish's instructions, came to the room to salute Sri Ramakrishna. They bowed before him, touching the ground with their foreheads. The devotees noticed that some of the actresses, in saluting the Master, touched his feet. He said to them very tenderly, "Please don't do that, mother!"

उनके प्रणाम करके चले जाने पर श्रीरामकृष्ण भक्तों से कह रहे हैं - "ये सभी स्त्रियाँ आनन्दमयी माँ ही हैं, केवल उनके रूप भिन्न -भिन्न हैं।"

[তাহারা নমস্কার করিয়া চলিয়া গেলে ঠাকুর ভক্তদের বলিতেছেন — “সবই তিনি, এক-একরূপে।”
After the actresses had left the room, Sri Ramakrishna said to the devotees, "It is all He, only in different forms."

दरवाजे पर गाड़ी तैयार थी। गिरीश और अन्य भक्त श्रीरामकृष्ण को विदा करने के लिए बाहर सड़क तक आये। गाड़ी पर चढ़ते ही श्रीरामकृष्ण गम्भीर समाधि में लीन हो गये । नारायण आदि भक्त भी गाड़ी में बैठे । गाड़ी दक्षिणेश्वर की ओर चल दी ।

[এইবার ঠাকুর গাড়িতে উঠিলেন। গিরিশাদি ভক্তেরা তাঁহার সঙ্গে সঙ্গে গমন করিয়া গাড়িতে তুলিয়া দিলেন।
The carriage was ready at the door. Girish and the others came to the street to see the Master off. As soon as Sri Ramakrishna stepped into the carriage, he went into deep samadhi. Narayan and several other devotees were with him. The carriage started for Dakshineswar.
=============

श्रीमन्नारायण           नारायण             नारायण !
बद्रीनारायण           नारायण              नारायण !!

विष्णु पुराण भागवत गीता,
                    वाल्मीकजी की रामायण !!श्री!!  1
चारिहुँ वेद पुराण अष्टदस,
                    वेद व्यास जी की परायण !!श्री!!  2
शिवसनकादि आदि ब्रम्हादिक,
                        सुमिर सुमिर भये पारायण !!श्री!!  3
श्यामल गात पीताम्बर सोहे,
                        विप्रचरण उरधारायण !!श्री!!  4

नारायण के चरण कमल पर,
                       कोटि काम छवि वारायण !!श्री!!  5
शंख,चक्र,गदा,पद्म विराजे,
                       गल कौस्तुभमणि धारायण !!श्री!!  6
खम्भ फाड़ हिरणाकुश मारयो,
                       भक्त प्रह्लाद उबारायण !!श्री!!  7
कश्यप ऋषी सें वामन होकर,
                        दण्ड कमण्डल धारायण !!श्री!!  8


बलि सें याच तीन पद पृथ्वी,
                        रूपत्रिविक्रम धारायण !!श्री!!  9
गज और ग्राह लड़े जल भीतर,
                       लड़त लड़त गज हारायण !!श्री!!  10
जौ भर सूंड रही जल बाहिर,
                        तब हरि नाम उच्चारायण !!श्री!! 11
गज की टेर सुनी रघुनन्दन,
                        आप पधारे श्री नारायण !!श्री!!  12


जल डूबत गजराज उबारयो,
                        श्री चक्र सुदर्शन धारायण !!श्री!!  13
सरयू के तीर अयोध्या नगरी,
                        श्री रामचन्द्र अवतारायण !!श्री!! 14
क्रीट मुकुट मकराकृत कुण्डल,
                        अदभुत शोभा धारायनण !!श्री!! 15
राम , लछमण, भरत शत्रुघ्न,
                        चार रूप तनु धारायण !!श्री!! 16

सरयू के निरे तीरे तुरंग नचावे,
                      धनुष बाण कर धारायण !!श्री!! 17
कोमल गात पीताम्बर सोहे,
                      उर वैजयन्ती धारायण !!श्री!! 18
बकसर जाय ताड़का मारी,
                     मुनि के यज्ञ किये पारायण !!श्री!! 19
स्पर्शत  चरण शिला भई सुन्दरी,
                     बैठ विमान भई पारायण !!श्री!! 20

जाय जनकपुर धनुष को तोड्यो,
                    राजा जनक प्रण सारायण !!श्री!! 21
जनक स्वयम्बर पावन कीन्हों,
                     वरमाला हरि धारायण !!श्री!! 22
रामसियाजी की पड़त भांवरी,
                      देव सुमन वर्षारायण !!श्री!! 23
सीता ब्याह अवधपुर आये,
                      घर घर मङ्गला चारायण !!श्री!! 24


मात कौशल्या करत आरती, 
                      त्रिभुवन मङ्गला चारायण !!श्री!!  25
मात पिता की आज्ञा पाई,
                     चित्रकूट पगधारायण !!श्री!!  26
चौदह वर्ष वास वन कीन्हों,
                     सुरनर मुनि हित कारायण !!श्री!! 27
दण्डकवन प्रभु पावन कीन्हों,
                     ऋषि मुनि त्रास मिटारायण !!श्री!! 28

ऋषि मुनि को प्रभु दरशन देकर,
                     पंचवटी पग धारायण !!श्री!! 29
भोजपत्र की कुटी बनाई ,
                      मृग मारीच को मारायण !!श्री!! 30
योगी को रूप धरयो रावण ने,
                     सीता हर ले जारायण !!श्री!! 31
ऋषि मुनि को प्रभु दर्शन देकर,
                     शबरी के पग धारायण !!श्री!! 32


पंपा जाय बालिशर मारयो,
                    सुग्रीव को शोक निवारायण !!श्री!! 33
सागर ऊपर शिला तिराइ,
                    कपिदल पार उतारायण !!श्री!! 34
रावण के दस मस्तक छेदे,
                    राज विभीषण पारायण !!श्री!! 35
रामरूप होय रावण मारयो,
                   भक्त विभीषण तारायण !!श्री!! 36

राक्षस वंश विनाश कियो है,
                    पृथ्वी भार उतारायण !!श्री!! 37
लंका जीत अवधपुर आये,
                    राज्यतिलक प्रभु धारायण !!श्री!! 38
 यमुना के निरे तीरे मथुरा नगरी,
                    श्री कृष्ण चन्द्र अवतारायण !!श्री!! 39
मथुरा में हरि जन्म लियो है,
                    गोकुळ में पग धारायण !!श्री!! 40
 

बालपने हरि पूतना मारी,
                    जननी की गति पारायण !!श्री !! 41
बालपने मुख मटिया खाई,
                    तीन लोक दर्शारायण !!श्री!! 42
मात जसोदा ऊंखळ बांध्यो,
                    यमला अर्जुन तारायण !!श्री!! 43
मोर मुकुट पीताम्बर सोहे,
                     श्रवणंन कुण्डल धारायण !!श्री!! 44


यमुना के निरे तीरे धेनु चरावे,
                    मुख पर मुरली धरायण !!श्री!! 45
पैठ पाताल काली नाग नाथयो,
                    फण फण नृत्य करारायण !!श्री!! 46
वृन्दावन में रास रच्यो है,
                    सहस्त्र गोपी एक नारायण !!श्री!! 47
इंद्र कोप कियो वृज ऊपर,
                     बरसत  मूसल   धारायण !!श्री!! 48


डूबत ही वृज राख लियो है,
                     नख पर गिरिवर धारायण !!श्री!! 49
मात पिता की बन्दी छुड़ाई,
                     मामा कंस को मारायण !!श्री!! 50
कृष्ण रूप होय कंस पछाड्यो,
                      उग्रसेन कुल तारायण !!श्री!! 51
उग्रसेन को राजतिलक दियो,
                      द्वार बेतकर धारायण !!श्री!! 52

द्रुपद सुता की लज्जा राखी,
                       दुष्ट दुशासन हारायण !!श्री!! 53
दुर्योधन का मेवा त्यागे,
                        शाक विदुर घर पारायण !!श्री!! 54
शबरी के बेर सुदामा के तन्दुल,
                       रुचि रुचि भोग लगारायण !!श्री!! 55
अजामिल सुत हेतु पुकारे,
                         नाम लेत अघ तारायण !!श्री!! 56

अजामील गज गणिका तारी,
                        ऐसे पतित उद्धारायण !!श्री!! 57
जो नारायण नाम लेत है,
                         पाप होत सब छारायण !!श्री!!58
जो कोई भक्ति करे माधव की,
                        मात पिता कुल तारायण !!श्री!! 59
कूर्म होय ब्रम्हा वर दीन्हों,
                        श्री रँग रूप को धारायण !!श्री!! 60

श्री शेषाचल पर आप विराजे,
                         श्री वेंकटेश अवतारायण !!श्री!! 61
श्री विष्णु लोक में श्री देवीकूँ,
                          द्वय मन्त्र उच्चारायण !!श्री!! 62
निरहेतुक जग रचना कर कर,
                          भवसागर उतारायण !!श्री!! 63
जड़ चेतन का अंतर्यामी,
                       अखिल जग हितकारायण !!श्री!! 64

प्रथम पुत्र ब्रम्हा को सिरजे,
                           वेद मन्त्र उच्चारायण !!श्री!! 65
हयग्रीव होय वेद फिर लाये,
                           ब्रम्हा कष्ट निवारायण !!श्री!! 66
दैत्य को मार भूमि को लाये,
                           वराह रूप को धारायण!!श्री!! 67

परमपद छोड़ क्षिराब्धि आये,
                           सुरनर मुनि हितकाराण !!श्री!! 68
सिन्धु मथकर रत्न निकाले,
                          देवन कारज सारायण !!श्री!! 69
बद्रिकाश्रम में ध्यान लगाये,
                         अष्टाक्षर उच्चारायण !!श्री!! 70
श्री शेषाचल पर खड़ा दरश दे,
                         मनवांछित फल पारायण !!श्री!! 71

श्री कावेरी मध्य में शयन किये हैं,
                          श्री रंगरूप को धारायण !!श्री!! 72
श्री कांची में वरद राज विराजे,
                          ब्रम्हा कारज सारायण !!श्री!! 73
श्री यादवांचल फिर प्रकट होय कर,
                           दिल्ली सुता उद्धारायण !!श्री!! 74
वक्ष स्थल श्री लक्ष्मी विराजे,
                        श्री भुनीला हर नारायण !!श्री!! 75

वेद शास्त्र भारत रामायण,
                         सभी गात श्री नारायण !!श्री!! 76
वामन होय बलिराजा छलियो,
                          त्रिलोकी उद्धारायण !!श्री!! 77
भूतपुरी में शेष प्रकट भये,
                         रामानुज अवतारायण !!श्री!! 78
इंदौर नगर में आप विराजे,
                        श्री वेंकटेश प्रभुनारायण !!श्री!! 79

महाभारत में चरम मन्त्र को,
                        जगत हेतु उच्चारायण !!श्री!! 80
रामानुज यतिराज गुरो,
                       भवसागर सें पार करो !!श्री!! 81
जय रामानुज जय यतिराज,
                      आदिशेष,लछमण महाराज !!श्री!! 82
दिव्य गुणों का अंत नहीं है,
                     शेष पावे नहीं पारायण !!श्री!! 83

जहां जहां भीड़ पड़ी भक्तों में,
                      तहां तहां कारज सारायण !!श्री!! 84
नित्य प्रेम सें गान सुनावे,
                     कुटुम्ब सहित उद्धारायण !!श्री!! 85
श्री श्री चरणों का दास गाय यश,
                     जगत हेतु उद्धारायण !!श्री!!86
माधवदास आस रघुवर की,
                     भवसागर भये पारायण !!श्री!! 87

* श्रीश्रियै नमः*
                  श्रीश्रीनिवासपरब्रम्हणे नमः। 
                 श्रीमते  रामनुजाय   नमः!

         लक्ष्मीनाथसमारंभा        नाथयामुनमध्यमाम !
          असमदाचार्यपर्यंनतां वन्दे  गुरूपरंपराम्  !

श्रीमन्नारायण नारायण नारायण नारायण मधुसूदन गोविंदहरे,
श्रीमदरामानुज रामानुज रामानुज जय जय यतिराज गुरो। 
रामानुज अवतार मनोहर सुन्दर सुभग शरीरम्,
अखिल लोक भव शोक विमोचन करुणाकर गम्भीरम्।।

जय रामानुज जय रामानुज जय रामानुज स्वामी,
एसन को प्रभु दियो परमपद महाकुटिल खलकामी। 
जय रामानुज जय रामानुज जय जय करुणासिन्धो,
कलिमलमथन परमपद दायक विपत्ति विमोचन बन्धो।।

कृष्णानन्द मुकुन्द मुरारि हरि वामन माधव गोविंदा,
श्री रामाच्युत मत्स्य वराह हरि कूर्म माधव बलिगिरिधारी। 
श्रेधरदेव जनार्दन कल्कि नरनारायण अघहारी। 

=========================