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गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

🕊🏹1.7 " स्वामीजी का आदर्श -अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन " 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.7 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.7/old book 1.8]

7.

" स्वामीजी का आदर्श - अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन " 

       स्वामी विवेकानन्द के महान व्यक्तित्व-सम्पन्न जीवन एवं संदेशों के विशाल भण्डार को देखने से मन में स्वतः यह प्रश्न उठता है कि आखिर स्वामीजी ने हमलोगों के समक्ष कौन सा आदर्श प्रस्तुत किया है? महापुरुषों के विचार, वचन एवं कर्म में एकरूपता होती है। इसीलिए 
स्वामीजी के आदर्श को समझने के लिये हमें उनके संदेशों तथा कर्ममय जीवन को समानरूप से विश्लेषण करना होगा। स्वामीजी के सन्देश मनुष्य जीवन के समस्त पक्षों को आलोकित कर सकते हैं। यथार्थ 'विवेकज-ज्ञान' के फलस्वरूप उनकी दृष्टि के समक्ष मनुष्य जीवन की पूर्णता अनावृत हो उठी थी, जिन्हें उन्होंने मानव जीवन की समग्रता का अनुसन्धान कर सार्वजनिक कल्याण के लिए वितरित किया था। उन्होंने अपने जीवन से यही दिखाने का प्रयत्न किया है कि व्यक्ति किस प्रकार उस समग्रता की अभिव्यक्ति को संभव बना सकता है। इसीलिये उनके दिव्य संदेशों के समान उनका जीवन भी हमलोगों के लिये एक आदर्श है।
     स्वामी जी ने किसी नए आदर्श को उद्घाटित करने , अन्य आदर्श की उपेक्षा या अनादर करने या उसकी प्रयोगात्मकता की क्षमता पर शंका करने तथा अपने ही आदर्श को अधिष्ठापित करने के मोह में पड़े बिना ही मानव जीवन के लिए सर्वथा उचित आदर्श का निर्भय और निःसंकोच होकर प्रचार किया है। उनका मानना है कि- " आदर्श समाज के सामने अपना सिर नहीं झुकाएगा, बल्कि समाज को ही आदर्श के सम्मुख अपना सिर झुकाना होगा।" और उस आदर्श को ढूँढ़कर जो समाज जितनी जल्दी वैसा करने लगेगा, उस समाज का उतना ही कल्याण होगा। स्वामीजी की यह धारणा थी कि- " जिस समाज में श्रेष्ठ आदर्श को कार्यरूप देना संभव है, वही श्रेष्ठ समाज है। " उनके इस महान आदर्श को उन्हीं के शब्दों में बहुत थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है, " बनो और बनाओ।अर्थात "मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ।" यह 'बनना और 'बनाना' परस्पर अभिन्न और अविभक्त हैं। स्वामीजी कहते हैं," मेरे आदर्श को सचुमच थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है, वह है मनुष्य में अन्तर्निहित देवत्व का प्रचार करना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे कैसे व्यक्त किया जाता है, उसका मार्ग बता देना।" उनके इस आदर्श पर मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामीजी केवल एक तात्विक आदर्श को उद्घाटित करके ही थम नहीं जाते बल्कि उस ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में कैसे उपयोग किया जा सकता है उसके ऊपर भी साथ-साथ विचार करते हैं। क्योंकि किसी आदर्श को यदि व्यावहारिक जीवन में अपनाना संभव न हो तो उसे 'आदर्श' नहीं कहा जा सकता है।  
    स्वामीजी ने जिस आदर्श को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है वह जीवन के किसी क्षेत्र विशेष का आदर्श नहीं है बल्कि समग्र जीवन का आदर्श है। वैयक्तिक जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रिय जीवन एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में- अर्थात मानवता के प्रत्येक क्षेत्र में यह आदर्श व्यवहारोपयोगी है। अक्सर लोग धर्म, राजनीति, आर्थिक नीति, कानून आदि के पारस्परिक सम्बन्ध को अनदेखा कर विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग- अलग आदर्श की चर्चा करते हैं। किन्तु, जब जीवन के इन विभिन्न क्षेत्रों के आदर्श किसी महत्तर मूल आदर्श के अनुरूप नहीं होते तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों  में अन्तर्विरोध दिखने लगता है, एवं एक ही मनुष्य जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के साथ, विभिन्न रूपों में संयुक्त रहता है , उसका जीवन आदर्शों में समन्वय के अभाव में संकटों में घिर जाता है।  
     इसीलिये व्यक्ति हो या समाज उसकी निर्विघ्न उन्नति के लिये एक मौलिक आदर्श का रहना आवश्यक हो जाता है। यदि वह मौलिक आदर्श किसी ऐसे सत्य पर प्रतिष्ठित हो जो जीवन का केन्द्रबिन्दु है , तब वह आदर्श जीवन का सर्वांगीन कल्याण करने में सक्षम होता है। स्वामीजी ने उसी प्रकार के एक केन्द्रीय सत्य या तत्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं तथा उसी समस्त क्षेत्र-विशेष के आदर्श के नियंत्रक रूप में ग्रहण करने के लिए कहते हैं। और , वह तत्व है - अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति- जो जाति,धर्म, वर्ण,लिंग आदि भेद के दृष्टिगोचर होने के बावजूद भी प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है ! 
किन्तु, जब तक हमें इस अंतर्निहित पूर्णता में विश्वास नहीं होता, तब तक भले ही हम किसी क्षेत्र-विशेष के आदर्श का आविष्कार  और अनुसरण करते रहें और थोड़ी बहुत सफलता भी हासिल कर लें, लेकिन  कभी भी हम अपनी पूर्णता या महिमा में प्रतिष्ठित नहीं हो सकते। अर्थात तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हमने किसी सच्चे आदर्श का अनुसरण कर लिया है। अतः हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये जीवन के इस मुख्य तत्व को, मौलिक सत्य को अपने जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति में प्रत्येक कर्म में, प्रत्येक दृष्टिकोण में प्रक्षेपित करना। यह तत्व- 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति ' मनुष्य की शाश्वत सत्ता के उपर प्रतिष्ठित है, तथा यह देश-काल के भेद से परिवर्तित हो जाने वाली वस्तु नहीं है।
        मनुष्य सत्ता जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी है। पूर्वी गोलार्ध और पश्चमी गोलार्ध के मनुष्यों में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। अतः यह प्रश्न उठाना कि स्वामीजी  कथित यह आदर्श आज के युग में उपयोगी है या नहीं, बिलकुल असंगत है। इस प्रकार के आदर्श के साथ संयुक्त विभिन्न क्षेत्रों के छोटे -छोटे आदर्श अनन्त न होने के बावजूद भी दीर्घ काल तक प्रभावी रह सकते हैं। क्योंकि देश- काल की आवश्यकता के अनुरूप साधारण परिवर्तन सापेक्ष आदर्श रखने के बाद हमें ध्यान रखना होगा कि उसका मुख्य लक्ष्य मनुष्य में अन्तर्निहित 'पूर्णत्व ' (अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति ' 100 %निःस्वार्थपरता) को प्रकट करने में सहायता करना ही रहे । ऐसा होने पर ही विभिन्न क्षेत्रों के आदर्शों में यथार्थ सामजंस्य बना रहेगा एवं पारस्परिक परिपूरक के रूप में कार्य करते हुए, प्रत्येक क्षेत्र से जीवन को समग्रता की ओर ले जायेगा।  तथा, स्वविरोध का भाव नहीं रहने से क्षेत्र-विशेष के आदर्श भी विफल नहीं होंगे। इस मूल आदर्श -अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति का परिचय करवाने वाला सरलतम वाक्य है - ' स्वयं मनुष्य बनने की चेष्टा करना और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करना।' क्योंकि सृष्टि और मानव-समाज के आधारीय (Basal)  एकत्व के कारण मनुष्य अकेले ही ऊँचा नहीं उठ सकता। मनुष्य बनने का अर्थ है- अपनी अंतर्निहित सत्य या सत्ता (अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति या दिव्यत्व) का प्रकटीकरण या वह अभिव्यक्ति जिससे जीवन में पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) आती हो
       इसी लक्ष्य को सामने रखते हुए यदि कोई अपने व्यक्तित्व का गठन करे, चरित्र-निर्माण करे, शिक्षा अर्जित करे तथा साथ- ही -साथ परिवार चलाने के लिये आवश्यक भोग-सामग्रियों का संग्रह भी करे, तभी वह धीरे- धीरे अपने यथार्थ आदर्श की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये स्वामीजी इसी को मूल आदर्श कहते हैं। यहाँ पर मनुष्य का दैनन्दिन लौकिक जीवन  भी उपेक्षित नहीं होता है। किन्तु, यदि व्यक्ति का जीवन असंयमित हो ,लक्ष्यहीन हो तो जीवन की महान हानि हो जाती है, एक सम्भावना का अन्त हो जाता है। इसीलिए इस जीवन-लक्ष्य को संयमपूर्वक  
धारण करने की आवश्यकता है। क्योंकि जो वस्तु हमारे जीवन को लक्ष्याभिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, नियमित करती है- वही धर्म है। इसीलिये स्वामीजी हमें धर्म के विषय में बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा करते हैं। किन्तु, धर्म के आचार-अनुष्ठान को ही वे धर्म का मूल बात मानने से इंकार करते हैं।  हमलोग भी कहीं कर्मकाण्ड को ही धर्म का मूल न समझ लें इसीलिये स्वामीजी धर्म के बजाय आध्यात्मिकता शब्द का प्रयोग करते हैं ।
      वैसे, आध्यात्मिकता है क्या ? जब हमलोग मनुष्य की आत्मा को, मूल तत्व या मूल सत्य (अतीन्द्रिय सत्य) को व्यवहार में प्रकट करने की चेष्टा करते हैं तो उसी को आध्यात्मिकता कहते हैं।  इसीलिये स्वामीजी जब समग्र राष्ट्र की बात करते हैं, तो वे सबसे पहले देश को इसी आध्यात्मिकता की बाढ़ में प्लावित कर देने की बात करते  हैं
      स्वामीजी के मन में मानव मात्र के लिये सर्वदा एक आदर्श भाव विद्यमान रहता था।  इसीलिये अनन्त शक्ति सम्पन्न मनुष्य को दुर्बल,असहाय, निराश, दुःख-कष्ट में गिरा देखने पर स्वामीजी को व्यथा होती थी। मनुष्य मात्र के प्रति अथाह करुणा एवं सहानुभूति से भरे होने के कारण लोगों की दुर्बल अवस्था देखकर स्वामीजी की आँखों से आँसू गिरने लगते थे। इन्द्रिय और प्रकृति के दास मनुष्य द्वारा कल्पित किसी आदर्श मूर्ति की पूजा में स्वामी विवेकानन्द का विश्वास नहीं था। स्वराज्यच्युत, धूल-धूसरित जीवंत शरीर और मन के आधार सत्ता की पूजा - [मानवदेह में विद्यमान ईश्वर की पूजा ] करना ही स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में मानवता है। जो मनुष्य अपनी सत्ता के सम्बन्ध में सोया हुआ है, जो अपनी गरिमा के प्रति सचेत नहीं है, अनन्त सम्भावना की खोज नहीं करता, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं को दुर्बल तथा  तुच्छ समझता है। और ऐसा ही अज्ञानी मनुष्य असहाय भाव का अतिक्रमण कर पाने असमर्थ रहने के कारण स्वार्थ को ही परमार्थ समझ लेता है और दिनों-दिन स्वयं को गहरे अंधकार में निमग्न करता चला जाता है। 
    इस स्वार्थ का त्याग कर हम परमार्थ आदर्श एवं अनन्त शक्ति को उद्घाटित करने के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी के अनुसार  निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। हम अपनी पूर्णता या वृहत सत्ता की ओर अग्रसर होने के पथ पर स्वार्थ, संकीर्णता एवं हीन भावनाओं का जो बहिष्कार करते हैं, वही हमलोगों का यथार्थ त्याग है। 
     और इसी मार्ग पर आगे बढ़ने में दूसरों की सहायता करना ही सेवा है। हमलोग जैसे- जैसे वृहत, पूर्णता,  स्वार्थहीनता, अन्तर्निहित सत्ता तथा परायों को भी अपना बना लेने की ओर अग्रसर होते जाते हैं, उतना ही हम निर्भय होते जाते हैं, उतना ही हम ज्ञानालोक पाते रहते हैं एवं शक्तिशाली होते जाते हैं। तथा हमारे समस्त कार्यों में हमारी अन्तर्निहित निष्कलंक सुन्दरता, पवित्रता, ज्ञान और शक्ति उतना ही अधिक प्रस्फुटित होती जाती है। ऐसे मनुष्य के लिये कुछ भी असंभव नहीं है, अलभ्य नहीं है। निराशा और विषाद उसके पास भी नहीं फटकते
   स्वामीजी की इच्छा थी कि यह सरल किन्तु सबल विचारधारा,  ऊँच-नीच का भेद किये बिना सामान्य जनता के बीच उदारता के साथ वितरित की जाय। और " एक नवीन भारत निकल पड़े- निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। "
स्वामीजी ने चाहा था कि  ऐसी शिक्षा शुरू की जाये जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी  सम्भावना को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सके। ऐसी राजनीति शुरू हो जिसमें सभी मनुष्य को अपनी अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसी सामाजिक नीति प्रचलित हो जाये जिससे ऊँच-नीच, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख के भेद एवं समस्त प्रकार के विशेषाधिकार के दावों का अवसान हो जाये। अर्थिक नीति में ऐसा परिवर्तन हो, जिसमें शोषण,ठगी, लूट एवं घोटाला समाप्त हो जाय तथा सभी के लिये दोनों वक्त के भोजन का प्रबंध हो जाये।
" एक ही आदमी सदा सुख या दुःख भोगता रहे , उससे अच्छा है कि सुख-दुःख बारी -बारी से सबों में विभक्त किया जा सके। "  [कुमारी मेरी हेल को १ नवम्बर १८९६ को लिखित एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " एक ही वर्ग का व्यक्ति सदा सुख या दुःख भोगता रहे, उससे तो अच्छा है कि सुख-दुःख बारी बारी से सबों में विभक्त किया जाये। इस दुःखी संसार में सबको सुख-भोग का अवसर दो, जिससे इस तथाकथित सुख का अनुभव कर लेने के बाद,वे संसार, शासन-विधि और अन्य सब झंझटों को छोड़ कर परमात्मा के पास आ सकें। " ५/३८७ ]
      ऐसी धर्म-नीति का पालन हो जिससे सारे कूसंस्कार दूर हो सके, धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाय, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ प्रेम बढ़े, भोग में संयम रहे, परार्थता में स्वार्थ-बुद्धि हो, त्याग के महत्व का प्रचार हो, सेवा में प्रेम हो तथा हृदय का प्रसार हो।
स्वामीजी के आदर्श में निद्रा एवं आलस्य का स्थान नहीं है। " कायर और मूर्ख लोग ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वीर तो सिर ऊँचा करके बोलता है- "अपना भाग्य मैं स्वयं गढ़ूँगा। " स्वामीजी का आदर्श- शक्ति के उद्घाटन का आदर्श है। " शक्ति ही सुख और आनन्द है, शक्ति ही अनन्त और अविनाशी जीवन है।" हमलोगों का आदर्श समुज्ज्वल हो, जीवन विकसित हो, हमारी शक्ति उद्घाटित हो तथा शक्ति-आराधना सार्थक हो ! 
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