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गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

🕊🏹1.7 " स्वामीजी का आदर्श -अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन " 🕊🏹[ प्रथम अध्याय -1.7 : स्वामी विवेकानन्द- "व्यक्ति और मन " (Person and Mind) : "स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना " SVHS-1.7/old book 1.8]

7.

" स्वामीजी का आदर्श - अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन " 

       स्वामी विवेकानन्द के महान व्यक्तित्व-सम्पन्न जीवन एवं संदेशों के विशाल भण्डार को देखने से मन में स्वतः यह प्रश्न उठता है कि आखिर स्वामीजी ने हमलोगों के समक्ष कौन सा आदर्श प्रस्तुत किया है? महापुरुषों के विचार, वचन एवं कर्म में एकरूपता होती है। इसीलिए 
स्वामीजी के आदर्श को समझने के लिये हमें उनके संदेशों तथा कर्ममय जीवन को समानरूप से विश्लेषण करना होगा। स्वामीजी के सन्देश मनुष्य जीवन के समस्त पक्षों को आलोकित कर सकते हैं। यथार्थ 'विवेकज-ज्ञान' के फलस्वरूप उनकी दृष्टि के समक्ष मनुष्य जीवन की पूर्णता अनावृत हो उठी थी, जिन्हें उन्होंने मानव जीवन की समग्रता का अनुसन्धान कर सार्वजनिक कल्याण के लिए वितरित किया था। उन्होंने अपने जीवन से यही दिखाने का प्रयत्न किया है कि व्यक्ति किस प्रकार उस समग्रता की अभिव्यक्ति को संभव बना सकता है। इसीलिये उनके दिव्य संदेशों के समान उनका जीवन भी हमलोगों के लिये एक आदर्श है।
     स्वामी जी ने किसी नए आदर्श को उद्घाटित करने , अन्य आदर्श की उपेक्षा या अनादर करने या उसकी प्रयोगात्मकता की क्षमता पर शंका करने तथा अपने ही आदर्श को अधिष्ठापित करने के मोह में पड़े बिना ही मानव जीवन के लिए सर्वथा उचित आदर्श का निर्भय और निःसंकोच होकर प्रचार किया है। उनका मानना है कि- " आदर्श समाज के सामने अपना सिर नहीं झुकाएगा, बल्कि समाज को ही आदर्श के सम्मुख अपना सिर झुकाना होगा।" और उस आदर्श को ढूँढ़कर जो समाज जितनी जल्दी वैसा करने लगेगा, उस समाज का उतना ही कल्याण होगा। स्वामीजी की यह धारणा थी कि- " जिस समाज में श्रेष्ठ आदर्श को कार्यरूप देना संभव है, वही श्रेष्ठ समाज है। " उनके इस महान आदर्श को उन्हीं के शब्दों में बहुत थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है, " बनो और बनाओ।अर्थात "मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ।" यह 'बनना और 'बनाना' परस्पर अभिन्न और अविभक्त हैं। स्वामीजी कहते हैं," मेरे आदर्श को सचुमच थोड़े से शब्दों में अभिव्यक्त किया जा सकता है, वह है मनुष्य में अन्तर्निहित देवत्व का प्रचार करना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे कैसे व्यक्त किया जाता है, उसका मार्ग बता देना।" उनके इस आदर्श पर मनन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वामीजी केवल एक तात्विक आदर्श को उद्घाटित करके ही थम नहीं जाते बल्कि उस ज्ञान का व्यावहारिक जीवन में कैसे उपयोग किया जा सकता है उसके ऊपर भी साथ-साथ विचार करते हैं। क्योंकि किसी आदर्श को यदि व्यावहारिक जीवन में अपनाना संभव न हो तो उसे 'आदर्श' नहीं कहा जा सकता है।  
    स्वामीजी ने जिस आदर्श को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है वह जीवन के किसी क्षेत्र विशेष का आदर्श नहीं है बल्कि समग्र जीवन का आदर्श है। वैयक्तिक जीवन, सामाजिक जीवन, राष्ट्रिय जीवन एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में- अर्थात मानवता के प्रत्येक क्षेत्र में यह आदर्श व्यवहारोपयोगी है। अक्सर लोग धर्म, राजनीति, आर्थिक नीति, कानून आदि के पारस्परिक सम्बन्ध को अनदेखा कर विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग- अलग आदर्श की चर्चा करते हैं। किन्तु, जब जीवन के इन विभिन्न क्षेत्रों के आदर्श किसी महत्तर मूल आदर्श के अनुरूप नहीं होते तो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों  में अन्तर्विरोध दिखने लगता है, एवं एक ही मनुष्य जो जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के साथ, विभिन्न रूपों में संयुक्त रहता है , उसका जीवन आदर्शों में समन्वय के अभाव में संकटों में घिर जाता है।  
     इसीलिये व्यक्ति हो या समाज उसकी निर्विघ्न उन्नति के लिये एक मौलिक आदर्श का रहना आवश्यक हो जाता है। यदि वह मौलिक आदर्श किसी ऐसे सत्य पर प्रतिष्ठित हो जो जीवन का केन्द्रबिन्दु है , तब वह आदर्श जीवन का सर्वांगीन कल्याण करने में सक्षम होता है। स्वामीजी ने उसी प्रकार के एक केन्द्रीय सत्य या तत्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं तथा उसी समस्त क्षेत्र-विशेष के आदर्श के नियंत्रक रूप में ग्रहण करने के लिए कहते हैं। और , वह तत्व है - अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति- जो जाति,धर्म, वर्ण,लिंग आदि भेद के दृष्टिगोचर होने के बावजूद भी प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है ! 
किन्तु, जब तक हमें इस अंतर्निहित पूर्णता में विश्वास नहीं होता, तब तक भले ही हम किसी क्षेत्र-विशेष के आदर्श का आविष्कार  और अनुसरण करते रहें और थोड़ी बहुत सफलता भी हासिल कर लें, लेकिन  कभी भी हम अपनी पूर्णता या महिमा में प्रतिष्ठित नहीं हो सकते। अर्थात तब तक हम यह नहीं कह सकते कि हमने किसी सच्चे आदर्श का अनुसरण कर लिया है। अतः हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य होना चाहिये जीवन के इस मुख्य तत्व को, मौलिक सत्य को अपने जीवन की प्रत्येक अभिव्यक्ति में प्रत्येक कर्म में, प्रत्येक दृष्टिकोण में प्रक्षेपित करना। यह तत्व- 'अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति ' मनुष्य की शाश्वत सत्ता के उपर प्रतिष्ठित है, तथा यह देश-काल के भेद से परिवर्तित हो जाने वाली वस्तु नहीं है।
        मनुष्य सत्ता जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी है। पूर्वी गोलार्ध और पश्चमी गोलार्ध के मनुष्यों में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। अतः यह प्रश्न उठाना कि स्वामीजी  कथित यह आदर्श आज के युग में उपयोगी है या नहीं, बिलकुल असंगत है। इस प्रकार के आदर्श के साथ संयुक्त विभिन्न क्षेत्रों के छोटे -छोटे आदर्श अनन्त न होने के बावजूद भी दीर्घ काल तक प्रभावी रह सकते हैं। क्योंकि देश- काल की आवश्यकता के अनुरूप साधारण परिवर्तन सापेक्ष आदर्श रखने के बाद हमें ध्यान रखना होगा कि उसका मुख्य लक्ष्य मनुष्य में अन्तर्निहित 'पूर्णत्व ' (अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति ' 100 %निःस्वार्थपरता) को प्रकट करने में सहायता करना ही रहे । ऐसा होने पर ही विभिन्न क्षेत्रों के आदर्शों में यथार्थ सामजंस्य बना रहेगा एवं पारस्परिक परिपूरक के रूप में कार्य करते हुए, प्रत्येक क्षेत्र से जीवन को समग्रता की ओर ले जायेगा।  तथा, स्वविरोध का भाव नहीं रहने से क्षेत्र-विशेष के आदर्श भी विफल नहीं होंगे। इस मूल आदर्श -अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति का परिचय करवाने वाला सरलतम वाक्य है - ' स्वयं मनुष्य बनने की चेष्टा करना और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करना।' क्योंकि सृष्टि और मानव-समाज के आधारीय (Basal)  एकत्व के कारण मनुष्य अकेले ही ऊँचा नहीं उठ सकता। मनुष्य बनने का अर्थ है- अपनी अंतर्निहित सत्य या सत्ता (अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति या दिव्यत्व) का प्रकटीकरण या वह अभिव्यक्ति जिससे जीवन में पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) आती हो
       इसी लक्ष्य को सामने रखते हुए यदि कोई अपने व्यक्तित्व का गठन करे, चरित्र-निर्माण करे, शिक्षा अर्जित करे तथा साथ- ही -साथ परिवार चलाने के लिये आवश्यक भोग-सामग्रियों का संग्रह भी करे, तभी वह धीरे- धीरे अपने यथार्थ आदर्श की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये स्वामीजी इसी को मूल आदर्श कहते हैं। यहाँ पर मनुष्य का दैनन्दिन लौकिक जीवन  भी उपेक्षित नहीं होता है। किन्तु, यदि व्यक्ति का जीवन असंयमित हो ,लक्ष्यहीन हो तो जीवन की महान हानि हो जाती है, एक सम्भावना का अन्त हो जाता है। इसीलिए इस जीवन-लक्ष्य को संयमपूर्वक  
धारण करने की आवश्यकता है। क्योंकि जो वस्तु हमारे जीवन को लक्ष्याभिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, नियमित करती है- वही धर्म है। इसीलिये स्वामीजी हमें धर्म के विषय में बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा करते हैं। किन्तु, धर्म के आचार-अनुष्ठान को ही वे धर्म का मूल बात मानने से इंकार करते हैं।  हमलोग भी कहीं कर्मकाण्ड को ही धर्म का मूल न समझ लें इसीलिये स्वामीजी धर्म के बजाय आध्यात्मिकता शब्द का प्रयोग करते हैं ।
      वैसे, आध्यात्मिकता है क्या ? जब हमलोग मनुष्य की आत्मा को, मूल तत्व या मूल सत्य (अतीन्द्रिय सत्य) को व्यवहार में प्रकट करने की चेष्टा करते हैं तो उसी को आध्यात्मिकता कहते हैं।  इसीलिये स्वामीजी जब समग्र राष्ट्र की बात करते हैं, तो वे सबसे पहले देश को इसी आध्यात्मिकता की बाढ़ में प्लावित कर देने की बात करते  हैं
      स्वामीजी के मन में मानव मात्र के लिये सर्वदा एक आदर्श भाव विद्यमान रहता था।  इसीलिये अनन्त शक्ति सम्पन्न मनुष्य को दुर्बल,असहाय, निराश, दुःख-कष्ट में गिरा देखने पर स्वामीजी को व्यथा होती थी। मनुष्य मात्र के प्रति अथाह करुणा एवं सहानुभूति से भरे होने के कारण लोगों की दुर्बल अवस्था देखकर स्वामीजी की आँखों से आँसू गिरने लगते थे। इन्द्रिय और प्रकृति के दास मनुष्य द्वारा कल्पित किसी आदर्श मूर्ति की पूजा में स्वामी विवेकानन्द का विश्वास नहीं था। स्वराज्यच्युत, धूल-धूसरित जीवंत शरीर और मन के आधार सत्ता की पूजा - [मानवदेह में विद्यमान ईश्वर की पूजा ] करना ही स्वामी विवेकानन्द की दृष्टि में मानवता है। जो मनुष्य अपनी सत्ता के सम्बन्ध में सोया हुआ है, जो अपनी गरिमा के प्रति सचेत नहीं है, अनन्त सम्भावना की खोज नहीं करता, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं को दुर्बल तथा  तुच्छ समझता है। और ऐसा ही अज्ञानी मनुष्य असहाय भाव का अतिक्रमण कर पाने असमर्थ रहने के कारण स्वार्थ को ही परमार्थ समझ लेता है और दिनों-दिन स्वयं को गहरे अंधकार में निमग्न करता चला जाता है। 
    इस स्वार्थ का त्याग कर हम परमार्थ आदर्श एवं अनन्त शक्ति को उद्घाटित करने के पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी के अनुसार  निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है। हम अपनी पूर्णता या वृहत सत्ता की ओर अग्रसर होने के पथ पर स्वार्थ, संकीर्णता एवं हीन भावनाओं का जो बहिष्कार करते हैं, वही हमलोगों का यथार्थ त्याग है। 
     और इसी मार्ग पर आगे बढ़ने में दूसरों की सहायता करना ही सेवा है। हमलोग जैसे- जैसे वृहत, पूर्णता,  स्वार्थहीनता, अन्तर्निहित सत्ता तथा परायों को भी अपना बना लेने की ओर अग्रसर होते जाते हैं, उतना ही हम निर्भय होते जाते हैं, उतना ही हम ज्ञानालोक पाते रहते हैं एवं शक्तिशाली होते जाते हैं। तथा हमारे समस्त कार्यों में हमारी अन्तर्निहित निष्कलंक सुन्दरता, पवित्रता, ज्ञान और शक्ति उतना ही अधिक प्रस्फुटित होती जाती है। ऐसे मनुष्य के लिये कुछ भी असंभव नहीं है, अलभ्य नहीं है। निराशा और विषाद उसके पास भी नहीं फटकते
   स्वामीजी की इच्छा थी कि यह सरल किन्तु सबल विचारधारा,  ऊँच-नीच का भेद किये बिना सामान्य जनता के बीच उदारता के साथ वितरित की जाय। और " एक नवीन भारत निकल पड़े- निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। "
स्वामीजी ने चाहा था कि  ऐसी शिक्षा शुरू की जाये जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी  सम्भावना को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो सके। ऐसी राजनीति शुरू हो जिसमें सभी मनुष्य को अपनी अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसी सामाजिक नीति प्रचलित हो जाये जिससे ऊँच-नीच, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख के भेद एवं समस्त प्रकार के विशेषाधिकार के दावों का अवसान हो जाये। अर्थिक नीति में ऐसा परिवर्तन हो, जिसमें शोषण,ठगी, लूट एवं घोटाला समाप्त हो जाय तथा सभी के लिये दोनों वक्त के भोजन का प्रबंध हो जाये।
" एक ही आदमी सदा सुख या दुःख भोगता रहे , उससे अच्छा है कि सुख-दुःख बारी -बारी से सबों में विभक्त किया जा सके। "  [कुमारी मेरी हेल को १ नवम्बर १८९६ को लिखित एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " एक ही वर्ग का व्यक्ति सदा सुख या दुःख भोगता रहे, उससे तो अच्छा है कि सुख-दुःख बारी बारी से सबों में विभक्त किया जाये। इस दुःखी संसार में सबको सुख-भोग का अवसर दो, जिससे इस तथाकथित सुख का अनुभव कर लेने के बाद,वे संसार, शासन-विधि और अन्य सब झंझटों को छोड़ कर परमात्मा के पास आ सकें। " ५/३८७ ]
      ऐसी धर्म-नीति का पालन हो जिससे सारे कूसंस्कार दूर हो सके, धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाय, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ प्रेम बढ़े, भोग में संयम रहे, परार्थता में स्वार्थ-बुद्धि हो, त्याग के महत्व का प्रचार हो, सेवा में प्रेम हो तथा हृदय का प्रसार हो।
स्वामीजी के आदर्श में निद्रा एवं आलस्य का स्थान नहीं है। " कायर और मूर्ख लोग ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वीर तो सिर ऊँचा करके बोलता है- "अपना भाग्य मैं स्वयं गढ़ूँगा। " स्वामीजी का आदर्श- शक्ति के उद्घाटन का आदर्श है। " शक्ति ही सुख और आनन्द है, शक्ति ही अनन्त और अविनाशी जीवन है।" हमलोगों का आदर्श समुज्ज्वल हो, जीवन विकसित हो, हमारी शक्ति उद्घाटित हो तथा शक्ति-आराधना सार्थक हो ! 
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शनिवार, 16 अप्रैल 2016

भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण [ 'A New Youth Movement' -20.]

 २०. 
 " भविष्य का भारत और अ०भा० विवेकानन्द युवा महामण्डल " 
[स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना (73)] 
१८९५ में अपने गुरुभाई शशि, (स्वामी रामकृष्णानन्द) को लिखित एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है ! " [फ्रॉम दी डेट दैट दी रामकृष्ण इन्कारनेशन वाज बॉर्न, हैज स्प्रंग दी सत्य-युग (गोल्डन ऐज)-'रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे' (রামকৃষ্ণবতারের জন্মদিন হইতেই সত্যযুগোত্পত্তি হইয়াছে)] 'सत्ययुग का आरम्भ हुआ है' - उनके इस कथन का तात्पर्य क्या है? क्या 'सत्य- युग का प्रारम्भ' हो गया- कहने से हमलोगों को यह समझना चाहिये कि - श्रीरामकृष्ण आये, और जितनी भी अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अपवित्रता, मैलापन आदि भाव समाज में व्याप्त थे, वे सभी समाप्त हो गये- सब कुछ सुन्दर हो गया? और भारत के सभी मनुष्य सत्य के पुजारी बन गये ? किन्तु हमारे शास्त्रों में तो कहा गया है, " युग-परिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है।" जैसे ऐतरेय ब्राह्मण कहता है- 
   कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
१. " कलिः शयानो भवति" - जो मनुष्य 'कामिनी -कांचन ' के 'नशे' में अत्यधिक मदहोश (हिप्नोटाइज-अविवेकी) हो जाते हैं, वे अपने अपने यथार्थ स्वरूप के प्रति सोये  रहते हैं। अपने हृदय में जो अकूत स्वर्ण-भण्डार दबा हुआ है उसके प्रति अचेत हो जाते हैं, इसीलिये उस समय उनका कलिकाल चल रहा होता है।
[जो युवा भारत में जन्म लेकर भी, अभी तक 'अविवेकी' हैं, अर्थात जगतगुरु स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श नहीं मानते हैं  वे सिंह-शावक (अविनाशी -अमृतपुत्र) होकर भी स्वयं को भेंड़ (नश्वर-शरीर) समझते हैं, वे मानो मोहनिद्रा में सोये-पड़े हैं; इसीलिये वैसे युवा अभी तक मानो 'कलिकाल' में ही वास कर रहे हैं।]

२." संजिहानस्तु द्वापरः"- जब वे भावी भारत की जागरण-वाणी ," जो बोले सो निहाल सतश्री अकाल;  वाहे गुरुजी का खालसा और वाहेगुरु की फतेह !" जगतगुरु  श्रीरामकृष्णदेव के महावाक्य- " मान-हूश तो मानुष!", तथा मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द का आह्वान- 'उठो जागो', 'BE AND MAKE' को सुनकर जिसका विवेक जाग उठता है, वह मानों द्वापर युग में वास कर रहा है। (स्वामीजी की ललकार - सुनने से जिसकी मोहनिद्रा भंग हो गयी है, वह मानो द्वापर युग में वास कर रहा है।) 

३." उत्तिष्ठ्म स्त्र्रेता भवति " -  जब कोई व्यक्ति मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, जगतगुरु स्वामी विवेकानन्द के आह्वान 'BE AND MAKE' को सुनकर अपना चरित्र-निर्माण और जीवन-गठन करने के लिये दृढ़-संकल्प लेकर और कमर कस कर, उठ- खड़ा होता है- तो वह त्रेता युग में वास करता है। [अर्थात कोई युवा चाहे किसी जाति धर्म में क्यों न जन्मा हो, जब वह 'श्वेतकेतु' या 'नचिकेता' के जैसा परम-सत्य,अल्ला, गॉड या ब्रह्म को जानकर ब्रह्मवेत्ता या 'ब्राह्मण', 'यथार्थ-मनुष्य' या 'होशवान मनुष्य बनने' या अपना चरित्र-निर्माण करने के लिये कमर कस कर उठ खड़ा होता है, वह मानो त्रेता युग में वास कर रहा है।]  

४." कृतं संपद्यते चरन् "- (सत्य-युग को ही कृत-युग भी कहा जाता है) होशवान मनुष्य बनने के बाद जब कोई युवा खुद को या '3H' को पहचानने के लिये- वह प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग का अभ्यास करना प्रारंभ कर देता है, तब उसके जीवन में सतयुग का प्रारंभ हो जाता है। सतयुग के लोग न तो सोये रहते हैं और न हाथ पर हाथ देकर बैठे रहते हैं। निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। जो चलता है, अर्थात पुरुषार्थ करता है, वही लक्ष्यसिद्धि कर के, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनकर अपने मनुष्य-जीवन को सार्थक कर लेता है ! यथार्थ स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसलिए श्रुति में कहा गया है-"चरैवेति चरैवेति।" .... आगे बढ़ो, आगे बढो!"    
[ कृत-कृत्य हो जाने का अर्थ है जो कुछ करने योग्य था सो कर लिया है- (मनुष्य योनि में जन्म लेना) जीवन-सार्थक हो गया है ! ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद् मनुष्य -ब्राह्मण बन गया है ! अथवा अज्ञान अवस्था (या बेहोशी की अवस्था) में पर-पदार्थों में [नश्वर शरीर-मन के साथ] अपना तादात्म्य रखने का भाव बना रहता था, अब  (तुरिया-अवस्था में ) ज्ञान का उदय होने पर, स्वतंत्रता सू-स्पष्ट रूप में विदित हो जाने से; अब उन पर-पदार्थों को (शरीर-मन '2H' को ही ) यथार्थ 'मैं ' समझने का भ्रम, अविवेक या कामिनी-कांचन से हिप्नोटाइज रहने का भाव नहीं रहा। यह भी कृतकृत्यता  का रूप है। 'मुक्‍त' होने पर अद्‌भुत और असीम आनन्द का भाव सदैव बना रहता है ! किन्तु ऐसा मुक्ति का कार्य बन जाना सबके लिये सुगम नहीं है। बड़े ज्ञानयोगपूर्वक बड़ी अंत:तपस्‍या की साधना (श्रवण-मनन -निदिध्यासन और सर्वोपरि माँ भगवती की कृपा से ) से यह बात (बोध) प्रकट होती है वास्तव में काम सम्पूर्ण किया हुआ तब कहलाता है, जब उसके बारे में कुछ करने को नहीं पड़ा रहता है। कोई सा भी आप काम करें वह काम पूर्ण हुआ कब कहलायेगा? जब उसके लिये कुछ करने को रहा नहीं। तो जिस महात्मा को (मुझे या अहं को नहीं ) ऐसा 'उज्‍ज्‍वल-ज्ञान' उत्पन्न हुआ है, जिस ज्ञान के कारण अब उनको जगत् के किसी पर-पदार्थ में करने को कुछ नहीं रहा है- तो यही कृतकृत्य-पना (जीवन की सार्थकता) है। जो (आत्मा) ज्ञान-पुञ्ज हैं, आनन्‍द-मग्‍न हैं, जिन्‍हें करने को कुछ नहीं पडा है, और कभी मरेंगे नहीं, जो कभी शरीर धारण करेंगे नहीं, ऐसा सच्चिदानन्‍दस्‍वरूप जो परम आत्म-तत्व हैं उस परम आत्म-तत्त्व को नमस्‍कार है। यह जीव (आत्मा ) नामक पदार्थ निश्चित रूप से स्वयं ही परमात्मा है। शरीर में ही परमात्मा हैं, अवश्य हैं, न हो तो अवस्तु ( केवल शरीर-मन '2H' ) को कौन नमस्‍कार करता है?
और फिर दूसरे सभी लोगों की ऐसी प्रकृति बनी है, सभी मनुष्यों का यह स्वभाव है कि जब कोई कष्ट आये तो वे परमात्मा को किसी न किसी रूप में (एक्जाम के समय हनुमानजी या दुर्गा जी को लड्डू या सिक्का चढ़ाकर) स्मरण अवश्य करते हैं। परमात्मा ज्ञानानन्द स्‍वरूप ही हैं तभी वे उपासनीय हैं। प्रभु आनंदमग्‍न हैं और ज्ञान-शून्य भी नहीं हैं। ज्ञान और आनंद तो परमात्‍मा का स्‍वरूप है। जिस महात्मा को ऐसा उज्‍ज्‍वल ज्ञान उत्‍पन्‍न हुआ है जिस ज्ञान के कारण अब उनको जगत् के किसी परपदार्थ में करने को कुछ नहीं रहा है तो यही कृतकृत्‍यपना है। यही जीवन की सार्थकता है ! ] 
जो मनुष्य (मोहनिद्रा में ) सोया रहता है और पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है,  जो पुरुषार्थ करने के लिये खड़ा हो जाता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है. जो आगे बढ़ता जाता है, उसका भाग्य भी आगे बढ़ता जाता है, इसीलिये-" हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! आगे बढो, आगे बढो ! 
"ऐसा विश्वास किया जाता है कि बुद्धदेव  भी अपने शिष्यों को उपदेश देते समय ऐतरेय ब्राह्मण के इस छन्द को अक्सर उद्धृत किया करते थे -
नाना श्रान्ताय श्रीरस्तीति रोहित शुश्रुम । 
पापो नृषद्वरो जन इन्द्र इच्चरतः सखा॥  
"सुनो रोहित --सुना हमने, अथक श्रम ही श्रीमुखी"- नित्य जो गतिशील है बस, इन्द्र (ईश्वर) उसी का है सखा;  इसलिए -'चर एव ' चलते रहो - चलते रहो ...  इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक युवा का कर्तव्य 'एक' [परमसत्य, परमात्मा, अल्ला, ब्रह्म, श्रीराम, श्रीकृष्ण, ईसा, बुद्ध, मोहम्मद, गुरु नानक सतश्री अकाल, (स्वामी विवेकानन्द के भी गुरु, निर्गुण-सगुण 'समग्र' एक साथ- पर वेदान्त की दृष्टि से नहीं)] 'अवतार-वरिष्ठ' जगतगुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव का ज्ञान प्राप्त करने का है। हमारे वेदों का आग्रह है -
" इन्द्रं वर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वं आर्यं अपघ्नन्तो अराव्णः ॥" 
अर्थात् :- हे परम ऐश्वर्ययुक्त ब्रह्मवेत्ता युवाओं ! " इंद्र (ईश्वर) की शक्ति (विवेक-शक्ति) द्वारा संवर्धित होकर, तुम आत्म शक्ति का विकास (शरीरी-शरीर विवेक) करते हुए गतिशील, प्रमाद-रहित होकर अनुदारता, ईर्ष्या आदि का नाश करते हुए सारे विश्व को आर्य (सभ्य या ब्राह्मण) बनाओ ।  ~ ऋग्वेद/९.६३.५  
स्वामी विवेकानन्द (नरेन्द्र ) कहते हैं - " यदि आप जड़ों और नींव को मजबूत बनाने का कार्य करते हैं, तो  सभी वास्तविक प्रगति धीमी गति से होना चाहिए।" 
कुछ लोग प्रश्न उठाते हैं, " क्या आप सभी युवाओं को यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता या ब्राह्मण) या चरित्रवान-मनुष्य बना सकते हैं? " ठीक है, नहीं कर सकते - तो आपके पास उपाय क्या है ; यही न कि यथास्थिति बनाई रखी जाय और किशोरों-युवाओं को जुवेनाइल जस्टिस के भरोसे छोड़ दिया जाय ? किन्तु यदि चपरास-प्राप्त नेता, वीर-सेनापति विवेकानन्द के नेतृत्व में यह 'चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन' 'BE AND MAKE' की प्रशिक्षण-पद्धति द्वारा देश-व्यापी स्तर पर जारी रहा, तो कम से कम कुछ लोगों की उन्नति तो जरूर होगी, क्रमशः उनकी संख्या बढ़ती जायेगी, और समाज के चिन्तन का रुझान भी बदलने के लिये बाध्य होगा। 
स्वामीजी 'वेदान्त का उद्देश्य' नामक भाषण (५/९०) में कहते हैं - "जात-पांत का भेद छोड़कर, अगड़े-पिछड़े का विचार छोड़कर, हर एक स्त्री-पुरुष को, प्रत्येक बालक-बालिका को यह सन्देश सुनाओ और सिखाओ कि ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, और छोटे-बड़े सभी में उसी एक अनन्त आत्मा का निवास है, जो सर्वव्यापी है; इसलिये सभी लोग महान तथा सभी लोग चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं। आओ हम प्रत्येक व्यक्ति का आह्वान करें- " उत्तिष्ठत  जाग्रत  प्राप्य  वरान्निबोधत।" (कठोपनिषद १/३/१४) -'उठो, जागो और जब तक तुम अपने अंतिम लक्ष्य तक नहीं पहुँच जाते, तब तक विश्राम मत लो !'
ऐ आधुनिक हिन्दुओं ! अपने आपको डि-हिप्नोटाइज़ करो ! स्वयं को विसम्मोहित करने का उपाय ( स्वयं को डि-हिप्नोटाइज़ करने या अपने अविवेक को समाप्त करने का उपाय) तुमको अपने ही धर्मशास्त्रों में मिल जायेगा। तुम अपने को और प्रत्येक व्यक्ति को अपने सच्चे स्वरुप की शिक्षा दो और घोरतम मोह-निद्रा में पड़ी हुई जीवात्मा को इस नींद से जगा दो!
जब तुम आत्मसाक्षात्कार कर लोगे और तुम्हारी आत्मा प्रबुद्ध होकर सक्रीय हो उठेगी, तब तुम आप ही शक्ति का अनुभव करोगे, महिमा और महत्ता पाओगे, साधुता आयेगी, पवित्रता भी आप ही चली आयेगी- मतलब यह कि जो भी अच्छे गुण हैं, वे सभी तुम्हारे पास आ पहुँचेंगे। गीता में यदि कोई ऐसी बात है, जिसे मैं पसन्द करता हूँ, तो ये दो श्लोक हैं (गीता १३/२८ -२९) कृष्ण के उपदेश के सार-स्वरुप इन दो श्लोकों से बड़ा भारी बल प्राप्त होता है :
 समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
           'विनश्यस्तु-अविनश्यन्तम्' यः पश्यति स पश्यति।। १३/२८।।  
-जो पुरुष समस्त नश्वर भूतों में अविनाशी परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, अर्थात परमात्मा को सर्वत्र विद्यमान अनुभव कर सकता है, वही (वास्तव में) देखता है। जैसे जो व्यक्ति 'तिमिर' (रतौंधी) नामक नेत्र-रोग से पीड़ित होता है, वह कई चन्द्रमाओं को देखता है; जो व्यक्ति केवल एक ही चन्द्रमा को देखता है, उसका फर्क बताने के लिये कहा जा रहा है - 'वही वास्तवमें सही देखता है।' (यः पश्यति स पश्यति।) 
[ यह अविनाशी चैतन्य ही नाश का प्रकाशक और जगत् का आधार है, जैसे रूपान्तरित होने वाले आभूषणों का आधार स्वर्ण है। जन्म, वृद्धि, व्याधि, क्षय और मृत्यु ये वे विकार हैं, जो प्रत्येक अनित्य वस्तु को प्राप्त होते हैं। जिसकी उत्पत्ति हुई हो, उसे ही आगे के विकारों से भी गुजरना पड़ेगा। 
क्षेत्रमें तो हरदम परिवर्तन होता है, पर क्षेत्रज्ञ ज्यों-का-त्यों ही रहता है। तात्पर्य है कि जो, परिवर्तनशील शरीर-मन (2 H) के साथ तादात्म्य करके अपने-आपको (3rd H को) देखता है, उसका देखना सही नहीं है। किन्तु जो सदा ज्यों-के-त्यों रहने वाले परमात्माके साथ अपने- आपको अभिन्न रूपसे देखता है, उसका देखना ही सही है। उसीको जीवन-मुक्त अवस्था में रहना कहते हैं। सभी लोग देखते हैं, परन्तु खुली आँखों से पारमार्थिक सत्य को नहीं देख पाते। उनके इस विपरीत दर्शन से ही उनके प्रमाणों (ज्ञान के कारणों) में दोष का अस्तित्व सिद्ध होता है। विभ्रम और वस्तु का अन्यथा दर्शन, मिथ्या कल्पनाएं और विक्षेप ये सब वस्तु के यथार्थ स्वरूप को आच्छादित कर देते हैं। ]
समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम्।
                न हिनस्ति-आत्मना-आत्मानं ततो याति परां गतिम्।। गीता १३/२९।।
क्योंकि सब जगह समरूपसे स्थित ईश्वरको समरूपसे देखनेवाला मनुष्य अपने-आप से अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है।
वेदान्त हमें जगत् से पलायन नहीं सिखाता, बल्कि वह हमें स्वयं को विसम्मोहित करके इस दृश्यमान जगत् का पुनर्मूल्यांकन करने का उपदेश देता है। जैसे दर्पणमें मुख नहीं होनेपर भी मुख दीखता है और स्वप्न में हाथी नहीं होने पर भी हाथी दीखता है, ऐसे ही संसार नहीं होने पर भी संसार दीखता है। 
जो व्यक्ति शरीरके साथ तादात्म्य करके शरीरके बढ़नेसे अपना बढ़ना और शरीरके घटनेसे अपना घटना, शरीरके बीमार होनेसे अपना बीमार होना और शरीरके नीरोग होनेसे अपना नीरोग होना, शरीरके जन्मनेसे अपना जन्मना और शरीर के मरने से अपना मरना मानता है, तथा शरीरके विकारोंको अपने विकार मानता है, वह अपनेआपसे अपनी हत्या करता है। अर्थात् अपनेको जन्ममरणके चक्करमें ले जाता है। वास्तवमें नाशवान् शरीरके साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है, अपना पतन करना है, अपनेआपको जन्ममरणमें ले जाना है।
ततो याति परां गतिम् -- " जब (अहं नहीं) 'पुरुष', मन की 'तुरीय अवस्था' [जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति (साउण्ड स्लिप) से परे मन की चौथी अवस्था] में पहुँचकर, जहाँ 'आकार और ध्वनि' (साउण्ड ऐंड फॉर्म, नाम और रूप) का अस्तित्व नहीं है, समस्त भूतों में एक ही ब्रह्म विराजमान हैं, इस प्रकार की अनुभूति में जो व्यक्ति प्रतिष्ठित हो जाता है। वह डि-हिप्नोटाईज़ हो जाता है"
 ---फिर वह कभी दूसरे प्राणी की हिंसा नहीं करता। क्योंकि उसकी भेद-बुद्धि समाप्त हो चुकी है, उसमें अपना -पराया का भाव नहीं है, वह जानता है कि 'मैं ही आत्मरूप से सर्वत्र विद्यमान हूँ' - तब तो पर-हिंसा भी आत्म-हिंसा ही है ! शरीरके साथ तादात्म्य करके जो ऊँचनीच योनियों में भटकता था, बारबार जन्मता- मरता था, वह जब परमात्मा के साथ अपनी अभिन्नता का अनुभव कर लेता है, तब वह परमगति को अर्थात् नित्य-प्राप्त परमात्माको प्राप्त हो जाता है। ज्ञान के अपने इस अनुभव के कारण फिर ज्ञानी पुरुष को 'महाभारत के युद्ध जैसा स्वधर्म पालन ' में भी कोई दुख अथवा भय नहीं होता।
[*** English Commentary By Swami Sivananda: They attain 'The State of Turiya' (the fourth state beyond waking, dreaming and deep sleep) where 'form and sound' do not exist.The self is everybody's friend and also his enemy as well. *** साभार http://www.gitasupersite.iitk.ac.in
स्वामी विवेकानन्द (व्यावहारिक जीवन में वेदान्त) कहते हैं, " वेदान्त जगत को उड़ा नहीं देता, उसकी व्याख्या करता है। वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता -उसकी व्याख्या करता है। वह व्यक्तित्व को मिटाता नहीं, वरन वास्तविक व्यक्तित्व का स्वरूप सामने रखकर उसकी व्याख्या कर देता है। वह यह नहीं कहता कि जगत असत्य है और उसका अस्तित्व नहीं है, किन्तु यह कहता है, 'जगत क्या है', यह समझो, जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके। वेदान्त का उद्देश्य ही सब वस्तुओं में भगवान का दर्शन करना है। 
उपनिषदों में एक दूसरा उपदेश है, " खुली आँखों से ध्यान करो !" ' जो आँखों में चमक रहा है, वह ब्रह्म है'! यहाँ भाष्यकार कहता है, पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का आविर्भाव होता है, वह वास्तव में अन्तःस्थ सर्वव्यापी आत्मा की ज्योति है। वह ज्योति ही ग्रहों , सूर्य-चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है। 
 ***गीता भी 'सब कुछ परमात्मा है ' -ऐसा मानती है और इसीको महत्व देती है। सब कुछ परमात्मा ही हैं -यह खुले नेत्रों का ध्यान है; जैसा गीता १५/१५ में श्रीकृष्ण कहते हैं - 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो' : मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। फिर हमें अपने हृदय में वे क्यों नहीं दिखाई देते ?  जिस हृदय में भगवान रहते हैं, उसी हृदय में राग-द्वेष भी रहता है। समुद्र-मंथन में वहीं से विष निकला, वहीं से अमृत निकला। 
संसार दीखता है राग के कारण (इन्द्रिय विषयों में आसक्ति के कारण ) भगवान शंकर ने विष पी लिया (मन को इन्द्रिय -विषयों से खींच लिया) तो अमृत निकल आया। इसी तरह हम यदि महामण्डल के पाँच -अभ्यास करते हुए अपने राग-द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा (अमृत) निकल आएंगे। सन्त -महात्माओं के हृदय में राग-द्वेष नहीं रहते, अतः वहाँ परमात्मा रहते हैं। सब कुछ परमात्मा ही हैं -यह खुले नेत्रों का ध्यान है। इसमें न आँख मूंद कर ध्यान करने की जरुरत है, न नाक बंद कर प्राणायाम करने की जरूरत है ! जब सब कुछ अनन्त से ही निकला है, अनन्त का ही अंश है , तो फिर दूसरा कहाँ से आये ? कैसे आये? 
गीता (७/१ ) 'समग्र ब्रह्म'को मानती है , -'असंशयं समग्रं माम् ' परमात्मा के समग्र-रूप में निर्गुण- सगुण सब रूप होते हुए भी सगुण की ही मुख्यता है । अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण समग्र हैं !  कारण की सगुण के अन्तर्गत तो निर्गुण भी आ जाता है, पर निर्गुण में (गुणों का निषेध होने से ) सगुण नहीं आता। अतः सगुण ही समग्र हो सकता है।
ब्रह्म या परमात्मा (का मूर्त रूप समग्र ठाकुर ही मेरे हृदय में हैं) के आलावा दूसरी सत्ता (शरीर और मन-नाम-रूप का अहं ) की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है।  निष्काम कर्म के द्वारा दूसरी सत्ता (मिथ्या अहं) की मान्यता मिटने से निवृत्ति की दृढ़ता होती है। प्रवृत्ति का उदय होना 'भोग' है और निवृत्ति की दृढ़ता होना 'योग' है। 
शरणागति से ही समग्र की प्राप्ति होती है। शरीर (अपरा या अविद्या ) को लेकर कर्मयोग है, शरीरी (परा आत्मज्ञान  या विद्या ) को लेकर ज्ञानयोग है और शरीर-शरीरी दोनों के मालिकभगवान (श्री रामकृष्ण देव ) -को लेकर भक्ति योग है। 
गीता के आरम्भ में भगवान ने पहले शरीरी (आत्मा)  को लेकर और फिर शरीर को लेकर क्रमशः ज्ञानयोग और कर्मयोग का वर्णन किया है। फिर मनःसंयोग की पद्धति का वर्णन 6th अध्याय में किया है। फिर सातवें अध्याय से भक्ति की महत्ता का वर्णन विशेषता से किया है, जो भगवान का खास ध्येय है। मनुष्य कर्मयोग (निष्काम कर्म ) से जगत के लिये , ज्ञानयोग से अपने लिये और भक्तियोग से भगवान के लिये उपयोगी हो जाता है ! 
[गीता ४/३३ में भगवान कहते हैं - "सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते।" सम्पूर्ण कर्म और पदार्थ ज्ञान (तत्त्वज्ञान)में समाप्त हो जाते हैं। अर्थात् ज्ञान-यज्ञ कर्मजन्य नहीं है प्रत्युत विवेक-विचारजन्य है। जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, निष्काम कर्म नहीं करता , तब तक उसका सम्बन्ध क्रियाओँ और पदार्थोंसे बना रहता है। जबतक क्रियाओँ और पदार्थोंसे सम्बन्ध रहता है तभी तक अन्तःकरणमें अशुद्धि रहती है इसलिये अपने लिये कर्म न करनेसे ही अन्तःकरण शुद्ध होता है।
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, मुक्तिदाता या जगतगुरु श्री रामकृष्ण  (गुरु विवेकानन्द की चेतना के रूप में)  प्रत्येक मनुष्य के हृदय में क्रियाशील है ! समस्त मानवता उसी आत्मा के नेतृत्व में जाग्रत होकर, विकसित और संवर्धित होती है। अपने हृदय में उस नेता (विष्णु) की अनुभूति और पहचान उन्हीं की कृपा से अन्तरदृष्टि प्राप्त होने पर होती है, उन्हें ही मुक्तिदाता या अवतार वरिष्ठ कहा जाता है।
साम्प्रदायिक झगड़े अब बन्द हो जाना चाहिये, आवश्यकता केवल अपने पसन्दीदा मार्ग को पकड़ कर सत्य का अनुसन्धान करने की है। श्रीरामकृष्ण देव एकमात्र ऐसे जगतगुरु हैं, जिन्होंने एक ही परम-सत्य तक पहुँचने के समस्त मार्गों (सम्प्रदायों) का स्वयं अनुसन्धान करके इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि विश्व के समस्त धर्म सही हैं- 'जतो मत ततो पथ- जितने मत उतने पथ'; ... राह पकड़ तू एक चला जा पा जायेगा मधुशाला। 
अन्तःकरणमें तीन दोष रहते हैं मल (संचित पाप) विक्षेप (चित्तकी चञ्चलता) और आवरण (अज्ञान)। अपने लिये कोई भी कर्म न करनेसे अर्थात् संसारमात्र की सेवाके लिये ही कर्म करने से (निष्काम कर्म करने से ) जब साधक के अन्तःकरणमें स्थित मल और विक्षेप दोनों दोष मिट जाते हैं, तब वह ज्ञानप्राप्तिके द्वारा आवरण-दोष को मिटानेके लिये कर्मों का स्वरूप से त्याग कर के गुरु के पास जाता है। शास्त्रोंमें ज्ञान-प्राप्ति के साधन-चतुष्टय कहे गये हैं (१) विवेक (२) वैराग्य (३) शमादि षट्सम्पत्ति (शम, दम, श्रद्धा, उपरति, तितिक्षा, और समाधान) (४) मुमुक्षुता। 
इनमें पहला साधन पहला है, नित्यानित्य वस्तु विवेक।  सत् और असत् को अलग-अलग जानना विवेक कहलाता है। ब्रह्मसत्यम् जगन्मिथ्या...अर्थात् एकमात्र ब्रह्म ही नित्य है एवं अन्य सभी अनित्य इसका भली प्रकार निश्चय ही नित्यानित्य वस्तु-विवेक है।
[ विवेक का अर्थ यह है कि आत्मा और पर का भेद जानने में आये। विवेक का अर्थ लोग ज्ञान (समझ) करते हैं। इसने बड़ा विवेक किया अर्थात् बहुत ज्ञान किया। पर विवेक का अर्थ ज्ञान नहीं है। विवेक का सीधा अर्थ है टुकड़े कर देना, न्यारा कर देना !  पर न्यारा करना या अविद्या की गाँठ को काट देने का कार्य भी ज्ञान की तलवार से होता है, अर्थात ज्ञानपूर्वक ही तो होता है, इसलिये विवेक का अर्थ ज्ञान प्रसिद्ध हो गया। पर जिसमें भेद-विज्ञान न हो, हेय (जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति ) को छोड़ने, उपादेय (तुरीय-अवस्था) को हेय -उपादेय की विवेक-कसौटी पर कस कर खुली आँखों से ध्यान करने जैसी बात जिस ज्ञान में न समायी हो उस ज्ञान को विवेक नहीं कहा जा सकता। जैसे किसी चतुर (=विवेकी) पुरुष ने हेय चीज को छोड़कर उपादेय को ग्रहण करने की बुद्धिमानी की, उसके सम्‍बन्‍ध में लोग यह कहेंगे ना, इसने बड़े विवेक से काम लिया। इसने बड़ा विवेक-प्रयोग किया। उस प्रसंग में, उस कार्य के प्रतिबोधन के लिये यदि हम ऐसा कहें कि इसने बड़ा ज्ञान किया तो कुछ अटपटा सा लगा या नहीं ? विवेक का अर्थ भेद कर देना है। 
नाव चलाने वाला खूब चप्पू चलाता है पर नाव का कर्णधार जो नाव के पीछे खड़ा रहता है, एक सूप के आकार का करिया नामक काष्‍ठ का यंत्र लिए रहता है, वह जिस प्रकार से घुमा दे, नाव उस ओर चल देती है। इसमें तो कुछ शक नहीं है कि प्रत्‍येक जीव बड़ा जागरूक है और निरन्‍तर कार्य करता रहता है। सिद्ध प्रभु हो तो, संसारी जीव हो तो सभी जागरूक हैं अपने काम में और निरंतर चेष्‍टा करते जा रहे हैं, पुरुषार्थ करते जा रहे हैं। किन्तु जिनको वह सम्‍यग्‍ज्ञान का काष्‍ठयंत्र (विवेक-कसौटी ) मिल गया है, सम्‍यग्‍दर्शन कर्णधार - स्वामी विवेकानन्द जैसा मार्गदर्शक नेता या गुरु मिला तो वह अपनी चर्या (दैनंदिन जीवन -व्यवहार ) को योग्‍य-पद्धति (चरित्र-निर्माण की पद्धति ) का अभ्यास करके  निभा ले जाते हैं [जीवन-लक्ष्य में पहुँच जाते हैं ] और जिसको यह कर्णधार (स्वामी विवेकानन्द रूपी युवा-आदर्श ) नहीं प्राप्‍त हुआ है उसकी नैया तो भवोदधि में यत्र तत्र डोलती ही रहेगी।
'विविधता में एकता' का दर्शन करने अथवा वेदान्त की एकत्व अनुसन्धान की प्रणाली को विवेक-प्रयोग या विवेक कसौटी—भी कह सकते हैं । वे पुरुष धन्‍य हैं जो अपने निष्‍पक्ष चित्त से वस्‍तु-विचार में कसौटी के समान हैं। जैसे स्‍वर्ण कसने की कसौटी होती है वह कसौटी मालिक के पास रहती है। मालिक उसे बड़े अच्‍छे ढंग से रखता है लेकिन वह कसौटी दगा नहीं देती। वह कसौटी मालिक का पक्ष नहीं करती कि सोना ग्राहक को देते समय सोने को कसौटी से कसा जाये तो अपनी यथार्थता से अधिक अपना गुण बता दे, अथवा सोनार जब किसी ग्राहक से सोना लेते  समय कसौटी से कसे, वह कसौटी सोने को यथार्थ से हीन गुण की बात दिखा दे। कसौटी का निर्णय निष्पक्ष होता है, वह न तो मालिक के पक्ष में निर्णय लेता है, न ग्राहक के पक्ष में, वह तो यथार्थ अपना वर्ण दिखा देगा। ऐसे ही जो सत्‍पुरुष होते हैं , (जिनकी कथनी करनी एक है ) ज्ञानी हैं, विरक्‍त हैं, निष्‍पक्ष हैं वे तो कसौटी के समान हैं। वे गुण और दोषों का बराबर यथार्थ विचार कर लेते हैं। भिन्‍न-भिन्‍न जान लेते हैं कि यह गुण (अच्छा -शास्वत ) है और यह दोष (नश्वर)  है। सज्जनों की सूक्तियाँ विवेक के लिये, अर्थात खुद की पहचान के लिये होती हैं। 
[ स्वयं की पहचान:  वट-बीज न्याय: (ससीम में अनन्त विशाल या बृहद का ज्ञान) ***उद्दालक ऋषि  ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को एक प्रसिद्ध ऋषि के पास पढ़ने भेजा। श्वेतकेतु की दृष्टि में उसके पिता उद्दालक बहुत बड़े विद्वान थे। वह चाहता था कि वह अपने पिता से ही शिक्षा ग्रहण करे, पर उद्दालक ने समझाया, 'गुरु पिता से ऊपर होता है, इसलिए तुम्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरु के पास ही जाना चाहिए। '
श्वेतकेतु गुरु के पास गया। वहां बारह वर्ष पढ़ने के बाद जब वह अपने घर आया तो उसे लगा कि अपने पिता उद्दालक से भी उसे बहुत अधिक ज्ञान हो गया है। उसके व्यवहार में अहं अधिक व नम्रता कम थी। ऊपर-ऊपर ज्ञान तो संग्रहीत कर लिया है। पंडित होकर आ रहा है। ज्ञानी होकर आ रहा है। विद्वान होकर आ रहा है। प्रज्ञावान होकर नहीं आ रहा। ज्ञानी हो कर नहीं आ रहा। कोई स्वयं के पहचान की ज्‍योति नहीं जली है। उद्दालक ऋषि श्वेतकेतु की मनोवृत्ति भांप गए। 
उन्होंने श्वेतकेतु को बुलाया और पूछा,' श्वेतकेतु तुमने क्या - क्या पढ़ा ? हमको बताओ। ' श्वेतकेतु बताने लगा , ' मैंने व्याकरण पढ़ा,शास्त्र पढ़ा,उपनिषदों को पढ़ा।' इस प्रकार उसने एक बड़ी सूची प्रस्तुत कर दी। उसने कहा, सब सीख कर आया हूं। कुछ छोड़ा नहीं, यही तो मूढ़ता का वक्‍तव्‍य है। उसने गिनती करा दी, कितने शास्‍त्र सीख कर आया हूं। सब वेद कंठस्थ कर लिए है। सब उपनिषद जान लिए है। इतिहास, भूगोल, पुराण, काव्‍य, तर्क,दर्शन, धर्म सब जान लिया है। कुछ छोड़ा नहीं है। सब परीक्षाए पूरी करके आया हूं। स्‍वर्ण पदक लेकर आया हूं।
सूची पूरी होने के बाद उद्दालक ने पूछा,' श्वेतकेतु क्या तुमने उस एक को जाना, जिसे जान कर सब जान लिया जाता है? जिसको जान लेने के बाद और कुछ जानने के लिये शेष नहीं रहता?  क्या तुमने वह देखा जिसको देखने के बाद और कुछ देखने के लिए बचता ही नहीं है ?' श्वेतकेतु अचंभे में पड़ गया। 
उसने कहा, ' क्या है वह ? मैं नहीं जानता हूं। मैंने वह तो जाना नहीं, न सुना, न देखा न कभी उस 'एक' को देखने का प्रयत्न ही किया। वह क्या है?' उद्दालक ने कहा,' तुझे फिर जान पड़ेगा। क्‍योंकि हमारे कुल में हम सिर्फ जन्‍म से ही ब्राह्मण नही होते रहे है। हम तो ब्रह्म (बृहद) को जान कर ब्राह्मण (ब्रह्मविद या यथार्थ मनुष्य) होते है। यह हमारे कुल की परम्‍परा है। मेरे पिता ने भी मुझे ऐसे ही वापस लौटा दिया था। एक दिन तेरे की तरह मैं भी अकड़ कर घर आया था। सोचकर की सब जान लिया है। सब जान कर आ रहा हूं। झुका था पिता के चरणों में, लेकिन मैं झुका नहीं था। अंदर से। भीतर तो मेरे यही ख्‍याल था की मैं अब पिता से ज्‍यादा विद्वान हो गया हूं। ज्‍यादा जान गया हूं। लेकिन मेरे पिता उदास हो गये। और उन्‍होंने कहाँ वापस जा। उस एक को जान, जिसे जानने से सब जान लिया जाता है। 'ब्रह्म' को जान कर ही हमारे कुल के लोगब्राह्मण होते है। तुझे भी वापस जाना होगा श्वेतकेतु।'  
श्वेतकेतु की आंखों मैं पानी आ गया। और अपने पिता के चरण छुए। और वापस चला गया। घर के अंदर भी न गया था। मां ने कहाँ बेटा आया हैं सालों बाद, बैठने को भी नहीं कहाँ और कुछ खानें को भी नहीं। कैसे पिता हो। लेकिन श्वेतकेतु ने मां के पैर छुए और जल पिया और कहाँ माँ अब तो उस 'एक' को जान कर ही तुम्हारे चरणों में आऊँगा।जिसे पिता जी ने जाना है। या जिसे हमारे पुरखों ने जाना है। मैं कुल पर कलंक नहीं बनुगां।
श्वेतकेतु गया गुरु के पास और पूछा गुरूवर उस 'एक' को जानने के लिए आया हूं।  तब गुरु हंसा। और कहाँ चार सौ गायें बंधी है गो शाला में उन्‍हें जंगल में ले जा। जब तक वह हजार न हो जाये तब तक न लोटना। श्वेत केतु सौ गायों को ले जंगल में चला गया। गायें चरती रहती, उनको देखता रहता। अब हजार होने में तो समय लगेगा। बैठा रहता पेड़ो के नीचे, झील के किनारे, गाय चरती रहती। श्‍याम जब गायें विश्राम करती तब वह भी विश्राम करता। दिन आये, रातें आई, ,चाँद उगा, चाँद ढला, सूरज निकला, सूरज गया। समय की धीरे-धीरे बोध ही नहीं रहा। क्‍योंकि समय का बोध आदमी के साथ है। कोई चिंता नहीं, न सुबह की न श्‍याम की। अब गायें ही तो साथी है। और न वहाँ ज्ञान जो सालों पढ़ा था उसे ही जुगाल कर ले। किसके साथ करे।
 खाली होता चला गया श्वेतकेतु गायों की मनोरम स्‍फटिक आंखे, आसमान की तरह पारदर्शी। देखना कभी गयों की आंखों में झांक कर तुम किसी और ही लोक में पहुंच जाओगे। कैसे निर्दोष और मासूम, कोरी, शुन्य वत होती है गायें की आंखे। उनका का ही संग साथ करते, कभी बैठ कर बांसुरी बजा लेता, अपने अन्‍दर की बांसुरी भी धीरे-धीरे बजने लगी, सालों गुजर गये। और अचानक गुरु का आगमन हो गया। तब पता चला गुरु को मैं यहाँ किस लिया आया था।
गुरु जी बोले, " श्वेतकेतु इधर गायें एक हजार एक हो गई हैं और उधर अब तू भी गऊ के समान निर्दोष हो गया है।उस एक का ज्ञान जिसे जान लेने से सबकुछ विज्ञात हो जाता है, वह ज्ञान तो तुम्हारे पिता जी के पास ही है, उनसे ही वह ले लो।" 
श्वेतकेतु घर लौट आया। अब वह अपने को बदला हुआ सा अनुभव कर रहा था। उसका अहं खत्म हो गया था। व्यवहार में पूर्ण नम्रता थी। वह शांत था।  जब श्वेत केतु अपने घर आया तो ऐसे आया कि उसके पदचाप भी धरा पर नहीं छू रहे थे। तब ऐसे आया विनम्रता आखिरी गहराइयों को छूती हो। मिट कर आया। और जो मिट कर आया। वहीं होकर आया। अपने को खोकर आया। वह अपने का पाकर आया। ये कैसा विरोधा भाष है? शास्‍त्र का बोझ नहीं था अब, सत्‍य की निर्भार दशा थी। विचारों की भीड़ न थी। अब ध्‍यान की ज्‍योति थी।  भीतर एक मंदिर बनाकर आया। एक पूजा-गृह का भीतर जन्‍म हुआ। 
 एक दिन उद्दालक ने उसे बुलाया और कहा, " जाओ बाहर बरगद के पेड़ पर से एक फल तोड़ कर ले आओ। " श्वेतकेतु फल तोड़ कर ले आया। पिता ने कहा- इसे तोड़ो । श्वेतकेतु ने फल तोड़ा, तो फल बीजों से भरा हुआ था। पिता ने कहा - इसमें से एक बीज चुन लो , श्वेतकेतु ने एक बीज को चुना;  तो पिता ने पूछा, " क्या इस छोटे-से बीज से इतना बड़ा बरगद का पेड़ बन सकता है?" श्वेतकेतु ने कहा- 'बन सकता है नहीं, बनता ही है, इसी बीज से तो यह वृक्ष ऊगा है!'
पिता ने कहा- " तो इसका तात्पर्य यह हुआ, कि इतना विशाल बरगद का 'पेड़' इसी छोटे से 'बीज में' छुपा हुआ होगा?  तुम इस बीज को काटो, और उसके अंदर उस छुपे हुए पेड़ को खोजो।"
श्वेतकेतु ने बीज काटा पर वहां तो कुछ भी नहीं था, वहां शून्य था। श्वेतकेतु ने पिता से कहा -' इसके अंदर तो कुछ नहीं है, कुछ दिखाई भी नहीं दे रहा।'
उद्दालक ने कहा- " जो दिखाई नहीं दे रहा 'अणिमा' है या जो 'अदृश्य' है, उसी से यह विशाल पेड़, यह दृश्य पैदा हुआ है। हम भी एैसे ही अव्यक्त से आए हैं, व्यक्त हो गए हैं । (तुरीय अवस्था से जहाँ- 'आकार और ध्वनि ' नहीं है--केवल शास्वत चैतन्य है!) जो हमे दिखाई नहीं पड़ता, उसी से हम सभी जीवों का आविर्भाव हुआ है। " श्वेतकेतु ने पूछा, 'क्या मैं भी उसी महाशून्य से आया हूँ ?'  इस प्रश्न के उत्तर में उद्दालक ने यह महावाक्य कहा -
 " स य एषोsणीमैतदात्म्यमिदं सर्वं ,
तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेत्केतो !" 
 - 'इदं सर्वं तत् सत्यं स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो' - हे सोम्य ! वह जो अणिमा है, सूक्ष्म तत्व है, मूल तत्व 'सत्' रूप है, असद्रूप नहीं, क्योंकि असत् से किसी भी प्रकार की उत्पत्ति नहीं हो सकती। वह सारस्वरूप ही जगत का कारण है, सकल वस्तुओं की आत्मा है, यह सब स्थूल - जगत को उसी का शरीर समझो ; वही सत्य है। [स य एषोऽणिमा .......अणुभावः जगतो मूलम्] इस तथा अन्य दृष्टांतों से उद्दालक ने श्वेतकेतु को समझा दिया है कि 'तत्त्वमसि'- हाँ, श्वेतकेतु तू भी उसी महाशून्य से आया है तू भी वही है, इसी अमृत वचन को सुन श्वेतकेतु ज्ञान को उपलब्ध हुआ । 
" समस्त सृष्टि  'आकार और ध्वनि' (नाम-रूपात्मक) है; जिस प्रकार विभिन्न नाम वाली नदियाँ समुद्र में विलीन होकर समुद्र हो जातीं हैं और अपनी सत्ता को नहीं जानतीं, सृष्टि के समस्त जीव आत्म-स्वरूप को भूले हुए हैं, वस्तुत: उनमें जो आत्मा है वह ब्रह्म ही है। कथनी और करनी में संघर्ष का ताप अंदर तक होना ही तनाव है।
उपनिषद् के ऋषि बता गये हैं – इकाई होना दुख है। अनंत होना आनंद। बूंद होना पीड़ा है, नदी या सागर होना परमबोध और आनंद।  यही आस्तिकता है। इसी सिद्धांत को इस उपनिषद् के महावाक्य "तत्वमसि" - 'हे श्वेतकेतु वह तुम हो ' में समझाया गया है। श्वेतकेतु जीवन का अभिप्राय समझ गया था। वह जान गया कि अपने आपको जानने के बाद  कुछ जानना शेष नहीं रहता। 
खुद को डिहिप्नोटाइज करने पर श्वेतकेतु खुद को पहचान गया कि - चतुर्थ पाद आत्मा ही तत्व है, अर्थात 'सत " है, मेरा यह शरीर वाला अहं (त्रिपाद -जाग्रत,स्वप्न और सुषुप्ति) तो बिलकुल भी 'तत्व -वस्तु' नहीं है। 
और तूने उसे भी जान लिया जो पूर्ण से पूर्ण है। पर श्वेतकेतु इतना पूर्ण हो गया की उसमे कहीं 'मैं' का भाव ही नहीं था। श्‍वेतकेतु 'बुद्ध' हो गया, ब्रह्मविद हो गया- जान लिया ब्रह्म को। 'ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति '- ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है!अपने होने का जो हमे भेद होता है। वह सब गिर गया श्वेतकेतु को आत्मा-परमात्मा के अभेद का ज्ञान हो गया। ]
[***उद्दालक साभार http://bharatdiscovery.org/india]   
आधुनिक मनुष्य के  तनाव का कारण क्या है ? जगत् के जीवों में और किस बात का संकट है सिवाय एक तृष्‍णा के? दूसरी कोई बात संकट की हो तो बतलावो। किसी के संकट की कहानी सुन लो, यही नजर आयेगा कि इसके तृष्‍णा उत्‍पन्‍न हुई है। धन की तृष्‍णा, ज्ञान की तृष्‍णा, इज्‍जत की तृष्‍णा। [लोकेषणा,वित्तेषणा, पुत्रेष्णा]  अनेक प्रकार की तृष्‍णायें हैं उनका ही एक मात्र दु:ख है।
 यह दु:ख जीवों का किसी उपाय से मिट नहीं पा रहा है। सभी जीव इस ही दु:ख से पी‍ड़ि‍त होकर उस दु:ख से बचने का यत्‍न कर रहे हैं, पर उसी में और भी विकट फँसते जाते हैं। जैसे मक्‍खी मधु के कड़ाहे पर बैठ जाय तो ज्‍यों-ज्‍यों वह हाथ पैर फटफटा कर उससे निकलने का यत्‍न करती है त्‍यों-त्‍यों वह और भी उसमें फँसती जाती है।  अथवा किसी कीचड़ वाली जगह में फँसा हुआ हाथी अथवा भैंसा ज्‍यों-ज्‍यों उससे निकलने का उद्यम करता है त्‍यों-त्‍यों वह उसमें विकट फँसता जाता है। इसी प्रकार ये संसार के प्राणी तृष्‍णा कर करके उसमे दु:खी होते जाते हैं और ज्‍यों-ज्‍यों उस दु:ख से छूटने का उद्यम करते हैं त्‍यों-त्‍यों उसमें और फँसते जाते हैं। दु:ख की वेदना और भी बढ़ती जाती है।
बहुत-बहुत धक्‍के खाने के बाद बुद्धि व्‍यवस्थित बनती है पर इस जीव पर मोह का ऐसा तीव्र नशा है कि बहुत आपत्ति और धक्‍के खा लेने के बाद भी इसकी बुद्धि में व्यवस्थितता नहीं आ पाती है। बूढ़ापे में या अन्तिम समय में कुछ जरा ठीक-ठिकाने से हुये ही थे, कुछ बुद्धि बनने का अवसर ठीक आया था कि तब भी न चेते तो मरण हुआ व दूसरे भव में गये, अब वहाँ वही अ आ इ ई फिर पढ़ना शुरू किया, वही मोह ममता फिर प्रारम्‍भ हो गयी। 
सत्ता का आकर्षण, लाल-नीली बत्ती का आकर्षण मदिरा की तरह लुभावना होता है।  चरित्र-गठन किये बिना ही कोई व्यक्ति जब कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका या इलेक्ट्रॉनिक मीडया या प्रिन्ट मिडिया में 'महत्वपूर्ण पद ' को प्राप्त कर लेता है, तो वह अपने को जनता का सेवक नहीं मानकर उनका भक्षक बन जाता है, और हर किसी को उधर जाने को बाध्य करता है । 
पतंजलि साधनपाद में एक बड़ी विशेष बात कहते हैं— “सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः” 2/13अर्थात् “मूल के विद्यमान रहने तक (सति मूले), इस कर्माशय का परिणाम (तद्विपाकः) पुनर्जन्म, आयु और भोग होता रहता है (जात्यायुर्भोगाः)।” जब तक क्लेशरूपी जड़ है, तब तक इन कर्मों के संस्कार समुदाय रूपी कर्माशय का विपाक यानी परिणाम बार-बार अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने के रूप में होता ही रहेगा। मरणदुःख को भोगना एवं दुःखरूपी भोगों से संबंध होना भी उसी का परिणाम है। यह कर्माशय का फल है और हर मनुष्य को (दुष्ट और भ्रष्ट नेताओं को भी ) भोगना ही पड़ता है !]   
जो वाणी जीवों को प्रबोध दे सके - " उठो,जागो, और लक्ष्य प्राप्त किये बिना बिश्राम मत लो !"  ऐसी वाणी केवल युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द जैसे सत्‍पुरुषों की ही हुआ करती है। जिन ढोंगी गुरुओं की वाणी, उन्हीं के नश्वर शरीर की पूजा करने के राग में अंधा बना दे,  (जिनकी कथनी और करनी का संघर्ष खत्म ही नहीं हुआ हो) वैसे ढोंगी गुरुओं (आशाराम ) की वाणी सूक्ति नहीं कहला सकती। 
सज्‍जन पुरुषों के उपदेश विशेष रूप से इसलिये होता है कि लोगों की आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग करने की शक्ति जाग्रत हो जाये और सम्यक-ज्ञान (आत्मसाक्षात्कार ) बने। यद्यपि उपदेश-श्रवण का प्रयोजन इतना ही हे कि तुम 'निज' को निज जान लो और 'पर' को पर समझ लो तथा पर से निवृत्त होकरअपने आपमें लग जावो, किन्‍तु इतना सा काम करने के लिये स्‍व-पर विषयक विशेष ज्ञान (विवेक-कसौटी) प्राप्त होनी चाहिये।
स्वामी विवेकानन्द के आह्वान - "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।" का श्रवण-मनन-निदिध्यासन करने से युवाओं को हेय (प्रेय, मिथ्या,नश्वर, शरीर -मन-इन्द्रिय विषयों में आसक्ति को) को त्याग कर ( छोड़कर)  उपादेय (श्रेय या शास्वत अविनाशी) को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त होती है। जिस ज्ञान के फल में हेय का त्‍याग और उपादेय का ग्रहण करने की बुद्धि नहीं जगती है वह ज्ञान किस काम का? यथार्थ वैभव तो सम्‍यक-ज्ञान है। और वही वास्‍तविक अमीर है जिसने निज-पर का विवेक करके निज को पर से न्यारा अनुभव किया । रहना तो किसी के पास कुछ भी नहीं है, छूटेगा तो निश्‍चय से। अब बुद्धिमानी यह है कि उसे अपने जीवन में ही समझ बूझकर, विवेक-प्रयोग करने की शक्ति से संवर्धित होकर, ज्ञानोपयोग का बल बढ़ाकर उसे छोड दें। छूटना सबका ही है।
इसका एक प्रतिभासिक स्‍वरूप (ससीम और नश्वर कच्चा मैं)  का है और उसका वास्तविक स्वरूप (असीम- पक्का मैं) अविनाशी है। परन्‍तु अनादिकाल से कर्मों से (आदत, प्रवृत्ति, प्रकृति या प्रोपेन्सिटी) आच्‍छादित  होने के कारण यह जीव अपने स्‍वरूप की सुधि भूला है और बाहरी पदार्थों के विषयों में अटक गया है। इस कारण यह निरन्‍तर बेचैन (तनाव में ) रहा करता है। 
सीधे यह जान लिया कि शरीर जुदा (नश्वर ) है और आत्‍मा जुदा (अविनाशी ) है, जैसा कि सभी किसी के मर जाने पर मरघट ले जाते हुये सभी याद किया करते हैं कि शरीर जुदा है, जीव जुदा है। लोग कहते हैं, देहातों में भी आबाल-गोपाल सभी लोग कहा करते हैं-'रामनाम सत्य है!'  अर्थात यह जीव शरीर को छोड़कर चला गया।  किन्‍तु विशेष ज्ञान के परिज्ञान की विशेषता देखिये। यह शरीर एक मायारूप स्‍कंध है, पंचभूत से (आहारवर्गणावों) से बना हुआ है। किन्तु इन्हीं पंचभूतों में फंसा हुआ जो जीव रोता रहता है, उसके विषय में ठाकुर (स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ) कहते थे --'पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे !' 
किसी भी प्रभु का नाम ले लें, उस नाम में प्रभुता की मुख्‍यता है, नाम की मुख्‍यता नहीं है। इस कारण किसी एक (अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण ) का भी नाम लेने पर सब अवतारों के नाम इसी एक नाम में गर्भित हो जाते हैं। जिस घर में 4-6 भाई बसते हैं उसमें से केवल ज्येष्ठ एक भाई के नाम से कार्ड भेज देने से, या एक का भी नाम ले लेने से या किसी का नाम आ जाने से वे सब भाई संतुष्‍ट रहते हैं। वे सोचते हैं कि इसमें हम सब आ गए। नाम में प्रभुता की ही मुख्‍यता है !  
और नमस्‍कार करने वाला, नाम लेने वाला पुरुष अपने हृदय में यह भाव नहीं रखता कि मैं इनको (ठाकुर को ) ही नमस्‍कार करूँ और ईसा, बुद्ध, नानक, चैतन्य, महावीर  या मोहम्मद को नहीं, इस कारण सभी इस एक नाम -'अवतार वरिष्ठाये रामकृष्णाय ते नमः' में ही गर्भित हो जाते हैं। परमात्‍मा ही क्‍या, जगत में जो भी पदार्थ हैं, कोई भी पदार्थ किसी भी समय नया उत्‍पन्‍न हुआ हो ऐसा है ही नहीं। यह आत्‍मा, परमात्मा या सत् भी कभी उत्‍पन्‍न हुआ?  ऐसा नहीं है।
प्रकृत में फिर यह बात कही जा रही है कि परमात्‍मा हो चुकने के बाद फिर उन्‍हें जन्‍म नहीं लेना पड़ता है, ऐसे अजन्‍मा परमात्‍मा को नमस्‍कार किया जा रहा है। परमात्‍मा बारबार उत्‍पन्‍न होते रहते हैं अवतार लेते रहते हैं, अवतार का अर्थ है उतरना। किसी बड़ी जगह से उतरने को अवतार कहते हैं। किसी बड़ी उत्‍कृष्‍ट दशा से उतरकर इस संसार में जन्‍म लेने को अवतार कहते हैं।]  
दूसरा है, इहलौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के फलों में वैराग्य। सत्-असत् को अलगअलग जानकर असत् का त्याग करना अथवा अनित्य-वस्तुओं से आसक्ति को त्याग देना वैराग्य है। तीसरा है,शमादि षट्सम्पत्ति। मनको इन्द्रियोंके विषयोंसे हटाना शम है। इन्द्रियों को विषयों से हटाना दम है।ईश्वर,गुरु, और शास्त्र आदि पर पूज्यभावपूर्वक प्रत्यक्षसे भी अधिक विश्वास करना श्रद्धा है। विषयों से पूर्णतः अर्थात् आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार से विमुख होना उपरति है। सरदी-गरमी,सुख-दुःख, मान-अपमान आदि समस्त द्वन्द्वों को सहना, उनकी उपेक्षा करना तितिक्षा है। विषय-प्रलोभनों का पालन-पोषण त्याग करएकमात्र लक्ष्य अर्थात् अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव (शुद्धचैतन्य परब्रह्म) में मन की एकाग्रता ही समाधान है। 'मेरे ठाकुर जी समग्र (सगुण -निर्गुण दोनों एक साथ) हैं !'- इस विषय में अन्तःकरणमें शङ्काओंका न रहना समाधान है। 
इसके बाद चौथा साधन है मुमुक्षुता। मुमुक्षुत्व- यह जानने की छटपटाहट कि मैं वास्तव में कौन हूँ? मृत्यु की आँख में आँख डालकर देखने का साहस, यदि मैं ही चिदानन्द-रूपी शिव हूँ, तो अगले ही क्षण जो हेड-ऑन ऐक्सिडेंट होने पर कौन मरने वाला है? संसार-बंधन क्या है? जन्म क्या है? मृत्यु क्या है? इससे मुक्ति कैसे संभव है? ऐसी सुदृढ़ बुद्धि का होना ही मुमुक्षुता है। संसार से, जन्म-मरण के बंधन से छूटनेकी इच्छा मुमुक्षता है। मुमुक्षुता जाग्रत् होनेके बाद, साधन चतुष्टय से संपन्न साधक ही अध्यात्म-मार्ग में अग्रसर होने के लिये किसी श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास जाता है। 
गुरुदेव से मिले अपने इष्ट के नाम का सही श्रवण और गुरुदेव के समक्ष तीन बार उस नाम का सही- सही उच्चारण, और गुरुके पास (महामण्डल -शिविर में ) निवास करते हुए शास्त्रोंको सुनकर तात्पर्यका निर्णय करना तथा उसे धारण करना श्रवण है। श्रवण से प्रमाणगत संशय- (आत्मसाक्षात्कार किसको हुआ था ? आत्मा ही परमात्मा है या नहीं.....?) दूर होता है। परमात्म-तत्त्व का युक्ति-प्रयुक्तियों से चिन्तन करना मनन है। मनन से प्रमेय-गत संशय दूर होता है। संसार की सत्ता को मानना और परमात्मतत्त्व की सत्ताको न मानना विपरीत भावना कहलाती है। विपरीत भावनाको हटाना निदिध्यासन है। त्याज्य वस्तु अपने लिये नहीं होती पर त्यागका परिणाम (तत्त्व-साक्षात्कार) अपने लिये होता है।]
*** साभार http://www.gitasupersite.iitk.ac.in]  
[महामण्डल पुस्तिका परिप्रश्नेन -[२/२२ ] १९९० में बंगला में प्रकाशित प्रश्न संख्या ***22 से
 अनुदित: आत्मा और परमात्मा क्या अलग-अलग होते हैं ? ]
इसी तुरीय- अवस्था का वर्णन स्वामी विवेकानन्द ने  " प्रलय या गहरी समाधि " के उपर रचित एक सुन्दर कविता-'समाधि का भजन' में बड़े सुन्दर ढंग से किया है - " (वहाँ) सूर्य भी नहीं है, ज्योतिर्मय सुंदर शशांक भी नहीं, प्रतिबिम्ब-सा व्योम में यह विश्व नजर आता है। मनो-आकाश अस्फुट, भासमान विश्व-ब्रह्माण्ड वहाँ अहंकार-स्रोत ही में तिरता डूब जाता है। धीरे धीरे प्रतिबिम्बों का समूह प्रलय में समाया जब निज 'नाम-रूप (Sound and Form) ' के अहंकार की धारा उसी में लीन हो जाती है । रुद्ध हो गयी वह धारा, शून्य में लीन हो गया शून्य,'अवांग-मन-सगोचरम' को वह जाने जो ज्ञाता (आत्मा) है :-  
" The Hymn of Samadhi" 
 नाहि सूर्य नाहि ज्योति नाहि शशांक सुन्दर।
भासे व्योमे छाया-सम छवि विश्व-चराचर॥
अस्फुट मन आकाशे, जगत संसार भासे,
उठे भासे डूबे पूनः अहं-स्रोत निरन्तर ॥
धीरे धीरे छाया-दल, महालये प्रवेशिलो,
बहे मात्र 'आमि आमि'--एई धारा अनुक्षण॥
से धाराउ बद्ध हल, शून्ये शून्य मिलाइल,
'अवांगमनसोगोचरम्', बोझे --प्राण बोझे जार ॥
             ‘অবাঙমনসোগোচরম্’, বোঝে — প্রাণ বোঝে যার॥[৪] 
इस कविता की अन्तीम पंक्ति बंगला में इस प्रकार है- ' बोझे प्राण बोझे जार ।' -अर्थात उनको 'हृदय' ही समझ पाता है, ' मैं ' उनको जान गया हूँ, ऐसा मुख से कहने वाला अहं तो उस प्रलय (निर्विकल्प समाधि) में ही लीन हो गया था, तब कौन कह सकता है ? श्रीरामकृष्ण इसी बात को इस प्रकार कहते हैं- ' एकमात्र ब्रह्म ही अनुच्छिष्ट हैं, उनको कोई मुख से नहीं कह सकता है, सारे शब्द (नाम ), सारे शास्त्र जूठे हो गये हैं, किन्तु ब्रह्म अभी तक जूठा नहीं हुआ ।' क्योंकि वे इस भौतिक जगत में दिखाई देने वाले किसी लौकिक पदार्थ के जैसा कोई वस्तु या भौतिक-पदार्थ नहीं हैं; इसीलिए उनको वाणी के द्वारा व्यक्त व्यक्त नहीं किया जा सकता, कोई हजार मुखों से भी उनका वर्णन नहीं कर सकता। 
भौतिक जगत् की वस्तुएं इन्द्रियगोचर होती हैं, जब कि भावनाओं और विचारों का ज्ञान क्रमश मन और बुद्धि से होता है। इसी प्रकार आत्मबोध भी आध्यात्मिक ज्ञानचक्षु से होता है, चर्मचक्षु से नहीं। जैसे हमारे नेत्र विचारों को नहीं देख सकते वैसे ही, मन और बुद्धि आत्मा को नहीं देख सकते।स्थूल के द्वारा सूक्ष्म का दर्शन नहीं हो सकता। मिथ्या प्रेत के अधिष्ठान स्तम्भ को पहचान लेने पर पूर्व का भय और दुख समाप्त हो जाता है।
हमलोग अपनी पञ्च इन्द्रियों के माध्यम से केवल भौतिक पदार्थों की ही धारणा कर सकते हैं. जैसे इस वस्तु का इतना भार या इतना वजन होगा, इसका आकर ऐसा है,  इसका यह रूप है, इसमें ऐसे गुण हैं, इसके साथ अन्य वस्तु का सम्पर्क हो सकता है इत्यादि बातों को ही हम अपने मन के द्वारा धारणा के सकते हैं। मनुष्य अपने मन में जितनी बड़ी से बड़ी या सबसे वृहत वस्तु की धारणा कर सकता है, वे उन सबसे भी बृहत हैं, इसीलिए मन- बुद्धि से विचार करके उनके बारे में धारणा बना पाना संभव नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द अमेरिका के विश्व-धर्म महासभा में १९ सितम्बर १८९३ को कहते हैं -" मैं इस मंच पर खड़ा हूँ, और अपनी ऑंखें बन्द करके यदि मैं अपने अस्तित्व --'मैं', 'मैं', 'मैं' को समझने की चेष्टा करूं, तो मुझमें किस भाव का उदय होता है ? इस भाव का कि मैं शरीर हूँ । तो क्या मैं, फिर भौतिक पदार्थों (हाड़-मांस-चाम) के एक संयोजन के सिवा कुछ भी नहीं हूँ ? वेदों की घोषणा है-- 'नहीं' मैं शरीर में रहने वाली आत्मा हूँ, मैं शरीर नहीं हूँ। शरीर मर जायेगा, पर मैं नहीं मरूंगा !"  
मन की इस तुरीय-अवस्था (जहाँ 'आकार और आवाज' या ' नाम और रूप' ) का अस्तित्व ही नहीं है) का वर्णन करते हुए स्वामी विवेकानन्द 'स्वामी-शिष्य संवाद ' [६/९९] में  कहते हैं -
" उस दिन.... ऐसा प्रतीत हुआ कि शरीर बिल्कुल है ही नहीं। सूर्य-चन्द्र, देश-काल, आकाश सब मानो एकाकार होकर कहीं लय हो गए हैं। देहादि बुद्धि का प्रायः अभाव हो गया था और 'मैं' भी बस लय सा ही हो रहा था ! परन्तु मुझमें कुछ 'अहं' था , इसीलिये उस 'तुरीय अवस्था'
(समाधि की अवस्था) से वापस शरीर में लौट आया था।.... इस प्रकार समाधि-काल में 'मैं' और 'ब्रह्म' में भेद नहीं रह जाता, सब एक हो जाते हैं; मानो महासमुद्र है- चैतन्य ही चैतन्य, जल ही जल और कुछ नहीं। आकर और आवाज (नाम-रूप) का अन्त हो जाता है। अवाङ्गमनोसगोचरम् की उपलब्धि इसी समय होती है। नहीं तो जब तक साधक 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा विचार करता है या कहता है तब भी 'मैं' और 'ब्रह्म' ये दो पृथक पदार्थ रहते हैं अर्थात द्वैतबोध रहता है। उसी अवस्था को फिर प्राप्त करने की मैंने बारम्बार चेष्टा की, परन्तु पा न सका। श्री गुरुदेव को सूचित करने पर वे कहने लगे, " उस अवस्था में दिन-रात रहने से माँ भगवती का कार्य तुमसे पूरा न हो सकेगा। इसीलिये उस अवस्था को फिर प्राप्त न कर सकोगे; कार्य का अन्त होने पर वह अवस्था फिर आ जाएगी।"  
[ **** माँ भगवती कौन हैं ? बहुत से लोग अपनी कल्‍पना से माना करते हैं कि, जैसे  यहाँ जगत में शरीर के आधार पर स्त्री-पुरुष के जोड़े को - मास्‍टर और मास्‍टरनी, डॉक्टर -डॉक्टरनी या पण्डित-पण्डितानी आदि कहा जाता है, उसी प्रकार कुछ लोग "ब्रह्म और शक्ति" जो हमेशा साथ-साथ रहते हैं, को भगवान और उनकी स्त्री भगवती–ऐसा कहा करते हैं। पर वास्‍तव में भगवान कौन है और माँ भगवती कौन है ?
*****इसको ठीक से समझना आवश्यक है । श्रीरामकृष्ण देव कहते हैं , " ब्रह्म और उसकी शक्ति मानो अग्नि और उसकी दाहक  शक्ति के समान है।  शक्ति (माया ) और ब्रह्म मानो चलता हुआ साँप और स्थिर पड़ा हुआ साँप है। अर्थात शक्ति क्रियाशील अवस्था में माया है और निष्क्रिय अवस्था में ब्रह्म है। शान्त समुद्र मानो ब्रह्म है, और तरंगायित अवस्था में माया। कुम्हार सूखी मिट्टी से घड़ा नहीं बना सकता, पानी भी चाहिये। साँप के दाँतों में विष है, लेकिन जब वह स्वयं खाता है तो उस पर विष का असर नहीं होता; किन्तु जब वह दूसरे को काट खाता है तो उस व्यक्ति पर विष चढ़ जाता है। इसी प्रकार , भगवान में माया है तो अवश्य , पर वह उन्हें मुग्ध नहीं कर सकती, किन्तु सारे संसार को मुग्ध कर लेती है। " 
" किंवदन्ती है कि अगर दूध में पानी मिला हो तो हंस उसमें से दूध पीकर पानी को वैसा ही छोड़ देता है। पर दूसरे पक्षी ऐसा नहीं कर सकते। इसी प्रकार माया के साथ मिले हुए हैं । साधारण मनुष्य उन्हें (ब्रह्म को-अस्ति,भाति,प्रिय को ? )  माया (नाम-रूप या आकार और ध्वनि ?) से अलग कर नहीं देख पाते, केवल जो परमहंस होते है (तुरीय-अवस्था का अनुभव कर  चुके होते हैं ) वे माया को त्यागकर ( डी- हिप्नोटाइज होकर ) ईश्वर (शाश्वत चैतन्य -सच्चिदानन्द) का ग्रहण करते हैं। "
" बिल्ली जब अपने बच्चे को दाँतों से पकड़ती है तो उसे कुछ नहीं होता, लेकिन जब चूहे को पकड़ती है तो चूहा मर जाता है। इसी तरह, माया भक्त को नष्ट नहीं करती, भले ही वह दूसरों (संशयी लोगों ) का विनाश कर डालती है । " 
" कामिनी और कांचन ने सारे संसार को पाप-पंक में डुबो रखा है। स्त्रियों की ओर यदि तुम भगवती जगदम्बा की दृष्टि से देखो तो तुम उनके हाथ से बच सकते हो। जब तक कामिनी -कांचन की तृष्णा नहीं बुझ जाती तब तक भगवान के दर्शन नहीं हो सकते। " 
" धन जिसके लिये दास की तरह है - वही ठीक ठीक मनुष्य है। जो धन का योग्य रीति से या उचित ढंग से उपयोग करना नहीं जानता वह 'मनुष्य ' कहलाने लायक नहीं है। " 
" जो अपना नाम-यश चाहते हैं, वे भ्रम में हैं -हिप्नोटाइज्ड अवस्था में हैं ? वे यह भूल जाते हैं कि एकमात्र ईश्वर की इच्छा से ही सब कुछ हो रहा है, वही सबका नियामक है। ज्ञानवान व्यक्ति कहता है, 'प्रभो , तुम,तुम '; मूढ़ अज्ञानी ही 'मैं, मैं' करते हैं। " 
" 'मैं' दो तरह का होता है, एक है 'पक्का मैं ' और दूसरा 'कच्चा मैं '। 'मैं प्रभु का दास हूँ ' - (मैं स्वामीजी के दास का दास हूँ) ; यही सही 'भक्त का मैं ' है --'विद्या का मैं ' है; इसे 'पक्का मैं ' कहा जाता है। "
' दुष्ट मैं' क्या है ? 'दुष्ट मैं ' वह है जो कहता है, " क्या ! वे मुझे नहीं जानते ? मेरे पास इतनी धन-संपत्ति है ! मेरे इतने बड़ा आदमी कौन है ? मेरी बराबरी करे, इतनी हिम्म्त किसमें है ?" जो 'मैं' मनुष्य को संसारी बनाता है, कामिनी -कांचन में आबद्ध करता है, वह 'दुष्ट मैं' है। जीव और ब्रह्म में भेद बस इसलिए है कि उनके बीचयह 'मैं' खड़ा हुआ है। पानी में यदि एक लाठी डाल दी जाय तो पानी दो भागों में बंटा हुआ दिखाई देता है। 'अहं'या 'मैं' ही यह लाठी है; इसे उठा लो तो जल एक ही रह जायेगा। " 
एक बार श्री रामकृष्ण देव ने अपने एक शिष्य से विनोद में पूछा, ' क्यों, क्या तुम्हें मुझमें कोई अभिमान नजर आता है ? क्या मुझमें अभिमान है ? ' 
शिष्य ने कहा, 'जी महाराज, थोड़ा सा है , पर आपमें उतना अभिमान इन कारणों से रखा गया है -पहला,देहधारण के लिये; दूसरा, भगवद्-भक्ति के उपभोग के लिये; तीसरा , भक्तों के साथ सत्संग करने के लिये; और चौथा, लोगों को उपदेश देने के लिये। फिर यह भी तो है कि इस अहं को रखने के लिये आपने काफी प्रार्थना की है। वैसे देखा जाय, तो आपके मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति समाधि (तुरीय अवस्था में जाने ) की ओर है। इसी से मैं कह रहा हूँ कि आपमें जो 'अहं' या अभिमान बचा है, वह आपकी प्रार्थना का ही फल है। ' 
तब श्रीरामकृष्ण देव बोले , " ठीक है, लेकिन इस 'मैं' को बनाए रखने वाला मैं नहीं , जगदम्बा हैं! प्रार्थना को स्वीकार करना (/न करना) माँ भगवती के ही हाथ में है !"    
" जीव का 'अहंकार' ही माया है। यही "अहंकार" ( ब्रह्म की शक्ति या माँ भगवती ?) सब आवरण का मूल है।'मैं' (कच्चा मैं ) के मरने पर ही सारा जंजाल दूर होगा। अगर किसी को ईश्वर की कृपा से -'मैं कर्ता नहीं हूँ 'यह ज्ञान हो जाय , तब तो वह जीवन-मुक्त ही हो गया। फिर उसे किसी बात का भय नहीं। "
" ईश्वर में विद्या-माया और अविद्या -माया दोनों हैं। विद्या माया जीव को (क्रमशः) ईश्वर की ओर ले जाती है, और अविद्या-माया उसे ईश्वर से दूर। (श्री ठाकुर जी की ) भक्ति,विवेक, वैराग्य और ज्ञान - यह विद्या माया (लक्ष्मी -माँ सारदा ) की कृपा से प्राप्त होता है। इन्हीं का आश्रय लेकर मनुष्य ईश्वर के समीप पहुँच सकता है। विद्या माया (विवेक-प्रयोग करने की शक्ति ) ही ब्रह्म का स्वरूप प्रकट कर देती है। माया की कृपा हुए बिना ब्रह्म को कौन जान सकता है ! माया से ही 'कारण -कार्य ' रूपी द्वैत-प्रपंच का उदय होता है, माया के परे जाने पर (तुरीय अवस्था में ) न भोक्ता रह जाता है, न भोग्य विषय। ईश्वर की शक्ति का ज्ञान हुए बिना ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता। "  
[ 'ब्रह्म और शक्ति ' अनन्त, बृहद या असीम होने के साथ साथ अत्यन्त करुणाशील भी हैं, इसीलिये मेरे जैसे भक्त के लिये - जो ज्ञानी नहीं बन सकता, जो केवल स्थूल को देखकर सूक्ष्म को समझ सकते हैं, उसकी सुविधा के लिए इस युग में वे बेलपत्र के तीन पत्तों के जैसा ब्रह्म - अवतार-वरिष्ठ भगवान 'श्रीरामकृष्ण देव के रूप में, और उनकी विवेक-शक्ति' माँ भगवती सारदा देवी और गुरु विवेकानन्द के रूप में ये तीनों  साथ-साथ आविर्भूत हुए हैं।  
जो ज्ञान-लक्ष्‍मी (विवेक-कसौटी ?) हैं, वही तो हैं माँ भगवती ! ‘भगवत: इयं इति भगवती’ –जो भगवान की चीज हो, उसे भगवती कहा है। यह ज्ञानरूपी भगवती भगवान का स्‍वरूप है, उससे अलग अन्‍य कुछ चीज नहीं है। कहा जाता है कि परमात्‍मा इस ज्ञान-लक्ष्‍मी के घन संबन्‍ध से आनन्दित है। भगवान की जो शक्ति है, भगवान का जो स्‍वरूप है, वही भगवान की लक्ष्‍मी है और उस लक्ष्‍मी से प्रभु तन्‍मय रहा करते हैं।  क्या हमारे पूर्वजों ने  इसी बात को समझाने के लिये किसी समय शेष-नाग पर लेटे भगवान विष्णु और उनकी चरण-सेवा करती हुई माँ लक्ष्मी के फोटो-रूपक द्वारा समझाया है ? [ मेरी बुद्धि इसका निर्णय करने में असमर्थ है !
नृपस्य चित्तं, कृपणस्य वित्तं, मनोरथं दुर्जन मानवानां।
                      स्त्रीणां चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः॥– नीतिश्लोकः

माँ भगवती का मेरे जैसा मूर्ख भक्त जब अपने जीवन के विगत ६५ वर्षों में घटित अद्भुत घटनाओं, टर्निंग-पायंट्स का सिंहावलोकन करता है, तो आश्चर्य से भर उठता है, और उसका अनुभूति-जन्य विश्वास और दृढ़ हो जाता है कि, माँ भगवती और गुरु विवेकानन्द ने अपनी अहैतुकी कृपा से मुझे मनुष्य बनाने के लिये - वे  सबअदभुत-घटनायें क्रमशः अपने ही निर्देशन में घटित करवाईं थीं ! अब भी कभी-कभी संशय होता है कि क्या,ब्रह्म की वही विवेक-शक्ति माँ भगवती सारदा और गुरु विवेकानन्द बनकर मेरे मन की एक एक इच्छाओं इतनी निकटता से देखकर मुझे अनुभूति-जन्य विवेक प्रदान करवाती आयी हैं ? संत तुलसी दास ने भी रा॰च॰मा॰ में कहा है - 
ते श्रोता बकता सम शीला। समदरशी जानहिं हरि लीला॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं। वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवान की लीलाओं का रहस्य जानने वाले) हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं॥

सोना (गोल्ड) को जिस रूप में हम  जानते हैं, मूल रूप में सोना धातु की उससे कोई समानता नहीं है; क्योंकिसोना एक ऐसा धातु है जिस में नैसर्गिक रूप से कोई चमक नहीं होती। किन्तु जब उसको सुहागा (borax) के साथ मिलाकर तपाया जाता है, तब उसकी सौन्दर्य प्रभा (aesthetic brilliance) निखर उठती है, और वह एक मूल्यवान धातु में परिणत हो जाती है, और उसका व्यावहारिक मूल्य भी बढ़ जाता है। इसीलिये हिन्दी में एक प्रसिद्द उपमा है-' सोने पे सुहागा!' 
यह उपमा दो ऐसी वस्तुओं का 'आदर्श एकीकरण' (ideal amalgamation) की ओर इशारा करती है, जिसमें से एक वस्तु तात्विक रूपसे मूल्यवान (intrinsically valuable, या आंतरिक रूप से मूल्यवान जैसे 'ठाकुर') हो और दूसरी वस्तु अपने-आप में भले ही मूल्यहीन (worthless या अयोग्य) हो, किन्तु उसमें कुछ मूल्य को बढ़ाने वाला उपयोगी प्रतिक्रियात्मक विशेष धर्म (reactive properties) भी मौजूद हो । ईशा उपनिषद, मंत्र ११ में कहा गया है - विद्या और अविद्या मे सामंजस्य रखते हुए, हमे विद्या से अमृत प्राप्ति करनी चाहिए। 
  विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ।।
[यः तद् उभयं विद्यां च अविद्यां च सह वेद, सः अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतम् अश्नुते ।]
जो मनुष्य उन दोनों को विद्याम् - भगवद उपासना और अविद्याम् - निष्काम कर्म, तद -इन, उभयं - दोनों को साथ-साथ वेद = यथार्थतः जान लेता है, वह अविद्यया = वर्णाश्रमोचित कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं करता, बल्कि कर्तापन के अभिमान, रागद्वेष और फल-कामना से रहित होकर व्यावहारिक जीवन में धर्म का (अपने स्वधर्म का) पालन करता है, इस भाव से कर्म करने पर उसकी ऐहिक जीवन यात्रा सुखपूर्वक चलती है, उसका चित्त शुद्ध भी हो जाता है, और इसी अविद्या के सहारे वह मृत्युमय संसार से सहज ही तर जाता है।
 इस स्वधर्म पालन या शास्त्रविहित कर्म-साधन (निष्काम कर्म ) के साथ -ही-साथ, विद्याम् -- निरन्तर विवेक-प्रयोग और ब्रह्मविचार रूपी मनःसंयोग 'शिवोहं- शिवोहं' का अभ्यास करते रहने से 'ठाकुर' के सच्चिदानन्द स्वरूप ज्ञान का उदय होने पर वह शीघ्र 'आत्मा ही परमात्मा है' की अनुभूति करके अमृतम्-अश्नुते=अमृत को भोगता है! 
जबकि इस कर्म-रहस्य से अनभिज्ञ ज्ञानाभिमानी मनुष्य निष्काम-कर्म को भी  ब्रह्मज्ञान में बाधक समझकर -बिना पात्रता अर्जित किये ही संन्यास ग्रहण करने के लालच में अपने स्वधर्म का त्याग कर देता है- वह अमृत नहीं चख पाता। 'नारी मुई सम्पति नासी, मूड मुड़ाये भये सन्यासी'   
[अविद्या अर्थात् (सांसारिक ज्ञान ) होता है, तथा विद्या (आत्म-ज्ञान) होता है। अत: उसी अविद्या से मृत्यु को पार करके हमे विद्या द्वारा अमृत या ज्ञान प्राप्ति करनी चाहिए। ‘‘विद्या और अविद्या " (परा और अपरा  शिक्षा) दोनों को एक साथ जानो। इनमें से अविद्या (अपरा शिक्षा) द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या द्वारा अमरत्व की प्राप्ति की जा सकती है। ] 
ऐसा कहकर  कि-" श्रीरामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है ! " हमें ऐसा प्रतीत होता है स्वामी विवेकानन्द यह कहना चाहते हैं, कि श्रीरामकृष्ण के जीवन और संदेश ने मोहनिद्रा में अचेत मनुष्यों को शास्त्रों के अनुसार अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति के प्रति सचेत करके उन्हें  पुनरुज्जीवित कर दिया है। 'अवतार-वरिष्ठ' श्रीरामकृष्ण देव के आविर्भूत होने से पहले जीव मानो घोर निद्रा जैसी अँधेरे की स्थिति में मृत के जैसा पड़ा हुआ था सोया हुआ था। 'कृपालु' श्रीरामकृष्ण देव प्रकट होते हैं - और मानवमात्र में अन्तर्निहित आत्मा की महिमा को  पुनः (नये सिरे से) अभिव्यक्त करने का संग्राम आरंभ हो जाता है। जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव अपने नरेन्द्र आदि युवा शिष्यों को मनुष्यों के तीन प्रमुख अवयव -'3H' को आधुनिक पद्धति के अनुसार विकसित और संवर्धित (आग्मेन्टड-augmented) करने का प्रशिक्षण देकर उन्हें जीवन को सार्थक करने दिशा में या - 'गोल्डेन ऐज' की ओर आगे बढ़ने के लिये अनुप्रेरित कर देते हैं। मनुष्य बनने और बनाने की प्रक्रिया 'BE AND MAKE' में प्रशिक्षित युवा स्वयं को पहचानने अर्थात अपने यथार्थ स्वरूप को जान लेने ('काचा आमी' -कच्चा मैं को पक्का मैं में परिणत करने का ) का दृढ़-निश्चय (संकल्प) करके चलना प्रारंभ कर देता है- और इस प्रकार उसके जीवन में सत्य-युग (गोल्डेन ऐज ) का प्रारंभ हो जाता है। 
 " श्रीरामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है ! "  -  कहने से स्वामीजी यही बताना चाहते हैं कि, लंबे समय तक गहरी नींद में सोये हुए हमारे देश ने फिर से प्रगति के पथ पर चलना प्रारम्भ कर दिया है। उनके इस कथन पर हमलोगों को गहराई से चिन्तन करते हुए इसके मर्म को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और यह विश्वास भी करना चाहिये, कि हाँ, अब हमलोग सचमुच (अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने के पथ पर) आगे बढ़ रहे हैं। 
कृष्ण अवतार और रामकृष्ण अवतार के महत्व पर प्रकाश डालते हुए गुरुभाई शशि, (स्वामी रामकृष्णानन्द) को लिखित उसी पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " कृष्ण अवतार में वे कहते हैं कि सब दुःखों का मूल अविद्या है और निष्काम कर्म चित्त को शुद्ध करता है। परन्तु 'किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।' गीता ४/१६ 'कर्म क्या है और अकर्म क्या है ', इसका निर्णय करने में विद्वान् पुरुष भी भ्रम में पड़ जाते हैं। जिस कर्म के द्वारा इस आत्मभाव का विकास होता है, वही कर्म है। और जिसके द्वारा अनात्मभाव का विकास होता है, वही अकर्म है। अतएव कर्म या अकर्म का निर्णय व्यक्तिगत, देशगत और कालगत परिस्थिति के अनुसार होना चाहिये। 
इस 'रामकृष्ण अवतार' में ज्ञान के तलवार से सभी प्रकार के ऐथीइस्टिक आइडियाज़ (नास्तिक विचार) खंडित हो जायेंगे, तथा सम्पूर्ण विश्व भक्ति और प्रेम (डिवोशन ऐंड लव) के द्वारा 
एकीकृत हो जायेगा। इसके अतिरिक्त, इस अवतार में रजस अर्थात नाम-यश आदि की इच्छा का सर्वथा अभाव है। इसीलिये कोई व्यक्ति भले उन्हें (अवतार वरिष्ठ के रूप में ) स्वीकार करे या न करे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता; उसका जीवन धन्य है, जो इस अवतार के उपदेशों को अपने जीवन में धारण करने की चेष्टा करता है !" ४/३१७] 
प्रभु श्रीरामकृष्ण ने अपने जीवन से यह दिखा दिया है, कि ईश्वरीय-प्रेम पर सभी मनुष्यों का (बिना किसी अपवाद के ) एक समान अधिकार है, तथा सत्य को प्राप्त करने (या अनुभूति करने) की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में पूर्ण मात्रा में विद्यमान है। ' प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' -- इसलिये हिन्दू, मुसलमान, ईसाई - सबों के बीच हर प्रकार का अन्तर समाप्त हो गया है। (रंग-रूप या सम्प्रदाय आदि के आधार पर) विभेद-जनित आशान्ति का अवसान हो गया है।  जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव के आविर्भूत होने के साथ ही साथ एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य के बीच सभी प्रकार के भेद-भाव दूर हो चुके हैं ! रंग-रूप, जाती, भाषा, संप्रदाय, शिक्षित-अशिक्षित, अमीर-गरीब, ब्राह्मण-चाण्डाल यहाँ तक स्त्री-पुरुष के बीच भी समस्त प्रकार अन्तर समाप्त हो गया है।" 
जिस समय स्वामीजी ये सब भविष्य-वाणी कर रहे थे, उस समय उनका पूरा ध्यान ठाकुर (श्री रामकृष्ण देव) की जीवन-लीला में केन्द्रित था। इसीलिये, श्रीरामकृष्ण के जीवन और उपदेशों का शुद्ध रूप से पालन करने से जो घटना भविष्य में घटित होने वाली है; उन भावों को स्पष्ट रूप से व्यक्त होते हुए स्वामीजी इस प्रकार देख रहे थे मानो " यह घटना ठीक उनके सामने घटित हो चुकी है!"  
इसके अतिरिक्त, उनकी दूरदृष्टि के समक्ष यदि भविष्य भी वर्तमान जैसा स्पष्ट रूप में दिखाई देता हो, तो इसमें आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार, रामकृष्ण अवतार का जीवन-चरित्र हर दृष्टि से इतना परिपूर्ण और उत्कृष्ट था कि, उनके पूर्णता-सम्पन्न चरित्र के सामने कृष्ण अवतार और राम अवतार के चरित्र भी फीके पड़ जाते हैं! इसीलिये, वे जानते थे कि यदि हमलोग अपने जीवन का गठन श्रीरामकृष्ण के चरित्र और उपदेश को आधार बनाकर गठित करने के कार्य में लग जायें, तो निश्चित रूप से हमलोगों के जीवन में एक युगांतकारी परिवर्तन घटित हो जायेगा। 
ऐसा कहा जाता है कि स्वामीजी ने अपने जीवन में उपरोक्त श्रुति (ऐतरेय ब्राह्मण) का परिक्षण करके देखा था कि कलि, द्वापर, त्रेता, सत्य इत्यादि युगों की उपमा मनुष्य की मानसिक अवस्था में रूपान्तरण को दर्शाने के उद्देश्य से दी गयी है। जीव का मन कभी सोया रहता है, कभी कभी जागृत जैसा हो जाता है, या कभी तो उठ कर खड़ा हो जाता है, और फिर चलना शुरू कर देता है। किन्तु इस अवतार की जन्म-तिथि से सम्पूर्ण मानवजाति के लिये नई संभावनाओं को व्यक्त करने के अभियान का प्रारम्भ हो गया है ! 
हमलोग श्रीरामकृष्ण के जीवन और चरित्र को, अपनी-अपनी दृष्टि की विभिन्नता के कारण, चाहे जिस-भाव से भी क्यों न देखें, हमलोगों के जीवन पर उनके जीवन और संदेशों का प्रभाव पड़ना निश्चित है। श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव को हमलोग चाहे केवल एक साधारण मनुष्य समझें, नरेन्द्रनाथ के गुरु या कोई महापुरुष समझें, या उनको भगवान के एक अवतार के रूप में देखें, या 'अवतार-वरिष्ठ ' समझें -जो भी जो कुछ समझें, हमारे हृदय में उनके प्रति श्रद्धा का भाव स्वतः उत्सारित होने को बाध्य है। उनके प्रति श्रद्धा-बल की यह अटलता (अध्यवसाय-
 perseverance) ही हमलोगों के जीवन के मोड़ को घुमा देगी (अधोमुखी प्रवाह को उर्ध्व-मुखी बना देगी)और हमलोगों को 'मनुष्य' बनाकर ही छोड़ेगी। इस प्रकार हमारे जीवन में एक युगांतरकारी परिवर्तन घटित हो जायेगा। श्रीरामकृष्ण को हमलोग एक अनुकरणीय आदर्श व्यक्ति के रूप में देखें, या अपना गुरु समझें, अपना मुक्तिदाता, उद्धारक, रक्षक (Savior) या परित्राता ही क्यों न मानें, हर दृष्टि से वे ' विश्व के समस्त मनुष्यों के समस्त सदगुणों' के विशुद्ध समन्वय हैं, सनातन धर्म के अनन्य सिद्धान्त'अनेकता में एकता' के पोषक, वाहक और संस्थापक हैं। हमारे पूर्वजों ने रामराज्य या सत्ययुग के एक आदर्श राज्य (आइडियल स्टेट) को स्थापित करने की परिकल्पना हमारे सामने रखी है, जब भारतवर्ष सम्पूर्ण विश्व को एक देश, एक आत्मा, एक संवेदना के सूत्र में पिरोनेवाला अग्रदूत (herald) बनेगा। स्वामीजी कहते हैं, उस आदर्श राज्य (राम-राज्य) की कल्पना को साकार रूप केवल तभी दिया जा सकता है, जब ब्राह्मण-युग का ज्ञान, क्षत्रिय-युग की सभ्यता और संस्कृति, वैश्य-युग का अभ्युदय को संचारित करने में जैसा जोश और उद्यम, और शूद्र-वर्ग में जो साम्य-भावदृष्टिगोचर होता है - उन सबों के बीच एक पूर्ण समन्वय स्थापित कर दिया जाय। और श्रीरामकृष्ण के जीवन और संदेश के ऊपर व्यापक विचार-विमर्श करना ही इस समन्वय को साकार करने का एक मात्र उपाय है । 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब राष्ट्र-राष्ट्र का भेद दूर हो जायेगा, जब ये सब भेद-भाव लुप्त हो जायेंगे -प्रत्येक व्यक्ति वैज्ञानिक विषय के ही समान आध्यात्मिक विषय में भी तीव्र रूप व्यवहार-कुशल जायेगा; और तब वह एकत्व , वह समन्वय समस्त जगत में व्याप्त हो जायेगा। तब सारी मानवता जीवन्मुक्त हो जायेगी।" (बहुत्व में एकत्व २/१४६) 
वर्तमान समय में विभिन्न कारणों से हमारे आन्तरिक जीवन में जो मतभेद, विद्वेष आदि बने हुए हैं, और उसके घातक परिणाम हमें कश्मीर, आसाम, पंजाब आदि राज्यों (हैदराबाद, जे.एन.यू, एन.आई.टी) में घटित होने वाली घटनाओं में देखने को मिल रहा है। इन सब मतभेदों को समाप्त करने का एकमात्र उपाय है श्रीरामकृष्ण के जीवन और संदेश का बिल्कुल शुद्ध रूप में प्रचार करना। जो लोग ऐसा कहते हैं कि मैं ठाकुर को मानता हूँ, उनका अनुयायी हूँ, किन्तु धर्म के नाम पर अभी तक दूसरे धर्मावलम्बियों से घृणा का भाव रखता हूँ; या धन के आधार पर किसी मनुष्य को छोटा और किसी को बड़ा देखता हूँ, - तो इसीसे सिद्ध हो जायेगा कि वे चाहे और भले ही जो कुछ हों, किन्तु श्रीरामकृष्ण के अनुयायी तो बिल्कुल ही नहीं हैं। ऐसे कृतघ्न लोगों को अपने मुख से ठाकुर का नाम लेना शोभा नहीं देता। 
जो लोग ठाकुर के भक्त या शिष्य (अनुगामी) होंगे, उनके लिये किसी दूसरे धर्म या पंथ के मनुष्य से विद्वेष करना, उन पर प्रहार करना बिल्कुल ही असम्भव होगा। भारतवर्ष तथा सम्पूर्ण विश्व को पुरुज्जिवित करना केवल तभी सम्भव हो सकेगा जब, जो लोग स्वयं को श्री रामकृष्ण का अनुयायी (महामण्डल आन्दोलन के नेता) कहते हैं, वे अक्षरश: और सही मायने में उनके उपदेश - ' BE AND MAKE ' का पालन करें और 'मनुष्य' बनें। और केवल तभी हमारे पूर्वजों ने सत्य-युग के जिस आदर्श राज्य (राम-राज्य) की जो परिकल्पना है उसे भी क्रियान्वित किया जा सकता है।   
इसीलिये स्वामीजी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते हैं- " हे मेरे युवक बन्धुगण ! तुमलोग उठ खड़े हो ! काम में-[BE AND MAKE में] लग जाओ! धर्म एक बार पुनः जाग्रत होगा।" यहाँ धर्म कहने का अर्थ (हिन्दू-मुस्लिम या ईसाई धर्म नहीं) बल्कि वैदिक धर्म, सनातन धर्म अथवा वेदान्त है, जो समस्त प्राणियों में एकत्व की,-'बसुधैव कुटुंबकम' की शिक्षा देता है; जिसका मूल मन्त्र है-'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' (All this is Verily  Brahman),"तत्त्वमसि " (Thou art that - "You are Brahman")। 
पाश्चात्य देशों की यात्रा से लौटने के बाद स्वामी विवेकानन्द ने कुम्भकोणम में (माँ भगवती के कार्य) -'वेदान्त का उद्देश्य' विषय पर भाषण देते हुए कहा था - " जब मैं अमेरिका में था, तब कई बार लोगों ने मेरे ऊपर यह अभियोग लगाया था कि मैं द्वैतवाद पर विशेष जोर नहीं देता, बल्कि अद्वैतवाद का ही प्रचार किया करता हूँ। द्वैतवाद के प्रेम, भक्ति और उपासना में कैसा अपूर्व आनन्दप्राप्त होता है, यह मैं जानता हूँ। परन्तु भाइयो ! इस समय हमारे आनन्द-पुलकित होकर आँखों से प्रेमाश्रु बरसाने का समय नहीं है। अब हमारे लिये कोमल भाव धारण करने का समय नहीं है। कोमलता की साधना करते करते हम लोग रुई की ढेर की तरह कोमल और मृतप्राय हो गए हैं। हमारे देश के लिये इस समय आवश्यकता है, लोहे की तरह ठोस मांस-पेशियों और मजबूत स्नायुवाले शरीरों की। आवश्यकता है इस तरह के दृढ़ इच्छा-शक्ति सम्पन्न होने की कि कोई उसका प्रतिरोध करने में समर्थ न हो। (स्वयं को डिहिप्नोटाइज करने के लिए) आवश्यकता है ऐसी अदम्य इच्छा-शक्ति की, जो ब्रह्माण्ड के सारे रहस्यों को भेद सकती हो। यदि इस कार्य (BE AND MAKE) को करने के लिये अथाह समुद्र के मार्ग में जाना पड़े, सदा सब तरह से मौत का सामना करना पड़े, तो भी हमें यह काम करना ही पड़ेगा। यही हमारे लिये परम आवश्यक है, और इसका आरम्भ, स्थापना और दृढ़ीकरण अद्वैतवाद अर्थात सर्वात्मभाव के महान आदर्श (खुली आँखों से ध्यान करने के मर्म) को समझने तथा उसके साक्षात्कार से ही सम्भव है। श्रद्धा श्रद्धा ! अपने आप पर श्रद्धा, परमात्मा में श्रद्धा -यही महानता का एकमात्र रहस्य है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है उन सब पर भी, यदि तुम्हारी श्रद्धा हो, और अपने आप पर श्रद्धा न हो, तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों आप खड़े होओ, और शक्तिशाली बनो! इस समय हमें इसीकी आवश्यकता है।"  
किन्तु हमलोगों के भीतर जो आत्मा अवस्थित हैं, उनके बारे में ठीक ठीक धारणा करना बहुत कठिन है। इसका कारण यह है कि हमलोग मन के द्वारा ही किसी वस्तु की धारणा कर सकते हैं। किन्तु आत्मा मन-बुद्धि का अतिक्रमण करके अवस्थित हैं, वे मन-बुद्धि के अगोचर हैं। और वे सुनने में भी बड़े अच्छे लगते हैं, इसी कारण उनको बोल कर नहीं समझाया जा सकता है। मन के भीतर उनकी धारणा - क्यों नहीं की जा सकती ? इस बात को उनके उपर बहुत परिचर्चा (शास्त्रार्थ) करके तर्कसंगत विचार करने से ही समझा जा सकता है। क्योंकि वे रोम-रोम में व्याप्त हैं, सब कुछ में अनुस्यूत हैं, सदा साथ रहने वाले हैं, अविभाज्य हैं। इसीलिए शब्दावली के आभाव में हमलोग कह देते हैं, कि आत्मा सर्वगत हैं, वे सर्वव्यापी हैं। किन्तु वास्तव में उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। फिर भी हताश होने की जरूरत नहीं है, कोई व्यक्ति यदि इसी प्रकार उनके बारे में सुनता रहे, या इसी विषय पर बार बार परिचर्चा करता रहे, तथा (चारो महावाक्य पर ) गहराई से मनन करता रहे, तो वैसा करते-करते उनके बारे में थोड़ी धारणा अवश्य हो सकती है।
इसके लिए, बीच बीच में (निर्जन में- अर्थात कैम्प में जाकर) इस प्रकार से आत्मचिन्तन करते रहना चाहिए-" यह ठीक  है कि ब्रह्म क्या हैं, उनके बारे में मैं नहीं जानता। किन्तु ऐसी बात भी नहीं है, कि उनके बारे में मैं बिल्कुल कुछ भी नहीं जानता।  मैं यह दावा तो नहीं कर सकता, कि मैंने ब्रह्म को पूर्ण रूप से जान लिया है, किन्तु यह भी नहीं कह सकता कि मैं ब्रह्म के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूँ। " यही बात प्रत्येक उपनिषद में भी कही गयी है। इसलिये सदैव इस प्रकार का चिन्तन-मनन, करते रहना आवश्यक है:- " ब्रह्म सर्वव्यापी हैं, वे सर्वदा निश्चल होते हुए भी, सर्वदा द्रूत गति से गमन करते हैं. वे यहीं हैं, वे दूर से दूर भी हैं. वे कान नहीं रहने से भी सुन सकते हैं, आँखें नहीं रहने से भी देख सकते हैं, वे जीभ के बिना होने पर भी, समस्त बातें, समस्त शब्द उन्हीं से निर्गत होते हैं, समस्त इच्छाएँ वहीँ से आ रही हैं, वे समस्त सृष्टि का मूल हैं। वे कानों के भी कान हैं, मन के भी मन हैं। सम्पूर्ण सृष्टि उन्हीं में विलीन हो जाएगी। वे मेरे भीतर भी हैं, और मेरे बाहर भी हैं। जो कुछ भी विश्व-ब्रह्माण्ड मैं देख रहा हूँ, सबके भीतर वे ही अवस्थित हैं। वे प्रत्येक जीवों में हैं, प्रत्येक प्राणी के भीतर में हैं, प्रत्येक मनुष्य में वही हैं। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो वे नहीं हैं !"
यदि कोई व्यक्ति पूर्ण श्रद्धा के साथ उपनिषद के इन शिक्षाओं पर मन ही मन विचार करता रहे, तो उसका क्या होगा? उसकी दृष्टि और उसका हृदय क्रमशः विस्तृत होता जायेगा। अब वह स्वयं के विषय में क्या सोचेगा ? यही-कि मैं परिवर्तनशील शरीर-मन नहीं हूँ, मैं तो अविनाशी सच्चिदानन्द स्वरूप हूँ, मैं सत्-चित्-आनन्दमय हूँ!
'सत्' - का अर्थ क्या हुआ ? यही, की 'वे' हैं !( सचमुच यह विश्वास होना कि दिन में सितारे नहीं दिखाई देने से भी वे हैं, रात्रि में अवश्य निकल आएंगे. या बाबूजी अँधेरे कमरे में सो रहे हैं, उनको ढूंढ़ते ढूंढ़ते हाथ पहले जंगला पर पड़ गया, नहीं ये बाबूजी नहीं हैं, पलंग पर पड़ा ये भी नहीं हैं, बाबूजी पर हाथ पड़ गया, तो हम निश्चिन्त हो गये कि बाबूजी हैं !) 'अस्ति ' का भाव, 'वे' हैं के भाव- को ' सत् ' कहते हैं! और असत् का अर्थ है, जो तीन काल में नहीं हो सकता। वास्तव में ' सत्-असत् और मिथ्या ' पर चिन्तन-मनन करने या विवेक-विचार करने का अर्थ अच्छा-बुरा में अन्तर करना नहीं है, उसका अर्थ है- वे हैं ! 'वे' चित् स्वरुप हैं, वे चैतन्य हैं, वे चिति हैं. दुर्गा सप्तसती में कहा गया है- 'या देवी सर्वभूतेषु चिति-रूपेण संस्थिता ।' वे चिति या बोधस्वरूप हैं, वे सभी वस्तुओं में बोधस्वरूप (अभिज्ञता-Consciousness) हैं। एवं 'वे' आनन्दमय (गिरिजा-रमणा, कलिमल-हरणा) हैं। 
उस आनन्द को कैसे समझा जाता है ? जब आनन्द का प्रवाह होता है, तो वह प्रेम के रूप में ही प्रवाहित होता है।  इसीलिए हम इस प्रकार ब्रह्म के उपर चिन्तन करते रहें- कि वे सर्वत्र हैं, सर्व जीवों में हैं, वे सर्व लोकों में हैं, फिर वे ही सर्व लोकों का अतिक्रमण करके भी हैं। वे मेरे भीतर हैं और मेरे बाहर भी वही हैं।  जो सदा-सर्वदा हैं वे सत्-स्वरूप हैं, जो चिन्मय हैं, जो चितस्वरूप हैं, जो विचार स्वरूप हैं, जो बोधस्वरूप हैं, जो आनन्दमय हैं, जो कई धाराओं में प्रेमरूप से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करते हैं, वे ही सबों के भीतर रहते हुए, मेरे भीतर भी हैं! "
जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा नहीं रह सकती, वह किसी से  द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती, स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती। उसके भीतर की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है! 
आचार्य शंकर ने भी कहा है- 
दृष्टिं ज्ञानमयीं कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत
     सा  दृष्टि परमोदारा न नासाग्रविलोकिनी ।।

यही है 'मनुष्य' बनने का सच्चा तरीका, एवं जगत-कल्याण का वास्तविक उपाय भी यही है।किन्तु जिन्हें अपने जीवन भर में इन बातों को कभी सुनने-समझने का अवसर नहीं मिला है, या जिन्होंने स्वयं कभी इन विषयों पर होने वाली ज्ञान-परिचर्चा (महामण्डल के साप्ताहिक पाठ -चक्र ) में शामिल होने की कोई चेष्टा नहीं है, वैसे लोग ही अगर यह फतवा देने लगें, कि ये सब आत्मा-परमात्मा की बातें झूठी हैं, भ्रामक है-भ्रम में डालने वाली बातें हैं, कपोल-कल्पित बातें हैं। और आजकल के कुछ ऐसे तथाकथित देशी-बुद्धिजीवी लोग भी हैं, जो विदेशी पुस्तकों के ज्ञान से इतने अभिभूत हैं कि उनकी बातों में आ जाते हैं; और पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के सामने गुरु-शिष्य परम्परा वाली  भारतीय शिक्षा-पद्धति को हेय दृष्टि से देखते हैं। और जे.एन.यू के कुछ देशी प्रोफेसर कन्हैया-उमर जैसे कुछ एन्टी नेशनल छात्रों और उनके पिट्ठू कुछ न्यूज चैनल्स का निर्माण करके, खुले-आम वैदिक धर्म-शास्त्रों को जलवा देना ही प्रगतिशीलता का पर्याय समझते हैं।
यदि हमलोग भी जे.एन.यू के उन पढ़े-लिखे किन्तु एन्टी नेशनल्स् मूर्खों की बातों को सुन कर यह विश्वास करने लग जाएँ, कि सचमुच हमारे उपनिषदों और गीता आदि शास्त्रों में ज्ञान की बातें तो हैं ही नहीं ? तो फिर सम्पूर्ण त्रिलोकी में हमलोगों के दुःख-कष्टों को दूर करने की शक्ति किसी के पास नहीं है। वैसे पढ़े-लिखे मूर्ख- जो ऐसी बकवास करते हैं, उनके संबन्ध में आचार्य शंकर ने (अपरोक्षानुभूति/ ३०) में कहा हैं-
स्वात्मानं शृणु मूर्ख त्वं श्रुत्या युक्त्या च पूरुषम्।
देहातीतं सदाकारं सुदुर्दर्शं भवादृशैः ॥
-अर्थात, हे मुर्ख ! श्रुतियों (वेद-उपनिषद आदि) में तुम्हारी अपनी आत्मा को ही पुरुष कहा गया है, उनके बारे में सुनो एवं उनको तर्क-वितर्क की सहायता जानने की चेष्टा करो। यह आत्मा देहातीत हैं, अस्तित्व के आकर एवं स्वरुप को समझ पाना तुम्हारे जैसे (विदेशी पुस्तकों के पण्डित कुछ देशी प्रोफेसर जैसे) बुद्धि-सम्पन्न व्यक्तियों के लिए समझ पाना सचमुच बहुत दुष्कर है।
सम्पूर्ण विश्व में 'आध्यात्मिक साम्यवाद' (सत्य-युग या रामराज्य) तो तभी स्थापित हो सकता है, जब हमें यह विश्वास हो जाये कि आत्मा और परमात्मा सचमुच को एक और अभिन्न हैं।परन्तु संदेहवादी यह प्रश्न उठाते हैं,कि क्या सचमुच आत्मा और परमात्मा एक और अभिन्न हैं? हमारे ऋषि कहते हैं -आत्मा तथा परमात्मा वस्तुतः (d-facto) एक ही हैं ? आत्मा दो प्रकार की नहीं होती, वास्तव में आत्मा के अतिरिक्त अन्य और कुछ है ही नहीं। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। आत्मा कहने का तात्पर्य ही ब्रह्म होता है, आत्मा का अर्थ ही है परमात्मा। जब तक हमलोग इस भ्रम में रहते हैं, या यह कल्पना करते हैं कि वे किसी जीव के भीतर हैं, तब उनको जीवात्मा या आत्मा कह देते हैं। किन्तु जब हम इस दृष्टिकोण से विचार करते हैं,(या 
अपने अनुभव से ऐसा जान लेते हैं) कि सर्वव्यापी होने पर भी, सभी कुछ का अतिक्रमण कर के, सब कुछ के परे भी वे ही अवस्थित हैं; तब हम उनको ही परमात्मा (परम+आत्मा) कहते हैं।
जो कुछ भी देख रहा हूँ, जो कुछ भी है, सब कुछ वे ही बने हैं, सभी कुछ ब्रह्ममय है ! इसीलिए वे सर्वव्यापी नहीं हो सकते हैं। यदि सभी कुछ वे ही हों, तो फिर वे किसी एक जगह (अपने से भिन्न पदार्थ में) में जायेंगे कैसे ? यदि उनके अतिरिक्त अन्य कुछ हो ही नहीं, तो फिर वे सबों के भीतर प्रविष्ट कैसे होंगे ? यह सब बातें हमलोग अपने मन को समझाने के लिए कह देते हैं। अर्थात जो अस्तित्व हैं, जिनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, वे ही आत्मा हैं, वे ही परमात्मा हैं। किन्तु उनको बुद्धि के द्वारा कभी नहीं समझा जा सकता है, वे तो अनुभव करने की वस्तु हैं ! हमलोगों का 'मैं-पन' या मिथ्या अहंकार (काचा आमी) उन्हें कभी नहीं जान सकता, बस जो आत्मा हैं, वे ही स्वयं को या परमात्मा को जान सकते हैं। केवल वह 'आत्मा' ही यह जान पाते हैं, कि 'वे' क्या हैं !
ऐसा दृढ विश्वास रखना ही यथार्थ श्रद्धा है, यही वास्तविक आध्यात्मिकता है. आत्मा पर विश्वास, अपनी शक्ति के उपर विश्वास रखो। स्वयं में जो शक्ति है, वह कहाँ से आ रही है ? मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं शक्तिमान हूँ। मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मुझमें ज्ञान का प्रस्फुटन होता है। मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए तो मैं आनन्द का (गिरिजा-रमणा, कलिमल-हरणा का अनुभव करता हूँ। मेरे भीतर आत्मा हैं, इसीलिए मैं सभी मनुष्यों से प्रेम कर सकता हूँ। मेरे हृदय से भी प्रेम प्रवहित हो सकता है। 
जो सच्चिदानन्दमय आत्मा मेरे भीतर हैं, वे ही सबों को भीतर हैं- इसी विश्वास को हृदय में धारण करके जीवन जीना आध्यात्मिकता है। केवल यह आध्यात्मिकता ही सच्चा साम्यवाद (सब वस्तुओं में सबका समानाधिकार रखने का सिद्धान्त) स्थापित कर सकती है ! जोलोग शोषित, मुर्ख, दरिद्र है, गरीबी से त्रस्त और पददलित हैं, सताये हुए हैं और भूखों मर रहे हैं- वैसे लोगों के चेहरे पर भी हँसी केवल यह आध्यात्मिकता ही खिला सकती है। यदि भारत के जनसाधारण के भीतर इस ज्ञान, इस शक्ति, इस आध्यात्मिकता को  जाग्रत नहीं कराया जा सका- तो उनके चेहरों पर हँसी खिला पाना कभी संभव नहीं होगा। भारत के गाँवों की झोपड़ियों में रहने वाली आम-जनता के बीच इस प्रकार के सच्चे साम्यवाद या आध्यात्मिकता को स्थापित नहीं करने से भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना कभी संभव नहीं होगा, और उसके फल
- स्वरूप सम्पूर्ण पृथ्वी के मनुष्यों की उन्नति भी संभव नहीं हो सकेगी। सम्पूर्ण पृथ्वी के विकास के लिए, समाज के नीति-निर्धारकों को अंततोगत्वा इसी आध्यात्मिकता या सच्चे साम्यवाद की शरण में जाना ही होगा।
उपनिषदों के इसी ज्ञान को अपना संबल बनाकरभारतमाता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर प्रतिष्ठित कराने के लिये, अपने देशवासियों का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने  कहा था- " और फिर एक नवीन भारत निकल पड़े। निकले हल पकड़ कर, किसानों की कुटी भेदकर, जाली, माली, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से. निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से।"
अर्थात समाज के उपेक्षित समझे जाने वाले, आम लोगों के बीच से-  प्राचीन धर्म के सार को आत्मस्थ करके, नया भारतवर्ष उभर कर सामने आये । ऐसा हो जाने से क्या होगा ? यह होगा कि सभी मनुष्यों को केवल 'मनुष्य' होने के लिये ही सम्मान दिया जायेगा, सभी जाती-धर्म-भाषा के मनुष्यों के साथ, उनको बिल्कुल अपना समझकर, हर किसी से प्रेम करना संभव हो जायेगा। किन्तु जो तथाकथित नेता 'पुरोहित-पण्डे ' अब भी निजी स्वार्थवश इस ज्ञान को जन जन के द्वारा तक ले जाने में बाधा खड़ी करते हैं, उनको बड़े भाई के जैसा झिड़की भरा परामर्श देते हुए स्वामी जी कहते हैं- " अतीत के कंकाल-समूहों ! - देखो तुम्हारा उत्तराधिकारी भविष्य का भारत, तुम्हारे समक्ष खड़ा है। तुमलोगों के पास पूर्व काल की बहुत सी रत्न पेटिकाएँ सुरक्षित हैं, तुम्हारी अस्थिमय अँगुलियों में पूर्वपुरुषों की संचित कुछ अमूल्य रत्न जड़ित अंगूठियाँ हैं, इतने दिनों तक उन्हें दे देने की सुविधा नहीं मिली। अब अबाध विद्या-चर्चा के दिनों में (पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी के दिनों में), उन्हें उत्तराधिकारियों को दो, जितने शीघ्र दे सको, दे दो। फेंक दो इनके बीच; जितना शीघ्र फेंक सको, फेंक दो; और तुम हवा में विलीन हो जाओ, अदृश्य हो जाओ, सिर्फ कान खड़े रखो। " तुम " ( कर्तापन का अहंकार ) ज्यों ही विलीन होगे, वैसे ही सुनाई देगी, ' कोटि जीमूतस्यन्दिनी, त्रैलोक्यकम्पन-कारिणी ' भावी भारत की जागरण-वाणी- "वाह गुरू की फतेह!"

स्वामीजी द्वारा कथित इस प्रकार के सन्देश ही श्रीरामकृष्ण के आविर्भाव के महत्व को सूचित करते हैं। तथा सत्ययुग की स्थापना के संकल्प का वहन करते हैं। हमलोगों के लिये इसे समझना आवश्यक है। एवं उन्हीं के परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिये प्रयत्न शील होना होगा। क्योंकि भविष्य के भारत के 'गौरव मय दिन' (अच्छे दिन ? ) बस आने ही वाले हैं। " "उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता के द्वारा जगत पर विजय प्राप्त करो !"
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स्वामीजी कहते हैं - " अब तुमलोगों का काम है प्रान्त प्रान्त में, गाँव गाँव में में जाकर देश के लोगों को समझा देना होगा कि भाइयो, अब आलस्य के साथ बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। शिक्षा-विहीन, धर्म-विहीन वर्तमान अवनति की बात उन्हें समझकर कहो-'भाई, अब उठो, जागो, मनुष्य ' बनने और बनाने'  के काम में लग जाओ ! और कितने दिन सोओगे? और शास्त्र के महान सत्यों को सरल करके उन्हें जाकर समझा दो। इतने दिन इस देश का ब्राह्मण (जो ज्ञान से नहीं जन्म से ब्राह्मण था ) धर्म पर एकाधिकार किये बैठा था। काल स्रोत में वह जब और अधिक टिक नहीं सका, तो तुम अब जाकर उन्हें समझा दो कि ब्राह्मणों की भांति उनका भी धर्म में समान अधिकार है। चाण्डाल तक को इस अग्निमन्त्र -,"तत्त्वमसि " में दीक्षित करो।" 

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" नरेन्द्र इच्चरतः सखा ! "
(नरेन्द्र श्रम करने वाले के मित्र बन जाते हैं !) 

स्वामी विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व के इतिहास पर चिंतन -मनन करके यह जान लिया था कि - केवल सत्यान्वेषी मनुष्यों का निर्माण करने में समर्थ चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार से ही भारतवर्ष का पुरुत्थान होना सम्भव है। उन्होंने कहा था - " जब हम विश्व-इतिहास का मनन करते हैं, तो पाते हैं कि जब जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है; तथा जब भूमा या असीम की खोज- उसे उपयोगितावादी कितनी ही अर्थहीन कहें --समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। हमें इसके लिये ही काम करना होगा। " २/१९८ 
आज का भारत युवा भारत है, सवासौ करोड़ के इस देश में लगभग ८० करोड़ आबादी युवाओं की है। कोई उन्हें समझ नहीं पा रहा। उनके अंदर अनंत ऊर्जा है, परन्तु परंपरागत पारिवारिक दबाव, बेरोजगारी, स्वयं की कुँठाएँ, राजनीतिज्ञों या धर्म-संप्रदायों द्वारा उनका दुरुपयोग, उनके लिए कोई नीति न बना पाना, राजनीति में चल रहा भाई-भतीजावाद उन्हें गहरी कुँठा में डाल देता है। 
देश के युवा प्रतीक्षारत हैं कि सही दिशा देने वाला (पुरुषार्थ या विवेक-प्रयोग द्वारा चरित्रवान और ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ) कोई तंत्र उन्हें स्पर्श करें। देशभक्त, निःस्वार्थी, विनीत, त्यागी, उत्साही, निष्कपट, ईमानदार, मेहनती, और साहसी युवकों की  एक बड़ी संख्या में देश में हर जगह विद्यमान है, जो देश के पुर्निर्माण के कार्य में खुद को समर्पित कर देने के लिए उत्सुक हैं, उन्हें उत्प्रेरित और संगठित किया जा सकता है। 
केवल विदेशी पुस्तकों को पढ़ कर ही जो लोग अवतार-वाद में विश्वास करने के पक्षधर हैं, उनके लिये प्रभु ईसा मसीह के जन्म से २५० वर्ष पूर्व लिखित हिब्रू बाइबिल के सभोपदेशक (गुरु या शिक्षक) कहते हैं - 'दी हिस्ट्री ऑफ़ होलीनेस लाइक्स टु रिपीट इटसेल्फ'।  'पवित्रता' का इतिहास स्वयं को बार बार दुहराते रहना पसन्द करता है। [Ecclesiastes:   an Old Testament book consisting of reflections on the vanity of human life; is traditionally attributed to Solomon but probably was written about 250 BC]  
उसी प्रकार हमारे धर्म शास्त्रों दुर्गा-सप्तशती और गीता ४/८ में भगवान श्रीकृष्ण का भी
अश्वासनहै- " सम्भवामि युगे युगे !" इसीलिये, सनातन वैदिक-धर्म अर्थात उत्कृष्ट और दिव्य शिx क्षा या (शीक्षा) महा-वाक्यों - 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म', एवं "तत्त्वमसि" को आधुनिक युग के अनुकूल प्रशिक्षण -पद्धति (यूथ ट्रेनिंग कैम्प ) और आधुनिक भाषा (अंग्रेजी) के द्वारा पुनः सम्पूर्ण विश्व में प्रचार प्रसार करने के लिये भगवान श्री रामकृष्ण देव, भगवती माँ सारदा देवी और गुरु स्वामी विवेकानन्द को  बेलपत्र के तीन पत्तों के समान एक साथ आविर्भूत होना पड़ा। 
स्वामी विवेकानन्द ने कहा हैं , " तुम चाहे जिस अवतार या आचार्य को अपने जीवन का आदर्श बनाकर विशेष रूप से उपासना करना चाहो, कर सकते हो। यहाँ तक कि तुमने जिसको (ठाकुर श्रीरामकृष्ण  परमहंसदेव  और माँ सारदा देवी को ) अपना इष्ट-देवता स्वीकार किया है, वह सब अवतारों में श्रेष्ठ 'अवतार-वरिष्ठ' हैं, --ऐसा मानने में  भी किसी को कोई आपत्ति नहीं है।
किन्तु  उनके द्वारा धर्म-साधन के रूप में तुम्हें जो प्रशिक्षण या मार्गदर्शन (" मनःसंयोग और चरित्र-निर्माण की पद्धति" आदि) प्राप्त हो - तुम्हारे उस धर्म-साधन की नींव सनातन तत्व-समूहों पर ही होनी चाहिये।
यहाँ सबसे अद्भुत तथ्य यह है कि जब तक उनका जीवन -चरित्र वैदिक सनातन सत्य सिद्धान्तों के ज्वलन्त उदाहरण बने हुए हैं, तभी तक हमारे अवतार मान्य हैं ! हमारे वेदान्त धर्म के सिवा दुनिया के रंगमंच पर जितने भी अन्यान्य बड़े धर्म हैं, वे किसी न किसी ऐतिहासिक जीवनियों के बुनियाद पर खड़े हैं। वे उनके संस्थापकों के जीवन के साथ सम्पूर्णतः संश्लिष्ट और सम्बद्ध हैं। किन्तु वर्तमान वैज्ञानिक युग में प्रायः देखने में आता है कि लगभग सभी धर्म-संस्थापकों या अधिष्ठाताओं की जीवनी के आधे भाग पर तो विश्वास ही नहीं किया जाता; और बाकी बचे आधे हिस्से पर भी संदिग्ध दृष्टि से देखा जाता है। और उनका सम्पूर्ण भवन ही भहराकर गिर पड़ता है और सदा के लिये अपना महत्व खो देता है। इसके कारण लगभग सभी प्रचलित धर्मों की तथाकथित ऐतिहासिकता की चट्टान हिल गयी है, और वे क्रमशः ध्वस्त होती जा रही हैं।
किन्तु भारत का धर्म - वेदान्त कुछ शास्वत सिद्धान्तों की बुनियाद पर खड़ा है। अनन्तकाल स्थायी सिद्धान्तों द्वारा इनका निर्माण हुआ है; और ऋषियों ने इन सिद्धान्तों का आविष्कार किया है, "दे आर दी इमबॉडीमेन्ट ऑफ़ इटरनल प्रिन्सिपल्स ; ऋषिज डिस्कवर्ड देम !", और कहीं-कहीं प्रसंगानुसार उन ऋषियों के नाम-मात्र आये हैं, कितने ही ऋषियों के पिता का नाम तक ज्ञात नहीं होता। पृथ्वी में कोई भी व्यक्ति -स्त्री हो अथवा पुरुष -वेदों की रचना करने का दम्भ नहीं कर सकता। इसीलिये भारतवर्ष  के धार्मिक इतिहास को और उनकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता को झुठलाने की लाखों चेष्टाएँ क्यों न की जायें; या उनकी ऐतिहासिकता  को अप्रमाणित  ही क्यों न घोषित कर दिया जाये, तो भी हमारे धर्म पर किसी प्रकार का आघात नहीं लग सकता। वह पहले की तरह ही अटल और दृढ़ रहेगा; क्योंकि यह धर्म वेदान्त - (जिसे लोग हिन्दू-धर्म के नाम से जानते हैं) किसी व्यक्तिविशेष ऊपर अधिष्ठित न होकर केवल शाश्वत नियमों -सिद्धान्तों की बुनियाद पर खड़ा है।
जिस समय का हाल बताने में इतिहास असमर्थ है, यहाँ तक कि परम्परा भी जिसका कुछ आभास नहीं दे सकती है, उस अतिप्राचीन युग में भारत में एक महापुरुष ऋषि प्रकट हुए और उन्होंने घोषित किया -"एकं सत्य विप्राः बहुधा वदन्ति "!! अर्थात वास्तव में संसार में एक ही वस्तु (आत्मा -ईश्वर या ब्रह्म या अल्ला ) है, ज्ञानी लोग उसी एक वस्तु को नाना रूपों में वर्णन करते हैं। सैकड़ों सदियों तक "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति!"  इस तत्व का हमारे यहाँ प्रचार होते होते हमारा राष्ट्रिय-जीवन उससे ओतप्रोत हो गया है। यह सत्य-सिद्धान्त हमारे खून के साथ मिल गया है और वह हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है। हमलोग इस महान सत्य को बहुत पसन्द करते हैं, इसी के कारण हमारा देश- " भारतवर्ष - दी ग्लोरियस लैण्ड ऑफ़ रिलीजियस टॉलरेशन." --धार्मिक सहिष्णुता का एक उज्ज्वल दृष्टान्त बन गया है। 
विश्व के समस्त देशों में केवल भारत को ही सहिष्णुता और आध्यात्मिकता का देश होना था इसीलिये, 'शाक्त-वैष्णव शैव' आदि सम्प्रदायों में अपने अपने देवता की प्रधानता का झगड़ा हमारे देश में दीर्घकाल तक नहीं चल सका।
यहाँ और केवल यहीं, लोग अपने धर्म विद्वेषियों के लिये -मस्जिद और गिर्जे बनवा देते हैं। समग्र संसार हमसे इस धर्मसहिष्णुता की शिक्षा ग्रहण करने के इन्तजार में बैठा हुआ है। जब तक धर्मोन्माद , खून-खराबी और पाशविक अत्याचारों का अन्त नहीं होता तब-तक किसी सभ्यता का विकास नहीं हो सकता। जब तक हमलोग एक दूसरे के साथ सद्भाव रखना रखना नहीं सीखते, तब तक कोई भी सभ्यता सिर नहीं उठा सकती ! और इस पारस्परिक सदभाव -वृद्धि की पहली सीढ़ी है--एक दूसरे के धार्मिक विश्वास के प्रति सहानुभूति प्रकट करना। हम ईसाईयों के लिये गिर्जे और मुसलमानों के लिये बनवाना तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक हम अपने प्रेमबल से उन पर विजय न प्राप्त कर लें, जब तक हम संसार के सामने यह प्रमाणित न कर दें कि घृणा और विद्वेष की अपेक्षा प्रेम के द्वारा ही राष्ट्रीय जीवन स्थायी हो सकता है। केवल पशुत्व और शारीरिक शक्ति विजय नहीं प्राप्त कर सकती , क्षमा और नम्रता ही संसार-संग्राम में विजय दिला सकती है।
यूरोप की वर्तमान वैज्ञानिक अनुसन्धान प्रणाली समस्त जगत का एकत्व सिद्ध कर रही है - वेदान्त में इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर दिखाया गया है कि जगत के इस एकत्व भाव के पीछे जो आत्मा है , वह भी एक ही है। समस्त ब्रह्माण्ड में केवल एक आत्मा ही विद्यमान है- सब कुछ एक उसी की सत्ता है। कोई भी संगठन - हमारी इस मातृभूमि का पुनरुत्थान अद्वैतवाद को व्यावहारिक और कारगर तरीके से कार्यरूप में परिणत किये बिना नहीं कर सकता। हिन्दू और मुसलमान में केवल 'भाई-भाई' का ही सम्बन्ध नहीं है- परन्तु वास्तविक बात तो यह है कि हिन्दू और मुसलमान, तुम और हम बिल्कुल एक हैं ! दिस इज दी डिक्टेट ऑफ़ इंडियन  लाइफ़ -भियू ऑर फिलॉसफी- भारतीय जीवन दृष्टि का यही आदेश है ! " ५/८३]
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " श्रीमद्भागवत में कहा है- 'अवताराः ही असंख्याः'। अतएव हमारे धर्म में नये नये धर्मप्रवर्तकों या पैगंबरों के आने के मार्ग में कोई रुकावट नहीं है।" हमारा धर्म तो यह कहता है कि वर्तमान समय तथा भविष्य में और भी बहुतेरे महापुरुष, ऋषि  अवतारादि आविर्भूत होंगे।हमारे धर्म में जितने अवतार, महापुरुष और  ऋषि हुए हैं उतने और किस धर्म में हैं ?
संसार भर में किसी व्यक्ति-विशेष को ईश्वर का एक मात्र पुत्र या 'एक मात्र पैगम्बर' बताकर सम्पूर्ण विश्व को बलपूर्वक स्वीकार कराने की चेष्टा करना वृथा है --यहाँ तक कि 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' जैसे सनातन और सार्वभौम तत्वसमूहों के विषय में भी बहुसंख्यक मनुष्यों को 'एकमतावलम्बी ' बनाना भी बड़ा कठिन काम है। अगर कभी संसार के अधिकांश मनुष्यों को धर्म के विषय में एकमतावलम्बी बनाना सम्भव भी हुआ, तो वह किसी व्यक्ति-विशेष की  महत्ता को  बलपूर्वक स्वीकार कराने से नहीं हो सकता; वरन शास्वत-सनातन सत्य सिद्धान्तों पर विश्वास करने से ही हो सकता है।

फिर भी हमारा धर्म विशेष-व्यक्तियों की प्रमाणिकता या प्रभाव को पूर्णतया स्वीकार कर लेता है -क्योंकि हमारे देश में ;'इष्ट-निष्ठा' (मोस्ट वंडरफुल थ्योरी ऑफ़ 'इष्ट' ) रूपी जो अपूर्व सिद्धान्त प्रचलित है, जिसके अनुसार संसार के समस्त महान धार्मिक व्यक्तियों में से किसी एक को भी 'अपना इष्ट देवता' चुन लेने की पूर्ण स्वाधीनता दी जाती है। योगेश्वर श्रीकृष्ण का माहात्म्य यही है कि वे भारत में इसी तत्ववादी सनातन सिद्धान्तों या धर्म के सर्वश्रेष्ठ प्रचारक और वेदान्त के सर्वश्रेष्ठ व्याख्याता हुए हैं। 
जगतगुरु श्रीरामकृष्णदेव ने [काशीपुर उद्यान बाटी (भवन) में पहला युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया था] उसी पवित्र वैदिक शिक्षा को 'गुरु-शिष्य प्रशिक्षण-पद्धति' द्वारा - युगानुकूल बनाकर अपने युवा शिष्यों (नरेन्द्र, काली, शशि ,राखाल.... आदि) को शरीर -मन-हृदय '3H' को विकसित और संवर्धित करके, अर्थात मन को एकाग्र करने का अभ्यास करते करते, स्वयं को (अपने यथार्थ स्वरूप को ) पहचानकर, 'मनुष्य'(=यथार्थ मनुष्य, चरित्रवान-मनुष्य, ब्रह्मवेत्ता-मनुष्य या ब्राह्मण) बनने और बनाने 'BE AND MAKE ' एवं' खुली आँखों से ध्यान' करने की पद्धति में प्रशिक्षित किया था। फिर उसी प्रशिक्षण-पद्धति में सम्पूर्ण विश्व के युवाओं को प्रशिक्षित करने का चपरास नरेन्द्र (स्वामी विवेकानन्द) को प्रदान करते हुए, ठाकुर ने एक कागज पर  लिख दिया था - 'नरेन शिक्षा देगा!' यदि माँ जगदम्बा की यह इच्छा है, कि विश्व-शान्ति को सुनिश्चित करने के लिये भारत माता को महान बन कर पुनः  उसके गौरवशाली सिंहासन पर बैठाना होगा, और उन्हीं की इच्छा और प्रेरणा से स्वामी विवेकानन्द को पाश्चात्य देशों की यात्रा की थी' तो यह अनिवार्य हो जाता है,  कि पहले भारतीय युवाओं को बताया जाए कि 'चपरास प्राप्त लोक-शिक्षकों का निर्माण'  करने वाली वह प्रशिक्षण -पद्धति क्या है ?
जब से अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल आविर्भूत हुआ है (१९६७ से), तबसे मानो पश्चिम बंगाल के बाहर भारत के विभिन्न राज्यों के युवावर्ग में भी, स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा -' BE AND MAKE ' के आलोक मेंसत्य के खोजियों की संख्या में वृद्धि होने लगी है। 

अपनी ऋषि-दृष्टि से स्वामी जी ने केवल इसी कार्य में लगे हुए महामण्डल को आविर्भूत होते हुए देख लिया था, और घोषित कर दिया था, कि "रामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्ययुग का प्रारंभ हो गया है।" क्योंकि  हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि युगपरिवर्तन मनुष्यों के विचार-जगत में होता है,  महामण्डल के आविर्भूत होने के पहले तक बंगाल के बाहर रहने वाले अधिकांश भारतवासी उनको केवल एक हिन्दू संन्यासी समझकर उनके प्रति भय-मिश्रित श्रद्धा का भाव ही रखते थे। उनकी मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा पद्धति- '3H' विकास द्वारा भारत के पुनर्निर्माण सूत्र -' BE AND MAKE ' के व्यावहारिक उपयोग से भी परिचित नहीं थे।
महामण्डल की कार्य-योजना - BE AND MAKE - मूलतः समस्त सामाजिक समस्यायों को हल करने के लिये वास्तव में यही सर्वोत्तम प्रिवेन्टिव योजना (रोगनिरोधी योजना) है; प्रिवेन्टिव योजना (सुरक्षात्मक उपाय रोगनिरोधी उपाय) हकिन्तु मोटी बुद्धि वाले बुद्धिजीविओं  को केवल क्युरेटिव योजना  (उपचारात्मक उपाय, फाँसी जैसे कड़े कानून, या केजरी-अन्ना के लोकपाल जैसे औषधि द्वारा समाज की समस्यायों को हल करने की योजना) ही समझ में आती है। किन्तु 'पवित्रता' का इतिहास स्वयं को बार बार दुहराते रहना पसन्द करता है ! इसीलिये ठाकुर श्रीरामकृष्णदेव- माँ भगवती सारदा देवी के आशीर्वाद और स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से १९६७ में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' को "श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द प्रशिक्षण पद्धति " (चरित्र-निर्माणकारी और ब्रह्मवेत्ता -मनुष्य निर्माण कारी प्रशिक्षण-पद्धति) द्वारा भारत  के युवाओं का मार्गदर्शन करने के लिए, परमपूज्य नवनीदा के नेतृत्व में संघबद्ध होकर एक युवा-संगठन के रूप में आविर्भूत होना पड़ा है। क्योंकि उन्नत राष्ट्र की ठोस बुनियाद केवल युवा चरित्र-निर्माण से ही प्राप्त की जा सकती है, और उसका फॉर्मूला भी सरल है - 3H का विकास और संवर्धन > चरित्रवान मनुष्य -> उन्नत (ब्रह्मवेत्ता,सत्य-द्रष्टा) मनुष्य -> उन्नत समाज ->उन्नत राष्ट्र !
 महामण्डल द्वारा आयोजित वार्षिक अखिल भारत युवा प्रशिक्षण शिविर में विगत ४९ वर्षों से,  कुछ ऐसे ही परम-देशभक्त, लोक-सेवी और राष्ट्र-सेवी प्रशिक्षकों (चपरास-प्राप्त ऋषियों) (चपरास-प्राप्त ऋषियों) के मार्गदर्शन में; मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव- शरीर, मन और हृदय (3H-हैण्ड-हेड-हर्ट) को एक सुनियोजित (well-planned) प्रशिक्षण-पद्धति के आधार पर विकसित और संवर्धित करके, स्वयं एक चरित्रवान मनुष्य बनने और दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करने -'बनने और बनाने' का प्रशिक्षण देने में समर्थ  स्वयं एक चरित्रवान मनुष्य बनने और दूसरों को भी चरित्रवान मनुष्य बनने में सहायता करने -'बनने और बनाने' का प्रशिक्षण देने में समर्थ भावी नेताओं का निर्माण करने के उद्देश्य से लीडरशिप ट्रेनिंग (नेतृत्व-प्रशिक्षण) दिया जा रहा है। भावी नेताओं का निर्माण करने के उद्देश्य से लीडरशिप ट्रेनिंग (नेतृत्व-प्रशिक्षण) दिया जा रहा है। 
उन्नत राष्ट्र के  निर्माण में महामण्डल के कुछ वरिष्ठ नेताओं (परमपूज्य नवनी दा, ..... आदि वरिष्ठ दादा) की भूमिका ठीक वैसी ही है, जैसी प्राचीन काल में हमारे पूर्वज- वसिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, भारद्वाज, उद्दालक-श्वेतकतु, आदि ऋषि निभाया करते थे। अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक लीडरशिप ट्रेनिंग' कक्षाओं में तथा अन्य अवसरों पर 'परमपूज्य नवनीदा' अपने प्रवचनों-उद्बोधनों द्वारा"श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द शिक्षा पद्धति " की विस्तृत जानकारी देकर, भावी नेताओं को अपनी दृष्टि को ज्ञानमयी दृष्टि में रूपान्तरित करने, सब प्राणियों के शरीरों में 'मनुष्य- शरीर ताजमहल' के जैसा देखने, औरजीवित भगवान का 'खुली आँखों से ध्यान' करने, अर्थात जीव में ही शिव को देख कर उसकी सेवा करने के लिये, विगत ४९ वर्षों से अनुप्रेरित करते आ रहे हैं।
उनके उन्हीं उपदेशों को महामण्डल की मासिक संवाद पत्रिका 'विवेक-जीवन ' में क्रमवार ढंग से छापा गया था। उन्हीं  प्रवचनों-उद्बोधनों को अंग्रेजी भाषा में महामण्डल पुस्तिका ' ए न्यू यूथ मूवमेन्ट' के रूप में प्रकाशित किया गया है। उस पुस्तिका का हिन्दी अनुवाद ' एक नया युवा आन्दोलन ' शीर्षक से प्रकाशित किया जा रहा है। (मूल अंग्रेजी पुस्तिका में १८ निबंध थे, हिन्दी पुस्तिका में बंगला भाषा में लिखे 'विवेकानन्द और हमारी सम्भावना ' से दो अन्य निबन्धों- १९.व्यावहारिक जीवन में धर्म २०. भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण को जोड़ा गया है।) यह पुस्तिका ' ए न्यू यूथ मूवमेन्ट' हमारे केंद्रीय संचालन -तंत्र एवं सभी कार्य-कर्ताओं के लिए एक आचार संहिता के समान है। 
महामण्डल के इस 'एक नया युवा आन्दोलन' के लिये युवा लीडर ट्रेनीज (नेतृत्व प्रशिक्षु) को लीडरशिप ट्रेनिंग में प्रशिक्षण देने का उद्देश्य है, भारत की विशाल युवा आबादी (८० करोड़) में से कुछ (कम से कम ६०० आत्मघातीघुड़सवार ब्रिगेड) ऐसे आदर्श लोकसेवी 'नेताओं' या मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं का निर्माण करना, जो "श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द प्रशिक्षण पद्धति " में स्वयं प्रशिक्षित होकर पशु-मानव को चरित्रवान मनुष्य, यथार्थ मनुष्य  या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य- (ब्रह्म को जानकर ब्राह्मण) 'बनने और बनाने' का प्रशिक्षण देने में समर्थ होंगे।   
ज्ञान से उत्तरोत्तर विकास— हमलोग महामण्डल द्वारा आयोजित छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में प्रतिवर्ष भाग लेते हैं। [१९८७ में मेरा प्रथम कैम्प बेलघड़िया रामकृष्ण आश्रम ? था और  २५ से ३० दिसंबर तक २०१६ में आयोजित होने वाला, गोल्डन जुबली कैम्प या 'बेलुड़-मठ कैम्प' मेरे जीवन का २९ वाँ कैम्प होगा, मुझे महामण्डल के शिविर में भाग लेने के लिये अनुप्रेरित करने वाले मेरे नेता -पूज्य प्रमोद दा के जीवन का यह शायद ४७ वाँ कैम्प होगा ?] 
हमलोग महामण्डल से जुड़ने के पहले (१९८५) और उसके बाद अब तक के जीवन का जब सिंहावलोकन करते हैं, तो हम अपनी अनुभूति के आधार पर यह कह सकते हैं, कि जो व्यक्ति जितनी दृढ़ता के साथ, अपनी जान की परवाह किये बिना;  इस ' ए न्यू यूथ मूवमेन्ट' का जितना निष्ठावान कर्मी (सेवक या चपरास- बैज प्राप्त नेता) बनने और बनाने के कार्य से जुड़ा रहा, और साथ-साथ अपने '3H' को विकसित और संवर्धित करने और दूसरों को भी इस कार्य में सहायता प्रदान करने में लगा रहा है, उसका  ज्ञानस्‍वभाव या आंतरिक डिविनिटी भी उतनी ही विकसित होती जाती है, और वह वृद्ध होने पर और भी अधिक चमकता है और भी अधिक प्रकाशमान होता है। 
फिर अपने उन भाइयों को भी देखते हैं, जो लाख समझाने पर भी महामण्डल के युवा-आन्दोलन से नहीं जुड़ सके (प्रारब्ध था ?), युवावस्था में ही चार-पुरुषार्थ, साधन-चतुष्टय से सम्पन्न होकर, जगत गुरु विवेकानन्द से 'समग्र-श्रीरामकृष्ण' पर मन को एकाग्र करना, तथा  ज्ञान (विद्या और अविद्या दोनों में सामंजस्य करने वाला विवेक-प्रयोग करना ) नहीं सीखा, और वृद्धावस्‍था तक विषय-भोगों में ही रत रहे, उनकी स्थिति बूढ़ापे में अर्द्धमृतक जैसी हो जाती है। अब उनको पुनरुज्जीवित करना बहुत कठिन हो जाता है ! जो व्यक्ति स्वयं निरंतर अर्धमृतक जैसी अवस्था में ही रहता हो, वह अब मनःसंयोग आदि ५ दैनन्दिन अभ्यास करते हुए अपने स्वधर्म का पालन कैसे कर सकता है ? धर्मपालन शरीर की स्थिति के आधीन नहीं है।
[जो युवा 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' द्वारा कोलकाता में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर, परमपूज्य नवनीदा से सुनकर और उनके द्वारा लिखित पुस्तिका 'A New Youth Movement' में दी हुई शिक्षाओं के मार्गदर्शन में; अपनी मंजिल 'चपरास-प्राप्त नेता बनने और बनाने'(ब्रह्मविद् मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ नेता) की ओर चलना शुरू कर दिया है, वह तो मानो सत्य युग में वास कर रहा होता है। इसलिये गोल्डन एरा या सत्ययुग का लक्ष्ण है,"चरैवेति चरैवेति" निरन्तर आगे, आगे और आगे बढ़ते रहना!]   
अल्फ्रेड लॉर्ड टेनीसन की कविता 'दी चार्ज ऑफ़ दी लाईट ब्रिगेड', में अपने प्रिय 'वीर-सेनापति' के आदेश -'फॉरवर्ड, दी लाईट ब्रिगेड ' या -  'प्रबुद्ध ब्रिगेड- के सैनिकों, आगे बढ़ो!' को सुनकर,देश की आन-बान-शान के लिए मर मिटने वाले- ६०० आत्मघाती घुड़सवार दस्ते 'नोबेल सिक्स हंड्रेड' की वीरता का वर्णन किया गया है।
 [स्वामी जी को भी यह कविता बहुत पसन्द थी जिसकी कुछ पंक्तियों का उल्लेख उन्होंने अपने कुछ पत्रों में किया है] 
Noble six hundred.
    Cannon to right of them, 
Cannon to left of them,
 Cannon in front of them
    Volley'd and thunder'd;

Storm'd at with shot and shell,
Boldly they rode and well,
Into the jaws of Death,
Into the mouth of Hell

  Rode the six hundred. 
Theirs not to make reply,
Theirs not to reason why,
Theirs but to do and die:
Into the valley of Death
    Rode the six hundred.

When can their glory fade?
O the wild charge they made!
    All the world wondered.
Honour the charge they made,
Honour the Light Brigade, 
  Noble six hundred. 
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नोबल सिक्स हंड्रेड ! 
  कैनन टु राइट ऑफ़ देम,  कैनन टु लेफ्ट ऑफ़ देम,
 कैनन इन फ्रन्ट ऑफ़ देम; भौलीड ऐंड थन्डर्ड।

स्टॉर्म्ड ऐट शॉट ऐंड शेल,
 बोल्ड्ली दे रोड ऐंड वेल।
इन्टु दी जॉज ऑफ़ डेथ,
 इन्टु दी माउथ ऑफ़ हेल।
रोड दी सिक्स हंड्रेड, 

देयर्स नॉट टु मेक रिप्लाय;
देयर्स नॉट टु रीजन व्हाई ?
देयर्स बट 'टू डू ऐंड डाई'। 
इन्टु दी भैली ऑफ़ डेथ, 
रोड दी सिक्स हंड्रेड;

व्हेन कैन देयर ग्लोरी फेड, 
ओ दी वाइल्ड चार्ज दे मेड।
ऑल दी वर्ल्ड वन्डर्ड, 
ऑनर दी चार्ज दे मेड
ऑनर दी लाईट ब्रिगेड,
 नोबल सिक्स हंड्रेड ! 
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इस प्रकार महामण्डल के गोल्डन जुबली ईयर-२०१६ तक देश के ८० करोड़ युवाओं में से महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में 'लीडरशिप-ट्रेनिंग' प्राप्त, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने के लिये तत्पर, 'BE AND MAKE' आन्दोलन में कूद पड़ने वाले, कम से कम- 'नोबल सिक्स हंड्रेड युवा' तो अवश्य निर्मित कर लिये जायेंगे!
 [ '६०० चपरास -प्राप्त महामण्डल यूथ लीडर्स' का एक ' लाईट ब्रिगेड ' (मानवजाति के युवा मार्ग-दर्शक नेता, ब्रह्मवेत्ता लोक-शिक्षक, प्रबुद्ध ब्रिगेड) अवश्य तैयार हो जायेगा।] 
जरुरत केवल युवाओं में इस जीवन-दृष्टि को पैदा करने के लिये उनकेमन को प्रशिक्षित करने की पद्धति को जानने-समझने की है। उस पद्धति को अवश्य सीखना चाहिये, तथा उसके परिणाम को देखने के लिये उसे सही ढंग से लागु भी करना चाहिये। यदि भारत को श्रेष्ठ भारत बनाने के लिये उसमें महान परिवर्तन लाना चाहते हों, तो उसका यही उपाय है- युवानेता स्वामी विवेकानन्द के आदेश पर, 'BE AND MAKE' आन्दोलन में कूदपड़ना, और अपने जीवन को इसी कार्य में न्योछावर कर देना। भगवान श्रीकृष्ण गीता २/३७ में कहते हैं -
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्। 
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।। 
अगर युद्धमें तू मारा जायगा तो तुझे स्वर्गकी प्राप्ति होगी और अगर युद्धमें तू जीत जायगा तो पृथ्वीका राज्य भोगेगा। अतः हे कुन्तीनन्दन तू युद्धके लिये निश्चय करके खड़ा हो जा। गुरु गोबिन्द सिंह देवी के शक्ति रुप,‘शिवा’ या  परब्रह्म की शक्ति से प्रार्थना करते हैं -
देह शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कभुं न टरूं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं,
अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥२३१॥
माँ भवानी, मुझे यह वरदान दो की मैं शुभ कर्मों से कभी भी टलूँ नहीं। जब युद्ध में जाऊँ तो शत्रु से डरूँ नहीं और संकल्प के साथ अपनी विजय प्राप्त करूँ। मैं अपने मन को यही सिखाऊं, बस यही एक लालच दूँ की माँ मैं अपने जीवन में तेरा गुणगान करूँ। और मेरे जीवन के अंतिम दिन आएँ तो युद्ध भूमि में पराक्रम से संघर्ष करते करते ही अंतिम साँसे लूँ।
अब देश को ऋषि-नेताओं की जरूरत है, महामण्डल के चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के कोने कोने तक पहुँचा देने में समर्थ आदर्श-नेताओं को लाखों की संख्या में निर्मित करने का विशाल कार्य-क्षेत्र खुला पड़ा है। जिन्हें समाज और देश के प्रति दर्द हो, उन्हें गंभीरता से विचार करना चाहिए कि क्या राजनीतिक क्षेत्र से अलग हटकर कुछ महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया जा सकता? राजनीति में पद, प्रतिष्ठा, संघर्ष, मतभेद की प्रतिस्पर्द्धा है। समय की माँग (केजरी-अन्ना, या लालू-जेपी जैसे ) आँदोलनकारी नेताओं की नहीं,  'श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द प्रशिक्षण -पद्धति ' में प्रशिक्षित  ६०० युवा लोक-शिक्षकों  या मानवजाति  मार्गदर्शक नेताओं  'नोबल सिक्स हंड्रेड !' की है, जो जनमानस में वेदान्त -जागरण का आलोक उत्पन्न करते रहे।  
इसीलिये जो युवा भाई अगली पीढ़ी के युवाओं तक महामण्डल के 'लीडरशिप ट्रेनिंग' पद्धति को पहुँचा देने में समर्थ लोक-शिक्षक, या नेता की भूमिका निभाना चाहते हैं, अथवा इस ' नया युवा आन्दोलन' में मॉनिटर (कक्षा-नायक), की भूमिका निभाना जिनके जीवन का मिशन है ; उन्हें - स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित महामण्डल की कार्य-योजना, - ' एक नया युवा आन्दोलन ' के वैशिष्ट को भलीभाँति श्रवण-मनन करके हृदयंगम कर लेना बहुत आवश्यक है!
विगत ४९ वर्षों से महामण्डल उनकी इसी सत्यान्वेषी मनुष्य का निर्माणकारी शिक्षा के प्रचार-प्रसार कर रहा है। और इस समय भारत के १२ राज्यों में ३१५ केन्द्रों के माध्यम से महामण्डल इस नये युवा-आन्दोलन का नेतृत्व करने में समर्थ लोक-शिक्षकों, नेताओं का निर्माण करने में लगा हुआ है।
महामण्डल के गोल्डन जुबली वर्ष - '२०१६':  'इंटर-स्टेट मॉनिटरिंग कमिटी' का गठन   
 में हमें अपने जीवन को एक आदर्श नेता या लोक-शिक्षक के रूप में गठित करना चाहिये, और सम्पूर्ण राष्ट्र के युवाओं को 'स्वर्ण -युग' या आदर्श राज्य के (रामराज्य जैसा) परिवर्तन की बयार (Breeze) लाने का संकल्पलेने के लिये अनुप्रेरित करना चाहिये।  इसके लिये उन्हें- अपने युवा मित्रों को '3H' के विकास और संवर्धन का प्रशिक्षण देने या मार्ग-दर्शन करने में समर्थ 'नेता' बनने और बनाने के लिये प्रशिक्षित करना होगा। अतः सबसे पहले हमें अपना जीवन सुन्दर रूप से गठित कर लेना होगा, महामण्डल कर्मियों के कथनी और करनी में कोईअन्तर नहीं होना चाहिये, अतः हम कहीं भी हों, निष्क्रिय न रहें। प्रत्येक महामण्डल कर्मी के लिए महामण्डल द्वारा निर्देशित पाँच दैनन्दिन अभ्यास- 'प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग अर्थात (आत्ममूल्यांकन चार्ट पर मानांक भरना ) अनिवार्य होना चाहिये।
इसी उद्देश्य से बंगाल के बाहर - ओड़िसा, बिहार, झारखण्ड, उत्तरप्रदेश,  छत्तीस गढ़ ,मध्यप्रदेश, आँध्रप्रदेश, गुजरात, राजस्थान और दिल्ली आदि जिन अन्य राज्यों में, महामण्डल केन्द्र, सारदा नारी संगठन, विवेक-वाहिनी आदि चल रहे हैं, उन राज्यों में महामण्डल-आन्दोलन के प्रचार-प्रसार को मॉनिटर करने के लिये,'केन्द्रीय समीति'  के मार्गदर्शन में विभिन्न राज्यों के महामण्डल कर्मियों की बैठक में एक 'अंतर-राज्य पर्यवेक्षण समिति' ('Inter-State Oversight Committee')  का गठन किया गया है।
इस  नवगठित 'अंतर-राज्य पर्यवेक्षण समिति' ने अपने प्रथम बैठक में यह संकल्प लिया है कि बंगाल के बाहर अन्य राज्यों में जहाँ-जहाँ महामण्डल केन्द्र चल रहे हैं, उन सभी राज्यों  में कम से कम एक  दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन और एक चार दिवसीय अन्तर्राज्य स्तरीय शिविर का आयोजन प्रतिवर्ष किया जायेगा। 
इस नवगठित 'अंतर-राज्य पर्यवेक्षण समिति' के प्रत्येक सदस्य को महामण्डल पुस्तिका ' एक नया युवा आन्दोलन' (A New Youth Movement')  को ठीक से पढ़कर समझ लेना होगा, महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर में कुशल संचालक या प्रशिक्षक (नेता या लोक-शिक्षक) के रूप में तैयार होने के लिए अनुप्रेरित करना होगा।
हजारों साल पहले से हमारे ऋषियों को यह ज्ञात है कि यदि हमें स्वयं मनुष्य बनने और बनाने में सहायक कुछसूक्ष्म अवधारणाओं (concept या सिद्धान्तों 'वट-बीज न्याय' या 'तत्त्वमसि श्वेत्केतो') या सूत्र-वाक्यों, यथा ' BE AND MAKE ' और 'चरैवेति चरैवेति ' के मर्म को अच्छी तरह से समझना हो, तो उसके लिये सबसे अच्छा तरीका है उन सिद्धान्तों को अपने युवा भाइयों को समझाने की चेष्टा करना। हमें सबसे पहले तो, स्वयं यह समझने की चेष्टा करनी चाहिये कि स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस को अवतार-वरिष्ठ क्यों कहा ? क्योंकि 'समग्र' की प्राप्ति शरणागति से ही होती है। फिर यह क्यों कहा कि- श्रीरामकृष्ण अवतार की जन्मतिथि से सत्य युग का आरम्भ हुआ है? सतयुग के आरम्भ होने का तात्पर्य क्या है ? सत्य-युग का प्रारम्भ मनुष्य के विचार-जगत में होने से पहले वह 'कामिनी-कांचन' के नशे में 'हिप्नोटाइज' होकर कलियुग में सोया हुआ था ? 
स्वयं को डी-हिप्नोटाइज करने का उपाय क्या है ? स्वामी जी ने स्वयं को विसम्मोहित करने का उपाय गीता १३/२८-२९ में मन की तुरीय-अवस्था में पहुँचकर खुली आँखों से जो सब जीवों के ताजमहल मनुष्य देह मेंसमग्र-ठाकुर का ध्यान करता है - जो देखता है, वही देखता है --ऐसा क्यों बताया है ? विवेक या समझदारी क्या है ? शरीर (अपरा या अविद्या ) को लेकर कर्मयोग है, शरीरी (परा आत्मज्ञान  या विद्या ) को लेकरज्ञानयोग है और शरीर-शरीरी दोनों के मालिक भगवान (श्री रामकृष्ण देव ) - को लेकर भक्ति योग है।
गीता के आरम्भ में भगवान ने पहले शरीरी (आत्मा-Heart)  को लेकर और फिर शरीर (Hand) को लेकर क्रमशः ज्ञानयोग और कर्मयोग का वर्णन किया है। फिर छठे अध्याय में मनःसंयोग की पद्धति (राजयोग-Head) का वर्णन  किया है। सातवें अध्याय से भक्ति की महत्ता का वर्णन विशेषता से किया है, जो भगवान का खास ध्येय है। मनुष्य कर्मयोग (निष्काम कर्म ) से जगत के लिये, ज्ञानयोग से अपने लिये और भक्तियोग से भगवान के लिये उपयोगी हो जाता है ! भागवत में भी योग का यही क्रम है। विवेकानन्द साहित्य में पहले राजयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग दिया गया है। महामण्डल में सभी सदस्य को मनुष्य बनने के लिए पाँच अभ्यास बताए जाते हैं, - १. प्रार्थना भक्तियोग,२. मनःसंयोग राजयोग, ३. व्यायाम -कर्मयोग, ४. स्वाध्याय ५. विवेक प्रयोग-आत्ममूल्यांकन ज्ञानयोग। 
इसके लिए स्वामी विवेकानन्द का जीवन और सन्देश, महामण्डल का आदर्श और उद्देश्य, मनःसंयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया, चरित्र के गुण आदि महत्वपूर्ण विषयों पर वक्तृता देने या क्लास लेने का स्वयं अभ्यास करना होगा, और भावी लोक-शिक्षकों को भी बोलने का अवसर देकर उन्हें भी प्रशिक्षित करना होगा।
महामण्डल के प्रत्येक केन्द्र से २-३ वरिष्ठ कार्य-कर्ताओं को आस-पास के विभिन्न 'यूथ स्टडी सर्किल' और 'यूथ ट्रेनिंग कैम्प' में यही सोंचकर भाग लेना चाहिये कि महामण्डल के मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी सूक्ष्म सिद्धान्तों को अपने युवा भाइयों को इसीलिये समझा रहा हूँ, मैं खुद इस बात को अच्छी तरह समझ जाऊँ। क्योंकि इसीके माध्यम से मैं 'ठाकुर-माँ-स्वामीजी' की पूजा, प्रार्थना और यज्ञ कर रहा हूँ, जिससे मेरा हृदय विशाल होता जा रहा है; ठीक इसी भाव से पाठ-चक्र,प्रशिक्षण शिविर, या फ्री कोचिंग क्लासेज आदि सेवा-प्रकल्पों के माध्यम से स्थान-स्थान पर लोग इन रचनात्मक कार्यक्रमों में लगे हुए हैं।   
अतः सभी निष्ठावान महामण्डल कर्मियों को अपने आस-पास होने वाले किसी भी महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर, पाठ-चक्र या वार्षिक-आम बैठक में यथा- सम्भव सक्रीय भागीदारी निभाकर, अपने जीवन से 'त्याग और सेवा' का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिये। क्योंकि महामण्डल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण शिविर में ही सेवा के माध्यम से हमें अपने हृदय को अनन्त तक विस्तृत करने का अनूठा अवसर प्राप्त होता है ! इसी धुरी पर हमें चलना है।    

अपने हृदय से और देश से अविद्या के अंधकार को दूर हटाने के लिये, जब देश भर में महामण्डल के पाठचक्ररूपी दीपक जल उठेंगे, और  "श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द प्रशिक्षण पद्धति " के आधार पर देश के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, और विद्यालयों में महामण्डल के प्रशिक्षित लोक-शिक्षकों या नेताओं के मार्गदर्शन में युवा प्रशिक्षण आयोजित होने लगेंगे, तब यही बनाएगा भारत का भविष्य। भारतीय संस्कृतिप्रधान जीवन-दृष्टि सभी युवाओं में जागृत हो जाएगी । महामण्डल से लीडरशिप ट्रेनिंग प्राप्त युवा ही भारत के कोने कोने में पहुँचकर एक-दिवसीय, डेढ़-दिवसीय, तीन-दिवसीय युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करेंगे। और भविष्य का युवा भारत अध्यात्म प्रधान होगा, धर्म-राजनीति-संप्रदाय से ऊपर राष्ट्र के प्रति समर्पित युवा ही इस चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन की रीढ़ बनेंगे।ये सभी युवा संयमित, ऊर्जावान युवा होंगे। त्याग और सेवा ही इसका सशक्त आधार होगा। इसी क्रम में वर्ष -२०१६ के सितम्बर महीने में 'अन्तर्राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर' का आयोजन जमशेदपुर में करने की अनुमति 'केन्द्रीय समिति' से प्राप्त हो गयी है।
 'अंतर-राज्य पर्यवेक्षण समिति' को बंगाल के बाहर जिन राज्यों में 'सारदा नारी संगठन' और 'विवेक-वाहिनी' चल रहे हों, उसके संचालकों की फोन, email सूचि बनाकर, 'केन्द्रीय सारदा नारी संगठन' के मार्गदर्शन में, बंगाल के बाहर एक, दो या तीन-दिवसीय 'नारी-प्रशिक्षण शिविर' और 'विवेक-वाहिनी शिविर' का आयोजन करने का प्रयास गोल्डन जुबली वर्ष में अवश्य करना चाहिये। इसका प्रारम्भ 'अड्डीबंगला सारदा नारी पाठचक्र','असनाबाद सारदा नारी पाठचक्र '-झुमरी तिलैया या 'जानिबिघा सारदा नारी पाठचक्र' की मातृ शक्तियों को अनुप्रेरित कर झुमरीतिलैया या जानिबिघा में करने की चेष्टा होनी चाहिये।
[उद्दालक-श्वेतकेतु प्रशिक्षण पद्धति:  उद्दालक बोले, ' तुझे फिर जान पड़ेगा। क्‍योंकि हमारे कुल में [महामण्डल में ] सिर्फ जन्‍म से ही ब्राह्मण (मनुष्य) होने की परम्परा नहीं है, हम तो ब्रह्म को जान कर ही ब्राह्मण (मनुष्य) बनते हैं, और स्वयं ब्रह्मविद (यथार्थ मनुष्य, जिसे देखकर ब्रह्म ने सभी फरिश्तों से सिर झुकाने को कहा था ?) बनकर दूसरों को भी मनुष्य (ब्रह्मविद) बनने में सहायता करने के उद्देश्य से चरित्र-निर्माण आन्दोलन को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के लिये प्रतिवर्ष अखिल भारतीय युवा-प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करते हैं । यह 'BE AND MAKE ' हमारे कुल (महामण्डल) की परम्‍परा है। मेरे पिता (आचार्य नवनी दा) ने भी मुझे ऐसे ही (२८ बार १९८७ से २०१५ तक ) वापस लौटा दिया था। ]
स्वामी विवेकानन्द ने दिव्य भारत के निर्माण हेतु तरुणों का जो 'BE AND MAKE' का आह्वान किया है, और उनके आह्वान पर उस पुनीत चरित्र-निर्माण आन्दोलन में देश के युवा बढ़-चढ़कर भागीदारी भी कर रहे हैं।  यदि हम सभीयुवा महामण्डल, सारदा नारी संगठन और विवेक वाहिनी के अपने परिजन, '3H'  के सुसमन्वित विकास और संवर्धन द्वारा अपने जीवन का  गठन करने अर्थात मनुष्य बनने और दूसरों को भी मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करने के कार्य में  जुट जाएँ, तो देखते-देखते हमें सत्य-युग (गोल्डन एज ) की वापसी के चिन्ह परिलक्षित होने लगेंगे। 
हमें इस नये चरित्र-निर्माणकारी युवा आन्दोलन को तीव्र गति से गाँव-गाँव, घर-घर, हर कोने तक पहुँचा देना है, ताकि कृत-युग के परिवर्तन की बयार २०१७ से बहती दिखाई दे। इसमें युवाशक्ति (महामण्डल ) एवं नारीशक्ति (सारदा नारी संगठन ) की सबसे बड़ी भागीदारी होगी। यदि महामण्डल और पाठचक्र द्वारा देश भर में संचालित विभिन्न केन्द्रों से जुड़े हमारे सभी भाई-बहन  बिना आलस्य किये अपने-अपने जीवन और चरित्र को भारतीय-जीवन दृष्टि के अनुरूप निरंतर गढ़ते रह सकें, तो फिर जनजागरण एवं राष्ट्रनिर्माण होकर रहेगा।   
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 आत्म-नियतिवाद  
(सेल्फ-डिटर्मिनिज्म)
चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से एक का दूसरे के साथ कोई विरोध नहीं है, (सिवाय उनके जो पवित्र में भी परम पवित्र हैं), बल्कि वे सभी आत्म-नियतिवाद (सेल्फ-डिटर्मिनिज्म) के द्वारा परस्पर सम्बद्ध हैं। इसलिये स्वधर्म के अनुसार जो भी कार्य सामने आ जाये, उससे कभी मुख नहीं मोड़ना चाहिये, निरंतर 'मैं कर्ता नहीं हूँ ' का भाव रखते हुए निष्काम कर्म करते हुए आगे बढ़ते रहना चाहिये।  
**प्रारब्ध एवं पुरुषार्थ में कौन प्रधान है ? 
पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध की वास्तविकता का रहस्य जानने के लिए सर्वप्रथम हमें इसके मूल ‘कर्म’ की रूप-रेखा समझनी आवश्यक है। समय के भेद से कर्म के भी तीन भेद किये गये हैं। (१) क्रियमाण कर्म, (२) संचित कर्म एवं (३) प्रारब्ध कर्म। वर्तमान काल वह है जिसमें जीव व्यक्त अर्थात् साकार (प्रकट) रूप से शरीर धारण करके आता है इस शरीर से होने वाले कार्य क्रियमाण कर्म या आगामी कहलाते हैं। अतः क्रियमाण कर्म वे हुए जो वर्तमान जीवन काल में किए जा रहे हैं। 
मनुष्य को अपनी आयु के विकास के साथ “मैं” का भाव होने लगता है। अपने अल्प ज्ञान के कारण देह से होने वाली क्रियाओं में “मैं करता हूँ” यह भावना करने लगता है। जो कर्म इस समय अर्थात वर्तमान में कर रहे हैं वे क्रियामाण हैं, कुछ ही वर्षों बाद यह वर्तमान काल भूतकाल बन जाएगा तो उस समय ये क्रियामाण कर्म संचित कर्मों में तब्दील हो जाएंगे। यहां संचित का अर्थ है - इकट्ठा किया हुआ। क्रियामाण कर्म का अंत होकर वो संचित हो जाता है और उन्हीं संचित में से जो कर्म फल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहा जाता है। 
संचित कर्मों की नींव क्रियमाण कर्म हैं। इन क्रियमाण कर्मों में कुछ तो वर्तमान काल में ही भोग लिए जाते हैं और कुछ शेष रह जाते हैं। ये शेष रहे क्रियमाण कर्म चित्त में इकट्ठे होते रहते हैं। कर्मों का यह अक्षय भण्डार बिना भोगे समाप्त नहीं होता है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते करते भी जीव इन्हें भोगते भोगते समाप्त नहीं कर पाता। क्योंकि दूसरे नये अशुभ कर्मों के साथ रक्त बीज की भाँति ये बढ़ते रहते हैं। इस तरह यह भंडार बढ़ता ही रहता है।
जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं हो जाता या अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं हो जाता ;  “मैं करता/ करती हूँ” की भावना बनी रहती है। स्वयं को नाम-रूप या स्त्री-पुरुष समझकर जो भी कार्य किये जाते हैं, तो वैसे क्रियमाण कर्म ही आगे आकर संचित एवं प्रारब्ध का रूप बन जाते हैं और फिर वे परिपक्व होकर संस्कार बनते हैं। एक ही प्रारब्ध एवं संचित कर्म और संस्कार आदि के प्रभाव से अनेक कर्मों का सूत्रपात होता है और यह कर्म की गहन गति जीवात्मा को बन्धन में डाले रहती हैं और भिन्न-भिन्न योनियों में भ्रमण कराती रहती है।
पूर्व संस्कार जीवात्मा को अपने अनुकूल कार्य करने के लिए अवश्य ललचाते हैं। अशुभ संस्कार अशुभ कर्म एवं शुभ संस्कार शुभ कर्म करने के लिए ललचाते हैं। इन प्रलोभनों से बचने के लिए मनुष्य स्वतंत्र है। इस लालच में पड़ने या न पड़ने के लिए मनुष्य स्वयं उत्तरदायी है। अपने दृढ़ निश्चय, दृढ इच्छाशक्ति और विवेक-प्रयोग के बल से इन संस्कारों के प्रभाव से बचा जा सकता है। अपने पुरुषार्थ के बल पर भावी जीवन को कैसा भी बनाया जा सकता है। 
इसी तरह समत्वभाव, एवं ज्ञान की प्राप्ति में साधना, संयम, तपश्चर्या रूपी प्रयत्न या पुरुषार्थ करना पड़ता है। अतः पुरुषार्थ की प्रधानता एवं महत्ता को स्वीकार कर उन्नति पथ पर अग्रसर होना मानव की विशेषता है। आज की तदवीर कल की तकदीर है। कल की जैसी तकदीर का निर्माण करना है वैसी तदवीर इसी क्षण से प्रारम्भ कर देना चाहिए। जैसे कि महापुरुष अपनी विपरीत एवं कठिन परिस्थितियों को बदलकर अपने अनुकूल परिस्थितियाँ बना लेते हैं। 
 चित्त रूपी गोदाम में संचित कर्म जो कि व्यवस्थापूर्वक एक के पीछे एक परतों की भाँति इकट्ठे होते हैं समय पर परिपक्व होकर कालाँतर में भोगने के लिये प्रारब्ध का रूप लेकर आते हैं। प्रारब्ध भी दो प्रकार के होते  हैं। एक साधारण या निर्बल प्रारब्ध—जैसे भौतिक वस्तुओं का अभाव, जीविका की कमी, अज्ञानता, दुर्बल स्वास्थ्य आदि आदि। इन सबको प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से हल किया जा सकता है। जैसे कि महापुरुष अपनी विपरीत एवं कठिन परिस्थितियों को बदलकर अपने अनुकूल परिस्थितियाँ बना लेते हैं।   
धर्म और मोक्ष एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं, इन दोनों में पुरुषार्थ की मुख्यता और प्रारब्ध की गौणता है ..प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का क्षेत्र अलग अलग है और दोनों अपने क्षेत्र में प्रधान है, दोनों ही अहंकार के लिए हैं।  प्रारब्ध भी अहंकार का है और पुरुषार्थ भी अहंकार का है। इन सबको प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से हल किया जा सकता है।
 अपने सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए पुरुषार्थ करना मानव की विशेषता है। वर्तमान काल में (कलियुग से जागकर द्वापर, त्रेता होकर गोल्डन ऐज की ओर बढ़ते हुए)  मनुष्य यदि चाहे तो व्यावहारिक जगत में ' मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन' (महामण्डल) से जुड़ कर, पूर्ण प्रयत्न (पुरुषार्थ) द्वारा अपना चरित्र-निर्माण करके आगे धनी, विद्वान, यथार्थ मनुष्य,महान पुरुष या  मानवजाति का मार्गदर्शक नेता आदि बन सकता है। इतना ही नहीं भगवद्भजन, सेवा, परमार्थ में लगकर ईश्वर प्राप्ति भी कर सकता है। और उसी प्रकार बुरे कर्म करके नारकीय यन्त्रणायें भी भोग सकता है।

दूसरा होता है असाधारण अथवा अटल प्रारब्ध। यह तो अवश्य भोगना ही पड़ता है। जैसे आग लगना, भयंकर प्राणाघात, बीमारी, बिजली पड़ना, आदि। ये अटल प्रारब्ध जीव पर इस तरह आते हैं कि इनसे बचने के लिए प्रयत्न करने का अवसर भी नहीं मिलता। जो प्रारब्ध-वादी है वो कहता है, ‘करना तो चाहते हैं पर क्या करें किस्मत ही ऐसी है’। अयोध्याकांड: श्री रामजी को लाने के लिए चित्रकूट जाने की तैयारी' के समय 'वशिष्ठ-भरत संवाद' में वशिष्ठ मुनि कहते हैं -  
 सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। 
हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥  
भावार्थ:-मुनिनाथ ने बिलखकर (दुःखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है। हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं॥171॥ 
प्रारब्ध का अर्थ है, ‘मैं मशीन हूँ’ पुरुषार्थ-वादी कहता है -‘करना चाहते हैं, और करके दिखा भी देंगे'। दोनों में ही कर्ता-भाव है। कृष्ण गीता में अर्जुन को बोल रहे हैं, ‘अपने प्रारब्ध के अनुरूप काम कर’।   अब क्या है उसका प्रारब्ध? क्षत्रिय घर में पैदा हुआ है तो लड़।
ऐसी परिस्थिति में - (चौथे पुरुषार्थ) जीव के  मोक्ष का कोई ठिकाना ही नहीं। लेकिन इसके लिए भी भगवान ने मार्ग बताया है। गीता (४/३७) में भगवान ने ऐसी युक्ति बताई है, जिससे जैसे घास के मीलों लम्बे ढेर को एक आग की एक चिनगारी जलाकर भस्म कर देती है, ठीक उसी तरह—
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
              ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।।

 हे अर्जुन जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है। पवित्र अनुभवमय एवं साक्षात्कार मय ज्ञान का प्रकाश जब हृदय में उत्पन्न होता है तो सारे संचित कर्म जल जाते हैं। जीव की लम्बी यात्रा समाप्त होती है। 
प्रार्थना से जब परमात्मा की कृपा होने लगती हे तो व्यक्ति वह प्राप्त करता हे जो भाग्य और पुरुषार्थ दौनों से ऊपर हे ! प्रारब्ध है पूर्व जन्म के कर्मों का फल। फल तो भोगना ही पड़ता है, परन्तु पुरुषार्थ से उसकी तीव्रता को कम किया जा सकता है अथवा यह भी कह सकते हैं कि उसको सहन करने की शक्ति बढ़ाई जा सकती है। 
अब विवेक एवं ज्ञान से अटल  प्रारब्ध से उत्पन्न होने वाली अशान्ति, दुःख, कठिनाई आदि को शान्ति में बदला जा सकता है। यही कारण है कि भगवद्भक्त,योगी, महापुरुष प्रारब्ध भोगने से अधिक व्याकुल नहीं होते न खुश ही होते हैं। उन्हें प्रभु की इच्छा या स्वयं की कृति का फल समझकर संतोषपूर्वक सहन कर लेते हैं। प्रारब्धवश आये सुख दुःख आदि में समत्व भाव से स्थिति हुआ व्यक्ति जीवन मुक्त ही तो है। अतः प्रारब्ध के इस रहस्य को जान लेना जीवात्मा को समत्व प्रदान करता है और जन्म-मरण के चक्र से बाहर निकालता है। " कथनी करनी भिन्न जहाँ है, धर्म नहीं पाखण्ड वहाँ है !" **साभार: May 1959 अखण्ड ज्योति ]
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[SV-HS  [73] भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण/' आदर्श मनुष्यों (Ideal Man ) का निर्माण करने वाला संगठन ' [ Ideal and Organisation] / " प्रलय या गहरी समाधि " [ ***22] परिप्रश्नेन / आदि लेख पर आधारित ****अध्‍यात्‍मयोगी न्‍यायतीर्थ पूज्‍य क्षुल्‍लक मनोहर जी वर्णी ‘सहजानन्‍द’ महाराजवर्णी जी  शास्त्र साईट :ज्ञानार्णव प्रवचन प्रथम भाग :

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