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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

हम लोग भेड़ों के स्वाभाव का आवरण धारण किये हुए सिंह हैं।

श्री मधुसूदन सरस्वती रचित 'अद्वैत-सिद्धि' की हिन्दी व्याख्या:- ' अखण्डाकार चरम वृत्ति ' रूपी विद्या जिस क्षण उत्पन्न होती है, अविद्या और अविद्याजन्य 'नाम-रूपात्मक दृश्य प्रपंच ' की निवृत्ति उसके बाद वाले दूसरे क्षण में होती है। तत्व-ज्ञान (या विवेकज-ज्ञान) के उत्पत्ति काल में 'बन्धन-विधुनन' न होकर उसके उत्तर भावी दूसरे क्षण में होती है अविद्या और अविद्या के कार्य - 'अहंकार' की निवृत्ति को ' बंधन-विधुनन' और दृश्य-प्रपंच के तिरोहित हो जाने को 'विकल्प-निवृत्ति' कहा जाता है। 


विद्वान् नाम-रूपाद् विमुक्तः (मुण्डक 3/2/8)
विद्या उत्पत्ति के द्वितीय क्षण में तत्वज्ञान आदि समस्त दृश्य का नाश हो जाता है। 'अविद्या-उच्छेद ' का अर्थ है, केवल स्थूल सूक्ष्मात्मक अविद्या के आश्रयभूत काल का पुर्णतः आभाव हो जाना। 'दृश्य-उच्छेद' का अर्थ है-सर्व दृश्य-प्रपंच जिस काल में रहता है, उस काल (समय या मृत्यु) का ही पूर्णतः आभाव हो जाना।
(या मृत्यु का भय पुर्णतः समाप्त हो जाना?) अविद्या-उच्छेद से उपलक्षित पूर्णानन्द रूप आत्मा ही मोक्ष पदार्थ है।अतः मोक्ष में 'अविद्या उच्छेदित आत्मरूपता ' के समान ही 'दृश्य-उच्छेदित आत्मरूपता ' भी रहती है। 
तत्व-ज्ञान (या विवेकज-ज्ञान ) उत्पत्ति के क्षण में सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच का उच्छेद होना संभव नहीं है। क्योंकि अनादि दृश्य प्रपंच (सूर्य-चन्द्र ग्राहादी से आच्छादित विश्व-ब्रह्माण्ड) का उच्छेद ज्ञान के द्वारा नहीं हो सकता। 
 केवल अविद्या और अविद्या के कार्य -'अहंकार' का ही विद्या से उच्छेद होता है। यह अहंकार ही आत्मा का मिथ्या-बंधन था, जिसके मिट जाने के बाद दूसरे क्षण में विकल्प या नाम-रूपात्मक दृश्य-प्रपंच भी मिट जाता है। इस प्रकार सर्व दृश्य-प्रपंच का उच्छेद हो जाने पर भूमानंद आत्मरूप कैवल्य की प्राप्ति विवेकज-ज्ञान (या तत्व-ज्ञान) के उत्तर क्षण में ही सिद्ध होती है इसीलिये विवेकज-ज्ञान के द्वितीय क्षण में ही मोक्ष की प्राप्ति माननी होगी।
 (श्री मधुसूदन सरस्वती रचित 'अद्वैत-सिद्धि' की हिन्दी व्याख्या,  न्यायाचार्य-मीमांसातीर्थ स्वामी योगीन्द्रानन्द, K 37/2 ठठेरी बाजार, वाराणसी तथा 'उदासीन संस्कृत विद्यालय ' C . K . 36/19 ढूँढीराज, वाराणसी प्रकाशक चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी के अनतर्गत 'लघु चन्द्रिका' के पृष्ठ 1323 से 1328 तक का सारांश )]
 "जीवन है पानी की बून्द कब मिट जाये रे, होनी अनहोनी कब घट जाये रे" मनुष्य अपने जीवन कई प्रकार के बीज डालता है, यही संस्कार भविष्य में कल्याण या अकल्याण करता है। पुरुषार्थ करने में समर्थ बनो। चाहे तो ३ कार  में घूमे या एक कार में या बिना कार के मन्दिर जा सकता है। जिसके पास है, और वह उसका त्याग कर दे, वही त्याग है। भोग का सामान हो और त्याग करे तो सारी दुनिया देखती अवश्य है। उसके प्रति लोग आश्चर्य किया करते हैं। 
बीज डालने के लिये विवेक-विचार करना पड़ता है, तब संस्कार और आचार अच्छा बनता है। उच्च पद क्षत्रियों के योग्य होते हैं। बीज डले वह फलता है,आदमी के व्यव्हार को देख कर पहचाना जा सकता है। नीच कार्य के जो मरते हैं उनको अगले जन्म में भी नीच कुल मिलता है। कल की क्रिया परसों का भविष्य है। पहली क्लास का पहाड़ा आज भी काम आता है। संस्कार कभी छूटता नहीं है। आज का कार्य ही कल का भविष्य बना सकता है। 'पाप भीख मंगवाता है, पुन्य संत बनवाता है।' जीवन में अच्छे विचार अच्छे संस्कार डालें। पीछे का भाग्य आज साथ दे रहा है। सत्यं वद,धर्मं चर। 
तुम्हारी चिता जलने से पहले तुम्हारा चैतन्य परमात्मा से जुड़ जाये। परमात्मा से बड़ा परमात्मा का कानून है। जो मेरा नाथ है,वही सबों में है।आज तक मैं किसी अपरिचित से मिला ही नहीं हूँ। अब मुझे मेरे अपने लगते हैं। जब मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये,तभी हम वरदान बन जाते हैं। माँ दुर्गा के रूप का अर्थ है ' कठोरता (सिंह ) के उपर कोमलता (प्रेम-शक्ति रूपिणी  माँ ) ' सवार है!
स्वामीजी  कहते हैं - " हम लोग भेड़ों के स्वाभाव का आवरण धारण किये हुए सिंह हैं। हम लोग अपने आसपास के आवरण के द्वारा सम्मोहित कर शक्तिहीन बना दिये गये हैं। वेदान्त का क्षेत्र स्वयं को विसम्मोहित करना है। स्वाधीनता हमारा ध्येय है। " 2/261]
 " जो कुछ प्रकृति के विरुद्ध लड़ाई करता है, वही चेतन है। उसमें ही चेतन का विकास है। यदि एक चींटी को मरने लगो तो देखोगे कि वह भी अपनी जीवन रक्षा के लिये एक बार लड़ाई करेगी। जहाँ चेष्टा या पुरुषार्थ है, जहाँ संग्राम है, वही जीवन का चिन्ह और चैतन्य का प्रकाश है।"6/13
 " मनुष्य जब मुक्त हो जाता है, तब वह किस प्रकार नियम में बद्ध रह सकता है ?  तब फिर वह कैसे कहेगा-मैं पुरुष हूँ, मैं स्त्री हूँ अथवा मैं बालक हूँ। क्या ये सब मिथ्या बातें नहीं हैं ? उसने जान लिया है कि यह सब मिथ्या है। तब वह भला किस तरह कहेगा-ये ये पुरुष के अधिकार हैं और ये ये स्त्री के ? किसी का कुछ अधिकार नहीं है।" 
" जात-पांत की ही बात लीजिए।संस्कृत में 'जाति' का अर्थ है वर्ग या श्रेणी-विशेष। यह सृष्टि के मूल में ही विद्यमान है। विचित्रता अर्थात जाति का अर्थ ही सृष्टि है। एकोअहम् बहुस्याम -मैं एक हूँ,अनेक हो जाऊँ, विभिन्न वेदों में इस प्रकार की बात पाई जाती है। सृष्टि के पूर्व एकत्व रहता है, सृष्टि हुई कि वैविध्य शुरू हुआ। जाति का मूल अर्थ था प्रत्येक व्यक्ति को अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वाधीनता और यही अर्थ हजारों वर्षों तक प्रचलित भी रहा। " ३/३६७ 
" मैं अमुक हूँ -व्यक्ति विशेष-यह बहुत संकीर्ण भाव है, यथार्थ 'अहम् ' के लिये यह सत्य नहीं है। मैं विश्वव्यापक हूँ-इस धारणा में प्रतिष्ठित हो जाओ-और श्रेष्ठ की उपासना सदा श्रेष्ठ रूप में करो; कारण, ईश्वर चैतन्य स्वरुप है, आत्मस्वरूप है, चैतन्य और सत्य में ही उसकी उपासना करनी होगी। जो कुछ ससीम है, सांत है, वह जड़ है। केवल चैतन्य ही अनन्तस्वरुप है। ईश्वर चैतन्यस्वरूप है, वह अनन्त है; मानव चैतन्यस्वरूप है और इसलिये मानव भी अनन्त है और केवल अनन्त ही अनन्त की उपासना करने में समर्थ है। आगे से हम अपने अनन्तस्वरुप की ही उपासना करेंगे, वही सर्वोच्च अध्यात्मिक उपासना है। "2/301
" किन्तु इसी भाव में सदैव प्रतिष्ठित रह पाना कितना कठिन है ! मैं कहता हूँ, यहाँ कोई पराया नहीं सभी अपने हैं। कितनी ही दार्शनिक बातें करता हूँ, इतने में कोई मेरे प्रतिकूल घटना घटती है- मैं अनजाने ही क्रुद्ध हो उठता हूँ, भूल जाता हूँ कि -इस विश्व में क्षुद्र ससीम मेरे इस अस्तित्व को छोड़ कर और भी कुछ है। मैं कहना भूल जाता हूँ कि मैं -'चैतन्य स्वरुप हूँ।' मैं भूल जाता हूँ कि यह सब मेरी ही लीला है; मैं ईश्वर को भूल जाता हूँ, मैं मुक्ति की बात भूल जाता हूँ।किन्तु इन दुर्बलताओं और विफलताओं से अपने को बँधने न दो। यद्दपि वह पथ उस्तरे की धार की तरह तीक्ष्ण है-यद्दपि वह पथ दीर्घ है, दूरवर्ती और कठिन है, किन्तु उस पथ का हम अवश्य अतिक्रमण करेंगे। मनुष्य ही देवताओं और असुरों का प्रभु होता है। हमारे दुखों के लिये स्वयं हमारे सिवा और कोई उत्तरदायी नहीं है।
 क्या तुम समझते हो कि यदि मनुष्य अमृत पाने की चेष्टा करे, तो उसे बदले में सिर्फ विष का प्याला ही मिलेगा ? नहीं, अमृत है और उसको प्राप्त करने के प्रयास में जो लगा रहता है, उस प्रत्येक मनुष्य को उसकी प्राप्ति होती है।
प्रभु ने स्वयं कहा है- 'सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज।' इन सभी धर्मों का सभी उद्दमों का परित्याग कर एक मेरी शरण में आ। मैं तुझे समस्त पापों के पार लगा दूंगा। भय न कर '।जीवन अनन्त है,जिसका एक अध्याय -' तेरी इच्छा पूर्ण हो ' है। हमें यदि इस कच्चे 'अहम् ' को जितना हो, तो बार बार इस बात की आवृत्ति करनी होगी। सबका परित्राण है, केवल विश्वासघाती का परित्राण नहीं है। " 2/301-2
 " ऐसे अनेक व्यक्ति संसार में इस समय भी जीवित हैं, जिनका अज्ञान सदा के लिए चला गया है। तो क्या सत्य की उपलब्धी के बाद उनकी तुरन्त मृत्यु हो जाती है ? उतनी जल्दी नहीं, जितनी जल्दी हम समझते हैं। मान लो, एक लकड़ी से जुड़े दो पहिये साथ साथ चल रहे हैं। अब यदि एक पहिये को पकड़कर बीच की लकड़ी को कुल्हाड़ी से काट दूँ , तो जिस पहिये को मैंने पकड़ रखा है, वह तो रुक जायेगा; पर दूसरा पहिया, जिसमें पहले का वेग अभी नष्ट नहीं हुआ है, वह कुछ दूर चलेगा और फिर गिर पड़ेगा।
 पूर्ण शुद्ध स्वरुप आत्मा मानो एक पहिया है, और शरीर-मनरूप भ्रान्ति दूसरा पहिया; ये दोनों कर्मरूपी लकड़ी द्वारा जुड़े हुए हैं। ज्ञान मानो कुल्हाड़ी है, जो जोड़ने वाली इस लकड़ी को काट देता है। जब आत्मा रूपी पहिया रुक जाता है, तब आत्मा यह सोचना छोड़ देती है कि वह आ रही है, जा रही है, अथवा उसका जन्म होता है, मृत्यु होती है; जब तक पूर्व कर्मों का वेग पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाता, तब तक शरीर और मन बने रहते हैं। यह वेग समाप्त हो जाने पर इनका भी नाश हो जाता है और तब आत्मा मुक्त हो जाती है। " 2/35  
 " जिन लोगों ने आत्मा को प्राप्त कर लिया है, जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिये फिर क्या रह जाता है ? -उनके लिये अतीत जीवन के शुभ-संस्कार, शुभ-वेग ही बचा रहता है। शरीर में रहते हुए भी और अनवरत कर्म करते हुए भी वे केवल सत्कर्म ही करते हैं।उनके मुख से सब के प्रति केवल आशीर्वाद ही निकलता है, उनके हाथ केवल सत्कार्य ही करते हैं, उनका मन केवल सच्चिन्तन ही कर सकता है। उनकी उपस्थिति ही, चाहे वे कहीं भी रहें सर्वत्र मानव जाति के लिये महान आशीर्वाद होती है। वे स्वयं एक सजीव आशीर्वाद होते हैं। ऐसा व्यक्ति अपनी उपस्थिति मात्र से घोर दुरात्मा को भी संत बना देता है।" 2/38]"
"आज हमको बुद्धि के इस प्रखर सूर्य (आचार्य शंकर ) के साथ बुद्धदेव का अद्भुत प्रेम और दयायुक्त अद्भुत हृदय चाहिये। इसी सम्मिलन से हमें उच्चतम दर्शन की उपलब्धी होगी। विज्ञान और धर्म एक दूसरे का आलिंगन करेंगे।कविता और विज्ञान मित्र हो जायेंगे। यही भविष्य का धर्म होगा।" 2/94 
हमें यह मानव जीवन मिला है (3H की ) विशेषताओं का विकास करने के लिये, गुणों का विकास करने के लिये, ब्रह्मविद मनुष्य स्वयं तिर जाता है और दूसरों को तारता है, जीवन में गुरु का विकास करना है, लघु को या हीन मन्यता को त्याग करना है।