मंगलवार, 22 जुलाई 2014

अन्तर्निहित देवत्व को अभिव्यक्त करो -और मुक्त हो जाओ !

अन्तःप्रकति पर विजय प्राप्त करने में सफल मनुष्य ही 'सच्चा हीरो-वीरपुरुष' है ! सभ्यता का इतिहास प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करने का इतिहास है। प्रकृति दो प्रकार की होती है- अन्तः प्रकृति (Intra nature एवं बाह्य प्रकृति (External nature)। विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, मनुष्य जाति ने जो भी कीर्तिमान स्थापित किया है; वह सब प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्त करने से ही हुई है। प्रकृति का अनुकरण करने वाला कोई मनुष्य ख्यातिप्राप्त व्यक्ति (Celebrity) नहीं बन सकता है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द युवाओं को प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करने का आह्वान करते हैं- तुम प्रकृति पर विजय प्राप्त करो और हीरो बनो; आज तुम्हारे देश को ऐसे ही नेताओं की आवश्यकता है। 
इस संग्राम का प्रारम्भ हमलोगों को अपनी अन्तःप्रकति के ऊपर विजय प्राप्त करने के द्वारा -' Victory on Intra-type Nature ' करना होगा। स्वामीजी कहते हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त (संभावित) ब्रह्म है। बाह्य एवं अन्तःप्रकृति को वशीभूत करके इस ब्रह्मभाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है। कर्म, उपासना, मनःसंयम अथवा ज्ञान, इनमें से एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह्मभाव व्यक्त करो -और मुक्त हो जाओ ! बस, यही धर्म का सर्वस्व है। मत (ism), अनुष्ठान-पद्धति, मन्दिर अथवा अन्य बाह्य क्रिया-कलाप तो उसके सेकेंडरी डिटेल्स मात्र हैं। " 
उपरोक्त चार प्रकार के उपायों द्वारा अपने अन्तः प्रकृति को जीत कर हमें अपनी भीतरी ब्रह्मसत्ता को अभिव्यक्त करना होगा। इसीको धर्म कहते हैं। अर्थात ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनना होगा - क्योंकि ब्रह्मविद् मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है ! स्वामीजी के कहने का तात्पर्य यही है। हमलोगों ने मनुष्य शरीर में जन्म ग्रहण किया है। किन्तु स्वयं को 'मनुष्य' के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिये मनुष्य का जो वैशिष्ट होता है -' धर्म '; जीवन में उसकी उपस्थिति का रहना परमावश्यक है। हमें अपने जीवन और आचरण से भी यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि हम मनुष्य हैं-पशु नहीं हैं। हितोपदेश में कहा गया है - 
 आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ॥
- अर्थात आहार निद्रा भय और वंश-विस्तार की चेष्टा सभी प्राणियों मे समान रूप से पाये जाते हैं। मनुष्य शरीर में जन्म लेने का वैशिष्ट्य- धर्म का पालन करने में है। ' धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः' -
-यदि हमलोग धर्म का पालन न कर सकें, तो भले ही हमारा ढाँचा मनुष्य का हो, किन्तु ' मनुष्य' कहलाने के लायक नहीं होंगे।
हमलोग क्या हैं -मनुष्य हैं या पशु ? हमलोग अपने आप को किस श्रेणी में देखते हैं ? यदि मनुष्य हैं, तो क्या हमलोग धर्म-पालन करते हैं ? धर्म किसे कहते हैं? क्या रामनवमी-मुहर्रम में डांडा भांजना या जन्माष्टमी के अवसर पर दही-हाण्डी फोड़ना युवाओं का धर्म है ? नहीं, धार्यते इति धर्म: अर्थात धर्म चरित्र के उन गुणों को कहते हैं जिन्हें अपने जीवन धारण करने से हमें मनुष्य कहलाने का अधिकार प्राप्त होता है। 
हम चाहे हिन्दू हों या मुसलमान या अन्य किसी सम्प्रदाय मेँ जन्म ग्रहण क्यों न किये हों; बाहरी वेश-भूषा चाहे जैसी भी हो, हमारा चरित्र ही हमारे मनुष्यत्व को धारण किये रहता है। अपने जीवन मेँ प्रतिमुहूर्त हमलोग जिन अनुशासनों का पालन अथवा यम-नियम का अभ्यास करते हैं, चरित्र के वे अनिवार्य गुण हमें मनुष्यत्व की सीमा मेँ पकड़े रखते  है, हमें पशु या राक्षस बनने की सीमा मेँ जाने से रोकता है; उसी को धर्म कहते हैं। ( सत्य,अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह -पाँच यम हैं और  शौच, सन्तोष, तपः, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान -ये पाँच नियम हैं, इस यम-नियम का पालन हमें प्रतिमुहूर्त करना होगा तभी हमलोग ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन सकेंगे।) हमलोग यदि धर्म (यम-नियम) का पालन करके अपने अंतःप्रकृति को जीतने का प्रयत्न नहीं करें, तो हमलोग पशु बन जायेंगे। पशु प्रकृति का अनुकरण करता है, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम नहीं करता। पशु अपने बायोलॉजिकल इंस्टिंक्ट (पाशविक-प्रवृत्ति) को कायम रखने के लिये जिस संग्राम को अवश्यक समझता है, उतना ही संग्राम करता है। किन्तु केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करके मनुष्य अपने प्रच्छ्न्न आन्तरिक देवत्व को विकसित कर सकता है। जो मनुष्य प्रच्छन्न भाव से अन्तर्निहित अपने भीतरी देवत्व को विकसित नहीं कर सका-उस मनुष्य जीवन सार्थक नहीं होता- व्यर्थ हो जाता है। 
कबीरा जब पैदा हुए जग हँसा हम रोये, ऐसी करनी कर चलो तुम हँसो- जग रोये !
जिस मनुष्य के जाने के बाद लोग उसको याद करके अश्रु बहते हैं उसी मनुष्य का मानव-शरीर में जन्म धारण करना सार्थक होता है। और अगर जाने के बाद कोई कहे कि चलो अच्छा हुआ, धरती का बोझ कम हो गया तो उस मनुष्य का अनमोल जीवन व्यर्थ माना जाता है। यदि जीवन को व्यर्थ के कामों -आहार,निद्रा,मैथुन में ही गँवा देना था, तो हमलोग मनुष्य क्यों बने पशु क्यों नहीं बने ? इसिलिये हमलोगों को मनुष्य के जैसा आचरण करके दिखलाना होगा कि हमलोग पशु नहीं हैं। 
मनुष्य मात्र में प्रच्छन्न भाव से अंतर्निहित देवत्व को विकसित करने का उपाय क्या है ? विभिन्न युगों मे विभिन्न महापुरुषों ने कई प्रकार के मार्गों का आविष्कार किया है। इस युग मे श्रीरामकृष्ण के उपदेशों के अनुरूप स्वामी विवेकानन्द ने जो सहज मार्ग दिखलाया है, वह है -कर्म और उपासना साथ साथ करना । या 'शिव ज्ञान से जीव सेवा।' स्वामीजी ने बाद मे कहा था, 'सेवा' कहने से मेरे भाव को स्पष्ट रूप मे प्रकाशित नहीं किया जा सकता है। मेरे कहने का अभिप्राय है- ' सेवा नहीं पूजा !'  'सेवा' के बदले 'पूजा' कहा जाय तभी- जीव मात्र को शिव जानकर उसकी सेवा की जा सकती है।
इस युग की भावना थी कि देव-रूप का जो बिम्ब भक्त या शिल्पी के मन में है उसीका सदृश्य और प्रतिबिम्ब ही देवता का वास्तविक रूप है। प्रतिमा की पूजा करना किसे कहते हैं ? आगम वचन है- 'देहो देवालयो साक्षात्' तथा 'देवो भूत्वा देवं यजेत्' - कर्मकांड में देवता होकर देवता का यजन करना पड़ता है। पहले स्वयं देवता बनने की पूजा करनी होगी, फिर देव का पूजन करे तो उससे अमिट फल की प्राप्ति अवश्य होगी।' उपासना में उपास्य जैसा बनना अभ्यास है । उपासना शास्त्रमें माना जाता है ‘‘रामो भूत्वा रामं यजेत्’’, यानी हम जिस किसी भी देवता की उपासना करतें है उनके जैसे विचार हैं, मंतव्य है, गुण है वह हमें अपने भीतर आत्मसात करने चाहिए । तथा उसके लिये साधना करनी चाहिए । साधना के बिना उपासना निरर्थक है। 
महामण्डल विगत ४७ वर्षों से देवता बनने और देवता बनाने की पूजा करता चला आ रहा है। यह पूजा हम अपने व्यक्तिगत जीवन मेँ शुरू कर सकते हैं। क्यों हम यह पूजा करेंगे? देवता बनने के लिये। अपने असली स्वार्थ को पूरा करने के लिये ही करना होगा। दूसरों का कल्याण तो स्वतः हो जायेगा। पहले मैं अच्छा चरित्रवान मनुष्य बनूँगा। इसिलिये महामण्डल का आदर्श वाक्य है Be and Make में  Be स्वयं देवता बनना है,और Make है देवता की पूजा करना। जो पूजा कर रहा है, और जो पूजित हो रहे हैं- इससे दोनों की उन्नति होगी। श्रीरामकृष्ण कहते हैं, शालिग्राम शीला मेँ जब भगवान विष्णु की पूजा हो सकती है, तो जीवंत मानव-शरीर मेँ ईश्वर की पूजा क्यों नहीं हो सकती? इसी प्रत्यक्ष देवता की पूजा करो, अन्य देवता की पूजा बाद मेँ देखी जाएगी।         
हमलोग अपने बेटे-बेटिओं को यथार्थ मनुष्य बनाना चाहते हैं। हम चाहते हैं हमारे बच्चे बड़े होकर इतने महान बनें कि इस देश के भूखे-नंगे लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने का सामर्थ्य प्राप्त करें; और लोग उनको पूजनीय समझें। यदि हमलोग इतिहास का विश्लेषण करें तो यही पायेंगे कि जगत वैसे ही लोगों की पूजा करता है, जो निःस्वार्थपर हुए थे, और जिन लोगों ने आत्मकेन्द्रित जीवन जीया था, जगत में उनकी पूजा कभी नहीं हुई है। 
इसीलिये यदि हम अपने बेटे-बेटियों को भी यदि पूजनीय मनुष्य बनाना चाहते हों, या उनको पूजा के आसन पर देखना चाहते हों, तो उनको निःस्वार्थी बनने की शिक्षा देनी होगी। उनको देवत्व को विकसित करने की शिक्षा देनी होगी। तभी वे लोग देवता के आसन पर बैठने योग्य हो सकेंगे। हमलोग अपने बेटे-बेटियों को मैनेजमेन्ट पढ़ा रहे हैं, डाक्टरी पढ़ा रहे हैं, इन्जियरिंग पढ़ा रहे हैं -यह सब ठीक है। किन्तु क्या वे देवता के आसन पर क्या बैठ पा रहे हैं? क्या वे देशवासियों के ह्रदय के आसन पर बैठने योग्य बन पा रहे हैं ? 
आप लोग देखें, बंगाल के एक अत्यन्त दूरदराज के गाँव में ठाकुर (श्रीरामकृष्ण) ने जन्म ग्रहण किया था, बिल्कुल अनपढ़ थे, लिखना-पढ़ना कुछ नहीं जानते थे; फिर भी आज ठाकुर देश-विदेश में पूजित हो रहे हैं। क्यों लोग उनकी पूजा करते हैं ? माँ सारदा देवी को देखिये, वे भी लिखना-पढ़ना नहीं जानती थीं, वे एम.ए पास नहीं थी, एम. टेक. भी नहीं की थी, क्यों लोग उनकी पूजा करते हैं? इसका कारण यही था कि वे लोग इतने निःस्वार्थी बन गए थे कि साधारण मनुष्यों की चिन्ता में स्वयं को भी भूल गए थे। इसीलिये आज जगत उनकी पूजा कर रहा है। उनकी शिक्षा से शिक्षित होकर स्वामी विवेकानन्द सम्पूर्ण विश्व को यही शिक्षा दे गए हैं। स्वामीजी को ठाकुर ने सिखलाया था, जो व्यक्ति अपनी मुक्ति की बात सोचता है, वह भी स्वार्थपरता है।  ठाकुर ने कहा, ' मैंने तो सोचा था की तुम विशाल बटवृक्ष की तरह बनेगा, स्वयं धुप सहकर लोगों को छाया देगा, तुम्हारी छाया में बैठने से कितने ही लोगों को शान्ति प्राप्त होगी। और तू केवल अपनी मुक्ति की बात सोचता है रे? छिः धिक्कार है तुझे !" ऐसा कहकर ठाकुर ने उनकी इस कमी को भी दूर कर दिया था। वही विशाल बटवृक्ष, जिसके जन्म का १५० वर्ष से अधिक बीत चूका है, वे हमारे सामने एक आदर्श मनुष्य के रूप में उपस्थित हैं। अब यह हमारे उपर निर्भर करता है कि हम उन्हें अपने जीवन-आदर्श मानकर ग्रहण करते हैं या नहीं ? अर्थात हमलोग क्या स्वयं को पूजा के आसन पर बैठाना चाहते हैं या नहीं ?
इसी युवा अवस्था में हमें अपने जीवन के लक्ष्य को निश्चित कर लेना होगा। जो अभिभावक हैं उन्हें यह विचार करना चाहिये कि हमारा मनुष्य जीवन बीतता जा रहा है, हमलोग दिनोंदिन मृत्यु के निकट बढ़ते जा रहे हैं। हमलोग अपने बेटे-बेटियों को भी ऐसी स्वार्थपरता की शिक्षा तो नहीं दे रहे हैं ? हमें स्वामीजी के उसी जागरण मंत्र को गाँव गाँव तक पहुँचा देने के लिये कमर कस कर खड़े होना होगा। विवेकानन्द युवा महामण्डल अपने प्रत्येक पाठचक्र में आत्मा के जागरण का यही मंत्र उच्चारित करता आ रहा है। तीन वर्ष के बाद इसकी गोल्डेन जुबली होने वाली है, आप सभी लोग अपने देवत्व को विकसित करने के लिये आगे आइये।अपने ही प्रयोजन को पूर्ण करने के लिये महामण्डल पाठचक्र से जुड़िये। हमलोग अत्यन्त स्वार्थपर जीवन बिता रहे हैं, बिल्कुल पशुओं के जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। स्वामीजी की शिक्षा से शिक्षित होकर हमलोग देवता बनेंगे। जगत की पूजा प्राप्त करने योग्य बनेंगे। स्वामीजी ने कहा था -हमलोगों के हर कदम पर हमारे देवत्व की अभिव्यक्ति जब होने लगेगी तभी हम अपने को स्वामीजी की शिक्षा से शिक्षित मनुष्य कह सकेंगे। 
केवल यह कहने से कुछ नहीं होगा कि मैंने तो रामकृष्ण मिशन से दीक्षा ली है, और प्रचार भी करता रहता हूँ! हमलोग रामकृष्ण मिशन भी जाते हैं, अमुक महाराज का संग किया हूँ। किन्तु जब तक अपने जीवन की ओर नहीं देखते, आत्मसमीक्षा करके अपने अन्तःकरण को शुद्ध नहीं करते, तबतक इस तरह की बातों से कुछ होने वाला नहीं है। क्रमशः स्वामीजी की शिक्षाओं को अपने जीवन में प्रतिष्ठित करना होगा, आचरण से दिखाना होगा। हमलोग विवेकानन्द के साहित्य को बड़े ध्यान से अध्यन करेंगे, chew and digest -केवल स्वाध्याय-नियम की रक्षा के लिए नहीं बल्कि उन्हें आत्मसात करने के चबा चबा कर पचा लेने के लिए पढूंगा। मैंने बहुत से छात्रों से पूछा है, क्या तुमलोग स्वामीजी की पुस्तकों को पढ़े हो ? अधिकांश छात्र कहते हैं, ' नहीं, मैंने नहीं पढ़ा है; स्कूल -कॉलेज में नहीं पढ़ाया जाता, क्योंकि पैसा कमाने का गुर उसमें नहीं है। इसीलिए हम वे सब नहीं पढ़ते।' 
किन्तु कुछ भी पढ़ने के लिये पहले मन को तैयार करना पड़ता है-मन लगाकर पढ़ने की सीख सभी देते हैं। किन्तु इच्छा-शक्ति का प्रयोग करके मन को किस प्रकार संयत किया जाता है-इसकी शिक्षा तो कोई नहीं देता ? इच्छा-शक्ति स्वयं ईश्वर से आती है, इच्छा-शक्ति के द्वारा ही हमलोग विवेक-प्रयोग करके प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। तभी हमलोग ठीक ठीक मनुष्य बन सकते हैं। दिनों दिन हम बेहतर मनुष्य बन सकते हैं, अच्छा इंसान बन सकते हैं। यही शिक्षा स्वामीजी ने हमलोगों को दी है। रामकृष्ण मिशन और महामण्डल इसी शिक्षा पर चर्चा करता आ रहा है। स्वामी जी के संदेशों पर चर्चा करनी होगी, हमलोग स्वामीजी के संदेशों को पढ़ते भी हैं; किन्तु कैसे पढ़ना चाहिये- यह हमलोग नहीं जानते। शास्त्रों में कहा गया है -श्रवण, मनन और निदिध्यासन। सबसे पहले ठाकुर, माँ, स्वामीजी की जीवनी के साथ साथ उनके संदेशों को पढ़ना चाहिये। उसके बाद उनपर मनन करना चाहिये। यही मुख्य बात है। उसके बाद निदिध्यासन करना होगा। स्वामीजी के उप्र ध्यान करना होगा। फिर शास्त्रों के साथ मिलाकर देखना होगा -तभी ठीक ढंग से पढ़ना कहेंगे। किस प्रसंग में स्वामीजी यह कह रहे हैं, उसके ऊपर विवेचना करते हुए पढ़ना होगा। हमलोगों के दैनन्दिन जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान स्वामीजी के जीवन और सन्देश के माध्यम से करना होगा। तभी हम लाभ उठा सकेंगे। जिन लोगों ने भी पढ़ा है सभी को इससे फायदा हुआ है।
(स्वामी विवेकानन्द जयन्ती के अवसर पर १९ जनवरी २०१४ को आज़ाद हिन्द पार्क में आयोजित महामण्डल के एक युवा रैली में अद्वैत आश्रम, कोलकाता के कार्यकारी अध्यक्ष स्वामी आत्मलोकानन्द का भाषण।)

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