शनिवार, 26 जुलाई 2014

141 th SPTC : 19-20 July, 2014 ' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के १४१ वें स्पेशल आवधिक प्रशिक्षण शिविर पर रिपोर्ट '

[ Report  on 141 th 'Special Periodical Training Camp' (SPTC) of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal, held at Konnagar Mahamandal Bhavan on 19-20 july, 2014]
१९-२० जुलाई, २०१४ को कोन्नगर महामंडल भवन में आयोजित अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के १४१ वें स्पेशल आवधिक प्रशिक्षण शिविर पर रिपोर्ट। 

 १९ जुलाई, २०१४ के S.P.T.C में 
नवनीदा, बीरेनदा 

इस शिविर में महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों को संचालित करने वाले लगभग १८० प्रशिक्षणार्थिओं ने हिस्सा लिया। १९ जुलाई को संध्या ७ बजे संघगीत, स्वदेश-मंत्र का पाठ एवं श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा विषयक आरात्रिक भजन के बाद, महामण्डल के सचिव श्री बिरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती ने शिविर का प्रारम्भ किया।
उन्होंने कहा कि इस शिविर में कई ऐसे वरिष्ठ महामण्डल कर्मी भाग ले रहे हैं, जिन्होंने १३० 'SPTC' में भाग लिया है। कुछ कार्यकर्ताओं का यह ३० वां-४० वां ऐस.पी.टी.सी होगा, तो कुछ महामण्डल कर्मी २ से ५ ऐस.पी.टी.सी पुराने होंगे। नये-पुराने सभी महामण्डल कर्मियों को आत्मसमीक्षा करते हुए यह देखना चाहिये कि जब मैं प्रथम 'SPTC' में आया था, उस समय एक  मनुष्य के रूप में मेरी जो अवस्था थी, प्रकृति (पाशविक-प्रवृत्ति) के विरुद्ध संग्राम करते हुए आज मैं वहाँ से कितना अधिक उन्नत हो सका हूँ ?
हमलोग यह जानते हैं कि मानव-सभ्यता का इतिहास प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करने का इतिहास है। पशु अपनी प्रकृति, अर्थात बायोलॉजिकल इंस्टिंक्ट का अनुकरण करता है, प्रकृति के विरुद्ध संग्राम नहीं करता। पशु अपने पाशविक-प्रवृत्ति को कायम रखने के लिये जिस संग्राम को अवश्यक समझता है, उतना ही संग्राम करता है। किन्तु मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध संग्राम करके अपने प्रच्छ्न्न भीतरी देवत्व को विकसित कर सकता है। हम मनुष्य भी यदि धर्म (यम-नियम) का पालन करके अपने अंतःप्रकृति को जीतने का निरन्तर प्रयत्न नहीं करते रहें, तो हमलोग भी पशु बन जायेंगे।  और जो मनुष्य प्रच्छन्न भाव से अन्तर्निहित अपने भीतरी देवत्व को विकसित नहीं कर सका-उस मनुष्य जीवन सार्थक नहीं होता- व्यर्थ हो जाता है। 
इसीलिये 'स्पेशल पेरिओडिकल ट्रेनिंग कैंप' या तीन महीने के अन्तराल पर होने वाले आवधिक प्रशिक्षण शिविर में भाग लेते समय हमलोगों को अपनी आत्मसमीक्षा करके यह अवश्य देखना चाहिये कि मैं महामण्डल से जुड़ने के बाद अपने अन्तर्निहित देवत्व को कितना अधिक प्रस्फुटित कर सका हूँ ?

इतने वर्षों से महामण्डल के साथ जुड़े रहने के बाद भी, कई ऐसे पुराने केन्द्र हैं जिन्होंने अभीतक अपना A.G.M (वार्षिक आम बैठक) में प्रस्तुत आमद-खर्च का लेखा-जोखा (Income-Expenditure Account ) तथा नई कारकारिणी के गठन का विवरण मुख्यालय में नहीं भेजा है। जबकि नियमतः प्रत्येक वर्ष के अप्रैल माह में या अधिकतम १५ मई सभी केन्द्रों में 'वार्षिक आम बैठक' अवश्य होना चाहिये।

बीरेन दा एवं अमित दा
(१९ जुलाई २०१४ को कोन्नगर कार्यालय में)
इस वर्ष १५-२० महामण्डल यूनिटों ने अपने A.G.M (वार्षिक आम बैठक) की रिपोर्ट नहीं भेजी है,जिसके कारण केन्द्रीय महामण्डल को भी अपना वार्षिक आय-व्यय खाता तैयार करने में विलम्ब हो जाता है। जब से प्रिंटेड एनुअल रिपोर्ट को प्रति वर्ष अप्रेल माह में भेजने का अनिवार्य नियम बना है, उसी से प्राप्त आँकड़ों के आधार पर हम केन्द्रीय मुख्यालय के आय-व्यय खाता को समय पर प्रस्तुत कर पाते हैं। एक बहुत पुराना यूनिट है जिसने इस वर्ष २ लाख रुपए के महामण्डल पुस्तिकाओं एवं मठ-मिशन की पुस्तकों की बिक्री की है, किन्तु अभी तक अपने A.G.M (वार्षिक आम बैठक) का रिपोर्ट नहीं भेजा है।

टेलीफोन से विलम्ब का कारण पूछने पर पता चलता है कि अभीतक उनके आमद-खर्च का लेखा-जोखा (Income-Expenditure Account) नहीं बन सका है। किन्तु अकाउंट क्यों नहीं बना ? यह पूछने पर वहाँ के सचिव ने कहा यहाँ के बुक-स्टाल तथा अन्य आयोजनों का सारा खर्च तो मैंने अपने पॉकेट से किया है-फिर इसके लिये खर्च का अकाउंट देने की जरुरत क्या है? हमने तो अपना ही पैसा महामण्डल में लगाया है, इसमें से कुछ लिया थोड़े है कि मुझे उसका अकाउंट देने की जरुरत है? 
सभी महामण्डल कर्मियों को स्वामी विवेकानन्द का उदाहरण याद रखना चाहिए। वे रामकृष्ण मठ मिशन के प्रेसिडेन्ट थे, किन्तु जब उन्होंने अपना उत्तरदायित्व स्वामी ब्रह्मानन्दजी को सौंप दिया तो जो नियम एक सामान्य कर्मी पर लागु होता है वही नियम प्रेसिडेन्ट -सेक्रेटरी पर भी क्यों नहीं लागु होना चाहिए ? उन्होंने स्वामी ब्रह्मानन्द जी से कहा मैं थोड़ा कोलकाता जाना चाहता हूँ, क्या तुम मुझे चार आना दे सकोगे ? वे तो स्वयं ही ले सकते थे, पर नहीं लिये कि इसका अकांउट बनते समय चार आने का खर्च दिखाना होगा। उन्होंने प्रेसिडेन्ट महाराज से कहा हमलोग गृहस्थ लोगों से चन्दा माँग कर अपना संगठन चलाते हैं, यदि हमलोग उसके आमद-खर्च का सही सही ब्यौरा नहीं देंगे, तो हमारे संघ से लोगों का विश्वास उठ जायेगा। 

प्रशिक्षणार्थियों का रजिस्ट्रेसन: श्री प्रमोदरंजन दास  
उसी प्रकार महामण्डल के भी किसी केन्द्र के प्रेसिडेन्ट-सेक्रेटरी को महामण्डल के कार्यों में होने वाले किसी भी खर्च को पर्सनल कैश (अपना व्यक्तिगत धन) समझकर खर्च नहीं करना चाहिये। जो पैसा तुमने खर्च किया है, उतने रकम का चन्दे की रशिद अपने नाम से काट कर पहले कैशबुक में जमा करो, फिर जिस मद में खर्च किये हो, उसे लिख दो। अपना पैसा समझकर खर्च मत करो, नहीं तो भक्तियोग की भाषा में इसे सेवा-दोष माना जायगा।

श्री नीतीश भट्टाचार्य
 महामण्डल प्रशिक्षण लंगरखाना के मुख्य व्यवस्थापक 
  इसीलिये स्वामीजी ने 'शिव ज्ञान से जीव सेवा।' की व्याख्या करते हुए बाद मे कहा था, मेरे कहने का अभिप्राय है- ' सेवा नहीं पूजा है!'  'सेवा' के बदले 'पूजा' कहा जाय तभी- जीव मात्र को शिव जानकर उसकी सेवा की जा सकती है। 

यहाँ सब्जी काटना भी पूजा है !  

 नहीं तो अपने को बहुत बड़ा सेवक या दानी मानने का अहंकार मन में अनजाने ही प्रविष्ट हो जायेगा। इसीलिये महामण्डल का प्रत्येक कर्मी इस आवधिक प्रशिक्षण शिविर में भाग लेते समय यहाँ के प्रत्येक कार्य को पूजा समझकर करता है, सेवा समझकर नहीं करता है। 

     लंगरखाना में ' शिव ज्ञान से जीव सेवा' का जो आदर्श उदाहरण !
जो भाई कीचन में भोजन पकाते हैं या सब्जी काटते हैं,भोजन परोसते हैं, अथवा भोजन के बाद जूठे पत्तलों को उठाते हैं वे उसे सेवा समझकर नहीं करते बल्कि पूजा समझकर करते हैं। यदि हमलोग 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' को साक्षात नारायण की पूजा समझकर नहीं करें तो हमलोगों की सेवा ' पूजा' बनने के बदले ' भ्रष्टाचार जन्य पोलिटिकल सेवा ' भी बन सकती है !  
श्रीरामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन में - ' शिव ज्ञान से जीव सेवा' का जो आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया था, उस घटना का उल्लेख करते हुए बीरेन दा ने बताया कि " एक बार मथुरनाथ बिस्वास (मथुर बाबू जो रानी रासमणि के दामाद थे) नदिया जिला के 'कलाईघाट' में अपनी जमीन्दारी का निरिक्षण करने निकले तो अपने साथ श्री रामकृष्ण को भी चलने का अनुरोध किया। 
उस जमीन्दारी का कारिन्दा टैक्स नहीं भेज रहा था, उसके भ्रष्टाचार को पकड़ने के लिये वे अपने साथ ठाकुर को भी ले जाना चाहते थे। मथुरनाथ बिस्वास के जमींदारी के अंतर्गत राणाघाट के निकट स्थित कलाईघाट में श्री रामकृष्ण जब पहुंचे तब उन्होंने देखा कि ब्रिटिश राज की नीतियों और मौसम की लहर के कारण उन दिनों वह पूरा इलाका अकाल की चपेट में था। अन्न और जल दोनों की खासी कमी थी। गरीब जनता अतिशय दुख और कष्ट से बेहाल थी। इस माहौल में भूख और त्रासदी से ग्रस्त लोगों के एक समूह को देखकर  करूणामय श्री रामकृष्ण उन आदिवासियों की इस अस्वस्थता को बरदाश्त नहीं कर सके।

वे अपने धनिक साथी माथुरबाबू से बोले '' देखो क्या त्रासदी आई है। देखो भारत मां की ये सन्तान कैसे दीन और हीन भाव से त्रस्त है। भूख से उनका पेट और पीठ एक होते जा रहा है। आंखे निस्तेज और चेहरा मलिन हो गया है। बाल अस्तव्यस्त और सूखे जा रहे हैं। ओ मथुर तुम  इन सब दरिद्र नारायण को अच्छी तरह नहाने का पानी बालों में डालने को तेल और भरपेट भोजन की व्यवस्था करो। तभी मैं यहॉ से लौटूँगा। मानव तो ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है, सर्वश्रेष्ठ रचना है । इन्हें इस तरहा तड़पता हुआ मैं देख नहीं सकता।
मथुर बाबु बडी भारी उलझन में घिर गये। ना तो उनके पास इतनी रकम थी ना ही अनाज और अन्य सामग्री। इतने सारे गरीबों को खाना खिलाना और अन्य चीजें देना एकदम सहज नहीं था। इससे उनकी जमींदारी के टैक्स-कलेक्सन में भी प्रतिकूल असर होनेवाला था। सो उन्होने श्री रामकृष्णदेव से कहा ''बाबा यहां अकाल पडा है। सब तरफ यही हालात है। किस किस व्यक्ति को खाना दोंगे। हमारे पास न तो अनाज है न ही कंबल। हम नियोजन कर के भविष्य में यह सत्कार्य करेंगे।
फिलहाल हम ऐसे ही लौट चलते हैं। 
लेकिन नहीं। करूणामय श्री रामकृष्ण तो साक्षात नारायण को ही उन नरदेह में देख रहे थे। उनको कष्ट में छोड़कर अकेल कैसे लौट सकते थे ? बस झटसे उन गरीब लोगो के समूह में शामिल हो गये। उनके साथ जमकर बैठ गये और बोले '' जिन लोगों को इतने दिनों से ठीक से भोजन भी नहीं किया है, उससे भी तुम टैक्स लेने की बात सोचते हो ? जब तक तुम इन नर नारायणों की सेवा नहीं करोगे तब तक मैं यहां से हिलूंगा  नहीं। श्री रामकृष्णदेव के मुखपर असीम करूणा का तेज उभर आया मानो करूणाने साक्षात नरदेह धारण कर लिया हो। उनकी वाणी मृदु, नयन अश्रुपूर्ण और हृदय विशाल हो गया था। उन गरिबो में और अपने आप में अब उन्हें कोई भेद जान नहीं पडता था। अद्वैत वेदान्त की उच्चतम अवस्था में वे सर्वभूतो से एकरूप हो गये थे।
अब मथुरबाबू के पास उस महापुरूष की आज्ञा का पालन करने सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं बचा था। वे तत्काल कलकत्ता गये धन और राशन की व्यवस्था की और करूणामय श्री रामकृष्णदेव की इच्छानुसार उन गरीबों की सेवा करने के पश्चात ही उन्होने दम लिया। इस असीम प्रेम से उन गरीबों के चेहरोंपर मुस्कान की एक लहर दौड ग़यी। तब एक नन्हे बालक के भांति खुश होकर श्री रामकृष्णदेव वापस दक्षिणेश्वर लौट गये। " 

बीरेन दा ने घोषणा की कि महामण्डल का अगला ४८ वां वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर, पश्चिम बंगाल के नादिया जिले के फुलिया में होना तय हुआ है। मायापुर के निकट नदिया जिले के इसी कलाईघाट में जहाँ मथुर बाबू की जमींदारी थी, के राणाघाट निकट फुलिया अवस्थित है। चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है। मुझे यह जानकर बड़ी ख़ुशी हुई कि इस वर्ष कैम्प जाने से पहले या बाद में मायापुर दर्शन का भी अवसर मिलेगा। [ 'फुलिया फैब्रिक' के हस्तकरघा बुनकरों को औसतन साल में 1.5 करोड़ रुपये के निर्यात ऑर्डर मिलते हैं।  ईसाई बहुल राणाघाट के बेगोपाड़ा में कनाडा की मजहबी संस्था "मैथ्यू-25 सोसाइटी' की आर्थिक सहायता से यह "होम' चलता है। ईसाइयत का प्रचार व जबरन उसे मानने को बाध्य करना शुरू कर दिया।] 
' किशोर वाहिनी प्रशिक्षण शिविर' :  श्रीमन्तो घोष ने विवेक-वाहिनी के लिये बहुत से नारों एवं इनडोर गेम बनाया है, एवं रामराज ताला से आये सदस्यों ने 'विवेक-वाहिनी ' के साथ साथ ' किशोर-वाहिनी ' को संचालित करने के महत्व पर प्रकाश डाला।  उन्होंने बताया कि मेदिनीपुर के रामराजतला महामण्डल के द्वारा ९ वीं कक्षा ऊपर के किशोरों के लिये ' किशोर वाहिनी प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित किया गया है। विवेक वाहिनी को संचालित करने के लिये किशोर संचालकों का निर्माण करना इस शिविर का उद्देश्य है। विवेक वाहिनी के बच्चे अपने संचालक दादा को ही अपना आदर्श समझते हैं। उस संचालक के व्यवहार में यदि कोई कमी दिखाई देगा तो वे भले मुख से कुछ न कहें पर यह पकड़ लेते हैं कि दादा ने आज के खेल में कहीं पक्षपात किया है, या फांकी तो नहीं मारा है ? 
इसीलिये हर महामण्डल केन्द्र के प्रेसिडेन्ट /सेक्रेटरी को विशेष रूप से नजर रखना होगा कि हर बच्चे का सही रिपोर्ट रखा जा रहा है या नहीं ? कितने लड़के जो नियमित आ रहे हैं, उसमें से किसको किशोर प्रशिक्षण शिविर में भेजकर अगला संचालक बनाया जा सकता है ? अगला संचालक कौन होगा इस पर वहाँ के सेक्रेटरी को विशेष नजरदारी रखना होगा। संचालक सभी बच्चों को सामान-दृष्टि से नहीं देखेगा तो उनका विकास बाधित हो जायेगा। गार्जियन लोगों का मीटिंग बुलाकर विवेक-वाहिनी के बच्चों का प्रोग्रेस रिपोर्ट प्रेसिडेन्ट को देना चाहिये। किशोर प्रशिक्षण शिविर का एक सी.डी. बना है, उसको सभी महामण्डल में भेजना चाहिये या महामण्डल के वेबसाइट पर डालना चाहिये। 
यह पाया गया है कि जो किशोर विवेक-वाहिनी का संचालक बनता है, उसका सबसे बड़ा लाभ उसीको होता है। किशोर ग्रुप के प्रशिक्षण पर ध्यान देने से आगे चलकर महामण्डल के लिये अच्छा कर्मी उपलब्ध हो सकता है। मैदान यदि उपलब्ध न हो या वर्षा के दिन हों तो विवेक-वाहिनी के खेल इनडोर होने के उपाय किये जा सकते हैं। इनडोर में विवेक-वाहिनी खेल कैसे होता है-इसीका प्रशिक्षण किशोर ग्रुप को दिया जाता है। महामण्डल के प्रत्येक केन्द्र में तीन विभाग बनने चाहिए -विवेक-वाहिनी, किशोर ग्रुप और पाठचक्र। अभी हावड़ा-हुगली जोनल किशोर ग्रुप प्रशिक्षण शिविर होने जा रहा है। उसका सी.डी बनवाकर हर केन्द्र  भेजने की व्यवस्था करनी चाहिये। 
प्रिंसिपल श्री सुधेन्दु शेखर जाना ने समाज में बढ़ते हुए प्रचलन को  रेखांकित करते हुए कहा कि आजकल जो लड़के विवाह होने के बाद माँ-बाप से जमीन जायदाद लिखवा लेने के बाद उनको बेसहारा छोड़कर बाहर चले जाते हैं, या अपमानित जीवन जीने पर मजबूर करते हैं। हमें विवेक वाहिनी के बच्चों के अभिभावकों की एक मीटिंग बुलवाकर उन्हें इस खतरे के प्रति सावधान करते हुए बताना चाहिये कि दोनों नौकरी करते हैं या अन्य किसी कारण से; जो शिक्षा और संस्कार आप अपने बच्चों को नहीं दे पा रहे हैं,  वे अच्छे संस्कार और मनुष्य बनने की शिक्षा हम आपके बच्चों को देंगे।
 विवेक-वाहिनी में आने से उनका पढाई-लिखाई, शारीरिक विकास तो अच्छा होगा ही, वे प्रतिदिन घुटना मोड़कर अपने माता-पिता को साक्षात् भगवान मानकर प्रणाम करना भी सीख जायेंगे। उसको ऐसी शिक्षा यहाँ मिलेगी कि वह शादी होने के बाद बीवी को लेकर भाग नहीं जायेगा, आप लोगों की सेवा करेगा। आज बंगाल-बिहार-झारखण्ड   में यह बीमारी बहुत तेजी से फ़ैल रहा है। यदि इस अवस्था से समाज को बचाना चाहते हों, तो प्रत्येक महामण्डल केन्द्र को विवेक-वाहिनी और किशोर-ग्रुप के संचालन पर बहुत ध्यान देना अनिवार्य है

Genesis of leadership : महामण्डल के सभी संचालकों को नेतृत्व की अवधारणा एवं उत्पत्ति के विषय में प्रकाश डालते हुए जलपाई गुड़ी महामण्डल के अध्यक्ष श्री समीर दासगुप्ता ने बताया कि जिस समय महामण्डल की पुस्तिका " Leadership: its concept and qualities" का जिस समय प्रकाशन हुआ था उस समय तक इस विषय पर कोई पुस्तक उपलब्ध नहीं था। केवल अंग्रेजी में एक पुस्तक उपलब्ध थी जिसका शीर्षक था ' How a Leader can ween an Election ' किन्तु २०१४ तक इस विषय के ऊपर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। Dr. Apj Abdul Kalam द्वारा लिखी गयी पुस्तक तो बिल्कुल हमारे पुस्तक की अनुकृति लगती है। रामकृष्ण मिशन से भी २ पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जो आकार बहुत मोटी हैं। किन्तु हमारे मात्र ४८ पृष्ठों की पुस्तिका में जो बहुमूल्य तथ्य दिए गए हैं; वे वहाँ नहीं मिलते। कहा जा सकता है कि महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तिका के तुलना में उनका कोई मूल्य नहीं है। 
महामण्डल द्वारा प्रकाशित किसी भी पुस्तिका को पढ़ने का तरीका बताते हुए नवनी दा कहते हैं- प्रत्येक महामण्डल सदस्य को हर महामण्डल पुस्तिका कम से कम १० बार ध्यान पूर्वक पढ़ना चाहिये। "Chew and Digest " अर्थात पढ़ो, मनन करो-जैसे गाय खाना खाने के बाद पागुर करती है, वैसे  चबाओ और पचा डालो ! लेकिन मैं अपनी अभिज्ञता कहता हूँ कि ' नेतृत्व का अर्थ एवं गुण " पुस्तिका को २० से २५ बार पढ़ना आवश्यक है। मैंने इस पुटिका को कई कई बार पढ़ा है, और कह सकता हूँ कि जो बहुमूल्य ज्ञान इस पुस्तिका में है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा। 

नेतृत्व की उत्पत्ति 'Genesis of leadership' के विषय में दादा कहते हैं, जब और जहाँ भी कुछ व्यक्तियों के समूह को किसी निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होना पड़ता है; वैसे ही नेतृत्व का प्रश्न उठ खड़ा होता है। चाहे किसी परिवार की सामूहिक उन्नति का प्रश्न हो,किसी बिजनेस कन्सर्न को सामूहिक प्रयास से अपना निश्चित लक्ष्य प्राप्त करने का प्रश्न हो, विद्यालय-महाविद्यालय के गौरव को बढ़ाने के लिये सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता हो या किसी आन्दोलन को कलेक्टिव उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करा देना हो - हर सामूहिक प्रयास के लिये योग्य नेतृत्व की आवश्यकता पड़ती है। जो वैसा नेतृत्व करने में सक्षम होता है, उसी को नेता कहते हैं। 
कुछ लोग कहते हैं- ' leaders are born, not made ' अर्थात 'नेता ' जन्मजात रूप से पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते। किन्तु सच्चाई तो यह है कि नेता भी बनाये जा सकते हैं। यह ठीक है कि कुछ लोग जन्म से ही नेता होते हैं, पर कुछ नेता ऐसे होते हैं, जो प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच स्वयं पैदा हो जाते हैं।  चरित्र को लेकर भी जनमानस में इसी प्रकार का भ्रम फैला हुआ है। सामान्यतः यही माना जाता है कि मनुष्य का चरित्र, उसे जन्मजात रूप से प्राप्त होता है। किन्तु हमलोग जानते हैं कि अभ्यास करने से चरित्र को भी गढ़ा सकता है।
पर यह बात भी सच है कि श्रद्धा रहित व्यक्ति चरित्रवान मनुष्य नहीं बन सकता है, और जो चरित्रवान मनुष्य नहीं है, वह सच्चा नेता भी नहीं बन सकता। अक्सर, कोई बिल्कुल सामान्य सा दिखने वाला व्यक्ति जिसने कभी नेतृत्व की भूमिका नहीं निभाई हो, परिवार, समाज या देश की प्रतिकूल अवस्था को देखकर, इसी श्रद्धा और चरित्र के बल पर उठ खड़ा होता है और नेतृत्व की जिम्मेदारी को अपने कन्धों पर उठा लेता है। 
यदि कोई परिवार शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहता हो, या कोई परिवार गरीबी को दूर हटाकर समृद्धि प्राप्त करना चाहता हो, तो उसके पिता-माता को कुशल नेतृत्व देना होगा। उसी प्रकार जब कोई आन्दोलन अपने सभी कार्यकर्ताओं को पूर्व निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर कराना चाहते हो, तो उसके नेता को योग्य नेतृत्व देने में सक्षम होना होगा तभी वह आन्दोलन अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेगा। 
स्वामी विवेकानन्द के जीवन काल में ही ब्रह्म-समाज और आर्य-समाज आदि संगठन अस्तित्व में आ चुके थे, और उनके द्वारा समाज सुधार आन्दोलन चलाये जा रहे थे। किन्तु कुशल नेतृत्व के अभाव में उन आन्दोलनों में ह्रास होता गया और वे अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच सके। 

किन्तु जिस ' Be and Make ' आन्दोलन के नेतृत्व का प्रशिक्षण प्रथम युवा नेता श्रीरामकृष्ण ने, अपने युवा शिष्यों को स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में काशीपुर उद्दान भवन से १८८६ से शुरू किया था, वह आन्दोलन आज भी जारी है; और उत्तरोत्तर सम्पूर्ण विश्व में छाता जा रहा है। केवल रामकृष्ण मिशन का ही नहीं, स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में युवा-महामण्डल जैसे संगठन का भी उत्तरोत्तर विकास हो रहा है।
महामण्डल में नेता कौन बन सकता है ? हम लोग देखते हैं कि जगत में पार्थक्य रहता ही है। जब सृष्टि नहीं हुई थी तब सन्तुलन या साम्य की अवस्था थी। किन्तु जैसे ही सृष्टि हुई- कि विद्या-बुद्धि-श्रद्धाबल के तारतम्य के अनुसार पार्थक्य दृष्टिगोचर होने लगा। जो व्यक्ति विद्या-बुद्धि-बल में दूसरों से अधिक उन्नत हो, उसीको इस मनुष्य-निर्माण आन्दोलन का नेतृत्व सौंपा जाना चाहिये। क्योंकि सभी मनुष्यों में एक ही सत्ता रहने पर भी, ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हम सभी एक समान हैं। यह सच है कि स्वरूपतः सभी मनुष्य एक हैं, परन्तु देवत्व की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता ही है। 
आज से ४७ वर्ष पहले स्वामी विवेकानन्द के महावाक्य ' Be and Make ' के मर्म को कोई नहीं जानता था। किन्तु हमारे नेता (परम पूज्य नवनी दा) को उस महावाक्य में ही मनुष्य-निर्माण के सूत्र - 
' ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति ' का दर्शन हो गया। और आज यह वाक्य एक आन्दोलन बनकर विकसित होता जा रहा है, यहीं पर कुशल नेतृत्व उभर कर सामने आ जाता है। उसी प्रकार जिस व्यक्ति के मन में सबसे पहले 'स्टेटिस्टिक्स ऑफ़ विवेक वाहिनी' का विचार जब कौंधा होगा; तो उनके चिन्तन-क्षमता में दूसरों की चिन्तन-क्षमता से पार्थक्य अवश्य रहा होगा। 
किसी भी सामूहिक आन्दोलन के कार्यकर्ताओं में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व की अभिव्यक्ति में तारतम्य रहता ही है; देवत्व की अभिव्यक्ति में तारतम्य का होना बहुत स्वाभाविक है- यह तो रहेगा ही! क्योंकि पार्थक्य के बिना सृष्टि हो ही नहीं सकती। परन्तु उचित यही है कि जो पीछे रह गये हैं,  को एक ही स्तर पर ले जाने की चेष्टा की जाये। सभी मनुष्यों को अभिन्न बनाने की इच्छा से ही नेतृत्व की प्रेरणा जाग उठती है। 
अतः 'To serve and To Inspire other' के मनोभाव अर्थात दूसरों की सेवा करने के मनोभाव से ही नेतृत्व की प्रेरणा आती है। परन्तु साधारण मनुष्य समझकर सेवा करने से कहीं ' सेवा अपराध' न हो जाये; इसी लिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -' सेवा को पूजा भाव से करना ही मेरे अनुयायियों की विशेषता होगी!' सभी में नारायण दृष्टि रखने से जो अकृत्रिम प्रेम ह्रदय में उत्पन्न होता है, उसी से सेवा करने और प्रेरणा भरने की अदम्य इच्छा उत्पन्न हो जाती है। नेता को प्रेमस्वरूप बनना होता है। अपने नेता श्रीरामकृष्ण के विषय में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि ठाकुर ' Love personified' थे-अर्थात ठाकुर मूर्तमान प्रेम ही थे ! अतः जो व्यक्ति अकृत्रिम प्रेम का मूर्तमान रूप बनने की योग्यता रखता हो, वही मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन सकता है, और दूसरों को भी वैसा नेता बनने के लिये अनुप्रेरित कर सकता है। स्वामी विवेकानन्द एक ऐसे ही कुशल नेता थे।  
SPTC दिनांक २० जुलाई २०१४, प्रातः ७ बजे: 

कल हमने सुना था कि सभी मनुष्यों में नारायण-दृष्टि रखे बिना सेवा करने से सेवा-दोष लग सकता है। इसीलिये प्रत्येक आवधिक प्रशिक्षण शिविर में स्वामी विवेकानन्द के चयनित भाषणों के कुछ अंश या उनकी चिट्ठी का पाठ किया जाता है। आज उनके कोलम्बो टू अल्मोड़ा भाषण से कुछ अंश को पढ़ा जायगा। कोलम्बो उस समय अविभाजित भारत का ही हिस्सा था, इसलिये भारत के नॉर्थ टू साऊथ तक स्वामी जी ने जो भाषण दिये थे उसी को इंगित करते हुए कोलम्बो टू अल्मोड़ा भाषण कहा जाता है; किन्तु तब स्वामीजी ने कोलकाता से लाहौर तक, या ईस्ट से वेस्ट तक भारत को जागरण मंत्र सुनाया था। बीरेन दा द्वारा कथित इस भूमिका के बाद समीर दासगुप्ता ने भावपूर्ण आवाज में मद्रास के विक्टोरिया हॉल में दिये भाषण- My Plan of Campaign के बंगला अनुवाद से कुछ अंश को पढ़ कर सुनाया।' मेरी क्रान्तिकारी योजना' का जो अंश पढ़ कर सुनाया गया वह विवेकानन्द साहित्य खण्ड ५ के पृष्ठ ११८ में इस प्रकार है -

" हे मेरे बन्धुगण ! मेरा विचार है कि मैं भारत में कुछ ऐसे विद्यालय स्थापित करूँ, जहाँ हमारे नवयुवक अपने शास्त्रों के ज्ञान में शिक्षित होकर भारत तथा भारत के बाहर अपने सनातन धर्म का प्रचार कर सकें। मनुष्य, केवल (ब्रह्मवेत्ता) मनुष्य भर चाहिये बाकी सब कुछ अपने आप ही हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी, श्रद्धा-सम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की। ऐसे सौ मिल जायें, तो संसार का कायाकल्प जाय। इच्छाशक्ति संसार में सबसे अधिक बलवती है; क्योंकि वह साक्षात् भगवान के पास से आती है। उसके सामने दुनिया की कोई भी बाधा नहीं ठहर सकती। विशुद्ध और दृढ़ इच्छाशक्ति सर्वशक्तिमान है ! क्या तुम इसमें विश्वास नहीं करते ? 
सबके समक्ष अपने सनातन धर्म के महान सत्यों का प्रचार करो, संसार इनकी प्रतीक्षा कर रहा है। सैंकड़ों वर्षों से लोगों को मनुष्य की हीनावस्था का ही ज्ञान कराया गया है। उनसे कहा गया है कि वे कुछ नहीं हैं। संसार भर में सर्वत्र सर्वसाधारण से यही कहा गया है कि तुमलोग मनुष्य ही नहीं हो। शताब्दियों से इस प्रकार डराये जाने के कारण वे बेचारे सचमुच ही करीब करीब पशुत्व को प्राप्त हो गये हैं। उन्हें कभी आत्मतत्व के विषय में सुनने का मौका नहीं दिया गया। अब उनको आत्मतत्व सुनने दो, यह जान लेने दो कि उनमें से नीच से नीच में भी आत्मा विद्यमान है! 
     नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
                        न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ।। गीता २/ २३
वह आत्मा, जो न कभी मरती है, न जन्म लेती है, जिसे न तलवार काट सकती है, न आग जला सकती है, न जल गीला कर सकती है और न हवा सुखा सकती है। मनुष्य मात्र में वह आत्मा विद्यमान है, जो अमर है, अनादि और अनन्त है, जो शुद्धस्वरूप, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। उन्हें अपने स्वयं के ऊपर विश्वास करने दो। 
आखिर अंग्रेजों में और तुममें इतना पार्थक्य क्यों है ? उन्हें अपने धर्म और कर्तव्यबोध को लेकर जो कुछ शेखी बघारना है, बघारने दो। पर मुझे इस अन्तर का मूल कारण मालूम हो गया है। वह पार्थक्य इस बात में है कि अंग्रेज अपने उपर विश्वास करते हैं, और तुम नहीं। जब वह सोचता है कि मैं अंग्रेज हूँ, तो वह उस विश्वास के बल पर जो चाहता है वही सकता है। इस विश्वास के आधार पर उसके अन्दर छिपा हुआ देवत्व जाग उठता है। और तब वह उसकी जो भी इच्छा होती है, वही कर सकने में समर्थ होता है। इसके विपरीत हजारों वर्षों से तुम्हारे विजेता जातियों ने तुम्हें यही सिखाया है, कि तुम कुछ भी नहीं हो, लोग तुमसे कहते आये हैं कि तुम कुछ भी नहीं कर सकते; और उसके फलस्वरूप तुम आज इस प्रकार अकर्मण्य गये हो। 
अतएव आज जो हम चाहते हैं वह है -बल, श्रद्धा अपने में अटूट विश्वास। हमलोग शक्तिहीन हो गए हैं, इसीलिये गुप्तविद्या और रहसयविद्या -इन रोमांचक वस्तुओं ने धीरे धीरे हममें घर कर लिया है। भले ही उनमें अनेक सत्य हों, पर उन्होंने लगभग हमें नष्ट कर डाला है। अपने स्नायु बलवान बनाओ। आज हमें जिसकी आवश्यकता है, वह है- लोहे जैसी मांस-पेशियाँ और फौलाद के स्नायु। हम लोग बहुत दिन रो चुके। अब रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है, जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरुरत है जिसकी सहायता से हम प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष करके पशुत्व को त्यागें और मनुष्य बनने की पथ पर अग्रसर हो जाएँ। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिये, जो हमें मनुष्य बना सके। 
और यह रही सत्य की कसौटी- जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये, उसे ज़हर की भाँति त्याग दो, उसमें जीवन-शक्ति नहीं है, वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है, वह पवित्रतास्वरुप है, वह ज्ञानस्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, जो ह्रदय के अन्धकार को दूर कर दे, जो ह्रदय में स्फूर्ति भर दे। भले ही इन रहस्य-विद्याओं में कुछ सत्य हो, पर ये तो साधारणतया मनुष्य को दुर्बल ही बनाती हैं। मेरा विश्वास करो, मेरा यह जीवन भर का अनुभव है। मैं भारत के लगभग सभी स्थानों में घूम चुका हूँ, सभी गुफाओं का अन्वेषण चुका हूँ, और हिमालय पर भी रह चुका हूँ। मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ, जो जीवन भर वहीं रहे हैं। और अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इन सब रहस्यविद्याओं को सीखने के चक्कर में पड़कर मनुष्य दुर्बल ही होता है। मैं अपने देश से प्रेम करता हूँ; मैं तुम्हें और अधिक पतित और ज्यादा कमजोर नहीं देख सकता। अतएव तुम्हारे कल्याण के लिये, सत्य के लिये और जिससे मेरा राष्ट्र और अधिक अवनत न हो जाये, इसलिये मैं जोर से चिल्लाकर कहने लिये बाध्य हो रहा हूँ- बस, ठहरो ! अवनति ओर न बढ़ो, जहाँ तक गये हो, बस उतना ही काफी हो चुका। अब वीर्यवान होने का प्रयत्न करो, कमजोर बनानेवाली इन सब रहस्य-विद्याओं को तिलांजलि दे दो, और अपने उपनिषदों का - उस बलप्रद, अलोकप्रद, दिव्य दर्शन शास्त्र का -आश्रय ग्रहण करो। 
सत्य जितना महान होता है, उतना ही सहज बोधगम्य भी होता है ! - स्वयं अपने अस्तित्व को समझने जितना सहज ! जैसे अपने अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिये - 'मैं हूँ' को प्रमाणित करने के लिये और किसी की आवश्यकता नहीं होती, बस वैसा ही अपने यथार्थ ब्रह्मस्वरूप का अनुभव करने में भी किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। उपनिषद के सत्य-'महावाक्यों ' के रूप में तुम्हारे सामने हैं। इनका अवलम्बन करो, इनकी उपलब्धि कर इन्हें कार्य में परिणत करो। बस देखोगे, भारत का उद्धार निश्चित है। एक बात और कहकर मैं समाप्त करूँगा। लोग देशभक्ति की चर्चा करते हैं, मैं भी देशभक्ति में विश्वास करता हूँ। 
किन्तु देशभक्ति के सम्बन्ध मेरा अपना पैमाना है। बड़े काम करने के लिये तीन बातों की आवश्यकता होती है। पहला है ह्रदय की अनुभव-शक्ति। बुद्धि या विचार-शक्ति में क्या है ? वह तो कुछ दूर जाती है और बस वहीँ रुक जाती है। पर ह्रदय तो प्रेरणा श्रोत है ! प्रेम असम्भव द्वारों को भी उद्घाटित कर देता है। यह प्रेम ही जगत के सब रहस्यों का द्वार है। अतएव, ऐ मेरे भावी सुधारकों (नेताओं), मेरे भावी देशभक्तो, तुम अनुभव करो! क्या तुम अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों सन्तानें आज पशुतुल्य हो गयी हैं ? क्या तुम ह्रदय से अनुभव करते हो कि लाखों आज भूखों मर रहे हैं, और लाखों लोग शताब्दियों से इसी भाँति भूखों मरते आये ?  क्या तुम यह सब सोचकर बेचैन हो जाते हो ? क्या इस भावना ने तुम्हारे रातों की नींद उड़ा दी है ? क्या यह भावना तुम्हारे रक्त के साथ मिलकर तुम्हारी धमनियों में बहती है ? क्या वह तुम्हारे ह्रदय के स्पंदन से मिल गयी है ? क्या उसने तुम्हें पागल सा बना दिया है ? क्या देश के दुर्दशा की चिन्ता ही तुम्हारे ध्यान का एकमात्र विषय बन बैठी है ? और क्या इस चिन्ता में विभोर होकर तुम अपने नाम-यश, पुत्र-कलत्र, धन-संपत्ति, यहाँ तक कि अपने शरीर तक की भी सुध बिसर गये हो ? क्या तुमने ऐसा किया है ? यदि 'हाँ', जानो कि तुमने देशभक्त होने की पहली सीढ़ी पर पैर रखा है-हाँ, केवल पहली ही सीढ़ी पर ! 
तुममें से अधिकांश जानते हैं, मैं अमेरिका धर्म-महासभा के लिये नहीं गया था, वरन इस भावना का दैत्य मुझमें, मेरी आत्मा में था। मैं पूरे बारह वर्ष सारे देश भर में भ्रमण करता रहा, पर अपने देशवासियों के लिये कार्य करने का मुझे कोई रास्ता ही नहीं मिला। यही कारण था कि मैं अमेरिका गया। तुममें से अधिकांश, जो मुझे उस समय जानते थे, इस बात को अवश्य जानते हैं। इस धर्म-महासभा की कौन परवाह करता था ? यहाँ मेरे देशवासी, मेरे ही रक्त-मांसमय देहस्वरूप मेरे देशवासी, दिन पर दिन डूबते जा रहे थे। उनकी खबर कौन ले ? बस यही मेरा पहला सोपान था। 
अच्छा माना कि तुम अनुभव करते हो; पर पूछता हूँ, क्या देशवासियों के लिये आँसू बहाते रहने, या कौन उसके लिये जिम्मेदार हैं, उन्हें कोसते रहने में ही अपनी शक्तिक्षय न करके इस दुर्दशा का निवारण करने के लिये तुमने कोई यथार्थ कर्तव्य-पथ भी निश्चित किया है? क्या लोगों की भर्तस्ना न कर उनकी सहायता का भी कोई उपाय सोचा है ? क्या अपने देशवासियों की खोई हुई श्रद्धा को वापस लौटाने का कोई मार्ग ठीक किया है ? क्या उनके दुःखों को कम करने के लिये दो सान्त्वना दायक शब्दों को खोज है ? यही दूसरी बात है। 
 दीपकदा, प्रणवदा, अमित दा 
किन्तु इतने से ही देशभक्ति की परीक्षा समाप्त नहीं होती। क्या तुम पर्वताकार विघ्न-बाधाओं को लांघकर कार्य करने को तैयार हो ? यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाय, तो भी क्या तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करोगे ? यदि पुत्र-कलत्र तुम्हारे प्रतिकूल हो जाएँ, भाग्य-लक्ष्मी तुमसे रूठकर चली जाय, नाम की कीर्ति भी तुम्हारा साथ छोड़ दे, तो भी तुम क्या उस सत्य में संलग्न रहोगे ? फिर भी क्या तुम उसके पीछे लगे रहकर अपने लक्ष्य की ओर सतत बढ़ते रहोगे ? जैसा की राजा कवि भर्तृहरि ने कहा है-

 निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
लक्ष्मीः स्थिरा भवतु गच्छतु वा यथेष्टम्।
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥

"नीति में निपुण मनुष्य चाहे निंदा करें या प्रशंसा, लक्ष्मी आयें या इच्छानुसार चली जायें, आज ही मृत्यु हो जाए या युगों के बाद हो परन्तु धैर्यवान मनुष्य कभी भी न्याय के मार्ग से अपने कदम नहीं हटाते हैं॥" क्या तुममें ऐसा अटल धैर्य है ? बस यही तीसरी है। यदि तुममें ये तीन बाते हैं, तो तुममें से प्रत्येक अद्भुत कार्य कर सकता है। तब फिर तुम्हें समाचार पत्रों में अपना फोटो छपवाने की अथवा भाषण देते रहने की आवश्यकता नहीं होगी, स्वयं तुम्हारा मुख ही दीप्त हो उठेगा। फिर तुम चाहे पर्वत की कन्दरा में रहो, तो भी तुम्हारे विचार पर्वत की चट्टानों को भेदकर बाहर निकल आयेंगे और सैकड़ों वर्ष तक सारे संसार में प्रतिध्वनित होते रहेंगे। और हो सकता है, तब तक ऐसे ही रहें, जब तक उन्हें किसी मस्तिष्क का आधार न मिल जाय, और वे उसीके माध्यम से कार्यशील हो उठें। विचारों की निष्कपटता और पवित्र उद्देश्य में ऐसी ही जबरदस्त शक्ति छुपी रहती है। 
मुझे डर है कि तुम्हे देर हो रही है, पर एक बात और। हे मेरे स्वदेशवासियो, मेरे बन्धुगण, मेरे बच्चो, राष्ट्रीय जीवनरूपी यह जहाज लाखों लीगों को जीवनरूपी समुद्र के पार करता रहा है। कई शताब्दियों से इसका यह कार्य चल रहा है और इसकी सहायता से लाखों आत्मायें इस सागर के उस पार अमृतधाम में पहुँची हैं। पर आज शायद तुम्हारे ही दोष से इस जहाज में कुछ खराबी आ गयी है; इसमें एक दो छेद हो गए हैं, तो क्या तुम इसे कोसोगे ? संसार में जिसने तुम्हारा सबसे अधिक उपकार किया है, उसके विरुद्ध खड़े होकर उस पर गाली बरसाना क्या तुम्हारे लिये उचित है ? 
यदि हमारे इस समाज में, इस राष्ट्रीय जीवनरूपी जहाज में छेद है, तो हमतो उसकी सन्तान हैं। आओ चलें, उन छेदों को बन्द कर दें -उसके लिये हँसते हँसते अपने ह्रदय का रक्त बहा दें। और यदि हम ऐसा न कर सकें तो भी इसी प्रयास में हमारा मर जाना भी उचित है। हम अपना भेजा निकालकर उसकी डाट बनायेंगे और जहाज के छेदों में भर देंगे। पर उसकी कभी भर्त्स्ना न करें ! अपने इस पुरातन समाज-संस्कृति के विरुद्ध एक कड़ा शब्द तक न निकालो। उसकी अतीत की गौरव-गरिमा के लिये मेरा उस पर प्रेम है। मैं तुम सबको प्यार करता हूँ, क्योंकि तुम देवताओं की सन्तान हो, महिमाशाली पूर्वजों के वंशज हो। तब भला मैं तुम्हें कैसे कोस सकता हूँ ? यह असम्भव है। तुम्हारा सब प्रकार से कल्याण हो। हे भाइयो, मैं तुम्हारे पास आया हूँ, अपनी सारी योजनायें तुम्हारे सामने रखने के लिये। यदि तुम उन्हें सुनो, तो मैं तुम्हारे साथ काम करने को तैयार हूँ। पर यदि तुम उनको न सुनो, और मुझे ठुकरा कर अपने देश से बाहर भी निकाल दो, तो भी मैं तुम्हारे पास वापस आकर यही कहूँगा -" भाई, हम सब डूब रहे हैं। " मैं आज तुम्हारे बीच बैठने आया हूँ। और यदि हमें डूबना है, तो आओ , हम सब साथ ही डूबें, पर एक भी कटु शब्द हमारे ओठों पर न आने पाये!  
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स्वामी विवेकानन्द के अमेरिका जाने का उद्देश्य क्या था ? इसके उपर प्रकाश डालते हुए महामण्डल के सचिव श्री बिरेन्द्र कुमार चक्रवर्ती कहा कि १८८६ में ठाकुर श्रीरामकृष्ण ने शरीर का त्याग कर दिया, किन्तु जाने के पहले ' ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनो और बनाओ आन्दोलन' का नेतृत्व एक चपरास - ' नरेन् शिक्षा देगा ' लिखकर स्वामी विवेकानन्द ऊपर सौंप दिया था। नरेन्द्रनाथ जानते थे कि उनके त्यागी संतानों में जो विवाहित थे और जो नहीं थे, उनको भी उनके परिवार वाले उनको वापस परिवार में ले जाने का प्रयास अवश्य करेंगे। नरेन्द्र नाथ को चिन्ता हुई कि अब यह आन्दोलन बचेगा कैसे ? अपने गुरु भाइयो के लिये अस्थाई मठ में रहने का इन्तजाम करके १८९० में जब नरेन्द्र नाथ कोलकाता निकले तो स्वामी विवेकानन्द बनकर १८९७ में ही वापस लौटे।
 इस दौरान १८९२ तक उनका जीवन भारत को पहचानने के लिये परिव्राजक जीवन रहा, उनके गुरुभाई लोग भी नहीं जानते थे कि आज नरेन्द्र कहाँ है? परिव्राजक जीवन में उन्‍होंने देखा कि भारत को आज भी उनके देशवासी एक सनातन राष्ट्र मानते हैं,  क्योंकि यह मानव-सभ्यता का पहला राष्ट्र था !
साऊथ इंडिया के उनके युवा शिष्यों ने सोचा कि अगर स्वामी जी पाश्चात्य देशों में जाकर सनातन धर्म (Eternal Religion) की व्याख्या करेंगे, तो अंग्रेज लोग भी यह समझ जायेंगे कि जिन भारतियों को व्यंग से वे नेटिव (मूलवासी हिन्दू) कहते थे, वास्तव में उन हिन्दुओं का धर्म कितना श्रेष्ठ है ! धर्म-महासभा में भाग लेने की परवाह किसे थी ? वे तो अपने स्वदेशवासियों के, इस सनातन राष्ट्र (Eternal Nation) खोये हुए सम्मान को, उनकी आत्मश्रद्धा को वापस लौटाना चाहते थे। 
१८८१ में जब श्रीरामकृष्ण के साथ उनका प्रथम साक्षात्कार हुआ था, तभी उनके गुरु ने उनको धरती पर आने का उद्देश्य बता दिया था कि तुमने मानवजाति का उद्धारक बनने के लिये ही इस धरती पर जन्म ग्रहण किया है ! 
स्वदेशवासियों की दुर्दशा को दूर करना ही अमेरिका जाने के पीछे की मुख्य प्रेरणा थी, धर्म-महासभा में भाषण देना मुख्य प्रेरणा नहीं थी। उसी प्रेरणा से प्रेरित होकर उन्होंने कन्याकुमारी शीला पर बैठकर तीन दिनों तक भारत माता का ध्यान किया था।  वहाँ उन्‍हें आभास हुआ कि माँ ने राष्‍ट्र का कार्य करने की आज्ञा प्रदान की है। उन्‍होंने भारतीय संस्‍कृति के क्षमतावान स्‍वरूप को साक्षात देखा। उन्‍होंने देखा कि भारतमाता की नाड़ियों में दौड़ने वाला रक्‍त और कुछ नहीं केवल धर्म था, अध्‍यात्‍म ही उसका प्राण था। उन्‍होंने यह भी देखा कि भारत अपनी अस्मिता खो चुका है। उसे पुन: जगाया जाए, उसे पुन: जीवंत किया जाए और उसे पुन: स्‍थापित किया जाए। धर्म भारत के पतन का कारण नहीं था, पतन का कारण था उसकी अवहेलना। मुमुक्षु संन्‍यासी एक सुधारक, एक राष्‍ट्रनिर्माता, विश्‍वशिल्‍पी में परिणत हो गया था। हाँ वे अमेरिका जाएंगे, करोड़ों भारतवासियों का प्रतिनिधि बनकर वे अमेरिका जाएंगे। इतने वर्षों के चिन्‍तन के बाद उन्‍हें मार्ग मिल गया था।
 शुभाशीषदा के साथ उत्तम 
 १८९३ में धर्म-महासभा से ठीक पहले, २० अगस्त १८९३ को मद्रासी शिष्य अलासिंगा को लिखित पत्र में कहते हैं - " जाड़े का मौसम आ रहा है, यहाँ ठण्ढ बहुत पड़ती है और मेरे पास गरम कपड़ों का, रहने और खाने का भी अभाव है। हो सकता है, इस देश में भूख और जाड़े की चपेट में आकर मेरी मृत्यु भी हो जाये। पर मुझे इसकी परवाह नहीं, क्योंकि शरीर तो आत्मा का वस्त्र है, और सत्ता कभी मरती नहीं है। इस शरीर को एक न एक दिन छोड़ना ही होगा। पर तुम लोग यह वादा करो कि मेरे जाने के बाद भी तुमलोग भी भारत से मेरे जैसा ही प्रेम करोगे, यह देखकर मैं शान्ति से शरीर त्याग सकूँगा।" 
जिस दिन पहली बार वे ठाकुर से मिले थे, तब से लेकर अन्तिम साँस तक उनको केवल एक ही चिन्ता थी -- भारतवर्ष के गौरव को कैसे पुनर्स्थापित किया जाय ? १८९६ के दिसम्बर तक इंग्लैण्ड में कार्य करने के बाद जनवरी १८९७ में कोलम्बो पहुँचे। विवेकानन्द अपने यूरोपीय शिष्यों के साथ २६ जनवरी १८९७ को पांबन पहुंचे थे।  
[ उनके समय में अर्थात् आज से केवल एक शताब्‍दी पूर्व, रामेश्‍वरम जिस रियासत का अंग था, उसका नाम रामनाड अर्थात् 'राम का देश' था। तमिल नाड का वह जिला आज भी 'रामनाड' ही है। स्‍वामी जी रामनाड के राजा से मिले। राजा का नाम भी भास्‍कर सेतुपति था। रामेश्वरम जाकर धनुषकोडी का जिक्र न करना नामुमकिन है। धनुष्कोडी का महत्व दो तरीके से है। पांबन द्वीप में धनुष्कोडी के सिरे से ही राम-सेतु शुरू होता है! लेकिन अंग्रेजों ने भारत ऐतिहासिक आत्मगौरव को समाप्त करने के उद्देश्य से राम-सेतु का नाम बदल कर एडम्स ब्रिज कर दिया था। भूवैज्ञानिकों के अनुसार नासा ने सैटेलाइट पिक्चर से यह प्रमाणित कर दिया है कि यकीनन कभी भारत व श्रीलंका के बीच जमीनी संपर्क हुआ करता था। १९६० ई. तक तो धनुषकोडि स्‍टेशन भी था।
भारत की मुख्य भूमि पर पहुँचने के बाद उन्हें याद हो आया कि प्रत्‍येक रामकथा में यह उल्‍लेख है कि राम जी ने लंका जाने के लिए रामेश्‍वरम में भगवान् शिव की पूजा कर, समुद्र में एक सेतु बनवाया था । उसे कहीं-कहीं नल-सेतु भी कहा गया है। हमारे मिथकीय तीर्थस्थानों में रामेश्वरम सबसे पूजनीयों में से एक है। चूंकि यहां राम ने शिव की आराधना की थी, इसलिए यह उन गिने-चुने स्थानों में से एक है जो शैवों व वैष्णवों, दोनों के लिए समान रूप से श्रद्धा का केंद्र है। इसके अलावा यह देश के चार कोनों में स्थित चार मूल धामों में से एक है। जैसे ताजमहल एक भवन है, जैसे  कुतुब मीनार एक ऐतिहासिक मीनार है, वैसे ही नासा द्वारा खींचे गए चित्र को देख कर मन में यह विश्वास दृढ़ जाता है कि राम-सेतु भी एक ऐतिहासिक निर्माण है, जो समुद्र के बीच में बनाया गया एक सेतु है। और तब राम-सेतु का जीवंत अस्तित्‍व राम-कथा को कथा से इतिहास बना देता है। श्रीराम की कथा पौराणिक कल्‍पना न हो कर जीवन्‍त इतिहास हो जाती है।  रामेश्वरम बंगाल की खाड़ी में पांबन द्वीप पर स्थित खूबसूरत शहर है। समुद्र के किनारे जिस जगह विवेकानंद का भास्कर सेतुपति ने अभिनंदन किया, वहीं आज विवेकानंद स्मारक स्थित है।
रामेश्वरम की सारी संरचना रामकथा के इर्द-गिर्द है, इसलिए यहां आपको गंधमादन पर्वत भी मिल जाएगा और राम की चरण-पादुका भी। यहां आपको पंचमुखी हनुमान मंदिर में रखी मूंगे की वो चट्टानें भी दिख जाएंगी जिनका इस्तेमाल पौराणिक कथाओं के अनुसार नल-नील ने समुद्र पर सेतु बनाने के लिए किया था। समुद्र तट पर स्थित कोडंडारामास्वामी मंदिर विभीषण के नाम पर बना है। कहा जाता है कि यह मंदिर ठीक उसी जगह पर बना है जहां लंका छोडऩे के बाद विभीषण ने राम से पहली बार मुलाकात की थी। युद्ध समाप्त होने के उपरांत बाद में इसी स्थान पर राम ने लंकाधिपति के तौर पर विभीषण का राज्याभिषेक किया था। राजा भास्कर सेतुपति ने समुद्र के किनारे उनकी अगवानी की।]
बाद में रामेश्वरम मंदिर और मद्रास के विक्टोरिया हॉल में भी विवेकानन्द का सम्मान हुआ। जहाँ उन्होंने " मेरी क्रन्तिकारी योजना " नामक प्रसिद्द भाषण दिया था। मात्र साढ़े तीन वर्षों में ही पाश्चात्य देशों में किये अपने प्रयासों से उन्होंने भारत का आत्मगौरव स्थापित कर उसे विश्व धर्म-महासभा में सर्वश्रेष्ठ आसन पर स्थापित कर दिया। कैसे ? विवेकानन्द के धर्म-महासभा भाषण के बाद पाश्चात्य लोगों ने यह स्वीकार कर लिया कि, भारतवर्ष के प्रतीक के रूप में जिस हिन्दू धर्म को वे हीन दृष्टि से देखते आ रहे थे, उसकी विराट भावना -बसुधैव कुटुंबकम को सुनकर वेस्ट सोचने लगा -हमने अभी तक भारत को पहचाना ही नहीं था ! और हमारे भारत का सीना गर्व से चौड़ा हो गया कि जिस हिन्दू धर्म की प्रशंसा अंग्रेज लोग भी कर रहे हैं, गोरी चमड़ी वाले एक भारतीय संन्यासी के शिष्य बन हैं, तब वह हिन्दू भारत कितना महान रहा होगा ! स्वदेशवासियों में श्रद्धा का संचार होने लगा। 
सुधार युग के अंग्रेज-प्रस्त नेता लोग, अंग्रेजों की प्रशंसा पाने के लिये जिस सतही सुधार से भारत को उन्नत बनाना चाहते थे, उस व्यर्थ प्रयास में विवेकानन्द को विश्वास नहीं था, वे तो पतन के मूल कारण को दूर करना चाहते थे। वे भारत का सुधार नहीं निर्माण करना चाहते थे। वे देशवासियों के चारित्रिक पतन को दूर कर यथार्थ मनुष्य के अभाव को दूर करना चाहते थे। उन्‍होंने देखा कि भारत को एक सनातन राष्ट्र माना जाता है क्योंकि यह मानव-सभ्यता का पहला राष्ट्र था, जहाँ सनातन धर्म का सनातन आदर्श ' त्याग और सेवा ' का भाव आज भी जीवंत है। दोष सनातन धर्म का नहीं समाज का है इसलिए त्याग (सन्यासियों जैसा जीवन) और सेवा – ये युगल आदर्श ही भारत का उद्धार कर सकते हैं। 
२८ दिसम्बर, १८८५ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन की प्रेरणा से ऐलम ऑक्टेवियन ह्यूम नामक अवकाश-प्राप्त अंग्रेज पदाधिकारी ने की थी। अंग्रेजों ने देखा कि भारत के शिक्षित समाज में असन्तोष बढ़ता जा रहा है, यदि ये पढ़े-लिखे लोग विद्रोह कर देंगे तो उन्हें भागना पड़ेगा। इसीलिये उन्होंने सोचा कि इन्हें जागने मत दो, एक समाज-सुधार संस्था बनाकर इनके असन्तोष को थोड़ा-बहुत दूर करने दो। इस प्रकार कांग्रेस अपनी प्रारंभिक अवस्था में एक अंग्रेज-प्रेरित और अंग्रेजियत के दीवाने ऐसे भारतीयों की संस्था थी, जो महत्वाकांक्षी ,सत्ता-लोलुप और पदों के लिए आतुर रहते थे, और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के मोहरे तथा कठपुतली थे।
वीर सावरकर ने प्रमाण देकर कांग्रेस के आड़ में देशवासियों को गुमराह करने वाला संगठन कहा था। एवं देश के पढ़े लिखे बाबूओं द्वारा अंग्रेजियत की आड़ में देश को गुलाम रखने की साजिस बताया था। तब क्रीमी लेयर के कुलीन लोग ही काँग्रेसी बनते थे ... और यही हालत आज तक भी बरकरार है। आज भी कुलीन और क्रीमी लेयर के काँग्रेसी नेतागण भोले-भाले गरीब देशवासियों को मनरेगा एवं खाद्य-सुरक्षा बिल दिखला कर भिखारी राष्ट्र बनाये रखना चाहते हैं। इसलिए गांधी ने इसका भविष्य में दुष्परिणाम भांप कर १९४७ में ही कह दिया था , “कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए”!
कांग्रेस की स्थापना १८८५ ई. में हुई और १८८६ में श्रीरामकृष्ण का शरीर चला गया। १८८५ से लेकर १८९७ में विवेकानन्द के भारत लौटने तक- १२ वर्षों तक कांग्रेस के लोग यह भी नहीं जानते थे कि राष्ट्र कहते किसे हैं ? विवेकानन्द ने अपने गुरु से यह सीखा था कि यथार्थ मनुष्यों का अभाव ही भारत के पतन के कारण है। इसीलिये ' मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' का प्रचार प्रसार ही भारत के कल्याण का एकमात्र उपाय है। श्रीरामकृष्ण के प्रशंसक अश्वनी कुमार दत्त भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के डेलीगेट थे, जब वे राजनीती के माध्यम से देश-कल्याण की बात ठाकुर के समक्ष रखे तो, ठाकुर ने कहा कि तुम नरेन्द्र नाथ दत्त से मिलो। ठाकुर का शरीर रहते समय वे नरेन्द्र नहीं मिल सके थे। 
१८९७ ई. में जब विवेकानन्द अल्मोड़ा में लाला बदरीनाथ शाह के अतिथि बनकर रह रहे थे, वहाँ उनसे मिलने अश्विनी कुमार दत्त पहुँचे थे। अश्विनी बाबू ने कहा मैं यहाँ काँग्रेस अधिवेषन में बंगाल के डेलीगेट के रूप में काँग्रेस भाग लेने आया हूँ, आप जैसे देश को जगाने का काम कर रहे हैं, हमलोग भी काँग्रेस के माध्यम से मीटिंग बुलाकर वैसा ही काम करते हैं। तब विवेकानन्द ने कहा था, काँग्रेस का मीटिंग क्या है ? यह तो ३ दिन का तमाशा है ! राष्ट्र किसे कहते हैं, जानते भी हो ? जिस राष्ट्र के पास अपनी संप्रभुता नहीं है, वहाँ कोई समूह राष्ट्रीय पार्टी कैसे कहला सकती है ? देशवासी भूखों मर रहे हैं, और तुमलोग मीटिंग में तीन दिनों तक माल-मलीदा खाते हो, नाच-गान करते हो ? ऐसा मीटिंग करने से राष्ट्र महान होगा, या चरित्रवान यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करने से राष्ट्र महान बनेगा ? अपने भावी देशप्रेमी नेताओं की पहचान बताते हुए कहा था - " Hey, my would-be reformers, would-be patriots, my would-be Leaders -  ऐ मेरे भावी सुधारकों (नेताओं), मेरे भावी देशभक्तो, तुम अनुभव करो! क्या तुम अनुभव करते हो कि देव और ऋषियों की करोड़ों सन्तानें आज पशुतुल्य हो गयी हैं ?" देशवासियों सेवा करने के पहले तुम्हें उनकी दुर्दशा को अपने ह्रदय में फील करना सीखना होगा। 
तुम्हारे काँग्रेसी नेताओं को झोपड़ियों में रहने वाले गरीबों के भूख की ज्वाला का अनुभव भी है ? तीन दिन का तमाशा करने से क्या होगा ? 
अश्विनी बाबू पहले यह जानो कि सुदूर अतीत में हमारे पूर्वज ऋषियों ने मानव की मुक्ति का जो मार्ग आविष्कृत किया था- वह क्या था ? पहले उसको जानो फिर उसकी चट्टानी नींव पर महान भारत का निर्माण करो। अंग्रेजों की चाटुकारिता करने से भारत महान नहीं होगा। भारत के सच्चे देशप्रेमी आज भी काँग्रेस को कोसे बिना, भारत भावी देश-भक्त नेताओं को, भारत के राष्ट्रीय आदर्श ' त्याग और सेवा' के युगल आदर्श को भारत के गाँव गाँव तक पहुँचा देने के लिये तुम्हारा आह्वान कर रहे हैं! स्वामीजी ने 'मेरी क्रान्तिकारी योजना' भाषण में देशप्रेमी नेताओं को पहचानने की जो तीन कसौटी रखी है, उसी से वर्तमान भारत के देशप्रेमी नेताओं को भी पहचानना होगा। आजादी से पहले भारत कभी सार्वभैमिक-संप्रभुता सम्पन्न राष्ट्र नहीं था। जब भारत स्वाधीन राष्ट्र बनेगा उस समय भारत के समक्ष आदर्श-राष्ट्र का मॉडल या पैमाना क्या होगा ?
 
 २० जुलाई २०१२ को कोन्नगर में आयोजित वार्षिक आम बैठक (ए.जी.एम)
बायें से दायें रंजीतदा, दीपकदा, बीरेनदा, नवनीदा, बासुदा, रणेनदा, अमितदा
महात्मा गाँधी की कल्पना थी कि ' राम-राज्य ' को ही भारत का नेसनल मॉडल के रूप में स्थापित किया जायगा। क्योंकि ' राम-राज्य ' में सीता को भी अग्नि-परीक्षा क्यों देनी पड़ी थी ! इसीलिये जब भारत स्वाधीन होगा तो उसके राजा को या डेमोक्रेसी की भाषा में प्रधान-मंत्री को जनता की राय (पब्लिक ओपिनियन) का ध्यान रखना होगा। हर पाँच वर्ष के बाद चुनाव होगा, जो नेता जनता की राय की उपेक्षा करेगा या पब्लिक ओपिनियन की अवहेलना करेगा उसे जनता वोट के माध्यम से हरा देगी। सरकार को यह ध्यान देना होगा कि आम जनता क्या चाहती है ? सरकार को यह देखना होगा कि सरकार के कामकाज के बारे में पुब्लिक ओपिनियन क्या है ? रामराज्य के पैटर्न पर जो शासन करेगा, उसके राजा को राजधर्म का पालन करने के लिये पुब्लिक ओपिनयन का ध्यान रखते हुए नाते-रिश्तेदारों का ही नहीं अपनी पत्नी तक को त्यागने का कलेजा रखना होगा। 
जबकि नेसनल काँग्रेस का गठन ही अंग्रेजों की चाटुकारिता करने के लिये हुआ था, उनका मानना था कि स्वाधीन भारत का आदर्श राम-राज्य के दकियानूसी आदर्श नहीं पाश्चात्य भोगवादी सभ्यता की छाप होनी चाहिये।1885 में कांग्रेस नामक संगठन की स्थापना के बाद से भारत के अंग्रेज समर्थक सुधारवादी नरमपंथियों को एक अखिल भारतीय स्तर का मंच मिल गया।
जबकि 1857 की असफल क्रांति के बाद स्वराज्य कामी लोग भूमिगत होकर बीज रूप में अंकुरित हो रहे थे। बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय एवं श्री अरविन्द घोष जैसे गरमपंथी स्वराज्यवादियों का अंकुरण इसी बीज (स्रोत) से हुआ। परंतु एक पेड़ का स्वरूप इसने 1905 में ही लिया। 52 वर्ष लगे इस बीज के अंकुरण में। स्वामीजी की प्रेरणा और प्रभाव से काँग्रेस नरम दल और गरम दल दो भागों में बँट गया। महात्मा गांधी के राजनीति में आने से पहले वर्ष 1905 में लाल बाल पाल (लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल) पहला ऐसा क्रांतिकारी गुट था जिसने बंगाल विभाजन के समय अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उपद्रव छेड़ा था. इनका मानना था कि आजादी याचना से नहीं मिलती, बल्कि इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है। लाहौर में 30 अक्टूबर 1928 को एक बड़ी घटना घटी जब लाला लाजपतराय के नेतृत्व में साइमन का विरोध कर रहे युवाओं को बेरहमी से पीटा गया। पुलिस ने लाला लाजपतराय की छाती पर निर्ममता से लाठियाँ बरसाईं। वे बुरी तरह घायल हो गए, इस समय अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा,  मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक चोट ब्रिटिश साम्राज्य के क़फन की कील बनेगी। और इस चोट ने कितने ही ऊधमसिंह और भगतसिंह तैयार कर दिए, जिनके प्रयत्नों से हमें आज़ादी मिली। तिलक वह पहले शख्स थे जिन्होंने ' स्वराज का नारा ' दिया। तिलक ब्रिटिश शिक्षा का जबर्दस्त विरोध करते थे , जिसमें भारतीय मूल्यों को दरकिनार कर दिया गया था। उनका मशहूर नारा- स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा- भारतीय जनमानस का नारा बन गया।  
विपिनचंद्र पाल हिन्द स्वराज्य राष्ट्रवादी नेता होने के साथ-साथ शिक्षक, पत्रकार, लेखक व बेहतरीन वक्ता भी थे और उन्हें भारत में क्रांतिकारी विचारों का जनक भी माना जाता है। उनका यकीन था कि सिर्फ 'प्रेयर पीटिशन' से स्वराज नहीं हासिल होने वाला है। 'गरम' विचारों के लिए मशहूर इन नेताओं ने अपनी बात तत्कालीन विदेशी शासक तक पहुँचाने के लिए कई ऐसे तरीके इजाद किए जो एकदम नए थे। इन तरीकों में ब्रिटेन में तैयार उत्पादों का बहिष्कार, मैनचेस्टर की मिलों में बने कपड़ों से परहेज, औद्योगिक तथा व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में हड़ताल आदि शामिल हैं।
जब किसी स्वतंत्र राज्य के पास 'sovereignty' संप्रभुता होती है उसी को राष्ट्र कहा जाता है। किन्तु किसी राजनितिक दल के नेता को संप्रभुता मिलने से राष्ट्रीय दल नहीं समझना चाहिये। भारत के नागरिकों को संप्रभुता का अधिकार मिलना चाहिये किसी पार्टी-विशेष के हाई-कमाण्ड की संप्रभुता से जनता को क्या लाभ ? जो भी सरकार भारत के नागरिकों की राय का ध्यान रखते हुए उनके कल्याण का काम करेगी हमलोग उसकी सराहना करेंगे। किन्तु किसी दल को स्वामी विवेकानन्द के नाम पर  भ्रामक प्रचार नहीं करना चाहिये कि अब मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा नीति लागु हो जाएगी। यह इतना आसान नहीं है। 
जो राजनितिक नेता सच्चे देशभक्त नहीं हैं, वे क्या कभी महामण्डल के शिविर में साधारण लोगों के सामान रह सकते हैं ? जो सच्चा देशभक्त होगा वह अपने लिये ५ सितारा होटल वाली सुविधा की माँग कैसे करेगा ? आज देश के किस राजनेता या मंत्री में स्वदेशवासियों के साथ एकात्मबोध है ? इसको जाँचने का पैमाना है विवेकानन्द द्वारा कथित देशप्रेमी को परखने की तीन शर्तें। वह नेता ठहरता कहाँ है, क्या खाता-पीता है, सोता-चलता कैसे है ? उसका चरित्र क्या है ? मठ-मिशन में त्याग और सेवा   का जो आदर्श नेता के लिये रखा गया है, वही आदर्श हमारे नेता का भी होगा। हमारे नेता विवेकानन्द हैं, कोई पोलिटिकल व्यक्ति हमारा नेता नहीं हो सकता। 

 
 २० जुलाई २०१२ को कोन्नगर में आयोजित वार्षिक आम बैठक (ए.जी.एम)
हमें सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी पोलिटिकल पत्रिका में महामण्डल के निबन्ध को छापने की अनुमति तो नहीं दिये हैं ? या किसी राजनितिक दल द्वारा स्वामी विवेकानन्द नाम पर आयोजित सभा-सम्मेलनों में हमें शामिल नहीं होना है। ऐसा नहीं कि हमलोग काँग्रेस के सदस्य तो नहीं बनेंगे किन्तु बीजेपी से युक्त हो सकते हैं। नहीं, हमें किसी भी राजनितिक दल का समर्थन नहीं करना है। महामण्डल के देशप्रेमी का पैमाना राजनितिक दल निरपेक्ष रहेगा ! हमें याद रखना होगा कि भारत कल्याण का एकमात्र उपाय है, स्वार्थशून्य, देशप्रेमी यथार्थ मनुष्यों का निर्माण। कोई भी पॉलिटिशियन कभी पूर्णतः निःस्वार्थ या ईमानदार नहीं हो सकता। 
हमलोग न तो भाजपाई हैं, न काँग्रेसी; हमलोग विवेकानन्द पंथी हैं। हमारा एकमात्र कार्य होगा - Be and Make अर्थात पहले स्वयं देवता बनो और दूसरे देवी-देवताओं की उपासना करो। कर्म और उपासना एक साथ होगा। फर्स्ट राउण्ड टेबल कॉन्फ्रेंस में भाग लेने गांधीजी के साथ उनके सचिव महादेव भाई देसाई भी जा रहे थे। सामानों के गट्ठर को देखकर गाँधी ने पूछा इतना ज्यादा लगेज क्यों लिया है ? मैं भारत के ३० करोड़ दरिद्र लोगों का प्रतिनिधि बनकर जा रहा हूँ, क्या वहां जाकर मैं फैसन दिखाऊंगा। यहाँ के प्रधान-मंत्री को भी घोषणा करना चाहिए था कि मेरा मंत्री वही बनेगा जो १२५ करोड़ गरीबों की सेवा करेगा। महामण्डल केन्द्रों को किसी राजनितिक दल या उसके नेता के क्षद्म विवेकानन्द-भक्ति को देखकर उससे जुड़ना नहीं चाहिये, हमारे लिये तो किसी भी देशप्रेमी नेता की कसौटी स्वामी जी द्वारा कथित तीन शर्ते हैं। उसी के अनुसार हमें किसी देशप्रेमी नेता की पहचान करनी चाहिये।
किशोर ग्रुप प्रशिक्षण : रामराज ताला के सदस्य ने कहा कि नवीं कक्षा के उपर के किशोर थोड़ा परिपक्व  हो जाते हैं। जिनका चरित्र मोबाईल-संस्कृति से नष्ट नहीं हो सका हो, उन्हें विवेक वाहिनी संचालक का प्रशिक्षण देना चाहिये।पूज्य नवनी दा ने कहा कि श्रीरामकृष्ण सर्व-पंथ समन्वय के मूर्त रूप थे। किशोर ग्रुप को प्रशिक्षण में यह बताना चाहिये कि सर्वधर्म समन्वय का अर्थ होता है- अविरोध ! हमारे शिविर में एक साथ रहते हुए प्रत्येक पंथ के लोग एक साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं। खेल-कूद में एक साथ भाग लेते हैं। विवेक-वाहिनी का संचालक सभी पंथ के बच्चों को समान दृष्टि से देखेगा और मनुष्य बनने के प्रशिक्षण में पंथ के आधार पर कोई पक्षपात नहीं करेगा। किशोर उम्र के संचालक को बच्चे अपना आदर्श मानते हैं; उसे सभी को अपने परिवार समझकर व्यवहार करना सीखना होगा। 
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