बुधवार, 15 दिसंबर 2010

धर्म क्या है ? 2 G स्‍पेक्‍ट्रम ?



न्यायाधीश जी.एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए.के. गांगुली की पीठ ने कहा, " 2G स्‍पेक्‍ट्रम के आवंटन में उचित प्रक्रिया नहीं अपनाने से सरकारी खजाने को करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ रुपये  का नुकसान हुआ। देश के अन्य सभी घोटालों की राशि देखने पर उतनी शर्मिदगी नहीं आती कि जितनी कि आवंटन घोटाले की राशि पैदा कर रही है।"  2G घोटाले में शामिल राशि की मात्रा को देखते हुए सर्वोच्चा न्यायालय ने कहा कि अन्य सभी घोटालों की राशि मिला देने पर भी यह घोटाला उस राशि पर भारी प़डेगा। 
स्पेक्ट्रम घोटाला मामले की जेपीसी से जांच कराने की मांग पर सरकार और विपक्ष के बीच गतिरोध के चलते ही संसद का पूरा सत्र सोमवार (१३ दिसम्बर २०१०)  को समाप्त होने जा रहा है। इसी के साथ पूरे सत्र के दौरान एक भी दिन कामकाज नहीं हो पाने का देश के संसदीय इतिहास में एक रिकॉर्ड बन जाएगा।  किन्तु चाहे सत्ता पक्ष हो य़ा विपक्ष दोनों में से कोई भी पक्ष यह बता पाने में असमर्थ है किआखिर इस सुरसा के मुख के समान दिनों-दिन फैलते हुए इस 'सर्वव्यापक' भ्रष्टाचार से मुक्ति पाकर भारत माता को पुनः उसके गौरवशाली सिंहासन पर आरूढ़ किस प्रकार कराया जा सकता है?
आखिर हमारे इस विश्व के के सबसे बड़े लोकतंत्र के समक्ष यह किंकर्तव्य विमूढ़ कर देने वाली अवस्था क्यों आ गयी है ?यह इसीलिये है कि हमारी जनता ने जिनके हाथों में संसद का पक्ष और विपक्ष चलाने की जिम्मेदारी सौंपी है, उन दोनों पक्षों के शीर्ष पर बैठे नेताओं में से किसी ने भी भारत के महान देशभक्त युवा नेता ऋषि स्वामी विवेकानन्द द्वारा १०० वर्ष पूर्व ही आविष्कृत " भारत पुनर्निर्माण सूत्र " - ' Be and Make'  को समझने का प्रयास ही नहीं किया है.
आइये यहाँ हमलोग यह समझने का प्रयास करते हैं कि आखिर इस छोटे से सूत्र को समझ लेने से ही भारत माता को इस भ्रष्टाचार दुराचार के दल-दल से निकाल कर, कैसे एकबार पुनः उसे अपने गौरवशाली सिंहासन पर आरूढ़ कराया जा सकता है? अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि Robert Browning (१८१२-१८८९) की एक प्रसिद्ध उक्ति है- 

" Progress, man’s distinctive mark alone, 
Not God’s, and not the beasts’: 
God is, they are, 
Man partly is and wholly hopes to be."  

- " विकास करना केवल मनुष्य योनी की विशिष्ट पहचान है, यह विशिष्टता न तो देवताओं में है और न तो पशुओं में ही, क्योंकि देवता और पशु तो पहले से ही हैं (उनको पशु बनने के लिये कहना नहीं पड़ता है).किन्तु मनुष्य अभी अधुरा है, 'अंश' है, तथा वह ' पूर्ण-मनुष्य ' बन जाने की सम्भावना रखता है!" 
पशु लोग जिस अवस्था में जन्म लेते हैं, उसी अवस्था में बूढ़े होकर मर जाते हैं. परन्तु मनुष्य जिस अवस्था में जन्म लेता है, बूढ़े हो जाने तक भी वह उसी अवस्था में नहीं रहता.वह चाहे तो विद्या सीख कर अपना चारित्रिक विकास कर सकता है, और पशु-मानव से देव-मानव में उन्नत होने के बाद अपने शरीर का त्याग कर सकता है. यह ठीक है कि जन्म के समय मनुष्य अपूर्ण रहता है.
 एक अबोध शिशु के रूप में वह पैर के अंगूठे को मुख में डाल कर चूसता रहता है. किन्तु उस अवस्था में भी मनुष्य मात्र के भीतर 'पूर्णत्व' क्रमसंकुचित अवस्था में विद्यमान रहता है. यही पूर्णत्व पशुयोनियों में भी क्रमसंकुचित रहती है, किन्तु वहाँ इस पूर्णता को अभिव्यक्त करने की विद्या सीखने के लिये अनुप्रेरित करने वाला 'विवेक' सम्पन्न परिष्कृत 'अंतःकरण' नहीं रहता. 
किन्तु मनुष्य के पास वैसा एक परिष्कृत अंतःकरण है, जो अपने मिथ्या अहंकार को हटा कर शिष्य बन सकता है, तथा अपने अन्तर्यामी गुरु से श्रेय और प्रेय के बीच विवेक करना सीख लेता है. और वह विवेकी मनुष्य केवल ' प्रेय ' ( आहार, निद्रा, भय, मैथुन ) में ही लिप्त रहकर पशुओं के जैसा मर जाने को बाध्य नहीं होता. इसी विवेक के निर्देशन में, स्वयं अपने पुरुषार्थ से वह 'अंश' से ' पूर्ण ' जाता है ! 
इसी प्रकार अंश से पूर्ण-मनुष्य बन जाने का आह्वान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " Be " तथा उपाय बताया था- " Make "! अर्थात तुम ' स्वयं मनुष्य बनो तथा दूसरों को भी मनुष्य बनने में साहायता करो' | 
तथा विशेष रूप से युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था- " चरैवेति ! चरैवेति !!"  अर्थात मनुष्य बनने और बनने का प्रयास तबतक निरन्तर करते रहो, जब तक यह चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य निर्माणकारी विद्या (शिक्षा) एक आन्दोलन के रूप में भारत के गाँव गाँव तक नहीं फैल जाय - तुम विश्राम मत लो !
वे कहते थे- " Arise ! Awake !! and stop not till the goal is reached ."" उठो ! जागो !! और लक्ष्य प्राप्त होने तक विश्राम मत लो !" यही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है, तथा यही भ्रष्टाचार रूपी कैंसर से छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय है. कहा गया है-
" आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत पशुर्भी नराणाम |
    एको ही तेषाम अधिको विशेषो धर्मेण हीनः पशुर्भी समानः ||"
पशु से मनुष्य में अन्तर कहाँ आता है ? मनुष्यों को एक विशेष वस्तु ईश्वर की ओर से प्राप्त है जिसको 'धर्म' कहा जाता है. यह धर्म जिस मनुष्य के जीवन में नहीं उतरा है, वह तो पशु के समान ही है. किन्तु यह 'धर्म' क्या है ? 
इसके बारे में महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय (नवनी दा) कहते है- " यदि एक लाख मनुष्यों में से एक मनुष्य भी यह समझ लेता है कि धर्म क्या है, तो बहुत कहा जायेगा. अधिकांश लोग अपने अपने मन के अनुसार सोंच कर, मनमाने ढंग से धर्म की कोई परिभाषा य़ा धारणा गढ़ लेते हैं; तथा 
' धर्मावलम्बी ' होने को ' मतावलम्बी ' होने का पर्यायवाची मान कर धर्म के नाम पर एक दूसरे के साथ लड़ते-झगड़ते रहते हैं, दंगा-फसाद करने पर भी उतारू हो जाते हैं." महाभारत में कहा गया है- 

श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः,
नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां ,
महाजनो येन गतः सः पन्थाः ॥
- महाभारत
अर्थ- वेद और धर्मशास्त्र अनेक प्रकार के हैं । कोई एक ऐसा मुनि नहीं है जिसका वचन प्रमाण माना जाय । अर्थात् श्रुतियों,स्मृतियों, और मुनियों के मत भिन्न-भिन्न हैं । धर्म का तत्व अत्यंत गूढ है- वह साधारण मनुष्यों की समझ में नही आ सकता । ऐसी दशा में , महापुरूषों ने - जिस मार्ग का अनुकरण किया हो , वहीं धर्म का मार्ग है, उसी को अपनाना चाहिए ।
" धारणात धर्मः ईति आहू- स धर्म ईति निश्चयः "
धर्म उसे कहते हैं, जो हमारे मनुष्यत्व बोध को धारण करता है. अर्थात अपने आचरण और व्यवहार में जिस गुण ( श्रेय-प्रेय विवेक से उत्पन्न निःस्वार्थपरता ) को धारण करने के कारण ही हम मनुष्य कहलाने योग्य बनते हैं, उसे ही धर्म कहा जाता है. 
जब इस सर्व-श्रेष्ठ मनुष्य शरीर में जन्म हो गया जिसमे ' विवेक ' हमारी विशिष्ट पहचान (Distinctive Mark ) है, तब हमे फिर पशु जैसा जीवन न बिताकर, इस " देवदुर्लभ विवेक " को सदा जाग्रत रखते हुए, इसे बढ़ाते जाना है और 'अंश' (पशुमानव) से 'पूर्ण'(देवमानव) में रूपान्तरित हो जाने तक विश्राम नहीं लेना है.    
 धर्म को जीवन में धारण करने य़ा ' धर्मावलम्बी ' होने का अर्थ- त्रिपुण्ड धारण करना अथवा रामनामी चादर ओढ़ कर मन्दिर-मन्दिर मत्था टेकते रहना.य़ा हर शुक्रवार को मस्जिद जाकर नमाज पढ़ लेना अथवा सन्डे-सन्डे गिरिजा में जाना और - अपने अपने घर वापस आने के बाद फिर वैसा ही पशुओं जैसा जीवन जीना नहीं है. 
धार्मिक मनुष्य होने का दावा करने के बाद भी अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिये देश की य़ा दूसरों की क्षति करने वाला पशुमानव बने रहने को धर्म नहीं कहा जाता है.इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते थे- " यदि धार्मिक कर्म-कांडों में (या घुटनों की कवायद) में ही जीवन भर अटके रहने को धर्म समझते हो, तो उससे अच्छा यह होगा कि घड़ी-घन्टा को गंगाजी में बहा दो, और पण्डित-मौलवी को बंगोपसागर में डुबो दो. "
हमलोग आज जो इतने सारे मन्दिर गली-गली में देख रहे हैं, वैसा वैदिक युग में नहीं था.तब इतने अधिक मन्दिर और मूर्तियाँ नहीं हुआ करती थीं, यह सब तो बाद में आ गये हैं. पूर्व काल में भारत के लोग अपने ह्रदय-मन्दिर में ही 'भगवान' को प्रतिष्ठित करने की विद्या जानते थे, इसीलिये उन दिनों भगवान का दर्शन करने के लिये मन्दिर-मन्दिर जाने की प्रथा भी नहीं थी. सभी शरीरों को ही देवालय कहा जाता था- ' देहो देवालय प्रोक्तः '!  
सभी शरीरों के भीतर ' आदिगुरु ' (ब्रह्म) ही अन्तर्यामी होकर विराज रहे हैं, उस समय ऐसा विश्वास था कि भगवान श्रीराम अपने ह्रदय रूपी अयोध्या में ही विद्यमान हैं. सभी मनुष्यों में आदि गुरु के रूप में ब्रह्म ही विद्यमान हैं, कण-कण के भीतर श्रीराम ही रम रहे हैं, कण-कण में राम ही परिव्याप्त हैं. कोई भी वस्तु जड़ नहीं है सबकुछ चैतन्य ही है. 
 इसी बात को आज विज्ञान इस तरह कहता है- E = M (energy-matter equation ) य़ा पदार्थ (matter) भी ऊर्जा (energy) का ही रूपान्तरण है ! यह बोध किन्तु विज्ञान को भी आइन्स्टीन से पहले नहीं हुआ था.दूसरे मतावलम्बियों में भी यह बोध- (आत्मवत सर्वभूतेषु) बहुत देर के बाद, श्री रामकृष्ण परमहंसदेव के द्वारा ' सर्वधर्म समन्वय ' की साधना को सम्पन्न कर लेने के बाद ही आया था. 
 स्वामीजी कहते हैं- ' Be and Make ' ! क्या बनना है? जो हम यथार्थ में हैं, वही बनना है.जब हम मनुष्य शरीर प्राप्त कर लिये हैं तो विवेक-विचार रहित जड़ पशुओं के समान जीवन बीता कर मर नहीं जाना है, इसी जीवन में यथार्थ मनुष्य बन जाने के बाद ही इस शरीर का त्याग करना है.
किन्तु अज्ञानता वश हमलोग चरित्र-गठन की प्रक्रिया को जीवन में अपना कर - 'मनुष्य बनने और बनाने ' के बजाय, मनुष्य-निर्माण कारी शिक्षा को गाँव गाँव तक फ़ैलाने के बजाय; मनुष्य निर्माण करने के बदले मन्दिर- मस्जिद का निर्माण करने के लिये आपस में मुकदमा लड़ते हैं य़ा दंगा-फसाद करते हैं, और सोंचते हैं हम धर्म कर रहे हैं. 
मन्दिर-मस्जिद बनाने में कोई खराबी नहीं है, यदि हमलोग वहाँ से आने के बाद भी मनुष्य ही बने रहें तथा दूसरे मतावलम्बियों को भी अपने ही जैसा एक मनुष्य समझ कर उनसे घृणा नहीं करें, तथा मन,वचन, कर्म से दूसरों की थोड़ी भी क्षति पहुँचाने की चेष्टा न करें. इंग्लैण्ड में अभी केवल १६ % लोग ही चर्च में जाते हैं, बाकी बचे ८४%  धर्म क्या है इसे समझने के लिये भारत की तरफ देख रहे हैं.
क्योंकि जो व्यक्ति वास्तव में धर्म क्या है इसे जान जायेगा, फिर वह विभिन्न मतावलम्बियों से अपने के बीच कोई भेदभाव नहीं देख पायेगा. तब उसे यह ज्ञात हो जायेगा कि सभी तरह की क्षूद्र संकीर्णता, स्वार्थपरता, असम्पूर्णता को पीछे छोड़ कर पूर्ण हो जाना ही धर्मावलम्बी होना है. ' अंश ' से पूर्ण हो जाना, बिन्दु से सिन्धु बन जाना यही धर्म का सार है. 
ऐसा मनुष्य बनने और बनाने से ही मानव जाति का मंगल हो सकता है. भ्रष्टाचार, आतंकवाद, भय-भूख, आदि जितनी भी समस्यायों से आज देश जूझ रहा है, उन सबों का निराकरण  केवल मनुष्य बनने से ही हो सकता है. इसीलिये दूसरों को कोसना छोड़ कर, आइये पहले हमलोग इस मनुष्य निर्माण आन्दोलन - ' Be and Make ' से जुड़ जाएँ !