महामण्डल कर्मी का प्रथम कर्तव्य है - मनःसंयोग की पद्धति सीखना !
स्वामी विवेकानन्द से हमलोगों ने सुना है कि - मन का स्वभाव अत्यन्त चंचल है तथा हमलोगों की समस्त इन्द्रियों - बाह्य इन्द्रिय तथा अन्तः इन्द्रिय से लेकर विचार, विवेक उचित-अनुचित निर्णय क्षमता, भावनाएँ, प्रेरणा इन सभी क्रियाओं का स्रोत यह मन ही है। किन्तु वह अत्यन्त चंचल है। मन अपने स्वाभाव से तो चंचल है ही, किन्तु उसकी स्वाभाविक चंचलता को अनेको प्रकार की कामना -वासना (ऐषणा) और अधिक चंचल बना देती हैं।
आत्मकेन्द्रिता (Self-centeredness) एवं स्वार्थपरता ही हमलोगों की स्वाभाविक कमजोरी या दोष है, जो हमलोगों को दूसरों से दूर कर देती है, और अपने सुख-भोग के प्रति अधिक प्रलोभित करती है। इसीलिये दूसरों के सुख को देखकर हमलोग ईर्ष्या करने लगते हैं। उसी ईर्ष्या का डंक हमारे चंचल मन को और अधिक चंचल कर देता है। फिर उस चंचल मन पर जब अहंकार का भूत सवार हो जाता है, तो वह व्यर्थ का अहंकार हमलोगों के मन को उन्मादी (सनकी) बना देता है। इस प्रकार के 'उन्मत्त-स्वभाव' मन का दमन करना अत्यन्त कठिन है। ("मनो मर्कटो मदीरो उन्मत्तः वृश्चिको दंशितः पश्चात् भूत आरुढ़ो।') किन्तु इसके साथ साथ यह बात भी हमें ठीक से समझ लेनी चाहिये कि - ' कठिन होने से भी मन को वश में लाना असंभव नहीं है।'
सर्वप्रथम हमलोगों यह स्पष्ट रूप से जान लेना होगा कि यदि अपने जीवन में सफलता अर्जित करनी हो, यदि जीवन को सार्थक करना हो, या जीवन-लक्ष्य को ( या चार पुरुषार्थों में से किसी पुरुषार्थ को ) प्राप्त करना हो, - उसमें सबसे प्रमुख भूमिका मन की ही होती है। वशीभूत मन की सहायता से जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता अर्जित की जा सकती है। सर्वप्रथम हमलोगों को यह समझना होगा कि मनःसंयोग की पद्धति को सीखना आवश्यक क्यों है, मन की प्रकृति, मन का स्वाभाव, मन का रूप आदि जान लेने के बाद, उसको दमन करना या वशीभूत करना कठिन है- यह सब जान लेने के बाद, हताश हो जाने से काम नहीं चलेगा। भगवान श्रीकृष्ण की वाणी -(गीता ६.३५) याद रखनी होगी कि, कठिन होने से भी मन और इन्द्रियों को दमन करना, उसको नियंत्रित करना सम्भव है ! इस भावना से, पूरी आस्था से, दृढ़ विश्वास के साथ, 'अडिग संकल्प ग्रहण' प्रक्रिया को अपनाकर,लगभग असम्भव से लगने वाले इस कार्य को, हममे से प्रत्येक महामण्डल कर्मी को इसी जीवन में संभव कर दिखाना होगा। यदि हमलोग इस विषय में असफल हो गए तो, हमारा जीवन पूर्णतः असफल हो जायेगा।
अधिकांश लोगों के लिए यह बहुमूल्य, दुर्लभ मानव जीवन असफल ही रह जाता है। [क्योंकि अधिकांश मनुष्य इस मानव-शरीर को सर्वश्रेष्ठ योनि और मनुष्य-जीवन को महा-मूल्यवान जीवन क्यों कहा जाता है, इस बात से परिचित नहीं हैं। त्रय-दुर्लभं के महत्व को नहीं जानते हैं। इसीलिये हमारे इस महमूल्यवान जीवन का अधिकांश हिस्सा व्यर्थ के कार्यों में ही क्षय हो जाता है।]
प्रत्येक असफलता का मूल कारण केवल एक है- मन के उपर निन्त्रण का आभाव। हममें से अधिकांश व्यक्ति बचपन में या किशोरावस्था में मन का रूप या स्वभाव के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं, मन की शक्ति के बारे में या मन के अतिरिक्त चंचलता के कारण के बारे में नहीं जानते हैं, मन का दमन करना सम्भव है- इसके बारे में नहीं जानते हैं ; मन का दमन करना क्यों आवश्यक है -यह बात नहीं समझते हैं। मन को वश में करने के लिये जैसा दृढ़ विश्वास चाहिए, जैसा दृढ़ संकल्प, जैसा प्रयत्न चाहिए, अध्यवसाय पूर्वक मन को वशीभूत कर लेने तक निरंतर अभ्यास में लगे रहने का धैर्य नहीं होने के कारण हमलोगों का जीवन व्यर्थ हो जाता है। हमलोग यदि विद्वान् नहीं हों (कोई डिग्री नहीं हो-सिर्फ दूसरा क्लास पास हों), धनवान नहीं हों, सुख-सम्पत्ति के अधिकारी भी नहीं हों, तो भी हमारा जीवन असफल नहीं होगा। किन्तु यदि हम अपने मन के उपर नियंत्रण नहीं स्थापित कर सके, तो हमलोगों का जीवन अवश्य असफल हो जायेगा। लेकिन अगर हम केवल इस एक मात्र कौशल को सीख लें, मन को एकाग्र करने का कौशल,या मनःसंयोग की पद्धति को सीख लें- तो हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा। किन्तु जिस एक मात्र कौशल को सीख लेने से हमारा मनुष्य योनि में जन्म लेना सार्थक हो जायेगा, उस 'एकाग्रता' की पद्धति को सीखना हमारा लक्ष्य नहीं होता। हम लोग मन को वश में किये बिना, कई प्रकार के कार्य (जैसे देश-सेवा, ग्राम-उद्धार, नारी-शिक्षा, प्रौढ़-शिक्षा आदि सेवा-कार्य) कर सकते हैं, या कई प्रकार के निजी शौक (interest या चाहत) को पूरा कर सकते हैं, किन्तु यह नहीं समझते कि, यदि हमारा मन वशीभूत नहीं हो तो स्वार्थ-सिद्धि या परोपकार, दोनों कार्यों में से कोई कार्य सफल नहीं होगा ! और वैसा होने से हमारा जीवन कभी कभी सार्थक (meaningful-भाववाहक) नहीं हो सकेगा।
इसलिए यदि हमलोग स्वामी विवेकानन्द-मार्ग में विश्वासी हों, अर्थात उनकी मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा में आस्था रखते हों और अपनी सनातन विचारधारा के प्रति श्रद्धावान हों (अर्थात 'सनातन गुरु-शिष्य परम्परा ' या श्रीरामकृष्ण - विवेकानन्द वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा, 'Be and Make' के प्रति श्रद्धावान हों), तो किसी भी तरह का कार्य (परोपकार या निजी शौक) को प्रारम्भ करने से पहले, या किसी भी विषय में अपनी ऊर्जा और विचारों को उत्सर्ग करने के पहले, हममें से प्रत्येक महामण्डल कर्मी का कर्तव्य है -इस मन के उपर नियंत्रण रखने की साधना को पूरे अध्यवसाय के साथ (अर्थात अमृत मिलने तक) कठोर परिश्रम, प्रयत्न, चेष्टा करते रहना। हमें इस एकाग्रता या मनःसंयोग की इस अवधारणा (concept) को समझने की आवश्यकता है। यह कार्य अत्यन्त कठिन है। किन्तु इस कार्य की उपेक्षा करने से, आलस्य करने से, प्रयत्न में कमी करने से, लक्ष्य पर एकाग्र दृष्टि, या निष्ठा में थोड़ी भी कमी रहने से ,परोपकारी कार्य, समाज सेवा या मनुष्य की सेवा, या आत्मकेन्द्रित जीवन के क्षुद्र सुख-भोग या धन-सम्पत्ति की लालसा को पूर्ण करने की समस्त चेष्टाएँ भी पूर्ण रूप से असफल हो जाएँगी। और यदि हमलोग केवल इसी एक मात्र विषय- मनःसंयोग को सीख सकें, तो हमलोगों का - परवर्ती जीवन, अभी जैसा है, अवश्य उससे कई गुना अधिक उन्नत बन जायेगा। किन्तु इस विषय को यदि नहीं सीखें, नहीं जानें, इस विषय के महत्व के प्रति यदि हमारी दृष्टि आकृष्ट नहीं हो सके, इस विषय को जान लेने की प्रेरणा यदि हमारे मन में नहीं उठे, तो चाहे किसी भी विषय की बात हम क्यों न सोचें, या किसी भी योजना के क्रियान्वन की पद्धति को आविष्कृत करने की चेष्टा क्यों न करें, वे सब तो विफल होंगी ही, हमारे जीवन में भी सार्थकता आने की कोई सम्भावना नहीं होगी। दूसरों से इस कठोर सत्य को स्पष्ट रूप से कहना और स्वयं अच्छी तरह से इस विषय को समझ लेना हमारा एकमात्र कर्तव्य है।
यदि हमलोग वर्तमान जन्म में, अर्थात जिस शरीर में रहते हुए हमारा यह जीवन चल रहा है, उस एक सम्पूर्ण जीवन में - भले ही हम देशोद्धार न कर सकें, भले ही हम परोपकार नहीं कर सकें, भले ही हम अपने व्यक्तिगत जीवन में आत्म-केन्द्रिक सुखभोग, सम्पत्ति-ऐश्वर्य नहीं अर्जित कर सकें, तो इन नाकामीयों के बावजूद कुछ आने-जाने वाला नहीं है। किन्तु यदि इसी शरीर में रहते रहते मनः संयोग का अभ्यास करके उसको पूरी तरह से अपने वश में ला सकें तो, हमारा वर्तमान जीवन तो लाभप्रद होगा ही, लेकिन सके बाद जो जीवन मिलने वाला होगा (अवश्य हम यदि पुनर्जन्म में विश्वास करते हों तब),उस जीवन में हमलोग अवश्य अधिकाधिक कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पन्न कर लेंगे। (अर्थात भविष्य में यदि कोई व्यक्ति देशोद्धार और परोपकार का कार्य करना चाहता हो तो उसे पहले इसी जीवन में मन के ऊपर विजय प्राप्त कर लेना होगा। )
स्वामी विवेकानन्द के बारे में हमलोग चर्चा करते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं,और ऐसा मानते हैं कि हम उनको जानते हैं। किन्तु यदि ध्यान से देखें तो समझ में आयेगा कि मनः संयोग के बारे में अबतक जितनी बातें हुई हैं, वे सब विवेकानन्द की ही बातें थीं । हमलोग यदि मनः संयोग नहीं सीखें, तो न अपना और न देश का कोई कल्याण हो सकेगा। इसलिये भारत का यदि कल्याण करना चाहते हों, हम सभी का प्रथम कर्तव्य है मनःसंयोग की पद्धति को सीख लेना। वास्तविक कार्य, पहले किये जाने वाले कार्य की अनदेखी करके, बाद में आगे आकर लोगों को दिखाने के लिए कुछ करने से कोई लाभ नहीं है। पहले के जमाने में किसी कमजोर छात्र को एक साथ दो क्लास में प्रोन्नत कर देना, या क्लास टपवा देना आम बात थी - या ऐसा भी होता था कि जिसने परीक्षा में अच्छा रिजल्ट नहीं किया है, फिर भी उसको रियायती अंक (grace marks) देकर अगली श्रेणी में उत्तीर्ण कर दिया जाता था। किन्तु वैसा करने से उस छात्र का कुछ भला तो नहीं ही किया जाता, उसका बुरा अवश्य होता है। क्योंकि उस छात्र की नींव कच्ची ही रह जाती है । ठीक उसी प्रकार यदि हम लोग पहले अपने मन को नियंत्रण में रखना न सीख कर, अपने जीवन में सुख-संपदा अर्जित करने की चेष्टा करें, अथवा यदि कहते रहें - 'मैं तो जगत का उपकार कर रहा हूँ', तो हमलोगों के जीवन की नींव भी कच्ची ही रह जाएगी। और वह कार्य पूर्णतः असफल हो जायेगा - यही है स्वामी विवेकानन्द की शिक्षा। स्वामी विवेकानन्द के विभिन्न संदेशों को सुनकर हम कितना भी दावा करें, कि उनको समझा है, उनका कार्य कर रहा हूँ, कहकर अपनी पीठ कितनी भी थपथपा ली जाय, किन्तु यदि मनः संयोग का अभ्यास नहीं करते हों, तो यह हमारी बुद्धि की अल्पता का ही परिचायक होगा।
यदि हम स्वामीजी के प्रथम उपदेश को ही अनदेखा कर दें , उनकी एकाग्रता पद्धति को समझना और समझाना तो बड़ा कठिन है, सोचकर इसके अभ्यास से बचने की चेष्टा करें और स्वामीजी के अन्य आसानी से समझ में आ जाने वाली संदेशों की विवेचना करके यह सोचे कि हमने उनको जान लिया है, तो यह बहुत बड़ी भूल होगी। ध्यान रहे कि महामण्डल में आ जाने के बाद भी हमसे वह भूल नहीं हो।
===========
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।
क्योंकि हे कृष्ण मन बड़ा ही चञ्चल प्रमथनशील दृढ़ (इन्द्रियों को मथ देने वाला जिद्दी) और बलवान् है। उसका निग्रह करना मैं वायु को मुट्ठी में पकड़ने की तरह अत्यन्त कठिन मानता हूँ।
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
श्रीभगवान् बोले हे महाबाहो यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है। [मनःसंयोग की प्रक्रिया : १. लाभ क्या होगा ?/ २. मन का स्वभाव कैसा ? गीता ६. ३४ / ३. मन का दमन कठिन है, जानकर भी हताश न होना, उपाय जानना अभ्यास -वैराग्य,गीता ६.३५ /४. उसमें भी कठिनाई हो तो अभ्यास योग गीता १२.९ की विधि से या मनःसंयोग का अभ्यास । ][यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
भावार्थ : (चित्त वृत्तियों के रुक जाने के बाद-)परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥]
भावार्थ : (चित्त वृत्तियों के रुक जाने के बाद-)परमात्मा की प्राप्ति रूप जिस लाभ को प्राप्त होकर उसे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मा प्राप्ति रूप जिस अवस्था में स्थित योगी बड़े भारी दुःख से भी चलायमान नहीं होता॥22॥]
श्रद्धा, साहस निर्भीकता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा केवल इन पाँच भावों को जीवन में धारण कर लेने से मन को पूरी तरह से जीत कर उसका प्रभु बना जा सकता है ! मनःसंयोग का अभ्यास इसी अभ्यास योग या ' BE AND MAKE ' को स्पष्ट करते हुए गीता १२.९ में कहते हैं -
अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मयि स्थिरम्।
अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।
यदि इस प्रकार यानी जैसे मैंने बतलाया है उस प्रकार तू मुझमें चित्तको अचल स्थापित नहीं कर सकता? तो फिर हे धनंजय तू अभ्यासयोगके द्वारा -- चित्तको सभी इन्द्रिय विषयों से खींचकर, एक अवलम्बनमें (प्रत्याहार और धारणा : मन को अंतर्मुखी बनाकर हृदय में विद्यमान अपने इष्टदेव में बारम्बार एकाग्र करने) लगानेका नाम अभ्यास है! उससे युक्त जो समाधानरूप योग है? ऐसे अभ्यासयोगके द्वारा -- मुझ -- विश्वरूप परमेश्वरको प्राप्त करनेकी इच्छा कर। (गीता अध्याय 12 श्लोक 9 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखना चाहिए।)अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय।।
======
No comments:
Post a Comment