युवा-समुदाय में एक प्रकार की आदर्शवादी मानसिकता रहती है. वे देखते हैं  कि समाज में नाइंसाफ़ी या अन्याय (जीवन के हर स्तर पर भ्रष्टाचार ) भरा हुआ है. वे पाते हैं कि समाज के कुछ लोग ( जो निश्चय ही  उनसे उम्र में बड़े-बुजुर्ग हैं) उनकी कथनी और करनी में अन्तर रहने पर भी, बड़े निश्चिन्त हो कर अपना  जीवन बिता रहे हैं; जबकि  उनके अपने जीवन में अनिश्चयता और मनचाही-वस्तु-प्राप्ति न होने का जो मलाल रहता है, इसीलिए अपनी प्रत्येक समस्या के लिये वे अपने बड़े-बुजुर्ग ( समाज या देश के नेता ) को ही उसका  जिम्मेवार मानते हैं.
फलस्वरूप उनके प्रति वे कोई सम्मान नहीं दिखा पाते हैं.वे ऐसा महसूस करते हैं कि समस्त  सामाजिक-अव्यवस्थायें बड़े-बुजुर्गों ( समाज के तथाकथित अभिभावकों ) के द्वारा जानबूझ कर सृष्ट की गयी हैं, इसीलिए उनका आक्रोष समाज की प्रत्येक व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने पर उतारू हो जाता है.
 
   यह समस्या नूतन नहीं  है, अनादी है. हाँ कुछ नया जुड़ गया है, वे देखते हैं- उनको रहने का  ठिकाना नहीं मिलता, शिक्षा पाने का अवसर अपर्याप्त है, जो आरक्षण तथा प्रतियोगिता के कारण  और भी छोटा हो गया है, अर्थोपार्जन का अवसर नितान्त सीमित है, खेल-कूद या  मनोविनोद का मौका भी नहीं है. जिससे उनके मन में निराशा उत्पन्न होती है, उसके फलस्वरूप क्रोध उनके मन को आच्छन्न कर लेता है.
     आक्रोष प्रकट होते समय किसी प्रकार के न्याय-अन्याय की परवाह नहीं करता. इसीलिए जो कोई भी व्यक्ति, दल या निहित-स्वार्थी तत्व उनकी व्यथा और आकांक्षा के प्रति थोड़ी सी भी सहानुभूति दिखाते हैं, युवा-वर्ग विवेक-विचार किये बिना- उनके समक्ष अपना आत्मसमर्पण कर देता हैं. इससे दूसरों का स्वार्थ तो सिद्ध हो जाता है, किन्तु उनके अपने जीवन-नदी का प्रवाह रेगिस्तान में सूख जाता है. 
अब देखते हैं कि - बड़े-बुजुर्ग लोग युवा-समस्या कहने से क्या समझते हैं? वे सभी  युवाओं को उछ्रिन्ख्ल, अक्खड़, ढीठ, असंयमी, आतंक उत्पन्न करने वाला समझते  हैं. इसलिए इनलोगों का एक वर्ग इनकी निन्दा करके ही चुप बैठ जाते हैं,
 जबकि कुछ  अन्य बड़े-बुजुर्ग इन्हें (युवाओं को ) बाहरी बन्धनों में जकड़ना चाहते हैं. अपने जीवन को अशांति से बचाने  के स्वार्थवश वे इनको बलपूर्वक इनको शिक्षित करना चाहते हैं, प्रलेप चढ़ा  कर इन्हें शुद्ध करना चाहते है, या लालच देकर युवाओं के क्रोध को शान्त करना चाहते हैं. 
 बहुत हुआ तो आधुनिक उदारतावादी  दृष्टिकोण अपनाते हुए,   इनकी समस्याओं का समाधान करने के लिए- इनके खेल-कूद का, आमोद-प्रमोद करने का अधिक से अधिक अवसर (इण्डिया-पाकिस्तान क्रिकेट मैच आदि ) प्रदान  करते हैं, कम नम्बर लाने से भी परीक्षा में पास कर देते हैं, शिक्षा और कार्यक्षमता न रहने से भी  कोई छोटी-मोटी नौकरी की व्यवस्था करते हैं, युवा-समारोह के नाम पर विपरीत लिंग के साथ अप्रतिबन्धित  मेलजोल बढ़ाने का अवसर देकर, ' विवाह ' की बाधा को हर प्रकार से समाप्त करने की चेष्टा करते  है.
४
 युवा-समस्या वास्तव में क्या है ? - इस बात को समाज और युवा-वर्ग, दोनों में से कोई भी  पक्ष समझना ही नहीं चाहता है, यही इस समस्या के बने रहने का मूल कारण है. युवा-अवस्था में जीवन-उर्जा का प्राचूर्य रहता है, इसलिए युवा-जीवन (या यौवन) की असीम उर्जा ही युवा-समस्या का कारण है.
स्वामीजी की परिभाषा के अनुसार जीवन का अर्थ  है- ' प्रस्फुटित होना एवं अपने स्वरुप को प्रकाशित करना.' और यदि जीवन को प्रस्फुटित होने के मार्ग में आने वाली बाधा को ही समस्या कहते हैं, तो उस समस्या के समाधान का खोज भी प्रस्फुटन और स्वरुप की अभिव्यक्ति के आधार पर ही करनी चाहिए.
पूर्वोक्त अध्याय में हमने देखा है कि युवा-समुदाय से भिन्न- समाज के बड़े-बुजुर्ग लोगों का एक दल तो केवल इनकी निन्दा ही किया करते हैं, तथा दूसरा दल उनके क्षोभ और क्रोध को, कुछ भोग-लालच दे कर शान्त करने की चेष्टा करते है.किन्तु युवा-आक्रोश को लोभ-लालच के सहारे शान्त करने की चेष्टा, वास्तव में  युवाओं के स्वरुप को प्रस्फुटित होने में बाधा ही उत्पन्न करती है,  इसीलिए इसे युवा- समस्या के समाधान का उचित पथ नहीं कहा जा सकता है.
 
 
" আর তারা নিজেরা যেটা প্রকাশ করতে চায়, সেটা তাদের কাঁচা সত্তাটা, তাদের পাকা সত্তা নয় | কাঁচা সত্তাটাকে পাকা করা যায় ঐ অপরটির দ্বারা - যেটি হল বিকাশ | বিকশিত সত্তাটি প্রকাশিত হলেই তারা পাবে যথার্থ জীবন | আর সেটাই হতে পারে সমস্যার প্রকৃত সমাধান | " ( যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ পেজ ১৩ )  
 उधर युवा-समुदाय स्वयं जिस ' अन्तस्थ- सत्ता ' (आत्मा )को अभिव्यक्त करना चाहते हैं, वे यह नहीं समझ पाते कि, वह उनकी कच्ची सत्ता( ' अहं-युक्त बुद्धि) है, उनकी परिपक्व सत्ता ( शुद्ध-बुद्धि या पक्का ' मैं ')  नहीं है.
उस  कच्ची-सत्ता (अशुद्ध-बुद्धि) को अन्तर्मुखी बना कर,  उसे परिपक्व-सत्ता या (शुद्ध-बुद्धि ) में रूपान्तरित कर लेने से ही अपनी  अन्तस्थ-सत्ता (आत्मा ) के सच्चे सुख या आनन्द (Bliss) को बाहर अभिव्यक्त  करने की जो शक्ति प्राप्त होती है, उसको  विकास कहते हैं. इस विकसित सत्ता  (शुद्ध-बुद्धि ) के प्रस्फुटित होने से ही उनको  अपना यथार्थ जीवन प्राप्त  हो सकेगा. और वही इस युवा समस्या का यथार्थ  समाधान हो सकता है.
{ कच्ची-सत्ता (अहंकार) जिन विषयों में सुख पाने की चेष्टा करती है, वे सभी बाहर हैं, अतः उनका मन (चित्त-मन-बुद्धि-अहंकार सभी) सदैव बहिर्मुखी बना रहता है. मन को बाहर जाने के लिये ९ द्वार हैं, जो बाहर से पुल होने वाले हैं, किन्तु वे नवो द्वार खुल्ले ही रहते हैं, दशम द्वार बन्द है. उसको पुश करने से खुलता है.    अहंकार (ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है, किन्तु स्वयम को ब्रह्म या बृहत समझ कर बड़ा बनने की लालसा (ऐष्णा) से ग्रस्त हो जाता है. वह सदैव जीवित रहने की लालसा से वंश-विस्तार (पुत्र-ऐष्णा), खूब धन कमाने की लालसा से (वित्त-ऐष्णा), सबसे अधिक नाम-यश पाने (वित्त-ऐष्णा) के वशीभूत रहने से उसका मन अत्यधिक चंचल हो जाता है.
यदि इस बन्दर के समान चंचल मन को अभ्यास और वैराग्य के द्वारा अपने वश में रखने का प्रयत्न करने की विद्या न ग्रहण की जाये तो मनुष्य पहले छोटे छोटे गुनाह करने वाला गुनाहगार, फिर लोकलाज खो देने से पापी बन जाता है, ' माँ ' उसकी विवशता को जानती हैं, इसलिए मनुष्य के गुनाहों पर पर्दा डालती जाती हैं, पर जब गुनाहगार लोकलाज खो कर पापी बन जाता है, उसकी बुद्धि जब बिलकुल भ्रष्ट हो जाती है, तब व्यक्ति क़त्ल-डकैती-बलात्कार करने वाला अपराधी बन जाता है.
और संगीन अपराध करने वाले को समाज और कानून फांसी या उम्र-कैद की सजा देता है. जब मन में उठने वाले बुरे विचार -(परधन और परदारा को पाने की लालसा ) तन के तल पर प्रकट हो जाती है, तो उसको अपराध कहते हैं. जेलों में बंद सच्चे अपराधी तो केवल १% होंगे, किन्तु मैं पहले माफ़ी मांग लूँ, मन में दूसरों की आकर्षक वुस्तुओं ( धन-सौन्दर्य ) के बारे में बुरे ख्याल बहुसंख्यक (९९%) लोगों में उठते रहते हैं, किन्तु मन में उठने वाले गुनाह (गंदे-विचारों ) को ठाकुर के सिवा और कोई देख नहीं पाता. 
( एक गुरु ने अपने पाँच शिष्यों को जप-तप की विद्या सिखाने के बाद उनसे गुरु-दक्षिणा में कुछ देने को कहा, सभी बोले आप जो भी आज्ञा देंगे, हम उसे तुरंत पूर्ण करेंगे, महाराज. गुरु ने सबों को एक एक कबूतर दे कर कहा, जितनी जल्दी हो सके तुम इन कबूतरों के सर काट कर ले आओ, पर एक बात का ध्यान रखना उस समय तुम्हें कोई देख न रहा हो. सभी शिष्य एक-दो घंटे में वैसा करके लौट आये, पर एक शिष्य शाम तक भी नहीं लौटा. गुरु ने डांट कर पूछा तू कैसा लड़का है रे, सभी लड़के तो काम पूरा करके कभी लौट आये, पर तुम अब लौटा है ! उस शिष्य ने कहा महाराज मुझे कोई ऐसी निर्जन जगह नहीं मिली जहाँ मुझे कोई नहीं देख रहा हो, ईश्वर या ब्रह्म तो व्यापक हैं, वे सभी जगह मौजूद थे, इसीलिए मैं नहीं काट सका. उसी लड़के ने मनः संयोग करना सीखा था. वह उत्तीर्ण हुआ. )  
मन के ऊपर उसके संस्कार जमा होते जाते हैं और जन्म जन्मान्तर की कामना-वासना के पहाड़ साथ में लेकर बच्चा जन्म लेता है. क्योंकि शरीर के मरने से मन नहीं मरता वह उन्हें ( चित्त में संचित अपूर्ण वासनाओं
को )पूरा करने के लिये दूसरा जन्म लेता है. यदि पूर्व जन्म में उसने अच्छे कर्म किये हैं, तो उसे इस जन्म में अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के प्रशिक्षण शिविर में आकर मनुष्य बनने और चरित्र-निर्माण की शिक्षा प्राप्त होती है.
यहाँ उसे यह समझ प्राप्त होती है कि मनुष्य शरीर को देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है ? शरीर साधन है, इसको स्वस्थ और निरोग रखने का प्रशिक्षण देने के साथ-साथ, मन को अन्तर्मुखी बनाने के लिए मनः संयोग का नियमित अभ्यास करने का प्रशिक्षण भी प्राप्त होता है.
जब वह लालच को कम करते हुए नियमित  साधना (प्रार्थना, मनः संयोग, व्यायाम, स्वाध्याय, विवेक-प्रयोग या जप-तप ) करता है, तो उस योगाग्नि की एक चिंगारी से उसकी सारी कामना-वासना के संस्कारों के पहाड़ जल कर खाक हो जाते हैं. और उसका कच्चा मैं ( अहं-युक्त बुद्धि) शुद्ध हो कर पक्का मैं ( खाँटी-सोना या  शुद्ध बुद्धि ) में परिणत हो जाता है. मनःसंयोग का अभ्यास वह ' कृषि-कार्य ' है, जिसके द्वारा  सोने (शुद्ध स्वर्ण रूपी बुद्धि ) जैसी फसल प्राप्त होती है.}
 
कच्ची-सत्ता (या अहं-युक्त बुद्धि ) का प्रकटीकरण मानो बीज के अंकुर का माटी के ऊपर प्रकट होने जैसा है. जिस प्रकार छोटा सा बीज सख्त मिट्टी  को भेद कर  अपने अंकुर ऊपर प्रकट करता है, उस समय प्रकट होने की बाधा को वह जिस प्रकार स्वच्छन्द रूप से अतिक्रम करता है, ठीक उसी प्रकार युवा-जीवन भी उसी स्वाच्छ्न्द रूप में समाज के सख्त परिवेश या वातावरण को विदीर्ण करके अपने को प्रकट करेगा.  
 इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि, युवा-समस्या का जड़  जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित करने की समस्या में निहित है. और स्वामीजी सभी मनीषियों  की दृष्टि को इसी ओर आकर्षित करना चाहते हैं.
(इसलिए स्वामीजी से जब किसी ने अंग्रेजी में पूछा था- " Swamiji. are you a Buddhist ? तब उन्होंने थोडा मजाकिया लहजे में उत्तर दिया था- " No I am a bud dist ".  
 
युवा-जीवन में चंचलता, अस्थैर्य, बड़े-बुजुर्गों (समाज के अभिवकों ) के ' कथनी और करनी में ' अन्तर और आत्मीयता के खोखला-पन की प्रतिक्रिया स्वरुप उत्पन्न असहिष्णुता,  कर्म-उद्दीपना के साथ बुद्धि की अपरिपक्क्वता, असीम उत्साह, उत्तेजना, समाज से समस्त बुराई, अन्याय को मिटा  देने की इच्छा के साथ किसी न किसी एक धुन्धले से ' आदर्श ' के प्रति आस्था भी रहती है.
  युवा लोग स्वाभाव से ही ' अतिवादी ' होते हैं, जो कुछ  भी करते हैं अधिक मात्रा में ही करते हैं, जिससे भी प्यार करते हैं,  अत्यधिक प्यार करते हैं, जिससे घृणा करते हैं, तब घृणा भी अत्यधिक करते हैं.  जहाँ कहीं बल-प्रयोग करने की जरुरत हो- वहाँ आवश्यकता से अधिक बल का प्रयोग करना- उनका  स्वाभाव होता है .  यही  उनकी विशेषता है, क्योंकि उनकी जीवनी-शक्ति असीम है.किन्तु यही उनकी  असफलता का कारण भी है.
 चूल्हे में आँच देते समय धुएँ से आँखें जलने लगती  हैं, किन्तु रसोई नहीं पकती. आँच जब लहलहा उठती है, और धुआं निकलना बन्द हो  जाता है, तभी खाना पकाया जा सकता है.
 
जीवन का यह काल ही, जीवन-गठन के लिए सबसे उपयुक्त समय  है, किन्तु युवा जीवन के ' धुआं निकलने वाले काल ' का अतिक्रमण करना ही  समस्या है. और इस  समस्या के समाधान का अर्थ है, जीवन को नियत कार्य के उपयुक्त (योग्य) गठित कर देना.  
उपयुक्त ढंग से गठित ' युवा-जीवन '  ही समाज के सभी वर्ग के लोगों के  लिए सभी प्रकार के आहर्य को  पकाने वाला ' ईन्धन ' है . इसीलिए जब तक युवाओं के जीवन रूपी ईन्धन (या संसाधन) को उपयुक्त तरीके से गठित नहीं किया जाता,  तबतक समाज भी पंगु ( या लकवाग्रस्त ) रहने को बाध्य  है.
 
 ' आहर्य ' का अर्थ केवल खाद्य-पदार्थ ही नहीं है, वरन जिसे  आहरण या ग्रहण नहीं करने से जीवन चल ही नहीं सकता हो, उसे ही ' आहार्य ' कहा जाता है. कच्चे अन्न को ग्रहणीय बनाने के लिए अग्नि की  आवश्यकता होती है. इसीलिए वेद में अग्नि को ' अन्नपालक ' की संज्ञा दी गयी  है.
Agni    
  
अग्निदेव- ऊर्जा के प्रतीक । ऊर्जा, स्फुरणा, गर्मी, प्रकाश से भरे-पूरे  रहने, अन्यों तक उसे फैलाने, दूसरों को अपना जैसा बनाने,  ऊध्वर्गामी-आदशर्निष्ठ रहने, यज्ञीय चेतना के वाहन बनने की प्रेरणा के  स्रोत । 
 यह अग्नि कैसी होनी चाहिए ? उपनिषदों में कहा गया है - सर्वदा यविष्ठ ( युवा श्रेष्ठ ) और तेजःसम्पन्न युवा  ही वरण करने योग्य है ! ( ' तैत्तिरीयोपनिषद ' के अष्टम अनुवाक  में कहा गया है- युवा स्यात साधुयुवा अध्यायकः आशिष्ठः द्रढीष्ठः बलिष्ठः  तस्य इयम वित्तस्य पूर्णा सर्वा पृथिवी स्यात सः मानुषः एकः आनन्दः  
- भाव यह है कि- कोई ऐसा मनुष्य जो युवा हो, वह भी ऐसा-वैसा मामूली युवक  नहीं- सदाचारी, अच्छे चरित्र वाला, अच्छे कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ पुरुष  हो, उसे सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा मिली हो, तथा शासन में (अर्थात अन्य ब्रह्मचारियों को भी चरित्र-निर्माण की शिक्षा देने में ) अत्यन्त कुशल हो, उसके  सम्पूर्ण अंग और इन्द्रियाँ रोगरहित समर्थ और सुदृढ़ हों, और वह सब प्रकार  के बल से सम्पन्न हो. फिर धन-संपत्ति से भरी यह सम्पूर्ण पृथ्वी उसके  अधिकार में आ जाय, तो यह मनुष्य के लिए सबसे बड़ा सुख और मानव लोक का सबसे  महान आनन्द है.)
 इसलिए अग्नि-स्वरुप, तेजः संपन्न, वरणीय युवा-संप्रदाय ही हर दृष्टिकोण से समाज का अन्नपालक
(अग्नि ) है.  किन्तु यह अग्नि विध्वंश  करने वाली अग्नि नहीं है, कार्य-निष्पादन करने के लिए है.
 किन्तु चंचलता और  अधैर्य रहने से कार्य-निष्पादन नहीं हो पाता.
जिस प्रकार अग्नि अपनी ज्वालाओं की अद्भुत भास्वर  जिह्वाओं से  युक्त है, जिसकी चंचल  लहलहाती हुई शिखा में सर्वग्रासिता शक्ति रहती है, उसी प्रकार युवा-जीवन  में भी यही शक्ति रहती है. इसीलिए अग्नि से प्रार्थना की जाती है- 
वसिष्वा हि मियेध्य वस्त्राण्यूर्जां पते |  सेमं नो अध्वरं यज ||  
नि नो होता वरेण्यः सदा यविष्ठ मन्मभिः |  अग्ने दिवित्मता वचः ||
(ऋग्वेद संहिता - मण्डल 1 - सूक्त 26)
- ' अध्वरं  यज '. हे अग्नि तुम यज्ञ का निष्पादन करो. हमलोगों के दीप्तिमान वचनों  द्वारा प्रसन्न हो कर ( ' दिवित्मता वचः ' ) उपवेशन करो (बैठो) स्थिर हो जाओ. 
क्योंकि कोई भी  शक्ति नियन्त्रित न होने से कार्यकारी नहीं होती है. यज्ञ करना ही यथार्थ  कर्म है.जिस कर्म को त्यागपूर्वक क्रियान्वित किया जाता है, उसको ही यज्ञ  कहा जाता है. मिथ्या प्रशंसा या चापलूसी  भरे वाक्यों युवा-जीवन के आक्रोश  को दबाने की चेष्टा से काम नहीं होगा.  दीप्तिमान वाक्य चाहिए, जिसके द्वारा  अग्निस्वरूप युवा-वर्ग अपनी  अन्तर्निहित शक्ति के प्रति जागरूक हो सकें. 
{प्रार्थना हुई- ' हे अग्नि, तू  ज्योतिर्मय के राज्य  में पहुँचाने वाली मध्यस्त कड़ी है- हमारा दूत है.  अतेव वे खाद्य तथा पेय  पदार्थं, और वे सभी भेंट की वस्तुएं जो उनकी समझ  में इन ज्योतिर्मयों को  प्रिय हो सकती थी, उसे अग्नि में आहुति देने लगे.  यही यज्ञ का प्रारम्भ था .  ' ( ७/३३२-३३ )} 
५  
स्वामीजी क्या कह रहे हैं ? ' किन्नाम रोदिसि सखे त्वयि सर्वशक्तिः ' - हे  सखे तुम क्यूँ रो रहे हो ? तुम्हारे ही भीतर समस्त शक्तियाँ अन्तर्निहित  हैं. इस बात को जान लो एवं उस शक्ति को अभिव्यक्त करो. '    ' लोग कहते हैं- इस पर विश्वास करो, उस पर  विश्वास करो, ' मैं कहता हूँ- '  पहले अपने आप पर विश्वास करो. कहो, ' मैं  सब कुछ कर सकता हूँ. '' ' आत्मवैही  प्रभवते न जडः कदाचित ' - अपनी शक्ति के बल पर ही सारे काम किये जा सकते  हैं, जड़ में कोई शक्ति नहीं होती है. मैं केवल आत्मतत्व की ही चिन्ता ( पर ही चिंतन-मनन)  करता हूँ, - जब वह ठीक होगा, तो सब काम अपने आप ठीक हो जायेंगे. (३/३१५) 
 ( आमन्त्रयस्व भगवन भगद स्वरुपम |
 कुर्मस्तारकचर्वणम  त्रिभुवनमुतपाटयामो बलात, 
किं भो न विजानास्यस्मान - रामकृष्ण दासा वयम !'
  वि० सा ० ख० ३/ ३११ ) '
(9,10।28च्) एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्य् अग्निं यमं मातरिश्वानम् आहुः ||28|| (28अथर्व वेद)
- (10,8।27अ) त्वं स्त्री त्वं पुमान् असि त्वं कुमार उत वा कुमारी||
- (10,8।27ब्) त्वं जीर्णो दण्ढेन वञ्चसि त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः ||27||
 
('  स्त्री-पुरुष-भेद की जड़ नहीं रखूँगा. अरे, आत्मा में भी कहीं लिंग का भेद  है ? न लिंग धर्म कारणं, समता  सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम ' स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा हैं. शरीराभिमान छोड़ कर  खड़े हो जाओ. ..हरेक आत्मा में अनन्त शक्ति है.' निर्गच्छति जग्ज्जालात पिंजरादिव केसरी  '- जिस तरह सिंह पिंजरा तोड़ कर निकल जाता है, उसी तरह से आत्मा भी  शारीर-मन के पिंजरे को तोड़ कर निकल सकता है.)
कहते हैं- ' निराश मत होना, मार्ग बड़ा कठिन है- छुरे की धार पर चलने के  समान दुर्गम है; फिरभी निराश न होना, उठो-जागो ! एवं अपने आदर्श में पहुँच  जाओ !'
और हमलोग क्या कर रहे हैं? इस प्रकार के दीप्तिमान वाक्य हमलोगों के मुख से कहाँ निकलते हैं ? हमलोग तो उनके चंचल-चित्त  के सामने चलचित्र, दूरदर्शन और हानिकारक साहित्य  के माध्यम से  जितने भी दौर्बल्य-संचारी भाव, दृश्य, तथा वाक्य हो सकते  हैं; वही सब कुछ परोस रहे हैं.
युवा-समुदाय के पास सबल शरीर और सतेज इन्द्रियों के साथ प्रचुर मात्रा में जो जीवनी-शक्ति, मन,  बुद्धि, आवेग, ईच्छा, आदि होती हैं - वे इनका सदुपयोग करना नहीं जानते, उलटे इसका दुरूपयोग ही कर  बैठते हैं; इसलिए वही इनके लिए समस्या  बन जाती हैं. शिक्षा ही इनसबका सदुपयोग करना सिखाती है. किन्तु वैसी शिक्षा हम उन्हें नहीं देते, जैसी शिक्षा दी जा रही है, उससे तो वे लोग इन शक्तियों का और अधिक  दुरूपयोग करना ही सीख रहे हैं. जिसका फल क्या होता है ?
हमलोग जीवन भर " शरीर के दास, मन  के दास, जगत के दास, एक बड़ाई की बात के दास, एक शिकायत की बात के दास,  वासना के दास, सुख के दास, जीवन के दास, मृत्यु के दास- हर वस्तु के दास बने रहते हैं."
दूसरों के ऊपर दोषारोपण करने से इस विषाक्त फल से बचा नहीं जा सकता है.
स्वामीजी कहते हैं- ' कहो, कि मैं अभी जिन कष्टों  को भोग रहा हूँ, वह मेरे ही द्वारा किये हुए कर्मों के फल हैं. इसके  द्वारा यही प्रमाणित होता है कि ये सारे दुःख-कष्ट मेरे ही द्वारा दूर भी  किये जा सकते हैं. 
अनन्त भविष्य तुम्हारे सामने पड़ा है. सदैव याद रखना,  तुम्हारा प्रत्येक विचार, प्रत्येक कार्य संचित रहेगा, जिस प्रकार तुम्हारे  द्वारा किया गया कोई असत-विचार, और असत कार्य तुम्हारे ऊपर बाघ के जैसा  झपट्टा मारने को उद्दत है, उसी प्रकार तुम्हारा सत-चिंतन और सत-कार्य आदि  हजारो देवताओं की शक्ति लेकर सदैव तुम्हारी रक्षा करने को तैयार खड़ी हैं."
  "उपाय क्या हुआ ? ' साधू (सदाचारी) बनो, वैसा बन जाने पर तुम्हारे असाधु  भाव बिल्कुल चले जायेंगे. इसी प्रकार सारा जगत परिवर्तित हो जायेगा. यही  समाज का बहुत बड़ा लाभ है. समग्र मानव-जाती के लिए यही महत्वपूर्ण लाभ है."   
 
 शिक्षा के मौलिक अंग हैं- ब्रह्मचर्य, संयम,  सदुपयोगबुद्धि, अनुशासन. किन्तु इन सबकी जड़ है- श्रद्धा. इसीलिए स्वामीजी  ने इस ' श्रद्धा ' को ही समस्त समस्याओं के समाधान का सूत्र  कहा है. वे कहते हैं-  " इसी श्रद्धा या अद्भुत विश्वास का प्रचार करना ही मेरे  जीवन का व्रत है." 
" तुमलोगों में से जिन लोगों ने उपनिषदों में  मनोरम  कठोपनिषद का पाठ किया  है, उनको नचिकेता की कहानी अवश्य याद होगी.  एक  राजर्षि एक महायज्ञ  अनुष्ठान करके दक्षिणा में अच्छी अच्छी वस्तुओं का  दान  करने के बदले  अतिवृद्ध, किसी भी कार्य के लिए अनुपयुक्त गौओं का दान  कर रहे  थे. 
देखने  की बात यह है कि-  बड़ेबुजुर्गों को अनुचित कार्य करते हुए देखने से, या गुरुजनों के भ्रष्टाचरण को  देख कर, आज का युवाओं के मन में भी जिस प्रकार आक्रोष उत्पन्न होता है, और वह जिस प्रकार अपनी शक्ति का  सदुपयोग करते हुए, उस अनुचित कार्य को रोकने के लिए उत्तेजित होकर अपना गुस्सा ( क्षोभ ) प्रकट करता  है.
स्वामीजी कहते जा रहे हैं- " उसी समय उनके पुत्र  नचिकेता के ह्रदय में  श्रद्धा प्रविष्ट होती है. इस  अपूर्व शब्द का  वास्तविक अर्थ को समझ पाना  अत्यन्त कठिन है. इस शब्द का  प्रभाव (एश्वर्य)  और कार्यकारिता  अति आश्चर्यजनक  है. 
नचिकेता के ह्रदय  में जिस  क्षण श्रद्धा जाग्रत हुई, उसके मन में विचार  उठा- " मैं कई लड़कों  की तुलना  में प्रथम श्रेणी का हूँ, कईयों की तुलना में  मध्यम श्रेणी का  हूँ,  किन्तु अधम तो मैं कभी नहीं हूँ. मैं जिस किसी भी कार्य को करने की बात मन में ठान लूँ, उसे अवश्य पूरा कर  सकता हूँ. '
  इस प्रकार  की ' श्रद्धा ' जैसे ही उसके मन में जाग्रत हुई, उसका आत्मविश्वास और साहस बढने लगा.  
 उस  समय नचिकेता के मन में जिस  समस्या को हल करने की बात उमड़-घुमड़ रही थी, वह मृत्यु की समस्या थी- वह जानना चाहता था कि मृत्यु के बाद क्या होता होगा ? उसके ह्रदय में इसी रहस्य को जानने की प्रबल उत्कंठा हो रही थी. क्योंकि उसके पिता ने कह दिया था- ' जाओ मैं तुम्हें यम को देता हूँ ! अब वह तरुण नचिकेता नवयौवन के उमंग और उत्साह की शक्ति से भर कर, ' मृत्यु  के पार ' क्या  है ? इसी रहस्य का निपटारा करने को उद्दत हो जाता  है.
 किन्तु  यमराज के घर  पहुंचे बिना तो इस समस्या के समाधान का कोई उपाय  नहीं था. इसीलिए वे ' यम-सदन  ' पहुँच जाते है.हमलोगों में ऐसी ही श्रद्धा रहनी चाहिए. दुर्भाग्यवश  भारत से इस श्रद्धा का प्रायः लोप ही हो गया है. हमलोगों की वर्तमान  दुर्दशा का यही कारण है.  एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य का  जो अन्तर दिखाई देता  है, वह और कुछ नहीं;   इसी श्रद्धा के तारतम्य के  कारण होता है. इसी  श्रद्धा के तारतम्य  के अनुसार कोई बड़ा होता है, कोई छोटा होता है.  
यही   श्रद्धा तुम्हारे भीतर  प्रविष्ट हो जाये. मैं यही श्रद्धा युवाओं के  भीतर  देखना चाहता हूँ. हम  सभी लोगों में ऐसा ही आत्मविश्वास रहना चाहिए.  और इसी  विश्वास को अर्जन  करने का महान कार्य, तुम लोगों के सामने पड़ा  हुआ है." 
स्वामीजी केवल इतना ही कह कर रुके नहीं, हमलोगों को इसके साथ ही साथ इस ' श्रद्धा ' से च्युत कराने वाला इसका जो बिल्कुल विपरीत भाव है, जिसके बने रहने के कारण हम किसी मुसीबत या समस्या के सामने आते ही घबड़ा कर भय से कांपने लगते हैं, और समस्या पहले से भी  अधिक जटिल प्रतीत होने लगती है. कहा भी गयाहै- ' मुसीबत पड़ने पर घबड़ा जाना सबसे बड़ी मुसीबत है.
' इसीलिए हमें सावधान करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-    "  हमलोगों के राष्ट्रिय खून में एक भयानक रोग का  बीज प्रविष्ट हो गया  है- वह  है, हर बात को हँसी में उड़ा देना, ( आत्म-श्रद्धा आदि जैसे जीवन गठन-कारी अत्यन्त महत्वपूर्ण गुण या गम्भीर विषय को भी हल्के ढंग से लेना, या हँस कर उसका मजाक उड़ा देना ) ' गम्भीरता का  आभाव ';  इस दोष को  सम्पूर्ण रूप  से निकाल बाहर करना होगा. वीर बनो,  श्रद्धा-संपन्न बन जाओ,  और जो कुछ  आवश्यक है, सब प्राप्त हो जायेगा. ( दादा ने मुझे आशीर्वाद दिया था- ' तुम वीर हो, धीर बनो !') अपने देश के ऊपर मैं विश्वास  करता हूँ,  विशेष तौर पर अपने देश के युवाओं के  ऊपर मेरा पूरा विश्वास है.  "
 स्वामीजी  से प्रश्न किया गया था- ' हमलोगों के देश से श्रद्धा का लोप कैसे हुआ, हमलोग (आर्य-जाति के होकर भी ) श्रद्धाहीन कैसे बन गये ?'
उत्तर  देते हुए  स्वामीजी ने कहा था- ' बचपन से हमारी शिक्षा ही ऐसी रही है.  उसमें निषेध और  नकार (Negative Education ) का ही प्राबल्य है. हमने यही तो सीखा है कि हम नगण्य  हैं, नचीज हैं.  कभी भी हमें यह नहीं बताया गया कि हमारे देश में ( भ्रष्ट  नेताओं के सिवा- महाराणा प्रताप, वीर  शिवाजी, रानी लक्ष्मी बाई, नेताजी  सुभाषचंद्र ,भगत सिंह, सुकदेव राजगुरु  जैसे) महान योद्धाओं का भी जन्म हुआ  है.
कोई  भी सकारात्मक आशावादी ( Positive)विचार हमें  सिखलाये नहीं जाते. हमें सिर उठा कर और  सीना तान कदम से कदम मिलाकर चलना तक नहीं आता. हमें  इंगलैंड के पूर्वजों की तो एक एक  घटना और तिथि याद हो जाती है, पर, दुःख  है अपने देश के अतीत से हम अनभिज्ञ  रहते हैं. हम केवल निर्बलता का पाठ  पढ़ते हैं. अतः श्रद्धा नष्ट न हो तो  क्या हो? " (८/२६९)      
  {   " यदि पंडितों की शिक्षा-प्रणाली ही ठीक होती,  तो श्रीरामकृष्ण क्यों अवतार  धारण करते और क्यों पुस्तकीय ज्ञान का उपहास  करते ? उनके साथ जिस नूतन  जीवन-शक्ति (मौलिक-चिंतन पद्धति- श्रवण-मनन -  निदिध्यासन )  का आविर्भाव  हुआ, उससे जब हमारी शिक्षा ओतप्रोत हो जाएगी,  तब ही सफलता प्राप्त होगी.
 जब तक इस देश में अध्यापन और शिक्षा का भार, त्यागी और निःस्वार्थी व्यक्ति वहन   नहीं करेंगे, तब तक भारत को दुसरे देशों के तलवे चाटने पड़ेंगे. तुम   क्या  यह नहीं जानते कि एक निरक्षर युवक ने अपनी निष्कामता और त्याग के बल   से  किस तरह तुम्हारे बड़े बड़े दिग्गज पंडितों के छक्के छुड़ा दिए थे ?
एक   बार दक्षिणेश्वर के मन्दिर में पुजारी से विष्णु-प्रतिमा का पैर टूट  गया.   पंडितों की एक सभा हुई उन्होंने पोथी-पुराण और ग्रन्थ देख कर निर्णय  दिया   कि खंडित मूर्ति का पूजन शास्त्र-विरुद्ध है, और नयी मूर्ति की  प्रस्थापना   करनी होगी. इस पर काफी वाद-विवाद होने लगा.
अंत   में श्री रामकृष्ण बुलाये  गए. उनहोंने सब कुछ सुनकर पूछा - ' यदि पति   (रासमणि के दामाद ) की टांग टूट  जाये, वह यदि अपाहिज हो जाये, तो क्या   पत्नी को उसे त्याग देना चाहिए ? '  फिर क्या था ! पंडितों ने यह तर्क (   मौलिक-विचार ) सुना तो मुँह से शब्द  नहीं निकला, मूक हो गये और इस सरल कथन   के सामने उनके शास्त्र-और ग्रन्थ एक  ओर धरे धरे के धरे रह गये. " ( ८/२३२) }     
हमलोगों में ऐसी ही श्रद्धा रहनी चाहिए. दुर्भाग्यवश (हजार वर्षों तक विदेशिओं के गुलाम बने रहने के कारण)  भारत से इस श्रद्धा-प्रदान करने वाली शिक्षा का प्रायः लोप ही हो गया है. 
 
" आज हमें  श्रद्धा की आवश्यकता है,   आत्मविश्वास की आवश्यकता है. बल ही जीवन है, और  निर्बलता ही मृत्यु -   आत्मश्रद्धा का अर्थ है, - ' हम आत्मा हैं, अजर, अमर,  अविनाशी, मुक्त और   शुद्ध. फिर हमसे पाप कार्य कैसे संभव है ? असंभव ' इस  प्रकार की दृढ   श्रद्धा सभी युवाओं में जाग्रत होनी चाहिए. इस प्रकार का  अडिग विश्वास   हमें मनुष्य बना देता है, देवता बना देता है. पर आज हम  श्रद्धाहीन हो गए   हैं और इसीलिए हमारे देश का पतन हो रहा है. "  ( ८/२६९)
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 ७ 
 
 
 
मेखला  
 युवा-शक्ति ही राष्ट्र-शक्ति है. समाज को उन्नति के शिखर तक ले जाने में केवल  युवा-वर्ग ही सक्षम है. और युवाओं की  सम्पत्ति है- उनकी तरुणायी, उनकी यौवन-उर्जा !  किन्तु उन्हें इस शक्ति का उपयोग संयम और सदुपयोगबुद्धि के साथ करने की शिक्षा नहीं दी गयी है, इसीलिए वे इस युवा-शक्ति का दुरुपयोग करके बलहीन हो गये  हैं. 
  तथापि तीक्ष्ण-शक्ति ( Penetrating Power ) से असंभव कार्यों को भी सम्भव किया जा सकता है. जैसे 
 " जलशक्ति के तीक्ष्ण प्रवाह का नियन्त्रित सदुपयोग करने से, पत्थल में भी छिद्र करके खनन कार्य सम्पादित किया जा सकता है. " या नदी के  तीक्ष्ण जल-प्रवाह पर बांध बना देने से ही सिंचाई और जल-विद्युत् का उत्पादन होना  संभव है. 
वैसे ही इस यौवन की तीक्ष्ण-शक्ति का अपने जीवन में सदुपयोग करने के लिए ब्रह्मचर्य और संयम की प्रयोजनीयता होती है. " तुमको यदि कोई  अभिशाप देता है, या अपमानित करता है, तो उसको सहो, और उसके प्रति कृतज्ञ  होओ. क्योंकि गाली देना, अपशब्द कहना या शाप देना कैसा लगता है, यह दिखाने  के लिये उसने मानो तुम्हारे सामने एक दर्पण रख दिया हो, और तुमको आत्मसंयम  का अभ्यास करने का एक अवसर प्रदान कर रहा हो. अभ्यास करने का मौका न मिले  तो शक्ति का उद्घाटन या प्रस्फुटन भी नहीं हो सकता है. और दर्पण सामने न  रहे तो हम अपना चेहरा स्वयं नहीं देख सकते है. "   
( ..तुम्हारे पास तीन चीजें ( 3H ) हैं- १ शरीर (Hand ) २. मन (Head ) ३.  ह्रदय (Heart ) या आत्मा ! आत्मा इन्द्रियातीत है. मन और शरीर जन्म और  मृत्यु का पात्र है. पर तुम अजर-अमर-अविनाशी आत्मा हो, पर बहुधा तुम सोचते  हो कि तुम शरीर हो.
 जब मनुष्य कहता है- ' मैं यहाँ हूँ ' वह शरीर की बात  सोचता है. ..किन्तु जब कोई तुम्हें गाली देता है, या तुम्हारा अपमान करता  है, और तुम भीतर से क्रोधित नहीं हो जाते, तब तुम आत्मा हो.') ( १०/४० ) '   
शक्ति का दुरूपयोग करना समस्या है, शक्ति का सदुपयोग  करना समाधान है. युवा-शक्ति का दुरूपयोग होने  देना या दुरूपयोग होने की सम्भावना का बने रहना - ही  समस्या है. इस शक्ति का सदुपयोग करना ही समस्या का समाधान है. यह समाधान  हमें संयम, अनुशासन, ब्रह्मचर्य, से प्राप्त हो सकता है.
किसी प्रश्न के उत्तर में स्वामीजी कहते हैं- " किसी एक ही वस्तु को एक प्रकार से व्यव्हार करने का नाम पाप और अन्य प्रकार से व्यव्हार करने का नाम पुण्य है. जैसे इस दीपक  की ज्वाला के कारण हमलोग देख पा रहे हैं, और कितने कार्य कर रहे हैं, दीपक  का ऐसा सदुपयोग हो रहा है.
 अब इसी दीपक के ऊपर हाथ रखो, हाथ जल जायेगा.  यहाँ दीपक का व्यव्हार दूसरे ढंग से हुआ. इसीलिए व्यव्हार करने के तरीके के  अनुसार ही कोई चीज भली-बुरी बन जाती है. हमलोगों के शरीर और मन के किसी  शक्ति का सूव्यव्हार करने का नाम पुण्य है, एवं कूव्यवहार या दुरुपयोग करने  का नाम पाप है. "  
 " अपवित्र चिन्तन या विचार और कल्पना अपवित्र कार्य करने जैसा ही दोषपूर्ण  है. इच्छाओं का दमन करने से सर्वोत्तम फल की प्राप्ति होती है. कामशक्ति (या कामप्रवृति ) को आध्यात्मिक-शक्ति ( Spiritual power )   में रूपान्तरित करो, किन्तु स्वयं को पौरुषहीन मत बनाओ, क्योंकि वैसा करने  से केवल शक्ति की बर्बादी होती है. यह शक्ति जितनी प्रबल रहेगी, इसके  द्वारा उतना अधिक कार्य सम्पन्न हो सकेगा."
  " ब्रहचर्यवान व्यक्ति के  मस्तिष्क में प्रबल शक्ति- असाधारण ईच्छाशक्ति संचित रहती है. "   
{' महती काम-शक्ति को पशु-सुलभ क्रिया से उन्नत करके  मनुष्य शरीर के महान डाईनेमो - ' मस्तिष्क ' में परिचालित करके वहाँ संचित  करने पर वह ओजस ( प्रभा मंडल ) अर्थात महान आध्यात्मिक शक्ति में परिणत हो जाति है.
  समस्त  जप-ध्यान, प्रार्थनाएं उस पशु-सुलभ काम-शक्ति के एक अंश को ओजस में परिणत  करने में सहायता करती हैं और हमें आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती हैं. यह  ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है, और केवल मनुष्य के शरीर में ही इस  शक्ति का संग्रह सम्भव है. जिस व्यक्ति की समस्त पशु-सुलभ काम-शक्ति ओजस  में परिणत हो गयी है, वही देवता है. उसकी वाणी में शक्ति होती है और उसके वचन  जगत को पुरुज्जिवित करते हैं. 
जब तक मनुष्य अपनी सर्वोच्च शक्ति -  कामशक्ति को ओज में परिणत नहीं कर लेता, कोई भी स्त्री या पुरुष, वास्तविक  रूप में आध्यात्मिक नहीं हो सकता. 
 अतः हमें चाहिए कि हम अपनी महती शक्तियों  को अपने वश में करना सीखें और अपनी इच्छा-शक्ति से उन्हें पशुवत रखने के  बजाय आध्यात्मिक बना दें. अतः यह स्पष्ट है कि पवित्रता ही समस्त धर्म और  नीति की आधारशिला है. (४/८९) }    
" जो ' श्रद्धा ' वेद-वेदान्त का मूलमन्त्र है, जिस श्रद्धा ने नचिकेता को  यमराज के मुख में पहुँच कर प्रश्न करने के लिए साहसी बना दिया था, इसी  श्रद्धा के बल से जगत चल रहा है. " इसके साथ ब्रह्मचर्य और शिक्षा ओतप्रोत  रूप में जुड़ी हुई है. ऋग्वेद के एक सूक्त के देवता ही ' श्रद्धा ' हैं.
अथर्ववेद में प्रार्थना की गयी है -
(6,133।4अ) श्रद्धाया दुहिता तपसो 'धि जाता स्वसा ऋषीणां भूतकृतां बभूव | 
(6,133।4च्) सा नो मेखले मतिम् आ धेहि मेधाम् अथो नो धेहि तप इन्द्रियं च ||4||
अध्यात्मिक साधना के फलस्वरूप ब्रह्मचारी (विद्यार्थी ) की मेखला से श्रद्धा रूपी कन्या का जन्म होता है,   
और ये ' श्रद्धा ' ही ऋषियों की ' बहिन ' हैं जो उनको उत्कृष्ट मौलिक विचारों ( आविष्कारों ) से  परिपूर्ण कर वैश्विक-समाज ( Global society )  को अपने परिवार के रूप में देखने की दृष्टि - ' वसुधैव - कुटुम्बकम ' की  ज्ञानमयी दृष्टि प्रदान करतीं हैं. अतेव, हे मेखले ! हमलोगों को  चिन्तन-शक्ति दो, हमलोगों को मेधा ( ज्ञानमयी  दृष्टि ) प्रदान करो,  हमलोगों को तप करने ( कष्ट सहने ) की शक्ति दो,  हमलोगों को इन्द्रिय-संयम  से उत्पन ओजस शक्ति दो. ' 
 
{  यज्ञोपवीत धारण करने वाले को  वेदनिष्ठा अपनानी होती है और वेदनिष्ठा अपनाने वाले शिष्य को ही गुरु  ज्ञान देते हैं, उसे ही दीक्षा देते हैं। दीक्षा वह है जो दिशा बताए और  दृष्टि प्रदान करे। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद गुरु के पास जाने वाले को  कर्तव्य की दीक्षा और जीवन की दृष्टि प्राप्त होती है। इस अर्थ में उपनयन  में उपनयन का अर्थ दूसरी आँख या नई दृष्टि ऐसा भी हो सकता है।उपनयन संस्कार एक दिव्य  संस्कार है। उसके द्वारा मानव को नया जन्म मिलता है। यह उसका संस्कार जन्म  है। 'जन्मना जायते शूद्राः संस्कारात् द्विज उच्यते'। उपनयन संस्कार  अर्थात तेजस्वी जीवन की दीक्षा।
 
 यज्ञोपवीत देते समय बालक को लंगोटी पहनाते  हैं। लंगोटी बाँधने का अर्थ है विषय वासना पर काबू रखना। फैली हुई सूर्य की किरणों को  बहिर्गोल काँच द्वारा केंद्रित किया जाय तो उससे अग्नि पैदा होती है, उसी  तरह विच्छिन्न, बिखरी हुई, स्खलित होने वाली वीर्यशक्ति को बाँधा जाए,  संयमित किया जाए तो उससे भी प्रचंड शक्ति निर्माण होती है। लंगोटी का  तात्पर्य है कि जीवन में भोग को प्राधान्य न देकर त्याग को प्राधान्य देना,  सुख को गले न लगाकर सादगी को आलिंगन करना। सादगी होगी तभी विद्या संपादन  हो सकेगी।
 यज्ञोपवीत लेते समय कमर पर  मेखला बाँधनी होती है। मेखला बंधन यानी व्रत बंधन, मेखला बंधन यानी जिंदगी  में आने वाली मुसीबतों के साथ कमर कसकर संघर्ष करने की तत्परता रखना, मेखला  बंधन यानी जीवन के दैवासुर संग्राम में आसुरी वृत्ति विजयी न हो उसके लिए  सतत जागृति।-पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले } 
 
स्वामीजी कहते हैं- " मनुष्यों के भीतर जो शक्ति काम-प्रवृत्ति में,  कामुक-चिन्तन इत्यादि रूपों में प्रकट होती है, उसको संयमित करने पर वह  सुगमता पूर्वक ' ओज ' में रूपान्तरित हो जाती है.  
केवल कामजयी ( काम को परास्त करने वाले ) पवित्र नर-नारी ही इस  ओजस-धातू  (ओजस रूप में परिणत वीर्य ) को अपने मस्तिष्क में संचित करने में समर्थ  होते है.
योगी लोग कहते हैं-  मनुष्य के शरीर   में जितनी भी शक्तियाँ  अवस्थित हैं, उनसब में सबसे सर्वोच्च शक्ति ओजस है. ऐसे ओजसशक्ति-सम्पन्न  पुरुष जो कोई भी कार्य करते हैं, उसमें ही अलौकिक-शक्ति का आविर्भाव दिखाई  देता है. "
 
८ 
राष्ट्रिय शिक्षा-पद्धति     
 " आस्तिक्य- बुद्धि "- को ही श्रद्धा कहते हैं. श्रद्धा की उपलब्धी होने से पहले संयम और ब्रह्मचर्य की शक्ति प्राप्ति होती है, उससे विवेक-शक्ति, मेधा (  श्रुति-धारणसमर्थ बुद्धि ), तपः शक्ति ( प्रयत्न क्षमता ), वीर्य और  ओज प्राप्त होते है.
वर्तमान विदेशी  शिक्षा-पद्धति के द्वारा समस्त  दुर्लभ गुणों की जननी ' श्रद्धा ' की उपलब्धी करना सम्भव नहीं हैं. गलत ढंग से दी गयी शिक्षा ( केवल  पुस्तकीय ज्ञान रटाने वाली ) ' कूशिक्षा ' ही समस्त समस्याओं की जननी है.  इसीलिए समस्त समस्याओं का समाधान केवल उपयुक्त शिक्षा अर्जन के बल पर ही  संभव हो सकता है. " ऐसी कोई भी समस्या नहीं है जिसका समाधान - ' शिक्षा ' !  मन्त्र  के बल पर न किया जा सकता हो ! "
 "..बाल्यावस्था से ही जाज्वल्यमान,   उज्ज्वल चरित्र युक्त किसी तपस्वी  महापुरुष के सहवास में रहना चाहिए,   जिससे उच्चतम ज्ञान का जीवन्त आदर्श सदा  दृष्टि के समक्ष रहे. ' झूठ बोलना पाप है '- केवल पढ़ भर लेने से क्या होगा  ? हर एक को पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत लेना चाहिए, तभी   ह्रदय में  श्रद्धा और भक्ति का उदय होगा, नहीं तो, जिसमें श्रद्धा और   भक्ति नहीं, वह  झूठ क्यों नहीं बोलेगा ? " ( ८/ २२८-२३२ )  
   ' लोग बचपन  से ही शिक्षा पाते हैं कि वे दुर्बल हैं, पापी हैं. उनको   सिखाओ कि वे सब  उसी अमृत की सन्तान हैं- साहसी बनो, सत्य को जानो और उसे   जीवन में परिणत  करो. चरम लक्ष्य भले ही बहुत दूर हो, पर उठो, जागो, जब तक ध्येय तक न  पहुँचो, तब तक मत रुको. ' (२/२०)  
 
 
 
इस यथार्थ ' शिक्षा ' का मूल है - श्रद्धा. इसीलिए श्रद्धा की उपलब्धी कर लेना ही समस्त  समस्याओं के समाधान की मूल कुंजी है. युवा-जीवन ही शिक्षा अर्जित  करने का सबसे उपयुक्त समय है. उपयुक्त-शिक्षा के फलस्वरूप हमलोगों की उर्जा  संवर्धित होकर ओजस के रूप संचित रहती है; जिससे संयम, जीवनी-शक्ति, और  कार्य-क्षमता प्राप्त होती है.
 वैसी शिक्षा यदि नहीं मिल सकी तो, युवा-जीवन  की तीक्ष्ण-शक्ति ही समस्या बन कर खड़ी हो जाती है. इस शिक्षा को अर्जित करने के लिए  अथक-प्रयत्न करना पड़ता है. स्वामीजी ने कहा है- " प्रयत्न करना ही मनुष्य  जीवन का उद्देश्य है." 
 
जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य, जीवन की असीम  सम्भावना, जीवन की समस्या और समाधान समझने के लिए गहन विचार-शक्ति का होना  अनिवार्य है.
 
यह शक्ति हमें यथार्थ शिक्षा द्वारा ही प्राप्त हो सकती है.  स्वामीजी ने कहा है- " शिक्षा देते समय और भी एक महत्वपूर्ण विषय को हमें  याद रखना होगा, हमें विद्यार्थियों को किसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए,  उन्हें स्वयं ही गहन चिन्तन करने को प्रोत्साहित करना चाहिए, शिक्षा इस  प्रकार दी जानी चाहिए ताकि वे स्वयम विचार करना सीख जाएँ. 
इस मौलिक-चिन्तन करने की क्षमता का आभाव ही भारत के वर्तमान पतनावस्था का  कारण है. यदि लडकों को ऐसी शिक्षा दी जाये ( जिससे वे इन्द्रियातीत सत्य को  देखने के लिए, भरपूर श्रद्धा अथवा अद्भुत आत्मविश्वास को मौलिक चिन्तन  करना सीख कर स्वतः उस सत्य को आविष्कृत करने में समर्थ हो जाएँ जो नित्य,  अजर-अमर अविनाशी है,) तभी वे लोग मनुष्य बन सकेंगे, एवं जीवन-संग्राम में  आने वाली किसी भी समस्या को स्वयं ही हल करने में समर्थ हो जायेंगे. " 
" क्या यह कभी  सम्भव है कि सृष्टि आदि काल से जिस देश की सन्तान अखिल विश्व   को शिक्षा  देती आ रही है, केवल इसीलिए मूर्ख बन जायगी कि ( भारत के   तत्कालीन वाइसराय  लार्ड कर्जन या वर्तमान के कपिल सिब्बल उच्च शिक्षा को   इतना महँगा कर  देना चाहते थे मध्यम वर्ग उस शिक्षा से वंचित रह जाये )   लार्ड कर्जन उच्च  शिक्षा बन्द कर रहे हैं ? क्या उच्च शिक्षा का अर्थ केवल   भौतिक शास्त्रों  का अध्यन, और दैनिक उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन कर  लेना  भर है ? उच्च  शिक्षा का उद्देश्य है - जीवन की समस्याओं को सुलझा  लेने में  समर्थ  व्यक्ति बन जाना. और आज के तथा कथित सभ्य देश आज भी जिन  समस्याओं में  उलझा  हुआ है ( जीव-ईश्वर-माया ) उन्ही पर गहन चिन्तन कर रहा  है, किन्तु  हमारे  देश में सहस्रों वर्ष पूर्व ही ये गुत्थियाँ सुलझा ली  गयीं हैं.  
 
" जिस प्रकार लडकों को ३० वर्ष की उम्र तक ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर सत्य को  जानने के विज्ञान की तकनीक या कौशल सीखना होगा, उसी तरह लड़कियों को भी यह  तकनीक ( श्रवण-मनन-निदिध्यासन ) सीखनी होगी, आज इस प्रकार की शिक्षा देने  में समर्थ योग्य शिक्षकों को प्रशिक्षित करना सबसे बड़ी चुनौती है, जिससे  हजारो सिंगी जैसे गृहस्थ युवाओं को प्रशिक्षित किया जा सके. "   
 किन्तु प्रश्न करता ने फिर  पुछा- ' पर आज  की विश्वविद्यालय की शिक्षा में  क्या दोष है ?
  स्वामीजी कहते हैं - " तुमलोग अभी जिस  शिक्षा को प्राप्त कर रहे हो, उसमे कुछ गुण अवश्य हैं,  किन्तु उसके साथ साथ  अनेकों दोष भी हैं. और ये दोष इतने अत्यधिक हैं कि  इसका गुण वाला अंश  नगण्य हो जाता है.  इस शिक्षा का या किसी  भी तरह से दी जाने  वाली निषेधात्मक शिक्षा का सबसे पहला दोष तो यह है कि, उनके पास  जो भी पारम्परिक  ज्ञान रहता है, वह सब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है.)और यह  मृत्यु से भी अधिक  भयानक है.बालक  स्कुल पहुँच कर पहले यही सीखता है कि - उसका पिता एक मूर्ख  है, दूसरी बात  उसका पितामह एक सनकी-पागल बुड्ढा है, तीसरा प्राचीन  आचार्य-गण जितने भी  हैं सारे के सारे ' ढोंगी बाबा ' थे, और चौथी बात उसे  यह सिखाई जाती है कि हमारे रामायण, महाभारत, उपनिषद आदि जितने भी शास्त्र  हैं- उनमें केवल  झूठी बातें भरी हुई हैं. और इस प्रकार वे १६ वर्ष कि उम्र  को प्राप्त करने  के पहले ही वे एक जीवनी-शक्ति रहित, रीढ़ कि हड्डी से  रहित, ' नहीं ' की  समष्टि में परिणत हो जाता है. " 
' यह शिक्षा  ' बाबू ' पैदा करने की मशीन के  सिवाय कुछ नहीं है. अगर  इतना ही दोष  होता, तो भी ठीक था, पर नहीं- इस  शिक्षा से लोग किस प्रकार  श्रद्धा और  विश्वास रहित होते जा रहे हैं ! वे  कहते हैं, गीता तो एक  प्रक्षिप्त अंश  है, वेद (गंड़ड़ीये के ) देहाती गीत  मात्र हैं.वे  भारत के बाहर के देशों तथा विषयों के सम्बन्ध में तो हर बात  जानना  चाहते  हैं, पर यदि कोई उनसे अपने पूर्वजों के नाम पूछे तो, चौदह  पीढ़ी तो  दूर  रही, सात पीढ़ी तक भी नहीं बता सकते.
 ..जिसे सदैव इस बात का  विश्वास  और  अभिमान है की वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ है, कभी दुश्चरित्र  नहीं  हो  सकता, उसमें जो उच्च-कुल में उत्पन्न होने का स्वाभिमान और आत्मविश्वास  का  भाव  है, वही उसके विचार और आचरण को सदैव इतना नियंत्रित रखता है कि ऐसा    व्यक्ति सन्मार्ग से च्युत होने की अपेक्षा हंसते हंसते मृत्यु का आलिंगन    कर लेगा.
इसी तरह राष्ट्र का गौरवमय अतीत राष्ट्र को नियन्त्रण में रखता    है,और उसका अधः पतन नहीं होने देता. ..जिनके पास आँखें हैं, वे  जानते हैं  कि  हमारा इतिहास कितना उज्जवल है, और वह देश को किस प्रकार  जीवित रख रहा   है...पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव से हमारे युवकों की बदली  हुई विचारधारा  और  डगमग आत्मविश्वास को ध्यान में रख कर, आज उस गौरवमय   इतिहास को फिर से   लिखना होगा,
जिससे पाश्चात्य सभ्यता से चकित और चकाचौंध  में भ्रमित  हमारे  युवक अपने अतीत पर गर्व करना सीखें ...हमें  गुरुगृह-वास और उस जैसी अन्य  शिक्षा प्रणालियों ( ३ दिवसीय, ६  दिवसीय युवा  प्रशिक्षण शिविर ) को पुनः  जीवित करना होगा. आज हमें  आवश्यकता है वेदान्त  युक्त पाश्चात्य विज्ञान की,  ब्रहचर्य के आदर्श,
 और '  श्रद्धा '-जन्य  अद्भुत आत्मविश्वास की. ..वेदान्त   का सिद्धान्त है  कि मनुष्य के ह्रदय में ज्ञान का समस्त भण्डार निहित  है-  एक अबोध शिशु  में भी- केवल उसको जाग्रत कर देने की आवश्यकता है, और  यही  आचार्य का कार्य  है.'     
इस प्रकार की शिक्षा को प्राप्त करने से यदि युवा-समस्या उत्पन्न होती हो  और दिन प्रतिदिन बढती जाती हो, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? स्वामीजी  कहते हैं- " सिर में कितनी ही बातें ठूंस दी जाती हैं, जिसको वे सारा जीवन  पचा नहीं पाते, बेमतलब, अप्रासंगिक,  असंगत, असंबद्ध विचार उनके दिमाग में उमड़ने-घुमड़ने लगते हैं, इसको  शिक्षा नहीं कहा जा सकता है. वेदों में कहे गए कुछ महावाक्यों को (  श्रवण-मनन-निदिध्यासन पद्धति की शिक्षा से ) इस प्रकार आत्मसात कर लेना  होगा कि, उनसे हमारा जीवन गठित हो सके, जिसे मनुष्य निर्माण हो, चरित्र  गठित हो सके.
 यदि तुमलोग केवल पाँच ही भावों ( महावाक्यों ) को हजम करके  जीवन और चरित्र इस प्रकार गठित कर सको, तो जिस व्यक्ति ने एक पूरे  पुस्तकालय की समस्त पुस्कों को रट कर कंठस्थ कर लिया हो, उसकी अपेक्षा  तुम्हारी शिक्षा अधिक हुई है- ऐसा स्वीकार करना पड़ेगा. "  
हमलोग केवल युवा-जीवन की समस्या ही नहीं, समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार से उत्पन्न समस्त समस्याओं  को दूर करने के लिए जब अत्यन्त व्यग्र हो जायेंगे, तब  इस प्रकार की यथार्थ-  शिक्षा पाने के घोर-आग्रही बन जायेंगे, और स्वामीजी द्वारा बारम्बार कथित  अनेकों महावाक्यों  में से ५ महावाक्य यथा- १. श्रद्धा ( अद्भुत  आत्मविश्वास, ब्रह्मचर्य,  सत्यवादिता ) २. भय-शून्यता ३. स्वार्थ-शून्यता (  परार्थपरता )  ४. त्याग  और ५. सेवा  इत्यादि को जीवन में आत्मसात करने के लिये चुन  लेंगे. 
किन्तु शिक्षा केवल  शिक्षार्थी के ऊपर ही निर्भर नहीं करता. " यथार्थ शिक्षा वे ही दे सकते  हैं, जिनके पास देने के लिये कुछ हो, क्योंकि शिक्षा प्रदान करने का अर्थ  केवल कुछ वाक्यों का उच्चारण कर देना ही नहीं है, यह कुछ विषयों पर सहमती  या असहमति व्यक्त कर देना ही नहीं है, शिक्षा प्रदान करने अर्थ है- सारतत्व  को संचारित कर देना.
 जो व्यक्ति अपने द्वारा कथित बोध-वाक्यों को स्वयं  आत्मसात करके पहले अपने जीवन में धारण कर चुके हों, विद्यार्थियों पर केवल  उन्हीं की वचनों का असर होता है.  सभी तरह की शिक्षा का अर्थ होता है;  आदान-प्रदान - आचार्य प्रदान करेंगे और शिष्य ग्रहण करेंगे. किन्तु आचार्य  के भीतर देने योग्य कुछ वस्तु रहनी चाहिए और शिष्य में भी उसे ग्रहण करने  की पात्रता रहनी चाहिए, ग्रहण करने के लिये तत्पर रहना चाहिए. " 
आचार्यों में यह सामर्थ्य रहना चाहिए कि वह अपने शिष्यों को देश-कालातीत सत्य के बारे में इस प्रकार कह सके -  " मन   और बाह्य प्रकृति की प्रत्येक वस्तु ( नाम-रूप ) देश-काल में हैं और    कार्य-कारण के नियम से बँधे हैं. आत्मा सब देश, सब काल, सब कार्य-कारणों से    परे है. जो बँधी है, वह प्रकृति है, आत्मा नहीं| ..तुम आत्मा   हो, मुक्त और शाश्वत, चिर मुक्त, चिर पवित्र.  केवल पर्याप्त श्रद्धा रखो   और क्षण भर में तुम मुक्त हो जाओगे. इसलिए अपनी  मुक्ति घोषित करो और जो   हो, वह बनो !! - सदा मुक्त, सदा पवित्र !. देश, काल, कार्य-कारण को हम माया कहते   हैं '. ( १०/२५-२६) 
 आचार्य के भीतर वह शक्ति कहाँ से आयेगी ? अथर्ववेद में कहा गया है- " आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारीणम ईच्छते " - आचार्य ब्रह्मचर्यरूपी  आध्यात्मिक चर्या के साथ ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थियों ) को पाने की कामना  करेंगे. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस तरह से आदान-प्रदान करने की कोई  व्यवस्था नहीं है. कारण के बिना कार्य नहीं होता. युवा-समस्या भी कोई  आकस्मिक घटना नहीं है.
 प्रश्न-  उस इन्द्रियातीत सत्य को जानने की विशेष शिक्षा पद्धति कौन सी है ?
 '    हमारे  मत में दो प्रणालियाँ है- एक अस्ति-भाव द्योतक या प्रवृत्ति  मार्ग   है और  दूसरी नास्ति-भाव द्योतक या निवृत्ति मार्ग है. प्रथमोक्त  मार्ग  से  सारा  विश्व चलता है- गृहस्थ लोग इसी पथ से प्रेम के द्वारा उस  पूर्ण  वस्तु  को  पाने का प्रयत्न कर रहे हैं, यदि इस प्रेम की परिधि को  अनन्त  गुनी  बढ़ा ड़ी  जाय, हम उसी विश्व-प्रेम में पहुँच जायेंगे. दुसरे  पथ में '  नेति  ', '  नेति ' अर्थात ' यह नहीं ', ' यह नहीं ' इस प्रकार  की साधना  करनी  पडती है.  इस साधना में चित्त की जो कोई तरंग ( गाली या  अपमान सूचक  शब्द )   मन को  बहिर्मुखी बनाने की चेष्टा करती है, उसका  निवारण करना  पड़ता है.
 अंत में मन  (अहम ) ही  मानो  मर जाता है, तब सत्य स्वयं प्रकाशित हो जाता  है. हम इसीको    आत्मसाक्षात्कार, समाधि या इन्द्रियातीत अवस्था या पूर्ण  ज्ञानावस्था कहते    हैं. यह अवस्था विषय (ज्ञेय-ठाकुर ) को विषयी ( ज्ञाता  -अहम ) में लीन   कर  देने से प्राप्त होती है. वास्तव में यह जगत विलीन हो  जाता है, केवल '   मैं '  रह जाता है- एकमात्र ' मैं ' ही वर्तमान रहता है. '  (१०/३८४ )
 प्रश्न -  आपने जिस अद्वैत-अवस्था के बारे में कहा है, वह क्या केवल आदर्श है, अथवा  उसे लोग प्राप्त भी करते है ?
    ' यदि वह केवल थोथी बात हो, तब तो उसका कुछ  भी मूल्य नहीं. हम जानते  हैं   कि यह अवस्था ऋषि-मुनियों को उपलब्ध हुई थी,  और उसी पद्धति से  अनुसरण  करने  वाले सत्यार्थी को आज भी होती है. उस  इन्द्रियातीत सत्य  कि  उपलब्धी  करने के लिये वेदों में तीन उपाय बतलाये गये  है- श्रवण, मनन  और   निदिध्यासन. इस आत्म-तत्व के विषय में पहले श्रवण करना  होगा.
    श्रवण करने के बाद इस विषय पर विचार करना होगा- आँखें मूंदकर विश्वास  न    कर, अच्छी तरह तर्क की कसौटी पर कस कर, समझ-बूझकर उस पर विश्वास करना     होगा. इस प्रकार आपने सत्य-स्वरुप पर विचार करके उसके निरन्तर ध्यान में     नियुक्त होना होगा, तब ( मृत्यु का सामना करते ही ) उसका साक्षात्कार  होगा.    यह प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ धर्म है. केवल किसी मतवाद को स्वीकार कर  लेना धर्म नहीं है. हम तो कहते हैं यह समाधी या ज्ञानातीत अवस्था ही धर्म  है. ' (१०/३८७) 
 शिक्षा के प्रसंग में स्वामीजी और एक विशेष पक्ष की  ओर इंगित करते हैं, जो समस्याग्रस्त युवा-समुदाय को आत्म-श्रद्धा में  प्रतिष्ठित होने में सहायक है- " मेरे विचार से मन को एकाग्र रखने में समर्थ बन  जाना ही शिक्षा का प्राण है ". " मनरूपी आंतरिक उपकरण को स्वस्थतर  (तीक्ष्ण) बना कर, उसको पूरी तरह से अपने वश में ले आओ, यही है शिक्षा का  आदर्श. " " जिस शिक्षा के द्वारा इस इच्छाशक्ति के वेग और प्रवाह को अपने  आधीन रखा जाता है, और वह फलदायी हो, उसीको शिक्षा कहते हैं. "
अन्यत्र कहते  हैं- " जिस ( शरीर रूपी ) रथ के इन्द्रियरुपी घोड़े दृढ़तापूर्वक संयत नहीं  रहते, मन रूपी रश्मि (लगाम) भी दृढ़तापूर्वक संयमित नहीं होता, वह रथ  अन्ततोगत्वा विनष्ट हो जाता है. " 
आचार्य के भीतर वह शक्ति कहाँ से आयेगी ? अथर्ववेद में कहा गया है- " आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारीणम ईच्छते " - आचार्य ब्रह्मचर्यरूपी  आध्यात्मिक चर्या के साथ ब्रह्मचारी ( शिक्षार्थियों ) को पाने की कामना  करेंगे.  वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस तरह से आदान-प्रदान करने की कोई  व्यवस्था  नहीं है. कारण के बिना कार्य नहीं होता. युवा-समस्या भी कोई  आकस्मिक घटना  नहीं है. 
 '   ईश्वर रूप में सबकी उपासना करो- सारे आकार उसके मन्दिर हैं. बाकी सब  कुछ   भ्रम है. ' अन्तर्भेदी-दृष्टि प्राप्त कर लो '- हमेशा भीतर की ओर  देखो,   बाहर (शरीर-M /F  ) की ओर कदापि नहीं . ' (९/८९) 
' वेदान्त - ' वेद '   शब्द  से बना है, और वेद का अर्थ है ज्ञान. समस्त ज्ञान वेद है और ईश्वर   की भाँति  अनन्त है. कोई व्यक्ति ज्ञान की कभी सृष्टि नहीं करता. क्या   तुमने कभी  ज्ञान का सृजन होते देखा है ? ज्ञान का अन्वेषण मात्र होता है-   आवृत (सत्य)  का अनावरण (उद्घाटन ) होता है. ज्ञान सदा यहीं सामने है,   क्योंकि वह स्वयं  ईश्वर है. अतीत, वर्तमान, अनागत इन तीनों का ज्ञान हम सब   में विद्यमान है.  हम उसका अनुसन्धान मात्र करते हैं और कुछ नहीं. '   (९/९०) 
' थोड़ी धूम-धाम  हुए बिना भगवान श्रीरामकृष्ण के नाम से लोग कैसे   परिचित होंगे, और उनसे  प्रेरित
 कैसे होंगे ? ..अब लोग उन्हें क्रमशः   जानेंगे, तभी तो देश का मंगल  होगा. जो देश के मंगल के लिये ही, आविर्भूत   हुए हैं, उनको जाने बिना देश का  कल्याण किस प्रकार होगा ? उनको ठीक ठीक जन   लेने से - ' मनुष्य ' तैयार  होंगे. और ' मनुष्य ' यदि तैयार हो गये, तो   दुर्भिक्ष आदि को दूर करना फिर  कितनी देर की बात है ? ' ( ८/२५१) 
 
 
९
 स्वामी विवेकानन्द एक  युवक से कह रहे हैं-  " यथार्थ जिज्ञासु के साथ दो रात तक बोलते रहने से  भी, मुझे थकान का अनुभव नहीं होता, मैं आहार-निद्रा त्याग कर अनवरत बोलता  रह सकता हूँ. या इच्छा होने से हिमालय की गुफा में समाधिस्त हो कर बैठा रह  सकता हूँ. किन्तु केवल देश की दशा को देख कर और इसके परिणाम के बारे में  सोच कर मैं अधीर हो जाता हूँ. समाधी भी तूच्छ प्रतीत होता है, यहाँ तक कि '  तूच्छं ब्रह्मपदं ' हो जाता है. तुमलोगों की मंगल कामना ही मेरे जीवन का  व्रत है ".
 सुकरात से लेकर अभी तक जितने भी मनीषी हुए हैं, युवा-वर्ग के  लिये सभी के मुख से निन्दा ही सुनाई पड़ती है. किन्तु स्वामीजी के मुख से  युवाओं के प्रति एक भी निन्दनीय बात नहीं निकली है. युवाओं के लिये केवल  उत्साहवर्धक, प्रेरणादायी दीप्तिमान वाक्य ही निकले हैं, इस युवा वर्ग के  प्रति उनमें गहरी सहनुभूति थी. " मेरा कार्य है, तुम लोगों के भीतर इन  भावों को जाग्रत कर देना; यदि एक मनुष्य का निर्माण करने के लिये मुझे एक  लाख बार भी जन्म लेना पड़े तो मैं उसके लिये भी तैयार हूँ. " आहा ! कैसी  लोक-कल्याण की भावना है !   
{ " भाषण  से इस देश में कुछ भी न होगा,  भाईलोग  सुनेंगे, वाह-वाह करेंगे, ताली  पीटेंगे, बस और उसके बाद घर जा कर  भात के  साथ सब हजम कर जायेंगे. पुराने  जंग खाए लोहे को ...पहले आग में लाल  करना  करना होगा, तब कहीं हथौड़ी से  पीट कर कोई वस्तु ( मनुष्य ) बनाई जा   सकेगी. इस देश में ज्वलन्त जीवन्त  उदाहरण दिखाये बिना कुछ भी न होगा. अनेक   लडकों की आवश्यकता है, जो सारे  इन्द्रिय भोगों को छोड़-छाड़ कर देश के  लिये  जिवनोत्सर्ग करें. पहले उनका  जीवन ( चरित्र ) निर्माण करना होगा, तब  कहीं  काम होगा. ' ( ८/२५२) '
  " पहले भीतर की शक्ति को करके देश के लोगों को  अपने  पैरों पर खड़ा कर, अच्छे भोजन-वस्त्र तथा उत्तम भोग आदि करना वे पहले   सीखें. इसके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार सब प्रकार के   भोग-बन्धनों से वे मुक्त हो सकेंगे. निष्क्रियता, हीन बुद्धि और कपट से देश   छा गया है. क्या बुद्धिमान लोग यह देख कर स्थिर रह सकते हैं ? रोना नहीं   आता ? 
 मद्रास, बम्बई, पंजाब, बंगाल- कहीं भी तो जीवनी शक्ति का चिन्ह  दिखाई  नहीं देता. तुम लोग सोच रहे हो- ' हम शिक्षित हैं ! ' क्या खाक सीखा  है ?  दूसरों कि कुछ बातों को दूसरी भाषा में रट कर मस्तिष्क में भरकर,  परीक्षा  में उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो- हम शिक्षित हो गये ! धिक् धिक्,  इसका नाम  कहीं शिक्षा है ? तुम्हारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है ? या तो  क्लर्क बनना  या एक दुष्ट वकील बनना, , और बहुत हुआ तो क्लर्की का ही दूसरा रूप एक  डिप्टी  मजिस्ट्रेट की नौकरी - यही न ?
  इससे तुम्हें या देश को क्या लाभ  हुआ ? एक  बार आँखें खोलकर देख- सोना पैदा करनेवाली भारत-भूमि में अन्न के  लिये  हाहाकार मचा है !..पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से जमीन खोदने लग जा,  अन्न  की व्यवस्था कर- नौकरी करके नहीं- अपनी चेष्टा द्वारा पाश्चात्य  विज्ञान की  सहायता से नित्य नवीन उपाय का आविष्कार करके ! इसी अन्न-वस्त्र  की  व्यवस्था करने के लिये मैं लोगों को रजोगुण की वृद्धि करने का उपदेश  देता  हूँ.(६/१५५)
 हमलोग क्या कर रहे हैं  ? बेरोजगारी की समस्या को मिटाने के लिये सबों को प्रचलित शिक्षा व्यवस्था  में खिचड़ी की व्यवस्था जोड़ रहे हैं, या सबों के लिये कोई छोटी मोटी नौकरी  का उपाय, नहीं हुआ तो बेरोजगारी भत्ता देने की व्यवस्था कर रहे हैं. जिसके  कारण समस्या का समाधान तो हुआ ही नहीं, बल्कि इस प्रकार की शिक्षा में  पढ़े-लिखे लड़के भी अब ट्रेन डकैती तक कर रहे हैं, और जितने प्रकार का समाज  विरोधी कार्य हो सकते हैं, उन समस्त अनैतिक कार्यों में योगदान कर रहे है.
 
१०.
 स्वामीजी के लिये  युवा-वर्ग कोई समस्या नहीं है. युवा शक्ति तो राष्ट्रिय-संपदा है. इसीलिए  युवा-वर्ग को तोड़ने की कोई परिकल्पना उनमे नहीं थी. उन्होंने युवाशक्ति को देश की उन्नति और निर्माणकारी योजनाओं में संचारित करना चाहा था. वास्तव में  युवा-समस्या के समाधान का यही सबसे उत्कृष्ट मार्ग है.
जैसा श्रीरामकृष्ण  कहा करते थे- ' कोलकाता को दूर ठेलना हो तो काशी की ओर अग्रसर होना पड़ता  है, काशी की ओर अग्रसर रहने से कोलकाता स्वयं ही दूर होता जाता है.'  इसीलिए  स्वामीजी युवा वर्ग का आह्वान करते हैं- " तुमलोगों को अपने भविष्य की  जीवन-गति को स्थिर करने यही उपयुक्त समय है, जितने दिनों तक यौवन का तेज  बरकरार है, जब तुमलोग कर्म करने से थकते नहीं हो, जबतक तुमलोगों के यौवन का  नया और सतेज भाव विद्यमान है, काम में लग जाओ, यही तो समय है. 
 
भारत के पुनर्निर्माण  के लिये आप क्या करना चाहते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए स्वामीजी  कहते
 हैं- ' मैं युवकों को धर्म-प्रचारक के रूप में  प्रशिक्षित  करने के लिये- नेतृत्व का प्रशिक्षण देना चाहता हूँ. मेरा  विश्वास युवा  पीढ़ी में, नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से  आयेंगे. सिंह की  भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे. (४/२६१) '
 युवा-समुदाय राष्ट्र के लिए समस्या नहीं वरन राष्ट्र की शक्ति हैं, स्वामी विवेकानन्द केवल इतना ही नहीं मानते थे, वे यह विश्वास भी करते थे कि देश की समस्त  समस्याओं का समाधान केवल युवाओं के द्वारा ही सम्भव होगा.
 
किसी विराट समाज की किसी  समस्या का कोई अकेला समाधान संभव नहीं है. राष्ट्रिय पुनरुत्थान रूपी  व्यापक समस्या ने ही स्वामी विवेकानन्द की समस्त विचारों और प्रयास को  ग्रास बना लिया था. वास्तव में उनका लक्ष्य था, राष्ट्रिय अभ्युदय.
 युवा  समस्या का समाधान कोई तथाकथित युवा-कल्याण के लिये अनुष्ठित होने वाले  कार्यक्रमों के द्वारा नहीं हो सकता. राष्ट्रिय समस्या से जोड़ कर ही इसका  समाधान होना संभव है. इसीलिए स्वामीजी ने उस श्रद्धा सम्पन्न प्रश्न-कर्ता युवक से इसके आगे जो कहा था, उसे आज का समस्या-ग्रस्त युवा-सम्प्रदाय भी सुन
 सकते हैं- " मैं तो कहता हूँ, जो कुछ भी हो - तू कुछ कर अवश्य ! या  तो किसी  व्यापर की चेष्टा कर, या फिर हमलोगों की तरह आत्मनो मोक्षार्थम  जगत हिताय च  ( अपने मोक्ष के लिये तथा जगत के कल्याण के लिये ) - यथार्थ  सन्यास पथ का  अनुसरण कर.
 यह अंतिम पथ ही निस्सन्देह श्रेष्ठ पथ है, व्यर्थ  ही गृहस्थ  बनने से क्या होगा ? ..यदि इस श्रद्धा  इसी आत्मविश्वास को प्राप्त करने के  लिये उत्कण्ठित है तो फिर समय न गँवा !  आगे बढ़, दूसरों के लिये अपने जीवन  का बलिदान देकर लोगों के द्वार द्वार  जाकर यह अभय-वाणी सुना- उत्तिष्ठत  जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! " (६/  १०६-९)  
" क्या  तुम देख नहीं पाते पूर्व  के आकाश पर अरुणोदय हो गया है, सूर्य के निकलने  में अब और अधिक विलम्ब नहीं  है. तुमलोग इस समय कमर कस कर काम में लग जाओ,  घर-संसार में फंसने से क्या  होगा ? 
इस  समय तुमलोगों का कार्य है- सम्पूर्ण देश के कोने कोने में, गाँव  गाँव तक  जा कर सभी लोगों यह समझा देना कि अब और आलस्य से बैठे रहने से काम  नहीं  चलेगा, शिक्षाहीन, धर्महीन, वर्तमान पतन के कारणों को उन्हें समझा दो  और  कहो- ' भाई लोग, उठो ! जागो ! और कितने दिनों तक सोते रहोगे ? ' 
 और सरल  भाषा में उनलोगों को व्यवसाय- बाणिज्य, कृषि-कुटीर उद्योग आदि गृहस्थ जीवन  के लिये अत्यावश्यक विषयों की जानकारी दो. यदि  ऐसा नहीं करते तो  तुम्हारे पढने-लिखने को धिक्कार है, तुम्हारे  वेद-वेदान्त पढने को भी  धिक्कार है. दूसरों के लिये थोडा सा भी कार्य करने  से, भीतर की शक्ति जाग  उठती है,  ह्रदय में सिंह जैसा बल आ जाता है, तुम  लोगों को मैं इतना प्रेम  करता हूँ, किन्तु मेरी इच्छा होती है, कि तुमलोग  दूसरों के लिये काम करते  हुए मर जाओ, मैं यह देख कर खुश हो जाऊं. "         
 
 ' प्रश्न- महाराज, ऐसे शिक्षक  कहाँ से आयेंगे जो  लड़कपन से ही इन बातों को सुनाता और समझता रहे ? '  इसीलिए हम आये हैं,  तुम सब इस तत्व को हमसे सीखो, समझो और अनुभव करो. फिर  इस भाव को नगर नगर,  गाँव गाँव, पुरवे पुरवे में फैला दो. और सबके पास जाकर  कहो, ' उठो, जागो  और सोओ मत. सारे अभाव और दुःख नष्ट करने कि शक्ति तुम्हीं  में है, इस बात  पर विश्वास करते ही वह शक्ति जाग उठेगी. यह बात सबसे कहो  और साथ ही सरल  भाषा में विज्ञान, दर्शन, भूगोल और इतिहास की मूल बातों को  सर्वसाधारण में  फैला दो. ' ( ६/१४) ' 
एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं- " मुझे कोई भला कहे या बुरा, मैं ने इन युवाओं को  संघबद्ध करने के लिये ही जन्म ग्रहण किया है. और केवल इतना ही नहीं, भारत  के प्रत्येक नगर नगर में सैकड़ो युवा मेरे साथ सहयोग करने के लिये तैयार  है. ये लोग दुर्दमनीय तरंगाकार में भारतभूमि के ऊपर प्रवाहित होंगे, एवं  सर्वाधिक दीनहीन और पद-दलित लोगों के द्वार द्वार पर सुख-स्वाछ्न्द्य,  नीति, धर्म, और शिक्षा को वहन करके पहुंचा देंगे, यही मेरी आकांक्षा और  व्रत है, इसे मैं पूरा करूँगा या मृत्यु को वरन करूँगा. "  
'  वे जिन्होंने मेरे बचपन में मुझे पाल-पोस कर  बड़ा  किया, जिन्होंने   जीवनभर केवल मेरे लिये सबकुछ किया- मेरे  माता-पिता; वे भी  चले गये- कहाँ ?  हर कोई, हर चीज चली गयी, जा रही है, और  चली जायेगी. वे  कहाँ चले जाते हैं  ? प्रातः कालीन सूर्य जगत के लिये  प्रकाश, ताप और हर्ष  लता है. वह मन्द  गति से यात्रा करता है, शाम को नीचे  गहराई में विलुप्त हो  जाता है; अगले  दीन वह फिर प्रकट होता है- गरिमामय,  सुन्दर. और वह है कमल का  अद्भुत फूल-  सुबह, जब सूर्य की किरणें उसकी  बन्द पंखुड़ीयों को स्पर्श  करती हैं, वह  खुल जाता है और सूर्य ढलने पर  पुनः बन्द हो जाता है.   तात्पर्य यह निकला  गया कि कुछ ऐसे थे जो आते, चले  जाते और पुनरुज्जीवित  होकर अपनी कब्रों से  उठ खड़े हो सकते थे. यह पहला  समाधान था. और इसीलिए  सूर्य तथा कमल धर्म के  प्रथम प्रतीक हुए.
  रात्री में भी  चाँद-तारे अपना  प्रकाश फैलाते रहते हैं, तब वे जिनसे मैं  स्नेह करता हूँ,  कहाँ चले जाते  हैं? निश्चय ही नीचे तमसाच्छन्न स्थान को  नहीं, वरन ऊपर,  शाश्वत प्रकाश के  राज्य में. यहाँ नये प्रतीक अग्नि हैं,  जो अपनी ज्वालाओं  की अद्भुत भास्वर  जिह्वाओं से युक्त है- पूरे वन को  अल्प समय में खा सकते  हैं, भोजन पकाने  वाली, गर्मी देने वाली, और वन्य  पशुओं को दूर भगा देने  वाली अग्नि की  ज्वाला- यह प्राण दायक, प्राणरक्षक  अग्नि और उसकी लपटें -  जो सबकी सब ऊपर  जाती हैं, नीचे कभी नहीं. यह अग्नि  ही है जो उन्हें ज्योति  के स्थलों में  ऊपर ले जाने वाली है.जिस श्रद्धा अर्थात अद्भुत आत्मविश्वास के बल पर नचिकेता मृत्यु के सामने  जाकर, साक्षात् यमराज के सामने खड़े हो गए थे, उसी अपूर्व श्रद्धा के बल से  ही स्वामी विवेकानन्द ने भी देश-कल्याण के लिये युवक संप्रदाय को गढ़ने के लिये  मृत्यु का आलिंगन किया था, और भारत माता की सेवा में मृत्यु-वरण करने का  अनुपम आशीर्वाद युवा-समुदाय के मस्तक पर वर्षित किया था. ऐसी ' मृत्युंजयी- श्रद्धा  ' के सामने कोई भी समस्या हल हुए बिना रह ही नहीं सकती. 
( हमने देखा है कि नचिकेता के ' मृत्यु के पार ' क्या होता है ?- की समस्या को, स्वयं मृत्यु के देवता यमराज को हल करना पड़ा था. )  
 
११
युवा--जीवन की सार्थकता   
 
 युवा समस्या कोई सामयिक समस्या नहीं है. जब तक समाज रहेगा, युवा समस्या  भी रहेगी. एक युग का युवा-सम्प्रदाय दुसरे युग के युवा-सम्प्रदाय से  भिन्न होता है. इसीलिए युवा-समस्या का अत्यान्तिक समाधान किसी भी समय नहीं  हो सकता. यह समस्या जिस प्रकार चिरन्तन है, इसके समाधान की चेष्टा भी उसी  प्रकार निरन्तर अवश्यम्भावी रूप से चलता रहेगी.
 युवा समस्या को देखने के दो पहलु हैं. इनलोगों की समस्या है, इनलोगों को ही भोगना होगा. किन्तु उनकी समस्या से समाज बिल्कुल अछूता नहीं रह सकता. युवा-जीवन की उच्च्रिन्ख्लता और बुद्धि की अपरिपक्क्वता से समाज  में भी कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं.
 इन लोगों की समस्या को और भी दो  भागों में विभक्त किया जा सकता है. मौलिक या आन्तरिक  समस्या तथा  गौण और बाह्य  समस्या. बाह्य समस्या के अन्तर्गत शिक्षा, अर्थोपार्जन, प्रतिष्ठा इत्यादि  आते हैं. मौलिक या  आन्तरिक समस्या है युवा-जीवन या यौन काल के तीक्ष्ण-शक्ति की समस्या.
जीवन के इस काल-खण्ड में तीक्ष्ण प्राणशक्ति, आवेग, भावाभिव्यक्ति, कर्म, आशा-आकांक्षा इत्यादि अनेक विषयों का अम्बार, संयम और नियन्त्रण का आभाव, आन्तरिक ऐक्य या उद्देश्य की एकमुखिनता, स्पष्ट  आदर्श और जीवन  लक्ष्य का अभाव, इस उम्र की स्वाभाविक वृत्तियों के भंवर में फंसी  मन और इन्द्रियों की विवशता आदि घटक ही - मौलिक या आन्तरिक समस्या के उपादान हैं.
 
गौण समस्या सामयिक है, इसीलिए विभिन्न समय के हिसाब से, अलग अलग देशों में, विभिन्न रूप लेते रहते  हैं, किन्तु इनका समाधान अपेक्षाकृत सहज है, और निष्ठा के साथ सामाजिक प्रयत्न  करने से संभव है.
जबकि देश-काल की दृष्टि से विचार करने पर युवा-समुदाय की  मौलिक समस्या चिरन्तन और सर्वत्र समान है.इसका समाधान उतना सहज नहीं किन्तु अधिक महत्वपूर्ण है. और एक बात, बाह्य  गौण समस्याएं, समाज के सामूहिक प्रयास से समाधान होने योग्य हैं, किन्तु  आन्तरिक मौलिक समस्या ( जिसका समाधान किये बिना युवा समस्या का समाधान जड़ से नहीं हो पाता, और युवा-शक्ति का सदुपयोग सार्वजनिक उन्नति और सार्वजनिक समस्याओं के निराकरण में नहीं हो पाता है. ) का समाधान सामूहिक सामाजिक प्रचेष्टा से हो पाना सम्भव नहीं है. सामूहिक प्रचेष्टा इस विषय में केवल सहायक हो सकती  है, किन्तु इसका समाधान व्यक्तिगत प्रचेष्टा के उपर निर्भर करता है.
 स्वामी  विवेकानन्द युवा-वर्ग द्वारा सृष्ट समस्या की ओर दृष्टिपात करने की भी  जरुरत नहीं समझते. गौण समस्याओं के समाधान की ओर समय समय पर केवल  कुछ कुछ संकेत मात्र किये हैं. किन्तु मौलिक, आंतरिक और चिरन्तन युवा समस्या के रहस्य को  उद्घाटित करते हैं, ताकि युवा-सम्प्रदाय का प्रत्येक युवा व्यक्तिगत तौर पर इस समस्या का  समाधान करके, जीवन के यथा उपयुक्त विकास और प्रकास के माध्यम से अपने  अपने जीवन के सम्भावना को प्रस्फुटित कर सके, और युवा जीबन की नियंत्रित  शक्ति की सहायता से, सार्वजनिक समस्याओं के समाधान में सक्रीय हो कर  सर्व जनों के कल्याण साधन करते हुए अपने जीवन को सार्थक कर सकें, स्वामीजीने  उसी का पथ दिखाया है.   
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পুজ্য় শ্রীনবনীহরন মুখোপাধ্যায় লিখিত- " যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ "  মহামন্ডল পুস্তিকার হিন্দী অনুবাদ :